From girindranath at gmail.com Tue Aug 2 11:59:30 2011 From: girindranath at gmail.com (=?US-ASCII?B?Pz8/Pz8/Pz8=?=) Date: Mon, 1 Aug 2011 23:29:30 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWB4KSt?= =?utf-8?b?4KS1IDog4KSf4KWL4KSy4KS+LCDgpK7gpYvgpLngpLLgpY3gpLLgpL4g4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkq+Clh+CkuOCkrOClgeCklQ==?= Message-ID: <1312266570516.14443ae3-cbf1-486d-aae6-9ba7d8a298c1@google.com> गिरीन्दु has sent you a link to a blog: null Blog: अनुभव Post: टोला, मोहल्ला और फेसबुक Link: http://anubhaw.blogspot.com/2011/08/blog-post.html -- Powered by Blogger http://www.blogger.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Aug 2 12:10:48 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 2 Aug 2011 12:10:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkueCkguCkuCDgpJXgpYcgMjUg4KS44KS+4KSy?= Message-ID: *जवान हंस का **पनछोट** जन्मदिन*** * * “ये अजय नावरिया कौन है?” फोन कर एक पत्रकार मित्र पूछ रहे थे। मैंने कहा, “साहित्यकार कहलाते हैं। हंस से जुड़े हैं।” इसपर उन्होंने तपाक से कहा, “ओह, बहुत खखोरता है, जौंक की तरह माइक से चिपक गया था।” इस बातचीत के बाद तत्काल “एक दुनिया समानांतर” कहानी संग्रह की याद आई। अरसा पहले इस संग्रह का संपादन स्वयं राजेंद्र यादव ने किया है, जिसकी पहली कहानी ही ‘जिंदगी और जौंक’ है। तो क्या अमरकांत का वह पात्र भिन्न परिस्थितियों में अब ‘हंस’ की गोष्ठियों में जीवित हो गया है ? यह फैसला तो वे लोग ही बेहतर कर पाएंगे जो गोष्ठियों के कायदे-वायदे को ज्यादा समझते हैं। और फर्क तब पड़ेगा जब इसपर विचार स्वयं राजेंद्र यादव करेंगे। हमें तो दो साल पहले हंस की ऐसी ही एक संगोष्ठी का संचालन करते संजीव कुमार याद आ रहे हैं। उस संचालन का भी अपना अंदाज था। बेहतरीन। बहरहाल, हंस ने अपने 25 साल पूरे करने पर गंभीर गोष्ठी की कल्पना की थी। भूमिका तो राजेंद्र यादव ने ऐसी ही बांधी थी। हंस पत्रिका ने “साहित्यिक पत्रकारिता और हंस” विषय पर बोलने के लिए प्रो. नामवर सिंह से कहा था। वे आए। बोले भी। पर उक्त विषय पर कोई बात नहीं की। कुछ चुटकियां लीं। नामवरी अंदाज में हकदार राजेंद्र यादव की तारीफ की। फिर गोष्ठी समाप्त। हंसी में जो गंभीर बात उन्होंने कही, उसका कोई ताल्लुक साहित्यिक पत्रकारिता से नहीं था। उसका संबंध साहित्यकारों की नई पीढ़ी को गुरु-मंत्र देने से था। कहा कि अब भी राजेंद्र यादव के पास जाव, “*कहानी छपवाने के लिए नहीं।** **कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।**” **उन्होंने यह आरोप लगाया कि ऐसा लग रहा है कि हंस के 25 वर्ष पूरे नहीं हुए, बल्कि राजेंद्र 82 के हुए हैं। उनके कहने का अर्थ यह था कि गोष्ठी हंस की हो रही है पर राजेंद्र ही छाए हैं। दुख तब हुए जब स्वयं नामवर सिंह इससे आगे नहीं आए। ऐसा न था कि वे नहीं आ सकते थे। यकीनन, खूब बेहतर ढंग साहित्यिक पत्रकारिता के बाबत हम उनसे समझ-सुन सकते थे। पर, क्या है कि तलब भी कोई चीज होती है। समय हो जाए तो वह किसी की सुनती नहीं।*** * * कुल मिलाकर एक मित्र ने ठीक लिखा है, “हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, यह देख-सुनकर भारी निराशा हुई।” -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From himanshuko at gmail.com Tue Aug 2 13:10:44 2011 From: himanshuko at gmail.com (himanshu pandya) Date: Tue, 2 Aug 2011 13:10:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkueCkguCkuCDgpJXgpYcgMjUg4KS44KS+4KSy?= In-Reply-To: References: Message-ID: आदरणीय ब्रजेश जी , हंस की गोष्ठी के बारे में आपकी राय पर मुझे कुछ नहीं कहना , वह ठीक ही होगी . आपका प्रत्यक्ष अनुभव है . किन्तु मुझे 'जिंदगी और जोंक' के रजुआ से तुलना खल गयी . वह पात्र मेरी दृष्टि में अदम्य जिजीविषा का प्रतीक और हिन्दी कहानी का एक अविस्मरणीय चरित्र है . क्या आपको वह उपहास योग्य लगता है ? सादर हिमांशु पंड्या 2011/8/2 brajesh kumar jha > *जवान हंस का **पनछोट** जन्मदिन*** > > * > * > > “ये अजय नावरिया कौन है?” फोन कर एक पत्रकार मित्र पूछ रहे थे। मैंने कहा, “साहित्यकार > कहलाते हैं। हंस से जुड़े हैं।” इसपर उन्होंने तपाक से कहा, “ओह, बहुत खखोरता > है, जौंक की तरह माइक से चिपक गया था।” इस बातचीत के बाद तत्काल “एक दुनिया > समानांतर” कहानी संग्रह की याद आई। अरसा पहले इस संग्रह का संपादन स्वयं > राजेंद्र यादव ने किया है, जिसकी पहली कहानी ही ‘जिंदगी और जौंक’ है। तो क्या > अमरकांत का वह पात्र भिन्न परिस्थितियों में अब ‘हंस’ की गोष्ठियों में जीवित > हो गया है ? यह फैसला तो वे लोग ही बेहतर कर पाएंगे जो गोष्ठियों के > कायदे-वायदे को ज्यादा समझते हैं। और फर्क तब पड़ेगा जब इसपर विचार स्वयं > राजेंद्र यादव करेंगे। हमें तो दो साल पहले हंस की ऐसी ही एक संगोष्ठी का > संचालन करते संजीव कुमार याद आ रहे हैं। उस संचालन का भी अपना अंदाज था। > बेहतरीन। > > > > बहरहाल, हंस ने अपने 25 साल पूरे करने पर गंभीर गोष्ठी की कल्पना की थी। > भूमिका तो राजेंद्र यादव ने ऐसी ही बांधी थी। हंस पत्रिका ने “साहित्यिक > पत्रकारिता और हंस” विषय पर बोलने के लिए प्रो. नामवर सिंह से कहा था। वे आए। > बोले भी। पर उक्त विषय पर कोई बात नहीं की। कुछ चुटकियां लीं। नामवरी अंदाज > में हकदार राजेंद्र यादव की तारीफ की। फिर गोष्ठी समाप्त। हंसी में जो गंभीर > बात उन्होंने कही, उसका कोई ताल्लुक साहित्यिक पत्रकारिता से नहीं था। उसका > संबंध साहित्यकारों की नई पीढ़ी को गुरु-मंत्र देने से था। कहा कि अब भी > राजेंद्र यादव के पास जाव, “*कहानी छपवाने के लिए नहीं।** **कहानी लिखने की > कला सीखने के लिए।**” **उन्होंने यह आरोप लगाया कि ऐसा लग रहा है कि हंस के > 25 वर्ष पूरे नहीं हुए, बल्कि राजेंद्र 82 के हुए हैं। उनके कहने का अर्थ यह था > कि गोष्ठी हंस की हो रही है पर राजेंद्र ही छाए हैं। दुख तब हुए जब स्वयं नामवर > सिंह इससे आगे नहीं आए। ऐसा न था कि वे नहीं आ सकते थे। यकीनन, खूब बेहतर ढंग > साहित्यिक पत्रकारिता के बाबत हम उनसे समझ-सुन सकते थे। पर, क्या है कि तलब भी > कोई चीज होती है। समय हो जाए तो वह किसी की सुनती नहीं।*** > > * > * > > > > कुल मिलाकर एक मित्र ने ठीक लिखा है, “हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास > को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, यह देख-सुनकर भारी निराशा > हुई।” > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Aug 2 14:14:16 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 2 Aug 2011 14:14:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkueCkguCkuCDgpJXgpYcgMjUg4KS44KS+4KSy?= In-Reply-To: References: Message-ID: हिमांशुजी यकीनन, वह अदम्य जिजीविषा का प्रतीक है। पर, क्या है कि यहां हम रजुआ के चरित्र के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या नहीं कर रहे। बस, इतना भर कह रहे हैं कि कई दफा यह समझा कठिन है कि वह जिंदगी से जौंक की तरह चिपका है, या फिर जिंदगी उससे जौंक की तरह चिपकी है। लेखक स्वयं यह नहीं समझ पाता। सभागार में यही अनुभव हो रहा था। बहुतेरों को हो रहा था। उसमें स्वयं राजेंद्र यादव भी थे। 2011/8/2 himanshu pandya > आदरणीय ब्रजेश जी , > हंस की गोष्ठी के बारे में आपकी राय पर मुझे कुछ नहीं कहना , वह ठीक ही होगी . > आपका प्रत्यक्ष अनुभव है . किन्तु मुझे 'जिंदगी और जोंक' के रजुआ से तुलना खल > गयी . वह पात्र मेरी दृष्टि में अदम्य जिजीविषा का प्रतीक और हिन्दी कहानी का > एक अविस्मरणीय चरित्र है . क्या आपको वह उपहास योग्य लगता है ? > सादर > हिमांशु पंड्या > > > > > 2011/8/2 brajesh kumar jha > >> *जवान हंस का **पनछोट** जन्मदिन*** >> >> * >> * >> >> “ये अजय नावरिया कौन है?” फोन कर एक पत्रकार मित्र पूछ रहे थे। मैंने कहा, “साहित्यकार >> कहलाते हैं। हंस से जुड़े हैं।” इसपर उन्होंने तपाक से कहा, “ओह, बहुत >> खखोरता है, जौंक की तरह माइक से चिपक गया था।” इस बातचीत के बाद तत्काल “एक >> दुनिया समानांतर” कहानी संग्रह की याद आई। अरसा पहले इस संग्रह का संपादन >> स्वयं राजेंद्र यादव ने किया है, जिसकी पहली कहानी ही ‘जिंदगी और जौंक’ है। >> तो क्या अमरकांत का वह पात्र भिन्न परिस्थितियों में अब ‘हंस’ की गोष्ठियों >> में जीवित हो गया है ? यह फैसला तो वे लोग ही बेहतर कर पाएंगे जो गोष्ठियों >> के कायदे-वायदे को ज्यादा समझते हैं। और फर्क तब पड़ेगा जब इसपर विचार स्वयं >> राजेंद्र यादव करेंगे। हमें तो दो साल पहले हंस की ऐसी ही एक संगोष्ठी का >> संचालन करते संजीव कुमार याद आ रहे हैं। उस संचालन का भी अपना अंदाज था। >> बेहतरीन। >> >> >> >> बहरहाल, हंस ने अपने 25 साल पूरे करने पर गंभीर गोष्ठी की कल्पना की थी। >> भूमिका तो राजेंद्र यादव ने ऐसी ही बांधी थी। हंस पत्रिका ने “साहित्यिक >> पत्रकारिता और हंस” विषय पर बोलने के लिए प्रो. नामवर सिंह से कहा था। वे >> आए। बोले भी। पर उक्त विषय पर कोई बात नहीं की। कुछ चुटकियां लीं। नामवरी >> अंदाज में हकदार राजेंद्र यादव की तारीफ की। फिर गोष्ठी समाप्त। हंसी में जो >> गंभीर बात उन्होंने कही, उसका कोई ताल्लुक साहित्यिक पत्रकारिता से नहीं था। >> उसका संबंध साहित्यकारों की नई पीढ़ी को गुरु-मंत्र देने से था। कहा कि अब >> भी राजेंद्र यादव के पास जाव, “*कहानी छपवाने के लिए नहीं।** **कहानी लिखने >> की कला सीखने के लिए।**” **उन्होंने यह आरोप लगाया कि ऐसा लग रहा है कि हंस >> के 25 वर्ष पूरे नहीं हुए, बल्कि राजेंद्र 82 के हुए हैं। उनके कहने का अर्थ यह >> था कि गोष्ठी हंस की हो रही है पर राजेंद्र ही छाए हैं। दुख तब हुए जब स्वयं >> नामवर सिंह इससे आगे नहीं आए। ऐसा न था कि वे नहीं आ सकते थे। यकीनन, खूब बेहतर >> ढंग साहित्यिक पत्रकारिता के बाबत हम उनसे समझ-सुन सकते थे। पर, क्या है कि तलब >> भी कोई चीज होती है। समय हो जाए तो वह किसी की सुनती नहीं।*** >> >> * >> * >> >> >> >> कुल मिलाकर एक मित्र ने ठीक लिखा है, “हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास >> को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, यह देख-सुनकर भारी >> निराशा हुई।” >> >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Aug 2 17:00:05 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 2 Aug 2011 17:00:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWB4KS14KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCkvuCkpeCli+CkgiDgpK7gpYfgpIIg4KSG4KSv4KWHIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWL4KSy4KSoIOCkleClgCDgpJXgpK7gpL7gpKg=?= Message-ID: *आज के दौर के आंदोलनों की बात करें तो एक उदाहरण से शुरू करते हैं- बहुत साल पहले राजेन्द्र उपाध्याय बिहार से गुवाहाटी आए थे.* और यहां आने के बाद वे असम के ही होकर रह गए. यहां वे सेवा भाव से आए थे और आजीवन यहां की जनता की सेवा करते रहे. असम को उन्होंने दिल से प्यार किया और स्वयं भी यहां के लोगों का दिल से प्यार पाया. वे गांधीमार्गी थे. पिछले साल उनका निधन हो गया. उपाध्यायजी ने बिहार से आकर पूर्वोत्तर के लोगों के बीच जो निस्वार्थ सेवा का दायित्व निभाया, उसके संबंध में जितना भी कहा जाए कम है. उन्होंने अपना पूरा जीवन असम की सेवा में लगाया और सच्चे अर्थों में आजीवन गांधी का रास्ता अपनाया. आज समाज की स्थितियां बदल रहीं हैं. कुछेक अपवादों को छोड़कर ऐसे-ऐसे लोग गांधी का नाम लेकर खड़े हो रहे हैं जिनका अहिंसा में कोई विश्वास नहीं है. अहिंसा से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है. वे लोग तमाम तरह के दुराचार में संलिप्त हैं, लेकिन खुद को गांधी के रास्ते पर चलने का दावा करते फिरते हैं. उन पर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, लेकिन वे गांधी की तस्वीर अपने दफ्तर में सजाते दिखते हैं. गांधी जी की तस्वीर सजाने से क्या होगा जाएगा? अच्छा है कि हम उनकी शिक्षाएं अपने आचरण में उतारें. उनकी जीवनशैली को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करें. न कि तमाम तरह के गलत कामों में संलिप्त रहें और अपना चेहरा छुपाने के लिए गांधी का सहारा लें. गांधी मजबूरी का नहीं, साहस का नाम है. जिन लोगों के हृदय में प्रेम सद्भाव नहीं है, गांधी का नाम वे सिर्फ अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं. वे कभी गांधी के रास्ते पर चलने वाले लोग हो ही नहीं सकते. गांधी ने यह कभी नहीं कहा कि उनके रास्ते पर चलिए लेकिन वे चाहते थे कि पूरा मानव समाज अहिंसा को अपने जीवन मूल्य के रूप में अपनाए. इसे साध लेना कठिन भी नहीं है. गांधी का रास्ता आप अपनाना चाहते हैं तो आपको अपने मन को स्थिर करना सीखना होगा. चंचल मन कैसे गांधी के रास्ते पर चल पाएगा? उस रास्ते पर चलने के लिए तो यम, नियम और संयम- तीनों का संधान करना होगा. इन्हीं से अहिंसा भी सधती है. लेकिन कई लोग हैं जो खुद को गांधी का प्रशंसक साबित करने के लिए अहिंसा ओढ़ते हैं और वहीं लोग भष्टाचार में संलिप्त भी होते हैं. हमारा देश युवाओं का देश है अत: यदि हमें देश का भविष्य खुशहाल देखना है तो युवाओं पर विश्वास करना सीखना होगा. उन्हें आगे लाना होगा. मेरी राय में आज के तमाम आंदोलनों का नेतृत्व युवा पीढ़ी के हाथ में सौंप देना चाहिए. हां, बड़े बुजुर्ग उसमें मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन नेतृत्व की बागडोर युवा हाथों में ही रहने दी जाए. युवाओं को भी अपनी जिम्मेवारी का अहसास होना चाहिए. क्योंकि भविष्य उन्हीं के कंधों पर है. आज यदि बुर्जुग कहते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म करो तो उसका प्रभाव कम होगा क्योंकि युवावर्ग की यही प्रतिक्रिया होगी कि इन्हें तो जितना जीना था, जी लिए. इनके पेट तो भरे हुए हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव पर हमें भ्रष्टाचार से मुक्त रहने की सीख दे रहे हैं. यदि यही नेतृत्व किसी युवा के हाथ में हो और वह ऐसी बात करे तो देश का युवा वर्ग अपना प्रतिनिधित्व देखकर खुद ब खुद उस आंदोलन से आकर जुड़ जाएगा. गुवाहाटी में ही कई लोग हैं जिन्होंने नौकरी में रहते हुए और नौकरी से बाहर आने के बाद भी हमेशा अपने स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई है. प्रोफेसर अनुराधा दत्ता, देव प्रसाद बरुआ, हरिकृष्ण डेका, निशिशंख कोठी जैसे आदर्श गुवाहाटी समाज के पास हैं. http://180.179.50.67/article-analysis-in-hindi/122011/movement-youth-india.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Aug 3 14:43:32 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 3 Aug 2011 14:43:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCksOCljeCkleCljeCkuCDgpJXgpL4g4KSF4KSr4KWA4KSu?= Message-ID: एक मित्र की फेसबुक बुक वॉल पर एक कमेन्ट था जिसका लब्बो लुआब यह कि राम-राम, सलाम वालेकुम, सत श्री अकाल जैसे संबोधन करने वाले साथी उनके फेसबुक की फ्रेन्ड लिस्ट से बाहर चले जाएं। वे लोग भी बाहर चले जाएं जिन्होंने अपनी तस्वीर की जगह किसी चर्च, मन्दिर या गुरुद्वारे की तस्वीर लगा रखी है। चूंकि इस नास्तिक फेसबुकधारी मित्र की नजर में ऐसे सभी लोग ‘धार्मिक’ किस्म के लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उसकी यह अपनी वर्जनाएं हैं। धर्म हमारे जीवन में होना चाहिए नाकि पट्टे की तरह गले में लटकना चाहिए। नास्तिक होना भी धर्म से बाहर नहीं है, जैसे गुटनिरपेक्ष लोगों का भी अपना एक गुट होता है। धर्म अपने आप में कोई समस्या नहंीं है, ना मुल्क के लिए ना व्यक्ति के लिए। समस्या उस वक्त आती है, जब हम इसे मूंछ की बात बना लेते हैं या फिर ठेंगे पर रखने की बात करते हैं। जब इस तरह धर्म इस्तेमाल होता है, कुछ दृश्य उसी तरह का होता है, जैसे आपने बच्चे के जन्मदिन पर घर गुब्बारों की जगह कंडोम के गुब्बारो से सजा रखा हो। घर तो आपका सज जाएगा, हो सकता शहर के अखबारों में आपके इस रचनात्मक काम की प्रशंसा भी हो लेकिन इस बात से हम सभी सहमत होंगे कि कंडोम इस काम के लिए नहीं है। यह हमें सोचना चाहिए कि बाबा मार्क्स ने धर्म को अफीम क्यों कहा? वे भांग गांजा शैम्पेन कुछ और भी तो कह सकते थे। जबकि उन्होंने अपने जीवन में ना धर्म चखा, ना अफीम चखी। अफीमचियों की कहानी आपने सुनी होगी लेकिन यह भी सच है कि हर अफीम खाने वाला व्यक्ति अफीमची नहीं होता। जोधपुर की शादियों में अफीम का वही महत्व है, जो हरियाणा की शादी में हुक्के का। जब बाबा मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा, इसका मतलब दोनों पर्यायवाची हो गए। अब धर्म को समझने का काम पंडित और शंकराचार्य करें, अफीम को समझना धर्म के वनिस्पत थोड़ा आसान जान पड़ता है। इसलिए मंदसौर और नीमच की यात्रा की। ये दोनों जिले मध्य प्रदेश की अफीम पट्टी के नाम से जाने जाते हैं। वहां की जेल में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिनका अफीम से कुछ खास लेना देना नहीं था और अफीम की सजा जेल में काट रहे हैं। किसी ने दुश्मनी मंे इनकी मोटर साइकिल की डिक्की मंे या फिर इनके झोले में अफीम डाल दी और पुलिस को फोन कर दिया कि अमुक आदमी अफीम स्मगल कर रहा है। हो गई गिरफ्तारी। इस इलाके में सैकड़ो बच्चे अफीम खा-खाकर अपनी जिन्दगी तबाह कर रहे हैं। अफीम की खेती चूंकि इस इलाके में सरकार करवाती है, इसलिए पुलिस की कड़ी देख रेख में इसकी खेती होती है। यहां के रहने वाले लोग ही बताते हैं, जिन लोगों ने अफीम का काम दो नंबर में किया, उनके घर में समृद्धि आई है। जिन लोगों ने खेतों में अफीम को ईमानदारी से बरता, उन्हें नुक्सान ही हुआ है। ऐसे ही नुक्सान झेल रहे व्यक्ति से जब मैंने पूछा कि जब आपको इस खेती में नुक्सान हो रहा है? आप छोड़ क्यों नही देते अफीम की इस खेती को? अफीम के उस किसान ने कहा- इस इलाके में अफीम की खेती मूंछो की बात है, पैसों के लिए कोई अपनी प्रतिष्ठा छोड़ता हे क्या? अब इस इलाके के उन लोगों की थोड़ी बात करें जो अफीम की खेती नहीं करते, उनकी नजर में अफीम की खेती करने वाले बेईमान होते हैं। वे यह भी मानते हैं कि बिना बेईमानी किए अफीम की खेती से कुछ मिल नहीं सकता और दूसरी तरफ जो अफीम की खेती करने वाला समाज है, वह कहता है कि जो लोग अफीम की खेती नहीं करते उनकी समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। अफीम की खेती माने प्रतिष्ठा की खेती। एक खास बात और मंदसौर और नीमच में अफीम के पत्तों की एक खास सब्जी बनती है जो बेहद स्वादिष्ट होती है। अफीम तैयार होने के बाद उससे कई असाध्य रोगों की दवा तैयार होती है। वैसे मेडिकल साईंस भी इस बात को मानती है कि आस्तिक लोगों की तुलना में नास्तिक लोग अधिक मनोरोग के शिकार होते हैं। नास्तिकों में अवसाद ग्रस्त होने का खतरा आस्तिकों से कई गुणा अधिक होता है। तो क्या अफीम की उपमा आस्तिकों के साथ जोड़कर रखी जाए या अब वक्त आ गया है जब अफीम को धर्म की परिभाषा करने से मुक्त कर दिया जाए? (स्त्रोत: http://visfot.com/home/index.php/permalink/4709.हटमल) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Aug 3 14:43:32 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 3 Aug 2011 14:43:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCksOCljeCkleCljeCkuCDgpJXgpL4g4KSF4KSr4KWA4KSu?= Message-ID: एक मित्र की फेसबुक बुक वॉल पर एक कमेन्ट था जिसका लब्बो लुआब यह कि राम-राम, सलाम वालेकुम, सत श्री अकाल जैसे संबोधन करने वाले साथी उनके फेसबुक की फ्रेन्ड लिस्ट से बाहर चले जाएं। वे लोग भी बाहर चले जाएं जिन्होंने अपनी तस्वीर की जगह किसी चर्च, मन्दिर या गुरुद्वारे की तस्वीर लगा रखी है। चूंकि इस नास्तिक फेसबुकधारी मित्र की नजर में ऐसे सभी लोग ‘धार्मिक’ किस्म के लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उसकी यह अपनी वर्जनाएं हैं। धर्म हमारे जीवन में होना चाहिए नाकि पट्टे की तरह गले में लटकना चाहिए। नास्तिक होना भी धर्म से बाहर नहीं है, जैसे गुटनिरपेक्ष लोगों का भी अपना एक गुट होता है। धर्म अपने आप में कोई समस्या नहंीं है, ना मुल्क के लिए ना व्यक्ति के लिए। समस्या उस वक्त आती है, जब हम इसे मूंछ की बात बना लेते हैं या फिर ठेंगे पर रखने की बात करते हैं। जब इस तरह धर्म इस्तेमाल होता है, कुछ दृश्य उसी तरह का होता है, जैसे आपने बच्चे के जन्मदिन पर घर गुब्बारों की जगह कंडोम के गुब्बारो से सजा रखा हो। घर तो आपका सज जाएगा, हो सकता शहर के अखबारों में आपके इस रचनात्मक काम की प्रशंसा भी हो लेकिन इस बात से हम सभी सहमत होंगे कि कंडोम इस काम के लिए नहीं है। यह हमें सोचना चाहिए कि बाबा मार्क्स ने धर्म को अफीम क्यों कहा? वे भांग गांजा शैम्पेन कुछ और भी तो कह सकते थे। जबकि उन्होंने अपने जीवन में ना धर्म चखा, ना अफीम चखी। अफीमचियों की कहानी आपने सुनी होगी लेकिन यह भी सच है कि हर अफीम खाने वाला व्यक्ति अफीमची नहीं होता। जोधपुर की शादियों में अफीम का वही महत्व है, जो हरियाणा की शादी में हुक्के का। जब बाबा मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा, इसका मतलब दोनों पर्यायवाची हो गए। अब धर्म को समझने का काम पंडित और शंकराचार्य करें, अफीम को समझना धर्म के वनिस्पत थोड़ा आसान जान पड़ता है। इसलिए मंदसौर और नीमच की यात्रा की। ये दोनों जिले मध्य प्रदेश की अफीम पट्टी के नाम से जाने जाते हैं। वहां की जेल में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिनका अफीम से कुछ खास लेना देना नहीं था और अफीम की सजा जेल में काट रहे हैं। किसी ने दुश्मनी मंे इनकी मोटर साइकिल की डिक्की मंे या फिर इनके झोले में अफीम डाल दी और पुलिस को फोन कर दिया कि अमुक आदमी अफीम स्मगल कर रहा है। हो गई गिरफ्तारी। इस इलाके में सैकड़ो बच्चे अफीम खा-खाकर अपनी जिन्दगी तबाह कर रहे हैं। अफीम की खेती चूंकि इस इलाके में सरकार करवाती है, इसलिए पुलिस की कड़ी देख रेख में इसकी खेती होती है। यहां के रहने वाले लोग ही बताते हैं, जिन लोगों ने अफीम का काम दो नंबर में किया, उनके घर में समृद्धि आई है। जिन लोगों ने खेतों में अफीम को ईमानदारी से बरता, उन्हें नुक्सान ही हुआ है। ऐसे ही नुक्सान झेल रहे व्यक्ति से जब मैंने पूछा कि जब आपको इस खेती में नुक्सान हो रहा है? आप छोड़ क्यों नही देते अफीम की इस खेती को? अफीम के उस किसान ने कहा- इस इलाके में अफीम की खेती मूंछो की बात है, पैसों के लिए कोई अपनी प्रतिष्ठा छोड़ता हे क्या? अब इस इलाके के उन लोगों की थोड़ी बात करें जो अफीम की खेती नहीं करते, उनकी नजर में अफीम की खेती करने वाले बेईमान होते हैं। वे यह भी मानते हैं कि बिना बेईमानी किए अफीम की खेती से कुछ मिल नहीं सकता और दूसरी तरफ जो अफीम की खेती करने वाला समाज है, वह कहता है कि जो लोग अफीम की खेती नहीं करते उनकी समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। अफीम की खेती माने प्रतिष्ठा की खेती। एक खास बात और मंदसौर और नीमच में अफीम के पत्तों की एक खास सब्जी बनती है जो बेहद स्वादिष्ट होती है। अफीम तैयार होने के बाद उससे कई असाध्य रोगों की दवा तैयार होती है। वैसे मेडिकल साईंस भी इस बात को मानती है कि आस्तिक लोगों की तुलना में नास्तिक लोग अधिक मनोरोग के शिकार होते हैं। नास्तिकों में अवसाद ग्रस्त होने का खतरा आस्तिकों से कई गुणा अधिक होता है। तो क्या अफीम की उपमा आस्तिकों के साथ जोड़कर रखी जाए या अब वक्त आ गया है जब अफीम को धर्म की परिभाषा करने से मुक्त कर दिया जाए? (स्त्रोत: http://visfot.com/home/index.php/permalink/4709.हटमल) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Wed Aug 3 15:31:16 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Wed, 3 Aug 2011 15:31:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSa4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpLjgpL7gpILgpLjgpY3gpJXgpYPgpKTgpL/gpJUg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KWD4KSk4KS/ICo=?= Message-ID: समय के बदले जगह, राष्ट्र के बदले प्रान्तमें सदन झाकहते हैं- " रेणु का आंचलिक गाँव तीन बातों पर टिका हुआ है. ये हैं, रेणु का अनोखा लहजा (उनके लेखनी में साहित्य के अनूठे रूपों के साथ खेलने की बाजीगरी) जो उन्हें प्रेमचंद की विरासत से अलग करती है; दूसरा, उनके द्वारा अंचल और गाँव के जीवन से जुड़े सूचनाओं का अपार संग्रह और उपयोग (ग्रामीण जीवन का लेखा जोखा जो अद्भुत एन्थ्रोपोलॉजिकल डिटेल और सूक्ष्म नजरिये से भरा पड़ा है) जिसे मैं अंचल की सांस्कृतिक स्मृति कहूँगा; और तीसरा उनके कथा कहने का अनूठापन. ये तीन कुल मिलाकर अंचल की एक बिशिष्ट छवि बनाते हैं जिसमे आंचलिक ग्राम्य के साथ अपनापे (belongingness) की अहम् भूमिका है. यह अपनापा हमे एक ख़ास एतिहासिक परिपेक्ष्य में आंचलिक ग्राम्य का एक वैकल्पिक आर्काइव प्रदान करता है." सदन झा का यह आलेख अंचल की कथा की तरह, जिसे शब्दों के जरिए देखा, सुना और महसूस किया जा सकता है। आज यह पोस्ट तैयार करने के पीछे मेरे मानस से जुड़ा कोसी, रेणु और गुलजार का कभी न खत्म होने वाला अध्याय है। रेणु साहित्य के जरिए सदन झा पूरी तरह से कोसीमय होते दिखते हैं। वहां की बोली-बानी, घाट-बाट सब जोहते हुए वे लिखते हैं। वहीं जब मेरी नजर फेसबुक संजाल पर कोसी नामक एक ग्रुप पर जाता है, जहां लिखा है- "फेसबुक पर यह ग्रुप इस उद्देश्‍य से बनाया गया है कि कोसी अंचल, जिसके अंतर्गत बिहार के सात जिले - कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा - शामिल हैं, की साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक गतिविधियों और उपलब्‍धियों को एक-दूसरे से साझा किया जा सके।" तो मैं थम सा जाता हूं। मैं कुछ दिन पहले ही इस समूह से जुड़ा था लेकिन आज सुबह पता चला कि इसे केवल कोसी अंचल के निवासियों तक सीमित कर रखा है तो 'मन तीत' हो गया। उफान मारती कोसी याद आने लगी, बाढ राहत शिविरों तक पहुंचने वाले वे लोग याद आने लगे, जो अलग अलग हिस्सों से वहां पहुंचे और लोगों की सहायता की। कई शोध पत्र सामने नाचने लगे, जिनके टैग में कोसी अंचल के निवासी होने का प्रमाण पत्र नहीं था। मेरे लिए सदन झा उसी सूची में आते हैं, जिनके लिखे से हम काफी कुछ सीख रहे हैं। तो सवाल उठता है कि अभी सूरत में रहने वाले और मूल रूप में दरभंगा-मधुबनी के निवासी सदन झा क्या कोसी ग्रुप से नहीं जुड़ पाएंगे? क्योंकि तकनीकी रुप से वे कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा से नहीं जुड़े हैं। रेणु साहित्य पर कलम चलाने वाले इस शख्स को क्या हम इस समूह से जुड़ने का न्यौता नहीं दे पाएंगे, व्यक्तिगत तौर पर मैं दुखी हूं। यह मेरे लिए एक ऐसे घर की कहानी की तरह है, जहां बाहर से कुछ लाने पर सख्त पाबंदी होती है। वहीं प्रोफ़ेसर कैथरिन हैन्सनयाद आती हैं, उनके कुछ पर्चे सामने दिख आते है। उनका नाम रेणु साहित्य से जुड़े विद्यार्थियों के लिए नया नहीं है। रेणु भाषा पर अध्ययन करने वाली कैथरिन पर भी यह समूह तकनीकी रूप से पाबंदी लगाती है। ऐसे में अंचल की सांस्कृतिक स्मृति इस समूह के लिए एक सीमा तय करती दिखती है और मेरे जैसे कई लोग, जिनके लिए ऐसी स्मृति पहचान की तरह है, दुखी होता है। इस समूह को तैयार करने वाले मित्र देवेंद्र कुमार देवेश तक जब अपनी बात पहुंचाई तो उनकी प्रतिक्रिया आई- "फेसबुक मित्रों का एक विशाल समूह आपको देता है। लेकिन जब आप अपनी बात पोस्‍ट करते हैं, तो आपकी पोस्‍ट सैकड़ों-हजारों पोस्‍टों में कहीं खो जाती है। ऐसे में आपकी पोस्‍ट तभी पढ़ी जाती है, जब रुचिपूर्वक आपकी वाल पर जाकर उसे कोई पढ़े। अन्‍यथा जिन्‍हें आप पढ़ाना चाहते हैं, उन्‍हें अपनी पोस्‍ट से tag करें। दूसरा तरीका यह है कि आप विषय या रुचि या किसी अन्‍य आधार पर समूह का निर्माण करें, ताकि आपकी पोस्‍ट समूह में शामिल सभी मित्रों तक पहुँचे। यह समूह कई तरह के होते हैं। ऐसे समूह भी हो सकते हैं, जिनपर हुए विमर्श को आप एक कमरे में हुई बातचीत की तरह बिलकुल अगोचर रखें। हमारा समूह कोसी निवासियों को एक-दूसरे से जोड़ने और आपसी संवाद के उद्देश्‍य से बनाया गया है, लेकिन इस पर हुए विमर्श को फेसबुक का कोई भी सदस्‍य पढ़ सकता है। सिर्फ टिप्‍पणी करने या कोई पोस्‍ट करने के लिए सदस्‍यता जरूरी है और इसके लिए भी कि समूह पर होनेवाली प्रत्‍येक गतिविधि की सूचना आप तक पहुँचे। गिरीन्‍द्र जी की आपत्‍ति पर मुझे बस इतना ही कहना है, बाकी मित्रों की क्‍या राय है।" मैं उनके तर्क से संतुष्ट नहीं हूं। कोसी को लेकर खास अपनापा रखने वाले शोधार्थी व ब्लॉगर विनीत कुमार भी इस समूह से जुड़ना चाहते थे लेकिन क्षेत्रीय सीमा रेखा उनके बीच आ गई। वे कहते हैं - "आगे चलकर हम चाहते हैं कि उस इलाके में लंबा वक्त गुजारें और करेंगे भी लेकिन क्षेत्रीयता की सीमाओं को हमारी भावनाएं भला कहां समझ पाती है ?.... " मैं फेसबुक पन्ने पर टाइप करने लगता हूं- "कोसी, रेणु और गुलजार से मानस बना है। हाल ही में कोसी नामक एक ग्रुप से जुड़ा लेकिन आज इससे नाता तोड़ने जा रहा हूं, दरअसल इस ग्रुप को क्षेत्रीय तरीके से बांधा जा रहा है, जबकि मेरे लिए कोसी बंधन- मुक्त है। जब इस ग्रुप को भी बंधनों से मुक्त कर दिया जाएगा तो फिर मैं वहां खुद को टहलते पाउंगा, उनमुक्त...." **पोस्ट शीर्षक- सदन झा के आलेख से कट-पेस्ट कॉपी* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sachin at sarai.net Tue Aug 2 11:06:29 2011 From: sachin at sarai.net (sachin at sarai.net) Date: Tue, 02 Aug 2011 11:06:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= test Message-ID: <1fd531669fe337e62dd57e0f4731b7fc@mail.sarai.net> test mail. From vineetdu at gmail.com Tue Aug 2 08:09:05 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Aug 2011 08:09:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSo?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCknOCkruCkviDgpLDgpILgpJcsIOCkqOCkvuCkrg==?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkreClgCDgpLjgpL7gpKfgpL7gpLDgpKMg4KSs4KWL4KSy?= =?utf-8?b?4KWH?= Message-ID: हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, ये देख-सुनकर भारी निराशा हुई। हम हंस की रजत जयंती कार्यक्रम से लौटकर सदमे में हैं। हंस की वार्षिक संगोष्ठी, हिंदी साहित्य से जुड़ा अकेला कार्यक्रम होता है, जिसका इंतजार हमें मेले-ठेले की तरह कई दिनों पहले से होता है। इसकी बड़ी वजह तो ये है कि हिंदी और मीडिया के वे तमाम भूले-बिसरे चेहरे एक साथ दिख जाते हैं जिनकी हैसियत, जिंदगी और चैनल बदल चुके होते हैं और दूसरा कि संगोष्ठी में कुछ गंभीर बातें जरूर निकल कर आती हैं, जिस पर कि आगे विचार किया जाना जरूरी होता है। अबकी बार तो और भी 25 साल होने पर कार्यक्रम का आयोजन किये जाने का मामला था, सो लग रहा था कि कुछ अलग, बेहतर और गंभीर बातचीत होगी। निर्धारित समय से करीब एक घंटे बाद यानी छह बजे कार्यक्रम शुरू होने पर ये धारणा और भी मजबूत हो गयी कि अबकी बार तो हंस की यादगार संगोष्‍ठी होने जा रही है। वक्ता के तौर पर अकेले नामवर सिंह को अपनी बात रखनी थी, तो हम निश्चिंत थे कि हर साल से अलग इस बार एक-दूसरे से नूराकुश्ती होने के बजाय एक रौ में सिर्फ उन्हें ही सुनने को मिलेगा। लेकिन… *कार्यक्रम की शुरुआत* की औपचारिक घोषणा के साथ ही हमारी सारी उम्मीदों पर अजय नावरिया ने पानी फेर दिया। घर जाकर ईमानदारी से अगर वो इस पर सोच रहे होंगे कि उन्‍होंने ज्यादा बोल दिया और पता नहीं क्या-क्या बोल दिया, तो तैयारी के साथ संयमित और संक्षिप्त बोलने के अभ्यास का मन जरूर बना रहे होंगे। उन्हें ऐसा करने में शायद लंबा वक्त लगे। उन्होंने कार्यक्रम की भूमिका ही कुछ इस तरह से रखी कि लगा कि आगे का सारा मामला बहुत ही बोझिल होने जा रहा है। राजेंद्र यादव स्कूल से दीक्षित हुए अजय नावरिया ने इस बात का बार-बार दावा किया कि हंस जैसी पत्रिका ने साहित्यिक लोकतंत्र बहाल किया। लेकिन यादवजी के स्कूल से निकले इस शख्स की भाषा और प्रयोग किये गये शब्द इतने सामंती, मर्दवादी ठसक, बजबजाये हुए, परंपरागत और घिसे-पिटे होंगे, इसे सुनकर मेरी तरह लोगों का भी कलेजा छलनी हो रहा होगा। आज से ठीक दो साल पहले जब नामवर सिंह ने हंस के युवा विशेषांक और अजय नावरिया के संपादन का लगभग माखौल उड़ाते हुए दोहा पढ़ा था – ‘नये युग का नया नजरिया, पेश कर रहे हैं अजय नावरिया’, तो हमें नामवर सिंह पर भारी गुस्सा आया था। गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्होंने राजेंद्र यादव को लगभग आगाह करने के अंदाज में कहा था – इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा। लेकिन इस बार जब अजय नावरिया का मंच संचालन देखा और उसमें लगातार आत्मश्लाघा के अंदाज में खुद को प्रोजेक्ट करने की छटपटाहट देखी, तो लगा कि बाबा ने उस वक्त शायद ठीक ही कहा था। *अतिलोकतांत्रिक परिवेश की उपस्थिति* कई बार कैसे उच्छृंखलता और उथलेपन में तब्दील हो जाती है, ये साफ तौर पर झलक जा रहा था। दूसरा कि ये सही है कि राजेंद्र यादव स्कूल ने आलोचना की धार के आगे तारीफ करने की कला नहीं सिखायी लेकिन अजय नावरिया ने वाजिब तरीके से तारीफ करने की कला को चमचई और चाटुकारिता के पर्याय के तौर पर कैसे सीख लिया, ये अलग ही गंभीर मसला है। राजेंद्र यादव को लेकर वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे हम न केवल बोर हो रहे थे बल्कि खुद राजेंद्र यादव बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे और उन्हें बार-बार ऐसा करने से रोक रहे थे। लेकिन अजय नावरिया उनके इस संकेत का विस्तार थेथरई में कर जाते हैं और सुन लीजिए, सुन लीजिए कहकर आगे भी जारी रहते हैं। *मामला तब हद के पार हो जाता है* जब वो राजेंद्र यादव की तुलना सुकरात से करने लग जाते हैं। ये पूरे कार्यक्रम का बड़ा ही भद्दा हिस्सा था। राजेंद्र यादव के बारे में वो कुछ इस तरह से बातें कर रहे थे जैसे कि उम्र ढल जाने पर लोग घर के बूढ़े-बुजुर्गों से मजे लेने लग जाते हैं। माफ कीजिएगा, इतने बड़े मंच से राजेंद्र यादव से मजे लेने के अंदाज में अजय नावरिया ने जिस तरह से परिचय कराया, उससे इस संगोष्ठी के स्तर में काफी गिरावट आयी। आपसी बातचीत का मामला अलग होता है लेकिन संगोष्‍ठी की अपनी एक गरिमा होती है, जो कि उन्होंने पूरी तरह खत्म कर दी। *तीसरी बात कि इस मौके पर* हंस से जुड़े लोगों जिनमें कि कार्यालय के लोग भी शामिल थे, उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान के तौर पर किसे क्या दिया गया, ये सार्वजनिक तौर पर बताकर उन्हें भले ही लग रहा होगा कि उन्‍होंने एक बार फिर लोकतांत्रिक सोच का परिचय दिया है लेकिन ऐसा करते हुए अजय नावरिया भूल गये कि खैरात देने और सम्मानित करने की भाषा अलग होती है। *बहरहाल*, संचालन के नाम पर अजय नावरिया ने लंबे-लंबे पकाऊ संस्मरण और चमचई के अंदाज में राजेंद्र यादव को हंस के 25 साल के अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया। *राजेंद्र यादव को बोलने में* अब काफी तकलीफ होने लगी है और जब वो लंबी-लंबी सांस लेते हुए बड़ी मुश्किल से बोल रहे थे, तो हमें ग्लानि और बेचैनी हो रही थी कि हम फिर भी उनसे सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। राजेंद्र यादव ने जो कुछ भी कहा, वो हंस के संपादक की हैसियत से उसका ईमानदार आत्मकथन था… *हमने इतने सालों में क्या कमाल किया, क्या झंडे गाड़े, मेरा इस पर बोलना उचित नहीं है, बाकी लोग बोलते रहेंगे लेकिन कुल मिलाकर मैं बहुत खुश नहीं हूं। हंस निकालने के पहले मेरी योजना कंस निकालने की थी जो कि अब भी है…* *इस तरह से* अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने हंस निकालने की योजना कैसे बनी, क्या परेशानियां आयीं और मकान-मालिक से लेकर पाठकों तक ने किस तरह से मदद की, इस संबंध में बातें की। राजेंद्र यादव का उदास मन से निकला वक्तव्य दरअसल जुलाई के हंस के संपादकीय में कही गयी बातों का दोहराव ही था और जो लोग घर से पढ़कर इसे गये थे, उन्हें महसूस हो रहा होगा कि यादवजी ने कुछ नया नहीं कहा। *सम्‍मान के दौरान* अर्चना वर्मा को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। *अर्चना वर्मा ने बहुत ही कम समय में* जिस एक संस्मरण का जिक्र किया, उसकी चर्चा जरूरी है। वो हंस के स्त्री विशेषांक का संपादन कर रही थीं और उन्होंने राजेंद्र यादव की ही रचना को लौटा दी। आगे चलकर अर्चना वर्मा का जब भी परिचय कराया जाता, तो कहा जाता कि इन्होंने राजेंद्र यादव की रचना लौटा दी थी। अर्चना वर्मा ने कहा कि इसका श्रेय मेरे निजी साहस से ज्‍यादा इस बात को जाता है कि हंस में राजेंद्र यादव ने कैसा लोकतांत्रिक माहौल तैयार किया था। इस तरह के प्रसंगों को खोज-खोजकर और हर बात के पीछे हंस के ऊपर लोकतंत्र की वर्क छिड़कने की बचकानी कोशिशें अजय नावरिया लगातार कर भी रहे थे… ऐसा प्रोजेक्शन शायद राजेंद्र यादव के न चाहते हुए भी हंस की परंपरा का हिस्सा बन गया हो। *गौतम नवलखा भी* हंस की शुरुआत के दिनों में जुड़े थे और उन्हें भी मंच पर बिठाया गया था। उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव की ये बात अक्सर याद आती है कि हंस में छपने के लिए तुम्हें हिंदी में लिखना होगा, भले ही तुम जैसे-तैसे लिखो, गलतियां होती हैं, होने दो और मेरी हिंदुस्तानी भाषा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी… वैसे गौतम नवलखा बहुत ही अच्छी और प्रभावित करनेवाली हिंदी बोल रहे थे। *टीएम ललानी* जो हंस से जुड़े लोगों को सम्‍मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किये गये थे, उनके बारे में बताया गया कि अपने रोजगार, राजनीति और दुनियाभर के ताम-झाम के बीच भी हंस और राजेंद्र यादव से उनके रिश्‍ते जीवंत बने रहे। राजेंद्र यादव ने कहा कि हालांकि ये दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों के लिए जितनी उदारता से दान और चंदे देते रहे हैं, उतनी उदारता से हंस के लिए नहीं, लेकिन भावनात्मक स्तर का सहयोग लगातार बना रहता। ललानी साहब ने मंच से एक बात कही और इस बात का व्यक्तिगत तौर पर मुझ पर बहुत ही अलग किस्म का असर हुआ। मैं अभी भी इस संदर्भ से अपने को अलग नहीं कर पा रहा हूं। ललानी ने कहा कि आज मन्नू भंडारी को भी सम्मानित किया जाना चाहिए था, हम अब भी कर सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर हमने नजरें घुमायी। सबसे आगे की कतार में बैठीं मन्नू भंडारी ने हाथ जोड़ दिये। हमें मन्नू भंडारी के मंच तक आने का रत्तीभर भी इंतजार और भरोसा नहीं था और ऐसा करके उन्होंने आपका बंटी, त्रिशंकु और महाभोज जैसी रचनाएं पढ़कर जो छवि हमारे मन में उनके प्रति बनी थी, उसे ध्वस्त होने से बचा लिया। इस संदर्भ में सारा आकाश मंच से खिसककर मन्नू भंडारी की झोली में छिटक गया था। हमें भीतर से एक टीस के बावजूद सुकून मिला। *जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में* अशोक वाजपेयी ने लिखा कि हंस पत्रिका की बाकी सामग्री जिस तरह से पढ़ी जाती थी, उसी तरह से संपादकीय भी, बाकी की पत्रिकाओं के संपादकीय इस तरह से नहीं पढ़े जाते थे, उस पत्रिका का कार्यक्रम बहुत ही बेतरतीब सा लगा। जहां-तहां से बिखरा हुआ और लोगों के बोलने में कहीं से कोई पूर्व तैयारी नहीं। हमने ऊपर इसलिए पनछोट शब्द का इस्तेमाल किया। एक तो सम्मानित किये जानेवाले कई लोग इस मौके पर नहीं आये, आसपास की खुसुर-पुसुर से निकलकर आ रहा था कि काफी लोग नाराज भी हैं। अब हमारी सारी उम्मीदें नामवर सिंह पर टिकी थीं और लग रहा था कि इन्होंने अगर उम्मीद के मुताबिक बोल दिया तो सारा मामला सहज हो जाएगा। *मेरे दुश्मन राजेंद्र यादव और हंस के प्रिय पाठकों…* नामवर सिंह के इस संबोधन के साथ ही सभागार की डूबती नब्ज में अचानक से हरकत आ गयी। उबासी ले रहे श्रोता सतर्क हो गये और गौर से सुनने लगे… *ये आयोजन वैसे तो हंस के 25 साल पूरे होने का है, लेकिन ऐसा लगा रहा है कि ये हंस का नहीं बल्कि 82 साल के राजेंद्र यादव का जन्मदिन मनाया जा रहा है, ये बात शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे। हंस और राजेंद्र यादव यहां आकर पर्याय हो गये है। खैर, बिना किसी आर्थिक मजबूती के इस तरह से पत्रिका निकलती रही, इसके लिए मैं सिर झुकाता हूं। राजेंद्र यादव के आगे नहीं, हंस के आगे…* *नामवर सिंह ने बताना शुरू किया* कि जिस हंस की शुरुआत प्रेमचंद ने 1930 में की, आगे जब पत्रिका बंद हो गयी, तो इसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत अमृत राय ने भी नहीं की। बाद में माधुरी, सारिका जैसी दुनियाभर की पत्रिकाएं शुरू हुईं लेकिन हंस की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कमलेश्वर अपने को तीसमार खां समझते थे, बाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका से जुड़े लेकिन हंस का कोई ध्यान नहीं आया। ये बड़ी ही हैरान करनेवाली बात है कि हंस का कहीं कोई नामलेवा नहीं, ये नाम किसी को ध्यान में नहीं आया कि दोबारा इसे शुरू किया जाए। राजेंद्र ने अक्षर प्रकाशन से किताबें निकालने के साथ, बिना किसी स्थायी साधन के 1986 में हंस निकालने का इरादा किया। कहा कि अब हंस निकालेंगे। इस आदमी की हिम्मत देखिए कि सिर्फ निकाला ही नहीं बल्कि 25 सालों तक चलाया भी। हिंदी में ये बात स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ये सिर्फ हंस की नहीं, राजेंद्र यादव की भी जयंती है। *नामवर सिंह ने* जिस ऐतिहासिक मोड़ से हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में बताना शुरू किया, तो लगा कि मामला बहुत आगे तक और बहुत ही गंभीर तरीके से जाएगा लेकिन नामवर सिंह इसकी लीक छोड़कर दूसरे सिरे की तरफ मुड़ गये। *अशोक वाजपेयी तो कविता के अलावा किसी दूसरी चीज को साहित्य मानते ही नहीं, पढ़ते भी हैं तो अंग्रेजी लेखकों को लेकिन ये राजेंद्र यादव और हंस का ही लोकतंत्र है कि उसने अशोक वाजपेयी से भी हंस पर लिखवाया। अशोक वाजपेयी ने तो कभी पूर्वग्रह में राजेंद्र यादव को नहीं छापा। नया ज्ञानोदय और हंस के बीच सौतिया डाह है और रवींद्र कालिया भी बहुत खुश नहीं रहते हैं लेकिन मौजूदा अंक में उनसे भी लिखवाया। अखिलेश जो कि तद्भव जैसी पत्रिका बड़ी मेहनत से निकालते हैं, राजेंद्र से असहमति रखते हैं, उन्हें भी हंस के इंस अंक के लिए लिखवाया और असहमति में ही सही लिखा। निंदक नीयरे राखिए, आंगन कुटी छवाय वाली जो बात कबीर ने कभी कही थी, उस पर इस पत्रिका और राजेंद्र यादव ने व्यावहारिक तौर पर अमल किया। ये लोकतंत्र है।* *नामवर सिंह* राजेंद्र यादव को लेकर जो बोल रहे थे, वो भी उनकी तारीफ ही थी लेकिन वो अजय नावरिया की तरह फूहड़ नहीं थी। आलोचना के साथ-साथ तारीफ करने की भी शैली नामवर सिंह से सीखी जानी चाहिए। *शुरू के डेढ़ दशक में पत्रिका ने बहुत ही तेवर के साथ काम किया। लेकिन उसके बाद ढलान आने लग गयी। ऐसा होता है। हर कोई ढलान की तरफ बढ़ता है। आगे हम या राजेंद्र यादव ही पता नहीं ये बात कहने के लिए रह जाएंगे भी या नहीं। जीव-जंतुओं की तरह पत्रिका को भी कई योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। हंस भी उसी तरह से गुजरा। उसे कभी कौआ बनना पड़ा, कभी बगुला और कभी कुत्ते की तरह चौकस रहना पड़ा। मुझे लगता है कि हंस में तीन योनि – कौआ, बगुला और कुत्ते के गुण हमेशा मौजूद रहे। मैं आप नये लोगों से एक बार फिर कहूंगा कि इस भीष्म (राजेंद्र यादव) के पास अभी भी मौका निकाल कर जाइए – लेकिन कहानी छपवाने के लिए नहीं, कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।* *नामवर सिंह* पिछले दो-तीन बार से अपने आगे होने न होने की बात करने लगे हैं, एक बहुत ही भावनात्मक अप्रोच के साथ। राजेंद्र यादव के संदर्भ में उन्होंने इसी लहजे में बात कही। चलते-चलते उन्होंने कुछ इस तरह से कहा… *जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो जो हो सकता है, वो आदमी से हो नहीं सकता।* *नामवर सिंह को सुनना* अच्छा लगा लेकिन बहुत फायदेमंद नहीं रहा। खासकर उनलोगों के लिए जो कि साहित्यिक पत्रकारिता और हंस शीर्षक को ध्यान में रखकर सुनने आये थे। अशोक वाजपेयी पर ली गयी चुटकी, रोचक प्रसंग और काक चेष्टा जैसे सहज श्लोक से लोगों का ध्यान जरूर खींचा लेकिन जिस मुद्दे पर हम उनसे गंभीर व्याख्यान की उम्मीद कर रहे थे, ऐसा कुछ भी नहीं कहा। हंस ने किस तरह के विमर्श पैदा किये, उस समय की बाकी पत्रिकाएं क्या कर रही थीं, हिंदी पत्रिका का मुख्य स्वर क्या था, इन सब मसले पर कोई बात नहीं की। इस लिहाज से नामवर सिंह के व्याख्यान से कुछ निकल कर नहीं आया, हां थोड़े समय के लिए स्वस्थ मनोरंजन जरूर हो गया। नामवर सिंह अगर कायदे से साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलते तो कुछ नहीं तो विश्वविद्यालय में हर साल 10-20 नंबर के सवाल का जवाब हल करने में मीडिया के छात्रों को मदद मिलती, लेकिन वैसा भी नहीं हो सका। *कुल मिलाकर देखें तो* इस संगोष्ठी का निष्‍कर्ष ऐसा कुछ भी नहीं रहा, जिससे हम भरा-भरा महसूस कर पाते। हम इस उम्मीद में थे कि हंस ने 25 साल में जो बहसें खड़ी की हैं, जो विमर्श पैदा किये हैं, उस दौर में जो संपादकीय आये और उसे लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उन पर पर संक्षेप में ही सही, बात होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हंस ने कितने कहानीकार और लेखक पैदा किये, लेकिन एक का भी कहीं कोई जिक्र नहीं। सामयिकता का मोह हंस के इतिहास को इतनी जल्दी बिसार देगा, इसकी कल्पना हमें नहीं थी। वो सारे लोग और उनकी चर्चा सिरे से गायब थी, जिन्हें हमने नब्बे के दशक में पढ़ा। इस मौके पर राजकमल की ओर से तीन किताबों… 1) पचीस वर्ष पचीस कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 2) हंस की लंबी कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 3) मुबारक पहला कदम (हंस में प्रकाशित कथाकार की पहली कहानी) | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : संजीव का लोकार्पण जरूर हुआ लेकिन इस पर कोई बात नहीं हुई। हम हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के सफर को सुनने गये थे लेकिन हमें मौजूदा हंस बहुत ही बेतरतीब नजर आया, इतिहास की तो बात ही छोड़िए। *हंस की संगोष्ठी के लिए* ये गर्व और संतोष देनेवाली बात होती है कि बिना कोशिश के जो श्रोताओं का हुजूम चला आता है, मीडिया, संस्कृति और साहित्य से जुड़े जिस तरह से लोग आते हैं, उनके बीच बहुत गंभीरता से कई मसले पर साझा-विमर्श किया जा सकता है लेकिन हंस की गोष्ठी इन श्रोताओं के होने का फायद नहीं उठा पाती। उनके बीच बात रखने से शायद असर भी हो लेकिन वो अक्सर चूक जाते हैं। ऐसे श्रोताओं को जुटाने में अच्छे-अच्छे आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं। हंस को इन श्रोताओं का लाभ लेते हुए संगोष्ठी को गंभीर शक्ल देने की जरूरत है। *चलते-चलते* हंस को एक सुझाव कि अब उसे प्रेमचंद जयंती के नाम पर संगोष्ठी आयोजन करने का दावा छोड़ देना चाहिए। जब आप ढाई-तीन घंटे की संगोष्ठी में सालों से एक बार भी प्रेमचंद और उनकी परंपरा का नाम तक नहीं लेते, तो उनके नाम पर संगोष्ठी आयोजित करने का क्या लाभ? मूलतः प्रकाशितः-मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Aug 2 08:18:10 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Aug 2011 08:18:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSo?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCknOCkruCkviDgpLDgpILgpJcsIOCkqOCkvuCkrg==?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkreClgCDgpLjgpL7gpKfgpL7gpLDgpKMg4KSs4KWL4KSy?= =?utf-8?b?4KWH?= Message-ID: हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, ये देख-सुनकर भारी निराशा हुई। हम हंस की रजत जयंती कार्यक्रम से लौटकर सदमे में हैं। हंस की वार्षिक संगोष्ठी, हिंदी साहित्य से जुड़ा अकेला कार्यक्रम होता है, जिसका इंतजार हमें मेले-ठेले की तरह कई दिनों पहले से होता है। इसकी बड़ी वजह तो ये है कि हिंदी और मीडिया के वे तमाम भूले-बिसरे चेहरे एक साथ दिख जाते हैं जिनकी हैसियत, जिंदगी और चैनल बदल चुके होते हैं और दूसरा कि संगोष्ठी में कुछ गंभीर बातें जरूर निकल कर आती हैं, जिस पर कि आगे विचार किया जाना जरूरी होता है। अबकी बार तो और भी 25 साल होने पर कार्यक्रम का आयोजन किये जाने का मामला था, सो लग रहा था कि कुछ अलग, बेहतर और गंभीर बातचीत होगी। निर्धारित समय से करीब एक घंटे बाद यानी छह बजे कार्यक्रम शुरू होने पर ये धारणा और भी मजबूत हो गयी कि अबकी बार तो हंस की यादगार संगोष्‍ठी होने जा रही है। वक्ता के तौर पर अकेले नामवर सिंह को अपनी बात रखनी थी, तो हम निश्चिंत थे कि हर साल से अलग इस बार एक-दूसरे से नूराकुश्ती होने के बजाय एक रौ में सिर्फ उन्हें ही सुनने को मिलेगा। लेकिन… *कार्यक्रम की शुरुआत* की औपचारिक घोषणा के साथ ही हमारी सारी उम्मीदों पर अजय नावरिया ने पानी फेर दिया। घर जाकर ईमानदारी से अगर वो इस पर सोच रहे होंगे कि उन्‍होंने ज्यादा बोल दिया और पता नहीं क्या-क्या बोल दिया, तो तैयारी के साथ संयमित और संक्षिप्त बोलने के अभ्यास का मन जरूर बना रहे होंगे। उन्हें ऐसा करने में शायद लंबा वक्त लगे। उन्होंने कार्यक्रम की भूमिका ही कुछ इस तरह से रखी कि लगा कि आगे का सारा मामला बहुत ही बोझिल होने जा रहा है। राजेंद्र यादव स्कूल से दीक्षित हुए अजय नावरिया ने इस बात का बार-बार दावा किया कि हंस जैसी पत्रिका ने साहित्यिक लोकतंत्र बहाल किया। लेकिन यादवजी के स्कूल से निकले इस शख्स की भाषा और प्रयोग किये गये शब्द इतने सामंती, मर्दवादी ठसक, बजबजाये हुए, परंपरागत और घिसे-पिटे होंगे, इसे सुनकर मेरी तरह लोगों का भी कलेजा छलनी हो रहा होगा। आज से ठीक दो साल पहले जब नामवर सिंह ने हंस के युवा विशेषांक और अजय नावरिया के संपादन का लगभग माखौल उड़ाते हुए दोहा पढ़ा था – ‘नये युग का नया नजरिया, पेश कर रहे हैं अजय नावरिया’, तो हमें नामवर सिंह पर भारी गुस्सा आया था। गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्होंने राजेंद्र यादव को लगभग आगाह करने के अंदाज में कहा था – इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा। लेकिन इस बार जब अजय नावरिया का मंच संचालन देखा और उसमें लगातार आत्मश्लाघा के अंदाज में खुद को प्रोजेक्ट करने की छटपटाहट देखी, तो लगा कि बाबा ने उस वक्त शायद ठीक ही कहा था। *अतिलोकतांत्रिक परिवेश की उपस्थिति* कई बार कैसे उच्छृंखलता और उथलेपन में तब्दील हो जाती है, ये साफ तौर पर झलक जा रहा था। दूसरा कि ये सही है कि राजेंद्र यादव स्कूल ने आलोचना की धार के आगे तारीफ करने की कला नहीं सिखायी लेकिन अजय नावरिया ने वाजिब तरीके से तारीफ करने की कला को चमचई और चाटुकारिता के पर्याय के तौर पर कैसे सीख लिया, ये अलग ही गंभीर मसला है। राजेंद्र यादव को लेकर वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे हम न केवल बोर हो रहे थे बल्कि खुद राजेंद्र यादव बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे और उन्हें बार-बार ऐसा करने से रोक रहे थे। लेकिन अजय नावरिया उनके इस संकेत का विस्तार थेथरई में कर जाते हैं और सुन लीजिए, सुन लीजिए कहकर आगे भी जारी रहते हैं। *मामला तब हद के पार हो जाता है* जब वो राजेंद्र यादव की तुलना सुकरात से करने लग जाते हैं। ये पूरे कार्यक्रम का बड़ा ही भद्दा हिस्सा था। राजेंद्र यादव के बारे में वो कुछ इस तरह से बातें कर रहे थे जैसे कि उम्र ढल जाने पर लोग घर के बूढ़े-बुजुर्गों से मजे लेने लग जाते हैं। माफ कीजिएगा, इतने बड़े मंच से राजेंद्र यादव से मजे लेने के अंदाज में अजय नावरिया ने जिस तरह से परिचय कराया, उससे इस संगोष्ठी के स्तर में काफी गिरावट आयी। आपसी बातचीत का मामला अलग होता है लेकिन संगोष्‍ठी की अपनी एक गरिमा होती है, जो कि उन्होंने पूरी तरह खत्म कर दी। *तीसरी बात कि इस मौके पर* हंस से जुड़े लोगों जिनमें कि कार्यालय के लोग भी शामिल थे, उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान के तौर पर किसे क्या दिया गया, ये सार्वजनिक तौर पर बताकर उन्हें भले ही लग रहा होगा कि उन्‍होंने एक बार फिर लोकतांत्रिक सोच का परिचय दिया है लेकिन ऐसा करते हुए अजय नावरिया भूल गये कि खैरात देने और सम्मानित करने की भाषा अलग होती है। *बहरहाल*, संचालन के नाम पर अजय नावरिया ने लंबे-लंबे पकाऊ संस्मरण और चमचई के अंदाज में राजेंद्र यादव को हंस के 25 साल के अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया। *राजेंद्र यादव को बोलने में* अब काफी तकलीफ होने लगी है और जब वो लंबी-लंबी सांस लेते हुए बड़ी मुश्किल से बोल रहे थे, तो हमें ग्लानि और बेचैनी हो रही थी कि हम फिर भी उनसे सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। राजेंद्र यादव ने जो कुछ भी कहा, वो हंस के संपादक की हैसियत से उसका ईमानदार आत्मकथन था… *हमने इतने सालों में क्या कमाल किया, क्या झंडे गाड़े, मेरा इस पर बोलना उचित नहीं है, बाकी लोग बोलते रहेंगे लेकिन कुल मिलाकर मैं बहुत खुश नहीं हूं। हंस निकालने के पहले मेरी योजना कंस निकालने की थी जो कि अब भी है…* *इस तरह से* अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने हंस निकालने की योजना कैसे बनी, क्या परेशानियां आयीं और मकान-मालिक से लेकर पाठकों तक ने किस तरह से मदद की, इस संबंध में बातें की। राजेंद्र यादव का उदास मन से निकला वक्तव्य दरअसल जुलाई के हंस के संपादकीय में कही गयी बातों का दोहराव ही था और जो लोग घर से पढ़कर इसे गये थे, उन्हें महसूस हो रहा होगा कि यादवजी ने कुछ नया नहीं कहा। *सम्‍मान के दौरान* अर्चना वर्मा को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। *अर्चना वर्मा ने बहुत ही कम समय में* जिस एक संस्मरण का जिक्र किया, उसकी चर्चा जरूरी है। वो हंस के स्त्री विशेषांक का संपादन कर रही थीं और उन्होंने राजेंद्र यादव की ही रचना को लौटा दी। आगे चलकर अर्चना वर्मा का जब भी परिचय कराया जाता, तो कहा जाता कि इन्होंने राजेंद्र यादव की रचना लौटा दी थी। अर्चना वर्मा ने कहा कि इसका श्रेय मेरे निजी साहस से ज्‍यादा इस बात को जाता है कि हंस में राजेंद्र यादव ने कैसा लोकतांत्रिक माहौल तैयार किया था। इस तरह के प्रसंगों को खोज-खोजकर और हर बात के पीछे हंस के ऊपर लोकतंत्र की वर्क छिड़कने की बचकानी कोशिशें अजय नावरिया लगातार कर भी रहे थे… ऐसा प्रोजेक्शन शायद राजेंद्र यादव के न चाहते हुए भी हंस की परंपरा का हिस्सा बन गया हो। *गौतम नवलखा भी* हंस की शुरुआत के दिनों में जुड़े थे और उन्हें भी मंच पर बिठाया गया था। उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव की ये बात अक्सर याद आती है कि हंस में छपने के लिए तुम्हें हिंदी में लिखना होगा, भले ही तुम जैसे-तैसे लिखो, गलतियां होती हैं, होने दो और मेरी हिंदुस्तानी भाषा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी… वैसे गौतम नवलखा बहुत ही अच्छी और प्रभावित करनेवाली हिंदी बोल रहे थे। *टीएम ललानी* जो हंस से जुड़े लोगों को सम्‍मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किये गये थे, उनके बारे में बताया गया कि अपने रोजगार, राजनीति और दुनियाभर के ताम-झाम के बीच भी हंस और राजेंद्र यादव से उनके रिश्‍ते जीवंत बने रहे। राजेंद्र यादव ने कहा कि हालांकि ये दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों के लिए जितनी उदारता से दान और चंदे देते रहे हैं, उतनी उदारता से हंस के लिए नहीं, लेकिन भावनात्मक स्तर का सहयोग लगातार बना रहता। ललानी साहब ने मंच से एक बात कही और इस बात का व्यक्तिगत तौर पर मुझ पर बहुत ही अलग किस्म का असर हुआ। मैं अभी भी इस संदर्भ से अपने को अलग नहीं कर पा रहा हूं। ललानी ने कहा कि आज मन्नू भंडारी को भी सम्मानित किया जाना चाहिए था, हम अब भी कर सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर हमने नजरें घुमायी। सबसे आगे की कतार में बैठीं मन्नू भंडारी ने हाथ जोड़ दिये। हमें मन्नू भंडारी के मंच तक आने का रत्तीभर भी इंतजार और भरोसा नहीं था और ऐसा करके उन्होंने आपका बंटी, त्रिशंकु और महाभोज जैसी रचनाएं पढ़कर जो छवि हमारे मन में उनके प्रति बनी थी, उसे ध्वस्त होने से बचा लिया। इस संदर्भ में सारा आकाश मंच से खिसककर मन्नू भंडारी की झोली में छिटक गया था। हमें भीतर से एक टीस के बावजूद सुकून मिला। *जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में* अशोक वाजपेयी ने लिखा कि हंस पत्रिका की बाकी सामग्री जिस तरह से पढ़ी जाती थी, उसी तरह से संपादकीय भी, बाकी की पत्रिकाओं के संपादकीय इस तरह से नहीं पढ़े जाते थे, उस पत्रिका का कार्यक्रम बहुत ही बेतरतीब सा लगा। जहां-तहां से बिखरा हुआ और लोगों के बोलने में कहीं से कोई पूर्व तैयारी नहीं। हमने ऊपर इसलिए पनछोट शब्द का इस्तेमाल किया। एक तो सम्मानित किये जानेवाले कई लोग इस मौके पर नहीं आये, आसपास की खुसुर-पुसुर से निकलकर आ रहा था कि काफी लोग नाराज भी हैं। अब हमारी सारी उम्मीदें नामवर सिंह पर टिकी थीं और लग रहा था कि इन्होंने अगर उम्मीद के मुताबिक बोल दिया तो सारा मामला सहज हो जाएगा। *मेरे दुश्मन राजेंद्र यादव और हंस के प्रिय पाठकों…* नामवर सिंह के इस संबोधन के साथ ही सभागार की डूबती नब्ज में अचानक से हरकत आ गयी। उबासी ले रहे श्रोता सतर्क हो गये और गौर से सुनने लगे… *ये आयोजन वैसे तो हंस के 25 साल पूरे होने का है, लेकिन ऐसा लगा रहा है कि ये हंस का नहीं बल्कि 82 साल के राजेंद्र यादव का जन्मदिन मनाया जा रहा है, ये बात शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे। हंस और राजेंद्र यादव यहां आकर पर्याय हो गये है। खैर, बिना किसी आर्थिक मजबूती के इस तरह से पत्रिका निकलती रही, इसके लिए मैं सिर झुकाता हूं। राजेंद्र यादव के आगे नहीं, हंस के आगे…* *नामवर सिंह ने बताना शुरू किया* कि जिस हंस की शुरुआत प्रेमचंद ने 1930 में की, आगे जब पत्रिका बंद हो गयी, तो इसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत अमृत राय ने भी नहीं की। बाद में माधुरी, सारिका जैसी दुनियाभर की पत्रिकाएं शुरू हुईं लेकिन हंस की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कमलेश्वर अपने को तीसमार खां समझते थे, बाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका से जुड़े लेकिन हंस का कोई ध्यान नहीं आया। ये बड़ी ही हैरान करनेवाली बात है कि हंस का कहीं कोई नामलेवा नहीं, ये नाम किसी को ध्यान में नहीं आया कि दोबारा इसे शुरू किया जाए। राजेंद्र ने अक्षर प्रकाशन से किताबें निकालने के साथ, बिना किसी स्थायी साधन के 1986 में हंस निकालने का इरादा किया। कहा कि अब हंस निकालेंगे। इस आदमी की हिम्मत देखिए कि सिर्फ निकाला ही नहीं बल्कि 25 सालों तक चलाया भी। हिंदी में ये बात स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ये सिर्फ हंस की नहीं, राजेंद्र यादव की भी जयंती है। *नामवर सिंह ने* जिस ऐतिहासिक मोड़ से हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में बताना शुरू किया, तो लगा कि मामला बहुत आगे तक और बहुत ही गंभीर तरीके से जाएगा लेकिन नामवर सिंह इसकी लीक छोड़कर दूसरे सिरे की तरफ मुड़ गये। *अशोक वाजपेयी तो कविता के अलावा किसी दूसरी चीज को साहित्य मानते ही नहीं, पढ़ते भी हैं तो अंग्रेजी लेखकों को लेकिन ये राजेंद्र यादव और हंस का ही लोकतंत्र है कि उसने अशोक वाजपेयी से भी हंस पर लिखवाया। अशोक वाजपेयी ने तो कभी पूर्वग्रह में राजेंद्र यादव को नहीं छापा। नया ज्ञानोदय और हंस के बीच सौतिया डाह है और रवींद्र कालिया भी बहुत खुश नहीं रहते हैं लेकिन मौजूदा अंक में उनसे भी लिखवाया। अखिलेश जो कि तद्भव जैसी पत्रिका बड़ी मेहनत से निकालते हैं, राजेंद्र से असहमति रखते हैं, उन्हें भी हंस के इंस अंक के लिए लिखवाया और असहमति में ही सही लिखा। निंदक नीयरे राखिए, आंगन कुटी छवाय वाली जो बात कबीर ने कभी कही थी, उस पर इस पत्रिका और राजेंद्र यादव ने व्यावहारिक तौर पर अमल किया। ये लोकतंत्र है।* *नामवर सिंह* राजेंद्र यादव को लेकर जो बोल रहे थे, वो भी उनकी तारीफ ही थी लेकिन वो अजय नावरिया की तरह फूहड़ नहीं थी। आलोचना के साथ-साथ तारीफ करने की भी शैली नामवर सिंह से सीखी जानी चाहिए। *शुरू के डेढ़ दशक में पत्रिका ने बहुत ही तेवर के साथ काम किया। लेकिन उसके बाद ढलान आने लग गयी। ऐसा होता है। हर कोई ढलान की तरफ बढ़ता है। आगे हम या राजेंद्र यादव ही पता नहीं ये बात कहने के लिए रह जाएंगे भी या नहीं। जीव-जंतुओं की तरह पत्रिका को भी कई योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। हंस भी उसी तरह से गुजरा। उसे कभी कौआ बनना पड़ा, कभी बगुला और कभी कुत्ते की तरह चौकस रहना पड़ा। मुझे लगता है कि हंस में तीन योनि – कौआ, बगुला और कुत्ते के गुण हमेशा मौजूद रहे। मैं आप नये लोगों से एक बार फिर कहूंगा कि इस भीष्म (राजेंद्र यादव) के पास अभी भी मौका निकाल कर जाइए – लेकिन कहानी छपवाने के लिए नहीं, कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।* *नामवर सिंह* पिछले दो-तीन बार से अपने आगे होने न होने की बात करने लगे हैं, एक बहुत ही भावनात्मक अप्रोच के साथ। राजेंद्र यादव के संदर्भ में उन्होंने इसी लहजे में बात कही। चलते-चलते उन्होंने कुछ इस तरह से कहा… *जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो जो हो सकता है, वो आदमी से हो नहीं सकता।* *नामवर सिंह को सुनना* अच्छा लगा लेकिन बहुत फायदेमंद नहीं रहा। खासकर उनलोगों के लिए जो कि साहित्यिक पत्रकारिता और हंस शीर्षक को ध्यान में रखकर सुनने आये थे। अशोक वाजपेयी पर ली गयी चुटकी, रोचक प्रसंग और काक चेष्टा जैसे सहज श्लोक से लोगों का ध्यान जरूर खींचा लेकिन जिस मुद्दे पर हम उनसे गंभीर व्याख्यान की उम्मीद कर रहे थे, ऐसा कुछ भी नहीं कहा। हंस ने किस तरह के विमर्श पैदा किये, उस समय की बाकी पत्रिकाएं क्या कर रही थीं, हिंदी पत्रिका का मुख्य स्वर क्या था, इन सब मसले पर कोई बात नहीं की। इस लिहाज से नामवर सिंह के व्याख्यान से कुछ निकल कर नहीं आया, हां थोड़े समय के लिए स्वस्थ मनोरंजन जरूर हो गया। नामवर सिंह अगर कायदे से साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलते तो कुछ नहीं तो विश्वविद्यालय में हर साल 10-20 नंबर के सवाल का जवाब हल करने में मीडिया के छात्रों को मदद मिलती, लेकिन वैसा भी नहीं हो सका। *कुल मिलाकर देखें तो* इस संगोष्ठी का निष्‍कर्ष ऐसा कुछ भी नहीं रहा, जिससे हम भरा-भरा महसूस कर पाते। हम इस उम्मीद में थे कि हंस ने 25 साल में जो बहसें खड़ी की हैं, जो विमर्श पैदा किये हैं, उस दौर में जो संपादकीय आये और उसे लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उन पर पर संक्षेप में ही सही, बात होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हंस ने कितने कहानीकार और लेखक पैदा किये, लेकिन एक का भी कहीं कोई जिक्र नहीं। सामयिकता का मोह हंस के इतिहास को इतनी जल्दी बिसार देगा, इसकी कल्पना हमें नहीं थी। वो सारे लोग और उनकी चर्चा सिरे से गायब थी, जिन्हें हमने नब्बे के दशक में पढ़ा। इस मौके पर राजकमल की ओर से तीन किताबों… 1) पचीस वर्ष पचीस कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 2) हंस की लंबी कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 3) मुबारक पहला कदम (हंस में प्रकाशित कथाकार की पहली कहानी) | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : संजीव का लोकार्पण जरूर हुआ लेकिन इस पर कोई बात नहीं हुई। हम हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के सफर को सुनने गये थे लेकिन हमें मौजूदा हंस बहुत ही बेतरतीब नजर आया, इतिहास की तो बात ही छोड़िए। *हंस की संगोष्ठी के लिए* ये गर्व और संतोष देनेवाली बात होती है कि बिना कोशिश के जो श्रोताओं का हुजूम चला आता है, मीडिया, संस्कृति और साहित्य से जुड़े जिस तरह से लोग आते हैं, उनके बीच बहुत गंभीरता से कई मसले पर साझा-विमर्श किया जा सकता है लेकिन हंस की गोष्ठी इन श्रोताओं के होने का फायद नहीं उठा पाती। उनके बीच बात रखने से शायद असर भी हो लेकिन वो अक्सर चूक जाते हैं। ऐसे श्रोताओं को जुटाने में अच्छे-अच्छे आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं। हंस को इन श्रोताओं का लाभ लेते हुए संगोष्ठी को गंभीर शक्ल देने की जरूरत है। *चलते-चलते* हंस को एक सुझाव कि अब उसे प्रेमचंद जयंती के नाम पर संगोष्ठी आयोजन करने का दावा छोड़ देना चाहिए। जब आप ढाई-तीन घंटे की संगोष्ठी में सालों से एक बार भी प्रेमचंद और उनकी परंपरा का नाम तक नहीं लेते, तो उनके नाम पर संगोष्ठी आयोजित करने का क्या लाभ? मूलतः प्रकाशितः-मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Aug 2 08:21:36 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Aug 2011 08:21:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSo?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCknOCkruCkviDgpLDgpILgpJcsIOCkqOCkvuCkrg==?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkreClgCDgpLjgpL7gpKfgpL7gpLDgpKMg4KSs4KWL4KSy?= =?utf-8?b?4KWH?= Message-ID: हंस जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, ये देख-सुनकर भारी निराशा हुई। हम हंस की रजत जयंती कार्यक्रम से लौटकर सदमे में हैं। हंस की वार्षिक संगोष्ठी, हिंदी साहित्य से जुड़ा अकेला कार्यक्रम होता है, जिसका इंतजार हमें मेले-ठेले की तरह कई दिनों पहले से होता है। इसकी बड़ी वजह तो ये है कि हिंदी और मीडिया के वे तमाम भूले-बिसरे चेहरे एक साथ दिख जाते हैं जिनकी हैसियत, जिंदगी और चैनल बदल चुके होते हैं और दूसरा कि संगोष्ठी में कुछ गंभीर बातें जरूर निकल कर आती हैं, जिस पर कि आगे विचार किया जाना जरूरी होता है। अबकी बार तो और भी 25 साल होने पर कार्यक्रम का आयोजन किये जाने का मामला था, सो लग रहा था कि कुछ अलग, बेहतर और गंभीर बातचीत होगी। निर्धारित समय से करीब एक घंटे बाद यानी छह बजे कार्यक्रम शुरू होने पर ये धारणा और भी मजबूत हो गयी कि अबकी बार तो हंस की यादगार संगोष्‍ठी होने जा रही है। वक्ता के तौर पर अकेले नामवर सिंह को अपनी बात रखनी थी, तो हम निश्चिंत थे कि हर साल से अलग इस बार एक-दूसरे से नूराकुश्ती होने के बजाय एक रौ में सिर्फ उन्हें ही सुनने को मिलेगा। लेकिन… *कार्यक्रम की शुरुआत* की औपचारिक घोषणा के साथ ही हमारी सारी उम्मीदों पर अजय नावरिया ने पानी फेर दिया। घर जाकर ईमानदारी से अगर वो इस पर सोच रहे होंगे कि उन्‍होंने ज्यादा बोल दिया और पता नहीं क्या-क्या बोल दिया, तो तैयारी के साथ संयमित और संक्षिप्त बोलने के अभ्यास का मन जरूर बना रहे होंगे। उन्हें ऐसा करने में शायद लंबा वक्त लगे। उन्होंने कार्यक्रम की भूमिका ही कुछ इस तरह से रखी कि लगा कि आगे का सारा मामला बहुत ही बोझिल होने जा रहा है। राजेंद्र यादव स्कूल से दीक्षित हुए अजय नावरिया ने इस बात का बार-बार दावा किया कि हंस जैसी पत्रिका ने साहित्यिक लोकतंत्र बहाल किया। लेकिन यादवजी के स्कूल से निकले इस शख्स की भाषा और प्रयोग किये गये शब्द इतने सामंती, मर्दवादी ठसक, बजबजाये हुए, परंपरागत और घिसे-पिटे होंगे, इसे सुनकर मेरी तरह लोगों का भी कलेजा छलनी हो रहा होगा। आज से ठीक दो साल पहले जब नामवर सिंह ने हंस के युवा विशेषांक और अजय नावरिया के संपादन का लगभग माखौल उड़ाते हुए दोहा पढ़ा था – ‘नये युग का नया नजरिया, पेश कर रहे हैं अजय नावरिया’, तो हमें नामवर सिंह पर भारी गुस्सा आया था। गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्होंने राजेंद्र यादव को लगभग आगाह करने के अंदाज में कहा था – इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा। लेकिन इस बार जब अजय नावरिया का मंच संचालन देखा और उसमें लगातार आत्मश्लाघा के अंदाज में खुद को प्रोजेक्ट करने की छटपटाहट देखी, तो लगा कि बाबा ने उस वक्त शायद ठीक ही कहा था। *अतिलोकतांत्रिक परिवेश की उपस्थिति* कई बार कैसे उच्छृंखलता और उथलेपन में तब्दील हो जाती है, ये साफ तौर पर झलक जा रहा था। दूसरा कि ये सही है कि राजेंद्र यादव स्कूल ने आलोचना की धार के आगे तारीफ करने की कला नहीं सिखायी लेकिन अजय नावरिया ने वाजिब तरीके से तारीफ करने की कला को चमचई और चाटुकारिता के पर्याय के तौर पर कैसे सीख लिया, ये अलग ही गंभीर मसला है। राजेंद्र यादव को लेकर वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे हम न केवल बोर हो रहे थे बल्कि खुद राजेंद्र यादव बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे और उन्हें बार-बार ऐसा करने से रोक रहे थे। लेकिन अजय नावरिया उनके इस संकेत का विस्तार थेथरई में कर जाते हैं और सुन लीजिए, सुन लीजिए कहकर आगे भी जारी रहते हैं। *मामला तब हद के पार हो जाता है* जब वो राजेंद्र यादव की तुलना सुकरात से करने लग जाते हैं। ये पूरे कार्यक्रम का बड़ा ही भद्दा हिस्सा था। राजेंद्र यादव के बारे में वो कुछ इस तरह से बातें कर रहे थे जैसे कि उम्र ढल जाने पर लोग घर के बूढ़े-बुजुर्गों से मजे लेने लग जाते हैं। माफ कीजिएगा, इतने बड़े मंच से राजेंद्र यादव से मजे लेने के अंदाज में अजय नावरिया ने जिस तरह से परिचय कराया, उससे इस संगोष्ठी के स्तर में काफी गिरावट आयी। आपसी बातचीत का मामला अलग होता है लेकिन संगोष्‍ठी की अपनी एक गरिमा होती है, जो कि उन्होंने पूरी तरह खत्म कर दी। *तीसरी बात कि इस मौके पर* हंस से जुड़े लोगों जिनमें कि कार्यालय के लोग भी शामिल थे, उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान के तौर पर किसे क्या दिया गया, ये सार्वजनिक तौर पर बताकर उन्हें भले ही लग रहा होगा कि उन्‍होंने एक बार फिर लोकतांत्रिक सोच का परिचय दिया है लेकिन ऐसा करते हुए अजय नावरिया भूल गये कि खैरात देने और सम्मानित करने की भाषा अलग होती है। *बहरहाल*, संचालन के नाम पर अजय नावरिया ने लंबे-लंबे पकाऊ संस्मरण और चमचई के अंदाज में राजेंद्र यादव को हंस के 25 साल के अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया। *राजेंद्र यादव को बोलने में* अब काफी तकलीफ होने लगी है और जब वो लंबी-लंबी सांस लेते हुए बड़ी मुश्किल से बोल रहे थे, तो हमें ग्लानि और बेचैनी हो रही थी कि हम फिर भी उनसे सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। राजेंद्र यादव ने जो कुछ भी कहा, वो हंस के संपादक की हैसियत से उसका ईमानदार आत्मकथन था… *हमने इतने सालों में क्या कमाल किया, क्या झंडे गाड़े, मेरा इस पर बोलना उचित नहीं है, बाकी लोग बोलते रहेंगे लेकिन कुल मिलाकर मैं बहुत खुश नहीं हूं। हंस निकालने के पहले मेरी योजना कंस निकालने की थी जो कि अब भी है…* *इस तरह से* अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने हंस निकालने की योजना कैसे बनी, क्या परेशानियां आयीं और मकान-मालिक से लेकर पाठकों तक ने किस तरह से मदद की, इस संबंध में बातें की। राजेंद्र यादव का उदास मन से निकला वक्तव्य दरअसल जुलाई के हंस के संपादकीय में कही गयी बातों का दोहराव ही था और जो लोग घर से पढ़कर इसे गये थे, उन्हें महसूस हो रहा होगा कि यादवजी ने कुछ नया नहीं कहा। *सम्‍मान के दौरान* अर्चना वर्मा को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। *अर्चना वर्मा ने बहुत ही कम समय में* जिस एक संस्मरण का जिक्र किया, उसकी चर्चा जरूरी है। वो हंस के स्त्री विशेषांक का संपादन कर रही थीं और उन्होंने राजेंद्र यादव की ही रचना को लौटा दी। आगे चलकर अर्चना वर्मा का जब भी परिचय कराया जाता, तो कहा जाता कि इन्होंने राजेंद्र यादव की रचना लौटा दी थी। अर्चना वर्मा ने कहा कि इसका श्रेय मेरे निजी साहस से ज्‍यादा इस बात को जाता है कि हंस में राजेंद्र यादव ने कैसा लोकतांत्रिक माहौल तैयार किया था। इस तरह के प्रसंगों को खोज-खोजकर और हर बात के पीछे हंस के ऊपर लोकतंत्र की वर्क छिड़कने की बचकानी कोशिशें अजय नावरिया लगातार कर भी रहे थे… ऐसा प्रोजेक्शन शायद राजेंद्र यादव के न चाहते हुए भी हंस की परंपरा का हिस्सा बन गया हो। *गौतम नवलखा भी* हंस की शुरुआत के दिनों में जुड़े थे और उन्हें भी मंच पर बिठाया गया था। उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव की ये बात अक्सर याद आती है कि हंस में छपने के लिए तुम्हें हिंदी में लिखना होगा, भले ही तुम जैसे-तैसे लिखो, गलतियां होती हैं, होने दो और मेरी हिंदुस्तानी भाषा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी… वैसे गौतम नवलखा बहुत ही अच्छी और प्रभावित करनेवाली हिंदी बोल रहे थे। *टीएम ललानी* जो हंस से जुड़े लोगों को सम्‍मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किये गये थे, उनके बारे में बताया गया कि अपने रोजगार, राजनीति और दुनियाभर के ताम-झाम के बीच भी हंस और राजेंद्र यादव से उनके रिश्‍ते जीवंत बने रहे। राजेंद्र यादव ने कहा कि हालांकि ये दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों के लिए जितनी उदारता से दान और चंदे देते रहे हैं, उतनी उदारता से हंस के लिए नहीं, लेकिन भावनात्मक स्तर का सहयोग लगातार बना रहता। ललानी साहब ने मंच से एक बात कही और इस बात का व्यक्तिगत तौर पर मुझ पर बहुत ही अलग किस्म का असर हुआ। मैं अभी भी इस संदर्भ से अपने को अलग नहीं कर पा रहा हूं। ललानी ने कहा कि आज मन्नू भंडारी को भी सम्मानित किया जाना चाहिए था, हम अब भी कर सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर हमने नजरें घुमायी। सबसे आगे की कतार में बैठीं मन्नू भंडारी ने हाथ जोड़ दिये। हमें मन्नू भंडारी के मंच तक आने का रत्तीभर भी इंतजार और भरोसा नहीं था और ऐसा करके उन्होंने आपका बंटी, त्रिशंकु और महाभोज जैसी रचनाएं पढ़कर जो छवि हमारे मन में उनके प्रति बनी थी, उसे ध्वस्त होने से बचा लिया। इस संदर्भ में सारा आकाश मंच से खिसककर मन्नू भंडारी की झोली में छिटक गया था। हमें भीतर से एक टीस के बावजूद सुकून मिला। *जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में* अशोक वाजपेयी ने लिखा कि हंस पत्रिका की बाकी सामग्री जिस तरह से पढ़ी जाती थी, उसी तरह से संपादकीय भी, बाकी की पत्रिकाओं के संपादकीय इस तरह से नहीं पढ़े जाते थे, उस पत्रिका का कार्यक्रम बहुत ही बेतरतीब सा लगा। जहां-तहां से बिखरा हुआ और लोगों के बोलने में कहीं से कोई पूर्व तैयारी नहीं। हमने ऊपर इसलिए पनछोट शब्द का इस्तेमाल किया। एक तो सम्मानित किये जानेवाले कई लोग इस मौके पर नहीं आये, आसपास की खुसुर-पुसुर से निकलकर आ रहा था कि काफी लोग नाराज भी हैं। अब हमारी सारी उम्मीदें नामवर सिंह पर टिकी थीं और लग रहा था कि इन्होंने अगर उम्मीद के मुताबिक बोल दिया तो सारा मामला सहज हो जाएगा। *मेरे दुश्मन राजेंद्र यादव और हंस के प्रिय पाठकों…* नामवर सिंह के इस संबोधन के साथ ही सभागार की डूबती नब्ज में अचानक से हरकत आ गयी। उबासी ले रहे श्रोता सतर्क हो गये और गौर से सुनने लगे… *ये आयोजन वैसे तो हंस के 25 साल पूरे होने का है, लेकिन ऐसा लगा रहा है कि ये हंस का नहीं बल्कि 82 साल के राजेंद्र यादव का जन्मदिन मनाया जा रहा है, ये बात शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे। हंस और राजेंद्र यादव यहां आकर पर्याय हो गये है। खैर, बिना किसी आर्थिक मजबूती के इस तरह से पत्रिका निकलती रही, इसके लिए मैं सिर झुकाता हूं। राजेंद्र यादव के आगे नहीं, हंस के आगे…* *नामवर सिंह ने बताना शुरू किया* कि जिस हंस की शुरुआत प्रेमचंद ने 1930 में की, आगे जब पत्रिका बंद हो गयी, तो इसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत अमृत राय ने भी नहीं की। बाद में माधुरी, सारिका जैसी दुनियाभर की पत्रिकाएं शुरू हुईं लेकिन हंस की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कमलेश्वर अपने को तीसमार खां समझते थे, बाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका से जुड़े लेकिन हंस का कोई ध्यान नहीं आया। ये बड़ी ही हैरान करनेवाली बात है कि हंस का कहीं कोई नामलेवा नहीं, ये नाम किसी को ध्यान में नहीं आया कि दोबारा इसे शुरू किया जाए। राजेंद्र ने अक्षर प्रकाशन से किताबें निकालने के साथ, बिना किसी स्थायी साधन के 1986 में हंस निकालने का इरादा किया। कहा कि अब हंस निकालेंगे। इस आदमी की हिम्मत देखिए कि सिर्फ निकाला ही नहीं बल्कि 25 सालों तक चलाया भी। हिंदी में ये बात स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ये सिर्फ हंस की नहीं, राजेंद्र यादव की भी जयंती है। *नामवर सिंह ने* जिस ऐतिहासिक मोड़ से हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में बताना शुरू किया, तो लगा कि मामला बहुत आगे तक और बहुत ही गंभीर तरीके से जाएगा लेकिन नामवर सिंह इसकी लीक छोड़कर दूसरे सिरे की तरफ मुड़ गये। *अशोक वाजपेयी तो कविता के अलावा किसी दूसरी चीज को साहित्य मानते ही नहीं, पढ़ते भी हैं तो अंग्रेजी लेखकों को लेकिन ये राजेंद्र यादव और हंस का ही लोकतंत्र है कि उसने अशोक वाजपेयी से भी हंस पर लिखवाया। अशोक वाजपेयी ने तो कभी पूर्वग्रह में राजेंद्र यादव को नहीं छापा। नया ज्ञानोदय और हंस के बीच सौतिया डाह है और रवींद्र कालिया भी बहुत खुश नहीं रहते हैं लेकिन मौजूदा अंक में उनसे भी लिखवाया। अखिलेश जो कि तद्भव जैसी पत्रिका बड़ी मेहनत से निकालते हैं, राजेंद्र से असहमति रखते हैं, उन्हें भी हंस के इंस अंक के लिए लिखवाया और असहमति में ही सही लिखा। निंदक नीयरे राखिए, आंगन कुटी छवाय वाली जो बात कबीर ने कभी कही थी, उस पर इस पत्रिका और राजेंद्र यादव ने व्यावहारिक तौर पर अमल किया। ये लोकतंत्र है।* *नामवर सिंह* राजेंद्र यादव को लेकर जो बोल रहे थे, वो भी उनकी तारीफ ही थी लेकिन वो अजय नावरिया की तरह फूहड़ नहीं थी। आलोचना के साथ-साथ तारीफ करने की भी शैली नामवर सिंह से सीखी जानी चाहिए। *शुरू के डेढ़ दशक में पत्रिका ने बहुत ही तेवर के साथ काम किया। लेकिन उसके बाद ढलान आने लग गयी। ऐसा होता है। हर कोई ढलान की तरफ बढ़ता है। आगे हम या राजेंद्र यादव ही पता नहीं ये बात कहने के लिए रह जाएंगे भी या नहीं। जीव-जंतुओं की तरह पत्रिका को भी कई योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। हंस भी उसी तरह से गुजरा। उसे कभी कौआ बनना पड़ा, कभी बगुला और कभी कुत्ते की तरह चौकस रहना पड़ा। मुझे लगता है कि हंस में तीन योनि – कौआ, बगुला और कुत्ते के गुण हमेशा मौजूद रहे। मैं आप नये लोगों से एक बार फिर कहूंगा कि इस भीष्म (राजेंद्र यादव) के पास अभी भी मौका निकाल कर जाइए – लेकिन कहानी छपवाने के लिए नहीं, कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।* *नामवर सिंह* पिछले दो-तीन बार से अपने आगे होने न होने की बात करने लगे हैं, एक बहुत ही भावनात्मक अप्रोच के साथ। राजेंद्र यादव के संदर्भ में उन्होंने इसी लहजे में बात कही। चलते-चलते उन्होंने कुछ इस तरह से कहा… *जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो जो हो सकता है, वो आदमी से हो नहीं सकता।* *नामवर सिंह को सुनना* अच्छा लगा लेकिन बहुत फायदेमंद नहीं रहा। खासकर उनलोगों के लिए जो कि साहित्यिक पत्रकारिता और हंस शीर्षक को ध्यान में रखकर सुनने आये थे। अशोक वाजपेयी पर ली गयी चुटकी, रोचक प्रसंग और काक चेष्टा जैसे सहज श्लोक से लोगों का ध्यान जरूर खींचा लेकिन जिस मुद्दे पर हम उनसे गंभीर व्याख्यान की उम्मीद कर रहे थे, ऐसा कुछ भी नहीं कहा। हंस ने किस तरह के विमर्श पैदा किये, उस समय की बाकी पत्रिकाएं क्या कर रही थीं, हिंदी पत्रिका का मुख्य स्वर क्या था, इन सब मसले पर कोई बात नहीं की। इस लिहाज से नामवर सिंह के व्याख्यान से कुछ निकल कर नहीं आया, हां थोड़े समय के लिए स्वस्थ मनोरंजन जरूर हो गया। नामवर सिंह अगर कायदे से साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलते तो कुछ नहीं तो विश्वविद्यालय में हर साल 10-20 नंबर के सवाल का जवाब हल करने में मीडिया के छात्रों को मदद मिलती, लेकिन वैसा भी नहीं हो सका। *कुल मिलाकर देखें तो* इस संगोष्ठी का निष्‍कर्ष ऐसा कुछ भी नहीं रहा, जिससे हम भरा-भरा महसूस कर पाते। हम इस उम्मीद में थे कि हंस ने 25 साल में जो बहसें खड़ी की हैं, जो विमर्श पैदा किये हैं, उस दौर में जो संपादकीय आये और उसे लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उन पर पर संक्षेप में ही सही, बात होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हंस ने कितने कहानीकार और लेखक पैदा किये, लेकिन एक का भी कहीं कोई जिक्र नहीं। सामयिकता का मोह हंस के इतिहास को इतनी जल्दी बिसार देगा, इसकी कल्पना हमें नहीं थी। वो सारे लोग और उनकी चर्चा सिरे से गायब थी, जिन्हें हमने नब्बे के दशक में पढ़ा। इस मौके पर राजकमल की ओर से तीन किताबों… 1) पचीस वर्ष पचीस कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 2) हंस की लंबी कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 3) मुबारक पहला कदम (हंस में प्रकाशित कथाकार की पहली कहानी) | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : संजीव का लोकार्पण जरूर हुआ लेकिन इस पर कोई बात नहीं हुई। हम हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के सफर को सुनने गये थे लेकिन हमें मौजूदा हंस बहुत ही बेतरतीब नजर आया, इतिहास की तो बात ही छोड़िए। *हंस की संगोष्ठी के लिए* ये गर्व और संतोष देनेवाली बात होती है कि बिना कोशिश के जो श्रोताओं का हुजूम चला आता है, मीडिया, संस्कृति और साहित्य से जुड़े जिस तरह से लोग आते हैं, उनके बीच बहुत गंभीरता से कई मसले पर साझा-विमर्श किया जा सकता है लेकिन हंस की गोष्ठी इन श्रोताओं के होने का फायद नहीं उठा पाती। उनके बीच बात रखने से शायद असर भी हो लेकिन वो अक्सर चूक जाते हैं। ऐसे श्रोताओं को जुटाने में अच्छे-अच्छे आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं। हंस को इन श्रोताओं का लाभ लेते हुए संगोष्ठी को गंभीर शक्ल देने की जरूरत है। *चलते-चलते* हंस को एक सुझाव कि अब उसे प्रेमचंद जयंती के नाम पर संगोष्ठी आयोजन करने का दावा छोड़ देना चाहिए। जब आप ढाई-तीन घंटे की संगोष्ठी में सालों से एक बार भी प्रेमचंद और उनकी परंपरा का नाम तक नहीं लेते, तो उनके नाम पर संगोष्ठी आयोजित करने का क्या लाभ? मूलतः प्रकाशितः-मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Aug 2 08:51:45 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Aug 2011 08:51:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgCDgpJXgpYsg4KSy4KWH4KSV?= =?utf-8?b?4KSwIOCkueCkriDgpLjgpKbgpK7gpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkueCliA==?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: हं स जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, ये देख-सुनकर भारी निराशा हुई। हम हंस की रजत जयंती कार्यक्रम से लौटकर सदमे में हैं। हंस की वार्षिक संगोष्ठी, हिंदी साहित्य से जुड़ा अकेला कार्यक्रम होता है, जिसका इंतजार हमें मेले-ठेले की तरह कई दिनों पहले से होता है। इसकी बड़ी वजह तो ये है कि हिंदी और मीडिया के वे तमाम भूले-बिसरे चेहरे एक साथ दिख जाते हैं जिनकी हैसियत, जिंदगी और चैनल बदल चुके होते हैं और दूसरा कि संगोष्ठी में कुछ गंभीर बातें जरूर निकल कर आती हैं, जिस पर कि आगे विचार किया जाना जरूरी होता है। अबकी बार तो और भी 25 साल होने पर कार्यक्रम का आयोजन किये जाने का मामला था, सो लग रहा था कि कुछ अलग, बेहतर और गंभीर बातचीत होगी। निर्धारित समय से करीब एक घंटे बाद यानी छह बजे कार्यक्रम शुरू होने पर ये धारणा और भी मजबूत हो गयी कि अबकी बार तो हंस की यादगार संगोष्‍ठी होने जा रही है। वक्ता के तौर पर अकेले नामवर सिंह को अपनी बात रखनी थी, तो हम निश्चिंत थे कि हर साल से अलग इस बार एक-दूसरे से नूराकुश्ती होने के बजाय एक रौ में सिर्फ उन्हें ही सुनने को मिलेगा। लेकिन… ** * * ** * * *कार्यक्रम की शुरुआत* की औपचारिक घोषणा के साथ ही हमारी सारी उम्मीदों पर अजय नावरिया ने पानी फेर दिया। घर जाकर ईमानदारी से अगर वो इस पर सोच रहे होंगे कि उन्‍होंने ज्यादा बोल दिया और पता नहीं क्या-क्या बोल दिया, तो तैयारी के साथ संयमित और संक्षिप्त बोलने के अभ्यास का मन जरूर बना रहे होंगे। उन्हें ऐसा करने में शायद लंबा वक्त लगे। उन्होंने कार्यक्रम की भूमिका ही कुछ इस तरह से रखी कि लगा कि आगे का सारा मामला बहुत ही बोझिल होने जा रहा है। राजेंद्र यादव स्कूल से दीक्षित हुए अजय नावरिया ने इस बात का बार-बार दावा किया कि हंस जैसी पत्रिका ने साहित्यिक लोकतंत्र बहाल किया। लेकिन यादवजी के स्कूल से निकले इस शख्स की भाषा और प्रयोग किये गये शब्द इतने सामंती, मर्दवादी ठसक, बजबजाये हुए, परंपरागत और घिसे-पिटे होंगे, इसे सुनकर मेरी तरह लोगों का भी कलेजा छलनी हो रहा होगा। आज से ठीक दो साल पहले जब नामवर सिंह ने हंस के युवा विशेषांक और अजय नावरिया के संपादन का लगभग माखौल उड़ाते हुए दोहा पढ़ा था – ‘नये युग का नया नजरिया, पेश कर रहे हैं अजय नावरिया’, तो हमें नामवर सिंह पर भारी गुस्सा आया था। गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्होंने राजेंद्र यादव को लगभग आगाह करने के अंदाज में कहा था – इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा। लेकिन इस बार जब अजय नावरिया का मंच संचालन देखा और उसमें लगातार आत्मश्लाघा के अंदाज में खुद को प्रोजेक्ट करने की छटपटाहट देखी, तो लगा कि बाबा ने उस वक्त शायद ठीक ही कहा था। *अतिलोकतांत्रिक परिवेश की उपस्थिति* कई बार कैसे उच्छृंखलता और उथलेपन में तब्दील हो जाती है, ये साफ तौर पर झलक जा रहा था। दूसरा कि ये सही है कि राजेंद्र यादव स्कूल ने आलोचना की धार के आगे तारीफ करने की कला नहीं सिखायी लेकिन अजय नावरिया 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कार्यालय के लोग भी शामिल थे, उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान के तौर पर किसे क्या दिया गया, ये सार्वजनिक तौर पर बताकर उन्हें भले ही लग रहा होगा कि उन्‍होंने एक बार फिर लोकतांत्रिक सोच का परिचय दिया है लेकिन ऐसा करते हुए अजय नावरिया भूल गये कि खैरात देने और सम्मानित करने की भाषा अलग होती है। *बहरहाल*, संचालन के नाम पर अजय नावरिया ने लंबे-लंबे पकाऊ संस्मरण और चमचई के अंदाज में राजेंद्र यादव को हंस के 25 साल के अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया। *राजेंद्र यादव को बोलने में* अब काफी तकलीफ होने लगी है और जब वो लंबी-लंबी सांस लेते हुए बड़ी मुश्किल से बोल रहे थे, तो हमें ग्लानि और बेचैनी हो रही थी कि हम फिर भी उनसे सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। राजेंद्र यादव ने जो कुछ भी कहा, वो हंस के संपादक की हैसियत से उसका ईमानदार आत्मकथन था… *हमने इतने सालों में क्या कमाल किया, क्या झंडे गाड़े, मेरा इस पर बोलना उचित नहीं है, बाकी लोग बोलते रहेंगे लेकिन कुल मिलाकर मैं बहुत खुश नहीं हूं। हंस निकालने के पहले मेरी योजना कंस निकालने की थी जो कि अब भी है…* *इस तरह से* अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने हंस निकालने की योजना कैसे बनी, क्या परेशानियां आयीं और मकान-मालिक से लेकर पाठकों तक ने किस तरह से मदद की, इस संबंध में बातें की। राजेंद्र यादव का उदास मन से निकला वक्तव्य दरअसल जुलाई के हंस के संपादकीय में कही गयी बातों का दोहराव ही था और जो लोग घर से पढ़कर इसे गये थे, उन्हें महसूस हो रहा होगा कि यादवजी ने कुछ नया नहीं कहा। *सम्‍मान के दौरान* अर्चना वर्मा को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। *अर्चना वर्मा ने बहुत ही कम समय में* जिस एक संस्मरण का जिक्र किया, उसकी चर्चा जरूरी है। वो हंस के स्त्री विशेषांक का संपादन कर रही थीं और उन्होंने राजेंद्र यादव की ही रचना को लौटा दी। आगे चलकर अर्चना वर्मा का जब भी परिचय कराया जाता, तो कहा जाता कि इन्होंने राजेंद्र यादव की रचना लौटा दी थी। अर्चना वर्मा ने कहा कि इसका श्रेय मेरे निजी साहस से ज्‍यादा इस बात को जाता है कि हंस में राजेंद्र यादव ने कैसा लोकतांत्रिक माहौल तैयार किया था। इस तरह के प्रसंगों को खोज-खोजकर और हर बात के पीछे हंस के ऊपर लोकतंत्र की वर्क छिड़कने की बचकानी कोशिशें अजय नावरिया लगातार कर भी रहे थे… ऐसा प्रोजेक्शन शायद राजेंद्र यादव के न चाहते हुए भी हंस की परंपरा का हिस्सा बन गया हो। *गौतम नवलखा भी* हंस की शुरुआत के दिनों में जुड़े थे और उन्हें भी मंच पर बिठाया गया था। उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव की ये बात अक्सर याद आती है कि हंस में छपने के लिए तुम्हें हिंदी में लिखना होगा, भले ही तुम जैसे-तैसे लिखो, गलतियां होती हैं, होने दो और मेरी हिंदुस्तानी भाषा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी… वैसे गौतम नवलखा बहुत ही अच्छी और प्रभावित करनेवाली हिंदी बोल रहे थे। *टीएम ललानी* जो हंस से जुड़े लोगों को सम्‍मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किये गये थे, उनके बारे में बताया गया कि अपने रोजगार, राजनीति और दुनियाभर के ताम-झाम के बीच भी हंस और राजेंद्र यादव से उनके रिश्‍ते जीवंत बने रहे। राजेंद्र यादव ने कहा कि हालांकि ये दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों के लिए जितनी उदारता से दान और चंदे देते रहे हैं, उतनी उदारता से हंस के लिए नहीं, लेकिन भावनात्मक स्तर का सहयोग लगातार बना रहता। ललानी साहब ने मंच से एक बात कही और इस बात का व्यक्तिगत तौर पर मुझ पर बहुत ही अलग किस्म का असर हुआ। मैं अभी भी इस संदर्भ से अपने को अलग नहीं कर पा रहा हूं। ललानी ने कहा कि आज मन्नू भंडारी को भी सम्मानित किया जाना चाहिए था, हम अब भी कर सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर हमने नजरें घुमायी। सबसे आगे की कतार में बैठीं मन्नू भंडारी ने हाथ जोड़ दिये। हमें मन्नू भंडारी के मंच तक आने का रत्तीभर भी इंतजार और भरोसा नहीं था और ऐसा करके उन्होंने आपका बंटी, त्रिशंकु और महाभोज जैसी रचनाएं पढ़कर जो छवि हमारे मन में उनके प्रति बनी थी, उसे ध्वस्त होने से बचा लिया। इस संदर्भ में सारा आकाश मंच से खिसककर मन्नू भंडारी की झोली में छिटक गया था। हमें भीतर से एक टीस के बावजूद सुकून मिला। *जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में* अशोक वाजपेयी ने लिखा कि हंस पत्रिका की बाकी सामग्री जिस तरह से पढ़ी जाती थी, उसी तरह से संपादकीय भी, बाकी की पत्रिकाओं के संपादकीय इस तरह से नहीं पढ़े जाते थे, उस पत्रिका का कार्यक्रम बहुत ही बेतरतीब सा लगा। जहां-तहां से बिखरा हुआ और लोगों के बोलने में कहीं से कोई पूर्व तैयारी नहीं। हमने ऊपर इसलिए पनछोट शब्द का इस्तेमाल किया। एक तो सम्मानित किये जानेवाले कई लोग इस मौके पर नहीं आये, आसपास की खुसुर-पुसुर से निकलकर आ रहा था कि काफी लोग नाराज भी हैं। अब हमारी सारी उम्मीदें नामवर सिंह पर टिकी थीं और लग रहा था कि इन्होंने अगर उम्मीद के मुताबिक बोल दिया तो सारा मामला सहज हो जाएगा। *मेरे दुश्मन राजेंद्र यादव और हंस के प्रिय पाठकों…* नामवर सिंह के इस संबोधन के साथ ही सभागार की डूबती नब्ज में अचानक से हरकत आ गयी। उबासी ले रहे श्रोता सतर्क हो गये और गौर से सुनने लगे… *ये आयोजन वैसे तो हंस के 25 साल पूरे होने का है, लेकिन ऐसा लगा रहा है कि ये हंस का नहीं बल्कि 82 साल के राजेंद्र यादव का जन्मदिन मनाया जा रहा है, ये बात शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे। हंस और राजेंद्र यादव यहां आकर पर्याय हो गये है। खैर, बिना किसी आर्थिक मजबूती के इस तरह से पत्रिका निकलती रही, इसके लिए मैं सिर झुकाता हूं। राजेंद्र यादव के आगे नहीं, हंस के आगे…* *नामवर सिंह ने बताना शुरू किया* कि जिस हंस की शुरुआत प्रेमचंद ने 1930 में की, आगे जब पत्रिका बंद हो गयी, तो इसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत अमृत राय ने भी नहीं की। बाद में माधुरी, सारिका जैसी दुनियाभर की पत्रिकाएं शुरू हुईं लेकिन हंस की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कमलेश्वर अपने को तीसमार खां समझते थे, बाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका से जुड़े लेकिन हंस का कोई ध्यान नहीं आया। ये बड़ी ही हैरान करनेवाली बात है कि हंस का कहीं कोई नामलेवा नहीं, ये नाम किसी को ध्यान में नहीं आया कि दोबारा इसे शुरू किया जाए। राजेंद्र ने अक्षर प्रकाशन से किताबें निकालने के साथ, बिना किसी स्थायी साधन के 1986 में हंस निकालने का इरादा किया। कहा कि अब हंस निकालेंगे। इस आदमी की हिम्मत देखिए कि सिर्फ निकाला ही नहीं बल्कि 25 सालों तक चलाया भी। हिंदी में ये बात स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ये सिर्फ हंस की नहीं, राजेंद्र यादव की भी जयंती है। *नामवर सिंह ने* जिस ऐतिहासिक मोड़ से हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में बताना शुरू किया, तो लगा कि मामला बहुत आगे तक और बहुत ही गंभीर तरीके से जाएगा लेकिन नामवर सिंह इसकी लीक छोड़कर दूसरे सिरे की तरफ मुड़ गये। *अशोक वाजपेयी तो कविता के अलावा किसी दूसरी चीज को साहित्य मानते ही नहीं, पढ़ते भी हैं तो अंग्रेजी लेखकों को लेकिन ये राजेंद्र यादव और हंस का ही लोकतंत्र है कि उसने अशोक वाजपेयी से भी हंस पर लिखवाया। अशोक वाजपेयी ने तो कभी पूर्वग्रह में राजेंद्र यादव को नहीं छापा। नया ज्ञानोदय और हंस के बीच सौतिया डाह है और रवींद्र कालिया भी बहुत खुश नहीं रहते हैं लेकिन मौजूदा अंक में उनसे भी लिखवाया। अखिलेश जो कि तद्भव जैसी पत्रिका बड़ी मेहनत से निकालते हैं, राजेंद्र से असहमति रखते हैं, उन्हें भी हंस के इंस अंक के लिए लिखवाया और असहमति में ही सही लिखा। निंदक नीयरे राखिए, आंगन कुटी छवाय वाली जो बात कबीर ने कभी कही थी, उस पर इस पत्रिका और राजेंद्र यादव ने व्यावहारिक तौर पर अमल किया। ये लोकतंत्र है।* *नामवर सिंह* राजेंद्र यादव को लेकर जो बोल रहे थे, वो भी उनकी तारीफ ही थी लेकिन वो अजय नावरिया की तरह फूहड़ नहीं थी। आलोचना के साथ-साथ तारीफ करने की भी शैली नामवर सिंह से सीखी जानी चाहिए। *शुरू के डेढ़ दशक में पत्रिका ने बहुत ही तेवर के साथ काम किया। लेकिन उसके बाद ढलान आने लग गयी। ऐसा होता है। हर कोई ढलान की तरफ बढ़ता है। आगे हम या राजेंद्र यादव ही पता नहीं ये बात कहने के लिए रह जाएंगे भी या नहीं। जीव-जंतुओं की तरह पत्रिका को भी कई योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। हंस भी उसी तरह से गुजरा। उसे कभी कौआ बनना पड़ा, कभी बगुला और कभी कुत्ते की तरह चौकस रहना पड़ा। मुझे लगता है कि हंस में तीन योनि – कौआ, बगुला और कुत्ते के गुण हमेशा मौजूद रहे। मैं आप नये लोगों से एक बार फिर कहूंगा कि इस भीष्म (राजेंद्र यादव) के पास अभी भी मौका निकाल कर जाइए – लेकिन कहानी छपवाने के लिए नहीं, कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।* *नामवर सिंह* पिछले दो-तीन बार से अपने आगे होने न होने की बात करने लगे हैं, एक बहुत ही भावनात्मक अप्रोच के साथ। राजेंद्र यादव के संदर्भ में उन्होंने इसी लहजे में बात कही। चलते-चलते उन्होंने कुछ इस तरह से कहा… *जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता* *मगर देखो तो जो हो सकता है, वो आदमी से हो नहीं सकता।* *नामवर सिंह को सुनना* अच्छा लगा लेकिन बहुत फायदेमंद नहीं रहा। खासकर उनलोगों के लिए जो कि साहित्यिक पत्रकारिता और हंस शीर्षक को ध्यान में रखकर सुनने आये थे। अशोक वाजपेयी पर ली गयी चुटकी, रोचक प्रसंग और काक चेष्टा जैसे सहज श्लोक से लोगों का ध्यान जरूर खींचा लेकिन जिस मुद्दे पर हम उनसे गंभीर व्याख्यान की उम्मीद कर रहे थे, ऐसा कुछ भी नहीं कहा। हंस ने किस तरह के विमर्श पैदा किये, उस समय की बाकी पत्रिकाएं क्या कर रही थीं, हिंदी पत्रिका का मुख्य स्वर क्या था, इन सब मसले पर कोई बात नहीं की। इस लिहाज से नामवर सिंह के व्याख्यान से कुछ निकल कर नहीं आया, हां थोड़े समय के लिए स्वस्थ मनोरंजन जरूर हो गया। नामवर सिंह अगर कायदे से साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलते तो कुछ नहीं तो विश्वविद्यालय में हर साल 10-20 नंबर के सवाल का जवाब हल करने में मीडिया के छात्रों को मदद मिलती, लेकिन वैसा भी नहीं हो सका। *कुल मिलाकर देखें तो* इस संगोष्ठी का निष्‍कर्ष ऐसा कुछ भी नहीं रहा, जिससे हम भरा-भरा महसूस कर पाते। हम इस उम्मीद में थे कि हंस ने 25 साल में जो बहसें खड़ी की हैं, जो विमर्श पैदा किये हैं, उस दौर में जो संपादकीय आये और उसे लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उन पर पर संक्षेप में ही सही, बात होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हंस ने कितने कहानीकार और लेखक पैदा किये, लेकिन एक का भी कहीं कोई जिक्र नहीं। सामयिकता का मोह हंस के इतिहास को इतनी जल्दी बिसार देगा, इसकी कल्पना हमें नहीं थी। वो सारे लोग और उनकी चर्चा सिरे से गायब थी, जिन्हें हमने नब्बे के दशक में पढ़ा। इस मौके पर राजकमल की ओर से तीन किताबों… 1) पचीस वर्ष पचीस कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 2) हंस की लंबी कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 3) मुबारक पहला कदम (हंस में प्रकाशित कथाकार की पहली कहानी) | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : संजीव का लोकार्पण जरूर हुआ लेकिन इस पर कोई बात नहीं हुई। हम हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के सफर को सुनने गये थे लेकिन हमें मौजूदा हंस बहुत ही बेतरतीब नजर आया, इतिहास की तो बात ही छोड़िए। *हंस की संगोष्ठी के लिए* ये गर्व और संतोष देनेवाली बात होती है कि बिना कोशिश के जो श्रोताओं का हुजूम चला आता है, मीडिया, संस्कृति और साहित्य से जुड़े जिस तरह से लोग आते हैं, उनके बीच बहुत गंभीरता से कई मसले पर साझा-विमर्श किया जा सकता है लेकिन हंस की गोष्ठी इन श्रोताओं के होने का फायद नहीं उठा पाती। उनके बीच बात रखने से शायद असर भी हो लेकिन वो अक्सर चूक जाते हैं। ऐसे श्रोताओं को जुटाने में अच्छे-अच्छे आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं। हंस को इन श्रोताओं का लाभ लेते हुए संगोष्ठी को गंभीर शक्ल देने की जरूरत है। हर बार से अलग हंस की इस गोष्ठी को इस बार खुला और लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश में मंच की तरफ से घोषणा की गई कि श्रोता सवाल-जबाब भी कर सकते हैं। पत्रकार उमाशंकर सिंह ने सवाल किया कि- हंस के अगले अंक के लिए इस बात की घोषणा है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की कहानी छापी जा रही है,क्या हंस के 25 साल के बाद आगे पत्रिका की परिणति निशंक जैसे लोगों को छापकर ही होगी? ध्यान रहे कि पिछले कुछ महीनों से निशंक का नाम उत्तराखंड में घोटाले का पर्दाफाश करनेवाले पत्रकारों को कुचलने के तौर पर लगातार लिया जाता रहा है।.राजेन्द्र यादव ने उमाशंकर सिंह के सवाल का जबाब दिया कि हम अपने से अलग विचारधारा और समझ के लोगों को न छापकर उससे लेखक होने का अधिकार नहीं छिन सकते।..यादवजी का कहना बिल्कुल सही है लेकिन क्या हंस ने पिछले 25 सालों से सचमुच ऐसा किया है? अगर हां तो फिर निर्मल वर्मा हंस के लिए कभी कथाकार क्यों नहीं रहे। बहरहाल,ऐसे मौके पर हंस की रणनीति पर सवालिया निशान लगता ही है।..सिर्फ एक सवाल के बाद धन्यवाद ज्ञापन के लिए राजेन्द्र यादव को आमंत्रित किया जाता है। अगर इधर-उधर की ताम-झाम के बजाय ये सत्र लंबा होता तो गोष्ठी में जान आ जाती। *चलते-चलते* हंस को एक सुझाव कि अब उसे प्रेमचंद जयंती के नाम पर संगोष्ठी आयोजन करने का दावा छोड़ देना चाहिए। जब आप ढाई-तीन घंटे की संगोष्ठी में सालों से एक बार भी प्रेमचंद और उनकी परंपरा का नाम तक नहीं लेते, तो उनके नाम पर संगोष्ठी आयोजित करने का क्या लाभ? मूलतः प्रकाशितः-मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From blogprahari at gmail.com Tue Aug 2 14:13:49 2011 From: blogprahari at gmail.com (BLOGPRAHARI) Date: Tue, 2 Aug 2011 14:13:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkheCkrCDgpKw=?= =?utf-8?b?4KWd4KWH4KSX4KWAIOCkueCkv+CkguCkpuClgCwg4KSF4KSsIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSX4KWAIOCkueCkv+CkguCkpuClgCIuLuCkheCkrCDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KWAIOCkruCkvuCkpOClg+CkreCkvuCkt+CkviDgpK7gpYc=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCksOClh+CkgiDgpLjgpYvgpLbgpLIg4KSo4KWH4KSf4KS1?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSV4KS/4KSC4KSXIC4u?= Message-ID: ब्लॉगप्रहरी : हिंदी सोशल नेट्वर्क : माइक्रो ब्लॉग : ब्लॉग एग्रीगेटर कनिष्क कश्यप ने आपको अपने मित्र के रूप में परिचित कराया है : :---- मान्यवर !! मैं आपको भारत के सबसे बड़े हिंदी नेट्वर्क से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता हूँ. आपके साथ होने से अंतरजाल पर हिंदी के सशक्तिकरण के इस प्रयास को सफलता मिलेगी. - कनिष्क कश्यप Accept View invitation from Kanishka Kashyap > क्या आप जानते है ? ब्लॉगप्रहरी पर होते हुए, आप अपने अन्य सोशल नेटवर्क को भी > ब्लॉगप्रहरी से ही अपडेट कर सकते है. ब्लोग्प्रहरी आपको अपनी मातृभाषा में कई > ऐसी सुविधाएं देता है जो आपको अन्य सोशल नेटवर्क पर नहीं मिलती. आइये साथ हो > हिंदी को समृद्ध करें . ! © 2010, Blogprahari Network अगर आप ब्लॉगप्रहरी द्वारा भेजे गए इस मेल से आहत हैं , को कृप्या सब्जेक्ट में "UNSUBSCRIBE" लिख कर हमें वापस मेल करें. आपको यह मेल दुबारा नहीं भेजा जायेगा! धन्यवाद !! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Wed Aug 3 17:02:17 2011 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Wed, 3 Aug 2011 17:02:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSu4KS+LTE=?= Message-ID: कोसीनामा-1कोसी की गाथा या यों कहें दु-गाथा की कई कहानियां हैं। क्योंकि इसे 'बिहार का शोक" कहा जाता है। इसकी कोई मुख्य धारा नहीं है। उत्तर बिहार के समूचे इलाके के विस्तृत भूभाग से होकर यह गुजरती है। इलाके के लोग इसे 'धार" कहते हैं। बिहार के सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार, अररिया आदि जिलों के तमाम इलाकों में घूम आइये, कोसी किसी न किसी रूप में आपको 'ठाम-ठाम" पर मिल जाएगी। बड़े-बड़े नालों की तरह दीखने वाली कोसी की 'धार" आपको कभी सूखी मिलेगी तो कभी पानी से लबालब। कहीं इस पर सरकार के द्वारा बनाया गया 'पुलिया" दीख जाएगा तो कहीं ग्रामीणों द्वारा बांस, लकड़ी या फिर सीमेंट के पोल से बनाया गया पुल। अनोखी दास्तां है कोसी की और कोसी के दामन में रहने वाले लोगों की। कोसी कभी सूखती नहीं। इसकी आंखों में आंसू हमेशा रहते हैं। अपने अल्हड़पन से लोगों को त्रस्त करने के बाद इसे काफी पछतावा भी होता है। क्योंकि बरसात के मौसम के बाद जब यह शांत होती है तो पूरे इलाके में कोसी के दर्द को देखा जा सकता है। छोटे-बड़े नालों के रूप में बहने वाली कोसी में पानी तो जरूर रहता है लेकिन वह उसके विराट स्वरूप में सिर्फ आंसू की तरह नजर आता है। उस वक्त न वह अल्हड़पन दिखाई देता है और न ही औघड़पन। शांत, निर्मल। इतना निर्मल कि आप यदि एक 'चुरू" पानी भी भी लें तो आपकी आत्मा 'तिरपित" हो जाएगी। आपको विश्वास नहीं होगा कि यह वही कोसी है, जिसके गुस्सैल स्वभाव ने इलाके को जलमग्न कर दिया और सभी को खुद में समाहित कर चुकी है। यह हाल बरसात के मौसम के बाद पूरे साल कोसी की रहती है। जब आप कुरसेला से होकर गुजरेंगे, वह चाहे रेल मार्ग हो या फिर सड़क मार्ग। कुरसेला पुल से गुजरते हुए आपको साफ-साफ दीख जाएगा कि किसी तरह कोसी गंगा से मिल रही है। एक तरह 'तामस" रखने वाली कोसी वहीं दूसरी तरफ शांत-निर्मल गंगा। दोनों के पानी में अंतर। रंग में अंतर। पानी की धारा में अंतर। नदी की 'चक्करघिन्नी" में भी अंतर। लेकिन कोसी अपने इलाके में क्यों न कितनी भी झटपटाहट रखती हो, करवट बदलती हो लेकिन जब उसे गंगा 'हग" करती है तो फिर क्या मजाल कि कोसी का मन शांत न हो। जो कोसी हर साल पूरे इलाके में जानमाल से लेकर लाखों की संपत्ति लील जाती है उसी कोसी का मन गंगा से मिलकर गंगा में ही विलीन हो जाती है। कोसी मैया है और गंगा भी मैया। लेकिन गंगा को कोसी की 'पैग" बहन कहा जाता है। गंगा तो गंगा लेकिन कोसी जब गंगा के आंचल में आती है तो उसे 'माय के आंचर" जैसा सुकून मिलता है। लोग कहते हैं कि जब कोसी लहलहाती है तो उसके सामने कोई भी ठहर नहीं पाता लेकिन वह जब गंगा में मिलती है तो उसके तीव्र वेग कहां चला जाता है, कोई नहीं जानता। कोसी में एक विक्षोभ है, वही विक्षोभ आपको यहां की मिट्टी में पले लोगों में मिलेगा। कोसी में एक सन्यास भाव है, वह न किसी से प्रेम करती है और न ही विरक्ति का भाव ही रखती है। कोई मोह नहीं, कोई माया नहीं। एक औघड़पन है, एक अल्हड़पन है कोसी में। जब जिधर मूड किया, उसी करवट में चलती रहती है। गांव का गांव डूब गया, कोई अपनत्व नहीं दिखाती तो कोई परायापन भी नहीं है इसमें। कोसी लोगों को जीना सिखाती है। कोसी संदेश देती है कि यह जीवन क्षणभंगुर है। न किसी से मोह रखो और न ही किसी से द्वेष ही। कोसी की नजर में सब एक है, बिलकुल 'सूफी" की तरह। सूफीनामा अंदाज में वह पूरे इलाके में घूमती रहती है। गंगा से उसे जबर्दस्त लगाव है। वह बंधे नहीं रह पाती लेकिन गंगा से मिलने के बाद अपने वजूद को भूल जाती है। http://vinitutpal.blogspot.com/2011/08/1.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From gopal09singh at gmail.com Wed Aug 3 17:21:02 2011 From: gopal09singh at gmail.com (gopal singh) Date: Wed, 3 Aug 2011 17:21:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Add request. Message-ID: Hello Sir, This mail is in regard of add to deewan mailing list. Thanks gopal Tetra Support Team. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From baliwrites at gmail.com Thu Aug 4 11:07:06 2011 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Thu, 4 Aug 2011 11:07:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= to see Message-ID: dear find below links of by blogs. kindly read and comment. love balvinder singh http://bachpanbachpan.blogspot.com/ http://hitchkie.blogspot.com/ http://vidyalayadiary.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Aug 6 11:02:21 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 6 Aug 2011 11:02:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWB4KSc?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUg4KSG4KSm4KS/4KS14KS+4KS44KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KSX4KS+IOCkleCksCDgpJXgpY3igI3gpK/gpL4g4KSs4KSk4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkmuCkvuCkueCkpOClhyDgpLngpYjgpII/?= Message-ID: *विनीत को इस बात पर आपत्ति है कि अनुज लुगुन को सिर्फ कवि क्‍यों नहीं माना जा रहा है, उसके साथ आदिवासी का विशेषण क्‍यों जोड़ा जा रहा है। अपने तर्क रखते हुए उन्‍होंने मोहल्‍ला लाइव को भी इसका दोषी माना है। विनीत खुद मोहल्‍ला लाइव का हिस्‍सा रहे हैं और वे जानते हैं कि समाज में हाशिये की आबादी को लेकर हमारा रुख क्‍या रहा है। दलित साहित्‍य को भी इसी आधार पर बरसों मुख्‍यधारा में जगह नहीं मिली। उसने अपनी धारा बनायी और आज उसी कसौटी पर प्रेमचंद तक को कटघरे में खड़ा किया जाता है। लेकिन सबसे दुर्दांत सच, जिसकी तरफ विनीत ने ध्‍यान नहीं दिया है – वह यह है कि मीडिया ने अनुज लुगुन को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार मिलने की खबर को कोई तवज्‍जो नहीं दी। साहित्‍य के सवर्ण कर्णधारों ने खामोशी ओढ़े रखी। किसी लेखक संगठन ने कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की। विनीत जी, यह सब शायद इसलिए क्‍योंकि अनुज लुगुन कवि होने के साथ ही आदिवासी जो है। बेशक, यह पुरस्‍कार कविता को मिला है – लेकिन कवि जिस संघर्ष की परंपरा से आता है, उसका जिक्र होना लाजिमी है। आदिवासी भारत की दूसरी जातियों की तरह महज एक जातिगत संबोधन नहीं है, यह एक ऐसी अस्मिता से जुड़ा हुआ संबोधन है, जिसकी सतह पर हमेशा एक संघर्ष तैरता रहता है : मॉडरेटर* एक झारखंडी के लिए इससे सुखद शायद कुछ नहीं हो सकता कि पहाड़ों, पठारों और जंगलों के बीच उसने जिन आदिवासियों को पशु चराते देखा, रूपये-दो रूपये के लिए लकड़ियां बीनते देखा, सत्तर-अस्सी किलो के बोझे को अपने ही कम वजन के शरीर पर ढोते देखा है, उन्हीं जंगलों, पहाड़ों के बीच से गुजरता हुआ कोई कवि हो जाए। उसकी कविता में अधिकार, स्वतंत्रता, हक के लिए वो आदिम बेचैनी हो जो कि शहर में आते ही महज एक खूबसूरत अभिव्यक्ति बनकर रह जाती है। आदिवासी होने की उसकी बिडंबना पंक्तियों में आते ही संघर्ष का सौंदर्य पैदा करता हो। जो अपनी कविता लिखकर जमाने के आगे सहानुभूति की मांग न रखकर उससे गुजरकर चिंगारी को परखने की उम्मीद रखता हो। जो अपनी रचना को किसी भी रूप में एक आदिवासी के हाथ का लिखा आवेदन पत्र बनने देने को तैयार नहीं हो। जो नहीं चाहता कि उसे लिखे पर आरक्षण की सुविधा लागू की जाए। ऐसे में एक सवाल तो बनता ही है कि क्या अनुज लुगुन की कविता को भारत भूषण अग्रवाल सम्मान मिलने पर हमें उसी भाषा में बात या तारीफ करनी चाहिए, जिस भाषा में हम किसी आदिवासी या वंचित समाज के प्रतिभागी के आइएएस/आइपीएस या किसी बड़े अधिकारी के बन जाने पर करते हैं? क्या एक आदिवासी कवि के सम्मानित किये जाने की वही भाषा होगी, जो भाषा आरक्षित सीट पर किसी प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होने पर प्रतिभागी की होती है? हम किसी न किसी तरह से उस समय भी तारीफ या सम्मान में उस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिससे कि लोगों को इस बात का एहसास हो कि उसने सामान्य प्रतिभागियों की तरह मेहनत करके, घिसकर सफलता अर्जित नहीं की है? क्या हम अनुज लुगुन के साथ कुछ ऐसा ही कर रहे हैं? *एक आदिवासी कवि का* हिंदी कविता के लिए पुरस्कार का मिलना क्या सचमुच इतने ताज्जुब की बात है? अगर हां तो फिर हम उसके आदिवासी होने पर ताज्जुब कर रहे हैं या फिर उसके कविता लिखने पर? माफ कीजिएगा, वर्चुअल स्पेस जिसमें कि मोहल्लालाइव भी शामिल है और मेनस्ट्रीम मीडिया ने अनुज लुगुन के पुरस्कार मिलने की खबर को कुछ इस तरह से प्रोजेक्ट किया कि अनुज लुगुन की जो छवि उभर आयी, उसके अनुसार वो पहले आदिवासी है, उसके बाद कवि। जन्म से वो सचमुच पहले आदिवासी हैं लेकिन क्या उन्हें ये पुरस्कार सिर्फ आदिवासी होने की वजह से मिला है? अगर नहीं तो फिर उनकी कविता के बजाय उनका आदिवासी होना इतना क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? मौजूदा दौर में पाठ को देखने और विमर्श करने का जो प्रावधान है, उसमें पाठ ही सब कुछ है, उससे इतर कुछ भी नहीं। अब पहले की तरह रचनाकार का परिचय नहीं लिखा जाता कि फलां का जन्म उच्च कुल ब्राह्मण परिवार में हुआ था… जिससे कि आप पाठ के पहले ही एक खास किस्म की समझ के साथ उन्हें पढ़ना शुरू करें। फिलहाल पाठ को देखने का तरीका अब तक का सबसे तटस्थ और वस्तुनिष्ठ है। ऐसे में ये आलोचना या पाठ प्रक्रिया के ठीक विपरीत कर्म है। दूसरा कि क्या बाकी के दूसरे कवियों को पुरस्कार मिलता है, तो उनका ब्राह्मण, राजपूत या बनिया होना ठीक उसी तरह प्रमुख हो जाता है, जिस तरह से अनुज लुगुन का आज आदिवासी होना हो गया है? मुझे लगता है कि ऐसा करके हम एक बार फिर से हम रचना के बजाय रचनाकार के सिरे से सोचने की कोशिश कर रहे हैं। *अनुज लुगुन अगर* हिंदी में लिखनेवाले पहले ऐसे आदिवासी कवि हैं, तो ये हमारे लिए गर्व करने से कहीं ज्यादा डूब मरनेवाली स्थिति है कि जिस प्रदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों रुपये स्वाहा किये गये, वहां अब तक हिंदी में पंक्ति बनानेवाला पुरस्कार पाने लायक नहीं हुआ। उसके बाद जाकर हमें खुश होना चाहिए कि निर्णायकों ने उसकी खोज करके जगह दी है। हम इस काम के लिए उन्हें शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन यहां भी, उनकी वस्तुनिष्ठता और रचना के स्तर पर बराबर की समझ रखने की तारीफ करने के बजाय, आदिवासी कवि के चुन लिये जाने का अतिरिक्त विज्ञापन क्यों करें? क्या उदय प्रकाश और बाकी शामिल लोगों को कोई निर्देश जारी किया गया था कि आप वंचित समाज से किसी ऐसे कवि को चुनें, जिससे लगे कि पुरस्कार के साथ सामाजिक समानता के स्तर पर न्याय हो रहा है? क्या ये कोई सरकारी विधान है कि एक-एक करके सबका प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए? अगर ऐसा नहीं है, अनुज लुगुन को स्वाभाविक तरीके से उनकी कविता के लिए चुना जाना है तो फिर इस पूरे प्रावधान को विज्ञापन की शक्ल देने की क्या जरूरत है? यह ठीक है कि पुरस्कार देना और पाना इतनी मासूम प्रक्रिया नहीं है। साहित्य के लिए पुरस्कार देना और पाना कोई राष्ट्रीय घटना नहीं है या है भी तो लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता जैसा मामला है नहीं, तो 2जी और कॉमनवेल्थ की तरह इसके भीतर भी घोटाले और धांधलियों की जांच होती, यहां भी भारी झोल है। ये अकारण नहीं है कि कई बेहतरीन साहित्यकारों की जब चला-चली की बेला आती है तो पुरस्कृत किया जाता है, कइयों की नोटिस तक नहीं ली जाती। ऐसे में उदय प्रकाश की निर्णायक समिति ने अनुज लुगुन की कविता को चुनकर सचमुच में सबसे अलग और विश्वसनीय काम किया है। लेकिन सम्मान देने और पाने के बाद क्या वाकई उदय प्रकाश और अनुज लुगुन की ऐसी ही छवि उकेरी जानी चाहिए, जो छवि हम आज देख रहे हैं? कहीं हम इसे जबरदस्ती रचना की ताकत के बजाय पारंपरिक हिसाब चुकता करने का साधन तो नहीं बना दे रहे हैं? ऐसे में अनुज लुगुन के लिए सबसे बड़ी बिडंबना होगी कि वो उन सैकड़ों लोगों की तरह कविता के नाम पर महज खूबसूरत अभिव्यक्ति करने से अलग लिखकर भी अपने को पहले कवि और तब आदिवासी के तौर पर जगह नहीं बना पाएंगे। *इधर उदय प्रकाश के निर्णय को* एक संवेदनशील रचनाकार का निर्णय के बजाय समाज सुधारक की छवि चस्‍पांने का अलग से काम हो जाएगा, जिसकी कि जरूरत नहीं है। उदय प्रकाश अपनी रचनाओं की तरह ही निर्णय के स्तर पर भी विश्वसनीय हैं, इसके लिए जरूरी है कि ये छवि चस्‍पांने बंद किये जाएं। अच्छा, एक बात और… *हम अनुज लुगुन के साथ* बार-बार आदिवासी जोड़कर कहीं हिंदी कविता को दैवी विधान तो करार नहीं दे रहे और लोगों को आश्चर्य प्रकट करने के लिए स्पेस पैदा कर रहे हैं कि अरे, आदिवासी होकर भी हिंदी में कविता कर रहा है? ये कोशिश कहीं न कहीं हमें कविता और हिंदी को लेकर उसी ठस्स सोच की तरफ ले जाती है, जहां से इस बात की स्थापना शुरू हुई कि कविता या लेखन कर्म सबके बूते की बात नहीं है। हम ऐसा करते हुए कहीं न कहीं इसे बहुत ही अलग, परिष्कृत और महान कार्य करार देना चाह रहे हैं और उससे अनुज लुगुन को अलग कर रहे हैं। क्या कभी किसी अखबार या पत्रिका ने तब भी स्टोरी की थी, जब अनुज बीएचयू जैसे हिंदी-संस्कृत का गढ़ माने जानेवाले विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ने के लिए प्रवेश लिया था? क्या बचपन से ही संथाली-उरांव बोलकर बड़े होनेवाले शख्स के लिए तब ये खबर नहीं थी? अगर नहीं तो फिर कविता लिखने और पुरस्कार मिलने पर क्यों? ऐसा करके कहीं हम अनुज लुगुन को वहीं तो नहीं पटक दे रहे हैं, जहां से उसने अपनी पोटली में संघर्ष, प्रतिरोध, अधिकार और हक को तो चुना (शायद कविता के लिए ही) लेकिन वो परिवेश छोड़कर बनारस चला आया? अनुज की उस मेहनत पर ऐसे पानी मत फेरिए प्लीज… -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Aug 7 23:07:32 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 7 Aug 2011 23:07:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSw4KWN4KSl?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkieCkpuCkvuCksOClgOCkleCksOCkoyAoMTk5MSkg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiDgpKrgpYjgpKbgpL4g4KS54KWB4KSIIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSi4KS84KWAIOCkleCliyDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSk4KWN4KSvIOCkquClneCkvuCkqOCkviDgpIbgpJwg4KSq?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KS+4KSo4KWAIOCkquClgOCkouCkvOClgCDgpJXgpYcg4KSF?= =?utf-8?b?4KSn4KWN4KSv4KS+4KSq4KSV4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkmuClgeCkqOCljOCkpOClgC4=?= Message-ID: भारत में आर्थिक उदारीकरण (1991) के बाद पैदा हुई पीढ़ी आज गेजुएशन कर रही है. दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैम्पस के (मोतीलाल नेहरू कॉलेज) बीए फर्स्ट ईयर के विद्यार्थियों को भारतीय भाषा और साहित्य को दिलचस्पी के साथ पढ़ाना आज पुरानी पीढ़ी के अध्यापकों के लिए एक चुनौती है. 4 साल पढ़ाने फिर 2 सत्र डीयू से बाहर रहने के बाद नए अप्रोच के साथ इस नई पीढ़ी को पढ़ाते हुए अब मज़ा आने लगा है...वही 'थ्री इडियट्स' टाइप से कि 'क़ामयाबी के पीछे मत भागो. अपने भीतर काबिलियत पैदा करो. क़ामयाबी तो झक मारकर तेरे पीछे आएगी...!' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Aug 8 00:35:02 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 8 Aug 2011 00:35:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS+4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IOCkleClhyDgpKrgpY3gpLDgpKTgpYDgpJUg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleCkrOClguCkpOCksC4=?= Message-ID: शान्ति के प्रतीक हैं कबूतर इस भयानक हिंसा के समय में भी हैं कबूतर क्योंकि शान्ति के प्रतीक हैं कबूतर. कबूतर भी प्रेम करते हैं हम मनुष्यों की तरह जोड़े में रहते हैं हम रहें न रहें आज सुबह एक जोड़ा घुस आया मेरे कमरे में फुदकता हुआ बालकनी से पंखे से टकराकर गिर पड़ा फर्श पर लहूलुहान छटपटाता रहा हृष्ट-पुष्ट था शायद मेल था वह (कबूतरी मेल से कम हृष्ट-पुष्ट होती है जैसे पुरुष तगड़े होते हैं बनिस्बत स्त्री के ) दौड़कर पंखा बंद किया उठाया उसे पंख के निचे घाव को पोंछा रुई से हल्दी और सरसों का तेल भर दिया घाव में बूढ़ी माँ दौड़कर ले आई अपने घाव का मलहम उसे भी लगाया पानी पिलाया जब थोड़ी राहत मिली तो भाग गया बालकनी कबूतरी इंतज़ार कर रही थी बालकनी में रेलिंग पर बैठी सुस्त शोकाकुल मैं कमरे में आ गया वापस खिड़की से झाँक कर देखा छिपकर कबूतरी अपने कबूतर के पास आई चौकन्नी थी वह देर तक चक्कर काटती रही उसके आस-पास नहीं उड़ी अपने बीमार कबूतर को छोड़कर .................. थोड़ी देर बाद खिड़की से हाथ निकाल जैसे ही फेंके मैंने चावल और दाल के दाने फुर्र से उड़ी नहीं कबूतरी तेज़ चलकर उतर गई बालकनी से नीचे प्लास्टिक की बरसाती पर पीछे-पीछे भागा घायल कबूतर भी देर शाम तक दोनों बैठे रहे वहीं .............. अभी भी बैठे हैं दोनों वहीं. आधी रात तक. बारह बज चुके हैं बदल चुके है तारीख़ आज है 8 अगस्त सोवियत संघ ने जापान के खिलाफ़ घोषणा की थी युद्ध की आज ही के दिन सन 1945 में नहीं है आज युद्ध करनेवाला सोवियत संघ रहेगा नहीं अमेरिका या कोई और युद्ध करनेवाला रहेंगे ये कबूतर क्योंकि शान्ति के प्रतीक हैं कबूतर. शान्ति के प्रतीक हैं कबूतर. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Aug 9 01:45:36 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 9 Aug 2011 01:45:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSy4KS/4KSP?= =?utf-8?b?LOCkhuCknCDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4g4KSV4KWHIOCkpuCksA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSc4KWHIOCkmOClgeCkuOCkleCksCDgpKbgpL/gpLLgpY0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCliyDgpLjgpK7gpJ3gpKTgpYcg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: पिछले पांच सालों में हिन्दी फिल्मकारों ने जिनमें कि मैं जान-बूझकर एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार को भी शामिल कर रहा हूं, एक बिल्कुल ही अलग और बेहतर काम किया है कि दिल्ली को सियासत और सपनों का पर्याय शहर की छवि से बाहर निकाला है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि दिल्ली में राजनीति और सियासत को लेकर पहले की तरह जोड़-तोड़ नहीं होते लेकिन सिनेमा हमें लगातार इस बात का एहसास कराने लगा है कि आमफहम जिंदगी में इसकी तासीर पहले से कम होने लगी है। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि खुद राजनीति ही लोगों के जीवन में पहले की तरह कम शामिल है। राजनीति अब लोगों के लिए करने से ज्यादा ढोने या उसके नीचे दबे रहकर जीने की आदत ज्यादा हो गयी है,शायद यह भी कारण हो सकता है कि तब वो सिनेमा के लिए धीरे-धीरे कम प्रासंगिक होता चला जा रहा है। दूसरी तरफ दिल्ली अब सपनों से कहीं ज्यादा हकीकत का शहर ज्यादा लगने लगा है। देशभर के अलग-अलग प्रांतों से,दूरदराज से आनेवाले लोगों के दिमाग में ये बात पहले से ज्यादा साफ होने लगी है कि ऐसा बिल्लुकल नहीं है कि यहां एक फैंटेसी की दुनिया है जहां शामिल होते ही हमारे सारे संघर्ष घुलकर खुशनुमा एहसास में तब्दील होते चले जाएंगे। अब सिनेमा में सात साल का रतन(अब दिल्ली दूर नहीं) नहीं होता जो सपनों को बतौर एनर्जी ड्रिंक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए नेहरु से मिल आता है। पहले जो सारा संघर्ष दिल्ली आने भर का था,अब वो संघर्ष यहां रहते हुए और एक स्थायी भाव के तौर पर दिखाए जाने लगे हैं। ये भले है कि ये हमें उन संघर्षों को एक आदत के साथ बनाकर जीने की समझ पैदा करता है। इसलिए अब ये दिल्ली सोने की चिड़िया कहे जानेवाले भारत की राजधानी या दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र का केन्द्र ही नहीं, आदतों का शहर भी है जहां परिस्थितियों के साथ-साथ हील-हुज्जतों के बीच से जीने की आदत पैदा होने लग जाती है। कुछ लोग इसे मुंबई की जीवटता की तर्ज पर कला भी कह सकते हैं लेकिन ये तभी कहें जब वो कला में रोजमर्रा की घटनाओं को शामिल किया जाना अनिवार्य मानते हों। इधर के हिन्दी सिनेमा ने दिल्ली के उपर से सियासत और सपनों का शहर का जो मुल्लमा हटाया,उसके बदले रोज की जिंदगी को पहले से कहीं ज्यादा शामिल किया है। हमने सिनेमा औऱ दिल्ली के संदर्भ में रवीश कुमार को बतौर फिल्मकार के खांचे में इसलिए शामिल किया कि उन्होंने पिछले महीनों रवीश की रिपोर्ट में जिस तरह की दिल्ली को बतौर एक चरित्र और कहीं-कहीं खालिस परिवेश के तौर पर परिचय कराया है,छोटे पर्दे पर की कई एपीसोड की इस अभिव्यक्ति को अगर साट दें तो बड़े पर्दे पर के सिनेमा से कहीं ज्यादा असर पैदा करती है। उसमें पहली बार दिल्ली का वो नक्शा उभरकर सामने आता है जिसमें लुटियन जोन गायब है,वो चमक-दमक गायब है जिसे दिखाकर हुक्मरान अपनी छाती फुलाते फिरते हैं। ये वो दिल्ली है जिसमें कि देशभर का अभावग्रस्त इकठ्ठे समाया हुआ है और टूरिस्टों को आकर्षित करनेवाली दिल्ली के बजाय यहां के अलग-अलग इलाके में जीनेवाली दिल्ली शामिल हुई है। इसे आप ओए लक्की लक्की ओए में बहतर तरीके से देख सकते हैं जहां दिल्ली नेशनल के बजाय लोकल हो जाती है। राजधानी होने का जो घाटा दिल्ली अब तक सहती आयी है कि इसके कोई भी संदर्भ जब तक 28 राज्यों की इच्छाओं को तृप्त नहीं करते,तब तक ये तटस्थ शहर कैसे हो सकता है,ये जिद इधर के फिल्मों ने तोड़ा है। ऐसे में दिल्ली कहीं ज्यादा स्वाभाविक और विश्वसनीय लगती हा। इसी तरह रंग दे बसंती की अपनी दिल्ली है जहां पुराने किले पर यंगिस्तान सवार है लेकिन गुजरते हुए जहाज को देखकर उसी तरह से हूट करता है जैसे कोई साठ साल पहले जहाज देखने घरों से निकल आता था। पिछले महीने ही आयी फिल्म डेली-वेली में दिल्ली इतिहास के अपने उस हिस्से से हमें जोड़ती है जिसमें कि अभी भी वर्तमान गुलजार है। उत्तर-आधुनिकता और भारतीयता के नाम पर घिसे हुए चीकट संस्कार एक ही फिल्म में कैसे एडजेस्ट करती हुई जान पड़ती है,ये इस फिल्म की अलग किस्म की दिल्ली है। वहीं दिल्ली-06 की दिल्ली में लोग से ज्यादा खबर और दिल्ली के बजाय मुंबई औऱ रिएलिटी शो के सपने घुस आए हैं। दिल्ली में रहकर भी कोई सपना ऐसा है जो कि वहां से दूर जाकर पूरे होंगे,ये फिल्म रेखांकित करती है।.. कुल मिलकर वैसकोप में कैमरे की निगेटिव(फिल्म) घुमाकर दिल्ली देखने का जो चस्का लंबे समय तक रहा,उसे अब का सिनेमा छुड़ाकर उसे ज्यादा ईमानदार तरीके से पेश कर रहा है बल्कि लव,सेक्स धोखा में तो दिल्ली क्या एनसीआर तक का ईलाका बड़ी ईमानदारी से छू जाता है। कुल मिलाकर,आज जो दिल्ली को सिर्फ और सिर्फ त्रिमूर्ति लाइब्रेरी की सामग्रियों के दम पर समझने की कोशिश करेगा तो ये फिल्में उसे खुलेआम चैलेंज करेगी। इन फिल्मों ने ये स्थापित करने की कोशिश की है कि दिल्ली का कोई एक संस्करण नहीं है जिसे कि युवा फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या अपने शोध के जरिए लगातार समझने की कोशिश कर रहे हैं। मिहिर की इसी कोशिश में आज यानी 9 अगस्त को हिन्दी सिनेमा में दिल्ली विषय पर मोहल्लालाइव की ओर से एक बातचीत का आयोजन किया जा रहा है। जाहिर है इसमें जो भी वक्ता शामिल हैं वो दरअसल दिल्ली को लेकर उनके अपने-अपने एक संस्करण है और जो लोग सुनने आएंगे,टुकड़ों-टुकड़ों में उनके संस्करण तो होंगे ही। ऐसे में हम कहें कि हर दिल्ली रहनेवाले और उसके बारे में सोचनेवाले की अपनी एक दिल्ली है और उसको लेकर एक अपनी समझ है। अब सवाल है कि सिनेमा एक-एक करके उस समझ औऱ नजरिए को कैसे पेश कर रहा है और ये संख्या कहां तक जाएगी,इस पर बात हो। जितनी फिल्म बन गयी,सो बन गयी। उसमें दिल्ली किस रुप में आयी है,इस पर भी बहस चलती रहे लेकिन और कितने एंगिल हो सकते हैं जिसमें दिल्ली को बतौर परिवेश के अलावे चरित्र,संवाद और वक्तव्य के तौर पर देखा-समझा जा सकता है,इस पर भी बहस हो,ऐसी हमारी उम्मीद है। हमें इस बात की खुशफहमी है कि अगर हम आज की इस बातचीत में शामिल नहीं होते हैं तो दिल्ली के एस संस्करण पर बातचीत छूट जाएगी,ठीक उसी तरह से अफसोस भी है कि अगर आप नहीं आते हैं तो कई संस्करण को समझने से हम चूक जाएंगे।.तो आइए आज,हम दिल्ली के और कई संस्करणों पर बातचीत करें। देश के कुछ फिल्मकार भी शामिल हो ही रहे हैं,क्या पता उन्हें मेरी समझ की दिल्ली जंच जाए और वो कल को फिल्म का हिस्सा बने। *आपको कब और कहां आना है-* Time : 09 August, 6:30 Location : Stein Auditorium, India Habitat Center [ near gate no. 3 ] Lodhi Road, New Delhi *कैसे आएंगे-* मेट्रो से तो जोरबाग उतरकर दस मिनट की चहलकदमी के साथ *कौन बोलेंगे और कौन आपकी दिल्ली पर फिल्म बना सकते हैं* *Akshat Verma* | writer : Delhi Belly *Mahmood Farooqui* | Historian & co director : Peepli Live *Ravikant* | Historian & CSDS Fellow *Ravish Kumar* | Excutive Editor : NDTV INDIA in conversation with *Mihir Pandya* | Research Fellow, DU *किसे हमें सहयोग और संपर्क करना है-* Mohalla Live any query, plz call on 9811908884 सारी तथ्यात्मक सूचनाएं मोहल्लाlive से नकलचेपी * * *-* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Aug 9 02:21:32 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 9 Aug 2011 02:21:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CknOCliyDgpKE=?= =?utf-8?b?4KWC4KSs4KS+IOCkuOCliyDgpKrgpL7gpLAnIDog4KSH4KSf4KWN4KS4?= =?utf-8?b?IOCksuCktSDgpIfgpKgg4KSs4KS/4KS54KS+4KSw?= Message-ID: मित्रो, बिहारी लड़के वन साइडेड लव करने के लिए विख्यात-कुख्यात रहे हैं... क्योंकि, बिहारी लड़के बड़े इमोशनल होते हैं... क्योंकि, बिहारी लडके बड़े केयरिंग होते हैं... क्योंकि, बिहारे लड़के दिल-ओ-जान से किसी लड़की से प्यार करते हैं... क्योंकि, बिहारी लड़के सच्चे दिल से प्रेम करते हैं...वगैरह-वगैरह....! अमीर खुसरो ने लिखा है - 'खुसरो दरिया प्रेम का जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार.' तो आइये इसी थीम पर आनंद इंटरटेनमेंट आपके लिए पेश कर रहा है हिंदी फीचर फ़िल्म 'जो डूबा सो पार' (इट्स लव इन बिहार). एक ऐसी अद्भुत लव स्टोरी जिसके बारे में आपने सुना तो होगा लेकिन 70 एम. एम. के परदे पर कभी नहीं देखा होगा. आनंद प्रोडक्शन की इस फ़िल्म को निर्देशित किया है मूलतः बिहार के रहनेवाले और दिल्ली विश्वविद्यालय से तालीम हासिल करनेवाले युवा निर्देशक प्रवीण कुमार ने. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Aug 9 11:39:27 2011 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 09 Aug 2011 11:39:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: New... Message-ID: <4E40CF17.4060201@sarai.net> -------- Original Message -------- Subject: New... Date: Tue, 9 Aug 2011 01:07:09 -0400 From: Jagdeep Dangi To: dangijs Namaskar!! Now latest version 2.1.5.0 of Prakhar Devanagari Font Parivartak is on the web. User can download its demo from the given link:- http://www.4shared.com/file/dqDfNYTM/PrakharParivartak.html MINIMUM SYSTEM REQUIREMENTS:- To run this software, your Computer must meet the following minimum requirements: • MPC, Microsoft Windows XP/Vista/7 OS. • .Net Framework v2.0 (Free Software) With Regards Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Tue Aug 9 12:43:49 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Tue, 9 Aug 2011 12:43:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KS2LCDgpKfgpL7gpKgg4KSU4KSwIOCkqOCkueCksA==?= Message-ID: *बारिश के बहाने एक पोस्ट - * भवानीप्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति है- "उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना" अभी, यहां (कानपुर) जब बारिश हो रही है तो यह पंक्ति मुझे सबसे अधिक अपनी ओऱ खींच रही है। इस खींचाव के पीछे गांव की पगडंडी है। यहां से काफी दूर गांव में कीचड़ से सनी सड़क और एक हाथ पानी से लबालब खेत की तस्वीरें आंखों के सामने नाच रही है। बारिश की बढ़ती रफ्तार से नहर में पानी लबालब और उधर, खेत में मछली की छपाछप, ये सब आंखों में श्वेत-श्याम तस्वीरों की एलबम तैयार कर रही है। * मुझे कभी पता नहीं चला कि धान, गेंहू, मूंग, तोड़ी या पटूआ की खेती किस महीने होती है, मुझे तो बस यही मालूम है कि बारिश में खेत सबसे सुंदर दिखती है, सखी की तरह। ** "हवा का ज़ोर वर्षा की झरी, झाड़ों का गिर पड़ना..." घर के आगे दूर-दूर तक फैले खेत और उसकी सीमाओं पर खड़े पेड़ चुंबकीय आकर्षण पैदा करती रही है। बारिश के वक्त तो वहां एक अजीब तरह की सुगंध अपनी ओर खींचती है, मिट्टी की ऐसी खुश्बू और कहीं नहीं मिलती है, बस वहीं मिलती है, अपने गाम में। नहर में बलूहाई पानी और बारिश की तेज बूंदे धार (खेत, जहां पानी जमा होता है, पूर्णिया जिले में इसमें पटुआ को रखा जाता है) में इठलाती प्रवेश करती है तो सुदेस उरांव खुश हो जाता है, सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर भांति-भांति की मछलियां जो गांव आ पहुंची है। माछ, सुनकर ही मन छप-छप करने लगता है। यह बारिश सचमुच दीवाना बना रही है लेकिन अफसोस सुदेस के हाथों फंसाई गई मछली हमें इस साल नसीब नहीं हो रही है। उधर, बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए होंगे। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे रहस्यमय लगते हैं। ऐसा हरापन कहां नसीब होता है? उस पर से बंसबट्टी की गंध, आह जादू रे...। कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था। तीन साल पहले ही वह गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी, और कहती थी- “एहन मजा ककरो में नै छै, आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“ उससे अंतिम मुलाकात जब हुई थी तो मैं उसके लिए क्लासिक माइल्ड की एक डिब्बी ले गया था। सिगरेट फूंकते हुए वह अजीब संतुष्टि का अहसास पाती थी और उसी अंदाज में कहानियां भी सुनाती थी। खैर, बांस भी हमारे यहां कई प्रकार के होते हैं। बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं। हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। ठंड में बेंत को संथाल टोले के लोग काटने आते हैं, उस वक्त मुझे काफी दुख होता है, जबकि हमारे कमतिया कका काफी खुश होते हैं क्योंकि बेंत के एवज में काफी पैसा मिलता हैं! इन्हीं बेंत के झाड़ और बंसबट्टी में हट्टा (बड़ी बिल्ली) भी रहता है। हट्टे को संथाल अपने तीर का निशाना बनाते हैं। वैसे अब बांस की जगह कदंब, पोपुलर, न्यू सागवान जैसी लकड़ियों ने ले लिया। यदि किसान के पास जमीन प्रचुर है तो वह पांच साल में लाखों रुपये कमा लेता है। मतलब काटकर बेच दिजिए, प्लाइवुड के लिए। यहां कानपुर में पिछले शुक्रवार से शुरु बारिश आज भी जारी है..छै छप छै..छपाक छै..। गाम में सोभती काकी कहती हैं कि “ शुक्र से शुरु बरखा, सप्त दिवस जारी...।“ गिरीन्द्र 09559789703 * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Tue Aug 9 12:43:49 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Tue, 9 Aug 2011 12:43:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KS2LCDgpKfgpL7gpKgg4KSU4KSwIOCkqOCkueCksA==?= Message-ID: *बारिश के बहाने एक पोस्ट - * भवानीप्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति है- "उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना" अभी, यहां (कानपुर) जब बारिश हो रही है तो यह पंक्ति मुझे सबसे अधिक अपनी ओऱ खींच रही है। इस खींचाव के पीछे गांव की पगडंडी है। यहां से काफी दूर गांव में कीचड़ से सनी सड़क और एक हाथ पानी से लबालब खेत की तस्वीरें आंखों के सामने नाच रही है। बारिश की बढ़ती रफ्तार से नहर में पानी लबालब और उधर, खेत में मछली की छपाछप, ये सब आंखों में श्वेत-श्याम तस्वीरों की एलबम तैयार कर रही है। * मुझे कभी पता नहीं चला कि धान, गेंहू, मूंग, तोड़ी या पटूआ की खेती किस महीने होती है, मुझे तो बस यही मालूम है कि बारिश में खेत सबसे सुंदर दिखती है, सखी की तरह। ** "हवा का ज़ोर वर्षा की झरी, झाड़ों का गिर पड़ना..." घर के आगे दूर-दूर तक फैले खेत और उसकी सीमाओं पर खड़े पेड़ चुंबकीय आकर्षण पैदा करती रही है। बारिश के वक्त तो वहां एक अजीब तरह की सुगंध अपनी ओर खींचती है, मिट्टी की ऐसी खुश्बू और कहीं नहीं मिलती है, बस वहीं मिलती है, अपने गाम में। नहर में बलूहाई पानी और बारिश की तेज बूंदे धार (खेत, जहां पानी जमा होता है, पूर्णिया जिले में इसमें पटुआ को रखा जाता है) में इठलाती प्रवेश करती है तो सुदेस उरांव खुश हो जाता है, सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर भांति-भांति की मछलियां जो गांव आ पहुंची है। माछ, सुनकर ही मन छप-छप करने लगता है। यह बारिश सचमुच दीवाना बना रही है लेकिन अफसोस सुदेस के हाथों फंसाई गई मछली हमें इस साल नसीब नहीं हो रही है। उधर, बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए होंगे। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे रहस्यमय लगते हैं। ऐसा हरापन कहां नसीब होता है? उस पर से बंसबट्टी की गंध, आह जादू रे...। कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था। तीन साल पहले ही वह गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी, और कहती थी- “एहन मजा ककरो में नै छै, आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“ उससे अंतिम मुलाकात जब हुई थी तो मैं उसके लिए क्लासिक माइल्ड की एक डिब्बी ले गया था। सिगरेट फूंकते हुए वह अजीब संतुष्टि का अहसास पाती थी और उसी अंदाज में कहानियां भी सुनाती थी। खैर, बांस भी हमारे यहां कई प्रकार के होते हैं। बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं। हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। ठंड में बेंत को संथाल टोले के लोग काटने आते हैं, उस वक्त मुझे काफी दुख होता है, जबकि हमारे कमतिया कका काफी खुश होते हैं क्योंकि बेंत के एवज में काफी पैसा मिलता हैं! इन्हीं बेंत के झाड़ और बंसबट्टी में हट्टा (बड़ी बिल्ली) भी रहता है। हट्टे को संथाल अपने तीर का निशाना बनाते हैं। वैसे अब बांस की जगह कदंब, पोपुलर, न्यू सागवान जैसी लकड़ियों ने ले लिया। यदि किसान के पास जमीन प्रचुर है तो वह पांच साल में लाखों रुपये कमा लेता है। मतलब काटकर बेच दिजिए, प्लाइवुड के लिए। यहां कानपुर में पिछले शुक्रवार से शुरु बारिश आज भी जारी है..छै छप छै..छपाक छै..। गाम में सोभती काकी कहती हैं कि “ शुक्र से शुरु बरखा, सप्त दिवस जारी...।“ गिरीन्द्र 09559789703 * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Aug 10 12:45:29 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 10 Aug 2011 12:45:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KS44KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KWL4KSC4oCZIOCkleClhyDgpKbgpYfgpLYg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: आज ‘मोहल्ला लाइव’ के कार्यक्रम में सोचकर गया था, कुछ भी हो जाए सहमत होकर लौटना है। आजकल ई-मेल, एसएमएस और फोन पर लोगों की यही समझाइश सुन रहा हूं। नेगेटिव होते जा रहे हो। आज किसी बात पर आपत्ति नहीं। सभी बातों को सकारात्मक करके देखना है। माफ कीजिएगा, आमिर खान के ‘खाली चेक’ की वजह से यह हो नहीं पाया। सारी बातें अच्छी हो रहीं थीं। कार्यक्रम के सूत्रधार पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिन्दी के कार्यक्रम में सूत्रधार को इतनी सुन्दर तैयारी के साथ बहुत दिनों बाद सुना। इसलिए अच्छा लगा। एक वक्ता को छोड़कर तीन के पास अपनी बात रखने के लिए तैयारी नजर आई। जो एक वक्ता रह गए उनके लिए सूत्रधार ने बताया था कि आमिर खान ने उनकी लिखी फिल्म को अपना बनाने के लिए खाली चेक देकर कहा था, जो रकम भरनी है, भर लो, यह कहानी मुझे दे दो। चार वक्ताओं में रविकांत, महमूद फारूकी और रविश कुमार के नाम तो याद रहे लेकिन चौथे वक्ता का नाम याद करने की कोशिश करता हूं तो वह खाली चेक सामने आ जाता है। माफ कीजिएगा। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है कि एक व्यक्ति जो फिल्म को नाच, गाने और मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं समझता फिर वही आदमी खाली चेक वापस क्यों करता है? आमिर खान ने जिसके सामने खाली चेक रख दिया, उसमें कुछ तो बात होगी। वह आदमी इतना निराशावादी और अंदर से इतना खाली कैसे हो सकता है कि कह देः- ‘फिल्मों से आज तक कुछ बदला है क्या?’ इसी तरह की एक चालाकी मीडिया में भी आई है, जो कहती है, मीडिया ‘सेवा’ नहीं ‘धंधा’ है। रविश कुमार ने अपनी बातचीत में इस बात को स्वीकार किया लेकिन खाली चेक इस बात को फिल्म के परिपेक्ष में स्वीकार नहीं कर पाए। फिल्म बनाने वाला समाज भी उतना ही चालाक हुआ है, जितनी मीडिया हुई है। माध्यम पर गोबर लिप कर कहते हैं, यही असली रंग है। यदि फिल्म से कुछ बदलना नहीं था, देलही बेली की भाषा में कहूं तो कुछ उखड़ना नहीं था फिर उनकी अपनी फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट लेकर बाजार में क्यों आना पड़ा? झारखंड के डॉक्यूमेनट्री फिल्म एक्टिविस्ट मेघनाथ, इसी बात को फिल्मकारों की नासमझी कहते हैं। फिल्म इकलौता ऐसा माध्यम है, जिसकी ताकत को सरकारें अधिक समझती हैं और इसे बरतने वाले कम करके आंकते हैं। वरना क्या वजह रही होगी कि देश के सीनेमेटोग्राफी के कानून को बाकि सूचना प्रसार के कानूनों से सख्त बनाने की। किसी समाचार चैनल या अखबार को प्रसारित या प्रकाशित होने से पहले किसी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होना होता। किसी बात पर आपत्ति हो तो जनता के दरबार में आने के बाद उसपर चर्चा होती है। यह हक फिल्म को क्यों नहीं मिला साहब? एक बार रीलिज कीजिए, उसके बाद जनता की कोई आपत्ति आए तो वापस मंगा लो। हर्षद मेहता पर बनी 'घपला' जैसी बेहतरिन फिल्म आज तक आम जनता के बीच क्यों नहीं आ पाई? ‘आरक्षण’ फिल्म अभी रीलिज भी नहीं हुई है, सेंसर बोर्ड को फिल्म पर आपत्ति नहीं है। फिर हमारे समाज का एक वर्ग कैसे अपने पूर्वाग्रह के आधार पर फिल्म को प्रतिबंधित करवाने के नाम पर उसकी पब्लिसिटी कर रहा है। फिल्म से कुछ होना नहीं है तो प्रकाश झा की ही पिछली फिल्म राजनीति का प्रोमो देखकर लोगों को यदि कैटरिना कैफ में सोनिया गांधी के दर्शन हो गए तो क्या आफत आ गई? ‘फायर’ के साथ इस देश में क्या हुआ? किसी से छुपा है क्या? मराठी में कुछ समय पहले आई एक फिल्म को सेंसर बोर्ड के साथ-साथ शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ा था। खाली चेक यदि यह कहते कि मिथुन, गोविन्दा या सलमान की फिल्मों को सिर्फ सेंसर बोर्ड से पास होना होता है, यदि आप कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं तो देश में हिन्दू सेना, अल्पसंख्यक सेना और दलित सेना इन तीनों से आपको अपनी फिल्म पास करानी होती है। घर-घर जाकर फिल्म दिखानी पड़ती है तो बात समझ आती। अब जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर ‘सम्मनों’ के देश में जी रहे हैं तो गंगा सहाय मीणा और राकेश कुमार सिंह सरिखी फिल्में कैसे बन सकती हैं? हो सकता है कि सम्मनों के मुल्क में जी रहे एक पटकथा लेखक की यह झल्लाहट हो कि ‘मुझसे नहीं होता, तुमसे जो बन पड़ता है कर लो।’ (कट-पेस्ट: http://ashishanshu.blogspot.com/2011/08/blog-post_10.html) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Aug 10 12:45:29 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Wed, 10 Aug 2011 12:45:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KS44KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KWL4KSC4oCZIOCkleClhyDgpKbgpYfgpLYg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: आज ‘मोहल्ला लाइव’ के कार्यक्रम में सोचकर गया था, कुछ भी हो जाए सहमत होकर लौटना है। आजकल ई-मेल, एसएमएस और फोन पर लोगों की यही समझाइश सुन रहा हूं। नेगेटिव होते जा रहे हो। आज किसी बात पर आपत्ति नहीं। सभी बातों को सकारात्मक करके देखना है। माफ कीजिएगा, आमिर खान के ‘खाली चेक’ की वजह से यह हो नहीं पाया। सारी बातें अच्छी हो रहीं थीं। कार्यक्रम के सूत्रधार पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिन्दी के कार्यक्रम में सूत्रधार को इतनी सुन्दर तैयारी के साथ बहुत दिनों बाद सुना। इसलिए अच्छा लगा। एक वक्ता को छोड़कर तीन के पास अपनी बात रखने के लिए तैयारी नजर आई। जो एक वक्ता रह गए उनके लिए सूत्रधार ने बताया था कि आमिर खान ने उनकी लिखी फिल्म को अपना बनाने के लिए खाली चेक देकर कहा था, जो रकम भरनी है, भर लो, यह कहानी मुझे दे दो। चार वक्ताओं में रविकांत, महमूद फारूकी और रविश कुमार के नाम तो याद रहे लेकिन चौथे वक्ता का नाम याद करने की कोशिश करता हूं तो वह खाली चेक सामने आ जाता है। माफ कीजिएगा। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है कि एक व्यक्ति जो फिल्म को नाच, गाने और मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं समझता फिर वही आदमी खाली चेक वापस क्यों करता है? आमिर खान ने जिसके सामने खाली चेक रख दिया, उसमें कुछ तो बात होगी। वह आदमी इतना निराशावादी और अंदर से इतना खाली कैसे हो सकता है कि कह देः- ‘फिल्मों से आज तक कुछ बदला है क्या?’ इसी तरह की एक चालाकी मीडिया में भी आई है, जो कहती है, मीडिया ‘सेवा’ नहीं ‘धंधा’ है। रविश कुमार ने अपनी बातचीत में इस बात को स्वीकार किया लेकिन खाली चेक इस बात को फिल्म के परिपेक्ष में स्वीकार नहीं कर पाए। फिल्म बनाने वाला समाज भी उतना ही चालाक हुआ है, जितनी मीडिया हुई है। माध्यम पर गोबर लिप कर कहते हैं, यही असली रंग है। यदि फिल्म से कुछ बदलना नहीं था, देलही बेली की भाषा में कहूं तो कुछ उखड़ना नहीं था फिर उनकी अपनी फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट लेकर बाजार में क्यों आना पड़ा? झारखंड के डॉक्यूमेनट्री फिल्म एक्टिविस्ट मेघनाथ, इसी बात को फिल्मकारों की नासमझी कहते हैं। फिल्म इकलौता ऐसा माध्यम है, जिसकी ताकत को सरकारें अधिक समझती हैं और इसे बरतने वाले कम करके आंकते हैं। वरना क्या वजह रही होगी कि देश के सीनेमेटोग्राफी के कानून को बाकि सूचना प्रसार के कानूनों से सख्त बनाने की। किसी समाचार चैनल या अखबार को प्रसारित या प्रकाशित होने से पहले किसी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होना होता। किसी बात पर आपत्ति हो तो जनता के दरबार में आने के बाद उसपर चर्चा होती है। यह हक फिल्म को क्यों नहीं मिला साहब? एक बार रीलिज कीजिए, उसके बाद जनता की कोई आपत्ति आए तो वापस मंगा लो। हर्षद मेहता पर बनी 'घपला' जैसी बेहतरिन फिल्म आज तक आम जनता के बीच क्यों नहीं आ पाई? ‘आरक्षण’ फिल्म अभी रीलिज भी नहीं हुई है, सेंसर बोर्ड को फिल्म पर आपत्ति नहीं है। फिर हमारे समाज का एक वर्ग कैसे अपने पूर्वाग्रह के आधार पर फिल्म को प्रतिबंधित करवाने के नाम पर उसकी पब्लिसिटी कर रहा है। फिल्म से कुछ होना नहीं है तो प्रकाश झा की ही पिछली फिल्म राजनीति का प्रोमो देखकर लोगों को यदि कैटरिना कैफ में सोनिया गांधी के दर्शन हो गए तो क्या आफत आ गई? ‘फायर’ के साथ इस देश में क्या हुआ? किसी से छुपा है क्या? मराठी में कुछ समय पहले आई एक फिल्म को सेंसर बोर्ड के साथ-साथ शिव सेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ा था। खाली चेक यदि यह कहते कि मिथुन, गोविन्दा या सलमान की फिल्मों को सिर्फ सेंसर बोर्ड से पास होना होता है, यदि आप कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं तो देश में हिन्दू सेना, अल्पसंख्यक सेना और दलित सेना इन तीनों से आपको अपनी फिल्म पास करानी होती है। घर-घर जाकर फिल्म दिखानी पड़ती है तो बात समझ आती। अब जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर ‘सम्मनों’ के देश में जी रहे हैं तो गंगा सहाय मीणा और राकेश कुमार सिंह सरिखी फिल्में कैसे बन सकती हैं? हो सकता है कि सम्मनों के मुल्क में जी रहे एक पटकथा लेखक की यह झल्लाहट हो कि ‘मुझसे नहीं होता, तुमसे जो बन पड़ता है कर लो।’ (कट-पेस्ट: http://ashishanshu.blogspot.com/2011/08/blog-post_10.html) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Aug 16 18:58:48 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 16 Aug 2011 18:58:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqA==?= Message-ID: *डीयू से निकला रैला, अन्ना नहीं है अब अकेला* * * दोपहर होते-होत छत्रशाल स्टेडियम के आस-पास हजारों लोग इकट्ठा हो चुके थे। वहां माहौल ठीक वैसा ही था, जैसा 8 अप्रैल को जंतर मंतर पर था। नारे लग रहे थे- “जबतक भ्रष्टाचारियों के हाथ में सत्ता है। तबतक कैसे मेरा भारत महान है।“ कुछ छात्र पर्चा दिखा रहे थे, उसपर लिखा था- “डीयू से निकला रैला। अन्ना नहीं है अब अकेला।“ साथ-साथ एक और नारे लग रहे थे- “सोनिया गांधी निकम्मी है। भ्रष्टाचारियों की मम्मी है।” इतना ही नहीं था। आगे भी वे कह रहे थे- “सरकारी लोकपाल धोखा है। अभी भी बचा लो मौका है।“ छत्रशाल स्टेडियम से दीवार पर एक छात्र पट्टी लिए खड़ा था। उसपर लिखा था-“बेइमानी का तख्त हटाना है, भ्रष्टाचार मिटाना है।” इस नारे के ठीक नीचे लिखा था- “यह कैसा स्वराज्य है, जहां भ्रष्टाचारियों के सिर पर ताज है।” नारे और भी थे जो वहां की फिजाओं में गूंज रहे थे। तभी स्टेडियम के भीतर से बुलाते हुए एक व्यक्ति ने कहा, “भाई साहब यहां पीने का पानी तक नहीं है। पुलिस सुबह 09.20 में यहां लाई है, लेकिन स्टेडियम में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। यह बात एनडीटीवी को बताव, दूसरे टीवी वालों को भी बताव।” दोपहर 1.50 तब भीड़ इतनी बढ़ गई की पुलिस को स्टेडियम के गेट खोलने पड़े। पुलिस इस कोशिश में लगी थी कि अधिक से अधिक लोग स्टेडियम के भीतर आ जाएं। पर वह इस काम को पूरा करने में शाम तक असमर्थ रही। विश्वविद्यालय व निकटवर्ती इलाकों से छात्रों का हुजूम एक-एक कर पहुंच रहा था। शाम तीन बजे तक करीब 10-12 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। इस भीड़ में हिन्दु कॉलेज के प्राध्यापक रतन लाल भी दिखे। वे नारा लगा रहे थे- “हिंदु-मुश्लिम-सिख-ईसाई। भ्रष्टाचारियों ने इन सब को खाई।।“ पास ही खड़े संदीप ने बताया कि वे अन्ना के कहने पर सात दिन की छुट्टी लेकर आए हैं। अंकिता प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका हैं। यहां अन्ना के समर्थन में आई हैं। साथ खड़े एक छात्र के हाथ में पोस्टर है। उसपर लिखा है- “शहीदो हम शर्मिंदा हैं। भ्रष्टाचारी जिंदा हैं।” बेबस पुलिस के चेहरे पर तब हंसी की रेखा दिख रही थी जब नारे लग रहे थे- “ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।” सैकडों की संख्या में खड़ी पुलिस उन लड़कों को संभालने में असमर्थ थी जो नारे लगा रहे थे- “अन्ना से तुम डरते हो। पुलिस को आगे करते हो।” शाम 3.10 पर स्टेडियम के दोनों तरफ के रास्ते जाम हो गए। पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने ही उस जाम को नियंत्रित करने में पुलिस का सहयोग दिया। कुछ छात्र सफाई काम में भी लगे थे। सड़क पर बिखरी हुई बोतलें उठा-उठाकर कुडेदान में डाल रहे थे। अब देखना यह है कि बल पकड़ता यह आंदोलन किस दिशा में बढ़ता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Aug 19 15:48:51 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 19 Aug 2011 15:48:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWL4KSy4KSoIOKAmOCkreClguCkpuCkvuCkqOKAmSDgpK0=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpeCkvg==?= Message-ID: वह 18 अप्रैल, 1951 की तारीख थी, जब आचार्य विनोबा भावे को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में दान में मिली थी। यह विनोबा के उसी भूदान आंदोलन की शुरुआत थी, जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है या फिर पुराने लोगों की स्मृति में। खैर, विनोबा की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। बहरहाल, तब विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। उस वक्त प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के नेता जयप्रकाश नारायण भी 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद से ही आंदोलन का बल बिखरता गया। 1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिसपर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था। पर बड़ी उम्मीदों के बावजूद साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आंदोलन का बल कमजोर पड़ गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आम तौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली 45 लाख एकड़ भूमि में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ जमीन गरीबों व भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी थी। कहा जाता है कि इसकी कई वजहें रहीं। मसलन- दान में मिली भूमि का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। काफी भूमि मुकदमें में फंसी हुई थी, आदि-आदि। कुल मिलाकर ये बातें अब भुला दी गई हैं। हालांकि, कभी-कभार मीडिया में भूदान में मिली जमीन के बाबत खबरें आती रहती हैं। आचार्य विनोबा का भूदान आंदोलन लोगों के जेहन में रह गया है। जानकारों की राय में आजादी के बाद यह उन पहली कोशिशों में से एक था, जहां रचनात्मक आंदोलन के माध्यम से भूमि सुधार की कोशिशें की गई थी। सो लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं, इस समाज को आगे लाने की। दुख है कि वह कोशिश राजनीतिक या फिर शासकीय मकड़ाजाल में फंसकर रह जाती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Fri Aug 19 16:00:31 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Fri, 19 Aug 2011 03:30:31 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: FUEL on Web In-Reply-To: References: Message-ID: <1313749831.18528.YahooMailNeo@web121715.mail.ne1.yahoo.com> ----- Forwarded Message ----- From: I. Felix To: fuel-discuss at lists.fedorahosted.org Sent: Friday, August 19, 2011 3:53 PM Subject: FUEL on Web Hi, Now in our daily life web service like web blog, CMS, social network and wiki are getting popular and growing very fast. So we thought of having that application's terminology under FUEL. This is beta version and we 'll conduct a public review on this entries. You can find the module in the following link: Pot file: http://svn.fedorahosted.org/svn/fuel/fuel_pot/fuel_web_beta.pot txt file: http://svn.fedorahosted.org/svn/fuel/fuel_source/fuel_web_beta.txt Your comments and suggestions will be appreciated. Thanks. -- Regards, I. Felix _______________________________________________ fuel-discuss mailing list fuel-discuss at lists.fedorahosted.org https://fedorahosted.org/mailman/listinfo/fuel-discuss -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Aug 20 14:41:10 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 20 Aug 2011 14:41:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSu4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KSy4KS+IOCkruCliOCkpuCkvuCkqA==?= Message-ID: लोकपाल बिल लs कs रहब वह खुली पंचायत थी। अन्ना की टीम से एक पत्रकार ने सवाल किया कि आप प्रधानमंत्री से पटवारी तक को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं। लेकिन एनजीओ को इससे बाहर रखा है। ऐसा क्यों है ? इसपर अरविंद केजरीवाल बोले। कहा, “ हम उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत हैं जो सरकारी पैसे से काम कर रहे हैं।” केजरीवाल उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत नहीं थे जो बगैर सरकारी सहयोग के चलते हैं। इसपर जब पूरक सवाल किए गए तो वे आक्रामक हो गए। फिर जो कहा उसका लब्बोलुआव यह था कि मीडिया को भी इसके दायरे में नहीं आना चाहती। हजारों लोगों के सामने चल रही उस प्रेस वार्ता का नजारा अलग था। वहां खड़े लोग इसे देख-सुन रहे थे। साथ ही सवाल और फिर जवाब पर राय-दर-राय जाहिर कर रहे थे। यह सिलसिला लंबा चला। खैर, आधा रामलीला मैदान कीचड़ से पटा है। फिर भी लोगों की आवाजाही जारी है। कई लोग जमे हैं। नारे लगा रहे हैं, “अन्नाजी के पास है, अनशन का ब्रह्मास्त्र है।”यही नहीं, दूसरे नारे भी हैं। मसलन- “मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना। अब तो सारा देश है अन्ना।।“ यह नजारा केवल रामलीला मैदान का नहीं है। निकटवर्ती इलाकों में भी नारे गूंज रहे हैं। मैदान के बाहर तो ठेठ देहादी मेला जैसा नजारा है। छोटे-छोटे बच्चे 10 रुपए के दो तिरंगे बेच रहे हैं। पूछ कर यदि न लें तो चार देने को तैयार हैं। आंदोलन की पोशाक बन चुकी ‘अन्ना टोपी’ भी यहां मिल रही है। उसपर लिखा है, ” मैं अन्ना हूं।” हालांकि इस टोपी की शक्ति पर राजनीतिक गलियारों में बहस जारी है। पर यहां पहुंचे कई लोग इसे सिर पर डालकर उत्साह में चूर हैं। वे नारे लगा रहे हैं, “पूरा देश खड़ा हुआ है। जनलोकपाल पर अड़ा हुआ है।।” शाम आठ बजे के आसपास फिर बारिश शुरू हो जाती है। फिर भी लोग यहां खड़े हैं। बारिश से सरोबोर होकर। तमाम चैलनों पर यहां से लाइव रिपोर्टिंग की जा रही है। उन लोगों ने अपने वास्ते अस्थाई मंच बना रखा हैं। रात 10 बजे के आसपास भीड़ कम होने लगती है। हालांकि, जो लोग वहां हैं वे अब भी नारों-गीतों में डूबे हुए हैं। मैदान की दाई तरफ प्राथमिक उपचार की सुविधा हैं। वहां कुछेक लोग लगातार खड़े नजर आ रहे हैं। पूछने पर पता चला कि जिसे कोई तकलीफ हो रही है वह यहां आ रहा है। रोशनी की व्यवस्था कम है और पुलिस की चहलकदमी बढ़ रही है। अब व्यक्ति अब भी पट्टा लिए बैठा है। उस पर लिखा है, “अन्ना हजारे के अछि ललकार, भ्रष्टाचारी नेता होशियार। लोकपाल बिल लs कs रहब, मैथिल समाज के अईछ आवाज।।” इस पढ़ते-पढ़ते हम मैदान से बाहर आ जाते हैं। 20 अगस्त की सुबह-सबेरे वह उसी स्थान पर दिख रहा है। हवा फिर गर्म हो रही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Aug 20 16:57:56 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 20 Aug 2011 16:57:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSX4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSh4KS84KWAIOCksuCkoeCkvOCkvuCkiCDgpLngpYguLi4=?= Message-ID: इससे पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध दो जनआंदोलन हो चुके हैं। आजकल उनसे ही अपनी-अपनी समझ से अक्सर लोग तुलना करते पाए जा रहे हैं। जब भविष्य को साफ-साफ पढ़ना मुश्किल होता है तब स्वाभाविक रूप से इतिहास की तरफ नजर जाती है और तुलना होने लगती है। कई बार कोई समानता न होने पर भी खिंच- खांचकर तुलना की जाती है। वैसे तो हर जनआंदोलन की अपनी खास वजह होती है और उसका विकास उन परिस्थितियों में होता है जो तात्कालिकता से जुड़ी होती है। अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले सातवें दशक में गुजरात और बाद में बिहार आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध विगुल से शुरू हुआ, जिसमें जेपी का नेतृत्व मिला। उससे आंदोलन बिखरने से बचा और वह व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य से प्रेरित हुआ। दूसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ और राजीव गांधी को हराकर समाप्त हो गया। वे दोनों आंदोलन मूलतः राजनीतिक थे। अन्ना हजारे का आंदोलन जो अभी अपना आकार ग्रहण कर रहा है, वह राजनीतिक होने की दिशा में है। अन्ना हजारे ने जो चुनौती उछाली है वह नैतिक ही है। जिसे हल्का करने की चाले चलकर इस सरकार ने राजनीतिक बनने के लिए रास्ता खोल दिया है। नैतिक सवाल हमेशा सर्वव्यापी और समावेशी होता है। जब कोई आंदोलन राजनीतिक राह पकड़ता है तो वह सत्ता की धूरी पर टिक जाता है और युद्ध की युक्ति से चलता है। उसका अपना पक्ष होता है और वह किसी को परास्त करने के लक्ष्य से प्रेरित हो जाता है। इसे एक घटना से समझना आसान होगा। बात अक्टूबर 1974 की है। जेपी ने बिहार के आंदोलन में विधानसभा को भंग करने की मांग रख दी। उनका कहना था कि बिहार विधानसभा जनता का विश्वास खो चुकी है इसलिए उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। वह मांग इंदिरा गांधी को कई कारणों से पसंद नहीं आई। वे इसे अपने खिलाफ राजनीतिक अभियान समझने लगी थी। उन्होंने अपने गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित को निर्देश दिया कि वे बिहार के मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलावें। उनसे बात करें और कहें कि बिहार सरकार जेपी को गिरफ्तार कर ले। 4 नवंबर 1974 को जेपी ने वह तारीख तय कर रखी थी जिस दिन विधानसभा को भंग करने का ज्ञापन दिया जाना था। पूरे राज्य में हस्ताक्षर अभियान चला और उसको ही राज्यपाल को सौंपा जाना था। इंदिरा गांधी चाहती थी कि बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर जेपी को गिरफ्तार करें। इसके लिए ही गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित ने उन्हें दिल्ली बुलाया और अपनी ओर से बताया कि इंदिरा गांधी क्या चाहती हैं। लोग शायद यकीन न करें पर यह सच है कि गृहमंत्रालय में उमाशंकर दीक्षित के सामने बैठे अब्दुल गफूर ने दो-टूक जबाव दिया, “यह मैं नहीं करूंगा। इस्तीफा देना पसंद करूंगा।“ इस बार यह काम शीला दीक्षित कर सकती थी, बशर्ते पुलिस उनके अधीन होती। इतिहास से सीख लेकर पी.चिदंबरम भी ऐसा कर सकते थे। लेकिन वे और उनके साथी मंत्री अन्ना हजारे को राजनीति के पाले में डालने पर तुले हुए हैं। इस कारण वे सच बोलने के बजाए पूरे देश को गुमराह कर रहे हैं कि अन्ना हजारे को गिरफ्तार दिल्ली पुलिस ने किया है। अफसोस यह है कि विपक्ष भी इसका सही जवाब नहीं दे रहा है। सच यह है कि अन्ना हजारे के बारे में जो भी पुलिस कार्रवाई हुई है वह केबिनेट की राजनीतिक मामलों की समीति का फैसला है। जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सहमति के बगैर हो ही नहीं सकता। अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने की हर कोशिश की है। इस अर्थ में वे सविनय अवज्ञा के नए प्रबोधक बन गए हैं। उन्हें स्वतःस्फूर्त समर्थन मिल रहा है। संभवतः इस तरह के समर्थन की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी। ये लोग तो अवश्य ही अवाक हैं जो कहते रहे हैं कि समाज में आंदोलन का भाव बदल गया है। इस जन-उभार ने यह दिखा दिया है कि मुद्दा सही हो और नेतृत्व निस्वार्थी हो तो लोग उसके पीछे चलेंगे। लोग जान की बाजी लगा देंगे। उन्हें सिर्फ पता होना चाहिए कि किस मकसद से उनका आह्वान किया जा रहा है। सरकार ने गोलमेज बातचीत में वक्त गवाया और अन्ना को भरमाया। आजादी की लड़ाई में अंग्रेज यही तरीका अपनाते थे और हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। अन्ना की शक्ति सामान्य जन है। उनकी जो कमजोरी है उसे मीडिया ने पूरा कर दिया है। मीडिया ही लोगों से संवाद कर रहा है। इस संवाद ने अभियान को आंदोलन की शक्ल दे दी है और नारे लगने लगे हैं कि ‘अन्ना नहीं आंधी है’ इस तरह के नारे जनभावनाओं को प्रकट करते हैं। अब यह जानने और समझने का समय नहीं है कि अन्ना क्या हैं और क्या नहीं हो सकते। यह सवाल भी नहीं रह गया है कि वे कब क्या बोलें। जो आज मायने रखता है और जो भविष्य में अपनी छाप छोड़ेगा वह यह है कि लोगों के मन में अन्ना की छवि क्या है। इस अर्थ में यह आंदोलन दो समानांतर छवियों का संघर्ष है। एक अन्ना की चमकदार छवि है जो लोगों को आकर्षित कर रही है तो दूसरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह की टूटती छवि है जो लोगों के मन में वितृष्णा पैदा कर रही है। यह ईमानदार और बेईमान का टकराव नहीं है। यह बनती बिगड़ती छवि का जनमानस में गहराता हुआ असर है। इसी लिहाज से तुलनाओं को देखा जा सकता है जब लोग इमरजंसी को याद करने लगे हैं। इस बात का सही आकलन तो बाद में ही हो सकता है कि जिस मध्यवर्ग को खारिज किया जा रहा था वह अचानक क्यों आंदोलन में कूद पड़ा है। क्या उसकी आंतरिक बनावट बदल गई है। क्या यह भूमंडलीकरण में राज्यतंत्र के ढीले पड़ते प्रभाव का द्योतक है। क्या यह मध्यवर्ग वह है जो राज्यतंत्र की इसलिए परवाह नहीं करता क्योंकि उसके आर्थिक हित निजी क्षेत्र में नीहित हैं। क्या इसलिए सिर्फ शासन में भ्रष्टाचार का मुद्दा अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रमुख है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका तुरंत जवाब ढूंढना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा। यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी कि इस आंदोलन ने जो राह पकड़ी है वह किस मंजिल पर पहुंचेगी। इस आंदोलन की खूबी इसमें है कि इसने नागरिक को प्रेरित कर दिया है। उसकी उस आस्था को जगा दिया है कि वही भ्रष्टाचार की बुराई को दूर करने में सहायक हो सकता है। इसी आस्था ने उसे सड़क पर उतारा है। सविनय अवज्ञा का यह बल वास्तव में लोकतंत्र का आधार है। यह आधार जितना मजबूत होगा उतनी ही ऊंची इमारत लोकतंत्र की खड़ी हो सकेगी। इस अंदोलन से जनलोकपाल की जनआकांक्षा प्रकट हो रही है। देखने में यह बड़ी है, लेकिन परिणाम में यह एक संस्था को ही जन्म देगी। उससे समूची व्यवस्था का जो संकट है वह हल नहीं होगा। उसे हल करने के लिए इससे कहीं बड़े जनआंदोलन की तैयारी करनी होगी। यह भी याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ यह तीसरा जनआंदोलन है जो संसदीय लोकतंत्र के पाले में जाकर दम न तोड़ बैठे। इसलिए भ्रष्टाचार के मूल स्रोतों पर चौतरफा और मारक प्रहार का सतत आंदोलन ही सार्थक तरीका हो सकता है। रामबहादुर राय (वरिष्ठ पत्रकार) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Sat Aug 20 23:25:04 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Sat, 20 Aug 2011 23:25:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= Message-ID: * पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर मजबूर किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि 'जनता' राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम फूल रहा है, मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी के आलम में, कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी पसरी हुई है. अपनी बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित चिट्ठाकारों को कोसते रहे, विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण और आत्मीय लेखों के वो शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ चढाने वाले अंदाज में जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और प्रतिबद्धता पर कई सवाल खड़े कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी (नक्सलवादी) रुझान से वाकिफ हैं का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी दिनों में तो आप ने जनता (पढ़ें मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं और अब जब वही जनता सड़कों पर निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे में आध्यात्म और धर्म की गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप भी दीवान पर ही और सीमित ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख रहा हूँ कि इस मौके पर आप भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी सर पर आई बला को टालने के ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है!". बहरहाल, बात बनी नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और निश्चित तौर से चुप्पी की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक लोकप्रिय ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. कुछ परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और उनके आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी कारवाही में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और व्यवस्था बनाये रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस के रणनीतिकारों ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और सत्याग्रह की समृद्ध विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक पहल करने की है. इतना ही नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल महाशय का यह लेख (*लोकपाल - रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० अगस्त २०११) यह बताता है कि कैसे दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम एक दशक तक निरंतर संघर्ष की आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई पार्टियों के नेता यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा तैयार जन लोकपाल *रामबाण* नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता है. खुद हजारे और उनकी टीम भी अब यह कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ जानकर बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को अगर यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो जायेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज उस दोराहे पर है जहाँ से एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में भी बढ़ता है. वैसे एक अवधारणा के रूप में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा मुश्किल काम है. सिर्फ इस लिए नहीं कि गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय जनता पार्टी तक इस अवधारणा को धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे इतिहासकारों की बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ लेखा जोखा जिसे यह अकेला शब्द तमाम लोगो की जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे पास है. बहरहाल, आज के सन्दर्भ में, कम से कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस से एक हद तक सहमत होंगे कि रामराज्य के जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं जो यह मानते हैं की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ सीधे भाजपा को मिलने जा रहा है. मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन अपने एक निजी दर्द को आप से साझा करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे हममे से ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना चाहते है, क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और किसी तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ में अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख दिया है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में बदलता जा रहा है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के प्रस्ताव को 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला समर्थन भी किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें भी हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. मेरी अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें रामलीला मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के कई ऐसे जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी प्रतीकात्मक रूप से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां लटकाए हुए हैं. तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के चमत्कार के चलते है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम द्वारा नयी तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ अंतररास्ट्रीय लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई की मार से व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? बेरोजगार युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और नाराजगी से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या यह मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? जिन्होंने भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद दिलाने की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और हजारे का नाम लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने भ्रस्टाचार के मुद्दे पर काफी सारी बातें कही थीं. * गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी उलझन ये है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये लगे हाँथ आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० बजे तक गांड घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि खाते में जमा रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब सिर्फ इतना ही कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने सारी गुणा गणित के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से पारित कानून के मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने के ४५ दिनों में रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की पढाई जारी रखने के लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो इंस्टिट्यूट के खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज समय से सरकारी दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब से उन्होंने सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है की आज की तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता हूँ कि चार महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के पैसों का मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे अधिकारी घूस घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी हैं. और यकीं न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की कितनी शिकायते उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने नौजवानों और बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. जब हमने अपने एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से मदद तो नहीं की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की विशेष दशा- स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता उनकी बात और उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है की *दूध का जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की रामराज्य जन लोकपाल के जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं से आ ही जाये, और फर्ज कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर काबिज होने के बाद गलती से राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का वास्ता इस पोस्ट की लाज रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी बनाने की कोशिश जरुर करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय योजना का अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है कि भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत है. लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* दीवान के दोस्तों के नाम, कमल मिश्रा की ओर से *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी पार्टी याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का करिश्मा अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! * * * *. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Aug 21 12:49:14 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Sun, 21 Aug 2011 12:49:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSk4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkrOCkvuCksC3gpKzgpL7gpLAg4oCY4KS14KS+4KSw4oCZIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSk4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है? क्या सूरज के उग जाने से ही नए दिन की शुरुआत हो जाती है? ऐसे सवाल मन के आकाश के लिए बादल की तरह है, जो बरसने के लिए हर वक्त बेवक्त उतारु रहती है। इतवार की सुबह भी मेरे लिए ऐसी ही रही। उधर, दिल्ली के रामलीला मैदान में परिवर्तन की बयार चल पड़ी है और यहां कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा है। अंग्रेजी के शब्द ‘ कंफर्ट’ में ‘जोन’ जोड़ देने से जो आभास या अनुभव हम करते हैं, दरअसल उसे तोड़ने कि हिम्मत हर किसी को नहीं होती है। अजमेरी गेट और तुर्कमान गेट के बीच शायद 10 एकड़ में फैले रामलीला मैदान में उसी कंफर्ट जोन को तोड़ने के लिए लोग इकट्ठा हो रहे हैं। चैनल 'काल युग' में दूरियां मायने नहीं रखती है, सब लाइव हो जाता है। तथ्यों को इकट्टा कर रखने वाले सहकर्मी दोस्तों का कहना है कि चीन के साथ 1962 के युद्ध में मिली हार के बाद 26 जनवरी, 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में सुर साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने भी इसी मैदान में एक ऐतिहासिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। उन्होंने दिल को छू लेने वाले कवि प्रदीप द्वारा लिखित देशभक्ति गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी' को अपनी आवाज दी थी। दूसरी ओर पता चला कि वर्ष 1975 में जयप्रकाश नारायण ने इसी मैदान से इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वन किया था। यहीं रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तिया, 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' को लोगों ने एक नारे के तौर पर बुलंद किया था। इस विशाल रैली से डरी सहमी इंदिरा गांधी की सरकार ने 25-26 जून, वर्ष 1975 की रात को आपातकाल की घोषणा कर दी थी। यह वक्त का पहिया होता है जो अक्सर भ्रम के बादल को भी हमारे मानस पर लहरा देता है और हम उसी कंफर्ट जोन में बंधे रह जाते हैं, जिसकी मैंने शुरुआत में चर्चा की है। ‘निकलना खुद से..’बड़ी बात होती है लेकिन इसे ‘करना’ और भी बड़ी बात। बाबा नागार्जुन की कविता की पंक्ति है- “ओम अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण, ओम मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टीकरण.... “दरअसल देश की आवो-हवा, जिसे हम बरबरस स्वीकार कर लेते हैं, इसी "तुष्टीकरण" की देन है। कोई जगाने हमें आ जाता है तो हम जग जाते हैं अन्यथा सोने में बड़ा मजा आता है। इस इतवारी सुबह इसी तरह के कई ख्याल वार कर रहे हैं। टीवी देखने क लिए पहले स्वीच और फिर रिमोट के बटन को दबाता हूं तो समाचार चैनलों के द्वार खुल जाते हैं। हर जगह रामलीला लाइव। चैनलों के जरिए ‘देश काल’ की रचना हो रही है। उधर, ब्रेक में एयरटेल कंपनी का एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है। जिसके कुछ बोल हैं- “ चाय के लिए जैसे टोस्ट होता है, वैसे हर एक फ्रैंड जरुरी होता है। कोई रात को तीन बजे जान बचाए..कोई नेचर से होस्ट तो कोई गेस्ट होता पर एक फ्रैंड जरुरी होता है...।” इसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं लेकिन जब इसमें मुझे ”कोई रात को तीन बजे जान बचाए...” सुनने को मिलता है तो मन खट्टा हो जाता है क्योंकि मैं तीन बजे को सुबह मानता हूं। ओह, फिर एक भ्रम। इसलिए मुझे लिखना पड़ रहा है कि "कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है?" गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Aug 21 12:49:14 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Sun, 21 Aug 2011 12:49:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSk4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkrOCkvuCksC3gpKzgpL7gpLAg4oCY4KS14KS+4KSw4oCZIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSk4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है? क्या सूरज के उग जाने से ही नए दिन की शुरुआत हो जाती है? ऐसे सवाल मन के आकाश के लिए बादल की तरह है, जो बरसने के लिए हर वक्त बेवक्त उतारु रहती है। इतवार की सुबह भी मेरे लिए ऐसी ही रही। उधर, दिल्ली के रामलीला मैदान में परिवर्तन की बयार चल पड़ी है और यहां कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा है। अंग्रेजी के शब्द ‘ कंफर्ट’ में ‘जोन’ जोड़ देने से जो आभास या अनुभव हम करते हैं, दरअसल उसे तोड़ने कि हिम्मत हर किसी को नहीं होती है। अजमेरी गेट और तुर्कमान गेट के बीच शायद 10 एकड़ में फैले रामलीला मैदान में उसी कंफर्ट जोन को तोड़ने के लिए लोग इकट्ठा हो रहे हैं। चैनल 'काल युग' में दूरियां मायने नहीं रखती है, सब लाइव हो जाता है। तथ्यों को इकट्टा कर रखने वाले सहकर्मी दोस्तों का कहना है कि चीन के साथ 1962 के युद्ध में मिली हार के बाद 26 जनवरी, 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में सुर साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने भी इसी मैदान में एक ऐतिहासिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। उन्होंने दिल को छू लेने वाले कवि प्रदीप द्वारा लिखित देशभक्ति गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी' को अपनी आवाज दी थी। दूसरी ओर पता चला कि वर्ष 1975 में जयप्रकाश नारायण ने इसी मैदान से इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वन किया था। यहीं रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तिया, 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' को लोगों ने एक नारे के तौर पर बुलंद किया था। इस विशाल रैली से डरी सहमी इंदिरा गांधी की सरकार ने 25-26 जून, वर्ष 1975 की रात को आपातकाल की घोषणा कर दी थी। यह वक्त का पहिया होता है जो अक्सर भ्रम के बादल को भी हमारे मानस पर लहरा देता है और हम उसी कंफर्ट जोन में बंधे रह जाते हैं, जिसकी मैंने शुरुआत में चर्चा की है। ‘निकलना खुद से..’बड़ी बात होती है लेकिन इसे ‘करना’ और भी बड़ी बात। बाबा नागार्जुन की कविता की पंक्ति है- “ओम अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण, ओम मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टीकरण.... “दरअसल देश की आवो-हवा, जिसे हम बरबरस स्वीकार कर लेते हैं, इसी "तुष्टीकरण" की देन है। कोई जगाने हमें आ जाता है तो हम जग जाते हैं अन्यथा सोने में बड़ा मजा आता है। इस इतवारी सुबह इसी तरह के कई ख्याल वार कर रहे हैं। टीवी देखने क लिए पहले स्वीच और फिर रिमोट के बटन को दबाता हूं तो समाचार चैनलों के द्वार खुल जाते हैं। हर जगह रामलीला लाइव। चैनलों के जरिए ‘देश काल’ की रचना हो रही है। उधर, ब्रेक में एयरटेल कंपनी का एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है। जिसके कुछ बोल हैं- “ चाय के लिए जैसे टोस्ट होता है, वैसे हर एक फ्रैंड जरुरी होता है। कोई रात को तीन बजे जान बचाए..कोई नेचर से होस्ट तो कोई गेस्ट होता पर एक फ्रैंड जरुरी होता है...।” इसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं लेकिन जब इसमें मुझे ”कोई रात को तीन बजे जान बचाए...” सुनने को मिलता है तो मन खट्टा हो जाता है क्योंकि मैं तीन बजे को सुबह मानता हूं। ओह, फिर एक भ्रम। इसलिए मुझे लिखना पड़ रहा है कि "कभी-कभी सुबह भ्रम भी पैदा करती है कि क्या सचमुच सुबह हो गई है?" गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Aug 21 21:53:48 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 21 Aug 2011 21:53:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSw4KS5?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KSq4KWB4KSk4KWN4KSwIOCkleClgCDgpIngpKbgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+IOCkrOClh+Ckn+ClgCA6IOCkh+CkguCkpuCkv+CksA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkl+Cli+CkuOCljeCkteCkvuCkruClgA==?= Message-ID: मित्रो, असमिया की विख्यात साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी इन दिनों गंभीर रूप से बीमार हैं. इंदिरा गोस्वामी का साहित्य जितना वैविध्यपूर्ण और समृद्ध है, उतना ही उनका जीवन कठिन और संघर्षपूर्ण रहा है. दिल्ली में उत्तर-पूर्व के छात्रों के लिए सहृदय अभिभावक रही हैं मामोनी. "ब्रह्मपुत्र की उदारमना बेटी' शीर्षक से आज के 'दैनिक हिंदुस्तान' में प्रकाशित लेख : < http://epaper.livehindustan.com/PUBLICATIONS/HT/HT/2011/08/21/ArticleHtmls/%C2%B6Fi%C5%A1F%C2%B4Fb%C3%82F-IYeCXQFSX%C2%B8F%C2%B3FF-%C2%B6FZMXe-21082011011002.shtml?Mode=1> शुक्रिया. शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Aug 22 00:35:07 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 22 Aug 2011 00:35:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KSsIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruCktuCkvuCksiDgpLLgpL/gpK/gpYcg4KSW4KSh4KS84KS+?= =?utf-8?b?IOCkruCkv+CksuClh+CkguCkl+ClhyDgpIbgpLDgpI/gpLgg4KS24KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KS+IDog4KSq4KWN4KSw4KSt4KS+4KSkIOCkluCkvOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: तब भी मशाल लिये खड़ा मिलेंगे आरएस शर्मा गंभीर व तर्कपूर्ण लेखन से पुरानी धारणाओं व नजरिये को बिल्कुल बदल दिया पटना : प्रो आरएस शर्मा को सिर्फ़ एक इतिहासकार के रूप में देखना उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का सिर्फ़ एक पक्ष है. उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास को न सिर्फ़ नये संदर्भ में देखा, बल्कि अपने गहन अध्ययन, गंभीर व तर्कपूर्ण लेखन के जरिये उन्होंने इसके बारे में पुरानी धारणाओं व नजरिये को बिल्कुल बदल दिया. वह उस दौर में भी अपने तर्को की जमीन पर मजबूती के साथ खड़े रहे, जब इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या की कोशिश एवं धर्म व राजनीति का घालमेल होने लगा. यह जोखिम उठाने के कारण उन्हें कई हमले भी ङोलने पड़े. बिहार में बदलाव की ताकतों के साथ उनका बिरादराना संबंध रहा था. पूरा व्यक्तित्व अनुकरणीय था रामशरण शर्मा का जीवन-दर्शन और उनका पूरा व्यक्तित्व अनुकरणीय था. बेगूसराय के एक साधारण परिवार में उनका जन्म हुआ. पिता ने किसी तरह पैसे जुटा कर मैट्रिक की पढ़ाई करायी. पटना विवि में उन्होंने इंटर में दाखिला लिया. पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए उन्होंने ट्यूशन पढ़ाया. मेधावी होने के कारण उन्हें छात्रवृत्ति मिली, तो थोड़ा सहारा मिला. शर्मा जी की पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रही थी, लेकिन उनकी वेशभूषा, बोली व लोगों से मिलने का उनका अंदाज अत्यंत सहज था. जिन लोगों ने भी उन्हें गोष्ठियों व सेमिनारों में बोलते हुए देखा-सुना, उन्हें याद होगा कि वे गंभीर बातों को भी बेहद सरल तरीके से कह जाते थे. कोई छद्म नहीं था व्यक्तित्व में. यूपीएससी की तैयारी करनेवाले विद्यार्थियों के बीच वे जितने लोकप्रिय थे, उतने ही इतिहास के शोधार्थियों के बीच. उन्होंने 100 से ज्यादा किताबें लिखीं, जिनका देश-विदेश की 15 भाषाओं में अनुवाद हुआ. 1948 में बिहार-बंगाल सीमा विवाद सुलझाने में भी उन्होंने योगदान दिया था.भारतीय सामंतवाद के उदय व विकास पर उनका काम खास माना जाता है. वे मानते थे कि अंगरेजों के आने के बाद देश के नवजात पूंजीवाद ने सामंतवाद को कमजोर करने के बजाय इसके साथ सांठ-गांठ कर लिया, जिससे सामंतवाद को नवजीवन मिला. इससे देश का औद्योगिकीकरण व कृषि का विकास भी अवरुद्ध होता गया. रामशरण जी रोमिला थापर और इएच कार से प्रभावित रहे. 1977 में एनसीइआरटी द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक प्राचीन इतिहास को प्रतिबंधित किया गया था. प्रो शर्मा आजीवन धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के पक्ष में खड़े रहे. उनका न रहना उस कतार के झंडाबरदार का चले जाना है, जो इतिहास को वैज्ञानिक तर्को के नजरिये से देखते हैं. इतिहासकार होने के नाते उन्होंने इस देश को और कुछ हद तक दुनिया को जो दिया है, उसके लिए वे भविष्य में भी याद रखे जायेंगे. प्राचीन इतिहास को सांप्रदायिक चश्मे से देखने की जब भी कोशिश होगी, इसके खिलाफ़ आरएस शर्मा अपने तर्को की मशाल लिये खड़ा मिलेंगे. - रजनीश उपाध्याय - -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Aug 22 01:32:58 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 22 Aug 2011 01:32:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSw4KS5?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KSq4KWB4KSk4KWN4KSwIOCkleClgCDgpIngpKbgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+IOCkrOClh+Ckn+ClgCDgpIfgpILgpKbgpL/gpLDgpL4g?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KS44KWN4KS14KS+4KSu4KWA?= Message-ID: *मित्रो, प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी इन दिनों गंभीर रूप से बीमार हैं. दैनिक हिंदुस्तान ने 21 अगस्त 2011 के **अंक में मेरा यह लेख प्रकाशित किया है. पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. -शशिकांत * ** ब्रह्मपुत्र की उदारमना बेटी इंदिरा गोस्वामी *इंदिरा गोस्वामी * *‘‘इस लड़की के सितारे इतने ख़राब हैं। इसे दो टुकडे़ करके ब्रह्मपुत्र में फेंक दो’ - *यह भविष्यवाणी की थी असम के नवग्रह मंदिर के ज्यातिषी ने मामोनी रायसम गोस्वामी उर्फ इंदिरा गोस्वामी की मां से। तब मामोनी एक नवयुवती थीं। उस ज्यातिषी की भविष्यवाणी को झुठलाकर इंदिरा गोस्वामी आज 68 साल की हैं और भारतीय साहित्य का गौरवशाली व्यक्तित्व बन चुकी हैं। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित असम राज्य के सबसे प्रतिष्ठित साहित्य सभा पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। तमाम भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हो चुका है उनका साहित्य। हालांकि यह भी सच है कि इस खूबसूरत लेखिका की निजी जिंदगी तकलीफ और संघर्षों से भरी रही, बावजूद इसके कि उनका जन्म एक रईस खानदान में हुआ और उनके इर्द-गिर्द ऐशो-आराम की कोई कमी नहीं थी। ‘‘मेरे फोर फादर लैंडलॉर्ड थे और रिलीजियस हेड भी थे। उस वक्त हमारे पास लम्बी इम्पोर्टेड कार होती थी और घोड़े-हाथी भी थे। लेकिन हमारे घर का परिवेश बहुत साधारण था क्योंकि फादर ‘सिम्पल लीविंग एंड हाय थिंकिंग’ में विश्वास रखते थे। हालांकि वे एजुकेशन के स्टेट डायरेक्टर थे। उनकी इस थिंकिंग की वजह से हमें बहुत कष्ट झेलना पड़ता था। सिलांग के जिस पाइन माउंट इंग्लिश स्कूल में मैं पढ़ती थी वह हाई क्लास ब्रिटिश स्कूल था, लेकिन हमारे पास सिर्फ दो जोड़ी कपड़े होते थे। फादर ज्यादा कपड़े नहीं देते थे।’’ इंदिरा जी कहती हैं। बालपन की स्मृतियां आज भी मामोनी के जेहन के किसी कोने में सुरक्षित हैं। रायसम ने बतायाः ‘‘उन दिनों मेरी उम्र पांच-छह साल रही होगी। हमें गांव में गरीब और छोटी जातियों - जो हमारी प्रजा होती थी- के साथ खेलने-कूदने की छूट नहीं मिलती थी। घरवालों की इस मनाही के बावजूद मेरा मन उन्हीं लोगों के साथ खेलने में लगता। लेकिन बुआ खींचकर तुरंत कुएं पर ले जातीं और नहला कर घर ले आतीं। उसके बाद मेरी लाइफ में एक-एक कर कई प्रॉब्लम आए। मैं काफी दिनों तक डिप्रेशन में रही, खासकर फादर की मौत के बाद। मुझे फादर से बहुत लगाव था। एक तो उनके गुजर जाने का शॉक और फिर एग्जाम में अच्छे मार्क्स भी नहीं आए। सिलेबस की किताबें बोरिंग लगती थीं और अलग-अलग तरह की किताबें पढ़ना अच्छा लगता था। लोगों से मिलती-जुलती भी नहीं थी। मैं अपनी हवेली के पीछे ब्रह्मपुत्र नदी में डूबकर मर जाना चाहती थी। हालांकि उन दिनों मैं काटन कॉलेज, असम में पढ़ती थी। वहां मेरे बहुत सारे ‘एडमायरर’ (चाहनेवाले) थे। बहुत से लड़के मेरे लिए ‘कोटेशन’ लिखते थे। एक तो सच में पागल ही हो गया था। वह मेरे घर के सामने आता और कपड़े उतारकर जमीन पर बैठ जाता। तब मैं अठारह-उन्नीस साल की थी।’’ उसके बाद मामोनी की जिंदगी में एक-एक कर कई तरह के तूफान आए। उन्हीं के शब्दों मेंः ‘‘असम में उन दिनों लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती थी। फादर की मौत के बाद रईस खानदान से होने के बावजूद लोग मुझसे शादी करने से हिचकते थे। हालांकि मेरी खूबसूरती पर फिदा बहुत से लड़के मुझसे शादी करना चाहते थे लेकिन मां को वे पसंद नहीं थे। मैं भी नहीं चाहती थी। एक दिन मैंने अपने गहरे दोस्त अब्दुल हन्नन से कहा कि मुझे नींद नहीं आती। मुझे नींद की गोली ला करके दो। वह मुझे बेहद चाहता था और कहता था कि तुम स्टार भी मांगोगी तो लाकर दूंगा। ‘गार्डीनल’ नींद की गोली बहुत नुकसान करती है। मैंने पूरी बोतल खा ली। उसके बाद सात दिन तक अस्पताल में भर्ती रही। पूरे असम में सनसनी फैल गई। डॉक्टर ने मां से कहा था- अब यह नहीं बचेगी। लेकिन मैं फिर भी बच गई। हालांकि उस घटना को लेकर मुझे बहुत दिनों तक परेशानी झेलनी पड़ी। लोगों में नींद की गोली खाने को लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैलीं। इस कारण मुझे घर से बाहर निकलने में दिक्कत होती थी।’’ उस घटना से उबरने में मामोनी को वक्त लगा। उन्हीं की मुंहजबानी सुनिये: ‘‘फिर बहुत दिन बाद दक्षिण भारत का एक नौजवान इंजीनियर मेरे घर के पड़ोस में रहने आया। कई महीने की खामोशी के बाद उसकी मोहब्बत ने मुझे कुछ बोलने की शक्ति दी। ब्रह्मपुत्र के किनारे शाम को हमलोग साथ-साथ घूमते। उसने मेरी मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। लेकिन मां मेरी शादी किसी असमी लड़के के साथ ही करना चाहती थीं। आखिरकार वह राजी हो गईं और माधू के साथ मेरा विवाह हो गया। लेकिन कुदरत को मेरी यह खुशहाल जिंदगी अच्छी नहीं लगी। शादी के दो साल बाद ही एक जीप हादसे में मेरी दुनिया उजड़ गई। पति के साथ जीवन का छोटा सा अरसा गुजरा और फिर उनकी मौत के बाद घोर हताशा के वे क्षण, जब बार-बार खुदकुशी कर लेने का विचार मन में आता था।’’ जिस वक्त मामोनी की जिंदगी में यह तूफान आया उस वक्त वह तेईस साल की थीं। ‘‘उसके बाद मैं वृंदावन आ गई। आफ्टर डेथ माई हस्बेंड मैं लिखने-पढ़ने में समय बिताने लगी। एक साल तो मैंने ग्वालपाड़ा सैनिक स्कूल में काम किया। उसके बाद गवर्नर ऑफ असम के स्कॉलरशिप पर वृंदावन में माधव कंदली के *‘असमिया रामायण’* और *‘गोस्वामी तुलसीदास’* के रामचरित मानस का तुलनात्मक अध्ययन किया। दोनों का मेटाफर इतना पसंद आया कि मैंने सोच लिया कि इसी पर काम करूंगी। लेकिन जब मैं वृंदावन आई तो वहां कृष्णदासियों और पंडे-पुजारियों की जीवन झांकियां मन में क्षोभ और वितृष्णा पैदा करते थे।’’ सन 1971 में मामोनी दिल्ली आ गईं और दिल्ली विवि में मॉडर्न इंडियन लैंग्वेजेज डिपार्टमेंट में अध्यापन करने लगीं। दिल्ली में रहते हुए मामोनी को दुनिया ने इंदिरा गोस्वामी के नाम से जाना लेकिन उनके करीबी आज भी उन्हें मामानी कहकर ही संबोधित करते हैं। मार्च 2003 में दिल्ली युनिवर्सिटी के प्रोफेसर कालोनी के फ्लैट में दिल्ली पढ़ने आई असमी बालाओं से घिरी मामोनी ने एक मुलाकात में बताया, ‘‘सन 71 से दिल्ली में अकेली रह रही हूं। एक मकान मे अकेले रहना...पहले शक्ति नगर में रहती थी फिर यहां प्रोफेसर कालोनी आ गई। लेकिन ब्रह्मपुत्र को लेकर आज भी मेरे अंदर ग्रेट फीलिंग है।’’ सन 2008 में वह रिटायर हो गईं लेकिन पढ़ने-लिखने का जुनून कम न हुआ। लेकिन खबर है कि पछले दिनों जब वह अचानक कॉमा में चली गई तो उन्हें गुवाहाटी शिफ्ट कराया गया। ब्रह्मपुत्र के किनारे ही एक अस्पताल में आज उनका इलाज चल रहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Aug 22 11:15:32 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 22 Aug 2011 11:15:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= I'd rather not be Anna : Arundhati Roy Message-ID: THE HINDU (August 21, 2011)I'd rather not be AnnaBy Arundhati Roy *While his means maybe Gandhian, his demands are certainly not.* *If* what we're watching on TV is indeed a revolution, then it has to be one of the more embarrassing and unintelligible ones of recent times. For now, whatever questions you may have about the Jan Lokpal Bill, here are the answers you're likely to get: tick the box — (a) Vande Mataram (b) Bharat Mata ki Jai (c) India is Anna, Anna is India (d) Jai Hind. *For* completely different reasons, and in completely different ways, you could say that the Maoists and the Jan Lokpal Bill have one thing in common — they both seek the overthrow of the Indian State. One working from the bottom up, by means of an armed struggle, waged by a largely adivasi army, made up of the poorest of the poor. The other, from the top down, by means of a bloodless Gandhian coup, led by a freshly minted saint, and an army of largely urban, and certainly better off people. (In this one, the Government collaborates by doing everything it possibly can to overthrow itself.) *In *April 2011, a few days into Anna Hazare's first “fast unto death,” searching for some way of distracting attention from the massive corruption scams which had battered its credibility, the Government invited Team Anna, the brand name chosen by this “civil society” group, to be part of a joint drafting committee for a new anti-corruption law. A few months down the line it abandoned that effort and tabled its own bill in Parliament, a bill so flawed that it was impossible to take seriously. *Then, *on August 16th, the morning of his second “fast unto death,” before he had begun his fast or committed any legal offence, Anna Hazare was arrested and jailed. The struggle for the implementation of the Jan Lokpal Bill now coalesced into a struggle for the right to protest, the struggle for democracy itself. Within hours of this ‘Second Freedom Struggle,' Anna was released. Cannily, he refused to leave prison, but remained in Tihar jail as an honoured guest, where he began a fast, demanding the right to fast in a public place. For three days, while crowds and television vans gathered outside, members of Team Anna whizzed in and out of the high security prison, carrying out his video messages, to be broadcast on national TV on all channels. (Which other person would be granted this luxury?) Meanwhile 250 employees of the Municipal Commission of Delhi, 15 trucks, and six earth movers worked around the clock to ready the slushy Ramlila grounds for the grand weekend spectacle. Now, waited upon hand and foot, watched over by chanting crowds and crane-mounted cameras, attended to by India's most expensive doctors, the third phase of Anna's fast to the death has begun. “From Kashmir to Kanyakumari, India is One,” the TV anchors tell us. *While* his means may be Gandhian, Anna Hazare's demands are certainly not. Contrary to Gandhiji's ideas about the decentralisation of power, the Jan Lokpal Bill is a draconian, anti-corruption law, in which a panel of carefully chosen people will administer a giant bureaucracy, with thousands of employees, with the power to police everybody from the Prime Minister, the judiciary, members of Parliament, and all of the bureaucracy, down to the lowest government official. The Lokpal will have the powers of investigation, surveillance, and prosecution. Except for the fact that it won't have its own prisons, it will function as an independent administration, meant to counter the bloated, unaccountable, corrupt one that we already have. Two oligarchies, instead of just one. *Whether* it works or not depends on how we view corruption. Is corruption just a matter of legality, of financial irregularity and bribery, or is it the currency of a social transaction in an egregiously unequal society, in which power continues to be concentrated in the hands of a smaller and smaller minority? Imagine, for example, a city of shopping malls, on whose streets hawking has been banned. A hawker pays the local beat cop and the man from the municipality a small bribe to break the law and sell her wares to those who cannot afford the prices in the malls. Is that such a terrible thing? In future will she have to pay the Lokpal representative too? Does the solution to the problems faced by ordinary people lie in addressing the structural inequality, or in creating yet another power structure that people will have to defer to? *Meanwhile* the props and the choreography, the aggressive nationalism and flag waving of Anna's Revolution are all borrowed, from the anti-reservation protests, the world-cup victory parade, and the celebration of the nuclear tests. They signal to us that if we do not support The Fast, we are not ‘true Indians.' The 24-hour channels have decided that there is no other news in the country worth reporting. *‘The Fast' *of course doesn't mean Irom Sharmila's fast that has lasted for more than ten years (she's being force fed now) against the AFSPA, which allows soldiers in Manipur to kill merely on suspicion. It does not mean the relay hunger fast that is going on right now by ten thousand villagers in Koodankulam protesting against the nuclear power plant. ‘The People' does not mean the Manipuris who support Irom Sharmila's fast. Nor does it mean the thousands who are facing down armed policemen and mining mafias in Jagatsinghpur, or Kalinganagar, or Niyamgiri, or Bastar, or Jaitapur. Nor do we mean the victims of the Bhopal gas leak, or the people displaced by dams in the Narmada Valley. Nor do we mean the farmers in NOIDA, or Pune or Haryana or elsewhere in the country, resisting the takeover of the land. *‘The People'* only means the audience that has gathered to watch the spectacle of a 74-year-old man threatening to starve himself to death if his Jan Lokpal Bill is not tabled and passed by Parliament. ‘The People' are the tens of thousands who have been miraculously multiplied into millions by our TV channels, like Christ multiplied the fishes and loaves to feed the hungry. “A billion voices have spoken,” we're told. “India is Anna.” *Who* is he really, this new saint, this Voice of the People? Oddly enough we've heard him say nothing about things of urgent concern. Nothing about the farmer's suicides in his neighbourhood, or about Operation Green Hunt further away. Nothing about Singur, Nandigram, Lalgarh, nothing about Posco, about farmer's agitations or the blight of SEZs. He doesn't seem to have a view about the Government's plans to deploy the Indian Army in the forests of Central India. *He *does however support Raj Thackeray's Marathi Manoos xenophobia and has praised the ‘development model' of Gujarat's Chief Minister who oversaw the 2002 pogrom against Muslims. (Anna withdrew that statement after a public outcry, but presumably not his admiration.) *Despite* the din, sober journalists have gone about doing what journalists do. We now have the back-story about Anna's old relationship with the RSS. We have heard from Mukul Sharma who has studied Anna's village community in Ralegan Siddhi, where there have been no Gram Panchayat or Co-operative society elections in the last 25 years. We know about Anna's attitude to ‘harijans': “It was Mahatma Gandhi's vision that every village should have one chamar, one sunar, one kumhar and so on. They should all do their work according to their role and occupation, and in this way, a village will be self-dependant. This is what we are practicing in Ralegan Siddhi.” Is it surprising that members of Team Anna have also been associated with Youth for Equality, the anti-reservation (pro-“merit”) movement? The campaign is being handled by people who run a clutch of generously funded NGOs whose donors include Coca-Cola and the Lehman Brothers. Kabir, run by Arvind Kejriwal and Manish Sisodia, key figures in Team Anna, has received $400,000 from the Ford Foundation in the last three years. Among contributors to the India Against Corruption campaign there are Indian companies and foundations that own aluminum plants, build ports and SEZs, and run Real Estate businesses and are closely connected to politicians who run financial empires that run into thousands of crores of rupees. Some of them are currently being investigated for corruption and other crimes. Why are they all so enthusiastic? *Remember *the campaign for the Jan Lokpal Bill gathered steam around the same time as embarrassing revelations by Wikileaks and a series of scams, including the 2G spectrum scam, broke, in which major corporations, senior journalists, and government ministers and politicians from the Congress as well as the BJP seem to have colluded in various ways as hundreds of thousands of crores of rupees were being siphoned off from the public exchequer. For the first time in years, journalist-lobbyists were disgraced and it seemed as if some major Captains of Corporate India could actually end up in prison. Perfect timing for a people's anti-corruption agitation. Or was it? At a time when the State is withdrawing from its traditional duties and Corporations and NGOs are taking over government functions (water supply, electricity, transport, telecommunication, mining, health, education); at a time when the terrifying power and reach of the corporate owned media is trying to control the public imagination, one would think that these institutions — the corporations, the media, and NGOs — would be included in the jurisdiction of a Lokpal bill. Instead, the proposed bill leaves them out completely. *Now, *by shouting louder than everyone else, by pushing a campaign that is hammering away at the theme of evil politicians and government corruption, they have very cleverly let themselves off the hook. Worse, by demonising only the Government they have built themselves a pulpit from which to call for the further withdrawal of the State from the public sphere and for a second round of reforms — more privatisation, more access to public infrastructure and India's natural resources. It may not be long before Corporate Corruption is made legal and renamed a Lobbying Fee. *Will * the 830 million people living on Rs.20 a day really benefit from the strengthening of a set of policies that is impoverishing them and driving this country to civil war? *This* awful crisis has been forged out of the utter failure of India's representative democracy, in which the legislatures are made up of criminals and millionaire politicians who have ceased to represent its people. In which not a single democratic institution is accessible to ordinary people. Do not be fooled by the flag waving. We're watching India being carved up in war for suzerainty that is as deadly as any battle being waged by the warlords of Afghanistan, only with much, much more at stake. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Mon Aug 22 17:24:37 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Mon, 22 Aug 2011 17:24:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: 2011/8/21 kamal mishra > राकेश भाई, > बुनियादी तौर से तो हालाँकि मैं भी यही कहना चाहता था कि *घर को सजाने का > तसव्वुर तो बाद का है, पहले ये तो तय हो की घर को बचाएं कैसे* ! मगर आप की > प्रतिक्रिया के कुछ पहलुओं को नज़रंदाज़ कर के कम से कम मैं आप को काजी होने > की सनद नहीं दे पाउंगा. इसकी एक वजह तो ये है की आप की अपनी प्रतिक्रिया में > कुछ विरोधाभास सा है. एक तरफ तो आप यह मानते हैं की सार्वजनिक जीवन में > भ्रस्टाचार बड़ी समस्या नहीं है. जिस पर मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है सिवाय > इसके की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार की जैसी एक से बाद कर एक मिसालें दरपेश > हैं उनकी तरफ से मुहं मोड़ कर हम और आप भला कहाँ जायेंगे और कौन सी समझदारी > विकसित करेंगे ? > > परस्पर लाभ पहुँचाने वाली जिस व्यवस्था को आप एक दूजे को हाजी-काजी घोषित करने > के तौर पर और एक ज्यादा बड़ा खतरा गिन रहे हैं वो भी तो दरअसल अब उसी भ्रस्ट > सामाजिक-राजनैतिक सांचे का एक अनिवार्य अंग बन गयी है. तो अन्ना और उनके > साथियों की चड्ढी कितनी साफ़ है या कब तक साफ़ रहेगी ये तो भगवान ही जाने लेकिन > नारायण दत्त तिवारी जैसे तपे हुए कांग्रेसी गाँधीवादियों की शुचिता और मूल्यबोध > का तमाशा तो उम्मीद है आप इतनी जल्दी नहीं ही भूले होंगे! यों तो उदारीकरण के > मौजूदा दौर में साँस भरते हुए यौन शुचिता व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कोई मतलब > नहीं रखती लेकिन, सच या झूठ (?), सुनता हूँ की आज भी वही भूतपूर्व राज्यपाल खुद > को स्वतंत्रता आन्दोलन के ही दिनों से गाँधी बाबा का सिपाही और न जाने क्या > क्या होने का दावा किया करते हैं! अब इस बात की तस्कीद तो कोई जानकार ही करे की > वाकई डॉ तिवारी गाँधी जी के अनुयायी और असल वारिस हैं भी या नहीं. हाँ ये सवाल > जरुर पेशतर है की इस देश की पिछली पीढ़ी, आम जन मानस, और भावी नेतृत्व भला *उस > *गाँधीवादी विरासत से क्या प्रेरणा ले जिसके प्रतिनिधि चरित्रों में डॉ > नारायण दत्त तिवारी जी भी शुमार किये जाते हैं? इसी तरह जिस समाज में एक बड़ी > आबादी के लिए न्यूनतम आमदनी २० रुपये रोजाना घोषित हो, और बुनियादी सुविधाओं के > आभाव में उनका जीना हलकान हो, वहां प्रमुख विपक्षी पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय > अध्यक्ष नितिन गडकरी जी के बेटे की शादी की चमक से अगर आप की आँखों को तकलीफ > नहीं हुई तो यह कहते हुए कम से कम मैं जरा भी संकोच नहीं करूँगा की अब मुझे आप > के इस नजरिये से भी तकलीफ है! > > चलिए थोड़ी देर के लिए ही सही मैं अपनी निजी और एक उच्च जातीय- मध्य वर्गीय > व्यथा को भूल जाता हूँ. और अब हम इस संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हजारों > सालों से उत्पीडित दलित जातिओं को मुख्य धारा में ले आने के लिए तैयार किये गए > *स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान* - जिसके तहत कुल योजनागत बजट के १६% राशि के सीधे > आवंटन का प्रावधान पिछले बीसियों सालों से है- पर ही बात करते हैं . जरा > बताईये की कौन सा ऐसा राज्य है और कौन सी ऐसी सरकार है जो इस संवैधानिक नीति > निर्देश का ठीक ठीक पालन कर दलितों के हितो की अनदेखी नहीं कर रहा है? जवाब > पाएंगे शायद एक भी नहीं. तब योजना का लाभ जरुरत मंद तक पहुंचे वो तो बाद की बात > है भ्रस्टाचार की गिद्धदृष्टि तो उस वास्तविक मद में पैसा भी जाने नहीं दे > रही है ! > जिन्हें आदिवासिओं की हालत क्या है ये देखना हो वो जरा ओड़िसा या मध्य > प्रदेश ही हो आएं . मैंने तो उस इलाके के गाँव में, जहाँ राहुल बाबा फोटो > खिचाने के बाद ये घोषणा कर आये थे की वो दिल्ली में उन्हीं आदिवासिओं के सिपाही > हैं, यही पाया की गावं के बाहर खड़ा बोर्ड (अंग्रेजी में ) भले ही ' राजीव > गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण परियोजना' के तहत सम्पूर्ण ग्राम के बिजली सुविधा से > जुड़े होने का दावा करे लेकिन हकीकत में उन आदिवासी गावों में बिजली तो दूर > बिजली के खम्भे तक नहीं लगे हैं. भूख, बीमारी और लाचारी उनकी किस्मत बन गयी है > और माफिया उनके जंगलों और जमीन पर कैसी नजरे गाडे है ये क्या किसी से छुपा है > ? अल्पसंख्यकों की ही बात उठा लीजिये, सच्चर कमिटी की अनुशंसा का क्या नतीजा > हुआ जरा बताईये ? कौन सा देव- दानव उसे निगल गया? साम्प्र्दैक शक्तिओं से छाया > युद्ध लड़ने वालों से आप उम्मीद करेंगे की वो रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू > करेंगे ? नहीं जनाब हालत वाकई गंभीर हैं. > > और ये सब देख समझ कर ही मैं दीवानों के बीच ये कहने का हौसला जुटा पाया हूँ की > अगर किसी मुहीम, किसी कानून, किसी पहल कदमी से इस डराने वाली जमीनी हकीकत में > सार्थक बदलाव की एक रत्ती भी गुंजाईश बनती हो तो कम से कम मैं उस बदलाव के पक्ष > में हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ की आप इतना तो जरुर समझ रहे होंगे की मुहीम की रौ > में बह कर अन्ना या उनके जन लोक पाल का समर्थन कम से कम मैं नहीं कर रहा हूँ. > लेकिन मेरी ये स्पष्ट समझ बनी है की भ्रस्टाचार का सवाल मौजूं है क्योंकि ये > अचानक किसी शून्य से नहीं उभरा है. और दुहराव का खतरा उठा कर भी मैं फिर से यह > कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और > हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय > व्यवस्था की आड़ में चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में > लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह > प्रशासन की गैर मौजूदगी है. > > रहा सवाल मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाते हाथ-पैर > छितराते, तिरंगा भांजते सड़कों पर दौड़ रहे युवाओं का तो मैं विशेष क्या कहूं > पोलिस के अपने रिकॉर्ड यह साबित करने को पर्याप्त हैं की अन्ना की भ्रस्टाचार > विरोधी मुहीम के असर में आई दिल्ली में अपराधिक वारदातों की दरों में लगभग ३५% > की गिरावट दर्ज हुई है (श्रोत : आन्दोलन ने थामी अपराध की रफ़्तार, *हिंदुस्तान > , *१९ अगस्त २०११, पेज ०४ ). > > अगर ग्रहों की विपरीत गति के प्रभाव में कुछ अन्यथा कह गया हूँ तो माफ़ी का > तलबगार > कमल > > > > 2011/8/21 Rakeshराकेश > >> कमल बाबू, >> >> ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या कमल >> खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. बस, >> अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. हालांकि >> आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा है. >> चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा लेंगे. >> इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है ही, के >> रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. >> मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था की >> धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं सड़कों >> पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा भ्रष्‍टाचार >> उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने बड़े जनसैलाब >> में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद भी. पर ये >> नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. व्‍यक्तिगत >> अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये दिक्‍कत है भी >> या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने के लिए कौन सा >> नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले लें. >> यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के तर्ज पर >> धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा खतरनाक >> भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके आसपास भी >> शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? भविष्‍य निधि >> अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की हिमाकत कर रहा >> हूं. >> जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और जोड़ >> लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले मकान >> ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. >> >> दीवानों को सलाम, >> राकेश >> >> >> >> >> >> 2011/8/20 kamal mishra >> >>> * >>> पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * >>> दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर मजबूर >>> किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका >>> टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र >>> पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से >>> मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही >>> साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों >>> में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह >>> बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से >>> प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन >>> मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने >>> और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... >>> >>> *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* >>> टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि 'जनता' >>> राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज >>> कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम फूल रहा है, >>> मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी के आलम में, >>> कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी पसरी हुई है. >>> अपनी बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित चिट्ठाकारों को कोसते >>> रहे, विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण और आत्मीय लेखों के >>> वो शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ चढाने वाले अंदाज >>> में जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और प्रतिबद्धता पर कई >>> सवाल खड़े कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी (नक्सलवादी) रुझान से >>> वाकिफ हैं का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी दिनों में तो आप ने जनता >>> (पढ़ें मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं और अब जब वही जनता सड़कों >>> पर निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे में आध्यात्म और धर्म की >>> गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप भी दीवान पर ही और सीमित >>> ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख रहा हूँ कि इस मौके पर आप >>> भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी सर पर आई बला को टालने के >>> ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है!". बहरहाल, बात बनी >>> नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और निश्चित तौर से चुप्पी >>> की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. >>> >>> *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * >>> तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक लोकप्रिय >>> ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी >>> गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में >>> तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब >>> को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. कुछ >>> परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और उनके >>> आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी कारवाही >>> में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और व्यवस्था बनाये >>> रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस के रणनीतिकारों >>> ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और सत्याग्रह की समृद्ध >>> विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत >>> अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि >>> लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना >>> हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि >>> सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक पहल करने की है. इतना ही >>> नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम >>> के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. >>> एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला >>> चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका >>> समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस >>> लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी >>> दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, >>> मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का >>> जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी >>> कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. >>> पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल महाशय का यह लेख (*लोकपाल - >>> रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० अगस्त २०११) यह बताता है कि >>> कैसे दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः मुक्त होने का दावा नहीं कर >>> सकता और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम एक दशक तक निरंतर संघर्ष की >>> आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई पार्टियों के नेता यह कहते हुए >>> सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा तैयार जन लोकपाल * >>> रामबाण* नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता है. खुद हजारे और उनकी टीम >>> भी अब यह कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ >>> जानकर बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को >>> अगर यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो >>> जायेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज उस दोराहे पर है >>> जहाँ से एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में भी बढ़ता है. वैसे एक >>> अवधारणा के रूप में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा मुश्किल काम है. सिर्फ >>> इस लिए नहीं कि गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय जनता पार्टी तक इस अवधारणा >>> को धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे >>> इतिहासकारों की बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ लेखा जोखा जिसे यह अकेला >>> शब्द तमाम लोगो की जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे पास है. बहरहाल, आज के >>> सन्दर्भ में, कम से कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस से एक हद तक सहमत होंगे >>> कि रामराज्य के जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं जो यह >>> मानते हैं की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ सीधे भाजपा को मिलने जा >>> रहा है. मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन अपने एक निजी दर्द को आप >>> से साझा करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के >>> दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज >>> पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही चल रही >>> लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित >>> करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>> *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - >>> *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र >>> इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान >>> इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि >>> व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के >>> दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ >>> दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. >>> इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे हममे से >>> ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना चाहते है, >>> क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और किसी >>> तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ में >>> अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस >>> मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में >>> काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा >>> जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और >>> किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी >>> की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? >>> >>> *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- >>> *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख दिया >>> है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में बदलता जा रहा >>> है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के प्रस्ताव को >>> 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला समर्थन भी >>> किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें भी >>> हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. मेरी >>> अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें रामलीला >>> मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के कई ऐसे >>> जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकता >>> हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी प्रतीकात्मक रूप >>> से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां लटकाए हुए हैं. >>> तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के चमत्कार के चलते >>> है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम द्वारा नयी >>> तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ अंतररास्ट्रीय >>> लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई की मार से >>> व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? बेरोजगार >>> युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और नाराजगी >>> से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या यह >>> मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? जिन्होंने >>> भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद दिलाने >>> की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और हजारे का >>> नाम लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने भ्रस्टाचार के >>> मुद्दे पर काफी सारी बातें कही थीं. >>> * >>> गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * >>> हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी उलझन >>> ये है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये लगे >>> हाँथ आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक इंडियन >>> सोशल इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० बजे तक >>> गांड घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि खाते >>> में जमा रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब सिर्फ >>> इतना ही कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने सारी >>> गुणा गणित के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से पारित >>> कानून के मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने के ४५ >>> दिनों में रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की पढाई जारी >>> रखने के लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो इंस्टिट्यूट के >>> खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज समय से सरकारी >>> दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब से उन्होंने >>> सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है की आज की >>> तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता हूँ कि चार >>> महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के पैसों का >>> मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे अधिकारी घूस >>> घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी हैं. और यकीं >>> न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की कितनी शिकायते >>> उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने नौजवानों और >>> बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. जब हमने अपने >>> एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से मदद तो नहीं >>> की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की विशेष दशा- >>> स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता उनकी बात और >>> उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है की *दूध >>> का जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की रामराज्य जन लोकपाल >>> के जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं से आ ही जाये, और >>> फर्ज कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर काबिज होने के बाद >>> गलती से राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का वास्ता इस पोस्ट >>> की लाज रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी बनाने की कोशिश >>> जरुर करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! >>> >>> *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- >>> *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय योजना का >>> अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है कि >>> भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत है. >>> लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली >>> राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की >>> राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों >>> इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम >>> घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, >>> और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी >>> 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के >>> उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक >>> माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल >>> नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की >>> आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक >>> मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन >>> की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता >>> हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* >>> >>> दीवान के दोस्तों के नाम, >>> कमल मिश्रा की ओर से >>> >>> *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी पार्टी >>> याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का करिश्मा >>> अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! >>> >>> >>> >>> >>> >>> >>> * * >>> >>> * *. >>> >>> >>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> >> -- >> Rakesh Kumar Singh >> Media Consultant & Content Developer >> Delhi, India >> http://blog.sarai.net/users/rakesh/ >> http://haftawar.blogspot.com >> http://safarr.blogspot.com >> http://sarai.net >> http://sarokar.net >> >> Ph: +91 9811972872 >> >> ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' >> >> - पाश >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rakeshjee at gmail.com Sun Aug 21 00:23:47 2011 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?UmFrZXNo4KSw4KS+4KSV4KWH4KS2?=) Date: Sun, 21 Aug 2011 00:23:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: कमल बाबू, ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या कमल खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. बस, अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. हालांकि आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा है. चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा लेंगे. इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है ही, के रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था की धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं सड़कों पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा भ्रष्‍टाचार उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने बड़े जनसैलाब में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद भी. पर ये नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. व्‍यक्तिगत अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये दिक्‍कत है भी या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने के लिए कौन सा नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले लें. यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के तर्ज पर धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा खतरनाक भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके आसपास भी शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? भविष्‍य निधि अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की हिमाकत कर रहा हूं. जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और जोड़ लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले मकान ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. दीवानों को सलाम, राकेश 2011/8/20 kamal mishra > * > पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * > दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर मजबूर > किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका > टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र > पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से > मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही > साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों > में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह > बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से > प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन > मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने > और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... > > *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* > टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि 'जनता' > राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज > कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम फूल रहा है, > मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी के आलम में, > कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी पसरी हुई है. अपनी > बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित चिट्ठाकारों को कोसते रहे, > विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण और आत्मीय लेखों के वो > शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ चढाने वाले अंदाज में > जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और प्रतिबद्धता पर कई सवाल खड़े > कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी (नक्सलवादी) रुझान से वाकिफ हैं > का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी दिनों में तो आप ने जनता (पढ़ें > मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं और अब जब वही जनता सड़कों पर > निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे में आध्यात्म और धर्म की > गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप भी दीवान पर ही और सीमित > ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख रहा हूँ कि इस मौके पर आप > भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी सर पर आई बला को टालने के > ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है!". बहरहाल, बात बनी > नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और निश्चित तौर से चुप्पी > की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. > > *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * > तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक लोकप्रिय > ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी > गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में > तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब > को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. कुछ > परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और उनके > आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी कारवाही > में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और व्यवस्था बनाये > रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस के रणनीतिकारों > ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और सत्याग्रह की समृद्ध > विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत > अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि > लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना > हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि > सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक पहल करने की है. इतना ही > नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम > के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. > एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला > चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका > समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस > लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी > दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, > मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का > जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी > कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. > पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल महाशय का यह लेख (*लोकपाल - > रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० अगस्त २०११) यह बताता है कि कैसे > दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता > और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम एक दशक तक निरंतर संघर्ष की > आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई पार्टियों के नेता यह कहते हुए > सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा तैयार जन लोकपाल *रामबाण > * नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता है. खुद हजारे और उनकी टीम भी अब यह > कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ जानकर > बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को अगर > यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो जायेगा. > दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज उस दोराहे पर है जहाँ से > एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में भी बढ़ता है. वैसे एक अवधारणा के रूप > में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा मुश्किल काम है. सिर्फ इस लिए नहीं कि > गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय जनता पार्टी तक इस अवधारणा को धड़ल्ले से > इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे इतिहासकारों की > बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ लेखा जोखा जिसे यह अकेला शब्द तमाम लोगो की > जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे पास है. बहरहाल, आज के सन्दर्भ में, कम से > कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस से एक हद तक सहमत होंगे कि रामराज्य के > जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं जो यह मानते हैं की > भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ सीधे भाजपा को मिलने जा रहा है. > मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन अपने एक निजी दर्द को आप से साझा > करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में > गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग > रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही चल रही लूट खसोट, > लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में > एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. > *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - > *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र > इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान > इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि > व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के > दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ > दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. > इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे हममे से > ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना चाहते है, > क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और किसी > तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ में > अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस > मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में > काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा > जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और > किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी > की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? > > *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- > *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख दिया > है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में बदलता जा रहा > है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के प्रस्ताव को > 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला समर्थन भी > किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें भी > हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. मेरी > अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें रामलीला > मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के कई ऐसे > जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकता > हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी प्रतीकात्मक रूप > से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां लटकाए हुए हैं. > तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के चमत्कार के चलते > है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम द्वारा नयी > तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ अंतररास्ट्रीय > लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई की मार से > व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? बेरोजगार > युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और नाराजगी > से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या यह > मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? जिन्होंने > भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद दिलाने > की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और हजारे का नाम > लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने भ्रस्टाचार के मुद्दे > पर काफी सारी बातें कही थीं. > * > गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * > हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी उलझन ये > है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये लगे हाँथ > आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक इंडियन सोशल > इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० बजे तक गांड > घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि खाते में जमा > रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब सिर्फ इतना ही > कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने सारी गुणा गणित > के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से पारित कानून के > मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने के ४५ दिनों में > रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की पढाई जारी रखने के > लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो इंस्टिट्यूट के > खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज समय से सरकारी > दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब से उन्होंने > सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है की आज की > तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता हूँ कि चार > महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के पैसों का > मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे अधिकारी घूस > घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी हैं. और यकीं > न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की कितनी शिकायते > उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने नौजवानों और > बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. जब हमने अपने > एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से मदद तो नहीं > की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की विशेष दशा- > स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता उनकी बात और > उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है की *दूध का > जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की रामराज्य जन लोकपाल के > जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं से आ ही जाये, और फर्ज > कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर काबिज होने के बाद गलती से > राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का वास्ता इस पोस्ट की लाज > रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी बनाने की कोशिश जरुर > करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! > > *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- > *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय योजना का > अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है कि > भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत है. > लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली > राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की > राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों > इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम > घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, > और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी > 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के > उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक > माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल > नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की > आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक > मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन > की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता > हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* > > दीवान के दोस्तों के नाम, > कमल मिश्रा की ओर से > > *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी पार्टी > याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का करिश्मा > अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! > > > > > > > * * > > * *. > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Media Consultant & Content Developer Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://sarokar.net Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rakeshjee at gmail.com Sun Aug 21 15:02:16 2011 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?UmFrZXNo4KSw4KS+4KSV4KWH4KS2?=) Date: Sun, 21 Aug 2011 15:02:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: मित्र कमल, मुमकिन है मेरी बात कायदे से संप्रेषित न हुई हो. सार्वजनिक जीवन का भ्रष्‍टाचार मेरे लिए भी समस्‍या है. पर व्‍यक्तिगत जीवन का भ्रष्‍टाचार उस पर भारी पड़ता है, मेरी नजर में. बाकी राजनीतिक जीवन के आचार विचार और भ्रष्‍टाचार जितने आपको तबाह करते हैं, ज्‍यादा नहीं तो कम से कम उतने मुझे भी कर रहे होंगे. पर हल मुझे अण्‍णा में तो नही दिख रहा फिलहाल. आगे की पंक्तियों से जो चिंताएं जतायी है आपने, जायज है. देखिएगा, उनसे मुक्‍त होने का रास्‍ता किधर से निकलता है. विचार कीजिएगा. 2011/8/21 kamal mishra > राकेश भाई, > बुनियादी तौर से तो हालाँकि मैं भी यही कहना चाहता था कि *घर को सजाने का > तसव्वुर तो बाद का है, पहले ये तो तय हो की घर को बचाएं कैसे* ! मगर आप की > प्रतिक्रिया के कुछ पहलुओं को नज़रंदाज़ कर के कम से कम मैं आप को काजी होने > की सनद नहीं दे पाउंगा. इसकी एक वजह तो ये है की आप की अपनी प्रतिक्रिया में > कुछ विरोधाभास सा है. एक तरफ तो आप यह मानते हैं की सार्वजनिक जीवन में > भ्रस्टाचार बड़ी समस्या नहीं है. जिस पर मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है सिवाय > इसके की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार की जैसी एक से बाद कर एक मिसालें दरपेश > हैं उनकी तरफ से मुहं मोड़ कर हम और आप भला कहाँ जायेंगे और कौन सी समझदारी > विकसित करेंगे ? > > परस्पर लाभ पहुँचाने वाली जिस व्यवस्था को आप एक दूजे को हाजी-काजी घोषित करने > के तौर पर और एक ज्यादा बड़ा खतरा गिन रहे हैं वो भी तो दरअसल अब उसी भ्रस्ट > सामाजिक-राजनैतिक सांचे का एक अनिवार्य अंग बन गयी है. तो अन्ना और उनके > साथियों की चड्ढी कितनी साफ़ है या कब तक साफ़ रहेगी ये तो भगवान ही जाने लेकिन > नारायण दत्त तिवारी जैसे तपे हुए कांग्रेसी गाँधीवादियों की शुचिता और मूल्यबोध > का तमाशा तो उम्मीद है आप इतनी जल्दी नहीं ही भूले होंगे! यों तो उदारीकरण के > मौजूदा दौर में साँस भरते हुए यौन शुचिता व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कोई मतलब > नहीं रखती लेकिन, सच या झूठ (?), सुनता हूँ की आज भी वही भूतपूर्व राज्यपाल खुद > को स्वतंत्रता आन्दोलन के ही दिनों से गाँधी बाबा का सिपाही और न जाने क्या > क्या होने का दावा किया करते हैं! अब इस बात की तस्कीद तो कोई जानकार ही करे की > वाकई डॉ तिवारी गाँधी जी के अनुयायी और असल वारिस हैं भी या नहीं. हाँ ये सवाल > जरुर पेशतर है की इस देश की पिछली पीढ़ी, आम जन मानस, और भावी नेतृत्व भला *उस > *गाँधीवादी विरासत से क्या प्रेरणा ले जिसके प्रतिनिधि चरित्रों में डॉ > नारायण दत्त तिवारी जी भी शुमार किये जाते हैं? इसी तरह जिस समाज में एक बड़ी > आबादी के लिए न्यूनतम आमदनी २० रुपये रोजाना घोषित हो, और बुनियादी सुविधाओं के > आभाव में उनका जीना हलकान हो, वहां प्रमुख विपक्षी पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय > अध्यक्ष नितिन गडकरी जी के बेटे की शादी की चमक से अगर आप की आँखों को तकलीफ > नहीं हुई तो यह कहते हुए कम से कम मैं जरा भी संकोच नहीं करूँगा की अब मुझे आप > के इस नजरिये से भी तकलीफ है! > > चलिए थोड़ी देर के लिए ही सही मैं अपनी निजी और एक उच्च जातीय- मध्य वर्गीय > व्यथा को भूल जाता हूँ. और अब हम इस संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हजारों > सालों से उत्पीडित दलित जातिओं को मुख्य धारा में ले आने के लिए तैयार किये गए > *स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान* - जिसके तहत कुल योजनागत बजट के १६% राशि के सीधे > आवंटन का प्रावधान पिछले बीसियों सालों से है- पर ही बात करते हैं . जरा > बताईये की कौन सा ऐसा राज्य है और कौन सी ऐसी सरकार है जो इस संवैधानिक नीति > निर्देश का ठीक ठीक पालन कर दलितों के हितो की अनदेखी नहीं कर रहा है? जवाब > पाएंगे शायद एक भी नहीं. तब योजना का लाभ जरुरत मंद तक पहुंचे वो तो बाद की बात > है भ्रस्टाचार की गिद्धदृष्टि तो उस वास्तविक मद में पैसा भी जाने नहीं दे > रही है ! > जिन्हें आदिवासिओं की हालत क्या है ये देखना हो वो जरा ओड़िसा या मध्य > प्रदेश ही हो आएं . मैंने तो उस इलाके के गाँव में, जहाँ राहुल बाबा फोटो > खिचाने के बाद ये घोषणा कर आये थे की वो दिल्ली में उन्हीं आदिवासिओं के सिपाही > हैं, यही पाया की गावं के बाहर खड़ा बोर्ड (अंग्रेजी में ) भले ही ' राजीव > गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण परियोजना' के तहत सम्पूर्ण ग्राम के बिजली सुविधा से > जुड़े होने का दावा करे लेकिन हकीकत में उन आदिवासी गावों में बिजली तो दूर > बिजली के खम्भे तक नहीं लगे हैं. भूख, बीमारी और लाचारी उनकी किस्मत बन गयी है > और माफिया उनके जंगलों और जमीन पर कैसी नजरे गाडे है ये क्या किसी से छुपा है > ? अल्पसंख्यकों की ही बात उठा लीजिये, सच्चर कमिटी की अनुशंसा का क्या नतीजा > हुआ जरा बताईये ? कौन सा देव- दानव उसे निगल गया? साम्प्र्दैक शक्तिओं से छाया > युद्ध लड़ने वालों से आप उम्मीद करेंगे की वो रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू > करेंगे ? नहीं जनाब हालत वाकई गंभीर हैं. > > और ये सब देख समझ कर ही मैं दीवानों के बीच ये कहने का हौसला जुटा पाया हूँ की > अगर किसी मुहीम, किसी कानून, किसी पहल कदमी से इस डराने वाली जमीनी हकीकत में > सार्थक बदलाव की एक रत्ती भी गुंजाईश बनती हो तो कम से कम मैं उस बदलाव के पक्ष > में हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ की आप इतना तो जरुर समझ रहे होंगे की मुहीम की रौ > में बह कर अन्ना या उनके जन लोक पाल का समर्थन कम से कम मैं नहीं कर रहा हूँ. > लेकिन मेरी ये स्पष्ट समझ बनी है की भ्रस्टाचार का सवाल मौजूं है क्योंकि ये > अचानक किसी शून्य से नहीं उभरा है. और दुहराव का खतरा उठा कर भी मैं फिर से यह > कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और > हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय > व्यवस्था की आड़ में चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में > लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह > प्रशासन की गैर मौजूदगी है. > > रहा सवाल मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाते हाथ-पैर > छितराते, तिरंगा भांजते सड़कों पर दौड़ रहे युवाओं का तो मैं विशेष क्या कहूं > पोलिस के अपने रिकॉर्ड यह साबित करने को पर्याप्त हैं की अन्ना की भ्रस्टाचार > विरोधी मुहीम के असर में आई दिल्ली में अपराधिक वारदातों की दरों में लगभग ३५% > की गिरावट दर्ज हुई है (श्रोत : आन्दोलन ने थामी अपराध की रफ़्तार, *हिंदुस्तान > , *१९ अगस्त २०११, पेज ०४ ). > > अगर ग्रहों की विपरीत गति के प्रभाव में कुछ अन्यथा कह गया हूँ तो माफ़ी का > तलबगार > कमल > > > > 2011/8/21 Rakeshराकेश > >> कमल बाबू, >> >> ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या कमल >> खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. बस, >> अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. हालांकि >> आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा है. >> चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा लेंगे. >> इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है ही, के >> रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. >> मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था की >> धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं सड़कों >> पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा भ्रष्‍टाचार >> उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने बड़े जनसैलाब >> में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद भी. पर ये >> नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. व्‍यक्तिगत >> अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये दिक्‍कत है भी >> या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने के लिए कौन सा >> नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले लें. >> यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के तर्ज पर >> धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा खतरनाक >> भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके आसपास भी >> शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? भविष्‍य निधि >> अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की हिमाकत कर रहा >> हूं. >> जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और जोड़ >> लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले मकान >> ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. >> >> दीवानों को सलाम, >> राकेश >> >> >> >> >> >> 2011/8/20 kamal mishra >> >>> * >>> पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * >>> दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर मजबूर >>> किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका >>> टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र >>> पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से >>> मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही >>> साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों >>> में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह >>> बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से >>> प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन >>> मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने >>> और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... >>> >>> *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* >>> टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि 'जनता' >>> राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज >>> कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम फूल रहा है, >>> मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी के आलम में, >>> कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी पसरी हुई है. >>> अपनी बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित चिट्ठाकारों को कोसते >>> रहे, विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण और आत्मीय लेखों के >>> वो शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ चढाने वाले अंदाज >>> में जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और प्रतिबद्धता पर कई >>> सवाल खड़े कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी (नक्सलवादी) रुझान से >>> वाकिफ हैं का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी दिनों में तो आप ने जनता >>> (पढ़ें मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं और अब जब वही जनता सड़कों >>> पर निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे में आध्यात्म और धर्म की >>> गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप भी दीवान पर ही और सीमित >>> ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख रहा हूँ कि इस मौके पर आप >>> भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी सर पर आई बला को टालने के >>> ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है!". बहरहाल, बात बनी >>> नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और निश्चित तौर से चुप्पी >>> की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. >>> >>> *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * >>> तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक लोकप्रिय >>> ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी >>> गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में >>> तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब >>> को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. कुछ >>> परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और उनके >>> आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी कारवाही >>> में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और व्यवस्था बनाये >>> रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस के रणनीतिकारों >>> ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और सत्याग्रह की समृद्ध >>> विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत >>> अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि >>> लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना >>> हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि >>> सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक पहल करने की है. इतना ही >>> नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम >>> के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. >>> एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला >>> चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका >>> समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस >>> लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी >>> दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, >>> मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का >>> जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी >>> कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. >>> पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल महाशय का यह लेख (*लोकपाल - >>> रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० अगस्त २०११) यह बताता है कि >>> कैसे दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः मुक्त होने का दावा नहीं कर >>> सकता और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम एक दशक तक निरंतर संघर्ष की >>> आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई पार्टियों के नेता यह कहते हुए >>> सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा तैयार जन लोकपाल * >>> रामबाण* नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता है. खुद हजारे और उनकी टीम >>> भी अब यह कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ >>> जानकर बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को >>> अगर यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो >>> जायेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज उस दोराहे पर है >>> जहाँ से एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में भी बढ़ता है. वैसे एक >>> अवधारणा के रूप में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा मुश्किल काम है. सिर्फ >>> इस लिए नहीं कि गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय जनता पार्टी तक इस अवधारणा >>> को धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे >>> इतिहासकारों की बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ लेखा जोखा जिसे यह अकेला >>> शब्द तमाम लोगो की जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे पास है. बहरहाल, आज के >>> सन्दर्भ में, कम से कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस से एक हद तक सहमत होंगे >>> कि रामराज्य के जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं जो यह >>> मानते हैं की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ सीधे भाजपा को मिलने जा >>> रहा है. मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन अपने एक निजी दर्द को आप >>> से साझा करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के >>> दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज >>> पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही चल रही >>> लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित >>> करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>> *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - >>> *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र >>> इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान >>> इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि >>> व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के >>> दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ >>> दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. >>> इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे हममे से >>> ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना चाहते है, >>> क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और किसी >>> तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ में >>> अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस >>> मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में >>> काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा >>> जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और >>> किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी >>> की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? >>> >>> *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- >>> *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख दिया >>> है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में बदलता जा रहा >>> है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के प्रस्ताव को >>> 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला समर्थन भी >>> किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें भी >>> हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. मेरी >>> अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें रामलीला >>> मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के कई ऐसे >>> जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकता >>> हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी प्रतीकात्मक रूप >>> से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां लटकाए हुए हैं. >>> तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के चमत्कार के चलते >>> है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम द्वारा नयी >>> तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ अंतररास्ट्रीय >>> लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई की मार से >>> व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? बेरोजगार >>> युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और नाराजगी >>> से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या यह >>> मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? जिन्होंने >>> भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद दिलाने >>> की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और हजारे का >>> नाम लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने भ्रस्टाचार के >>> मुद्दे पर काफी सारी बातें कही थीं. >>> * >>> गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * >>> हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी उलझन >>> ये है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये लगे >>> हाँथ आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक इंडियन >>> सोशल इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० बजे तक >>> गांड घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि खाते >>> में जमा रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब सिर्फ >>> इतना ही कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने सारी >>> गुणा गणित के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से पारित >>> कानून के मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने के ४५ >>> दिनों में रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की पढाई जारी >>> रखने के लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो इंस्टिट्यूट के >>> खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज समय से सरकारी >>> दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब से उन्होंने >>> सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है की आज की >>> तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता हूँ कि चार >>> महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के पैसों का >>> मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे अधिकारी घूस >>> घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी हैं. और यकीं >>> न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की कितनी शिकायते >>> उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने नौजवानों और >>> बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. जब हमने अपने >>> एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से मदद तो नहीं >>> की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की विशेष दशा- >>> स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता उनकी बात और >>> उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है की *दूध >>> का जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की रामराज्य जन लोकपाल >>> के जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं से आ ही जाये, और >>> फर्ज कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर काबिज होने के बाद >>> गलती से राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का वास्ता इस पोस्ट >>> की लाज रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी बनाने की कोशिश >>> जरुर करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! >>> >>> *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- >>> *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय योजना का >>> अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है कि >>> भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत है. >>> लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली >>> राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की >>> राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों >>> इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम >>> घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, >>> और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी >>> 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के >>> उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक >>> माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल >>> नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की >>> आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक >>> मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन >>> की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता >>> हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* >>> >>> दीवान के दोस्तों के नाम, >>> कमल मिश्रा की ओर से >>> >>> *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी पार्टी >>> याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का करिश्मा >>> अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! >>> >>> >>> >>> >>> >>> >>> * * >>> >>> * *. >>> >>> >>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> >> -- >> Rakesh Kumar Singh >> Media Consultant & Content Developer >> Delhi, India >> http://blog.sarai.net/users/rakesh/ >> http://haftawar.blogspot.com >> http://safarr.blogspot.com >> http://sarai.net >> http://sarokar.net >> >> Ph: +91 9811972872 >> >> ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' >> >> - पाश >> >> > -- Rakesh Kumar Singh Media Consultant & Content Developer Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://sarokar.net Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Aug 21 21:44:55 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 21 Aug 2011 21:44:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSw4KS5?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KSq4KWB4KSk4KWN4KSwIOCkleClgCDgpIngpKbgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+IOCkrOClh+Ckn+ClgCA6IOCkh+CkguCkpuCkv+CksA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkl+Cli+CkuOCljeCkteCkvuCkruClgA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: मित्रो, असमिया की विख्यात साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी इन दिनों गंभीर रूप से बीमार हैं. इंदिरा गोस्वामी का साहित्य जितना वैविध्यपूर्ण और समृद्ध है, उतना ही उनका जीवन कठिन और संघर्षपूर्ण रहा है. दिल्ली में उत्तर-पूर्व के छात्रों के लिए सहृदय अभिभावक रही हैं मामोनी. "ब्रह्मपुत्र की उदारमना बेटी' शीर्षक से आज के 'दैनिक हिंदुस्तान' में प्रकाशित लेख : < http://epaper.livehindustan.com/PUBLICATIONS/HT/HT/2011/08/21/ArticleHtmls/%C2%B6Fi%C5%A1F%C2%B4Fb%C3%82F-IYeCXQFSX%C2%B8F%C2%B3FF-%C2%B6FZMXe-21082011011002.shtml?Mode=1> शुक्रिया. शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From noreply-794578fc at plus.google.com Mon Aug 22 12:47:43 2011 From: noreply-794578fc at plus.google.com (shashi kant (Google+)) Date: Mon, 22 Aug 2011 00:17:43 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= shashi kant shared a post with you. Message-ID: You have received this message because shashi kant shared it with deewan at mail.sarai.net. 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URL: From kissakhwar at gmail.com Mon Aug 22 23:18:18 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Mon, 22 Aug 2011 23:18:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo4KS+IOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYLgpIEsIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo4KS+4KS14KS+4KSm4KWAIOCkreClgCDgpKjgpLk=?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkueClguCkgSEh?= Message-ID: 2011/8/22 kamal mishra राकेश जी, मैं अन्ना नहीं हूँ, अन्नावादी भी नहीं हूँ, लेकिन स्वयं को इस भ्रस्ट प्रशासनिक-राजनैतिक और सामाजिक तंत्र से संतप्त उस मध्यवर्गीय युवा समूह का हिस्सा बेशक मानता हूँ जिसमें स्वाभाविक रूप से मौजूदा से बेहतर विकल्प की तलाश और बदलाव की कुछ छटपटाहट बाकी है. अरुंधती राय सहित तमाम अति उत्साही क्रांतिकारियों से अनेक मुद्दों पर सैद्धांतिक सहमती के बावजूद, राष्ट्र -राज्य की संस्था और भारतीय समाज की मेरी खुद की समझ, जो निश्चित रूप से मेरे अपने अतीत के वामपंथी- नक्सलवादी तजुर्बों और एक अत्यंत सीमित अध्ययन-अवलोकन से मिल कर बनी है, मुझे इस बात को स्वीकारने में मदद करती है कि 'संघर्ष' के साथ- साथ 'संवाद' से ही कोई सार्थक रास्ता या विकल्प निकल सकता है. कम से कम उस हद तक जहाँ संवाद के सारे रास्ते बंद नहीं हो गए हैं. अगर आप मुझसे उस सार्थक विकल्प का, जिसकी ओर मैं यहाँ इशारा भर कर रहा हूँ, खाका खींचने को कहेंगे तो वह तो मौजूदा सन्दर्भ में मेरे लिए संभव नहीं है . हाँ, अन्ना और अन्नावादिओं को लेकर आप की शंकाओं को मैं जरुर एक हद तक शेयर करता हूँ. ज्यादा क्या कहूं बस थोड़ी सी प्रतीक्षा और कीजिये फिर पढ़िए: *'गांधीवाद के अन्ना संस्करण का एक उत्तर पाठ' * 2011/8/21 Rakeshराकेश मित्र कमल, मुमकिन है मेरी बात कायदे से संप्रेषित न हुई हो. सार्वजनिक जीवन का भ्रष्‍टाचार मेरे लिए भी समस्‍या है. पर व्‍यक्तिगत जीवन का भ्रष्‍टाचार उस पर भारी पड़ता है, मेरी नजर में. बाकी राजनीतिक जीवन के आचार विचार और भ्रष्‍टाचार जितने आपको तबाह करते हैं, ज्‍यादा नहीं तो कम से कम उतने मुझे भी कर रहे होंगे. पर हल मुझे अण्‍णा में तो नही दिख रहा फिलहाल. आगे की पंक्तियों से जो चिंताएं जतायी है आपने, जायज है. देखिएगा, उनसे मुक्‍त होने का रास्‍ता किधर से निकलता है. विचार कीजिएगा. 2011/8/21 kamal mishra राकेश भाई, बुनियादी तौर से तो हालाँकि मैं भी यही कहना चाहता था कि *घर को सजाने का तसव्वुर तो बाद का है, पहले ये तो तय हो की घर को बचाएं कैसे* ! मगर आप की प्रतिक्रिया के कुछ पहलुओं को नज़रंदाज़ कर के कम से कम मैं आप को काजी होने की सनद नहीं दे पाउंगा. इसकी एक वजह तो ये है की आप की अपनी प्रतिक्रिया में कुछ विरोधाभास सा है. एक तरफ तो आप यह मानते हैं की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार बड़ी समस्या नहीं है. जिस पर मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है सिवाय इसके की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार की जैसी एक से बाद कर एक मिसालें दरपेश हैं उनकी तरफ से मुहं मोड़ कर हम और आप भला कहाँ जायेंगे और कौन सी समझदारी विकसित करेंगे ? परस्पर लाभ पहुँचाने वाली जिस व्यवस्था को आप एक दूजे को हाजी-काजी घोषित करने के तौर पर और एक ज्यादा बड़ा खतरा गिन रहे हैं वो भी तो दरअसल अब उसी भ्रस्ट सामाजिक-राजनैतिक सांचे का एक अनिवार्य अंग बन गयी है. तो अन्ना और उनके साथियों की चड्ढी कितनी साफ़ है या कब तक साफ़ रहेगी ये तो भगवान ही जाने लेकिन नारायण दत्त तिवारी जैसे तपे हुए कांग्रेसी गाँधीवादियों की शुचिता और मूल्यबोध का तमाशा तो उम्मीद है आप इतनी जल्दी नहीं ही भूले होंगे! यों तो उदारीकरण के मौजूदा दौर में साँस भरते हुए यौन शुचिता व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कोई मतलब नहीं रखती लेकिन, सच या झूठ (?), सुनता हूँ की आज भी वही भूतपूर्व राज्यपाल खुद को स्वतंत्रता आन्दोलन के ही दिनों से गाँधी बाबा का सिपाही और न जाने क्या क्या होने का दावा किया करते हैं! अब इस बात की तस्कीद तो कोई जानकार ही करे की वाकई डॉ तिवारी गाँधी जी के अनुयायी और असल वारिस हैं भी या नहीं. हाँ ये सवाल जरुर पेशतर है की इस देश की पिछली पीढ़ी, आम जन मानस, और भावी नेतृत्व भला *उस *गाँधीवादी विरासत से क्या प्रेरणा ले जिसके प्रतिनिधि चरित्रों में डॉ नारायण दत्त तिवारी जी भी शुमार किये जाते हैं? इसी तरह जिस समाज में एक बड़ी आबादी के लिए न्यूनतम आमदनी २० रुपये रोजाना घोषित हो, और बुनियादी सुविधाओं के आभाव में उनका जीना हलकान हो, वहां प्रमुख विपक्षी पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी जी के बेटे की शादी की चमक से अगर आप की आँखों को तकलीफ नहीं हुई तो यह कहते हुए कम से कम मैं जरा भी संकोच नहीं करूँगा की अब मुझे आप के इस नजरिये से भी तकलीफ है! चलिए थोड़ी देर के लिए ही सही मैं अपनी निजी और एक उच्च जातीय- मध्य वर्गीय व्यथा को भूल जाता हूँ. और अब हम इस संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हजारों सालों से उत्पीडित दलित जातिओं को मुख्य धारा में ले आने के लिए तैयार किये गए *स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान* - जिसके तहत कुल योजनागत बजट के १६% राशि के सीधे आवंटन का प्रावधान पिछले बीसियों सालों से है- पर ही बात करते हैं . जरा बताईये की कौन सा ऐसा राज्य है और कौन सी ऐसी सरकार है जो इस संवैधानिक नीति निर्देश का ठीक ठीक पालन कर दलितों के हितो की अनदेखी नहीं कर रहा है? जवाब पाएंगे शायद एक भी नहीं. तब योजना का लाभ जरुरत मंद तक पहुंचे वो तो बाद की बात है भ्रस्टाचार की गिद्धदृष्टि तो उस वास्तविक मद में पैसा भी जाने नहीं दे रही है ! जिन्हें आदिवासिओं की हालत क्या है ये देखना हो वो जरा ओड़िसा या मध्य प्रदेश ही हो आएं . मैंने तो उस इलाके के गाँव में, जहाँ राहुल बाबा फोटो खिचाने के बाद ये घोषणा कर आये थे की वो दिल्ली में उन्हीं आदिवासिओं के सिपाही हैं, यही पाया की गावं के बाहर खड़ा बोर्ड (अंग्रेजी में ) भले ही ' राजीव गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण परियोजना' के तहत सम्पूर्ण ग्राम के बिजली सुविधा से जुड़े होने का दावा करे लेकिन हकीकत में उन आदिवासी गावों में बिजली तो दूर बिजली के खम्भे तक नहीं लगे हैं. भूख, बीमारी और लाचारी उनकी किस्मत बन गयी है और माफिया उनके जंगलों और जमीन पर कैसी नजरे गाडे है ये क्या किसी से छुपा है ? अल्पसंख्यकों की ही बात उठा लीजिये, सच्चर कमिटी की अनुशंसा का क्या नतीजा हुआ जरा बताईये ? कौन सा देव- दानव उसे निगल गया? साम्प्र्दैक शक्तिओं से छाया युद्ध लड़ने वालों से आप उम्मीद करेंगे की वो रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करेंगे ? नहीं जनाब हालत वाकई गंभीर हैं. और ये सब देख समझ कर ही मैं दीवानों के बीच ये कहने का हौसला जुटा पाया हूँ की अगर किसी मुहीम, किसी कानून, किसी पहल कदमी से इस डराने वाली जमीनी हकीकत में सार्थक बदलाव की एक रत्ती भी गुंजाईश बनती हो तो कम से कम मैं उस बदलाव के पक्ष में हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ की आप इतना तो जरुर समझ रहे होंगे की मुहीम की रौ में बह कर अन्ना या उनके जन लोक पाल का समर्थन कम से कम मैं नहीं कर रहा हूँ. लेकिन मेरी ये स्पष्ट समझ बनी है की भ्रस्टाचार का सवाल मौजूं है क्योंकि ये अचानक किसी शून्य से नहीं उभरा है. और दुहराव का खतरा उठा कर भी मैं फिर से यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. रहा सवाल मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाते हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते सड़कों पर दौड़ रहे युवाओं का तो मैं विशेष क्या कहूं पोलिस के अपने रिकॉर्ड यह साबित करने को पर्याप्त हैं की अन्ना की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम के असर में आई दिल्ली में अपराधिक वारदातों की दरों में लगभग ३५% की गिरावट दर्ज हुई है (श्रोत : आन्दोलन ने थामी अपराध की रफ़्तार, *हिंदुस्तान , *१९ अगस्त २०११, पेज ०४ ). अगर ग्रहों की विपरीत गति के प्रभाव में कुछ अन्यथा कह गया हूँ तो माफ़ी का तलबगार कमल 2011/8/21 Rakeshराकेश कमल बाबू, ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या कमल खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. बस, अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. हालांकि आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा है. चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा लेंगे. इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है ही, के रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था की धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं सड़कों पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा भ्रष्‍टाचार उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने बड़े जनसैलाब में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद भी. पर ये नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. व्‍यक्तिगत अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये दिक्‍कत है भी या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने के लिए कौन सा नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले लें. यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के तर्ज पर धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा खतरनाक भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके आसपास भी शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? भविष्‍य निधि अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की हिमाकत कर रहा हूं. जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और जोड़ लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले मकान ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. दीवानों को सलाम, राकेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Aug 24 15:37:46 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 24 Aug 2011 15:37:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpLDgpLjgpYvgpIg=?= Message-ID: तस्वीरें दीवान पर दिखे न दिखे, यह अटकाव मन में था। सो एक तस्वीर रामलीला मैदान में 22 अगस्त की रात हमने उतारी थी। यहां देखी जा सकती है। चर्चाएं हर तरह की हैं, पर दो राय नहीं कि माहौल गर्म है। http://khambaa.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Aug 24 16:01:20 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 24 Aug 2011 16:01:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSH4KSv4KWH?= =?utf-8?b?IOCkhuCknCDgpLbgpL7gpK4gNiDgpKzgpJzgpYcg4KSH4KSC4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkueClh+CkrOCkv+Ckn+CkvuCknyDgpLjgpYfgpILgpJ8=?= =?utf-8?b?4KSwLCDgpJXgpYngpLjgpLDgpYDgpKjgpL4g4KS54KWJ4KSyIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWH4KSu4KSa4KSC4KSmIOCkleClgCDgpJXgpL7gpLLgpJw=?= =?utf-8?b?4KSv4KWAIOCkleClg+CkpOCkvyAn4KSX4KWL4KSm4KS+4KSoJyDgpKo=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkteCkvuCko+ClgCDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KS+4KSw4KS+IOCkhuCkr+Cli+CknOCkv+CkpCDgpLngpYs=?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KS14KS+4KSy4KWHIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KSuIOCkquClgeCkqDrgpKrgpL7gpKAgLSAzIOCkruClh+Ckgi4=?= Message-ID: मित्रो नमस्कार. आइये आज शाम 6 बजे इंडिया हेबिटाट सेंटर, कॉसरीना हॉल कथा सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कृति 'गोदान' पर वाणी प्रकाशन द्वारा आयोजित होनेवाले कार्यक्रम पुन:पाठ - 3 में. प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय और प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी से संवाद करेंगे युवा लेखक डॉ जितेन्द्र श्रीवास्तव. मित्रो, 'गोदान' के प्रकाशन के 75 साल पूरे हो गए हैं. 'गोदान' की प्रासंगिकता को लेकर बार-२ सवाल पूछे जाते हैं. प्रेमचंद के प्रपौत्र प्रोफ़ेसर आलोक राय अकसर कहते रहे हैं, " 'गोदान' की प्रासंगिकता इसी में है कि यह अप्रासंगिक हो जाए...!" हिंदुस्तान में ग़रीब किसानों की बदहाली, भूमि अधिग्रहण, किसान-आत्महत्या, खेती छोड़कर दूसरे पेशे में भागते किसान...जैसे तमाम मसलों पर संक्षिप्त और सारगर्भित सवालों/टिप्पणियों के साथ कार्यक्रम में आएँ. संभव हो तो निर्धारित वक्त से पंद्रह मिनट पहले आएँ. आज शाम की चाय हम आपके साथ पीना चाहते हैं. शुक्रिया. वाणी प्रकाशन, दिल्ली -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Wed Aug 24 17:48:59 2011 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 24 Aug 2011 17:48:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpLDgpLjgpYvgpIg=?= In-Reply-To: References: Message-ID: http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/08/110823_anna_rasoi_va.shtml 2011/8/24 brajesh kumar jha > तस्वीरें दीवान पर दिखे न दिखे, यह अटकाव मन में था। सो एक तस्वीर रामलीला > मैदान में 22 अगस्त की रात हमने उतारी थी। > यहां देखी जा सकती है। चर्चाएं हर तरह की हैं, पर दो राय नहीं कि माहौल गर्म > है। > http://khambaa.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Aug 25 12:41:13 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 25 Aug 2011 12:41:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpKTgpL7gpKgg4KSm4KWH4KSo4KWHIOCkhuCkjyA=?= =?utf-8?b?4KSl4KWHIOCkqOCkl+CkvuCkoeCkvOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYc=?= Message-ID: नगाड़े वालों की यह टोली 22 अगस्त की रात रामलीला मैदान पहुंची थी। वह वृंदावन से आई थी। जांच-पड़ताल के नाम पर पुलिसवालों ने इन्हें बाहर ही रोक दिया। टोली के साथ आए विनोद शर्मा ने बताया, “हम अन्ना की आवाज में तान देने आए हैं।” 24 अगस्त की देर रात ढूंढ़ने के बावजूद वह टोली हमें दिखी नहीं। हालांकि बीती रात मुश्किल भरी थी और रह-रहकर किसी कोने से ढोल की आवाज आ रही थी। बहरहाल जो-जो टोलियां आई हैं उसका लेखा-जोखा है। फिलहाल तो इस तस्वीर में उस वृंदावनी टोली को देखें। http://khambaa.blogspot.com/2011/08/blog-post_25.html यह तस्वीर भी 22 अगस्त को रात ही उतारी गई थी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Mon Aug 22 17:25:19 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Mon, 22 Aug 2011 17:25:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: 2011/8/22 kamal mishra > > राकेश जी, > मैं अन्ना नहीं हूँ, अन्नावादी भी नहीं हूँ, लेकिन स्वयं को इस भ्रस्ट > प्रशासनिक-राजनैतिक और सामाजिक तंत्र से संतप्त उस मध्यवर्गीय युवा समूह का > हिस्सा बेशक मानता हूँ जिसमें स्वाभाविक रूप से मौजूदा से बेहतर विकल्प की > तलाश और बदलाव की कुछ छटपटाहट बाकी है. अरुंधती राय सहित तमाम अति उत्साही > क्रांतिकारियों से अनेक मुद्दों पर सैद्धांतिक सहमती के बावजूद, राष्ट्र -राज्य > की संस्था और भारतीय समाज की मेरी खुद की समझ, जो निश्चित रूप से मेरे अपने > अतीत के वामपंथी- नक्सलवादी तजुर्बों और एक अत्यंत सीमित अध्ययन-अवलोकन से मिल > कर बनी है, मुझे इस बात को स्वीकारने में मदद करती है कि 'संघर्ष' के साथ- > साथ 'संवाद' से ही कोई सार्थक रास्ता या विकल्प निकल सकता है. कम से कम उस हद > तक जहाँ संवाद के सारे रास्ते बंद नहीं हो गए हैं. अगर आप मुझसे उस सार्थक > विकल्प का, जिसकी ओर मैं यहाँ इशारा भर कर रहा हूँ, खाका खींचने को कहेंगे तो > वह तो मौजूदा सन्दर्भ में मेरे लिए संभव नहीं है . हाँ, अन्ना और अन्नावादिओं > को लेकर आप की शंकाओं को मैं जरुर एक हद तक शेयर करता हूँ. ज्यादा क्या कहूं बस > थोड़ी सी प्रतीक्षा और कीजिये फिर पढ़िए: *'गांधीवाद के अन्ना संस्करण का एक > उत्तर पाठ' * > > 2011/8/21 Rakeshराकेश > >> मित्र कमल, >> >> मुमकिन है मेरी बात कायदे से संप्रेषित न हुई हो. सार्वजनिक जीवन का >> भ्रष्‍टाचार मेरे लिए भी समस्‍या है. पर व्‍यक्तिगत जीवन का भ्रष्‍टाचार उस पर >> भारी पड़ता है, मेरी नजर में. बाकी राजनीतिक जीवन के आचार विचार और भ्रष्‍टाचार >> जितने आपको तबाह करते हैं, ज्‍यादा नहीं तो कम से कम उतने मुझे भी कर रहे >> होंगे. पर हल मुझे अण्‍णा में तो नही दिख रहा फिलहाल. आगे की पंक्तियों से जो >> चिंताएं जतायी है आपने, जायज है. देखिएगा, उनसे मुक्‍त होने का रास्‍ता किधर से >> निकलता है. विचार कीजिएगा. >> >> >> >> >> 2011/8/21 kamal mishra >> >>> राकेश भाई, >>> बुनियादी तौर से तो हालाँकि मैं भी यही कहना चाहता था कि *घर को सजाने का >>> तसव्वुर तो बाद का है, पहले ये तो तय हो की घर को बचाएं कैसे* ! मगर आप की >>> प्रतिक्रिया के कुछ पहलुओं को नज़रंदाज़ कर के कम से कम मैं आप को काजी होने >>> की सनद नहीं दे पाउंगा. इसकी एक वजह तो ये है की आप की अपनी प्रतिक्रिया में >>> कुछ विरोधाभास सा है. एक तरफ तो आप यह मानते हैं की सार्वजनिक जीवन में >>> भ्रस्टाचार बड़ी समस्या नहीं है. जिस पर मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है सिवाय >>> इसके की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार की जैसी एक से बाद कर एक मिसालें दरपेश >>> हैं उनकी तरफ से मुहं मोड़ कर हम और आप भला कहाँ जायेंगे और कौन सी समझदारी >>> विकसित करेंगे ? >>> >>> परस्पर लाभ पहुँचाने वाली जिस व्यवस्था को आप एक दूजे को हाजी-काजी घोषित >>> करने के तौर पर और एक ज्यादा बड़ा खतरा गिन रहे हैं वो भी तो दरअसल अब उसी >>> भ्रस्ट सामाजिक-राजनैतिक सांचे का एक अनिवार्य अंग बन गयी है. तो अन्ना और उनके >>> साथियों की चड्ढी कितनी साफ़ है या कब तक साफ़ रहेगी ये तो भगवान ही जाने लेकिन >>> नारायण दत्त तिवारी जैसे तपे हुए कांग्रेसी गाँधीवादियों की शुचिता और मूल्यबोध >>> का तमाशा तो उम्मीद है आप इतनी जल्दी नहीं ही भूले होंगे! यों तो उदारीकरण के >>> मौजूदा दौर में साँस भरते हुए यौन शुचिता व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कोई मतलब >>> नहीं रखती लेकिन, सच या झूठ (?), सुनता हूँ की आज भी वही भूतपूर्व राज्यपाल खुद >>> को स्वतंत्रता आन्दोलन के ही दिनों से गाँधी बाबा का सिपाही और न जाने क्या >>> क्या होने का दावा किया करते हैं! अब इस बात की तस्कीद तो कोई जानकार ही करे की >>> वाकई डॉ तिवारी गाँधी जी के अनुयायी और असल वारिस हैं भी या नहीं. हाँ ये सवाल >>> जरुर पेशतर है की इस देश की पिछली पीढ़ी, आम जन मानस, और भावी नेतृत्व भला >>> *उस *गाँधीवादी विरासत से क्या प्रेरणा ले जिसके प्रतिनिधि चरित्रों में >>> डॉ नारायण दत्त तिवारी जी भी शुमार किये जाते हैं? इसी तरह जिस समाज में एक >>> बड़ी आबादी के लिए न्यूनतम आमदनी २० रुपये रोजाना घोषित हो, और बुनियादी >>> सुविधाओं के आभाव में उनका जीना हलकान हो, वहां प्रमुख विपक्षी पार्टी (भाजपा) >>> के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी जी के बेटे की शादी की चमक से अगर आप की >>> आँखों को तकलीफ नहीं हुई तो यह कहते हुए कम से कम मैं जरा भी संकोच नहीं करूँगा >>> की अब मुझे आप के इस नजरिये से भी तकलीफ है! >>> >>> चलिए थोड़ी देर के लिए ही सही मैं अपनी निजी और एक उच्च जातीय- मध्य वर्गीय >>> व्यथा को भूल जाता हूँ. और अब हम इस संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हजारों >>> सालों से उत्पीडित दलित जातिओं को मुख्य धारा में ले आने के लिए तैयार किये गए >>> *स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान* - जिसके तहत कुल योजनागत बजट के १६% राशि के >>> सीधे आवंटन का प्रावधान पिछले बीसियों सालों से है- पर ही बात करते हैं . >>> जरा बताईये की कौन सा ऐसा राज्य है और कौन सी ऐसी सरकार है जो इस संवैधानिक >>> नीति निर्देश का ठीक ठीक पालन कर दलितों के हितो की अनदेखी नहीं कर रहा है? >>> जवाब पाएंगे शायद एक भी नहीं. तब योजना का लाभ जरुरत मंद तक पहुंचे वो तो बाद >>> की बात है भ्रस्टाचार की गिद्धदृष्टि तो उस वास्तविक मद में पैसा भी जाने >>> नहीं दे रही है ! >>> जिन्हें आदिवासिओं की हालत क्या है ये देखना हो वो जरा ओड़िसा या मध्य >>> प्रदेश ही हो आएं . मैंने तो उस इलाके के गाँव में, जहाँ राहुल बाबा फोटो >>> खिचाने के बाद ये घोषणा कर आये थे की वो दिल्ली में उन्हीं आदिवासिओं के सिपाही >>> हैं, यही पाया की गावं के बाहर खड़ा बोर्ड (अंग्रेजी में ) भले ही ' राजीव >>> गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण परियोजना' के तहत सम्पूर्ण ग्राम के बिजली सुविधा से >>> जुड़े होने का दावा करे लेकिन हकीकत में उन आदिवासी गावों में बिजली तो दूर >>> बिजली के खम्भे तक नहीं लगे हैं. भूख, बीमारी और लाचारी उनकी किस्मत बन गयी है >>> और माफिया उनके जंगलों और जमीन पर कैसी नजरे गाडे है ये क्या किसी से छुपा है >>> ? अल्पसंख्यकों की ही बात उठा लीजिये, सच्चर कमिटी की अनुशंसा का क्या नतीजा >>> हुआ जरा बताईये ? कौन सा देव- दानव उसे निगल गया? साम्प्र्दैक शक्तिओं से छाया >>> युद्ध लड़ने वालों से आप उम्मीद करेंगे की वो रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू >>> करेंगे ? नहीं जनाब हालत वाकई गंभीर हैं. >>> >>> और ये सब देख समझ कर ही मैं दीवानों के बीच ये कहने का हौसला जुटा पाया हूँ >>> की अगर किसी मुहीम, किसी कानून, किसी पहल कदमी से इस डराने वाली जमीनी हकीकत >>> में सार्थक बदलाव की एक रत्ती भी गुंजाईश बनती हो तो कम से कम मैं उस बदलाव के >>> पक्ष में हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ की आप इतना तो जरुर समझ रहे होंगे की मुहीम >>> की रौ में बह कर अन्ना या उनके जन लोक पाल का समर्थन कम से कम मैं नहीं कर रहा >>> हूँ. लेकिन मेरी ये स्पष्ट समझ बनी है की भ्रस्टाचार का सवाल मौजूं है क्योंकि >>> ये अचानक किसी शून्य से नहीं उभरा है. और दुहराव का खतरा उठा कर भी मैं फिर से >>> यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और >>> हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय >>> व्यवस्था की आड़ में चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में >>> लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह >>> प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>> >>> रहा सवाल मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाते हाथ-पैर >>> छितराते, तिरंगा भांजते सड़कों पर दौड़ रहे युवाओं का तो मैं विशेष क्या कहूं >>> पोलिस के अपने रिकॉर्ड यह साबित करने को पर्याप्त हैं की अन्ना की भ्रस्टाचार >>> विरोधी मुहीम के असर में आई दिल्ली में अपराधिक वारदातों की दरों में लगभग ३५% >>> की गिरावट दर्ज हुई है (श्रोत : आन्दोलन ने थामी अपराध की रफ़्तार, *हिंदुस्तान >>> , *१९ अगस्त २०११, पेज ०४ ). >>> >>> अगर ग्रहों की विपरीत गति के प्रभाव में कुछ अन्यथा कह गया हूँ तो माफ़ी का >>> तलबगार >>> कमल >>> >>> >>> >>> 2011/8/21 Rakeshराकेश >>> >>>> कमल बाबू, >>>> >>>> ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या कमल >>>> खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. बस, >>>> अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. हालांकि >>>> आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा है. >>>> चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा >>>> लेंगे. इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है >>>> ही, के रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. >>>> मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था >>>> की धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं >>>> सड़कों पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा >>>> भ्रष्‍टाचार उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने >>>> बड़े जनसैलाब में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद >>>> भी. पर ये नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. >>>> व्‍यक्तिगत अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये >>>> दिक्‍कत है भी या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने >>>> के लिए कौन सा नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले >>>> लें. >>>> यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के तर्ज >>>> पर धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा खतरनाक >>>> भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके आसपास भी >>>> शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? भविष्‍य निधि >>>> अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की हिमाकत कर रहा >>>> हूं. >>>> जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और जोड़ >>>> लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले मकान >>>> ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. >>>> >>>> दीवानों को सलाम, >>>> राकेश >>>> >>>> >>>> >>>> >>>> >>>> 2011/8/20 kamal mishra >>>> >>>>> * >>>>> पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * >>>>> दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर मजबूर >>>>> किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका >>>>> टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र >>>>> पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से >>>>> मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही >>>>> साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों >>>>> में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह >>>>> बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से >>>>> प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन >>>>> मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने >>>>> और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... >>>>> >>>>> *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* >>>>> टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि 'जनता' >>>>> राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज >>>>> कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम फूल रहा है, >>>>> मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी के आलम में, >>>>> कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी पसरी हुई है. >>>>> अपनी बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित चिट्ठाकारों को कोसते >>>>> रहे, विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण और आत्मीय लेखों के >>>>> वो शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ चढाने वाले अंदाज >>>>> में जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और प्रतिबद्धता पर कई >>>>> सवाल खड़े कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी (नक्सलवादी) रुझान से >>>>> वाकिफ हैं का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी दिनों में तो आप ने जनता >>>>> (पढ़ें मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं और अब जब वही जनता सड़कों >>>>> पर निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे में आध्यात्म और धर्म की >>>>> गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप भी दीवान पर ही और सीमित >>>>> ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख रहा हूँ कि इस मौके पर आप >>>>> भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी सर पर आई बला को टालने के >>>>> ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है!". बहरहाल, बात बनी >>>>> नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और निश्चित तौर से चुप्पी >>>>> की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. >>>>> >>>>> *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * >>>>> तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक लोकप्रिय >>>>> ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी >>>>> गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में >>>>> तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब >>>>> को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. कुछ >>>>> परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और उनके >>>>> आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी कारवाही >>>>> में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और व्यवस्था बनाये >>>>> रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस के रणनीतिकारों >>>>> ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और सत्याग्रह की समृद्ध >>>>> विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत >>>>> अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि >>>>> लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना >>>>> हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि >>>>> सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक पहल करने की है. इतना ही >>>>> नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम >>>>> के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. >>>>> एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला >>>>> चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका >>>>> समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस >>>>> लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी >>>>> दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, >>>>> मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का >>>>> जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी >>>>> कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. >>>>> पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल महाशय का यह लेख (*लोकपाल - >>>>> रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० अगस्त २०११) यह बताता है कि >>>>> कैसे दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः मुक्त होने का दावा नहीं कर >>>>> सकता और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम एक दशक तक निरंतर संघर्ष की >>>>> आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई पार्टियों के नेता यह कहते हुए >>>>> सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा तैयार जन लोकपाल * >>>>> रामबाण* नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता है. खुद हजारे और उनकी टीम >>>>> भी अब यह कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ >>>>> जानकर बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को >>>>> अगर यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो >>>>> जायेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज उस दोराहे पर है >>>>> जहाँ से एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में भी बढ़ता है. वैसे एक >>>>> अवधारणा के रूप में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा मुश्किल काम है. सिर्फ >>>>> इस लिए नहीं कि गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय जनता पार्टी तक इस अवधारणा >>>>> को धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे >>>>> इतिहासकारों की बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ लेखा जोखा जिसे यह अकेला >>>>> शब्द तमाम लोगो की जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे पास है. बहरहाल, आज के >>>>> सन्दर्भ में, कम से कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस से एक हद तक सहमत होंगे >>>>> कि रामराज्य के जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं जो यह >>>>> मानते हैं की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ सीधे भाजपा को मिलने जा >>>>> रहा है. मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन अपने एक निजी दर्द को आप >>>>> से साझा करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के >>>>> दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज >>>>> पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही चल रही >>>>> लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित >>>>> करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>>>> *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - >>>>> *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र >>>>> इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान >>>>> इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि >>>>> व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के >>>>> दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ >>>>> दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. >>>>> इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे हममे >>>>> से ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना चाहते है, >>>>> क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और किसी >>>>> तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ में >>>>> अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस >>>>> मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में >>>>> काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा >>>>> जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और >>>>> किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी >>>>> की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? >>>>> >>>>> *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- >>>>> *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख >>>>> दिया है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में बदलता >>>>> जा रहा है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के प्रस्ताव को >>>>> 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला समर्थन भी >>>>> किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें भी >>>>> हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. मेरी >>>>> अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें रामलीला >>>>> मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के कई ऐसे >>>>> जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकता >>>>> हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी प्रतीकात्मक रूप >>>>> से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां लटकाए हुए हैं. >>>>> तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के चमत्कार के चलते >>>>> है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम द्वारा नयी >>>>> तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ अंतररास्ट्रीय >>>>> लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई की मार से >>>>> व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? बेरोजगार >>>>> युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और नाराजगी >>>>> से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या यह >>>>> मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? जिन्होंने >>>>> भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद दिलाने >>>>> की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और हजारे का >>>>> नाम लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने भ्रस्टाचार के >>>>> मुद्दे पर काफी सारी बातें कही थीं. >>>>> * >>>>> गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * >>>>> हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी उलझन >>>>> ये है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये लगे >>>>> हाँथ आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक इंडियन >>>>> सोशल इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० बजे तक >>>>> गांड घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि खाते >>>>> में जमा रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब सिर्फ >>>>> इतना ही कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने सारी >>>>> गुणा गणित के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से पारित >>>>> कानून के मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने के ४५ >>>>> दिनों में रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की पढाई जारी >>>>> रखने के लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो इंस्टिट्यूट के >>>>> खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज समय से सरकारी >>>>> दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब से उन्होंने >>>>> सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है की आज की >>>>> तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता हूँ कि चार >>>>> महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के पैसों का >>>>> मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे अधिकारी घूस >>>>> घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी हैं. और यकीं >>>>> न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की कितनी शिकायते >>>>> उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने नौजवानों और >>>>> बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. जब हमने अपने >>>>> एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से मदद तो नहीं >>>>> की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की विशेष दशा- >>>>> स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता उनकी बात और >>>>> उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है की *दूध >>>>> का जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की रामराज्य जन >>>>> लोकपाल के जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं से आ ही >>>>> जाये, और फर्ज कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर काबिज होने >>>>> के बाद गलती से राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का वास्ता इस >>>>> पोस्ट की लाज रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी बनाने की >>>>> कोशिश जरुर करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! >>>>> >>>>> *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- >>>>> *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय योजना >>>>> का अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है कि >>>>> भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत है. >>>>> लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली >>>>> राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की >>>>> राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों >>>>> इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम >>>>> घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, >>>>> और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी >>>>> 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के >>>>> उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक >>>>> माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल >>>>> नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की >>>>> आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक >>>>> मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन >>>>> की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता >>>>> हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* >>>>> >>>>> दीवान के दोस्तों के नाम, >>>>> कमल मिश्रा की ओर से >>>>> >>>>> *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी >>>>> पार्टी याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का >>>>> करिश्मा अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> * * >>>>> >>>>> * *. >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> _______________________________________________ >>>>> Deewan mailing list >>>>> Deewan at sarai.net >>>>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>> >>>>> >>>> >>>> >>>> -- >>>> Rakesh Kumar Singh >>>> Media Consultant & Content Developer >>>> Delhi, India >>>> http://blog.sarai.net/users/rakesh/ >>>> http://haftawar.blogspot.com >>>> http://safarr.blogspot.com >>>> http://sarai.net >>>> http://sarokar.net >>>> >>>> Ph: +91 9811972872 >>>> >>>> ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' >>>> >>>> - पाश >>>> >>>> >>> >> >> >> -- >> Rakesh Kumar Singh >> Media Consultant & Content Developer >> Delhi, India >> http://blog.sarai.net/users/rakesh/ >> http://haftawar.blogspot.com >> http://safarr.blogspot.com >> http://sarai.net >> http://sarokar.net >> >> Ph: +91 9811972872 >> >> ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' >> >> - पाश >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From surya.journalist at gmail.com Tue Aug 23 22:30:13 2011 From: surya.journalist at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS44KWC4KSw4KWN4KSvIOCkl+Cli+Ckr+Cksg==?=) Date: Tue, 23 Aug 2011 22:30:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpJXgpY3gpLLgpL7gpLgg4KSu4KWH4KSCIOCknQ==?= =?utf-8?b?4KWC4KSg4KWL4KSCIOCkleCkviDgpJzgpK7gpL7gpLXgpKHgpL4=?= Message-ID: *प्रिय बंधू, नमस्कार! आपको मेरी वेबसाईट सहित कुछ खास खबरों के लिंक मेल कर रहा हूँ. कृपया एक बार देखने-पढ़ने का कष्ट करें. शायद आपको मेरी गुफ्तगू पसंद आएगी. अगर अच्छी लगे तो कोमेंट देकर मेरा हौसला बढ़ाये. क्योंकि यह है -* *देश की पहली आम नजरिये को खास खबरों में पेश करती हिंदी न्यूज वेबसाईट* गुफ्तगू :- समाचार ! एक पहलु यह भी *KLICK ON LINK* :- * *www.gooftgu.co.nr *या सीधे यह पढ़े :- आदत सी है मुझको... ब्यान से मुकरने की अन्ना की क्लास में झूठों का जमावाडा बेमानी स्वतंत्रता अन्ना की आंधी में हिसार लोकसभा उपचुनाव केंद्र सरकार की कब्र खोद रही कांग्रेस **SURYA GOYAL MOB- 99916-10952 * *HISAR (HARYANA)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Sat Aug 27 20:01:02 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Sat, 27 Aug 2011 20:01:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkheCkqOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkqOCkueClgOCkgiDgpK/gpYcg4KSX4KS+4KSB4KSn4KWA?= =?utf-8?b?IOCkueCliCcg4KSF4KSw4KWN4KSl4KS+4KSkIOCkl+CkvuCkguCkpw==?= =?utf-8?b?4KWA4KS14KS+4KSmIOCkleClhyDgpIXgpKjgpY3gpKjgpL4g4KS44KSC?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSV4KSw4KSjIOCkleCkviDgpI/gpJUg4KSJ4KSk4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSwIOCkquCkvuCkoA==?= Message-ID: दोस्तों, रामलीला मैदान के चंद दिलचस्प अनुभवों को शेयर करने, भारतीय राज्य व्यवस्था में गहराई तक पैठे भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए अन्ना की अगुवाई में जन लोकपाल जैसी किसी संस्था को स्थापित करने की हालिया मुहीम से जुड़े कुछेक पहलुओं पर संवाद की खातिर, और अपने आखिरी वादे के मुताबिक *गांधीवाद के अन्ना संस्करण का एक उत्तर पाठ* ले कर चिट्ठाकार आप के समक्ष एक बार फिर हाज़िर है ! कहना नहीं होगा कि मौजूदा 'पाठ' की अनदेखी, इसका आवश्यक्ता अनुरूप रसास्वादन या इस पर सहमती-असहमति ज़ाहिर करने की पाठकों की मूलभूत स्वतंत्रता का चिट्ठाकार सौ फीसदी सम्मान करता है. हालाँकि ऐसे तमाम पाठक जिन्हें हिंदी से परहेज है, या 'स्व'-भाव से जिनका हिंदी का हाजमा कुछ कमजोर है, या फिर इन दिनों मौसम के असर में इस जुबान में लग रहे छौकें से दुरुस्त नहीं चल रहा हो, को अपने इस 'पाठ' के माध्यम से जाने अनजाने पीड़ा पहुचाने या अति सीमित मनोरंजन लाभ कराने की जवाबदेही स्वीकार करते हुए चिट्ठाकार उन सभी पाठकों से माफ़ी का तलबगार है. *'पाठ' की भूमिका- * दिल्ली का रामलीला मैदान इस बार एक नई 'क्रांति' का गवाह बनने को तैयार है. अभी कुछ दिनों पहले ही, इसी मैदान से स्विस बैंक खातों में जमा काले धन को वापस लाने की मांग पर अड़े योग गुरु और आयुर्वेदिक दवाओं के अंतर्राष्ट्रीय कारोबारी बाबा रामदेव को दूर दराज़ से आये उनके तमाम समर्थकों सहित आधी रात को लाठिओं के बूते खदेड़े जाने के बाद शायद ही किसी ने सोचा हो कि दोबारा से (और वो भी इतने कम समय अंतराल में !) यह मैदान किसी बड़ी मुहीम का साक्षी बनने जा रहा है. खुद अन्ना हजारे भी तो जन लोकपाल बिल पास कराने के लिए धरना देने उसी जंतर-मंतर जाया चाहते थे जहाँ पिछली बार चार दिनों तक आमरण अनशन पर बैठ कर उन्होंने कांग्रेस सरकार से गज़ट नोटिस जारी करा सिविल सोसाइटी सदस्यों के साथ एक संयुक्त समिति के ज़रिये लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने की घोषणा करवाने सहित उक्त समिति में अपने एक प्रमुख सहयोगी को महत्वपूर्ण पद पर बिठाने जैसी अभूतपूर्व सफलता अर्जित की थी. बलिहारी कांग्रेस के दूरंदेस और व्यवहार कुशल रणनीतिकारों की क़ाबलियत का जिन्होंने गहन ऐतिहासिकता बोध का परिचय देते हुए इस आसन्न 'अन्ना क्रांति' के मंच को रामलीला मैदान में लगवाना ही बेहतर पाया जहाँ से पहले कभी जे. पी. ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा बुलंद करते हुए कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने जैसी सफलता पाई थी. वैसे तो मेगसेसे और बाद को भारत रत्न जैसी उपाधिओं से नवाज़े गए गाँधीवादी लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व और सत्तर के दशक की सम्पूर्ण क्रांति के धुर राजनैतिक लक्ष्य से तुलना करते हुए अन्ना हजारे के नेतृत्व वाली आसन्न 'क्रांति' पहली नज़र में 'नैतिक' ज्यादा और 'राजनैतिक' कम मालूम होती है. लेकिन अरुंधती रॉय समेत कई बुद्धिजीविओं ने इसके राजनैतिक निहितार्थों पर भी अब तक पर्याप्त टीका टिप्पणी कर दी है. हालाँकि, यह एहसास कर कि विद्वानों के बीच मौजूदा 'क्रांति' के चरित्र, इसके कारणों, और इससे जुडी संभावनाओं को लेकर वाद विवाद अभी जारी है, इस चिट्ठाकार की अपनी समझ के मुताबिक पहले से इस मुहीम या इसके भविष्य के बारे में कोई आखिरी राय कायम कर लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी. मगर हाँ, जब हमने ये पाया कि नौजवान तो नौजवान लेकिन पिछली पीढ़ी के ऐसे सठियाए जवान , जो पहले कभी एक बार जे. पी. के सम्पूर्ण क्रांति के नारे का हश्र, ठोस रूप से --जार्ज फर्नाडीस, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, और प्रफुल्ल कुमार महंत जैसे समझौतावादी सत्ता लोलुपों या भ्रस्ट राजनेताओं की पूरी खेप के रूप में-- खुद अपनी आँखों देख चुके हैं, भी 'मैं भी अन्ना' का नारा लगा कर भ्रस्टाचारिओं पर हल्ला बोलने को तिरंगा उठाये तैयार खड़े हैं तो दिल ओ दिमाग में ये सवाल जरुर कौंधा की आखिर ये माजरा क्या है ? पिछले कई दिनों में हम खुद से बार बार ये सवाल करते रहे हैं कि क्या जन लोकपाल की यह मांग सिर्फ उदारीकरण की मलाई खा रहे मध्यवर्ग के एक छोटे से तबके की है जो भ्रस्टाचार पर रोक लगाने के लिए अब कॉरपोरेट गवर्नेंस जैसे किसी मॉडल प्रशासन के लिए आतुर है? या कि उदारीकरण के मौजूदा दौर में जारी व्यापक ढांचागत बदलावों से आगे आई नई सामाजिक शक्तियां, मसलन सिविल सोसाइटी, अब अपनी मुश्कें भींच कर सत्ता और व्यवस्था में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराना चाहती हैं?, या कि दोनों ही वजहों से अलहदा किसी तीसरी वजेह से पेशतर है मौजूदा सूरत ए हाल ? साथ ही यह भी कि मौजूदा मुहीम का भविष्य क्या होगा और किस करवट बैठेगा भारतीय राज्य व्यवस्था की दशा और दिशा का ऊंट? *बना कर फ़कीरों का हम वेश ग़ालिब तमाशा ए अहले करम देखते हैं! * तो दोस्तों, सबसे पहले हमने अपने ज्योतिषी मित्र, जो अक्सर ग्रहों की माया सिद्ध करने के लिए राजा हरिश्चंद्र के सपरिवार बिकने, और डोम राजा कल्लू द्वारा बनारस में हरिश्चंद्र को बोली लगा कर खरीदने, के साथ ही साथ, उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के एक तेल पेरने वाले के यहाँ नौकरी करने जैसे दृष्टान्त दिया करते हैं, से भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का भविष्य जानना चाहा. इस गरज से जब हम अपने उन ज्योतिषी मित्र के यहाँ पहुंचे तो वे कंप्यूटर पर कुछ पढ़ रहे थे और अपने इस काम में जरुरत से कुछ ज्यादा ही डूबे हुए लग रहे थे. बहरहाल, हमने चाय के दौरान जब उन्हें अपने आने का सबब बताया तो ज्योतिषी महोदय ने बड़ी गंभीरता के साथ और अपने 'ज्ञान' पूरा प्रदर्शन करते हुए कहा कि: 'वह तो रामदेव की कुंडली का ग्रह-योग था जो अचानक बड़े बड़े बाबाओं के रहते हुए उन्हें सुर्ख़ियों में ले आया, वैसे दिल्ली में अनशन पर बैठने का जो समय (शनिवार, ४ जून २०११, सुबह ७ बजे) उन्होंने चुना उससे तो उनका 'पिटना' तय था. जहाँ तक अन्ना का सवाल है, स्वतंत्र भारत की कुंडली के साथ अन्ना की कुंडली का मिलान करते हुए, तो ऐसा लग रहा है की अगले २५ अक्तूबर २०१२ तक, अन्ना की मुहीम के असर से, सरकार व्यवस्था के सुचारू सञ्चालन और सुधार की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण और दूरगामी कदम उठाने को मजबूर होगी. जहाँ तक व्यक्तिगत रूप से अन्ना का सवाल है, उनके लिए आगामी दिसम्बर (२०११) और जून (२०१२) के दो महीने बड़ा महत्व रखेंगे '. हमने भी अपने मित्र को धन्यवाद कहा और चलते चलते उनसे ये जानना चाहा कि मेरे आने से पहले कंप्यूटर पर इतना डूब कर वो आखिर कौन सी चीज़ पढ़ रहे थे. इस सवाल से हमारे मित्र पूरी तरह से बिदक गए गए और मुझ पर बिफरते हुए और कुछ तंज करने के अंदाज में उन्होंने कहा कि, 'मिश्रा जी, मनुष्य योनी और ब्राह्मन कुल में जन्म लेने के बाद भी, काल सर्प योग के प्रभाव से आप की मती ख़राब है जो आप 'शास्त्रों' को उपयुक्त सम्मान नहीं देते. लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि हम भी अपना 'धर्म' भूल जायें ? जाइये, हम अभी इकोनोमिक टाइम्स में पिछले ३ जून २०११ को देवदत्त पाठक का लिखा हुआ आलेख "लक इज सेल्द्म फेक्टार्ड इन टू कार्पोरेट सक्सेस" पढ़ रहे हैं !'. * तख़्त बदल दो, ताज़ बदल दो...!!* कार्पोरेट लूट और भ्रस्टाचार विरोधी अन्ना मुहीम पर केन्द्रित अरुंधती रॉय का नवीनतम आलेख, 'आई वुड रादर नॉट बी अन्ना', राज्य व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक पैठे भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए हजारे की अगुवाई में जारी लोकप्रिय मुहीम को एक ऐसे "रक्तपात मुक्त गाँधीवादी तख्ता पलट" के प्रयास के रूप में पेश करता हैं जिसके लिए एक संस्था के तौर पर राज्य, और सत्तासीन कांग्रेस सरकार खुद, "सहयोगी" की भूमिका में है, और जिस कारवाही को अंजाम देने के लिए, विशेषकर, "दस्तों" के रूप में, खाए- अघाए शहरी संगठित नज़र आ रहे हैं. एक विशेष अर्थ में माओवादी संघर्षों और भ्रस्टाचार विरोधी इस "अन्ना की क्रांति" में साम्यता (राज्य सत्ता को उखाड फेकने के तौर पर ?!) के अपने विवेचन से शुरू कर, रॉय का 'पाठ' यह घोषणा करता है कि, सत्ता के केन्द्रीकरण का उपकरण बन टीम अन्ना का प्रस्तावित जन लोकपाल, अंततः, न सिर्फ भ्रस्टाचार की मात्रा में बढ़ोत्तरी करेगा बल्कि "कुलीन तंत्र" में भी संख्या के तौर से एक इज़ाफा भर साबित होगा. वैसे अगर आप इस बात पर बहस फ़िलहाल न करने की हामी भरें कि कार्पोरेट और राजनैतिक गठजोड़ से चल रही मौजूदा राज्य व्यवस्था (जो रॉय के अनुसार सारी असमानत और भ्रस्टाचार की पक्षपोषक और मूल वजेह भी है!) के उन्मूलन के साथ- साथ एक भ्रस्टाचार मुक्त प्रशासन, और पूर्णतः लोकतान्त्रिक मूल्यों वाला एक नया समाज या समानता मूलक नयी जवाबदेह शासन व्यवस्था किस जादू के ज़ोर से निर्मित होगी या, दूसरे शब्दों में कहें तो, अगर आप इस फेर में फ़िलहाल न पड़ने का वादा करें कि अरुंधती रॉय समर्थित और 'विकास का वैकल्पिक माओवादी मॉडल' दरअसल क्या है ?, तो मै आप के सामने, तात्कालिक रूप से, रामलीला मैदान के कुछ दिलचस्प प्रसंग और आँखों देखे नज़ारे पेश करने का प्रस्ताव रख आगे बढ़ने के लिए आप की इजाजत चाहूँगा. *सौ सौ जूते खाए, तमाशे घुस के देखे!! *तो दोस्तों, अभी दो दिनों पहले ही, उस रस्म की जानकारी कर कि केंद्र सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त दिल्ली के एक विश्वविद्यालय से शोध कार्य (पी एच डी) हेतु दाखिले की प्रक्रिया को मुकम्मल होने के लिए अभी हमें, सनद के तौर से, अपनी 'बेरोजगारी' और 'चरित्तर' का हलफनामा (बाकायदा १० रुपये मूल्य के गैर न्यायिक स्टाम्प पेपर पर, नोटरी के दस्तखत सहित, और इस बात का उल्ल्लेख करते हुए कि बयान देने वाला भारतीय नागरिक है) जमा करना बाकी है, और यह भी कि उक्त हलफनामा ६०-७० रुपये खर्चने से कहीं भी बड़ी आसानी से बनवाया जा सकता है, हम अपनी पहले से तय योजना के अनुसार रामलीला मैदान जाने के लिए २५ रुपये का टिकट ले ललकी (ए. सी.) बस में चढ़ गए. कुछ देर बाद और सफ़र का जायेका बढ़ाने की गरज से जब हमने अपने बस्ते से एक लोकप्रिय पत्रिका का हालिया अंक निकाल कर पलटना शुरू किया तो राजधानी में पिछले दिनों आयोजित "स्ल्ट वाक" की रपट पढ़ते हुए हमारी बस कब बारहखंभा रोड तक जा पहुंची इसका जरा भी एहसास नहीं हुआ. तेज रफ़्तार बस के शीशों से बाहर नज़र दौडाते हुए जैसे ही हमारी नज़रें नारे लगाते, बैनर थामे, प्लेकार्ड और तिरंगा लिए नौजवान लड़के-लड़किओं के एक हुजूम पर जा कर ठहरी कि बस भीतर आराम फरमा रिसर्चर- एक्टिविस्ट ने अगली ही लाल बत्ती पर हमें बस से उतार चौराहे पर ला खड़ा किया. पीछे से आ रहे जुलूस के इंतजार में बन्दे ने एक सिगरेट सुलगाई और कुछ ही पलों में उसी नौजवान जत्थे को ठीक अपनी बगल से गुजरता पाया. ये समझने में कोई मुश्किल नहीं हुई की डेढ़ से दो सौ की तादाद में और जुलूस की शक्ल में नारे लगाते निकले ये नौजवान लड़के -लड़कियां अन्ना के समर्थन में रामलीला मैदान की ओर ही जा रहे होंगे. बस हम भी उत्साही नौजवानों का संग बेहतर समझ उसी जत्थे के साथ साथ रामलीला मैदान की ओर चल दिए. सबसे पहले तो अपने अन्दर उमड़ रही जिज्ञासा का समाधान करने के मकसद से हमने उसी हुजूम में शामिल एक नौजवान से यह दरियाफ्त किया कि वो कौन लोग हैं? उस लड़के ने जरा गौर से मेरी तरफ देखा फिर बताया कि हम लोग देहली युनिवेर्सिटी, कालेज ऑफ़ आर्ट, के स्टुडेंट हैं. गालिबन मेरी सूफियाना वेश-भूषा का लिहाज रखते हुए मुझसे किसी ने कोई सवाल नहीं किया, बहोत संभव है कि उन्होंने मुझे अपनी ही बिरादरी का मान कर कुछ पूछना मुनासिब न समझा हो! बहरहाल, "शीला की जवानी बंद करो, अन्ना की वाणी चालू करो" जैसे जुमले लिखे प्लेकार्ड हाथों में थामें ये नौजवान अन्ना/ जन लोकपाल बिल/ समर्थक जो नारे लगा रहे थे वो भी कम मजेदार नहीं. इन नारों में राजनैतिक धार कुंद होने के बावजूद एक तरफ अगर भ्रस्टाचारी तंत्र के प्रति उनका गुस्सा साफ झलक रहा था ('एक, दो, तीन, चार, बंद करो ये भ्रस्टाचार!') तो वहीँ दूसरी तरफ शासन सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी को भी बक्शने के मूड में वो कतई नहीं थे ('सोनिया जिसकी मम्मी है, वो सरकार निकम्मी है!!'). टीम अन्ना ने हालाँकि दबाव बनाने की जुगत में अपने समर्थकों से पिछले दिनों (बी. जे. पी. सहित) सारे सांसदों का घर घेरने की अपाल की है. बावजूद इसके आम तौर पर भ्रस्टाचार विरोधी और अन्ना (या उनके जन लोकपाल बिल) समर्थकों का गुस्सा निशाने के तौर से सत्तासीन कांग्रेस को ही जिम्मेवार ठहराता दिखता है. मसलन, अभी कल ही मेट्रो से अपने सफ़र के दौरान हमने उसी कोच में सफ़र कर रहे बीस के लगभग नौजवानों को 'हू, हा, हू, हा, राहुल गाँधी चूहा!' और 'देश का युवा जाग गया, राहुल गाँधी भाग गया!!' जैसे नारे लगाते भी सुना, खयाल रहे कि संसद में अन्ना मुहीम के सन्दर्भ में श्री गाँधी का बयान आने से कई दिनों पहले ही हवा में तैरते ये नारे कहीं न कहीं राहुल के युवाओं का वास्तविक रहनुमा होने के एक बेबुनियादी प्रोजेक्सन और भ्रस्टाचार के विरोध में अन्ना की लोकप्रिय मुहीम के साथ उठ खड़े हुए युवाओं की अपेक्षाओं को अनदेखा करने जैसे तथ्यों को भी उजागर किया चाहते थे. खैर जब हम उत्साही छात्रों के उस नौजवान जत्थे के साथ साथ चलते हुए रामलीला मैदान के करीब पहुंचे तो मैदान से उठते 'रघुपति राघव राजा राम' के स्वरों के तुरंत बाद बसंती साफा सर पर बांधे भगत सिंह और राजगुरु के पारिवारिक सदस्यों का अन्ना के समर्थन में मंच से दिया गया वक्तव्य भी सुनने में आया. यूँ तो वक्ताओं की एक पूरी लम्बी फेहरिश्त है मगर उनमें से सिर्फ एक का जिक्र मैं आप से जरुर करना चाहूँगा. मानुषी की एडिटर और लम्बे समय से दिल्ली में रिक्सावालों, पटरी के दुकानदारों, और रेहड़ीवालों के अधिकारों के लिए संघर्षरत मधु किश्वर का. मधु जी ने इसी वर्ग के नजरिये से, जिसके शहरी स्पेस पर बराबरी के अधिकार की लड़ाई वो लडती रही हैं, अपनी बात रखी. उन्होंने भ्रस्टाचार विरोधी लोकप्रिय मुहीम को खाए-अघाए मध्यवर्ग का आन्दोलन बताने वालों पर सवाल करते हुए इस बात की तरफ ध्यान खींचना चाहा कि कैसे पटरी व्यवसाई और रिक्शा चालक जैसे हाशिये के लोग भ्रस्टाचारी प्रशासनिक-राजनैतिक व्यवस्था के हाथों न सिर्फ रोजाना 'लुटते' बल्कि 'पिटते' भी हैं और इस लिहाज से भी भ्रस्टाचार पर अंकुश लगाना सभ्य समाज की एक तात्कालिक जिम्मेवारी बनती है. खबर है कि किसानो के नेता नरेश टिकैत, जिन्होंने अन्ना की लड़ाई को जायज बताते हुए इसके समर्थन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ दिल्ली कूच करने का भी ऐलान किया है , ने मायावती द्वारा अन्ना को चुनाव लड़ने की सलाह और राहुल गाँधी के ताजातरीन बयान पर अपना एतराज जाहिर करते हुए यह सवाल भी किया कि यह सोचने की बात है की आम आदमी भ्रस्टाचार के खिलाफ भला कैसे लडेगा? बाद को चुनाव विश्लेषक और राजनैतिक समाजशास्त्री योगेन्द्र यादव ने भी अपने वक्तव्य में शायद कई शंकाओं का जवाब देने की गरज से ही इस बात पर जोर दिया है की लोकतंत्र को मजबूती सड़कों, गलियारों और मैदानों में होने वाले आंदोलनों से मिलने की बात इतिहास से साबित होती है. बहरहाल, उपस्थिति के तौर से रामलीला मैदान में गृहणियों और महिलाओं सहित हर आयु-वर्ग और विविध पेशों से जुड़े लोगों की मौजूदगी न केवल एक बड़े मेले सा लुभावना दृश्य बनाती बल्कि इस पहलू से सोचने पर भी मजबूर करती है की आखिर इन तमाम लोगों की लाइफ को यूं चेंज कर देने वाला आईडिया दरअसल क्या है ? खैर अपनी उधेड़बुन में डूबे जब हम रामलीला मैदान से निकलने को हुए तभी हमारी नजर एक समर्थक की तख्ती पर पड़ी जो यह दावा पेश कर रही थी कि "अन्ना नहीं ये गाँधी है!" *'अन्ना नहीं ये गाँधी है' और **'दूसरी **आजादी की लड़ाई' *भ्रस्टाचार के खात्मे के लिए जन लोक पाल बिल को संसद से पास करवाने की अपनी माँग के क्रम में दबाव बनाने के इरादे से अनशन पर बैठने जे पी पार्क जा रहे अन्ना हजारे को जब पोलिस ने दिनांक १६ अगस्त को बंदी बना लिया तो उसके ठीक बाद जारी देशवासिओं को संबोधित अपने पहले सन्देश में श्री हजारे ने 'दूसरी आजादी की लड़ाई' की शुरूआत का बाकायदा ऐलान करते हुए अपनी इस दूसरी आजादी की लड़ाई को 'परिवर्तनवादी' और एक 'सच्चे प्रजातंत्र' की स्थापना की दिशा में पहला कदम करार दिया. अगले दिन, १७ अगस्त को, द इकोनोमिक टाईम्स की रपट में श्री हजारे की इस तथाकथित 'दूसरी आज़ादी की लड़ाई' पर कमेन्ट करते हुए एक तरफ तो इसकी समय अवधि के लम्बा खींचने की शंका जाहिर की गयी तो वहीँ दूसरी तरफ इस मुहीम की मांगों और तरीको पर भी सवाल खड़े किये गए हैं. सनद रहे कि, अरुंधती रॉय भी मौजूदा मुहीम की 'माँगों' को 'गाँधीवादी' मानने से इंकार करती हैं. इतना ही नहीं दलित विचारक उदित राज ने अन्ना के जन लोकपाल बिल के सामानांतर बहुजन लोकपाल बिल प्रस्तावित कर लोकपाल के गठन में दलितों कि भागीदारी सुनिश्चित करने कि मांग रखी है. साथ ही उदित राज जी गैर सरकारी संगठनों, मीडिया और कार्पोरेट को भी लोकपाल के दायरे में लेन का प्रस्ताव रखते हैं. इस कड़ी में अरुणा रॉय द्वारा प्रस्तावित बिल तो पहले से ही चर्चा में है. वैसे तो खुद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधान मंत्री पद को लोकपाल के दायरे में ले आने की बात स्वीकार की है लेकिन सहयोगिओं के विरोध के चलते वे ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं ऐसा उनका तर्क है. संसद में जन लोकपाल बिल को पास कराने और सरकार द्वारा प्रस्तावित बिल को वापस लेने की मांग से शुरू कर अन्ना की टीम और समर्थक अब बीच का रास्ता तलाशते हुए इस सन्दर्भ में कुछ एक मुद्दों पर संसद में बहस की शुरुआत के समाधान तक आ पहुंचे हैं. लेकिन सत्ता पक्ष और अन्ना पक्ष दोनों ही अपने लिए सम्मानजनक स्थिति चाहते हैं और इस वजह से भी अब तक गतिरोध बना हुआ है और यह चिट्ठा लिखने तक तो इस मामले में कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है. कहना नहीं होगा कि जहाँ तक लोकपाल या जन लोकपाल जैसी किसी संस्था के गठन का सवाल है तो इस को ले कर जनमत पूरी तरह विभाजित दिखता है. इस सन्दर्भ में जब हमने अपने दोस्तों की राय जानना चाहा तो कुछ महत्वपूर्ण पहलु उभर कर सामने आये. पिपली लाइव की डिरेक्टर अनुषा रिज़वी ने हमारी मौजूदा व्यवस्था की मजबूती और कमजोरिओं का हवाला देते हुये यह कहा कि सबसे पहले तो लोकपाल के निर्वाचन में जन भागीदारी सुनिश्चित करना चाहिए . इससे न सिर्फ इस संस्था को जनता के प्रति जिम्मेवार बनाया जा सकेगा बल्कि इसके असीमित अधिकार हासिल कर गैर जवाबदेह होने का खतरा भी एक सीमा तक कम हो जायेगा. साथ ही इस मुल्क के विविधतापूर्ण चरित्र को देखते हुए इस संस्था में विभिन्न प्रतिनिधि समुदायों की भागीदारी भी होनी चाहिए. एक बड़ा प्रश्न जो अन्ना के प्रस्तावित बिल से जुड़ा है वो ये कि फर्ज कीजिये आप एक व्यक्ति को राज या सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार को मिटाने के लिए असीमित अधिकार दे देना चाहते हैं तो उस व्यक्ति को भला कैसे चुनेंगे ? इसके बाद यह भी मान लें कि वो व्यक्ति भ्रस्टाचार में लिप्त नहीं हो जायेगा लेकिन क्या गारेंटी है कि अपराधी तत्वों और माफिया के द्वारा उस पर दबाव बनाने के लिए जो तरीके इस्तेमाल हो सकते हैं उनसे पूरी तरह अप्रभावित रहते हुए अपनी सारी जिम्मेवारिओं का वह ठीक ठीक निर्वाह कर ले जायेगा. युवा समाजवेत्ता एस. एम. फैज़ान अहमद जिनका मानना है कि मौजूदा मुहीम, जो सरकार के द्वारा स्थितिओं का सटीक आंकलन न कर पाने और सरकार की रणनैतिक विफलताओं मसलन नागरिक समाज के दूसरे तत्वों और मिसाल के तौर पर हर्ष मंदर या अरुणा रॉय की अनदेखी का नतीजा है, और इसके द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल बिल भ्रस्टाचार से मुक्ति की गारंटी नहीं हो सकता. अहमद कहते हैं कि बिल के मौजूदा प्रारूप को पास किये जाने की स्थिति में जनता द्वारा मताधिकार का इस्तेमाल करते हुए संसदीय व्यवस्था के सञ्चालन हेतु चुने गए उसके अपने प्रतिनिधिओं और भ्रस्टाचार के निवारण के लिए नियुक्त लोकपाल में सीधे संघर्ष की सम्भावना ज्यादा मजबूत दिखती है. ऐसे किसी भी संभावित प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति में अंततः मामला न्याय पालिका में जायेगा और लम्बे समय के लिए वहां लंबित पड़ा रहेगा यही गुंजाईश ज्यादा है. तो क्या यह मान लिया जाये कि अन्ना कि मौजूदा मुहीम का कोई भी सकारात्मक पहलु या योगदान नहीं है और हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के समक्ष यह मुहीम एक वास्तविक और बड़ा खतरा है? दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के शोधार्थी और साहित्यकार रोहित यह याद दिलाते हैं की जिस स्वतः स्फूर्तता से विभिन्न तबकों के लोग भ्रस्टाचार के विरोध में जारी इस मुहीम में आगे आये हैं और प्रतिरोध का जैसा नमूना हमें इस मुहीम के ज़रिये से कम से कम दिल्ली में देखने को मिला है वह निश्चित रूप से एक हद तक सकारात्मक है. खुद प्रधानमंत्री ने भी अन्ना के जज्बे को सलाम किया है और उनके इस जज्बे की तारीफ सार्वजनिक रूप से की है. इतना ही नहीं कांग्रेस के एक प्रवक्ता जिन्होंने पहले अन्ना को भ्रस्ट साबित करने का प्रयास करते हुए उन पर व्यक्तिगत आक्षेप किये थे भी अब अपने कहे पर शर्मिंदा हैं और उन्होंने अपना वो आपत्तिजनक बयान वापस ले लिया है. यह तो कोई भी मानेगा की गांधीवाद का अन्ना संस्करण काफी दिलचस्प है और इसकी अपील टिकाऊ. आज जितनी बड़ी तादाद में लोग गाँधी टोपी का अन्ना संस्करण (मैं अन्ना हूँ लिखी घोषणा के साथ) और अन्ना के फोटो वाली टी शर्ट पहने घूम रहे हैं या 'अन्ना नहीं ये गाँधी है' जैसे स्वर अगर फ़िज़ा में नारों के बतौर तैर रहे हैं तो इसके लिए गाँधी बाबा का करिश्मा भी कोई छोटी वजेह नहीं है. इस करिश्में को मुम्बईया फिल्मों ने भी समय समय पर कैश किया है और गाँधी की परंपरा से खुद को जोड़ कर देखने-दिखाने वालों ने भी. जो लोग मौजूदा मुहीम की मांगों पर सवाल उठाते हुए अन्ना के गाँधीवादी होने से इंकार कर रहे हैं दरअसल वो इस विशिष्ट संस्करण को नहीं समझ पाये हैं. वर्ना क्या वजह थी की अहिंसा के हथियार से अपनी लड़ाई लड़ने वाले महात्मा ने विश्वयुद्ध के दौरान औपनिवेशिक सत्ता का साथ दिया और युद्ध के पक्ष में सेना में भर्तियाँ भी करवाई , अलग निर्वाचन की बाबा साहेब अम्बेडकर की मांग के विरोध में उपवास किया और उन्हें झुकने पर मजबूर किया, आदिवासिओं और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के मुद्दों को बुलंद करने से परहेज रखा और नए उभर रहे पूंजीपतियों से नजदीकी रिश्ता भी. और अंत में कांग्रेस पार्टी को अंततोगत्वा भंग करने जैसे अपने लीक से अलग विचारों के साथ गाँधी जी खुद भी तो ऐतिहासिक नजरिये से कई बार गैर गाँधीवादी लगने वाली मांगों के पक्ष में खड़े दीखते हैं. दोस्तों के लिए कमल मिश्र की ओर से -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Aug 8 13:33:42 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 08 Aug 2011 08:03:42 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSw4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KS34KSjIOCkuOClhyDgpJzgpYHgpKHgpLzgpYcg4KSV4KWB4KSbIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSyLCDgpJzgpLXgpL7gpKwg4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCkueCliOCkgiDgpIbgpKog4KSk4KWI4KSv4KS+4KSwLi4u?= Message-ID: इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को लेकर 'आरक्षण' एक बार फिर चर्चा में है, इस चर्चा को पढ़ सुनकर कुछ दिनों पहले मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित अपने चंद सवालों को एक बार फिर से आप सबके सामने इस उम्मीद में रखता हूँ कि आप इस विषय पर सोचने विचारने वाले विद्वत जन इसका कुछ ठीक-ठीक समाधान सुझाएँगे... 1 बिहार से जब एक व्यक्ति असम, मुंबई कोलकाता जाता है तो उसकी पहचान जाति नहीं, उस क्षेत्र से होती है, जहां से वह आया है। कोई नहीं कहता कि आप भूमिहार हैं या राजपूत? सबकी एक पहचान है, बिहारी! 2. आप मेरी बात से बिल्कुल सहमत न हों, लेकिन जिन दलित परिवारों में मैंने समृद्धि देखी है, वहां यह भी देखा है कि उनके लिए जाति व्यवस्था बड़ा सवाल नहीं है। जाति व्यवस्था को खत्म करने की राह क्या उनके आर्थिक समृद्धि के साथ देखी जा सकती है? 3. अगर भेदभाव समाज में आज भी कायम है, तो इस भेदभाव को कम करने का या खत्म की राह क्या हो सकती है? 4. क्या आरक्षण छोड़ कर इसको दूर करने का कोई रास्ता नहीं है? 5. आरक्षण उन परिवारों को क्यों मिलना चाहिए, जिनके मुखिया की महीने की आमदनी आधिकारिक तौर पर 40 से 50 हजार रुपये हो? 6. आरक्षण को बीपीएल परिवारों तक सीमित क्यों नहीं किया जा सकता है? 7. आरक्षण की बात जोर शोर से इंटरनेट और फेसबुक पर उठाने वाला सक्रिय बड़ा वर्ग क्या अच्छी आमदनी वाला वर्ग नहीं है? 8. यदि वह वास्तव में अपने समाज को आगे कि तरफ बढ़ते देखना चाहते हैं, तो वह अपने समाज के पीछे छूट गये लोगों के लिए केंद्रित आरक्षण को लेकर मांग क्यों नहीं करते? 9. यदि किसी का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, तो इसमें उसकी क्या भूमिका है? सिवाय इस बात के कि उसके मां बाप ब्राह्मण थे? 10. यदि बड़ी संख्या में ब्राह्मण जातिवादी हैं, यदि गिनती के कुछ गरीब ब्राह्मण परिवार के लोग ही इस जाति व्यवस्था में यकीन नहीं रखते, तो जातिवाद की सजा उनके लिए क्यों? बाबा साहब का संविधान ही कहता है कि सौ दोषी बच जाएं लेकिन एक बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। 11. क्या जाति के आधार पर सुविधा देना आपको सामाजिक न्याय नजर आता है? क्या किसी गरीब और पिछड़े वर्मा, शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्रा का गुनाह इतना भर है कि उन्होंने इस सरनेम वाले परिवार में जन्म लिया? सवाल बहुत सारे हैं, वैसे क्या आप नहीं मानेंगे कि आरक्षण की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वालों में दलित समाज के साथ-साथ गैर दलित समाज के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर चले थे। इस तरह कोई दलित समाज की चिंता करने वाला व्यक्ति कैसे हर गैर दलित व्यक्ति की मंशा पर सवाल उठा सकते हैं? उम्मीद है, इस संबंध में सोचने वाले विद्वतजनों का मार्गदर्शन मिलेगा। इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:- manju said: I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income. --------- Anand said: आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना | आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा | -------------------- Mukesh Kumar said: Dear Ashish, You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also…. ----------------------- Satyendra said: I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer. --------------------- Vibha Rani said: ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही. ------------ वेद प्रकाश said: आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं. निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे– 1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए. 2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ. 3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए. 4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं. 5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए. 6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए. 7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए. अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए. आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं. दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है. ---------------------- shubhranshu said: there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis. ----------------------- Ruchi said: आशीष आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है. आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है. दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ?? दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं. कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा. सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें. पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं. जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें --------------------- Ruchi said: @ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है. जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है. दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें. ----------------- jitendra yadav said: आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है. ------------- RAJEEV said: आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ --------------------- mukesh manas said: anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno………………….. 1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc. 2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI. 3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE. 4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN. 5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN. 6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI. KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI? 7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA? 8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI. 9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN) 10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE? 11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN…. ------------- मुसाफिर बैठा said: सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ- १.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है? २.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी. ३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा. ४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो. ५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे. ६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है. ७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग. ८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं? ९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर. १०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे! ११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा! --------------------- rakesh said: Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga. चंद और सवाल:- मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं 02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी? 03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं। 04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए! 05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए? 06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने? 07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी! 08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं। 09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है। 10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा। 11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए। -- इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:- manju said: I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income. --------- Anand said: आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना | आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा | -------------------- Mukesh Kumar said: Dear Ashish, You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also…. ----------------------- Satyendra said: I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer. --------------------- Vibha Rani said: ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही. ------------ वेद प्रकाश said: आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं. निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे– 1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए. 2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ. 3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए. 4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं. 5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए. 6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए. 7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए. अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए. आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं. दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है. ---------------------- shubhranshu said: there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis. ----------------------- Ruchi said: आशीष आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है. आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है. दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ?? दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं. कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा. सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें. पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं. जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें --------------------- Ruchi said: @ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है. जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है. दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें. ----------------- jitendra yadav said: आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है. ------------- RAJEEV said: आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ --------------------- mukesh manas said: anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno………………….. 1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc. 2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI. 3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE. 4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN. 5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN. 6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI. KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI? 7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA? 8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI. 9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN) 10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE? 11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN…. ------------- मुसाफिर बैठा said: सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ- १.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है? २.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी. ३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा. ४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो. ५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे. ६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है. ७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग. ८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं? ९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर. १०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे! ११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा! --------------------- rakesh said: Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga. चंद और सवाल:- मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं 02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी? 03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं। 04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए! 05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए? 06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने? 07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी! 08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं। 09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है। 10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा। 11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए। (स्त्रोत: http://ashishanshu.blogspot.com/2011/08/blog-post.हटमल ) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Aug 8 13:33:42 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 08 Aug 2011 08:03:42 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSw4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KS34KSjIOCkuOClhyDgpJzgpYHgpKHgpLzgpYcg4KSV4KWB4KSbIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSyLCDgpJzgpLXgpL7gpKwg4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCkueCliOCkgiDgpIbgpKog4KSk4KWI4KSv4KS+4KSwLi4u?= Message-ID: इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को लेकर 'आरक्षण' एक बार फिर चर्चा में है, इस चर्चा को पढ़ सुनकर कुछ दिनों पहले मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित अपने चंद सवालों को एक बार फिर से आप सबके सामने इस उम्मीद में रखता हूँ कि आप इस विषय पर सोचने विचारने वाले विद्वत जन इसका कुछ ठीक-ठीक समाधान सुझाएँगे... 1 बिहार से जब एक व्यक्ति असम, मुंबई कोलकाता जाता है तो उसकी पहचान जाति नहीं, उस क्षेत्र से होती है, जहां से वह आया है। कोई नहीं कहता कि आप भूमिहार हैं या राजपूत? सबकी एक पहचान है, बिहारी! 2. आप मेरी बात से बिल्कुल सहमत न हों, लेकिन जिन दलित परिवारों में मैंने समृद्धि देखी है, वहां यह भी देखा है कि उनके लिए जाति व्यवस्था बड़ा सवाल नहीं है। जाति व्यवस्था को खत्म करने की राह क्या उनके आर्थिक समृद्धि के साथ देखी जा सकती है? 3. अगर भेदभाव समाज में आज भी कायम है, तो इस भेदभाव को कम करने का या खत्म की राह क्या हो सकती है? 4. क्या आरक्षण छोड़ कर इसको दूर करने का कोई रास्ता नहीं है? 5. आरक्षण उन परिवारों को क्यों मिलना चाहिए, जिनके मुखिया की महीने की आमदनी आधिकारिक तौर पर 40 से 50 हजार रुपये हो? 6. आरक्षण को बीपीएल परिवारों तक सीमित क्यों नहीं किया जा सकता है? 7. आरक्षण की बात जोर शोर से इंटरनेट और फेसबुक पर उठाने वाला सक्रिय बड़ा वर्ग क्या अच्छी आमदनी वाला वर्ग नहीं है? 8. यदि वह वास्तव में अपने समाज को आगे कि तरफ बढ़ते देखना चाहते हैं, तो वह अपने समाज के पीछे छूट गये लोगों के लिए केंद्रित आरक्षण को लेकर मांग क्यों नहीं करते? 9. यदि किसी का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, तो इसमें उसकी क्या भूमिका है? सिवाय इस बात के कि उसके मां बाप ब्राह्मण थे? 10. यदि बड़ी संख्या में ब्राह्मण जातिवादी हैं, यदि गिनती के कुछ गरीब ब्राह्मण परिवार के लोग ही इस जाति व्यवस्था में यकीन नहीं रखते, तो जातिवाद की सजा उनके लिए क्यों? बाबा साहब का संविधान ही कहता है कि सौ दोषी बच जाएं लेकिन एक बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। 11. क्या जाति के आधार पर सुविधा देना आपको सामाजिक न्याय नजर आता है? क्या किसी गरीब और पिछड़े वर्मा, शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्रा का गुनाह इतना भर है कि उन्होंने इस सरनेम वाले परिवार में जन्म लिया? सवाल बहुत सारे हैं, वैसे क्या आप नहीं मानेंगे कि आरक्षण की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वालों में दलित समाज के साथ-साथ गैर दलित समाज के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर चले थे। इस तरह कोई दलित समाज की चिंता करने वाला व्यक्ति कैसे हर गैर दलित व्यक्ति की मंशा पर सवाल उठा सकते हैं? उम्मीद है, इस संबंध में सोचने वाले विद्वतजनों का मार्गदर्शन मिलेगा। इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:- manju said: I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income. --------- Anand said: आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना | आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा | -------------------- Mukesh Kumar said: Dear Ashish, You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also…. ----------------------- Satyendra said: I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer. --------------------- Vibha Rani said: ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही. ------------ वेद प्रकाश said: आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं. निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे– 1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए. 2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ. 3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए. 4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं. 5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए. 6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए. 7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए. अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए. आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं. दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है. ---------------------- shubhranshu said: there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis. ----------------------- Ruchi said: आशीष आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है. आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है. दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ?? दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं. कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा. सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें. पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं. जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें --------------------- Ruchi said: @ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है. जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है. दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें. ----------------- jitendra yadav said: आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है. ------------- RAJEEV said: आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ --------------------- mukesh manas said: anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno………………….. 1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc. 2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI. 3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE. 4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN. 5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN. 6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI. KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI? 7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA? 8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI. 9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN) 10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE? 11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN…. ------------- मुसाफिर बैठा said: सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ- १.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है? २.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी. ३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा. ४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो. ५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे. ६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है. ७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग. ८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं? ९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर. १०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे! ११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा! --------------------- rakesh said: Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga. चंद और सवाल:- मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं 02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी? 03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं। 04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए! 05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए? 06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने? 07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी! 08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं। 09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है। 10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा। 11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए। -- इस सवाल पर मिले कुछ जवाब:- manju said: I am totally agree with your all questions.Reservation is creating frustration among general youth when their effort are wasted.It should be limited to only BPL family of any caste because even the BPL family of reserve caste are not able to utilise this facility as they are uncompetable to their own caste due to their low income. --------- Anand said: आज की सबसे बड़ी समस्या ये है राजनैतिक अवसरवादिता | जाति,धरम और क्षेत्र ऐसे मुद्दे है जिनके आधार पर लोगो को आराम से बल्गाराया जा सकता है और देश का एक बहुत बड़ा बुध्दिजीवी तबका ये ही काम कर रहा है | यदि हम बारीकी से देखे तो आरक्षण का लाभ एक बहुत बड़ा ऐसा तबका उठा रहा है जिसकी इसे कोई जरूरत ही नहीं है | दलित एवं पिछड़े वर्ग मे वो ही लोग इस बात का फायदा उठा पा रहे है जिनकी एक पीढ़ी इस का फायदा उठा चुकी है | आरक्षण का लाभ लेने वालो मे भी दो वर्ग बन गए है पहला जो बच्चे डीपीएस जैसी संस्थायो मे पढ़ते है और दुसरा जो आज भी गावो मे मजदूरी कर अपने बच्चो का पेट पाल रहे है और वंहा बच्चे की सबसे पहली जरूरत होती है परिवार का साथ देना जिसके लिए वो सिर्फ शब्द ज्ञान लेकर ही सिमित रह जाता है | मै पूछता हु यदि एक आदमी एक सरकारी जॉब करता है, एक छोटी से छोटी सरकारी नौकरी भी उस आदमी को उन 75 करोड़ लोगो से बेहतर जीवन एवं सामजिक अवसर देती है जिनकी प्रतिदिन की आय मात्र 20 रूपये है | आज हमें ये निर्धारित करना होगा की हमें समाज का उत्थान करना है या फिर अपना | आज सामजिक न्याय के बारे मे सोचने की जरूरत है | और जो खामिया हमने अपनी पहली नीतियों मे देखी है उन्हें दूर करने की जरूरत है लेकिन इन सबसे पहले जरूरत है उस इच्छा शक्ति की जो ये फैसला ले सके | मौजूदा राजनीति तो सिर्फ इनका लाभ उठाने का काम कर रही है तो उनसे तो इस बात की उम्मीद करना ही गलत होगा | -------------------- Mukesh Kumar said: Dear Ashish, You are thinking same as other people about reservation. when a person talk about reservation he/she centered only sc/st reservation. Is he /she do’nt know about obc reservation which is 27% (more than 12% compare to sc reservation). Nobody talk about this. one important thing is that 50% for general (it is not reservation but most probably 50% seats are filled by general category). But you have problem only with sc/st reservation. Do you know, in each village of the India only 15% sc/st are developed and 85% are very poor. Think this also…. ----------------------- Satyendra said: I am fully agree with these questions and not very socked if some comments come against this. this reservation on caste basis go towards polarization. After a time so-called general becomes minority and history repeat again and then politics are centered for general reservation. I think caste based reservation is full of stupidity. Because Jo garib tha wo aur Garib hua hai aur jo ameer tha wo aur ameer. --------------------- Vibha Rani said: ज्वलंत सवाल और सबका लब्बो लुआब यह कि जाति और आरक्षण के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग ही इनका लाभ उठा रहे हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहा था- ऊपर ऊपर ही पीते हैं जो पीनेवाले होते हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले होते हैं. आरक्षण का लाभ उनको तो बिलकुल ही नहीं दिया जाना चाहिये जो इसका लाभ उठाकर आर्थिक सम्पन्नता तक पहुंच चुके हैं. उन्हें स्वयं इस लोभ से बाहर आना चाहिये. आरक्षण का आधार जातिगत कम और धनगत अधिक होना चाहिये. और सबसे बडी बात, अब आज के समय में यह मांग उठाई जानी चाहिये कि जाति- धर्म से ऊपर उठकर मानव जाति और धर्म के लिए काम करें. हालांकि यह अरण्य रोदन है, फिर भी…बात कुछ तक भी पहुंची तो बात बनेगी ही. ------------ वेद प्रकाश said: आपने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब काफी हद तक मंडल आयोग की रिपोर्ट में दिए गए हैं. निश्चय ही जातिभेद को दूर करने का एकमात्र रास्ता आरक्षण नहीं है. इसके कई और भी रास्ते हैं जैसे– 1. सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो, यानी साम्यवाद हो और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार उठाए. 2. सभी लोग जातिभेद पैदा करने वाले हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लें या नास्तिक हो जाएँ. 3. अपनी जाति में शादी करने वालों को सरकारी नौकरी और बैंक के कर्ज आदि सुविधाओं से वंचित किया जाए. 4. बाबा रामदेव, संत आशाराम जैसे बाबाओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि ये लोग सरेआम ब्राह्मणों का गुणगान कर जातिभेद फैलाते हैं. 5. मध्यम वर्ग सभी मुसलमानों को देशद्रोही और सभी स्त्रियों और दलितों को अयोग्य मानता है. ऐसा मानने वालों को कड़ी सजा दी जाए. 6. किसी भी समुदाय या धर्म की बात करने वाले धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संगठन पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए. 7. हिंदू धर्म का प्रचार करना प्रतिबंधित किया जाए. अगर मेरे सुझाव बहुत कड़े लगें तो फिर आरक्षण का ही समर्थन किया जाए. आरक्षण से निश्चित ही बहुत ही कम लोगों को नौकरी आदि मिलती है, बमुश्किल आधा प्रतिशत. लेकिन शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने इस देश के बहुसंख्यक समुदाय में गतिशीलता पैदा की है, तथा उनमें यह भाव पैदा किया है कि वे कोई कीडे़-मकोड़े नहीं, जैसा कि हिंदू धर्म मानता है,बल्कि मनुष्य हैं और इस देश के नागरिक हैं. दरअसल आरक्षण विरोधियों को दलितों द्वारा चंद नौकरियाँ हासिल कर लेना बुरा नहीं लगता, उन्हें चुभता है किसी दलित कलक्टर या एसीपी के सामने अपने स्वार्थों के लिए गिड़गिडा़ना. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने जातिबंधुओं के सामने यह करने में उन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व महसूस होता है. ---------------------- shubhranshu said: there is only one solution n dat is- giv reservation on economic basis nt on caste basis. ----------------------- Ruchi said: आशीष आपने बहुत व्यवहारिक सवाल उठाये हैं. आरक्षण कि सुविधा पाने वाला वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि जातीय पहचान ख़त्म हो य यह व्यवस्था ख़त्म हो. उनके लिए जाति का होना सामाजिक नहीं आर्थिक कारणों से जरुरी है. जातीय अस्मिता का लगातार कट्टर हो जाना इसी का सबूत है. आरक्षण पाने के लिए जो वर्ग रो रोकर खुद को पिछड़ा बताता है वही वर्ग सामाजिक रूप से उस जाति से अपनी अस्मिता नहीं जोड़ना चाहता. यह पहचान सिर्फ पढाई और नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र और दस्तावेजों तक सीमित रहती है. दलित विमर्श के पैरोकार जिस तरह से कट्टरपंथियों की तरह आरक्षण को लेकर आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं उनकी नज़र में क्या योग्यता का कोई मूल्य नहीं ?? दलित विमर्श दरअसल चाहता ही नहीं कि जाति व्यवस्था ख़त्म हो और समाज से ये बंधन हटें. उनके विमर्श का असल मुद्दा है की आरक्षण की सुविधा कभी ख़त्म ना हो बस समाज में उन्हें उनकी जाति के साथ जोड़कर न देखा जाये. यह कितना बड़ा अंतर्विरोध है की जिस जाति के पिछड़ेपन पर वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं उसी जाति से खुद को अलग भी रखना चाहते हैं. कुछ सवर्ण जातियों को जातिवादी साबित करने वाले दलित विमर्शकार भूल जाते हैं की सबसे बड़े जातिवादी वही हैं. उनके भीतर जाति व्यवस्था को लेकर आक्रोश नहीं सवर्णों को लेकर आक्रोश है. उनके आक्रामक रवैये को देख कर लगता है उन्हें विमर्श करने की बजाय गुरिल्ला सेना बनानी चाहिए जो अल्पसंख्यक सवर्णों को ख़त्म कर दे. शायद वही अच्छा भी हो. जब कोई अगड़ा रहेगा नहीं तो कोई पिछड़ा भी नहीं रहेगा. सच तो ये है कि अभी के दलित विमर्श के पास न तो कोई वैचारिक आधार है न परिवर्तन की इच्छा. वह एक राजनीतिक औजार से ज्यादा कुछ नहीं है. बेहतर हो अगर वे ‘विमर्श’ शब्द का और दुरूपयोग न करते हुए अपनी इस राजनीति को ‘आरक्षण समर्थक अभियान’ जैसा कुछ कहें. पुनश्च : जातिवाद को मिटाने की राह में आरक्षण और दलित विमर्श रोड़ा बन कर अटक गए हैं. समाज में सकारात्मक रूप से खुली और उदार सोच के पनपने में दुर्भाग्य से वह बाधा बन गए हैं. जरुरत है की हम उदार तरीके से इस पर सोचें और जातियों को लेकर कट्टरता का विरोध करें --------------------- Ruchi said: @ ved : आपकी समस्या क्या है ? ब्राह्मण जाति या जातिवाद ? हिन्दू धर्म को प्रतिबंधित करने का अनमोल विचार भी आपकी वैचारिक गम्भीता को प्रमाणित करता है. जहाँ तक आपने या कहा कि सवर्णों को क्या चुभता है क्या नहीं तो जान लें कि दलित एक तो आरक्षण पाकर अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाते हैं और फिर विनम्रता भूल कर सवर्णों को जलील करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते. ऐसी कुंठित मानसिकता के अलावा ऐसी सैकड़ो दलित जातियों के उदहारण हैं जिन्होंने सवर्ण उपनाम अपनाया है और अपनी जातिगत पहचान को लेकर भ्रम बनाये रखते हैं. वह असली पहचान सिर्फ आरक्षण पाने की कुंजी होती है. दरअसल लोगों ने आरक्षण विरोध को दलित विरोध समझ लिया है. योग्यता और समानता की बात से अगर आप इतेफाक नहीं रखते तो ठीक है. जातियों का अस्तित्व बनाये रखें और आरक्षण के लिए योग्य बने रहें. ----------------- jitendra yadav said: आशीष जी दरअसल यह सवाल मात्र आपका ही नहीं है, इस देश दे सारे सवर्ण यही सवाल कर रहे हैं. उत्तर क्या दिया जाय . इसे दलित बैकवर्ड की तानाशाही समझ लीजिये. लोकतंत्र में जो वोट का सवाल महत्वपूर्ण है. आप लोगो के साथ अन्याय हो रहा है, सहानुभूति के सिवाय और क्या किया जा सकता है. ------------- RAJEEV said: आरक्षण का आधार आर्थिक और जाति दोनों पर रखना गलत है .आर्थिक समृधि और सामाजिक हीनता का अवसरों की समानता से कोई लेना देना नहीं है.आरक्षण की मूल भावना वंचितों को सामान अवसर उपलब्ध करना था.मेरे विचार से आरक्षण का आधार क्षेत्र होना चाहिए .देश को विकसित ,अल्पविकसित तथा पिछड़ा तथा अतिपिछड़ा क्षेत्रों में बाँट कर आरक्षण देना उचित होगा .दिल्ली में रहने वालों की अपेक्षा ओडिसा के कालाहांडी में रहने वाला किसी जाती का इंसान अपने को हिन् महसूस करेगा.जब अकाल और बाढ़ आते है तो नहीं पहचानते की आप एक सौ बीघा जमीं के मालिक और ठाकुर है की भूमिहीन दलित.क्षेत्र के साथ आर्थिक और जाति इन तिन को आधार माना जाये तो शायद वर्तमान समस्याएं कम हो जाएँ --------------------- mukesh manas said: anshu pyare apne mass\oom savalon ke tarkik javab suno………………….. 1) bihar se jaane vala bihari hota hai lekin bihar,bangal ko chood kar aur kahin se aane vala pahale sc hota hai ya st ya obc. 2) AARTHIK SAMARIDDHI SE JAATIGAT UPEKSHA JAANE KII BAJAYE BADH JAATII HAI PYARE MARKSVAAD KI KAM SAMAJH RAKHANE VAALE DALIT MARKSVAADI. 3) BHEDBHV SIRF EK RAASHTRIYA NITI KE TAHAT HI SAMAPT HO SAKATA JO IS DESH KA SHASAK VARG KABHI NAHI CHAAHEGAA. TUMHAARE JAISAI KUCHH NA KUCHH BOLATE RAHENGE. 4) JARUR HAI. YAHI KI SAARE DALIT IS DESH MAI ATMHATYA KAR LEN. 5) KATAI NAHII MILANA CHAAHIYE. MAGAR UPPER CASTE KE LOGO KE ARAKASHAN KA ( SILENT ARAKSHAN KA ) KYA KAREN. 6)JARU KIYA JAANAA CHHAHIYE. MAGAR YE bpl KYA BLA HAI. KAUN bpl HAI KAUN NAHI KAUN TAY KAREGA PYARA MASOOM BHAI? 7) JARUR HAI. MAGAR ARAKSHAN KE VIRODH ME AANE VALA VARG KITANA KAMA RAHA HAI ISAKA HISAB KAUN LAAYEGAA? 8)SAB BRAHAMANS KO AARAKSHAN DE DO VAHI BHOOKHE NANGE HAI. SAMASYA KHATAM. KYONKI IS DESH KA BHAMAAN KABHI SAMARIDDH HO NAHI SAKATA. SAALAA BAHUT HIPPOKRATE HAI. 9)SAHI HAI.KYONKI YAHAN BRAHAMAN KE GHAR PAIDA HONE SE KOI KOI KUTTA BHII MAHAN HO JAATA HAI( KUTTE MUJHE MAAF KAREN) 10)SAHI . TO EK INTELLEGENT DALIT KO DALIT HONE KI SAZA KYON MILE? 11) EKDAM SAHI. MAI SAHAMAT HUN…. ------------- मुसाफिर बैठा said: सनातनी मन सवर्णों के सवाल ऐसे ही मासूम होते हैं.वेदप्रकाश और मुकेश मानस से जो उत्तर बिंदु छूट गए हैं उन्हें मैं पूरा किए देता हूँ- १.सबकी एक पहचान है,बिहारी, माना ठीक,पर बाहर भी क्या स्वर्ण वहाँ गए दलोतों-पिछड़े के प्रति अपना जातिवादी चुतिआपा भरा व्यवहार छोड़ता है? २.बाबू जगजीवन राम ने जब बनारस में सम्पूर्णानन्द कि मूर्ति का अनावरण और माल्यार्पण किया तो उस मूर्ति का सवर्णों ने कथित शुद्धिकरण किया बाद में. स्थानांतरण के बाद कई महत्वपूर्ण पदों की कुर्सियों का(जिस पर दलित बैठते रहे थे) या तो मंत्रोच्चार आदि से पवित्र कर सवर्णों ने बैठना स्वीकार किया या कुर्सी ही बदल दी. ३.सवर्ण और अन्य जन भी अपना हिंदू अहंकार-संस्कार छोड़ दें. मसलन,अनिवार्य रूप से एक ही जाति में शादी न हो, अहंकार और अमुक शुद्ध जाति का होने का विकार तब स्वतः समाप्त समाप्त हो जायेगा. ४.सवाल तो यार खुद से पूछो. क्या यह आरक्षण नहीं है कि ब्राह्मण ही पूजा-पाठ करवाए? एक जाहिल और अशुद्ध संस्कृत जानने वाला भी अपनी जाति के बूते क्यों पंडित कहलाता है? मंदिरों में दलितों-पिछडों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में हिस्सेदारी दो. ५. ज्यादा अच्छा हो कि सदियों से नानाविध सामाजिक आरक्षण भकोस रहे सवर्ण अपने से/अपनों से यह सवाल करे. ६.ऊपर ही इस सवाल का मनभरू जवाब दे दिया गया है. ७. जरूरी नहीं कि अच्छी आमदनी वाला हो पर हठी सवर्णों को पानी पिलाने वाले जरूर हैं वे लोग. ८. शक और यह सवाल क्यों है भाई,फरिया के तो बताइए साहब! और समाज को एकरस बनाने में अपनी जिम्मेदारी भी मत भूलिए.आपका यह सवाल आपके कारयित्री प्रतिभा का भी योग मांगता है.आप सवर्ण यदि दलितों के हक-हुकूक के लिए आगे आयेंगे तो ‘छुआ’नहीं जायेंगे, अतीत में तो अनेक सवर्ण वंचितों के हित में काम करते रहे हैं, बल्कि अभी भी. आप भी हमारे साथ हो लीजिए न, कहे दूर खड़े खड़े ज्ञान बघाड रहे हैं? ९.सबकी चिन्ता करिये भाईजान.केवल ब्राह्मणों की नहीं. बताइये न आप ही, अबके दलितों का क्या कुसूर. आपके बाप-दादा के नौकर-चाकर और जरखरीद गुलाम तो हमारे पूर्वज थे, पर अब तो नहीं हैं हम आपके अधीन पर क्यों अब भी अपनी हुकूमत हम पर चलाये जा रहे हैं, किस अधिकार से? क्यों हम एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक देश में भी अपने मानवजन्य अधिकारों से वंचित रहें और आप हमारे हिस्से का भी भकोस जाये प्रतिभा के वाहयात नाम पर. १०.सवाल को ब्राह्मणों से बाहर भी ले जाइये, सारभौमिक विस्तार दीजिए, जाके पांव न फटे बिवाई…. तक ले जाइये आपका दर्द अपना मात्र न रह जायेगा!बल्कि दूसरे मोर्चों पर अधिक दुखियारी जन के दर्शन होंगे! ११.इस सवाल और अपने आगे के शेष सवालों के लिए मेरे पिछले जवाबों में जाइये, प्रश्न शेष न रहेगा! --------------------- rakesh said: Musafirji ki baat se purn sahmati. Tamaam vargon aur jaatiyon ke log (‘upper castes’ khas kar) apne andar jhaanke aur inner self mein baithe jaativaad ko hilaane ki koshish karein. Saath men ek prastaav: National Reservation Policy nursery or play school se laagu kiya jaaye. Is pahal se aarthik baraabari ki raftar to tez hone mein madad milegi, ja aage chalkar samajik baraabri mein nirnayak sabit hoga. चंद और सवाल:- मुसाफिर बैठाजी क्या आपकी बातों से शब्दशः सहमत हो जाया जाए? मुझे लगता है, आपने यह सोचकर जवाब नहीं दिया होगा। वैसे भूमिका में आपने मेरे ‘सनातनी धर्म सवर्ण’ होने की लगभग घोषणा की है। मैं देर तक हंसता रहा इसे पढ़ने के बाद, अफसोस इतना भर रहा कि बिना मुझे जाने आप इतने बड़े निष्कर्ष पर सिर्फ चंद सवालों की वजह से पहुंच गए। जो आपके मन मुताबिक नहीं थे। अरे! साहब बाबा साहब ने भी आरक्षण से जो लोग बाहर हैं, उनसे इतनी दूरी नहीं बनाई। उन्हें अपने अखबार का संपादन करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी। खैर, आपके जवाब के साथ अपने कुछ सवाल नत्थी कर रहा हूं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी है।01. आपके जवाब से यह पता चलता है कि जातिवाद को आप भी चुतियापा मानते हैं, साहब उसके बाद भी इसे ढोना चाहते हैं। क्यों इसका जवाब आप बेहतर तरिके से दे सकते हैं 02. बाबू जगजीवन राम की कहानी आपने सुनाई, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में जब मायावतिजी अपनी कुर्सी छोड़ेंगी तो क्या आपको संभव दिखता है कि पूरे प्रदेश में मायावतिजी के कार्यकाल में लगवाई गई मूर्तियों का शुद्धिकरण और उन सभी कुर्सियों का मत्रोच्चार से पवित्रीकरण की घटना दोहराई जाएगी? 03. धीरे धीरे यह अहंकार छूट रहा है। कुछ घटनाएं मेरी जानकारी में हैं। 04. मंदिरों में दलितों की भागीदारी की शुरुआत हो गई है। बनारस में ऐसे दर्जनों दलित पंडे आपको मिलेंगे और दलित पूजारियों की संख्या भी बढ़ रही है। नोएडा के एक दलित व्यावसायी ने बताया कि उनके अपार्टमेन्ट के मंदिर में जब वे जाते हैं, तो ब्राम्हण पंडित अपनी गद्दी उनके लिए छोड़कर नीचे बैठ जाता है। बैठाजी समय बदल रहा है, आप भी बदलिए! 05. बिल्कुल यह सवाल उन्हें अपने से करना चाहिए। जातिवादी लोगों के पक्ष में बात भी नहीं की जा सकती। बैठाजी कम से कम उनके लिए आपके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर होना ही चाहिए, जिनका जीवनचर्या बहूत मुश्किल से चल रही है। जिनके पूरे परिवार के महीने की आमदनी बेहद कम हो। वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हों। क्यों उनको यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए? 06. ‘मनभरु जवाब’ आपने दे दिया इसे कैसे समझा आपने? 07. इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन क्या ‘हठी’ से मुकाबला करते करते वे लोग खुद ‘हठी’ नहीं हो गए हैं। ब्राम्हणवादियों के मुकाबले मुसाफिर बैठा वादी! 08. ‘फरिया’ के बताने का क्या अर्थ है और आपके साथ खड़े होने का क्या अर्थ है? थोड़ा स्पष्ट कीजिए। वैसे आप जो लिख रहे हैं, उनसे कुछ असहतियों को छोड़कर मैं हमेशा सहमत हूं। 09. कौन कर रहा है आप पर हुकूमत। क्या लालूजी के पन्द्रह साल के राज के बाद भी क्या किसी सवर्ण की मजाल बची है कि वह किसी दलित पर अत्याचार करें? वैसे नीतिशजी भी सवर्ण नहीं है। उनके राज में नौकरियों से लेकर तमाम दूसरी सुविधाओं में दलित समाज के लोगों का पूरा ख्याल रखा गया है। 10. ब्राम्हण समाज तक इस बात को सीमित करने के लिए मुसाफिरजी क्षमा, आप इसे उन सभी वर्गो के लिए मानिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा। 11. मैंने दूसरी और तीसरी बार भी जवाब पढ़ा लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं हुआ। कृप्या मुसाफिरजी विस्तार से लीखिए। (स्त्रोत: http://ashishanshu.blogspot.com/2011/08/blog-post.हटमल ) -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From filmashish at gmail.com Tue Aug 30 12:32:00 2011 From: filmashish at gmail.com (ashish k singh) Date: Tue, 30 Aug 2011 12:32:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= NDFS Update Message-ID: Hi, Pl visit http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/ 1. Screening of 'Dil Ki Basti Mein' Dil Ki Basti Mein is a film made by renowned documentary filmmaker Anwar Jamal. This film captures Shahjahanabad, a vibrant city caught between the past and the present, between decay and renewal, between hope and despair, between tradition and modernity. & 2.*A rare photograph of* *K Asif* on the sets of Sheesh Mahal (Film: Mughal E Azam) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mitulmalik at gmail.com Tue Aug 30 15:24:03 2011 From: mitulmalik at gmail.com (Mitul Malik) Date: Tue, 30 Aug 2011 15:24:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSw4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KS34KSj?= Message-ID: अंशु भाई, मुझे लगभग हैरानी हो रही है कि आरक्षण को लेकर बहस के निर्देशांक आज भी बीस -बाईस साल पहले वाले दिख रहे हैं. आठवें दशक के आखरी वर्षों में जब वीपी सिंह की सरकार ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण के दायरे में लाने का फैसला किया था तब भी कुछ इसी तरह का हल्ला हुआ था. लेकिन मैं इस सुकून में बैठा था कि अगर उस समय के युवा, जो अब अधेढ़ से होने लगे हैं, तो इस बीच नई पीढ़ी आ गई होगी . और वह इस मसले पर शायद अलग ढंग से सोच रही होगी. पर वि चित्र किन्तु सत्य की तर्ज़ पर विमर्श के नुक्ते और कोण उतने ही पुराने लग रहे हैं. उस दौर में भी लोगों को लग रहा था कि पिछड़ों को आरक्षण मिलते ही ये समाज छिन्न - भिन्न हो जायेगा, देश में अराजकता फ़ैल जाएगी. थोड़े दिनों के लिए ऐसा हुआ भी . लेकिन फिर सब कुछ इतना सामान्य हो गया कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं था . जाहिर है कि जो युवा आरक्षण विरोध आन्दोलन के केंद्रमें थे, उन्हें कोई और काम मिल गया होगा. फिर शादी ब्याह कर लिया होगा और दुनियादार बनकर जीने लगे होंगे. गरज ये कि उस समय जमीन आसमान एक कर देने वाले नेतृत्व को जैसे ही कोई और कम मिल गया तो वे शांत हो गए. तनी हुई मुट्ठियाँ दुनियादार आदमी की तरह छाती पर बंध गईं. ये जो मैं थोडा भटकते और अटकते हुए बात कर रहा हूँ इसके पीछे एक मकसद है. किसी सामाजिक-राजनीतिक उभार का कई बार बनी बनाई परिपाटी, उधार के तर्कों, जल्द बाजी में पकाए गए तथ्यों के आधार पर विश्लेषण कर दिया जाता है और पूरे मुद्दे की ठीक इसी नुक्ते पर इतिश्री हो जाती है. मित्रों, ऐसा शायद इसलिए होता है कि जो सिर्फ अपने स्वार्थ/हित के लिए किसी आन्दोलन में शामिल होता/ है वह बहुत दूर तक नहीं जा सकता. जैसे ही उसे लगता है कि अब वह कही फंस जाएगा और उसे फौरी प्रतिक्रिया या विरोध के बाद कुछ गहरे सवालों और बुनियादी संरचनाओं से उलझाना पड़ेगा तो वह भाग खड़ा होता है. जिन लोगों को आज भी लगता है कि आरक्षण ने ही इस देश का बेडा गर्क किया है, उनसे यह पूछने का मन होता है खुद उन्होंने और उनके माता-पिता-सगे सम्बन्धियों ने इस देश और समाज को मानवीय बनाने के लिए क्या किया है. फ़र्ज़ करें कि अगर आरक्षण का प्रावधान ख़त्म कर दिया जाए तो क्या सभी का जीवन सुखी हो जायेगा? क्या आरक्षण का विरोध करने वाले गरीब/वंचित और कुत्ते का जीवन जीते लोगों की मिजाजपुर्सी के लिए घर घर जाने लगेंगे? क्या आरक्षण नीति से पीड़ित लोगों ने कभी गहरी पीड़ा के साथ खुद या किसी और से ये सवाल किया है कि अपने जैसे हाथ--पैर वाले लोगों को कैसे हीन और नीचमान लिया गया? और क्या कभी उन्होंने यह सोचने की कोशिश भी की कि किसी व्यक्ति को दूषित/नीच/ हीन/बेवकूफ/मतिहीन/ मानने का उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ता है? कि कैसे समाज कि कुछ जातियों का यह श्रेष्ठता बोध अन्य लोगों को एक अंतहीन नरक में झोंक देता है? मित्रों, मैं यहाँ राजनीतिक या आर्थिक तर्क की बात नहीं कर रहा हूँ. मैं उस भयावह अमानवीयता की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिसे जाति की व्यवस्था ने कमजोरों के लिए नियति बना दिया है. सच बात ये है कि अगर हम इस पूरे विमर्श को मानवीय गरिमा के जाविये से देखें तो आरक्षण के मुद्दे पर बात करने के लिए कोई दलील तक नहीं मिलेगी. मतलब ये कि आरक्षण के विरोधियों को सिर्फ यही दिख रहा है उनका हक दलित या पिछड़े मार रहे हैं जबकि उन्हें इस देश की राज्यसत्ता ये सवाल पूछना चाहिए कि धन-धान्य से भरपूर इस देश में सब लोग स्वस्थ और सुखी कैसे नहीं हो सकते. जाहिर इसके लिए हमें अपनी मांग और ऊंची करनी होगी. हमें खुद से और संस्कृति की महानता का गुणगान करने वाले हर व्यक्ति से सवाल करना होगा कि आखिर इतनी घटिया और मनुष्य-विरोधी समाज व्यवस्था को अब तक क्यों स्वीकार किया जाता रहा है. वैसे योग्यता का बखान करने वालों से जायज गुस्से के साथ ये भी पूछा जा सकता है कि अगर आपके वे कल्पित लोग इतने ही 'योग्य" थे/रहे हैं तो ये देश गरीबी और जहालत में इतना अव्वल कैसे है? ये इसलिए पूछा जा रहा है कि उपलब्ध दस्तावेजों और साक्ष्यों के अनुसार इस देश और समाज की निर्णायक सत्ता अभी तक उन्हीं के हाथों में रही है जिनके बारे में कहा जाता है कि वे आरक्षण से नहीं बल्कि अपनी 'योग्यता' के बूते व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचे हैं. अंत में एक और निवेदन: मैं आज तक इस सामाजिक समीकरण को नहीं समझ पाया कि जो आरक्षण का विरोध करता है वह दलितों का विरोधी भी होता है और आमतौर पर मुसलामानों के भी खिलाफ रहता है, वह अपने देश को विश्वगुरु भी मानता है लेकिन अमेरिका में बसने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता. हस्बे-मामूल ये कि आरक्षण विरोधी किसी और को भी इंसान मानते हों तो कृपया बताएं कि इस देश को कैसे दुरुस्त किया जाय. साथ ही वे यह भी बताएं कि उनके अलावा और लोगों को किस तरह जीना चाहिए कि उनकी भावनाएं आहत न हों... संवाद का माहौल बना तो बात जारी रहेगी. मितुल मालिक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Aug 30 17:36:42 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Tue, 30 Aug 2011 05:06:42 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 258, Issue 5 In-Reply-To: References: Message-ID: मितुल मालिक साहब, आपका जवाब पढ़ के मुझे संदेह होता है कि आपने मेरे मेल को पूरा पढ़ने में थोड़ी जल्दबाजी की है, कृपया एक बार फिर से पढ़ें... मुझे उसके बाद आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा. मानता हूँ मेल जरुरत से अधिक लम्बा था और कई जगह उबाऊ भी लेकिन ''टैग'' देखकर जवाब देना भी तो ठीक नहीं.... सादर आशीष -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Aug 30 18:02:44 2011 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 30 Aug 2011 18:02:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Kabir in Pakistan Message-ID: <4E5CD86C.6080309@sarai.net> kavivar Mohan Rana ne kal yeh bheja mujhe jo main Eid ka tohfa maankar aap sabko barha deta hun. Enjoy Kabir, Qawwali style! http://www.youtube.com/watch?v=Bd6albE1PiQ&feature=related ravikant From girindranath at gmail.com Tue Aug 30 18:10:46 2011 From: girindranath at gmail.com (Girindra Nath) Date: Tue, 30 Aug 2011 18:10:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Kabir_in_Pakistan?= In-Reply-To: <4E5CD86C.6080309@sarai.net> References: <4E5CD86C.6080309@sarai.net> Message-ID: जी कमाल का है। साथ में एक नजर इधर भी -http://www.kabirproject.org/ हो सकता है कई वाकिफ होंगे तो भी। यहां आपको मोहन राणा साब के दिए गए लिंक का विस्तार मिल सकता है। इसके अलावा कबीर प्रोजेक्ट की शबनम विरमानी को सुनने का जी करता है तो वो भी है - http://openspaceindia.org/index.php?option=com_hwdvideoshare&task=viewvideo&Itemid=193&video_id=41 देखिएगा। और चलते-चलते चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह.. शुक्रिया गिरीन्द्र http://anubhaw.blogspot.com/ On Tue, Aug 30, 2011 at 6:02 PM, Ravikant wrote: > kavivar Mohan Rana ne kal yeh bheja mujhe jo main Eid ka tohfa maankar aap > sabko barha deta hun. Enjoy Kabir, Qawwali style! > > > http://www.youtube.com/watch?**v=Bd6albE1PiQ&feature=related< > http://www.youtube.com/watch?**v=Bd6albE1PiQ&feature=related > > > > ravikant > ______________________________**_________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/**listinfo/deewan > -- regards Girindra Nath Jha www.anubhaw.blogspot.com 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Tue Aug 30 23:52:59 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Tue, 30 Aug 2011 23:52:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: शुक्रिया! आप के सवाल बहोत ही जायज़ और 'बेसिक' हैं. ईमानदारी से कहूं तो इन सवालों का कोई सपाट जवाब देने की हालत में कम से कम मैं तो बिल्कुल भी नहीं हूँ! हाँ, इतना जरूर कह सकता हूँ कि हर समाज में 'नैतिकता' और 'अनैतिकता' के कुछ न कुछ मान्य प्रतिमान तो जरुर होते हैं, और ये सामाजिक प्रतिमान अक्सर काल- सापेक्ष भी होते हैं. मेरा मतलब है कि समय के साथ इनमें बदलाव भी देखा जाता है. अब मौजूदा सन्दर्भ में, अगर भ्रस्टाचार विरोधी अन्ना मुहीम की अवश्यम्भावी विफलता को सिद्ध करने और भ्रस्टाचार की सामाजिकता पर रौशनी डालते हुए मेरे एक करीबी मित्र ने ऐसे ऑटो चालक का उदाहरण चुना जो एक तरफ तो खुद को अन्ना का समर्थक बता रहा था और साथ ही साथ उसे सवारी को मीटर के हिसाब से ले चलने पर भी एतराज था. तो वहीँ दूसरी तरफ, एक और दोस्त ने ऐसे ऑटो चालक का भी जिक्र किया जो पूरे आन्दोलन के दौरान अन्ना समर्थकों को मुफ्त में रामलीला मैदान पहुंचा रहा था ! मुझे लगता है की इस तरह के परस्पर विरोधी उदहारण ढेरों खोजे जा सकते हैं. वैसे इस बात का तो खुद मैं गवाह हूँ कि, अन्ना का अनशन ख़त्म होने के बाद, वहां उपस्थित सभी लोगों से यह शपथ लेने का आह्वाहन मंच से किया गया कि 'वे आजीवन न तो कभी रिश्वत देंगे, और न कभी रिश्वत लेंगे!'. मालूम नहीं कितने समर्थक उस प्रण को याद रखेंगे और इसका पालन शब्दशः करेंगे ? हाँ अगर उनमें से १% लोग भी ऐसा करते हैं तो कम से कम मैं इसे अन्ना मुहीम की एक बड़ी उपलब्धि मानूंगा. आखिरी बात, आप ने भ्रस्टाचार के जो उदहारण दिए हैं वो बेशक बड़े मानीखेज़ हैं, हालाँकि, इसके बारे में, अभी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए, मैं सिर्फ वही आप्त वचन दोहराऊंगा कि : 'यथा राजा तथा प्रजा!!'. अब जरा ये सोचिये कि कानून व्यवस्था या प्रशाशन के सञ्चालन की जिम्मेवारी जिन लोगों पर हमने दे रखी है अगर वो मंत्री और अफसर का नाम लेने और हवाला देने के बाद भी रिश्वत लेकर रेड लाइट जम्प करने वालों को नहीं छोड़ते तो मजाल है कि कोई ऐसा कर के बरी हो जाये. रहा सवाल छात्रों के बिना टिकेट लिए बस से रामलीला मैदान जाने का तो मुझे लगता है यह गलत है और सब छात्रों को मुफ्त यात्रा का 'बस-पास' मुहैया कराने की जिम्मेवारी राज्य की बनती है, जिससे आगे से किसी लोकतान्त्रिक धरने- प्रदर्शन में शिरकत को जाते हुए उन्हें ऐसा घोर नैतिक अपराध करने की जरुरत न पड़े. घबराइए नहीं अगर ऐसा हुआ है तो किरण बेदी के शो की सच्चाई भी जल्दी ही उसी तरह से सामने आयेगी जैसे अमर सिंह ने शांति भूषण की सी. डी. सामने ला कर रख दी थी. वैसे इस बारे में मुझे ये भी लगता है कि अगर भ्रस्टाचार के खिलाफ हमारे समाज में वाकई कोई जनमत बन रहा है तो बहोत मुमकीन है कि लोग खुद ऐसे शो में जाने के लिए 'मेहनताना' नहीं मांगेंगे. अरे हुज़ूर, मेंदंता तो छोडिये मैं कहता हूँ एम्स और सफदरजंग सहित दूसरे तमाम सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था ही थोड़ी से बेहतर हो जाये तो गरीब इलाज के नाम पर नीम हकीमों के हाँथों बेमौत मरने से तो निजात पाए. - Hide quoted text - 2011/8/30 bhawna ghughtyal अन्ना ने देश कि जनता को मुतासिर किया है इसमें कोई दो राय नहीं है पर भ्रष्टाचार विरोधी जुलुस मन शामिल होने वाले लोगों कि दिनचर्या को को गौर से देखें तो कदम दर कदम इससे साबका पड़ता है...हमारे लिए भ्रष्टाचार अपना काम निकलवाने के लिए दी गयी और ली गयी कीमत मात्र है...रेड लाइट जम्प करते समय...चालान काटने पर मंत्री पुलिसिया महकमे के आला अफसर का नाम लेकर बच निकलने कि कोशिशें क्या भ्रष्ट आचरण के दायरे में नहीं आनी चाहिए... कॉलेज की कक्षाएं बंक कने वाले स्कूल कॉलेज के स्टुडेंट क्या बस में स्टाफ चलाते हुए रामलीला मैदान पर नही पहुँच रहे हैं...किरण बेदी के टीवी शो आप की कचहरी के लिए आने वाले दावेदारों को कितना मेहनताना दिया गया ताकि टीवी पर हंगामा खड़ा हो सके ...इसकी पड़ताल कौन करेगा...मेडिसिटी में अन्ना का ईलाज तो कॉम्प्लीमेंट्री बेसिस पर हो जायेगा पर उस जैसे सुपर स्पेसिअलिटी अस्पतालों में कितने गरीब लोगों की पहुँच हो ...इसकी सुनिश्चितता कौन करे. ...k -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Aug 31 16:01:25 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 31 Aug 2011 16:01:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSY?= =?utf-8?b?4KS+4KSfIOCkqOCkueClgOCkgiwg4KSF4KSsIOCkuOClgOCkp+ClgCA=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KS1IOCknOCkvuCkj+CkguCkl+ClhyDgpIXgpKjgpY0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+?= Message-ID: *इस अनशन का रहस्य* * * संसद में लालू प्रसाद यादव ने पूछा कि अन्ना केवल पानी पीकर 12 दिनों तक कैसे रह गए। इस रहस्य की जांच होनी चाहिए। सचमुच यह रहस्य है जिसे डॉ. सत्यदेव शर्मा जानते हैं। अन्ना हजारे अनशन के दौरान उन्हीं के नुस्खे और सलाह पर थे। उपवास भी वैसे ही तोड़ा जैसी सलाह डॉ. शर्मा ने दी थी। हालांकि, अन्ना के अनशन तोड़ते वक्त डॉ. शर्मा अमेरिका में थे। लेकिन यहां रणसिंह आर्य उनकी भूमिका में थे। रणसिंह आर्य डॉ. शर्मा के नुस्खे पर प्रयोग कर चुके हैं। इसलिए वे निजी अनुभव के साथ मेदांता अस्पताल में मौजूद थे। यहीं अन्ना ने अनशन के बाद पहली बार 30 अगस्त को अन्न ग्रहण किया। उन्होंने मूंग की दाल खाई। इस काम में डॉ. त्रेहन की टीम उनका सहयोग कर रही थी। उन्हें यही दिशा निर्देश था। लोग यह भी पूछ रहे हैं कि अन्ना मेदांता ही क्यों गए। जवाब सीधा है। वह यह कि डॉ. त्रेहन से उनका पुराना परिचय है। अब यहां से अन्ना हजारे सीधे अपने गांव रालेगण सिद्धि जाएंगे। फिलहाल वे कुछ दिन आराम करना चाहते हैं। दूसरी तरफ अन्ना की टीम का मंथन जारी है। वह यह समझ रही है कि इस आंदोलन में एक प्रोग्राम तो था पर विचार का अभाव था। वे इस खोज में लगे हैं कि आगे की लड़ाई की विधि क्या हो। साथ ही किस रास्ते और धारा पर आगे का सफर तय किया जाए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Tue Aug 30 23:45:07 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Tue, 30 Aug 2011 23:45:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkuOCkqOCkpiDgpLDgpLngpYc=?= In-Reply-To: References: Message-ID: शुक्रिया! आप के सवाल बहोत ही जायज़ और 'बेसिक' हैं. ईमानदारी से कहूं तो इन सवालों का कोई सपाट जवाब देने की हालत में कम से कम मैं तो बिल्कुल भी नहीं हूँ! हाँ, इतना जरूर कह सकता हूँ कि हर समाज में 'नैतिकता' और 'अनैतिकता' के कुछ न कुछ मान्य प्रतिमान तो जरुर होते हैं, और ये सामाजिक प्रतिमान अक्सर काल- सापेक्ष भी होते हैं. मेरा मतलब है कि समय के साथ इनमें बदलाव भी देखा जाता है. अब मौजूदा सन्दर्भ में, अगर भ्रस्टाचार विरोधी अन्ना मुहीम की अवश्यम्भावी विफलता को सिद्ध करने और भ्रस्टाचार की सामाजिकता पर रौशनी डालते हुए मेरे एक करीबी मित्र ने ऐसे ऑटो चालक का उदाहरण चुना जो एक तरफ तो खुद को अन्ना का समर्थक बता रहा था और साथ ही साथ उसे सवारी को मीटर के हिसाब से ले चलने पर भी एतराज था. तो वहीँ दूसरी तरफ, एक और दोस्त ने ऐसे ऑटो चालक का भी जिक्र किया जो पूरे आन्दोलन के दौरान अन्ना समर्थकों को मुफ्त में रामलीला मैदान पहुंचा रहा था ! मुझे लगता है की इस तरह के परस्पर विरोधी उदहारण ढेरों खोजे जा सकते हैं. वैसे इस बात का तो खुद मैं गवाह हूँ कि, अन्ना का अनशन ख़त्म होने के बाद, वहां उपस्थित सभी लोगों से यह शपथ लेने का आह्वाहन मंच से किया गया कि 'वे आजीवन न तो कभी रिश्वत देंगे, और न कभी रिश्वत लेंगे!'. मालूम नहीं कितने समर्थक उस प्रण को याद रखेंगे और इसका पालन शब्दशः करेंगे ? हाँ अगर उनमें से १% लोग भी ऐसा करते हैं तो कम से कम मैं इसे अन्ना मुहीम की एक बड़ी उपलब्धि मानूंगा. आखिरी बात, आप ने भ्रस्टाचार के जो उदहारण दिए हैं वो बेशक बड़े मानीखेज़ हैं, हालाँकि, इसके बारे में, अभी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए, मैं सिर्फ वही आप्त वचन दोहराऊंगा कि : 'यथा राजा तथा प्रजा!!'. अब जरा ये सोचिये कि कानून व्यवस्था या प्रशाशन के सञ्चालन की जिम्मेवारी जिन लोगों पर हमने दे रखी है अगर वो मंत्री और अफसर का नाम लेने और हवाला देने के बाद भी रिश्वत लेकर रेड लाइट जम्प करने वालों को नहीं छोड़ते तो मजाल है कि कोई ऐसा कर के बरी हो जाये. रहा सवाल छात्रों के बिना टिकेट लिए बस से रामलीला मैदान जाने का तो मुझे लगता है यह गलत है और सब छात्रों को मुफ्त यात्रा का 'बस-पास' मुहैया कराने की जिम्मेवारी राज्य की बनती है, जिससे आगे से किसी लोकतान्त्रिक धरने- प्रदर्शन में शिरकत को जाते हुए उन्हें ऐसा घोर नैतिक अपराध करने की जरुरत न पड़े. घबराइए नहीं अगर ऐसा हुआ है तो किरण बेदी के शो की सच्चाई भी जल्दी ही उसी तरह से सामने आयेगी जैसे अमर सिंह ने शांति भूषण की सी. डी. सामने ला कर रख दी थी. वैसे इस बारे में मुझे ये भी लगता है कि अगर भ्रस्टाचार के खिलाफ हमारे समाज में वाकई कोई जनमत बन रहा है तो बहोत मुमकीन है कि लोग खुद ऐसे शो में जाने के लिए 'मेहनताना' नहीं मांगेंगे. अरे हुज़ूर, मेंदंता तो छोडिये मैं कहता हूँ एम्स और सफदरजंग सहित दूसरे तमाम सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था ही थोड़ी से बेहतर हो जाये तो गरीब इलाज के नाम पर नीम हकीमों के हाँथों बेमौत मरने से तो निजात पाए. 2011/8/30 bhawna ghughtyal > अन्ना ने देश कि जनता को मुतासिर किया है इसमें कोई दो राय नहीं है पर > भ्रष्टाचार विरोधी जुलुस मन शामिल होने वाले लोगों कि दिनचर्या को को गौर से > देखें तो कदम दर कदम इससे साबका पड़ता है...हमारे लिए भ्रष्टाचार अपना काम > निकलवाने के लिए दी गयी और ली गयी कीमत मात्र है...रेड लाइट जम्प करते > समय...चालान काटने पर मंत्री पुलिसिया महकमे के आला अफसर का नाम लेकर बच निकलने > कि कोशिशें क्या भ्रष्ट आचरण के दायरे में नहीं आनी चाहिए... कॉलेज की कक्षाएं > बंक कने वाले स्कूल कॉलेज के स्टुडेंट क्या बस में स्टाफ चलाते हुए रामलीला > मैदान पर नही पहुँच रहे हैं...किरण बेदी के टीवी शो आप की कचहरी के लिए आने > वाले दावेदारों को कितना मेहनताना दिया गया ताकि टीवी पर हंगामा खड़ा हो सके > ...इसकी पड़ताल कौन करेगा...मेडिसिटी में अन्ना का ईलाज तो कॉम्प्लीमेंट्री > बेसिस पर हो जायेगा पर उस जैसे सुपर स्पेसिअलिटी अस्पतालों में कितने गरीब > लोगों की पहुँच हो ...इसकी सुनिश्चितता कौन करे. > ...k > 2011/8/22 kamal mishra > >> >> >> 2011/8/22 kamal mishra >> >>> >>> राकेश जी, >>> मैं अन्ना नहीं हूँ, अन्नावादी भी नहीं हूँ, लेकिन स्वयं को इस भ्रस्ट >>> प्रशासनिक-राजनैतिक और सामाजिक तंत्र से संतप्त उस मध्यवर्गीय युवा समूह का >>> हिस्सा बेशक मानता हूँ जिसमें स्वाभाविक रूप से मौजूदा से बेहतर विकल्प की >>> तलाश और बदलाव की कुछ छटपटाहट बाकी है. अरुंधती राय सहित तमाम अति उत्साही >>> क्रांतिकारियों से अनेक मुद्दों पर सैद्धांतिक सहमती के बावजूद, राष्ट्र -राज्य >>> की संस्था और भारतीय समाज की मेरी खुद की समझ, जो निश्चित रूप से मेरे अपने >>> अतीत के वामपंथी- नक्सलवादी तजुर्बों और एक अत्यंत सीमित अध्ययन-अवलोकन से मिल >>> कर बनी है, मुझे इस बात को स्वीकारने में मदद करती है कि 'संघर्ष' के साथ- >>> साथ 'संवाद' से ही कोई सार्थक रास्ता या विकल्प निकल सकता है. कम से कम उस हद >>> तक जहाँ संवाद के सारे रास्ते बंद नहीं हो गए हैं. अगर आप मुझसे उस सार्थक >>> विकल्प का, जिसकी ओर मैं यहाँ इशारा भर कर रहा हूँ, खाका खींचने को कहेंगे तो >>> वह तो मौजूदा सन्दर्भ में मेरे लिए संभव नहीं है . हाँ, अन्ना और अन्नावादिओं >>> को लेकर आप की शंकाओं को मैं जरुर एक हद तक शेयर करता हूँ. ज्यादा क्या कहूं बस >>> थोड़ी सी प्रतीक्षा और कीजिये फिर पढ़िए: *'गांधीवाद के अन्ना संस्करण का एक >>> उत्तर पाठ' * >>> >>> 2011/8/21 Rakeshराकेश >>> >>>> मित्र कमल, >>>> >>>> मुमकिन है मेरी बात कायदे से संप्रेषित न हुई हो. सार्वजनिक जीवन का >>>> भ्रष्‍टाचार मेरे लिए भी समस्‍या है. पर व्‍यक्तिगत जीवन का भ्रष्‍टाचार उस पर >>>> भारी पड़ता है, मेरी नजर में. बाकी राजनीतिक जीवन के आचार विचार और भ्रष्‍टाचार >>>> जितने आपको तबाह करते हैं, ज्‍यादा नहीं तो कम से कम उतने मुझे भी कर रहे >>>> होंगे. पर हल मुझे अण्‍णा में तो नही दिख रहा फिलहाल. आगे की पंक्तियों से जो >>>> चिंताएं जतायी है आपने, जायज है. देखिएगा, उनसे मुक्‍त होने का रास्‍ता किधर से >>>> निकलता है. विचार कीजिएगा. >>>> >>>> >>>> >>>> >>>> 2011/8/21 kamal mishra >>>> >>>>> राकेश भाई, >>>>> बुनियादी तौर से तो हालाँकि मैं भी यही कहना चाहता था कि *घर को सजाने का >>>>> तसव्वुर तो बाद का है, पहले ये तो तय हो की घर को बचाएं कैसे* ! मगर आप >>>>> की प्रतिक्रिया के कुछ पहलुओं को नज़रंदाज़ कर के कम से कम मैं आप को काजी >>>>> होने की सनद नहीं दे पाउंगा. इसकी एक वजह तो ये है की आप की अपनी प्रतिक्रिया >>>>> में कुछ विरोधाभास सा है. एक तरफ तो आप यह मानते हैं की सार्वजनिक जीवन में >>>>> भ्रस्टाचार बड़ी समस्या नहीं है. जिस पर मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है सिवाय >>>>> इसके की सार्वजनिक जीवन में भ्रस्टाचार की जैसी एक से बाद कर एक मिसालें दरपेश >>>>> हैं उनकी तरफ से मुहं मोड़ कर हम और आप भला कहाँ जायेंगे और कौन सी समझदारी >>>>> विकसित करेंगे ? >>>>> >>>>> परस्पर लाभ पहुँचाने वाली जिस व्यवस्था को आप एक दूजे को हाजी-काजी घोषित >>>>> करने के तौर पर और एक ज्यादा बड़ा खतरा गिन रहे हैं वो भी तो दरअसल अब उसी >>>>> भ्रस्ट सामाजिक-राजनैतिक सांचे का एक अनिवार्य अंग बन गयी है. तो अन्ना और उनके >>>>> साथियों की चड्ढी कितनी साफ़ है या कब तक साफ़ रहेगी ये तो भगवान ही जाने लेकिन >>>>> नारायण दत्त तिवारी जैसे तपे हुए कांग्रेसी गाँधीवादियों की शुचिता और मूल्यबोध >>>>> का तमाशा तो उम्मीद है आप इतनी जल्दी नहीं ही भूले होंगे! यों तो उदारीकरण के >>>>> मौजूदा दौर में साँस भरते हुए यौन शुचिता व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कोई मतलब >>>>> नहीं रखती लेकिन, सच या झूठ (?), सुनता हूँ की आज भी वही भूतपूर्व राज्यपाल खुद >>>>> को स्वतंत्रता आन्दोलन के ही दिनों से गाँधी बाबा का सिपाही और न जाने क्या >>>>> क्या होने का दावा किया करते हैं! अब इस बात की तस्कीद तो कोई जानकार ही करे की >>>>> वाकई डॉ तिवारी गाँधी जी के अनुयायी और असल वारिस हैं भी या नहीं. हाँ ये सवाल >>>>> जरुर पेशतर है की इस देश की पिछली पीढ़ी, आम जन मानस, और भावी नेतृत्व भला >>>>> *उस *गाँधीवादी विरासत से क्या प्रेरणा ले जिसके प्रतिनिधि चरित्रों >>>>> में डॉ नारायण दत्त तिवारी जी भी शुमार किये जाते हैं? इसी तरह जिस समाज में >>>>> एक बड़ी आबादी के लिए न्यूनतम आमदनी २० रुपये रोजाना घोषित हो, और बुनियादी >>>>> सुविधाओं के आभाव में उनका जीना हलकान हो, वहां प्रमुख विपक्षी पार्टी (भाजपा) >>>>> के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी जी के बेटे की शादी की चमक से अगर आप की >>>>> आँखों को तकलीफ नहीं हुई तो यह कहते हुए कम से कम मैं जरा भी संकोच नहीं करूँगा >>>>> की अब मुझे आप के इस नजरिये से भी तकलीफ है! >>>>> >>>>> चलिए थोड़ी देर के लिए ही सही मैं अपनी निजी और एक उच्च जातीय- मध्य >>>>> वर्गीय व्यथा को भूल जाता हूँ. और अब हम इस संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में >>>>> हजारों सालों से उत्पीडित दलित जातिओं को मुख्य धारा में ले आने के लिए तैयार >>>>> किये गए *स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान* - जिसके तहत कुल योजनागत बजट के १६% >>>>> राशि के सीधे आवंटन का प्रावधान पिछले बीसियों सालों से है- पर ही बात करते >>>>> हैं . जरा बताईये की कौन सा ऐसा राज्य है और कौन सी ऐसी सरकार है जो इस >>>>> संवैधानिक नीति निर्देश का ठीक ठीक पालन कर दलितों के हितो की अनदेखी नहीं कर >>>>> रहा है? जवाब पाएंगे शायद एक भी नहीं. तब योजना का लाभ जरुरत मंद तक पहुंचे वो >>>>> तो बाद की बात है भ्रस्टाचार की गिद्धदृष्टि तो उस वास्तविक मद में पैसा भी >>>>> जाने नहीं दे रही है ! >>>>> जिन्हें आदिवासिओं की हालत क्या है ये देखना हो वो जरा ओड़िसा या मध्य >>>>> प्रदेश ही हो आएं . मैंने तो उस इलाके के गाँव में, जहाँ राहुल बाबा फोटो >>>>> खिचाने के बाद ये घोषणा कर आये थे की वो दिल्ली में उन्हीं आदिवासिओं के सिपाही >>>>> हैं, यही पाया की गावं के बाहर खड़ा बोर्ड (अंग्रेजी में ) भले ही ' राजीव >>>>> गाँधी ग्रामीण विधुतीकरण परियोजना' के तहत सम्पूर्ण ग्राम के बिजली सुविधा से >>>>> जुड़े होने का दावा करे लेकिन हकीकत में उन आदिवासी गावों में बिजली तो दूर >>>>> बिजली के खम्भे तक नहीं लगे हैं. भूख, बीमारी और लाचारी उनकी किस्मत बन गयी है >>>>> और माफिया उनके जंगलों और जमीन पर कैसी नजरे गाडे है ये क्या किसी से छुपा है >>>>> ? अल्पसंख्यकों की ही बात उठा लीजिये, सच्चर कमिटी की अनुशंसा का क्या नतीजा >>>>> हुआ जरा बताईये ? कौन सा देव- दानव उसे निगल गया? साम्प्र्दैक शक्तिओं से छाया >>>>> युद्ध लड़ने वालों से आप उम्मीद करेंगे की वो रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू >>>>> करेंगे ? नहीं जनाब हालत वाकई गंभीर हैं. >>>>> >>>>> और ये सब देख समझ कर ही मैं दीवानों के बीच ये कहने का हौसला जुटा पाया >>>>> हूँ की अगर किसी मुहीम, किसी कानून, किसी पहल कदमी से इस डराने वाली जमीनी >>>>> हकीकत में सार्थक बदलाव की एक रत्ती भी गुंजाईश बनती हो तो कम से कम मैं उस >>>>> बदलाव के पक्ष में हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ की आप इतना तो जरुर समझ रहे होंगे >>>>> की मुहीम की रौ में बह कर अन्ना या उनके जन लोक पाल का समर्थन कम से कम मैं >>>>> नहीं कर रहा हूँ. लेकिन मेरी ये स्पष्ट समझ बनी है की भ्रस्टाचार का सवाल मौजूं >>>>> है क्योंकि ये अचानक किसी शून्य से नहीं उभरा है. और दुहराव का खतरा उठा कर भी >>>>> मैं फिर से यह कहना चाहता हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा >>>>> अपना समाज और हमारी यह संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल >>>>> वजह संसदीय व्यवस्था की आड़ में चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की >>>>> समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और >>>>> जवाबदेह प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>>>> >>>>> रहा सवाल मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाते हाथ-पैर >>>>> छितराते, तिरंगा भांजते सड़कों पर दौड़ रहे युवाओं का तो मैं विशेष क्या कहूं >>>>> पोलिस के अपने रिकॉर्ड यह साबित करने को पर्याप्त हैं की अन्ना की भ्रस्टाचार >>>>> विरोधी मुहीम के असर में आई दिल्ली में अपराधिक वारदातों की दरों में लगभग ३५% >>>>> की गिरावट दर्ज हुई है (श्रोत : आन्दोलन ने थामी अपराध की रफ़्तार, *हिंदुस्तान >>>>> , *१९ अगस्त २०११, पेज ०४ ). >>>>> >>>>> अगर ग्रहों की विपरीत गति के प्रभाव में कुछ अन्यथा कह गया हूँ तो माफ़ी का >>>>> तलबगार >>>>> कमल >>>>> >>>>> >>>>> >>>>> 2011/8/21 Rakeshराकेश >>>>> >>>>>> कमल बाबू, >>>>>> >>>>>> ठीक ठाक कहा आपने. आपकी राय से सहमत होने में हर्ज भी नहीं. हाथ रहे या >>>>>> कमल खिल जाए, इसकी भी खास चिंता नहीं. अब्‍बल तो चिंता किसी बात की ही नहीं. >>>>>> बस, अर्ज ये करना है कि सब अन्‍ना के कुर्ते की तरह साफ है, संदेहजनक है. >>>>>> हालांकि आप शायद ये कह भी नहीं रहे हैं. लेकिन, चौतरफा तो सुनने में यही आ रहा >>>>>> है. >>>>>> चीफ जस्टिस और पीएम को भी ले आएं इस जन लोकपाल के दायरे में तो खाक पा >>>>>> लेंगे. इतना बड़ा संविधान, धारा और अनुच्‍छेदों की गिनती जानकार लोगों को है >>>>>> ही, के रहते भी न कुछ हिला पाए तब अब क्‍या रोप लेंगे. >>>>>> मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना ... मोटर साइकिल पर मौजूदा कानून व्‍यवस्‍था >>>>>> की धज्जियां उड़ाते लौंडे जब हाथ-पैर छितराते, तिरंगा भांजते दौड़ रहे हैं >>>>>> सड़कों पर, तो थोड़ा अंदाजा तो लग ही जाता है कि कैसे-कैसे अन्‍ना और कैसा >>>>>> भ्रष्‍टाचार उन्‍मूलन! खूब हुले हुले चल रहा है. कहने वाले कहते हैं कि इतने >>>>>> बड़े जनसैलाब में कुछ ये भी होता है, अपवाद मान लिया जाए. मान लिया गुरु अपवाद >>>>>> भी. पर ये नहीं हजम हो रहा कि देश की सबसे बड़ी समस्‍या भ्रष्‍ट-अचार ही है. >>>>>> व्‍यक्तिगत अचारो की भ्रष्‍टता की सफाई के लिए क्‍या होगा? मालूम नहीं, ये >>>>>> दिक्‍कत है भी या नहीं अन्‍नावादियों के लिए. अगर है, तो इसको दुरुस्‍त करने >>>>>> के लिए कौन सा नुस्‍खा अपनाया जाएगा, इस पर कोई ज्ञान उड़ेल दे, हम भी लाभ ले >>>>>> लें. >>>>>> यहां, तो चारो ओर तुम हमें काजी कहो, हम तुम्‍हें हाजी कहते हैं - के >>>>>> तर्ज पर धंधाबाजी हो रही है. पैसे के हेरफेर वाले भ्रष्‍टाचार से ज्‍यादा >>>>>> खतरनाक भ्रष्‍ट-अचार मेरे हिसाब से ये हाजी-काजी वाला है. नजर दौड़ाइए, आपके >>>>>> आसपास भी शायद ऐसा हो रहा होगा. बताइए, नुकसान कौन पहुंचा रहा है ज्‍यादा? >>>>>> भविष्‍य निधि अस समस्‍या की सच्‍चाई और गंभीरता को मानता हुए भी यह कहने की >>>>>> हिमाकत कर रहा हूं. >>>>>> जनता के सड़क पर उतरने की जितनी भी वजहें आपने गिनाई है, उसमें कुछ और >>>>>> जोड़ लीजिए, मेरे हिसाब से सारे ठीक हैं. यहां तो बुनियादी मतांतर है. कि पहले >>>>>> मकान ठीक कर लो, फिर देखना कि साज-सज्‍जा कैसी रखनी है. बस. >>>>>> >>>>>> दीवानों को सलाम, >>>>>> राकेश >>>>>> >>>>>> >>>>>> >>>>>> >>>>>> >>>>>> 2011/8/20 kamal mishra >>>>>> >>>>>>> * >>>>>>> पोस्ट की पृष्टभूमि : टिनटिन से परिचय * >>>>>>> दोस्तों, इस पोस्ट का श्रेय टिनटिन को जाता है, जिसने मुझे लिखने पर >>>>>>> मजबूर किया, और न चाहते हुए भी अंततः मैं ये पोस्ट आप सबों के रसास्वादन, टीका >>>>>>> टिप्पणी और विचारार्थ भेजने को कमर कसे बैठा हूँ. टिनटिन महाशय मेरे हमउम्र >>>>>>> पडोसी हैं, एक हद तक उनसे मेरा याराना है क्योंकि अक्सर अपनी बातूनी तबियत से >>>>>>> मजबूर हो कर वो हमारे यहाँ अपना और हमारा भी समय जाया करने चले आते हैं. साथ ही >>>>>>> साथ, पिछले कुछ दिनों से टिनटिन 'दीवान' के नियमित पाठक हैं और राजनीतिक मसलों >>>>>>> में अपनी राय जोतना इन दिनों का उनका प्रिय शगल है. वैसे टिनटिन महाशय नौकरशाह >>>>>>> बनने का सपना संजोये हैं और उसी दिशा में बीते कई सालों से पूरी गंभीरता से >>>>>>> प्रयासरत हैं. तो हुआ यूं कि मेरे कमरे में कल शाम अपने सहज स्वाभाविक (लेकिन >>>>>>> मेरे लिए त्रासद !) उत्साह के साथ टिनटिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल दाग कर चलते बने >>>>>>> और मैं उन सवालों की ज़द में उलझता चला गया. नतीजा, आप के सामने है.... >>>>>>> >>>>>>> *राजनैतिक रंगमंच की सरगर्मी और दीवान पर पसरी चुप्पी :* >>>>>>> टिनटिन ने कल शाम मेरा ध्यान सबसे पहले तो इस बात की तरफ खिंचा कि >>>>>>> 'जनता' राजनैतिक रंगमंच पर अन्ना के साथ (या पीछे -पीछे ?) अपनी सक्रिय >>>>>>> उपस्थिति दर्ज कर रही है, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार का दम >>>>>>> फूल रहा है, मुख्यधारा मीडिया के लिए बेशक उत्सव का माहौल है, और ऐसी सरगर्मी >>>>>>> के आलम में, कम से कम इस मसले पर, जहाँ तक *दीवान* का सवाल है, चुप्पी >>>>>>> पसरी हुई है. अपनी बेबाकी में टिनटिन पहले तो दीवान के कुछ नियमित >>>>>>> चिट्ठाकारों को कोसते रहे, विशेष कर एक युवा साथी को जिसके लम्बे, विद्वतापूर्ण >>>>>>> और आत्मीय लेखों के वो शुरू से कायल और उत्साही प्रसंसक पाठक भी हैं. फिर कुछ >>>>>>> चढाने वाले अंदाज में जनाब मेरी तरफ मुड़े और धडाधड मेरी लेखकीय क्षमता और >>>>>>> प्रतिबद्धता पर कई सवाल खड़े कर दिए. टिनटिन महाशय जो अतीत के मेरे वामपंथी >>>>>>> (नक्सलवादी) रुझान से वाकिफ हैं का कहना है कि छात्र राजनीति के क्रन्तिकारी >>>>>>> दिनों में तो आप ने जनता (पढ़ें मध्यवर्ग) को समझौता परस्त कह खूब गलियां दीं >>>>>>> और अब जब वही जनता सड़कों पर निर्णायक लड़ाई के लिए निकल आई है तब आप बंद कमरे >>>>>>> में आध्यात्म और धर्म की गुत्थियाँ सुलझा रहे हैं ! कई मुद्दों पर पहले तो आप >>>>>>> भी दीवान पर ही और सीमित ही सही लेकिन अपनी विशेष राय पेलते आये हैं लेकिन देख >>>>>>> रहा हूँ कि इस मौके पर आप भी कुछ नहीं बोल रहे हैं, आखिर बात क्या है? मैंने भी >>>>>>> सर पर आई बला को टालने के ही मकसद से जवाब दिया: "हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता >>>>>>> है!". बहरहाल, बात बनी नहीं. कुछ इस वजह से भी कि मामला ज्यादा ही संजीदा है और >>>>>>> निश्चित तौर से चुप्पी की चादर में लपेट कर इसे किनारे नहीं किया जा सकता. >>>>>>> >>>>>>> *गम-ए-दौरां : अगस्त क्रांति, जन लोकपाल, और रामराज्य * >>>>>>> तो दोस्तों, बहोत पीछे न जाते हुए भी मैं याद करना चाहूँगा कि एक >>>>>>> लोकप्रिय ख़बरिया चैनेल ने भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल की मांग कर रहे हठी >>>>>>> गांधीवादी अन्ना हजारे को कांग्रेस सरकार द्वारा अनशन से रोकने के लिए कैद में >>>>>>> तिहाड़ भेजने और इस पूरी कारवाही की प्रतिक्रिया में सड़कों पर उतर आये जन सैलाब >>>>>>> को कैसे *अगस्त क्रांति* के जुमले से परिभाषित करने का प्रयास किया. >>>>>>> कुछ परवर्ती टीकाकारों ने अन्ना और इस लोकप्रिय मुहीम की तुलना जे. पी. और >>>>>>> उनके आन्दोलन से भी की है, साथ ही कांग्रेसी सरकार की इस लोकतंत्र विरोधी >>>>>>> कारवाही में आपातकाल का भी अक्स देखने-दिखाने की समझ उभरी है. कानून और >>>>>>> व्यवस्था बनाये रखने का तर्क दे कर जिस दमनात्मक कारवाही को शुरू में कांग्रेस >>>>>>> के रणनीतिकारों ने जायज ठहराने, या कहें गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने और >>>>>>> सत्याग्रह की समृद्ध विरासत को नकारने का प्रयास किया, उन्होंने अपनी >>>>>>> राजनैतिक दूरदर्शिता की कीमत अब रामलीला मैदान में मंच दे कर चुकाई है. कुल >>>>>>> मिला कर ये तो बहोत साफ़ है कि लोकपाल बिल को संसद में पेश करने के दावे के >>>>>>> बावजूद कांग्रेस सरकार अन्ना हजारे और उनके तमाम समर्थकों-प्रशंसकों को यह >>>>>>> भरोसा नहीं दिला पाई है कि सरकार की मंशा वाकई भ्रस्टाचार के खिलाफ कोई >>>>>>> निर्णायक पहल करने की है. इतना ही नहीं आरोप- प्रत्यारोपों की एक लम्बी >>>>>>> श्रृंखला भी इस भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम के साथ नथी है. तब वो चाहे दिग्विजय >>>>>>> सिंह की तरफ से पहले उठाया गया 'आर. एस. एस. की सह पर आन्दोलन' का आरोप हो, >>>>>>> अमर सिंह की तरफ से जारी शांतिभूषण का काला चिट्ठा हो, या हाल में ही एक दूसरे >>>>>>> कांग्रेसी प्रवक्ता द्वारा 'अमेरिका समर्थित' होने का बचकाना आरोप. बेशक ये >>>>>>> सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस लोकप्रिय मुहीम की जड़ वाकई कहाँ है? >>>>>>> लेकिन इस पर बाद में. फिलहाल, आप सभी दोस्तों की तरह मीडिया के जरिये पेशतर >>>>>>> बहुरंगी विचारों से मुठभेड़ करते हुए, मेरी अपनी अल्प बुद्धि में एक बात तो साफ़ >>>>>>> है और वो ये कि अन्ना और उनकी टीम का जन लोकपाल भ्रस्टाचार से मुकाबले में कोई >>>>>>> जादू की छड़ी शायद ही साबित हो ! इसी कड़ी में सांसद नवीन जिंदल का लिखा हुआ एक >>>>>>> ताजातरीन लेख भी कम रोचक नहीं है. पेशे से उद्योगपति और कांग्रेस सांसद जिंदल >>>>>>> महाशय का यह लेख (*लोकपाल - रामबाण दवा की खोज में*, *हिंदुस्तान , *२० >>>>>>> अगस्त २०११) यह बताता है कि कैसे दुनिया का कोई भी देश भ्रस्टाचार से पूर्णतः >>>>>>> मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता और भ्रस्टाचार से लड़ने के लिए हमें कम से कम >>>>>>> एक दशक तक निरंतर संघर्ष की आवश्यकता होगी. इन दिनों कांग्रेस सहित और भी कई >>>>>>> पार्टियों के नेता यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि अन्ना हजारे और उनकी टीम >>>>>>> द्वारा तैयार जन लोकपाल *रामबाण* नहीं है और न इससे *रामराज्य * आ सकता >>>>>>> है. खुद हजारे और उनकी टीम भी अब यह कह रही है कि बिल पास होने से ६०-६५ % तक >>>>>>> सफलता मिल सकती है. हाँ कुछ जानकर बुद्धिजीवी यह जरुर मान रहे हैं कि सिविल >>>>>>> सोसाइटी जनित इस प्रचंड लहर को अगर यहीं न रोका गया तो संसदीय व्यवस्था के >>>>>>> सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो जायेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतान्त्रिक >>>>>>> व्यवस्था आज उस दोराहे पर है जहाँ से एक रास्ता एकाधिकार तानाशाही की दिशा में >>>>>>> भी बढ़ता है. वैसे एक अवधारणा के रूप में 'रामराज्य' को समझना और समझाना बड़ा >>>>>>> मुश्किल काम है. सिर्फ इस लिए नहीं कि गाँधी जी से शुरू कर फासीवादी भारतीय >>>>>>> जनता पार्टी तक इस अवधारणा को धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाते रहे हैं बल्कि इस >>>>>>> लिए भी कि शाहिद अमीन जैसे इतिहासकारों की बदौलत उन अनगिनत छवियों का कुछ-कुछ >>>>>>> लेखा जोखा जिसे यह अकेला शब्द तमाम लोगो की जेहनियत पर उकेरता रहा है अब हमारे >>>>>>> पास है. बहरहाल, आज के सन्दर्भ में, कम से कम मुझे लगता है, और शायद आप भी इस >>>>>>> से एक हद तक सहमत होंगे कि रामराज्य के जुमले का इस तौर पर राजनैतिक इस्तेमाल >>>>>>> वो लोग कर रहे हैं जो यह मानते हैं की भ्रस्टाचार विरोधी मुहीम का राजनैतिक लाभ >>>>>>> सीधे भाजपा को मिलने जा रहा है. मुमकिन है कि भाजपा भी यही मान रही हो. लेकिन >>>>>>> अपने एक निजी दर्द को आप से साझा करते हुए मैं इस पोस्ट के जरिये यह कहना चाहता >>>>>>> हूँ कि भ्रस्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसा हमारा अपना समाज और हमारी यह >>>>>>> संसदीय व्यवस्था अगर आज पानी मांग रही है तो इसकी मूल वजह संसदीय व्यवस्था की >>>>>>> आड़ में चल रही चल रही लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की समाज में >>>>>>> लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह >>>>>>> प्रशासन की गैर मौजूदगी है. >>>>>>> *धार्मिक स्थल और वी. आई . पी. इंट्री - >>>>>>> *भारतीय समाज **की बुनियादी विशेषताओं पर टिप्पणी करते हुए हमारे मित्र >>>>>>> इतिहासकार संजय शर्मा एक बड़ा ही रोचक साक्ष्य पेश करते हैं. संजय हमारा ध्यान >>>>>>> इस बात की ओर ले जाते हैं कि कैसे मंदिरों में प्रवेश के लिए भी दो तरह कि >>>>>>> व्यवस्थाएं हमारे समाज में बदस्तूर जारी हैं. एक तरफ तो आम आदमी सामने के >>>>>>> दरवाजे से दाखिले की जुगाड़ में धक्कापेल करता है, वहीँ दूसरी तरफ विशिष्ठ >>>>>>> दर्शनार्थी के लिए वी आई पी गेट से इंट्री होती है. >>>>>>> इसी प्रसंग में श्री श्री रविशंकर की उस बात को छोड़ भी दें कि कैसे >>>>>>> हममे से ज्यादातर लोग इश्वर को भी चढ़ावे की रिश्वत नज़र कर अपना काम बनाना >>>>>>> चाहते है, क्योंकि मेरी सीमित समझ में ये तो मेरे और खुदा के बीच का मसला है और >>>>>>> किसी तीसरे को इस पर ऊँगली उठाने का हक तब तक नहीं है जब तक कि मैं दान की आड़ >>>>>>> में अपना काला धन सफ़ेद न कर रहा हूँ या कोई दूसरा समाज विरोधी उपक्रम. खैर वापस >>>>>>> मुद्दे पर आते हैं, कुल मिला कर भ्रस्टाचार की जडें हमारी समाजिक मानसिकता में >>>>>>> काफी गहरे तक पैठी हैं. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि मध्यवर्ग का एक हिस्सा >>>>>>> जिसके साथ अब तो कामगार (मसलन मुंबई के डब्बे वाले और रेलवे मजदूर यूनियान) और >>>>>>> किसान (भट्टा के, उदाहरण के तौर पर) भी जुड़ रहे हैं अन्ना या सिविल सोसाइटी >>>>>>> की अगुवाई में भ्रस्ट प्रशाशनिक-राजनैतिक ढांचे को सवाल के घेरे में ले आया है? >>>>>>> >>>>>>> *अगस्त क्रांति की जड़ों की तलाश में- >>>>>>> *एक खबर ये भी है कि कुछ लोगों ने अपने नवजात बच्चों का नाम अन्ना रख >>>>>>> दिया है. *मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना* का नारा तो वैसे भी शोर में >>>>>>> बदलता जा रहा है. हलाकि दलित बुद्धिजीविओं के एक समूह ने जन लोकपाल के >>>>>>> प्रस्ताव को 'मनुवादी' बताया है लेकिन मायावती समेत कई दूसरे धडों ने इसका खुला >>>>>>> समर्थन भी किया है. अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सड़कों पर भागीदारी की तस्वीरें >>>>>>> भी हैदराबाद और देश के दूसरे हिस्सों से मीडिया के जरिये लगातार आ रहीं हैं. >>>>>>> मेरी अपनी मकान मालकिन, जो एक अशिक्षित दलित महिला हैं, अपने पति से उन्हें >>>>>>> रामलीला मैदान ले जाने की बात कल मेरी उपस्थिति में ही कह रही थीं. पास पड़ोस के >>>>>>> कई ऐसे जाट जो पेशे से किरायाजीवी हैं और जिनके बारे में मैं दावे के साथ यह कह >>>>>>> सकता हूँ कि वे कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक समर्थक और आधार हैं भी >>>>>>> प्रतीकात्मक रूप से अन्ना के आन्दोलन के समर्थन में अपने घरों के बाहर तख्तियां >>>>>>> लटकाए हुए हैं. तब क्या यह लगातार बढ़ता समर्थन महज अन्ना हजारे की छवि के >>>>>>> चमत्कार के चलते है? टीम अन्ना की बेहतरीन प्रबंधन कुशलता का नतीजा है? उस टीम >>>>>>> द्वारा नयी तकनीकी के काबिलेगौर इस्तेमाल का परिणाम है ? हाल के कुछ >>>>>>> अंतररास्ट्रीय लोकतान्त्रिक आंदोलनों से प्रेरित है? मीडिया जनित है ? महंगाई >>>>>>> की मार से व्याकुल लोगो की कराह है ? मेहनतकश लोगों की कमाई लुटने का दर्द है? >>>>>>> बेरोजगार युवाओं का गुस्सा है ? महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध से उपजी हताशा और >>>>>>> नाराजगी से इसे खाद पानी मिल रहा है ? घोटालों से उपजी सहज प्रतिक्रिया है ? या >>>>>>> यह मुहीम इन सब और ऐसी ही दूसरी तमाम वजहों से ताकत हासिल कर रही है? >>>>>>> जिन्होंने भी लाल किले से प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना या पढ़ा होगा उन्हें याद >>>>>>> दिलाने की जरुरत नहीं है कि कैसे *अगस्त क्रांति *की आहट सुनते हुए और >>>>>>> हजारे का नाम लिए बगैर ही अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह जी ने >>>>>>> भ्रस्टाचार के मुद्दे पर काफी सारी बातें कही थीं. >>>>>>> * >>>>>>> गम ए ज़ाना और ग़ालिब : * >>>>>>> हुजूर आप भी कह रहे होंगे की चिट्ठाकार बहुत बड़ा चाट है! लेकिन मेरी >>>>>>> उलझन ये है कि रायता खूब फैल गया है और दीवान पर कोई भषण नहीं है!! तो आईये >>>>>>> लगे हाँथ आप को अपना एक छोटा सा निजी तजुर्बा भी सुनाये देता हूँ. महीनों तक >>>>>>> इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट नाम की एक मिशनरी संस्था में सुबह ९ से शाम के ५:३० >>>>>>> बजे तक गांड घिसाई के बाद बन्दे को ये ग़लतफ़हमी हो गयी कि कर्मचारी भविष्य निधि >>>>>>> खाते में जमा रकम तो है ही क्यों न थोडा चौड़े हो के रहा जाये. ऐंठन से मतलब >>>>>>> सिर्फ इतना ही कि पी. एच. डी. में दाखिले का सपना पूरा हो जाये. तो जनाब हमने >>>>>>> सारी गुणा गणित के बाद ये समझा कि प्रोविडेंट फोंड का वो पैसा, जो संसद से >>>>>>> पारित कानून के मुताबिक श्रम मंत्रालय के अधीन दफ्तर से जरुरी कागजात पहुँचने >>>>>>> के ४५ दिनों में रिलीज़ हो जाया चाहिए, आता ही होगा और कम से कम अपनी आगे की >>>>>>> पढाई जारी रखने के लिए हमें फीस की दिक्कत तो नहीं ही होगी. अच्छा, भला हो >>>>>>> इंस्टिट्यूट के खैरख्वाहों का कि उन्होंने सारी कागजी कारवाही पूरी कर दस्तावेज >>>>>>> समय से सरकारी दफ्तर भी भेज दिया. प्रोविडेंट फोंड दफ्तर की वेब साईट के हिसाब >>>>>>> से उन्होंने सारे कागजात दिनांक १३ अप्रैल को रिसिव भी कर लिए. लेकिन मजाल है >>>>>>> की आज की तारीख तक फाइल अपनी जगह से रत्ती भर भी आगे बढ़ी हो. अर्ज करना चाहता >>>>>>> हूँ कि चार महीने से ज्यादा हो गए, सारी अकड घुस गयी और अपनी मेहनत की कमाई के >>>>>>> पैसों का मिलना अब भी मुहाल हैं. तुर्रा ये की उसी दफ्तर के बड़े छोटे >>>>>>> अधिकारी घूस घोटाले में लिप्त होने की वजह से सी. बी. आई. जाँच के घेरे में भी >>>>>>> हैं. और यकीं न हो तो गूगल पर सिर्फ एक बार सर्च कीजिये और खुद देख लीजिये की >>>>>>> कितनी शिकायते उन हरामखोरों की बाकायदा अलग अलग पेजों पर दर्ज हैं. कितने >>>>>>> नौजवानों और बुजुर्गों की एडियाँ इसी दफ्तर के चक्कर काटते हुए घिस रहीं हैं. >>>>>>> जब हमने अपने एक मित्र को अपनी तकलीफ बताई तो उन ज्योतिषी मित्र ने पैसों से >>>>>>> मदद तो नहीं की लेकिन ये जरूर बताया की कैसे राहू के प्रभाव से और बृहस्पति की >>>>>>> विशेष दशा- स्थिति के चलते ऐसी देरी पेश आ रही है. हमने भी मरता क्या न करता >>>>>>> उनकी बात और उपचार को उतना ही महत्व दिया जितना दे सकते थे. तो मिसल मशहूर है >>>>>>> की *दूध का जला छांछ भी फूक के पीता है*! अब ये तो नहीं पता की >>>>>>> रामराज्य जन लोकपाल के जरिये ही आएगा, और मेरे देखते ही आएगा. लेकिन अगर कहीं >>>>>>> से आ ही जाये, और फर्ज कीजिये की भ्रस्टाचार में आकंठ डूबी भाजपा सत्ता पर >>>>>>> काबिज होने के बाद गलती से राम मंदिर बनवाने लग जाये, तो आप सब को आपके खुदा का >>>>>>> वास्ता इस पोस्ट की लाज रखते हुए उसी राम मंदिर के साथ एक ऐसा नव ग्रह मंदिर भी >>>>>>> बनाने की कोशिश जरुर करें जिसमें अन्दर जाने का कोई वी. आई. पी. गेट न हो! >>>>>>> >>>>>>> *योजना आयोग और कांग्रेस की शनिचरी राजनीति- >>>>>>> *जनाब, औरों की* *छोडिये अब तो योजना आयोग ने भी १२ वीं पंचवर्षीय >>>>>>> योजना का अपना एप्रोच पेपर जारी करते हुए सरकार को इस बात की हिदायत दे दी है >>>>>>> कि भ्रस्टाचार से मुकाबले के लिए 'मजबूत' और 'प्रभावी' लोकपाल बनाने कि जरुरत >>>>>>> है. लेकिन लकछन बता रहे हैं कि इस देश में भ्रस्टाचार को संस्थाबद्ध करने वाली >>>>>>> राजनैतिक पार्टी शनि महाराज के असर से संचालित हो रही है. दिलचस्प बात है की >>>>>>> राजनैतिक विश्लेषक प्रनोंजय गुहा ठाकुरता ने अपने एक वक्तव्य में पिछले दिनों >>>>>>> इसी बात की ओर इशारा भी किया कि कैसे सी. डब्लू. जी. और २ जी स्पेक्ट्रम >>>>>>> घोटालों के साथ ही, कर्णाटक में भ्रस्टाचार में डूबे येदुरप्पा की बर्खास्तगी, >>>>>>> और लेफ्ट प्रोग्रेससिवे ताकतों के हाशिये पर चले जाने से जो 'वैकुम' बना है उसी >>>>>>> 'स्पेस' को सिविल सोसाइटी की ये मुहीम भरने का काम कर रही है. मैं ठाकुरता के >>>>>>> उसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए ये अर्ज करना चाहता हूँ कि एक >>>>>>> माफिया-उद्योगपति-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ इस लोकप्रिय उफान की जड़े दरअसल >>>>>>> नेतृत्वकारी संस्थाओं की नाकामी में हैं: लोकतान्त्रिक या संसदीय व्यवस्था की >>>>>>> आड़ में चल रही भारी लूट खसोट, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की लोकतान्त्रिक >>>>>>> मूल्यों को समाज में स्थापित करने में एक सिरे से असफलता, और जवाबदेह प्रशासन >>>>>>> की गैर मौजूदगी में. अगर आप मुझसे हल पूछेंगे तो मैं तो फिलहाल बस यही कह सकता >>>>>>> हूँ कि *इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे गम की दवा करे कोई !* *!* >>>>>>> >>>>>>> दीवान के दोस्तों के नाम, >>>>>>> कमल मिश्रा की ओर से >>>>>>> >>>>>>> *उत्तर टीप:* टिनटिन को ऐसा विश्वास है कि अंततः तो राजनीति की मझी >>>>>>> पार्टी याने कांग्रेस ही इस पूरे प्रकरण से फायेदा उठाएगी और राहुल बाबा का >>>>>>> करिश्मा अभी पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर दे सकता है! >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> * * >>>>>>> >>>>>>> * *. >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> >>>>>>> _______________________________________________ >>>>>>> Deewan mailing list >>>>>>> Deewan at sarai.net >>>>>>> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>>>> >>>>>>> >>>>>> >>>>>> >>>>>> -- >>>>>> Rakesh Kumar Singh >>>>>> Media Consultant & Content Developer >>>>>> Delhi, India >>>>>> http://blog.sarai.net/users/rakesh/ >>>>>> http://haftawar.blogspot.com >>>>>> http://safarr.blogspot.com >>>>>> http://sarai.net >>>>>> http://sarokar.net >>>>>> >>>>>> Ph: +91 9811972872 >>>>>> >>>>>> ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' >>>>>> >>>>>> - पाश 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