From vineetdu at gmail.com Mon Jul 4 14:46:11 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 4 Jul 2011 14:46:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KShIOCkleCli+CksCDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSV4KWI4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkrOCkpuCksuCkpOClgCDgpLngpYgg4KSu4KSo4KWL4KSw4KSC4KSc?= =?utf-8?b?4KSoIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: *नीरज ग्रोवर हत्‍याकांड में सबूतों को नष्‍ट करने वाली अपराधी के बारे में जब न्‍यूज चैनलों को सूचना मिली कि वो बिग बॉस के अगले सीजन में हिस्‍सा लेने वाली है, वह एकाएक मनोरंजन चैनल में बदल गये। हालांकि बिग बॉस ने इस खबर का दूसरे दिन खंडन कर दिया। युवा मीडिया क्रिटिक विनीत कुमार ने न्‍यूज चैनलों की इस बदहवासी पर फौरी टिप्‍पणी की थी, जिसे हम दो दिन बाद छाप रहे हैं, उनसे क्षमायाचना के साथ : मॉडरेटर* नीरज ग्रोवर हत्याकांड मामले में कन्‍नड़ अभिनेत्री मारिया सुसाईराज तीन साल की सजा काटकर जब सलाखों से बाहर निकली, तो जैसे टीवी चैनल उस पर एहसान करने के लिए आमादा थे। शाम तक तो न्यूज चैनलों ने इस खबर को प्रमुखता से दिखाया कि मारिया ने प्रेस कॉनफ्रेंस में ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जिससे लगे कि उसे अपनी गलती का एहसास है या फिर तीन साल तक जेल की सजा काटने पर कुछ हद तक विनम्रता आयी है। अधिकांश चैनल इस बात को लेकर ही लूप चलाते रहे कि मारिया ने नीरज ग्रोवर पर कुछ भी कहने से मना कर दिया। लेकिन जैसे ही चर्चित रियलिटी शो बिग बॉस की तरफ से बयान आया कि वो नये सीजन में मारिया को लेना चाहेंगे तो सारे चैनलों ने बाकी मसलों पर बात करने के बजाय सिर्फ और सिर्फ बिग बॉस और मारिया को लेकर स्टोरी करनी शुरू कर दी। *आजतक ने* प्राइम टाइम में स्टोरी चलायी – बुरा होना अच्छा होना है और इसे बाकायदा चैनल के सबसे अक्लमंद समझे जानेवाले एंकर अजय कुमार ने होस्ट किया। *स्टार न्यूज को* चूंकि मनोरंजन की खबरों में महारथ हासिल है और उसे इसका खून कुछ इस तरह लगा है कि दीपक चौरसिया जैसे राजनीतिक खबरों में दिलचस्पी रखनेवाले मीडियाकर्मी भी कभी जॉन अब्राहम को बाइक पर तो कभी मलिका शेहरावत के साथ हिस्स करते नजर आते हैं, उसने प्रोग्राम में बाकायदा ये भी दिखा दिया कि मारिया शो में इंट्री लेगी तो किस तरह दिखेगी, वो मारिया और नीरज ग्रोवर हत्याकांड की फुटेज दिखाने से कहीं ज्यादा बिग बॉस की फुटेज दिखाना शुरू कर देता है। *इंडिया टीवी का* इस मामले में अपना संस्कार है और उसने ऐसे दिखाया मानो कि मारिया शामिल हो चुकी है और बिग बॉस का नया सीजन शुरू हो गया है। *न्यूज24* सोनिया गांधी से मिलने के बाद अन्ना को सीधे लाइव लेने की कोशिश में था और एक्‍सक्‍लूसिव की बड़ी बड़ी पट्टियां चला रहा था, लेकिन जैसे मारिया वाली खबर आयी – वो भी इस खेल में कूद गया। स्टार न्यूज ने तो मारिया-मारिया गाने तक इस्तेमाल कर दिये। *इस पूरी कवरेज को* अगर आप गौर से देख रहे होंगे तो अंदाजा लगा रहे होंगे कि कैसे एक बेहद ही गंभीर खबर जो कि अपराध और हार्डकोर न्यूज की कैटेगरी में आनी चाहिए, अकेले बिग बॉस और उधर रामगोपाल वर्मा के कूदने से खालिस मनोरंजन की खबर बन जाती है और फिर धीरे-धीरे मारिया की लेडीज पुलिस द्वारा ले जाती हुई, सलाखों के पीछे और प्रेस कॉनफ्रेंस की फुटेज सिर्फ और सिर्फ फिल्मी और एलबम सीनों की तरफ खिसकती चली जाती है। राजनीति, अपराध, हार्डकोर न्यूज और सरोकार की खबरें कैसे मनोरंजन की तरफ शिफ्ट की जाती है और उसके भीतर की तथ्यात्मकता और मतलब को ध्वस्त करके नया मतलब रचती है, इसे ऐसे ही मौके पर समझा जा सकता है। *परसों रात के प्राइम टाइम में* दो बातें और गौर करने लायक थी। एक ये कि स्टार न्यूज जब मारिया की खबर दिखा रहा था तो अचानक से उसकी फुटेज के ऊपर बाबा रामदेव की फुटेज आ जाती है और फिर स्टार न्यूज पर बाबा रामदेव लिखा आता है। मतलब ये कि जो खबर चल रही है, उसे बाधित करते हुए अगली खबर के लिए ऑडिएंस की बुकिंग। हम कन्फ्यूज होते हैं कि कहीं गलत फुटेज तो नहीं डाल दिया गया एडीटिंग मशीन पर बैठी संतानों ने? और दूसरा कि न्यूज24 बार-बार लिख रहा था, नाउ प्लेइंग। मतलब अब खबरें दिखाने की नहीं प्ले करने की चीज हो गयी है। *जो न्यूज चैनल* पिछले महीनों बिग बॉस की अश्लीलता और उसकी प्रासंगिकता को लेकर गले फाड़-फाड़कर पैनल डिशक्शन करा रहा था, एनडीटीवी ने इस पर मुकाबला कराया था, परसों रात किसी ने भी ये सवाल नहीं उठाया कि जिस तरह से बिग बॉस एक के बाद एक दागदार और आरोपी शख्सियत को अपने शो में शामिल कर रहा है, वो किस हद तक जायज है? क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इस दिशा में कुछ पहल करेगा? सबने रातोंरात मारिया को राखी सावंत और वीना मलिक की तरह टीआरपी एलीमेंट में कनवर्ट कर दिया। अब जल्द ही ऑडिएंस भूल जाएगी कि मारिया को किसी की हत्या की साजिश में तीन साल की सजा भी हुई थी? *न्यूज चैनल अगर* अपनी स्ट्रैटजी के तहत ऐसे सवाल उठाने से मुंह भी चुरा ले तो क्या ये एक जरूरी सवाल नहीं है कि जिस तरह से बिग बॉस राहुल महाजन, वीना मलिक, बंटी चोर और मारिया… एक के बाद एक आरोपी और दागदार लोगों को अपने शो में शामिल करता है, क्या ये उसका पैमाना है कि सबसे खराब या समाज के लिए बुरा करार दिया जानेवाला शख्स बिग बॉस के लिए सबसे योग्य है? बिग बॉस को इस बात का अधिकार किसने दिया है कि वो ऐसे शख्स को शो में शामिल करके उसकी मेकओवर कर दे? राहुल महाजन ने क्या किया, वीना मलिक किन कारणों से मीडिया में चर्चा में आयी, आज अधिकांश लोग भूल चुके होंगे या नहीं भी भूले होंगे तो अब इनलोगों को दूसरे तरीके से याद करते होंगे। *राहुल महाजन की तो* बिग बॉस, स्वयंवर और छोटे मियां में शामिल करके बहुत ही शॉफ्ट छवि गढ़ दी गयी। वीना मलिक को बिग बॉस के बाद ज्यादा बिजनेस मिलने लग गये। इसका मतलब कहीं ये तो नहीं कि चैनल ये साबित करना चाहता है कि उसकी ताकत और उसका कद कानून और समाज से कहीं ज्यादा है। वो रातोंरात करप्ट हो चुकी किसी की सामाजिक छवि को बदल और बेहतर बना सकता है? और वैसे भी जिस शख्स को टेलीविजन की पॉपुलरिटी मिल जाती है, वो कई स्तर पर सामाजिक दावे भी करने की हैसियत बना लेता है। अगर ऐसा है तो क्या ये जरूरी नहीं है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय इस दिशा में पहल करे। *इसके लिए सबसे पहले* मंत्रालय चैनलों के ऊपर ये दबाव बनाये कि वो अपने प्रतिभागियों का परिचय उसी रूप में कराये, जिस कारण वो मीडिया में चर्चा में आये हैं। अगर मीडिया और समाज में उनकी छवि आरोपी या अपराधी की रही है, तो वो उसे मेंशन करे। दूसरी बात कि प्रतिभागियों को शामिल करने से पहले मंत्रालय ये तय करे कि उसके मापदंड क्या होंगे? संभव है कि कुछ लोगों को क्‍लीन चिट मिल जाए लेकिन ऐसे शो के जरिये मेकओवर का जो काम किया जाता है, उस पर निगरानी रखे। किसी भी चैनल को इस बात का ठेका कैसे दिया जा सकता है कि वो किसी शख्स की तमाम करतूतों को धो-पोंछकर नये सिरे से ऐसी छवि पेश करेगा कि समाज में उसकी स्वीकृति बढ़ती चली जाएगी। क्या ये उस दिशा में लोगों को सक्रिय तो नहीं करता कि ज्यादा से ज्यादा कट्टर और निर्दयी तरीके से अपराध करो, जिससे कि बिग बॉस जैसे शो की नजर पड़े। उसके बाद तो कानूनी और सामाजिक तौर पर चाहे जो भी सजा मिले, मेकओवर हो जाएगा। *न्यूज चैनलों को* टीआरपी बताशे बनाने हैं, वो बिग बॉस के ऐसे कदम का विरोध नहीं कर सकता क्योंकि कल को उसे लाखों में प्रोमोशनल एड मिलने जा रहे हैं लेकिन देश की जो मशीनरी है, मॉनिटरिंग सिस्टम है, क्या वो सिर्फ हादसों के वक्त ही सक्रिय होगी और मर्सिया पढ़कर चलता कर देगी? मूलतः प्रकाशित-मोहल्लालाइव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chandiduttshukla at gmail.com Mon Jul 4 14:49:22 2011 From: chandiduttshukla at gmail.com (.) Date: Mon, 4 Jul 2011 14:49:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSu4KWN4KS54KS+4KSw4KWHIOCknOCkvuCkqOClhyDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSX4KSu?= Message-ID: *चर्चित संगीतकार दान सिंह को श्रद्धा-सुमन * - चण्डीदत्त शुक्ल chandiduttshukla at gmail.com * बेदम, निचुड़ी-सूखी धरती *ने इधर-उधर छिटके पानी से अपने पपड़ाए होंठ गीले करने की नाकाम कोशिश के बाद हाथ जोड़कर सूरज से कहा--क़हर बरपाना छोड़ो, फिर बादलों से गुहार की--निष्ठुर, कितना इंतज़ार करूं! उलाहना जैसे दिल में तीर की तरह लगा और सब के सब काले बादल जल बन धरती की ओर भाग निकले। देखते ही देखते जलधारा ने धरती का आलिंगन कर लिया। दोनों की प्यास बुझ चुकी थी। इन दिनों जयपुर का हाल ऐसा ही है। सरेशाम बारिश शुरू हो जाती है। बिल्डिंगों, टावर्स, परछत्तियों और बस स्टैंड्स के अंदर या फिर नीचे सिमटते हुए, बूंदों की फुहार चेहरे से होती दिल तक पहुंच जाती है...पर कोई भी मौसम क्या करे, जो मन कतरा-कतरा भरा हुआ हो। दिल भारी है और नसों में विदा का मद्धम शोकगीत बजता ही जा रहा है--वो तेरे प्यार का ग़म…! * दिल्ली की भीड़ से दूर *गुलाबी शहर में आना हरदम खुशी से भरपूर करता है। इस बार तो खैर, और, और ज्यादा खुशी थी। पहली वज़ह तो ज़रा पर्सनल-सी है पर दूसरा कारण था--उस शख्स से मिलने की आरज़ू, जो ज़िंदगी में बड़ी अहमियत रखता है। दान सिंह, खुद्दार और मनमौजी संगीतकार। महज इसलिए मुंबई छोड़ दी, क्योंकि समझौता करना शान के ख़िलाफ़ था। उनकी कितनी ही कृतियां चोरी हो गईं। मायानगरी में ठगे गए दान सिंह संकोची भी थे, लेकिन सिर झुका दें, ऐसी विनम्रता उन्होंने कभी नहीं ओढ़ी। *जि़क्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है, तू जो चाहे तो दिन निकलता है, तू जो चाहे तो रात होती है*'...और वो तेरे प्यार का गम, इक बहाना था सनम, अपनी तो किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया...ये नग्मे बचपन से जवानी तक हर अहसास के वक्त साथ रहे हैं, उनको रेशा-रेशा अहसास में लपेटकर वज़ूद में लाने वाले दान सिंह से मिलने की खुशी चेहरे से टपक रही थी। कवि मित्र दुष्यंत ने भरोसा दिलाया था कि वो मुझे उस शख्स से मिला देंगे, जिसे बिना देखे ही प्यार कर बैठा था। ठीक वैसे ही तो, जैसे ता-ज़िंदगी कुछ लोगों के साथ रहते हुए भी हम उनके मन का क़तरा भी नहीं छू पाते हैं। पर हम कहां मिल पाए। जयपुर आने के चंद रोज बाद ही पता चला कि वो बहुत बीमार हैं और फिर एक दिन वो चल दिए, ऐसे सफ़र पर, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। * ऐसे मौकों पर शोक की महज रस्म-अदायगी नहीं होती। *होश में रहा नहीं जाता। हज़म नहीं होती ये बात-हाय, वो चला गया, जो दिल के इतने क़रीब था...यूं, अब भी एक अजीम फ़नकार से ना मिल पाने का ग़म तारी है। ऐसे ही मौकों पर याद आते हैं तीन और चेहरे। ज्यूं, दान सिंह के गानों का ज़िक्र ना हो, तो शायद आम लोग उन्हें पहचान भी ना पाएं, ऐसे ही तो थे वे तीनों भी। महेश सिद्धार्थ, कॉमरेड फागूराम और बिरजू चाचा। नहीं, ये सब के सब ऐसे लोग नहीं, जिन्हें दुनिया-जहान जानता था पर थे सब क़माल के। महेश सिद्धार्थ अपने ज़माने का ऐसा खिलाड़ी, जिस पर लड़कियां जान देतीं। बाद में थिएटर में पूरी ज़िंदगी लगा दी। कॉमरेड फागूराम सिद्धांतों में ऐसे रमे कि सर्वहारा समाजवादी क्रांति की फ़िक्र में कभी दो वक्त की पुरसुकून रोटी की परवाह नहीं की और बिरजू चाचा, यूं तो बुक स्टॉल चलाते थे, लेकिन पढ़ने-लिखने के संस्कार उन्होंने शहर के सैकड़ों लड़कों को ज़बरन ही दिए। बिना पैसे लिए। ये सब भी बीते बरसों में नहीं रहे और अब दान सिंह भी नहीं! * आप सोच सकते हैं कि एक अजीम संगीतकार *का ज़िक्र करते हुए तीन तकरीबन अनजाने लोगों की बात क्यों? सो इसका क्या जवाब दें। बस यूं ही समझ लीजिए, हर ज़ुदाई कुछ और खाली कर देती है। इन चारों में एक समानता भी तो थी, ये सब के सब इंसानियत और इंसान को भरपूर बनाने की ख्वाहिश से भरपूर थे। एक के पास बदलाव के लिए संगीत का सपना था, तो बाकियों के लिए क्रांति, रंगमंच और किताबों के हथियार और औजार थे। ये सब अब नहीं हैं, लेकिन उनकी आंखों में देखे सपने तो हम अपनी पुतलियों में सजा सकते हैं। शोक में डूबे रहकर मैं इस बारिश को दरकिनार करता रहा...पर अब उन सबके जाने की उदासियों पर परदा डालने के लिए निकलता हूं। कल ही गांव से ख़बर मिली है, पड़ोस में गाय ने बछिया दी है और चचेरे भाई के घर बेटा जन्मा है। सच, जीवन कभी नहीं थमता। दान सिंह ने भी तो सत्तर की उम्र में गजेंद्र श्रोत्रिय की फ़िल्म भोभर के गीत को संगीत से संवारा। उन्हें सही श्रद्धांजलि तो यही होगी कि हम जमकर भीगें और कोशिश करें...बुन सकें दान सिंह जैसा एक नग्मा, महेश की तरह का कोई नाटक, फागूराम जैसा एक क्रांति गीत गुनगुनाएं और बिरजू चाचा के यहां से उठाकर पढ़ लें एक अच्छी-सी क़िताब। ये सब अकेले नहीं होगा बिरादर। आप साथ आएंगे ना? *संप्रति : फीचर संपादक, दैनिक भास्कर मैगज़ीन डिवीज़न, जयपुर ** संलग्न - दान सिंह का चित्र, संगीतकार* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: DaanSingh.jpg Type: image/jpeg Size: 48412 bytes Desc: not available URL: From vineetdu at gmail.com Mon Jul 4 15:43:23 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 4 Jul 2011 15:43:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS24KSoIOCkleClhyDgpIngpKrgpLAg4KSP4KSVIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSW?= Message-ID: दीवान के साथियों पिछले सप्ताह राजस्थान से प्रकाशित डेली न्यूज ने दूरदर्शन की दशा-दिशा पर करीब हजार शब्दों में एक लेख लिखने कहा। मेरी अपनी समझ है कि निजी चैनलों को गरिआने के नाम पर हम दूरदर्शन को किसी भी हालत में क्लीन चिट नहीं दे सकते और हमारी कोशिश होनी चाहिए कि उसे नास्टॉल्जिक होने के बजाय क्रिटिकल होकर देखें। लेख के साथ कुछ लोगों के विचार अलग से अखबार ने शामिल किए हैं। लिहाजा इसकी पीडीएफ फाइल ही अटैच किए दे रहा हूं। पढ़कर प्रतिक्रिया दें। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: page1.pdf Type: application/pdf Size: 475079 bytes Desc: not available URL: From miyaamihir at gmail.com Tue Jul 5 22:29:27 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Tue, 5 Jul 2011 22:29:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Delhi Belly Message-ID: जिस तुलना से मैं अपनी बात शुरु करने जा रहा हूँ, इसके बाद कुछ दोस्त मुझे सूली पर चढ़ाने की भी तमन्ना रखें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा. फिर भी, पहले भी ऐसा करता रहा हूँ. फिर सही एक बार… सत्यजित राय की *’चारुलता’* के उस प्रसंग को हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में क्रांतिकारी कहा जाता है जहाँ नायिका चारुलता झूले पर बैठे स्वयं गुरुदेव का लिखा गीत गुनगुना रही हैं और उनकी नज़र लगातार नायक अमल पर बनी हुई है. सदा से व्यवस्था का पैरोकार रहा हिन्दुस्तानी सिनेमा भूमिकाओं का निर्धारण करने में हमेशा बड़ा सतर्क रहा है. ऐसे में यह ’भूमिकाओं का बदलाव’ उसके लिए बड़ी बात थी. ’चारुलता’ को आज भी भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. यह तब भी बड़ी बात थी, यह आज भी बड़ी बात है. अध्ययन तो इस बात के भी हुए हैं कि लता मंगेशकर की आवाज़ को सबसे महान स्त्री स्वर मान लिए जाने के पीछे कहीं उनकी आवाज़ का मान्य ’स्त्रियोचित खांचे’ में अच्छे से फ़िट होना भी एक कारण है. जहाँ ऊँचे कद की नायिकाओं के सामने नाचते बौने कद के नायकों को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी से बराबर कद पर लाया जाता हो, वहाँ सुष्मिता सेन का पीछे से आकर सलमान ख़ान को बांहों में भरना ही अपने आप में क्रांति है. बेशक *’देव डी’* के होते हम मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में पहली बार देखे गए इस ’भूमिकाओं में बदलाव’ का श्रेय *’डेल्ही बेली’* को नहीं दे सकते, लेकिन यौन-आनंद से जुड़े एक प्रसंग में स्त्री का ’भोक्ता’ की भूमिका में देखा जाना हिन्दी सिनेमा के लिए आज भी किसी क्रांति से कम नहीं. - ’देव डी’ में जब पहली बार हम सिनेमा के पर्दे पर इस ’भूमिकाओं के बदलाव’ को देखते हैं तो यह अपने आप में वक्तव्य है. ’डेल्ही बेली’ को इसके लिए ’देव डी’ का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वो उसके लिए रास्ता बनाती है. उसी के कांधे पर चढ़कर ’डेल्ही बेली’ इस प्रसंग को इतने कैज़ुअल तरीके से कह पाई है. हमारा सिनेमा आगे बढ़ रहा है और अब यह अपने आप में स्टेटमेंट भर नहीं रह गया, बल्कि अब कहानी इस दृश्य के माध्यम से दोनों किरदारों के बारे में, उनके आपसी रिश्ते के बारे में कुछ बातें कहने की कोशिश कर सकती है. - ठीक यही बात गालियों के बारे में है. यहाँ गालियाँ किसी स्टेटमेंट की तरह नहीं आई हैं. यही शब्द जिसे देकर ’डी के बोस’ इतना विवादों में है, जब गुलाल में आता है तो वो अपने आप में एक स्टेटमेंट है. लेकिन ’डेल्ही बेली’ में किरदार सामान्य रूप से गालियाँ देते हैं. लेकिन वहीं देते हैं जहाँ समझ में आती हैं. जैसे दो दोस्त आपस की बातचीत में गालियाँ देते हैं, लेकिन अपने माता-पिता के सामने बैठे नहीं. अब गालियाँ फ़िल्म में ’चमत्कार’ पैदा नहीं करतीं. और अगर करती भी हैं तो ज़रूरत उस दिशा में बढ़ने की है जहाँ उनका सारा ’चमत्कार’ खत्म हो जाए. विनीत ने कल फेसबुक पर बड़ी मार्के की बात लिखी थी, “मैं सिनेमा, गानों या किसी भी दूसरे माध्यमों में गालियों का समर्थन इसलिए करता हूं कि वो लगातार प्रयोग से अपने भीतर की छिपी अश्लीलता को खो दे, उसका कोई असर ही न रह जाए. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि महज एक गाली के दम पर कोई गाना या फिल्म करोड़ों की बिजनेस डील करे और पीआर, मीडिया एजेंसी इसके लिए लॉबिंग करे. ऐसी गालियां इतनी बेअसर हो जाए कि कल को कोई इसके दम पर बाजार खड़ी न कर सके.” ’डेल्ही बेली’ में गालियाँ ऐसे ही हैं जैसे कॉस्ट्यूम्स हैं, लोकेशन हैं. अपने परिवेश के अनुसार चुने हुए. असलियत के करीब. नाकाबिलेगौर हद तक सामान्य. - तमाम अन्य हिन्दी फ़िल्मों की तरह इसमें समलैंगिक लोगों का मज़ाक नहीं उड़ाया गया है, बल्कि उन लोगों का मज़ाक उड़ाया गया है जो किसी के समलैंगिक होने को असामान्य चीज़ की तरह देखते हैं, उसे गॉसिप की चीज़ मानते हैं. - सच कहा, हम यह फ़िल्म अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. लेकिन क्या यह सच नहीं कि नए बनते विश्व सिनेमा का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. न टेरेन्टीनो, न वॉन ट्रायर, न कितानो. अगर हिन्दी सिनेमा भी विश्व सिनेमा के उस वृहत दायरे का हिस्सा है जिसे हम सराहते हैं तो उसे भी वो आज़ादी दीजिए जो आज़ादी विश्व के अन्य देशों का सिनेमा देखते हुए उन्हें दी जाती है. माता-पिता नहीं, लेकिन ’डेल्ही बेली’ को अपनी महिला मित्र के साथ बैठकर बड़े आराम से देखा जा सकता है. क्योंकि यह फ़िल्म और कुछ भी हो, अधिकांश मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्मों की तरह ’एंटी-वुमन’ नहीं है. इस फ़िल्म में आई स्त्रियाँ जानती हैं कि उन्हें क्या चाहिए. वे उसे हासिल करने को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी या हिचक महसूस नहीं करतीं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे फ़िल्म की किसी ढलती सांझ में अपने पिछले किए पर पश्चाताप नहीं करतीं. - मुझे अजीब यह सुनकर लगा जब बहुत से दोस्तों की नैतिकता के धरातल पर यह फ़िल्म खरी नहीं उतरी. कई बार सिनेमा में गालियों के विरोधियों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि वे चाहकर भी गालियों से आगे नहीं देख पाते. अगर आप सिनेमा में ’नैतिकता’ की स्थापना को अच्छे सिनेमा का गुण मानते हैं (मैं नहीं मानता) तो फिर तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है. आप उसे पहचान क्यों नहीं पाए. गौर से देखिए, प्रेमचंद की किसी शुरुआती ’हृदय परिवर्तन’ वाली कहानी की तरह यहाँ भी कहानी का एक उप-प्रसंग एकदम वही नहीं है? एक किरायदार किराया देने से बचने के लिए अपने मकान-मालिक को ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. उसकी कुछ अनचाही तस्वीरें खींचता है और अनाम बनकर उससे पैसा मांगता है. तभी अचानक किसी अनहोनी के तहत खुद उसकी जान पर बन आती है. ऐसे में उसका वही मकान-मालिक आता है और उसकी जान बचाता है. ग्लानि से भरा किराएदार बार-बार शुक्रिया कहे जा रहा है और ऐसे में उसका मकान-मालिक जो उसके किए से अभी तक अनजान है उससे एक ही बात कहता है, “मेरी जगह तुम होते तो तुम भी यही नहीं करते?” किरायदार का हृदय परिवर्तन होता है और वो ब्लैकमेल करने वाला सारा कच्चा माल एक ’सॉरी नोट’ के साथ मकान-मालिक के लैटर-बॉक्स में डाल आता है. - लड़का इतने उच्च आदर्शों वाला है कि उनके लिए एक मॉडल का फ़ोटोशूट वाहियात है लेकिन किसी मृत व्यक्ति की लाश उन्हें शहर के किसी भी हिस्से में खींच ले जाती है. यह भी कि जब सवाल नायिका को बचाने का आता है तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बचाना है, पैसा रख लेना कहीं ऑप्शन ही नहीं है इन लड़कों के लिए. और यह तब जब उन्होंने अभी-अभी जाना है कि वही नायिका इस सारी मुसीबत की जड़ है. पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ दो जगह ऐसी है जहाँ फ़िल्म मुझे खटकती है. जहाँ उसका सौंदर्यबोध फ़िल्म के विचार का साथ छोड़ देता है. लेकिन सैकड़ों दृश्यों से मिलकर बनती फ़िल्म में सिर्फ़ दो ऐसे दृश्यों का होना मेरे ख्याल से मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए अच्छा ही कहा जाएगा. - फिर, नायक ऐसे उच्च आदर्शों वाला है कि एक लड़की के साथ होते दूसरी लड़की से चुम्बन खुद उसके लिए नैतिक रूप से गलत है. एक क्षण उसके चेहरे पर ’मैंने दोनों के साथ बेईमानी की’ वाला गिल्ट भी दिखता है और दूसरे क्षण वो किसी प्राश्च्यित के तहत दोनों के सामने ’सच का सामना’ करता है, यह जानते हुए भी कि इसका तुरंत प्रभाव दोनों को ही खो देने में छिपा है. - मैं एक ऐसे परिवार से आता हूँ जहाँ घर के बड़े सुबह नाश्ते की टेबल पर पहला सवाल यही पूछते हैं, “ठीक से निर्मल हुए कि नहीं?” कमल हासन की ’पुष्पक’ आज भी मेरे लिए हिन्दुस्तान में बनी सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्मों मे से एक है. क्यों न हम इसे उस अधूरी छूटी परंपरा में ही देखें. - गालियों से आगे निकलकर देखें कि कि कैसे सिर्फ़ एक दृश्य वर्तमान शहरी लैंडस्केप में तेज़ी से मृत्यु की ओर धकेली जा रही कला का माकूल प्रतीक बन जाता है. घर की चटकती छत में धंसा वो नृतकी का घुंघरू बंधा पैर सब कुछ कहता है. कला की मृत्यु, संवेदना की मृत्यु, तहज़ीब की राजधानी रहे शहर में एक समूचे सांस्कृतिक युग की मृत्यु. कथक की ताल पर थिरकते उन पैरों की थाप अब कोई नई प्रेम कहानी नहीं पैदा करती, अब वह अनचाहा शोर है. अब तो इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वो कथक है या फिर भरतनाट्यम. सितार को गिटार की तरह बजाया जाता है और उसमें से चिंगारियाँ निकलती हैं. - शुभ्रा गुप्ता ने बहुत सही कहा, ’डेल्ही बेली’ की भाषा ’हिंग्लिश’ नहीं है. ’हिंग्लिश’ अब एक पारिभाषिक शब्द है. ऐसी भाषा जिसमें एक ही वाक्य में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का घालमेल मिलता है. वरुण ने इसका बड़ा अच्छा उदाहरण दिया था कुछ दिन पहले, “बॉय और गर्ल घर से भागे. पेरेंट्स परेशान”. ’यूथ ओरिएंटेड’ कहलाए जाने वाले अखबारों जैसे नवभारत टाइम्स और आई नेक्स्ट के फ़ीचर पृष्ठों पर आप इस तरह की भाषा आसानी से पढ़ सकते हैं. इसके उलट ’डेल्ही बेली’ में भाषा को लेकर वह समझदारी है जिसकी बात हम पिछले कुछ समय से कर रहे हैं. यहाँ किरदार अपने परिवेश के अनुसार हिन्दी या अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे नायक आपस में हिन्दी में बात कर रहे हैं लेकिन उन्हें मारने आए गुंडो से हिन्दी में. जैसे नायिका अपने सहकर्मी से अंग्रेज़ी में बात कर रही है लेकिन पुरानी दिल्ली के जौहरी से हिन्दी में. उच्च-मध्यम वर्ग से आए पढ़े लिखे नायकों की गालियाँ आंग्ल भाषा में हैं लेकिन विजय राज की गालियाँ उसके किरदार के अनुसार शुद्ध देसी. कहानी का अंत उस प्रसंग से करना चाहूँगा जिसने मेरे मन में भी कई सवाल खड़े किए हैं. फ़िल्म की रिलीज़ के अगले ही दिन जब मेरे घरशहरी दोस्त रामकुमार ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि ’क्यों न हम खुलकर यह कहें कि ’डेल्ही बेली’ एक ’एंटी-वुमन’ फ़िल्म है’ तो मुझे यह बात खटकी. मैंने अपनी असहमति दर्ज करवाई. फिर मेरा ध्यान गया, वहीं नीचे उन्होंने वह संवाद उद्धृत किया था जिसके आधार पर वे इस नतीजे तक पहुँचे थे. मेरी याद्दाश्त के हिसाब से संवाद अधूरा उद्धृत किया गया था और अगर उसे पूरा उतारा जाता तो यह भ्रम न होता. मैंने यही बात नीचे टिप्पणी में लिख दी. अगले ही पल रामकुमार का फ़ोन आया. पहला सवाल उन्होंने पूछा, “मिहिर भाई, आपने फ़िल्म इंग्लिश में देखी या हिंदी में?” बेशक दिल्ली में होने के नाते मैंने फ़िल्म इंग्लिश में ही देखी थी. पेंच अब खुला था. हम दोनों अपनी जगह सही थे. जो संवाद मूल अंग्रेज़ी में बड़ा जनतांत्रिक था उसकी प्रकृति हिन्दी अनुवाद में बिल्कुल बदल गई थी और वो एक खांटी ’एंटी-वुमन’ संवाद लग रहा था. चेतावनी – आप चाहें तो आगे की कुछ पंक्तियाँ छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं. मैं बात समझाने के लिए आगे दोनों संवादों को उद्धृत कर रहा हूँ. (Ye shadi nahi ho sakti. because this girl given me a BJ and being a 21st century man I also given her oral pleasure.) (ये शादी नहीं हो सकती. क्योंकि इस लड़की ने मेरा चूसा है और बदले में मैंने भी इसकी ली है.) इसी ज़मीन से उपजे कुछ मूल सवाल हैं जिनके जवाब मैं खुले छोड़ता हूँ आगे आपकी तलाश के लिए… - क्या ऐसा इसलिए होता है कि सिनेमा बनाने वाले तमाम लोग अब अंग्रेज़ी में सोचते हैं और अंग्रेजी में लिखे गए संवादों को ’आम जनता’ के उपयुक्त बनाने का काम कुछ अगंभीर और भाषा का रत्ती भर भी ज्ञान न रखने वाले सहायकों पर छोड़ दिया जाता है? क्या हमें सच में ऐसे असंवेदनशील अनुवादों की आवश्यकता है? - या यह एक सोची समझी चाल है. हिन्दी पट्टी के दर्शकों को लेकर सिनेमा ने एक ख़ास सोच बना ली है और ठीक वैसे जैसे ’इंडिया टुडे’ एक ही कवर स्टोरी का सुरुचिपूर्ण मुख्य पृष्ठ हिन्दी के पाठकों की ’सौंदर्याभिरुचि’ को देखते हुए बदल देती है, यह भी जान-समझ कर की गई गड़बड़ी है? यह मानकर कि हिन्दी का दर्शक बाहर चाहे कितनी गाली दे, भीतर ऐसे संवाद को इस बदले अंदाज़ में ही पसन्द करेगा? यह दृष्टि फ़िल्म के उन प्रोमो से भी सिद्ध होती है जहाँ इस संवाद को हमेशा आधा ही उद्धृत किया गया है. - क्या हमारी वर्तमान हिन्दी भाषा में वो अभिव्यक्ति ही नहीं है जिसके द्वारा हम ऊपर उद्धृत वाक्य के दूसरे हिस्से का ठीक हिन्दी अनुवाद कर पाएं? भाषा का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए आखिरी सवाल सबसे डरावना है. मैं चाहता हूँ कि कहीं से कोई आचार्य ह़ज़ारीप्रसाद द्विवेदी का शिष्य फिर निकलकर सामने आए और मुझे झूठा साबित कर दे. फिर कोई सुचरिता बाणभट्ट को याद दिलाए, “मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मंदिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?” -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Jul 6 20:27:32 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 6 Jul 2011 20:27:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS24KSo4KSDIOCkuOCkvuCkruCkvuCknOCkv+CklSDgpLU=?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KS+4KS4IOCkleCkviDgpK7gpL7gpKfgpY3gpK/gpK4g4KSv?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClgeCkluCljOCkn+Ckvj8=?= Message-ID: साल 2009 में दूरदर्शन ने अपने पचास साल होने पर दि गोल्डन ट्रायल, डीडी@50 नाम से एक फिल्म का प्रसारण किया। उस फिल्म में दूरदर्शन ने पिछले दस-बारह साल की एक भी फुटेज या कार्यक्रम का जिक्र नहीं किया। कहने को तो वो दूरदर्शन के पचास साल के सफर पर बनी फिल्म थी लेकिन वह 2000 पहले तक आकर सिमट गयी। इसका एक मतलब तो यह है कि फिल्म निर्माता ने इस तरफ बहुत मेहनत नहीं की लेकिन दूसरा यह भी निकाला जा सकता है कि खुद दूरदर्शन को नहीं लगा कि उसने पिछले दस सालों में ऐसे कुछ कार्यक्रमों का प्रसारण किया है जिसका कि पचास साल होने के मौके पर जिक्र किया जा सके। फेसबुक पर दूरदर्शन के चर्चित चेहरे और कार्यक्रमों को याद करते हुए एट दि एज नाम से एक पेज बनाया गया है। इस पेज में भी एक भी ऐसे एंकर या समाचारवाचक की तस्वीर नहीं है जो कि पिछले दस-बारह साल के हों या अभी कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हों। कुल मिलाकर दूरदर्शन और उसके प्रति संवेदनशील लोग इसे जिस रुप में भी याद करते हों,इसकी उपलब्धियों को हमारे सामने पेश करने की कोशिश करते हों,उसमें इधर दस-बारह साल की गतिविधियां और कार्यक्रम गायब है। यह वह महत्वपूर्ण दौर है जहां 360 से भी ज्यादा टेलीविजन चैनलों की मौजूदगी है और उनके बीच दूरदर्शन की भूमिका को रेखांकित किया जाना है। ऐसे में जरुरी सवाल है कि क्या साल 2000 के बाद के दूरदर्शन की गतिविधियों को पूरी तरह गायब करके सिर्फ अस्सी के दशक के कार्यक्रमों को नास्टॉल्जिक तरीके से याद करके इस पर मुक्कम्बल बातचीत की जा सकती है? दूसरी तरफ,अगर आप पिछले दो-तीन साल की उन खबरों पर गौर करें जिसमें प्रसार भारती के साथ-साथ दूरदर्शन का जिक्र आया तो उनमें से अधिकांश खबरें इस बात की तरफ ईशारा करती है कि इसके भीतर भारी गड़बड़ियां फैली है। प्रसार भारती के सीइओ बी एस लाली के निलंबन की खबरों के साथ यह बात खुलकर सामने आयी कि दूरदर्शन के भीतर बैठे अधिकारी निजी चैनलों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों की अनदेखी करके अनुबंध तैयार करते हैं। इसके बदले में उन्हें कमीशन तो मिल जाती है लेकिन दूरदर्शन को भारी नुकसान होता है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भी जब इसे हाइ डेफीनेशन के तहत लाने की बात चली तो उसमें भी भारी वित्तीय अनियमितताओं का मामला सामने आया। इतना ही नहीं,दूरदर्शन जो कि वित्तीय घाटे का पर्याय बन चुका है,इस दौरान कोशिश की गयी कि इस खेल से इस घाटे को पूरा किया जाए और तब विज्ञापनों के ऐसे दबाव के बीच इसने प्रसारण शुरु किया कि दर्शकों को अपने ही देश के स्वर्ण पदक जीतनेवाले खिलाड़ी की फुटेज नसीब नहीं हुई। इस तरह एक केस स्टडीज के तौर पर अगर आप दूरदर्शन को देखें तो एक स्थिति बार-बार सामने आएगी कि दूरदर्शन ने शुरु से ही,हमलोग जैसे टीवी सीरियल से लेकर शांति,स्वाभिमान से लेकर अब तक के कार्यक्रमों का प्रसारण का वास्तविक उद्देश्य या तो मुनाफा कमाना रहा या फिर घाटे की भरपाई करनी रही लेकिन उसे सामाजिक विकास के मुखौटे के तहत प्रसारित करता रहा। हमलोग से परिवार नियोजन पर कितना असर पड़ा,इसके आंकड़े न तो हमारे पास है और न ही दूरदर्शन की तरफ से कोई सर्वे किया गया लेकिन आज घर-घर में मैगी नूडल्स की पहुंच बन गयी। शांति और स्वाभिमान जैसे हायपर पारिवारिक राजनीतिक सीरियल को दूरदर्शन ने इसलिए जारी रखा कि उससे उसे डेढ़ से दो लाख रुपये के विज्ञापन मिलते रहे। दूरदर्शन ने सामाजिक विकास और जागरुकता के एजेंड़े को देश के विकास की एक धुरी के तौर पर अपनाने के बजाय उस मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जिससे कि उस पर किसी भी तरह की उंगली न उठायी जा सके। उसे आसानी से दर्शक पचा सकें और दूसरी तरफ प्रायोजक मिलते रहें। और इन सबसे बड़ी बात कि इसके भीतर ही भीतर आर्थिक ढांचे खड़ी होती रहे और जब-जब इस मोर्चे पर विफल हो जाएं, पल्ला झाड़कर खड़े हो जाएं कि दूरदर्शन का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं,सामाजिक जागरुकता का प्रसार करना है। वैधानिक तौर पर प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अन्तर्गत काम करनेवाले ऐसे दूरदर्शन को फिर भी सरकारी सहयोग मिल जाते हैं, प्रसारण नीति और शर्तें ऐसी है कि निजी नेटवर्क और वितरण के विस्तार के बावजूद इसकी मौजूदगी अनिवार्य है लेकिन आज दूरदर्शन से कोई नहीं पूछनेवाला है कि आप जो प्रसारित कर रहे हो,उसका असर कितना है? ऐसे में न तो वह पूरी तरह बाजार और विज्ञापन के दबाव से मुक्त हो पाया है, न ही सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के चगुंल से पूरी तरह मुक्त हो पाया है और न ही निजी चैनल कr चिल्ल-पों,टीआरपी की मार-काट और उन्मुक्त संस्कृति के नाम पर फूहड़पन और अश्लीलता के बरक्स एक बेहतर विकल्प के तौर पर अपने को स्थापित कर पाया है। दूरदर्शन इसी मोर्चे पर सबसे पराजित चैनल है। तटस्थ खबरें और कार्यक्रम के नाम पर बौद्धिक स्तर का आलस्य और मौजूदा सरकार के प्रति मुंह जोहने की मजबूरी के बीच भला ये कैसे संभव है कि दर्शक उसे एक बेहतरीन चैनल के तौर पर प्रस्तावित करे। दूरदर्शन की ओर से जो भी दस्तावेज जारी किए जाते हैं उसमें इसकी पहुंच 90 फीसदी से भी ज्यादा बतायी जाती है लेकिन उसने कभी भी ऐसा कोई सर्वे नहीं कराया जिसमें यह बता सके कि कितने ऐसे लोग हैं जहां निजी चैनलों के विकल्प रहने पर भी दूरदर्शन देखते हैं? मुझे यकीन है कि अगर ऐसे सर्वे कराए जाते हैं तो दूरदर्शन को भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा और उसे इस बात का फर्क समझ आएगा कि नीतियों के दबाव में आकर निजी नेटवर्क,केबल ऑपरेटर और डिश टीवी कंपनियां भले ही दूरदर्शन को दर्शकों के सामने प्राथमिकता के तहत पहुंचा देती है लेकिन खुद दर्शक उसे नकार दे रहे हैं। निजी चैनलों के अभाव में दूरदर्शन को भले ही देखा जा रहा हो लेकिन उसके होने पर भी अगर वो दर्शकों की पसंद का हिस्सा नहीं है तो दूरदर्शन को अपने होने के महत्व पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। सामाजिक विकास का माध्यम कहलाने की जो सुविधा दूरदर्शन ने ले रखी है,उसे अगर वह अपने भीतर की तमाम तरह की गड़बड़ियों और दृष्टि की नासमझी को ढंकने के तौर पर इस्तेमाल करता है तो अफसोस है कि वह आनेवाले समय में निजी चैनलों के बीच एक लाचार और अप्रासंगिक चैनल के तौर पर दब कर रह जाएगा और तब पचहतर या सौ साल होने पर भी दूरदर्शन उसी तरह अस्सी और नब्बे के दशक के कार्यक्रमों को ही अपनी बनायी फिल्मों में शामिल करेगा और आगे के तीस-चालीस साल का इतिहास गायब रहेगा। यह जरुरी और गंभीर मसला है कि अब दूरद्शन को नास्टॉल्जिया के बजाय क्रिटिकल होकर विश्लेषित करने का काम हो। *दलीलः-* ये लेख मूलतः डॉ दुष्यंत के न्योते पर डेली न्यूज,जयपुर के लिखा जिसे कि अखबार ने हमलोग की कवर स्टोरी के तौर पर 3 जुलाई को प्रकाशित किया। अखबार ने इसका शीर्षक बदलकर दूर हुए कि दर्शन दुर्लभ हुए नाम से प्रकाशित किया। यहां अपने ब्लॉग पर मैंने वही शीर्षक दिया है क्योंकि ये शीर्षक होने के साथ-साथ उन तमाम लोगों से सवाल भी है जो निजी टेलीविजन चैनलों को गरिआने के नाम पर दूरदर्शन को क्लिन चिट देने का काम करते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Jul 7 12:17:54 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 7 Jul 2011 12:17:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSh4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkteClh+CksuClgOCkgyDgpJzgpLngpL7gpIIg4KS44KWHIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSh4KSy4KWN4KSfIOCkleClgCDgpLXgpL/gpK3gpL7gpJzgpKgg4KSw?= =?utf-8?b?4KWH4KSW4KS+IOCkrOCljeCksuCksCDgpLngpYvgpKTgpYAg4KS54KWI?= Message-ID: फिल्म डेल्‍ही बेली आमिर खान के गैरजरूरी गुरूर की सिनेमाई अभिव्यक्ति है। बाजार की जबरदस्त सफलता ने उनके भीतर ये अंध भरोसा पैदा कर दिया है कि वो प्रयोग के नाम पर चाहे जो भी कर लें, दिखा दें, उन्हें पटकनी नहीं मिलनी है। उनका ये भरोसा अपनी जगह पर बिल्कुल सही भी है क्योंकि जब तक प्रोमोशन, मीडिया सपोर्ट, पीआर और डिस्ट्रीब्यूशन के स्तर पर उनका ढांचा कमजोर नहीं होता, आगे डेल्‍ही बेली जैसी फिल्मों से पुरानी शोहरत की कमाई तो खाते ही रहेंगे। हां, ये जरूर है कि इस फिल्म से ऑडिएंस की ओर से ये कहने की शुरुआत हो गयी कि आमिर खान में अब वो बात नहीं रही, वो भी बाजार की नब्ज समझकर सिनेमा का धंधेबाज हो गया है। आमिर खान के लिए इस जार्गन का प्रयोग अगर आनेवाली दो-तीन फिल्मों के लिए होता रहा और बाजार, मीडिया, पीआर के अलावा ऑडिएंस की पसंद-नापसंद की भी कोई सत्ता बचती है, तो आमिर खान का सितारा गर्दिश में ही समझिए। *वेब सिनेमा, नोएडा से निकलकर* जब मैं अपने घर के लिए चला तो रास्तेभर सोचता रहा कि इस फिल्म पर इसी की भाषा में समीक्षा लिखी जानी चाहिए। मसलन लोडू आमिर खान ने झांटू टाइप की फिल्म बनाकर देश की ऑडिएंस को चूतिया बनाने का काम किया है। थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, लगान जैसी फिल्में बनानेवाला भोंसड़ी के ऐसी फिल्में बनाने लग जाएगा… ओफ्फ, उम्मीद नहीं थी। फिर ध्यान आया कि जिस तरह आमिर खान ने ए सर्टिफिकेट लेकर और टेलीविजन पर खुलेआम (इसे भी प्रोमोशन का ही हिस्सा मानें) कहकर कि ये फिल्म बच्चों के लिए नहीं है, वैधानिक तौर पर अपने को सुरक्षित करते हुए भी मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में एडल्ट और सामान्य फिल्म के बीच की विभाजन रेखा को खत्म या नहीं तो ब्लर ही करने की कोशिश की है, वही काम हम आलोचना की दुनिया में नहीं कर सकते। आलोचना के लिए कोई ए सर्टिफिकेट जैसी चीज नहीं होती है। आमिर खान ने इस वैधानिक सुविधा का बहुत ही कनिंग (धूर्त) तरीके से इस्तेमाल किया है। *ये बात इसलिए* रेखांकित की जाने लायक है क्योंकि उनके और प्रोडक्शन हाउस के लाख घोषित किये जाने के वावजूद इस फिल्म को लेकर वो धारणा नहीं बन पाती है जो कि घाघरे में धूमधाम, हसीन रातें, कच्ची कली जैसी फिल्मों को लेकर बनती है। फिर दर्जनभर एफएम चैनल और उससे कई गुना न्यूज चैनल्स इसकी प्रोमो से लेकर कार्यक्रम में कसीदे पढ़ने में लगे हों तो वो ऑडिएंस को एडल्ट होने की वजह से नहीं देखने के बजाय और पैंपर करती है, उकसाती है कि वो अपनी भाषा में एडल्ट फिल्म देखें। नहीं तो उसने मेरा चूसा है, मैंने उसकी ली है, गदहे जब रिक्शे की लेते हैं तो ऐसी गाड़ी पैदा होती है जैसे प्रयोग तो अंतर्वासना डॉट कॉम में भी इतने धड़ल्ले से प्रयोग में नहीं आते। यही कारण है कि जिन एडल्ट फिल्मों को जाकर देखने में अभी भी खुले और बिंदास लोगों के पैर ठिठकते हैं, लड़कियां तमाम तरह की सुरक्षा के बावजूद एडल्ट और पोर्न फिल्में सिनेमाघरों में जाकर नहीं देखती, डेल्‍ही बेली में उनकी संख्या अच्छी-खासी होती है, बल्कि वो कपल में होकर इसे एनजॉय कर रहे होते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इस फिल्म को लेकर सबसे ज्यादा ऑडिएंस को लेकर बात होनी चाहिए। बच्चों को अगर इस फिल्म से माइनस भी कर दें तो देखनेवालों की संख्या में कितना फर्क पड़ता है, इस पर बात हो। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि अधिकांश फिल्में इस तर्क पर बनती है कि बच्चों को टार्गेट करो, पैरेंट्स अपने आप चले आएंगे। ये फिल्म उससे ठीक विपरीत स्ट्रैटजी पर काम करती है। *इस लिहाज से देखें* तो ये फिल्म एक नये किस्म की शैली या ट्रेंड को पैदा करने का काम करेगी। बच्चों को बतौर ऑडिएंस माइनस करके भी बिजनेस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, तो ए सर्टिफिकेट के तहत ऐसी फिल्मों की लॉट सामने आने लगेगी जिनकी ऑडिएंस लगभग वही होगी जो बागवान, कभी खुशी कभी गम, इश्किया, दबंग जैसी फिल्में देखती आयी है। जबरदस्त मार-काट के बीच ये आमिर खान की नयी मार्केट की खोज है, जिसने कभी इस बात पर बहुत गौर नहीं किया कि इससे आगे चलकर सिनेमा की शक्ल कैसी होगी? माफ कीजिएगा, मैं इस फिल्म को लेकर किसी भी तरह की असहमति इसलिए व्यक्त नहीं कर रहा कि इसमें गालियों का खुलकर प्रयोग किया गया है या फिर एडल्ट फिल्मों से भी ज्यादा वल्गर लगे हैं। मैं इस बात को लेकर असहमत हूं कि जो आमिर खान बहुतत ही पेचीदा और संश्लिष्ट विषयों को बहुत ही बारीकी से समझते हुए, उसे खूबसूरती के साथ फिल्माता आया है, वो गालियों का समाजशास्त्र समझने में, उसके पीछे के मनोविज्ञान को छू पाने में बुरी तरह असमर्थ नजर आता है। ये इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है और यहीं पर आकर मिस्टर परफेक्शनिस्ट बुरी तरह पिट जाते हैं। गालियों का अत्यधिक प्रयोग और हर लाइन के साथ चूतिये न तो अश्लीलता पैदा करता है और न ही स्‍वाभाविक माहौल ही निर्मित करता है बल्कि बुरी तरह इरीटेट करता है। हम जैसे लोग जो कि दिन-रात गालियों से घिरे होते हैं, अक्सर सुनते हुए और कई बार देते हुए… उन्हें भी खीज होती है – ऐसा थोड़े ही न होता है यार कि हर लाइन के पीछे हर कैरेक्टर चूतिया बोले ही बोले। ये स्वाभाविक लगने के बजाय डिकोरम का हिस्सा लगने लग जाता है कि हर लाइन में इसे बोलना ही बोलना है। दरअसल इस फिल्म में जो गालियों का प्रयोग है, वो समाज के बीच जीनेवाले चरित्रों और जिन परिस्थितियों में उनका प्रयोग करते हैं, उनके ऑब्जर्वेशन के बाद शामिल नहीं की गयी है बल्कि ऐसा लगता है कि एमटीवी, चैनल वी और यूटीवी बिंदास पर टीआरपी के दबाव में जैसे तमाम प्रतिभागियों को गाली देने और चैनल की तरफ से अधूरी पर बीप लगाने के लिए ट्रेंड किया जाता है, उन कार्यक्रमों और फुटेज को देखकर स्ट्रैटजी बनायी गयी कि चरित्र इस तरह से गालियां देंगे। यही कारण है कि जिन गालियों को हम दिन में पचास बार सुनते हैं, उसे जब हम इस फिल्म में सुनते हैं तो लगता है इसकी यहां जरूरत नहीं थी। जो इन चैनलों की रेगुलर ऑडिएंस हैं, उनके मुंह से शायद निकल भी रहे होंगे – चूतियों ने हमें चूतिया बनाने की कोशिश की है, भोंसड़ी के एक बार तो देख लिये इस चक्कर में, अगली बार अपने ही हाथ से अपनी ही मारनी होगी, देख लियो अगली बार वीकएंड में ही पिट जाएगी फिल्म। *गालियों के मनोविज्ञान पर* आमिर खान को जबरदस्त मेहनत करने की जरूरत थी लेकिन उन्होंने इसे जस्ट फॉर फन या जुबान के बदचलन हो जाने के स्तर पर इस्तेमाल किया। गाली देते हुए किसी भी चरित्र में वो तनाव, चेहरे पर वो भाव नहीं दिखता है, जो कि आमतौर पर हम देते वक्त एक्सप्रेस करते हैं। ये कई बार असहाय और बिल्कुल ही कमजोर शख्स की तरफ से मजबूत के लिए किया जानेवाला प्रतिरोध भी होता है लेकिन वो यहां तक नहीं पहुंच पाते। एक सवाल मन में बार-बार उठता है कि जब गालियों को इसी रूप में प्रयोग करना था तो तीनों के तीनों चरित्रों को मीडिया क्षेत्र से चुने जाने की क्या अनिवार्यता थी? कहीं इससे ये साबित करने की कोशिश तो नहीं कि मीडिया के लोग ही इस तरह खुलेआम गालियां बकते हैं। अगर इसका विस्तार वो समाज के दूसरे तबके और फैटर्निटी के लोगों तक कर पाते तब लगता कि ये दिल्ली या यूथ की जीवनशैली में स्वाभाविक रूप से धंसा हुआ है। ऐसे में ये आमिर खान की नीयत पर भी शक पैदा करता है। हां, मीडिया के लोगों और बहुत ही कम समय के लिए उसके एम्बीएंस को इस्तेमाल करके आमिर खान ने एक अच्छी बात स्थापित करने की कोशिश की है कि अब ये बहुत ही कैजुअल तरीके से लिया जानेवाला पेशा हो गया है। मीडिया को करप्ट और विलेन साबित करने के लिए लगभग आधी दर्जन फिल्में बन चुकी है लेकिन इस फिल्म में मीडियाकर्मी के कैजुअल होने को बारीकी से दिखाया गया है। हां, ये जरूर है कि इन तीनों मीडियाकर्मियों को जिस परिवेश में रहते दिखाया गया है और जिस तरह गरीब साबित करने की कोशिश की गयी है, वो फिल्म की जरूरत से कहीं ज्यादा मन की बदमाशी या चूक है। *मल्टीनेशनल कंपनी में* काम करनेवाले कार्टूनिस्ट, फोटो जर्नलिस्ट और पत्रकार आर्थिक मोर्चे पर इतना लचर होगा कि किराया देने तक के पैसे नहीं होंगे और वैसी झंटियल सी जगह में रहेंगे, हजम नहीं होता। फोटो जर्नलिस्ट लैम्रेटा स्कूटर से चलता है। कोई आमिर खान को बताये कि दिल्ली में कितनी साल पुरानी गाड़ी चल सकती है, इसके लिए भी कानूनी प्रावधान है। पुरानी दिल्ली के कभी भी धंसनेवाले घर और छत को तो उन्होंने खोजकर बड़ा ही खूबसूरत माहौल पा लिया लेकिन पुराने परिवेश में जीनेवाले कार्पोरेट पत्रकारों की जिंदगी घुसा पाने में कई झोल साफ दिख जाते हैं। इधर तीन-चार साल से हिंदी सिनेमा ने मीडियाकर्मियों को जिन ग्लैमरस परिस्थितियों में दिखाया है, अचानक से ऐसा देखना विश्वसनीय नहीं लगता। फिर गरीब मां या मजबूर घर के हालात न दिखाकर टिपिकल इंडियन सिनेमा का लेबल लगने से बचने के लिए जो जुगत भिड़ायी गयी है, वो तमाम तरह की स्मार्टनेस के बावजूद कहानी का मिसिंग हिस्सा जान पड़ता है। और आखिरी बात… *आमिर खान ने आइटम सांग के नाम पर* न्यूज चैनलों और मीडिया कवरेज में जो सोसा फैलाया, अगर सिनेमाघरों में हम जैसी ऑडिएंस के बीच होते तो सिर पटक लेते। जब उनका आइटम सांग शुरू होता है, आडिएंस उठकर जाने लगती है, उनमें इतनी भी पेशेंस नहीं होती कि वो रुक कर 377 मार्का आमिर खान को देख ले। इसे कहते हैं मुंह भी जलाना और भात भी न खाना। आमिर खान का आइटम सांग डीजे में कितना बजेगा, नहीं मालूम लेकिन फिलहाल इसे ऑडिएंस ने एक फालतू आइटम की तरह बुरी तरह नकार दिया या फिर टीवी, एफएम पर देख-सुनकर पक चुकी हो। फिल्म देखकर बाहर निकलने पर शायद मेरी तरह आपका भी मन कचोटता हो – हिंदी सिनेमा में स्त्रियां दबाने के लिए ही लायी जाती हैं, चाहे कोई भी बनाये। बाकी बनाये तो परिवार, समाज और अधिकार के स्तर पर दबाने के लिए और आमिर खान फिल्म बनाये तो उनके बूब्स दबाने के लिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From bhupens at gmail.com Thu Jul 7 10:53:17 2011 From: bhupens at gmail.com (bhupen singh) Date: Thu, 7 Jul 2011 10:53:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KWL4KSCIOCkleClhyDgpJbgpLzgpL/gpLLgpL7gpKs=?= =?utf-8?b?4KS8IOCkruCkvuCksuCkv+CkleCli+CkgiDgpJXgpL4g4KSc4KWH4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIQ==?= Message-ID: भूपेन सिंह अख़बार कर्मियों की तनख़्वाह निर्धारित करने के लिए बने छठे वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को मालिक लॉबी किसी हालत में लागू नहीं होने देना चाहती. अख़बार मालिकों की संस्था इंडियन न्यूज़ पेपर्स सोसायटी (आइएनएस) जस्टिस मजीठिया कमेटी की रिपोर्ट का मखौल उड़ाने में जुटी है. अपने कुतर्कों को सही ठहराने के लिए उसने अख़बारों में लेख छापकर और विज्ञापन देकर सरकार पर दबाव बनाने की मुहिम छेड़ी हुई है. इस दुष्प्रचार में मालिक अपनी मुनाफ़ाखोरी को छुपाने के लिए फ्री प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे शब्दों की आड़ ले रहे हैं. ऐसे हालात में मालिकों के मनमानेपन और पैसे की ताक़त के आगे बचे-खुचे पत्रकार संगठन भी अप्रासंगिक नज़र आ रहे हैं. भारतीय समाचार माध्यमों के विस्तार और अंधाधुंध व्यवसायीकरण ने कई चुनौतियां खड़ी की हैं. बाज़ार की मार की वजह से ख़बरें सनसनी में बदल गईं. प्राइवेट ट्रीटी, मीडिया नेट, क्रॉस मीडिया ऑनरशिप, पेड न्यूज़ और राडिया कांड जैसी बीमारियों ने इसकी विश्वसनीयता को कम किया. देशभर के अख़बारों और पत्रिकाओं के मालिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले आईएनएस ने इन घटनाओं पर कभी एक भी शब्द बोलना उचित नहीं समझा. लेकिन जैसे ही कर्मचारियों को न्यायसंगत वेतन देने की बात आई तो उसने वेज बोर्ड के ख़िलाफ़ बेशर्मी से प्रोपेगेंडा करना शुरू कर दिया . जैसे, पत्रकारों और बाक़ी श्रमिकों को अगर अधिकार मिलने लगेंगे तो इससे भारतीय पत्रकारिता का सत्यानाश हो जाएगा! ऐसा करते हुए आईएनएस भूल गया कि वो भारतीय मीडिया उद्योग के विकास के दावे करते नहीं थकता. फ़िक्की-केपीएमजी (2011) की रिपोर्ट भी कहती है भारतीय मीडिया में हर साल चौदह फ़ीसदी की दर से वृद्धि हो रही है. मीडिया ‘उद्योग’ लगातार मुनाफ़े में चल रहा है. अख़बारों में छपे आईएनएस के विज्ञापन सौ-प्रतिशत झूठ के अलावा और कुछ नहीं हैं. इकोनोमिक टाइम्स में सोलह जून को प्रकाशित एक विज्ञापन कहता है- वेज बोर्ड.... बाइंग लॉयलिटी ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (वेज बोर्ड....पत्रकारों के ईमान की ख़रीद ) इस विज्ञापन में आगे बताया गया है कि वेज बोर्ड एक अलोकतांत्रिक संस्था है जिसका उपयोग सरकार पत्रकारों को अपने पक्ष में करने के लिए कर रही है. इस विज्ञापन में दावा किया गया है कि सरकार अगर पत्रकारों की तनख़्वाह का निर्धारण करने लगेगी तो वे अपने काम को निष्पक्ष तरीक़े से नहीं कर पाएंगे. ये भी सवाल उठाया गया है कि जब रेडियो, टीवी, इंटरनेट या बाक़ी उद्योगों के लिए वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें लागू नहीं की जाती हैं तो सिर्फ़ प्रिट मीडिया के लिए ही इन सिफ़ारिशों को क्यों लागू किया जा रहा हैं ? इस विज्ञापन का मकसद साफ़ है कि जैसे बाक़ी क्षेत्रों में श्रम कानूनों की अनदेखी की जा रही है वैसे ही समाचार मीडिया में भी की जाए. उन्नीस सौ छप्पन से ही पत्रकारों के लिए वेजबोर्ड बनता रहा है. तब भी बाक़ी क्षेत्रों में (इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़कर) वेज बोर्ड कभी बन नही पाया. ज़रूरत इस बात की है कि वेज बोर्ड में सभी तरह के पत्रकारों को शामिल किया जाए, चाहे वे टीवी में हों, रेडियो में हों या वेब में. मीडिया ही नहीं बाक़ी क्षेत्रों में भी श्रम का मूल्य निर्धारित किया जाए इसमें ग़लत क्या है? जब पहला वेज बोर्ड बना तो सरकार का यही तर्क था कि अख़बारों में श्रमिक संगठन मज़बूत नहीं हैं इसलिए उनके पास मोलभाव की क्षमता (बार्गेनिंग पावर) नहीं है इसलिए वेज बोर्ड बनाया गया. नेशनल वेज बोर्ड फ़ॉर जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूज पेपर एम्पलॉइज के परिचय में यही सारी बातें अब तक लिखी हुई हैं. आज के हालात को अगर देखा जाए तो श्रमिक अधिकारों के मामले में हालत कई गुना बदतर हो चुके हैं. ऐसे में अगर सरकार पर दबाव नहीं रहेगा तो वो निश्चित तौर पर मालिकों के पक्ष में ही फ़ैसला लेगी. नब्बे के दशक की शुरुआत में उदारीकरण की नीतियां अपनाने के बाद उद्योगपतियों को हर तरह की छूट मिलती रही है और श्रमिक अधिकारों में लगातार कटौती की जाती है. अख़बारों में भी धीरे-धीरे पत्रकार संगठन ख़त्म होते चले गए. मालिकों ने उन्हें एक तरह से अनैतिक घोषित करने का अभियान चलाया और उसमें कामयाबी हासिल की, परिणामस्वरूप मालिकों पर पत्रकारों का कोई दबाव नहीं रहा. ठेके पर भर्तियां शुरू हुई. हायर एंड फ़ायर सिस्टम लागू हो गया. पत्रकारों को हमेशा असुरक्षा में रखा गया ताक़ि वो नौकरी बचाने में जुटे रहें और मालिकों की मनमानी के ख़िलाफ़ न बोल पाएं. आज बड़े-बड़े महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकार जानते हैं कि उनके काम के घंटे और छुट्टियां तक तय नहीं हैं. अधिकार मांगने पर उन्हें सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. इस वजह से आम तौर पर पत्रकारिता में लंबे समय तक सिर्फ़ वही लोग टिक पाते हैं जो भयानक तरीक़े से मजबूर हैं या फिर चापलूसी में मज़ा लेने लगे हैं. अच्छे और पढ़े-लिखे लोगों का पत्रकारिता में बचे रहना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसा विशालकाय समूह अपने मुनाफ़े के तमाम दावों के बावजूद अपने कर्मचारियों को सही तनख़्वाह देने के पक्ष में नहीं है. इस अख़बार ने वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ जून महीने के पहले पख़वाड़े में चार लेख छपवाए. मीडिया रिसर्चर वनीता कोहली खांडेकर के मुताबिक़ दो हज़ार आठ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह यानी बैनेट एंड कोलमैन कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) का सालाना टर्नओवर चार हज़ार दो सौ बयासी करोड़ रुपए था. शेयर मार्केट में लिस्टेड कंपनी न होने की वजह से इसके ताज़ा और वास्तविक आंकड़े पाना थोड़ा मुश्किल है. तब इसका शुद्ध मुनाफ़ा एक हज़ार तीन सौ अठाईस करोड़ रुपए था. अख़बार दावा करता है कि उसका मुनाफ़ा साल दर साल बढ़ रहा है. तो क्या इस मुनाफ़े में वहा काम करने वाले श्रमिकों का कोई हक़ नहीं ? ये अख़बार इससे पहले वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें मानता रहा है. लेकिन अब पत्रकार संगठन के प्रभावी न होने से इसने भी मनमानी की छूट ले ली है. ये इस बात की बानगीभर है कि लोकतंत्र का तथाकथित चौथा स्तंभ आज पूरी तरह उद्योग में बदल गया है. इसलिए अकूत मुनाफ़ा कमाने के बाद भी वो श्रम बेचने वालों को इतना भी पैसा नहीं देना चाहता कि वे आसानी से अपना घर चला पाएं. बीस जून को इकोनोमिक टाइम्स में ही दिए एक विज्ञापन में आइएनएस सवाल उठाता है कि कैन योर न्यूज़ पेपर सर्वाइव इफ़ इट इज फोर्स्ड टू पे अप टू फोर्टी फ़ाइव थाउजेंड पर मंथ टू अ पियन एंड फ़िफ्टी थाउजेंड पर मंथ टू अ ड्राइवर? (जब एक चपरासी को पैंतालीस हज़ार और ड्राइवर को पचास हज़ार सालाना तनख़्वाह देने का दबाव होगा तो क्या आपका अख़बार बच पाएगा?) इस तरह के शीर्षक वाला विज्ञापन चालाकी और धूर्तता का जीता-जागता नमूना है. वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए होती हैं. विज्ञापन में चपरासी और ड्राइवर को लेकर विज्ञापनदाताओं की हिकारत साफ़ देखी जा सकती है. विज्ञापन के नीचे बहुत छोटे अक्षरों में लिखा गया है कि यह शर्त सिर्फ़ एक हज़ार करोड़ सालाना के कारोबार वाले अख़बारों पर ही लागू हो सकती है. फिलहाल सिर्फ़ दो ही विज्ञापनों का जिक्र काफ़ी है लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि आईएनएस ने इस तरह के विज्ञापनों की पूरी सीरीज प्रकाशित करवाई है, जो हर तरह से वेज बोर्ड को ग़लत ठहराती है. आइएनएस के विज्ञापनों में चपरासी और ड्राइवर की जिस संभावित तनख़्वाह की बात कर लोगों की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश कर रहा है. उसमें मालिकों की कुटिलता भरी हुई है. वे बड़ी संख्या में इस श्रेणी के कर्मचारियों को आउटसोर्स कर रहे हैं. सारे श्रमिक नियमों को ताक पर रखकर उन्हें ढाई से पांच हज़ार रुपए तक ही दिया जाता है. इस तरह निजीकरण की मार सबसे कमज़ोर व्यक्ति पर ही पड़नी है जो हमेशा मालिकों की आंख की किरकिरी बना रहता है. हर कर्मचारी को जॉब सिक्योरिटी के साथ ही उचित वेतन क्यों नहीं मिलना चाहिए? चपरासी और ड्राइवर की तनख़्वाह पैंतालीस और पचास हज़ार तक होने की ‘आशंका’ व्यक्त की जा रही है, पहली बात तो वो टटपुंजिया कंपनियों पर लागू नहीं होना है. दूसरा एक हज़ार करोड़ रुपए सालाना के टर्नओवर वाली कंपनियों में भी उस ख़ास कर्मचारी को सारी सुविधाएं जोड़कर उतना पैसा मिल सकता है जिसने पूरी उम्र अख़बार में बिता दी हो और वो रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच चुका हो. विज्ञापनों के अलावा मालिकों ने अख़बारों में भी वेजबोर्ड को लेकर इकतरफ़ा ख़बरें प्रचारित करनी शुरू की हैं. दो जून को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सीईओ रवि धारीवाल ने अपने अख़बार में मीडिया पर निशाना (मजलिंग द मीडिया) नाम से एक लेख लिखा. इसमें वे यही बताने की कोशिश करते हैं कि वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें गैर संवैधानिक और लोकतंत्र विरोधी हैं. नौ जून को आईएनएस के अध्यक्ष कुंदन व्यास ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में फ्यूचर ऑफ़ प्रेस एट स्टेक? (क्या प्रेस का भविष्य दांव पर है?) शीर्षक से एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने वेज बोर्ड को प्रेस के भविष्य के लिए ख़तरनाक करार दिया. इंडिया टुडे ग्रुप के सीईओ आशीष बग्गा ने भी इंडिया टुडे में लिखा, हाव टू किल प्रिंट मीडिया? (प्रिंट मीडिया को कैसे ख़त्म करें?) नाम से लेख लिखा है. वहीं हिंदुस्तान टाइम्स पंद्रह जून को ख़बर लगाता है वेज बोर्ड आउटडेटेड-एक्सपर्ट (वेज बोर्ड बीते जमाने की चीज है-विशेषज्ञ) इन सारी प्रायोजित विचारों को देखकर एक बार फिर इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि निजी मीडिया में मालिक का पक्ष कितना ताक़तवर होता है. वो पूरी कोशिश कर रहा है कि मजीठिया कमेटी की सिफ़ारिशें लागू न होने पाएं. आनंद बाज़ार पत्रिका समूह की तरफ़ से पहले ही मजीठिया कमेटी की सिफ़ारिशों को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई है. याचिका में वेज बोर्ड को गैर संवैधानिक और ग़ैर क़ानूनी घोषित करने की मांग की गई है. आईएनएस के आक्रामक प्रचार के सामने पत्रकार संगठनों की कार्रवाई बिल्कुल नगण्य लग रही है. इन हालात में वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों का लागू होना आसान नहीं है. पत्रकारों और मालिकों की इस लड़ाई में फिलहाल सरकार तमाशबीन की भूमिका में है. अंदरखाने मालिकों के सांठ-गांठ जारी है लेकिन सार्वजनिक तौर पर पत्रकारों का पक्ष लेने का दिखावा भी जारी है. अगर ऐसा नहीं होता तो मुनाफ़े पर टिके मीडिया उद्योग को लेकर अब तक उसने नियमन की ठोस व्यवस्था कर ली होती. निजी मीडिया घराने नियमन की बात पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ लेते हुए अब तक बच निकलने में कामयाब रहे हैं. यह सवाल उठाने का वक़्त है कि क्या मीडिया मालिकों की मुनाफ़ा कमाने की आज़ादी अभिव्यक्ति की आज़ादी है या पत्रकार के निर्भीक और निष्पक्ष होकर ख़बर दे पाने की बात अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़ी है? इस पूरी लड़ाई में पत्रकार सबसे बड़ा पक्षकार है लेकिन उदारीकरण के इस दौर में उसके पास अपनी आवाज़ को दमदार तरीक़े से उठाने के सारे फोरम लगभग ख़त्म हो गए हैं. नेशनल वेज बोर्ड में श्रमजीवी पत्रकारों के साथ मालिकों का भी बराबर का प्रतिनिधित्व है. बोर्ड के कुल दस सदस्यों में से तीन श्रमजीवी पत्रकार तो तीन मालिकों के प्रतिनिधि हैं. बाक़ी चार स्वतंत्र व्यक्ति होते हैं, जिनकी नियुक्ति सरकार पर निर्भर करती है. बोर्ड के बाक़ी सदस्यों का कहना है कि रिपोर्ट तैयार करने में मालिकों के प्रतिनिधि भी उनके साथ पूरी तरह शामिल थे लेकिन अंतिम वक़्त पर वे धोखा दे गए. मजीठिया बोर्ड की सिफ़ारिशों से मालिकों की लॉबी सिर्फ़ इसलिए बौखलाई हुई है कि वो श्रमिकों के पक्ष में न्यायसंगत और तार्किक बातें करती है, जिससे पत्रकारों की आत्मनिर्भरता तुलनात्मक रूप से बढ़ सकती है और वे अपनी जिम्मेदारियों को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से निभा सकते हैं. अगर ऐसा हो पाया तो वे मालिकों के मनमानेपन पर सवाल उठाने की हिम्मत भी कर सकते हैं. मालिक यही नहीं चाहते. सरकार पर पत्रकारों के पक्ष में वेज बोर्ड बनाने का आरोप लगाने वाले मालिक इस बात को भूल रहे हैं कि उन्होंने पत्रकारों को गुलाम बनाकर रखा है, उन्हें कोई अधिकार देने की उनकी इच्छा नहीं है. मजीठिया बोर्ड के मुताबिक़ पत्रकारों और ग़ैरपत्रकारों के लिए जो सिफ़ारिश की है. उसके बाद उनकी बेसिक तनख़्वाह में ढाई से तीन गुना तक की बढ़ोतरी हो सकती है. रिटायर होने की उम्र साठ से बढ़कर पैंसठ हो जाएगी. सरकार इन सिफ़ारिशों को मान लेती है तो इऩ्हें आठ जनवरी दो हज़ार आठ से लागू माना जाएगा. एक ठीक-ठाक संस्थान में काम करने वाले पत्रकार को शुरुआती स्तर पर कम से कम नौ हज़ार और वरिष्ठ होने पर कम से कम पचीस हज़ार रुपए मिलेंगे. इसके साथ मकान का किराया और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं देने का भी प्रावधान है. देखा जाए तो वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें भी पूरी तरह अख़बार के कर्मचारियों के साथ न्याय नहीं करती. उनमें अभी बहुत कुछ और जोड़े जाने की ज़रूरत है लेकिन अख़बार मालिक दी गई मांगों को भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसा नहीं कि सरकार श्रमिक नियमों का सख्ती से पालन कराना चाहती है. उदारीकरण के दौर में श्रम नियमों को उसने किस तरह तिलांजलि दी है ये किसी से छिपा नहीं. ये तो उसकी मज़बूरी है कि भारतीय लोकतंत्र में कुछ समाजवादी रुझान वाली चीज़ें संस्थागत रूप ले चुकी हैं जिन से मुंह मोड़ पाना सरकार के लिए अब भी आसान नहीं है. अख़बारों के पत्रकारों और कर्मचारियों के लिए बना वेज बोर्ड उसी श्रेणी में आता है. ये बोर्ड तब अस्तित्व में आया जब बाक़ी संचार माध्यमों का विकास नहीं हुआ था. सरकार की अगर सदइच्छा होती तो वो वक़्त बदलने के साथ टेलीविजन, रेडियो और वेब के भी सारे पत्रकारों और कर्मचारियों को वेज बोर्ड में शामिल कर लेती या सभी क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए वेज बोर्ड बना लेती. मतलब साफ़ है कि अतीत से चली आ रही संस्थागत परंपराओं को पूरी तरह त्यागने में सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं इतना वो भी जानती है. ये कुछ ऐसा ही है जैसे सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने की पूरी इच्छा के बाद भी जन विरोध की वजह से उन्हें वो अब तक निजी हाथों के हवाले नहीं कर पाई है. पत्रकारों और बाक़ी अख़बारी कर्मचारियों के लिए बने वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें जिन उलझनों में फंसी है उससे लगता नहीं है कि ये सिफ़ारिशें आसानी से लागू हो पाएंगी. सिर्फ़ पत्रकारों की एकता ही उद्योगपतियों और सरकार से अपने अधिकार छीन सकती है. इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है. फिलहाल पत्रकार संगठनों की हालत देखकर लगता नहीं कि वे कोई बड़ी पहल लेने में सक्षम हैं. राष्ट्रीय स्तर पर आज जितने भी संगठन काम कर रहे हैं वे सिर्फ़ कुछ प्रभावशाली लोगों की निजी संस्थाएं बनकर रह गई हैं. उनके नेता अपनी कुर्सी बचाने के लिए ही सालभर जोड़तोड़ में लगे रहते हैं. श्रमजीवी पत्रकारों के हितों से उन्हें ज़्यादा कुछ लेना-देना नहीं है. ट्रेड यूनियन का नाम सिर्फ़ कुछ सरकारी कमेटियों में पहुंचने और विदेश घूमने का माध्यमभर बनकर रह गया है. श्रमिकों की बात करने वाली कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टियों की भी इस दिशा में कोई पहलकदमी नहीं दिखाई देती. कुछ-एक पार्टियों की पत्रकार संगठनों में प्रभावशाली हिस्सेदारी है भी तो वहां भी पार्टीगत संकीर्णता/दंभ और नौकरशाही ज़्यादा हावी है. हर मीडिया घराने/यूनिट में पत्रकार संगठन की अनिवार्य मौज़ूदगी ही मालिकों के बेलगाम फ़ैसलों पर कुछ रोक लगा सकती है. इसके लिए उनका श्रमिक आंदोलनों के राजनीतिक इतिहास से जागरूक होना भी ज़रूरी है. वरना विकल्पहीनता छाई रहेगी! (समयांतर के जुलाई अंक में प्रकाशित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From editormediamorcha at gmail.com Fri Jul 8 11:03:37 2011 From: editormediamorcha at gmail.com (media morcha) Date: Fri, 8 Jul 2011 11:03:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_pl_read_?= =?utf-8?b?4KSV4KWH4KSC4KSm4KWN4KSwIOCkuOCksOCkleCkvuCksCDgpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSc4KWAIOCkj+Ckq+Ckj+CkriDgpKjgpYjgpJ/gpLXgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KSVIOCkleClhyDgpLXgpL/gpLjgpY3gpKTgpL7gpLAg4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkruCkguCknOClguCksOClgCDgpKbgpYAgb24gd3d3Lm1lZGlhbW9y?= =?utf-8?b?Y2hhLmNvLmlu?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on July 7 2011 Read more... केंद्र सरकार ने निजी एफएम नैटवर्क के विस्तार को मंजूरी दी [image: केंद्र सरकार ने निजी एफएम नैटवर्क के विस्तार को मंजूरी दी] खबर / केंद्र सरकार ने देश में निजी एफएम नैटवर्क के विस्तार को मंजूरी दी है । आज नई दिल्ली में प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में यह फैसला किया गया। बैठक के बाद संवाददाताओं को यह जानकारी देते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने कहा कि ... 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Posted on July 4 2011 Read more... पत्रकार रंजन कुमार सिंह की पुस्तक सरहद ज़ीरो मील सम्मानित [image: पत्रकार रंजन कुमार सिंह की पुस्तक सरहद ज़ीरो मील सम्मानित] खबर / वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रंजन कुमार सिंह को उनकी पुस्तक सरहद ज़ीरो मील के लिए रक्षा मंत्रालय ने तृतीय पुरस्कार से सम्मानित किया है। उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 2005-07 के लिए हिन्दी में रक्षा संबंधी मौलिक पुस्तक लेखन पर दिया है। हाल ही में दिल्ली के साउथ ब्लाक में आयोजित एक सादे समारोह ... Posted on July 2 2011 Read more... मीडिया विमर्श का उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित अंक प्रकाशित [image: मीडिया विमर्श का उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित अंक प्रकाशित] पुस्तक चर्चा / जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का ताजा अंक (जून,2011) उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित है। इस अंक में देश के प्रख्यात उर्दू पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के आलेख हैं। अंक के अतिथि संपादक जाने-माने उर्दू पत्रकार श्री तहसीन मुनव्वर हैं। इस अंक ... Posted on July 1 2011 Read more... पत्रकारों के वेतन बोर्ड पर प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया [image: पत्रकारों के वेतन बोर्ड पर प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया] खबर / प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भरोसा दिलाया है कि पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित वेतन बोर्ड की सिफारिशों पर वह अपने कर्तव्य का निर्वाह करेंगे। वेतन बोर्ड की सिफारिशों में हो रही देरी को लेकर समाचार पत्र और संवाद समिति कर्मचारियों के प्रतिनिधि आज प्रधानमंत्री से मिले और इसे अधिसूचित करने के ... Posted on June 29 2011 Read more... क्या हिन्दी अखबारों को सम्पादक की जरूरत है ? [image: क्या हिन्दी अखबारों को सम्पादक की जरूरत है ?] अजु‍र्न राठौर / मुद्दा /सम्पादक की दम तोड़ती हुई परम्परा के मद्देनजर यह सवाल उठाना बेहद जरूरी हो गया है कि क्या हिन्दी अखबारों को सम्पादक की जरूरत है ? और सम्पादक से आशय पत्रकारिता की समझ रखने वाले लोगों से है ना कि मैनेजमेंट वालों से । एक समय था जब हिन्दी पत्रकारिता अपने ... Posted on June 28 2011 Read more... एक पहलू को नजरंदाज कर रहा मीडिया [image: एक पहलू को नजरंदाज कर रहा मीडिया] मुद्दा/ अरुण लाल/ इधर मायावती के राज को जंगल राज बताने की कवायद में मीडिया इस कदर जुटा हुआ है की लगातार पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहें हैं। कुछ महान लेखकों ने तो मायावती के राज को अफगानिस्तान की अराजकता से जोड़ दिया है ... लगातार बताया जा रहा है कि उत्तर ... Posted on June 27 2011 Read more... मगर खबरें अभी और भी हैं…! [image: मगर खबरें अभी और भी हैं…!] एसपी सिंह पर विशेष / निरंजन परिहार/ वह शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया। और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे चौदह साल हो गए। एसपी सिंह ... Posted on June 26 2011 Read more... दलित साहित्य और समाज के लिए अपूर्णीय क्षति [image: दलित साहित्य और समाज के लिए अपूर्णीय क्षति] खबर / पहली दलित महिला आत्मकथा ’दोहरा अभिशाप’ लिखने वाली सुप्रसिद्ध दलित लेखिका कौशल्या बैसंत्री का दिनांक २४.०६.११ को परिनिर्वाण हो गया । इस दुखद खबर पर दलित लेखक संघ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देता है । और उनके शोकाकुल परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त करता है । इस दुखद घटना पर दलित लेखक संघ के ... -- www.mediamorcha.co.in -- www.mediamorcha.co.in -- www.mediamorcha.co.in -- mediamorcha www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Fri Jul 8 15:03:26 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Fri, 8 Jul 2011 02:33:26 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FUEL Newsletter 2011Q2 Issue 2 Message-ID: <1310117606.17717.YahooMailClassic@web121714.mail.ne1.yahoo.com> Content - Collaboration - Consistency Y2011Q2 # / issue 2 More than two years on! 11 languages  are with FUEL. Till now, FUEL had already organised 8 languages workshops for evaluating terminology. Released the beta of  'Computer Translation Style and Convention Guide for Hindi.' A lot more to do. Initiated by Red Hat, the project got supports and contributions from several languages communities and various organizations like CDAC GIST, Indlinux, Sarai, CDAC Chennai, Acharya Nagarjuna University, A. N. Sinha Institute of Socail Studies, Maithili Academy, Gujarati Lexicon, Infineon Infotech, NRCFOSS, SICSR, Gnunify, Sahit Academy, PLUG, SMC, to name a few. PixCourtsey: Wikipedia FUEL Welcomes Assamese! The community involved in the localization of Assamese has decided to go with FUEL. For more details about Assamese @ FUEL please visit FUEL Assamese page. Thanks to the community for supporting FUEL. Neelam Goswami has come forward to coordinate the activity related to FUEL terminology. Tukaram Says* आम्हां घरी धन शब्दांचीच शब्दांचीच शस्त्रें यत्न करूं शब्द चि आमुच्या जीवाचें जीवन शब्दें वांटूं धन जनलोकां। Words are the only jewels I possess, Words are the only clothes I wear, Words are the only food that sustains my life, Words are the only wealth I distribute among people. *            *Translated by Dilip Chitre A review group within the community for FUEL consisting of Malayalam experts from different fields by Ani Peter Malayalam FUEL Project is a very good initiative to standardise the translated terms which are used on desktops and various computer applications. This helps the users to understand and use the same translations across all applications on a desktop. Malayalam translations are often done by technically qualified people who are proficient in both English and Malayalam. To make it more effective, we have introduced the localized desktop to the common people or users to get their feedback. Swathantra Malayalam Computing (SMC), the active open source Malayalam Community, has formed a review group within the community consisting of lecturers from various colleges and universities in Kerala and other Malayalam experts. Malayalam FUEL project is taken care of by SMC along with Zyxware Technologies, Thiruvananthapuram. LATEST Pix Courtsey: Wikipedia FUEL Mobile Mobile is fast becoming the most important medium of communication and so we have prepared the FUEL Mobile module. It is beta. We will try to conduct public review for this FUEL Mobile module. The entries are selected from popular mobiles. The entries selcted are on the basis of popularity and used frequently by mobile user. This module is Prepared by Amanpreet Singh and Jaswinder Singh. FUEL Mobile :    POT ; TXT FUEL: Upcoming * FUEL Web This will be a new module under FUEL contains entries from applications like CMS, Blog, Social Networking Sites etc. We will release it soon. * Style Guides We are communicating with communities of various languages to work on Style Guides. We expect to add three-four languages style guides under FUEL. We have already released such Guide for Hindi: Computer Translation Style and Convetion Guide for Hindi * Translation Assesment Trasnlation assessement is one major area where very little work happened so far particularly in the field of open source. So we are eager to work in this field and so staretd discussing with some people. Interested people want to work on this area can mail us on fuel-discuss at lists.fedorahosted.org Downloads: FUEL Terminology FUEL Gujarati ods pdf po FUEL Hindi ods pdf po FUEL Maithili ods pdf po FUEL Malayalam ods pdfpo FUEL Marathi ods pdf po FUEL Punjabi ods pdf po FUEL Tamil ods pdf po FUEL Telugu ods pdf po FUEL Style and Convention Guide p { margin-bottom: 0.21cm; }a:link { color: rgb(0, 0, 128); text-decoration: underline; } Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta) odt, pdf FUEL @ Press • FUEL Project -- for localisation • Move to standardise Malayalam terms in computer programs • FUEL Punjabi Meet • FUEL: An initiative in language standardization via collaboration FUEL @ Blogs • A look into FUEL • Frequently Used Entries for Localization (FUEL) • लीजिए पेश है अपनी तरह की पहली 'हिंदी तकनीकी अनुवाद स्टाइल गाइड' • कम्प्युटरसं मैथिली जोडबाक प्रयास • FUEL Gujarati Workshop collaborated with Red Hat     For more press coverage and blogs please visit News & Views            © FUEL Project Email:  fuel-discuss at lists.fedorahosted.org irc @ Freenode: #fuel-discuss FUEL @ Facebook and Twitter regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Jul 8 23:04:49 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 8 Jul 2011 23:04:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KWA4KSqIOCkuOCljOCksOCkrSDgpKbgpY3gpLXgpL7gpLDgpL4g4KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSW4KWAIOCkl+Ckr+ClgCDgpJXgpL/gpKjgpY3gpKjgpLDgpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClhyDgpJzgpYDgpLXgpKgg4KSq4KSwIOCkhuCkp+Ckvg==?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSkIOCkleClg+CkpOCkvyAn4KSk4KWA4KS44KSw4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSy4KWAJy4uLg==?= Message-ID: *तीसरी ताली'* प्रदीप सौरभ द्वारा लिखी गयी किन्नरों के जीवन पर आधारित कृति 'तीसरी ताली' को पाठकों और मीडिया ने बड़े जोर शोर से सराहा. कुछ प्रतिक्रियाओं को हम आपके समक्ष उपस्थित कर रहे हैं...यदि 'तीसरी ताली' आपने भी पढ़ी हो तो हमें जरूर बताएं कि आपको यह किताब कैसी लगी. : http://vaniprakashanblog.blogspot.com/2011/07/blog-post.html?spref=fb -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Jul 9 08:15:30 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 9 Jul 2011 08:15:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSq4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruCkpOCksuCkrC3gpJzgpL7gpJfgpYsg4KSX4KWN4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KS54KSVIOCknOCkvuCkl+Cliw==?= Message-ID: टेलीविजन पर जिस तरह से नकली और गलत सामान के फेर में न पड़ने के लिए जागो ग्राहक जागो नाम से तेजी से अभियान चल रहे हैं,ठीक उसी तरह इमोशनल अत्याचार जैसे कार्यक्रम हैं जो इस बात से आगाह करते हैं कि कहीं आप प्यार और रिलेशनशिप के नाम पर झूठे,मतलबी और नकली संबंधों की गिरफ्त में तो नहीं हैं? आप जिससे प्यार करते हैं,कहीं वो आपके साथ धोखा तो नहीं कर रहा? अगर ऐसा है तो उसके साथ आगे जिंदगी बिताने का फैसला करने से ज्यादा जरुरी है कि उसकी लॉयल्टी टेस्ट करायी जाए। शुक्र है कि अभी तक जागो ग्राहक जागो की तरह ऐसे शो ने प्रेमी और प्रेमिका में आइएसआइ के निशान देखने की बात नहीं कही है। जो टेलीविजन अपने शुरुआती दौर से प्यार पर पहरेदारी बिठानेवाले लोगों को आधार बनाकर कार्यक्रम पेश करता रहा,प्यार करनेवालों के पक्ष में सामाजिक बंदिशों के विरोध में अपनी बात कही,आज उसे लग रहा है कि ये पहरेदारी पहले के मुकाबले थोड़ी ढीली पड़ी है,शहरों में ही सही सामाजिक स्थितियों और लोगों की सोच के बदलने से लड़के-लड़की के बीच की दोस्ती और प्यार एक हद तक स्वाभाविक माना जाने लगा है। ऐसे में अगर सामाजिक पहरेदारी पर ही कार्यक्रम पेश करते रह गए तो संभव है कि टेलीविजन की दूकानदारी बहुत जल्द ही बंद हो जाएगी। लिहाजा उसे जरुरी लगा कि प्यार करनेवालों के बीच ही सेंधमारी की जाए। इसलिए अब टेलीविजन, इस प्यार में समाज और नाते-रिश्तेदारों की असहमति से विरोध करने के बजाय इस बात को लेकर चिंतित है कि आप जिससे प्यार कर रहे हैं,वो लंबे वक्त तक आपके साथ होगा/होगी भी कि नहीं या फिर वो रिलेशनशिप के नाम पर आपके साथ चीट तो नहीं कर रहा, इमोशनल अत्याचार के मुकेश की गर्लफ्रैंड की तरह आपकी भी गर्लफ्रैंड सिर्फ खर्चा चलाने और टाइमपास के लिए आपके साथ होने का नाटक तो नहीं कर रही। आपका ब्ऑयफ्रैंड आपको सिर्फ अपनी सफलता के लिए सपोर्ट सिस्टम की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहा? यह सब करते हुए हर एपीसोड में वह लड़के या लड़की में से किसी एक को विलेन साबित कर कर देता है। उपरी तौर पर देखें तो ऐसा करके यह शो उन तमाम लोगों के लिए आंख-कान खोलने का काम करता है,जो हायली प्रोफेशनल दुनिया में जीते हुए भी अभी भी प्यार अंधा होता है के फार्मूले पर रिलेशनशिप में आना चाहते हैं जहां अपने पार्टनर की सारी कमियों को एक समय तक नजरअंदाज करते हैं लेकिन जब उनसे परेशानी होती है तो आपसी समझदारी के तहत निबटाने के बजाय टेलीविजन को संरपंच की भूमिका निभाने का मौका देते हैं। यहा सवाल है कि क्या टेलीविजन को आपसी संबंधों के बीच इतनी स्पेस दी जानी चाहिए कि उस आधार पर हम अपने फैसले लेने लगें? सोशल रिस्पांसिबिलिटी के एजेंडे पर शुरु किया गया टेलीविजन अपने इस एजेंडे से जमाने पहले दूर हो गया है,सिर्फ और सिर्फ अधिक से अधिक टीआरपी और उसके दम पर विज्ञापन ही इसकी स्ट्रैटजी है लेकिन दर्शकों के लिए गार्जियन बने रहने की इसकी आदत और खुद दर्शकों को इसे गार्जियन मानने की लाचारी अभी तक बरकरार है। नहीं तो जिस टेलीविजन की खबरों पर आपका भरोसा नहीं रहा,वही टेलीविजन आपके व्ऑयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड की लॉयल्टी पर शक करता है,उसे आप कैसे मान लेते हैं और दिन-रात सामाजिक खुलेपन के नाम पर अश्लीलता और फूहड़पन परोसनेवाले टेलीविजन में यह नैतिकता कहां से आ जाती है कि वो हमारी-आपकी लायल्टी टेस्ट कर सके? मुकेश ने अपनी गर्लफ्रैंड की फुटेज देखकर कहा- ये सचमुच लड़की के नाम पर कलंक है? सास-बहू सीरियलों के मेलोड्रामा और असल जिंदगी के दो लोगों को इस तरह पेश किए जाने पर फिर फर्क कहां है? अपनी रिलेशनशिप और प्यार की बात साझा करके कहीं ऐसा तो नहीं कि जो टेलीविजन हमें एक तमाशबीन समाज का हिस्सा बनाना चाहता है,हम उसके लिए अपने को परोस दे रहे हैं? हम अगर सचमुच चाहते हैं कि हमारी रिलेशनशिप में अगर कहीं से दरार आ रही है तो इसकी पूरी केसस्टडी टेलीविजन के हाथों से इस उम्मीद से सौंपने से कि सब अच्छा हो जाएगा,एक बार गंभीरता से विचार करने की जरुरत है? ऐसे शो को लेकर अगर यह अफवाहें ही हैं तो ज्यादा बेहतर है कि सबकुछ प्लांटेड होते हैं,लोग अपनी पब्लिसिटी के लिए वहां जाते हैं और चैनल को रियलिटी शो के मुफ्त में मसाले मिल जाते हैं। इससे कम से कम कुछ लोगों का तो टेलीविजन के जरिए करिअर बन जा रहा है और दर्शक इसे बस टाइमपास का हिस्सा मानकर देख ले रहे हैं। नहीं तो अगर ऐसे शो रिलेशनशिप के नाम पर सावधानी बरतने का ढोल पीट रहे हैं तो यकीन मानिए ये प्यार करनेवाले लोगों को शक्की और एक हद तक साइकी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ऐसा किए जाने से प्यार जो कि सामाजिक जड़ मान्यताओं,रीति-रिवाजों,जाति-प्रथा का प्रतिरोध करते हुए ज्यादा प्रोग्रेसिव सोसाइटी बनाने में मददगार साबित होते हैं,एक संवेदशील समाज बनाने की दिशा में करते हैं, यह उसकी गति कुंद करने का काम करता है।..और इस तरह कहानी वहीं घूम-फिरकर आ जाती है कि प्यार के प्रति समाज में पहले से कहीं अधिक घृणा पैदा की जाए जिसमें इसके नाम पर टेलीविजन की दूकान तो चलती रहे लेकिन सामाजिक तौर पर इसके विरोध का माहौल बना रहे। प्रेम जब समाज के खुलेपन और प्रोग्रेसिव वैल्यू का हिस्सा बनने लग जाता है तो टेलीविजन उसके आगे दुश्मन की तरह खड़ा हो जाता है। आज वही काम इस शो के जरिए हो रहा है। संभव है प्यार में धोखा होता है,किसी के पार्टनर कई बार वफादार नहीं हो सकते लेकिन प्यार में सब के सब दगाबाज,चालू,मतलबी और मक्कार ही होते,ऐसा मानना और इस धारणा का प्रसार करना गलत है। प्रेम करनेवालों का आंख खोलने के नाम पर ऐसे शो यही काम करते हैं।..और तब आपको अंदाजा लगता है कि आज का टेलीविजन प्रेम के मामले में पहले से कहीं ज्यादा जड़ और रुढ़िवादी हो गया है। जिन कविता और कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने को प्रेम के प्रति मानसिक रुप से तैयार करते हैं,ऐसे शो के एपीसोड आपको इसके प्रति बुरी तरह डराते हैं,फोबिया पैदा करते हैं। प्रेम,रोमांस,डेटिंग और शादी के नाम पर करोड़ों की दूकान चलानेवाले ऐसे टेलीविजन पर यदि प्रेम को लेकर इतनी निगेटिव समझ है तो वो दर्शकों के लिए कितना लॉयल रह जाता है? हम जैसे दर्शक तो चाहेंगे कि हमारी रिलेशनशिप की लॉयल्टी टेस्ट होने के पहले ऐसे टेलीविजन शो की ही लॉयल्टी टेस्ट हो जाए ताकि पार्टनर से भरोसा उठ जाने पर भी इसकी गोद में सिर रखकर बिसूरने का विकल्प बचा रहे।. मूलतः प्रकाशित- आइनेक्सट, 1 जुलाई 2011 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Sat Jul 9 11:12:58 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 9 Jul 2011 05:42:58 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Tribute_to_Mani_Ka?= =?utf-8?q?ul?= Message-ID: <20110709054258.18028.qmail@f5mail-224-152.rediffmail.com> My tribute to legendary film maker and Guru Mani kaul published in Jansatta today ( July 9, 2011) under 'poetry on celluloid'. परदे पर कविता पिछले साल मानसून में मैं पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एफटीआईआई) में फिल्म एप्रीसिएशन पाठयक्रम की पढ़ाई कर रहा था. इस संस्थान ने पिछले साल ही अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे किए. एफटीआईआई की यात्रा और भारतीय सिनेमा में उसके योगदान को लेकर मैंने एक लेख लिखो था और इसी सिलसिले में मणि कौल को मैंने फोन किया था. उन्होंने कहा कि ‘मैं आ ही रहा हूँ वहीं बैठ कर बात कर लेंगे.’ पाठ्यक्रम के आखिरी दिन मणि कौल ने अपना व्याख्यान दिया था. मैं उनके हंसमुख व्यक्तित्व और मजाकिया लहजे से परिचित था. ‘ओसियान’ फिल्म समारोह के दौरान दिल्ली में उनसे गाहे-बगाहे मुलाकात हो जाती थी. बीते कुछ वर्षों से वे दिल्ली ही रह रहे थे और ओसियान से जुड़े थे. व्याख्यान के दौरान जब एप्रीसिशन पाठयक्रम के संयोजक सुरेश छाबरिया ने उनका परिचय कराते हुए कहा कि ‘मणि हमारे समय के सबसे बेहतरीन फिल्म निर्देशक हैं’ तो कई सहपाठियों ने विस्मय से रूप से उनकी ओर देखा था. हमारी पीढ़ी जिसने नब्बे के दौरान होश संभाला, मणि कौल और उनकी फिल्मों को नहीं जानती. लेकिन मणि कौल एक निर्देशक के साथ-साथ सिनेमा के कुशल शिक्षक भी थे. व्याख्यान के दौरान उन्होंने बताया कि ‘सिनेमा ध्वनि और बिंब का कुशल संयोजन होता है और उसे उसी रूप में पढ़ना चाहिए.’ पढ़ाई के दौरान में हमें उनकी बहुचर्चित फिल्म ‘सिद्धेश्वरी’ दिखाई गई थी. फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म की भूमिका बांधते हुए उन्होंने अपने परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा था कि ‘अगर कुछ चीजें समझ में नहीं आए तो ज्यादा दिमाग मत लगाइएगा यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है.’ लेकिन ‘सिद्देश्वरी’ देखते हुए ऐसे लगा कि हम एक लंबी कविता को परदे पर पढ़ रहे हैं. दरअसल, मणि कौल खुद के बारे में बेहद मजाकिया लहजे में बात करते थे. दर्शकों के बीच अपनी फिल्म के पहुँच को लेकर उन्होंने हमें एक वाकया सुनाया था. चर्चित अभिनेता राज कुमार उनके चाचा थे. एक फिल्म पार्टी के दौरान उन्होंने आवाज देकर मणि कौल को बुलाया और कहा, ‘जानी, मैंने सुना है कि तुमने फिल्म बनाई है..उसकी रोटी. क्या है यह? रोटी के ऊपर फिल्म! और वह भी उसकी रोटी? तुम मेरे साथ आ जाओ हम मिल कर अपनी फिल्म बनाएँगे- अपना हलवा.” बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘मैं हिंदी में ही सोचता और लिखता हूँ.’ उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन, दुविधा, सतह से उठता आदमी और दीवार में एक खिड़की रहती थी’ हिंदी की चर्चित कृतियाँ है. मणि कौल ने हिंदी साहित्य की इन कृतियों को आधार बना कर फिल्म रची और इन्हें एक नया आयाम दिया. मुंबइया फिल्मों के कितने फिल्मकार आज हिंदी में सोचते और रचते हैं? मणि कौल को संगीत की गहरी समझ थी. उन्होंने डागर बंधुओं से विधिवत संगीत सीखा था और जिसकी परिणति ‘धुप्रद’ फिल्म में सामने आई. मणि कौल ने माना था कि उन्हें फिल्म बनाने में वित्तीय संकट से जूझना पड़ रहा हैं. पर सृजनात्मकता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अंतिम दिनों में वे विनोद कुमार शुक्ल की कृति ‘खिलेगा तो देखेंगे’ को सिनेमाई भाषा में रच रहे थे. वर्ष 1969 में महज 25 वर्ष की उम्र में मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर इसी नाम से फिल्म बना कर उन्होंने हिंदी फिल्मों को ‘पापुलर सिनेमा’ से बाहर निकाल कर ‘समांतर सिनेमा’ का एक नया रास्ता दिखाया था. वर्ष 1964-65 में ऋत्विक घटक उप प्राचार्य के रूप में एफटीआईआई नियुक्त हुए थे और एक पूरी पीढ़ी को सिनेमा की नई भाषा से रू-ब-रू करवाया. मणि कौल ऋत्विक घटक के शिष्य थे. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने बताया कि मणि कौल घटक के सबसे ज्यादा करीब थे. अपने गुरु ऋत्विक घटक के प्रति मणि कौल बेहद कृतज्ञ थे. उनका कहना था “मैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नवयथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.” अक्सर ऋत्विक घटक की फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. मणि कौल का कहना था कि वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए. घटक की तरह ही हम उनके योग्य शिष्य मणि कौल की फिल्मों को उनके जीते जी समझ नहीं पाए. समांतर सिनेमा को दुरूह और अबूझ कह कर खारिज करने की कोशिश की जाती रही है. हालांकि उन्होंने कहा था कि ‘वर्तमान में जब अनुराग कश्यप और इम्तियाज अली जैसे निर्देशक मुझे फोन कर के कहते हैं कि मेरी फिल्मों से उन्हें काफी सीख मिलती है तो काफी खुशी होती है.’ दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में हिंदी फिल्मों में संवेदनशील, प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकारों की आवक बढ़ी है जो मणि कौल की फिल्मों से प्रेरणा ग्रहण कर भीड़ और लीक से हट कर हिंदी सिनेमा का एक नया संसार रच रहे हैं. लेकिन आज जब कुछ लोग ‘डेल्ही बेली’ और उसमें प्रयुक्त भौंडेपन और गालियों को ही सिनेमा की भाषा मानने पर लोग जोर दे रहे हैं, ऐसे में मणि कौल की फिल्मों की पहचान कैसे होगी? http://arvinddas.blogspot.com/2011/07/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Sat Jul 9 11:12:58 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 9 Jul 2011 05:42:58 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Tribute_to_Mani_Ka?= =?utf-8?q?ul?= Message-ID: <20110709054258.18028.qmail@f5mail-224-152.rediffmail.com> My tribute to legendary film maker and Guru Mani kaul published in Jansatta today ( July 9, 2011) under 'poetry on celluloid'. परदे पर कविता पिछले साल मानसून में मैं पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एफटीआईआई) में फिल्म एप्रीसिएशन पाठयक्रम की पढ़ाई कर रहा था. इस संस्थान ने पिछले साल ही अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे किए. एफटीआईआई की यात्रा और भारतीय सिनेमा में उसके योगदान को लेकर मैंने एक लेख लिखो था और इसी सिलसिले में मणि कौल को मैंने फोन किया था. उन्होंने कहा कि ‘मैं आ ही रहा हूँ वहीं बैठ कर बात कर लेंगे.’ पाठ्यक्रम के आखिरी दिन मणि कौल ने अपना व्याख्यान दिया था. मैं उनके हंसमुख व्यक्तित्व और मजाकिया लहजे से परिचित था. ‘ओसियान’ फिल्म समारोह के दौरान दिल्ली में उनसे गाहे-बगाहे मुलाकात हो जाती थी. बीते कुछ वर्षों से वे दिल्ली ही रह रहे थे और ओसियान से जुड़े थे. व्याख्यान के दौरान जब एप्रीसिशन पाठयक्रम के संयोजक सुरेश छाबरिया ने उनका परिचय कराते हुए कहा कि ‘मणि हमारे समय के सबसे बेहतरीन फिल्म निर्देशक हैं’ तो कई सहपाठियों ने विस्मय से रूप से उनकी ओर देखा था. हमारी पीढ़ी जिसने नब्बे के दौरान होश संभाला, मणि कौल और उनकी फिल्मों को नहीं जानती. लेकिन मणि कौल एक निर्देशक के साथ-साथ सिनेमा के कुशल शिक्षक भी थे. व्याख्यान के दौरान उन्होंने बताया कि ‘सिनेमा ध्वनि और बिंब का कुशल संयोजन होता है और उसे उसी रूप में पढ़ना चाहिए.’ पढ़ाई के दौरान में हमें उनकी बहुचर्चित फिल्म ‘सिद्धेश्वरी’ दिखाई गई थी. फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म की भूमिका बांधते हुए उन्होंने अपने परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा था कि ‘अगर कुछ चीजें समझ में नहीं आए तो ज्यादा दिमाग मत लगाइएगा यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है.’ लेकिन ‘सिद्देश्वरी’ देखते हुए ऐसे लगा कि हम एक लंबी कविता को परदे पर पढ़ रहे हैं. दरअसल, मणि कौल खुद के बारे में बेहद मजाकिया लहजे में बात करते थे. दर्शकों के बीच अपनी फिल्म के पहुँच को लेकर उन्होंने हमें एक वाकया सुनाया था. चर्चित अभिनेता राज कुमार उनके चाचा थे. एक फिल्म पार्टी के दौरान उन्होंने आवाज देकर मणि कौल को बुलाया और कहा, ‘जानी, मैंने सुना है कि तुमने फिल्म बनाई है..उसकी रोटी. क्या है यह? रोटी के ऊपर फिल्म! और वह भी उसकी रोटी? तुम मेरे साथ आ जाओ हम मिल कर अपनी फिल्म बनाएँगे- अपना हलवा.” बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘मैं हिंदी में ही सोचता और लिखता हूँ.’ उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन, दुविधा, सतह से उठता आदमी और दीवार में एक खिड़की रहती थी’ हिंदी की चर्चित कृतियाँ है. मणि कौल ने हिंदी साहित्य की इन कृतियों को आधार बना कर फिल्म रची और इन्हें एक नया आयाम दिया. मुंबइया फिल्मों के कितने फिल्मकार आज हिंदी में सोचते और रचते हैं? मणि कौल को संगीत की गहरी समझ थी. उन्होंने डागर बंधुओं से विधिवत संगीत सीखा था और जिसकी परिणति ‘धुप्रद’ फिल्म में सामने आई. मणि कौल ने माना था कि उन्हें फिल्म बनाने में वित्तीय संकट से जूझना पड़ रहा हैं. पर सृजनात्मकता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अंतिम दिनों में वे विनोद कुमार शुक्ल की कृति ‘खिलेगा तो देखेंगे’ को सिनेमाई भाषा में रच रहे थे. वर्ष 1969 में महज 25 वर्ष की उम्र में मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर इसी नाम से फिल्म बना कर उन्होंने हिंदी फिल्मों को ‘पापुलर सिनेमा’ से बाहर निकाल कर ‘समांतर सिनेमा’ का एक नया रास्ता दिखाया था. वर्ष 1964-65 में ऋत्विक घटक उप प्राचार्य के रूप में एफटीआईआई नियुक्त हुए थे और एक पूरी पीढ़ी को सिनेमा की नई भाषा से रू-ब-रू करवाया. मणि कौल ऋत्विक घटक के शिष्य थे. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने बताया कि मणि कौल घटक के सबसे ज्यादा करीब थे. अपने गुरु ऋत्विक घटक के प्रति मणि कौल बेहद कृतज्ञ थे. उनका कहना था “मैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नवयथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.” अक्सर ऋत्विक घटक की फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. मणि कौल का कहना था कि वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए. घटक की तरह ही हम उनके योग्य शिष्य मणि कौल की फिल्मों को उनके जीते जी समझ नहीं पाए. समांतर सिनेमा को दुरूह और अबूझ कह कर खारिज करने की कोशिश की जाती रही है. हालांकि उन्होंने कहा था कि ‘वर्तमान में जब अनुराग कश्यप और इम्तियाज अली जैसे निर्देशक मुझे फोन कर के कहते हैं कि मेरी फिल्मों से उन्हें काफी सीख मिलती है तो काफी खुशी होती है.’ दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में हिंदी फिल्मों में संवेदनशील, प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकारों की आवक बढ़ी है जो मणि कौल की फिल्मों से प्रेरणा ग्रहण कर भीड़ और लीक से हट कर हिंदी सिनेमा का एक नया संसार रच रहे हैं. लेकिन आज जब कुछ लोग ‘डेल्ही बेली’ और उसमें प्रयुक्त भौंडेपन और गालियों को ही सिनेमा की भाषा मानने पर लोग जोर दे रहे हैं, ऐसे में मणि कौल की फिल्मों की पहचान कैसे होगी? http://arvinddas.blogspot.com/2011/07/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jul 10 00:19:14 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 10 Jul 2011 00:19:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWA4KSs4KWA?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KS54KS/4KSC4KSm4KWA4KSh4KS+4KSf4KSV4KWJ4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkieCkpuCkryDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLYg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCksuCkruCljeCkrOClgCDgpJXgpLngpL7gpKjgpYAgJ+CkruCliw==?= =?utf-8?b?4KS54KSo4KSm4KS+4KS4JyDgpJXgpL4g4KSP4KSVIOCkheCkguCktiA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS24KS/4KSk?= Message-ID: साथियो, साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हमारे दौर के बहुचर्चित और लोकप्रिय कवि-लेखक उदय प्रकाश की लम्बी कहानी 'मोहनदास' *(वाणी प्रकाशन, दिल्ली *से प्रकाशित) का एक अंश बीबीसीहिंदीडाटकॉम ने अपने वेबसाइट पर प्रकाशित किया है. आप भी पढ़ सकते हैं. : 'आधुनिक समाज के समय का एक सच' : http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/11/061102_book_mohandas.shtml - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Sun Jul 10 04:47:03 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 10 Jul 2011 04:47:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KS14KS+4KSy4KS+?= Message-ID: “हमारी फ़िल्में यहाँ आएंगी. जब भी हम अच्छी फ़िल्में बनायेंगे, वो आएंगी. ऐसा नहीं है कि हमारे मुल्क में अच्छे फ़िल्मकार नहीं हैं. असली वजह है निर्माताओं का न होना. मान लीजिए मैं कोई फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. लेकिन योजना बनते ही बहुत सारी चिंताएं उसके साथ पीछे-पीछे चली आती हैं. कैसे बनेगी, पैसा कहां से आएगा, पैसा वापस आएगा कि नहीं. यही सब लोगों के कदम पीछे ले जाता है. सच्चे अर्थों में जिसे स्वतंत्र सिनेमा कहा जा सके, ऐसा सिनेमा तो हमारे देश में बस अभी बनना शुरु ही हुआ है. ऐसी फ़िल्में जिन्हें बहुत ही कम निर्माण लागत पर बनाया जा रहा है. लेकिन अभी तो यह फ़िल्में भी निर्माताओं और वितरकों तक नहीं पहुँच पा रही हैं. एक डॉक्यूमेंट्री *’वीडियोकारन’*, जो आजकल हिन्दुस्तान में इंटरनेट पर चर्चा का विषय बनी हुई है, सिर्फ़ इसलिए प्रदर्शित नहीं हो पा रही क्योंकि उसके निर्देशक के पास उसमें दिखाई गई दूसरी फ़िल्मों के कुछ अंशों के अधिकार खरीदने के पैसे नहीं हैं. वो डॉक्यूमेंट्री हिन्दी सिनेमा के बारे में कहीं बेहतर बयान है और अगर आप सच में ’बॉलीवुड’ के बारे में बात करना चाहते हैं तो वही फ़िल्म है जिसे इस फ़ेस्टिवल (कांस) में दिखाया जाना चाहिए.” -- भूमध्यसागर के किनारे अनुपमा चोपड़ा के साथ बातचीत के दौरान अनुराग कश्यप. “बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव क्या है?” अलग-अलग मंचों पर मुझसे यह सवाल कई बार पूछा गया है. लेकिन इसका कोई तैयार जवाब मेरे पास कभी नहीं रहा. ऐसा भी हुआ कि कई बार मैं तलाश में भटकता रहा. मंज़िल के पास से निकल गया और जिसकी चाहत थी उसकी परछाई भर दिखाई दी. क्या इसका कोई ’एक’ जवाब संभव है या फिर यह भी उन्हीं ’बहुवचन’ वाले जवाबों की फ़ेरहिस्त में आता है? फिर एक दिन मैंने ’वीडियोकारन’ देखी. हिन्दी अनुवाद करूँ तो “वीडियोवाला”. जी हाँ, यही नाम है जगन्नाथन कृष्णन की बनाई डॉक्युमेंट्री फ़िल्म का. जैसा नाम से कुछ अंदाजा होता है, पहली नज़र में यह फ़िल्म एक रेखाचित्र खींचती है किरदार सेगई राज का. सेगई राज याने हमारा नायक, हमारा ’वीडियोवाला’. लेकिन सिर्फ़ इतना कहने से बस फ़िल्म का एक सिरा भर पकड़ में आता है. असल में सेगई राज की कहानी हमारे हिन्दुस्तानी सिनेमा को समझने के लिए एक ’माइक्रोकॉस्म’ का काम करती है. एक ऐसा प्रिज़्म जिसके सहारे हमारे सतरंगी मुख्यधारा सिनेमा के सातों रंग अलग चमकते देखे जा सकते हैं. धूसर भी, चमकीले भी. लेकिन साथ ही यह फ़िल्म उस आधारभूत परिवर्तन के ऊपर भी हाथ रखती है जिससे हिन्दी सिनेमा मेरे जीवनकाल में गुज़रा है. ऐसा परिवर्तन जिसके दुष्प्रभाव किसी गहरी खरोंच की तरह हिन्दी सिनेमा के चेहरे पर नज़र आ रहे हैं. सेगई की कहानी अस्सी के दशक में हिन्दुस्तान के शहरों से लेकर धुर देहातों तक आई वीडियो क्रांति के बीच जन्म लेती है. ऐसा समाज जहाँ सिनेमा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा है. सेगई बड़ा होकर खुद अपना वीडियो पार्लर खोलता है. जनता की मर्जी की फ़िल्में चलाता है, उन्हें पब्लिक की डिमांड के अनुसार बदलता है और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें मनमाफ़िक एडिट भी करता है. और फिर इसी दुनिया में उस वीडियो पार्लर को बुलडोज़र से टूटते भी देखता है. और यह सब कहानियाँ हम खुद सेगई के मुँह से ही सुन रहे हैं. सेगई बात करता जाता है और हम जानते हैं कि सेगई ने अपनी ज़िन्दगी के कुछ सबसे ज़रूरी पाठ उस सिनेमा से सीखे हैं जिसे हम समझदार दर्शक ’नकली, अयथार्थवादी, महा’ कहकर खारिज कर देते हैं. यह शहर के हाशिए पर आबाद एक ऐसी दुनिया की कहानियाँ हैं जहाँ मौत और ज़िन्दगी के बीच फ़ासला बहुत थोड़ा है. मेरे पसंदीदा निबंधकार अमिताव कुमार अपने नए निबंध में लिखते हैं कि असल में वे खुद एक ऐसे गणतंत्र के नागरिक हैं जिसे हिन्दी के मुख्यधारा सिनेमा ने रचा है. मेरी नज़र में यह एक ऐसी आँखों से ओझल सच्चाई है जिसे हमारे मुल्क के सिनेमा समाज की सबसे आधारभूत विशेषता माना जाना चाहिए. एतिहासिक रूप से हमारा सिनेमा उसे देखने वाले एक बड़े वर्ग के लिए सिर्फ़ सिनेमा भर नहीं. यह उनकी ज़िन्दगी की मुख्य संरचना है, बहुत बार जिसके आगे असलियत धुंधली पड़ जाती है. सेगई राज इसी दुनिया का प्रतिनिधि चरित्र है. बातूनी, आत्मविश्वास से भरा और खुशमिजाज़. अद्भुत तर्क श्रंखला से बनते उसके जवाब सिनेमा की नई व्याख्याएं हमारे सामने खोलते हैं. फ़िल्म के एक शुरुआती प्रसंग में अमिताभ और रजनीकांत के दो प्रशंसकों के आपसी तर्क-वितर्क हमें हिन्दी सिनेमा और तमिल सिनेमा में पाए जाने वाले नायकत्व के उन भेदों से परिचित कराते हैं जिसे साबित करने के लिए कई मोटे अकादमिक अध्ययन नाकाफ़ी साबित हों. रेल की पटरियों के सहारे चलती इन हाशिए की ज़िन्दगियों में सिनेमा उस ’लार्जर-दैन-लाइफ़’ इमेज को घोलता है जिसे आप और मैं फ़र्जी कहते हैं, खारिज करते हैं. सेगई सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ा है. उसके दोस्तों में सबसे ज़्यादा. लेकिन वो आपको बता सकता है कि किसी नई रजनीकांत फ़िल्म के सिनेमाहाल में लगने पर पहले दिन के पहले, दूसरे, तीसरे शो की अलग-अलग ब्लैक टिकट रेट क्या होगी. या फिर यह कि थाईलैंड का कौनसा हीरो चेंबूर के इलाके में ’छोटा ब्रूस ली’ के नाम से जाना जाता है. या फिर यह कि तमिल सिनेमा में हीरो जब भी नाचता है तो उसके पीछे हमेशा पचास-साठ आदमियों की फ़ौज क्यों होती है. और यह भी कि पुलिस जब रिमांड पर लेकर ’थर्ड डिग्री’ का इस्तेमाल करे तो उससे बचने के लिए कौनसा तरीका सबसे कारगर है. सारे जवाब तार्किक (बेशक तर्क प्रणाली उसकी अपनी है) हैं और सबसे मज़ेदार बात यह है कि सारे जवाब उसने सिनेमा देखकर कमाए हैं. समझने की बात यह है कि हमारे लिए सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन का माध्यम हो सकता है लेकिन जिस समाज ने अपने जीने के तरीके इसी सिनेमा से कमाए हों, उसके लिए यह सिनेमा कहीं ज़्यादा बड़ी चीज़ है. और ऐसा इसलिए क्योंकि हमने समाज के इस बहुमत को वैधानिक तरीकों से ज़िन्दगी जीने का हक कभी दिया ही नहीं. पानी, बिजली, घर, नौकरी सभी कुछ तो हमारा रहा. जो और जितना कभी उनके हाथ आया भी, उसे हम संस्थागत तरीके से छीनते गए. और अब हम बड़े ही संस्थागत तरीके से उनका मनोरंजन छीन रहे हैं. यह वीडियोक्रांति अब पुराने ज़माने की बात है. सेगई का वीडियो पार्लर भी बड़े ही संस्थागत तरीके से बुलडोज़र के नीचे कुचला गया और अब सेगई अपना फ़ोटो स्टूडियो चलाता है. अब भी याद करता है उन दिनों को जब वीडियो पार्लर था, दोस्तों का साथ था, रजनीकांत की फ़िल्में थीं. मेरे सवाल का जवाब यहीं है. बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव उसकी बदलती दर्शक दीर्घा में छिपा है. यह अपने आप में एक अद्भुत उदाहरण होगा जिसमें जनता की पसंद पर निर्भर एक उद्योग खुद अपना नाता जनता के बहुमत से काट लेना चाहता है. हिन्दी सिनेमा एक निरंतर चलते सचेत प्रयास के तहत अपने सबसे बड़े दर्शक वर्ग को अपने से बेदखल करने पर तुला हुआ है. हर दूसरे शहर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल बंद हो रहे हैं. पिछले महीने मेरे बड़े भाई ने फ़ेसबुक पर खबर दी कि उदयपुर का सबसे मशहूर ’चेटक’ सिनेमाहाल बंद हो गया. मैं आज जो कुछ सिनेमा पर लिखता-पढ़ता हूँ उसकी प्राथमिक कक्षा यही ’चेटक’ सिनेमाहाल था जिसके रात के नौ से बारह वाले शो में हमने मार तमाम फ़िल्में देखीं. आज यहाँ जयपुर में देखा कि मालिक लोग ’मोतीमहल’ को शादी-पार्टी के लिए किराए पर चलाने लगे हैं. बचपन में इस सिनेमाहाल के आगे निकली कांच की दीवार मुझे अंदर चलती फ़िल्म से भी ज़्यादा आकर्षित करती थी. आज उसमें दूर से ही सुराख़ नज़र आ रहे थे. इधर मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म के टिकटों की बढ़ती कीमतें हमें किसी दूसरी पीढ़ी की ’रियलिटी बेस्ड साइंस फ़िक्शन’ फ़िल्म में होने का अहसास करवाती हैं. मेरे शहर का एक मल्टीप्लैक्स आजकल फ़िल्म दिखाने के 950 रुपए लेता है. मुझे शक है कि कहीं उस मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म का अंत दर्शक की मर्ज़ी पूछकर तो नहीं किया जाता? “आज हीरोइन को चाहने वाले बहुत हैं, उसका मरना कैंसल. उसके बजाए क्लाईमैक्स में माँ को मार दो.” टाइप कुछ? अरे, आप हँस रहे हैं? सच मानिए, आज ज़्यादा बड़ा डर यह है कि जिस मज़ाक पर आज हम हँस रहे हैं कल कहीं वो सच्चाई न बन जाए. यह मानना कि सिनेमा का दर्शक वर्ग बदलना उसके कथ्य पर कोई असर नहीं डालेगा, अंधेरे में जीना है. हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता उसे ज़्यादा जनतांत्रिक बनाती है, आम आदमी के ज़्यादा नज़दीक लेकर आती है. और यह नया बदलाव उस विशेषता को ही छीन रहा है. मल्टीप्लैक्स में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाकर हमारा सिनेमा धनवान तो हो सकता है, समृद्ध नहीं. यही कोई तकरीबन छ महीने पहले ’रवीश की रिपोर्ट’ वाले हमारे रवीश ने अपने ब्लॉग ’कस्बा’ पर एक दिलचस्प पोस्ट लगाई थी. शीर्षक था, “दस रुपए का चार सिनेमा”. दिल्ली की किसी पुनर्वास कॉलोनी में चलते एक वीडियो पार्लर पर. जगह का नाम उन्होंने नहीं बताया था नहीं तो अगले दिन पुलिस का छापा इस ’जनतांत्रिक जुगाड़’ को भी बंद करवा देता. सिर्फ़ एक सिफ़ारिश की थी, “आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है. सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देना चाहिए. टैक्स फ्री.” यहीं दो बातें उस ’रवीश की रिपोर्ट’ पर भी जिसे चैनल ने एक प्रशासनिक फ़ैसले के तहत बंद कर दिया है. ’रवीश की रिपोर्ट’ को हमारे टेलीविज़न न्यूज़ के निर्धारित मानकों पर परखना मुश्किल है. ऐसी रिपोर्ट जिसमें पत्रकार खुद अपनी समूची पहचान के साथ खबर में शामिल हो जाए, बहुत को अखर सकती है. इसीलिए मेरा हमेशा से मानना रहा है कि ’रवीश की रिपोर्ट’ को डॉक्युमेंट्री सिनेमा के मानदंडों पर परखा जाना चाहिए. हर आधे घंटे के एपीसोड में बाकायदा कथाधारा रचने वाले रवीश किसी वृत्तचित्र निर्देशक की तरह हैं. और उनके कथासूत्र भी शहर के उसी हाशिए से आते हैं जिन्हें हम उसके असली रूप में पहचानते तक नहीं. जिस दिल्ली शहर में रहते, पढ़ते मुझे छ साल हुए, रवीश उसी शहर से मेरा परिचय करवाते हैं, जैसे पहली बार. मेरे घर के आगे छोले-कुलचे बेचने वाला, मेरी फ़ैकल्टी के किनारे चाय का खोमचा लगाने वाला, वो कुम्हार जिससे मैं गर्मियों की शुरुआत में छोटी सुराही खरीद लाया हूँ. क्या मैं इन्हें पहचानता हूँ. नहीं. सच यह है कि मैं इनके केवल उसी रूप को पहचानता हूँ जिसे धरकर ये मेरे सामने उपस्थित होते हैं. शहर की किस खोह से निकलकर यह मेरे सामने आते हैं और शाम ढलते ही किस खोह में वापस समा जाते हैं, यह मैं कभी न जान पाता अगर ’रवीश की रिपोर्ट’ उस अंधेरी खोह में प्रवेश न करती. मायापुरी, लोनी बॉर्डर, कापसहेड़ा, नई सीमापुरी, गांव खोड़ा, नाम अनगिनत हैं. रवीश हमारे ही शहर में मौजूद लेकिन अपरिचित होती गई इन दुनियाओं के हर पहलू को खोलते हैं. इसमें मनोरंजन से बेदखल किए जाते रेहड़ी-खोमचे वालों की वो दुनिया है जिसके बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं. मुख्यधारा सिनेमा से बेदखल किए जाने पर यह जनता का बहुमत तो अपने लिए कोई नया रास्ता खोज लेगा, लेकिन इस बहुमत के बिना हमारा सिनेमा क्या अपना मूल चरित्र बचा पाएगा. सेगई की दुनिया में और रास्ते हैं, अगर न भी हुए तो वो नए रास्ते बनाएगा. सवाल अब हमारे सामने है और उसका कोई माकूल जवाब अब हमें खोजना है. सेगई कभी मिलेगा तो बताऊँगा उसे. उस लड़कपन में उलझे शाहरुख के बाद ऐसा भावप्रवण और पारदर्शी चेहरा उसका ही देखा है मैंने. सेगई, मेरा हीरो तो अब तू ही है रे. ***** ’वीडियोकारन’ से हमारा परिचय करवाने का श्रेय मेरी ज़िन्दगी के ’रतन बाबू’ वरुण ग्रोवर को जाता है. वही थे जो किसी रैंडम फ़ेसबुक मैसेज पर इस फ़िल्म का प्रोमो देख इसकी पब्लिक स्क्रीनिंग में पहुँचे थे और हमें यह खज़ाना मिला. वे और उनके साथी मिलकर इस फ़िल्म को और आगे पहुँचाने की कोशिशों में लगे हैं. कोशिश यह भी है कि इसे इंटरनेट पर उपलब्ध करवाया जा सके. जैसे ही कोई इंतज़ाम हो पाएगा, हम अपने ब्लॉग पर इस बाबत सूचना देंगे. और तब तक चाहनेवाले इस बाबत मुझे परेशान कर सकते हैं. (कथादेश. जुलाई 2011) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Jul 11 09:01:10 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 11 Jul 2011 09:01:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpKjgpJXgpL7gpLXgpKrgpYvgpLYs4KSG4KSc?= =?utf-8?b?IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK3gpY3gpLDgpLfgpY3gpJ/gpL4=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSwIOCkquCksCDgpKzgpYvgpLLgpYfgpILgpJfgpYc=?= Message-ID: *आज शाम तीन बजे* "भ्रष्टाचार का मुद्दा और मीडिया की भूमिका" पर बात करने के लिए मीडिया इन्डस्ट्री के जीलेट-पॉमोलिव से सजे-संवरे चेहरे कॉन्सटीच्यूशन क्लब,नई दिल्ली में जुटनेवाले हैं। पुरुष वर्चस्व का नमूना पेश करने के लिहाज से इस परिचर्चा में एक भी महिला पत्रकार वक्ता के तौर पर नहीं होगी और न ही कोई दलित पत्रकार अपनी बात रखेंगे। ठाकुर-ब्राह्मण पत्रकारों की जमात मीडिया और भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी बात रखेंगे। ये एक तरह से अच्छा ही है कि बरखा दत्त जैसी एक-दो महिला पत्रकारों को छोड़ दें तो जब महिला पत्रकारों ने मीडिया को भ्रष्ट किया ही नहीं है तो उसे दूर करने के लिए सिर क्यों खपाए और एक भी दलित पत्रकार ने इसके दामन को दागदार नहीं किया है तो फिर इस पर पंचायती करने के लिए क्यों बुलाया जाए? इस मीडिया को अगर ब्राह्मण-ठाकुरों ने भ्रष्ट और दलाली के अड्डे के तौर पर तब्दील कर दिया है तो बेहतर है कि फिलहाल वही इसकी संड़ाध को खत्म करने के तरीके के बारे में बात करे। *कई बार दागदार* और चोर भी बेहतर और विकल्प की दुनिया रचने के सपने देख लेता है,हम आज उसी उम्मीद से इस सेमिनार में शिरकत करेगें। लेकिन सेमिनार में जाने से पहले मेरे मन एक सवाल बहुत ही तल्ख रुप में उठ रहे हैं- क्या मीडिया इन्डस्ट्री ने खुद कभी अपने भीतर फैले भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कुछ किया,कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज की मशीनरी में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने या उससे आगाह करने के नाम पर वो खुद इसके कल-पुर्जे की तरह काम नहीं करने लग गया? ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में हमें जो कुछ भी देखने-सुनने को मिले,उससे एक धारणा मजबूती से बनी कि नेताओं और नौकरशाहों की तरह देश के दिग्गज मीडिया चेहरों ने समाज को बेहतर करने के नाम पर अतिरिक्त अधिकार हासिल किए और उसका बेजा इस्तेमाल किया,अपने पक्ष में काम किया और भ्रष्टाचार की जड़ को और खौफनाक बनने दिया। आज मीडिया और भ्रष्टाचार के मसले पर जो भी बातचीत हो रही है,उसकी भूमिका किसी -न- किसी रुप में यहीं से बनती है। ये अलग बात है कि मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार उसी दौर से शुरु है,जिस दौर से इसे सत्ता और सरकार ने अपना भोंपू बनाने की हरदम कोशिश की। *लेकिन बड़ी चालाकी से* मीडिया इसे व्यक्तिगत स्तर पर देखता रहा जो कि अब भी जारी है कि कुछ लोगों के भ्रष्ट हो जाने से पूरा मीडिया भ्रष्ट नहीं हो जाता। इसलिए आज इस सेमिनार में जाने के पहले इस बात पर विमर्श जरुरी है कि क्या मीडिया का स्वरुप इस तरह का नहीं बन गया है कि भ्रष्टाचार के मसले को किसी व्यक्तिगत स्तर पर देखने के बजाय इसके स्ट्रक्चर पर बात की जाए और ये समझने की कोशिश को कि दरअसल पूरा मीडिया अपनी संरचना में भ्रष्ट हो चुका है। इसने अपने को इस तरह से विकसित किया है कि बिना भ्रष्ट हुए,दलाली किए,झूठ-सच और हेराफेरी किए बाजार में अपने को बनाए रख ही नहीं सकता। क्या ये संभव है कि हम पत्रकारिता की महान परंपरा का हवाला देते हुए इसमें कुछ मछलियों के सड़ा मानते हुए बाकी तालाब को मानसरोवर जैसा स्वच्छ और पवित्र घोषित कर दे? क्या ऐसा करके मीडिया बड़ी ही शातिर तरीके से अपने भीतर की सालों से पनप रही गंदगी और भ्रष्टाचार को ढंकने का काम नहीं कर रहा? *आज से ठीक एक साल पहले* 11 जुलाई 2010 को देश के सबसे नामचीन टेलीविजन चेहरे श्री राजदीप सरदेसाई ने इसी उदयन शर्मा स्मृति में की जानेवाली परिचर्चा में कहा कि हम पत्रकारों के हाथ मालिकों के हाथों बंधे हैं,हम बाजार की शर्तों के आगे कुछ नहीं कर सकते? आज राजदीप सरदेसाई की इस स्मार्टनेस के बीच से सवाल किया जाना चाहिए कि जिस मीडिया और मीडियाकर्मी के हाथ मालिकों के आगे बंधे हैं,वो किसी भी हाल में उसके औऱ बाजार के विरुद्ध नहीं जा सकता तो क्या उसमें इतनी ताकत रह जाती है कि वो मीडिया में फैले भ्रष्टाचार के प्रतिरोध में आवाज उठाए। *आज मीडिया में भ्रष्टाचार* के प्रसार का जो स्तर बढ़ा है,उसके दो प्रमुख कारण है- एक तो ये कि कई मीडिया संस्थानों के मालिक स्वयं किसी न किसी तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त है, पर्ल ग्रुप के पी7 का मामला आए हुए सप्ताह भर भी नहीं हुए हैं। वो अपनी दागदार छवि को बचाने के लिए,रीयल इस्टेट,अनाप-शनाप और दो नंबर की कमाई को ढंकने के लिए मीडिया के धंधे में उतरता है। यानी कि कई मीडिया संस्थानों की नींव ही भ्रष्टाचार से बनती है और दूसरा कि कई चैनल बाजार की गला-काट प्रतिस्पर्धा के आगे खबरों के साथ समझौते करती है,कवरेज करके ब्लैकमेलिंग करती है और फिर उसे प्रसारित करने के बजाय दबा देती है। निजी स्तर पर पत्रकार हफ्ता वसूलने का काम करते हैं। ऐसा करने में मीडिया संस्थानों के भीतर ही भ्रष्टाचार का भभका उठता रहता है और वहां के लिए काम करनेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अपने अधिकारों,सुरक्षा और सुविधाओं से पूरी तरह वंचित रहते हैं। मतलब ये कि जो मीडिया संस्थान खुद ही भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुका है,वो भला भ्रष्टाचार के मसले को दूर करने में अपनी भूमिका कैसे निर्धारित कर सकता है? पेड न्यूज से लेकर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में ये बात खुलकर सामने आयी औऱ एक के बाद एक मीडियाकर्मियों,संस्थानों,अखबारों औऱ चैनलों का नाम खुलकर सामने आने लगा। *ऐसे में मीडिया सेमिनारों में* जब भी वक्ता के तौर पर पत्रकारों को आमंत्रित किया जाता है तो इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि दागदार चेहरों को शामिल न किया जाए। बरखा दत्त जैसे मशहूर चेहरे पर जबसे आम जनता ने प्रतिरोध करके,लाइव कवरेज करने से रोका है,मीडिया संस्थानों और आयोजकों के बीच इस बात को लेकर सावधानी बढ़ी है कि ऐसे दागदार चेहरे को वक्ता के तौर पर न शामिल किए जाएं। उदयन शर्मा की याद में आज जो परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है,उसमें ऐसे चेहरे को दरकिनार किया गया है और एक भी नाम ऐसा नहीं है,जिस पर कि आप सवाल खड़े कर सकते हैं। मतलब कि आज आप जिन मीडिया वक्ताओं को सुनेगे,वो सबके सब दूध के धुले चेहरे होंगे।..आप सब को इसके लिए अग्रिम बधाई।.. *लेकिन सवाल है कि* क्या वो जिस मीडिया संस्थान से आते हैं,वो भी उसी तरह दूध के धुले हैं। मसलन उदयशंकर का स्टार न्यूज क्या दावे के साथ कह सकता है कि वो देश का भ्रष्टाचार रहित चैनल है। जिस चैनल की सायमा शहर ने अपने ही सहकर्मियों के खिलाफ यौन शोषण का मामला महिला आयोग में दर्ज कराया और उसी चैनल के आकाओं ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके केस बंद करवाने की कोशिश की,महिला आयोग से मामले को रफा-दफा करा दिया,क्या ये धुले चेहरे इस पर बात करना चाहेंगे? ठीक उसी तरह पिछले दिसंबर महीने में दि संडे गार्जियन ने एनडीटीवी पर करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी करने,टैक्स बचाने से लेकर,विदेशों में शेयर बेचने और यहां के शेयरधारकों के साथ चालबाजी करने को लेकर स्टोरी की,आंकड़े की भाषा में समाज,संगीत और मीडिया को समझनेवाले एनडीटीवी के पत्रकार और कॉँग्रेस के टीटीएम (ताबड़ तोड़ तेल मालिश करने वाले) पंकज पचौरी जबाब दे सकेंगे? क्या वो मंच पर आते ही कुछ भी कहने से पहले इस बात की घोषणा करेंगे कि वो एक इंडिविजुअल मीडियाकर्मी की हैसियत से बात करने आए हैं,न कि अपने मीडिया संस्थान के प्रतिनिधि की हैसियत से बात करने? वैसे इनलोगों को ऐसा करने में मुश्किल भी आएगी क्योंकि आयोजकों ने सबों के नाम के साथ उनके जुड़े संस्थान में उनकी क्या हैसियत है,ये भी नत्थी कर दिया है। क्या राहुल देव ये स्पष्ट कर सकेंगे कि जिस पत्रकारिता के साहस का ज्ञान वो सालों से देते आए हैं,वो अपने ही चैनल के एक जूनियर को स्टोरी करने से इसलिए रोकते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर ये स्टोरी चली तो नए-नए आए चैनल के बाकी के काम में बाधा पड़ जाएगी? *कुल मिलाकर ये है कि* जिस मीडिया संस्थान में जिस स्तर की गड़बड़ियां,घपलेबाजी और धांधलियां चल रही है,क्या उन संस्थानों से जुड़े मीडियाकर्मी उस संबंध में बात करेंगे? अगर नहीं तो फिर ऐसे सेमिनार सिर्फ टाइम पास के लिए ही है,इससे सेमिनार-दर-सेमिनार करने-कराने के माहौल तो बने रहेंगे लेकिन मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार बरगद की तरह जमा रहेगा। औऱ वैसे भी जिस सेमिनार में आशुतोष जैसे वक्ता हों,जो ये मानते हैं कि मीडिया भ्रष्टाचार दूर करने में कभी-कभी अपनी लक्ष्मण रेखा अगर पार कर जाता है तो उसे माफ कर देना चाहिए तो उससे किसी भी तरह की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। जो पहले से ही अपने को महान और क्लिन चिट देने का काम कर चुका हो,उससे क्रिटिकल होने की उम्मीद करना बेकार है।..और आखिरी बात *मीडिया के लोगों ने,*चैनल और अखबारों ने मीडिया और पत्रकारिता के भीतर बसी आत्मा को बचाने के लिए बीइए,एनबीए औऱ एडीटर्स गिल्ड जैसी संस्थाएं बना रखी है,आज इस बात पर बहस होगी क्या कि अब तक इन संस्थानों ने भ्रष्टाचार के मसले पर क्या स्टैंड लिया? आजतक पर हमले होते हैं तो अगले ही दिन प्रेस क्लब में बैठक हो जाती है और लोकतंत्र की आवाज न कुचली जाए,इसके लिए तमाम चेहरे लामबंद हो जाते हैं लेकिन अगर कोई मीडिया संस्थानों रातों-रात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों को सड़क पर लाकर खड़ी कर देता है,दिन-रात उसका शोषण करता है,उसका हक मारता है तो क्या ये संस्थान कभी सक्रिय होते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सारे के सारे संस्थान मीडिया की दागदार होती छवि को ढंकने के लिए पर्दे का इस्तेमाल करते हैं और इनकी पूरी कोशिश होती है कि पत्रकारिता के भीतर की आत्मा को मारकर इसे एक धंधे के तौर पर तब्दील कर दिया जाए? इसकी गुंजाईश इसलिए दिखती है कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले को लेकर एक के बाद एक चैनल और अखबारों ने जब मीडियाकर्मियों के खिलाफ स्टोरी की तो इन संस्थानों ने अपनी वेबसाइट पर आधिकारिक तौर पर एक लाइन भी कुछ नहीं किया,किसी को भी इस बात के लिए दबाव नहीं बनाया कि उसने इस पेशे को कलंकित किया है और उसकी सजा मिलनी चाहिए। सबकुछ से अंजान बना रहा। लाइव सुसाइड करने के लिए उकसानेवाले चैनल को बीइए ने दस दिन में जांच भी कर ली और रिपोर्ट भी जारी कर दिया और किसी का कुछ नहीं हुआ।..तो जब मीडिया की आत्मा बचानेवाले संस्थान और संगठन उसकी आए दिन आत्मा कुचलने की कोशिश करते हैं तो ऐसे सेमिनारों में गुडी-गुडी और चारण साहित्य सुनकर भला आपका क्या होगा? *लेकिन,* मैं फिर भी कहूंगा,बल्कि अपील करता हूं कि आप सब इस परिचर्चा में जरुर आएं, जीलेट और पॉमोलिव चेहरे के लिए ये टाइमपास और चिल्ल-आउट का मामला होगा लेकिन आप सबों के लिए एक बेहतरीन मौका क्योंकि अगर आप एक श्रोता या दर्शक के बजाय एक सवाल के तौर पर उनके सामने मौजूद होंगे तो एक हद तक उन पर दबाव बनेगा। वो अपने चैनलों और अखबारों में चाहे जो मनमर्जी करते रहे हों लेकिन परिचर्चा में आपके दबाव से जो मन में आए,बोलने की जुर्रत नहीं कर सकेंगे। हम चाहते हैं कि कम से कम टेलीविजन और अखबारों में न सही तो सेमिनारों में उनकी बादशाहत खत्म हो और नकाबधारी मीडियाकर्मियों के चेहरे से नकाव जहां-तहां से मसक जाए और कल को हमारी-आपकी तरह बाकी का समाज भी उस असली चेहरे को देख सके। मूलतः प्रकाशितः-मीडियाखबर.कॉम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 11 11:40:54 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Jul 2011 11:40:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KSuIOCkpQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KS14KWAIOCkuOClhyDgpKzgpL7gpKTgpJrgpYDgpKQg4KSq?= =?utf-8?b?4KSwIOCkhuCkp+CkvuCksOCkv+CkpA==?= Message-ID: पिछले दनों प्रधानमंत्री कुछ चुने हुए संपादकों से मिले। इस मुलाकात के बाद जो राय बनी उसपर कई सवाल हुए। इस बाबत नए-पुराने संपादकों और वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत हुई है। प्रस्तुत है उसकी पहली खेप- *मुलाकात का दायरा कुछ ज्यादा ही संकुचित था **: ** ओम थानवी* *(जनसत्ता के संपादक)* हमारे देश में ही ऐसा है कि जब संपादकों को प्रधानमंत्री से बातचीत के लिए बुलाया जाता है तो संपादक उस बातचीत को इस तरह रिपोर्ट करते हैं जैसे कोई रिपोर्टर किया करते हैं, जबकि संपादकों से खबरों के आर-पार देखने की आशा की जाती है। प्रधानमंत्री जो कहते है, उसके बीच जो अनकहा है, उसे पकड़ने और कहे-अनकहे का विश्लेषण करने की अपेक्षा संपादक से पाठक करते हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कोई प्रेस वार्ता नहीं बुलाई थी। जिन अखबारों के संपादकों को वहां बुलाया गया था, वे अपने-अपने अखबारों में जाकर बातचीत के हवाले से टिप्पणी लिख सकते थे। संपादकों से प्रधानमंत्री की मुलाकात को लेकर जो कवायतें हुईं, वह पीआर की कसरत जैसी थी। इस मुलाकात को लेकर मैं सोचता हूं कि यदि बातचीत छपने के मकसद से की जाती है तो प्रधानमंत्री को संपादकों की बजाय वरिष्ठ प्रत्रकारों और प्रधानमंत्री कार्यालय के कामकाज को कवर करते वालों से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे सवाल-जवाब का सिलसिला बनता है। वे लोग प्रधानमंत्री के ज्यादा संपर्क में हैं, उनके काम-काज को अधिक नजदीक से देखते हैं और सवाल भी खड़े कर सकते हैं,जिससे प्रधानमंत्री की तरफ से ऐसी बातें निकलकर आ सकती हैं, जिनसे बड़ी खबर बनती हो। संपादकों के साथ बातचीत तो आमतौर पर अनौपचारिक होती है। संपादक रिपोर्टर नहीं होते, लेकिन यह अजीबोगरीब स्थिति हमारे यहां ही है कि संपादक से अपेक्षा की जाती है कि अगर प्रधानमंत्री से बातचीत करें तो एक रिपोर्टर की तरह उस बातचीत से निकलने वाले खबरी तत्वों को बीन लें और पाठकों-दर्शकों के सामने रखें। आप देखेंगे कि जब प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाते हैं तो उस समय भी हमारे देश के संपादक उनके साथ रिपोर्टिंग के लिए जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि और किसी देश में ऐसा होता होगा। हमारे यहां अमेरिका के राष्ट्रपति आते हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी ‘न्यूयार्क टाइम्स’ और ‘वाशिंगटक पोस्ट’ के संपादक अपने राष्ट्रपति के साथ रिपोर्टिंग करने के लिए यहां आए हों। ऐसा नहीं है कि एक संपादक अच्छा रिपोर्टर नहीं हो सकता, लेकिन जब किसी काम के लिए विशेषज्ञ रिपोर्टर तैनात है तो यह काम भी उन्हीं के जिम्मे आता है। प्रधानमंत्री चाहे देश में बोल रहे हों या विदेश जाकर, पीएमओ कवर करने वाले संवाददाता की जिम्मेदारी होती है कि वे इसकी रिपोर्टिंग करें। यह संपादक की जिम्मेदारी नहीं है। संपादक के साथ अनौपचारिक बातचीत प्रधानमंत्री कर सकते हैं, संपादको को इससे प्रधानमंत्री का मानस समझने में मदद मिल सकती है, लेकिन खबरों के प्रकटिकरण के लिए, उनके प्रसार के लिए प्रधानमंत्री को वरिष्ठ पत्रकारों से मिलना चाहिए। न कि संपादकों से। देवगौडा और वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तो उनके साथ संपादकों की बातचीत में मैं शामिल हुआ। वह बातचीत हमेशा अनौपचारिक होती थी। उसमें सवाल-जवाब भी होते थे, पर अनौपचारिक माहौल में ही, प्रेस वार्ता की शक्ल में नहीं। प्रधानमंत्री और संपादकों के बीच बेहतर संबंध बने, इसकी कोशिश प्रधानमंत्री के सलाहकार करते हैं। इसमें कोई हर्ज नहीं है, लेकिन मेरे ख्याल में ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री पांच-पांच संपादकों के समूह से मिलें और उनके सवालों का जवाब दें। मुझे हैरानी होती है कि देश में इतने संपादक हैं उन सबों से एक-एककर मिलने में प्रधानमंत्री का कितना समय व्यतीत होगा। उन संपादकों में अनेक ऐसे हैं जो अपने अखबारों या टेलीविजन चैनलों के मालिक हैं या फिर उनकी पूंजी में भागीदार हैं। ऐसे लोगों के अपने स्वार्थ होंगे ही, तो जब वे इस तरह के संवाद में हिस्सा लेने प्रधानमंत्री के घर जाएंगे तो सवाल पूछने से ज्यादा उनकी दिलचस्पी उनसे अच्छे संबंध बनाने की होगी। इस तरह दोनों तरफ से ऐसी मुलाकातें संबंध गांठने की कार्यवाही ज्यादा होकर रह जाएगी। एक और बात है, प्रधानमंत्री के मानस को समझने की उम्मीद संपादक से होती है। वह रिपोर्टर के रूप में पेश हो जाएं तो उनका समय ऐसे काम में व्यतीत होगा जिसे कहीं ज्यादा रचनात्मक काम में लगाया जा सकता है। वैसे भी इस तरह की बातचीत का केवल एक दौर पर्याप्त हो नहीं सकता तो क्या प्रधानमंत्री बारंबार संपादकों के इन समुहों से मिलेंगे। प्रधानमंत्री का काम खबरें बांटना नहीं है, लेकिन पत्रकार का स्वभाव प्रधानमंत्री से हर बातचीत में और हर जगह खबर का तत्व ढूंढ़ना जरूर है। प्रधानमंत्री के पास अगर इतना समय मीडिया के लिए निकलता है तो वे अपेक्षया बड़े समुहों के वरिष्ठ पत्रकारों से रू-ब-रू हों, न कि चुनिंदा संपादकों के समूह से। प्रधानमंत्री की अबतक की प्रेस वार्ता का कलेवर यदि बहुत विराट होता था तो संपादकों के साथ प्रेस वार्ता जैसी इन मुलाकातों का दायरा कुछ ज्यादा ही संकुचित नजर आता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 11 11:50:25 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Jul 2011 11:50:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS14KSm?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSkIOCkuOClhyDgpKzgpL7gpKTgpJrgpYDgpKQ=?= Message-ID: *संपादकों ने अपनी नई भूमिका चुनी है- देवदत्त ** (**वरिष्ठ पत्रकार)* प्रधानमंत्री ने संपादकों से अपनी बात कहने के लिए बुलाया था। इसके लिए चार-पांच बड़े राष्ट्रीय अखबारों को ही चुना। पर इसकी कोई जरूरत नहीं थी। वे प्रेस वार्ता करते, जहां खुले सवाल होते और खुली बातचीत भी होती। यह तो किसी पत्रकार वार्ता से अधिक प्रधानमंत्री का अपना पीआर था। पहले भी संपादक प्रधानमंत्री के पास जाते थे और उनसे बातचीत करते थे। जवाहरलाल नेहरू और शास्त्रीजी के समय भी ऐसा होता था। वरिष्ठ पत्रकार निजी तौर पर भी जाते थे। प्रधानमंत्री से बातचीत करते थे। इससे आपस में समझ बनती थी। पर, प्रधानमंत्री का पीआर करना पहली बार हुआ है। मेरी समझ से यह नए लोगों का अपना नया ढंग है। संपादकों की नई सोच है। मेरा कहना यह है कि प्रधानमंत्री को अगर अपना पीआर करना है तो वह करें, पर उनका यह माध्यम गलत है। संपादकों ने बाहर आकर प्रधानमंत्री के जिस मत को जाहिर किया उससे आज के राजनैतिक माहौल या गतिविधियों पर अधिक रोशनी नहीं पड़ती। ऐसा पहली बार ही हुआ है, जब प्रधानमंत्री संपादकों के एक समूह को अपने विश्वास में लेकर पीआर करा रहे हैं। मेरी याद में तो ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय मीडिया को अधिक महत्व दे दिया है। हालांकि आज के दौर में उसका स्थान स्थानीय मीडिया का भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब संपादक भी मत निर्माण के कार्य में एक कारक बनना चाहते हैं। वे अपने स्वाभाविक कार्य पत्रकारिता से आगे की गतिविधि में भाग ले रहे हैं। यह एक नया रिवाज शुरू हुआ है। बतौर संपादक उन्हें जो करना है वह वे अपने अखबार के माध्यम से लिख-बोल कर करें, लेकिन उनका जनता के बीच जाकर मत निर्माता बनना बिलकुल नया है। यह पत्रकारिता परंपरा में नहीं है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jul 11 11:51:26 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 11 Jul 2011 11:51:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KWN4KSc?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOClh+CkmuCkqOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYAg4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KS14KS+4KSv4KS+IOCkh+CkguCkuOCkvuCkqOCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KSkIOCkleCkviDgpIXgpLjgpY3gpKrgpKTgpL7gpLI=?= Message-ID: *मिसाल . * इलाज के अभाव में पति की मौत हुई, तब सुभाषिनी मिस्त्री के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ 90 पैसे थे। लेकिन सब्जी बेचने वाली इस महिला ने 23 बरस में पाई-पाई जोड़कर बनवाया अस्पताल * कोलकाता* यह एक आम महिला के बुलंद हौसलों की कहानी है। उसने तय किया था कि जिस अभिशाप ने उसका सुहाग उजाड़ा, वह उसे किसी और का नुकसान करने नहीं देगी। इस संकल्प को 40 बरस हो रहे हैं। कोलकाता के हंस पुकुड़ में सब्जी बेचने वाली सुभाषिनी मिस्त्री गरीबों के लिए सौ बिस्तरों वाला नि:शुल्क अस्पताल चलाती हैं। नाम है- ‘ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल’। अनपढ़ सुभाषिनी ने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया, जो अब अस्पताल का व्यवस्थापक है। समाजहित में लिए गए संकल्प की कहानी शुरू होती है वर्ष 1971 से, जब सुभाषिनी के पति, 35 साल के कृषि मजदूर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इतने पैसे ही नहीं थे कि उनका इलाज करवाया जा सके। तब सुभाषिनी ने मुफ्त अस्पताल बनवाने का संकल्प लिया था, ताकि किसी को गरीबी के कारण जान न गंवानी पड़े। वे याद करती हंै कि उस समय उनकी उम्र थी 23 साल। पति छोड़ गए थे चार बच्चे। सबसे बड़ा नौ और सबसे छोटा तीन साल का। उन दिनों वे कोई काम नहीं करती थीं। जमापूंजी के नाम पर थे सिर्फ 90 पैसे। भातेर पानी (माड़-चावल का पानी) के लिए पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था। कई बार उन्होंने घास उबाल कर नमक के साथ बच्चों को खिलाई। ऐसे बुरे दिनों में जब वे अस्पताल बनवाने का सपना बतातीं, तो लोग उन पर हंसते थे। परिवार पालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा करना शुरू किया। फिर जब थोड़े पैसे इकट्ठा हुए, तो सब्जी की दुकान डाल ली। काम कुछ भी किया, लेकिन थोड़े-थोड़े पैसे अपने अस्पताल के लिए भी जमा करती रहीं। पाई-पाई जुड़ती रही और सपना पलता रहा। इस साधना को चलते करीब 21 बरस हो गए। 1992 में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली। 1994 में एक अस्थायी अस्पताल शुरू हो गया। दो हजार वर्गफुट जमीन पर यह मुफ्त अस्पताल एक झोपड़ी में प्रारंभ हुआ। अब मदद के हाथ भी बढ़ने लगे। आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्गफुट जमीन, दुमंजिला इमारत, मरीजों के लिए 100 बिस्तर और ऑपरेशन थिएटर हैं। इसकी चर्चा बंगाल भर में है। यहां प्रतिदिन 50-60 मरीज पहुंचते हैं। *मुझे एहसास है उस दर्द का* मैं जानती हूं कि किसी को खोने का दर्द क्या होता है। मैंने इलाज के अभाव में अपना पति खोया है। इसलिए चाहती हूं कि इलाज न करा पाने की मजबूरी में किसी को अपना प्रियजन न खोना पड़े। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jul 11 11:51:26 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 11 Jul 2011 11:51:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KWN4KSc?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOClh+CkmuCkqOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYAg4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KS14KS+4KSv4KS+IOCkh+CkguCkuOCkvuCkqOCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KSkIOCkleCkviDgpIXgpLjgpY3gpKrgpKTgpL7gpLI=?= Message-ID: *मिसाल . * इलाज के अभाव में पति की मौत हुई, तब सुभाषिनी मिस्त्री के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ 90 पैसे थे। लेकिन सब्जी बेचने वाली इस महिला ने 23 बरस में पाई-पाई जोड़कर बनवाया अस्पताल * कोलकाता* यह एक आम महिला के बुलंद हौसलों की कहानी है। उसने तय किया था कि जिस अभिशाप ने उसका सुहाग उजाड़ा, वह उसे किसी और का नुकसान करने नहीं देगी। इस संकल्प को 40 बरस हो रहे हैं। कोलकाता के हंस पुकुड़ में सब्जी बेचने वाली सुभाषिनी मिस्त्री गरीबों के लिए सौ बिस्तरों वाला नि:शुल्क अस्पताल चलाती हैं। नाम है- ‘ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल’। अनपढ़ सुभाषिनी ने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया, जो अब अस्पताल का व्यवस्थापक है। समाजहित में लिए गए संकल्प की कहानी शुरू होती है वर्ष 1971 से, जब सुभाषिनी के पति, 35 साल के कृषि मजदूर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इतने पैसे ही नहीं थे कि उनका इलाज करवाया जा सके। तब सुभाषिनी ने मुफ्त अस्पताल बनवाने का संकल्प लिया था, ताकि किसी को गरीबी के कारण जान न गंवानी पड़े। वे याद करती हंै कि उस समय उनकी उम्र थी 23 साल। पति छोड़ गए थे चार बच्चे। सबसे बड़ा नौ और सबसे छोटा तीन साल का। उन दिनों वे कोई काम नहीं करती थीं। जमापूंजी के नाम पर थे सिर्फ 90 पैसे। भातेर पानी (माड़-चावल का पानी) के लिए पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था। कई बार उन्होंने घास उबाल कर नमक के साथ बच्चों को खिलाई। ऐसे बुरे दिनों में जब वे अस्पताल बनवाने का सपना बतातीं, तो लोग उन पर हंसते थे। परिवार पालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा करना शुरू किया। फिर जब थोड़े पैसे इकट्ठा हुए, तो सब्जी की दुकान डाल ली। काम कुछ भी किया, लेकिन थोड़े-थोड़े पैसे अपने अस्पताल के लिए भी जमा करती रहीं। पाई-पाई जुड़ती रही और सपना पलता रहा। इस साधना को चलते करीब 21 बरस हो गए। 1992 में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली। 1994 में एक अस्थायी अस्पताल शुरू हो गया। दो हजार वर्गफुट जमीन पर यह मुफ्त अस्पताल एक झोपड़ी में प्रारंभ हुआ। अब मदद के हाथ भी बढ़ने लगे। आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्गफुट जमीन, दुमंजिला इमारत, मरीजों के लिए 100 बिस्तर और ऑपरेशन थिएटर हैं। इसकी चर्चा बंगाल भर में है। यहां प्रतिदिन 50-60 मरीज पहुंचते हैं। *मुझे एहसास है उस दर्द का* मैं जानती हूं कि किसी को खोने का दर्द क्या होता है। मैंने इलाज के अभाव में अपना पति खोया है। इसलिए चाहती हूं कि इलाज न करा पाने की मजबूरी में किसी को अपना प्रियजन न खोना पड़े। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 11 13:11:11 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Jul 2011 13:11:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KS/4KSa?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSa4KS+IOCkruClh+CkgiDgpK7gpKfgpYHgpJXgpLAg4KSJ?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSn4KWN4KSv4KS+4KSv?= Message-ID: *लिखना या बोलना चाहिए तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से**: ** मधुकर उपाध्याय** *(वरिष्ठ पत्रकार) संपादकों की प्रधानमंत्री से मुलाकात शायद ऑफ दी रिकार्ड थी। पर ऐसी कोई भी मुलाकात चाहे वह ‘ऑन द रिकार्ड’ हो या फिर ‘ऑफ द रिकार्ड’ बातचीत के दौरान अपना बेहतर पक्ष ही रखेगा। यदि आप ऐसी किसी भी बातचीत से बाहर निकलकर बोलेंगे तो आपके पास नकारात्मक कहने को ज्यादा कुछ नहीं होगा। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी बातों को जिस तरह व्यक्त किया, ठीक उसी तरह इन संपादकों ने भी बाहर आकर बातों को रखा। इस तरह वे वही काम कर गए जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय को करना चाहिए था। तब बहुत सारे लोगों को ऐसा लगेगा कि वह प्रवक्ता की तरह बात कर रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि संपादकों को बाहर आकर इस तरह की बातें करनी चाहिए थी या नहीं ? क्या वहां कोई ऐसे सवाल भी हुए, जिसपर इन लोगों ने कुछ नहीं कहा। यह मुख्य बात है। इस तरह की मुलाकातें विदेशों में अकसर होती हैं। पर वहां कोई पत्रकार इस तरह मीडिया में हीरो नहीं बनता। इससे संपादक का पद सवालों के घेरे में आता है। यदि आप किसी के प्रवक्ता होना चाहते हैं तो यह अलग बात है। अगर आपने अपने सोचने, समझने और विचार करने की शक्ति को छोड़ना तय कर लिया है तो कोई क्या कर सकता है। हालांकि इससे पत्रकारिता की छवि पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। यह व्यक्तिगत विश्वसनीयता से जुड़ा प्रश्न है। इससे पत्रकारित की छवि पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसी व्यक्तिगत मुलाकात सौ फीसद ऑफ द रिकार्ड थी। हां, अगर आपको लगता है कि इस पर लिखना या बोलना चाहिए तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से कहते। यह प्रधानमंत्री के साथ संपादकों की पहली बैठक है और ऐसा भी नहीं है कि संपादकों ने बाहर आकर पहली बार कुछ कहा हो। पहले भी ऐसा हुआ है। सवाल यह है कि आप किस बात को उठा रहे हैं। क्या प्रधानमंत्री ने केवल इतना ही कहा और उनसे इतना ही पूछा गया था, जिससे सारी सकारात्मक बातें ही सामने आईं। पूरी दुनिया में वरिष्ठ पत्रकारों की प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों से मुलाकातें होती हैं। इसका मतलब यह तो नहीं है कि बाहर आकर आप एक खुशनुमा तस्वीर पेश करने लगें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 11 13:19:58 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Jul 2011 13:19:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KS/4KSa?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSa4KS+IOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLDgpKbgpYDgpKog?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5ICjgpLXgpLDgpL/gpLfgpY3gpKAg4KSq4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSV4KS+4KSwKQ==?= Message-ID: *संपादकों का व्यवहार प्रोफेशनलिज्म से परे** : **प्रदीप सिंह* ( वरिष्ठ पत्रकार) कुल पांच संपादक प्रधानमंत्री से मिलने गए थे, उनमें से तीन संपादकों ने मीडिया से कोई बातचीत नहीं की। उनका जो व्यवहार था, वह प्रोफेशनल था। पत्रकारिता के मानक के अनुरूप था। उनसे यही अपेक्षा भी थी कि प्रधानमंत्री से बातचीत के बाद उनकी जो राय बनी है उसे वे अपने अखबार, एजेंसी या फिर पत्रिका जिससे जुड़े हैं उसमें लिखेंगे और अपने पाठकों को बताएंगे। किसी से यह अपेक्षा नहीं थी कि वे सरकार के प्रवक्ता की तरह बोलने लगेंगे। सरकार के लिए वह बड़ी अच्छी स्थित होती है जब पत्रकार खास तौर पर वरिष्ठ पत्रकार सरकार के प्रवक्ता की तरह बोलने लगे। प्रधानमंत्री या सरकार का तो काम ही है कि वह अपना पक्ष रखे और अपने पक्ष से ज्यादा से ज्यादा लोगों को सहमत करे। अब अगर आप मीडिया में हैं तो आपकी जिम्मेदारी है कि एक निरपेक्ष आकलन लोगों के सामने प्रस्तुत करें। यह बताएं कि सरकार जो कह रही है और जो कर रही है, उसकी जो नीति और नियत है उसमे क्या फर्क है। या फिर दोनों एक है। जनता को यह बताने की जिम्मेदारी मीडिया की है। हालांकि उनके इस व्यवहार से लोगों के मन में जो पत्रकारों की छवि है उसमें कोई खास बदलाव नहीं आने वाला है। इससे सिर्फ यह लगेगा कि सरकार के प्रति झुकने के लिए काफी लोग बहुत जल्दी तैयार हैं। जिन लोगों ने प्रधानमंत्री से बातचीत की उनके प्रोफेशनल कमिटमेंट पर हम सवाल नहीं उठा सकते। वे बड़े पत्रकार रहे हैं। हो सकता है कि प्रधानमंत्री ने जो कहा उससे वे पूरी तरह सहमत थे। फिर भी अच्छा होता कि वे अपनी बात संबद्ध अखबार के जरिए कहते। आमतौर पर होता यह है कि प्रधानमंत्री खुली प्रेस वार्ता बुलाते हैं या फिर ऑफ दी रिकार्ड ब्रिफिंग करते हैं। कोई बहुत गंभीर मुद्दा हो जैसे- देश की सुरक्षा का मामला या देश की अर्थव्यवस्था से सम्बंधित कोई बड़ा फैसला करना हो तो उससे पहले एक तरह की बातचीत होती है। इसका उद्देश्य स्थिति को समझना होता है, लेकिन इस तरह का प्रयोग पहली बार हुआ है। सिर्फ पांच लोगों को बुलाया गया। यह चुनाव किस आधार पर हुआ, यह सरकार जानती होगी। खैर, बुलाया गया और प्रधानमंत्री से बातचीत हुई तो उन संपादकों से अपेक्षा थी कि वे अपने अखबारों में विचार रखेंगे, जिससे लोगों को पता चलेगा की प्रधानमंत्री की क्या राय है। विभिन्न विषयों पर जो विवाद उठ खड़ा हुआ है उसपर प्रधानमंत्री क्या राय रखते हैं। पर ऐसा नहीं हुआ। मालूम होता है कि यह प्रयोग मीडिया को मैनेज करने के लिए किया जा रहा है। अब यह मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह मैनेज होता है या नहीं। यदि प्रतिशत में इसे देखें तो पांच में से दो संपादक ऐसे थे जो मीडिया के सामने बोले। इस तरह साठ प्रतिशत मीडिया तो मैनेज नहीं हुआ। मतलब बहुमत तो मैनेज नहीं हुआ। प्रथम प्रवक्ता -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 11 13:23:45 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Jul 2011 13:23:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSq4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KSV4KWL4KSCIOCkleCliyDgpKrgpY3gpLDgpKfgpL7gpKjgpK4=?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpLXgpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkqOCkueClgOCkgiDgpKzgpKjgpKjgpL4g4KSa4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSPLSDgpIngpKbgpK8g4KS44KS/4KSo4KWN4KS54KS+?= Message-ID: *संपादकों को प्रधानमंत्री का प्रवक्ता नहीं बनना चाहिए- उदय सिन्हा (**हैड चैनल वन)* संपादक जब प्रधानमंत्री से मिलकर बाहर आये तो ऐसा बिलकुल नहीं लगा कि संपादक बोल रहे हैं। तब ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री के प्रवक्ता बोल रहे हैं। हालांकि, यह तो नहीं कहा जा सकता है कि वह सरकार के प्रवक्ता की तरह बोल रहे थे, लेकिन कुमार केतकर जी और आलोक मेहता जी दोनों प्रधानमंत्री के प्रवक्ता की तरह जरूर बोल रहे थे। वे कह रहे थे कि प्रधानमंत्रीजी ऐसा चाहते हैं, पीएम यह चाहते हैं, आदि-आदि। मुझे ऐसा लगता है कि पीएम के प्रवक्ता की भूमिका संपादकों को नहीं निभानी चाहिए थी। यह भी महसूस होता है जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने या प्रधानमंत्री ने पत्रकारों के विरोध में ही कुछ पत्रकारों को खड़ा किया, ताकी कुछ लोग सरकार का पक्ष रखें और उसको आगे फैलाएं। यह सच है कि किसी वरिष्ठ पत्रकार को मीडिया में इस तरह बोलना शोभा नहीं देता है, लेकिन अगर हम इससे पत्रकारिता की छवि का आंकलन करने लगेंगे तो गलत होगा, क्योंकि पत्रकारिता तो एक व्यापक शब्द है। किसी एक घटना से पत्रकारिता की छवि न तो खराब होती है, न ही सुधरती है। पत्रकारिता की छवि पर असर तो किसी सिलसिलेवार घटना के बाद ही होता है। पर हां प्रधानमंत्री के प्रवक्ता के तौर पर बात कर के इन लोगों ने संपादकों की गरिमा को जरूर घूमिल करने का काम किया है। इससे पत्रकारिता की छवि घूमिल नहीं हुई है। हां, उसका उद्देश्य क्रिया-कलाप जो उन्हें करना चाहिए था, यह निश्चित तौर पर नहीं हुआ। आखिर पत्रकारिता का तो काम ही है कि वह सरकार की कमियों को बताए। सरकार के पक्ष की बातें बताना पत्रकार का काम नहीं होता। यह भूमिका उलट होनी चाहिए थी। उन्हें प्रधानमंत्री को यह बात बताना चाहिए था कि जनता के मन में ये बातें हैं तो शायद ज्यादा बेहतर होता। एक और महत्वपूर्ण बात है। वह यह कि प्रधानमंत्री पांच संपादकों से मिले। पांच में से सिर्फ दो ही संपादकों को मीडिया से बात करते हुए देख गया। एक कुमार केतकर और दूसरे आलोक मेहता। अब यह बात समझने वाली है कि क्या इन पांचो संपादकों ने मिलकर इन दोनों को अपना प्रवक्ता नियुक्त किया था कि वे दोनों सबों की ओर से बात करेंगे। या फिर यह प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से कहा गया था कि ये दो संपादक ही बाहर जाकर मीडिया से बात करेंगे। वैसे आमतौर पर ऐसी ब्रिफिंग प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार का काम है, किसी संपादक का नहीं। इस पर भी चर्चा होनी चाहिए की यह भूमिका किसने तय की? यदि प्रधानमंत्री कार्यालय से यह भूमिका तय हुई है तो निश्चित रूप से जानिए की वह प्रधानमंत्री के प्रवक्ता के तौर पर बोल रहे थे। प्रथम प्रवक्ता -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jul 15 12:23:52 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Fri, 15 Jul 2011 12:23:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KSq4KSk4KS/IOCkleClgCDgpK/gpL7gpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOCkv+CknOClgCDgpKXgpYAg4KSv4KS+IOCkuOCksOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWA?= Message-ID: असल में बहस तो इस मुद्दे पर होनी चाहिये कि शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिये व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन की महीन-सी फांक में अंतर कैसे किये जाये, लेकिन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के कार्यालय की चुप्पी ने बहस को दूसरी दिशा में मोड़ दिया है. चुप्पी तो गोवा सरकार में भी है. गोवा के एरिस रॉडरिक्स ने हाल ही में गोवा सरकार और भारत सरकार को चिट्ठी लिखी है, लेकिन वहां अभी भी मौन पसरा हुआ है. एरिस रॉडरिक्स का सवाल केवल इतना भर है कि राष्ट्रपति का गोवा दौरा अगर निजी था, तो आखिर सरकारी खजाने को इस निजी यात्रा के लिये क्यों लुटाया गया ? और अगर दौरा सरकारी था तो सरकार वह काम क्यों नहीं बताती, जिसके लिये राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को अपने पूरे कुनबे के साथ गोवा आना पड़ा ? सरकारें आम जनता को गुमराह करने का काम क्यों करती हैं ? मामला इसी साल जनवरी महीने का है, जब राष्ट्रपति गोवा आई थीं. उस समय तीन फोटो पत्रकारों ने गोवा के तट पर उनकी तस्वीर ली. फोटो पत्रकारों ने राष्ट्रपति की तस्वीर उस समय लीं जब वह एक रंगीन साड़ी में बेनाउलिम समुद्र तट पर बैठी हुई थीं. उनके पास से एक विदेशी जोड़ा तैराकी की पोशाक में वहां से गुजर रहा था. यह तस्वीर अगले ही दिन स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी हुई. तस्वीर छपने के बाद मडगांव पुलिस ने तीन फोटो पत्रकारों को थाने में तलब किया. यह तीन पत्रकार थे- गगनदीप शेलदेकर, सोइरु कुमार पंत और अरविन्द तेंगसे. अरविन्द के अनुसार पुलिस ने उन्हें बताया कि यह महामहिम राष्ट्रपति की निजी यात्रा है और इसमें तस्वीर नहीं ली जा सकती. इसलिए सभी पत्रकारों को पहले ही राष्ट्रपति के घेरे से दूर रहने की हिदायत दी गई थी. देसी दूर-दूर, विदेशी पास-पास सरकारी प्रताड़ना के शिकार अरविन्द तेंगसे कहते हैं-“भारत के अंदर कोई समुद्र तट निजी नहीं है. माननीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जिस गोवा के बेनॉलिम तट पर बोटिंग और रेत पर चलने का आनन्द ले रहीं थीं, सुरक्षा की दृष्टि से हम फोटो पत्रकारों को उससे 200 मीटर की दूरी पर खड़ा किया गया था. लेकिन यह दिलचस्प है कि यही कानून उन्होंने गोरी चमड़ी वाले विदेशी सैलानियों पर लागू नहीं किया. वे सब उनके आस-पास मौजूद थे. क्या राष्ट्रपति को हमसे खतरा हो सकता था और उन गोरी चमड़ी वालों से कोई खतरा नहीं हो सकता था? क्या हम इस बात को भूल गये कि डेविड हेडली भी टूरिस्ट विजा लेकर भारत आया था और उसने मुम्बई में आतंकी हमले की योजना बनाई थी.” गोवा पत्रकार संघ के अध्यक्ष राजतिलक नायक से जब इस मुद्दे पर बात हुई तो उन्होंने इस पुराने मामले को याद करते हुए बहुत साफगोई से कहा-“ हमारा पक्ष प्रारंभ से ही साफ है, यदि कोई पत्रकार राष्ट्रपतिजी की तस्वीर समुद्र तट जैसी सार्वजनिक जगह पर लेता है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. फोटो पत्रकार अपनी नौकरी कर रहे हैं. राष्ट्रपतिजी गोवा में हैं और वे समुद्र तट पर आईं, यह एक खबर है, जिसको लेकर एक आम गोवा वाले में उत्सुकता है. इस जानकारी को हम तस्वीर के माध्यम से अधिक मुकम्मल तरिके से अपने पाठकों के बीच पहुंचा सकते हैं.” नायक कहते हैं- “समुद्र तट तो एक सार्वजनिक जगह है, यहां तस्वीर लेने का हमें हक है. राष्ट्रपतिजी तो एक लोकसेवक हैं, इस बात में उन्हें भी परेशानी नहीं होनी चाहिए.” अब यह सवाल किसी के मन में आ सकता है कि लगभग सात महीने पहले गुजर चुकी इस घटना का इतने दिनों बाद एक बार फिर जिक्र क्यों आया? इसका जिक्र आया गोवा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स की वजह से, जिन्होंने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण जानकारी जुटाई. खर्चा सरकारी, यात्रा निजी ? तीन से छह जनवरी तक राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की जिस गोवा यात्रा को सरकारी सूत्रों ने पूरी तरह से निजी यात्रा बताया था, रॉडरिक्स को सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार यह पूरी तरह से सरकारी खर्चे पर हुई सरकारी यात्रा थी. गोवा सरकार के प्रोटोकॉल विभाग से मिली जानकारी के अनुसार विभाग ने राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की चार दिनों की गोवा यात्रा पर कुल चौदह लाख, अठारह हजार, सात सौ बहत्तर रुपये खर्च किया हैं. इसमें 5 जनवरी की शाम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के सम्मान में राज्यपाल डा. एसएस सिन्धु के घर पर आयोजित रात्रि भोज का खर्च शामिल नहीं है. वरिष्ठ अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स को मिली जानकारी के अनुसार इस दौरे में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने पति देवीसिंह शेखावत, अपनी बेटी ज्योति राठोर, पोती वेदिका राठौर और 36 अन्य कर्मचारियों के साथ आईं थीं. इस यात्रा में तीन लाख, बीस हजार, दो सौ पचास रुपये सिडाडे डी गोवा में रुके लोगों पर और एक लाख, उन्तीस हजार, नौ सौ पन्द्रह रुपये का खर्च इंटरनेशनल सेन्टर में रुके लोगों पर किया गया। गोवा पर्यटन विकास विभाग से किराए पर लिए गए वाहनों पर छह लाख, तेईस हजार, एक सौ अट्ठासी रुपये खर्च किए गए. चार जनवरी को दो लाख, एक हजार, दो सौ बीस रुपये का खर्च खाने-पीने और बेनॉलिम तट घूमने पर खर्च किया गया. 6 जनवरी को दिन का खाना मुख्यमंत्री दिगम्बर कामत की तरफ से था, जो सिडाडे डी, गोवा में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के सम्मान में रखा गया था. इस पर एक लाख, उन्नीस हजार, नौ सौ निन्यानवे रुपये का खर्च आया. वहीं बीस हजार रुपये का खर्च बोट पर घूमने में, पारा सेलिंग और जेट स्कीट पर आया. जिसका आयोजन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के लिए ही किया गया. जो फूल उन्हें भेंट स्वरुप दिए गए, वे चौवालिस सौ रुपये के थे. यदि राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल सरकारी कामकाज से गोवा आईं थीं तो किसी को क्या एतराज हो सकता है लेकिन अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स सक्षम अधिकारियों से इतनी जानकारी चाहते हैं कि यदि राष्ट्रपति राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल यहां निजी यात्रा की जगह सरकारी यात्रा पर थीं तो उनका गोवा में चार दिनों का सरकारी काम क्या था? वे कहते हैं- “राज्य के राजकोष से खर्च हुए पैसे-पैसे की जवाबदेही तय होनी चाहिए. लोगों की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा किए गए पैसे का इस तरह सार्वजनिक दुरूपयोग बंद होना चाहिए. राष्ट्रपतिजी की गोवा यात्रा पर एक छोटी सी जानकारी उपलब्ध करा दीजिए कि यदि वे यहां निजी यात्रा की जगह सरकारी यात्रा पर थीं तो चार दिनों तक वे किस सरकारी काम से गोवा में थीं? क्या सक्षम अधिकारी यह जानकारी सार्वजनिक कर सकते हैं? ” जाहिर है, उनके इस सवाल पर सब तरफ चुप्पी है. (जस का तस रविवार पर प्रकाशित:- http://www.raviwar.com/news/566_goa-fun-by-president-of-india-anshu.shtml) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jul 15 12:23:52 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Fri, 15 Jul 2011 12:23:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KSq4KSk4KS/IOCkleClgCDgpK/gpL7gpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOCkv+CknOClgCDgpKXgpYAg4KSv4KS+IOCkuOCksOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWA?= Message-ID: असल में बहस तो इस मुद्दे पर होनी चाहिये कि शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिये व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन की महीन-सी फांक में अंतर कैसे किये जाये, लेकिन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के कार्यालय की चुप्पी ने बहस को दूसरी दिशा में मोड़ दिया है. चुप्पी तो गोवा सरकार में भी है. गोवा के एरिस रॉडरिक्स ने हाल ही में गोवा सरकार और भारत सरकार को चिट्ठी लिखी है, लेकिन वहां अभी भी मौन पसरा हुआ है. एरिस रॉडरिक्स का सवाल केवल इतना भर है कि राष्ट्रपति का गोवा दौरा अगर निजी था, तो आखिर सरकारी खजाने को इस निजी यात्रा के लिये क्यों लुटाया गया ? और अगर दौरा सरकारी था तो सरकार वह काम क्यों नहीं बताती, जिसके लिये राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को अपने पूरे कुनबे के साथ गोवा आना पड़ा ? सरकारें आम जनता को गुमराह करने का काम क्यों करती हैं ? मामला इसी साल जनवरी महीने का है, जब राष्ट्रपति गोवा आई थीं. उस समय तीन फोटो पत्रकारों ने गोवा के तट पर उनकी तस्वीर ली. फोटो पत्रकारों ने राष्ट्रपति की तस्वीर उस समय लीं जब वह एक रंगीन साड़ी में बेनाउलिम समुद्र तट पर बैठी हुई थीं. उनके पास से एक विदेशी जोड़ा तैराकी की पोशाक में वहां से गुजर रहा था. यह तस्वीर अगले ही दिन स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी हुई. तस्वीर छपने के बाद मडगांव पुलिस ने तीन फोटो पत्रकारों को थाने में तलब किया. यह तीन पत्रकार थे- गगनदीप शेलदेकर, सोइरु कुमार पंत और अरविन्द तेंगसे. अरविन्द के अनुसार पुलिस ने उन्हें बताया कि यह महामहिम राष्ट्रपति की निजी यात्रा है और इसमें तस्वीर नहीं ली जा सकती. इसलिए सभी पत्रकारों को पहले ही राष्ट्रपति के घेरे से दूर रहने की हिदायत दी गई थी. देसी दूर-दूर, विदेशी पास-पास सरकारी प्रताड़ना के शिकार अरविन्द तेंगसे कहते हैं-“भारत के अंदर कोई समुद्र तट निजी नहीं है. माननीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जिस गोवा के बेनॉलिम तट पर बोटिंग और रेत पर चलने का आनन्द ले रहीं थीं, सुरक्षा की दृष्टि से हम फोटो पत्रकारों को उससे 200 मीटर की दूरी पर खड़ा किया गया था. लेकिन यह दिलचस्प है कि यही कानून उन्होंने गोरी चमड़ी वाले विदेशी सैलानियों पर लागू नहीं किया. वे सब उनके आस-पास मौजूद थे. क्या राष्ट्रपति को हमसे खतरा हो सकता था और उन गोरी चमड़ी वालों से कोई खतरा नहीं हो सकता था? क्या हम इस बात को भूल गये कि डेविड हेडली भी टूरिस्ट विजा लेकर भारत आया था और उसने मुम्बई में आतंकी हमले की योजना बनाई थी.” गोवा पत्रकार संघ के अध्यक्ष राजतिलक नायक से जब इस मुद्दे पर बात हुई तो उन्होंने इस पुराने मामले को याद करते हुए बहुत साफगोई से कहा-“ हमारा पक्ष प्रारंभ से ही साफ है, यदि कोई पत्रकार राष्ट्रपतिजी की तस्वीर समुद्र तट जैसी सार्वजनिक जगह पर लेता है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. फोटो पत्रकार अपनी नौकरी कर रहे हैं. राष्ट्रपतिजी गोवा में हैं और वे समुद्र तट पर आईं, यह एक खबर है, जिसको लेकर एक आम गोवा वाले में उत्सुकता है. इस जानकारी को हम तस्वीर के माध्यम से अधिक मुकम्मल तरिके से अपने पाठकों के बीच पहुंचा सकते हैं.” नायक कहते हैं- “समुद्र तट तो एक सार्वजनिक जगह है, यहां तस्वीर लेने का हमें हक है. राष्ट्रपतिजी तो एक लोकसेवक हैं, इस बात में उन्हें भी परेशानी नहीं होनी चाहिए.” अब यह सवाल किसी के मन में आ सकता है कि लगभग सात महीने पहले गुजर चुकी इस घटना का इतने दिनों बाद एक बार फिर जिक्र क्यों आया? इसका जिक्र आया गोवा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स की वजह से, जिन्होंने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण जानकारी जुटाई. खर्चा सरकारी, यात्रा निजी ? तीन से छह जनवरी तक राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की जिस गोवा यात्रा को सरकारी सूत्रों ने पूरी तरह से निजी यात्रा बताया था, रॉडरिक्स को सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार यह पूरी तरह से सरकारी खर्चे पर हुई सरकारी यात्रा थी. गोवा सरकार के प्रोटोकॉल विभाग से मिली जानकारी के अनुसार विभाग ने राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की चार दिनों की गोवा यात्रा पर कुल चौदह लाख, अठारह हजार, सात सौ बहत्तर रुपये खर्च किया हैं. इसमें 5 जनवरी की शाम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के सम्मान में राज्यपाल डा. एसएस सिन्धु के घर पर आयोजित रात्रि भोज का खर्च शामिल नहीं है. वरिष्ठ अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स को मिली जानकारी के अनुसार इस दौरे में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने पति देवीसिंह शेखावत, अपनी बेटी ज्योति राठोर, पोती वेदिका राठौर और 36 अन्य कर्मचारियों के साथ आईं थीं. इस यात्रा में तीन लाख, बीस हजार, दो सौ पचास रुपये सिडाडे डी गोवा में रुके लोगों पर और एक लाख, उन्तीस हजार, नौ सौ पन्द्रह रुपये का खर्च इंटरनेशनल सेन्टर में रुके लोगों पर किया गया। गोवा पर्यटन विकास विभाग से किराए पर लिए गए वाहनों पर छह लाख, तेईस हजार, एक सौ अट्ठासी रुपये खर्च किए गए. चार जनवरी को दो लाख, एक हजार, दो सौ बीस रुपये का खर्च खाने-पीने और बेनॉलिम तट घूमने पर खर्च किया गया. 6 जनवरी को दिन का खाना मुख्यमंत्री दिगम्बर कामत की तरफ से था, जो सिडाडे डी, गोवा में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के सम्मान में रखा गया था. इस पर एक लाख, उन्नीस हजार, नौ सौ निन्यानवे रुपये का खर्च आया. वहीं बीस हजार रुपये का खर्च बोट पर घूमने में, पारा सेलिंग और जेट स्कीट पर आया. जिसका आयोजन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के लिए ही किया गया. जो फूल उन्हें भेंट स्वरुप दिए गए, वे चौवालिस सौ रुपये के थे. यदि राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल सरकारी कामकाज से गोवा आईं थीं तो किसी को क्या एतराज हो सकता है लेकिन अधिवक्ता एरिस रॉडरिक्स सक्षम अधिकारियों से इतनी जानकारी चाहते हैं कि यदि राष्ट्रपति राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल यहां निजी यात्रा की जगह सरकारी यात्रा पर थीं तो उनका गोवा में चार दिनों का सरकारी काम क्या था? वे कहते हैं- “राज्य के राजकोष से खर्च हुए पैसे-पैसे की जवाबदेही तय होनी चाहिए. लोगों की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा किए गए पैसे का इस तरह सार्वजनिक दुरूपयोग बंद होना चाहिए. राष्ट्रपतिजी की गोवा यात्रा पर एक छोटी सी जानकारी उपलब्ध करा दीजिए कि यदि वे यहां निजी यात्रा की जगह सरकारी यात्रा पर थीं तो चार दिनों तक वे किस सरकारी काम से गोवा में थीं? क्या सक्षम अधिकारी यह जानकारी सार्वजनिक कर सकते हैं? ” जाहिर है, उनके इस सवाल पर सब तरफ चुप्पी है. (जस का तस रविवार पर प्रकाशित:- http://www.raviwar.com/news/566_goa-fun-by-president-of-india-anshu.shtml) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Jul 21 11:54:39 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 21 Jul 2011 11:54:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSH4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCliyzgpLngpK7gpJXgpYsg4KSX4KS+4KSC4KS1IOCkquCksCA=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSW4KSo4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: कोशी नदी में लहरों का उफान इतना नहीं है कि वो टेलीविजन की खबर बन जाए,वहां ऐसी कोई तबाही नहीं हो रही है कि देश के नामचीन टेलीविजन चेहरे रिपोर्टिंग करने से लेकर कपड़ें बांटने तक चले जाएं। रेणु के मेरीगंज में मलेरिया का ऐसा कोई प्रकोप नहीं है कि दिल्ली और कोलकाता से डॉक्टरों की टीम रवाना की जाए। सहरसा,पूर्णिया,दरभंगा का इलाका अतुल्य भारत के हिस्से में नहीं आता कि जहां जाने की अपील आमिर खान करते नजर आएं। कुल मिलाकर इन इलाकों में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा जो कि खबर का हिस्सा बने। लेकिन गिरि(गिरीन्द्रनाथ झा) पिछले कई महीनों से लेकर अब तक दसों बार कह चुका है-भइया हो,हमको इ गांव पर लिखने का मन करता है। गिरि की इस एक लाइन में गांव के खबरों के कारोबार में पिछड़ जाने का दर्द है,वो कुछ लिखकर एक तरह से खबरों और मीडिया के धंधे में इन गांवों की हिस्सेदारी की मांग करता है। इस एक लाईन के आगे वो गांव पर लिखने के पीछे की तड़प के बारे में जो कुछ भी कहता है,उस पर मैं कई दिनों से कभी भावुक,कभी अतिसंवेदनशील(आंखों में आंसू झलझला जाने की हद तक) और कई बार तो फ्रस्ट्रेट तक हो जा रहा हूं कि आखिर मीडिया के लिए गांव इतना अछूत कैसे होता चला गया? भइया हो,एतना बड़ा देश में एतना सारा गांव लेकिन कहीं कोई खबर नहीं। खबर भी तो खाली हत्या,लूटपाट, जमीन कब्जा लेने,महामारी फैल जाने,अंधविश्वास के पीछे जान दे देने की,काहे कोई उल्लास पैदा करनेवाला खबर इस गांव में नहीं घटता है क्या? यहां का भी तो आदमी मोबाईल खरीदता है,यहां भी बाजा-गाजा सुनता है,सिनेमा देखता है,मेले-ठेले में कचरी-मूढ़ी खाकर परिवार के साथ आनंदित होता है लेकिन सबके सब निगेटिव खबर। दूर-देश में बैठा कोई शख्स वापस इस गांव में आना भी चाहे तो इन खबरों को पढ़कर घिना जाए,उसका मन कसैला हो जाए। पिछले दिनों गिरि ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी और बताया कि भगैत अवधबिहारीजी की आवाज के जादू ने मन मोह लिया तो उसने उनकी एक तस्वीर लेनी चाही। आपकी कोई तस्वीर नहीं है के जबाब में अवधबिहारीजी का जबाब था- *अहां क मोबाइल अछि कि, ब्लूटूथवा ऑन करू न। हमर मोबाइल से अहां क मोबाइल में फोटू पहुंच जाएत यौ। हमर पोता क अबै छै इ सब... * * * गिरि मीडिया में जिस गांव के शामिल किए जाने की मांग कर रहा है वो उसके मासूम करार देने की कोशिश नहीं है और न ही गांव को लेकर एक ऐसी नास्टॉल्जिक इमेज खड़ी कर देनी है कि आप शहर में रहने को एक पछतावे का फैसला मानने लग जाएं। गिरि की बस इतनी भर कोशिश और सवाल है कि आजाद भारत जो कि आजादी के बाद से कृषि प्रधान लोकतांत्रिक देश की पहचान के साथ आगे बढ़ा, साठ-पैंसठ साल बाद मीडिया के कारनामे से शीला और मुन्नी प्रधान देश हो गया। इन गांवों और कस्बों से सिर्फ आइटम सांग ही नकलकर आए,चैता,फगुआ,रागिनी निकलकर नहीं आयी. कृषि प्रधान देश की संस्कृति या तो इम्पोरियम और एनजीओ की गठजोड़ में शोषण के नए अड्डे बन गए या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चारागाह जिस पर कि कुछ भी चरने के लिए,लूटने के लिए छोड़ दिए जाएं। इन सबके बीच से हर गांव के भीतर दिल्ली-मुंबई-कोलकाता का एक-एक टुकड़ा घुसता चला गया जिसके कि आशीष नंदी ने बड़ी की खूबसूरती और तार्किक ढंग से शहर के स्तर या छल्ले के तौर पर विश्लेषित किया है। हर गांव की उपलब्धि उसके शहर हो जाने में देखी जाने लगी और हर गांव अपने भीतर शहर को समेटकर खुश होता रहा। शहर को पाने की ललक उसकी इतनी प्रबल रही है कि अपने भीतर खोने की सुध उसे नहीं है। गिरि जब कहता है कि भइया हम गांव पर लिखना चाहते हैं तो दरअसल वो मीडिया को फिर से कृषि प्रधान गांवों का देश की तरफ लौटने की बात करता है जो कि अब मीडिया के लिए शीला और मुन्नी प्रधान देश है। गिरि की इस सोच के पीछे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जो कि मैंने उससे की गई लंबी-लंबी चैट से महसूस किया कि खिचड़ी गांव एक बार पूरी तरह से पाटकर रेणु और बाबा नागार्जुन के जमाने के गांव में तब्दील कर दिए जाएं। लेकिन गिरि ही क्यों,हमें भी जब गांव से गुजरते हुए आज से दस साल पहले हर ट्यूबल पर जहां खाद,बीज,कीटनाशक के विज्ञापन और हर हाल में उन तस्वीरों में किसान और देहाती महिलाएं दिखा करती थी,अब सब जगह एयरटेल,रिलांयस,हीरो होंडा और नैनो के विज्ञापन दिखते हैं और अधकट्टी टॉप पहनी देसी मेम तो क्षोभ तो होता ही है कि ये कैसा गांव हम बनते देख रहे हैं जहां खेती तो चावल,अरहर,मसूर की होती है लेकिन लोग जीते-खाते है कुछ और ही चीजों के बीच हैं। आज अगर लाइफस्टाइल ही पत्रकारिता हो गई है तो फिर गांव के इन लोगों की लाइफस्टाइल मीडिया का हिस्सा क्यों नहीं है? क्यों हर मोबाइल पर बात करनेवाला डुप्लेक्स में ही रहेगा और हर फोन कॉल के पीछे पति का इंतजार और गर्लफ्रैंड की नोंक-झोंक की होगी। मोबाईल पर अवधबिहारीजी क्यों नहीं होंगे और 3जी स्पीड की चर्चा अररिया में एलडीसी के फार्म भरनेवाला क्यों नहीं करेगा? दरअसल जिस तकनीक और जीवनशैली पर शहर के लोग थै-थै कर रहे हैं औऱ सरकार जिसे अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है,उससे अगर लोगों के बीच खुशियां पैदा हुई है तो उसमें गांव के लोग शामिल क्यों नहीं है? कोशी में अभी जरुर कोई सावन को ध्यान करके हरी चूड़ियां पहन रही होगी,दो साल पहले बाढ़ में अपना पति खोई बिसुर रही होगी,लखनमा कटहल के कोवे के लिए मचल रहा होगा लेकिन है कोई कोशी के बारे में कहनेवाला? ये कितनी बड़ी साजिश है कि इन सभी चीजों का बाजार गांवों में तेजी से पसर रहा है लेकिन उससे जो सांस्कृतिक स्तर के बदलाव हो रहे हैं,वो मीडिया का हिस्सा नहीं बन पा रहा है। मीडिया में आकर गांव अभी भी या तो दूध-दही खाकर देह बनाने की जगह है,भक्तिन और देवी के चमत्कार पैदा होने की या फिर शीला और मुन्नी की जवानी देखकर वॉलीवुड के लिए आइटम सांग बनाने की। गांव की खबरों को लेकर मीडिया में जो स्वाभाविकता खत्म हुई है और एक स्टिरियो इमेज बनाने की कोशिशें हुई है,गिरि उससे अलग गांव पर लिखना चाहता है। ठीक वैसे ही कुछ-कुछ जैसे रेणु ने मैला आंचल में मलेरिया सेंटर खुलने,चीनी मिल के लगने और डॉ प्रशांत के रेडियो लाने पर लिखा है। गांव में आकर तकनीक,विज्ञान और इस्तेमाल की जानेवाली चीजें कैसे एक चरित्र के तौर पर शामिल हो जाते हैं और उसका एक मानवीय पक्ष होता है,वो शायद मेनस्ट्रीम मीडिया का कभी हिस्सा ही नहीं रहा। टेलीविजन पर की उत्सवधर्मिता गांव में खुश होने और उल्लास पैदा होने के छोटे-छोटे बहानों को ध्वस्त करके बाजार की ओर धकेलती है जहां पैसे नहीं तो उत्सव नहीं। गांव पर लिखने का गिरि का कचोटता मन शायद उन बहानों की खोज होगी जो वस्तु आधारित क्षण भर की खुशियों से कहीं आगे की चीज होगी।..रोते-बिलखते इस हिन्दुस्तान में ऐसी खुशियों और बहानों की खोज जरुरी है। अपीलः- गिरि जिस मीडियाहाउस के वेबपोर्टल के लिए काम करते हैं,उसमें शहर के आगे से सोचना लगभग गुनाह जैसा है लेकिन ये शख्स गांव का मन और शहर की समझ लेकर दिनभर किटिर-पिटिर करता है,अपनी दीहाड़ी के लिए। इससे इतर भी बहुत कुछ है कहने और बताने के लिए। मेरी यहां अपनी तरफ से अपील है कि आपलोगों में से किसी को भी गांव पर लिखने की गुंजाईश दिखती हो,स्पेस बनता दिखाई देता हो तो गिरि से जरुर संपर्क करें,गांवों को बचाने के लिए सड़कों पर के आंदोलन तो बहुत हुए और होते रहते हैं,एक बार इस पर लिखने की तड़प रखनेवाले पर भरोसा करके देखिए।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jul 24 02:34:28 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 24 Jul 2011 02:34:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkteCkvuCkow==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktuCkqCDgpLjgpK7gpL7gpJrgpL4=?= =?utf-8?b?4KSwJyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpL/gpJXgpL4g4KSR4KSo4KSy4KS+4KSH?= =?utf-8?b?4KSo?= Message-ID: साथियों, फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर कई मित्रों ने 'वाणी प्रकाशन समाचार' पत्रिका को ऑनलाइन प्रकाशित करने का आग्रह किया है. उनकी सलाह को मद्देनज़र रखते हुए हम 'वाणी प्रकाशन समाचार' का जुलाई 2011 अंक (50) ऑनलाइन प्रकाशित कर रहे हैं. आगे से पत्रिका का हर अंक हम आपसे ऑनलाइन भी साझा करेंगे. यह अंक आपको कैसा लगा, अपनी प्रतिक्रया और सलाह हमें ज़रूर भेजें. शुक्रिया. *वाणी प्रकाशन: वाणी प्रकाशन समाचार' * vaniprakashanblog.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From raviratlami at gmail.com Sun Jul 24 09:36:47 2011 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Sun, 24 Jul 2011 09:36:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkteCkvuCkow==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktuCkqCDgpLjgpK7gpL7gpJrgpL7gpLAn?= =?utf-8?b?IOCkquCkpOCljeCksOCkv+CkleCkviDgpJHgpKjgpLLgpL7gpIfgpKg=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4E2B9A57.4040906@gmail.com> परंतु यह तो इमेज फार्मेट में है, अतः इसका ज्यादा उपयोग नहीं हो सकेगा. यदि संभव हो तो इसे यूनिकोड हिंदी में डालें ताकि नेट पर सर्च इत्यादि से इसकी श्रेष्ठ सामग्री का वास्तविक लाभ लिया जा सके. पुराने अंकों की श्रेष्ठ, चुनिंदा सामग्री को भी यूनिकोड हिंदी में यहाँ पर डाला जा सकता है. सादर, रवि On 24-07-2011 02:34, shashi kant wrote: > > > साथियों, > फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर कई मित्रों ने 'वाणी प्रकाशन समाचार' > पत्रिका को ऑनलाइन प्रकाशित करने का आग्रह किया है. उनकी सलाह को > मद्देनज़र रखते हुए हम 'वाणी प्रकाशन समाचार' का जुलाई 2011 अंक (50) > ऑनलाइन प्रकाशित कर रहे हैं. आगे से पत्रिका का हर अंक हम आपसे ऑनलाइन > भी साझा करेंगे. यह अंक आपको कैसा लगा, अपनी प्रतिक्रया और सलाह हमें > ज़रूर भेजें. शुक्रिया. > > > > *वाणी प्रकाशन: वाणी प्रकाशन समाचार' > * > > vaniprakashanblog.blogspot.com > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jul 24 16:12:46 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 24 Jul 2011 16:12:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+Ckj+CklSDgpK0=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruCkv+CkuOCksOCkviDgpLjgpYHgpKzgpLkg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSn4KWC4KSqIOCkuOClhyDgpJXgpK7gpKTgpLAg4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?4KWkJw==?= Message-ID: मित्रो, ई टीवी अक्सर मुशायरों का प्रसारण करता है. आज थोड़ा वक्त मिला तो ई टीवी पर प्रसारित एक मुशायरे में इन मिसरों को सुनकर दिल को सुकून मिला. उम्मीद करता हूँ फ़ेसबुक पर हमारे कुछ साथियों को भी इन्हें पढ़कर सुकून मिलेगा, जो ... वगैरह-वगैरह...! पेश है - हमको हक़बोई की आदत है तो है। फिर ज़माने से बगावत है तो है।। ये ज़माना जान भी ले ले तो क्या। आपसे हमको मुहब्बत है तो है।। तू अमीरी अपनी अपने पास रख। मेरे घर में आज ग़ुरबत है तो है।। मैंने खुद्दारी पे आँच आने न दी। ज़िन्दगी बेकद्रो-कीमत है तो है।। पता करो कि दफ़्तर में कौन दागी है। अपना काम निकलेगा तो उसी से निकलेगा।। वो निकला अपनी ज़िन्दगी से, तो अपनी कमी से निकला। हमने समझा तो था उसे खुद्दार लेकिन वो तो नमकहराम निकला।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jul 26 14:20:35 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 26 Jul 2011 14:20:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSw4KWAIOCkueCkvuCksCDgpKjgpLngpYDgpIIsIOCkruClhw==?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCknOClgOCkpCDgpLngpYg=?= Message-ID: दारुल उलूम देवबंद, इस्लामी शिक्षा की दुनिया के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित इदारों में शामिल है। जिस उम्मीद और जज्बे के साथ मुझे दारुल उलूम का मोहतमिम बनाया गया था, उस लिहाज से यहां काम करने का मौका मुझे मिल नहीं पाया। सात महीने तक मुझे इस कदर उलझाए रखा गया, जिससे मैं अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाया। इसका मुझे ताउम्र मलाल रहेगा। दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा का मैं पिछले 10 वर्ष से सदस्य हूं। मैंने कभी यह ख्वाहिश नहीं की थी कि मुझे दारुल उलूम का मोहतमिम बनना है। शूरा ने खुद ही मेरे कंधों पर यह जिम्मेदारी डाली। मैंने इस जिम्मेदारी को पूरा करने की दिशा में पूरी संजीदगी के साथ प्रयास किए। लेकिन जो लोग दारुल उलूम के नाम पर सियासी रोटियां सेंक रहे हैं, उन्होंने मुझे एक भी दिन काम करने नहीं दिया। मेरे मोहतमिम पद पर नियुक्ति के पहले दिन से ही मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए। सबसे पहले कासमी और गैर कासमी का मुद्दा उठाया गया। उसके फौरन बाद स्थानीय और बाहरी के नाम पर उलूम को क्षेत्रवाद में बांटने की कोशिश की गई। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूं कि दुनिया ने इन सभी साजिशों को प्रमुखता नहीं दी और देवबंद का नाम देश-दुनिया में और तेजी से चढ़ने लगा। पूरी तरह से एक गैर सियासी, दीनी और आधुनिक तालीम के क्षेत्र का इंसान होने के नाते अपने खिलाफ की गई साजिशों और चालों को न तो मैं समझ सका और न ही मेरे पास उनकी कोई काट थी। एक स्थानीय ताकतवर लॉबी नहीं चाहती है कि दारूल उलूम से उसका प्रभाव खत्म हो। कोई नई सोच, नया शख्स यहां प्रभावी हो। इस लॉबी की पूरी कोशिश रही कि बस किसी भी तरह मुझे हटा दिया जाए। जबर्दस्त दबाव बनाया गया। साजिशें रची गईं। तमाम ऐसे आरोप लगाए गए, जिनसे मेरी प्रतिष्ठा पर आंच आए और मैं डरकर इस्तीफा दे दूं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दंगों के मुद्दे पर क्लीन चिट देने और गैर-इस्लामी रवायतों के मुताबिक भूमि पूजन करने और देव प्रतिमाओं को बांटने के आरोप भी इसी साजिश का हिस्सा रहे। हालांकि इसका मैंने शुरू से खंडन किया, पर सच्चाई तो सुनने को कोई राजी नहीं हुआ। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि तलबा मेरी प्राथमिकता रहे हैं और रहेंगे भी। मोहतमिम की जिम्मेदारी संभालने के बाद मैंने साफ कहा भी था कि तलबा को बेहतर से बेहतर सहूलियतें देने के प्रयास किए जाएंगे। पर खेल कुछ ऐसा रचा गया कि संस्था के उस्ताद और छात्रों में मेरे समर्थन और विरोध के गुट बन गए। यह मैं आज तक नहीं समझ पाया कि आखिरकार यह सब हो क्यों रहा है? एक लॉबी मेरे खिलाफ काम कर रही है, यह बात तो ठीक है, पर लोग उनके इशारों पर क्यों खेल रहे हैं। यह बड़ा अजीब लगा। खैर मैंने, हिम्मत नहीं हारी। मैंने अपने सामने पेश आई इन दुश्वारियों को दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा के सामने रखने के उद्देश्य से 23 फरवरी को मजलिस-ए शूरा-की खास बैठक बुलाई। उम्मीद थी कि अब इस मसले का जरूर समाधान निकल आएगा। पर, उसमें मेरी मदद करने की बजाय मुझे हटाने पर आमादा लॉबी ने मुझे वहां घेरने की कोशिश की। उस बैठक में ही इस लॉबी के इशारे पर मुझे हटाने का जबर्दस्त प्रयास किया गया। मैंने इस्तीफा न देने का फैसला इसलिए लिया कि देश-दुनिया मेरे प्रयासों का समर्थन करती है। देश और दुनिया से मिल रहे समर्थन के चलते और दारुल उलूम के व्यापक हितों के कारण ही मैंने पद त्याग नहीं किया। मेरी तो बस तमन्ना थी कि शूरा के विद्वान सदस्य काम करने का कुछ मौका प्रदान करें। उस बैठक में शूरा की एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की गई, जिसे तीन काम करने थे। एक मुझ पर लगाए गए आरोपों की जांच करना। दूसरा, छात्रों द्वारा हंगामा किए जाने की वजह पता लगाना और अंतिम, छात्रों के पीछे उस्तादों की भूमिका की जांच करना। 23-24 जुलाई की दो दिवसीय शूरा की बैठक में एक बार फिर मुझ पर एक लॉबी विशेष की ओर से इस्तीफे का दबाव बनाया गया। पर मैं इस्तीफा क्यों दूं? इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था। जांच समिति की रिपोर्ट आधी-अधूरी पेश की गई। यूं तो रिपोर्ट में मुझे क्लीन चिट दे दी गई, लेकिन न तो हंगामा करने वाले छात्रों और न ही उन छात्रों को उकसाने वाले उस्तादों का पता ही लगाया गया। मैं और मेरे समर्थक बैठक में भरसक प्रयास करते रहे कि अन्य दो मुद्दों की भी जांच कराई जाए, जिससे सच्चाई सामने आ सके। इसके लिए या तो नए सिरे से कमेटी का गठन किया जाए या पहले से गठित समिति का वक्त बढ़ा दिया जाए। ऐसा करने पर ही सच्चाई सामने आ सकती थी। लेकिन इस अनुरोध पर गौर नहीं किया गया। मांग होती रही, तो केवल और केवल इस्तीफे की। और इसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। फिर तय हुआ मतदान। मुझे हटाने पर तुली लॉबी कामयाब हो गई और मुझे मतदान के जरिये हटाने का फैसला कर लिया गया, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। मैं इस मामले को लेकर विरोध तो नहीं करूंगा। शूरा का फैसला मेरे लिए सम्मानीय है, पर यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह ठीक नहीं हुआ। आधी-अधूरी जांच रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई न्यायोचित नहीं है। मेरा साफ मानना है कि जिन्होंने मेरे साथ ज्यादती की, उनसे मेरा अल्लाह बदला लेगा। मैं नैतिकता और ईमानदारी की इस लड़ाई में हारा नहीं, बल्कि जीता हूं। मैंने अपना सिर ऊंचा करके दारुल उलूम से विदाई ली है। मैं दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा के सदस्य के रूप में पहले की तरह निष्ठा के साथ सेवा करता रहूंगा। मुझे इस दौरान देवबंद, मीडिया और मेरे सहयोगियों और समर्थकों ने जो जबर्दस्त सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूं। *(बातचीत पर आधारित) (ये लेखक के अपने विचार हैं)* इस्लामी शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र दारुल उलूम के कुलपति पद से हटाए जाने से आहत मौलाना वस्तानवी का पक्ष। -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jul 26 14:20:35 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 26 Jul 2011 14:20:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSw4KWAIOCkueCkvuCksCDgpKjgpLngpYDgpIIsIOCkruClhw==?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCknOClgOCkpCDgpLngpYg=?= Message-ID: दारुल उलूम देवबंद, इस्लामी शिक्षा की दुनिया के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित इदारों में शामिल है। जिस उम्मीद और जज्बे के साथ मुझे दारुल उलूम का मोहतमिम बनाया गया था, उस लिहाज से यहां काम करने का मौका मुझे मिल नहीं पाया। सात महीने तक मुझे इस कदर उलझाए रखा गया, जिससे मैं अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाया। इसका मुझे ताउम्र मलाल रहेगा। दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा का मैं पिछले 10 वर्ष से सदस्य हूं। मैंने कभी यह ख्वाहिश नहीं की थी कि मुझे दारुल उलूम का मोहतमिम बनना है। शूरा ने खुद ही मेरे कंधों पर यह जिम्मेदारी डाली। मैंने इस जिम्मेदारी को पूरा करने की दिशा में पूरी संजीदगी के साथ प्रयास किए। लेकिन जो लोग दारुल उलूम के नाम पर सियासी रोटियां सेंक रहे हैं, उन्होंने मुझे एक भी दिन काम करने नहीं दिया। मेरे मोहतमिम पद पर नियुक्ति के पहले दिन से ही मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए। सबसे पहले कासमी और गैर कासमी का मुद्दा उठाया गया। उसके फौरन बाद स्थानीय और बाहरी के नाम पर उलूम को क्षेत्रवाद में बांटने की कोशिश की गई। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूं कि दुनिया ने इन सभी साजिशों को प्रमुखता नहीं दी और देवबंद का नाम देश-दुनिया में और तेजी से चढ़ने लगा। पूरी तरह से एक गैर सियासी, दीनी और आधुनिक तालीम के क्षेत्र का इंसान होने के नाते अपने खिलाफ की गई साजिशों और चालों को न तो मैं समझ सका और न ही मेरे पास उनकी कोई काट थी। एक स्थानीय ताकतवर लॉबी नहीं चाहती है कि दारूल उलूम से उसका प्रभाव खत्म हो। कोई नई सोच, नया शख्स यहां प्रभावी हो। इस लॉबी की पूरी कोशिश रही कि बस किसी भी तरह मुझे हटा दिया जाए। जबर्दस्त दबाव बनाया गया। साजिशें रची गईं। तमाम ऐसे आरोप लगाए गए, जिनसे मेरी प्रतिष्ठा पर आंच आए और मैं डरकर इस्तीफा दे दूं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दंगों के मुद्दे पर क्लीन चिट देने और गैर-इस्लामी रवायतों के मुताबिक भूमि पूजन करने और देव प्रतिमाओं को बांटने के आरोप भी इसी साजिश का हिस्सा रहे। हालांकि इसका मैंने शुरू से खंडन किया, पर सच्चाई तो सुनने को कोई राजी नहीं हुआ। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि तलबा मेरी प्राथमिकता रहे हैं और रहेंगे भी। मोहतमिम की जिम्मेदारी संभालने के बाद मैंने साफ कहा भी था कि तलबा को बेहतर से बेहतर सहूलियतें देने के प्रयास किए जाएंगे। पर खेल कुछ ऐसा रचा गया कि संस्था के उस्ताद और छात्रों में मेरे समर्थन और विरोध के गुट बन गए। यह मैं आज तक नहीं समझ पाया कि आखिरकार यह सब हो क्यों रहा है? एक लॉबी मेरे खिलाफ काम कर रही है, यह बात तो ठीक है, पर लोग उनके इशारों पर क्यों खेल रहे हैं। यह बड़ा अजीब लगा। खैर मैंने, हिम्मत नहीं हारी। मैंने अपने सामने पेश आई इन दुश्वारियों को दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा के सामने रखने के उद्देश्य से 23 फरवरी को मजलिस-ए शूरा-की खास बैठक बुलाई। उम्मीद थी कि अब इस मसले का जरूर समाधान निकल आएगा। पर, उसमें मेरी मदद करने की बजाय मुझे हटाने पर आमादा लॉबी ने मुझे वहां घेरने की कोशिश की। उस बैठक में ही इस लॉबी के इशारे पर मुझे हटाने का जबर्दस्त प्रयास किया गया। मैंने इस्तीफा न देने का फैसला इसलिए लिया कि देश-दुनिया मेरे प्रयासों का समर्थन करती है। देश और दुनिया से मिल रहे समर्थन के चलते और दारुल उलूम के व्यापक हितों के कारण ही मैंने पद त्याग नहीं किया। मेरी तो बस तमन्ना थी कि शूरा के विद्वान सदस्य काम करने का कुछ मौका प्रदान करें। उस बैठक में शूरा की एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की गई, जिसे तीन काम करने थे। एक मुझ पर लगाए गए आरोपों की जांच करना। दूसरा, छात्रों द्वारा हंगामा किए जाने की वजह पता लगाना और अंतिम, छात्रों के पीछे उस्तादों की भूमिका की जांच करना। 23-24 जुलाई की दो दिवसीय शूरा की बैठक में एक बार फिर मुझ पर एक लॉबी विशेष की ओर से इस्तीफे का दबाव बनाया गया। पर मैं इस्तीफा क्यों दूं? इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था। जांच समिति की रिपोर्ट आधी-अधूरी पेश की गई। यूं तो रिपोर्ट में मुझे क्लीन चिट दे दी गई, लेकिन न तो हंगामा करने वाले छात्रों और न ही उन छात्रों को उकसाने वाले उस्तादों का पता ही लगाया गया। मैं और मेरे समर्थक बैठक में भरसक प्रयास करते रहे कि अन्य दो मुद्दों की भी जांच कराई जाए, जिससे सच्चाई सामने आ सके। इसके लिए या तो नए सिरे से कमेटी का गठन किया जाए या पहले से गठित समिति का वक्त बढ़ा दिया जाए। ऐसा करने पर ही सच्चाई सामने आ सकती थी। लेकिन इस अनुरोध पर गौर नहीं किया गया। मांग होती रही, तो केवल और केवल इस्तीफे की। और इसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। फिर तय हुआ मतदान। मुझे हटाने पर तुली लॉबी कामयाब हो गई और मुझे मतदान के जरिये हटाने का फैसला कर लिया गया, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। मैं इस मामले को लेकर विरोध तो नहीं करूंगा। शूरा का फैसला मेरे लिए सम्मानीय है, पर यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह ठीक नहीं हुआ। आधी-अधूरी जांच रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई न्यायोचित नहीं है। मेरा साफ मानना है कि जिन्होंने मेरे साथ ज्यादती की, उनसे मेरा अल्लाह बदला लेगा। मैं नैतिकता और ईमानदारी की इस लड़ाई में हारा नहीं, बल्कि जीता हूं। मैंने अपना सिर ऊंचा करके दारुल उलूम से विदाई ली है। मैं दारुल उलूम की मजलिस-ए-शूरा के सदस्य के रूप में पहले की तरह निष्ठा के साथ सेवा करता रहूंगा। मुझे इस दौरान देवबंद, मीडिया और मेरे सहयोगियों और समर्थकों ने जो जबर्दस्त सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूं। *(बातचीत पर आधारित) (ये लेखक के अपने विचार हैं)* इस्लामी शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र दारुल उलूम के कुलपति पद से हटाए जाने से आहत मौलाना वस्तानवी का पक्ष। -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Jul 26 23:06:06 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 26 Jul 2011 23:06:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWL4KSCIOCkm+ClgOCkqOCkqOCkviDgpJrgpL7gpLngpKQ=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgiDgpIbgpJbgpLzgpL/gpLAg4KSu4KWB4KSd4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruClh+CksOCkviDgpIXgpKrgpKjgpL4g4KSY4KSwPw==?= Message-ID: बार-बार लौटता हूँ घर लेना चाहता हूँ चैन की सांस लेकिन निकाल दिया जाता हूँ बार-बार फिर भी सुकून देता है मुझे मेरा घर कोठी नहीं है मेरा घर न अपार्टमेन्ट घास-फूस और खपरैल का है फिर भी कितना सुकून देता है मुझे मेरा घर न बिजली न फ्रिज न वाशिंग मशीन न कम्प्यूटर न इंटरनेट शाम ढलते ही घुप्प अँधेरे में डूब जाता है फिर भी कितना सुकून देता है मुझे मेरा घर दो साल बाद आज फिर लौटा हूँ घर एक-एक ईंट पुचकार रही है ऐसे जैसे दुलारती है माँ चोटिल होकर लौट आए अपने बच्चे को घर रहना चाहता हूँ मैं अपने घर लेकिन वे क्यों छीनना चाहते हैं आख़िर मुझसे मेरा अपना घर? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Jul 28 11:14:22 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 28 Jul 2011 11:14:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KSu4KWL?= =?utf-8?b?4KS54KSoIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpK3gpYAg4KSs4KWL4KSy4KSk4KWH?= =?utf-8?b?IOCkueCliOCkgizgpJzgpLDgpL4g4KSm4KWC4KSw4KSm4KSw4KWN4KS2?= =?utf-8?b?4KSoIOCkpOCliyDgpKbgpYfgpJbgpL4g4KSV4KWA4KSc4KS/4KSP?= Message-ID: मनमोहन सिंह को लेकर आम धारणा है कि वो चुप्पा प्रधानमंत्री हैं। वो देश के विविध मसलों पर कुछ भी बोलने के बजाय चुप मार जाते हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया में उनका व्यक्तित्व बहुत ही लिजलिजे किस्म का उभरकर आता है और फैसले के मामले में कुछ ऐसा कि छोटी-छोटी बातों के लिए भी सोनिया गांधी से निर्देशित होते हैं। लेकिन आज दि इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम टेलीस्कोप में शैलजा वाजपेयी ने बिल्कुल अलग बात कही है। शैलजा की बातों से हम जैसों की पूरी सहमति तो नहीं बनने पाती है लेकिन गौर करें तो उनकी बातों से मीडिया और दूरदर्शन को लेकर कुछ जरुरी सवाल और संदर्भ जरुर पैदा होते हैं। शैलजा ने कहा कि निजी समाचार चैनलों में जिस तरह से खबरों के बजाय पैनल डिशक्सशन की मारा-मारी मची रहती है,ऐसे में हार्डकोर न्यूज की गुंजाईश कमती चली जाती है। इससे अलग दूरदर्शन में आपको कई ऐसी घटनाओं औऱ कार्यक्रमों से जुड़ी खबरें मिल जाएंगी जो कि निजी चैनलों का हिस्सा नहीं बन पाते। इसी संदर्भ में अगर आप दूरदर्शन देखते हैं तो आपको पता चलता है कि प्रधानमंत्री देश और दुनिया के कितने अलग-अलग मसलों पर अपनी बात रखते हैं। जैसे कि पिछले ही सप्ताह हमने उन्हें पर्यावरण से संबंधित ग्लोबल सेमिनार में बोलते हुए सुना। इसी तरह से सोनिया गांधी के बारे में छवि बनायी गयी लेकिन आप दूदर्शन देखते हैं तो आपको दिल्ली से बाहर जिन रैलियों और सभाओं को वो संबोधित करती है,उनमें कई तरह के विचार शामिल होते हैं। हालांकि ये विचार पहले से लिखे होते हैं और उन्हें सिर्फ पढ़ना होता है,फिर भी उनसे कुछ तो धारणा बनती है,कुछ तो सोचने-समझने के बिन्दु मिल पाते हैं। शैलजा के इस तर्क से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि दूरदर्शन जो पिछले 50-52 सालों से सरकारी भोंपू या सत्ताधारी पार्टी का पीपीहा न साबित होने के लिए जूझता रहा,आज भी वो इससे पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाया है। आज भी दूरदर्शन प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अधीन काम करने के बावजूद सरकार का ही दुमछल्लो बना फिरता है। लेकिन इससे आगे जाकर सोचें तो कुछ जरुरी सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर बयानबाजी करें तभी वो निजी समाचार चैनलों के लिए खबर का हिस्सा है,अगर वो किसी सेमिनार या अकादमिक कार्यक्रमों में अपनी बात रखते हैं तो निजी चैनलों को उसमें दिलचस्पी क्यों नहीं है? इसी से जुड़ा सवाल कि निजी चैनलों के लिए सेमिनार ऐसा कोई कार्यक्रम क्यों नहीं है जिसे कि कवर किया जाए,जिसमें होनेवाले विमर्श खबर का हिस्सा बने। दूसरा कि चैनल खबरों के बजाय पैनल डिशक्शसन को इतनी प्राथमिकता कहीं इस कारण से तो नहीं देता कि वो कम खर्चे और मेहनत में ज्यादा टीआरपी के बताशे गढ़ना चाहता है? वो खबरों के पीछे मेहनत नहीं करना चाहता और कोशिश होती है कि चार अलग-अलग वरायटी के वक्ताओं को जुटाकर गर्म मुद्दे पर बहस करा ले? क्या ऐसे में मनमोहन सिंह इन निजी चैनलों के लिए खबर का हिस्सा नहीं बन पाते? नब्बे के दशक में जब निजी समाचार चैनलों का दौर शुरु हुआ तो राजदीप सरदेसाई ने साफतौर पर कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है और जरुरी नहीं है कि हर बुलेटिन प्रधानमंत्री के बयान से ही खुले। तब राजदीप की बात काफी हद तक सही लगती थी। खबरों में सत्ता का प्रभाव कम करने के लिए ऐसा किया जाना जरुरी कदम है। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन उसी सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेताओं को सोमवार से शुक्रवार तक प्राइम टाइम में बिठाकर पैनल डिशक्शसन करवाना,मैटर की जगह नैटर को ही खबर का हिस्सा बना देने के पीछे निजी चैनलों की कौन सी रणनीति काम करती है,इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। अगर आपको सत्ता के प्रभाव से दूर ही रहना है तो आपको चाहिए कि आप उनके पक्ष को ही प्राथमिकता देने के बजाय,उनके पीछे खबर निचोड़ने के लिए काम करें। स्टूडियो में उनके ही पैनल बिठाकर और साउथ एवन्यू से पीटीसी देकर जो खबरों के नाम पर पेश करने की रिवायत चली है,ऐसे में आप कहां सत्ता से दूर होकर तटस्थ हो पा रहे हैं? आप तो पहले से कहीं अधिक निकम्मे,पत्रकारिता के नाम पर मठाधीशी का काम करने लगे हैं। एनडीटीवी के रवीश कुमार ने अपनी किताब देखते रहिए में ऐसी पत्रकारिता को लाल पत्थर की पत्रकारिता अर्थात लुटियन जोन की पत्रकारिता करार दिया है। अब अगर ऐसे में मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बहुत कम या न के बराबर बोलते दिखाया जाता है,जिससे कि मीडिया ने उनकी चुप्पा प्रधानमंत्री की छवि बना दी है तो ये सत्ता के प्रभाव में न आने के बजाय,उससे कहीं अधिक मनमनोहन सिंह की व्यक्तिगत छवि गढ़ने की कवायद ज्यादा है। अब इस बात पर विचार करें कि अगर मनमोहन सिंह सेमिनारों या अकादमिक कार्यक्रमों में लगातार बोलते रहते हैं तो भी वो खबर का हिस्सा क्यों नहीं बनने पाता? इसकी एक वजह तो साफ है कि निजी चैनलों को तथ्यों और विषयों की गहराई से कहीं ज्यादा इस बात में दिलचस्पी होती है कि उसे लेकर कोई विवाद पैदा हुआ है कि नहीं। अब गुपचुप तरीके से लगभग एक शर्त-सी बन गयी है कि जिस खबर के पीछे विवाद नहीं होते,वो खबर का हिस्सा नहीं है। मनोरंजन उद्योग के उत्पादों के लिए पीआर एजेंसियां इसके लिए वाकायदा स्ट्रैटजी तय करती है। अब राजनीति और उसका विज्ञापन भी पीआर और मैनेजमेंट का हिस्सा होता चला जा रहा है तो संभव है कि ऐसा बहुत ही स्ट्रैटजी के साथ किया जाने लगे। ऐसे में मनमोहन सिंह अगर ग्लोबल सेमिनारों में पर्यावरण,आर्थिक मसले या बदलते परिवेश पर बात करते भी हैं तो उसमें निजी चैनलों के लिए कोई न्यूज वैल्यू नहीं है। उनके वक्तव्य विवाद पैदा नहीं करते। ऐसे में लगता है कि अगर मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बोलते हुए दिखना है तो उन्हें अमर सिंह, दिग्विजय सिंह,बाबा रामदेव या राखी सावंत जैसा बड़बोलापन लाना होगा। निजी समाचार चैनल मितभाषी और गंभीर बातें करनेवाला का सम्मान नहीं करते। ऐसा इसलिए कि जहां इन चैनलों ने इसे कवर करना शुरु किया, उसे विश्लेषण करना होगा,तह में जाना होगा और चैनल ये सबकुछ करना नही चाहता बल्कि अब तो भरोसा होने लगा है कि अगर करना भी चाहे तो मामूली अपवादों को छोड़ दें तो करने की औकात भी नहीं है। अब वापस शैलजा की बातों पर आएं तो मनमोहन सिंह को अगर निजी चैनल कवर नहीं करते या चुप्पा करार दे दिया है तो उपर के कारणों के अलावे एक कारण ये नहीं है क्या कि वो सामयिक मसलों पर कुछ नहीं बोलते? ऐसे मसले जिनको लेकर उनकी सरकार की साख दांव पर लगी होती है या जिससे व्यापक सरोकार जुड़ा होता है,मनमोहन सिंह ऐसे मौके पर कितना बोल पाते हैं? सेमिनार की गंभीरता और उसके विमर्श का अपना महत्व है लेकिन ये देश सिर्फ सेमिनारों से तो नहीं चलता और मनमोहन सिंह सिर्फ सेमिनारों में बोलकर और जरुरी मसले पर रहकर देश चला भी नहीं सकते। बोलने का मतलब दिग्विजय सिंह हो जाना भले ही न हो लेकिन स्टैंड लेना तो जरुर है न। ऐसे में शैलजा ने दूरदर्शन पर बोलते हुए देखनेवाली बात करके एक जरुरी संदर्भ की तरफ ईशारा ठीक ही किया है लेकिन वो जिस तरह से आगे बातें कर रही हैं,वो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को डीफेंड करने जैसा लग रहा है,सॉरी हम ऐसा नहीं कर सकते। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Jul 29 10:58:54 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 29 Jul 2011 10:58:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkmuCkvuCkueCkpOClhyDgpJXgpL8g4KSo4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpLXgpK/gpYvgpLXgpYPgpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KSnIOCkleCkueCksuCkvuCkj+Ckgg==?= Message-ID: 85साल के हो गये हमारे आलोचक नामवर सिंह। साल-दर-साल जब उनके स्वस्थ और सक्रिय बने रहने की खबर मिलती रहती है, तो उनके लिए दीर्घायु होने की कामना करने से कहीं ज्यादा ईर्ष्या होती है। एक तो लगता है कि जिस शख्स के भीतर खुद की जीवटता है, इलाज के लिए खाते में पर्याप्त धन है और पहले से ही हजारों शुभचिंतक मौजूद हैं, मेरे कामना करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन ईर्ष्‍या तो होती ही है। साफ लगता है कि बिना किसी के सहारे के गंभीर कदमों से देशभर के सभागारों की सीढ़ियों से चढ़ता-उतरता ये आलोचक हम जैसे शब्दों में कारतूस भरकर धज्जी उड़ाने की नीयत रखनेवाले ब्लॉगरों को खुली चुनौती दे रहे हैं – इन लौंडों का क्या है, मैगी खाएंगे, कैपचीनो और ब्लैक कॉफी पीएंगे और सालों से मेहनत करके साहित्य और संस्कृति पर काम करनेवाले को दो मिनट में पिटा हुआ ब्रांड साबित कर देंगे। इनके मुंह न ही लगें, तो अच्छा। क्या लिखेंगे-पढ़ेंगे, इस पर तो कमेंट नहीं करुंगा लेकिन देख लीजिएगा पैंतालीस साल के भीतर अपनी अंतड़ी न गला ली, आंखें न गंवा बैठे, अल्सर न पाल लिया तो मेरा नाम भी नामवर सिंह नहीं। *मेरी ईर्ष्‍या की तो छोड़ ही दीजिए*, आप उनसे दस-पंद्रह साल कम उम्र के आलोचकों और साहित्यकारों के बारे में सोचिए न जिनके नाम के आगे वयोवृद्ध शब्द जोड़ दिया जाता है और वो जब नामवर के आगे कभी भी ये शब्द जुड़ा न देखते होंगे तो उन पर क्या बीतती होगी? नामवर सिंह हिंदी आलोचना और साहित्य की दुनिया में अभी भी वयोवृद्ध नहीं हुए और इस तमगे के न लगने पर भी ज्यादा बल्कि सबसे ज्यादा सम्मान हासिल कर पाये हैं। नहीं तो कई औसत या दोयम दर्जे के साहित्यकारों के नाम के आगे उम्र से पहले ही वयोवृद्ध या वरिष्ठ शब्द जोड़ने की कवायदें चलती रहती हैं, जिससे कि पाठक सीनियर सिटीजन की तरह ही लिखे से कहीं ज्यादा अवस्था को देखकर सम्मान दे दे। नामवर सिंह की हैसियत बिना वयोवृद्ध कहला कर प्रासंगिक बने रहने की रही है। मेरी मां ऐसे शख्स के लिए टठगर शब्द का इस्तेमाल करती है, जो कि एक जवान आदमी की तरह सब कुछ खुद से करता है। *एमए के दौरान हम हिंदी के सेमिनारों में* खूब जाया करते थे लेकिन जैसे-जैसे साहित्यकारों से थोड़ी-बहुत पहचान बननी शुरू हुई, नजरों का लिहाज पैदा होने लगा, जाने का उत्साह घटता गया। नामवर सिंह से 10-15 साल कम उम्र के साहित्यकारों की तरफ इशारा करके हमारे कुछ शिक्षक कहा करते – बेटा, सर को चाय लाकर दो, किसी को शू-शू-पोट्टी जाना होता तो उन्हें ट्वायलेट तक ले जाना होता। माफ कीजिएगा, तब मेरे मन में बाकी लोगों की तरह श्रद्धाभाव पैदा होने के बजाय सवाल पैदा होते – क्या ये नामवर सिंह से ज्यादा उम्रदराज हैं? मुझे लगता है कि जिस अतिरिक्त सम्मान में पत्रिकाएं और प्रकाशक उनके लिए वयोवृद्ध या वरिष्ठ शब्द का प्रयोग करते हैं, साहित्यकार उसे पाकर अपनी देह गिरा लेते हैं, दूसरों पर निर्भर होने लग जाते हैं। नामवर सिंह ने कभी देह नहीं गिरायी। वयोवृद्ध कहलाकर थोड़ी बहुत सुविधाएं, नजरों का सम्मान तो जरूर मिल जाता है लेकिन भीतर जो बूढ़े हो जाने की ग्रंथि जन्म ले लेती है, वो उन्हें बहुत सक्रिय बने रहने से रोकती है। वो शरीर के पहले मन और विचार से बूढ़े हो जाते हैं। विश्वविद्यालयों की खदानों से निकले साहित्यकार इसके ज्यादा शिकार होते हैं। विभागाध्यक्ष बने रहे, विभाग में रहे तो एकदम से टनाटन लेकिन जैसे ही बाहर या रिटायर हुए, अचानक से बूढ़े हो गये। अब अगर वो किसी सभा-संगोष्ठी मे जाएं तो उनके चेले-चमचों के लिए अलग से एक काम ही हो जाता है कि उन्हें सुरक्षित लाना और ले जाना है। ऐसे में जो रिटायर होने के बाद पूरी तरह श्रीहीन (जिन्हें न तो किसी पैनल में रखा जाता है और न कहीं निर्णायक कमेटी में होते हैं), उनका चेले-चपाटी भी साथ छोड़ देते हैं। नामवर सिंह से विश्वविद्यालय के खदानों से निकले साहित्यकारों को सीखना चाहिए कि रिटायर होने के बावजूद भी कैसे टठगर और प्रासंगिक बना रहा जा सकता है? प्रासंगिक का मतलब अगर दरवाजों का सत्ता और ताकत की तरफ खुलना है इस शर्त पर भी। *रही बात हम जैसे लैपटॉप में आंखें धंसाये रखने और* दसों उंगलियों को कीबोर्ड पर पसारकर हिंदी में गिटिर-पिटिर करनेवालों की, तो कभी नहीं चाहेंगे कि नामवर सिंह जितनी उम्र मिले। हमें नये माध्यमों पर लिखते हुए इस बात का आभास हो गया है कि कालजयी होने और कहलाने का दौर पूरी तरह खत्म हो चुका है। नामवर सिंह के बाद हिंदी में शायद ही आगे कोई हिंदी आलोचक होगा, जिसे कि इस रूप में कालजयी की कैटेगरी में शामिल किया जाएगा। इसकी एक वजह ये भी है कि हमें नामवर सिंह की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्मान, सहमति जो कि आगे चलकर चाटुकारिता और चमचई में तब्दील हो जाती है… नहीं मिलने जा रही है। चीजें इतनी तेजी से बदल रही हैं और हर हिंदी टाइप करनेवाले के दिमाग में विचार इतनी तेजी से कौंधते हैं कि वो नामवर सिंह की तरह हम जैसों से लंबे समय तक सहमत हो ही नहीं सकता। वो साल-दो साल तो छोड़िए, महीने भर में असहमति और ज्यादा तीक्ष्ण विचार साझा करेगा। पाठक और आलोचक की सत्ता में जो घालमेल हुआ है, उससे कालजयी होने के दावे ध्वस्त हुए हैं और आगे भी होंगे इसलिए नामवर सिंह को सिर्फ इस बिना पर कालजयी या शिखर आलोचक माना जाता रहा कि उन्होंने सचमुच बेहतरीन काम किया है, इस बात से हम जैसे लोग शायद ही सहमत हो पाएं। हम उनके काम का सम्मान करते हुए भी स्वीकृति और कालजयी होने के सवाल पर कुछ इस तरह से सोचते हैं कि अगर हिंदी में पाठक की सत्ता आज की तरह दस साल पहले लोकतांत्रिक हो गयी होती तो नामवर सिंह के प्रासंगिक बने रहने की उम्र घट जाती। आज ये बिल्कुल भी संभव नहीं है कि कोई बीस-पच्चीस साल बिना कुछ लिखे, सिर्फ बोलने के दम पर अकादमिक और साहित्यिक दुनिया में प्रासंगिक बना रह जाए। पाठक उसे बहुत जल्द ही निकाल-बाहर कर देगा। दूसरी बात *आज ये भी संभव नहीं है कि* कोई लेखक या आलोचक सामयिक संदर्भों से किनाराकशी करते हुए,जाति जनगणना के मसले पर विचारधारा से ठीक विपरीत बयान दे और दूसरे मसले पर बात करता चला जाए और उसकी स्वीकार्यता बनी रह जाएगी। न्यू मीडिया के लोग कम और सतही समझ रखते हुए भी, वेब पर साहित्य के सक्रिय पाठक उससे लगातार सवाल करेगा कि सालों से प्रेम कविताओं और साहित्य पर लिखनेवाले आलोचक प्रेम को लेकर खाप पंचायत के फैसले पर आपकी क्या राय है, छिनाल लिखने-छापनेवाले सालभर से अब भी उसी ठसक से बने हुए हैं, आप उस पर क्या कहना चाहेंगे? नामवर सिंह के साथ सुविधा ये रही कि वो हिंदी के श्रद्धावान पाठकों के दौर में सक्रिय हुए और पहचान बनायी, सवालों की झड़ी लगा देनेवाली पीढ़ी के बीच नहीं। अगर ऐसा होता तो शायद हम नामवर सिंह को इस रूप में थोड़े नास्टॉल्जिक, थोड़े भावुक और थोड़े तल्ख होकर आगे बने रहने की कामना नहीं करते। हम भावनाओं के मिक्सचर में फंसने के बजाय सीधा कोई एक स्टैंड लेते। न्यू मीडिया की हमारी ये पहली और आखिरी पीढ़ी है जो कि सालों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी के सम्मान को सिरे से खारिज न करते हुए, कुछ सवाल-जवाब कर रही है, आगे शायद ऐसी पीढ़ी होगी जो बिना संदर्भों के गूगल लिंक के आधार पर इन आलोचकों के प्रति एकतरफा राय बनाए। *इन सबके बीच नामवर सि्ह और* हमारी पीढ़ी के लिए अच्छी बात है कि उनसे असहमत होते हुए, उन पर गुस्सा, खीज और नाराजगी जाहिर करते हुए भी उनसे मोह नहीं छोड़ पाते। बीच में बाबा ने जब हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रवचन काल को प्रहसन काल में बदलने की कोशिश की, गंभीर से गंभीर मसले पर मीडिया बाइट देने लग गये तो सुनना बंद कर दिया। लेकिन पिछले दिनों पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर लिखी किताब पर बोला तो एक बार फिर से मन जुड़ गया। हंस की 31 जुलाई की गोष्ठी में भी हम उसी असर को याद करके जाएंगे। आज भी उनकी किताबों को कभी निकाल कर पढ़ता हूं तो साहित्य से खाद-पानी खींचकर बढ़ा हुआ मेरा मन फिर से साहित्य की ही तरफ लौटने को करता है। ये भी हमदोनों के लिए अच्छा है कि उन पर खीज होते हुए भी, असहमत होते हुए भी भीतर से एक वयोवृद्ध साहित्यकार के प्रति अवस्था के आधार पर सम्मान देने का भाव नहीं जगता। जिस दिन ये भाव जग गया, मेरे लिए नामवर उसी दिन से बुजुर्ग, वयोवृद्ध हो जाएंगे और डर है कि अप्रासंगिक भी। तब ऐसे अप्रासंगिक हो चले आलोचक पर क्या बात करना। हम अपने आलोचक को ऐसी हालत में नहीं देखना चाहते। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Jul 29 11:05:28 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 29 Jul 2011 11:05:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?ODUg4KS44KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLngpYsg4KSX4KSPIOCkqOCkvuCkruCkteCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KS5?= Message-ID: नामवर सिंह पर लिखी मेरी पोस्ट पर मोहल्लालाइव ने उनकी बहुत ही प्यारी तस्वीर लगायी है। तस्वीर सहित पोस्ट लिखने के लिए चटका लगाएं- http://mohallalive.com/2011/07/29/namwar-singh-has-completed-85-years/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sadanjha at gmail.com Fri Jul 29 11:28:35 2011 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Fri, 29 Jul 2011 11:28:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkmuCkvuCkueCkpOClhyDgpJXgpL8g4KSo4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpLXgpK/gpYvgpLXgpYPgpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KSnIOCkleCkueCksuCkvuCkj+Ckgg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: बेहद सलीके से लिखा पोस्ट. बिना लाग लपेट के, साफ़ शव्दों में काले और सफ़ेद के बीच के ग्रे एरिया को परखने कि नजर जिसमे पीढ़ियों, माध्यमो और पाठक -साहित्य सत्ता के बनते-बदलते रिश्ते को देखने का प्रयास. एक ज़माना था जब पेरी पेतेतिक (Peripatetic ) बुद्धिजिबियों की खूब अहमियत थी. भारत में तो इनकी ख़ास तवज्जो थी इन्हे परिव्रजक, सन्यासी साधू आदि नामो से समाज जानता था. इनमे से बहुतेरे गृहस्थ- समाज और सत्ता के समीकरण और परिधि से अपने को दूर रखते थे. मध्यकाल में चिस्तियों का नाम स्वतः ही सामने आता है. हाल के दशकों में राम चन्द्र गांधी शायद इस कोटि के थे. विश्वविद्यालय, प्रेस और सरकारी तंत्र ने साहित्य और ज्ञान के सत्ता को भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ इस तरह से संरचित कर दिया की इन तीन के बाहर ज्ञान की अहमियत ही नहीं रह गयी. सत्तर और अस्सी के दशक में सामजिक आंदोलनों से कुछ बुद्धिजिबियों का वर्ग बना भी तो हिंदी साहित्य इनसे कमोवेश अछूता ही रहा. नये मिडिया ने इन समीकरणों को पुराने सत्ता पुरुषों को चुनौती देने के नए अंदाज दिखाने लगे हैं. हिंदी में यह किस करवट लेगा यह भविष्यवाणी अभी मुश्किल है लेकिन बिना अतीत को नजर-अंदाज किये भविष्य की ओर देखना अपेक्षित तो है ही. 2011/7/29 vineet kumar > 85साल के हो गये हमारे आलोचक नामवर सिंह। साल-दर-साल जब उनके स्वस्थ और > सक्रिय बने रहने की खबर मिलती रहती है, तो उनके लिए दीर्घायु होने की कामना > करने से कहीं ज्यादा ईर्ष्या होती है। एक तो लगता है कि जिस शख्स के भीतर खुद > की जीवटता है, इलाज के लिए खाते में पर्याप्त धन है और पहले से ही हजारों > शुभचिंतक मौजूद हैं, मेरे कामना करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन > ईर्ष्‍या तो होती ही है। साफ लगता है कि बिना किसी के सहारे के गंभीर कदमों से > देशभर के सभागारों की सीढ़ियों से चढ़ता-उतरता ये आलोचक हम जैसे शब्दों में > कारतूस भरकर धज्जी उड़ाने की नीयत रखनेवाले ब्लॉगरों को खुली चुनौती दे रहे हैं > – इन लौंडों का क्या है, मैगी खाएंगे, कैपचीनो और ब्लैक कॉफी पीएंगे और सालों > से मेहनत करके साहित्य और संस्कृति पर काम करनेवाले को दो मिनट में पिटा हुआ > ब्रांड साबित कर देंगे। इनके मुंह न ही लगें, तो अच्छा। क्या लिखेंगे-पढ़ेंगे, > इस पर तो कमेंट नहीं करुंगा लेकिन देख लीजिएगा पैंतालीस साल के भीतर अपनी > अंतड़ी न गला ली, आंखें न गंवा बैठे, अल्सर न पाल लिया तो मेरा नाम भी नामवर > सिंह नहीं। > > *मेरी ईर्ष्‍या की तो छोड़ ही दीजिए*, आप उनसे दस-पंद्रह साल कम उम्र के > आलोचकों और साहित्यकारों के बारे में सोचिए न जिनके नाम के आगे वयोवृद्ध शब्द > जोड़ दिया जाता है और वो जब नामवर के आगे कभी भी ये शब्द जुड़ा न देखते होंगे > तो उन पर क्या बीतती होगी? नामवर सिंह हिंदी आलोचना और साहित्य की दुनिया में > अभी भी वयोवृद्ध नहीं हुए और इस तमगे के न लगने पर भी ज्यादा बल्कि सबसे ज्यादा > सम्मान हासिल कर पाये हैं। नहीं तो कई औसत या दोयम दर्जे के साहित्यकारों के > नाम के आगे उम्र से पहले ही वयोवृद्ध या वरिष्ठ शब्द जोड़ने की कवायदें चलती > रहती हैं, जिससे कि पाठक सीनियर सिटीजन की तरह ही लिखे से कहीं ज्यादा अवस्था > को देखकर सम्मान दे दे। नामवर सिंह की हैसियत बिना वयोवृद्ध कहला कर प्रासंगिक > बने रहने की रही है। मेरी मां ऐसे शख्स के लिए टठगर शब्द का इस्तेमाल करती है, > जो कि एक जवान आदमी की तरह सब कुछ खुद से करता है। > > *एमए के दौरान हम हिंदी के सेमिनारों में* खूब जाया करते थे लेकिन जैसे-जैसे > साहित्यकारों से थोड़ी-बहुत पहचान बननी शुरू हुई, नजरों का लिहाज पैदा होने > लगा, जाने का उत्साह घटता गया। नामवर सिंह से 10-15 साल कम उम्र के > साहित्यकारों की तरफ इशारा करके हमारे कुछ शिक्षक कहा करते – बेटा, सर को चाय > लाकर दो, किसी को शू-शू-पोट्टी जाना होता तो उन्हें ट्वायलेट तक ले जाना होता। > माफ कीजिएगा, तब मेरे मन में बाकी लोगों की तरह श्रद्धाभाव पैदा होने के बजाय > सवाल पैदा होते – क्या ये नामवर सिंह से ज्यादा उम्रदराज हैं? मुझे लगता है कि > जिस अतिरिक्त सम्मान में पत्रिकाएं और प्रकाशक उनके लिए वयोवृद्ध या वरिष्ठ > शब्द का प्रयोग करते हैं, साहित्यकार उसे पाकर अपनी देह गिरा लेते हैं, दूसरों > पर निर्भर होने लग जाते हैं। नामवर सिंह ने कभी देह नहीं गिरायी। वयोवृद्ध > कहलाकर थोड़ी बहुत सुविधाएं, नजरों का सम्मान तो जरूर मिल जाता है लेकिन भीतर > जो बूढ़े हो जाने की ग्रंथि जन्म ले लेती है, वो उन्हें बहुत सक्रिय बने रहने > से रोकती है। वो शरीर के पहले मन और विचार से बूढ़े हो जाते हैं। > विश्वविद्यालयों की खदानों से निकले साहित्यकार इसके ज्यादा शिकार होते हैं। > विभागाध्यक्ष बने रहे, विभाग में रहे तो एकदम से टनाटन लेकिन जैसे ही बाहर या > रिटायर हुए, अचानक से बूढ़े हो गये। अब अगर वो किसी सभा-संगोष्ठी मे जाएं तो > उनके चेले-चमचों के लिए अलग से एक काम ही हो जाता है कि उन्हें सुरक्षित लाना > और ले जाना है। ऐसे में जो रिटायर होने के बाद पूरी तरह श्रीहीन (जिन्हें न तो > किसी पैनल में रखा जाता है और न कहीं निर्णायक कमेटी में होते हैं), उनका > चेले-चपाटी भी साथ छोड़ देते हैं। नामवर सिंह से विश्वविद्यालय के खदानों से > निकले साहित्यकारों को सीखना चाहिए कि रिटायर होने के बावजूद भी कैसे टठगर और > प्रासंगिक बना रहा जा सकता है? प्रासंगिक का मतलब अगर दरवाजों का सत्ता और ताकत > की तरफ खुलना है इस शर्त पर भी। > > *रही बात हम जैसे लैपटॉप में आंखें धंसाये रखने और* दसों उंगलियों को कीबोर्ड > पर पसारकर हिंदी में गिटिर-पिटिर करनेवालों की, तो कभी नहीं चाहेंगे कि नामवर > सिंह जितनी उम्र मिले। हमें नये माध्यमों पर लिखते हुए इस बात का आभास हो गया > है कि कालजयी होने और कहलाने का दौर पूरी तरह खत्म हो चुका है। नामवर सिंह के > बाद हिंदी में शायद ही आगे कोई हिंदी आलोचक होगा, जिसे कि इस रूप में कालजयी की > कैटेगरी में शामिल किया जाएगा। इसकी एक वजह ये भी है कि हमें नामवर सिंह की तरह > पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्मान, सहमति जो कि आगे चलकर चाटुकारिता और चमचई में तब्दील हो > जाती है… नहीं मिलने जा रही है। चीजें इतनी तेजी से बदल रही हैं और हर हिंदी > टाइप करनेवाले के दिमाग में विचार इतनी तेजी से कौंधते हैं कि वो नामवर सिंह की > तरह हम जैसों से लंबे समय तक सहमत हो ही नहीं सकता। वो साल-दो साल तो छोड़िए, > महीने भर में असहमति और ज्यादा तीक्ष्ण विचार साझा करेगा। पाठक और आलोचक की > सत्ता में जो घालमेल हुआ है, उससे कालजयी होने के दावे ध्वस्त हुए हैं और आगे > भी होंगे इसलिए नामवर सिंह को सिर्फ इस बिना पर कालजयी या शिखर आलोचक माना जाता > रहा कि उन्होंने सचमुच बेहतरीन काम किया है, इस बात से हम जैसे लोग शायद ही > सहमत हो पाएं। हम उनके काम का सम्मान करते हुए भी स्वीकृति और कालजयी होने के > सवाल पर कुछ इस तरह से सोचते हैं कि अगर हिंदी में पाठक की सत्ता आज की तरह दस > साल पहले लोकतांत्रिक हो गयी होती तो नामवर सिंह के प्रासंगिक बने रहने की उम्र > घट जाती। आज ये बिल्कुल भी संभव नहीं है कि कोई बीस-पच्चीस साल बिना कुछ लिखे, > सिर्फ बोलने के दम पर अकादमिक और साहित्यिक दुनिया में प्रासंगिक बना रह जाए। > पाठक उसे बहुत जल्द ही निकाल-बाहर कर देगा। दूसरी बात > > *आज ये भी संभव नहीं है कि* कोई लेखक या आलोचक सामयिक संदर्भों से किनाराकशी > करते हुए,जाति जनगणना के मसले पर विचारधारा से ठीक विपरीत बयान दे और दूसरे > मसले पर बात करता चला जाए और उसकी स्वीकार्यता बनी रह जाएगी। न्यू मीडिया के > लोग कम और सतही समझ रखते हुए भी, वेब पर साहित्य के सक्रिय पाठक उससे लगातार > सवाल करेगा कि सालों से प्रेम कविताओं और साहित्य पर लिखनेवाले आलोचक प्रेम को > लेकर खाप पंचायत के फैसले पर आपकी क्या राय है, छिनाल लिखने-छापनेवाले सालभर से > अब भी उसी ठसक से बने हुए हैं, आप उस पर क्या कहना चाहेंगे? नामवर सिंह के साथ > सुविधा ये रही कि वो हिंदी के श्रद्धावान पाठकों के दौर में सक्रिय हुए और > पहचान बनायी, सवालों की झड़ी लगा देनेवाली पीढ़ी के बीच नहीं। अगर ऐसा होता तो > शायद हम नामवर सिंह को इस रूप में थोड़े नास्टॉल्जिक, थोड़े भावुक और थोड़े > तल्ख होकर आगे बने रहने की कामना नहीं करते। हम भावनाओं के मिक्सचर में फंसने > के बजाय सीधा कोई एक स्टैंड लेते। न्यू मीडिया की हमारी ये पहली और आखिरी पीढ़ी > है जो कि सालों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी के सम्मान को सिरे से खारिज न करते हुए, कुछ > सवाल-जवाब कर रही है, आगे शायद ऐसी पीढ़ी होगी जो बिना संदर्भों के गूगल लिंक > के आधार पर इन आलोचकों के प्रति एकतरफा राय बनाए। > > *इन सबके बीच नामवर सि्ह और* हमारी पीढ़ी के लिए अच्छी बात है कि उनसे असहमत > होते हुए, उन पर गुस्सा, खीज और नाराजगी जाहिर करते हुए भी उनसे मोह नहीं छोड़ > पाते। बीच में बाबा ने जब हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रवचन काल को प्रहसन > काल में बदलने की कोशिश की, गंभीर से गंभीर मसले पर मीडिया बाइट देने लग गये तो > सुनना बंद कर दिया। लेकिन पिछले दिनों पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर लिखी > किताब पर बोला तो एक बार फिर से मन जुड़ गया। हंस की 31 जुलाई की गोष्ठी में भी > हम उसी असर को याद करके जाएंगे। आज भी उनकी किताबों को कभी निकाल कर पढ़ता हूं > तो साहित्य से खाद-पानी खींचकर बढ़ा हुआ मेरा मन फिर से साहित्य की ही तरफ > लौटने को करता है। ये भी हमदोनों के लिए अच्छा है कि उन पर खीज होते हुए भी, > असहमत होते हुए भी भीतर से एक वयोवृद्ध साहित्यकार के प्रति अवस्था के आधार पर > सम्मान देने का भाव नहीं जगता। जिस दिन ये भाव जग गया, मेरे लिए नामवर उसी दिन > से बुजुर्ग, वयोवृद्ध हो जाएंगे और डर है कि अप्रासंगिक भी। तब ऐसे अप्रासंगिक > हो चले आलोचक पर क्या बात करना। हम अपने आलोचक को ऐसी हालत में नहीं देखना > चाहते। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com http://www.css.ac.in/sadan_jha.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Fri Jul 29 11:52:00 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Fri, 29 Jul 2011 11:52:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS14KSo?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpIXgpKjgpKfgpLDgpYjgpLLgpYcg4KSq4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSX4KSw4KWL4KSCIOCkueCksOCkv+Ckr+CksOClgCDgpKbgpYc=?= =?utf-8?b?4KSW4KS+4KSy4KS+ICEh?= Message-ID: दोस्तों, सावन की फुहारों ने दिल्ली का दिल तर कर दिया है I वैसे तो सावन की बरसात ने हमेशा से प्रेमियों, भक्तों, सूफीओं, कवियों और बिरहिओं को झकझोरा और बौराने पर मजबूर किया है... और विविधरूपी हिंदी साहित्यक परम्परों की बानगी से शुरू कर रुपहले परदे तक इस उत्पाती सावन की एकाधिक धुनें सुनी जा सकती हैंI लेकिन इस बार दिल्ली का सावन कुछ और ही ठसक के साथ आया मालूम होता है I क्यों ? अरे भाई इसमें उदारीकरण के यौवन का उन्माद जो शामिल है! और शामिल है दिल्ली को नयी दुल्हन की तरह सरापा सजाने और इसकी खूबसूरती पर इठलाने का सत्तामूलक विमर्श I मुमकिन है आप पूछें कि मियां जब मनमोहन और शीला जी "सावन को आने दो!!" का राग पंचम सुर में छेडें हैं और सारा ज़माना "सावन में लग गयी आग" के बैंड पर थिरक रहा है तो आप क्यों "मेरे नैना सावन भादो" का आउटडेटेड रिकॉर्ड पेले पड़े हैं? तो आप को बता दूं कि इस सावन की आग से निकली चिंगारी ने अभी कल ही शहर के कुछ मजलूम दलितों के घरों को निगल लिया है, और आप को अगर सावन का मेरा यह 'पाठ' मर्सिया जैसा लगे तो ना खौफ़जदा होइए और शिकवा भी मत कीजिये.... तफसील ए वाकया ये है कि कल दिन के ग्यारह बजे करोल बाग़ मेट्रो स्टेशन से लगे हुए चाइना बाज़ार के पास पहले से बिना कोई नोटिस - इत्तला के एम. सी. डी. ने पोलिस पलटन के साथ धावा बोल कर उन १५ दलित परिवारों को बेघर कर दिया जो १९४० के दशक से वहीँ मुकाम किये और रहते आ रहे थे. जुल्म की इन्तेहा ये कि जिन ८० लोगों के घर "गैर कानूनी" कह कर मटियामेट कर दिए गए उनके पास अपनी सालों साल कीरिहाइश साबित करते सनद मसलन जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पानी और बिजली बिल तो हैं ही साथ ही साथ ऊँची अदालत में उनके मामले की सुनवाई भी जारी है और दरअसल आज ही उनके मामले में सुनवाई की तारीख है. अब हुजूर एम सी डी के आला अधिकारिओं की कार्य परायणता पर भला किसे सुबहा है?लेकिन जिस असाधारण तत्परता से क़ानूनी प्रक्रिया को ताख पर रख कर और विकास आधारित बेदखली के मामलों में अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों विशेष कर यू. एन. जैसी संस्थाओं के स्पष्ट दिशा निर्देशों की अनदेखी करते हुए २६८ वर्ग यार्ड की जमीन "कब्जे" में लिए "अतिक्रमणकारिओं" को इस उन्मादी सावन की फुहारों में भिगो देने के मकसद से उनके घरों पर बुलडोजर चढ़ा दिया गया उस पर आप क्या कहेंगे?? न तो इन दलित परिवार की महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों का ख्याल किया गया और न ही उनको उजाडने से पहले उन्हें कोई वैकल्पिक या तात्कालिक व्यवस्था प्रदान की गयीI मैं मानता हूँ कि मानवाधिकारों की खाट खडी करने का हमारे मुल्क और शहर में यह कोई इकलौता या पहला मामला नहीं है (!) लेकिन परेशानी की एक वजह और भी हैI *नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्युमन राइट्स* से जुड़े कार्य कर्ताओं की बात पर अगर गौर करें तो इस मामले का एक दूसरा पहलु भी सामने आता है... बाल्मीकि बिरादरी के जिन घरों को उजाड़ा गया है उनकी रिहाइश से इस परिवेश के उच्च भ्रू और उच्च जातीय पडोसिओं को खासी तकलीफ बताई जाती है I एक संवेदनशील नागरिक इस मंजर को देख कर "आग लगा दो सावन को (!)" जैसा जुमलाभले ही न कहे लेकिन हम तो इस हाल ए तस्वीर- जो एक बाजारोन्मुखी और गैर जवाबदेह मीडिया के जरिये आज चारसूं नुमायाँ है- देख यही कहेंगे कि *सावन में अनधरैले पर सगरों हरियरी देखाला* !! दीवान के दोस्तों के लिए कमल मिश्रा की ओर से -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jul 31 00:09:04 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 31 Jul 2011 00:09:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkueCkguCkuCcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCksOCknOCkpCDgpJzgpK/gpILgpKTgpYAg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS44KSwIOCkquCksCAzMSDgpJzgpYHgpLLgpL7gpIggMjAx?= =?utf-8?b?MSDgpJXgpYsg4KS14KS+4KSj4KWAIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktg==?= =?utf-8?b?4KSoIOCkuOClhyDgpKbgpYsg4KSW4KSj4KWN4KSh4KWL4KSCIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktuCkv+CkpCAn4KS54KSC4KS4?= =?utf-8?b?IDog4KSy4KSu4KWN4KSs4KWAIOCkleCkueCkvuCkqOCkv+Ckr+Ckvg==?= =?utf-8?b?4KSBJyDgpKrgpYHgpLjgpY3gpKTgpJUg4KSV4KS+IOCksuCli+CklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWN4KSq4KSj?= Message-ID: साथियो, 'सूखा' (निर्मल वर्मा) 'और अंत में प्रार्थना' (उदय प्रकाश), 'कामरेड का कोट' (सृंजय), 'धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे' (दूधनाथ सिंह), 'दो औरतें' (कृष्ण बिहारी) 'जलडमरूमध्य' (अखिलेश), 'डेढ़ सौ साल की तन्हाई' (संजीव) आदि कहानियों ने 20 वीं सदी के उत्तरार्ध और 21 वीं सदी के शुरुआती दौर के भारतीय समाज की 'माइक्रो रियलिटी' को परत-दर-परत उघारा है और नए-नए विमर्श शुरू किए हैं. हिंदी की बहुचर्चित साहित्यिक पत्रिका 'हंस' में प्रकाशित इन लम्बी कहानियों ने समकालीन हिंदी कहानी को एक नया आयाम दिया है. दरअसल ये लम्बी कहानियाँ 'हंस' की धरोहर हैं. वाणी प्रकाशन ने 'हंस' के गौरवपूर्ण 25 वर्षों के प्रकाशन से चुनिन्दा व सर्वाधिक लोकप्रिय लम्बी कहानियों का संकलन दो खण्डों में प्रकाशित किया है. 'हंस' की रजत जयंती के अवसर पर 31 जुलाई 2011 को शाम पांच बजे ऐवाने गालिब सभागार में आयोजित कार्यक्रम में राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादित और वाणी प्रकाशन से दो खण्डों में प्रकाशित 'हंस : लम्बी कहानियाँ' पुस्तक का लोकार्पण किया जाएगा। आप सभी साथी कार्यक्रम मेन सादर आमंत्रित हैं। शुक्रिया। वाणी प्रकाशन, दिल्ली -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Thu Jul 14 02:40:29 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Wed, 13 Jul 2011 21:10:29 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkh+CkruCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSoIOCkteClh+CksOCljeCkuOClh+CkuCDgpIfgpK7gpLDgpL4=?= =?utf-8?b?4KSoIDog4KSmIOCkheCkqOCkn+Cli+CksuCljeCkoSDgpLjgpY3gpJ8=?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWAJyAuLi4=?= Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. ""इमरान वेर्सेस इमरान : द अनटोल्ड स्टोरी' (फ्रेंक हुज़ूर) किताब इमरान खान का सिर्फ ज़िन्दगीनामा नहीं बल्कि पाकिस्तान के 50-60 साल के इतिहास का एक दस्तावेज़ है." : पुष्पेश पन्त." Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CNjvocOd_6kCFUS_7AodSLaGHw&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2F2YpXwvdRwNF%3Fgpinv%3DAGXbFGy8Y1eUbXmDNfl8zf2AouClnX7AG_4rI9HEvAySsrYelb2WzED-lAn3442iFPydu64an7w2CXf4xxp424ABL2cW3halSYoNJ_vq4yx-YYsUvSZqWbI%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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URL: From mediamorcha at gmail.com Sat Jul 30 11:24:44 2011 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Sat, 30 Jul 2011 11:24:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSCIOCkleClg+CkquCkr+CkviDgpKrgpZ3gpYfgpIIt4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSW4KWH4KSCIOCkqOCkjyDgpLjgpJzgpY3gpJzgpL4g4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkvuCkruCli+CksOCkmuCkviB3d3cu?= =?utf-8?q?mediamorcha=2Eco=2Ein?= In-Reply-To: References: Message-ID: साथियों कृपया पढ़ें-देखें नए सज्जा में मीडियामोरचा www.mediamorcha.co.in [image: joshi] अखबार ,भाषा और संपादक *अंबरीश कुमार */ कल एक दावत में नेताओं के साथ पत्रकारों का जमावड़ा हुआ तो मीडिया पर भी बात आई और अपने भट्ट जी ने टिप्पणी की कि अब मीडिया में पढ़े लिखे अनपढ़ों का बहुमत हो गया है । पहले अगर किसी रिपोर्टर की स्टोरी कमजोर होती थी तो डेस्क पर बैठे उप संपादक उसे दुरुस्त कर देते थे ।{ आगे पढ़ें . . } [image: hina--2] कब सबक लेगा भारतीय मीडिया *हिना हुईं भारतीय मीडिया से नाराज* *लीना */ पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार 26 जुलाई को भारत दौरे पर आईं और भारतीय विदेश मंत्री एस एम कृष्णा सहित विभिन्न भारतीय नेताओं से कई दिनों तक द्विपक्षीय मुद्दों पर बातचीत की। भारतीय मीडिया ने हिना रब्बानी के इस दौरे में काफी दिलचस्पी दिखाई और विशेषकर उन्हें खासी तरजीह दी।{ आगे पढ़ें . . . } [image: news-express-logo] एक और राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल *खबर ।* एक और राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल ‘न्यूज़ एक्सप्रेस’ आज से लॉन्च होने जा रहा है। इसकी खासियत है इसका हाई डिफ़ीनेशन होना। { आगे पढ़ें . . . } - अखबार ,भाषा और संपादक - कब सबक लेगा भारतीय मीडिया - इण्डिया की मीडिया और भारत की मीडिया - एक और राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल - डीडी पटना, समाचार एकांश को चाहिये स्ट्रींगर - बंदी की ओर अग्रसर टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना ? - दूरदर्शन के महानिदेशक बने त्रिपुरारी शरण - Strategic Alliances is Likely in Print Media in Bihar & Jharkhand - मीडिया में औरत की देह सबसे लोकप्रिय विमर्श -- www.mediamorcha.co.in -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Sat Jul 16 01:44:35 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Fri, 15 Jul 2011 20:14:35 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= http://vaniprakashanblog.blogspot.com/2011... Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. "http://vaniprakashanblog.blogspot.com/2011/07/blog-post_15.html?spref=fb" Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CIDQtt-UhKoCFQdlDQodLUgCPA&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2FM1371pDeX8P%3Fgpinv%3DAGXbFGynX950WmN7rpEYTcZLOEkb6YHfcJqjt9yMvEUuofuDgTgxB6gU1dCJu-MPiVAn4H7wWTQV3XIamPgbc7uNv4D7gj6mhwbkkqqJ712R_I2kWSl8DkA%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Sat Jul 16 21:25:44 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Sat, 16 Jul 2011 15:55:44 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkleCkv+CkpA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KWL4KSCIOCkuOClhyDgpJfgpYHgpZvgpLDgpYsg4KSk4KWL?= =?utf-8?b?IOCkr+ClguCkgSDgpJXgpL/gpLDgpKbgpL7gpLAg4KSu4KS/4KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgi4uLg==?= Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. ""किताबों से गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं! गए वक्तों की डेवढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं !!" - गुलज़ार" Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CJjSguGchqoCFQdlDQodz04rMA&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2FMSUw8D8aRLm%3Fgpinv%3DAGXbFGyb_9Dh4Zi0tOhSG2VOk2FCD7w3f8IwORl1z2ni4F9turZfj4eIZEuTmCc1tcW0LOHLaija7B7_P5yU16F69i5abkWy8RCzn6C-8xMt4FlV8qoE6Ps%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Thu Jul 14 11:27:44 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Thu, 14 Jul 2011 05:57:44 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSX4KSw?= =?utf-8?b?IOCkruClgeCksOCkvuCkpuCkvuCkrOCkvuCkpuClgCDgpIngpLgg4KSk?= =?utf-8?b?4KS54KSc4KWA4KSsIOCkleClhyDgpLXgpL7gpLDgpL/gpLYg4KSl4KWH?= =?utf-8?b?LCDgpJzgpL/gpLjgpK7gpYfgpIIuLi4=?= Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. "जिगर मुरादाबादी उस तहजीब के वारिश थे, जिसमें अच्छाई-बुराई और नेकी-बदी की अलग-अलग पहचानें थीं.वह मिज़ाज से आशिक और तबियत से हुस्नपरस्त थे.'जिगर मुरादाबादी:मुहब्बतों का शायर' शीर्षक से निदा फ़ाज़ली साहब की किताब अभी हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.पेश है, उनकी कुछ गज़लें, जिनमें हुस्न का एहतराम है और इश्क की खुद्दारी: http://shashikanthindi.blogspot.com/2011/07/blog-post_14.html" Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CIiL5a-TgKoCFWTD7Aod0nHqHQ&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2FbymgoE6NpXa%3Fgpinv%3DAGXbFGxLyRNENItv5ia6qCDipG3ao2N3vz9xfdR1E3a7rv4BzeRaxW6j4Ae94e8Hf9MHo7bm0p6JQmKvwXCtTBL7IO4pCX0nOGS0DAEQqqtmDx6Cr1zFGMc%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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URL: From filmashish at gmail.com Fri Jul 29 14:22:16 2011 From: filmashish at gmail.com (ashish k singh) Date: Fri, 29 Jul 2011 14:22:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ndfs update Message-ID: Hi, Plz visit: http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/ and update yourself with: 1. Retrospective of legendary Indian Actress Nalini Jaywant's films being organised in the capital. 2. Some interesting different strokes on the movie Delhi Belly. 3. Info about the 1st Balia Film Fest. best, Ashish -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Wed Jul 13 17:35:16 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Wed, 13 Jul 2011 12:05:16 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkj+CklSDgpKvgpYfgpLjgpKzgpYHgpJXgpYAg4KSu4KS/4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleClhyDgpIfgpKjgpY3gpLXgpL/gpJ/gpYfgpLbgpKgg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkquCktuCljeCkmuCkvuCkpC4uLg==?= Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. "अपने एक फेसबुकी मित्र के इन्विटेशन के पश्चात गूगल प्लस पर| शुरूआती 'रुझान' के अनुसार ट्विटर और फेसबुक का समायोजन| नया कुछ भी नहीं| फेसबुक को उसके आइडिया के इस्तेमाल के लिए कॉपीराइट के तहत केस करना चाहिए| ट्विटर को भी| नया क्या है? गो टू हेल| आगे थोड़ा और देखते हैं|" Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CPCIz9Gj_qkCFY5x7Aodnw64Fw&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2FjZWRVKBRJHJ%3Fgpinv%3DAGXbFGzWZR6MUNy41SzP9tEiThULutFYiY0AuNwHuAFXGgbB_ecMn0-dJ83xvQrsKQ7H2nCSKSVxLi5s_yLiyd9gH4CQol6xYSGYwxXAVfaGq8JbTMC-XlU%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Sun Jul 17 19:20:09 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Sun, 17 Jul 2011 13:50:09 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSy4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSV4KSC4KSm4KSwIOCknOCkv+Ckl+CksCDgpK7gpYHgpLA=?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KS+4KSs4KS+4KSm4KWAIOCkpuCksOCkheCkuOCksiDgpK4=?= =?utf-8?b?4KS/4KWb4KS+4KScIOCkuOClhy4uLg==?= Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. "अली सिकंदर जिगर मुरादाबादी दरअसल मिज़ाज से आशिक और तबियत से हुस्नपरस्त थे. 'जिगर मुरादाबादी : मुहब्बतों का शायर' शीर्षक से निदा फ़ाज़ली साहब की किताब अभी हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. पेश है, जिगर साहब की कुछ गज़लें, जिनमें हुस्न का एहतराम है और इश्क की खुद्दारी भी : http://shashikanthindi.blogspot.com/2011/07/blog-post_14.html" Accept the invitation to view the full post: https://plus.google.com/_/notifications/emlink?emrecipient=113855211663139234548&emid=CPiW9MXCiKoCFQd-DQodKstCMA&path=%2F103995189538717486230%2Fposts%2Fgqjnoy2WKhX%3Fgpinv%3DAGXbFGwofwEER-VSKgVO85MvlM8sKOUbFgyEf_ba7MwPmYFVJmQaisaHvucgObs5jgvRiWWTGKtCWJPLh2prlkGiubdfXZPJgaoztmL-Ia-VGBLLBq41cSg%26hl%3Den_GB The Google+ project is currently working out all the kinks with a small group of testers. If you're not able to access Google+, please check again soon. 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