From beingred at gmail.com Sat Sep 3 15:03:04 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 3 Sep 2011 15:03:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= , , , , , , , , *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ दुर्गों से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की कोशिश की है.* पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट पुनर्गठन -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sat Sep 3 15:03:04 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 3 Sep 2011 15:03:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= , , , , , , , , *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ दुर्गों से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की कोशिश की है.* पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट पुनर्गठन -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sat Sep 3 15:04:19 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 3 Sep 2011 15:04:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqDog4KS24KS+4KS44KSVIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSXIOCkleCkviDgpKvgpL7gpLjgpL/gpLjgpY3gpJ8g4KSq?= =?utf-8?b?4KWB4KSo4KSw4KWN4KSX4KSg4KSo?= Message-ID: *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ दुर्गों से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की कोशिश की है.* पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट पुनर्गठन -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sat Sep 3 15:20:57 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 3 Sep 2011 15:20:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 258, Issue 7 In-Reply-To: References: Message-ID: मेल भेजते समय कुछ असावधानियों के चलते इस मेल में हुई गड़बड़ी के लिए अफसोस है. रेयाज 2011/9/3 > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. [दीवान]राजघाट नहीं, अब > सीधी गांव जाएंगे अन्ना > (brajesh kumar jha) > 2. [दीवान] , > , , > , , > , , > , 3. [दीवान] , > , , > , , > , , > , 4. [दीवान]अन्ना आंदोलन: > शासक वर्ग का फासिस्ट > पुनर्गठन (reyaz-ul-haque) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Wed, 31 Aug 2011 16:01:25 +0530 > From: brajesh kumar jha > To: Deewan > Subject: [दीवान]राजघाट नहीं, अब > सीधी गांव जाएंगे अन्ना > Message-ID: > > > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > *इस अनशन का रहस्य* > > * > * > > संसद में लालू प्रसाद यादव ने पूछा कि अन्ना केवल पानी पीकर 12 दिनों तक कैसे > रह गए। इस रहस्य की जांच होनी चाहिए। सचमुच यह रहस्य है जिसे डॉ. सत्यदेव > शर्मा > जानते हैं। अन्ना हजारे अनशन के दौरान उन्हीं के नुस्खे और सलाह पर थे। उपवास > भी वैसे ही तोड़ा जैसी सलाह डॉ. शर्मा ने दी थी। हालांकि, अन्ना के अनशन > तोड़ते > वक्त डॉ. शर्मा अमेरिका में थे। लेकिन यहां रणसिंह आर्य उनकी भूमिका में थे। > रणसिंह आर्य डॉ. शर्मा के नुस्खे पर प्रयोग कर चुके हैं। इसलिए वे निजी अनुभव > के साथ मेदांता अस्पताल में मौजूद थे। यहीं अन्ना ने अनशन के बाद पहली बार 30 > अगस्त को अन्न ग्रहण किया। उन्होंने मूंग की दाल खाई। इस काम में डॉ. त्रेहन > की > टीम उनका सहयोग कर रही थी। उन्हें यही दिशा निर्देश था। > > > लोग यह भी पूछ रहे हैं कि अन्ना मेदांता ही क्यों गए। जवाब सीधा है। वह यह कि > डॉ. त्रेहन से उनका पुराना परिचय है। अब यहां से अन्ना हजारे सीधे अपने > गांव रालेगण > सिद्धि जाएंगे। फिलहाल वे कुछ दिन आराम करना चाहते हैं। दूसरी तरफ अन्ना की > टीम > का मंथन जारी है। वह यह समझ रही है कि इस आंदोलन में एक प्रोग्राम तो था पर > विचार का अभाव था। वे इस खोज में लगे हैं कि आगे की लड़ाई की विधि क्या हो। > साथ > ही किस रास्ते और धारा पर आगे का सफर तय किया जाए। > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110831/74c6bdb3/attachment-0001.html > > > > ------------------------------ > > Message: 2 > Date: Sat, 3 Sep 2011 15:03:04 +0530 > From: reyaz-ul-haque > To: deewan at sarai.net, deewan at mail.sarai.net > Subject: [दीवान] , > , , > , , > , , > , Message-ID: > > > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी > चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ > कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. > जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे > समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ > दुर्गों > से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की > कोशिश की है.* > > पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट > पुनर्गठन > > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110903/257ee4eb/attachment-0002.html > > > > ------------------------------ > > Message: 3 > Date: Sat, 3 Sep 2011 15:03:04 +0530 > From: reyaz-ul-haque > To: deewan at sarai.net, deewan at mail.sarai.net > Subject: [दीवान] , > , , > , , > , , > , Message-ID: > > > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी > चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ > कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. > जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे > समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ > दुर्गों > से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की > कोशिश की है.* > > पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट > पुनर्गठन > > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110903/257ee4eb/attachment-0003.html > > > > ------------------------------ > > Message: 4 > Date: Sat, 3 Sep 2011 15:04:19 +0530 > From: reyaz-ul-haque > To: deewan at sarai.net > Subject: [दीवान]अन्ना आंदोलन: > शासक वर्ग का फासिस्ट > पुनर्गठन > Message-ID: > > > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > *भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और उनकी टीम के कथित आंदोलन के फासीवादी > चरित्र को समझने में बहुतों से चूक हुई है. यहां तक कि अपने नाम के साथ > कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहचान जोड़नेवाले भी बुरी तरह चूके हैं. > जो वामपंथी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और जिन्होंने बाहर से इसे > समर्थन दिया, उन सबने इस आंदोलन की मुखालिफत करनेवालों पर अपने ‘कागजी’ > दुर्गों > से ‘हवाई’ हमले करने की कोशिश की. यहां अंजनी कुमार ने इसका जायजा लेने की > कोशिश की है.* > > पूरा पढ़िए- अन्ना आंदोलन: शासक वर्ग का फासिस्ट > पुनर्गठन > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110903/1fd2d650/attachment.html > > > > ------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > End of Deewan Digest, Vol 258, Issue 7 > ************************************** > -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kashyapabhishek03 at gmail.com Sun Sep 4 05:30:05 2011 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (Abhishek Kashyap) Date: Sat, 3 Sep 2011 20:00:05 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Did you get my invite? Message-ID: <0.0.46.D7D.1CC6A959A13316C.1302@reminders.8thwonder.ws> Kashyapabhishek03 wants to be your friend Kashyapabhishek03 Do you want to add Kashyapabhishek03 to your friends network ? Accept http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=a&0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Nj65CuoJeY3w== Reject http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=r&0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Nj65CuoJeY3w== Privacy Policy http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=p&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Nj65CuoJeY3w== Unsubscribe http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=u&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Nj65CuoJeY3w==&u=0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom55goI9inZ5hm5Npmp1jmptdn6GV28SZ2ZlhnJNcmp5cn5VcnqBi Terms and Conditions http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=t&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Nj65CuoJeY3w== -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Sep 4 15:51:15 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Sun, 4 Sep 2011 15:51:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkueCkpiDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KSmJyDgpIrgpLDgpY3gpKsg4oCY4KSw4KS+4KSuIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KS+IOCkueCkruClh+CkgiDgpJzgpKrgpYcg4KSw4KWH?= =?utf-8?b?Li4u4KS54KSuIOCkquCkvuCkr+CliyDgpLXgpL/gpLbgpY3gpLDgpL4=?= =?utf-8?b?4KSu4oCZ?= Message-ID: यदि आप डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से लगाव रखते हैं और कबीर को जानने की इच्छा रखते हैं तो 'हद अनहद' ' देखिए। कबीर प्रोजेक्ट चलाने वाली शबनम विरमानी ने इसे तैयार किया है। इसमें अयोध्या भी है और कराची भी। कराची के फरीउद्दीन अयाज कहते हैं, “कबीर मेरा है। मेंटल लेवल को क्लियर कर दो,फिर कबीर को पहले इंसान समझो तब जाकर बात बनेगी। कबीर ने भाषाओं का चोला नहीं पहना ..कबीर नाम है एक कांस्पेट का..एक थीम का... जो अलग अलग जगह पर अलग नामों से जाने जाते हैं.। कबीर के लिए आपको कबीर के पास ही जाना होगा तमाम बंधनों को तोड़ना होगा... उसके लिए कबीर खुद वीजा देंगे आपको.. कबीर सीमाओं से परे हैं..सरहद से ऊपर कबीर का मुल्क है....। ” कविवर मोहन राणा साब ने मुझे इस फिल्म से परिचित करवाया। यह १०२ मिनट की फिल्म है, यदि इतना वक्त हो तो जरुर देखिए। कबीर की साखियों को लगातार पढ़ते हुए समाज को देखने का नजरिया बदल जाता है। हम कई चीजों को कई कोणों से देखने लगते हैं। कबीरा कुआं एक है..और पानी भरे अनेक..। "हद-हद टपे सो औलिया..और बेहद टपे सो पीर..हद अनहद दोनों टपे. सो वाको नाम फ़कीर..हद हद करते सब गए और बेहद गए न कोए अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय.... भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं रामभजन से छूटी रे मोरे सर से टली बला..।" यह वृतचित्र सचमुच में यह बताने में कामयाब रही कि माया महाठगनी हम जानी..। कबीर के साथ दो मुल्कों के मानस को भी यहां रखा गया है। जन-मानस। इसे देखने के बाद मन सरहद पार चला जाता है, पाकिस्तान के शहर कराची को देखने की ललक बढ़ जाती है। इसी फिल्म में मैंने कराची की बसों को देखा, कितना संवारा जाता है वहां बसों को। कराची स्टेशन और रेलगाड़ी और इन सबके साथ कबीर...रमता जोगी बहता पानी..। संपादन नहीं के बराबर किए जाने की वजह से देखने में और अच्छा लगता है और बातें और स्पष्ट हो जाती है। दरअसल शबनम विरमानी कबीर को समझने की कोशिश में जुटी हैं। वह लंबे वक्त से कबीर प्रोजेक्ट के जरिए कबीर और जनमानस में घुल मिल रही हैं। वह कबीर महोत्सव का भी आयोजन करती हैं। “कबीर के राम” की खोज करने के लिए शबनम विरमानी इस फिल्म के जरिए अयोध्या से मालवा, वाराणसी और सरहद पार तक की यात्रा करती हैं। तो चलिए, यदि आपके पास कुल जमा १०२ मिनट ४९ सेकेंड का वक्त है तो हद अनहद देखते हैं अपने-अपने कम्प्यूटर स्क्रीन पर। ये रहा यूआरएल- http://www.cultureunplugged.com/play/2831/ Had-Anhad--Journeys-With-Ram---Kabir--Bounded-Boundless- - हो सकता है आप लोगों ने इसे पहले देखी हो, तो भी, जिसने न देखी हो, देखें। शुक्रिया गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Sep 4 15:51:15 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Sun, 4 Sep 2011 15:51:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkueCkpiDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KSmJyDgpIrgpLDgpY3gpKsg4oCY4KSw4KS+4KSuIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KS+IOCkueCkruClh+CkgiDgpJzgpKrgpYcg4KSw4KWH?= =?utf-8?b?Li4u4KS54KSuIOCkquCkvuCkr+CliyDgpLXgpL/gpLbgpY3gpLDgpL4=?= =?utf-8?b?4KSu4oCZ?= Message-ID: यदि आप डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से लगाव रखते हैं और कबीर को जानने की इच्छा रखते हैं तो 'हद अनहद' ' देखिए। कबीर प्रोजेक्ट चलाने वाली शबनम विरमानी ने इसे तैयार किया है। इसमें अयोध्या भी है और कराची भी। कराची के फरीउद्दीन अयाज कहते हैं, “कबीर मेरा है। मेंटल लेवल को क्लियर कर दो,फिर कबीर को पहले इंसान समझो तब जाकर बात बनेगी। कबीर ने भाषाओं का चोला नहीं पहना ..कबीर नाम है एक कांस्पेट का..एक थीम का... जो अलग अलग जगह पर अलग नामों से जाने जाते हैं.। कबीर के लिए आपको कबीर के पास ही जाना होगा तमाम बंधनों को तोड़ना होगा... उसके लिए कबीर खुद वीजा देंगे आपको.. कबीर सीमाओं से परे हैं..सरहद से ऊपर कबीर का मुल्क है....। ” कविवर मोहन राणा साब ने मुझे इस फिल्म से परिचित करवाया। यह १०२ मिनट की फिल्म है, यदि इतना वक्त हो तो जरुर देखिए। कबीर की साखियों को लगातार पढ़ते हुए समाज को देखने का नजरिया बदल जाता है। हम कई चीजों को कई कोणों से देखने लगते हैं। कबीरा कुआं एक है..और पानी भरे अनेक..। "हद-हद टपे सो औलिया..और बेहद टपे सो पीर..हद अनहद दोनों टपे. सो वाको नाम फ़कीर..हद हद करते सब गए और बेहद गए न कोए अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय.... भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं रामभजन से छूटी रे मोरे सर से टली बला..।" यह वृतचित्र सचमुच में यह बताने में कामयाब रही कि माया महाठगनी हम जानी..। कबीर के साथ दो मुल्कों के मानस को भी यहां रखा गया है। जन-मानस। इसे देखने के बाद मन सरहद पार चला जाता है, पाकिस्तान के शहर कराची को देखने की ललक बढ़ जाती है। इसी फिल्म में मैंने कराची की बसों को देखा, कितना संवारा जाता है वहां बसों को। कराची स्टेशन और रेलगाड़ी और इन सबके साथ कबीर...रमता जोगी बहता पानी..। संपादन नहीं के बराबर किए जाने की वजह से देखने में और अच्छा लगता है और बातें और स्पष्ट हो जाती है। दरअसल शबनम विरमानी कबीर को समझने की कोशिश में जुटी हैं। वह लंबे वक्त से कबीर प्रोजेक्ट के जरिए कबीर और जनमानस में घुल मिल रही हैं। वह कबीर महोत्सव का भी आयोजन करती हैं। “कबीर के राम” की खोज करने के लिए शबनम विरमानी इस फिल्म के जरिए अयोध्या से मालवा, वाराणसी और सरहद पार तक की यात्रा करती हैं। तो चलिए, यदि आपके पास कुल जमा १०२ मिनट ४९ सेकेंड का वक्त है तो हद अनहद देखते हैं अपने-अपने कम्प्यूटर स्क्रीन पर। ये रहा यूआरएल- http://www.cultureunplugged.com/play/2831/ Had-Anhad--Journeys-With-Ram---Kabir--Bounded-Boundless- - हो सकता है आप लोगों ने इसे पहले देखी हो, तो भी, जिसने न देखी हो, देखें। शुक्रिया गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Sep 5 09:19:17 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 5 Sep 2011 09:19:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSr4KWHIOCkleClhyDgpJbgpYfgpLIg4KSu4KWH4KSCIOCkuOCksA==?= =?utf-8?b?4KWL4KSV4KS+4KSwIOCkleCkviDgpK7gpYHgpJbgpYzgpJ/gpL4=?= Message-ID: निजी चैनलों पर सरकार एक बार फिर से लगाम कसने का मन बना रही है। इस मामले में दिलचस्प पहलू है कि इसके पहले सरकार ने जब भी इन चैनलों पर लगाम कसने की बात की तो उसमें सीधे तौर पर जनहित के सवाल जुड़े रहे लेकिन अबकी बार अन्ना हजारे अनशन को लेकर चैनलों ने जिस तरह से कवरेज दी,सरकार का पक्ष है कि वह तटस्थ होने के बजाय एकतरफा रही और उसमें सरकार की ओर से कही गयी बातों का या तो गलत संदर्भ दिया गया या फिर उसकी बातों की अनदेखी की गई। दूसरी तरफ अन्ना की टीम ने मंच से बार-बार मीडिया और इन निजी चैनलों का शुक्रिया अदा किया, अन्ना समर्थक तिहाड़ जेल से लेकर रामलीला मैंदान तक थैंक्यू टू ऑल मीडिया की अलग से तख्ती दिखाते नजर आए। इसका सीधा मतलब है कि जिस कवरेज को लेकर सरकार नाराज है,उसी कवरेज से अन्ना की टीम,समर्थक और अनशन में शामिल लोग संतुष्ट हैं जिसे कि भारतीय जनमानस की अभिव्यक्ति करार दिया जा रहा है। निजी समाचार चैनलों पर लगाम कसने और उसे नियंत्रित करने की बात कोई नई घटना नहीं है। सरकार अपनी तरफ से नैतिकता,सरोकार,जागरुकता और संप्रभुता जैसे सवालों के साथ जोड़कर इसे नियंत्रित करने की कई कोशिशें करती आयी हैं। लेकिन अबकी बार नियंत्रण करने का जो मामला बन रहा है,वह पहले से अलग इस अर्थ में है कि 2 जुलाई को भ्रष्टाचार और मीडिया की भूमिका पर बोलते हुए देश के सैंकड़ों पत्रकारों के बीच सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा था कि वह स्वयं और सरकार नहीं चाहती है कि मीडिया पर किसी तरह का उनकी तरफ से नियंत्रण हो। अंबिका सोनी ने मौजूदा चैनलों में कुछ कमियों की चर्चा जरुर की थी लेकिन उसे भी इनके लिए काम कर रहे लोगों को ही दुरुस्त करने की सलाह दी थी। लेकिन अब सरकार अन्ना अनशन के एक सप्ताह भी नहीं बीते कि दोबारा से नियंत्रण लाने की बात कर रही है तो इसका सीधा मतलब है कि इस दौरान हुई कवरेज को लेकर उसे दिक्कत है और चैनलों ने देश की भारी भीड़/जनता को दिखाते हुए मौजूदा सरकार की जिस तरह की छवि पेश की है,संभव है उससे एक हद तक खतरा भी हो। इधर चैनलों का अपना तर्क है कि उन्होंने यह सब देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए किया है। इस दौरान चैनलों ने न केवल अन्ना अनशन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही गतिविधियों का प्रसारण किया बल्कि दर्शकों से इस बात की अपील भी कि आप इनके साथ आएं। एक अंग्रेजी चैनल ने अपने ही संस्थान के अखबार में विज्ञापन छपवाया- सपोर्ट अन्ना और चैनल पर भी लगातार इसे फ्लैश करता रहा। जाहिर है चैनलों ने इस घटना की जिस तरह से कवरेज की,उसमें कई बार यह साफतौर पर झलक रहा था कि वह अन्ना की टीम के तौर पर ही काम कर रहे हैं जिसे कि अब वे जनभावना के साथ होने का नाम दे रहे हैं। ऐसे में सरकार जिस नीयत से इन चैनलों को नियंत्रित करना चाहती है,उसकी मंशा तो हमें एक हद तक समझ आती ही है कि यह भी कोई व्यापक जनसरोकार के पक्ष में नहीं है लेकिन चैनलों का जो रवैया रहा है और जिस तर्क से वे खबरों का प्रसारण करते रहे, ऐसे में अन्ना के इस अनशन,जनलोकपाल बिल और उसे लागू किए जाने के तरीके से जिन्हें असहमति रही है,उनके शामिल होने की गुंजाइश मीडिया के इस रुप में कहां थी, चैनल अपने भीतर के विपक्ष को जिस तेजी से खत्म कर रहा है,वह क्या लोकतंत्र के लिए कम खतरनाक है? क्या इस पर सरकार से अलग,दर्शकों की तरफ से कोई सवाल नहीं बनते हैं? अब अपने को जनसरोकारों का प्रतिनिधि बताकर सरकारी नियंत्रण की बात शुरु होते ही मीडिया संस्थानों से जुड़े लोग आपस में लामबंद होने शुरु हो गए हैं,मीडिया और चैनलों का प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों के बयान आने शुरु हो गए हैं जिसमें सरकार के इस कदम की कठोर निंदा की जा रही है। बीइए(ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन) के महासचिव एन.के.सिंह का कहना है कि खुदा के लिए इस कवरेज को मुनाफे और बिजनेस के लिहाज से फायदे का हिस्सा मानकर मत देखिए,सरकार का कहना है कि हमने एकतरफा खबरें दिखाई लेकिन सवाल है कि भ्रष्टाचार का भला दूसरा पक्ष क्या हो सकता है? फिलहाल जो स्थिति बनी है वह यह कि अगर आप अन्ना के अनशन के समर्थन में हैं तो आपको मौजूदा न्यूज चैनलों के इस तर्क के साथ खड़ा ही होना होगा। चैनलों ने इस अनशन के दौरान अपनी जो शक्ल पेश की है,उससे अलग होने का मतलब है कि आप भ्रष्टाचार खत्म किए जाने की भूमिका के साथ नहीं है। अन्ना,मीडिया और भ्रष्टाचार विरोधी गतिविधियां एक-दूसरे से कुछ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि इनमें से एक से भी असहमत होने का अर्थ है उस अनशन,उस पहल से अपने को अलग करना जिसके माध्यम से एक बेहतर स्थिति बनने की पूरी-पूरी गुंजाईश है और जिसे कि समाचार चैनलों ने तमाम अन्तर्विरोधों को नजरअंदाज करके लगभग प्रस्तावित कर दिया है। ऐसे में कुछ जरुरी सवाल तो जरुर हैं जिसे कि न्यूज चैनलों सहित उनका प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों से पूछे ही जाने चाहिए या फिर उन तथ्यों की तरफ ईशारा किया जाना चाहिए जो कि भ्रष्टाचार खत्म होने की मुहिम के पहले बनती दिखाई दी? सबसे पहला सवाल कि क्या इस अनशन के भीतर टीआरपी की संभावना नहीं होती तो भी इस की कवरेज जारी रहती और दूसरा कि चैनल अन्ना अनशन के साथ ही भ्रष्टाचार के सवाल के साथ क्यों खड़े हुए? अगर चैनल भ्रष्टाचार के सवाल को लेकर इतनी चौकस है तो फिर चैनल का चरित्र उससे अलग क्यों नहीं है? पहले सवाल के जबाब में अगर हम अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के उस संदर्भ पर गौर करें जहां उनकी टीम मुख्यधारा की मीडिया पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय अपने स्तर से न्यू मीडिया को लेकर लोगों के बीच अपनी पकड़ बना चुकी थी। फेसबुक के इंडिया अगेन्सट करप्शन के पन्ने पर भारत सहित दुनियाभर के देशों से जिस तरह की लाखों में सकारात्मक प्रतिक्रिया आ रही थी,उससे यह स्पष्ट हो गया था कि सड़कों पर उतरने से पहले ही वर्चुअल स्पेस पर यह आंदोलन पूरी तरह खड़ा हो चुका है। ऐसे में फेसबुक की कुल संख्या का 20 से 30 फीसदी लोग भी सड़कों पर उतरते हैं तो यह एक असरदार मुहिम होगा। इसका सीधा मतलब है कि अन्ना की टीम ने फेसबुक पर इंडिया अगेन्स टरप्शन की जो शुरुआत की थी,टेलीविजन के लिए टीआरपी के बीज उसी में छिपे थे। चैनलों को इसकी लोकप्रियता से इस बात का अंदाजा लग गया था कि इस मसले पर लोगों की गहरी दिलचस्पी है और अगर यह चल निकला तो लंबे समय के लिए टीआरपी के लिहाज से स्थायी सामग्री होगी। इसके साथ ही चैनल के अपने पुराने एजेंड़े को भी अंजाम दिया जा सकता है। 3 अप्रैल से जब अन्ना का अनशन जंतर-मंतर,दिल्ली में शुरु हुआ और इस टीम के अपने नेटवर्क प्रबंधन से लोगों का जमावड़ा शुरु हुआ। अगले दिन से एक-एक करके चैनलों की टुकड़ियां कवरेज के लिए हाजिर होने लगी और 8 अप्रैल तक अन्ना के अलावे कोई दूसरी खबर प्रमुखता से नहीं चली। इस दौरान चैनलों ने कुल 6000 क्लिप्स दिखाए जिसमें कि 65 को छोड़कर बाकी 5592 क्लिप्स अन्ना के समर्थन में थे। चैनलों के इन क्लिप्स की अगर विज्ञापन राजस्व के लिहाज से हिसाब लगाएं तो इसमें करीब 175 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। आप कह सकते हैं कि अन्ना अनशन के पहले दौर में चैनलों ने इतनी मोटी रकम निवेश कर दिया था जिसमें कि भविष्य के लिए स्थायी तौर पर टीआरपी मिलती रहने की संभावना थी। 8 अप्रैल के बाद आईपीएल शुरु होते ही चैनल अन्ना की खबरों से हटकर वही आइपीएल, मनोरंजन,क्रिकेट और रियलिटी शो की खबरों पर वापस लौटने लगे लेकिन अन्ना की कवरेज के दौरान जो टीआरपी चैनलों को मिली,उससे उनकी कई तकलीफें दूर होने की संभावना बनती दिखाई दी। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट पर गौर करें तो समाचार चैनल,मनोरंजन चैनलों से लगातार मार खाते आ रहे हैं,लोग खबरों के बजाय मनोरंजन और दूसरे कार्यक्रमों की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। दूसरा कि राष्ट्रीय चैनल के बजाय क्षेत्रीय चैनलों की तरफ लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है,ऐसे में दो ही रास्ता है- एक तो नेशनल चैनल एक-एक करके क्षेत्रीय स्तर पर चैनल शुरु करे या फिर क्षेत्रीय स्तर पर जो चैनल सफल हैं,उनके साथ व्यावसायिक समझौते करे। अन्ना के अनशन की सफलता में कई मोर्चे पर फंसे राष्ट्रीय चैनलों के उबरने की गुंजाईश बनती दिखायी दी। इस संदर्भ में टीआरपी के साथ-साथ एक बड़ा मसला था कि इस दौरान समाचार चैनलों की साख 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूरी तरह मिट्टी में मिल चुकी थी। सरकारी जांच एजेंसियों ने जिस तरह से एक के बाद एक टेप जारी किए थे और उसमें एक से एक मीडिया दिग्गजों के नाम सामने आने लगे थे, ऐसे में देखते-देखते बड़े-बड़े समाचार चैनल पूरी तरह बेपर्द हो गए। उनकी साख इतनी नहीं रह गयी थी कि वे लोगों के सामने इस अधिकार से सामने जा सकें कि वे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर काम करते हैं। समाचार चैनलों की साख गिरने की पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि जब 8 अप्रैल को अन्ना के अनशन के सफल होने की जश्न में इंडिया गेट पर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में अपनी साख गंवा चुके पत्रकार ने जब लाइव कवरेज करने की कोशिश की तो लोगों ने उसका प्रतिरोध किया और उन्हें बिना कवर किए वहां से जाना पड़ा। 2 जी स्पेक्ट्रम में दागदार हुए पत्रकारों और संस्थानों की याद अब भी लोगों के बीच बनी हुई थी। चैनलों के लिए अन्ना का यह अनशन उस डैमेज कंट्रोल की तरह था जिसे मजबूती से पकड़े रहने की स्थिति में खोई हुई साख को वापस लाने की संभावना बनती। जून आते-आते अन्ना की टीम के सदस्यों पर कई तरह की वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगने शुरु हुए जिसमें कि कुछ राजनीतिक लोगों के नाम जुड़कर आने से विवाद गहरे होते चले गए। अप्रैल महीने में जो चैनल अन्ना की टीम की लगभग एकतरफा कवरेज करते आए थे और भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रतिपक्ष की खबर नहीं होती की तर्ज पर आगे जा रहे थे,अब उनकी दिलचस्पी विवादों को प्रसारित करने में होने लगी। थोड़े देर के लिए चैनल यह भूल गया कि उसे अन्ना के अनशन के साथ जुड़कर अपनी छवि बेहतर करनी है। इसी बीच 7 जून को लाइव इंडिया ने अन्ना हजारे,अरविंद केजरीवाल के साथ दो घंटे की इंडिया की सबसे बड़ी बहस नाम से लाइव बहस चलायी जिसकी रिकार्डतोड़ टीआरपी करीब 37 रही। चैनल सहित दूसरे मीडिया संस्थानों के बाद बेहतर ढंग से समझ आ गयी कि अन्ना मौजूदा दौर के सबसे बड़े टीआरपी तत्व हैं और एक के बाद एक दूसरे चैनलों ने भी अन्ना के अनशन को प्रमुखता से कवर किया। दूसरी बात कि अन्ना ने इस शो में जिस तरह से पूरी टीम को लेकर बात कही,चैनलों को यह फार्मूला पकड़ते देर नहीं लगी कि फिलहाल विवादों के बजाय अन्ना के सुर के साथ होना ही बेहतर है क्योंकि इस खबर को तर्क,नियम और संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा करने के बजाय भावनात्मक रुप देने से ज्यादा सुरक्षित स्थिति हो सकती है। ऐसा करने से जनभावनाओं के टीआरपी में बदलने,सीरियल और मनोरंजन चैनलों के दर्शकों को तोड़कर यहां लाने और पूरे मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने में मदद मिलेगी। तभी एक-एक करके चैनलों ने लोगों से अन्ना के साथ रामलीला मैंदान में जुटने की अपील की। अगस्त में अन्ना के अनशन की जिस उत्साह से कवरेज किया गया,वह जून में मिले उसी फार्मूले और अंक 37 तक पहुंचने के लक्ष्य का नतीजा था। यह अलग बात है कि बाद में अन्ना की दर्जनभर लाइव कवरेज चली लेकिन लाइव इंडिया सहित कोई भी दूसरा चैनल इस लक्ष्य हो हासिल नहीं कर सका। अन्ना की टीम ने पहली बार की तरह इस बार भी मुख्यधारा की मीडिया से जुड़ने के साथ-साथ न्यू मीडिया के मोर्चे को मजबूती से पकड़े रहा जिसका नतीजा खुलकर सामने आया। जिस इंडिया अगेन्सट करप्शन के फेसबुक पन्ने से अन्ना की टीम ने शुरुआत की थी,उस पर करीब चार लाख लोगों ने पसंद का चटका लगाया, पांच लाख लोग इस अनशन के समर्थन में जुड़े, तिहाड़ जेल से दिए अन्ना के इंटरव्यू को यूट्यब पर एक लाख से ज्यादा लोगों ने देखा। अन्ना कौन है,इसे जानने के लिए गूगल पर दुनियाभर से करीब 12 करोड़ 20 लाख क्लिक किए गए। इसका एक मतलब तो साफ था कि अन्ना के अनशन ने अपने तरीके से एक मीडिया नेटवर्क खड़ा कर लिया था जिसका असर बढ़ रहा था और यहां तक आते-आते समाचार चैनलों के अप्रसांगिक हो जाने का खतरा झलकने लगा था। यह खतरा इसलिए भी था क्योंकि न्यू मीडिया के तौर पर विकीलिक्स ने दुनियाभर की मुख्यधारा की मीडिया को पहले ही प्रेस रिलीज की मीडिया साबित कर चुका था। बावजूद इसके अन्ना की टीम अगर मुख्यधारा मीडिया से जुड़ रही थी तो इसका सबसे बड़ा लोभ इस बात से था कि इसे शहरी मध्यवर्ग,इन्टरनेट से जुड़नेवाले नागरिक के अलावे उन लोगों तक पहुंचाया जाए जो कि तथ्यों से हटकर भावनात्मक और छवि निर्माण के स्तर पर जुड़ सकें। देशभर की गलियों और पार्कों में बच्चे वंदे मातरम के नारे लगाते दिखआई दिए,वह इसी स्ट्रैटजी का हिस्सा था जिसमें कि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने बच्चों के बीच पकड़ बनाने के लिए सारेगमप लिटिल चैम्पस जैसे रियलिटी शो में आकर अपील की थी। दूसरी तरफ न्यूज चैनलों में खबरों की वापसी( यह अलग बात है कि इसकी प्रकृति रियलिटी शो और मेलोड्रामा के करीब रही) और राजनीतिक खबरें कवर करनेवाले जो लोग रियलिटो शो और ग्लैमर की खबरों के आगे लगभग अप्रासंगिक हो चले थे,उन्हें अपनी जगह हासिल करने में सहूलियतें हुई। बालिका वधू और कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रमों को छोड़कर इन खबरों के प्रति दिलचस्पी और लोकप्रियता से उनका भरोसा कायम हुआ कि लोग अभी भी खबर ही चाहते हैं और भूत-प्रेत-सांप-नागिन और यमराज का आंतक जैसी खबरों का अंत करीब है। टीआरपी मीटर के लिहाज से भी यह सब दिखानेवाले चैनलों के लिए अन्ना का अनशन शोक ही साबित हुआ। इन सबके बीच मई महीने में कैग ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में खेलों और प्रबंधन को लेकर हुई गड़बड़ियों के साथ-साथ मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए। किस तरह मीडिया के दिग्गज संस्थानों ने कवरेज को लेकर सौदेबाजी करने की कोशिश की और सफल न होने की स्थिति में खिलाफ में खबरें दिखायी,इसे विस्तार से बताया। लेकिन न तो मीडिया में और न ही बीइए और एडीटर्स गिल्ड जैसे संगठनों ने इस संबंध में कुछ भी कहना जरुरी समझा और चुप्पी साधे रहे। मीडिया संगठन इस दौरान सरकार की ओर से न्यू मीडिया को नियंत्रित करने के संबंध में जो नियम लाए,उस पर भी कुछ नहीं कहा और वे सारे नियम बिना तर्क और असहमति के लागू हो गए। जो मुख्यधारा की मीडिया ब्लॉग,ट्विटर,फेसबुक जैसे माध्यमों का बड़ा हिस्सा अपने लिए इस्तेमाल करता आया है,वह इसके नियमों के लाने जाने पर चर्चा तक नहीं की। इसके अलावे, 2 जी स्पेक्ट्रम मामले से लेकर 13 अगस्त 2010 को आग लगाकर आत्महत्या करने के लिए उकसाने और उसकी लाइव कवरेज दिखाने के मामले में बीइए जैसे संगठन ने आधी-अधूरी कमेटी गठित करके कैसे दस दिनों के भीतर शामिल चैनल को क्लिनचिट दे दी,ये सब हमारे सामने स्पष्ट है। चैनलों के भीतर मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए किस तरह से लोगों से काम लिए जाते हैं, चैनल बंद होने की स्थिति में सैंकड़ों पत्रकार कैसे सड़कों पर आ जाते हैं और वह चैनल में एक लाइन की खबर नहीं बन पाती, मीडिया संगठन उनसे किसी भी तरह का सवाल-जबाब नहीं करते, ऐसे में सरकार अगर इन समाचार चैनलों पर नकेल कसने जा रही है तो इसका विरोध एक हद तक बिल्कुल जरुरी है लेकिन साथ में यह सवाल है कि क्या सरकार सचमुच उस मीडिया पर लगाम लगाने जा रही है जो कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है या फिर वह कार्पोरेट मीडिया है जिसका लक्ष्य अपनी मिट्टी में मिल चुकी साख और मुनाफे को दोबारा से हासिल करना है? फिर भी अन्ना की टीम इस मीडिया का बार-बार शुक्रिया अदा कर रही है तो हैरानी हो रही है और सवाल भी पैदा हो रहे हैं कि क्या प्रतिरोध के स्वर के साथ खड़ा होने का का हक उसे है जो खुद भी मुजरिम है लेकिन जिसमें खुद के लिए वकील बनने की भी काबिलियत है? जाहिर है इसमें चैनल के साथ-साथ उसकी रक्षा में खड़े गठित संगठन भी हैं। (मूलतः जनसत्ता 4 सितंबर 2011 को मामूली फेरबदल के साथ प्रकाशित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 5 13:22:39 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 5 Sep 2011 00:52:39 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KSPLCDgpJfgpYHgpKjgpL/gpI/igKYg4KSb4KWL4KSf4KS+IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSmLCDgpKzgpKHgpLzgpYcg4KS54KWM4KS44KSy4KWHIOCkleClhyA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSbIOCksuCli+Ckl+Cli+CkgiDgpJXgpYAg4KSV4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWA?= Message-ID: असम के अंदर उदालगुड़ी जिले का टेंगला कस्बा कभी उल्फा के आतंकियों की वजह से जाना जाता था। अब इस बात को लंबा समय गुजर चुका है, इस बीच उदालगुड़ी बदला और टेंगला की पहचान भी बदली। टेंगला को एक नयी पहचान देने में थिएटर एक्टिविस्ट पबीत्र राभा का बहुत बड़ा योगदान है। आज एनएसडी के नये-पुराने शिक्षक टेंगला को असम में एनएसडी का एक्सटेंशन ही मानते हैं। इन दिनों पबीत्र टेंगला में नाटे कद के लोगों के साथ मिलकर खास तरह का थिएटर कर रहे हैं। जिसे असम में खूब सराहा जा रहा है। *पबीत्र राभा* जब एनएसडी में आये थे, उस वक्त वहां रामगोपाल बजाज निदेशक हुआ करते थे और जब दिल्ली एनएसडी वह छोड़ रहे थे, उस वक्त देवेंद्र राज अंकुर निदेशक बन कर आ चुके थे। पबीत्र अपने साथियों की तरह अपना कॅरियर फिल्म में बनाने की जगह, कुछ अलग करना चाह रहे थे। वह एनएसडी में अपनी एमए की पढ़ाई और बैंक की नौकरी दोनों को बीच में छोड़कर आये थे। शादी हुई तो घर छोड़ दिया। मकसद सिर्फ धारावाहिक और फिल्मों में काम पाना भर नहीं था। चूंकि एनएसडी से आते वक्त तय करके ही आये थे कि यहां सबसे अलग कुछ करना है। इसी उधेड़बुन के साथ जिंदगी भी चल रही थी और नाटक-फिल्मों में काम भी। कई भाषाओं में पबीत्र ने दर्जनों नाटक निर्देशित किये। इसी बीच ‘दपॉन द मिरर’ नाम से एक थिएटर ग्रुप भी शुरू किया। टोक्यो में फिजिकल थिएटर फेस्टिवल से लेकर ‘मुखबिर’ और ‘टेंगो चार्ली’ जैसी हिंदी फिल्मों के अंदर अभिनय में भी हाथ आजमाया। *हाल में जब* पबीत्र से गुवाहाटी से एक सौ किलोमीटर दूर उदालगुड़ी जिले के टेंगला मे मुलाकात हुई, तो उस वक्त वह अपने नाटक ‘व्हाट टू से’ के रिहर्सल में व्यस्त थे। व्यस्तता के बीच चेहरे पर प्रसन्नता थी कि उन्हें जो चाहिए था, उसके वे करीब हैं। यह नाटक उन्हीं नाटे कद के लोगों का दर्द बयान करता है, जो इस नाटक के मुख्य आकर्षण हैं। कहानी संक्षेप में दो दोस्तों की है। नाटक की शुरुआत उनके मिलने से होती है। एक दोस्त का दर्द उसका नाटापन है और दूसरे का दर्द उसकी ऊंचाईं। उसका भारी भरकम शरीर। इन दोनों लोगों के दर्द को नाटक में खुबसूरती के साथ संवादों में पिरोया गया है। *वैसे नाटे कद के लोगों की तलाश* और उनको थिएटर के साथ जोड़ना बिल्कुल आसान नहीं था। नाटे कद के ये कलाकार अलग-अलग पृष्ठभूमि से हैं और अलग-अलग कामों से जुड़े हैं। इसलिए चुनौती सिर्फ थिएटर से जोड़ने तक ही सीमित नहीं थी, उससे कहीं बड़ी थी। इन सभी कलाकारों को नाटक की प्रस्तुति के लिए तैयार करना। *बकौल पबीत्र* – ‘अपने थिएटर के लिए अभी मैं पच्चीस कलाकार जुटा पाया हूं। यह सभी कद में छोटे हैं, लेकिन हुनर में जबर्दस्त। इन्हें एक साथ लाने में पूरे ढाई साल लग गये।’ *इन ढाई सालों में* इन कलाकारों की तलाश हुई, उसके बाद उन्हें तराशा और निखारा गया। बात यहीं तक नहीं थी, जब तक यह कलाकार राभा के पास रहे, उन्हें एक निश्चित राशि राभा ने उपलब्ध करायी। चूंकि राभा का मानना था कि थिएटर के साथ जुड़ने की वजह से गरीब पृष्ठभूमि से आये कलाकारों के परिवार के जीवन पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़े। एक खास बात यह भी थी कि यदि वे कलाकार अपने परिवार की जरूरतों की चिंता से मुक्त नहीं होते, तो अपना श्रेष्ठ वे थिएटर को कैसे दे पाते? कई बार राभा अपने आयोजनों के लिए प्रायोजक नहीं मिलने पर अपनी जेब से पैसे लगाकर आयोजन कर चुके हैं। एक अच्छी बात यह है कि अब गांव के लोग उनकी प्रतिबद्धता देखकर छोटी-छोटी मदद लेकर सामने आने लगे हैं। मसलन जब थिएटर के लिए पंद्रह-बीस दिनों का कैंप लगता है तो कलाकारों के लिए कोई पचास किलो चावल लेकर आता है और कोई दाल। कई युवक कार्यकर्ता के नाते काम करने के लिए राभा के साथ खड़े होते हैं। *इन सभी बातों के साथ साथ* यह एक सच्चाई है कि पबीत्र के थिएटर को उसके खास तरह के कलाकार ही सबसे अलग बनाते हैं। इनकी लंबाई कम है लेकिन पबीत्र की मेहनत की वजह से थिएटर के साथ जुड़े किसी भी कलाकार को आप किसी पेशेवर कलाकार से कम करके नहीं आंक सकते। जब राभा ने पहली बार अपने नाटक का मंचन ‘टेंगला’ में किया, उन्हें खुद इस बात का अंदाजा नहीं था कि लगभग पांच हजार लोग उस छोटे से कस्बे में उनके नाटक को देखने आएंगे जबकि उस दिन भारत और पाकिस्तान का मैच था। आयोजन से पहले वे लोग थोड़ा घबराये हुए थे कि दर्शक नहीं आये तो पहला आयोजन ही फीका हो जाएगा। वैसे आयोजन सफल भी क्यों न हो, यह तो पबीत्र की मेहनत का फल था। पबीत्र ने एक-एक कलाकार पर महीनों मेहनत की है। यहां एनएसडी से ली गयी शिक्षा उसके बहुत काम आयी। *जब इन कलाकारों ने* गुवाहाटी में ‘व्हाट टू से’ का मंचन किया, पूरे असम में इनके नाटक की खूब चर्चा हुई। यह नाटक उन्हीं लोगों की कहानी कहता है, जो लोग इस थिएटर के साथ जुड़े हैं। छोटे कद के लोगों की कहानी। उनका दर्द। किस तरह समाज में हर तरफ उन्हें दुत्कारा जाता है। वह कहीं भी जाएं, उपहास के पात्र होते हैं। उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की विशेष सहायता भी नहीं मिलती। चूंकि वे विकलांग की श्रेणी में नहीं आते। लेकिन उन्हें अपनी कम लंबाई की वजह से जीवन में जिन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, वह विकलांगता से कम नहीं है। परिवार से लेकर समाज तक में वे लोग समय-असमय उपहास का कारण बनते हैं। उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की विशेष सहायता नहीं मिलती। चूंकि वे विकलांग की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन उन्हें छोटी लंबाई का होने के कारण किन-किन तरह की कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ता है, यह दपॉन द मिरर की टीम से मिलकर ही जान पाया। एक कलाकार ने बातचीत में बताया कि किस प्रकार उसे और उसी के कद के तीन और साथियों को एक सर्कस के मालिक ने बंधुआ मजदूर बना लिया था। एक दिन उन चारों लोगों ने भागने की योजना बनायी। चारों सर्कस की जीप पर सवार हुए और एक ने स्टेयरिंग संभाली और एक ने ब्रेक और गियर। इस तरह मुश्किल से अपनी जान बचाकर ये लोग भागे। जब सर्कस के मालिक को खबर लगी तो उसने इनके पीछे अपने लोग लगा दिये। इस परिस्थिति में सर्कस से भागे इन चार लोगों ने जीप बीच सड़क पर छोड़कर, एक ट्रक वाले से लिफ्ट ली और अपनी जान बचायी। *वास्तव में छोटे कद के* लोगों की तकलीफ को कभी हमारे समाज में गंभीरता से नहीं समझा गया है। आइए प्रार्थना करें कि छोटे कद के लोगों की तकलीफ को समाज के बीच पहुंचाने में यह थिएटर समूह सफल हो। http://mohallalive.com/2011/09/04/report-on-a-theatre-team-by-ashish-kumar-anshu/ -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 5 13:22:39 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 5 Sep 2011 00:52:39 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KSPLCDgpJfgpYHgpKjgpL/gpI/igKYg4KSb4KWL4KSf4KS+IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSmLCDgpKzgpKHgpLzgpYcg4KS54KWM4KS44KSy4KWHIOCkleClhyA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSbIOCksuCli+Ckl+Cli+CkgiDgpJXgpYAg4KSV4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWA?= Message-ID: असम के अंदर उदालगुड़ी जिले का टेंगला कस्बा कभी उल्फा के आतंकियों की वजह से जाना जाता था। अब इस बात को लंबा समय गुजर चुका है, इस बीच उदालगुड़ी बदला और टेंगला की पहचान भी बदली। टेंगला को एक नयी पहचान देने में थिएटर एक्टिविस्ट पबीत्र राभा का बहुत बड़ा योगदान है। आज एनएसडी के नये-पुराने शिक्षक टेंगला को असम में एनएसडी का एक्सटेंशन ही मानते हैं। इन दिनों पबीत्र टेंगला में नाटे कद के लोगों के साथ मिलकर खास तरह का थिएटर कर रहे हैं। जिसे असम में खूब सराहा जा रहा है। *पबीत्र राभा* जब एनएसडी में आये थे, उस वक्त वहां रामगोपाल बजाज निदेशक हुआ करते थे और जब दिल्ली एनएसडी वह छोड़ रहे थे, उस वक्त देवेंद्र राज अंकुर निदेशक बन कर आ चुके थे। पबीत्र अपने साथियों की तरह अपना कॅरियर फिल्म में बनाने की जगह, कुछ अलग करना चाह रहे थे। वह एनएसडी में अपनी एमए की पढ़ाई और बैंक की नौकरी दोनों को बीच में छोड़कर आये थे। शादी हुई तो घर छोड़ दिया। मकसद सिर्फ धारावाहिक और फिल्मों में काम पाना भर नहीं था। चूंकि एनएसडी से आते वक्त तय करके ही आये थे कि यहां सबसे अलग कुछ करना है। इसी उधेड़बुन के साथ जिंदगी भी चल रही थी और नाटक-फिल्मों में काम भी। कई भाषाओं में पबीत्र ने दर्जनों नाटक निर्देशित किये। इसी बीच ‘दपॉन द मिरर’ नाम से एक थिएटर ग्रुप भी शुरू किया। टोक्यो में फिजिकल थिएटर फेस्टिवल से लेकर ‘मुखबिर’ और ‘टेंगो चार्ली’ जैसी हिंदी फिल्मों के अंदर अभिनय में भी हाथ आजमाया। *हाल में जब* पबीत्र से गुवाहाटी से एक सौ किलोमीटर दूर उदालगुड़ी जिले के टेंगला मे मुलाकात हुई, तो उस वक्त वह अपने नाटक ‘व्हाट टू से’ के रिहर्सल में व्यस्त थे। व्यस्तता के बीच चेहरे पर प्रसन्नता थी कि उन्हें जो चाहिए था, उसके वे करीब हैं। यह नाटक उन्हीं नाटे कद के लोगों का दर्द बयान करता है, जो इस नाटक के मुख्य आकर्षण हैं। कहानी संक्षेप में दो दोस्तों की है। नाटक की शुरुआत उनके मिलने से होती है। एक दोस्त का दर्द उसका नाटापन है और दूसरे का दर्द उसकी ऊंचाईं। उसका भारी भरकम शरीर। इन दोनों लोगों के दर्द को नाटक में खुबसूरती के साथ संवादों में पिरोया गया है। *वैसे नाटे कद के लोगों की तलाश* और उनको थिएटर के साथ जोड़ना बिल्कुल आसान नहीं था। नाटे कद के ये कलाकार अलग-अलग पृष्ठभूमि से हैं और अलग-अलग कामों से जुड़े हैं। इसलिए चुनौती सिर्फ थिएटर से जोड़ने तक ही सीमित नहीं थी, उससे कहीं बड़ी थी। इन सभी कलाकारों को नाटक की प्रस्तुति के लिए तैयार करना। *बकौल पबीत्र* – ‘अपने थिएटर के लिए अभी मैं पच्चीस कलाकार जुटा पाया हूं। यह सभी कद में छोटे हैं, लेकिन हुनर में जबर्दस्त। इन्हें एक साथ लाने में पूरे ढाई साल लग गये।’ *इन ढाई सालों में* इन कलाकारों की तलाश हुई, उसके बाद उन्हें तराशा और निखारा गया। बात यहीं तक नहीं थी, जब तक यह कलाकार राभा के पास रहे, उन्हें एक निश्चित राशि राभा ने उपलब्ध करायी। चूंकि राभा का मानना था कि थिएटर के साथ जुड़ने की वजह से गरीब पृष्ठभूमि से आये कलाकारों के परिवार के जीवन पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़े। एक खास बात यह भी थी कि यदि वे कलाकार अपने परिवार की जरूरतों की चिंता से मुक्त नहीं होते, तो अपना श्रेष्ठ वे थिएटर को कैसे दे पाते? कई बार राभा अपने आयोजनों के लिए प्रायोजक नहीं मिलने पर अपनी जेब से पैसे लगाकर आयोजन कर चुके हैं। एक अच्छी बात यह है कि अब गांव के लोग उनकी प्रतिबद्धता देखकर छोटी-छोटी मदद लेकर सामने आने लगे हैं। मसलन जब थिएटर के लिए पंद्रह-बीस दिनों का कैंप लगता है तो कलाकारों के लिए कोई पचास किलो चावल लेकर आता है और कोई दाल। कई युवक कार्यकर्ता के नाते काम करने के लिए राभा के साथ खड़े होते हैं। *इन सभी बातों के साथ साथ* यह एक सच्चाई है कि पबीत्र के थिएटर को उसके खास तरह के कलाकार ही सबसे अलग बनाते हैं। इनकी लंबाई कम है लेकिन पबीत्र की मेहनत की वजह से थिएटर के साथ जुड़े किसी भी कलाकार को आप किसी पेशेवर कलाकार से कम करके नहीं आंक सकते। जब राभा ने पहली बार अपने नाटक का मंचन ‘टेंगला’ में किया, उन्हें खुद इस बात का अंदाजा नहीं था कि लगभग पांच हजार लोग उस छोटे से कस्बे में उनके नाटक को देखने आएंगे जबकि उस दिन भारत और पाकिस्तान का मैच था। आयोजन से पहले वे लोग थोड़ा घबराये हुए थे कि दर्शक नहीं आये तो पहला आयोजन ही फीका हो जाएगा। वैसे आयोजन सफल भी क्यों न हो, यह तो पबीत्र की मेहनत का फल था। पबीत्र ने एक-एक कलाकार पर महीनों मेहनत की है। यहां एनएसडी से ली गयी शिक्षा उसके बहुत काम आयी। *जब इन कलाकारों ने* गुवाहाटी में ‘व्हाट टू से’ का मंचन किया, पूरे असम में इनके नाटक की खूब चर्चा हुई। यह नाटक उन्हीं लोगों की कहानी कहता है, जो लोग इस थिएटर के साथ जुड़े हैं। छोटे कद के लोगों की कहानी। उनका दर्द। किस तरह समाज में हर तरफ उन्हें दुत्कारा जाता है। वह कहीं भी जाएं, उपहास के पात्र होते हैं। उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की विशेष सहायता भी नहीं मिलती। चूंकि वे विकलांग की श्रेणी में नहीं आते। लेकिन उन्हें अपनी कम लंबाई की वजह से जीवन में जिन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, वह विकलांगता से कम नहीं है। परिवार से लेकर समाज तक में वे लोग समय-असमय उपहास का कारण बनते हैं। उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की विशेष सहायता नहीं मिलती। चूंकि वे विकलांग की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन उन्हें छोटी लंबाई का होने के कारण किन-किन तरह की कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ता है, यह दपॉन द मिरर की टीम से मिलकर ही जान पाया। एक कलाकार ने बातचीत में बताया कि किस प्रकार उसे और उसी के कद के तीन और साथियों को एक सर्कस के मालिक ने बंधुआ मजदूर बना लिया था। एक दिन उन चारों लोगों ने भागने की योजना बनायी। चारों सर्कस की जीप पर सवार हुए और एक ने स्टेयरिंग संभाली और एक ने ब्रेक और गियर। इस तरह मुश्किल से अपनी जान बचाकर ये लोग भागे। जब सर्कस के मालिक को खबर लगी तो उसने इनके पीछे अपने लोग लगा दिये। इस परिस्थिति में सर्कस से भागे इन चार लोगों ने जीप बीच सड़क पर छोड़कर, एक ट्रक वाले से लिफ्ट ली और अपनी जान बचायी। *वास्तव में छोटे कद के* लोगों की तकलीफ को कभी हमारे समाज में गंभीरता से नहीं समझा गया है। आइए प्रार्थना करें कि छोटे कद के लोगों की तकलीफ को समाज के बीच पहुंचाने में यह थिएटर समूह सफल हो। http://mohallalive.com/2011/09/04/report-on-a-theatre-team-by-ashish-kumar-anshu/ -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 6 15:10:59 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 6 Sep 2011 15:10:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS3IOCkr+CkuSDgpK3gpYA=?= Message-ID: अंदरखाने में जो हलचल है उसकी कहानी दूसरी है। वह यह बताती है कि अन्ना आंदोलन को कवर करना कोई डैमेज कंट्रोल नहीं है। न ही साख पाने के लिए ऐसा किया है। दरअसल, इस कवरेज के लिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया को 11 हजार करोड़ रुपए का विज्ञापन मिला था। वह भी 16 दिनों के भीतर। टाटा ग्रुप की दो कंपनी ने ये विज्ञापन जारी किए थे। और भी बातें हैं पर थोड़ी पड़ताल के बाद कहूं तो ठीक रहेगा। विनीत ने कई सही बातें उठाई हैं। पर टीवी मीडिया पूरी तरह समाज सेवा की भूमिका में था। इसे लेकर अटकाव है। एक और बात शायद कभी रविश ने ही कहा था कि यह 'आसान पत्रकारिता' का दौर है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 6 16:24:04 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 6 Sep 2011 16:24:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqCDgpKrgpLAg4KSm4KWH4KS14KSm?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSkIOCkleClhyDgpLXgpL/gpJrgpL7gpLA=?= Message-ID: नोट- इस आंदोलन पर कई लोगों ने विचार रखें हैं। देवदत्त जी भी इस मसले पर महत्वपूर्ण बिंदु से गुजरते नजर आए हैं। सो प्रस्तुत है उनसे कहे का अंश- *हारा मन फुदकन में खोजे चेतन* देवदत्त अन्ना हजारे ने जो कार्यक्रम चलाया, उसमें जनता की बहुत भागीदारी रही। विशेषकर नया मध्यवर्ग शहरों में मुखरित हुआ। और वह सक्रिय है। अभी जो कुछ हुआ है उसपर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। इसे आंदोलन माना जा रहा है। निजी तौर पर अभी मैं इसे कोई आंदोलन नहीं मानता हूं। हां, इसे एक कैंपेन जरूर कहूंगा। जो अन्ना हजारे के व्यक्तिगत अनुभव, उनकी सोच और सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर शुरू हुआ। आज देश के हजारों-लाखों लोगों के मन में बस एक ही सवाल है जो मूलत: भ्रष्टाचार से जुड़ा है। निश्चय ही इस सवाल को सार्वजनिक बनाने में अन्ना का बढ़ा योगदान रहा। इस कैंपेन की विशेषता ही है कि वह वर्तमान व्यवस्था, सरकार और नेतृत्व के प्रति गहरा शक पैदा करता है और एक तरीके के घबराहट को भी जन्म देता है। यानी यह डिसट्रक्ट भी है और मिसट्रक्स भी। आप देखेंगे कि महात्मा गांधी ने समय-समय पर अंग्रेजों की काफी आलोचना की। इसके बावजूद यह कहा कि हम इनपर भरोसा कर सकते हैं। दरअसल, उनके मन में यह बात कहीं-न-कहीं गहरे बैठी थी कि ब्रिटिश सरकार आपसी सहमति के बाद जिस किसी नतीजे पर पहुंचेगी अंततोगत्वा उसका क्रियान्वयन जरूर करेगी। आज इसपर भी संकट खड़ा हो गया है। सरकार और नेतृत्व पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। निश्चय ही इसमें कसूर व्यवस्था चलाने वालों का है और यह उनकी बड़ी असफलता है। मैं यह भी कहुंगा कि इस आंदोलन में जो लोग अन्ना के साथ बातचीत कर रहे थे वे राजनैतिक तौर पर परिपक्व नहीं थे। यह देश का दुर्भाग्य ही है। यह अन्ना का पहला राष्ट्रीय अभियान है। वैसे तो अन्ना अबतक 14 कैंपेन चला चुके हैं। इनमें चार-पांच स्थानीय स्तर के रहे है। कुछेक सूचना के अधिकार कानून को लेकर उन्होंने चलाए थे। पर राष्ट्रीय स्तर पर उनका यह पहला अनुभव है। इसलिए उनकी अपनी सीमा भी है जो उनके अंदर निहित है। हमने देखा कि 28 अगस्त को जो कैंपेन सम्पन्न हुआ, वह उसे अभिव्यक्त भी कर रहा था। उन्हें इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं था कि पूरे भारत में लोग उठ खड़े होंगे। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था परिवर्तन पर वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में भी उन्होंने कोई रूपरेखा नहीं दी है। न ही इस बारे में कोई जानकारी दी है। फिलहाल वे केवल राजनैतिक स्तर पर ही सुधार की बात कर रहे हैं। वह भी केंद्रीय स्तर पर। दूसरी बात यह कि इस कैंपेन में राजनैतिक संभावनाएं काफी कम हैं, क्योंकि जबतक यह उबाल कोई नेतृत्व पैदा नहीं करता है तबतक इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। हालांकि इसने जनता को जागृत कर दिया है, लेकिन बुनियादी तबदीली के लिए कोई नेतृत्व ही नहीं है। सामाजिक स्तर पर भी जो कुप्रथाएं हैं और उसकी वजह से जो भ्रष्टाचार है, उसे किसी कानून से खत्म करना मुमकिन नहीं है। इसके लिए तो सामाजिक सुधार की जरूरत पड़ती है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधीजी ने सामाजिक सुधार को लेकर कई प्रयोग किए थे। साथ ही रचनात्मक कार्यों पर बल दिया था। लेकिन इस कैंपेन में सामाजिक आंदोलन की कोई प्रवृति हमें दिखाई नहीं पड़ती है। यहां उपवासों के माध्यम से समाज की चेतना को कुरेदकर सुधार लाने का पहली बार प्रयास किया गया है। वह भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसकी क्षमता अबतक स्थानीय और राज्य स्तर की चुनौतियों से लड़ने की रही है। यह उनका अवगुन नहीं है, बल्कि सीमा है। जिससे ‘आगे देखो’ जैसी सोच की संभावना यहां नहीं दिखती है। वैसे कई बातें कही गई हैं, फिर भी कोई स्पष्ट विचार या सोच उभरकर सामने नहीं आ रहा है। न तो अन्ना में और न ही उनके सहयोगियों में। हां, इस कैंपेन से प्रभावित होकर समाज के अंदर से वैसे प्रभावी लोग आगे आ जाएं तो बात अलग है। दरअसल जो समाज 64 साल से कभी बोला ही नहीं, वह अब बोल रहा है। हिंदुस्तान में जो हारे हुए और निराश लोग हैं उन्हें इससे एक अवसर नजर आया है। यहां एक कविता याद आती है, “हारा मन फुदकन में खोजे चेतन।” इतने के बावजूद भारत में सिविल सोसाइटी का अपना महत्व है। वह स्थानीय स्तरों पर विभिन्न समय और रूपों में सक्रिय रहा है। मैं मानता हूं कि सिविल सोसाइटी का सरकार में दखल कम होना चाहिए। पर जब राजनैतिक हालात इतने खराब हो जाएं कि वह अपना काम ही न कर सके तो उन्हें बाहर आना पड़ता है। गत 50 सालों के राजनीतिक चलन से ऐसी स्थिति बनी कि सिविल सोसाइटी को सरकार में दखल देना पड़ा है। इस बिंदु पर अन्ना ने ऐतिहासिक काम किया है। लेकिन सिविल सोसाइटी की तासीर ऐसी होती है कि वह निरंतर कोई देशव्यापी आंदोलन नहीं चला सकता है। इसके लिए तो नेतृत्व की जरूरत होती है। आज इसपर विचार करने का समय है कि इन परिस्थितियों में सिविल सोसाइटी किस तरह इसे आगे ले जाएगी। यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टीयों की भी है कि वह इसे नेतृत्व प्रदान करे, पर फिलहाल इसकी संभावना नहीं दिख रही है। दरअसल, इसके अंदर जो संभावनाएं हैं उसे समझने की क्षमता आज के नेतृत्व में नहीं दिख रही है। न ही अभी कोई तिलक, गांधी या फिर आंबेडकर निकलता दिखाई दे रहा है। गत 47 दिनों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में करीब 300 आलेख आ चुके हैं। यह समाज के सजग होने की निशानी जरूर है, पर इसमें भी नई सोच के बीज अभी तक नहीं दिख रहे हैं। फ्रांस और रूस की क्रांति हुई तो कई नई प्रतिभाएं सामने आईं। राजनीति के साथ-साथ कला, साहित्य पर भी उसका प्रभाव पड़ा। अन्ना हजारे के इस आंदोलन का अभी वह प्रभाव नहीं है। सरकारी स्तर पर कुछ कमजोरियां निकलकर आ रही हैं, यह उसी पर केंद्रित है। इसमें विद्यार्थियों की भागीदारी जरूर रही, पर दूसरे छात्र आंदोलनों से इसकी तुलना करें तो इसमें वे लक्षण हमें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर इससे सामाजिक चेतना की ऐसी कोई जमीन अभी नहीं बनी है जिससे नया पौध निकल आए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Sep 7 15:29:05 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 7 Sep 2011 15:29:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSaIOCkr+CkuSDgpK3gpYAg4KS54KWI?= Message-ID: ताज्जुब होगा, पर सच है। समाजवादी नेता राजनारायण को गृह मंत्रालय स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानता। एक जवाब-तलब में उसने इस बाबत जानकारी दी है। हालांकि, देश के डाक विभाग ने जब राजनारायण पर डाक टिकट जारी किया था तो उसमें वे स्वतंत्रता सेनानी बताए गए हैं। ऐसे तो हालात हैं गृह मंत्रालय के। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Sep 7 18:34:45 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 7 Sep 2011 18:34:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSX4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSy4KWN4KSy4KS+4KS5IOCkquCliOCkpuCkviDgpJXgpLDgpKg=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkmuCkvuCkueClh+Ckl+Ckvi4uLg==?= Message-ID: वर्ष 2005 में 21 देशों से इस्लामिक विषयों के 40 विद्वान इस्लामाबाद में इकट्ठे हुए. वहां बात होनी थी, मुसलमानों के बीच गर्भ निरोध के सवाल को लेकर. विद्वानों के बीच लंबी चर्चा चलती रही और तीन दिनों के बाद भी सभी 40 विद्वान जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक राय बनाने के बाद भी कायम राय को जगजाहिर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हालांकि उस समय पाकिस्तान में जनसंख्या संबंधी मामले देखने वाले मंत्री शाहबाज चौधरी ने कहा था कि “सभी विद्वानों के बीच शादी-शुदा जोड़ों के बीच गर्भ निरोधक के इस्तेमाल पर सहमति बन गई है.” लेकिन मंत्री जी पत्रकारों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि जब सब लोगों की सहमति बन ही गई है तो फिर संयुक्त घोषणा पत्र में यह बात कैसे नहीं आई? यह खबर सूत्रों हवाले से बाहर आई कि जो विद्वान इस्लामाबाद में इकट्ठे हुए थे, वे सभी गर्भ निरोध के इस्तेमाल पर सहमत तो हो गए थे लेकिन अपने-अपने मुल्क के कट्टर मुसलमानों के डर की वजह से वे अपनी बात को खुल कर नहीं रख पाए, जिसकी वजह से यह बात संयुक्त घोषणा पत्र में शामिल नहीं हो पाई. मुसलमानों के बीच तेजी से बढ़ती जनसंख्या के पीछे समाजशास्त्री रोगर और पैट्रिका जेफरी उनके सामाजिक आर्थिक और धार्मिक वजहों को देखते हैं. उनके अनुसार भारतीय मुस्लिम अपने हिन्दू साथियों के मुकाबले गरीब हैं और कम पढ़े-लिखे हैं. वहीं भारतीय समाजशास्त्री बीके प्रसाद कुछ अलग बात करते हैं- “भारतीय मुस्लिम आबादी अपने हिन्दू साथियों के मुकाबले अधिक शहर केन्द्रित है. शिशु मृत्यु दर की बात करें तो यह मुसलमानों में 12 फीसदी है, जबकि हिन्दूओं में इससे अधिक है.” लेकिन क्या शहर में रहने से उनकी साक्षरता दर बढ़ जाती है. माना जाता है कि ऐसा दरअसल रोज़ी रोटी की जुगत की खातिर लोग करते हैं. ‘द फ्यूचर ऑफ ग्लोबल मुस्लिम पोपुलेशन’ की रिपोर्ट को सही माना जाए तो अगले दो दशको में गैर मुस्लिमों की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर दोगुनी होगी. वर्तमान में दुनिया की आबादी में मुस्लिमों की भागीदारी 23.4 प्रतिशत (6.9 बिलियन) है, जिसकी 2030 तक बढ़कर 26.4 प्रतिशत (8.3 बिलियन) होने की संभावना है. द पियू फोरम ऑन रिलिजन एंड पब्लिक लाइफ की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त 72 देशों में मुस्लिम आबादी दस लाख से ज्यादा है, यदि जनसंख्या विकास दर यही रही तो 20 साल में 79 देश ऐसे होंगे, जहां मुस्लिम आबादी 10 लाख से अधिक होगी. मुस्लिम समाज में जनसंख्या वृद्धि के इस पैटर्न को समझने के लिए हाल में ही हरियाणा के मुस्लिम बहुल मेवात के कुछ गांवों में जाना हुआ. इस यात्रा की शुरूआत हुई मोहम्मद इसाक साहब के घर से, जो पिछले एक से अधिक साल से मीडिया से दूरी बनाए हुए हैं, वरना उससे पहले अपने तेईस बच्चों की वजह से वे देसी नहीं, विदेशी मीडिया के लिए भी आकर्षण का केन्द्र रहे हैं. इसाक साहब से मिलने के लिए दिल्ली के अपने एक फोटोग्राफर मित्र राहुल की संगत में मेवात में उनके गांव अकेड़ा (नूंह) गया था. अब मीडिया से दूरी क्यों बनाई, इसके जवाब में वे कहते हैं कि शरियत उन्हें तस्वीर की इजाजत नहीं देता. जबकि एक साल पहले तक तमाम देसी-विदेशी मीडिया में छपी अपनी तस्वीरों के लिए वे कोई सफाई नहीं दे पाते. जब उनसे तेईस बच्चों को लेकर बातचीत होती है तो इसाक साहब फिर एक बार शरियत का हवाला देते हैं. लेकिन जब उनसे इस्लाम के जानकार मौलाना वहीदुद्दीन साहब का जिक्र करते हुए मैंने पूछा कि इस्लाम में गर्भनिरोध का इस्तेमाल नहीं, बल्कि भ्रूण हत्या गैर इस्लामी है. बर्थ कंट्रोल और एबॉर्शन को एक पलड़े में नहीं रखा जा सकता है. आगे पढ़ें मैंने उन्हें तर्क दिया कि इस्लाम में महिलाओं द्वारा गर्भ से बचने के लिए गर्भ निरोध पर पाबंदी नहीं रही है. इस्लाम पुरुष नसबंदी और कंडोम के इस्तेमाल की भी इजाजत देता है. *23 बच्चों के पिता मोहम्मद इसाक* इस्लाम में पाक कुरआन के बाद दूसरी पाक किताब मानी गई है, ‘बुखारी’. बुखारी के अनुसार रसुल्लाह के साथी इस बात का ख्याल रखते थे कि उनकी महिला साथी गर्भवती ना हों. इसके लिए वे कुछ तरकीब इस्तेमाल करते थे. जिसके लिए मोहम्मद साहब ने कभी मना नहीं किया. यदि किसी बात को जानते हुए रसूल मना ना करें तो इसे इस्लाम में उनकी मौन सहमति मानी जाती है. जब इसाक साहब के सामने इन सारी बातों का जिक्र आया तो वे कुछ नहीं बोले. इस समय उनकी बहू और पत्नी दोनों गर्भवती हैं, यानि तेइसवें के बाद चौबीसवें की तैयारी है. वैसे इसाक साहब की शादी को अभी पैंतालीस साल हुए हैं. हम अकेड़ा से निकल कर कुछ अन्य गांवों से होते हुए हतीम के खाइका गांव पहुंचे. यह क्षेत्र मेवात के अंदर पलवल जिले में आता है. यहां मिले जाकिर हुसैन साहब और दूसरे नजीर अहमद साहब. इन दोनों के क्रमशः बारह और तेरह बच्चे हैं. जाकिर साहब को क्रम से याद नहीं है कि कौन सा बच्चा पहले आया और कौन सा बाद में. नजीर साहब को तो अपने बच्चों के नाम तक याद नहीं हैं. जब असमंजस में होते हैं तो बच्चे से ही पूछ लेते हैं कि तुम्हारा नाम क्या है? लेकिन इस बात पर दोनों की सहमति है कि खुदा दे रहा है तो हम कौन होते हैं, उसके दिए को अस्वीकार करने वाले. जाकिर साहब चुटकी लेते हुए कहते हैं- “अपना इरादा तो ट्वेंटी-ट्वेंटी का है. ट्वेंटी मेरे और ट्वेंटी नजीर साहब के.” *नजीर अहमद अपने परिवार के साथ* नजीर साहब और जाकिर साहब खुद को सच्चा मुसलमान कहते हैं. यदि उन्हें यह किसी ने बताया होता कि मुसलमानों के चार प्रमुख इमामों में से एक इमाम हजरत मलिक ने भी गर्भ निरोध को उचित ठहराया है तो वे शायद कभी मजाक में भी ‘ट्वेंटी-ट्वेंटी’ की बात न करते. कुरआन की सूरत बकरा की एक आयत को लेकर गांव में इस्लाम में विश्वास रखने वाले लोग गर्भनिरोध से बचते हैं, वह है- “तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियां हैं, बस अपनी खेतों में जैसा चाहो, आओ.” अब इसमें यह तो नहीं कहा गया कि नसबंदी या गर्भनिरोध का इस्तेमाल ना करो. फिर भी इस आयत की व्याख्या कुछ इस तरह समाज में की गई है कि लोग बाग गर्भ निरोध के विरोध में इस पूरी कहानी को देखते हैं. मेवात के इन गांवों में छह-सात-आठ बच्चों वाले परिवार आम-सी बात हैं. जो एक खास बात नजर आई इन गांवों में वह यह कि इतनी संख्या में बच्चों की वजह मजहब नहीं है, बल्कि गांव वालों के बीच शिक्षा का अभाव है. समाज में जागरुकता नहीं है. राह चलते कोई सड़क छाप विद्वान कोई बात कह गया तो गांव के लोग उस बात को दिल से लगाकर बैठ जाते हैं. अशिक्षा के कारण ऐसा हिन्दू समाज में भी देखा जाता है. वहीं देश के आदिवासियों के बीच भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई सोच विकसित नहीं हो सकी है. ऐसे जोड़े भी मेवात के जिलों में बहुतायात हैं, जिन्होंने सही देख-भाल के अभाव में अपने छोटे छोटे बच्चे खोए हैं. जब हम नजीर साहब से बात कर रहे थे, उसी वक्त पता चला कि एक दिन पहले ही उन्होंने अपना एक बच्चा खोया है. गाँव वाले बिल्कुल निर्दोष जान पड़े क्योंकि वे उस विद्वान की बात माने बैठे हैं, जिन्हें खुद इस्लाम की समझ नहीं है. खैर, यह बात हम गांव से निकलते-निकलते ही जान पाए कि पूरे समय हमारे साथ जो नजीर साहब गांव के सरपंच बने घूमते रहे, वास्तव में उनकी पत्नी फजरीजी गांव की सरपंच थीं. यह आलेख खत्म होते-होते अल-शेख मोहम्मद इब्न का एक फतवा हाथ लगा, जिसके अनुसार- यदि किसी बीमारी, कमजोरी या शरीर के किसी कमी के कारण प्रत्येक साल गर्भवती होने से उसकी जान को खतरा हो या फिर पति की इजाजत से डॉक्टर से सलाह लेकर कोई महिला गर्भ निरोध का इस्तेमाल कर सकती है. पढ़े लिखे लोगों के बीच जागरूकता आई है. हमें लगता है कि शिक्षा के प्रचार प्रसार की सख्त ज़रुरत है. (Source: http://www.raviwar.com/news/601_condom-islam-and-population-ashish-anshu.shtml ) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Sep 7 18:34:45 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 7 Sep 2011 18:34:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSX4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSy4KWN4KSy4KS+4KS5IOCkquCliOCkpuCkviDgpJXgpLDgpKg=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkmuCkvuCkueClh+Ckl+Ckvi4uLg==?= Message-ID: वर्ष 2005 में 21 देशों से इस्लामिक विषयों के 40 विद्वान इस्लामाबाद में इकट्ठे हुए. वहां बात होनी थी, मुसलमानों के बीच गर्भ निरोध के सवाल को लेकर. विद्वानों के बीच लंबी चर्चा चलती रही और तीन दिनों के बाद भी सभी 40 विद्वान जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक राय बनाने के बाद भी कायम राय को जगजाहिर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हालांकि उस समय पाकिस्तान में जनसंख्या संबंधी मामले देखने वाले मंत्री शाहबाज चौधरी ने कहा था कि “सभी विद्वानों के बीच शादी-शुदा जोड़ों के बीच गर्भ निरोधक के इस्तेमाल पर सहमति बन गई है.” लेकिन मंत्री जी पत्रकारों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि जब सब लोगों की सहमति बन ही गई है तो फिर संयुक्त घोषणा पत्र में यह बात कैसे नहीं आई? यह खबर सूत्रों हवाले से बाहर आई कि जो विद्वान इस्लामाबाद में इकट्ठे हुए थे, वे सभी गर्भ निरोध के इस्तेमाल पर सहमत तो हो गए थे लेकिन अपने-अपने मुल्क के कट्टर मुसलमानों के डर की वजह से वे अपनी बात को खुल कर नहीं रख पाए, जिसकी वजह से यह बात संयुक्त घोषणा पत्र में शामिल नहीं हो पाई. मुसलमानों के बीच तेजी से बढ़ती जनसंख्या के पीछे समाजशास्त्री रोगर और पैट्रिका जेफरी उनके सामाजिक आर्थिक और धार्मिक वजहों को देखते हैं. उनके अनुसार भारतीय मुस्लिम अपने हिन्दू साथियों के मुकाबले गरीब हैं और कम पढ़े-लिखे हैं. वहीं भारतीय समाजशास्त्री बीके प्रसाद कुछ अलग बात करते हैं- “भारतीय मुस्लिम आबादी अपने हिन्दू साथियों के मुकाबले अधिक शहर केन्द्रित है. शिशु मृत्यु दर की बात करें तो यह मुसलमानों में 12 फीसदी है, जबकि हिन्दूओं में इससे अधिक है.” लेकिन क्या शहर में रहने से उनकी साक्षरता दर बढ़ जाती है. माना जाता है कि ऐसा दरअसल रोज़ी रोटी की जुगत की खातिर लोग करते हैं. ‘द फ्यूचर ऑफ ग्लोबल मुस्लिम पोपुलेशन’ की रिपोर्ट को सही माना जाए तो अगले दो दशको में गैर मुस्लिमों की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर दोगुनी होगी. वर्तमान में दुनिया की आबादी में मुस्लिमों की भागीदारी 23.4 प्रतिशत (6.9 बिलियन) है, जिसकी 2030 तक बढ़कर 26.4 प्रतिशत (8.3 बिलियन) होने की संभावना है. द पियू फोरम ऑन रिलिजन एंड पब्लिक लाइफ की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त 72 देशों में मुस्लिम आबादी दस लाख से ज्यादा है, यदि जनसंख्या विकास दर यही रही तो 20 साल में 79 देश ऐसे होंगे, जहां मुस्लिम आबादी 10 लाख से अधिक होगी. मुस्लिम समाज में जनसंख्या वृद्धि के इस पैटर्न को समझने के लिए हाल में ही हरियाणा के मुस्लिम बहुल मेवात के कुछ गांवों में जाना हुआ. इस यात्रा की शुरूआत हुई मोहम्मद इसाक साहब के घर से, जो पिछले एक से अधिक साल से मीडिया से दूरी बनाए हुए हैं, वरना उससे पहले अपने तेईस बच्चों की वजह से वे देसी नहीं, विदेशी मीडिया के लिए भी आकर्षण का केन्द्र रहे हैं. इसाक साहब से मिलने के लिए दिल्ली के अपने एक फोटोग्राफर मित्र राहुल की संगत में मेवात में उनके गांव अकेड़ा (नूंह) गया था. अब मीडिया से दूरी क्यों बनाई, इसके जवाब में वे कहते हैं कि शरियत उन्हें तस्वीर की इजाजत नहीं देता. जबकि एक साल पहले तक तमाम देसी-विदेशी मीडिया में छपी अपनी तस्वीरों के लिए वे कोई सफाई नहीं दे पाते. जब उनसे तेईस बच्चों को लेकर बातचीत होती है तो इसाक साहब फिर एक बार शरियत का हवाला देते हैं. लेकिन जब उनसे इस्लाम के जानकार मौलाना वहीदुद्दीन साहब का जिक्र करते हुए मैंने पूछा कि इस्लाम में गर्भनिरोध का इस्तेमाल नहीं, बल्कि भ्रूण हत्या गैर इस्लामी है. बर्थ कंट्रोल और एबॉर्शन को एक पलड़े में नहीं रखा जा सकता है. आगे पढ़ें मैंने उन्हें तर्क दिया कि इस्लाम में महिलाओं द्वारा गर्भ से बचने के लिए गर्भ निरोध पर पाबंदी नहीं रही है. इस्लाम पुरुष नसबंदी और कंडोम के इस्तेमाल की भी इजाजत देता है. *23 बच्चों के पिता मोहम्मद इसाक* इस्लाम में पाक कुरआन के बाद दूसरी पाक किताब मानी गई है, ‘बुखारी’. बुखारी के अनुसार रसुल्लाह के साथी इस बात का ख्याल रखते थे कि उनकी महिला साथी गर्भवती ना हों. इसके लिए वे कुछ तरकीब इस्तेमाल करते थे. जिसके लिए मोहम्मद साहब ने कभी मना नहीं किया. यदि किसी बात को जानते हुए रसूल मना ना करें तो इसे इस्लाम में उनकी मौन सहमति मानी जाती है. जब इसाक साहब के सामने इन सारी बातों का जिक्र आया तो वे कुछ नहीं बोले. इस समय उनकी बहू और पत्नी दोनों गर्भवती हैं, यानि तेइसवें के बाद चौबीसवें की तैयारी है. वैसे इसाक साहब की शादी को अभी पैंतालीस साल हुए हैं. हम अकेड़ा से निकल कर कुछ अन्य गांवों से होते हुए हतीम के खाइका गांव पहुंचे. यह क्षेत्र मेवात के अंदर पलवल जिले में आता है. यहां मिले जाकिर हुसैन साहब और दूसरे नजीर अहमद साहब. इन दोनों के क्रमशः बारह और तेरह बच्चे हैं. जाकिर साहब को क्रम से याद नहीं है कि कौन सा बच्चा पहले आया और कौन सा बाद में. नजीर साहब को तो अपने बच्चों के नाम तक याद नहीं हैं. जब असमंजस में होते हैं तो बच्चे से ही पूछ लेते हैं कि तुम्हारा नाम क्या है? लेकिन इस बात पर दोनों की सहमति है कि खुदा दे रहा है तो हम कौन होते हैं, उसके दिए को अस्वीकार करने वाले. जाकिर साहब चुटकी लेते हुए कहते हैं- “अपना इरादा तो ट्वेंटी-ट्वेंटी का है. ट्वेंटी मेरे और ट्वेंटी नजीर साहब के.” *नजीर अहमद अपने परिवार के साथ* नजीर साहब और जाकिर साहब खुद को सच्चा मुसलमान कहते हैं. यदि उन्हें यह किसी ने बताया होता कि मुसलमानों के चार प्रमुख इमामों में से एक इमाम हजरत मलिक ने भी गर्भ निरोध को उचित ठहराया है तो वे शायद कभी मजाक में भी ‘ट्वेंटी-ट्वेंटी’ की बात न करते. कुरआन की सूरत बकरा की एक आयत को लेकर गांव में इस्लाम में विश्वास रखने वाले लोग गर्भनिरोध से बचते हैं, वह है- “तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियां हैं, बस अपनी खेतों में जैसा चाहो, आओ.” अब इसमें यह तो नहीं कहा गया कि नसबंदी या गर्भनिरोध का इस्तेमाल ना करो. फिर भी इस आयत की व्याख्या कुछ इस तरह समाज में की गई है कि लोग बाग गर्भ निरोध के विरोध में इस पूरी कहानी को देखते हैं. मेवात के इन गांवों में छह-सात-आठ बच्चों वाले परिवार आम-सी बात हैं. जो एक खास बात नजर आई इन गांवों में वह यह कि इतनी संख्या में बच्चों की वजह मजहब नहीं है, बल्कि गांव वालों के बीच शिक्षा का अभाव है. समाज में जागरुकता नहीं है. राह चलते कोई सड़क छाप विद्वान कोई बात कह गया तो गांव के लोग उस बात को दिल से लगाकर बैठ जाते हैं. अशिक्षा के कारण ऐसा हिन्दू समाज में भी देखा जाता है. वहीं देश के आदिवासियों के बीच भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई सोच विकसित नहीं हो सकी है. ऐसे जोड़े भी मेवात के जिलों में बहुतायात हैं, जिन्होंने सही देख-भाल के अभाव में अपने छोटे छोटे बच्चे खोए हैं. जब हम नजीर साहब से बात कर रहे थे, उसी वक्त पता चला कि एक दिन पहले ही उन्होंने अपना एक बच्चा खोया है. गाँव वाले बिल्कुल निर्दोष जान पड़े क्योंकि वे उस विद्वान की बात माने बैठे हैं, जिन्हें खुद इस्लाम की समझ नहीं है. खैर, यह बात हम गांव से निकलते-निकलते ही जान पाए कि पूरे समय हमारे साथ जो नजीर साहब गांव के सरपंच बने घूमते रहे, वास्तव में उनकी पत्नी फजरीजी गांव की सरपंच थीं. यह आलेख खत्म होते-होते अल-शेख मोहम्मद इब्न का एक फतवा हाथ लगा, जिसके अनुसार- यदि किसी बीमारी, कमजोरी या शरीर के किसी कमी के कारण प्रत्येक साल गर्भवती होने से उसकी जान को खतरा हो या फिर पति की इजाजत से डॉक्टर से सलाह लेकर कोई महिला गर्भ निरोध का इस्तेमाल कर सकती है. पढ़े लिखे लोगों के बीच जागरूकता आई है. हमें लगता है कि शिक्षा के प्रचार प्रसार की सख्त ज़रुरत है. (Source: http://www.raviwar.com/news/601_condom-islam-and-population-ashish-anshu.shtml ) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Sep 9 16:31:13 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 9 Sep 2011 16:31:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruCknOCkvOCkrOClguCkpCDgpLngpYgg4KS54KS/4KSC4KSm4KWB?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkruClh+CkgiDgpLLgpYvgpJXgpKTgpII=?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSwIOCkleClgCDgpJzgpLzgpK7gpYDgpKg=?= Message-ID: युवा पीढ़ी में लोकतंत्र के उत्सव में हिस्सा लेने का उत्साह मूसलाधार बारिश में भीगते हुए सैकड़ों छात्र-छात्राएं मोतीलाल नेहरू कॉलेज (साउथ कैम्पस) के गेट पर आज सुबह ८ बजे से ही स्टूडेंट यूनियन के चुनाव में वोट डालने के लिए लाइन लगाकर खड़े थे. युवा पीढ़ी में लोकतंत्र के उत्सव में हिस्सा लेने का उत्साह और जूनून देख कर लगा कि हिंदुस्तान में लोकतंत्र की ज़मीन बहुत मज़बूत है. काश, हमारे लोकतंत्र के पहरुओं को यह बात समझ में आ जाए और वे मुल्क़ की लोकतांत्रिक संस्थाओं के साथ खिलवाड़ न करें. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Sep 9 18:23:21 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 9 Sep 2011 18:23:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KSC4KSm4KWH?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCkpOCksOCkruCljSDgpI/gpJUg4KSF4KS14KSk4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWAIOCkl+ClgOCkpA==?= Message-ID: ‘वंदे मातरम्’ हमारे जीवन में गहरे बैठा है। जो गीत समारोहों में सिमट गया था, वह नया प्रतीक बनकर फिर से उभरा है। इस गीत का इतिहास निराला है। बंकिमचंद्र ने इसे 1870 में रचा। उस समय उनके लिए यह रचना एकांत साधना थी। उसके ग्यारह साल बाद ‘आनंद मठ’ में उन्होंने इसे छपवाया। उपन्यास के छपते ही इसे अनूठी रचना मानी गई। बंग-भंग के विरोध में जो स्वदेशी की लहर पैदा हुई उसपर वंदे मातरम् तैरने लगा। उससे पहले 1896 में कलकत्ता कांग्रेस में वंदे मातरम् गाया गया था। आजादी की लड़ाई में जहां वंदे मातरम् भारत भक्ति का माध्यम बना। वहीं एक समय ऐसा आया जब उसमें मूर्ति पूजा के तत्व लोग देखने लगे। उसपर पहला विवाद जिन्ना ने उठाया। जिसे मुस्लिम लीग ने अपने विरोध का मुद्दा बना लिया। *तमाम विवादों के बावजूद वंदे मातरम् में अवतारी क्षमता है। यह अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रकट हुई। अन्ना हजारे ने विवादों की परवाह नहीं की और वंदे मातरम् को प्रेरणा का नया स्रोत बना दिया। यह प्रकट हुआ कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय संस्कृति की गीत रूप में धरोहर है। कोई भी गीत एक सांस्कृतिक कला तथ्य होता है। उसपर राजनीतिक विवाद नजरिए के कारण पैदा किया जाता है।*** * * *‘**प्रथम प्रवक्ता**’** में छपे इस पूरे लेख को यहां पढ़ें..* *http://khambaa.blogspot.com/2011/09/blog-post_09.html* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vanisamachaar at gmail.com Sun Sep 4 22:14:40 2011 From: vanisamachaar at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS14KS+4KSj4KWAIOCkuOCkruCkvuCkmuCkvuCksA==?=) Date: Sun, 4 Sep 2011 22:14:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KSVIOCkruClh+CksuClhyDgpIbgpZngpL/gpLDgpYAg4KSm4KS/?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkvuCko+ClgCDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOCljeCkn+ClieCksiDgpKrgpLAg4KSq4KS54KWB4KSB4KSa?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkpOCkuOCksuClgOCkruCkviDgpKjgpLjgpLDgpYDgpKgu?= Message-ID: * * नयी दिल्ली. 4 सितम्बर. सत्ताइस अगस्त से शुरू हुए पुस्तक मेले के आख़िरी दिन बड़ी तादाद में पुस्तक प्रेमी वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर पहुंचे और अपनी पसंद की किताबें खरीदी. इस पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन ने कई नई किताबें लॉन्च कीं. पुस्तक मेले के आख़िरी दिन आज सुप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर पहुँचीं. वाणी प्रकाशन से उनके बहुचर्चित उपन्यास 'लज्जा' का तीसवाँ संस्करण अभी हाल में प्रकाशित हुआ है. वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी के मुताबिक़ पुस्तक मेले में राजधानी के पुस्तक प्रेमियों ने वाणी प्रकाशन की किताबों में खूब दिलचस्पी दिखाई. तसलीमा नसरीन की 'लज्जा', महेंद्र मिश्र की 'फिलिस्तीन, इजराइल, अरब संघर्ष', फ्रेंचेस्का ऑर्सीनी की 'हिन्दी का लोकवृत्त', स्वेट मार्टेन की 'सफलता के इक्कीस महामंत्र' आदि किताबें खूब बिकीं. इसके अल्लावा सिनेमा पर प्रकाशित कई पुस्तकों को भी पुस्तक प्रेमियों ने पसंद किया. श्री माहेश्वरी ने कहा कि इस मेले में पुस्तक प्रेमियों का उत्साह देखकर उनका भी हौसला बढ़ा है और फरवरी 2012 में होनेवाले विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन सिनेमा, समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति और साहित्य की vividh विधाओं पर कई नई किताबों के साथ शरीक होगा. धन्यवाद. वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 6 15:08:15 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 6 Sep 2011 15:08:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpYE=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSr4KWHIOCkleClhyDgpJbgpYfgpLIg4KSu4KWH4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KWL4KSV4KS+4KSwIOCkleCkviDgpK7gpYHgpJbgpYzgpJ8=?= =?utf-8?b?4KS+?= In-Reply-To: References: Message-ID: अंदरखाने में जो हलचल है उसकी कहानी दूसरी है। वह यह बताती है कि अन्ना आंदोलन को कवर करना कोई डैमेज कंट्रोल नहीं है। न ही साख पाने के लिए ऐसा किया है। दरअसल, इस कवरेज के लिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया को 11 हजार करोड़ रुपए का विज्ञापन मिला था। वह भी 16 दिनों के भीतर। टाटा ग्रुप की दो कंपनी ने ये विज्ञापन जारी किए थे। और भी बातें हैं पर थोड़ी पड़ताल के बाद कहूं तो ठीक रहेगा। विनीत ने कई सही बातें उठाई हैं। पर टीवी मीडिया पूरी तरह समाज सेवा की भूमिका में था। इसे लेकर अटकाव है। एक और बात शायद कभी रविश ने ही कहा था कि यह 'आसान पत्रकारिता' का दौर है। ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2011/9/5 Subject: [दीवान]मुनाफे के खेल में सरोकार का मुखौटा To: deewan निजी चैनलों पर सरकार एक बार फिर से लगाम कसने का मन बना रही है। इस मामले में दिलचस्प पहलू है कि इसके पहले सरकार ने जब भी इन चैनलों पर लगाम कसने की बात की तो उसमें सीधे तौर पर जनहित के सवाल जुड़े रहे लेकिन अबकी बार अन्ना हजारे अनशन को लेकर चैनलों ने जिस तरह से कवरेज दी,सरकार का पक्ष है कि वह तटस्थ होने के बजाय एकतरफा रही और उसमें सरकार की ओर से कही गयी बातों का या तो गलत संदर्भ दिया गया या फिर उसकी बातों की अनदेखी की गई। दूसरी तरफ अन्ना की टीम ने मंच से बार-बार मीडिया और इन निजी चैनलों का शुक्रिया अदा किया, अन्ना समर्थक तिहाड़ जेल से लेकर रामलीला मैंदान तक थैंक्यू टू ऑल मीडिया की अलग से तख्ती दिखाते नजर आए। इसका सीधा मतलब है कि जिस कवरेज को लेकर सरकार नाराज है,उसी कवरेज से अन्ना की टीम,समर्थक और अनशन में शामिल लोग संतुष्ट हैं जिसे कि भारतीय जनमानस की अभिव्यक्ति करार दिया जा रहा है। निजी समाचार चैनलों पर लगाम कसने और उसे नियंत्रित करने की बात कोई नई घटना नहीं है। सरकार अपनी तरफ से नैतिकता,सरोकार,जागरुकता और संप्रभुता जैसे सवालों के साथ जोड़कर इसे नियंत्रित करने की कई कोशिशें करती आयी हैं। लेकिन अबकी बार नियंत्रण करने का जो मामला बन रहा है,वह पहले से अलग इस अर्थ में है कि 2 जुलाई को भ्रष्टाचार और मीडिया की भूमिका पर बोलते हुए देश के सैंकड़ों पत्रकारों के बीच सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा था कि वह स्वयं और सरकार नहीं चाहती है कि मीडिया पर किसी तरह का उनकी तरफ से नियंत्रण हो। अंबिका सोनी ने मौजूदा चैनलों में कुछ कमियों की चर्चा जरुर की थी लेकिन उसे भी इनके लिए काम कर रहे लोगों को ही दुरुस्त करने की सलाह दी थी। लेकिन अब सरकार अन्ना अनशन के एक सप्ताह भी नहीं बीते कि दोबारा से नियंत्रण लाने की बात कर रही है तो इसका सीधा मतलब है कि इस दौरान हुई कवरेज को लेकर उसे दिक्कत है और चैनलों ने देश की भारी भीड़/जनता को दिखाते हुए मौजूदा सरकार की जिस तरह की छवि पेश की है,संभव है उससे एक हद तक खतरा भी हो। इधर चैनलों का अपना तर्क है कि उन्होंने यह सब देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए किया है। इस दौरान चैनलों ने न केवल अन्ना अनशन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही गतिविधियों का प्रसारण किया बल्कि दर्शकों से इस बात की अपील भी कि आप इनके साथ आएं। एक अंग्रेजी चैनल ने अपने ही संस्थान के अखबार में विज्ञापन छपवाया- सपोर्ट अन्ना और चैनल पर भी लगातार इसे फ्लैश करता रहा। जाहिर है चैनलों ने इस घटना की जिस तरह से कवरेज की,उसमें कई बार यह साफतौर पर झलक रहा था कि वह अन्ना की टीम के तौर पर ही काम कर रहे हैं जिसे कि अब वे जनभावना के साथ होने का नाम दे रहे हैं। ऐसे में सरकार जिस नीयत से इन चैनलों को नियंत्रित करना चाहती है,उसकी मंशा तो हमें एक हद तक समझ आती ही है कि यह भी कोई व्यापक जनसरोकार के पक्ष में नहीं है लेकिन चैनलों का जो रवैया रहा है और जिस तर्क से वे खबरों का प्रसारण करते रहे, ऐसे में अन्ना के इस अनशन,जनलोकपाल बिल और उसे लागू किए जाने के तरीके से जिन्हें असहमति रही है,उनके शामिल होने की गुंजाइश मीडिया के इस रुप में कहां थी, चैनल अपने भीतर के विपक्ष को जिस तेजी से खत्म कर रहा है,वह क्या लोकतंत्र के लिए कम खतरनाक है? क्या इस पर सरकार से अलग,दर्शकों की तरफ से कोई सवाल नहीं बनते हैं? अब अपने को जनसरोकारों का प्रतिनिधि बताकर सरकारी नियंत्रण की बात शुरु होते ही मीडिया संस्थानों से जुड़े लोग आपस में लामबंद होने शुरु हो गए हैं,मीडिया और चैनलों का प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों के बयान आने शुरु हो गए हैं जिसमें सरकार के इस कदम की कठोर निंदा की जा रही है। बीइए(ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन) के महासचिव एन.के.सिंह का कहना है कि खुदा के लिए इस कवरेज को मुनाफे और बिजनेस के लिहाज से फायदे का हिस्सा मानकर मत देखिए,सरकार का कहना है कि हमने एकतरफा खबरें दिखाई लेकिन सवाल है कि भ्रष्टाचार का भला दूसरा पक्ष क्या हो सकता है? फिलहाल जो स्थिति बनी है वह यह कि अगर आप अन्ना के अनशन के समर्थन में हैं तो आपको मौजूदा न्यूज चैनलों के इस तर्क के साथ खड़ा ही होना होगा। चैनलों ने इस अनशन के दौरान अपनी जो शक्ल पेश की है,उससे अलग होने का मतलब है कि आप भ्रष्टाचार खत्म किए जाने की भूमिका के साथ नहीं है। अन्ना,मीडिया और भ्रष्टाचार विरोधी गतिविधियां एक-दूसरे से कुछ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि इनमें से एक से भी असहमत होने का अर्थ है उस अनशन,उस पहल से अपने को अलग करना जिसके माध्यम से एक बेहतर स्थिति बनने की पूरी-पूरी गुंजाईश है और जिसे कि समाचार चैनलों ने तमाम अन्तर्विरोधों को नजरअंदाज करके लगभग प्रस्तावित कर दिया है। ऐसे में कुछ जरुरी सवाल तो जरुर हैं जिसे कि न्यूज चैनलों सहित उनका प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों से पूछे ही जाने चाहिए या फिर उन तथ्यों की तरफ ईशारा किया जाना चाहिए जो कि भ्रष्टाचार खत्म होने की मुहिम के पहले बनती दिखाई दी? सबसे पहला सवाल कि क्या इस अनशन के भीतर टीआरपी की संभावना नहीं होती तो भी इस की कवरेज जारी रहती और दूसरा कि चैनल अन्ना अनशन के साथ ही भ्रष्टाचार के सवाल के साथ क्यों खड़े हुए? अगर चैनल भ्रष्टाचार के सवाल को लेकर इतनी चौकस है तो फिर चैनल का चरित्र उससे अलग क्यों नहीं है? पहले सवाल के जबाब में अगर हम अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के उस संदर्भ पर गौर करें जहां उनकी टीम मुख्यधारा की मीडिया पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय अपने स्तर से न्यू मीडिया को लेकर लोगों के बीच अपनी पकड़ बना चुकी थी। फेसबुक के इंडिया अगेन्सट करप्शन के पन्ने पर भारत सहित दुनियाभर के देशों से जिस तरह की लाखों में सकारात्मक प्रतिक्रिया आ रही थी,उससे यह स्पष्ट हो गया था कि सड़कों पर उतरने से पहले ही वर्चुअल स्पेस पर यह आंदोलन पूरी तरह खड़ा हो चुका है। ऐसे में फेसबुक की कुल संख्या का 20 से 30 फीसदी लोग भी सड़कों पर उतरते हैं तो यह एक असरदार मुहिम होगा। इसका सीधा मतलब है कि अन्ना की टीम ने फेसबुक पर इंडिया अगेन्स टरप्शन की जो शुरुआत की थी,टेलीविजन के लिए टीआरपी के बीज उसी में छिपे थे। चैनलों को इसकी लोकप्रियता से इस बात का अंदाजा लग गया था कि इस मसले पर लोगों की गहरी दिलचस्पी है और अगर यह चल निकला तो लंबे समय के लिए टीआरपी के लिहाज से स्थायी सामग्री होगी। इसके साथ ही चैनल के अपने पुराने एजेंड़े को भी अंजाम दिया जा सकता है। 3 अप्रैल से जब अन्ना का अनशन जंतर-मंतर,दिल्ली में शुरु हुआ और इस टीम के अपने नेटवर्क प्रबंधन से लोगों का जमावड़ा शुरु हुआ। अगले दिन से एक-एक करके चैनलों की टुकड़ियां कवरेज के लिए हाजिर होने लगी और 8 अप्रैल तक अन्ना के अलावे कोई दूसरी खबर प्रमुखता से नहीं चली। इस दौरान चैनलों ने कुल 6000 क्लिप्स दिखाए जिसमें कि 65 को छोड़कर बाकी 5592 क्लिप्स अन्ना के समर्थन में थे। चैनलों के इन क्लिप्स की अगर विज्ञापन राजस्व के लिहाज से हिसाब लगाएं तो इसमें करीब 175 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। आप कह सकते हैं कि अन्ना अनशन के पहले दौर में चैनलों ने इतनी मोटी रकम निवेश कर दिया था जिसमें कि भविष्य के लिए स्थायी तौर पर टीआरपी मिलती रहने की संभावना थी। 8 अप्रैल के बाद आईपीएल शुरु होते ही चैनल अन्ना की खबरों से हटकर वही आइपीएल, मनोरंजन,क्रिकेट और रियलिटी शो की खबरों पर वापस लौटने लगे लेकिन अन्ना की कवरेज के दौरान जो टीआरपी चैनलों को मिली,उससे उनकी कई तकलीफें दूर होने की संभावना बनती दिखाई दी। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट पर गौर करें तो समाचार चैनल,मनोरंजन चैनलों से लगातार मार खाते आ रहे हैं,लोग खबरों के बजाय मनोरंजन और दूसरे कार्यक्रमों की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। दूसरा कि राष्ट्रीय चैनल के बजाय क्षेत्रीय चैनलों की तरफ लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है,ऐसे में दो ही रास्ता है- एक तो नेशनल चैनल एक-एक करके क्षेत्रीय स्तर पर चैनल शुरु करे या फिर क्षेत्रीय स्तर पर जो चैनल सफल हैं,उनके साथ व्यावसायिक समझौते करे। अन्ना के अनशन की सफलता में कई मोर्चे पर फंसे राष्ट्रीय चैनलों के उबरने की गुंजाईश बनती दिखायी दी। इस संदर्भ में टीआरपी के साथ-साथ एक बड़ा मसला था कि इस दौरान समाचार चैनलों की साख 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूरी तरह मिट्टी में मिल चुकी थी। सरकारी जांच एजेंसियों ने जिस तरह से एक के बाद एक टेप जारी किए थे और उसमें एक से एक मीडिया दिग्गजों के नाम सामने आने लगे थे, ऐसे में देखते-देखते बड़े-बड़े समाचार चैनल पूरी तरह बेपर्द हो गए। उनकी साख इतनी नहीं रह गयी थी कि वे लोगों के सामने इस अधिकार से सामने जा सकें कि वे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर काम करते हैं। समाचार चैनलों की साख गिरने की पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि जब 8 अप्रैल को अन्ना के अनशन के सफल होने की जश्न में इंडिया गेट पर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में अपनी साख गंवा चुके पत्रकार ने जब लाइव कवरेज करने की कोशिश की तो लोगों ने उसका प्रतिरोध किया और उन्हें बिना कवर किए वहां से जाना पड़ा। 2 जी स्पेक्ट्रम में दागदार हुए पत्रकारों और संस्थानों की याद अब भी लोगों के बीच बनी हुई थी। चैनलों के लिए अन्ना का यह अनशन उस डैमेज कंट्रोल की तरह था जिसे मजबूती से पकड़े रहने की स्थिति में खोई हुई साख को वापस लाने की संभावना बनती। जून आते-आते अन्ना की टीम के सदस्यों पर कई तरह की वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगने शुरु हुए जिसमें कि कुछ राजनीतिक लोगों के नाम जुड़कर आने से विवाद गहरे होते चले गए। अप्रैल महीने में जो चैनल अन्ना की टीम की लगभग एकतरफा कवरेज करते आए थे और भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रतिपक्ष की खबर नहीं होती की तर्ज पर आगे जा रहे थे,अब उनकी दिलचस्पी विवादों को प्रसारित करने में होने लगी। थोड़े देर के लिए चैनल यह भूल गया कि उसे अन्ना के अनशन के साथ जुड़कर अपनी छवि बेहतर करनी है। इसी बीच 7 जून को लाइव इंडिया ने अन्ना हजारे,अरविंद केजरीवाल के साथ दो घंटे की इंडिया की सबसे बड़ी बहस नाम से लाइव बहस चलायी जिसकी रिकार्डतोड़ टीआरपी करीब 37 रही। चैनल सहित दूसरे मीडिया संस्थानों के बाद बेहतर ढंग से समझ आ गयी कि अन्ना मौजूदा दौर के सबसे बड़े टीआरपी तत्व हैं और एक के बाद एक दूसरे चैनलों ने भी अन्ना के अनशन को प्रमुखता से कवर किया। दूसरी बात कि अन्ना ने इस शो में जिस तरह से पूरी टीम को लेकर बात कही,चैनलों को यह फार्मूला पकड़ते देर नहीं लगी कि फिलहाल विवादों के बजाय अन्ना के सुर के साथ होना ही बेहतर है क्योंकि इस खबर को तर्क,नियम और संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा करने के बजाय भावनात्मक रुप देने से ज्यादा सुरक्षित स्थिति हो सकती है। ऐसा करने से जनभावनाओं के टीआरपी में बदलने,सीरियल और मनोरंजन चैनलों के दर्शकों को तोड़कर यहां लाने और पूरे मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने में मदद मिलेगी। तभी एक-एक करके चैनलों ने लोगों से अन्ना के साथ रामलीला मैंदान में जुटने की अपील की। अगस्त में अन्ना के अनशन की जिस उत्साह से कवरेज किया गया,वह जून में मिले उसी फार्मूले और अंक 37 तक पहुंचने के लक्ष्य का नतीजा था। यह अलग बात है कि बाद में अन्ना की दर्जनभर लाइव कवरेज चली लेकिन लाइव इंडिया सहित कोई भी दूसरा चैनल इस लक्ष्य हो हासिल नहीं कर सका। अन्ना की टीम ने पहली बार की तरह इस बार भी मुख्यधारा की मीडिया से जुड़ने के साथ-साथ न्यू मीडिया के मोर्चे को मजबूती से पकड़े रहा जिसका नतीजा खुलकर सामने आया। जिस इंडिया अगेन्सट करप्शन के फेसबुक पन्ने से अन्ना की टीम ने शुरुआत की थी,उस पर करीब चार लाख लोगों ने पसंद का चटका लगाया, पांच लाख लोग इस अनशन के समर्थन में जुड़े, तिहाड़ जेल से दिए अन्ना के इंटरव्यू को यूट्यब पर एक लाख से ज्यादा लोगों ने देखा। अन्ना कौन है,इसे जानने के लिए गूगल पर दुनियाभर से करीब 12 करोड़ 20 लाख क्लिक किए गए। इसका एक मतलब तो साफ था कि अन्ना के अनशन ने अपने तरीके से एक मीडिया नेटवर्क खड़ा कर लिया था जिसका असर बढ़ रहा था और यहां तक आते-आते समाचार चैनलों के अप्रसांगिक हो जाने का खतरा झलकने लगा था। यह खतरा इसलिए भी था क्योंकि न्यू मीडिया के तौर पर विकीलिक्स ने दुनियाभर की मुख्यधारा की मीडिया को पहले ही प्रेस रिलीज की मीडिया साबित कर चुका था। बावजूद इसके अन्ना की टीम अगर मुख्यधारा मीडिया से जुड़ रही थी तो इसका सबसे बड़ा लोभ इस बात से था कि इसे शहरी मध्यवर्ग,इन्टरनेट से जुड़नेवाले नागरिक के अलावे उन लोगों तक पहुंचाया जाए जो कि तथ्यों से हटकर भावनात्मक और छवि निर्माण के स्तर पर जुड़ सकें। देशभर की गलियों और पार्कों में बच्चे वंदे मातरम के नारे लगाते दिखआई दिए,वह इसी स्ट्रैटजी का हिस्सा था जिसमें कि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने बच्चों के बीच पकड़ बनाने के लिए सारेगमप लिटिल चैम्पस जैसे रियलिटी शो में आकर अपील की थी। दूसरी तरफ न्यूज चैनलों में खबरों की वापसी( यह अलग बात है कि इसकी प्रकृति रियलिटी शो और मेलोड्रामा के करीब रही) और राजनीतिक खबरें कवर करनेवाले जो लोग रियलिटो शो और ग्लैमर की खबरों के आगे लगभग अप्रासंगिक हो चले थे,उन्हें अपनी जगह हासिल करने में सहूलियतें हुई। बालिका वधू और कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रमों को छोड़कर इन खबरों के प्रति दिलचस्पी और लोकप्रियता से उनका भरोसा कायम हुआ कि लोग अभी भी खबर ही चाहते हैं और भूत-प्रेत-सांप-नागिन और यमराज का आंतक जैसी खबरों का अंत करीब है। टीआरपी मीटर के लिहाज से भी यह सब दिखानेवाले चैनलों के लिए अन्ना का अनशन शोक ही साबित हुआ। इन सबके बीच मई महीने में कैग ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में खेलों और प्रबंधन को लेकर हुई गड़बड़ियों के साथ-साथ मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए। किस तरह मीडिया के दिग्गज संस्थानों ने कवरेज को लेकर सौदेबाजी करने की कोशिश की और सफल न होने की स्थिति में खिलाफ में खबरें दिखायी,इसे विस्तार से बताया। लेकिन न तो मीडिया में और न ही बीइए और एडीटर्स गिल्ड जैसे संगठनों ने इस संबंध में कुछ भी कहना जरुरी समझा और चुप्पी साधे रहे। मीडिया संगठन इस दौरान सरकार की ओर से न्यू मीडिया को नियंत्रित करने के संबंध में जो नियम लाए,उस पर भी कुछ नहीं कहा और वे सारे नियम बिना तर्क और असहमति के लागू हो गए। जो मुख्यधारा की मीडिया ब्लॉग,ट्विटर,फेसबुक जैसे माध्यमों का बड़ा हिस्सा अपने लिए इस्तेमाल करता आया है,वह इसके नियमों के लाने जाने पर चर्चा तक नहीं की। इसके अलावे, 2 जी स्पेक्ट्रम मामले से लेकर 13 अगस्त 2010 को आग लगाकर आत्महत्या करने के लिए उकसाने और उसकी लाइव कवरेज दिखाने के मामले में बीइए जैसे संगठन ने आधी-अधूरी कमेटी गठित करके कैसे दस दिनों के भीतर शामिल चैनल को क्लिनचिट दे दी,ये सब हमारे सामने स्पष्ट है। चैनलों के भीतर मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए किस तरह से लोगों से काम लिए जाते हैं, चैनल बंद होने की स्थिति में सैंकड़ों पत्रकार कैसे सड़कों पर आ जाते हैं और वह चैनल में एक लाइन की खबर नहीं बन पाती, मीडिया संगठन उनसे किसी भी तरह का सवाल-जबाब नहीं करते, ऐसे में सरकार अगर इन समाचार चैनलों पर नकेल कसने जा रही है तो इसका विरोध एक हद तक बिल्कुल जरुरी है लेकिन साथ में यह सवाल है कि क्या सरकार सचमुच उस मीडिया पर लगाम लगाने जा रही है जो कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है या फिर वह कार्पोरेट मीडिया है जिसका लक्ष्य अपनी मिट्टी में मिल चुकी साख और मुनाफे को दोबारा से हासिल करना है? फिर भी अन्ना की टीम इस मीडिया का बार-बार शुक्रिया अदा कर रही है तो हैरानी हो रही है और सवाल भी पैदा हो रहे हैं कि क्या प्रतिरोध के स्वर के साथ खड़ा होने का का हक उसे है जो खुद भी मुजरिम है लेकिन जिसमें खुद के लिए वकील बनने की भी काबिलियत है? जाहिर है इसमें चैनल के साथ-साथ उसकी रक्षा में खड़े गठित संगठन भी हैं। (मूलतः जनसत्ता 4 सितंबर 2011 को मामूली फेरबदल के साथ प्रकाशित) _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Tue Sep 6 16:39:14 2011 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 6 Sep 2011 16:39:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KWAOiDgpLngpL7gpIfgpLLgpYAg4KSf4KWH4KSC4KSq4KSw?= Message-ID: *कहानी: हाइली टेंपर* (यह कहानी मेरी-आपकी हर किसी की हो सकती है. चाहे आपकी जिंदगी की हो या फिर आपके आस-पड़ोस की. इस कहानी में कई शब्द असामाजिक या असंसदीय मिलेंगे, इसके लिए कहानीकार कतई जिम्मदार नहीं है क्योंकि उन शब्दों को इसी समाज ने बनाए है. इसलिए इस कहानी को पढने से पहले या बाद में कोई विचार नहीं बनानी चाहिए क्योंकि इससे आपका समय और दिमाग की सोच प्रभावित होगी, जो जाया होगा. इस कहानी को काल्पनिक तो नहीं कही जा सकती लेकिन किसी से या किसी की जिंदगी से तालमेल रखता है तो यह महज संयोग है- लेखक) मामले ने तूल तो तभी पकड़ लिया था जब ग्वालियर के एक बाभन ने फेसबुक पर एक कविता पोस्ट कर दी, ‘एक बूंद, एकै मलमूतर, एक चाम, एक गूदा/ एक रक्त से सबहीं बने हैं, को बाभन को सूदा’। लेकिन बात सिर्फ पोस्ट करने की नहीं थी। बात थी जातिवाद को लेकर लड़ाई की। क्योंकि इसके बाद ही शुरू हुआ था आरोप-प्रत्यारोप का दौर। पटना, रांची, रायपुर, अहमदाबाद से लेकर मुंबई के फिल्मिस्तान स्टूडियो तक में उबाल आया था। दिल्ली के मंडी हाउस के आसपास के लॉन में तो हर कोई इसी मुद्दे पर थियेटर करने का प्लान कर रहा था, वहीं भोपाल में भी यह आंधी पहुंच चुकी थी। अपने घर में जनेऊ की कसम खाने वाले लोग बाहर निकलते ही दलितों के मसीहा बन रहे थे और उधर दलितों को यह समझ नहीं आ रहा था कि इन उच्च वर्णों को आखिर क्या हो गया जो अपने गोत्र, मूल, मूल के गांव की लड़ाई को छोड़कर वे उनके हमदर्द बनते जा रहे हैं।हर कोई खुद के गिरेबान में झांकने के बदले दूसरों को दोष दे रहा था। यही वह दौर था, जब कारगिल युद्ध हुआ और बरखा दत्त नामक पत्रकार रातोंरात युद्ध की रिपोर्टिंग कर अधिकतर लड़कियों के लिए हीरो बन जाती है और उसकी तरह पत्रकार बनने के लिए देश के कोने-कोने की लड़कियां हर शहर, हर मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह खुले मीडिया संस्थानों से डिग्री लेने के लिए मचल उठती है। यह वही दौर था, जब नोएडा में आई बारात को निशा नामक दुलहन ने दहेज के कारण लौटा दिया था। इसी दौर में झारखंड के कोडरमा की रहने वाली पत्रकार निरूपमा की मौत हत्या और आत्महत्या के बीच अनसुलझी रह जाती है। फिर मंडल आयोग लागू करने वाले प्रधानमंत्री कैंसर से जूझते हुए दम तोड़ देते हैं और लोग कहते कि उन्हें बाभन-राजपूत-कायस्थ-बनिया का शाप लगा है लेकिन उनके मरने तक पूरा समाज काफी जागरूक हो चुका होता है। मंडल-कमंडल ने कईयों की जान तो ले ली लेकिन लोगों को सपने देखने और उनके यथार्थ में परिणत होने से नहीं रोक सकी।बहरहाल, कई सवर्ण ऐसे भी सामने आए जो सार्वजनिक तौर पर दलितों के हिमायती, स्त्री के पैरोकार बनते थे लेकिन वास्तविक धरातल ऐसे मामलों से कहीं कोई सरोकार नहीं था। नहीं तो ऐसा कभी नहीं होता कि हम जिन संस्कारों की बात करते हैं और कहते हैं कि वह घर से ही उत्पन्न होता है, और वह घर में ही न हो। यही हाल तो उस लड़की का था जिनके बहनोई तमाम तामझाम के साथ दलितों के पैरोकार बनते फिरते थे और अपने देह पर कम्युनिस्ट का लबादा ओढ़कर अपनी जमींदारी की जमीन बचाने में जी-जान से लगे थे। लड़की के माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी और बड़ी दोनों बहनों की शादी हो जाने के बाद उनके हालात उससे देखा नहीं जाता था। दोनों का ससुराल काफी समृद्ध था लेकिन शराब पीने-पिलाने और पुरुष प्रधान परिवार में उसकी दोनों बहनों की हैसियत किसी ‘दाई’ से अधिक न थी। फिर इस घर में भी तो कोई गार्जियन के तौर पर नहीं था, बहनोई की मर्जी से पूरा घर चलता था। ऐसे में जाहिर सी बात थी कि उस लड़की को अपने मन की इच्छा दबाना पड़ता था। बहनोई अपनी पत्नी की जगह इस साली को ज्यादा तवज्जो देते क्योंकि सभी बहनों के मुकाबले यह कुछ ज्यादा ही सुंदर और स्मार्ट थी। उसके सामने उसकी बहनों को मारते-पीटते। वह भीतर-ही-भीतर घुटती रहती लेकिन मन में पुरुषों से बदला लेने का बवंडर मचता रहता। उसे अपनी जिंदगी अंधे सुरंग जैसी दीखती थी। ऐसे में एक दिन उसने कुछ ठान लिया और फिर बस उसका एक ही सपना बन गया, ‘बरखा दत्त-टू’ बनना, ‘मीडिया’ के पावर के जरिए सभी को सही रास्ते पर लाना। इधर, बहनोई बिना उससे पूछे लंदन में रह रहे स्वजातीय लड़के से उसकी शादी तय कर दी। लड़की ने उससे यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि वह तो अभी ‘बच्ची’ है और घर के लोग जबर्दस्ती उसकी शादी तय कर दिए हैं। शादी टूटने से घर में कोहराम मच गया। उसका जीना दूभर हो गया और फिर एक शाम किसी तरह लुक-छिप कर ‘संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस’ में साधारण टिकट के जरिए करियर को नई मंजिल तक पहुंचाने के लिए दिल्ली आई गई। किसी को कुछ बताया तक नहीं। उसके कुछ सपने थे, अरमान थे और उसे जिंदगी की नई मंजिल की तलाश थी। पूरी कहानी हमें पता भी न चलता यदि उस दिन उसके पागल होने की खबर राष्ट्रीय अखबार में न पढ़ता। फिर दिल्ली राजधानी से करीब 1500 किलोमीटर दूर जब मैं बिहार में अपने खेतों में काम कर रहा हूं तो दिल्ली की बातें कहां यहां तक आ पाती हैं। मैंने भी कभी बड़े-बड़े सपने देखे थे और दिल्ली गया भी था लेकिन वहां की रौनक, मंडी हाउस, मेट्रो ट्रेन, कनाट सर्कस, हैबिटेट सेंटर आदि लुभा नहीं पाया और फिर कदम-कदम पर धोखा मिलना कहीं हमें लुभा पाता भला।वह नवम्बर का महीना था, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस में तीन दिनों का मीडिया वर्कशॉप हुआ था और मैं भी उसमें भाग ले रहा था। वह वही तो लड़की थी, जो दरवाजे के कोने में खड़ी थी, पीले रंग की टीशर्ट पहने, पूरी तरह गुड़िया जैसी लग रही थी और कमलनाथ सिंह ने मिलवाया था। फिर तो कब एक-दूसरे के दोस्त बन गए पता ही नहीं चला। बातें-मुलाकातें आई गई हो गईं। एक दिन पता चला कि वह “राष्ट्रीय उदय’ में इंट्रनशिप कर रही है लेकिन तब तक मैं एक राष्ट्रीय दैनिक में काम करने के लिए अजमेर जा चुका था। अरे, मैं तो भूल ही गया उसका नाम बताना। छोड़िए वैसे भी नाम में क्या रखा है। नहीं, कहानी कहने के लिए तो उसका नाम बताना जरूरी है। लेकिन आप चाहें जो सोचें, जो कहें, मैं उसका असली नाम नहीं बताने वाला। बस इतना जान लीजिए कि उसके मोबाइल में मेरा मोबाइल नंबर ‘परेशान आत्मा’ के नाम से सेव था और मेरे मोबाइल में उसका नंबर ‘हाइली टेंपर’ के नाम से। दोनों ने अपने-अपने मोबाइल में ऐसा नाम क्यों रखा था, यह आप बखूबी समझ गए होंगे, क्योंकि ‘परेशान आत्मा’ का कहना था ही वह तुरंत टेम्पर में आ जाती है, उधर ‘हाइली टेंपर’ का आरोप था कि वह उसे काफी परेशान करता है।तो साहेबान, कद्रदान, पूरा मामला ‘परेशान आत्मा’ और ‘हाइली टेंपर’ के बीच का है और पूरी दिल्ली की मीडिया उन दोनों को देख रही थी। एक दिन ‘परेशान आत्मा’ को मालूम हुआ कि उसकी ‘गर्ल फ्रेंड’ जो तब तक सिर्फ ‘फ्रेंड’ थी, रांची से छपने वाले छोटे-से अखबार में काम करने लगी है। वह वहां ‘अंगूठी वाले बाबा’ की पैरवी से आई है और उन्हें कहती तो सर है लेकिन ‘सर’ से भी आगे बहुत कुछ है। पटना से आई वह लड़की दिल्ली के चकाचौंध में पूरी तरह डूब चुकी थी, शाम में इंडिया गेट पर ‘अपने सर’ के साथ आइसक्रीम खाना खूब भाता था। या फिर अकसर पुराना किला, सेंट्रल पार्क या फिर आफिस के पीछे छोटे से ढाबे में दोनों बैठे मिलते। वहीं उसकी मुलाकात रामेंद्र राजेश से हुई। हालांकि वह काफी शांत, संस्कारवान था और हिन्दी साहित्य का अनुरागी भी। ‘हाइली टेंपर’ की नजर जब उस पर पड़ी तो उसने मन ही मन तय कर लिया कि इसके कंधों पर सवार होकर दिल्ली की पत्रकारिता और साहित्यिक यात्रा पूरी करेगी। रामेंद्र राजेश इतने भद्र पुरुष थे कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कौन उनको यूज कर रहा है और कौन नहीं। रामेंद्रजी चुपचाप उसके लेखों के शब्दों को बखूबी ठीक करते और लोग ‘हाइली टेंपर’ की वाहवाही। इसके एवज में वह उन्हें ‘प्यार’ का झांसा देती रहती। तभी तो जब ‘जोशी’ जी के निधन पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में दिल्ली जर्नलिस्ट एसोसिएशन के द्वारा सभा आयोजित हुई थी तो रामेंद्र उस लड़की के पास बैठने तब तक नहीं गए जब तक लड़की के बहनोई उसके पास बैठे थे। जैसे ही वह सभा के बीच से लघुशंका के लिए हॉल से बाहर निकले तब तक रामेंद्र ‘हाइले टेंपर’ की दूसरी तरफ खाली कुर्सी पर आसन ग्रहण कर लिए और बहनोई के आने पर नमस्ते कर अपनी सफाई दे दी की अभी-अभी सभा में पहुंचा हूं, आफिस में बहुत कम था।बहरहाल, मैं कहां से कहां भटक कर आपसे क्या बात करने लगा। रांची के लोकल अखबार का दफ्तर कनाट प्लेस के एक बिल्डिंग की पांचवीं मंजिल पर थी। सामने ही ‘दैनिक भारत’ की बिल्डिंग अपनी चमक-दमक के साथ लोगों को आकर्षित कर रहा था। लेकिन वहां बाभनों की भीड़ मौजूद थी। या तो जाति के नाम पर ही वहां लोगों को रखा जाता या फिर जो किसी अधिकारी के तलुवे चाटते। ‘परेशान आत्मा’ को नौकरी मिलने में वहां कठिनाई सिर्फ इसलिए नहीं हुई क्योंकि अजमेर में जिस बड़े पत्रकार से उनकी जान-पहचान हुई थी, वह ‘दैनिक भारत’ में बड़े पोस्ट पर आए थे। लेकिन पटना की उस लड़की यानि ‘हाइले टेंपर’ को लगा कि यदि उसे वहां नौकरी नहीं मिलती है तो उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी हार होगी। वह अपने परिवार को भी दिखाना चाहती थी कि अपने बलबूते भी वह कुछ कर सकती है। क्योंकि उसने जिन्दगी में जितने दर्द झेले थे, वह घाव बार-बार टिहुक उठता था और एक दर्द यह भी था कि ‘राष्ट्रीय उदय’ में इंट्रर्नशिन के लिए उनके बहनोई ने जमकर पैरवी लगाई थी तब जाकर इंट्रर्नशिप मिला था और इसके लिए वे बार-बार उसे उलाहना देते थे।आखिर वह दिन आ गया जब नवसिखुआ स्त्रीवादी लेखिका का चोंगा पहन वह लड़की बाइस मंजिले उस बिल्डिंग में जिसके साथ नौकरी ढूंढने आई थी, वह वही ‘बाबा’ था जिसे वह ‘सर’ कहती थी और बाबा की जीवन परिभाषा ‘बाभन आपन करैं बड़ाई, गागर छुअन न देहिं/वैस्या के पायन तर सोवैं, यह देखो हिंदुआई’ दोहे में सिमटी हुई थी। यहां ‘परेशान आत्मा’ उसके लिए बेस तैयार कर चुका था और यहां नौकरी मिलने में कोई परेशानी भी नहीं हुई। बिना टेस्ट, बिना रिज्यूमे जमा कराए, उसे नौकरी मिल गई। पहले तो कहा गया कि जूनियर कॉपी एडिटर बनाया जाएगा लेकिन जब पत्र आया तो उसमें ‘स्ट्रींगर’ लिखा था। कहा गया था कि सात हजार सेलरी मिलेगी लेकिन पत्र में लिखा था पांच हजार। आपत्ति जताने पर बॉस ने कहा कि आपलोग फीचर में कुछ लिखें और इसके एवज में दो हजार रुपए दिला देगें। इस पर उस वक्त तो ‘परेशान आत्मा’ के साथ ‘हाइली टेंपर’ साथ थी लेकिन बाद में ‘हाइली टेंपर’ ने ‘परेशान आत्मा’ को धोखे में रखकर उस ज्वाइनिंग लेटर अपने पास रख लिया। मीडिया भले ही दूसरों की खामियों को सामने रखता है लेकिन इसकी खामियों को कौन उजागर करे। उस दौर में ‘मोहल्ला’ या ‘भड़ास’ का जन्म नहीं हुआ था जो मीडियाकर्मी के दर्द को लोगों को सामने रखने का काम कर सके। ऐसे में ‘दैनिक भारत’ में कम से कम तेरह पदों पर बाभन अपना आसन जमाए बैठे थे, तो निचले स्तर पर कितने होंगे, इसका अंदाजा तो किसी को था भी नहीं। ऐसे में दलित, स्त्रीवादी का चोंगा ‘हाइली टेंपर’ ने उतार फेंका और खुलेआम कह दिया कि मैं भी तो ‘ब्राह्मण’ हूं। फिर जाहिर सी बात है कि दलित और स्त्रीवादी की छवि तो उतारना तो था ही, अपने भेदिये को भी खत्म करना जरूरी था। भेदिया था वही ‘परेशान आत्मा।’ तभी तो उसने अपने मोबाइल में यही नाम रखा था। उसे डर था कि कभी वह उसकी पोल खोल न दे। ऐसे में उसने जहां उसे अपने मोह-पाश में बांधना शुरू किया वहीं खुलेआम यह कहने से भी नहीं हिचकती कि ‘परेशान आत्मा’ उसके परेशान करता है। जब भी किसी काम से वह उसे फोन करता तो वह किसी और को अपना फोन पकड़ा देती, यह जताने की कोशिश करती कि वह उसे परेशान करता है। वहीं अकेले मिलने पर ‘परेशान आत्मा’ से कहतीं, ‘तुम कितने खुशनसीब हो, जो गर्लफ्रेंड साथ में है, एक ही ऑफिस तुम्हारे साथ नौकरी करती है और एक ही साथ शाम में घर भी लौटते हो’। ऐसे ही एक दिन दोनों ‘बेसिक इंस्टिंक’ फिल्म भी देखने गए थे। ऐसा हम नहीं कह सकते कि लड़के को दिल नहीं था, वह तो ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों में रह जाता लेकिन उसे लगता कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। लड़की के कई दोस्तों से उसकी दोस्ती थी। वे बताते थे कि कॉलेज के दिनों में कॉलेज पत्रिका निकालने के क्रम में उसका अफेयर प्रकाश झा के साथ था। एक बार तो प्रकाश झा ने खुद यह बात कही थी। फिर ‘बाबा’ वाले ‘सर’ और उसे कई बार रंगे हाथ पकड़ा भी था। उधर, आफिस या उससे बाहर उनके बारे में गॉसिप होती, लोग मिर्च-मसाला लगाकर बातें करते। अब तो ‘दैनिक भारत’ में बॉस लेकर छोटे स्तर के कर्मचारी भी दोनों को लेकर ही बातें करते। फिर ‘हाइली टेंपर’ का नाम और चेहरा-मोहरा थोड़ा-बहुत ‘दैनिक भारत’ के संपादक से मिलता था तो जाहिर-सी बात है कि उसका फायदा वह उठा ले जाती।आखिरकार, ‘हाइली टेंपर’ की मेहनत रंग लाई और ‘परेशान आत्मा’ का ट्रांसफर इलाहाबाद कर दिया गया। जिसके कंधों पर सवार होकर वह इस बीस मंजिले दफ्तर में नौकरी पाई थी, उसका पत्ता साफ करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब तो बॉस भी खुलेतौर पर ‘हाइली टेंपर’ का साथ देने लगे थे। समय बीतते गया और अब उसका ऑफिस के दाढ़ी वाले बाबा के चमचे से टांका भिड़ चुका था। लड़की को लगने लगा था कि अब यही उसका पार लगाएगा और किसी दिन वह देश की सबसे बड़ी पत्रकार होगी। ‘परेशान आत्मा’ को परेशान करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। जितना बदनाम करना था, कर डाला। उसकी भेजी खबरों में तमाम खामियां निकालतीं और बॉस से उसकी शिकायत भी करती। दूसरी ओर वह ‘परेशान आत्मा’ जो चुपचाप सब कुछ सहते जा रहा था। तभी बॉस बदल गए और अब ‘हाइली टेंपर’ के पलटी मारने की बारी थी। नए बॉस के कान पहले से ही भरे जा चुके थे। एक दिन इलाहाबाद से ‘परेशान आत्मा’ को दिल्ली आना था और उसने ‘हाइली टेंपर’ की नई कारस्तानियों के बारे में जानकारी नहीं थी। उसने उसके मोबाइल पर मैजेस भेजा, ‘केन यू मीट मी वन्स!’ बात तो पांच शब्दों की थी लेकिन उसके इलाहाबाद से दिल्ली पहुंचते-पहुंचते यह आग बन चुकी थी। कनॉट प्लेस की उस दफ्तर में वह सबसे मिला, नए बॉस से भी, लेकिन नहीं मिली तो वह थी ‘हाइली टेंपर’ थी, उसने उसे देख कर मुंह घुमा लिया। जब वह बस पकड़कर वापस आ रहा था, तभी उसके मोबाइल पर घंटी बंजी। पॉकेट से मोबाइल निकालकर देखा तो नंबर दिल्ली आफिस का था। ‘हैलो’ ‘हैली…।’ उधर नए बॉस थे। ‘ऐसा है कि आज के बाद तुम कभी उस लड़की को फोन नहीं करोगे।’जब तक वह कुछ माजरा समझ पाता तब तक बॉस ने कहा, ‘बिना मेरी अनुमति के तुम फिर कभी ऑफिस आए तो मैं तुम्हें पांच दिन के अंदर निकाल दूंगा।’तब तक ‘परेशान आत्मा’ परेशान हो चुका था और उसने सीधे कहा, ‘सर, ऐसी कोई बात अब नहीं होगी और मैं कहां जाऊं या ना जाऊं, इसके मालिक आप नहीं है। और रही नौकरी की बात और आप धमकी दे रहे हैं कि पांच दिन में निकाल दूंगा तो मैं आज से पांच दिन के भीतर नौकरी छोड़ रहा हूं।’ वह एक ही सांस में पूरी बात कह फोन काट दिया। चेहरा लाल-लाल हो गया था।फिर वही हुआ जो ‘परेशान आत्मा’ ने कहा था। पांच दिनों के भीतर वह दूसरे अखबार में सीधा स्ट्रिंगर से सीनियर सब एडिटर की नौकरी करने लगा। तनख्वाह तीन गुना से भी अधिक। कई जिम्मेदारियां भी उसके सिर पर आ गईं। शादी हो गए। बीबी-बच्चों में वह रम गया, बच्चे भी सेट्ल हो गए और वह आज राजधानी दिल्ली से करीब 1500 किलोमीटर दूर अपने खेतों में काम करता है और जमकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखता भी है। हालांकि ‘हाइली टेंपर’ के बारे में उसने फिर कभी कोई सुध नहीं ली। उसके पागल होने की जानकारी तो अखबार में खबर पढ़कर हुई लेकिन इसके बाद की कहानी उसे मालूम भी न हुई होती यदि उसके एक दोस्त का मेल उस दिन नहीं आया होता। इस ई-मेल का मजमून कुछ यों हैं,‘डियर फ्रेंड, हम कई सालों से दोस्त रहे हैं। यह और बात है कि मैं दिल्ली के चकाचौंध में फंसकर यही रह गया और बच्चे बिगड़ गए लेकिन तुमने हमेशा सही वक्त पर सही कदम उठाया है। वैसे तो मैं मेल करने वाला था लेकिन अपनी पुरानी प्रेयसी के बारे में शायद ही तुम्हें मालूम हो। हालांकि तुम्हारे इस संस्था को छोड़े करीब तीस साल बीत चुके हैं लेकिन तुम्हारी प्रेयसी की कहानी जानकर न सिर्फ तुम हैरान होगे बल्कि यही कहोगे कि भगवान दुश्मन के साथ भी ऐसा न करे। तुम तो ‘दैनिक भारत’ के उस दाढ़ी वाले बाबा को तो जानते ही थे जिन्होंने तुम्हें अजमेर से दिल्ली आने से मना किया था। वह उनके चमचों में फंस गई। उन लोगों के साथ घूमना, शॉपिंग करना उसे भाने लगा। नशे की भी शिकार हो गई। लोगों का तो यहां तक कहना था कि मीडिया की गंदगी ने उसे लील लिया। कहां वह ‘बरखा दत्त’ बनने का ख्वाह देखकर दिल्ली आई थी और अब महज ‘कॉल गर्ल’ के रूप में तब्दील हो गई थी। दाढ़ी वाले बाबा चूंकि उसके दफ्तर में बड़े पद पर थे, तुम्हारी प्रेयसी को करियर में मुकाम हासिल करने और दूसरों को नीचा दिखाने का शौक शुरू से था, तो वह उनके बातों में आ गई।इतना ही नहीं, कुछ सालों के बाद तो वह ऑफिस भी सिर्फ कहने के लिए आती थी और दारू का नशा उसकी आंखों में बोलता था, कदमों में लड़खड़ाता था। ऐसे में उसे जो भी कोई कुछ भला सलाह देता, उसे खराब लगता। तुम्हें तो मालूम ही होगा कि उसे बाजार के ठेलों पर बिकने वाली 30-40 रुपए की ब्लू फिल्म की सीडी देखने में कितना आनंद आता था। आफिस के लोग कहते थे कि ऐसा शायद ही कोई होगा जिसने उसके लिए सीडी न लाई हो। चाहे वह पालिका बाजार में मिलता हो, या सराय काले खां से निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन तरफ जाने वाली सड़क के किनारे की दुकानों में या लक्ष्मीनगर में कैसेट के दुकानों में। लोग कहते, यह जिन बड़े-बड़े नामों के पीछे भाग रही है, उसके काले चेहरों को वह नहीं जानती है।डियर, तुम तो जानते ही हो कि आज भी भारतीय महिलाएं या लड़कियां कितनी भी एडवांस हो जाएं लेकिन शीलभंग होने के बाद उस पर क्या बीतती है। फिर वही हुआ तुम्हारी प्रेयसी के साथ। तुम तो कुछ कर नहीं पाए लेकिन हमदर्दी जताने के साथ उसके जिंदगी में आगे बढ़ाने का झांसा देते-देते उसके साथ किसने क्या किया, यह शायद भगवान भी नहीं जानता। अति सर्वत्र वर्जियेत। यही हुआ उसके साथ। ‘टर्निंग-30′ देखी होगी तुमने ना। वही हालत हो गई थी, तुम्हारे दोस्त की। घर के लोग शादी के लिए कहते और मीडिया ऑफिस के लोगों से वह लगातार धोखा खा रही थी। ऐसे में वह बड़ी शिद्दत से तुम्हें याद करती लेकिन तब तक तुम काफी दूर जा चुके थे। वह आखिर क्या करती।दाढ़ी वाले बाबा के एक चमचे ‘अमित अमन’ से उसने शादी कर ली। लोग कहते कि वह उसकी तीसरे पत्नी है। पहली भू़कंप में मरी, दूसरी को तलाक दे दिया अब यह तीसरी है, भगवान जाने इसका क्या होगा। यह और बात है कि तब तब वह दलित और स्त्रीवादी लेखिका के तौर पर लेख लिखने लगी थी जिसमें दलित और स्त्री से ज्यादा उसका दर्द सामने आता, उसने जिस लड़के से शादी की वह बाभन ही था। हालांकि यह और बात है कि ऐसे में किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि दलितों और स्त्री की हमदर्द के रूप में खुद को शो करने वाली इस लड़की ने किसी दलित से शादी क्यों की, सभी ने चुप्पी साध ली थी। हालांकि माना जाता है कि ‘हाइली टेंपर’ शादी के बाद भी रामेंद्र से जुड़ी हुई थी और ऑफिस में होने वाली तमाम बातों के साथ गॉसिप्स का पता उसे नहीं था। फिर एक दिन तो उसके पति अमित अमन ने उसे रामेंद्र के साथ रंगेहाथों पकड़ भी लिया था, इसके बाद से दोनों के संबंधों में खटास आना शुरू हो गया। वैसे भी अमित महिलाओं के मामले में कैसा था, यह किसी से कुछ छुपा नहीं था। लोग कहते थे की दिल्ली के जीबी रोड के कई महिलाएं उनकी ‘दीवानी’ हैं और उसकी कमाई का काफी पैसा उनके सुख-सुविधा में खर्च होता है।मैं तुम्हें क्या बताऊं। अब तो जब वह ऑफिस आती तो उसके चेहरे पर पिटाई के निशान होते। दूसरी स्त्रियों के दर्द को लोगों के सामने रखने वाली एक स्त्रीवादी खुद पुरुष प्रताड़ना की शिकार हो रही थी। जब एक दिन सब्र की सीमाएं टूट गई तो उसने अमित अमन को छोड़ने का निश्चय किया। तुम तो अब दिल्ली में थे नहीं और तुम्हारा उससे दूर-दूर का कोई वास्ता न था। ऐसे में उसे रामेंद्र की याद आई। वह उसके पास गई भी, गिड़गिड़ाई भी, लेकिन रामेंद्र नहीं पिघला। उसने सीधे तौर पर कह दिया जिस तरह अपने करियर के लिए तुमने मुछे यूज किया, उसी तरह अपनी दैहिक भूख के लिए मैंने तुम्हारे शरीर का किया। हम-दोनों का हिसाब-किताब बराबर।अब तुम्हारे इस तथाकथित प्रेमिका के पास कोई चारा नहीं था। घर के लोगों ने उससे दूरी पहले से ही बना ली था। वह अपने भाई-बहनों-बहनोईयों के लिए मर चुकी थी। बहनोई और भाई के पास बिहार में काफी जमीनें थीं और जाति के बाभन होने के कारण जमीन बचाने के लिए कम्युनिष्ट बनने के अलावा कोई चारा नहीं था। बाहर की दुनिया में उनके परिवार के सभी लोग दलितों के मसीहा बनते फिरते थे लेकिन घर में अपनी जाति-बिरादरी में ही शादी करने से लेकर अपने खेत को बचाने की जद्दोजहद चलती रहती थी। मां-पिता को अब इस दुनिया में थे नहीं। फरीदाबाद में जो उसने अपना घर लिया था उसे कब का अमित अमन अपने नाम करा चुका था क्योंकि मकान हड़पने के लिए उसे पागल घोषित करना जरूरी था। लोगों का बेसिक इंस्टिंक्ट से कभी नाता नहीं टूटता है और यही कारण था कि ‘हाइली टेंपर’ को घर से निकालने के बाद अमित का अधिकतर समय जीबी रोड में बीतता था। मीडिया में अमित और उसके ‘बाबा’ का वर्चस्व तो था ही, पागल घोषित कर दिए जाने के कारण राष्ट्रीय महिला आयोग, दिल्ली महिला आयोग के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कोई भी उसके सहायता करने नाहिया आया।बहरहाल, तुम्हें इतना बड़ा मेल लिखकर पुरानी यादों में ला खड़ा किया। लेकिन एक बात जरा सोचना भारतीय मीडिया की अंदरूनी हालत, जहां मैं हूं। किस तरह लड़कियों को प्रताड़ित किया जाता है। जाति पूछकर प्यार किया जाता है। जाति पूछकर प्रमोशन भी। लड़के और लड़कियां प्रभाष जोशी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष, राजदीप सरदेसाई, दिलीप पडगांवकर, प्रणव राय आदि को देखकर दिल्ली तो आज जाते हैं लेकिन यहां की चकाचौंध उन्हें ऐसे दलदल में खड़ा कर देती हैं जहां न तो उनके पास अपनी जमीन रह जाती है और न ही यहां के जमीन पर खड़े रहने लायक ही बन पाते हैं।आशा है, तुम ठीक -ठाक होगे। तुम्हारा…।’ (मूलतः परिकल्पना में प्रकाशित ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Tue Sep 6 16:39:14 2011 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 6 Sep 2011 16:39:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KWAOiDgpLngpL7gpIfgpLLgpYAg4KSf4KWH4KSC4KSq4KSw?= Message-ID: *कहानी: हाइली टेंपर* (यह कहानी मेरी-आपकी हर किसी की हो सकती है. चाहे आपकी जिंदगी की हो या फिर आपके आस-पड़ोस की. इस कहानी में कई शब्द असामाजिक या असंसदीय मिलेंगे, इसके लिए कहानीकार कतई जिम्मदार नहीं है क्योंकि उन शब्दों को इसी समाज ने बनाए है. इसलिए इस कहानी को पढने से पहले या बाद में कोई विचार नहीं बनानी चाहिए क्योंकि इससे आपका समय और दिमाग की सोच प्रभावित होगी, जो जाया होगा. इस कहानी को काल्पनिक तो नहीं कही जा सकती लेकिन किसी से या किसी की जिंदगी से तालमेल रखता है तो यह महज संयोग है- लेखक) मामले ने तूल तो तभी पकड़ लिया था जब ग्वालियर के एक बाभन ने फेसबुक पर एक कविता पोस्ट कर दी, ‘एक बूंद, एकै मलमूतर, एक चाम, एक गूदा/ एक रक्त से सबहीं बने हैं, को बाभन को सूदा’। लेकिन बात सिर्फ पोस्ट करने की नहीं थी। बात थी जातिवाद को लेकर लड़ाई की। क्योंकि इसके बाद ही शुरू हुआ था आरोप-प्रत्यारोप का दौर। पटना, रांची, रायपुर, अहमदाबाद से लेकर मुंबई के फिल्मिस्तान स्टूडियो तक में उबाल आया था। दिल्ली के मंडी हाउस के आसपास के लॉन में तो हर कोई इसी मुद्दे पर थियेटर करने का प्लान कर रहा था, वहीं भोपाल में भी यह आंधी पहुंच चुकी थी। अपने घर में जनेऊ की कसम खाने वाले लोग बाहर निकलते ही दलितों के मसीहा बन रहे थे और उधर दलितों को यह समझ नहीं आ रहा था कि इन उच्च वर्णों को आखिर क्या हो गया जो अपने गोत्र, मूल, मूल के गांव की लड़ाई को छोड़कर वे उनके हमदर्द बनते जा रहे हैं।हर कोई खुद के गिरेबान में झांकने के बदले दूसरों को दोष दे रहा था। यही वह दौर था, जब कारगिल युद्ध हुआ और बरखा दत्त नामक पत्रकार रातोंरात युद्ध की रिपोर्टिंग कर अधिकतर लड़कियों के लिए हीरो बन जाती है और उसकी तरह पत्रकार बनने के लिए देश के कोने-कोने की लड़कियां हर शहर, हर मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह खुले मीडिया संस्थानों से डिग्री लेने के लिए मचल उठती है। यह वही दौर था, जब नोएडा में आई बारात को निशा नामक दुलहन ने दहेज के कारण लौटा दिया था। इसी दौर में झारखंड के कोडरमा की रहने वाली पत्रकार निरूपमा की मौत हत्या और आत्महत्या के बीच अनसुलझी रह जाती है। फिर मंडल आयोग लागू करने वाले प्रधानमंत्री कैंसर से जूझते हुए दम तोड़ देते हैं और लोग कहते कि उन्हें बाभन-राजपूत-कायस्थ-बनिया का शाप लगा है लेकिन उनके मरने तक पूरा समाज काफी जागरूक हो चुका होता है। मंडल-कमंडल ने कईयों की जान तो ले ली लेकिन लोगों को सपने देखने और उनके यथार्थ में परिणत होने से नहीं रोक सकी।बहरहाल, कई सवर्ण ऐसे भी सामने आए जो सार्वजनिक तौर पर दलितों के हिमायती, स्त्री के पैरोकार बनते थे लेकिन वास्तविक धरातल ऐसे मामलों से कहीं कोई सरोकार नहीं था। नहीं तो ऐसा कभी नहीं होता कि हम जिन संस्कारों की बात करते हैं और कहते हैं कि वह घर से ही उत्पन्न होता है, और वह घर में ही न हो। यही हाल तो उस लड़की का था जिनके बहनोई तमाम तामझाम के साथ दलितों के पैरोकार बनते फिरते थे और अपने देह पर कम्युनिस्ट का लबादा ओढ़कर अपनी जमींदारी की जमीन बचाने में जी-जान से लगे थे। लड़की के माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी और बड़ी दोनों बहनों की शादी हो जाने के बाद उनके हालात उससे देखा नहीं जाता था। दोनों का ससुराल काफी समृद्ध था लेकिन शराब पीने-पिलाने और पुरुष प्रधान परिवार में उसकी दोनों बहनों की हैसियत किसी ‘दाई’ से अधिक न थी। फिर इस घर में भी तो कोई गार्जियन के तौर पर नहीं था, बहनोई की मर्जी से पूरा घर चलता था। ऐसे में जाहिर सी बात थी कि उस लड़की को अपने मन की इच्छा दबाना पड़ता था। बहनोई अपनी पत्नी की जगह इस साली को ज्यादा तवज्जो देते क्योंकि सभी बहनों के मुकाबले यह कुछ ज्यादा ही सुंदर और स्मार्ट थी। उसके सामने उसकी बहनों को मारते-पीटते। वह भीतर-ही-भीतर घुटती रहती लेकिन मन में पुरुषों से बदला लेने का बवंडर मचता रहता। उसे अपनी जिंदगी अंधे सुरंग जैसी दीखती थी। ऐसे में एक दिन उसने कुछ ठान लिया और फिर बस उसका एक ही सपना बन गया, ‘बरखा दत्त-टू’ बनना, ‘मीडिया’ के पावर के जरिए सभी को सही रास्ते पर लाना। इधर, बहनोई बिना उससे पूछे लंदन में रह रहे स्वजातीय लड़के से उसकी शादी तय कर दी। लड़की ने उससे यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि वह तो अभी ‘बच्ची’ है और घर के लोग जबर्दस्ती उसकी शादी तय कर दिए हैं। शादी टूटने से घर में कोहराम मच गया। उसका जीना दूभर हो गया और फिर एक शाम किसी तरह लुक-छिप कर ‘संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस’ में साधारण टिकट के जरिए करियर को नई मंजिल तक पहुंचाने के लिए दिल्ली आई गई। किसी को कुछ बताया तक नहीं। उसके कुछ सपने थे, अरमान थे और उसे जिंदगी की नई मंजिल की तलाश थी। पूरी कहानी हमें पता भी न चलता यदि उस दिन उसके पागल होने की खबर राष्ट्रीय अखबार में न पढ़ता। फिर दिल्ली राजधानी से करीब 1500 किलोमीटर दूर जब मैं बिहार में अपने खेतों में काम कर रहा हूं तो दिल्ली की बातें कहां यहां तक आ पाती हैं। मैंने भी कभी बड़े-बड़े सपने देखे थे और दिल्ली गया भी था लेकिन वहां की रौनक, मंडी हाउस, मेट्रो ट्रेन, कनाट सर्कस, हैबिटेट सेंटर आदि लुभा नहीं पाया और फिर कदम-कदम पर धोखा मिलना कहीं हमें लुभा पाता भला।वह नवम्बर का महीना था, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस में तीन दिनों का मीडिया वर्कशॉप हुआ था और मैं भी उसमें भाग ले रहा था। वह वही तो लड़की थी, जो दरवाजे के कोने में खड़ी थी, पीले रंग की टीशर्ट पहने, पूरी तरह गुड़िया जैसी लग रही थी और कमलनाथ सिंह ने मिलवाया था। फिर तो कब एक-दूसरे के दोस्त बन गए पता ही नहीं चला। बातें-मुलाकातें आई गई हो गईं। एक दिन पता चला कि वह “राष्ट्रीय उदय’ में इंट्रनशिप कर रही है लेकिन तब तक मैं एक राष्ट्रीय दैनिक में काम करने के लिए अजमेर जा चुका था। अरे, मैं तो भूल ही गया उसका नाम बताना। छोड़िए वैसे भी नाम में क्या रखा है। नहीं, कहानी कहने के लिए तो उसका नाम बताना जरूरी है। लेकिन आप चाहें जो सोचें, जो कहें, मैं उसका असली नाम नहीं बताने वाला। बस इतना जान लीजिए कि उसके मोबाइल में मेरा मोबाइल नंबर ‘परेशान आत्मा’ के नाम से सेव था और मेरे मोबाइल में उसका नंबर ‘हाइली टेंपर’ के नाम से। दोनों ने अपने-अपने मोबाइल में ऐसा नाम क्यों रखा था, यह आप बखूबी समझ गए होंगे, क्योंकि ‘परेशान आत्मा’ का कहना था ही वह तुरंत टेम्पर में आ जाती है, उधर ‘हाइली टेंपर’ का आरोप था कि वह उसे काफी परेशान करता है।तो साहेबान, कद्रदान, पूरा मामला ‘परेशान आत्मा’ और ‘हाइली टेंपर’ के बीच का है और पूरी दिल्ली की मीडिया उन दोनों को देख रही थी। एक दिन ‘परेशान आत्मा’ को मालूम हुआ कि उसकी ‘गर्ल फ्रेंड’ जो तब तक सिर्फ ‘फ्रेंड’ थी, रांची से छपने वाले छोटे-से अखबार में काम करने लगी है। वह वहां ‘अंगूठी वाले बाबा’ की पैरवी से आई है और उन्हें कहती तो सर है लेकिन ‘सर’ से भी आगे बहुत कुछ है। पटना से आई वह लड़की दिल्ली के चकाचौंध में पूरी तरह डूब चुकी थी, शाम में इंडिया गेट पर ‘अपने सर’ के साथ आइसक्रीम खाना खूब भाता था। या फिर अकसर पुराना किला, सेंट्रल पार्क या फिर आफिस के पीछे छोटे से ढाबे में दोनों बैठे मिलते। वहीं उसकी मुलाकात रामेंद्र राजेश से हुई। हालांकि वह काफी शांत, संस्कारवान था और हिन्दी साहित्य का अनुरागी भी। ‘हाइली टेंपर’ की नजर जब उस पर पड़ी तो उसने मन ही मन तय कर लिया कि इसके कंधों पर सवार होकर दिल्ली की पत्रकारिता और साहित्यिक यात्रा पूरी करेगी। रामेंद्र राजेश इतने भद्र पुरुष थे कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कौन उनको यूज कर रहा है और कौन नहीं। रामेंद्रजी चुपचाप उसके लेखों के शब्दों को बखूबी ठीक करते और लोग ‘हाइली टेंपर’ की वाहवाही। इसके एवज में वह उन्हें ‘प्यार’ का झांसा देती रहती। तभी तो जब ‘जोशी’ जी के निधन पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में दिल्ली जर्नलिस्ट एसोसिएशन के द्वारा सभा आयोजित हुई थी तो रामेंद्र उस लड़की के पास बैठने तब तक नहीं गए जब तक लड़की के बहनोई उसके पास बैठे थे। जैसे ही वह सभा के बीच से लघुशंका के लिए हॉल से बाहर निकले तब तक रामेंद्र ‘हाइले टेंपर’ की दूसरी तरफ खाली कुर्सी पर आसन ग्रहण कर लिए और बहनोई के आने पर नमस्ते कर अपनी सफाई दे दी की अभी-अभी सभा में पहुंचा हूं, आफिस में बहुत कम था।बहरहाल, मैं कहां से कहां भटक कर आपसे क्या बात करने लगा। रांची के लोकल अखबार का दफ्तर कनाट प्लेस के एक बिल्डिंग की पांचवीं मंजिल पर थी। सामने ही ‘दैनिक भारत’ की बिल्डिंग अपनी चमक-दमक के साथ लोगों को आकर्षित कर रहा था। लेकिन वहां बाभनों की भीड़ मौजूद थी। या तो जाति के नाम पर ही वहां लोगों को रखा जाता या फिर जो किसी अधिकारी के तलुवे चाटते। ‘परेशान आत्मा’ को नौकरी मिलने में वहां कठिनाई सिर्फ इसलिए नहीं हुई क्योंकि अजमेर में जिस बड़े पत्रकार से उनकी जान-पहचान हुई थी, वह ‘दैनिक भारत’ में बड़े पोस्ट पर आए थे। लेकिन पटना की उस लड़की यानि ‘हाइले टेंपर’ को लगा कि यदि उसे वहां नौकरी नहीं मिलती है तो उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी हार होगी। वह अपने परिवार को भी दिखाना चाहती थी कि अपने बलबूते भी वह कुछ कर सकती है। क्योंकि उसने जिन्दगी में जितने दर्द झेले थे, वह घाव बार-बार टिहुक उठता था और एक दर्द यह भी था कि ‘राष्ट्रीय उदय’ में इंट्रर्नशिन के लिए उनके बहनोई ने जमकर पैरवी लगाई थी तब जाकर इंट्रर्नशिप मिला था और इसके लिए वे बार-बार उसे उलाहना देते थे।आखिर वह दिन आ गया जब नवसिखुआ स्त्रीवादी लेखिका का चोंगा पहन वह लड़की बाइस मंजिले उस बिल्डिंग में जिसके साथ नौकरी ढूंढने आई थी, वह वही ‘बाबा’ था जिसे वह ‘सर’ कहती थी और बाबा की जीवन परिभाषा ‘बाभन आपन करैं बड़ाई, गागर छुअन न देहिं/वैस्या के पायन तर सोवैं, यह देखो हिंदुआई’ दोहे में सिमटी हुई थी। यहां ‘परेशान आत्मा’ उसके लिए बेस तैयार कर चुका था और यहां नौकरी मिलने में कोई परेशानी भी नहीं हुई। बिना टेस्ट, बिना रिज्यूमे जमा कराए, उसे नौकरी मिल गई। पहले तो कहा गया कि जूनियर कॉपी एडिटर बनाया जाएगा लेकिन जब पत्र आया तो उसमें ‘स्ट्रींगर’ लिखा था। कहा गया था कि सात हजार सेलरी मिलेगी लेकिन पत्र में लिखा था पांच हजार। आपत्ति जताने पर बॉस ने कहा कि आपलोग फीचर में कुछ लिखें और इसके एवज में दो हजार रुपए दिला देगें। इस पर उस वक्त तो ‘परेशान आत्मा’ के साथ ‘हाइली टेंपर’ साथ थी लेकिन बाद में ‘हाइली टेंपर’ ने ‘परेशान आत्मा’ को धोखे में रखकर उस ज्वाइनिंग लेटर अपने पास रख लिया। मीडिया भले ही दूसरों की खामियों को सामने रखता है लेकिन इसकी खामियों को कौन उजागर करे। उस दौर में ‘मोहल्ला’ या ‘भड़ास’ का जन्म नहीं हुआ था जो मीडियाकर्मी के दर्द को लोगों को सामने रखने का काम कर सके। ऐसे में ‘दैनिक भारत’ में कम से कम तेरह पदों पर बाभन अपना आसन जमाए बैठे थे, तो निचले स्तर पर कितने होंगे, इसका अंदाजा तो किसी को था भी नहीं। ऐसे में दलित, स्त्रीवादी का चोंगा ‘हाइली टेंपर’ ने उतार फेंका और खुलेआम कह दिया कि मैं भी तो ‘ब्राह्मण’ हूं। फिर जाहिर सी बात है कि दलित और स्त्रीवादी की छवि तो उतारना तो था ही, अपने भेदिये को भी खत्म करना जरूरी था। भेदिया था वही ‘परेशान आत्मा।’ तभी तो उसने अपने मोबाइल में यही नाम रखा था। उसे डर था कि कभी वह उसकी पोल खोल न दे। ऐसे में उसने जहां उसे अपने मोह-पाश में बांधना शुरू किया वहीं खुलेआम यह कहने से भी नहीं हिचकती कि ‘परेशान आत्मा’ उसके परेशान करता है। जब भी किसी काम से वह उसे फोन करता तो वह किसी और को अपना फोन पकड़ा देती, यह जताने की कोशिश करती कि वह उसे परेशान करता है। वहीं अकेले मिलने पर ‘परेशान आत्मा’ से कहतीं, ‘तुम कितने खुशनसीब हो, जो गर्लफ्रेंड साथ में है, एक ही ऑफिस तुम्हारे साथ नौकरी करती है और एक ही साथ शाम में घर भी लौटते हो’। ऐसे ही एक दिन दोनों ‘बेसिक इंस्टिंक’ फिल्म भी देखने गए थे। ऐसा हम नहीं कह सकते कि लड़के को दिल नहीं था, वह तो ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों में रह जाता लेकिन उसे लगता कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। लड़की के कई दोस्तों से उसकी दोस्ती थी। वे बताते थे कि कॉलेज के दिनों में कॉलेज पत्रिका निकालने के क्रम में उसका अफेयर प्रकाश झा के साथ था। एक बार तो प्रकाश झा ने खुद यह बात कही थी। फिर ‘बाबा’ वाले ‘सर’ और उसे कई बार रंगे हाथ पकड़ा भी था। उधर, आफिस या उससे बाहर उनके बारे में गॉसिप होती, लोग मिर्च-मसाला लगाकर बातें करते। अब तो ‘दैनिक भारत’ में बॉस लेकर छोटे स्तर के कर्मचारी भी दोनों को लेकर ही बातें करते। फिर ‘हाइली टेंपर’ का नाम और चेहरा-मोहरा थोड़ा-बहुत ‘दैनिक भारत’ के संपादक से मिलता था तो जाहिर-सी बात है कि उसका फायदा वह उठा ले जाती।आखिरकार, ‘हाइली टेंपर’ की मेहनत रंग लाई और ‘परेशान आत्मा’ का ट्रांसफर इलाहाबाद कर दिया गया। जिसके कंधों पर सवार होकर वह इस बीस मंजिले दफ्तर में नौकरी पाई थी, उसका पत्ता साफ करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब तो बॉस भी खुलेतौर पर ‘हाइली टेंपर’ का साथ देने लगे थे। समय बीतते गया और अब उसका ऑफिस के दाढ़ी वाले बाबा के चमचे से टांका भिड़ चुका था। लड़की को लगने लगा था कि अब यही उसका पार लगाएगा और किसी दिन वह देश की सबसे बड़ी पत्रकार होगी। ‘परेशान आत्मा’ को परेशान करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। जितना बदनाम करना था, कर डाला। उसकी भेजी खबरों में तमाम खामियां निकालतीं और बॉस से उसकी शिकायत भी करती। दूसरी ओर वह ‘परेशान आत्मा’ जो चुपचाप सब कुछ सहते जा रहा था। तभी बॉस बदल गए और अब ‘हाइली टेंपर’ के पलटी मारने की बारी थी। नए बॉस के कान पहले से ही भरे जा चुके थे। एक दिन इलाहाबाद से ‘परेशान आत्मा’ को दिल्ली आना था और उसने ‘हाइली टेंपर’ की नई कारस्तानियों के बारे में जानकारी नहीं थी। उसने उसके मोबाइल पर मैजेस भेजा, ‘केन यू मीट मी वन्स!’ बात तो पांच शब्दों की थी लेकिन उसके इलाहाबाद से दिल्ली पहुंचते-पहुंचते यह आग बन चुकी थी। कनॉट प्लेस की उस दफ्तर में वह सबसे मिला, नए बॉस से भी, लेकिन नहीं मिली तो वह थी ‘हाइली टेंपर’ थी, उसने उसे देख कर मुंह घुमा लिया। जब वह बस पकड़कर वापस आ रहा था, तभी उसके मोबाइल पर घंटी बंजी। पॉकेट से मोबाइल निकालकर देखा तो नंबर दिल्ली आफिस का था। ‘हैलो’ ‘हैली…।’ उधर नए बॉस थे। ‘ऐसा है कि आज के बाद तुम कभी उस लड़की को फोन नहीं करोगे।’जब तक वह कुछ माजरा समझ पाता तब तक बॉस ने कहा, ‘बिना मेरी अनुमति के तुम फिर कभी ऑफिस आए तो मैं तुम्हें पांच दिन के अंदर निकाल दूंगा।’तब तक ‘परेशान आत्मा’ परेशान हो चुका था और उसने सीधे कहा, ‘सर, ऐसी कोई बात अब नहीं होगी और मैं कहां जाऊं या ना जाऊं, इसके मालिक आप नहीं है। और रही नौकरी की बात और आप धमकी दे रहे हैं कि पांच दिन में निकाल दूंगा तो मैं आज से पांच दिन के भीतर नौकरी छोड़ रहा हूं।’ वह एक ही सांस में पूरी बात कह फोन काट दिया। चेहरा लाल-लाल हो गया था।फिर वही हुआ जो ‘परेशान आत्मा’ ने कहा था। पांच दिनों के भीतर वह दूसरे अखबार में सीधा स्ट्रिंगर से सीनियर सब एडिटर की नौकरी करने लगा। तनख्वाह तीन गुना से भी अधिक। कई जिम्मेदारियां भी उसके सिर पर आ गईं। शादी हो गए। बीबी-बच्चों में वह रम गया, बच्चे भी सेट्ल हो गए और वह आज राजधानी दिल्ली से करीब 1500 किलोमीटर दूर अपने खेतों में काम करता है और जमकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखता भी है। हालांकि ‘हाइली टेंपर’ के बारे में उसने फिर कभी कोई सुध नहीं ली। उसके पागल होने की जानकारी तो अखबार में खबर पढ़कर हुई लेकिन इसके बाद की कहानी उसे मालूम भी न हुई होती यदि उसके एक दोस्त का मेल उस दिन नहीं आया होता। इस ई-मेल का मजमून कुछ यों हैं,‘डियर फ्रेंड, हम कई सालों से दोस्त रहे हैं। यह और बात है कि मैं दिल्ली के चकाचौंध में फंसकर यही रह गया और बच्चे बिगड़ गए लेकिन तुमने हमेशा सही वक्त पर सही कदम उठाया है। वैसे तो मैं मेल करने वाला था लेकिन अपनी पुरानी प्रेयसी के बारे में शायद ही तुम्हें मालूम हो। हालांकि तुम्हारे इस संस्था को छोड़े करीब तीस साल बीत चुके हैं लेकिन तुम्हारी प्रेयसी की कहानी जानकर न सिर्फ तुम हैरान होगे बल्कि यही कहोगे कि भगवान दुश्मन के साथ भी ऐसा न करे। तुम तो ‘दैनिक भारत’ के उस दाढ़ी वाले बाबा को तो जानते ही थे जिन्होंने तुम्हें अजमेर से दिल्ली आने से मना किया था। वह उनके चमचों में फंस गई। उन लोगों के साथ घूमना, शॉपिंग करना उसे भाने लगा। नशे की भी शिकार हो गई। लोगों का तो यहां तक कहना था कि मीडिया की गंदगी ने उसे लील लिया। कहां वह ‘बरखा दत्त’ बनने का ख्वाह देखकर दिल्ली आई थी और अब महज ‘कॉल गर्ल’ के रूप में तब्दील हो गई थी। दाढ़ी वाले बाबा चूंकि उसके दफ्तर में बड़े पद पर थे, तुम्हारी प्रेयसी को करियर में मुकाम हासिल करने और दूसरों को नीचा दिखाने का शौक शुरू से था, तो वह उनके बातों में आ गई।इतना ही नहीं, कुछ सालों के बाद तो वह ऑफिस भी सिर्फ कहने के लिए आती थी और दारू का नशा उसकी आंखों में बोलता था, कदमों में लड़खड़ाता था। ऐसे में उसे जो भी कोई कुछ भला सलाह देता, उसे खराब लगता। तुम्हें तो मालूम ही होगा कि उसे बाजार के ठेलों पर बिकने वाली 30-40 रुपए की ब्लू फिल्म की सीडी देखने में कितना आनंद आता था। आफिस के लोग कहते थे कि ऐसा शायद ही कोई होगा जिसने उसके लिए सीडी न लाई हो। चाहे वह पालिका बाजार में मिलता हो, या सराय काले खां से निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन तरफ जाने वाली सड़क के किनारे की दुकानों में या लक्ष्मीनगर में कैसेट के दुकानों में। लोग कहते, यह जिन बड़े-बड़े नामों के पीछे भाग रही है, उसके काले चेहरों को वह नहीं जानती है।डियर, तुम तो जानते ही हो कि आज भी भारतीय महिलाएं या लड़कियां कितनी भी एडवांस हो जाएं लेकिन शीलभंग होने के बाद उस पर क्या बीतती है। फिर वही हुआ तुम्हारी प्रेयसी के साथ। तुम तो कुछ कर नहीं पाए लेकिन हमदर्दी जताने के साथ उसके जिंदगी में आगे बढ़ाने का झांसा देते-देते उसके साथ किसने क्या किया, यह शायद भगवान भी नहीं जानता। अति सर्वत्र वर्जियेत। यही हुआ उसके साथ। ‘टर्निंग-30′ देखी होगी तुमने ना। वही हालत हो गई थी, तुम्हारे दोस्त की। घर के लोग शादी के लिए कहते और मीडिया ऑफिस के लोगों से वह लगातार धोखा खा रही थी। ऐसे में वह बड़ी शिद्दत से तुम्हें याद करती लेकिन तब तक तुम काफी दूर जा चुके थे। वह आखिर क्या करती।दाढ़ी वाले बाबा के एक चमचे ‘अमित अमन’ से उसने शादी कर ली। लोग कहते कि वह उसकी तीसरे पत्नी है। पहली भू़कंप में मरी, दूसरी को तलाक दे दिया अब यह तीसरी है, भगवान जाने इसका क्या होगा। यह और बात है कि तब तब वह दलित और स्त्रीवादी लेखिका के तौर पर लेख लिखने लगी थी जिसमें दलित और स्त्री से ज्यादा उसका दर्द सामने आता, उसने जिस लड़के से शादी की वह बाभन ही था। हालांकि यह और बात है कि ऐसे में किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि दलितों और स्त्री की हमदर्द के रूप में खुद को शो करने वाली इस लड़की ने किसी दलित से शादी क्यों की, सभी ने चुप्पी साध ली थी। हालांकि माना जाता है कि ‘हाइली टेंपर’ शादी के बाद भी रामेंद्र से जुड़ी हुई थी और ऑफिस में होने वाली तमाम बातों के साथ गॉसिप्स का पता उसे नहीं था। फिर एक दिन तो उसके पति अमित अमन ने उसे रामेंद्र के साथ रंगेहाथों पकड़ भी लिया था, इसके बाद से दोनों के संबंधों में खटास आना शुरू हो गया। वैसे भी अमित महिलाओं के मामले में कैसा था, यह किसी से कुछ छुपा नहीं था। लोग कहते थे की दिल्ली के जीबी रोड के कई महिलाएं उनकी ‘दीवानी’ हैं और उसकी कमाई का काफी पैसा उनके सुख-सुविधा में खर्च होता है।मैं तुम्हें क्या बताऊं। अब तो जब वह ऑफिस आती तो उसके चेहरे पर पिटाई के निशान होते। दूसरी स्त्रियों के दर्द को लोगों के सामने रखने वाली एक स्त्रीवादी खुद पुरुष प्रताड़ना की शिकार हो रही थी। जब एक दिन सब्र की सीमाएं टूट गई तो उसने अमित अमन को छोड़ने का निश्चय किया। तुम तो अब दिल्ली में थे नहीं और तुम्हारा उससे दूर-दूर का कोई वास्ता न था। ऐसे में उसे रामेंद्र की याद आई। वह उसके पास गई भी, गिड़गिड़ाई भी, लेकिन रामेंद्र नहीं पिघला। उसने सीधे तौर पर कह दिया जिस तरह अपने करियर के लिए तुमने मुछे यूज किया, उसी तरह अपनी दैहिक भूख के लिए मैंने तुम्हारे शरीर का किया। हम-दोनों का हिसाब-किताब बराबर।अब तुम्हारे इस तथाकथित प्रेमिका के पास कोई चारा नहीं था। घर के लोगों ने उससे दूरी पहले से ही बना ली था। वह अपने भाई-बहनों-बहनोईयों के लिए मर चुकी थी। बहनोई और भाई के पास बिहार में काफी जमीनें थीं और जाति के बाभन होने के कारण जमीन बचाने के लिए कम्युनिष्ट बनने के अलावा कोई चारा नहीं था। बाहर की दुनिया में उनके परिवार के सभी लोग दलितों के मसीहा बनते फिरते थे लेकिन घर में अपनी जाति-बिरादरी में ही शादी करने से लेकर अपने खेत को बचाने की जद्दोजहद चलती रहती थी। मां-पिता को अब इस दुनिया में थे नहीं। फरीदाबाद में जो उसने अपना घर लिया था उसे कब का अमित अमन अपने नाम करा चुका था क्योंकि मकान हड़पने के लिए उसे पागल घोषित करना जरूरी था। लोगों का बेसिक इंस्टिंक्ट से कभी नाता नहीं टूटता है और यही कारण था कि ‘हाइली टेंपर’ को घर से निकालने के बाद अमित का अधिकतर समय जीबी रोड में बीतता था। मीडिया में अमित और उसके ‘बाबा’ का वर्चस्व तो था ही, पागल घोषित कर दिए जाने के कारण राष्ट्रीय महिला आयोग, दिल्ली महिला आयोग के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कोई भी उसके सहायता करने नाहिया आया।बहरहाल, तुम्हें इतना बड़ा मेल लिखकर पुरानी यादों में ला खड़ा किया। लेकिन एक बात जरा सोचना भारतीय मीडिया की अंदरूनी हालत, जहां मैं हूं। किस तरह लड़कियों को प्रताड़ित किया जाता है। जाति पूछकर प्यार किया जाता है। जाति पूछकर प्रमोशन भी। लड़के और लड़कियां प्रभाष जोशी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष, राजदीप सरदेसाई, दिलीप पडगांवकर, प्रणव राय आदि को देखकर दिल्ली तो आज जाते हैं लेकिन यहां की चकाचौंध उन्हें ऐसे दलदल में खड़ा कर देती हैं जहां न तो उनके पास अपनी जमीन रह जाती है और न ही यहां के जमीन पर खड़े रहने लायक ही बन पाते हैं।आशा है, तुम ठीक -ठाक होगे। तुम्हारा…।’ (मूलतः परिकल्पना में प्रकाशित ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Thu Sep 8 16:46:31 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Thu, 8 Sep 2011 16:46:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSX4KSy?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkq+CliOCkleCljeCkn+CljeCksOClgCA=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSm4KS44KWHIOCkleClhyDgpLbgpL/gpJXgpL7gpLAg4KSu?= =?utf-8?b?4KSc4KSm4KWC4KSw4KWL4KSCIOCkleClgCDgpJXgpLngpL7gpKjgpYAt?= =?utf-8?b?IOCktuCkvuCkguCkpOCkqOClgQ==?= Message-ID: ठीक राजधानी में इतना बड़ा हादसा होता है, लेकिन राजधानी के एक भी पत्रकार ने इस पर कोई स्टोरी नहीं डी. आई तो बस हादसे की एक छोटी सी खबर. शांतनु ने हप्तों वहां जाकर तथ्य जुटाया फिर यह लेख लिखा है. वे मजदूर परिवारों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. तुगलकाबाद फैक्ट्री हादसे के शिकार मजदूरों की कहानी यहां तो जीवन से मौत है सस्ती शांतनु पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Fri Sep 9 22:58:29 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Fri, 9 Sep 2011 22:58:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?see_new_post_of_pr?= =?utf-8?b?YXNoYW50IGJodXNoYW4g4KSY4KWC4KS4IOCkleCkruCkvuCkqOClhyA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkj+CklSDgpKzgpLngpL7gpKjgpL4g4KS54KWIIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSw4KSu4KS+4KSj4KWBIOCkuOCkguCkr+CkguCkpOCljeCksA==?= Message-ID: घूस कमाने का एक बहाना है परमाणु संयंत्र प्रशांत भूषण -- पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Fri Sep 9 23:50:12 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Fri, 9 Sep 2011 23:50:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?see_new_post_on_my?= =?utf-8?b?IGJsb2cg4KSX4KS/4KSo4KWA4KSq4KS/4KSXIOCkheCksOCljeCkpQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkquCksOClgOCkleCljeCkt+CkoyDgpJrgpYLgpLngpYcg?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KSo4KWHIOCkleClgCDgpKjgpL/gpK/gpKTgpL8g4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkruClgeCkleCljeCkpOCkvyDgpJXgpL4g4KS44KS14KS+4KSyLSA=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSt4KS+4KS3IOCkl+CkvuCkpOCkvuCkoeClhw==?= Message-ID: चिकित्सकीय परीक्षणों पर नियंत्राण के लिए कानून का वक्त़ गिनीपिग अर्थात परीक्षण चूहे बनने की नियति से मुक्ति का सवाल सुभाष गाताडे पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -- पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Tue Sep 13 17:00:37 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Tue, 13 Sep 2011 17:00:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?New_post_on_my_blo?= =?utf-8?b?Zy4g4KSV4KS54KS+4KSo4KWALS0tLS0tLi4u4KSF4KSsIOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSo4KWN4KSm4KSX4KWAIOCkrOCkpuCksuClh+Ckl+ClgC0g?= =?utf-8?b?4KSt4KWC4KSq4KWH4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCkuOCkv+CkguCkuQ==?= Message-ID: ऐसा लगता है आजकल साहित्यकारों ने मजदूरों की जिन्दगी पर साहित्य रचना बिलकुल ही बंद कर दिया है. इसकी बड़ी वजह है की वे खुद आम लोगों के जीवन और उनके संघर्षों से दूर हो गए हैं. हाँ कुछेक स्वनामधन्य कवि लोग जरूर हैं जो कभी-कभी उनकी जिन्दगी पर अंशू बहा देते हैं. बहरहाल हमें युआ लेखक भूपेंद्र सिंह की एक मौलिक (हो सकता है अनगढ़ हो?) और अभी तक अप्रकाशित कहानी मिली है, जो कई अख़बारों और पत्रिकाओं का चक्कर लगाकर यहाँ तक पहुची है. आशा है इस पर आप की प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी. ...अब तो जिन्दगी बदलेगी भूपेन्द्र सिंह *पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें * पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Tue Sep 13 21:23:48 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Tue, 13 Sep 2011 21:23:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?read_new_post_on_a?= =?utf-8?b?bm5hIC0tLS3gpJzgpYDgpKQg4KSF4KSo4KWN4KSo4KS+IOCkleClgCA=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSCLCDgpJXgpL7gpLDgpKrgpYvgpLDgpYfgpJ/gpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClgCDgpLngpYHgpIggOiDgpKHgpL4uIOCkrOCkqOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWAIOCksuCkvuCksg==?= Message-ID: जीत अन्ना की नहीं, कारपोरेटों की हुई *डा. बनवारी लाल शर्मा* पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mahmood.farooqui at gmail.com Thu Sep 15 13:18:55 2011 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Thu, 15 Sep 2011 13:18:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= He Hanuman Message-ID: मैं ये पूछना चाह रहा था की आप में से किसी साहेब ने क्या जदीद उर्दू के अज़ीम शायर ज़फर इकबाल की किताब "हे हनुमान" देखि है क्या? हनुमान जी के हवाले से उन्होंने कोई सौ सफहों की एक नज़्म लिखी है- ताज है सर पर हनूमान के अज्ज़ है अन्दर हनुमान के हनुमान है सबसे ऊपर कुछ नहीं ऊपर हनुमान के अगर किसी के पास हो तो मेहेरबानी कर के मुझे बता दें -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From RAVISH at NDTV.COM Thu Sep 15 13:47:13 2011 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Thu, 15 Sep 2011 08:17:13 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?He_Hanuman?= In-Reply-To: References: Message-ID: <3D3949CD-BA51-4207-937F-D178589699D1@NDTV.COM> excellent turant bataaaye kaha milegee ye kitab Ravish Kumar On Sep 15, 2011, at 1:19 PM, "mahmood farooqui" wrote: > मैं ये पूछना चाह रहा था की आप में से किसी साहेब ने क्या जदीद उर्दू के अज़ीम शायर ज़फर इकबाल की किताब "हे हनुमान" देखि है क्या? हनुमान जी के हवाले से उन्होंने कोई सौ सफहों की एक नज़्म लिखी है- > > ताज है सर पर हनूमान के > अज्ज़ है अन्दर हनुमान के > > हनुमान है सबसे ऊपर > कुछ नहीं ऊपर हनुमान के > > अगर किसी के पास हो तो मेहेरबानी कर के मुझे बता दें > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan Have you got an NDTV app? Free downloads for iPhone, Android, iPad & BlackBerry at http://ndtv.com/apps From vineetdu at gmail.com Sat Sep 17 11:22:34 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 17 Sep 2011 11:22:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KWJ4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYE=?= =?utf-8?b?4KSPIOCkmuCkvuCksCDgpLjgpL7gpLIs4KSv4KS+4KSmIOCkhuCkpA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgiDgpKrgpYHgpLDgpL7gpKjgpYcg4KSm4KS/4KSo?= =?utf-8?b?KDEp?= Message-ID: आज से चार साल पहले इसी तरह बारिश के बाद की ठहरी हुई सी सुबह थी। घर में कोई हलचल नहीं। रसोई से न प्रेशर कूकर की आती आवाज और न बाथरुम से फुलस्पीड में बहते पानी की आवाज। न तो रेडियो सिटी पर प्रताप की आवाज और न ही दूसरे कमरे में अपने चैनल पर क्या चल रहा है,देखने की तड़प। सब शांत। मीडिया के 15-16 घंटे लगातार घिसते रहने की नौकरी छोड़ने के बाद की पहली सुबह। रात में ही तय था कि अगली सुबह नहीं जाना है लेकिन नींद उसी तरह साढ़े चार बजे खुल गयी थी। मेरे दोस्त को अपनी नाईट शिफ्ट से लौटने में अभी तीन घंटे बाकी थे और मुझे समझ नहीं आ रहा था क्या करुं? अखबारों के वेब संस्करण सरसरी तौर पर पढ़ गया था लेकिन आगे क्या...? पा नहीं क्यों अचानक से याद आया। एनडीटीवी वाले अविनाश ने कथादेश सम्मान में जैसे और लोगों को कहा था,वैसे मुझे भी कहा- कभी मोहल्ला देखिएगा। सीएसडीएस-सराय में जब मैं निजी चैनलों की भाषा पर अपना पर्चा पढ़ रहा था,उस वक्त भी राकेश कुमार सिंह(जो कि तब सराय में ही थी) ने भी कहा था-मौका मिले तो कभी ब्लॉग पर भी टहल आइए,वहां नए किस्म की भाषा बन रही है,आपको कुछ आइडिया मिलेगा। तब वो खुद हफ्तावार नाम से ब्लॉग चला रहे थे। ये सारी बातें दिमाग में चल ही रही थी और तब मैंने गूगल सर्च पर ब्लॉग टाइप किया जिसमें एक लिंक आया-क्रिएट योर ब्लॉग और फिर जैसे-जैसे निर्देश दिए थे,मैं करता गया औऱ दस मिनट के भीतर मेरा भी अपना ब्लॉग हो गया- गाहे बगाहेः हां जी सर कल्चर के खिलाफ। बाद में जब मैंने अपना डोमेन लिया तो इसे हुंकार कर दिया। दोपहर तक पांच-छः कमेंट आ गए थे और ब्लॉग बिरादरी में पहले से जमें हुए लोगों ने स्वागत किया था और लगातार लिखते रहने के लिए शुभकामनाएं दी थी। फिर तो ब्लॉग का ऐसा चस्का लगा कि ठुकदम-ठुकदम जारी ही है। मैं शुरु से ही तकनीक और गुणा-गणित के मामले में फिसड्डी छात्र रहा हूं। आर्टस की पढ़ाई करने से काम चल गया लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखते ही इस बात का एहसास हो गया कि हम जिस रचनात्मक तरीके से सोचते हैं,जिन रंगों,तस्वीरों और कलेवर में अपनी बात रखना चाहते हैं,उसके लिए तकनीकी समझ जरुरी है। हमारी इस कल्पना को तकनीक की भाषा में कैसे व्यक्त किया जाए,ये एक बहुत मुश्किल तो नहीं किन्तु नया काम था। न्यूज चैनल में काम करते हुए इतनी समझ तो आ गयी थी कि लिखने की शर्तें और किसी माध्यम की तकनीक संस्कृति के साथ लिखने की शर्तें दो अलग-अलग चीज है। कुछ दिन अपने मन से उटपटांग तरीके से ब्लॉगिंग करते हुए पता चलने लग गया था कौन किस बात का मास्टर है,ये सब किससे सीखा जा सकता है? हमने तब उनलोगों ो मेल करके अपनी समस्याएं साझा करना शुरु किया। चेन्नई में बैठे पीडी को तंग किया,कानपुर में अनूप शुक्ल तो सीखाने के लिए जनता दरबार ही खोल रखा था,मेल और चैट पर बात समझ नहीं आयी तो कहा अपना मोबाईल नंबर भेजो और फिर फोन पर समझाते,शैलेश भारतवासी की तो मैंने न जाने कितनी बार नींद खराब की होगी-सो रहे थे क्या,सॉरी देखिए न पिक्चर की साइज बढ़ ही नहीं रही,एक जगह जाकर फिक्स हो गई है। गिरीन्द्र आइएनएस न्यूज एजेंसी की कोल्हू के बैल जैसी थका देनेवाली नौकरी से लौटकर सुस्ता रहा होता कि हम मैसेज करते- ए हो गिरि,देखो न हमसे ऑडियो अपलोड हो ही नहीं रहा,ललित आप कविताकोश जैसा मेरा ब्लॉग भी थोड़ा सुंदर कर दीजिए न। जयपुर में बैठा कुश मेरे ब्लॉग की टेम्प्लेट मुहैया कराता। रवि रतलामी तो वर्चुअल स्पेस पर तकनीक की लंगर ही चलाते,जिसको जो फांट,सॉफ्टवेयर,एचटीएमएल कोड चाहिए,मेल करो और ले जाओ। वो लिखने के साथ-साथ अपने ब्लॉग को सजाने-संवारने का भी जमाना था। किसी ने अपने ब्लॉग पर रीडर्स मीटर लगा दी है,किसी ने स्लाइड शो लगा दिया है किसी के ब्लॉग के नीचे पीटीआइ या रेलवे स्टेशन की तरह स्क्रॉल चलते रहते और हमारा मन ललच जाता और हम पूछते-कैसे किया ऐसे और वो फिर हमें बताते और एचटीएमएल कोड भेज देते। बाद में हम समझने लग गए कि ये सब एचटीएमएल का मामला है तो सीधा मेल करते -आपके यहां जो मोंटाज है,उसका एचटीएमएल कोड भेजें। ये सब बताने-समझाने में हमें आज दिन तक कभी किसी ने मना नहीं किया बल्कि लोग इतने उत्साहित होते कि चैट के बाद खुद ही नंबर लेकर फोन पर आ जाते और न केवल मेरी तात्कालिक समस्याओं का निबटारा करते बल्कि इसके पहले क्या तरीका था,अब कैसे बदल गया और इसके एडवांस तरीके क्या हो सकते हैं,सब बताते। कई बार मैं उब जाता या बड़ा ही उलझाउ लगता तो कहता- सर/भईया/गुरुजी/दोस्त मुझे इतना समझ नहीं आता,फिलहाल आप ऐसा करें,मैं आपको अपने ब्लॉग-पासवर्ड दे देता हूं,आप उसे दुरुस्त कर दें,बाद में मैं इसे बदल लूंगा। लोग ऐसा भी कर देते,पर कुछ मना कर देते और समझाते इस तरह से पासवर्ड मत दिया करो किसी को। मैं बस इतना ही कह पाता-अरे नहीं सर,बातचीत से ही समझ आ जाता है कि ऐसा कुछ नहीं करेंगे। कंटेंट के स्तर पर लोगों के बीच चाहे जितनी भी मारकाट मची रहती हो लेकिन तकनीक बताने-समझाने और साझा करने में एक खास किस्म की आत्मीयता थी और लोग बड़े उदार तरीके से बताते। ब्लॉगिंग करते हुए जो तकनीक हम सीख रहे थे,वो सिर्फ ब्लॉगिंग भर के काम का नहीं थी। फॉन्ट से लेकर इंटरनेट और कम्प्यूटर की ऐसी सारी चीजें थी जो कि अभी बेहतर तरीके से काम आ रही है। एक तरह से कहें तो हम निट या एरिना जैसे प्रोफेशनल कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में गए बिना वो सबकुछ सीख रहे थे जिसकी हमें जरुरत थी। हम इस तकनीक को बहुत ही घरेलू स्तर पर सीख रहे थे। जब हम चैट या फोन पर बात कर रहे होते तो ये भी बताते-पता है सर,आज रात में मेरे हॉस्टल की मेस बंद है तो मैं बाहर रहूंगा,आपसे देर रात ही फिर बात हो पाएगी। अरे दोस्त,मुझे ऑफिस के लिए निकलना है,वापस आकर कॉल करुं? मैं पूछ लेता-ब्रेकफास्ट किया कि नहीं। देखो इतनी सारी बातें हो गयी लेकिन याद ही नहीं रहा कि बेटी को स्कूल से लाने जाना है। तकनीक औऱ समस्याओं पर बात करते हुए भी देशभर में फैले ब्लॉगरों की गृहस्थी और हलचलों से होकर गुजरते। बाद की बातचीत तो इतनी अनौपचारिक हो गयी कि पटना में बैठा ब्लॉगर बताता कि आज हमने मुनगे की सब्जी खायी,मजा आ गया,धनबाद की लवली बहुत दिनों से गायब क्यों है,शायद बीमार होगी? तकनीकी मदद करने के अलावे फिर कंटेंट के स्तर पर भी बातचीत होने लगी। लोग कमेंट तो करते या मांगते ही लेकिन जी नहीं भरने की स्थिति में फोन तक करते और कहते-चैट पर कमेंट के लिए कहा था,तीन घंटे हो गए,तुमने कुछ किया ही नहीं या फिर-फोन बस ये कहने के लिए किया था कि सही पोस्ट लिखी है तुमने,दीयाबरनी वाली बात पढ़कर तो हम सेंटी हो गए। हम वर्चुअल स्पेस की एक अनंत दुनिया के बीच ही उसी तरह के घरेलू संबंधों से भावनात्मक स्तर पर बंधने लगे थे जैसे कि परिवार के सदस्यों से बंधे होते हैं। मार्शल मैक्लूहान ने जिस ग्लोबल विलेज की बात कही थी,औद्योगिक स्तर पर नहीं किन्तु तकनीकी और भावनात्मक स्तर पर ज्यादा बेहतर समझ आने लगा था। तीन-चार दिनों तक किसी ने पोस्ट नहीं लिखी तो चिंता होने लगती,क्या हो गया मनीषा पांडे को,कहीं बीमार तो नहीं हो गई? अरे युनुस खान ने तो रेडियोनामा को गांव का ट्रांसफार्मर ही बना दिया है,तीन दिन हो गए,कोई अपडेट ही नहीं है। तब ब्लॉगरों को लेकर कई किस्म के मिथक भी अपने आप बन गए थे,मसलन-ब्लॉगर वह है जो चौबीसों घंटे ऑनलाइन रहता है,जिसे कभी नींद नहीं आती है,जो कभी खाता भी है तो अपनी डेस्क या स्टडी टेबल पर ही। ब्लॉगर कभी बीमार नहीं पड़ता है,वो अजर-अमर है और जब तक ब्लॉगिंग करता रहेगा,यमराज को भी हिम्मत नहीं है कि उसे उठा ले जाए। ये एक किस्म से चौबीस घंटे की नौकरी में जीने जैसी संस्कृति थी जिसे कि किसी ने किसी पर थोपा नहीं था बल्कि लोगों ने अपनी खुद की इच्छा,दिलचस्पी और चस्के की गिरफ्त में आकर पैदा की थी। आगे भी जारी..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Sep 17 11:31:10 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 17 Sep 2011 11:31:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KWH4KS44KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSVIOCkquCksCDgpLLgpL/gpJbgpKjgpYcg4KSq4KSwIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWLIOCksuClh+CkluCklSDgpKjgpL/gpLLgpILgpKzgpL/gpKQgOiA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?= Message-ID: सोशल मीडिया और बिहार की सत्‍ता : फेसबुक पर लिखने पर दो लेखक निलंबित *प्रमोद रंजन * * * * * *''पहले वे आए यहूदियों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यहू‍दी* *नहीं था/ फिर वे आए कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला,* *क्योंकि मैं कम्यूनिस्‍ट नही था/ फिर वे आए मजदूरों के लिए और मैं कुछ* *नहीं बोला क्योंकि मैं मजदूर नही था/ फिर वे आए मेरे लिए, और कोई नहीं* *बचा था, जो मेरे लिए बोलता..।'' *-* पास्टएर निमोलर, हिटलर काल का एक जर्मन पादरी* बिहार में पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ हो रहा है, वह भयावह है। विरोध में जाने वाली हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचलती जा रही है। आपसी राग-द्वेष में डूबे और जाति -बिरादरी में बंटे बिहार के बुद्धिजीवियों के सामने तानाशाही के इस नंगे नाच को देखते हुए चुप रहने के अलावा शायद कोई चारा भी नहीं बचा है। आज (16 सितंबर, 2011) को बिहार विधान परिषद ने अपने दो कर्मचारियों को फेसबुक पर सरकार के खिलाफ लिखने के कारण निलंबित कर दिया। ये दो कर्मचारी हैं कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरूण नारायण। *मुसाफिर बैठा* को दिया गया निलंबन पत्र इस प्रकार है - *'' श्री मुसाफिर* *बैठा, सहायक, बिहार विधान परिषद सचिवालय को परिषद के अधिकारियों के* *विरूद्ध असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करने तथा - 'दीपक तले अंधेरा, यह* *लोकोक्ति जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर* *लागू होती है। बिहार विधान परिषद, जिसकी मैं नौकरी करता हूं, वहां* *विधानों की धज्जियां उडायी जाती हैं'- इस तरह की टिप्पणी करने के कारण* *तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।''* *अरूण नारायण* को दिये गये निलंबल पत्र के पहले पैराग्राफ में उनके द्वारा कथित रूप से परिषद के पूर्व सभापति अरूण कुमार के नाम आए चेक की हेराफेरी करने का आरोप लगाया गया है, जबकि इसी पत्र के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि परिषद में सहायक पद पर कार्यरत अरूण कुमार (अरूण नारायण) को *''प्रेमकुमार मणि की सदस्यरता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं* *सभापति के विरूद्ध असंवैधानिक टिप्पाणी देने के कारण तत्कासल प्रभाव से* *निलंबित किया जाता है'*'। इन दोनों पत्रों को बिहार विधान परिषद के सभापति व भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठि नेता ताराकांत झा ''के आदेश से'' जारी किया गया है। हिंदी फेसबुक की दुनिया में भी कवि मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पिणियों के लिए जाने जाते हैं। अरूण नारायण ने अभी लगभग एक महीने पहले ही फेसबुक पर एकांउट बनाया था। उपरोक्तण जिन टिप्पीणियों का जिक्र इन दोनों को निलंबित करते हुए किया गया है, वे फेसबुक पर ही की गयीं थीं। फेस बुक पर टिप्‍पणी करने के कारण सरकारी कर्मचारी को निलंबित करने का संभवत: यह कम से कम किसी हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है और इसके पीछे के उद्देश्य गहरे हैं। हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए मुसाफिर और अरूण के नाम अपरिचित नहीं हैं। मुसाफिर बैठा का एक कविता संग्रह 'बीमार मानस का गेह' पिछले दिनों ही प्रकाशित हुआ है। मुसाफिर ने 'हिंदी की दलित कहानी' पर पीएचडी की है। अरूण नारायण लगातार पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं, इसके अलावा बिहार की पत्रकारिता पर उनका एक महत्वरपूर्ण शोध कार्य भी है। मुसाफिर और अरूण को निलंबित करने के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद ने उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया था। विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत रहे जावेद का एक कहानी संग्रह (दोआतशा) तथा एक उपन्या्स प्रकाशित है। वे 'ये पल' नाम से एक छोटी से पत्रिका भी निकालते रहे हैं। *आखिर बिहार सरकार की इन कार्रवाइयों का उद्देश्य क्या है ?* बिहार का मुख्यधारा का मीडिया अनेक निहित कारणों से राजग सरकार के चारण की भूमिका निभा रहा है। बिहार सरकार के विरोध में प्रिंट मीडिया में कोई खबर प्रकाशित नहीं होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विरले कोई खबर चल जाती है, तो उनका मुंह विज्ञापन की थैली देकर या फिर विज्ञापन बंद करने की धमकी देकर बंद कर दिया जाता है। लेकिन समाचार के वैकल्पिक माध्य्मों ने नीतीश सरकार की नाक में दम कर रखा है। कुछ छोटी पत्रिकाएं, पुस्तिकाएं आदि के माध्यम से सरकार की सच्चाटईयां सामने आ जा रही हैं। पिछले कुछ समय से फेस बुक की भी इसमें बडी भूमिका हो गयी है। वे समाचार, जो मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में से बडी मेहनत और काफी खर्च करके सुनियोजित तरीके से गायब कर दिये जा रहे हैं, उनका जिक्र, उनका विश्लेषण फेसबुक पर मौजूद लोग कर रहे हैं। नीतीश सरकार के खिलाफ लिखने वाले अधिकांश लोग फेसबुक पर हिंदी में काम कर रहे हैं, जिनमें हिंदी के युवा लेखक प्रमुख हैं। वस्तुत: इन दो लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद राज्य सरकार द्वारा अब लेखकों पर काबू करने के लिए की गयी कार्रवाई है। बडी पूंजी के सहारे चलने वाले अखबारों और चैनलों पर लगाम लगाना तो सरकार के लिए बहुत मुश्किल नहीं था लेकिन अपनी मर्जी के मालिक, बिंदास लेखकों पर नकेल कसना संभव नहीं हो रहा था। वह भी तब, जब मुसाफिर और अरूण जैसे लेखक सामाजिक परिवर्तन की लडाई में अपने योगादान के प्रति प्रतिबद्ध हों। ऐसे ही एक और लेखक प्रेमकुमार मणि भी काफी समय से राजग सरकार के लिए परेशानी का सबब बने हुए थे। मणि नीतीश कुमार के मित्र हैं और जदयू के संस्थापक सदस्यों में से हैं। उन्हें पार्टी ने साहित्य के (राज्‍यपाल के) कोटे से बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया था। लेकिन उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की तथा इस वर्ष फरवरी में नीतीश सरकार द्वारा गठित सवर्ण आयोग का विरोध किया। वे राज्य में बढ रहे जातीय उत्पीडन, महिलाओं पर बढ रही हिंसा तथा बढती असमानता के विरोध में लगातार बोल रहे थे। नीतीश कुमार ने मणि को पहले पार्टी से 6 साल के लिए निलंबित करवाया। उसके कुछ दिन बाद उनकेघर रात में कुछ अज्ञात लोगों ने घुस कर उनकी जान लेने की कोशिश की। उस समय भी बिहार के अखबारों ने इस खबर को बुरी तरह दबाया। (देखें, फारवर्ड प्रेस, जून, 2011 में प्रकाशित समाचार ' प्रेमकुमार मणि, एमएलसी पर हमला : बस एक कॉलम की खबर' ) गत 14 सितंबर को नीतीश कुमार के ईशारे पर इन्हीं ताराकांत झा ने एक अधिसूचना जारी कर प्रेमकुमार मणि की बिहार विधान परिषद की सदस्यता समाप्त कर दी है। मणि पर अपने दल की नीतियों (सवर्ण आयोग के गठन) का विरोध करने का आरोप है। राजनीतिक रूप से देखें तो नीतीश के ने‍तृत्व वाली राजग सरकार एक डरी हुई सरकार है। नीतीश कुमार की न कोई अपनी विचारधारा है, न कोई अपना बडा वोट बैंक ही है। भारत में चुनाव जातियों के आधार पर लडे जाते हैं। बिहार में नीतीश कुमार की स्वेजातीय आबादी 2 फीसदी से भी कम है। कैडर आधारित भाजपा के बूते उन्हें पिछले दो विधान सभा चुनावों में बडी लगने वाली जीत हासलि हुई है। इस जीत का एक पहलू यह भी है कि वर्ष 2010 के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के राष्ट्रीलय जनता को 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार के जदयू को 22 फीसदी। यानी दोनों के वोटो के प्रतिशत में महज 2 फीसदी का अंतर था। नीतीश कुमार पिछले छह सालों से अतिपिछडों और अगडों का एक अजीब सा पंचमेल बनाते हुए सवर्ण तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। इसके बावजूद मीडिया द्वारा गढी गयी कद्दावर राजनेता की उनकी छवि हवाई ही है। वे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनका कोई वास्तविक जनाधार नहीं है। यही जमीनी स्थिति, एक सनकी तानाशाह के रूप में उन्हें काम करने के लिए मजबूर करती है। इसके अलावा, कुछ मामलों में वे 'अपनी आदत से भी लाचार' हैं। दिनकर ने कहा है - 'क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो/ उसे क्या जो विषहीन, दंतहीन, विनित सरल हो'। कमजोर और भयभीत ही अक्‍सर आक्रमक होता है। इसी के दूसरे पक्ष के रूप में हम प्रचंड जनाधार वाले लालू प्रसाद के कार्यकाल को देख सकते हैं। लालू प्रसाद के दल में कई बार विरोध के स्वर फूटे लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपनी ओर से पार्टी से बाहर नहीं किया। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गडाने वाले रंजन यादव तक को उन्होंने सिर्फ पार्टी के पद से ही हटाया था। दरअसल, लालू प्रसाद अपने जनाधार (12 फीसदी यादव और 13 फीसदी मुसलमान) के प्रति आश्वपस्त‍ रहते थे। इसके विपरीत भयभीत नीतीश कुमार बिहार में लोकतंत्र की भावना के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं। वे अपना विरोध करने वाले का ही नहीं, विरोधी का साथ देने वाले के खिलाफ जाने में भी सरकारी मशीनरी का हरसंभव दुरूपयोग कर रहे हैं। लोकतंत्र को उन्होंने नौकरशाही में बदल दिया है, जिसमें अब राजशाही और तानाशाही के भी स्‍पष्ट‍ लक्षण दिखने लगे हैं। बिहार को देखते हुए क्या यह प्रश्न अप्रासंगिक होगा कि भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मण (वादी) नेता, वकील और परिषद के वर्तमान सभापति ताराकांत झा ने जिन तीन लोगों को परिषद से बाहर किया है वे किन सामाजिक समुदायों से आते हैं ? सैयद जावेद हसन (अशराफ मुसलमान), मुसाफिर बैठा (धोबी, अनुसूचित जाति ) और अरूण नारायण (यादव, अन्य पिछडा वर्ग )। मुसलमान, दलित और पिछडा। क्या यह संयोग मात्र है ? क्या यह भी संयोग है कि बिहार विधान परिषद में 1995 में प्रो. जाबिर हुसेन के सभापति बनने से पहले तक पिछडे वर्गों के लिए नियुक्ति में आरक्षण की व्यवस्था तथा अनुसचित जातियों के लिए प्रोन्निति में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं थी ? जाबिर हुसेन के सभापतित्व् काल में पहली बार अल्प‍संख्यक, पिछडे और दलित समुदाय के युवाओं की परिषद सचिवालय में नियुक्तियां हुईं। इससे पहले यह सचिवालय नियुक्तियों के मामले में उंची जाति के रसूख वाले लोगों के बेटे-बेटियों, रिश्तेतदारों की चारागाह रहा था। क्या आप इसे भी संयोग मान लेंगे कि जाबिर हुसेन के सभापति पद से हटने के बाद जब नीतीश कुमार के इशारे पर कांग्रेस के अरूण कुमार 2006 में कार्यकारी सभापति बनाए गये तो उन्होंने जाबिर हुसेन द्वारा नियुक्ते किये गये 78 लोगों को बर्खास्त कर दिया और इनमें से 60 से अधिक लोग वंचित तबकों से आते थे ? (देखें, फारवर्ड प्रेस, अगस्त , 2011 में प्रकाशित रिपोर्ट -'बिहार विधान परिषद सचिवालय में नौकरयिों की सवर्ण लूट') क्या हम इसे भी संयोग ही मान लें कि सैयद जावेद हसन, मुसाफिर बैठा और अरूण नारायण की भी नियुक्तियां इन्हीं जाबिर हुसेन के द्वारा की गयीं थीं ? जाहिर है, बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसके संकेत बहुत बुरे हैं। मैं बिहार के पत्रकारों, लेखक मित्रों तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का आह्वान करना चाहूंगा कि जाति और समुदाय के दायरे तोड कर एक बार विचार करें कि हम कहां जा रहे हैं ? और इस नियति से बचने का रास्ता क्या है ? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Sep 17 11:31:10 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 17 Sep 2011 11:31:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KWH4KS44KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSVIOCkquCksCDgpLLgpL/gpJbgpKjgpYcg4KSq4KSwIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWLIOCksuClh+CkluCklSDgpKjgpL/gpLLgpILgpKzgpL/gpKQgOiA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?= Message-ID: सोशल मीडिया और बिहार की सत्‍ता : फेसबुक पर लिखने पर दो लेखक निलंबित *प्रमोद रंजन * * * * * *''पहले वे आए यहूदियों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यहू‍दी* *नहीं था/ फिर वे आए कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला,* *क्योंकि मैं कम्यूनिस्‍ट नही था/ फिर वे आए मजदूरों के लिए और मैं कुछ* *नहीं बोला क्योंकि मैं मजदूर नही था/ फिर वे आए मेरे लिए, और कोई नहीं* *बचा था, जो मेरे लिए बोलता..।'' *-* पास्टएर निमोलर, हिटलर काल का एक जर्मन पादरी* बिहार में पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ हो रहा है, वह भयावह है। विरोध में जाने वाली हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचलती जा रही है। आपसी राग-द्वेष में डूबे और जाति -बिरादरी में बंटे बिहार के बुद्धिजीवियों के सामने तानाशाही के इस नंगे नाच को देखते हुए चुप रहने के अलावा शायद कोई चारा भी नहीं बचा है। आज (16 सितंबर, 2011) को बिहार विधान परिषद ने अपने दो कर्मचारियों को फेसबुक पर सरकार के खिलाफ लिखने के कारण निलंबित कर दिया। ये दो कर्मचारी हैं कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरूण नारायण। *मुसाफिर बैठा* को दिया गया निलंबन पत्र इस प्रकार है - *'' श्री मुसाफिर* *बैठा, सहायक, बिहार विधान परिषद सचिवालय को परिषद के अधिकारियों के* *विरूद्ध असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करने तथा - 'दीपक तले अंधेरा, यह* *लोकोक्ति जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर* *लागू होती है। बिहार विधान परिषद, जिसकी मैं नौकरी करता हूं, वहां* *विधानों की धज्जियां उडायी जाती हैं'- इस तरह की टिप्पणी करने के कारण* *तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।''* *अरूण नारायण* को दिये गये निलंबल पत्र के पहले पैराग्राफ में उनके द्वारा कथित रूप से परिषद के पूर्व सभापति अरूण कुमार के नाम आए चेक की हेराफेरी करने का आरोप लगाया गया है, जबकि इसी पत्र के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि परिषद में सहायक पद पर कार्यरत अरूण कुमार (अरूण नारायण) को *''प्रेमकुमार मणि की सदस्यरता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं* *सभापति के विरूद्ध असंवैधानिक टिप्पाणी देने के कारण तत्कासल प्रभाव से* *निलंबित किया जाता है'*'। इन दोनों पत्रों को बिहार विधान परिषद के सभापति व भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठि नेता ताराकांत झा ''के आदेश से'' जारी किया गया है। हिंदी फेसबुक की दुनिया में भी कवि मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पिणियों के लिए जाने जाते हैं। अरूण नारायण ने अभी लगभग एक महीने पहले ही फेसबुक पर एकांउट बनाया था। उपरोक्तण जिन टिप्पीणियों का जिक्र इन दोनों को निलंबित करते हुए किया गया है, वे फेसबुक पर ही की गयीं थीं। फेस बुक पर टिप्‍पणी करने के कारण सरकारी कर्मचारी को निलंबित करने का संभवत: यह कम से कम किसी हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है और इसके पीछे के उद्देश्य गहरे हैं। हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए मुसाफिर और अरूण के नाम अपरिचित नहीं हैं। मुसाफिर बैठा का एक कविता संग्रह 'बीमार मानस का गेह' पिछले दिनों ही प्रकाशित हुआ है। मुसाफिर ने 'हिंदी की दलित कहानी' पर पीएचडी की है। अरूण नारायण लगातार पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं, इसके अलावा बिहार की पत्रकारिता पर उनका एक महत्वरपूर्ण शोध कार्य भी है। मुसाफिर और अरूण को निलंबित करने के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद ने उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया था। विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत रहे जावेद का एक कहानी संग्रह (दोआतशा) तथा एक उपन्या्स प्रकाशित है। वे 'ये पल' नाम से एक छोटी से पत्रिका भी निकालते रहे हैं। *आखिर बिहार सरकार की इन कार्रवाइयों का उद्देश्य क्या है ?* बिहार का मुख्यधारा का मीडिया अनेक निहित कारणों से राजग सरकार के चारण की भूमिका निभा रहा है। बिहार सरकार के विरोध में प्रिंट मीडिया में कोई खबर प्रकाशित नहीं होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विरले कोई खबर चल जाती है, तो उनका मुंह विज्ञापन की थैली देकर या फिर विज्ञापन बंद करने की धमकी देकर बंद कर दिया जाता है। लेकिन समाचार के वैकल्पिक माध्य्मों ने नीतीश सरकार की नाक में दम कर रखा है। कुछ छोटी पत्रिकाएं, पुस्तिकाएं आदि के माध्यम से सरकार की सच्चाटईयां सामने आ जा रही हैं। पिछले कुछ समय से फेस बुक की भी इसमें बडी भूमिका हो गयी है। वे समाचार, जो मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में से बडी मेहनत और काफी खर्च करके सुनियोजित तरीके से गायब कर दिये जा रहे हैं, उनका जिक्र, उनका विश्लेषण फेसबुक पर मौजूद लोग कर रहे हैं। नीतीश सरकार के खिलाफ लिखने वाले अधिकांश लोग फेसबुक पर हिंदी में काम कर रहे हैं, जिनमें हिंदी के युवा लेखक प्रमुख हैं। वस्तुत: इन दो लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद राज्य सरकार द्वारा अब लेखकों पर काबू करने के लिए की गयी कार्रवाई है। बडी पूंजी के सहारे चलने वाले अखबारों और चैनलों पर लगाम लगाना तो सरकार के लिए बहुत मुश्किल नहीं था लेकिन अपनी मर्जी के मालिक, बिंदास लेखकों पर नकेल कसना संभव नहीं हो रहा था। वह भी तब, जब मुसाफिर और अरूण जैसे लेखक सामाजिक परिवर्तन की लडाई में अपने योगादान के प्रति प्रतिबद्ध हों। ऐसे ही एक और लेखक प्रेमकुमार मणि भी काफी समय से राजग सरकार के लिए परेशानी का सबब बने हुए थे। मणि नीतीश कुमार के मित्र हैं और जदयू के संस्थापक सदस्यों में से हैं। उन्हें पार्टी ने साहित्य के (राज्‍यपाल के) कोटे से बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया था। लेकिन उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की तथा इस वर्ष फरवरी में नीतीश सरकार द्वारा गठित सवर्ण आयोग का विरोध किया। वे राज्य में बढ रहे जातीय उत्पीडन, महिलाओं पर बढ रही हिंसा तथा बढती असमानता के विरोध में लगातार बोल रहे थे। नीतीश कुमार ने मणि को पहले पार्टी से 6 साल के लिए निलंबित करवाया। उसके कुछ दिन बाद उनकेघर रात में कुछ अज्ञात लोगों ने घुस कर उनकी जान लेने की कोशिश की। उस समय भी बिहार के अखबारों ने इस खबर को बुरी तरह दबाया। (देखें, फारवर्ड प्रेस, जून, 2011 में प्रकाशित समाचार ' प्रेमकुमार मणि, एमएलसी पर हमला : बस एक कॉलम की खबर' ) गत 14 सितंबर को नीतीश कुमार के ईशारे पर इन्हीं ताराकांत झा ने एक अधिसूचना जारी कर प्रेमकुमार मणि की बिहार विधान परिषद की सदस्यता समाप्त कर दी है। मणि पर अपने दल की नीतियों (सवर्ण आयोग के गठन) का विरोध करने का आरोप है। राजनीतिक रूप से देखें तो नीतीश के ने‍तृत्व वाली राजग सरकार एक डरी हुई सरकार है। नीतीश कुमार की न कोई अपनी विचारधारा है, न कोई अपना बडा वोट बैंक ही है। भारत में चुनाव जातियों के आधार पर लडे जाते हैं। बिहार में नीतीश कुमार की स्वेजातीय आबादी 2 फीसदी से भी कम है। कैडर आधारित भाजपा के बूते उन्हें पिछले दो विधान सभा चुनावों में बडी लगने वाली जीत हासलि हुई है। इस जीत का एक पहलू यह भी है कि वर्ष 2010 के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के राष्ट्रीलय जनता को 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार के जदयू को 22 फीसदी। यानी दोनों के वोटो के प्रतिशत में महज 2 फीसदी का अंतर था। नीतीश कुमार पिछले छह सालों से अतिपिछडों और अगडों का एक अजीब सा पंचमेल बनाते हुए सवर्ण तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। इसके बावजूद मीडिया द्वारा गढी गयी कद्दावर राजनेता की उनकी छवि हवाई ही है। वे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनका कोई वास्तविक जनाधार नहीं है। यही जमीनी स्थिति, एक सनकी तानाशाह के रूप में उन्हें काम करने के लिए मजबूर करती है। इसके अलावा, कुछ मामलों में वे 'अपनी आदत से भी लाचार' हैं। दिनकर ने कहा है - 'क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो/ उसे क्या जो विषहीन, दंतहीन, विनित सरल हो'। कमजोर और भयभीत ही अक्‍सर आक्रमक होता है। इसी के दूसरे पक्ष के रूप में हम प्रचंड जनाधार वाले लालू प्रसाद के कार्यकाल को देख सकते हैं। लालू प्रसाद के दल में कई बार विरोध के स्वर फूटे लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपनी ओर से पार्टी से बाहर नहीं किया। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गडाने वाले रंजन यादव तक को उन्होंने सिर्फ पार्टी के पद से ही हटाया था। दरअसल, लालू प्रसाद अपने जनाधार (12 फीसदी यादव और 13 फीसदी मुसलमान) के प्रति आश्वपस्त‍ रहते थे। इसके विपरीत भयभीत नीतीश कुमार बिहार में लोकतंत्र की भावना के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं। वे अपना विरोध करने वाले का ही नहीं, विरोधी का साथ देने वाले के खिलाफ जाने में भी सरकारी मशीनरी का हरसंभव दुरूपयोग कर रहे हैं। लोकतंत्र को उन्होंने नौकरशाही में बदल दिया है, जिसमें अब राजशाही और तानाशाही के भी स्‍पष्ट‍ लक्षण दिखने लगे हैं। बिहार को देखते हुए क्या यह प्रश्न अप्रासंगिक होगा कि भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मण (वादी) नेता, वकील और परिषद के वर्तमान सभापति ताराकांत झा ने जिन तीन लोगों को परिषद से बाहर किया है वे किन सामाजिक समुदायों से आते हैं ? सैयद जावेद हसन (अशराफ मुसलमान), मुसाफिर बैठा (धोबी, अनुसूचित जाति ) और अरूण नारायण (यादव, अन्य पिछडा वर्ग )। मुसलमान, दलित और पिछडा। क्या यह संयोग मात्र है ? क्या यह भी संयोग है कि बिहार विधान परिषद में 1995 में प्रो. जाबिर हुसेन के सभापति बनने से पहले तक पिछडे वर्गों के लिए नियुक्ति में आरक्षण की व्यवस्था तथा अनुसचित जातियों के लिए प्रोन्निति में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं थी ? जाबिर हुसेन के सभापतित्व् काल में पहली बार अल्प‍संख्यक, पिछडे और दलित समुदाय के युवाओं की परिषद सचिवालय में नियुक्तियां हुईं। इससे पहले यह सचिवालय नियुक्तियों के मामले में उंची जाति के रसूख वाले लोगों के बेटे-बेटियों, रिश्तेतदारों की चारागाह रहा था। क्या आप इसे भी संयोग मान लेंगे कि जाबिर हुसेन के सभापति पद से हटने के बाद जब नीतीश कुमार के इशारे पर कांग्रेस के अरूण कुमार 2006 में कार्यकारी सभापति बनाए गये तो उन्होंने जाबिर हुसेन द्वारा नियुक्ते किये गये 78 लोगों को बर्खास्त कर दिया और इनमें से 60 से अधिक लोग वंचित तबकों से आते थे ? (देखें, फारवर्ड प्रेस, अगस्त , 2011 में प्रकाशित रिपोर्ट -'बिहार विधान परिषद सचिवालय में नौकरयिों की सवर्ण लूट') क्या हम इसे भी संयोग ही मान लें कि सैयद जावेद हसन, मुसाफिर बैठा और अरूण नारायण की भी नियुक्तियां इन्हीं जाबिर हुसेन के द्वारा की गयीं थीं ? जाहिर है, बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसके संकेत बहुत बुरे हैं। मैं बिहार के पत्रकारों, लेखक मित्रों तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का आह्वान करना चाहूंगा कि जाति और समुदाय के दायरे तोड कर एक बार विचार करें कि हम कहां जा रहे हैं ? और इस नियति से बचने का रास्ता क्या है ? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Sep 17 18:26:27 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 17 Sep 2011 18:26:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpKrgpLngpLLgpYAg4KSF4KS54KSuIOCksuCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS84KS+4KSIIOCkieCkuOCkleClhyDgpIXgpKrgpKjgpYcg4KS54KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkvuCkguCkuOCljeCkpeCkvuCkqOCkv+CklSDgpKLgpL7gpII=?= =?utf-8?b?4KSa4KWL4KSCICjgpJzgpYsg4KSq4KWN4KSw4KSk4KS/4KSX4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+IOCklOCksCDgpIXgpKTgpYDgpKTgpJzgpYDgpLXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSc4KSh4KS84KSk4KS+IOCkleClhyDgpIXgpLjgpLLgpYAg4KSF4KSh?= =?utf-8?b?4KWN4KSh4KWHIOCkr+CkviDigJjgpK7gpKDigJkg4KS54KWI4KSCKSA=?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkueCliDog4KSJ4KSm4KSvIOCkquCljeCksOCkleCkvg==?= =?utf-8?b?4KS2?= Message-ID: *मित्रो, * *20 वीं सदी के उत्तरार्ध और 21 वीं सदी के जिस शुरुआती दौर के हम गवाह हैं यह **एक भयानक समय है. यह एक ऐसा डरावना समय है जिसमें सत्ताएँ अपनी **गिरोहबंदी, **जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, **साम्प्रदायिकता, **भ्रष्ट आचरण** वगैरह की वजह से व्यापक लूटतंत्र का हिस्सा बनकर आम जनता का विश्वास खो चुकी हैं. ऐसे कठिन समय में **एक लेखक नाफा-नुकसान की फिक्र किए बगैर अपनी कहानियों और कविताओं में इस जटिल समय की माइक्रो रियलिटी को बेबाक तरीक़े से अभियक्त करने के ख़तरे उठाता रहा है और इसकी सज़ा भी भुगतता रहा है. हेर-फेर में लगी इन सत्ताओं को बार-बार आईना दिखाने का दुस्साहस करनेवाले इस कथाकार, कवि, पत्रकार, फिल्मकार का नाम है उदय प्रकाश. आज 17 सितम्बर के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में उदय प्रकाश ने हिंदी के सत्ता समाज में सक्रिय ऐसे ही मठाधीशों को आईना दिखाने वाला एक लेख लिखा है. आपकी खिदमत में पेश है, दैनिक भास्कर से साभार. पसंद आए तो श्री विमल झा को शुक्रिया बोल सकते हैं न पसंद आए तो...आपकी मर्ज़ी ! शुक्रिया. - शशिकांत * *सारे पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर* इस सच को अब मान ही लेना चाहिए कि ‘हिंदी’ एक बहुत अधिक समस्याग्रस्त शब्द है। यह उतना निरापद और एकार्थी, सीधा-सादा और निर्दोष, सर्वानुमोदित और निर्विवाद शब्द नहीं है, जैसा इसके समर्थक और हिंदी से जुड़े राजकीय अथवा निजी संस्थान या व्यावसायिक उद्यम, जिसमें कई तरह के हित-समूहों के वर्चस्व के अधीन अखबार और मीडिया चैनल भी शामिल हैं, अपने-अपने विद्वानों के साथ दावा करते रहते हैं। *हिंदी कोई ऐसी भाषा नहीं है,* जो अपने विकास के किसी चरम को हासिल कर चुकी है और अब हमेशा के लिए जड़ीभूत हो कर स्थिर हो चुकी है। यह न संस्कृत की फॉसिल (जीवाश्म) है, न अन्य जीवित देशी-विदेशी-इलाकाई भाषाओं के साथ लगातार और रोजाना सहवास से अपवित्र और कुलटा हो चुकी उसका ऐसा ‘अपभ्रंश’, जिसे दैवी तत्सम के मंत्रोच्चार से पवित्र बनाने का राजसूय यज्ञ इसके राज-पुरोहित करने में खुसरो-भारतेंदु-प्रेमचंद युग से लेकर आजतक लगे हुए हैं। *यानी तबसे, जब से यह भाषा* किसी कदर आधुनिक होकर जीवित ‘जनभाषा’ हो पाने के अपने अनिवार्य संघर्ष में पहली बार कभी सक्रिय हुई थी। इसके व्यावहारिक शब्दकोष में अब हर रोज इतने परदेशी और विजातीय शब्द सम्मिलित हो रहे हैं कि इसे थामा नहीं जा सकता। इसे न हिब्रू बना कर संरक्षित किया जा सकता है, न जेड या अवेस्ता। असली हिंदी जीवित जन-भाषा के रूप में बचे रहने के लिए प्राणपन से जूझ रही है। *हिंदी की पहली अहम लड़ाई* उसके अपने ही सांस्थानिक ढांचों, जो प्रतिगामिता और अतीतजीवी जड़ता के असली अड्डे या ‘मठ’ हैं, के साथ है। ठीक इसी तरह, इतनी ही गंभीर और निर्णायक लड़ाई इस भाषा की अपनी ही बद्धमूल अवधारणाओं और लगभग अंतिम तौर पर परिभाषित कर डाली गईं उन व्याख्याओं-विधानों-संहिताओं-प्रत्ययों के साथ है, जो और कुछ नहीं, इस भाषा के ही भीतर प्रच्छन्न रूप में सक्रिय हिंदीभाषी पट्टी की सामाजिक-जातीय-क्षेत्रीय संरचनाएं हैं। इन संरचनाओं की शिनाख्त और इनको समझे बिना किसी ‘भाषा’ के रूप में हिंदी के बारे में कोई वास्तविक विमर्श मुमकिन नहीं है। *बीसवीं सदी में प्रख्यात भाषा-चिंतक* वोलासिनोव, जिन्हें हम बाख्तिन के नाम से भी जानते हैं, ने किसी भी भाषा के हर शब्द को एक ऐसा संकेतक माना था, जो उस भाषा को बोलने वाले अलग-अलग वर्गों-समूहों को अलग-अलग, और अक्सर अंतर्विरोधी संकेत देता था। यानी किसी भी ‘शब्द’ का कोई भी एक ‘अर्थ’ सर्वानुमोदित, वर्गातीत और समाज-निरपेक्ष नहीं होता। जब कोई भी समाज अपने परिवर्तन के सबसे उथल-पुथल से भरे अतिसंवेदनशील और परिवर्तनकारी दौर में दाखिल होता है तो किसी भी भाषा का हर शब्द उन्हीं परस्पर विरोधी टकराहटों का केंद्र या नाभिक बन जाता है, जिन टकराहटों और अंतर्विरोधों से वह समाज गुजर रहा होता है। *इतिहास गवाही देता है* कि अठारहवीं सदी में फ्रांस में निरंकुश राज्यतंत्र को सत्ता से अपदस्थ करने वाला लोकतंत्र तब जन्मा था, जब ‘भूख’ जैसे मामूली और बुनियादी मानवीय शब्द का अर्थ राजा-रानियों के लिए ‘केक’ और गरीब जनता के लिए ‘रोटी’ हो गया था। एक ही भाषा के बिल्कुल साधारण और निरापद से लगने वाले शब्द ‘भूख’ के भीतर मौज़ूद दो अलग-अलग विरोधी संकेतों के ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक महासमर के रक्तपात के बीच ही उस सन् 1789 वाले महान लोकतंत्र का जन्म हुआ था, जिसमें हम आज भी रह रहे हैं। *आज भी हम जिन संकेतों* अथवा शब्दों को अच्छी-खासी लापरवाही और बिना दुविधा के इस्तेमाल करते हैं, मसलन- ‘विकास’, ‘अधिकार’, ‘संपन्नता’, ‘शिक्षा’, ‘चिकित्सा’, ‘घर’ आदि, वे भी एकार्थी और सर्वानुमोदित या लोकानुमोदित नहीं हैं। इन सारे शब्दों के भीतर अर्थों-अभिप्रेतों के विकट अंतर्विरोध हैं। ‘केक’ और ‘रोटी’ की तरह ही, आर्थिक असमानता की हर रोज दुर्लंघ्य होती जाती खाई और अलग-अलग जातीय-वर्गीय समुदायों के बीच लगातार बढ़ी टकराहटों की वजह से, आज हिंदी भी गृहयुद्ध की स्थिति में हैं। *सच तो यह है कि* आज की व्यवहार में आने वाली हिंदी का कोई एक रूप नहीं है। इसमें इलाकाई ही नहीं, जातीय भिन्नताएं भी बहुत हैं, जो मीडिया और उच्च-वर्गीय साहित्यिक-सांस्कृतिक अथवा राजकीय हिंदी में भले ही न दिखता हो, लेकिन सृजनात्मक लेखन और बोल-चाल के धरातल पर आते ही, उसकी विविधता सामने आ जाती है। इस विविधता को सपाट नहीं किया जा सकता। यह न सिर्फ अलोकतांत्रिक होगा, बल्कि बहुतेरे कारणों से हर रोज बदलती हिंदी के विकास के विरुद्ध यह एक प्रतिगामी कदम होगा। *सबसे बड़ी और क्षेत्र-जाति-धर्म बहुल भाषा *होने के कारण ‘हिंदी’ अब निस्संदेह ‘पानीपत का मैदान’ या ‘महाभारत का कुरुक्षेत्र’ बन चुकी है। याद रखें, भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं, एक मानवीय संसाधन भी है, जिस पर किसी भी अस्मिता या जाति के एकाधिकार को लंबे समय तक बनाए रखने की कोई भी दुरभिसंधि, वह चाहे जिन उदार, आधुनिक या प्रगतिशील मुखौटों के साथ प्रस्तुत हो, पहले की तरह अब अगोचर नहीं रह सकती। इसका छद्म उघड़ चुका है और यह अब भाषा के भीतर किसी भी प्रतिगामी और दकियानूस, लेकिन फिर भी वर्चस्वशील भ्रष्ट और क्रूर सत्ता-संरचना के रूप में पहचानी जा चुकी है। *संयोग से वर्णाश्रम व्यवस्था की* मध्यकालीन सामंती संस्कारों और जातीय बनावट में आज भी जी रहे हिंदी-समाज की भाषा हिंदी ही है, जो एक तरफ अब इस दायरे से बाहर निकल कर अन्य समाजों की ओर और दूसरी तरफ देश के अन्य सार्वजनिक संसाधनों (जिनमें से एक भाषा भी है) और अवसरों पर लोकतांत्रिक अधिकारों और बहुसंख्यक जातीय समुदायों की आनुपातिक साझेदारी के लिए बढ़ते दबावों को झेल रही है। *साहित्य, संस्कृति, शिक्षा* और जन-संचार माध्यमों के इलाकों में किसी एक या एकाधिक खास जातियों की अब तक चली आ रही इजारेदारी के सामने यह पहली बड़ी ऐतिहासिक चुनौती का समय है। अपने हितों और लंबे निरंकुश भ्रष्ट शासन की हिफाजत में विचारधाराओं और छद्म राष्ट्रवाद से लेकर धर्म और संस्कृति जैसे तमाम महावृत्तांतों के वागाडंबर से खड़ी की जा रही इसकी भ्रष्ट किलेबंदी के विरुद्ध अब किसी एक वास्तविक भाषाई जन-लोकपाल की प्रतीक्षा है, जो इस भाषा पर भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व को तोड़ सके। *अभी दो-तीन साल पहले *हिंदी के व्यावहारिक-रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली साझी-शब्दावली या ‘शेयर्ड वोकेबुलरी’ में अंग्रेजी और अन्य विजातीय (विदेशी नहीं) शब्दों की बेतहाशा बढ़ती जाती संख्या के भय में ‘हिंदी के क्रियोलीकरण’ का मुद्दा बहुत जोर-शोर से उठाया गया था। यह निरर्थक था। सबसे अधिक भय अंग्रेजी के प्रति पैदा किया जा रहा था। अगर ध्यान से देखें तो स्वयं अंग्रेजी भी आज अन्य भाषाओं के शब्दों से अटी पड़ी है। *अब यह ब्रिटिश राज की *शाही और पवित्र अंग्रेजी नहीं है, जिसके पुरोधा नीरद सी. चौधरी जैसे लोग माने जाते थे, अब अंग्रेजी आप्रवासियों ही नहीं, उन सभी देशों-समाजों की भाषाओं के शब्दों की भीड़ से घिर चुकी है, जहां-जहां वह विश्व-भाषा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा होने के कारण पहुंच रही है। पॉपुलर कल्चर, कालसेंटर और आउटसोर्सिंग ने खुद अंग्रेजी को बदल डाला है। यही अंग्रेजी के लगातार विकसित होने की वजह और शक्ति भी है। सवर्ण पारंपरिक तत्सम प्रधान हिंदी अगर देखें तो खुद संस्कृत का क्रियोल है और इसकी वर्जनाएं इसकी अधोगति और जड़ता का कारण बनेंगी। *ऐसा ही एक मुद्दा* ‘लिपि’ को लेकर भी है। क्या आज की विस्तृत होती, अन्य भाषाई-सांस्कृतिक इलाकों और देशों तक पहुंचती जाती हिंदी को सिर्फ किसी एक लिपि में कैद रखा जा सकता है ? यूनिकोड और मोबाइल-नेट की नई संस्कृति की नई दखल ने हिंदी की लिपि-बद्धता की सीमाओं को लांघना और तोडऩा शुरू कर दिया है। *यह सच है कि* अभी तक किसी भी भाषा की लिपियां और उसकी वर्णमालाएं महज किसी भाषा को लिखित में संरक्षित करने का माध्यम या उपकरण भर नहीं, बल्कि जातीय-सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी थीं। लेकिन आज हम जिस सार्वभौमिक यथार्थ के सामने हैं, उसने अपने लिए एक अनोखी और ऐतिहासिक दृष्टि से अभूतपूर्व ‘लिपि-संसार’ का निर्माण भी करना शुरू कर दिया है। हम अब सिर्फ आर्थिक-राजनीतिक ग्लोबल-गांव में ही नहीं रह रहे हैं, बल्कि धीरे-धीरे ‘ग्लोबल-लिपिग्राम’ के वाशिंदे भी होते जा रहे हैं। दूसरे कई देशों की लिपियां अपनी मूल भाषाई परिवार और अब तक जड़ीभूत हो चुकी सांस्कृतिक-चिन्हों को छोड़ कर, दूसरी, विजातीय लिपियों को अपनाने लगी हैं। *अगर आपको याद हो तो* जब तुर्की के आधुनिक और लोकप्रिय नेता कमाल अतातुर्क ने तुर्क-भाषा को उसकी पुरानी मध्यपूर्वी अरबी-फारसी लिपि से मुक्त करके, आधुनिक पश्चिमी यूरोप की रोमन लिपि से जोड़ा था और इसके लिए सख्त राजकीय आदेश निकाले थे, तब उनका धार्मिक कट्टरपंथियों ने बहुत विरोध किया था। लेकिन अगर तुर्क-भाषा पश्चिमी लिपि से जुड़ कर आधुनिक न हुई होती तो उसमें क्या नाजिम हिकमत जैसे कवि और ओरहान पामुक जैसे नोबेल पुरस्कार प्राप्त कथाकार हो पाते। यह प्रक्रिया आज और भी तेज है। *अल्जीरिया और मोरक्को जैसे देश *भी अपनी भाषाओं के लिए अरबी को छोड़कर रोमन अपना रहे हैं। सबसे रोचक और ताजा उदाहरण तो चेचन्या का है, जहां जब तक रूस का दबदबा रहा, उसकी भाषा की लिपि ‘क्रिलिक’ थी, जिसमें रूसी भाषा लिखी जाती थी, आजाद होने के बाद वहां भी रोमन अपनाई जा चुकी है। *हिंदी के साथ भी यह होगा।* ऐसा होना भी चाहिए तभी यह मात्र एक-दो जातियों की औपनिवेशिक दासता की जंजीरों से मुक्त होकर आधुनिक संसार में सांस ले सकेगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kashyapabhishek03 at gmail.com Sun Sep 18 00:20:02 2011 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (Abhishek Kashyap) Date: Sat, 17 Sep 2011 14:50:02 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Did you get my invite? Message-ID: <0.0.53.8BB.1CC756A9B92B1F4.1302@reminders.8thwonder.ws> Kashyapabhishek03 wants to be your friend Kashyapabhishek03 Do you want to add Kashyapabhishek03 to your friends network ? Accept http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=a&0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Rn65CuoJeY3w== Reject http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=r&0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Rn65CuoJeY3w== Privacy Policy http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=p&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Rn65CuoJeY3w== Unsubscribe http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=u&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Rn65CuoJeY3w==&u=0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom55goI9inZ5hm5Npmp5nmptdn6GV28SZ2ZlhnJNcmp5cn5VcnqBi Terms and Conditions http://invite.8thwonder.ws/24hr.php?a=t&q=0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpRhmp1pm5Rn65CuoJeY3w== -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Sep 19 11:50:55 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 19 Sep 2011 11:50:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleCliyDgpJbgpLDgpYDgpKbgpKjgpYcg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSmIOCkheCkrCDgpLjgpY3igI3gpLXgpKTgpILgpKTgpY0=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkhuCkteCkvuCknOCli+CkgiDgpKrgpLAg4KS54KSu4KSy4KWH?= =?utf-8?q?!?= Message-ID: मुख्‍यधारा मीडिया और बिहार की सत्‍ता : अब फेसबुक पर भी नहीं लिख सकते *♦ विनीत कुमार* *कृपया इस पोस्ट को न केवल बिहार सरकार और मीडिया के एक दूसरे की मुखापेक्षी या हमशक्ल होने की बात समझने के तौर पर पढ़ा जाए बल्कि इसे मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन के प्रतिरोध में उठनेवाली आवाज का हिस्सा मानकर पढ़ा जाए : लेखक* *मुसाफिर बैठा* *अरुण नारायण* फेसबुक पर नीतीश सरकार के कामकाज के रवैये पर असहमति जाहिर करने के क्रम में मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण का निलंबन दरअसल मुख्यधारा मीडिया के घिनौने चेहरे के बेनकाब हो जाने की घटना है। सरकार की बर्बरता का प्रतिरोध करने की स्थिति में लेखक/पत्रकारों के साथ बिहार में क्या किया जा सकता है या किया जाता रहा है, ये सब कुछ अलग से बताने की जरूरत नहीं है। पहली प्रतिक्रिया में ही हम नीतीश सरकार की जमकर आलोचना और इस कार्रवाई की भर्त्सना करें, ये भी जरूरी है। लेकिन ऐसा करते हुए ये भी जरूरी है कि वहां काम कर रहे मुख्यधारा के मीडिया, जिसमें अखबार और समाचार चैनल दोनों शामिल हैं, उन्हें भी बराबर का दोषी माना जाए। उन्हें इस बात के लिए चाहे जितना भी लताड़ा जाए वो कम है कि उन्होंने सरकारी विज्ञापनों के आगे बिछ जाने की बेशर्मी में मीडिया के प्रतिपक्ष होने के स्वर को खत्म कर दिया। नीतीश के दौर के बिहार का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, उसमें मीडिया का चेहरा इतना विद्रूप और घिनौना होगा, इसका अंदाजा हम अभी से ही लगा पा रहे हैं। मुख्यधारा मीडिया ने ऐसा करके तत्काल कुछ सालों के लिए अपनी जेबें तो जरूर भर ली लेकिन पत्रकारिता की जमीन और जमीर को बहुत लंबे समय तक खत्म कर दिया। नीतीश सरकार के विकास के नगाड़े पीटकर मीडिया ने अपने भीतर जिस अविश्वास और बिकाऊ मानसिकता का विस्तार किया है, उसे पाटने में बहुत लंबा वक्त लगेगा। आज अगर मुख्यधारा मीडिया की जमीर थोड़ी भी बची होती और नीतीश सरकार के भीतर का खौफ होता कि सबके सब मीडिया हमारे हाथों बिक कर कठपुतली नहीं हो जाएंगे तो यकीन मानिए मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण पर हाथ डालने के पहले बिहार विधान परिषद के सभापति और बीजेपी के नेता ताराकांत झा दो-चार बार जरूर विचार करते और वो भी तब जबकि नीतीश कुमार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पक्ष में ढोल-नगाड़े पीटकर सत्ता तक पहुंचे हैं। *बिहार में मुख्यधारा मीडिया का चरित्र* सिर्फ विज्ञापनों के लालच से ही बदला है, ऐसा कहना दरअसल पूरे मामले को सरलीकृत करके देखना होगा। प्रमोद रंजन ने करीब दो साल पहले बिहार मीडिया को लेकर मीडिया में हिस्सेदारी के तहत शोध किया था, उसे इस विज्ञापन के कारण बदले चरित्र के साथ जोड़कर देखना बहुत जरूरी है। प्रमोद रंजन का शोध बड़ी ही गंभीरता से ये प्रस्तावित करता है कि अखबारों के भीतर पत्रकारों और मीडिया के भीतर काम करनेवाले लोगों के भीतर की जातिगत संरचना कैसी है? किस जाति के लोग मुख्यधारा मीडिया पर काबिज हैं और किसके पक्ष में माहौल बनाने का काम करते हैं? अगर मुख्यधारा मीडिया में इसके साफ-साफ संकेत मिलते हैं (कई मौके पर स्वयं मुसाफिर बैठा और प्रमोद रंजन ने इसकी शिनाख्त की है) तो मामला विज्ञापन के प्रभाव से कहीं अधिक संश्लिष्ट है। संभव है कि कल नीतीश की सरकार पलट जाती है और आनेवाली सरकार नीतीश के कार्यकाल का मूल्यांकन करती है तो मीडिया उनके साथ हो ले और गड़बड़ियों को सामने लाये। यानी एक तरह से जिसकी सत्ता, उसका मीडिया जैसा फार्मूला बने लेकिन जातिगत प्रभाव में आकर जो मीडिया लगातार काम कर रहा है, उसका क्या? दूसरी बात कि इस प्रभाव में सीधे तौर पर धन या लाभ का मामला भी नहीं है। ये वो मामला है, जिसकी जड़ें आनेवाले पता नहीं कितने सालों तक दुराग्रह बनाने के काम आती रहेंगी? मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन का मामला कहीं इसी मीडिया संरचना के भीतर से होकर तो नहीं गुजरता? अगर ऐसा है, जिसकी कि पूरी पूरी गुंजाइश हो सकती है, तो फिर यकीन मानिए, बिहार में मीडिया की जकड़बंदी विज्ञापन के प्रभाव से मुक्त हो जाने की स्थिति में भी खत्म नहीं हो सकती। *इधर तत्काल की वस्तुस्थिति पर* गौर करें तो नीतीश सरकार में इस स्तर का बेहयापन है और बिहार से छपनेवाले अखबारों में आला दर्जे की बेशर्मी कि अगर मामले ने कहीं ज्यादा तूल पकड़ लिया तो सरकार इन अखबारों में दोनों के खिलाफ इश्तिहार छपवाएगी और ये करार देगी कि दोनों शख्स बिहार के विकास में न केवल बाधक हैं बल्कि सरकार का विरोध के बहाने बिहार की गौरवपूर्ण संस्कृति को कलंकित करने की इन्‍होंने कोशिश की है। लोगों को जज्बाती होने में शायद बहुत वक्त भी न लगे क्योंकि इस चुनाव में हमने अपनी आंखों से देखा है कि टेलीविजन पर न दिखाने की कोशिश में भी गड्ढे दिख जा रहे थे जबकि स्क्रीन पर बिहार के विकास का गान करते हुए स्लग आ रहे थे। मेनस्ट्रीम मीडिया की बेशर्मी इस स्तर तक की रही है कि बिहार चुनाव से पहले एनडीटीवी इंडिया जैसे चैनल ने नीतीश कुमार को बेहतरीन मुख्यमंत्री होने का खिताब दिया। मीडिया नेताओं को बेहतरीन और सर्वश्रेष्ठ होने का जो सम्मान देता है, इस पर कभी किसी ने सवाल नहीं किया। जिस एनडीटीवी ने नीतीश कुमार को बेहतरीन करार दिया क्या तकनीकी रूप से उसे आगे निरंकुश, लोकतंत्र विरोधी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ निर्णय देनेवाला करार दे सकता है? यही हाल हिंदुस्तान और दैनिक जागरण जैसे अखबारों का है, जो कि उनके कार्यकाल में बिहार की विकास गाथा की कहानी पूरे-पूरे पन्ने में छापते आये हैं। अपनी साख बचाने के लिए अगर एकाध बार कुछ विरोध में छाप भी दिया तो वो रोज की चारण खबरों और विज्ञापनों के आगे कौन सा प्रभाव पैदा करेगा? *सवाल है कि जिस मीडिया में* शीर्ष से ही ये फरमान जारी कर दिया जाता है कि सरकार के खिलाफ कोई बात नहीं करनी है, ऐसे में व्यक्तिगत स्तर पर उन मीडिया संस्थानों के जागरूक पत्रकारों के लिए भी विकल्प कहां बचते हैं – या तो वो खबरें छापें / दिखाएं और अपने संस्थान और सरकार का कोपभाजन बनें या फिर इस खेल में मालिक का खुलकर साथ दें और धीरे-धीरे वे भी मेहरबानी की कमाई के रास्ते पर चल निकलें। और वैसे भी मुख्यधारा के मीडिया ने बेईमानी और दलाली का जो माहौल पैदा किया है, उसमें पत्रकारों की व्यक्तिगत स्तर की ईमानदारी का कोई न तो महत्व है और न ही वो संस्थान में रहकर जिंदा रहने की हालत तक रह पाती है, हां कुछ अपवाद बचे रह जाएं तो अलग बात है। मीडिया मालिकों ने पत्रकारों से उनकी कितनी बड़ी ताकत छीन ली है, इसका अंदाजा हम अरुण नारायण और मुसाफिर बैठा के निलंबन के संबंध में समझ सकते हैं। *दिल्ली में जिन अखबारों को* मैं पढ़ता हूं, बिहार और दूसरे राज्यों में जाते ही उसकी जुबान बदल जाती है। कई बार तो दिल्ली संस्करण जिस बात का समर्थन करता है, राज्य के संस्करण उससे न केवल अलग राय रखते हैं बल्कि बुनियादी अधिकारों के लगभग विरोध में चले जाते हैं। बाबाओं के प्रवचन की खबरें, दुकान/शोरूम के उद्घाटन से लेकर हल्के-फुल्के मनोरंजन के नाम पर शैक्षणिक संस्थानों में होनेवाले कार्यक्रमों से अखबार के पन्ने दर पन्ने भरे रहते हैं, जिसका कि जनसरोकार से कोई मतलब भले ही न हो लेकिन इन खबरों की प्रकृति को देखकर ही आप अंदाजा लगा लेंगे कि इनके बीच से या ता विज्ञापन पाने की संभावना दी जा रही है या फिर ये संस्थान या बाबा की समिति पहले से ही विज्ञापन देती आ रही है। बाकी जो भी अपराध और जुर्म की घटनाएं छपती हैं, वो प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए नहीं बल्कि प्रकाश झा जैसे फिल्म निर्माताओं को गंगाजल और अपहरण जैसी फिल्में बनाने और आकर्षित करने के लिए। ऐसे में मीडिया पूरी तरह से बिकाऊ कोतवाली बनकर रह गया है, जिसमें कि उसी की सुनी जाती है जो उसके आगे थैली फेंक सकता है। मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण के पक्ष में दिलीप मंडल ने फेसबुक में जो नोट लगाया है उसमें इस बात का विस्तार से जिक्र है कि नीतीश कुमार ने साल 2010-11 में विज्ञापन के जरिये *छवि निर्माण में किन-किन अखबारों और चैनलों को कितने लाख के विज्ञापन दिए* और मीडिया ने लाभ कमाया। आंकड़े साफतौर पर बताते हैं कि नीतीश कुमार और उनकी सरकार ने विकास की डुगडुगी बजाने के लिए मीडिया का जितना पेट भरा, उसका आधा भी अगर सचमुच विकास के काम में लगाती तो दो काम होता – एक तो साधनों और सुविधाओं की पहुंच सचमुच उस जनता तक पहुंच पाती, जिन्हें इसकी जरूरत है और दूसरा कि बेशर्म मेनस्ट्रीम मीडिया की खाल पहले से और मोटी होने से बच जाती। इन आंकड़ों के साथ अगर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि बिहार चुनाव के दौरान कितने छुटभइये चैनलों ने बिहार में अलग संस्करण लाने की कोशिश की, राजस्व के लिए अपने मीडियाकर्मियों पर दबाव बनाया और वो ये सब किससे हासिल करना चाह रहे थे? आज अगर बिहार में नीतीश कुमार और ताराकांत झा जैसे उनके अनुचर अभिव्यक्ति की आजादी के हत्यारे हैं, तो इसकी हत्या करने के औजार मेनस्ट्रीम मीडिया ने थमाये हैं। सवाल है कि नीतीश कुमार की इस बर्बरता की सजा तो देर-सबेर वहां की जनता वोट के जरिये जरूर दे देगी लेकिन मीडिया को सजा देने का काम कौन करेगा? उस मीडिया का जिसका चरित्र किसी भी बॉलीवुड फिल्म के खलनायक चरित्र से अलग नहीं है। *मुझे अभी तक इस बात की* पक्के तौर पर जानकारी नहीं है कि बिहार के मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस घटना को कितनी प्रमुखता से प्रकाशित या प्रसारित किया है लेकिन अगर किया भी है, तो उसका पक्ष क्या है, ये जानना बेहद जरूरी है। नेशनल मीडिया के लिए फेसबुक और इंटरनेट के जरिये शादी, अफेयर और सिलेब्रेटी की गॉशिप दिन की बड़ी खबर होती है लेकिन इसी न्यू मीडिया के भीतर जब अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट देने की खबर आती है तो वो कितना दोमुंहे चरित्र का हो जाता है, ये अब हमारे सामने हैं। ये कितनी खतरनाक स्थिति है कि जो मीडिया ऐसे माध्यमों की उदारता का दोहन अपने धंधे के लिए जमकर करता है, उसी के भीतर से संभावना की पत्रकारिता पनपती है तो या तो उसकी नोटिस नहीं लेता या फिर कुचलने में सत्ता के साथ हो लेता है। फेसबुक पर जिस तरह से लोग इस घटना को लेकर सक्रियता जाहिर कर रहे हैं और सरकार के फैसले के प्रतिरोध में माहौल बनाने का काम कर रहे हैं, लगे हाथ ये काम भी जरूरी है कि बिहार बल्कि देशभर के लोगों के बीच व्यापक तौर पर ये समझ पैदा करें कि खबर के नाम पर आप जो देख/पढ़ रहे हैं, वो नीलामी के बाद का निकला हुआ माल है, जिसके लगातार उपयोग से आप बहुत बड़े कुकर्म का साथ दे रहे हैं। आप उसकी खाल मजबूत कर रहे हैं जो कि अब तक के शोषण के तमाम औजारों से भी ज्यादा घातक हमले कर रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण का लिखा-पढ़ा बिहार सरकार की नीतियों के खिलाफ एक जरूरी हस्तक्षेप के दायरे में आता और जिसे कि इन दोनों को लिखने की जरूरत नहीं पड़ती और ये काम मेनस्ट्रीम मीडिया बहुत पहले कर चुका होता। मूलतः प्रकाशित-मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon Sep 19 13:08:25 2011 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 19 Sep 2011 13:08:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpKrgpLngpLLgpYAg4KSF4KS54KSuIOCksuCkoeCkvA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSIIOCkieCkuOCkleClhyDgpIXgpKrgpKjgpYcg4KS54KWAIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KS44KWN4KSl4KS+4KSo4KS/4KSVIOCkouCkvuCkguCkmuCliw==?= =?utf-8?b?4KSCICjgpJzgpYsg4KSq4KWN4KSw4KSk4KS/4KSX4KS+4KSu4KS/4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCklOCksCDgpIXgpKTgpYDgpKTgpJzgpYDgpLXgpYAg4KSc4KSh4KS84KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpIXgpLjgpLLgpYAg4KSF4KSh4KWN4KSh4KWHIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOKAmOCkruCkoOKAmSDgpLngpYjgpIIpIOCkuOClhyDgpLngpYg6IA==?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4E76F171.5000009@sarai.net> शशिकान्त जी, आप सबका शुक्रिया। उदय जी ने अच्छा लिखा है। जैसा कि रवीश ने भी कल राज्य सभा टीवी पर कहा कि हम रोज़ाना रोमन में ज़्यादा लिख रहे हैं, नागरी में कम। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि हमारे ज़माने में बाक़ी तकनीकी सुविधाओं की तरह लिप्यंतर की भी सुविधा बटन दबाते ही उपलब्ध है, इसलिए ये मसला भी नहीं रहा। ये दीगर बात है कि हमें हिन्दी-उर्दू की विस्मयकारी विरासत का अंकीकरण (डिजिटाइजेशन) करना होगा।और बोलियाँ जो छापे की दुनिया के आने पर अपनी जगह क़ायम नहीं रख पाईं, वे भी अब सीधे मौखिक रूप में श्रव्य-दृश्य माध्यमों से अपना वजूद क़ायम रख सकती हैं। ये मसला बहुत हद तक छापे की दुनिया का मसला था। लेकिन लिपियों से लोगों के अहसासात जुड़े रहते हैं, ये भी ग़ौरतलब है। हिन्दी अब बहुत खुल चुकी है: मैं नया ज्ञानोदय का एक पुराना अंक पढ़ रहा था, तो पाया कि तमाम लंबी और अच्छी कहानियों में कोई न कोई उद्धरण सिनेमा से ज़रूर है। कम-से-कम दो कहानियाँ ऐसी थीं जिनके शीर्षक सीधे या अपरोक्ष तौर पर सिनेमाई शीर्षकों से आ रहे हैं। उदय जी की कहन शैली की छाप भी साफ़ है, पर आगे बढ़कर अपने ढंग से कहने की ललक भी कम नहीं। मुझे लगता है कि हिन्दी में आजकल बेहतरीन कहानियाँ व कविताएँ लिखी जा रही हैं। रविकान्त On 09/17/2011 06:26 PM, shashi kant wrote: > /मित्रो, / > /20 वीं सदी के उत्तरार्ध और 21 वीं सदी के जिस शुरुआती दौर के हम गवाह हैं यह //एक > भयानक समय है. यह एक ऐसा डरावना समय है जिसमें सत्ताएँ अपनी //गिरोहबंदी, > //जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, //साम्प्रदायिकता, //भ्रष्ट आचरण// वगैरह की वजह से > व्यापक लूटतंत्र का हिस्सा बनकर आम जनता का विश्वास खो चुकी हैं. ऐसे कठिन समय में > //एक लेखक नाफा-नुकसान की फिक्र किए बगैर अपनी कहानियों और कविताओं में इस > जटिल समय की माइक्रो रियलिटी को बेबाक तरीक़े से अभियक्त करने के ख़तरे उठाता रहा है > और इसकी सज़ा भी भुगतता रहा है. हेर-फेर में लगी इन सत्ताओं को बार-बार आईना दिखाने > का दुस्साहस करनेवाले इस कथाकार, कवि, पत्रकार, फिल्मकार का नाम है उदय प्रकाश. > आज 17 सितम्बर के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में उदय प्रकाश ने हिंदी के > सत्ता समाज में सक्रिय ऐसे ही मठाधीशों को आईना दिखाने वाला एक लेख लिखा है. आपकी > खिदमत में पेश है, दैनिक भास्कर से साभार. पसंद आए तो श्री विमल झा को शुक्रिया बोल > सकते हैं न पसंद आए तो...आपकी मर्ज़ी ! शुक्रिया. - शशिकांत / > > *सारे पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर* इस सच को अब मान ही लेना चाहिए कि > ‘हिंदी’ एक बहुत अधिक समस्याग्रस्त शब्द है। यह उतना निरापद और एकार्थी, > सीधा-सादा और निर्दोष, सर्वानुमोदित और निर्विवाद शब्द नहीं है, जैसा इसके समर्थक > और हिंदी से जुड़े राजकीय अथवा निजी संस्थान या व्यावसायिक उद्यम, जिसमें कई तरह के > हित-समूहों के वर्चस्व के अधीन अखबार और मीडिया चैनल भी शामिल हैं, अपने-अपने > विद्वानों के साथ दावा करते रहते हैं। > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Sep 20 12:50:01 2011 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 20 Sep 2011 12:50:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [DFA NewsLetter] MANI KAUL RETROSPECTIVE: 22nd Sept Screening Message-ID: <4E783EA1.6020306@sarai.net> ????????? /???? ?? ?????/ ???? ???? ??, ???? ??? ?????? ??? ?????? ????????? ???? ?? ?? ????? ??? ?? ????? ???????????, '?????? ?????? ???????'? ???????? -------- Original Message -------- Subject: [DFA NewsLetter] MANI KAUL RETROSPECTIVE: 22nd Sept Screening Date: Tue, 20 Sep 2011 12:35:33 +0530 From: Delhi Film Archive [DFA] To: delhifilmarchive at googlegroups.com Dear Friends, The India Habitat Centre (New Delhi) is screening on 22nd Sept (Thu) ... 7:00pm NAUKAR KI KAMEEZ (1999/104 min/Hindi) Cast : Samir Ahmed, Vikrishnah Batt and Anu Joseph Please do come. uma -- Please DO NOT REPLY to the sender. To contact the MODERATOR: delhifilmarchive [at] gmail.com To UNSUBSCRIBE: send an email to delhifilmarchive-unsubscribe at googlegroups.com More OPTIONS are on the web: http://groups.google.com/group/delhifilmarchive Our WEBSITE: www.delhifilmarchive.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Tue Sep 20 17:05:53 2011 From: miyaamihir at gmail.com (Mihir Pandya) Date: Tue, 20 Sep 2011 17:05:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BDFA_News?= =?utf-8?q?Letter=5D_MANI_KAUL_RETROSPECTIVE=3A_22nd_Sept_Screening?= In-Reply-To: <4E783EA1.6020306@sarai.net> References: <4E783EA1.6020306@sarai.net> Message-ID: बेहरतीन मौका. बीते दिनों में ’आषाढ़ का एक दिन’, ’ध्रुपद’, ’सिद्धेश्वरी’, ’नज़र’, ’उसकी रोटी’, ’सतह से उठता आदमी’ और ’दुविधा’ जैसी फ़िल्में अपने ओरिजिनल प्रिंट पर देखने को उपलब्ध हुईं. बीते छ: साल से तो मैं देख रहा हूँ और मेरी जानकारी में यह दिल्लीवालो के लिए अपनी तरह का पहला मौका ही था. उम्मीद कि ’नौकर की कमीज़’ का भी ओरिजिनल प्रिंट मिल गया हो. इंतज़ार में. ...मिहिर. On Tue, Sep 20, 2011 at 12:50 PM, Ravikant wrote: > ** > जिन्होंने *नौकर की कमीज़* नहीं देखी हे, उनके लिए दिल्ली में मौक़ा। > जिन्होंने देखी है वे बताते हैं कि अच्छी है।शुक्रिया, 'दिल्ली फ़िल्म > आर्काइव'। > > रविकान्त > > > > -------- Original Message -------- Subject: [DFA NewsLetter] MANI KAUL > RETROSPECTIVE: 22nd Sept Screening Date: Tue, 20 Sep 2011 12:35:33 +0530 From: > Delhi Film Archive [DFA] To: > delhifilmarchive at googlegroups.com > > Dear Friends, > > The India Habitat Centre (New Delhi) is screening on 22nd Sept (Thu) ... > > > 7:00pm > NAUKAR KI KAMEEZ > (1999/104 min/Hindi) > Cast : Samir Ahmed, Vikrishnah Batt and Anu Joseph > > > Please do come. > > uma > -- > Please DO NOT REPLY to the sender. > To contact the MODERATOR: delhifilmarchive [at] gmail.com > > To UNSUBSCRIBE: send an email to > delhifilmarchive-unsubscribe at googlegroups.com > > More OPTIONS are on the web: > http://groups.google.com/group/delhifilmarchive > > Our WEBSITE: www.delhifilmarchive.org > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Tue Sep 20 17:09:17 2011 From: miyaamihir at gmail.com (Mihir Pandya) Date: Tue, 20 Sep 2011 17:09:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KS+4KSc?= =?utf-8?b?4KSV4KSk4KS+IOCkruClh+CkgiDgpJzgpKjgpKTgpKjgpY3gpKTgpY0=?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: “वे उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पास एक जोड़ा जींस खरीदने के पैसे भी नहीं होते थे और मज़ाक में वे घर आए मेहमानों से घर में घुसने का दाम लिया करते थे. रिज़वी बताती हैं कि दरअसल वो इस फ़िल्म के द्वारा कहीं पहुँचना नहीं चाहते थे, ये कोई ’कैरियर चॉइस’ नहीं थी – ये बस एक फ़िल्म थी जिसे हम बनाना चाहते थे. औए कुछ न होता तो हमने इसे वीडियो पर बनाया होता.” – *अनुषा रिज़वी* और *महमूद फ़ारुक़ी*. *24 जुलाई 2010* के ’तहलका’ में. “अब मुझे एक कहानी की जरूरत थी, जिस पर मैं काम कर सकूं और जिसे शूट करने के लिए शायद कुछ पैसा जुटा सकूं. मैंने अपनी स्क्रिप्टों पर नजर दौड़ाने का काम शुरू किया. इनमें से ‘से चीज’ मुझे सबसे ठीक लगी. यह उस खांचे में फिट बैठती थी, जो मैंने सोचा था. यानी एक कैरेक्टर बेस्ड फिल्म, जिसका दायरा इतना हो कि उसे किसी की मदद के बगैर भी बनाया जा सके.“ – *अक्षत वर्मा*. *30 जुलाई 2011*के ’तहलका’ में. लेकिन इन्हें आमिर ख़ान मिले. ’पीपली लाइव’ और ’डेल्ही बेली’ दोनों ही फ़िल्में एक-दूसरे से विषय और स्वभाव में नितांत भिन्न होते हुए भी इस मायने में समान हैं कि अपनी-अपनी तरह से यह हिन्दी सिनेमा के प्रचलित व्याकरण में कुछ नया जोड़ती हैं. संयोग से दोनों ही फ़िल्मों को आमिर ख़ान का साथ मिला और बहुत का मानना है कि इसी वजह से यह फ़िल्में लोकप्रियता के ऊँचे मुकाम तक पहुँच पाई हैं. बात में सच्चाई भी है. वैसे पिछले साल तक़रीबन इसी वक़्त हमने महमूद और अनुषा को ’पीपली लाइव’ बनाने के दौरान हुए अनुभवों को बांटते जनतंत्र / मोहल्ला की सेमीनार में सुना था और इस साल के उन्हीं दिनों अक्षत को ’डेल्ही बेली’ लिखने से लेकर बनाने तक के किस्से सुनाते मोहल्ला द्वारा आयोजित परिचर्चा में सुना. संयोग से मैं दोनों ही कार्यक्रमों का संचालक था और जिस दौरान हम ’इन्हें तो आमिर मिले’ कह-कहकर उनकी किस्मतों पर रश्क़ कर रहे थे, मैंने उन्हें यह कहते सुना कि अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बनाकर रहते. बात मज़ेदार है. हम इसे बड़बोलापन कहकर टाल सकते हैं क्योंकि एक बार जब आपने आमिर के सहारे अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म बना ली, फिर इस तरह के बयान देना आसान हो जाता है. लेकिन फिर, ऊपर लिखी बातों की सच्चाई मुझे कचोटती है. वो क्या बात है जिसने इन फ़िल्मकारों को यह विश्वास दिया है कि वे कह पाएं, “अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बना लेते.”? यहीं से मेरा सोचने का रुख़ पलटता है और मैं हिन्दी सिनेमा की उस अराजक लेकिन रोमांचकारी दुनिया में प्रवेश करता हूँ जहाँ आपकी फ़िल्म के पीछे पैसा लगाने को और खड़े होने को आमिर खान भले न हों, फिर भी कैसे न कैसे आप अपने हिस्से की फ़िल्म बना लेते हैं. स्वागत है नई तकनीक के साथ बदलते नए सिनेमा की दुनिया में. मुख्यधारा सिनेमा की बड़बोली दुनिया से अलग, यह दुनिया अराजक ज़रूर दिखती है, थोड़ी मुश्किल भी. लेकिन अपना रास्ता तलाशकर फ़िल्में बनाना अब यहाँ लोग सीखने लगे हैं. श्रीनिवास सुंदरराजन की फ़िल्म ’*दि अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’* (जिस पर हम पहले दिसंबर 2010 वाले आलेख में बात कर चुके हैं) को ही लें. मैं कार्तिक कृष्णन से दिल्ली में हुई एक मुलाकात में उन्हें किसी नए दोस्त को अपनी फ़िल्म के बारे में बताते हुए सुनता हूँ, “हमारी फ़िल्म, जिसे हमने कुल-जमा चालीस हज़ार रुपए में बनाया है.” कुछ यह हुआ है फ़िल्म बनाने की तकनीक में समय के साथ आए बदलाव से और कुछ इसका श्रेय हिन्दी सिनेमा में आई नई पीढ़ी को जाता है जिसे ज़्यादा इंतज़ार करना शायद पसंद नहीं. श्रीनिवास बताते हैं कि वे तो दरअसल ’ज़ीरो बजट’ फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन ना ना करते भी चालीस हज़ार रुपए लग ही गए! हाँ, फ़िल्म बनाने के दौरान खाने के नाम पर पूरे दस्ते ने वड़ा पाव और कटिंग चाय पर गुज़ारा किया. फ़िल्म के तमाम कलाकार नौकरीपेशा थे इसलिए शूटिंग सिर्फ़ सप्ताहांत में ही हो पाती थी. कई बार पैसा खत्म हो जाने के कारण भी काम रोकना पड़ता था. इसीलिए जब श्रीनिवास से पूछा गया कि फ़िल्म की शूटिंग कितने दिनों में पूरी हुई तो उन्होंने बताया – सत्ताईस. लेकिन फिर साथ में जोड़ा कि शूटिंग के ये सत्ताईस दिन एक साल से ज़्यादा की लम्बी अवधि में फ़ैले हुए हैं. बेशक तकनीक में आए बदलाव में इसकी चाबी छिपी है. हिन्दुस्तान में वृत्तचित्र निर्माण में बीते सालों में आया जन उभार इस बदलती तकनीक के समांतर चलता है. गोरखपुर से फ़िल्मोत्सवों की एक श्रंखला शुरु करने वाले हमारे दोस्त संजय जोशी जो खुद एक वृत्तचित्र फ़िल्मकार हैं, अपने एक लेख में इस तकनीकी परिवर्तन को समझाते हुए उससे बदलते वृत्तचित्र संसार का खाका खींचते हैं, “वीडियो तकनीक के आने से पहले फ़िल्म निर्माण का सारा काम सेल्यूलाइड पर होता था. सेल्यूलाइड यानि सिल्वर ब्रोमाइड की परत वाली प्लास्टिक की पट्टी को रोशनी से एक्सपोज़ करवाने पर छवि का अंकन नेगेटिव पर होता. फिर यह फ़िल्म लैब में धुलने (रासायनिक प्रक्रिया) के लिए जाती. यह समय लेने वाली और तमाम झंझटों से गुज़रने वाली प्रक्रिया थी. आज से पन्द्रह साल पहले तक 11 मिनट की शूटिंग के लिए फ़िल्म रोल और धुलाई का खर्चा ही आठ से दस हज़ार रुपए था. अब इसमें किराया भाड़ा भी शामिल करें तो खर्चा और बढ़ जाएगा. गौरतलब है कि यह अनुमान 16 मिलिमीटर के फ़ॉरमैट के लिए लगाया जा रहा है. सेल्यूलाइड के प्रचलित फ़ॉरमैट 35 मिमी में यह खर्चा दुगुने से थोड़ा ज़्यादा होगा. फिर शूटिंग यूनिट में कैमरापर्सन, कम से कम दो सहायक और साउंड रिकार्डिस्ट की ज़रूरत पड़ती और सारे सामान के लिए एक मंझोली गाड़ी और ड्राइवर. इसके उलट वीडियो में आज की तारीख में आप 100 रु. में 40 मिनट की रिकार्डिंग कर सकते हैं. दोनों माध्यमों में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ सेल्यूलाइड में आप सिर्फ़ एक बार छवियों को अंकित कर सकते हैं वहीं वीडियो के मैग्नेटिक टेप में आप अंकित हुई छवि को मिटाकर कई बार नई छवि अंकित कर सकते हैं. वीडियो की यूनिट सिर्फ़ एक व्यक्ति भी संचालित कर सकता है. 1990 के दशक के मध्य तक न सिर्फ़ वीडियो कैमरे सस्ते हुए, बल्कि कम्प्यूटर पर एडिटिंग करना भी आसान और सस्ता हो गया. वीडियो तकनीक ने बोलती छवियों की विकासयात्रा में एक क्रांतिकारी योगदान, प्रदर्शन के लिए सुविधाजनक और किफ़ायती प्रोजेक्टर को सुलभ करवाकर किया. संभवत: इन्हीं सारे तकनीकी बदलावों के कारण 1990 के बाद भारतीय डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म जगत में लम्बी छलांग दिखाई देती है.” संजय जोशी का यह उद्धरण यहाँ इसलिए भी समीचीन है क्योंकि इस बदलती तकनीक के सहारे ही उन्होंने उत्तर भारत के आधा दर्जन से ज़्यादा शहरों में *’प्रतिरोध का सिनेमा’* शीर्षक से होने वाले सालाना फ़िल्म समारोहों की एक श्रृंखला खड़ी कर दी है. 2006 मार्च में गोरखपुर से शुरु हुआ यह सफ़र अब लखनऊ, पटना, बलिया, नैनीताल, भिलाई जैसे विभिन्न शहरों में अपने पैर जमा चुका है. इसने अपने विकास के साथ विश्व सिनेमा और बेहतर डॉक्यूमेंट्री सिनेमा देखने की जो समझदारी अपने दर्शक वर्ग के बीच विकसित की है वह अद्वितीय है. तकनीक ने फ़िल्म निर्माण के साथ-साथ फ़िल्म को देखा जाना-दिखाया जाना भी सुलभ बनाया है. यह मुख्यधारा के उस एकछत्र एकाधिकार से बिल्कुल अलग है जहाँ तकनीक का इस्तेमाल सिनेमा के और ज़्यादा केन्द्रीकरण के लिए हो रहा है. एक और उदाहरण देखें हमारे जयपुर के मित्रों का. गजेन्द्र शोत्रिय और रामकुमार सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक राजस्थानी फ़िल्म बनाई है *’भोभर’*. उनके लिए फ़िल्म बनाना खुद एक ऐसा अभ्यास था जिसकी कहानी फ़िल्म से कम मज़ेदार नहीं. खुद रामकुमार के गांव में फ़िल्म की शूटिंग हुई और मुम्बई फ़िल्म उद्योग से बिना कोई सीधी मदद के (फ़िल्म के कलाकार और तकनीशियन भी ज़्यादातर स्थानीय ही थे) उन्होंने सफ़लतापूर्वक फ़िल्म का निर्माण पूरा किया. उनके आलेख के इस हिस्से को देखकर समझें कि फ़िल्म बनाने का अनुभव आपकी सोच से कितना अलग हो सकता है, “फिल्म का सैट* *गांव में मेरा अपना घर था. उससे लगा खेत था. मम्मी-पापा को इतने मेहमानों की आवभगत को मौका मिला था लिहाजा चूल्हा कभी ठंडा नहीं रहा. रातभर चाय उबलती और दिन में गांव से मटके भरकर छाछ आ जाती. पूरी टीम ने मां से सीधा रिश्ता बनाया और जिसको जिस चीज की जरूरत होती किचन में घुसा पाया जाता. घर में हमारे परिवार के बाकी सब लोग भी टीम की जरूरतों को खास ध्यान रखने लगे और जब देखा कि चौबीसों घंटे सब लोग काम में जुटे हैं, तो गांव वालों ने भी आखिर मान ही लिया कि फिल्म बनाना आसान काम नहीं है.” फ़िल्म बनाने के इस मॉडल की सफ़लता इस तथ्य में छिपी है कि गजेन्द्र और रामकुमार जल्दी ही अपनी अगली फ़िल्म पर काम शुरु करने जा रहे हैं. आज फ़िल्म बनाने की कोशिश अपने आप में उसे बनाने का सही रास्ता ढूंढने में छिपी है. तकनीकी क्रांति ने इसे थोड़ा सरल बनाया है तो उसे दिखाए जाने के गोरखधंधे को थोड़ा उलझाया भी है. लेकिन इस बियाबान में अब भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्हें इस स्वतंत्र हिन्दुस्तानी सिनेमा के क्षेत्र में एक मॉडल की तरह गिना जा सकता है. अगली बार मेरा ऐसे कुछ और उदाहरणों पर बात करने का इरादा है. संयोग की बात है कि जिस * ’वीडियोकारन’* फ़िल्म की चर्चा हमने दो महीना पहले की थी, उसके निर्देशक से जल्द ही मेरी मुलाकात होने वाली है. उनकी कहानी भी सुनेंगे. क्योंकि मुझे यकीन है कि जितनी दिलचस्प उनकी फ़िल्म है, उतनी ही दिलचस्प उसके बनने की कहानी होगी. ***** साहित्यिक पत्रिका* ’कथादेश’ *के सितम्बर अंक में प्रकाशित -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Sep 20 22:35:31 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 20 Sep 2011 22:35:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSkIOCklOCksCDgpLbgpY3gpLDgpYDgpLLgpL7gpLIg4KS2?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSyIOCkleCliyDgpJzgpY3gpJ7gpL7gpKjgpKrgpYA=?= =?utf-8?b?4KSgIOCkquClgeCksOCkuOCljeCkleCkvuCksA==?= Message-ID: अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मित्रो, भारतीय ज्ञानपीठ ने बताया कि वर्ष 2009 के लिए 45 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से दिया जाएगा और वर्ष 2010 के लिए 46 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कन्नड लेखक चंद्रशेखर कंबर को दिया जाएगा। यहां कल शाम सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में हुई ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति की बैठक में अन्य सदस्य प्रो. मैनेजर पांडे, डा. के सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवीन्द्र कालिया शामिल थे। मालूम हो, मलयालम के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार ओएनवी कुरूप को वर्ष 2007 के लिए 43वाँ और उर्दू के नामचीन शायर अखलाक खान शहरयार को वर्ष 2008 के लिए 44वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है। श्रीलाल शुक्ल अमरकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Sep 21 01:12:49 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 21 Sep 2011 01:12:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgOCksuCkvuCksiDgpLbgpYHgpJXgpY3gpLIg4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkheCkruCksOCkleCkvuCkguCkpCDgpJXgpYsg4KSc4KWN4KSe?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KSq4KWA4KSgIOCkquClgeCksOCkuOCljeCkleCkvuCksCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkhuCkp+CkviDgpKrgpYjgpLjgpL4g4KSu4KS/4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSX4KS+Pw==?= Message-ID: वर्चुअल स्पेस पर प्रभात रंजन और शशिकांत ने अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा को उत्साह में आकर साझा किया और एक तरह से इस खबर के प्रसार की नैतिक जिम्मेदारी अपने उपर ली। प्रभात रंजन ने अपने ब्लॉग जानकीपुल और फेसबुक के जरिए इस खबर को प्रसारित किया,वही शशिकांत ने सीएसडीएस सराय की मेलिंग लिस्ट के जरिए इसे हम पाठकों तक पहुंचाया। चूंकि इस बात की जानकारी हमें सबसे पहले इन दोनों के माध्यम से ही मिली थी इसलिए हमें इनसे सवाल करना जरुरी लगा कि क्या ज्ञानपीठ ऐसा करके पुरस्कार की राशि दोनों के बीच आधी-आधी करके बांटेगा। यानी स्वतंत्र रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले की जो राशि होती है,उसकी आधी राशि इन दोनों साहित्यकारों को मिलेगी? व्यक्तिगत तौर पर ऐसा किया जाना मुझे अनैतिक लगा और हमने दीवान पर इस संबंध में सवाल छोड़े। लिहाजा शशिकांतजी ने एक के बाद एक इनसे जुड़े तथ्य हमारे सामने रखे और मैंने भी उसके साथ कुछ संस्मरण और तर्क जोड़ने की कोशिश की। शशिकांतजी का यहां तक कहना है कि ज्ञानपीठ ने ऐसा दरअसल विवाद पैदा करने और चर्चा में आने के लिए किया है। उनकी बात में सच्चाई इसलिए भी है कि ऐसा वह पहले भी कर चुका है। निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को संयुक्त रुप से पुरस्कार देते समय ऐसा ही किया और आधी-आधी राशि दोनों को मिली। सवाल है कि साहित्यकार के लिखे का आकलन क्या इतना वस्तुनिष्ठ होता है कि दो को इस धरातल पर लाकर खड़े कर दिए जाएं कि पुरस्कार की राशि आधी हो जाए? अगर ऐसा होता है तो निर्णायकों के लिए साहित्य भी कोई रचनाकर्म न होकर प्रोजेक्ट या टिकमार्क करनेवाली चीज है और हम इसका विरोध करते हैं। ज्ञानपीठ चाहे तो दो की जगह चार को संयुक्त रुप से पुरस्कार दे लेकिन राशि का बांटा जाना किसी भी रुप से सही नहीं है। इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि जिस निर्णायक मंडल ने ये फैसला लिया है,उसमें गुरदयाल सिंह भी शामिल हैं जिनके साथ ये घटना घटित हुई। अब देखना ये हैं कि इस संयुक्त फैसले पर मुहर लगाने के बाद गुरदयाल सिंह पुरस्कार की राशि पूरी मिले,इसके लिए क्या प्रयास करते हैं? आप भी इस संबंध में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। फिलहाल शंशिकातजी ने दीवान पर जो विचार हमसे साझा किए हैं,उस पर एक नजर- शशिकांत मित्रो, भारतीय ज्ञानपीठ ने बताया कि वर्ष 2009 के लिए 45 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से दिया जाएगा और वर्ष 2010 के लिए 46 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कन्नड लेखक चंद्रशेखर कंबर को दिया जाएगा। यहां कल शाम सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में हुई ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति की बैठक में अन्य सदस्य प्रो. मैनेजर पांडे, डा. के सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवीन्द्र कालिया शामिल थे। मालूम हो, मलयालम के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार ओएनवी कुरूप को वर्ष 2007 के लिए 43वाँ और उर्दू के नामचीन शायर अखलाक खान शहरयार को वर्ष 2008 के लिए 44वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है। विनीत पुरस्कार की राशि तब आधी-आधी हो जाएगी क्या शशिकांतजी या फिर बिग बॉस में डबल सिम(संजय दत्त और सलमान खान) होने पर भी दोनों को अलग-अलग चार्ज मिलेगा वैसा ही। ये अंदेशा सिर्फ इसलिए है कि कई बार कॉलेज के दिनों में प्रतियोगिताओं में हमें संयुक्त पुरस्कार मिला तो राशि आधी हो जाती थी और सम्मान बराबर का मिलता। इस उम्र में दोनों रचनाकारों के लिए राशि का मसला भी बराबर से मायने रखता है। शशिकांत भाई विनीत जी, ज्ञानपीठ ने दूसरी बार ऐसा किया है. इससे पहले निर्मल वर्मा और गुरुदयाल सिंह को भी संयुक्त रूप से दिया गया था और ख़ूब विवाद हुआ था. संभव है, ज्ञानपीठ जानबूझ कर ऐसे फ़ैसले लेता है ताकि विवाद हो. लेकिन शायद इस बार दोनों लेखक ऐसे हैं जो विवाद न खड़ा करें. पिछली बार निर्मल वर्मा तो चुप रह गए थे लेकिन गुरुदयाल सिंह जी ने विवाद खड़ा किया था भाई. विनीत मैंने शशिकांतजी इसलिए पूछा कि जिस शख्स को सम्मानित किया जाता है वो अपने दौर का दिन-रात एक करके रचनाकर्म में लगा लेखक होता है,जिनकी बड़े उदात्त विचार,समाज को बदलने का सपना होता है,उबाल होता है,विधा को तराशने की तड़प होती है लेकिन जब तक सम्मानित किया जाता है तब तक वो मरीज या पार्शियल मरीज की स्थिति में आ जाता है। उनेके विचार के आगे कई बार न चाहते हुए भी जरुरतें हावी हो जाती है और लगता है कुछ जोड़कर रख लेता। ऐसे में पुरस्कारों में कतर-ब्योत होने लगे तो चोट पहुंचती है। हिन्दी का साहित्यकार पैसे की मार वैसे भी शुरु से झेलता आया है,अगर वो आलोचक/विभागीय आलोचक न हो तो। कुछ ऐसे साहित्यकारों से मैं व्यक्तिगत तौर पर मिला भी हूं। इसलिए धातु की बनी प्रतिमा के आगे पैसे के मामले को नजरअंदाज करना इनके प्रति समझिए एक तरह से अन्याय ही होगा। ज्ञानपीठ अगर विवाद के जरिए चर्चा चाहता है तो आप जिनलोगों ने पुरस्कार की खबर प्रसारित करने की नैतिक जिम्मेदारी उत्साह के साथ ली है,ये बात भी स्पष्ट करें तो बेहतर होगा। ऐसा न हो कि घर जाकर लिफाफा देखने के बाद शॉल की गर्मी कनकनी में बदल जाए। शशिकांत भाई विनीत जी, बिल्कुल सही कहा आपने. निर्मल वर्मा जैसे बेहद शालीन, संकोची, विनम्र और एकांतपसंद रचनाकार से जब राष्ट्रीय सहारा अखब़ार के लिए 'लेखक के साथ' कॉलम के लिए लंबा इंटरव्यू लेने गया था 2002 में तो उन्होंने पूछा था, 'इस इंटरव्यू के लिए मुझे भी कुछ पैसा देंगे क्या राष्ट्रीय सहारा वाले?' उन दिनों निर्मल जी की तबीयत ख़राब थी. ढेर सारी दवाइयां राखी थीं उनके सिरहाने, उनके सहविकास सोसायटी, पटपडगंज, दिल्ली वाले घर में. मैंने यह बात सहारा के गुप एडिटर गोविन्द दीक्षित और नामवर जी को बतायी थी. नामवर जी उन दिनों सहारा के सम्पादकीय सलाहकार थे. लेकिन निर्मल जी को कोई पारिश्रामिक नहीं मिला. तब से मैं इंटरव्यू देनेवाली शख्सियत को भी पारिश्रमिक देने की बात उठा रहा हूँ. आप मीडिया के बेहद सक्रिय, उत्साही युवा आलोचक हैं. इस मसले को हिंदी अखब़ार के संपादकों तक पहुँचा सकते हैं. ऐसी उम्मीद है मुझे विनीत पता चला कि विष्णु प्रभाकर बहुत बीमार चल रहे हैं तो डीयू के हम कुछ छात्रों ने तय किया कि उनसे किसी दिन मिलने चलेंगे। कुछ कहना नहीं है,बस ये कि सर आपका लिखा पढ़ा है,हम आपसे मिलने आए हैं। हम जब वहां पहुंचे तो हम जान नहीं पाए कि वो उनकी बहू थी या फिर बेटी लेकिन अचानक से छ-सात लड़के लड़कियों को दरवाजे पर देखकर घबरा गईं। हमने आने का मकसद बताया तो कहने लगी- सॉरी,वो बहुत बोल नहीं पाएंगे। हमलोगों ने कहा-हम उनका न तो कोई इंटरव्यू लेंगे और न ही उन्हें ज्यादा कुछ बोलने के लिए कहेंगे। तब हम अंदर दाखिल हुए। पीतमपुरा में उनका घर चारों तरफ से समृद्ध नजर आ रहा था लेकिन उन्होंने जमीन खरीदने से लेकर घर बनने तक की पूरी कहानी विस्तार से बतायी। ये भी बताया कि कैसे-कैसे लोग आए,कलाम से लेकर वाजपेयी तक से मदद दिलाने की बात कर गए,आपलोग बहुत बड़े होते तो आपसे मिलता भी नहीं। बच्चे हो,उत्साह में हो तो मना नहीं कर सका। इस दौरान वो बार-बार अपनी टोपी(गांधी टोपी) संभालते रहे। हमें कभी कोई बड़ा सम्मान नहीं मिला,जो मिला उसे लेकर कई तरह के विवाद हुए,हमने कुछ नहीं कहा...फिर आंखों में आंसू। साहित्य में कई बार गांधीवादी होना तकलीफदेह हो जाता है। हम सब सुनते रहे,नोट करते रहे। एक साथ रिकार्ड भी करता रहा जिसकी चिप हॉस्टल आते ही खराब हो गयी। हम तब ब्लॉग की दुनिया में नहीं आए थे। हम चाहते थे कि वो कहीं छपे। बाद में जब हम वापस कैंपस पहुंचे तो कई साथियों को इस बात पर गुणा-गणित करने में दिक्कत होने लगी कि प्रभाकरजी तो गांधीवादी हैं,अगर हमने जहां कुछ इन पर लिखा तो हमारे गाइड नाराज हो जाएंगे। प्रगतिशील और मार्क्सवादी शिक्षक का छात्र भला गांधीवादी साहित्यकार से कैसे प्रभावित हो गया? मामला ठंडे बस्ते में चला गया। महीना भी नहीं गुजरा था,विष्ण प्रभाकर गुजर गए। हममे से एक साथी दौड़ते-भागते मेरे पास आया और मैंने जो कुछ भी नोट किया था,ले गया। उसके बाद विष्णु प्रभाकर का विशेषांक निकाला। विष्णु प्रभाकर की पूरी बातचीत में पैसा बहुत बार आया। कई-कई तरीके से,मानो की जीवन के अंतिम समय में आकर यही उनकी निर्णायक काबिलियत का हिस्सा था जहां आकर वो मार खा गए। शशिकांतजी,आपने निर्मल वर्मा को लेकर जो संस्मरण सुनाया,कैसा कचोटता है सुनकर। मैंने तो उपर के कमेंट बस आशंका के तौर पर की लेकिन आपके पास तो संस्मरण हैं। हम अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को लेकर ऐसा ही सोच रहे हैं। ये अलग बात है कि हमें उनकी वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं। शशिकांत "जब हम वापस कैंपस पहुंचे तो कई साथियों को इस बात पर गुणा-गणित करने में दिक्कत होने लगी कि प्रभाकरजी तो गांधीवादी हैं,अगर हमने जहां कुछ इन पर लिखा तो हमारे गाइड नाराज हो जाएंगे। प्रगतिशील और मार्क्सवादी शिक्षक का छात्र भला गांधीवादी साहित्यकार से कैसे प्रभावित हो गया? मामला ठंडे बस्ते में चला गया।" भाई विनीत जी दुर्भाग्य से यह सोच डीयू में हमें विरासत में मिलती है. हमें इसका प्रतिकार करना है. अपनी समझ, अपने विवेक से काम लेना है चाहे अंजाम जो भी हो. मेरे मार्क्सवादी गाइड प्रो नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ तिवारी और कई मार्क्सवादी साथी मुझे समाजवादी समझते रहे और समाजवादी शिक्षक मार्क्सवादी. एक शेर है इस पर- 'जाहिद तंगनज़र समझते हैं कि मैं काफ़िर हूँ और काफ़िर ये समझते हैं मुसलमाँ हूँ मैं.' यह हमारी उपलब्धि है. हम विचारधारों के पिछलग्गू नहीं हैं. मार्क्सवादी गाइड नाराज़ हों तो हों हम नंदीग्राम और सिंगूर में सीपीएम के जुल्मों का विरोध करेंगे, और समाजवादी जार्ज के बीजेपी के साथ जाने तथा कॉंग्रेस के परिवारवाद का विरोध करनेवाले समाजवादी लालू और मुलायम के परिवारवाद का भी. हमारा वैचारिक स्टैंड किसी लाल किताब, झंडे या गांधी, लोहिया, जेपी की मूर्ति से नहीं आज की ज़मीनी हकीक़त से तय होता है और उसी के आधार पर हम लिखते हैं और लिखते रहेंगे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Sep 21 13:00:27 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 21 Sep 2011 13:00:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleCkviDgpLLgpYvgpJXgpLXgpYPgpKQgKDE5MjAtMTk0?= =?utf-8?b?MCkgOiDgpKvgpY3gpLDgpL7gpILgpJrgpYfgpLjgpY3gpJXgpL4g4KSR?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS44KWA4KSo4KWA?= Message-ID: हिन्दी का लोकवृत हिन्दी का लोकवृत (1920-1940) राष्ट्रवाद के युग में भाषा और साहित्य लेखिका : फ्रांचेस्का ऑर्सीनी अनुवाद : नीलाभ *वाणी प्रकाशन * मूल्य : 700 रुपये साथियो, फ्रांचेस्का ऑर्सीनी स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीका स्तुदिएस, लन्दन विश्वविद्यालय में उत्तर भारतीय साहित्य की रीडर हैं. फिलहाल वे 'उत्तर भारत के पंद्रहवीं से लेकर सत्रहवीं सदी के साहित्य का इतिहास : बहुभाषिकता के दृष्टिकोण' लिख रही हैं. यहाँ हम पेश कर रहे हैं उनकी अभी हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'हिन्दी का लोकवृत्त' की भूमिका से कुछ अंश : *पब्लिक स्फीयर यानी सार्वजनिक क्षेत्र* हालाँकि इस पुस्तक का प्रमुख केन्द्र-बिन्दु हिन्दी का साहित्यिक क्षेत्र है, तो भी उसके रूपान्तरण में हमें व्यापक सार्वजनिक-राजनैतिक क्षेत्र में विस्तार, संस्था-निर्माण और संगठन की सामान्य प्रक्रियाओं की झलक मिलती है। इस किताब में जिस अवधि पर नज़र डाली गयी है वह 1919-20 में गाँधी जी के नेतृत्व में चलाये जा रहे जन-अभियानों के साथ राष्ट्रवादी आन्दोलन के विलक्षण विस्तार से ले कर 1920 और, 30 के दशकों के दौरान कांग्रेस पार्टी के संस्थानीकरण तक, और अन्ततः 1937-39 में, स्वतन्त्रता की लगभग दहलीज़ पर, कांग्रेस के प्रान्तीय मन्त्रिमण्डलों के गठन के साथ एक सत्ताधारी पार्टी के रूप में उसके संगठन तक फैली हुई है।’’ इस तरह एक ऐसे सामान्य ढाँचे की हमें ज़रूरत है जिसके दायरे में साहित्यिक, सामाजिक और राजनैतिक परिघटनाओं के साथ-साथ गतिविधियाँ, संस्थाएँ कार्यकर्ता और विमर्ष आ जायें। इस दृष्टि से जुर्गेन हेबरमास की ‘पब्लिक स्फ़ियर’ यानी ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ की अवधारणा कई कारणों से काफ़ी आकर्षक लगती है। पहली बात तो यह है कि वह यूरोपीय (विशेष रूप से अंग्रेज) सार्वजनिक क्षेत्र था, जिसे ध्यान में रख कर हिन्दी और दूसरे भारतीय बुद्धिजीवियों ने प्रगति और आधुनिक राष्ट्र की अपनी परिकल्पना को विकसित किया था। दूसरे, हेबरमास द्वारा वर्णित यूरोपीय सार्वजनिक क्षेत्र और बीसवीं सदी के आरम्भ के हिन्दी सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना करने पर उनके बीच के गहरे अन्तर नज़र आ जायेंगे जो यूरोपीय (अंग्रेज) उदाहरण और उपनिवेषवादी भारत की विषिष्टताओं को स्थापित कर सकते हैं और यही नहीं, भारत की सन्दर्भ में कल्पना और यथार्थ के बीच के अन्तर को भी स्पष्ट कर सकते हैं। ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ के हेबरमास ने सत्रहवीं और अट्ठारवीं शताब्दी के यरोप के बुर्जुवा समाज का जो विश्लेषण किया, उसी से ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ की उनकी परिभाषा उपजी है। इस समाज में ‘आम नागरिक जनता के तौर पर’ एकजुट हुए थे ताकि वे ‘सार्वजनिक सरोकार’ या ‘सामान्य हित’ के मामलों की चर्चा कर सकें और निरंकुशतावादी राज्य की आलोचना करके उस पर दबाव डाल सकें। परम्परागत सामन्ती समाज में शासक ही जनता था और लोगों के ‘समक्ष’ अपनी हैसियत और प्रभुत्व को जताता था। जनता श्रेणीबद्ध सामन्ती समाज में अपने-अपने निर्धारित स्थान से इस प्रदर्षन में हिस्सेदारी करती थी। हेबरराम का तर्क था कि एक निर्वैयक्तिक राज्य की ओर संचरण, बुर्जुवा अर्थतन्त्र के विकास और बुर्जुवा परिवार के निजी जगत के उभरने के साथ ही आम नागरिक, क्लबों, पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों जैसी सामाजिक संस्थाओं के मध्यवर्ती क्षेत्र में, ‘जनता’ के रूप में एकजुट होने लगे। इन नागरिकों ने विचारों के स्वतन्त्र और विवेकपूर्ण आदान-प्रदान द्वारा (विशेष रूप से सेन्सरशिप, अर्थात सूचनाओं पर प्रतिबन्ध, के कानूनों के हटाये जाने के बाद) आम राय या लोकमत का निर्माण किया और उसे व्यक्त करने के लिए एक भाषा, तौर-तरीक़े और परिपाटियाँ बनायी। पहले की सदियों के दौर साक्षरता के प्रचार-प्रसार ने शहरी संस्कृति, समाचार-तन्त्र, और व्यावसायिक प्रकाषन गृहों के विकास के साथ ‘सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का अम्बार’ खड़ा कर दिया था। जिस ‘आम जनता’ की बात ये नागरिक कर रहे थे वह दरअसल काफ़ी सीमित थी और उसमें मुख्य रूप से बुर्जुवा और सामन्ती भद्र लोक शमिल था। फिर भी अपनी आत्म-छवि में यह साहित्यिक क्षेत्र ‘जनता’ ही था और कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर इस तक सबकी पहुँच थी। अलावा इसके, हालाँकि बुर्जुवाज़ी ने विवेकपूर्ण विमर्ष और तार्किक विचार प्रक्रिया पर अपनी एकमात्र दावेदारी कर रखी थी, ‘सार्वजनिकता का गुण’ और ‘तार्किक आदान-प्रदान का उदार अभीष्ट ग़ैर-बुर्जुवा, सबऑल्टर्न समूहों की भी पहुँच में आ गये, चाहे वे जेकोबिनिज्म़ और उसके उत्तराधिकारियों का उग्रतावादी बुद्धिजीवी वर्ग हो या फिर किसानों और मज़दूरों सरीखे सामाजिक वर्गों का व्यापक हिस्सा.....उदार सार्वजनिक क्षेत्र के सकारत्मक मूल्यों ने जल्दी ही अपेक्षाकृत व्यापक लोकतान्त्रिक स्वर प्राप्त कर लिया जिसके नतीजे के तौर पर प्रभावशाली लोकप्रिय आन्दोलन उभर कर सामने आये, जिनमें से हर एक का अपना स्पष्ट आन्दोलनात्मक संस्कार (यानी सार्वजनिक क्षेत्र का अपना स्वरूप) था।’ संचार माध्यम, जन समुदाय और उनसे व्यक्त होने वाले समीक्षात्मक कार्य सबसे पहले गै़र-सियासी साहित्यिक सरोकारों के इर्द-गिर्द विकसित हुए, जिससे एक क़िस्म का ‘साहित्यिक गणतन्त्र’ उभर कर सामने आया। फिर धीरे-धीरे हर क्षेत्र में तर्क और विवके आलोचक का सर्वमान्य मापदण्ड बन गया और जल्दी ही आलोचनात्मक बहसें अभिरुचि के सवाल से सरक कर राज्य के प्रष्नों पर जा टिकीं, यानी राजनैतिक मुद्दों पर। मिसाल के तौर पर यह माँग़ होने लगी कि राज्य के काम-काज के बारे में जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए जिससे राज्य की गतिविधियाँ आलोचनात्मक जाँच-परख का विषय बन सकें और जनमत के प्रभाव के अधीन आ सकें। ऐसी बहसों न राज्यों के नियमों और कार्यो पर सार्वजनिक बहस को बढ़ावा दिया, नागरिकता के आदर्शों को एक ठोस रूप प्रदान किया और एक अपेक्षाकृत अधिक अमूर्त विचार को जन्म दिया कि कार्य प्रक्रिया से गुज़र चुके होते। इसमें भारी लोकतान्त्रिक सम्भावनाएँ निहित थी जैसा कि हेबरमास के एक आलोचक ने सुझाया है, इस बात का अभिप्राय यह था कि ‘सार्वजनिक सरोकार’ सरोकारों का कोई पूर्व-सिद्ध समूह नहीं थे, बल्कि यह कि जो बात सामान्य चिन्ताओं का विषय समझे जाने योग्य होगी, उसे सही तौर पर भागीदारी के बीच तर्कपूर्ण बहस-मुबाहिसे से ही तय किया जायेगा। इस स्थिति में लोकमत ऐसी बहसों का ही नतीजा बन जाता है-समान भलाई के बारे में एक सर्वानुमति यानी आम राय। हेबरमास ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ की एक सामान्य परिभाषा इन्हीं शब्दों में करते हैं: ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ से हमारा अभिप्राय सबसे पहले, हमारे सामाजिक जीवन का एक ऐसा जगत है जिसमें जनमत सरीखी कोई चीज़ रूप ले सकती है। उस तक सभी नागरिकों की पहुँच है। सार्वजनिक क्षेत्र का एक अंष हर उस बातचीत में अस्तित्व ग्रहण करता है जिसमें सामान्य नागरिक एक सार्वजनिक संस्था स्थापित करने के लिए इकट्ठा होते हैं। फिर वे न तो निजी मामलों को निपटाने वाले व्यापारिक या पेशेवर व्यक्तियों की तरह व्यवहार करते है, न ऐसी सवैधानिक व्यवस्था के सदस्यों की तरह जो सरकारी नौकरशाही ही कानूनी पाबन्दियों के अधीन हों। नागरिक एक सार्वजनिक संस्था के रूप में तब व्यवहार करते हैं, जब वे सामान्य हितों के विषयों के बारे निर्बाध रूप से आपस में विचार-विमर्श करते हैं-यानी, एकत्र और संगठित होने और अपनी राय को व्यक्त और प्रकाशित करने की आज़ादी की गारण्टी के साथ। किसी बड़ी सार्वजनिक संस्था में इस तरह का परस्पर आदान-प्रदान जानकारी को प्रसारित करने और उसे प्राप्त करने वालों को प्रभावित करने के विशिष्ट साधनों की माँग करता है। सार्वजनिक क्षेत्र की इस अवधारणा के लिए बहस-मुबाहिसे की एक साझी भाषा का अस्तित्व अनिवार्य है। इसके अलावा, तार्किक-विवादपूर्ण बहसों की मोहलत देने का मतलब यह है कि इस दारे में मान्यताएँ, कथन और कार्य एक ख़ास क़िस्म की मुलायमियत और लचीलापन ग्रहण कर लेते हैं. मौजूदा नियम-क़ायदों, विश्वासों और सामाजिक सम्बन्धों पर सवाल उठाये जा सकते हैं और वे सचेत रूप से अस्थायी बन सकते हैं। चारों तरफ़ का संसार और व्यक्ति की अपनी पहचान में नयी गतिशीलता और लचीलापन आ जाता है। समान एजेण्डे और संस्थाएँ स्थापित की जा सकती हैं और उन्हें लागू करने के लिए संसाधन और लोग जुटाये जा सकते हैं। यह साझा क्षितिज और क्षेत्र एक ऐसी जनसक्रियता को जन्म देता है, जो अनिवार्य रूप से भागीदारी की मौजूदा सीमाओं से नहीं बँधी होती. वह अपने सामने असाधारण रूप से भागीदारी की मौजूदा सकती है, क्योंकि सैद्धान्तिक तौर पर उसमें हर कोई शामिल हो सकता है। हालाँकि हेबरमास ने भी यह माना है कि इस तरह का सार्वजनिक क्षेत्र हमेशा कुल मिला कर एक आदर्श ही रहा है और आलोचकों ने लिंग और वर्ग के आधार पर उसकी गम्भीर सीमाओं की ओर इशारा किया है तो भी हम कल्पना कर सकते हैं कि एक आदर्श के रूप में वह भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए कितना शक्तिशाली और आकर्षक आदर्श रहा होगा जो अपने निजी जनवादी मुहावरे और संस्थाएँ स्थापित करने के लिए आतुर थे और ख़ासतौर पर 1920 के दशक में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में समूची जनता को शामिल करने के उत्सुक थे। जिस 'आम जनता' की बात ये नागरिक कर रहे थे वह दरअसल काफी सीमित थी और उसमें मुख्य रूप से बुर्जुवा और सामन्ती भद्रलोक शामिल था। फिर भी अपनी आत्म-छवि में यह साहित्यिक क्षेत्र 'जनता' ही था और कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर इस तक सबकी पहुँच थी। अलावा इसके, हालांकि बुर्जुवाजी ने विवेकपूर्ण विमर्श और तार्किक विचार प्रक्रिया पर अपनी एकमात्र दावेदारी कर रखी थी, 'सार्वजनिकता का गुण' और 'तार्किक आदान-प्रदान' का उदार अभीष्ट गैर-बुर्जुवा, सबऑल्टर्न समूहों की भी पहुँच में आ गए, चाहे वे जेकोबिनिज्म और उसके उत्तराधिकारियों का उग्रतावादी बुद्धिजीवी वर्ग हो या फिर किसानों और मजदूरों सरीखे सामाजिक वर्गों का व्यापक लोकतांत्रिक स्वर प्राप्त कर लिया जिसके नतीजे के तौर पर प्रभावशाली लोकप्रिय आन्दोलन उभरकर सामने आए, जिनमें से एक का अपना स्पष्ट आन्दोलनात्मक संस्कार (यानी, सार्वजनिक क्षेत्र का अपना स्वरूप) था। *(भूमिका से, 26-29)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Sep 23 21:57:02 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 23 Sep 2011 21:57:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCknOCkqOCkuOCkpOCljeCkpOCkviDgpJXgpYcgJ+CkmuCljA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSyJyDgpK7gpYfgpIIgJ+CkhuCkp+CkviDgpLjgpK7gpY0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSoJyDgpLbgpYDgpLDgpY3gpLfgpJUg4KS44KWHIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSIIOCkteCkv+CkqOClgOCkpCDgpJXgpYHgpK7gpL7gpLAg4KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCkn+Ckv+CkquCljeCkquCko+ClgCAt?= Message-ID: "श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को क्या ज्ञानपीठ पुरस्कार का आधा पैसा मिलेगा? अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के बाद हमें सवाल करना ज़रूरी लगा कि क्या ज्ञानपीठ ऐसा करके पुरस्कार की राशि दोनों के बीच आधी-आधी करके बांटेगा. यानि स्वतंत्र रूप से ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले की जो राशि होती है, उसकी आधी राशि इन दोनों साहित्यकारों को मिलेगी? व्यक्तिगत तौर पर ऐसा किया जाना मुझे अनैतिक लगा और हमने 'दीवान' वेबसाईट पर इस सम्बन्ध में सवाल छोड़े. शशिकांतजी ने एक के बाद एक इनसे जुड़े तथ्य हमारे सामने रखे और मैंने भी उसके साथ कुछ संस्मरण और तर्क जोड़ने की कोशिश की। शशिकांतजी का यहां तक कहना है कि ज्ञानपीठ ने ऐसा दरअसल विवाद पैदा करने और चर्चा में आने के लिए किया है। उनकी बात में सच्चाई इसलिए भी है कि ऐसा वह पहले भी कर चुका है। निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को संयुक्त रुप से पुरस्कार देते समय ऐसा ही किया और आधी-आधी राशि दोनों को मिली। सवाल है कि साहित्यकार के लिखे का आकलन क्या इतना वस्तुनिष्ठ होता है कि दो को इस धरातल पर लाकर खड़े कर दिए जाएं कि पुरस्कार की राशि आधी हो जाए? अगर ऐसा होता है तो निर्णायकों के लिए साहित्य भी कोई रचनाकर्म न होकर प्रोजेक्ट या टिकमार्क करनेवाली चीज है और हम इसका विरोध करते हैं। ज्ञानपीठ चाहे तो दो की जगह चार को संयुक्त रुप से पुरस्कार दे लेकिन राशि का बांटा जाना किसी भी रुप से सही नहीं है। इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि जिस निर्णायक मंडल ने ये फैसला लिया है,उसमें गुरदयाल सिंह भी शामिल हैं जिनके साथ ये घटना घटित हुई। अब देखना ये हैं कि इस संयुक्त फैसले पर मुहर लगाने के बाद गुरदयाल सिंह पुरस्कार की राशि पूरी मिले,इसके लिए क्या प्रयास करते हैं?" -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Sep 25 10:36:38 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 25 Sep 2011 10:36:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSm4KSu4KWA?= =?utf-8?b?IOCknOCkv+CknOClgOCkteCkv+Ckt+CkviDgpJXgpL4g4KS14KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KSu4KWN4KSwIOCkleCkteCkvyDgpJXgpYHgpILgpLXgpLAg4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSv4KSjOiDgpIbgpJwg4KSV4KWHICfgpLngpL/gpILgpKY=?= =?utf-8?b?4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSoJyDgpK7gpYfgpIIg4KSq4KWd4KS/4KSP?= =?utf-8?b?Li4u?= Message-ID: मित्रो, बीते 19 सितम्बर को हिंदी के सम्मानित कवि कुंवर नारायण 85 वें साल में प्रवेश कर गए. कुंवर जी की प्रतिष्ठा और आदर हिंदी साहित्य की भयानक गुटबाजी के परे सर्वमान्य है. उनकी ख्याति सिर्फ लेखक की तरह नहीं, बल्कि कला की अनेक विधाओं में गहरी रुचि रखनेवाले रसिक विचारक की भी है. आज के 'हिंदुस्तान' में पढ़िए कुंवर जी पर मेरा आत्मीय आलेख. शुक्रिया. - शशिकांत < http://epaper.livehindustan.com/PUBLICATIONS/HT/HT/2011/09/2 5/ArticleHtmls/AQ%C2%B8%C2%B9F-d%C2%AAF%C2%AAFed%C2%BDF%C2%B FFFIYF-d%C2%BDF%C2%B3F%C2%B8Fi-IYd%C2%BDF-25092011011001.shtml?Mode=१ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Sep 25 13:36:55 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 25 Sep 2011 13:36:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSm4KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KSvIOCknOCkv+CknOClgOCkteCkv+Ckt+CkviDgpJXgpL4g4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KSu4KWN4KSwIOCkleCkteCkvw==?= Message-ID: कुंवर नारायण *मित्रो, बीते 19 सितम्बर को हिंदी के सम्मानित कवि कुंवर नारायण 85 वें साल में प्रवेश कर गए. कुंवर जी की प्रतिष्ठा और आदर हिंदी साहित्य की भयानक गुटबाजी के परे सर्वमान्य है. उनकी ख्याति सिर्फ लेखक की तरह नहीं, बल्कि कला की अनेक विधाओं में गहरी रुचि रखनेवाले रसिक विचारक की भी है. आज के 'हिंदुस्तान' में पढ़िए कुंवर जी पर आत्मीय आलेख शुक्रिया. - शशिकांत ** ** ** **'मेरी मां, बहन और चाचा की* टीबी से मौत हुई थी। यह सन् 35-36 की बात है। मेरे पूरे परिवार में प्रवेश कर गयी थी टीबी। उन्नीस साल की मेरी बहन बृजरानी की मौत के छह महीने बाद 'पेनिसिलीन' दवाई मार्केट में आयी। डॉक्टर ने कहा था, 'छह महीने किसी तरह बचा लेते तो बच जाती आपकी बहन।' *बीच में मुझे भी* टीबी होने का शक था। चार-पाँच साल तक हमारे मन पर उसका आतंक रहा। ये सब बहुत लंबे किस्से हैं। बात यह है कि मृत्यु का एक ऐसा भयानक आतंक रहा हमारे घर-परिवार के ऊपर जिसका मेरे लेखन पर भी असर पड़ा। *मृत्यु का यह साक्षात्कार* व्यक्तिगत स्तर पर तो था ही सामूहिक स्तर पर भी था। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद सन् पचपन में मैं पौलेंड गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी गए थे मेरे साथ। वहाँ मैंने युद्ध के विध्वंस को देखा। तब मैं सत्ताइस साल का था। इसीलिए मैं अपने लेखन में जिजीविषा की तलाश करता हूँ। मनुष्य की जो जिजीविषा है, जो जीवन है, वह बहुत बड़ा यथार्थ है। * * *लोग कहते हैं कि* मेरी कविताओं में मृत्यु ज्यादा है लेकिन मैं कहता हूँ कि जीवन ज्यादा है। देखिए, मृत्यु का भय होता है लेकिन जीवन हमेशा उस पर हावी रहता है। दार्शनिकता को मैं न जीवन से बाहर मानता हूँ और न कविता से। कविता में मृत्यु को मैंने इसलिए ग्रहण किया क्योंकि वह जीवन से बड़ा नहीं है। इसे आप मेरी कविताओं में देखेंगे। मैंने हमेशा इसको ‘एसर्ट’ किया है। ‘आत्मजयी’ कविता में भी मैंने इसी शक्ति को देखा है।' *अपनी कविता के केंद्र में *मृत्यु की वजह बतलाते हुए कुंवर जी भावुक नही होते, क्योंकि मृत्यु को उन्होंने करीब से देखा है और उससे जूझकर निकले हैं। वे कहते हैं, 'हम मृत्यु पर विजय नहीं पा सकते लेकिन मृत्यु के भय पर विजय जरूर पा सकते हैं। मृत्यु मनुष्य को भयाक्रांत करता है। कुछ लोग मृत्यु के भय से टूट जाते हैं। साहित्य मृत्यु के इस भय से निकलने में हमारी मदद करता है। वह हमारे अंदर की जिजीविषा को जगाए रख सकता है। 'आत्मजयी' और अपनी अन्य रचनाओं में मैंने यही कोशिश की है।' *इस संदर्भ में कुंवर जी* प्रख्यात दार्शनिक सुकरात की जिंदगी के आखिरी लम्हो में घटी एक घटना को उद्धृत करते हैं, 'सुकरात को जब जहर दिया जा रहा था तो उससे ठीक पहले वे संगीत का एक नया राग सीख रहे थे। किसी ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने कहा, 'मरने से पहले यदि कोई नयी चीज सीख लूं तो इसमें क्या हर्ज है? मैं मरने से पहले एक नया राग सीख लेना चाहता हूं।' *फिर कहते हैं,* 'गालिब को पढि़ये। गालिब एक जिंदादिल शायर थे। गालिब ने मृत्यु पर बहुत से अशआर लिखे हैं। लेकिन गालिब मृत्यु के शायर नहीं,, जिंदगी के शायर हैं।' *उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में *19 सितंबर 1927 को पैदा हुए कुंवर नारायण इस भयानक पारिवारिक हादसे के बाद लखनऊ आ गए। आगे की दास्तान-ए-जिंदगी उन्हीं की जुबानी सुनिये, 'फैजाबाद में आज भी मेरा पुश्तैनी घर है लेकिन अब वहाँ कोई नहीं रहता। बहुत शुरू में सन् ’40 के दशक में मैं लखनऊ आ गया था। लखनऊ आने की एक वजह वहां की शिक्षा व्यवस्था थी और दूसरी टीबी से मां, बहन और चाचा की मौत। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ था और पढ़े-लिखे लोगों के बीच उसकी काफी चर्चा रहती थी।' *पारिवारिक मौत के* इन हादसों के बीच उनके अंदर की अपार जिजीविषा ही थी जिसकी बदौलत नयी कविता आंदोलन का यह सशक्त हस्ताक्षर आज भी हमारे बीच उपस्थित है। कुँवर जी अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ के प्रमुख कवियों में रहे हैं। * * *अपनी रचनाशीलता में* इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए भी कुँवर जी प्रसिद्ध हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित इस कवि का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। कुंवर जी की मूल रचना विधा कविता भले रही है लेकिन उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाम माध्यमों पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। उनकी कविताओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। *लखनऊ विश्वविद्यालय में *पढ़ाई के अपने दिनों को याद करते हुए कुँवर जी बतलाते हैं, 'कॉलेज और यूनिवर्सिटी के अनुभव का मैं कृतज्ञ हूँ। स्कूल के अनुभव अच्छे नहीं थे। कॉलेज में विज्ञान का छात्र था। विज्ञान के अध्ययन ने मेरी सोच-समझ को भी प्रभावित किया। अधिक तर्कसम्मत एवं विश्लेषणात्मक ढंग से चीजों और घटनाओं को देखने का नजरिया विकसित हुआ लेकिन वैज्ञानिक सोच का जो असर हुआ उससे मनुष्य जीवन को मानवीय और भावनात्मक ढंग से सोचने में थोड़ा व्यवधान पड़ा है। सारी चीजों को हम तर्कसम्मत ढंग से नहीं समझ सकते, भावनात्मक ढंग से भी सोच सकते हैं।' *एक कवि के लिए* जीवन का कोई भी अनुभव साधारण नहीं होता है। वह साधारण को भी असाधारण बना देता है। बतौर कवि कुंवर नारायण कहते हैं, 'कविता में मैं कोशिश करता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा चीजें आएँ। मुझे विविधता और विस्तार पसंद है। कविता का यह काम है कि वह हमारी जीवन दृष्टि को बढ़ाती है। सोचने-समझने की दृष्टि देती है। जीवन का अनुभव तो सबके साथ है, लेकिन कविता के द्वारा कवि कितना बड़ा स्पेश बना लेता है, यह कवि पर निर्भर करता है। और कवि जब उसमें सफल हो जाता है तो पढ़ने वाले को लगता है कि अरे ये तो मैं जी चुका हूँ।' *रचनाकार एक वैकल्पिक समाज,* देश और दुनिया का निर्माण करना चाहता है, जहां हर किसी के लिए जगह हो। कुंवर जी कहते हैं, 'आज जब देश और समाज के बार में सोचता हूँ तो लगता है कि विविधता जरूरी है, एकता जरूरी है लेकिन विविधता नष्ट नहीं हो क्योंकि भारतीय संस्कृति में विविधता का बहुत अधिक महत्त्व है।’ *हिन्दुस्तान की बहुलतावादी संस्कृति* का जिक्र करते हुए वे संगीत में मुसलमानों की भूमिका और अपने संगीत प्रेम पर बोलने लगते हैं, ‘आज हम कलाओं में मुसलमानों को अलग-थलग करना चाहें तो भी नहीं कर सकते। इस तरह की कुचेष्टा राजनीति खासकर अंग्रेजी राजनीति ने की है। करीम खाँ, बिस्मिल्ला खाँ, बड़े गुलाम अली खाँ आदि के योगदान को हम कैसे भूला सकते हैं। स्वयं अकबर के दरबार में तानसेन नवरत्नों में एक थे। डागर बंधुओं का संगीत सुनिए। लखनऊ गया था। रहीमुद्दीन खाँ डागर से मिला तो वेद की ऋचाओं को शुद्ध उच्चारण सुनकर दंग रह गया। मेरे दिमाग में उनका उच्चारण और श्लोक आज भी है। *मैं जब उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादेमी* का उपाध्यक्ष बना तो मुझे संगीतकारों के संपर्क में और निकट आने का अवसर मिला। संगीत से पुराना नाता रहा है मेरा। मैं फैयाज खाँ, ओंकारनाथ ठाकुर, अच्छन महाराज, शंभु महाराज आदि से अक्सर मिलता-जुलता था। उनके सान्निध्य ने मेरे साहित्यिक संस्कृति को कई स्तरों पर प्रभावित किया। फिल्म फेस्टिवल पर भी लिखता रहा हूँ। विष्णु खरे, विनोद भारद्वाज और प्रयाग शुक्ल के साथ मिलकर हमने सोचा कि हिंदी में फिल्म समीक्षा उपेक्षित है। दरअसल बचपन से ही मुझे सिनेमा देखने का शौक था। हजरतगंज (लखनऊ) में तीन सिनेमा हॉल थे जिनमें रोज शाम को सिनेमा देखता था। ये सन् 40, 50 और 60 की बात है।' * * *फिल्मों में कुँवर जी की* दिलचस्पी की एक खास वजह है। दरअसल कुंवर नारायण को फिल्म माध्यम और कविता में काफी समानता दिखती है। वह कहते हैं, 'जिस तरह फिल्मों में रशेज इकट्ठा किए जाते हैं और बाद में उन्हें संपादित किया जाता है उसी तरह कविता रची जाती है। फिल्म की रचना-प्रक्रिया और कविता की रचना-प्रक्रिया में साम्य है। आर्सन वेल्स ने भी कहा है कि कविता फिल्म की तरह है। मैं कविता कभी भी एक नैरेटिव की तरह नहीं बल्कि टुकड़ों में लिखता हूँ। ग्रीस के मशहूर फिल्मकार लुई माल सड़क पर घूमकर पहले शुटिंग करते थे और उसके बाद कथानक बनाते थे। क्रिस्तॉफ क्लिस्वोव्स्की, इग्मार बर्गमैन, तारकोव्स्की, आंद्रेई वाज्दा आदि मेरे प्रिय फिल्मकार हैं। इनमें से तारकोव्स्की को मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ। उसको मैं फिल्मों का कवि मानता हूँ। हम शब्द इस्तेमाल करते हैं, वो बिम्ब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन दोनों रचना करते हैं। कला, फिल्म, संगीत ये सभी मिलकर एक संस्कृति, मानव संस्कृति की रचना करती है लेकिन हरेक की अपनी जगह है, जहाँ से वह दूसरी कलाओं से संवाद स्थापित करे। साहित्य का भी अपना एक कोना है, जहाँ उसकी पहचान सुदृढ़ रहनी चाहिए। उसे जब दूसरी कलाओं या राजनीति में हम मिला देते हैं तो हम उसके साथ न्याय नहीं करते। आप समझ रहे हैं न मेरी बात?', वे पूछते हैं। * * *क्या कला और साहित्य की* कोई स्वायत्त दुनिया होती है या वह सीधे-सीधे हमारे सामाजिक जीवन से संचालित होती है?श् यह एक ऐसा सवाल है जो कला माध्यमों को एक तरफ स्वान्तः सुखाय बनाम बहुजन हिताय के विवाद की ओर ले जाता है और दूसरी ओर कला के लिए कला या जीवन के लिए कला की ओर! लेकिन कुंवर जी इस सवाल को व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंध से भी जोड़ देते हैं, 'मैं इन्हें विभाजित करके नहीं देखता हूँ। चीजें सापेक्ष होती हैं। एक कविता के लिए, एक चित्रकार के लिए गुलाब का महत्त्व है, लेकिन कैसे इसके बारे में हम समग्रतापूर्वक सोचें, यह क्षमता अब क्षीण हो गई है। यह शायद विज्ञान ने किया है। हम तार्किक विश्लेषण करने लगे हैं। हमारे जीने और देखने में ये विरोधाभास है कि हम जीते और तरीके से हैं जबकि सोचते और तरीके से हैं। समाज इंटीगरल रूप में है इसीलिए हम व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे के पूरक मानते हैं। एक भला आदमी उतना ही सामाजिक होता है जितना निजी होता है।' * * *'मुझे कभी-कभी लगता है* कि साहित्य एक ऐसी विधा है जो हर कला और विषय के बारे में अपनी एक सोच रखती है। एक राजनीतिज्ञ विशुद्ध रूप से राजनीतिज्ञ होता है और एक चित्रकार विशुद्ध रूप से एक चित्रकार। इस मायने में सत्यजीत रे को मैं उद्धृत करना चाहूँगा। वे साहित्यकार भी उतने ही बड़े थे जितने बड़े फिल्मकार। प्रेमंचद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर फिल्म बनाने के दौरान लखनऊ में अक्सर मेरे घर आकर बैठते थे। यह जानकर किसी को आश्चर्य हो सकता है कि वे वाल्टर बेंजामिन पर भी मेरे साथ उतने ही अधिकार से बातचीत करते थे जितनी फिल्मों पर', उन्होंने बतलाया। * * *अपने भीतर अपार जिजीविषा* और जीवनानुभव का एक विराट संसार संजोए आज भी सक्रिय हैं कुंवर नारायण। उनका पूरा का पूरा रचना संसार इसका गवाह है। एक नहीं, कई-कई मौत के साक्षी रहे और खुद जानलेवा बीमारी को परास्त कर चैरासी साल की उम्र के कुंवरजी आज एक दार्शनिक, विचारक, इतिहासद्रष्टा, कला के विभिन्न माध्यमों का पारखी और कई-कई रूपों में हमारे बीच विद्यमान है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From member at linkedin.com Mon Sep 26 22:37:44 2011 From: member at linkedin.com (rakesh singh via LinkedIn) Date: Mon, 26 Sep 2011 17:07:44 +0000 (UTC) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Invitation to connect on LinkedIn Message-ID: <1768172029.2698118.1317056864554.JavaMail.app@ela4-bed84.prod> LinkedIn ------------ rakesh singh requested to add you as a connection on LinkedIn: ------------------------------------------ Journalist ANANDMANI, I'd like to add you to my professional network on LinkedIn. 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URL: From vineetdu at gmail.com Fri Sep 30 19:27:53 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 30 Sep 2011 19:27:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWC4KSo4KS/4KS44KWN4oCN4KSfIOCkleCliyDgpJzgpYfgpLIg?= =?utf-8?b?4KSt4KS/4KSc4KS14KS+IOCkleCksCDgpJTgpLAg4KSc4KWN4oCN4KSv?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KS+IOCkqOCkguCkl+ClhyDgpLngpYHgpI8g4KSu4KWL4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIQ==?= Message-ID: *♦ विनीत कुमार* हम आलोचना का सम्मान करते हैं क्योंकि इससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं। *नरेंद्र मोदी*, *सद्भावना अनशन के दौरान दिया गया वक्तव्य।* सांप्रदायिक शख्‍सीयत के रूप में कुख्‍यात गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इस वक्‍तव्‍य को अभी दस दिन भी नहीं हुए थे कि इसके ठीक उलट उनकी इस कथित खुली सोच और उनके मजबूत लोकतंत्र की डींग का असली चेहरा हमारे सामने है। ये नरेंद्र मोदी की आलोचना का ही असर है कि प्रभात किरण, इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक का मुस्सविर नाम से कार्टून बनानेवाला पत्रकार हरीश यादव गहरे सदमे में है। वो बुरी तरह डिप्रेशन का शिकार है और उसे घंटों हो गये, नींद नहीं आ रही है। अलग-अलग जगहों और लोगों की तरफ से धमकियां मिल रही हैं और बुरी तरह घबराया हुआ है। इस बात की आशंका है कि उसके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है। *नरेंद्र मोदी की निगाह में* उसका गुनाह है कि जिन मुसलमानों के बीच उन्होंने भरोसा पैदा करने की कोशिश की और अपने प्रति ये विश्वास जतलाने का प्रयास किया कि वो उनके विकास के लिए बराबर रूप से चिंतिंत रहते हैं, मुस्सिवर ने उन्हीं मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम किया है। उसने ऐसे कार्टून बनाये, जिससे इस्लाम पर यकीन रखनेवाले लोगों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुई हैं। ऊपरी तौर पर मुख्यधारा मीडिया को ये बात प्रभावित कर सकती है कि नरेंद्र मोदी को मुसलमानों और उनकी भावनाओं की कितनी गहरी चिंता है और अगर वो किसी कार्टूनिस्ट को भावनाएं भड़काने या आहत करने के अपराध में सजा देते हैं, तो इसमें गलत क्या है? लेकिन क्या नरेंद्र मोदी सचमुच इतने संवेदनशील और उनके प्रति सजग हैं, जिनके मुख्यमंत्रित्‍व काल में सरेआम कत्ल किये गये और इस सद्भावना मिशन में ताल ठोंक कर दावा किया कि अगर नरेंद्र मोदी गलत है, उसने कुछ करवाया तो फिर उसके खिलाफ इस देश में एक भी एफआईआर क्यों नहीं दर्ज कराया गया? मुख्यधारा मीडिया ने छिटपुट तरीके से ही सही, इस पूरे मामले में जो कुछ भी प्रकाशित किया (न्यूज चैनल लगभग चुप ही हैं), उसके आधार पर अंदाजा लग जाता है कि नरेंद्र मोदी के लिए आलोचना का मतलब क्या है और भावनाओं को आहत करने का अर्थ क्या है? हमने इस पूरे मामले में प्रभात किरण अखबार जिसने कि 20 सितंबर को मुस्सविर का कार्यून प्रकाशित किया, उसके संपादक प्रकाश पुरोहित से टेलीफोन के जरिये बातचीत की। प्रकाश पुरोहित ने इस संबंध में जो तर्क दिया, वो मुख्यधारा मीडिया में या तो टुकड़ों-टुकड़ों में आया है या फिर कई ऐसी बातें हैं, जिसका कि जिक्र ही नहीं है। कार्टून के संबंध में उन्होंने स्पष्ट किया कि ये किसी भी तरह से मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचानेवाला नहीं है बल्कि इसे पाठकों ने बहुत सराहा है और इस बात की कोई शिकायत नहीं आयी। हमने ऐसा करके दरअसल एक सामान्य मुसलमान की उस भावना को लोगों के सामने रखने की कोशिश की, जिसे कि स्वयं नरेंद्र मोदी ने दरकिनार कर दिया। दरअसल हुआ ये था कि सद्भभावना अनशन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्से से आये लोग अपने यहां के प्रतीक चिन्ह के तौर पर वस्तुएं मोदी को भेंट कर रहे थे। मोदी उन चीजों को स्वीकार कर रहे थे और ये चीजें मामूली होती हुई भी उस इलाके की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। इसी दौरान एक सामान्य मुसलमान जो कि पिछले दो दिनों से इंतजार कर रहा था कि वो भी नरेंद्र मोदी को कुछ दे और उसने नरेंद्र मोदी को टोपी दे दी और पहनने का आग्रह किया। ये बहुत ही संवेदनशील और भावुक क्षण था और अगर वो उसे पहनते, तो संभव था कि मुसलमानों के बीच बहुत ही अलग किस्म का सकारात्मक संदेश जाता लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और उससे मुसलमान की भावना को चोट पहुंची। *प्रकाश पुरोहित जो बात बता रहे थे*, उसे एनडीटीवी ने भी दिखाया। ये बिल्कुल सीधा सवाल है कि अगर आप मुसलमानों को बराबर का सम्मान देते हैं, तो दूसरे पंथों और क्षेत्रों के लोगों की दी हुई प्रतीकात्मक चीजों को जिस तरह से आपने ग्रहण किया, उसी तरह एक सामान्य मुसलमान की दी हुई टोपी क्यों नहीं? प्रकाश पुरोहित ने आगे जोड़ा कि इस घटना से हमें नरेंद्र मोदी को लेकर दिक्कत हुई और लगा कि इसे किसी न किसी रूप में लोगों के सामने लाया जाना चाहिए। लिहाजा मुस्सिवर ने कार्टून बनाया, जिसे कि हमने अपने अखबार के पहले पन्ने पर 20 सितंबर को छापा। *जिस चांद-सितारे को* कार्टून में दिखाया गया है, उसकी व्याख्या इस्लाम धर्म के जानकार बेहतर कर सकते हैं? क्या इस धर्म में चांद-सितारे की उसी अर्थ में व्याख्या है, जिस अर्थ में मुस्सविर पर धार्मिक भावनाएं भड़काये जाने के लिए सजा दी गयी? ये सिर्फ और सिर्फ उस एक सामान्य मुसलमान की भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जो कि नरेंद्र मोदी को टोपी भेंट में देना चाहता था। *कार्टून छपने के बाद* मुस्सविर को घर जाकर पुलिस ने उठा लिया और रातभर थाने में रखा। उसे तरह-तरह से परेशान किया जाने लगा। हमें यह तक नहीं बताया गया कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं और जब उस पर धाराएं लगायी जा रही थीं तो हमसे कुछ पूछा तक नहीं गया। मल्हारगंज थाने में उसके खिलाफ आईपीसी के सेक्शन – 295 ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। ये वो धारा है, जिसे कि समाज के किसी तबके की धार्मिक भावना को भड़काने के संदर्भ में लगाया जाता है। उसके साथ बहुत ही बुरा सलूक किया गया। अभी भाजपा समर्थक लोग मुस्सिवर को अलग-अलग तरीके से परेशान कर रहे हैं जबकि वह इस घटना से इतनी बुरी तरह आहत और घबराया है कि कुछ वक्त के लिए सोना चाहता है। *मेरे ये पूछे जाने पर* कि क्या आपने इस पूरे पक्ष को प्रभात किरण अखबार में विस्तार से प्रकाशित किया, और मुस्सिवर के साथ संपर्क में हैं, इस संबंध में उनका जवाब था – हम अपने अखबार की उपलब्धि और परेशानी को नहीं प्रकाशित करते हैं। लेकिन हां आज का जो अखबार आ रहा है, उसमें हमने दूसरे तमाम अखबारों और पत्रिकाओं ने इस संबंध में क्या छापा है, उसे शामिल कर रहे हैं। प्रभात किरण में ही मेरा एक कॉलम है जो कि शनिवार को आता है – बस यूं ही, उसमें मैं इस घटना की विस्तार से चर्चा करने जा रहा हूं। मुस्सविर कहां है, पता ही नहीं चल रहा लेकिन हां फोन पर बात हो रही है और बताया कि लोग उसे बुरी तरह परेशान कर रहे हैं, वो चाहता है कि कुछ समय के लिए सुकून मिल जाए। *मुस्सविर के साथ* इतना कुछ हो गया लेकिन उसके बाद भी प्रभात किरण ने सख्ती से इस खबर को प्रकाशित नहीं किया। ये दरअसल उसी मेनस्ट्रीम मीडिया का चरित्र है, जहां कोई पत्रकार रिस्क लेकर खबरें लाता है, प्रकाशित करता है लेकिन जैसे ही उस पर मुसीबत आती है, वो पत्रकार होने के बजाय एक व्यक्ति हो जाता है। पत्रकारों पर जो भी राजनीतिक हमले होते हैं और आये दिन सांप्रदायिक ताकतों का निशाना बनते हैं, उसकी एक बड़ी वजह यही है कि जिस मीडिया के लिए वो काम करते हैं, वही मीडिया उनका साथ छोड़ देता है और उपद्रवियों और उनकी आवाज कुचलनेवाली ताकतों का मनोबल बढ़ जाता है। लेकिन अभी हाल ही में तुर्की में Bahadir Baruter ने जो कार्टून बनाया और उनके खिलाफ धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के अपराध में कार्रवाई की गयी, उस कार्टून को कई प्रमुख मीडिया संस्थानों ने प्रकाशित किया। लेकिन यही काम अगर यहां किया जाए, जिस कार्टून को लेकर किसी को सजा होती है और उस पर बात करने की नीयत से उसे दोबारा से प्रकाशित किया जाता है, तो उस पर भी कार्रवाई होगी। डेनमार्क में छपे कार्टून को आलोक तोमर (जो कि अब हमारे बीच नहीं रहे) ने जब प्रकाशित किया तो उन्हें जेल जाना पड़ा। क्या ये दोहरे स्तर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं है? क्या मीडिया में ये और कार्टून सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए कि जिस कार्टून को लेकर सजा दी गयी है, वो आखिर लोगों तक पहुंचे भी तो। उस पर रोक लगाने से लोकतंत्र की कौन सी जड़ें मजबूत होगी? *प्रकाश पुरोहित ने* एक जो दूसरी बात कही, उस पर ध्यान देना जरूरी है। मुस्सिवर पर जो कानूनी कार्रवाई की गयी, वो दरअसल शिवराज सिंह चौहान के आदेश पर की गयी, जिस समय वो चीन के दौरे पर थे। नरेंद्र मोदी ने यहां तक कहा कि आप इंदौर में मामला दर्ज करवाएं नहीं तो फिर अहमदाबाद में करवाया जाएगा। शिवराज सिंह की सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निकलनेवाली दर्जनों पत्रिकाओं को विज्ञापन देती आयी है और शायद उनकी ऐसा करने की इच्छा नहीं रही हो लेकिन मोदी के कहने पर ऐसा किया और रातोंरात कार्रवाई की गयी। ये दरअसल एक ही पार्टी के होने की वजह से भी किया गया। पुरोहित का मानना है कि जिस कार्टून को लेकर इतना विवाद हुआ, अगर दिल्ली या किसी बड़े शहर से प्रकाशित होता तो कुछ नहीं होता। छोटे शहरों से निकलनेवाले अखबारों की बातों पर मैनिपुलेशन का काम ज्यादा होता है। सच बात तो ये है कि सद्भावना मिशन में जो भी मुसलमान मौजूद थे, वो या तो भाजपाई ताकतों के डर से थे या फिर मोदी समर्थकों के कहने पर बुलाये गये थे। स्वाभाविक तौर पर जो मुसलमान आये भी हों, तो इस घटना से रही-सही शंका भी अपने आप दूर हो जाती है। *पहले फेसबुक पर* बिहार सरकार से असहमति जताने पर मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण का निलंबन और अब इंदौर में कार्टून बनाने पर मुस्सविर के साथ लगातार जबरदस्ती और परेशान किये जाने की घटना किस लोकतंत्र को मजबूत करेगी, ये हमसे बेहतर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी करेंगे या फिर मुख्यधारा का मीडिया जो लगातार इन दोनों की बहुत ही सेकुलर, लोकतांत्रिक और उदार छवि बनाने में जुटा है। इंदौर में मुस्सिवर के साथ जो कुछ भी हुआ, वो दरअसल सद्भावना अनशन के दौरान नरेंद्र मोदी के आगे मुख्यधारा मीडिया के दंडवत हो जाने की परिणति है। *सद्भावना अनशन के दौरान* सांप्रदायिक नेता की बनी छवि को रातोंरात मेकओवर करने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कुछ भी कहा, उसके आगे मुख्यधारा के अधिकांश मीडियाकर्मी और चैनल लोटते नजर आये। ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव की आपाधापी के बीच नरेंद्र मोदी ऐसे महत्वपूर्ण हुए कि मीडियाकर्मी से अगर वो बात कर लेते तो वो अपने ऊपर एक तरह का नरेंद्र मोदी का एहसान मानते। ये सब कुछ टीवी स्क्रीन पर बहुत ही साफ दिखाई दे रहा था। आजतक के बाकी लोगों से ज्यादा समझदार समझे जानेवाले अजय कुमार जैसे कई मीडियाकर्मी इस एहसान के तले इतने अधिक दब गये कि इंटरव्यू लेते हुए जो बातें नरेंद्र मोदी के लिए कही वो पेड न्यूज से कहीं ज्यादा घिनौनी दिखनेवाली थी। चैनलों ने नरेंद्र मोदी की कही बातों को साकारात्मक तौर पर जमकर दिखाया और एक-एक वक्तव्य को लेकर घंटों फ्लैश चलाये गये। मुख्यधारा के मीडिया को इस तीन दिन के मिशन में ही आगामी सरकार की रुपरेखा दिखने लगी और तभी नरेंद्र मोदी को इस बात का एहसास करा दिया कि आपके प्रधानमंत्री होने की स्थिति में हम आपके साथ होंगे, आपके पक्ष में होंगे और आपके आगे न केवल घुटने टेक देंगे बल्कि आपकी छवि मेकओवर करने में कहीं से कोई कोर-कसर नहीं छोडेंगे। इन तीन दिनों में मुख्यधारा का मीडिया जिसने कि गुजरात दंगे के बाद से लगातार मोदी की सांप्रदायिक छवि सामने लाने में लगा रहा, पूरी तरह पलटता नजर आया। नेटवर्क 18 और एनडीटीवी और दूसरे चैनलों की कुछ खबरों को छोड़ दें तो साफ झलक रहा था कि मीडिया पूरी तरह नरेंद्र मोदी के प्रभाव में आ चुका है और आनेवाले समय में राष्ट्रीय स्तर पर अगर उनकी स्थिति मजबूत होती है तो उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलेगा। *हद तो तब हो गयी* जब नरेंद्र मोदी का वक्तव्य आया कि वो अपनी और सरकार की आलोचना का सम्मान करते हैं, उससे सीखते हैं क्योंकि इससे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती है। नरेंद्र मोदी के इस वक्तव्य को चैनलों ने कुछ इस तरह से दिखाया कि जैसे उन्हें पता ही नहीं है कि नरेंद्र मोदी का क्या इतिहास रहा है या फिर कथनी और करनी के बीच किस हद तक फासला रहा है और भविष्य में इस लेबल को चिपका कर क्या करने जा रहे हैं? चैनलों ने इस पर अपनी तरफ से खड़े तेवर नहीं अपनाए और सवाल-जवाब नहीं किया। इन तीन दिनों की फुटेज पर गौर करें तो आपको सहज ही अंदाजा लग जाएगा कि जिस नीयत से नरेंद्र मोदी ने ये मिशन शुरू किया, मुख्यधारा मीडिया ने उसका साथ दिया। *एक मामूली सी स्टोरी होती है* तो चैनल उससे जुड़ी पुरानी फुटेज को शामिल करता है, उसे लगातार दिखाता है। लेकिन सद्भावना मिशन की खबरों के दौरान मोदी ने सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत करने की नीयत से जो बयान दिये, गुजरात दंगे में जो स्थितियां बनी, उन सबों को शामिल नहीं किया। क्या ये सब कुछ अकारण ही किया गया। जिस चैनल को इस बात की आदत पड़ी हुई है कि एश्वर्या या अमर सिंह पर स्टोरी चलानी हो तो वो सिनेमा से लेकर सीडी तक की पुरानी फुटेज का इस्तेमाल करती है, नरेंद्र मोदी के इस सद्भभावना अनशन के दौरान क्यों नहीं किया? क्या ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा मीडिया के कार्पोरेट खेल के भीतर जो थोड़े व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार पत्रकार बच गये हैं, वो संस्थान खुद उन पत्रकारों को हालात, राजनीतिक आकाओं के हाथों मरने-खत्म होने के लिए खुला छोड़ देते हैं और उनकी मौत और परेशानी को अपनी ब्रांडिंग के लिए इस्तेमाल करते हैं। उनके खिलाफ हुई कार्रवाई को मार्केटिंग वालों की गिद्ध नजरों की मदद से रिवन्यू में तब्दील करती है? मुझे नहीं पता कि प्रभात किरण के संपादक प्रकाश पुरोहित मुस्सविर के साथ होनेवाली इस ज्यादती में कितनी दूर तक साथ देंगे, वो मुख्यधारा मीडिया से कितना अलग चरित्र निभाएंगे लेकिन इतना तो जरूर है कि प्रशासन और सरकार के कुचलने के पहले मीडिया संस्थान ही ऐसे पत्रकारों को तबाह हो जाने के लिए जमीन तैयार कर देते हैं, जहां व्यक्तिगत स्तर पर ईमानदार होने का मतलब सिर्फ प्रताड़ना और अफसोस है। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Sep 30 21:37:09 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 30 Sep 2011 21:37:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSy4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkhuCkkyAxNCDgpIXgpJXgpY3gpJ/gpYLgpKzgpLAsIOCkiQ==?= =?utf-8?b?4KS4IOCkpuCkv+CkqCDgpKHgpYLgpKzgpYfgpILgpJfgpYcg4KSk4KWL?= =?utf-8?b?IOCkquCkvuCksCDgpLngpYsg4KSc4KS+4KSP4KSC4KSX4KWH?= Message-ID: अब, जबकि पीके (प्रवीण कुमार) की फि़ल्म ‘जो डूबा सो पार’ प्रदर्शन के लिए तैयार है, मुझे लगने लगा है कि यह शीर्षक जितना फि़ल्म की कहानी पर सही उतरता है, उतना ही खुद पीके पर भी। मैंने उन्हें डूबे हुए देखा था। वहां होशंगाबाद में, जहां भार्इ साहब बिहार पसारे बैठे थे। जी हां, बिहार। फि़ल्म का उपशीर्षक है, ‘इटस लव इन बिहार’। बहरहाल, तब सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी मुंबइया माया-तंत्र के खौफ के चलते यह भरोसा कर पाना मुश्किल लग रहा था कि यही पार हो जाने की सूरत भी है। अब जाकर परतीत हुआ। *आसपास वालों की निगाह में* नालायक, कि़स्सागो की निगाह में नायक – मुख्यत: इसी कथानक-रूढ़ि पर बुनी गयी है फि़ल्म। लेकिन इस रूढ़ि का खासा दिलचस्प और नया-सा ट्रीटमेंट आपको इस फि़ल्म में मिलेगा। यहां नायक बड़े ही दार्शनिक मिजाज का नालायक है – वह हिबिस्कस यानी उड़हुल से बातें कर सकता है; जिस इम्तहान को ज्ञान का परीक्षण माना जाता है, उसे अपने ज्ञान के बल पर ही भंडोल कर सकता है; मधुबनी पेंटिंग्स के नायाब मायने बता सकता है और यह पूछे जाने पर कि वह इतना सब कैसे जानता है, कह सकता है कि ‘मैं नहाते समय ध्यान लगाता हूं’। शायद इसी अटपटेपन के चलते स्कूली व्यवस्था उसे पचा नहीं पाती और उगल देती है। दरअसल, इस उगले जाने से ही कहानी एक तरह से शुरू होती है। वह आवासीय विद्यालय से वापस अपनी कस्बार्इ दुनिया में लौटता है, शोध के सिलसिले में फील्ड वर्क के लिए आयी हुर्इ एनआरआर्इ बाला के एकतरफा प्यार में गिरफ्तार होता है और फिर एक ऐसी कहानी बनने लगती है, जो बिहार के अपहरण उद्योग, मधुबनी पेंटिंग्स और धम्म की बची-खुची छायाओं के बीच से होकर गुजरती है। यानी किस्से में बिहार अपने कर्इ चेहरों के साथ मौजूद है। पीके और फरीदा मेहता (सह-पटकथाकार) संकरी, रूढ़ धारणाओं के बल पर अपना करोबार नहीं चलाते। *और हां*, वे इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि इन चेहरों की रेखाएं खींचने में जरूरत से ज्‍यादा संजीदगी न बरतने लगें। फि़ल्म फि़क्र में डूबी हुर्इ नहीं, फि़क्र को धुएं में उड़ाती-सी चलती है। *छोटे बजट और* प्राय: अज्ञातकुलशील कलाकारों के साथ बननेवाली फि़ल्मों ने पिछले दिनों जिस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज की है, वह एक ऐसा रुझान है, जिसमें हिंदुस्तानी सिनेमा को लेकर दूरगामी संकेत छिपे हैं। ‘जो डूबा सो पार’ उसी की एक कड़ी है। इससे ज्‍यादा उसके बारे में क्या कहूं! रविकांत, प्रभात और जोजफ के साथ उसका एक चौथार्इ संवाद-लेखक भी तो हूं! लिहाजा, विनय पाठक ने अपनी अदभुत क्षमता से जिसके किरदार में जान डाल दी है, उस टोकन हवलदार के शब्दों में इतना ही कहा जाए, ‘हो गया बोहनी! अब तो बस, 14 अक्तूबर का इंतजार है’। *(संजीव। प्रेमचंदोत्तर उपन्‍यासों की सैद्धांति‍की और उसके रचनात्‍मक उपयोग पर पीएचडी। देशबंधु कॉलेज, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक। हाल में आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान से सम्‍मानित। उनसे sanjusanjeev67 at gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)* *मूलतः प्रकाशित-मोहल्लाlive* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From amalendu.upadhyay at gmail.com Wed Sep 14 17:32:49 2011 From: amalendu.upadhyay at gmail.com (Amalendu Upadhyaya) Date: Wed, 14 Sep 2011 12:02:49 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?New_post_on_my_blo?= =?utf-8?b?Zy4g4KSV4KS54KS+4KSo4KWALS0tLS0tLi4u4KSF4KSsIOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSo4KWN4KSm4KSX4KWAIOCkrOCkpuCksuClh+Ckl+ClgC0g?= =?utf-8?b?4KSt4KWC4KSq4KWH4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCkuOCkv+CkguCkuQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: कोई बात नहीं, hastakshep.com पर http://hastakshep.com/2011/09/kahaanee.jspलिंक पर पढ़ सकते हैं. अमलेन्दु उपाध्याय 2011/9/14 Vijender Chauhan > > लिंक काम नहीं कर रहा। मरम्‍मत करें। > विजेंद्र > > > > 2011/9/13 Devendra Pratap > >> ऐसा लगता है आजकल साहित्यकारों ने मजदूरों की जिन्दगी पर साहित्य रचना बिलकुल >> ही बंद कर दिया है. इसकी बड़ी वजह है की वे खुद आम लोगों के जीवन और उनके >> संघर्षों से दूर हो गए हैं. हाँ कुछेक स्वनामधन्य कवि लोग जरूर हैं जो कभी-कभी >> उनकी जिन्दगी पर अंशू बहा देते हैं. बहरहाल हमें युआ लेखक भूपेंद्र सिंह की एक >> मौलिक (हो सकता है अनगढ़ हो?) और अभी तक अप्रकाशित कहानी मिली है, जो कई >> अख़बारों और पत्रिकाओं का चक्कर लगाकर यहाँ तक पहुची है. आशा है इस पर आप की >> प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी. >> ...अब तो जिन्दगी बदलेगी >> भूपेन्द्र सिंह >> *पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें * >> पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें >> http://www.100flovers.blogspot.com/ >> देवेन्द्र प्रताप >> जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ >> मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -- [image: Welcome To Hastakshep] राजनैतिक, आर्थिक, संस्कृतिक मुद्दो और आम आदमी के सवालो पर सार्थक *हस्तक्षेप* के लिये देखें http://hastakshep.com/ amalendu.upadhyay at gmail.com पर अपनी ख़बरें, विज्ञप्तिया और लेख भेजें अपनी विज्ञप्तियां, आलेख यूनिकोड मंगल फॉण्ट में ही भेजें, साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं जेपीजी फोटो भी भेजें - अमलेन्दु उपाध्याय *हस्तक्षेप.कॉम के अपडेट अपने मोबाइल पर प्राप्त करने के लिए सबस्क्राइब करें * ttp://labs.google.co.in/smschannels/subscribe/hastakshep -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Thu Sep 15 23:00:11 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Thu, 15 Sep 2011 17:30:11 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWN4KSw4KS3?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KS+4KSa4KS+4KSwIOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KSuIOCkheCkqOCljeCkqOCkviDgpJXgpL4g4KSG4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KSy4KSoIDog4KSP4KSVIOCkteCkv+CktuCljeCksuClhw==?= =?utf-8?b?4KS34KSjIC0tLS0tLS0tLS0tLS0tLS0t4KSm4KS/4KSX4KSC4KSs4KSw?= Message-ID: अन्ना आन्दोलन पर अभी तक अलग-अलग नजरिये से कई लेख आये हैं. इस बार हम वामपंथी सामाजिक कार्यकर्त्ता साथी दिगंबर का अन्ना परिघटना पर एक महत्वपूर्ण व विश्लेषणपरक लेख प्रस्तुत कर रहे हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना का आन्दोलन : एक विश्लेषण दिगंबर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From devhills at gmail.com Fri Sep 16 21:31:24 2011 From: devhills at gmail.com (Devendra Pratap) Date: Fri, 16 Sep 2011 16:01:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KS44KSw?= =?utf-8?b?4KWAIOCklOCksCDgpIXgpILgpKTgpL/gpK4g4KSV4KS/4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?IC0tLS0tIOCkreCljeCksOCkt+CljeCkn+CkvuCkmuCkvuCksCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkluCkv+CksuCkvuCkqyDgpJ/gpYDgpK4g4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKggOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS24KWN4KSy4KWH4KS34KSjIOCkpuCkv+Ckl+CkguCkrA==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: एक साथी के सुझाव से पाठकों की सहूलियत के लिए दिगंबर के बड़े लेख को दो हिस्सों में बाँट दिया है. जिन साथियों ने लेख को पूरा न पढ़ा हो वे लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं. *दूसरी और अंतिम किस्त * भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना का आन्दोलन : एक विश्लेषण *दिगंबर* पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें http://www.100flovers.blogspot.com/ देवेन्द्र प्रताप जनवाणी हिंदी दैनिक, मेरठ मोबाइल नंबर - 08909982424, 09719867313 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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