From shashikanthindi at gmail.com Sun May 1 22:31:48 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 1 May 2011 22:31:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWN4KSw4KS3?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KS+4KSa4KS+4KSwIOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKs=?= =?utf-8?b?4KS8IOClnuCliOCktuCkqCDgpLbgpYs=?= Message-ID: भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आज (संडे-सिविल सोसायटी के छुट्टी का दिन) सुविधाभोगी, कामचोर, संसाधनों का हेर-फेर करनेवाली सविल सोसायटी के लोगों ने राजधानी दिल्ली और मुंबई में फ़ैशन शो किया. इससे पहले अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक बड़ा फ़ैशन शो हुआ था. भष्टाचार के रोज़-ब-रोज़ शिकार हो रहे आम लोगों को इतनी कहाँ फुरसत कि वे इस फ़ैशन शो में शामिल हों. वे आज संडे को भी दिहाड़ी कर रहे थे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed May 4 00:16:38 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 4 May 2011 00:16:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpIXgpK7gpYfgpLDgpL/gpJXgpL4g4KS14KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KWL4KSnLi4uIQ==?= Message-ID: *- शशिकांत* ओसामा बिन लादेन के अमेरिका विरोध का तरीका ग़लत था लेकिन ओसामा का अमेरिका विरोध सही था ओसामा खलनायक था इसलिए क्योंकि उसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के लिए आतंकवाद का रास्ता अख्तियार किया यदि ओसामा डेमोक्रेटिक तरीक़े से अमेरिकी नीति के खिलाफ़ लड़ रहा होता तो आज वह अंतर्राष्ट्रीय हीरो होता इराक अफगानिस्तान सीरिया और दुनिया के अन्य कई हिस्सों में अमेरिकी दादागिरी कहीं ज्यादा ग़लत है और पुरी दुनिया को अमेरिकी नीति का विरोध करना चाहिए. ** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed May 4 01:16:24 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 4 May 2011 01:16:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCkv+CkqCDgpLLgpL7gpKbgpYfgpKgg4KSV4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KS44KSw4KWAIOCkruCljOCkpDog4KSP4KSVIOCkqOCkvuCknw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleClgCDgpJfgpILgpKc=?= Message-ID: *ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबरें अनेक सवालों पर फिर से ध्यान खींचती हैं. इनमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसी भी देश को दूसरे देश में अवैध-अनैतिक-अमानवीय फौजी कार्रवाइयों का अधिकार है. ऐसे हमले के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि लादेन, कथित तौर पर, उन हमलों के लिए जिम्मेदार था, जिनमें 3 हजार से अधिक लोगों की मौतें हुईं. इन हमलों और हमलावरों की वास्तविकताओं पर किये जानेवाले मजबूत संदेहों को छोड़ भी दें तब भी अगर बेगुनाह लोगों की हत्याओं का जिम्मेदार होना ही ऐसे हमलों के लिए वाजिब कारण है तब तो सारे हत्यारे बुशों और ओबामाओं को सैकड़ों बार गोलियों से मारना पड़ेगा. यूनियन कार्बाइड के मुखिया और भोपाल गैस जनसंहार में मारे गये बीसियों हजार लोगों और दो दशकों में इसकी पीड़ा अब भी भुगत रहे लाखों लोगों के अपराधी वारेन एंडरसन को किसने पनाह दी है ? उसे कौन बचा रहा है? 2009 से लेकर अब तक श्रीलंका में लाखों तमिल निवासियों के कत्लेआम के दोषी राजपक्षे की मदद किसने की और अब भी उसकी पीठ पर किसका हाथ है? विदर्भ में पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख से अधिक किसानों की (आत्म)हत्याओं के लिए जो (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की) नीतियां जिम्मेदार हैं, उन्हें किसने बनाया और उन्हें कौन लागू कर रहा है? इराक में पिछले दो दशकों में प्रतिबंधों और युद्ध में जो 14 लाख 55 हजार से अधिक लोग मारे गये हैं, उनके लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी दुनिया में लगातार युद्ध, प्रतिबंधों और सरकारी नीतियों के जरिए लोगों की जिंदगियों में संस्थागत हिंसा घोल रही साम्राज्यवादी नीतियां आखिर कौन लोग बनाते और थोपते हैं. अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसके सहयोगी देश. इनके द्वारा की गयी हत्याएं 11 सितंबर को मारे गए लोगों की संख्या से सैकड़ों गुना अधिक हैं. इन्हें क्यों नहीं सजा मिलती? कब मिलेगी इन्हें सजा? फिर इन्हें क्या अधिकार है दूसरों को आतंकवादी कहने और मारने का?* * इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस की पोस्ट. हाशिया का अनुवाद. http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post.html * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed May 4 01:16:24 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 4 May 2011 01:16:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCkv+CkqCDgpLLgpL7gpKbgpYfgpKgg4KSV4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KS44KSw4KWAIOCkruCljOCkpDog4KSP4KSVIOCkqOCkvuCknw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleClgCDgpJfgpILgpKc=?= Message-ID: *ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबरें अनेक सवालों पर फिर से ध्यान खींचती हैं. इनमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसी भी देश को दूसरे देश में अवैध-अनैतिक-अमानवीय फौजी कार्रवाइयों का अधिकार है. ऐसे हमले के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि लादेन, कथित तौर पर, उन हमलों के लिए जिम्मेदार था, जिनमें 3 हजार से अधिक लोगों की मौतें हुईं. इन हमलों और हमलावरों की वास्तविकताओं पर किये जानेवाले मजबूत संदेहों को छोड़ भी दें तब भी अगर बेगुनाह लोगों की हत्याओं का जिम्मेदार होना ही ऐसे हमलों के लिए वाजिब कारण है तब तो सारे हत्यारे बुशों और ओबामाओं को सैकड़ों बार गोलियों से मारना पड़ेगा. यूनियन कार्बाइड के मुखिया और भोपाल गैस जनसंहार में मारे गये बीसियों हजार लोगों और दो दशकों में इसकी पीड़ा अब भी भुगत रहे लाखों लोगों के अपराधी वारेन एंडरसन को किसने पनाह दी है ? उसे कौन बचा रहा है? 2009 से लेकर अब तक श्रीलंका में लाखों तमिल निवासियों के कत्लेआम के दोषी राजपक्षे की मदद किसने की और अब भी उसकी पीठ पर किसका हाथ है? विदर्भ में पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख से अधिक किसानों की (आत्म)हत्याओं के लिए जो (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की) नीतियां जिम्मेदार हैं, उन्हें किसने बनाया और उन्हें कौन लागू कर रहा है? इराक में पिछले दो दशकों में प्रतिबंधों और युद्ध में जो 14 लाख 55 हजार से अधिक लोग मारे गये हैं, उनके लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी दुनिया में लगातार युद्ध, प्रतिबंधों और सरकारी नीतियों के जरिए लोगों की जिंदगियों में संस्थागत हिंसा घोल रही साम्राज्यवादी नीतियां आखिर कौन लोग बनाते और थोपते हैं. अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसके सहयोगी देश. इनके द्वारा की गयी हत्याएं 11 सितंबर को मारे गए लोगों की संख्या से सैकड़ों गुना अधिक हैं. इन्हें क्यों नहीं सजा मिलती? कब मिलेगी इन्हें सजा? फिर इन्हें क्या अधिकार है दूसरों को आतंकवादी कहने और मारने का?* * इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस की पोस्ट. हाशिया का अनुवाद. http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post.html * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed May 4 17:01:32 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 4 May 2011 17:01:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSc4KSm4KWC?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KSCIOCkquCksCDgpJzgpL7gpKjgpLLgpYfgpLXgpL4g4KS5?= =?utf-8?b?4KSu4KSy4KS+IOCkueCli+CkqOCkviDgpJXgpL/gpLjgpYAg4KSt4KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCktuCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+4KSVIOCkueCliA==?= Message-ID: इसी महीने एक तारिख को मजदूर मांग पत्रक के नाम पर दिल्ली के जंतर मंतर पर एक बड़ी रैली हुई थी। जिसमें छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली से मजदूरों का एक बड़ा वर्ग दिल्ली आया था। इनमें सबसे बड़ी संख्या थी, गोरखपुर से आने वाले मजदूरों की। वे संख्या में लगभग दो हजार थे। यह भी उस वक्त हुआ, जबकि उनकी फैक्ट्री का प्रबंधन बिल्कुल यह नहीं चाहता था कि वे लोग दिल्ली आएं। मजदूर दिवस के एक सौ पच्चीसवें साल पर दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठे हुए इस मजदूर आंदोलन की खास बात यही थी कि किसी राजनीतिक या गैर राजनीतिक दल के पास इसका नेतृत्व नहीं था। इस जुटान के संयोजकों ने बताया था कि इस आंदोलन में कई धारा के लोगों की भागीदारी है। वास्तव में इसे देश भर के मजदूरों के सांझा और एकजुट लड़ाई के तौर पर आगे बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है। मांग पत्रक आंदोलन में आए दूसरे प्रांतों के साथियों ने अब तक अपनी नई जिन्दगी शुरु कर दी होगी। वही रोज सुबह उठना फैक्ट्री जाना और देर शाम वापस आना। लेकिन गोरखपुर के विनोद सिंह, विरेन्द्र यादव, अमित कुमार, रमानन्द साहनी, शैलेष कुमार, पप्पू जायसवाल, रामजन्म भारत, विनय श्रीवास्तव, देवेंद्र यादव, विनोद दुबे, ध्रुव सिंह, श्रीनिवास चौहान, जैसे एक दर्जन से अधिक मजदूरों को पता ही नहीं था कि मांग पत्रक आंदोलन का साथ देना उनके लिए इतना खतरनाक हो सकता है। ये सभी साथी गोरखपुर जिला अस्पताल में जीवन मौत से जुझ रहे हैं। यहां यदि गोरखपुर के अखबार की भूमिका की बात करें तो वह मालिकों के साथ ही चालाकी के साथ अपनी पक्षधरता दिखा रहा है। चूंकि अखबारों के सारे विज्ञापन उन्हीं की तरफ से आते हैं। फिर मजदूरों का पक्ष लेकर वह अपने व्यवसाय में नुक्सान क्यों उठाएगा। शहर भर में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस घटना की घोर भर्त्सना की गई लेकिन किसी भी अखबार में यह खबर नहीं छपी। खबर सिर्फ घटना परक थी। जबकि इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों पर जानलेवा हमला होना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक है। बताया जा रहा है, इस सबके पिछे मजदूरों बढ़ती एकता को कमजोर करने का प्रयास है। वास्तव में गोरखपुर के लगभग सवा दो सौ फैक्टरियों में काम करने वाले कई हजार मजदूर अगर एक हो गए तो काम के घंटे आठ, जबरन ओवर टाइम बंदी, न्यूतम मजदूरी ग्यारह हजार रुपए, ठेका प्रथा बंदी जैसी तमाम मांगे मालिकों को माननी पड़ेगी। जो वे कभी नहीं चाहेंगे। इस वक्त जिन अखबारों को मजदूरों के पक्ष में होना चाहिए, वे फैक्ट्री मालिको के पास विज्ञापन के जुगाड़ में लगे हैं। इस तरह की स्थिति पर क्या कहा जा सकता है? -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed May 4 17:01:32 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 4 May 2011 17:01:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSc4KSm4KWC?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KSCIOCkquCksCDgpJzgpL7gpKjgpLLgpYfgpLXgpL4g4KS5?= =?utf-8?b?4KSu4KSy4KS+IOCkueCli+CkqOCkviDgpJXgpL/gpLjgpYAg4KSt4KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCktuCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+4KSVIOCkueCliA==?= Message-ID: इसी महीने एक तारिख को मजदूर मांग पत्रक के नाम पर दिल्ली के जंतर मंतर पर एक बड़ी रैली हुई थी। जिसमें छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली से मजदूरों का एक बड़ा वर्ग दिल्ली आया था। इनमें सबसे बड़ी संख्या थी, गोरखपुर से आने वाले मजदूरों की। वे संख्या में लगभग दो हजार थे। यह भी उस वक्त हुआ, जबकि उनकी फैक्ट्री का प्रबंधन बिल्कुल यह नहीं चाहता था कि वे लोग दिल्ली आएं। मजदूर दिवस के एक सौ पच्चीसवें साल पर दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठे हुए इस मजदूर आंदोलन की खास बात यही थी कि किसी राजनीतिक या गैर राजनीतिक दल के पास इसका नेतृत्व नहीं था। इस जुटान के संयोजकों ने बताया था कि इस आंदोलन में कई धारा के लोगों की भागीदारी है। वास्तव में इसे देश भर के मजदूरों के सांझा और एकजुट लड़ाई के तौर पर आगे बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है। मांग पत्रक आंदोलन में आए दूसरे प्रांतों के साथियों ने अब तक अपनी नई जिन्दगी शुरु कर दी होगी। वही रोज सुबह उठना फैक्ट्री जाना और देर शाम वापस आना। लेकिन गोरखपुर के विनोद सिंह, विरेन्द्र यादव, अमित कुमार, रमानन्द साहनी, शैलेष कुमार, पप्पू जायसवाल, रामजन्म भारत, विनय श्रीवास्तव, देवेंद्र यादव, विनोद दुबे, ध्रुव सिंह, श्रीनिवास चौहान, जैसे एक दर्जन से अधिक मजदूरों को पता ही नहीं था कि मांग पत्रक आंदोलन का साथ देना उनके लिए इतना खतरनाक हो सकता है। ये सभी साथी गोरखपुर जिला अस्पताल में जीवन मौत से जुझ रहे हैं। यहां यदि गोरखपुर के अखबार की भूमिका की बात करें तो वह मालिकों के साथ ही चालाकी के साथ अपनी पक्षधरता दिखा रहा है। चूंकि अखबारों के सारे विज्ञापन उन्हीं की तरफ से आते हैं। फिर मजदूरों का पक्ष लेकर वह अपने व्यवसाय में नुक्सान क्यों उठाएगा। शहर भर में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस घटना की घोर भर्त्सना की गई लेकिन किसी भी अखबार में यह खबर नहीं छपी। खबर सिर्फ घटना परक थी। जबकि इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों पर जानलेवा हमला होना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक है। बताया जा रहा है, इस सबके पिछे मजदूरों बढ़ती एकता को कमजोर करने का प्रयास है। वास्तव में गोरखपुर के लगभग सवा दो सौ फैक्टरियों में काम करने वाले कई हजार मजदूर अगर एक हो गए तो काम के घंटे आठ, जबरन ओवर टाइम बंदी, न्यूतम मजदूरी ग्यारह हजार रुपए, ठेका प्रथा बंदी जैसी तमाम मांगे मालिकों को माननी पड़ेगी। जो वे कभी नहीं चाहेंगे। इस वक्त जिन अखबारों को मजदूरों के पक्ष में होना चाहिए, वे फैक्ट्री मालिको के पास विज्ञापन के जुगाड़ में लगे हैं। इस तरह की स्थिति पर क्या कहा जा सकता है? -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Thu May 5 12:03:24 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 5 May 2011 12:03:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWc4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS44KWA4KSs4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLbgpLngpLAg4KS54KWI?= =?utf-8?b?IOCkr+Clhywg4KSc4KWLIOCkh+CkuOCkleClgCDgpJXgpL/gpLjgpY0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSk4KWL4KSCIOCkruClh+CkgiDgpLngpK4g4KS54KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSW4KWH?= Message-ID: “यह शहर सिर्फ़ एक बहाना भर है आपके अच्छे या बुरे होने का. ज़्यादातर मामलों में बुरे होने का.” लुटेरों की गोली खाकर घायल पड़ा साठ साला बैंक का वॉचमैन हमारे नायक सावन द्वारा पूछे जाने पर कि “हॉस्पिटल फ़ोन करूँ?”, डूबती हुई आवाज़ में जवाब देता है, “पहले ये पैसे वापस वॉल्ट में रख दो”. यह वही वॉचमैन है जिसके बारे में पहले बताया गया है कि बैंक की ड्यूटी शुरू होने के बाद वो पास की ज्यूलरी शॉप का ताला खोलने जाता है. इस दिहाड़ी मजदूरी की सी नौकरी में कुछ और पैसा कमाने की कोशिश. दिमाग़ में बरबस *’हल्ला’* के बूढ़े चौकीदार मैथ्यू की छवि घूम जाती है जिसकी जवान बेटियाँ शादी के लायक हो गई थीं और जिसके सहारे फ़िल्म ने हमें एक ध्वस्त कर देने वाला अन्त दिया था. राज और कृष्णा की क्रम से तीसरी फ़िल्म *’शोर इन द सिटी’*जयदीप की फ़िल्म की तरह उतनी गहराई में नहीं जाती, लेकिन इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि और फ़िल्मों की तरह यह शहर को कभी खलनायक नहीं बनने देती. अपनी पिछली फ़िल्म *’99’* की तरह यहाँ भी राज और कृष्णा बम-बंदूकों, धोखेबाज़ गुंडों, क्रिकेट और बेइमानी और अराजकता से भरे शहर की कहानी किसी प्रेम कथा की तरह प्यार से सुनाते हैं. किसी अचर्चित सच्चाई की तरह समझ आता है कि हमारे शहरों पर ’एक ध्येय, एक मुस्कान, एक कहानी’ वाली फ़िल्में बनाना कैसे असंभव हुआ जाता है. अब तो यह भी ज़रूरी नहीं लगता कि इन समानांतर बहती नदियों के रास्ते में कोई ’इलाहाबाद’ आना ही चाहिए. *’शोर इन द सिटी’* की ये कहानियाँ तीनों कहानियों को जोड़ते उस घरेलू डॉन (और निर्देशक द्वय के प्यारे) अमित मिस्त्री की मोहताज नहीं हैं. बल्कि जब तक ये साथ नहीं आतीं, इनका आकर्षण कहीं ज़्यादा है. यह एक सद्चरित्र फ़िल्म है. बंदूकों के साए में आगे बढ़ती ’शोर इन द सिटी’ कभी आपको बंदूक के सामने खड़ा नहीं करती, हाँ कभी ऐन मौका आने पर उसे चलाना ज़रूर सिखाती है. शहर को लेकर इसका नज़रिया आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक है, जैसे अपने मुख्य शीर्षक को इसने अब अनिवार्य हक़ीक़त मानकर अपना लिया है. जिस ’गणेश विसर्जन’ को मुम्बई शहर की आधुनिक कल्ट क्लासिक *’सत्या’*में आतंक के पर्याय के तौर पर चित्रित किया है, वह यहाँ विरेचन का पर्याय है. बाक़ी फ़िल्म से अलग विसर्जन के दृश्य किसी हैंडीकैम पर फ़िल्माए लगते हैं. शायद यह उसकी ’असलियत’ बढ़ाने का एक और उपाए हो. जैसे आधुनिक शहर के इस निहायत ही गैर-बराबर समाज में अतार्किक बराबरियाँ लाने के रास्ते इन्हीं सार्वजनिकताओं में खोज लिए गए हैं. पैसा उगाहने वाले गुंडों के किरदार में ज़ाकिर हुसैन और सुरेश दुबे उतना ही सही चयन है जितना विदेश से भारत आए हिन्दुतानी मूल ’अभय’ के किरदार में सेंदिल रामामूर्ति. साथ ही *’शोर इन द सिटी’*के पास ट्रैफ़िक सिग्नल पर बिकने वाली पाइरेटेड बेस्टसेलर्स छापने वाले और घर में उन्हीं किताबों को डिक्शनरी की सहायता से पढ़ने की असफ़ल कोशिश करने वाले ’तिलक’ जैसे बहु स्तरीय और एक AK56 बंदूक को अपना दिल दे बैठे ’मंडूक’ जैसे औचक-रोचक किरदार हैं. एक का तो निर्माता के भाई ने गुड़-गोबर कर दिया है. दूसरे किरदार में पित्तोबाश त्रिपाठी उस दुर्लभ स्वाभाविकता को जीवित करते हैं जिसने इरफ़ान ख़ान से लेकर विजय राज तक को हमारा चहेता बनाया है. पित्तोबाश, याद रखना. ’कॉमेडी बिकती है’ वाली भेड़चाल में यह मायानगरी तुम्हें अगला ’राजपाल यादव’ बनाने की कोशिश करेगी. तुम इनकी माया से बचना. क्योंकि तुम्हारी अदाकारी की ऊँचाई तुम्हें उन तमाम छ: फ़ुटे नायकों से ऊपर खड़ा करती है. राज और कृष्णा की ’99’ में दिल्ली को लेकर कुछ दुर्लभ प्रतिक्रियाएं थीं. ऐसी जिन्हें मुम्बईवाले दोस्तों से मैंने कई बार सुना है, लेकिन हिन्दी सिनेमा शहरों को लेकर ऐसी बारीकियाँ दिखाने के लिए नहीं जाना जाता. लेकिन *’शोर इन द सिटी’* ने भी इस मामले में अपनी पूर्ववर्ती जैसा स्वभाव पाया है. यहाँ भी आप मुम्बई के उस ’रेड सिग्नल’ से परिचित होते हैं जिससे आगे गरीब की सवारी ’ऑटो’ नहीं, अमीर की सवारी ’टैक्सी’ ही चलती है. यह पूरी की पूरी पाइरेटेड दुनिया है जहाँ न सिर्फ़ किताबें और उनके प्रकाशक फ़र्जी हैं बल्कि बम-बंदूकें और उनसे निकली गोलियाँ भी. जब अच्छाई का कोई भरोसा नहीं रहा तो बुरी चीज़ों का भी भरोसा कब तक बना रहना था. यह कुछ-कुछ उस चुटकुले की याद दिलाता है जहाँ ज़िन्दगी की लड़ाई में हार आत्महत्या करने के लिए आदमी ज़हर की पूरी बोतल गटक जाए लेकिन मरे नहीं. एक और हार, कमबख़्त बोतल का नकली ज़हर भी उसका मुंह चिढ़ाता है. अब यह शहर निर्दयी नहीं, बेशर्म है. इस पाइरेटेड शहर की हर करुणा में चालाकियाँ छिपी हैं और ’भाई’ अकेला ऐसा है जिसे अब भी देश की चिंता है. यह ओसामा और ओबामा के बीच का फ़र्क मिट जाने का समय है. यह नकल के असल हो जाने का समय है. _ _ _ _ _ ***शीर्षक निर्देशक द्वय की पिछली फ़िल्म ’99′ में इस्तेमाल हुए एक गीत से लिया गया है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu May 5 17:31:19 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 5 May 2011 17:31:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSy4KWLIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSu4KWL4KScIOCkluCkviDgpIbgpI/gpIIuLg==?= Message-ID: चलो मोमोज खा आएं... यूं तो दिल्ली गोल-गप्पा व चाट-भाजी के लिए मशहूर है। बाकी जो मशहूर हुआ वह तंदूर का पका होता है। पर, इन सब के बीच मोमोज ने कब और कैसे अपनी जगह बना ली !इस बाबत कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। हालांकि, यह तथ्य है कि दिल्ली शहर में मोमोज का फैलाव मॉनेस्ट्री मार्केट से ही हुआ। शहर का यह वही बाजार है जो महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डे से थोड़ी दूर यमुना किनारे रिंग रोड पर स्थित है। कहते हैं कि यह बाजार प्रवासियों से ही आबाद हुआ है। तिब्बतियों के लिए तो यह बाजार व्यापार करने की जगह बनी। और इसके साथ-साथ मोमोज इस बाजार का हिस्सा बन गया। अब आलम देखिए दिल्ली के हर बाजार और नुक्कड़ों पर इसकी उपस्थिति दर्ज है, वह संभ्रांत लोगों का खान मार्केट हो या शहादरा का साप्ताहिक बाजार। हर जगह लोग मोमोज को सुर्ख मिर्चदार चटनी के साथ चटकारे लेकर खाते दिख जाते हैं। मोमोज अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सटे कमेंग और तवंग जिलों की मोपां और शिरदुप्का जातियों को पसंदीदा व्यंजनों में शामिल है। वहां इसे डम्पलिंग के नाम से भी जाना जाता है। वैसे कुछ लोग इसे चाइनीज डिस का हिस्सा समझते हैं पर यह सही नहीं है। चानइनीज डिम-सम से यह काफी भिन्न है। वैसे भी चाइनीज मोमोज का जन्म शंघाई और बीजिंग में हुआ, जो हिन्दुस्तानी मोमोज के आकार-प्रकार से काफी अलग है। खैर, यह जानना बड़ा रोचक है कि उन ऊंची पहाड़ियों पर पसंद किया जाने वाला ठेठ देशी व्यंजन इन मैदानी इलाकों में कैसे फैल गया? जानकारों की माने तो रोजगार की तालाश में भटके लोगों के साथ ही मोमोज दिल्ली पहुंचा। दिल्ली के भटूरे-छोले और गोल-गप्पे से भरे फुड बाजार में सत्तर के दशक के बाद से मोमोज ने दस्तक दी थी। तिब्बतियों ने ही पहले-पहल मोमोज से हमारा परिचय करवाया। फिर चीनी फूड बनाने वाले खानसामों ने इसे तिब्बती घेरे से निकालकर गली-नुक्कड़ों तक पहुंचा दिया। दिल्ली हाट की शुरुआत के साथ ही नार्थ-ईस्टर्न फूड स्टॉलों की बदौलत मोमोज की लोकप्रियता बढ़ी। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के छात्रों के बीच मोमोज का क्रेज बढ़ाने का श्रेय कमला नगर मार्केट की एक गली में खुले ‘मोमोज प्वाइंट’ को है। कमला नगर मार्केट में ही मोमोज बेच रहा युवक नाम पूछने पर एकबारगी शर्मा जाता है। पर उसने बताया कि पहले मालवीय नगर स्थित एक रेस्ट्रॉ में काम करता था। लेकिन पिछले 17-18 महीने से यहां मोमोज बेच रहा है। उसकी माने तो नौकरी करने से ज्यादा फायदा अपना मोमोज बेचने में ही है। 26 वर्षीय यह युवक पूर्वोत्तर भारत का रहने वाला है। नोएडा के सेक्टर-2 में मोमोज बेचने वाले दार्जलिंग के एक युवक ने कुछ ऐसी ही बातें कहीं। कभी मजनूं का टिला और मोनेस्ट्री मार्केट में बिकने वाला मोमोज आज सुदूर दक्षिण दिल्ली में स्थित आईआईटी व जेएनयू के आसपास बड़े ठाट से बिक रहा है। इसने रेड़ी-पट्टी से उठकर मॉल में अपनी जगह पक्की कर ली है। एक और बात है। अब जब पूर्वोत्तर या नेपाल से आए लोगों ने रसोईघरों तक अपनी पहुंच बना ली है तो वहां भी मोमोज आबाद है। यकीनन, इसने एक लंबा सफर तय कर लिया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Thu May 5 17:41:47 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Thu, 5 May 2011 17:41:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSy4KWLIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSu4KWL4KScIOCkluCkviDgpIbgpI/gpIIuLg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: ब्रजेश भैया, मोमोज ने लंबी छलांग लगाई है। वेज और नॉन वेज दोनों ने। सफेद मुलायम 'बक्से' में लपेटी इस चीज के दीवानों की कमी नहीं है। और लाल चटनी की बात ही कुछ और है। मेरे हिसाब से मोमोज प्वाइंट ने माइग्रेशन शब्द को नई भाषा दी है। दरअसल मोमोज से अब केवल नार्थ-इस्ट या तिब्बतियों का ही संबंध नहीं रहा। इसने इसे विस्तार दिया। यहां कानपुर में तिवारी स्वीट्स भी उसी अंदाज में मोमोज परोस रहा है, लेकिन अफसोस, वो नॉन वेज मोमज नसीब नहीं हो रहा है जो मुखर्जी नगर के बत्रा सिनेमा हॉल के पीछे ठेले पर मिलता है या फिर नोएडा सेक्टर 12 के मार्केट में अफरोज भाई परोसते हैं। शुक्रिया गिरीन्द्र 2011/5/5 brajesh kumar jha > चलो मोमोज खा आएं... > > > > यूं तो दिल्ली गोल-गप्पा व चाट-भाजी के लिए मशहूर है। बाकी जो मशहूर हुआ वह > तंदूर का पका होता है। पर, इन सब के बीच मोमोज ने कब और कैसे अपनी जगह बना ली!इस बाबत कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। > हालांकि, यह तथ्य है कि दिल्ली शहर में मोमोज का फैलाव मॉनेस्ट्री मार्केट से > ही हुआ। शहर का यह वही बाजार है जो महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डे से > थोड़ी दूर यमुना किनारे रिंग रोड पर स्थित है। कहते हैं कि यह बाजार प्रवासियों > से ही आबाद हुआ है। तिब्बतियों के लिए तो यह बाजार व्यापार करने की जगह बनी। और > इसके साथ-साथ मोमोज इस बाजार का हिस्सा बन गया। अब आलम देखिए दिल्ली के हर > बाजार और नुक्कड़ों पर इसकी उपस्थिति दर्ज है, वह संभ्रांत लोगों का खान > मार्केट हो या शहादरा का साप्ताहिक बाजार। हर जगह लोग मोमोज को सुर्ख > मिर्चदार चटनी के साथ चटकारे लेकर खाते दिख जाते हैं। > > > > > > मोमोज अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सटे कमेंग और तवंग जिलों की मोपां और > शिरदुप्का जातियों को पसंदीदा व्यंजनों में शामिल है। वहां इसे डम्पलिंग के नाम > से भी जाना जाता है। वैसे कुछ लोग इसे चाइनीज डिस का हिस्सा समझते हैं पर यह > सही नहीं है। चानइनीज डिम-सम से यह काफी भिन्न है। वैसे भी चाइनीज मोमोज का > जन्म शंघाई और बीजिंग में हुआ, जो हिन्दुस्तानी मोमोज के आकार-प्रकार से काफी > अलग है। खैर, यह जानना बड़ा रोचक है कि उन ऊंची पहाड़ियों पर पसंद किया जाने > वाला ठेठ देशी व्यंजन इन मैदानी इलाकों में कैसे फैल गया? जानकारों की माने > तो रोजगार की तालाश में भटके लोगों के साथ ही मोमोज दिल्ली पहुंचा। दिल्ली के > भटूरे-छोले और गोल-गप्पे से भरे फुड बाजार में सत्तर के दशक के बाद से मोमोज ने > दस्तक दी थी। तिब्बतियों ने ही पहले-पहल मोमोज से हमारा परिचय करवाया। फिर चीनी > फूड बनाने वाले खानसामों ने इसे तिब्बती घेरे से निकालकर गली-नुक्कड़ों तक > पहुंचा दिया। दिल्ली हाट की शुरुआत के साथ ही नार्थ-ईस्टर्न फूड स्टॉलों की > बदौलत मोमोज की लोकप्रियता बढ़ी। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के > छात्रों के बीच मोमोज का क्रेज बढ़ाने का श्रेय कमला नगर मार्केट की एक गली में > खुले ‘मोमोज प्वाइंट’ को है। > > > > कमला नगर मार्केट में ही मोमोज बेच रहा युवक नाम पूछने पर एकबारगी शर्मा जाता > है। पर उसने बताया कि पहले मालवीय नगर स्थित एक रेस्ट्रॉ में काम करता था। > लेकिन पिछले 17-18 महीने से यहां मोमोज बेच रहा है। उसकी माने तो नौकरी करने से > ज्यादा फायदा अपना मोमोज बेचने में ही है। 26 वर्षीय यह युवक पूर्वोत्तर भारत > का रहने वाला है। नोएडा के सेक्टर-2 में मोमोज बेचने वाले दार्जलिंग के एक युवक > ने कुछ ऐसी ही बातें कहीं। कभी मजनूं का टिला और मोनेस्ट्री मार्केट में > बिकने वाला मोमोज आज सुदूर दक्षिण दिल्ली में स्थित आईआईटी व जेएनयू के आसपास > बड़े ठाट से बिक रहा है। इसने रेड़ी-पट्टी से उठकर मॉल में अपनी जगह पक्की कर > ली है। एक और बात है। अब जब पूर्वोत्तर या नेपाल से आए लोगों ने रसोईघरों तक > अपनी पहुंच बना ली है तो वहां भी मोमोज आबाद है। यकीनन, इसने एक लंबा सफर तय > कर लिया है। > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu May 5 17:47:48 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 5 May 2011 17:47:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 241, Issue 4 In-Reply-To: References: Message-ID: ब्रजेश भाई, मेरे दोस्त रोहित ने चेन्नई में सबसे पहले मोमोज को इंटरड्यूस किया था. दूकान अच्छी चली, दूकान चलाने की वजह थी कि वह अपनी पढाई और जेब खर्च दोनों खर्चा अपनी कमाई से निकलना चाहता था 2011/5/5 > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. [दीवान]चलो मोमोज खा आएं.. > (brajesh kumar jha) > 2. Re: [दीवान]चलो मोमोज खा > आएं.. (girindra nath) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Thu, 5 May 2011 17:31:19 +0530 > From: brajesh kumar jha > To: Deewan > Subject: [दीवान]चलो मोमोज खा आएं.. > Message-ID: > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > चलो मोमोज खा आएं... > > > > यूं तो दिल्ली गोल-गप्पा व चाट-भाजी के लिए मशहूर है। बाकी जो मशहूर हुआ वह > तंदूर का पका होता है। पर, इन सब के बीच मोमोज ने कब और कैसे अपनी जगह > बना ली !इस बाबत कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। > हालांकि, यह तथ्य है कि दिल्ली शहर में मोमोज का फैलाव मॉनेस्ट्री मार्केट से > ही हुआ। शहर का यह वही बाजार है जो महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डे से > थोड़ी दूर यमुना किनारे रिंग रोड पर स्थित है। कहते हैं कि यह बाजार > प्रवासियों > से ही आबाद हुआ है। तिब्बतियों के लिए तो यह बाजार व्यापार करने की जगह बनी। > और > इसके साथ-साथ मोमोज इस बाजार का हिस्सा बन गया। अब आलम देखिए दिल्ली के हर > बाजार और नुक्कड़ों पर इसकी उपस्थिति दर्ज है, वह संभ्रांत लोगों का खान > मार्केट हो या शहादरा का साप्ताहिक बाजार। हर जगह लोग मोमोज को सुर्ख मिर्चदार > चटनी के साथ चटकारे लेकर खाते दिख जाते हैं। > > > > > > मोमोज अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सटे कमेंग और तवंग जिलों की मोपां और > शिरदुप्का जातियों को पसंदीदा व्यंजनों में शामिल है। वहां इसे डम्पलिंग के > नाम > से भी जाना जाता है। वैसे कुछ लोग इसे चाइनीज डिस का हिस्सा समझते हैं पर यह > सही नहीं है। चानइनीज डिम-सम से यह काफी भिन्न है। वैसे भी चाइनीज मोमोज का > जन्म शंघाई और बीजिंग में हुआ, जो हिन्दुस्तानी मोमोज के आकार-प्रकार से काफी > अलग है। खैर, यह जानना बड़ा रोचक है कि उन ऊंची पहाड़ियों पर पसंद किया जाने > वाला ठेठ देशी व्यंजन इन मैदानी इलाकों में कैसे फैल गया? जानकारों की माने तो > रोजगार की तालाश में भटके लोगों के साथ ही मोमोज दिल्ली पहुंचा। दिल्ली के > भटूरे-छोले और गोल-गप्पे से भरे फुड बाजार में सत्तर के दशक के बाद से मोमोज > ने > दस्तक दी थी। तिब्बतियों ने ही पहले-पहल मोमोज से हमारा परिचय करवाया। फिर > चीनी > फूड बनाने वाले खानसामों ने इसे तिब्बती घेरे से निकालकर गली-नुक्कड़ों तक > पहुंचा दिया। दिल्ली हाट की शुरुआत के साथ ही नार्थ-ईस्टर्न फूड स्टॉलों की > बदौलत मोमोज की लोकप्रियता बढ़ी। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के > छात्रों के बीच मोमोज का क्रेज बढ़ाने का श्रेय कमला नगर मार्केट की एक गली > में > खुले ‘मोमोज प्वाइंट’ को है। > > > > कमला नगर मार्केट में ही मोमोज बेच रहा युवक नाम पूछने पर एकबारगी शर्मा जाता > है। पर उसने बताया कि पहले मालवीय नगर स्थित एक रेस्ट्रॉ में काम करता था। > लेकिन पिछले 17-18 महीने से यहां मोमोज बेच रहा है। उसकी माने तो नौकरी करने > से > ज्यादा फायदा अपना मोमोज बेचने में ही है। 26 वर्षीय यह युवक पूर्वोत्तर भारत > का रहने वाला है। नोएडा के सेक्टर-2 में मोमोज बेचने वाले दार्जलिंग के एक > युवक > ने कुछ ऐसी ही बातें कहीं। कभी मजनूं का टिला और मोनेस्ट्री मार्केट में बिकने > वाला मोमोज आज सुदूर दक्षिण दिल्ली में स्थित आईआईटी व जेएनयू के आसपास बड़े > ठाट से बिक रहा है। इसने रेड़ी-पट्टी से उठकर मॉल में अपनी जगह पक्की कर ली > है। > एक और बात है। अब जब पूर्वोत्तर या नेपाल से आए लोगों ने रसोईघरों तक अपनी > पहुंच बना ली है तो वहां भी मोमोज आबाद है। यकीनन, इसने एक लंबा सफर तय कर > लिया > है। > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110505/3baa726e/attachment-0001.html > > > > ------------------------------ > > Message: 2 > Date: Thu, 5 May 2011 17:41:47 +0530 > From: girindra nath > To: brajesh kumar jha , Deewan > > Subject: Re: [दीवान]चलो मोमोज खा > आएं.. > Message-ID: > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > ब्रजेश भैया, > मोमोज ने लंबी छलांग लगाई है। वेज और नॉन वेज दोनों ने। सफेद मुलायम 'बक्से' > में लपेटी इस चीज के दीवानों की कमी नहीं है। और लाल चटनी की बात ही कुछ और > है। > मेरे हिसाब से मोमोज प्वाइंट ने माइग्रेशन शब्द को नई भाषा दी है। दरअसल मोमोज > से अब केवल नार्थ-इस्ट या तिब्बतियों का ही संबंध नहीं रहा। इसने इसे विस्तार > दिया। यहां कानपुर में तिवारी स्वीट्स भी उसी अंदाज में मोमोज परोस रहा है, > लेकिन अफसोस, वो नॉन वेज मोमज नसीब नहीं हो रहा है जो मुखर्जी नगर के बत्रा > सिनेमा हॉल के पीछे ठेले पर मिलता है या फिर नोएडा सेक्टर 12 के मार्केट में > अफरोज भाई परोसते हैं। > शुक्रिया > > गिरीन्द्र > > 2011/5/5 brajesh kumar jha > > > चलो मोमोज खा आएं... > > > > > > > > यूं तो दिल्ली गोल-गप्पा व चाट-भाजी के लिए मशहूर है। बाकी जो मशहूर हुआ वह > > तंदूर का पका होता है। पर, इन सब के बीच मोमोज ने कब और कैसे अपनी जगह बना > ली!इस बाबत कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। > > हालांकि, यह तथ्य है कि दिल्ली शहर में मोमोज का फैलाव मॉनेस्ट्री मार्केट > से > > ही हुआ। शहर का यह वही बाजार है जो महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डे से > > थोड़ी दूर यमुना किनारे रिंग रोड पर स्थित है। कहते हैं कि यह बाजार > प्रवासियों > > से ही आबाद हुआ है। तिब्बतियों के लिए तो यह बाजार व्यापार करने की जगह बनी। > और > > इसके साथ-साथ मोमोज इस बाजार का हिस्सा बन गया। अब आलम देखिए दिल्ली के हर > > बाजार और नुक्कड़ों पर इसकी उपस्थिति दर्ज है, वह संभ्रांत लोगों का खान > > मार्केट हो या शहादरा का साप्ताहिक बाजार। हर जगह लोग मोमोज को सुर्ख > > मिर्चदार चटनी के साथ चटकारे लेकर खाते दिख जाते हैं। > > > > > > > > > > > > मोमोज अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सटे कमेंग और तवंग जिलों की मोपां और > > शिरदुप्का जातियों को पसंदीदा व्यंजनों में शामिल है। वहां इसे डम्पलिंग के > नाम > > से भी जाना जाता है। वैसे कुछ लोग इसे चाइनीज डिस का हिस्सा समझते हैं पर यह > > सही नहीं है। चानइनीज डिम-सम से यह काफी भिन्न है। वैसे भी चाइनीज मोमोज का > > जन्म शंघाई और बीजिंग में हुआ, जो हिन्दुस्तानी मोमोज के आकार-प्रकार से > काफी > > अलग है। खैर, यह जानना बड़ा रोचक है कि उन ऊंची पहाड़ियों पर पसंद किया जाने > > वाला ठेठ देशी व्यंजन इन मैदानी इलाकों में कैसे फैल गया? जानकारों की माने > > तो रोजगार की तालाश में भटके लोगों के साथ ही मोमोज दिल्ली पहुंचा। दिल्ली > के > > भटूरे-छोले और गोल-गप्पे से भरे फुड बाजार में सत्तर के दशक के बाद से मोमोज > ने > > दस्तक दी थी। तिब्बतियों ने ही पहले-पहल मोमोज से हमारा परिचय करवाया। फिर > चीनी > > फूड बनाने वाले खानसामों ने इसे तिब्बती घेरे से निकालकर गली-नुक्कड़ों तक > > पहुंचा दिया। दिल्ली हाट की शुरुआत के साथ ही नार्थ-ईस्टर्न फूड स्टॉलों की > > बदौलत मोमोज की लोकप्रियता बढ़ी। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के > > छात्रों के बीच मोमोज का क्रेज बढ़ाने का श्रेय कमला नगर मार्केट की एक गली > में > > खुले ‘मोमोज प्वाइंट’ को है। > > > > > > > > कमला नगर मार्केट में ही मोमोज बेच रहा युवक नाम पूछने पर एकबारगी शर्मा > जाता > > है। पर उसने बताया कि पहले मालवीय नगर स्थित एक रेस्ट्रॉ में काम करता था। > > लेकिन पिछले 17-18 महीने से यहां मोमोज बेच रहा है। उसकी माने तो नौकरी करने > से > > ज्यादा फायदा अपना मोमोज बेचने में ही है। 26 वर्षीय यह युवक पूर्वोत्तर > भारत > > का रहने वाला है। नोएडा के सेक्टर-2 में मोमोज बेचने वाले दार्जलिंग के एक > युवक > > ने कुछ ऐसी ही बातें कहीं। कभी मजनूं का टिला और मोनेस्ट्री मार्केट में > > बिकने वाला मोमोज आज सुदूर दक्षिण दिल्ली में स्थित आईआईटी व जेएनयू के > आसपास > > बड़े ठाट से बिक रहा है। इसने रेड़ी-पट्टी से उठकर मॉल में अपनी जगह पक्की > कर > > ली है। एक और बात है। अब जब पूर्वोत्तर या नेपाल से आए लोगों ने रसोईघरों > तक > > अपनी पहुंच बना ली है तो वहां भी मोमोज आबाद है। यकीनन, इसने एक लंबा सफर तय > > कर लिया है। > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: < > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20110505/8ce642d0/attachment.html > > > > ------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > End of Deewan Digest, Vol 241, Issue 4 > ************************************** > -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu May 5 20:56:48 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 5 May 2011 20:56:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSP4KSo?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpJPgpLjgpL7gpK7gpL4g4KSV4KWAIOCkruCljOCkpCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkteCkv+CkteCksOCkoyDgpK7gpL7gpILgpJfgpYcgOiBC?= =?utf-8?q?BC_Hindi?= Message-ID: संयुक्त राष्ट्र की मानवधिकार संस्था ने कहा है कि अमरीका ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की पूरी परिस्थतियों की जानकारी उसके हवाले करे ताकि उसकी वैधानिकता सुनिश्चित की जा सके. समाचार एजेंसी एएफ़पी ने संयुक्त राष्ट्र मानवधिकार संस्था की प्रमुख नवी पिल्ले के हवाले से कहा है, "संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद की निंदा करता है लेकिन साथ ही आतंकवाद निरोधक कार्रवाई के कुछ नियम हैं. आतंकवाद निरोधक किसी भी कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करना होगा." रॉयटर्स समाचार एजेंसी के अनुसार नवी पिल्ले का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र ने इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया है कि सभी आतंकवाद निरोधक कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय नियमों का आदर करना होगा. संस्था की ओर से ब्यौरे ऐसे समय में मांगे गए हैं जब अमरीकी अधिकारियों की ओर से इस बारे में विरोधाभासी बयान आ रहे हैं कि ओसामा बिन लादेन निहत्थे थे या उन्होंने कार्रवाई का प्रतिरोध किया था. सवाल पूछे जा रहे हैं कि वो कौन सी परिस्थिति थी जिसमें कार्रवाई करने गए कमांडो को ओसामा बिन लादेन पर गोली चलानी पड़ी. *यूरोप में चिंता* यूरोप के कई हिस्सों में भी इस बात को लेकर चिंता है कि अमरीका ने कई मौक़ों पर पुलिस, न्यायाधीश और जल्लाद की भूमिका निभाकर भारी ग़लती की है. पश्चिमी जर्मनी के पूर्व चांसलर हेलमुट श्मिट ने जर्मन टीवी से कहा है कि ये सीधे तौर पर अंतरराष्ट्रीय नियमों का उलंघन है. "अरब में जारी घटनाओं के मद्देनज़र भी इस कार्रवाई के वहाँ व्यापक परिणाम होंगे." बर्लिन में आंतरिक मामलों के मंत्री एरहार्ड कोटिंग का कहना है, "एक वकील के नाते इस बात को तरजीह देता कि उनके ऊपर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में मुक़दमा चलाया जाता." हालैंड स्थित अंतरराष्ट्रीय क़ानून के जानकार जैन नूप्स ने इस मामले की तुलना यूगोस्लाविया के पूर्व राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलोसेविच से की है जिन पर 2001 में ग़िरफ़्तार किए जाने के बाद मुक़दमा चलाया गया था. न्यूयार्क में मौजूद संस्था ह्यूमन राईटस वॉच ने कहा है कि ये कहना मुश्किल है कि ये कार्रवाई वैध थी या नहीं क्योंकि इसको लेकर पूरी जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है. उन्होंने कहा, "हम ये जानना चाहते हैं कि अमरीका ने अपने सैनिकों को क्या आदेश दिए थे. हम ये जानना चाहते हैं कि वहाँ हुआ क्या और ये भी कि अमरीका ओसामा बिन लादेन पर जिन अपराधों का आरोप लगाता रहा है क्या उन्होंने वो सब किया?" *सभ्यता का सवाल * ब्रसेल्स में यरोपीय संघ के गृह मामलों के कमिश्नर सेसिलिया मामस्ट्रॉम ने एक ब्लॉग मे लिखा है कि अच्छा होता कि ओसामा बिन लादेन को अदालत के सामने पेश किया जाता. यूरोप के कई अख़बारों में भी कुछ इसी तरह की बातें कही गई हैं. ला रिपब्लिका अख़बार ने संपादकीय में कहा है कि यूरोपवासी ओसामा को पकड़े और मुक़दमा चलाए जाने के ज़्यादा पक्ष में होंगे क्योंकि किसी को मारा जाना हमारी सभ्यता के विरूद्ध है. उल्लेखनीय है कि इराक़ में सद्दाम हुसैन को गिरफ़्तार किए जाने के बाद उन पर बाक़ायदा मुक़दमा चलाया गया था और अदालत के आदेश पर उन्हें फांसी की सज़ा दी गई थी. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu May 5 20:57:53 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 5 May 2011 20:57:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSP4KSo?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpJPgpLjgpL7gpK7gpL4g4KSV4KWAIOCkruCljOCkpCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkteCkv+CkteCksOCkoyDgpK7gpL7gpILgpJfgpYcgOiBC?= =?utf-8?q?BC_Hindi?= In-Reply-To: References: Message-ID: Navanethem "Navi" Pillay was born in 1941 in a poor neighbourhood of Durban, South Africa. She is of Indian Tamil descent and her father was a bus driver. She married Gaby Pillay, a lawyer, in January 1965. : http://en.wikipedia.org/wiki/Navanethem_Pillay#Background 2011/5/5 shashi kant > संयुक्त राष्ट्र की मानवधिकार संस्था ने कहा है कि अमरीका ओसामा बिन लादेन के > मारे जाने की पूरी परिस्थतियों की जानकारी उसके हवाले करे ताकि उसकी वैधानिकता > सुनिश्चित की जा सके. > > समाचार एजेंसी एएफ़पी ने संयुक्त राष्ट्र मानवधिकार संस्था की प्रमुख नवी > पिल्ले के हवाले से कहा है, "संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद की निंदा करता है लेकिन > साथ ही आतंकवाद निरोधक कार्रवाई के कुछ नियम हैं. आतंकवाद निरोधक किसी भी > कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करना होगा." > > रॉयटर्स समाचार एजेंसी के अनुसार नवी पिल्ले का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र ने > इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया है कि सभी आतंकवाद निरोधक कार्रवाई को > अंतरराष्ट्रीय नियमों का आदर करना होगा. > > संस्था की ओर से ब्यौरे ऐसे समय में मांगे गए हैं जब अमरीकी अधिकारियों की ओर > से इस बारे में विरोधाभासी बयान आ रहे हैं कि ओसामा बिन लादेन निहत्थे थे या > उन्होंने कार्रवाई का प्रतिरोध किया था. > > सवाल पूछे जा रहे हैं कि वो कौन सी परिस्थिति थी जिसमें कार्रवाई करने गए > कमांडो को ओसामा बिन लादेन पर गोली चलानी पड़ी. > *यूरोप में चिंता* > > यूरोप के कई हिस्सों में भी इस बात को लेकर चिंता है कि अमरीका ने कई मौक़ों > पर पुलिस, न्यायाधीश और जल्लाद की भूमिका निभाकर भारी ग़लती की है. > > पश्चिमी जर्मनी के पूर्व चांसलर हेलमुट श्मिट ने जर्मन टीवी से कहा है कि ये > सीधे तौर पर अंतरराष्ट्रीय नियमों का उलंघन है. > > "अरब में जारी घटनाओं के मद्देनज़र भी इस कार्रवाई के वहाँ व्यापक परिणाम > होंगे." > > बर्लिन में आंतरिक मामलों के मंत्री एरहार्ड कोटिंग का कहना है, "एक वकील के > नाते इस बात को तरजीह देता कि उनके ऊपर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में > मुक़दमा चलाया जाता." > > हालैंड स्थित अंतरराष्ट्रीय क़ानून के जानकार जैन नूप्स ने इस मामले की तुलना > यूगोस्लाविया के पूर्व राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलोसेविच से की है जिन पर 2001 > में ग़िरफ़्तार किए जाने के बाद मुक़दमा चलाया गया था. > > न्यूयार्क में मौजूद संस्था ह्यूमन राईटस वॉच ने कहा है कि ये कहना मुश्किल है > कि ये कार्रवाई वैध थी या नहीं क्योंकि इसको लेकर पूरी जानकारी अभी उपलब्ध नहीं > है. > > उन्होंने कहा, "हम ये जानना चाहते हैं कि अमरीका ने अपने सैनिकों को क्या आदेश > दिए थे. हम ये जानना चाहते हैं कि वहाँ हुआ क्या और ये भी कि अमरीका ओसामा बिन > लादेन पर जिन अपराधों का आरोप लगाता रहा है क्या उन्होंने वो सब किया?" > > *सभ्यता का सवाल > * > > ब्रसेल्स में यरोपीय संघ के गृह मामलों के कमिश्नर सेसिलिया मामस्ट्रॉम ने एक > ब्लॉग मे लिखा है कि अच्छा होता कि ओसामा बिन लादेन को अदालत के सामने पेश किया > जाता. > > यूरोप के कई अख़बारों में भी कुछ इसी तरह की बातें कही गई हैं. > > ला रिपब्लिका अख़बार ने संपादकीय में कहा है कि यूरोपवासी ओसामा को पकड़े और > मुक़दमा चलाए जाने के ज़्यादा पक्ष में होंगे क्योंकि किसी को मारा जाना हमारी > सभ्यता के विरूद्ध है. > > उल्लेखनीय है कि इराक़ में सद्दाम हुसैन को गिरफ़्तार किए जाने के बाद उन पर > बाक़ायदा मुक़दमा चलाया गया था और अदालत के आदेश पर उन्हें फांसी की सज़ा दी गई > थी. > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun May 8 02:00:08 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 8 May 2011 02:00:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpLngpKTgpY3gpK/gpL4g4KSq4KSwIOCkqOCliw==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkmuCli+CkruCljeCkuOCljeCkleClgCDgpJXgpYAg4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSk4KS/4KSV4KWN4KSw4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: हम खुद से यह पूछ सकते हैं कि तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होती, जब कोई ईराकी कमांडो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के घर में घुस कर उनकी हत्या कर देता और उनकी लाश अटलांटिक में बहा देता. -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun May 8 02:00:08 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 8 May 2011 02:00:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpLngpKTgpY3gpK/gpL4g4KSq4KSwIOCkqOCliw==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkmuCli+CkruCljeCkuOCljeCkleClgCDgpJXgpYAg4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSk4KS/4KSV4KWN4KSw4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: हम खुद से यह पूछ सकते हैं कि तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होती, जब कोई ईराकी कमांडो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के घर में घुस कर उनकी हत्या कर देता और उनकी लाश अटलांटिक में बहा देता. -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Sun May 8 15:59:32 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 8 May 2011 15:59:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCZ4KSw4KS+4KS3?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSw4KS14KS+4KSm4oCZIOCkleCkviDgpLjgpL/gpKg=?= =?utf-8?b?4KWH4KSu4KS+4KSIIOCkieCkpOCljeCkuOCkteCkl+CkvuCkqA==?= Message-ID: “यह दीप अकेला स्नेह भरा, है गर्व भरा मदमाता पर, इसको भी पंक्ति दे दो” -- अज्ञेय बीते महीने में हमारे देश के सार्वजनिक पटल पर हुई विविधरंगी प्रदर्शनकारी गतिविधियों ने फिर मुझे यह याद दिलाया है कि आज भी अपने मुल्क में सबसे ज़्यादा बिकने वाला विचार, ’राष्ट्रवाद’ का विचार है. और जैसा किसी भी ’कल्पित समुदाय’ के निर्माण में होता है, उस दौर के लोकप्रिय जनमाध्यम का अध्ययन इस ’राष्ट्रीय भावना’ के निर्माण को बड़े दिलचस्प अंदाज़ में आपके सामने रखता है. मज़ेदार बात यह है कि नवस्वतंत्र मुल्क में जब हमारा समाज इस विचार को अपने भीतर गहरे आत्मसात कर रहा था, सिनेमा एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह वहाँ मौजूद रहा. यही वो दौर है जिसे हिन्दी सिनेमा के ’सुनहरे दौर’ के तौर पर भी याद किया जाता है. पारिवारिक और सामुदायिक पहचानों में अपने को तलाशते और चिह्नित करते नवस्वतंत्र मुल्क की जनता को ’राष्ट्र-राज्य’ की वैधता और आधिपत्य का पाठ पढ़ाने का काम हमारा लोकप्रिय सिनेमा करता है. और प्रक्रिया में वह दो ऐसे काम करता है जिन्हें समझना ’आधुनिकता’ के भारतीय मॉडल (जिसे आप सुविधा के लिए ’नेहरुवियन आधुनिकता’ भी कह सकते हैं) को समझने के लिए कुंजी सरीख़ा है. पहला तो यह कि वह व्यक्ति की पुरानी वफ़ादारियों (पढ़ें समुदाय, परिवार) के ऊपर राज्य की सत्ता को स्थापित करने के लिए पूर्व सत्ता को विस्थापित नहीं करता, बल्कि उन पुरानी वफ़ादारियों को ही वह ’राष्ट्र’ के रूपक में बदल देता है. इससे सहज ही और बिना किसी मौलिक परिवर्तन के इस नवनिर्मित ’राष्ट्र-राज्य’ की सत्ता को वैधता मिल जाती है. इसे उदाहरण के माध्यम से समझें. सुमिता चक्रवर्ती लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा पर अपने सर्वप्रथम अकादमिक कार्य में दो आइकॉनिक हिन्दी फ़िल्मों को इस संदर्भ में व्याख्यायित करती हैं. सबसे पहले याद आती है महबूब ख़ान की अविस्मरणीय ’मदर इंडिया’ जहाँ माँ - देवी माँ और भारत माँ के बीच की सारी रेखाएं मिट जाती हैं. सुमिता चक्रवर्ती लिखती हैं, “एक विचार के तौर पर मदर इंडिया’ हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में पूजे जाने वाले ’देवी माँ’ के कल्ट से उधार लिया गया है.” वे आगे लिखती हैं, “यह रस्मी गौरवगान समाज में होने वाले स्त्री के सामाजिक शोषण और उसकी गैर-बराबर सामाजिक हैसियत के साथ-साथ चलता है. लेकिन हिन्दुस्तानी समाज में एक ’माँ’ के रूप में स्त्री की छवि सिर्फ़ एक ’स्त्री’ भर होने से कहीं ऊँची है.” यहाँ हिन्दुस्तानी समाज में पहले से मौजूद एक धार्मिक प्रतीक को फ़िल्म बखूबी राष्ट्रीय प्रतीक से बदल देती है. यह संयोग नहीं है कि फ़िल्म की शुरुआत इन ’भारत माता’ द्वारा एक बाँध के उद्घाटन से दृश्य से होती है. वैसा ही एक बाँध जिसे जवाहरलाल नेहरू ने ’आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा था. वैसा ही एक बाँध जैसे बीते साठ सालों में लाखों लोगों की समूची दुनियाओं को ’विकास’ के नाम पर अपने पेटे में निगलते गए हैं. ’विकास’ के नेहरूवियन मॉडल की पैरवी करती यह फ़िल्म अंत तक पहुँचते हुए एक ऐसी व्यवस्था की पैरवी में खड़ी हो जाती है जहाँ ’बिरजू’ जैसी अनियंत्रित (लेकिन मूल रूप से असहमत) आवाज़ों के लिए कोई जगह नहीं. ऐसा ही एक और मज़ेदार उदाहरण है राज कपूर की ’आवारा’. यह राज्य की सत्ता के सबसे चाक्षुक हिस्से – कानून व्यवस्था, को परिवार के मुखिया पुरुष पर आरोपित कर देती है और इस तरह पारिवारिक वफ़ादारी की चौहद्दी में रहते हुए भी व्यक्ति को राज्य-सत्ता की वैधता के स्वीकार का एक आसान या कहें जाना-पहचाना तरीका सुझाती है. ’आवारा’ के संदर्भ में बात करते हुए सुमिता चक्रवर्ती लिखती हैं, “हिन्दी सिनेमा देखने वाली जनता एक नये आज़ाद हुए मुल्क़ की नागरिक भी थी और यह जनता एक नागरिक के रूप में अपने परिवार और समुदाय की पारंपरिक चौहद्दियों से आगे अपने उत्तरदायित्व समझने में कहीं परेशानी महसूस कर रही थी. नये संदभों में उन्हें मौजूद मुश्किल परिस्थितियों को भी समझना था और बदलाव और सुधार का वादा भी ध्यान रखना था. यह वादा अब नई एजेंसियों द्वारा किया जा रहा था और यह एजेंसियाँ थीं राज्य-सत्ता और उसकी अधिकार प्रणाली. क्योंकि ’कानून-व्यवस्था’ आम जनमानस में राज्य की सत्ता का सबसे लोकप्रिय प्रतीक है इसलिये हिन्दी सिनेमा में एक आम नागरिक के जीवन में राज्य की भूमिका दिखाने का यह सबसे माकूल प्रतीक बन गया.” फ़िल्म ’आवारा’ मे जज रघुनाथ की भूमिका में कानून-व्यवस्था के प्रतीक बने पृथ्वीराज कपूर न सिर्फ़ फ़िल्म में कानून के दूसरी तरफ़ खड़े नायक राज (राज कपूर) के जैविक पिता हैं, बल्कि असल जीवन में भी वह राज कपूर के पिता हैं. ऐसे में इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पहले से तय सोपान और अधिकार श्रंखला में बिना किसी छेड़छाड़ के यह फ़िल्म नवनिर्मित ’राष्ट्र-राज्य’ की कानून-व्यवस्था की वैधता की स्थापना आम जनमानस में करती है. दूसरा यह कि इस ’सार्वभौम राष्ट्रीय पहचान’ की तलाश में वह तमाम इतर पहचानों को अनुकूलित भी करता चलता है. हिन्दी सिनेमा के शुरुआती सालों में ’जाति’ के सवाल सिनेमाई अनुभव का हिस्सा बनते हैं लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते जाते हैं हमारा सिनेमा ऐसे सवाल पूछना कम करता जाता है. हमारे नायक-नायिकाओं के पीछे से इसी ’सार्वभौम पहचान’ के नाम पर उनकी जातिगत पहचानें गायब होती जाती हैं. इस ’राष्ट्रवाद’ का एक दमनकारी चेहरा भी है. साल 1954 में बनी ’जागृति’ जैसी फ़िल्म जिसे ’बच्चों की फ़िल्म’ कहकर आज भी देखा-दिखाया जाता है, में ’शक्ति’ की मौत जैसे अजय के ’शुद्दीकरण’ की प्रक्रिया में आखिरी आहूति सरीखी है. शक्ति की मौत अजय को एकदम ’बदल’ देती है. अब वह एक ’आदर्श विद्यार्थी’ है. किताबों में डूबा हुआ. आखिर ’शक्ति’ की मौत ने अजय को अपने देश और समाज के प्रति उसकी ज़िम्मेदारियों का अहसास करवा ही दिया! और फिर ऊपर से ’शेखर’ जैसे अध्यापक दृश्य में मौजूद हैं जो फ़िल्म के अंत तक आते-आते एकदम नियंत्रणकारी भूमिका में आ जाते हैं. यहाँ भी फ़िल्म तमाम ’अन्य पहचानों’ का मुख्यधारा के पक्ष में बड़ी सफ़ाई से अनुकूलन कर देती है. इस समूचे प्रसंग को एक प्रतीक रूप में देखें तो बड़ी क्रूर छवि उभरकर हमारे सामने आती है. सुमिता चक्रवर्ती फ़िल्म ’जागृति’ पर टिप्पणी करते हुए लिखती हैं, “यहाँ कमज़ोर की कुर्बानी दी जाती है जिससे बलशाली आगे जिए और अपनी शक्ति को पहचाने. ’शक्ति’ न सिर्फ़ शारिरिक रूप से कमज़ोर है, गरीब और दया के पात्र की तरह दिखाया गया है. उसे साथी बच्चों द्वारा उसकी शारिरिक अक्षमता के लिए चिढ़ाया जाता है. लेकिन वह सुशील और उच्च नैतिकता वाला बच्चा है जिसे फ़िल्म अपने पवित्र विचारों के प्रगटीगरण के लिए एक माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करती है. लेकिन उसे मरना होगा (दोस्ती की ख़ातिर) उस मिथ को जिलाए रखने के लिए. एकीकृत जनता का मिथ.” अगर लोकप्रिय सिनेमा के ढांचे पर इस राष्ट्रवादी बिम्ब को आरोपित कर देखें तो यह अनुकूलन बहुत दूर तक जाता है. मुख्य नायक हमेशा एक ’सार्वभौम राष्ट्रीय पहचान’ लिए होता है (जो आमतौर पर शहरी-उच्चवर्ण-हिन्दू-पुरुष की होती है) और उसके दोस्त या मददगार के रूप में आप किसी अन्य धार्मिक या सामाजिक पहचान वाले व्यक्ति को पाते हैं. तो 'ज़ंजीर' में ईमानदार नायक ’विजय’ की सहायता के लिए ’शेर ख़ान’ मौजूद रहता है और 'लक्ष्य' में नायक ’करण शेरगिल’ की सहायता के लिए ’जलाल अहमद’. फ़िल्म 'तेज़ाब' में तड़ीपार नायक ’मुन्ना’ को वापस ’महेश देशमुख’ की पहचान दिलाने की लड़ाई में ’बब्बन’ जैसे इतर पहचान वाले दोस्त ’कुर्बान’ हो जाते हैं, और 'लगान' के राष्ट्रवादी उफ़ान में ’इस्माइल’ से लेकर ’कचरा’ की भूमिका हमेशा मुख्य नायक ’भुवन’ (उच्चवर्ण हिन्दू) के सहायक की ही रहती है. एक तय प्रक्रिया के तहत सिनेमा का यह राष्ट्रवादी विमर्श तमाम ’इतर’ पहचानों को सहायक भूमिकाओं में चिह्नित करता जाता है और हमें इससे कोई परेशानी नहीं होती. और फिर एक दिन अचानक हम ’गदर’ या ’ए वेडनसडे’ जैसी फ़िल्म को देख चौंक जाते हैं. क्यों? क्या जिस अनुकूलन की प्रक्रिया का हिन्दी सिनेमा इतने सालों से पालन करता आया है उसकी स्वाभाविक परिणिति यही नहीं थी? हम ऐसा सिनेमाई राष्ट्रवाद गढ़ते हैं जिसमें तमाम अल्पसंख्यक पहचानें या तो सहायक भूमिकाओं में ढकेल दी जाती हैं या वह मुख्य नायक के कर्मपथ पर कहीं ’कुर्बान’ हो जाती हैं. क्या यह पूर्व तैयारी नहीं है ’गदर’ जैसी फ़िल्म की जो अन्य धार्मिक पहचान को सीधे तौर पर खलनायक के रूप में चिह्नित करती है? ’ए वेडनसडे’ जैसी फ़िल्म, जिसे इस बहुचर्चित छद्मवाक्य, “सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान होते हैं” के प्रमाण-पत्र के रूप में पढ़ा जा सकता है, क्या उन फ़िल्मों का स्वाभाविक अगला चरण नहीं है जिनमें मुसलमान चरित्र हमेशा दोयम दर्जे की सहायक भूमिका पाने को अभिशप्त हैं? और सवाल केवल धार्मिक पहचान का ही नहीं. मैंने एक और लेख में ’हिन्दी सिनेमा में प्रेम’ पर लिखते हुए यह सवाल उठाया था कि क्या ’शोले’ में जय और राधा की प्रेम-कहानी का अधूरा रह जाना एक संयोग भर था? क्या यह पहले से ही तय नहीं था कि जय को आखिर मरना ही है. और फ़र्ज़ करें कि अगर ’शोले’ में यह प्रेम-कहानी, जो सामाजिक मान्यताओं के ढांचे को हिलाती है, पूर्णता को प्राप्त होती तो क्या तब भी ’शोले’ हमारे सिनेमाई इतिहास की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म बन पाती? यह सवाल मैं यहाँ इसीलिए जोड़ रहा हूँ क्योंकि एक विधवा से शादी करने के फ़ैसले के साथ खुद ’जय’ भी एक अल्पसंख्यक पहचान से खुदको जोड़ता है. और उसका भी वही क्रूर अंजाम होता है जिसकी परिणिति आगे जाकर ’राष्ट्रवादी अतिवाद’ में होती है. चाहें तो ’राष्ट्रवाद’ का यह अतिवादी चेहरा देखने के लिए हिन्दी सिनेमा की सबसे मशहूर लेखक जोड़ी सलीम-जावेद की लिखी ’क्रांति’ तक आएं जहाँ एक अधपगली दिखती स्त्री की ओर इशारा कर नायक मनोज ’भारत’ कुमार कहता है कि यह अभागी अपने पति के साथ सती हो जाना चाहती थी, इन ज़ालिम अंगेज़ों ने वो भी न होने दिया. इन्हें भारतीय आधुनिकता के मॉडल के ’शॉर्टकट’ कहें या ’षड़यंत्र’, सच यही है कि इन्हीं चोर रास्तों में कहीं उन तमाम अतिवादी विचारों के बीज छिपे हैं जिन्हें भारत ने बीते सालों में अनेक बार रूप बदल-बदलकर आते देखा है. जब हम पारिवारिक सत्ता के और धार्मिक मिथकों में ’राष्ट्र-राज्य’ की सत्ता के बिम्ब को मिलाकर परोस रहे थे उस वक्त हमने यह क्यों नहीं सोचा कि आगे कोई इस प्रक्रिया को उल्टी तरफ़ से भी पढ सकता है? और ऐसे में ’राष्ट्र-राज्य’ और उसकी सत्ता किसी ख़ास बहुसंख्यक पहचान के साथ जोड़कर देखी जाएगी और लोग इसे स्वाभाविक मानकर स्वीकार कर लेंगे? आज ऐसा होते देखकर हम भले ही कितना बैचैन हों और हाथ-पाँव मारें. सच्चाई यही है कि यह हमारी ’आधुनिकता’ और ’राष्ट्रवाद’ के मॉडल की स्वाभाविक परिणिति है. और अंत में - कुछ अपनी बात, गांधी की बात. बीते दिनों में महात्मा गांधी का नाम लौट-लौटकर संदर्भों में आता रहा. लेकिन यह ज़िक्र तमाम संदर्भों से गायब है कि आज भारतीय राष्ट्रवाद के पितृपुरुष घोषित किए जा रहे इस व्यक्ति को जीवन के अंतिम दिनों में इसी नवस्वतंत्र देश ने नितांत अकेला छोड़ दिया था. गांधी द्वारा उठाए जा रहे असुविधाजनक सवाल इस नवस्वतंत्र मुल्क के राष्ट्रवादी विजयरथ की राह में बाधा की तरह थे. राष्ट्र उत्सवगान में व्यस्त है, संशयवादियों के लिए उसके पास समय नहीं. जिस गांधी के नैतिक इच्छाशक्ति पर आधारित फ़ैसलों के पीछे पूरा मुल्क आँख मूँदकर खड़ा हो जाता था आज उसे संशय में पाकर वही मुल्क उसे कटघरे में खड़ा करता था. ठीक उस वक़्त जब यह नवस्वतंत्र देश ’नियति से साक्षात्कार’ कर रहा था, महात्मा सुदूर पूर्व में कहीं अकेले थे. अपनी नैतिकताओं के साथ, अपनी असफ़लताओं के साथ. सुधीर चंद्र गांधी पर अपनी नई किताब में उस वक्त काँग्रेस के सभापति आचार्य कृपलानी के वक्तव्य, “आज गांधी खुद अंधेरे में भटक रहे हैं” को उद्धृत करते हुए एक वाजिब सवाल उठाते हैं, “कृपलानी के कहे को लेकर बड़ी बहस की गुंजाइश है. पूछा जा सकता है कि 1920 में, असहयोग आन्दोलन के समय और उसके बाद क्या लोगों को गांधी की अहिंसा के कारगर होने के बारे में शक नहीं होता रहता था? कितनी बार उन तीस सालों के दौरान संकटों का सामना होने पर गांधी लम्बी अनिश्चितता और आत्म संशय से गुजरने के बाद ही उपयुक्त तरीके को तलाश कर पाए थे? वैसे ही जैसे कि इस वक़्त, जब कृपलानी और कांग्रेस और देश गांधी को अकेला छोड़ने पर आमादा थे.” सवाल वाजिब है. लेकिन एक बड़ा अंतर है जो गांधी के पूर्ववर्ती अहिंसक आन्दोलनों और उपवास को इस अंतिम दौर से अलगाता है. राष्ट्रवाद की जिस उद्दाम धारा पर गांधी के पूर्ववर्ती आंन्दोलन सवार रहे और अपार जनसमर्थन जिनके पीछे शामिल था, वह इन अंतिम दिनों में छिटककर कहीं दूर निकल गई थी. कभी यही ’राष्ट्रवाद’ उनका हथियार बना था. यह राष्ट्रवाद और अखंडता का ’पवित्र मूल्य’ ही था जिसके सहारे गांधी अम्बेडकर से एक नाजायज़ बहस में ’जीते’ थे. गांधी के आभामय व्यक्तित्त्व के आगे यह तथ्य अदृश्य रहा, लेकिन जब देश के सामने चुनने की बारी आई तो उसने ’राष्ट्र’ के सामने ’राष्ट्रपिता’ को भी पार्श्व में ढकेल दिया. कड़वा है लेकिन सच है, अपने देश के अतिवादी राष्ट्रवाद की पहली बलि खुद ’राष्ट्रपिता’ थे. ’राष्ट्रवाद’ अपने आप में कोई इकहरा विचार नहीं. इसलिए सरलीकरण का खतरा उठाते हुए कह रहा हूँ कि ’राष्ट्रवाद’ आधुनिक दौर की सबसे वर्चस्ववादी और सर्वग्राह्य विचारधारा है. इसके आगे किसी और की नहीं चलती. यह सिद्धांतत: ’ब्लैक होल’ की तरह है, किसी भी व्यक्ति/ विचार/ असहमति को समूचा निगलने में सक्षम. समझ आता है कि क्यों ओरहान पामुक पिछली हिन्दुस्तान यात्रा में साहित्य के बारे में बात करते हुए कह गए थे, “साहित्य मानवता की अभिव्यक्ति है. लेकिन हमें समझना होगा कि मानवता और राष्ट्रवादी मानवता दो अलग-अलग चीजें हैं.” ********** 'कथादेश’ के मई अंक में प्रकाशित -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon May 9 11:34:39 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 09 May 2011 11:34:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkteCkv+CkteCkvyDgpJXgpYHgpLLgpKrgpKTgpL8g4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkriDgpI/gpJUg4KS24KS/4KSV4KWN4KS34KSVIOCkleClgCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSk4KWAL+CkuOCkguCknOClgOCktSDgpJXgpYHgpK7gpL7gpLA=?= Message-ID: <4DC783F7.2000505@sarai.net> दिल्ली विश्व-अविद्यालय के वीसी के नाम एक प्रार्थना-पत्र 9 May 2011 mujhe to sunkar baRa maza aaya tha, aap parhkar maze lein. mohalla live par bhi uplabdh. http://mohallalive.com/2011/05/09/satirical-letter-to-du-vc-by-a-teacher/ ravikant /अविद्या भारतीय दर्शन का एक शब्द है। यह उस शक्ति का नाम है, जिसका काम चीजों के असली स्वभाव और स्वरूप को छुपा कर नकली को सामने रखना है। मार्क्स की इबारतों में ‘आइडियॉलजी’ का मतलब इसी से मिलता-जुलता है, जाहिर है, आत्मा-परमात्मा से अलग संदर्भ में : *संजीव कुमार*/ सेवा में, *कुलपति महोदय*, दिल्ली विश्व-अविद्यालय। *विषय : सेमेस्टररूपी चंद्रमा को निगलने पर आमादा राहुओं के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की मांग।* *महोदय*, सविनय निवेदन है कि मैं आपके विश्व-अविद्यालय का एक साधारण शिक्षक हूं और अपने नियुक्ति-पत्र में दी गयी हिदायतों के अनुरूप अविद्या के प्रचार-प्रसार हेतु पूर्णतः समर्पित एवं प्रतिबद्ध हूं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यह अविद्या ही है, जिसके रचे हुए छल के बल पर हम सत्य की कड़वाहट से खुद को दूर रख पाते हैं। ये न होती तो महकूमों को अपने जीवन में झूठा स्वाद और हाकिमों को यथास्थिति का आश्वासन कैसे मिल पाता! पुराने जमाने में जो काम धर्म करता था, वही आज हम कर रहे हैं। कितनी बड़ी बात है! *महोदय*, मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा इशारा उस दढ़ियल की बातों की तरफ कतई नहीं है, जिसने धर्म को अफीम बताया था। मैं आपके अविद्यामंदिर का पुजारी होकर भला उस दढ़ियल का समर्थक कैसे हो सकता हूं, जिसका नाम बोलने पर शुरू में ही ‘मार’ की ध्वनि निकलती है। *महोदय*, इस अविद्या को अधिक बलवान और छलवान बनाने की दिशा में सेमेस्टर-प्रणाली की उपयोगिता को समझ कर आपने जो टेढ़ी उंगली से घी निकालने के प्रयास किये हैं, उनने मुझे आपका मुरीद बना दिया है। मैंने स्वयं सालाना प्रणाली से पढ़ाई की है और अच्छी तरह जानता हूं कि उसी के चलते मैं सच्चे अर्थों में अविद्या की खान नहीं बन पाया। नतीजा ये कि समय-समय पर कड़वा सच ऐन मेरी हलक को जलाता हुआ अंदर तक उतर जाता है और हिचकियां बंद होने को ही नहीं आतीं। फिर अगली सुबह तो सच की यह जलन… खैर छोड़िए, वह काबिले-जिक्र नहीं है! लिहाजा मैं चाहता हूं कि कम-से-कम आने वाली पीढ़ियों के मामले में ऐसी कमी बिल्कुल न रहे। अगर सेमेस्टर प्रणाली इसी कमी को पूरा करने की दिशा में एक कदम है, तो अब जैसे भी हो, इसे लागू तो करना ही होगा। *किंतु महोदय*, ‘जैसे भी हो’ वाला मसला खासा पेचीदा है। इस विश्व-अविद्यालय व्यवस्था की कमियों के चलते ऐसे कई लोगों ने शिक्षक का ओहदा पा लिया है, जो कतई इसके लायक न थे। इन्हीं के चलते आज हालात ऐसे हैं कि जनवादी अधिकारों के नाम पर हमारे समुदाय में कौआरोर मचा हुआ है। पंचपरमेश्वर के मना करने के बावजूद ये नालायक बाज नहीं आ रहे और इस बात पर बजिद हैं कि उनकी भी सुनी जाए। ये सुनना क्या बला है, आपकी तरह मेरी भी समझ से परे है यह बात। निस्संदेह, उनका ये सुनने-सुनाने का हठ घोर निंदनीय है। जैसा कि भूतपूर्व और अभूतपूर्व कुलपति का कहना था, महान विचार इस तरह समूह की बहसों के बीच नहीं, खास तरह के काबिल दिमागों में उपजते हैं। इन नामुरादों ने तो उनकी इस विलक्षण बात को मानने से साफ इनकार ही कर दिया था। भूतर्पूव कुलपति ने उचित ही इस इनकार से निपटने में अदभुत संकल्प-शक्ति का प्रदर्शन किया, लेकिन एक कमी रह गयी। वह यह कि वे इस विश्व-अविद्यालय के अधिक-से-अधिक मालिक के तौर पर ही अपने को पेश कर पाये, जबकि उन्हें पति की तरह पेश आना था। आखिर वे कुलपति थे! आप ही सोचिए, मालिक के खिलाफ तो यूनिअनें खड़ी हो जाती हैं, पति के खिलाफ कभी यूनिअन सुनी है आपने! मालिक के खिलाफ तो नारे लगते हैं, ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’, पर पति के बारे में? ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है’। सोचिए, करवा चौथ और तीज जैसे व्रत क्या कभी मालिकों के लिए रखे गये? लिहाजा, पतिधर्म निभाते हुए पूरे विश्व-अविद्यालय समुदाय को पतिव्रता बना लेना ही इस कठिन समय में अकेला दुरुस्त तरीका हो सकता है। समुदाय शब्द पुल्लिंग हुआ तो क्या! *महोदय*, आपके कामकाज को देखते हुए इस बात की उम्मीद बंधी है कि आप एक सच्चे भारतीय पति की तरह बरताव करने में सक्षम हैं। आपने जिस तरह विद्वत परिषद की बैठक बुलाकर उसी विद्वत परिषद के बहुमत से यह तय करवा लिया कि आपके होते हुए विद्वत परिषद की कोई जरूरत नहीं है, उससे मेरी इस उम्मीद को बल मिला है। आपने जिस तरह बागावत पर उतारू विभागों के शीर्ष पर बैठे लोगों को समझा दिया है कि सेमेस्टर का पाठ्यक्रम नहीं मिला तो तुम्हारी खैर नहीं, उससे मेरी इस उम्मीद को बल मिला है। आपने जिस तरह असहयोग कर रहे शिक्षक-शिक्षिकाओं की नाम-सूची तलब की है और खतरनाक नतीजों की चेतावनी बेलाग-लपेट उन तक प्रेषित की है, उससे मेरी इस उम्मीद को बल मिला है। आपने जिस तरह प्राचार्यों को लाइन-हाजिर कर यह समझा दिया है कि महा-अवद्यिालयों के प्रॉस्पेक्टसों में सेमेस्टर-प्रणाली की घोषणा करनी ही करनी है, उससे मेरी इस उम्मीद को बल मिला है। *अब श्रीमान से* मेरी प्रार्थना है कि इस पति-अवतार पर जो थोड़ा-बहुत लिहाज और लोकलाज का आवरण पड़ा है, उसे भी एक झटके में उतार फेंकें। आखिर कोई पति यह सोच कर कब तक धैर्य बरते कि पड़ोसियों के कानों तक मार और चीत्कार का शोर-शराबा पहुंचेगा? पहुंचता है तो पहुंचे। अगर वे सच्चे भारतीय होंगे तो इस महान भारतीय परंपरा पर नाक-भौं कतई नहीं सिकोड़ेंगे। और अगर वे सच्चे भारतीय नहीं होंगे, तो फिर हम उनकी बात सुनें ही क्यों? महोदय, यह यदा-यदा ही धर्मस्य टाइप समय है। अगर आपने अपनी नाक में दम करने वाले इन ‘हम होंगे कामयाब’ टाइप लोगों को नेस्तनाबूद न किया तो खतरा है कि आपकी नाक ही नेस्तनाबूद हो जाएगी। तो उस नाक की खातिर आप निम्नांकित कदम अविलंब उठाएं, ऐसी मेरी विनती है : *[1]* कार्यकारी परिषद की बैठक बुला कर उसमें यह प्रस्ताव पारित करा लें कि आपके रहते कार्यकारी परिषद की कोई जरूरत नहीं है। इससे आप न सिर्फ़ विद्वत परिषद को अपने पेट में दबाये डकार मारते हुए पाठ्यक्रमों को ओके कर देंगे, बल्कि लगे हाथ दूसरी डकार में उन्हें ऑर्डिनेंस का हिस्सा भी बना पाएंगे। *[2]* उन सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं की तनख्वाह की अदायगी बंद करवा दें जो इस नयी प्रणाली की गुणवत्ता पर विचार करने के लिए बजिद हैं और अपनी भागीदारी का सवाल मुसल्सल उठाये ही जा रहे हैं। इस तरह सड़क पर उतरे हुए इन नामुरादों को आप सही मायनों में सड़क पर ला खड़ा करेंगे। आखिर उन्हें तनख्वाह इस तरह के विचारों और सवालों के लिए थोड़े ही मिलते हैं! *[3]* जिन विभागों के हाकिमों ने आपके योग्य अनुयायी का किरदार निभाते हुए अध्यापकों को जूती की नोंक पर रख कर पाठ्यक्रम को आप तक पहुंचाया है, उन्हें एक सार्वजनिक सभा कर सम्मानित करें। दंड के साथ-साथ प्रोत्साहन का प्रावधान तो वैसे भी हमारे विश्व-अविद्यालय में सबसे अधिक आजमाया हुआ नायाब नुस्खा है। *[4]* जो विद्यार्थी बागियों के बहकावे में आकर उनकी सभाओं में आने-जाने लगे हैं, उन्हें चाय पर बुलाएं और उनके आइडेंटिटी कार्ड की फोटोकॉपी अपने पास रखकर चाय के साथ यह संदेश उनके हलक में उतार दें कि वत्स, चेत जाओ, वर्ना जिंदगी तबाह कर दी जाएगी। *[5]* दिनांक 6|5|2011 को आर्ट्स फैकल्टी के गेट के निकट जो सार्वजनिक सभा आयोजित होने जा रही है, उसे पंचपरमेश्वर के आदेश का उल्लंघन बताते हुए उस पर लाठीचार्ज करवायें और यह सुनिश्चित करें कि साबुत हड्डी लेकर कोई एक बंदा भी (मेरे अलावा) वहां से जाने न पाये। *महोदय*, मेरा विश्वास है कि इन पांच कार्रवाइयों को अंजाम देने के बाद आपका मार्ग पूरी तरह निष्कंटक हो जाएगा। उधर अमरीका ने एक आतंकवादी सरगना को टपका कर जिस तरह दुनिया को आतंकवाद से मुक्त किया है, उसी तरह आप इन बागियों को टपका कर अविद्या के प्रसार को प्रतिरोधमुक्त करवाएं। धन्यवाद सहित, भवदीय *संजीव कुमार* /स्वदेशबंधु महा-अविद्यालय / /*पुनश्च* : आपके समर्थन में लिखा गया यह प्रार्थना-पत्र मैं 6 मई की सभा में सार्वजनिक रूप से पढ़ कर सुनाऊंगा। यही उन नामुरादों की भीड़ में मेरी पहचान होगी और आशा है, आप लाठी भांजने वाले योद्धाओं को मेरी यह पहचान पहले से बता कर रखेंगे। आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि इस सार्वजनिक समर्थन के लिए एक मिसाल कायम करने वाले पुरस्कार की बात पर आप गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे। / /*संजीव*। प्रेमचंदोत्तर उपन्‍यासों की सैद्धांति‍की और उसके रचनात्‍मक उपयोग पर पीएचडी। देशबंधु कॉलेज, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक। हाल में आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान से सम्‍मानित। उनसे sanjusanjeev67 at gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।/ From beingred at gmail.com Tue May 10 17:39:43 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 10 May 2011 17:39:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSm4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KSr4KWALCDgpLjgpL7gpK7gpY3gpLDgpL7gpJzgpY3gpK/gpLU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIOCklOCksCDgpLLgpYDgpKzgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+IOCkleClgCDgpK7gpYHgpJXgpY3gpKTgpL8g4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkteCkvuCksg==?= Message-ID: लीबिया की स्थिति बहुत धुंधली और हिंसक है। गद्दाफी ने अंत तक लड़ने और सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखने का इरादा जाहिर किया है। फिलहाल राजधानी त्रिापोली और देश के पश्चिमी क्षेत्रों पर केन्द्रीय सरकार का कब्जा है जबकि पूर्वी क्षेत्र पर विरोधी ताकतों ने कब्जा कर रखा है। कुछ मंत्रियों और सैनिक अधिकारियों ने पाला बदल दिया है और वे प्रतिपक्ष के साथ शामिल हो गए हैं तथा संभावित अगली सरकार का हिस्सा बन गए हैं। इस 'अंतरिम राष्ट्रीय शासन कौंसिल' के कुछ सदस्य पश्चिमी देशों से मांग कर रहे हैं कि वे इनकी मदद में हवाई हमले करें। यह एक प्रतिक्रियावादी मांग है जिसके पीछे साम्राज्यवाद का समर्थन निहित है। यह लीबियाई जनता के हित में नहीं हैं जिसने साम्राज्यवादी प्रभुत्व के अधीन काफी कष्ट झेले हैं। यहां यह बात भी ध्यान में रखने की है कि इस क्षेत्र की यह पहली उथल-पुथल की घटना है जिसने तेल के उत्पादन को प्रभावित किया है। समूचे अफ्रीका में लीबिया के पास तेल का सबसे बड़ा भंडार है और लीबिया यूरोप की तेल की जरूरतों के एक महत्वपूर्ण हिस्से की आपूर्ति करता है। इसलिए साम्राज्यवादी गणित को प्रभावित करने में यह भी एक कारक है। साम्राज्यवादी ताकतें 'मानवीय सरोकार' का बहाना लेकर संभावित सैनिक हस्तक्षेप को वैचारिक आधार देने में लगी हैं। पूरी बातचीत पढ़ें- http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post_10.html -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat May 14 16:06:47 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 14 May 2011 16:06:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KSmIOCkl+CljOCkoeCkvCDgpJXgpL4g4KS14KS/4KSw4KWL4KSn?= =?utf-8?b?IOCkrOClgeCktiDgpLjgpYcg4KS54KWILOCkrOCkvuCkn+CkviDgpLg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: बाटा के जूते का इससे मजबूत और भावनात्मक स्तर पर विज्ञापन शायद ही पहले कभी हुआ हो। देश के गिने-चुने सरोकारी और समाज के हक के लिए लड़नेवालों में से रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने बाटा कंपनी के जूते को ऐतिहासिक जूता करार दे दिया है। एक रंगकर्मी के दिमाग में मार्केटिंग और विज्ञापन की इतनी बारीक समझ हो सती है,सोचकर हैरानी भी हो रही है और अंदर से भय भी कि आनेवाले समय में रंगकर्म बाकी चीजों की तरह ही कार्पोरेट की जूती बनकर रह जाएगा। इस साल कोटेक महिन्द्रा के नाटक फेस्टीवल में जब मैंने पहला नाटक देखा,वहां नाटक देखनेवाले लोगों के तबके को देखा, तब भी यही बात महसूस कर रहा था कि नाटक जो कभी कम से कम खर्चे या लगभग मुफ्त देखी जानेवाला माध्यम रहा है,अब वो सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएगा। लेकिन अरविंद गौड़ के निर्देशन में आज से जिस नाटक "दि लास्ट सैल्यूट" का मंचन होने जा रहा है,वो इससे भी कहीं खतरनाक कहानी की ओर ईशारा करते हैं। मोहल्लाlive कल से ही इस नाटक को इतिहास रच देने के तौर पर रेखांकित करता आ रहा है। अंडरटोन ये है कि विश्व पटल पर इतनी बड़ी घटना हो गयी लेकिन उसे सर्जनात्मक रुप से लोगों के सामने लाने का काम भारत की पवित्रभूमि में हो रहा है। ऐसे में भारत,यहां के रंगकर्मी और खासकर अरविंद गौड़ इतिहास रचने का काम कर रहे हैं। चूंकि इतनी बड़ी रिस्क के साथ महेश भट्ट ने पैसा लगाया है,प्रोडक्शन किया है तो उन्हें कम बड़ा योद्धा साबित नहीं किया जा सकता? बहरहाल,मोहल्लाlive पर इसकी प्रशस्ति में छपी पोस्ट को पढ़ने के बाद ऐसा संयोग बना कि हम कल ही शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से गुजरे और तब हमने देखा कि वहां दि लास्ट सैल्यूट की बहुत बहुत पोस्ट/कीऑस्क लगी है। विश्वास कीजिए,उस पोस्टर में जो सबसे आकर्षित करनेवाली बात थी वो ये कि ठीक कोने में,बहुत ही बड़ी साईज में एक जूता बना है जो कि शान से सिर ताने खड़ा है और नीचे डार्कब्रैग्ग्राउंड होने की स्थिति में सफेद रंग से लिखा है- बाटा। इस नाटक के औऱ भी कई स्पांसर हैं लेकिन सबों के लोगो और नाम बहुत छोटे हैं। बाटा के इस जूते और पोस्टर में खास बात ये है कि जूते की साईज उतनी ही बड़ी है जितनी बड़ी कि बाटा कंपनी अपने शोरुम पर बोर्ड लगाने के लिए छपवाते हैं और पोस्टर की खास बात ये कि उसने जूते को उसी डार्क ब्राउन रंग और बैग्ग्राउंड के साथ एकाकार किया है,जिस रंग का पोस्टर है। ऐसा करने से जूता अलग से दिखने के बजाय उस नाटक का ही हिस्सा बल्कि एक चरित्र के तौर पर दिखाई देता है। जिनलोगों को भी ये घटना याद है कि 14 दिसंबर 2008 को बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजिर अल जैदीने जार्ज बुश पर जूता फेंका था और तब हंगामा मच गया था,उनके मन में पहला सवाल यही उठेगा कि क्या वो जूता बाटा का था? दरअसल पोस्टर ने बाटा के जूते को इस रुप में शामिल किया है कि वो नाटक की घटना का हिस्सा जान पड़ता है। मुझे नहीं पता कि नाटक के इस पोस्टर को डिजाइन करने में अरविंद गौड़ जैसे सरोकारी रंगकर्मी की क्या भूमिका रही होगी लेकिन जन-मजदूर,हक,संघर्ष,पूंजीवाद के खिलाफ सालों से बात करते रहनेवाले अरविंद गौड़ की आंखों में ये पोस्टर अभी तक चुभा नहीं कैसे,इस बात को लेकर हैरानी जरुर होती है। मुझे पता है कि मेरी ये पोस्ट पढ़ने के बाद कुछ लोग हमें मिट्टी का लोंदा जानकर ये दलील देने की कोशिश करेंगे कि आज अगर दूसरी बाकी विधाओं और कला की तरह नाटक को जिंदा रहना है तो उसे बाजार से हाथ मिलाने ही होंगे,समझौते करने ही पड़ेंगे। ऐसे में अरविंद गौड़ निर्देशित नाटक "दि लास्ट सैल्यूट" का स्पांसर बाटा है तो क्या दिक्कत है? एक हद तक सचमुच इस बात में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन क्या इस नाटक का स्पांसर बाटा सिर्फ इसलिए हो जाना चाहिए क्योंकि इसमें जूता फेंकना ही सबसे बड़ी घटना है और वो भी बुश पर। फेसबुक पर हमने सटायर करते हुए जब लिखा कि-बुश पर जूते मारने की दास्तान पर मंचित होनेवाले नाटक दि लास्ट सैल्यूट जिसके निर्देशक अरविंद गौड़ है का प्रायोजक बाटा है। एनएसडी में जो पोस्टर लगी है उसमें बाटा का जूता उसी तरह शान से और बड़े साइज में है जैसे बाटा की साइन बोर्ड में होते हैं। इंडिया में भी पी चिदंबरम पर जरनैल सिंह ने जूते फेंके थे,उस पर नाटक बनने पर कौन स जूता कंपनी स्पांसर होगी,एनी गेस?तो कई लोगों ने उसी व्यंग्य के अंदाज में जूते कंपनियों के नाम गिनाने लगे? अरविंद गौड़ से हमारा सवाल सिर्फ इतना भर है कि क्या उन्हें एक ऐतिहासिक घटना को अपने हित में एक जूते कंपनी के लिए प्लेटफार्म बनाने देने का अधिकार है? क्या अरविंद गौड़ को इस बात का अधिकार है कि मुंतजिर अलग जैदी ने बुश की नीतियों और रवैये के खिलाफ जो प्रतिकार किया,अपना विरोध दर्ज किया,उसे बाटा की झोली में डाल दें। माफ कीजिएगा,मैं यहां पर आकर अरविंद गौड़ से कहीं बेहतर रिबॉक कंपनी को मानता हूं जिसने अपने विज्ञापन में ये कहीं नहीं शामिल किया कि जरनैल सिंह ने जो जूते पी चिंदमबरम पर फेंके थे,वो उसकी कंपनी के बनाए जूते थे। मतलब जो जूता देश के गृहमंत्री से टक्कर ले सकता है,वो धूप-बरसात,सड़क के पत्थरों और धूल से क्यों नहीं? मुझे यकीन है कि कल को रिबॉक अगर इस चूकी हुई क्रेडिट को भुनाने की कोशिश करे तो अरविंद गौड़ जैसे ही सरोकारी रंगकर्मी इसके खिलाफ नाटक का मंचन करेंगे।..ऐसे में ये सवाल जरुर बनता है कि बाटा के जूते को दि लास्ट सैल्यूट की पोस्टर में बतौर एक चरित्र क्यों शामिल किया गया? अरविंद गौड़ जैसे देश के किसी भी रंगकर्मी,कलाकार,समाजसेवी या लेखक से ये सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए क्योंकि इन्होंने अपनी जमीन,पहचान( बाजार की भाषा में कहें तो ब्रांडिंग) इन्हीं सारी बातों का विरोध करते हुए बनायी है। देश के लोगों ने अगर इन्हें एक पहचान दी है तो उसमें कहीं न कहीं उनकी भी हिस्सेदारी शामिल है।..इसलिए ये बाकी लोगों की तरह बाजार से,कार्पोरेट से,पूंजीपति घरानों और कंपनियों से उसी तरह हाथ नहीं मिला सकते,जिस तरह कोटेक महिन्द्रा के साथ हाथ मिलाकर फ्रेमवर्क नाट्योत्सव और जयपुर लिटरेचर फेस्टीबव आयोजित कराता है। अगर वो ऐसा करते हैं तो फिर उन्हें वो जमीन छोड़नी होगी जहां से वो सरोकार का दावा करते हैं,समाज के बुनियादी ढांचे को बदलने की बात करते हैं। आखिर हम ये बात कैसे बर्दाश्त कर लें कि जो शख्स समाज की दुनियाभर की सडांध,कार्पोरेट की अंधी नीतियों और बाजार के खिलाफ बात करता आया हो और देखते ही देखते हमारा प्रवक्ता बन गया हो,आज वही उसके पक्ष में जाकर,उसके साथ गलबहियां करने लग जाए। अरविंद गौड़ की अगर यही इच्छा है कि उनके नाटक को बाटा(आज नाटक में अगर जूता है तो), किर्लोस्कर( नाटक में जहर की सीन होने पर) जैसी कंपनियां स्पांसर करे तो उन्हें अपने सारे दावों के साथ ये भी घोषित करना होगा कि उनका नाटक दरअसल एक ब्रांड प्रोमोशन का हिस्सा है,इसे आप खाटी सरोकार से जोड़कर देखने की भूल न करें। विज्ञापन कंपनियां हमानी तमाम अनुभूतियों को अगर एक कंपनी की पंचलाइन या सिग्नेचर ट्यून तक जकड़कर रख देना चाहती है,ऐसे में अरविंद गौड़ भी वही काम कर रहे हैं तो उन्हें फिर सरोकारी होने पर मिलनेवाली सुविधा और शोहरत को इन्ज्वाय करने का क्या हक है? बेहतर हो कि वो बाजार से ही अपने लहलहाने के खाद-पानी लेते रहें और सरोकार की जमीन छोड़ दें। हम ये बात कैसे मान लें कि अरविंद गौड़ के इस नाटक की पोस्टर में जो चेहरा खुलकर सामने आया है वो कार्पोरेट की स्ट्रैटजी से अलग है। मीडिया की उस रणनीति से अलग है जो कि सरोकार के नाम पर सरकार और कार्पोरेट की करोड़ों की दलाली का काम कर रहा है। इन दिनों एनडीटीवी और कोका कोला का स्कूल बनाने औऱ बच्चों को पढ़ाने का संयुक्त अभियान चल रहा है। एनडीटीवी पर धुंआधार विज्ञापन आ रहे हैं। इससे पहले चैनल ने टोएडा के साथ मिलकर पर्यावरण बचाने को लेकर अभियान चलाया था। क्या ये बात एनडीटीवी को पता नहीं है कि इस देश में पर्यावरण को कौन दूषित कर रहा है और कौन पानी के संकट को भयानक तरीके से बढ़ा रहा है। लेकिन वो उन्हीं कपंनियों के साथ मिलाकर अभियान चला रहा है,जो कि इसके लिए जिम्मेवार है। कई बार तो लगता है कि इस देश को कानून नहीं,लोगों के इमोशन्स चलाते हैं। आखिरी तभी तो ऐसे जिम्मेवार और अपराधियों का विरोध करने के बजाय लोग इनके फेंके जानेवाले टुकड़ों के पक्षधर हो जाते हैं। अरविंद गौड़ नाटक के बहाने एनडीटीवी और कोका कोला से क्या अलग कर रहे हैं? माफ कीजिएगा,मुझे न तो नाटक की बारीकियों की गहरी समझ है और न ही कला की..इसलिए इसे बचाने के लिए मैं बाकी जानकार लोगों की तरह विह्वल नहीं हो सकता। ..लेकिन इतना जरुर जानता हूं कि अरविंद गौड़ अपने नाटकों में जिन चीजों को बचाने की बात करते हैं,वो अगर सिर्फ पटकथा लेखन और संवाद में खूबसूरती पैदा करने के लिए नहीं है तो अरविंद गौड़ के नाटक को बचाने से कहीं ज्यादा जरुरी है कि वो बचाए जाएं जिसके बचाने की बात वो लगातार सालों से करते आए हैं। ऐसे में, आज अरविंद गौड़ अगर अपने नाटकों में झांककर देखें तो खुद ही उसके विरोध में नजर आएंगे। खेद- तब मेरे पास कैमरा नहीं था कि मैं दि लास्ट सैल्यूट के उस पोस्टर की तस्वीर ले सकूं जिसका कि मैंने जिक्र किया है। अभी कुछ घंटे में उधर जाना हुआ तो वो तस्वीर जल्द ही मुहैया कराता हूं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun May 15 23:36:49 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 15 May 2011 23:36:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSyIOCksOCkuSDgpJfgpI8g4KSl4KWHIOCkrOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSyIOCkpuCkvg==?= Message-ID: *अंधेरे कमरों में लगातार फुसफुसाती, चीखती और सिर पीटती आवाजें. कथ्य को दिशा देनेवाली सभी घटनाएं प्रायः दृश्य से बाहर घटती हुईं. बीच-बीच में शांति के कुछ पल... कर्मकांडी उदासी और बोझिल परिवेश. बादल सरकार के नाटकों की याद आते ही कुछ निश्चित से दृश्य खिंच जाते हैं. ब्रह्म प्रकाश बादल सरकार के नाटकों को एक सही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है. उन्होंने बादल सरकारी की कथित क्रांतिकारिता और रचनात्मक प्रतिबद्धता की भी पड़ताल की है. ब्रह्म प्रकाश लंदन विश्वविद्यालय से जन कलाओं पर शोध कर रहे हैं और इसे पूरा करने की व्यस्तता के बावजूद उन्होंने मेरे अनुरोध पर बहुत झिझकते हुए यह लेख भेजा है. * *बादल दा*, जब अनायास ही एक साइट पर आपकी मृत्यु का समाचार पढ़ा तो थोड़ी देर के लिए भरोसा ही नहीं हुआ. भरोसा इसलिए भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि आपसे करने के लिए चंद सवाल जो रह गये थे. हां, बादल दा एक इच्छा थी कि आपसे एक दिन जरूर मिलूंगा और मिल कर कुछ अटपटे और अनसुलझे सवाल करूंगा. वे सवाल जो असल में अनसुलझे नहीं थे, बल्कि आपने उन्हें उलझा कर रख दिया था. आपके वो उलझे सवाल हम जैसे बहुतों के मन में होंगे. खास कर जब भी आपका कोई नाटक देखा, सवाल करने की इच्छा उतनी ही तीव्र हुई. परंतु जब भी आपको लिखने के लिए सोचा, थोड़ी झिझक ने मुझे रोक लिया. यह जानते हुए भी कि आप नहीं रहे आज वे सवाल पूछ रहा हूं. सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि आपकी विरासत *तीसरा रंगमंच *(Third Theatre) के रूप में जिंदा है. आपके लिखे गये उन अनगिनत नाटकों में के रूप में. सवाल आप से भी हैं और आपके उन शागिर्दों से भी जो आपके नाटकों के गुणगान करते नहीं थकते. वैसे कुछ मामलों में, खास कर तीसरा रंगमंच को लेकर तो मैं खुद ही आपका गुणगान करता हूं. आपसे और आपके तीसरे रंगमंच के बारे में मेरा पहला परिचय जेएनयू में तब हुआ जब मैं कैंपस आधारित नुक्कड़ नाटक समूह *जुगनू *से जुड़ा था. परिचय क्या था, प्रेरणा थी. तब आपके तीसरा रंगमंच का प्रशंसक हो गया था मैं. आप जिस खूबी से स्पेस का इस्तेमाल किया करते थे, अपने नाटकों में आपने जिस बारीकी से अभिनेताओं की देह (body) का इस्तेमाल किया था और उसमें एक नयी जान फूंक दी थी, वह पहली नजर में बहुत प्रभावशाली लगता था. जब चाहा आपने उसे पेड़ बना दिया, जब चाहा एक लैंप पोस्ट. खास कर जिस तरह से आपके एक चरित्र दूसरे चरित्र में बदल जाते थे और दूसरे चरित्र को आत्मसात कर लेते थे, वह काबिले तारीफ था. स्पेस और बॉडी का ऐसा मेल आधुनिक भारतीय रंगमंच में शायद ही किसी ने किया हो. आप सिर्फ रंगमंच को सभागार (auditorium) से बाहर ही नहीं लाये, आपने नुक्कड़ों और सड़कों को ही मंच (स्टेज) बना दिया. बुर्जुआ रंगमंच के सभागार को तो आपने ध्वस्त कर दिया. आपने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शक की कल्पनाशक्ति काफी है. आपका वह सवाल कि ‘थिएटर करने के लिए कम से कम क्या चाहिए’, नाट्यकर्मियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है. एक चुनौती है. आपने जिस तरह से वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) और साज सज्जा (मेक अप) को गैरजरूरी बना दिया और इस तरह कुल मिला कर नाटक के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया वह हमारे समाज के संदर्भ में रेडिकल ही नहीं क्रांतिकारी भी था. आपने बुर्जुआ रंगमंच और रंगकर्मियों को उनकी सही औकात बता दी थी. इसके लिए देश के नाट्यकर्मी आपके कायल हैं. खास कर हमारे जैसे देश में आपके प्रयोग और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि यूरोप और अमेरिका की तरह रंगमंच अब भी यहां उद्योग नहीं है. कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ कर रंगमंच की कमान अब भी आम लोगों के हाथों में है. वही आम लोग जो बड़े बड़े थिएटर हॉलों में किए गए नाटकों पर घास भी नहीं डालते. आज भी उनके लिए थिएटर गांव के मेलों में शहर की गलियों और चौराहों पर है. उन्हें आनेवाले दिनों में भी मुफ्त का थिएटर ही चाहिए होगा, जो उनका वाजिब हक है. *पूरी पोस्ट हाशिया पर मौजूद है. इसे देखने के लिए क्लिक करें- http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post_15.html* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun May 15 23:36:49 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 15 May 2011 23:36:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSyIOCksOCkuSDgpJfgpI8g4KSl4KWHIOCkrOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSyIOCkpuCkvg==?= Message-ID: *अंधेरे कमरों में लगातार फुसफुसाती, चीखती और सिर पीटती आवाजें. कथ्य को दिशा देनेवाली सभी घटनाएं प्रायः दृश्य से बाहर घटती हुईं. बीच-बीच में शांति के कुछ पल... कर्मकांडी उदासी और बोझिल परिवेश. बादल सरकार के नाटकों की याद आते ही कुछ निश्चित से दृश्य खिंच जाते हैं. ब्रह्म प्रकाश बादल सरकार के नाटकों को एक सही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है. उन्होंने बादल सरकारी की कथित क्रांतिकारिता और रचनात्मक प्रतिबद्धता की भी पड़ताल की है. ब्रह्म प्रकाश लंदन विश्वविद्यालय से जन कलाओं पर शोध कर रहे हैं और इसे पूरा करने की व्यस्तता के बावजूद उन्होंने मेरे अनुरोध पर बहुत झिझकते हुए यह लेख भेजा है. * *बादल दा*, जब अनायास ही एक साइट पर आपकी मृत्यु का समाचार पढ़ा तो थोड़ी देर के लिए भरोसा ही नहीं हुआ. भरोसा इसलिए भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि आपसे करने के लिए चंद सवाल जो रह गये थे. हां, बादल दा एक इच्छा थी कि आपसे एक दिन जरूर मिलूंगा और मिल कर कुछ अटपटे और अनसुलझे सवाल करूंगा. वे सवाल जो असल में अनसुलझे नहीं थे, बल्कि आपने उन्हें उलझा कर रख दिया था. आपके वो उलझे सवाल हम जैसे बहुतों के मन में होंगे. खास कर जब भी आपका कोई नाटक देखा, सवाल करने की इच्छा उतनी ही तीव्र हुई. परंतु जब भी आपको लिखने के लिए सोचा, थोड़ी झिझक ने मुझे रोक लिया. यह जानते हुए भी कि आप नहीं रहे आज वे सवाल पूछ रहा हूं. सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि आपकी विरासत *तीसरा रंगमंच *(Third Theatre) के रूप में जिंदा है. आपके लिखे गये उन अनगिनत नाटकों में के रूप में. सवाल आप से भी हैं और आपके उन शागिर्दों से भी जो आपके नाटकों के गुणगान करते नहीं थकते. वैसे कुछ मामलों में, खास कर तीसरा रंगमंच को लेकर तो मैं खुद ही आपका गुणगान करता हूं. आपसे और आपके तीसरे रंगमंच के बारे में मेरा पहला परिचय जेएनयू में तब हुआ जब मैं कैंपस आधारित नुक्कड़ नाटक समूह *जुगनू *से जुड़ा था. परिचय क्या था, प्रेरणा थी. तब आपके तीसरा रंगमंच का प्रशंसक हो गया था मैं. आप जिस खूबी से स्पेस का इस्तेमाल किया करते थे, अपने नाटकों में आपने जिस बारीकी से अभिनेताओं की देह (body) का इस्तेमाल किया था और उसमें एक नयी जान फूंक दी थी, वह पहली नजर में बहुत प्रभावशाली लगता था. जब चाहा आपने उसे पेड़ बना दिया, जब चाहा एक लैंप पोस्ट. खास कर जिस तरह से आपके एक चरित्र दूसरे चरित्र में बदल जाते थे और दूसरे चरित्र को आत्मसात कर लेते थे, वह काबिले तारीफ था. स्पेस और बॉडी का ऐसा मेल आधुनिक भारतीय रंगमंच में शायद ही किसी ने किया हो. आप सिर्फ रंगमंच को सभागार (auditorium) से बाहर ही नहीं लाये, आपने नुक्कड़ों और सड़कों को ही मंच (स्टेज) बना दिया. बुर्जुआ रंगमंच के सभागार को तो आपने ध्वस्त कर दिया. आपने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शक की कल्पनाशक्ति काफी है. आपका वह सवाल कि ‘थिएटर करने के लिए कम से कम क्या चाहिए’, नाट्यकर्मियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है. एक चुनौती है. आपने जिस तरह से वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) और साज सज्जा (मेक अप) को गैरजरूरी बना दिया और इस तरह कुल मिला कर नाटक के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया वह हमारे समाज के संदर्भ में रेडिकल ही नहीं क्रांतिकारी भी था. आपने बुर्जुआ रंगमंच और रंगकर्मियों को उनकी सही औकात बता दी थी. इसके लिए देश के नाट्यकर्मी आपके कायल हैं. खास कर हमारे जैसे देश में आपके प्रयोग और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि यूरोप और अमेरिका की तरह रंगमंच अब भी यहां उद्योग नहीं है. कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ कर रंगमंच की कमान अब भी आम लोगों के हाथों में है. वही आम लोग जो बड़े बड़े थिएटर हॉलों में किए गए नाटकों पर घास भी नहीं डालते. आज भी उनके लिए थिएटर गांव के मेलों में शहर की गलियों और चौराहों पर है. उन्हें आनेवाले दिनों में भी मुफ्त का थिएटर ही चाहिए होगा, जो उनका वाजिब हक है. *पूरी पोस्ट हाशिया पर मौजूद है. इसे देखने के लिए क्लिक करें- http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post_15.html* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Mon May 16 11:08:51 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 16 May 2011 11:08:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkquCliOCkuOClhyDgpKrgpLAg4KSr4KWN4KSw4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSl4KS/4KSP4KSf4KSwIOCkqOCkueClgOCkgiDgpJrgpLIg4KS44KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSDIOCkrOCkvuCkpuCksiDgpLjgpLDgpJXgpL7gpLAg4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkj+CklSDgpKzgpL7gpKTgpJrgpYDgpKQ=?= Message-ID: *बादल सरकार के निधन के बाद शम्सुल इसलाम ने मेल के जरिए सरकार से की गयी अपनी एक बातचीत की कटिंग भेजी है, जो द संडे टाइम्स ऑफ इंडिया **के 11 अक्तूबर, 1992 संस्करण में छपी थी. हम यहां इसका अनुवाद पेश कर रहे हैं. इसे हम यहां बादल सरकार के रंगमंच पर जारी बहस के सिलसिले के रूप में पोस्ट कर रहे हैं. * *आपने तीसरा रंगमंच के सिद्धांत की शुरुआत की और आप अपनी राय बदलते रहे हैं. अब आप फ्री थिएटर को कैसे देखते हैं?* यह सही है, एक बार मैंने तीसरा रंगमंच को शहरी और ग्रामीण रंगमंच के मेल (संश्लेषण) से बने रंगमंच के रूप में सोचा था. लेकिन इस पर काम करते हुए मैंने अपने विचारों को सुधारा. मुझे लगा कि अगर तीसरा रंगमंच को एक वैकल्पिक रंगमंच होना था तो यह किसी का भी संश्लेषण नहीं हो सकता था. पहले मैं यांत्रिक नजरिये का शिकार हो गया था. मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि तीसरा रंगमंच को फ्री थिएटर होने के लिए उसे महंगा, स्थिर और व्यवसायिकरण का शिकार होने से बचना चाहिए. इसे दर्शकों से संवाद बनाने की कोशिश करनी चाहिए. एक बार जब आप पारंपरिक मंच नाटक (प्रोसीनियम थिएटर) की चीजों से पार पा लेते हैं तो आपको मुख्यतः मानव देह पर निर्भर रहना पड़ता है. इसकी क्षमताओं को गहरे प्रशिक्षण के जरिये विकसित किया जाना चाहिए. फ्री थिएटर को बीते हुए समय की तरह नहीं लिया जा सकता. हमारे लिए किसी कहानी को कहने के बजाय रंग अनुभव अधिक प्रासंगिक होता है. किसी भी हालत में भाषा पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय शारीरिक अनुभव कहीं अधिक असरदार होता है. पूरी बातचीत पढ़ें - *सरकारी पैसे पर फ्री थिएटर नहीं चल सकताः बादल सरकार से एक बातचीत * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue May 17 03:09:29 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 17 May 2011 03:09:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS24KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KS/4KSuIOCkrOCkguCkl+CkvuCksiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpIMg?= =?utf-8?b?4KSo4KSV4KWN4KS44KSy4KSs4KS+4KSh4KS84KWAIOCkuOClhyDgpJw=?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KSyIOCkruCkueCksg==?= Message-ID: ''44 बरस में बंगाल में सत्ता परिवर्तन के दौर को परखें, तो वाकई यह सवाल बड़ा हो जाता है कि जिस संगठन को संसदीय चुनाव पर भरोसा नहीं है, उसकी राजनीतिक कवायद को जिस राजनीतिक दल ने अपनाया, उसे सत्ता मिली और जिसने विरोध किया, उसकी सत्ता चली गयी. 1967 के बंगाल चुनाव में पहली बार सीपीएम ने ही भूमि सुधार से लेकर किसान मजदूर के वही सवाल उठाये, जो उस वक्त नक्सलबाड़ी एवं कृषक संग्राम सहायक कमेटी ने उठाये. 2007 में नंदीग्राम में केमिकल हब की जद में किसानों की जमीन आयी, तो माओवादियों ने ही सबसे पहले जमीन अधिग्रहण को किसान- मजदूर विरोधी करार दिया. और यही सुर ममता ने पकड़ा.'' जाने माने पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी द्वारा पश्चिम बंगाल चुनावों का यह विश्लेषण पढ़ें हाशिया पर- *पश्चिम बंगाल चुनावः नक्सलबाड़ी से जंगल महल* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu May 19 15:44:22 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 19 May 2011 03:14:22 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSmIOCkl+CljOCkoeCkvCDgpJXgpYsg4KSX4KWB4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KS44KS+IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpIbgpKTgpL4g4KS54KWIPw==?= Message-ID: कोलकाता के एक दोस्त ने उस मीठाई वाले की कहानी सुनाई थी। जो अपनी मीठाई की जरा सी शिकायत सुनकर गुस्से से भर जाता था। उस दूकान वाले को जानने वाले यह भली प्रकार से जानते थे, बोली में थोड़ा कड़कपन है लेकिन मीठाई में मिलावट नहीं करता। मिलावाट के अलावा उसकी मीठाई में दूसरे तरह की कमियां हो सकती थी, मसलन चीनी अधिक होना, खट्टापन आना। ईमानदारी से काम करने की वजह से उसकी मीठाई की कीमत स्वाभाविक है, दूसरे दुकानदारों से अधिक थी। उस दुकानदार ने जिस तरह अपनी ईमानदारी के साथ कभी समझौता नहीं किया और बाजार में मिलावटखोरों का दबाव होने के बावजूद वह ईमानदारी से बाजार में जमा रहा, यदि इस ईमानदारी के साथ उसने गुणवत्ता से भी समझौता नहीं किया होता तो शक नहीं कि फिर उसके काम की पूरे शहर में धाक होती। 15 तारिख की शाम श्रीराम सेन्टर में बगदाद के टीवी पत्रकार मुंतजिर अल जैदी की पुस्तक ‘द लास्ट सेल्यूट फॉर प्रसिडेन्ट बुश’ पर आधारित नाटक ‘द लास्ट सेल्यूट’ का प्रदर्शन था, मंडी हाउस में नाटक खत्म होने के बाद एक महिला के सवाल पर जिस तरह निर्देशक अरविन्द गौड़ ने प्रतिक्रिया की, उसे देखने के बाद कोलकाता के मीठाई वाले की कहानी याद हो आई। जो मीठाई वाला शुद्धता का पोषक, नेकनियत और ईमानदार था। गौड़ साहब के थिएटर के प्रति प्रतिबद्धता को कौन सेल्यूट नहीं करेगा? इस तरह उनसे दर्शकों की अपेक्षा का बढ़ जाना, अनायास नहीं था। अब आप ही कहिए, आप अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित नाटक देखने जाएं और पूरी तैयारी में पटकथा से लेकर ध्वनि संयोजन तक में कई खामियां नजर आए तो हम जैसे आम दर्शक को भी लगता है कि यह और बेहतर हो सकता था। गौड़ साहब के प्रश्न आमंत्रित करने पर जब यही बात दर्शक दिर्घा से आई तो गौड़ साहब चुप कराने के अंदाज में थिएटर के लिए अपने समर्पण और त्याग की कहानी सुनाने लगे। जबकि जिन महिला ने सवाल पूछा था, वह लंबे समय से थिएटर से जुड़ी रहीं हैं। उनका थिएटर के प्रति समर्पण अरविन्द गौड़ से कम तो नहीं माना जा सकता। जवाब में गौड़ साहब ने जो कहा, उनके कहने का कुल जमा लब्बोलुआब यही था कि उन्होंने बिना किसी सरकारी मदद के थिएटर को जिन्दा रखा है। चूंकि वे प्रतिबद्धता के साथ थिएटर के साथ जुड़े हैं, इसलिए किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं बनता कि उनके काम की आलोचना करे! क्या दर्शकों से सवाल पूछने का आग्रह मात्र इसलिए था, कि लोग एक एक करके उठे और वाह गौड़ साहब वाह बोलकर बैठ जाएं। द लास्ट सैल्यूट के एक दृश्य में मुंतजिर की प्रेमिका उनसे खुद को भूला देने की बात करती हैं। चूंकि उसकी शादी उसके चचेरे भाई से होने वाली है। क्या इस बिछड़ने की वजह सीया-सुन्नी वाला मसला है या फिर निर्देशक इशारों-इशारों में जूता फेंकने वाले प्रसंग को दिल टूटने से जोड़कर यह बताना चाहते हैं कि जूता प्रकरण की वजह अमेरिका द्वारा बरपाई गई तबाही से मुंतजीर के अंदर उपजी बुश के लिए बेपनाह नफरत मात्र नहीं थी। कुछ और भी था। द लास्ट सैल्यूट में बहूत शोर के बीच में मुंतजीर की कहानी की आत्मा कहीं खो गई थी। यह बात भी समझना सबके बस की बात नहीं है कि जिस मुंतजिर की तुलना गौड़ साहब भगत सिंह से करते नहीं थक रहे थे, उस मुंतजिर ने अपना आदर्श महात्मा गांधी को बताया। बहरहाल काम के प्रति अरविन्द गौड़ की प्रतिबद्धता को सलाम लेकिन महीनों लगकर संयम के साथ पारलेजी की बिस्किट और राव साहब के चाय के साथ गौड़ साहब रिहर्सल करते हैं। थोड़ा संयम रखकर यदि वे आलोचनाओं को भी सुन लें तो महेश भट्ट के शब्दों में ‘आलोचना के लिए उठे हाथ तराशने के भी काम आएंगे।’ http://ashishanshu.blogspot.com/2011/05/blog-post_19.html -- आशीष कुमार 'अंशु' From ashishkumaranshu at gmail.com Thu May 19 15:44:22 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 19 May 2011 03:14:22 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSmIOCkl+CljOCkoeCkvCDgpJXgpYsg4KSX4KWB4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KS44KS+IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpIbgpKTgpL4g4KS54KWIPw==?= Message-ID: कोलकाता के एक दोस्त ने उस मीठाई वाले की कहानी सुनाई थी। जो अपनी मीठाई की जरा सी शिकायत सुनकर गुस्से से भर जाता था। उस दूकान वाले को जानने वाले यह भली प्रकार से जानते थे, बोली में थोड़ा कड़कपन है लेकिन मीठाई में मिलावट नहीं करता। मिलावाट के अलावा उसकी मीठाई में दूसरे तरह की कमियां हो सकती थी, मसलन चीनी अधिक होना, खट्टापन आना। ईमानदारी से काम करने की वजह से उसकी मीठाई की कीमत स्वाभाविक है, दूसरे दुकानदारों से अधिक थी। उस दुकानदार ने जिस तरह अपनी ईमानदारी के साथ कभी समझौता नहीं किया और बाजार में मिलावटखोरों का दबाव होने के बावजूद वह ईमानदारी से बाजार में जमा रहा, यदि इस ईमानदारी के साथ उसने गुणवत्ता से भी समझौता नहीं किया होता तो शक नहीं कि फिर उसके काम की पूरे शहर में धाक होती। 15 तारिख की शाम श्रीराम सेन्टर में बगदाद के टीवी पत्रकार मुंतजिर अल जैदी की पुस्तक ‘द लास्ट सेल्यूट फॉर प्रसिडेन्ट बुश’ पर आधारित नाटक ‘द लास्ट सेल्यूट’ का प्रदर्शन था, मंडी हाउस में नाटक खत्म होने के बाद एक महिला के सवाल पर जिस तरह निर्देशक अरविन्द गौड़ ने प्रतिक्रिया की, उसे देखने के बाद कोलकाता के मीठाई वाले की कहानी याद हो आई। जो मीठाई वाला शुद्धता का पोषक, नेकनियत और ईमानदार था। गौड़ साहब के थिएटर के प्रति प्रतिबद्धता को कौन सेल्यूट नहीं करेगा? इस तरह उनसे दर्शकों की अपेक्षा का बढ़ जाना, अनायास नहीं था। अब आप ही कहिए, आप अरविन्द गौड़ द्वारा निर्देशित नाटक देखने जाएं और पूरी तैयारी में पटकथा से लेकर ध्वनि संयोजन तक में कई खामियां नजर आए तो हम जैसे आम दर्शक को भी लगता है कि यह और बेहतर हो सकता था। गौड़ साहब के प्रश्न आमंत्रित करने पर जब यही बात दर्शक दिर्घा से आई तो गौड़ साहब चुप कराने के अंदाज में थिएटर के लिए अपने समर्पण और त्याग की कहानी सुनाने लगे। जबकि जिन महिला ने सवाल पूछा था, वह लंबे समय से थिएटर से जुड़ी रहीं हैं। उनका थिएटर के प्रति समर्पण अरविन्द गौड़ से कम तो नहीं माना जा सकता। जवाब में गौड़ साहब ने जो कहा, उनके कहने का कुल जमा लब्बोलुआब यही था कि उन्होंने बिना किसी सरकारी मदद के थिएटर को जिन्दा रखा है। चूंकि वे प्रतिबद्धता के साथ थिएटर के साथ जुड़े हैं, इसलिए किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं बनता कि उनके काम की आलोचना करे! क्या दर्शकों से सवाल पूछने का आग्रह मात्र इसलिए था, कि लोग एक एक करके उठे और वाह गौड़ साहब वाह बोलकर बैठ जाएं। द लास्ट सैल्यूट के एक दृश्य में मुंतजिर की प्रेमिका उनसे खुद को भूला देने की बात करती हैं। चूंकि उसकी शादी उसके चचेरे भाई से होने वाली है। क्या इस बिछड़ने की वजह सीया-सुन्नी वाला मसला है या फिर निर्देशक इशारों-इशारों में जूता फेंकने वाले प्रसंग को दिल टूटने से जोड़कर यह बताना चाहते हैं कि जूता प्रकरण की वजह अमेरिका द्वारा बरपाई गई तबाही से मुंतजीर के अंदर उपजी बुश के लिए बेपनाह नफरत मात्र नहीं थी। कुछ और भी था। द लास्ट सैल्यूट में बहूत शोर के बीच में मुंतजीर की कहानी की आत्मा कहीं खो गई थी। यह बात भी समझना सबके बस की बात नहीं है कि जिस मुंतजिर की तुलना गौड़ साहब भगत सिंह से करते नहीं थक रहे थे, उस मुंतजिर ने अपना आदर्श महात्मा गांधी को बताया। बहरहाल काम के प्रति अरविन्द गौड़ की प्रतिबद्धता को सलाम लेकिन महीनों लगकर संयम के साथ पारलेजी की बिस्किट और राव साहब के चाय के साथ गौड़ साहब रिहर्सल करते हैं। थोड़ा संयम रखकर यदि वे आलोचनाओं को भी सुन लें तो महेश भट्ट के शब्दों में ‘आलोचना के लिए उठे हाथ तराशने के भी काम आएंगे।’ http://ashishanshu.blogspot.com/2011/05/blog-post_19.html -- आशीष कुमार 'अंशु' From beingred at gmail.com Thu May 19 16:55:46 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 19 May 2011 16:55:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpLjgpYjgpKjgpY3gpK8g4KSm4KSW4KSy4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSc4KWAIOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KS44KSu?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KWH4KSy4KSo?= Message-ID: अबूझमाड़ के कुल क्षेत्रफल 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का 600 वर्ग किमी सेना को बेस कैम्प के लिए सौंपा जा रहा है। इतने बड़े इलाके में सेना के आने से स्थानीय लोगों का विस्थापन व जंगल की तबाही होना तय है। अबूझमाड़ के कुल क्षेत्रफल 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का 600 वर्ग किमी सेना को बेस कैम्प के लिए सौंपा जा रहा है। इतने बड़े इलाके में सेना के आने से स्थानीय लोगों का विस्थापन व जंगल की तबाही होना तय है। कैम्प बनाने की प्रक्रिया के नाम पर जंगल जमीन व खनिज सम्पदा और जनांदोलनों को तबाह करने के अभियान को अंजाम देने की ही तैयारी है। सेना के इस हस्तक्षेप का विरोध जरूरी है। *वक्ता* *एबी वर्धन, महासचिव, सीपीआई* *अमित भादुड़ी, प्रोफेसर एमेरिटस, जेएनयू* *अर्पणा, सीपीआई एमएल- न्यूडेमोक्रेसी* *अरूंधति राय,लेखिका * *बीडी शर्मा, पूर्व कमिश्नर बस्तर* *ईएन राममोहन, पूर्व डीजीपी, बीएसएफ* *मदन कश्यप, साहित्यकार* *सुमित चक्रवर्ती, सम्पादक- मेनस्ट्रीम* *सुधा भारद्वाज, पीयूसीएल, छत्तीसगढ़* *गिरिजा पाठक, सीपीआई एमएल- लिबरेशन* *पंकज बिष्ट, सम्पादक- समयांतर * *एसएआर गिलानी, दिल्ली विश्वविद्यालय* *शशि भूषण पाठक,पीयूसीएल, झारखंड* *अर्जुन प्रसाद, पीडीएफआई * *दिनांक : 21 मई, 2011, समय : दोपहर 3 बजे से रात 8 बजे तक* *स्थान : गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, आईटीओ के पास* सम्मेलन के बारे में अधिक जानकारी के लिए देखें- *बस्तर में सैन्य दखलंदाजी के खिलाफ सम्मेलन* * -- * Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sat May 21 11:52:26 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 21 May 2011 11:52:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KSPIOCkl+CkpuCksCDgpJXgpYvgpIMg4KSt4KS+4KSw4KSkIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KWAIOCkruCkueCkvuCkqCDgpK3gpYLgpK7gpL8=?= Message-ID: पिछली पोस्टों में क्रांतिकारी गायक गदर के जेएनयू में हुए कार्यक्रम का जिक्र भर हुआ था. अलग तेलंगाना राज्य की मांग के समर्थन में बनी छात्रों की कमेटी (स्टूडेंट्स सोलिडेरिटी कमेटी फॉर सेपरेट स्टेट ऑफ तेलंगाना) द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में गदर ने आमतौर पर भारत और खासतौर पर तेलंगाना की मेहनतकश जनता के अंतहीन शोषण, दमन और उत्पीड़न के लिए स्थापित फौजी और संरचनात्मक हिंसा की राजकीय संस्थाओं के बारे में बताया. उन्होंने इस हिंसक भारतीय राज्य की संरचना के खिलाफ संघर्ष कर रही जनता की कहानी भी कही. औपनिवेशिक शासन काल से लेकर मौजूदा अर्ध औपनिवेशिक -अर्ध सामंती राज्य के चरित्र को गदर ने अपने गीतों के जरिए पेश किया. इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग टुकड़ों-टुकड़ों में पेश की जाएगी. सबसे इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग का एक हिस्सा, जिसमें गदर ने नागार्जुन सागर बांध के जरिए तेलंगाना के मजदूरों और किसानों के साथ भेदभाव और उनकी बरबादी की कहानी कही है. तेज हवा और खराब माइक के कारण रिकॉर्डिंग की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, और इसे कंप्यूटर पर संपादित करने के बाद थोड़ा सुनने लायक बनाया जा सका है. सुनिएः *भारत अपनी महान भूमि* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Mon May 23 03:19:25 2011 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 23 May 2011 03:19:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkheCkreCkv+CknOCkvuCkpOCli+CkgiDgpJXgpL4g4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkueCliOCkgyDgpIXgpLDgpYHgpILgpKc=?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: *भारत* सरकार आदिवासी इलाकों में सेना के आधार कैम्प बनाने जा रही है. ऐसे दो ट्रेनिंग कैम्प उड़ीसा के रायगढ़ा व छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिलों में जल्दी ही स्थापित करने की योजना है, जिसके लिए बड़ी मात्रा में आदिवासी जमीन का अधिग्रहण किया जाने वाला है. अबूझमाड़ के कुल क्षेत्रफल 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का 600 वर्ग किमी सेना को बेस कैम्प के लिए सौंपा जा रहा है. इतने बड़े इलाके में सेना के आने से स्थानीय लोगों का विस्थापन व जंगल की तबाही होना तय है. सेना के अनुसार ही ये तथाकथित कैम्प मिजोरम व कांकेर के जंगल युद्ध प्रशिक्षण स्कूल के माडल पर ही स्थापित किये जा रहे हैं. सरकार के इस कदम का विरोध करने के लिए देश के कुछ जाने-माने बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने शनिवार को गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक बैठक की. *फोरम अगेंस्ट वार ऑन पीपुल*के तहत आयोजित इस आम सभा में लोगों ने एकस्वर से इस जनविरोधी दमनकारी कदम का विरोध किया और यह आशंका भी जतायी कि इसके जरिए सरकार संघर्षरत जनता के खिलाफ सेना के औपचारिक इस्तेमाल का रास्ता साफ कर रही है. इस मौके पर अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी, कवि मदन कश्यप, लेखिका अरुंधति राय, पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर, सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन, मेनस्ट्रीम के संपादक सुमित चक्रवर्ती और समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट समेत इस सभा में शामिल सभी वक्ताओं ने यह मांग की कि जनता के खिलाफ सभी युद्धों को तत्काल बंद किया जाए, कंपनियों के साथ किये गये सारे करारों को सार्वजनिक करके रद्द किया जाये तथा सारे अर्धसैनिक बलों को वापस बुलाया जाये. *हाशिया* पर इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग अलग-अलग हिस्सों में पोस्ट की जायेगी. इस सिलसिले में पेश है जानी-मानी लेखिका *अरुंधति राय* का वक्तव्य. इसमें अरुंधति ने सरकार के इस दमनकारी कदम का आरंभ से ही मजबूत विरोध करने और इसे शुरू न होने देने के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया है. *सुनिएः भारत अभिजातों का लोकतंत्र हैः अरुंधति राय * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri May 27 07:00:23 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 27 May 2011 07:00:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSyIOCkleCkviDgpLngpYHgpIYg4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy?= =?utf-8?b?4KS+bGl2ZQ==?= Message-ID: *♦ विनीत कुमार* *डिस्‍क्‍लेमर : संस्मरण के तौर पर मोहल्ला लाइव के दो साल पूरे होने पर जो लिख रहा हूं, उसके पीछे मोहल्ला या अविनाश की कोई प्रशस्तिगाथा या उसके बहाने अपने को चमकाने की नीयत नहीं है। ध्येय है तो बस इतना कि कुकुरमुत्ते की तरह हर दस मिनट में मौज में आकर ब्लॉग बनने और फिर कुछ ही दिनों बाद उत्साह खत्म हो जाने की स्थिति में उसके मर जाने के बीच कैसे मोहल्ला ने अपनी एक अलग पहचान बनायी, सैकड़ों लोगों को ब्लॉग लेखन की तरफ प्रेरित किया और लोगों ने इसके जरिये ब्लॉग को जाना, इसे रेखांकित करना है। मेरी जगह कोई दूसरा चाहे तो वो मोहल्ला को लेकर तटस्थ इतिहास जरूर लिखे लेकिन मैंने लेखन की दुनिया में इसके जरिये अपने को लगातार सक्रिय किया है तो माफ कीजिएगा, भावुकता को त्यागकर मैं इसके बारे में नहीं लिख सकता इसलिए मोहल्ला के बारे में मेरे लिए लिखना संस्मरण का हिस्सा होगा, इतिहास का नहीं। आपको पूरी छूट है कि आप मेरी भावना के बीच तर्कों की चिमनी लगाकर इसके पक्षों की ठोक-पीट करें लेकिन इस तर्क पर मैं आगे भी लिखूंगा कि भावुकता पर अधिकार सिर्फ कवियों का नहीं है, एक ब्लॉगर भी यदा-कदा भावुक हो सकता है : विनीत कुमार* मोहल्ला लाइव को मैं थोड़ा फ्लैशबैक में ले जाकर देखना चाहता हूं, जिससे कि मुझे अपने अनुभव और भावनात्मक लगाव के बारे में कहने का दायरा बढ़ सके। सच पूछिए तो उस फ्लैशबैक के बिना मोहल्ला लाइव को मैं याद ही नहीं रख सकता और न मेरे से याद किया जा सकेगा। *साल 2006-07 के* कथादेश सम्मान में मेरे बचपन के साथी और अब युवा आलोचक राहुल (कार्यालयी नाम राहुल सिंह है) ने मंडी हाउस में मेरा परिचय अविनाश से कराया। अविनाश तब एनडीटीवी में थे। राहुल ने मेरे बारे में उन्हें जो कुछ भी बताया, उसके पीछे उसकी सदिच्छा इतनी भर थी कि अविनाश के लिए अगर संभव हो सके, तो वो मेरे लिए कहीं इंटर्नशिप के बारे में बात करें, कुछ सहयोग करें। अविनाश के लिए मैं कोई पहला मीडिया न्यूकमर नहीं था, जिसे लेकर वो बहुत सीरियस होते और वैसे भी मीडिया के भीतर का ढांचा इतना बदल चुका है कि चैनल के जिन चेहरों को हम तोप समझते हैं, उनके लिए अपनी नौकरी भी बचाये रखनी बहुत बड़ी बात है। और वैसे भी पढ़ने-लिखने और अलग तरीके से सोचनेवाले लोग इस तरह की बातों पर कम ही ध्यान देते हैं। खैर, अविनाश ने तब मुझसे सिर्फ इतना ही कहा – मोहल्ला देखिएगा कभी मौका मिले तो। *मुझे अपनी कोशिश पर* इंटर्नशिप मिल गयी थी और थोड़े समय की धक्का-मुक्की, फटेहाली के बाद मामूली ही सही नौकरी भी। मीडिया में एक तरह से रमने लगा था कि यूजीसी जेआरएफ परीक्षा में पास हो गया और उसी दिन ये साफ हो गया कि पांच साल तक दिल्ली में रहने-खाने और अपने मन की लिखने की कोई समस्या नहीं होने जा रही है। चैनल की नौकरी छोड़ने में हमने बहुत वक्त नहीं लिया। लेकिन जिस दिन चैनल की नौकरी छोड़ी थी, उसकी अगली सुबह पांच बजे उठते हुए बहुत अजीब महसूस कर रहा था। एक खास किस्म का खालीपन और बेरोजगारी भी। जब तक सारी चीजें प्रोसेस नहीं होती, पैसे मिलने की निश्चिंतता के बावजूद एक किस्म का निकम्मापन तो था ही। मैंने ठीक उसी सुबह मोहल्ला को पहली बार खोला था। उत्साह में उस पर दिनभर समय दिया और अगली सुबह तय किया कि मुझे भी अपना ब्लॉग बनाना चाहिए। मन में एक हुलस थी कि मोहल्ला पर मेरा भी कुछ लिखा आये लेकिन तब वहां इतने बड़े-बड़े दिग्गजों के नाम होते थे कि ऐसा सोचना अश्लील होता। *चैनल की नौकरी ने* अपनी औकात को बहुत कमतर करके देखने की आदत डाल दी थी, नहीं तो हिंदू कॉलेज से एम ए और डीयू से एम फिल किया कोई शख्स इतनी समझ और हौसला तो रखता ही है कि वो खुलकर एक बेहतर मंच पर अपनी बात रख सके। बहरहाल, अगली सुबह हमने अपना ब्लॉग बनाया। अविनाश से हम जैसे लोगों का संपर्क करने का बस एक ही जरिया था – मोहल्ला की वॉल पर राइट हैंड साइड में ब्लू रंग का एक चैट बॉक्स हुआ करता था। अविनाश से हम जैसे न्यूकमर को बात करनी होती थी, तो वहां वो अपना मोबाइल नंबर या मेल आइडी छोड़ देते और बाद में अविनाश फोन या मेल से या तो उनसे संपर्क करते या फिर वहीं बक्से में जवाब देते। हंसिएगा मत प्लीज, जब पहली बार बतौर मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश ने उस चैट बॉक्स पर जवाब देते हुए लिखा था कि आप अपना नंबर दीजिए तो यकीन मानिए मैं घंटों नशे में झूमता रहा। मैंने बाद में बात की और कहा कि मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया है और चाहता हूं कि हिंदी समाज के भीतर की सडांध को सामने लाऊं। अविनाश को मेरी ये बात जज्बाती लगी होगी और मुझे हिंदी विभाग का जानकर राय दी कि सड़ांध क्या, आप कुछ क्षणिकाएं ही लिखिए तो हिंदी समाज को कुछ आनंद मिल सके। मुझे तब थोड़ा बुरा भी लगा था लेकिन इस देश में एक औसत हिंदी के विद्यार्थी की इससे अलग छवि नहीं है। …तो भी मैं अपने ब्लॉग पर लगातार लिखता रहा और अविनाश उन्हें शायद कभी-कभार पढ़ते रहे होंगे। *मोहल्ला को लेकर* क्रेज उसमें छपी सामग्री को लेकर तो था ही, हम जैसे लोगों के बीच एक और भी उत्‍साह था कि किसके ब्लॉग का लिंक मोहल्ला पर लगा है। ऐसा करके मोहल्ला हिंदी के बेहतरीन ब्लॉग की सूची तो बना ही रहा था, पाठकों को एकमुश्त मतलब के जरूरी ब्लॉगों से परिचय करा ही रहा था, लेकिन इससे भी ज्यादा कि वो अपनी तरफ से एक तरह की मान्यता प्रदान कर रहा था कि हजारों ब्लॉगों के बीच कौन-कौन से ब्लॉग हैं, जिसे कि पढ़ा जाना चाहिए? तभी जब मोहल्ला पर मेरे ब्लॉग का लिंक अविनाश ने लगाया तो भीतर एक अलग किस्म का आत्मविश्वास और लेखक के करीब कुछ हो जाने का गुरूर पैदा हुआ। ये गुरूर किसी अखबार में छपने से रत्तीभर भी कम नहीं बल्कि ज्यादा ही था। दिमागी रूप से हम आश्वस्त हो चले थे कि हम ठीक-ठाक लिखने लगे हैं। ऐसा इसलिए कि चैनलों में कॉपी लिखते वक्त अच्छा-खराब का पैमाना बहुत ही पॉलिटिकल और स्टीरियोटाइप का होता। जिस कॉपी को एक शख्स सही कहता, वही दूसरे को कूड़ा लगता और एक खास किस्म की कुंठा अपने लिखे को लेकर पनपने लगी थी। ब्लॉग पर आकर उस कुंठा ने अपने को एक संभावना के तौर पर विकसित किया। मोहल्ला पर जाकर आज भी देखें तो जो लिंक लगे हैं, वो अपने दौर के महत्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें से कई सक्रिय भी हैं। *कुछ महीने बाद* मोहल्ला ने नियमित लेखकों की एक सूची जारी की और लिखा कि ये सब मोहल्ला के नियमित लेखक होंगे और मुझे भी मेल किया कि आपको भी इस सूची में शामिल कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि तार सप्तक में शामिल होनेवाले दिवंगत कवियों को तब कितनी खुशी मिली होगी लेकिन मोहल्ला के लेखक समुदाय में शामिल होने पर हम कल्पना कर पा रहे थे कि कैसा लगता है जब किसी को बतौर लेखक या रचनाकार माना जाने लगता है। बड़े-बड़े दिग्गज नामों के बीच मेरा भी नाम छपा था उस सूची में मोहल्ला पर और हम आज भी उस खुशी को याद करते हुए ठीक-ठीक शब्द नहीं दे पा रहे हैं। चैनल के मेरे कई दोस्त, जो कि मीडिया की नौकरी छोड़ने के बाद मुर्दा मान चुके थे, मेरा वहां नाम देखकर फोन किया था, जिसमें आश्चर्य के साथ उलाहना शामिल थे – तू इतना बड़ा आदमी बन गया, ग्रेट यार और एक बार बताया तक नहीं। *चैनल के लोगों के बीच* मोहल्ला की एक खास पहचान थी। उस दौरान मोहल्ला पर जो पोस्टें आयीं हैं, अगर उससे गुजरें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि देश के कई अखबार के संपादकीय पन्ने शर्म से डूबकर अपने को छपने से इनकार क्यों नहीं कर देते या फिर किसी अखबार ने मोहल्ला की रोज की पोस्टों को सीधे अखबार के संपादकीय पन्ने पर आउटसोर्सिंग पैटर्न पर छापना क्यों नहीं शुरू किया? अविनाश ने जब बतौर मोहल्ला लेखक मुझे घोषित कर दिया, तो मेरे भीतर पहली बार लिखने को लेकर एक तरह की जिम्मेदारी आ गयी और तब मैं दनादन पोस्टें लिखने लगा। मैंने इससे पहले कभी भी किसी अखबार या पत्रिका के लिए कोई लेख नहीं लिखे थे। नौकरी या इंटर्नशिप के दौरान जो भी जहां लिखा, उसे मैं इससे अलग मानता हूं। तभी मैं मोहल्ला को याद करता हूं, तो लगता है कि अगर हमने यहां से लिखना शुरू नहीं किया होता या इस पर लिखने का चस्का नहीं लगता, तो शायद हम अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य के तराजू से अलग हटकर इतना न लिख पाते। मेरे साथ के कई दोस्त हिंदुस्तान, भास्कर, जागरण जैसे अच्‍छा पेमेंट देनेवाले अखबारों में लिखते और मुझे भी सलाह देते कि फोकट में मोहल्ला के लिए लिखने का क्या फायदा? पोस्ट पढ़कर लगता है कि काफी मेहनत से लिखते हो, अविनाश भी मेहनत से लगाते हैं तो उसे अखबार के लिए दिया करो। कहो तो हम बात करते हैं अपने यहां। मैं हंसकर टाल देता। मेरे साथ के साहित्यकार साथी तब साहित्य की सरोकारी पत्रिकाओं में जगह कब्जाने में लगे थे और उभरते, उगते, युवा जैसे अलंकारिक उपसर्गों के साथ छपने लगे थे। हमने उधर कभी तब कोशिश नहीं की थी लेकिन मोहल्ला पर लिखने की गति जारी थी। *हमने अखबारों या पत्रिकाओं में* अलग से लिखने में सिर नहीं खपाया क्योंकि मेरे लिए एक बार लिखे को दोबारा संशोधित करके लिखना लगभग असंभव है। मोहल्ला पर हम जो भी लिखते, वो अविनाश के गंभीर संपादन के बाद छप जाता और हम खुश हो लेते। लिखकर पैसा कमाने की नीयत शुरू से नहीं रही। दो-चार बार ऑफिसों या सेमिनारों में अपने अखबारी, सरोकारी और साहित्यिक लेखक साथियों के साथ गया और उन्होंने जब मेरा परिचय कराना शुरू किया तो इसके पहले उन्होंने ही कहा – अरे, इनको बहुत अच्छे से जानता हूं… या फिर मोहल्ला में लिखते हैं ये, कौन नहीं जानता। बाद में कुछ लोगों ने मेरे बारे में बताते हुए सम्मान से जोड़ना शुरू किया – ये मोहल्ला में लिखता है। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive *[ आगे भी जारी... ]* ** * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Fri May 27 09:32:59 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Fri, 27 May 2011 09:32:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSyIOCkleCkviDgpLngpYHgpIYg4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy?= =?utf-8?b?4KS+bGl2ZQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: हमने सिर्फ डिस्‍क्‍लेमर पढ़ा... वो काफी सच है। शुक्रिया 2011/5/27 vineet kumar > *♦ विनीत कुमार* > > *डिस्‍क्‍लेमर : संस्मरण के तौर पर मोहल्ला लाइव के दो साल पूरे होने पर जो > लिख रहा हूं, उसके पीछे मोहल्ला या अविनाश की कोई प्रशस्तिगाथा या उसके बहाने > अपने को चमकाने की नीयत नहीं है। ध्येय है तो बस इतना कि कुकुरमुत्ते की तरह हर > दस मिनट में मौज में आकर ब्लॉग बनने और फिर कुछ ही दिनों बाद उत्साह खत्म हो > जाने की स्थिति में उसके मर जाने के बीच कैसे मोहल्ला ने अपनी एक अलग पहचान > बनायी, सैकड़ों लोगों को ब्लॉग लेखन की तरफ प्रेरित किया और लोगों ने इसके > जरिये ब्लॉग को जाना, इसे रेखांकित करना है। मेरी जगह कोई दूसरा चाहे तो वो > मोहल्ला को लेकर तटस्थ इतिहास जरूर लिखे लेकिन मैंने लेखन की दुनिया में इसके > जरिये अपने को लगातार सक्रिय किया है तो माफ कीजिएगा, भावुकता को त्यागकर मैं > इसके बारे में नहीं लिख सकता इसलिए मोहल्ला के बारे में मेरे लिए लिखना संस्मरण > का हिस्सा होगा, इतिहास का नहीं। आपको पूरी छूट है कि आप मेरी भावना के बीच > तर्कों की चिमनी लगाकर इसके पक्षों की ठोक-पीट करें लेकिन इस तर्क पर मैं आगे > भी लिखूंगा कि भावुकता पर अधिकार सिर्फ कवियों का नहीं है, एक ब्लॉगर भी > यदा-कदा भावुक हो सकता है : विनीत कुमार* > > > > मोहल्ला लाइव को मैं थोड़ा फ्लैशबैक में ले जाकर देखना चाहता हूं, जिससे कि > मुझे अपने अनुभव और भावनात्मक लगाव के बारे में कहने का दायरा बढ़ सके। सच > पूछिए तो उस फ्लैशबैक के बिना मोहल्ला लाइव को मैं याद ही नहीं रख सकता और न > मेरे से याद किया जा सकेगा। > > *साल 2006-07 के* कथादेश सम्मान में मेरे बचपन के साथी और अब युवा आलोचक > राहुल (कार्यालयी नाम राहुल सिंह है) ने मंडी हाउस में मेरा परिचय अविनाश से > कराया। अविनाश तब एनडीटीवी में थे। राहुल ने मेरे बारे में उन्हें जो कुछ भी > बताया, उसके पीछे उसकी सदिच्छा इतनी भर थी कि अविनाश के लिए अगर संभव हो सके, > तो वो मेरे लिए कहीं इंटर्नशिप के बारे में बात करें, कुछ सहयोग करें। अविनाश > के लिए मैं कोई पहला मीडिया न्यूकमर नहीं था, जिसे लेकर वो बहुत सीरियस होते और > वैसे भी मीडिया के भीतर का ढांचा इतना बदल चुका है कि चैनल के जिन चेहरों को हम > तोप समझते हैं, उनके लिए अपनी नौकरी भी बचाये रखनी बहुत बड़ी बात है। और वैसे > भी पढ़ने-लिखने और अलग तरीके से सोचनेवाले लोग इस तरह की बातों पर कम ही ध्यान > देते हैं। खैर, अविनाश ने तब मुझसे सिर्फ इतना ही कहा – मोहल्ला देखिएगा कभी > मौका मिले तो। > > *मुझे अपनी कोशिश पर* इंटर्नशिप मिल गयी थी और थोड़े समय की धक्का-मुक्की, > फटेहाली के बाद मामूली ही सही नौकरी भी। मीडिया में एक तरह से रमने लगा था कि > यूजीसी जेआरएफ परीक्षा में पास हो गया और उसी दिन ये साफ हो गया कि पांच साल तक > दिल्ली में रहने-खाने और अपने मन की लिखने की कोई समस्या नहीं होने जा रही है। > चैनल की नौकरी छोड़ने में हमने बहुत वक्त नहीं लिया। लेकिन जिस दिन चैनल की > नौकरी छोड़ी थी, उसकी अगली सुबह पांच बजे उठते हुए बहुत अजीब महसूस कर रहा था। > एक खास किस्म का खालीपन और बेरोजगारी भी। जब तक सारी चीजें प्रोसेस नहीं होती, > पैसे मिलने की निश्चिंतता के बावजूद एक किस्म का निकम्मापन तो था ही। मैंने ठीक > उसी सुबह मोहल्ला को पहली बार खोला था। उत्साह में उस पर दिनभर समय दिया और > अगली सुबह तय किया कि मुझे भी अपना ब्लॉग बनाना चाहिए। मन में एक हुलस थी कि > मोहल्ला पर मेरा भी कुछ लिखा आये लेकिन तब वहां इतने बड़े-बड़े दिग्गजों के नाम > होते थे कि ऐसा सोचना अश्लील होता। > > *चैनल की नौकरी ने* अपनी औकात को बहुत कमतर करके देखने की आदत डाल दी थी, > नहीं तो हिंदू कॉलेज से एम ए और डीयू से एम फिल किया कोई शख्स इतनी समझ और > हौसला तो रखता ही है कि वो खुलकर एक बेहतर मंच पर अपनी बात रख सके। बहरहाल, > अगली सुबह हमने अपना ब्लॉग बनाया। अविनाश से हम जैसे लोगों का संपर्क करने का > बस एक ही जरिया था – मोहल्ला की वॉल पर राइट हैंड साइड में ब्लू रंग का एक चैट > बॉक्स हुआ करता था। अविनाश से हम जैसे न्यूकमर को बात करनी होती थी, तो वहां वो > अपना मोबाइल नंबर या मेल आइडी छोड़ देते और बाद में अविनाश फोन या मेल से या तो > उनसे संपर्क करते या फिर वहीं बक्से में जवाब देते। हंसिएगा मत प्लीज, जब पहली > बार बतौर मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश ने उस चैट बॉक्स पर जवाब देते हुए लिखा था > कि आप अपना नंबर दीजिए तो यकीन मानिए मैं घंटों नशे में झूमता रहा। मैंने बाद > में बात की और कहा कि मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया है और चाहता हूं कि हिंदी समाज > के भीतर की सडांध को सामने लाऊं। अविनाश को मेरी ये बात जज्बाती लगी होगी और > मुझे हिंदी विभाग का जानकर राय दी कि सड़ांध क्या, आप कुछ क्षणिकाएं ही लिखिए > तो हिंदी समाज को कुछ आनंद मिल सके। मुझे तब थोड़ा बुरा भी लगा था लेकिन इस देश > में एक औसत हिंदी के विद्यार्थी की इससे अलग छवि नहीं है। …तो भी मैं अपने > ब्लॉग पर लगातार लिखता रहा और अविनाश उन्हें शायद कभी-कभार पढ़ते रहे होंगे। > > *मोहल्ला को लेकर* क्रेज उसमें छपी सामग्री को लेकर तो था ही, हम जैसे लोगों > के बीच एक और भी उत्‍साह था कि किसके ब्लॉग का लिंक मोहल्ला पर लगा है। ऐसा > करके मोहल्ला हिंदी के बेहतरीन ब्लॉग की सूची तो बना ही रहा था, पाठकों को > एकमुश्त मतलब के जरूरी ब्लॉगों से परिचय करा ही रहा था, लेकिन इससे भी ज्यादा > कि वो अपनी तरफ से एक तरह की मान्यता प्रदान कर रहा था कि हजारों ब्लॉगों के > बीच कौन-कौन से ब्लॉग हैं, जिसे कि पढ़ा जाना चाहिए? तभी जब मोहल्ला पर मेरे > ब्लॉग का लिंक अविनाश ने लगाया तो भीतर एक अलग किस्म का आत्मविश्वास और लेखक के > करीब कुछ हो जाने का गुरूर पैदा हुआ। ये गुरूर किसी अखबार में छपने से रत्तीभर > भी कम नहीं बल्कि ज्यादा ही था। दिमागी रूप से हम आश्वस्त हो चले थे कि हम > ठीक-ठाक लिखने लगे हैं। ऐसा इसलिए कि चैनलों में कॉपी लिखते वक्त अच्छा-खराब का > पैमाना बहुत ही पॉलिटिकल और स्टीरियोटाइप का होता। जिस कॉपी को एक शख्स सही > कहता, वही दूसरे को कूड़ा लगता और एक खास किस्म की कुंठा अपने लिखे को लेकर > पनपने लगी थी। ब्लॉग पर आकर उस कुंठा ने अपने को एक संभावना के तौर पर विकसित > किया। मोहल्ला पर जाकर आज भी देखें तो जो लिंक लगे हैं, वो अपने दौर के > महत्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें से कई सक्रिय भी हैं। > > *कुछ महीने बाद* मोहल्ला ने नियमित लेखकों की एक सूची जारी की और लिखा कि ये > सब मोहल्ला के नियमित लेखक होंगे और मुझे भी मेल किया कि आपको भी इस सूची में > शामिल कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि तार सप्तक में शामिल होनेवाले दिवंगत > कवियों को तब कितनी खुशी मिली होगी लेकिन मोहल्ला के लेखक समुदाय में शामिल > होने पर हम कल्पना कर पा रहे थे कि कैसा लगता है जब किसी को बतौर लेखक या > रचनाकार माना जाने लगता है। बड़े-बड़े दिग्गज नामों के बीच मेरा भी नाम छपा था > उस सूची में मोहल्ला पर और हम आज भी उस खुशी को याद करते हुए ठीक-ठीक शब्द नहीं > दे पा रहे हैं। चैनल के मेरे कई दोस्त, जो कि मीडिया की नौकरी छोड़ने के बाद > मुर्दा मान चुके थे, मेरा वहां नाम देखकर फोन किया था, जिसमें आश्चर्य के साथ > उलाहना शामिल थे – तू इतना बड़ा आदमी बन गया, ग्रेट यार और एक बार बताया तक > नहीं। > > *चैनल के लोगों के बीच* मोहल्ला की एक खास पहचान थी। उस दौरान मोहल्ला पर जो > पोस्टें आयीं हैं, अगर उससे गुजरें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि देश के कई अखबार > के संपादकीय पन्ने शर्म से डूबकर अपने को छपने से इनकार क्यों नहीं कर देते या > फिर किसी अखबार ने मोहल्ला की रोज की पोस्टों को सीधे अखबार के संपादकीय पन्ने > पर आउटसोर्सिंग पैटर्न पर छापना क्यों नहीं शुरू किया? अविनाश ने जब बतौर > मोहल्ला लेखक मुझे घोषित कर दिया, तो मेरे भीतर पहली बार लिखने को लेकर एक तरह > की जिम्मेदारी आ गयी और तब मैं दनादन पोस्टें लिखने लगा। मैंने इससे पहले कभी > भी किसी अखबार या पत्रिका के लिए कोई लेख नहीं लिखे थे। नौकरी या इंटर्नशिप के > दौरान जो भी जहां लिखा, उसे मैं इससे अलग मानता हूं। तभी मैं मोहल्ला को याद > करता हूं, तो लगता है कि अगर हमने यहां से लिखना शुरू नहीं किया होता या इस पर > लिखने का चस्का नहीं लगता, तो शायद हम अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य के तराजू से अलग > हटकर इतना न लिख पाते। मेरे साथ के कई दोस्त हिंदुस्तान, भास्कर, जागरण जैसे > अच्‍छा पेमेंट देनेवाले अखबारों में लिखते और मुझे भी सलाह देते कि फोकट में > मोहल्ला के लिए लिखने का क्या फायदा? पोस्ट पढ़कर लगता है कि काफी मेहनत से > लिखते हो, अविनाश भी मेहनत से लगाते हैं तो उसे अखबार के लिए दिया करो। कहो तो > हम बात करते हैं अपने यहां। मैं हंसकर टाल देता। मेरे साथ के साहित्यकार साथी > तब साहित्य की सरोकारी पत्रिकाओं में जगह कब्जाने में लगे थे और उभरते, उगते, > युवा जैसे अलंकारिक उपसर्गों के साथ छपने लगे थे। हमने उधर कभी तब कोशिश नहीं > की थी लेकिन मोहल्ला पर लिखने की गति जारी थी। > > *हमने अखबारों या पत्रिकाओं में* अलग से लिखने में सिर नहीं खपाया क्योंकि > मेरे लिए एक बार लिखे को दोबारा संशोधित करके लिखना लगभग असंभव है। मोहल्ला पर > हम जो भी लिखते, वो अविनाश के गंभीर संपादन के बाद छप जाता और हम खुश हो लेते। > लिखकर पैसा कमाने की नीयत शुरू से नहीं रही। दो-चार बार ऑफिसों या सेमिनारों > में अपने अखबारी, सरोकारी और साहित्यिक लेखक साथियों के साथ गया और उन्होंने जब > मेरा परिचय कराना शुरू किया तो इसके पहले उन्होंने ही कहा – अरे, इनको बहुत > अच्छे से जानता हूं… या फिर मोहल्ला में लिखते हैं ये, कौन नहीं जानता। बाद में > कुछ लोगों ने मेरे बारे में बताते हुए सम्मान से जोड़ना शुरू किया – ये मोहल्ला > में लिखता है। > > मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive > > *[ आगे भी जारी... ]* > > > ** > > * > * > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri May 27 10:18:38 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 27 May 2011 10:18:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+4KSy4KS+4KSH4KS1IOCkleClhyDgpKbgpYsg4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSyLCDgpKbgpYLgpLjgpLDgpYAg4KSV4KS/4KS44KWN4KSk?= Message-ID: *मोहल्‍ला लाइव के दो साल होने पर लिखी विनीत की पोस्‍ट की यह दूसरी और आखिरी कड़ी है। कल उन्‍होंने पहली पोस्‍ट लिखी थी, मोहल्‍ला ब्‍लॉग… मोहल्‍ला लाइव… ये दिन, वो दिन! * नियमित अपडेट होते रहने और हाशिये की खबरों को प्रमुखता देने की वजह से मोहल्ला बड़ी तेजी से लोकप्रिय हो रहा था। अविनाश ने तब कथादेश पत्रिका में ब्लॉग पर इंटरनेट का मोहल्‍ला नाम से कॉलम लिखना शुरू कर दिया था। मोहल्ला को जैसे-जैसे और जितनी लोकप्रियता मिलती गयी, उतना ही उसके साथ विवादों का भी साथ बनता गया। इन विवादों में कई तो बहुत ही व्यक्तिगत हमले थे, आपसी कहा-सुनी और खुन्नस भी। इसके कारण कई लोगों ने मोहल्ला में लिखना छोड़ दिया लेकिन कई ऐसे विवाद इसलिए भी पैदा हुए कि कोई सपने में भी सोच नहीं सकता था कि इस तरह से उनके या संस्थान के बारे में खुलेआम बात की जा सकती है। वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय और विभूति नारायण के मामले में, वहां के पढ़ रहे छात्रों की लगातार शिकायत भरी पोस्टें, नया ज्ञानोदय विवाद ऐसे ही कुछ मसले थे। चूंकि मोहल्ला में तब कई बार चीजें बहुत ही पर्सनल तरीके से आ जातीं, उस पर कमेंट होते या कई बार पोस्टें भी तो इन बड़े मसले के आने पर भी इस बात की पूरी कोशिश की जाती कि इन्हें भी पर्सनल खुन्नस की श्रेणी में मोहल्ला विरोधी माहौल बनाया जाए। इसका अंदाजा हमें तब ज्यादा मिलता, जब हम किसी सभा-संगोष्ठियों में जाते, पुस्तक मेले में लोगों से मिलते। लोग खुलेआम कहते – अरे ये विनीत तो मोहल्ला यानी अविनाश का आदमी है… इन लोगों से बचकर रहो भइया, मोहल्ला गैंग का आदमी है। *मेरे जिस लिखने पर* लोगों के बीच मेरी एक खास किस्म की पहचान बन रही थी, वो पहचान कैसे एक हुड़दंगिये की शक्ल में तब्दील करने की कोशिश की जा रही थी, इसे मैं शिद्दत से महसूस कर रहा था। कुछ लोगों ने सुझाव भी दिया कि अगर करिअर को लेकर सचमुच सीरियस हो तो मोहल्ला का चक्कर छोड़ो, लिखना है तो अपने ब्लॉग पर लिखो। कुछ पुराने साथियों ने किनाराकशी कर ली, क्योंकि मोहल्ला उनके आकाओं की लगातार खबर ले रहा था। इन सबके बीच मेरी जहां-तहां कुछ शिकायतें भी पहुंचायी गयी, लेकिन मेरा लिखना पहले की ही तरह जारी रहा। मेरे लिखने से मेरे गाइड जिन्हें मैं मेंटर कहता हूं, कभी किसी तरह की परेशानी नहीं हुई। किसी भी लिखे पर कुछ नहीं कहा। उनके लिए कंटेंट से कहीं ज्यादा इस बात की अहमियत थी कि मेरा स्टूडेंट लिख रहा है, एक रचनात्मक काम में लगा हुआ है… तो मामला ये हुआ कि जब मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। *हां, इस बार* कुछ ऐसा जरूर हुआ कि अविनाश ने लेखकों की सूची से मुझे हटा दिया और तब मैंने बहुत ही ज्यादा सेंटी होकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखी थी – जब-तब याद आता है मोहल्ला। मुझे तब पहली बार थोड़ा झटका लगा था कि अविनाश ऐसा कैसे कर सकते हैं? बावजूद इसके मेरा मन ये मानने को तैयार नहीं था कि ये मोहल्ला अविनाश की अकेले की प्रॉपर्टी या मंच है। मोहल्ला पर लिखनेवाले तमाम लोगों की यही सबसे खास बात या अधिकार था कि वो अविनाश को हमेशा एहसास कराते रहते – सुन लो अविनाश, ये तुम मॉडरेटर की हैसियत से दिन-रात मोहल्ला पर भले ही खिटिर-पिटिर करते रहते हो, लेकिन ये तुम्हारी अकेले की चीज नहीं है। भाव कुछ ऐसा कि जहां ज्यादा दाएं-बाएं किये नहीं कि तुम्हें ही बेदखल कर देंगे। मैंने अपने तरीके का ऐसा लोकतांत्रिक मंच कभी नहीं देखा, इमोशनल होकर अविनाश ने खुद कई बार इससे अपने को अलग करने की बात कही थी। बहरहाल, थोड़े-बहुत सेंटीपने, नोक-झोंक के बाद मोहल्ला पर मेरा लिखना फिर से आबाद हो गया था। *शुरुआत में मैंने* जब वर्चुअल स्पेस पर लिखना शुरू किया, तो वहां पहले से मौजूद लोगों ने गार्जियन की मुद्रा में मुझे सुंदर प्रयास, जारी रखिए, लगे रहिए टाइप के आर्शीवाद दिये थे, लेकिन जब मैं अपने ब्लॉग सहित मोहल्ला पर लगातार लिखने लगा तो देखा कि लोग असहमति के साथ-साथ ज्यादा आक्रामक होने लग गये हैं। कई बार के कमेंट तो साफ जाहिर करते कि ये पर्सनल खुन्नस और डाह में आकर लिखी गयी टिप्पणी है। तब मैं बहुत उदास और बेचैन हो जाता। हिंदी के बाकी लेखकों की तरह मैं भी तब छुई-मुई टाइप से चीजों को लेकर सोचता था। इस चक्कर में हमने कई बार विलाप की मुद्रा में हॉस्टल के लंच और डिनर तक छोड़ दिये थे। लेकिन फिर चीजों को धीरे-धीरे समझने लगा था कि जो लोग भी असहमत हो रहे हैं, वो कम से कम पढ़ तो रहे हैं और यही मेरी ताकत है। पत्रिकाओं और अखबारों में जिनके भी लेख छपते हैं, उन्हें क्या पता कि कितने लोग पढ़ते हैं – लेकिन यहां एक अनुमान तो लग ही जाता है। इस तरह मोहल्ला ने मुझे ढीठ बनाया और भीतर से एक समझदारी दी कि कुछ भी हो जाए, लिखना नहीं छोड़ना है। लोगों की कोशिशें भी होती कि ऐसा कुछ करो कि ये लिखे ही नहीं और ये आज भी जारी है लेकिन लिखते-लिखते हमारी खाल मोटी होती चली गयी और अच्छी बात कि हमने कभी लिखना नहीं छोड़ा। सदमे में आकर खाना छोड़ना बंद कर दिया था। *पहले एनडीटीवी और* बाद में दैनिक भास्कर की नौकरी छोड़ने के बाद अविनाश ने फैसला लिया था कि अब मोहल्ला को एक वेबसाइट की शक्ल देंगे और इसे एक भविष्य के तौर पर विकसित करेंगे। उनके इस फैसले से हम जैसे जबरदस्ती का शुद्धतावादी बने फिरनेवालों को थोड़ी हैरानी भी हुई थी। हमें तब लगा था कि लिखने के लिए लिखनेवाले मंच को वेबसाइट की शक्ल देना सही नहीं होगा। हम इस बात को लेकर भी आशंकित थे कि तब इसकी धार भोथरी होती चली जाएगा। ऐसा इसलिए कि हम अपनी आंखों के सामने कई ऐसे ब्लॉग को देख रहे थे कि जो थोड़ी सी हिट्स या पॉपुलरिटी के बाद जैसे ही वेबसाइट की तरफ बढ़ते, चर्चा से बाहर हो जाते। मानसिक तौर पर लोग मान लेते कि अब इसकी क्या बात करें, ये तो धंधे-पानी में जुट गया है। साल 2008-09 में ये जबरदस्त दौर रहा, जब ब्लॉग ने तेजी से वेबसाइट की शक्ल ली और उतनी ही तेजी से उनकी लोकप्रियता खत्म होती चली गयी। हमने अविनाश से कहा तो कुछ नहीं लेकिन संकेत जरूर दिया था कि इसकी धार खत्म होने की स्थिति में हम जैसे लोगों को गहरी आपत्ति होगी। वेबसाइट बनाने को लेकर तब अविनाश सक्रिय हो चुके थे और उनके सामने एक स्पष्ट समझ थी कि उन्हें करना क्या है? इसी बीच मैं लंबे समय के लिए घर चला गया। *करीब महीने भर बाद* आकर जब मैंने जीमेल खोला, तो देखा कि अविनाश ने एक लिंक मेल किया है – mohallalive.com। मैंने तुरंत ही उसे चटकाया। देखकर दंग रह गया, क्या जोरदार साइट लगी। एकदम साफ-सुथरी और लगा कि किसी अखबार का संपादकीय पन्ना वेब संस्करण में हमारे सामने है। मिहिर की क्रिकेट पर एक के बाद एक पोस्टें चमक रही थी, अब्राहम हिंदीवाला ने सिनेमा पर मोर्चा थाम लिया था, दिलीप मंडल सामाजिक और जातिगत संरचना पर जारी थे और लग रहा था कि लेखकों की एक व्यवस्थित टीम इसके पीछे काम कर रही है। मोहल्ला के साथ लाइव अलग लगाने पर थोड़ा मैं रुका था क्योंकि मोहल्ला तो वैसे भी लाइव ही होता है तो फिर इसमें अलग से चैनलों की तरह लाइव लगाने की जरूरत क्या थी? और इससे असहमत होने के पीछे लाइव इंडिया न्यूज चैनल को लेकर मेरे सड़ियल अनुभव ज्यादा हावी तरीके से काम कर रहे थे। बहरहाल, मोहल्ला के साथ अलग से लाइव जोड़कर बोलने में हमें थोड़ा वक्त लगा लेकिन बोलते-बोलते ये नाम भी जुबान पर चढ़ गया। अविनाश ने पहले की तरह यहां भी लिखने का न्योता मुझे दे दिया था। और साइट देखकर ही मैंने मन बना लिया था कि इस पर तो जोरदार तरीके से लिखना है मुझे। *वेबसाइट बनने के बाद* अविनाश ने कंटेंट के साथ कोई समझौता नहीं किया था जैसा कि बाकी लोगों के साथ मुझे आशंका हुई थी। फिर भी, मोहल्ला लाइव पर किसी की तारीफ में कुछ आ जाता तो हमलोग तैनात हो जाते। दबाकर उससे असहमति दर्ज करते और दो-चार बार तो जब अविनाश ने ही पोस्ट लिखी और लगा कि कहीं प्रोमोशन तो नहीं कर रहे तो इस नीयत से लंबे कमेंट किये कि कल इसे भी पोस्ट की शक्ल में प्रकाशित करेंगे। बाबूलाल मरांडी को लेकर उनकी लिखी पोस्ट के साथ मैंने यही किया था। खैर, एक साल के बाद अविनाश ने लोगों से अपील की थी कि मोहल्ला लाइव को आगे चलाना संभव नहीं हो सकेगा क्योंकि इसे चलाने के लिए जिस न्यूनतम धन की जरूरत है, वो मोहल्ला लाइव के पास नहीं है। उसी दौरान कुछ लोगों को व्यक्तिगत मेल किये थे कि आप कुछ सहयोग करें। अविनाश ने जिस मामूली रकम के सहयोग की मांग की थी, वो ऐसी बेहतरीन वेबसाइट को बचाये रखने के लिए कुछ भी नहीं था। लोगों ने मदद भी की लेकिन आगे के लिए वो काफी नहीं था। लिहाजा एक बार फिर सार्वजनिक तौर पर पोस्ट लगायी कि आप जैसे बाकी चीजों और पाठ्य सामग्री पर कुछ पैसे खर्च करते हैं, वैसे ही मोहल्ला के लिए सौ रुपये महीने में दें। उत्साह में कई लोगों के रिस्पांस आये लेकिन उस अनुपात में शायद रकम नहीं आयी होगी। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि उसके बाद भी साइट पर दो-तीन बार सहयोग के लिए मेल जारी किये गये। इस मेल को पढ़ते हुए अक्सर एक बात मेरे दिमाग में आती कि लोग कहते हैं हिंदी में बेहतर पढ़ने के लिए कुछ भी नहीं है, मीडिया पूरी तरह कॉर्पोरेट की जूती बनकर रह गया है, जिससे कि तटस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती, ऐसे में कोई शख्स सहयोग राशि के पैटर्न पर एक मंच बनाये रखना चाह रहा है, लोग उसे भी सहयोग करने के लिए तैयार नहीं हैं। मोहल्ला लाइव के जब-जब बंद या अनियमित होने की हालत देखता, तो मन बहुत कचोटता। लगता, ऐसा क्या करें, कौन सी तरकीब भिड़ाएं कि वो बना रहे। *इसी दौरान* कोशिश और योजना बनाकर मोहल्ला लाइव की जो तासीर है, उसे बरकरार रखते हुए बहसतलब कराने की योजना बनी। इस काम में पेंगुइन यात्रा बुक्स और जनतंत्र का सहयोग था। ये सेमिनार की नीरसता और हड़बड़ी में होनेवाले टेलीविजन के बीच की अचर-पचर पैनल डिस्कशन से अलग की चीज थी। लोग उसी बेबाक तरीके से वक्ताओं से सवाल-जवाब करते जैसा कि मोहल्ला लाइव पर बेरहमी से कमेंट किया करते। ऐसे किसी भी वक्ता को कम तरजीह दी जाती जो कि सवालों को दिल पर ले लेते। सबके सब बेबाक और बिंदास अंदाज में अपनी बात रखनेवाले लोग। वर्चुअल स्पेस की मारकाट और बहसबाजी को हम साक्षात मंचों पर होते देख रहे थे। बहसतलब ने मोहल्ला लाइव को न केवल बहुत लोकप्रिय बनाया बल्कि इसके दायरे का बहुत आगे तक विस्तार हुआ। बहसतलब के जो कार्यक्रम होते, उसकी लंबी-लंबी रिपोर्ट साइट पर लगती और जो कोर-कसर वहां रह जाती, यहां आकर नये सिरे से बहस खड़ी करती। मुझे याद है कि दिलीप मंडल ने जब अनुराग कश्यप से सिनेमा के भीतर की जातिगत संरचना को लेकर सवाल किये थे, तो कुछ लोगों ने हो-हो करके उन सवालों को कमतर करने की कोशिश की थी और कुछ लोग अनुराग कश्यप के व्यक्तित्व से जरूरत से ज्यादा प्रभावित होकर समर्थन करने लग गये थे लेकिन वही बहस जब मोहल्ला लाइव पर दोबारा से आयी, तो गंभीरता से सिनेमा और उसके भीतर की विडंबनाओं को लेकर सीरीज चली। मोहल्ला लाइव के ठीक हेडर के साइड में फिर तो कार्यक्रमों का फ्लैश लगातार चलता रहता। कुछ न कुछ होता ही रहता, जिसमें कि दो दिनों का सिनेमा पर बहसतलब याद करने लायक चीज है। *अपने आर्थिक मोर्चे पर* सुस्त होते हुए भी कंटेंट और प्रभाव के स्तर पर वो लगातार तेजी से बढ़ रहा था। खास बात ये कि तमाम आलोचनाओं के बाद भी मोहल्ला लाइव पर एक नजर मारना लोगों की मजबूरी और आदत बनती चली गयी और बीच में जब दो-चार दिनों के लिए साइट पर कोई अपडेट नहीं होता, तो हम जैसे लोग अधीर हो उठते। *सिनेमा पर बहसतलब के बाद* मोहल्ला लाइव की सिनेमा की दुनिया के लोगों पर पकड़ बननी शुरू हुई। उस पर सिनेमा और उसकी कोशिशों में लगे लोगों की बातें पहले के मुकाबले ज्यादा आने लगी और जो मोहल्ला ब्लॉग कैसेट युग की पत्रकारिता के पैटर्न और सोच पर चल रहा था कि सिर्फ राजनीतिक-सामाजिक खबरें ही पत्रकारिता है, उसका विस्तार मनोरंजन, सिनेमा और सांस्कृतिक उद्योग की तरफ होने लगा। कुछ फिल्मों को लेकर जो चर्चाएं यहां चली वो पहली बार या विस्तार से थी। इस बीच अविनाश का मोहल्ला लाइव को बचाये रखने और अपने लिए भी कुछ ठोस इंतजाम करने की जद्दोजहद चलती रही। सब्सक्रिप्शन से पैसे जुटाने का तरीका नाकाम हो गया। शायद हिंदी समाज इस बात के लिए तैयार नहीं है कि वेब पर कुछ पढ़ने के लिए पैसे दिये जाने चाहिए। ऐसे में मोहल्ला लाइव को लंबे समय तक बने रहने के लिए विज्ञापन और कुछ हद तक व्यक्तिगत सहयोग के अलावे कोई दूसरा उपाय नजर नहीं आता है। *दो साल होने पर* आज जब मैं मोहल्ला लाइव की वेबसाइट खोलता हूं तो देखता हूं कि 15 जून को नीलेश मिश्रा का बैंड कंसर्ट है, जिसका सहयोगी पार्टनर इंडिया हैबिटेट सेंटर, एचएमवी म्‍युजिक कंपनी और रेडियो मिर्ची है। इसे मैं अपने उसी आदिम शुद्धतावादी नजरिये से देखूं, तो लगता है कि मोहल्ला लाइव ने बाजार का रुख कर लिया है – लेकिन व्यावहारिक नजरिये से देखूं तो लगता है कि कुछ बेचैनी और पत्रकारिता के लगातार मरने की घबराहट के बीच अविनाश ने जिस मोहल्ला/मोहल्ला लाइव की शुरुआत की, जो मॉडल तैयार किया, वो अपने मोर्चे पर सफल हो गया है। मोहल्ला को आगे चलकर ऐसा ही होना चाहिए था, जो जिंदा रहने के लिए अपने फेफेड़े से सांस ले सके, बाजार उसमें थोड़ी हवा भरने का काम करे, बस। मन में पहले की तरह ये सवाल नहीं उठता कि मोहल्ला लाइव ने इन संस्थानों से सहयोग लिया है, तो कहीं इनके बारे में खबरें प्रकाशित नहीं हो सकेगी। हम उसी यकीन के साथ रेडियो मिर्ची और एचएमवी से असहमति जताते हुए पोस्टें लिखा करेंगे, जितना अधिकार और ठसक से पिछले चार सालों से लिखते आये हैं। एक लेखक के लिए, एक ऐसे मंच को लेकर इससे मजबूत धारणा और क्या हो सकती है जहां से उसने लिखना शुरू किया, लोगों ने पढ़ना और जानना शुरू किया और जिसके भीतर ये आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वो कुछ नहीं तो लिखकर जिंदा रहेगा या जिंदा रहने के लिए लिखता रहेगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri May 27 11:36:36 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 26 May 2011 23:06:36 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KS+4KSy?= =?utf-8?b?LCDgpK3gpYHgpJbgpK7gpLDgpYAg4KSH4KS4IOCkpuClh+CktiDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkleCkiCDgpLjgpK7gpYHgpKbgpL7gpK/gpYvgpIIg4KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCknOClgOCkteCkqOCkuOCkvuCkpeClgCDgpLngpYg=?= In-Reply-To: References: Message-ID: जब *विनायक सेन* से बातचीत हुई थी, वे पीयूसीएल के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली आये थे। उस वक्त तक योजना आयोग के स्वास्थ संबंधी समिति में उनके सदस्य बनने की घोषणा नहीं हुई थी। इसलिए उस मुद्दे पर कोई सवाल यहां शामिल नहीं है। उनसे चितरंजन पार्क स्थित एक घर में लंबी बातचीत हुई। बातचीत के कुछ अंश। अकाल, भुखमरी इस देश में कई समुदायों की जीवनसाथी है -- आशीष कुमार 'अंशु' -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri May 27 11:36:36 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 26 May 2011 23:06:36 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KS+4KSy?= =?utf-8?b?LCDgpK3gpYHgpJbgpK7gpLDgpYAg4KSH4KS4IOCkpuClh+CktiDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkleCkiCDgpLjgpK7gpYHgpKbgpL7gpK/gpYvgpIIg4KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCknOClgOCkteCkqOCkuOCkvuCkpeClgCDgpLngpYg=?= In-Reply-To: References: Message-ID: जब *विनायक सेन* से बातचीत हुई थी, वे पीयूसीएल के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली आये थे। उस वक्त तक योजना आयोग के स्वास्थ संबंधी समिति में उनके सदस्य बनने की घोषणा नहीं हुई थी। इसलिए उस मुद्दे पर कोई सवाल यहां शामिल नहीं है। उनसे चितरंजन पार्क स्थित एक घर में लंबी बातचीत हुई। बातचीत के कुछ अंश। अकाल, भुखमरी इस देश में कई समुदायों की जीवनसाथी है -- आशीष कुमार 'अंशु' -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From naiazadi at gmail.com Mon May 2 14:56:58 2011 From: naiazadi at gmail.com (Nai Azadi) Date: Mon, 02 May 2011 09:26:58 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Ganga_Waterkeeper_?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KS+4KSv4KSq4KS+4KSy4KS/4KSV4KS+IOCkleClgCA=?= =?utf-8?b?4KSa4KWM4KSW4KSfIOCkquCksCDgpJfgpILgpJfgpL4t4KSt4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSk?= Message-ID: न्यायपालिका की चौखट पर गंगा-भक्त Author: शिराज केसर *गंगा में खनन को रोकने के लिए पिछले तीन-चार सालों के अंदर ही लंबे अनशन के कारण मातृसदन के संत निगमानंद अनंतबेला में पहुंच चुके हैं। वैसे तो संत का अंत नहीं होता, संत देह मुक्त होकर अनंत हो जाता है। *हरिद्वार की भूमि पर हजारों संतों, मठों, आश्रमों, शक्तिपीठों के वैभव का प्रदर्शन तो हम आये दिन देखते रहते हैं। पर हरिद्वार के मातृसदन के संत निगमानंद के आत्मोत्सर्ग की सादगी का वैभव हम देख रहे हैं। देश की स्वाभिमानी पीढ़ी तक शायद यह खबर भी नहीं है कि गंगा के लिए एक संत 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन करता है जिसकी वजह से न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर का शिकार होता है। और अब 19 फरवरी से शुरू हुआ उनका आमरण अनशन 27 अप्रैल को पुलिस हिरासत से पूरा होता है। संत निगमानंद ने घोषणा की थी कि अगर उनकी मांगे न मान करके सरकार अगर जबर्दस्ती खिलाने की कोशिश करती है, तो वो आजीवन मुंह से अन्न नहीं ग्रहण नहीं करेंगे। *संत निगमानंद: *नैनीताल उच्च न्यायालय की भ्रष्टाचार के खिलाफ 68 दिन से अनशन पर बैठे संत निगमानंद अब कोमा में पहुंचेऐसी धारणा बनती जा रही है कि बेलगाम सरकारों और आपराधिक राजनैतिक तंत्र पर लगाम न्यायपालिका ही लगा पा रही है। पर आम लोगों का बड़ा तबका न्यायपालिका से शायद ही कोई उम्मीद करता है। गरीब आदमी तो वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकता, वह न्याय से वंचित रह जाता है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुडे हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। देश अब एक नए तरह के नेक्सस नेता-माफिया-अधिकारी-न्यायपालिका का शिकार हो रहा है। मातृसदन, कनखल, जगजीतपुर, हरिद्वार; यह पता है उन लोगों का जिन्होंने हरिद्वार में बह रही गंगा और उसके सुन्दर तटों और द्वीपों के विनाश को रोकने के लिए पिछले 12 सालों से अपनी जान की बाजी लगा रखी है। मातृसदन के कुलगुरु संत शिवानंद हैं। संत शिवानंद को गंगा से बेहद प्यार है। वे सच्चे अर्थों में गंगा भक्त हैं, और सच्चे अर्थों में पर्यावरणविद् योद्धा संत हैं। मातृसदन और उनके संतों का खरेपन का ही परिणाम था कि प्रो. जीडी अग्रवाल ने भागीरथी-गंगा में अविरल प्रवाह के लिए अनशन के लिए मातृसदन को चुना। संत शिवानंद के शिष्य स्वामी यजनानंद 28 जनवरी से अनशन पर बैठे। उनकी तबीयत बिगड़ने के बाद स्वामी निगमानंद 19 फरवरी 2011 को उत्तराखंड के नैनीताल उच्चन्यायालय के खिलाफ अनशन पर बैठे। उनके अनशन के 68 दिनों के बाद 27 अप्रैल 2011 को पुलिस ने उनको उठा लिया। इतने लम्बे अनशन की वजह से अब उनको आंखों से दिखना बंद हो गया है, अब सुनाई कम पड़ता है और वे बोल नहीं पाते। स्वामी निगमानंद के गिरफ्तारी के बाद फिर से स्वामी यजनानंद ने अनशन जारी रखा है। नैनीताल उच्चन्यायालय के दो जज तरुण अग्रवाल और बी.एस वर्मा को संत शिवानंद और उनके गुरुकुल के लोग खननमाफिया का सहयोगी मानते हैं। संत शिवानंद का कहना है कि गंगा में अनियंत्रित खनन को रोकने के लिए दिए गए उत्तराखंड सरकार के आदेश पर इन जजों ने *‘स्टे आर्डर’* दिया है। Read More सिराज केसर मो- 9211530510 hindi.indiawaterportal.org http://twitter.com/hindiwater http://groups.google.com/group/hindiwater -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sandeep.samwad at gmail.com Wed May 4 01:27:24 2011 From: sandeep.samwad at gmail.com (Sandeep) Date: Tue, 03 May 2011 19:57:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCkv+CkqCDgpLLgpL7gpKbgpYfgpKgg4KSV4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KS44KSw4KWAIOCkruCljOCkpDog4KSP4KSVIOCkqOCkvuCknw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleClgCDgpJfgpILgpKc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: PUCL ने की मजदूरों पर फायरिंग की उच्चस्तरीय जांच की मांग Posted by मीडिया चार्जशीट on May 3, 2011 in मानवाधिकार | 0 comments *गोरखपुर में मजदूरों पर हुई फायरिंग की उच्चस्तरीय जांच हो- PUCL* लखनऊ 3 मई 2011/ मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने गोरखपुर के औद्योगिक क्षेत्र बरगदवां में अंकुर उद्योग पर आज मजदूरों पर कम्पनी के गुंडों द्वारा की गई गोलबारी की कड़ी निंदा करते हुए कम्पनी के मालिक अशोक जालान समेत उसके गुंडों को तत्काल गिरफ्तार करने की मांग की। पीयूसीएल का कहना है कि गोरखपुर प्रशासन और स्थानीय सांसद योगी आदित्यनाथ मजदूर आंदोलन को बाहरी लोगों द्वारा भड़काने का आरोप लगातार लगाते हुए मजदूर आंदोलन को तोडंने की हर संभव कोशिश करते रहे हैं। ऐसे में इस पूरी घटना की उच्चस्तरीय जांच करवाई जाय। PUCL के प्रदेश संगठन सचिव राजीव यादव और शाहनवाज आलम ने कहा कि आज जिस तरह घटना के बाद मजदूर संगठन गोरखपुर के कमिश्नर के रवींद्र नायक से मिलने गए तो मजदूरों के नेता प्रशांत और तपिश से कमिश्नर ने उन पर बाहरी और मजदूरों को भडकाने का आरोप लगाया तो ऐसे में मजदूरों पर हुई इस गोलीबारी में प्रशासन की संलिप्तता उजागर होती है कि उसे गोलीबारी में घायल हुए मजदूरों से ज्यादा कम्पनी के खिलाफ चल रहे आंदोलन की चिंता है। पिछली एक मई को भी अखबारों में आए बयानों में कमिश्नर के रवीन्द्र नायक ने मजदूर नेता प्रशांत, प्रमोद और तपिश पर कड़ी कार्यवाई करने जैसे बयान दिए थे। PUCL नेता राजीव यादव और शाहनवाज आलम ने कहा कि बाहरी और माओवाद का ठप्पा लगाकर स्थानीय सांसद और प्रशासन की मिलीभगत से मजदूर आंदोलनों को गोरखपुर में लगातार दबाया जा रहा है। अभी पिछले 10 अपै्रल को भी इसी तरह पुलिस ने बिगुल मजदूर दस्ता और टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन से जुडे़ दो मजदूर नेताओं तपीश मैन्दोला और प्रमोद कुमार को झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। इसके विरोध में थाने पर गए मजदूरों पर बुरी तरह लाठीचार्ज किया गया और थानाध्यक्ष से बात करने गए दो अन्य मजदूर नेताओं प्रशांत तथा राजू को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। दरअसल, पिछले कुछ समय से मजदूर ‘मांगपत्रक आन्दोलन-2011′ की तैयारी में गोरखपुर के मजदूरों की भागीदारी और उत्साह देखकर गोरखपुर के उद्योगपति बौखलाए हुए हैं। उद्योगपतियों और स्थानीय सांसद की शह पर लगातार मजदूरों के इस आन्दोलन के खिलाफ भड़काने की कोशिश की जा रही है और फर्जी नामों से बांटे जा रहे पर्चों-पोस्टरों के जरिए और जबानी तौर पर मजदूरों और आम जनता के बीच यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि यह आन्दोलन माओवादियों द्वारा चलाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले जब गोरखपुर के मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ने की शुरुआत की थी तभी से उद्योगपति-प्रशासन-स्थानीय सांसद का गठजोड़ उसे बदनाम करने के लिए इसी प्रकार का कुत्सा-प्रचार करता रहा है। PUCL मांग करता हैं कि मजदूरों द्वारा आज की गोलीबारी के लिए जिम्मेदार जिन चार लोगों अशोक जालान, अंकुर जालान, प्रदीप सिंह और विश्राम यादव के खिलाफ एफआईआर किया गया है उन्हें तत्काल गिरफ्तार किया जाय और प्रदेश सरकार इस गोलीबारी की घटना पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। क्योंकि मजदूर नेताओं का आरोप है कि प्रशासन ने इन चारों को अब तक गिरफ्तार नहीं किया है। 2011/5/4 reyaz-ul-haque > *ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबरें अनेक सवालों पर फिर से ध्यान खींचती हैं. > इनमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसी भी देश को दूसरे देश में > अवैध-अनैतिक-अमानवीय फौजी कार्रवाइयों का अधिकार है. ऐसे हमले के पीछे तर्क > दिया जा रहा है कि लादेन, कथित तौर पर, उन हमलों के लिए जिम्मेदार था, जिनमें 3 > हजार से अधिक लोगों की मौतें हुईं. इन हमलों और हमलावरों की वास्तविकताओं पर > किये जानेवाले मजबूत संदेहों को छोड़ भी दें तब भी अगर बेगुनाह लोगों की > हत्याओं का जिम्मेदार होना ही ऐसे हमलों के लिए वाजिब कारण है तब तो सारे > हत्यारे बुशों और ओबामाओं को सैकड़ों बार गोलियों से मारना पड़ेगा. यूनियन > कार्बाइड के मुखिया और भोपाल गैस जनसंहार में मारे गये बीसियों हजार लोगों और > दो दशकों में इसकी पीड़ा अब भी भुगत रहे लाखों लोगों के अपराधी वारेन एंडरसन को > किसने पनाह दी है ? उसे कौन बचा रहा है? 2009 से लेकर अब तक श्रीलंका में लाखों > तमिल निवासियों के कत्लेआम के दोषी राजपक्षे की मदद किसने की और अब भी उसकी पीठ > पर किसका हाथ है? विदर्भ में पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख से अधिक किसानों की > (आत्म)हत्याओं के लिए जो (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की) नीतियां जिम्मेदार > हैं, उन्हें किसने बनाया और उन्हें कौन लागू कर रहा है? इराक में पिछले दो > दशकों में प्रतिबंधों और युद्ध में जो 14 लाख 55 हजार से अधिक लोग मारे गये > हैं, उनके लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी दुनिया में लगातार युद्ध, प्रतिबंधों और > सरकारी नीतियों के जरिए लोगों की जिंदगियों में संस्थागत हिंसा घोल रही > साम्राज्यवादी नीतियां आखिर कौन लोग बनाते और थोपते हैं. अमेरिकी साम्राज्यवादी > और उसके सहयोगी देश. इनके द्वारा की गयी हत्याएं 11 सितंबर को मारे गए लोगों की > संख्या से सैकड़ों गुना अधिक हैं. इन्हें क्यों नहीं सजा मिलती? कब मिलेगी > इन्हें सजा? फिर इन्हें क्या अधिकार है दूसरों को आतंकवादी कहने और मारने का? > * > * > इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. > साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए > ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का > एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन > की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल > स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी > फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे > हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की > पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. > इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस > की पोस्ट. > हाशिया का अनुवाद. > > http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post.html > * > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sandeep.samwad at gmail.com Wed May 4 01:27:24 2011 From: sandeep.samwad at gmail.com (Sandeep) Date: Tue, 03 May 2011 19:57:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KS44KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCkv+CkqCDgpLLgpL7gpKbgpYfgpKgg4KSV4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KS44KSw4KWAIOCkruCljOCkpDog4KSP4KSVIOCkqOCkvuCknw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleClgCDgpJfgpILgpKc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: PUCL ने की मजदूरों पर फायरिंग की उच्चस्तरीय जांच की मांग Posted by मीडिया चार्जशीट on May 3, 2011 in मानवाधिकार | 0 comments *गोरखपुर में मजदूरों पर हुई फायरिंग की उच्चस्तरीय जांच हो- PUCL* लखनऊ 3 मई 2011/ मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने गोरखपुर के औद्योगिक क्षेत्र बरगदवां में अंकुर उद्योग पर आज मजदूरों पर कम्पनी के गुंडों द्वारा की गई गोलबारी की कड़ी निंदा करते हुए कम्पनी के मालिक अशोक जालान समेत उसके गुंडों को तत्काल गिरफ्तार करने की मांग की। पीयूसीएल का कहना है कि गोरखपुर प्रशासन और स्थानीय सांसद योगी आदित्यनाथ मजदूर आंदोलन को बाहरी लोगों द्वारा भड़काने का आरोप लगातार लगाते हुए मजदूर आंदोलन को तोडंने की हर संभव कोशिश करते रहे हैं। ऐसे में इस पूरी घटना की उच्चस्तरीय जांच करवाई जाय। PUCL के प्रदेश संगठन सचिव राजीव यादव और शाहनवाज आलम ने कहा कि आज जिस तरह घटना के बाद मजदूर संगठन गोरखपुर के कमिश्नर के रवींद्र नायक से मिलने गए तो मजदूरों के नेता प्रशांत और तपिश से कमिश्नर ने उन पर बाहरी और मजदूरों को भडकाने का आरोप लगाया तो ऐसे में मजदूरों पर हुई इस गोलीबारी में प्रशासन की संलिप्तता उजागर होती है कि उसे गोलीबारी में घायल हुए मजदूरों से ज्यादा कम्पनी के खिलाफ चल रहे आंदोलन की चिंता है। पिछली एक मई को भी अखबारों में आए बयानों में कमिश्नर के रवीन्द्र नायक ने मजदूर नेता प्रशांत, प्रमोद और तपिश पर कड़ी कार्यवाई करने जैसे बयान दिए थे। PUCL नेता राजीव यादव और शाहनवाज आलम ने कहा कि बाहरी और माओवाद का ठप्पा लगाकर स्थानीय सांसद और प्रशासन की मिलीभगत से मजदूर आंदोलनों को गोरखपुर में लगातार दबाया जा रहा है। अभी पिछले 10 अपै्रल को भी इसी तरह पुलिस ने बिगुल मजदूर दस्ता और टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन से जुडे़ दो मजदूर नेताओं तपीश मैन्दोला और प्रमोद कुमार को झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। इसके विरोध में थाने पर गए मजदूरों पर बुरी तरह लाठीचार्ज किया गया और थानाध्यक्ष से बात करने गए दो अन्य मजदूर नेताओं प्रशांत तथा राजू को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। दरअसल, पिछले कुछ समय से मजदूर ‘मांगपत्रक आन्दोलन-2011′ की तैयारी में गोरखपुर के मजदूरों की भागीदारी और उत्साह देखकर गोरखपुर के उद्योगपति बौखलाए हुए हैं। उद्योगपतियों और स्थानीय सांसद की शह पर लगातार मजदूरों के इस आन्दोलन के खिलाफ भड़काने की कोशिश की जा रही है और फर्जी नामों से बांटे जा रहे पर्चों-पोस्टरों के जरिए और जबानी तौर पर मजदूरों और आम जनता के बीच यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि यह आन्दोलन माओवादियों द्वारा चलाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले जब गोरखपुर के मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ने की शुरुआत की थी तभी से उद्योगपति-प्रशासन-स्थानीय सांसद का गठजोड़ उसे बदनाम करने के लिए इसी प्रकार का कुत्सा-प्रचार करता रहा है। PUCL मांग करता हैं कि मजदूरों द्वारा आज की गोलीबारी के लिए जिम्मेदार जिन चार लोगों अशोक जालान, अंकुर जालान, प्रदीप सिंह और विश्राम यादव के खिलाफ एफआईआर किया गया है उन्हें तत्काल गिरफ्तार किया जाय और प्रदेश सरकार इस गोलीबारी की घटना पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। क्योंकि मजदूर नेताओं का आरोप है कि प्रशासन ने इन चारों को अब तक गिरफ्तार नहीं किया है। 2011/5/4 reyaz-ul-haque > *ओसामा बिन लादेन की हत्या की खबरें अनेक सवालों पर फिर से ध्यान खींचती हैं. > इनमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसी भी देश को दूसरे देश में > अवैध-अनैतिक-अमानवीय फौजी कार्रवाइयों का अधिकार है. ऐसे हमले के पीछे तर्क > दिया जा रहा है कि लादेन, कथित तौर पर, उन हमलों के लिए जिम्मेदार था, जिनमें 3 > हजार से अधिक लोगों की मौतें हुईं. इन हमलों और हमलावरों की वास्तविकताओं पर > किये जानेवाले मजबूत संदेहों को छोड़ भी दें तब भी अगर बेगुनाह लोगों की > हत्याओं का जिम्मेदार होना ही ऐसे हमलों के लिए वाजिब कारण है तब तो सारे > हत्यारे बुशों और ओबामाओं को सैकड़ों बार गोलियों से मारना पड़ेगा. यूनियन > कार्बाइड के मुखिया और भोपाल गैस जनसंहार में मारे गये बीसियों हजार लोगों और > दो दशकों में इसकी पीड़ा अब भी भुगत रहे लाखों लोगों के अपराधी वारेन एंडरसन को > किसने पनाह दी है ? उसे कौन बचा रहा है? 2009 से लेकर अब तक श्रीलंका में लाखों > तमिल निवासियों के कत्लेआम के दोषी राजपक्षे की मदद किसने की और अब भी उसकी पीठ > पर किसका हाथ है? विदर्भ में पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख से अधिक किसानों की > (आत्म)हत्याओं के लिए जो (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की) नीतियां जिम्मेदार > हैं, उन्हें किसने बनाया और उन्हें कौन लागू कर रहा है? इराक में पिछले दो > दशकों में प्रतिबंधों और युद्ध में जो 14 लाख 55 हजार से अधिक लोग मारे गये > हैं, उनके लिए कौन जिम्मेदार है? पूरी दुनिया में लगातार युद्ध, प्रतिबंधों और > सरकारी नीतियों के जरिए लोगों की जिंदगियों में संस्थागत हिंसा घोल रही > साम्राज्यवादी नीतियां आखिर कौन लोग बनाते और थोपते हैं. अमेरिकी साम्राज्यवादी > और उसके सहयोगी देश. इनके द्वारा की गयी हत्याएं 11 सितंबर को मारे गए लोगों की > संख्या से सैकड़ों गुना अधिक हैं. इन्हें क्यों नहीं सजा मिलती? कब मिलेगी > इन्हें सजा? फिर इन्हें क्या अधिकार है दूसरों को आतंकवादी कहने और मारने का? > * > * > इन सब सवालों के जवाब दुनिया की जनता खोज भी रही है और दे भी रही है. > साम्राज्यवाद का ध्वस्त होना लाजिमी है. अपने इन हताशा में उठाये कदमों के जरिए > ही वह अपने अंत के करीब भी आ रहा है. उसकी जीत का एक-एक जश्न, उसकी कामयाबी का > एक-एक ऐलान उसकी कमजोरी और भावी अंत की ओर भी संकेत कर रहा है. ओसामा बिन लादेन > की हत्या की खबर को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. अमेरिकी अर्थशास्त्री, वाल > स्ट्रीट जर्नल और बिजनेस वीक के पूर्व संपादक-स्तंभकार, अमेरिका की ट्रेजरी > फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के सहायक सचिव पॉल क्रेग रॉबर्ट्स बता रहे हैं कि कैसे > हत्या की इस खबर का सीधा संबंध विदेशी मुद्रा और व्यापार बाजार में डॉलर की > पतली होती हालत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डांवाडोल होती जा रही स्थिति से है. > इन्फॉर्मेशन क्लियरिंग हाउस > की पोस्ट. > हाशिया का अनुवाद. > > http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post.html > * > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From naiazadi at gmail.com Wed May 11 16:34:07 2011 From: naiazadi at gmail.com (Nai Azadi) Date: Wed, 11 May 2011 11:04:07 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Ganga_Waterkeeper_?= =?utf-8?b?4KSX4KSC4KSX4KS+LeCkreCkleCljeCkpCDgpKjgpL/gpJfgpK7gpL4=?= =?utf-8?b?4KSo4KSC4KSmIOCkleCliyDgpJzgpLngpLAg4KSm4KWH4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KSo4KWHIOCkleClgCDgpJXgpYvgpLbgpL/gpLY=?= In-Reply-To: References: Message-ID: गंगा-भक्त निगमानंद को जहर देकर मारने की कोशिश गंगा में अवैध खनन के खिलाफ संत निगमानंद के 19 फरवरी को शुरू हुए अनशन के 68वें दिन 27 अप्रैल 2011 को पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया था। एक संत के जान-माल की रक्षा के लिए प्रशासन ने यह गिरफ्तारी की थी। संत निगमानंद को गिरफ्तार करके जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती किया गया। हालांकि 68 दिन के लंबे अनशन की वजह से उनको आंखों से दिखाई और सुनाई पड़ना काफी कम हो गया था। फिर भी वे जागृत और सचेत थे और चिकित्सा सुविधाओं के वजह से उनके स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार हो रहा था। लेकिन अचानक 2 मई 2011 को उनकी चेतना पूरी तरह से जाती रही और वे कोमा की स्थिति में चले गए। जिला चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक पीके भटनागर संत निगमानंद के कोमा अवस्था को गहरी नींद बताते रहे। बहुत जद्दोजहद और वरिष्ठ चिकित्सकों के कहने पर देहरादून स्थित दून अस्पताल में उन्हें भेजा गया। अब उनका इलाज जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल में चल रहा है। *हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल के चिकित्सकों को संत निगमानंद के बीमारी में कई असामान्य लक्षण नजर आए और उन्होंने नई दिल्ली स्थित ‘डॉ लाल पैथलैब’ से जांच कराई। चार मई को जारी रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ऑर्गोनोफास्फेट कीटनाशक उनके शरीर में उपस्थित है। मातृ-सदन के संत दयानंद की ओर से हरिद्वार मुख्य चिकित्सा अधीक्षक पीके भटनागर और खनन माफिया ज्ञानेश कुमार के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है। * * * *Read More * इस प्रकरण से जुड़ी मुख्य खबर न्यायपालिका की चौखट पर गंगा-भक्त [image: संत निगमानंद: नैनीताल उच्च न्यायालय की भ्रष्टाचार के खिलाफ 68 दिन से अनशन पर बैठे संत निगमानंद अब कोमा में पहुंचे] Author: शिराज केसर *गंगा में खनन को रोकने के लिए पिछले तीन-चार सालों के अंदर ही लंबे अनशन के कारण मातृसदन के संत निगमानंद अंतबेला में पहुंच चुके हैं। वैसे तो संत का अंत नहीं होता, संत देह मुक्त होकर अनंत हो जाता है। *हरिद्वार की भूमि पर हजारों संतों, मठों, आश्रमों, शक्तिपीठों के वैभव का प्रदर्शन तो हम आये दिन देखते रहते हैं। पर हरिद्वार के मातृसदन के संत निगमानंद के आत्मोत्सर्ग की सादगी का वैभव हम पहली बार देख रहे हैं। देश की स्वाभिमानी पीढ़ी तक शायद यह खबर भी नहीं है कि गंगा के लिए एक संत 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन करता है जिसकी वजह से न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर का शिकार होता है। और अब 19 फरवरी से शुरू हुआ उनका आमरण अनशन 27 अप्रैल को पुलिस हिरासत से पूरा होता है। संत निगमानंद ने घोषणा की थी कि अगर उनकी मांगे न मान करके सरकार अगर जबर्दस्ती खिलाने की कोशिश करती है, तो वो आजीवन मुंह से अन्न नहीं ग्रहण नहीं करेंगे। *संत निगमानंद: *नैनीताल उच्च न्यायालय की भ्रष्टाचार के खिलाफ 68 दिन से अनशन पर बैठे संत निगमानंद अब कोमा में पहुंचेऐसी धारणा बनती जा रही है कि बेलगाम सरकारों और आपराधिक राजनैतिक तंत्र पर लगाम न्यायपालिका ही लगा पा रही है। पर आम लोगों का बड़ा तबका न्यायपालिका से शायद ही कोई उम्मीद करता है। गरीब आदमी तो वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकता, वह न्याय से वंचित रह जाता है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुडे हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। देश अब एक नए तरह के नेक्सस नेता-माफिया-अधिकारी-न्यायपालिका का शिकार हो रहा है। Raed More इस प्रकरण से जुड़ी अन्य खबरें - अनशन का 30वां दिन - गंगा खनन के विरोध में अनशन - गंगा-भक्त निगमानंद को जहर देकर मारने की कोशिश - गटर के पानी से भी ज्यादा जहरीला हुआ बनारस का गंगाजल - सिंधु के बाद गंगा - गांगेय डॉल्फिन गंगा के स्वास्थ्य का दर्पण है - इस तरह गंगा साफ नहीं होगी - गंगा ने संभाला है हमारे पुरखों को... - क्या गंगा के प्रवाह की चिंता असली है? - गंगा मैया - कैसे स्वच्छ होगी गंगा - आखिर कैसे साफ हो गंगा - उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा के बहाव के मुद्दे को केंद्र के पाले में डाला - गंगा जो एक नदी थी - गंगोत्री तीर्थ - कराहती नदियां - विकास की गंगा में बह गयी गंगा मैया - गंगा का प्रवाह - जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन सातवें दिन भी जारी सिराज केसर hindi.indiawaterportal.org http://twitter.com/hindiwater http://groups.google.com/group/hindiwater -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From editormediamorcha at gmail.com Sat May 14 13:18:47 2011 From: editormediamorcha at gmail.com (media morcha) Date: Sat, 14 May 2011 07:48:47 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?cGwgcmVhZCDgpKY=?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KWN4KSy4KWAIOCkleClhyDgpLDgpILgpJfgpK7gpILgpJog?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkrOClgeCktiDgpKrgpLAg4KSq4KWc4KWH4KSX4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KWC4KSk4KS+IG9uIHd3dy5tZWRpYW1vcmNoYS5jby5pbg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on May 13 2011 Read more... दिल्ली के रंगमंच पर कल बुश पर पड़ेगा जूता [image: दिल्ली के रंगमंच पर कल बुश पर पड़ेगा जूता] संजय कुमार / साहित्य / ‘‘द लास्ट सैल्यूट’’ नाटक के नई दिल्ली में मंचन के जरिये भारतीय रंगमंच कल 14 मई को इतिहास रचने जा रहा है। बुश पर जूते की दस्तान को समेट ‘‘द लास्ट सैल्यूट’’ नाटक के निर्माता हैं चर्चित फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट। निर्देशन अरविंद गौड़ का है और पटकथा ... Posted on May 13 2011 Read more... पेशा नहीं ‘पैशन’ है पत्रकारिता [image: पेशा नहीं ‘पैशन’ है पत्रकारिता] राजीव रंजन / मुद्दा / समयबद्ध तत्परता एवं सक्रियता पत्रकारिता के बीजगुण हैं. एक पत्रकार की स्थिति उस दोलक की तरह होती है जो तयशुदा अंतराल के बीच हर समय गतिशील रहता है. पत्रकार होने की पहली शर्त है कि आलसपन या सुस्ती से वह कोसो दूर रहे. उसकी निगाह ‘शार्पसूटर’ की भाँति मंजी ... Posted on May 10 2011 Read more... निजी रेडियो स्टेशनों को जल्द ही खबरों के प्रसारण की अनुमति [image: निजी रेडियो स्टेशनों को जल्द ही खबरों के प्रसारण की अनुमति] वर्तिका नंदा सहाय / मुद्दा/ प्राइवेट रेडियो के लिए बहुत दिनों बाद एक गुड न्यज सुनाई दी है। खबर है कि निजी स्टेशनों को जल्द ही खबरों के प्रसारण की अनुमति मिल जाएगी लेकिन उन्हें खबरों को आकाशवाणी से ही लेना होगा। यानि स्रोत तय होगा और उसी के बंधन में खबर का प्रसारण ... Posted on May 9 2011 Read more... “सद्भावना दर्पण” हुई मासिक [image: “सद्भावना दर्पण” हुई मासिक] खबर / साहित्य एवं पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय गिरीश पंकज ने अपनी अनुवाद पत्रिका सद्भावना दर्पण, रायपुर (छत्तीसगढ़) को अब मासिक स्वरुप दे दिया है. भारतीय एवं विश्व साहित्य के अनुवाद की पत्रिका में विश्व की हर भाषा-बोली की स्तरीय रचनाओं का प्रकाशन होता है. मई अंक में इतालो काल्विनो (इतालवी), प्रतिभा ... Posted on May 9 2011 Read more... विकीलीक्स की पत्रकारिता के अर्थ [image: विकीलीक्स की पत्रकारिता के अर्थ] मनोज कुमार / मुद्दा / विकीलीक्स की पत्रकारिता जनसरोकार की न होकर खोजी पत्रकारिता का आधुनिक चेहरा है बिलकुल वैसा ही जैसा कि कुछ साल पहले तहलका का था। विकीलीक्स और तहलका के होने का अर्थ अलग अलग है। तहलका खोजी पत्रकारिता का भारतीय संस्करण है और उसका रिष्ता खोजी होन के साथ साथ जन ... Posted on May 8 2011 Read more... हस्तलिखित अखबार निकालते थे मोख्तार जयनाथपति [image: हस्तलिखित अखबार निकालते थे मोख्तार जयनाथपति] अशोक प्रियदर्शी / साहित्य / भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की इतिहास पल भर में नही गढ़ी गई थी। इसके लिए कई स्तर से प्रयास हुए थे जिसके बाद 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो सका था। नवादा जिले के मोख्तार जयनाथपति इसी कड़ी का एक अहम हिस्सा थे, जो स्वतंत्रता के लिए ... Posted on May 7 2011 Read more... उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिली जितनी होनी चाहिए [image: उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिली जितनी होनी चाहिए] ( बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा पर (बहस-9) में उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार इमरान सगीर की बेवाक टिप्पणी दी जा रही है । मीडियामोरचा ने जो बहस चलायी है उस पर पाठकों के ढ़ेरों मेल प्राप्त हो रहे है। कोई भी पाठक अलग से कुछ लेखनुमा लिखना चाहें तो हमें ... Posted on May 5 2011 Read more... उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई [image: उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई] ( बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा पर (बहस-8) में कौमी तंजीम के समाचार संपादक व उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद की बेवाक टिप्पणी दी जा रही है । मीडियामोरचा ने जो बहस चलायी है उस पर पाठकों के ढ़ेरों मेल प्राप्त हो रहे है। कोई भी पाठक अलग से ... Posted on May 4 2011 Read more... उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर [image: उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर] ( बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा पर (बहस-7) में उर्दू की वरिष्ठ पत्रकार डा0 सुरैया जबीं की बेवाक टिप्पणी दी जा रही है । मीडियामोरचा ने जो बहस चलायी है उस पर पाठकों के ढ़ेरों मेल प्राप्त हो रहे है। कोई भी पाठक अलग से कुछ लेखनुमा लिखना चाहें तो हमें mediamorcha at gmail.com ... Posted on May 3 2011 Read more... Indian International Journalism Festival-2011 [image: Indian International Journalism Festival-2011] News / On the occasion of International Journalism Day on 3 May, 2011- RBS Media launches Indian International Journalism Festival. The festival will be held online & broadcast on www.miniboxoffice.com - the largest media & film market, during the month of May & June-11. It’s a chance for both aspiring and professional journalists to showcase ... -- www.mediamorcha.co.in -- mediamorcha www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From dnyan21 at yahoo.com Mon May 23 11:33:03 2011 From: dnyan21 at yahoo.com (Ashutosh Shyam Potdar) Date: Mon, 23 May 2011 06:03:03 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Apply for IFA's New Performance Grants 2011-12 Message-ID: <546898.94475.qm@web30701.mail.mud.yahoo.com> New Performance IFA’s New Performance programme supports reflective performance practices that extend beyond prevailing idioms and forms of performance and/or create new modes of presentation. Performing arts groups and individuals working in or across music, dance, theatre and puppetry can apply keeping the broad thrust areas in mind. The programme is also open to light or set designers, puppeteers, sound artists and writers working in the area of performance. Pre-production: This programme supports performing artists to germinate and nurture fresh ideas and reflect on the immediate context of their practice. This may include researching towards a performance script and/or collaborative or improvisatory work towards creating a text or other resources and references for the proposed performance. Performance: Risk-taking and experimental performances that tackle unexplored themes or critically engages with changing contexts of performance will be supported. These productions could introduce fresh content, investigate unexplored but meaningful themes, or straddle different genres in the performing arts. These are only examples, however, and do not exhaust the possibilities offered by this programme. Dissemination: IFA grantees can apply for follow-up grants that will enable a wider public to critically engage with their IFA-supported work and the larger issues it throws up. This may include disseminating knowledge acquired and expertise gained with the grant in imaginative and innovative ways. Residencies/Workshops: Performance residencies and workshops are ideal environments for questioning and reflecting on contemporary performance practices. Innovatively modeled artist residencies and workshops that nurture emerging performing artists, encourage collaboration, and support dialogue with a wider field of practice may be considered under the programme. Workshops that focus on imparting new idioms and facilitating experimentation may be considered under the programme. We are particularly interested in supporting residencies and workshops hosted by emerging organisations in the early stages of institutional building.   Public Platforms: Public platforms like conferences and seminars that bring together diverse stakeholders in the field of performance to discuss newly emerging and unconventional practices may be considered under the programme. Also, we encourage performing communities to engage in initiatives towards building a network of mutually supportive practitioners in the field. Initiatives that look to encourage dialogue and collaboration between performing artists working in different languages and regions may be considered under the programme. These are only examples, however, and do not exhaust the possibilities offered under this category. You are welcome to discuss your ideas and develop your proposal through dialogue and interaction with IFA staff. To apply, please send us a short note describing 1) your existing practice and your concerns and interests as a practioner and, 2) the nature of work for which you are seeking funding and how it addresses the programme. A budget should not exceed Rs 1,50,000 for pre-production work, Rs 3,00,000 for developing a production, and Rs 6,00,000 for a residency. The budget for seminars, conferences, network development and workshops may be developed in consultation with programme staff. APPLICATION Applications under this programme can be submitted for consideration at any time. You may write your proposal in any Indian language. Please ensure that we receive a draft proposal three months prior to your need for funds to support the project. You may  email your queries on any matter pertaining to this programme to ashutoshpotdar at indiaifa.org  or write to us at the following address: Programme Executive New Performance, India Foundation for the Arts, 'Apurva', Ground Floor, No 259, 4th Cross, Raj Mahal Vilas 2nd Stage, 2nd Block, Bangalore-560 094. Phone: 080-2341 4681 / 82 You can expect to receive a reply from us within ten days, indicating whether your proposal is being considered for support. ELIGIBILITY You are eligible to apply if you are an Indian national, a registered non-profit Indian organisation, or have been resident in India for at least five years. Your collaborators, if any, should also fall into one of the above categories. Translations of this circular are available in other Indian languages on request and can also be downloaded from www.indiaifa.org       You are receiving this email because of your relationship with the sender. To safely unsubscribe or modify your subscription settings please click here -- "How can love be worthy of its name if one selects solely the pretty things and leaves out the hardships? The real challenge is to love the good and the bad together, not because you need to take the rough with the smooth but because you need to go beyond such descriptions and accept love in its entirety"- Elif Shafak -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: clip_image002.gif Type: image/gif Size: 73 bytes Desc: not available URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: clip_image003.gif Type: image/gif Size: 73 bytes Desc: not available URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: clip_image004.gif Type: image/gif Size: 195 bytes Desc: not available URL: From kesar at waterkeeper.org.in Fri May 27 17:13:25 2011 From: kesar at waterkeeper.org.in (Water Keeper) Date: Fri, 27 May 2011 11:43:25 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Ganga_Waterkeeper_?= =?utf-8?b?4KS54KSw4KS/4KSm4KWN4KS14KS+4KSwIOCkleClgCDgpJfgpILgpJc=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClh+CkgiDgpJbgpKjgpKgg4KSF4KSsIOCkquClguCksA==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpOCksOCkuSDgpKzgpILgpKY=?= Message-ID: <21750290.2093.1306496517211.JavaMail.geo-discussion-forums@prjs22> खास खबर हरिद्वार की गंगा में खनन अब पूरी तरह बंद Author: सिराज केसर नैनीताल उच्चन्यायालय ने भी माना कि स्टोन क्रशर से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है [image: बेलगाम खनन का एक दृश्य]*बेलगाम खनन का एक दृश्य*मातृसदन ने अंततः लड़ाई जीत ली। हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से चल रहा संघर्ष अब अपने मुकाम पर पहुँच गया है। 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि क्रशर को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है। इसके साथ ही सरकार के क्रशर बंद करने के आदेश के खिलाफ रिटपिटीशन को खारिज किया जाता है। मातृसदन के संतों ने पिछले 12 सालों में 11 बार हरिद्वार में खनन की प्रक्रिया बंद करने के लिए आमरण अनशन किए। अलग-अलग समय पर अलग-अलग संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक किया गया। इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा। संत निगमानंद लंबे अनशन की वजह से अभी भी कोमा में हैं और जौलीग्रांट हिमालयन इंस्टीट्यूट में उनका इलाज चल रहा है। Read More इससे जुड़ी कुछ और खबरें - गंगा-भक्त निगमानंद को जहर देकर मारने की कोशिश - न्यायपालिका की चौखट पर गंगा-भक्त - जीवनतीर्थ हरिद्वार - गंगा मैया - पर्यटन का कचरा सिराज केसर मो- 9211530510 hindi.indiawaterportal.org http://twitter.com/hindiwater http://groups.google.com/group/hindiwater -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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