From shashikanthindi at gmail.com Wed Feb 2 18:06:30 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 2 Feb 2011 18:06:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCksOCkleCkvuCksCDgpLjgpYcg4KSoIOCkoeCksOClhywg4KS4?= =?utf-8?b?4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkoeCksOClhyDgpJzgpKjgpKTgpL4g4KS44KWH?= =?utf-8?q?_!?= Message-ID: जनता सरकार से न डरे, सरकार डरे जनता से !- शशिकांत *मिस्र की राजधानी* काहिरा में तहरीर चौक पर एक बैनर पिछले एक हफ़्ते से लगातार लहरा रहा है। उस बैनर पर लिखा है - *‘‘जनता सरकार से न डरे, सरकार डरे जनता से’’* *महंगाई, *बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार से तबाह-तबाह मिस्र की लाखों जनता ठिठुरती सर्दी के बावजूद पिछले एक हफ़्ते से सड़क पर है। *काहिरा के* तहरीर स्क्वायर यानि मुक्ति चैराहे पर उत्सव का माहौल लगता है। प्रदर्शनकारियों में महिलाओं और बच्चों की तादाद भी अच्छी-ख़ासी हैं। मिस्र का झंड़ा, राष्ट्रपति होस्नी मुबारक विरोधी तख्तियाँ और बैनर लिए प्रदर्शनकारी आज़ादी के गीत गा रहे हैं। *मिस्र में* लोकतंत्र बहाली की मांग कर रहे हैं। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के इस्तीफ़े, मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना और आम चुनाव की घोषणा उनकी प्रमुख मांगें हैं। वहां के लोग एक ऐसे लोकतंत्र की सथापना करना चाहते हैं जिसमें सबको वोट देने का हक़ हो। *दसरी तरफ़*, काहिरा की मुख्य सड़कों पर सेना टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियों के साथ इस जन विद्रोह को कुचलना चाहती है, लेकिन प्रदर्शनकारियों को सेना और सरकार का कोई खौफ़ नहीं। *मालूम हो,* मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को 1995 में हमारी भारत सरकार ने जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया था। यह पुरस्कार दुनिया के लोगों के बीच अंतरराष्ट्रीय समझ, सद्भावना और मैत्री को बढ़ावा देने के लिए उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है। *दुनिया का* सबसे बड़ा लोकतंत्र और विश्व की तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत का यह दायित्व बनता है कि वह है मिस्र में लोकतंत्र बहाली के लिए मिस्र की जनता की मांगों का समर्थन करे ताकि वहां लोकतंत्र की स्थापना की मुहिम को बल मिले। हिंदुस्तान की जनता मिस्र की जनता के साथ है। *(2 फरवरी 2011 को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Fri Feb 4 12:37:46 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 3 Feb 2011 23:07:46 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBb4KSa4KS/?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSg4KS+4KSV4KS+4KSwXSDgpLjgpYjgpK7gpLjgpILgpJcg4KSX?= =?utf-8?b?4KWI4KSy4KWI4KSV4KWN4KS44KWAIOCktuClg+CkguCkluCksuCkviDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkq+Cli+CkqOCli+CkgiDgpKTgpKXgpL4g4KS44KWI4KSu4KS44KSC?= =?utf-8?b?4KSXIOCkl+CliOCksuCliOCkleCljeCkuOClgCDgpJ/gpYjgpKwgKOCknw==?= =?utf-8?b?4KWI4KSs4KSy4KWH4KSfKSDgpK7gpYfgpIIg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCksOCljeCkpeCkqD8=?= Message-ID: <593190.48582.qm@web121708.mail.ne1.yahoo.com> मित्रो, कृपया मोबाइल में हिन्दी समर्थन के लिए नीचे के लिंक स्थित आरंभ के स्टार बटन को क्लिक करें। आपका यह सहयोग जरूरी है। 2011/2/4 ePandit | ई-पण्डित क्यों नहीं छेड़ सकते, छेड़ी है लेकिन लोग साथ नहीं देते। ऍण्ड्रॉइड में हिन्दी समर्थन सम्बन्धी कई बग दर्ज किये गये हैं लेकिन उन पर वोट ही इतने कम हैं, गूगल क्या खाक कार्यवाही करेगा। जितने ज्यादा वोट होंगे उतना वह बग प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर आयेगा। अगर जितने हिन्दी चिट्ठाकार इस समय हैं वे सब वोट कर दें तो देखिये कैसे नहीं सुलझती समस्या। http://code.google.com/p/android/issues/detail?id=12981 http://code.google.com/p/android/issues/detail?id=4153 http://code.google.com/p/android/issues/detail?id=1618 http://code.google.com/p/android/issues/detail?id=5925 http://code.google.com/p/android/issues/detail?id=3029 वोट करने के लिये इश्यू के नाम के शुरु में स्टार बटन को क्लिक करें। ३ फरवरी २०११ १०:३६ अपराह्न को, Rajesh Ranjan ने लिखा: वैसे यह विषयांतर होगा लेकिन यह सचमुच हमारे लिए काफी शर्म की बात है कि जो कंपनियाँ थाई, वियतनामी आदि सभी के लिए उपाय करती है, वही कंपनियाँ हमारी भाषा के प्रति इतना उदासीन होने का दुस्साहस कैसे कर पाती है? इसे मैं दुस्साहस ही मानता हूँ और मुझे लगता है कि इसके विरोध में हमें याचना के बजाय रण से काम लेना चाहिए। मैं अपने एक मित्र को जानता हूँ जो अपनी भाषा पंजाबी देखने और टाइप करने के लिए न जाने कितने मोबाइल लिए कितने प्रयोग किए। मैं जानता हूँ कि इस समूह से जुड़े लोगों ने हिन्दी के लिए काफी काम किया है लेकिन क्या यही लोग इनके ख़िलाफ कोई मुहिम नहीं छेड़ सकते हैं? सादर, राजेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Feb 5 18:22:54 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 5 Feb 2011 18:22:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOClh+CktuCkvuCkqC4uLuCkuOCksOCkleCkvuCksCDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS54KSy4KS14KS+4KSoISEh?= Message-ID: जनता परेशान...सरकार पहलवान!!! - शशिकांत * * *‘‘मर्ज* *बढ़ता गया *ज्यों ज्यों दवा की।’’ यह कहावत सरकार के महंगाई नियंत्रण के प्रयासों पर सटीक बैठ रही है। *महंगाई* *पर लगाम *लगाने के लिए सरकार सच में कोई प्रयास कर भी रही है, इसमे संदेह ही संदेह है। लेकिन दिखावे के लिए ही सही वह जो भी प्रयास कर रही है, फिर भी महंगाई रुकने का नाम ही नही ले रही है। भागी जा रही है। भागी जा रही है। *बीते शुक्रवार को* जारी किए गए मुद्रास्फीति के साप्ताहिक आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं। बीते हफ्ते भी बढ़ी है महंगाई। पिछले महीनों में महंगाई पर नियंत्रण के लिए सरकार ने कहने को अनेक कदम उठाए हैं। रिजर्व बैंक ने भी कई कठोर फैसले लिए हैं। *हम सबने* न्यूज चैनलों पर देखा कि पिछले दिनों जब प्याज की कीमतें आसमान छू गई थीं तो दिल्ली और मुल्क के कई शहरों में मोटे व्यापारियों के गोदामों पर छापे मारे गए। लेकिन नतीजा क्या निकला? वही ढाक के तीन पात। हां, प्याज के दाम कुछ कम जरूर हो गए, और वो भी ‘सार्वभौम दुश्मन’ पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान की कृपा से। *इसे विडंबना ही कहा जाएगा* कि मुल्क की जनता पिछले कई महीनों से महंगाई से परेशान परेशान है, लेकिन सरकार में बैठे रहनुमा इस पर लगाम लगाने के बजाए जब तब उल्टी-सीधी बयान देते रहते हैं। *पिछले दिनों* प्रधानमंत्री कार्यालय ने अमेरिका के बयान को दोहराते हुए कहा कि नरेगा और अन्य सरकारी योजनाओं से गरीब लोगों की आमदनी बढ़ी है। वे ज्यादा अनाज खरीदने लगे हैं इसलिए महंगाई बढ़ी है। *हमारे कृषि मंत्री *शरद पवार साहब कभी महंगाई पर नियंत्रण से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं तो कभी यह कहते हैं कि जनता महंगाई से परेशान है और किसान कहते हैं कि उन्हें लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहे। विचित्र हाल है। *कभी भाजपा पर *जमाखोरी, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी करनेवाले व्यापारियों को संरक्षण देने का आरोप लगाया जाता था। सरकार को आज नही तो कल यह समझना ही पड़ेगा कि आज मुल्क में जब खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है तो फिर क्यों महंगाई बढ़ रही है। *सरकार लगता है* मुग़ालते में है। अर्जन सेनगुप्ता कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक हिंदुस्तान के करीब पचासी करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी पचास रुपये से भी कम है। इस भीषण महंगाई के दौर में किन-किन दुश्वारियों का सामना कर रहे हैं ये ग़रीब लोग, सरकार को इनकी तकलीफ़ों से कोई लेना-देना नहीं, क्योंकि सरपट दौड़ रही भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है चालीस करोड़ मध्यवर्ग। *वह मध्यवर्ग* जो कंज्यूमर है। उस पर तो महंगाई का कोई असर नहीं। होता तो बाज़ार में इतनी रौनक न होती। धंधा इतना तेज़ न चलता। * व्यापारी खुश।* मध्यवर्ग खुशहाल। बिचौलिये, जमाखोर, कालाबज़ारी, दलाल, माफिया और पूंजीपति मालामाल। तो अफसर, नेता और सरकार पहलवान। * ‘‘और बाकी ग़रीब जनता...?’’* *‘‘स्स्स्साली जाए भाड़ में...!’’* ********** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Tue Feb 8 13:35:52 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 8 Feb 2011 00:05:52 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FUEL Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta) Message-ID: <845658.3780.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Hi, As wrote earlier, now we have "Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta)" ready with us. You can download from here: https://fedorahosted.org/fuel/wiki/fuel-hindi#FUELComputerTranslationstyleandconventionguideforHindi >From the very starting of localization of computer in Hindi language, we have felt the need of one style and convention guide, a guidelines which can be treated as a reference point for Hindi language community working for the localization. I have tried to collect and compile all the info and given all these information in form of a guide named "Computer Translation style and convention guide for Hindi." In this guide, several important aspect of localisation have been discussed. Fonts, Collations, Plural Forms, White spaces, Accelerators, Program Syntax, Functions, Tags, Placeholders, Message Length, Numerals, Calender, Honorific Usages, Acronyms, Product/Brand/Company Name, Keys Name, Abbreviations, Legal Statements, Terminology, Punctuations, Units and Measurements, General Spelling Guidelines, Anusvar and Chandravindu, Use of Nukta, Cardinals & Ordinals, Indeclinable, Hyphen, Glidal ie Shrutimulak 'ya' or 'wa', Basic Quality Parameters etc. are some of the areas tried to be covered in this guide. This work has been uploaded at FUEL svn in both odt and pdf format. In free content zone, we have very less resources like this. So hopefully it will be very much useful for the broader Hindi community. We will appreciate any suggestions related to this guide. Please send your remark on the mailing list itself. If you want to change in odt file please send to me off list by enable keeping the record/track change on. -- Regards, Rajesh Ranjan www.rajeshranjan.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Wed Feb 9 12:16:37 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 8 Feb 2011 22:46:37 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Indlinux-hindi] FUEL Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta) In-Reply-To: <20110209030448.9a11e933.karunakar@indlinux.org> Message-ID: <61303.27513.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Thanks Karunakar jee! Ravi Ratlami jee has written a blog on it: http://raviratlami.blogspot.com/2011/02/blog-post_09.html  शुक्रिया रतलामीजी। इस गाइड को बेहतर बनाने के लिए आपकी प्रतिक्रिया जरूरी है। सादर, राजेश --- On Wed, 2/9/11, Guntupalli Karunakar wrote: From: Guntupalli Karunakar Subject: Re: [Indlinux-hindi] FUEL Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta) To: "List for Hindi Localization" Cc: "Rajesh Ranjan" , "Deewan" , indlinux-group at lists.sourceforge.net Date: Wednesday, February 9, 2011, 3:04 AM Hi Rajeshji, Commendable job. This should help lot of translators in doing correct Hindi translation. बहुत समय से इंतेजार था इसका  :) Karunakar On Tue, 8 Feb 2011 00:05:52 -0800 (PST) Rajesh Ranjan wrote: > Hi, > > As wrote earlier, now we have "Computer Translation style and > convention guide for Hindi (Beta)" ready with us. > > You can download from here: > > https://fedorahosted.org/fuel/wiki/fuel-hindi#FUELComputerTranslationstyleandconventionguideforHindi > > > >From the very starting of localization of computer in Hindi > language, we have felt the need of one style and convention guide, > a guidelines which can be treated as a reference point for Hindi > language community working for the localization. I have tried to > collect and compile all the info and given all these information in > form of a guide named "Computer Translation style and convention > guide for Hindi." In this guide, several important aspect of > localisation have been discussed. Fonts, Collations, Plural Forms, > White spaces, Accelerators, Program Syntax, Functions, Tags, > Placeholders, Message Length, Numerals, Calender, Honorific Usages, > Acronyms, Product/Brand/Company Name, Keys Name, Abbreviations, > Legal Statements, Terminology, Punctuations, Units and > Measurements, General Spelling Guidelines, Anusvar and > Chandravindu, Use of Nukta, Cardinals & Ordinals, Indeclinable, > Hyphen, Glidal ie Shrutimulak 'ya' or 'wa', Basic Quality > Parameters etc. are some of the areas tried to be covered in this > guide. > > > This work has been uploaded at FUEL svn in both odt and pdf format. > In free content zone, we have very less resources like this. So > hopefully it will be very much useful for the broader Hindi > community. > > We >  will appreciate any suggestions related to this guide. Please send > your remark on the mailing list itself. If you want to change in > odt file please send to me off list by enable keeping the > record/track change on. > > > -- > Regards, > Rajesh Ranjan > www.rajeshranjan.in > > > > > >        -- ********************************** * कार्य: http://www.indlinux.org        * * चिठ्ठा: http://cartoonsoft.com/blog * ********************************** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Feb 10 11:24:12 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 10 Feb 2011 11:24:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWI4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpKjgpLngpYDgpIIsIOCkquCljeCkr+CkvuCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkmuCksuCkpOCkviDgpLngpYgg4KSv4KS5IOCkrOCkvuCknA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= Message-ID: असम में आदिवासियों का एक गांव ऐसा भी है, जहां रुपये-पैसे से कारोबार नहीं होता। वहां आज भी वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रचलित है। यानी कोई एक सामान लाइए और उसके बदले दूसरी चीज ले जाइए। सभ्यता के आरंभ में अर्थव्यवस्था इसी सिस्टम पर आधारित थी। गुवाहाटी से 60 किलोमीटर की दूरी पर बसे जनबिल गांव में हर साल बीहू के मौके पर तीवा आदिवासी उत्सव मनाया जाता है। एक झील के किनारे दस हजार से भी अधिक तीवा आदिवासी जमा होते हैं और मिल-जुलकर खुशी और प्यार बांटते हैं। इस मौके पर लगने वाले आदिवासियों के बाजार में पैसों से कोई कारोबार नहीं होता। वस्तुएं ही मुद्रा की भूमिका निभाती हैं। जैसे यहां मैदान से आया एक तीवा आदिवासी पहाड़ से आए दूसरे तीवा आदिवासी को चावल देता है और बदले में उससे सूखे मेवे या अपने चावल के बराबर मात्रा में कोई पहाड़ी फल पा सकता है। कोई नमक लाता है तो उसे आलू मिल जाता है। यह मेला वास्तव में एक समुदाय के दो समाजों का मिलन उत्सव है, जिसमें तीवा आदिवासियों का पहाड़ पर रहने वाला और मैदान पर रहने वाला समुदाय आपस में मिलता है और दोनों आपस में उपयोगी सामग्रियों का आदान-प्रदान करते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे आपस में सुख-दुख भी बांटते हैं। एक-दूसरे के जीवन को करीब से देखते-परखते हैं। जब पूर्वोत्तर भारत उड़ूका (बीहू पर्व की पूर्व संध्या) और बीहू पर्व की तैयारी में व्यस्त होता है, उस समय इसी समाज के तीवा आदिवासी जनबिल उत्सव के आनंद में मग्न होते हैं। तीन दिनों के जनबिल उत्सव के बाद उडूका और बीहू मनाया जाता है। तीवा स्वायत्त परिषद (टीएसी) के सीईएम रमाकांत देवड़ी कहते हैं कि दक्षिण एशिया के अंदर अब लेन-देन की यह परंपरा सिर्फ तीवा आदिवासियों के बीच बची है। जिसे लेकर हमारे अंदर गर्व है और हम इस परंपरा को लंबे समय तक जीवित रखना चाहते हैं। इस उत्सव में पहाड़ से आने वाले आदिवासी अपने साथ आमतौर पर हल्दी, तील, लाहा, रंगलाऊ, मीठा लाऊ, कुम्हरा, उबले चावल, जंगली आलू, जालाक आदि लेकर आते हैं। इसी प्रकार मैदानी भाग के लोग अपने साथ रादो, पीठा, लाडू, जलपान, सांडो, सूखे मेवे, सूखी मछली आदि लाते हैं। कुछ चीजों के नाम अजीब लगते हैं पर ये आदिवासियों के लिए बेहद उपयोगी हैं। इस मेले में आप गोभा क्षेत्र के 17 वर्षीय तीवा राजा राम सिंह देव से मिल सकते हैं। संभवत: वह दुनिया के सबसे कम उम्र के जीवित राजा हैं। इस वक्त तीवा राजा राम सिंह देव दसवीं कक्षा के छात्र हैं। इस मेले की शुरुआत कैसे हुई, इस सवाल का संतोषजनक जवाब देने वाला आज कोई जीवित नहीं बचा है। हो सकता है देश का शिक्षित मध्यवर्ग इस पर नाक - भौं सिकोड़े और इस बात के लिए आदिवासियों की खिल्ली उड़ाए कि उन्होंने अभी भी एक सदियों पुरानी परंपरा को गले से लगाए रखा है। सचाई यह है कि तीवा आदिवासियों के सामने इसका कोई बेहतर विकल्प कभी सामने आया ही नहीं। अगर उनकी हालत में सुधार की गंभीर कोशिशें की गई होतीं और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की नीतियों पर अमल किया गया होता , तो संभव है उन्हें अपने कारोबार के लिए अलग रास्ता चुनने की आवश्यकता पड़ती , लेकिन अपनी इस पुरानी परंपरा ने कम से कम उनके जीवनयापन का एक मार्ग तो सुरक्षित रखा है। आम तौर पर विकास के नाम पर आदिवासियों के जीवन और उनकी परंपराओं को तहस - नहस ही किया गया है। एक तरफ तो जीवनयापन के उनके तौर - तरीकों को अव्यवस्थित कर दिया गया है दूसरी तरफ उन्हें मॉडर्न डिवेलपमेंट का लाभ भी नहीं दिलाया जा सका है। आदिवासी न इधर के रहे हैं न उधर के। तीवा आदिवासियों के बीच रुपये - पैसे का चलन न होने से वे एक अनावश्यक होड़ से तो बचे हुए हैं। आदिवासियों की हर परंपरा को संदेह की नजर से देखने के बजाय उसकी उपयोगिता के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। आधुनिक विकास और उनकी परंपराओं के बीच सामंजस्य बिठाकर आदिवासियों की तरक्की का रास्ता ढूंढा जाना चा हिए। (Source:- http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/7461182.cms) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Feb 10 11:24:12 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Thu, 10 Feb 2011 11:24:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWI4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpKjgpLngpYDgpIIsIOCkquCljeCkr+CkvuCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkmuCksuCkpOCkviDgpLngpYgg4KSv4KS5IOCkrOCkvuCknA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= Message-ID: असम में आदिवासियों का एक गांव ऐसा भी है, जहां रुपये-पैसे से कारोबार नहीं होता। वहां आज भी वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रचलित है। यानी कोई एक सामान लाइए और उसके बदले दूसरी चीज ले जाइए। सभ्यता के आरंभ में अर्थव्यवस्था इसी सिस्टम पर आधारित थी। गुवाहाटी से 60 किलोमीटर की दूरी पर बसे जनबिल गांव में हर साल बीहू के मौके पर तीवा आदिवासी उत्सव मनाया जाता है। एक झील के किनारे दस हजार से भी अधिक तीवा आदिवासी जमा होते हैं और मिल-जुलकर खुशी और प्यार बांटते हैं। इस मौके पर लगने वाले आदिवासियों के बाजार में पैसों से कोई कारोबार नहीं होता। वस्तुएं ही मुद्रा की भूमिका निभाती हैं। जैसे यहां मैदान से आया एक तीवा आदिवासी पहाड़ से आए दूसरे तीवा आदिवासी को चावल देता है और बदले में उससे सूखे मेवे या अपने चावल के बराबर मात्रा में कोई पहाड़ी फल पा सकता है। कोई नमक लाता है तो उसे आलू मिल जाता है। यह मेला वास्तव में एक समुदाय के दो समाजों का मिलन उत्सव है, जिसमें तीवा आदिवासियों का पहाड़ पर रहने वाला और मैदान पर रहने वाला समुदाय आपस में मिलता है और दोनों आपस में उपयोगी सामग्रियों का आदान-प्रदान करते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे आपस में सुख-दुख भी बांटते हैं। एक-दूसरे के जीवन को करीब से देखते-परखते हैं। जब पूर्वोत्तर भारत उड़ूका (बीहू पर्व की पूर्व संध्या) और बीहू पर्व की तैयारी में व्यस्त होता है, उस समय इसी समाज के तीवा आदिवासी जनबिल उत्सव के आनंद में मग्न होते हैं। तीन दिनों के जनबिल उत्सव के बाद उडूका और बीहू मनाया जाता है। तीवा स्वायत्त परिषद (टीएसी) के सीईएम रमाकांत देवड़ी कहते हैं कि दक्षिण एशिया के अंदर अब लेन-देन की यह परंपरा सिर्फ तीवा आदिवासियों के बीच बची है। जिसे लेकर हमारे अंदर गर्व है और हम इस परंपरा को लंबे समय तक जीवित रखना चाहते हैं। इस उत्सव में पहाड़ से आने वाले आदिवासी अपने साथ आमतौर पर हल्दी, तील, लाहा, रंगलाऊ, मीठा लाऊ, कुम्हरा, उबले चावल, जंगली आलू, जालाक आदि लेकर आते हैं। इसी प्रकार मैदानी भाग के लोग अपने साथ रादो, पीठा, लाडू, जलपान, सांडो, सूखे मेवे, सूखी मछली आदि लाते हैं। कुछ चीजों के नाम अजीब लगते हैं पर ये आदिवासियों के लिए बेहद उपयोगी हैं। इस मेले में आप गोभा क्षेत्र के 17 वर्षीय तीवा राजा राम सिंह देव से मिल सकते हैं। संभवत: वह दुनिया के सबसे कम उम्र के जीवित राजा हैं। इस वक्त तीवा राजा राम सिंह देव दसवीं कक्षा के छात्र हैं। इस मेले की शुरुआत कैसे हुई, इस सवाल का संतोषजनक जवाब देने वाला आज कोई जीवित नहीं बचा है। हो सकता है देश का शिक्षित मध्यवर्ग इस पर नाक - भौं सिकोड़े और इस बात के लिए आदिवासियों की खिल्ली उड़ाए कि उन्होंने अभी भी एक सदियों पुरानी परंपरा को गले से लगाए रखा है। सचाई यह है कि तीवा आदिवासियों के सामने इसका कोई बेहतर विकल्प कभी सामने आया ही नहीं। अगर उनकी हालत में सुधार की गंभीर कोशिशें की गई होतीं और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की नीतियों पर अमल किया गया होता , तो संभव है उन्हें अपने कारोबार के लिए अलग रास्ता चुनने की आवश्यकता पड़ती , लेकिन अपनी इस पुरानी परंपरा ने कम से कम उनके जीवनयापन का एक मार्ग तो सुरक्षित रखा है। आम तौर पर विकास के नाम पर आदिवासियों के जीवन और उनकी परंपराओं को तहस - नहस ही किया गया है। एक तरफ तो जीवनयापन के उनके तौर - तरीकों को अव्यवस्थित कर दिया गया है दूसरी तरफ उन्हें मॉडर्न डिवेलपमेंट का लाभ भी नहीं दिलाया जा सका है। आदिवासी न इधर के रहे हैं न उधर के। तीवा आदिवासियों के बीच रुपये - पैसे का चलन न होने से वे एक अनावश्यक होड़ से तो बचे हुए हैं। आदिवासियों की हर परंपरा को संदेह की नजर से देखने के बजाय उसकी उपयोगिता के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। आधुनिक विकास और उनकी परंपराओं के बीच सामंजस्य बिठाकर आदिवासियों की तरक्की का रास्ता ढूंढा जाना चा हिए। (Source:- http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/7461182.cms) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Fri Feb 11 18:07:12 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 11 Feb 2011 18:07:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkteCkv+CkleCkvyDgpJXgpL7gpLDgpY3gpK/gpLbgpL7gpLI=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkruCljeCkruClh+CksuCkqA==?= Message-ID: <4D552D78.5040009@sarai.net> dosto, सूचना देर से दे रहा हूँ, इच्छुक व्यक्ति फ़ुर्सत निकाल कर आएँ। तफ़सीलात के लिए: http://hi.wikipedia.org/wiki/विकिपीडिया:हिन्दी विकि कार्यशाला सम्मेलन स्थान Sarai-CSDS (Centre for the Study of Developing Societies), २९ राजपुर रोड़, सिविल लाइन्स, दिल्ली - ११० ०५४, भारत दूरभाष : ९१-११-२३९२८३९१, २३९४२१९९ दिनाँक शनिवार , १२ फरवरी २०११ समय दोपहर ३ बजे से शाम ६ बजे तक भागीदार कोई भी जो हिन्दी विकि परियोजनाओं में रुचि रखता है, इस सम्मेलन में आने के लिये सादर आमंत्रित है। कार्यसूची 1. हिन्दी विकि की विभिन्न परियोजनाओं का परिचय और इनकी वर्तमान प्रगति। 2. देवनागरी में हिन्दी लिखने का प्रशिक्षण। 3. हिन्दी विकिपीडिया में लेख बनाने एवं संपादन करने का प्रशिक्षण। 4. ...... एवं कुछ अन्य संबंधित विषय जिनमें आपकी रुचि अथवा जिज्ञासा हो। रविकान्त From arvindkdas at rediffmail.com Fri Feb 11 19:22:13 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 11 Feb 2011 13:52:13 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWA4KSs4KWA?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkueCkv+CkguCkpuClgCDgpLDgpYfgpKHgpL/gpK/gpYsg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkhuCkluCkv+CksOClgCDgpKrgpY3gpLDgpLjgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KSj?= Message-ID: <20110211135213.3410.qmail@f5mail-224-108.rediffmail.com> आखिरी प्रसारण अगले महीने की 31 मार्च को शार्ट वेबपर बीबीसी की हिंदी सेवा का आखिरी प्रसारण होगा! पत्रकारिता की भाषा हमने बीबीसी हिंदी से सीखी. समंदर पार से लहराती हुई आती बीबीसी के रेडियो प्रजेंटर की खनकती आवाज़ में जादू था. उस जादू के सम्मोहन में हम छुटपन में ही बंध गए थे. बड़े भाई साहब जो उम्र में मुझसे 10 साल बड़े हैं, रोज़ बीबीसी सुना करते थे. घर में एक बड़ा रेडियो था. फfलिप्स का. सुना है कि पापा ने पहली कमाई से माँ के लिए वह रेडियो खरीदा था. वैसे जब कभी माँ को हम फिल्मी गाना गाते सुनते तो आश्चर्य करते... बहरहाल, बात 80 के दशक के आखिरी वर्षों की है. बड़े भाई तन्मय होकर 'आजकल', 'खेल और खिलाड़ी' या 'हम से पूछिए' सुनते तो हम भी रेडियो को घेर कर बैठ जाते थे. बीबीसी की सहज भाषा हमें अपनी लगती थी. खबर तब भले ही नहीं समझते थे, लेकिन साहित्यिक छौंक लिए हुए बीबीसी की भाषा के हम मुरीद बन गए थे. बड़े भाई ने समझाया था कि सहज होने का मतलब सपाट होना नहीं होता. वर्ष 1991 में राजीव गाँधी की हत्या की खबर हमने सुबह-सवेरे बीबीसी से ही सुनी थी. बिहार के एक छोटे से गाँव में सूचना का हमारे पास वही एक स्रोत था. गोकि टेलीविजन घर आ गया था, लेकिन बिजली रहती कहाँ थी तब. आज भी नहीं रहती है! आज भी बिहार के गाँवों में, नुक्कड़ों और चौक पर, खेत और खलिहानों में, प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब, भैस चराते हुए चरवाहे, आईएएस बनने का सपना संजोए छात्र-छात्राएँ बीबीसी के माध्यम से दुनिया जहान से रू ब रू होते हैं. बिहार से बाहर निकलने पर बीबीसी सुनना छूट गया, पर बीबीसी की सीख साथ रह गई. खबरों की विश्वसनीयता, भाषा की संप्रेषणीयता की सीख जो हमें मिली थी वह बाद में काम आई. कुछ वर्ष पहले मैं दिल्ली के 'इंडिया हैबिटैट सेंटर' में मिथिला पेंटिंग की एक प्रदर्शनी देखने गया था. चित्रों में कोहबर, मछली और अन्य पारंपरिक चित्रों के अलावे भ्रूण हत्या, अमरीका में हुए 9/11 के हमले का भी निरूपण था. जब मैंने चित्रों में देखने को मिली इस विविधता के बारे में महिला कलाकारों से पूछा तो उनका जवाब था, 'हम पढ़-लिख नहीं पाते लेकिन बीबीसी सुनते हैं. उसी से हमें इन सबकी जानकारी मिलती है, जिसे हम अपनी चित्रों में उतारते हैं.' 'हमने खबर बीबीसी पर सुनी है', यह जुमला आज भी उत्तर भारत में सुनने को मिलता है. जैसे बीबीसी का कहा अकाट्य हो! बीबीसी के दक्षिण एशिया ब्यूरो के प्रमुख रहे मार्क टली ने कहीं लिखा था कि 'बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद लोग बीबीसी का नाम लेकर अपवाह फैला रहे थे कि बीबीसी ने खबर दी है कि वहाँ दंगा फैल गया है...उस इलाके में लोगों को मार दिया गया...वगैरह वगैरह.' इस बीच कहन के और भी साधन हमारे बीच आए. उदारीकरण के बाद सैटेलाइट चैनलों, खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई. बिहार के गाँवों में भी इन चैनलों की आवाज पहुँचती है, पर उनमें वो बात कहां! दिल्ली जैसे महानगरों में हम बीबीसी रेडियो को भले ही मिस नहीं करते हो, लेकिन बिहार के गाँवों में बीबीसी रेडियो के बंद होने की खबर घर-परिवार के किसी आत्मीय के मौत से कम नहीं. (जनसत्ता में 11 फरवरी 2011 को 'समांतर' स्तंभ में प्रकाशित) http://arvinddas.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arvindkdas at rediffmail.com Fri Feb 11 19:22:13 2011 From: arvindkdas at rediffmail.com (arvind das) Date: 11 Feb 2011 13:52:13 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWA4KSs4KWA?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkueCkv+CkguCkpuClgCDgpLDgpYfgpKHgpL/gpK/gpYsg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkhuCkluCkv+CksOClgCDgpKrgpY3gpLDgpLjgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KSj?= Message-ID: <20110211135213.3410.qmail@f5mail-224-108.rediffmail.com> आखिरी प्रसारण अगले महीने की 31 मार्च को शार्ट वेबपर बीबीसी की हिंदी सेवा का आखिरी प्रसारण होगा! पत्रकारिता की भाषा हमने बीबीसी हिंदी से सीखी. समंदर पार से लहराती हुई आती बीबीसी के रेडियो प्रजेंटर की खनकती आवाज़ में जादू था. उस जादू के सम्मोहन में हम छुटपन में ही बंध गए थे. बड़े भाई साहब जो उम्र में मुझसे 10 साल बड़े हैं, रोज़ बीबीसी सुना करते थे. घर में एक बड़ा रेडियो था. फfलिप्स का. सुना है कि पापा ने पहली कमाई से माँ के लिए वह रेडियो खरीदा था. वैसे जब कभी माँ को हम फिल्मी गाना गाते सुनते तो आश्चर्य करते... बहरहाल, बात 80 के दशक के आखिरी वर्षों की है. बड़े भाई तन्मय होकर 'आजकल', 'खेल और खिलाड़ी' या 'हम से पूछिए' सुनते तो हम भी रेडियो को घेर कर बैठ जाते थे. बीबीसी की सहज भाषा हमें अपनी लगती थी. खबर तब भले ही नहीं समझते थे, लेकिन साहित्यिक छौंक लिए हुए बीबीसी की भाषा के हम मुरीद बन गए थे. बड़े भाई ने समझाया था कि सहज होने का मतलब सपाट होना नहीं होता. वर्ष 1991 में राजीव गाँधी की हत्या की खबर हमने सुबह-सवेरे बीबीसी से ही सुनी थी. बिहार के एक छोटे से गाँव में सूचना का हमारे पास वही एक स्रोत था. गोकि टेलीविजन घर आ गया था, लेकिन बिजली रहती कहाँ थी तब. आज भी नहीं रहती है! आज भी बिहार के गाँवों में, नुक्कड़ों और चौक पर, खेत और खलिहानों में, प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब, भैस चराते हुए चरवाहे, आईएएस बनने का सपना संजोए छात्र-छात्राएँ बीबीसी के माध्यम से दुनिया जहान से रू ब रू होते हैं. बिहार से बाहर निकलने पर बीबीसी सुनना छूट गया, पर बीबीसी की सीख साथ रह गई. खबरों की विश्वसनीयता, भाषा की संप्रेषणीयता की सीख जो हमें मिली थी वह बाद में काम आई. कुछ वर्ष पहले मैं दिल्ली के 'इंडिया हैबिटैट सेंटर' में मिथिला पेंटिंग की एक प्रदर्शनी देखने गया था. चित्रों में कोहबर, मछली और अन्य पारंपरिक चित्रों के अलावे भ्रूण हत्या, अमरीका में हुए 9/11 के हमले का भी निरूपण था. जब मैंने चित्रों में देखने को मिली इस विविधता के बारे में महिला कलाकारों से पूछा तो उनका जवाब था, 'हम पढ़-लिख नहीं पाते लेकिन बीबीसी सुनते हैं. उसी से हमें इन सबकी जानकारी मिलती है, जिसे हम अपनी चित्रों में उतारते हैं.' 'हमने खबर बीबीसी पर सुनी है', यह जुमला आज भी उत्तर भारत में सुनने को मिलता है. जैसे बीबीसी का कहा अकाट्य हो! बीबीसी के दक्षिण एशिया ब्यूरो के प्रमुख रहे मार्क टली ने कहीं लिखा था कि 'बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद लोग बीबीसी का नाम लेकर अपवाह फैला रहे थे कि बीबीसी ने खबर दी है कि वहाँ दंगा फैल गया है...उस इलाके में लोगों को मार दिया गया...वगैरह वगैरह.' इस बीच कहन के और भी साधन हमारे बीच आए. उदारीकरण के बाद सैटेलाइट चैनलों, खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई. बिहार के गाँवों में भी इन चैनलों की आवाज पहुँचती है, पर उनमें वो बात कहां! दिल्ली जैसे महानगरों में हम बीबीसी रेडियो को भले ही मिस नहीं करते हो, लेकिन बिहार के गाँवों में बीबीसी रेडियो के बंद होने की खबर घर-परिवार के किसी आत्मीय के मौत से कम नहीं. (जनसत्ता में 11 फरवरी 2011 को 'समांतर' स्तंभ में प्रकाशित) http://arvinddas.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Feb 12 15:52:54 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 12 Feb 2011 15:52:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSsIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSC4KSmIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpK7gpL7gpKbgpL4g4KSt4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KWC4KSjIOCklOCksCDgpKjgpLXgpJzgpL7gpKQg4KSs4KSa4KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleClgCDgpLngpKTgpY3gpK/gpL4/?= Message-ID: *मित्रो, *भारत के उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी की बीवी सलमा अंसारी ने कल 11 फ़रवरी 2011 को कहा है- *"बेटी को पैदा ही नहीं **होने देना चाहिए. यदि पैदा हो **जाए तो उसके माँ-बाप को चाहिए कि पैदा होते ही **बेटी को मार दें...!"** *सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक पढ़े-लिखे परिवार की संभ्रांत औरत की तरफ़ से आया यह बयान काफ़ी अफ़सोसनाक है. बेशक, सलमा अंसारी साहिबा ने आहत होकर यह बयान दिया है लेकिन आज ज़रूरत है औरतों पर हो रहे ज़ुल्मों के खिलाफ़ लड़ने की, न कि शुतुरमुर्गी बयान देने की. आज से कोई १२-१३ साल पहले दैनिक भास्कर, इंदौर में "कब बंद होगी मादा भ्रूण और नवजात बच्चियों की हत्या?" शीर्षक से मैंने यह लेख लिखा था. मोहतरमा सलमा अंसारी के विवादास्पद बयान के बाद यह लेख आज प्रासंगिक हो गया है. - *शशिकांत* कब बंद होगी मादा भ्रूण और नवजात बच्चियों की हत्या? *पिछले दिनों *फ़रीदाबाद (हरियाणा) के एक अस्पताल में एक औरत ने लगातार तीसरी बार एक बेटी को जन्म दिया। प्रसव के बाद होश में आने के बाद जब डॉक्टर ने उसे बेटी होने की जानकारी दी. कुछ ही देर बाद उसने गला घोंटकर अपनी नवजात बेटी की हत्या कर दी। पुलिस ने उस औरत के खिलाफ़ अपनी नवजात बेटी की हत्या का मामला दर्ज किया है। *यहां यह सवाल उठता है कि* उक्त बच्ची की हत्या के लिए सिर्फ उसकी मां दोषी है या उसका परिवार भी अथवा पूरा पुरुषप्रधान भारतीय समाज? यह सोचने की बात है। *दरअसल,* लिगभेद पर आधारित पुरुषप्रधान समाज में सित्रयों पर अत्याचार और यातना की दर्द भरी दास्तान पैदाइश के बाद किशोरावस्था या युवावस्था में नहीं बलिक गर्भ से ही शुरू हो जाती है। शायद यही वजह है कि युनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक एशिया में गर्भावस्था में बाल शिशुओं के बनिस्बत मादा शिशुओं का जीवन दुनिया के मानदंडों के अनुसार बहुत ही कम है। सर्वेक्षण में पाया गया है कि भ्रूण हत्या और गर्भपात की सबसे ज्यादा शिकार मादा शिशु होती हैं. *राष्ट्रीय महिला आयोग* के सहयोग से दिल्ली की चार झुग्गी बस्तियों- जवाहर कैंप, आज़ाद कैम्प, जफ़राबाद एवं टिगरी कालोनी में किए गए सर्वेक्षण में यह बात उभरकर सामने आई है कि अल्ट्रासाउंड जैसी आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा हे। इतना ही नहीं, अल्ट्रासाउंड जांच के बाद गर्भस्थ मादा भ्रूण की या तो हत्या कर दी जाती है या फिर गर्भवती सित्रयों की देखभाल में भेदभाव किया जाता है. *इस तरह* भ्रूण हत्या या गर्भपात की शिकार होने से जो मादा शिशु बच जाती हैं वे कमजोर और कम वज़न की पैदा होती हैं तथा उनके कुपोषित होने का ख़तरा बना रहता हैं. आजादी के पांच दशक बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश में कानूनी तौर पर भ्रूण की जांच को अवैध घोषित किए जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है। *परिवार कल्याण निदेशालय* द्वारा प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 के लागू होने के लगभग चार साल बाद देश भर के कस्बों, शहरों ओर महानगरों के निजी क्लिनिकों में गर्भावस्था के शुरुआती दिनों में धड़ल्ले से भ्रूण परीक्षण हो रहे हैं और गर्भवती सित्रयों, उनके परिजनों और डॉक्टरों की मिलीभगत से मादा भ्रूणों की हत्याएँ की जा रही हैं। *गर्भ के अंदर ही नहीं* बल्कि जन्म के तत्काल बाद देश के कई हिस्सों में आज नवजात बच्चियों की ह्त्या कर दी जाती है। यह कुकृत्य अधिकांश मामले में दाइयां, घर की बुजुर्ग औरतें या शिशु की मां घर के पुरुषों के दबाव में करती हैं। नवजात बच्चियों की इन हत्याओं के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं. *पिछले दिनों* राजस्थान के एक गांव में एक सौ पंद्रह साल बाद आई बारात की ख़बर सुनकर लोगों के रोगते खड़े हो गए थे. परंपरागत राजपूतों के उस गांव में लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता है. आज भी उस गांव में गिनी-चुनी लड़कियाँ ही हैं। *इस संबंध में *प्राप्त एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर, तमिलनाडु के सेलम, बिहार के सीतामढी, पूर्णिया, भागलपुर और कटिहार तथा हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में मादा शिशु हत्या की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। *मादा भ्रूण* एवं नवजात बच्चियों धड़ल्ले से की जा रही हत्या की वजह से देश में स्त्री-पुरुष अनुपात में लगातार कमी आ रही हैं. कुछ राज्यों में तो यह अनुपात काफ़ी चिंताजनक हालत तक पहुंच गया है। हरियाणा में प्रति 1000 पुरुषों के मुक़ाबले महज़ 874 औरतें हैं। जबकि पंजाब में यह संख्या प्रति 1000 पुरुषों में महज़ 880 है। *संयुक्त राष्ट्र बाल* कोश युनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक पंजाबी घर में शून्य से पांच साल की उम्र की लड़कियों की मौत की संभावना लड़कों की तुलना में दस फ़ीसद ज़्यादा है। *उल्लेखनीय है कि* प्रसव पूर्व निदान तकनीक विनिमय एवं दुरुपयोग निवारण अधिनियम 1994 के अनुसार 1 जनवरी 1996 से गर्भस्थ शिशु भ्रूण की लिंग जांच के लिए अल्टासोनोग्राफ़ी एमिनोसेंटेसिस आदि जैसी प्रसव पूर्व निदान तकनीक का इस्तेमाल करने आदि जैसी प्रसव पूर्व निदान तकनीक का प्रयोंग करने और भ्रूण के लिंग संबंधी जानकारी देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और इसका उल्लंघन करनेवालों के लिए दंड का प्रावधान किया गया है. *20 वीं सदी* के आखिरी दौर में भारत में ल्रिभेद को ख़त्म करने, महिलाओं को अधिकार देने, राजनीति एवं व्यवस्था में उनकी भागीदारी बढ़ाने आदि को लेकर चल रहे विमर्श के बीच देश भर की महिला, बाल एवं स्वयंसेवी संगठनों तथा बुद्धिजीवियों की ज़िम्मेदारी है कि वे लिंगभेद पर आधारित इन हत्याओं को रोकने के लिए आगे आएँ। *देश में* लगातार कम हो रहे स्त्री-पुरुष अनुपात को संतुलित करना बेहद ज़रूरी है। इस दिशा में सरकार, न्यायपालिका एवं मीडिया को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Feb 13 13:02:26 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 13 Feb 2011 13:02:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSdIA==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkquCkueCksuClgCDgpLjgpYAg4KSu4KWL4KS54KSs4KWN?= =?utf-8?b?4KSs4KSkIOCkruClh+CksOClgCDgpK7gpLngpKzgpYLgpKwg4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSB4KSXLi4uISEh?= Message-ID: मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग...!!! "तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है ................................................... और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा* * मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग*"* *साथियो, * ***आज है 13 फरवरी 2011. ठीक सौ बरस पहले आज ही के दिन अविभाजित भारत के सियालकोट जिले के कालाकादर गाँव में पैदा हुआ था एक ऐसा बालक, जिसे आज दुनिया फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के नाम से जानती है. फ़ैज़ साहब के यौम-ए-पैदाइश पर उनसे जुडे संस्मरण पेश कर रहे हैं- डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी * * * *फ़ैज़ अहमद फ़ैज़* को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी लाश को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था। *फ़ैज़ साहब से* मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फ़ैज़ साहब ने कहा,‘‘इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है।’’ उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। * फ़ैज़ साहब के बारे में* ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस्तान टाइम्स" के संपादक थे। गांधीजी की ’शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था मेरी चले तो में उसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटूं। *गांधीजी के व्यक्तित्व* का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा। फ़ैज़ साहब ने लिखा था- ‘‘अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होनेवाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं लेकिन जिस मिललत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा है और जिस मुल्क़ से अपने मुल्क़ की लड़ाई हो रही है, उस पर शहीद होनेवाले गांधीजी अकेले थे। *पार्टीशन के बाद* उन दिनों पाकिस्तान से लड़ाई चल रही थी और गांधीजी ख़ुद बड़े गर्व से हिंदू कहते थे। लेकिन यह इतिहास की विडंबना है कि नाथूराम गोडसे ने सेकुलर पंडित नेहरू को नहीं मारा, राम का भजन गानेवाले गांधीजी को मारा। आज भी नरेन्द्र मोदी पटेल का नाम बार-बार लेते हैं लेकिन नरसी मेहता का नाम कभी नहीं लेते। *पाकिस्तान बनने के बाद* फ़ैज़ साहब जब भी हिंदुस्तान आते थे तो नेहरू जी उन्हें अपने यहां बुलाते थे और उनकी कविताएं सुनते थे। विजय लक्ष्मी पंडित और इंदिरा जी भी सुनती थीं। दरअसल नेहरूजी कवियों और शायरों की क़द्र करते थे। नेहरू जी ने लिखा था- "ज़िन्दगी उतनी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए जितनी कविता।" *फ़ैज़ अहमद फ़ैज़* उर्दू में प्रगतिशील कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फ़िराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वे सबसे लोकप्रिय थे। उन्हें नोबेल प्राइज को छोड़कर साहित्य जगत का बड़े से बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला। * फ़ैज़ साहब* मूलत: अंगेजी के अध्यापक थे। पंजाबी थे। लेकिन उन कवियों में थे जिन्होने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। मशहूर रावलपिंडी षडयंत्र केस के वे आरोपी थे। सज्ज़ाद जहीर और फ़ैज़ साहब पर पाकिस्तान में मुक+दमा चलाया गया था। उन्हें कोई भी सज़ा हो सकती थी। वे बहुत दिन जेल में रहे। * उनके एक काव्य संकलन* का नाम है- ‘ज़िन्दांनामा।’ इसका मतलब होता है कारागार। अयूब शाही के ज़माने में उन्होंने सीधी विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जानेवाले कई गीत लिखे जो आज भी प्रसिद्ध हैं। *मसलन-* ‘‘एक मुल्क नहीं, दो मुल्क नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।’’ या ‘‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब जुल्मोसितम के कोहे गिरा, रूई की तरह उड़ जाएंगे, हम महकूमों के पांव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहले हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी.............सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे, हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे।’’ *फ़ैज़ अहमद फ़ैज़* की इस चर्चित नज़्म को पिछले दिनों टेलिविजन पर सुनने का मौक़ा मिला। इसे पाकिस्तान की गायिका इकबाल बानो ने बेहद ख़ूबसूरती से गाया है। *फ़ैज़ *प्रेम और जागरण के भी कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपभोग करते हैं जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं। *फ़ैज़ साहब ने* कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं जैसे उनकी एक प्ररंभिक कविता "रकीब से" है। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि अपनी प्रमिका के रूप् से मैं कितना प्रभवित हूं ये मेरा रकीब जानता है। उन्होंन लिखा- ‘‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।’’ *इतना ही नहीं *उन्होंने लिखा- ‘‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा। राहते और भी वस्ल है राहत के सिवा।’’ और लेखकों के लिए उन्होंने लिखा- ‘‘माता-ए-लौह कलम छिन गई तो क्या ग़म है। कि खून -ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें।’’ *इसी तरह *अयूब शाही के दिनों में लिखी उनकी एक मशहूर नज़्म है- ‘‘निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन कि जहां। चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले। जो काई चाहनेवाला तवाफ को निकले। नज़र चुरा के चले जामा ओ जां बचा के चले।’’ *दरअसल* फ़ैज़ में जो क्रांति है उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की भी कविताएं हैं और सरस कविताएं हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंत्रय की कल्पना का जो उल्लास होता है, वो सब मौजूद हैं। *फ़ैज़ की कविताओं में* संगीतात्मकता, गेयता बहुत है। मैं समझता हूं कि जिगर मुरादाबादी, जो मूलत: रीतिकालीन भावबोध के कवि थे, में आशिकी का जितना तत्व है, बहुत कुछ वैसा ही तत्व अगर किसी प्रगतिशील कवि में है तो फ़ैज़ में है। उनकी सर्वाधिक लाकप्रिय और संगीतात्मकता की दृस्टि से बहुत उत्कृस्ट है, जिसे मेहदी हसन ने गाया है- ‘‘गुलों में रंग भरे वाद-ए-नौ बहार चले। चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।’’ भाषा में ऐसे जो अन्वय होते हैं वे कविता को एक नया अर्थ देते हैं। बड़ा ही नाज़ुक अर्थ है इसमें। बड़ी याचना है। *फ़ैज़ की दो और ख़ासियतें हैं*- एक, व्यंग्य वे कम करते हैं लेकिन जब करते हैं तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे- शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की।’’ और दूसरी बात, फ़ैज़ रूमान के कवि हैं। अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करनेवाले कवि हैं लकिन क्रांति तो सफल नहीं हुई। ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई ज़माने को गालियाँ देते हैं। *फ़ैज़ वैसे नहीं हैं।* फ़ैज़ में राजनीतिक असफलता से भी कहीं ज़्यादा अपनी कविता को मार्मिकता प्रदान की है। उनका एक शेर है- ‘‘करो कुज जबी पे सर-ए-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया।’’ अर्थात कफ़न में लिपटे हुए मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो, इसलिए कि मेरी हत्या करनेवालों का यह भस्म नहीं होना चाहिए कि मरने के बाद मुझ में प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है। *यह ऐतिहासिक यातना की* अभिव्यक्ति है। यह समाजवादी आंदोलन और समाजवादी चेतना की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में ऐसी अनेक कविताएं बालकृष्ण शर्मा नवीन, निराला आदि कवियों ने लिखी थीं। *इसी भावबोध पर* लिखी फ़ैज़ साहब की एक और नज़्म है, जो मुझे अभी याद नहीं है। एजाज़ अहमद ने उन पंक्तियों को अपने एक मशहूर लेख- ‘‘आज का माक्र्सवाद’’ में उद्धृत किया है, जिसका भाव है- हमने सोचा था कि हम दो-चार हाथ मारेंगे और यह नदी तैरकर पार कर लेंगे। लेकिन नदी में तैरते हुए पता चला कि कई ऐसी लहरें, धाराएं और भंवरें हैं जिनसे जूझने का तरीक़ा हमें नहीं आता था। अब हमें नए सिरे से नदी पार करनी होगी। *सो, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़* केवल रूप, सौदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं बल्कि असफलताओ और वेदना के क्षणों में भी साथ खड़े रहनेवाले पंक्तियों के कवि हैं। * * *(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. अमर उजाला, 2 अप्रैल 2010 में **प्रकाशित)* * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Feb 14 00:56:39 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 14 Feb 2011 00:56:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KSuIOCkj+CklSDgpK/gpL7gpLzgpKTgpY3gpLDgpL4g4KS54KWILCA=?= =?utf-8?b?4KSy4KSu4KWN4KSs4KWAIOCkr+CkvuCkpOCljeCksOCkviwg4KSq4KWc?= =?utf-8?b?4KS+4KS1IOCkqOCkueClgOCkgi4uLi4hISE=?= Message-ID: प्रेम एक या़त्रा है, लम्बी यात्रा, पड़ाव नहीं....!!! *खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी वा की धार, * *जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार* *-अमीर खुसरो* *हिंदी के वरिष्ठ कवि विमल कुमार आजकल सहज, सहल और संवेदनशील प्रेम कविताएं लिख रहे हैं, जो ‘वसुधा’, ‘तहलका’, ‘विपाशा’, ‘पाखी’, ‘समावर्तन’, ‘पब्लिक एजेंडा’ में छपी हैं। अभी हाल में उनका प्रयोगशील उपन्यास ‘चांद का आसमान डॉट कॉम’ प्रकाशित हुआ है। वेलेंटाइन डे के मौके पर पेश है प्रेम के वास्तविक स्वरूप को परिभाषित करता विमल कुमार का विचारोत्तेजक लेख:* *आज जब* बाज़ार ने प्रेम को वेलेंटाइन डे में और उसके एक अभिव्यक्ति के उत्पाद के रूप में बदल दिया है, प्रेम के बारे में गहन रूप से सोचने-विचारने तथा विश्लेषित करने की जरूरत पहले से अधिक बढ़ गई है। प्रेम क्या है? यह एक दार्शनिक सवाल की तरह हमेशा सभ्यता के इतिहास में उपस्थित रहा है। प्रेम जितना लौकिक है, उतना पारलौकिक भी है। पर प्रेम की परिभाषा को कभी भोगवाद तो कभी अध्यात्मवाद से कैद करने की कोशिश की गई। * * *लेकिन मेरे लिए* प्रेम हमेशा जीवन की एक पुकार रही है। यह प्रेम एक तरह की सृजनात्मकता है, किसी भी तरह की हिंसा और विध्वंस के खिलाफ़। पर यह भी सच है कि हिंसक और क्रूर लोग भी प्रेम करते रहे हैं। आख़िर हिटलर भी एक लड़की से प्रेम करता था। *प्रेम हमेशा से* समाज में जटिल रहा हैं भारतीय समाज में सत्री-पुरुष के संबंध सहज नहीं रहे हैं, इसलिए वह जटिल रूप में है। यहां प्रेम कई तरह की नैतिकताओं, कानूनों, पूर्वाग्रहों, मान्यताओं तथा अहम में भी कैद रहा है। जबकि प्रेम मनुष्य को मुक्त करने की एक प्रक्रिया है, जब राज्य और समाज उसे मुक्त नहीं कर पाता हो। तब प्रेम एक शरणस्थली है। * * *प्रेम **वृक्ष की* छांह है। पानी की बूंद है। चिराग की रोशनी है। एक सहारा है। एक विश्वास है। एक उम्मीद है। पर भौतिकता की तेज आंधी में यह लगातार ध्वस्त हो रहा है। प्रेम आज सत्ता विमर्श का एक हिस्सा बन गया है। प्रेम पर बंदिशें लगती रही हैं। यह जितना मुक्ति की खोज में है, उतना ही जकउ़ता गया है। यथार्थ और कल्पना के द्वन्द्व में फंसता रहा है। *सोचता हूं,* क्या मनुष्य कहीं ख़ुद को ही तो प्रेम नहीं करता है? वह अपनी तस्वीर जब किसी दूसरे में ढूंढता है तो वह तादात्म्य स्थापित करता है। प्रेम एक मायने में खुद को प्रकाशित करना और आइने में अपना चेहरा देखना ही तो नहीं है? क्या वह अपनी ही समीक्षा है? अपनी निर्मम आलोचना स्वयं को उदघाटित करता हुआ? *प्रेम के पीछे* जब तक कोई मूल्य, आदर्श, नैतिकता और पारदर्शिता नहीं है, यह एक तरह का छल है, पाखंड है, धोखा है, ख़ुद से भी और उससे भी, जिससे हम प्रेम करते हैं। इस अर्थ में शमशेर ने प्रेम की पवित्रता को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनके यहां प्रेम एक उदात्त भाव है। मनुष्य की अच्छाइयों और सद इच्छाओं का एक प्रतिफलन है। केदारनाथ अग्रवाल के यहां प्रेम एक गृहस्थ जीवन है। उसमें दायित्व और कर्तव्य बोध अधिक है। * अज्ञेय के यहां *प्रेम एक चिंतन और गहन दार्शनिक विश्लेषण के रूप में मौजूद है। अशोक वाजपेयी के यहां प्रेम देह विमर्श तथा रीतिकालीन छौंक लिए हुए है। उसे ज्ञानेन्द्रपति की कविता ‘चेतना पारीक कैसी हो' आज भी होंट करती है। *होंट करती है, *उदय प्रकाश के दूसरे काव्य संग्रह में 'एक बाहर को छोड़ते हुए' सात कविताएं भी। आलोक धन्वा की ‘भागी हुई लड़कियां’ प्रेम की खोज में ही घर से भागती है। गोरख पांडेय की कविता ‘तुम्हारी आंखों' में तकलीफ़ों के संमंदर के रूप में प्रेम व्यक्त हुआ है। *अरुण कमल की* ‘वसुधा’ में छपी कविता भी गहरे प्रेम को दर्शाती है। प्रत्यक्षा की कुछ कविताओं में प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है। सविता सिंह की ‘विपाशा’ में छपी कविता प्रेम की खोज में स्त्री के अस्तित्व की रक्षा की कविता है तो अनामिका की कुछ कविताओं में स्त्री के घाव के दर्द की अभिव्यक्ति है। * * *मंगलेश डबराल की* कुछेक कविताओं में प्रेम बहुत ‘सूक्ष्म’ ओर गहन स्तर पर चित्रित हुआ है। इब्बार रब्बी की कुछ कविताओं में प्रेम का दैनंदिन रूप और गृहस्थ रूप है। गिरिधर राठी के यहां भी प्रेम में चिंतन का रूप है। * * *बद्रीनारायण तथा* एकांत श्रीवास्तव के यहां लोक जीवन में, तो कुमार अंबुज में खाना बनाती स्त्रियों के दुख के रूप में व्यक्त हुआ है। दरअसल, हिंदी कविता ने प्रेम के वृहत आयाम को छूने और पकड़ने की कोशिश की। *धर्मवीर भारती के* ‘गुनाहों का देवता’ और ‘कनुप्रिया’ में प्रेम रूमानी और सौंदर्यपरक रूप में विधमान है। भगवती चरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’ से वह दार्शनिक अंतर्द्वन्द्व के रूप में अभिव्यक्ति हुआ, तो रेणु के यहां ‘पंचलैट’ और ‘मैला आंचल’ के डॉक्टर ओर कमली के संबंधों से चित्रित हुआ। * राजेंद्र यादव की कहानी *जहां ‘लक्ष्मी कैद है’ में स्त्री को मुक्त करने की चिंता के रूप में व्यक्त हुआ है। एक लंबी सूची है रचनाओं की। प्रेम किन-किन रूपों से व्यक्त हुआ है। उस पर शोध होना चाहिए। *मेरे लिए प्रेम* एक सृजनशील, सच्ची और निश्छल अभिव्यक्ति है। वाकई दिल एक बच्चा है। वह अगर बूढ़ा हो गया, तो उसमें निश्चितता गायब है। प्रेम नदी के स्वच्छ पानी की तरह है, और आसमान की तरह विस्तृत तथा समंदर की तरह गहरा है। *जब तक आप *अपने अहम का समर्पण नहीं करते, आप किसी से प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करना भी है। लेकिन कई बार मनुष्य क्रोध का भी गुलाम हो जाता है। क्रोध एक स्वाभाविक गुण है। लेकिन जब किसी मनुष्य में अपने क्रोध का ग़लती का एहसास है तो वह प्रेम भोग्य है। *जो व्यक्ति* किसी को माफ़ नहीं कर सकता, वह किसी को प्रेम नहीं कर सकता। इसलिए प्रेम में उदारता और उदात्तता ज़रूरी है। प्रेम तमाम संकीर्णतओं तथा कट्टरताओं के खिलाफ़ है। प्रेम दरअसल एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। प्रेम मेरे लिए एकाधिकारवाद नहीं है। *प्रेम अपने ऊपर* हंसता भी है। मेरा मानना है कि मनुष्य केवल एक व्यक्ति से प्रेम नहीं करता, कईयों से एक साथ करता है, क्योंकि जीवन में इतनी विविधताएं हैं कि मनुष्य विविध अनुभव प्राप्त करना चाहता है, कई बार। *विविधता और संपूर्णता* की ख़ोज प्रेम को संकट में डाल देती है। लेकिन जब हम एक नागरिक समाज में रहते हैं जहां रूल आफ लॉ का शासन है, तो हमें बंधन में सामंजस्य जरूरी है। *प्रेम अराजक नहीं *है। एक ऑर्डर है। लहर है, पर ऐसा तूफ़ान नहीं है जो जीवन को ही विध्वंस कर दे। इसलिए प्रेम एक सच्ची दोस्ती है और 'शेयरिंग' है। प्रेम जितना व्यक्ति है उतना ही अव्यक्ति। प्रेम को कभी भी सफलता और असफलता के खांचे में नहीं देखा जाना चाहिए। प्रेम और विवाह दो अलग-अलग चीजें हैं। *विवाह एक मूर्त* संस्था है जबकि प्रेम एक अपूर्ण संस्था है। प्रेम को किसी खित्ते में देखना ग़लत है। प्रेम यौन में है और यौन से परे भी है। प्रेम अज्ञेय है। प्रेम गंध और रंग में है। प्रेम उल्लास और उमंग में है। प्रेम प्रसन्नता में है। प्रेम मृत्यु के खिलाफ़ है। *प्रेम** तकलीफ़ों, *दुखों के खिलाफ़ एक लड़ाई है। प्रेम एक तरह की समानता में है। प्रेम ही दुनिया की सच्ची क्रांति है। प्रेम जाति, धर्म, संप्रदाय, पद, प्रतिष्ठा, यश - इन सबसे परे है। पर यह सच है कि प्रेम सत्ता विमर्श में फंस गया है। बाज़ार ने उसके स्वरूप को नष्ट कर दिया है। *प्रेम किसी का *इस्तेमाल नहीं है, वह कोई ख़रीद-बिक्री की चीज़ नहीं है। प्रेम किसी को दुख देना नहीं है, किसी को चोट पहुंचाना नहीं है। लेकिन मनुष्य कई तरह की कमज़ोरियों तथा दुर्गुणों से संचालित होता है। मनुष्य देवता नहीं है। पर प्रेम में मनुष्य किसी को ‘देवत्व’ देना चाहता है। प्रेम एक दूसरे के व्यक्तित्व को ‘स्पेस’ देने की आज़ादी भी है। प्रेम करनेवाले तर्क-वितर्क का भी स्वागत करें, आलोचना का भी, पर एक-दूसरे को प्रेम करें। *प्रेम में झगड़ा *होना भी स्वाभाविक है। झगड़े होने चाहिए, पर अंत सुखद हो, दुखद नहीं। यह तभी संभव है जब आप अपने अहम पर विजय पाएं। केदारनाथ अग्रवाल की इस छोटी सी कविता से बात ख़त्म करना चाहूंगा- ‘‘तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर मैंने सोचा दुनिया को इसी तरह नर्म और सुंदर होना चाहिए।’’ *इसलिए प्रेम* में एक लक्ष्य होना चाहिए। यह लक्ष्य देह को प्रापत करना नहीं। देह भी निमित्त है, मंज़िल नहीं। कई बार देह प्राप्त कर भी हम उससे प्रेम नहीं कर पाते। इसलिए प्रेम एक या़त्रा है, लम्बी यात्रा, पड़ाव नहीं....!!! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon Feb 14 12:50:53 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 14 Feb 2011 12:50:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W0Z3ZDog4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSwIOCkrOCksOCkvuCkuOCljeCkpOClhyDgpKvgpLzgpYjgpJw=?= =?utf-8?b?4KS8?= Message-ID: <4D58D7D5.1070406@sarai.net> यागेन्द्र यादव जी के द्वारा लिखित लेख के इस कड़ी में उनका नया लेख "आधी-अधूरी क्रांतियों का युग " सलग्न है. यह लेख अमर उजाला में १३ फरवरी को छपा है. लेख पर अपनी प्रतिक्रिया आप इस मेल पर या योगेन्द्र जी के सीधे मेल yogendra.yadav at gmail.com पर भेज सकते हैं आधी-अधूरी क्रांतियों का युग आँखें काहिरा के तहरीर चौक की फोटो देख रहीं थी. लेकिन कानों में इकबाल बानो की अद्भुत आवाज गूँज रही थी. "/हम देखेंगे ... लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लौह-ए-अजल में लिखा है/" एक क्षण के लिये मन अटका. जरूर इकबाल बानो की आवाज़ का जादू रहा होगा कि पहले कभी पलटकर सोचा ही नहीं. क्या वाकई जिस दिन का वादा था वो दिन "/लौह-ए-अजल" /में लिखा है/? / क्रांति इस दुनिया का शाश्वत नियम है? काहिरा कि 'बेला-चमेली' क्रांति (अंग्रेजी में इसे जेस्मीन रेवोलुशन कहा जा रहा है) ने यह सवाल पूछने पर मजबूर किया है. बेशक काहिरा से इस्कंदरिया तक जनता जनार्दन का उभार क्रांति के पुराने सपने को जगाता है. पाकिस्तान के क्रांतिकारी कवि फैज़ अहमद फैज़ की यह मशहूर ग़ज़ल हमारे उपमहाद्वीप ही नहीं पूरी दुनिया में तानाशाही के जुल्मो-सितम के खिलाफ लड़ने वालों के लिये प्रेरणा गीत बन चुकी है. शायद लोकतंत्र की कीमत भारत से ज्यादा पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल के लोग समझते हैं, चूंकि उन्होंने तानाशाही झेली है. हुस्ने मुबारक के सत्ता छोड़कर भाग जाने पर काहिरा में किसी न किसी के होंठो पर तो फैज़ के बोल आये होंगे: "/जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ/ /रुई की तरह उड़ जाएँगे"/ मन फिर पहाड़ और रुई के इस रूपक पर अटकता है. कौन नहीं जानता कि मुबारक की तानाशाही के सर पर दुनिया भर को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले अमरीका और उसके यूरोपीय दुमछल्लों का वरदहस्त था. तानाशाह के रुखसत होने पर इजराइल की चिंता और फिलिस्तीनियों का उल्लास मिस्र, इजराइल और अमरीका के हुक्मरानों के नापाक रिश्तों का खुलासा करता है. अगर आप पिछले दस दिन से तेल के दाम का खेल देख रहे हों तो आप समझ जायेंगे कि धरती के नीचे खनिज होना धरती पर रहने वाले मनुष्यों के लिये श्राप हो सकता है. पहले टुनिशिया और फिर मिस्र में जो हुआ उसे पहाड़ के रुई की तरह उड़ जाने की बजाय कठपुतली के धागे कटने की संज्ञा देना बेहतर होगा. अरब जगत में अमरीका की नाक के बाल हुस्ने मुबारक अब उसकी आँख में किरकिरी बन गए थे. विचार श्रृखला फिर टूटती है. गज़ल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी है: "/सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे/" यह रेकॉर्डिंग लाहौर की है, उस वक़्त जब पाकिस्तान जिया-उल-हक की तानाशाही तले पिस रहा था. ग़ज़ल के इस मोड़ पर श्रोताओं की भावनाओं का विस्फोट होता है. इकबाल बानो की आवाज़ तालियों की गडगडाहट और तानाशाही विरोधी नारों में डूब जाती है. एक क्षण के लिये भय का साम्राज्य ढह जाता है. ठीक वैसे ही जैसे तहरीर चौक पर पर पहले दिन महज दो सौ बहादुर लोगों के खड़े होने से हुआ था. ताज उछलते और तख़्त गिरते देखकर मन फिर फैज़ के कलाम के साथ बह निकालता है: "जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे" लेकिन तभी राजनीति की हकीकत कविता को विराम देती है. टुनिशिया में तख़्त तो पलटा लेकिन मसनद पर बहिष्कृत समाज नहीं बैठा. पुराने सत्ताधीशों का एक और गुट फिर सिंहासन पर काबिज हो गया. मिस्र में अंतत क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन फिलहाल तो मसनद पर वही बैठे हैं जिनके हाथ में बन्दूक है, जो कल भी बन्दूक के मालिक थे. मुबारक भले ही उठा दिए गए हों, सच के मदिर से झूठ के पुतले उठने की कोइ सूरत दिखाई नहीं देती. अगर क्रांति की चिंगारी जल्द ही बुझ न गयी तो यह संभव है की सत्ता का हस्तांतरण फौज के हाथों से चुनी हुई सरकार के पास आ जायेगा. लेकिन मिस्र के शासक जिस अंतर्राष्ट्रीय निजाम के हाथ में मोहरा हैं, वह नहीं बदलेगा. तेल, पूँजी और सत्ता का रिश्ता नहीं टूटेगा. मेरे मन की भटकन से बेखबर इकबाल बानो आगे बढ़ती जा रही थीं: "और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो" लेकिन अब फैज़ के कलम से बुना यह सपना हकीकत को और भी मैला किये दे रहा था. दिमाग आगे जाने की बजाय पीछे मुड़कर देख रहा था. क्रांति के आधुनिक विचार का जन्म १८वी सदी में फ़्रांस की राज्य क्रांति से हुआ. उन्नीसवीं सदी आते आते यह संयोग एक सपना बन गया. क्रांति सिर्फ तख्ता पलट की बजाय सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन का पर्याय बन गयी. बीसवीं सदी में इस सपने को हकीकत के धरातल पर उतारने की अनेक कोशिशे हुईं -- रूस, चीन और इरान की क्रांतियों की चर्चा किये बिना बीसवीं सदी का इतिहास नहीं लिखा जा सकता. इन क्रांतियों ने राज्य सत्ता और शासक वर्ग का चेहरा बदला, समाज और अर्थनीति में दूरगामी बदलाव किये. लेकिन बीसवीं सदी के ये प्रयोग उन्नीसवीं सदी के सपने से बहुत दूर ही रुक गए. क्रांतियाँ तो हुईं लेकिन जिन लोगों और जिस विचार के नाम पर ये क्रांतियाँ हुई थीं, वो जल्द ही हाशिये पर चले गए. इक्कीसवीं सदी आते आते क्रांति का संकल्प थक चूका था, यह हसीन सपना एक चालू मुहावरे में बदल चूका था. हमारे यहाँ हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तर्ज़ पर दुनिया भर में नाना किस्म की क्रांतियों की बात चल निकली. एक बार फिर क्रांति शब्द का अर्थ सिमट कर तख्ता पलट हो गया. पूर्व सोवियत संघ के देशों में "मखमली क्रांति", फिर युक्रेन में "नारंगी क्रांति" और अब मिस्र में बेला-चमेली क्रांति. जैसे जैसे क्रांति के विचार पर रंग और रूप मढ़े जाने लगे, वैसे-वैसे क्रांति का विचार फीका और गंधहीन होने लगा. इकबाल बानो की आवाज़ थम गयी थी. सामने अख़बार पड़ा था. मुखप्रष्ठ पर एक आन्दोलनकारी की छवी थी जो फौजी अफसर को गले लगे रहा था. अचानक छवि तरल हो गयी और एक प्रश्नचिंह बनकर तैरने लगी. क्या इक्कीसवीं सदी में क्रांति के विचार का पुनर्जन्म होगा? हम देखेंगे? *Yogendra Yadav*, Senior Fellow, Centre for the Study of Developing Societies, 29 Rajpur Road, Delhi 110054 India Office Phone: 23981012 (telefax Lokniti, CSDS), 23942199 (PBX, CSDS) From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Feb 16 12:42:29 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 16 Feb 2011 12:42:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkleClgCDgpLXgpYjgpJrgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkm+Ckn+CkquCkn+CkvuCkueCknw==?= Message-ID: महाराष्ट्र के रत्नागिरी में मेरी मुलाकात पत्रकार शिरिष दामले से हुई। शिरिष भी उन पत्रकारों में से एक हैं, जो आजकल एक अखबार में काम तो करते हैं, लेकिन उन्हें पता है कि वे जो काम कर रहे हैं, वह नौकरी से अधिक कुछ भी नहीं है। उन्होंने बातचीत में जो भी कहा वह अकेला उनका नहीं आज खुद को पत्रकार कहने वाले बहुत से लोगों का दर्द है। इसमे भाषा-जाति और क्षेत्र का भी भेद नहीं है। हर तरफ कमोवेश एक सी स्थिति है। इसलिए अब इस बात को स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं रही है कि पत्रकारिता मिशन नहीं बल्कि धंधा है। अब यह बात पत्रकारिता की पढ़ाई करने आए छात्रों के ही गांठ बांध दी जाती है, समाज को बदलने का सपना लेकर इस क्षेत्र में आए हो तो कुछ और कर लो। पत्रकारिता के माध्यम से अब यह संभव नहीं है। वैसे शिरिष दामले का नाम यहां लेने के पीछे मुख्य वजह पत्रकारिता की निन्दा करना नहीं है। उस उम्मीद पर बात करना है, जिसकी राह दामले साहब ने दिखलाई। वे कहते हैं, 'हम कुछ साथी पत्रकार जो अलग-अलग अखबारों में काम करते हैं, सोच रहे हैं एक साप्ताहिक अखबार अपनी आमदनी को जोड़कर निकालें। जिसमें वे सारी खबरें हों, जिसे हमारा अखबार अपनी-अपनी मजबूरी में छाप नहीं पाता।' दामले साहब इस तरह की कोशिश में जुट गए हैं। वैसे यह काम अकेले दामले साहब ही क्यों करें? इस बात को तो अभियान की तरह जिले-जिले में फैलाया जाना चाहिए। यदि एक जिले के दस पत्रकार भी महीने दो-दो हजार रुपए जोड़ लें तो एक साप्ताहिक अखबार मजे से निकाल सकते हैं। बिना विज्ञापनों पर निर्भर हुए। वैसे इस तरह का नेक काम करने के लिए कुछ लोग आगे जब आएंगे तो निश्चित तौर उनके अपने समाज से उन्हें मददगार भी मिलेंगे। कमाल की बात यह है कि यह अखबार वे सभी पत्रकार अपने-अपने अखबार में काम करते हुए निकाल सकते हैं। या इस तरह का प्रयास वे अपने प्रयत्नों से या किसी को प्रेरित करके शुरू करवा सकते हैं और इस तरह के प्रयास को वे अपना नैतिक और आर्थिक सहयोग तो दे ही सकते हैं। आज छपने के अभाव में खत्म हो रही खबरों को जरुरत है, एक ईमानदार अखबार की। यदि एक पत्रकार की जानकारी में कोई खबर, पाठकों के बीच जाने से महरुम रह जाए तो यह पत्रकार की अपने पेशे के साथ बेईमानी ही कही जाएगी। इसलिए अब यही समय है, हम आगे बढ़े और व्यवस्था में रहते हुए उसमें सुधार के लिए प्रयास करें। दामले साहब की पीड़ा तो निश्चित तौर पर बहुत लोगों के दिल का दर्द है लेकिन उन्होंने जो कदम उठाने का निर्णय लिया है, वह भी वे सारे लोग अपनाने के लिए आगे बढ़े तो निश्चित तौर पर हमारी पत्रकारिता संवर सकती है। भूत-प्रेत, अपराध, सेक्स, सनसनी से बाहर निकल सकती है। जिन उम्मीदों पर बड़े अखबार खरे नहीं उतर रहे, उसे छोटे छोटे अखबार मिलकर बिल्कुल पूरा कर सकते हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Feb 16 12:42:29 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 16 Feb 2011 12:42:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkleClgCDgpLXgpYjgpJrgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkm+Ckn+CkquCkn+CkvuCkueCknw==?= Message-ID: महाराष्ट्र के रत्नागिरी में मेरी मुलाकात पत्रकार शिरिष दामले से हुई। शिरिष भी उन पत्रकारों में से एक हैं, जो आजकल एक अखबार में काम तो करते हैं, लेकिन उन्हें पता है कि वे जो काम कर रहे हैं, वह नौकरी से अधिक कुछ भी नहीं है। उन्होंने बातचीत में जो भी कहा वह अकेला उनका नहीं आज खुद को पत्रकार कहने वाले बहुत से लोगों का दर्द है। इसमे भाषा-जाति और क्षेत्र का भी भेद नहीं है। हर तरफ कमोवेश एक सी स्थिति है। इसलिए अब इस बात को स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं रही है कि पत्रकारिता मिशन नहीं बल्कि धंधा है। अब यह बात पत्रकारिता की पढ़ाई करने आए छात्रों के ही गांठ बांध दी जाती है, समाज को बदलने का सपना लेकर इस क्षेत्र में आए हो तो कुछ और कर लो। पत्रकारिता के माध्यम से अब यह संभव नहीं है। वैसे शिरिष दामले का नाम यहां लेने के पीछे मुख्य वजह पत्रकारिता की निन्दा करना नहीं है। उस उम्मीद पर बात करना है, जिसकी राह दामले साहब ने दिखलाई। वे कहते हैं, 'हम कुछ साथी पत्रकार जो अलग-अलग अखबारों में काम करते हैं, सोच रहे हैं एक साप्ताहिक अखबार अपनी आमदनी को जोड़कर निकालें। जिसमें वे सारी खबरें हों, जिसे हमारा अखबार अपनी-अपनी मजबूरी में छाप नहीं पाता।' दामले साहब इस तरह की कोशिश में जुट गए हैं। वैसे यह काम अकेले दामले साहब ही क्यों करें? इस बात को तो अभियान की तरह जिले-जिले में फैलाया जाना चाहिए। यदि एक जिले के दस पत्रकार भी महीने दो-दो हजार रुपए जोड़ लें तो एक साप्ताहिक अखबार मजे से निकाल सकते हैं। बिना विज्ञापनों पर निर्भर हुए। वैसे इस तरह का नेक काम करने के लिए कुछ लोग आगे जब आएंगे तो निश्चित तौर उनके अपने समाज से उन्हें मददगार भी मिलेंगे। कमाल की बात यह है कि यह अखबार वे सभी पत्रकार अपने-अपने अखबार में काम करते हुए निकाल सकते हैं। या इस तरह का प्रयास वे अपने प्रयत्नों से या किसी को प्रेरित करके शुरू करवा सकते हैं और इस तरह के प्रयास को वे अपना नैतिक और आर्थिक सहयोग तो दे ही सकते हैं। आज छपने के अभाव में खत्म हो रही खबरों को जरुरत है, एक ईमानदार अखबार की। यदि एक पत्रकार की जानकारी में कोई खबर, पाठकों के बीच जाने से महरुम रह जाए तो यह पत्रकार की अपने पेशे के साथ बेईमानी ही कही जाएगी। इसलिए अब यही समय है, हम आगे बढ़े और व्यवस्था में रहते हुए उसमें सुधार के लिए प्रयास करें। दामले साहब की पीड़ा तो निश्चित तौर पर बहुत लोगों के दिल का दर्द है लेकिन उन्होंने जो कदम उठाने का निर्णय लिया है, वह भी वे सारे लोग अपनाने के लिए आगे बढ़े तो निश्चित तौर पर हमारी पत्रकारिता संवर सकती है। भूत-प्रेत, अपराध, सेक्स, सनसनी से बाहर निकल सकती है। जिन उम्मीदों पर बड़े अखबार खरे नहीं उतर रहे, उसे छोटे छोटे अखबार मिलकर बिल्कुल पूरा कर सकते हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Feb 17 20:00:05 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 17 Feb 2011 20:00:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkreCkvuCktw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkreClgCDgpIbgpJwg4KSq4KWC4KSC4KSc4KWAIOCklOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSk4KSV4KSo4KWA4KSVIOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUg4KSc4KWB4KSh?= =?utf-8?b?4KS84KWAIOCksuCli+CkreClgCDgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4t4KS44KSC?= =?utf-8?b?4KSw4KSa4KSo4KS+4KST4KSCIOCkleClgCDgpJrgpKrgpYfgpJ8g4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkueCliC4uLiIgOiDgpIngpKbgpK8g4KSq4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS2?= Message-ID: "भाषा भी आज पूंजी और तकनीक के साथ जुड़ी लोभी सत्ता-संरचनाओं की चपेट में है..." : उदय प्रकाश *सुनील गंगोपाध्याय और उदय प्रकाश* साथियो, *आज क़े समय की 'माइक्रो रियलिटी' को अपने कथा साहित्य, कविता और अन्य पारंपरिक-गैर पारंपरिक विधाओं में अभिव्यक्ति देनेवाले, देश-विदेश क़े पाठकों क़े बीच बेहद लोकप्रिय, लेकिन हिंदी क़े सत्ता समाज द्वारा लगातार 'विक्टिमाइज़' किए गए उदय प्रकाश को कल साहित्य अकादेमी सम्मान से अलंकृत किया गया. आज लेखक सम्मिलन कार्यक्रम में उन्होंने अपना व्यक्तव्य दिया. उदय प्रकाश क़े तकलीफ़देह वक्तव्य को सुनकर अपना जीवन संघर्ष बार-बार याद आया, मुझे और साहित्य अकादेमी सभागार में मौजूद कई लोंगों को. यह वक्तव्य आपके लिए भी प्रस्तुत है. *- शशिकांत *मुझसे कहा गया है* कि मुझे साहित्य अकादेमी द्वारा ‘मोहन दास’ को दिये गये पुरस्कार को स्वीकार करते हुए, इस संदर्भ में अपनी ओर से कुछ कहना है। यह एक परंपरा रही है। मेरे असमंजस और दुविधा की शुरूआत ही यहीं से होती है। मैं क्या कहूं? - *मुझे लिखते-पढ़ते *हुए कई दशक हो चुके हैं। लिखने की शुरूआत बचपन से ही कर दी थी, जब खड़ी हिंदी बोली ठीक ढंग से आती भी नहीं थी। तब कभी यह सोचा नहीं था कि इसी भाशा में एक दिन सिर्फ लेखक बनना है। ऐसा लेखक, जिसकी सामाजिक अस्मिता और जीवन का आधार किसी एक भाषा में लिखने तक ही सीमित होकर रहता है। *रोलां बाथ* जिसे ‘पेपर बीइंग’ कहते थे। तरह-तरह के कागजों पर स्याही में लिखे या छपे अक्षरों-शब्दों में किसी तरह अपना अस्तित्व बनाता हुआ प्राणी। आज के समय में वे होते तो कहते आधिभौतिक आभासी व्योम में द्युतिमान अक्षर या शब्द के द्वारा अपने होने को प्रमाणित करता कोई अस्तित्व। *यानी कहीं नहीं* में कहीं होता कोई प्राणी। ‘ए वर्चुअल नॉनबीइंग।’ यानी ‘ए सोशल नथिंग।’ किसी अप्रकाशित को महाशून्य में प्रकाशित करने की माया रचता भासमान अनागरिक। आकाशचारी ‘नेटजन’। - *बचपन जैसा* असुरक्षित और भटकावों से भरा रहा, उसे देखते हुए, आकांक्षा यही थी कि आगे चलकर एक सुरक्षित और अपेक्षाकृत स्थिर वास्तविक जीवन मिले। इसके लिए वास्तविक कोशिश भी की। परिश्रम किया। परीक्षाओं में अंक अच्छे लाए। यह सारा प्रयत्न उसी भाषा में किया, जिसमें लेखक के रूप में उपस्थित और जीवित रहता था। *सोचा कोई नौकरी* मिल जाएगी तो वास्तविक जीवन गुज़र जाएगा। समाज-परिवार की जिम्मेदारी निभ जाएगी। किसी मध्यवर्गीय नागरिक की तरह। फिर एक समय, जब युवा होने की दहलीज़ पर ही था, यह लगा कि अपने लिए तो सभी जीते हैं। इतना आत्मकेंद्रित क्या होना। जो किताबें पढ़ता था, उनसे भी यही प्रेरणा मिलती थी कि अपने समय को अधिक न्यायपूर्ण, सुंदर, मानवीय और उत्तरदायी बनाना चाहिए। *इतिहास ऐसे *प्रयत्नों के बारे में, उन प्रयत्नों की सफलताओं-असफलताओं के बारे में बताता था। उपन्यास, कविताएं, दर्शन, विज्ञान और मानविकी की तमाम पुस्तकों में ऐसे संकेत और विवरण थे। कलाएं भी इसका उदाहरण बनती थीं। नितांत अकेलेपन और एकांतिक पलों में उपजने वाली भाषिक क-वाचिक अभिव्यक्तियों या अन्य कलाओं में भी यह प्रयत्न दिखाई देता था। *लेकिन इन सबमें *सबसे प्रगट और शायद अधिक ठोस, साफ और आसान-सा उपक्रम जहां दिखता था, उसे राजनीति या सामाजिक कर्म कहते हैं। तो मैं उधर भी गया। इस सबके पीछे ऐसा लगता है कि कोई महान मानवीय-सामाजिक कार्य करने, बड़ा परिवर्तन लाने का कोई आत्मबलिदानी आदर्श या क्रांतिकारी लक्ष्य किसी समय रहा होगा। जिस पीढ़ी का मैं था, वह पीढ़ी ही कुछ-कुछ ऐसी थी। - *आज इस उम्र में, *इतनी दूर आकर कह सकता हूं, कि शायद वह सारा प्रयत्न भी मेरी अपनी ही सुरक्षा और अस्तित्व की चिंता से जुड़ा हुआ था। एक स्तर पर वह कहीं गहराई से व्यक्तिगत भी था। शायद हम किसी भी परिवर्तन की कोशिश में तभी सम्मिलित होते हैं, जब हम उसमें स्वयं अपनी मुक्ति और अपनी स्थितियों में बदलाव देखते-पाते हैं। *मेरे पास भाषा* और अपने शरीर के अलावा कोई दूसरा साधन और ऐसा माध्यम नहीं था, जिससे मैं दूसरों, और इस तरह अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए ऐसा सामाजिक प्रयत्न कर सकता। तो एक दीर्घ समय तक, बल्कि अपने जीवन के सबसे बड़े हिस्से को, मैंने वहीं खर्च किया। यही सोचते हुए कि एक ऐसे समाज और समय में, जिसमें मेरे जैसे अन्य सभी सुरक्षित और स्वतंत्र होंगे, उसमें मैं भी स्वतंत्रता और नागरिक वैयक्तिक गरिमा के साथ रह सकूंगा। - *आज इतने वर्षो* के बाद भी मुझे लगता है कि मैं इस भाशा, जो कि हिंदी है, के भीतर, रहते-लिखते हुए, वही काम अब भी निरंतर कर रहा हूं। जब कि जिन्हें इस काम को भाशेतर या व्यावहारिक सामाजिक धरातल पर संगठित और सामूहिक तरीके से करना था, उसे उन्होंने तज दिया है। इसके लिए दोषी किसी को ठहराना सही नहीं होगा। वह समूची सभ्यता का बदलाव था। मनुष्यता के प्रति प्रतिज्ञाओं से विचलन की यह परिघटना संभवतः पूंजी और तकनीक की ताकत से अनुचर बना डाली गई सभ्यता का छल था। *मुझे ऐसा लगता है* कि इतिहास में कई-कई बार ऐसा हुआ है कि सबसे आखीर में, जब सारा शोर, नाट्य और प्रपंच अपना अर्थ और अपनी विश्वसनीयता खो देता है, तब हमेशा इस सबसे दूर खड़ा, अपने निर्वासन, दंड, अवमानना और असुरक्षा में घिरा वह अकेला कोई लेखक ही होता है, जो करुणा, नैतिकता और न्याय के पक्ष में किसी एकालाप या स्वगत में बोलता रहता है। *या कागज़ पर* लिखता रहता है। किसी परित्यक्त अनागरिक होते जाते बूढ़े की अनंत बुदबुदाहट, कभी किसी पुरानी स्मृतियों के कोहरे और अंधंरे से निकलती और कभी किसी स्वप्न के बारे में संभाव्य-सा कुछ इशारा करती। इसे ‘सॉलीलाक्वीस’ कहते हैं। *मैं ज़रा-सा* भाग्यशाली इसलिए हूं कि इस स्वगत को सुनने वाले बहुत से लोग मुझे अपनी ही नहीं, दूसरी अन्य भाषाओं में भी मिल गये हैं। इसमें हमारे अपने देश की भी भाषाएं हैं और दूसरे कुछ देषों की भी। - *एक प्रश्न हमेशा *हमारे सामने आ खड़ा होता है। वह यह कि जिस धरती पर मैं भौतिक रूप से रहता हूं, जिस शहर, समाज या राज्य में, उसका मालिक कौन है? किसका आधिपत्य उस पर है? किसी नागरिक, प्रजा या मनुष्य रूप में उस मालिक ने मुझे कितनी स्वतंत्रता दे रखी है? उसकी हदबंदियां और ज़ंजीरें कहां-कहां हैं? *और ठीक इसी से* जुड़ा हुआ, इसी प्रश्न के साथ, इसी प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी सामने आ जाता है कि जिस भाषा में मैं लिखता हूं, उस भाषा का मालिक कौन है? वह कौन सी सत्ता है, जिसके अधीन यह भाषा है? जैसा मैंने अभी कहा, लेखक और कुछ नहीं, भाषा में ही अपना अस्तित्व हासिल करता कोई प्राणी होता है। *भाषा ही उसका* कार्यक्षेत्र, उसका देश, उसका घर और उसका अंतरिक्ष होता है। उसकी संपूर्ण सत्ता भाषा में ही अंतर्निहित होती हैं। लेकिन मैंने अक्सर पाया है कि भाषा और भूगोल, या शब्द और राज्य, दोनों को अपने अधीन बनाने वाली सत्ता एक ही होती है। कई तरह के प्रतिपक्षी और प्रतिभिन्न पाठों में प्रकट होते शब्दाडंबरों या डेमॉगागी के आर-पार वर्चस्व की वही संरचनाएं रहती हैं, जो किसी धरती के नागरिक या किसी भाषा के लेखक की स्वतंत्रता को नियंत्रित, अनुकूलित या अधीन करती हैं। *हर तरह की* ऐसी सत्ता, मुझे अनिवार्य रूप से लगता है कि अपने मूल चरित्र में सर्वसत्तावादी होती है। इतिहास ने और मेरे अपने ही जीवन की स्मृतियों और अनुभवों ने इस धारणा को पुष्ट ही किया है। यह सत्ता राज्य-व्यवस्था ही नहीं, किसी भी भाषा में विनिर्मित उन विचार-सरणियों को भी अधिगृहीत कर लेती हैं, जिनमें सबकी मुक्ति की कोई संभावना होती है। पिछले दो-ढाई दशकों के मेरे अनुभवों और संज्ञान ने यह बोध मुझे दिया है। *इसीलिए, *जिस भाषा में मैं लिखता और रहता हूं, वह मेरे लिए, सिर्फ ‘हिंदी’ नहीं रह जाती। वह जीवन और यथार्थ का एक ऐसा जटिल प्रश्न बन कर उपस्थित होती है, जिसे किसी कथा या कविता या अपने किसी बयान में कहता हुआ मैं सत्ताओं के संदेह के घेरे में अक्सर आता रहता हूं। इसके बाद इस जगह मैं चुप रहूंगा। शिकागो स्टेडियम में उदय प्रकाश *मैं स्मरण दिलाना चाहूंगा *कि पिछली सदी के ठीक बीतते ही, जब सब नयी सहस्राब्दी के स्वागत की मुद्रा में थे, मैंने एक लंबी प्रेमकथा लिखी थी -‘पीली छतरी वाली लड़की’। आप अगर ध्यान दें, तो लोकरंजक सरलता के उस सहज पाठ में भाषा और महुष्य का गहरा अनुचिंतन और विखंडन एक साथ विन्यस्त था। अपने नये कविता संग्रह-‘एक भाषा हुआ करती है’ का भी ध्यान मैं दिलाना चाहूंगा। *मुझे लगता है कि* लेखक हो जाने की अस्मिता हासिल होने के बाद उसकी स्वतंत्रता किसी भी जातीय, सांप्रदायिक, धार्मिक, लैंगिक या राजनीतिक या डेमॉगागिक वर्चस्व से नियंत्रित होती ही है। हर लेखक को, अगर उसने अन्य अस्मिताओं के सारे आवरण और कवच उतार दिये हैं और उसके पास अपने जीवन और अपने आत्म की रक्षा के लिए भाषा के अतिरिक्त कोई दूसरा उपकरण नहीं बचा है, तो उसे हमेशा अपनी इस पराधीनता या औपनिवेशीकरण से मुक्ति का प्रयत्न करना ही पड़ता है। - *मेरा यह भी मानना है* और इसे मैं पिछले लंबे अर्से से कहता आ रहा हूं कि लेखक वस्तुतः अपनी भाषा का मूलनिवासी या आदिवासी होता है। उसकी भाषा ही उसका जल, जंगल, ज़मीन और जीवन हुआ करता है। किसी लालच या अन्य उन्माद में सभ्यताएं हमेशा किसी आदिवासियों को उसके स्थान से विस्थापित करती आयी हैं। *यह सिर्फ *किसी कोलंबस का ऐतिहासिक वृत्तांत भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा सर्वव्यापी सच है, जो आज तक देखी-जानी गई हर तरह की सत्ता-संरचना को शर्मसार कर सकती है। *आज जब मैं यहां* आपके सामने अपना यह वक्तव्य पढ़ रहा हूं, उस समय आप सब देख रहे हैं कि पूंजी और तकनीक की ताकतों के साथ जुड़ी लोभ की सत्ता ने किस व्यापक पैमाने पर हिंसा और संवेदनहीनता के साथ निरस्त्र मूलनिवासियों को उनकी जड़ों से उखाड़ना शुरू किया है। यह एक तरह का सभ्यता का उन्माद है। उदय प्रकाश और डा. इनेस फोर्नेल जर्मनी में *एक ऐसा मनोरोग* जो किसी खास जगह नहीं, बल्कि संसार के सभी वंचित, वध्य, सत्ताहीन और शांत मूलनिवासियों के जीवन में ‘होलोकास्ट’ पैदा कर रहा है। कई साल पहले* *मिशेल फूको की किताब -‘सभ्यता और उन्माद’ पढ़ी थी, उसे इस डरावने ढंग से प्रमाणित होते अपने सामने देख रहे हैं। *भाषा भी* पूंजी और तकनीक के साथ जुड़ी लोभी सत्ता-संरचनाओं की चपेट में है। इसके विस्तार में मैं नहीं जाना चाहूंगा। उतना समय भी नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि भाषा भी अब एक जिंस और एक उत्पाद भर मान ली गई है और इससे जुड़े जितने भी अकादेमिक, व्यापारिक और राजकीय उद्यम हैं, उस लेखक की उसमें कहीं कोई जगह नहीं है। वह विस्थापन के ठीक उसी बिंदु पर है, जिसमें हमारे समय की वंचित मूलनिवासी मनुश्यता है। - *मैं *साहित्य अकादेमी को धन्यवाद देता हूं और उस निर्णायक मंडल के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं, जिसने मेरी लंबी कहानी या आख्यान ‘मोहन दास’ को यह सम्मान दिया। जाहिर है, कोई भी पुरस्कार किसी भाशा और भूमि में किसी मनुष्य का पुनर्वास तो नहीं कर सकता, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं अपनी खुशी यहां प्रकट करता हूं। *यह खुशी* इसलिए अर्थ रखती है कि इस राज्य के एक नागरिक के रूप में मैं कुछ अपेक्षाकृत सुरक्षित-सा अनुभव कर रहा हूं। आप सबका हृदय से आभार। * ( 16 फरवरी 2011, साहित्य अकादेमी सभागार, नई दिल्ली-110001, भारत.)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Fri Feb 18 11:54:14 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 17 Feb 2011 22:24:14 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWL4KSc4KSq?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KWAIOCkleCkguCkquCljeCkr+ClguCkn+CksD8=?= Message-ID: <704711.77923.qm@web121708.mail.ne1.yahoo.com> भोजपुरी कंप्यूटर? भोजपुरी लोक की भाषा है...लोकप्रिय है और इसलिए आसानी से हमारे साथ घुल-मिल जाती है और करीब लगती है। भोजपुरी में चैनल आ गए हैं। कई संस्थानों ने इसके लिए अपने यहाँ विशेष अध्ययन के केंद्र खोल रखे हैं। कुछ साइटें भी आ गई हैं। लेकिन इस डिजिटल दुनिया में क्या ही अच्छा होता अगर हम भोजपुरी में भी कंप्यूटर देख पाते। ज्यादा मुश्लिक नहीं है। भोजपुरी भाषा के दो-तीन लोगों को आगे आना होगा। आपकी थोड़ी मिहनत से भोजपुरी कंप्यूटर तैयार हो जाएगा। और जो भी तकनीकी समस्या होगी उसे निपटाने के लिए बड़ी संख्या में लोग मौजूद हैं। अगर भोजपुरी कंप्यूटर के प्रोजेक्ट को कोआर्डिनेट करना चाहते हैं, कोआर्डिनेटर बनना चाहते हैं तो हमें ईमेल कीजिए। एक ऐतिहासिक कार्य... सादर राजेश http://kramashah.blogspot.com/2011/02/blog-post_17.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Feb 19 14:17:45 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 19 Feb 2011 14:17:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Nothing Raw about this HELEN : Frank Huzur Message-ID: Nothing Raw about this HELEN : Frank Huzur Helen Raw *There is* quiet intensity and a special look in her eyes. Though some feckless, floppy-haired philanderer might say she is a treacherous petite cat. Ah, that could be the bleak sigh of nagging despair in a green heart. Helen Raw has soulful eyes and tender heart, and she is an actress and a director, too. I was expecting her to be like I had imagined the countenance and contour of her heart and mind ahead of running into our maiden rendezvous. There were not many elements of surprise. Nonetheless, she throws many surprises in a conversation tossing from arts and aesthetics of British drama and Hollywood oaks to 'good, bad wheeze love in a warm climate movies of Bollywood.' * * *It was* 12 February, not very wet and windy afternoon in London. When Helen announced her London visit from Edingburh, her hometown, I was prepared to go out and meet her with grim and bold determination. For a stocky, not thin, not sombre yet sedate, blonde-haired vivacious actress, Helen was brimming with laughter pregnant with mirth and joy at All Bar One, quite a known pub on the fringe of Leicester square, just north of the famous Odeon cinema. *Helen was* shooting down status messages on her mobile as her black mulberry leather bag cushions her. Giving her hilarious company were two jovial ladies from Holland. They were the accidental, anarchist company Helen had run into at the All Bar One. It was Saturday evening, quite a good dose of nip in the London evening breeze. The chill could be drowned into warm fizz of vodka and beer as Helen gives me warm embrace in a very informal reception as I notice rich, poised baritone in her fast, Scottish accent. 'Welcome to my life,' quips Helen, as I discover over the four hours long evening at the pub, that is her favourite stock phrase. * * *Edingburgh is* hailed for its enlightening ambience, cultural jamboree and arts and architecture as 'Athens of the North.' Less than five million people live here, and equal amount of visitor throng its cobbled streets during renowned Edingburgh Festival in August, an annual ritual, which also hosts Edingburgh Fringe, the world largest performing arts festival. Helen is a household name in the city of museums and libraries, celebrations and music, theatre and film carnivals where her besotted admirers call her, 'Helen of Troy.' My mind was pregnant with fragrant memories of everything Edinburgh is known for, right from castle rock, fort, port, Burns Night, Fire Night, Book festival to military tatoo and street party. I was deeply aware that Helen belonged to the capital of Scotland, the city which has more women than men in its boundary living together in peace and joy. Gender balance plagues the urban pockets like New Delhi and Chandigarh. It is a reason for sorrow in Indian sub-continent whereas Edinburgh is enabling its women residents to steal a march over their men. Helen Raw & Frank Huzur *Not less *delightful was the sense of literary affinity with the city of Edingburgh, which is the first UNESCO city of Literature. J.K.Rowling, the lady behind the magic of Harry Potter novels, lives in the city, which also boasts of some influential literary giants of past century. Sir Arthur Conan Doyle, James Boswell, Robert Louis Stevenson, Irvine Welsh, Alexander Smith, Sir Walter Scott and last but not the least, for those high on economic growth theory in third world, famed political economist Adam Smith was also a resident of Edinburgh. Graham Bell, pioneer of modern age loveliest invention, telephone, was also born and educated in Edinburgh, so was Charles Darwin and Maxwell. *Leicester Square is *heart-throbbing hole of West End entertainment district to the west of central London. No sooner did you emerge out of the tube station and take a quick left turn to the street running down Empire, Odeon and VIU theatre, the eyes of the portrait artists and bustling crowd of Saturday party-poopers are on you. It is a delightful chances upon the crowd of portrait artists. All are hard at work, drawing the manners and gestures of all kind of faces, white, yellow and black, saddled in the wooden chair. Saturday and Friday nights are most cherished and awaited nights across London and elsewhere. Funsters or pranksters, red-haired to blonde beauties all sizzles down the streets corner pub to chill out the heavy dose of five-day-week affair with work and weather. * * *When you are* in Leicester Square, you are not much farther from Piccadily Circus, where BAFTA Heaquarters is based and Soho, the popular hotspot red light area of London and seat of erotic entertainment. Pubs, nightclubs, strip clubs, bars, sex shops and restaurants, salons and private pleasure retreats stares into your eyes, blinding with myriad shots of rainbow colours. Soho pubs could be infested with intellectuals, writers, artists who could lose sobriety in company of prostitutes and playmates. Streets across one square mile area of Soho are stuff of folklores and legends. It is no surprise to learn Karl Marx lived at Dean Street for five years between 1851-1856. Mozart lived for a few years of his childhood in the Frith street where Prince Edward theatre stands today. It was only the Frith street where John Logie Baird, inventor of television, demonstrated his first television. The laboratory today now has Bar Italia in its place. *Unlike seedy sex streets *of G.B.Road in Delhi, Sonagacchi in Calcutta and Hira Mandi in Lahore, Soho is a fashionable hot spots. Sex workers operate in studio flats and salons which can masquerade under curious signposts like 'The French Lessons' and *Helen was in London* to offer some powerful pep-talk to a crowd of few hundreds aspiring actors. The Actor Expo was the cause celebre for her London visit. Helen's love affair with song and dance in acting began at tender age of eight. She trained in acting in city of Hollywood, Los Angeles before she embarked on a stirring singing career on cruise ships. She loves singing like a soprano and her voice is silken when it has to be and husky when she prefers to be. Her flourish continued during her frequent television appearance in shows like *High Road* and *Taggart*. Theatre remains her tallest temptation. The stage set her heart on fire and turn her into more creative impresario. That she is a show-woman of her trade is implicit in her smart talks. Helen talks the talks and walks the walks, when she talks about her much coveted membership of Equity Scotland or whether she dwells on arts and crafts of short-film making or for that matter producing a drama as avant garde like *The Vagina Monologues*. She is an actor, director, creative head of her shows, eloquent speaker and a discerning eyes and mind in spotting a bright talent. Edingburgh culture cafes and salons take a bow before her. Her innovative methods to put Scotland on continental map is spilling over into other territories, as height of her creative character and depth of her commitment to acting and direction brings more connoisseurs of arts to her flagship company, *The Raw Talent Company. *Helen is busy short-listing short scripts for producing some remarkable plays. She is also in charge of audition for a series of over a dozen short films in Edingburgh. *Helen is* presently directing the much controversial yet celebrated play, The Vagina Monologues. When Eve Ensler wrote the play and staged at Here Arts Centre in New York in 1996, she would not have imagined the outstanding pouring of global interest and condemnation. Helen loves rebellious tones in creativity. Her plumping for the production was rightly inspired by the strong message The Vagina Monologues delivers against anti-women violence, especially sexual violence. She just loves to push the boulder up the hill like Sisyphus knowing that boulder will fall down again but pushing it anyway and forever. Her cast of characters in Edinburgh for the play are learning the sticking lessons in delivering the monologues. *Like Ensler, *Helen is also deeply affected by sexual violence and feels outraged how men can ourtrage modesty and chastity of a vulnerable girl by sheer force of their physical strength. She says, 'A woman is more empowered when her sexuality is respected. The Ensler's play is a powerful statement against deflowering and the choice of 'vagina' as metaphor to underscore emotions of sex, love, rape, menstruation, mutilation, masturbation, birth and orgasm is simply inspiring saga.' *There are* eight monologues in the dramatic play. *I was Twelve, My Mother Slapped Me* is a chorus dealing with the maiden horror, period, of a young girl. *My Angry Vagina* is a telling commentary on the bestiality, cruelty and furious assault against vagina. In My Vagina Was My Village, the audience is transported into rape camps of Bosnian women, a tale of enormous horror and humiliation to pride of any woman in the world. *The Little Coochie Snorcher That Could*is a throwback to unnerving sexual experiences in the childhood of a woman. *The horror* could be unspeakable for many in the fair sex. *Reclaiming Cunt, The Woman Who Loved to Make Vaginas Happy, Because He Liked to Look At It* and *I was There In The Room *are equally formidable, scary, shocking and frightening monologues for a weak heart and conservative minds. Little wonder, it has not been allowed to be staged in several countries, especially Muslim societies. *I had *an opportunity to watch the skits in New Delhi a few years ago. One of my friends in media based in Lucknow was telling me the play was not allowed to be staged there by Islamic and Hindu radicals. Helen Raw *Helen shots* into spotlight across United Kingdom for her feisty decision to celebrate her divorce after pulling the curtain on 18-month-old matrimony. The bees of bliss might have stung her in racking fashion, but the alliance was far from unfrightening. It was a bold and beautiful move by Helen to celebrate her divorce, though it might sound weird to a large crowd of million women across the globe who slip into abyss of humiliation and disgruntlement. Helen was uncluttered in her radical idea of celebration of separation. 'I spent more on my divorce party than I did at the wedding dress and banquet. I wanted to make a statement.' *Marriage is* not the glittering sunlight of Life's July and divorce shouldn't be treated as standing amidt the piercing chill of an Alpine November. This is Helen Raw's message to everyone. *When I* turned up to hear her at the Actors Expo at Campden community centre, just across the road from King's Cross tube station, I found hundreds of wannabe actors hooked to her pep talk. Aspiring boys and girls with dreamy eyes encircled Helen at end of the lecture. Questions were flying like saucepan from how to deal with a casting director to making showreels, meeting right criterion for working in Hollywood studios to how to look believable in any roles. Helen was prompt and persuasive in shooting wisecracking arrows at one and all. *She recounts* an interesting tale of one of her actor friends who was working free of cost for a production company. Whilst in the middle of his shooting schedule with the free-acting job, he received a call from BBC film production who were impressed with his auditioning skills and had decided to cast him and pay as well. Helen says, 'My friend was caught in a web of confusion. For a moment, he was tempted to latch onto the paid offer of the BBC. That would have meant his commitment wavered with the running production just for the payment. *I advised him* not to fail his commitment for fee. When he returned to the BBC saying he is committed to a running production, the BBC was impressed with his reply. They advanced the date of shooting only to make him easy. This is important for a struggling actor. Commitment,whether free job or paid job, should top the agenda.' *Helen is* joined by Forbes KB, an actor in the British film industry, renowned for portraying skinhead characters in several action thrillers. Forbes, Helen and I move out of the Campden centre for a conversation over beer and Vodka at The Arms, King's Cross tube station. Forbes is growing his hair to play a character, not a skinhead, in an MGM studio production. He has starred with Helen in an upcoming flick, *Interrogating Vivian*, in which Helen plays a detective. Bollywood dots the discussion about cinema. *When I ask* whether they can recognize the superstar marquee names of Indian cinema, Helen breaks into giggle. She says, 'I am at my wit's end when I see actor and actress suddenly breaking into a song and dance gig around trees and streets while a moment ago they were engrossed in a conversation. I don't recognize bigtime Bollywood actors by name, but indeed I can relate to their on-screen appearance.' There should be a thick line between Hitchcock's cinema and concert of The Rolling Stones. Bollywood blurs the barrier between actors and singers, and so other genres in making a cinema. Helen Raw *Forbes knows* about Shilpa Shetty after starlet's controversial appearance and unexpected triumph in the British Celebrity Big Brother House show. However, he also finds naming of Bollywood superstars akin to climbing the hill of difficulty. Nonetheless, the massive market size of Bollywood fills them with thrilling idea and makes them wonder about the casketing treasures of Bollywood czars. Forbes however believes Bollywood has not successfully marketed its films to local British market. It's circle of influence is restricted to immigrants from India, Paksitan and Bangladesh. *When I ask* Helen about the phenomenon of 'Casting Couch', she says it is a ridiculous idea. That Bollywood is grappling with the passionate idea of 'casting couch' makes Helen wonder what stores of romance and sensibility could lay hidden in the mind of not-so-methodical casting director. A casting director is a popular character behind the making of a good cinema, Helen was telling the audience of young actors. 'You should be polite and courteous toward your casting director. However, when he misbehaves, you should not waste a moment in landing a big blow in his face. This is Helen Raw for you. There is hardly anything raw about her. (Frank Huzur is an author and Independent Journalist. His upcoming non-fiction, Imran Versus Imran: The Untold Story is expected soon. Contact him on frankhuzur at gmail.com) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Feb 19 23:34:28 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 19 Feb 2011 23:34:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?windows-1252?q?Faiz_A=2E_F?= =?windows-1252?q?aiz=92_editorial_of_the_Pakistan_Times_dated_Feb_?= =?windows-1252?q?2=2C_1948=2E_Original_title_was=3A_Long_Live_Gand?= =?windows-1252?q?hiji=29?= Message-ID: Faiz A. Faiz’ editorial of the Pakistan Times dated Feb 2, 1948. Original title was: Long Live Gandhiji) The Last Time Of BAPU... *The British tradition *of announcing the death of a king is “The king is dead, long live the king!”Nearly 25 years ago, Mahatama Gandhi writing a moving editorial on the late C.R Das in his exquisite English captioned it as “Deshbandhu is dead, long live Deshbandhu!” *If we have *chosen such a title for our humble tribute to Gandhiji, it is because we are convinced, more than ever before that very few indeed have lived in this degenerate century who could lay greater claim to immortality than this true servant of humanity and champion of downtrodden. An agonizing 48 hours at the time of writing this article, have passed since Mahatama Gandhi left this mortal coil. *The first impact *of the shock is slowly spending itself out, and through the murky mist of mourning and grief a faint light of optimistic expectation that Gandhiji has not died in vain, is glowing. Maybe it is premature to draw such a conclusion now in terms of net result, but judging by the fact that the tragedy has profoundly stirred the world’s conscience, we may be forgiven if we lay store by the innate goodness of man. *At least *we can tell at the top of our voice suspicious friends in India that the passing away of Gandhiji is as grievous a blow to Pakistan as it is to India. We have observed distressed looks, seen moistened eyes and heard faltering voices in this vast sprawling city of Lahore to a degree to be seen to be believed. *We have also *seen spontaneous manifestations of grief on the part of our fellow citizens in the shape of observance of a holiday and hartal. Let our friends in India take note--and we declare it with all the emphasis at our command—that we in Pakistan are human enough to respond to any gesture of goodwill, any token of friendliness and, last but not least any call for cooperation from the other side of the border. *Earlier we have* indulged in a bit of optimism—and that for a very good reason. In India, sedulous and we believe sincere, heart searching has been going on ever since the tragedy took place. The Government of India too seems to have at long last realised that they are sitting on top of a volcano. And above all, a small incident in Bombay in which a Hindu mob broke open the office of the Anti-Pakistan Front on Saturday and reduced its furnishings to smithereens is, we believe, realisation –though tragically belated---of the fact that Muslims are, after all, not the sinners--not to say the enemies of India. *A large section* of Hindus have discovered where their enemies reside and what political labels they flaunt. Not long ago, at Lucknow India’s Deputy Prime Minister, Sardar Patel, while hauling nationalist Muslims, who had assembled there a few days earlier, over the coals, sang a paean of praise for RSS and the Hindu Mahasabha---the organisation which, alas, produced that worst criminal in history, Nathuram Vinayak Godse. *Sirdar Patel pandered *to their jingoistic vanity by asking the Congress to flirt with them. Paradoxical though it may seem, his chief, Pandit Nehru, while at Amritsar two days prior to the tragedy picked the RSS and Sabha bubbles in no uncertain manner by describing their politics as doing the greatest harm to the country. Faiz Ahmed Faiz (1911-1984) *Again,* just one day after the pledge given by representatives of different political organisations to Gandhiji for the promotion of communal amity which led him to break his fast, the well-known Hindu Mahasabha leaders Mr. Deshpande and Prof. Ramsingh, had the temerity to say that Muslims must be driven out of India. *If the Government of India* would have tried to take some of the conceit and “fire” out of these rabidly communal and militant leaders, maybe Gandhiji would have lived to be 125. Instead of planting bombs and other weapons in innocent Muslims’ houses in Delhi and other parts of India, had Mr. Patel’s intelligence department taken good care to protect the precious life of Mahatmaji, this vast subcontinent, as indeed the world, would not have been smitten “by this calamity”. *It was far* from us to recount these pre-tragedy happenings but we feel constrained to do so for the weighty reason that the destiny of fifty million Muslims is involved in India. We demand that the powers that be in India must treat them fairly and squarely. We would be less than human if we were to make even the least attempt to exploit Gandhiji’s death in furtherance of our co-religionists’ interests in India. *But we are* gratefully conscious of the fact that nothing would give greater pleasure to the soul of the illustrious dead than dispensation of justice and fair play to Indian Muslims, which he so passionately preached and for which he laid down his life. To these countless Muslims Mahatmaji would ever remain a symbol of hope and courage. Though he is dead, he will live through ageless life. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Feb 20 11:04:46 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 20 Feb 2011 11:04:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSf4KSV4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueClgeCkhiDgpIbgpILgpKbgpYvgpLLgpKgg4KS54KWIIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS44KSy4KS14KS+4KSmOiDgpKbgpL/gpLLgpYDgpKog4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSu4KS/4KSv4KSo?= Message-ID: भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद: दिलीप सिमियन *माओवाद पर लिखी दिलीप सिमियन** (सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल * *लाइब्रेरी) की किताब 'रिवोल्यूशन हाइवे' **इन दिनों चर्चा में हैं. आज से कोई पांच-एक साल पहले वे यह किताब लिखने की तैयारी कर रहे थे. तब पटपडगंज स्थित उनके घर पर मिलना एक सुखद और विचारिक अनुभव था, ख़ासकर माओवादी विचारधारा पर उनके साथ बात करना. 1 अप्रैल 2006 को 'एक भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद' शीर्षक से नवभारत टाइम्स ने उस बातचीत को प्रकाशित किया था. साथियों के हवाले कर रहा हूँ. - शशिकांत* *यह कहना* सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। *मजदूरों के खिलाफ* ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं। *दूसरी बात *यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता है। *न्याय के लिए* पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर पड़ता है, सोचा जा सकता है। न्याय व्यवस्था* * बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्य सत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी पड़ेगी। दिलीप सिमियन *लेकिन माओवादियों को *भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना चाहिए। लेकिन माओवादी जिस तरह से लोगों को मार रहे हैं, उससे कहा जा सकता है कि वे निरंकुशता की राजनीति कर रहे हैं। ये है नेपाल की बात, जहां लोकतंत्र नहीं है। *लेकिन भारत में *तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली? थोड़ी-बहुत त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। यदि इसमें सुधार लाना है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। * * *दुर्भाग्यवश नक्सली * विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। * * *उग्र वामपंथी (नक्सली)* और उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। *उग्र वामपंथियों * और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते? लोगों को मारने की क्या जरूरत है? वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं? यह एक नैतिक अपराध है।* * *मैंने जहां तक समझा है* मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज निकाली। यह भी एक प्रकार की ब्राह्यणवादी विचारधारा ही है। *नक्सलियों की* 99 प्रतिशत मांगों, उनके आदर्शों को मैं सही मानता हूं लेकिन हत्या को राजनीति बनाना उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से जोड़ता है। नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है।* * *नक्सलियों का कहना है कि* माओ की मृत्यु के बाद यह सब हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु हुई थी। लेकिन उसके पहले सन 71 में चीन ने याहिया खान के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम किया।* *माओ ने श्रीलंका में भंडार नायके का समर्थन किया। और तो और वियतनाम पर अमेरिकी हमले की भी हिमायत की। चाइनीज आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा किया। *माओत्से तुंग* अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में काम करते थे। फिर क्यों हम चलें इनके नैशनलिज्म की राह पर।* *नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट हैं और सब्जेक्टिवली लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां था और आज कहां है। * * *मेरी सलाह है कि* नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का मानदंड क्या है? वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है? * * *दरअसल नक्सलियों की* राजनीतिक वैधता का कोई आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े? गुजरात और देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए? *खेद की बात है* *कि* नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है। *(दिलीप सिमियन नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में सीनियर फेलो हैं.)* बातचीत : शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Feb 20 20:08:01 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 20 Feb 2011 20:08:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSf4KSV4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueClgeCkhiDgpIbgpILgpKbgpYvgpLLgpKgg4KS54KWIIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS44KSy4KS14KS+4KSmOiDgpKbgpL/gpLLgpYDgpKog4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSu4KS/4KSv4KSo?= Message-ID: साथियो, दिलीप सिमियन भाई साहब ने पिछली पोस्ट के कुछ संपादित किए हैं. उनके संपादन के बाद लेख इस प्रकार है. शुक्रिया. - शशिकांत भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद: दिलीप सिमियन *माओवाद पर लिखी दिलीप सिमियन** (सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल * *लाइब्रेरी) की किताब 'रिवोल्यूशन हाइवे' **इन दिनों चर्चा में हैं. आज से कोई पांच-एक साल पहले वे यह किताब लिखने की तैयारी कर रहे थे. तब पटपडगंज स्थित उनके घर पर मिलना एक सुखद और विचारिक अनुभव था, ख़ासकर माओवादी विचारधारा पर उनके साथ बात करना. 1 अप्रैल 2006 को 'एक भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद' शीर्षक से नवभारत टाइम्स ने उस बातचीत को प्रकाशित किया था. साथियों के हवाले कर रहा हूँ. - शशिकांत* *यह कहना* सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। *मजदूरों के खिलाफ* ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं। *दूसरी बात *यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता है। *न्याय के लिए* पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर पड़ता है, सोचा जा सकता है। *न्याय व्यवस्था * बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्य सत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी पड़ेगी। दिलीप सिमिय *लेकिन माओवादियों को *भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना चाहिए। लेकिन नेपाल के माओवादियों ने जिस तरह चितवन जिले में चलती पैसेंजर बस को विस्फ़ोट द्वारा 50 से अधिक मासूम लोगों को मार डाला, क्या यह भी एक निरंकुश प्रकार की राजनीति नहीं? यह है नेपाल, जहाँ लोकतंत्र नहीं है... *लेकिन भारत में *तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली? त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। *यदि इसमें सुधार लाना है तो प्रगतिशील शक्तियों को व्यापक पैमाने पर जन आन्दोलन का गठन करना पड़ेगा; जो लोकतांत्रिक एवं अहिंसक शैली से ही कायम हो सकता है। * *दुर्भाग्यवश नक्सली * विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। *उग्र वामपंथी (नक्सली)* और उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। *उग्र वामपंथियों * और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते? लोगों को मारने की क्या जरूरत है? वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं? यह एक नैतिक अपराध है।* * *मैंने जहां तक समझा है* मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज निकाली। यह उन्हें मनुवादी विचारधारा के निकट पहुंचाती है. *नक्सलियों की *उनकी बहुत सारी मांगों और आदर्शों को मैं उचित मानता हूँ; लेकिन क्योंकि हत्या उनकी मुहिम और राजनीति का आधार बन चुका है, वे जाने-अनजाने दक्षिणपंथी शक्तियों को फ़ायदा प्रदान कर रहे हैं. नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है।* * *माओवादियों का कहना है कि *राजनीतिक त्रुटियों का उद्घाटन माओ की (1976 में) मौत के बाद ही हुआ. वह शायद भूल गए कि 1971 में माओ के नेतृत्व में, चीन ने पाकिस्तान के तानाशाह याह्या खान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों के घोर दमन में साथ दिया. वह बात अलग है कि माओ के देहांत के बाद चीन ने 1979 में विएतनाम पर सैनिक आक्रमण भी किया. *माओ त्से तुंग *साम्यवादी होते हुए के राष्ट्रवादी भी थे. धीरे-धीरे उनकी राजनीति में कम्युनिस्ट अंतर-राष्ट्रवाद के स्थान पर घोर राष्ट्रवाद की छाया पड़ने लगी. और क्या यह सोचने लायक बात नहीं कि एक कम्युनिस्ट पार्टी में कोई नेता अपना उत्तराधिकारी कैसे चुन सकता है?* * *नक्सली या माओवादी *यदि खून-खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां था और आज कहां है। *मेरी सलाह है कि* नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का मानदंड क्या है? वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है? *दरअसल नक्सलियों की* राजनीतिक वैधता का कोई आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े? गुजरात और देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए? *खेद की बात है* *कि* नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है। *(दिलीप सिमियन नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में सीनियर फेलो हैं.)* बातचीत : शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Sun Feb 20 22:18:40 2011 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 20 Feb 2011 22:18:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS/4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOKAmeCknOCkvuCkqOClhyDgpK3gpYAg4KSm4KWLIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWL4KSC4oCZIOCkleClgCDgpKTgpLLgpL7gpLYg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: > > “नेहरूवियन सपना तब बुझ चुका था और राजनैतिक नेताओं की जमात राक्षसों में बदल > चुकी थी. हर आदमी भ्रष्ट था और हमारा शहर अब उन्हीं भ्रष्ट राजनेताओं और > अफ़सरानों के कब्ज़े में था. भू-माफ़ियाओं के साथ मिलकर उन्होंने पूरी व्यवस्था को > एक कूड़ेदान में बदल दिया था. और इन्हीं सब के बीच दो फ़ोटोग्राफ़र दोस्त अपनी > ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे थे. लेकिन इस भ्रष्ट दुनिया में न तो उन्हें > प्यार मिला और न ही अपनी नैतिकता बचाने की जगह ही मिली. कुंदन शाह की दुनिया > में ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली, और खुद उनके दो युवा फोटोग्राफ़र, सभी गर्त > में हैं. सभी की किस्मत में अंधे कुएं में ढकेला जाना लिखा है और हम इस त्रासदी > को देख हंसते हैं.” – *सुधीर मिश्रा. ’नो पोट्स इन दि रिपब्लिक’. आउटलुक, 21 > मई 2007.* > ब्लॉग-जगत में सिनेमाई बहसबाज़ियों में शामिल रहे दोस्तों के लिए जय अर्जुन सिंह का नाम नया नहीं है. उनका ब्लॉग ‘Jabberwock’ (www.jaiarjun.blogspot.com) बड़ी तेज़ी से आर्काइवल महत्व की चीज़ होता जा रहा है. उनके लेखन में नयापन है, उनके संदर्भ हमारी पीढ़ी की साझा स्मृतियों से आते हैं और सिनेमा पर होती किसी भी बात में यह संदर्भ सदा शामिल रहते हैं. कुंदन शाह की फ़िल्म * ’जाने भी दो यारों’*पर हाल में आई उनकी किताब भी सिनेमा अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. किताब अपने साथ फ़िल्म से जुड़े अनगिन अनजाने किस्से लाती है. ऐसे किस्से जिन्हें इस फ़िल्म के कई घनघोर प्रंशसक भी कम ही जानते हैं. यहाँ एक चूहे की लाश के लिए भर गर्मी में दौड़ा दिए गए जवान पवन मल्होत्रा हैं तो भरी बंदूक से पेड़ पर लटके आमों का शिकार करते ’डिस्को किलर’ अनुपम खेर. यहाँ ऐसे तमाम किस्से हैं जिन्हें फ़िल्म का ’फ़ाइनल कट’ देखने भर से नहीं जाना जा सकता. लेकिन साथ ही किताब उस मूल सोच पर गहराई से रौशनी डालती है जिससे ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म पैदा हुई. उस निर्देशक के बारे में जिसके लिए आज भी मार्क्सवाद एक प्रासंगिक विचार है. किताब के अंत में लेखक जय अर्जुन सिंह एक जायज़ सवाल पूछते हैं, कि हमारे पिछले पच्चीस साला सिनेमा में कोई ’जाने भी दो यारों’ दुबारा क्यों नहीं हुई? एक बड़े फ़लक पर यह सवाल हमसे यह भी पूछता है कि फ़ूहड़ हास्य से भरे जा रहे हमारे हिन्दी सिनेमा में स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य और व्यवस्था पर कटाक्ष करती फ़िल्मों के लिए जगह क्यों नहीं बन पाई? बड़ी तलाश के बाद एक पंकज आडवानी मिलते हैं जिनकी फ़िल्मों में उस दमकते हुए पागलपन की झलक मिलती है और कई सालों बाद दास्तान कहने वालों की टोली एक ’पीपली लाइव’ लेकर आती है. लेकिन इनके बीच लम्बा अकाल पसरा है. ’राडिया-टेप’ दस्तावेजों के सार्वजनिक होने के बाद आज हमारा वर्तमान जिन बहस-मुबाहिसों में घिरा है, ’जाने भी दो यारों’ सबसे प्रासंगिक फ़िल्म लगती है. यही हमारा वर्तमान है, जिसे परदे पर देख हम लोट-पोट हो रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं. मैं अपने दोस्त वरुण ग्रोवर के सामने यही सवाल रखता हूँ. वरुण पेशेवर व्यंग्य लेखक हैं और टेलिविज़न पर रणवीर शौरी, विनय पाठक, शेखर सुमन जैसे कलाकारों के लिए स्टैंड-अप कॉमेडी लिख चुके हैं. वरुण का साफ़ कहना है कि स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य के लिए ज़रूरी है कि वह ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ हो. और हिन्दी सिनेमा के लिए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ होना कभी भी चाहा गया रास्ता नहीं रहा. वरुण इस सिद्धांत को अन्य मीडिया माध्यमों पर भी लागू करते हैं और उनका मानना है कि हमारे टेलिविज़न पर भी खासकर राजनैतिक और व्यवस्थागत मसलों पर व्यंग्य लिखते हुए ज़्यादा आगे जाने की गुंजाइश नहीं मिलती. इंटरनेट पर अपनी बात कहने की फिर भी थोड़ी आज़ादी है और इसीलिए हम अपने दौर का कुछ सबसे स्तरीय व्यंग्य ट्विटर और फ़ेसबुक पर ’फ़ेकिंग न्यूज़’, ’जी खंबा’ और ’जय हिंद’ जैसी साइट्स और ट्विटर हैंडल के माध्यम से पाते हैं. इस संदर्भ में जय अर्जुन भी कुंदन शाह का वो पुराना साक्षात्कार उद्धृत करते हैं जहाँ उन्होंने कहा था कि मैं ईमानदारी में विश्वास रखता हूँ. मेरे किरदार भ्रष्ट होने का विकल्प चुनने के बजाए मर जाना पसन्द करेंगे. जय अर्जुन कहीं न कहीं खुद कुंदन में भी यही प्रवृत्ति देखते हैं और इस ईमानदारी के साथ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले सिनेमा जगत में कुंदन फिर कभी वो नहीं बना पाते जो उन्होंने चाहा होगा. एक और वजह है जो मैं दूसरी ’जाने भी दो यारों’ न होने के पीछे देख पाता हूँ. और यह बात सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं, एक बड़े कैनवास पर यह व्यंग्य की पूरी विधा के सामने खड़े संकट की बात है. एक ख़ास दौर में आकर हमारी रोज़मर्रा की हक़ीकत का चेहरा ही इतना विकृत हो जाता है कि व्यंग्य के लिए कुछ नया कहने की गुंजाइश ही नहीं बचती. हमारा वर्तमान ऐसा ही एक दौर है. साथी व्यंग्यकारों ने पिछले कुछ सालों में यह बार-बार अनुभव किया है कि उनका व्यंग्य में लिखा हुआ कटाक्ष उनके ही सामने सच्चाई बन मुँह बाए खड़ा है. आज ’जाने भी दो यारों’ जैसी व्यंग्य फ़िल्म संभव नहीं, क्योंकि यह आज की नंगी सच्चाई है. लेकिन क्या यह पूरा सच है कि हिन्दी सिनेमा में ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म का कोई वारिस नहीं हुआ? अगर मैं इस सवाल को थोड़ा बदल दूँ, जानना चाहूँ कि ’जाने भी दो यारों’ में आया शहर क्या हिन्दी सिनेमा में लौटकर आता है? कहीं दुबारा दिखाई देता है? तो क्या तब भी जवाब नकारात्मक ही होगा? ’जाने भी दो यारों’ को ’डार्क कॉमेडी’ कहा गया. सच है कि उसके बाद ’कॉमेडी’ किसी और ही दिशा में गई, लेकिन जो बदरंग स्याह इस फ़िल्म ने हमारे सिनेमाई शहर के चेहरे पर रंगा है उसका असर दूर तक और गहरे दिखाई देता है. फ़िल्म के असिस्टेंट डाइरेक्टर रहे सुधीर मिश्रा जय अर्जुन से आपसी बातचीत में इस ओर इशारा करते हैं. खुद उनकी फ़िल्मों को ही लीजिए. ’ये वो मंज़िल तो नहीं’, ’इस रात की सुबह नहीं’, ’हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’, ’चमेली’ जैसी फ़िल्में. भले इन फ़िल्मों का चेहरा-मोहरा ’जाने भी दो यारों’ से न मिलता हो, इनका स्वाद तो वही है. पिछले साल सिनेमा में बदलती शहर की संरचना को पढ़ते हुए मेरी नज़र दो फ़िल्मों पर बार-बार ठहरती है. ’जाने भी दो यारों’ से कुछ ही साल की दूरी पर, यह अस्सी के उत्तरार्ध में आई दो सबसे आईकॉनिक फ़िल्में हैं -- ’परिंदा’ और ’तेज़ाब’. रंजनी मजूमदार और मदन गोपाल सिंह जैसे आलोचकों ने इन्हें अपने अध्ययनों में रेखांकित किया है. ’तेज़ाब’ में आया शहर साक्षात खलनायक है और उसने नायक महेश देशमुख को उचक्के ’मुन्ना’ में बदल तड़ीपार कर दिया है. ’परिंदा’ में भी शहर एक नकारात्मक विचार है. दोनों ही फ़िल्मों में शहर का असल किरदार रात में उभरता है. यह ’रात का शहर’ है जिसमें अवैध सत्ता ही असल सत्ता है. उसके तमाम कुरूप खेलों के आगे ईमानदारी आत्महत्या सरीखी है. यह मासूमियत की मौत है. क्या यह शहर वही नहीं? यह संयोग नहीं कि ’जाने भी दो यारों’ का ज़्यादातर महत्वपूर्ण घटनाक्रम रात में घटता है. चाहे वह डिमैलो के बंगले पर अवैध सौदेबाज़ी हो चाहे आधी रात ’अंतोनियोनी पार्क’ में लाश की तलाश. चाहे वह पुल के नीचे कथानायकों पर चला हवलदार का डंडा हो चाहे लाश के साथ आहूजा की लम्बी बातचीत. यह अवैध सत्ता के वैध सत्ता हो जाने का शहर है, यह ’रात का शहर’ है. और सबसे महत्वपूर्ण, ’जाने भी दो यारों’ के उस अविस्मरणीय दृश्य को हम कैसे भूल सकते हैं जहाँ मरीन ड्राइव की किसी निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारत की सबसे ऊपरी मंज़िल पर खड़े कमिश्नर डिमैलो, और उनसे बांद्रा के कब्रिस्तान पर बनने वाली ऊँची इमारत की सौदेबाज़ी करते तरनेजा और उसके गुर्गे सामने से आती डूबते सूरज की रौशनी में स्याह परछाइयों में बदल जाते हैं. जैसे उनके ’काले कारनामों’ को फ़िल्म एक और चाक्षुक अर्थ दे रही हो. मज़ेदार बात जय अर्जुन अपनी किताब में बताते हैं कि उस दृश्य में किरदारों का स्याह परछाइयों की तरह दिखाया जाना पहले से तय नहीं था, यह फ़िल्मांकन के वक़्त रौशनी कम होने के चलते कुंदन द्वारा मज़बूरन किया गया एक प्रयोग था. लेकिन यह संयोग से बना दृश्य वनराज भाटिया के बैकग्राउंड स्कोर से मिलकर जैसे फ़िल्म का प्रतिनिधि दृश्य बन जाता है. जब रंजनी मजूमदार ’परिंदा’ में आए शहर के बारे में लिखती हैं, “यहाँ सभी छवियाँ अंधेरों से निकलती हैं और परछाइयाँ किरदारों के रूप गढ़ती हैं. शायद ही आप कहीं रंगों का चटख़ इस्तेमाल देखें. यहाँ रात को लेकर एक अजीब सा आकर्षण है. जैसा सार्त्र ने आधुनिक जीवन के बारे में कहा है की यह ऐसे रास्ते, दरवाज़े और सीढ़ियाँ हैं जो कहीं नहीं पहुंचतीं. ऐसे विशाल चिह्न जिनका कोई अर्थ नहीं. परिंदा का शहर अंधेरा, भीड़ भरा और निर्मम है.” तो मुझे रह-रहकर ’जाने भी दो यारों’ का वो अद्भुत संयोग से बना, स्याह परछाइयों के जाम से जाम टकराने वाला दृश्य याद आता है. जब दिबाकर के गढ़े ’लक्की सिंह’ को हमारा नागर समाज अपने भीतर से बार-बार बेइज़्ज़्त कर बेदखल करता है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बेमुरव्वत शहर याद आता है. जब अनुराग के रचे आधुनिक महाकाव्य ’ब्लैक फ्राइडे’ में उम्मीद की आखिरी किरण भी हाथ से छूटती दिखाई देती है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बहरूपिया शहर याद आता है. ’शिवा’, ’सत्या’ और ’कम्पनी’, मुझे राम गोपाल वर्मा की शुरुआती फ़िल्मों की तपिश में ’जाने भी दो यारों’ का रात में जागता शहर याद आता है. जहाँ से मैंने शुरुआत की वो सुधीर मिश्रा के उस लेख का अंतिम अंश है जिसे उन्होंने हिन्दुतान में बने राजनैतिक सिनेमा पर बात करते हुए लिखा था. और यह संयोग नहीं है कि जिस लेख का अंत ’जाने भी दो यारों’ के ज़िक्र से होता है उसकी शुरुआत गुरुदत्त की ’प्यासा’ से होती है. ’प्यासा’ जिससे हिन्दी सिनेमा में आए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ के विचार से ज़ुड़ी किसी भी बहस की शुरुआत होती है. यह दरअसल एक ही समाज है, एक ही ’राष्ट्र-राज्य’ जो अपना रंग बदलता रहा है. कभी वो ’लोक कल्याणकारी राज्य’ का चोला ओढ़े था और कभी वो खुलेआम बाज़ार का ताबेदार है. एक ऐसा नागर समाज जिसमें से हर वो ’अन्य’ बहिष्कृत है जो मान्य व्यवस्था की खिलाफ़त करता है. चाहे वे ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली हो, चाहे ’जाने भी दो यारों’ के ईमानदार फ़ोटोग्राफ़र. आपके और हमारे दौर में वो नाम बिनायक सेन का है. ********** *’कथादेश’ के फ़रवरी अंक में प्रकाशित हुआ.* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Feb 21 13:21:06 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 21 Feb 2011 13:21:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIOCkleClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4g4KSV4KS+IOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSyLi4uISEh?= Message-ID: आम आदमी की भाषा का सवाल...!!! गाँव की पंचायत *मित्रो, * *आज 21 फरवरी है- * *अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस. * *कोई 8-9 साल पहले 14 मार्च 2002 को राष्ट्रीय सहारा में 'आम आदमी की भाषा का सवाल' शीर्षक से प्रकाशित अपना यह लेख आपके हवाले कर रहा हूँ. -शशिकांत * *मनुष्य का इतिहास,* उसकी परम्परा, संस्कृति, कला आदि भाषाओं और बोलियों के माध्यम से ही रूपाकार लेता है. हिन्दुस्तान अनंत भाषाओं और बोलियों का देश है. यहाँ अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे अलग-अलग मनुष्य समूह भिन्न-भिन्न भाषा-बोलियों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते हैं. *इन भाषा-भाषियों के बीच, *भाषा (बोली नहीं) को लेकर अक्सर बहस और विवाद होते रहे हैं. लेकिन इस भाषा विवाद का स्वरूप और इसकी प्रकृति क्या रही है, यह एक विचारणीय मुद्दा है. पिछले दो दशकों में कुछ ऐसे भी विमर्श हुए हैं जिनके कारण देश और दुनिया के हाशिए के मनुष्य के अधिकारों और अस्मिताओं की रक्षा के सवाल उठ रहे हैं. *हिन्दुस्तान की* लगभग आधी (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ लगभग एक तिहाई) अनपढ़ आबादी के लिहाज़ से देखा जाए तो यहाँ भाषा को लेकर हुए तमाम संघर्षों और विवादों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि क्या अनपढ़ नागरिकों की भाषा या उनकी बोलियों को लेकर कभी कोई विवाद या संघर्ष यहाँ हुआ है? शायद नहीं...! *अनपढ़ नागरिकों की* भाषा और बोली का यह सवाल आज़ादी के पांच-छह दशक बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रद्दत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार से जुडा हुआ एक अहम् मसला है. *मशहूर फ्रांसीसी चिन्तक *जॉक देरीदा ने लिखा है, *"समाज में जो शासक समुदाय है और उसके जो बुद्धिजीवी हैं, वे संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में एक केन्द्रीय परम्परा बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी परम्परा को हमेशा हाशिए पर रखने की कोशिश करते हैं."* बेशक, भाषा का सवाल इनसे अलग नहीं है. गाँव का हाट *दरअसल,* भाषा और बोली आदिम युग से ही मनुष्य की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है. लेकिन कालान्तर में यह कुछ दबंग समूहों/वर्गों के भाषिक-वर्चस्व का साधन बनती गई. इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक समूह/वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम (भाषा या बोली) , दूसरे समूह/वर्ग पर वर्चस्व कायम करने का साधन बन जाए...! *वस्तुतः हिन्दुस्तान *की आधी अनपढ़ जनता जिस भाषा-बोली में बोलती-बतियाती, सोचते-समझती, हंसती-रोती है, हमारे राज-काज की भाषा में क्या उनका इस्तेमाल होता है? यदि नहीं होता है तो क्या अब नहीं होना चाहिए? *हिन्दुस्तान के *एक सौ पच्चीस करोड़ नागरिकों को अनपढ़ और पढ़े-लिखे वर्ग में बाँट कर देखा जाए तो हम पाएँगे कि सन सैंतालिस के बाद के वर्षों में मुख्य धारा में पढ़े-लिखे अभिजात और प्रबुद्ध वर्ग के लोग ही रहे हैं और देश के कुल संसाधनों के एक बहुत बड़े हिस्से का इसी वर्ग के लोगों ने उपभोग किया है. *यही नहीं,* देश के नीति निर्माण के क्षेत्रों जैसे शासन, सत्ता, शिक्षा, न्याय, अर्थव्यवस्था, व्यापार, उद्योग, देसी-विदेशी संस्थाओं, संगठनों और उनसे मिलनेवाले धन एवं सुविधाओं पर इसी वर्ग के लोगों का कब्ज़ा है. अनपढ़ तबका तो हाशिए पर रहते हुए सिर्फ शासित होता रहा है और कमरतोड़ मेहनत-मज़दूरी करके भी फटेहाली में जी-मर रहा है. *सभा-सोसायटियों, *दफ़्तरों वगैरह में यदि अंग्रेज़ी न पढ़ने-समझनेवाले हीनता से ग्रस्त रहते हैं तो हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं वाले माहौल में एक-दूसरी भाषाओं और हिन्दी के क्षत्रीय बोलियों का इस्तेमाल करनेवाले कम पढ़े-लिखे लोगों की हालत भी असहज होती है. जबकि देश के करोड़ों अनपढ़ लोग ऐसी जगहों पर हाशिए से भी बाहर होते हैं. *डा. राम मनोहर लोहिया *के शब्दों में कहें तो, *"भाषा और भूषा का यह अलगाव शासितों के मन में हीन भाव पैदा करता है. उनको लगता है कि शासक उनसे बहुत ऊंचा है और वे ख़ुद इतना नीचे हैं कि राजकाज उनके बस की चीज़ नहीं." * *दरअसल,* सन सैंतालिस की बाद सुनियोजित नीति के तहत दफ़्तरों, कोर्ट-कचहरियों वगैरह में राजकाज की अभिजात भाषा को बढ़ावा दिया गया. भाषिक वर्चस्व और उसके प्रतिरोध की जो राजनीति की गई, वह भी अलग-अलग विकसित भाषाओं के अभिजात वर्ग के भाषिक वर्चस्व के ख़याल तक ही सीमित रही. जबकि क्षेत्रीय बोलियों और अनपढ़ों, मज़दूरों, ग़रीब किसानों, कामगारों, आदिवासी, दलित वगैरह हाशिए के समूहों की रोज़मर्रा की भाषा और बोलियों का सवाल इनके भाषा आन्दोलन का कभी सवाल नहीं बना. *आज के वक्त *यह ज़रूरी हो गया है कि भाषा के सवालों के भीतर इन सवालों को शामिल किया जाए, क्योंकि भाषा और बोली का यह सवाल मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति से जुडा हुआ मसला भी है. देश की राजनीतिक व्यवस्था, क़ानून या नीति निर्माण के क्षत्र में पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग का कब्ज़ा भले हो, लेकिन वह अपनी भाषा-बोलियों, दृष्टि, जीवन पद्धति, मूल्य और समाज को देखने-परखने के नज़रिए को मानने के लिए शेष अनपढ़ और अशिक्षित जनता को बाध्य नहीं कर सकता. *हिन्दुस्तान की* भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता को बनाए रखने के लिए यह अपरिहार्य है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Feb 21 14:55:40 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 21 Feb 2011 14:55:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KWb4KWAIOCkueClgCDgpKjgpLngpYDgpIIsIOCkueCkvw==?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWAIOCkreClgCDgpIXgpK3gpL/gpJzgpL7gpKQg4KSt4KS+?= =?utf-8?b?4KS34KS+IOCkueCliCDgpIngpKjgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPLi4uISEh?= Message-ID: अंग्रेज़ी ही नहीं, हिंदी भी अभिजात भाषा है उनके लिए...!!! गाँव की पंचायत *मित्रो, * *आज 21 फरवरी है- अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस. कोई 8-9 साल पहले 14 मार्च 2002 को राष्ट्रीय सहारा में 'आम आदमी की भाषा का सवाल' शीर्षक से प्रकाशित अपना यह लेख आपके हवाले कर रहा हूँ. इस लेख में अंग्रेज़ी के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी से भी सवाल पूछ रही हैं हिंदुस्तान के दीगर हिस्सों में बोली जानेवाली वे सैकड़ों बोलियाँ जिन्हें दूर-दराज़ के ठेठ देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े लोग बोलते-बतियाते हैं...जिनके लिए खड़ी बोली हिंदी भी कुछ-कुछ अंग्रेज़ी जैसी ही है...!!!** -शशिकांत * *मनुष्य का इतिहास,* उसकी परम्परा, संस्कृति, कला आदि भाषाओं और बोलियों के माध्यम से ही रूपाकार लेता है. हिन्दुस्तान अनंत भाषाओं और बोलियों का देश है. यहाँ अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे अलग-अलग मनुष्य समूह भिन्न-भिन्न भाषा-बोलियों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते हैं. *इन भाषा-भाषियों के बीच, *भाषा (बोली नहीं) को लेकर अक्सर बहस और विवाद होते रहे हैं. लेकिन इस भाषा विवाद का स्वरूप और इसकी प्रकृति क्या रही है, यह एक विचारणीय मुद्दा है. पिछले दो दशकों में कुछ ऐसे भी विमर्श हुए हैं जिनके कारण देश और दुनिया के हाशिए के मनुष्य के अधिकारों और अस्मिताओं की रक्षा के सवाल उठ रहे हैं. *हिन्दुस्तान की* लगभग आधी (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ लगभग एक तिहाई) अनपढ़ आबादी के लिहाज़ से देखा जाए तो यहाँ भाषा को लेकर हुए तमाम संघर्षों और विवादों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि क्या अनपढ़ नागरिकों की भाषा या उनकी बोलियों को लेकर कभी कोई विवाद या संघर्ष यहाँ हुआ है? शायद नहीं...! *अनपढ़ नागरिकों की* भाषा और बोली का यह सवाल आज़ादी के पांच-छह दशक बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रद्दत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार से जुडा हुआ एक अहम् मसला है. *मशहूर फ्रांसीसी चिन्तक *जॉक देरीदा ने लिखा है, *"समाज में जो शासक समुदाय है और उसके जो बुद्धिजीवी हैं, वे संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में एक केन्द्रीय परम्परा बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी परम्परा को हमेशा हाशिए पर रखने की कोशिश करते हैं."* बेशक, भाषा का सवाल इनसे अलग नहीं है. गाँव का हाट *दरअसल,* भाषा और बोली आदिम युग से ही मनुष्य की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है. लेकिन कालान्तर में यह कुछ दबंग समूहों/वर्गों के भाषिक-वर्चस्व का साधन बनती गई. इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक समूह/वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम (भाषा या बोली) , दूसरे समूह/वर्ग पर वर्चस्व कायम करने का साधन बन जाए...! *वस्तुतः हिन्दुस्तान *की आधी अनपढ़ जनता जिस भाषा-बोली में बोलती-बतियाती, सोचते-समझती, हंसती-रोती है, हमारे राज-काज की भाषा में क्या उनका इस्तेमाल होता है? यदि नहीं होता है तो क्या अब नहीं होना चाहिए? *हिन्दुस्तान के *एक सौ पच्चीस करोड़ नागरिकों को अनपढ़ और पढ़े-लिखे वर्ग में बाँट कर देखा जाए तो हम पाएँगे कि सन सैंतालिस के बाद के वर्षों में मुख्य धारा में पढ़े-लिखे अभिजात और प्रबुद्ध वर्ग के लोग ही रहे हैं और देश के कुल संसाधनों के एक बहुत बड़े हिस्से का इसी वर्ग के लोगों ने उपभोग किया है. *यही नहीं,* देश के नीति निर्माण के क्षेत्रों जैसे शासन, सत्ता, शिक्षा, न्याय, अर्थव्यवस्था, व्यापार, उद्योग, देसी-विदेशी संस्थाओं, संगठनों और उनसे मिलनेवाले धन एवं सुविधाओं पर इसी वर्ग के लोगों का कब्ज़ा है. अनपढ़ तबका तो हाशिए पर रहते हुए सिर्फ शासित होता रहा है और कमरतोड़ मेहनत-मज़दूरी करके भी फटेहाली में जी-मर रहा है. *सभा-सोसायटियों, *दफ़्तरों वगैरह में यदि अंग्रेज़ी न पढ़ने-समझनेवाले हीनता से ग्रस्त रहते हैं तो हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं वाले माहौल में एक-दूसरी भाषाओं और हिन्दी के क्षत्रीय बोलियों का इस्तेमाल करनेवाले कम पढ़े-लिखे लोगों की हालत भी असहज होती है. जबकि देश के करोड़ों अनपढ़ लोग ऐसी जगहों पर हाशिए से भी बाहर होते हैं. *डा. राम मनोहर लोहिया *के शब्दों में कहें तो, *"भाषा और भूषा का यह अलगाव शासितों के मन में हीन भाव पैदा करता है. उनको लगता है कि शासक उनसे बहुत ऊंचा है और वे ख़ुद इतना नीचे हैं कि राजकाज उनके बस की चीज़ नहीं." * *दरअसल,* सन सैंतालिस के बाद सुनियोजित षडयंत्र के तहत दफ़्तरों, कोर्ट-कचहरियों वगैरह में राजकाज की अभिजात भाषा को बढ़ावा दिया गया. भाषिक वर्चस्व और उसके प्रतिरोध की जो राजनीति की गई, वह भी अलग-अलग विकसित भाषाओं के अभिजात वर्ग के भाषिक वर्चस्व के ख़याल तक ही सीमित रही. जबकि क्षेत्रीय बोलियों और अनपढ़ों, मज़दूरों, ग़रीब किसानों, कामगारों, आदिवासी, दलित वगैरह हाशिए के समूहों की रोज़मर्रा की भाषा और बोलियों का सवाल इनके भाषा आन्दोलन का कभी सवाल नहीं बना. *आज के वक्त *यह ज़रूरी हो गया है कि भाषा के सवालों के भीतर इन सवालों को शामिल किया जाए, क्योंकि भाषा और बोली का यह सवाल मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति से जुडा हुआ मसला भी है. देश की राजनीतिक व्यवस्था, क़ानून या नीति निर्माण के क्षत्र में पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग का कब्ज़ा भले हो, लेकिन वह अपनी भाषा-बोलियों, दृष्टि, जीवन पद्धति, मूल्य और समाज को देखने-परखने के नज़रिए को मानने के लिए शेष अनपढ़ और अशिक्षित जनता को बाध्य नहीं कर सकता. *हिन्दुस्तान की* भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता को बनाए रखने के लिए यह अपरिहार्य है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Tue Feb 22 21:51:38 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 22 Feb 2011 08:21:38 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= "The quick brown fox..." in Hindi Message-ID: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Tue Feb 22 22:10:21 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 22 Feb 2011 22:10:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> References: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को श्रीमित्र कर दिया जाए ? विजेंद्र 2011/2/22 Rajesh Ranjan > पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह > सुझाया... > > लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... > > "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और > बैंगन की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी > आदि व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी > मिर्च के साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की > चोट पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र ज्ञान > चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" > > regards, > -------------- > Rajesh Ranjan > Kramashah > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Feb 23 13:24:30 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 23 Feb 2011 13:24:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KWN?= =?utf-8?b?4KSe4KS+4KSq4KSoLCDgpKzgpL7gpZvgpL7gpLAg4KSU4KSwIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWN4KSw4KWA?= Message-ID: विज्ञापन, बाज़ार और स्त्री *साथियो, स्त्री और विज्ञापन मसले पर लगातार बहस होती रही है. सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान जी से 2003 में IIC में इंटरव्यू में जब मैंने यह सवाल किया कि- "ये बताइये, विज्ञापनों में स्त्री के इस्तेमाल का दक्षिणपंथी भी विरोध करते हैं और वामपंथी भी. दोनों के विरोध में क्या फर्क है?" आदरणीय प्रभा जी नरभसा गईं. मतलब कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे सकीं. बेशक विज्ञापन का बाज़ार स्त्री को मौक़ा, रोज़गार, पैसा, आइडेनटिटी...बहुत कुछ दे रहा है...स्त्री की देह उसकी देह है, वो जैसा चाहे इस्तेमाल करे, पुरुष कौन होता है स्त्री देह कि शुचिता का चौकीदार?...मामला बेहद जटिल है...देहवादी महिलाओं की अलग धारणा है, गैर देहवादी की भिन्न. जनसत्ता (20 मई 2000 और 8 जनवरी 2002) तथा SFI की पत्रिका 'स्टूडेंट स्ट्रगल' के फरवरी 2002 अंक में प्रकाशित 3 लेखों को मिलाकर पेश कर रहा हूँ यह लेख. - शशिकांत* *विज्ञापन, बाज़ार और स्त्री * * * *पिछले **दिनों* अंग्रेज़ी के एक अखबार (THE HINDU) में पहले पन्ने पर एक आयुर्वेदिक दवा कंपनी का विज्ञापन छापा. विज्ञापन की पंक्तियाँ कुछ इस तरह थी: *"क्या आपकी पत्नी हर सुबह आपको इस फल (करेले का चित्र) का रस पिलाने की जिद करती है? एक अच्छी पत्नी आपकी हर समस्या का ख़याल रखती है और उसमें आपकी भागीदार बनती है...."* *इसी तरह,* करवा चौथ के मौक़े पर दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी के एक अखबार के पहले पन्ने पर एक अंतर राष्ट्रीय चिकित्सा संस्थान से संबध एक हेल्थ केयर सेंटर का विज्ञापन छापा. विज्ञापन में नीले आकाश में चौथ के चाँद के चित्र के नीचे मोटे अक्षरों में जो सन्देश दिया गया था, वह इस तरह है: *"इस करवा चौथ केवल चाँद की तरफ नहीं अपने पति की सेहत की तरफ भी देखी. हर साल आपने उनकी सेहत और लम्बी उम्र के लिए व्रत रखा. इस साल अपनी प्रार्थना को शसक्त कीजिए. उन्हें .....हेल्थ केयर सेंटर के प्रिवेंटिव हेल्थ चेकअप का उपहार दीजिए." * *लगभग एक चौथाई *पृष्ठ के इस विज्ञापन में 'चेकअप' शब्द के ऊपर किनारे पर तारे का एक छोटा-सा निशाँ था. सिगरेट की डिब्बी पर 'वैधानिक चेतावनी' की तरह विज्ञापन के नीचे कोने में तारे के निशाँ के सामने छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था: *'शुल्क एक हज़ार नौ सौ पचास रुपये से तीन हज़ार चार सौ पचास रुपये, उम्र पर निर्भर.'* *पहले विज्ञापन से स्पष्ट है कि* यह न केवल पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पति (पुरुष) द्वारा पत्नी (स्त्री) से की गई अपेक्षाओं को व्यक्त कटा है, बल्कि परिवार और समाज में स्त्री की दशा को भी दर्शाता है. विज्ञापन की भाषा पर गौर करें तो हम पाएंगे की यह विज्ञापन पुरुषों को संबोधित है. यानि उक्त दवा कंपनी एहतियात के तौर पर मधुमेह के मरीजों को फल या करेले का रस पीने की अगर सलाह देती है तो इसका हकदार सिर्फ पुरुष वर्ग ही है. *यानि उत्पादक आयुर्वेदिक दवा कंपनी *और उप्भ्क्ता पुरुष वर्ग के बीच सीधा संवाद है जिसमें न केवल पूरी आधी स्त्री आबादी गायब कर दी गई है बल्कि उससे अपेक्षा की गई है की वह पुरुषों की सेहत-रक्षा के लिए एहतियात के तौर पर कदम उठाए, उनकी हर समस्या का ख़याल रखे और उसमें उनकी भागीदार बने. ऐसा करने पर ही वह अपने पति या पुरुष वर्ग से 'एक अच्छी पत्नी' का खिताब पानी की हकदार होगी. *यहाँ पर एक सवाल *यह उठता है की दवा कंपनी जिस मधुमेह से बचने के लिए एहतियात के तौर पर फल या सब्जी विशेष करेला का रस पीने की सलाह देती है क्या यह बीमारी सिर्फ पुरुषों को होती है? लैंगिक विषमता वाले पुरुष प्रधान भारतीय समाज में ही यह संभव हैकि स्त्री से 'एक अच्छी पत्नी' बनने की अपेक्षा की जाए. *उक्त विज्ञापन की भाषा* से एक और बात तह झलकती है कि पुरुष आमतौर पर अपनी और बीवी-बच्चे की सेहत के प्रति लापरवाह रहते हैं, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि वे अपने पति की सेहत का ख़याल रखे. अगर 'एक अच्छी पत्नी' अपने पति की हर समस्या का ख़याल रखती है और उसमें उसकी भागीदार बंटी है तो क्या पति की भी यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह अपनी पत्नी की हर समस्या का ख़याल रखे और उसमें बराबर का भागीदार बने? *विज्ञापन में विडम्बना* यह है कि दवा कंपनी ही बतला रही है कि सेहत के मामले में स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है. सेहत और लिंग-भेद से संबंधित अध्ययनों से यह निस्कश पहले ही निकल चुका है कि स्त्रियाँ अपनी सेहत संबंधी समस्याओं को तब तक छुपाती रहती है जब तक स्थिति गंभीर नहीं हो जाती है. *आज जबकि *महिला और स्वास्थ्य संगठन, सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं, मीडिया वगैरह इस मुद्दे को उठाकर स्त्री स्वास्थ्य के प्रति स्त्रियों और पुरुषों में जागरूकता पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं वहां यह विज्ञापन इस मुहीम को क्या कमज़ोर नहीं करता है? *दरअसल,* यह पहला ऐसा विज्ञापन नहीं है. टेलिविज़न और पत्र-पत्रिकाओं में ढेरों ऐसे विज्ञापन दिखलाए और छापे जा रहे हैं जिनमें लैंगिक भेदभाव स्पष्ट रूप से दिखता है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि हमारे-आपके घर-परिवार और समाज में यदि लिंग-भेद है तो विज्ञापनों या एनी बाज़ारवादी तंत्रों में भी यह दिखेगा, क्योंकि उत्पादक और उपभोक्ता ही नहीं बल्कि विज्ञापन निर्माता भे हमारे-आपके बीच के ही लोग होते हैं. *क्या यह सच नहीं है कि* भोजन हो या शिक्षा अथवा चिकित्सीय देखभाल और पालन-पोषण, हमारे घर-परिवार और समाज में स्त्रियों के साथ हर जगह और हर मामले में भेदभाव किया जाता है. विकास और समानता का ढिंढोरा हम भले पीटते रहें लेकिन इसी लैंगिक भेदभाव की वजह से देश में बड़े क्रूर तरीक़े से हर साल करीब पचास लाख कन्या भ्रूणों की ह्त्या कर दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया का स्त्री-पुरुष अनुपात प्रभावित हुआ है. *दुनिया में* एक हज़ार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या जहां एक हज़ार छह है, वहीं दक्षिण एशिया में एक हज़ार पुरुषों पर महज़ नौ सौ अडसठ स्त्रियाँ हैं. भारत में बड़ी तादाद में स्त्रियाँ खून की कमी से गर्स्त हैं. यौन रोग, गर्भावस्था में उचित देखभाल और पोषक आहार की कमी, प्रसव वगैरह के दौरान भी बड़ी तादाद में स्त्रियाँ दम तोड़ देती हैं. *मासूम बच्चियों से लेकर* वृद्धाओं के साथ बलात्कार की ख़बरों से अखबारों के पन्ने और न्यूज़ चैनल पते रहते हैं. लाखों बच्चियों और स्त्रियों को बाल वेश्यावृत्ति और व्श्यावृत्ति के धंधे में जबरन धकेल दिया गया है. घर की देहरी से लेकर कार्य-स्थलों तक कहीं भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं है. दहेज़, दहेज़-ह्त्या, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, स्त्रियों पर अत्याचार वगैरह घटनाएँ बदस्तूर जारी हैं. *दूसरे (करवा चौथ) विज्ञापन को* गौर से पढ़ने पर यह सवाल उठता है कि क्या वास्तव में यह विज्ञापन करवा चौथ व्रत के प्रति स्त्रियों में व्याप्त आस्था और अंधविश्वास को नकारता है या आधुनिकता और वैज्ञानिकता की आड़ में 'चिकित्सा सेवा' के बाज़ारीकरण को विज्ञापित करता है. *यह सच है कि *आधुनिक मानसिकता कई तरह की धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं, क्रिया-कलापों, व्रतों, पर्व-त्योहारों वगैरह को मध्युगीन दकियानूसी मानसिकता की उपज मानती है, क्योंकि आधुनिक मानसिकता एक ऐसी वैज्ञानिक/प्रायोगिक मानसिकता होती है जो तर्क, बुद्धि और वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर ही किसी वस्तु, विचार या कार्य-व्यवहार को देखती है. *इसी वजह से *समय-समय पर परंपराएँ बदलती रहती हैं और कुछ लम्बे वक्त तक चलती चली जाती हैं. चलती चली जाने वाली परम्पराएँ चूंकि लोक में व्याप्त होकर संस्कृति का वृहत्तर हिस्सा बन जाती है इसलिए ऐसा होता है. सती प्रथा, पर्दा पर्था, बाल विवाह, दहेज़ जैसी कुप्रथाओं का पीछे छूट जाना और पर्व-त्योहारों, वरतों, धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठानों वगैरह का बने रहना इसकी मिसाल है. *दरअसल, करवा चौथ* भारतीय विवाहिता स्त्रियों के द्वारा पूजा जानेवाला एक ऐसा व्रत है जिसे वे अपने पति की अच्छी सेहत और उनकी लम्बी आयु के लिए रखती है. हालांकि स्त्रीवादे नज़रिए से भी इस व्रत का मूल्यांकन करने की ज़रुरत है, लेकिन प्रसंगवश यहाँ गौर करने की बात यह है कि यह व्रत सिर्फ अनपढ़ या मध्ययुगीन मानसिकता वाली अन्धविश्वासी स्त्रियाँ ही नहीं, बल्कि बड़ी तादाद में पढी-लिखी, आधुनिक स्त्रियाँ भी रखती हैं, जो भलीभांति जानती हैं कि उनके पति की लम्बी आयु अच्छी सेहत के लिए उनके खान-पान और रहन-सहन के तौर-तरीक़े का ध्यान रखना ज़रूरी है और सेहत संबंधी किसी तरह की दिक्कत होने पर उनका ईलाज करवाना ज़रूरी है. *पति के अलावा* भाइयों और बच्चों के लिए रखे जानेवाले व्रतों के साथ भी यही बात लागू होती है. पति, बच्चे या परिवार के सदस्यों पर आई इस तरह के 'संकट की स्थिति' में स्त्रियाँ अपने जातीय सेवा भाव की वजह से उनकी भलीभांति सस्व-सुश्रूसा, ईलाज और देखभाल करती है. *इसीलिए उक्त विज्ञापन* अपने व्यावसायिक हित के लिए पति की सेहत और उसकी लम्बी उम्र के लिए करवा चौथ का व्रत रखनेवाली लाखों-करोड़ों स्त्रियों की आस्था और विध्वास को न केवल खंडित करता है, बल्कि उन्हें चिकित्सा बाज़ार का उपभोक्ता बनाने के लिए उकसाता भी है. *दरअसल आज के* बाजारवादी माहौल में उपभक्ताओं को रिझाना अब बाज़ार के बाएँ हाथ का खेल हो गया है. बाज़ार के हाथ में ग़रीब से ग़रीब और कृपण शख्स को भी उपभोक्ता बनाने की जादू की छड़ी है. बाज़ार यह जान गया है कि इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी उसका घर-परिवार, उसकी आस्था और उसका विश्वास होता है. इन सबके बीच घुसपैठ कर बाज़ार को व्यापक और विस्तृत किया जा सकता है, घटिया से घटिया और बेकार से बेकार उत्पाद बेचा जा सकता है. *फिर हमारे यहाँ* पुरुष और स्त्री की आस्था और विश्वास तथा घर-परिवार के प्रति उनके समर्पण-भाव में भी फर्क होता है. इसीलिए शायद हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ व्रत-त्यौहार कुछ ज़्यादा ही करती हैं, क्योंकि वे पति, बच्चे और परिवार की हिफाज़त चाहती हैं. पराधीन जो ठहरीं! इन सबकी दुहाई देकर कंजूस से कंजूस स्त्री की भी अंटी से पैसा निकलवाया जा सकता है. *वास्तव में देखा जाए तो *आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित निजी क्लीनिकों, हेल्थ केयर सेंटरों, नर्सिंग होमों और पाँचसितारा अस्पतालों के रूप में चिकित्सा क्षेत्र आज एक ऐसे बाज़ार के रूप में विकसित होता जा रहा है, जहां 'सेवा परमोधर्मः' की जगह लिखा होगा 'पहले पैसा फिर सेवा.' राजधानी दिल्ली के कुछ पंचसितारा और निजी अस्पतालों में पिछले दिनों हुईं घटनाएं इसके प्रमाण हैं. *दरअसल आज हम *वैश्वीकरण के उस दौर में पहुँच गए हैं, जहां चौतरफ़ा बाज़ार बाज़ार ही बाज़ार है. बाज़ार के बाहर के कुछ भी नहीं है. आज बाज़ार इतना ताकतवर, लचीला और सर्वव्यापी हो गया है कि वह किसी की भी आस्था, विश्वास, भावना, व्यवहार, मूल्य, कर्म, मिथक, परम्परा, घटना, हालात वगैरह का अपने उत्पाद बेचने के लिए मनमाफ़िक इस्तेमाल कर सकता है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Wed Feb 23 13:36:57 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 23 Feb 2011 00:06:57 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KSu4KWHIOCkq+CkvuCkr+CksOCkq+CkvuCkleCljeCkuA==?= Message-ID: <512769.58671.qm@web121715.mail.ne1.yahoo.com> मैथिलीमे फायरफाक्स आज इंटरनेट खंगालने वाला हर तीसरा आदमी अमूनन फ़ायरफ़ॉक्स का उपयोग करता है। भारत की कुछ भाषाओं में यह ब्राउज़र उपलब्ध है। यह लोकप्रिय वेब ब्राउज़र फ़ायरफ़ॉक्स अब मैथिली में तैयार है और बीटा रिलीज में उपलब्ध है। हमलोगों कुछ वर्ष पहले मैथिली में पूरा का पूरा कंप्यूटर तैयार करने की आकांक्षा पाली थी और खुशी है कि हम इसे पूरा कर पा रहे हैं। फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली का उपयोग करें और बताएँ कि कहाँ-कहाँ हम इसे सुधार सकते हैं। फ़ायरफ़ॉक्स बेहद लोकप्रिय है। उम्मीद है कि मैथिली जानने वाले लोग हमें अपने सुझावों के रूप में योगदान देंगे। गौरतलब है कि हम पहले ही फेडोरा, गनोम, केडीई जैसे मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयरों को मैथिली में ला चुके हैं। यहाँ से अपने सिस्टम के मुताबिक डाउनलोड करें। regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Feb 23 13:38:44 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 23 Feb 2011 13:38:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCkrOCkqOCkvuCkriDgpK7gpILgpJog4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk4KS+?= Message-ID: यदि साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी जैसे कवि हैं तो कविता के दूसरे पलड़े अर्थात मंच पर भी गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, बाल कवि बैरागी, उदय प्रताप सिंह, सुरेन्द्र शर्मा, अशोक चक्रधर जैसे हस्ताक्षर मौजूद हैं। अब मंच और साहित्यिक कविता के दो पलड़ों में कौन सा पलड़ा भारी है, यह कहना मंचिय कविता को कम करके आंकनेे वालों के लिए भी मुश्किल होगा। साहित्य बनाम मंच की कविता -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Feb 23 13:38:44 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 23 Feb 2011 13:38:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCkrOCkqOCkvuCkriDgpK7gpILgpJog4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk4KS+?= Message-ID: यदि साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी जैसे कवि हैं तो कविता के दूसरे पलड़े अर्थात मंच पर भी गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, बाल कवि बैरागी, उदय प्रताप सिंह, सुरेन्द्र शर्मा, अशोक चक्रधर जैसे हस्ताक्षर मौजूद हैं। अब मंच और साहित्यिक कविता के दो पलड़ों में कौन सा पलड़ा भारी है, यह कहना मंचिय कविता को कम करके आंकनेे वालों के लिए भी मुश्किल होगा। साहित्य बनाम मंच की कविता -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Feb 23 19:03:40 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 23 Feb 2011 19:03:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: References: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: <4D650CB4.60303@sarai.net> राजेश और विजेन्द्र जी, काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं। कृपया अपनी टिप्पणियों से नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण पाया, जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" शुक्रिया रविकान्त Vijender chauhan wrote: > मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को > श्रीमित्र कर दिया जाए ? > विजेंद्र > > 2011/2/22 Rajesh Ranjan > > > पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... > > लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... > > "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन > की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि > व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के > साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट > पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र > ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" > > regards, > -------------- > Rajesh Ranjan > Kramashah > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From foss.mailinglists at gmail.com Wed Feb 23 19:08:19 2011 From: foss.mailinglists at gmail.com (sankarshan) Date: Wed, 23 Feb 2011 19:08:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: <4D650CB4.60303@sarai.net> References: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> <4D650CB4.60303@sarai.net> Message-ID: 2011/2/23 ravikant : > > राजेश और विजेन्द्र जी, > > काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा > इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं।  कृपया अपनी टिप्पणियों से > नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: > > "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर > इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन > खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप > पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण  पाया, > जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" The fine folks at C-DAC once published a set of "quick brown ..." for Indian languages in the Vishwabharat magazine. Someone should check up the archives. The immediate problem with the localization of quick brown fox is the length. The phrase is used (and sometimes it is Loren ipsum) when showing off the ligatures and glyphs of fonts (in a font viewer application). A paragraph worth of text that includes all valid combinations/ligatures may be technically correct but fail from a design perspective. -- sankarshan mukhopadhyay From vineetdu at gmail.com Thu Feb 24 11:34:31 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Feb 2011 11:34:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSy4KSV?= =?utf-8?b?4KSuIOCkteCliOCklSDgpJXgpYcg4KSF4KSC4KSm4KS+4KScIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: दीवान के साथियों लंबे समय के अंतराल के बाद एक बार फिर हाजिर हूं। कोशिश रहेगी कि पुरानीवाली रेगुलरिटी बनी रहे। इस बीच "टीवी मेरी जान" नाम से वीकली कॉलम शुरु हुआ है। ये कॉलम लखनउ से प्रकाशित दैनिक जनसंदेश टाइम्स में प्रत्येक बुधवार को मीडिया पन्ने पर होता है। ये अखबार अभी आनलाइन नहीं है। मैं मूल पाठ ही यहां प्रकाशित कर दूंगा। आप पढ़कर प्रतिक्रिया देंगे। फिलहाल व्यक्तिगत कारणों से अब तक प्रकाशित लेखों में मुस्तैदी नहीं है। जल्द ही सब सामान्य होगा। टीवी मेरी जान- 3 एक देशद्रोही ऑडिएंस का दर्द विश्व कप शुरु होने के दो दिन पहले तक मुझे न्यूज चैनलों से कहीं ज्यादा लेज पोटैटो चिप्स के विज्ञापन में क्रिकेट को खेल भावना की तरह से देखने और उसमें शामिल तमाम देशों के प्रति बराबर का सम्मान रखने का एहसास हुआ। लेज के विज्ञापन में सबके सब इंडिया के पक्ष में नहीं बोल रहे होते हैं बल्कि आस्ट्रेलिया और दूसरी क्रिकेट टीमों को भी याद करते हैं। लेकिन स्टार न्यज ने विश्व कप को लेकर बल्ले-बल्ले नाम से जिस खास कार्यक्रम को शुरु किया,उसमें वर्ल्ड कप या तो दिल्ली का हो गया,बड़ौदा का हो गया और फिर देखते ही देखते यह कप देश के उन-गिने चुने शहरों का होकर रह गया जहां से कि भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी आते हैं। चैनल ने उन शहरों में लोगों की धक्का-मुक्की के बीच खास शो किए। क्रिकेट के नाम पर भारतीय होने के जिस गर्व को चैनल एक हायपर सेंसिबिलिटी तक ले जाते हैं जहां उससे अलग कुछ भ बोलना देशद्रोह लगने लगता है,ऐसे में स्टार न्यूज का अंदाज इस भारतीयता को गिने-चुने शहरों तक ले जाकर न केवल वर्ल्ड कप को लोकल इवेंट की शक्ल देने की कोशिश करता है बल्कि भारत के अलावे दूसरे देशों को पूरी तरह नजरअंदाज कर जाता है। भारत-बांग्लादेश के बीच हुए मैच से विश्व कप शुरु होने के पहले कहीं से ऐसा नहीं लगता कि चैनल पूरे देश और देश के बाहर की ऑडिएंस के लिए कार्यक्रम और खबरें प्रसारित कर रहे हैं। स्टार न्यूज के इस रवैये को अपनाते हुए आजतक और इंडिया टीवी ने भी दौड़ लगानी शुरु की। नतीजा वर्ल्ड कप को लेकर स्थानीय स्तर पर क्या कुछ चल रहा है,वह सब तेजी से खबर का हिस्सा बनता चला गया। इन तीन-चार बड़े चैनलों की देखादेखी यह तय हो गया कि क्रिकेट के नाम पर देश में जहां जो कुछ भी हो रहा है,वह सब खबर है। इसका असर यह हुआ कि वर्ल्ड कप को लेकर किस स्तर की तैयारी चल रही है,कौन-कौन सी टीमें शामिल हो रही है औऱ उनमें क्रिकेट की क्या बारीकियां हैं,इन पर गंभीरता से चर्चा होने के बजाय अधिकांश न्यूज चैनल सर्कस में तब्दील होते चले गए। बल्ले की पूजा,गणपति के आगे जीत के लिए नाक रगड़ने की खबरें,बाल मुंडाने और रंगाने और धोनी के चारण में कविताबाजी करने के सारे तमाशे न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम की खबरें बनने लगी। डांस इंडिया डांस में सचिन तेंदुलकर के सम्मान में जो कोरियोग्राफी की गयी, कॉमेडी सर्कस में जो क्रिकेट टीम बनी,क्रिकेट की खबरों के नाम पर हमें कई बार दिखाया गया। लगभग सभी चैनलों ने पूर्व क्रिकेट खिलाड़ियों औऱ खेल समीक्षकों को जुटाकर विश्लेषण के लिए टीम तैयार कर ली थी लेकिन क्रिकेट विशेषज्ञ के तैर पर अक्षय कुमार ही छाए रहे क्योंकि उन्होंने अपनी असल जिंदगी में चांदनी चौक में खिड़कियां के शीशे टूट जाने के डर से भले ही क्रिकेट न खेली हो,कोई खास अनुभव भी न रहा हो लेकिन फिल्म पटियाला हाउस में भारत की तरफ से खेलने के लिए अपने पिता से विद्रोह कर देते हैं। इस वर्ल्ड कप में अगर क्रिकेट टीमों और विशेषज्ञों की टीम को छोड़ दें तो टेलीविजन स्क्रीन पर सिनेमाई सितारों और सिलेब्रेटी ने कब्जा जमा लिया। चैनलों ने उन्हें ऐसा करने के लिए लगातार प्रोत्साहित इसलिए किया क्योंकि आयोजकों को भी तो जबाब देना पड़ता है। राजनीति को पहले से ही इतनी काबिज है कि घोटालों और देश की अर्थव्यवस्था पर बात करने के लिए प्रधानमंत्री की ओर से बुलायी गयी प्रेस कांफ्रेस में न्यूज 24 की चैनल हेड मंहगाई और भूखमरी पर सवाल करने के बजाय मनमोहन सिंह से यह सवाल करती है कि इंडिया वर्ल्ड कप जीतेगा नहीं? आगे क्रिकेट को लेकर राजनीति जारी रहेगी। ऐसे में क्रिकेट अब खेल रहा ही नहीं, दुनियाभर की वस्तुओं की बिक्री के लिए प्रीपेड बुकिंग सेंटर बन गया है,राजनीतिक मुद्दों और सामाजिक समस्याओं को ओवरटेक करते हुए पूरी जान एक कप में बंद हो जाने तक रह गया है। इन दिनों इएसपीएन 83 के वर्ल्ड कप मैचों का प्रसारण कर रहा है। उसकी फुटेज देखकर आप महसूस करेंगे कि रनवॉल पर विज्ञापनों के होने के बावजूद मैंदान और दूसरी साइटस पर कंपनियों का कब्जा नहीं है,प्रायोजकों के बीच खेल तब भी जिंदा है। न्यूज चैनलों में यह सब दिखाते हुए बाकी के देश बिल्कुल गायब है। सवाल है कि हम अपनी हायपर इंडियननेस के बीच जिसमें कि एक सभ्य सुचिंतित नजरिए के बजाय आदिम तमाशाई समाज की झलक है के आगे दूसरे देशों को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाते। दूसरी तरफ भारत औऱ बांग्लादेश के मैच में स्टार स्पोर्ट्स पर हिन्दी में हमने जो कमेंट्री सुनी और भात की जीत के बाद न्यूज चैनलों पर एक के बाद एक हेडर और ब्रेक्रिंग करके जो खबरें दिखाई गयी,उसे देखते और सुनते हुए स्पष्ट हो गया कि चैनलों की ओर से जो भारतीयता पैदा की जा रही है,भारतीय होने पर हमें जिस गर्व का एहसास कराया जा रहा है,वह आगे चलकर दूसरे देशों के प्रति उपहास,अपमान और नीचा दिखाने पर जाकर खत्म होता है। कमेंटरी में जिन लच्छेदार भाषा और मुहावरों का प्रयोग किया गया, उसे आमतौर पर मोहल्ले-गलियों में एक-दूसरे से लड़ते झगड़ते हुए इस्तेमाल किया जाता है। यहां चैनल के उपर देशज भाषा बचाने की जिम्मेदारी नहीं दी गयी थी,उस खेल भावना और रोमांच को बरकरार रखने की जिम्मेदारी दी गयी थी जो कि वर्ल्ड कप या दूसरे खेलों के लिए जरुरी होते हैं। न्यूज चैनलों ने बांग्लादेश की हार के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया, वह मीडिया की नहीं,गुंडे-मवालियों औऱ लंपटों की भाषा है। चैनल भारत से बाहर अपने प्रसार को अगर उपलब्धि करार देता है,ऐसे में वह यह क्यों भूल जाता है कि सिर्फ देश के ही लोग हिन्दी नहीं समझते हैं कि कुछ भी बोलकर निकल जाएं। इस वर्ल्ड कप के जरिए भारत की एक छवि भी निर्मित हो रही है,जो कि खेल की जीत से कहीं ज्यादा मायने रखती है,चैनल को शायद इस बात का होश नहीं है। अभी तो आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान जैसे देश बाकी ही है। राजनीतिक उठापटक की खुन्नस क्रिकेट के बहाने निकालने की चैनल की इस आदत को हमें एक बार फिर देखने के लिए मजबूर होना होगा। इसके लिए शंकर एहसान लाय के वर्ल्ड कप का जो गाना दे घुमा के,आगे से दे,पीछे से दे खिलाड़ियों औऱ ऑडिएंस के बीच रोमांच पैदा कर रहा है,न्यूज चैनल उसका इस्तेमाल इन टीमों का हार जाने की स्थिति में उपहास उड़ाने और राजनीतिक खुन्नस उतारने के लिए किया जाना बाकी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Feb 24 11:39:24 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Feb 2011 11:39:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CksOClgCDgpJzgpL7gpKgtMQ==?= Message-ID: ललियाः एक दलित चरित्र की विदाई ए ठकुराइन,हमहुं तो छोट जात के ही हैं,हम कौन बाभन-राजपूत हैं,लाइए न हमहीं कर देते हैं। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ की प्रधान चरित्र ललिया के इस संवाद से उसका जो परिचय हमारे सामने आता है,वह करीब दो साल तक चलनेवाले इस सीरियल पर बात करने के दौरान मेनस्ट्रीम मीडिया में कभी नहीं आया। आरक्षण( एनडीटीवी इमैजिन) को छोड़ दें तो टीवी सीरियलों में जाति का सवाल सिर्फ उंची जाति का निचली जाति से विवाह करने या मेलजोल बढ़ाने पर विरोध के स्तर पर ही आया है जिसमें कि अंत में निचली जाति को पराजित,कुंठाग्रस्त और यथास्थितिवाद का शिकार करार दिया गया है लेकिन टेलीविजन की व्यावसायिक शर्तों के बीच कैसे लगातार दो साल तक एकमात्र दलित चरित्र ललिया ठाकुरों के हाथों स्त्री के खरीद-बिक्री का सामान बन जाने का प्रतिरोध करती रही और दलित ऑडिएंस के बीच आत्मविश्वास पैदा करती रही,इसकी कहानी किसी भी अखबार,चैनल और यहां तक कि स्वयं जीटीवी ने बताना जरुरी नहीं समझा। वैसे तो एक चरित्र के तौर पर ललिया की चर्चा इतनी हुई और वह इतनी पॉपुलर हुई कि इस चरित्र को जीनेवाली रतन राजपूत जीटीवी को लांघकर एनडीटीवी इमैजिन पर स्वयंवर रचाने जा रही है लेकिन चरित्र के तौर पर ललिया एक मजबूर गरीब लड़की के बजाय आत्मसम्मान और हर हाल में जीने की ललक बनाए रखनेवाली एक दलित लड़की का उभार कैसे उभार होता है,यह कहानी कभी भी चर्चा का हिस्सा नहीं बनने पायी। इस सीरियल की चर्चा पैसे की मजबूरी में गौना नहीं हो पाने और बेटी बेचने की त्रासदी के बीच के बीच ही चक्कर काटती रह गयी और देखते ही देखते जीटीवी पर इसकी जगह 15 फरवरी से छोटी बहू ने कब्जा जमा लिया। आज आप जीटीवी सहित जितनी भी साइटों को खंगाले तो तो बताया जाएगा कि इस सीरियल में एक गरीब लड़की ललिया जो कि गौना के सपने देखती है और अंत में अपने ही बाप ननकू द्वारा ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बेच देने की कहानी है। लेकिन सच्चाई है कि यह इससे कहीं ज्यादा एक दलित लड़की के ठाकुर के हाथों बिक जाने,हत्या की साजिशों के बीच फंस जाने,जानवरों से भी निचले दर्जे का व्यवहार किए जाने और इन सबसे प्रतिरोध करते हुए उसी गांव का सरपंच बन जाने की कहानी है जिस गांव में वह ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बिककर आयी है। टेलीविजन में सामाजिक समस्याओं को आधार बनाकर अब तक जितने भी सीरियलों की शुरुआत हुई है उसमें अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ अब तक एकमात्र सीरियल है जो कि बेटी बेचने की कहानी कहते हुए भी समाज की जातिगत संरचना से सीधे तौर पर टकराता है। इतना ही नहीं ललिया के बहाने पहला कोई ऐसा सीरियल प्रसारित हुआ जो कि बिना किसी सामाजिक सरोकारों और जातिगत बराबरी के एंजेंडे की घोषणा किए दलित चरित्र को सबसे मुखर,सतर्क और परिस्थितियों के आगे गुलाम हो जाने के बजाय परिस्थितियों के बीच जीने की संभावना पैदा करते हुए दिखाया गया है। गांव की अगड़ी जाति का मर्द अपनी अय्याशी के लिए लड़कियों की पांच हजार की बोली लगाकर अपनी सम्पत्ति का हिस्सा बनाता है। कुछ लड़कियां ऐसी जिंदगी जीने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुनती है। ऐसे में ललिया उसे धिक्कारती हुई समझाती है- तुमरे हिसाब से तो हमको कबे का मर जाना चाहिए था रे। घर से हमको माय-बाप इ कहर विदा किया कि गौना हो गया लेकिन बाद में हमको पता चला कि हमको बेच दिया गया। तुम सब सोचोगी कि विपत्ति पड़ेगा तो हमरा भाय,हमरा पति बचावे आएगा,तब तो कभी भी अपना जिंदगी नय जी पाएगी। विपत्त पड़ेगा तो का हम जीना छोड़ देंगे,अपना जिंदगी ऐसे कैसे खतम कर देंगे? हमकों खुद लड़ना पड़ेगा। ललिया की विदाई नाम से खास एपिसोड में उसने जो कुछ भी कहा,उसमें सालों से स्त्रीवादी चिंतन होते रहने के बावजूद दलित स्त्रियों का स्वतंत्र चिंतन होना चाहिए की मांग शामिल है। हताश करने की मंशा से उसके पराजय की कहानी तो लगातार लिखी जाती रही है लेकिन दर्जनों ठाकुर सत्ताधारी स्त्रियों के आगे साधनविहीन किन्तु विजयी दलित स्त्री की इबारतें का न लिखना एक गहरी साजिश का हिस्सा लगने लगता है। दूसरी तरफ दलित विमर्श के भीतर मर्दवाद पैदा न हो इसके लिए जरुरी है कि विमर्श के दायरे में ललिया जैसे टेलीविजन चरित्र औऱ सीरियल शामिल किए जाएं सीरियल जिस थीम पर बना है उसमें अभाव में बाप का अपनी बेटी को बेच देना न कोई नई घटना है और न ही अगड़ी जाति के मर्द की अय्याशी के लिए निजी जाति की स्त्री का खरीद-बिक्री का हिस्सा बन जाना कोई नई बात है। लेकिन जैसे ही हम ललिया के संवाद में जिन जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपने उपर भरोसा पैदा करने की बात देखते हैं,उससे गुजरते हुए सीरियल के मायने एकदम से बदल जाते हैं। टीवी सीरियल भले ही व्यावसायिक दबाबों के बीच पॉपुलरिटी को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता,जज्बातों का बाजार तैयार करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है,ललिया के उत्कर्ष के साथ-साथ ठाकुरों के हृदय परिवर्तन कराकर अपनी जातिगत आग्रह से उबर नहीं पाता लेकिन इन सबके बावजूद सांस्कृतिक पाठ( कल्चरल टेक्सट) के तौर पर बहुत कुछ दे जाता है जिसकी व्याख्या विमर्श के दायरे में रखकर की जाए तो एक स्थिति साफ बनती है कि ऑडिएंस की मिजाज बदलने के क्रम में धोखे में ही सही वह कई बार न चाहते हुए भी प्रगतिशील हो उठता है। ललिया के मामले में जीटीवी ऐसा ही नजर आता है। टेलीविजन निर्धारित एजेंड़े के तहत जो अर्थ पैदा करना करने की कोशिश करता है, उससे प्रतिगामी और साकारात्मक अर्थ इसी तरह पैदा होते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Feb 24 11:42:14 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Feb 2011 11:42:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CksOClgCDgpJzgpL7gpKgtMQ==?= Message-ID: कहीं पानी में न डूब जाए जोर का झटका? सिनेमा के सितारों को टेलीविजन के लिए ऑक्सीजन के तौर पर इस्तेमाल करने की कड़ी में जोर का झटका इन दिनों चर्चा में है। टीआरपी की दौड़ में इमैजिन टीवी जो कि पहले एनडीटीवी का चैनल हुआ करता था,जिस तरह से हॉफ रहा है, ऐसे में चैनल को पूरी उम्मीद है कि जोर का झटका के बहाने शाहरुख खान उसे इस तकलीफ से उबार ले जाएंगे। टीआरपी क्राइसिस से उबरने या पैदा न होने देने की स्थिति में रियलिटी शो के भीतर एक नया ट्रेंड तेजी से पनप रहा है। एक तो ट्रेंड है कि इसे कोई एक विधा मसलन डांस,संगीत या स्पोर्ट्स आधारित शो बनाने के बजाए ऐसे शो बनाए जाएं जिसमें कि एक ही साथ थोड़ा-थोड़ा सबकुछ शामिल हों। यह काम पहले संगीत और डांस आधारित रियलिटी शो में शुरु हुआ और धीरे-धीरे इसे परफार्मिंग आर्ट के तौर पर विकसित किया। इंटरटेन्मेंट के लिए कुछ भी करेगा(कलर्स) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अब इसमें स्पोर्टस, आंशिक पोर्नोग्राफी और एडवेन्चर्स आदि शामिल किया जाने लगा है। बिग बॉस,स्प्ल्टिविला,एमटीवी रोडीज,खतरों के खिलाड़ी जैसे रियलिटी शो ने इसी ट्रेंड की सफलता की इबारतें लिखी है। इन रियलिटी शो में कई ऐसी गतिविधियां शामिल होती है जिसे कि आप सीधे-सीधे किसी एक विधा के अन्तर्गत नहीं रख सकते लेकिन ऐसे शो एक ही साथ कई अलग-अलग मिजाज की ऑडिएंस को बांधने में सफल हो जाते हैं। इसमें स्पोर्टस, संगीत या डांस के कैजुअल रुप होते हैं। दूसरा कि इसमें बॉलीबुड के किसी बिग स्टार को बतौर मॉडरेटर या प्रजेंटर शामिल कर लिया जाता है जो कि मनोरंजन का अलग से स्पेस तैयार करते हैं। रियलिटी शो में सिनेस्टार अब एक मजबूरी का ट्रेंड के तौर पर स्थापित हो चला है। जोर का झटका जो कि अमेरिकी वाटर गेम शो वाइप आउट का भारतीय टेलीविजन मानसिकता का अनुवाद है, इसी फार्मूले के तहत हमारे सामने है और एक ही साथ कई रियलिटी शो से भिड़ने की कोशिश कर रहा है। टेलीविजन के कार्यक्रमों की सफलता का अंतिम प्रमाण पत्र अगर टीआरपी रिपोर्ट कार्ड ही है तो इसके लिए हमें बहुत ज्यादा दिनों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा। हमें सप्ताहभर के भीतर पता चल जाएगा कि यह वाटर गेम शो चैनल के लिए आक्सीजन का काम करता है या फिर पानी के खेल का शो खुद चैनल को ही पहले से और बुरी तरह पानी में डुबा ले जाता है। दूसरी तरफ बिजनेस के स्तर पर बात करें संभव है कि सिनेस्टारों की लंबी फेहरिस्त जुटाकर विज्ञापनों दरों में बढ़ोतरी कर ले। शुक्रवार के एपीसोड रिलीज होनेवाली फिल्मों के लिए लांचिंग पैड साबित हो। लेकिन टीवी ट्रेंड के लिहाज से बात करें तो हमें इस शो को इन सबसे अलग विश्लेषित करने की जरुरत है। पहली बात तो यह कि झोर का झटका से अगर पानी और उसके बीच खड़े उपकरणों को निकाल दें तो मजा और प्रभाव के स्तर पर मुझे इस जंगल से बचाओ,खतरों के खिलाड़ी,बिग बॉस, स्पिल्टविला जैसे रियलिटी शो और डिस्कवरी चैनल की जहां-तहां से उठाकर लगायी गयी चिप्पी से बहुत अलग कुछ भी नहीं है। ये उसका पैश्टिच रुप है। इस नएपन को लगातार एक सप्ताह के एपीसोड देखने के बाद संभव है इसे देखने का सारा उत्साह मर जाए। अभी तक स्टंट के स्पेस बनते नहीं दिखाई दे रहे। इन सबके बावजूद फिलहाल जिस स्तर का एडवेंचर है,वह भारतीय रियलिटी शो के दर्शकों के लिए नया है। लेकिन बिग स्टार को शामिल किए जाने के ट्रेंड से जो खतरा बाकी के शो का होता है, वही खतरा इस शो के साथ भी बरकरार है। चैनल ने टीआरपी की क्राइसिस से उबरने के लिए शाहरुख का दामन जितना बड़ी सफलता हासिल नहीं की, उससे कहीं ज्यादा बड़ी सफलता इस बात की रही कि उसने एक ऐसे शो की शुरुआत की जिसमें कि अश्लीलता,अपसंस्कृति, फूहड़पन जैसे आरोप लगने के बजाय एक स्वस्थ रियलिटी शो की क्रेडिट मिलती। लेकिन चैनल यह क्रेडिट लेने में पूरी तरह पिछड़ता नजर आ रहा है। मेनस्ट्रीम मीडिया में इस शो को लेकर जितनी भी चर्चा की गयी जो कि किसी न किसी रुप में पेड न्यूज का ही हिस्सा है,उसमें शाहरुख खान के आगे इस गेम शो की खासियत उभरकर सामने नहीं आयी जबकि शो की रुप-रेखा पर गौर करें तो शाहरुख की भूमिका एक कमेंटेटर से ज्यादा की नहीं है। टेलीविजन पर महाभारत में संजय के बाद दूसरा शाहरुख खान ही हैं जो अर्जेंटीना में होनेवाले गेम शो की व्याख्या भारत में बैठकर करते हैं। लेकिन इस व्याख्या के दौरान बॉडी लैंग्वेंज के स्तर पर केबीसी के अमिताभ बच्चन की न चाहकर भी बार-बार नकल करने से अपने को रोक नहीं पाते। जहां कहीं थोड़ा अलग करने की कोशिश करते हैं, वह क्या आप पांचवी पास से तेज हैं जैसे फ्लॉप शो में फंसकर रह जाते हैं। ऐसे में एक बड़ा सवाल उठता है कि फिल्मी सफलता के ग्राफ के साथ आए सिनेमा के बिग स्टार टीवी ट्रेंड को आगे क्यों नहीं ले जा पाते? कुल मिलाकर अगर रियलिटी शो को पॉपुलरिटी स्टंट की चिंता न हो और शाहरुख के बहाने इसे न्यूज चैनलों में चर्चा का हिस्सा न बनाना हो तो शाहरुख खान की उपस्थिति गैरजरुरी लगती है। दूसरा कि टेलीविजन के रियलिटी शो के साथ अच्छी बात हो रही है कि वह लगातार इवेंट स्पेस के दायरे को बढ़ाकर मनोरंजन के नए पब्लिक स्फीयर तैयार कर रहा है। इसके पीछे निश्चित रुप से आउट ऑफ होम विज्ञापनों की संभावना को विस्तार देना होता है। जंगल, झरनों, पहाड़ों, वाटरपार्क सभी जगह विज्ञापन के लिए स्पेस बनते हैं लेकिन ऑडिएंस के लिए फायदा इस बात को लेकर है कि उसे फुटेज के स्तर पर विविधता देखने को मिलती है और रियलिटी शो एक टाइप बनने से बच जाता है। सिनेस्टार और उससे जुड़े अर्थतंत्र के दबाव में आकर इन पहलुओं की चर्चा नहीं होती। आउटडोर और एडवेन्चर्स पर आधारित ऐसे शो स्क्रीन के स्तर पर ही सही स्टेज पर्फार्मेंस से अलग की गतिविधियों को सामने लाने का काम करते हैं और इसके प्रभाव में एक समांतर संस्कृति पैदा होने की गुंजाइश बनती है। ये अलग बात है कि इसमें नयी प्रतिभाओं को सामने लाने का दावा नहीं है क्योंकि बिग बॉस की तरह यहां भी अपने-अपने क्षेत्र में विवादों और लोकप्रियता हासिल करनेवाली सिलेब्रेटी का जमावड़ा है। इनमें टीवी ट्रेंड को बदलने की क्षमता है लेकिन यह तभी संभव है जबकि टेलीविजन को यह भरोसा पैदा हो कि सिनेस्टार की जकड़न से मुक्त होकर भी वह ऑडिएंस पर अपना असर पैदा कर सकता है। नहीं तो हमें कार्यक्रम बदलते जाने के बाद भी लगता रहेगा कि हम टेलीविजन के नाम पर सिने सितारों के एहसानों के तले दबे हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From indlinux at gmail.com Thu Feb 24 12:25:27 2011 From: indlinux at gmail.com (G Karunakar) Date: Thu, 24 Feb 2011 12:25:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= "The quick brown fox..." in Hindi In-Reply-To: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> References: <382836.52354.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: 2011/2/22 Rajesh Ranjan > > पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... > > लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... > > "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" > एक पुरातन वाला (काव्यात्म्क नहीं है), जिसे पहले फ़ॉन्ट जाँचने के लिए प्रयोग करते थे http://indlinux.sourceforge.net/downloads/files/mahabharat.txt धर्मराज युधिष्टिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा भगवान श्रीकृष्ण आज पुनः कुरुक्षेत्र में खडे है. विपक्ष में कौरवों की तरफ से ऋषि गुरू द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की जिसे बालक अभिमन्यु भेदना चाहता है. इस चक्रव्यूह के द्वारों पर हैं - महाबली जयद्रथ, छली-कपटी मामा शकुनी, अश्वत्थामा तथा कई अन्य महारथी. गांडीव की टंकार, पॉञ्चजन्य का घोष, खड्गों की झंकार एवं महारथियों की हुंकार के साथ लडाई प्रारंभ हो गई. ऐसे में ज्ञानी विदुर एक ऊंचे टीले पर खडे थे, उनकी आंखे ओजपूर्ण कर्ण को ढूंढ रही थी, उनके मन में कई विचार उठ रहे थे जो उन्हे झकझोर रहे थे. करुणाकर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Thu Feb 24 13:21:38 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 23 Feb 2011 23:51:38 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: <4D650CB4.60303@sarai.net> Message-ID: <117282.26395.qm@web121720.mail.ne1.yahoo.com> काफी कम वर्णों का उपयोग इसमें हुआ है मात्र 367. लेकिन कुछेक छूट गए हैं... ऐ ओ औ ऋ इसे जोड़ा जा सकता है। अभी करूणाकरजी ने भी भेजा है...वह भी अच्छा है लेकिन लंबाई थोड़ी अधिक है...542 वर्ण. ताऊश्री वाले में जहाँ 66 शब्द ही हैं, वहीं महाभारत वाले में 102. regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Wed, 2/23/11, ravikant wrote: From: ravikant Subject: Re: [दीवान]"The quick brown fox..." in Hindi To: "Deewan" Date: Wednesday, February 23, 2011, 7:03 PM राजेश और विजेन्द्र जी, काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं।  कृपया अपनी टिप्पणियों से नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण  पाया, जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" शुक्रिया रविकान्त Vijender chauhan wrote: > मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को श्रीमित्र कर दिया जाए ? विजेंद्र > 2011/2/22 Rajesh Ranjan > > >     पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... > >     लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... > >     "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन >     की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि >     व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के >     साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट >     पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र >     ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" > >     regards, >     -------------- >     Rajesh Ranjan       Kramashah > > > >     _______________________________________________ >     Deewan mailing list >     Deewan at sarai.net >     http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >    _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From indlinux at gmail.com Thu Feb 24 14:21:31 2011 From: indlinux at gmail.com (G Karunakar) Date: Thu, 24 Feb 2011 14:21:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: <117282.26395.qm@web121720.mail.ne1.yahoo.com> References: <4D650CB4.60303@sarai.net> <117282.26395.qm@web121720.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: राजेशजी, वैसे जरूरी नहीं है की हम इसमें सभी अक्षर व संयुक्ताक्षर जोडें चुंकि इसका प्रयोग मुख्यतः फ़ॉन्ट चयन डायलॉग में होता है, एक छोटा वाक्य भी चलना चाहिए जिस्में ये दिखा सेकें - मात्राओं की स्थिति - ा ि ी ु ू ै ँ , कि वो ठीक जगह पर बैठते हैं - अर्ध अक्षर - क्क प्क त्क , रकार क्र, ट्र र्क - ठीक दिखते हैं - पूर्ण संयुक्ताक्षर (इसमें ही दो हैं) - टूटते नहीं हैं , क्ष का क ् ष नही बन जाता उपरोक्त तीन स्थितियों को अगर फ़ॉन्ट ठीक से दिखा सकता है तो काफी होगा, 40-50 वर्ण में वाक्य बन सकता है तो, डायलॉग में भी ठीक बैठेगा. लंबे संस्करण का उपयोग दस्तावेज में विस्तृत फ़ॉन्ट जाँच में किया जा सकता है. करुणाकर 2011/2/24 Rajesh Ranjan > > काफी कम वर्णों का उपयोग इसमें हुआ है मात्र 367. लेकिन कुछेक छूट गए हैं... > > ऐ > ओ > औ > ऋ > > इसे जोड़ा जा सकता है। > > अभी करूणाकरजी ने भी भेजा है...वह भी अच्छा है लेकिन लंबाई थोड़ी अधिक है...542 वर्ण. > ताऊश्री वाले में जहाँ 66 शब्द ही हैं, वहीं महाभारत वाले में 102. > > regards, > -------------- > Rajesh Ranjan > Kramashah > > > --- On Wed, 2/23/11, ravikant wrote: > > From: ravikant > Subject: Re: [दीवान]"The quick brown fox..." in Hindi > To: "Deewan" > Date: Wednesday, February 23, 2011, 7:03 PM > > > राजेश और विजेन्द्र जी, > > काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं।  कृपया अपनी टिप्पणियों से नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: > > "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण  पाया, जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" > > शुक्रिया > रविकान्त > > > Vijender chauhan wrote: > > मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को श्रीमित्र कर दिया जाए ? विजेंद्र > > 2011/2/22 Rajesh Ranjan > > > > >     पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... > > > >     लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... > > > >     "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन > >     की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि > >     व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के > >     साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट > >     पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र > >     ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" > > > >     regards, > >     -------------- > >     Rajesh Ranjan       Kramashah > > > > > > > >     _______________________________________________ > >     Deewan mailing list > >     Deewan at sarai.net > >     http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From ravikant at sarai.net Fri Feb 25 15:18:31 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 25 Feb 2011 15:18:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: References: <4D650CB4.60303@sarai.net> <117282.26395.qm@web121720.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: <4D677AEF.9030309@sarai.net> राजेश, करुणाकर, शंकर्षण कोशिश की है कि शब्द संख्या भी कम हो जाए, और संयुक्ताक्षर बढ़ जाएँ। 55 से नीचे जाने में दिक़्क़त हो रही है। वैसे एक चीज़ ये नहीं समझ में आती कि हम मूल अंग्रेज़ी के टेम्प्लेट पर ही हिन्दी के इतने सारे अक्षर, वो भी वाक्य में डालने पर क्यों अड़े हुए हैं। टेकीज़ को चाहिए कि वे टेम्प्लेट को बड़ा करें। जब युनिकोड हो सकता है, तो ये कौन-सी बड़ी बात है! बहरहाल, "ओह क्या बताएँ, उस दिन चंदू के ताऊश्री शाहख़र्च चच्चा छक्कन के साथ चाँदनी चौक दिल्ली में स्वर्णद्रव्य देके रबड़ी-फ़लूदा-लड्डू का पञ्चरङ्गा मिष्टान्न डकारा, ठाठ से टट्टू चढ़े, स्कॉच ढाला, ऑर्केस्ट्रा पर ग़ज़ल सुनी, तथैव हमारी बुभुक्षा तृप्त हुई, तदुपरान्त अंत:ज्ञानी औघड़ ऋषि का भाषण ऐसा झंड रहा, धत्तेरेकी, सुरूर उड़ा, त्रस्त हुआ!" अभी भी कुछ छूटता है क्या? रविकान्त G Karunakar wrote: > राजेशजी, > वैसे जरूरी नहीं है की हम इसमें सभी अक्षर व संयुक्ताक्षर जोडें > चुंकि इसका प्रयोग मुख्यतः फ़ॉन्ट चयन डायलॉग में होता है, एक छोटा वाक्य > भी चलना चाहिए जिस्में ये दिखा सेकें > - मात्राओं की स्थिति - ा ि ी ु ू ै ँ , कि वो ठीक जगह पर बैठते हैं > - अर्ध अक्षर - क्क प्क त्क , रकार क्र, ट्र र्क - ठीक दिखते हैं > - पूर्ण संयुक्ताक्षर (इसमें ही दो हैं) - टूटते नहीं हैं , क्ष का > क ् ष नही बन जाता > > उपरोक्त तीन स्थितियों को अगर फ़ॉन्ट ठीक से दिखा सकता है तो काफी होगा, > 40-50 वर्ण में वाक्य बन सकता है तो, डायलॉग में भी ठीक बैठेगा. > > लंबे संस्करण का उपयोग दस्तावेज में विस्तृत फ़ॉन्ट जाँच में किया जा सकता है. > > करुणाकर > > 2011/2/24 Rajesh Ranjan > >> काफी कम वर्णों का उपयोग इसमें हुआ है मात्र 367. लेकिन कुछेक छूट गए हैं... >> >> ऐ >> ओ >> औ >> ऋ >> >> इसे जोड़ा जा सकता है। >> >> अभी करूणाकरजी ने भी भेजा है...वह भी अच्छा है लेकिन लंबाई थोड़ी अधिक है...542 वर्ण. >> ताऊश्री वाले में जहाँ 66 शब्द ही हैं, वहीं महाभारत वाले में 102. >> >> regards, >> -------------- >> Rajesh Ranjan >> Kramashah >> >> >> --- On Wed, 2/23/11, ravikant wrote: >> >> From: ravikant >> Subject: Re: [दीवान]"The quick brown fox..." in Hindi >> To: "Deewan" >> Date: Wednesday, February 23, 2011, 7:03 PM >> >> >> राजेश और विजेन्द्र जी, >> >> काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं। कृपया अपनी टिप्पणियों से नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: >> >> "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण पाया, जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" >> >> शुक्रिया >> रविकान्त >> >> >> Vijender chauhan wrote: >> >>> मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को श्रीमित्र कर दिया जाए ? विजेंद्र >>> 2011/2/22 Rajesh Ranjan > >>> >>> पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... >>> >>> लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... >>> >>> "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन >>> की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि >>> व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के >>> साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट >>> पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र >>> ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" >>> >>> regards, >>> -------------- >>> Rajesh Ranjan Kramashah >>> >>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >>> ------------------------------------------------------------------------ >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From rajeshkajha at yahoo.com Fri Feb 25 16:49:30 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Fri, 25 Feb 2011 03:19:30 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=22The_quick_brown?= =?utf-8?b?IGZveC4uLiIgaW4gSGluZGk=?= In-Reply-To: <4D677AEF.9030309@sarai.net> Message-ID: <87998.77870.qm@web121706.mail.ne1.yahoo.com> इतने कम शब्दों में इतनी चीजों को समेटना वाकई काफी मुश्किल था. और यह मज़ेदार भी है... सादर, राजेश --- On Fri, 2/25/11, ravikant wrote: From: ravikant Subject: Re: [दीवान]"The quick brown fox..." in Hindi To: "Deewan" Date: Friday, February 25, 2011, 3:18 PM राजेश, करुणाकर, शंकर्षण कोशिश की है कि शब्द संख्या भी कम हो जाए, और संयुक्ताक्षर बढ़ जाएँ। 55 से नीचे जाने में दिक़्क़त हो रही है। वैसे एक चीज़ ये नहीं समझ में आती कि हम मूल अंग्रेज़ी के टेम्प्लेट पर ही हिन्दी के इतने सारे अक्षर, वो भी वाक्य में डालने पर क्यों अड़े हुए हैं। टेकीज़ को चाहिए कि वे टेम्प्लेट को बड़ा करें। जब युनिकोड हो सकता है, तो ये कौन-सी बड़ी बात है! बहरहाल,  "ओह क्या बताएँ, उस दिन चंदू के ताऊश्री शाहख़र्च चच्चा छक्कन के साथ चाँदनी चौक दिल्ली में स्वर्णद्रव्य देके रबड़ी-फ़लूदा-लड्डू का पञ्चरङ्गा मिष्टान्न डकारा, ठाठ से टट्टू चढ़े, स्कॉच ढाला, ऑर्केस्ट्रा पर ग़ज़ल सुनी, तथैव हमारी बुभुक्षा तृप्त हुई, तदुपरान्त अंत:ज्ञानी औघड़ ऋषि का भाषण ऐसा झंड रहा, धत्तेरेकी, सुरूर उड़ा, त्रस्त हुआ!" अभी भी कुछ छूटता है क्या? रविकान्त G Karunakar wrote: > राजेशजी, >  वैसे जरूरी नहीं है की हम इसमें सभी अक्षर व संयुक्ताक्षर जोडें > चुंकि इसका प्रयोग मुख्यतः फ़ॉन्ट चयन डायलॉग में होता है, एक छोटा वाक्य > भी चलना चाहिए जिस्में ये दिखा सेकें > - मात्राओं की स्थिति -    ा ि ी ु ू ै ँ  , कि वो ठीक जगह पर बैठते हैं > - अर्ध अक्षर -   क्क  प्क  त्क , रकार  क्र, ट्र र्क -  ठीक दिखते हैं > - पूर्ण संयुक्ताक्षर (इसमें ही दो हैं) -   टूटते नहीं हैं ,   क्ष  का > क ् ष नही बन जाता > > उपरोक्त तीन स्थितियों को अगर फ़ॉन्ट ठीक से दिखा सकता है तो काफी होगा, > 40-50 वर्ण में वाक्य बन सकता है तो, डायलॉग में भी ठीक बैठेगा. > > लंबे संस्करण का उपयोग दस्तावेज में विस्तृत फ़ॉन्ट जाँच में किया जा सकता है. > > करुणाकर > > 2011/2/24 Rajesh Ranjan >    >> काफी कम वर्णों का उपयोग इसमें हुआ है मात्र 367. लेकिन कुछेक छूट गए हैं... >> >> ऐ >> ओ >> औ >> ऋ >> >> इसे जोड़ा जा सकता है। >> >> अभी करूणाकरजी ने भी भेजा है...वह भी अच्छा है लेकिन लंबाई थोड़ी अधिक है...542 वर्ण. >> ताऊश्री वाले में जहाँ 66 शब्द ही हैं, वहीं महाभारत वाले में 102. >> >> regards, >> -------------- >> Rajesh Ranjan >> Kramashah >> >> >> --- On Wed, 2/23/11, ravikant wrote: >> >> From: ravikant >> Subject: Re: [दीवान]"The quick brown fox..." in Hindi >> To: "Deewan" >> Date: Wednesday, February 23, 2011, 7:03 PM >> >> >> राजेश और विजेन्द्र जी, >> >> काफ़ी मग़ज़मारी करने के बाद उसी रेसिपी से मैंने कुछ पकाया तो है, जो ज़्यादा इन्क्लूसिव है, कई संयुक्ताक्षर भी आ गए हैं।  कृपया अपनी टिप्पणियों से नवाज़ें। सुधार करें, कुछ छूटा हो तो बताएँ: >> >> "ताऊश्री अर्थात चच्चा छक्कन ने चंदू के लिए चाँदनी चौक, लाल क़िले, दिल्ली पर इमली की चटनी संग गुलाब जामुन, छोले-पठूरे, लड्डू-पेड़े का षडरस व्यञ्जन खिलाया, फिर फ़ुरसतन भंग ख़रीदी, डिठौना लगाके घोड़ा चढ़ाया, मृदङ-ढोलक की थाप पर ग़ज़ल सुनवाई, तथैव उसकी बुभुक्षा तृप्त हुई, प्यास बुझी, त्राण  पाया, जन्नत के दर्शन हुए; अंतत: बुड्ढे से ज्ञान मिला, धत्तेरे की,आया सुरूर गया!" >> >> शुक्रिया >> रविकान्त >> >> >> Vijender chauhan wrote: >>      >>> मजेदार पर मुझे इसमें 'श्र' नहीं मिला... find करके भी देख लिया। तो मित्र को श्रीमित्र कर दिया जाए ? विजेंद्र >>> 2011/2/22 Rajesh Ranjan > >>> >>>      पता नहीं कितना उपयुक्त होगा...पर मेरे एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर यह सुझाया... >>> >>>      लोकलाइजेशन के धुरंधरों क्या हम इसे ले सकते हैं... >>> >>>      "चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को चांदनी चौक पर चाँदी की चम्मच से आँवले और बैंगन >>>      की चटनी, खीर, गुड़, घी, भांग, छोले, जाम, झाल-मुढ़ी, टमाटर, पाव-भाजी आदि >>>      व्यंजन धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा फुरसत... से सोने की थाल से उठा उठा के हरी मिर्च के >>>      साथ चटाया, फिर शोले की धन्नो की घोड़ी पर, तबले की ताल पर, डंके की चोट >>>      पर, डमरू की डम डम पर, ढोलक की ढम ढम पर ठुमरी गवाया, अंततः, ऐ मित्र >>>      ज्ञान चक्षु खुले या मौका ए वारदात पर त्राहिमाम त्राहिमाम चिल्लाया।" >>> >>>      regards, >>>      -------------- >>>      Rajesh Ranjan       Kramashah >>> >>> >>> >>>      _______________________________________________ >>>      Deewan mailing list >>>      Deewan at sarai.net >>>      http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >>> ------------------------------------------------------------------------ >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>>        >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >>      > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >    _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Feb 28 14:00:39 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 28 Feb 2011 14:00:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSc4KSfIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpYAg4KSa4KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSf4KSI?= Message-ID: - पोस्ट न लिखने की स्थिति में बजट को लेकर चैनलों की कुछ टिप्पणियां- Vineet Kumar सिंचाई पर गंभीरता से बात करने के बजाय प्रवण दा ने कहा कि हम भगवान इन्द्र से प्रार्थना करें, मां लक्ष्णी की कृपा बनी रहेगी। ये बहुत ही शर्मनाक वक्तव्य है। क्या एक सेकुलर देश के वित्तमंत्री को ऐसे वक्तव्य संसद में जारी करना जायज है। जो हिन्दू नहीं है और उसमें आस्था नहीं है वो क्या करे,वो सिंचाई के बारे में कैसे सोचे? - - Vineet Kumar जी न्यूज पर जोरदार चुटकुला चल रहा है। सतीश के.सिंह ने कहा कि मैं सरकार का शुरु से विरोधी कर रहा हूं लेकिन जो बात वो शुरु से कर रहे हैं,ऐसा लग रहा है कि यूपीए सरकार ने किराये पर प्रवक्ता घोषित किया है। इनके सामने पुण्य प्रसून वाजपेयी सरोकार-सरोकार की धकलपेल चलाने की जुगत लगा रहे हैं।11 minutes ago · Like · - ** - ** Nikhil Srivastava likes this. - - Vineet Kumar कुछ हिन्दी चैनलों पर देख रहा हूं चैनल ने बजट पर गेस्टों को बोलने के लिए नहीं बल्कि अपने चैनल के दबंग मीडियाकर्मी की ओर से घुट्टी पिलाने के लिए बुलायी है। बजट और इकॉनमी की अधकचरी समझ के बीच वो बेवजह की अपनी घिसी-पिटी राजनीतिक समझ पेल रहे हैं।14 minutes ago · Like · - ** - - - - Vineet Kumar न्यूज चैनल के एंकर्स और संवाददाता जब आम आदमी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो लगता है कि वो कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं। अगर बजट में आम आदमी की चिंता नहीं है तो चैनल में आम आदमी की चिंता कहां शामिल है? हिन्दी के अधिकांश चैनल बेवजह झौं-झौं किए जा रहे हैं। प्रणव दा के अंग्रेजी भाषण के बीच उनके हिन्दी अनुवाद ने डिस्टर्बेंस पैदा किया।18 minutes ago · Like · - ** - ** Nikhil Srivastava , Vishal Tiwari and Bhawani Chandra like this. - - Vineet Kumar बजट पोस्टमार्टम. अभी बजट को पेश किए दो घंटे भी नहीं हुए कि इंडिया टीवी ने अपने शो का ये नाम दिया।22 minutes ago · Like · - RECENT ACTIVITY -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Feb 28 14:37:10 2011 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 28 Feb 2011 14:37:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueClgeCkjyDgpIXgpK7gpLAg4KSa4KS/4KSk4KWN4KSw4KSV4KSl?= =?utf-8?b?4KS+IOCktuCkv+CksuCljeCkquClgDog4KSF4KSo4KSC4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSI?= Message-ID: विदा हुए अमर चित्रकथा शिल्पी: अनंत पई भारतीय इतिहास के साथ-साथ पौराणिक कथाओं से बच्चों को कॉमिक्स के जरिए रूबरू कराने वाले अनंत पई नहीं रहे। उनके द्वारा ईजाद कॉमिक कैरेक्टर ‘कपिश’, ‘रामू और शामू’ आदि के कारनामें पढ़ते-पढ़ते कई पीढ़ियां जवान हुई हैं। ‘टिंकल’ पत्रिका के अनु क्लब के जरिए जानकारियां हासिल करना कभी बच्चों की आदत सी बन गई थी। कॉमिक बुक सीरीज ‘अमर चित्र कथा’ शुरू करने वाले अनंत पई ने कहानियों का आधार भारतीय महाकाव्यों, पौराणिक कथाओं के अलावा इतिहास की घटनाओं को बनाया। इसे शुरू करने की बात उनके मन में तब आई जब उन्होंने दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले एक क्विज कांटेस्ट में पाया कि प्रतिभागी ग्रीक इतिहास से संबंधित प्रश्नों का जवाब तो आसानी से दे देते हैं लेकिन भारत से संबंधित सहज सवालों का जवाब देने में उन्हें सांप सूंघ जाता है। यह 1967 की बात है और उस वक्त वे टाइम्स ऑफ इंडिया में काम करते थे। आखिरकार उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया। आखिरकार कॉमिक बुक सीरीज के लिए इंडिया बुक हाउस के जी.एल. मिरचंदानी के तौर पर उन्हें पार्टनर मिला। उन्होंने पई को बतौर लेखक, संपादक और मुद्रक पाठकों के सामने रखा। इनके द्वारा प्रकाशित कॉमिक्स ने न सिर्फ बच्चों बल्कि उनके शिक्षकों और माता-पिता को भी आकर्षित किया। करीब 440 से भी अधिक टाइटिल के जरिए इसकी 10 करोड़ कॉपियों की बिक्री हुई और लगातार बेस्ट सेलर बने रहने का कीर्तिमान स्थापित किया। 1969 में पई ने रंग रेखा फीर्चस की स्थापना की और 1980 के दशक में बच्चों की चाहत को देखते हुए ‘टिंकल’ नामक पत्रिका लांच की। इसके पहले अंक की 40 हजार से भी अधिक प्रतियां बिकी थीं। शुरुआती परेशानियों से जूझने के बावजूद एक साल के भीतर बच्चों के बीच यह अंग्रेजी पत्रिका सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। इसके काटरून कैरेक्टर सुप्पंडी, शिकारी शंभू और तंत्री द मंत्री बच्चों के पसंदीदा कैरेक्टर थे। ‘टिंकल’ के अनु क्लब का हिस्सा बच्चों को लेकर था और अंकल अनु के साथ मजेदार तरीके से विज्ञान के संबंधित बातें सिखाते थे। इस पत्रिका के लिए महीने में करीब 4-5 हजार पाठकों के पत्र आते थे। पई की सफलता उनके कहानी कहने के तरीकों को लेकर थी। इसमें उनका साथ दिया राम वेरकर जैसे कलाकारों ने, जिन्होंने कॉमिक को अनूठा लुक दिया। आखिरी समय तक पई नए आयडिया पर काम करते रहे। पिछले तीन साल से वे अपने पसंदीदा प्रोजेक्ट वर्क से जुड़े थे। ’ग्लिम्प्स ऑफ ग्लोरी‘ नामक भारी-भरकम इस किताब में ट्रेवलिंग एग्जीविशन को भी शामिल किया गया है जिसमें भारतीय इतिहास के 40 निर्धारक क्षणों को भी बखूबी पाठकों के सामने रखा गया है। 17 सितम्बर, 1929 को कर्नाटक के करकाला में जन्मे पई के माता-पिता के देहांत तभी हो गया था जब वे महज दो साल के थे। वह 12 साल की उम्र में मुंबई आ गए जहां उन्होंने माहिम स्थित ऑरियंट स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मुंबई यूनिवर्सिटी से केमेस्ट्री, फीजिक्स और कैमिकल टेक्नोलॉजी में उच्च अध्ययन किया। उन्हें उनके निधन से महज छह दिन पहले फस्र्ट इंडियन कॉमिक कन्वेंशनल नई दिल्ली में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया गया था। *विनीत उत्पल* -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-1, 2,3,4 Sector-11 NOIDA (UP) 09911364316 http://vinitutpal.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Feb 28 14:39:29 2011 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 28 Feb 2011 14:39:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueClgeCkjyDgpIXgpK7gpLAg4KSa4KS/4KSk4KWN4KSw4KSV4KSl?= =?utf-8?b?4KS+IOCktuCkv+CksuCljeCkquClgDog4KSF4KSo4KSC4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSI?= In-Reply-To: References: Message-ID: विदा हुए अमर चित्रकथा शिल्पी: अनंत पई भारतीय इतिहास के साथ-साथ पौराणिक कथाओं से बच्चों को कॉमिक्स के जरिए रूबरू कराने वाले अनंत पई नहीं रहे। उनके द्वारा ईजाद कॉमिक कैरेक्टर ‘कपिश’, ‘रामू और शामू’ आदि के कारनामें पढ़ते-पढ़ते कई पीढ़ियां जवान हुई हैं। ‘टिंकल’ पत्रिका के अनु क्लब के जरिए जानकारियां हासिल करना कभी बच्चों की आदत सी बन गई थी। कॉमिक बुक सीरीज ‘अमर चित्र कथा’ शुरू करने वाले अनंत पई ने कहानियों का आधार भारतीय महाकाव्यों, पौराणिक कथाओं के अलावा इतिहास की घटनाओं को बनाया। इसे शुरू करने की बात उनके मन में तब आई जब उन्होंने दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले एक क्विज कांटेस्ट में पाया कि प्रतिभागी ग्रीक इतिहास से संबंधित प्रश्नों का जवाब तो आसानी से दे देते हैं लेकिन भारत से संबंधित सहज सवालों का जवाब देने में उन्हें सांप सूंघ जाता है। यह 1967 की बात है और उस वक्त वे टाइम्स ऑफ इंडिया में काम करते थे। आखिरकार उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया। आखिरकार कॉमिक बुक सीरीज के लिए इंडिया बुक हाउस के जी.एल. मिरचंदानी के तौर पर उन्हें पार्टनर मिला। उन्होंने पई को बतौर लेखक, संपादक और मुद्रक पाठकों के सामने रखा। इनके द्वारा प्रकाशित कॉमिक्स ने न सिर्फ बच्चों बल्कि उनके शिक्षकों और माता-पिता को भी आकर्षित किया। करीब 440 से भी अधिक टाइटिल के जरिए इसकी 10 करोड़ कॉपियों की बिक्री हुई और लगातार बेस्ट सेलर बने रहने का कीर्तिमान स्थापित किया। 1969 में पई ने रंग रेखा फीर्चस की स्थापना की और 1980 के दशक में बच्चों की चाहत को देखते हुए ‘टिंकल’ नामक पत्रिका लांच की। इसके पहले अंक की 40 हजार से भी अधिक प्रतियां बिकी थीं। शुरुआती परेशानियों से जूझने के बावजूद एक साल के भीतर बच्चों के बीच यह अंग्रेजी पत्रिका सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। इसके काटरून कैरेक्टर सुप्पंडी, शिकारी शंभू और तंत्री द मंत्री बच्चों के पसंदीदा कैरेक्टर थे। ‘टिंकल’ के अनु क्लब का हिस्सा बच्चों को लेकर था और अंकल अनु के साथ मजेदार तरीके से विज्ञान के संबंधित बातें सिखाते थे। इस पत्रिका के लिए महीने में करीब 4-5 हजार पाठकों के पत्र आते थे। पई की सफलता उनके कहानी कहने के तरीकों को लेकर थी। इसमें उनका साथ दिया राम वेरकर जैसे कलाकारों ने, जिन्होंने कॉमिक को अनूठा लुक दिया। आखिरी समय तक पई नए आयडिया पर काम करते रहे। पिछले तीन साल से वे अपने पसंदीदा प्रोजेक्ट वर्क से जुड़े थे। ’ग्लिम्प्स ऑफ ग्लोरी‘ नामक भारी-भरकम इस किताब में ट्रेवलिंग एग्जीविशन को भी शामिल किया गया है जिसमें भारतीय इतिहास के 40 निर्धारक क्षणों को भी बखूबी पाठकों के सामने रखा गया है। 17 सितम्बर, 1929 को कर्नाटक के करकाला में जन्मे पई के माता-पिता के देहांत तभी हो गया था जब वे महज दो साल के थे। वह 12 साल की उम्र में मुंबई आ गए जहां उन्होंने माहिम स्थित ऑरियंट स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मुंबई यूनिवर्सिटी से केमेस्ट्री, फीजिक्स और कैमिकल टेक्नोलॉजी में उच्च अध्ययन किया। उन्हें उनके निधन से महज छह दिन पहले फस्र्ट इंडियन कॉमिक कन्वेंशनल नई दिल्ली में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया गया था। *विनीत उत्पल* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From karunakar at indlinux.org Wed Feb 9 03:04:26 2011 From: karunakar at indlinux.org (Guntupalli Karunakar) Date: Tue, 08 Feb 2011 21:34:26 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Indlinux-hindi] FUEL Computer Translation style and convention guide for Hindi (Beta) In-Reply-To: <845658.3780.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> References: <845658.3780.qm@web121703.mail.ne1.yahoo.com> Message-ID: <20110209030448.9a11e933.karunakar@indlinux.org> Hi Rajeshji, Commendable job. This should help lot of translators in doing correct Hindi translation. बहुत समय से इंतेजार था इसका :) Karunakar On Tue, 8 Feb 2011 00:05:52 -0800 (PST) Rajesh Ranjan wrote: > Hi, > > As wrote earlier, now we have "Computer Translation style and > convention guide for Hindi (Beta)" ready with us. > > You can download from here: > > https://fedorahosted.org/fuel/wiki/fuel-hindi#FUELComputerTranslationstyleandconventionguideforHindi > > > >From the very starting of localization of computer in Hindi > language, we have felt the need of one style and convention guide, > a guidelines which can be treated as a reference point for Hindi > language community working for the localization. I have tried to > collect and compile all the info and given all these information in > form of a guide named "Computer Translation style and convention > guide for Hindi." In this guide, several important aspect of > localisation have been discussed. Fonts, Collations, Plural Forms, > White spaces, Accelerators, Program Syntax, Functions, Tags, > Placeholders, Message Length, Numerals, Calender, Honorific Usages, > Acronyms, Product/Brand/Company Name, Keys Name, Abbreviations, > Legal Statements, Terminology, Punctuations, Units and > Measurements, General Spelling Guidelines, Anusvar and > Chandravindu, Use of Nukta, Cardinals & Ordinals, Indeclinable, > Hyphen, Glidal ie Shrutimulak 'ya' or 'wa', Basic Quality > Parameters etc. are some of the areas tried to be covered in this > guide. > > > This work has been uploaded at FUEL svn in both odt and pdf format. > In free content zone, we have very less resources like this. So > hopefully it will be very much useful for the broader Hindi > community. > > We > will appreciate any suggestions related to this guide. Please send > your remark on the mailing list itself. If you want to change in > odt file please send to me off list by enable keeping the > record/track change on. > > > -- > Regards, > Rajesh Ranjan > www.rajeshranjan.in > > > > > > -- ********************************** * कार्य: http://www.indlinux.org * * चिठ्ठा: http://cartoonsoft.com/blog * ********************************** From shashikanthindi at gmail.com Sun Feb 27 22:49:19 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 27 Feb 2011 22:49:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkpuCkvyDgpJc=?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSyIOCkueClgiDgpKrgpY3gpLLgpYfgpKEg4KS14KS/4KSm?= =?utf-8?b?IOCkq+CkvuCkr+CksC4uLiEhISIuLCDgpKvgpY3gpLDgpYfgpILgpJUg?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KWb4KWC4KSwIOCkleClgCAn4KSy4KSo4KWN4KSm4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSh4KS+4KSv4KSw4KWAJw==?= Message-ID: "आई एम अ पोर्न स्टार....!!! मैं स्टोकहोम, स्वीडन की बाशिंदा हूँ. 15 साल की उम्र से ही पेरिस और लन्दन की गलियों में गुलज़ार हूँ. क्या आपने* **'दि गर्ल हू प्लेड विद फ़ायर'* नॉवेल पढ़ा है? जो कहानी इस नॉवेल की हेरोइन लिसाबेथ (Lisbeth Salander ) की है, वही अफ़साना मेरा हैं. ये अफ़साना स्वीडन के फ्लैश मार्केट में चाइल्ड र्ट्रैफिकिंग का एक बेहतरीन नमूना हैं. मैं भी उसी बाज़ार से होते-होते गुजिस्ता दस सालों में अब मुरझाने सी लगी हूँ.":मिशेल. लन्दन के मशहूर पब 'हार्प' में वीक-एंड की एक रंगीन शाम मिशेल के साथ अनायास हुई अपनी मुलाक़ात की फ़ीचर-रपट पेश कर रहे हैं फ्रेंक हुज़ूर अपनी 'लन्दन डायरी' में. - शशिकांत "दि गर्ल हू प्लेड विद फायर...!!!" *"अब के गर तू मिले तो हम तुझसे ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ" *अहमद फ़राज़ की यह ग़ज़ल दिल-ओ-दिमाग़ पर रह-रह के हमला करती है, जब भी मेरी नज़र लन्दन के हर गलियों में गुलज़ार पब में मदहोश पब्लिक पर पड़ती हैं. यूँ तो शुक्रवार और शनिवार की हर वो शाम लन्दन के करीब 2000 पबों के लिए महफ़िल सा शमा लाती हैं, जहां वीकेंड की धूम भरी महफ़िल हर दिल को जवाँ कर देती हैं. क्या जवाँ दिल और क्या बुजुर्ग, सभी की मस्त निगाहों में मोहब्बत और खुलूश का नशा गुलज़ार हो उठता हैं. सेंट्रल लन्दन के चार्रिंग क्रॉस से थोड़ी ही दूर है लन्दन का मशहूर पब- 'हार्प.' पूरे ब्रिटेन के करीब ५२,000 पबों में इसे सबसे हरदिल अज़ीज़ पब का दर्ज़ा हासिल है. मिशेल से मेरी मुलाक़ात 'हार्प' में उस वक़्त हुई जब उसने बड़े एहतराम से मुझसे बियर की एक पैग लेने की गुज़ारिश कर डाली. थोड़ी देर के लिए तो मेरे होश उड़ गए, मगर जल्दी ही मैंने खुद को संभाला और मिशेल की मुस्कान के नाम मैंने बार टेंडर को एक लार्ज गिनिस बियर के ग्लास के लिए इशारा कर दिया. पब के जोशीले माहौल में लडकियां यहाँ ऐसा खूब करती हैं. खासकर जब वो देखती हैं कि कोई लड़का बिना किसी गर्लफ्रेंड के ग़मज़दा सा चमन का दीदार का भूखा है तो 'कैन यू बाई मी अ ड्रिंक?' कहती हुई करीब आ जाती हैं. मिशेल ने भी मुझसे यही कहा. ज़्यादा उम्रदराज भी नहीं.सुर्ख होठों पर गज़ब सा नशा. बॉब कट बाल उसके कानों को जैसे सहला रहे हैं. सफ़ेद रंग के पुल्लोवर के ऊपर उसने काले कलर का ओवेरकोट पहन रखा है. हाईट कोई पांच फुट पांच इंच. मेरी नज़र चेहरे पर से फिसलती हुई मिशेल की टांगों पर पड़ी. उसके गोरे जिस्म पर काले रंग का लिबास* * देख *असद बदायूंनी* का वो शेर याद आ गया- *"ज़मीन से खला की तरफ़ जाउंगा, वहां से खुदा की **तरफ़ जाउंगा. बुखारा-ओ-बग़दाद-ओ-बसरा के बाद, किसी कर्बला की तरफ़ जाउंगा. चमन से बुलावा बहोत है मगर मैं दस्त-ए-बला की तरफ़ * * जाउंगा."* मिशेल में मेरी दिलचस्पी धीरे-धीरे गहरी होने लगी. वक़्त का खज़ाना मेरे पास भी पूरा है और मिसेल भी खूब फ़ारिग है आज की शाम. हार्प पब चारो तरफ शराबियों के शोर से सराबोर. बैठने के लिए न बेंच पर कोई किनारा दिख रहा है न कोई स्टूल. खड़े-खड़े हम दोनों ने दीवार के सहारे फायरप्लेस पर अपने ग्लास को रेज़ किया और गुफ्तगू का आगाज़ हुआ. थोड़ी देर के लिए मुझे गफ़लत भी हुईं कि लन्दन की ये लड़की अपना बियर ख़त्म करते ही रफ़ू चक्कर हो लेगी और मुझे किसी और नाज़नीन के लिए ड्रिंक खरीदना न पड़ जाए. बहरहाल, मैंने मिशेल से जानना चाहा कि उसका पेशा क्या हैं. जब तक मिशेल आगे कुछ कहती, उसने अपने कोट के अन्दर से एक नोवेल निकला. मेरी नज़र नावेल के टाईटल पर पड़ी जिस पर लाल रंग में खुदा हुआ था- *'दि गर्ल हू प्लेड विद फायर.'* रायटर का नाम *स्टिग लारस्सन.(** Stieg Larsson )** *नॉवेल और उसकी टाइटल मेरी नज़रों में गड़ती जा रही थी, तभी मिशेल ने एक बम-सा गिराया मेरे कानों के पर्दों पर- *'आई एम अ पोर्न स्टार.'* जैसे ही ये लफ्ज़ मैंने सूना थोड़े वक़्त के लिए बस मेरी निगाहें मिसेल की आँखों में सैर करने लगी और ऐसा लगा जैसे उसकी आँखों में एक गहरी सुरंगनुमा खाई है और उसका कोई आखिरी मोड़ मुझे नज़र नहीं आ रहा हैं. सोहो (लन्दन का रेडलाइट एरिया) की सरपट गलियों के बहुत क़रीब होकर भी मैंने किसी सेक्स वर्कर से मिलने की उम्मीद ज़रूर लगाई थी, मगर किसी पोर्न स्टार से मेरी मुलाक़ात 'हार्प' पब में यूँ होगी, जिसके हाथों में एक नोवेल होगा, मैंने तसव्वुर भी नहीं किया था. ज़िन्दगी शायद ऐसे ही लम्हों का एक नोवेल हैं. मिशेल ने 'पोर्न स्टार' लफ्ज़ का इजहार बेहद संजीदगी से किया और उसके चहरे पर किसी भी क़िस्म का शिकन मैंने नहीं देखा. बिल्कुल बिंदास और अपने होशो-हवाश में वो गुफ़्तगू कर रही थी. उसने गिनिस का एक सिप लेते हुए मुझसे पूछा कि मैं क्या करता हूँ. मैंने कहा, *'मैं शब्दों के साथ थोड़ी सी अवाराखानी करता हूँ. आजकल एक मशहूर प्लेबॉय, जो मज़हब का सहारा लेकर अपने मुल्क के लोगो को जन्नत का ख्वाब बेचता है, उसकी ज़िन्दगी का अफ़साना लिख कर कुछ और करने की कोशिश कर रहा हूँ.' * यह सुनकर मिशेल की सुर्ख होठों पर मुस्कराहट फ़ैल गई. *'फोरगेट मी, **मिशेल**. आई वांट टू नो यू,'* मैंने कहा. *"**मैं स्टोकहोम,स्वीडन की बाशिंदा हूँ. मगर 15 साल की उम्र से ही पेरिस और लन्दन की गलियों में गुलज़ार हूँ. क्या आपने इस नॉवेल को पढ़ा है?" *पूछते हुए * *मिशेल ने *'दि गर्ल हू प्लेड विद फायर'* को मेरे आँखों के सामने हिलाया. मैंने लार्सान के इस नॉवेल के मुताल्लिक़ सुना भी नहीं था. मिशेल कहती है, *"जो कहानी इस नोवेल के हेरोइन लिसाबेथ (**Lisbeth Salander **) की है, वही अफ़साना मेरा हैं. ये अफ़साना स्वीडन के फ्लैश मार्केट में चाइल्ड र्ट्रैफिकिंग का एक बेहतरीन नमूना हैं. मैं भी उसी बाज़ार से होते-होते गुजिस्ता दस सालों में अब मुरझाने सी लगी हूँ."* मिशेल के बात करने का अंदाज़ मुझे मदहोश करने लगा था. मैं उसकीं अंग्रेजी के धीमे एक्सेंट को एन्जॉय कर रहा था जिसमें क्लियरिटी थी. वो आगे कहती है, ***"**पोर्न इंडस्ट्री में जब एक कमसिन हसीना 15 साल की होती हैं तब उसका रुतबा मर्लिन मुनरो जैसा होता हैं. जब वो पचीस साल की हो जाती हैं तो उसे बेकार और बूढी समझा जाने लगता हैं. मैं भी पचीस साल की हूँ और अब मुझमे वो नशा नहीं पाया जाता, जब मैं लोलिता की तरह आई थी."* *'आखिर उसे यह सफ़र कितना मज़ेदार लगा?' *मेरे इस सवाल ने मिशेल को जैसे पुराने दिनों की गलियों में धकेल सा दिया. थोड़े वक़्त के अंतराल के बाद वो थोड़ी मेरी तरफ झुकी और मेरी आँखों में घूरते हुए कहा, *"जब मैं लोलिता वाली उम्र में थी, मुझे अपने बॉयफ्रेंड के साथ ओउटडोर सेक्स करना बेहद रोचक लगता था. हम वीकेंड पर कार लेकर सडकों पर खूब मस्ती करते. सुनसान सड़कों को देखते ही कपडे खोल कर फेंक देते और एक दूसरे में समां जाते...* *'मेरे स्कूल के साथी आंद्रे के पापा पोर्न इंडस्ट्री के टॉप शॉट थे. एक दिन उन्होंने हम दोनों को गार्डेन में सेक्स करते देख लिया. फिर क्या था. उन्हें मेरा अंदाज़ इतना नशीला लगा कि उन्होंने मेरे लिए बहुत सारे लेंट चोकोलाते का बंडल ला दिया. लेंट चोकोलाते की खुशबू मेरी कमजोरी थी. आंद्रे के साथ के मेरे सेक्स रोम्प को कैमरा में क़ैद करने के बाद स्वीडन के पोर्न इंडस्ट्री में उसकी खूब कीमत लगी और देखते-देखते मैं काफी पैसा बनाने लगी... * *'मैंने अपने मम्मी पापा को ये कहा कि मैं पेरिस जा रही हूँ और फिर लन्दन स्टडी के लिए. और वो मान गए. सबसे ज़्यादा मज़ा मुझे पेरिस की ओर्गिस में आता था. हर बार नए-नए लड़कों के जिस्म से खेलना मेरा शौक़ बन गया था. और फिर पैसे भी खूब मिलते थे. मगर जैसे-जैसे मेरी उम्र बीस के ऊपर जाने लगी पोर्न बाज़ार में मेरी कीमत कम होने लगी. अंग्रेजों के मुकाबले फ्रेंच ज़्यादा मज़ेदार हैं मस्ती के इस खेल में.'* मिशेल की बातों का मेरे दिमाग़ पर गहरा असर होता जा रहा था. उससे मैंने सवाल किया, "*तुमने मुझे ही क्यों ड्रिंक के लिए चुना, जबकि यहाँ 'हार्प' में इतने गोरे मजमा लगाए हुए हैं?"* मिशेल कहती है, *"मुझे अपनी जैसी चमड़ी वालों पर ड्रिंक खरीदने का उतना एतबार नहीं रहा जितना की तुम्हारे जैसे एशियन पर. तुम एशियन, ब्लैक बालों वाले ज़्यादा ज़ेनेरस होते हों और लड़कियों के मामले में बेहद संगीन. मैं अब खुद ड्रिंक कभी नहीं खरीदती. कोई भी पोर्न स्टार अपने वाल्लेट से ड्रिंक नहीं लेता. उसे आदत हो चली होती हैं मनचले लड़कों से हर चीज़ लेने की, उसमे ड्रिंक भी ज़रूरी चीज़ हैं." * मिशेल ने यह कहकर मुझे थोड़ा हैरत में डाल दिया कि गोरे लड़के एक पेनी भी किसी लड़की पर उडाना पसंद नहीं करते जब तक कि कोई महबूब साथ न हों. मिशेल ब्रिटिश लड़कियों को उतनी एरोटिक नहीं मानती जितनी वो अपने मुल्क स्वीडन या फ्रांस की हसीनाओं को मानती है. लन्दन पब के इस खूबसूरत हाट में गोरी, काली और पीली लड़कियों की एक से एक दिलचस्प अफसाने हैं. लोगबाग यहाँ हर साल करीब 18 अरब पौंड का शराब और बीयर पी जाते हैं और क्लबिंग और गम्बलिंग में भी अरबों पौंड का जुआ खेलते हैं. लड़कियां हमसफ़र होती हैं और हर लम्हे में नशा घोल रही होती हैं. मिशेल की कहानी मेरे लिए अजूबा नहीं थी, मगर ये हादसा ज़रूर कुछ सबक सिखा गया. चलते चलते जब मिशेल को मैंने कहा की मेरा वतन हिंदुस्तान है तो वो खिलखिला के हँस पड़ी और बोली, "*वाउ, हिंडुस्टान... दि लैंड ऑफ़ कामसूट्रा. यू गाइज़ वाच अ लॉट ऑफ़ पोर्न. आय नो. हाउ मेनी ऑफ़ यू आर ओवर अ बिलियन."* लन्दन और आसपास के शहरों के पब को देखकर एक एहसास यह होता हैं कि वाइन, व्हिस्की, बिअर और सिदर के अलावा हर पब का अपना ख़ास साइन बोर्ड हैं. ये साइन बोर्ड ब्रिटेन पब संस्कृति के हेरिटेज को बखूबी दर्शातें हैं. हेनरी ८ ने जब तक कैथोलिक चुर्च से बगावत नहीं की थी तब पब के साइन बोर्ड मजहबी सिम्बल ज्यादा होते थे मगर उसके बाद 'किंग'स हेड', 'कुईं'स हेड', 'शकेस्पारे', 'कूपर आर्म्स', 'टोबी कार्वेरी', 'रोज़ गार्डेन' और जितने भी रोमांटिक हो सकते हैं, होने लगे. कुछ पब के नाम 'दि क्रिकेटर', 'स्मगलर हंट' और 'हाइवे मैन' भी है. मिशेल है तो स्वीडन की मगर उसने मुझे ब्रिटेन के मर्दों और लड़कियों की अजीब सी दास्ताँ से रूबरू कराया. (फ्रेंक हुज़ूर लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं. लन्दन में रह रहे हैं. सुप्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान पर लिखी उनकी किताब "इमरान वर्सेस इमरान : द अनटोल्ड स्टोरी" जल्दी ही प्रकाशित होनेवाली है. उनके साथ frankhuzur at gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: