From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jan 1 12:08:37 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 1 Jan 2011 12:08:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Wishes Happy New Year 2011 Message-ID: छुए कभी न पतझर ये भावनाए बस, हरदम रहे उजाला ये याचनाए है बस, गए साल की तरह ही इस नये साल में भी मेरे पास कुछ नहीं है,शुभ कामनाये है बस, -----डा.विष्णु सक्सेना -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Jan 1 15:41:26 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 1 Jan 2011 15:41:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkleClhyAxMCDgpLjgpL7gpLIg4KSU4KSwIOCkhuCkp+ClgC3gpIU=?= =?utf-8?b?4KSn4KWC4KSw4KWAIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksOCkv+CkpA==?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: कल यानी 31 दिसंबर को आजतक के 10 साल पूरे हो गए। इस मौके पर आजतक ने शुरुआती दौर से जुड़े लोगों की बाइट,उनकी फुटेज और चैनल की पिछले दस साल में कवर की गयी स्टोरी को गंभीरता से दिखाने के बजाय फिलर के तौर पर पेश किया। कार्यक्रमों के बीच-बीच में किसी की बाइट चला दी जाती और फिर मौजूदा कार्यक्रम अबाध गति से जारी रहता। अपने इस 10 साल के मौके पर आजतक ने जो खास कार्यक्रम दिखाया वो था राजू श्रीवास्तव की ओर से पेश की गयी टूटती खबर। इस खबर की थीम थी कि राजू श्रीवास्तव बतौर आजतक संवाददाता चांद पर एलियन खोजने गए हैं और फिर आजतक के संवाददाता जैसे करते हैं बल्कि उनका मजाक उड़ाते हुए कार्यक्रम पेश किया। उसके बाद देशभर के रईसजादों के इलाके में,फार्म हाउस और होटलों में नए साल को किस तरह से सिलेब्रट किया जा रहा है,उसके लगातार 6-7 मिनट तक की फुटेज लगातार चलाता रहा। वो एक तरह से लाइव कवरेज ही थी जिससे कि चैनल ने घंटों अपना स्पेस भरा। मुझे नहीं पता कि इन कार्यक्रमों के साथ चैनल की कोई डील थी या फिर महज खर्चा बचाने के लिए ऐसा किया। कल आजतक को देखकर भारी धक्का लगा कि चैनल ने अपनी विरासत को भी दस साल के बाद सहेजकर नहीं रखा और ऑडिएंस के सामने पेश कर सका। आजतक के 1995 में दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम के तौर पर शुरु होने से ठीक 10 साल बाद 2005 में भी चैनल ने खास कार्यक्रम दिखाया था। उसे देखते हुए लगा था कि वाकई एक नेशनल चैनल के तौर पर आजतक में कोई बात नहीं। ये सबकुछ भेल ही ब्रांडिंग के स्तर पर रहा हो। फिर भी,लेकिन सेटेलाइट चैनल के तौर पर 10 साल आजतक ने जो पूरे किए,वो अपने इस खास दिन को भूल गया। चैनल को ये नहीं भूलना चाहिए था कि साल के आखिरी में शीला की जवानी परखने और मुन्नी के बदनाम हो जाने की गाथा के बीच उसके खुद के लिए खास दिन था,बाजार के लिहाज से भी। अगर विरासत शब्द को छोड़ भी दें तो भी। लेकिन उसने इसका बेहतर इस्तेमाल नहीं किया या कहें कि भुना नहीं सका। मोहल्लाlive पर मेरी लिखी पोस्ट दस साल तो हो गए, लेकिन भरोसा कहीं खो गया को लेकर नागार्जुन ने क्लासरुम लेक्चर के अंदाज में मुझे मीडिया का समाजशास्त्र समझाने की कोशिश की और आरोप लगाया कि मैं इस पोस्ट के बहाने आजतक को नास्टॉल्जिया के तहत देख रहा हूं जबकि मेरा अपना तर्क है कि आजतक के दस साल होने पर जो लिखा,उसका भी एक सामाजिक संदर्भ है। लिहाजा आजतक के दस साल पूरे होने और निजी मीडिया के बदलते चरित्र पर उस पूरे कमेंट को पोस्ट की शक्ल में आपसे साझा कर रहा हूं। नागार्जुनजी आप अपने बच्चों के जन्मदिन के दिन केक काटते हुए क्या ये कहते हैं कि तू अभी तक बेड पर शू शू करता है,मम्मा की बात नहीं करता,क्लासरुम में सिर्फ टीचर को ताड़ता रहता है,उनी बातें नहीं सुनता? आपका लौंडा कितना भी नालायक हो,आप उसके जन्मदिन पर उसे विश करते हैं,उसकी अच्छी आदतों को याद करते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कामना करते हैं। आजतक पर आज मैंने जो कुछ भी लिखा,वो उसके दस साल होने को लेकर है,कोई नास्टॉल्जिया का हिस्सा नहीं। मैंने खुद ही कहा है कि ये उसका हिस्सा लग सकता है क्योंकि मैंने जो कुछ भी लिखा है वो बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है। आपने जिस तरह से मुझे मीडिया और बाजार के अर्थशास्त्र को समझाने की कोशिश की है तो जिस शख्स को इतनी जानकारी औऱ समझ है कि 1988 में भी न्यूजट्रैक की शुरुआत हुई तो भी वो धंधे का हिस्सा था,1995 में जब आजतक बीस मिनट के लिए आया तो भी धंधे का हिस्सा है,उसे इतनी समझ कैसे नहीं होगी कि एक स्वतंत्र 24 घंटे का न्यूज चैनल आया तो वो बाजार और धंधे का हिस्सा होगा? आप जिसे नास्टॉल्जिया और भक्तिभाव में आकर किया गया विश्लेषण कह रहे हैं,मामला ये नहीं है। मैं जो समझ पा रहा हूं वो ये कि आजतक चैनल ने जिस दौर में इस इन्डस्ट्री में कदम रखा,उसमें उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का दौर शुरु हो चुका था बल्कि कहें तो बहुत ही मजबूत तरीके से उसके पैर जम चुके थे। मीडिया संस्थान के भीतर इस बात की कॉन्फीडेंस आ गयी थी कि वो सरकार से सीधे-सीधे पंगा ले सकती है क्योंकि सरकार के भीतर के पावर गेम को प्रभावित करनेवाले और मीडिया के पैर मजबूत करनेवाले लोग एक ही थे जिसे कि हम कार्पोरेट के तौर पर रेखांकित करते हैं। मीडिया को इस बात की बेहतर समझ थी कि अगर वो सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं तो भी वो उसका बहुत कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि उन्हें पता है कि पावर जेनरेट कहां से होने हैं? ऐसे में मीडिया ने खुले तौर पर राजनीतिक लोगों और सरकारी मशीनरियों से पंगा लिया और ऑडिएंस को ये लगा कि टेलीविजन के माध्यम से पत्रकारिता का स्वर्णयुग लौट आया है। उस वक्त की सच्चाई ये थी कि पब्लिक ब्राडकास्टिंग की जो निर्भरता सरकार पर थी,निजी मीडिया में वो निर्भरता शिफ्ट होकर कार्पोरेट पर आ गयी। मतलब ये कि निजी मीडिया जिस बात के लिए इसे कोसते थे,उससे मुक्त होकर कार्पोरेट की गोद में जा गिरे और राजनीतिक खबरों की ऐसी चीर-फाड की कि ऑडिएंस के बीच भरोसा जम गया कि निजी मीडिया चैनल दूरदर्शन से बेहतर काम करते हैं और तटस्थ हैं। लेकिन आप देखेंगे कि पावर सेंटर जो तेजी से बदलकर कार्पोरेट के हाथों में जा रहा था,आजतक ने या फिर किसी भी चैनल ने उस पर कभी हाथ नहीं डाला,उसकी आलोचना नहीं की? कार्पोरेट ने जिस-जिस क्षेत्र में अपना विस्तार किया,खबरों से वो क्षेत्र छूटता चला गया। इसी दौर में बोतलबंद पानी की इन्डस्ट्री का विस्तार हुआ,सॉफ्ट ड्रिंक का बड़ा बाजार पैदा हुआ,रीयल स्टेट और बिल्डरों की दलाली बढ़ी और एक स्वतंत्र रुप से ब्लैक मार्केंट को मजबूती मिली,देश की जीडीपी खेती से हटकर इन्डस्ट्री से निर्धारित होने लगी लेकिन एक-एक करके इन सब सेक्टर से खबरें गायब होने लगी। चैनल ने सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक खबरों और स्टेट मशीनरी की छोटी-मोटी गड़बड़ियों का खुलासा करके ताल ठोंकने का काम किया और अपने को सरोकारी पत्रकारिता का नाम दिया। लेकिन जिस तेजी से कार्पोरेट पब्लिक स्फीयर के भीतर की चीजों को मीनिंगलेस,वाहियात और बेमतलब का करार दे रहा था,उसको लेकर कभी सवाल खड़े नहीं किए। चैनल ने जब स्टेट मशीनरी की गड़बड़ियों को सामने आने का काम किया तो उसके साथ ही इस बात के संकेत भी दिए कि ये पूरी तरह नाकाम हो चुकी है और विकल्प के तौर पर कार्पोरेट ढांचे से पब्लिक स्फीयर पनप रहे थे,उसे प्रोत्साहन मिलने शुरु हो गए। मतलब कि इस चैनल ने स्टेट मशीनरी की पब्लिक स्फीयर को अपदस्थ करके कार्पोरेट की ओर से बननेवाली पब्लिक स्फीयर को मजबूती दी और अकेले राजनीतिक खबरों की चीर-फाड करके भरोसे का मार्केट खड़ा किया।.. इस संदर्भ में अब इन चैनलों को देखें तो इनकी विश्वसनीयता तभी बन सकती है जबकि वो कार्पोरेट से बननेवाली पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करती है।..और वो ऐसा करेंगे,इसे आप भी जानते हैं। जिस राजदीप सरदेसाई ने नब्बे के दशक में पब्लिक ब्राडकास्टिंग और सरकार का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सरकार से हमें कोई लेना-देना नहीं है,वहीं राजदीप सरदेसाई 3 दिसंबर की एडीटर्स गिल्ड की परिचर्चा में प्रेस क्लब में खुलेआम कहते हैं कि हम कार्पोरेट औऱ मालिकों के दबाब के आगे मजबूर हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है? इसलिए मैं जिस संदर्भ में बात कर रहा हूं कि आजतक पहले क्या था और अब किस रुप में दिखाई दे रहा है,वो दरअसल मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है। अब बात रही पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसे पत्रकारों के प्रति मोहग्रस्त होने की तो मैं साफ कर दूं कि आज मैं किसी चैनल में नौकरी करने जाउं तो मैं किसी भी हाल में उनसे प्रेरित होकर काम नहीं करुंगा। ऐसा इसलिए कि जिस किस्म की पत्रकारिता वो टेलीविजन में करना चाहते हैं,वो ही करने की स्थिति में नहीं है,उनके खुद के लिए स्पेस नहीं है तो फिर हम अपनी क्या बात करें? वो दौर ही खत्म हो गया। हां,हमने अपने जिन स्कूल डेज के सपनों की बात की है वो दौर ही ऐसा बना या फिर कहें कि कार्पोरेट की सवारी करते हुए बना दिया गया कि सच्ची और बेहतर पत्रकारिता( क्या होती है,आज दिन तक समझना मुश्किल ही रहा)का मतलब ही था स्टेट मशीनरी और सरकार की गड़बड़ियों को फाड़कर रख देना। राजनीतिक रिपोर्टिंग को सिलेब्रेट करने का दौर था। आज पुण्य प्रसून वाजपेयी,शम्स ताहिर खान या फिर लाल पत्थर युग के पत्रकारों की जो पीड़ा है वो पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा नहीं है,राजनीतिक पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा है। जो पुण्य प्रसून वाजपेयी आठ-दस घंटे तक सत्ता के बनने-बदलने को लेकर एंकरिंग किया करते,उन्हें रातभर एश्वर्या और अभिषेक बच्चन की शादी पर गिनती की फुटेज के बूते घंटों एंकरिंग करनी पड़ जाती है,उसकी पीड़ा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी में काबिलियत इस बात की है कि उन्होंने अपनी इस छटपटाहट को एक जींस की शक्ल देने के लिए ठिकाने ढूंढ लिए है। नहीं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पत्रकारिता का दौर खत्म हो गया है। पत्रकारिता का दौर अभी है और यही शुरु कर सकते हैं जब वो रिलांयस के बगीचे खरीदे जाने पर स्टोरी करने लग जाए,मिनरल वाटर की प्लांट पर स्पेशल रिपोर्ट करने लगें,स्टीट के धंधे पर खबर करें,मोबाइल कंपनियों की हेरा-फेरी का पर्दाफाश करें। जो ऑडिेएस अब माल,मल्टीप्लेक्स, कंडोम, एयरलाइंस की कन्ज्यूमर बन चुकी है,उनकी समस्याओं पर स्टोरी करनी शुरु करें। नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करके इन्होंने अपने को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित किया लेकिन उसकी विश्वसनीयता तभी बरकरार रह सकती है जबकि वो कार्पोरेट की ओर से बनी पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करेंगे। न्यू मीडिया का विस्तार इसी पर चोट करने के दावे के साथ हो रहा है। वो राजनीतिक से कहीं ज्यादा इन स्फीयर पर चोट कर रहा है। हमने इनका नाम बस इसलिए लिया कि वो नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करते नजर आए। आज के संदर्भ में इनसे प्रेरित इसलिए नहीं हुा जा सकता कि वो मौजूदा पब्लिक स्फीयर पर चोट नहीं कर रहे। अब सवाल खोए हुए स्वर्णिम इतिहास की तलाश की है जिसे कि आपने मेरे लिए व्यंग्य के तौर पर इस्तेमाल करते हुए भक्तिभाव शब्द का इस्तेमाल किया तो जो लोग इस समझ के साथ विश्लेषण करते हैं,वो दरअसल एक जमाना था कि अवस्था में आकर बात करने लग जाते हैं। 28 साल की उम्र में माफ कीजिएगा,मैं उस कैटेगरी में नहीं आता। आजतक ने कभी भी संतई की प्रेरणा से आकर काम नहीं किया। हां फिर भी उसे देखते हुए हम जो पत्रकार बनने की बात सोचते थे वो सिर्फ इसलिए कि वो कम से कम नेशन स्टेट को चैलेंज कर रहे थे। जबकि आज नेशन स्टेट की मशीनरी को चैलेंज करना बंद हो गया है क्योंकि आज उसने खुद को भी मीडिया का एक क्लाइंट के तौर पर प्रस्तावित किया है। तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया की सवारी करके ही लोगों तक पहुंचना चाहती है। चुनाव आयोग तक को अपनी बात कहने के लिए पप्पू कांट डांस स्साला जैसे गाने की शरण में जाना पड़ता है। राजीव गांधी ने रेडीफ्यूजन पीआर एड एजेंसी की मदद से जिस चुनावी विज्ञापन का दौर शुरु किया,उसने चैनलों को राजनीतिक क्षेत्र में भी करोड़ों का धंधा दे दिया। स्टेट मशीनरी,राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया के लिए एक आसामी है,उनके बीच ग्राहक और दूकानदार का रिश्ता है। ऐसे में मीडिया सीधे तौर पर क्यों पंगा लें। नब्बे के दशक में इसलिए लिया क्योंकि उनसे कमाई नहीं हो सकती थी,फेयप बिजनेस के तौर पर। लॉबिइंग,सेटिंग और ब्लैक मेलिंग की बात नहीं कर रहा। अब इनसे कमाई होती है। इसके साथ ही अब राजनीतिक पार्टियों के लिए ये कोई मुश्किल काम नहीं रह गया है कि देश के दर्जनभर चमकदार पत्रकारों की फौज खड़ी करके एक चैनल शुरु कर दें।..इसलिए मेरी अपनी समझ है कि आजतक या किसी भी चैनल ने इन पर स्टोरी करनी बंद कर दी है तो उनके बीच का संबंध एक बिजनेस रिलेशन के दायरे में बंध चुका है। वो अपनी कमाई खो नहीं सकते। इधर आप हमें जिस मीडिया के समाजशास्त्र को समझाने की कोशिश कर रहे हैं,जिसमें कि अध्यापकीय टोन ज्यादा,शेयरिंग एलीमेंट कम है तो यकीन मानिए इस देश में मीडिया की पढ़ाई दो ही तरीके से होती है- एक तो चौथा स्तंभ और दूसरा कि पूंजीवाद का पर्याय। हमने भी कुछ ऐसी क्लासें की है,इसलिए आपकी बात नई नहीं लगी। लेकिन चैनल के जिस कंटेंट पर पुण्य प्रसून जैसे मीडियाकर्मी अफसोस जाहिर कर रहे हैं,दरअसल वही चैनल की इकॉनमी है। कार्पोरेट का पब्लिक स्फीयर पहली ही लाइन में कहता है- जस्ट ब्रेक दि सीरियसनेस ऑफ नेशन स्टेट। यही कारण है कि हमें तमाम चीजें मनोरंजन,सिलेब्रेटी और प्रायोजित कार्यक्रमों के तहत डिफाइन होती नजर आती है। इसे समझने में मुझे कभी भी दुविधा नहीं रही। अब सबसे जरुरी बात है कि ऐसे में सो कॉल्ड ईमानदार मीडियाकर्मी क्या करे या फिर वो मीडियाकर्मी क्या करे जिसके लिए राजनीतिक खबरों में ही पत्रकारिता की जान बसती है? उसके लिए बस एक ही उपाय है कि वो साहस जुटाए और ऑडिएंस को बताए कि मीडिया की लक्ष्मण रेखा के जस्ट बाद 5 करोड़ में नहीं नाचेगी मुन्नी स्पेशल स्टोरी के अर्थशास्त्र को समझा दे। वो बिग बॉस पर लगी पाबंदी के ठीक बाद आधे घंटे तक पामेला एंडरसन की पार्शियल न्यूड पर बनी स्टोरी के तर्क को ऑडिएंस के सामने रख दे। 90 के दशक के पत्रकारों ने तो अपना काम कर दिया,राजनीतिक सत्ता को ठोक-बजाकर अपने को धारदार पत्रकार घोषित कर दिया। ये चुपचाप के जो ईमानदार पत्रकार हैं वो कोशिश करें कि दिल्ली में पानी की किल्लत को एमसीडी की नाकामी बताने के बजाय किनले,विस्लरी और एक्वाफीना के वाटरप्लांट पर चोट करें। उपभोक्ता आधारित ऑडिएंस के बीच सिर्फ नकली खोवा और मिठाईयों पर स्टोरी करके पत्रकारिता की बात नहीं की जा सकती।..औऱ नहीं तो फेयर एंड लवली और पांडस की क्रीम की तरह ऐसी आदत पैदा करें कि करोड़ों उपभोक्ता ये जानते हुए बी कि लगाने से गोरे नहीं होंगे,नियमित खरीदते रहते हैं। हमने तो आजतक को इसी तौर पर याद किया,इसमें कोई नास्टॉल्जिया,किसी पत्रकार के प्रति भक्तिभाव से रत होने का अंदाज नहीं था। हां ये जरुर था कि जैसे आप अपने बच्चे को वर्थ डे पर उसकी बुरी आदतों का पुलिंदा नहीं पटक सकते,उसके बेड पर शू-शू करने से अपने साथ-साथ अपने बाप का भी पायजामा गीला करने का जिक्र नहीं कर सकते,आजतक की वर्थडे पर मैंने भी ऐसा नहीं किया। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि हमने उसका पक्ष लिया। हम मीडिया की बात उसके खत्म होने के लिए नहीं,उसके बेहतर होने के लिए करते हैं।.मुझे लगता है नागार्जुनजी,आप मुझे समझ पाएंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jan 1 16:23:09 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 1 Jan 2011 16:23:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSn4KWB4KSs?= =?utf-8?b?4KSoIOCkruClh+CkgiDgpLDgpL7gpKHgpL/gpK/gpL4g4KSo4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpeClgA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: मधुबन में राडिया नाची थी -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Jan 2 11:33:02 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 2 Jan 2011 11:33:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS44KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KWB4KSwIOCkpuClh+CkluClh+Ckgg==?= Message-ID: दीवान के साथियों अगर आपने NDTV24X7 पर JANAM: HALLA BOL FOR ARTSPACEस्टोरी नहीं देखी हो तो जरुर देखें। ऐसी ही स्टोरी देखकर आपको टेलीविजन पर कभी-कभी रत्तभीर ही सही भरोसा जाग जाता है। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jan 3 13:33:49 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 3 Jan 2011 13:33:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkrOCkmuClhyDgpI/gpJUt4KSP4KSVIOCkrOClguCkguCkpiDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWA?= Message-ID: अमृतसर के 16 साल के मिथुन देश के दूसरे लाखों किशोरों जैसे ही हैं. लेकिन हैं अपनी तरह के. गरीबी और परेशानी में दिन गुजरे और अब भी वे उसी से दो-चार हो रहे हैं पर इन सबके बाद भी उनका काम ऐसा कि उनके जज्बे को सलाम करने का मन करता है किसी नल से अगर लगातार पानी टपकता रहे तो महीने में लगभग 760 लीटर पानी व्यर्थ बह जाता है, यह आंकड़ा अमृतसर के मिथुन के पास नहीं है लेकिन 16 साल के मिथुन को पता है कि पानी की हरेक बूंद को बचाया जाना जरुरी है. मिथुन किसी एनजीओ से जुड़े हुये नहीं हैं, कोई ट्रस्ट भी उनकी मदद के लिये नहीं है. किसी ने अब तक इस काम में उनकी मदद भी नहीं की लेकिन यह मिथुन का हौसला है और थोड़ी-सी जिद्द भी कि पानी को कैसे भी, बचाना है. वे बिना नागा हर शाम अपनी साईकिल से शहर के ऐसे इलाकों में निकल जाते हैं, जहां पानी की बर्बादी पर कोई ध्यान देने वाला नहीं होता. मिथुन आम तौर पर अपना रुख शहर के झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों की ओर करते हैं. वहां वो ऐसे नल टैप की तलाश करते हैं, जिनसे पानी टपक रहा हो या पानी रिस रहा हो या वह नल बिना टैप का हो. मिथुन ऐसे टैपों को बदलते हैं या दुरुस्त करते हैं. पढ़ाई और काम मिथुन का परिवार दस साल पहले पलायन कर अमृतसर में आ कर बसा. पिता चौकीदार हैं और मां घर में चुल्हा-चौका संभालती हैं. पढ़ाई-लिखाई में तेज़-तर्रार मिथुन ने आठवीं में 72 फीसदी अंक हासिल किये लेकिन पैसों की कमी के कारण पढ़ाई छूट गई. ताकि बचे एक-एक बूंद पानी घर में पैसों की ज़रुरत थी, इसलिये मिथुन ने भी काम करना शुरु किया. एक किताब की दुकान में सुबह दस बजे से शाम के आठ बजे तक काम करने के बदले मिथुन को एक हज़ार रुपये की पेशकश मिली. इसी बीच एक सज्जन ने अपने बच्चों को पढ़ाने का काम मिथुन को सौंपा और बदले में मिथुन को आठ सौ रुपये हर महीने मिलने लगे. पैसे मिलने लगे तो मिथुन ने फिर से पढ़ाई शुरु की. अब मिथुन बारहवी में हैं और कम्प्यूटर चलाना भी उन्हें आता है. इस बीच मिथुन को लगा कि समाज के लिये कुछ किया जाये, सो वे अपनी साईकिल और थोड़े से औजार के साथ बूंद-बूंद पानी बचाने की अपनी अनोखी पहल के लिये शहर के अलग-अलग इलाकों में निकलने लगे. मिथुन के नल टैपों को दुरुस्त करने या उन्हें बदलने के इस अभियान से शहर का कितना पानी बचा है, इसका हिसाब होना अभी बचा हुआ है लेकिन इसके बदले आम तौर पर उन्हें उलाहना और गालियां ही मिलती हैं- “तुम पूरे समय यह क्या करते रहते हो?” “यह तुम्हारी उम्र खेलने पढ़ने की है, यह सब क्या लगा रखा है.“ “बेवकूफ, गधे तेरे पास करने के लिए कुछ और नहीं है क्या?” लेकिन मिथुन को लोगों के कहे की परवाह नहीं है. उनका सारा ध्यान फिलहाल तो पानी की एक-एक बूंद बचाने पर है. मिथुन जैसे बच्चे जो बिना किसी स्वार्थ के परमार्थ में लगे हैं, उन लोगों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं जो शिक्षा, भूख, बीमारी के नाम पर अपने एनजीओ के लिए करोड़ों रुपये का सरकारी-गैरसरकारी पैसा पाते हैं और जिनके काम कहीं नज़र नहीं आते. -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jan 3 13:35:23 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 3 Jan 2011 13:35:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkrOCkmuClhyDgpI/gpJUt4KSP4KSVIOCkrOClguCkguCkpiDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWA?= In-Reply-To: References: Message-ID: ताकि बचे एक-एक बूंद पानी अमृतसर के 16 साल के मिथुन देश के दूसरे लाखों किशोरों जैसे ही हैं. लेकिन हैं अपनी तरह के. गरीबी और परेशानी में दिन गुजरे और अब भी वे उसी से दो-चार हो रहे हैं पर इन सबके बाद भी उनका काम ऐसा कि उनके जज्बे को सलाम करने का मन करता है किसी नल से अगर लगातार पानी टपकता रहे तो महीने में लगभग 760 लीटर पानी व्यर्थ बह जाता है, यह आंकड़ा अमृतसर के मिथुन के पास नहीं है लेकिन 16 साल के मिथुन को पता है कि पानी की हरेक बूंद को बचाया जाना जरुरी है. मिथुन किसी एनजीओ से जुड़े हुये नहीं हैं, कोई ट्रस्ट भी उनकी मदद के लिये नहीं है. किसी ने अब तक इस काम में उनकी मदद भी नहीं की लेकिन यह मिथुन का हौसला है और थोड़ी-सी जिद्द भी कि पानी को कैसे भी, बचाना है. वे बिना नागा हर शाम अपनी साईकिल से शहर के ऐसे इलाकों में निकल जाते हैं, जहां पानी की बर्बादी पर कोई ध्यान देने वाला नहीं होता. मिथुन आम तौर पर अपना रुख शहर के झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों की ओर करते हैं. वहां वो ऐसे नल टैप की तलाश करते हैं, जिनसे पानी टपक रहा हो या पानी रिस रहा हो या वह नल बिना टैप का हो. मिथुन ऐसे टैपों को बदलते हैं या दुरुस्त करते हैं. पढ़ाई और काम मिथुन का परिवार दस साल पहले पलायन कर अमृतसर में आ कर बसा. पिता चौकीदार हैं और मां घर में चुल्हा-चौका संभालती हैं. पढ़ाई-लिखाई में तेज़-तर्रार मिथुन ने आठवीं में 72 फीसदी अंक हासिल किये लेकिन पैसों की कमी के कारण पढ़ाई छूट गई. घर में पैसों की ज़रुरत थी, इसलिये मिथुन ने भी काम करना शुरु किया. एक किताब की दुकान में सुबह दस बजे से शाम के आठ बजे तक काम करने के बदले मिथुन को एक हज़ार रुपये की पेशकश मिली. इसी बीच एक सज्जन ने अपने बच्चों को पढ़ाने का काम मिथुन को सौंपा और बदले में मिथुन को आठ सौ रुपये हर महीने मिलने लगे. पैसे मिलने लगे तो मिथुन ने फिर से पढ़ाई शुरु की. अब मिथुन बारहवी में हैं और कम्प्यूटर चलाना भी उन्हें आता है. इस बीच मिथुन को लगा कि समाज के लिये कुछ किया जाये, सो वे अपनी साईकिल और थोड़े से औजार के साथ बूंद-बूंद पानी बचाने की अपनी अनोखी पहल के लिये शहर के अलग-अलग इलाकों में निकलने लगे. मिथुन के नल टैपों को दुरुस्त करने या उन्हें बदलने के इस अभियान से शहर का कितना पानी बचा है, इसका हिसाब होना अभी बचा हुआ है लेकिन इसके बदले आम तौर पर उन्हें उलाहना और गालियां ही मिलती हैं- “तुम पूरे समय यह क्या करते रहते हो?” “यह तुम्हारी उम्र खेलने पढ़ने की है, यह सब क्या लगा रखा है.“ “बेवकूफ, गधे तेरे पास करने के लिए कुछ और नहीं है क्या?” लेकिन मिथुन को लोगों के कहे की परवाह नहीं है. उनका सारा ध्यान फिलहाल तो पानी की एक-एक बूंद बचाने पर है. मिथुन जैसे बच्चे जो बिना किसी स्वार्थ के परमार्थ में लगे हैं, उन लोगों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं जो शिक्षा, भूख, बीमारी के नाम पर अपने एनजीओ के लिए करोड़ों रुपये का सरकारी-गैरसरकारी पैसा पाते हैं और जिनके काम कहीं नज़र नहीं आते. -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Jan 3 13:40:26 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 3 Jan 2011 13:40:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHLiDgpJw=?= =?utf-8?b?4KWALiDgpJXgpKjgpY3gpKjgpL7gpKzgpL/gpLDgpKggOiDgpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSC4KSk4KS/IOCknOCkv+CkuOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSw4KS/4KS54KS+4KSw4KWN4KSvIOCkpeClgC4uLg==?= Message-ID: के. जी. कन्नाबिरन : क्रांति जिसके लिए अपरिहार्य थी... के. जी.* *कन्नाबिरन *श्रधांजलि* *मित्रो, * *पहली जनवरी को जब देश और दुनिया में नए साल का जश्न मनाया जा रहा था. सुबह-सुबह विमल जी ने फ़ोन कर एक दुखद ख़बर दी कि कन्नाबिरन नहीं रहे. मैंने वरिष्ठ वकील शांति भूषण को फ़ोन मिलाया. भरे हुए गले से दुःख प्रकट करते हुए वे बोले, **"हाँ, कन्नाबिरन अब हमारे बीच नहीं हैं. जे.पी. ने जब पी.यू.सी.एल. का गठन किया, कन्नाविरन तब से पी.यू.सी.एल. से जुड़े थे. वे पी.यू.सी.एल. के प्रेसिडेंट रहे थे. उन्होंने लाइफ़ लॉन्ग ह्यूमन राइट के लिए काम किया. वे एक बहुत बड़े एक्टिविस्ट लायर थे." * * * *मैंने जब उनसे उनके बारे में विस्तार से टिप्पणी करने कहा तो असमर्थता जताते हुए शांति भूषण बोले, "मैं उनके बारे में इतना ही जानता हूँ. आपको उनके बारे में ज़्यादा ख़बर राजिंदर सच्चर जी देंगे." भाई अभिषेक श्रीवास्तव से बात करके मैंने राजिंदर सच्चर को फ़ोन मिलाया. उनके साथ हुई बातचीत आज के दैनिक भास्कर में ऑप-एड पेज पर प्रकाशित हुई है. * *साथियो, * *बिनायक सेन को सज़ा सुनाये जाने के बाद आजकल दुनिया भर के मानवाधिकारवादी और बुद्धिजीवी जबकि परेशान हैं, कन्नाबिरन की मौत के बाद **हिन्दुस्तान ने नागरिक अधिकारों की लड़ाई लडऩेवाला एक सामाजिक योद्धा खो दिया है. **आप इस टिप्पणी को पढ़कर के. जी. कन्नाविरन और उनके योगदान को याद करे! -शशिकांत * * **हिंदुस्तान* के विख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता और आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के बहुचर्चित वकील के. जी. कन्नाबिरन का पिछले 30 दिसंबर को निधन हो गया। उन्होंने अपने घर में चुपचाप आखिरी सांस ली। मौत से पहले उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों से कहा था कि उनकी लाश को प्रचार सामग्री और नारेबाजी का वस्तु नहीं बनाया जाए। उनकी पैदाइश सन 1929 में हुई थी। *सन* 1976 में जयप्रकाश नारायण ने पीपुल्स सिविल लिबर्टीज और डेमोक्रेटिक राइट्स (पी.यू.सी.एल.डी.आर.) की स्थापना की थी। पी.यू.सी.एल.डी.आर. के गठन के पीछे उनका उद्देश्य राजनीतिक विचारधाराओं से मुक्त एक ऐसा संगठन बनाना था जो विभिन्न राजनीतिक दलों से संबंधित लोगों को एक साथ सिविल लिबर्टीज और मानव अधिकारों की रक्षा के लिए एक मंच पर लाया जा सके। शंकर गुहा नियोगी *के. जी. *कन्नाबिरन, जस्टिस वी. एम. तारकुंडे, असगर अली इंजीनियर, एम. एम. थॉमस, गिरीश कर्नाड, पी. जी. मावलंकर, ननी पालकीवाला, निखिल चक्रवर्ती, अरुण शौरी, सुरेन्द्र मोहन, रामजेठ मलानी, मधु लिमये वगैरह के साथ पी.यू.सी.एल. की नेशनल एक्जक्यूटिव के सदस्यों से एक थे। *के. जी. *कन्नाबिरन करीब दस-पंद्रह साल तक पी.यू.सी.एल. के प्रेसीडेंट रहे थे. उन्होंने गरीब वर्कर्स के हित में बहुत काम किया। दरअसल वे एक वकील के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता भी थे। राज्य के उत्पीडऩ से पीडि़त लोगों के अधिकारों के लिए एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए उन्होंने निचली अदालतों और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबे समय तक मानवधिकारों के हक की लड़ाई लड़ी। *मानवाधिकार* समर्थक वकील के तौर पर उनका सबसे ऐतिहासिक योगदान शंकर गुहा नियोगी हत्याकांड का मुकदमा था। निचली अदालत में उस केस को लड़ते हुए कन्नाविरन ने उनके हत्यारों को हाइकोर्ट में सजा दिलवाई। आंध्र प्रदेश में भी मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में उनका उल्लेखनाय योगदान रहा है। वहां माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत में उन्होंने कई बार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका दूसरा बड़ा योगदान फर्जी एन्काउंटर से संबंधित था। उन्होंने कहा था कि जब भी कोई फर्जी एन्काउंटर होता है तो उस मामले में मुकदमा दायर होना चाहिए और मजिस्टेट से उस मामले की जांच होनी चाहिए। *के. जी. *कन्नाबिरन इतिहास के अच्छे जानकार थे और नागरिक एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के कानूनी विशेषज्ञ थे। उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। वामपंथी विचारधारा की राह पर चलते हुए उन्होंने लगातार लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई लड़ी और फर्जी एन्काउंटर पर गठित भार्गव आयोग के समक्ष नक्सलवादियों के पक्ष में दलील दी, और जब उनके पक्ष को नहीं सुना गया तो उन्होंने उस कमिटी से त्यागपत्र देना मुनासिब समझा। उस कमिटी में वे सरकार की तरफ से वकील नियुक्त किए गए थे। *के. जी. *कन्नाबिरन लंबे समय तक पीपुल्स वार ग्रुप के क्रांति करने के अधिकार के सैद्धांतिक समर्थक थे। कानूनी और सामाजिक परिप्रेक्ष्य एवं नागरिक अधिकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर मुल्क के बड़े-बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ उनका संपर्क बना। उसी दौरान मैं भी कन्नाबिरन के संपर्क में आया। उनके साथ मेरे अनौपचारिक संबंध थे। वे मुझे राजिंदर कहते थे और मैं उन्हें कन्ना बुलाता था। वे जब भी कुछ लिखते थे तब छपने से पहले मुझे पढऩे देते थे। कन्नाबिरन नागरिक अधिकारों में जाति का सवाल लाने के खिलाफ थे। दरअसल वे मानवीयता में विश्वास रखनेवाले बुद्धिजीवियों में से एक थे। वे लगातार मानव अधिकारों के पक्ष में लिखते रहे। उनके लिए नागरिक अधिकारों के संरक्षण का सवाल काफी अहम था। वे ऐसे हर मामले को सहानुभूति पूर्वक देखते थे। *वे* एक ऐसे वकील थे जिन्होंने किसी मामले में कभी भी किसी पक्ष के लिए अपने मुख्य न्यायाधीश या किसी अन्य न्यायाधीश से मुलाकात नहीं की। कन्नाबिरन व्यक्तिगत और संस्थानों की क्षमता में विश्वास करते थे। उन्होंने आजीवन ख़ुद को ईमानदारी, वैचारिक प्रतिबधता और निष्पक्षता के आधार पर मामलों को निपटाने में कुशल थे। *एक अर्थ में* कन्नाविरन लोकतांत्रिक आदर्शां को साथ लेकर चलते थे। वे माओवादी विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखते थे। उन्हें धीरे-धीरे समझ में आ गया था कि जीवन के लिए क्रांति अपरिहार्य है। हालांकि वे राज्य हिंसा और नक्सली हिंसा की प्रकृति का घनघोर विरोध भी करते थे। कन्नाबिरन की विचारधारा को समझने के लिए यह जान लेना जरूरी है कि उन्होंने एक बार कहा था- मैं न तो हूँ एक गांधीवादी और न ही एक पाखंडी बेवकूफ। मौत से पहले 81 साल की उम्र में उनके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था। कन्नाबिरन की मौत के बाद देश ने नागरिक अधिकारों की लड़ाई लडऩेवाला एक सामाजिक योद्धा खो दिया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From reksethi at gmail.com Tue Jan 4 18:42:24 2011 From: reksethi at gmail.com (rekha sethi) Date: Tue, 4 Jan 2011 18:42:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= indu jain kavita pratiyogita Message-ID: दीवान के सभी साथियों के नाम हिंदी कि प्रतिष्ठित कवयित्री इंदु जैन कि स्मृति को समर्पित *युवा प्रतिभा पुरस्कार * के लिए रचनाएँ आमंत्रित हैं . विस्तृत सूचना संलग्न फाइल में दी गयी है उत्तरापेक्षी रेखा सेठी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: ijain kavita pratiyogita 2011.doc Type: application/msword Size: 28160 bytes Desc: not available URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jan 4 19:39:35 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 4 Jan 2011 19:39:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCkmOCksCDgpJXgpL/gpKTgpL7gpKzgpYfgpIIg4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?LOCkieCkp+CkvuCksOClgCDgpJXgpYcg4KSs4KS54KWALeCkluCkvg==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkueCli+CkpOClhw==?= Message-ID: पीडी ने फेसबुक पर अपने घर में मौजूद किताबों की तस्वीर लगायी और नीचे कैप्शन लिखा- मेरे घर में किताबों का एक तख्ता। उस स्टेटस पर लोग अपने-अपने तरीके से सोसा छोड़ने में लगे हैं। लेकिन मैंने जब इस तस्वीर के साथ स्टेटस को पढ़ा तो याद करने लग गया कि मेरा बचपन जिस घर में गुजरा,वहां कौन-कौन सी किताबें थी? हम किन किताबों के बीच बड़े हुए आपको जानकर हैरानी होगी कि कोई किताब नहीं होती मेरे घर में। मैं अपने घर का अंतिम संस्करण हूं,घर में भैया-दीदी सब पढ़नेवाले थे। ऐसे में यह कहना कि कोई किताब नहीं होते,गलत होगा। लेकिन पीडी ने जिन किताबों की तस्वीर लगायी है,वो परंपरागत तौर पर पढ़ने के संस्कार और आदत से जुड़ी हैं। उन किताबों की बातें हैं जो कि कोर्स का हिस्सा न होते हुए भी जानकारी बढ़ाने और बस पढ़ने के लिए रखी जाती है। मेरे घर में ऐसी एक भी किताब नहीं थी जो कि महज जानकारी बढ़ाने के लिए या शौकिया तौर पर पढ़ने के लिए खरीदी गयी थी। मैं ये बात आज दिन तक नहीं समझ पाया कि आखिर पापा ऐसा कौन सा संस्कार लेकर बड़े हुए कि किताबें जब तक कैंसर की दवाई जितनी जरुरी नहीं हो जाती,तब तक उसे खरीदना,फालतू में पैसे फूंकना होता। हर साल सारे भाई-बहनों के आगे की क्लास में जाने पर ऐसी जुगाड़ करते कि जैसे किसी के पायजामे को काटकर कच्छा बनाने का काम किया जा रहा हो,फुलपैंट को काटकर हाफ पैंट बनाया जा रहा हो। बड़े भैया और दीदी जिन किताबों को पढ़ चुकी होती,उससे ठीक नीचे वाले भइया या दीदी के पास सरका दिया जाता और मेरे पास आते-आते किताबों की ऐसी हालत हो जाती कि जैसे दंगे में किसी तरह बचाकर निकाली गयी हो। उसके उसके पन्ने ऐसे मुड़ जाते कि जैसे टेंट हाउस की चादर पर पता नहीं कितने लौंडों ने लोट-पोट किया होगा। पापा एक-एक किताब को लेकर इतनी सख्ती बरतते कि कई बार लगता कि नई किताब आने से पहले मौत क्यों नहीं आ जाती? मजे की बात ये कि मेरे समय में अक्सर किताबें बदल जाती और मुझे कई किताबें नई खरीदनी होती। ये मेरे लिए जितनी खुशी की बात होती,उससे कई गुना ज्यादा तकलीफदेह भी। पुरानी किताबों के साथ बेहयाई करने पर आप कह सकते थे कि दीदी ने ऐसे ही दी थी मुझे लेकिन नई किताबों के साथ कोई बहाना नहीं होता। नतीजा हर 15 दिनों पर उसकी चेकिंग और थोड़ी भी उसकी हालत नाजुक जा पड़ी कि दे धमाधम। मां ऐसे ही वक्त पर हंसुआ आगे कर देती और कहती- काट के दू टुकरी कर दीजिए,न रहेगा बांस न बजेगा बांसुरी,रहेगा ही नहीं तो किताब कौन फाडेगा। पापा किताबों के साथ सख्ती सिर्फ इसलिए बरतते कि अगले साल उससे बदलकर आगे की क्लास की किताबें खरीदी जा सके या फिर आधी कीमत पर बेची जा सके। हम किताबों के पन्ने सालभर तक इसी समझ के साथ पलटते कि इसे कोर्स खत्म होने पर हर हालत में आधी कीमत पर बेचनी है।..और फिर मैं ही नहीं,ये पूरी संस्कृति का हिस्सा था कि किताब बेचकर या बदलकर आगे की क्लास की किताबें ली जाए। उस समय ऐसा करना बहुत अखरता था लेकिन आज जब मैं कॉन्वेंट स्कूल की मंहगी-मंहगी पिक्चर बुक और ग्लासी पेपर पर छपी किताबों को घर की मम्मियों को कबाड़ के हाथों बेचता देखता हूं तो कलेजा कटने लग जाता है। हम किताबों को इस तरह बेरहमी से बेचते हुए नहीं देख सकते थे। पापा कापियों के पन्ने गिनकर और उस पर नंबर लिखकर देते और भर जाने पर गिनकर वापस लेते। इस बीच जहां रस्किन बांड के प्रभाव में आकर जहाज या नाव बनाने की कोशिश की,दो-चार पन्ने खिसकाए नहीं कि फिर वही धमाधम। किताबों और कॉपियों को लेकर इतने सख्त माहौल में जिसकी परवरिश हुई हो,उसके लिए कोर्स के अलावे किताबों के बारे में सोच पाना अय्याशी ही माना जाता। लेकिन जिस तरह जिनके पापा या दादाजी पढ़ाकू रहे हैं और उनके घरों में किताबें एक सम्पत्ति के तौर पर सहेजी जाती रही है,मेरे घर में उसकी जगह और मैं तो कहता हूं किसी विद्वान के घर की किताबों से कहीं ज्यादा संख्या में लाल रंग के बही-खाते होते। आला जिसे हम ताखा कहते,चारों तरफ उनमें भरी वही लाल बही-खाता। मेरे कई दोस्तों के पापा वकील थे,उनके घर भी लाल रंग की किताबें भरी होती लेकिन वो अलग दिखती। मैं मां से पूछता कि ये कानून की किताबें हैं। वो कहती- कानून की नहीं है,बाबा( पापा के पापा) के जमाने का हिसाब-किताब है। हर दीपावली के बाद ऐसे खातों की संख्या बढ़ती जाती। मैंने कई बार कोशिश की थी उन खातों को देखने की। हमारे लिए उसे पलटकर देखने की हसरत पोर्नोग्राफी से कहीं ज्यादा थी। बल्कि मैंने तो पहले पोर्नोग्राफी की किताब पढ़ी,तब जाकर इन बही-खातों को पलटा। एक-दो बार कोशिश करते पकड़ा गया तो पापा ने कहा-खबरदार जो इसके साथ छेड़छाड़ कियासखाल खींच लेंगे। मैं और मेरी सबसे छोटी दीदी सहम जाते। लेकिन जैसे पोर्नोग्राफी के प्रति तमाम जकड़बंदियों के बावजूद जानने की ललक बनी रहती है,वही हाल हमारा था। हम लगातार एफर्ट लगाते रहते कि इसे देखें। पापा इन बही-खातों के प्रति गजब तरीके से मोहग्रस्त होते,इसे हुंडी और खतियान कहते। एक बार मैंने देखा कि मां ने एक बही से कुछ पन्ने निकालकर कॉपी सिलकर दे दी। तब मैं वाटर कलर से पेंटिंग करना सीख रहा था। मुझे झकझक पीले और मोटे पन्ने को देखकर लालच आ गया और तब सोचने लगा कि इस तरह कितने सादा पन्ने होगें इन बही-खातों में। एक बार दीवाली की सफाई में सारे बही-खाता जमा किए गए और उसे किसी एक जगह ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी। सब बाहर निकला और थोड़ा बिखरा था। लिहाजा मैंने पलटना शुरु किया। हिन्दी में तारीख लिखी थी और संख्या भी हिन्दी में। हमें पढ़ने में दिक्कत होती। और बहुत ही अजीब स्ट्रक्चर में सारा हिसाब-किताब लिखा होता। मैंने समझना शुरु किया। हैरानी तो तब हुई जब 1955-56 ई में बाबा हाथ का लिखा जिस तरह का हिसाब-किताब था 1986 में पापा के हाथ का लिखा भी हूबहू वैसा ही। सिर्फ दोनों बहियों पर फर्म के नाम अलग थे। वही पीले पन्ने और काले रंग की स्याही से लिखे हिसाब-किताब। मैंने पढ़ा था बाबा के 1956 ई. में लिखा हिसाब-किताब। उसमें उधार लेनेवाले का नाम और पता लिखा होता,रकम भी। लेकिन सब बहुत ही अलग अंदाज में। बख्तियारपुर के गंगाराम ने 340 रुपये लिए थे लेकिन चुकाया नहीं था कभी। जिसने चुका दिया होता,उसके हिसाब पर क्रास लगा दिया जाता। एक बार बही-खाते ताखा से बाहर निकले तो पापा ने उसमें बहुत अधिक दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। बस ये था कि करंट के 8-10 साल के हिसाब तब भी ताखा पर ही होते। हमने सबसे पहले इन पुराने बही-खातों से खाली पन्ने निकालने शुरु किए जो कि बहुत ही पुराने पड़ जाने पर मुड़ते ही फट जाते। तब हम उसे मुठ्ठी में मरोड़कर चूरमा की तरह लोगों पर उड़ाते और ही ही-ठी ठी करते भाग जाते। फिर जिन हिसाब के आगे क्रास के निशान नहीं लगे होते,उनकी रकम एक कॉपी पर लिखते जाते और जोड़ते कि कितने पैसे उधार हैं। मां से पूछता- अच्छा मां ये बताओ कि जिन लोगों के उधार हैं,वो सबके सब मर गए होंगे क्या? पता तो लिखा है सबका,उसका कोई तो होगा बेटा,उसके बेटे का बेटा? मां पूछती- काहे,क्या करोगे जानकर? मैं कहता जो घर के थोड़ी दूर पर ही हैं,वहां तो जाकर ला ही सकते हैं। मां कहती खोपड़ी का इलाज करावे पड़ेगा तुम्हारा। कभी-कभी झल्ला जाती और कहती- अभी से ही पैसे-कौड़ी को इसी तरह मगरमच्छ की तरह दांत से पकड़े रहो,आगे काम देगा। दुनिया का बाल-बच्चा किताब कॉपी से लिखा-पढ़ी करके अक्ल-बुद्धि बढ़ाता है, इ है कि दौलत बटोरने का सोच रहा,हाय रे लक्ष्मीजी का चस्का। हाथ को कान तक ले जाती और बुदबुदाती- सुबुद्धि दीहो,ठाकुरजी,दीनानाथ। मां को इस बात की बहुत चिंता होती कि अभी से ही इस चक्कर में पड़ा तब पढ़कर कुछ नहीं कर सकेगा। वो किसी भी हाल में नहीं चाहती कि मैं समाज के बाकी लोगों की तरह दूकान में बैठकर साड़ी-ब्लाउज बेचूं। मेरा बेटा सरस्वती के कृपा से कमाएगा,खाएगा,लक्ष्मीजी के पीछे भागकर नहीं। हमने अपने बचपन का लंबा समय बाबा और पापा के इन बही-खातों के साथ सपने देखते हुए बिताया कि कितना हजारों-हजार जमा कर सकते हैं हम इसमें नोट किए उधार पैसे से। दूसरी तरफ मोटी-मोटी रकम का कर्ज देखकर सहम जाता कि किसी दिन कर्जा मांगने आ गया कोई तो? पापा से एक बार डरते-डरते पूछा कि इस्लामपुर का रास्ता कहां से जाते हैं? पापा ने कहा- क्यों? मैंने बताया कि इस बही में लिखा है कि वहां के विनायकजी के पास 1200 रुपया बाकी है। उन्होंने कहा- तो? मैंने कहा- मांगने जाना चाहते हैं। पापा का पारा गरम हो गया,जो धमाधम शुरु किया कि वहीं पैंट में ही। मां सिर्फ इतना बोली- लतखोर है,पहिले मना किए तो नहीं माना। वैसे मुझे इस बात से बड़ी खुन्नस रहती कि कोई पापा का पैसा लेकर चुकाएगा कैसे नहीं? बाद में जब बड़ा हुआ तो इसी भाव से पापा बोर्ड के बाद फ्री होने की स्थिति में जैसे ही कहते- जोगेशरजी के यहां ढाई हजार बाकी है, 7 महीना हो गया। आगे कुछ कहते कि मैं कहता- जाएं पापा मांगने? पता नहीं क्यों,पापा को मेरी यही एक आदत पसंद आती,बाकी कुछ भी नहीं। कहते जाओगे,मैं कहता हां। आज फेसबुक पर तमाम लोगों को देखता हूं कि वो विरासत के तौर पर किताबों की चर्चा करते हैं। मेरे लिए विरासत किताबें नहीं,उधार के बही-खाता थे। मुझे खुद हैरानी होती है कि आज मेरे पास एडोर्नो,देरिदा,टेरी एग्लटन,वीवर,मैनचेस्नी,एम सी रॉबी,डगलस सहित आधा-गांव,मैला आंचल से लेकर नामव सिंह,रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध की रचनावली कैसे है? मेरे घर में पहली बार साहित्यिक किताब तब आयी थी जबकि मुझे संत जेवियर्स कॉलेज में एक दूकान की पर्ची देते हुए हजार रुपये की अफनी मनपसंद किताबें खरीदने के लिए कहा गया था और मैंने दूकानदार को साहित्य अकादमी से सम्मीनित रचनाकारों की लिस्ट पकड़ा दी थी और कहा था कि पहले से लेकर जहां तक हजार रुपये में आ जाए,दे दीजिए। मैं रांची में रहता था लेकिन हसरत थी कि ये सारी किताबें घर पर हो। बस मा की हनुमान चालीसा और ऐसी ही देवी-देवताओं की चुटका साहित्य को किनारे करके लगा दिया। आप हंसेगे लेकिन मां सेवासदन और तमस पर भी पूजा करते वक्त लाल टीका लगा देती। मैं मुस्कराता तो कहती- हंसों मत,हमको पता है कि इसमें गरीब-दुखिया के बारे में खिस्सा होगा, अहीर-मजदूर के बारे में लिखा होगा। हम एतना बूडवक थोड़े हैं कि पता नहीं है कि प्रेमचंद क्या लिखते हैं? फिर भी टीका लगा देते हैं कि कुछ भी लिखा हो,सुबुद्धि वाला बात ही होगा न। साहित्य को लेकर मेरी मां की कुछ ऐसी ही समझ थी। आज घर में उन खातों की जगह मेरी बहुत सारी किताबें देखकर लोग हैरान होते हैं। भइया लोग फैशनेबल दूकानदार हो गए तो सबकुछ नोटबुक में आ गया,बही खाता बाबा और पापा के जमाने तक ही सिमट गया। मैं इस बही-खाते को ही किताब की विरासत कहूं तो आप बुरा मान जाएंगे लेकिन यकीन मानिए,इसके हिसाब-किताब जोड़कर,पढ़कर,उन पैसों के बारे में सोचकर, कर्ज लेकर मर गए लोगों के बारे में जानने की बेचैनी की बदौलत ही मैंने प्रेमचंद को पढ़ा,रेणु के उन कपड़िया लोगों के बारे में पढ़ा और पचा गया जो किसी को तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं देता लेकिन किसी को हारमोनियम का कवर बनाने के लिए कपड़े दे देता है। मैं उस समाज से इन बही-खातों को पलटते हुए ही उससे दूर होता चला गया और अपने को कर्ज में मिलनेवाले पैसे की कल्पना से कहीं ज्यादा सुखी महसूस करता हूं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sadanjha at gmail.com Wed Jan 5 11:41:44 2011 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Wed, 5 Jan 2011 11:41:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCkmOCksCDgpJXgpL/gpKTgpL7gpKzgpYfgpIIg4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?LOCkieCkp+CkvuCksOClgCDgpJXgpYcg4KSs4KS54KWALeCkluCkvg==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkueCli+CkpOClhw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: बही खता, किताब, बचपन की कसक और जानने की उत्कट चाह. बहुत अच्छा लगा विनीत का लेख सदन. 2011/1/4 vineet kumar > > पीडी ने > फेसबुक पर अपने घर में मौजूद किताबों की तस्वीर लगायी और नीचे कैप्शन लिखा- > मेरे घर में किताबों का एक तख्ता। उस स्टेटस पर लोग अपने-अपने तरीके से सोसा > छोड़ने में लगे हैं। लेकिन मैंने जब इस तस्वीर के साथ स्टेटस को पढ़ा तो याद > करने लग गया कि मेरा बचपन जिस घर में गुजरा,वहां कौन-कौन सी किताबें थी? हम किन > किताबों के बीच बड़े हुए आपको जानकर हैरानी होगी कि कोई किताब नहीं होती मेरे > घर में। मैं अपने घर का अंतिम संस्करण हूं,घर में भैया-दीदी सब पढ़नेवाले थे। > ऐसे में यह कहना कि कोई किताब नहीं होते,गलत होगा। लेकिन पीडी ने जिन किताबों > की तस्वीर लगायी है,वो परंपरागत तौर पर पढ़ने के संस्कार और आदत से जुड़ी हैं। > उन किताबों की बातें हैं जो कि कोर्स का हिस्सा न होते हुए भी जानकारी बढ़ाने > और बस पढ़ने के लिए रखी जाती है। मेरे घर में ऐसी एक भी किताब नहीं थी जो कि > महज जानकारी बढ़ाने के लिए या शौकिया तौर पर पढ़ने के लिए खरीदी गयी थी। मैं ये > बात आज दिन तक नहीं समझ पाया कि आखिर पापा ऐसा कौन सा संस्कार लेकर बड़े हुए कि > किताबें जब तक कैंसर की दवाई जितनी जरुरी नहीं हो जाती,तब तक उसे खरीदना,फालतू > में पैसे फूंकना होता। हर साल सारे भाई-बहनों के आगे की क्लास में जाने पर ऐसी > जुगाड़ करते कि जैसे किसी के पायजामे को काटकर कच्छा बनाने का काम किया जा रहा > हो,फुलपैंट को काटकर हाफ पैंट बनाया जा रहा हो। बड़े भैया और दीदी जिन किताबों > को पढ़ चुकी होती,उससे ठीक नीचे वाले भइया या दीदी के पास सरका दिया जाता और > मेरे पास आते-आते किताबों की ऐसी हालत हो जाती कि जैसे दंगे में किसी तरह बचाकर > निकाली गयी हो। उसके उसके पन्ने ऐसे मुड़ जाते कि जैसे टेंट हाउस की चादर पर > पता नहीं कितने लौंडों ने लोट-पोट किया होगा। > > पापा एक-एक किताब को लेकर इतनी सख्ती बरतते कि कई बार लगता कि नई किताब आने से > पहले मौत क्यों नहीं आ जाती? मजे की बात ये कि मेरे समय में अक्सर किताबें बदल > जाती और मुझे कई किताबें नई खरीदनी होती। ये मेरे लिए जितनी खुशी की बात > होती,उससे कई गुना ज्यादा तकलीफदेह भी। पुरानी किताबों के साथ बेहयाई करने पर > आप कह सकते थे कि दीदी ने ऐसे ही दी थी मुझे लेकिन नई किताबों के साथ कोई बहाना > नहीं होता। नतीजा हर 15 दिनों पर उसकी चेकिंग और थोड़ी भी उसकी हालत नाजुक जा > पड़ी कि दे धमाधम। मां ऐसे ही वक्त पर हंसुआ आगे कर देती और कहती- काट के दू > टुकरी कर दीजिए,न रहेगा बांस न बजेगा बांसुरी,रहेगा ही नहीं तो किताब कौन > फाडेगा। पापा किताबों के साथ सख्ती सिर्फ इसलिए बरतते कि अगले साल उससे बदलकर > आगे की क्लास की किताबें खरीदी जा सके या फिर आधी कीमत पर बेची जा सके। हम > किताबों के पन्ने सालभर तक इसी समझ के साथ पलटते कि इसे कोर्स खत्म होने पर हर > हालत में आधी कीमत पर बेचनी है।..और फिर मैं ही नहीं,ये पूरी संस्कृति का > हिस्सा था कि किताब बेचकर या बदलकर आगे की क्लास की किताबें ली जाए। उस समय ऐसा > करना बहुत अखरता था लेकिन आज जब मैं कॉन्वेंट स्कूल की मंहगी-मंहगी पिक्चर बुक > और ग्लासी पेपर पर छपी किताबों को घर की मम्मियों को कबाड़ के हाथों बेचता > देखता हूं तो कलेजा कटने लग जाता है। हम किताबों को इस तरह बेरहमी से बेचते हुए > नहीं देख सकते थे। पापा कापियों के पन्ने गिनकर और उस पर नंबर लिखकर देते और भर > जाने पर गिनकर वापस लेते। इस बीच जहां रस्किन बांड के प्रभाव में आकर जहाज या > नाव बनाने की कोशिश की,दो-चार पन्ने खिसकाए नहीं कि फिर वही धमाधम। किताबों और > कॉपियों को लेकर इतने सख्त माहौल में जिसकी परवरिश हुई हो,उसके लिए कोर्स के > अलावे किताबों के बारे में सोच पाना अय्याशी ही माना जाता। > > > लेकिन जिस तरह जिनके पापा या दादाजी पढ़ाकू रहे हैं और उनके घरों में किताबें > एक सम्पत्ति के तौर पर सहेजी जाती रही है,मेरे घर में उसकी जगह और मैं तो कहता > हूं किसी विद्वान के घर की किताबों से कहीं ज्यादा संख्या में लाल रंग के > बही-खाते होते। आला जिसे हम ताखा कहते,चारों तरफ उनमें भरी वही लाल बही-खाता। > मेरे कई दोस्तों के पापा वकील थे,उनके घर भी लाल रंग की किताबें भरी होती लेकिन > वो अलग दिखती। मैं मां से पूछता कि ये कानून की किताबें हैं। वो कहती- कानून की > नहीं है,बाबा( पापा के पापा) के जमाने का हिसाब-किताब है। हर दीपावली के बाद > ऐसे खातों की संख्या बढ़ती जाती। मैंने कई बार कोशिश की थी उन खातों को देखने > की। हमारे लिए उसे पलटकर देखने की हसरत पोर्नोग्राफी से कहीं ज्यादा थी। बल्कि > मैंने तो पहले पोर्नोग्राफी की किताब पढ़ी,तब जाकर इन बही-खातों को पलटा। एक-दो > बार कोशिश करते पकड़ा गया तो पापा ने कहा-खबरदार जो इसके साथ छेड़छाड़ कियासखाल > खींच लेंगे। मैं और मेरी सबसे छोटी दीदी सहम जाते। लेकिन जैसे पोर्नोग्राफी के > प्रति तमाम जकड़बंदियों के बावजूद जानने की ललक बनी रहती है,वही हाल हमारा था। > हम लगातार एफर्ट लगाते रहते कि इसे देखें। पापा इन बही-खातों के प्रति गजब > तरीके से मोहग्रस्त होते,इसे हुंडी और खतियान कहते। > > एक बार मैंने देखा कि मां ने एक बही से कुछ पन्ने निकालकर कॉपी सिलकर दे दी। > तब मैं वाटर कलर से पेंटिंग करना सीख रहा था। मुझे झकझक पीले और मोटे पन्ने को > देखकर लालच आ गया और तब सोचने लगा कि इस तरह कितने सादा पन्ने होगें इन > बही-खातों में। एक बार दीवाली की सफाई में सारे बही-खाता जमा किए गए और उसे > किसी एक जगह ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी। सब बाहर निकला और थोड़ा बिखरा था। > लिहाजा मैंने पलटना शुरु किया। हिन्दी में तारीख लिखी थी और संख्या भी हिन्दी > में। हमें पढ़ने में दिक्कत होती। और बहुत ही अजीब स्ट्रक्चर में सारा > हिसाब-किताब लिखा होता। मैंने समझना शुरु किया। हैरानी तो तब हुई जब 1955-56 ई > में बाबा हाथ का लिखा जिस तरह का हिसाब-किताब था 1986 में पापा के हाथ का लिखा > भी हूबहू वैसा ही। सिर्फ दोनों बहियों पर फर्म के नाम अलग थे। वही पीले पन्ने > और काले रंग की स्याही से लिखे हिसाब-किताब। मैंने पढ़ा था बाबा के 1956 ई. में > लिखा हिसाब-किताब। उसमें उधार लेनेवाले का नाम और पता लिखा होता,रकम भी। लेकिन > सब बहुत ही अलग अंदाज में। बख्तियारपुर के गंगाराम ने 340 रुपये लिए थे लेकिन > चुकाया नहीं था कभी। जिसने चुका दिया होता,उसके हिसाब पर क्रास लगा दिया जाता। > एक बार बही-खाते ताखा से बाहर निकले तो पापा ने उसमें बहुत अधिक दिलचस्पी लेनी > बंद कर दी। बस ये था कि करंट के 8-10 साल के हिसाब तब भी ताखा पर ही होते। > > हमने सबसे पहले इन पुराने बही-खातों से खाली पन्ने निकालने शुरु किए जो कि > बहुत ही पुराने पड़ जाने पर मुड़ते ही फट जाते। तब हम उसे मुठ्ठी में मरोड़कर > चूरमा की तरह लोगों पर उड़ाते और ही ही-ठी ठी करते भाग जाते। फिर जिन हिसाब के > आगे क्रास के निशान नहीं लगे होते,उनकी रकम एक कॉपी पर लिखते जाते और जोड़ते कि > कितने पैसे उधार हैं। मां से पूछता- अच्छा मां ये बताओ कि जिन लोगों के उधार > हैं,वो सबके सब मर गए होंगे क्या? पता तो लिखा है सबका,उसका कोई तो होगा > बेटा,उसके बेटे का बेटा? मां पूछती- काहे,क्या करोगे जानकर? मैं कहता जो घर के > थोड़ी दूर पर ही हैं,वहां तो जाकर ला ही सकते हैं। मां कहती खोपड़ी का इलाज > करावे पड़ेगा तुम्हारा। कभी-कभी झल्ला जाती और कहती- अभी से ही पैसे-कौड़ी को > इसी तरह मगरमच्छ की तरह दांत से पकड़े रहो,आगे काम देगा। दुनिया का बाल-बच्चा > किताब कॉपी से लिखा-पढ़ी करके अक्ल-बुद्धि बढ़ाता है, इ है कि दौलत बटोरने का > सोच रहा,हाय रे लक्ष्मीजी का चस्का। हाथ को कान तक ले जाती और बुदबुदाती- > सुबुद्धि दीहो,ठाकुरजी,दीनानाथ। मां को इस बात की बहुत चिंता होती कि अभी से ही > इस चक्कर में पड़ा तब पढ़कर कुछ नहीं कर सकेगा। वो किसी भी हाल में नहीं चाहती > कि मैं समाज के बाकी लोगों की तरह दूकान में बैठकर साड़ी-ब्लाउज बेचूं। मेरा > बेटा सरस्वती के कृपा से कमाएगा,खाएगा,लक्ष्मीजी के पीछे भागकर नहीं। हमने अपने > बचपन का लंबा समय बाबा और पापा के इन बही-खातों के साथ सपने देखते हुए बिताया > कि कितना हजारों-हजार जमा कर सकते हैं हम इसमें नोट किए उधार पैसे से। दूसरी > तरफ मोटी-मोटी रकम का कर्ज देखकर सहम जाता कि किसी दिन कर्जा मांगने आ गया कोई > तो? > > पापा से एक बार डरते-डरते पूछा कि इस्लामपुर का रास्ता कहां से जाते हैं? पापा > ने कहा- क्यों? मैंने बताया कि इस बही में लिखा है कि वहां के विनायकजी के पास > 1200 रुपया बाकी है। उन्होंने कहा- तो? मैंने कहा- मांगने जाना चाहते हैं। पापा > का पारा गरम हो गया,जो धमाधम शुरु किया कि वहीं पैंट में ही। मां सिर्फ इतना > बोली- लतखोर है,पहिले मना किए तो नहीं माना। वैसे मुझे इस बात से बड़ी खुन्नस > रहती कि कोई पापा का पैसा लेकर चुकाएगा कैसे नहीं? बाद में जब बड़ा हुआ तो इसी > भाव से पापा बोर्ड के बाद फ्री होने की स्थिति में जैसे ही कहते- जोगेशरजी के > यहां ढाई हजार बाकी है, 7 महीना हो गया। आगे कुछ कहते कि मैं कहता- जाएं पापा > मांगने? पता नहीं क्यों,पापा को मेरी यही एक आदत पसंद आती,बाकी कुछ भी नहीं। > कहते जाओगे,मैं कहता हां। आज फेसबुक पर तमाम लोगों को देखता हूं कि वो विरासत > के तौर पर किताबों की चर्चा करते हैं। मेरे लिए विरासत किताबें नहीं,उधार के > बही-खाता थे। मुझे खुद हैरानी होती है कि आज मेरे पास एडोर्नो,देरिदा,टेरी > एग्लटन,वीवर,मैनचेस्नी,एम सी रॉबी,डगलस सहित आधा-गांव,मैला आंचल से लेकर नामव > सिंह,रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध की रचनावली कैसे है? > > मेरे घर में पहली बार साहित्यिक किताब तब आयी थी जबकि मुझे संत जेवियर्स कॉलेज > में एक दूकान की पर्ची देते हुए हजार रुपये की अफनी मनपसंद किताबें खरीदने के > लिए कहा गया था और मैंने दूकानदार को साहित्य अकादमी से सम्मीनित रचनाकारों की > लिस्ट पकड़ा दी थी और कहा था कि पहले से लेकर जहां तक हजार रुपये में आ जाए,दे > दीजिए। मैं रांची में रहता था लेकिन हसरत थी कि ये सारी किताबें घर पर हो। बस > मा की हनुमान चालीसा और ऐसी ही देवी-देवताओं की चुटका साहित्य को किनारे करके > लगा दिया। आप हंसेगे लेकिन मां सेवासदन और तमस पर भी पूजा करते वक्त लाल टीका > लगा देती। मैं मुस्कराता तो कहती- हंसों मत,हमको पता है कि इसमें गरीब-दुखिया > के बारे में खिस्सा होगा, अहीर-मजदूर के बारे में लिखा होगा। हम एतना बूडवक > थोड़े हैं कि पता नहीं है कि प्रेमचंद क्या लिखते हैं? फिर भी टीका लगा देते > हैं कि कुछ भी लिखा हो,सुबुद्धि वाला बात ही होगा न। साहित्य को लेकर मेरी मां > की कुछ ऐसी ही समझ थी। आज घर में उन खातों की जगह मेरी बहुत सारी किताबें देखकर > लोग हैरान होते हैं। भइया लोग फैशनेबल दूकानदार हो गए तो सबकुछ नोटबुक में आ > गया,बही खाता बाबा और पापा के जमाने तक ही सिमट गया। मैं इस बही-खाते को ही > किताब की विरासत कहूं तो आप बुरा मान जाएंगे लेकिन यकीन मानिए,इसके हिसाब-किताब > जोड़कर,पढ़कर,उन पैसों के बारे में सोचकर, कर्ज लेकर मर गए लोगों के बारे में > जानने की बेचैनी की बदौलत ही मैंने प्रेमचंद को पढ़ा,रेणु के उन कपड़िया लोगों > के बारे में पढ़ा और पचा गया जो किसी को तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं देता लेकिन > किसी को हारमोनियम का कवर बनाने के लिए कपड़े दे देता है। मैं उस समाज से इन > बही-खातों को पलटते हुए ही उससे दूर होता चला गया और अपने को कर्ज में > मिलनेवाले पैसे की कल्पना से कहीं ज्यादा सुखी महसूस करता हूं। > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com http://www.css.ac.in/sadan_jha.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From reksethi at gmail.com Wed Jan 5 19:08:47 2011 From: reksethi at gmail.com (rekha sethi) Date: Wed, 5 Jan 2011 19:08:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= indu jain smriti puraskar Message-ID: दीवान के सभी साथियों के नाम हिंदी कि प्रतिष्ठित कवयित्री इंदु जैन कि स्मृति को समर्पित *युवा प्रतिभा पुरस्कार * के लिए रचनाएँ आमंत्रित हैं . विस्तृत सूचना संलग्न फाइल में दी गयी है उत्तरापेक्षी रेखा सेठी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: ijain kavita pratiyogita 20111.pdf Type: application/pdf Size: 56351 bytes Desc: not available URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Jan 6 21:39:42 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 6 Jan 2011 21:39:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCklA==?= =?utf-8?b?4KSw4KSkIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpIngpKDgpL7gpKTgpYAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWIIOCkueCkpeCkv+Ckr+CkvuCksD8=?= Message-ID: एक औरत क्यों उठाती है हथियार? नीतीश कुमार *उस* पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ की मुख्य प्रतिपक्षी राजनीतिक पार्टी के एक विधायक की सरेआम छुरा मारकर ह्त्या करने का आरोप है. उस विधायक की जिसने उसका यौन शोषण किया था. उसने विधायक के खिलाफ़ पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई थी. लेकिन न पुलिस ने उसकी सूनी और न क़ानून ने सूनी उसकी फ़रियाद. उल्टे उसे धमकाया गया और उस पर दबाव डाला गया कि वह विधायक जी पर लगाया गया आरोप वापस ले ले. *जनता* के वोट से चुने गए जनप्रतिनिधियों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं. जनप्रतिनिधि बने शातिर से शातिर अपराधी से कौन पंगा ले. ऐसे कम ही जनप्रतिनिधि हैं जिनकी इलाके के गुंडों, माफिया तत्वों, अपराधियों, दलालों से सांठ-गाँठ न हो. मामूली शख्सियत को टपकाना या उसे रास्ते से हटाना इनके बाएँ हाथ का खेल होता है. यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडंबना है. *धमकियों* के बाद उस अकेली महिला ने आख़िरकार विधायक पर लगाया गया आरोप वापस ले लिया. यह उसका समझदारी भरा कदम था वरना उसका भी हस्र मधुमिता शुक्ला जैसा होता. ध्यान रहे, कवयित्री मधुमिता शुक्ला की अपराधी से नेता बने उत्तर प्रदेश पूर्व कैबिनेट मंत्री अमरमणि त्रिपाठी ने 9 मई २००३ को बड़ी क्रूरता से हत्या कर दी थी. *वह कोई* अपराधी नहीं थी. वह शैक्षिक रूप से पिछड़े मुल्क़ के एक राज्य में शिक्षा के विकास में जुटी थी. वह अकेली रहती थी. इस मुल्क़ के क़ानून में किसी औरत या मर्द का अकेले रहना गैरकानूनी नहीं है, अंध परम्पराओं, दकियानूस विश्वासों और पुरुषसत्तात्मक नैतिकता के चीथड़ों में लिपटा समाज भले ऐसे शख्स को कभी चरित्र का प्रमाणपत्र देता फिरे और किसी अकेली औरत को देखते ही उसके जी से लाड़ टपकता रहे. *उस अकेली महिला* के साथ भी ऐसा ही हुआ. सन 2006 में उन्होंने अपने स्कूल के एक कार्यक्रम में विधायक जी को बतौर अतिथि आमंत्रित किया. स्कूल की संचालिका होने के नाते उसका विधायक जी से परिचय तो होना ही था. आजकल की राजनीति में सक्रिय नेताओं के इर्द-गिर्द रहनेवाले चमचे, गुंडे, माफिया, दलाल वगैरह को इलाके के हर छोटे-बड़े पब्लिक फीगर की सार्वजनिक और निजी ज़िन्दगी की पूरी ख़बर रहती है. और वह तो ठहरी एक स्कूल की संचालिका, जो अकेली रहती हैं. *अकेली* *औरत* को देखकर अमूमन नामर्द का पुरुषत्व भी उफान मारने लगता है. उन्हीं में से किसी एक ने जब विधायक जी को कान में बताया कि रुपम पाठक अकेली रहती हैं तो उनकी मर्दानगी जाग उठी. फिर तो वेलेंटाइन्स डे का विरोध, राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, सुचिता, नैतिकता वगैरह-वगैरह की बातें करनेवाली राष्ट्रीय पार्टी के विधायकजी ने उस महिला का जमकर यौन शोषण किया. यानि ये सारी राजनीतिक बातें विधायक जी के हरम में दो अंगुल की योनि में घुस कर ख़त्म हो गई, जिसे उन्होंने और उनकी पार्टी के नेताओं ने चीख-चीख कर जनता को भरमाया था. Add caption *विकास और सुशासन* की बदौलत अभी-अभी विधानसभा चुनाव जीतनेवाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पिछले कार्यकाल में राज्य में कितना सुशासन था, इसकी पोल खोलने के लिए यह मामला काबिलेगौर है. सरकार के गठबंधन में शामिल पार्टी के विधायक पांच साल से एक अकेली महिला के साथ गुल खिलाते रहे और नीतीश कुमार बिहार के विकास और सुशासन को जूते की तरह लाठी में लटकाए सीना फुलाकर भागते रहे. *इस* घटना के बाद आज नीतीश कुमार को विधायकों की सुरक्षा की चिंता है, उस महिला के साथ हुए अन्याय की नहीं. वह कौन सी मजबूरी है जो एक पढ़े-लिखे शख्स को क़ानून अपने हाथ में लेने को बाध्य करती है, जबकि अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ़ वह पुलिस और क़ानून के सामने गुहार लगा-लगा कर थक जाता है और फिर उसे मिलती है धमकी पर धमकी, या फिर उसका मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है. *रूपम पाठक *भी हिन्दुस्तान की एक नागरिक हैं और उन्हें भी संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए सारे अधिकार मिलना चाहिए. विधायक द्वारा किए गए उनके यौन शोषण करने और पुलिस में मामला दर्ज करने के बाद उनको धमकी और दबाव डालने के मामले की जांच किए बगैर उनके खिलाफ़ विधायक की ह्त्या करने का मामला दर्ज करना एकतरफा कारवाई है. *एक जनप्रतिनिधि* द्वारा एक महिला का यौन शोषण और धमकाकर मामला खत्म करवाना उतना ही गैरकानूनी है जितना सरेआम उस जनप्रतिनिधि की हत्या और उसके बाद पुलिस और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में उस आरोपी महिला के साथ मारपीट करना. नीतीश सरकार के राज में बिहार में कितना सुशासन है इसकी परख इस बात पर निर्भर करती है कि वह बिना किसी पक्षपात के इन सारे मामलों की जांच करवाती है या नहीं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Sat Jan 8 01:18:35 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sat, 8 Jan 2011 01:18:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSt4KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KWH4KSk4KS+IOCkleClhyDgpIXgpLXgpLjgpL7gpKgg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSy?= Message-ID: पिछला साल खत्म हुआ था ’थ्री ईडियट्स’ के साथ, जिसे इस साल भी लगातार हिन्दी सिनेमा की सबसे ’कमाऊ पूत’ के रूप में याद किया जाता रहा. इस साल आई ’दबंग’ से लेकर ’राजनीति’ तक हर बड़ी हिट की तुलना ’थ्री ईडियट्स’ के कमाई के आंकड़ों से की जाती रही. मेरे लिए साल 2010 के सिनेमा पर बात करते हुए इनमें से कोई फ़िल्म संदर्भ बिंदु नहीं है. होनी भी नहीं चाहिए. आमिर ख़ान के ज़िक्र से शुरुआत इसलिए क्योंकि इन्हीं आमिर ख़ान ने साल 2010 में *’पीपली लाइव’* जैसी फ़िल्म का होना संभव बनाया. इसलिए भी कि इस फ़िल्म के प्रमोशन से जुड़ा एक किस्सा ही हमारी इस चर्चा का शुरुआती संदर्भ बिंदु है. सिनेमाघरों और टीवी पर आए ’पीपली लाइव’ के एक शुरुआती प्रोमो में एक टीवी पत्रकार कुमार दीपक को गांव पीपली से लाइव रिपोर्ट करते दिखाया गया है. दिखाया गया है कि आमिर के असर से अब गांव पीपली में उसके ही नाम के चिप्स और बिस्किट बिक रहे हैं. मज़ेदार बात तब होती है जब ’कट’ होने के बाद भी कैमरा चालू रहता है और हम पत्रकार कुमार दीपक को कहते हुए सुनते हैं कि आमिर ख़ान पगला गया है और पागलपन में कुछ भी बना रहा है. कुमार दीपक का कहना है कि ’लगान’ जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनतीं और आमिर ख़ान ’पीपली लाइव’ बनाने के चक्कर में मुँह के बल गिरेगा. चाहे यह आमिर का उसके पिछले प्रयोगों के प्रति कुछ कठोर रहे मुख्यधारा मीडिया पर पलटवार हो, इसमें अनजाने ही हिन्दी सिनेमा की मान्य संरचना दरकती दिखाई देती है. फ़िल्म का एक किरदार अपनी ही फ़िल्म के निर्माता के असल फ़िल्मी जीवन पर कमेंट पास करता है. जैसे कथा कहने की पारंपरिक संरचना में छेद करता है. जैसे किरदार के लिए निर्धारित दायरे को तोड़ता है. न जाने तारीफ़ में कहते थे कि उसके काम की खोट दिखाने के लिए, लेकिन हमारे दौर के महानायक शाहरुख़ के लिए उसके सुनहरे वर्षों में बार-बार यह दोहराया जाता रहा कि वह भूमिका चाहे होई भी निभाएं, लगते हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ ही हैं. चोपड़ाओं और उन जैसे कई और सिनेमाई घरानों की मार्फ़त बरसों से हम सुनते आए हैं कि हिन्दुस्तानी सिनेमा दर्शक के लिए उसके सपनों का संसार रचता है और इसी तर्क की आड़ लेकर बहुत बार उस सिनेमा का रिश्ता दर्शक की असल ज़िन्दगी से बिलकुल काट दिया जाता है. हिन्दी सिनेमा हमेशा ’साधारणीकरण’ सिद्धांत का कायल रहा है और ब्रेख़्त उसे मौके-बमौके बड़ी मुश्किल से याद आते हैं. उसे यह बिलकुल पसंद नहीं कि फ़िक्शन और नॉन-फ़िक्शन के तय दायरे टूटें और परदे पर चलती कथा में दर्शक की अपनी सच्चाई का ज़रा भी घालमेल हो. लेकिन यह होता है. बीते साल में विभिन्न स्तर पर इनमें से कई प्रवृत्तियां बदलती दिखाई देती हैं, पलटती दिखाई देती हैं. हमारे शहराती जीवनानुभव की कलई खोलती दिबाकर बनर्जी की क्रम से तीसरी फ़ीचर फ़िल्म *’लव, सेक्स और धोखा’* फ़िक्शन सिनेमा में वृत्तचित्र का सा असर पैदा करती है. सबसे पहले ’डार्लिंग-ऑफ़-दि-क्राउड’ ’खोसला का घोंसला’, फिर विलक्षण ’ओए लक्की, लक्की ओए’ और अब आईने में दिखती कुरूप हक़ीक़त सी ’लव, सेक्स और धोखा’. दोस्तों का कहना है कि विरले बल्लेबाज़ मोहम्मद अज़रुद्दीन की तरह दिबाकर के नाम भी अब पहले तीन मौकों पर तीन शतकों सा विरला कीर्तिमान है. फ़िल्म से पहले आई अपनी एक ब्लॉग पोस्ट में दिबाकर उस दिन का किस्सा सुनाते हैं जब फ़िल्म की निर्माता एकता कपूर फ़िल्म का रफ़ कट पहली बार देख रही थीं. ज्ञात हो कि ये वही एकता कपूर हैं जिनके नाम अपने अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों की बदौलत हिन्दुस्तानी टेलीविज़न की मलिका होने का ख़िताब दर्ज है. एकता के लिए फ़िल्म की प्रामाणिकता इस हद तक कटु हो जाती है कि नाकाबिलेबर्दाश्त है. एकता चलती फ़िल्म के बीच से उठ जाती हैं, दिबाकर अपने प्रयोग में कामयाब हुए हैं. इन्हीं एकता कपूर द्वारा निर्मित अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों से निकले दो कलाकारों को मुख्य भूमिकाओं में लेकर विक्रमादित्य मोटवाने *’उड़ान’* बनाते हैं. साल की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म और मज़ेदार बात है कि इसे लेकर भी कई ’पारिवारिक स्रोतों’ से वैसी ही विपरीत प्रतिक्रियाएं आईं जैसी कुछ महीने पहले ’लव, सेक्स और धोखा’ को लेकर मिली थीं. ’उड़ान’ भी हिन्दुस्तानी समाज के लिए बड़ा असहज करने वाला अनुभव था, क्योंकि वह हमारे समाज की सबसे महत्वपूर्ण ’पवित्र गाय’ में से एक मानी गई संस्था – ’परिवार’, के ध्वंसावशेष अपने भीतर समेटे थी. यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रचलित मॉडल जैसी नहीं थी, याने यह एक ’पारिवारिक फ़िल्म’ नहीं थी. उन दो छोटे परदे के अदाकारों के अलावा ’उड़ान’ की मुख्य भूमिकाओं में दो बिलकुल नए चेहरे थे. लेकिन ’उड़ान’ की प्रामाणिकता सिर्फ़ उसकी कास्टिंग में ही नहीं थी. इस कहानी की स्वाभाविकता उसकी जान थी. बार-बार आती कविताओं से रची-बसी यह फ़िल्म दिल और ज़बान पर कड़वाहट भर देने की हद तक सच्ची थी. इतनी सच्ची की उसकी असलियत पर ही शक होने लगे. ’ऐसा ज़ालिम पिता भला कहीं होता है’, अभी-अभी उड़ान देखकर निकले किसी परिवार के मुखिया के मुँह से यह सुनना बड़ा आसान रहा होगा. लेकिन यह कड़वाहट से भरा अस्वीकार इस बात का सबूत है कि ’भैरव सिंह’ ऐसा आईना है जिसे हमारा हिन्दुस्तानी मर्द आज भी आसानी से देखने को तैयार नहीं. *’लव, सेक्स और धोखा’* को सार्वजनिक पटल पर सिर्फ़ अतिवादी प्रतिक्रियाएं ही मिलीं. आलोचकों और दर्शकवर्ग के एक हिस्से के लिए यह साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्म थी तो एक बड़ा दर्शकवर्ग इसे सिरे से खारिज कर देना चाहता था. बहुत से दर्शकों की परिभाषा में यह ’फ़िल्म’ होने के आधारभूत नियम ही पूरे नहीं करती. हमारे दर्शकवर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज भी सिनेमा की तय परंपरा में बंधा है और वह सिनेमा को बदलता तो देखना चाहता है लेकिन मौजूदा सिनेमाई चारदीवारी के भीतर ही. और ऐसे में ’लव, सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी ’मोहब्बत बॉलीवुड श्टाइल’ आपके सामने है. फ़िल्म का नायक सिनेमा में और उसकी सच्चाई में दिलो-जान से यकीन करता है लेकिन कम्बख़्त सिनेमा के भीतर होते हुए भी उसकी नियति हमारे सिनेमा जैसी नहीं होती. जैसे ब्रेख़्तियन थियेटर में चलते नाटक के बीच अचानक दर्शकों में से उठकर कोई आदमी नाटक के मुख्य नायक को गोली मार देता है, ठीक वैसा ही ’अ-फ़िल्मी’ अंत राहुल और श्रुति की प्रेम-कहानी का होता है. दिबाकर के यहाँ प्रामाणिकता और समाज की ’मिरर इमेज’ दिखाने की यह ज़िद ही अभिनेता के अवसान का कारण बनती है. इसका अर्थ यह न समझा जाए कि *’लव, सेक्स और धोखा’ *में काम कर रहे कलाकार अभिनेता नहीं हैं. बेशक वे अभिनेता हैं और उनमें से कुछ तो क्या कमाल के अभिनेता हैं. हिन्दी सिनेमा में इनके काम की धमक मैं आनेवाले सालों में बारम्बार सुनने की तमन्ना रखता हूँ. इसे इस अर्थ में समझा जाए कि यहाँ अभिनेता फ़िल्म की कथा को सही और सच्चे अर्थों में आप तक पहुँचाने का माध्यम भर हैं. और शायद सच्चे सिनेमा में एक अभिनेता की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यही हो सकती है. यहाँ अभिनेता पटकथा के आगे, उस विचार के आगे, जिसे वो अपने कांधे पर रख आगे बढ़ा रहा है, गौण हो जाता है. ’लव, सेक्स और धोखा’ ऐसा अनुभव है जिसे देख लगता है कि जैसे इन कलाकारों ने इस फ़िल्म में काम करना नहीं चुना, इस फ़िल्म की तीनों कहानियों ने मोहल्ले में निकल अपने नायक-नायिका खुद चुन लिए हैं. बरसों से ’स्टार सिस्टम’ की गुलामी करते आए हिन्दी सिनेमा के लिए यह मौका देखना बड़ा विलक्षण अनुभव है. यह फ़िल्म के मूल विचार – उसकी कहानी, के माध्यम – अभिनेता पर जीत का क्षण है. एक ऐसी कहानी, ऐसा विचार जिसके आगे अभिनेता गौण हो जाता है. बेला नेगी की फ़िल्म *’दायें या बायें’* भी इसी श्रंखला में आती है जहाँ कथा की प्रामाणिकता न सिर्फ़ असल पहाड़ी कलाकार बढ़ाते हैं बल्कि वही असल उत्तराखंडी परिवेश फ़िल्म की कथा संरचना को पूरा करता चलता है. यह अभिनेता के ह्वास का एक और आयाम है जहाँ अभिनेताओं के साथ जैसे मुख्य कथा का भी ह्वास हो जाता है. बार-बार वह उन हाशिए की कहानियों को सुनाने लगती है जिन्हें हम मुख्य कथा के साथ बंधे-बंधे भूले ही जा रहे थे. फ़िल्म वहाँ से शुरु नहीं होती जहाँ से हम चाहते थे कि वो हो और ठीक वैसे ही फ़िल्म वहाँ ख़त्म नहीं होती जहाँ हमने सोचा था कि वो होगी. समस्या कहाँ है? हम चाहते हैं कि हमारी थाली में मुख्य कथा को कढ़ाई में छौंककर, सजा-धजा कर, मेवा-इलायची डालकर बाकायदा परोसा जाए जबकि फ़िल्म हमें अपनी पसंद का फूल चुनने बगीचे में खुला छोड़ देती है. हम सिनेमा में इस मनमानी के आदी नहीं और चिड़ियाघर के जानवर की तरह तुरन्त अपने पिंजरे में वापस घुस जाना चाहते हैं. अपनी हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ दिखते महानायक को धता बताते हुए हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता दीपक डोबरियाल ’रमेश मजीला’ को साक्षात हमारे सामने जीवित कर देते हैं. एक अभिनेता कहानी की तरफ़ से खड़ा होकर लड़ता है और उसका साथ पाकर फ़िल्म की कथा ’नायकत्व’ के विचार को क्या ख़ूब पटखनी देती है. और ऐसा ही कुछ ओंकारदास माणिकपुरी और रघुबीर यादव नया थियेटर से आए दर्जन भर दुर्लभ अभिनेताओं के साथ जुगलबंदी कर *’पीपली लाइव’ *में कर दिखाते हैं. यहाँ फ़िल्म की निर्देशक अनुषा रिज़वी के साथ आमिर का भी शुक्रिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने अनुषा और महमूद को उनके मनमाफ़िक सिनेमा रचने के लिए पूरा स्पेस दिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने खुद ’नत्था’ की भूमिका निभाने का लालच नहीं किया. जी हाँ, यह होना संभव था. हिन्दी सिनेमा में ऐसा बिना किसी रोक-टोक होता आया है. अगर आमिर बेखटके ’लगान’ के ’भुवन’ हो सकते हैं और चालीस पार की उमर में एक कॉलेज जाते लड़के की भूमिका निभा सकते हैं तो क्या वे ’पीपली लाइव’ के ’नत्था’ नहीं हो सकते थे? लेकिन हमारी खुशकिस्मती कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और नतीजा यह कि उनकी फ़िल्म साल 2010 में आई ’कथ्य की जीत’ वाली फ़िल्मों की श्रंखला में एक दमकती कड़ी साबित हुई. अद्वितीय रचनात्मकता के धनी ’इंडियन ओशियन’ ने इस फ़िल्म के लिए विलक्षण संगीत रचा और रघुबीर यादव का गाया छत्तीसगढ़ी जनगीत ’महंगाई डायन’ हर नई व्याख्या के साथ फ़िल्म के दायरे से बाहर निकलता गया. हर नई व्याख्या के साथ यह वर्तमान समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर मारक टिप्पणी करता प्रतीत हुआ. और इन्हीं ’इंडियन ओशियन’ के ज़िक्र के साथ इस बात का रुख़ *’लीविंग होम’* की तरफ़ मुड़ता है. यह ऐसी संगीतमय डॉक्यूमेंट्री थी जिसने साल 2010 में सिनेमा के कई पूर्वलिखित नियमों को बदला. न केवल यह बाकायदा देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई बल्कि हाल ही में संपन्न हुए भारत के इकतालीसवें अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (गोआ) में इसे हिन्दुस्तानी पैनोरमा की उद्घाटन फ़िल्म होने का सम्मान भी दिया गया. जैसे साल भर कथा फ़िल्में प्रामाणिकता की तलाश में नित नए प्रयोग करती रहीं वैसे ही इस वृत्तचित्र के निर्देशक ने कथातत्व की तलाश में अपनी फ़िल्म से स्वयं को सदा अनुपस्थित रखा. निर्देशक जयदीप वर्मा इस प्रयोग को लेकर इतना सचेत थे कि फ़िल्म के चार किरदारों से चलती किसी आपसी बातचीत में आप कहीं उनका सवाली स्वर तक नहीं पकड़ पाते. इसके चलते यह वृत्तचित्र चार मुख्य किरदारों की ऐसी कथा-यात्रा बन जाता है जो अपने समकालीन किसी और फ़िक्शन से ज़्यादा रोचक और उतसुक्ता से भरा है. चार मुख्य किरदार जो यूँ अकेले खड़े हों तो बस इस महादेश की भीड़ का हिस्सा भर हैं, लेकिन जब मिल जाएं तो इस महादेश का सबसे सच्चा और प्रतिनिधि संगीत रचते हैं. नायकों की तलाश में निरंतर भटकते समाज को जयदीप कुछ सच्चे नायक देते हैं, और वो भी उस साल में जिसे हम सिनेमाई महानायक के अवसान का एक और अध्याय गिन रहे हैं. एक और ख़ासियत है जो इन तमाम फ़िल्मों को एक सूत्र में बांधती है. न केवल यह फ़िल्में कहानी को अभिनेता से ऊपर रखती हैं, बल्कि इनके लिए परिवेश की प्रामाणिकता भी व्यावसायिक लाभ से कहीं आगे की चीज़ है. पिछले दो-ढाई दशक से, ठीक-ठीक जब से यह ’स्विट्ज़रलैंड’ नाम की बीमारी चोपड़ा साहब हिन्दी सिनेमा में लाए हैं, लगता है जैसे हिन्दी सिनेमा ’विदेशी लोकेशनों’ का गुलाम हो गया है. हमारे फ़िल्मकार बिना संदर्भ विदेश भागते दिखते हैं. फिर ऐसे ही दौर में ये फ़िल्में आती हैं. ’उड़ान’ का जमशेदपुर और शिमला किसी मज़बूत किरदार सरीख़ा है. ’पीपली लाइव’ का ’पीपली’ प्रियदर्शन की फ़िल्मों के गांवों की तरह वर्तमान संदर्भों से कटा गांव नहीं है. उसमें ’लालबहाद्दुर’ टाइप मृगतृष्णा सरकारी परियोजनाएं हैं तो ’सोंमेंटो’ टाइप विदेशी बीज बेचकर हिन्दुस्तानी किसान को आत्महत्या के लिए मज़बूर करती बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के संदर्भ भी. ’दायें या बायें’ में आया प्रामाणिक बागेश्वर का पहाड़ी इलाका है जो शहर में रहते हर पहाड़ी को उसके ’रटी हुई सीढ़ियों में बंटे’ गांव की याद दिला जाता है. दिल्ली शहर में रहता मैं रोज़ सुबह अखबार खोलता हूँ और रोज़ अपने शहर को और ज़्यादा ’लव, सेक्स और धोखा’ में मौजूद शहर में बदलता पाता हूँ. इन फ़िल्मों में आई परिवेश की प्रामाणिकता मुख्यधारा सिनेमा के लिए भी चुनौती है. तभी तो ’दबंग’ जैसी साल की सबसे बड़ी व्यावसायिक सफ़ल फ़िल्म भी कोशिश करती दिखती है कि इस प्रामाणिकता को किसी हद तक तो बचाया जाए. करण जौहर महानायक को लेकर ’माई नेम इज़ ख़ान’ बनाते हैं जो हैं तो अब भी विदेश में लेकिन फ़िल्म में कम से कम उनके इस ’होने’ के उचित संदर्भ मिलते हैं. एक हबीब फ़ैज़ल आते हैं जो पहले तो अद्भुत प्रामाणिकता से भरी *’दो दुनी चार’* बनाते हैं और फिर अपने ’खांटी दिल्लीवाला’ संवादों से यशराज की *’बैंड, बाजा, बारात’* में असलियत के रंग भरते हैं. बेशक यशराज अब भी वही पंजाबी शादी देख, दिखा रहा है. लेकिन सिनेमा में ये हाशिए की आवाज़ें अब उनका भी जीना मुहाल करने लगी हैं. इन फ़िल्मों की नज़र से देखें तो दिखता है, हमारा सिनेमा अपनी ’सिनेमाई’ छोड़ रहा है, असलियत की संगत पाने के लिए. ********** * ‘कथादेश’ के जनवरी अंक में प्रकाशित.* -------------- next part -------------- An HTML attachment 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URL: From vineetdu at gmail.com Sat Jan 8 09:57:21 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 8 Jan 2011 09:57:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSh4KWI4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KScIOCkleCkguCkn+CljeCksOCli+CksuCkgyDgpKjgpYsg4KS14KSo?= =?utf-8?b?IOCkleCkv+CksuCljeCkoSDgpJzgpYfgpLjgpL/gpJXgpL4=?= Message-ID: क नाट प्लेस के ओडियन में जब हम नो वन किल्ड जेसिका देखने घुसे तो जेसिका लाल को न्याय दिलाने में मीडिया की क्या भूमिका रही थी, उस याद से कहीं ज्यादा नीरा राडिया टेप प्रकरण में किन-किन मीडियाकर्मियों के नाम सामने आये, ये बातें ज्यादा याद आ रही थीं। हमें लग रहा था कि NDTV 24X7 पर 30 नवंबर के बरखा दत्त कॉनफेशन के बाद, उसका दूसरा हिस्सा देखने आ गये हैं। मामला ताजा है, इसलिए मीडिया शब्द के साथ राडिया अपने आप से ही याद हो आता है। पी चिदंबरम ने प्रेस कानफ्रेंस में पत्रकारों से मजाक क्या कर दिया कि ऑर यू फ्रॉम मीडिया ऑर राडिया कि अब मीडिया के भीतर ये न केवल मुहावरा बल्कि मीडिया के बारे में सोचने का प्रस्थान बिन्दु बन गया है। बहरहाल, राडिया-मीडिया प्रकरण के बाद मैं पहली फिल्म देख रहा था जिसका कि बड़ा हिस्सा मीडिया से जुड़ता है। मीडिया क्रिटिक सेवंती निनन ने राडिया टेप को मीडिया स्टूडेंट और पीआर प्रैक्टिशनरों के लिए टेक्सट मटीरियल करार दिया है। मैं नो वन किल्ड जेसिका फिल्म को हाउ टू अंडर्स्टैंड इंगलिश चैनल लाइक एनडीटीवी के लिए जरूरी पाठ मानता हूं। हालांकि इस फिल्म को एनडीटीवी के लोगों ने नहीं बनाया है, लेकिन जिस तरह से एनडीटीवी के कुछ ऑरिजिनल मीडियाकर्मी और कुछ चरित्र के तौर पर दिखाये गये हैं, पूरा सेटअप एनडीटीवी का है, ऐसे में फिल्म का बड़ा हिस्सा एनडीमय हो गया है जो कि कई बार सिनेमा के भीतर गैरजरूरी जान पड़ता है। *इसे आप संयोग कहिए* कि एनडीमय ये फिल्म ऐसे समय में आयी है, जबकि खुद एनडीटीवी के मिथक पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं। इसलिए आप जब इस फिल्म से गुजरते हैं, तो ऐसा लगता है कि इसे एनडीटीवी की करप्ट हुई इमेज को डैमेज कंट्रोल के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। ये आप और हम दोनों जानते हैं कि जब इस फिल्म की शूटिंग हुई थी तो न तो 20 नवंबर 2010 की ओपन पत्रिका की स्टोरी आयी थी, जिसमें कि बरखा दत्त को कांग्रेस के लिए लॉबिंइंग करते हुए बताया गया, न नीरा राडिया से बातचीत की स्क्रिप्ट छापी गयी थी और न ही चार और पांच दिसंबर 2010 के द संडे गार्जियन की वो स्टोरी ही प्रकाशित हुई थी, जिसमें आईसीआईसीआई बैंक के साथ मिलकर शेयरों के दाम बढ़ाने और करोड़ों रुपये की घपलेबाजी की बात की गयी थी। प्रणय राय की जो आभा थी वो तब बरकरार थी और ये स्टोरी भी नहीं आयी थी कि बैंक ने आरआरआरआर नाम की एक ऐसी कंपनी, जिसके कि दो ही बोर्ड डायरेक्टर थे प्रणय राय और राधिका राय, को 73.91 करोड़ रुपये बिना कोई ब्याज के लोन दे दिये थे। तब ये भी स्टोरी नहीं आयी थी कि एनडीटीवी की विदेशों में कई ऐसी कंपनियां हैं, जिसके अकाउंट डीटेल भारत की एनडीटीवी लिमिटेड की बैलेंस शीट में नहीं नत्थी की गयी है और तब ऐसा भी नहीं हुआ था कि प्रणय राय ने इन सब बातों का जवाब देने के बजाय द संडे गार्जियन को कानूनी नोटिस भेजते हुए 100 करोड़ रुपये हर्जाने के तौर पर जमा करने की बात कही थी। *हां, कंटेंट के स्तर पर* फिल्म की शूटिंग के दौरान ये जरूर शुरू हो गया था कि एनडीटीवी घंटों यूट्यूब की फुटेज लगाकर स्टोरी करने लग गया था, जिसका कि कई बार कोई सेंस नहीं होता, सिर्फ खर्चा बचाने के लिए ऐसी स्टोरी की जाती है। ये जरूर होने लग गया था कि चैनल के दिग्गज राजनीतिक संवाददाता लंदन में रावण फिल्म के प्रीमियम शो पर अमिताभ, अभिषेक और ऐश्वर्य की लाइव फुटेज दिखाकर घंटों जी सर, हां जी सर करना शुरू कर दिया था। भूत-प्रेत और ज्योतिष का धंधा न करने के बावजूद कंटेंट के स्तर पर एनडीटीवी के मिथक ध्वस्त होने शुरू हो गये थे और चैनल के लिए ये भारी वित्तीय घाटे का दौर चल रहा था, जिसकी भरपाई वो किसी भी हाल में करना चाहता था। ऐसे में कंटेंट के तौर पर ऑडिएंस एनडीटीवी की उन सारी करतूतों को भूल जाए, उस लिहाज से जरूरी था कि ऐसी कोई फिल्म बने, जिसमें वो अपने को रंग दे बसंती जैसी फिल्म की तरह ब्रांड को स्टैब्लिश कर सके। फिल्म में रंग दे बसंती के कुछ फुटेज और चैनल की ओबी हमारे भीतर उसी एहसास को जगाने की नाकाम कोशिश करती है। अगर राडिया टेप प्रकरण न होता तो इस फिल्म को एनडीटीवी के लिए ब्रांड री-स्टैब्लिशमेंट की फिल्म मानी जाती लेकिन अब इसे डैमेज कंट्रोल की फिल्म के तौर पर ही देखा जाएगा। और फिर एनडीटीवी ही क्यों, आनेवाले समय में मीडिया पार्टनरशिप को समेटती हुई जो भी फिल्में बनेगी, उसे देखने का नजरिया ब्रांड स्टैब्लिशमेंट से कहीं ज्यादा डैमेज कंट्रोल ही होगा क्योंकि राडिया टेप प्रकरण ने मीडिया के कारनामों को जितनी बेशर्मी से बेपर्दा किया है, उसकी भरपाई के लिए दो-चार प्रो मीडिया फिल्मों की दरकार तो पड़ेगी ही। इसी में अगर पीपली लाइव की टीम दूसरी फिल्म बनाती है और मीडिया को बतौर विलेन चरित्र के तौर पर दिखाती है, तो उसमें बरखा दत्त का लक्ष्य और नो वन किल्‍ड जेसिका से ठीक अलग चरित्र होगा। इसकी कल्पना करते हुए मुझे अभी से ही सिहरन हो रही है। वैसे इस फिल्म ने प्रो एनडीटीवी और प्रो बरखा दत्त दिखाने के क्रम में भी कई जगहों पर ऐसा कुछ जरूर कर दिया है, जिससे एनडीटीवी की इलिटिसिज्म का पर्दा जहां-तहां से मसक जाता है और उसके भीतर से एनडीटीवी और बरखा दत्त की जो शक्ल दिखाई देती है, वो हमें इस बात का यकीन दिलाती है कि इस शक्ल पर और राडिया टेप की मटीरियल जोड़कर एक अलग से फिल्म बनाने की जरूरत है। बरखा दत्त के शब्दों में कहें, तो ये एरर ऑफ जजमेंट है और निर्देशक की तरफ से भारी चूक हुई है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। *सबसे पहले तो* बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी (रानी मुखर्जी) को एनडीटीवी की एक ऐसी मीडियाकर्मी के तौर पर दिखाया गया है, जो कि अपने पेशे को लेकर बहुत ही पैशनेट है, पूरी तरह समर्पित है। इतनी समर्पित है कि बिग विमान के हाइजैक हो जाने की खबर पर अधूरे सेक्स के दौरान ही फटाफट कपड़े पहनते हुए अपने सेक्स पार्टनर को यह कहकर चल देती है कि नाउ डू इट सोलो एंड फ्लो। यानी तुम मास्टरवेट करके बहा दो। मुझे तो अब जाना है। मीडिया हलकों के बीच की गपशप को फिल्म इतनी स्ट्रांगली दिखाएगा और ये बरखा दत्त के चरित्र के लिए इतना जरूरी है, इसकी उम्मीद हमने ऑडिएंस के तौर पर बिल्कुल भी नहीं की थी। एक बार फ्लाइट में गांड फटकर हाथ में आ जाएगी, जिसका प्रोमो देखकर टीवी पर हम पहले ही अघा गये, बाकी फिल्मों में सिर्फ फक (अनुराग कश्यप ने तीन सौ लोगों के बीच इसे चोद कहा था और कहा था कि क्यों ये हिंदी में बोलने से अश्लील है और अंग्रेजी में कॉमन वर्ड) और बिच बोलती है। इस पूरी फिल्म में मीरा के संवाद का बड़ा हिस्सा फक शब्द में खप जाता है। इंग्लिश मीडिया के लिए ये कॉमन वर्ड है, ये एक स्थापना बनती है। दूसरा कि बरखा दत्त की जो छवि बनती है, वो मीडिया से अलग पेशे और मिजाज से जुड़े लोगों के लिए भले ही एक संजीदा मीडियाकर्मी की बनती हो लेकिन हम जैसे लोग, जो कि मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं, उनके सामने एक ऐसी छवि कि वो किसी की भी स्टोरी आइडिया हथियाकर अपने को स्टार घोषित करने में नहीं चूकती। उसे बिग विमान के हाइजैक होने के आगे जेसिका लाल हत्याकांड की स्टोरी में कोई दम नजर नहीं आता और अकेले अदिति की इस स्टोरी पर स्टैंड लेने का वो मजाक उड़ाती है। स्टोरी में सेलेबल एलीमेंट की झलक मिलते ही बहुत ही शातिर तरीके से अदिति से ये स्टोरी हड़प लेती है और उसका फिर से मजाक उड़ाती हुई रातोंरात फिर से स्टार बनती हुई नजर आती है। ऐसी स्थिति में एनडीटीवी के भीतर का माहौल ऐसा बनता है कि एनडीटीवी को कोई और नहीं, सिर्फ और सिर्फ बरखा दत्त चलाती है और अपनी शर्तों पर चलाती है और उस अपनी शर्तों में सबकुछ शामिल है। कई ऐसे सीन हैं, जिन्‍हें देखकर आपको अंदाजा हो जाएगा कि तब भी लाबिइंग और एक्सेस जर्नलिज्म का दौर चल रहा था और तब भी बरखा दत्त को फैसले आने के पहले ही उसकी कॉपी मिल जाया करती थी। बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी को इस रूप में दिखाया गया है कि एक सेलेब्रेटी पत्रकार चाहे तो कुछ भी कर सकता है, जिसके बारे में अमेरिका में बाटरगेट का खुलासा करनेवाले बेन ब्रेडली (2006) ने कहा कि ऐसे पत्रकारों के साथ सबसे खतनाक स्थिति ये होती है कि ये जितने महत्व के होते नहीं, उससे कहीं ज्यादा अपने को समझने लगते हैं और फिर तय नहीं होता कि वे भविष्य में इसे अपने पेशे से अलग किस रूप में इस्तेमाल करेंगे। इधर… *एनडीटीवी और प्रणय राय* की बात करें तो एनडीटीवी को एक ऐसे चैनल के तौर पर दिखाने की कोशिश की गयी है, जो कि लोगों के लिए हक की आवाज उठाता है, प्रणय राय फॉर दि सेक ऑफ जस्टिस को लेकर कुछ भी करने से परहेज नहीं करते। शायद इसलिए जेसिका हत्या के सबसे मजबूत गवाह विक्रम को फिल्म का झांसा दिलाकर, उसके वर्जन को ऑनएयर करने की भी अनुमति दे देते हैं। यहां प्रणय राय का कैरेक्टर रण फिल्म के विजयशंकर मल्लिक से ज्यादा प्रैक्टिकल है, जो ये जानते हैं कि चैनल को लीड लेने के लिए ये सब करना पड़ता है। जेसिका लाल की बहन शबरीना, जो कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह फ्रस्ट्रेट हो चुकी है, अपनी बाइट देने से बचने के लिए फोन बंद कर देती है, घर से बाहर चली जाती है, उसकी आवाज की नकल करती हुई बरखा दत्त दिखाई गयी है और फर्जी तरीके से एक स्टोरी प्लांट करती है और फिर आगे चलकर ग्लोरीफाय करती है। फिल्म में इस स्टोरी को इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया है कि पूरी तरह इसने ही जेसिका लाल को न्याय दिलाया हो। ये सीन देखते हुए आप एकदम से सवाल करते हैं – यार, जब ये सबकुछ करना गलत नहीं है और वो खुद कह रही है कि पहले भी ऐसा कर चुकी है, तो फिर आज राडिया टेप प्रकरण में टेप की विश्वसनीयता पर क्यों सवाल खड़े कर रही है? खुद शबरीना की आवाज की नकल करके उसके नाम पर उसकी वॉइस चला देती है, तो फिर ओपन के संपादक मनु जोसेफ से ये सवाल क्यों कर रही है कि आपने स्टोरी प्रकाशित करने से पहले मेरा पक्ष जानने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या वो खुद शबरीना या दूसरे लोगों का पक्ष जानने की कोशिश करती है। इन दिनों राजदीप सरदेसाई जिस तरह से मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघने को लेकर विलाप कर रहे हैं, इस फिल्म में ये बात मजबूती से स्थापित होती है कि मीडिया दरअसल लक्ष्मण रेखा (व्यक्तिगत स्तर पर इस शब्द का विरोध करते हुए) लांघकर ही अपने को प्रासंगिक बनाये रखना चाहता है। ऑडिएंस की याददाश्त इतनी कमजोर मान ली जाती है कि वो इसे नजरअंदाज कर ही जाएगी, फॉर ग्रांटेड ले लिया जाता है। इसी नजरिये से आक्रोश फिल्म का ये डायलॉग पॉपुलर हुआ – क्या होगा, तीन दिन बाद इंडिया फिर क्रिकेट मैच जीत जाएगी और मीडिया उसके पीछे होगा। राडिया टेप से जोड़कर इस फिल्म में एनडीटीवी और मीडिया को देखें तो वो ऐसे एक भी मुद्दे को नहीं उठाता, जिसमें कि उसे सेलेबल एलीमेंट नजर नहीं आता। अगर किसी को नजर आता भी हो, तो अदिति के स्टोरी आइडिया की तरह पहले कुचलने की और फिर उसे हाइजैक करने की कोशिश की जाती है। इस फिल्म में बरखा दत्त की इससे अलग छवि नहीं बनने पाती है। ये लक्ष्य फिल्म की बरखा दत्त की छवि को मजबूत करने के बजाय एक चालबाज मीडियाकर्मी की छवि स्थापित करती है। *इस पूरी फिल्म में* एनडीटीवी का सेटअप देखकर शायद आपको कई चीजें खटकती हो। पहली और सबसे जरूरी चीज कि चैनल के नीचे जो लगातार स्क्रॉल चल रहे होते हैं, उसमें हिंदी के एक भी शब्द की स्पेलिंग शुद्ध नहीं दिखाई गयी है। मुंबई से फिल्म क्रिटिक अजय ब्रह्मात्मज ने साफ तौर पर कहा कि जब इस फिल्म को देखने जाएं तो इस पर गौर करें। देखो तो सचमुच लगा कि एक-एक शब्द को गलत लिखने में कितनी मेहनत पड़ गयी होगी लिखनेवाले को। आमतौर पर एनडीटीवी के स्क्रॉल और टिकर में इतनी गलतियां नहीं होती। ये ऑडिएंस पर निगेटिव असर डालती हैं। दूसरे कि चैनल का सेटअप NDTV 24X7 का है लेकिन सारा कुछ हिंदी में डिलीवर हो रहा है। एनडीटीवी इंडिया की निधि कुलपति जो कि जस्ट इंटर्वल के बाद दिखाई देती हैं, के अलावा बाकी सब NDTV 24X7 के ही लोग हैं। अंग्रेजी चैनल पर हिंदी बोलना मजबूरी है क्योंकि मास ऑडिएंस हिंदी को ही समझ पाएगी। ये काम टाइम्स नाउ ने भी किया। कार्पोरेट में सारी स्टोरी और पीटीसी भले ही अंग्रेजी में ही दी हो लेकिन फैशन के बारे में लगा कि हिंदी के लोग ज्यादा देखेंगे तो हिंदी में सबकुछ किया। यहां आपके मन में सवाल उठेगा कि जब हिंदी में ही सबकुछ किया तो फिर सेटअप, ग्राफिक्स और बाकी चीजें एनडीटीवी इंडिया का ही क्यों नहीं रखा? ब्रांड के तौर पर अंग्रेजी को और भाषा के तौर पर हिंदी को… ये दोनों तो अलग-अलग चीज हो गयी। इंटर्वल के पहले तक एनडीटीवी का पुराना लोगो है। ये लोगो सबसे ज्यादा करगिल की स्टोरी के दौरान बरखा दत्त को पीटीसी देते हुए दिखाया जाता है। इंटर्वल के बाद मौजूदा लोगो दिखने लग जाता है। ऐसा शायद एनडीटीवी की ऐतिहासिकता को स्थापित करने के लिए किया गया हो लेकिन ये साफ नहीं होता और नतीजा इंटर्वल के पहले तक चैनल का गेटअप क्लासिक के बजाय डल दिखता है। इस पूरी फिल्म में चैनल की भूमिका इस रूप में स्थापित की गयी है कि जेसिका लाल हत्याकांड को लेकर जो फैसले हुए, वो गलत था और मीडिया ने इसे दुरुस्त करवाया। रुषि हत्याकांड मामले में अब यही कोशिश की जा रही है। चैनलों की स्पेशल स्टोरी और अखबारों की हेडलाइंस ऐसा ही बताते हैं कि वो आरुषि को न्याय दिलाने के लिए मर मिटेंगे। लेकिन… *जेसिका लाल हत्याकांड* में मीडिया को एक सफलता तो मिल गयी और पिछले दस सालों के चैनल इतिहास को पलटकर देखें, तो सबसे ज्यादा इसी स्टोरी का हवाला देकर इसे भुनाने की कोशिश की गयी और कार्पोरेट मीडिया की सकारात्मक भूमिका समझाने की कोशिशें की गयी। आज ऐसे चैनलों को लेकर फर्जी एसएमएस और ट्विट करने के मामले सामने आने लगे हैं, राजदीप सरदेसाई को सीएनएन-आइबीएन के इस कारनामे पर माफी (19 दिसंबर) मांगनी पड़ जाती है, ऐसे में एसएमएस एक्टिविज्म को लेकर कितना भरोसा रह जाएगा, ये मीडिया-धंधा के लिए एक सवाल है। दि सिटीजन जर्नलिज्म के सबसे बड़े जानकार रिचर्ड वर्टज इसे जबरदस्ती पैनिक मोड में लाने और बाजार पैदा करने की स्थिति मानते हैं। भारत में इस धंधे को मजबूत हुए तकरीबन 10 साल हो गये। लेकिन ये फिल्म राडिया टेप प्रकरण और सीएनएन-आइबीएन के फर्जी ट्विट दिखाने के मामले सामने आ जाने के बाद मीडिया की एक बहुत ही मक्कार, अपने फायदे के लिए किसी भी हद के समझौते करने और गिर जाने की छवि पेश करती नजर आती है। मुझे डर है कि आनेवाली फिल्में चाहे लाख कोशिश कर लें, मीडिया की इस मजबूत होती जाती छवि को ध्वस्त शायद ही कर पायी और इसी क्रम में अगर पीपली लाइव टीम की एक चोट और पड़ गयी तो सिनेमा के लिए मीडिया लंबे समय तक विलेन कैरेक्टर के तौर पर स्थापित हो जाएगा। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Jan 8 17:06:48 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 8 Jan 2011 17:06:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KSc4KS8?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJ3gpILgpJ3gpJ8g4KS54KWAIOCkluCkvOCkpOCkriE=?= Message-ID: रोज़ का झंझट ही ख़तम! *मित्रो, अभी-अभी मेरे किसी मित्र ने यह **रोचक** एसएमएस भेजा है**!* - शशिकांत "2011 हैज कम वेरी हैप्पी न्यू ईअर एंड इन एडवांस विश यू अ वेरी हैप्पी फ्रेंडशिप डे वेलेंटाइन डे इंडिपेंडेंस डे रिपब्लिक डे गाँधी जयंती. हैप्पी रमज़ान बकरीद दीवाली होली एंड क्रिसमस. हैप्पी मदर फादर दादा दादी नाना नानी डेज़. हैप्पी टीचर्स स्टूडेंट्स एंड चिल्ड्रन्स डे. हैप्पी बर्थ डे 365 गुड मॉर्निंग गुड आफ्टरनून गुड इवनिंग एंड गुड नाइट्स. रोज़ का झंझट ही ख़तम. अब पूरा साल मत कहना की एसएमएस नहीं किया. हैव अ नाइस लाइफ." Sender : 91-9013497309 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jan 9 00:19:38 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 9 Jan 2011 00:19:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqCDgpKLgpLngpL4g4KSm4KS/4KSPIOCknOCkvuCkj+CkgSA=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KWI4KSnIOCkheCkleCljeCkt+CksOCkp+CkvuCkriDgpK4=?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KS/4KSwIOCklOCksCDgpJbgpYfgpLLgpJfgpL7gpIHgpLU/?= Message-ID: क्यों न ढहा दिए जाएँ अवैध अक्षरधाम मंदिर और खेलगाँव? कॉमनवेल्थ खेलगाँव, दिल्ली *केंद्रीय* पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने शुक्रवार को यह मान लिया कि अक्षरधाम मंदिर को बिना पर्यावरण मंजूरी के ही निर्माण की अनुमति दे दी गई थी। साथ ही उन्होंने राष्ट्रमंडल खेल गांव को मिली मंजूरी पर भी सवाल उठा दिया. इस बीच* *दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कहा है कि यमुना नदी के बिल्कुल किनारे बने अक्षरधाम मंदिर को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने मंजूरी दी थी। *पर्यावरणविद* राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे अवैध तरीके से अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल गांव दोनों के बनने का लगातार विरोध कर रहे हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे नदी के आस-पास के पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। राजेंद्र सिंह जब खेलगांव के सामने महीनों धरने पर बैठे थे तब आते-जाते फुरसत मिलने पर मैं भी बस से उतरकर उनके साथ बैठता था. लेकिन तब वो आवाजें दबा दी गई थी. क्या मुल्क में ऐसा कोई स्तम्भ है जो संविधान, क़ानून और जनता के प्रति जवाबदेह है, जो सम्बंधित सरकारी नुमाइंदे से ये सवाल पूछे कि इसे अनजाने में की गई गलती मामकर कैसे माफ़ किया जाए जब महीनों सैकड़ों पर्यावारंविद धरने पर बैठकर विरोध करते रहे. *लेकिन* जयराम रमेश ने यह क्यों कहा कि अब अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल गांव को ढहाया नहीं जा सकता। जब 10 रुपये की चोरी के लिए मुल्क़ के एक मामूली आदमी को संविधान और क़ानून के उल्लंघन करने के लिए सज़ा सुनाई जा सकती है, दिल्ली के विकास और यहाँ की नागरिक सुविधाएँ बहाल करने में बड़ी भूमिका निभानेवाले गरीब मजदूरों की झुग्गी-झोपड़ियों पर यदि बुलडोजर चलाया जा सकता है, तो मुल्क़ के क़ानून की किताब में दर्ज पर्यावरण नीति को नज़रंदाज़ कर बनाए गए किसी अवैध ढाँचे को ढहाकर उस गलती को दुरुस्त क्यों नहीं किया जा सकता, भले वह कोई मंदिर या खेल गांव ही क्यों न हो. अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली *मुल्क़ *में लोकतंत्र को यदि बचाना है तो दिल्ली और देश की जनता को यह जवाब चाहिए कि क्या अवैध तरीके से झुग्गी बनाना यदि अप्राद है और उसे तोड़ा जा सकता है तो अवैध रूप से बनाए गए अक्षरधाम मंदिर और खेलगांव को क्यों नहीं? इस सवाल का जावाब कौन देगा? मुल्क़ की कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका या प्रेस? *मुल्क़* की आम जनता जानती है कि राजग सरकार के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवानी के हस्तक्षेप के बाद आनन-फानन में तमाम कायदे-क़ानून को ताक पर रख कर पहले दिल्ली में यमुना किनारे की ज़मीन पर युद्ध स्तर पर अक्षरधाम मंदिर बना दिया गया और उसके बाद कॉमनवेल्थ खेल गाँव. मंदिर बनने से पहले बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहनेवाला यह इलाका अक्षरधाम मंदिर और खेलगाँव बनने के बाद आज चमक गया है. *यमुना *के किनारे जिस ज़मीन पर अवैध रूप से बना है यह अक्षरधाम मंदिर वहां मेरे आँखों के सामने हरी-हरी ताज़ी सब्जियां उपजती थीं, जिन्हें दिल्लीवाले खरीदकर सेहत बनाते थे, आज दिल्ली के एक बड़े पर्यटन स्थल में तब्दील हो चुका है. इसी तरह घोटाले कर बनाए गए खेल गाँव के फ्लैटों पर दिल्ली के विधायकों और बड़े-बड़े नौकरशाहों की नज़र है. तीन-चार करोड़ के बताए जा रहे हैं ये फ्लैट्स. *मैं* पिछले पांच-छः साल से ठीक अक्षरधाम मंदिर के सामने मयूर विहार फेज़-1 की दिल्ली पुलिस सोसायटी में किराए पर रह रहा हूँ. मेरी छत से दिखता है अक्षरधाम मंदिर. लेकिन आज तक मैं कभी उसे देखने नहीं गया. इसी तरह, घपले और घोटाले की ख़बरों के बीच मेरी आँखों के सामने बना है यह खेल गाँव. जब खेल शुरू हुआ तो गाँव चला गया. नहीं गया देखने एक दिन भी खेल, जो मेरे घर के सामने हो रहा था. *क्योंकि* मैं पर्यावरण का बलात्कार कर बनाए गए दोनों निर्माणों के खिलाफ़ हूँ. खून खुलता है इन्हें देख कर मेरा. ग़ालिब ने कहा है- "रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?" दिल्ली, देश और दुनिया के हर पर्यावरण प्रेमी इंसान का खून खुलना चाहिए! *आज* जबकि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश मान लिया है कि अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल गांव को बिना पर्यावरण मंजूरी के ही निर्माण की अनुमति दे दी गई थी, तो सभी पर्यावरणवादियों को सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए कि अवैध रूप से बनाए गए ये दोनों निर्माण ढहाए जाने चाहिए. क्योंकि पर्यावरण का सवाल यमुना नदी की संस्कृति ही नहीं दिल्ली, देश के लोकतंत्र से जुड़ा एक अहम सवाल है, और मानव सभ्यता से जुड़ा हुआ एक गंभीर मसला भी. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ved1964 at gmail.com Sun Jan 9 10:18:51 2011 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Sun, 9 Jan 2011 10:18:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqCDgpKLgpLngpL4g4KSm4KS/4KSPIOCknOCkvuCkj+CkgSA=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KWI4KSnIOCkheCkleCljeCkt+CksOCkp+CkvuCkriDgpK4=?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KS/4KSwIOCklOCksCDgpJbgpYfgpLLgpJfgpL7gpIHgpLU/?= In-Reply-To: References: Message-ID: मित्रो, बेशक अक्षरधाम और खेलगाँव को ढहा दिया जाना चाहिेए. एक इस देश की हिंदूवादी शासकवादी राजनीति का प्रतीक है (जिसके अलमबरदार कांग्रेस और दूसरे दलों में भी कम नहीं हैं) तो दूसरा हद दर्जे की असंवेदनशीलता का प्रतीक है. यह पर्यावरण का मसला नहीं है? यह एक ओर इस देश के कानून के राज का मसला है तो दूसरी ओर आम आदमी की जिंदगी का सवाल है. इसके कारण पूरे जमना पार, खासकर लक्ष्मी नगर, पांडव नगर, आदि के जनजीवन को जबर्दस्त खतरा है. इसलिए बेशक अक्षरधाम और खेलगाँव को ढहा दिया जाना चाहिए. वेद प्रकाश 2011/1/9 shashi kant > क्यों न ढहा दिए जाएँ अवैध अक्षरधाम मंदिर और खेलगाँव? > कॉमनवेल्थ > खेलगाँव, दिल्ली > *केंद्रीय* पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने शुक्रवार को यह मान लिया कि > अक्षरधाम मंदिर को बिना पर्यावरण मंजूरी के ही निर्माण की अनुमति दे दी गई थी। > साथ ही उन्होंने राष्ट्रमंडल खेल गांव को मिली मंजूरी पर भी सवाल उठा दिया. इस > बीच* *दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कहा है कि यमुना नदी के > बिल्कुल किनारे बने अक्षरधाम मंदिर को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने > मंजूरी दी थी। > > *पर्यावरणविद* राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे अवैध तरीके से अक्षरधाम मंदिर > और राष्ट्रमंडल खेल गांव दोनों के बनने का लगातार विरोध कर रहे > हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे नदी के आस-पास के पर्यावरण को नुकसान > पहुंचेगा। राजेंद्र सिंह जब खेलगांव के सामने महीनों धरने पर बैठे थे तब > आते-जाते फुरसत मिलने पर मैं भी बस से उतरकर उनके साथ बैठता था. लेकिन तब वो > आवाजें दबा दी गई थी. क्या मुल्क में ऐसा कोई स्तम्भ है जो संविधान, क़ानून और > जनता के प्रति जवाबदेह है, जो सम्बंधित सरकारी नुमाइंदे से ये सवाल पूछे कि इसे > अनजाने में की गई गलती मामकर कैसे माफ़ किया जाए जब महीनों सैकड़ों > पर्यावारंविद धरने पर बैठकर विरोध करते रहे. > > *लेकिन* जयराम रमेश ने यह क्यों कहा कि अब अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल > गांव को ढहाया नहीं जा सकता। जब 10 रुपये की चोरी के लिए मुल्क़ के एक मामूली > आदमी को संविधान और क़ानून के उल्लंघन करने के लिए सज़ा सुनाई जा सकती है, > दिल्ली के विकास और यहाँ की नागरिक सुविधाएँ बहाल करने में बड़ी भूमिका > निभानेवाले गरीब मजदूरों की झुग्गी-झोपड़ियों पर यदि बुलडोजर चलाया जा सकता > है, तो मुल्क़ के क़ानून की किताब में दर्ज पर्यावरण नीति को नज़रंदाज़ कर > बनाए गए किसी अवैध ढाँचे को ढहाकर उस गलती को दुरुस्त क्यों नहीं किया जा सकता, > भले वह कोई मंदिर या खेल गांव ही क्यों न हो. > > > अक्षरधाम > मंदिर, दिल्ली *मुल्क़ *में लोकतंत्र को यदि बचाना है तो दिल्ली और देश की > जनता को यह जवाब चाहिए कि क्या अवैध तरीके से झुग्गी बनाना यदि अप्राद है और > उसे तोड़ा जा सकता है तो अवैध रूप से बनाए गए अक्षरधाम मंदिर और खेलगांव को > क्यों नहीं? इस सवाल का जावाब कौन देगा? मुल्क़ की कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, > न्यायपालिका या प्रेस? > > *मुल्क़* की आम जनता जानती है कि राजग सरकार के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवानी के > हस्तक्षेप के बाद आनन-फानन में तमाम कायदे-क़ानून को ताक पर रख कर पहले दिल्ली > में यमुना किनारे की ज़मीन पर युद्ध स्तर पर अक्षरधाम मंदिर बना दिया गया और > उसके बाद कॉमनवेल्थ खेल गाँव. मंदिर बनने से पहले बुनियादी सुविधाओं से वंचित > रहनेवाला यह इलाका अक्षरधाम मंदिर और खेलगाँव बनने के बाद आज चमक गया है. > > *यमुना *के किनारे जिस ज़मीन पर अवैध रूप से बना है यह अक्षरधाम > मंदिर वहां मेरे आँखों के सामने हरी-हरी ताज़ी सब्जियां उपजती थीं, जिन्हें > दिल्लीवाले खरीदकर सेहत बनाते थे, आज दिल्ली के एक बड़े पर्यटन स्थल में तब्दील > हो चुका है. इसी तरह घोटाले कर बनाए गए खेल गाँव के फ्लैटों पर दिल्ली के > विधायकों और बड़े-बड़े नौकरशाहों की नज़र है. तीन-चार करोड़ के बताए जा रहे हैं > ये फ्लैट्स. > > *मैं* पिछले पांच-छः साल से ठीक अक्षरधाम मंदिर के सामने मयूर विहार फेज़-1 > की दिल्ली पुलिस सोसायटी में किराए पर रह रहा हूँ. मेरी छत से दिखता > है अक्षरधाम मंदिर. लेकिन आज तक मैं कभी उसे देखने नहीं गया. इसी तरह, घपले > और घोटाले की ख़बरों के बीच मेरी आँखों के सामने बना है यह खेल गाँव. जब खेल > शुरू हुआ तो गाँव चला गया. नहीं गया देखने एक दिन भी खेल, जो मेरे घर के सामने > हो रहा था. > > *क्योंकि* मैं पर्यावरण का बलात्कार कर बनाए गए दोनों निर्माणों के खिलाफ़ > हूँ. खून खुलता है इन्हें देख कर मेरा. ग़ालिब ने कहा है- "रगों में दौड़ते > फिरने के हम नहीं कायल, जो आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?" दिल्ली, देश > और दुनिया के हर पर्यावरण प्रेमी इंसान का खून खुलना चाहिए! > > *आज* जबकि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश मान लिया है कि अक्षरधाम > मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल गांव को बिना पर्यावरण मंजूरी के ही निर्माण की > अनुमति दे दी गई थी, तो सभी पर्यावरणवादियों को सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए > कि अवैध रूप से बनाए गए ये दोनों निर्माण ढहाए जाने चाहिए. क्योंकि पर्यावरण का > सवाल यमुना नदी की संस्कृति ही नहीं दिल्ली, देश के लोकतंत्र से जुड़ा एक अहम > सवाल है, और मानव सभ्यता से जुड़ा हुआ एक गंभीर मसला भी. > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jan 9 20:55:53 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 9 Jan 2011 20:55:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkleClgCDgpLjgpLDgpJXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkvuCkteCkp+CkvuCkqCEg4KS14KSw4KWN4KSy4KWN4KSh?= =?utf-8?b?4KSs4KWI4KSC4KSVIOCkleClhyDgpKrgpY3gpLDgpK7gpYHgpJYg4KSw?= =?utf-8?b?4KWJ4KSs4KSw4KWN4KSfIOCknOCkvOCli+Ckj+CksuCkv+CklSDgpLk=?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkhiDgpLDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgiE=?= Message-ID: हिन्दुस्तान की सरकार सावधान! वर्ल्डबैंक के प्रमुख रॉबर्ट ज़ोएलिक हिन्दुस्तान आ रहे हैं! - शशिकांत *हिन्दुस्तान की सरकार सावधान! * *कोई किसी के पास आता है तो अपनी ग़रज से आता है! * *वर्ल्डबैंक के प्रमुख* रॉबर्ट ज़ोएलिक सोमवार यानि 10 जनवरी से अपनी चार दिवसीय यात्रा पर हिन्दुस्तान तसरीफ ला रहे हैं. ज़ोएलिक इस दौरान बुनियादे ढांचे के विकास और भारत के साथ परस्पर सहयोग को मज़बूत बनाने की कोशिशें करेंगे. इस दौरान वे बिहार की यात्रा करेंगे और वहां महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे कुछ स्वयं सहायता समूहों के सदस्यों से भी मिलेंगे. *अपनी* चार दिवसीय हिन्दुस्तान यात्रा पर निकलने से पहले वर्ल्ड बैंक के प्रमुख रॉबर्ट ज़ोएलिक ने मक्खन लगाते हुए कहा है कि विश्व आर्थिक विकास के फ़लक पर भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है. उन्होंने यह भी कहा है कि हिन्दुस्तान का आर्थिक विकास दुनिया को मंदी के दौर से उबरने में मदद कर रहा है. *विश्व अर्थव्यवस्था में *हिन्दुस्तान की यह भूमिका घरेलू स्तर पर उसके हालातों और सफलताओं की तारीफ़ करते हुए रॉबर्ट ज़ोएलिक ने कहा, ''विकासशील अर्थव्यवस्थाएं मुश्किल के इस दौर में आर्थिक विकास की धूरी हैं. भारत की यह भूमिका उसकी आगे की रणनीति, पर्यावरण और विकास के तालमेल और सभी लोगों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने की क्षमता पर निर्भर करेगी.'' *काबिलेग़ौर है कि* हिन्दुस्तान अप्रैल 2012 से शुरु हो रही 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भारी निवेश की रुपरेखा तैयार कर रहा है और इस प्रक्रिया में विश्व बैंक की अहम भूमिका है. अपनी हिन्दुस्तान यात्रा के दौरान ज़ोएलिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया से मिलेंगे. *हिन्दुस्तान की या*त्रा से ऐन पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की तारीफ़ में दिए गए विश्व बैंक के प्रमुख* *रॉबर्ट ज़ोएलिक के इस बयान को तो आपने सुन लिया लेकिन बीते 18 दिसंबर 2010 को बीबीसी को दिए गए उनके बयान को भी सुन लीजिये! उस दिन उन्होंने चेतावनी दी थी कि अमीर देशों की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाओं को बेहतर स्थिति में लाने की कोशिशों से दुनियाभर के विकासशील देशों का नुकसान होगा. उन्होंने कहा था कि विकसित देशों की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को संभालने की कोशिशों का असर विकासशील देशों को मिलने वाले अनुदानों पर पड़ेगा. *काबिलेग़ौर है कि* विश्व बैंक प्रमुख ने बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बचाने की कोशिशों से विकासशील देशों को होने वाले नुकसान के बारे में चेताते हुए कहा था कि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को बचाने के लिए जिस तरह से पैसा दिया जा रहा है उससे विकासशील देशों को अपने खर्चों और ज़रूरतों के लिए बाज़ार से चंदा या अनुदान जुटा पाने में दिक्कतें आएंगीं. *इस सिलसिले में *उन्होंने सीधे तौर पर दो तरह के ख़तरों की ओर इशारा किया था- पहला यह कि, आर्थिक संकट के कारण दुनियाभर में उस पैसे की उपलब्धता में कमी आएगी जिसे अभी तक मानवीय आधार पर दिया जाता रहा है. यानी मानवीय आधार पर जो पैसा बड़े दानदाताओं की ओर से ग़रीब देशों को मिलता रहा है, उसमें कमी आएगी. और दूसरा यह कि दुनिया के कई देशों में उपजे बेरोज़गारी के संकट ने इस ख़तरे को और दोगुना कर दिया है. अच्छे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अब दान देने के लिए हाथ खुला रखने के बजाय रक्षात्मक मुद्रा में आ गए हैं. *बड़े आर्थिक पैकेजों पर* सीधा सवाल खड़ा करते हुए विश्व बैंक प्रमुख ने यह भी कहा है कि बाज़ारों की स्थिति सुधारने के लिए जिस तेज़ी से और जितनी बड़ी मात्रा में पैसा तेज़ी लाने के लिए डाला जा रहा है वो उन्हीं वजहों में परिणीत हो सकता है जिसके चलते आज की आर्थिक संकट की स्थिति पैदा हुई है. *अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार,* 2010-2011 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 8.8 फ़ीसदी तक होगी. हिन्दुस्तान का आर्थिक विकास दुनिया को मंदी के दौर से उबरने में मदद करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है- यह वर्ल्ड बैंक और विश्विक आर्थिक मंदी से जूझ रही दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाएं भलीभांति जान रही हैं इसलिए हिन्दुस्तान की सरकार सावधान हो जाओ, क्योंकि वर्ल्ड बैंक के प्रमुख रॉबर्ट ज़ोएलिक सोमवार यानि 10 जनवरी से अपनी चार दिवसीय यात्रा पर हिन्दुस्तान तसरीफ ला रहे हैं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jan 10 14:51:09 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 10 Jan 2011 14:51:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSXIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWJ4KS4IOCkleCkviDgpK7gpYHgpJXgpL7gpKzgpLLgpL4g4KSV?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkq+Ckv+CkleCljeCkuCDgpKTgpYsg4KSo4KS54KWA?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpeCkvj8=?= Message-ID: श्वेता तिवारी के बिग बॉस सीजन चार जीतने के बाद एडमॉल के बिग बॉस - बिगर तमाशा का अंत हुआ। श्वेता के हिस्से एक करोड़ रुपए आए और बाकि बचे लोग जो बिग बॉस के घर का हिस्सा बने थे, उन्हें भी पहचान और पैसा मिला। एक प्रतिभागी ने कैमरे के सामने स्वीकार किया। पहले जो लोग मिलने को भी तैयार नहीं थे, बिग बॉस में आने के बाद पहचानने लगे हैं। भाव देते हैं। http://ashishanshu.blogspot.com/2011/01/blog-post_10.html -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jan 11 00:04:51 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 11 Jan 2011 00:04:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSIIOCksOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSkLeCkrOCkv+CksOCkvuCkpCDgpJXgpKzgpYsg4KSs4KS+4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KS44KSwIOCkleClhyDgpKzgpJzgpL7gpLXgpYcg4KSy4KS+4KSXcyA=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSw4KWH?= Message-ID: *भोजपुरी लोकगीतों के बीच की सामाजिकता और बदलाव की बेचैनी का स्वर साधे रहनेवाले बालेश्वर अब हमारे बीच नहीं रहे। हममे से जो लोग उन्हें बचपन से सुनते आए हैं, आज जीवन के अलग-अलग हिस्सों के संदर्भ नये सिरे से याद आ रहे हैं। किसी ने उन्हें लट्टू नचाने के दौरान सुना तो किसी ने पड़़ोस के घर से आनेवाली आवाज के पीछे अपने कान धर दिए तो किसी ने समाज को समझने में किताबों के पीछे आंख फोड़ने के बजाय लोकगीतों के जरिए कुछ अक्ल-बुद्धि के तत्व खोजने में लग गए। वालेश्वर को लेकर युवा आलोचक सत्यानंद निरुपम की यादें इन्हीं पड़ावों और संदर्भों से चक्कर काटती हुई आज सुबह तड़ते मोहल्लाlive तक जा पहुंची। बालेश्वर हम सबको याद आ रहे हैं लेकिन उस याद के बीच कोई टूट-फूट रह जाए और उसे पिरोने की जरुरत पड़ जाए,इस नीयत से उनकी पोस्ट दीवान के पाठकों से साझा कर रहा हूं- * * * * ♦ सत्यानंद निरूपम आधी रात तक या उसके बाद भी जागने की आदत उसी उम्र में लगी थी, जिस उम्र में पड़ोस के घर में बालेसर के गीत बजने शुरू हुए थे। हुआ यह था कि पड़ोस के बाबा किसानी करने और बैलगाड़ी हांकने से तंग आकर या नये तरह के धंधे में ज्यादा आमदनी की उम्मीद से एक ‘लाउडस्पीकर मशीन’ खरीद लाये थे। जी हां, हम इसी नाम से उस बाजा को जानते थे। एक गोल-गोल घूमने वाली मशीन होती थी, जिस पर काला-काला तवा चढ़ा दिया जाता था, और भोंपू से आवाज बड़ी टनकदार निकलती। गांव-जवार भर गनगना जाता। लगता कि रेडियो से सच में बड़ा बाजा है यह! और उसी बाजे से सुना था बालेसर का गीत। “अई अई अई अई…” से शुरू होने वाले ज्यादातर गीतों में अपने याद रह जाने वाली पंक्तियां बस दो गीतों की ही रहीं – “दहेज कुर्सी मेज मांगे मंगरू” और “आरा हिले बलिया हिले छपरा हिलेला”। उम्र तब इतनी ही थी कि आरा, बलिया और छपरा के हिलने की बात समझ में नहीं आती थी। लेकिन जाने इन पंक्तियों में या उस आवाज में क्या दुर्निवार आकर्षण था कि जीवन की तमाम आपाधापी में भी आज सब कुछ जस-का-तस जेहन में उभर आया है। रात आधी से कुछ अधिक बीती थी। अविनाश ने पूछा कि “आपने बालेश्‍वर के गाने सुने हैं?” मैं बड़ा खुश हुआ। यह सोच कर कि अब इसके बाद ये कोई लिंक चैट बॉक्स में चेपेंगे, जिस पर जाने के बाद बालेसर का गाना मिल जाएगा। ऐसा वो अक्सरहां करते हैं। कभी मेरे अनुरोध पर, कभी अपने उत्साह और स्नेहवश। मैंने खुश-खुश लिखा, “हां, खूब। लेकिन बचपन में। कहां है? सुनाइए। मैं तो बहुत ढूंढ़ चुका हूं।” उधर से जवाब मिला, “आज उनका निधन हो गया।” और सनाका खाया हुआ मैं… केवल यही पूछ सका, “बालेश्वर जिंदा थे?” तब अचानक इस बात पर भी ध्यान गया कि आज तक जिसे मैं बचपन के अभ्यासवश बालेसर-बालेसर जपता रहता था, उनका असल का नाम तो बालेश्वर ही रहा होगा, जिसे अविनाश ने अनायास ठीक करवा दिया। और हाय रे भोजपुरिया समाज की सामंती धरती!!! ‘छन्नू मिसिर’ जी महाराजगंज गाने आये तो छन्नू महाराज आसे हैं। भले ही उनका गाया कितना कुछ बुझाया या नहीं बुझाया। मीसरी दूबे आलाप भरें तो ‘बाबा गावतानिं’, ‘रामपरकास मिसिर’ ‘पें-पां’ करें तो उनका मजाक उड़ाने के बावजूद जनता बोले कि ‘मिसिर जी गावतानिं’, लेकिन जब बालेसर का गाना बजे, जब ‘लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर’ बकलोल से बकलोल मानुष भी ‘बाह रे बाह’ करने लगे – तब भी जनता बोले कि “बलेसरा ह? बड़ बढ़िया भाई!” कभी बालेसर या बालेश्वर सुना ही नहीं। बाबा की संस्कारी भाषा में, “ई रात-बिरात कबो बालेसर के बजावे लागs तारे, आदमी कब सुतो, कब उठो?”, सुन कर ही बालेसर कहने का अभ्यास बन गया कम से कम। खैर… बालेश्वर जिंदा थे, मुझे कम से कम यह तथ्य मालूम नहीं था। न किसी से चर्चा में सुना था, न किसी ने पूछने पर कभी बताया। होश की उम्र आने से पहले ही तवे वाली मशीन का जमाना ‘टेप रेकार्डर’ ने खत्म कर दिया और तवे में चढ़े गीत तवे में ही जाने कब कैसे बिला गये। कहीं कैसेट नहीं मिला बिहार, यूपी के बाजार में। जहां भी कम से कम मैंने ढूंढा। उनके चाहने वाले हजार मिले, उनको सहेजने वाला कोई एक न मिला। जिस जिस तरह की किंवदंतियां उनके बारे में सुनने को अब भी भोजपुरीभाषी लोगों से जब-तब मिल जाती हैं, उसने एक तरह से आश्वस्त कर दिया था कि बालेसर कब के गुजर चुके हैं। पूछने पर सुनने को भी यही मिलता, “का जाने, मर बिला गईल होई अब त ना त कुछ मालूम चालित ना!” असमय विस्मृति के शिकार इस महान गायक को अगर मैं लोकगायक कहूं, तो कुछ लोग लोकगायक की शास्त्रीय परिभाषा की याद दिलाने लगेंगे। लेकिन मैं कहना चाहता हूं। चाहे आप कहें कि मैं भावुक हो रहा हूं। दहेज के जिस मायालोक को मैंने जरा सी बुद्धि होते ही देखना-बूझना शुरू कर दिया था, उसका मजाक उड़ाते पहली बार सुना बालेसर को। घूस के खिलाफ गाना सुना बालेसर का। और इन दोनों के प्रति जो वितृष्णा का भाव मन में बैठ गया, उसका सारा क्रेडिट मैं बालेसर को दे रहा हूं। और क्या करता है भला एक लोकगायक! भोजपुरिया इलाके में सामंती ठसक और वर्चस्ववादियों की नाजायज हरकतों की विरोध करने वाला कलाकार कभी बहुत पनप नहीं पाया, पनप भी गया तो शायद-संयोग से। लेकिन तब भी उसे स्मृति लोप का शिकार बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा बबुआनों ने। मुझे लगता रहा है कि बालेसर उसी के शिकार हुए। या बदलते बाजार में ‘फिट’ नहीं हो पाने की मार खा गये बालेसर? या उनकी अपार लोकप्रियता और अकूत नैसर्गिक क्षमता की वाजिब परवाह नहीं की कैसेट बनाने-बेचने वाली कंपनियों ने? मुझे ठीक-ठीक कुछ नहीं मालूम। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि भोजपुरी समाज जिस कलाकार पर कभी भी, कहीं भी गर्व कर सकता था, उसके जीते-जी उसकी एक तरह से नाकद्री ही की और अब हमेशा के लिए खो दिया… रात गहरी है, न हसिंगार और बेला की गंध फूट रही है किसी ओर से, न बालेसर की खनकती आवाज रिस रही है किसी दिशा से… * * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Tue Jan 11 00:06:44 2011 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 11 Jan 2011 00:06:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSIIOCksOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSkLeCkrOCkv+CksOCkvuCkpCDgpJXgpKzgpYsg4KSs4KS+4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KS44KSwIOCkleClhyDgpKzgpJzgpL7gpLXgpYcg4KSy4KS+4KSXcyA=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSw4KWH?= In-Reply-To: References: Message-ID: http://mohallalive.com/2011/01/10/satyanand-nirupam-on-baleshwar-yadav/ 2011/1/11 vineet kumar > *भोजपुरी लोकगीतों के बीच की सामाजिकता और बदलाव की बेचैनी का स्वर साधे > रहनेवाले बालेश्वर अब हमारे बीच नहीं रहे। हममे से जो लोग उन्हें बचपन से सुनते > आए हैं, आज जीवन के अलग-अलग हिस्सों के संदर्भ नये सिरे से याद आ रहे हैं। > किसी ने उन्हें लट्टू नचाने के दौरान सुना तो किसी ने पड़़ोस के घर से आनेवाली > आवाज के पीछे अपने कान धर दिए तो किसी ने समाज को समझने में किताबों के पीछे > आंख फोड़ने के बजाय लोकगीतों के जरिए कुछ अक्ल-बुद्धि के तत्व खोजने में लग गए। > वालेश्वर को लेकर युवा आलोचक सत्यानंद निरुपम की यादें इन्हीं पड़ावों और > संदर्भों से चक्कर काटती हुई आज सुबह तड़ते मोहल्लाlive तक जा पहुंची। बालेश्वर > हम सबको याद आ रहे हैं लेकिन उस याद के बीच कोई टूट-फूट रह जाए और उसे पिरोने > की जरुरत पड़ जाए,इस नीयत से उनकी पोस्ट दीवान के पाठकों से साझा कर रहा हूं- > > * > * > * > * > > ♦ सत्यानंद निरूपम > > आधी रात तक या उसके बाद भी जागने की आदत उसी उम्र में लगी थी, जिस उम्र में > पड़ोस के घर में बालेसर के गीत बजने शुरू हुए थे। हुआ यह था कि पड़ोस के बाबा > किसानी करने और बैलगाड़ी हांकने से तंग आकर या नये तरह के धंधे में ज्यादा > आमदनी की उम्मीद से एक ‘लाउडस्पीकर मशीन’ खरीद लाये थे। जी हां, हम इसी नाम से > उस बाजा को जानते थे। एक गोल-गोल घूमने वाली मशीन होती थी, जिस पर काला-काला > तवा चढ़ा दिया जाता था, और भोंपू से आवाज बड़ी टनकदार निकलती। गांव-जवार भर > गनगना जाता। लगता कि रेडियो से सच में बड़ा बाजा है यह! और उसी बाजे से सुना था > बालेसर का गीत। “अई अई अई अई…” से शुरू होने वाले ज्यादातर गीतों में अपने याद > रह जाने वाली पंक्तियां बस दो गीतों की ही रहीं – “दहेज कुर्सी मेज मांगे > मंगरू” और “आरा हिले बलिया हिले छपरा हिलेला”। उम्र तब इतनी ही थी कि आरा, > बलिया और छपरा के हिलने की बात समझ में नहीं आती थी। लेकिन जाने इन पंक्तियों > में या उस आवाज में क्या दुर्निवार आकर्षण था कि जीवन की तमाम आपाधापी में भी > आज सब कुछ जस-का-तस जेहन में उभर आया है। रात आधी से कुछ अधिक बीती थी। अविनाश > ने पूछा कि “आपने बालेश्‍वर के गाने सुने हैं?” मैं बड़ा खुश हुआ। यह सोच कर कि > अब इसके बाद ये कोई लिंक चैट बॉक्स में चेपेंगे, जिस पर जाने के बाद बालेसर का > गाना मिल जाएगा। ऐसा वो अक्सरहां करते हैं। कभी मेरे अनुरोध पर, कभी अपने > उत्साह और स्नेहवश। मैंने खुश-खुश लिखा, “हां, खूब। लेकिन बचपन में। कहां है? > सुनाइए। मैं तो बहुत ढूंढ़ चुका हूं।” उधर से जवाब मिला, “आज उनका निधन हो > गया।” और सनाका खाया हुआ मैं… केवल यही पूछ सका, “बालेश्वर जिंदा थे?” > > तब अचानक इस बात पर भी ध्यान गया कि आज तक जिसे मैं बचपन के अभ्यासवश > बालेसर-बालेसर जपता रहता था, उनका असल का नाम तो बालेश्वर ही रहा होगा, जिसे > अविनाश ने अनायास ठीक करवा दिया। और हाय रे भोजपुरिया समाज की सामंती धरती!!! > ‘छन्नू मिसिर’ जी महाराजगंज गाने आये तो छन्नू महाराज आसे हैं। भले ही उनका > गाया कितना कुछ बुझाया या नहीं बुझाया। मीसरी दूबे आलाप भरें तो ‘बाबा > गावतानिं’, ‘रामपरकास मिसिर’ ‘पें-पां’ करें तो उनका मजाक उड़ाने के बावजूद > जनता बोले कि ‘मिसिर जी गावतानिं’, लेकिन जब बालेसर का गाना बजे, जब ‘लिख > लोढ़ा, पढ़ पत्थर’ बकलोल से बकलोल मानुष भी ‘बाह रे बाह’ करने लगे – तब भी जनता > बोले कि “बलेसरा ह? बड़ बढ़िया भाई!” कभी बालेसर या बालेश्वर सुना ही नहीं। > बाबा की संस्कारी भाषा में, “ई रात-बिरात कबो बालेसर के बजावे लागs तारे, आदमी > कब सुतो, कब उठो?”, सुन कर ही बालेसर कहने का अभ्यास बन गया कम से कम। खैर… > > बालेश्वर जिंदा थे, मुझे कम से कम यह तथ्य मालूम नहीं था। न किसी से चर्चा > में सुना था, न किसी ने पूछने पर कभी बताया। होश की उम्र आने से पहले ही तवे > वाली मशीन का जमाना ‘टेप रेकार्डर’ ने खत्म कर दिया और तवे में चढ़े गीत तवे > में ही जाने कब कैसे बिला गये। कहीं कैसेट नहीं मिला बिहार, यूपी के बाजार में। > जहां भी कम से कम मैंने ढूंढा। उनके चाहने वाले हजार मिले, उनको सहेजने वाला > कोई एक न मिला। जिस जिस तरह की किंवदंतियां उनके बारे में सुनने को अब भी > भोजपुरीभाषी लोगों से जब-तब मिल जाती हैं, उसने एक तरह से आश्वस्त कर दिया था > कि बालेसर कब के गुजर चुके हैं। पूछने पर सुनने को भी यही मिलता, “का जाने, मर > बिला गईल होई अब त ना त कुछ मालूम चालित ना!” > > असमय विस्मृति के शिकार इस महान गायक को अगर मैं लोकगायक कहूं, तो कुछ लोग > लोकगायक की शास्त्रीय परिभाषा की याद दिलाने लगेंगे। लेकिन मैं कहना चाहता हूं। > चाहे आप कहें कि मैं भावुक हो रहा हूं। दहेज के जिस मायालोक को मैंने जरा सी > बुद्धि होते ही देखना-बूझना शुरू कर दिया था, उसका मजाक उड़ाते पहली बार सुना > बालेसर को। घूस के खिलाफ गाना सुना बालेसर का। और इन दोनों के प्रति जो > वितृष्णा का भाव मन में बैठ गया, उसका सारा क्रेडिट मैं बालेसर को दे रहा हूं। > और क्या करता है भला एक लोकगायक! भोजपुरिया इलाके में सामंती ठसक और > वर्चस्ववादियों की नाजायज हरकतों की विरोध करने वाला कलाकार कभी बहुत पनप नहीं > पाया, पनप भी गया तो शायद-संयोग से। लेकिन तब भी उसे स्मृति लोप का शिकार बनाने > में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा बबुआनों ने। मुझे लगता रहा है कि बालेसर उसी के > शिकार हुए। या बदलते बाजार में ‘फिट’ नहीं हो पाने की मार खा गये बालेसर? या > उनकी अपार लोकप्रियता और अकूत नैसर्गिक क्षमता की वाजिब परवाह नहीं की कैसेट > बनाने-बेचने वाली कंपनियों ने? मुझे ठीक-ठीक कुछ नहीं मालूम। लेकिन मैं इतना > जानता हूं कि भोजपुरी समाज जिस कलाकार पर कभी भी, कहीं भी गर्व कर सकता था, > उसके जीते-जी उसकी एक तरह से नाकद्री ही की और अब हमेशा के लिए खो दिया… > > रात गहरी है, न हसिंगार और बेला की गंध फूट रही है किसी ओर से, न बालेसर की > खनकती आवाज रिस रही है किसी दिशा से… > > > * > * > * > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Jan 11 21:32:47 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 11 Jan 2011 21:32:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWM4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpLzgpLLgpKQg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiDgpK7gpL7gpJPgpLXgpL7gpKbgpYA/?= Message-ID: कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? साथियो, bbchindi.com ने "माओवादियों की उगाही" शीर्षक से ख़बर दी है, "नक्सलियों के सबसे मज़बूत गढ़ माने जानेवाले छत्तीसगढ़ में व्यवसायी ही नहीं सरकारी अधिकारी भी जान के डर से माओवादियों को पैसे देते हैं" मित्रो, हिंदुस्तान की पब्लिक व्यवसाइयों की जमाखोरी, सरकारी अधिकारियों की हरामखोरी, व्यवस्थापिका के नुमाइंदों की लूट, भ्रष्ट न्यायपालिका और मीडिया की काली करतूतों से तबाह है. इसलिए, कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? और हाँ, दोगले नहीं, सच्चे गांधीवादियों को छोड़ दें तो वे कौन लोग हैं जो माओवाद का विरोध कर रहे हैं?मनमोहनोमिक्स के कुछ हिमायती माफिया, बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के दलाल चिदंबरम के कुछ दलाल, दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों-शहरों का सुविधाभोगी ब्राह्मणवादी, जातिवादी, मध्यवर्ग यानि उत्तर औपनिवेशिक हिंदुस्तान में मज़े ले रहे मुट्ठी भर हरामखोर लोग! इन सबके सताए बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी माओवादियों के साथ हैं. किसी को कोई आपत्ति? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Tue Jan 11 23:37:34 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 11 Jan 2011 23:37:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWM4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpLzgpLLgpKQg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiDgpK7gpL7gpJPgpLXgpL7gpKbgpYA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: ये किस किस्‍म की पोस्‍ट है। सिनिकल तथा विमर्श या संवाद की किसी संभावना से रहित। दीवान को डस्‍टबिन समझे जाने पर हमारी आपत्ति दर्ज समझी जाए। विजेंद्र 2011/1/11 shashi kant > > कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? > > साथियो, > > bbchindi.com ने "माओवादियों की उगाही" शीर्षक से ख़बर दी है, "नक्सलियों के > सबसे मज़बूत गढ़ माने जानेवाले > छत्तीसगढ़ में व्यवसायी ही नहीं सरकारी अधिकारी भी जान के डर से माओवादियों को > पैसे देते हैं" मित्रो, हिंदुस्तान > की पब्लिक व्यवसाइयों की जमाखोरी, सरकारी अधिकारियों की हरामखोरी, > व्यवस्थापिका के नुमाइंदों की लूट, भ्रष्ट > न्यायपालिका और मीडिया की काली करतूतों से तबाह है. > इसलिए, कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? > > और हाँ, दोगले नहीं, सच्चे गांधीवादियों को छोड़ दें तो वे कौन लोग हैं जो > माओवाद का विरोध कर रहे हैं?मनमोहनोमिक्स के कुछ हिमायती माफिया, > बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के दलाल चिदंबरम के कुछ दलाल, दिल्ली, मुंबई और > अन्य महानगरों-शहरों का सुविधाभोगी ब्राह्मणवादी, जातिवादी, मध्यवर्ग यानि > उत्तर औपनिवेशिक हिंदुस्तान में मज़े ले रहे मुट्ठी भर हरामखोर लोग! > > इन सबके सताए बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी माओवादियों के साथ हैं. किसी को कोई > आपत्ति? > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Jan 12 12:41:41 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 12 Jan 2011 12:41:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSy4KSV4KWN4KS34KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSjIOCksOClh+CkluCkviDgpI/gpJUg4KSX4KS54KSw4KWAIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSc4KS/4KS2IOCkueCliA==?= Message-ID: *मीडिया *की जो शक्ल आज हमारे सामने है,उस संदर्भ में मीडिया की लक्ष्मण रेखा या फिर मीडिया एथिक्स की बात करना एक साजिश का हिस्सा है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं,वे दरअसल मीडिया को बेहतर करने के बजाय उनके भीतर हो रही भारी गड़बड़ियों और लगभग अपराध की श्रेणी में आनेवाली गतिविधियों पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। यह बहुत ही सीधा सवाल है कि आज जो मीडिया अपने को मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में अपना रजिस्ट्रेशन कराकर बाजार में शेयर जारी करने के लिए बेचैन है,उसके लिए मीडिया एथिक्स की बात किस हिसाब से की जा सकती है? जो मीडिया फिक्की और सेवी जैसी संस्थाओं से अपने उपर मीडिया और मनोरंजन उद्योग की मुहर लगवाने के लिए तत्पर है,उसके साथ आज से चालीस-पचास साल पहले की मीडिया छवि को जोड़कर, महज भावनात्मक और नैतिक आधार पर विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? आज जब मीडिया खुद को बिजनेस और उद्योग की शक्ल में बदलने और उसके ही जैसा मजबूत होने के लिए हर संभव तरीके अपना रहा हो तो जरुरी है कि मीडिया विश्लेषण के काम में जुटे लोगों को न केवल विश्लेषण के तरीके बदल देने चाहिए बल्कि उन्हें मीडिया के साथ उन्हीं शर्तों को लागू करने की बात की जानी चाहिए,जिस क्षेत्र की तरफ वह अपने को विकसित कर रहा है। मेरी अपनी समझ है कि आज मीडिया बिजनेस और कार्पोरेट के पैटर्न पर काम कर रहा है, इसलिए उस पर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया-बिजनेस एथिक्स की शर्तें लागू की जानी चाहिए। ** *पी.साईनाथ ने अपने लेख ‘दि रिपब्लिक ऑन ए बनाना पील’(दि हिन्दू 3 दिसंबर 2010) में साफ तौर पर लिखा है कि आज मीडिया कार्पोरेट के साथ नहीं बल्कि खुद कार्पोरेट होकर काम कर रहा है और कार्पोरेट का सहयोग और समर्थन करके एक तरह से अपना ही समर्थन कर रहा होता है। इस स्थिति में हम देखें तो मौजूदा मीडिया को दोहरा लाभ हमें किसी भी हाल में लेने से रोकना चाहिए। अपने लगातार प्रसार के लिए वह तमाम तरह की रणनीतियां बिजनेस और मार्केटिंग की तर्ज पर तैयार करता है और जैसे ही इन नीतियों में वह असफल होता है या फिर किसी तरह की अड़चने आती है,तब-तब वह अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ या अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मुहावरे का प्रयोग कर एक ऐसा मौहाल तैयार करने की कोशिश करता है कि विश्लेषण और आलोचना में जुटे लोग अपने पक्ष छोड़कर उसके बचाव में उतर आएं।* न्यूज चैनलों के मामले में ऐसी स्थिति बार-बार बनती है जब उसकी कंटेंट के स्तर पर आलोचना की जाती है,तब वह अपने को बाजार,टीआरपी और विज्ञापन के आगे विवश बतलाता है। इतना ही नहीं मेनस्ट्रीम मीडिया का एक वर्ग ऐसा है जो कि खुलेआम बाजार के आगे अपने को मजबूर करार देता है( सीएनएन-आइबीएन के एडीटर इन चीफ *राजदीप सरदेसाई* लगातार इस वाक्य का प्रयोग करते आए हैं) लेकिन जैसे ही उस पर सहमतियों को लेकर हमले होते हैं,उस हमले को तुरंत लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला करार दे दिया जाता है। आज जो लोग मीडिया की लक्ष्मण रेखा पर बहस करते हुए सक्रिय नजर आ रहे हैं,वे या तो मीडिया की इस मौजूदा शक्ल से या तो पूरी तरह अंजान हैं या फिर सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध करते हुए भी व्यावहारिक तौर पर इसका समर्थन कर रहे हैं। अगर मीडिया की लक्ष्मण रेखा के ध्वस्त होने की ही बात करनी है तो फिर वह साल 2010 ही क्यों,उस साल से बात क्यों नहीं शुरु की जानी चाहिए जब पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन और आकाशवाणी ने समाज के एक खास वर्ग के साथ दुर्व्यवहार किया,उस समय से क्यों नहीं करनी चाहिए जब इस माध्यम का उपयोग सरकार ने विपक्ष को बतौर देशद्रोह साबित करने के लिए किया या फिर उस समय से क्यों नहीं किया जाना चाहिए,जिस समय सामाजिक विकास के इरादे से माध्यम की शुरुआत की गई औऱ जिसे आगे चलकर प्रोपेगेंडा,सत्ता,राजनीति और राजस्व हासिल करने के अखाड़े के तौर पर तब्दील कर दिया गया? मीडिया की लक्ष्मण रेखा तब भी पूरी तरह ध्वस्त हुई थी जब शिक्षा और सूचना के प्रसार के लिए भारतीय उपग्रह को लांच किया गया और मुनाफे के लिए ट्रांसपांडर को सीएनएन जैसे चैनल को किराये पर दिया गया? यह बात विवादास्पद जरुर हो सकती है कि अगर इस देश में मीडिया की लक्ष्मण रेखा निर्धारित करने औऱ उसके भीतर ही रहकर काम करने की परंपरा रही है तो उस लक्ष्मण रेखा को लगातार ध्वस्त करके मीडिया को आगे बढ़ाने की भी परंपरा कम मजबूत नहीं है,उनके भी अपने गहरे निशान हैं। मौजूदा दौर में जब मीडिया की लक्ष्मण रेखा टूटने की बात की जा रही है तो एक भ्रामक स्थिति पैदा हो रही है कि जैसे अब तक मीडिया की लक्षमण रेखा टूटी ही नहीं हो? वैसे लक्ष्मण रेखा शब्द का प्रयोग अपने आप में कम विवादास्पद नहीं है और कोशिश हो कि इस शब्द का प्रयोग जल्द से जल्द बंद कर देनी चाहिए। आज जब हम स्त्री अस्मिता को मजबूती देने की बात करते हैं,खुलेपन और अपने को अभिव्यक्त करने की बात करते हैं,उस अर्थ में लक्ष्मण रेखा शब्द अपने-आप उसके विरोध में चला जाता है। लेकिन अगर इसका अर्थ मानवीयता,सरोकार और संवेदनशीलता के स्तर पर सक्रिय पत्रकारिता और मीडिया से लिया जाता है तो यह बात हमें बिना किसी दुविधा के स्वीकार करनी चाहिए कि मौजूदा मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसकी नींव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौरान पड़ी थी,अनिवार्य रुप से इस लक्ष्मण रेखा को ध्वस्त करके ही पड़ी थी। व्यवहार के स्तर पर यह पत्रकारिता के सैद्धांतिक रुप से बहुत आगे निकल चुका था लेकिन विश्लेषण के स्तर पर तब भी वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही बना हुआ था। *राबर्ट डब्ल्यू मैनचेस्नी* ने इस दौरान विकसित होनेवाले ग्लोबल मीडिया के चरित्र को पहचानने के क्रम में उन्होंने सबसे पहले इसी बात पर जोर दिया कि मार्केट और बिजनेस आधारित मीडिया हमें ऑडिएंस के बजाय कन्ज्यूमर के तौर पर देखता है। ऐसे में वह हमसे नागरिक सुविधा की बात कैसे कर सकता है?( दि ग्लोबल मीडियाः दि न्यू मिशनरीज ऑफ कार्पोरेट कैपिटलिज्म,पेज नं-190)। मीडिया विश्लेषण में उस समय की भारी भूल थी कि उसे एथिक्स के तहत ही देखा-समझा जाता रहा,जबकि उसे उसी समय मीडिया बिजनेस एथिक्स की शर्तों पर लाया जाना चाहिए था। ऐसा होने से अतिरिक्त आग्रह के बजाय लोगों के बीच मीडिया को वास्तविक और ठीक-ठीक रुप में देखने की समझ विकसित हो पाती। ऐसा न करके विश्लेषण की धार भोथरी करने का काम हुआ है। आज बीस-बाइस साल बाद जबकि मीडिया की शक्ल अपने शुरुआती दौर से कहीं ज्यादा जटिल,बर्बर और विद्रूप हो चुका है,इसे नैतिकता और लक्ष्मण रेखा के खांचे में रखकर देखना एक खतरनाक स्थिति की ओर ले जाता है। यह काम कितनी बारीकी से किन्तु एक सोची-समझी रणनीति के तहत की जा रही है,इसे हाल की हुई घटना पर सरसरी तौर पर नजर डालने से स्पषट हो जाता है। 22-27 नवम्बर 2010 को अंग्रेजी में छपनेवाली ओपन पत्रिका ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में लाबिइस्ट नीरा राडिया का भी हाथ होने के साथ यह भी बता गया कि उसके साथ बातचीत में देश के कुछ प्रमुख मीडियाकर्मी भी शामिल हैं और जिसमें बरखा दत्त( मैनेजिंग एडीटर NDTV24X7) और वीर सांघवी( काउंटर प्वाइंट नाम से हिन्दुस्तान टाइम्स में कॉलम लिखनेवाले पत्रकार और एचटी के एडीटोरियल एडवायजर) का नाम प्रमुखता से लिया गया। पत्रिका के संपादक मनु जोसफ ने टेप की बातचीत को प्रकाशित करते हुए लिखा कि समूचा मीडिया इस मामले में बहुत ही रणनीतिक फैसले के तहत चुप रहा लेकिन अब भारतीय पत्रकारिता का पवित्र समझा जानेवाला चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। 29 नबम्वर 2010 वाले अंक में अंग्रेजी की आउटलुक पत्रिका ने भी इसी मसले पर अंक निकाला और इस मामले में मीडियाकर्मियों के नाम आने की बात कही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया 2G स्पेक्ट्रम मामले को पहले से ही कवर कर रहा था लेकिन मीडिया के मामले में पूरी तरह खामोश था। पत्रिका में बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम आने से मीडिया जगत में हंगामा मच गया। सबसे पहले सीएनएन-आइबीएन पर करन थापर ने दि लास्ट वर्ड शो में इस पर चर्चा शुरु की जिसमें कि बरखा दत्त और वीर सांघवी को भी बुलाया गया और दोनों ने आने से मना कर दिया। मनु जोसेफ ने इस बातचीत में साफ तौर पर कहा कि यह मामला सिर्फ मीडिया एथिक्स का नहीं है। NDTV24X7 के सीइओ नारायण राव ने आधिकारिक तौर पर मेल जारी करते हुए इस पूरे मामले को आधारहीन बताया लेकिन 30 नबम्बर 2010 को रात 10 बजे बरखा दत्त ने NDTV24X7 पर खुद आधे घंटे के शो में अपनी बात रखी और प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों के सामने “एरर ऑफ जजमेंट” शब्द का प्रयोग किया। जाहिर यह बरखा दत्त ने नीरा राडिया के साथ जो भी और जिस अंदाज में बातचीत की थी,उसे सिर्फ एरर ऑफ जजमेंट के तहत नहीं रखा जा सकता था। बहरहाल संजय बारु(बिजनेस स्टैन्डर्ड के संपादक) ने कहा कि लाइफ में हम सबसे गलतियां होती रहती है,बरखा जस्ट से सॉरी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स का मामला बनाने में सबसे जोरदार तरीके की कोशिश इस दिन हुई और गलती हो जाने की स्थिति में भी इसे आपसी समझौते के तहत सुलझा लेने का मामला बनाया जाने लगा। 1 दिसंबर 2010 को हेडलाइंस टुडे ने इसी मसले पर रात 9 बजे एक शो किया। इस शो में प्रभु चावला को भी शामिल किया गया क्योंकि आगे टेप में उनकी भी बातचीत शामिल थी। इस शो में भी यही रवैया रहा और दि हिन्दू के संपादक एन.राम ने प्रभु चावला को क्लीन चिट दे दी। 3 दिसंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से इसी मामले पर बातचीत रखी गयी और राजदीप सरदेसाई ने एडीटर्स गिल्ड की तरफ से बात करते हुए कहा कि यह सच है कि कुछ पत्रकारों ने मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघी है। उन्होंने वो किया है जो कि उन्हें नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह खेल का छोटा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा है कि कैसे कार्पोरेट चीजों को अपने मुताबिक बदलना चाहता है और हम उनके आगे मजबूर हैं। राजदीप सरदेसाई के लक्ष्मण रेखा शब्द के इस्तेमाल किए जाने के बाद 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, नीरा राडिया और मीडिया प्रकरण के संदर्भ में यह शब्द एक मुहावरे की तरह चल निकला और अधिकांश अखबारों और चैनलों ने इस पूरे मामले के संदर्भ में इसका प्रयोग किया। उसी रात आजतक चैनल ने प्राइम टाइम पर मीडिया की लक्ष्मण रेखा नाम से आधे घंटे की स्टोरी चलायी। बाकी के चैनलों ने भी इसी तरह के आसपास शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया। इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि लगभग सभी चैनलों ने इसे मीडिया एथिक्स का मामला बताकर जिन-जिन पत्रकारों के नाम आए,उन सबों को परिचर्चा के दौरान क्लीन चिट दे दी लेकिन चैनल और मीडिया संस्थान खुद एक-एक करके उनके अधिकारों में या तो कटौती करने लग गए या फिर उन्हें अपनी संस्थान से अलग हो जाने का संकेत दिया। एनडीटीवी ने बरखा दत्त की सोशल साइट से नाम गायब होने लग गए। वीर सांघवी ने 27 नबम्वर 2010 को हिन्दुस्तान टाइम्स में अपना आखिरी कॉलम काउंटर पार्ट लिखते हुए कहा कि जब दिन सामान्य होगें तो फिर से लिखना शुरु करेंगे। इसी कॉलम को हिन्दुस्तान में हिन्दी अनुवाद करके छापा गया। इसके साथ ही पद में कटौती कर दी गयी। इधर एन राम से क्लीन चिट मिल जाने के बाद 11 दिसंबर 2010 को प्रभु चावला ने इंडिया टुडे ग्रुप से इस्तीफा दे दिया। वेबसाइट पर जो खबरें प्रकाशित हुई उसके अनुसार इस प्रकरण के बाद प्रभु चावला को जाने के संकेत मिलने लगे थे। सवाल है कि इन मीडियाकर्मियों ने अपने संस्थान से मुक्त करने या उनके दायरे में कटौती करनी शुरु कर दी तो क्या यह सिर्फ उनकी ओर से लक्ष्मण रेखा का पार किया जाना था? अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,मीडिया के लिए लक्ष्मण रेखा बहुत ही मामूली शब्द है जिसे कि काम करते हुए दिनभर में एक न एक बार इसकी सीमा लांघ ही ली जाती है। कार्पोरेट मीडिया का ढांचा ही ऐसा है कि वह इसे लांघे अस्तित्व में बने नहीं रह सकता। इसलिए जो भी लोग इसे एक घटना का हिस्सा मानकर इसके भीतर ही रहने की बात करते हैं,वे दरअसल मीडिया की वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करने की साजिश रचते हैं। अगर मीडिया कार्पोरेट औऱ बाजार की जमीन पर खड़ा है तो उसकी सजा उसी जमीन पर दी जानी चाहिए न कि नैतिकता और कोरी उपदेशात्मक धरातल पर। आज मीडिया के लिए यह सब बहुत मायने नहीं रखते,इस आधार पर विश्लेषण करनेवाले लोगों को बौद्धिक विमर्श के दायरे में तो अपनी सक्रिय होने का मौका जरुर मिल जाता है लेकिन अगर गंभीरता से नतीजे पर बात करें तो वे जिन चीजों के प्रतिरोध में खड़े होते हैं,वह उनके समर्थन में काम करने लग जाता है। आज के संदर्भ में यही हो रहा है। मीडियाकर्मियों को भी विश्लेषकों के साथ सुर में सुर मिलाकर मीडिया एथिक्स और लक्ष्मण रेखा पर बात करना इसलिए अच्छा लग रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि इसका व्यावहारिक रुप कुछ नहीं है,हां यह मीडिया के भीतर की संडाध पर मोटे पर्दे के तौर पर ढंकने के काम जरुर आ जा रहा है। मूलतःप्रकाशित "पाखी" पत्रिका जनवरी 2011 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jan 12 14:44:49 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 12 Jan 2011 14:44:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWM4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpLzgpLLgpKQg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiDgpK7gpL7gpJPgpLXgpL7gpKbgpYA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: विजेंद्र भाई, हिंदुस्तान की सरकार, पुलिस और अदालत की निगाह में लूट तंत्र, अन्याय और अत्याचार का विरोध करने वाला सिनिकल है. 'देशद्रोही' विमर्श कर रहा है चाहे वे अरुंधति रॉय हों या विनायक सेन या और भी बहुत से प्रतारित लोग. तभी तो इनसे संवाद न करके इन्हें जेल में डाला जा रहा है. इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? 2011/1/11 Vijender chauhan > ये किस किस्‍म की पोस्‍ट है। सिनिकल तथा विमर्श या संवाद की किसी संभावना से > रहित। दीवान को डस्‍टबिन समझे जाने पर हमारी आपत्ति दर्ज समझी जाए। > > विजेंद्र > > 2011/1/11 shashi kant > >> >> कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >> >> साथियो, >> >> bbchindi.com ने "माओवादियों की उगाही" शीर्षक से ख़बर दी है, "नक्सलियों के >> सबसे मज़बूत गढ़ माने जानेवाले >> छत्तीसगढ़ में व्यवसायी ही नहीं सरकारी अधिकारी भी जान के डर से माओवादियों >> को पैसे देते हैं" मित्रो, हिंदुस्तान >> की पब्लिक व्यवसाइयों की जमाखोरी, सरकारी अधिकारियों की हरामखोरी, >> व्यवस्थापिका के नुमाइंदों की लूट, भ्रष्ट >> न्यायपालिका और मीडिया की काली करतूतों से तबाह है. >> इसलिए, कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >> >> और हाँ, दोगले नहीं, सच्चे गांधीवादियों को छोड़ दें तो वे कौन लोग हैं जो >> माओवाद का विरोध कर रहे हैं?मनमोहनोमिक्स के कुछ हिमायती माफिया, >> बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के दलाल चिदंबरम के कुछ दलाल, दिल्ली, मुंबई और >> अन्य महानगरों-शहरों का सुविधाभोगी ब्राह्मणवादी, जातिवादी, मध्यवर्ग यानि >> उत्तर औपनिवेशिक हिंदुस्तान में मज़े ले रहे मुट्ठी भर हरामखोर लोग! >> >> इन सबके सताए बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी माओवादियों के साथ हैं. किसी को कोई >> आपत्ति? >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jan 12 14:46:59 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 12 Jan 2011 14:46:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWM4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpLzgpLLgpKQg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiDgpK7gpL7gpJPgpLXgpL7gpKbgpYA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: विजेंद्र भाई, हिंदुस्तान की सरकार, पुलिस और अदालत की निगाह में लूट तंत्र, अन्याय और अत्याचार का विरोध करने वाला सिनिकल है. 'देशद्रोही' विमर्श कर रहा है चाहे वे अरुंधति रॉय हों या विनायक सेन या और भी बहुत से प्रतारित लोग. तभी तो इनसे संवाद न करके इन्हें जेल में डाला जा रहा है. इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? 2011/1/11 Vijender chauhan > ये किस किस्‍म की पोस्‍ट है। सिनिकल तथा विमर्श या संवाद की किसी संभावना से > रहित। दीवान को डस्‍टबिन समझे जाने पर हमारी आपत्ति दर्ज समझी जाए। > > विजेंद्र > > 2011/1/11 shashi kant > >> >> कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >> >> साथियो, >> >> bbchindi.com ने "माओवादियों की उगाही" शीर्षक से ख़बर दी है, "नक्सलियों के >> सबसे मज़बूत गढ़ माने जानेवाले >> छत्तीसगढ़ में व्यवसायी ही नहीं सरकारी अधिकारी भी जान के डर से माओवादियों >> को पैसे देते हैं" मित्रो, हिंदुस्तान >> की पब्लिक व्यवसाइयों की जमाखोरी, सरकारी अधिकारियों की हरामखोरी, >> व्यवस्थापिका के नुमाइंदों की लूट, भ्रष्ट >> न्यायपालिका और मीडिया की काली करतूतों से तबाह है. >> इसलिए, कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >> >> और हाँ, दोगले नहीं, सच्चे गांधीवादियों को छोड़ दें तो वे कौन लोग हैं जो >> माओवाद का विरोध कर रहे हैं?मनमोहनोमिक्स के कुछ हिमायती माफिया, >> बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के दलाल चिदंबरम के कुछ दलाल, दिल्ली, मुंबई और >> अन्य महानगरों-शहरों का सुविधाभोगी ब्राह्मणवादी, जातिवादी, मध्यवर्ग यानि >> उत्तर औपनिवेशिक हिंदुस्तान में मज़े ले रहे मुट्ठी भर हरामखोर लोग! >> >> इन सबके सताए बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी माओवादियों के साथ हैं. किसी को कोई >> आपत्ति? >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Wed Jan 12 15:06:54 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 12 Jan 2011 15:06:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWM4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpLzgpLLgpKQg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkueCliOCkgiDgpK7gpL7gpJPgpLXgpL7gpKbgpYA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: दोस्‍त शशिकांत, नहीं मित्र न तो मैं सरकार, न पुलिस न ही अदालत हूँ। इनसे उतना ही त्रस्‍त हूँ जितने आप, पर तब भी यह पोस्‍ट सिनीसिज्‍म ही दिखती है... खेद है। सिनीसिज्‍म न होता तो क्‍यों आपको एक ही जवाब सात बार पोस्‍ट करना पड़ता। :) खैर आप तय करें कि क्‍या आपकी पोस्‍ट किसी संवाद को आमंत्रित करती है या नहीं। बाकी आप एक ही बार जवाब देंगे तो भी वह पढ़ा जाएगा... यकीन रखें :) विजेंद्र 2011/1/12 shashi kant > > विजेंद्र भाई, > हिंदुस्तान की सरकार, पुलिस और अदालत की निगाह में लूट तंत्र, अन्याय और > अत्याचार का विरोध करने वाला सिनिकल है. 'देशद्रोही' विमर्श कर रहा है चाहे > वे अरुंधति रॉय हों या विनायक सेन या और भी बहुत से प्रतारित लोग. तभी तो इनसे > संवाद न करके इन्हें जेल में डाला जा रहा है. इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? > 2011/1/11 Vijender chauhan > >> ये किस किस्‍म की पोस्‍ट है। सिनिकल तथा विमर्श या संवाद की किसी संभावना से >> रहित। दीवान को डस्‍टबिन समझे जाने पर हमारी आपत्ति दर्ज समझी जाए। >> >> विजेंद्र >> >> 2011/1/11 shashi kant >> >>> >>> कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >>> >>> साथियो, >>> >>> bbchindi.com ने "माओवादियों की उगाही" शीर्षक से ख़बर दी है, "नक्सलियों >>> के सबसे मज़बूत गढ़ माने जानेवाले >>> छत्तीसगढ़ में व्यवसायी ही नहीं सरकारी अधिकारी भी जान के डर से माओवादियों >>> को पैसे देते हैं" मित्रो, हिंदुस्तान >>> की पब्लिक व्यवसाइयों की जमाखोरी, सरकारी अधिकारियों की हरामखोरी, >>> व्यवस्थापिका के नुमाइंदों की लूट, भ्रष्ट >>> न्यायपालिका और मीडिया की काली करतूतों से तबाह है. >>> इसलिए, कौन कहता है ग़लत कर रहे हैं माओवादी? >>> >>> और हाँ, दोगले नहीं, सच्चे गांधीवादियों को छोड़ दें तो वे कौन लोग हैं जो >>> माओवाद का विरोध कर रहे हैं?मनमोहनोमिक्स के कुछ हिमायती माफिया, >>> बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के दलाल चिदंबरम के कुछ दलाल, दिल्ली, मुंबई और >>> अन्य महानगरों-शहरों का सुविधाभोगी ब्राह्मणवादी, जातिवादी, मध्यवर्ग यानि >>> उत्तर औपनिवेशिक हिंदुस्तान में मज़े ले रहे मुट्ठी भर हरामखोर लोग! >>> >>> इन सबके सताए बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी माओवादियों के साथ हैं. किसी को कोई >>> आपत्ति? >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From zaighamimam at gmail.com Fri Jan 14 10:46:33 2011 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Fri, 14 Jan 2011 10:46:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkh+CkguCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+IOCkh+CkqOCljeCkteClh+CkuOCljeCkn+ClgOCklw==?= =?utf-8?b?4KWH4KSfIiDgpIbgpJwg4KSw4KS+4KSkIDExIOCkrOCknOClhyDgpKs=?= =?utf-8?b?4KWJ4KSV4KWN4KS4IOCkueCkv+CkuOCljeCkn+CljeCksOClgCDgpKo=?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: दोस्तों, फॉक्स हिस्ट्री एंड एंटरटेनमेंट पर आज रात 11.00 बजे से एक नई सीरीज़ 'इंडिया इन्वेस्टीगेट' शुरू हो रही है। यह कार्यक्रम भारत के उन चर्चित हत्याकांड/आपराधिक घटनाओं पर है जिन्हें काफी मीडिया हाइप मिला (उदाहरण के तौर पर जेसिका लाल केस) ये शो मूलत: पुलिस/सीबीआई की पड़ताल पर आधारित और इस बात का खुलासा करेगा कि आखिर वो कौन से क्लू या फिर सबूत थे जिनकी वजह से अपराधी को सजा मिली। शो पूरी तरह से पुलिस की चार्जशीट और कोर्ट के फैसलों पर बेस्ड है। इसमें नैरेटर के तौर पर घटना की जांच करने वाला ऑफिसर भी मौजूद है जिसके जरिए कहानी आगे बढ़ती है। शो का स्क्रीन प्ले और स्क्रिप्ट मैंने लिखी है साथ ही एपीसोड डॉयरेक्टर की भूमिका में भी हूं। रिपीट टेलीकास्ट के बारे में जानकारी हासिल करने या फिर आज के एपीसोड के ज्यादा विवरणों के लिए नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग करें. http://www.foxhistory.com/tv-schedule शुक्रिया ज़ैगम From ravikant at sarai.net Fri Jan 14 12:04:02 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 14 Jan 2011 12:04:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSv4KSVIOCkuOClh+CkqCDgpJXgpYcg4KS44KS+4KSl?= Message-ID: <4D2FEE5A.8020301@sarai.net> soochanarth. muaf kiijiye ye angrezi mein hi aaya hai. ravikant * * *ARTISTS IN SOLIDARITY WITH DR BINAYAK SEN* An afternoon of cultural protest by artists, musicians, poets, film directors and writers against the persecution of Dr Binayak Sen will be held on 15th January at Jantar Mantar from 2-7 PM under the banner of ‘Artists for Human Rights’. Among those participating are well-known filmmakers, musicians, singers, poets and students bands from colleges and universities in Delhi. *Filmmakers:* *Aparna Sen, Gautam Ghose and Sudhir Mishra * *Musicians:* *Rabbi Shergill, Susmit Bose and Dhruv Sangari* *Poets and writers:* *Ashok Vajpeyi, K.Satchidanandan, Kumarnarain, Mangalesh Dabral, Gagan Gill, Sanjay Kundan, Teji Grover, Khursheed Alam, Mukul Priyadarshini and Gauhar Raza. * *Bands:* *Imphal Talkies, Sangwari and other students bands* All are invited to come and attend the protest. * * *For further information contact: * */Satya Sivaraman: Ph: 9818514952/* */Apoorvanand: 27662146/* */Manisha Sethi: 9811625577/* From ravikant at sarai.net Fri Jan 14 12:05:46 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 14 Jan 2011 12:05:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSu4KS24KWH?= =?utf-8?b?4KSwIOCknOCkqOCljeCkruCktuCkpOClgCDgpIbgpK/gpYvgpJzgpKg=?= Message-ID: <4D2FEEC2.1010100@sarai.net> ---- Forwarded message ---------- From: *Sudhir Suman* > Date: 2011/1/13 Subject: shamsher To: pranay srivastava > *_आमंत्रण_* *शमशेर जन्मशती आयोजन* 21 -22 जनवरी 2011 (शुक्रवार व शनिवार) गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली 21 जनवरी *पहला सत्र* (2 बजे दिन से) शमशेर का रिकॉर्डेड काव्यपाठ अशोक भौमिक निर्मित कविता पोस्टर और कवि रमाशंकर विद्रोही के पहले कविता संग्रह 'नई खेती' का लोकार्पण *शमशेर और मेरा कविकर्म* अध्यक्षता- कुंवर नारायण, संचालन- अच्युतानंद मिश्र वक्ता : गिरिधर राठी, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, इब्बार रब्बी, असद जैदी, शोभा सिंह, त्रिनेत्र जोशी, अनामिका, मनमोहन, मदन कश्यप, शुभा, पंकज चतुर्वेदी *दूसरा सत्र* (5 :30 बजे शाम ) अध्यक्षता- इब्बार रब्बी , संचालन- आशुतोष कुमार गिरिधर राठी, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, दिनेश कुमार शुक्ल, निर्मला गर्ग, कुबेर दत्त, असद जैदी, शोभा सिंह, त्रिनेत्र जोशी, लीलाधर मंडलोई, अनामिका, मनमोहन, मदन कश्यप, शुभा, देवी प्रसाद मिश्र, रमाशंकर यादव 'विद्रोही', मंगलेश डबराल, कृष्ण कल्पित, रंजीत वर्मा और पंकज चतुर्वेदी का काव्य पाठ 22 जनवरी *पहला सत्र* *शमशेर की कविता* (11 बजे दिन से ) अध्यक्षता- विश्वनाथ त्रिपाठी , संचालन- भाषा सिंह वक्ता- राजेंद्र कुमार, अजय सिंह, सुरेश सलिल, गोबिंद प्रसाद, आशुतोष कुमार *दूसरा सत्र **शमशेर का गद्य *(1 :30 बजे दिन ) From ravikant at sarai.net Fri Jan 14 16:03:39 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 14 Jan 2011 16:03:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvOiDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX?= =?utf-8?b?IOCkj+Ckl+CljeCksOClgOCkl+Clh+Ckn+CksA==?= Message-ID: <4D302683.5050108@sarai.net> पढ़ें, इस्तेमाल करें, मज़े लें। रविकान्त ---- लालित्य: हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर लालित्य ब्लॉग एग्रीगेटर लालित्य (www.lalitkumar.in/agr) एक नया हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर है। यह मेरे लिए तो नया नहीं हैं क्योंकि मैं इसे अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए काफ़ी समय से इस्तेमाल करता आ रहा हूँ। हिन्दी में हज़ारों की संख्या में ब्लॉग्स लिखे जाते हैं लेकिन उनमें केवल कुछ सौ ब्लॉग्स ही गुणवत्ता के पैमानों पर कुछ हद तक खरे उतरते हैं। अब से पहले जो भी ब्लॉग एग्रीगेटर रहे हैं (जैसे कि नारद, ब्लॉगवाणी, चिठ्ठाजगत आदि) उन्होनें अपने काम को बखूबी अंजाम दिया और हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की; लेकिन ये सभी बंद हो गए। मुझे ये एग्रीगेटर्स अधिक पसंद नहीं थे क्योंकि इन पर हज़ारों ब्लॉग्स रजिस्टर्ड थे और मैं जब भी इन एग्रीगेटर्स पर जाता था तो मुझे नई पोस्ट्स की एक बाढ़ आई हुई दिखाई देती थी। पता ही नहीं चलता था कि क्या पढ़ने लायक है और क्या नहीं। इतना समय मेरे पास नहीं होता कि मैं रोज़ पचास पोस्ट्स खोलकर देखूं। इसलिए मैंने अपने ख़ुद के लिए एक अलग एग्रीगेटर बना लिया। इसमें मैनें केवल वही ब्लॉग्स संकलित किये जो मुझे पसंद थे। इससे मुझे कम समय लगाकर अच्छी पोस्ट्स पढ़ने में सुविधा होने लगी। हालहि में मैनें देखा कि चिठ्ठाजगत बड़ी बुरी हालत में पँहुच गया है। मुझे नहीं पता कि इसकी वर्तमान हालत के पीछे क्या कारण हैं और ये भी नहीं पता कि यह बंद हो चुका है या नहीं। मुझे लगा कि जब मेरे पास लालित्य बना-बनाया रखा है और चल भी रहा है तो क्यों ना इसे सार्वजनिक प्रयोग के लिए खोल दिया जाए। मैनें लालित्य को सबके प्रयोग हेतु उपयुक्त बनाने के लिए इसके कोड में कुछ बदलाव किए और इसे सार्वजनिक कर दिया लेकिन इसकी आधारभूत परिकल्पना पहले जैसी ही है। इसमें अभी भी मैं केवल और केवल ऐसे ही ब्लॉग्स संकलित कर रहा हूँ जो अच्छे हैं। अब लालित्य के संदर्भ में “अच्छे ब्लॉग” की परिभाषा को जान लेना भी ज़रूरी है। किसी भी ब्लॉग को संकलित करने से पहले मैं यह देखता हूँ कि ब्लॉग कितना पुराना है और कितनी नियमितता के साथ उस पर सामग्री पोस्ट होती है। लगातार अपडेट होने वाले ब्लॉग लालित्य के लिए उपयुक्त हैं। रुके हुए या बहुत कम अपडेट होने वाले ब्लॉग्स के संबंध में मैं यह मान लेता हूँ कि उस ब्लॉग के लेखक अपने लेखन को अधिक गंभीरता से नहीं लेते (यह बात आपको ग़लत लग सकती है लेकिन मेरा अनुभव यही कहता है)। इसके बाद मैं यह देखता हूँ कि ब्लॉग पर क्या लिखा जाता है और उसकी गुणवत्ता कैसी है। मैं उन ब्लॉग्स को विशेष महत्व देता हूँ जो ऐसे विषयों के बारे में लिखे जिन पर अन्य ब्लॉग्स बहुत कम लिखते हैं (जैसे कि विज्ञान)। सामग्री को देखकर मैं लेखक के उत्साह, रुचि और सक्रियता को भी आंकने की कोशिश करता हूँ। इस सबके बाद मैं लालित्य में उस ब्लॉग को संकलित करने या ना करने के बारे में कोई निर्णय लेता हूँ। लालित्य आपके लिए कई मायनों में लाभकर है क्योंकि * यह आपको अच्छी सामग्री तक आसानी से पँहुचने में सहायता करता है * गुणवत्ता में कमतर सामग्री आपके समक्ष नहीं आती * जब भी आप लालित्य पर आते हैं तो आपको नए पोस्ट्स अपेक्षाकृत कम मिलते हैं –इससे आपको क्या पढ़ना है –यह चयन करने में आसानी होती है लालित्य एक एग्रीगेटर है और यह केवल संकलन का काम ही काम करता है। अच्छी सामग्री को एकत्र करके आपके सामने रखना लालित्य का एकमात्र काम है। * इसका रूप-रंग एकदम सीधा-सादा है * यह आपको लॉगिन करने को नहीं कहता * यह किसी भी पोस्ट को पसंद किए जाए का विकल्प नहीं देता। इसलिए सभी पोस्ट समान स्तर पर बनी रहती हैं (यदि आपको कोई पोस्ट पसंद आई है तो आप उसके ब्लॉग पर एक अच्छी टिप्पणी करके अपनी पसंद ज़ाहिर कर सकते हैं।) लालित्य में मैं कुछ सुविधाएँ भविष्य में जोडूंगा जिनका मकसद केवल इतना होगा कि आप अपनी पसंदीदा जानकारी तक और शीघ्रता से पँहुच सकें। लालित्य का उद्देश्य हिन्दी के हज़ारों ब्लॉग्स को संकलित करने का नहीं है। लालित्य केवल उन 500 ब्लॉग्स को संकलित करेगा जो सबसे अच्छे होंगे। लालित्य को भीड़ नहीं गुणवत्ता चाहिए। आशा है कि आपको लालित्य पसंद आ रहा है। आपके अनुरोध है कि इसके बारे में अन्य लोगो को बताकर या अपने ब्लॉग पर इसके बारे में लिखकर अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दें। यदि आपके ब्लॉग पर लालित्य की विजेट नहीं है तो आप विजेट को लगा सकते हैं –इसके लिए कोड आपको लालित्य की साइट (www.lalitkumar.in/agr) पर मिल जाएगा। *लालित्य (www.lalitkumar.in/agr ) एक नया हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर है।* यह मेरे लिए तो नया नहीं हैं क्योंकि मैं इसे अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए काफ़ी समय से इस्तेमाल करता आ रहा हूँ। हिन्दी में हज़ारों की संख्या में ब्लॉग्स लिखे जाते हैं लेकिन उनमें *केवल कुछ सौ ब्लॉग्स ही गुणवत्ता के पैमानों पर कुछ हद तक खरे उतरते हैं।* अब से पहले जो भी ब्लॉग एग्रीगेटर रहे हैं (जैसे कि नारद, ब्लॉगवाणी, चिठ्ठाजगत आदि) उन्होनें अपने काम को बखूबी अंजाम दिया और हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की; लेकिन ये सभी बंद हो गए। मुझे ये एग्रीगेटर्स अधिक पसंद नहीं थे क्योंकि इन पर हज़ारों ब्लॉग्स रजिस्टर्ड थे और मैं *जब भी इन एग्रीगेटर्स पर जाता था तो मुझे नई पोस्ट्स की एक बाढ़ आई हुई दिखाई देती थी। पता ही नहीं चलता था कि क्या पढ़ने लायक है और क्या नहीं। इतना समय मेरे पास नहीं होता कि मैं रोज़ पचास पोस्ट्स खोलकर देखूं।* इसलिए मैंने अपने ख़ुद के लिए एक अलग एग्रीगेटर बना लिया। इसमें मैनें केवल वही ब्लॉग्स संकलित किये जो मुझे पसंद थे। इससे मुझे कम समय लगाकर अच्छी पोस्ट्स पढ़ने में सुविधा होने लगी। हालहि में मैनें देखा कि चिठ्ठाजगत बड़ी बुरी हालत में पँहुच गया है। मुझे नहीं पता कि इसकी वर्तमान हालत के पीछे क्या कारण हैं और ये भी नहीं पता कि यह बंद हो चुका है या नहीं। *मुझे लगा कि जब मेरे पास लालित्य बना-बनाया रखा है और चल भी रहा है तो क्यों ना इसे सार्वजनिक प्रयोग के लिए खोल दिया जाए।* मैनें लालित्य को सबके प्रयोग हेतु उपयुक्त बनाने के लिए इसके कोड में कुछ बदलाव किए और इसे सार्वजनिक कर दिया लेकिन इसकी आधारभूत परिकल्पना पहले जैसी ही है। इसमें अभी भी मैं केवल और केवल ऐसे ही ब्लॉग्स संकलित कर रहा हूँ जो अच्छे हैं। अब लालित्य के संदर्भ में *“अच्छे ब्लॉग” की परिभाषा* को जान लेना भी ज़रूरी है। किसी भी ब्लॉग को संकलित करने से पहले मैं यह देखता हूँ कि ब्लॉग कितना पुराना है और कितनी नियमितता के साथ उस पर सामग्री पोस्ट होती है। लगातार अपडेट होने वाले ब्लॉग लालित्य के लिए उपयुक्त हैं। रुके हुए या बहुत कम अपडेट होने वाले ब्लॉग्स के संबंध में मैं यह मान लेता हूँ कि उस ब्लॉग के लेखक अपने लेखन को अधिक गंभीरता से नहीं लेते (यह बात आपको ग़लत लग सकती है लेकिन मेरा अनुभव यही कहता है)। इसके बाद मैं यह देखता हूँ कि ब्लॉग पर क्या लिखा जाता है और उसकी गुणवत्ता कैसी है। मैं उन ब्लॉग्स को विशेष महत्व देता हूँ जो ऐसे विषयों के बारे में लिखे जिन पर अन्य ब्लॉग्स बहुत कम लिखते हैं (जैसे कि विज्ञान)। सामग्री को देखकर मैं लेखक के उत्साह, रुचि और सक्रियता को भी आंकने की कोशिश करता हूँ। इस सबके बाद मैं लालित्य में उस ब्लॉग को संकलित करने या ना करने के बारे में कोई निर्णय लेता हूँ। *लालित्य आपके लिए कई मायनों में लाभकर है क्योंकि* * यह आपको अच्छी सामग्री तक आसानी से पँहुचने में सहायता करता है * गुणवत्ता में कमतर सामग्री आपके समक्ष नहीं आती * जब भी आप लालित्य पर आते हैं तो आपको नए पोस्ट्स अपेक्षाकृत कम मिलते हैं –इससे आपको क्या पढ़ना है –यह चयन करने में आसानी होती है *लालित्य एक एग्रीगेटर है और यह केवल संकलन का काम ही काम करता है।* अच्छी सामग्री को एकत्र करके आपके सामने रखना लालित्य का एकमात्र काम है। * इसका रूप-रंग एकदम सीधा-सादा है * यह आपको लॉगिन करने को नहीं कहता * यह किसी भी पोस्ट को पसंद किए जाए का विकल्प नहीं देता। इसलिए सभी पोस्ट समान स्तर पर बनी रहती हैं (यदि आपको कोई पोस्ट पसंद आई है तो आप उसके ब्लॉग पर एक अच्छी टिप्पणी करके अपनी पसंद ज़ाहिर कर सकते हैं।) लालित्य में मैं कुछ सुविधाएँ भविष्य में जोडूंगा जिनका मकसद केवल इतना होगा कि आप अपनी पसंदीदा जानकारी तक और शीघ्रता से पँहुच सकें। लालित्य का उद्देश्य हिन्दी के हज़ारों ब्लॉग्स को संकलित करने का नहीं है। *लालित्य केवल उन 500 ब्लॉग्स को संकलित करेगा जो सबसे अच्छे होंगे।* लालित्य को भीड़ नहीं गुणवत्ता चाहिए। *आशा है कि आपको लालित्य पसंद आ रहा है। आपके अनुरोध है कि इसके बारे में अन्य लोगो को बताकर या अपने ब्लॉग पर इसके बारे में लिखकर अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दें।* *यदि आपके ब्लॉग पर लालित्य की विजेट नहीं है तो आप विजेट को लगा सकते हैं –इसके लिए कोड आपको लालित्य की साइट **(www.lalitkumar.in/agr ) **पर मिल जाएगा।* From ravikant at sarai.net Fri Jan 14 19:06:19 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 14 Jan 2011 19:06:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS24KWN4KSo?= =?utf-8?b?OiDgpLXgpL/gpJXgpL/gpKrgpL/gpKHgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWHIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KS4IOCkuOCkvuCksg==?= Message-ID: <4D305153.3030707@sarai.net> विकिपीडिया के दस साल का जश्न मनाने में हिन्दुस्तानी चाँद राम आगे ही आगे हैं। देखना ये है कि इससे भारतीय भाषा-भाषियों का कुछ फ़ायदा होता है कि नहीं। बहरहाल आप कल आना चाहें तो ज़रूर तशरीफ़ लाएँ. जगह है आईआईटी दिल्ली का सेमिनार हॉल! नीचे के कार्यक्रम में बदलाव मुमकिन है। रविकान्त http://en.wikipedia.org/wiki/Wikipedia_talk:Meetup/Delhi/WikipediaDay2011 Let us start at 11 AM and end the event at 3 PM. 1. Introductions 2. Jimmy's Video and message on the 10th Annivesary of Wikipedia 3. Presentation - Wikipedia, History of Wikipedia [Anirudh Bhati] 4. Your wiki-story - Interactive session [Mod: Srikeit] 5. Hindi Wikipedia and Free Culture [Ravi Kant] 6. Unconference style informal discussions. Lunch 1. Presentation - Wikipedia for Knowledge Production and Writing [Srikeit and Noopur] 2. WikiEducator [Savithri] 3. Presentation - Your first Wikipedia article. [Anirudh Bhati] 4. Presentation - WYSIWYG editors for Wikis [Amit Chaudhary] 5. Editathon 6. Thank you 7. Networking / discussions We need more speakers and each of us will have to speak for atleast 30 minutes. From shashikanthindi at gmail.com Sun Jan 16 03:25:31 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 16 Jan 2011 03:25:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KSVLeCkpw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkl+CksOCljeCksiDgpK7gpL7gpKfgpYHgpLDgpYAg4KSm4KWA?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS34KS/4KSkIOCkleCkuSDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?OiAi4KSc4KWN4KS14KS+4KSH4KSoIOCkruClgCDgpI/gpLXgpLDgpYA=?= =?utf-8?b?4KS14KSoIOCkkeCkqCDgpJ/gpY3gpLXgpL/gpJ/gpLAuIg==?= Message-ID: धक-धक गर्ल माधुरी दीक्षित कह रही हैं: "ज्वाइन मी एवरीवन ऑन ट्विटर." ट्विटर पर माधुरी दीक्षित *धक-धक** करने लगा**.....!* *धक-धक गर्ल *माधुरी दीक्षित के चाहने वालों के लिए एक खुशखबरी! *माधुरी दीक्षित* अब आपके घर, दफ्तर या सफ़र में आपके साथ होंगी! *आपके साथ* वो बातें भी करेंगी, बशर्ते आपके पास लैपटॉप या डेस्कटॉप हो और उसमें नेट कनेक्शन हो. *और हां, *इसके अलावा आपको ट्विटर सोशल नेटवर्किंग साइट का यूजर बनना होगा. *जी हाँ, माधुरी दीक्षित* यानि MadhuriDixit1 पिछले पांच जनवरी 2011 को ट्विटर पर आ गई हैं. *ट्विटर आईडी* में उनका नाम है - माधुरी दीक्षित-नेने. *लोकेशन :* मुंबई एंड डेनवर *अपने बायो में *उन्होंने लिखा है- *"फाइनली आई हैव क्रिएटेड अ ट्विटर आईडी एंड जम्प्ड ऑन द वेब. दिस इज द रीयल माधुरी दीक्षित. सो ज्वाइन मी एवरीवन."* *5 जनवरी 2011* को सुबह 1 बजकर 06 मिनट पर उन्होंने ट्विटर पर वाया वेब अपना पहला ट्विट अंग्रेजी में send किया, *"**For all of my fans, finally I have joined Twitter. Love, Madhuri"* *ट्विटर पर* आये उन्हें अभी महज़ दस दिन हुए हैं और उनके लगभग 50,000 फौलोअर्स हो गए हैं. *आप में से जो कोई* ट्विटर पर माधुरी दीक्षित के फौलोअर्स बनना चाहते हैं वे क्लिक करें < http://twitter.com/MadhuriDixit1 * - शशिकांत* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From aboutsandeep123 at gmail.com Sun Jan 16 13:03:02 2011 From: aboutsandeep123 at gmail.com (sandeep pandey) Date: Sun, 16 Jan 2011 13:03:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KSVLeCkpw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkl+CksOCljeCksiDgpK7gpL7gpKfgpYHgpLDgpYAg4KSm4KWA?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS34KS/4KSkIOCkleCkuSDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?OiAi4KSc4KWN4KS14KS+4KSH4KSoIOCkruClgCDgpI/gpLXgpLDgpYA=?= =?utf-8?b?4KS14KSoIOCkkeCkqCDgpJ/gpY3gpLXgpL/gpJ/gpLAuIg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: @ Shashikant ????!!! 2011/1/16 shashi kant > धक-धक गर्ल माधुरी दीक्षित कह रही हैं: "ज्वाइन मी एवरीवन ऑन ट्विटर." > > > ट्विटर पर माधुरी दीक्षित > *धक-धक** करने लगा**.....!* > *धक-धक गर्ल *माधुरी दीक्षित के चाहने वालों के लिए एक खुशखबरी! > *माधुरी दीक्षित* अब आपके घर, दफ्तर या सफ़र में आपके साथ होंगी! > *आपके साथ* वो बातें भी करेंगी, बशर्ते आपके पास लैपटॉप या डेस्कटॉप हो और > उसमें नेट कनेक्शन हो. > *और हां, *इसके अलावा आपको ट्विटर सोशल नेटवर्किंग साइट का यूजर बनना होगा. > *जी हाँ, माधुरी दीक्षित* यानि MadhuriDixit1 पिछले पांच जनवरी 2011 को > ट्विटर पर आ गई हैं. > *ट्विटर आईडी* में उनका नाम है - माधुरी दीक्षित-नेने. > *लोकेशन :* मुंबई एंड डेनवर > *अपने बायो में *उन्होंने लिखा है- *"फाइनली आई हैव क्रिएटेड अ ट्विटर आईडी > एंड जम्प्ड ऑन द वेब. दिस इज द रीयल माधुरी दीक्षित. सो ज्वाइन मी एवरीवन."* > > *5 जनवरी 2011* को सुबह 1 बजकर 06 मिनट पर उन्होंने ट्विटर पर वाया वेब अपना > पहला ट्विट अंग्रेजी में send किया, *"**For all of my fans, finally I have > joined Twitter. Love, Madhuri"* > *ट्विटर पर* आये उन्हें अभी महज़ दस दिन हुए हैं और उनके लगभग 50,000 > फौलोअर्स हो गए हैं. > *आप में से जो कोई* ट्विटर पर माधुरी दीक्षित के फौलोअर्स बनना चाहते हैं वे > क्लिक करें < http://twitter.com/MadhuriDixit1 > > * - शशिकांत* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Sandeep -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sun Jan 16 13:08:54 2011 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sun, 16 Jan 2011 13:08:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KSVLeCkpw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkl+CksOCljeCksiDgpK7gpL7gpKfgpYHgpLDgpYAg4KSm4KWA?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS34KS/4KSkIOCkleCkuSDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?OiAi4KSc4KWN4KS14KS+4KSH4KSoIOCkruClgCDgpI/gpLXgpLDgpYA=?= =?utf-8?b?4KS14KSoIOCkkeCkqCDgpJ/gpY3gpLXgpL/gpJ/gpLAuIg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: सही कहा है किसी ने किशोर वय का प्रेम आसानी से पीछा नहीं छोड़ता. 2011/1/16 shashi kant > धक-धक गर्ल माधुरी दीक्षित कह रही हैं: "ज्वाइन मी एवरीवन ऑन ट्विटर." > > > > ट्विटर पर माधुरी दीक्षित > *धक-धक** करने लगा**.....!* > *धक-धक गर्ल *माधुरी दीक्षित के चाहने वालों के लिए एक खुशखबरी! > *माधुरी दीक्षित* अब आपके घर, दफ्तर या सफ़र में आपके साथ होंगी! > *आपके साथ* वो बातें भी करेंगी, बशर्ते आपके पास लैपटॉप या डेस्कटॉप हो और > उसमें नेट कनेक्शन हो. > *और हां, *इसके अलावा आपको ट्विटर सोशल नेटवर्किंग साइट का यूजर बनना होगा. > *जी हाँ, माधुरी दीक्षित* यानि MadhuriDixit1 पिछले पांच जनवरी 2011 को > ट्विटर पर आ गई हैं. > *ट्विटर आईडी* में उनका नाम है - माधुरी दीक्षित-नेने. > *लोकेशन :* मुंबई एंड डेनवर > *अपने बायो में *उन्होंने लिखा है- *"फाइनली आई हैव क्रिएटेड अ ट्विटर आईडी > एंड जम्प्ड ऑन द वेब. दिस इज द रीयल माधुरी दीक्षित. सो ज्वाइन मी एवरीवन."* > > *5 जनवरी 2011* को सुबह 1 बजकर 06 मिनट पर उन्होंने ट्विटर पर वाया वेब अपना > पहला ट्विट अंग्रेजी में send किया, *"**For all of my fans, finally I have > joined Twitter. Love, Madhuri"* > *ट्विटर पर* आये उन्हें अभी महज़ दस दिन हुए हैं और उनके लगभग 50,000 > फौलोअर्स हो गए हैं. > *आप में से जो कोई* ट्विटर पर माधुरी दीक्षित के फौलोअर्स बनना चाहते हैं वे > क्लिक करें < http://twitter.com/MadhuriDixit1 > > * - शशिकांत* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Prakash K Ray Research Scholar, Cinema Studies, School of Arts & Aesthetics, Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. 0 987 331 331 5 http://bargad.wordpress.com/ http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Jan 16 22:57:05 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 16 Jan 2011 22:57:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSm4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KS2IOCkuOCli+CkuOCkvuCkr+Ckn+ClgCDgpLngpYAg4KSV4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWL4KSCLCDgpIXgpJXgpY3gpLfgpLDgpKfgpL7gpK4g4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSW4KWH4KSy4KSX4KS+4KSC4KS1IOCkreClgCDgpJfgpL/gpLDgpL4=?= =?utf-8?b?4KSPIOCknOCkvuCkj+CkgiAh?= Message-ID: आदर्श सोसायटी ही क्यों, अक्षरधाम और खेलगांव भी गिराए जाएं ! - शशिकांत * * *मित्रो*, भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने कहा है कि विवादों में घिरी मुंबई स्थित आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी की 31 मंज़िला इमारत का निर्माण अवैध तरीके से किया गया इसलिए पूरी इमारत को गिरा दिया जाना चाहिए. *केंद्रीय पर्यावरण मं*त्री जयराम रमेश का कहना है कि उनके पास तीन विकल्प थे. पहला ये कि इजाज़त के बिना अवैध तौर पर बनाई गई पूरी इमारत को गिरा दिया जाए. दूसरा विकल्प था- आंशिक तौर पर इमारत पर गिरा दिया जाए, और तीसरा, सरकार इमारत पर नियंत्रण करे और बाद में तय करे कि इसका क्या इस्तेमाल करना है. *जयराम रमेश ने *कहा, "यदि दूसरा विकल्प चुना जाता तो इमरात के अवैध निर्माण को जायज़ ठहराए जाने के बराबर होता. तीसरे विकल्प पर चर्चा हुई पर उसका मतलब भी यही होता. इसलिए तथ्यों और परिस्थितियों पर चर्चा के साथ-साथ विश्लेषण करने के बाद मेरा निर्णय है कि पहले विकल्प (यानी पूरी इमारत को गिराने) का फ़ैसला किया जाए." *मित्रो, मेरा कहना है कि* जब अवैध तरीके से बनाया गई आदर्श सोसायटी बिल्डिंग गिराने का फैसला ले सकता है पर्यावरण मंत्रालय तो अवैध तरीके से दिल्ली में यमुना किनारे बनाए गए अक्षरधाम मंदिर और खेलगांव को क्यों नहीं तोडा जा सकता? केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने 7 जनवरी 2011 को यह मान लिया था कि अक्षरधाम मंदिर को बिना पर्यावरण मंजूरी के ही निर्माण की अनुमति दे दी गई थी। साथ ही उन्होंने राष्ट्रमंडल खेल गांव को मिली मंजूरी पर भी सवाल उठाया था. अगले दिन* *दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कहा था कि यमुना नदी के बिल्कुल किनारे बने अक्षरधाम मंदिर को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने मंजूरी दी थी। *पर्यावरणविद* राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे अवैध तरीके से अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेल गांव दोनों के बनने का लगातार विरोध कर रहे थे। पर्यावरणविदों का कहना था कि इससे नदी के आस-पास के पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। राजेंद्र सिंह जब खेलगांव के सामने महीनों धरने पर बैठे थे तब आते-जाते फुरसत मिलने पर मैं भी बस से उतरकर उनके साथ बैठता था. लेकिन तब विरोध की वे आवाजें दबा दी गई थीं. *क्या दुनिया के *सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा कोई स्तम्भ है जो संविधान, क़ानून और जनता के प्रति जवाबदेह है, जो सम्बंधित सरकारी नुमाइंदे से ये सवाल पूछे कि इसे अनजाने में की गई गलती मानकर कैसे माफ़ किया जाए जब महीनों से सैकड़ों पर्यावारण प्रेमी धरने पर बैठकर विरोध करते रहे. *जब* 10 रुपये की चोरी के लिए मुल्क़ के एक मामूली आदमी को संविधान और क़ानून के उल्लंघन करने के लिए सज़ा सुनाई जा सकती है, दिल्ली के विकास और यहाँ की नागरिक सुविधाएँ बहाल करने में बड़ी भूमिका निभानेवाले गरीब मजदूरों की झुग्गी-झोपड़ियों पर यदि बुलडोजर चलाया जा सकता है, तो मुल्क़ के क़ानून की किताब में दर्ज पर्यावरण नीति को नज़रंदाज़ कर बनाए गए किसी अवैध ढाँचे को ढहाकर उस गलती को दुरुस्त क्यों नहीं किया जा सकता, भले वह कोई मंदिर या खेलगांव ही क्यों न हो. *क्या **हिन्दुस्तान में** **लोकतंत्र *अब भी महफूज़ है? यदि है तो दिल्ली और देश की जनता को यह जवाब चाहिए कि क्या अवैध तरीके से झुग्गी-झोपड़ी बनाना यदि अपराध है और उसे तोड़ा जा सकता है तो अवैध रूप से बनाए गए अक्षरधाम मंदिर और खेलगांव को क्यों नहीं? इस सवाल का जावाब कौन देगा? मुल्क़ की कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका या प्रेस? *हिन्दुस्तान * की आम जनता जानती है कि राजग सरकार के स्वकथित "लौहपुरुष" लालकृष्ण आडवाणी के हस्तक्षेप के बाद आनन-फानन में तमाम कायदे-क़ानून को ताक पर रखकर पहले दिल्ली में यमुना किनारे की ज़मीन पर युद्ध स्तर पर अक्षरधाम मंदिर बना दिया गया और उसके बाद कॉमनवेल्थ खेल गाँव. *बुनियादी *सुविधाओं से वंचित रहनेवाला यह इलाका अक्षरधाम मंदिर और खेलगाँव बनने के बाद आज चमक गया है. यमुना* *के किनारे जिस ज़मीन पर अवैध रूप से बना है यह मंदिर वहां मेरे आँखों के सामने हरी-हरी ताज़ी सब्जियां उपजती थीं, जिन्हें दिल्लीवाले खरीदकर सेहत बनाते थे, आज यह दिल्ली के एक बड़े पर्यटन स्थल में तब्दील हो चुका है. इसी तरह घोटाले कर बनाए गए खेलगाँव के फ्लैटों पर दिल्ली के विधायकों और बड़े-बड़े नौकरशाहों की नज़र है. तीन-चार करोड़ के बताए जा रहे हैं ये फ्लैट्स. *मैं* पिछले पांच-छः साल से ठीक अक्षरधाम मंदिर के सामने मयूर विहार फेज़-1 की दिल्ली पुलिस सोसायटी में किराए पर रह रहा हूँ. मेरी छत से दिखता है अक्षरधाम मंदिर. लेकिन आज तक मैं कभी उसे देखने नहीं गया. इसी तरह, घपले और घोटाले की ख़बरों के बीच मेरी आँखों के सामने बना है यह खेल गाँव. जब खेल शुरू हुआ तो गाँव चला गया. नहीं गया देखने एक दिन भी खेल, जो मेरे घर के सामने हो रहा था. *क्योंकि* मैं पर्यावरण का बलात्कार कर बनाए गए दोनों निर्माणों के खिलाफ़ हूँ. दिल्ली, देश और दुनिया के हर पर्यावरण प्रेमी इंसान का खून खौलना चाहिए! * * *आज जबकि *केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अवैध तरीके से बनाई गई आदर्श सोसायटी बिल्डिंग गिराने का फैसला कर लिया है, तो सभी पर्यावरणवादियों को सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए कि अवैध रूप से बनाए गए अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेलगांव ढहाए जाने चाहिए, क्योंकि पर्यावरण का सवाल यमुना नदी की संस्कृति ही नहीं दिल्ली, देश के लोकतंत्र से जुड़ा एक अहम सवाल है, और मानव सभ्यता से जुड़ा हुआ एक गंभीर मसला भी. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Jan 17 22:22:05 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 17 Jan 2011 22:22:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSj4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KSk4KS/4KSl4KS/IOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg4KSu?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KWLIOCkleCliyDgpK/gpL7gpKYg4KSV4KSw4KSk4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KSPIQ==?= Message-ID: *पुण्यतिथि के बहाने मंटो को याद करते हुए!* * मित्रो, 18 जनवरी, यानि आज, मंटो की पुण्यतिथि है। संयोग से इसी साल 11 मई को उनका जन्म शताब्दी साल भी शुरू हो रहा है। **पुण्यतिथि के बहाने मंटो को याद करते हुए यह टिप्पणी दीवान के साथियों के हवाले कर रहा हूँ. इसके कुछ शुरुआती अंश 15 जनवरी 2011 को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली अंक में प्रकाशित हो चुके हैं. शुक्रिया. - शशिकांत * *इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि* कुछ महान शख्सियतें कागज के पन्नों पर इन्सानी जिंदगी, समाज और इतिहास की विडंबनाओं की परतों को उघाड़ने में जितनी माहिर होती हैं उनकी खुद की जिंदगी उन्हें इतना मौका नहीं देती कि वे बहुत ज्यादा वक्त तक लिखते रहें। शख्सियतों की इसी फेहरिस्त में एक नाम है- सआदत हसन मंटो। *हिंद-पाक विभाजन की त्रासदी* और मनवीय संबंधों की बारीकी को उकेरने वाली ‘कितने टोबाटेक सिंह’, ‘काली सलवार’, ‘खोल दो’, ‘टेटवाल का कुत्ता’, ‘बू’ सरीखी कहानियां लिखनेवाले भारतीय उपमहाद्वीप के इस लेखक और उसके सृजन पर आज पूरी अदबी दुनिया को फख्र है। *लेकिन मंटो की *शख्सियत की खुद की जिंदगी के दीगर पहलुओं, उनकी जद्दोजहद, उनकी तकलीफों और बेसमय हुई उनकी मौत से जब वाकिफ होते हैं तो मन अचानक मायूस हो जाता है। हालांकि ताउम्र बदनामी और विवादों से घिरे रहनेवाली इस लेखक शख्सियत के कुछ दिलचस्प पहलू भी रहे हैं। बेशक इनमें से कुछ मंटो की शख्सियत को जानने-समझने में हमारी मदद करते हैं लेकिन कुछ को पढ़ते हुए कभी-कभी अचंभा भी होता है। *दरअसल मंटो *बड़े ही मनमौजी किस्म के इन्सान थे। उनके मन में जो आता था वे वही करते थे, भले उसका अंजाम कुछ भी हो। अपने मन की बात कहने या लिखने में उन्हें कभी किसी तरह की कोई झिझक नहीं होती थी। *अपनी इस फितरत का* उन्हें बेशक खमियाजा भी भुगतना पड़ा था। और तो और लिखते हुए वे उस दौर की महान शख्सियतों को भी नहीं बख्शते थे। उनकी ये हरकतें या हिमाकत कभी-कभार तो उस दौर की महान शख्सियतों को इतनी नागवार लगती थी कि वे मंटो साहब के लिए आपत्तिजनक लफ्जों का भी इस्तेमाल करते थे। *मसलन, सन् 18 जनवरी सन 1955 में *मंटो का इंतकाल हुआ। उनकी मौत पाकिस्तान ही नहीं पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की अदबी बिरादरी के लिए एक बड़ा सदमा था। इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी बेबाक लेखनी तो थी ही, कम उम्र में इस जहां से उनका रुखसत हो जाना भी था। *उनके इंतकाल के बाद* बहुचर्चित नृत्यांगना सितारा देवी को किसी ने मंटो साहब के इंतकाल की खबर दी। खबर सुनते ही सितारा देवी ने अपना मुंह बिगाड़कर कहा, *‘‘बड़ा ही बदतमीज और बेवकूफ आदमी था। मेरा चैन हराम कर दिया था उसने।’’ *सआदत हसन मंटो से आखिर क्यों इतनी नाराज थीं सितारा कि उनकी मौत की खबर सुनकर भी उनका गुस्सा ठंडा नहीं पड़ा। *दरअसल, सितारा देवी के बारे में* मंटो साहब को जब भी लिखने का मौका मिलता तो वे चटखारे लेकर लिखते थे। उनकी लेखनी के मुरीद पाठक जानते हैं कि उन्होंने सितारा देवी पर कई शब्द-चित्र लिखे हैं। *ऐसे ही एक शब्द-चित्र में* उन्होंने लिखा है, *‘‘सितारा देवी की जब मैं कल्पना करता हूं तो वह मुझे बंबई की एक ऐसी पांचमंजिला इमारत लगती हैं जिसमें कई फ्लोर और कमरे हैं। और यह एक हकीकत है कि वह एक वक्त में कई-कई मर्द अपने दिल में बसाए रखती हैं।’’ * *कभी-कभी तो वे* सितारा देवी के बारे में इतनी आपत्तिजनक टिप्पणियां कर जाते थे कि यदि वो चाहतीं तो उन पर मानहानि का मुकदमा कर सकती थीं। *उस दौर की* दो महान लेखक शख्सियतों अली सरदार जाफरी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद नसीम कासमी, कृश्नचंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, मजाज, शाहिद लतीफ, राजेंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, अशोक कुमार सरीखी शख्सियतें उन्हें अपना दोस्त कहते हुए फख्र करती थीं। इन सबका साथ-साथ उठना-बैठना होता था। *कहते हैं कि* वे सब मंटो साहब का बड़ा खयाल रखते थे। लेकिन तब सवाल उठता है कि फिर ऐसा क्यों हुआ कि उनके ये सारे दोस्त बंबई में मौज करते रहे लेकिन उनमें से किसी ने भी मंटो साहब की वापस हिंदुस्तान बुला लेने की दिली आरजू पर कभी गौर नहीं फरमाया। *दरअसल सआदत हसन मंटो ने* हिंद-पाक विभाजन के वक्त पाकिस्तान जाने का फैसला तो कर लिया था लेकिन जल्दी ही पाकिस्तान से उनका मोह भी भंग हो गया था, कुछ-कुछ कुर्रतुल ऐन हैदर की तरह। कुर्रतुल ऐन हैदर ने तो ख्वाजा अहमद अब्बास की मदद से पहले बीबीसी ज्वाइन किया और फिर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और पंडित नेहरू से गुजारिश करके वापस हिंदुस्तान आने में कामयाब रहीं। *लेकिन मंटो के हाथ* तो इतने लंबे थे नहीं। हां, मुबई के कई दोस्तों को उन्होंने जरूर लिखा, ‘‘यार, मुझे वापस हिंदुस्तान बुला लो। पाकिस्तान में मेरी कोई जगह नहीं है।’’ पर पर उनकी ‘बदतमीजी’, ‘बदमिजाजी’, ‘बदकलमी’ बर्दास्त करने की कूव्वत यहीं बंबई के उनके किसी दोस्त में नहीं थी। *ऐसी हालत में *फटेहाली के साथ पाकिस्तान में ही रहना उनकी मजबूरी बन गई थी। फिर तो हताशा और निराशा के साथ रहना और खुद को अकेला महसूस करने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं था। *उसी अकेलेपन में *उन्होंने शराब को अपना खास दोस्त बना लिया, इतना खास कि दिन-रात उसी के साथ रहने लगे। *इसका अंजाम* तो बुरा ही होना था, सो हुआ। देखते ही देखते टीबी की लाइलाज बीमारी ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया, और सन 1955 में महज 42-43 साल की उम्र में वे इस जहां को अलविदा कह गए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jan 18 02:31:22 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 18 Jan 2011 02:31:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSQ4KS44KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KWN4KSV4KWN4KS44KS14KS+4KSm4KWAIOCkuOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSaIOCkluCkpOCksOCkqOCkvuCklSDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा के खिलाफ दिल्ली में जो भी विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं,उसकी रेगुलर मेल मुझे मिल रही है। मैं विनायक सेन के साथ हूं, आज भी और आज से चार साल पहले भी। मुझे अच्छा लगता है कि लोग कोर्ट और सरकार के रवैये के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। ऐसे दौर में जबकि कला,साहित्य और पत्रकारिता सत्ता के लिए अंगरखे से ज्यादा कुछ भी करार न दी जा रही हो,इनसे जुड़े लोग सत्ता के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। लेकिन मुझे एक बात लगातार परेशान हो रही है। एक ही तारीख को होनेवाले विरोध-प्रदर्शन की मेल मुझे अलग-अलग मार्क्सवादियों की मेल आइडी से मिल रही है। ऐसे मार्क्सवादियों की मेल आइडी से जिन्होंने आज दिन तक समाज के किसी भी मसले पर कोई मेल नहीं भेजी। क्या ऐसे लोगों के आसपास कभी भी किसी स्त्री का शोषण नहीं हुआ होगा,किसी के साथ गुंडागर्दी नहीं हुई हो,किसी का हक नहीं मारा गया होगा या फिर किसी की आवाज नहीं दबा दी गयी होगी? लेकिन ऐसे मार्क्सवादियों ने कभी मेल जारी करके क्यों नहीं कहा कि हमारे इलाके में एक महिला के साथ अन्याय हुआ है,एक दलित को मकान मालिक ने आधी रात घर से निकाल दिया है, उसकी जाति जान लेने के बाद उसे पीट-पीटकर उल्टे थाने में बंद करवा दिया? ऐसे मौके आए तो होंगे लेकिन मेरे ये मार्क्सवादी साथियों ने तब कोई मेल क्यों नहीं भेजी? विनायक सेन के संदर्भ में संभव है कि ये सवाल बकवास और अप्रासंगिक लगे लेकिन ऐसे सवालों से टकराए बिना हम हर स्थिति में यानी 24x7 समाज में प्रतिरोध की ताकत पैदा कर सकते हैं,हम सत्ता को इस बात का एहसास करा सकते हैं कि कुछ भी गलत होने पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्हें चुनौती झेलनी पड़ेगी? खास मौके पर खड़े होनेवाले मार्क्सवादी जो कि विचार से सामंती,अवसरवादी और जातिवादी अवधारणाओं के बीच सने हुए हैं,जो पार्टी ऑफिस की टिकिया चाटकर अपने को मार्क्सवादी करार देते हैं,ऐसे मार्क्सवादी देश के लिए तो बाद में,पहले खुद मार्क्सवाद के लिए सबसे खतरनाक हैं। ये किसी भी घटना को एक बड़े संदर्भ तक बनने का इंतजार करते हैं। वो तब तक इंतजार करते हैं जब तक कि मामला स्थानीयता की जमीन छोड़कर राष्ट्रीय या ग्लोबल न बन जाए। ऐसा होते ही उनकी आवाज बुलंद होनी शुरु होती है क्योंकि इससे किसी भी तरह का नुकसान होने का खतरा नहीं होता। वो समस्या तब समस्या न होकर एक ब्रांड बन जाती है और जिसके साथ खड़े होने पर मार्क्सवाद का फैशन अपने परवान चढ़ता है। इससे समस्या का हल कितना होता है ये तो नहीं मालूम लेकिन हां इस समस्या से अपने को जोड़कर देखना एक स्टेटस सिंबल का हिस्सा बन जाता है। इस देश में मार्क्सवाद का एक बड़ा हिस्सा इसी फैशनपरस्ती की तर्ज पर पसर रहा है। आज समस्या इस बात कि नहीं है कि किसी बात को लेकर आवाज नहीं उठायी जाती,समस्या इस बात को लेकर है कि मुद्दों को हाटकेक बनने तक का इंतजार किया जाता है। मौकापरस्त मार्क्सवादी इसी का इंतजार करते नजर आते हैं। आज सबसे ज्यादा मुश्किल है अपने आसपास की समस्याओं पर खुलकर बात करना,प्रतिरोध दर्ज करना लेकिन सुधार की गुंजाईश भी यहीं से बनती है। इन मार्क्सवादियों के लिए कोई भी समस्या जब तक व्यापक संदर्भ हासिल नहीं कर लेती,समस्या ही नहीं है। ऐसे में छोटी-छोटी और घरेलू स्तर की समस्याएं व्यक्तिगत और पर्सनल इश्यू के खेमे में चली जाती है। एक शराबी मार्क्सवादी कवि के लिए अपनी पत्नी को पीटना पर्सनल इश्यू है लेकिन यही काम एक मजदूर करे तो सामाजिक समस्या है. इस शराबी कवि की कविताओं से क्रांति पैदा होती है लेकिन व्यवहार से क्या,ये सवाल पूछनेवाला कोई नहीं है? टिकिया चाटकर मार्क्सवादी होनेवाले लोगों के लिए ये एप्रोच उनके बीच जबरदस्त तरीके से अवसरवाद और निजी हित की संस्कृति को बढ़ावा देता है। इस अवसरवाद का रंग ऐसा है कि आप इसे किसी भी विचारधारा के तहत ठीक-ठीक विश्लेषित नहीं कर सकते। उनके सारे मानक अपने पाले की तरह बदलते रहते हैं। मैंने जिस दौर में हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की। एमए और यूजीसी के लिए कुत्ते की तरह अपने को रगड़ा,अपने तमाम मार्क्सवादी साथियों के लिए मजाक,दया और कई बार आक्रोश का पात्र था। क्यों? क्योंकि मैं एम ए में अच्छे नंबर लाना चाहता था,यूजीसी निकालना चाहता था और दूसरी तरफ मार्क्स की विचारधाराओं का समर्थन भी करता था। मैं उनकी निगाह में असरवादी निम्न मध्यवर्ग की मानसिकता में जीनेवाला शख्स था। उन्हें एमए में करते हुए नंबर लाने के प्रति द्रोह था,यूजीसी की परीक्षा को गुलाम मानसिकता का हिस्सा मानते,इससे उनकी प्रतिभा को ठेस पहुंचती। आज मैं अपने उन मार्क्सवादी साथियों की तरफ नजर दौड़ाता हूं तो अधिकांश सिस्टम के कल-पुर्जे बन हुए हैं। उन्हें यूजीसी सिस्टम से विरोध था लेकिन अब बिना यूजीसी निकाले सिस्टम का हिस्सा बन जाने से विरोध नहीं है। उन्हें एम ए में नंबर लाने के प्रति द्रोह था लेकिन बैकडोर से सिस्टम में घुस आने पर कोई विरोध नहीं है। एक खास समय के लिए मार्क्सवादी अवधारणाओं को अपनी सुविधा के अनुसार लचीला बनाकर फिर सिस्टम में घुस जाना,मार्क्सवाद के भीतर के प्रतिरोध को कितना जड़ बनाता है,इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है मार्क्सवदियों के लाख मुर्दाबाद के नारे के बीच सत्ता और स्टेट मशीनरी हक की लड़ाई होने देने से पहले ही कुचलने में देर नहीं लगाती। उन्हें पता है कि इस देश का मार्क्सवादी एक खास समय के लिए वैलिडिटी पीरियड तक काम करता है,उसके बाद उसकी हैसियत स्क्रैच की गयी रिचार्ज कूपन की ही हो जाती है। इस देश में ऐसे ही मार्क्सवादियों से आंदोलन की जमीन कमजोर हुई है। विनायक सेन के साथ खड़े होने के लिए मेरे जो मार्क्सवादी साथियों ने मुझे जो मेल भेजे हैं,उनसे मैं एक बार फिर सवाल करना चाहता हूं क्या कभी सीलमपुर,शहादरा,नांगलोई में किसी की आवाज नहीं दबा दी जाती,उसके खिलाफ फैसले नहीं होते,आप कभी मेल भेजोगे उसे लेकर या फिर विनायक सेन के बहाने अपनी ही ब्रांडिग करते फिरोगे? पार्टी लाइन ही अगर किसी मार्क्सवादी या प्रगतिशील शख्स के भीतर संवेदना पैदा कर सकती है,पार्टी ही अगर तय करती है कि लंबे समय के बाद विनायक सेन के पक्ष में खड़ा होना है या नहीं तब तो ऐसे में हमें संवेदना और मानवीयता के सवाल पर नए सिरे से विचार करना होगा। दूसरी तरफ अपना खेल खराब न हो,इस चिंता के साथ आवाज बुलंद करना या दबा देना है तो यकीन मानिए,ऐसे मौकापरस्त मार्क्सवादियों से सबसे बड़ा खतरा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Jan 18 22:59:22 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 18 Jan 2011 22:59:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KSC4KSX?= =?utf-8?b?4KS+4KSIIOCkleClhyDgpJzgpL/gpK7gpY3gpK7gpYfgpKbgpL7gpLAg?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkleClhyA=?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWA4KSsIDog4KSq4KWN4KSw4KSn4KS+4KSo4KSu4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkvuCksuCkryDgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkleCkueCkvi4=?= Message-ID: महंगाई के जिम्मेदार हिन्दुस्तान के गरीब : प्रधानमन्त्री कार्यालय ने कहा. मित्रो, बकौल BBCHINDI, "प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यालय से जारी एक बयान में कहा गया है कि सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से लोगों की आमदनी बढ़ी है. इस कारण अपेक्षाकृत ग़रीब तबक़े में खाद्य पदार्थों की खपत बढ़ गई है. यानी आमदनी बढ़ने के कारण वो ज़्यादा चीज़ें ख़रीदने और खाने लगे हैं. सरकार कहती है कि माँग बढ़ने के कारण चीज़ों की क़ीमतें भी बढ़ गई हैं." प्रधानमन्त्री कार्यालय के इस बयान पर अफसोस किया जाए, इसे जनविरोधी कहा जाए या लतखोरी? प्रधानमंत्री के नाक के नीचे उसके कैबिनेट मंत्री के द्वारा लाखों करोड़ का घोटाला हो जाता है, उनकी ग़लत बल्कि नकारी नीतियों की वजह से पैदा हुई महंगाई ने खाते-पीते मध्यवर्ग क्या गरीब जनता का जीना दुश्वार कर दिया है. अफ़सोस होता है कि भारत का प्रधानमंत्री कुछ महीने पहले अमेरिका की कही बात दोहरा रहा है. समझ में नहीं आता कि हमारा प्रधानमंत्री हिंदुस्तान का है या अमेरिका का दलाल? थू...! - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jan 19 00:00:23 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 19 Jan 2011 00:00:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KST4KS1?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KWAIOCkpuClh+CktuCkpuCljeCksOCli+CkueClgCDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWI4KSCIOCkr+CkviDgpK3gpL7gpLDgpKQg4KS44KSw4KSV4KS+4KSw?= =?utf-8?q?=3F?= Message-ID: मित्रो, माओवादी देशद्रोही हैं या भारत सरकार? "महंगाई के ख़िलाफ़ माओवादियों का भारत बंद" : "भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) नें बढ़ती महंगाई और घोटालों के ख़िलाफ़ सात फरवरी को चौबीस घंटों के भारत बंद का आहवान किया है. इसके अलावा संगठन नें चार से छह फ़रवरी तक देशव्यापी विरोध कार्यक्रमों की घोषणा भी की है..." विस्तार से पढ़ें : http://www.bbc.co.uk/hindi/ind ia/2011/01/110118_maoists_bandh_psa.shtml - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Jan 19 16:23:07 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 19 Jan 2011 16:23:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS4IOCksA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSq4KSv4KWHIOCkleCkviDgpJrgpL7gpLAg4KS44KS/4KSo4KWH4KSu?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <4D36C293.5080808@sarai.net> रवीश के कस्बा से साभार। तस्वीरों और टिप्पणियों के लिए मूल पोस्ट पर जाएँ। रविकान्त दस रुपये का चार सिनेमा http://naisadak.blogspot.com/ सचमुच मन गदगद हो गया। ज़माने से आम लोगों के मनोरंजन के तौर-तरीके और अधिकार पर रिपोर्ट कर रहा हूं। मल्टीप्लेक्स ने ऐसा धकियाया कि आम आदमी पान के खोमचे में चल रहे सिनेमा को खड़ा हो कर आधा-अधूरा देख काम पर चला जाता है तो कई लोगों ने कई सालों से सिनेमा हॉल में फिल्म ही नहीं देखी। पिछले साल सिनेमा का सिकुड़ता संसार पर रवीश की रिपोर्ट बनाई थी। ये रिपोर्ट www.tubaah.com पर है। पीपली लाइव के सह-निर्देशक महमूद फ़ारूक़ी से बात चल रही थी। हम उम्मीद कर रहे थे कि कहीं न कहीं वीडियो हॉल तो होंगे इस दिल्ली में। उस रिपोर्ट के दौरान नहीं मिला। हां सीमापुरी और लोनी बॉर्डर से सटे एक गांव में एक मल्टीप्लेक्स ज़रूर मिला जहां का अधिकतम रेट ४० रुपये था। वैसे अब मेरे पड़ोस के मल्टीप्लेक्स में गुरुवार को पचास रुपये का टिकट मिल रहा है। मल्टीप्लेक्स वाले औकात पर आ रहे हैं। ख़ैर भूमिका में समय क्यों बर्बाद कर रहा हूं। पहले नज़र पड़ी दिल्ली के एक पुनर्वास कालोनी में लगे इन चार फिल्मी पोस्टरों पर। अजीब से नाम। लोग निहार रहे थे। कैनन के कैमरे से क्लिक करने नज़दीक गया तो ढिशूम ढिशूम की आवाज़ आ रही थी। पर्दा हटाया तो सिनेमा हॉल निकला। कैमरा घुसेड़ दिया। तभी ग़रीब सा मालिक दौड़ा आया कि ये मत कीजिए। दिखा देंगे तो प्रशासन वाले हटा देंगे। सोचिये कि ये ग़रीब लोग कहां जाएगा। जब काम पर नहीं जाता है तो यहीं अपना मनोरंजन करता है। मैंने उसकी बात मान ली और कहा कि मनोरंजन के अधिकार के तहत मेरी नज़र में यह ग़ैरक़ानूनी नहीं है। मैं जगह नहीं बताऊंगा कि कहां देखा। स्टिल लेने दीजिए। भीतर झांक कर देखा तो कोई सौ के क़रीब लोग ज़मीन पर बैठकर सिनेमा देख रहे थे। ठूंसा-ठेला कर। पूरी शांति और शिद्दत के साथ। लंबा सा हॉल। दूर एक टीवी नज़र आ रहा है। हॉल में स्पीकर की व्यवस्था थी। मालिक ने बताया कि हमारा रेट ग़रीब लोगों के हिसाब से है साहब। दस रुपये में चार सिनेमा या फिर पांच रुपये में दो सिनेमा। जो पांच रुपये देता है उसको दो सिनेमा के बाद बाहर निकाल देते हैं। ये कहां जाएंगे। यहां से शहर इतनी दूर है कि मटरगस्ती के लिए भी नहीं जा सकते। कोई पार्क नहीं है। घर इतना छोटा है कि छुट्टी के दिन कैसे बैठे। बस यहीं चले आते हैं मनोरंजन के लिए। सिनेमा को इसी रेट पर उपलब्ध कराने का मालिक ने जो क्रांतिकारी कार्य किया है वो उनको जवाब है जो चंद लोगों के मुनाफ़े के लिए एंटी पाइरेसी का अभियान चलाते हैं और सरकार से रियायती ज़मीन लेकर मल्टीप्लेक्स बनाते हैं। इस तरह से ठूंसा कर तो मैंने बहुत दिनों से कोई फिल्म ही नहीं देखी है। पीपली लाइव और दबंग में भीड़ देखी थी। आज ही नो वन किल्ड जेसिका नाम की एक ख़राब डॉक्यूमेंट्री देखने गया था। दस लोग थे। आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है। सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देना चाहिए। टैक्स फ्री। पिछले एक महीने से दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में घूम रहा हूं। अजीब-अजीब चीज़ें मिल रही हैं। बिना नाम वाले इस सिनेमा हॉल को देखने के बाद रहा नहीं गया। आज इस सवाल का साक्षात जवाब मिल ही गया कि चाइनीज़ डीवीडी क्रांति के बाद भी वो बड़ी आबादी अपना मनोरंजन कैसे कर रही है जो न तो सेकेंड हैंड टीवी खरीदने की हालत में है न ही चाइना डीवीडी। दस रुपये में चार सिनेमा का रेट। वाह। From girindranath at gmail.com Wed Jan 19 21:01:38 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Wed, 19 Jan 2011 21:01:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSf4KSw?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSfIOCkquCksCDgpK/gpL7gpKbgpYvgpIIg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWJ4KSq4KSV4KS+4KSw4KWN4KSo?= Message-ID: मैं ब्राउजरों में फंसा हूं, एक ऐसा जाल जो मुझे इंटरनेट की दुनिया से करीब लाता है। मॉजिला और गूगल क्रोम से लिपटा पड़ा हूं। भारत एक खोज की तरह ब्लॉग एक खोज में जुटा हूं। एक ऐसी दुनिया में चांद-तारे खोज रहा हूं जो मुझे उन हजारों-लाखों लोगों की यादों से जोड़ सके। मैं जानना चाहता हूं कि इस फ्लेटफॉर्म पर लोग किस तरह से बेबाकी से मन की बात, अनुभवों और ढ़ेर सारी यादों को साझा करते हैं। मेरी नजर में ब्लॉगिस्तान ऐसी ही दुनिया है, जहां संस्मरणों के तारे टिमटिमा रहे हैं। मैं उसी दुनिया को टटोल रहा हूं। ऐसे में जो तारे-नक्षत्र मेरे हाथ में आए, आज उसी को साझा कर रहा हूं। शहर-दर-शहर घूमने की चाहत ने ब्लॉगिस्तान से बेहद करीब ला दिया है। यहां मैं ट्रेन की नहीं मन की सवारी कर रहा हूं। भले ही आप बड़ी लाइन होकर दिल्ली से दरभंगा जाते हो, लेकिन इंटरनेट पर मेरे मन को दरभंगा की सैर भाया छोटी लाइन से करनी पड़ती है, यहां दरभंगा लोकल से ग्लोबल हो जाता है, मैं ब्लॉग के लेखक अविनाश की बातों में खो जाता हूं। यहां एक पोस्ट है मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलाया हो.. । इसमें अविनाश संगीत के बहाने दरभंगा ले जा रहे हैं। वो कहते हैं- आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्‍ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्‍कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्‍होंने हार‍मोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा। फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्‍वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्‍टर हमसे छूट गये। आहिस्ता-आहिस्ता मन की बातों को समझने की तड़प तेज होने लगती है। अब बाइस्कोप को जानने की चाहत बढ़ जाती है। इस मोड़ पर इंडियन बाइस्कोप लिए दिनेश श्रीनेत मिलते हैं, जो फिल्म के किस्से बेहद अलग तरीके से बयां कर रहे हैं। फिल्मों के अलावा वे अपनी यादों को भी साझा कर रहे हैं। यहां एक पोस्ट हाथ लगती है- मन का रेडियो। पढ़ते वक्त मन बावरा हो जाता है। इसमें दिनेश लिखते हैं- मुझे जो याद रह गया है वह है रेडियो पर चलने वाले फिल्मों के एड- फिल्में थीं- शालीमार, बिन फेरे हम तेरे, थोड़ी सी बेवफाई... इनके गीत का एक टुकड़ा, कुछ संवाद और फिल्म की टैगलाइन। बस, तैयार है एक शानदार एड। मानें या न मानें, कुछ एड तो इन्हीं की मदद से इतने शानदार बना करते थे कि मन होता था कि कब फिल्म सिनेमाहाल में लगे और कब जाकर उसे देख आएं। बाइस्कोप से यारी के बाद मन बावरा हो चुका था, अब आवारगी की बारी थी। आवारा बनने के लिए भी क्या योग्य होना जरूरी है? तो उत्तर है, जी हां । इंटरनेट पर एक ऐसे ही योग्य आवारा उम्मीदवार से मुलाकात होती है, जो गर्व से कहता है- मैं आवारा हूं। यहीं जाना कि सात फिल्में सात संस्कार की तरह हैं। फिल्मों की समीक्षा हो या फिर संगीत-गीत की समीक्षा, हर चीज यहां आपको अलग रूप में मिलेगी। यहां एक पोस्ट है, जिसे पढ़कर ऐसा लगता है, मानो गीत, गिलास में, आपके हाथ में है, बस आप उसे पी लें। मैं मीहिर के पोस्ट- ’तुम जो कह दो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं’, की बात कर रहा हूं। इसे पढ़ने के बाद ही समझ पाया कि म्यूजिक एलबम की समीक्षा ऐसी भी की जा सकती है। इसमें बारिश की बूंदों और बस के सफर के बहाने मीहिर फिल्म कमीने की गीत बुदबुदा रहे हैं। गुलजार के आशिकों के लिए तो यह तोहफे से बढ़कर है। मीहिर लिखते हैं- ..... मैंने खिड़की से ऐसा ही एक भीगा हुआ चाँद देखा. तेज़ बौछार में उसके कपड़े जब टपकते होंगे तो क्या वो उन्हें सुखाने के लिए दो उजले तारों के बीच फैलाकर लटका देता होगा? वहीं, बस वहीं मुझे अधूरेपन का अहसास हुआ. वहीं, बस वहीं मैंने एक कहानी लिखने का फ़ैसला किया. वहीं, बस वहीं मैंने भाग जाने की सोची. वहीं, बस वहीं मैंने ’कमीने’ के गीत सुने. जैसे पहली बार सुने, जैसे आखिरी बार सुने.। इसी तरह वे फिल्म गुलाल की भी बातें करते मिले, यहां भी अंदाज बाजार से साफ हटकर। इस फिल्म के बारे में मीहिर कहते हैं गुलाल अश्वत्थामा का पशुवत चित्कार है. मैं उन तमाम आलोचकों से असहमत हूँ जिन्हें गुलाल अनुराग की पुरानी फ़िल्मों के मुकाबले ज़्यादा सरल और उनके तय सांचों में ज़्यादा यथार्थवादी फ़िल्म लगती है. हर लिहाज से ’ब्लैक फ्राइडे’ अनुराग की सबसे ज़्यादा यथार्थवादी फ़िल्म थी. मेरे लिए गुलाल एक फ़ैंटसी है जिसमें उन तमाम अंधेरे वक़्तों की गूँज सुनाई देती है जिनसे इंसानी तारीख़ होकर गुज़री है। मन के बावरे होने से लेकर आवारा होने तक की प्रोसेस पूरी हो चुकी थी। मैं अब लिखावटों में डूबना चाहता हूं। यहीं पर मुझे नई बात करते चंदन मिलते हैं। वो मुझे कविता-कहानी, संस्मरण की दुनिया में ले जाते हैं। यहां वे उदय प्रकाश के लिए सूरज की कविता पढ़ा रहे हैं। कविता की कुछ पंक्तियां आपसे शेयर कर रहा हूं- सिगरेट का आखिरी टुकड़ा उछाला/ नदी के सीने पर जैसे रोपना हो/ सिगरेट के बीज.. / उठी और चल पड़ी किसी सोच में डूबी/ जैसे जाना हो इन्हें टिहरी/ करना हो इन्हे नदी के फेफड़े का इलाज.. -गिरीन्द्र आप इसे यहां भी पढ़ सकते हैं-http://anubhaw.blogspot.com/ From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Jan 21 16:30:17 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 21 Jan 2011 16:30:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkruCkguCkoeCksiDgpK7gpYfgpIIg4KSr4KWH4KSwLQ==?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KSyIOCkleCkviDgpLDgpLngpLjgpY3gpK8=?= Message-ID: फेर-बदल का रहस्य- आखिर वह कौन सा रहस्य है, जिससे मीडिया गलत साबित हो गई। मंत्री के फेर-बदल पर उसने जो कयास लगाए थे, वैसा कुछ नहीं हुआ। रहस्य गहरा है। अंदरखाने में चर्चा गर्म है कि प्रधानमत्री जब राष्ट्रपति से मिलने गए थे तो उन्होंने एक सूची राष्ट्रपति महोदया को सौंपी। सूची के अनुसार चितंबरम को वित्त मंत्री बनाया जाना था। जबकि प्रणव मुखर्जी के जिम्मे विदेश मंत्रालय लगाया गया था। कृष्णा को रक्षा और एंटोनी को गृह मंत्रालय का भार दिया जाना था। कहा जा रहा है कि वह सूची 10 जनपथ पहुंच गई। इसके बाद तत्काल सोनिया गांधी प्रधानमंत्री निवास पहुंची। रात बातचीत का निष्कर्ष नहीं निकल पाया, तो सुबह एक बार पुन: बातचीत का दौर चला। अंत में तय हुआ। फिर जो हुआ वह सबके सामने है। राहुल की पसंद से सीपी जोशी और बेनी प्रसाद को मंत्री पद मिला है। शरद पवार स्वयं प्रधानमंत्री की पसंद हैं। कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि वे अमेरिका के भी पसंद हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Fri Jan 21 21:32:16 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 21 Jan 2011 21:32:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWJ4KSV4KSy?= =?utf-8?b?4KWH4KSfIOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg4oCY4KS24KWB4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSC4KSt4oCZ?= Message-ID: एक ब्लॉग है- बेटियों का ब्लॉग। यहां पांच जुलाई 2008 का एक पोस्ट है- तिन्नी का तमाचा। इसे लिखा है कस्बा वाले रवीश कुमार ने। जरा पोस्ट की पंक्तियों पर गौर करें - बच्चे अपने बचपन में मां बाप की खूब पिटाई करते हैं। मरता क्या न करता इस पिटाई पर अपमानित होने के बजाए भावुक हो जाता है। सुबह सुबह तिन्नी बाज़ार जाने के लिए ज़िद करने लगी। मुझे भी कुछ ख़रीदना है। अंडा ब्रेड के साथ उसने सेंटर फ्रेश और मेन्टोस भी खरीदे। घर आकर सोचता रहा कि सेंटर फ्रेश खाने की आदत कहां से पड़ गई। तभी तिन्नी आई और कस कर एक तमाचा रसीद कर दिया। इससे पहले कि झुंझलाहट पितृतुल्य वात्सल्य में बदलती तिन्नी ने ही ज़ाहिर कर दिया। देखा बाबा मेन्टोस खाते ही मैं किसी को भी तमाचा मार सकती हूं। मेन्टोस में शक्ति है। ज़रूर ये विज्ञापन का असर होगा। विज्ञापन में शक्ति प्राप्त करने की ऐसी महत्वकांक्षा तिन्नी में भर दी कि ख़मियाज़ा मुझे उठाना पड़ा। इस वक्त जब विज्ञापनों को लेकर सोच रहा हूं तो यह पोस्ट मुझे सबसे अधिक अपनी ओर खींच रहा है। विज्ञापनों की ओर खींचाव की कहानी हर कोई सुना सकता है क्योंकि हर दिन हम-आप इससे रूबरू होते हैं। दरअसल मेरे लिए टीवी पर कार्यक्रमों के बीच दिखने वाले विज्ञापन चांद की तरह हैं, चांद, वो भी पूर्णिमा वाला (पूर्णता का अहसास)। मिनटों में एक ऐसी कहानी गढ़ती दुनिया, जिससे शायद हर कोई अपनापा महसूस करता हो। इन दिनों विज्ञापन जगत में सामाजिक बदलाव और यादों को सबसे अधिक अहमियत दी जा रही है। अंग्रेजी हो या फिर हिंदी चैनल, हर जगह ऐसे विज्ञापन दिख जाते हैं, जो हमें रेगिस्तान में झरने का अहसास दिलाती है। बेदम सामाचारों के बीच जब अगले समाचार के बीच विज्ञापन की बारी आती है तो मेरे जैसे कई दर्शकों को जरूर सुखद अहसास होता होगा। याद कीजिए शुभारंभ श्रृंखाल के विज्ञापनों को। चॉकलेट के बहाने सोशल मैसेज का इससे बेहतर उदाहरण बहुत कम ही मिलता है। मेरे जैसे लोग, जो वजन बढ़ने से परेशान हैं, उनके लिए भी शुभारंभ के पास काफी कुछ है। जनाब, सुबह उठकर जूते पहनकर घर से निकलने का संदेश भी अब कंपनियां देने लगी है। विज्ञापनों में बच्चों की जुबां का सबसे बेहतर इस्तेमाल हो रहा है। इसका उदाहरण इंश्योरेंस कंपनी का एक विज्ञापन है, जिसमें बच्चा पूछता है- मेरे फ्यूचर के बारे में सोचा है क्या.. यह दो लोगों की बातचीत से उठाई गई लाइन हैं. पिता-बेटे की यह बातचीत जब खत्म होती है, तभी एक इंश्योरेंस कंपनी का एक आदमी अपने बहुत प्रभावशाली पंच लाइन के साथ हाज़िर होता है। यह पंचलाइन है- कभी आपने बड़े होने के बाद भी अपने माँ बाप से ऐसे सवाल किए हैं आप अपने फैसले ज़रूर ले सकते हैं लेकिन आपने कभी अपने माँ बाप को ऐसे सवालों के फेर में डाला। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मेरे कई भोजपुरी भाषी दोस्त थे, उन्हीं से कई भोजपुरी कहावत और गीतों को सुना। फिलहाल एक कहावत याद आ रही है- सुनी सबकी, करी मन की (सभी की बात सुनो लेकिन करो वही जो मन करे)। अभी यह कहावत मुझे एक विज्ञापन के संदर्भ में याद आ रही है। एक विज्ञापन है, जिसका पंचलाइन है-आजकल के बच्चे करियर नहीं पैशन खोजते हैं। इस पंचलाइन की श्रृंखला में कई विज्ञापन है। इनमें मेरा सबसे पसंदीदा है, जिसमें लड़की अपने पिता को मुर्गा खिलाती है और उन्हें स्वाद पसंद आने पर कहती है कि आपकी इच्छा थी कि मैं टीचर बनूं। मैंने जिद कर कुकिंग का प्रशिक्षण लिया। आज आपको मुर्गा खिला रही हूं, टीचर बनती तो ‘मुर्गा’ (स्कूल में दिया गया दंड) बनाती। यही है सोशल मैसेज देते हैं विज्ञापनों की हसीन दुनिया। निजी तौर पर मैं कुछ विज्ञापनों को जादू का पिटारा मानता हूं। कभी-कभी कुछ विज्ञापन रिश्तों के मूल्यों को समझाते वक्त हमें भावुक कर देते हैं लेकिन इसी बीच वह हमें लालची भी बनाने का काम करता है। जरा आप याद कीजिए बैंकों या बीमा कंपनियों के विज्ञापनों को। एचडीएफसी बैंक का विज्ञापन तो हमें बुढापे तक धन सहेजने की कला सीखाता है। शुरुआती दृश्यों में भावुक बना देने के बाद वह हमें पैसे बनाने की बात कहता है और यहीं हम लालची बन जाते हैं। एक्सीस बैंक के एक विज्ञापन में समान से भरे घर की बात कही जा रही है. सूत्र है, यदि पैसे नहीं हैं तो बैंक का सहारा लीजिए. इस विज्ञापन की शुरुआत में एक बच्चा अपने पिता से कहता है कि अरे घर में एसी भी नहीं है, केबल भी नहीं है… तभी पिता के मोबाइल में एसएमएस आता है कि बैंक या किसी म्यूचल फंड का सहारा लें जनाब। इन विज्ञापनों की सबसे बडी़ खासियत यही होती है कि यह दर्शकों के नब्ज को समझता है, मसलन आपको भावुक बनने पर मजबूर कर देता है. आप लाख चाहें लेकिन इन विज्ञापनों को एक बार देखने की कोशिश जरूर ही करेंगे और बाद में यही आपको लालची बनने के लिए मजबूर करता है। ये विज्ञापन कहते हैं कि खूब खर्च करो, पैसे लुटाओ, सामानों से घर को भर डालो...लेकिन इसी बीच यह हमें सीख भी देता रहता है कि अपने से बड़ो का सम्मान भी करो। याद कीजिए स्टेट बैंक के डेबिट कार्ड का वह पुराना विज्ञापन, जिसमें दो पोते दादी के लिए सामान खरीदने के लिए आपस में प्रतियोगिता करते नजर आते हैं गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com 09559789703 From shashikanthindi at gmail.com Sun Jan 23 23:05:12 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 23 Jan 2011 23:05:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSv4KSq4KWB?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkvuCkueCkv+CkpOCljeCkryDgpIngpKTgpY3gpLjgpLUg?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkleCkv+CkuCDgpJXgpL/gpLgg4KSV4KWAIOCknA==?= =?utf-8?b?4KSvICE=?= Message-ID: जयपुर साहित्य उत्सव में किस किस की जय ! मित्रो, आज जयपुर साहित्य उत्सव और कपिल सिब्बल के काव्य संग्रह 'किस किस की जय हो' के लोकार्पण के मसले को लेकर फेसबुक पर ख़ूब बहस हुई. आपके हवाले कर रहा हूँ. शुक्रिया. -शशिकांत भाई सुयश सुप्रभ ने फेसबुक पर बहस शुरू करते हुए लिखा, "जयपुर में साहित्य का जो उत्सव मनाया जा रहा है उसकी सार्थकता को लेकर मन में कई शंकाएँ उठ रही हैं। इस उत्सव के प्रायोजकों में ऐसी कई कंपनियाँ शामिल हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में शामिल थीं। अगर लेखकों का उद्देश्य समाज को वैकल्पिक सोच देना और सत्ता के आगे घुटने टेक देने की मानसिकता को बदलने की कोशिश करना है तो ऐसे आयोजनों में शामिल होकर वे मेरे जैसे पाठकों को निराश ही करेंगे।" शशिकांत, "भाई सुयश जी आज हम एक ऐसे समय में जी-मर रहे हैं जिसमें हमारे दौर के बहुत सारे लेखक अलग-अलग गिरोह बनाकर सत्ता, पूंजी, बाज़ार, माफ़िया तत्वों और भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर मलाई खा रहे हैं और लूटतंत्र के हिस्से बन गए हैं. ऐसे लेखकों, लेखक संगठनों और गिरोहों से समाज को वैकल्पिक सोच देने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है." Anjule Elujna , " क्या साहित्य को सत्य की परवाह नहीं होती? या वह उन मौकों की तलाश में रहता है जब विभिन्न ताकतें अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश में उसे अपने साथ जोड़ लेती हैं? क्या साहित्य उस झूठ के फेर में होता है जो एक आभासी सच गढ़ता है, लोगों के व्यापक हित के बारे में महज़ अवधारणात्मक उछाल-कूद करता है जबकि दरअसल वह व्यावसायिक मठों की चाकरी भर कर रहा होता है? अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है. अनैतिक और पापपूर्ण व्यापारिक समूहों के सहयोग से आयोजित एक साहित्य उत्सव को एक खूबसूरत अवसर के रूप में प्रस्तुत करना क्या सिर्फ़ सम्मोहन कि कोशिश-भर नहीं है? कुछ कहने में नाकाम हूँ मैं क्या कहना चैये क्या नहीं, नहीं पता!" शशिकांत, "भाई @anjule Elujna जी आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है, "अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है." ...कथनी और करनी में फ़र्क से भी नीचे गिर गए हैं ऐसे लेखक. क्या समझते हैं "अनैतिक और पापपूर्ण व्यापारिक समूहों के सहयोग से आयोजित" साहित्य उत्सव में प्रतिभागी बने लेखक बेबस, लाचार और अभिजात सत्ता समाज के उत्पीडन के शिकार आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लिखेगा? साहित्य को सत्ता और पूंजी के साथ सांठ-गाँठ कर ख़ुद अपना और अपने बेटी-दामाद, चमचे, चापलूस और पिछलग्गुओं के बेहतर ज़रूर बना रहे हैं ये लेखक." Ernest Albert ‎"दि मीन्स प्रूव दि एंड...." क्रिया और कारक. *मनीष *रंजन : उनको प्रेमचंद से प्रेरणा लेनी चाहिए. क्या.....? (नोट : बहस जारी है...) इसी बीच, पेंगुइन हिंदी ने ख़बर दी, "आज शाम ६ बजे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दरबार हॉल में कपिल सिब्बल के काव्य संग्रह 'किस किस की जय हो' का लोकार्पण होगा. आपकी मौजूदगी से कार्यक्रम को गरिमा मिलेगी. लोकार्पण के बाद कपिल सिब्बल और अशोक चक्रधर कविताओं का पाठ करेंगे." उस पर शशिकांत ने कहा, "मित्रो, कभी अटल बिहारी वाजपेयी 'महान कवि' बनकर उभरे थे, आज कपिल सिब्बल. बंधु, यह विडम्बना है कि हिंदी कविता अब सत्ता के गलियारे से निकल रही है राजपथ से जनपथ की ओर. दरबारी कविता! ...क्या सचमुच रीतिकाल दोबारा आ रहा है?" *रामप्रकाश *अनंत बोले, "यह रीतिकाल से आगे की चीज़ है. रीतिकाल में राजाओं के यहाँ कवि होते थे. अब सत्ता साहित्य संगीत पैसा - कुछ भी हाथ से निकलने नहीं देना चाहती. उसे पेंगुइन और राजकमल जैसे प्रकाशक भी मिलेंगे और यही लोग इनके लिए नामवरों की व्यवस्था कर देंगे. सारी शक्तियां पूंजी में निहित हैं और हम पूंजीवाद की उच्च अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं. कपिल सिब्बल आज जहाँ हैं उसके चलते तो कोई भी प्रकाशक उनके बयानों को भी कविता के रूप में छापने को तैयार हो जाएगा. " शशिकांत : हाँ,...इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया की ख़बर बनेगी. फिर पत्र-पत्रिकाओं में रिव्यू का सिलसिला शुरू होगा. *जय *कौशल : जब सत्ता में आने के बाद अचानक कवि- प्रतिभा जगे, कविताओं की गहराई इसी से पता चलती है...खैर, लोकार्पण के बाद वाजपेयी जी की तरह जनता इनको भी जान जाएगी की सिब्बल जी का विश्वास 'किस-किस की जय' में है... *दुर्गाप्रसाद *अग्रवाल : "सवाल तो अशोक चक्रधर से पूछा जाना चाहिये कि बंधु! किस-किस की जय हो?" जय कौशल : "सर, अशोक जी अब लगता है ऐसे सवालों से ऊपर उठ गए हैं. (नोट : बहस जारी है...) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jan 25 12:56:02 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 25 Jan 2011 12:56:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS44KSkIOCkleClgCDgpKjgpIgg4KSH4KSs4KS+4KSw4KSk?= Message-ID: *सियासत की नई इबारत * छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के एक गांव में एक आदिवासी परिवार राजनीति की नई इबारत लिख रहा है। गीदम कसबे के जावंगा गांव में इसी साल जनवरी में हुए चुनाव में गागरी कवासी नई सरपंच चुनी गई हैं। आजादी के बाद से इस गांव में सरपंच पद की कमान कवासी परिवार के हाथों में ही रही है। खास बात यह है कि बिना किसी राजनीतिक खींचतान के आजादी के बाद १९४७ से जावंगा गांव में सरपंच पद पर सर्वसम्मति से चुनाव होता आया है। गागरी के पति बोमड़ा राम कवासी भी इस गांव के सरपंच रह चुके हैं। १९४७ में बोमड़ा राम के दादाजी बुच्चा कवासी सरपंच चुने गए थे। वह तबसे लगातार १९८३ तक सरपंच रहे। राजनीति में वंशवाद की चर्चाएं होती रही हैं, मगर इस परिवार के प्रति लोगों का विश्वास ही है कि उसके किसी सदस्य के खिलाफ कभी कोई चुनाव लड़ने को तैयार ही नहीं हुआ। इस तरह गीदम का जावंगा देश का एक ऐसा अनोखा गांव बन गया, जहां आजादी से लेकर अब तक एक बार भी पंचायत के चुनाव नहीं हुए हैं। हर बार निर्णय सर्वसम्मति से ही हुआ। बोमड़ा राम बताते हैं कि गांव के लोगों का विश्वास उनके परिवार के प्रति अटूट रहा। चार बच्चों-आसमति, अकील, आरती और अटल की मां गागरी संकोची स्वभाव की हैं। नए लोगों से ज्यादा बात नहीं करतीं। वह गोंडी बोलती और समझती हैं। हिंदी समझ लेती हैं, लेकिन बोल नहीं पातीं। पंचायत चुनाव से पहले तक वह घर का काम ही देखती थीं। जब उनसे पूछा गया कि इस नई जिम्मेदारी के लिए खुद को कितना उपयुक्त मानती हैं, तो उनका जवाब था, ‘गांव वालों ने यह जिम्मेदारी दी है, तो उसे निभाना पड़ेगा।’ गागरी के मुताबिक, आदिवासी लड़कियों की दूसरे समाज के लोगों से शादी की घटनाएं बस्तर क्षेत्र में बढ़ गई हैं, जिससे वह चिंतित हैं। ये शादियां किसी सामाजिक परिवर्तन की द्योतक नहीं हैं, बल्कि यह सब आदिवासी जमीन और आदिवासियों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए बाहरी समाज के लोगों की सोची-समझी रणनीति है। गागरी के सरपंच बनने के बाद गांव में कई निर्माण परियोजनाएं एक साथ शुरू हो गई हैं। इसमें प्रमुख हैं-एक हजार अनाथ बच्चों के लिए बन रहा आस्था गुरुकुल विद्यालय, दलित और आदिवासी लड़कियों के लिए विद्यालय सह छात्रावास, बच्चों के लिए एक खेल परिसर, एक पॉलिटेक्निक और एक अन्य मॉडल स्कूल। उम्मीद है, यह सब २०१३ तक तैयार हो जाएगा। अब आप समझ ही गए होंगे कि पिछले २१० वर्षों से कवासी परिवार ही क्यों गांव वालों के लिए भरोसा बना हुआ है। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Jan 25 18:07:45 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 25 Jan 2011 18:07:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS24KWN4KS1?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuClh+CkuSDgpJXgpL4g4KSF4KSu4KSwIOCksOCkvuCklywsICA=?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSX4KSy4KWH4KS2IOCkoeCkrOCksOCkvuCksg==?= Message-ID: <4D3EC419.7000400@sarai.net> *सबद से साभार: http://vatsanurag.blogspot.com/2011/01/blog-post_25.html* * नश्वर देह का अमर राग* * मंगलेश डबराल* *उन्नीसवीं *शताब्दी के आखिरी वर्षों में उस्ताद अब्दुल करीम खां की जादुई आवाज ने जिस किराना घराने को जन्म दिया था, उसे बीसवीं शताब्दी में सात दशकों तक नयी ऊंचाई और लोकप्रियता तक ले जाने वालों में भीमसेन जोशी सबसे अग्रणी थे। किराना घराने की गायकी एक साथ मधुर और दमदार मानी जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं कि जोशी इस गायकी के शीर्षस्थ कलाकार थे। अर्से से बीमार चल रहे जोशी का निधन अप्रत्याशित नहीं था, हालांकि उनके न रहने से संगीत के शिखर पर एक बड़ा शून्य नजर आता है। लेकिन सिर्फ यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि भीमसेन जोशी किराना घराने के सबसे बड़े संगीतकार थे। दरअसल उनकी संगीत-दृष्टि अपने घराने से होती हुई बहुत दूर, दूसरे घरानों, संगीत के लोकप्रिय रूपों, मराठी नाट्य और भाव संगीत, कन्नड़ भक्ति-गायन और कर्नाटक संगीत तक जाती थी। *यह *एक ऐसी दृष्टि थी जिसमें समूचा भारतीय संगीत एकीकृत रूप में गूंजता था। कर्नाटक संगीत के महान गायक बालमुरलीकृष्ण के साथ उनकी विलक्षण जुगलबंदी से लेकर लता मंगेशकर के साथ उपशास्त्रीय गायन इसके उदाहरण हैं। दरअसल भीमसेन जोशी इस रूप में भी याद किये जायेंगे कि उन्होंने रागदारी की शुद्धता से समझौता किये बगैर, संगीत को लोकप्रियतावादी बनाये बगैर उसका एक नया श्रोता समुदाय पैदा किया। इसका एक कारण यह भी था कि उनकी राग-संरचना इतनी सुंदर, दमखम वाली और अप्रत्याशित होती थी कि अनाड़ी श्रोता भी उसके सम्मोहन में पड़े बिना नहीं रह सकता था। *धारवाड़ *के गदग जिले में १९२२ में जन्मे भीमसेन जोशी की जीवन कथा भी आकस्मिकताओं से भरी हुई है। वे ११ वर्ष की उम्र में अब्दुल करीम खां के दो ७८ आरपीएस रिकॉर्ड सुन कर वैसा ही संगीत सीखने घर से भाग निकले थे और बंगाल से लेकर पंजाब तक भटकते, विष्णुपुर से लेकर पटियाला घरानों तक के सुरों को आत्मसात करते रहे। अंततः घर लौटकर उन्हें पास में ही सवाई गंधर्व गुरू के रूप में मिले जो अब्दुल करीम खां साहब के सर्वश्रेष्ठ शिष्य थे। उन्नीस वर्ष की उम्र में पहला सार्वजनिक गायन करने वाले भीमसेन जोशी पर जयपुर घराने की गायिका केसरबाई केरकर और इंदौर घराने के उस्ताद अमीर खां की मेरुखंड शैली का प्रभाव भी पड़ा। *इस* तरह उन्होंने अपने संगीत का समावेशी स्थापत्य निर्मित किया जिसकी बुनियाद में किराना था, लेकिन उसके विभिन्न आयामों में दूसरी गायन शैलियां भी समाई हुई थीं। भीमसेन जोशी अपने गले पर उस्ताद अमीर खां के प्रभाव और उनसे अपनी मित्रता का जिक्र अक्सर करते थे। कहते हैं कि एक संगीत-प्रेमी ने उनसे कहा कि आपका गायन तो महान है लेकिन अमीर खां समझ में नहीं आते। भीमसेन जोशी ने अपनी सहज विनोदप्रियता के साथ कहा : ‘ठीक है, तो आप मुझे सुनिए और मैं अमीर खां साहब को सुनता रहूंगा। *भीमसेन* जोशी के व्यक्तित्व में एक दुर्लभ विनम्रता थी। किराना में सबसे मशहूर होने के बावजूद वे यही मानते रहे कि उनके घराने की सबसे बड़ी गायिका उनकी गुरू-बहन गंगूबाई हंगल हैं। एक बार उन्होंने गंगूबाई से कहा, ‘बाई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है। मेरी तो किराने की दुकान है। अपने संगीत के बारे में बात करते हुए वे कहते थे : ‘मैंने जगह-जगह से, कई उस्तादों से संगीत लिया है और मैं शास्त्रीय संगीत का बहुत बड़ा चोर हूं। यह जरूर है कि कोई यह नहीं बता सकता कि मैंने कहां से चुराया है।' दरअसल विभिन्न घरानों के अंदाज भीमसेन जोशी की गायकी में घुल-मिलकर इतना संश्लिष्ट रूप ले लेते थे कि मंद्र से तार सप्तक तक सहज आवाजाही करने वाली उनकी हर प्रस्तुति अप्रत्याशित रंगों और आभा से भर उठती थी। *किराना *का भंडार ग्वालियर या जयपुर घराने की तरह बहुत अधिक या दुर्लभ रागों से भरा हुआ नहीं है, लेकिन किसी राग को हर बार एक नये अनुभव की तरह, स्वरों के लगाव, बढ़त और लयकारी की नयी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने का जो कौशल भीमसेन जोशी के पास था वह शायद ही किसी दूसरे संगीतकार के पास रहा हो। मालकौंस, पूरिया धनाश्री, मारू विहाग, वृंदावनी सारंग, मुल्तानी, गौड़ मल्हार, मियां की मल्हार, तोड़ी, शंकरा, आसावरी, यमन, भैरवी और कल्याण के कई प्रकार उनके प्रिय रागों में से थे और इनमें शुद्ध कल्याण और मियां की मल्हार को वे जिस ढंग से गाते थे, वह अतुलनीय था। *उनके* संगीत में एक साथ किराना की मिठास और ध्रुपद की गंभीरता थी, जिसे लंबी, दमदार और रहस्यमय तानें, जटिल सरगम और मुरकियां अलंकृत करती रहती थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था : ‘गाते हुए आपकी साधना आपको ऐसी सामर्थ्य देती है कि यमन या भैरवी के स्वरों से आप किसी एक प्रतिमा को नहीं, बल्कि समूचे ब्रह्मांड को बार-बार सजा सकते हैं। *भीमसेन* जोशी करीब सत्तर वर्षों तक अपने स्वरों से किसी एक वस्तु या मूर्ति को नहीं, समूची सृष्टि को अलंकृत करते रहे। यही साधना थी जो उन्हें बीसवीं सदी में उस्ताद अमीर खां साहब के बाद इस देश के समूचे शास्त्रीय संगीत का सबसे बड़ा कलाकार बनाती है और उन्हीं की तरह वे अपनी देह के अवसान के बावजूद अपने स्वरों की अमरता में गूंजते रहेंगे। **** From member at linkedin.com Wed Jan 26 10:13:29 2011 From: member at linkedin.com (rakesh singh via LinkedIn) Date: Wed, 26 Jan 2011 04:43:29 +0000 (UTC) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= rakesh singh wants to stay in touch on LinkedIn Message-ID: 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URL: From rakeshjee at gmail.com Wed Jan 26 10:13:53 2011 From: rakeshjee at gmail.com (rakesh singh) Date: Wed, 26 Jan 2011 04:43:53 +0000 (UTC) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= rakesh singh wants to stay in touch on LinkedIn Message-ID: <216235546.1786436.1296017033484.JavaMail.app@ela4-bed39.prod> LinkedIn ------------ I'd like to add you to my professional network on LinkedIn. - rakesh singh rakesh singh editor at sarokar New Delhi Area, India Confirm that you know rakesh singh https://www.linkedin.com/e/-l4euxx-gjdr2v4a-3x/isd/2213178756/TakNzAPn/ -- (c) 2011, LinkedIn Corporation -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jan 26 14:07:28 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 26 Jan 2011 14:07:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCknA==?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCliyDgpK7gpL/gpLLgpYcg4KS44KSC4KS14KS/4KSn4KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClgCDgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4gOiDgpIngpKbgpK8g4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: ** *आम जन को मिले संविधान की सत्ता : उदय प्रकाश *** साथियो, मौक़ा आज गणतंत्र दिवस की 62 वीं सालगिरह का है. हमारे गणतंत्र के समक्ष कई गंभीर चुनौतियाँ हैं. सत्ता और व्यवस्था कार्पोरेट लोकतंत्र की राह पर चल रही है. संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए अधिकार छीने जा रहे हैं. चौतरफ़ा मची लूट, अन्याय, भ्रष्टाचार, हिंसा वगैरह से मुल्क़ का आम नागरिक परेशान है, और सत्ता व्यवस्था बेखबर. संविधान की सत्ता वापस हिंदुस्तान की जनता को लौटाई जाए. पेश है, हाल ही में साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए चुने गए हमारे दौर के बेहद लोकप्रिय लेखक *उदय प्रकाश *की इन्हीं मसलों पर बेबाक टिप्पणी, जो आज दैनिक भास्कर, नई दिल्ली अंक में प्रकाशित हुई है. *- शशिकांत* *आज सबसे पहले *हम यह देखें कि पिछले साठ सालों में लोकतंत्र की स्थापना के बाद आजाद भारत में वो क्या है जो बचा रह गया है, और वो किस रूप में आज हमारे सामने है। संविधान कहता है कि लोकतंत्र में सर्वोच्च सत्ता जनता के हाथ में होती है और संसद तथा कार्यपालिका में लोग या तो उसके द्वारा प्रदत्त किए गए अधिकारों के तहत काम करते हैं या जनता के सेवक होते हैं। यानि जनप्रतिनिधियों के पास जो भी संवैधानिक सत्ता है वह उन्हें देश के नागरिकों के द्वारा दी गई हैं। * * * * *इस मौके पर *सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि देश में लोकतंत्र कितना बचा हुआ है और आम जनता की स्थिति क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले वर्षों में लोकतंत्र का लगातार क्षरण होता गया है और सारी सत्ता उन गिने-चुने ताकतों के हाथ में रह गई है जो ऐसी योजनाएं बना रहे हैं, जो स्वयं लोकतांत्रिक हितों के विरुद्ध ठहरती है। * * *हमें सोचना होगा* कि हमारे देश की जनता वोट देकर जिस सरकार को बनाती है, उसी जनता के बहुत साधारण और न्यायिक मांगों के विरूद्ध सरकार को सेना और अर्धसैनिक बलों का प्रयोग क्यों करना पड़ रहा है। भोजन, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, घर, जमीन, अभिव्यक्ति की आज़ादी और ऐसी हर चीज पर से देश के नागरिकों का अधिकार छिनता चला जा रहा है। *कई बार* तो ऐसा लगता है कि यह जो कारपोरेट डेमोक्रेसी है वह किसी भी तरह से अतीत की उन सर्वसत्तावादी, निरंकुश व्यवस्थाओं से अलग नहीं रह गई है जिन्होंने अपनी प्रजा से उसका सबकुछ छीन लिया था। *दूसरी बात *यह है कि जब इक्कीसवीं सदी आई थी तो हम सबने बहुत विश्वास और आशा के साथ भविष्य की ओर देखा था। लेकिन पहला दशक बीतने के बाद जब हम पीछे की ओर देखते हैं तो वो दशक आर्थिक घेटालों, भ्रष्टाचार और वैश्विक आर्थिक मंदी का सबसे भयावह दौर भी इसी बीच आया। *याद रखें,* भ्रष्टाचार अपने आप में एक ऐसी ताकतवर विचारधारा (आइडियोलाजी) और व्यवस्था (सिस्टम) है, जो दूसरी किसी भी विचारधारा और व्यवस्था को निगल जाती है। आप खुद देख सकते हैं कि इसने समाजवाद और लोकतंत्र, दोनों को विफल कर दिया है। *विडंबना यह है कि* हमारे प्रधानमंत्ऱी दुनिया के सबसे विश्वसनीय आर्थिक विशेषज्ञ राजनेता माने जाते हैं लेकिन उनके कार्यकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार इतना बढ़ा कि गरीबों की थाली से दाल और प्याज भी गायब हो गए। उन्नीसवीं सदी के मध्य में आधुनिक हिंदी के पितामह कहे जानेवाले भारतेंदु का नाटक ‘अंधेर नगरी’ आज बार-बार याद आता है- ‘‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।’’ आज आप खुद देख लीजिए, प्याज पैंसठ रुपए किलो, पेट्रोल पैंसठ रुपए लीटर और बीयर पैंसठ रुपये बोतल। *इस नई उदारवादी अर्थनीति ने* सामान्य भारतीय नागरिकों के सामने एक ऐसा संकट प्रस्तुत किया है जिसकी किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। यह हमारे इतिहास का अब तक का सबसे भयावह दौर है। जिस स्वतंत्र बाजा़र को सभी संकटों का स्वयं विमोचक कहा जा रहा था, आज उसके सामने बड़े सवालिया निशान हैं। चंद मुट्ठी भर व्यापारिक समूहों की आय और मुनाफा बढ़ा कर सकल घरेलू आर्थिक विकास का भ्रम पैदा करने वाले इस बाज़ार ने बेरोजगारी, महंगाई, कर्जदारी, आर्थिक-सामाजिक विषमता की डरावनी खाई जिस तरह पैदा की है, उसका भविष्य डरावना लगता है। *राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान परिषद* के आंकड़े के अनुसार देश में हर सत्ताइस मिनट पर एक नागरिक आत्महत्या कर रहा है। आंध्र और विदर्भ में गरीबी और कर्ज में डूबे किसानों की हताशा के साथ शुरू हुआ आत्महत्या का संक्रामक रोग मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड और उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया है। सरकार जीडीपी की उपलब्धियों के नाम पर पूरे देश को अंधेरे में नहीं रख सकती। अपनी जिस सेना पर हम कभी गर्व करते थे, वह सेना भी अब भ्रष्टाचार की चपेट में आ चुकी है। अंधाधुंध दौलत की हवस कहां तक जा पहुंचेगी, हमने कभी यह सोचा भी नहीं था। *कभी, रवींद्रलाथ टैगोर और महात्मा गांधी ने* यह कहा था कि हमारा भारत देश यूरोप के राष्ट्र-राज्यों से इस मायने में भिन्न है क्योंकि यह किसी एक भाषा, धर्म, नस्ल तथा एक किसी साझा श़त्रु के द्वारा परिभाषित नहीं होती है। हमारे गणतंत्र का विचार ही विविधताओं और विभिन्नताओं के सहअस्तित्व और उनके सहकार की नींव पर टिका हुआ था। लेकिन आज आप देखिए कि इस देश के भीतर आंतरिक और बाहरी एक नहीं कई शत्रु हैं। *लगता है जैसे *यह परस्पर शत्रुओं के आपसी घमासान से भरा हुआ, किसी महाभारत काल का गणराज्य है। संविधान लगभग एक मिथक बनकर रह गया है। संविधान की सबसे ज्यादा धज्जियां कार्यपालिका और खुद न्यायपालिका ने बिखेरी है। *आम नागरिक* को तो ट्रैफिक का उल्लंघन करने पर भी जुर्माना भरना पड़ता है, किसान लगान देता है, जनता लगभग सभी शासकीय अनुदेशों का पालन करती है। लेकिन जो स्वयं शासक वर्ग है वह संविधान की मर्यादाओं के बाहर जा चुका हैं। यह बड़ा ही कठिन और चुनौतीपूर्ण समय है। *बहुत पहले से* हम सब देखते आ रहे हैं कि अमेरिका, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश के प्रभाव में आकर जिस अर्थनीति का पालन और अनुसरण दुनिया के अधिकांश देशों ने किया उसने उन देशों की सरकारों को भ्रष्ट, निरंकुश और आतताई व्यवस्थाओं में बदल दिया। *इस नई अर्थनीति ने* एक ऐसी लुटेरी व्यवस्था को जनम दिया है, जिसमें आज हमारे देश की सारी राष्ट्रीय संपदा और संप्रभुता ही नहीं सामान्य नागरिकों का जीवन भी खतरे में है। मानवाधिकारों, उपभोक्ताओं के हितों और नागरिकों के तकाजों की कोई परवाह इस शासक वर्ग में नहीं रह गई है। *मैं बार-बार* यह कह रहा हूं कि देश में विकास का जो मॉडल पिछले दो-ढाई दशकों से अपनाया जा रहा है वह किसी मायने में विकास है ही नहीं। इस विकास के कारण प्रकृति और नागरिकों को विनाश, विस्थापन और आर्थिक तबाही का सामना करना पड़ रहा है। सन 1947-48 में देश की कुल भूमि का छियालीस प्रतिशत वनाच्छादित था। आज इकसठवें वर्ष में यह ग्यारह-बारह प्रतिशत मात्र रह गया है। *नदियां *खत्म हो गई हैं। जैविक विविधताएं समाप्त हो रही हैं। ओजोन की परत में छेद ही छेद है। हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है। पानी पीने के काबिल नहीं है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अपराध इतना कभी नहीं था। बेरोजगारी एक भयानक समस्या बन गई है। *हर सत्ताइस मिनट में *देश का कोई न कोई नागरिक आत्महत्या कर रहा है। गांवों से ऐसा पलायन कभी नहीं देखा गया। शहर और महानगर रोजगार की तलाश में पलायित होकर आनेवाली आबादी को सह नहीं पा रहे हैं। *हर ओर* अंधेरा ही अंधेरा है। लेकिन देश का जीडीपी फिर भी बढ़ रहा है। सेंसेक्स लगातार उछल रहा है। मीडिया में लाफ्टर चैलेंज, ग्लैमर, सेक्स, गॉसिप और रियलिटी शो जैसे कार्यक्रमों के जरिये टीआरपी बढ़ाया जा रहा है। अखबार रुपये लेकर राजनीतिक खबरें छाप रहे हैं। सांसद सार्वजनिक हितों से जुड़े सवाल संसद में उठाने के लिए रुपये मांग रहे हैं। * * *मैं आग्रह करूंगा* कि आगामी छब्बीस जनवरी को राजधानी में राजपथ पर राष्ट्रªपति भवन के सामने नए-नए टैंकों, लड़ाकू जहाजों, मिसाइलों की प्रदर्शनी नहीं बल्कि प्याज, लहसुन, प्राणरक्षक दवाइयों, विस्थापितों के पुनर्वास के लिए बने मकानों के मॉडल और देश के गरीब परिवारों के उपयोग में आ सकने वाले स्कूलों-अस्पतालों-बिजलीघरों-नलकूपों के नमूनों और उन जरूरी सामग्रियों का प्रदर्शन होना चाहिए जिनकी जनता को जरूरत है। हम सब वही देखना चाहते हैं। *छब्बीस जनवरी को* देश के नागरिकों को संविधान द्वारा दिये गये मूलभूत अधिकार और एक लोकतांत्रिक गरिमापूर्ण मानवीय जीवन उन्हें वापस लौटाई जाए। शायद देश के अस्सी प्रतिशत लोगों की यही आकांक्षा है। *(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Jan 29 03:41:18 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 29 Jan 2011 03:41:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkqOClhyDgpKrgpYLgpJvgpL4g?= =?utf-8?b?4KSc4KSv4KSq4KS+4KSyIOCksOClh+CkoeCljeCkoeClgCDgpLjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkuOCkteCkvuCksj8=?= Message-ID: किस पत्रकार ने पूछा जयपाल रेड्डी से यह सवाल? *- शशिकांत* *भ्रष्टाचार,* महंगाई और अन्य दुश्वारियों से जूझ रहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए 28 जनवरी की तारीख़ ख़ास थी, इस लिहाज से कि एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी वाले दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में लोकतंत्र आज भी महफूज़ है. *"सरकार* केरोसिन की कालाबाजारी रोकने के लिए क्यों इसका मूल्य निर्धारण बाजार पर छोड़ नहीं देती?" यह सवाल आज हिंदुस्तान के पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेडडी से प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा गया। यह सवाल पेट्रोलियम के धंधे कर रही इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेटोलियम, रिलायंस जैसी किसी तेल कंपनी के नुमाइंदे ने उनसे नहीं पूछा, पूछा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के नुमाइंदों ने, और वो भी दिनदहाड़े प्रेस कॉन्फ्रेंस में। *दरअसल,* केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने 28 जनवरी को एक प्रेस कॉन्फेंस किया। यह कॉन्फ्रेंस पिछले दिनों महाराष्ट्र के मालेगांव में सरकारी अफ़सर यशवंत सोनावने को तेल में मिलावट रोकने की कोशिश के दौरान तेल माफियाओं ने सरेआम तेल छिड़ककर ज़िंदा जला *प्रेस कॉन्फ्रेंस में *कुछ पत्रकारों ने पेट्रोलियम मंत्री मुल्क़ में सक्रिय तेल माफिय़ा पर लगाम लगाने के लिए किरासन तेल पर से सरकारी सब्सिडी को ख़त्म करने और उसकी कीमतें बाज़ार के आधार पर निर्धारत करने का जनविरोधी सवाल उठाया। *पत्रकारों के* इस सवाल पर जयपाल रेड्डी को मज़बूरन यह कहना पड़ा कि मैं सैद्धांतिक रुप से सहमत हूं कि अगर केरोसीन की क़ीमतें बाज़ार आधारित हों तो कालाबाज़ारी रुकेगी लेकिन इस तरह का फ़ैसला लेना राजनीतिक रूप से कठिन है. सरकार तेल माफिया पर नियंत्रण के लिए उपाय कर रही है ताकि इसकी कालाबाजारी रुके लेकिन सरकार केरोसीन पर सब्सिडी हटाने का राजनीतिक फ़ैसला नहीं कर सकती है. *उन्होंने कहा कि* जब मैं राजनीतिक कहता हूं तो इसका मतलब समग्रता में लिया जाना चाहिए. देश में बड़ी आबादी है जो बहुत गऱीब है जिन्हें कम क़ीमत पर केरोसीन मिलना चाहिए. *सैद्धांतिक रुप से* सहमत होने के बावजूद पेट्रोलियम मंत्री का यह बयान काबिलेतारीफ़ तो है ही लोकतंत्र की भी जीत है, भले मज़बूरी में ही उन्हें यह बयान देना पड़ा हो. लेकिन यहाँ पर सवाल उन चाँद पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने पेट्रोलियम मंत्री से इस तरह का जनविरोधी सवाल क्यों पूछा. *इसे विडम्बना* ही कहा जाएगा कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता हैं। लेकिन मीडिया के कुछ पत्रकार लोकतंत्र के खिलाफ़ सरकार को भडक़ाने का काम कर रहे हैं. यह दुखद और निंदनीय है और इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए. *मौजूदा दौर में *जब मुल्क़ संक्रमण के दौर से गुजर रहा है तो पत्रकारों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे मुल्क़ में आम आदमी की दुश्वारियों को मद्देनजऱ रखते हुए अपने पेशे की गंभीरता को समझें और सत्ता-व्यवस्था को उचित सलाह दें. *हिदुस्तान आज* तमाम संकटों को झेलते हुए भी यदि आज दुनिया के नक्से पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ के तौर पर अपना ख़ास मुकाम बना पाया है तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही है कि यहाँ पत्रकारिता मिशन के तौर पर काम करती रही है. *हमारे पत्रकार* भाई-बहनों को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र के एक स्तम्भ के तौर पर पत्रकारिता करते हुए लोकहित का ख़याल रखना लाजिमी है. जिस दिन हिंदुस्तान या किसी भी लोकतंत्र के पत्रकार लोकहित को तजकर सत्ता या व्यवस्था या पूंजी या बाज़ार आदि के हित में कलम चलाने लगेगा उसके बाद लोकतंत्र के मज़बूत से मज़बूत किले को कोई ढहने से रोक नहीं सकता. *जिस लोकतंत्र पर* हमें फ़ख्र है उसे बनाए रखने और मज़बूत करने के जि़म्मेदारी हम सबकी है. आज मुल्क़ में और हिन्दुस्तानी समाज में कई ऐसी समस्याएँ और मुद्दे हैं जिन्हें बड़ी संजीदगी से सामने लाने की जि़म्मेदारी मीडिया की है. ताकि सरकार और व्यवस्था लोकतान्त्रिक विकास की राह पर मुल्क़ को आगे ले जाने का दबाव बनाया जा सके. एक सौ पच्चीस करोड़ हिन्दुस्तानियों का हित इसी में है. *इसलिए हम मांग करते हैं कि* केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी से ऐसे जनविरोधी सवाल पूछनेवाले पत्रकार को संबंधित प्रबंधन दण्डित करे या उसे गंभीर चेतावनी दे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Jan 29 12:46:53 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 29 Jan 2011 12:46:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSk4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleCkvuCksOCljeCkquCli+CksOClh+Ckn+Ckv+Ckr+CkviDgpJc=?= =?utf-8?b?4KSPIOCkleCkvyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLDgpL/gpKTgpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IEEgLCBCICwgQyAsIEQg4KS54KWAIOCkreClguCksiDgpJc=?= =?utf-8?b?4KSPPw==?= Message-ID: * इतने कार्पोरेटिया गए कि पत्रकारिता का A , B , C , D ही भूल गए? - शशिकांत भ्रष्टाचार,* महंगाई और अन्य दुश्वारियों से जूझ रहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए 28 जनवरी 2011 की तारीख़ ख़ास थी, इस लिहाज से कि एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी वाले दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में लोकतंत्र आज भी महफूज़ है. भले मज़बूरी में ही सही! *लेकिन *कार्पोरेट मीडिया घराने की चाकरी करते-करते हिन्दुतान के हमारे कुछ पत्रकार भाई/बहन इतने कार्पोरेटिया गए हैं कि वे पत्रकारिता का A , B , C , D ही भूल गए हैं!* * *"सरकार* केरोसिन की कालाबाज़ारी रोकने के लिए क्यों इसका मूल्य निर्धारण बाज़ार पर छोड़ नहीं देती?" (मतलब यह कि सरकार ग़रीब लोगों को केरोसिन पर दे रही सब्सिडी ख़त्म क्यों नहीं कर देती?) यह सवाल हिंदुस्तान के पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेडडी से प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा गया। *सवाल* पेट्रोलियम के धंधे कर रही इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेटोलियम, रिलायंस जैसी किसी तेल कंपनी के नुमाइंदे ने नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के नुमाइंदों ने पूछा, और वो भी दिनदहाड़े प्रेस कॉन्फ्रेंस में। ऐसे सवाल पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने वाले पत्रकार ही पूछ सकते हैं. और ऐसे माफिया पत्रकारों की एक अच्छी ज़मात तैयार हो गई है हिन्दुस्तान में आजकल. यह मीडिया का तकलीफदेह रुझान है. *दरअसल,* केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने 28 जनवरी को एक प्रेस कॉन्फेंस किया। यह कॉन्फ्रेंस महाराष्ट्र के मालेगांव में यशवंत सोनावने की तेल माफियाओं द्वारा सरेआम तेल छिड़ककर ज़िंदा जला देने की घटना को लेकर बुलाया गया था. *प्रेस कॉन्फ्रेंस में *कुछ पत्रकारों ने पेट्रोलियम मंत्री मुल्क़ में सक्रिय तेल माफिय़ा पर लगाम लगाने के लिए किरासन तेल पर से सरकारी सब्सिडी को ख़त्म करने और उसकी कीमतें बाज़ार के आधार पर निर्धारत करने का जनविरोधी सवाल उठाया। *पत्रकारों के* इस सवाल पर जयपाल रेड्डी को मज़बूरन यह कहना पड़ा कि मैं सैद्धांतिक रुप से सहमत हूं कि अगर केरोसीन की क़ीमतें बाज़ार आधारित हों तो कालाबाज़ारी रुकेगी लेकिन इस तरह का फ़ैसला लेना राजनीतिक रूप से कठिन है. सरकार तेल माफिया पर नियंत्रण के लिए उपाय कर रही है ताकि इसकी कालाबाजारी रुके लेकिन सरकार केरोसीन पर सब्सिडी हटाने का राजनीतिक फ़ैसला नहीं कर सकती है. *उन्होंने कहा कि* जब मैं राजनीतिक कहता हूं तो इसका मतलब समग्रता में लिया जाना चाहिए. देश में बड़ी आबादी है जो बहुत गऱीब है जिन्हें कम क़ीमत पर केरोसीन मिलना चाहिए. *पेट्रोलियम मंत्री* का यह बयान काबिलेतारीफ़ तो है ही लोकतंत्र की भी जीत है. भले मज़बूरी में उन्हें यह बयान देना पड़ा हो. लेकिन यहाँ पर गिरेबान उन पत्रकारों का पकड़ा जाना चाहिए जिन्होंने पेट्रोलियम मंत्री से इस तरह का जनविरोधी सवाल पूछा. *जन वितरण प्रणाली* (पीडीएस) में भ्रष्टाचार है इसलिए सरकार को पीडीएस ख़त्म कर देना चाहिए, पहले केरोसिन, फिर चीनी, चावल, गेहूं- सबकुछ बंद! वाह पत्रकार बंधु वाह! जानते हैं तमाम करप्शन के बावजूद पीडीएस की कितनी बड़ी भूमिका है मुल्क के गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों के कुपोषण को दूर भगाने में? तब तो ये भी नहीं जानते होंगे कि मुल्क में गरीबी की पहचान के लिए गठित सरकारी कमिटियों के मुताबिक़ मुलह में 35 से 85 प्रतिशत जनता ग़रीब है? *कार्पोरेट मीडिया* घराने की चाकरी करते-करते इतने कार्पोरेटिया गए कि पत्रकारिता का A , B , C , D ही भूल गए? क्यों बदनाम कर रहे हैं मीडिया को? जाइये इस मुल्क में दलाली करने के बहुत सारे ठिकाने हैं. *इसे विडम्बना* ही कहा जाएगा कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता हैं। लेकिन मीडिया के कुछ पत्रकार लोकतंत्र के खिलाफ़ सरकार को भडक़ाने का काम कर रहे हैं. यह दुखद और निंदनीय है और इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए. *मौजूदा दौर में *जब मुल्क़ संक्रमण के दौर से गुजर रहा है तो पत्रकारों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे मुल्क़ में आम आदमी की दुश्वारियों को मद्देनजऱ रखते हुए अपने पेशे की गंभीरता को समझें और सत्ता-व्यवस्था को उचित सलाह दें. *हिदुस्तान आज* तमाम संकटों को झेलते हुए भी यदि आज दुनिया के नक्से पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ के तौर पर अपना ख़ास मुकाम बना पाया है तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही है कि यहाँ पत्रकारिता मिशन के तौर पर काम करती रही है. *हमारे पत्रकार* भाई-बहनों को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र के एक स्तम्भ के तौर पर पत्रकारिता करते हुए लोकहित का ख़याल रखना लाजिमी है. जिस दिन हिंदुस्तान या किसी भी लोकतंत्र के पत्रकार लोकहित को तजकर सत्ता या व्यवस्था या पूंजी या बाज़ार के हित में कलम चलाने लगेगा उसके बाद लोकतंत्र के मज़बूत से मज़बूत किले को कोई ढहने से रोक नहीं सकता. *जिस लोकतंत्र पर* हमें फ़ख्र है उसे बनाए रखने और मज़बूत करने के जि़म्मेदारी हम सबकी है. आज मुल्क़ में और हिन्दुस्तानी समाज में कई ऐसी समस्याएँ और मुद्दे हैं जिन्हें बड़ी संजीदगी से सामने लाने की जि़म्मेदारी मीडिया की है. ताकि सरकार और व्यवस्था लोकतान्त्रिक विकास की राह पर मुल्क़ को आगे ले जाने का दबाव बनाया जा सके. एक सौ पच्चीस करोड़ हिन्दुस्तानियों का हित इसी में है. *इसलिए हम मांग करते हैं कि* केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी से ऐसे जनविरोधी सवाल पूछनेवाले पत्रकार/पत्रकारों के ख़िलाफ़ पत्रकार संगठन उचित कार्रवाई करे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Jan 29 23:57:02 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 29 Jan 2011 23:57:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWILCAzMCDgpJzgpKjgpLXgpLDgpYAsIOCkrOCkvuCkquClgiDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquClgeCko+CljeCkr+CkpOCkv+CkpeCkvy4uLiE=?= Message-ID: आज है, 30 जनवरी यानि बापू की पुण्यतिथि...! बापू के आख़िरी क्षण*- शशिकांत* आज है, 30 जनवरी, बापू की पुण्यतिथि...! 64 साल पहले यानि 30 जनवरी सन 1948. नव-स्वाधीन भारत का वह काला दिन उग्र हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले एक दिग्भ्रमित युवक ने (मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता) बापू को हमसे छीन लिया था. आज तक बापू को, बापू के बारे में (खिलाफ़ और पक्ष में) बहुत कुछ पढ़ा, सुना और कुछ फ़िल्में भी देखीं पिछले दिनों फेसबुक पर विचरते हुए बापू के आख़िरी क्षण का फोटो मिला - (उनके हत्यारे के हाथ में है पिस्तौल उंगली घोड़े पर बहस कर रहा है बापू से फिर गोलियां चलाएगा!) ...................... *हे राम !* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jan 31 18:57:30 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 31 Jan 2011 18:57:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCknA==?= =?utf-8?b?4KWI4KSk4KS+4KSq4KWB4KSwIOCkquCksOCkv+Ckr+Cli+CknOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KS54KWI4KSCOiDgpKo=?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KS14KWA4KSjIOCkquCksOCktuClgeCksOCkvuCkriDgpJc=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSj4KSV4KSw?= Message-ID: जैतापुर में प्रस्तावित 9900 मेगावाट परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए कुल 938 हेक्टेयर जमीन ली जानी है, जिसमें 669 हेक्टेयर जमीन हमारे गांव मडवन की है। यह संयंत्र हमारे लिए षडयंत्र है। हमारे गांव के लोग बिल्कुल इसके लिए तैयार नहीं हैं। सरकार हमसे इस विषय पर बात करना चाहती है, लेकिन जब उसने फैसला कर लिया है कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए मडवन की जमीन ही ली जानी है तो कहिए बातचीत का क्या लाभ? वैसे इस तरह के व्यवहार को तानाशाही कहा जा सकता है, बातचीत तो कभी नहीं। http://ashishanshu.blogspot.com/ -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From editormediamorcha at gmail.com Sun Jan 16 22:21:57 2011 From: editormediamorcha at gmail.com (media morcha) Date: Sun, 16 Jan 2011 16:51:57 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?cGwucmVhZCDgpKw=?= =?utf-8?b?4KSC4KSn4KWB4KS14KSwIOCkquCksOClh+CktuCkvuCkqCDgpLngpYg=?= =?utf-8?b?4KSCICEgb24gd3d3Lm1lZGlhbW9yY2hhLmNvLmlu?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on January 16 2011 Read more... बंधुवर परेशान हैं ! [image: बंधुवर परेशान हैं !] निखिल आनंद /मुद्दा / अबतक सियासी किस्सागोई और बहस का कारण बंधुवर बनते रहे हैं। लेकिन नवलेश की गिरफ्तारी के बाद इन दिनों बंधुवर ही खासे चर्चे में हैं। बंधुवर करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन ज्यादा बोले तो डरते हैं कि अगला नंबर उनका न हो। अब बंधुवर नौकरी बचाये की आंदोलन बचाये ... Posted on January 16 2011 Read more... बिहार में सामाजिक परिवर्तन [image: बिहार में सामाजिक परिवर्तन] लीना /पुस्तक चर्चा/ डा. एपीजे अब्दुल कलाम, वी. एस पाल, बराक ओबामा से लेकर बिल और हिलेरी क्लिंटन तक की किताबें छाप चुके देश के जाने माने प्रभात प्रकाशन ने पिछले वर्ष 2010 में बिहार के सामाजिक सरोंकारों के साथ ही यहां के पर्यटक व धार्मिक स्थलों का विशेष ख्याल रखते हुए दर्जनों लेखकों की ... Posted on January 15 2011 Read more... विलाप नहीं, कीमत खुद तय करें [image: विलाप नहीं, कीमत खुद तय करें] मनोज कुमार /मुद्दा / एक नौजवान पत्रकार साथी ने शोषण के संदर्भ में एक अखबार कह कर जिक्र किया है और संकेत के तौर पर साथ में एक टेबुलाइड अखबार देने की बात भी कही है। समझने वाले समझ गये होंगे और जो नहीं समझ पाए होंगे, वे गुणा-भाग लगा रहे होंगे। यहां पर मेरा ... Posted on January 14 2011 Read more... मीडिया की शोध पत्रिका : समागम [image: मीडिया की शोध पत्रिका : समागम] खबर / भोपाल / मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम का प्रकाशन अब शोध पत्रिका के रूप में किया जाएगा। यह शोध पत्रिका द्विभाषी होगी। इस आशय की जानकारी एक विज्ञप्ति में समागम के सम्पादक मनोज कुमार ने दी। मीडिया का विस्तार हो रहा हैऔर मीडिया शोध का कैनवास भी बड़ा हुआ है ... Posted on January 13 2011 Read more... मीडिया शिक्षाःबहुत कुछ बदलने की जरूरत [image: मीडिया शिक्षाःबहुत कुछ बदलने की जरूरत] संजय द्विवेदी / मुद्दा/ पिछले कुछ दो दशकों में तकनीक-संचार के साधनों की तीव्रता ने दुनिया के मीडिया का चेहरा-मोहरा बहुत बदल दिया है। मीडिया में पेशेवर अंदाज़ व आकर्षक प्रस्तुति की माँग प्राथमिक हो गई है। यह अब शब्दों की बेचारी दुनिया नहीं रही, यहाँ शब्द पीछे हैं, उसके साथ जुड़ा है, एक ... Posted on January 12 2011 Read more... पत्रकारिता में सम्पन्न लोगों के दोहरे चेहरे [image: पत्रकारिता में सम्पन्न लोगों के दोहरे चेहरे] बिजेंद्र त्यागी /मुद्दा/ मेरी पत्नी और पुत्री एक दिन मुझसे पूछने लगे कि जिन्दगी में आपने क्या किया है? आप उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बहुगुणा जी, प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और अन्य लोगों के बारे में इतनी बातें करते हो, उन्होंने आपको क्या दिया? मैं देख रही हूं तुम्हारे बाद में काम करने वाले लोगों के ... Posted on January 10 2011 Read more... ‘टीआरपी’ को बनेगा पारदर्शी तंत्र [image: ‘टीआरपी’ को बनेगा पारदर्शी तंत्र] नई दिल्ली / खबर / केन्द्र सरकार अमित मित्रा समिति की सिफारिश के मद्देनजर देश में टेलीविजन रेटिंग अंक ‘‘टीआरपी’’ निर्धारण की मौजूदा प्रणाली की खामियां दूर कर एक नया पारदर्शी तंत्र विकसित करने के उचित कदम उठायेगा। सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल महासंघ ‘‘फिक्की’’ के महासचिव ... Posted on January 8 2011 Read more... विधायक की हत्‍या से जुड़े सवाल : कौन देगा जवाब [image: विधायक की हत्‍या से जुड़े सवाल : कौन देगा जवाब] निखिल आनंद / मुद्दा/ विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या ने कड़ाके की ठंड में बिहार का राजनीतिक तापमान गरम कर दिया है। बिहार के सत्ताधारी गठबंधन के एक विधायक की हत्या हो जाए वो भी दिन के उजाले में, ये घटना सुशासन में आम लोगों की सुरक्षा के सरकारी दावे पर उँगली उठाने के लिए ... Posted on January 8 2011 Read more... मीडिया जगत में ‘किंग गोबरा’ की इन्ट्री [image: मीडिया जगत में ‘किंग गोबरा’ की इन्ट्री] भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी / मुद्दा/ आज कल हमारे यहाँ के पत्रकार जगत में एक सर्वथा डैसिंग/डायनामिक परसनैलिटी उभर कर सामने आई है, जिसे देखकर बॉलीवुड की जासूसी/स्टंट फिल्मों की यादें आती हैं। क्या परसनैलिटी है- शार्ट शर्ट, जीन्स पैण्ट कमर में कैमरा शर्ट की जेबों में पेन और स्लिप पैड। देखने से ही लगता है ... Posted on January 7 2011 Read more... पत्रकारों के वेतन में 65 फीसदी बढ़ोत्तरी की सिफारिश [image: पत्रकारों के वेतन में 65 फीसदी बढ़ोत्तरी की सिफारिश] खबर / पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड ने अखबारी और एजेंसी कर्मियों के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है तथा साथ में मूल वेतन का 40 प्रतिशत तक आवास भत्ता और 20 प्रतिशत तक परिवहन भत्ता देने का सुझाव दिया है। न्यायमूर्ति जी आर मजीठिया के ... -- www.mediamorcha.co.in -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jan 19 22:50:54 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 19 Jan 2011 17:20:54 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSo4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClh+CkgiDgpK/gpYHgpKbgpY3gpKfgpYvgpKjgpY3gpK4=?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIOCklOCksCDgpLXgpLDgpY3gpJrgpLjgpY3gpLXgpLXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSmICE=?= Message-ID: मित्रो, हिन्दू कॉलेज के सखा और मीडिया में सहकर्मी-दोस्त मनोज, जो अब वैधानिक रूप से फ्रैंक हुज़ूर बन गए हैं, ने हिन्दुस्तानी इलेक्ट्रौनिक मीडिया के युद्धोन्मादी, साम्प्रदायिक और गैरज़रूरी पाक विरोधी प्रसारणों पर बेबाक टिप्पणी करती हुई अपनी यह पोस्ट दीवान के साथियों के हवाले करने का हुक्म फरमाया है. *फ्रैंक**** *अंग्रेजी के पत्रकार और लेखक हैं. उनकी लिखी क्रिकेटर इमरान खान की जीवनी, ‘इमरान वर्सेस इमरान : द अनटोल्ड स्टोरी’ जल्द ही आने वाली है. हुज़ूर की रिहाइश आजकल लन्दन है. फ्रैंक से rankhuzur at rediffmail.com और frankhuzur at live.co.uk पर संपर्क कर सकते हैं. - शशिकांत हिन्दुस्तानी मीडिया में युद्धोन्माद और वर्चस्ववाद !फ्रैंक हुज़ूर *वो* 26 नवम्बर 2008 की ही शाम थी. दिल्ली और मुंबई के बाज़ारों में गहमागहमी अपने उफ़ान पर थी. लोगबाग अपनी-अपनी ज़िंदगी में मशगूल थे. मैं भी दिल्ली के पहाड़गंज में आवारागर्दी कर रहा था. एक दुकान पर गोल्डफ्लेक सिगरेट को जैसे ही मैने चिंगारी के हवाले किया, मेरी नज़र सामने लगे एक मशहूर न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ पर थम गईं - "मुंबई पर पाकिस्तान का हमला"... "हत्या और दरिन्दगी का सिलसिला बदस्तूर जारी"... विजुअल्स मुंबई की लगातार वीरान हो रही सड़कों के थे. *कुछ ही पल में* कैमरा हेरिटेज होटल ताज की सुर्ख मीनारों पर फ्लेश डांस करने लगा. इस विचित्र और रहस्यमय मंजर की हक़ीक़त वहां मौजूद लोगों को समझ नहीं आ रही थी. अचानक मदन कैफे के विदूषक बैरे रामसिंह ने ऐलान कर दिया, "आतंकवादी हमला." जैसे ही आतंकवादी शब्द रामसिंह के मुंह से बाहर आया, कुछ फिरंगी मेहमानों के हाथ से गरम चाय की प्याली छलकते-छलकते बची. मदन कैफे पहाड़गंज में विदेशी सैलानियों की गुफ्तगू का एक ज़बरदस्त अड्डा है, जहां वे हिन्दुस्तान के हर कोने से जमा होते हैं और करीब के सस्ते होटलों में मस्ती करते हैं. *इंडिया टीवी पर* ब्रेकिंग न्यूज़ का आगाज़ करने वाला एंकर कोट और पतलून पहना हुआ था. अंग्रेजों की माफिक उसने अपनी छाती के ऊपर ख़ूबसूरत फिरोजी रंग की टाई लहरा रखी थी. उसकी जबान जैसे-जैसे ‘आतंकवाद, जेहाद, इस्लाम और पाकिस्तान पर वार करती, उसकी आंखें और सुर्ख होती चली जातीं, चेहरा भयानक होता जाता. *भयानक सूरत* और सुर्ख आँखों वाले कोट-पतलून पहने उस एंकर की आवाज़ एक चीख बनकर मेरे कानों पर हमला कर रही थी. राम सिंह के हाथ कांपने लगे थे. उससे कोई भी डिश परोसी नहीं जा रही थी. बीड़ी पे बीड़ी सुलगाए जा रहा था. मैंने अपनी नज़र दायें और बाएँ दौड़ाई तो करीब में जमा हुए राहगीरों में मैंने दो-तीन मुस्लिम चेहरों को न्यूज़ चैनल के विस्फोटक ब्रॉडकास्टिंग का दीदार करते हुए पाया. *हमले के आग* उगलते धुएं ने कैफे के बाहर एक लम्बी दाढ़ी वाले भगवाधारी साधू को भी भिनभिनाने के लिए उत्साहित कर दिया था. उसकी आवाज़ उस एंकर की तरह शैतानी कहकहा लगाने लगी. मुसलमान और पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने और हर एक मुसलमान को चीर फाड़ देने का वो उचक-उचक कर ऐलान करने लगा. हमले के बमुश्किल एक घंटे भी नहीं बीते थे, मगर मुंबई के कत्लेआम का मुजरिम पाकिस्तान और मुसलमान हर जबान पे साया हो चला था. ये जादू था उस कोट-पतलून पहने हुए एंकर का, जो अकेला नहीं था अपनी वहशत-ए-जंग में. *जब मेरी नज़र* अपने करीब दो मुसलमानों के चेहरे पे पड़ी तो उनके सुर्ख होठ सफ़ेद पड़ चुके थे. आँखों से रौशनी गायब थी. मैंने साफ़ महसूस किया कि उनके मन-मस्तिस्क से सुकून रफू चक्कर हो चला था. ऐसा लग रहा था जैसे वो कसाईखाने के बकरे हों और उनके दिल फड़क-फड़क दुआएं मांग रहे हों कि जल्दी से टीवी स्क्रीन पर नाच रहे दरिंदगी के विजुअल्स का इंतकाल हो जाए. *राम सिंह ने* मासूमियत से लबरेज उन दोनों मुस्लिम लड़कों की बुझी-बुझी आँखों में बड़े एहतराम से झाँका और चाय की चुस्की लेने का इशारा किया. तभी मैंने देखा कि भगवा कुरता पहने साधू ने बमुश्किल चार फुट के राम सिंह की कोहनियों पर जोर से धक्का दे मारा, ” कैसा हिन्दू है तू राम सिंह, दुश्मन-आतंकवादी को चाय पिला रहा है?” जलजला एक हज़ार मील दूर अरब सागर के किनारे बसे हिंदुस्तान के चमचमाते शहर मुंबई में आया था मगर इसकी गूंज का असर मदन कैफे के राम सिंह से लेकर मैडम सोनिया गाँधी तक देखा जा सकता था. *इंडिया टीवी* के एंकर की आवाज़ बदले के ज़ोश से सराबोर थी. उसके लिए पाकिस्तान का मतलब वो जगह थी जहां-जहाँ गुसल फरमाए जाने के अलावा और कोई काम नहीं हो सकता, एक चौड़ी-उथली नाली जिसके पानी में दहशतदर्गी का झाग मिला हो. मदन कैफे के हाकिम, जिसे बंटी भैया कहते है, ने अपने टीवी के रेमोट कंट्रोल को मोबाइल की माफिक दबाना शुरू किया और एक के बाद एक सभी हिंदी और अंग्रेजी ख़बरिया चैनलों पर दनादन चल रहे इस दहशतगर्दी के दर्दनाक सर्कस का लुत्फ़ उठाने लगा. “जब हमारी माओं, बहनों और भाइयों को खून में नहलाया जा रहा हो तो ...” एक अजीब - सी नफरत भरी यह आवाज़ एक न्यूज़ चैनल पर हिन्दू परिषद् के किसी कारकून की थी. *ख़बरिया चैनलों के बीच* गलाकाट प्रतिस्पर्धा अपने उरूज पे थी. पाश्चात्य लिबासों में करन जौहर के क्रॉसओवर सिनेमा के चरित्र लग रहे एंकर लोग 'गर्द ही गर्द', 'खून ही खून', 'पाकिस्तान', 'लश्कर' और 'जेहाद' जैसे शब्दों की चीख-चीख कर हर गली, बाज़ार और शहर को पैट्रियट (देशभक्त) बनाने पर तुले हुए थे. ये प्लास्टिक पैट्रियोटिज्म की हुंकारी थी. जो भी इससे बचने की कोशिश करेगा उसे 'देशद्रोही' करार दिया जाएगा. युद्धोन्माद (जिन्गोइस्म) कोट और पतलून पहने सैकड़ों एंकरों की आवाज़ों को चीखों में बदल दिया था. युद्धोन्माद का यह सिलसिला उतना है जितनी दहशतगर्दी. *एडवर्ड लोयूईस बार्नेस* को पब्लिक रिलेसंस का भीष्म पितामह कहा जाता है. बार्नेस फ्रॉयड की बहन का बेटा था. पहले विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी अवाम के अवचेतन में युद्धोन्माद भड़काने का जिम्मा बार्नेस के हाथों में सौपा गया था. बार्नेस भीड़ मनोवृत्ति (हर्ड इंस्टिंक्ट) को प्रोपगंडा के तहत काबू में रखना अहम मानता था. उसकी नज़र में जम्हूरियत में जनता के विचारों में जोड़-तोड़ ज़रूरी है. *ऑस्ट्रलियन विद्वान* जॉन पिल्गर ने शिकागो में दिए एक व्याख्यान में कहा कि प्रोपगंडा करने वाला मीडिया एक अदृश्य सरकार (इनविजिबल गवर्नमेंट) का प्रतिनिधि है. पिल्गर ने बार्नेस के विचारों को पब्लिक रेलेसंस की बाइबल गोस्पेल की माफिक बताया और यह भी कहा कि ‘अदृश्य सरकार’ वास्तव में असली हुकूमत है. करीब अस्सी साल पहले बार्नेस अपनी बात अमेरिकी अवाम पर गाहे-बगाहे लाद रहा था. एक तरह से यही कॉर्पोरेट जर्नलिज्म का बीजारोपण भी था. *बार्नेस ने* सन 1965 में अपनी आत्मकथा प्रकाशित की. वो एक जगह लिखता हैकि कार्ल वन विगंद हर्स्ट अख़बार का विदेश संवाददाता था. वो मुझसे गोएबल्स के नाज़ी प्रोपगंडा के मुतालिक बहस कर रहा था. गोएबल्स ने कार्ल विगंद की किताब क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपिनियन से प्रेरणा लेने की बात कुबूली. *उसने लिखा है कि* नाज़ी सत्ता को अबेध बनाने में और यहूदियों के खिलाफ अभियान चलाने में इस किताब का असर था. गोएबल्स ने विगंद को अपनी प्रोपगंडा लायब्रेरी भी दिखाई. यह देखकर विगंद खौफज़दा हो गया था. उसके मुताबिक़ यहूदियों पर हमला किसी ‘भावना का विस्फोट’ नहीं बल्कि नाज़ियों की एक सोची-समझी रणनीति थी. *एक अमेरिकी आलोचक* मर्लिन पिएयेव ने बार्नेस को ‘ यंग मैकियावेली ऑफ़ आवर टाइम” कहा था. ये ख़िताब हिंदुस्तान के ख़बरिया चैनलों के सिपहसालारों पर खूब जमता है. *भारत में* ख़बरिया चैनलों का कॉरपोरेट चेहरा 1993 में बेपर्दा हुआ जब एक चावल के धंधे से खबरों के सौदागर बने सुभाष चन्द्र गोयल ने जी न्यूज़ का आगाज़ किया. ये दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने के ठीक बाद का वक़्त था. जब पूरा मुल्क मजहबी हत्याओं और लूट-मार के तांडव से जंग लड़ रहा था. जी न्यूज़ के हाकिम को नाज़ी प्रोपगंडा और विचारों से सरोकार रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों में सफ़ेद कमीज़ और खाकी हाफ पैंट में सलामी ठोंकते देखा जाता रहा है. *इस तरह* आज़ाद भारत में चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल की शुरुआत करने वाला संघ की भेदभाव वाली राजनीति पर भरोसा करने वाला शख़्स था. आप इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टीवी मीडिया में सीधे दखल के तौर पर भी देख सकते हैं. ज़ी न्यूज़ ने ख़बरों को साम्प्रदायिक बनाने की जो नींव रखी वो आज कमोबेश हर टेलीविजन चैनल पर जारी है. *टेलीविजन चैनलों की *रिपोर्टिंग में बार-बार धार्मिक पूर्वाग्रह दिखते रहे हैं. मुंबई धमाकों की रिपोर्टिंग के वक़्त भी ये बात खुलकर सामने आई. इसने समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पहले से ही पाकिस्तानी ख़ुफिया एंजेंसी आईएसआई ने अपनी करतूतों से हिन्दुस्तान के मुसलमानों को मुश्किल में डाल रखा था. इस घटना के बाद माफ़िया डॉन दाऊद इब्राहीम के रास्तों पर चलते हुए मीडिया के अंडरवर्ल्ड में भी हिंदू बनाम मुसलमान की खाई दिखाई देने लगी. इस्लाम को आतंक का पर्याय बनाकर पेश करने का चलत बढ़ता ही गया. ठीक इसी तरह आतंकवाद का खौफ़ दिखाकर अमेरिकी मीडिया पहले ही अपना धंधा चमका चुका था. *भारतीय मीडिया भी* उसी के नक्शे कदम पर चल निकला. सुभाष चंद्र गोयल की विचारधारा यहां हर तरफ़ थी, जिनको पाकिस्तान, तालिबान, लश्कर, जेहादी इस्लाम के अलावा और किसी दुश्मन से देश की संस्कृति और परंपरा को ख़तरा नजर नहीं आता. उन्हीं लोगों ने गुजरात होलोकास्ट के बाद नरेन्द्र मोदी को 'विकास पुरुष' का होलोग्राम देने में कसर नहीं छोड़ी. *जिस तरफ नज़र डालता हूँ* अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता हैं. हमारे शाइनिंग मीडिया के साहबजादों के ऐसे लक्षण हैं कि पाकिस्तान और दहशतगर्दी की ख़बरों को पेश करते वक़्त वो अपने विवेक से मरहूम मालूम पड़ते हैं और अलकायदा के वहाबी टेरोरिस्ट के कब्र पर फातिहा एक हिंदुत्ववादी वहाबी की तरह पढ़ते हैं. वतनपरस्ती की ये आग सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान को ही लेकर उफान पे सैलाब की तरह इन्हें क्यों चपेट में ले लेती है? *इतनी बेचैनी* देशवाशियों के दिलो-दिमाग पर अमेरिका और चीन के काले मंसूबों को लेकर क्यों नहीं चीख-चीख कर बताई जाती है? युनियन कार्बाइड ने भोपाल में जो आतंक मचाया उसका खामियाज़ा लाखों लोग भुगत रहे हैं, फिर भी वारेन एंडरसन और अमेरिका के लिए हमारे दिल में कारपोरेट मीडिया के दीवानखाने ने नफरत के कत्बे क्यों नहीं बनाये? *इस खिसिआनी हँसी* के ब्रॉडकास्टिंग को लेकर टीआरपी के ख़तरनाक खेल ने मीडिया के अपने आख्लाक को ही गिराया है. उन करोड़ों लोगों, जिनके बड़ों के कब्रिस्तान हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंटकर बिखर चुके हैं, हमारी मीडिया ने उनकी आस्था में सिर्फ खलल ही नहीं डाला है बल्कि ज़हर घोलने का जुर्म किया हैं. जो खानदान एक जगह जिया, एक जगह मरा अब उसकी कब्र तीन कब्रिस्तानों में बंटी हुईं है. *ये बात दुरुस्त है कि* हमारे मुल्क में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने दहशतगर्दी की बीज बोई है और इसकी बुनियाद को नेस्तनाबूद करने की जंग चलती रहेगी. मगर इस जंग को हम एक मजहबी लिबास पहनाकर आंखिर कब तक ‘कुफ्रिस्तान और कब्रिस्तान’ करार देतें रहेंगे? *कारगिल लड़ाई को* जिस तरह मीडिया ने हमारी आँखों में बसाया उसने भी राष्ट्रवाद का परचम लहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वहां मारे गए नौजवानों के ताबूत में घोटाला कर लोग मलाई खाते रहे. उनकी कुर्बानी को तिरंगे में लपेटकर वोट का खूब खेल हुआ. एक जांबाज जवान की ज़िन्दगी को कुर्बान कर बार्नेस की प्रयोगशाला से बरखा दत्त जैसी मॉडल महिला पत्रकार अवतरित हुईं जिन्होंने कॉर्पोरेट मीडिया को राडिया जैसे फनकारों और हुकूमत के सिकंदरों को मिलाकर नई मिसाल पेश की. यह ख़बरिया महाकुम्भ ऐसा चला आ रहा है, जहां अलगाव ज़्यादा है और जुड़ाव कम. इसमें परंपरा, धर्म, संस्कृति और वतनपरस्ती के मायने गढ़ने का हक सिर्फ़ कुछ दक्षिणपंथी पत्रकारों को ही हासिल है. *सन 1928 में* एडवर्ड बार्नेस ने अपनी मशहूर किताब "प्रोपगंडा" में लिखा है, "लोगों के विचारों की दुनिया को तहस-नहस कर उसे एकख़ास शक्ल देना जम्हूरियत का तकाजा होना चाहिए. लोगों की संगठित आदतों और विचारों में सचेत और होशियारी से जोड़तोड़ करना (कॉन्शियस एंड इन्टेलिजेंट मेन्यूपुलेशन) जरूरी है. जो लोग इसे करने में कामयाब होते हैं वही असली हुकूमत करते हैं." *निजी टेलीविजन चैनलों के* न होने की वजह से बाबरी मस्जिद विध्वंस का लाइव प्रसारण नहीं हुआ था. मगर 30 सितम्बर 2010 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाने का दिन मुकर्रर किया तो ख़बरिया चैनलों ने बड़े धड़ल्ले से प्रसारण कर ख़ुद को देशभक्त और सुसंस्कृत होने का परिचय दिया. *फैसला आने से पहले* करीब पूरे महीने सन 1990-92 के आडवाणी की रथयात्रा की उत्पाती फूटेज गरिमामयी अंदाज़ में दिखायी गई. इस तरह मीडिया ने लोगों के मन-मस्तिस्क में लगातार ड्रिल करने की कवायद जारी रखी कि आडवाणी और उनकी चौकड़ी ने राम राज्य के वास्ते मंदिर बनाने के लिए देशव्यापी “आन्दोलन” किस तरह छेड़ा था. *युद्धोन्मादी और वर्चस्वादी* मीडिया के कारसेवक बॉलीवुड की रिपोर्टिंग में भी नज़र आते हैं. नई शताब्दी के आरम्भ में शाहरुख़ ख़ान की लोकप्रियता को टक्कर देने के लिए ऋतिक रोशन को हिन्दू ह्रदय सम्राट की तरह पेश करने की कोशिश की गई. बाल ठाकरे को इस विभाजित करने वाली विचारधारा को तो हवा देनी ही थी. उनकी चीख दक्षिणपंथी मीडिया के लिए टॉप न्यूज़ आइटम में ऐसे ही शामिल नहीं होती है. सदी के महानायक का तिलस्मी तगमा लिए हिन्दू धर्म स्थलों की सैर करने वाले अमिताभ बच्चन को मीडिया कार्निवल के अंदाज़ में प्रचारित करता है. अमिताभ नस्ली नरसंहार के केवट नरेन्द्र मोदी के वाइब्रेंट गुजरात के ब्रांड एंबेसडर होने के साथ ही देश के धनवंत मंदिरों के भी राजदूत हैं. *ख़बरिया चैनलों को* ठंडा गोश्त परोसने से कोफ़्त होती है. लोगों की निगाहें स्क्रीन पर जमी रहें इसके लिए उन्हें सुपरग्लू वाली ख़बरों की तलाश होती है. वो गर्मी उन ख़बरों में कैसे आ सकती है जो मालेगांव धमाकों में हिंदू आतंकवादियों पर सवाल उठाए. तब मासूम मुसलमानों को जेल में ठूंस कर उन्हें दहशतगर्द बना दिया गया था लेकिन बाद में असली मुजरिम हिंदुत्व के सिपहसलार निकले. *ठीक उसी तरह* जिस तरह न्यूयॉर्क टाइम्स के पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता जुडिथ मिलर ने किया था. मिलर ने बेहद मासूमियत से लिखा की सद्दाम हुसैन के जखीरे में WMD हैं. मिलर की रिपोर्ट को बुश ने अमेरिकी अवाम के सामने लहराते हुए कहा था कि हम किस वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं, चलते हैं न सद्दाम के बग़दाद में बेसबॉल खेलने. *26 नवम्बर को* पाकिस्तानी दहशतगर्दी की रिपोर्टिंग ने यकीन दिला दिया है कि जितना जोर से चिल्लाया जाएगा, दर्शकों को उतना ही ज्यादा लुत्फ़ और मजा आएगा. उन्होंने जो तड़का लगाया उससे प्राइम टाइम पर युद्धोन्मादी ख़बरों के प्रसारण से दस फीसदी की उछाल दर्ज की गई. इस तरह मीडिया ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध का माहौल बनाने में पूरी भूमिका निभाई. पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान की जीवनी लिखने के सिलसिले में मुझे वहां के मीडिया को करीब से जानने का अवसर मिला. जिओ टीवी के एंकर हामिद मीर ने मुझसे एक बार पूछा, "हिन्दुस्तानी मीडिया पाकिस्तान में दहशतगर्दी के अलावा कोई और चीज़ क्यों नहीं देखना चाहता? हामिद का कहना था कि आपका मीडिया क्यों हिदुस्तानियों को अक्सर पाकिस्तान से जंग के लिए भड़काता रहता है. हमारा मीडिया तो ऐसा नहीं करता." मेरे पास जवाब तो कई थे मगर मैं मुस्कुराने के अलावा क्या कर सकता था. *पिछले साल* अगस्त में पाकिस्तान ने सदी की सबसे भयानक बाढ़ झेली, जब उनके तीन करोड़ की अवाम बेघर हो गई और हजारों लड़के-लड़कियों को लश्कर-ए-तयबा के दहशतगर्दों ने अगवा कर लिया. पाकिस्तान के मीडिया ने इस ख़बर को दबाने की कोशिश नहीं की कि मासूम हिन्दू और ईसाई लड़के-लड़कियों को सैलाबग्रस्त इलाकों से अगवा किया जा रहा है. तब इस तरह की दिल दहला देने वाली पाकिस्तानी ख़बरों पर हमारे मीडिया की नजर क्यों नहीं पड़ी? फिर मुझे ऐसा लगा जैसे पाकिस्तानी मीडिया को कश्मीर और बॉलीवुड की ख़बरों के अलावा बाकी हिंदुस्तान की ख़बरों में दिलचस्पी नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे हमारे कॉर्पोरेट मीडिया को भी हफीज सईद, तालिबान और अजमल कसाब की नर्सरी आईएसआई के अलावा किसी और पाकिस्तानी चीज़ में मज़ा नहीं आता है. *पाकिस्तानी मीडिया में* हिंदुस्तान को लेकर युद्धोन्मादी ऑब्सेशन मैंने उतना नहीं देखा. अक्टूबर 2009 में मैं पाकिस्तान के दौरे पर था वहां तहरीक-ए-तालिबान ने दहशतगर्दी फ़ैला रखी थी. ठीक उसी दरमियान हिंदुस्तान में भी विद्रोह तेज़ हो रहा था. तब मैंने जीओ टीवी के एंकर कामरान खान के शो में माओवादी हमले की ख़बर को देखा- “नाज़रीन, सिर्फ आपका मुल्क ही वॉयलेंस की चपेट में नहीं है, पड़ोस में भी हिंदुस्तान की सिक्यूरिटी फोर्सेस को माओवादी इन्सर्ज़ेंसी से जूझना पड़ रहा है.” *कामरान खान की* रिपोर्ट में मैंने हिन्दुस्तान को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं देखा. जिस भी जवान शख्स से मेरी लाहौर और इस्लामाबाद की सड़कों और गलियों में मुलाक़ात होती, ये जानते ही कि मैं हिन्दोस्तान से तसरीफ लाया हूँ वो थोड़े वक़्त के लिए हैरान होते. फिर फ़ौरन कहते, "कोई तकलीफ तो नहीं आपको? भाई, आपकी खैरिअत हमारे अमानत की तरह है. हम भी हिंदुस्तान जाना चाहते हैं. हमारे बहुत सारे दोस्त हैं फेसबुक पर, ऑरकुट पर. हमने शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय की सारी फिल्में देखने का खूब शौक़ है. मगर आपकी हुकुमत हम सब नौजवानों को दहशतगर्द समझती है और वीसा ही नहीं देती. क्या हम सचिन तेंदुलकर के दीवाने आपको दहशतगर्द नजर आतें है?” *कुछ ऐसी ही जबान में* अपनी तड़प को रफ़ीक जां ने भी बयां किया था ज़ब मैं उनसे इमरान खान के पार्टी, तहरीक-इ-इन्साफ के इस्लामाबाद दफ्तर में मिला था. रफ़ीक पेशावर के पठान हैं और तेंदुलकर के कवर और अस्क्वैर लेग के बीच से चीरते हुए बुलेट शॉट के मुरीद हैं. *रफ़ीक और न जाने* कितने रफ़ीक से मेरी गुफ्तगू ज़ब भी होती मैं दिल ही दिल उनकी बातों को अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों और साथियों की पाकिस्तान को लेकर जो अज़ीज ख़याल हैं उसके बारे में सोचता. कौन हिन्दुस्तानी सिर्फ सैर-सपाटे के लिए भी पाकिस्तान जाना चाहता है? कोई सिरफिरा ही लगता है जो वाघा बोर्डर के उस पार जाने की जुर्रत करे. जो नफरत का गुसल्खानी ख़याल शरहद के उस पार के लोगों के लिए हमारे शहरों और गाँव में गढ़ा गया है उसमें पाकिस्तान के आईएसआई का जितना हाथ है उतना ही हाथ हमारी मदमस्त कारपोरेट मीडिया का भी है. *अंधेरों के समुंदर के बीच* में ‘अमन की आशा’ की जो अलख टाइम्स ऑफ इंडिया और जंग ग्रुप ऑफ़ पेपर्स पाकिस्तान ने जगाई है, उससे थोड़ी तसल्ली ज़रूर होती है. मगर ये नफरत के नखलिस्तान के बीच में ओएसिस की तरह ही है. हम कब तक दीवारों की ऊँचाई सरहदों पर और लम्बी करते चले जाएंगे? *हिंदुस्तान और पाकिस्तान *की मीडिया में एक समानता ज़रूर दिखाई दे रही है पिछले कुछ सालों से और वो है दक्षिणपंथ की तरफ खुलूसी झुकाव. ये वही क़ातिलाना टिल्ट है जिसने सलमान तासीर जैसे खुले विचारों वाले लिबरल सियासतदां को मौत के घाट उतार गयी. जब से सलमान तासीर ने काले ब्लासफेमी लव के खिलाफ मोर्चा खोला तभी से पाकिस्तान के मीडिया ने मज़हबी लीडरान के भड़काने वाले बयान ब्रॉडकास्ट करने का आगाज़ किया. देओबंदी और वहाबी इस्लाम के ये ठेकेदार एक तरह से खुले सुपारी दे रहे थे तासीर की ज़िन्दगी की. ठीक उसी तरह जिस तरह हमारी मीडिया आरएसएस के लीडरान के विभाजित *इसी दक्षिणपंथी मीडिया के* खौफ़ ने तासीर को मौत के बाद भी विलेन बना दिया और इसी तरह की मानसिकता वाली हमारी मीडिया ने बाल ठाकरे, उमा भारती, लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी, प्रवीण तोगड़िया जैसों को हमारे देश का मुस्तकबिल सँवारने का ठेका दे रखा है. अल्लामा इकबाल के ग्रेट ग्रैंड सन नदीम इकबाल ने मुझसे पिछले अक्टूबर इस्लामाबाद में कहा था, "हमारे पुरे खित्ते में – हिंदुस्तान-पाकिस्तान – में हमारी मीडिया ने वतनपरस्ती का एक प्लास्टिक मॉडल विकसित किया है और उसे वो ऑर्गेनिक फार्म के एक नो-साइड इफेक्ट वाले प्रोडक्ट की तरह प्राइम टाइम पे बेचती है. ये प्लास्टिक पेट्रियोटिज्म ठीक उस चायनीज प्लास्टिक डौल या किसी इलेक्ट्रोनिक गजट की ही तरह है, क्योंकि ये अन्दर और बाहर दोनों तरफ से खोखला है. हम इसे प्राइम टाइम पे साया करके “पोप पेट्रियोटिज्म’ बना देते हैं और हम सब इस ज़हरीले नशें में खो जाते हैं जैसे युवा दिल रेव पार्टियों में." *मीडिया से रूबरू होते वक़्त* पाकिस्तानी प्रेसिडेंट आसिफ अली ज़रदारी ने 19 जनवरी 2009 को कहा था, "जर्नलिस्ट आर वर्स दैन टेररिस्ट.” यूँ तो मीडिया को ज़रदारी साहेब से किसी सर्टिफिकेट की दरकार नहीं, मगर मीडिया को ये नसीहत बेनजीर भुट्टो के वीडोवेर से लेने में कोई नुकसान भी क्या है भला! * संदर्भ:* सैमुएल जांसन : पेट्रियोटिज्म इज द लास्ट रेफ़ुज ऑफ़ स्काउंड्रल्स, 7 अप्रैल 1775, लन्दन एडवर्ड लुईस बार्नेस(1927) : क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपिनियन, होरेस लीवरराइट पब्लिशिंग कॉर्पोरेशन, न्यूयॉर्क, एडवर्ड लुईस बार्नेस (1928), होरेस लीवरराइट, न्यूयॉर्क द प्रोपगंडा गेम : एडिटोरिअल इन 1928 बी मर्लिन पीव प्रोपगंडा : एडवर्ड लुईस बार्नेस ISBN-10: 0970312598 दि प्रोपगंडा गेम : एडिटोरिअल इन 928 बी मर्लिन पीव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From editormediamorcha at gmail.com Sun Jan 30 22:07:48 2011 From: editormediamorcha at gmail.com (media morcha) Date: Sun, 30 Jan 2011 16:37:48 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?cGwuIHJlYWQg4KSu?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSk4KWN4KSu4KS+IOCkleClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+IOCkpuCkv+CksuCljeCksuClgCDgpLjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS54KS+4KSkIOCkleClhyDgpKzgpYDgpJogb24gd3d3Lm1l?= =?utf-8?q?diamorcha=2Eco=2Ein?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on January 30 2011 Read more... न्यू मीडिया पर पुस्तक का लोकार्पण [image: न्यू मीडिया पर पुस्तक का लोकार्पण] नई दिल्ली / खबर / इंडिया पॉलिसी फाउनडेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तिका ” न्यू मीडिया : चुनौतियाँ और संभावनाएं ” का लोकार्पण 29 जनवरी को श्री अच्युतानंदन मिश्र के द्वारा मालवीय स्मृति भवन के सभागार में संपन्न हुआ | इस पुस्तक में न्यू मीडिया के इतिहास , समस्याएं , संभावनाएं , चुनौतियां समेत विभिन्न पक्षों पर ... Posted on January 30 2011 Read more... महात्मा की पत्रकारिता दिल्ली से देहात के बीच [image: महात्मा की पत्रकारिता दिल्ली से देहात के बीच] (३० जनवरी पर विशेष) मनोज कुमार / महात्मा की पत्रकारिता और वर्तमान समय को लेकर विमर्श हो रहा है और यह कहा जा रहा है कि महात्मा की पत्रकारिता का लोप हो चुका है। बात शायद गलत नहीं है किन्तु पूरी तरह ठीक भी नहीं। महात्मा ... Posted on January 27 2011 Read more... 20 मार्च से बीबीसी रेडियो हिंदी सर्विस होगा बंद [image: 20 मार्च से बीबीसी रेडियो हिंदी सर्विस होगा बंद] खबर / भारतीय मीडिया में खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में रेडियो की अपनी पहचान है। बिहार के गाँव में आल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) ओर बीबीसी रेडियो हिंदी सर्विस को सुनने वालों की संख्या करोड़ों में। ऐसे में मीडिया मे खबर आ रही है की ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन की तरफ से धोषणा कर दिया गया है कि ... 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