From raviratlami at gmail.com Wed Nov 2 15:01:29 2011 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Wed, 02 Nov 2011 15:01:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkoQ==?= =?utf-8?b?4KWJ4KSV4KWN4KSf4KSwIOCkleClgCDgpKHgpL7gpK/gpLDgpYAg4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkuOCkpOCljeCkr+CkleCkpeCkvg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4EB10DF1.4010208@gmail.com> एक डॉक्टर की डायरी से – डैथ डांसः अंतिम अरदास डॉ. श्रीगोपाल काबरा ( डॉ. श्री गोपाल काबरा वर्तमान में निदेशक, वैधानिक मामले एवं चिकित्सीय लेखा परीक्षण, एस.डी.. ओ; हास्पिटल के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने ६ वर्ष सर्जन, २५ वर्ष मेडिकल महाविद्यालयों तथा ११ वर्ष हास्पिटल मैनेजमेंट में अध्यापन कार्य किया है। उनके द्वारा लिखित ' एक डॉक्टर की डायरी ' के सत्य प्रमाणित प्रकरणों में प्रस्तुत एक प्रकरण। ) नारायण देवदासन ( २००३ ) और उनके साथियों ने चिकित्सा के एक नये हिंसक रुप को प्रतिपादित किया है जिसको उन्होंने आईट्रोजेनिक पॉवर्टी अर्थात चिकित्सा जनित गरीब। ' की संज्ञा दी है। हारी बीमारी में आपात खर्च को उन्होंने कैटाष्ट्रोफिक हैल्थ केयर एक्सपेंडिचर कहा है। जो गरीब आज महंगी चिकित्सा का खर्च वहन नहीं कर सकते वे चुपचाप मृत्यु का वरण करते हैं और जो घर बार गिरवी रखकर या बेचकर चिकित्सा करवाते हैं- खास कर रोजी-रोटी कमाने वाले परिवार के मुखिया के इलाज के लिए-वे ऋण के पंक में डूब जाते हैं, भूखे मरते हैं, आत्म हत्या करते हैं। चिकित्सा में आपात खर्च गांवों में सदा ही ऋण में डूबने का प्रमुख कारण रहा है जिसमें सर्वे और अनुमान के अनुसार करीब 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। उचित सामाजिक या सरकारी व्यवस्था के अभाव में चिकित्सा जनित गरीबी पारिवारिक हिंसा का रूप ले लेती है। विश्व के गरीब और विकासशील देशों में यह व्यापक रूप में विद्यमान है। सामान्य आय वाले लोग, बीमार होने पर, जो थोड़ा बहुत पैसा जमा होता है उसे लेकर अस्पताल आते हैं, गंभीर अवस्था होने पर शहर के बड़े अस्पताल में सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के कारण निजी अस्पताल में ले जाते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैसे ही काफी महंगी हो गई है। उस पर निजी अस्पताल की व्यवसायिक व्यवस्था में निदान, उपचार और औषधियों का बेतहाशा पैसा लिया जात। है किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। जो जमा पैसा लेकर आते हैं वह तो भर्ती करवाने पर एडवांस में ही चला जाता है और मरीज के अभिभावकों के पास कोई और उपाय नहीं रहता सिवा इसके कि कर्ज लेकर संपत्ति बेच कर पैसा लायें। मरीज की माली-हालत के प्रति संवेदनहीनता कूर हिंसा का रूप ले लेती है। मरीज को लाभ हो या न हो परिवार उस हिंसा से नहीं बच पाता। उस महिला को छ : महीने का गर्भ था। बुखार हो गया। दो-तीन दिन गांव में डाक्टर से इलाज करवाया। लाभ नहीं हुआ। फेफडों में संक्रमण हो गया। सांस में तकलीफ होने लगी। डाक्टर ने कह दिया शहर के बड़े अस्पताल ले जाओ। मां और गर्भ में पलते बजे दोनों के जीवन का सवाल। कोई कैसे यथासंभव न करे। पति स्कूल में साधारण मास्टर। बताया प्राईवेट अस्पताल में एडवांस पैसा जमा कराये बिना भर्ती नहीं करते अत : रकम नकद ले कर जायें। साथ ही दवायें भी काफी महंगी होती हैं जो स्वयं को खरीदकर लानी होंगी अत : उसके लिए भी नकद ले जायें, वर्ना परदेश में क्या करोगे। हठात इतनी रकम। किसी तरह व्यवस्था की और लाकर पली को शहर के नामी निजी अस्पताल में भर्ती करवाया। लोगों ने ठीक कहा था, २० हजार रू एडवांस दिये तब भर्ती का कार्ड बना। सीधा आईसीयू में भर्ती किया गया। गहन चिकित्सा इकाई के माहौल को देखकर पति को लगा पली को अच्छी चिकित्सा मिलेगी। उसे नहीं मालूम था कि वहां के केवल बिस्तर के ही प्रति दिन के चार्जेज 4 हजार रुपये हैं। अगर मालूम भी होता तो क्या, ये तो लगेंगे ही। थोड़ी देर में नर्स ने दवाओं की फेहरिस्त लाकर दी। खरीद कर लाये, डिब्बा भर दवाइयां, हजारों की। जेब में थोडे से रुपये बचे। मरीजों के लिए खाना आया। मरीजों को खाना अस्पताल से दिया जाता है। महिला कुछ भी खाने की स्थिति में नहीं थी लेकिन उसके ३५० रुपये दिन के तो अस्पताल लेगा ही। उधर पति यह विचार कर खाना खाने भी नहीं गया कि थोड़े से रुपये बचे हैं कहीं और दवाओं के लिए कम न पड़ जायें। डाक्टर ने आकर बताया स्थिति गंभीर है। दोनों ओर के फेफड़े संक्रमित हैं, सांस नहीं ले पा रही है अत: वेंटीलेटर लगाना पडेगा। उन्होंने फार्म दिया कि उस पर अनुमति के हस्ताक्षर कर दें। गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती है, जो गहन चिकित्सा आवश्यक और उचित हो वह करें, मुससे अनुमति किसलिए? नहीं इसके अलग से १००० रु. प्रति दिन के चार्जेज लगेंगे अतः अनुमति आवश्यक है। नहीं तो लिख दीजिये हमें नहीं लगवाना, जो हो उसकी जिम्मेवारी आपकी। थोडी देर में मरीज की बैड हेड टिकट ले कर आये। बताया इलाज से पेट के बच्चे को काफी खतरा है। वह बच नहीं पायेगा। आप लिख कर दीजिये कि आप यह जानकर भी इलाज की अनुमति देते हैं। मरीज के फेफड़ों की हालत और खराब हो गई। शक हुआ स्वाइन फ्लू न हो। टेस्ट करवाया। पोजीटिव निकला। सरकारी निर्देश और व्यवस्था अनुरुप मरीज को स्वाइन फ्लू के लिए निर्धारित कमरे में शिष्ट कर दिया। सरकारी आदेश के अनुसार कमरे के चार्जेज ८०० रु. प्रतिदिन लेने थे लेकिन मरीज से आईसीयू के ही चार्जेज वसूल किये गये। पेट का बच्चा मर गया। स्वत : गर्भपात हो गया। महिला डाक्टर ने ४००० रुपये। डिलेवरी करवाने के और ३००० रुपये लेबर रूम चार्जेज लगाये जब कि न मरीज की। डिलेवरी करवाई गई थी न ही वह लेबर रूम में ले जाई गई थी। हर बार देखने आने के 250 रुपए महिला चिकित्सक ने अलग से लिए। स्वाइन फ्लू के संक्रमण काल के सात दिन गुजरने पर मरीज को वापस आईसीयू में शिफ्ट कर दिया जब कि यह आवश्यक नहीं था। स्वाइन फ्लू की कॉम्प्लीकेशन का इलाज यथावत वहां चल सकता था, वेन्टीलेटर, मोनीटर आदि सब वहां थे । स्वाइन फ्लू की जगह अब फेफडों के अस्पताली संक्रमण ने ले ली थी । बदल-बदल कर महंगी एन्टीबायोटिक दवायें मंगा रहे थे लेकिन सुधार नहीं हो रहा था । रोज जब-तब कहते हालत गंभीर है, फेफडे बिलकुल काम नहीं कर रहे । ' प्रोग्नोसिस वेरी ग्रेव '-बचने की संभावना बहुत कम है । दवाओं की फिर पर्ची दी । लेने गया । दुकानदार ने बताया हजारों रुपये की हैं । इतने पैसे नहीं थे । आकर डाक्टर को बताया तो कहा लिख दीजिये दवा नहीं ला सकते, मरीज की हालत की जिम्मेवारी आपकी होगी । वेन्टीलेटर से भी लाभ नहीं हो रहा था । फेफडों की हालत इतनी खराब थी कि आक्सीजन रक्त में पूरी मात्रा में पहुंच ही नहीं पा रही था । रक्त में आक्सीजन की कमी के कारण अन्य अंग प्रभावित हो रहे थे। वेन्टीलेटर लगाया तब बेहोशी की दवा दी थी। रक्तचाप दवायें देने के बावजूद स्थिर नहीं हो पा रहा था। रह-रह कर काफी गिर जाता। अंगों में यथेष्ट रक्त संचार नहीं होने से अंग क्षतिग्रस्त हो जाते। ' प्रोग्नोसिस वेरी वेरी ग्रेव '। अस्पताल ने अंतरिम बिल थमाया-! ५५००० रू. का। लाखों रुपये दवाओं पर खर्च हुए वे अलग। कर्ज लेकर गहने बेच का, व्यवस्था की थी, और कहां से लाता? अस्पताल ने कहा बिल के पैसे जमा कराइये वरना आगे इलाज नहीं चलेगा। महिला के लाचार पति ने दुखी मन डाक्टर से कहा कि जब आप ' कह रहे हैं इलाज कारगर नहीं हो रहा है, रोगी के बचने की संभावना नहीं है तो फिर वह वेन्टीलेटर हटा दीजिये, हम मरीज को अपनी जिम्मेवारी पर ले जाते हैं। डाक्टर ने मना कर दिया। फेफडे बिलकुल काम नहीं कर रहे मरीज सांस अपने आप नहीं ले सकती, हम वेन्टीलेटर नहीं हटा सकते। वेन्टीलेटर हटाने का मतलब होगा मर्सी किलिंग और इसके लिए उच्चतम न्यायालय ने मना किया है। मरीज की किडनी ने काम करना बंद कर दिया। अस्पताल के दूसरे विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होंने डायलिसिस की सलाह दी। क्या इससे फेफडे ठीक हो जायेंगे? मरीज बच जायेगी? नहीं करवानी तो लिख दीजिये जिम्मेवारी आपकी। प्रभारी डाक्टर रात को देखने को आये तीन गुना से ज्यादा ५०० रुपये विजिट चार्ज लगाया। बताया,' प्रोग्नोसिस इज वेरी वेरी ग्रेव। ' बेहोशी और गहरा गई। न्यूरो फिजिशियन को रेफर किया। उन्होंने जांच कर जो, लिखा और बताया उससे साफ था कि मरीज बेन डेड हो चुकी है। अन्य डाक्टर का भी! यही आंकलन था। लेकिन इलाज चालू रहा। वेन्टीलेटर लगा रहा, दवायें चलती रहीं।; डाक्टर ने कहा जब तक दिल धड़क रहा है हम वेन्टीलेटर नहीं हटा सकते। उन्होंने तो ' डू नॉट रिसेसिटेट आर्डर ( डी एन आर ) ' लिखने से भी मना कर दिया, जिसका मतलब होता है कि चूंकि मरीज ब्रेन डेड है अतः जब हदय धडकना बंद करे तो सी पी आर कर व्यर्थ उसे वापस चालू करने का प्रयत्न न किया जाय। इसके विपरीत दो दिन बाद जब हृदय गति रुकी तब विधिवत सी पी आर का ' डेथ डांस ' करने के पश्चात् मरीज को मृत घोषित कर ९० हजार रू. का बिल अदा करने को कहा ताकि मृत देह उन्हें सोंपी जा सके। वरिष्ठ विशेषज्ञ, जिनके अंतर्गत भर्ती की गई थी, जो सारे शरीर के विशेषज्ञ थे, उन्होंने उसी समय बता दिया कि स्थिति गंभीर है और दूसरे रोज कह दिया था प्रोग्नोसिस ग्रेव है, महिला रोग विशेषज्ञ जिसने कहा कि पेट का बच्चा नहीं बचेगा, और नहीं बचा, एनेस्थेटिस जिसने उच्चस्तरीय मोनिटरिंग के लिए सैन्ट्रल वेनस लाइन डाली, डाईबेटोलोजिष्ट जिसने हर दो घंटे शुगर मोनिटर कर कंट्रोल की, नाक से पेट में राइल्स ट्यूब डाली गई जिससे क्या तरल खाना, किस मात्रा में और कब डालना है, डाईटीशियन ने बताया, नेफ्रोलोजिष्ट जिसने बताया कि गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया है, युरोलोजिष्ट जिसने पेशाब की थैली में कैथेटर डाला ताकि पेशाब की मात्रा नापी जा सके, कार्डियोलोजिष्ट जिसने भारीभरकम मशीन से जांच कर लिखा कि इस मृतप्राय : मरीज का हृदय.. भी प्रभावित हो रहा है, न्यूरोलोजिष्ट जिन्होंने बताया कि मरीज ब्रेन डेड है और गहन चिकित्सा इकाई के डाक्टर जिन्होंने मृत मरीज को जिलाने की भरसक कोशिश की, सबने अपनी अपनी फीस ली, कार्य करने के चार्जेज लिए, अस्पताल के चार्जेज लिए और यह सब मरीज के पति की लिखित अनुमति और उसकी जिम्मेवारी पर। यही है आज की तथाकथित' जीवन रक्षक गहन चिकित्सा की कार्यप्रणाली। मरीज एक सामूहिक सहकारी इकाई है जिसमें हर अंग विशेषज्ञ की अस्पताल की सहभागिता में अपनी एक गुमटी आरक्षित है। इस सामूहिक उपचार ( या अपचार? ) में कितनी चिकित्सा है कितना व्यवसाय? कितना प्रपंच और कितना पाखंड? कौन देखेगा, कोई व्यवस्था नहीं है न किसी प्रकार का नियंत्रण है। बेचारा पति, चिकित्सकीय व्यवस्था के हाथों लुट गया, बिक गया बरबाद हो गया। अस्पताल मालिक का कहना है कि यह सशुल्क-सेवा अस्पताल है जिसका ४० प्रतिशत रेवेन्यू ऐसे ही मरीजों से आता है, अगर इसे नहीं वसूलेंगे तो वे लुट जायेंगे, अस्पताल कैसे चलेगा। जो कुछ किया गया सब कानून संगत है, लिखित सहमति से किया गया है। --- आपका क्या कहना है? चिकित्सा के इस नए हिंसक रूप के आपके व आपके मित्रों-परिचितों-रिश्तेदारों के अनुभव क्या हैं? ---. (प्रेरणा, समकालीन लेखन के लिए – त्रैमासिक, संपादक अरूण तिवारी, संयुक्तांक अप्रैल-जून 11 व जुलाई-सितम्बर 11 से साभार.) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Thu Nov 3 16:02:52 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 3 Nov 2011 03:32:52 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Launch of FUEL Website and Discussion about FUEL Message-ID: <1320316372.69210.YahooMailNeo@web121704.mail.ne1.yahoo.com> Hi, We are launching FUEL website at FUDCon tomorrow. You are cordially invited for the event. Schedule: Date: Nov 04 2011 Time: 14:00 To 15:00 Room # Seminar Hall 1 (Room 6) Venue: College of Engineering Pune Wellesely Road, Shivajinagar Pune, Maharashtra India - 411005 Please check here for more details about the event : http://fudcon.in/sessions/fuel-project-content-collaboration-consistency regards, -------------- Rajesh Ranjan Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Nov 4 13:21:54 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 4 Nov 2011 13:21:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS24KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSwIOCkruCkuOCksuClhyDgpKrgpLAg4KSm4KS/4KSy4KWA4KSq?= =?utf-8?b?IOCkquCkoeCkl+CkvuCkguCkteCkleCksCDgpLjgpYcg4KSs4KS+4KSk?= =?utf-8?b?4KSa4KWA4KSk?= Message-ID: > > *हम-आप जानते हैं कि कश्मीर मसले पर पहले भी भारत सरकार ने कई वार्ताकार > नियुक्त किए, लेकिन यह पहली समिति है, जिसने बीते 11 महीने में राज्य के सभी > जिलों के हर समुदायों के प्रतिनिधियों से मिलकर उनकी समस्याओं को समझने में > लगाया। इसने 12 बार राज्य का गहन दौरा किया। हर बार एक रिपोर्ट अपने अनुभव के > आधार पर गृह मंत्रालय को सौंपी। उन दिनों खासकर कुछ अंग्रेजी अखबारों ने उसके > बारे में खबरें इस तरह छापीं जिससे लगा कि उनके पास रिपोर्ट की कॉपी हो। > वार्ताकारों के मुताबिक उन खबरों में कोई सच्चाई नहीं होती थी। > **अब 13वीं और आखिरी रिपोर्ट गृह मंत्री पी.चिदंबरम को वार्ताकारों ने सौंप > दी है, तब समिति के अध्यक्ष दिलीप पडगांवकर ने प्रथम प्रवक्ता से खुली > बातचीत की। इस बातचीत में उन्होंने रिपोर्ट के वे अंश बताए जिससे उसके बारे > में एक परिप्रेक्ष्य सामने आता है। हम नीचे बातचीत का एक भाग दे रहे हैं*- *सवाल- वार्ताकार की समिति क्यों बनी** ?* जवाब- 2010 में कश्मीर के हालात काफी बिगड़ गए थे। उसी वर्ष गर्मी के मौसम में पत्थरबाजी पर सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई में करीब 120 बच्चे मारे गए थे। इसके बाद दिन-प्रति-दिन स्थितियां बिगड़ती गईं। सितंबर, 2010 में सभी पार्टियों का एक प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर गया। वहां उसने सभी लोगों से बातचीत की, जिसमें अलगाववादी नेता भी शामिल थे। दिल्ली लौटकर प्रतिनिधिमंडल ने सरकार को एक रिपोर्ट दी, जिसमें कई सुझाव भी दिए गए। उस रिपोर्ट में एक सुझाव यह भी था कि भारत सरकार को एक ऐसी समिति बनानी चाहिए जो जम्मू-कश्मीर जाकर सभी क्षेत्र और वर्ग के लोगों से मिले। और फिर यह रिपोर्ट दे कि आखिर वे लोग क्या चाहते हैं। इसके बाद 13 अक्टूबर, 2010 को सरकार ने तीन सदस्यों की एक समिति बनाई। *सवाल-** **जब आप यह जिम्मेदारी ले रहे थे तो क्या उस समय आपके मन में कोई हिचक थी**?* जवाब- हम तीनों में दो लोगों का कश्मीर से पुराना ताल्लुक रहा है। राधा कुमार पिछले 15-16 सालों से कश्मीर मामले पर काम कर रही हैं। वह कई बार वहां जा चुकी हैं। स्थानीय लोग उन्हें निजी तौर पर जानते हैं। और मैं कश्मीर मसले पर 2002 में राम जेठमलानी की अध्यक्षता में बनी समिति का सदस्य था। तब हमलोग श्रीनगर, जम्मू और दिल्ली में कई लोगों से मिले थे। इसके अलावा हम दो लोगों की कश्मीर मामले में गहरी रुचि भी रही है। पर हां, जब समिति बनी तो मन में एक तरह का शक था। वह यह कि पिछले 63 सालों में कई बड़े अनुभवी लोगों ने इस मसले को हल करने की कोशिश की है। इसके बावजूद वे सफल नहीं हो सके। ऐसे में हम आगे कैसे बढ़े और इस पेंचीदे सवालों का कैसे सामना करें, यह बात मन में जरूर थी। लेकिन, दो दौरे के बाद हमें कई चीजें महसूस हुईं। और फिर उसी के आधार पर हमलोग आगे बढ़े। *सवाल- यह धारणा बनी है कि संवैधानिक व्यवस्था के अंदर ही सार्थक स्वायत्तता की सिफारिश आप लोगों ने की है**?* जवाब- नहीं, ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। *सवाल- कश्मीर में काफी विविधताएं हैं। देश में लोगों को इसकी जानकारी काफी कम है। वे समझते हैं कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है। पर ये विविधताएं भी संरक्षित हों और लोगों की राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी हों, इसके लिए आपने रिपोर्ट में क्या रुख अपनाया है**?* * * जवाब- पिछले 60 सालों से हम लगातार एक ही गलती करते आ रहे हैं और वह यह कि हमने पूरे जम्मू कश्मीर के मसले को सिर्फ और सिर्फ कश्मीर घाटी की आंखों से देखा है। मैं यह मानता हूं कि घाटी में सबसे ज्यादा हिंसाएं हुईं। वहां काफी लोग मारे गए, लेकिन यह भी सच है कि गुलाम नबी *आजाद* को छोड़ राज्य के सभी मुख्यमंत्री घाटी से रहे। अलगाववादी संगठनों का घाटी से ही रिश्ता रहा। इसलिए मीडिया और अन्य लोगों का ध्यान कश्मीर घाटी पर ही केंद्रित रहा। इससे लद्दाख और जम्मू क्षेत्र लगातार उपेक्षित होता गया। ऐसे में जब हम विविधता की बात करते हैं तो वह अनेक प्रकार की है। एक तो भाषाई है। राज्य में कम से कम आठ भाषाएं व बोलियां बोली जाती हैं। सांस्कृतिक विविधताएं वहां आपको काफी दिखेंगी। एक महत्वपूर्ण बात और है। यह बात जो कही जाती है कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, एक नजर में तो यह सही है पर इसका मतलब यह नहीं कि इनके बीच फर्क नहीं है। पहला फर्क तो यही है कि सिया-सुन्नी दोनों यहां रहते हैं। राज्य में जो सुन्नी मुसलमान नियंत्रण रेखा (एलओसी) के नजदीक रहते हैं वे फकरवाल, गुर्जर, पहाड़ी आदि हैं। वे लोग अपनी भाषा-संस्कृति में कश्मीर घाटी से पूरी तरह अलग हैं। यहां डोगरा लोग हैं। इनका सम्पन्न साहित्य है। संस्कृति काफी समृद्ध है। और इनमें हिन्दू-मुसलमान का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि ये दोनों डोगरा हैं और स्वयं को राजपूत कहते हैं। साथ ही इसपर गर्व करते हैं। यह जानकारी देश के लोगों को नहीं है। बाहर के लोगों की तो बात ही छोड़ दें। रिपोर्ट में हमने इस बात को इसलिए प्रमुखता से उठाया है, क्योंकि मैं मानता हूं कि प्रत्येक समुदाय को यह हक मिलना चाहिए कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को जिंदा रख सके। *सवाल- तो क्या कश्मीरियत इनको जोड़ती है**?* जवाब- हां, हमने कश्मीरियत पर भी काफी ध्यान दिया है। एक जमाने में इसका बड़ा मतलब था। और वह यह था कि अगल-अलग धर्म को मानने वाले इकट्ठा रह सकते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में जीने-रहने वाले समुदाय एक साथ रह सकते हैं। पर मैं समझता हूं कि कश्मीरियत का यह स्वरूप अब काफी कम हो गया है। वह कुछेक क्षेत्रों में सीमित होकर रह गया है। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि कश्मीर वादी का जो इस्लाम था जिसे हम सूफी इस्लाम कहते हैं, वह पिछले बीसेक सालों में प्रतिक्रियावादी हो गया है। वहाबी और सलाफियों की संख्या काफी बढ़ गई है। इससे वादी का जो सूफियाना रंग था वह धीरे-धीरे धुल गया। अत: मैं अब यह नहीं समझता कि किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए कश्मीरियत कोई आधार बन सकता है। *सवाल- उन समूहों से बात क्यों नहीं की जो अलगाववादी माने जाते हैं।*** जवाब- मैंने जम्मू कश्मीर के अपने पहले दौरे में ही कहा था कि हमलोग अलगाववादियों से मिलना चाहेंगे। उनसे बातचीत करना चाहेंगे। वे हमें बताएं कि कब और कहां मिलना है। किन शर्तों पर मिलना है आदि-आदि। पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। *सवाल-इस रिपोर्ट में समस्याओं के हल हैं या आप लोग जिन लोगों से मिले उनकी भावनाओं का प्रकटीकरण है**?* जवाब-रिपोर्ट से सभी अध्यायों में वहां की परिस्थिति का विश्लेषण है। फिर कहा है कि वहां के लोग क्या-क्या चाहते हैं। इसमें बात हमने अपने सुझाव दिए हैं। मैं पत्रकार हूं इसलिए कहता हूं कि उसमें एक हिस्सा रिपोर्टिंग का है, जबकि दूसरा विश्लेषण का। *सवाल-रिपोर्ट में कितने अध्याय हैं**?* जवाब- कुल छह अध्याय हैं। छह एनेक्सचर हैं। रिपोर्ट पूरी तरह कसी(कॉम्पैक्ट) हुई है। *सवाल- यह धारणा बनी है कि आपने तीन रिजनल काउंसिल की बात की है। *** जवाब- रिजनल काउंसिल की बात हमने नहीं उठाई है। 1950 से ही इसपर चर्चा होती रही है। शेख अब्दुल्ला साहब ने पहली बार जवाहरलाल नेहरू के सामने इस बारे में कुछ कहा था। इस मुद्दे पर सबसे गहरा काम बलराज पूरी ने किया है। हम जम्मू में उनसे कई बार मिल चुके हैं और मैं इतना कह सकता हूं कि उनका हमारी रिपोर्ट पर गहरा प्रभाव है। *सवाल- इस रिपोर्ट को थोड़े से शब्दों में आप कैसे समझाएंगे**?* जवाब- मैं यह कहूंगा कि जम्मू कश्मीर का मसला बहुत कठिन है। इसे हल करने के लिए इज्जत, इंसाफ और इंसानियत के आधार पर आगे बढ़कर हम कोई योजना बना सकते हैं। *सवाल-आपने एक बार कहा था कि हमारी रिपोर्ट से कोई खुश नहीं होगा। अब जब आपने रिपोर्ट सौंप दी है तो गृह मंत्री की क्या प्रतिक्रिया है**?* जवाब- नहीं, मैंने यह कभी भी नहीं कहा। मैंने सिर्फ इतना कहा कि रिपोर्ट को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। -------------- next part -------------- An HTML 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URL: From vineetdu at gmail.com Sun Nov 6 12:36:34 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 6 Nov 2011 12:36:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSh4KS84KS1?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOClhyDgpKrgpLDgpLngpYfgpJwg4KSV4KWN4KSv4KWL4KSC?= =?utf-8?q?=3F?= Message-ID: पिछले कुछ सालों से निजी समाचार चैनलों की साख और प्रासंगिकता को लेकर जो सवाल खड़े हुए हैं, वह उसके लिए अब स्थायी चिंता का विषय बन गए हैं। हाल की घटनाओं को देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में अपनी साख बुरी तरह गंवा चुकने के बाद चैनलों ने अन्ना के कार्यकर्ता बनकर अनशन को डैमेज कंट्रोल की तरह इस्तेमाल करके की जो कोशिश की,वह फार्मूला भी काम नहीं आया। 7 अक्टूबर को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी और अब भारतीय प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष मार्कण्डय काटजू ने चैनलों के चरित्र पर जो बयान जारी किए,उससे स्पष्ट है कि आनन-फानन में स्ट्रैटजी तय करके चैनलों के लिए अपने किये पर पर्दा डालना पहले जैसा आसान नहीं रह जाएगा। इतना ही नहीं,आनेवाले समय में सरोकार और लोकतंत्र के नाम पर मुनाफ़ा कमानेवाले कार्पोरेट चैनलों की जिन गड़बड़ियों को महज नैतिकता और कर्तव्य के दायरे में बात करके छोड़ दिया जाता रहा, अब इसके लिए आर्थिक रुप से भारी कीमतें भी चुकानी पड़ सकती है। टीवी चैनलों में गंभीरता लाने की घोषणा के साथ 7 अक्टूबर को मंत्रिमंडल ने टेलीविजन चैनलों के लिए जिस नई अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी है ,वह दरअसल 11 नबम्बर 2005 से लागू गाइडलाइन का ही संशोधित लेकिन अधिक ताकतवर रुप है। इस कड़ी में एक तो पंजीकरण के लिए शुद्ध संपत्ति की राशि 3 करोड़ से बढ़ाकर 20 करोड़ कर दी गयी है वहीँ दूसरी ओर यह शर्त रखी गई है कि चैनल के लिए लाइसेंस मिलने के एक साल के भीतर संबंधित संस्थान को प्रसारण शुरू करना होगा. सबसे जरुरी बात यह है कि अगर कोई चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन से संबंधित निर्धारित नियमों का उल्लंघन करता है तो उसका लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा और अगले दस साल के लिए दिए जाने वाले लाइसेंस को दोबारा जारी नहीं किया जाएगा। समाचार चैनलों से जुड़े लोगों और संगठनों ने 7 अक्टूबर से ही इस गाइडलाइन के खिलाफ माहौल बनना शुरु कर दिया और इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बताया। चैनलों ने इसका विरोध दो स्तरों पर किया- एक तो यह कह कर कि सरकार मीडिया की आवाज को दबाना चाहती है और दूसरा कि वह अफसरशाही के तहत इसे चलाना चाहती है,जबकि उसमें शामिल लोगों को इसकी बिल्कुल भी समझ नहीं है। इस विरोध के दौरान चैनलों के पक्ष में काम करते आए संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को एक बार फिर से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और सामाजिक सरोकार का वाहक के तौर पर प्रस्तावित किया और इस गाइडलाइन की तुलना आपातकाल के दौरान सरकारी नीतियों से की। गाइडलाइन की मंजूरी और इस विरोध के तीन दिन बाद सूचना और प्रसारण मंत्री ने आश्वासन दिया कि जिन पांच गलतियों पर सजा देने की बात की गई है,उसके निर्णय में चैनलों से संबंधित लोगों को भी शामिल किया जाएगा और उनके विचारों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसका मतलब है कि जिस गाइडलाइन को चैनल और उनके संगठन हमारे सामने लोकतंत्र पर हमले के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं,उसके भीतर चैनल से जुड़े लोगों की भूमिका बनी रहेगी। चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठन जब इस गाइडलाइन का विरोध कर रहे थे,उस समय यह भी कहा गया कि यह गाइडलाइन दरअसल अन्ना आंदोलन में सरकार की हार की परणति है और चूंकि मीडिया ने सच का साथ दिया इसलिए उस पर शिकंजा कसा जा रहा है। यह एक हद तक संभव हो सकता है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित इस गाइडलाइन को ठीक ऐसे समय में मंजूरी दी है जब चैनलों ने सरकार को छोड़ भावावेश में आई आम जनता का साथ दिया। लेकिन इस गाइडलाइन के बनने की प्रक्रिया और समय पर गौर करें तो 22 जुलाई 2010 को ही भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) ने अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग से संबंधित गाइडलाइन की रुप-रेखा तैयार की थी और उसी के परामर्श पर यह नई गाइडलाइन लाई गई. यह अन्ना से नहीं चैनलों के धंधे में ताकतवर रीयल इस्टेट से निबटने के लिए था। ऐसे में चैनल इसे अन्ना की कवरेज की परिणति बताकर दरअसल राजनीतिक रंग देना चाह रहे हैं।। लेकिन भारतीय प्रेस परिषद् के नए चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू ने टेलीविजन चैनलों के रवैये पर चिंता जाहिर करते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए मौजूदा सरकार सहित विपक्ष के नेताओं से विमर्श करके परिषद् को और अधिकार दिए जाने की जो बात की है ,वह चैनलों की सिर्फ हाल की घटनाओं पर बात करने के बजाय उसके पूरे चरित्र पर की गई टिप्पणी है जिसके विस्तार में जाने पर उसकी नीयत पर बात की जा सकेगी। काटजू ने अपने बयान में स्पष्ट तौर पर कहा कि चैनल सनसनी फैलाने के लिए गलत संदर्भों को शामिल करते हैं,तथ्यों को सीमित दायरे में लाकर प्रस्तुत करते हैं और घटनाओं की प्रस्तुति इस तरह से करते हैं कि वे अंत में जनविरोधी साबित होती हैं। काटजू के इस बयान को चैनलों से संबंधित संगठन बीइए( ब्राडकास्ट एडीटर एशोसिएशन) ने तर्कहीन करार देते हुए उन्हें मीडिया का अज्ञानी कहा और अपने पक्ष में कुछ उदाहरण पेश किए। यह अलग बात है कि जस्टिस मार्कण्डय काटजू 'द हिन्दू' सहित दूसरे मंचों पर मीडिया,समाज और संस्कृति पर लंबे समय से लिखते आए हैं। इस पूरे मामले पर गौर करें तो मूलभूत सवाल यही है कि क्या करीब 314 बिलियन के टेलीविजन चैनल उद्योग को सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है जिसमें वे समाचार चैनल शामिल हैं जिनकी खबरें,कार्यक्रम,एजेंड़े और पक्षधरता बैलेंस शीट की सेहत और टीआरपी चार्ट के हिसाब से तय होती है? ऐसे में इस नई गाइडलाइन को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कसनेवाली नकेल के बजाय मीडिया उद्योग पर लागू की जानेवाली शर्तें के तौर पर देखा-समझा जाए तो क्या इसके मायने वही निकलेंगे जो कि चैनलों और उनके पक्ष में खड़े संगठनों की ओर से प्रचारित किए जा रहे है? दूसरी बात,चैनल अपनी जरुरत के अनुसार बनाए गए संगठनों को पारदर्शिता बरतने और मीडिया के बेहतर बने रहने के लिए पर्याप्त मानते हैं। क्या जब से ऐसे संगठन निर्मित हुए हैं,ऐसा कोई उदाहरण हमारे सामने आया है जिसकी बिना पर इन्हें यह वैधता दी जा सके कि इनकी मौजदूगी से चैनलों के भीतर के कंटेंट और स्थिति में सुधार हो सकेगा? मसलन 22 जुलाई 2008 को अमेरिका से परमाणु करार मामले पर संसद में वोट के बदले नोट कांड हुआ और सीएनएन-आइबीएन ने भाजपा के साथ मिलकर स्टिंग ऑपरेशन किया,जिसे उस दिन तो लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर प्रसारित नहीं किया लेकिन भारी दबाव के कारण तीन सप्ताह बाद इस टेप को प्रसारित किया गया जिसमें कि कई जगहों पर छेड़छाड़ की बात सामने आयी और चैनल ने अपनी तरफ से कुछ हिस्सों को हटा दिया। इस संबंध में चैनल से लिखित वजह मांगी गयी लेकिन उसने आज तक इस संबंध में कुछ भी नहीं बताया। चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठनों ने क्या इस संबंध में कोई बात हम तक पहुंचाई? 13 अगस्त 2010 को गुजरात के मेहसाना में एक शख्स आग लगाकर आत्महत्या कर लेता है जिसके पीछे एक मीडिया संस्थान के दो पत्रकारों पर आरोप है कि उसने उसे इस काम के लिए उकसाया। इस बाबत ठीक दस दिन बाद यानी 27 अगस्त को दिल्ली में ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आ जाती है। कुल दस पन्ने की रिपोर्ट में जो कि एक ही तरफ छपाई है, 4 पन्ने कवर,कंटेंट और सिग्नेचर के पन्ने हैं। सिर्फ 6 पन्ने पर केस स्टडी है,उसमें सारी बातें समेट दी जाती है और टीवी-9 के जो एक्यूज्ड पत्रकार है कमलेश रावल,उनसे फोन पर बात करने के अवसर का जिक्र भर है। यह सब खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद हमें मेहसाना में आत्महत्या करनेवाले शख्स के बारे में मीडिया की तरफ से कोई जानकारी नहीं है। अगर ये मामला कोर्ट,पुलिस के अधीन है तो इसकी फॉलोअप स्टोरी हमें कहीं दिखाई नहीं दी और चैनलों के संगठन ने उसके बाद से इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं की। इसके अलावे उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन में फंसा पत्रकार औऱ चैनल आज भी मौजूद हैं ,2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में दागदार हुए मीडियाकर्मी पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर बनकर काम कर रहे हैं। कार्यवाही के नाम पर सिर्फ चैनल या उनके पद बदल गए हैं। ऐसे में सवाल है कि सरकार जिन चैनलों के लोगों को गड़बड़ियों पर निर्णय लेने के लिए शामिल करेगी,उनका अब तक का रवैया कैसा रहा है और क्या वे अब तक पर्दा डालने से अलग कुछ कर पाएंगे? क्या ऐसे मीडियाकर्मी और संगठन गड़बड़ी करनेवाले चैनलों और मीडियाकर्मियों के खिलाफ निर्णय लेने की स्थिति में हैं?फिलहाल चैनलों की प्रेस रिलीज पर भरोसा करके अगर हम सरकार के बजाय इनके पक्ष में खड़े भी होते हैं तो क्या सच में हम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ होते हैं? (मूलतः प्रकाशित- जनसत्ता,6 नवम्बर 2011) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Nov 7 15:49:47 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 7 Nov 2011 15:49:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo4KS+IOCkr+CkviDgpJ/gpYDgpK4g4KSF4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm?= Message-ID: आज के समय के सबसे चर्चित सरपंच जयसिंह सदाशिव महापारे से उनके गांव रालेगण में मुलाकात हुई। पुणे से शिरूर (अहमद नगर) तक के ढाई घंटे के फासले को तय करने के दौरान यह तय नहीं था कि रालेगण जहां अन्ना का मौन व्रत चल रहा है, वहां हमारे समय की सबसे बड़ी बहस ‘जन लोकपाल’ के आंदोलन के दशा और दिशा को लेकर आंदोलन के केन्द्र बने रालेगण सिद्धी गांव में चर्चा के लिए कौन मिलेगा? वैसे अन्ना अपने मौन व्रत के दौरान भी लोगों से मिल जुल रहे थे और लिखकर प्रश्नों पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे थे। खैर, डेढ़ हजार आबादी वाले गांव रालेगण के सरपंच जयसिंह सदाशिव महापारे से मुलाकात हुई। उन्होंने ही बताया कि वे पिछले एक साल से गांव के सरपंच हैं। इससे पहले वे गांव के उपसरपंच हुआ करते थे। बातचीत की शुरूआत कुछ इस तरह से हुई। ‘‘टीम अन्ना को टीम अन्ना क्यों कहते हैं, जबकि टीम बनाने में अन्ना से अधिक दखल अरविन्द केजरीवाल का दिखता है? फिर इस टीम को टीम अरविन्द ही क्यों ना कहा जाए?’ इस तरह के सवालों को महापारे अन्ना पर टाल गए। वैसे उन्होंने स्वीकार किया कि अन्ना और अरविन्द पुराने परिचित नहीं हैं। महापारे के अनुसार - ‘पिछले एक साल से ही अरविन्द अन्ना के संपर्क में लगातार रहे हैं।’ अरविन्द ने महापारे को बातचीत में बताया था कि अन्ना की गतिविधियों पर लंबे समय से उनकी नजर थी। अरविन्द ने यह भी कहा था कि अन्ना के नेतृत्व में इस आंदोलन को चलाने का निर्णय उन्होंने बहुत सोच विचार कर लिया है। यहां यह सवाल खड़ा होता है कि जब सारे निर्णय अरविन्द ले रहे थे तो उसके बाद यह आंदोलन अन्ना का कैसे हो गया? यह तो अरविन्द टीम हुई और अरविन्द का आंदोलन हुआ? वे इस सवाल से थोड़े उलझे और गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करते हुए बोले- अन्ना की लड़ाई बड़ी है। वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। जन लोकपाल सिर्फ उसका एक हिस्सा है। वैसे बातचीत में महापारे ने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है लेकिन उसे मिटाना इस देश से नामुमकिन जैसा है। महापारे से मिली यह जानकारी चौंकाने वाली थी कि मौन व्रत पर जाने से पहले अन्ना ने अरविन्द (केजरीवाल) को फोन करके ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ की वेवसाइट से अपनी फोटो हटाने का आग्रह किया था और ऑडिट होने तक किसी प्रकार के पैसे की लेन-देन ना करने का सुझाव भी दिया था। अन्ना को सूचना मिली थी कि कुछ लोग ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ के प्रतिनिधि बनकर उनके नाम पर पैसे मांग रहे हैं। वैसे यह लेख लिखे जाने तक वेवसाइट पर अन्ना की तस्वीर मौजूद है, साथ ही वेवसाइट पर अन्ना हजारे के ब्लॉग का लिंक (http://annahazaresays.wordpress.com) मिलता है। लेकिन वेवसाइट की दान वाली श्रेणी में यह लिखा हुआ जरूर आता है कि सहयोग के लिए धन्यवाद। अभी हमारे पास पर्याप्त धन है। आप सहयोग करना चाहते हैं तो donations at indiaagainstcorruption.org पर एक मेल छोड़ दें, हमें जरूरत हुई तो स्वयं आपसे संपर्क करेंगे। अन्ना के ब्लॉग में भी एक बात गौर करने वाली है, यह ब्लॉग मराठी और अंग्रेजी में है। अन्ना कहते हैं कि यह आन्दोलन सारे देश के लिए है, फिर उन्होंने अपने ब्लॉग की भाषा अंग्रेजी और मराठी क्यों रखी है? अन्ना को इस देश को बताना चाहिए कि अंग्रेजी और मराठी में से किसे वे पूरे देश की भाषा मानते हैं? वैसे अंग्रेजी में अन्ना का हाथ थोड़ा तंग है, फिर ब्लॉग में दिखने वाला अंग्रेजी प्रेम किसका है? आज जब अन्ना और अन्ना टीम पर हल्ला बोल का माहौल दिखता है, ऐसे समय में उनका मौन पर चले जाना सारे देश की नजर में एक सवाल बना हुआ था। महापारे के अनुसार, अन्ना गांव वालों और देश के एक सौ पच्चीस करोड़ जनता के लिए बहुत जरूरी हैं। लंबे समय तक रामलीला मैदान में उपवास के बाद उनकी सेहत गिर गई थी। वे कमजोर हो गए थे। जब वे गांव आए, देश भर से उनसे मिलने वालों की कतार यहां लगी रहती थी। कोई दक्षिण भारत से आ रहा है तो कोई पूरब से। सबकी अपनी-अपनी समस्या थी। अन्ना का सुबह दस से रात दस, लोगों से बातचीत करते करते निकलता। अन्ना अब 74 साल के हो गए हैं। अनशन के बाद इतना अधिक बोलना उनके स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल था। इसलिए डॉक्टरों की सलाह पर वे मौन व्रत पर गए। रालेगण के सरपंच से बात हो और राहुल गांधी प्रकरण की चर्चा ना हो, यह कैसे हो सकता है। महापारे ने बताया कि जब अन्ना का अनशन टूटा और वे अस्पताल में थे, उसी दिन गांव में (पीटी) थॉमसजी आए थे। बिना किसी पूर्व सूचना के। यहां बड़े बड़े लोगों का आना जाना लगा ही रहता है, इसलिए किसी ने ध्यान नहीं दिया। वे एक एक कर कई पारचून की दूकानों पर गए, सीगरेट मांगी, जब दुकानदार ने कहा कि हम नहीं रखते तो उन्होंने कहा कि बीड़ी ही दे दो। गांव में उनको एक बीड़ी भी नहीं मिली। वे गांव में जांच पड़ताल करने के अंदाज में घूम रहे थे। जब वे हमारे मीडिया सेन्टर में गए तो हमें खबर लगी की, थॉमसजी गांव में आए हैं। यहां उन्होंने गांव देखा और बता कर गए कि राहुल बाबा की ग्राम विकास में गहरी रूचि है, वे बात करेंगे और फिर हमें उनसे मिलने के लिए बुलाएंगे। एक दिन हमें बुलाया गया। यहां से मैं, अन्नाजी के निजी सचिव सुरेश पठारे, गांव के ही रामदास गुगले, संपत राव मापडे और शिवाली निकम दिल्ली गए। हमें दिल्ली बुलाकर बताया गया कि हमारा राहुल जी के साथ पहले से कोई समय तय नहीं है। उसके बाद हम लोगों ने वापस लौट आने का फैसला कर लिया और यह भी तय किया कि आगे कभी भी राहुलजी से मिलने दिल्ली नहीं जाएंगे। उन्हें मिलना हो तो हमारे गांव आएं, अपने गांव में आने वाले सभी अतिथियों का हम सम्मान करते हैं। आज अन्ना टीम और कांग्रेस के बीच चल रहे जुबानी महायुद्ध में यही लगता है कि इस पूरी कहानी में चर्चा से कोई बाहर हुआ है तो वह है जन लोकपाल का मसौदा। कहीं धीरे धीरे लोग जन लोकपाल को भूल तो नही जाएंगे? -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Nov 7 15:49:47 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 7 Nov 2011 15:49:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo4KS+IOCkr+CkviDgpJ/gpYDgpK4g4KSF4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm?= Message-ID: आज के समय के सबसे चर्चित सरपंच जयसिंह सदाशिव महापारे से उनके गांव रालेगण में मुलाकात हुई। पुणे से शिरूर (अहमद नगर) तक के ढाई घंटे के फासले को तय करने के दौरान यह तय नहीं था कि रालेगण जहां अन्ना का मौन व्रत चल रहा है, वहां हमारे समय की सबसे बड़ी बहस ‘जन लोकपाल’ के आंदोलन के दशा और दिशा को लेकर आंदोलन के केन्द्र बने रालेगण सिद्धी गांव में चर्चा के लिए कौन मिलेगा? वैसे अन्ना अपने मौन व्रत के दौरान भी लोगों से मिल जुल रहे थे और लिखकर प्रश्नों पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे थे। खैर, डेढ़ हजार आबादी वाले गांव रालेगण के सरपंच जयसिंह सदाशिव महापारे से मुलाकात हुई। उन्होंने ही बताया कि वे पिछले एक साल से गांव के सरपंच हैं। इससे पहले वे गांव के उपसरपंच हुआ करते थे। बातचीत की शुरूआत कुछ इस तरह से हुई। ‘‘टीम अन्ना को टीम अन्ना क्यों कहते हैं, जबकि टीम बनाने में अन्ना से अधिक दखल अरविन्द केजरीवाल का दिखता है? फिर इस टीम को टीम अरविन्द ही क्यों ना कहा जाए?’ इस तरह के सवालों को महापारे अन्ना पर टाल गए। वैसे उन्होंने स्वीकार किया कि अन्ना और अरविन्द पुराने परिचित नहीं हैं। महापारे के अनुसार - ‘पिछले एक साल से ही अरविन्द अन्ना के संपर्क में लगातार रहे हैं।’ अरविन्द ने महापारे को बातचीत में बताया था कि अन्ना की गतिविधियों पर लंबे समय से उनकी नजर थी। अरविन्द ने यह भी कहा था कि अन्ना के नेतृत्व में इस आंदोलन को चलाने का निर्णय उन्होंने बहुत सोच विचार कर लिया है। यहां यह सवाल खड़ा होता है कि जब सारे निर्णय अरविन्द ले रहे थे तो उसके बाद यह आंदोलन अन्ना का कैसे हो गया? यह तो अरविन्द टीम हुई और अरविन्द का आंदोलन हुआ? वे इस सवाल से थोड़े उलझे और गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करते हुए बोले- अन्ना की लड़ाई बड़ी है। वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। जन लोकपाल सिर्फ उसका एक हिस्सा है। वैसे बातचीत में महापारे ने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है लेकिन उसे मिटाना इस देश से नामुमकिन जैसा है। महापारे से मिली यह जानकारी चौंकाने वाली थी कि मौन व्रत पर जाने से पहले अन्ना ने अरविन्द (केजरीवाल) को फोन करके ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ की वेवसाइट से अपनी फोटो हटाने का आग्रह किया था और ऑडिट होने तक किसी प्रकार के पैसे की लेन-देन ना करने का सुझाव भी दिया था। अन्ना को सूचना मिली थी कि कुछ लोग ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ के प्रतिनिधि बनकर उनके नाम पर पैसे मांग रहे हैं। वैसे यह लेख लिखे जाने तक वेवसाइट पर अन्ना की तस्वीर मौजूद है, साथ ही वेवसाइट पर अन्ना हजारे के ब्लॉग का लिंक (http://annahazaresays.wordpress.com) मिलता है। लेकिन वेवसाइट की दान वाली श्रेणी में यह लिखा हुआ जरूर आता है कि सहयोग के लिए धन्यवाद। अभी हमारे पास पर्याप्त धन है। आप सहयोग करना चाहते हैं तो donations at indiaagainstcorruption.org पर एक मेल छोड़ दें, हमें जरूरत हुई तो स्वयं आपसे संपर्क करेंगे। अन्ना के ब्लॉग में भी एक बात गौर करने वाली है, यह ब्लॉग मराठी और अंग्रेजी में है। अन्ना कहते हैं कि यह आन्दोलन सारे देश के लिए है, फिर उन्होंने अपने ब्लॉग की भाषा अंग्रेजी और मराठी क्यों रखी है? अन्ना को इस देश को बताना चाहिए कि अंग्रेजी और मराठी में से किसे वे पूरे देश की भाषा मानते हैं? वैसे अंग्रेजी में अन्ना का हाथ थोड़ा तंग है, फिर ब्लॉग में दिखने वाला अंग्रेजी प्रेम किसका है? आज जब अन्ना और अन्ना टीम पर हल्ला बोल का माहौल दिखता है, ऐसे समय में उनका मौन पर चले जाना सारे देश की नजर में एक सवाल बना हुआ था। महापारे के अनुसार, अन्ना गांव वालों और देश के एक सौ पच्चीस करोड़ जनता के लिए बहुत जरूरी हैं। लंबे समय तक रामलीला मैदान में उपवास के बाद उनकी सेहत गिर गई थी। वे कमजोर हो गए थे। जब वे गांव आए, देश भर से उनसे मिलने वालों की कतार यहां लगी रहती थी। कोई दक्षिण भारत से आ रहा है तो कोई पूरब से। सबकी अपनी-अपनी समस्या थी। अन्ना का सुबह दस से रात दस, लोगों से बातचीत करते करते निकलता। अन्ना अब 74 साल के हो गए हैं। अनशन के बाद इतना अधिक बोलना उनके स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल था। इसलिए डॉक्टरों की सलाह पर वे मौन व्रत पर गए। रालेगण के सरपंच से बात हो और राहुल गांधी प्रकरण की चर्चा ना हो, यह कैसे हो सकता है। महापारे ने बताया कि जब अन्ना का अनशन टूटा और वे अस्पताल में थे, उसी दिन गांव में (पीटी) थॉमसजी आए थे। बिना किसी पूर्व सूचना के। यहां बड़े बड़े लोगों का आना जाना लगा ही रहता है, इसलिए किसी ने ध्यान नहीं दिया। वे एक एक कर कई पारचून की दूकानों पर गए, सीगरेट मांगी, जब दुकानदार ने कहा कि हम नहीं रखते तो उन्होंने कहा कि बीड़ी ही दे दो। गांव में उनको एक बीड़ी भी नहीं मिली। वे गांव में जांच पड़ताल करने के अंदाज में घूम रहे थे। जब वे हमारे मीडिया सेन्टर में गए तो हमें खबर लगी की, थॉमसजी गांव में आए हैं। यहां उन्होंने गांव देखा और बता कर गए कि राहुल बाबा की ग्राम विकास में गहरी रूचि है, वे बात करेंगे और फिर हमें उनसे मिलने के लिए बुलाएंगे। एक दिन हमें बुलाया गया। यहां से मैं, अन्नाजी के निजी सचिव सुरेश पठारे, गांव के ही रामदास गुगले, संपत राव मापडे और शिवाली निकम दिल्ली गए। हमें दिल्ली बुलाकर बताया गया कि हमारा राहुल जी के साथ पहले से कोई समय तय नहीं है। उसके बाद हम लोगों ने वापस लौट आने का फैसला कर लिया और यह भी तय किया कि आगे कभी भी राहुलजी से मिलने दिल्ली नहीं जाएंगे। उन्हें मिलना हो तो हमारे गांव आएं, अपने गांव में आने वाले सभी अतिथियों का हम सम्मान करते हैं। आज अन्ना टीम और कांग्रेस के बीच चल रहे जुबानी महायुद्ध में यही लगता है कि इस पूरी कहानी में चर्चा से कोई बाहर हुआ है तो वह है जन लोकपाल का मसौदा। कहीं धीरे धीरे लोग जन लोकपाल को भूल तो नही जाएंगे? -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Nov 7 18:55:47 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 7 Nov 2011 18:55:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSXIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KSs4KS+4KSw4KWAIOCkleClhyDgpKrgpLngpLLgpYcg4KSw?= =?utf-8?b?4KS14KWA4KS2IOCkleClgCDgpKrgpY3gpLDgpLjgpY3gpKTgpL7gpLU=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+?= Message-ID: कल रवीश कुमार ने महमूद फारुकी और अनुषा रिजवी के घर राग दरबारी के चुनिंदा अंशों का पाठ करने से ठीक पहले एक छोटी सी प्रस्तावना(स्वरचित) का वाचन किया। आज उन्होंने इस प्रस्तावना को अपने ब्लॉग कस्बा पर साझा किया है। हम उसे दीवान के साथियों के बीच इस नीयत से साझा कर रहे हैं कि अगली बार जब राग दरबारी का परिमार्जित और नया संस्करण आए तो वो इस छोटी सी प्रस्तावना को अटैच करवाने की जोड़-जुगाड़ भिड़ाएं। नहीं तो श्रीलाल शुक्ल की याद में जहां-जहां चाय-समोसे और अग्रवाल स्वीट्स की चिप्स भकोसने के बाद मूडी गोतकर मातम मनाने की कवायद हो,वहां इसे "एवसेंट बॉडी वट प्रजेंस फीलिंग" के तहत इसका भी पाठ किया जाए। ये न तो किसी किस्म की चमचई है और न ही पैरवी। बस ये कि कल हमने एफबी पर श्रीलाल शुक्ल के बारे में लिखा था कि उनका सबसे बड़ा योगदान इस बात को लेकर है कि वो पाठकों को अपना-अपना शिवपालगंज खोजने के लिए न केवल प्रेरित करते हैं बल्कि उसे अभिव्यक्त करने का दुस्साहस और कौशल भी पैदा करते हैं,उसे मजबूती मिले। रवीश द्वारा वाचित ये छोटी सी प्रस्तावना मेरी इस बात को चरितार्थ करती हुई जान पड़ती है। अब ऐसे में क्या पता कोई परिमार्जित संस्करण में इस प्रस्तावना को पढ़कर पूरी-पूरी राग दरबारी की सिक्वल लिख जाए जिसमें उत्तर टीवी युग की कथा बड़े पैमाने पर शामिल हो। भवदीय विनीत दोस्तों, एक मौलिक और महत्वपूर्ण रचना का वाचिक पुनर्पाठ किसी भी कालखंड की सबसे दुखद घटना हो सकती है। पढ़नेवाला किस मनोभाव और हावभाव से पढ़ेगा यह जानने के लिए रचनाकार की गैरमौजूदगी उस घटना की विडंबना को बड़ा बनाती है। कुतिया से लेकर चूतिया तक सभी एक ही सफ में खड़े लाइव कमेंट्री के किरदार की तरह स्तब्ध नज़र आ सकते हैं, जबकि रचनाकार के मूलभाव में सभी ठहरावमान अपितु गतिमान समझे जा सकते हैं। समाज,सिस्टम के खटाल और जांघों के बीच से नुची हुई खाल का टुकड़ा मैं समय हूं के कथन को पठन लायक बनाता है। आंखों देखा हाल। संजय ने महाभारत का प्रस्तुत किया उसके बाद से भारत का आंखों देखा हाल सिर्फ राजपथ पर सजनेवाली गणतंत्र की झांकियों का हुआ,परन्तु शिवपालगंज का आंखों देखा हाल उस भारत का बदहाल भाव है जो महानगर से लेकर गांव कस्बों तक समभाव में मौजूद है। शिवपालगंज की त्रासदी भारत की त्रासदी है और भारत की त्रासदी शिवपालगंज की। वाइसी वर्सा के इस खेल में जो नज़र वर्षा हमारे दिवंगत कलमकार रचनाकार और असली कार विहीन साहित्यकार श्रीमान श्रीलाल शुक्ल ने की है वो किसी ने नहीं की है। यह वो किस्सा है जो कस के नहीं पढ़ा गया तो कसक बाकी हो सकती है। गनीमत है कि भारत की आत्मा गांवों में बसाई गई और वहीं से बाकी जीवों में भिजवाई गई है। उन स्थायी किन्तु स्थानीय स्तर पर भटकती आत्माओं का ऐसा जैविक कर्मकांडीय बखान किसी भागवत कथा में नहीं मिलता है। बाबा शुक्ल जो कह गए हैं उसी के बाद कहा जा रहा है। यथास्थिति की हर परिस्थिति का विहंगम मूल्यांकन कर गुज़रने के बाद जो बचना है वो तो बस पुनर्पाठ की संभावना और आलोचना की रचना है। शिवपालगंज हमारे आपके मोहल्ले दफ्तर,सरकार, रामलीला मैदान, प्रेम प्रसंग कहीं भी हो सकता है। उत्तर आधुनिक काल से पहले के तमाम कालों के चूतड़ उघाड़ कर ऐसी दृष्टि हमें दे गए हैं कि हम कभी हीन नहीं हो सकते। हर तरह के दरबारों का आडंबर यहीं नारियल की तरह फूटता है, जब लेखक कहता है कि ट्रक का जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार के लिए हुआ है। तो हर उम्र,हर प्रकार के माननीयों तैयार हो जाइये,रुप्पन बाबू,वैधजी,सनिचर,रंगनाथ,खन्ना मास्टर,बद्री पहलवान,बेला आदि अनेकानेक पात्रों से लैस रागदरबारी के चंद अंशों के महादान से बनी महान रचना के पुनर्पाठ के लिए। जो सुनेगा वो मुझे कोसेगा,जो इसे पढ़ेगा वो श्रीलाल शुक्ल जी को याद करेगा। मैं रागदरबारी हूं। मैं संजय धनंजय टाइप के टीवी रिपोर्टर आने से पहले का भारत हूं जिसकी लाइव रिपोर्टिंग तीन सौ उनतीस पन्नों के उपन्यास में ही होती है। जो है उसके होने की चुनौति उसके नहीं होने की तमाम संभावनाओं के साथ प्रस्तुत है। ( महमूद फ़ारूक़ी के घर में श्रीलाल शुक्ल को याद किया गया। बकरीद की पूर्व संध्या पर। वहीं पर राग दरबारी का पाठ करने से पहले यह प्रस्तावना मेरे द्वारा रचित और पठित की गई। विनीत का कहना था कि इसे पोस्ट कर दिया जाए। हालांकि मैं कहीं से भी श्रीलाल शुक्ल पर बोलने के लिए अधिकारी नियुक्त नहीं हुआ हूं पर चूंकि अन्ना आंदोलन के बाद कोई भी संविधान पर भाषण दे सकता है तो मैं भी साहित्य बांच सकता हूं। उपरोक्त लिखित पंक्तियों को मैंने ज़ोर ज़ोर से पढ़ा था। आपसे भी अनुरोध है कि आप इसे देख-देख कर न पढ़ें बल्कि बोल-बोल कर पढ़ें। जे बा से की) http://naisadak.blogspot.com/2011/11/blog-post_07.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Wed Nov 9 12:09:49 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 9 Nov 2011 06:39:49 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Bhupen_Hazarika_ob?= =?utf-8?q?itury?= Message-ID: <20111109063949.14568.qmail@f5mail-224-150.rediffmail.com> मुक्ति गान का गायक: भूपेन हजारिका अरविंद दास खचाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जाकिया ने कार्यक्रम शुरु होने से पहले कहा था, “गाना सुनते हुए यदि मेरी आँखों में आँसू आ जाए तो बुरा मत मानिएगा...’. मैं उसकी ओर देखता, बस चुप रहा. वर्ष 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था- ‘अ लिजेंड नाइट- म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी’. एक तरह से उनकी ‘लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा’ को हमने उस शाम देखा-सुना. वर्षों बाद दिल्ली में भूपने हजारिका का लाइव कंसर्ट हुआ था. और मेरे जानिब शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था जिसे उन्होंने असम की एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था. जब उन्होंने ‘आमि एक जाजाबर’ गाया तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई. बांग्ला-असमिया मैं बोल नहीं पाता लेकिन मातृभाषा मैथिली से नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ी-बहुत समझ लेता हूँ... लेकिन उस शाम संगीत के रसास्वादन में भाषा जैसे आड़े नहीं आ रही थी. हाथ में हारमोनियम लिए मंच पर खड़े भूपने दा की आवाज़ में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी- परिस्थितियाँ कितनी भी विचित्र और प्रतिकूल हो संघर्ष से उस पर विजय पाया जा सकता है. मेरे बाबा एक लोक गायक थे. पर मुझे वे याद नहीं. उस दिन भूपेन दा को सुन कर मैं अपने बाबा की आवाज सुन रहा था. उनके गाने की शैली एक कथा-वाचक की तरह थी जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है. जब उन्होंने ‘हे डोला हे डोला... आके बाके रास्तों पर कांधे लिए जाते हैं राजा-महराजाओं का डोला …’ गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ निश्चय चित्र रुप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित है. कहते हैं कि कोलंबिया में जनसंचार पर अपनी पीएचडी के दौरान भूपने हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक ‘पॉल रॉबसन’ से हुई. वे रॉबसन के इस कथन से कि ‘संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है’ बेहद प्रभावित हुए थे. रॉबसन ने अपने चर्चित गाने: ‘ओल्ड मैन रीवर/ डैट ओल्ड मैन रीवर/ ही मस्ट नो समथिंग/ बट डोंट से नथिंग/ ही जस्ट कीप्स रोलिंग/ ही कीप्स रोलिंग अलांग’ में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के माध्यम से व्यक्त किया है. भूपने दा ने ‘गंगा बहती है क्यों’ के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया. इस गाने के आखिर में जब वे ‘निष्प्राण समाज को तोड़ने’ की गुहार लगाते हैं तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखता. यह गाना मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है. उनके गानों में अभिव्यक्त लोक चेतना, संघर्ष की चेतना है. कभी ‘बूढ़ा लुइत’ तो कभी ‘गंगा’ इसी का प्रतीक है. अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से हिंदी समाज का परिचय 90 के दशक में ‘रुदाली’ फिल्म में गाए उनके गीत ‘दिल हूम हूम करे’ के माध्यम से होता है, जिसे मूल असमिया में वर्षों पहले वे गा चुके थे. बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत के फलने-फूलने लिए जगह कहाँ छोड़ी है? असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीते जी संगीत के इस महान कलाकार की कला महज एक छोटे तबके तक ही सीमित रही.” वे कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहाँ पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा. साथ ही उनका कहना है कि ' देश के बाकी हिस्सों का यह दुर्भाग्य है कि संगीत के इस साधक की कला से वे वंचित हैं.' बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने ‘गंगा आमार माँ, पद्मा आमार माँ' गाया तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही थी. ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती हैं जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं. कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे. हमारी आँखे भरी हुई थी पर मन हल्का था.. blog link: http://arvinddas.blogspot.com/2011/11/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Wed Nov 9 12:09:49 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 9 Nov 2011 06:39:49 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Bhupen_Hazarika_ob?= =?utf-8?q?itury?= Message-ID: <20111109063949.14568.qmail@f5mail-224-150.rediffmail.com> मुक्ति गान का गायक: भूपेन हजारिका अरविंद दास खचाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जाकिया ने कार्यक्रम शुरु होने से पहले कहा था, “गाना सुनते हुए यदि मेरी आँखों में आँसू आ जाए तो बुरा मत मानिएगा...’. मैं उसकी ओर देखता, बस चुप रहा. वर्ष 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था- ‘अ लिजेंड नाइट- म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी’. एक तरह से उनकी ‘लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा’ को हमने उस शाम देखा-सुना. वर्षों बाद दिल्ली में भूपने हजारिका का लाइव कंसर्ट हुआ था. और मेरे जानिब शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था जिसे उन्होंने असम की एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था. जब उन्होंने ‘आमि एक जाजाबर’ गाया तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई. बांग्ला-असमिया मैं बोल नहीं पाता लेकिन मातृभाषा मैथिली से नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ी-बहुत समझ लेता हूँ... लेकिन उस शाम संगीत के रसास्वादन में भाषा जैसे आड़े नहीं आ रही थी. हाथ में हारमोनियम लिए मंच पर खड़े भूपने दा की आवाज़ में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी- परिस्थितियाँ कितनी भी विचित्र और प्रतिकूल हो संघर्ष से उस पर विजय पाया जा सकता है. मेरे बाबा एक लोक गायक थे. पर मुझे वे याद नहीं. उस दिन भूपेन दा को सुन कर मैं अपने बाबा की आवाज सुन रहा था. उनके गाने की शैली एक कथा-वाचक की तरह थी जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है. जब उन्होंने ‘हे डोला हे डोला... आके बाके रास्तों पर कांधे लिए जाते हैं राजा-महराजाओं का डोला …’ गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ निश्चय चित्र रुप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित है. कहते हैं कि कोलंबिया में जनसंचार पर अपनी पीएचडी के दौरान भूपने हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक ‘पॉल रॉबसन’ से हुई. वे रॉबसन के इस कथन से कि ‘संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है’ बेहद प्रभावित हुए थे. रॉबसन ने अपने चर्चित गाने: ‘ओल्ड मैन रीवर/ डैट ओल्ड मैन रीवर/ ही मस्ट नो समथिंग/ बट डोंट से नथिंग/ ही जस्ट कीप्स रोलिंग/ ही कीप्स रोलिंग अलांग’ में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के माध्यम से व्यक्त किया है. भूपने दा ने ‘गंगा बहती है क्यों’ के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया. इस गाने के आखिर में जब वे ‘निष्प्राण समाज को तोड़ने’ की गुहार लगाते हैं तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखता. यह गाना मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है. उनके गानों में अभिव्यक्त लोक चेतना, संघर्ष की चेतना है. कभी ‘बूढ़ा लुइत’ तो कभी ‘गंगा’ इसी का प्रतीक है. अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से हिंदी समाज का परिचय 90 के दशक में ‘रुदाली’ फिल्म में गाए उनके गीत ‘दिल हूम हूम करे’ के माध्यम से होता है, जिसे मूल असमिया में वर्षों पहले वे गा चुके थे. बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत के फलने-फूलने लिए जगह कहाँ छोड़ी है? असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीते जी संगीत के इस महान कलाकार की कला महज एक छोटे तबके तक ही सीमित रही.” वे कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहाँ पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा. साथ ही उनका कहना है कि ' देश के बाकी हिस्सों का यह दुर्भाग्य है कि संगीत के इस साधक की कला से वे वंचित हैं.' बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने ‘गंगा आमार माँ, पद्मा आमार माँ' गाया तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही थी. ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती हैं जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं. कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे. हमारी आँखे भरी हुई थी पर मन हल्का था.. blog link: http://arvinddas.blogspot.com/2011/11/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Thu Nov 10 12:50:39 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 10 Nov 2011 07:20:39 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSC4KSm4KSo?= =?utf-8?b?IOCkoeCkvuCkr+CksOClgCAo4KSm4KWLKQ==?= Message-ID: <20111110072039.12968.qmail@f5mail-224-114.rediffmail.com> मार्क्स के नाम संदेश: लंदन डायरी अरविंद दास हम दिन भर पैदल लंदन की सड़कों को नाप चुके थे. विवियन यूँ तो वियना की है पर लंदन की गलियों से उसकी पहचान है. शहर के उन हिस्सों में उसकी दिलचस्पी ज्यादा है जो 'लोनली प्लैनेट' सरीखी किताबों और टूरिस्ट गाइडों में जगह नहीं पाती. सबेरे ‘टेम्स नदी’ की खोज में हम निकले. सिटी सेंटर से टेम्स बहुत दूर तो नहीं था पर इस खोज में हमने कई ऐसी इमारतें देखी जो शायद हम ट्यूब या बस में चढ़ कर नहीं देख सकते थे. वैसे भी शहर की पुरानी गलियों में भटकना नए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से खेलने की तरह होता है. कोई इंजीनियर हमें तकनीकी बारीकियाँ भले समझा दे पर सीखते हम खुद उससे उलझ कर ही है. किसी भी पुरानी सभ्यता की तरह लंदन में पुराने स्थापत्य और नई इमारतें एक साथ हमजोली की तरह खड़ी नजर आती है. एक तरफ क्रिस्टोफर वारेन की तीन सौ साल पुरानी ‘सेंट पॉल कैथिडरल’ की अदभुत और दिलकश वास्तुशिल्प है तो दूसरी तरफ कारोबार के दमकते नए भवन हैं जो आधुनिक कला के नजारे दिखाते हैं. शहर के अंदरुनी हिस्सों में मजबूत और विशाल भवन ब्रितानी साम्राज्य के अतीत के गवाक्ष हमारे सामने खोलते � �ैं. बहरहाल, थोड़ी दूर पर लंदन टॉवर ब्रिज के दो बुर्ज दिख रहे हैं. आसमान साफ है. सफेद-नीले बादलों का गुच्छा टेम्स नदी पर लटक रहा है. हल्की गुलाबी ठंड है और हवा में खनक. टेम्स नदी के किनारे काफी रौनक और चहल पहल है. नदी के तट पर एक जगह मुझे कुछ कंटीले गुलाबी रंग के फूल दिख रहे हैं मैंने ठहर कर अपने कैमरे में उसे कैद कर लिया. हल्की हवा का स्पर्श पाकर चिनार के हरे-पीले पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं. एक ���त्ता उठा कर मैंने अपनी जेब में रख ली. टेम्स के सम्मोहन में मैं बंधने लगा हूँ. यूरोप की नदियाँ शहरों से इस कदर गुंथी हुई हैं कि आप उसे शहर की संस्कृति से अलगा नहीं सकते. पेरिस में सेन हो, कोलोन में राइन या लिंज में डेन्यूब! क्या कभी गंगा, यमुना और पेरियार भी हमारे शहर की संस्कृति का हिस्सा रही होगी? टेम्स के ‘साउथ बैंक’ पर सेकिंड हैंड किताबों का बाजार सजने लगा है. सामने नेशनल थिएटर की इमारत पर रंग-बिरंगे पोस्टर दिख रहे हैं. दूसरी ओर कुछ फर्लांग की दूरी पर ‘शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर’ और ‘टेट मार्डन गैलरी’ है. लंदन की यात्रा से पहले मेरे बॉस करण (थापर) ने कहा था कि ‘लंदन जाने पर वहाँ के थिएटर मे जरुर जाना और देखना कि किस तरह बिना चीखे-चिल्लाए वे अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं. हमारे बॉलीवुड की तरह नहीं...’ शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर के पास पहुँचने पर हमने देखा कि शो छूटने में बस 10 मिनट है. हम पाँच पांउड में खड़े होकर नाटक देखने का टिकट लेकर ‘द गॉड ऑफ सोहो’ देखने ऑडिटोरियम में घुस गए. खुले आसमान में मंच बना है और दर्शकों के लिए दोनों ओर सामने लकड़ी की दो मंजिला बैठक है. खड़े हो कर देखने वालों के लिए बारिश की बूंदा-बांदी से बचाव का कोई साधन नहीं. जितने लोग दर्शक दीर्घा में बैठे है उतने ही खड़े. नाटकों में मेरी अभिरुचि रही है पर इस तरह का बेबाक डॉयलॉग और अभिनय पहली बार देखा-सुना. वैसे हमें अगाह कर दिया गया था कि नाटक में ‘अभद्र भाषा (filthy language)’ का प्रयोग है और यह नाटक कमजोर दिलवालों के लिए नहीं है!! थिएटर के निकल कर हम सोचते रहे कि कैसे नाटक की मुख्य स्त्री पात्र ने मंच पर एक-एक कर अपने कपड़े फेंक दिए...! हमारी संवेदना को झकझोरने के लिए यह एक नया और अलग अनुभव था. वैसे नाटक के कथानक को देखते हुए हम दृश्य संयोजन से अचंभित नहीं थे. शाम हो रही थी और हमें तय करना था कि अब लंदन के किस कोने में हमें जाना है. किन सड़कों पर भटकना है. बातों बातों में मैंने कहा कि ‘कार्ल मार्क्स की कब्र लंदन में ही है.’ अच्छा! मुझे पता नहीं था….विवियन ने कहा. हाइड पार्क या मार्क्स की कब्र- दो में एक चुनना था और हमनें हाईगेट कब्रगाह जाने का निश्चय किया. कब्रगाह शहर से बाहर था. हाईगेट स्टेशन पर ट्यूब से निकल कर हम जिस कॉलोनी से कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे वह पॉश कॉलोनी लग रही थी. ऊँची पहाड़ियों पर खूबसूरत भवन. महंगे कार और करीने से सजे लॉन. दो-तीन किलोमीटर पैदल चल कर जब हम कब्रगाह पहुँचे शाम के करीब सात बज रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था और कब्रगाह में ताला लटक रहा था. अगल-बगल हमने नजर दौड़ाई पर वहाँ कोई नहीं दिख रहा था. अलबत्ता कब्रगाह के अंदर एक लोमड़ी टहलती दिख रही थी. इसी बीच सड़क पर निकले एक व्यक्ति को रोक कर हमने पूछा कि ‘क्या मार्क्स की कब्रगाह यही है?’ भले मानुष ने थोड़ी हताशा भरी स्वर में कहा कि ‘बेशक यही है. पर आप देर हो चुके हैं. यह पाँच बजे बंद हो जाती है.’ हमारे चेहरे पर आए निराशा के भाव को पढ़ कर उन्होंने पूछा आप कहाँ से आए हैं? मैं भारत से हूँ और ये ऑस्ट्रिया से आई हैं... कोई नहीं, आप फिर कल आ जाइएगा... विवियन ने कहा कि क्यों ना हम मार्क्स के नाम एक संदेश छोड़ जाएँ. मैनें कहा जरूर.. ‘कामरेड मार्क्स, हृदय के अंतकरण से हमारी श्रद्धांजलि! दुनिया बदल गई है पर इस बदली हुई दुनिया में तुम्हारे सिद्धांतों की जरुरत कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई है!’ विवियन ने कपड़े के एक छोटे से टुकड़े में इस संदेश को लपेट कर कब्रगाह के दरवाजे पर बांध दिया... (जनसत्ता में समांतर कॉलम के तहत 'टेम्स के किनारे' शीर्षक से 9 नवंबर 2011 को प्रकाशित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Thu Nov 10 12:50:39 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 10 Nov 2011 07:20:39 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSC4KSm4KSo?= =?utf-8?b?IOCkoeCkvuCkr+CksOClgCAo4KSm4KWLKQ==?= Message-ID: <20111110072039.12968.qmail@f5mail-224-114.rediffmail.com> मार्क्स के नाम संदेश: लंदन डायरी अरविंद दास हम दिन भर पैदल लंदन की सड़कों को नाप चुके थे. विवियन यूँ तो वियना की है पर लंदन की गलियों से उसकी पहचान है. शहर के उन हिस्सों में उसकी दिलचस्पी ज्यादा है जो 'लोनली प्लैनेट' सरीखी किताबों और टूरिस्ट गाइडों में जगह नहीं पाती. सबेरे ‘टेम्स नदी’ की खोज में हम निकले. सिटी सेंटर से टेम्स बहुत दूर तो नहीं था पर इस खोज में हमने कई ऐसी इमारतें देखी जो शायद हम ट्यूब या बस में चढ़ कर नहीं देख सकते थे. वैसे भी शहर की पुरानी गलियों में भटकना नए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से खेलने की तरह होता है. कोई इंजीनियर हमें तकनीकी बारीकियाँ भले समझा दे पर सीखते हम खुद उससे उलझ कर ही है. किसी भी पुरानी सभ्यता की तरह लंदन में पुराने स्थापत्य और नई इमारतें एक साथ हमजोली की तरह खड़ी नजर आती है. एक तरफ क्रिस्टोफर वारेन की तीन सौ साल पुरानी ‘सेंट पॉल कैथिडरल’ की अदभुत और दिलकश वास्तुशिल्प है तो दूसरी तरफ कारोबार के दमकते नए भवन हैं जो आधुनिक कला के नजारे दिखाते हैं. शहर के अंदरुनी हिस्सों में मजबूत और विशाल भवन ब्रितानी साम्राज्य के अतीत के गवाक्ष हमारे सामने खोलते � �ैं. बहरहाल, थोड़ी दूर पर लंदन टॉवर ब्रिज के दो बुर्ज दिख रहे हैं. आसमान साफ है. सफेद-नीले बादलों का गुच्छा टेम्स नदी पर लटक रहा है. हल्की गुलाबी ठंड है और हवा में खनक. टेम्स नदी के किनारे काफी रौनक और चहल पहल है. नदी के तट पर एक जगह मुझे कुछ कंटीले गुलाबी रंग के फूल दिख रहे हैं मैंने ठहर कर अपने कैमरे में उसे कैद कर लिया. हल्की हवा का स्पर्श पाकर चिनार के हरे-पीले पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं. एक ���त्ता उठा कर मैंने अपनी जेब में रख ली. टेम्स के सम्मोहन में मैं बंधने लगा हूँ. यूरोप की नदियाँ शहरों से इस कदर गुंथी हुई हैं कि आप उसे शहर की संस्कृति से अलगा नहीं सकते. पेरिस में सेन हो, कोलोन में राइन या लिंज में डेन्यूब! क्या कभी गंगा, यमुना और पेरियार भी हमारे शहर की संस्कृति का हिस्सा रही होगी? टेम्स के ‘साउथ बैंक’ पर सेकिंड हैंड किताबों का बाजार सजने लगा है. सामने नेशनल थिएटर की इमारत पर रंग-बिरंगे पोस्टर दिख रहे हैं. दूसरी ओर कुछ फर्लांग की दूरी पर ‘शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर’ और ‘टेट मार्डन गैलरी’ है. लंदन की यात्रा से पहले मेरे बॉस करण (थापर) ने कहा था कि ‘लंदन जाने पर वहाँ के थिएटर मे जरुर जाना और देखना कि किस तरह बिना चीखे-चिल्लाए वे अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं. हमारे बॉलीवुड की तरह नहीं...’ शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर के पास पहुँचने पर हमने देखा कि शो छूटने में बस 10 मिनट है. हम पाँच पांउड में खड़े होकर नाटक देखने का टिकट लेकर ‘द गॉड ऑफ सोहो’ देखने ऑडिटोरियम में घुस गए. खुले आसमान में मंच बना है और दर्शकों के लिए दोनों ओर सामने लकड़ी की दो मंजिला बैठक है. खड़े हो कर देखने वालों के लिए बारिश की बूंदा-बांदी से बचाव का कोई साधन नहीं. जितने लोग दर्शक दीर्घा में बैठे है उतने ही खड़े. नाटकों में मेरी अभिरुचि रही है पर इस तरह का बेबाक डॉयलॉग और अभिनय पहली बार देखा-सुना. वैसे हमें अगाह कर दिया गया था कि नाटक में ‘अभद्र भाषा (filthy language)’ का प्रयोग है और यह नाटक कमजोर दिलवालों के लिए नहीं है!! थिएटर के निकल कर हम सोचते रहे कि कैसे नाटक की मुख्य स्त्री पात्र ने मंच पर एक-एक कर अपने कपड़े फेंक दिए...! हमारी संवेदना को झकझोरने के लिए यह एक नया और अलग अनुभव था. वैसे नाटक के कथानक को देखते हुए हम दृश्य संयोजन से अचंभित नहीं थे. शाम हो रही थी और हमें तय करना था कि अब लंदन के किस कोने में हमें जाना है. किन सड़कों पर भटकना है. बातों बातों में मैंने कहा कि ‘कार्ल मार्क्स की कब्र लंदन में ही है.’ अच्छा! मुझे पता नहीं था….विवियन ने कहा. हाइड पार्क या मार्क्स की कब्र- दो में एक चुनना था और हमनें हाईगेट कब्रगाह जाने का निश्चय किया. कब्रगाह शहर से बाहर था. हाईगेट स्टेशन पर ट्यूब से निकल कर हम जिस कॉलोनी से कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे वह पॉश कॉलोनी लग रही थी. ऊँची पहाड़ियों पर खूबसूरत भवन. महंगे कार और करीने से सजे लॉन. दो-तीन किलोमीटर पैदल चल कर जब हम कब्रगाह पहुँचे शाम के करीब सात बज रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था और कब्रगाह में ताला लटक रहा था. अगल-बगल हमने नजर दौड़ाई पर वहाँ कोई नहीं दिख रहा था. अलबत्ता कब्रगाह के अंदर एक लोमड़ी टहलती दिख रही थी. इसी बीच सड़क पर निकले एक व्यक्ति को रोक कर हमने पूछा कि ‘क्या मार्क्स की कब्रगाह यही है?’ भले मानुष ने थोड़ी हताशा भरी स्वर में कहा कि ‘बेशक यही है. पर आप देर हो चुके हैं. यह पाँच बजे बंद हो जाती है.’ हमारे चेहरे पर आए निराशा के भाव को पढ़ कर उन्होंने पूछा आप कहाँ से आए हैं? मैं भारत से हूँ और ये ऑस्ट्रिया से आई हैं... कोई नहीं, आप फिर कल आ जाइएगा... विवियन ने कहा कि क्यों ना हम मार्क्स के नाम एक संदेश छोड़ जाएँ. मैनें कहा जरूर.. ‘कामरेड मार्क्स, हृदय के अंतकरण से हमारी श्रद्धांजलि! दुनिया बदल गई है पर इस बदली हुई दुनिया में तुम्हारे सिद्धांतों की जरुरत कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई है!’ विवियन ने कपड़े के एक छोटे से टुकड़े में इस संदेश को लपेट कर कब्रगाह के दरवाजे पर बांध दिया... (जनसत्ता में समांतर कॉलम के तहत 'टेम्स के किनारे' शीर्षक से 9 नवंबर 2011 को प्रकाशित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Nov 10 19:14:08 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 10 Nov 2011 19:14:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSV4KWH?= =?utf-8?b?4KS2ICjgpK3gpJ/gpY3gpJ8pIOCkreCkvuCkiCDgpJXgpYAg4KSv4KS5?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLjgpK7gpK8g4KSo4KS/4KSV4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSwIOCknOCksOClguCksCDgpKrgpZ3gpYfgpIIgLi4u?= Message-ID: हाजी हुसैन बहुत कम बोलते थे. कभी कभार वो जेल के बरामदे में किसी कैदी से यह ज़रूर पूछ लेते थे कि घर में सब राज़ी-खुशी तो हैं ना? इसका एक झूठा जवाब हर कैदी देता था – हाँ हाजी! इस झूठ से कैदी को थोड़ी सी राहत तो मिलती थी कि चलो कोई तो है जो उसके परिवार के बारे में चिंतित है. और फिर हाजी हुसैन तो जेलर थे. हाजी हुसैन इस जवाब की सच्चाई को भी जानते थे लेकिन ‘अल-हम्दुल्लिल्लाह’ [ईश्वर तेरा धन्यवाद] कहते हुए चले जाते थे. यूँ तो मै जेल में उदास नहीं रहता था लेकिन १९९४ दिसंबर महीने की एक सुबह को बहुत उदास हुआ. दिसंबर महीने में ईरान की राजधानी तेहरान गच्च बर्फ से ढक जाती है. और एविन नाम की जेल जो कि पहाड़ियों के बीच बनी हुई है वहाँ तो और भी ठंडा मौसम हो जाता है. शायद केदारनाथ-बदरीनाथ जैसी ठण्ड, कुछ-कुछ मेरे ननिहाल खात्स्यूं सिरकोट [श्रीकोट] जैसी. मुझे तारीख तो ठीक याद नहीं है लेकिन दिन याद है – बृहस्पतिवार.क्योंकि कल ही परिवार के साथ मेरी मुलाक़ात का दिन था. हर बुधवार को मेरी पत्नी ही आया करती थी क्योंकि और रिश्तेदारों को मुलाक़ात की मंजूरी नहीं थी. मुलाक़ात के समय शीशे के आरपार हम एक दुसरे को देख सकते थे लेकिन बात दोनों तरफ रखे टेलीफोन के ज़रिये ही हो पाती थी. हम दोनों बहुत संयम से बातें करते थे क्योंकि यह बातें रिकार्ड होती थी. हमारी बातों का अक्सर केन्द्र हमारी बेटी ही हुआ करती थी – जिसकी शैतानियाँ का ज़िक्र जिंदगी की तल्खियों को भुलाने में कारगर होता था – भले ही मुलाक़ात सात मिनटों के लिए ही क्यों न हो. ठीक सात मिनट के बाद यह लाइन काट दी जाती थी. और इस ओर मै हेलो हेलो कहता था और उस ओर से वह, लेकिन शीशे की मोटी दीवार के कारण आवाज़ भले ही न जाती हो लेकिन जो सुना नही जा सका वह समझ में आ जाता था. रिश्तों के आगे भाषा की औकात बौनी पड़ जाती है, यह सुना ज़रूर था लेकिन देखा वहीँ पर. खैर! ज़िक्र उदासी का चल रहा था. हुआ यूँ कि सुबह की हाजरी के बाद मै नाश्ता करने लगा तो एक अन्य कैदी साथी जो अखबार पढ़ रहा था कहा कि एक खबर हिन्दुस्तान के बारे में भी छपी है. ईरान में हिन्दुस्तान को बहुत आदर और इज्जत के साथ देखा जाता है. मैंने सोचा शायद कोई इसी तरह की खबर होगी जिसमे अतिशयोक्तियों के साथ हिन्दुस्तान की तारीफ की गई होगी. मैंने अपनी जगह पर बैठ कर कहा कि खबर का शीर्षक पढ़ दो अभी – पूरी खबर बाद में पढूंगा. उसने खबर का शीर्षक पढ़ा – ‘तज्जवोज़ बा बानुवान-ए-जुम्बिश-ए-उत्तराखंड’ [उत्तराखंड आंदोलन की महिलाओं के साथ बलात्कार]. क्योंकि कमरे के सभी कैदियों ने यह खबर सुनी तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि ईरानी लोग यह समझते हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं की बहुत इज्ज़त होती है. मैंने अखबार लिया और खबर पढ़ी जो शायद चार या पांच पंक्तियों से बड़ी नहीं थी. जिसमे करीब दो महीना पुरानी घटना का संक्षिप्त वर्णन था कि हिंदुस्तान के मुज्ज़फरनगर शहर में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलाई जिसमे कुछ आंदोलनकारी शहीद हुए और पुलिस ने महिलाओं के साथ ज्यादती की. उस वक़्त न जाने और कोई क्यों याद नहीं आया. लेकिन अपना गाँव बहुत याद आया. बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’, कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’ और गाँव का नागरजा. गाँव, पीपल, कुलैं और एक खामोश खुदा. मेरी याद में कहीं भी इंसान नहीं था. कैदी ख़ामोशी की ज़बान को पहचानता है और इसीलिए किसी ने मुझ से इसके बारे में पूछा नहीं बल्कि मेरी ख़ामोशी को अपनी ख़ामोशी का सहारा दिया. मैं कुछ देर के बाद लाईब्रेरी चला गया. कुरान की हर उस आयत [श्लोक] को पढ़ने लगा जिसमे निर्दोष पर ज़ुल्म करने वालों की सजा के बारे में लिखा था. बहुत सी ऐसी आयतें थी लेकिन एक आयत मन को छू गई. कुरान के ५वें अध्याय की ३२वीं आयत – ‘यदि कोई किसी निर्दोष व्यक्ति का क़त्ल करता है तो समझो कि उसने समस्त मनुष्यता का क़त्ल किया है.’ शायद मन कुछ हल्का ज़रूर हुआ मगर उदास ही रहा. दिन के खाने पर भी नहीं गया और शायद लाइब्रेरी के बड़े से हॉल में मैं ही अकेला रह गया. अचानक देखा कि मेरे सामने हाजी हुसैन खड़े थे. मैंने उन्हें सलाम किया और उन्होंने भी वालैकुम अस्सलाम कह कर जवाब दिया. उन्होंने पूछा – हिंदी! [हिंदुस्तानियों को ईरान में हिंदी कहा जाता है] आज उदास दिख रहे हो. मैंने कहा - हाँ हाजी! उन्होंने मेरी उदासी का कारण पूछा तो मैंने कारण बता दिया. उन्होंने ढ़ाडस बंधाते हुए कुरान की एक आयत कही जिसका मतलब है कि – ‘जिनपर अत्याचार हुए हैं वे अब खुदा के अज़ीज़ बन चुके हैं और जो शहीद हुए हैं वे खुदा के पहलू में जिंदा हैं.’. फिर कुछ क्षणों के बाद कहा कि आज शाम की नमाज़ के वक़्त एक दुआ पढनी है तो मैं भी मौजूद रहूँ. मैंने कहा – ठीक है हाजी, आ जाऊंगा. मुझे लगा कि मुझसे नमाज़ के बाद की कोई दुआ पढ़वाना चाहते हैं. मेरे कुरान के प्रवचन और दुआ जेल में शायद काफी पसंद किये जाते थे. शाम की नमाज़ पर मै मौजूद हुआ. हाजी हुसैन भी थे. इमाम ने नमाज़ पढाई और हाजी हुसैन को दुआ पढ़ने के लिए बुलाया. मुझे लगा कि हाजी हुसैन अब मेरा नाम पुकारेंगे और मुझ से दुआ पढ़ने के लिए कहेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने खुद दुआ पढ़ने शुरू करी जो लगभग बहुत बार मैंने पढ़ी और सुनी हुई थी लेकिन अचानक उन्होंने कहा – खुदाया! यहाँ जो लोग तेरी शरण में इक्कट्ठा हुए हैं उनमे तेरा एक बन्दा हिंद देश का वासी है, उसके देश में कुछ बहिनों पर अत्याचार हुआ है, तू तो सबसे बड़ा न्यायकर्ता है, उन अत्याचारियों का नाश कर, और जो मजलूम बहिने हैं उनके दुखों का अंत कर. आमीन! या रब्ब-अल-आलमीन! [ऐसा ही हो! हे समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी!] फिर मेरा नाम पुकार कर मुझे बुलाया और कहा कि यदि मैं शहीदों और पीड़ित महिलाओं के नाम जानता हूँ तो एक एक नाम लेकर दुआ को दुहरा सकते हैं. मैंने कहा - मैं नाम नहीं जानता, आप सब का धन्यवाद. रात को जब सोया तो मेरे एक पहलू में मेरा गाँव था, तो दुसरे पहलू गाँव का नागरजा, बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’ और कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’. और इस बार एक इंसान भी शामिल था इनमे – हाजी हुसैन! ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Nov 10 19:14:08 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 10 Nov 2011 19:14:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSV4KWH?= =?utf-8?b?4KS2ICjgpK3gpJ/gpY3gpJ8pIOCkreCkvuCkiCDgpJXgpYAg4KSv4KS5?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLjgpK7gpK8g4KSo4KS/4KSV4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSwIOCknOCksOClguCksCDgpKrgpZ3gpYfgpIIgLi4u?= Message-ID: हाजी हुसैन बहुत कम बोलते थे. कभी कभार वो जेल के बरामदे में किसी कैदी से यह ज़रूर पूछ लेते थे कि घर में सब राज़ी-खुशी तो हैं ना? इसका एक झूठा जवाब हर कैदी देता था – हाँ हाजी! इस झूठ से कैदी को थोड़ी सी राहत तो मिलती थी कि चलो कोई तो है जो उसके परिवार के बारे में चिंतित है. और फिर हाजी हुसैन तो जेलर थे. हाजी हुसैन इस जवाब की सच्चाई को भी जानते थे लेकिन ‘अल-हम्दुल्लिल्लाह’ [ईश्वर तेरा धन्यवाद] कहते हुए चले जाते थे. यूँ तो मै जेल में उदास नहीं रहता था लेकिन १९९४ दिसंबर महीने की एक सुबह को बहुत उदास हुआ. दिसंबर महीने में ईरान की राजधानी तेहरान गच्च बर्फ से ढक जाती है. और एविन नाम की जेल जो कि पहाड़ियों के बीच बनी हुई है वहाँ तो और भी ठंडा मौसम हो जाता है. शायद केदारनाथ-बदरीनाथ जैसी ठण्ड, कुछ-कुछ मेरे ननिहाल खात्स्यूं सिरकोट [श्रीकोट] जैसी. मुझे तारीख तो ठीक याद नहीं है लेकिन दिन याद है – बृहस्पतिवार.क्योंकि कल ही परिवार के साथ मेरी मुलाक़ात का दिन था. हर बुधवार को मेरी पत्नी ही आया करती थी क्योंकि और रिश्तेदारों को मुलाक़ात की मंजूरी नहीं थी. मुलाक़ात के समय शीशे के आरपार हम एक दुसरे को देख सकते थे लेकिन बात दोनों तरफ रखे टेलीफोन के ज़रिये ही हो पाती थी. हम दोनों बहुत संयम से बातें करते थे क्योंकि यह बातें रिकार्ड होती थी. हमारी बातों का अक्सर केन्द्र हमारी बेटी ही हुआ करती थी – जिसकी शैतानियाँ का ज़िक्र जिंदगी की तल्खियों को भुलाने में कारगर होता था – भले ही मुलाक़ात सात मिनटों के लिए ही क्यों न हो. ठीक सात मिनट के बाद यह लाइन काट दी जाती थी. और इस ओर मै हेलो हेलो कहता था और उस ओर से वह, लेकिन शीशे की मोटी दीवार के कारण आवाज़ भले ही न जाती हो लेकिन जो सुना नही जा सका वह समझ में आ जाता था. रिश्तों के आगे भाषा की औकात बौनी पड़ जाती है, यह सुना ज़रूर था लेकिन देखा वहीँ पर. खैर! ज़िक्र उदासी का चल रहा था. हुआ यूँ कि सुबह की हाजरी के बाद मै नाश्ता करने लगा तो एक अन्य कैदी साथी जो अखबार पढ़ रहा था कहा कि एक खबर हिन्दुस्तान के बारे में भी छपी है. ईरान में हिन्दुस्तान को बहुत आदर और इज्जत के साथ देखा जाता है. मैंने सोचा शायद कोई इसी तरह की खबर होगी जिसमे अतिशयोक्तियों के साथ हिन्दुस्तान की तारीफ की गई होगी. मैंने अपनी जगह पर बैठ कर कहा कि खबर का शीर्षक पढ़ दो अभी – पूरी खबर बाद में पढूंगा. उसने खबर का शीर्षक पढ़ा – ‘तज्जवोज़ बा बानुवान-ए-जुम्बिश-ए-उत्तराखंड’ [उत्तराखंड आंदोलन की महिलाओं के साथ बलात्कार]. क्योंकि कमरे के सभी कैदियों ने यह खबर सुनी तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि ईरानी लोग यह समझते हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं की बहुत इज्ज़त होती है. मैंने अखबार लिया और खबर पढ़ी जो शायद चार या पांच पंक्तियों से बड़ी नहीं थी. जिसमे करीब दो महीना पुरानी घटना का संक्षिप्त वर्णन था कि हिंदुस्तान के मुज्ज़फरनगर शहर में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलाई जिसमे कुछ आंदोलनकारी शहीद हुए और पुलिस ने महिलाओं के साथ ज्यादती की. उस वक़्त न जाने और कोई क्यों याद नहीं आया. लेकिन अपना गाँव बहुत याद आया. बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’, कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’ और गाँव का नागरजा. गाँव, पीपल, कुलैं और एक खामोश खुदा. मेरी याद में कहीं भी इंसान नहीं था. कैदी ख़ामोशी की ज़बान को पहचानता है और इसीलिए किसी ने मुझ से इसके बारे में पूछा नहीं बल्कि मेरी ख़ामोशी को अपनी ख़ामोशी का सहारा दिया. मैं कुछ देर के बाद लाईब्रेरी चला गया. कुरान की हर उस आयत [श्लोक] को पढ़ने लगा जिसमे निर्दोष पर ज़ुल्म करने वालों की सजा के बारे में लिखा था. बहुत सी ऐसी आयतें थी लेकिन एक आयत मन को छू गई. कुरान के ५वें अध्याय की ३२वीं आयत – ‘यदि कोई किसी निर्दोष व्यक्ति का क़त्ल करता है तो समझो कि उसने समस्त मनुष्यता का क़त्ल किया है.’ शायद मन कुछ हल्का ज़रूर हुआ मगर उदास ही रहा. दिन के खाने पर भी नहीं गया और शायद लाइब्रेरी के बड़े से हॉल में मैं ही अकेला रह गया. अचानक देखा कि मेरे सामने हाजी हुसैन खड़े थे. मैंने उन्हें सलाम किया और उन्होंने भी वालैकुम अस्सलाम कह कर जवाब दिया. उन्होंने पूछा – हिंदी! [हिंदुस्तानियों को ईरान में हिंदी कहा जाता है] आज उदास दिख रहे हो. मैंने कहा - हाँ हाजी! उन्होंने मेरी उदासी का कारण पूछा तो मैंने कारण बता दिया. उन्होंने ढ़ाडस बंधाते हुए कुरान की एक आयत कही जिसका मतलब है कि – ‘जिनपर अत्याचार हुए हैं वे अब खुदा के अज़ीज़ बन चुके हैं और जो शहीद हुए हैं वे खुदा के पहलू में जिंदा हैं.’. फिर कुछ क्षणों के बाद कहा कि आज शाम की नमाज़ के वक़्त एक दुआ पढनी है तो मैं भी मौजूद रहूँ. मैंने कहा – ठीक है हाजी, आ जाऊंगा. मुझे लगा कि मुझसे नमाज़ के बाद की कोई दुआ पढ़वाना चाहते हैं. मेरे कुरान के प्रवचन और दुआ जेल में शायद काफी पसंद किये जाते थे. शाम की नमाज़ पर मै मौजूद हुआ. हाजी हुसैन भी थे. इमाम ने नमाज़ पढाई और हाजी हुसैन को दुआ पढ़ने के लिए बुलाया. मुझे लगा कि हाजी हुसैन अब मेरा नाम पुकारेंगे और मुझ से दुआ पढ़ने के लिए कहेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने खुद दुआ पढ़ने शुरू करी जो लगभग बहुत बार मैंने पढ़ी और सुनी हुई थी लेकिन अचानक उन्होंने कहा – खुदाया! यहाँ जो लोग तेरी शरण में इक्कट्ठा हुए हैं उनमे तेरा एक बन्दा हिंद देश का वासी है, उसके देश में कुछ बहिनों पर अत्याचार हुआ है, तू तो सबसे बड़ा न्यायकर्ता है, उन अत्याचारियों का नाश कर, और जो मजलूम बहिने हैं उनके दुखों का अंत कर. आमीन! या रब्ब-अल-आलमीन! [ऐसा ही हो! हे समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी!] फिर मेरा नाम पुकार कर मुझे बुलाया और कहा कि यदि मैं शहीदों और पीड़ित महिलाओं के नाम जानता हूँ तो एक एक नाम लेकर दुआ को दुहरा सकते हैं. मैंने कहा - मैं नाम नहीं जानता, आप सब का धन्यवाद. रात को जब सोया तो मेरे एक पहलू में मेरा गाँव था, तो दुसरे पहलू गाँव का नागरजा, बूढी दादी की लगाई हुई ‘पीपल चौंरी’ और कांडा के मंदिर के रास्ते की ‘डूंडी कुलैं’. और इस बार एक इंसान भी शामिल था इनमे – हाजी हुसैन! ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ From anant7akash at gmail.com Tue Nov 8 23:11:30 2011 From: anant7akash at gmail.com (anand tripathi) Date: Tue, 8 Nov 2011 23:11:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= anna team me congressi ghuspaithiya Message-ID: kuan hai janne ke liye clik karen http://anandvani.blogspot.com/2011/11/o-e-aue-yae-eaancu.html -- Regards ANAND TRIPATHI Reporter Dainik Bhaskar,Hissar Mobile +919017333047 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From surya.journalist at gmail.com Thu Nov 10 23:07:55 2011 From: surya.journalist at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS44KWC4KSw4KWN4KSvIOCkl+Cli+Ckr+Cksg==?=) Date: Thu, 10 Nov 2011 23:07:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KWB4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkrOCkueClgeCkpCDgpLngpYHgpI8g4KS54KWL4KSX4KWH?= =?utf-8?b?IOCkhuCkqg==?= Message-ID: *प्रिय बंधू, नमस्कार! आपको मेरी वेबसाईट सहित कुछ खास खबरों के लिंक मेल कर रहा हूँ. कृपया एक बार देखने-पढ़ने का कष्ट करें. शायद आपको मेरी गुफ्तगू पसंद आएगी. अगर अच्छी लगे तो कोमेंट देकर मेरा हौसला बढ़ाये. क्योंकि यह है -* *देश की पहली आम नजरिये को खास खबरों में पेश करती हिंदी न्यूज वेबसाईट* गुफ्तगू :- समाचार ! एक पहलु यह भी *KLICK ON LINK* :- * *www.gooftgu.co.nr *या सीधे यह पढ़े :- खुश तो बहुत हुए होगे आप चिठ्ठी पर चिठ्ठी-चिठ्ठी पर चिठ्ठी हमने मनाई राजनीतिक दिवाली धर्म का रिश्ता महिलायें गायब **SURYA GOYAL MOB- 99916-10952 * *HISAR (HARYANA)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From dangijs at gmail.com Fri Nov 11 13:13:04 2011 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Fri, 11 Nov 2011 02:43:04 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KWA4KSo?= =?utf-8?b?IOCkteCksOCljeCknOCkqCAyLjIuNS4wIOCknOCkvuCksOClgC4uLg==?= Message-ID: नमस्कार Sir, आपको यह ई-मेल लिखते हुए अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि प्रखर देवनागरी फ़ॉन्ट परिवर्तक (ASCII/ISCI TO UNICODE CONVERTER) का नवीन वर्जन 2.2.5.0 जारी किया है। अब यह टेक्स्ट-तालिका (Text-Table) के पाठ को भी पूरी शुद्धता के साथ टेक्स्ट-तालिका के रूप में परिवर्तित करने में पूर्ण सक्षम है। इस नवीन वर्जन को आप दी जा रही लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं। विभागीय कार्य अधिकांशतः तालिका के रूप में होता है तो अब यह नवीन वर्जन विभागीय उपयोग के लिए बहुत ही बेहतर साबित होगा। कृपया इस नवीन सॉफ़्टवेयर के बारे में अपने स्तर से अन्य विभागीय मित्रों को फ़ॉरवर्ड कर उपयोग करनें की जानकारी देने की कृपा करें। http://www.4shared.com/file/zXERndaY/PrakharParivartak.html रीव्यू यहाँ दिया है – http://raviratlami.blogspot.com/2011/11/blog-post_08.html धन्यवाद! सादर इंजी॰ जगदीप दाँगी Profile: http://www.iiitm.ac.in/?q=users/dangijs http://www.youtube.com/watch?v=aBLnEwg7UEo&feature=mfu_in_order&list=UL http://www.4shared.com/u/5IPlotQZ/DangiSoft_India.html -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/?q=users/dangijs -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From dangijs at gmail.com Fri Nov 11 13:13:04 2011 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Fri, 11 Nov 2011 02:43:04 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KWA4KSo?= =?utf-8?b?IOCkteCksOCljeCknOCkqCAyLjIuNS4wIOCknOCkvuCksOClgC4uLg==?= Message-ID: नमस्कार Sir, आपको यह ई-मेल लिखते हुए अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि प्रखर देवनागरी फ़ॉन्ट परिवर्तक (ASCII/ISCI TO UNICODE CONVERTER) का नवीन वर्जन 2.2.5.0 जारी किया है। अब यह टेक्स्ट-तालिका (Text-Table) के पाठ को भी पूरी शुद्धता के साथ टेक्स्ट-तालिका के रूप में परिवर्तित करने में पूर्ण सक्षम है। इस नवीन वर्जन को आप दी जा रही लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं। विभागीय कार्य अधिकांशतः तालिका के रूप में होता है तो अब यह नवीन वर्जन विभागीय उपयोग के लिए बहुत ही बेहतर साबित होगा। कृपया इस नवीन सॉफ़्टवेयर के बारे में अपने स्तर से अन्य विभागीय मित्रों को फ़ॉरवर्ड कर उपयोग करनें की जानकारी देने की कृपा करें। http://www.4shared.com/file/zXERndaY/PrakharParivartak.html रीव्यू यहाँ दिया है – http://raviratlami.blogspot.com/2011/11/blog-post_08.html धन्यवाद! सादर इंजी॰ जगदीप दाँगी Profile: http://www.iiitm.ac.in/?q=users/dangijs http://www.youtube.com/watch?v=aBLnEwg7UEo&feature=mfu_in_order&list=UL http://www.4shared.com/u/5IPlotQZ/DangiSoft_India.html -- Er. 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