From vineetdu at gmail.com Wed Mar 2 09:51:04 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 2 Mar 2011 09:51:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkn+ClgOCkteClgCDgpKzgpKjgpL4g4KSc4KWB4KSGIA==?= =?utf-8?b?4KSW4KWH4KSy4KSo4KWHIOCkleCkviDgpIXgpKHgpY3gpKHgpL4=?= Message-ID: 17 फरवरी से इंडिया टीवी कलेजा ठोककर बिग टॉस नाम से वर्ल्ड कप पर सबसे बड़ा रियलिटी शो प्रसारित कर रहा है लेकिन उससे कोई पूछनेवाला नहीं है कि न्यूज चैनल पर रियलिटी शो प्रसारित करने की अनुमति किसने दी है?चैनल के खुराफात दिमाग एक के बाद एक स्टंट करने में सक्रिय हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की मानिटरिंग टीम ने अभी तक इस पर किसी भी तरह की आपत्ति नहीं जतायी है। यह माननेवाली बात बिल्कुल नहीं हो सकती कि इन दिनों इंडिया टीवी पर दोहरे स्तर पर( शो के भीतर प्रतिभागी खिलाडियों पर दाव लगा रहे हैं और शो के प्रतिभागियों पर दर्शकों को दाव लगाने को कहा जा रहा है) वर्ल्ड कप को लेकर जो सट्टेबाजी चल रही है,उसकी जानकारी मानिटरिंग टीम को नहीं है। लेकिन इस देश में सरकारी मंचों से टेलीविजन के किसी भी कार्यक्रम पर नकेल तब तक नहीं कसी जाती है जब तक कि कोई हादसा न हो जाए या फिर जनहित में किसी की ओर से मुकदमा न दायर कर दिए जाएं। इस हिसाब से इंडिया टीवी के उपर किसी तरह की कारवायी हो इसके लिए हमें किसी बड़े हादसे का इंतजार करना होगा। वैसे इस शो को चर्चा में लाने के लिए चैनल ने राखी सावंत और स्वामी अरविंद प्रसंग को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार ने एक न्यूज चैनल पर रियलिटी शो शुरु किए जाने पर जहां आपत्ति में एक लाइन नहीं छापा,वही इस प्रसंग को सुर्खियों में बनाए रखा। इंडिया टीवी ने पब्लिसिटी के लिए खुद इन अखबारों की चर्चा की है। इंडिया टीवी की ओर से प्रसारित बिग टॉस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत सबसे पहले तो इस बात को लेकर है कि एक न्यूज चैनल पर रियलिटी शो की शुरुआत कैसे की जा सकती है? वैसे तो खबरों से जुड़े सवालों के जबाब देने के नाम पर कॉन्टेस्ट कराकर चैनलों और मोबाइल कंपनियों ने एक स्वतंत्र कमाई का जरिया विकसित कर ही लिया है लेकिन न्यूज चैनल की लाइसेंस पर विशुद्ध मनोरंजनपरक कार्यक्रम चलाने का काम कैसे कर सकता है? इस धंधे से चैनल को जो मुनाफा हो रहा है,उसका हिसाब-किताब वह कितनी पारदर्शिता से सामने रखता है, इस सवाल पर बात करना जरुरी है। साल 2007 में आजतक ने सीरियलों और टीवी पर आधारित जब ‘धन्नो बोले तो’और राजू श्रीवास्तव के शो की शुरुआत की थी तो उसे इसी बात की फटकार मिली थी और कार्यक्रम बंद करना पड़ा। ये अलग बात है कि आज देश के तमाम प्रमुख न्यूज चैनलों पर रियलिटी शो,टीवी सीरियल,सिनेमा और मनोरंजन आधारित कार्यक्रमों पर तकरीबन 4-6 घंटे का समय दिया जाता है। उसके बाद रात के 12 बजे से गंडे-ताबीज,माला-महामंत्र बेचने-खरीदने का कारोबार शुरु हो जाता है। किसी भी एक न्यूज चैनल के 24 घंटे की रनडाउन( प्रोग्राम की लिस्ट) पर गौर करें तो मुश्किल से 8-9 घंटे ऐसे कार्यक्रम निकलकर आते हैं जिन्हें कि न्यूज चैनल के कार्यक्रम की कैटेगरी में रखे जा सकते हैं। नहीं तो उन पर वे सारे धंधे चलते हैं जिसे कि सरकार की ओर से या तो प्रतिबंधित किया गया है या फिर टैक्स के अन्तर्गत शामिल किया गया है। न्यूज चैनल की लाइसेंस लेकर इंडिया टीवी जो काम कर रहा है,वह किसी भी लिहाज से पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है। दूसरा कि क्रिकेट या किसी भी खेल पर सट्टेबाजी पूरी तरह प्रतिबंधित है। इंडिया टीवी पर बिग टॉस की जो फार्मेट है,वह सट्टेबाजी के करीब है। शो के भीतर जितने भी प्रतिभागी हैं,वे दो टीमों में बंटे हुए हैं। एक टीम वीणा मल्लिक की है और दूसरी राखी सावंत की। ये दोनों टीमें वर्ल्ड कप के प्रतिभागी खिलाड़ियों पर दाव लगाती है और उस हिसाब से उन्हें प्वाइंट के तौर पर रन मिलते हैं। इधर दर्शकों से इन शो के प्रतिभागियों पर दाव लगाने को कहा जाता है। अंत में अगर दर्शक और शो के प्रतिभागी के दाव के अनुसार खिलाड़ी जीतते हैं तो दोनों को इसका लाभ मिलेगा। इंडिया टीवी ने खुद इस शो की जगह को बाजीघर का नाम दिया है। तीसरी बड़ी बात जिससे असहमत होते हुए अगर चैनल दावा करे कि इससे क्रिकेट की भावना का विकास होता है तो यह बकवास से ज्यादा कुछ भी नहीं होगी कि इसमें बिग बॉस की अश्लील हरकतों,बेवजह झमेले पैदा करने की नीयत को और मनोरंजन चैनलों से होड़ लेने की आदत को शामिल किया गया है। आज के दौर में एक न्यूज चैनल को दूसरे न्यूज चैनल से प्रतिस्पर्धा होने के बजाय मनोरंजन चैनलों से खतरा है क्योंकि इसके मुकाबले न्यूज चैनल देखने में कमी आ रही है। लोगों का इनकी खबरों के प्रति भरोसा उठने की वजह से खबरों के लिए न्यू मीडिया की शरण में जा रहे हैं और टाइमपास के लिए मनोरंजन चैनलों की तरफ जा रहे हैं। इंडिया टीवी इस खतरे से बचने के लिए 2007 में देर रात सेक्स संबंधी समस्याओं पर शो प्रसारित किया जिसका कि लोकप्रियता के बावजूद काफी विरोध हुआ और अब सीधे रियलिटी शो पर उतर आया है। अग इस पर कुछ कारवायी नहीं की गयी तो आनेवाले समय में कई दूसरे चैनल रियलिटी शो के मैंदान में उतरेंगे जो कि मीडिया के भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा। फिलहाल राखी सावंत ने बाबा अरविंद की साधना का बुरी तरह मजाक उड़ाया है और उनके शंख को डंबल की तरह इस्तेमाल किया है, रेडियो सिटी की मशहूर जॉकी सिमरन ने बाबा को काले अंगूर खिलाकर ठहाके लगाए हैं। इन सबसे बाबा को गहरा आघात लगा है और हॉस्पीटल में भर्ती हैं। बाबा के चेलों का विरोध जारी है। अगर ये विरोध जारी रहा और बाबा को कुछ हो गया तो उम्मीद कीजिए कि बिग टॉस पर सरकार की तरफ ध्यान जाएगा। मूलतः प्रकाशित- टीवी मेरी जान,जनसंदेश टाइम्स 3 मार्च 2011 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Mar 2 13:26:25 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 02 Mar 2011 13:26:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KWL4KSs4KWA?= =?utf-8?b?IOCkmOCkvuCknyDgpJXgpL4g4KSP4KSVIOCkuOCkrOCkn+Clh+CkleCljQ==?= =?utf-8?b?4KS44KSa4KWB4KSF4KSyIOCkquCkvuCkoA==?= Message-ID: <4D6DF829.8050903@sarai.net> भाषासेतु से साभार: http://bhashasetu.blogspot.com/2011/02/blog-post_15.html dilchasp. maze lein. ravikant *धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ *राहुल सिंह अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता (प्लूरालिटी) है वह अपने लिए एक लोकतांत्रिक छूट भी हासिल कर लेता है। किसी एक के अनुभव से नहीं बल्कि ‘कई निगाहों से बनी एक तस्वीर’। फिल्म के कैनवास को पूरा करने में हाशिये पर पड़ी चीजें भी उतना ही अहम रोल अदा करती हैं जितने के वे किरदार जो केन्द्र में हैं। यों तो सतह पर हमें चार ही पात्र नजर आते हैं लेकिन असल में हैं ज्यादा-टैक्सी ड्राइवर, खामोश पड़ोसन, लता बाई, प्रापर्टी ब्रोकर, सलीम, लिफ्ट गार्ड और सलमान खान (चौंकिये मत, सलमान खान की भी दमदार उपस्थिति इस फिल्म में है।) सब मिलकर वह सिम्फनी रचते हैं जिससे मुम्बई का और हमारे समय का भी एक अक्स उभरता है। जैसे की फिल्म की ओपनिंग सीन जहाँ यास्मीन नूर (कीर्ति मल्होत्रा) टैक्सी में बैठी मरीन ड्राइव से गुजर रही है। टैक्सी के सामने लगी ग्लास पर गिरती बारिश को हटाते वाइपर, चलती टैक्सी और बाहर पीछे छूटते मरीन ड्राइव के किनारे और इनकी मिली-जुली आवाजों के बीच टैक्सी ड्राइवर का यह पूछना कि ‘नयी आयी हैं मुम्बई में ?’ ड्राइवर कैसे ऐसा पूछने का साहस कर सका ? क्योंकि उसकी सवारी (यास्मीन) के हाथ में एक हैंडी कैम है जिससे वह मुम्बई को सहेज रही है। जिससे वह अनुमान लगाता है कि शायद यह मुम्बई में नयी आई है (आगे मुम्बई लोकल में शूट करते हुए भी उसे दो महिलायें टोकती हैं ‘मुम्बई में नयी आयी हो ?’)। फिर उनकी आपसी बात-चीत के क्रम में ही यह मालूम होता है कि वह मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) की रहनेवाली है और ड्राइवर जौनपुर (उत्तर प्रदेश) का। उसी शुरूआती दृश्य में टैक्सी के अंदर डैश बोर्ड में बने बाक्स पर लगे एक स्टिकर पर भी हैंडी कैम पल भर को ठिठकता है जिसमें एक औरत इंतजार कर रही है और उसकी पृष्ठभूमि में एक कार सड़क पर दौड़ रही है, और स्टिकर के नीचे लिखा हैः ‘घर कब आओगे ?’ यह उस ड्राइवर की कहानी बयां करने के लिए काफी है कि वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर कमाने के लिए मुम्बई आया है। इसके बाद भींगती बारिश में भागती कार से झांकती आँखें मुम्बई की मरीन ड्राइव को देखते हुए जो बयां करती है वह खासा काव्यात्मक है। “... समन्दर की हवा कितनी अलग है, लगता है इसमें लोंगों के अरमानों की महक मिली हुई है।” इस ओपनिंग सीन के बाद कायदे से फिल्म शुरु होती है चार शाट्स हैं पहला किसी निर्माणाधीन इमारत की छत पर भोर में जागते मजदूर का दूसरा उसके समानान्तर भोर की नीन्द में डूबी मुम्बई का तीसरा संभवतः उसी इमारत में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने का और चौथा दोपहर में खुले आसमान के नीचे बीड़ी के कश लगाते सुस्ताते मजदूर का। फिल्म के यह शुरुआती चार शाट्स फिल्म के एक दम आखिरी में आये चार शाट्स के साथ जुड़ते हैं। उन आखिरी चार शाट्स में पहला, दोपहर की भीड़ वाली मुम्बई है। दूसरा, शाम को धीरे-धीरे रेंगती मुम्बई और ऊपर बादलों की झांकती टुकड़ियाँ हैं। तीसरा, रात को लैम्प पोस्ट की रोशनी में गुजरनेवाली गाड़ियों का कारवां है और चौथा, देर रात में या भोर के ठीक पहले नींद में अलसाये मुम्बई का शाट्स है। इस तरह फिल्म ठीक उसी शाट्स पर खत्म होती है जहाँ फिल्म कायदे से शुरु हुई थी। एक चक्र पूरा होता है। लेकिन यह शाट्स भी मुम्बई के दो चेहरों को सामने रखता है। ‘अ टेल आव टू सिटीज’। जब एक (सर्वहारा) जाग रहा होता है तो दूसरा (अभिजन) गहरी नींद में होता है और पहला जब सोने की तैयारी कर रहा होता है तो दूसरा के लिए दिन शुरू हो रहा होता है (सलीम जब सोने की तैयारी कर रहा होता है, ठीक उसी वक्त अरूण के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा होता है)। मुन्ना (प्रतीक बब्बर) यों तो पहली दुनिया का नागरिक है लेकिन उसके मन में उसी दूसरी दुनिया का नागरिक होने की चाह है, इस कारण वह अपनी नींद बेचकर सपना पूरा करने में लगा है। अरुण (आमिर खान) दूसरी दुनिया का नागरिक है और शॉय (मोनिका डोगरा) एक तीसरी दुनिया की, जो लगातार यह भ्रम पैदा करती है कि वह दूसरी दुनिया की नागरिक है। मतलब यह कि शॉय इनवेस्टमेंट बैंकिंग कन्सल्टेन्ट है दक्षिण एशियाई देशों में निवेश के रूझानों पर विशेषकर लघु और छोटी पूंजी पर आधारित पारंपरिक व्यवसायों की फील्ड सर्वे करके रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजी गई है। फिल्म के अंत की ओर बढ़ते हुए अचानक सिनेमा के पर्दे पर उभरने वाले उन पन्द्रह तस्वीरों की लड़ियों को याद कीजिए जिसमें डेली मार्केट जैसी जगह के स्टिल्स हैं, उन तस्वीरों में कौन लोग हैं इत्र बेचनेवाला, पौधे बेचनेवाला, जूते गाठनेवाला, मसक में पानी ढोनेवाला, रेलवे प्लेटफार्म पर चना-मूंगफली बेचनेवाला, गजरे का फूल बेचनेवाली, घरों में सजा सकनेवालों फूलों को बेचनेवाली, कान का मैल निकालनेवाला, चाकू तेज करनेवाला, मजदूर, पान बेचनेवाली, ताला की चाभी बनानेवाला, रेहड़ी और ठेला पर सामान खींचनेवाला, मछली बेचनेवाली आदि। इस काम के लिए उसे अनुदान मिला है और अनुदान देनेवाली संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क (अमेरिका) में है। मैक्डाॅनाल्ड के लगातार खुलते आउटलेट, अलग-अलग ब्राण्ड के उत्पादों का भारत का रुख करने और हर पर्व-त्योहार में भारतीय बाजार में चीन की आतंककारी उपस्थिति को देखते हुए, वायभ्रेन्ट गुजरात की अभूतपूर्व सफलता के मूल मे अनिवासी भारतीयों की भूमिका, भारतीय सरकार द्वारा उनको दी जाने वाली दोहरी नागरिकता, भारतीय इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया द्वारा उनके विश्व के ताकतवर लोगों में शुमार किये जाने की खबरों को तरजीह दिये जाने वाले परिवेश में शॉय एक कैरेक्टर मात्र न रह कर मेटाफर बन जाती है। मुन्ना को अगर प्रोलेतेरियत और अरुण को बुर्जुआ मान लें (जिसके पर्याप्त कारण मौजूद हैं) तो शॉय फिनांस कैपिटल की तरह बिहेव करती नजर आती है। खास कर तब जब वह अरुण से लगातार यह बात छिपा रही होती है कि वह मुन्ना को जानती है। मुन्ना और अरुण दोनों तक, जब चाहे पहुँच सकने की छूट शॉय को ही है। शॉय का कला प्रेम लगभग वैसा ही है जैसा सैमसंग का साहित्य प्रेम गत वर्ष हम देख चुके हैं। सभ्यता के विकास का इतिहास पूंजी के विकास का भी इतिहास है। और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया त्यों-त्यों मानवीय गुणों में हृास भी देखा गया। इस लिहाज से भी विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ा मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में ज्यादा मानवीय लगता है। आखिरी दृश्य में जब वह सड़कों पर बेतहाशा दौड़ता हुआ शॉय को अरुण का पता थमाता है, तब वह खुद इस बात की तस्दीक कर रहा होता है कि कुछ देर पहले वह झूठ बोल रहा था। शॉय भी कई जगहों पर झूठ बोलती है, बहाने बनाती है लेकिन न तो पकड़ में आती है और न ही अपराध बोध से ग्रसित नजर आती है। साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया को ‘धोबी घाट’ बेहद बारीकी से उभारती है। और यह महीनी सिर्फ इसी प्रसंग तक सिमट कर नहीं रह गई है। एक चित्रकार के तौर पर अरुण का अपने कला के सम्बन्ध में व्यक्त उद्गार ध्यान देने लायक है। “मेरी कला समर्पित है, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और अन्य जगहों के उन लोगों का जिन्होंने इस शहर को इस उम्मीद से बनाया था कि एक दिन उन्हंे इस शहर में उनकी आधिकारिक जगह (राइटफुल प्लेस) मिल जायेगी। मेरी कला समर्पित है उस बाम्बे को।” अरुण यहाँ मुम्बई नहीं कहता है बाम्बे कहता है। अगर पूरे संदर्भ में आप बाम्बे संबोधन को देखें तो आप किरण की सिनेमाई चेतना की तारीफ किये बिना नहीं रह सकेंगे। हाल के दिनों में शायद ही किसी फिल्मकार ने शिव सेना की राजनीति का ऐसा मुखर प्रतिरोध करने की हिम्मत और हिमाकत दिखलायी है। प्रतिरोध की ऐसी बारीकी हाल के दिनों में एक आस्ट्रेलियाई निर्देशक Michael Haneke की फिल्म Cache i.e. Hidden (2005) में देखी थी। मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में यास्मीन नूर सहजता से किसी खांचे में नहीं आती। कहीं यह मुन्ना के करीब लगती है तो कहीं अरुण और शॉय के। मुन्ना और यास्मीन इस मामले में समान है कि दोनों अल्पसंख्यक वर्ग से तालुक रखते हैं, दोनां हिन्दी भाषी प्रदेश क्रमशः मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) और दरभंगा (बिहार) से हैं, दोनों रोजगार के सिलसिले में मुम्बई आते हैं (यास्मीन निकाह कर के अपने शौहर के साथ मुम्बई आई है। निम्न वर्ग या निम्न वित्तीय अवस्था वाले परिवारांे में लड़कियों के लिए विवाह भी एक कैरियर ही है।) इसके अलावा मुन्ना और शॉय के साथ मुम्बई में एक आउटसाइडर की हैसियत से साथ खड़ी नजर आती है। उसकी संवेदनशीलता उसे अरुण के साथ जोड़ती है। इन सबको जो चीज आपस में जोड़ती है, वह है मुम्बई, जिसकी बारिश और समन्दर ये आपस में साझा करते हैं। आप पायेंगे कि इन सबके जीवन में समन्दर और बारिश के संस्मरण मौजूद हैं। यह उनके एक साझे परिवेश से व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता है। यास्मीन के नक्शे कदम पर अरुण समन्दर के पास जाता है। मुन्ना और शॉय साथ-साथ समन्दर के किनारे वक्त बिताते हैं। लेकिन यास्मीन, बारिश और समन्दर जब भी पर्दे पर आते हैं फिल्म में हम कविता को आकार ग्रहण करते देखने लगते हैं। जैसे-“यहाँ की बारिश बिल्कुल अलग है, न कभी कम होती है, न कभी रुकने का नाम लेती है, बस गिरती रहती है, शश्श्श्......., रात को इसकी आवाज जैसे लोरी हो, जो हमें घेर लेती है अपने सीने में।” बारिश के समय अरुण अपनी पेंटिग में लीन हो जाता है तो शॉय अरुण के साथ बिताये गये अपने अंतरंगता के क्षणों में लेकिन इन सब की रोमानियत पर मुन्ना का यथार्थ पानी फेर देता है क्योंकि बारिश के वक्त मुन्ना अपनी चूती छत ठीक कर रहा होता है। इन तमाम समानताओं के बावजूद मुझे यास्मीन मुन्ना के ही नजदीक लगी। वह मारी गई अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण, पूरी फिल्म उसकी इस अतिरिक्त संवेदनशीलता का साक्षी है चाहे वह दाई का प्रसंग हो या किसी सदमे के कारण खामोश हो चुकी पड़ोसन का या फिर बकरीद के अवसर पर उसके उद्गार। एक लगातार संवेदनशून्य होते समय में संवेदनशीलता को कैसे बचाया जा सकता है। जो बचे रह गये उनकी संवेदनशीलता उतनी शुद्ध या निखालिस नहीं थी। शायद इसलिए यास्मीन की मौत मेरे जेहन में एक कविता के असमय अंत का बिम्ब नक्श कर गई। वैसे यहाँ ‘आप्रेस्ड क्लास’ के साथ ‘जेंडर’ वाला आयाम भी आ जुड़ता है। एक समान परिस्थितियों में भी पितृसत्तात्मक समाज किस कदर पुरुष की तुलना में स्त्री विरोधी साबित होता है। यास्मीन का प्रसंग इस लिए भी दिलचस्प है कि खुद आमिर खान ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के बाद किरण को अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था। फिल्म में इस ऐंगल को शामिल किये जाने मात्र से भी किरण की बोल्डनेस का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस कोण से ही फिल्म का दूसरा सिरा खुलता है जो यास्मीन की उपस्थिति और उसके सांचे में फिट न बैठ सकने की गुत्थी का हल प्रस्तुत करता है। यहीं मुन्ना यास्मीन का विस्तार (एक्सटेंशन) नजर आता है। यास्मीन सिर्फ इस कारण से नहीं मरी कि वह अतिरिक्त संवेदनशील थी वह इसलिए मरी कि उसमें आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता की कमी थी। मुन्ना भी लगभग उन्हीं स्थितियों में पहुँच जाता है जिन परिस्थितियों में यास्मीन ने आत्महत्या की है, (सलीम की हत्या हो चुकी है, शॉय को उसके चूहा मारने के धंधे बारे में मालूम हो गया है, जिस इलाके में वह काम करता था वहाँ से उठा कर जोगेश्वरी के एक अपार्टमेंट में फेंक दिया गया है।)। शुरु में मुन्ना भी उन परिस्थितियों से मुँह चुराकर भागता है। लेकिन फिर सामना करता है। यह जान कर की शॉय अरुण को ढूँढ रही है वह खुद उसको अरुण का पता देता है। आप पायेंगे कि लगभग पिछले मौकों पर मुन्ना आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देता रहा है। जैसे वह शॉय के कपड़े पर नील पड़ जाने के कारण उसके नाराजगी को ज्यादा फैलने का मौका दिये बगैर कहता है “मैडम गलती हो गई दीजिए मैं ठीक करके देता हूँ।” जब शॉय मुफ्त में उसका पोर्टफोलियो अपने ढंग से बाहर नेचुरल तरीके से शूट करना चाहती है तो वह कहता है कि “भाई हमें नहीं चाहिए फ्रेश-व्रेश, आप स्टूडियो में शूट किजीये ना, खर्चा मैं भरता हूँ।” फिर भी ना-नुकुर की स्थिति बनता देख वह सीधा कहता है कि ‘आपको माॅडल्स फोटो लेने हैं कि नहीं! धंधा, मोहब्बत को गंवा कर भी फिल्म के अंत में ‘द लास्ट स्माइल’ की स्थिति में मुन्ना ही है, जो उम्मीद बंधाती है। इसके अलावे पूरी फिल्म के बुनावट में जो बारीकी है वह स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले में की गई मेहनत को दर्शाती है। जैसे फिल्म के शुरुआती दृश्य में जब यास्मीन खुद के मलीहाबाद की बताती है तो उसकी अहमियत आधी फिल्म खत्म होने के बाद मालूम होती है जब वह इमरान को संबोधित करते हुए अपनी दूसरी चिट्ठी मे यह कहती है कि ‘वहाँ तो आम आ गये होंगे ना, यहाँ के आमों में वह स्वाद कहाँ ?’ मुन्ना की खोली में उसके इर्द-गिर्द रहनेवाली बिल्ली की नोटिस हम तब तक नहीं लेते हैं जब तक मुन्ना अपनी खोली नहीं बदलता। दूसरी बार जब मुन्ना शॉय की नील लगी शर्ट को ठीक करके वापस करने के लिए शॉय के फ्लैट पर जाता है तो शॉय मुन्ना को चाय के लिए भीतर बुलाती है उस वक्त दरवाजे के किनारे खड़ी एग्नेस (नौकरानी) फ्रेम में आती है। उसके फ्रेम में आने का मतलब ठीक अगले ही सीन मे समझ आ जाता है, जब एग्नैस चाय लेकर आती है, एक कप में और दूसरी ग्लास में। आप पायेंगे कि बेहद पहले अवसर पर ही मुन्ना को शॉय के द्वारा मिलने वाले अतिरिक्त भाव को भांपने में वह पल भर की देरी नहीं करती और आगे चलकर इस बारे में अपनी राय भी जाहिर करती है। मुन्ना के बिस्तर के पास लगे सलमान खान के पोस्टर की अहमियत का भान हमें फिल्म के आगे बढ़ने के साथ होता चलता है। मुन्ना की कलाइयों में बंधी मोटी चेन, डम्बल से मसल्स बनाते वक्त सामने आइने पर सलमान की फोटो को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। लेकिन तीन मौके और है जब हम फिल्म में सलमान खान की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हैं। पहला, जब शॉय मुन्ना से दूसरी बार किसी पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में संयोगवश मिलती है। दूसरा, जब वह मुन्ना का पोर्टफोलियो शूट कर रही होती है और तीसरा जब वह अरुण के साथ खुद को देख लिये जाने पर उससे विदा लेकर दौड़ती हुई मुन्ना के पास पहुँच कर कहती है कि आज तुम मुझे नागपाड़ा ले जाने वाले थे और फिल्म दिखाने वाले थे। फिल्म में सलमान खान की जबर्दस्त उपस्थिति को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। शरु में ही मुन्ना और सलीम केबल पर प्रसारित होने वाली जिस फिल्म को देखकर ठहाके लगाते हैं, वह सलमान खान अभिनीत हैलो ब्रदर है। फिर जब पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के क्रम में शॉय मुन्ना से मिलती है वह फिल्म है ‘युवराज’। मुन्ना अपने पोर्टफोलियो शूट के लिए जो पोज दे रहा होता है अगर सलमान खान के बिकने वाले सस्ते पोस्टकार्ड और पोस्टर को आपने देखा हो तो आप समझ सकते हैं कि मुन्ना उससे कितना मुतास्सिर है और जिस फिल्म को दिखाने की बात की थी मुन्ना ने वह फिल्म थी, ‘हैलो’। हैलो ब्रदर ‘युवराज’ और ‘हैलो’ दोनों फिल्में सलमान खान की है। इन कारणों से बाद में खोली बदलते वक्त मुन्ना द्वारा सावधानी से सलमान खान के पोस्टरों को उतारा जाना एक बेहद जरुरी दृश्य लगता है। लेकिन सिर्फ इस कारण से मैं सलमान खान की उपस्थिति को जबर्दस्त नहीं कह रहा हूँ। इन संदर्भों से जुड़े होने के बावजूद वैसा कहने की वजह दूसरी है। वह यह कि किसी भी फिल्म में यथार्थ के दो बुनियादी आयामः काल और स्थान (टाईम एण्ड स्पेस) को सहजता से पहचान जा सकता है। आम तौर पर हिन्दी सिनेमाई इतिहास में इस किस्म के प्रयोग कम ही देखने को मिले हैं जिसमें शहर को ही मुख्य किरदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो। जाहिर है जब आप शहर को प्रोजेक्ट कर रहे होते हैं तो रियलिटी का स्पेस वाला डाइमेंशन टाईम वाले फैक्टर की तुलना में ज्यादा महŸवपूर्ण हो उठता है। ‘धोबी घाट’ में भी ठीक यही हुआ है। आप मुम्बई को देख रहे हैं लेकिन वह कब की मुम्बई है ? कहें कि आज की तो मैं कहूंगा कि वह अक्टूबर-नवम्बर 2010 के आगे-पीछे की मुम्बई है, इतना स्पेस्फिक कैसे हुआ जा सकता है, इसके संकेत फिल्म में है। ‘धोबी घाट’ उस अंतराल की कहानी कहता है जब सलमान खान की ‘युवराज’ रीलिज हो चुकी थी और ‘हैलो’ चल रही थी और हैलो ब्रदर इतनी पुरानी हो चुकी थी कि उसका प्रसारण केबल पर होने लगा था। सलमान खान मुम्बई के उस स्पेस के टाईम फ्रेम को रिप्रेजेन्ट करता है। बस इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इसके लिए जिस ढ़ंग से सलमान खान का मल्टीपर्पस यूस किया गया है, वह किसी मामूली काबिलियत वाले निर्देशक के बूते की बात नहीं है। शहर को किरदार बनाने की दूसरी कठिनाई यह है कि स्टोरी नरेशन को ग्राफ या स्ट्रक्चर लीनियर नहीं हो सकता उसे सर्कुलर होना पडे़गा। किस्सागोई का यह सर्कुलर स्ट्रक्चर सुनने में जितना आसान है उसे फिल्माना उतना ही मुश्किल है। खासकर भारतीय दर्शक वर्ग जो लीनियर स्ट्रक्चर वाली फिल्मों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि वह उनके सिनेमाई संस्कार का पर्याय हो गया है। हिन्दी सिनेमाई इतिहास में जब से मैंने फिल्में देखनी शुरू की है, किरण राव का यह प्रयास कई मायने में मुझे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की याद दिला गया। जिस तरह रेणु ने अंचल को नायक बनाकर हिन्दी कथा साहित्य की परती पड़ी जमीन को तोड़ने का काम किया था, किरण ने भी लगभग वैसा ही किया है। इतना ही नहीं रेणु ने अपनी कहानियों को ‘ठुमरीधर्मा’ कहा था। संगीत का मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन इतना सुना है कि ठुमरी में कोई एक केन्द्रीय भाव या टेक होती है और बार-बार गाने के क्रम में वहाँ आकर सुस्ताते हैं, स्वरों के तमाम आरोह-अवरोह के बाद उस बुनियादी टेक को नहीं छोड़ते हैं, जिसे उसकी सार या आत्मा कह सकते हैं। ऐसा करते हुए हम उस अनुभूति को ज्यादा घनीभूत या सान्द्रता प्रदान कर रहे होते हैं जो प्रभाव को गाढ़ा करने का काम करता है। इस आवर्तन के जरिये आप उसके केन्द्र या नाभिक को ज्यादा संगत तौर पर उभार पाते हैं। रेणु ने इस शिल्प के जरिये अपनी कहानियों में अंचल की केन्द्रीयता को उभारने में सफलता पाई थी। लगभग वैसा ही शिल्प किरण ने अपनी इस फिल्म के लिए अख्तियार किया है। और यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि फिल्म में संभवतः बेगम अख्तर द्वारा गाया गये दो ठुमरी भी बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर मौजूद है। एक जब अरुण यास्मीन वाले घर में अपने सामानों को तरतीब दे रहा है और दूसरा जब मुन्ना बारिश में भींग कर शॉय को बाय कर रहा होता है और अरुण अपनी पैग में बारिश के चूते पानी को मिला कर पेन्टिग शुरू कर रहा होता है। भारत के किसी एक शहर या अंचल को फिल्माना खासा चुनौतिपूर्ण है। उसमें भी मुम्बई जो लगभग एक जीता-जागता मिथ है। मुम्बई के नाम से ही जो बातें तत्काल जेहन में आती हैं उनमें मायानगरी, मुम्बई की लोकल, स्लम्स, गणपति बप्पा, जुहू चैपाटी, पाव-भाजी, भेल-पुरी, अंडरवल्र्ड, शिवसेना आदि तत्काल दिमाग में कौंध जाते हैं। इस सबसे मिलकर मुम्बई का मिथ बना है। फिल्म में यह सब हैं जो मुम्बई के इस मिथ को पुष्ट करता है। तो फिर नया क्या है ? नया इस मिथ को पुष्ट करते हुए उसकी आत्मा को बयां करना है। मुम्बई के इस मिथ या कहें कि स्टीरियोटाईप छवि को किरण निजी अनुभवों (पर्सनल एक्सपिरयेंसेज) के जरिये जाँचती है। अंत में मुन्ना की मुस्कान उस मुम्बईया स्प्रिट की छाप छोड़ जाती है जिसको हम ‘शो मस्ट गो आॅन’ के मुहावरे के तौर पर सुनते आये हैं। अभिनय की दृष्टि से आमिर को छोड़कर सब बेहतरीन हैं। मोनिका डोगरा ने कुछ दृश्यों में जो इम्प्रोवाइजेशन किया है वह गजब है। चार उदाहरण रख रहा हूँ, एक जब उसके शर्ट पर वाईन गिरती है उस समय का उसका ‘डिलेयड पाॅज एक्सप्रेशन’, दूसरा जब फोटो शूट के वक्त मुन्ना पूछता है कि क्या मैं अपना टी शर्ट उतार दूं तब मोनिका ने जो फेस एक्स्प्रेशन दिया है, वह इससे पूर्व कमल हासन में ही दिखा करता था। तीसरा मुन्ना जब पहली बार कपड़ा देने उसके फ्लैट पर गया है, तब वह अपने हाथ को जिस अंदाज में हिला कर कहती है, ‘अंदर आओ।’ और चैथा जब वह अपने टैरेस पर उठने के ठीक बाद अपनी मां से बात कर रही है। पूरे फिल्म मंे प्रतीक बब्बर की बाॅडी लैंग्वेज ‘मि परफ्ेकशनिस्ट’ पर भारी है। इस पर तो काफी कुछ लिखा जा सकता है लेकिन फिलहाल इतना ही कि एक दृश्य याद कीजिए जहाँ मुन्ना शॉय के साथ फिल्म देख रहा है, शॉय के हाथ के स्पर्श की चाह से उपजा भय, रोमांच और संकोच सब उसके चेहरे पर जिस कदर सिमटा है, वह एक उदाहरण ही काफी जान पड़ता है। ‘जाने तू या जाने ना’ में अपनी छोटी भूमिका की छाप को प्रतीक बब्बर ने इस फिल्म में धुंधलाने नहीं दिया है। सलीम इससे पहले ‘पिपली लाइव’ में भी एक छोटी सी भूमिका निभा चुके हैं। यास्मीन को सिर्फ आवाज और चेहरे के बदलते भावों के द्वारा खुद को कन्वे करना था। और वह जितनी दफा स्क्रीन पर आती है उसकी झरती रंगत मिटती ताजगी को महसूस किया जा सकता है। आमिर के हाथों अरुण का किरदार फिसल जाता है, इसे देखते हुए आमिर के संदर्भ में पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि वे एक्टर नहीं स्टार हैं। अरूण कोई ऐसा किरदार नहीं था जिसके गेस्चर और पोस्चर के जरिये उसे कन्वे किया जा सकता था। लगान, मंगल पाण्डेय, तारे जमीन पर, गजनी, थ्री इडियट की तरह सिर्फ वेश-भूषा बदल लेने से ही अरुण पहचान लिया जाता ऐसी बात नहीं थी। अरुण के किरदार को अभिनीत नहीं करना था बल्कि जीना था। आमिर एक्टिंग के नाम पर उन कुछ बाहरी लक्षणों तक ही सिमट कर रह गये जिसे उनकी चिर-परिचित मुद्राओं के तौर पर हम देखते आये हैं। मसलन्, फैलती-सिकुड़ती पुतलियाँ, भवों पर पड़नेवाला अतिरिक्त बल, सर खुजाने और लम्बी सांसे छोड़ना वाला अंदाज आदि। यह लगभग वैसा ही सलूक है जैसा ‘चमेली’ में करीना कपूर ने किया था, उसने भी होंठ रंग कर, पान चबा कर, चमकीली साड़ी और गाली वाली जुबान के कुछ बाहरी लक्षणों के द्वारा चमेली को साकार करना चाहा था। उसी के समानांतर ‘चांदनी बार’ में तब्बू को देखने से किसी किरदार को जीने और अभिनीत करने के अंतर को समझा जा सकता है। बहरहाल इस लिहाज से मोनिका डोगरा सब पर भारी है। अब अगर बात नेपथ्य की करें तो फिल्म का संगीत और सिनेमेटोग्राफी वाला पहलू बचता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है केवल बैकग्राउंड स्कोर है जिसके कम्पोसर हैं, ळनेजंअव ैंदजंवसंससं। इस साल हर फिल्म फेस्टिवल में जिस अर्जेन्टीनियाई फिल्म ‘दी ब्यूटीफूल’ ने सफलता के झंडे गाड़े हैं उसका संगीत भी गुस्ताव ने दिया है लगभग हर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके इस संगीतकार का जादू रह-रह कर थोड़े अंतराल पर ‘धोबी घाट’ में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। उन संवादहीन दृश्यों में खासकर जहाँ फिल्म की कहानी सुर-लहरियों पर तिरती आगे बढ़ती है। कहानी साउण्डट्रैक में संचरण करती है। ऐसा कई एक जगहों पर हैं। पर्दे पर आमिर खान प्रोडक्शन के साथ अजान सरीखा एक संगीत है जिसको बीच-बीच में पटरी पर दौड़ती ट्रेन की खट-खट-आहट तोड़ती है, मुन्ना और शॉय जब अंतरंगता के क्षणों में डूब रहे होते हैं। इसके अलावा अकेलापन, उदासी, प्यार जैसी भावनाओं को भी गहराने की कोशिश सुनी जा सकती है। गुस्ताव के साथ ही फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी सराहनीय है। खास कर तुषार कांति रे के वे पन्द्रह-सोलह स्टिल्स, जिसमें शॉय डेली मार्केट को अपनी निगाहों में कैद कर रही है। पर इससे भी ज्यादा प्रभावी वह दृश्य है जिसमें मुन्ना शॉय के साथ समन्दर किनारे बैठ कर डूबते सूरज को देख रहा है और वह डूबता सूरज मुन्ना के पीछे समन्दर के किनारे खड़ी किसी इमारत की उपरी मंजिलों पर लगे शीशे पर प्रतिबिम्बित हो रहा है। शुरू और आखिरी के चार-चार शाट्स की बात तो कर ही चुका हूँ। वैसे सिनेमेटोग्राफी को थोड़ा और सशक्त होना था क्योंकि एक ही साथ विडियो (यास्मीन), पेन्टिंग (अरुण), और फोटोग्राफी (शॉय) तीनों आर्ट फार्म की निगाह से मुम्बई को कैद करने की बात थी। फिल्म कमजोर लगी आमिर के कारण और एक दूसरी बुनियादी गलती है सलमान खान के फिल्मों के नामोल्लेख के संदर्भ में किरण को करना सिर्फ इतना था कि मुन्ना से शॉय की दूसरी मुलाकात पर उन्हें ‘युवराज’ की जगह ‘हैलो’ देखने जाते हुए दिखलाना था और बाद में मुन्ना उसे ‘युवराज’ दिखाने का वादा कर रहा होता। ऐसा इसलिए कि ‘हैलो’ 10 अक्टूबर 2010 को रिलीज हुई थी और ‘युवराज’ 21 नवम्बर 2010 को। इससे रियलिटी के टाईम वाले डायमेन्सन की संगति भी बैठ जाती। फिलहाल तो इस फिल्म को देखने के बाद जिन बातों की प्रतिक्षा कर रहा हूँ उनमें अनुषा रिजवी और किरण राव की दूसरी फिल्म, ‘पिपली लाइव’ की मलायिका शिनाॅय व नवाजुददीन (राजेश) और ‘धोबी घाट’ की मोनिका डोगरा व प्रतीक बब्बर की अगली भूमिकाओं का इंतजार शामिल है। From vineetdu at gmail.com Thu Mar 3 10:40:28 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 3 Mar 2011 10:40:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYcg4KSa4KSu4KSV4KWA4KSy?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpuClgeCktuCljeCkruCkqA==?= Message-ID: दीवान के साथियों ये कॉलेजों औऱ शैक्षणिक संस्थानों में सेमिनारों के लिए मिले फंड को किसी भी तरह पानी में बहाने-दहाने का सीजन चल रहा है। क्लोजिंग इकॉनमी सेशन के पहले इस फंड को हवा कर देनी है। इस लिहाज से आनन-फानन में माता-जागरण की तर्ज पर सेमिनार कराए जा रहे हैं। इन सेमिनारों से हमें कोई परेशानी नहीं है लेकिन जो विषय पकड़ा है और उस पर बोलने के लिए जो लोग बुलाए जा रहे हैं,इसे लेकर फेसबुक पर इन दिनों बहस गर्म है। सबसे बड़ा सवाल है कि जिस मेनस्ट्रीम मीडिया के लोगों ने न्यू मीडिया की आवाज को शुरुआती दौर से कुचलने की कोशिश की,उसे गलत संदर्भ में प्रसारित किया,आज टेलीविजन के चमकीले चेहरे भर हो जाने से रातोंरात उसके आधिकारिक वक्ता हो गए। रामबहादुर राय जैसे जीमेल अकाउंटविहीन पत्रकार और नामवर सिंह जैसे तकनीक विरोधी आलोचक इस घोषणा के साथ कि मुझे कुछ नहीं आता है,सेमिनारों में जगह घेरकर टाइम खोटा कर रहे हैं। अजीत अंजुम जैसे मीडिया मठाधीश जिनकी असहमति में एक लाइन भी छप जाए तो लोगों का जीना हराम कर देते हैं,ऐसे लोग न्यू मीडिया के वक्ता के तौर पर बोले और बुलाए जा रहे हैं। ये इन दिनों न्यू मीडिया संभावनाएं औऱ चुनौतियां परर ज्ञान बांट रहे हैं। हमारा सवाल सिर्फ इतना है कि जिसने कभी इस माध्यम को एक संभावना के तौर पर नहीं देखा औऱ जिसने इसमें कभी कुछ किया ही नहीं तो उन्हें चुनौतियां कब मिली होगी औऱ वो इस पर क्या बोलेंगे। लिहाजा फेसबुक पर न्यू मीडिया प्रैक्टिसनरों ने अपना विरोध दर्ज किया है। यहां हम उसी कड़ी में मीडियाखबर डॉट कॉम की एक पोस्ट आपसे साझा कर रहे हैं- न्यू मीडिया पर सेमीनार या फिर तमाशा *आप* बाढ़ की स्टोरी को कवर करें और पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में रामनाथ गोएंका अवार्ड लें. आप टेलीविजन में काम करें , सनसनी , रेड एलर्ट जैसे क्राइम शो बनायें और अचानक न्यू मीडिया के विशेषज्ञ बन जाए. ‘न्यू मीडिया – यूथ मीडिया की चुनौतियाँ एवं संभावनाएं’ पर व्याख्यान देने लगे तो हम जैसे नए मीडिया से कई सालों से जुड़े लोगों के लिए घोर आश्चर्य और ऐतराज का विषय तो होगा ही. इस शुक्रवार को ऐसा ही कुछ होने जा रहा है. द संडे इंडियन और एसजीटीबी खालसा कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय एक मीडिया सेमिनार का आयोजन करने जा रहा है. इसका विषय है *न्यू मीडिया – यूथ मीडिया : चुनौतियां और संभावनाएं.* वक्ता हैं : बीएजी नेटवर्क के *अजीत अंजुम*, *प्रो.सुधीश पचौरी* , बीबीसी हिंदी ऑनलाइन की *सलमा जैदी*, र*वीश कुमा*र , *अभिसार शर्मा , शीतल राजपूत* और *आदित्य राज कौल*. ** * बार्टर सिस्टम-तुम मुझे चैनल पर चमकाओ मैं तुम्हे सेमीनार में * *आमंत्रण* कार्ड में सबसे ऊपर बीएजी नेटवर्क के अजीत अंजुम का नाम है. उसके बाद प्रो.सुधीश पचौरी और फिर सलमा जैदी का. देखकर कर एक बारगी सवाल उठना लाजमी है कि सबसे वरिष्ठ क्या अजीत अंजुम हैं या उनका कद सुधीश पचौरी और सलमा जैदी से भी बड़ा हो गया है जो सबसे पहले उनका नाम छापा गया है. या फिर वे ही न्यू मीडिया के सबसे बड़े पैरोकार है. कायदे से तो सबसे वरिष्ठ वक्ता का नाम आमंत्रण कार्ड में सबसे ऊपर होना चाहिए था. लेकिन लगता है ‘द संडे इंडियन’ की नज़र में अजीत अंजुम का कद प्रो.सुधीश पचौरी और सलमा जैदी से भी बड़ा है. *बहरहाल* वापस मुद्दे पर लौटते हैं. इस सेमिनार में वक्ता के तौर पर बुलाए गये लोगो में बीएजी के अजीत अंजुम, आजतक के एंकर अभिसार शर्मा और ज़ी न्यूज़ की एंकर शीतल राजपूत हैं. टेलीविजन के ये तीन चेहरे न्यू मीडिया – यूथ मीडिया : चुनौतियाँ और संभावनाएं पर बोलेंगे. लेकिन सवाल उठता है कि ये क्या बोलेंगे ? इन तीनों का इंटरनेट / वेब पत्रकारिता में क्या योगदान है? क्या ज्ञान है ? ख़ैर दो टेलीविजन न्यूज़ चैनलों के चमकते चेहरे हैं शायद इसलिए इन्हें बुलाया गया. लेकिन इनकी चमक का न्यू मीडिया : यूथ मीडिया में क्या काम ? ज़ी न्यूज़ की एंकर शीतल राजपूत की अबतक इंटरनेट पर कोई गतिविधि नहीं देखी और न न्यू मीडिया में उनके किसी योगदान के बारे में सुना है. आजतक के एंकर अभिसार शर्मा फेसबुक पर मित्र हैं. फेसबुक पर कुछ – कुछ स्टेटस लिखते रहते हैं. उसके अलावा इंटरनेट पर उनकी कोई सक्रियता नहीं है और न कोई योगदान. बीएजी फिल्मस के एडिटोरिअल डायरेक्टर और सनसनी और रेड एलर्ट जैसे अपराध कार्यक्रमों के जन्मदाता अजीत अंजुम फेसबुक पर सक्रिय हैं. दो – चार लाइन का वे कमेन्ट लिखते हैं और ढेरों कमेंट्स पाते हैं. वे लिख दें ‘हवा चल रही है’ तो भी 108 कमेन्ट मिल जाते हैं. फेसबुक पर उनका यह जलवा है. हालाँकि इसमें से ज्यादा कमेंट्स आह – वाह वाले लोगों का होता है जो कमेंट्स कर अपना नंबर बनाते हैं. लेकिन क्या महज फेसबुक पर उनके स्टेटस लिख देने मात्र से वे न्यू मीडिया : यूथ मीडिया : चुनौतियाँ और संभावनाओं पर बातचीत करने की योग्यता पा लेते हैं? *यह *वो लोग हैं जिन्होंने वेब मीडिया की ताकत को हमेशा कमतर करके आँका. उसे दो कौड़ी की चीज और वेबसाईट चलाने वालों को भिखारी से ज्यादा कुछ नहीं समझा. हालाँकि उसी भिखारी के वेबसाईट पर छपने के लिए ये लोग लाख जतन भी करते रहते हैं. आप जबतक इनके टूल की तरह इस्तेमाल होते रहो तब तक ठीक है. आप उनके कार्यक्रमों की प्रेस विज्ञप्ति चुपचाप छापो तब तक सब बहुत बढ़िया. लेकिन जैसे ही आपने आलोचना शुरू की तो आपकी वेबसाईट दो कौड़ी की हो जायेगी. आप पर पक्षपात का आरोप लगने लगेगा. उससे भी नहीं हुआ तो साईट को प्रतिबंधित कर दिया जाएगा. जैसे अभी न्यूज़24 में मीडिया खबर.कॉम प्रतिबंधित है. *यह* सब बताने का मकसद नीयत को सामने लाना है. वेबसाईट और इंटरनेट का मजाक उड़ाने के अलावा उसे कुचलने की साज़िश सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों ने रची और अब न्यू मीडिया के पैरोकार बन गए हैं. न्यू मीडिया – यूथ मीडिया : चुनौतियाँ और संभावनाएं पर बोलेंगे. संभावनाओं को ये लोग मार रहे हैं और चुनौतियों से अनभिज्ञ हैं . फिर ये व्यर्थ प्रलाप के सिवाए कर ही क्या सकते हैं ? ऐसे सेमिनारों का न्यू मीडिया के लोगों के द्वारा पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब टेलीविजन न्यूज़ के मठाधीश , न्यू मीडिया के भी मठाधीश बन जायेंगे और न्यू मीडिया के असली प्रतिनिधि हाशिए पर धकेल दिए जायेंगे. यहाँ भी उसी तरह की गंध फैलेगी जैसी किसी ज़माने में एसपीसिंह के जाने बाद टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री में फैली और जिसे आजतक न्यूज़ इंडस्ट्री भुगत रहा है. *वैसे* आजकल बार्टर सिस्टम के तहत भी गेस्ट लाइन तैयार की जाती है . यानी हम आपको अपने यहाँ बुलाते हैं और आप हमें बुलाइए. बजट के दौरान ‘द संडे इंडियन’ के अरिंदम चौधरी न्यूज़24 पर दिखायी दे रहे थे तो अब उनके सेमीनार में अजीत अंजुम को बुला कर बार्टर सिस्टम की पूरी प्रक्रिया तो नहीं पूरी की जा रही है. लगता तो कुछ ऐसा ही है . *द *संडे इंडियन की तरफ से *अनिल पाण्डेय* ने मीडिया खबर के पास आमंत्रण और प्रेस विज्ञप्ति भेजी थी. अनिल पाण्डेय लंबे समय से मित्र रहे हैं. लेकिन मुद्दा ऐसा था जिसका विरोध करना जरूरी था. उसके जवाब में हमने उन्हें मेल से अपना विरोध दर्ज करवाते हुए लिखा :* 2 March 2011 22:49* न्यू मीडिया - यूथ मीडिया : चुनौतियाँ एवं संभावनाएं . अनिल जी विषय तो बढ़िया है. लेकिन वक्ता ???? अजीत अंजुम क्या बोलेंगे ??? न्यू मीडिया / यूथ मीडिया को कुचलने की साजिश ये लोग रचते हैं और आपलोग इन्हें इस विषय पर बात करने के लिए बुलाते हैं. यह बेहद अफसोसजनक है . मैं ऐसे किसी भी सेमिनार का विरोध करता हूँ. सलमा जैदी को आपने बुलाया . उसपर कोई आपत्ति नहीं. उनका नाम सबसे ऊपर होना चाहिए था. लेकिन सबसे ऊपर अजीत अंजुम का नाम है जैसे सबसे वरिष्ठ वही हैं और न्यू मीडिया के सबसे बड़े ज्ञाता. अफ़सोस मुझे सन्डे इंडियन और आपसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी. यदि इसमें विस्फोट.कॉम , मोहल्ला या न्यू मीडिया के प्रेक्टिशनर को बुलाते तो बात तो समझ में आती. अफ़सोस यहाँ सेमीनार नहीं सेमीनार का तमाशा हो रहा है. न्यू मीडिया का मजाक उड़ाया जा रहा है. विषय के अनुरूप गेस्ट बुलाने की बजाये बार्टर सिस्टम के तहत गेस्ट बुलाए जा रहे हैं. आप हमें अपने टेलीविजन चैनल पर बुलाइए और हम आपको सेमिनार में बुलाकर आपको महिमा मंडित करते हैं. हम न्यू मीडिया के लोग सिर्फ प्रेस विज्ञप्ति छापने के लिए नहीं है. माफ कीजियेगा. मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूँ. नई मीडिया के खिलाफ यह साजिश की तरह काम हो रहा है. अफ़सोस आपलोग इस साजिश को पूरा करने में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं. *अनिल पाण्डेय का जवाब : 2 March 2011 23:19* पुष्कर जी, आप के तर्क से मैं सहमत नहीं हू... मेरी गुजारिश है कि आप अपनी भाषा पर संयम रखा करें. न्यू मीडिया का ठेका केवल चंद लोगों ने नहीं ले रखा है... मोहल्ला, विस्फोट या कुछ वेबसाइट के लोग तो न्यू मीडिया की बात तो करते ही है... हर सेमिनार में यही लोग होते हैं और एक ही बात करते हैं. उसमें पत्रकार भी हैं और अकादमिक लोग भी. नेता हैं और नेट एक्टविस्ट भी... .. आखिर नए लोगों से नई बात निकलेगी...... .आप किसी को सर्टिफिकेट देने की बजाए सेमिनार में आकर उन्हे सुने और उनसे असहमति हो वहां दर्ज करा सकते हैं.. लेकिन आप का इस तरह का व्यवहार कतई उचित नहीं है. हमारे यहां यही दिक्कत है कि लोग नए विचार को आगे आने ही नहीं देते.. अजीत अंजुम फेस बुक पर ,बसे ज्यादा सक्रिय पत्रकारों में से एक हैं... और आप ने मुझे कब अजीत अंजुम जी के चैनल पर देख लिया.. है. इस तरह के घटिया आरोप लगाने से पहले आप को सोचना चाहिए. न्यू मीडिया की यही कमी है जो मन में आया अनाप शनाप लिख दिया और इंटरनेट के समुद्र में फेक दिया. इससे किसी का अपमान हो या मानहानि.... उसकी परवाह नहीं... मित्र लिखना तो मैं बहुत कुछ चाह रहा हूं और लेकिन आज हमारा एडिसन छूटता है इसलिए व्यस्त हूं.. हां, कल मैं आप से फोन पर इस बारे में विस्तार से बात करूंगा. *बहरहाल* अब बात क्या होगी ? अब ऐसे किसी भी सेमिनार का सिर्फ विरोध होगा. यदि मोहल्ला और विस्फोट को नहीं बुलाना चाहते तो मत बुलाएं . न्यू मीडिया में लोगों की कोई कमी है क्या ? *शैलेश भारतवासी* (हिंदी युग्म.कॉम ) जैसे बहुत से न्यू मीडिया के सच्चे पैरोकार मौजूद हैं जिनका न्यू मीडिया को बढ़ावा देने में अमूल्य योगदान रहा है. नए लोगों को बुलाना ही था तो ऐसे लोगों को बुलाना चाहिए था. कोई टेलीविजन न्यूज़ का मठाधीश आकर न्यू मीडिया की चुनौतियों पर बात करें , इससे बड़ा मजाक कुछ और नहीं हो सकता.फिर रवीश कुमार क्या नया बोलेंगे. हर दूसरे सेमीनार में वो भी तो नज़र आ जाते हैं. यहाँ पर नवीनता क्यों नहीं ढूंढी गयी ? पुष्कर पुष्प वैसे आप निश्चिंत रहे आपके सेमीनार में पहुंचकर हम जरूर आपके न्यू मीडिया के वक्ताओं से सवाल – जवाब करेंगे . खास तौर से बाढ़ की रिपोर्टिंग कर पॉलिटिकल रिपोर्टिंग का गोएंका अवार्ड पा चुके अजीत अंजुम से. उन्हें सुनना वाकई दिलचस्प होगा कि न्यू मीडिया की चुनौतियों और संभावनाएं पर वे क्या बोलते हैं. टेलीविजन न्यूज़ चैनलों के मठाधीशों के असली चरित्र को समझने में और आसानी होगी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Mar 4 08:36:43 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 4 Mar 2011 08:36:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KWA4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgiDgpLngpK4g4KS44KSsISDgpLDgpL7gpKzgpL8=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCksOCliyDgpLDgpLngpYAg4KS54KWIIOCklOCksCDgpLk=?= =?utf-8?b?4KSuIOCkuOCkrCDgpKbgpYfgpJYg4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiE=?= Message-ID: * * *सुबह-सुबह मोहल्लालाइव पर राबिया को लेकर आयी रिपोर्ट को पढ़कर दिल दहल गया। हम दीवान के साथियों से इसे इस उम्मीद से साझा कर रहे हैं कि वो अपने स्तर से कुछ कर सकें तो जरुर करें।* *विनीत* *कमीने हैं हम सब! राबिया रो रही है और हम सब देख रहे हैं!!* * * *यह राबिया के संवाददाता सम्‍मेलन की रिपोर्ट मात्र नहीं है। यह हमारे देश में कानून के कच्‍चा-चिट्ठा की कहानी है, यौन अपराध का दहला देने वाला सच है। हम जानते हैं कि हमारी व्‍यवस्‍था निकम्‍मी है, फिर भी, आइए, इसी व्‍यवस्‍था से हम राबिया के लिए न्‍याय की भीख मांगें : मॉडरेटर* दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस, वकीलों और व्यापारियों के गठजोड़ से लगभग पांच वर्ष से लगातार बलात्कार की शिकार रबिया के मामले में पुलिस आयुक्त को कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। रबिया के मामले में महिला आयोग, पुलिस के उच्चाधिकारियों, गृह मंत्रालय से सुनवाई नहीं किये जाने की स्थिति में रबिया ने उच्च न्यायालय को एक पत्र लिखा था और उसी पत्र के आधार पर पुलिस आयुक्त को कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है। यह जानकारी जागृति महिला समिति की अध्यक्ष निर्मला शर्मा ने संवाददाता सम्मेलन में दी। इस मौके पर पीड़‍िता भी मौजूद थी। *संवाददाताओं के सामने* अपनी दर्दनाक दास्तां बताते हुए राबिया ने कहा कि वह उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के निम्न मध्यवर्ग के परिवार की है। 12वीं कक्षा पास करने के बाद सन 2002 से 2004 तक कंप्यूटर ट्रैनिंग, सिलाई कढ़ाई, ब्यूटी पार्लर आदि की ट्रेनिंग लेती रही। जनवरी 2005 में राबिया फैशन डिजायनिंग का कोर्स करने का सपना लिये दिल्ली आयी और संस्थान में दाखिले के लिए गयी। लेकिन फैशन डिजायनिंग का सेशन जून/जुलाई से शुरू होना था। इसी बीच राबिया की नजर एक हिंदी अखबार के टेली कालर के जॉब के विज्ञापन पर पड़ी। इस जॉब के सिलसिले में उसे प्रीतमपुरा के टूईन टॉवर में साजन इंटर प्राइजेज में मिलना था। उसे प्रोपराइटर सुरेंद्र बिज उर्फ साहिल खत्री ने कोई भी नियुक्ति पत्र या करारनामा नहीं दिया। वहीं से 18-19 साल की राबिया के जीवन की बर्बादी शुरू हो गयी। दो माह काम करने पर प्रोपराइटर उर्फ मालिक ने उसे मात्र तीन हजार रूपये वेतन दिये। राबिया ने इतने कम वेतन की स्थिति में नौकरी छोड़ने को कहा तो प्रोपराइटर ने राबिया को रहने के लिए जगह का ऑफर दिया। राबिया 20 अप्रैल 2005 प्रोपराइटर द्वारा दिये गये फ्लोर सी-27, ओम अपार्टमेंट 33/77 पंजाबी बाग में अपने सामान के साथ शिफ्ट हो गयी। उस फ्लोर पर पहले से ही एक लड़की रह रही थी। *दूसरे ही दिन* साहिल खत्री उर्फ सुरेंद्र विज, उसके लड़के अक्षय खत्री, भांजे कपिल ढल, साहिल खत्री के दोस्त रोमी ने राबिया के साथ वहां रह रही लड़की की मदद से बलात्कार किया। राबिया को ऑफिस जाने से रोककर उसी फ्लोर पर कैद कर लिया गया। यहां तक टॉयलेट भी चाकू दिखाकर ले जाया जाता था। वहां रह रही लड़की से राबिया को पता चला कि वह भी उसकी शिकार थी, किस्मत से समझौता कर चुकी थी। हर रोज नये आदमी आते हैं, राबिया से बलात्कार करते हैं, कई पुलिस वाले और वकील भी आते हैं, जो सभी प्रोपराइटर के दोस्त थे और उसके काले धंधे में शामिल थे। *राबिया* उसके चंगुल से भागना चाहती थी। लेकिन इतने बड़े आपराधिक गैंग से निकल पाना संभव नहीं था। क्योंकि राबिया किसी तरह भाग जाना चाहती थी, यह गैंग समझ चुका था, राबिया से कई ब्लैक पेपर साइन कराया। वकील एम के अरोड़ा, वकील नवीन सिंघला और सब इंस्पेक्टर प्रहलाद सिंह ने साहिल खत्री के साथ साजिश रची कि इस लड़की के साथ वह शादी कर ले। राबिया शादी के लिए राजी नहीं थी। तब साहिल खत्री ने राबिया को फंसाने के लिए अपने सिर पर कांच का गिलास मारा और वकीलों और सब इंस्पेक्टर प्रहलाद सिंह ने राबिया को जान से मारने का हमला करने के झूठे केस में बंद कराने की धमकी देकर शादी करने को मजबूर किया। उसे आर्य समाज मंदिर यमुनाबाजार ले गया। वहां राबिया का शुद्धीकरण (धर्म परिवर्तन) कराकर राबिया के साथ तीन बच्चों के पिता लगभग 45 वर्षीय साहिल खत्री ने पहली पत्नी को तलाक दिये बगैर विवाह किया। मंदिर ने कोई छानबीन किये बगैर यह धर्म परिवर्तन और गैर कानूनी विवाह करा दिया। विवाह के बाद हर रोज बलात्कार का सिलसिला जारी रहा। राबिया के माता-पिता, भाई राबिया को ढूंढते थक कर मरा जान कर खामोश हो गये। *18 जुलाई 2007* को राबिया ने मौका मिलते ही अपने भाई को बताया कि वह यहां कैद है, उसे मुक्त करा लें। भाई बहन के बताये पते मोतीनगर से मुक्त कराने गया। साहिल खत्री ने 100 नंबर पर 14 लाख रुपये एवं गहनों की चोरी का आरोप लगाया कि सगे संबंधी ने चोरी की है। यह सब मोतीनगर के थानाध्यक्ष एवं सब इंस्पेक्टर प्रहलाद सिंह और वकील एमके अरोड़ा की मिली भगत से किया गया। राबिया और उसके भाई को थाना मोतीनगर में थानाध्यक्ष एवं एमके अरोड़ा और सब इंस्पेकटर प्रहलाद सिंह ने बुरी तरह पीटा और उनसे यह कहलवा लिया कि राबिया को दोबारा कभी लेने नहीं आएगा। राबिया साहिल खत्री के साथ रहेगी। इसके बाद 14 लाख रुपये और गहनों की चोरी की कोई एफआईआर दर्ज नहीं करायी गयी। *राबिया का* वोटर आईडी कार्ड, बैंक खाते, पैन कार्ड आदि बनवाये गये और अपने आपराधिक मुकदमों में जमानत के लिए राबिया के आईडी प्रूफ इस्तेमाल किये जाते थे। राबिया ने कभी अपने लिए कोई आईडी सुविधा इस्तेमाल नहीं की। यहीं नहीं, राबिया ने तो आज तक न अपना ड्राईविंग लाइसेंस बनवाया और न ही उसे बाइक चलानी आती है। फिर भी साहिल खत्री ने बाइक नंबर DL4SBM0947 नंबर की करिज्मा मोटर साइकिल राबिया के नाम से 26 अगस्त 2008 को खरीदी। जिसकी पेमेंट बलात्कारी कपिल ढल से साहिल खत्री ने उसके एटीएम कार्ड से करायी। मोटर साइकिल राबिया के नाम से इसलिए खरीदी गयी कि वह साहिल खत्री के आपराधिक मुकदमे में राबिया से जमानत करा सके, दूसरे राबिया भाग न सके। जबकि राबिया के नाम से खरीदी गयी मोटरसाइकिल अक्षय खत्री इस्तेमाल करता था। राबिया ने एक बार फिर साहिल खत्री के द्वारा जबरन यौन शौषण करने-कराने की शिकायत अपने भाई के माध्यम से दिनांक 5 जनवरी 2009 थाना मोतीनगर में दर्ज करायी। तो फिर साहिल खत्री एवं उसके पुलिस अफसर दोस्तों ने मोटरसाइकिल चोरी के दूसरे केस में फंसाने की कोशिश की। फिर डरा धमकाकर कहलवा लिया कि वह साहिल खत्री को छोड़कर नहीं जाएगी। लेकिन इस बार राबिया एक लड़की की मदद से भागने में कामयाब हो गयी। वह अपने घर इसलिए नहीं गयी कि घरवालों को पुलिस वाले एवं साहिल खत्री तंग न करे। राबिया नाम बदलकर पहले उस लड़की की मदद से मुंबई गयी, फिर उदयपुर में नारायण सेवा संस्थान गयी। लेकिन साहिल खत्री ने पुलिस वकीलों या बदमाश दोस्तों के साथ साजिश रचकर मोतीनगर थाने में दिनांक छह जनवरी 2009 को चोरी का मामला दर्ज करा दिया। शिकायत के आधार पर सब इंस्पेक्टर प्रहलाद सिंह झूठी छानबीन की रिपोर्ट तैयार करके दिनांक 18 मई 2009 को एमआईआर नंबर 199/09 राबिया एवं उसके भाइयों के खिलाफ दर्ज करा दी। उसके भाइयों को मुजफ्फरनगर जाकर गिरफ्तार कर लिया और उसके घर के बहुमूल्य सामान उठा लाये, जो सामान पुलिस वाले हजम कर गये और सामान कहीं दर्ज नहीं किया। राबिया को बताया गया कि तेरा भाई बंद है, तू वापस आयेगी तभी छुड़वाया जायेगा। राबिया वापिस आयी, झूठे मुकदमे का विरोध किया तो उसे भी पकड़ लिया गया। *बाद में* मजबूर राबिया ने फिर उसके साथ रहने का समझौता कर लिया। तो खुद ही उसकी जमानत बलात्कारी साहिल खत्री ने करा ली और कोर्ट में बाइक का पैसा जमा कराने को कहकर राबिया को साथ ले गया। फिर घर बदल लिया। दूसरे इलाके में राबिया ने साहिल खत्री के द्वारा की जा रही ज्यादतियों का विरोध फिर शुरू कर दिया तो कोर्ट में मोटरसाइकिल की रकम की किस्त जमा कराना बंद कर दिया। राबिया को तारीख पर पेश नहीं होने दिया। अदालत से वारंट करा दिया और अपनी कैद में रखता रहा। उसे धमकी देता रहा कि जिस दिन तूने भागने की कोशिश की, तुझे गिरफ्तार करा देगा। कोर्ट के गैर जमानती वारंटों पर पुलिस राबिया को गिरफ्तार नहीं कर रही थी। यह जानते हुए भी कि वह साहिल खत्री के साथ रह रही है। राबिया को अपने हर अपराध में इस्तेमाल करता था साहिल खत्री। *राबिया को* अक्टूबर 2010 में जागृति महिला समिति का पता चला। उसने सात अक्‍टूबर 2010 को अपनी शिकायत अर्जी थाना विकासपुरी में दी। डीजीपी वेस्ट से लेकर दिल्ली पुलिस आयुक्त एवं संयुक्त आयुक्त विजिलेंस तक को दी। लेकिन उसकी शिकायतों पर कोई तहकीकात नहीं की गयी। अपनी शिकायत राबिया ने उस पर अत्याचार यौन शोषण कराने वाले सभी पुलिस अफसरों, वकीलों और आपराधिक तत्वों के खिलाफ दी। जिसमें साहिल खत्री का बेटा अक्षय खत्री, भांजा कपिल ढल, भतीजे एवं दोस्तों के नाम दिये। सभी पुलिसवाले, यहां त‍क कि वरिष्ठ अफसर तक ने राबिया की शिकायतों को अनदेखा कर दिया। औरतों की सुरक्षा का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस ताज्जुब की बात है कि मोटरसाइकिल के झूठे केस पर क्षेत्रीय एसीपी एवं डीसीपी ने अपनी मोहर लगाकर कोर्ट में दाखिल करने की मंजूरी दे दी। यही नहीं अभियोजन विभाग के वकील ने भी मिलीभगत से चालान पास कर दिया। जागृति महिला समिति ने 21 अक्‍टूबर 2010 को राबिया की जमानत बड़ी मुश्किल से करायी। 60000 की मोटरसाइकिल की रकम जमा न करने और कोर्ट में न पेश होने पर एमएम ने 20000/20000 के दो जमानती मांगे। राबिया झूठे केस में बड़ी जद्दोजहद के बाद जमानत पर रिहा हो पायी, क्‍योंकि राबिया आपराधिक गैंग के खिलाफ लगातार पुलिस के आला अफसरों को अर्जियां भेज रही थी। दिनांक तीन नवंबर 2010 को राबिया का सामान आपराधिक गैंग ने चोरी कर लिया। मात्र पहने हुए कपड़ों में राबिया समिति की शरण में पहुंची। राबिया फिर से खड़ी होकर काम की तलाश में थी। दूसरी ओर समिति की मदद से अन्याय और अपराध के खिलाफ लड़ रही थी, जिसकी भनक पुलिसवालों को थी। राबिया और उसके भाई को फिर से झूठे मुकदमे में फंसाने की साजिश साहिल खत्री, अक्षय खत्री, प्रतीक खत्री, निति खत्री, साहिल खत्री के साथ पुलिस अफसर एवं वकील जोरों से कर रहे थे। राबिया काम की तलाश में किसी सहेली के घर रह रही थी। *अचानक* दिनांक 9 जनवरी 2011 को गहरी साजिश के तहत साहिल खत्री ने खुद पर गोली चलाकर कातिलाना हमले के मुकदमे में राबिया और उसके भाई को फंसाने की नीयत से अपनी बाजू पर गोली मार ली। लेकिन गोली उसके हृदय में लग गयी, साहिल खत्री मर गया। राबिया के निर्दोष भाई और राबिया को पुलिस ने पकड़ लिया। दस जनवरी 2011 को पुलिस ने राबिया के भाई को गैरकानूनी तरीके से थर्ड डिग्री की मार लगायी। गैरकानूनी ढंग से इन्हें दिनांक 19 जनवरी 2011 की रात तक थाने में रखा। समिति ने क्षेत्रीय डीसीपी नार्थ/वेस्ट को 14 पेज का पत्र लिखा। तब कहीं साहिल खत्री के गैंग के कुछ व्यक्तियों, उसके बेटों और दोस्तों को पुलिस ने पकड़ा, जिन्होंने अपना अपराध कुबूल कर लिया। पूरी साजिश एवं प्लानिंग के तहत साजिश रची गयी थी – राबिया और उसके भाई को झूठे केस में फंसाने की। लेकिन जिन्होंने अपना जुर्म कुबूल किया, पुलिस ने उन्हें भी छोड़ दिया। राबिया की शिकायत पर आज तक कोई कार्रवाई तो दूर, कोई सुनवाई तक नहीं की गयी। 23 वर्ष की उम्र में पांच सालों तक राबिया के जीवन की और उसके परिवार की खासी बदनामी करने वाले अपराधी आजाद घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें पुलिस और वकीलों का संरक्षण प्राप्त है। अदालतों में फाइलें धूल चाट रही हैं। *रिपोर्ट सौजन्‍य : रजनीश प्रसाद* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Mar 4 17:07:42 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Fri, 4 Mar 2011 17:07:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkuOClguCksOCknCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSo4KS/4KSV4KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KS+LyDgpKrgpYfgpJ8g4KSV4KWAIOCkreClguCkliDgpKzgpKHgpLw=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCliCDgpK3gpYjgpK/gpL4h?= Message-ID: विशाखा का असली नाम कम ही लोग जानते हैं. नहीं, यह बुद्ध की शिष्या विशाखा नहीं है, जिसने श्रावस्तीह में उस जमाने में 20 करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च कर के बौद्ध विहार बनाया था. वह नक्षत्र भी नहीं, जो आकाशगंगा में है. विशाखा से पूछें तो वह कहती हैं- “ मैं एक यौनकर्मी हूं, यौनकर्म मेरा पेशा है.” दो जून की रोटी के लिये अपना देह बेचने वाली विशाखा की जिंदगी में तो सूरज कभी उगा ही नहीं. दुनिया को समझने की उम्र होती, उससे पहले ही उसे एक ऐसी काली कोठरी में धकेल दिया गया, जहां आज तक कोई रोशनी पहुंची ही नहीं. लगभग 24 साल पहले एक मुंहबोली मौसी ने विशाखा को मात्र छह हजार रुपए में सोनागाछी में एक यौनकर्मी के हाथों बेच दिया था. उस वक्त विशाखा की उम्र महज चौदह साल थी. दक्षिण 24 परगना के सुंदरवन गांव की रहने वाली विशाखा कोलकाता में क्या काम करती है, यह बात उसका परिवार जानता है. इस पेशे में होने की वजह से विशाखा के घरवालों को गांव वालों ने दस साल तक अलग-थलग रखा. जब दस साल के बाद वह पहली बार घर गई तो गांव वालों ने उसका सामूहिक बहिष्कार किया. उसे गांव से बाहर निकल जाने के लिए कहा. विशाखा ने उन्हीं गांव वालों से पूछा- “अगर मैं गांव मैं रुक जाती हूं तो क्या तुममें से कोई मुझे खाने के लिए देगा ? ” जाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. विशाखा से बातचीत करते समय किसी का फोन आया. विशाखा ने बातचीत के बाद बताया कि उसके चाचाजी का फोन था- “ किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं. बिस्तर से उठ नहीं सकते. मुझे देखना चाहते हैं.” विशाखा बहुत साफगोई से बात करती हैं, बिना कुछ छिपाने की कोशिश किये. सिलीगुड़ी की वेश्याबस्ती खालपाड़ा में रहने वाली महिलाओं के साथ लंबे समय तक काम कर चुकी सामाजिक कार्यकर्ता सुष्मिता घोष कहती हैं- “ कोई पचास-सत्तर रुपए लेकर वे आपके सामने अपने को पूरी तरह उघाड़ कर रख देंगी. निश्चित तौर पर इस काम को करने के पीछे उनकी कोई बड़ी मजबूरी होगी. आप ही सोचिए क्या कोई खुशी से इस काम को कर सकता है ?” सिलीगुड़ी सोयायटी फॉर सोशल चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक खालपाड़ा में काम करने वाली साठ फीसदी यौनकर्मियों की उम्र बीस साल से कम है. मीता मंडल उत्तर 24 परगना के बोसीहाट की रहने वाली है. वह रविन्द्र संगीत सीखना चाहती थी. लेकिन इसके लिए उसके पिता और उसकी नई मां जो पिता की दूसरी शादी के बाद घर आई थीं, तैयार नहीं हुए. नई मां चाहती थी कि मीता दूसरों के घर में चूल्हा चौका करे और जो भी कमाई हो, वह लाकर उनके हाथ में रख दे. मीता को लगा कि अपना रास्ता खुद ही तय करना होगा. एक दिन वह संगीत सीखने के लिए अकेली कोलकाता निकल गई. यहीं मीता की मुलाकात एक आदमी से हुई, जिसने संगीत सीखाने और नौकरी दिलाने का वादा किया. लेकिन मीता को कहां मालूम था कि संगीत के नाम पर उसे एक ऐसे नरक में धकेल दिया जायेगा, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस आदमी ने उसे एशिया के सबसे बड़े वेश्याबस्ती सोनागाछी पहुंचा दिया. हालांकि मीता इस बस्ती में पहले से रह रही दूसरी लड़कियों से अधिक खुशकिस्मत थीं. एक गैर सरकारी संस्था दुर्वार महिला समन्वय समिति की कार्यकर्ताओं ने उस नरक से उन्हें छुड़ा लिया. लेकिन उस बस्ती में रह रही सैकड़ों, हजारों लड़कियां अब भी उसी नरक को भोग रही हैं. अब अंजली को ही ले लीजिए.उनके माता-पिता छोटी उम्र में उसे छोड़कर चले गए. एक पड़ोसी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे घर का काम करने के लिए सिलीगुड़ी के एक घर में रखवा दिया. यहां अंजली ने बंधुआ मजदूर की तरह दो वक्त की रोटी खाकर आठ साल तक काम किया.यहां से वह बहुत मुश्किल से निकली और जिसके सहारे निकली, उसी ने एक दिन उसे खालपाड़ा पहुंचा दिया. लेकिन इस नरक का अंत यहीं नहीं हुआ. एक दुर्घटना में उसने अपना एक पांव गंवा दिया. अब अंजली अपना एक पांव कटने के बाद भी खालपाड़ा में बतौर यौनकर्मी सक्रिय है. इसके अलावा वह कुछ घरों में झाड़ू पोछा भी करती है. अंजली कहती हैं- “ दो ही काम सीख पाई इस जिन्दगी में, एक झाड़ू पोछा और दूसरा यौनकर्म, वही कर रही हूं.” कंचनजंघा उद्धार केन्द्र से जुड़े संजय विश्वकर्मा बताते हैं कि इस इलाके में सक्रिय यौनकर्मियों में से अधिकांश को उनके गांवों से काम करने के बहाना लाया गया. उन्हें प्लेसमेंट एजेंसियों ने अच्छा खाना, कपड़ा और वेतन का लालच देकर यहां बुलाया और फिर उन्हें यौनकर्म के पेशे में डाल दिया. संजय कहते हैं- “ यहां काम करने वाली नब्बे फीसदी प्लेसमेंट एजेंसियों का कोई पंजीकरण नहीं है. यहां प्लेसमेंट के नाम पर मानव तस्करी का धंधा जोरो पर है.” विश्वकर्मा बताते हैं, किस तरह नेपाल के मोरम जिले का रहने वाला रॉयल नेपाल आर्मी का एक पूर्व जवान लड़कियों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार हुआ. शर्मनाक बात यह थी कि इस तस्करी में उसकी पत्नी और बेटी भी उसकी सहयोगी की भूमिका में थीं. खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में सक्रिय कुछ दलाल पिछड़े और गरीब जिलों में जाकर तीन से पांच हजार रुपए में युवा लड़कियों को खरीदकर दस से बारह हजार रुपए में वेश्या बस्तियों में बेचने का काम करते हैं. कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां लड़कियां मजबूरी में जरुर वेश्या बस्तियों तक लाई गईं लेकिन यहां लाने के लिए उनके साथ कोई धोखा नहीं किया गया. उन्होंने तय करके इस पेशे को अपनाया क्योंकि उनकी मजबूरी ही कुछ ऐसी थी. शिवानी कर्मकार का मामला ऐसा ही है, जो अपनी इच्छा से यौनकर्मी बनीं. उनके पति दमा के मरीज हैं. बेटे को थैलीसीमिया है. इनके ईलाज के लिए इन्हें हर महीने एक निश्चित रकम की जरुरत होती है. कोई सरकारी-गैर सरकारी संस्था उनके मदद के लिए आगे नहीं आई. सरकार की मदद इतनी भर है कि एक सरकारी अस्पताल में उनके पति और बेटे का ईलाज चलता है. उसके बावजूद दवा और समय-समय पर होने वाले जांच का पैसा उन्हें देना ही होता है. इसके साथ अपना और अपने बेटे का परिवार चलाना, आसान काम नहीं था. ऐसे में शिवानी को इस पेशे में उतरना पड़ा. शिवानी के परिवार में उनकी तीन बेटिया भी थीं, जिनकी शादी शिवानी ने कर दी लेकिन अपने होने वाले दामादों से यह बिल्कुल नहीं छुपाया कि वे काम क्या करती हैं ? चूंकि वे नहीं चाहती थीं कि कल को इस भेद के खुलने से उनके बेटियों को किसी प्रकार के मुश्किलों का सामना करना पड़े. आज शिवानी कर्मकार के चारों बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पर किसी प्रकार की आंच ना आए, इसके लिए उनकी मां ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया. सीता लोहार की कहानी शिवानी से अलग नहीं है. ग्यारह साल की उम्र में भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकलने के बाद वे चार साल तक बाल सुधार गृह में रहीं. कोई काम आता नहीं था. पढ़ाई-लिखाई कर नहीं पाईं. वहीं एक लड़की से दोस्ती हो ग. उसी ने लोहार का पहला परिचय रेड लाईट एरिया से कराया. दिल माने ना माने, पेट कहां मानने वाला था. सो उन्होंने इस काम को स्वीकार लिया. इस नरक में आने के बाद भी उन्होंने अपनी दोनों लड़कियों को इस दुनिया से दूर ही रखा. आज लोहार की दोनों लड़कियां अंग्रेजी माध्यम के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं. स्वतंत्र पत्रकार रुपक मुखर्जी के अनुसार इस पेशे में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अपनी और अपने परिजनों की मर्जी से यह सब कुछ कर रहे हैं. मुखर्जी के अनुसार अनुसार- “ बड़ी संख्या में ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिसे मानव तस्करी का नाम दिया गया, जबकि मामला ऐसा नहीं था. भेजने वालों को भी पता है कि वह जिसे भेज रहा है, उसे कहां ले जाया जाएगा और जाने वाले को भी पता है कि उसे जो ले जा रहा है, वह कहां लेकर जाएगा ?” मुखर्जी आगे कहते हैं- “बड़ी संख्या में सिलीगुड़ी से लड़कियां दुबई जा रहीं हैं. यहां ऐसे मां बाप हैं, जिनकी आंख उस वक्त खुलती हैं, जब लड़की को ले जाने वाला लड़की के बदले हर महीना पैसा भेजना बंद कर देता है.” मुखर्जी की बातों की पुष्टि सिलीगुड़ी के पूर्व एएसपी केबी दोरजी ने किया. उनकी जानकारी में ऐसे कई मामले हुए, जिसमें लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने घर वाले लड़की की गुमशुदगी के छह महीने या एक साल के बाद आए. इस देरी की कोई वजह भी उनके पास नहीं थी. दोरजी के अनुसार- “ इस समस्या की जड़ इस क्षेत्र की गरीबी, अशिक्षा और जागरुकता की कमी है. शादी और नौकरी दिलाने के नाम पर अधिकांश लड़कियों को यहां से ले जाया गया. नौकरी के नाम पर बाहर जाने वाली लड़कियों के परिजन अगर प्लेसमेंट एजेंसी या नाम-पता के बारे में पुलिस थाने में पहले से सूचना दे दें तो ऐसी घटनाओं पर रोकथाम कर पाना संभव होगा.” हालांकि इस संबंध में जिला पुलिस, एसडीओ ऑफिस, सीआईडी, गैर सरकारी संस्थाएं और पंचायत की तरफ से जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन उनका असर कम ही है. पश्चिम बंगाल में लगभग 65 हज़ार और देश भर में सक्रिय लगभग 6 लाख यौनकर्मियों की संख्या में लगातार होता इजाफा तो कम से कम यही बताता है. ये वो आंकड़े हैं, जिनमें फ्लांइग सेक्स वर्कर्स और कॉल गर्ल्स की संख्या शामिल नहीं है. हां, यह ज़रुर है कि सरकारी आंकड़ों में यौनकर्मी मनुष्य से कहीं अधिक आंकड़े के रुप में ही जानी जाती हैं, जिसकी चिंता सभ्य समाज को भी नहीं है और सरकार को भी नहीं. रविवार ( http://www.raviwar.com/news/474_sex-worker-of-siligudi-ashish-kumar-anshu.श्त्म्ल) से साभार -- -- आशीष कुमार 'अंशु' ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Mar 4 17:07:42 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Fri, 4 Mar 2011 17:07:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkuOClguCksOCknCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSo4KS/4KSV4KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KS+LyDgpKrgpYfgpJ8g4KSV4KWAIOCkreClguCkliDgpKzgpKHgpLw=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCliCDgpK3gpYjgpK/gpL4h?= Message-ID: विशाखा का असली नाम कम ही लोग जानते हैं. नहीं, यह बुद्ध की शिष्या विशाखा नहीं है, जिसने श्रावस्तीह में उस जमाने में 20 करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च कर के बौद्ध विहार बनाया था. वह नक्षत्र भी नहीं, जो आकाशगंगा में है. विशाखा से पूछें तो वह कहती हैं- “ मैं एक यौनकर्मी हूं, यौनकर्म मेरा पेशा है.” दो जून की रोटी के लिये अपना देह बेचने वाली विशाखा की जिंदगी में तो सूरज कभी उगा ही नहीं. दुनिया को समझने की उम्र होती, उससे पहले ही उसे एक ऐसी काली कोठरी में धकेल दिया गया, जहां आज तक कोई रोशनी पहुंची ही नहीं. लगभग 24 साल पहले एक मुंहबोली मौसी ने विशाखा को मात्र छह हजार रुपए में सोनागाछी में एक यौनकर्मी के हाथों बेच दिया था. उस वक्त विशाखा की उम्र महज चौदह साल थी. दक्षिण 24 परगना के सुंदरवन गांव की रहने वाली विशाखा कोलकाता में क्या काम करती है, यह बात उसका परिवार जानता है. इस पेशे में होने की वजह से विशाखा के घरवालों को गांव वालों ने दस साल तक अलग-थलग रखा. जब दस साल के बाद वह पहली बार घर गई तो गांव वालों ने उसका सामूहिक बहिष्कार किया. उसे गांव से बाहर निकल जाने के लिए कहा. विशाखा ने उन्हीं गांव वालों से पूछा- “अगर मैं गांव मैं रुक जाती हूं तो क्या तुममें से कोई मुझे खाने के लिए देगा ? ” जाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. विशाखा से बातचीत करते समय किसी का फोन आया. विशाखा ने बातचीत के बाद बताया कि उसके चाचाजी का फोन था- “ किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं. बिस्तर से उठ नहीं सकते. मुझे देखना चाहते हैं.” विशाखा बहुत साफगोई से बात करती हैं, बिना कुछ छिपाने की कोशिश किये. सिलीगुड़ी की वेश्याबस्ती खालपाड़ा में रहने वाली महिलाओं के साथ लंबे समय तक काम कर चुकी सामाजिक कार्यकर्ता सुष्मिता घोष कहती हैं- “ कोई पचास-सत्तर रुपए लेकर वे आपके सामने अपने को पूरी तरह उघाड़ कर रख देंगी. निश्चित तौर पर इस काम को करने के पीछे उनकी कोई बड़ी मजबूरी होगी. आप ही सोचिए क्या कोई खुशी से इस काम को कर सकता है ?” सिलीगुड़ी सोयायटी फॉर सोशल चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक खालपाड़ा में काम करने वाली साठ फीसदी यौनकर्मियों की उम्र बीस साल से कम है. मीता मंडल उत्तर 24 परगना के बोसीहाट की रहने वाली है. वह रविन्द्र संगीत सीखना चाहती थी. लेकिन इसके लिए उसके पिता और उसकी नई मां जो पिता की दूसरी शादी के बाद घर आई थीं, तैयार नहीं हुए. नई मां चाहती थी कि मीता दूसरों के घर में चूल्हा चौका करे और जो भी कमाई हो, वह लाकर उनके हाथ में रख दे. मीता को लगा कि अपना रास्ता खुद ही तय करना होगा. एक दिन वह संगीत सीखने के लिए अकेली कोलकाता निकल गई. यहीं मीता की मुलाकात एक आदमी से हुई, जिसने संगीत सीखाने और नौकरी दिलाने का वादा किया. लेकिन मीता को कहां मालूम था कि संगीत के नाम पर उसे एक ऐसे नरक में धकेल दिया जायेगा, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस आदमी ने उसे एशिया के सबसे बड़े वेश्याबस्ती सोनागाछी पहुंचा दिया. हालांकि मीता इस बस्ती में पहले से रह रही दूसरी लड़कियों से अधिक खुशकिस्मत थीं. एक गैर सरकारी संस्था दुर्वार महिला समन्वय समिति की कार्यकर्ताओं ने उस नरक से उन्हें छुड़ा लिया. लेकिन उस बस्ती में रह रही सैकड़ों, हजारों लड़कियां अब भी उसी नरक को भोग रही हैं. अब अंजली को ही ले लीजिए.उनके माता-पिता छोटी उम्र में उसे छोड़कर चले गए. एक पड़ोसी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे घर का काम करने के लिए सिलीगुड़ी के एक घर में रखवा दिया. यहां अंजली ने बंधुआ मजदूर की तरह दो वक्त की रोटी खाकर आठ साल तक काम किया.यहां से वह बहुत मुश्किल से निकली और जिसके सहारे निकली, उसी ने एक दिन उसे खालपाड़ा पहुंचा दिया. लेकिन इस नरक का अंत यहीं नहीं हुआ. एक दुर्घटना में उसने अपना एक पांव गंवा दिया. अब अंजली अपना एक पांव कटने के बाद भी खालपाड़ा में बतौर यौनकर्मी सक्रिय है. इसके अलावा वह कुछ घरों में झाड़ू पोछा भी करती है. अंजली कहती हैं- “ दो ही काम सीख पाई इस जिन्दगी में, एक झाड़ू पोछा और दूसरा यौनकर्म, वही कर रही हूं.” कंचनजंघा उद्धार केन्द्र से जुड़े संजय विश्वकर्मा बताते हैं कि इस इलाके में सक्रिय यौनकर्मियों में से अधिकांश को उनके गांवों से काम करने के बहाना लाया गया. उन्हें प्लेसमेंट एजेंसियों ने अच्छा खाना, कपड़ा और वेतन का लालच देकर यहां बुलाया और फिर उन्हें यौनकर्म के पेशे में डाल दिया. संजय कहते हैं- “ यहां काम करने वाली नब्बे फीसदी प्लेसमेंट एजेंसियों का कोई पंजीकरण नहीं है. यहां प्लेसमेंट के नाम पर मानव तस्करी का धंधा जोरो पर है.” विश्वकर्मा बताते हैं, किस तरह नेपाल के मोरम जिले का रहने वाला रॉयल नेपाल आर्मी का एक पूर्व जवान लड़कियों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार हुआ. शर्मनाक बात यह थी कि इस तस्करी में उसकी पत्नी और बेटी भी उसकी सहयोगी की भूमिका में थीं. खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में सक्रिय कुछ दलाल पिछड़े और गरीब जिलों में जाकर तीन से पांच हजार रुपए में युवा लड़कियों को खरीदकर दस से बारह हजार रुपए में वेश्या बस्तियों में बेचने का काम करते हैं. कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां लड़कियां मजबूरी में जरुर वेश्या बस्तियों तक लाई गईं लेकिन यहां लाने के लिए उनके साथ कोई धोखा नहीं किया गया. उन्होंने तय करके इस पेशे को अपनाया क्योंकि उनकी मजबूरी ही कुछ ऐसी थी. शिवानी कर्मकार का मामला ऐसा ही है, जो अपनी इच्छा से यौनकर्मी बनीं. उनके पति दमा के मरीज हैं. बेटे को थैलीसीमिया है. इनके ईलाज के लिए इन्हें हर महीने एक निश्चित रकम की जरुरत होती है. कोई सरकारी-गैर सरकारी संस्था उनके मदद के लिए आगे नहीं आई. सरकार की मदद इतनी भर है कि एक सरकारी अस्पताल में उनके पति और बेटे का ईलाज चलता है. उसके बावजूद दवा और समय-समय पर होने वाले जांच का पैसा उन्हें देना ही होता है. इसके साथ अपना और अपने बेटे का परिवार चलाना, आसान काम नहीं था. ऐसे में शिवानी को इस पेशे में उतरना पड़ा. शिवानी के परिवार में उनकी तीन बेटिया भी थीं, जिनकी शादी शिवानी ने कर दी लेकिन अपने होने वाले दामादों से यह बिल्कुल नहीं छुपाया कि वे काम क्या करती हैं ? चूंकि वे नहीं चाहती थीं कि कल को इस भेद के खुलने से उनके बेटियों को किसी प्रकार के मुश्किलों का सामना करना पड़े. आज शिवानी कर्मकार के चारों बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पर किसी प्रकार की आंच ना आए, इसके लिए उनकी मां ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया. सीता लोहार की कहानी शिवानी से अलग नहीं है. ग्यारह साल की उम्र में भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकलने के बाद वे चार साल तक बाल सुधार गृह में रहीं. कोई काम आता नहीं था. पढ़ाई-लिखाई कर नहीं पाईं. वहीं एक लड़की से दोस्ती हो ग. उसी ने लोहार का पहला परिचय रेड लाईट एरिया से कराया. दिल माने ना माने, पेट कहां मानने वाला था. सो उन्होंने इस काम को स्वीकार लिया. इस नरक में आने के बाद भी उन्होंने अपनी दोनों लड़कियों को इस दुनिया से दूर ही रखा. आज लोहार की दोनों लड़कियां अंग्रेजी माध्यम के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं. स्वतंत्र पत्रकार रुपक मुखर्जी के अनुसार इस पेशे में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अपनी और अपने परिजनों की मर्जी से यह सब कुछ कर रहे हैं. मुखर्जी के अनुसार अनुसार- “ बड़ी संख्या में ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिसे मानव तस्करी का नाम दिया गया, जबकि मामला ऐसा नहीं था. भेजने वालों को भी पता है कि वह जिसे भेज रहा है, उसे कहां ले जाया जाएगा और जाने वाले को भी पता है कि उसे जो ले जा रहा है, वह कहां लेकर जाएगा ?” मुखर्जी आगे कहते हैं- “बड़ी संख्या में सिलीगुड़ी से लड़कियां दुबई जा रहीं हैं. यहां ऐसे मां बाप हैं, जिनकी आंख उस वक्त खुलती हैं, जब लड़की को ले जाने वाला लड़की के बदले हर महीना पैसा भेजना बंद कर देता है.” मुखर्जी की बातों की पुष्टि सिलीगुड़ी के पूर्व एएसपी केबी दोरजी ने किया. उनकी जानकारी में ऐसे कई मामले हुए, जिसमें लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने घर वाले लड़की की गुमशुदगी के छह महीने या एक साल के बाद आए. इस देरी की कोई वजह भी उनके पास नहीं थी. दोरजी के अनुसार- “ इस समस्या की जड़ इस क्षेत्र की गरीबी, अशिक्षा और जागरुकता की कमी है. शादी और नौकरी दिलाने के नाम पर अधिकांश लड़कियों को यहां से ले जाया गया. नौकरी के नाम पर बाहर जाने वाली लड़कियों के परिजन अगर प्लेसमेंट एजेंसी या नाम-पता के बारे में पुलिस थाने में पहले से सूचना दे दें तो ऐसी घटनाओं पर रोकथाम कर पाना संभव होगा.” हालांकि इस संबंध में जिला पुलिस, एसडीओ ऑफिस, सीआईडी, गैर सरकारी संस्थाएं और पंचायत की तरफ से जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन उनका असर कम ही है. पश्चिम बंगाल में लगभग 65 हज़ार और देश भर में सक्रिय लगभग 6 लाख यौनकर्मियों की संख्या में लगातार होता इजाफा तो कम से कम यही बताता है. ये वो आंकड़े हैं, जिनमें फ्लांइग सेक्स वर्कर्स और कॉल गर्ल्स की संख्या शामिल नहीं है. हां, यह ज़रुर है कि सरकारी आंकड़ों में यौनकर्मी मनुष्य से कहीं अधिक आंकड़े के रुप में ही जानी जाती हैं, जिसकी चिंता सभ्य समाज को भी नहीं है और सरकार को भी नहीं. रविवार ( http://www.raviwar.com/news/474_sex-worker-of-siligudi-ashish-kumar-anshu.श्त्म्ल) से साभार -- -- आशीष कुमार 'अंशु' ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Mar 4 19:28:09 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 4 Mar 2011 19:28:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSP4KSX4KS+?= =?utf-8?b?Li4u4KSG4KSo4KWHIOCkteCkvuCksuCkvg==?= Message-ID: *आएगा... आने वाला* "इससे कहो चला जाय यहां से" यह कमजोर आवाज मशहूर अभिनेत्री मधुबाला की थी। 23 फरवरी, 1969 की रात वह अपने पति किशोर कुमार की बात पर नाराजगी जाहिर कर कह रही थीं। फिल्म निर्माता-निर्देशक ओ.पी.रल्हन ने अपने संस्मरण में इस घटना का जिक्र कुछ इस प्रकार किया है-" लंबी बीमारी ने शरीर को खोखला कर दिया था। एक रात उनकी चीखों ने सबको चौंका दिया। बहनें नीचे की मंजिल में रहती थीं। फौरन पहुंच गईं। जाकर देखा तो अब्बा-अम्मी सकते में थे। बेटी की पीड़ा सह नहीं पा रहे थे। डाक्टर बुलाया गया। पता चला हार्ट अटैक है। बचना मुश्किल है। पति किशोर कुमार को खबर दी, उन्हें सुबह शूटिंग पर बाहर जाना था। बार-बार कहने पर आए तो देखकर बोले- ठीक तो है, ऐसी हालत तो हजारों बार हुई है।" इसके बाद ही मधुबाला ने उक्त प्रतिक्रिया दी। मधुबाला के जीवन की वह आखिरी रात थी। अनारकली के रूप में इतिहास बन चुकी मधुबाला को इस दुनिया से रुख्सत हुए 41 साल हो गए हैं। पर, उनकी मुस्कुराहट आज भी सिने प्रेमियों के दिलों पर राज करती है। उनकी बेहतरीन अदाकारी और खूबसूरती की चर्चा अब भी होती है। यह संयोग ही था कि अनारकली के रूप में वह मशहूर तो खूब हुईं, पर फिल्म ‘मुगले आजम’ से मिली शोहरत का वह लुत्फ न उठा सकीं। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। मधुबाला की बहन साजिदा मधुर ने अपने एक साक्षात्कार में इस पीड़ा को इस तरह जाहिर किया है, “ आज भी जब मुगले आजम देखती हूं वह पहले से ज्यादा नई और खूबसूरत लगती हैं। अफसोस यही है कि किसमत ने उन्हें सब कुछ दिया, बस लंबी उम्र नहीं दी।” कहा जाता है कि जब फिल्म मुगले आजम की शूटिंग हो रही थी, तभी मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच दूरी बन आई। हालांकि, तब भी दोनों एक दूसरे के दिलों में गहरे बसे हुए थे, पर झूठा अभिमान एक दीवार बनकर खड़ा हो गया था। वह कहानी कुछ इस प्रकार है- हुआ यूं कि बीआर. चोपड़ा ने अपनी नई फिल्म ‘नया दौर’ की आउटडोर शूटिंग को लेकर अनुबंध तोड़ने पर केस कर दिया। मधुबाला के पिता और बीआर.चोपड़ा के बीच लंबी अदालती लड़ाई चल पड़ी। इसी दौरान दिलीप कुमार भी बीआर.चोपड़ा के पक्ष में चले गए। गवाही देते समय उन्होंने मधुबाला के पिता अताउल्ला खां को बेटी की कमाई पर रहने वाला पिता कह डाला। इससे मधुबाला आहत हुईं और झटके में वर्षों पुराना संबंध तोड़ लिया। बाद में दिलीप कुमार कई बार मनाने आए, मगर मधुबाला ने बार-बार एक ही शर्त रखी- अब्बाजी से माफी मांगो। अंतत: दोनों एक दूसरे से दूर हो गए। मधुबाला ने 1942 में इस दुनिया में कदम रखा था। पर 1949 में फिल्म ‘महल’ आई तो वह रहस्यमयी सुंदरी बनकर उभरीं। इस फिल्म में लता की आवाज में मधुबाला पर फिल्माया गया गीत सिने प्रेमियों पर नशे की तरह छा गया। लोग मधुबाला का अविश्वसनीय सौंदर्य और लता की आवाज सुनने के लिए ही ‘महल’ देखने जाते थे। उनकी अदाएं कौन भूल सकता है? देवानंद के साथ फिल्माया गया फिल्म ‘काला पानी’ का गीत‘अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना’ हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन रोमांटिक गीतों में एक है। खैर, मधुबाला का असल नाम मुमताज था। फिल्म निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा ने उनका नाम मधुबाल रखा था। अपनी छोटी उम्र में ही उन्होंने ऊंची शोहरत पाई, पर जो न मिला वह था ससुराल। किशोर कुमार से शादी के बाद वह महज तीन महीने ही ससुराल में रहीं। बाद में कार्टर रोड पर स्थित एक फ्लैट में रहने लगीं और पति की राह देखती रही। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Mar 5 23:55:07 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 5 Mar 2011 23:55:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSq4KSjIOCkruClh+CkgiDgpK7gpJzgpL4g4KSG4KSv4KS+?= Message-ID: दीवान के साथियों जमाने बाद मैंने किसी हिन्दी किताब के लोकार्पण कार्यक्रम में इतनी व्यवस्थित बातचीत सुनी। मौका था ओम थानवी की पहली किताब मुअनजोदड़ो के लोकार्पण का और इस पर बातचीत की- कुंवर नारायण,बृजमोहन पांडे,उदय प्रकाश,अशोक वाजपेयी और संचालन अपूर्वानंद ने। बहुत ही संजीदा बातचीत जिसमें बीच-बीच में अशोक वाजपेयी की चुटकी और ओम थानवी का लेखन के मिजाज से बिल्कुल जुदा बिंदास अंदाज खास मजा दे गया। ऑडियो लिंक चस्पा रहा हूं,आप भी सुने और इन्ज्वाय करें- http://www.zshare.net/audio/874168438bef6135/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Mar 6 23:03:04 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 6 Mar 2011 23:03:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KWH?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCkleClgCDgpJfgpLzgpLLgpKTgpKzgpK8=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWAIOCkruClgeCkneClhyDgpKrgpLDgpYfgpLbgpL7gpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSk4KWAIOCkueCliDog4KSu4KSo4KWN4KSo4KWCIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KSC4KSh4KS+4KSw4KWA?= Message-ID: लेखिका मन्नू भंडारी से बीबीसी हिंदी के समीरात्मज मिश्र की बातचीत - *"साथ न रहने को लेकर राजेन्द्र की ग़लतबयानी मुझे परेशान करती है..." : मन्नू भंडारी, (BBC Hindi से बातचीत में )* - *‎"साथ न रहने को लेकर लिया गया फ़ैसला शत-प्रतिशत मेरा था. वे (राजेन्द्र यादव) तो तब भी मेरे साथ रहना चाहते थे..." : मन्नू भंडारी, (BBC Hindi से बातचीत में )* - *‎"स्त्री विमर्श को आज जिस तरह देह के साथ जोड़ दिया गया है मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. स्त्री विमर्श को इसने भटका दिया है..." मन्नू भंडारी, (BBC Hindi से बातचीत में ) * हिन्दी कथा लेखन में मन्नू भंडारी एक जाना पहचाना नाम हैं. ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ जैसे उपन्यासों की रचना के साथ ही मन्नू भंडारी ने हिन्दी कथा लेखन को एक नया आयाम दिया. हाल ही में एक पत्रिका द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में पत्रिका के पाठकों ने उन्हें हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कथाकार के रूप में चुना है. मन्नू भंडारी उन चुनिंदा रचनाकारों में से हैं जिनकी रचनाओं की तरह उनका ख़ुद का जीवन भी बेहद चर्चित रहा है और पाठकों की दिलचस्पी भी उसमें रही है. लंबे समय बाद हाल ही में उनकी एक रचना आई ‘एक कहानी यह भी’. आत्मकथा के रूप में लिखी गई ये रचना मन्नू भंडारी और मशहूर कथाकार राजेंद्र यादव के बीच संबंधों पर की गई टिप्पणियों की वजह से काफ़ी चर्चा में रही. मन्नू भंडारी से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर समीरात्मज मिश्र ने विस्तार में चर्चा की. पेश है. - शशिकांत http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2011/03/110301_mannu_bhandari_sz.shtml -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Mar 6 23:28:51 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 6 Mar 2011 23:28:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KWB4KSy?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCkheCksuClgCDgpLjgpYc=?= Message-ID: दीवान के साथियो, बीबीसीहिंदीडाटकॉम पर 'संडे के संडे' में मिलिए मशहूर ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली से. ग़ुलाम अली से बातचीत की बीबीसी से प्रतीक्षा घिल्डियाल ने. - शशिकांत : http://www.bbc.co.uk/hindi/sport/2011/03/110306_sks_ghulamali_psa.shtml -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon Mar 7 19:24:26 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 07 Mar 2011 19:24:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpKbgpYfgpJbgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkruCljOCkleCkvOCkviDgpJTgpLA=?= Message-ID: <4D74E392.3090608@sarai.net> टीवी और डीवीडी पर आने के बाद भी अगर आपने पीपली लाइव नहीं देखी हैं, तो एक मौक़ा और है आपके पास, कल! साथ में निर्देशकों के साथ बातचीत मुफ़्त! रविकान्त The School of Arts and Aesthetics, JNU Presents Anusha Rizvi & Mahmood Farooqui In The Director in the Chair Series With a Screening of their film Peepli [Live] Followed by a discussion with Anusha Rizvi, Mahmood Farooqui and Danish Hussain At The SAA Auditorium At 4.00 pm On 8th March, 2011 Tea will be served from 3.30 pm onwards From shashikanthindi at gmail.com Tue Mar 8 02:10:42 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 8 Mar 2011 02:10:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkhuCkteCkvg==?= =?utf-8?b?4KSc4KS8IOCkleCliyDgpKbgpYHgpKjgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KSIIOCkpuClgOCkteCkvuCksCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSw?= =?utf-8?b?4KWL4KSVIOCkuOCkleCkpOClgCI6IOCksOCkvuCkueCkpCDgpKvgpLw=?= =?utf-8?b?4KSk4KWH4KS5IOCkheCksuClgCDgpJbgpLzgpL7gpKg=?= Message-ID: "आवाज़ को दुनिया की कोई दीवार नहीं रोक सकती": पाकिस्तान के मशहूर गायक राहत फ़तेह अली ख़ान ने भारत से वापसी पर बीबीसी संवाददाता हफ़ीज़ चाचड़ को एक इंटरव्यू में कहा. दिल्ली हवाई अड्डे पर कस्मट नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में भारतीय अधिकारियों ने राहत फ़तेह अली ख़ान को हिरासत में लिया था और जाँच के बाद उन पर 15 लाख रुपए जुर्माना लगाया था: http://www.bbc.co.uk/hindi/pakistan/2011/02/110228_rahat_interview_hc.shtml -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Mar 9 00:51:43 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 9 Mar 2011 00:51:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= nexus between Baba Ramdev and BJP Message-ID: Ramdev’s Patanjali Ayurveda Ltd. Donated Rs 11 Lakh to BJP *Afroz Alam Sahil and M. Reyaz, BeyondHeadlines* New Delhi: Yoga Guru Baba Ramdev’s organisation Patanjli Ayurveda Ltd. donated money to India’s main opposition Bharatiya Janata Party (BJP) before the 2009 general elections. Ramdev is suddenly in the midst of corruption allegations after his announcement to foray into politics and to launch his political party by June. The Yoga guru has directly held the Congress party responsible for recent spat in big scams and is the force behind recently founded movement “India Against Corruption,” which includes luminaries like Sri Sri Ravishankar, Swami Agnivesh, Arvind Kejriwal, Anna Hazare and Maulana Mahmood Madani, among others. The Congress party, in turn, has hit back at the Yoga guru. Baba Ramdev (Courtesy: NDTV.com) BJP has come in open support of Ramdev calling Congress party leader Digvijay Singh’s allegation “absurd.” When *BeyondHeadlines* (BH) contacted Ramdev’s aide Ajay Arya, he tried to laugh away the question: “we ourselves survive on donations, whom will we donate? You might have got some misleading documents.” When confronted that BH has documents obtained through the Right to Information (RTI), he hung up the phone. He, however, called back and put “Swamiji” on line. The Swamiji was none other than Baba Ramdev himself who very politely inquired into the matter and told the BH, “I have no knowledge of any such matter. However, you can talk to Acharya Bal Krishna Mahraj, who looks after internal matters of the organisation.” He himself gave our investigative editor his contact number. All attempts of the BH to contact Acharya have so far been unsuccessful. The documents, which are in BH possession, show that Ramdev’s Patanjali Ayurveda Ltd. donated Rs 11, 00,000 by a bank cheque of Punjab National Bank (Cheque No. 859783) dated March 8, 2009. BH tried to contact senior BJP leaders and specifically asked “shall we see the two –donations and support – in same light?” While some BJP leaders did not reply directly to the question on phone. BJP General Secretary Ravi Shankar Prasad asked for a mail. *BeyondHeadlines* accordingly send the mail on his official email id ravis at sansad.nic.in on Monday evening. At the time of filing this report, BH had got no response. BH also spoke to BJP spokesperson Prakash Javedkar, but he declined to make any comment on this issue, saying “I don’t look into the party’s financial matter.” While all political parties get donations, and there is nothing wrong in it, Ramdev has maintained that “I am not with BJP, never was and never will be in future.” (edit at beyondheadlines.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Mar 9 20:12:29 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 9 Mar 2011 20:12:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIA==?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkj+CklSDgpKTgpK7gpL7gpLbgpL4=?= =?utf-8?b?4KSIIOCkmuCksOCkv+CkpOCljeCksCDgpLngpYg=?= Message-ID: रश्मि ऑटो में बैठकर अभी थोड़ी दूर ही चली थी कि ऑटो हिलने लगा। उसने ड्राइवर से जब पूछा तो बताया कि कुछ नहीं मैडम,बस इंजन गर्म हो जाने से ऐसा हो जाता है। कुछ दूर तक सब ठीक रहा लेकिन फिर से हिलना शुरु हो गया। अबकी बार रश्मि ने थोड़ा जोर देकर पूछा और थोड़ी घबराहट भी हुई। अंत में उसने ड्राइवर से ऑटो रोकने कहा और रुकते ही एकदम से आगे उसके पास आ गयी। उसने देखा कि ड्राइवर की पैंट खुली हुई है,आपत्तिजनक स्थिति में है और मास्टरवेट कर रहा था,उसने झट से रुमाल रख लिया। बाद में लोग जुट गए और रश्मि ने भी कारवायी की मांग की। 8 मार्च,अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को ध्यान में रखकर तमाम न्यूज चैनलों पर एक के बाद स्त्री अधिकार और उसकी सुरक्षा को लेकर विमर्श का दौर शुरु हो गया था। इस दौरान मनोरंजन चैनलों पर जो चरित्र पूरे साल तक व्रत रखने और करवाचौथ को पहले से खूबसूरत बनाने के टिप्स दिया करती है,स्त्री अधिकारों और सुरक्षा को लेकर बात करने लग जाती है। इसी में से स्त्रियों का एक ऐसा वर्ग उभरकर सामने आने लगा है जो इस दिन को फुलटाइम मस्ती का दिन देने की शक्ल में लगी है। इसमें पितृसत्तात्मक समाज के बीच रहकर होनेवाले संघर्ष और चुनौतियां गायब है। वहीं दूरदर्शन पर “चर्चा में” नीलम सिंह के साथ पैनल के भीतर इस बात को लेकर चर्चा हो रही थी कि एक दिन ही क्यों महिला के अधिकारों,सुरक्षा और उनके हक की बातें सालभर होनी चाहिए। इस लिहाज से लोकसभा टीवी पर नियमित प्रसारित कार्यक्रम जेंडर डिस्कोर्स को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लेकिन आइबीएन7 पर जिंदगी लाइव में इस तरह के विमर्श से बिल्कुल जुदा जो कार्यक्रम प्रसारित हुए,उसने एकबारगी विमर्श के असर पर ही सवाल खड़े कर दिए। कार्यक्रम की रुपरेखा देखकर एक सवाल तो एकदम से मन में आया कि स्त्री अधिकार औऱ चुनौतियों पर विमर्श करने के बजाय क्या यह ज्यादा जरुरी नहीं है कि स्त्रियां अपने अनुभवों को ज्यादा से ज्यादा साझा करे? शायद यही वजह रही कि दूरदर्शन पर स्त्री विमर्शकारों की जो पैनल रही,स्त्री विमर्श की दुनिया में स्थापित नाम है, बावजूद उसके जिंदगी लाइव पर अपने अनुभवों को साझा कर रही स्त्रियों ने हम जैसे दर्शकों पर अपनी पकड़ ज्यादा बना पायी। रश्मि के साथ-साथ हिना और उज्मा की साझेदारी वैसा ही असर डालती है। हिना और उज्मा पढ़ाई करने के लिए बाहर जाती,आज वह डॉक्टर है। लेकिन जैसे ही वह घर पहुंचती,उसके अपने ही सगे भाई उसके लिए वेश्या शब्द का इस्तेमाल करते। हिना ने बताया कि ये बात अगर कोई बाहर का व्यक्ति करता तो फिर भी नजरअंदाज किया जा सकता था लेकिन अपने ही लोग ऐसा कर रहे थे। आगे उज्मा ने बताया कि लेकिन हमने सोचा कि इस बात को सार्वजनिक करना जरुरी है। हमने शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की लेकिन थाने ने लापरवाही दिखायी और हमारी बात नहीं सुनी। हम इसे इसलिए भी सार्वजनिक करना चाह रहे थे कि समाज को वेनिफिट ऑफ डाउट न मिले कि बाहर जाकर पढ़ती है तो हो सकता है ऐसा करती हो? आगे चलकर दोनों बहनों ने अपने स्तर से संघर्ष किया। जिंदगी लाइव में स्त्रियों के जो अनुभव खुलकर हमारे सामने आए,दरअसल वह हमारे पितृसत्तात्मक समाज का वह ब्लूप्रिंट है जिसके आधार पर आगे की पीढ़ियां गढ़ने की कोशिश की जाती है। बहुत कम ही मौके होते हैं जिसमें टेलीविजन इस ब्लूप्रिंट को हमारे सामने बेपर्दा करता है और अगर करता भी है तो इस तरह से नहीं कि उसका सीधा अर्थ लगाया जाए कि देश की आधी दुनिया अभी शिक्षा,सुविधा और संसाधनों के बीच जीती हुई भी अपने अधिकारों और सम्मान से कोसों दूर है। टेलीविजन का रवैया समाज के पितृसत्तात्मक समाज के पक्ष में है। तभी तो आजतक जैसे चैनल ने आगरा में ससुराल के लोगों के प्रताड़ित किए जाने की घटना पर कहा- 3 करोड़ दहेज देने के बावजूद लड़की को 13 घाव दिए गए। खबरों की लाइनों की तुकबंदी और भारी-भरकम पार्श्व ध्वनियों के बीच इस खबर का असर भले ही बढ़ गया हो लेकिन चैनल की मानसिकता भी सामने आने से बच नहीं पाती कि दहेज देकर शादी करना लगभग एक सुरक्षित जीवन की गारंटी है। चैनल ने इसी तरह 1 जनवरी 2011 को खबर चलाया कि 3 करोड़ मिलने के बावजूद भी वालीवुड की मुन्नी ने ठुमके लगाने से मना कर दिया। एक तो समाज का शिंकजा इतना जटिल है कि स्त्रियों का प्रतिरोध हमारे सामने खुलकर सामने नहीं आ पाता है,हर तरह से उसे दबाने की कोशिश की जाती है लेकिन जब भी किसी रुप में उसके प्रतिरोध आते हैं,ऐसे वक्त अधिकांश मौके पर चैनल का पितृसत्तात्मक समाज से पैदा हुए शब्द उसे कुचल जाते हैं। स्त्रियों का यह प्रतिरोध सनसनी,एसीपी अर्जुन या जुर्म जैसे कार्यक्रम के खाते में जाकर टीवी सीरियल की शक्ल ले लेता है और खबरों की मुख्य बहस से बाहर हो जाता है। प्रतिरोध करनेवाली स्त्री के चेहरे पर लगाए गए लाल गोले और लूपिंग(बार-बार एक ही विजुअल दिखाना) उसे समाज का एक तमाशाई चरित्र में बदल देता है जिसके पीछे चैनल की एक ही कोशिश होती है कि इस पूरे घटना को देखकर मदद के बजाय सीरियल का मजा पैदा करना हो जिसे देखखर पुरुष समाज अट्टहास लगाए- देख लिया न,बने-बनाए ढांचे और नियमों से विरोध करने का नतीजा। बाकी रही सही कसर सास-बहू आधारित सीरियल पूरी कर ही रहे हैं। (मूलतः प्रकाशित- टीवी मेरी जान,जनसंदेश टाइम्स 9 मार्च 2011 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Fri Mar 11 18:25:17 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 11 Mar 2011 18:25:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAOiDgpKzgpKbgpLLgpYfgpJfgpYAg4KSk4KWLIOCkmuCksuClh+Cklw==?= =?utf-8?b?4KWAIQ==?= Message-ID: <4D7A1BB5.1000109@sarai.net> सत्यानंद निरुपम चाहते हैं कि आप तशरीफ़ लाएँ! * पेंगुइन बुक्स इंडिया* और *विज़ुअल आर्ट गैलरी* बदलते समय के साथ हिंदी में हो रहे बदलावों के बारे में एक प्रासंगिक और विचारोत्तेजक बातचीत *हिंदी**: **बदलेगी तो चलेगी**!* में आपको सादर आमंत्रित करते हैं. *अनामिका**, **नूर ज़हीर**, **रविकांत**, **रवीश कुमार *और *आशुतोष कुमार* के साथ बात करेंगे *सत्यानन्द निरुपम**.* शनिवार, 12 मार्च 2011, शाम 7 बजे अम्फी थिएटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर, लोधी रोड, नई दिल्ली ____ विशेष जानकारी के लिये संपर्क करें: भारती तनेजा- 46131411/ _springfever at in.penguingroup.com _ _ बैठने की सुविधा ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की तर्ज़ पर. From vineetdu at gmail.com Sat Mar 12 11:03:56 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 12 Mar 2011 11:03:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWL4KSX4KWAIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpLjgpK7gpL7gpJwg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCksuClieCkh+CksuCljeCkn+ClgCDgpJ/gpYfgpLjgpY0=?= =?utf-8?b?4KSf4KS/4KSC4KSX?= Message-ID: 12 मार्च. टेलीविजन पर इंडिया और साउथ अफ्रीका के बीच क्रिकेट वर्ल्ड कप का रोमांचकारी मैच और दिल्ली में हिन्दीः बदलेगी तो चलेगी! पर बड़ी बहस। आयोजक ने भी हिन्दी समाज की अच्छी लॉइल्टी टेस्ट करवाने जा रही है,आज उनके लिए इमोशनल अत्याचार है। जो समाज हिन्दी के नाम पर दिन-रात बहसबाजी में पड़ा रहता है,उसके संकट में आ जाने के भय से रोता-कलपता नजर आता है,आज इसके बदलाव और बनी रहने को लेकर बहस हो रही है तो देखते हैं कि वो इसमें शामिल होते हैं भी या नहीं? वो जिस टेलीविजन को पूंजीवादी माध्यम मानकर दिन-रात कोसते हैं,क्रिकेट को सांस्कृतिक अफीम मानते हैं,उससे अपने को अलग रख पाते हैं भी या नहीं? मैच तो रोमांचकारी होगा ही,इसमें कोई शक नहीं । देश की करोड़ों ऑडिएंस साढ़े चार बजे अपने को टेलीविजन स्क्रीन के आगे झोंक देंगी..लेकिन दिल्ली में मौजूद हिन्दी समाज? क्या वो भी उन आंखों में शामिल होगा। वो भी दर्जनों मल्टीनेशनल कंपनियों से चिपके मैंदान से डूबता-उतरता रहेगा,हर 20 मिनट में कोक,थम्स अप के विज्ञापनों को झेलता रहेगा,अभी कायदे से जवानी चढ़ी नहीं कि इंश्योरेंस की चिंता में डूब जाएगा। नहीं साहब नहीं, वो ऐसा नहीं करेगा। उसे पता है कि ये मैच तो फिर भी कहीं दोबारा देखने को मिल जाए, कुछ नहीं तो न्यूज चैनलों की फुटेज में ही सही,टुकड़ों-टुकड़ों में मैच का मजा मिल जाएगा,लेकिन ये जो बहस होने जा रही है, वो कहां से रिपीट होगी? लेकिन दिक्कत तो फिर भी है। हिन्दी समाज को वो तबका जिसे हिन्दी से भी उतनी ही मोहब्बत है और क्रिकेट को अपना धर्म मानता है,उनका क्या करेंगे? आयोजक से उनके लिए बस इतनी अपील है कि उनके फैसले को लॉयल्टी का हिस्सा न मानकर अंतिम समय में लिया गया फैसला मानकर बख्श दें। बहसहाल हिंदी बदलेगी तो चलेगी! आज यानी 12 मार्च को होनेवाली बहस के इस शीर्षक में विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाकर आयोजक ने भले ही विनम्रता जाहिर करने की कोशिश की हो कि ऐसा लगे कि वे वक्ताओं से उनकी राय जानना चाह रहे हैं, अपनी तरफ से कोई स्टेटमेंट जारी नहीं कर रहे हैं – लेकिन ये शीर्षक अपने आप में बिना किसी बहस के कुछ स्टेटमेंट भी जारी करता है, जिसे मैं इस रूप में समझ रहा हूं… *एक तो ये कि* अगर हिंदी नहीं बदली, तो इसके विभाग तो फिर भी चलेंगे लेकिन इस विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी नहीं चलेगी। मतलब कि हिंदी के बरतने में हिंदी विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी का कोई योगदान नहीं माना जाएगा। वैसे भी हिंदी भाषा को लेकर जब भी बहस की शुरुआत होती है और इसके संकट पर मर्सिया पढ़ा जाता है, तो कहीं न कहीं इस बात की रस्साकशी चलती है कि अकादमिक संस्थानों में उगायी जानेवाली हिंदी का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है और वो गहरे संकट के दौर से गुजर रही है? हिंदी के पूरे विमर्श का एक बड़ा हिस्सा संकट का विमर्श है। ये संकट से कहीं ज्यादा अकादमिक संस्थानों के हृदय का कचोट है कि जिस हिंदी को उन्होंने लाठी-डंडे-नंबर और ग्रेड के दम पर वर्चस्व में बनाये रखने की कोशिश की – ये एक बड़ा मसला है कि लोग इन तमाम यातनाओं के बावजूद इससे मौका मिलते ही बगावत क्यों कर बैठते हैं? दूसरा ये कि अगर हिंदी नहीं बदलेगी तो संभव है कि भविष्य में हिंदी विभाग भी न चले। इसकी वजह साफ होगी कि आनेवाले समय में सरकारी नीतियां कुछ इस तरह से काम करेगी कि जिन विषयों की मॉनिटरी वैल्यू नहीं है, वो बाजार पैदा नहीं कर सकते या वो बाजार के अनुरूप अपने को नहीं बना पाते, उन्हें ऐसे कई दूसरे विषयों के साथ मिलाकर इमर्ज कर दिया जाए और ऐसे विषय बनाये जाएं जो कि रोजगार और बाजार पैदा करने में सहायक हो। ऐसे में हिंदी इंडियन कल्चरल स्टडीज, इंडियन लैंग्वेच एंड लिटरेचर के भीतर एक विषय बनकर रह जाए और अभी जो देशभर में हिंदी विभाग शक्तिपीठ के तौर पर स्थापित हैं, वो धीरे-धीरे ध्वस्त कर दिये जाएं। आनेवाले समय में विदेशी विश्वविद्यालयों की जो फ्रैंचाइजी खुलनेवाली है, वो बिना किसी बहस और झंझट के ये साबित कर देगी कि इस देश की शिक्षा में हिंदी के लिए अलग से विभाग की कोई खास जरूरत नहीं है, ये परजीवी विषय है इसलिए इसे दूसरे विषयों के साथ जोड़ दिया जाए। संभव है कि ये लग्जरी सब्जेक्ट के तौर पर करार दिया जाए और इसकी फीस इतनी अधिक कर दी जाए कि वो एलीट और अत्यधिक संपन्न लोगों की पहुंच के लिए ही हो। जिस हिंदी को आज मुगलसराय जंक्शन की तरह पकड़ा और पढ़ाया जा रहा है कि कहीं की कोई गाड़ी नहीं मिली तो हिंदी की सवारी पकड़ ली – इससे बिल्कुल अलग स्थिति होगी। *इन दोनों* स्थितियों में जो एक चीज कॉमन है कि हिंदी को हर हाल में ये जिद छोड़नी होगी कि सिर्फ साहित्य हिंदी नहीं है। देश के विभागों को इस ठसक से बाहर निकलना होगा कि हिंदी सिर्फ उनके ही कारखाने से पैदा हो रही है। उन्हें सख्ती से समझने की जरूरत है कि हिंदी को सिर्फ न तो साहित्य बना रहा है और न ही विभाग से अकादमिक शिक्षा लेनेवाले लोग। इसमें एक भाषा या अभिव्यक्ति के स्तर पर तेजी से एक तबका शामिल हो रहा है, जो कि बोलने के स्तर पर पहले से ही मौजूद था और अब वो लिखने के स्तर पर भी सक्रिय हो रहा है, जिसने कि रोजी-रोजगार के लिए कुछ और इलाका चुना है और रचनात्मक बने रहने के लिए हिंदी। हिंदी का ये वर्ग आपको इंटरनेट पर जो लोग अपनी प्रोफाइल घोषित करते हुए लिख रहे हैं, उससे साफ अंदाजा लग जाएगा। हिंदी के इस इस्तेमाल से ये भाषा एक हद तक व्याकरण और शुद्धता की हठधर्मिता से छिटककर तकनीकी सुविधा और कीबोर्ड की चालाकी पर आकर टिक जाती है। संभव है कि हिंदी का ये प्रयोग कई स्तरों पर गलत हो लेकिन ऐसी हिंदी इस्तेमाल करनेवाले लोगों की सोशल स्टेटस और पर्चेजिंग कैपिसिटी किसी विभागीय हिंदी बरतनेवाले से ज्यादा है तो वही हिंदी को ड्राइव करेगा। वो पहले तो अनजाने में लेकिन बाद में अपनी बादशाहत दिखाने के लिए हिंदी को वैयाकरणिक स्तर पर डैमेज करेगा और अकादमिक संस्थान उसका कुछ नहीं कर पाएंगे। ये दबंगई वाली हिंदी होगी, जिसका असर हम पॉपुलर मीडिया और मंचों पर साफ तौर पर देख रहे हैं। आयोजक ने जो शीर्षक प्रस्तावित किया है, यहीं पर आकर वो एक स्टेटमेंट की शक्ल में दिखाई देता है। *अब हम एक* दूसरी संभावना पर भी विचार करें जो कि हमें फिलहाल फैशन और आर्किटेक्चर के तेजी से बदलते रूप में दिखाई दे रहा है। आइडियोलॉजी के स्तर पर भी एक हद तक हमें ये देखने को मिल रहा है। आधुनिकता के विस्तार के बाद जिस तरह से विचारधारा रैडिकल और हाइपर रैडिकल होती चली गयी, फैशन और आर्किटेक्चर टिकाऊपन के बजाय अपने भड़कीले और भव्य तौर पर विस्तार पाता गया, आज वो फिर से उस पारंपरागत दौर में लौटने की कोशिश में नजर आता है, जो कि कभी तर्क के आधार पर खारिज कर दिये गये थे। पुरानी चीजों को खारिज करने का जो दौर चला, उसमें उसके एक-एक चिन्ह निकाल-बाहर किये गये। अब वो सबकुछ एक पोस्टमाडर्न परिवेश रचते हुए भी लौटने की प्रक्रिया में है। ऐसे में संभव है कि बालमुकुंद गुप्त और द्विवेदीयुग की हिंदी के कुछ शब्दों को अपनाते हुए हिंदी आगे बढ़े। इस हिंदी को आप नास्‍टैल्जिक होकर फिर से अपनाएंगे और भावनात्मक अत्याचार के बजाय इमोशनल अत्याचार बोलना ज्यादा पसंद करेंगे। मेरी अपनी समझ है कि हिंदी जैसी भी बदलेगी और जो भी बदलेगी उसमें अतीत के शब्दों को लेकर नास्‍टैल्जिक और अंग्रेजी, कॉल्किकल या स्ट्रीट लैंग्वेंज को अपनाने की छटपटाहट के साथ हिंदी आगे बढ़ेगी। इस हिंदी के साथ सूचना की सहजता और अनुभूति की गहनता का सवाल फिर भी बना रहेगा। हिंदी ने सूचना, बाजार, रोजगार की शर्तों को लेकर अपनी सूरत जिस तरह से बना डाली है, अनुभूति की गहनता का सवाल आनेवाले समय में एक बार फिर से उठेगा। ऐसे में विभागीय हिंदी की शिनाख्त फिर से हो कि जनाब चलिए, सूचनावाली हिंदी तो आप नहीं बना पाये, बाजार की हिंदी से आपका विरोध रहा लेकिन अनुभूति की गहनता का जिम्मा तो आपके हाथों में था, बताइए… आपने इसके लिए क्या किया? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Mar 16 18:30:12 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 16 Mar 2011 18:30:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWN4KSv4KSC?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4KSv4KSy4KWH4KSWOiDgpK3gpJfgpLXgpL7gpKgg4KS24KS/4KS1?= =?utf-8?b?IOCklOCksCDgpIbgpKbgpL/gpLXgpL7gpLjgpL/gpK/gpYsg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSa4KWd4KS+4KS14KS+?= Message-ID: <4D80B45C.8030501@sarai.net> http://aruneshdave.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html भगवान शिव और आदिवासियो का चढ़ावा धरती से शिव पूजन अटेंड कर कैलाश लौटे भोलेनाथ को मुस्कुराते और थोड़ा लड़खड़ाते देख मां पार्वती के मन मे शक उत्पन्न हुआ । उन्होने प्रभु से कारण पूछा परंतु वे बात को अनसुना कर सीधे शयन कक्ष चले गये और २ मिनट मे ही उनके खर्राटों की आवाज आने लगी ।* भगवान के समीप जाने पर माता को महिला इत्र की खुशबू आयी उन्होने से सोचा आज क्या हुआ है इसका पता लगाना ही होगा* । माता ने एक बड़े से थाल मे नाना तरह के व्यंजन रखे और साथ ही 100 ग्राम सूखी घांस भी रख ली । नंदी के पास पहुच कर माता ने सूखी घास उसके सामने रख वापस मुड़ी ही थी कि *नंदी चीत्कार कर उठा मै मुखबिरी करने को तैयार हूं माते *। मुस्कुराते हुये माता ने कहा फ़टाफ़ट आज का घटनाक्रम पूरा बताओ । नंदी बोला आज प्रभु बड़े खदानपति के यहां गये थे । आर्गेनिक सामग्री से बने वहां नाना प्रकार के व्यंजन , मदिरा थी । प्रभु को जानी वाकर की ब्लू लेवल व्हिस्की का भोग लगा सुंदर सुंदर महिलाये प्रभु से चिपक कर ऐसा नाच गा रही थी की पूछो मत ।* वो तो मै था जो प्रभु का पतित्व बचाकर उनको ले आया - नंदी ने गर्व से कहा* । अगले दिन सुबह जब प्रभु तैयार होकर निकल रहे थे तो माता ने टोका क्या बात है आजकल आप केवल अमीरो के यहां जाते हैं बाकी भक्तो ने क्या पाप किये हैं । पिछले कई सालों से आप किसी आदिवासी भक्त के बुलावे मे नही गये क्या आप अब मेदभाव करने लगे हैं । प्रभु ने नंदी की झुकी हुई गरदन देख सारा माजरा समझ लिया । मुस्कुराकर माता से बोले क्या बिना कामदेव की मदद से तुम मुझे बहला पायी थी जो इस मक्कार की बातों मे आ रही हो । मेरे लिये स्त्री क्या पुरूष क्या मै तो जहां स्वादिष्ट भोग चढ़ता है और लोग प्रेम से बुलाते हैं वहीं चला जाता हूं । *माता फ़िर भी अड़ी रहीं मै कुछ नही जानती पहले की बात और थी कलयुग मे पतियो का कोई भरोसा नही है* । जब तक मैं न कहूं आपको आदिवासियो के यहां ही जाना होगा क्या आपको आदिवासी स्वादिष्ट चढ़ावा नही चढ़ाते । *प्रभु ने आदिवासियो का चढ़ावा याद कर ठंडी सांस ली और बोले उनका चढ़ावा तो मुझे सबसे प्रिय* है । बेल बेर आम जामुन शह्तूत गंगाइमली धतूरा आदि नाना प्रकार के जंगली फ़ल , तरह तरह के कंदमूल, पलाश आदि फ़ूल , जंगली जड़ीबूटिया खाने वाली गायो का शुद्ध पीला दूध , महुआ सल्फ़ी आदी जड़ीबूटी मिश्रित मदिरा , चिरौंजी , दो वर्षो बाद खेत से निकाली हुई कुटकी का अनाज आहा *इनके लिये तो मै स्वयं नारायण की दावत भी ठुकरा सकता हूं *। प्रसन्न चित माता ने कहा फ़िर आज से तुम उनकी ही पूजा मे जाओगे । प्रभु ने बुझे मन से कहा प्रिये अब आदिवासी है कहां जो मै जाउं माता ने तुरंत रजिस्टर सामने किया ये देखो करोड़ो हैं । प्रभु ने कहा प्रिये अब ये केवल सरनेम के आदिवासी हैं । ये सब अब मिलो मे , खदानो मे और भवन निर्माण के कार्यो मे रत गरीब मजदूर हैं । इनके यहां जाउगा तो ३ रू. किलो वाला सरकारी चावल जहरीली शराब और किसी विवाह समारोह से उठाये हुये बासी फ़ूल ही मिलेंगे ।* दूध चढ़ायेंगे तो यूरिया मिला सब्जी देंगे तो जहर मिली । देवताओ के हिस्से का विष पीने के बाद अब मुझमे और विष पीने की ताकत नही* । अचंभित माता ने कहा ऐसा कैसे हो गया अब ये सब अपना पुराना चढ़ावा क्यो नही ला सकते । जब मै आदिवासियो के यहा आपके साथ जाती थी तब तो वे बड़े खुशहाल लोग थे । शाम को वे कैसे भव्य नाचगाना करते थे उनमे से किसी ने आपसे भोजन नही मांगा था और वे कभी भूखे भी नही सोते थे । प्रभु ने जवाब दिया उनको भोजन देने वाला जंगल अब नही रहा प्रिये पूंजीवाद ने फ़ल और फ़ूलदार पेड़ो को सफ़ाचट करके उनके बदले अपने मतलब के इमारती पेड़ जैसे सागौन धावड़ा साल नीलगिरी आदि लगा दिये । *ये इमारती जंगल आदिवासियो और वन्यप्राणियो के लिये बांझ है । इनमे भोजन का एक दाना भी नही *। नतीजतन ये आदिवासी मजदूर हो गये *अब तुम बताओ जो खुद का पेट नही भर सकते उनपर मै अपना बोझ कैसे डालूं* । माता भड़क गयी आप भी गजब भगवान हो जिन लोगो ने आपके भक्तो का ये हाल किया आप उनकी पूजा स्वीकार करते हो आपको शर्म नही आती । प्रभु उदास भाव से बोले तुम्ही बताओ भगवान को पूजा और भोग तो चाहिये न बिना भक्तो के भगवान है कहां । फ़िर प्रभु ने मुस्कुरा कर कहा मै तो हूं ही भोलेनाथ क्या रावण क्या राम मै तो हर किसी को वरदान दे देता हूं । *कहो तुम इसी भोलेपन पर रीझ कर ही तो मुझसे विवाह करने आयी थी कि नही* । रही बात पूंजीपतियो की इनके पाप का घड़ा भरने दो ऐसा जनसैलाब उठेगा कि इनको नानी याद आ जायेगी । हां तुम सरकारी अधिकारियों और नेताओं को समझा कर इन इमारती वनो को मूल प्राक्रुतिक वनो मे बदलवा सको तो देख लो । इससे आदिवासियो का जीवन फ़िर से खुशहाल हो जायेगा और मै इनका चढ़ावा छोड़ कभी माडर्न भक्तिनियो के पास नही जाउंगा । माता जैसे जाने को तत्पर हुई तो प्रभु ने कहा - *सुनो बाघ को लेकर मत जाना कही संसारचंद शिकार न कर ले । एक काम करो इस नंदी को ले जाओ वैसे भी ये चुगलखोर अब मेरे किसी काम का नही ।* प्रभु फ़िर धीरे से फ़ुसफ़ुसा कर नंदी से कहा जा बेटा सरकारी दफ़्तरो के चक्कर काट काट कर तेरे खुर न घिस गये तो मेरा नाम भी महादेव नही । From girindranath at gmail.com Fri Mar 18 15:04:01 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 18 Mar 2011 15:04:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KWA4KS2?= =?utf-8?b?IOCkruCliOCkqOCkv+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: सात मार्च को *वीनित कुमार* के उकसाने पर जब मैंने अपने मन को *रवीश कुमार* की फेसबुकिया दुनिया की नकल करने की इजाजत दी तो पता नहीं चला कि इतनी जल्दी दस दिन गुजर जाएंगे और मेरे पास कुल जमा *723* शब्दों की छोटी-छोटी *12* कहानियां तैयार हो जाएंगी. मैं खुश हूं क्योंकि अब मैं भी *वेब-आलाप *करने लगा हूं। दरअसल हम सब के भीतर में कहानियों की लंबी सीरिज चलती रहती है, एकदम धारावाहिक की तरह..। फेसबुक के दोस्तों का भी शुक्रिया जो समय-समय पर मेरी लंतरानियों की तारीफ करते हैं और मुझे शब्दों के जरिए और भी आवारगी करने के लिए उकसाते हैं. वीनित कुमार के *पायरेटेड रवीश* के नक्शे कदम पर मेरी* रवीश मैनिया* जारी रहेगी। फिलहाल पढिए 10 दिनों की लंतरानियां... 1. हम चुप ही थे. विश्वविद्यालय के बदले सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन उतर गए, क्योंकि हमें शांति की तलाश थी. मन और तन दोनों को । दरअसल हम चुप रहकर भी हजार बातें करने के काबिल थे। हमदोनों इसे म्यूचअल अंडरस्टेडिंग कहते थे। सिविल लाइंस की सड़कों पर हम हाथों में हाथ लिए आगे बढ़ते चले जा रहे थे। आज हमने गुलजार की त्रिवेणियों पर बातें की... (रवीश मैनिया) (जारी है) 2. मुखर्जीनगर से थोड़ा आगे निकलकर गांधीविहार पहुंचे। बदबूदार नाले भी हमारे कदम को तेज नहीं कर पा रही थी क्योंकि हमदोनों वक्त को तेजी से गुजारना नहीं चाहते थे। हमारे लिए यही प्यार था। एक दूसरे को अधिक से अधिक वक्त देना। अंधेरा हो चुका था। उसे किंग्सवे कैंप लौटना लेकिन हम अभी भी अंधेरे में खोना चाहते थे....(रवीश मैनिया..जारी है) 3. उसे छोड़ने के लिए पैदल ही निकल पड़ा कैंप। मुखर्जीनगर से आगे बढ़कर हम इंदिराविहार में थोड़ी देर के लिए रूक गए। उसने धीरे से कहा-तुम चले जाओ मैं अकेले निकल लूंगी, मैंने पूछा कहा चला जाऊं...ऐसे सवाल अक्सर हमें मोड़ पर खड़े कर देते थे। मैंने मुड़कर देखा तो हमदोनों मुखर्जीनगर मोड़ पर ही तो खड़े थे..(रवीश मैनिया..जारी) 4. हम सुबह-सुबह आर्ट फेकेल्टी मिले। विवेकानंद स्टेचू के नीचे। धूप का अहसास हम दोनों के मन में हो रहा था.तभी उसने कहा- जानते हो आज ऑटो वाले भैया ने क्या कहा? मैंने पूछा क्या? तो उसने कहा- भैया ने कहा हैप्पी वूमेन्स डे....फिर हमदोनों खिलखिलाकर हंस पड़े...(रवीश मैनिया..जारी है) 5. शाम में हम कॉफी हाउस पहुंचे. अंदर की कुर्सियों के बजाए हमने बाहर की कुर्सियों को तवज्जो दी। दो कप कोल्ड कॉफी के बहाने हम वक्त गुजारना चाहते थे, लेकिन आदत से मजबूर मैंने एक ही सुरुक में सारी कॉफी गटक ली। वो मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी और मैं काफी के फेन को होंठो से हटा रहा था, मैंने झटके से पूछा खादी भंडार नहीं जाना है क्या.. (रवीश मैनिया/ जारी है) 6. इस बार दो हफ्ते के अंतराल के बाद हम मिले, वो भी कनाट प्लेस में। उसने कहा- मेट्रो के बाद कितना बदल गया है कनाट प्लेस... मैंने उसकी प्रतिक्रिया पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, वो फिर बोली, इस बार मैंने कहा-वक्त के साथ हम भी तो बदल गए हैं...इस बार वह चुप थी..(रवीश मैनिया, जारी है) 7. हल्की बारिश हो रही थी, कनाट प्लेस से हम सीधे जेएनयू की ओर रवाना हुए. 615 नं की बस पर बैठे. शीशे पे पानी की बूंदों को निहार रहे थे, नेल्सन मंडेला मार्ग से जेएनयू में दाखिल हुए. वह गंगा ढाबा जाना चाहती थी और मैं मामू का ढाबा. मामू ढाबा जाने के लिए वह आखिर राजी हो ही गई, लेकिन शर्त थी-बिहारी थाली (रवीश मैनिया, जारी है) 8. जेएनयू में मामू के ढाबे में बिहारी थाली चखने के बाद हम कैंपस की सैर पर निकल पड़े. आज उसके पास मेरे लिए सवाल अधिक थे. उसने धीरे से पूछा- तुम यादों को जेब में लिए क्यों चलते हो? नास्टेलिजिया तर्क पर क्यूं हावी हो जाती है? इन सवालों को सुनकर मैं जेएनयू के लाल पत्थरों में कुछ खोजने लगा...वह मुझे टकटकी लगाए देखती रही..(रवीश मैनिया, जारी है) ---------------- 9. हम दिल्ली से आगे पलवल पहुंचे.एक गांव में. हम गांव की पगडंडी पे ठहल रहे थे. उसने धीरे से कहा नैनों को तो डसने का चश्का लगा रे..नैनों का जहर नशीला रे, मैंने कहा अरे ये तो गुलजार की लाइन है, तो उसने कहा-अब मैं भी उनकी दीवानी हूं... 10. पलवल से लौटते वक्त हम गाड़ी में चुपचाप बैठे थे। मैं सड़क किनारे बने आलीशान शॉपिंग कॉम्पलेक्स को देख रहा था और वो आंखें मूंदे मुस्कुरा रही थी। मेरे मन में कहानी चल रही थी और वो नज्म गुनगुना रही थी। तभी ड्राइवर ने झटके से ब्रेक लगाई, वो मुझसे और करीब आ गई। मानो कहानी और नज्म की मुलाकात हो गई। (रवीश मैनिया, जारी है) 11. मेरे चुप रहने से उसे कोई दिक्कत नहीं थी, दिक्कत थी तो केवल न मुस्कुराने पर। जेएनयू के मामू के ढाबे पर मैं चुप था लेकिन उसे देखकर मुस्कुरा रहा था। उसने धीरे से मेरे हाथ को संभालते हुए कहा-देखो आज चांद भी हमसे दूर है, तुम तो करीब आओ। वह आमावस की रात थी...(रवीश मैनिया,जारी है) अनुभव गिरीन्द्र, कानपुर 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From raviratlami at gmail.com Fri Mar 18 15:53:08 2011 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Fri, 18 Mar 2011 15:53:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpJDgpKTgpL/gpLngpL7gpLjgpL/gpJUg4KS14KS/4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS4?= Message-ID: <4D83328C.2030109@gmail.com> एक दिलचस्प, ऐतिहासिक आलेख. पढ़ें और फारवर्ड करें. खासकर भाषा में शुद्धतावाद के पैरोकारों को. रायबहादुर बाबू श्यामसुंदर दास का आलेख - हिंदी का ऐतिहासिक विकास हिंदी का विकास क्रमशः प्राकृत और अपभ्रंश के अनंतर हुआ है। पर पिछली अपभ्रंश में भी हिंदी के बीज बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं इसी लिये इस मध्यवर्त्ती नागर अपभ्रंश को विद्वानों ने पुरानी हिंदी माना है। यद्यपि अपभ्रंश की कविता बहुत पीछे की बनी हुई भी मिलती है परंतु हिंदी का विकास चंदबरदाई के समय से स्पष्ट देख पड़ने लगता है। इसका समय बारहवीं शताब्दी का अंतिम अर्ध भाग है परंतु उस समय भी इसकी भाषा अपभ्रंश से बहुत भिन्न हो गई थी। अपभ्रंश का यह उदाहरण लीजिए - *भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु। * *लज्जेज्जं तु वयंसिअह जै भग्गा घरु एंतु।। 1।। * *पुत्ते जाएं कवण् गुणु अवगुणु कवणु मुएण। * *जा बप्पी की भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण।। 2।।* दोनों दोहे हेमचंद्र के हैं। हेमचंद्र का जन्म संवत् 1145 में और मृत्यु सं0 1229 में हुई थी। अतएव यह माना जा सकता है कि ये दोहे सं0 1200 के लगभग अथवा उसके कुछ पूर्व लिखे गये होंगे। अब हिंदी के आदि कवि चंद के कुछ छंद लेकर मिलाइए और् देखिए दोनों में कहाँ तक समता है। *उच्चिष्ठ छंद चंदह बयन सुनत सुजंपिय नारि। * *तनु पवित्त पावन कविय उकति अन्ठ उधारि।। * *ताड़ी खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदब्भुत। * *दिग्ध देह चख सीस मुष्ष करुना जस जप्पत।।* हेमचंद्र और चंद की कविताओं को मिलाने से यह स्पष्ट विदित होता है कि हेमचंद्र की कविता प्राचीन है और चंद की उसकी अपेक्षा बहुत अर्वाचीन। हेमचंद्र ने अपने व्याकरण में अपभ्रंश के कुछ उदाहरण दिए हैं जिनमें से ऊपर के दोनों दोहे लिये गए हैं पर ये सब उदाहरण स्वयं हेमचंद्र के बनाए हुए ही नहीं है। संभव है कि इसमें से कुछ स्वयं उनके बनाए हुए हों पर अधिकांश अवतरण मात्र हैं और इसलिए उसके पहले के हैं। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में वर्तमान महाराज भोज का पितृव्य द्वितीय वाक्पतिराज परमार मुंज जैसा पराक्रमी था वैसा ही कवि भी था। एक बार वह कल्याण के राजा तैलप के यहाँ कैद था। कैद ही में तैलप की बहन मृणालवती से उसका प्रेम हो गया आर उसने कारागृह से निकल भागने का अपना भेद अपनी प्रणयिनी को बतला दिया। मृणालवती ने मुंज का मंसूबा अपने भाई से कह दिया जिससे मुंज पर और अधिक कड़ाई होने लगी। निम्नलिखित दोहे_ मुंज की तत्कालीन रचना हैं *जा मति पच्छई सपज्जइ सा मति पहिली होइ। * *मुंज भणै मुणालवइ विधन न बेढइ कोइ।।* ( जो मति पीछे संपन्न होती है वह यदि पहले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवती कोई विघ्न न सतावे। ) *सायर खाई लंक गढ़ गढ़वई दससिरि राउ। * *भगग्क्त्यय सो भजि गय मु ज म कत् ?साउ।।* ( सागर खाई लंका गढ़ राढ़पति दशकंधर राजा भाग्य क्षय होने पर सब चौपट हो गए। मुंज विषाद मत कर। ) ये दोहे हिंदी के कितने पास पहुँचते हैं यह इन्हें पढ़ते ही पता लग जाता है। इनकी भाषा साहित्यिक है अतः रूढ़ि के अनुसार इनमें कुछ ऐसे शब्दों के प्राकृत रूप भी रखे हुए है_ जो बोलचाल में प्रचलित न थे जैसे संपज्जइ, सायर, मुणालवइ, बिसाउ। इन्हें यदि निकाल दें तो भाषा और भी स्पष्ट हो जाती है। इस अवस्था में यह माना जा सकता है कि हेमचंद्र के समय से पूर्व हिंदी का विकास होने लग गया था और चंद के समय तक उसका कुछ रूप स्थिर हो गया था अतएव हिंदी का आदिकाल हम सं0 1050 के लगभग मान सकते हैं। यद्यपि इस समय के पूर्व के कईं हिंदी कवियों के नाम बताए जाते हैं परंतु उनमें से किसी की रचना का कोई उदाहरण कहीं देखने में नहीं आता। इस अवस्था में उन्हें हिंदी के आदि काल के कवि मानने में संकोच होता है। पर चंद को हिंदी का आदि कवि मानने में किसी को संदेह नहीं हो सकता। कुछ लोगों का यह कहना है कि चंद का पृध्वीराज रासो बहुत पीछे का बना हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि इस रासो में बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश है पर साथ ही उसमें प्राचीनता के चिह्न भी कम नहीं हैं। उसके कुछ अंश अवश्य प्राचीन जान पड़ते हैं। चंद का समकालीन जगनिक कवि हुआ है जो बुंदेलखंड के प्रतापी राजा परमाल के दरबार में था। यद्यपि इस समय उसका बनाया कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर यह माना जाता है कि उसके बनाए ग्रंथ के आधार पर ही आरंभ में “आल्हाखंड” की रचना हुई थी। अभी तक इस ग्रंथ की कोई प्राचीन प्रति नहीं मिली है पर संयुक्त प्रदेश और बुंदेलखंड में इनका बहुत प्रचार है और यह बराबर गाया जाता है। लिखित प्रति न होने तथा इनका रूप सर्वथा आल्हा गानेवालों की स्मृति पर निर्भर होने के कारण इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश भी मिलता गया है और भाषा में भी फेरफार होता गया है। हिंदी के जन्म का समय भारतवर्ष के राजनीतिक उलटफेर का था। उसके पहले ही से यहाँ मुसलमानों का आना आरंभ हो गया था और इस्लाम धर्म के प्रचार तथा उत्कर्षवर्धन में उत्साही आर दृढ़संकल्प मुसलमानों के आक्रमणों के कारण भारतवासियों को अपनी रक्षा की चिता लगी हुई थी। ऐसी अवस्था में साहित्य कला की वृद्धि की किसको चिंता हो सकती थी। ऐसे समय में तो वे ही कवि सम्मानित हो सकते थे जो केवल कलम चलाने में ही निपुण न हों वरन् तलवार चलाने में भी सिद्धहस्त हों तथा सेना के अग्रभाग में रहकर अपनी वाणी द्वारा सैनिकों का उत्साह बढ़ाने में भी समर्थ हों। चंद और जगनिक ऐसे ही कवि थे इसीलिये उनकी स्मृति अब तक बनी है। परंतु उनके अनंतर कोई सौ वर्ष तक हिंदी का सिंहासन सूना देख पड़ता है। अतएव हिंदी का आदि काल संवत् 1050 के लगभग आरंभ होकर 1375 तक चलता है। इस काल में विशेषकर वीर काव्य रचे गए थे। ये काव्य दो प्रकार की भाषाओं में लिखे जाते थे। एक भाषा का ढाँचा तो बिलकुल राजस्थानी या गुजराती का होता था जिसमे प्राकृत के पुराने शब्द भी बहुतायत से मिले रहते थे। यह भाषा जो चारणों में बहुत काल पीछे तक चलती रही है डिंगल कहलाती है। दूसरी भाषा एक सामान्य साहित्यिक भाषा थी जिसका व्यवहार ऐसे विद्वान् कवि करते थे जो अपनी रचना को अधिक देशव्यापक बनाना चाहते थे। इसका ढाँचा पुरानी ब्रजभाषा का होता था जिसमें थोड़ा बहुत खड़ी या पंजाबी का भी मेल ही जाता था। इसे पिंगल भाषा कहने लगे थे। वास्तव में हिंदी का सबंध इसी भाषा से है। पृथ्वीराज रासो इसी साहित्यिक सामान्य भाषा में लिखा हुआ है। बीसलदेव रासो की भाषा साहित्यिक नहीं है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि उसके कवि ने जगह जगह अपनी राजस्थानी बोली में इस सामान्य साहित्यिक भाषा (हिंदी) को मिलाने का प्रयत्न अवश्य किया है। डिंगल के ग्रंथों में प्राचीनता की झलक उतनी नहीं है जितनी पिंगल ग्रंथों में पाई जाती है। राजस्थानी कवियों ने अपनी भाषा को प्राचीनता का गौरव देने के लिये जान बूझकर प्राकृत अपभ्रंश के रूपों का अपनी कविता में प्रयोग किया है। इससे वह भाषा वीरकाव्योपयोगी अवश्य हो जाती है, पर साथ ही उसमें दुरूहता भी आ जाती है। इसके अनंतर हिंदी के विकास का मध्य काल आरंभ होता है जो 525 वर्षों तक चलता है। भाषा के विचार से इस काल को हम दो मुख्य भागो में विभक्त कर सकते हैं - एक सं0 1375 से 1700 तक और दूसरा 1700 से 1900 तक। प्रथम भाग में हिंदी की पुरानी बोलियाँ बदलकर ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण करती हैं; और दूसरे भाग में उनमें प्रौढ़ता आती है तथा अंत में अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण सा हो जाता है और काव्य भाषा का एक सामान्य रूप खड़ा हो जाता है। इस काल के प्रथम भाग में राजनीतिक स्थिति डाँवाँडोल थी। पीछे से उसमें क्रमशः स्थिरता आई जो दूसरे भाग में दृढ़ता को पहुँचकर पुनः डाँवाँडोल हो गई। हिंदी के विकास की चौथी अवस्था संवत् 1900 में आरभ होती है। उसी समय से हिंदी गद्य का विकास नियमित रूप से आरभ हुआ है और खड़ी बोली का प्रयोग गद्य और पद्य दोनों में होने लगा है। मध्य काल के पहले भाग में हिंदी की पुरानी बोलियों ने विकसित होकर ब्रज अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण किया और ब्रज तथा अवधी ने साहित्यिक बाना पहनकर प्रौढ़ता प्राप्त की। पुरानी बोलियों ने किस प्रकार नया रूप धारण किया इसका अबद्ध विवरण देना अत्यन्त कठिन है पर इसमें संदेह नहीं कि वे एक बार ही साहित्य के लिये स्वीकृत न हुई होंगी। इस अधिकार और गौरव को प्राप्त करने में उनको न जाने कितने वर्षों तक साहित्यिकों की तोड़-मरोड़ सहनी तथा उन्हें घटाने बढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता दे रखनी पड़ी होगी। मध्य युग में धार्मिक प्रचार सबंधी आंदोलन ने प्रचारकों को जनता के हृदय तक पहुँचने की आवश्यकता का अनुभव कराया। इसके लिए जन साधारण की भाषा का ज्ञान और उपयोग उन्हें अनिवार्य ज्ञात हुआ। इसी आवश्यकता के वशीभूत होकर निर्गुणपंथी संत कवियों ने जन साधारण की भाषा को अपनाया आर उसमें कविता की परंतु वे उस कविता को माधुर्य आदि गुणों से अलंकृत न कर सके और न किसी एक बोली को अपनाकर उसके शुद्ध रूप का उपयोग कर सके। उनके अपढ़ होने स्थान स्थान के साधु संतों के सत्संग आर भिन्न भिन्न प्रांतों तथा उसके उपखंडों में जिज्ञासा की तृप्ति के लिये पर्यटन एवं प्रवास ने उनकी भाषा में एक विचित्र खिचड़ी पका दी। काशी निवासी कबीर के प्रभाव से विशेष कर पूरबी भाषा (अवधी ) का ही उसमें प्राबल्य रहा यद्यपि खड़ी बोली और पंजाबी भी अपना प्रभाव डाले बिना न रहीं। इन साधु संतों द्वारा प्रयुक्त भाषा को हम सधुक्कडी अवधी अथवा साहित्य में प्रयुक्त उसका असंस्कृत अपरिमार्जित रूप कह सकते हैं। आगे चलकर इसी अवधी को प्रेमाख्यानक मुसलमान कवियों ने अपनाया और उसको र्किचित् परिमार्जित रूप में प्रयुक्त करने का उद्योग किया। इसमें उनको बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हुई। अंत में स्वाभाविक कोमलता और सगुण भक्ति की रामोपासक शाखा के प्रमुख प्रतिनिधि तुलसीदास ने उसे प्रौढ़ता प्रदान करके साहित्यिक आसन पर सुशोभित किया। प्रेमाख्यानक कवियों ने नित्य के व्यवहार में आनेवाली भाषा का प्रयोग किया और तुलसीदास ने संस्कृत के योग से उसको परिमार्जित और प्रांजल बनाकर साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान किया। ब्रजभाषा एक प्रकार से चिर प्रतिष्ठित प्राचीन काव्य भाषा का विकसित रूप है। पृथ्त्रीराज रासो में ही इसके ढाँचे का बहुत कुछ आभास मिल जाता है “तिहि रिपुजय पुरहरन को भए प्राथ राज नरिंद।” सूरदास के रचना काल का आरंभ संवत् 1575 के लगभग माना जाता है। उस समय तक काव्य-भाषा ने ब्रजभाषा का पूरा पूरा रूप पकड़ लिया था फिर भी उसमें क्या क्रिया, क्या सवर्नाम और क्या अन्य शब्द सबमें प्राकृत तथा अपभ्रंश का प्रभाव दिखाई देता है। पुरानी काव्य भाषा का प्रभाव ब्रजभाषा में अब तक लक्षित होता है। रत्नाकर जी की कविता में भी अभी तक ‘मुक्ताहल’ और ‘नाह’ ऐसे न जाने कितने शब्द मिलते हैं। तुलसीदासजी की रचना में जिस प्रकार अवधी ने प्रौढ़ता प्राप्त की उसी प्रकार अष्टछाप के कवियों की पदावली में ब्रजभाषा भी विकसित हुई। घनानंद बिहारी और पद्माकर की कविता में तो उसका पूर्ण परितोष हुआ। यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार अवधी में मिश्रण के कारण साधुसंत हुए उसी प्रकार ब्रजभाषा में मिश्रण के कारण राजा लोग हुए। यह ऊपर कहा जा चुका है कि ब्रजभाषा पुरानी सार्वदेशिक काव्य-भाषा का विकसित रूप है। उत्तर भारत की संस्कृत का केंद्र सदा से उसका पश्चिम भाग रहा। बड़ी बड़ी राजधानियाँ तथा समृद्धशालिनी नगरियाँ, जहाँ राजा लोग मुक्त हस्त होकर दान देने के प्रभाव से दूर दूर देश के कवि-कोविदों को खींच लाते थे, वहीं थीं। इसी से वहीं की भाषा ने काव्य भाषा का रूप प्राप्त किया साथ ही दूर दूर देशों की प्रतिभा ने भी काव्य भाषा के एकत्व स्थापित करने में योग दिया। इस प्रकार का कल्पित एकत्व प्रायः विशुद्धता का विरोधी होता है। यही कारण है कि ब्रजभाषा भी बहुत काल तक मिश्रित रही। रासो की भाषा भी मिश्रित ही है। चंद ने स्वयं कहा है – *“षट् भाषा पुरानं च कुरानं कथितं मया।“* इस षट् भाषा का अर्थ स्पष्ट करने के लिये भिखारीदास का निम्नलिखित पद्यांश विचारणीय है। *“ब्रज मागधी मिलै अमर नाग यमन भाखानि। * *सहज पारसी हू मिलै षट विधि कहत बखानि।।“* मागधी से पूर्वी ( अवधी से बिहारी का तात्पर्य है अमर से संस्कृत का, और यमन से अरबी का, पर नागभाषा कौन सी है यह नहीं जान पड़ता। जो कुछ हो, पर यह मिश्रण ऐसा नहीं होता था कि भाषा अपनापन छोड़ दे। *ब्रज भाषा भाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोइ। * *मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जु होइ।।* प्रत्येक कवि की रचनाओं में इस प्रकार का मिश्रण मिलता है, यहाँ तक कि तुलसीदास और गंग भी, जिनका काव्य साम्राज्य में बहुत ऊँचा स्थान है, उससे न बच सके। भिखारीदासजी ने इस संबंध में कहा है- *तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार। * *जिनकी कविता में मिली भाषा बिबिध प्रकार।।* अब तक तो किसी चुने उपयुक्त विदेशी शब्द को ही कविगण अपनी कविता में प्रयुक्त करते थे परन्तु इसके अनंतर भाषा पर अधिकार न रहने, भावों के अभाव तथा भाषा की आत्मा और शक्ति की उपेक्षा करने के कारण अरुचिकर रूप से विदेशी शब्दों का उपयोग होने लगा और भाषा का नैसर्गिक रूप भी परिवर्तन के आवर्त्त में फंस गया। फारसी के मुहाविरे भी ब्रजभाषा में अजीब स्वाँग दिखाने लगे। इसका फल यह हुआ कि ब्रजभाषा में भी एक विशुद्धतावादी आंदोलन का आरंभ हो गया। हिंदी भाषा के मध्यकालीन विकास के दूसरे अंश की विशेषता ब्रजभाषा की विशुद्धता है। भाषा की इस प्रगति के प्रमुख प्रतिनिधि घनानंद हैं। ब्रजभाषा का यह युग अब तक चला आ रहा है यद्यपि यह अब क्षीणप्राय दशा में है। वर्तमान युग में इस विशुद्धता के प्रतिनिधि पंडित श्रीधर पाठक बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर और पंडित रामचंद्र शुक्र आदि बताए जा सकते हैं। किसी समय भी बोलचाल की ब्रजभाषा का क्या रूप था इसका पता लगाना कठिन है। गद्य के जो थोड़े बहुत नमूने चौरासी वैष्णवों और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता तथा वैद्यक और साहित्य के ग्रंथों की टीका में मिलते हैं वे संस्कृत गर्भित हैं। उनसे इस कार्य में कोई विशेष सहायता नहीं मिल सकती। ब्रज और अवधी के ही समान प्राचीन होने पर भी खड़ी बोली साहित्य के लिये इतनी शीघ्र नहीं स्वीकृत हुई यद्यपि बहुत प्राचीन काल से ही वह समय समय पर उठ उठकर अपने अस्तित्व का परिचय देती रही है। मराठा भक्त प्रवर नामदेव का जन्म संवत् 1192 में हुआ था। उनकी कविता में पहले पहल शुद्ध खड़ी बोली के दर्शन होते हैं – *“ पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी। * *लैकरि ढेंगा टँगरी तोरी लंगत लंगत जाती थी।“* इसके अनंतर हमको खड़ी बोली के अस्तित्व का बराबर पता मिलता है। इसका उल्लेख हम यथास्थान करेंगे। कुछ लोगों का यह कहना है कि हिंदी की खड़ी बोली का रूप प्राचीन नहीं है। उनका मत है कि सन् 1800 ई0 के लगभग लल्लूजीलाल ने इसे पहले पहल अपने गद्य ग्रंथ प्रेमसागर में यह रूप दिया और तब से खड़ी बोली का प्रचार हुआ। ग्रियर्सन साहब लालचंद्रिका की भूमिका में लिखते हैं – “सच ए लैंग्वेज डिड नाट एक्जिस्ट इन इंडिया बिफ़ोर... व्हेन, देयरफ़ोर, लल्लूजीलाल रोट हिस प्रेमसागर इन हिंदी, ही वाज इनवेंटिंग एन आलटुगेदर न्यू लैंग्वेज.” अर्थात् “इस प्रकार की भाषा का इससे पहले भारत में कहीं पता न था। अतएव जब लल्लूजीलाल ने प्रेमसागर लिखा तब वे एक बिलकुल ही नई भाषा गढ़ रहे थे।“ इसी बात को लेकर उक्त महोदय अपनी लिंग्विस्टिक सर्वे ( भाषाओ की जाँच) की रिपोर्ट के पहले भाग में लिखते हैं- “अतः यह हिंदी (संस्कृत बहुल हिंदुस्तानी अथवा कम से कम वह हिंदुस्तानी जिसमें फारसी शब्दों का मिश्रण नहीं है ) जिसे कभी कभी लोग उच्च हिंदी कहते हैं; उन हिंदुओ की गद्य साहित्य की भाषा है जो उर्दू का प्रयोग नहीं करते। इसका आरंभ हाल में हुआ है और इसका व्यवहार गत शताब्दी के आरंभ से अँगरेजी प्रभाव के कारण होने लगा है। ...लल्लूलाल ने डा0 गिलक्रिस्ट की प्रेरणा से सुप्रसिद्ध प्रेमसागर लिखकर ये सब परिवर्त्तन किए थे। जहाँ तक गद्य भाग का संबंध है वहा तक यह ग्रंथ ऐसी उर्दूभाषा में लिखा गया था जिसमें उन स्थानों पर भारतीय आर्य्य शब्द रख दिए गए थे जिन स्थानों पर उर्दू लिखने वाले लोग फारसी शब्दों का व्यवहार करते हैं.” ग्रियर्सन साहब ऐसे भाषातत्वविद् की लेखनी से ऐसी बात न निकलनी चाहिए थी। यदि लल्लूजीलाल नई भाषा गढ़ रहे थे तो क्या आवश्यकता थी कि उनकी गढ़ी हुई भाषा उन साहबों को पढ़ाई जाती जो उस समय केवल इसी अभिप्राय से हिंदी पढ़ते थे कि इस देश की बोली सीखकर यहाँ के लोगों पर शासन करें? प्रेमसागर उस समय जिस भाषा में लिखा गया वह लल्लूजीलाल की जन्मभूमि ‘आगरा’ की भाषा थी जो अब भी बहुत कुछ उससे मिलती जुलती बोली जाती है। उनकी शैली में ब्रजभाषा के मुहाविरों का जो पुट देख पड़ता है वह उसकी स्वतंत्रता प्रचलन और प्रौढ़ता का द्योतक है। यदि केवल अरबी फारसी शब्दों के स्थान में संस्कृत शब्द रखकर भाषा गढ़ी गई होती तो यह बात असंभव थी। कल के राजा शिवप्रसाद की भाषा में उर्दू का जो रंग है वह प्रेमसागर की भाषा में नहीं पाया जाता। इसका कारण स्पष्ट है। राजा साहब ने उर्दूभाषा को हिंदी का कलेवर दिया है और लल्लूजीलाल ने पुरानी ही खोल ओढ़ी है। एक लेखक का व्यक्तित्व उसकी भाषा में प्रतिबिंबित है तो दूसरे का उसके लोकव्यवहार ज्ञान में। दूसरे लल्लूजीलाल के समकालीन और उनके कुछ पहले के सदल मिश्र, मुंशी सदासुख, और सैयद इंशाउल्लाखाँ की रचनाएँ भी तौ खड़ी बोली में ही हैं। उसमें ऐसी प्रौढ़ता और ऐसे विन्यास का आभास मिलता है जो नई गढ़ी हुई भाषा में नहीं, किंतु प्रचुर प्रयुक्त तथा शिष्टपरिगृहीत भाषाओं में ही पाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान अमीर खुसरो ने अपनी कविता में इसी भाषा का प्रयोग किया है। पहले गद्य की सृष्टि होती है, तब पद्य की। यदि यह भाषा उस समय प्रचलित होती तो अमीर खुसरो ऐसा “घटमान” कवि इसमें कभी कविता न करता। स्वयं उसकी कविता इसकी साक्षी देती है कि वह चलती रोजमर्रा में लिखी गई है, न कि सोचकर गढ़ी हुई किसी नई बोली में। कविता में खड़ी बोली का प्रयोग मुसलमानों ने ही नहीं किया है, हिंदू कवियों ने भी किया है। यह बात सच है कि खड़ी बोली का मुख्य स्थान मेरठ के आस पास होने के कारण आर भारतवर्ष में मुसल मानी राजशासन का केंद्र दिल्ली होने के कारण पहले पहल मुसलमानों और हिंदुओं की पारस्परिक बातचीत अथवा उनमें भावों और विचारों का विनिमय इसी भाषा के द्वारा आरंभ हुआ और उन्हीं की उत्तेजना से इस भाषा का व्यवहार बढ़ा। इसके अनंतर मुसलमान लोग देश के अन्य भागों में फैलते हुए इस भाषा को अपने साथ लेते गए और उन्होंने इसे समस्त भारतवर्ष में फैलाया। पर यह भाषा यहीं की थी और इसी में मेरठ प्रांत के निवासी अपने भाव प्रकट करते थे। मुसलमानों के इसे अपनाने के कारण यह एक प्रकार से उनकी भाषा मानी जाने लगी। अतएव मध्यकाल में हिंदी भाषा तीन रूपों में देख पड़ती है ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली। जैसे आरंभ काल की भाषा प्राकृत प्रधान थी वैसे ही इस काल की तथा इसके पीछे की भाषा संस्कृत प्रधान हो गई। अर्थात जैसे साहित्य की भाषा की शोभा बढाने के लिये आदि काल में प्राकृत शब्दों का प्रयोग होता था वैसे मध्य काल में संस्कृत शब्दों का प्रयोग होने लगा। इससे यह तात्पर्य नहीं निकलता कि शब्दों के प्राकृत रूपों का अभाव हो गया। प्राकृत के कुछ शब्द इस काल में भी बराबर प्रयुक्त होते रहे जैसे भुआल, सायर, गय, बसह, नाह, लोयन आदि। उत्तर या वर्त्तमान काल में साहित्य की भाषा में ब्रजभाषा और अवधी का प्रचार घटता गया और खड़ी बोली का प्रचार बढ़ता गया। इधर इसका प्रचार इतना बढ़ा है कि अब हिंदी का समस्त गद्य इसी भाषा में लिखा जाता है और पद्य की रचना भी बहुलता से इसी में हो रही है। आधुनिक हिंदी गद्य या खड़ी बोली के आचार्य शुद्धता के पक्षपाती थे। वे खड़ी बोली के साथ उर्दू या फारसी का मेल देखना नहीं चाहते थे। इंशाउल्ला तक की यही सम्मति थी। उन्होंने “हिंदी छुट किसी की पुट” अपनी भाषा में न आने दी, यद्यपि फारसी रचना की छूत से वे अपनी भाषा को न बचा सके। इसी प्रकार आगरा निवासी लल्लूलाल की भाषा में ब्रज का पुट है और सदल मिश्र की भाषा में पूरबी की छाया वर्तमान है, परंतु सदासुखलाल की भाषा इन दोषों से मुक्त? है। उनकी भाषा व्यवस्थित, साधु और बे-मेल होती थी। आजकल की खड़ी बोली से सीधा संबंध इन्हीं की भाषा का है, यद्यपि हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में हम इंशाउल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र की उपेक्षा नहीं कर सकते। आगे चलकर 'जब मुसलमान खड़ी बोली का मुश्किल जबान कहकर विरोध करने लगे आर अँगरेजों को भी शासन संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार तथा राजनीतिक चालों की सफलता के उद्देश्य से शुद्ध हिंदी के प्रति उपेक्षा भाव उत्पन्न ही गया तब राजा शिवप्रसाद, समय और स्थिति की प्रगति का अनुभव कर उसे फारसी मिश्रित बनाने में लग गए और इस प्रकार उन्होंने हिंदी की रक्षा कर ली। इसी समय भाषा में राष्ट्रीयता की एक लहर उठ पड़ी जिसके प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। अभी कुछ ही दिन पहले मुसलमान भारतवर्ष के शासक थे। इस बात को वे अभी भूले नहीं_ थे। अतएव उनका इस राष्ट्रीयता के साथ मिलना असंभव सा था। इसलिये राष्ट्रीयता का अर्थ हिंदुत्व की वृद्धि था। लोग सभी बातों के लिये प्राचीन हिंदू संस्कृति की ओर झुकते थे। भाषा की समृद्धि के लिये भी बँगला के अनुकरण पर संस्कृत शब्द लिए जाने लगे क्योंकि प्राचीन परंपरा का गौरव और संबंध सहज में उच्छिन्न नहीं किया जा सकता। उसको बनाए रखने में भविष्य की उन्नति का मार्ग प्रशस्त, परिमार्जित और सुदृढ़ हो सकता है। यही कारण है कि राजा शिवप्रसाद को अपने उद्योग में सफलता न प्राप्त हुई और भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलकर हिंदी ऊंचा सिर किए हुए आगे बढ़ रही है। इस समय साहित्यिक हिंदी संस्कृत गर्भित हो रही है। परंतु अब राष्ट्रीय आंदोलन में मुसलमानों के आ मिलने से तथा हिंदुओं के उनका मन रखने की उद्विग्नता के कारण एक नई स्थिति उत्पन्न हो गई है। वही राष्ट्रीयता जिसके कारण पहले शुद्ध हिंदी का आंदोलन चला था, अब मिश्रण की पक्षपातिनी हो रही है और अपनी गौरवान्वित परंपरा को नष्ट कर राजनीतिक स्वर्गंलाभ की आशा तथा आकांक्षा करती है। अब प्रयत्न यह हो रहा है कि हिंदी और उर्दू में लिपिभेद के अतिरिक्त और कोई भेद न रह जाय और ऐसी मिश्रित भाषा का नाम हिंदुस्तानी रखा जाय। हिंदी यदि हिंदुस्तानी बनकर देश में एकछत्र राज्य कर सके तो नाम और वेशभूषा का यह परिवर्त्तन महँगा न होगा, पर आशंका इस बात की है कि अध्रुव के पीछे पड़कर हम ध्रुव को भी नष्ट न कर दें! क इस एकता के साथ साथ साहित्य और बोलचाल तथा गद्य आर पद्य की भाषा को एक करने का उद्योग वर्तमान युग की विशेषता है। ऊपर जो कुछ लिखा गया है उसका विशेष संबंध साहित्य की भाषा से है। बोलचाल में तो अब तक अवधी ब्रजभाषा आर खड़ी बोली अनेक स्थानिक भेदों और उपभेदों के साथ प्रचलित है पर साधारण बोलचाल की भाषा खड़ी बोली ही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Mar 19 10:03:05 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 19 Mar 2011 10:03:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KWH?= =?utf-8?b?4KS2IOCknOCli+CktuClgCDgpJXgpLXgpL/gpKTgpL4g4KSq4KS+4KSg?= Message-ID: दीवान के साथियों 16 मार्च को हमारे सबसे प्रिय कवि राजेश जोशी ने ने हिन्दी विभाग,डीयू कैंपस में कविता पाठ करते हुए समकालीन कविता पर बहुत ही संक्षिप्त किन्तु सुलझी हुई बात कही। दोनों की अलग-अलग ऑडियो लिंक लगा हूं,आप भी सुनकर आनंदित हों। विनीत समकालीन कविता पर- http://www.zshare.net/audi o/879646504329682c/ कविता पाठ-http://www.zshare.net/audio/8796487312b5f8e5/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Mar 22 10:11:08 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 22 Mar 2011 10:11:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSc4KWN4KSs?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkuOClhyDgpJbgpYfgpLLgpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCljeCkuA==?= Message-ID: *8 मार्च* को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज की छात्रा राधिका तंवर की सरेआम हत्या का मुद्दा अधिकांश न्यूज चैनलों पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के उस बयान के विरोध पर आकर टिक गया जिसमें उन्होंने कहा कि समाज को भी अपनी जिम्मेदारी अपनी समझनी चाहिए। दक्षिण दिल्ली जिला पुलिस उपायुक्त एजीएस धारीवाल की उस बाइट को भी लगभग सभी चैनलों पर दिखाया गया जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह हमारे लिए अफसोस की बात है कि अभी तक कोई भी व्यक्ति गवाह के तौर पर सामने नहीं आया है। *जाहिर है* कि राधिका तंवर की हत्या दिल्ली के जिस इलाके में हुई वह व्यस्त इलाकों में से है और हत्या के वक्त भी सैंकड़ों लोग मौजूद होंगे लेकिन प्रशासन ने साफ तौर पर कहा कि कोई भी यह सब बताने के लिए सामने नहीं आया। दिल्ली या किसी भी ऐसे शहर के लिए एक बड़ा वाल है कि जहां लोगों के बीच घिरकर भी कोई सुरक्षा नहीं है। पुलिस और प्रशासनिक सुरक्षा के पहले एक सामाजिक सुरक्षा और अपराधियों का उसके प्रति भय होना चाहिए लेकिन वह पूरी तरह से खत्म होता जा रहा है। न्यूज चैनलों को चाहिए था कि वे इस सवाल पर गंभीरता से बात करे और उन पहलूओं को भी सामने लाए जिसकी वजह से लोगों की मौजूदगी में भी घटना का अंजाम देने में उन्हें कोई भय नहीं होता। लेकिन न्यूज चैनलों ने अपनी पूरी बहस और खबरें इस बात पर केंद्रित रखा कि प्रशासन पूरी तरह से नाकाम है,पुलिस पूरी तरह से लापरवाह है और मुख्यमंत्री की तरफ से जो बयान आए हैं, वह दरअसल अपनी व्यवस्था की कमजोरियों को ढंकने का नतीजा है। *न्यूज24* जैसे चैनल ने दावा किया कि पुलिस इस मामले को लेकर जो हरकरत में आयी है,ये उनकी ही मुहिम का असर है। चैनल के एंकर ने इस बात को आधे घंटे की बुलेटिन में आठ बार दोहराया। आइबीएन7 ने साफ तौर पर कहा कि ऐसे में दो-चार अधिकारियों को सूली पर लटका दिए जाएं,शायद तब यह समझा जा सकेगा कि सुरक्षा की जिम्मेदारी कितनी बड़ी चीज है? स्टार न्यूज ने एजीएस धारीवाल से खास मुलाकात की और उनकी लंबी बातचीत चैनल पर दिखाया। धारीवाल की पूरी बातचीत में यह बात बार-बार खुलकर सामने आयी कि लोग ऐसे मामले में पुलिस के साथ बिल्कुल नहीं आते,उना सहयोग नहीं करते और कोई भी गवाह के तौर पर सामने नहीं आता लेकिन एंकर किशोर आजवाणी इस पूरी बातचीत को पुलिस की नाकामी और उस मुहावरे की तरफ ले गए जिसमें पुलिस में शिकायत दर्ज करने का मतलब दूसरी बार पीड़ित होना है। देखते ही देखते तमाम चैनल ने इस पूरे मामले को लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है दिल्ली को एक मुहिम की शक्ल देने में जुट गए। इस हत्याकांड की सिलसिलेबार और फील्ड रिपोर्टिंग सिरे से गायब हो गयी। चैनलों के लिए इस तरह की घटनाएं छानबीन का हिस्सा कम पैकेज की शक्ल में जिसमें कि ज्यादा से ज्यादा विजुअल इफेक्ट, सिनेमाई ध्वनियां और नाट्य रुपांतर के तौर पर ग्राफिक्स बनाने का मामला ज्यादा हो जाता है। राधिका हत्याकांड मामले को चैनल आरुषि हत्याकांड की तरह न्यूज चैनल का सीरियल बनाने में जुटते नजर आए। इनके बीच खास आजतक ने ओफ्फ! ये दिल्ली नाम से अपने खास कार्यक्रम में जरुर संतुलन बनाने की कोशिश की और सुरक्षा,समाज के रवैये और इस पूरे मामले को गंभीरता से दिखाने का काम किया। टाइम्स नाउ पर अर्णव गोस्वामी ने शीला दीक्षित के बयान पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करने की बात कही और यह सवाल उठाया कि हमें समाज के बदलते चेहरे पर भी बात करने की जरुरत है। *आप गौर करें* तो ऐसी कोई भी घटना जिसमें कि पुलिस,प्रशासन,सरकार या फिर किसी दूसरी सार्वजनिक संस्थानों के नाम आते हैं, न्यूज चैनल उन्हें अधिक से अधिक जनविरोधी बताने में बहुत अधिक देर नहीं लगाते । ऐसा वे ऑडिएंस के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए करते हैं जिससे लगे कि वह उनके प्रति कितने चिंतित हैं। ऐसा करने के क्रम में वे सही-गलत और तथ्यों को नजरअंदाज करके एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश में लग जाते हैं जिससे नागरिक समाज के बीच उनके प्रति आक्रोश पैदा होने शुरु हो जाएं। वे उनके विरोध में आगजनी करें,तोड़-फोड़ मचाएं,सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचानी शुरु करें। चैनल इस सोच के साथ काम करते हैं कि जब ऐसे माहौल पैदा किए जाएंगे तो खबर में अधिक से अधिक भड़काउ फुटेज शामिल किए जा सकेंगे जिससे कि टीआरपी पैदा होने में आसानी होगी। लेकिन ऐसा करते हुए वे इस बात की रत्तीभर भी चिंता नहीं करते कि इससे एक सार्वजनिक संस्था के तौर पर पुलिस,प्रशासन,सरकार और लोकतंत्र की मशीनरी से लोगों का भरोसा उठता जाएगा। चैनल उन संस्थानों के प्रति कभी भी उतनी तल्खी नहीं दिखाते जो आम नागरिकों के अधिकारों को कुचलते हुए अपना विस्तार कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि न्यूज चैनलों में कार्पोरेट,मीडिया,पूंजीपति वर्गों से जुड़ी नकारात्मक खबरें उसका हिस्सा नहीं बनने पाती। यह दरअसल लोगों के जज्बातों से खेलकर, लोकतंत्र को कमजोर कर उनके लिए रास्ता तैयार करना है जो कि आगे चलकर एक लाचार समाज के समूह में तब्दील होता जाएगा। राधिका तंवर को सैंकड़ों लोगों के सामने हत्या करनेवाला शख्स समाज की इसी कमजोरी की पैदाईश है जो किसी न किसी रुप में न्यूज चैनलों ने पैदा किए है और बिडंबना देखिए कि ऐसे लोगों को स्वयं इन चैनलों से भी कोई खास डर नहीं है। ऐसा करके मीडिया अपना ही असर कम कर रहा है। (मूलतः स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित 16 मार्च 2011) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Mar 22 17:57:56 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 22 Mar 2011 17:57:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KS54KWL?= =?utf-8?b?4KSwIOCkj+CkleCljeCkuOCkquCljeCksOClh+CkuOCkgyDgpLDgpKs=?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS+4KSwIOCkquCksCDgpJfgpLDgpYDgpKzgpYAg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCksuCkl+CkvuCkrg==?= Message-ID: मध्य प्रदेश जहां की आवाम ने हमेशा अच्छे खिलाड़ियों को आंखों पर बिठाकर रखा है। जहां की सरकार भी गांव और छोटे कस्बों से खेल के क्षेत्र में बेहतर करने की संभावना वाले कम उम्र की प्रतिभाओं को तलाशने के लिए प्रयत्नशील है। जिससे इन खिलाड़ियों की प्रतिभा को योग्य कोच की देखरेख में बेहतर प्रशिक्षण देकर निखारा जा सके। आज विश्व कप के रोमांच में जब पूरा देश डूबा है तो कुछ बातें आप सब के साथ सांझा करने को दिल करता है। चूंकि यह मौका माकूल है, कभी और ये कहानी आपके सामने आई तो हो सकता है, असामयिक कहकर उसे आप खारिज कर दें। मुद्दे की बात पर आता हूं, मैं आप सबके साथ ‘सीहोर एक्सप्रेस’ मुनीस अंसारी की कहानी सांझा करना चाहता हूं। जिस पर ना जाने कैसे मध्य प्रदेश में चल रहे तमाम सरकारी गैर सरकारी प्रयासों की नजर ना अब तक नहीं पड़ी। जबकि इस खिलाड़ी के तेज रफ्तार गेन्द की सनसनाहट को सिर्फ भोपाल ने नहीं बल्कि ऑल इंडिया स्कॉर्पियो स्पीड स्टार कांटेस्ट के माध्यम से देश भर ने महसूस किया। वह राज्य की राजधानी भोपाल से महज 25-30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटे से कस्बे सीहोर से ताल्लुक रखता है। उसने भी सीहोर की गलियों में बल्ले और गेन्द के साथ उसी तरह खेलना शुरु किया था जैसे उसके बहुत से साथियों ने किया था। लेकिन वह अपने साथियों की तरह यह खेल सिर्फ टाईम पास के लिए नहीं खेल रहा था। क्रिकेट देखते ही देखते उसके लिए जुनून बन गया। सीहोर की गलियों में क्रिकेट खेलने वाला मुनीस कभी सीहोर एक्सप्रेस नहीं बनता, यदि उसे स्पीड स्टार कांटेस्ट की जानकारी नहीं मिलती। सीहोर की गलियों के इस तेज गेन्दबाज के गेन्द का सामना करने के लिए मुम्बई के एक बड़े से मैदान में स्पीड स्टार मुकाबले के फाइनल में हरभजन सिंह उतरे। सिहोर एक्सप्रेस की पहली गेन्द को हरभजन समझ नहीं पाए और उनके तीनों विकेट हवा में बिखर गए। दूसरी गेन्द में हरभजन के हाथ का बल्ला दो टूकड़ों में बंट गया और तीसरी गेन्द पर हरभजन के हाथ का बल्ला छीटक कर दूर जा गिरा। मुनिस उस दिन 134 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से गेन्द फेंक रहे थे। उनके गेन्द की अधिकतम रफ्तार 145 किलोमीटर प्रतिघंटा थी। जिसे खेल पाना किसी भी बल्लेबाज के लिए मुश्किल की बात होगी। उसकी गेन्दबाजी की प्रतिभा को देखकर मैदान में मौजूद उस समय भारतीय टीम के कोच ग्रेग चैपल, कप्तान राहुल द्रविड़, वसीम अकरम, जोन्टी रोट्स, और किरण मोरे खासे प्रभावित हुए। दक्षिण अफ्रिका के खिलाड़ी जोंटी रोट्स ने तो मुनीस के खेल को देखकर क्षेत्र रक्षण (फिल्डिंग) के लिए दस में से नौ अंक दिए। बावजूद इसके मध्य प्रदेश की सरकार ने उसे आज तक रणजी खेलने के लायक भी नहीं समझा। मुनीस के अनुसार उसका चयन अब तक राष्ट्रीय टीम में हो चुका होता, यदि उसका भी कोई गॉड फादर होता। उसका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। उसके पिता मुस्तकीन अंसारी एक दिहाड़ी मजदूर हैं। परिवार की हालत अच्छी नहीं होने की वजह से वर्ष 2000 में मुनीस ने क्रिकेट खेलना छोड़ दिया था। चार साल उसने एक कंपनी में बतौर सीक्यूरिटी गार्ड काम किया। यह मुनीस की जिन्दगी के वे चार साल थे जब ‘दीवान बाग क्रिकेट क्लब’ और क्रिकेट कही पिछे छूट गया और मुनीस रोटी के लिए मशक्कत में लग गया था। उसका क्रिकेट के साथ रिश्ता खत्म ही हो जाता यदि इसी बीच एक टेलीविजन चैनल पर तेज गेन्दबाजों की तलाश के संबंध में विज्ञापन नही आया होता। इस विज्ञापन को देखने के बाद बड़े भाई युनूस अंसारी ने मुनीस को क्रिकेट में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। ग्वालियर में चार हजार गेन्दबाजों के बीच पूरे मध्य प्रदेश से इकलौते मुनीस का चयन इस प्रतियोगिता में हुआ। ऑल इंडिया स्कॉर्पियो स्पीडस्टार कांटेस्ट’ रियालिटी शो का प्रसारण चैनल सेवन (अब आईबीएन सेवन) ने किया। यह कार्यक्रम क्रिकेट प्रेमियो के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। पांच साल पहले हुए इस कांटेस्ट के बाद मुनीस का नाम मध्य प्रदेश के क्रिकेट प्रेमियो की जुबान पर छा गया। सिर्फ इस नाम को प्रदेश रणजी ट्राफी की चयन समिति नहीं सुन पाई। वरना बात आश्वासनों तक दब कर नहीं रह जाती। मुनीस का चयन भी होता। खेलने की उम्र निश्चित होती है। ऐसे में मुनीस जैसे अच्छे खिलाड़ियों को मौका ना देकर हम अपनी टीम को कमजोर बना रहे हैं। बीच में यह चर्चा तेज थी कि उसे राजस्थान रॉयल की टीम में स्थान मिलने वाला है, लेकिन यह हो नहीं सका। इसके लिए भी उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ही जिम्मेवार होगी। या फिर अब तक क्रिकेट की दुनिया में अपने लिए कोई खुदा-पापा (गॉड फादर) ना बना पाने की गलती की वह सजा भूगत रहा है। बहरहाल भारत में मौका तो नहीं मिला, तो वह इन दिनों ओमान की राष्ट्रीय टीम के लिए क्रिकेट खेल रहा है। सीहोर एक्सप्रेसः रफ्तार पर गरीबी की लगाम -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Mar 22 17:57:56 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 22 Mar 2011 17:57:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KS54KWL?= =?utf-8?b?4KSwIOCkj+CkleCljeCkuOCkquCljeCksOClh+CkuOCkgyDgpLDgpKs=?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS+4KSwIOCkquCksCDgpJfgpLDgpYDgpKzgpYAg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCksuCkl+CkvuCkrg==?= Message-ID: मध्य प्रदेश जहां की आवाम ने हमेशा अच्छे खिलाड़ियों को आंखों पर बिठाकर रखा है। जहां की सरकार भी गांव और छोटे कस्बों से खेल के क्षेत्र में बेहतर करने की संभावना वाले कम उम्र की प्रतिभाओं को तलाशने के लिए प्रयत्नशील है। जिससे इन खिलाड़ियों की प्रतिभा को योग्य कोच की देखरेख में बेहतर प्रशिक्षण देकर निखारा जा सके। आज विश्व कप के रोमांच में जब पूरा देश डूबा है तो कुछ बातें आप सब के साथ सांझा करने को दिल करता है। चूंकि यह मौका माकूल है, कभी और ये कहानी आपके सामने आई तो हो सकता है, असामयिक कहकर उसे आप खारिज कर दें। मुद्दे की बात पर आता हूं, मैं आप सबके साथ ‘सीहोर एक्सप्रेस’ मुनीस अंसारी की कहानी सांझा करना चाहता हूं। जिस पर ना जाने कैसे मध्य प्रदेश में चल रहे तमाम सरकारी गैर सरकारी प्रयासों की नजर ना अब तक नहीं पड़ी। जबकि इस खिलाड़ी के तेज रफ्तार गेन्द की सनसनाहट को सिर्फ भोपाल ने नहीं बल्कि ऑल इंडिया स्कॉर्पियो स्पीड स्टार कांटेस्ट के माध्यम से देश भर ने महसूस किया। वह राज्य की राजधानी भोपाल से महज 25-30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटे से कस्बे सीहोर से ताल्लुक रखता है। उसने भी सीहोर की गलियों में बल्ले और गेन्द के साथ उसी तरह खेलना शुरु किया था जैसे उसके बहुत से साथियों ने किया था। लेकिन वह अपने साथियों की तरह यह खेल सिर्फ टाईम पास के लिए नहीं खेल रहा था। क्रिकेट देखते ही देखते उसके लिए जुनून बन गया। सीहोर की गलियों में क्रिकेट खेलने वाला मुनीस कभी सीहोर एक्सप्रेस नहीं बनता, यदि उसे स्पीड स्टार कांटेस्ट की जानकारी नहीं मिलती। सीहोर की गलियों के इस तेज गेन्दबाज के गेन्द का सामना करने के लिए मुम्बई के एक बड़े से मैदान में स्पीड स्टार मुकाबले के फाइनल में हरभजन सिंह उतरे। सिहोर एक्सप्रेस की पहली गेन्द को हरभजन समझ नहीं पाए और उनके तीनों विकेट हवा में बिखर गए। दूसरी गेन्द में हरभजन के हाथ का बल्ला दो टूकड़ों में बंट गया और तीसरी गेन्द पर हरभजन के हाथ का बल्ला छीटक कर दूर जा गिरा। मुनिस उस दिन 134 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से गेन्द फेंक रहे थे। उनके गेन्द की अधिकतम रफ्तार 145 किलोमीटर प्रतिघंटा थी। जिसे खेल पाना किसी भी बल्लेबाज के लिए मुश्किल की बात होगी। उसकी गेन्दबाजी की प्रतिभा को देखकर मैदान में मौजूद उस समय भारतीय टीम के कोच ग्रेग चैपल, कप्तान राहुल द्रविड़, वसीम अकरम, जोन्टी रोट्स, और किरण मोरे खासे प्रभावित हुए। दक्षिण अफ्रिका के खिलाड़ी जोंटी रोट्स ने तो मुनीस के खेल को देखकर क्षेत्र रक्षण (फिल्डिंग) के लिए दस में से नौ अंक दिए। बावजूद इसके मध्य प्रदेश की सरकार ने उसे आज तक रणजी खेलने के लायक भी नहीं समझा। मुनीस के अनुसार उसका चयन अब तक राष्ट्रीय टीम में हो चुका होता, यदि उसका भी कोई गॉड फादर होता। उसका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। उसके पिता मुस्तकीन अंसारी एक दिहाड़ी मजदूर हैं। परिवार की हालत अच्छी नहीं होने की वजह से वर्ष 2000 में मुनीस ने क्रिकेट खेलना छोड़ दिया था। चार साल उसने एक कंपनी में बतौर सीक्यूरिटी गार्ड काम किया। यह मुनीस की जिन्दगी के वे चार साल थे जब ‘दीवान बाग क्रिकेट क्लब’ और क्रिकेट कही पिछे छूट गया और मुनीस रोटी के लिए मशक्कत में लग गया था। उसका क्रिकेट के साथ रिश्ता खत्म ही हो जाता यदि इसी बीच एक टेलीविजन चैनल पर तेज गेन्दबाजों की तलाश के संबंध में विज्ञापन नही आया होता। इस विज्ञापन को देखने के बाद बड़े भाई युनूस अंसारी ने मुनीस को क्रिकेट में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। ग्वालियर में चार हजार गेन्दबाजों के बीच पूरे मध्य प्रदेश से इकलौते मुनीस का चयन इस प्रतियोगिता में हुआ। ऑल इंडिया स्कॉर्पियो स्पीडस्टार कांटेस्ट’ रियालिटी शो का प्रसारण चैनल सेवन (अब आईबीएन सेवन) ने किया। यह कार्यक्रम क्रिकेट प्रेमियो के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ था। पांच साल पहले हुए इस कांटेस्ट के बाद मुनीस का नाम मध्य प्रदेश के क्रिकेट प्रेमियो की जुबान पर छा गया। सिर्फ इस नाम को प्रदेश रणजी ट्राफी की चयन समिति नहीं सुन पाई। वरना बात आश्वासनों तक दब कर नहीं रह जाती। मुनीस का चयन भी होता। खेलने की उम्र निश्चित होती है। ऐसे में मुनीस जैसे अच्छे खिलाड़ियों को मौका ना देकर हम अपनी टीम को कमजोर बना रहे हैं। बीच में यह चर्चा तेज थी कि उसे राजस्थान रॉयल की टीम में स्थान मिलने वाला है, लेकिन यह हो नहीं सका। इसके लिए भी उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ही जिम्मेवार होगी। या फिर अब तक क्रिकेट की दुनिया में अपने लिए कोई खुदा-पापा (गॉड फादर) ना बना पाने की गलती की वह सजा भूगत रहा है। बहरहाल भारत में मौका तो नहीं मिला, तो वह इन दिनों ओमान की राष्ट्रीय टीम के लिए क्रिकेट खेल रहा है। सीहोर एक्सप्रेसः रफ्तार पर गरीबी की लगाम -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Mar 23 16:08:48 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 23 Mar 2011 16:08:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkquCksCDgpJXgpJrgpLDgpL4g4KSr4KWI4KSy?= =?utf-8?b?4KS+4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpLjgpY3gpKrgpYDgpKEg4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSc?= Message-ID: * एक मिनट एक खबर * * स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम 24 घंटे 24 रिपोर्टर की नकल करते हुए बाकी के न्यूज़ चैनलों ने भी बीस मिनट में बीस खबरें, खबरें सुपरफास्ट या खबर शतक जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की। खबरों पर आधारित ये कार्यक्रम मीडिया से कम आइपीएल की संस्कृति से ज्यादा प्रभावित रहे। कुछ चैनलों पर तो ये कार्यक्रम आइपीएल के दौरान ही शुरु हुए। लेकिन तमाम चैनलों ने स्टार न्यूज़ की नकल तो जरुर कर ली, लेकिन जिस समझ के साथ इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, वे उससे न केवल अलग हो गए बल्कि खबरों की दुनिया में बेवजह की हड़बड़ी पैदा कर दी। इस हड़बड़ी से चैनलों पर खबर के नाम पर जो शोर पैदा हुआ है,वो ऑडिएंस को परेशान करनेवाला है। * * न्यूज़ शतक 24 घंटे 24 रिपोर्टर में आम तौर 24 अलग-अलग खबरें हुआ करती थी जो कि आज भी उसी तरह से है। जब तक एक ही इलाके की कोई बड़ी खबर न हो जाए,उसे दो या तीन खबर नहीं बनाया जाता। इससे इतना जरुर होता कि आधे घंटे में हम न्यूज चैनल के माध्यम से देश और दुनिया की 24 अलग-अलग खबरें जान पाते हैं। स्टार न्यूज का ये कार्यक्रम टीआरपी की चार्ट में चोटी के दस कार्यक्रमों में अक्सर शामिल होता। लिहाजा बाकी चैनलों ने भी इसी पैटर्न पर कार्यक्रम बनाने शुरु किए और तब आजतक ने खबरें सुपरफास्ट शुरु की, आइबीएन7 ने स्पीड न्यूज, इंडिया टीवी ने टी 20, न्यूज24 ने न्यूज शतक और यहां तक कि एनडीटीवी ने भी सुपरफास्ट खबरों में दौड़ लगानी शुरु कर दी। ज़ी न्यूज सालों से देश,विदेश,खेल से जुड़ी 10 बड़ी खबरें प्रसारित करता आ रहा है जो कि ज्यादा संतुलित और देखने लायक है। न्यूज चैनलों के बेहतरीन कार्यक्रमों की लिस्ट बनायी जाए तो उसमें इस कार्यक्रम को जरुर शामिल किया जाएगा। लेकिन 24 घंटे 24 रिपोर्टर की नकल पर बाकी चैनलों पर जितनी भी खबरें बनी है,उससे ऑडिएंस जुड़ने के बजाए उससे किनाराकशी कर लेने में ही अपनी भलाई समझती है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि एंकर्स खबरों को इतनी तेजी में पढ़कर निकलते हैं कि जैसे उन्हें खबरें प्रसारित करने से कहीं ज्यादा इस बात की चिंता और रिकार्ड बनानी है कि वे आधे घंटे में 20, 50 या फिर 100 खबरें प्रसारित करके शतक बना पाते हैं की नहीं। इन चैनलों ने अपने प्रतिस्पर्धी चैनलों से संख्या के आधार पर होड़ लगानी शुरु की और एक-दूसरे से अपने को बेहतर बताने में सिर्फ इस आधार पर जी-जान लगा दी कि वे उनसे कम समय में ज्यादा खबरें प्रसारित करेंगे। * *नतीजा ये हुआ कि* आज इन सारे चैनलों पर जो खबरें पढ़ी जाती है,उनमें आधा से ज्यादा खबरों को आप समझ ही नहीं पाएंगे कि क्या कहा जा रहा है। एंकर बदहवाश होकर खबरों की ऐसी दौड़ लगाते हैं कि सुननेवाली ऑडिएंस बहुत ही ज्यादा दबाव महसूस करने लग जाती है और सामान्य महसूस नहीं करते। दूसरा, लगे कि ये बहुत जल्दी में पढ़ी जानेवाली खबरें हैं इसलिए उसके साथ जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है,जिस तरह के ग्राफिक्स इस्तेमाल किए जाते हैं,वो अलग से परेशान करनेवाले होते हैं। न्यूज चैनलों में खबरों का विश्लेषण तो पहले से भी नहीं रहा है लेकिन सिर्फ हेडलाइन्स की खबरों का प्रसारित किया जाना,यह अपने आप में न्यूज चैनलों को अधूरा बनाता है। मानो वे स्वयं ही संकेत दे रहे हों कि बाकी की खबरों को विस्तार से जानने के लिए आप अखबार,इंटरनेट या फिर दूसरे माध्यमों की मदद ले। ऐसे में न्यूज चैनल खबरों के मामले में पहले के मामले में पहले से बहुत ही ज्यादा अधूरे और बेतरतीब होते चले जा रहे हैं। *इधर आप इन स्पीड न्यूज* की खबरों पर गौर करें जिनमें कि संख्या पर ज्यादा जोर है तो शुरु की चार या पांच खबरें एक ही मुद्दे से जुड़ी होती है। विश्व कप से जुड़ी खबरों पर बात हो रही है तो शुरु के पांच-छह-सात खबरें इसी से जुड़ी होगी। उसी तरह बीच में भी एक ही खबर को तीन-चार बार पढ़ा जाएगा। शुरुआत में जब हमने इन स्पीड न्यूज कार्यक्रमों को देखा तो उसमें काफी विविधता हुआ करती थी। यहां तक कि न्यूज24 ने जब न्यूज शतक की शुरुआत की तो पहले एपीसोड में तकरीबन सौ अलग-अलग खबरें थी और हमारा भरोसा बढ़ा था कि अब टेलीविजन में दुबारा से चार-पांच मुद्दों के अलावे देश और दुनिया से जुड़ी बाकी खबरें भी होगी। शुरुआत के कुछेक एपीसोड के लिए इन चैनलों ने बहुत मेहनत की लेकिन अब वही छ-सात मुद्दों को जोड़कर सिर्फ संख्या बढ़ाने के लिए सौ,पचास या बीस खबरें प्रसारित करने लग गए हैं। ऐसा करने से हमें संख्या बदल जाने के बाद भी लगता है कि एक ही खबर की आधी-अधूरी और जैसे-तैसे गुजर जानेवाली खबरें देख रहे हैं। इस दौरान विजुअल्स का असर बिल्कुल खत्म होता जा रहा है जबकि टेलीविजन अंततः विजुअल माध्यम है। इन कार्यक्रमों के फेर में टेलीविजन की संभावना खत्म होती है। *बहरहाल न्यूज से जुड़े* ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत के पीछे के तर्क को समझने की कोशिश करें तो चैनलो ने घोषित कर दिया है कि हम ऑडिएंस के पास विस्तार से खबरें देखने का समय नहीं होता। ऐसे में जरुरी है कि उन्हें कम समय में ज्यादा से ज्यादा खबरें दिखाई जाए। लेकिन अगर आप चैनलों के रवैये पर गौर करें तो वो हमारी चिंता से कहीं ज्यादा इस बात को लेकर परेशान नजर आते हैं कि कैसे देश और दुनिया की खबरों को जल्दी-जल्दी आनन-फानन में निबटाकर वॉलीवुड, क्रिकेट और रियलिटी शो से जुड़ी खबरों के लिए स्पेस तैयार करें। आप गौर करें तो न्यूज़ चैनल्स* * ऐसा करके अपनी जिम्मेदारी से पिंड छुड़ाकर टेलीविजन को पेड या स्पांसर प्रोग्राम का माध्यम बनाने में जुड़े हैं। इस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत है।( मूलतः प्रकाशित- जनसंदेश टाइम्स, 23 मार्च 2011) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Mar 24 16:53:52 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Mar 2011 16:53:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkquCksCDgpLLgpL7gpIfgpLUg4KSl?= =?utf-8?b?4KS+IOCklOCksSDgpK/gpL7gpKbgpYvgpIIg4KSu4KWH4KSCIOCkoQ==?= =?utf-8?b?4KWC4KSsLeCkieCkpOCksCDgpLDgpLngpL4g4KSl4KS+?= Message-ID: DUCR 90.4 FM रेडियो की प्रोग्राम मैनेजर डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा ने अल्सायी दुपहरी में फोन करके कहा- मैंने आपके बारे में सुना है,आप मीडिया पर लगातार लिख रहे हैं,मुझे आपके बारे में ज्यादा जानकारी अपने रेडियो प्रेजेंटर बलवीर सिंह गुलाटी से मिली। हम चाहते हैं कि आप इस चैनल पर मीडिया से संबंधित बात करें जिससे कि हमारे लिस्नर को फायदा हो। आप अपने अनुभव शेयर करें। गुलाटी से मेरी कोई मुलाकात नहीं थी। बस एक दिन उन्होंने मेल करके जरुर कहा था कि मैं आपको पढ़ता हूं और चाहता हूं कि आप हमारे यहां आएं। अब मैं उनसे मिल चुका हूं और उनके बारे में बस एक लाइन कहना चाहूंगा कि कायदे से इंटरव्यू मेरी नहीं उनकी ली जानी चाहिए और सिर्फ रेडियो पर ही नहीं अखबारों में भी छपे। बहुत ही अलग,सरोकार से जुड़ा और पूरे लगाव से वो काम कर रहे हैं। वो डीयू के उन छात्रों के लिए ऑडियो पाठ तैयार करते हैं जो कि खुद से किताबें नहीं पढ़ सकते। हिन्दी साहित्य की एक से एक किताबों को उन्होंने अपनी आवाज में पाठ तैयार किया है। मैं उन पर अलग से लिखूंगा। लेकिन ये शुद्ध रुप से वर्चुअल स्पेस के जरिए बननेवाला संबंध था। लिहाजा हमने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि बिल्कुल आएंगे,बस कुछ दिन पहले बता दें। उन्होंने मेरे लिए 16 मार्च दिन के 11.00 से 12.00 बजे समय तय कर दिया। प्रोग्राम का नाम था- सक्सेस मंत्रा जिसमें मुझे कुछ अपने बारे में बात करनी थी- वही मेरा बचपन,मेरा शहर, दिल्ली तक का सफर,मीडिया के अनुभव,लेखन औऱ मीडिया में आनेवाले छात्रों के लिए सुझाव और संभावनाएं। इन दिनों मैं पूरी तरह टेलीविजन चैनलों के बीच डूबा रहा लेकिन संयोग ऐसा बना कि रेडियो को लेकर कुछ-कुछ गतिविधियां जारी रही। एक तो देवीप्रसाद मिश्र ने एफएम रेडियो पर बना रहे अपनी फिल्म के लिए कुछ कहने को कहा। वो भी शानदार अनुभव रहा। मैंने क्या कहा वो तो फिल्म में बात होगी ही। कभी उसकी ऑडियो रिकार्डिंग भी यहां लगाकर आपलोगों को सुनने के लिए जिद करुंगा। लेकिन फिर अपने पुराने काम को भी पढ़ने लग गया। नईम अख्तर ने ज्ञानवाणी से जुड़ी गड़बड़ियों का भारी-भरकम पुलिंदा भेजा,उसे भी पढ़ने लग गया और टेलीविजन में डूबते हुए भी रेडियो में तैरने लग गया। इस बीच एफ एम रेडियो में एकाध छोटे-छोटे लेख भी निबटाने थे। डीयूसीआर का काम इसी बीच आया। तब फेसबुक पर न्यू मीडिया को लेकर बहस जारी थी और मीडिया के कुछ मठाधीशों ने इसे बहुत ही पर्सनली लिया था। बहरहाल, टेलीविजन के बीच धकड़पेंच के बीच जब मुझे रेडियो पर बात करने,लिखने और उस पर काम करने का मौका मिला तो लगा कि जैसे मुझे खुश होने का सबसे बड़ा बहाना मिल गया। एक ब्याही स्त्री को जैसे ससुराल या फिर मेट्रो की अकेली जिंदगी से छूटकर जो सुख मायका जाने पर मिलता है,कुछ वैसा ही। टेलीविजन और रेडियो मेरे लिए भाई-बहन की तरह है क्योंकि भाईयों औऱ बहनों ने जब गृहस्थी की मजबूरियों के बीच साथ छोड़ दिया( भौगोलिक स्तर पर) तो भी इन दोनों ने मुझे खुश रखने की कोशिशें की। रेडियो को लेकर बोलना,सोचना या फिर उस पर लिखना बचपन,रिसर्च और नास्टॉल्जिया में डूब जाने जैसा है। ये मेरी अब तक जिंदगी की तीन धूरी है जिससे मैं जुड़ा हूं। बचपन में रेडियो से इसलिए नहीं जुड़ा था कि उसे सुनना अच्छा लगता था बल्कि इसलिए कि जब टार्च की बैटरी निकालकर मैं दिनभर रेडियो बजाता और रात को वापस टार्च में डाल देता तो उसकी रोशनी बहुत ही डिम होती। पापा बहुत झल्लाते। वो जितना झल्लाते,मैं उतना ही खुश होता। मुझे जितनी खुशी मिलती,शायद ही किसी को अमीन सयानी को बिनाका गीतमाला सुनकर होती होगी। मैं बचपन से पापा को अपना विपक्ष मानता रहा और दबे-छुपे ही सही कभी उनकी नकल,कभी जो नहीं पसंद है वही करके अपना प्रतिरोध जाहिर करता रहा। हिन्दी विभाग के लोगों को देशभर में खोजे उत्तर-आधुनिकता के चिन्ह नहीं मिल रहे हैं,एक सुधी आलोचक के पूरे लक्षण गिना दिए जाने पर नाक-भौं सिकोड़े जा रहे हैं लेकिन अगर 2011 की जणगणना में उत्तर-आधुनिक बच्चे की गिनती शुरु हो तो मां मेरा नाम जरुर लिखवाएगी। मेरे लिए सारा मजा पापा की सोच औऱ नसीहत से ठीक उल्टा करने से पैदा होता और इसमें रेडियो सुनना सबसे ज्यादा शामिल था। बाद में पापा खुद से बैटरी लाने लगे थे,रेडियो भी। एकबारगी तो लगा कि अब रेडियो सुनने में मजा नहीं रहा लेकिन तब तक मजा चिढ़ाने से ज्यादा सुनने में पैदा होने लग गयी थी। दूसरा कि एम फिल मैंने एफ एम चैनलों की भाषा पर ही की। रेडियो का पुराना प्यारा बहुत ही अलग अंदाज में हरा होने को था। रिसर्च बोर्ड के आगे विषय सुझाया तो ही ही,खीं-खीं की ध्वनि के बीच मेरा विषय ही लगा गुन हो जाएगा। लेकिन उन्हीं लोगों के बीच से कुछ को इस विषय में शोध की संभावना दिखी और मुझे मेरे मन-मुताबिक विषय पर रिसर्च करने के लिए मिल गया। मैं लगातार एफ एम चैनलों को सुनता। कई बार तो 24 घंटे रेडियो मिर्ची फिर कुछ दिन आराम फिर 24 घंटे तक रेडियो सिटी। यकीन मानिए तब मैं रेडियो ट्रामा में जीने लग गया था। फिर आकाशवाणी और एफ एम चैनलों से जुड़े लोगों से मिलना जुलना। मैंने इस पर कई पोस्टें लिखी है। वो संसद मार्ग पर दस के चार केले खाने से लेकर झाजी के साथ बैठकर रेडियो की किस्सागोई। एक अजीब सा नशा,एक खास किस्म का लगाव। अफेयर हो जाने जैसी नरम किन्तु असरदार अनुभूति और वो भी चौबीसों घंटे। तीसरा कि मैं पूरी तरह टेलीविजन पर फोकस्ड होकर लिखने लग गया था। एक तो मेरे रिसर्च का पूरा काम इसी से संबंधित है और दूसरा कि मैं अखबारों-पत्रकाओं में इससे जुड़े मुद्दे पर बात करना चाहता था। अपने ब्लॉग पर अधिकांश पोस्टे टेलीविजन पर ही लिखता आया हूं। इसी बीच आकाशवाणी के भीतर हिन्दी को लेकर भारी खेल हुआ। फिर एफ एम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी प्राइवेट चैनलों को अलॉट करने की बात आयी। एक जीते-जागते चैनल को बंद कर देने की खबरें आने लगी। मैं इस वक्त सबसे ज्यादा रेडियो को लेकर काम कर रहा था। लगातार अपडेट्स ले रहा था। लंबी-लंबी बातचीत और मुलाकातें करने लगा था,उन तमाम रेडियो में काम करनेवाले लोगों से जो कि रेडियो को हर हाल में बचाना चाहते हैं। अपने स्तर से जहां तक हो सका,लिखना शुरु किया। DUCR 90.4FM की स्टूडियो में पहुंचा तो ये सारी यादें एक क्रम से याद आ रही थी। मैं थोड़ा नास्टॉल्जिक हो रहा था। गुलाटी और उसके साथ की सहयोगी रेडियो प्रेजेंटर दोनों की बहुत भले लगे। ब्रेक में उसने माहौल को बिल्कुल हल्का करने की कोशिश की थी और थोड़ी-थोड़ी चुहलबाजी भी। मजा आ रहा था मुझे इन दोनों से बात करते हुए। सुनिल बाबू- बढ़िया है..जब वो नकल कर रही थी तो मैंने ठहाके लगाने से अपने को रोक नहीं पाया। लेकिन इस नास्टॉल्जिया के बीच जब वो एक के बाद एक मीडिया और न्यू मीडिया से जुड़े सवाल पूछ रहे थे तो मैं थोड़ा सख्त हो जा रहा था, मेरे भीतर की कसमसाहट मेरी बातों में झलकने लगी थी और तभी मैंने कहा था कि- देश और दुनिया की आवाज उठानेवाला आज का पत्रकार सबसे ज्यादा गुलाम है। वो जेटएयर वेज की हड़ताल की खबर दिखा सकता है लेकिन उससे कहीं अधिक व्आइस ऑफ इंडिया पर ताला लग जाने से बेरोजगार,सड़कों पर आ जानेवाले मीडियाकर्मियों के बारे में एक शब्द नहीं लिख-बोल सकता।..उसी क्रम में मेरे मुंह से निकला कि संस्थानों में जो मीडिया की पढ़ाई हो रही है,वो संत बनाने की ट्रेनिंग है,पत्रकार बनाने की नहीं। लेकिन अच्छी बात है कि न्यू मीडिया और वर्चुअल स्पेस ने साबित कर दिया है कि अब किसी भी मीडिया स्टूडेंट को द्रोणाचार्य की जरुरत नहीं है। इस तरह मीडिया को लेकर बहुत सारी बातें मैंने की। मेरी इच्छा नहीं बल्कि जिद है कि आप इसे सुनें। मीडिया को लेकर अपनी राय जाहिर करें। मेरी बात बकवास लगे तो बीच-बीच में कुछ गाने हैं ताकि आप इसे अधूरी छोड़ जाने की स्थिति में न आएं। नीचें ऑडियों लिंक चेंप रहा हूं, सुनने के लिए उस पर चटका लगाएं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है- http://www.zshare.net/audio/88143304490dc5a7/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Mar 26 08:47:58 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 26 Mar 2011 08:47:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCkkA==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkhuCksuCli+CkmuCklSDgpKXgpYcs4KSc4KWLIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KWB4KS14KS+4KST4KSCIOCkuOClhyDgpKbgpYvgpLjgpY3gpKTgpYAg?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkr+CkleClgOCkqCDgpLDgpJbgpKTgpYcg4KSl4KWH?= Message-ID: *तस्‍वीर सौजन्‍य : कुमार अंबुज, वाया : प्रभात रंजन* अरे विनीत, ये बिग बॉस की अश्लीलता पर क्या हंगामा मचा हुआ है? मैंने *मोहल्ला लाइव* पर लिखी तुम्हारी पोस्ट पढ़ी। सुनो मैं चाहता हूं कि तुम टेलीविजन, रियलिटी शो और संस्कृति को लेकर एक शोधपरक लेख वसुधा के लिए लिखो। कब तक भेज रहे हो? *मैंने कहा*, जरूर लिखता हूं सर, दस दिन तो लग ही जाएंगे कम से कम। अभी इस पर काम कर रहा हूं, तो कोशिश करूंगा कि इतने समय में कर दूं। *कर दो* जल्दी से, दिसंबर का अंक तो निकल गया, अगले अंक के लिए लिखो तुम विस्तार से। *कमला प्रसाद* मुझे जब भी फोन करते तो पहली लाइन यही होती, मेरी बड़ी इच्छा रहती है कि तुम वसुधा के लिए नियमित लिखा करो। लेकिन तुमने कह दिया था कि पीएचडी के काम में लगा हूं, इसलिए मैं तंग करना नहीं चाहता। खैर, अगर समय हो तो इस मुद्दे पर लिख दो। *मैंने वसुधा के लिए* सास-बहू सीरियलों में बनती स्त्री छवि या फिर यूथ जेनरेशन की समझ पर बनी फिल्‍म रंग दे बसंती जैसे लेख उनके इसी परेशान न करने की बात और खैर समय मिले तो लिख देना के बीच लिखा। वसुधा हिंदी की गंभीर पत्रिका है, इसलिए मैं यहां लिखने के लिए एक तो बहुत समय लेता और दूसरा कि लिखते हुए भीतर से हमेशा एक खास किस्म का भय होता कि पता नहीं इसे पाठक किस रूप में लेंगे? बहरहाल… *दस दिनों बाद* उन्होंने दोबारा मुझे फोन किया, हो गया विनीत लेख? मैं फोन पर सहज तरीके से बात करने की स्थिति में नहीं था। बड़ी मुश्किल से जवाब दिया, नहीं सर, कहां हो पाया। *क्यों* क्या हो गया? *मैंने अपनी* पूरी हालत जैसे-तैसे बतायी। उनका भी उसी वक्त कोई ऑपरेशन हुआ था या फिर पिछले दिनों फोर्टिस, दिल्ली में जो कराया था, उसी में कुछ उलझनें आ गयी थीं। मेरी हालत पर पलटकर कहा, ओह, तुम्हारी हालत तो मुझसे भी खराब है। कोई है कि नहीं साथ में? मैं हॉस्पीटल से छूटकर दो दिन पहले ही आया था। मैं कुछ बोलने के बजाय फफककर रोने लग गया था। आज महसूस करता हूं कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था। एक बुजुर्ग और बीमार साहित्यकार के आगे मुझे इस तरह रोना नहीं चाहिए था। *उन्होंने कहा था*, देखो न, गजब का संयोग है, हमदोनों एक ही तरह से बिस्तर पर लेटे हैं। खैर, तुम चिंता न करो। जवान आदमी हो, एकदम ठीक हो जाओगे। लेख का क्या है, फिर कभी। दुरुस्त रहोगे तो तुमसे कई लेख लिखवा लेंगे। अपना ध्यान रखा करो। कोई बात हो तो बताना। *मैं आत्मपीड़न का* ऐसा शिकार आदमी कि पलटकर पूछा तक नहीं कि आपको क्या हो गया? अव्वल मेरी आवाज भी तो नहीं निकल रही थी। जनवरी की ठंड में उनसे मेरी ये आखिरी बातचीत थी। दिल्ली की ठिठुरती ठंड और थोड़ी निष्ठुरता से पिंड छुड़ाने के लिए मैंने घर फोन कर दिया था और भइया आकर मुझे अपने घर लेकर चले गये थे। घर से आने के बाद हम सामान्य होने होने के लिए आये दिन नयी-नयी चीजें आजमा रहे थे कि इसी बीच कल सुबह खबर मिली कि कमला प्रसाद नहीं रहे। मैं उन्हें अंतिम बार देखने से अपने को रोक नहीं सका और जैसे-तैसे अजय भवन, दिल्ली की तरफ भागा। लेकिन मेडिकल शर्तों की वजह से उन्हें अंतिम बार देखना न हो सका। ताबूत में रखा उनका पार्थिव शरीर सिकुड़कर कितना छोटा हो गया था? सुरक्षित रखने के लिहाज से उसकी पैकिंग कर दी गयी थी और मैं बस वही देखकर वापस आ गया था। *कमला प्रसाद से* मेरा जुड़ाव साहित्य और आलोचना के स्तर पर बिल्कुल भी न था और न ही पार्टी और साहित्यिक मंचों के स्तर पर ही कोई नाता था। उनसे मेरा बहुत ही भावुक, आत्मीय और कुछ-कुछ एक बुजुर्ग दोस्त की तरह था, जो विचार के स्तर पर मुझसे कहीं ज्यादा छरहरे थे। जिनके साथ घूमते हुए मैं बड़े आराम से कह देता था – रुकिए सर, मुझे बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खा लेने दीजिए। उन्होंने पहली बार मुझे तब फोन किया था, जब मैंने चैनल की नौकरी छोड़कर नया-नया लिखना शुरू ही किया था। नया ज्ञानोदय में टेलीविजन पर लिखा मेरा पहला लेख था – टेलीविजन विरोधी समीक्षा और रियलिटी शो। भोपाल से ही फोन करके कहा – मैं कमला प्रसाद बोल रहा हूं, तुम्हारा लेख पढ़ा। *वह हिंदी के पहले* आलोचक थे, जिन्होंने कहा था कि लेख को शुरू से अंत तक पढ़ा है। मुझे हैरानी भी हुई थी कि इन्होंने टेलीविजन पर इस तरह क्यों मेरे लेख को पढ़ा? आगे कहा कि जल्द ही दिल्ली आना होगा। आने पर मुलाकात होगी। *कुछ दिनों बाद* सचमुच वो दिल्ली आये और फोन करके कहा, इंडिया इंटरनेशनल के पास ठहरा हूं, सुबह का नाश्ता साथ करेंगे। कल आ जाना। सच पूछिए तो मैं उनसे मिलना नहीं चाहता था। लगता था कि एक और साहित्यकार टेलीविजन को दमभर कोसेगा। मेरे लिखे पर बिफर जाएगा और कहेगा कि सब बकवास है, सब कूड़ा है। *इसके एक दिन पहले* रात में विमल कुमार मेरे इस लेख पर अपनी असहमति और अच्छी-खासी बहस दर्ज कर चुके थे। मैं कुछ कहता, इसके पहले ही उन्होंने कहा कि आ जाओ, मैं चाहता हूं कि अबकी बार तुम वसुधा के लिए लिखो। सास-बहू सीरियलों में जो कुछ चल रहा है और उससे जो स्त्रियों की छवि बन रही है, उस पर गंभीरता से कुछ करो। मैं न चाहते हुए भी चला गया। नया ज्ञानोदय में आगे इसी पर लिखना था, बात हो चुकी थी। *चाय-नाश्ते के बाद* वो टेलीविजन पर बात करने लग गये। मुझे हिंदी के वरिष्ठ आलोचकों और अध्‍येताओं में वो पहले ऐसे शख्स मिले, जिन्हें सुनते हुए महसूस कर रहा था कि वो इस पर देखकर बात कर रहे हैं। उनके रोजमर्रा के कामों में टेलीविजन देखना शामिल है। नहीं तो अब तक जितने मिले, उनमें से अधिकांश ने बिना देखे, इस पर एक आदिम राय बना रखी है और उस पर पूंजीवादी माध्यम, जो कि सत्तर के दशक की बहस से निकली हुई समझ है, लेबल चस्‍पां कर दिया है। वो छोटी बहू पर बात कर रहे थे, तो बाकायदा उनके चरित्र याद थे। स्टार प्लस के सीरियलों पर बात कर रहे थे, तो उनके चरित्रों के साथ साहित्यिक पात्रों को याद कर रहे थे। बीच-बीच में ये जोड़ना नहीं भूलते कि पोती के चक्कर में देखता हूं। लेकिन साथ में ये भी कहा कि जीटीवी और कलर्स के कुछ सीरियल मुझे खासतौर से पसंद हैं। ये उनकी साहित्यिक और सामाजिक छवि से बिल्कुल अलग रूप था कि वो टेलीविजन को एक सांस्कृतिक पाठ की तरह देख रहे थे। उस पर रस लेकर बात कर रहे थे और मेरी बात में सीधे तौर पर शामिल हो रहे थे। टेलीविजन के प्रति उनका यह लगाव ही था कि मैं आगे उनके करीब गया। नहीं तो बुलाकर उसे कोसने का काम करते तो शायद उनसे मेरी अंतरंगता नहीं होती। *उस मुलाकात के बाद* फोन पर बातचीत का सिलसिला जारी रहा। घूम-फिरकर टीवी पर बात आ ही जाती। मैं उन्हें फोन पर ही एमटीवी रोडीज में कौन गया, कौन बचा है, स्प्लीटविलॉज शो क्या है और आजकल इमैजिन के सीरियल क्यों बकवास हो गये हैं, बताता रहता। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ को उन्हें अच्छा सीरियल बताया था और कहा कि हमारे कुछ जाननेवाले लोग भी काम कर रहे हैं। हम उन्हें टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में कुछ इस तरह बताते कि जैसे ये सब सिर्फ दिल्ली में ही प्रसारित होते हों, भोपाल में नहीं। वो मेरी बातों को ध्यान से सुनते और अंत में कहते – जब इतना सब देखा-सुना है ही, तो एक लेख भेजो न वसुधा के लिए इस पर। हर बार तो लेख लिखना संभव नहीं हो पाता। फिर वो खुद ही कहते – तुम्हारी पीएचडी अभी अधूरी है न, उसे पूरी कर लो। अंतिम बार की बातचीत में तो ये भी शामिल था कि तुम्हारी किताब अभी तक अधूरी रह गयी न। खैर ठीक हो जाने पर उसे पूरी कर लेना, बहुत रोचक काम कर रहे हो। *जब से* कमला प्रसाद के पार्थिव शरीर को देखकर लौटा हूं, दिनभर बेचैन रहा। रात का भी एक बड़ा हिस्सा गुजर गया। हमें साहित्यकार, आलोचक, मार्क्सवाद की विचारधारा का झंड़ा बुलंद करनेवाले कमला प्रसाद के गुजर जाने से कहीं ज्यादा हम जैसे युवाओं और उसके काम पर भरोसा रखनेवाले कमला प्रसाद के अचानक चले जाने से ज्यादा तकलीफ हो रही है। लग रहा है, हमारे समर्थन में एक वोट कट गया। हम सब अपने स्वार्थ के तहत ही तो किसी के महत्व को समझ पाते हैं न। हिंदी समाज में जाइए तो मीडिया, ब्लॉगिंग और न्यू मीडिया जिसे लेकर मैं काम कर रहा हूं और सक्रिय हूं, एक से एक नयी नस्ल के हिंदी प्रेमियों में हिकारत का भाव है, वो इसे दो कौड़ी की चीज समझते हैं, जिनमें कई बार उनका फ्रस्ट्रेशन भी जहां-तहां से मसककर सामने आ जाता है। इन नस्लों के भीतर गांव का सठिआया एक बुजुर्ग बैठा है, जो इनके युवा होने के बावजूद भी जब-तब कुढ़ता रहता है। कमला प्रसाद के भीतर इससे ठीक उलट एक ऐसा युवा मन सक्रिय था, जो कि नयी चीजों, विचारों और समझ का सम्मान करता था, उनका हौसला बढ़ाता था। हम जैसे लोग उनसे इसी स्तर पर जुड़े थे। नहीं तो वो दिल्ली किस काम से आते थे, किस किताब का लोकार्पण कर रहे हैं, किस किताब के लिए फ्लैप लिखा है, किस पुरस्कार समिति में हैं, इन सबसे हमें कोई मतलब नहीं होता। *एक बार* मैंने उन्हें अपनी अभिरुचि जाहिर कर दी, तो कभी उससे इतर उन्होंने बात नहीं छेड़ी। मीडिया के प्रति मेरे पैशन को लेकर खुश रहते और कहते मजा आता है तुमसे बात करके। साहित्यकारों के बीच घिरे होने पर उसी में जब मुझे भी बुला लेते तो सबों के जाने पर कहते – तुम बोर तो नहीं हो गये? मैं हंसकर कहता, नहीं तो सर, आखिर मैं भी तो हिंदी से ही हूं। फिर भी कभी भी कुछ भी लादने और थोपने की कोशिश नहीं। कोई साहित्यक रचना पर लिखने, पढ़ने का दबाव नहीं बनाया। *इस बीच* अकादमिक और साहित्यिक स्तर पर उनकी अपनी उठापटक चलती रहती लेकिन हमने उस हिस्से को कभी भी जानने की कोशिश नहीं की। कभी-कभी नौकरी के बारे में जरूर पूछते और मैं मुस्करा देता। फिर खुद ही कहते – परेशान मत होना ज्यादा, समय के साथ सब हो जाएगा। *आज जब* मैं उन्हें याद कर रहा हूं, तो सबसे ज्यादा एक ही शब्द बार-बार याद आ रहा है – अधूरा। उनकी जिंदगी को लेकर क्या योजना थी, मुझे नहीं पता। क्या लिखना या प्रकाशित करना चाहते थे, नहीं मालूम। लेकिन मैंने अपनी जो भी योजना बतायी थी, उनके जाते तक वो सबकी सब अधूरी ही रह गयी। अधूरी पीएचडी, अधूरी किताब, वसुधा के लिए भेजा जानेवाला अधूरा लेख और यहां तक कि अंतिम बार देखने गया तो भी नाश्ते के लिए जो कुछ तैयार कर रहा था, वो भी अधूरा ही रह गया। रसोई में धुली दाल भगोने में पड़ी रह गयी और फ्रीज से बाहर निकाली दही फ्रीज के ऊपर ही… सब अधूरा ही. मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Mar 27 00:13:04 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 27 Mar 2011 00:13:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KSu4KWC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkq+CkvuCksOClgeCkleClgCDgpJTgpLAg4KSm4KS+4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KS2IOCkueClgeCkuOCliOCkqCDgpJXgpYsg4KS44KWB4KSo4KS/4KSP?= Message-ID: दीवान के साथियो कल यानी 26 मार्च को महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने वीमेंस प्रेस क्लब,दिल्ली में दास्तानगोई,मनोरंजन के पॉपुलर फार्म,भाषा और उसके पीछे की साजिशों पर लंबी बातचीत की। जो लोग दास्तानगोई के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने में दिलचस्पी रखते हैं और नए माध्यमों के बीच इसकी बनती-बदलती वस्तुस्थिति के बारे में जानना चाहते हैं,उनके लिए इस पूरी बातचीत को सुनना अनिवार्य है। मैंने आपलोगों के लिए इसकी ऑडियो अपलोड कर दी है। समय निकालकर जरुर सुनिए। एक क्लासरुम लेक्चर जितना समय लगेगा लेकिन बातचीत की शैली इतनी दिलचस्प है कि आप रिवाइंड भी करके सुनेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा कि दोबारा सुन रहे हैं। तो बस नीचे की ब्लू लिंक पर चटका लगाइए औऱ खो जाइए दास्तानगोई की दुनिया में। http://www.zshare.net/audio/8827743212be79f8/ विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Mar 27 21:11:06 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 27 Mar 2011 21:11:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpIXgpJbgpKzgpL7gpLAg4KSV4KS+IOCkteCliyA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSw4KS+4KSo4KS+IOCkquCkqOCljeCkqOCkvg==?= Message-ID: हम सब जो जींस और टी-शर्ट में इतराते फिरते हैं, दरअसल चैनल काल की उपज हैं। हम पर बहुत जल्दी ही टीवी का रंग चढ़ जाता है। टीवी में हम दुनिया को देखते हैं और फिर उसी हसीन दुनिया की तरह रंगीन बनने में जुट जाते हैं। लेकिन उसी टीवी में मेरे लिए रविवार को छपने वाला एक पुराना पन्ना भी है, जिसमें मैं दुनिया को नहीं बल्कि खुद को देखता हूं। दुनिया, जिसे लोग जादू का खिलौना मानते हैं, उसे इस पुराने पन्ने में मिट्टी की तरह पेश किया जाता है। मिट्टी, जो मेरा मूल है, जो मेरे तन में समाया है, उसी मिट्टी को पुराने पन्ने में देखता हूं तो मन फिर से मिट्टी में मिल जाने का करता है। मेरे लिए, जो एक आम इंसान है, जो कभी स्पेशल नहीं बनना चाहता है, उसके लिए टीवी में अखबार का पुराना पन्ना रवीश की रिपोर्ट है। रिपोर्ट, जिसे रवीश नामक एक प्राणी दिखाता है, लेकिन इस आम-आदमी के लिए रवीश, रिपोर्ट दिखाता नहीं पढ़ाता है, अखबार के पुराने पन्ने में। पन्ना, जो मटमेला है, जिसमें चाय के गिरने और फिर उसके सुख जाने का दाग लगा है, इसके बावजूद भी शब्द अपनी छाप बनाए हुए है, आम आदमी के लिए रवीश नामक प्राणी ऐसे ही शब्द पढ़ा रहा है। अयोध्या को वह एक इतिहासकार की तरह पेश कर रहा है। इस आम-आदमी को एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में एक इतिहासकार-कहानीकार मिला था सदन झा, जिसे वह शबद-योगी मानता है, ठीक उसी तरह रवीश नामक प्राणी में भी कहानीकार पलथी मारे बैठा है। दरअसल जब इतिहास को समझने वाला कहानी गढ़ने लगता है तो सत्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। रवीश नामक यह प्राणी अयोध्या कोमायूसी में डूबे शहर की संज्ञा देता है तो मन कह उठता है कि बेताब दिल की यही तमन्ना है...ऐसे ही शब्द सुनने की आदत है। वह खबरों के बीच से हंसते हुए चोट मारकर भाग जाता है, मानो गुल्ली-डंडा खेलते हुए डंडा मारकर कोई बच्चा दौड़ता हुआ किसी पेड़ के टोह छुप जाता हो। अयोध्या की कथा बांचते हुए जब यह प्राणी बताता है कि उस शहर के सरकारी अस्पताल में एक ऐसा डॉक्टर है जो आठ घंटे की शिफ्ट में तकरीबन 200 मरीजों को देखता है तो मन में एक आशा की किरण कौंध जाती है, आम आदमी प्राउड फील करने लगता है। इस आम आदमी को मेले से इश्क है, तो अखबार के पुराने पन्ने में वर्तमान में अतीत का मेला पढ़ने को मिल जाता है। पल में उसे विश्वास नहीं होता लेकिन फिर उसे एक मुहावरा याद आता है कि तस्वीरें तो झूठ नहीं बोला करती, यहां तो वीडियो है। रवीश नामक प्राणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में सलाना कार्तिक महीने में गंगा किनारे लगने वाले मेले में आम आदमी को घुमाता और पढ़ाता है और बताता है कि इस मेले की खास बात पारंपरिक बैलगाड़ी की सवारी है। यह मेला 11 दिन तक चलता है. यह प्राणी खुद भी बैलगाड़ी की सवारी करता है, ऐसे में तीसरी कसम के हीरामन की याद आ जाती है। मुंह से अनायस ही निकल पड़ता है-इस्सससस। भागम-भाग और विज्ञापनमय पत्रकारिता काल में रवीश कुमार नामक प्राणी एक आशा की तरह है, जो बताता है कि मौका मिले तो हमें काम आम आदमी के लिए भी करना चाहिए, फाइव स्टार होटल की प्रेस-वार्ता और वहां मिलने वाली विज्ञप्ति व फुटेज से इतर। यह आम आदमी, जो टीवी की दुनिया में कोर्ट-पेंट-टाई लगाने वालों को करीब से देखता है, उसके लिए रवीश कुमार नामक प्राणी एक सुबह है। गुलजार की सुबह की तरह, जिसके लिए सुबह भी एक ख्वाब है। गुलजार यूं ही नहीं कहते हैं- सुबह-सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला... गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com 09559789703 From girindranath at gmail.com Sun Mar 27 21:11:06 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 27 Mar 2011 21:11:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpIXgpJbgpKzgpL7gpLAg4KSV4KS+IOCkteCliyA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSw4KS+4KSo4KS+IOCkquCkqOCljeCkqOCkvg==?= Message-ID: हम सब जो जींस और टी-शर्ट में इतराते फिरते हैं, दरअसल चैनल काल की उपज हैं। हम पर बहुत जल्दी ही टीवी का रंग चढ़ जाता है। टीवी में हम दुनिया को देखते हैं और फिर उसी हसीन दुनिया की तरह रंगीन बनने में जुट जाते हैं। लेकिन उसी टीवी में मेरे लिए रविवार को छपने वाला एक पुराना पन्ना भी है, जिसमें मैं दुनिया को नहीं बल्कि खुद को देखता हूं। दुनिया, जिसे लोग जादू का खिलौना मानते हैं, उसे इस पुराने पन्ने में मिट्टी की तरह पेश किया जाता है। मिट्टी, जो मेरा मूल है, जो मेरे तन में समाया है, उसी मिट्टी को पुराने पन्ने में देखता हूं तो मन फिर से मिट्टी में मिल जाने का करता है। मेरे लिए, जो एक आम इंसान है, जो कभी स्पेशल नहीं बनना चाहता है, उसके लिए टीवी में अखबार का पुराना पन्ना रवीश की रिपोर्ट है। रिपोर्ट, जिसे रवीश नामक एक प्राणी दिखाता है, लेकिन इस आम-आदमी के लिए रवीश, रिपोर्ट दिखाता नहीं पढ़ाता है, अखबार के पुराने पन्ने में। पन्ना, जो मटमेला है, जिसमें चाय के गिरने और फिर उसके सुख जाने का दाग लगा है, इसके बावजूद भी शब्द अपनी छाप बनाए हुए है, आम आदमी के लिए रवीश नामक प्राणी ऐसे ही शब्द पढ़ा रहा है। अयोध्या को वह एक इतिहासकार की तरह पेश कर रहा है। इस आम-आदमी को एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में एक इतिहासकार-कहानीकार मिला था सदन झा, जिसे वह शबद-योगी मानता है, ठीक उसी तरह रवीश नामक प्राणी में भी कहानीकार पलथी मारे बैठा है। दरअसल जब इतिहास को समझने वाला कहानी गढ़ने लगता है तो सत्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। रवीश नामक यह प्राणी अयोध्या कोमायूसी में डूबे शहर की संज्ञा देता है तो मन कह उठता है कि बेताब दिल की यही तमन्ना है...ऐसे ही शब्द सुनने की आदत है। वह खबरों के बीच से हंसते हुए चोट मारकर भाग जाता है, मानो गुल्ली-डंडा खेलते हुए डंडा मारकर कोई बच्चा दौड़ता हुआ किसी पेड़ के टोह छुप जाता हो। अयोध्या की कथा बांचते हुए जब यह प्राणी बताता है कि उस शहर के सरकारी अस्पताल में एक ऐसा डॉक्टर है जो आठ घंटे की शिफ्ट में तकरीबन 200 मरीजों को देखता है तो मन में एक आशा की किरण कौंध जाती है, आम आदमी प्राउड फील करने लगता है। इस आम आदमी को मेले से इश्क है, तो अखबार के पुराने पन्ने में वर्तमान में अतीत का मेला पढ़ने को मिल जाता है। पल में उसे विश्वास नहीं होता लेकिन फिर उसे एक मुहावरा याद आता है कि तस्वीरें तो झूठ नहीं बोला करती, यहां तो वीडियो है। रवीश नामक प्राणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में सलाना कार्तिक महीने में गंगा किनारे लगने वाले मेले में आम आदमी को घुमाता और पढ़ाता है और बताता है कि इस मेले की खास बात पारंपरिक बैलगाड़ी की सवारी है। यह मेला 11 दिन तक चलता है. यह प्राणी खुद भी बैलगाड़ी की सवारी करता है, ऐसे में तीसरी कसम के हीरामन की याद आ जाती है। मुंह से अनायस ही निकल पड़ता है-इस्सससस। भागम-भाग और विज्ञापनमय पत्रकारिता काल में रवीश कुमार नामक प्राणी एक आशा की तरह है, जो बताता है कि मौका मिले तो हमें काम आम आदमी के लिए भी करना चाहिए, फाइव स्टार होटल की प्रेस-वार्ता और वहां मिलने वाली विज्ञप्ति व फुटेज से इतर। यह आम आदमी, जो टीवी की दुनिया में कोर्ट-पेंट-टाई लगाने वालों को करीब से देखता है, उसके लिए रवीश कुमार नामक प्राणी एक सुबह है। गुलजार की सुबह की तरह, जिसके लिए सुबह भी एक ख्वाब है। गुलजार यूं ही नहीं कहते हैं- सुबह-सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला... गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com 09559789703 From rajeshkajha at yahoo.com Mon Mar 28 11:23:49 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Sun, 27 Mar 2011 22:53:49 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KS+4KSv?= =?utf-8?b?4KSw4KSr4KS84KWJ4KSV4KWN4KS4IDQg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkruCliOCkpeCkv+CksuClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSw4KS/4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KSc?= Message-ID: <189342.81719.qm@web121704.mail.ne1.yahoo.com> फ़ायरफ़ॉक्स 4 हिन्दी और मैथिली में रिलीज फ़ायरफ़ॉक्स 4 रिलीज हो गया। तीन दिन हो गए हैं...करीब साढ़े तीन करोड़ डाउनलोड पूरे होने को हैं।  फ़ायरफ़ॉक्स 4 हिन्दी में भी है - डाउनलोड कीजिए और तेज़ व सुरक्षित ब्राउज़िग का मज़ा लीजिए। यहाँ से डाउनलोड करें : फ़ायरफ़ॉक्स 4 डाउनलोड -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From reksethi at gmail.com Tue Mar 29 12:02:21 2011 From: reksethi at gmail.com (rekha sethi) Date: Tue, 29 Mar 2011 12:02:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= invitation Message-ID: सभी साथियों के लिए निमंत्रण इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय की हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रस्तुत लेखक से संवाद साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित (2010) उदय प्रकाश, हमारे समय के सजग कथाकार , कवि, और चिंतक हैं | जेसन ग्रुनेCk‚म शिकागो यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशियाई भाषाओँ के विभाग में हिंदी के प्राध्यापक हैं | इन दोनों विद्वानों से बातचीत के लिए आप सब सादर आमंत्रित हैं ! दिनांक : 30.3.2011 समय:11:00 बजे स्थान : ए.वी. रूम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From reksethi at gmail.com Tue Mar 29 12:02:21 2011 From: reksethi at gmail.com (rekha sethi) Date: Tue, 29 Mar 2011 12:02:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= invitation Message-ID: सभी साथियों के लिए निमंत्रण इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय की हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रस्तुत लेखक से संवाद साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित (2010) उदय प्रकाश, हमारे समय के सजग कथाकार , कवि, और चिंतक हैं | जेसन ग्रुनेCk‚म शिकागो यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशियाई भाषाओँ के विभाग में हिंदी के प्राध्यापक हैं | इन दोनों विद्वानों से बातचीत के लिए आप सब सादर आमंत्रित हैं ! दिनांक : 30.3.2011 समय:11:00 बजे स्थान : ए.वी. रूम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Mar 29 13:08:58 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 29 Mar 2011 13:08:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2IOCklOCksCDgpIngpKjgpJXgpYcg4KSu4KS2?= =?utf-8?b?4KS54KWC4KSwIOCkheCkqOClgeCkteCkvuCkpuCklSDgpJzgpYfgpLjgpKgg?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkrOCkvuCkpOCkmuClgOCkpCDgpJXgpL4g4KSu4KWM4KSV4KS8?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <4D918C92.8070407@sarai.net> रेखा सेठी का संदेश आगे भेज रहा हूँ: रविकान्त सभी साथियों के लिए निमंत्रण इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय की हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रस्तुत लेखक से संवाद साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित (2010) उदय प्रकाश, हमारे समय के सजग कथाकार , कवि, और चिंतक हैं | जेसन ग्रुनेबॉम शिकागो यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशियाई भाषाओँ के विभाग में हिंदी के प्राध्यापक हैं | इन दोनों विद्वानों से बातचीत के लिए आप सब सादर आमंत्रित हैं ! दिनांक : 30.3.2011 समय:11:00 बजे स्थान : ए.वी. रूम From vineetdu at gmail.com Wed Mar 30 09:13:00 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 30 Mar 2011 09:13:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkpuCkguCkl+ClhyDgpJXgpLDgpL7gpKjgpL4g4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSa?= =?utf-8?b?4KWI4KSo4KSy4KWN4KS4?= Message-ID: *♦ विनीत कुमार* मोहाली में आज भारत और पाकिस्तान के बीच जो विश्व कप को लेकर मैच होने जा रहा है, वह न्यूज चैनलों के लिए महज खेल नहीं है। बल्कि जंग है। एक ऐसी जंग, जिसमें कि दोनों देश के बीच की नफरत को हवा दी जा सके और इसे किसी भी हाल में खेल नहीं रहने दिया जाए। संभवतः इसलिए न्यूज चैनलों ने सप्ताह भर पहले से ही अपने माध्यम से दुनिया भर में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की है कि इस मैच के बीच से खेल गायब होकर वह राजनीति, दोनों देशों के आपसी रिश्तों के बीच की कड़वाहट, ऐतिहासिक गलतियां एक बार फिर से लोगों के सामने आ जाए और उन्हें इस निष्कर्ष तक पहुंचने में आसानी हो कि चाहे किसी भी तरह की कोशिशें क्यों न कर ली जाए, दोनों देशों के बीच किसी भी हाल में बेहतर संबंध नहीं हो सकते। अगर ऐसा नहीं होता तो तमाम न्यूज चैनल क्रिकेट के बहाने, क्रिकेट को छोड़कर बाकी दूसरे सभी मुद्दों पर बात नहीं करते। यह शायद इस वर्ल्ड कप का पहला मैच होगा, जिसे लेकर दुनियाभर के लोगों की सबसे ज्यादा उत्सुकता है लेकिन खबरों में खेल कहीं नहीं है, बाकी सब कुछ मौजूद है। *हिंदी चैनलों ने* अब तक इस मैच की कवरेज के लिए जिन शब्दों और भाषा का प्रयोग किया है, उसमें खेल शब्द कहीं नहीं है। स्पेशल शो से लेकर लगातार जारी रहनेवाली खबरों में युद्ध, महायुद्ध, जंग, संग्राम, आर-पार की लड़ाई जैसे शब्दों की भरमार है। हिंदी के शायद ही किसी चैनल ने अपने शो का ऐसा नाम रखा हो, जिसमें क्रिकेट या खेल शब्द आया हो। स्टार न्यूज ने किया भी तो दबंगई पर उतर आया और शो का नाम दिया – ये देश का वर्ल्ड कप है। आजतक ने इसके लिए “भारत-पाक चौथा युद्ध” का प्रयोग किया है और तस्वीर में दोनों देशों के कप्तान को क्रिकेट की पोशाक के बजाय सेना की वर्दी पहना दिया है, पीछे पोस्टर के तौर पर करगिल की पहाड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मानो नफरत का जो हिस्सा करगिल युद्ध में अधूरा रह गया, उसे इस खेल के दौरान पूरा कर लिया जाए। इसी तरह 26/11 मुंबई की घटना को बार-बार दिखाया जा रहा है। *इंडिया टीवी ने* “अफरीदी बाबा 11 चोर” नाम से एक खास शो प्रसारित किया और उसमें यह बताया कि पाकिस्तान की टीम ने कब-कब बेईमानी की। इतना ही नहीं, उसने इस शो के ठीक अगले दिन “कौन है पाकिस्तान का गद्दार” नाम से स्पेशल स्टोरी की। जी न्यूज ने इस मैच को महाजंग बताया। इन अधिकांश चैनलों ने भारत-पाकिस्तान के बीच हुई उन तमाम घटनाओं को खोज-खोजकर निकाला, जिसे याद करते हुए दोनों देशों की आम जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति कड़वाहट पैदा हो सके। ये अलग बात है कि दोनों देशों के बीच अमन बहाल के लिए दर्जनों कोशिशें हुई हैं और उसके सुखद परिणाम भी रहे लेकिन वो इनकी खबरों का हिस्सा नहीं बन पाये। इसके पहले चैनल्स अस्ट्रेलिया के साथ होनेवाले मैचों के लिए अभद्र भाषा और अपमानजक शब्दों का प्रयोग करते आये हैं। *आजतक ने* इस नफरत को हवा देने के लिए उस वीडियो का भी जिक्र किया और जियो टीवी के सौजन्य से उसे प्रसारित भी किया, जिसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों की ओर से वर्ल्ड कप की बाकी टीमों का मजाक उड़ाते दिखाया गया है। कुल मिलाकर इस खेल के बहाने ये चैनल्स सत्ता और सरकारी कोशिशों पर पानी फेरते हुए आनेवाले समय में दोनों देशों के बीच जो भी सहज संबंध बनने की संभावना बन रही हो, उसे पूरी तरह कुचलने की कोशिश में हैं। चैनलों में होड़ इस बात की लगी है कि जितनी नफरत 1947 के भारत विभाजन, 1965 और 71 के युद्ध, 1999 के करगिल युद्ध और 2008 के मुंबई हमले को लेकर नहीं पैदा हुए हों, उससे कहीं ज्यादा 2010 के इस विश्व कप मैच में पैदा करनी है। नीयत साफ है कि जितनी ज्यादा नफरत पैदा होगी, प्रायोजकों का बाजार उतना गर्म होगा और फिर टीआरपी भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी। *इधर प्रधानमंत्री* मनमोहन सिंह के आमंत्रण और गिलानी के स्वीकार लिये जाने से क्रिकेट की सारी खबर राजनीति की तरफ मुड़ जाती है। हिंदी चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी चैनल इस मिजाज को ज्यादा तूल देते नजर आते हैं। एनडीटीवी 24X7 का खास कार्यक्रम “इंडिया-पाकिस्तान विटविन दि ओवर” जिसे बरखा दत्त ने पेश किया, इसी का एक उदाहरण है। हालांकि इस बहस में एक बात साफतौर पर खुलकर सामने आयी कि आप इसे कितनी भी राजनीति से जोड़ने की कोशिश करें, एक बार मैच शुरू हो जाने के बाद सिर्फ खेल ही होगा, बाकी चीजें नहीं। हेडलाइंस टुडे ने थोड़ी समझदारी दिखाते हुए इस खेल के माध्यम से शांति के प्रसार की संभावना पर बात की और “इंडिया-पाक : वैट फॉर पीस” नाम से विशेष कार्यक्रम प्रसारित किया। क्रिकेट के माध्यम से शांति का मुहावरा एक बार उछला नहीं कि फिर इसके माध्यम से लोकतंत्र मजबूत करने की बात की जाने लगी। मतलब जो काम दोनों देश की सरकार नहीं कर सकती है, वह क्रिकेट करे। *हिंदी चैनलों का* जो रवैया रहा कि वे इस खेल के लिए देशभर में पाकिस्तान के लोगों (अप्रत्यक्ष तौर पर मुसलमानों) के बीच दंगे करा देंगे, अंग्रेजी चैनल उससे ठीक उलट शांति और लोकतंत्र की तरफ ले गये लेकिन इसके पीछे भी उनकी स्ट्रैटजी साफतौर पर झलक रही थी। वह भी स्वाभाविक के बदले अतिरेक लग रहा था। मामला साफ था कि चाहे किसी भी तरह से टेलीविजन की ऑडिएंस को स्पोर्ट्स चैनलों के बजाय खींचकर अपने न्यूज चैनलों की तरफ लाया जाए। न्यूज चैनलों पर एक्सपर्ट, सेलेब्रेटी, बॉलीवुड हस्तियां और उनके बयान जो लगातार शामिल किये जाते हैं, वे सबके सब इसी रणनीति का हिस्सा हैं। ऐसे मौके पर न्यूज चैनल भीतर से बुरी तरह डर जाते हैं इसलिए वे स्वाभाविक कवरेज के बजाय क्रिकेट में अपराध, आतंकवाद, राजनीति, सांप्रदायिकता और सेलेब्रेटी जैसे गैरजरूरी मसले ठूंसने लग जाते हैं और आखिरी में खेल को गायब कर देते हैं। देशभर में मन्नतें, पूजा-पाठ और दीवानगी की खबरें दिखाकर वे ऑडिएंस को भी इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि वे भी एब्नार्मल होकर व्यवहार करें, टिकट के लिए किडनी बेंचे, एक के लिए लाख रुपये देने के लिए तैयार हो जाएं, शरीर खुदवा लें, आग लगा लें, क्रिकेट के दर्शक नहीं दंगाई बन जाएं। लेकिन ये सब करते हुए चैनल ये नहीं सोचते कि वे दरअसल दंगे की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं, जो कि खेल के बाद भी महीनों तक असर डालेगा। मूलतः प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स 30 मार्च 2011 वाया मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Wed Mar 30 17:45:37 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Wed, 30 Mar 2011 17:45:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KSV4KWH4KSfLCDgpJXgpKzgpYDgpLAg4KSU4KSwIOCkl+ClgeCksg==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSw?= Message-ID: मोहाली का माहौल दिल की धड़कनों में धड़क रहा था। क्रिकेट से आशिकी न होने के बावजूद भी ईएसपीएन क्रिकइनफो पर आंखें टिकी थी। टीवी स्क्रीन से दूरी बना रखा था ताकि अंखिया सग मन की दूरी बनी रहे। सचिन के रनों की संख्या जोड़ रहा था। ऑफिस भी मोहाली स्टेडियम की तरह क्रिकेट में रमा था। काम से थोड़ी दूरी बनाए रखने की वजह से तमाम वेबसाइट्स की गलियों में दस्तक दे रहा था। भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे मैच के प्रति लोगों की सोच अजीब होती है। सभी की आंखों में अजीब सी चमक नजर आ रही थी, वहीं मैं कबीर, फैज अहमद फैज और गुलजार में खोया था। यूट्यूब पर गुलजार बोल रहे थे- *“आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं मिलने मेंहदी हसन से।“* गुलजार को सुनते हुए लग रहा था मैं भी पड़ोस के मुल्क में अजहर मियां के यहां चाय पी रहा हूं। अजहर मियां से मेरी मुलाकात किशनगंज में हुई थी। वे लाहौर में रहते हैं। किशनगंज के ईरानी बस्ती पर डॉक्यूमेंट्री बनाने वे पहुंचे थे। तब मैं दसवीं में पढ़ाई कर रहा था। बस आधे घंटे की मुलाकात में उन्होंने मुझे लाहौर की गलियों में पहुंचा दिया था। आज गुलजार को सुनते हुए अजहर चाचा याद आ गए। मैं भी गुनगुनाने लगा *सपनों की सरहद नहीं होती....* क्रिकेट एडिक्ट न होने के बावजूद भी सचिन तेंदुलकर की बल्लेबाजी से इश्क है। उनके शतकों पर नजर टिकी रहती है। मोहाली में वे 85 रन बनाकर पवेलियन लौट गए। मैं निराश हुआ, काश वे शतक ठोंक पाते। उन्हें अजमल भाई ने अफरीदी भाई के हाथों कैच करवाया। खैर, क्रिकेट जारी है, दोनों मुल्कों के वजीर-ए-आला भी नजर-ए-इनायत कर रहे हैं। इकबाल बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था। अपने मुल्क को भी करप्शन खा रहा है। लोकपाल बिल के समर्थन में पांच अप्रैल से समाजसेवी अन्ना हजारे अनशन पर जा रहे हैं। ऐसे में मुझे फैज की शायरी याद आ रही है। यूट्यूब के सहारे इकबाल बानो की आवाज में *हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है.. *सुनने लगा। इसे सुनते हुए खो चुका था। दरअसल जब हम एक साथ कई चीजों को आजमाते हैं तो खुद के साथ एक्सपेरिमेंट करने का सबसे अधिक मौका मिलता है। हम खुद को जान पाते हैं कि हम कहां हैं और कहां तक जा सकते हैं। कबीर के दोहे का ख्याल आया। कबीर के दोहों को जगजीत सिंह के अलावा आबिदा परवीन ने भी आवाज दी हैं। मैं कबीर में खोना चाहता था, यूट्यूब ने साथ दिया। मैं बुदबुदाने लगा, *पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर...दुर्लभ मानुष जन्म है...., पक्का फल जो गिर पड़ा लगे न दूजी बार..काशी काबा एक है एक है राम रहीम...... अच्छे दिन पीछे गए.... अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत...* भारतीय बल्लेबाज मोहाली में स्कोर बोर्ड पर रन जोड़ने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे। 42 ओवर में छह विकेट के नुकसान पर 205 रन ही जुटा सका था। लगता है क्रिकेट प्रेमियों के लिए आज की रात कयामत की रात होगी। गिरीन्द्र कानपुर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Wed Mar 30 17:45:37 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Wed, 30 Mar 2011 17:45:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KSV4KWH4KSfLCDgpJXgpKzgpYDgpLAg4KSU4KSwIOCkl+ClgeCksg==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSw?= Message-ID: मोहाली का माहौल दिल की धड़कनों में धड़क रहा था। क्रिकेट से आशिकी न होने के बावजूद भी ईएसपीएन क्रिकइनफो पर आंखें टिकी थी। टीवी स्क्रीन से दूरी बना रखा था ताकि अंखिया सग मन की दूरी बनी रहे। सचिन के रनों की संख्या जोड़ रहा था। ऑफिस भी मोहाली स्टेडियम की तरह क्रिकेट में रमा था। काम से थोड़ी दूरी बनाए रखने की वजह से तमाम वेबसाइट्स की गलियों में दस्तक दे रहा था। भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे मैच के प्रति लोगों की सोच अजीब होती है। सभी की आंखों में अजीब सी चमक नजर आ रही थी, वहीं मैं कबीर, फैज अहमद फैज और गुलजार में खोया था। यूट्यूब पर गुलजार बोल रहे थे- *“आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं मिलने मेंहदी हसन से।“* गुलजार को सुनते हुए लग रहा था मैं भी पड़ोस के मुल्क में अजहर मियां के यहां चाय पी रहा हूं। अजहर मियां से मेरी मुलाकात किशनगंज में हुई थी। वे लाहौर में रहते हैं। किशनगंज के ईरानी बस्ती पर डॉक्यूमेंट्री बनाने वे पहुंचे थे। तब मैं दसवीं में पढ़ाई कर रहा था। बस आधे घंटे की मुलाकात में उन्होंने मुझे लाहौर की गलियों में पहुंचा दिया था। आज गुलजार को सुनते हुए अजहर चाचा याद आ गए। मैं भी गुनगुनाने लगा *सपनों की सरहद नहीं होती....* क्रिकेट एडिक्ट न होने के बावजूद भी सचिन तेंदुलकर की बल्लेबाजी से इश्क है। उनके शतकों पर नजर टिकी रहती है। मोहाली में वे 85 रन बनाकर पवेलियन लौट गए। मैं निराश हुआ, काश वे शतक ठोंक पाते। उन्हें अजमल भाई ने अफरीदी भाई के हाथों कैच करवाया। खैर, क्रिकेट जारी है, दोनों मुल्कों के वजीर-ए-आला भी नजर-ए-इनायत कर रहे हैं। इकबाल बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था। अपने मुल्क को भी करप्शन खा रहा है। लोकपाल बिल के समर्थन में पांच अप्रैल से समाजसेवी अन्ना हजारे अनशन पर जा रहे हैं। ऐसे में मुझे फैज की शायरी याद आ रही है। यूट्यूब के सहारे इकबाल बानो की आवाज में *हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है.. *सुनने लगा। इसे सुनते हुए खो चुका था। दरअसल जब हम एक साथ कई चीजों को आजमाते हैं तो खुद के साथ एक्सपेरिमेंट करने का सबसे अधिक मौका मिलता है। हम खुद को जान पाते हैं कि हम कहां हैं और कहां तक जा सकते हैं। कबीर के दोहे का ख्याल आया। कबीर के दोहों को जगजीत सिंह के अलावा आबिदा परवीन ने भी आवाज दी हैं। मैं कबीर में खोना चाहता था, यूट्यूब ने साथ दिया। मैं बुदबुदाने लगा, *पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर...दुर्लभ मानुष जन्म है...., पक्का फल जो गिर पड़ा लगे न दूजी बार..काशी काबा एक है एक है राम रहीम...... अच्छे दिन पीछे गए.... अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत...* भारतीय बल्लेबाज मोहाली में स्कोर बोर्ड पर रन जोड़ने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे। 42 ओवर में छह विकेट के नुकसान पर 205 रन ही जुटा सका था। लगता है क्रिकेट प्रेमियों के लिए आज की रात कयामत की रात होगी। गिरीन्द्र कानपुर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From v1clist at yahoo.co.uk Thu Mar 31 11:29:00 2011 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Thu, 31 Mar 2011 06:59:00 +0100 (BST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Indic translations needed - volunteers welcome Message-ID: <422255.19216.qm@web26605.mail.ukl.yahoo.com> Please volunteer directly on the website http://www.irpcharter.org/ The Internet offers unprecedented opportunities for the realisation of human rights, and plays an increasingly important role in our everyday lives. It is therefore essential that all actors, both public and private, respect and protect human rights on the Internet. Steps must also be taken to ensure that the Internet operates and evolves in ways that fulfil human rights to the greatest extent possible. To help realise this vision of a rights-based Internet environment, the 10 Rights and Principles are: 1) Universality and Equality All humans are born free and equal in dignity and rights, which must be respected, protected and fulfilled in the online environment. 2) Rights and Social Justice The Internet is a space for the promotion, protection and fulfilment of human rights and the advancement of social justice. Everyone has the duty to respect the human rights of all others in the online environment. 3) Accessibility Everyone has an equal right to access and use a secure and open Internet. 4) Expression and Association Everyone has the right to seek, receive, and impart information freely on the Internet without censorship or other interference. Everyone also has the right to associate freely through and on the Internet, for social, political, cultural or other purposes. 5) Privacy and Data Protection Everyone has the right to privacy online. This includes freedom from surveillance, the right to use encryption, and the right to online anonymity. Everyone also has the right to data protection, including control over personal data collection, retention, processing, disposal and disclosure. 6) Life, Liberty and Security The rights to life, liberty, and security must be respected, protected and fulfilled online. These rights must not be infringed upon, or used to infringe other rights, in the online environment. 7) Diversity Cultural and linguistic diversity on the Internet must be promoted, and technical and policy innovation should be encouraged to facilitate plurality of expression. 8) Network Equality Everyone shall have universal and open access to the Internet's content, free from discriminatory prioritisation, filtering or traffic control on commercial, political or other grounds. 9) Standards and Regulation The Internet's architecture, communication systems, and document and data formats shall be based on open standards that ensure complete interoperability, inclusion and equal opportunity for all. 10) Governance Human rights and social justice must form the legal and normative foundations upon which the Internet operates and is governed. This shall happen in a transparent and multilateral manner, based on principles of openness, inclusive participation and accountability. Get involved with developing the IRP Charter at www.irpcharter.org, follow us at @netrights on Twitter or join the Internet Rights and Principles Facebook group. Vickram From rajeshkajha at yahoo.com Thu Mar 31 13:10:33 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 31 Mar 2011 00:40:33 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KSu4KWA?= =?utf-8?b?4KSr4KS+4KSH4KSo4KSyIOCkruClh+CkgiDgpKrgpYLgpKjgpK4g4KSq4KS+?= =?utf-8?b?4KSC4KSh4KWHIOCkleClgCDgpKrgpY3gpLDgpL7gpLDgpY3gpKXgpKjgpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSuIOCkhuCkiA==?= Message-ID: <732342.79632.qm@web121716.mail.ne1.yahoo.com> सेमीफाइनल में पूनम पांडे की प्रार्थना काम आई कल मैच के दौरान अगर मुझे किसी की याद आ रही थी तो सिर्फ और सिर्फ पूनम पांडे की। कितनी नर्वस होंगी पूनमजी कि यदि इन नामुराद पाकिस्तानियों ने भारत का यही हाल जारी रखा तो सबसे बड़ा घाटा उसे ही होगा और वे निर्वस्त्र नहीं हो पाएँगी। महाजनो येन गतः स पंथाः के भारतीय सांस्कृतिक सुझाव को ध्यान में रखते हुए पराग्वे की लैरिसा और अर्जेन्टाइना के लुसियाना की राह पर चल रही पूनम का सबसे बड़ा और पहला रोड़ा पाकिस्तान ही था। और इन पाकियों ने तो गंध मचा रखी थी और भारतीयों की दुर्दशा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पता नहीं पूनमजी के इष्टदेव या इष्टदेवी कौन हैं...वह मैच छोड़-छोड़कर उनके सामने जा बैठी होंगी कि हे ईश्वर, यह क्या हो रहा है। अगर भारत सेमीफाइनल में ही हार गया तो उनकी घोषणा का क्या होगा। वह कैसे निर्वस्त्र हो पाएँगी। कोई बहाना नहीं रह जाएगा। क्या होगा इतनी सारी खबरों का...'विश्व कप भारत जीता तो पूनम होंगी न्यूड', 'निर्वस्त्र होंगी पूनम', 'भारत विश्वकप जीता तो न्यूड हो जाएगी किंगफिशर मॉडल'। अब लीजिए, मुझे अब पता चला कि वह किंगफिशर मॉडल भी रह चुकी हैं यानी शराब के साथ की शबाब। और किंगफिशर मॉडल रह ही चुकी हैं तो इनके अंग का कितना हिस्सा अब निर्वस्त्र होने के लिए बच रह गया होगा। गूगल बावा को मन ही मन सूचना देते हुए कि मैं अब अठारह वर्ष का हो चुका हूँ (जिसे जानने में गूगल बावा की हालाँकि दिलचस्पी लगभग न के बराबर रहती है और बावा होने के नाते अब उनके लिए ये सारी चीजें मोह-माया से ऊपर जा चुकी हैं) मैंने उनकी तस्वीरों की तलाशी के लिए बटन जोर से हिट किया। अरे बाप रे, वह क्या न्यूड होंगी और अगर इसके बाद जो कुछ बचा दिख रहा है वह भी उतर गया तो क्या-क्या देखना पड़ेगा! तौबा। चलिए आपके लिए हम एक तस्वीर हिन्दी में इंटरनेट पर काम करने की अगुआ कंपनी वेब दुनिया की दीर्घा से यहाँ इस ब्लॉग पर भी लगा देते हैं। शुक्रिया वेब दुनिया का। फूड फॉर थाउट की तर्ज पर फूड फॉर आपकी आँख। आनंद लीजिए और भारतीय टीम की हौसलाअफजाई करते हुए आप भी दुआ कीजिए कि भारत विश्व कप क्रिकेट में कप ले ही आए। वैसे उम्मीद है अबतक पूनमजी अपना प्रार्थना स्वीकार होने की खुशी में सवा सेर लड्डुओं का चढ़ावा इष्ट के सामने चढ़ा चुकी होंगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From amalendu.upadhyay at gmail.com Tue Mar 29 14:29:51 2011 From: amalendu.upadhyay at gmail.com (hastakshep works) Date: Tue, 29 Mar 2011 08:59:51 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLDgpL4=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KWI4KSk4KS/4KSVLCDgpIbgpLDgpY3gpKXgpL/gpJUsIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN4KSV4KWD4KSk4KS/4KSVIOCkruClgeCkpuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KWLIOCklOCksCDgpIbgpK4g4KSG4KSm4KSu4KWAIOCkleClhyA=?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSy4KWLIOCkquCksCDgpLjgpL7gpLDgpY3gpKXgpJUg?= =?utf-8?b?4KS54KS44KWN4KSk4KSV4KWN4KS34KWH4KSqIEhhc3Rha3NoZXAuY29t?= In-Reply-To: References: <00221538fcae0c7bdd049f6d8dea@google.com> Message-ID: ** राजनैतिक, आर्थिक, संस्कृतिक मुद्दो और आम आदमी के सवालो पर सार्थक हस्तक्षेप Hastakshep.com [image: Link to Hastakshep.com] ------------------------------ - प्रमोशन और साहित्य का संकट - विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब - जनता के रक्षक ही लूट रहे सरकारी खजाना - लधुकथा: अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाने का रोग… प्रमोशन और साहित्य का संकट Posted: 26 Mar 2011 06:31 PM PDT हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय, शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा है ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के [...] [[ This is a content summary only. Visit my website for full links, other content, and more! ]] विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब Posted: 26 Mar 2011 08:19 AM PDT शेष नारायण सिंह विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस [...] [[ This is a content summary only. Visit my website for full links, other content, and more! ]] जनता के रक्षक ही लूट रहे सरकारी खजाना Posted: 25 Mar 2011 11:44 PM PDT सोनभद्र जनपद के वैध खनन कर्ताओं की सूची को जारी करते हुए जन संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता दिनकर कपूर ने बताया कि सूचना अधिकार कानून के तहत जिले के खान अधिकारी से प्राप्त वैध खनन कर्ताओं की सूची के अनुसार जनपद में गिट्टी बोल्डर के मात्र 155, सैण्ड़ स्टोन के मात्र 107, लाल मोरम [...] [[ This is a content summary only. Visit my website for full links, other content, and more! ]] लधुकथा: अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाने का रोग… Posted: 25 Mar 2011 09:55 PM PDT काजल कुमार संपर्क:- http://kajalkumarcartoons.blogspot.com [[ This is a content summary only. Visit my website for full links, other content, and more! ]] You are subscribed to email updates from Hastakshep.com To stop receiving these emails, you may unsubscribe now . Email delivery powered by Google Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610 -- [image: Welcome To Hastakshep] *राजनैतिक, आर्थिक, संस्कृतिक मुद्दो और आम आदमी के सवालो पर सार्थक ** हस्तक्षेप* -- -- राजनैतिक, आर्थिक, संस्कृतिक मुद्दो और आम आदमी के सवालो पर सार्थक *हस्तक्षेप * के लिये देखें http://hastakshep.com/ amalendu at hastakshep.in amalendu.upadhyay at gmail.com पर अपनी ख़बरें, विज्ञप्तिया और लेख भेजें अपनी विज्ञप्तियां, आलेख यूनिकोड मंगल फॉण्ट में ही भेजें, साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं जेपीजी फोटो भी भेजें - अमलेन्दु उपाध्याय -- -- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From surya.journalist at gmail.com Thu Mar 31 20:48:23 2011 From: surya.journalist at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS44KWC4KSw4KWN4KSvIOCkl+Cli+Ckr+Cksg==?=) Date: Thu, 31 Mar 2011 15:18:23 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkuOClhyDgpKrgpLngpLLgpYct4KS54KWL4KSy4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkvuCkpg==?= Message-ID: *प्रिय बंधू, नमस्कार! आपको मेरी वेबसाईट सहित कुछ खास खबरों के लिंक मेल कर रहा हूँ. कृपया एक बार देखने-पढ़ने का कष्ट करें. शायद आपको मेरी गुफ्तगू पसंद आएगी. अगर अच्छी लगे तो कोमेंट देकर मेरा हौसला बढ़ाये. क्योंकि यह है -* *देश की पहली आम नजरिये को खास खबरों में पेश करती हिंदी न्यूज वेबसाईट* गुफ्तगू :- समाचार ! एक पहलु यह भी *KLICK ON LINK* :- www.gooftgu.co.nr *या सीधे यह पढ़े :- दीवाली से पहले-होली के बाद बताओ आपने ऐसा क्यों किया तो वर्ल्ड कप हमारा होगा आखिर हमारी गलती क्या है होली रे होली ** * SURYA GOYAL MOB- 99916-10952 HISAR (HARYANA) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From bhawnaghughtyal at gmail.com Sat Mar 5 20:19:44 2011 From: bhawnaghughtyal at gmail.com (bhawna ghughtyal) Date: Sat, 05 Mar 2011 14:49:44 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KWL4KSs4KWA?= =?utf-8?b?IOCkmOCkvuCknyDgpJXgpL4g4KSP4KSVIOCkuOCkrOCkn+Clh+CklQ==?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KSa4KWB4KSF4KSyIOCkquCkvuCkoA==?= In-Reply-To: <4D6DF829.8050903@sarai.net> References: <4D6DF829.8050903@sarai.net> Message-ID: umda post...film dekhar aabid surti ka novel aadami aur chuhe yaad aa gaya...film mumbai ko cladiospic view se dikhati hai...zigsaw fit ki tarah...shahrati jivan frame mein mumbai k har phalu ka alag magar puri shiddat se uski aikjut pahchan ki parton ki shinakht karti hai. 2011/3/2 ravikant > भाषासेतु से साभार: > http://bhashasetu.blogspot.com/2011/02/blog-post_15.html > > dilchasp. maze lein. > > ravikant > > *धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ > *राहुल सिंह > > अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव > के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के > अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह > एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर > करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की > तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी > नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता (प्लूरालिटी) है वह अपने लिए एक > लोकतांत्रिक छूट भी हासिल कर लेता है। किसी एक के अनुभव से नहीं बल्कि ‘कई > निगाहों से बनी एक तस्वीर’। फिल्म के कैनवास को पूरा करने में हाशिये पर पड़ी > चीजें भी उतना ही अहम रोल अदा करती हैं जितने के वे किरदार जो केन्द्र में हैं। > यों तो सतह पर हमें चार ही पात्र नजर आते हैं लेकिन असल में हैं ज्यादा-टैक्सी > ड्राइवर, खामोश पड़ोसन, लता बाई, प्रापर्टी ब्रोकर, सलीम, लिफ्ट गार्ड और सलमान > खान (चौंकिये मत, सलमान खान की भी दमदार उपस्थिति इस फिल्म में है।) सब मिलकर > वह सिम्फनी रचते हैं जिससे मुम्बई का और हमारे समय का भी एक अक्स उभरता है। > > जैसे की फिल्म की ओपनिंग सीन जहाँ यास्मीन नूर (कीर्ति मल्होत्रा) टैक्सी में > बैठी मरीन ड्राइव से गुजर रही है। टैक्सी के सामने लगी ग्लास पर गिरती बारिश को > हटाते वाइपर, चलती टैक्सी और बाहर पीछे छूटते मरीन ड्राइव के किनारे और इनकी > मिली-जुली आवाजों के बीच टैक्सी ड्राइवर का यह पूछना कि ‘नयी आयी हैं मुम्बई > में ?’ ड्राइवर कैसे ऐसा पूछने का साहस कर सका ? क्योंकि उसकी सवारी (यास्मीन) > के हाथ में एक हैंडी कैम है जिससे वह मुम्बई को सहेज रही है। जिससे वह अनुमान > लगाता है कि शायद यह मुम्बई में नयी आई है (आगे मुम्बई लोकल में शूट करते हुए > भी उसे दो महिलायें टोकती हैं ‘मुम्बई में नयी आयी हो ?’)। फिर उनकी आपसी > बात-चीत के क्रम में ही यह मालूम होता है कि वह मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) की > रहनेवाली है और ड्राइवर जौनपुर (उत्तर प्रदेश) का। उसी शुरूआती दृश्य में > टैक्सी के अंदर डैश बोर्ड में बने बाक्स पर लगे एक स्टिकर पर भी हैंडी कैम पल > भर को ठिठकता है जिसमें एक औरत इंतजार कर रही है और उसकी पृष्ठभूमि में एक कार > सड़क पर दौड़ रही है, और स्टिकर के नीचे लिखा हैः ‘घर कब आओगे ?’ यह उस ड्राइवर > की कहानी बयां करने के लिए काफी है कि वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर कमाने के > लिए मुम्बई आया है। इसके बाद भींगती बारिश में भागती कार से झांकती आँखें > मुम्बई की मरीन ड्राइव को देखते हुए जो बयां करती है वह खासा काव्यात्मक है। > “... समन्दर की हवा कितनी अलग है, लगता है इसमें लोंगों के अरमानों की महक मिली > हुई है।” इस ओपनिंग सीन के बाद कायदे से फिल्म शुरु होती है चार शाट्स हैं पहला > किसी निर्माणाधीन इमारत की छत पर भोर में जागते मजदूर का दूसरा उसके समानान्तर > भोर की नीन्द में डूबी मुम्बई का तीसरा संभवतः उसी इमारत में निर्माण कार्य में > लगे मजदूरों के सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने का और चौथा दोपहर में खुले आसमान के > नीचे बीड़ी के कश लगाते सुस्ताते मजदूर का। फिल्म के यह शुरुआती चार शाट्स फिल्म > के एक दम आखिरी में आये चार शाट्स के साथ जुड़ते हैं। उन आखिरी चार शाट्स में > पहला, दोपहर की भीड़ वाली मुम्बई है। दूसरा, शाम को धीरे-धीरे रेंगती मुम्बई और > ऊपर बादलों की झांकती टुकड़ियाँ हैं। तीसरा, रात को लैम्प पोस्ट की रोशनी में > गुजरनेवाली गाड़ियों का कारवां है और चौथा, देर रात में या भोर के ठीक पहले नींद > में अलसाये मुम्बई का शाट्स है। इस तरह फिल्म ठीक उसी शाट्स पर खत्म होती है > जहाँ फिल्म कायदे से शुरु हुई थी। एक चक्र पूरा होता है। लेकिन यह शाट्स भी > मुम्बई के दो चेहरों को सामने रखता है। ‘अ टेल आव टू सिटीज’। जब एक (सर्वहारा) > जाग रहा होता है तो दूसरा (अभिजन) गहरी नींद में होता है और पहला जब सोने की > तैयारी कर रहा होता है तो दूसरा के लिए दिन शुरू हो रहा होता है (सलीम जब सोने > की तैयारी कर रहा होता है, ठीक उसी वक्त अरूण के चित्रों की प्रदर्शनी का > उद्घाटन हो रहा होता है)। > > मुन्ना (प्रतीक बब्बर) यों तो पहली दुनिया का नागरिक है लेकिन उसके मन में उसी > दूसरी दुनिया का नागरिक होने की चाह है, इस कारण वह अपनी नींद बेचकर सपना पूरा > करने में लगा है। अरुण (आमिर खान) दूसरी दुनिया का नागरिक है और शॉय (मोनिका > डोगरा) एक तीसरी दुनिया की, जो लगातार यह भ्रम पैदा करती है कि वह दूसरी दुनिया > की नागरिक है। मतलब यह कि शॉय इनवेस्टमेंट बैंकिंग कन्सल्टेन्ट है दक्षिण > एशियाई देशों में निवेश के रूझानों पर विशेषकर लघु और छोटी पूंजी पर आधारित > पारंपरिक व्यवसायों की फील्ड सर्वे करके रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजी गई है। > फिल्म के अंत की ओर बढ़ते हुए अचानक सिनेमा के पर्दे पर उभरने वाले उन पन्द्रह > तस्वीरों की लड़ियों को याद कीजिए जिसमें डेली मार्केट जैसी जगह के स्टिल्स हैं, > उन तस्वीरों में कौन लोग हैं इत्र बेचनेवाला, पौधे बेचनेवाला, जूते गाठनेवाला, > मसक में पानी ढोनेवाला, रेलवे प्लेटफार्म पर चना-मूंगफली बेचनेवाला, गजरे का > फूल बेचनेवाली, घरों में सजा सकनेवालों फूलों को बेचनेवाली, कान का मैल > निकालनेवाला, चाकू तेज करनेवाला, मजदूर, पान बेचनेवाली, ताला की चाभी > बनानेवाला, रेहड़ी और ठेला पर सामान खींचनेवाला, मछली बेचनेवाली आदि। इस काम के > लिए उसे अनुदान मिला है और अनुदान देनेवाली संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क > (अमेरिका) में है। मैक्डाॅनाल्ड के लगातार खुलते आउटलेट, अलग-अलग ब्राण्ड के > उत्पादों का भारत का रुख करने और हर पर्व-त्योहार में भारतीय बाजार में चीन की > आतंककारी उपस्थिति को देखते हुए, वायभ्रेन्ट गुजरात की अभूतपूर्व सफलता के मूल > मे अनिवासी भारतीयों की भूमिका, भारतीय सरकार द्वारा उनको दी जाने वाली दोहरी > नागरिकता, भारतीय इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया द्वारा उनके विश्व के ताकतवर > लोगों में शुमार किये जाने की खबरों को तरजीह दिये जाने वाले परिवेश में शॉय एक > कैरेक्टर मात्र न रह कर मेटाफर बन जाती है। मुन्ना को अगर प्रोलेतेरियत और अरुण > को बुर्जुआ मान लें (जिसके पर्याप्त कारण मौजूद हैं) तो शॉय फिनांस कैपिटल की > तरह बिहेव करती नजर आती है। खास कर तब जब वह अरुण से लगातार यह बात छिपा रही > होती है कि वह मुन्ना को जानती है। मुन्ना और अरुण दोनों तक, जब चाहे पहुँच > सकने की छूट शॉय को ही है। शॉय का कला प्रेम लगभग वैसा ही है जैसा सैमसंग का > साहित्य प्रेम गत वर्ष हम देख चुके हैं। सभ्यता के विकास का इतिहास पूंजी के > विकास का भी इतिहास है। और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया त्यों-त्यों > मानवीय गुणों में हृास भी देखा गया। इस लिहाज से भी विकास के सबसे निचले पायदान > पर खड़ा मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में ज्यादा मानवीय लगता है। आखिरी दृश्य > में जब वह सड़कों पर बेतहाशा दौड़ता हुआ शॉय को अरुण का पता थमाता है, तब वह खुद > इस बात की तस्दीक कर रहा होता है कि कुछ देर पहले वह झूठ बोल रहा था। शॉय भी कई > जगहों पर झूठ बोलती है, बहाने बनाती है लेकिन न तो पकड़ में आती है और न ही > अपराध बोध से ग्रसित नजर आती है। > > साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया को ‘धोबी घाट’ बेहद बारीकी से > उभारती है। और यह महीनी सिर्फ इसी प्रसंग तक सिमट कर नहीं रह गई है। एक > चित्रकार के तौर पर अरुण का अपने कला के सम्बन्ध में व्यक्त उद्गार ध्यान देने > लायक है। “मेरी कला समर्पित है, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और > अन्य जगहों के उन लोगों का जिन्होंने इस शहर को इस उम्मीद से बनाया था कि एक > दिन उन्हंे इस शहर में उनकी आधिकारिक जगह (राइटफुल प्लेस) मिल जायेगी। मेरी कला > समर्पित है उस बाम्बे को।” अरुण यहाँ मुम्बई नहीं कहता है बाम्बे कहता है। अगर > पूरे संदर्भ में आप बाम्बे संबोधन को देखें तो आप किरण की सिनेमाई चेतना की > तारीफ किये बिना नहीं रह सकेंगे। हाल के दिनों में शायद ही किसी फिल्मकार ने > शिव सेना की राजनीति का ऐसा मुखर प्रतिरोध करने की हिम्मत और हिमाकत दिखलायी > है। प्रतिरोध की ऐसी बारीकी हाल के दिनों में एक आस्ट्रेलियाई निर्देशक Michael > Haneke की फिल्म Cache i.e. Hidden (2005) में देखी थी। > > मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में यास्मीन नूर सहजता से किसी खांचे में नहीं > आती। कहीं यह मुन्ना के करीब लगती है तो कहीं अरुण और शॉय के। मुन्ना और > यास्मीन इस मामले में समान है कि दोनों अल्पसंख्यक वर्ग से तालुक रखते हैं, > दोनां हिन्दी भाषी प्रदेश क्रमशः मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) और दरभंगा (बिहार) से > हैं, दोनों रोजगार के सिलसिले में मुम्बई आते हैं (यास्मीन निकाह कर के अपने > शौहर के साथ मुम्बई आई है। निम्न वर्ग या निम्न वित्तीय अवस्था वाले परिवारांे > में लड़कियों के लिए विवाह भी एक कैरियर ही है।) इसके अलावा मुन्ना और शॉय के > साथ मुम्बई में एक आउटसाइडर की हैसियत से साथ खड़ी नजर आती है। उसकी संवेदनशीलता > उसे अरुण के साथ जोड़ती है। इन सबको जो चीज आपस में जोड़ती है, वह है मुम्बई, > जिसकी बारिश और समन्दर ये आपस में साझा करते हैं। आप पायेंगे कि इन सबके जीवन > में समन्दर और बारिश के संस्मरण मौजूद हैं। यह उनके एक साझे परिवेश से > व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता है। यास्मीन के नक्शे कदम पर अरुण समन्दर के पास > जाता है। मुन्ना और शॉय साथ-साथ समन्दर के किनारे वक्त बिताते हैं। लेकिन > यास्मीन, बारिश और समन्दर जब भी पर्दे पर आते हैं फिल्म में हम कविता को आकार > ग्रहण करते देखने लगते हैं। जैसे-“यहाँ की बारिश बिल्कुल अलग है, न कभी कम होती > है, न कभी रुकने का नाम लेती है, बस गिरती रहती है, शश्श्श्......., रात को > इसकी आवाज जैसे लोरी हो, जो हमें घेर लेती है अपने सीने में।” बारिश के समय > अरुण अपनी पेंटिग में लीन हो जाता है तो शॉय अरुण के साथ बिताये गये अपने > अंतरंगता के क्षणों में लेकिन इन सब की रोमानियत पर मुन्ना का यथार्थ पानी फेर > देता है क्योंकि बारिश के वक्त मुन्ना अपनी चूती छत ठीक कर रहा होता है। इन > तमाम समानताओं के बावजूद मुझे यास्मीन मुन्ना के ही नजदीक लगी। वह मारी गई अपनी > अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण, पूरी फिल्म उसकी इस अतिरिक्त संवेदनशीलता का > साक्षी है चाहे वह दाई का प्रसंग हो या किसी सदमे के कारण खामोश हो चुकी पड़ोसन > का या फिर बकरीद के अवसर पर उसके उद्गार। एक लगातार संवेदनशून्य होते समय में > संवेदनशीलता को कैसे बचाया जा सकता है। जो बचे रह गये उनकी संवेदनशीलता उतनी > शुद्ध या निखालिस नहीं थी। शायद इसलिए यास्मीन की मौत मेरे जेहन में एक कविता > के असमय अंत का बिम्ब नक्श कर गई। वैसे यहाँ ‘आप्रेस्ड क्लास’ के साथ ‘जेंडर’ > वाला आयाम भी आ जुड़ता है। एक समान परिस्थितियों में भी पितृसत्तात्मक समाज किस > कदर पुरुष की तुलना में स्त्री विरोधी साबित होता है। यास्मीन का प्रसंग इस लिए > भी दिलचस्प है कि खुद आमिर खान ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के बाद किरण को > अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था। फिल्म में इस ऐंगल को शामिल किये जाने मात्र से भी > किरण की बोल्डनेस का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस कोण से ही फिल्म का दूसरा > सिरा खुलता है जो यास्मीन की उपस्थिति और उसके सांचे में फिट न बैठ सकने की > गुत्थी का हल प्रस्तुत करता है। यहीं मुन्ना यास्मीन का विस्तार (एक्सटेंशन) > नजर आता है। यास्मीन सिर्फ इस कारण से नहीं मरी कि वह अतिरिक्त संवेदनशील थी वह > इसलिए मरी कि उसमें आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता की कमी थी। मुन्ना > भी लगभग उन्हीं स्थितियों में पहुँच जाता है जिन परिस्थितियों में यास्मीन ने > आत्महत्या की है, (सलीम की हत्या हो चुकी है, शॉय को उसके चूहा मारने के धंधे > बारे में मालूम हो गया है, जिस इलाके में वह काम करता था वहाँ से उठा कर > जोगेश्वरी के एक अपार्टमेंट में फेंक दिया गया है।)। शुरु में मुन्ना भी उन > परिस्थितियों से मुँह चुराकर भागता है। लेकिन फिर सामना करता है। यह जान कर की > शॉय अरुण को ढूँढ रही है वह खुद उसको अरुण का पता देता है। आप पायेंगे कि लगभग > पिछले मौकों पर मुन्ना आत्म विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देता > रहा है। जैसे वह शॉय के कपड़े पर नील पड़ जाने के कारण उसके नाराजगी को ज्यादा > फैलने का मौका दिये बगैर कहता है “मैडम गलती हो गई दीजिए मैं ठीक करके देता > हूँ।” जब शॉय मुफ्त में उसका पोर्टफोलियो अपने ढंग से बाहर नेचुरल तरीके से शूट > करना चाहती है तो वह कहता है कि “भाई हमें नहीं चाहिए फ्रेश-व्रेश, आप स्टूडियो > में शूट किजीये ना, खर्चा मैं भरता हूँ।” फिर भी ना-नुकुर की स्थिति बनता देख > वह सीधा कहता है कि ‘आपको माॅडल्स फोटो लेने हैं कि नहीं! धंधा, मोहब्बत को > गंवा कर भी फिल्म के अंत में ‘द लास्ट स्माइल’ की स्थिति में मुन्ना ही है, जो > उम्मीद बंधाती है। > > इसके अलावे पूरी फिल्म के बुनावट में जो बारीकी है वह स्क्रिप्ट और स्क्रीन > प्ले में की गई मेहनत को दर्शाती है। जैसे फिल्म के शुरुआती दृश्य में जब > यास्मीन खुद के मलीहाबाद की बताती है तो उसकी अहमियत आधी फिल्म खत्म होने के > बाद मालूम होती है जब वह इमरान को संबोधित करते हुए अपनी दूसरी चिट्ठी मे यह > कहती है कि ‘वहाँ तो आम आ गये होंगे ना, यहाँ के आमों में वह स्वाद कहाँ ?’ > मुन्ना की खोली में उसके इर्द-गिर्द रहनेवाली बिल्ली की नोटिस हम तब तक नहीं > लेते हैं जब तक मुन्ना अपनी खोली नहीं बदलता। दूसरी बार जब मुन्ना शॉय की नील > लगी शर्ट को ठीक करके वापस करने के लिए शॉय के फ्लैट पर जाता है तो शॉय मुन्ना > को चाय के लिए भीतर बुलाती है उस वक्त दरवाजे के किनारे खड़ी एग्नेस (नौकरानी) > फ्रेम में आती है। उसके फ्रेम में आने का मतलब ठीक अगले ही सीन मे समझ आ जाता > है, जब एग्नैस चाय लेकर आती है, एक कप में और दूसरी ग्लास में। आप पायेंगे कि > बेहद पहले अवसर पर ही मुन्ना को शॉय के द्वारा मिलने वाले अतिरिक्त भाव को > भांपने में वह पल भर की देरी नहीं करती और आगे चलकर इस बारे में अपनी राय भी > जाहिर करती है। मुन्ना के बिस्तर के पास लगे सलमान खान के पोस्टर की अहमियत का > भान हमें फिल्म के आगे बढ़ने के साथ होता चलता है। मुन्ना की कलाइयों में बंधी > मोटी चेन, डम्बल से मसल्स बनाते वक्त सामने आइने पर सलमान की फोटो को हम > नजरअंदाज कर जाते हैं। लेकिन तीन मौके और है जब हम फिल्म में सलमान खान की > उपस्थिति को नजरअंदाज करते हैं। पहला, जब शॉय मुन्ना से दूसरी बार किसी पीवीआर > या मल्टीप्लैक्स में संयोगवश मिलती है। दूसरा, जब वह मुन्ना का पोर्टफोलियो शूट > कर रही होती है और तीसरा जब वह अरुण के साथ खुद को देख लिये जाने पर उससे विदा > लेकर दौड़ती हुई मुन्ना के पास पहुँच कर कहती है कि आज तुम मुझे नागपाड़ा ले जाने > वाले थे और फिल्म दिखाने वाले थे। फिल्म में सलमान खान की जबर्दस्त उपस्थिति को > हम नजरअंदाज कर जाते हैं। शरु में ही मुन्ना और सलीम केबल पर प्रसारित होने > वाली जिस फिल्म को देखकर ठहाके लगाते हैं, वह सलमान खान अभिनीत हैलो ब्रदर है। > फिर जब पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के क्रम में शॉय मुन्ना से > मिलती है वह फिल्म है ‘युवराज’। मुन्ना अपने पोर्टफोलियो शूट के लिए जो पोज दे > रहा होता है अगर सलमान खान के बिकने वाले सस्ते पोस्टकार्ड और पोस्टर को आपने > देखा हो तो आप समझ सकते हैं कि मुन्ना उससे कितना मुतास्सिर है और जिस फिल्म को > दिखाने की बात की थी मुन्ना ने वह फिल्म थी, ‘हैलो’। हैलो ब्रदर ‘युवराज’ और > ‘हैलो’ दोनों फिल्में सलमान खान की है। इन कारणों से बाद में खोली बदलते वक्त > मुन्ना द्वारा सावधानी से सलमान खान के पोस्टरों को उतारा जाना एक बेहद जरुरी > दृश्य लगता है। लेकिन सिर्फ इस कारण से मैं सलमान खान की उपस्थिति को जबर्दस्त > नहीं कह रहा हूँ। इन संदर्भों से जुड़े होने के बावजूद वैसा कहने की वजह दूसरी > है। वह यह कि किसी भी फिल्म में यथार्थ के दो बुनियादी आयामः काल और स्थान > (टाईम एण्ड स्पेस) को सहजता से पहचान जा सकता है। आम तौर पर हिन्दी सिनेमाई > इतिहास में इस किस्म के प्रयोग कम ही देखने को मिले हैं जिसमें शहर को ही मुख्य > किरदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो। जाहिर है जब आप शहर को प्रोजेक्ट कर > रहे होते हैं तो रियलिटी का स्पेस वाला डाइमेंशन टाईम वाले फैक्टर की तुलना में > ज्यादा महŸवपूर्ण हो उठता है। ‘धोबी घाट’ में भी ठीक यही हुआ है। आप मुम्बई को > देख रहे हैं लेकिन वह कब की मुम्बई है ? कहें कि आज की तो मैं कहूंगा कि वह > अक्टूबर-नवम्बर 2010 के आगे-पीछे की मुम्बई है, इतना स्पेस्फिक कैसे हुआ जा > सकता है, इसके संकेत फिल्म में है। ‘धोबी घाट’ उस अंतराल की कहानी कहता है जब > सलमान खान की ‘युवराज’ रीलिज हो चुकी थी और ‘हैलो’ चल रही थी और हैलो ब्रदर > इतनी पुरानी हो चुकी थी कि उसका प्रसारण केबल पर होने लगा था। सलमान खान मुम्बई > के उस स्पेस के टाईम फ्रेम को रिप्रेजेन्ट करता है। बस इससे ज्यादा की जरूरत भी > नहीं थी। लेकिन इसके लिए जिस ढ़ंग से सलमान खान का मल्टीपर्पस यूस किया गया है, > वह किसी मामूली काबिलियत वाले निर्देशक के बूते की बात नहीं है। शहर को किरदार > बनाने की दूसरी कठिनाई यह है कि स्टोरी नरेशन को ग्राफ या स्ट्रक्चर लीनियर > नहीं हो सकता उसे सर्कुलर होना पडे़गा। किस्सागोई का यह सर्कुलर स्ट्रक्चर > सुनने में जितना आसान है उसे फिल्माना उतना ही मुश्किल है। खासकर भारतीय दर्शक > वर्ग जो लीनियर स्ट्रक्चर वाली फिल्मों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि वह उनके > सिनेमाई संस्कार का पर्याय हो गया है। हिन्दी सिनेमाई इतिहास में जब से मैंने > फिल्में देखनी शुरू की है, किरण राव का यह प्रयास कई मायने में मुझे फणीश्वरनाथ > ‘रेणु’ की याद दिला गया। जिस तरह रेणु ने अंचल को नायक बनाकर हिन्दी कथा > साहित्य की परती पड़ी जमीन को तोड़ने का काम किया था, किरण ने भी लगभग वैसा ही > किया है। इतना ही नहीं रेणु ने अपनी कहानियों को ‘ठुमरीधर्मा’ कहा था। संगीत का > मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन इतना सुना है कि ठुमरी में कोई एक केन्द्रीय > भाव या टेक होती है और बार-बार गाने के क्रम में वहाँ आकर सुस्ताते हैं, स्वरों > के तमाम आरोह-अवरोह के बाद उस बुनियादी टेक को नहीं छोड़ते हैं, जिसे उसकी सार > या आत्मा कह सकते हैं। ऐसा करते हुए हम उस अनुभूति को ज्यादा घनीभूत या > सान्द्रता प्रदान कर रहे होते हैं जो प्रभाव को गाढ़ा करने का काम करता है। इस > आवर्तन के जरिये आप उसके केन्द्र या नाभिक को ज्यादा संगत तौर पर उभार पाते > हैं। रेणु ने इस शिल्प के जरिये अपनी कहानियों में अंचल की केन्द्रीयता को > उभारने में सफलता पाई थी। लगभग वैसा ही शिल्प किरण ने अपनी इस फिल्म के लिए > अख्तियार किया है। और यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि फिल्म में संभवतः बेगम > अख्तर द्वारा गाया गये दो ठुमरी भी बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर मौजूद है। एक जब > अरुण यास्मीन वाले घर में अपने सामानों को तरतीब दे रहा है और दूसरा जब मुन्ना > बारिश में भींग कर शॉय को बाय कर रहा होता है और अरुण अपनी पैग में बारिश के > चूते पानी को मिला कर पेन्टिग शुरू कर रहा होता है। > > भारत के किसी एक शहर या अंचल को फिल्माना खासा चुनौतिपूर्ण है। उसमें भी > मुम्बई जो लगभग एक जीता-जागता मिथ है। मुम्बई के नाम से ही जो बातें तत्काल > जेहन में आती हैं उनमें मायानगरी, मुम्बई की लोकल, स्लम्स, गणपति बप्पा, जुहू > चैपाटी, पाव-भाजी, भेल-पुरी, अंडरवल्र्ड, शिवसेना आदि तत्काल दिमाग में कौंध > जाते हैं। इस सबसे मिलकर मुम्बई का मिथ बना है। फिल्म में यह सब हैं जो मुम्बई > के इस मिथ को पुष्ट करता है। तो फिर नया क्या है ? नया इस मिथ को पुष्ट करते > हुए उसकी आत्मा को बयां करना है। मुम्बई के इस मिथ या कहें कि स्टीरियोटाईप छवि > को किरण निजी अनुभवों (पर्सनल एक्सपिरयेंसेज) के जरिये जाँचती है। अंत में > मुन्ना की मुस्कान उस मुम्बईया स्प्रिट की छाप छोड़ जाती है जिसको हम ‘शो मस्ट > गो आॅन’ के मुहावरे के तौर पर सुनते आये हैं। > > > अभिनय की दृष्टि से आमिर को छोड़कर सब बेहतरीन हैं। मोनिका डोगरा ने कुछ > दृश्यों में जो इम्प्रोवाइजेशन किया है वह गजब है। चार उदाहरण रख रहा हूँ, एक > जब उसके शर्ट पर वाईन गिरती है उस समय का उसका ‘डिलेयड पाॅज एक्सप्रेशन’, दूसरा > जब फोटो शूट के वक्त मुन्ना पूछता है कि क्या मैं अपना टी शर्ट उतार दूं तब > मोनिका ने जो फेस एक्स्प्रेशन दिया है, वह इससे पूर्व कमल हासन में ही दिखा > करता था। तीसरा मुन्ना जब पहली बार कपड़ा देने उसके फ्लैट पर गया है, तब वह अपने > हाथ को जिस अंदाज में हिला कर कहती है, ‘अंदर आओ।’ और चैथा जब वह अपने टैरेस पर > उठने के ठीक बाद अपनी मां से बात कर रही है। पूरे फिल्म मंे प्रतीक बब्बर की > बाॅडी लैंग्वेज ‘मि परफ्ेकशनिस्ट’ पर भारी है। इस पर तो काफी कुछ लिखा जा सकता > है लेकिन फिलहाल इतना ही कि एक दृश्य याद कीजिए जहाँ मुन्ना शॉय के साथ फिल्म > देख रहा है, शॉय के हाथ के स्पर्श की चाह से उपजा भय, रोमांच और संकोच सब उसके > चेहरे पर जिस कदर सिमटा है, वह एक उदाहरण ही काफी जान पड़ता है। ‘जाने तू या > जाने ना’ में अपनी छोटी भूमिका की छाप को प्रतीक बब्बर ने इस फिल्म में > धुंधलाने नहीं दिया है। सलीम इससे पहले ‘पिपली लाइव’ में भी एक छोटी सी भूमिका > निभा चुके हैं। यास्मीन को सिर्फ आवाज और चेहरे के बदलते भावों के द्वारा खुद > को कन्वे करना था। और वह जितनी दफा स्क्रीन पर आती है उसकी झरती रंगत मिटती > ताजगी को महसूस किया जा सकता है। आमिर के हाथों अरुण का किरदार फिसल जाता है, > इसे देखते हुए आमिर के संदर्भ में पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि वे एक्टर > नहीं स्टार हैं। अरूण कोई ऐसा किरदार नहीं था जिसके गेस्चर और पोस्चर के जरिये > उसे कन्वे किया जा सकता था। लगान, मंगल पाण्डेय, तारे जमीन पर, गजनी, थ्री > इडियट की तरह सिर्फ वेश-भूषा बदल लेने से ही अरुण पहचान लिया जाता ऐसी बात नहीं > थी। अरुण के किरदार को अभिनीत नहीं करना था बल्कि जीना था। आमिर एक्टिंग के नाम > पर उन कुछ बाहरी लक्षणों तक ही सिमट कर रह गये जिसे उनकी चिर-परिचित मुद्राओं > के तौर पर हम देखते आये हैं। मसलन्, फैलती-सिकुड़ती पुतलियाँ, भवों पर पड़नेवाला > अतिरिक्त बल, सर खुजाने और लम्बी सांसे छोड़ना वाला अंदाज आदि। यह लगभग वैसा ही > सलूक है जैसा ‘चमेली’ में करीना कपूर ने किया था, उसने भी होंठ रंग कर, पान चबा > कर, चमकीली साड़ी और गाली वाली जुबान के कुछ बाहरी लक्षणों के द्वारा चमेली को > साकार करना चाहा था। उसी के समानांतर ‘चांदनी बार’ में तब्बू को देखने से किसी > किरदार को जीने और अभिनीत करने के अंतर को समझा जा सकता है। बहरहाल इस लिहाज से > मोनिका डोगरा सब पर भारी है। > > अब अगर बात नेपथ्य की करें तो फिल्म का संगीत और सिनेमेटोग्राफी वाला पहलू > बचता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है केवल बैकग्राउंड स्कोर है जिसके कम्पोसर > हैं, ळनेजंअव ैंदजंवसंससं। इस साल हर फिल्म फेस्टिवल में जिस अर्जेन्टीनियाई > फिल्म ‘दी ब्यूटीफूल’ ने सफलता के झंडे गाड़े हैं उसका संगीत भी गुस्ताव ने दिया > है लगभग हर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके इस संगीतकार का > जादू रह-रह कर थोड़े अंतराल पर ‘धोबी घाट’ में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। उन > संवादहीन दृश्यों में खासकर जहाँ फिल्म की कहानी सुर-लहरियों पर तिरती आगे बढ़ती > है। कहानी साउण्डट्रैक में संचरण करती है। ऐसा कई एक जगहों पर हैं। पर्दे पर > आमिर खान प्रोडक्शन के साथ अजान सरीखा एक संगीत है जिसको बीच-बीच में पटरी पर > दौड़ती ट्रेन की खट-खट-आहट तोड़ती है, मुन्ना और शॉय जब अंतरंगता के क्षणों में > डूब रहे होते हैं। इसके अलावा अकेलापन, उदासी, प्यार जैसी भावनाओं को भी गहराने > की कोशिश सुनी जा सकती है। गुस्ताव के साथ ही फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी > सराहनीय है। खास कर तुषार कांति रे के वे पन्द्रह-सोलह स्टिल्स, जिसमें शॉय > डेली मार्केट को अपनी निगाहों में कैद कर रही है। पर इससे भी ज्यादा प्रभावी वह > दृश्य है जिसमें मुन्ना शॉय के साथ समन्दर किनारे बैठ कर डूबते सूरज को देख रहा > है और वह डूबता सूरज मुन्ना के पीछे समन्दर के किनारे खड़ी किसी इमारत की उपरी > मंजिलों पर लगे शीशे पर प्रतिबिम्बित हो रहा है। शुरू और आखिरी के चार-चार > शाट्स की बात तो कर ही चुका हूँ। वैसे सिनेमेटोग्राफी को थोड़ा और सशक्त होना था > क्योंकि एक ही साथ विडियो (यास्मीन), पेन्टिंग (अरुण), और फोटोग्राफी (शॉय) > तीनों आर्ट फार्म की निगाह से मुम्बई को कैद करने की बात थी। > > फिल्म कमजोर लगी आमिर के कारण और एक दूसरी बुनियादी गलती है सलमान खान के > फिल्मों के नामोल्लेख के संदर्भ में किरण को करना सिर्फ इतना था कि मुन्ना से > शॉय की दूसरी मुलाकात पर उन्हें ‘युवराज’ की जगह ‘हैलो’ देखने जाते हुए दिखलाना > था और बाद में मुन्ना उसे ‘युवराज’ दिखाने का वादा कर रहा होता। ऐसा इसलिए कि > ‘हैलो’ 10 अक्टूबर 2010 को रिलीज हुई थी और ‘युवराज’ 21 नवम्बर 2010 को। इससे > रियलिटी के टाईम वाले डायमेन्सन की संगति भी बैठ जाती। फिलहाल तो इस फिल्म को > देखने के बाद जिन बातों की प्रतिक्षा कर रहा हूँ उनमें अनुषा रिजवी और किरण राव > की दूसरी फिल्म, ‘पिपली लाइव’ की मलायिका शिनाॅय व नवाजुददीन (राजेश) और ‘धोबी > घाट’ की मोनिका डोगरा व प्रतीक बब्बर की अगली भूमिकाओं का इंतजार शामिल है। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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