From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 2 20:53:06 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 2 Apr 2011 07:23:06 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KSw4KSkIOCksuCkoeCkvOCkvuCkiCDgpJXgpL4g4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSv4KSV?= Message-ID: उमाशंकर तमिलनाडु के किसी राजनेता से कम लोकप्रिय नहीं हैं. राजनीति और अफशरशाही के गलियारे में लोग उनका नाम सम्मान से लेते हैं. वे इन दिनों तमिलनाडु के चुनाव में व्यस्त हैं. वे चुनाव नहीं लड़ रहे, उनके जिम्मे चुनाव कराना है. इस चुनाव का परिणाम चाहे जो भी आये लेकिन इतना तय है कि उमाशंकर के जीवन में हार-जीत का खेल चलता रहेगा. [image: umashankar-ias] भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई कभी आसान नहीं होती. यह बात उमाशंकर से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. तमिलनाडु के दलित आईएएस अधिकारी सी उमाशंकर पर जैसे भ्रष्टाचार से लड़ने का एक जुनून है और इस लड़ाई की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ती है. सत्ता के खिलाफ एक के बाद एक लड़ाई के कारण उमाशंकर का तबादला होता रहता है या निलंबन. हालांकि कुछ समय पहले ही उमाशंकर की फिर से नौकरी में वापसी हुई है लेकिन कौन जाने, किस राजनीतिक दल की निगाह कब उन पर टेढ़ी हो जाये. एक अनवरत लड़ाई का नायक -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 2 20:53:06 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 2 Apr 2011 07:23:06 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KSw4KSkIOCksuCkoeCkvOCkvuCkiCDgpJXgpL4g4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSv4KSV?= Message-ID: उमाशंकर तमिलनाडु के किसी राजनेता से कम लोकप्रिय नहीं हैं. राजनीति और अफशरशाही के गलियारे में लोग उनका नाम सम्मान से लेते हैं. वे इन दिनों तमिलनाडु के चुनाव में व्यस्त हैं. वे चुनाव नहीं लड़ रहे, उनके जिम्मे चुनाव कराना है. इस चुनाव का परिणाम चाहे जो भी आये लेकिन इतना तय है कि उमाशंकर के जीवन में हार-जीत का खेल चलता रहेगा. [image: umashankar-ias] भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई कभी आसान नहीं होती. यह बात उमाशंकर से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. तमिलनाडु के दलित आईएएस अधिकारी सी उमाशंकर पर जैसे भ्रष्टाचार से लड़ने का एक जुनून है और इस लड़ाई की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ती है. सत्ता के खिलाफ एक के बाद एक लड़ाई के कारण उमाशंकर का तबादला होता रहता है या निलंबन. हालांकि कुछ समय पहले ही उमाशंकर की फिर से नौकरी में वापसी हुई है लेकिन कौन जाने, किस राजनीतिक दल की निगाह कब उन पर टेढ़ी हो जाये. एक अनवरत लड़ाई का नायक -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Apr 3 14:55:26 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 3 Apr 2011 14:55:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkuOCkrOCkleClhyDgpLjgpKwg4KSP4KSV4KWN4KS44KSq4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSfIOCkpeClhw==?= Message-ID: एक विश्वकप और हजार अफसाने, दिन शनिवार और आशा एक शानदार रविवार की। क्रिकेट की दीवानगी क्या होती है, इसे चाहने वाले किस कदर हो-हल्ला में भी जुनून खोजते हैं , इसे शनिवार रात और फिर रविवार की दोपहरी को जाना। जब डगमगाई पारी को संभालने कप्तान महेंद्र सिंह धोनी क्रम तोड़कर वानखेड़े में दाखिल हुए तो ऐसा लग रहा था कि बिना फार्म का यह कप्तान क्या हर भारतीय के सपने को साकार कर पाएगा? शुरुआत में बेहद धीमे वे बल्ले को गेंद से मेल-मुलाकात करवा रहे थे, मानो गेंद कोई अजनबी हो बल्ले के लिए। लेकिन कुछ ही पल में स्क्रिप्ट ही चेंज हो गई। धोनी का बल्ला बोलने लगा। ऐसा लग रहा था मानो धोनी ने अबतक सबकुछ आज के लिए बचाकर रखा हो। पसीने से लथपथ, थकान से चूर लेकिन बल्ला बदस्तूर फर्राटे मार रहा था और अंत में जब इस खिलाड़ी ने छक्का लगाया तो मानो पूरा मुल्क कुछ पलों के लिए शीशे की गिलास में डूब गया हो, सचमुच यह क्रिकेट प्रेमियों के लिए जश्न की रात थी। अब अपनी कहानी, शनिवार मेरे लिए घोषित छुट्टी होती है, मतलब साप्ताहिक अवकाश। इसलिए कभी-कभार क्रिकेट का लुत्फ उठाने वाला शख्स भी शनिवार को अंतिम ऑवर में ही टीवी स्क्रीन के करीब पहुंचा, उससे पहले अपने ढेर सारे काम निपटाए, शाम में अपने हाथों से लजीज सेंडविच तैयार की और फिर *हमदोनों* ने उसका आनंद लिया। रात में ब्लू जर्सी वालों की जीत पर हम भी मुस्कुराए लेकिन *कानपुर* के *सिविल लाइंस* स्थित* कृष्णा टॉवर* की नौवीं मंजिल पर इससे बढ़कर बहुत कुछ हो रहा था। यहां जीत के लिए एक-एक रन का हिसाब हमारे सहकर्मी ले रहे थे। क्रिकेट के तंदरूस्त जानकार दोस्तों ने चैनल युगी एक्सपर्ट की तरह टिप्पणी रसीद रहे थे। हमारे एक सहकर्मी *पुनीत भाई *इन सारी वारदातों को अपने मोबाइल में कैद कर लिया था। रविवार को मैंने इसका भरपूर आनंद उठाया। जैसे ही धोनी ने छक्का जड़ा हमारे *दीपक मिश्रा* *भाई* भावुक हो गए। वीडियो को देखकर ऐसा लगा मानो वे जन्म-जन्मांतर से इस पल का इंतजार कर रहे थे। एक पक्के क्रिकेट आशिक की तरह उन्होंने कहा- *ये कांबली के आंसूओं का हिसाब है* (युवराज की विजयी आंसू पर उनकी टिप्पणी)। जब दीपक भाई यह बोल रहे थे तब उनकी आवाज भर्रायी से जान पड़ रही थी। वे एक-एक खिलाड़ी को टीवी स्क्रीन पर देखकर सटीक टिप्पणी कस रहे थे। वहीं शायद धोनी की बल्लेबाजी पर *मय़ंक भाई *ने कहा-* सारे मिथक टूट गए.....। * हमारे एक अन्य सहकर्मी *अरुण त्रिपाठी* सेंसर बोर्ड को एक किनारे करते हुए कंमेट्री कर रहे थे। वे पूनम पांडे को खोज रहे थे, शायद वे पाकिस्तान फोन लगाने की बात कर रहे थे, लेकिन उन्होंने एक अहम टिप्पणी भी की, जिसमें उन्होंने कहा- *अब चैनलों और अखबारो में यादों के लिए ट्रॉफी लिए कपिल देव नहीं दिखाए जाएंगे....। * पुनीत भाई के सौजन्य से ऑफिस चालीसा देखकर यह विश्वास हो गया कि हां, इस मुल्क में एक धर्म और है, और वह है क्रिकेट। तभी मेरी नजर फेसबुक पर *अजय ब्रह्मात्‍मज* की पोस्टिंग पर गई- *‘’ इंडिया जीत गया, भारत रीत गया। प्‍लीज, इस जीत में 1 अरब 21 करोड़ भारतीयों को बगैर उनकी सहमति के शामिल न करें। करोड़ों को तो मालूम ही नहीं कि उन्‍हें किस जीत में शामिल बताया जा रहा है। इस जीत में देश की भारी हार छिपी है। मुझे 'पार' के नौरंगिया और रमा याद आ रहे हैं। वे बिहार की हिंसा से भाग कर कलकत्‍ता पहुंचे है। वहां 1983 के वर्ल्‍ड कप का जश्‍न मनाते लोग उन्‍हें छेड़ते हैं। आज 2011 में वह छेड़खानी पूरे देश से हो रही है। देश के कोने-कोने में मीडिया केजरिए रंग में भंग डाल रहे नौरंगिया और रमा को छेड़ा जा रहा है। मुमकिन है कोई फिल्‍मकार अपनी स्क्रिप्‍ट में इस छेड़खानी को दर्ज कर रहा हो।“* अजय जी की यह टिप्पणी हमें कई चौराहों पर सोचने के लिए मजबूर करती है। तभी नजर *ब्रजेश झा* के स्टेट्स गई – *“ **भारत जीता तो हमसब झूम उठे हैं। सड़कों पर हैं। पर, दूसरा पक्ष भी है। 73 वर्ष के अन्ना हजारे भ्रष्टाचार मिटाने व जनलोकपाल बिल के लिए 5 अप्रैल से भूख हड़ताल पर जा रहे हैं। उनकी इच्छा है कि देश की जनता आगे आए। यकीनन, हमें उनके साथ राष्ट्रधर्म निभाने के लिए आगे आना चाहिए। आप क्या सोचते हैं ? ”* गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Sun Apr 3 14:55:26 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 3 Apr 2011 14:55:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkuOCkrOCkleClhyDgpLjgpKwg4KSP4KSV4KWN4KS44KSq4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSfIOCkpeClhw==?= Message-ID: एक विश्वकप और हजार अफसाने, दिन शनिवार और आशा एक शानदार रविवार की। क्रिकेट की दीवानगी क्या होती है, इसे चाहने वाले किस कदर हो-हल्ला में भी जुनून खोजते हैं , इसे शनिवार रात और फिर रविवार की दोपहरी को जाना। जब डगमगाई पारी को संभालने कप्तान महेंद्र सिंह धोनी क्रम तोड़कर वानखेड़े में दाखिल हुए तो ऐसा लग रहा था कि बिना फार्म का यह कप्तान क्या हर भारतीय के सपने को साकार कर पाएगा? शुरुआत में बेहद धीमे वे बल्ले को गेंद से मेल-मुलाकात करवा रहे थे, मानो गेंद कोई अजनबी हो बल्ले के लिए। लेकिन कुछ ही पल में स्क्रिप्ट ही चेंज हो गई। धोनी का बल्ला बोलने लगा। ऐसा लग रहा था मानो धोनी ने अबतक सबकुछ आज के लिए बचाकर रखा हो। पसीने से लथपथ, थकान से चूर लेकिन बल्ला बदस्तूर फर्राटे मार रहा था और अंत में जब इस खिलाड़ी ने छक्का लगाया तो मानो पूरा मुल्क कुछ पलों के लिए शीशे की गिलास में डूब गया हो, सचमुच यह क्रिकेट प्रेमियों के लिए जश्न की रात थी। अब अपनी कहानी, शनिवार मेरे लिए घोषित छुट्टी होती है, मतलब साप्ताहिक अवकाश। इसलिए कभी-कभार क्रिकेट का लुत्फ उठाने वाला शख्स भी शनिवार को अंतिम ऑवर में ही टीवी स्क्रीन के करीब पहुंचा, उससे पहले अपने ढेर सारे काम निपटाए, शाम में अपने हाथों से लजीज सेंडविच तैयार की और फिर *हमदोनों* ने उसका आनंद लिया। रात में ब्लू जर्सी वालों की जीत पर हम भी मुस्कुराए लेकिन *कानपुर* के *सिविल लाइंस* स्थित* कृष्णा टॉवर* की नौवीं मंजिल पर इससे बढ़कर बहुत कुछ हो रहा था। यहां जीत के लिए एक-एक रन का हिसाब हमारे सहकर्मी ले रहे थे। क्रिकेट के तंदरूस्त जानकार दोस्तों ने चैनल युगी एक्सपर्ट की तरह टिप्पणी रसीद रहे थे। हमारे एक सहकर्मी *पुनीत भाई *इन सारी वारदातों को अपने मोबाइल में कैद कर लिया था। रविवार को मैंने इसका भरपूर आनंद उठाया। जैसे ही धोनी ने छक्का जड़ा हमारे *दीपक मिश्रा* *भाई* भावुक हो गए। वीडियो को देखकर ऐसा लगा मानो वे जन्म-जन्मांतर से इस पल का इंतजार कर रहे थे। एक पक्के क्रिकेट आशिक की तरह उन्होंने कहा- *ये कांबली के आंसूओं का हिसाब है* (युवराज की विजयी आंसू पर उनकी टिप्पणी)। जब दीपक भाई यह बोल रहे थे तब उनकी आवाज भर्रायी से जान पड़ रही थी। वे एक-एक खिलाड़ी को टीवी स्क्रीन पर देखकर सटीक टिप्पणी कस रहे थे। वहीं शायद धोनी की बल्लेबाजी पर *मय़ंक भाई *ने कहा-* सारे मिथक टूट गए.....। * हमारे एक अन्य सहकर्मी *अरुण त्रिपाठी* सेंसर बोर्ड को एक किनारे करते हुए कंमेट्री कर रहे थे। वे पूनम पांडे को खोज रहे थे, शायद वे पाकिस्तान फोन लगाने की बात कर रहे थे, लेकिन उन्होंने एक अहम टिप्पणी भी की, जिसमें उन्होंने कहा- *अब चैनलों और अखबारो में यादों के लिए ट्रॉफी लिए कपिल देव नहीं दिखाए जाएंगे....। * पुनीत भाई के सौजन्य से ऑफिस चालीसा देखकर यह विश्वास हो गया कि हां, इस मुल्क में एक धर्म और है, और वह है क्रिकेट। तभी मेरी नजर फेसबुक पर *अजय ब्रह्मात्‍मज* की पोस्टिंग पर गई- *‘’ इंडिया जीत गया, भारत रीत गया। प्‍लीज, इस जीत में 1 अरब 21 करोड़ भारतीयों को बगैर उनकी सहमति के शामिल न करें। करोड़ों को तो मालूम ही नहीं कि उन्‍हें किस जीत में शामिल बताया जा रहा है। इस जीत में देश की भारी हार छिपी है। मुझे 'पार' के नौरंगिया और रमा याद आ रहे हैं। वे बिहार की हिंसा से भाग कर कलकत्‍ता पहुंचे है। वहां 1983 के वर्ल्‍ड कप का जश्‍न मनाते लोग उन्‍हें छेड़ते हैं। आज 2011 में वह छेड़खानी पूरे देश से हो रही है। देश के कोने-कोने में मीडिया केजरिए रंग में भंग डाल रहे नौरंगिया और रमा को छेड़ा जा रहा है। मुमकिन है कोई फिल्‍मकार अपनी स्क्रिप्‍ट में इस छेड़खानी को दर्ज कर रहा हो।“* अजय जी की यह टिप्पणी हमें कई चौराहों पर सोचने के लिए मजबूर करती है। तभी नजर *ब्रजेश झा* के स्टेट्स गई – *“ **भारत जीता तो हमसब झूम उठे हैं। सड़कों पर हैं। पर, दूसरा पक्ष भी है। 73 वर्ष के अन्ना हजारे भ्रष्टाचार मिटाने व जनलोकपाल बिल के लिए 5 अप्रैल से भूख हड़ताल पर जा रहे हैं। उनकी इच्छा है कि देश की जनता आगे आए। यकीनन, हमें उनके साथ राष्ट्रधर्म निभाने के लिए आगे आना चाहिए। आप क्या सोचते हैं ? ”* गिरीन्द्र 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Apr 3 19:00:04 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 3 Apr 2011 19:00:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpIXgpJXgpL7gpKbgpK7gpL/gpJUg4KSG4KSy4KWL?= =?utf-8?b?4KSa4KSo4KS+IOCkqOClhyDgpJXgpL/gpK/gpL4g4KS54KWIIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWH4KSwLeCkq+Clh+CksCA6IOCkuOCkguCknOClgOCktSDgpJXgpYE=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw?= Message-ID: *मित्रो, **इस बार का देवीशंकर अवस्थी सम्मान संजीव कुमार को उनकी किताब ‘'जैनेन्द्र और अज्ञेय : सृजन का सैद्धांतिक नेपथ्य'’ पर देने की घोषणा हो चुकी है। स्व0 देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में यह सम्मान समकालीन हिंदी आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। आगामी 5 अप्रैल 2011 को नई दिल्ली में एक समारोह में उन्हें सम्मानित किया जाएगा. प्रस्तुत है युवा आलोचक संजीव कुमार से शशिकांत की बातचीत:* *हिंदी की अकादमिक आलोचना ने किया है हेर-फेर : संजीव कुमार* *संजीव जी, आपने अपनी किताब में जैनेन्द्र और अज्ञेय के बारे में हिंदी की अकादेमिक आलोचना में व्याप्त गलतफहमी का सप्रमाण प्रत्याख्यान किया है। आपकी निगाह में वह गलतफहमी क्या है?* असल में, मेरा ऐसा एक आलेख जैनेन्द्र और अज्ञेय के संदर्भ में हिंदी की अकादमिक आलोचना के फ्रायड-मोह पर केंद्रित है। आप तो जानते हैं कि साहित्येतिहासों और उपन्यास विकास के आख्यानों में प्रेमचंदोत्तर हिंदी उपन्यास के शुरुआती दौर को मार्क्स और फ्रायड से प्रभावित उपन्यास-धाराओं में बांट कर देखने का आग्रह रहा है। बाक़ायदा एक मनोविश्लेषणवादी स्कूल की बात की गई है जिसमें जैनेन्द्र और अज्ञेय को भी नामज़द किया गया है। इस नामज़दगी के लिए दो तरीके अपनाए गए। एक तरीका तो यह कि इस उपन्यास-धारा के आरंभिक परिचय में फ्रायड का विस्तार से उल्लेख कर दिया, पर जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों के विवेचन के मौके पर इस प्रभाव के ठोस उदाहरण दिखलाने की कोई ज़रूरत नहीं समझी, यह मानते हुए कि पात्रों के मनोव्यापार में प्रेमचंद से थोड़ी ज़्यादा और थोड़ी अलहदा किस्म/प्रकृति की दिलचस्पी अपने-आप में फ्रायडीय प्रभाव का सबूत है। कुछ और लोगों ने दूसरा तरीका अपनाया, जहां इस प्रभाव के सबूत ढूंढऩे की कोशिश की गई और इस प्रक्रिया में सिद्धांत और रचना, दोनों को दारुण कुपठन का शिकार होना पड़ा। मैंने कहा है कि यहां आलोचक की स्थिति उस पंडित के समान थी जो विवाह कराने के नेक इरादे से दोनों ओर की कुंडलियों के गुणों में हेर-फेर करता है। मेरी किताब के पहले अध्याय में ऐसी ही कोशिशों का उद्घाटन है। *अमूमन गैर अकादेमिक क्षेत्र के लेखक अकादेमिक आलोचना पर सवाल उठाते रहे हैं। आप खुद अकादेमिक क्षेत्र से आते हैं, फिर भी आपने अपनी इस किताब में अकादेमिक को कठघरे में खड़ा किया है। क्या आप मानते हैं कि अकादेमिक क्षेत्र में जैनेंद्र और अज्ञेय के साहित्य का सही तरीके से मूल्यांकन नहीं किया गया है?* ये न भूलें कि खुद मेरा काम अकादमिक आलोचना है, फुटनोटादिसंपन्न। इसलिए सवाल एस्सेंशियली अकादमिक-ग़ैरअकादमिक का नहीं, अच्छी और बुरी का है। सन् 2000 के अपने एक लेख (‘स्वाधीनता’ के शारदेय विशेषांक में प्रकाशित) में मैंने बतलाया था कि समकालीन आलोचना में कैसे बहुत विराट सामान्यीकरण बेहद नाकाफी ठहरने वाले आधारों पर टिकाए गए हैं और मुझे याद आता है कि वहां ज़्यादातर उदाहरण ग़ैर-अकादमिक क्षेत्र से ही लिए गए थे। जहां तक जैनेन्द्र और अज्ञेय का सवाल है, पीछे जिस विशेष संदर्भ की मैंने चर्चा की, उससे बाहर जाकर संपूर्ण मूल्यांकन के बारे में कोई बात कहने की योग्यता मैं अपने अंदर महसूस नहीं करता। अगर उस पर टिप्पणी करूंगा तो वह वैसा ही ग़ैर जिम्मेदाराना बरताव होगा जैसा वह जिसकी मैं आलोचना कर रहा हूं। *क्या आप मानते हैं कि जैनेंद्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा जैसे लेखकों के साहित्य के मूल्यांकन में अकादेमिक और गैर अकादेमिक आलोचना बंटी हुई है?* अकादमिक और ग़ैर-अकादमिक के मुहावरे में बंध कर कोई पैटर्न ढूंढऩा मुश्किल है। *क्या आप इस बात से सहमत हैं कि मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होने की वजह से अकादेमिक आलोचना पूर्वाग्रह से ग्रस्त थी, और सोवियत संघ के पतन एवं नव पूंजीवादी दौर में उभरी नई विचारधाराओं, सैद्धांतिकियों के कारण साहित्य को देखने, समझने की एक नई दृष्टि दी और मार्क्सवादी आलोचना का तिलिस्म टूटा?* आपके सवाल में कई बातें हैं, पर उनसे एकमुश्त असहमत हूं। पहली बात, अकादमिक आलोचना में मार्क्सवादियों से ज़्यादा बड़ी संख्या ग़ैर मार्क्सवादियों या मार्क्सवाद विरोधियों की रही है। यह अलग बात है कि उनमें से क़ायदे का काम अधिकतर मार्क्सवादियों ने ही किया है। कौन-सा तिलिस्म था और वह कब टूटा, मैं नहीं जानता, पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि मार्क्सवाद कोई बंद विचारधारा नहीं, एक विकासमान विचारधारा है जो नए हालात में नए तरीके से सोचने और ज्ञान-क्षेत्र के नए उद्विकासों को अपने लिए उपयोगी बनाने पर बल देती है। मार्क्सवाद के नाम पर जारी ग़ैर मार्क्सवादी संकीर्णताओं के अंत को अगर आप तिलिस्म का टूटना कहते हैं तो वह शायद सही है। ‘थियरी’ के सामान्य अभिधान के साथ प्रचलन में आए विचारों ने, निस्संदेह, पाठ के साथ एनगेजमेंट का और हर शै में मौजूद शक्ति-संरचना को समझने का व्यवस्थित तरीका सुझाया है। इससे तो, मेरे ख़याल में, उस आलोचना की नींव पर ज़्यादा गहरा प्रहार हुआ है जो साहित्य के ‘स्वराज’ का नारा लगाती थी और राजनीति द्वारा आलोचना के ‘औपनिवेशीकरण’ का विरोध करती थी। ‘थियरी’ ने मार्क्सवाद के इस बलाघात को ही आगे बढ़ाया है कि ऐसा ‘स्वराज’ एक ख़ामख़्याली है और जिसे आप ‘उपनिवेश’ कह रहे हैं, वह तो आपके जाने-अनजाने हमेशा से राजनीति के बेहद्दी ‘प्लेग्राउंड’ का हिस्सा रहा है। *विचारधारा और साहित्य के रिश्ते को आप किस रूप में देखते है? विचारधारा और सत्ता से अलग आज के समय की माइक्रो रियलिटी को अभिव्यक्त करनेवाली साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन के लिए आलोचना की कौन सी प्रविधि आपको मुफीद लगती है?* विचारधारा कहां नहीं है! विचारधारा से बाहर जाकर सोचने का दावा भाषा से बाहर जाकर सोचने के दावे जैसा है। वही यह तय करती है कि आप दुनिया में चीज़ों के बीच के रिश्ते को किस तरह समझेंगे और कहां कितनी नजऱ टिकाएंगे। अगर आपका आशय ‘वाद’ के स्तर पर संगठित प्रचार पाने वाली, सचेत स्तर पर अपनायी गयी विचारधाराओं से है, तो यही कहूंगा कि जिस तरह भाषा का, उसी तरह विचारधारा का भी साहित्य में भांति-भांति का उपयोग मिलता है। कहीं वह बेहद सधा हुआ, रचनात्मक और नवोन्मेषी होता है, तो कहीं ठस्स, पिटा-पिटाया और अर्थापकारी। * * *(3 अप्रैल 2011 राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली में प्रकाशित) * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Apr 5 00:19:17 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 5 Apr 2011 00:19:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkleCkviDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4g4KS14KS/4KS2?= =?utf-8?b?4KWH4KS34KS+4KSC4KSV?= Message-ID: दीवान के साथियों कथादेश का अप्रैल अंक मीडिया पर केंद्रित है। राडिया और विकीलिक्स के दौर में मीडिया पर खास सामग्री है जिसमें से कि कई सारी बातें कहीं पहले प्रकाशित नहीं हुई है। इस अंक का लोकार्पण और विचार गोष्ठी 7 अप्रैल को जेएनयू में होगी। समय हो तो आप जरुर आएं। विशेष जानकारी दिलीप मंडल की फेसबुक प्रोफाइल से उठाकर चेप रहा हूं Time Thursday, April 7 · 5:00pm - 8:00pm ------------------------------ Location 212, कमेटी रूम, स्कूल ऑफ लैंग्वेज, JNU ------------------------------ Created By गंगा सहाय मीणा , Dilip Mandal , Avinash Das ------------------------------ More Info विकिलीक्‍स के दौर में मीडिया - संभावनाएं और चुनौतियां वक्ता प्रो. आनंद कुमार, वरिष्‍ठ समाजशास्त्री, JNU प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, चिंतक व लेखक, DU उदय प्रकाश, वरिष्‍ठ साहित्यकार मुकेश कुमार, मीडियाकर्मी व विश्‍लेषक डा. आनंद प्रधान, मीडिया विशेषज्ञ, IIMC उपस्थिति हरिनारायण, संपादक- कथादेश दिलीप मंडल, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) अविनाश, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) Mohallalive.com समय- शाम 5 बजे दिनांक- 7 अप्रैल, 2011 स्थान- 212, कमेटी रूम, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज, जेएनयू आप सादर आमंत्रित हैं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Tue Apr 5 15:08:47 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 5 Apr 2011 02:38:47 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FUEL Newsletter Y2011Q1 # / issue 1 Message-ID: <959498.40525.qm@web121708.mail.ne1.yahoo.com> Content - Collaboration - Consistency Y2011Q1 # / issue 1 More than two years on! 11 languages  are with FUEL. Till now, FUEL had already organised 8 languages workshops for evaluating terminology. Released the beta of  'Computer Translation Style and Convention Guide for Hindi.' A lot more to do. Initiated by Red Hat, the project got supports and contributions from several languages communities and various organizations like CDAC GIST, Indlinux, Sarai, CDAC Chennai, Acharya Nagarjuna University, A. N. Sinha Institute of Socail Studies, Maithili Academy, Gujarati Lexicon, Infineon Infotech, NRCFOSS, SICSR, Gnunify, Sahit Academy, PLUG, SMC, to name a few.  FUEL Welcomes Urdu, which is not merely a 'Jaban' but one 'Mukkamal Tahjib' as well. The Urdu Community involved in the localization of Urdu has decided to go with FUEL. For more details about Urdu @ FUEL please visit FUEL Urdu page. Tukaram Says* Words are the only jewels I possess, Words are the only clothes I wear, Words are the only food that sustains my life, Words are the only wealth I distribute among people.                              *Translated by Dilip Chitre Contribute to FUEL: We are continuously putting efforts to create linguistics resources required for the localization. We need more and more languages to join this effort and so your help is needed: • Add you language to FUEL - FUEL is very eager to help all type of language irrespective of their market potential to conduct workshop and meet to create and evaluate FUEL list. So please join our effort and make the first strong step towards creating a standardised language desktop. • Cross platform Database - Different translation tools on different platforms have different ways of dealing with data provided to them. So need is to create one database that can be used by major available tools. • In open content field and particularly for Indian Languages there are lack of Style Guide. So we are now moving in that direction as well to help community to create style guide as well. So please come forward and create one style guide for your language. LATEST Of late, FUEL project has organised Malayalam and Punjabi language workshop in Kerala and Punjab respectively. Thanks to Punjabi and Malayalam Community for organising workshops. FUEL thanks to Swathantra Malayalam Computing and Satluj Open Source Project. In this year itself, FUEL released the beta of Computer Translation Style and Convention Guide for Hindi. In Oct 2010, we have conducted FUEL Meet for Telugu successfully at Nagarjuana University. FUEL: Use Our aim is to ensure the use of FUEL terminologies and for this, we are working hard. Though we feel that already localised language have little difficulty in implementing the list in one go due to lot of rework, so there we are trying to push the change in phase wise. For this, we are contacting localizers and organizations involved. By default for some languages, FUEL is the primary glossary in Pootle and so being used where Pootle works. For example, Libreoffice translation. Virtaal is a graphical translation tool. It is meant to be easy to use and powerful at the same time. The Virtaal is using FUEL terminology for Indian languages. Thanks to the Virtaal Guys for creating such a good translation tool. Future Plans: We are working to have more workshops for few languages in near future. Chhatisgadi and Kannada communities are working on the plan. We are in the process to arrange one meet for reviewing Hindi Style Guide as well.Languages are archive of our culture and it would be better if we can start making our language digitally strong enough. Particularly, open source lack much in terms of terminology management and we would be happy if we can get contribution towards where use of the FUEL can be increased. So please come forward to create something so...! FUEL @ Press • Move to standardise Malayalam terms in computer programs • FUEL Punjabi Meet • FUEL: An initiative in language standardization via collaboration • Going regional FUEL @ Blogs • A look into FUEL • Frequently Used Entries for Localization (FUEL) • लीजिए पेश है अपनी तरह की पहली 'हिंदी तकनीकी अनुवाद स्टाइल गाइड' • कम्प्युटरसं मैथिली जोडबाक प्रयास • FUEL Gujarati Workshop collaborated with Red Hat     For more press coverage and blogs please visit News & Views            © FUEL Project Email:  fuel-discuss at lists.fedorahosted.org irc @ Freenode: #fuel-discuss FUEL @ Facebook and Twitter regards, -------------- Rajesh Ranjan    Coordinator, FUEL Project https://fedorahosted.org/fuel -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 5 15:34:13 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 5 Apr 2011 15:34:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSm4KWH?= =?utf-8?b?4KS5IOCkleClhyDgpJXgpKDgpJjgpLDgpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIIOCkheCkquCkqOClhyDgpLngpL/gpKQg4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCksuCkv+CkluCkviDgpJfgpK/gpL4g4KSH4KSk4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpIngpKbgpK8g4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: संदेह के कठघरे में है अपने हित के लिए लिखा गया इतिहास: उदय प्रकाश *उदय प्रकाश* *मित्रो, पिछले दिनों बर्कले, कैलिफोर्निया विवि में अज्ञेय की जन्मसदी पर वसुधा डालमिया ने एक गोष्ठी आयोजित की थी. उसमें भारत से उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, आलोक राय और संजीव कुमार ने हिस्सा लिया था. उदय प्रकाश ने उस गोष्ठी में अज्ञेय की क्रांतिकारिता, प्रगतिशीलता और आधुनिकता की पहचान की और साथ-साथ अज्ञेय-विरोध के पीछे की प्रगतिशील वामपंथी साजिशों का खुलासा भी किया था. उदय प्रकाश का मानना है कि औपनिवेशिक काल से ही भारत में वामपंथ की कई धाराएं रही हैं लेकिन सन 47 से पहले और बाद में मुख्यधारा के वामपंथ ने सत्ता-सुख के लिए इसे हाईजेक कर लिया...और दूसरे कई प्रगतिशील समाजवादी लेखकों के ख़िलाफ़ झूठा दुष्प्रचार किया. * *पेश है उदय प्रकाश का यह लेख, जो आज (3 अप्रैल 2011) के राष्ट्रीय सहारा के उमंग रविवारीय परिशिष्ट में छपा है. यह लेख मेरे साथ बातचीत पर आधारित है. - शशिकांत * *किसी भी *लेखक या कलाकार के बारे में फतवे और फैसले जिन दो शिविरों से आते हैं, वे शिविर ज्यादातर धर्म-संप्रदाय और राजनीति के हुआ करते हैं। यह हमशा ध्यान रखना चाहिए कि समाजवादी विचारक और नेता लोहिया ने अपने विख्यात वक्तव्य में इन दोनों को एक ही माना था : ‘धर्म लंबे समय की राजनीति है और राजनीति छोटे समय का धर्म।’ *फिर ऐसे समाजों में *जहां पश्चिम की औद्योगिक आधुनिकता पूरी तरह आई नहीं, लेकिन किसी संयोग से वहां की राजनीति और उसके सांस्थानिक ढांचे आ गए, तो किसी भी लेखक या कलाकार के बारे में दिए जाने वाले फतवे में इन दोनों, यानी धर्म और राजनीति की एकजुट सक्रियता को अलगाना खासा मुश्किल हो जाता है। ये दोनों एक-दूसरे में एक-दूसरे को छुपाते हुए एक साथ बहुरूपिया-कपट के साथ सक्रिय होते हैं। *हिंदी भाषी कहे जानेवाले *इलाके में, जहां पूर्व-आधुनिक सामंती मूल्यों-मान्यताओं की जकड़बंदी सबसे विकट है और जहां पिछले साठ से भी अधिक सालों में बरती गई चुनावी या संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने जातिवाद और सांप्रदायिक अस्मिताओं को लगातार सशक्तऔर सांस्थानीकृत किया है, वहां इनमें से किसी भी एक की चीरफाड़ दूसरे की फोरेंसिक रिपोर्ट बन जाती है। पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों में विचाधाराओं के महावृत्तांतों का अंत अन्य कारणों से हुआ होगा, उत्तर-भारत की इस पट्टी में उनका विघटन और पतन धर्म, सांप्रदायिकता, जाति, क्षेत्रीयता, स्वार्थ और लगातार भ्रष्ट होती जाती राजनीति की बदौलत हुआ। *हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की* बलशील राजनीतिक अथवा सांस्थानिक आलोचना के हाथों बार-बार अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकार, जो समाज में सक्रिय सांस्कृतिक चेतना की ऐसी क्षुद्र संरचनाओं (माइक्रोस्ट्रक्चर्स) को रेखांकित करते रहे हैं, हमेशा अपने जीवन के सक्रिय रचनाकाल में विवादों और हाशियों के पार धकेले जाते रहे हैं। और यह सब एक संगठित प्रायोजित राज्य-पोषित उपक्रम के तहत किया जाता रहा है। जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों-कलाकारों के साथ ऐसा किया गया, उसकी सूची राहुल-हुसैन से लेकर आज तक लगातार लंबी ही होती जा रही है। *पिछले दिनों *जन्मशती की शुरुआत के साथ ही अज्ञेय के संदर्भ में ऐसे ही विवाद फिर से उठाने की संगठित कोशिशें हुईं। अगर साठ के दशक के प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद की छद्म शीतयुद्धवादी राजनीति के तहत उन्हें ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ का सदस्य घोषित किया गया तो अभी हाल में दिल्ली की एक लोकल टैबलायड ने उन पर 1942 में ब्रिटिश सेना की नौकरी करने पर उन्हें ब्रिटिश एजेंट बताने की हास्यास्पद और रोचक कोशिश की। *हास्यास्पद इसलिए कि* इन्हीं तर्कों पर भारतीय उपमहाद्वीप के महान क्रांतिकारी कवि, संयोग से से जिनकी जन्मशती का आयोजन भी इसी साल दुनिया भर में मनाया जा रहा है, पर भी यही आरोप ज्यों का त्यों लगाया जा सकता है। फैज ने भी 1942 में जर्मन नाज़ीवाद के विश्वव्यापी खतरे को भंापते हुए, ब्रिटिश फौज की बर्दी पहनी थी और अज्ञेय की तरह तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के कहने पर आकाशवाणी में अपनी सेवाएं सौंपी थीं। क्योंकि नाजीवाद के विरुद्ध मोर्चा सिर्फ जमीनी लड़ाई में ही नहीं, सूचना और संचार के मोर्चे पर भी जरूरी था। *अगर हर ईमानदार *और महत्वपूर्ण रचनाकार के मुंह पर कालिख पोतने के धतकर्म में दशकों से सक्रिय राजधानियों के ऐसे गुटों-स्वार्थसमूहों की बात मानें तो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत समेत संसार की सभी कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी शक्तियां ‘एलाइड फौजों’ की एजेंट सिद्ध हो जाएंगी। फिर आप स्टालिन और सुभाषचंद्र बोस का क्या करेंगे? *अगर ध्यान दें तो *अज्ञेय के साथ-साथ उनके सहकर्मी रह चुके ‘झूठा-सच’ और ‘दादा कॉमरेड’ जैसे बहुचर्चित उपन्यासों के प्रतिबद्ध माक्र्सवादी लेखक यशपाल को भी विवादों में घेर कर हाशिए में डाल दिया गया। अगर अज्ञेय को व्यक्तिवादी प्रतिक्रियावादी कह कर खारिज किया गया तो यशपाल को मनोविकार और काम भावना का चितेरा कहा गया। *यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि* आजादी के पहले, तीसरे दशक में, राष्ट्रवादी-समाजवादी आंदोलन में यशपाल और अज्ञेय दोनों एक ही समाजवादी विचारधारा के संगठन में सक्रिय थे। जिसमें भगत सिंह, धन्वंतरी, चंद्रशेखर आजाद, उधम सिंह, सुखदेव, अशफाक, राजगुरू, भगवतीचरण बोहरा, प्रकाशवती और दुर्गा भाभी आदि सक्रिय थे। अज्ञेय का ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘विपथगा’ कथा-संग्रह की कहानियां और यशपाल का ‘सिंहावलोकन’ तथा ‘झूठा सच’ साथ-साथ पढ़ें तो उस समय की राजनीति को समझा जा सकता है। इस राजनीति से इन दोनों रचनाकारों के मोहभंग और उससे विरक्ति या अलगाव के कारणों को भी समझा जा सकता है। *इसके अतिरिक्त यह भी* ध्यान रखें कि 1947 में विभाजन के दौरान भयावह सांप्रदायिकता, रक्तपात और उससे जुड़े सांप्रदायिक, जातीय, व्यक्तिवादी (राजनीति में जिसे ‘अधिनायकवादी’ कह सकते हैं।) और राजनीतिक यथार्थ को हिंदी के जिन दो रचनाकारों ने सर्वाधिक प्रमाणिकता और विस्तार के साथ प्रकट किया उनमें से एक थे अज्ञेय और दूसरे थे यशपाल। *आज समय के इस बिंदु पर* जब बर्लिन की दीवार नहीं है, सोवियत संघ का पुराना झंडा और लेनिनग्राद कहीं नहीं है, तेलंगाना-त्रिभागा जनआंदोलन की लाल-सेनाएं नहीं हैं, जब उस जमाने की लोकप्रिय वामपार्टियां हिंदी की समूची पट्टी में जनता का विश्वास खो चुकी हैं और एक विधायक तक चुनवा पाने की स्थिति में नहीं हैं, जब एक दूसरे ‘द्वितीय शीतयुद्ध’ की शुरुआत हो चुकी है, जो दो दो सुपर पावर्स के बीच नहीं, नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था की कोख से जनमे नव-साम्राज्यवाद और उसकी हिंसा और दमन को झेलते-सहते वंचित नागरिकों-प्रजाओं के बीच है, तब हम अतीत और पिछले राजनीतिक इतिहास को नयी आंख से देख और समझ सकते हैं। उस समय की दुरभिसंधियों और रहस्यों के उत्तर पाना भी बहुत आसान हो गया है। *क्या यह सिर्फ संयोग है कि* भारत के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों पर मार्मिक संवेदना, ईमानदारी और साहसिकता के साथ लिखनेवाले लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों को मुख्यधारा की सांस्थानिक आलोचना ने हाशिए में फेंक दिया। अज्ञेय, उपेंद्रनाथ अश्क और यशपाल इनमें प्रमुख हैं। क्या सरहद के इस पार अज्ञेय और यशपाल के साथ जो हुआ वही उस पार फैज, मंटो, हबीब जालिब के साथ नहीं हुआ। क्या कारण था कि मलयालम के प्रेमचंद कहे जाने वाले वैक् कम मोहम्मद बषीर आजादी के पहले ब्रिटिश और आजादी के बाद देशी जेल में रहे। नजरुल आजादी के पहले संदिग्ध और आजादी के बाद विक्षिप्त माने गए। *राजनीति की ओर देखें तो* राष्ट्रीय कांग्रेस में नेहरू और पटेल से भी अधिक लोकप्रिय सुभाशचंद्र बोस आजादी के पहले जर्मनी और जापान के एजेंट और विश्वयुद्ध के बाद ‘युद्ध-अपराधी’ घाषित किए गए। मानवेंद्रनाथ राय, अरबिंद घोष, सरलादेवी, मैडम कामा, जतींद्रनाथ, रासबिहारी बोस, सतीनाथ भादुड़ी, करतार सिंह, लाला हरदयाल, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, जैसे असंदिग्ध समाजवादी क्रांतिकारियों के नामों से भरपूर यह सूची बहुत मार्मिक और दहशतनाक तरीके से बहुत लंबी हो जाती है। *इन सब के *छवि-भंजन करने और उन्हें संदिग्ध बनाने का संगठित अभियान लगातार चलता रहा। दरअसल 1947 में अंग्रजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण के बाद से ही एक ऐसी सत्तापरस्त दलाल राजनीतिक संस्कृति ने अपना वर्चस्व स्थापित किया जो सिर्फ हिंदी तक ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी उतना ही प्रभावी रही। *हमें यह हमेशा *ध्यान में रखना होगा कि हमारे देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलनों का जन्म 1917 में हुई सोवियत क्रांति और उसके बाद उसके प्रभाव से बननेवाले राजनीतिक दलों के बहुत पहले से हो चुका था। यह रूस और विलायत का मुखापेक्षी ऐतिहासिक तौर पर नहीं रहा। स्वयं प्रेमचंद, 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी बनने के सात साल पहले समाजवादी सिद्धांतों के ‘कायल’ हो चुके थे। ....jaaree -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 5 15:37:16 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 5 Apr 2011 15:37:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSm4KWH?= =?utf-8?b?4KS5IOCkleClhyDgpJXgpKDgpJjgpLDgpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIIOCkheCkquCkqOClhyDgpLngpL/gpKQg4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCksuCkv+CkluCkviDgpJfgpK/gpL4g4KSH4KSk4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpIngpKbgpK8g4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: jaaree .... कई बार लगता है कि अगर प्रेमचंद की इतनी लोकप्रियता न होती और अगर ‘संयोग’ से वे 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता न करते, तो क्या उनके साथ भी वाम कही जाने वाली हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की समस्याग्रस्त आलोचना वही कुछ करती, जो उसने राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, यशपाल आदि के साथ किया। दरअसल बीसवीं सदी की शुरुआत में ही बंगाल में हुए नवजागरण और वहां की राष्ट्र्रवादी चेतना ने क्रांतिकारी और वामपंथी आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार करनी शुरू कर दी थी। अगर आप प्रमथ मित्र और अरविंदो घोष का समय देखें और ‘अनुशीलन’ और ‘जुगांतर’ के दौर को देखें तो ‘सोवियत क्रांति’ के एक दशक पूर्व ही बंगाल राष्ट्रवादी और वामपंथी (समाजवादी) गतिविधियों का केंद्र बन चुका था। बंगाल में आनेवाले नवजागरण के प्रभाव को हिंदी के प्राध्यापक-आलोचक-मीडियाकार जिस लोलुप आतुरता से स्वीकार करते हैं, आश्चर्य है कि वे वहीं से उपजी राष्ट्र्रीय और क्रांतिकारी प्रेरणा और प्रमुख क्रांतिकारियों के योगदान के बारे में चुप्पी साध जाते हैं। वे यह तथ्य भरसक छुपाने की कोशिश करते हैं कि 1919 में जालियांवाला बाग जैसे जनसंहार, जिसकी तुलना आज भी लातीनी अमेरिका के ‘बनाना रिपब्लिक’ के बर्बर जनसंहार के साथ की जाती है, के बाद पंजाब में पनपे क्रांतिकारी उभार का सीधा संबंध बंगाल से था। भगत सिंह, सीताराम तिवारी उर्फ चंद्रशेखर आजाद, अशफाक आदि का जन्म भले ही उत्तर-भारत के इलाकों में हुआ हो, वे बंगाल से आनेवाली क्रांतिकारी चेतना के ही ‘मानस-पुत्र’ थे। 1925 में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनी उसके पहले से ही कई राष्ट्र्रवादी और वामपंथी क्रांतिकारी संगठन उस दिशा में काम कर रहे थे। अविभाजित पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की जो लहर आई उसका संबंध बंगाल से ही था। अज्ञेय, यशपाल और उन सरीखे अन्य विप्लवी और सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़े लेखकों को हाशिए पर धकेलने का प्रमुख कारण यह था कि वामपंथ, समाजवाद और प्रगतिशीलता आदि को परिभाषित करने का इकहरा पैमाना उसी ब्रिटेन में जनमे और पनपे राजनीति और विचारों के आधार पर बनाया गया जिसे हम कैंब्रिज के ‘फेबियन समाजवाद’ के नाम से जानते हैं। यह विचारधारा कांग्रेस के प्रमुख नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरू और मुख्य धारा के वामपंथी नेताओं में समान थी। यही कारण है कि आजादी के बाद सत्ता के सामने पैदा होनेवाले संकटों की हर घड़ी में दोनों हमेशा बार-बार एक साथ होते रहे। 1975 के आपातकाल ही नहीं अभी पिछले यूपीए काल तक यह सत्तापरस्ती जारी रही। साहित्य और संस्कृति के इलाके में तो खैर यह बदस्तूर निरंतर और शाश्वत है। आज हम इक्कीसवीं सदी के इस उत्तर औपनिवेशिक नव साम्राज्यवादी समय में हैं। वहां से हम इस अतीत को साफ-साफ देख सकते हैं। और तब हमें यह दिखाई देता है कि एक नहीं बल्कि अनेक राजनीतिक दलों की तरह, जो लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के एक जैसे दावे करते थे, उसी तरह सामाजिक समानता और वर्गीय शोषण के अंत का दावा करनेवाले वामपंथी दल भी बहुसंख्यक थे, एक नहीं। भारत में समाजवाद सिर्फ सोवियत संघ की क्रांति से बरास्ता ब्रिटेन ही नहीं आया था बल्कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों की देशी जमीन में उसकी गहरी जड़ें थीं, और उसको समय-समय पर समर्थन देनेवाले पश्चिम के एक नहीं कई देश थे। पश्चिम के विकसित औद्योगिक पूंजीवादी देशों की आपसी टकराहटों के कारण भारत ही नहीं बल्कि अन्य औनिवेशिक दशों के राष्ट्रीय और क्रांतिकारी आंदोलनों को मदद और समर्थन मिलता था। उदाहरण के लिए जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के पहले फ्रांस ने ब्रिटेन का साथ देना शुरू किया तो भयभीत जर्मनी को अपनी रक्षा के लिए यह जरूरी लगा कि वह ब्रिटेन की ताकत के असली केंद्र को कमजोर करे। और वह केंद्र था औपनिवेशिक भारत। इतिहास के तमाम दस्तावेज मौजूद हैं कि जर्मनी ने भारत के उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों को हर तरह से मदद पहुंचाने की कोशिश की। बल्कि 1914-15 में ठीक 1857 की गदर की तरह भारत में सैन्य विद्रोह की कोशिशें की भी गईं। ‘बर्लिन कमेटी’ बनी, ‘इंड्स-जर्मन कांस्पिरेसी’ के तथ्य हैं। भारत में क्रांति और राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए समर्पित लोग सिर्फ मास्को और लंदन ही नहीं गए, उन्होंने सैनफ्रांसिस्को, बर्लिन, पेरिस, स्विट्जरलैंड, टोक्यो आदि विदेशी शहरों में भी जाकर काम किया। कहने का आशय सिर्फ यह कि बीसवीं सदी में औपनिवेशिक देशों के अपने अंतर्विरोध और टकराहटों का असर भारत के राजनीतिक आंदोलनों, और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों पर पड़ रहा था। यहां कोई एक वामपंथ और कोई एक प्रगतिशील विचारधारा न पहले थी न आज है। आज भी प. बंगाल की वाममोर्चा में एक-दो नहीं सोलह वामपंथी राजनीतिक दल हैं जिनमें सुभाषचंद्र बोस का फॉरवर्ड ब्लॉक भी है। अज्ञेय जब अपनी युवावस्था में लाहौर आए थे तब उनका संबंध भारत नौजवान सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के साथ हुआ। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव अशफाक सब उसी दल में थे। अज्ञेय, भगवतीचरण वोहरा और यशपाल भी। 1919 का जालियांवाला बाग का भयानक हादसा उन्हीं दिनों हुआ था। उन्होंने भगत सिंह को लाहौर से छुड़ाने की असफल योजना में भी हिस्सा लिया था। 1930 में अज्ञेय को 19 साल की उम्र में आम्र्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था और दोबारा 1931 में दिल्ली षडयंत्र केस में ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों के पास उनके विरुद्ध बम बनाने और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के तमाम प्रमाण मौजूद थे। अज्ञेय ने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ का आधार पाठ इसी कैदी जीवन में लिखा। यहीं रहते हुए वे प्रेमचंद और जैनेंद्र के संपर्क में आए और ‘अज्ञेेय’ नाम हासिल किया। और यहीं उनके विचारों में वह मूलगामी परिवर्तन हुआ जिसने उन्हें सशक्तहिंसक आंदोलनों से अलग बदलाव के दूसरे विकल्पों की ओर बढऩे के लिए प्रेरित किया। इस वैचारिक परिवर्तन का आधार था 1915 में गांधी का भारत आगमन और जनता का उनके अहिंसक आंदोलनों में हिस्सा लेना। यह कुछ ऐसा ही दृश्य था जैसा अभी हाल में मिस्र, ट्यूनिशिया, सीरिया आदि देशों में दिखाई दे रहा है। यह ध्यान रखने की बात है कि 1930 में गिरफ्तार होने से पहले अज्ञेय कांग्रेस सेवा दल में वोलंटियर के रूप में शामिल हो चुके थे और उनपर गांधी का साफ प्रभाव दिखने लगा था। बौद्ध-दर्शन उनकी चेतना के केंद्र में बचपन से ही था। क्या यह सिर्फ संयोग ही है कि अज्ञेय और उनके उपन्यास के नायक ‘शेखर’, दोनों का जन्म उसी एक जगह होता है, जहां स्वयं बुद्ध का देहपात हुआ था, यानी कुशीनगर। और दोनों हिंदू जातिवादी व्यवस्था को त्यागते हुए उसी दिशा में बढ़ते हैं, जिधर बुद्ध और उनके बाद अंबेडकर, राहुल, नागार्जुन, भदंत कौशल्यायन आदि गये। अगर ‘शेखर: एक जीवनी’ और अज्ञेय की अन्य रचनाएं पढें तो इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। यह विडंबना ही है कि बुद्ध और गांधी के मार्ग पर जानेवाले हर समाजवादी लेखक विचारक को हिंदी की मुख्यधारा की राजनीतिक संस्कृति ने हमेशा हाशिए पर धकेला। क्या यह स्वयं राज्य और बाजार के हितों के लिए निर्मित और आज तक कार्यरत सांस्थानिक-आधिकारिक राजभाषा ‘हिंदी’ के प्रच्छन्न मानस या उसकी आंतरिक चेतना के असली बनावट को उद्घाटित नही करती। अज्ञेय एक और वजह से हाशिए पर धकेले गए, वह था उनकी व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति गहरी निष्ठा। किसी भी राजनीतिक राज्य-व्यवस्था में व्यक्ति-इकाई के रूप में जीवित नागरिक की स्वतंत्रता। निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध आदि अन्य रचनाकार भी इसी के शिकार बने। इन सबको ‘सामूहिक-समवेत’ सुर में ‘व्यक्तिवादी’, ‘आत्मकेंद्रित’ लगभग ‘अ-सामाजिक’ तक घोषित किया गया और स्कूलों-विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में अध्यापकों द्वारा यही युवा छात्रों को पढ़ाया जाता रहा। क्या ऐसे पाठ्यक्रमों और जातिवाद तथा राजनीति के चोर दरवाजों से संस्थानों में दाखिल ऐसे प्राध्यापकों की ‘आलोचना’ को खारिज करने का समय नहीं आ गया है। यह एक अजीब विरोधाभास है कि जिस पूंजीवादी लोकतंत्र ने अपने जन्म के समय व्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा सबसे पहले दिया था उसी ने अपनी व्यवस्था में स्वतंत्र व्यक्ति की जगह एक सर्वव्यापी निरंकुश स्वतंत्र बाजार का निर्माण किया, जिसमें ‘व्यक्ति’ का कोई शरण्य नहीं बचा। दूसरी तरफ औद्योगिक-समाजवाद ने भी एक ऐसे सर्वसत्तावादी राज्य और नौकरशाही का निर्माण किया, जिसमें वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग करनेवाला हर नागरिक प्रति-क्रांतिकारी, व्यक्तिवादी और समाजविरोधी मान लिया गया। बहरहाल, हम आज जिस समय में हैं उसमें सत्ता के तमाम हिंसाओं और दमन के बावजूद व्यक्ति कम से कम अभिव्यक्तिके मामले में अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है। और यह स्वतंत्रता उसे टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, मोबाइल फोन, फेसबुक आदि ने दी है। अब अभिव्यक्ति की वैयक्तिक-नागरिक आजादी के असर दिखने शुरू हो गए हैं। एक जूलियन असांजे, वाएल गोनिम या तरुण तेजपाल कई बड़े दशों के बड़े राजनेताओं के सामने भारी पड़ रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अज्ञेय और दूसरे बड़े लेखकों के मूल्यांकन का काम अब बड़े संगठनों का मोहताज नहीं बल्कि व्यक्तिया व्यक्तियों के छोटे-छोटे नेटिव समूह भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि अब अबोधताओं और मासूमियतों के युग का अंत हो चुका है। वह इतिहास अब संदेहों के कठघरे में है, जिसे समय-समय की सत्ताओं ने अपने हितों के लिए लिखा था। समय आ गया है कि अज्ञेय, फैज, मंटो, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, ऋत्विक घटक, निर्मल वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र आदि ही नहीं, अन्य पुराने और एकदम समकालीन रचनाकारों के सृजनात्मक योगदान की आलोचना के लिए नए प्रतिमान विकसित किए जाएं। (शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Apr 6 10:24:53 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 6 Apr 2011 10:24:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpLXgpL7gpLDgpY3gpLc=?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KWAIOCkleClhyDgpIbgpIfgpKjgpYcg4KSu4KWH4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkquCksCDgpKzgpLngpLgg4KSG4KSc?= Message-ID: विकीलिक्स की ओर से एक के बाद एक खोजी खबरों और राडिया-मीडिया प्रकरण ने ये साबित कर दिया कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नाम से लेबल चस्पा कर जो पत्रकारिता अब तक की जाती रही है वो दरअसल प्रेस रिलीज और जनसंपर्क का व्यावहारिक रुप है। पत्रकारिता के इस रुप से लोकतंत्र की जड़ें न केवल खोखली हुई है बल्कि इससे इसके विरोधियों की ताकत में लगातार इजाफा हुआ है। एक धंधे के रुप में मीडिया ने कार्पोरेट,दलाली और भ्रष्टाचार की नींव को मजबूती देने का काम किया है। न्यूज चैनलों ने मीडिया के इस रुप पर जहां लगभग चुप्पी मार ली वहीं अखबारों ने इसे बहुत बाद में छापकर अपनी साख बचाने की कोशिश की। कथादेश मीडिया वार्षिकी, अप्रैल अंक इन तमाम घटनाओं और कुचक्रों को बारीकी से रेखांकित करता है। बतौर लेखक अधिकांश नए चेहरों की तल्खी से मौजूदगी ने मीडिया आलोचना की संभावना को विस्तार देने का काम किया है। आज यानी 7 अप्रैल को इस अंक का लोकार्पण और इसके बाद इनमें शामिल प्रसंगों पर खुली बहस का आयोजन है। अगर आप दिल्ली में है,व्यस्त होते हुए भी इस बहस की धार को मजबूती देना जरुरी समझते हैं तो शाम पांच बजे जेएनयू में जुटिए। हम जैसे लोग तो वहां पहले से मौजूद मिलेंगे ही। .......................................................................................... *संगोष्ठी :* विकिलीक्‍स के दौर में मीडिया - संभावनाएं और चुनौतियां वक्ता प्रो. आनंद कुमार, वरिष्‍ठ समाजशास्त्री, JNU प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, चिंतक व लेखक, DU ... उदय प्रकाश, वरिष्‍ठ साहित्यकार डा. आनंद प्रधान, मीडिया विशेषज्ञ, IIMC सिरिल गुप्‍त, संस्‍थापक- 'ब्‍लॉगवाणी' उपस्थिति हरिनारायण, संपादक- कथादेश दिलीप मंडल, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) अविनाश, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) Mohallalive.com समय- शाम 5 बजे दिनांक- 7 अप्रैल, 2011 स्थान- 212, कमेटी रूम, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज, जेएनयू आप सादर आमंत्रित हैं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Apr 6 10:36:04 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 6 Apr 2011 10:36:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpLXgpL7gpLDgpY3gpLc=?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KWAIOCkleClhyDgpIbgpIfgpKjgpYcg4KSu4KWH4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkquCksCDgpKzgpLngpLgg4KSG4KSc?= In-Reply-To: References: Message-ID: दीवान के साथियों माफ करेंगे कथादेश मीडिया वार्षिकी का लोकार्पण कल यानी 7 अप्रैल को है। मैंने आज के बारे में लिख दिया। विनीत 2011/4/6 vineet kumar > > > विकीलिक्स की ओर से एक के बाद एक खोजी खबरों और राडिया-मीडिया प्रकरण ने ये > साबित कर दिया कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नाम से लेबल चस्पा कर जो पत्रकारिता > अब तक की जाती रही है वो दरअसल प्रेस रिलीज और जनसंपर्क का व्यावहारिक रुप है। > पत्रकारिता के इस रुप से लोकतंत्र की जड़ें न केवल खोखली हुई है बल्कि इससे > इसके विरोधियों की ताकत में लगातार इजाफा हुआ है। एक धंधे के रुप में मीडिया ने > कार्पोरेट,दलाली और भ्रष्टाचार की नींव को मजबूती देने का काम किया है। न्यूज > चैनलों ने मीडिया के इस रुप पर जहां लगभग चुप्पी मार ली वहीं अखबारों ने इसे > बहुत बाद में छापकर अपनी साख बचाने की कोशिश की। कथादेश मीडिया वार्षिकी, > अप्रैल अंक इन तमाम घटनाओं और कुचक्रों को बारीकी से रेखांकित करता है। बतौर > लेखक अधिकांश नए चेहरों की तल्खी से मौजूदगी ने मीडिया आलोचना की संभावना को > विस्तार देने का काम किया है। आज यानी 7 अप्रैल को इस अंक का लोकार्पण और इसके > बाद इनमें शामिल प्रसंगों पर खुली बहस का आयोजन है। अगर आप दिल्ली में > है,व्यस्त होते हुए भी इस बहस की धार को मजबूती देना जरुरी समझते हैं तो शाम > पांच बजे जेएनयू में जुटिए। हम जैसे लोग तो वहां पहले से मौजूद मिलेंगे ही। > .......................................................................................... > > *संगोष्ठी :* विकिलीक्‍स के दौर में मीडिया - संभावनाएं और चुनौतियां > वक्ता प्रो. आनंद कुमार, वरिष्‍ठ समाजशास्त्री, JNU > प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, चिंतक व लेखक, DU > ... उदय प्रकाश, वरिष्‍ठ साहित्यकार > डा. आनंद प्रधान, मीडिया विशेषज्ञ, IIMC > सिरिल गुप्‍त, संस्‍थापक- 'ब्‍लॉगवाणी' > उपस्थिति > हरिनारायण, संपादक- कथादेश > दिलीप मंडल, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) > अविनाश, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) Mohallalive.com > समय- शाम 5 बजे > दिनांक- 7 अप्रैल, 2011 > स्थान- 212, कमेटी रूम, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज, जेएनयू > आप सादर आमंत्रित हैं. > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Wed Apr 6 10:44:50 2011 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 6 Apr 2011 10:44:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCkv+CksOCljeCkqyDgpLXgpY3gpK/gpL7gpJbgpY3gpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkqOCkueClgOCkgiwg4KSm4KWB4KSo4KS/4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkrOCkpuCksuCkqOClhyDgpJXgpL4g4KSt4KWAIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWI?= Message-ID: *कल यानी मंगलवार की शाम साहित्‍य अकादमी के सभागार में युवा आलोचक संजीव कुमार को, जिन्‍होंने कहानियां और कविताएं भी लिखी हैं, इस बार का देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान दिया गया है। इस मौके पर दिल्‍ली में मौजूद हिंदी के लगभग सभी जरूरी चेहरे उपस्थित थे। जो नहीं थे, उन्‍होंने अपना पर्चा भेजा था या पुरस्‍कृत आलोचक को उपहार। कविता में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार की तरह ही आलोचना में यह सम्‍मान जैसे एक ब्रांड बन गया है। पिछली बार यह जनसंस्‍कृति मंच प्रतिभाशाली कमांडर प्रणय कृष्‍ण को मिला था। कल इस मौके पर संजीव ने अपने आलोचकीय कर्म की कुछ गुफाएं दिखायीं, जहां अलग अलग तरह की रोशनियों में वे सोचते और समय से संवाद करते हुए दिखे।* * * *मोहल्‍ला लाइव पर उनका आत्‍मकथ्‍य पढ़‍िए... लिंक ये रहा...* * * * http://mohallalive.com/2011/04/06/sanjeevs-speech-in-devishankar-awasthi-award-function/ * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Apr 6 14:10:38 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 6 Apr 2011 14:10:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSC4KSk4KSw?= =?utf-8?b?IOCkruCkguCkpOCksCDgpKrgpLAg4KS54KSy4KSa4KSy?= Message-ID: *दिल दिया है जान भी देंगे**, **ऐ वतन तेरे लिए**: **अन्ना हजारे* * * दिल दिया है जान भी देंगे, ए वतन तेरे लिए...। हालांकि यह पंक्ति फिल्म कर्मा की है। पर, इन दिनों दिल्ली के जंतर मंतर पर सुनाई दे रही है। यहां बैठे अन्ना हजारे इसे रह-रहकर गुनगुना रहे हैं। वे 78 साल के हैं और आमरण अनशन पर हैं। मनमोहन सरकार से मांग कर रहे हैं कि जन-लोकपाल विधेयक का स्वरूप तय करने में नागरिक समाज को शामिल किया जाए। इस मांग को लेकर जब वे पांच अप्रैल को जंतर मंतर पर बैठे तो देशभर से आए हजारों लोग उनके साथ थे। करीब 4 हजार लोगों ने उनके साथ उपवास किया। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे के अनशन को लोगों का व्यापक समर्थन मिल रहा है। पूरे देश में कई धार्मिक नेता और संगठनों ने जगह-जगह अनशन करने की बात की है। अनशन के दूसरे दिन सुबह-सबेरे से ही अन्ना के समर्थन में जंतर मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ताओं आना शुरू हो गया। करीब साढे आठ बजे अन्ना मीडिया के सामने आए औऱ लोगों से बात की। तभी उन्होंने एक ग्लास जल ग्रहण किया। उस समय सूचना के अधिकार को लेकर काम कर रहे मनीष सिसौदिया उनके साथ थे। कुछ देर बाद ही डाक्टर ने उनके स्वास्थ्य की जांच की। और बताया कि अन्ना का स्वास्थ्य सामान्य है। अन्ना के साथ महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित संगमनेर ताल्लुक से आए संजय गेठे ने कहा, “ अन्ना ने गांधीजी का नारा दोहराया है। कहा है कि करेंगे या मरेंगे। यहां हम सभी अन्ना के साथ हैं। ” गेठे ने बताया कि जिले से करीब एक हजार लोग यहां आए हैं। वहीं सामाजिक कार्यकर्ता मनीष सिसौदिया ने कहा कि पहले दिन करीब चार हजार लोग यहां उपवास पर थे। दरअसल, भ्रष्टाचार को रोकने के उद्देश्य से लोकपाल विधेयक का मसौदा एक संयुक्त समिति ने तैयार किया था। उक्त समिति में नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले कई जाने-माने लोग शामिल थे। इनमें सेवानिवृत्त जस्टिस संतोष हेगड़े, कानूनविद प्रशांत भूषण, सूचना के अधिकार के लिए लड़ रहे समाजसेवी अरविंद केजरीवाल का नाम प्रमुख हैं। समिति इसे जन-लोकपाल विधेयक का नाम देती है। अन्ना हज़ारे का कहना है कि इस विधेयक के मसौदे को इसी रूप में क़ानून का रूप दिया जाए। पर इसके लिए फिलहाल सरकार तैयार नहीं दिख रही है। हालांकि, प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान जारी कर अन्ना के आमरण अनशन पर जाने को लेकर निराशा जताई है। बयान में कहा गया है कि प्रधानमंत्री ने इस मामले में मंत्रियों की एक सब कमेटी बनाने का प्रस्ताव रखा था जो विधेयक के बारे में नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं से बातचीत करती लेकिन उन्हें निराशा है कि अन्ना हजारे फिर भी आमरण अनशन कर रहे हैं। वहीं अन्ना का कहना है कि हमारी मांग है कि उक्त समिति में नागरिक समाज के लोगों को भी 50-50 प्रतिशत की औसत से शामिल किया जाए। पर प्रधानमंत्री ने हमारी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया। तब हमने राष्ट्र व समाज हित में आमरण अनशन पर जाने का फैसला किया है। अन्ना अनशन शुरू करने से पहले महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट गए और उन्हें श्रद्धांजलि दी। इस बीच हजारों समर्थक लोकपाल विधेयक के समर्थन में राष्ट्र ध्वज और तख्तियों के साथ महात्मा गांधी के राजघाट संग्रहालय पर एकत्रित हुए।* *अनशन शुरू करने से पहले अन्ना ने पत्रकारों से कहा, "मैं उपवास पर बैठने जा रहा हूं क्योंकि हम लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने में नागरिक समाज की नुमाइंदगी चाहते हैं। हम चाहते हैं कि 50 प्रतिशत सरकार और इतने ही नागरिक समाज के प्रतिनिधि मसौदे को तैयार करें।" उन्होंने कहा, "यदि सरकार बिना लोगों के भागीदारी के विधेयक तैयार करती है तो यह लोकतंत्र नहीं बल्कि नौकरशाही होगी।"** उल्लेखनीय है कि क़ानून और कार्मिक मंत्रालय ने भी लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया है लेकिन अन्ना और अन्य कार्यकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हैं। इस सरकारी मसौदे को यह कहते हुए ख़ारिज़ कर दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की तर्ज़ पर एक स्वतंत्र इकाई का गठन होना चाहिए राज्य और केंद्र स्तर पर जो भ्रष्टाचार संबंधी मामलों में शिकायत सुने छह महीने में जांच करें और दोषियों को सजा दे। इससे पहले अन्ना को आमरण अनशन से रोकने के प्रयासों के तहत महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी उनसे मिले थे, लेकिन उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी पत्र लिखा था और कहा था कि उन्हें महाराष्ट्र के लोगों से इतनी ऊर्जा मिल रही है कि वे आमरण अनशन पर जा सकते हैं। अन्ना हजारे 1965 के भारत-पाक युद्ध के उस यूनिट के सिपाही थे, जिसके दूसरे सभी सदस्य मारे गए । इसके बाद ही अन्ना ने आगे के जीवन को नई जिंदगी माना औऱ उसे समाज के नाम कर दिया। एक बातचीत में उन्होंने बताया कि तब वे 26 के थे। आज जब देश भ्रष्टाचार में डूबा है तो उसे इस संकट से निकालने का वे प्रयास कर रहे हैं। छह अप्रैल की सुबह एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “हम यहां राजनीति करने नहीं आए। भाजपा, कांग्रेस या किसी दूसरी पार्टी से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। यह जनता का मंच है और हम जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं।” *सरकारी बिल और जन-लोकपाल बिल में मुख्य अंतर* *-** **राज्यसभा के सभापति से अनुमति:* सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर ख़ुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरू करने का अधिकार नहीं होगा। सांसदों से संबंधित मामलों में आम लोगों को अपनी शिकायतें राज्यसभा के सभापति या लोकसभा अध्यक्ष को भेजनी पड़ेंगी। जबकि, प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल ख़ुद किसी भी मामले की जांच शुरू करने का अधिकार रखता है। इसमें किसी से जांच के लिए अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्श दे सकता है। वह जांच के बाद अधिकार प्राप्त संस्था के पास इस सिफ़ारिश को भेजेगा। जहां तक मंत्रीमंडल के सदस्यों का सवाल है इस पर प्रधानमंत्री फ़ैसला करेंगे। वहीं जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी। उसके पास किसी भी सरकारी अधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई का अधिकार होगा। सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी। जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा, बल्कि उसके पास पुलिस फोर्स भी होगी। *- **अधिकार क्षेत्र सीमित*** अगर कोई शिकायत झूठी पाई जाती है तो सरकारी विधेयक में शिकायतकर्ता को जेल भी भेजा जा सकता है। लेकिन जनलोकपाल बिल में झूठी शिकायत करने वाले पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। सरकारी विधेयक में लोकपाल का अधिकार क्षेत्र सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री तक सीमित रहेगा। जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमत्री समेत नेता, अधिकारी, न्यायाधीश सभी आएंगे। लोकपाल में तीन सदस्य होंगे जो सभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे। जनलोकपाल में 10 सदस्य होंगे और इसका एक अध्यक्ष होगा। चार की कानूनी पृष्टभूमि होगी। बाकी का चयन किसी भी क्षेत्र से होगा। *-**चयनकर्ताओं में अंतर** * सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति में उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दोनो सदनों के नेता, दोनो सदनों के विपक्ष के नेता, कानून और गृह मंत्री होंगे। वहीं प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में न्यायिक क्षेत्र के लोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय मूल के नोबेल और मैगासेसे पुरस्कार के विजेता चयन करेंगे। लोकपाल की जांच पूरी होने के लिए छह महीने से लेकर एक साल का समय तय किया गया है। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के अनुसार एक साल में जांच पूरी होनी चाहिए और अदालती कार्यवाही भी उसके एक साल में पूरी होनी चाहिए। सरकारी लोकपाल विधेयक में नौकरशाहों और जजों के खिलाफ जांच का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन जनलोकपाल के तहत नौकरशाहों और जजों के खिलाफ भी जांच करने का अधिकार शामिल है। भ्रष्ट अफसरों को लोकपाल बर्ख़ास्त कर सकेगा। *- **सजा और नुकसान की भरपाई*** सरकारी लोकपाल विधेयक में दोषी को छह से सात महीने की सज़ा हो सकती है और धोटाले के धन को वापिस लेने का कोई प्रावधान नहीं है। वहीं जनलोकपाल बिल में कम से कम पांच साल और अधिकतम उम्र क़ैद की सजा हो सकती है। साथ ही धोटाले की भरपाई का भी प्रावधान है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Apr 6 23:51:29 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 6 Apr 2011 23:51:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpLLgpKHgpLzgpL7gpIg=?= Message-ID: भ्रष्टाचार के खिलाफ़ भूख हड़ताल पर बैठे अन्ना हजारे के पक्ष में जंतर मंतर जाती हैं उमा भारती अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बाबा रामदेव द्वारा आयोजित सभा में शरीक़ होते हैं नितन गडकरी मिलने जाते हैं बाबा रामदेव से पतंजलि योगपीठ हरिद्वार देते हैं भाजपा को चंदा चुनाव लड़ने के लिए यह संदेह पैदा करता है कॉंग्रेस के भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं हम लेकिन साम्प्रदायिक भाजपा? नहीं चाहते गुजरात का दंगा हम दोबारा गुंडागर्दी से बाबरी मस्जिद तोडना नहीं भूले हैं हम तहलका जूदेव बंगारू लक्ष्मण घूस काण्ड क्या अन्ना की लड़ाई सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ाई है संदेह होता है साम्प्रदायिक भाजपा से कम खतरनाक है भ्रष्ट कॉंग्रेस इस मुल्क़ के 20 करोड़ अल्पसंख्यकों से पूछ लीजिये. - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Apr 7 10:21:42 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 7 Apr 2011 10:21:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgeCkuOCljeCkpOCkvuCkqCDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSu4KSk4KSy4KSsIOCkreCkvuCksOCkpCDgpLjgpLDgpJXgpL7gpLAg?= =?utf-8?b?4KS54KWLIOCkl+Ckr+CkviDgpLngpYg/?= Message-ID: क ल की शाम दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे और उनके समर्थक जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठे थे और लोकपाल विधेयक लागू जाने की मांग कर रहे थे, वहीं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन अलाइअन्स फ्रांन्सेस (फ्रांस का भाषा और सांस्कृतिक केंद्र) लोदी इस्टेट में दास्तानगोई सुना-सुनाकर हमें लगातार दिल्ली से बाहर मुल्क-ए-कोहिस्तान में खींचे लिये जा रहे थे, जहां बार-बार एक ही आवाज आ रही थी – जुडुम-जुडुम। देशभर के लोग भ्रष्‍टाचार के खिलाफ दिल्ली में जुटे हैं और यहां दिल्ली में रह रहे लोगों को दिमागी तौर पर ही सही घसीटकर बाहर किया जा रहा था, हमारी बेशर्मी को कुचलने की लगातार कोशिशें हो रही थी। और देखते ही देखते हम अपने से ही सवाल करने लगे थे – जंतर-मंतर के नारे सुनाई पड़ते हैं तो फिर कभी छत्तीसगढ़ की चीख हमें क्यों नहीं सुनाई देती? माफ कीजिएगा, लोदी रोड पर इस जुडुम-जुडुम की आवाज कुछ इतनी ऊंची थी कि जंतर-मंतर पर बैठा जो शख्स सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा गा रहा था, अगर वो यहां पहुंच जाता तो वो गाने के बजाय चिल्लाना शुरू कर देता – नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे। *इस मुल्क का* जो हिस्सा घर, गांव, जंगल और कस्बों के बजाय सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया गया हो, लोग घरों के बजाय लश्करों में रहने पर मजबूर हों, हिंदुस्तान के राष्ट्रगान से पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा छिटककर राजनीतिक पार्टियों का एक तिलिस्म बन गया हो, जिसे देश की जनता नहीं अय्यार जादूगर चलाता हो, हिंदुस्तान का मतलब भारत सरकार हो गया हो, जिसे मिली-जुली संस्कृति नहीं, मिली-जुली लंगड़ी-अपाहिज पार्टियां चला रही हों, वहां अन्ना हजारे और उनके समर्थकों के साथ श्रद्धानत होकर सारे जहां से अच्छा हिंदोस्‍तां हमारा गाना मजबूत कलेजे के ही बूते की चीज है। हम जैसे लोगों के लिए ऐसा करने के पहले अभिनय कला की शार्टटर्म ही सही लेकिन कोर्स करने की जरूरत पड़ जाएगी। माफ कीजिएगा, फिजां में राष्ट्रीयता की चिकनाहट कुछ इतनी है कि हमारे शब्द उससे फिसलते हैं, तो खतरा है कि वो सीधे देशद्रोह के साथ जाकर न चिपक जाए और चार दिन पहले जिसे क्रिकेट विरोधी यानी देशविरोधी कहा जा रहा था, अब राष्ट्रगान विरोधी यानी देशद्रोही न करार दिया जाए। इस देश में देशद्रोह होने और कहलाने की शुरुआत प्रतिरोध में खड़ा होते ही हो जाती है। बहरहाल… *छत्तीसगढ़ में* सलवा-जुडूम के नाम पर पिछले कुछ सालों से जो कुछ भी होता आ रहा है और सरकार जिस तरह से देशभक्ति का मशीनी पाठ करते हुए उसके प्रतिरोध में राय रखनेवाले को देशद्रोह, माओवादी और आतंकवादी से भी खतरनाक करार देने का काम कर रही है, महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने *16 मई 2008* को भी अपनी दास्तानगोई में उसे व्यक्त किया था। लेकिन अबकी बार यानी 6 अप्रैल 2011 में जब दोबारा इस मसले पर दास्तानगोई की तो तिलिस्मी फैंटेसी रचते हुए भी उसकी शक्ल पहले से बहुत ही स्पष्ट और साफ-साफ दिखाने-बताने की कोशिश थी। दास्तानगोई की जो कथा संरचना है और भाषाई स्तर पर जो उसके प्रयोग हैं, वो सब इसमें पहले की तरह मौजूद थे लेकिन जो दो-तीन बातें मुझे खासतौर से नयी और बेहतर लगी, उसे रेखांकित किया जाना जरूरी है। *अबकी बार* महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने विनायक सेन पर लगनेवाले आरोपों और उसके बिना पर चलनेवाली अदालती कार्रवाइयों के प्रसंग को प्रमुखता से शामिल किया। उनके ऐसा किये जाने से एक तो सरकार और कानून ऑपरेट करनेवाले लोगों की मानसिकता किन रंग के सुरक्षा धागों और झंडे-पताकों के इशारे पर काम करती है, इसका पता चलता है। हिंदी विभाग के कारखानों से निकलकर जिस क्लिष्‍ट और अनूदित हिंदी का प्रयोग कानूनी पंडित करते हैं, उसके पीछे दरअसल किस तरह की सोच काम करती है, उसे इस दास्तानगोई में बारीकी से शामिल किया गया। विनायक सेन के अदालत में पेश किये जाने और उनके अपने पक्ष में दिये जानेवाले तर्कों को पूर्वनिर्धारित फैसले के भीतर दफन करने की जो प्रक्रिया शुरू होती है, आखिर में उसकी परिणति कैसे एक देशद्रोह साबित करने में होती है। मसलन आपने दाढ़ी क्यों रखी? क्या दाढ़ी रखना गुनाह है? गुनाह तो नहीं लेकिन गुनाह का परिचायक तो है जैसी दलीलें एक के बाद एक दलीलें जब हम सुनते हैं, तो कहीं से नहीं लगता कि ये दास्तानगोई का हिस्सा है बल्कि हमारी समझ पुख्ता होती है कि अदालती कार्यवाही इससे अलग क्या होती होगी? पहले छवि निर्मित करके, उस आधार पर फैसले दिये जाने का जो काम इस मुल्क में चल रहा है, इस पूरे प्रसंग को जानने लिए किसी भी चैनल की स्पेशल स्टोरी देखने के बजाय दास्तानगोई के उस टुकड़े को सुना जाना चाहिए। *महमूद फारुकी* जब इस दास्तानगोई की शुरुआत करते हैं, तो पहले ही बता देते हैं कि ये मुल्क दरअसल तीन सतहों पर बंटा और बिखरा हुआ है। एक सतह जिस पर कि इस देश को चलानेवाले लोग उड़ रहे हैं, जिसमें मंत्री और मीडिया दोनों शामिल है, दूसरी सतह जिस पर कि लोग संसाधनों के स्तर पर सफल होने के लिए जोड़-तोड़ करके कभी चोला तो कभी चैनल बदलकर तैर रहे हैं और तीसरा जिस पर लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए रेंग रहे हैं, मरे जा रहे हैं। महमूद इस मुल्क का विभाजन जब इन तीन स्तरों पर करते हैं, तो मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” अचानक बिजली की तरह कौंधती है। दास्तानगोई में स्तरों का विभाजन एक बुनियादी संरचना है, जिसमें पर्दे की बात की जाती है। चूंकि वहां तिलिस्मी दुनिया होती है, जहां जो होता है, वो दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता वो होता है लेकिन इस दास्तानगोई में जो दिखाई दे रहा था, वो था भी और जो था वो दिखाई भी दे रहा था लेकिन फिर सवाल यही तो फिर कुछ होता क्यों नहीं? इस तिलिस्मी फैंटेसी में भी सरकार अय्यारों से भी ज्यादा शातिर है, जो जल-जंगल-जमीन को ध्वस्त करके विकास के अपने मायने गढ़ रही है और जनता के असंतुष्ट होने पर उल्टे उन्हीं से सवाल कर रही है कि जब देश 9 फीसदी की दर से विकास कर रहा है तो फिर भी सवाल करने का, असंतुष्ट होने का क्या तुक है? *कुल मिलाकर*, महमूद फारुकी और दानिश को दर्जनों बार पिछले कई सालों से दास्तानगोई करते देखता-सुनता आया हूं लेकिन कल शाम पहली बार महसूस किया कि दास्तानगोई के लिए कोई अलग से तिलिस्मी दुनिया रचने औऱ फिर उसमें कहानियां सुनाने की जरूरत नहीं है। इस देश से बड़ा, तिलिस्म और सरकार से बड़ा शायद ही कोई अय्यार होगा, जो चालीस करोड़ से ऊपर की आबादी के गरीबी रेखा से नीचे होने पर भी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को ऊपर ठेलता चला जा रहा हो और राष्ट्रगान की अंतिम लाइन जिसे कि 15 अगस्त और 26 जनवरी सहित साल के बाकी दिनों में भी गाया जाता हो – ऑल इज वेल। ♦♦♦ द लील : खचाखच भरे सभागार में बैठने क्या हमें तो कायदे से खड़े रहने की भी जगह नहीं मिल रही थी। लिहाजा हमने दर्जनों बोलते मुंहों और फुसफुसाती जुबान के बीच अपने कान खड़े करके कुछ सुनने की कोशिश की और इंसानों के कैदखाने के बीच से अपना रिकॉर्डर मुक्त करने की कोशिश करता रहा ताकि कुछ आवाज यहां तक पकड़ में आये। इस आपाधापी के बीच शुरुआत के कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो बाकी आवाज बहुत ही साफ है, आप सुनना चाहें तो जरूर सुनें। खासकर विनायक सेन और अदालती प्रसंग। आपको हिंदी भाषा, सरकार की मानसिकता और उसके प्रतिरोध में खड़ा होने पर क्या हश्र होगा, के अंदाज में क्या किया जाता है, सब समझने को मिलेगा। तो एक बार नीचे के लिंक पर चटका लगाकर जरूर सुनें - *www.zshare.net* *हमने* जिस शाम जंतर-मंतर पर भ्रष्‍टाचार के विरोध में बैठे अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को कवर करते हुए सैकड़ों छोटे-बड़े समाचार चैनलों को देखा, वहीं विनायक सेन की रिहाई में आवाज उठानेवालों लोगों को सुनने-समझने के लिए चैनल की न तो एक गाड़ी दिखाई थी और न ही लेबल लगी कोई माइक ही। दोनों जगहों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाजें उठायी जा रही थी। फर्क था तो सिर्फ इतनाभर कि जंतर-मंतर पर जो लोग आवाज उठा रहे थे, वो अपने को देशभक्त कहलाकर गौरवान्वित हो रहे थे लेकिन लोदी इस्टेट में विनायक सेन की रिहाई की मांग और उनके साथ जबरदस्ती करने के विरोध में आवाज उठानेवाले इस देशभक्ति को फिर से पारिभाषित करने की मांग कर रहे थे। दोनों में समानता थी तो इस बात को लेकर कि देशभक्ति की परणिति इंसानियत ही है। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Thu Apr 7 14:57:26 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Thu, 7 Apr 2011 14:57:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSv4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSh4KSX4KSwIOCkqOCkr+CkviDgpLjgpKvgpLzgpLAg4KSu4KWH4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSDIOCkhuCkriDgpIbgpKbgpK7gpYA=?= Message-ID: ***"**धुआँ छटा खुला गगन मेरा* * **नयी डगर नया सफ़र मेरा** **जो बन सके तू हमसफ़र मेरा** **नज़र मिला ज़रा....** *" (रंग दे बसंती) मैं एक आदमी हूं, जो हर सुबह जगता है, काम पे जाता है और शाम में घर लौट आता है। करप्शन का सबसे सॉफ्ट टारगेट मैं ही हूं। जो काम मेरा अधिकार है, उसके लिए मैंने रिश्वत दी है। रिश्वत जो मुल्क का पर्यायवाची बन गया है, हर काम के लिए रिश्वत। राडिया, राजा, लालू, शिबू, सुखराम और न जाने कितने चेहरे, जिसने अपने और अपने परिवार की समृद्धि के लिए मुल्क को चाटकर खा लिया और मैं एक आदमी अबतक चुप बैठा रहा। विरोध में आवाज उठाने से पहले मैं सौ बार सोचता था, वजह साफ है, दरअसल मैं कंफर्ट जोन से बाहर निकल नहीं पा रहा था, कि तभी एक आंधी चली। आंधी, जिसमें धूल कम और हवा की रफ्तार अधिक थी। आंधी ने हर एक के ड्राइंग रूम से लेकर बेडरूम तक में दस्तक दी है। एक योगी, एक महात्मा, एक सदाचारी, एक सैनिक, एक जागरूक और एक बूढ़ा-जवान इंसान ने इस बड़ी आंधी को खड़ा किया है। मैं जो अबतक डरा-सहमा था,आज खुलकर बोल रहा हूं। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि समाज के तथाकथित बड़े लोग मेरे साथ खड़े हैं या नहीं,मुझे खुशी है कि एक कॉमन मैन के साथ मुल्क का हर कॉमन मैन खड़ा है। कंप्यूटर से लेकर चौपाल तक आज मेरे लिए जारी जंग की चर्चा हो रही है। हर कोई अपने स्तर से कदम बढ़ा रहा है। मोमबत्ती की लौ जलती रहे, इसके लिए हर एक इंसान मेरे साथ खड़ा है। मुझे न ही सचिन, न ही धोनी और न ही आमिर खान का सहारा चाहिए। मुझे पता है कि मैं आम आदमी हूं और मुझे अपनी ताकत का भी अहसास है। मुझे दुख है कि अबतक सोया था, लेकिन अब जग गया हूं। करप्शन के खिलाफ हम सब आम इंसान अन्ना के साथ हैं। अब यह सचिन, धोनी या उन जैसे अन्य तथाकथित बड़े लोगों पर निर्भर करता है कि वे हमारे साथ हैं या नहीं। हमने अपनी राह चुन ली है, अन्ना ने हमारे लिए लौ जलाई है। यह लौ बुझ न पाए, यह हम सब निर्भर करता है। मैं हर जगह अन्ना के साथ हूं, पेशेवर की तरह नहीं, एक साथी की तरह। जब कोई कोई पूछता है तो यही कहता हूं कि मैं अपने लिए आया हूं, आता रहूंगा ताकि आने वाली पीढि को अपने काम के लिए रिश्वत न देना पड़े. मेरे पिता जिस काम के लिए ५० रुपये देते थे, मैं ५०० देता हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे ५००० रुपये दें। मैं चाहता हूं कि उसे यह पता भी न हो कि रिश्वत क्या बला है। वह जाने कि सन २०११ तक मुल्क में रिश्वत नाम की एक बीमारी थी, जिसे एक बाबा ने नष्ट कर दिया। अन्ना हमारी पीढ़ी के लिए गांधी बाबा है। बाबा, हम आपके साथ हैं....तबतक..जबतक... यह आम आदमी, मुल्क के हर आम आदमी से यह कहता है कि यदि वे अबकी बार अन्ना के साथ नहीं हैं तो हर सुबह अखबार के पहले पन्ने पर नीरा राडिया और उन जैसे तमाम लोगों की खबरों को पढ़ते हुए यह कहने का का भी उन्हें अधिकार नहीं है कि इस देश को करप्शन ने चाटकर नष्ट कर दिया है.... *"**जो गुमशुदा-सा ख्वाब था** **वो मिल गया वो खिल गया** **वो लोहा था पिघल गया** **खिंचा खिंचा मचल गया** **सितार में बदल गया... "** *(रंग दे बसंती) गिरीन्द्र कानपुर 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Fri Apr 8 12:29:02 2011 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 7 Apr 2011 23:59:02 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCliyDgpJXgpLngpYDgpIIg4KSq4KS/4KSq4KSy4KWAIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOCkpOCljeCkpeCkviDgpKgg4KSs4KSo4KS+IOCkpuClh+CkgiA=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCksuCli+Cklw==?= Message-ID: <616700.44939.qm@web121702.mail.ne1.yahoo.com> अन्ना को कहीं पिपली का नत्था न बना दें ये लोग अन्ना और नत्था में अंतर तो बहुत हैं लेकिन बहुत समानता भी देखी जा सकती है या कहें कि खोजी जा सकती है। नत्था की जमीन गिरवी पर थी, बचाने के लिए उसने सोचा जान ही दे दी जाए। अन्ना का देश गिरवी पर है, बचाने के लिए जान देने के लिए तत्पर हैं। वहाँ पिपली था, यहाँ जंतर-मंतर है। तमाशा जारी है। पता नहीं क्यों मुझे सारे आन्दोलन अब राष्ट्रीय स्तर के प्रहसन नजर आने लगे हैं। पिपली की तरह जंतर-मंतर पर सबकुछ सज चुका है। मीडिया, नेता, प्रशासन, पुलिस, पब्लिक सब जुट गए हैं। प्रहसन इसलिए यहाँ हमारे यहाँ हर महत्वपूर्ण चीज को प्रहसन में बदलने का इतिहास रहा है। यहाँ यह देश और इसके लोग किसी भी बड़े से बड़े 'आन्दोलन' को प्रहसन में बदलने की कला में माहिर हैं। अब देखिए चौटाला, उमा, मोदी आदि पता नहीं कौन-कौन से लोग इसे समर्थन दे रहे हैं। 'आन्दोलन' को एक व्यक्ति सापेक्ष शब्द समझकर देखिए। हर 'आन्दोलन' के हश्र को उन व्यक्तियों के दिलों से पूछकर देखिए जो इनका समर्थन करते थे। पिपली के नत्था से अन्ना की तुलना करने वाला मेरा एक लंगोटिया मित्र चंद्र मोहन कल कह रहा था लोहिया के पास बैंक खाता नहीं था और लोहिया के लोग अब बैंक ही साथ में लेकर घूमते हैं। यहाँ के वामपंथी आन्दोलन को लीजिए। फिर राम जन्मभूमि आन्दोलन को लीजिए। वे तो अमेरिकी अधिकारियों को सफाई देते हैं कि राम तो उनके लिए महज सत्ता में आने का मुहरा हैं। गांधी के सत्याग्रह के भी तमाम आंदोलनों की राजनैतिक परिणति या हश्र देखिए। राष्ट्रभाषा के लिए लड़ाई का परिणाम देखिए। सबकुछ। बताएँ अगर एक भी आन्दोलन अपने लक्ष्य को पाने में सफल रहा है। इस बार कंधा है अन्ना हजारे का - एक बहत्तर साल के बूढ़े का। हालाँकि अन्ना ने भी अपने बाल यूँ ही सफेद नहीं किए हैं, फिर भी मुझे पता नहीं, क्यों लगता है कि बिला वजह हम भारी-भरकम आशा कर रहे हैं। यहाँ इस देश में हमारी आशा के चूल्हे पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले इतने धुरंधर बैठे हैं कि क्या कहने। यहाँ जंतर-मंतर से किसी तहरीर की उम्मीद व्यर्थ है और अगर कुछ ऐसा होने भी लगा तो बाजीगरों की एक स्थापित जमात बैठी हुई है जो उसे फिर से जंतर-मंतर बना देगी। अन्ना की आँखों में वैसी निराशा तो नहीं है जैसी नत्था के आँखों में दिखती है...लेकिन आजादी के पहले निराशा तो गांधी की आँखों में भी नहीं दिखता होगा। उन्हें क्या पता था कि उनके ही सिपाही भारत की आजादी की उनकी आँखों से सामने ऐसी दुर्गति करेंगे कि वे दिल्ली में झंडा पहली बार फहरते भी नहीं देखना चाहेंगे। अन्ना को लोग छोटे गांधी कहते हैं। बड़े गांधी छोटे-मोटे मक्कारों की छोटी-मोटी फौज से नहीं लड़ सके थे, ये छोटे गांधी पता नहीं इन बड़े-बड़े मक्कारों की भारी-भरकम अक्षौहिनी सेना का क्या कर पाएँगे। यहाँ लड़ाई अब दो-एक लोगों से नहीं बची है। भ्रष्टाचार से लड़ाई का मतलब है लगभग हर आदमी से लड़ाई, पूरी कौम से लड़ाई। सर्वेक्षण करवाएँ तो पता चलेगा कि ईमानदार आदमी का प्रतिशत शून्य दशमलव शून्य शून्य एक भी नहीं है। और इसलिए तो शक है। भ्रष्टाचार के प्रति एकाएक ये आग कैसी। भूखा तो अन्ना को रहना है...भूखे पेट की उस आग पर थोड़ी-बहुत ही अपनी रोटी भी सिंक जाए शायद इतनी ही हमारी मंशा है। मैं बस दुआ करता हूँ कि अन्ना को इस आंदोलन के बाद मिले सदमें से निपटने की शक्ति दे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Apr 8 13:45:43 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Fri, 8 Apr 2011 13:45:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWA4KSs?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJzgpK7gpYDgpKgg4KSq4KSwIOCkheCkruClgOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkleCkrOCljeCknOCkvjog4KSq4KWA4KS14KWAIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSc4KSX4KWL4KSq4KS+4KSy?= Message-ID: आज जैसे-जैसे जमीन की कीमत बढ़ती जा रही है, उसकी छीना झपटी भी बढ़ी है.देश भर में आदिवासियों की जमीन अलग-अलग बहानों से छीनी जा रही है. बारा, शिवपुरी, ग्वालियर में छोटा-छोटा पंजाब बसा हुआ है. चूंकि पंजाब से जाकर लोगों ने कम कीमत पर आदिवासियों की जमीन इन इलाकों में खरीदी. जिससे आदिवासी बेघर हुए. एकता परिषद ने ऐसी 650 एकड़ जमीन लहरौली में गरीबों को वापस कराई. यह सही है कि सरकार के लिए सभी गरीबों को जमीन देना मुश्किल है लेकिन जिन लोगों के पास पहले से जमीन है, उनकी जमीन की हिफाजत की जिम्मेवारी तो सरकार ले ही सकती है. आदिवासी इलाकों में जाकर देखिए, जमीन आदिवासी के नाम पर और जोत कोई और रहा है. ट्रेक्टर आदिवासी के नाम पर लेकिन कब्जा किसी और का है. बुंदेलखंड में जमीन, जंगल सब ताकतवर लोगों के हाथ में है. आज जिन संसाधनों पर गरीब आदिवासी काबिज हैं, उन्हें इनसे छीन कर अमीर लोगों के हाथों में पहुंचाया जा रहा है. आज राष्ट्रीय उद्यान, वाइल्ड लाईफ सेन्चुरी, टाइगर रिजर्व जैसी परियोजनाओं के नाम पर लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को विस्थापित किया गया है और बदले में सरकार से कोई मुआवजा भी नहीं मिला है. नक्सली भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में होने वाले हरेक प्रकार के उत्खनन में हिस्सेदार हैं. उनकी गतिविधियां भी इसी दम पर फल-फूल रहीं हैं. स्थितियां कुछ इस तरह की हैं कि सरकारी नौकरी करने वालों से लेकर ठेकेदार जैसे प्रभावशाली लोगों को कनफ्लिक्ट जोन ही प्यारा है. एवरीबडी लव्स ए गुड कनफ्लिक्ट. संघर्ष का क्षेत्र वास्तव में आज के समय का सबसे लाभ देने वाला व्यवसाय है. कई बार अहिंसक किस्म के आंदोलनों के साथ भी यह अनुभव सामने आया है कि उसे नक्सल आंदोलन को बढ़ावा देने वाला आंदोलन कहकर प्रचारित किया गया है. सरकार नक्सली, उल्फा, बोडो सबसे बात करने को तैयार हैं, लेकिन उन लोगों के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है जो लोग अहिंसक तरीके से आंदोलन चला रहे हैं. सरकार को चाहिए कि वह हिंसा की जगह अहिंसा को बढ़ावा दे. जो लोग अहिंसक रास्ते से अपनी बात कहना चाहते हैं, उन्हें भी सुने. सरकार के पास सुरक्षा का लंबा चौड़ा बजट है लेकिन उसके पास शांति को लेकर कोई बजट नहीं है. शांतिपूर्ण तौर-तरीकों से ही चंबल में डकैतों का आत्मसमर्पण हुआ. यदि सरकार हिंसा के दम पर यह करने जाती तो करोड़ों रुपए खर्च होते और सफलता भी संदिग्ध रहती. जहां नक्सल समस्या है, वहां की बात न करें तो भी जिन इलाकों में यह समस्या नहीं है, वहां शांति बनी रहे, इसके लिए सरकार के पास क्या योजना है? देश का महानगरीय समुदाय समझता है कि जमीन, किसान और पानी के मुद्दे से उसका क्या सरोकार लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा कि यह सब गरीबों के हाथों से छीनना न रुका तो अपना सब कुछ गंवा चुका एक आदिवासी या गरीब व्यक्ति गांव में कैसे रहेगा. यदि यह सब यूं ही चलता रहा तो उन करोड़ों लोगों को महानगरों में पनाह देने के लिए इन महानगरीय समुदाय के लोगों को तैयार रहना चाहिए. सब कुछ यूं ही चलता रहा तो वे सब लोग महानगरों की तरफ ही आएंगे. यहीं झुग्गी डालकर रहेंगे और कभी वापस नहीं जाएंगे क्योंकि वे अपना सब कुछ सरकार के हाथों गंवाकर ही तो यहां आएंगे. यदि हम अपने आराम को ठीक प्रकार से समझते हैं तो हमें दूसरों के आराम को भी समझना होगा. मध्यम वर्ग को यह समझना चाहिए कि वे आदिवासी और गरीब किसानों की कब्रा पर लिखी जा रही विकास की कहानी के ऊपर कैसे सो पाएंगे. सरकार को भी यह समझना चाहिए कि गरीबों-वंचितों को समाज को विभिन्न तरह की योजनाओं के तहत पचास-सौ रुपए बांटकर वह समाज में कल्याणकारी छवि तो बना सकती है लेकिन इस तरह से कभी आत्मनिर्भर समाज का निर्माण नहीं कर पाएगी. बल्कि इसके चलते मांगने वालों का समूह तैयार होगा. संरचनात्मक हिंसा को समझे बिना और उस पर लगाम लगाए बिना हम समाज के हिंसा पर काबू नहीं पा सकते. -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Fri Apr 8 20:57:40 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Fri, 8 Apr 2011 20:57:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KSF4KS4?= =?utf-8?b?4KSyIOCksuCkoeCkvOCkvuCkiCDgpJXgpYcg4KSn4KWN4KSw4KWB4KS1?= =?utf-8?b?IOCkheCkqOCljeCkqOCkviDgpJTgpLAg4KSt4KWN4KSw4KS44KWN4KSf?= =?utf-8?b?4KS+4KSa4KS+4KSwIOCkueClgCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?q?!!?= Message-ID: दोस्तों, सामाजिक गतिविज्ञान का एक अदना विध्यार्थी होने और खुद की समझ की सीमाओं के चलते मैं न तो शशिकांत जी की कविता के उस राग कि "साम्प्रदायिक भाजपा से कम खतरनाक है भ्रष्ट कॉंग्रेस", और न ही राजेश रंजन जी के निराशावादी अलाप कि " अन्ना और नत्था में अंतर तो बहुत हैं लेकिन बहुत समानता भी खोजी जा सकती है" से खुद को संतुष्ट पा रहा हूँ। ऐसा भी नहीं है कि खुद को गिरीन्द्र के उस उत्साह में भागीदार पता हूँ जो यह कहे कि "मैं हर जगह अन्ना के साथ हूं, पेशेवर की तरह नहीं, एक साथी की तरह"। साथ ही साथ, जंतर-मंतर की आवाजों और लोदी इस्टेट में विनायक सेन की रिहाई की मांग और उनके साथ जबरदस्ती करने के विरोध में उठी आवाज में मुझे कोई बुनियादी फर्क नहीं सुनाई पड़ता है। इसकी वजह ठोस है। आप ये तो मानेंगे कि नागरिक समाज की सरगर्मियां न सिर्फ इस मुल्क बल्कि दुनिया के पैमाने पर, हाल के वर्षों में, पहले की तुलना में कहीं व्यापक और प्रभावशाली हुईं हैं। तब यह सन्दर्भ, और अन्ना के समर्थन में आज ज़ारी नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपुल्स मूवेमेंट का वह बयान जो कि साम्प्रदायिकता, पितृसत्ता और जातिवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई अनवरत ज़ारी रखने कि प्रतिबद्धता दोहराता है, मुझे सोचने का कुछ हौसला भी देता है। याद हो कि नर्मदा, गुजरात और आदिवासी इलाकों तक अगर किसी ने सत्ता के गैरजिम्मेवार रुख को जवाबदेही के दायरे में लाने की अथक कोशिश ज़ारी रखी है तो वह यह नागरिक समाज ही है। सत्ता में बैठी पार्टी का यह रुख कि वे लोकपाल के तो समर्थक है लेकिन नागरिक समाज की कानून निर्माण प्रक्रिया में बराबर की भागीदारी के नहीं दरअसल इसी सच्चाई को उजागर करता जान पड़ता है। इस लिए भी यह समझना होगा कि सत्ता में बैठे लोग कानून बनाने के अपने विशेषाधिकार में नागरिक समाज या जनता की भागीदारी के हामी क्यों नहीं हैं? और इस दृष्टिकोण से देखें तो लड़ाई कही ज्यादा बड़ी और साफ़ नजर आती है। साथ ही यह भी कि लड़ाई के ध्रुव महज अन्ना और भ्रस्टाचार ही नहीं हैं.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 9 11:32:59 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 9 Apr 2011 11:32:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSj4KWN4KSj?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKgg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KS44KWN4KSk4KS14KS/4KSVIOCkuOCkq+CksuCkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSm4KS/4KSX4KWN4KSnIOCkueCli+Ckl+ClgCE=?= Message-ID: यदि अण्णा का आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो खबर का सौदा करने वाले अखबार और चैनल दोनों को कायदे से अण्णा के खिलाफ होना चाहिए। यदि वास्तव में यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो देश के उद्योगपतियों और धनबलियों को इस आंदोलन के खिलाफ होना चाहिए, यदि वास्तव में यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो जिन एनजीओ के खुद के अकाउंट दुरुस्त ना हों, जिन एनजीओ में हिसाब किताब को लेकर पारदर्शिता ना बरती जाती हो, उन सबको इस आंदोलन से डरना चाहिए, यदि आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो विकास के पैसों के कमिशन से अपना धन जोड़ने वाले नेताओं को इससे दूर रहना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा है यदि नहीं तो आंदोलन कागजी सफलता पा ले लेकिन उसकी वास्तविक सफलता संदिग्ध होगी। http://ashishanshu.blogspot.com/2011/04/blog-post.html -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 9 11:32:59 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Sat, 9 Apr 2011 11:32:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSj4KWN4KSj?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKgg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KS44KWN4KSk4KS14KS/4KSVIOCkuOCkq+CksuCkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSm4KS/4KSX4KWN4KSnIOCkueCli+Ckl+ClgCE=?= Message-ID: यदि अण्णा का आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो खबर का सौदा करने वाले अखबार और चैनल दोनों को कायदे से अण्णा के खिलाफ होना चाहिए। यदि वास्तव में यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो देश के उद्योगपतियों और धनबलियों को इस आंदोलन के खिलाफ होना चाहिए, यदि वास्तव में यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो जिन एनजीओ के खुद के अकाउंट दुरुस्त ना हों, जिन एनजीओ में हिसाब किताब को लेकर पारदर्शिता ना बरती जाती हो, उन सबको इस आंदोलन से डरना चाहिए, यदि आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो विकास के पैसों के कमिशन से अपना धन जोड़ने वाले नेताओं को इससे दूर रहना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा है यदि नहीं तो आंदोलन कागजी सफलता पा ले लेकिन उसकी वास्तविक सफलता संदिग्ध होगी। http://ashishanshu.blogspot.com/2011/04/blog-post.html -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Apr 10 15:26:15 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 10 Apr 2011 15:26:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSuIOCkruClgeCkqOCljeCkqOClgCDgpLjgpYcg4KSc4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KS+IOCkrOCkpuCkqOCkvuCkriDgpLngpYHgpIgg4KSs4KSw4KSW?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpuCkpOCljeCkpA==?= Message-ID: न्यूज चैनल के सबसे चमकते चेहरे के तौर पर बरखा दत्त की सोशल इमेज पूरी तरह करप्ट हो चुकी है। डॉ. प्रणय राय ने एनडीटीवी की व्यावसायिक मजबूरी के तहत उनकी बदनामी को भले ही नजरअंदाज करने की कोशिश की हो लेकिन ऑडिएंस ने उन्हें एक बार फिर से बता दिया कि वो पत्रकारिता करने का नैतिक आधार पूरी तरह खो चुकी है। इस बात को जानने-समझने के लिए कोई सर्वे करने की जरुरत नहीं बल्कि कल रात इंडिया गेट पर बरखा दत्त के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी वीडियो फुटेज देखकर ही आसानी से समझा जा सकता है। ये वीडियो भी किसी चैनल या मेनस्ट्रीम की मीडिया ने नहीं बल्कि हमारी-आपकी तरह ही देश के एक आम इंसान ने शूट करके डाली है। कल की रात जब देशभर के चैनल जश्न की रात करार देकर इंडिया गेट से लाइव कवरेज दिखा रहे थे,अन्ना हजारे को इस युग का गांधी करार दे रहे थे,भ्रष्ट्राचार यानी सरकार की हार और ईमादारी यानी जनता की जीत के एक-एक क्षण को कैमरे में कैद करके टेलीविजन स्क्रीन पर उगल दे रहे थे, जिसमें कि एनडीटीवी24x7 की मैनेजिंग एडीटर और वी दि पीपल शो की मशहूर एंकर बरखा दत्त भी शामिल थी,ठीक उसी समय वहां जुटी जनता ने बरखा दत्त के विरोध में नारे लगाने शुरु कर दिए। नारा था- बरखा दत्त हाय,हाय, दलाल पत्रकार हाय,हाय,बरखा दत्त बाहर जाओ,बाहर जाओ,बाहर जाओ,कार्पोरेट मीडिया दलाल हाय,हाय। ऐसे में चैनल के संजय आहिरवाल जैसे वयोवृद्ध और गंभीर पत्रकार को हारकर अंत में साइड हो जाने के अलावे कोई रास्ता न बचा था। मीडिया ने जो समझ हमें अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को लेकर दी है,उसके हिसाब से इसकी व्याख्या करें तो जिस तरह से देशभर में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगानेवाले और सड़कों पर उतरनेवाले लोग अपनी स्वाभाविक इच्छा से इसके समर्थन में आए थे,ठीक उसी तरह जिन लोगों ने बरखा दत्त के खिलाफ नारे लगाए और उन्हें दलाल पत्रकार कहा,वो भी इन्हीं सामान्य लोगों में से बीच के लोग रहे थे। बरखा दत्त को देखकर उनका गुस्सा स्वाभाविक तौर पर उसी तरह फूट पड़ा था,जिस तरह से अन्ना हजारे की ईमानदार कोशिश को देखते ही उससे जुड़ने का मन हो आया था। लोगों का गुस्सा इस मामले में स्वाभाविक था कि जिस पत्रकार पर भ्रष्टाचार होने के आरोप लगे हों, जिसने दलाली करके कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने का काम किया हो, जिसके कारनामे से मीडिया पूरी तरह कलंकित हो चुका हो,उसे भला भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का क्या अधिकार है? इससे ठीक विपरीत,जब तक ये मामला पूरी तरह स्पष्ट न हो जाए कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जो घोटाले हुए हैं और कॉर्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया के साथ मिलकर उसने मंत्री बनाने-बिगड़ाने से लेकर सौदेबाजी तक का काम किया हो,उसे इस पेशे से दूर ही रहना चाहिए। लेकिन उस वक्त एनडीटीवी और बरखा दत्त ने अपनी तरफ से सफाई देते हुए बेशर्मी से मीडियाकर्म में लगी रही। एनडीटीवी की साख मिट्टी में मिल जाने के बावजूद गले की फांस बन चुकी बरखा दत्त को तब निकालना भी आसान नहीं था। चैनल के ऐसा करने से ये साबित हो जाता कि सचमुच बरखा दत्त के हाथ इस पूरे मामले में सने हैं और जब ये संदेश एक बार चला जाता तो उंगलियां इस बात को लेकर भी उठती कि ऐसा हो ही नही सकता कि इन सारी बातों की जानकारी प्रणय राय को नहीं रही होगी। इससे होता ये कि पूरा का पूरा चैनल शक के घेरे में आ जाता। ऐसा करके चैनल ने अपनी साख बचाने की कोशिश में बरखा दत्त को बने रहने दिया। इतना ही नहीं पहले तो चैनल के सीइओ नारायण राव ने ओपन पत्रिका सहित जिसने कि बरखा दत्त को लेकर स्टोरी की थी और टेप प्रकाशित की थी,धमकी दी और फिर बाकी लोगों के लिए भी कहा कि अगर किसी ने बदनाम करने की कोशिश की तो उसका अंजाम ठीक नहीं होगा और फिर 30 दिसंबर रात 10 बजे NDTV 24X7 पर RADIA TAPE CONTROVERSY नाम से कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इस कार्यक्रम में संजय बारू,(संपादक बिजनेस स्टैन्डर्ड, स्‍वपन दासगुप्‍ता( सीनियर जर्नलिस्ट), दिलीप पडगांवकर( पूर्व संपादक दि टाइम्स ऑफ इंडिया) और मनु जोसेफ( संपादक, ओपन मैगजीन) को बरखा दत्त से सवाल-जबाब के लिए पैनल में शामिल किया गया। इस बातचीत के अलावे आगे बरखा दत्त ने किसी भी चैनल पर बात करने से मना कर दिया और ये मानकर चली कि उनका काम हो गया है और उन्होंने ऑडिएंस को अपने पक्ष में कर लिया है। लेकिन इस शो के बाद हेडलाइंस टुडे की बातचीत सहित बाकी मंचों पर भी लोगों की प्रतिक्रिया सामने आयी कि बरखा दत्त किसी भी तरह से भरोसा नहीं दिला पायी। लिहाजा बरखा दत्त को लेकर ओपन,आउटलुक की स्टोरी और इन्टरनेट पर तैरते नीरा-बरखा टेप सुनकर जो राय बनी थी,वही टिककर रह गयी। लोगों के मन में स्थायी तौर पर ये बात बैठ गयी कि बरखा दत्त देश की एक ऐसी पत्रकार है जिस पर कि किसी भी सूरत में भरोसा नहीं किया जा सकता। कल रात जतंर-मंतर पर देश के आम दर्शकों ने उसके प्रति अपनी जो भावना जाहिर की, वह इसी स्थायी छवि की परणति है। उससे ये साबित हो गया कि पत्रकार की छवि,मीडिया और दर्शकों की प्रतिक्रिया का मामला इतना आसान नहीं है। इतनी आसानी से किसी बदनाम हो चुके पत्रकार का मेकओवर नहीं किया जा सकता। बरखा दत्त जैसी किसी भी पत्रकार के लिए अब ब्रिटिश काउंसिल या इंडिया हैबिटेट सेंटर जैसी सुरक्षित जगहों पर जाकर "वी दि पीपल" जैसे शो करना फिर भी आसान है लेकिन आम लोगों के बीच से लहराते हुए पीटीसी करना नामुमकिन ही नहीं,असंभव दिख रहा है। बदनाम मुन्नी से जोड़कर इस पत्रकार की छवि को देखें तो ऑडिएंस ने उस बदनाम मुन्नी को भी हाथोंहाथ लिया,अपना प्यार और सम्मान दिया लेकिन इस बदनाम बरखा के प्रति उनकी हिकारत,नफरत और उबाल को वो किसी भी सूरत में दबा नहीं पा रहे हैं। इससे पूरे प्रकरण में सबसे जरुरी बात है कि ऑडिएंस को लेकर मीडियाकर्मियों के जो मिथक हैं कि इनकी यादाश्त बहुत ही कमजोर होती है और लॉफ्टर चैलेज शो के बीच वो इन सब बातों को बहुत जल्द ही भूल जाते हैं,वो ध्वस्त हुए हैं। नबम्वर में हुई इस घटना को अप्रैल तक आते-आते भी देश की ऑडिएंस अपनी याद में जस की तस बनायी हुई थी। तभी तो बरखा दत्त को देखते ही जिस तरह से उसने रिएक्ट किया,ऐसा लगा कि मानो ये कल-परसों की ही बात है। 5 अप्रैल को अन्ना हजारे और उनके समर्थक जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठे थे,हमने अपनी फेसबुक वॉल पर तभी लिखा था कि हम देश में फैले भ्रष्टाचार पर बात करने के साथ-साथ मीडिया में फैले भ्रष्टाचार पर भी बात करें। मीडिया के भीतर की गंदगी और दोगलेपन को हम लगातार देखते आ रहे हैं लेकिन कभी मीडियाहाउस ने इस पर बात नहीं की। कल रात यानी 9 अप्रैल को जो हुआ,उससे ये साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में जो मुहिम चली है,उसके निशाने पर मीडिया भी है। मीडिया ने अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश की थी कि पहले पेड न्यूज और फिर बाद में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला,राडिया-मीडिया प्रकरण में जो साख पूरी तरह गंवा चुकी है,उसे अन्ना की इस मुहिम की लगातार कवरेज करके मेकओवर कर ले। उसने इसे कभी हायपर देशभक्ति तो कभी नोशन ऑफ सिलेब्रेशन तक ले जाने की जी-जान से कोशिश की जिसका असर भी हुआ और देश की एक बड़ी आबादी इसमें समा गयी। लेकिन इसी आबादी से कुछ लोग ऐसे भी निकलकर सामने आए जिसने कि मीडिया पर भी सवाल किया और बरखा दत्त जैसी पत्रकार को आइना दिखाने का काम किया । कोई खुद भ्रष्ट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बात नहीं कर सकता। इस पूरी घटना की कोई भी फुटेज,किसी भी चैनल ने नहीं दिखाई। सब अन्ना,अनशन और उत्सव में लगे रहे जिससे देशभर में व्यापक संदेश गया है कि मीडिया खुद चाहे कितनी भी गड़बड़ी कर ले,वो खबर का हिस्सा नहीं बन पाएगा। उनके लिए भ्रष्टाचार का मतलब अपने को माइनस करके दिखाना है। लेकिन जिन चैनलों ने अन्ना की इस मुहिम में न्यू मीडिया की भूमिका को शामिल किया है,हम साफतौर पर देख रहे हैं कि यही न्यू मीडिया,मेनस्ट्रीम में फैले भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के काम आ रहा है। सार्वजनकि तौर पर बरखा दत्त का बहिष्कार ये साबित करता है कि इस देश की जनता भ्रष्टाचार के जिन ठिकानों की तलाश में निकली है,उसका एक अड्डा मीडिया भी है और वो इस पर भी छापेमारी का काम करेगी। अन्ना मुहिम की कवरेज के लिए इस मीडिया का शुक्रिया भी अदा करते रहें तब भी वो इसके खिलाफ जाकर काम करेगी और अगर जरुरत पड़ी तो अन्ना से अपना रास्ता अलग कर देगी और प्रतिरोध में कहेगी कि- नहीं अन्ना,जिस मीडिया के भीतर बरखा दत्त,प्रभु चावला,वीर सांघवी जैसे दागदार पत्रकार हैं,हम उसका शुक्रिया क्या,उसे सहन नहीं कर सकते। उन्हें जड़ से काटना भी हमारी इसी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा है,आप साथ दें तो भला, न दें तो हम अलग से मंच खड़ी करेंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Sun Apr 10 22:14:27 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 10 Apr 2011 22:14:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSuIOCkruClgeCkqOCljeCkqOClgCDgpLjgpYcg4KSc4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KS+IOCkrOCkpuCkqOCkvuCkriDgpLngpYHgpIgg4KSs4KSw4KSW?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpuCkpOCljeCkpA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: वीडियों का लिंक भी जनहित में जारी किया जाए विजेंद्र 2011/4/10 vineet kumar > न्यूज चैनल के सबसे चमकते चेहरे के तौर पर बरखा दत्त की सोशल इमेज पूरी तरह > करप्ट हो चुकी है। डॉ. प्रणय राय ने एनडीटीवी की व्यावसायिक मजबूरी के तहत उनकी > बदनामी को भले ही नजरअंदाज करने की कोशिश की हो लेकिन ऑडिएंस ने उन्हें एक बार > फिर से बता दिया कि वो पत्रकारिता करने का नैतिक आधार पूरी तरह खो चुकी है। इस > बात को जानने-समझने के लिए कोई सर्वे करने की जरुरत नहीं बल्कि कल रात इंडिया > गेट पर बरखा दत्त के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी वीडियो फुटेज देखकर ही आसानी से > समझा जा सकता है। ये वीडियो भी किसी चैनल या मेनस्ट्रीम की मीडिया ने नहीं > बल्कि हमारी-आपकी तरह ही देश के एक आम इंसान ने शूट करके डाली है। > > > कल की रात जब देशभर के चैनल जश्न की रात करार देकर इंडिया गेट से लाइव कवरेज > दिखा रहे थे,अन्ना हजारे को इस युग का गांधी करार दे रहे थे,भ्रष्ट्राचार यानी > सरकार की हार और ईमादारी यानी जनता की जीत के एक-एक क्षण को कैमरे में कैद करके > टेलीविजन स्क्रीन पर उगल दे रहे थे, जिसमें कि एनडीटीवी24x7 की मैनेजिंग एडीटर > और वी दि पीपल शो की मशहूर एंकर बरखा दत्त भी शामिल थी,ठीक उसी समय वहां जुटी > जनता ने बरखा दत्त के विरोध में नारे लगाने शुरु कर दिए। नारा था- बरखा दत्त > हाय,हाय, दलाल पत्रकार हाय,हाय,बरखा दत्त बाहर जाओ,बाहर जाओ,बाहर जाओ,कार्पोरेट > मीडिया दलाल हाय,हाय। ऐसे में चैनल के संजय आहिरवाल जैसे वयोवृद्ध और गंभीर > पत्रकार को हारकर अंत में साइड हो जाने के अलावे कोई रास्ता न बचा था। > > मीडिया ने जो समझ हमें अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को लेकर दी > है,उसके हिसाब से इसकी व्याख्या करें तो जिस तरह से देशभर में फैले भ्रष्टाचार > के खिलाफ नारे लगानेवाले और सड़कों पर उतरनेवाले लोग अपनी स्वाभाविक इच्छा से > इसके समर्थन में आए थे,ठीक उसी तरह जिन लोगों ने बरखा दत्त के खिलाफ नारे लगाए > और उन्हें दलाल पत्रकार कहा,वो भी इन्हीं सामान्य लोगों में से बीच के लोग रहे > थे। बरखा दत्त को देखकर उनका गुस्सा स्वाभाविक तौर पर उसी तरह फूट पड़ा था,जिस > तरह से अन्ना हजारे की ईमानदार कोशिश को देखते ही उससे जुड़ने का मन हो आया था। > लोगों का गुस्सा इस मामले में स्वाभाविक था कि जिस पत्रकार पर भ्रष्टाचार होने > के आरोप लगे हों, जिसने दलाली करके कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने का काम किया > हो, जिसके कारनामे से मीडिया पूरी तरह कलंकित हो चुका हो,उसे भला भ्रष्टाचार के > खिलाफ बोलने का क्या अधिकार है? > > इससे ठीक विपरीत,जब तक ये मामला पूरी तरह स्पष्ट न हो जाए कि 2जी स्पेक्ट्रम > मामले में जो घोटाले हुए हैं और कॉर्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया के साथ मिलकर > उसने मंत्री बनाने-बिगड़ाने से लेकर सौदेबाजी तक का काम किया हो,उसे इस पेशे से > दूर ही रहना चाहिए। लेकिन उस वक्त एनडीटीवी और बरखा दत्त ने अपनी तरफ से सफाई > देते हुए बेशर्मी से मीडियाकर्म में लगी रही। एनडीटीवी की साख मिट्टी में मिल > जाने के बावजूद गले की फांस बन चुकी बरखा दत्त को तब निकालना भी आसान नहीं था। > चैनल के ऐसा करने से ये साबित हो जाता कि सचमुच बरखा दत्त के हाथ इस पूरे मामले > में सने हैं और जब ये संदेश एक बार चला जाता तो उंगलियां इस बात को लेकर भी > उठती कि ऐसा हो ही नही सकता कि इन सारी बातों की जानकारी प्रणय राय को नहीं रही > होगी। इससे होता ये कि पूरा का पूरा चैनल शक के घेरे में आ जाता। ऐसा करके चैनल > ने अपनी साख बचाने की कोशिश में बरखा दत्त को बने रहने दिया। > > इतना ही नहीं पहले तो चैनल के सीइओ नारायण राव ने ओपन पत्रिका सहित जिसने कि > बरखा दत्त को लेकर स्टोरी की थी और टेप प्रकाशित की थी,धमकी दी और फिर बाकी > लोगों के लिए भी कहा कि अगर किसी ने बदनाम करने की कोशिश की तो उसका अंजाम ठीक > नहीं होगा और फिर 30 दिसंबर रात 10 बजे NDTV 24X7 पर RADIA TAPE CONTROVERSY नाम > से कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इस कार्यक्रम में संजय बारू,(संपादक बिजनेस > स्टैन्डर्ड, स्‍वपन दासगुप्‍ता( सीनियर जर्नलिस्ट), दिलीप पडगांवकर( पूर्व > संपादक दि टाइम्स ऑफ इंडिया) और मनु जोसेफ( संपादक, ओपन मैगजीन) को बरखा दत्त > से सवाल-जबाब के लिए पैनल में शामिल किया गया। इस बातचीत के अलावे आगे बरखा > दत्त ने किसी भी चैनल पर बात करने से मना कर दिया और ये मानकर चली कि उनका काम > हो गया है और उन्होंने ऑडिएंस को अपने पक्ष में कर लिया है। लेकिन इस शो के > बाद हेडलाइंस टुडे की बातचीत सहित बाकी मंचों पर भी लोगों की प्रतिक्रिया सामने > आयी कि बरखा दत्त किसी भी तरह से भरोसा नहीं दिला पायी। लिहाजा बरखा दत्त को > लेकर ओपन,आउटलुक की स्टोरी और इन्टरनेट पर तैरते नीरा-बरखा टेप सुनकर जो राय > बनी थी,वही टिककर रह गयी। लोगों के मन में स्थायी तौर पर ये बात बैठ गयी कि > बरखा दत्त देश की एक ऐसी पत्रकार है जिस पर कि किसी भी सूरत में भरोसा नहीं > किया जा सकता। कल रात जतंर-मंतर पर देश के आम दर्शकों ने उसके प्रति अपनी जो > भावना जाहिर की, वह इसी स्थायी छवि की परणति है। उससे ये साबित हो गया कि > पत्रकार की छवि,मीडिया और दर्शकों की प्रतिक्रिया का मामला इतना आसान नहीं है। > इतनी आसानी से किसी बदनाम हो चुके पत्रकार का मेकओवर नहीं किया जा सकता। > > बरखा दत्त जैसी किसी भी पत्रकार के लिए अब ब्रिटिश काउंसिल या इंडिया हैबिटेट > सेंटर जैसी सुरक्षित जगहों पर जाकर "वी दि पीपल" जैसे शो करना फिर भी आसान है > लेकिन आम लोगों के बीच से लहराते हुए पीटीसी करना नामुमकिन ही नहीं,असंभव दिख > रहा है। बदनाम मुन्नी से जोड़कर इस पत्रकार की छवि को देखें तो ऑडिएंस ने उस > बदनाम मुन्नी को भी हाथोंहाथ लिया,अपना प्यार और सम्मान दिया लेकिन इस बदनाम > बरखा के प्रति उनकी हिकारत,नफरत और उबाल को वो किसी भी सूरत में दबा नहीं पा > रहे हैं। > > इससे पूरे प्रकरण में सबसे जरुरी बात है कि ऑडिएंस को लेकर मीडियाकर्मियों के > जो मिथक हैं कि इनकी यादाश्त बहुत ही कमजोर होती है और लॉफ्टर चैलेज शो के बीच > वो इन सब बातों को बहुत जल्द ही भूल जाते हैं,वो ध्वस्त हुए हैं। नबम्वर में > हुई इस घटना को अप्रैल तक आते-आते भी देश की ऑडिएंस अपनी याद में जस की तस > बनायी हुई थी। तभी तो बरखा दत्त को देखते ही जिस तरह से उसने रिएक्ट किया,ऐसा > लगा कि मानो ये कल-परसों की ही बात है। 5 अप्रैल को अन्ना हजारे और उनके समर्थक > जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठे थे,हमने अपनी फेसबुक वॉल > पर तभी लिखा था कि हम देश में फैले भ्रष्टाचार पर बात करने के साथ-साथ मीडिया > में फैले भ्रष्टाचार पर भी बात करें। मीडिया के भीतर की गंदगी और दोगलेपन को हम > लगातार देखते आ रहे हैं लेकिन कभी मीडियाहाउस ने इस पर बात नहीं की। कल रात > यानी 9 अप्रैल को जो हुआ,उससे ये साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश > में जो मुहिम चली है,उसके निशाने पर मीडिया भी है। मीडिया ने अपनी तरफ से तो > पूरी कोशिश की थी कि पहले पेड न्यूज और फिर बाद में 2जी स्पेक्ट्रम > घोटाला,राडिया-मीडिया प्रकरण में जो साख पूरी तरह गंवा चुकी है,उसे अन्ना की इस > मुहिम की लगातार कवरेज करके मेकओवर कर ले। उसने इसे कभी हायपर देशभक्ति तो कभी > नोशन ऑफ सिलेब्रेशन तक ले जाने की जी-जान से कोशिश की जिसका असर भी हुआ और देश > की एक बड़ी आबादी इसमें समा गयी। > > लेकिन इसी आबादी से कुछ लोग ऐसे भी निकलकर सामने आए जिसने कि मीडिया पर भी > सवाल किया और बरखा दत्त जैसी पत्रकार को आइना दिखाने का काम किया । कोई खुद > भ्रष्ट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बात नहीं कर सकता। इस पूरी घटना की कोई भी > फुटेज,किसी भी चैनल ने नहीं दिखाई। सब अन्ना,अनशन और उत्सव में लगे रहे जिससे > देशभर में व्यापक संदेश गया है कि मीडिया खुद चाहे कितनी भी गड़बड़ी कर ले,वो > खबर का हिस्सा नहीं बन पाएगा। उनके लिए भ्रष्टाचार का मतलब अपने को माइनस करके > दिखाना है। लेकिन जिन चैनलों ने अन्ना की इस मुहिम में न्यू मीडिया की भूमिका > को शामिल किया है,हम साफतौर पर देख रहे हैं कि यही न्यू मीडिया,मेनस्ट्रीम में > फैले भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के काम आ रहा है। > > सार्वजनकि तौर पर बरखा दत्त का बहिष्कार ये साबित करता है कि इस देश की जनता > भ्रष्टाचार के जिन ठिकानों की तलाश में निकली है,उसका एक अड्डा मीडिया भी है और > वो इस पर भी छापेमारी का काम करेगी। अन्ना मुहिम की कवरेज के लिए इस मीडिया का > शुक्रिया भी अदा करते रहें तब भी वो इसके खिलाफ जाकर काम करेगी और अगर जरुरत > पड़ी तो अन्ना से अपना रास्ता अलग कर देगी और प्रतिरोध में कहेगी कि- नहीं > अन्ना,जिस मीडिया के भीतर बरखा दत्त,प्रभु चावला,वीर सांघवी जैसे दागदार > पत्रकार हैं,हम उसका शुक्रिया क्या,उसे सहन नहीं कर सकते। उन्हें जड़ से काटना > भी हमारी इसी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा है,आप साथ दें तो भला, न दें > तो हम अलग से मंच खड़ी करेंगे। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Sun Apr 10 22:34:04 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 10 Apr 2011 22:34:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSuIOCkruClgeCkqOCljeCkqOClgCDgpLjgpYcg4KSc4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KS+IOCkrOCkpuCkqOCkvuCkriDgpLngpYHgpIgg4KSs4KSw4KSW?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpuCkpOCljeCkpA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: दो यूट्यूब लिंक जो मुझे मिले ये हैं http://youtu.be/7nUC3rdpNKY http://youtu.be/-SvNUgIIF20 2011/4/10 Vijender chauhan > वीडियों का लिंक भी जनहित में जारी किया जाए > > विजेंद्र > > 2011/4/10 vineet kumar > >> न्यूज चैनल के सबसे चमकते चेहरे के तौर पर बरखा दत्त की सोशल इमेज पूरी तरह >> करप्ट हो चुकी है। डॉ. प्रणय राय ने एनडीटीवी की व्यावसायिक मजबूरी के तहत उनकी >> बदनामी को भले ही नजरअंदाज करने की कोशिश की हो लेकिन ऑडिएंस ने उन्हें एक बार >> फिर से बता दिया कि वो पत्रकारिता करने का नैतिक आधार पूरी तरह खो चुकी है। इस >> बात को जानने-समझने के लिए कोई सर्वे करने की जरुरत नहीं बल्कि कल रात इंडिया >> गेट पर बरखा दत्त के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी वीडियो फुटेज देखकर ही आसानी से >> समझा जा सकता है। ये वीडियो भी किसी चैनल या मेनस्ट्रीम की मीडिया ने नहीं >> बल्कि हमारी-आपकी तरह ही देश के एक आम इंसान ने शूट करके डाली है। >> >> >> कल की रात जब देशभर के चैनल जश्न की रात करार देकर इंडिया गेट से लाइव कवरेज >> दिखा रहे थे,अन्ना हजारे को इस युग का गांधी करार दे रहे थे,भ्रष्ट्राचार यानी >> सरकार की हार और ईमादारी यानी जनता की जीत के एक-एक क्षण को कैमरे में कैद करके >> टेलीविजन स्क्रीन पर उगल दे रहे थे, जिसमें कि एनडीटीवी24x7 की मैनेजिंग एडीटर >> और वी दि पीपल शो की मशहूर एंकर बरखा दत्त भी शामिल थी,ठीक उसी समय वहां जुटी >> जनता ने बरखा दत्त के विरोध में नारे लगाने शुरु कर दिए। नारा था- बरखा दत्त >> हाय,हाय, दलाल पत्रकार हाय,हाय,बरखा दत्त बाहर जाओ,बाहर जाओ,बाहर जाओ,कार्पोरेट >> मीडिया दलाल हाय,हाय। ऐसे में चैनल के संजय आहिरवाल जैसे वयोवृद्ध और गंभीर >> पत्रकार को हारकर अंत में साइड हो जाने के अलावे कोई रास्ता न बचा था। >> >> मीडिया ने जो समझ हमें अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को लेकर दी >> है,उसके हिसाब से इसकी व्याख्या करें तो जिस तरह से देशभर में फैले भ्रष्टाचार >> के खिलाफ नारे लगानेवाले और सड़कों पर उतरनेवाले लोग अपनी स्वाभाविक इच्छा से >> इसके समर्थन में आए थे,ठीक उसी तरह जिन लोगों ने बरखा दत्त के खिलाफ नारे लगाए >> और उन्हें दलाल पत्रकार कहा,वो भी इन्हीं सामान्य लोगों में से बीच के लोग रहे >> थे। बरखा दत्त को देखकर उनका गुस्सा स्वाभाविक तौर पर उसी तरह फूट पड़ा था,जिस >> तरह से अन्ना हजारे की ईमानदार कोशिश को देखते ही उससे जुड़ने का मन हो आया था। >> लोगों का गुस्सा इस मामले में स्वाभाविक था कि जिस पत्रकार पर भ्रष्टाचार होने >> के आरोप लगे हों, जिसने दलाली करके कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने का काम किया >> हो, जिसके कारनामे से मीडिया पूरी तरह कलंकित हो चुका हो,उसे भला भ्रष्टाचार के >> खिलाफ बोलने का क्या अधिकार है? >> >> इससे ठीक विपरीत,जब तक ये मामला पूरी तरह स्पष्ट न हो जाए कि 2जी स्पेक्ट्रम >> मामले में जो घोटाले हुए हैं और कॉर्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया के साथ मिलकर >> उसने मंत्री बनाने-बिगड़ाने से लेकर सौदेबाजी तक का काम किया हो,उसे इस पेशे से >> दूर ही रहना चाहिए। लेकिन उस वक्त एनडीटीवी और बरखा दत्त ने अपनी तरफ से सफाई >> देते हुए बेशर्मी से मीडियाकर्म में लगी रही। एनडीटीवी की साख मिट्टी में मिल >> जाने के बावजूद गले की फांस बन चुकी बरखा दत्त को तब निकालना भी आसान नहीं था। >> चैनल के ऐसा करने से ये साबित हो जाता कि सचमुच बरखा दत्त के हाथ इस पूरे मामले >> में सने हैं और जब ये संदेश एक बार चला जाता तो उंगलियां इस बात को लेकर भी >> उठती कि ऐसा हो ही नही सकता कि इन सारी बातों की जानकारी प्रणय राय को नहीं रही >> होगी। इससे होता ये कि पूरा का पूरा चैनल शक के घेरे में आ जाता। ऐसा करके चैनल >> ने अपनी साख बचाने की कोशिश में बरखा दत्त को बने रहने दिया। >> >> इतना ही नहीं पहले तो चैनल के सीइओ नारायण राव ने ओपन पत्रिका सहित जिसने कि >> बरखा दत्त को लेकर स्टोरी की थी और टेप प्रकाशित की थी,धमकी दी और फिर बाकी >> लोगों के लिए भी कहा कि अगर किसी ने बदनाम करने की कोशिश की तो उसका अंजाम ठीक >> नहीं होगा और फिर 30 दिसंबर रात 10 बजे NDTV 24X7 पर RADIA TAPE >> CONTROVERSY नाम से >> कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इस कार्यक्रम में संजय बारू,(संपादक बिजनेस >> स्टैन्डर्ड, स्‍वपन दासगुप्‍ता( सीनियर जर्नलिस्ट), दिलीप पडगांवकर( पूर्व >> संपादक दि टाइम्स ऑफ इंडिया) और मनु जोसेफ( संपादक, ओपन मैगजीन) को बरखा दत्त >> से सवाल-जबाब के लिए पैनल में शामिल किया गया। इस बातचीत के अलावे आगे बरखा >> दत्त ने किसी भी चैनल पर बात करने से मना कर दिया और ये मानकर चली कि उनका काम >> हो गया है और उन्होंने ऑडिएंस को अपने पक्ष में कर लिया है। लेकिन इस शो के >> बाद हेडलाइंस टुडे की बातचीत सहित बाकी मंचों पर भी लोगों की प्रतिक्रिया सामने >> आयी कि बरखा दत्त किसी भी तरह से भरोसा नहीं दिला पायी। लिहाजा बरखा दत्त को >> लेकर ओपन,आउटलुक की स्टोरी और इन्टरनेट पर तैरते नीरा-बरखा टेप सुनकर जो राय >> बनी थी,वही टिककर रह गयी। लोगों के मन में स्थायी तौर पर ये बात बैठ गयी कि >> बरखा दत्त देश की एक ऐसी पत्रकार है जिस पर कि किसी भी सूरत में भरोसा नहीं >> किया जा सकता। कल रात जतंर-मंतर पर देश के आम दर्शकों ने उसके प्रति अपनी जो >> भावना जाहिर की, वह इसी स्थायी छवि की परणति है। उससे ये साबित हो गया कि >> पत्रकार की छवि,मीडिया और दर्शकों की प्रतिक्रिया का मामला इतना आसान नहीं है। >> इतनी आसानी से किसी बदनाम हो चुके पत्रकार का मेकओवर नहीं किया जा सकता। >> >> बरखा दत्त जैसी किसी भी पत्रकार के लिए अब ब्रिटिश काउंसिल या इंडिया >> हैबिटेट सेंटर जैसी सुरक्षित जगहों पर जाकर "वी दि पीपल" जैसे शो करना फिर भी >> आसान है लेकिन आम लोगों के बीच से लहराते हुए पीटीसी करना नामुमकिन ही >> नहीं,असंभव दिख रहा है। बदनाम मुन्नी से जोड़कर इस पत्रकार की छवि को देखें तो >> ऑडिएंस ने उस बदनाम मुन्नी को भी हाथोंहाथ लिया,अपना प्यार और सम्मान दिया >> लेकिन इस बदनाम बरखा के प्रति उनकी हिकारत,नफरत और उबाल को वो किसी भी सूरत में >> दबा नहीं पा रहे हैं। >> >> इससे पूरे प्रकरण में सबसे जरुरी बात है कि ऑडिएंस को लेकर मीडियाकर्मियों के >> जो मिथक हैं कि इनकी यादाश्त बहुत ही कमजोर होती है और लॉफ्टर चैलेज शो के बीच >> वो इन सब बातों को बहुत जल्द ही भूल जाते हैं,वो ध्वस्त हुए हैं। नबम्वर में >> हुई इस घटना को अप्रैल तक आते-आते भी देश की ऑडिएंस अपनी याद में जस की तस >> बनायी हुई थी। तभी तो बरखा दत्त को देखते ही जिस तरह से उसने रिएक्ट किया,ऐसा >> लगा कि मानो ये कल-परसों की ही बात है। 5 अप्रैल को अन्ना हजारे और उनके समर्थक >> जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठे थे,हमने अपनी फेसबुक वॉल >> पर तभी लिखा था कि हम देश में फैले भ्रष्टाचार पर बात करने के साथ-साथ मीडिया >> में फैले भ्रष्टाचार पर भी बात करें। मीडिया के भीतर की गंदगी और दोगलेपन को हम >> लगातार देखते आ रहे हैं लेकिन कभी मीडियाहाउस ने इस पर बात नहीं की। कल रात >> यानी 9 अप्रैल को जो हुआ,उससे ये साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश >> में जो मुहिम चली है,उसके निशाने पर मीडिया भी है। मीडिया ने अपनी तरफ से तो >> पूरी कोशिश की थी कि पहले पेड न्यूज और फिर बाद में 2जी स्पेक्ट्रम >> घोटाला,राडिया-मीडिया प्रकरण में जो साख पूरी तरह गंवा चुकी है,उसे अन्ना की इस >> मुहिम की लगातार कवरेज करके मेकओवर कर ले। उसने इसे कभी हायपर देशभक्ति तो कभी >> नोशन ऑफ सिलेब्रेशन तक ले जाने की जी-जान से कोशिश की जिसका असर भी हुआ और देश >> की एक बड़ी आबादी इसमें समा गयी। >> >> लेकिन इसी आबादी से कुछ लोग ऐसे भी निकलकर सामने आए जिसने कि मीडिया पर भी >> सवाल किया और बरखा दत्त जैसी पत्रकार को आइना दिखाने का काम किया । कोई खुद >> भ्रष्ट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बात नहीं कर सकता। इस पूरी घटना की कोई भी >> फुटेज,किसी भी चैनल ने नहीं दिखाई। सब अन्ना,अनशन और उत्सव में लगे रहे जिससे >> देशभर में व्यापक संदेश गया है कि मीडिया खुद चाहे कितनी भी गड़बड़ी कर ले,वो >> खबर का हिस्सा नहीं बन पाएगा। उनके लिए भ्रष्टाचार का मतलब अपने को माइनस करके >> दिखाना है। लेकिन जिन चैनलों ने अन्ना की इस मुहिम में न्यू मीडिया की भूमिका >> को शामिल किया है,हम साफतौर पर देख रहे हैं कि यही न्यू मीडिया,मेनस्ट्रीम में >> फैले भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के काम आ रहा है। >> >> सार्वजनकि तौर पर बरखा दत्त का बहिष्कार ये साबित करता है कि इस देश की जनता >> भ्रष्टाचार के जिन ठिकानों की तलाश में निकली है,उसका एक अड्डा मीडिया भी है और >> वो इस पर भी छापेमारी का काम करेगी। अन्ना मुहिम की कवरेज के लिए इस मीडिया का >> शुक्रिया भी अदा करते रहें तब भी वो इसके खिलाफ जाकर काम करेगी और अगर जरुरत >> पड़ी तो अन्ना से अपना रास्ता अलग कर देगी और प्रतिरोध में कहेगी कि- नहीं >> अन्ना,जिस मीडिया के भीतर बरखा दत्त,प्रभु चावला,वीर सांघवी जैसे दागदार >> पत्रकार हैं,हम उसका शुक्रिया क्या,उसे सहन नहीं कर सकते। उन्हें जड़ से काटना >> भी हमारी इसी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा है,आप साथ दें तो भला, न दें >> तो हम अलग से मंच खड़ी करेंगे। >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Apr 11 02:24:56 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 11 Apr 2011 02:24:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKgg4KS44KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSJ4KSq4KSc4KWHIOCkleClgeCkmyDgpLjgpLXgpL7gpLIhISE=?= Message-ID: अन्ना के आन्दोलन से उपजे कुछ सवाल!!! -शशिकांत लो जी सुनो, अभी तक तक तो अन्ना साहब संघ गिरोह का गुणगान करनेवाले, भाजपा को चंदा देनेवाले बाबा रामदेव के साथ ही दिखे थे, अभी-अभी मीडिया ख़बर के भाई पुष्कर जी ने यह भी ख़ोज निकला कि बाल ठाकरे के साथ भी अन्ना साहब की ख़ूब छनती है...गाँधी के हत्यारों के साथ खड़ा आदमी 'छोटा गाँधी' कहलाता है और गाँधी जी के सत्याग्रह को संघर्ष का हथियार बनाता है...क्या विडंबना है...! इंडियन मीडिया ने अन्ना हजारे के आन्दोलन को एकतरफ़ा लिया...एक सौ पचीस करोड़ के मुल्क़ में कुछ हज़ार लोगों की ख़ातिर संवैधानिक नियम-क़ानून को ताक पर रख कर रिपोर्टिंग की.बिना यह सोचे कि आगे इस तरह के कदम का दुरुपयोग हो सकता है...मुझे तो अभी ही दुरुपयोग दिख रहा है...हमें अपने संवैधानिक संस्थाओं को मज़बूत करना चाहिए...कुछ हज़ार लोग मुल्क़ की सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था को कैसे चुनौती दे सकते हैं??? शादी नहीं करनेवाले शख्स पर लोग कुछ ज़्यादा ही भरोसा लेते हैं. पता नहीं क्यों??? पहले अटल बिहारी वाजपेयी पर किया जो गाँधी के हत्यारे संघ गिरोह में रहे, बाबरी मस्जिद विध्वंस किया और गुजरात दंगे के दौरान मोदी की करतूत मुटुकमैना बनकर देखते रहे...अब अन्ना हजारे...जो बाल-राज (शिवसेना-मनसे) के मराठी मनुषवाद, संघ गिरोह और भाजपा के साथ खड़े हैं. क्या अन्ना हजारे सार्वजनिक तौर पर यह बयान देंगे कि बालठाकरे-राजठाकरे, शिवसेना-मनसे, भाजपा-संघ गिरोह और बाबा रामदेव जैसे संघ गिरोह के गुणगान कर्ताओं से दूर-दूर तक उनका कोई सम्बन्ध नहीं है...???? मुझसे ज्यादा ये सवाल उन्हें पूछना चाहिए जो कल तक या आज-अभी तक अन्ना के साथ खड़े थे/हैं..! भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने के लिए क्या हमें सम्प्रदायिकता और मराठी मनुषवाद (क्षेत्रवाद), संघ गिरोह-भाजपा-शिवसेना, बाल-राज के समर्थकों से हाथ मिला लेना चाहिए???.... साम्प्रदायिकता-क्षेत्रवाद बड़ा खतरा है या भ्रष्टाचार ??? भारत सरकार लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए उस अधिसूचना को वापस ले जिस10 सदस्यीय संयुक्त समिति में अन्ना हजारे के अनशन के बाद नागरिक समाज के प्रतिनिधि के तौर पर पांच लोग रखे गए हैं. सरकार और मीडिया इस मसले पर राष्ट्रीय बहस चलाए कि नागरिक समाज के प्रतिनिधि के तौर पर देश के कौन पांच लोग समिति में रखे जाएंगे. कुछ हज़ार लोग जंतर-मंतर पर जमा होकर 121 करोड़ हिन्दुस्तानी नागरिक समाज की नुमाइंदगी नहीं करते. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Mon Apr 11 08:06:13 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Mon, 11 Apr 2011 08:06:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCknOClgeCksuCkvuCkueCkviDgpK7gpYfgpLDgpYcg4KSY4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSv4KS+IOCkpeCkvi4uLijgpIbgpJwg4KSw4KWH4KSj4KWBIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkquClgeCko+CljeCkr+CkpOCkv+CkpeCkvyDgpLngpYgp?= Message-ID: (पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली थी। आज उनकी पुण्यतिथि है।) “कहानी का हर पात्र उसी सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था। भले ही सड़कें धूल उड़ा रही थी लेकिन उस धूल में भी मेरा मन फूल खोज रहा था। औराही, तुम अब भी मेरे दिल के इकलौते राजा हो..तुम ही हो, जिससे मैं कुछ नहीं छुपाता। ये बताओ कि क्या अब भी डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र हर शाम मेरे घर के बरामदे पर आता है...” नींद टूटती है, मैं कानपुर में अपने कमरे में खुद को पाता हूं। सुबह के तीन बज रहे हैं, तारीख 11 अप्रैल, दिन सोमवार। जोगो (योगो) काका की बात याद आई कि “भोरका सपना सच्च होए छै” (सुबह का सपना सच साबित होता है)। कथा की दुनिया रचते हुए औराही से पूर्णिया, भागलपुर, पटना, बनारस और बंबई के चक्कर लगाने के बाद, बीमार होने के बावजूद भी आत्मीयता और शब्द से रिश्ता निभाने वाले फणीश्वर नाथ रेणु आज सपने में आए। घुंघराले-लंबे बाल की चमक बरकरार थी, मोटे फ्रेम का चश्मा आज भी उनपर फिट बैठ रहा था। आज साथ में लतिका जी भी थीं। उन्होंने मेरे घर के सभी कमरे को गौर से देखा फिर कहा- “मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहिले ही उस ‘लोक’ चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ” लतिका जी मुस्कुरा रही थीं। कुर्ता और धोती की सफेदी देखकर मैं उनके मन में गांव की तस्वीर देखने लगा। वे सन 60 के पूर्णिया का जिक्र करने लगे, पूर्णिया तो बस मुझे बहाना लगा, मैं उनकी बातों में हिंदुस्तान देख रहा था। लतिका जी ने रेणु को टोका, “ अरे क्या हो गया आपको, मुल्क बदल गया है। जिसके घर आए हैं, यह नई पीढि है, आपनेर जानि न कि...तुमीं बोका-मानुष...। आप बार-बार विषयांतर हो रहे हैं...।” लेकिन रेणु चुप नहीं हो रहे थे। रेणु ने लतिका जी को पुचकारते हुए कहा- “अब चुप भी रहो, लतिका। अब तो तुम भी आ गई हो मेरे पास। मैं अब तुम्हें ज्यादा वक्त दूंगा। लेकिन आज थोड़ा इससे बात करने दो...अपने जिले का है, देखते नहीं हर कमरे से माटी की गंध आ रही है। “ वे मुझे कविता- कहानियों से ऊपर ले जा रहे थे, मानो एक शहर, एक गांव, एक कस्बा,एक टोला सबकुछ एक मोहल्ला बनकर मेरे घर में आ गया हो। मुझे पता था कि उन्हें लपचू चाय (दार्जलिंग की चाय) पसंद है और लंबी बातचीत के दौरान उन्हें यही चाय चाहिए, लेकिन कल सुबह ही वह चायपत्ती खत्म हो गई थी। लपचू के सब्सट्यूट के रूप में मेरे पास लिप्टन का ग्रीन लेवल था, मैंने अपने हाथों से फटाफट चाय बनाई। चाय पीते हुए मैं रेणु का चेहरा देख रहा था। उन्होंने आखें मूंदकर चाय की चुस्की ली और उनकी जुबां से बरबरस निकल पड़ा- इस्ससस...। वे मुझे चाय के अलग-अलग किस्मों के बारे में बताने लगे। उन्होंने बताया कि एक बार मुंबई में उन्होंने लोटे में चाय बनाई थी और राजकपूर को भी पिलाया था। रेणु आज मेरे लिए कथादेश रच रहे थे। मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछा- “ आज धोती-कुर्ता तो धक-धक-चक-चक सफेद लग रहा है,” तो उन्होंने लतिका जी की ओर इशारा कर दिया। उन्होंने कहा, ये मेरी ‘अहिंसा लॉउंड्री’ हैं। हंसते हुए वे ये टिप्पणी कस रहे थे। मुझे उनकी एक कविता याद आ रही थी- 'सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ! मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के, 'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ। चाय को वे अमृत कह रहे थे। लतिका जी ने कहा कि उनकी कुछ बड़ी कमजोरी में एक नाम चाय का भी है। मैंने छेड़ने के अंदाज में पूछा और कौन सी कमजोरी है रेणु की, तो उन्होंने कहा- इसपे भी वे कहानी लिख सकते हैं, तुमी रेणु के जानि पारबो न। मैंने कहा-अब तो आप उनके साथ उस ‘लोक’ में पहुंच गई हैं, गुजारिश कीजिएगा तो वे लिख देंगे। तभी रेणु ने चाय की प्याली टेबल पे रखते हुए कहा- क्या बोले, मैं कमजोर कहानी लिखूंगा...। फिर हम सब चहचहाकर हंस पड़े। उन्होंने मुझे जार्ज बनार्ड शॉ के बारे में बताया। रेणु उन्हें जीबीएस कह रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह तुम लोग ब्लॉग पर अपने बारे में लिखते हो न, वैसी मेरी भी इच्छा है लेकिन अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा- जीबीएस की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर, और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं। कोई भी लिख भी नहीं सकता। तुमलोग अपने प्रोफाइल में खुद से अपने बारे में कैसे लिखते हो ? ” आज रेणु को डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र सबसे अधिक याद आ रहे थे और मुझे कोसी। इसी बीच सोफे के दूसरे कोने में लतिका जी मेरी पत्नी को दुनियादारी समझाने में जुट गई थीं। वे संबंधों की प्रगाढता पर बातें कर रही थीं। रेणु की ओर चेहरा घुमाते हुए लतिका जी ने कहा- ‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े इसी मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। सेवा करते-करते यह मरीज कब मेरा डॉक्टर बन गया मुझे पता भी नहीं चला। हमने कभी अपने बीच स्पेस को जगह नहीं दी। दूरियां भी हमारे लिए जगह बनाती चली गई। रेणु ने खिड़की के बाहर देखा, आसमान में अंतिम तारा सुबह के लिए व्याकुल हुए जा रहा था। चिड़ियों की हल्की चहचहाट सुनाई देने लगी थी। लतिका जी को उन्होंने कहा,चलना है कि नहीं।“ विदा होने की बात सुनकर मेरी आंखें गिली हो गई थी। रेणु ने डपटते हुए कहा- “ क्या यार तुम भी.. वैसे अबकी बार जब प्राणपुर जाना तो जितन से पूछना कि क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच का ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..”? मैं टकटकी लगाए लतिका-रेणु को देखने लगा। मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न,ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था,– विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान –नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है – पंक्तिबद्ध दीपों – जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है...यह सबकुछ मुझे रेणु के ललाट पर दिख रहा था। हमने रेणु को अलविदा कहा, पत्‍नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। रेणु ने उसे झुकने से पहले ही रोक लिया, जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। लगा मानो वे मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा निबाह रहे हैं…. और फिर दोनों निकल पड़े उस ‘लोक’.. और मैं इस लोक में...। मैंने करवट ली तो तकिए के नीचे से रेणु रचनावली के कवर पे रेणु की हंसती तस्वीर दिख गई। (11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस ‘लोक’ चले गए, अब लतिका जी भी वहीं रहती हैं ) रेणु को तस्वीरें में देखने के लिए यहां आइए- http://anubhaw.blogspot.com/2011/04/blog-post_11.html गिरीन्द्र 09559789703 From girindranath at gmail.com Mon Apr 11 08:06:13 2011 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Mon, 11 Apr 2011 08:06:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCknOClgeCksuCkvuCkueCkviDgpK7gpYfgpLDgpYcg4KSY4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSv4KS+IOCkpeCkvi4uLijgpIbgpJwg4KSw4KWH4KSj4KWBIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkquClgeCko+CljeCkr+CkpOCkv+CkpeCkvyDgpLngpYgp?= Message-ID: (पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली थी। आज उनकी पुण्यतिथि है।) “कहानी का हर पात्र उसी सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था। भले ही सड़कें धूल उड़ा रही थी लेकिन उस धूल में भी मेरा मन फूल खोज रहा था। औराही, तुम अब भी मेरे दिल के इकलौते राजा हो..तुम ही हो, जिससे मैं कुछ नहीं छुपाता। ये बताओ कि क्या अब भी डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र हर शाम मेरे घर के बरामदे पर आता है...” नींद टूटती है, मैं कानपुर में अपने कमरे में खुद को पाता हूं। सुबह के तीन बज रहे हैं, तारीख 11 अप्रैल, दिन सोमवार। जोगो (योगो) काका की बात याद आई कि “भोरका सपना सच्च होए छै” (सुबह का सपना सच साबित होता है)। कथा की दुनिया रचते हुए औराही से पूर्णिया, भागलपुर, पटना, बनारस और बंबई के चक्कर लगाने के बाद, बीमार होने के बावजूद भी आत्मीयता और शब्द से रिश्ता निभाने वाले फणीश्वर नाथ रेणु आज सपने में आए। घुंघराले-लंबे बाल की चमक बरकरार थी, मोटे फ्रेम का चश्मा आज भी उनपर फिट बैठ रहा था। आज साथ में लतिका जी भी थीं। उन्होंने मेरे घर के सभी कमरे को गौर से देखा फिर कहा- “मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहिले ही उस ‘लोक’ चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ” लतिका जी मुस्कुरा रही थीं। कुर्ता और धोती की सफेदी देखकर मैं उनके मन में गांव की तस्वीर देखने लगा। वे सन 60 के पूर्णिया का जिक्र करने लगे, पूर्णिया तो बस मुझे बहाना लगा, मैं उनकी बातों में हिंदुस्तान देख रहा था। लतिका जी ने रेणु को टोका, “ अरे क्या हो गया आपको, मुल्क बदल गया है। जिसके घर आए हैं, यह नई पीढि है, आपनेर जानि न कि...तुमीं बोका-मानुष...। आप बार-बार विषयांतर हो रहे हैं...।” लेकिन रेणु चुप नहीं हो रहे थे। रेणु ने लतिका जी को पुचकारते हुए कहा- “अब चुप भी रहो, लतिका। अब तो तुम भी आ गई हो मेरे पास। मैं अब तुम्हें ज्यादा वक्त दूंगा। लेकिन आज थोड़ा इससे बात करने दो...अपने जिले का है, देखते नहीं हर कमरे से माटी की गंध आ रही है। “ वे मुझे कविता- कहानियों से ऊपर ले जा रहे थे, मानो एक शहर, एक गांव, एक कस्बा,एक टोला सबकुछ एक मोहल्ला बनकर मेरे घर में आ गया हो। मुझे पता था कि उन्हें लपचू चाय (दार्जलिंग की चाय) पसंद है और लंबी बातचीत के दौरान उन्हें यही चाय चाहिए, लेकिन कल सुबह ही वह चायपत्ती खत्म हो गई थी। लपचू के सब्सट्यूट के रूप में मेरे पास लिप्टन का ग्रीन लेवल था, मैंने अपने हाथों से फटाफट चाय बनाई। चाय पीते हुए मैं रेणु का चेहरा देख रहा था। उन्होंने आखें मूंदकर चाय की चुस्की ली और उनकी जुबां से बरबरस निकल पड़ा- इस्ससस...। वे मुझे चाय के अलग-अलग किस्मों के बारे में बताने लगे। उन्होंने बताया कि एक बार मुंबई में उन्होंने लोटे में चाय बनाई थी और राजकपूर को भी पिलाया था। रेणु आज मेरे लिए कथादेश रच रहे थे। मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछा- “ आज धोती-कुर्ता तो धक-धक-चक-चक सफेद लग रहा है,” तो उन्होंने लतिका जी की ओर इशारा कर दिया। उन्होंने कहा, ये मेरी ‘अहिंसा लॉउंड्री’ हैं। हंसते हुए वे ये टिप्पणी कस रहे थे। मुझे उनकी एक कविता याद आ रही थी- 'सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ! मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के, 'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ। चाय को वे अमृत कह रहे थे। लतिका जी ने कहा कि उनकी कुछ बड़ी कमजोरी में एक नाम चाय का भी है। मैंने छेड़ने के अंदाज में पूछा और कौन सी कमजोरी है रेणु की, तो उन्होंने कहा- इसपे भी वे कहानी लिख सकते हैं, तुमी रेणु के जानि पारबो न। मैंने कहा-अब तो आप उनके साथ उस ‘लोक’ में पहुंच गई हैं, गुजारिश कीजिएगा तो वे लिख देंगे। तभी रेणु ने चाय की प्याली टेबल पे रखते हुए कहा- क्या बोले, मैं कमजोर कहानी लिखूंगा...। फिर हम सब चहचहाकर हंस पड़े। उन्होंने मुझे जार्ज बनार्ड शॉ के बारे में बताया। रेणु उन्हें जीबीएस कह रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह तुम लोग ब्लॉग पर अपने बारे में लिखते हो न, वैसी मेरी भी इच्छा है लेकिन अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा- जीबीएस की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर, और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं। कोई भी लिख भी नहीं सकता। तुमलोग अपने प्रोफाइल में खुद से अपने बारे में कैसे लिखते हो ? ” आज रेणु को डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र सबसे अधिक याद आ रहे थे और मुझे कोसी। इसी बीच सोफे के दूसरे कोने में लतिका जी मेरी पत्नी को दुनियादारी समझाने में जुट गई थीं। वे संबंधों की प्रगाढता पर बातें कर रही थीं। रेणु की ओर चेहरा घुमाते हुए लतिका जी ने कहा- ‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े इसी मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। सेवा करते-करते यह मरीज कब मेरा डॉक्टर बन गया मुझे पता भी नहीं चला। हमने कभी अपने बीच स्पेस को जगह नहीं दी। दूरियां भी हमारे लिए जगह बनाती चली गई। रेणु ने खिड़की के बाहर देखा, आसमान में अंतिम तारा सुबह के लिए व्याकुल हुए जा रहा था। चिड़ियों की हल्की चहचहाट सुनाई देने लगी थी। लतिका जी को उन्होंने कहा,चलना है कि नहीं।“ विदा होने की बात सुनकर मेरी आंखें गिली हो गई थी। रेणु ने डपटते हुए कहा- “ क्या यार तुम भी.. वैसे अबकी बार जब प्राणपुर जाना तो जितन से पूछना कि क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच का ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..”? मैं टकटकी लगाए लतिका-रेणु को देखने लगा। मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न,ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था,– विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान –नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है – पंक्तिबद्ध दीपों – जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है...यह सबकुछ मुझे रेणु के ललाट पर दिख रहा था। हमने रेणु को अलविदा कहा, पत्‍नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। रेणु ने उसे झुकने से पहले ही रोक लिया, जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। लगा मानो वे मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा निबाह रहे हैं…. और फिर दोनों निकल पड़े उस ‘लोक’.. और मैं इस लोक में...। मैंने करवट ली तो तकिए के नीचे से रेणु रचनावली के कवर पे रेणु की हंसती तस्वीर दिख गई। (11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस ‘लोक’ चले गए, अब लतिका जी भी वहीं रहती हैं ) रेणु को तस्वीरें में देखने के लिए यहां आइए- http://anubhaw.blogspot.com/2011/04/blog-post_11.html गिरीन्द्र 09559789703 From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Apr 11 13:29:19 2011 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 11 Apr 2011 13:29:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIXgpKg=?= =?utf-8?b?4KWN4KSo4KS+IOCkleClhyDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKgg4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkieCkquCknOClhyDgpJXgpYHgpJsg4KS44KS14KS+4KSyISEh?= In-Reply-To: References: Message-ID: अन्ना आंदोलन पर लोग सवाल उठा रहे हैं। मैं फिलहाल उस पंक्ति में नहीं। इसकी वजह इतनी भर है कि मैं इसे आंदोलन मानता ही नहीं। हां, एक लहर पैदा करने वाला धरणा मानता हूं। आखिरकार आंदोलन तो विद्रोह और क्रांति के बीच का शब्द है। खैर, इस बहाने शशिकांतजी ने कई सवाल उठाए हैं। पर वहां कई विरोधाभास हैं। पर जो सवाल बनता है वह यह है कि देश की ऐसी एक भी सरकार बताएं जो देश के 50 प्रतिशत से ज्यादा लोगों के समर्थन से बनी है ? ऐसे में अन्ना से ज्यादा उम्मीद लोग क्यों कर रहे हैं। ---------- Forwarded message ---------- From: shashi kant Date: 2011/4/11 Subject: [दीवान]अन्ना के आन्दोलन से उपजे कुछ सवाल!!! To: deewan अन्ना के आन्दोलन से उपजे कुछ सवाल!!! -शशिकांत लो जी सुनो, अभी तक तक तो अन्ना साहब संघ गिरोह का गुणगान करनेवाले, भाजपा को चंदा देनेवाले बाबा रामदेव के साथ ही दिखे थे, अभी-अभी मीडिया ख़बर के भाई पुष्कर जी ने यह भी ख़ोज निकला कि बाल ठाकरे के साथ भी अन्ना साहब की ख़ूब छनती है...गाँधी के हत्यारों के साथ खड़ा आदमी 'छोटा गाँधी' कहलाता है और गाँधी जी के सत्याग्रह को संघर्ष का हथियार बनाता है...क्या विडंबना है...! इंडियन मीडिया ने अन्ना हजारे के आन्दोलन को एकतरफ़ा लिया...एक सौ पचीस करोड़ के मुल्क़ में कुछ हज़ार लोगों की ख़ातिर संवैधानिक नियम-क़ानून को ताक पर रख कर रिपोर्टिंग की.बिना यह सोचे कि आगे इस तरह के कदम का दुरुपयोग हो सकता है...मुझे तो अभी ही दुरुपयोग दिख रहा है...हमें अपने संवैधानिक संस्थाओं को मज़बूत करना चाहिए...कुछ हज़ार लोग मुल्क़ की सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था को कैसे चुनौती दे सकते हैं??? शादी नहीं करनेवाले शख्स पर लोग कुछ ज़्यादा ही भरोसा लेते हैं. पता नहीं क्यों??? पहले अटल बिहारी वाजपेयी पर किया जो गाँधी के हत्यारे संघ गिरोह में रहे, बाबरी मस्जिद विध्वंस किया और गुजरात दंगे के दौरान मोदी की करतूत मुटुकमैना बनकर देखते रहे...अब अन्ना हजारे...जो बाल-राज (शिवसेना-मनसे) के मराठी मनुषवाद, संघ गिरोह और भाजपा के साथ खड़े हैं. क्या अन्ना हजारे सार्वजनिक तौर पर यह बयान देंगे कि बालठाकरे-राजठाकरे, शिवसेना-मनसे, भाजपा-संघ गिरोह और बाबा रामदेव जैसे संघ गिरोह के गुणगान कर्ताओं से दूर-दूर तक उनका कोई सम्बन्ध नहीं है...???? मुझसे ज्यादा ये सवाल उन्हें पूछना चाहिए जो कल तक या आज-अभी तक अन्ना के साथ खड़े थे/हैं..! भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने के लिए क्या हमें सम्प्रदायिकता और मराठी मनुषवाद (क्षेत्रवाद), संघ गिरोह-भाजपा-शिवसेना, बाल-राज के समर्थकों से हाथ मिला लेना चाहिए???.... साम्प्रदायिकता-क्षेत्रवाद बड़ा खतरा है या भ्रष्टाचार ??? भारत सरकार लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए उस अधिसूचना को वापस ले जिस10 सदस्यीय संयुक्त समिति में अन्ना हजारे के अनशन के बाद नागरिक समाज के प्रतिनिधि के तौर पर पांच लोग रखे गए हैं. सरकार और मीडिया इस मसले पर राष्ट्रीय बहस चलाए कि नागरिक समाज के प्रतिनिधि के तौर पर देश के कौन पांच लोग समिति में रखे जाएंगे. कुछ हज़ार लोग जंतर-मंतर पर जमा होकर 121 करोड़ हिन्दुस्तानी नागरिक समाज की नुमाइंदगी नहीं करते. _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Mon Apr 11 17:12:03 2011 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Mon, 11 Apr 2011 17:12:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIXgpKg=?= =?utf-8?b?4KWN4KSo4KS+IOCkleClhyDgpIbgpKjgpY3gpKbgpYvgpLLgpKgg4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkieCkquCknOClhyDgpJXgpYHgpJsg4KS44KS14KS+4KSyISEh?= In-Reply-To: References: Message-ID: इस आंदोलन पर कई सवाल उठाए गए हैं इनमें से सब गैरवाजिब नहीं है पर इनका आधार अन्‍ना का अविवाहित होना कैसे होगा... कई बार सिनिसिज्‍म आश्‍चर्यजनक तर्क गढ़ता है... 2011/4/11 brajesh kumar jha > अन्ना आंदोलन पर लोग सवाल उठा रहे हैं। मैं फिलहाल उस पंक्ति में नहीं। इसकी > वजह इतनी भर है कि मैं इसे आंदोलन मानता ही नहीं। हां, एक लहर पैदा करने वाला > धरणा मानता हूं। आखिरकार आंदोलन तो विद्रोह और क्रांति के बीच का शब्द है। > > खैर, इस बहाने शशिकांतजी ने कई सवाल उठाए हैं। पर वहां कई विरोधाभास हैं। पर > जो सवाल बनता है वह यह है कि देश की ऐसी एक भी सरकार बताएं जो देश के 50 > प्रतिशत से ज्यादा लोगों के समर्थन से बनी है ? ऐसे में अन्ना से ज्यादा उम्मीद > लोग क्यों कर रहे हैं। > > ---------- Forwarded message ---------- > From: shashi kant > Date: 2011/4/11 > Subject: [दीवान]अन्ना के आन्दोलन से उपजे कुछ सवाल!!! > To: deewan > > > अन्ना के आन्दोलन से उपजे कुछ सवाल!!! > > -शशिकांत > > लो जी सुनो, अभी तक तक तो अन्ना साहब संघ गिरोह का गुणगान करनेवाले, भाजपा को > चंदा देनेवाले बाबा रामदेव के साथ ही दिखे थे, अभी-अभी मीडिया ख़बर के भाई > पुष्कर जी ने यह भी ख़ोज निकला कि बाल ठाकरे के साथ भी अन्ना साहब की ख़ूब छनती > है...गाँधी के हत्यारों के साथ खड़ा आदमी 'छोटा गाँधी' कहलाता है और गाँधी जी के > सत्याग्रह को संघर्ष का हथियार बनाता है...क्या विडंबना है...! > > इंडियन मीडिया ने अन्ना हजारे के आन्दोलन को एकतरफ़ा लिया...एक सौ पचीस करोड़ > के मुल्क़ में कुछ हज़ार लोगों की ख़ातिर संवैधानिक नियम-क़ानून को ताक पर रख कर > रिपोर्टिंग की.बिना यह सोचे कि आगे इस तरह के कदम का दुरुपयोग हो सकता > है...मुझे तो अभी ही दुरुपयोग दिख रहा है...हमें अपने संवैधानिक संस्थाओं को > मज़बूत करना चाहिए...कुछ हज़ार लोग मुल्क़ की सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था को कैसे > चुनौती दे सकते हैं??? > > शादी नहीं करनेवाले शख्स पर लोग कुछ ज़्यादा ही भरोसा लेते हैं. पता नहीं > क्यों??? पहले अटल बिहारी वाजपेयी पर किया जो गाँधी के हत्यारे संघ गिरोह में > रहे, बाबरी मस्जिद विध्वंस किया और गुजरात दंगे के दौरान मोदी की करतूत > मुटुकमैना बनकर देखते रहे...अब अन्ना हजारे...जो बाल-राज (शिवसेना-मनसे) के > मराठी मनुषवाद, संघ गिरोह और भाजपा के साथ खड़े हैं. > > क्या अन्ना हजारे सार्वजनिक तौर पर यह बयान देंगे कि बालठाकरे-राजठाकरे, > शिवसेना-मनसे, भाजपा-संघ गिरोह और बाबा रामदेव जैसे संघ गिरोह के गुणगान > कर्ताओं से दूर-दूर तक उनका कोई सम्बन्ध नहीं है...???? मुझसे ज्यादा ये सवाल > उन्हें पूछना चाहिए जो कल तक या आज-अभी तक अन्ना के साथ खड़े थे/हैं..! > > भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने के लिए क्या हमें सम्प्रदायिकता और मराठी मनुषवाद > (क्षेत्रवाद), संघ गिरोह-भाजपा-शिवसेना, बाल-राज के समर्थकों से हाथ मिला लेना > चाहिए???.... साम्प्रदायिकता-क्षेत्रवाद बड़ा खतरा है या भ्रष्टाचार ??? > > भारत सरकार लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए उस अधिसूचना को वापस ले > जिस10 सदस्यीय संयुक्त समिति में अन्ना हजारे के अनशन के बाद नागरिक समाज के > प्रतिनिधि के तौर पर पांच लोग रखे गए हैं. सरकार और मीडिया इस मसले पर > राष्ट्रीय बहस चलाए कि नागरिक समाज के प्रतिनिधि के तौर पर देश के कौन पांच लोग > समिति में रखे जाएंगे. कुछ हज़ार लोग जंतर-मंतर पर जमा होकर 121 करोड़ > हिन्दुस्तानी नागरिक समाज की नुमाइंदगी नहीं करते. > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Mon Apr 11 17:28:43 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Mon, 11 Apr 2011 17:28:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSy4KWAIOCkueCliCDgpKTgpYsgLi4uLg==?= Message-ID: शशिकांत जी, आप की महत्वपूर्ण राय पर कोई भी प्रतिक्रिया देने से पहले मैं एक बार फिर यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं दरअसल अन्ना हजारे या फिर किसी राजनैतिक धारा के समर्थन या विरोध में यह पोस्ट नहीं लिख रहा हूँ. ईमानदारी की बात तो ये है कि मैं शुद्ध अकादमिक रूचि से संचालित हो कर आप सभी दीवान के दोस्तों से मुखातिब हूँ. जाहिर सी बात है, गाँधी जी के हथियार याने अहिंसात्मक प्रतिरोध और सत्याग्रह का सदुपयोग और दुरूपयोग दोनों ही संभव है. भाजपा और संघ द्वारा भविष्य में इसके दुरूपयोग कि संभावनाओं पर तो आप ने शायद ठीक ही चिंता जाहिर कर दी है इस लिए, बात को आगे बढ़ाते हुए, याद दिलाना चाहूँगा कि कांग्रेस पार्टी द्वारा इस मुल्क पर थोपे गए आपातकाल के दौरान, विशेषरूप से, और दुनिया की कई दमित राष्ट्रीयताओं के मुक्ति संघषों में, सामान्य रूप से, इस हथियार का कुछ सदुपयोग भी समय समय पर होता रहा है जिस पर आप का पोस्ट पूरी तरह मौन है . इतना ही नहीं कल को अगर इस मुल्क पर कोई फासिस्ट ताकत काबिज हो जाये तो, मैं समझता हूँ कि, उस तानाशाही निजाम के खिलाफ भी इस मारक अस्त्र का इस्तेमाल प्रगतिशील और लोकतान्त्रिक ताकतों को करने की जरुरत बनती है!! रही बात अन्ना के रामदेव जैसे घोषित भाजपा समर्थक के साथ मंच साझा करने की तो सबसे पहले तो याद दिलाना चाहूँगा कि उस मंच को स्वामी अग्निवेश जैसे 'भगवाधारी' भी सुशोभित कर रहे थे! अब मानवाधिकार के समर्थक भगवाधारी अग्निवेश जी अपने चाल- ढाल और प्रतिबद्धता के चलते क्यों और किस- किस के निशाने पर हैं जागरूक पाठकों से छुपा तो नहीं है ! किरण बेदी और मेधा पाटकर जैसे महिला नेतृत्व, जो अन्ना के समर्थन में मंच पर मौजूद थीं, का उल्लेख भी आप के पोस्ट में नहीं हुआ!! बहरहाल, मजेदार बात तो यह है कि रामदेव जो शुरुआत से ही 'इंडिया अगेंस्ट करप्सन' मुहीम में शामिल हैं पहले दो दिनों तक उस मंच पर नजर नहीं आये, हलाकि उनके समर्थक इस दौरान झंडे बैनर के साथ बाकायदा जंतर मंतर पर मौजूद रहे, वैसे रामदेव नजर तब आये जब उमा भारती और दूसरे कई दिग्गज दक्षिणपंथी नेताओं की दाल नहीं गली. अब रामदेव के अपने राजनैतिक स्वार्थ तो हैं और वो तन, मन, धन से अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने में भी लगे है . यह बात भी सब मानते है कि भाजपाई अजेंडे को रामदेव की राजनैतिक पार्टी से कोई सीधा नुक्सान भी नहीं होने जा रहा है और शायद इस लिए भी संघ परिवार योग गुरु को अपने एक अनुषांगिक संगठन जैसा ही मान रहा हो तो कोई हैरत नहीं है. रहा सवाल भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने और तमाम सरकारी महकमों को ज्यादा से ज्यादा लोकतान्त्रिक बनाने की ज़रूरत का तो शशिकांत जी आप ने खुद ही उसे रेखांकित किया है. हाँ अन्ना के "तरीके" को ले कर आप का विरोध है और मैं समझता हूँ , जैसा कि आप के नए पोस्ट से भी मालूम होता है, अपने इस विरोध में आप एकांगी हो कर भी अन्ना को भाजपाई /संघी / ठाकरे / मनसे का टट्टू साबित करने पर लग गए हैं. यहाँ मैं जरुर कुछ कहना चाहूँगा. व्यक्ति पूजा की इस देश में अत्यंत समृद्ध परंपरा है और अगर अन्ना उस परंपरा के अगले प्रतीक हैं तो एक सतर्क नागरिक और ईमानदार बुद्धिजीवी होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि आप ऐसा होने का प्रतिवाद करें, और इस खतरे के प्रति समाज को आगाह करें. जो काम अन्ना को भ्रस्ट, दक्षिणपंथी या हिंदीभाषियों का विरोधी साबित किये बिना भी संभव है. वैसे तो, भाजपा-संघ गिरोह अन्ना हजारे की राह पर चलकर कल हिंदुस्तान की लोकतान्त्रिक तरीक़े से चुनी सरकार और महकमों पर दबाव डाल सकता है...समानांतर सरकार भी बना सकता है...तख्ता पलटने का प्रयास भी कर सकता है...लेकिन मेरा आप से सीधा सवाल है - अपनी तमाम संगठनिक ताकत और रणकौशल के बावजूद क्या संघ परिवार वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ या राष्ट्र निर्माण के लिए कोई उद्योग करेगा ? मुझे तो नहीं लगता ! वहीँ दूसरी तरफ, कांग्रेस और वामपंथ के प्रतिनिधि चुनावों के दौरान या सामान्यतः भी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने में या तो पूरी तरह असफल हैं या इसमें रूचि नहीं रखते. अगर भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर कोई वाम या दक्षिणपंथी या फिर मध्यमार्गी पार्टी सत्ता में आती है तो यह तय मानिये कि जनता एक बार तो उस से पारदर्शिता की अपेक्षा और बेहतर प्रशासन की मांग करेगी ही . हम जानते हैं कि फासिस्ट संघ सत्ता में आने के बाद उस मांग को अनदेखा करेगा लेकिन कांग्रेस और वामपंथियों पर भी जनता को क्यों विश्वास होना चाहिए , जरा बताईये ?? और ऐसी विश्वासहीनता के आलम में जनता के बड़े हिस्से और बाजारवादी मीडिया ने अन्ना में अगर अपना संकटमोचक देखा तो हैरानी क्या ? आखिरी बात, मैं यह मान के चल रहा हूँ कि 'लोकतंत्र' और 'संविधान' के नाम पर आप अफसरशाही और उसके लिए विशेषाधिकारों के समर्थन में कतई नहीं हैं! क्योंकि मेरे भाई ईमानदारी की बात तो यही है कि इस मुल्क में लोकतंत्र और संविधान की दुहाई दे कर अफसरशाही निजाम जारी है. और ताजा खबर तो ये है कि गरीबी रेखा से नीचे जीने-मरने वाले परिवारों के हिस्से का भी ४०% तक अनाज भ्रस्ट अफसर खा रहे हैं! तब, 'मोहनदास' महज उदय प्रकाश की कल्पना भर नहीं है!! और इस सन्दर्भ में अगर अन्ना जैसा कोई संवेदनशील व्यक्ति मोदी और नितीश कुमार की तारीफ इस लिए करता है कि उनके राज में ग्रामीण जनता के हालत थोडा सुधरे हैं तो इसे भी सही परिप्रेक्छ में देखा और समझा जाना चाहिए. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rakeshjee at gmail.com Mon Apr 11 17:37:40 2011 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?UmFrZXNo4KSw4KS+4KSV4KWH4KS2?=) Date: Mon, 11 Apr 2011 17:37:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSy4KWAIOCkueCliCDgpKTgpYsgLi4uLg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: > > और ऐसी विश्वासहीनता के आलम में जनता के बड़े हिस्से और बाजारवादी > मीडिया ने अन्ना में अगर अपना संकटमोचक देखा तो हैरानी क्या ? > > > कमल भाई बहुत संतुलित राय है आपकी. धर्य दिखता है. लेकिन ये कौन और कैसे तय कर दिया कि अन्‍ना लाल जनता के बड़े हिस्से का संकट मोचक हो गए ? -- Rakesh Kumar Singh Media Consultant & Content Developer Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://sarokar.net Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Apr 11 17:45:24 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 11 Apr 2011 17:45:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSVLQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSV4KWN4KS3IOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUg4KSk4KSC4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSwLeCkquCkleCljeCktyDgpJXgpYsg4KSt4KWAIOCkuOCkruCknQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCknOCksOClgeCksOClgA==?= Message-ID: अन्ना के अभियान को लेकर एक तरफ की बात हम सब लगातार पढ़-सुन और गुन ही रहें हैं, इस बार के ओपन के प्रस्तावित अंक में हो सकता है, हमें जन लोक पाल विधेयक के अभियान पर दूसरा पक्ष भी पढ़ने को मिले.. इस मुहीम को समग्रता से समझने के लिए लोक-पक्ष के साथ तंत्र-पक्ष को भी समझना जरुरी है, फिर होता है लोकतंत्र पूरा. -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Apr 11 17:45:24 2011 From: ashishkumaranshu at gmail.com (Ashish Kumar 'Anshu') Date: Mon, 11 Apr 2011 17:45:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSVLQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSV4KWN4KS3IOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUg4KSk4KSC4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSwLeCkquCkleCljeCktyDgpJXgpYsg4KSt4KWAIOCkuOCkruCknQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCknOCksOClgeCksOClgA==?= Message-ID: अन्ना के अभियान को लेकर एक तरफ की बात हम सब लगातार पढ़-सुन और गुन ही रहें हैं, इस बार के ओपन के प्रस्तावित अंक में हो सकता है, हमें जन लोक पाल विधेयक के अभियान पर दूसरा पक्ष भी पढ़ने को मिले.. इस मुहीम को समग्रता से समझने के लिए लोक-पक्ष के साथ तंत्र-पक्ष को भी समझना जरुरी है, फिर होता है लोकतंत्र पूरा. -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Mon Apr 11 18:03:58 2011 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Mon, 11 Apr 2011 18:03:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSy4KWAIOCkueCliCDgpKTgpYsgLi4uLg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: राकेश जी, भला हम कौन होते हैं ऐसा तय करने वाले. मुराद ये है कि अन्ना साहेब के पीछे अचानक लामबंद हुए जन और मीडिया ने उन्हें अपना संकटमोचक ही तो जाना है!! 2011/4/11 Rakeshराकेश > और ऐसी विश्वासहीनता के आलम में जनता के बड़े हिस्से और बाजारवादी >> मीडिया ने अन्ना में अगर अपना संकटमोचक देखा तो हैरानी क्या ? >> >> >> कमल भाई > > बहुत संतुलित राय है आपकी. धर्य दिखता है. लेकिन ये कौन और कैसे तय कर दिया कि > अन्‍ना लाल जनता के बड़े हिस्से का संकट मोचक हो गए ? > > > > > -- > Rakesh Kumar Singh > Media Consultant & Content Developer > Delhi, India > http://blog.sarai.net/users/rakesh/ > http://haftawar.blogspot.com > http://safarr.blogspot.com > http://sarai.net > http://sarokar.net > > Ph: +91 9811972872 > > ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' > > - पाश > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 12 16:14:28 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 12 Apr 2011 16:14:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KSo4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqOClhyDgpKrgpY3gpLDgpYfgpK4g4KSV4KS/4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSV4KS/4KSoLi4uISEh?= Message-ID: दोनों ने प्रेम किया लेकिन...!!! लड़का है एक समुदाय की दलित बिरादरी से लड़की है दूसरे समुदाय की दलित बिरादरी से दोनों ने प्रेम किया दोनों के घरवाले ने दोनों पर बंदिशें लगा दीं मौक़ा पाकर दोनों भाग निकले पहले दोनों परिवार आमने-सामने आए फिर दोनों समुदाय दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तलवारें खींच लीं. नोट : क्या एम एन श्रीनिवास के सुसंस्कृतिकरण के फंडे से समझा जा सकता है 11 अप्रैल 2011 को दिल्ली के सदर बाज़ार के कसाबपुरा मोहल्ले में घटी इस घटना को? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 12 16:38:20 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 12 Apr 2011 16:38:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWI4KS44KS+IOCkuOClgeCkuOCkguCkuOCljeCkleClg+CkpOCkvw==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSjID8=?= Message-ID: लड़का है एक समुदाय की दलित बिरादरी से लड़की है दूसरे समुदाय की दलित बिरादरी से दोनों ने प्रेम किया दोनों के घरवाले ने दोनों पर बंदिशें लगा दीं मौक़ा पाकर दोनों भाग निकले पहले दोनों परिवार आमने-सामने आए फिर दोनों समुदाय दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तलवारें खींच लीं. दोनों ने दोनों पर पत्थर फेंके. दंगे-फ़साद हुए पुलिस-प्रशासन सक्रिय है छावनी में बदल गया है पूरा इलाक़ा प्रेमी युगल के सुरक्षा का बंदोबस्त होना चाहिए. नोट : क्या एम एन श्रीनिवास के सुसंस्कृतिकरण के फंडे से समझा जा सकता है 11 अप्रैल 2011 को दिल्ली के सदर बाज़ार के कसाबपुरा मोहल्ले में घटी इस घटना को? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From naresh.goswami at gmail.com Tue Apr 12 18:26:32 2011 From: naresh.goswami at gmail.com (naresh goswami) Date: Tue, 12 Apr 2011 18:26:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: शशि भाई, आप अपनी प्रतिक्रिया में उत्तरी ध्रुव पर पहुँच गए हैं. और ये मानने को तैयार नहीं हैं कि परिवर्तनकारी शक्तियों का पर्यावास बीच की जमीन पर भी हो सकता है. मित्र, मैं अन्ना परिघटना को दूसरे जाविये से देखना चाहता हूँ. समाज ने अन्ना हजारे से कभी नहीं कहा होगा कि आप सामाजिक कार्यकर्त्ता बनिए. यह उनका निजी फैसला रहा होगा. उन्होंने जनता के बीच काम किया और उसी की तरह साधारण बन कर रहे और जिए. तो उनके पीछे जो ताकत रही वह आम आदमी की ताकत थी. हम जैसे भद्र नागरिकों की दिक्कत ये है कि हम संस्थाओं की भाषा में सोचने के आदि हो गए हैं. हमें यह लगता ही नहीं कि प्रतिरोध के स्थापित तरीकों से हटकर भी कोई मुहीम शुरू की जा सकती है. आप जिन संस्थाओं की साख को लेकर चिंतित हैं और जिनके हवाले से अन्ना का गिरेबान पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं दरअसल वही संस्थाएं - संविधान, संसद आदि ताकतवर लोगों और लॉबियों की सौदेबाजी और डीलिंग का अड्डा बन गई हैं. वहां जनता के लिए थोड़ा बहुत इसलिए किया जाता है क्योंकि इसके बिना उनकी कोई वैधता नहीं रही जाएगी. अगर यह बात रिटोरिक लग रही हो तो इस पर विचार करें कि वे निर्वैयक्तिक और अमूर्त हो गई हैं. उनके लिए आदमी आंकड़ा बन कर रह गया है. आप ध्यान दें कि हर आधुनिक राज्य ने कानूनों का एक ऐसा विशाल और बहुपरती जाल बना लिया है जिसे वही लोग समझ सकते हैं जो उसके मुहावरे में शिक्षित-दीक्षित हैं. ऐसे में आम आदमी की मुक्ति के लिए यह लाजमी हो जाता है कि बात मुख़्तसर अंदाज़ में की जाय. अन्ना ने शायद कुछ ऐसा ही किया है. उन्होंने मालिक (जनता) और सेवक (नेता, सरकार) का बुनियादी सवाल उठाया है. इस वर्गीकरण से बहुतों को दिक्कत हो सकती है. मुझे भी है पर इस मेटाफर के लफड़े में न पड़कर बस इस बात को सचित्र याद करने कि कोशिश करें कि हमारे यहाँ सरकार का अदने से अदना अहलकार आम आदमी से किस तरह पेश आता है. और किस तरह ग्राम प्रधान से लेकर पार्षद, विधायक और सांसद अपने इलाके से फैलकर देश के संसाधानों पर काबिज हो जाते हैं. तो भाई जी ऐसे में अन्ना टाइप तरीके से ही बात बन सकती थी. बाकी तमाम तरीकों- जांच-पड़ताल-आयोग आदि के कारनामों से हम अच्छी तरह वाकिफ रहे ही हैं. मुझे लगता है कि अन्ना के इस औचक हमले से सबसे ज्यादा मध्यवर्ग के बौद्धिक बौखलाए हैं. क्योंकि इस बार उन्हें पूछा नहीं गया. एक तो बारीक कताई-बुनाई के उस्तादों को इस बात की भनक नहीं लगी कि क्या होने जा रहा है: वे इसे एक निरीह गांधीवादी धरना मानकर चल रहे थे. दूसरे, उन्हें यह भी नहीं लगता था कि इस देश और समाज में एक टोपी धारी बाबा या ताऊ जैसा दिखने वाला आदमी कैसे जनता को लामबंद कर सकता है. आलमी इदारों में पढ़कर और राज्य-समाज-क्रांति के अनंत पेचों में उलझी प्रतिभाएं कई बार आसन्न सच्चाई को नहीं पढ़ पाती. अन्ना के मामले में ऐसा ही हुआ है. और आखरी बात ये कि अन्ना और उनके गिरोह की इस 'जुर्रत' के बाद दुनिया ख़त्म नहीं हो जाएगी. जिन्हें अन्ना की इस जुर्रत में संविधान और लोकतंत्र का स्थापित ढांचा टूटता दिखाई दे रहा है उन्हें भी इसे दुरुस्त करने के मौके मिलेंगे. फिलहाल जरूरी यह है कि पहले थान तैयार कर लिया जाय. पच्चीकारी बाद में भी की जा सकती है. -नरेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Apr 13 11:36:52 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 13 Apr 2011 11:36:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4DA53D7C.6070100@sarai.net> लाख टके की, और मेरे मुँह की बात, नरेश जी! शुक्रिया। रविकान्त naresh goswami wrote: > शशि भाई, > आप अपनी प्रतिक्रिया में उत्तरी ध्रुव पर पहुँच गए हैं. और ये मानने को तैयार नहीं हैं कि > परिवर्तनकारी शक्तियों का पर्यावास बीच की जमीन पर भी हो सकता है. > मित्र, मैं अन्ना परिघटना को दूसरे जाविये से देखना चाहता हूँ. समाज ने अन्ना हजारे से > कभी नहीं कहा होगा कि आप सामाजिक कार्यकर्त्ता बनिए. यह उनका निजी फैसला रहा > होगा. उन्होंने जनता के बीच काम किया और उसी की तरह साधारण बन कर रहे और जिए. > तो उनके पीछे जो ताकत रही वह आम आदमी की ताकत थी. हम जैसे भद्र नागरिकों की > दिक्कत ये है कि हम संस्थाओं की भाषा में सोचने के आदि हो गए हैं. हमें यह लगता ही नहीं > कि प्रतिरोध के स्थापित तरीकों से हटकर भी कोई मुहीम शुरू की जा सकती है. आप जिन > संस्थाओं की साख को लेकर चिंतित हैं और जिनके हवाले से अन्ना का गिरेबान पकड़ने की > कोशिश कर रहे हैं दरअसल वही संस्थाएं - संविधान, संसद आदि ताकतवर लोगों और लॉबियों > की सौदेबाजी और डीलिंग का अड्डा बन गई हैं. वहां जनता के लिए थोड़ा बहुत इसलिए > किया जाता है क्योंकि इसके बिना उनकी कोई वैधता नहीं रही जाएगी. अगर यह बात > रिटोरिक लग रही हो तो इस पर विचार करें कि वे निर्वैयक्तिक और अमूर्त हो गई हैं. > उनके लिए आदमी आंकड़ा बन कर रह गया है. आप ध्यान दें कि हर आधुनिक राज्य ने कानूनों > का एक ऐसा विशाल और बहुपरती जाल बना लिया है जिसे वही लोग समझ सकते हैं जो उसके > मुहावरे में शिक्षित-दीक्षित हैं. ऐसे में आम आदमी की मुक्ति के लिए यह लाजमी हो जाता है > कि बात मुख़्तसर अंदाज़ में की जाय. अन्ना ने शायद कुछ ऐसा ही किया है. उन्होंने मालिक > (जनता) और सेवक (नेता, सरकार) का बुनियादी सवाल उठाया है. इस वर्गीकरण से बहुतों > को दिक्कत हो सकती है. मुझे भी है पर इस मेटाफर के लफड़े में न पड़कर बस इस बात को > सचित्र याद करने कि कोशिश करें कि हमारे यहाँ सरकार का अदने से अदना अहलकार आम > आदमी से किस तरह पेश आता है. और किस तरह ग्राम प्रधान से लेकर पार्षद, विधायक और > सांसद अपने इलाके से फैलकर देश के संसाधानों पर काबिज हो जाते हैं. तो भाई जी ऐसे में > अन्ना टाइप तरीके से ही बात बन सकती थी. बाकी तमाम तरीकों- जांच-पड़ताल-आयोग > आदि के कारनामों से हम अच्छी तरह वाकिफ रहे ही हैं. > मुझे लगता है कि अन्ना के इस औचक हमले से सबसे ज्यादा मध्यवर्ग के बौद्धिक बौखलाए हैं. > क्योंकि इस बार उन्हें पूछा नहीं गया. एक तो बारीक कताई-बुनाई के उस्तादों को इस बात > की भनक नहीं लगी कि क्या होने जा रहा है: वे इसे एक निरीह गांधीवादी धरना मानकर > चल रहे थे. दूसरे, उन्हें यह भी नहीं लगता था कि इस देश और समाज में एक टोपी धारी > बाबा या ताऊ जैसा दिखने वाला आदमी कैसे जनता को लामबंद कर सकता है. आलमी इदारों > में पढ़कर और राज्य-समाज-क्रांति के अनंत पेचों में उलझी प्रतिभाएं कई बार आसन्न सच्चाई > को नहीं पढ़ पाती. अन्ना के मामले में ऐसा ही हुआ है. और आखरी बात ये कि अन्ना और > उनके गिरोह की इस 'जुर्रत' के बाद दुनिया ख़त्म नहीं हो जाएगी. जिन्हें अन्ना की इस > जुर्रत में संविधान और लोकतंत्र का स्थापित ढांचा टूटता दिखाई दे रहा है उन्हें भी इसे > दुरुस्त करने के मौके मिलेंगे. फिलहाल जरूरी यह है कि पहले थान तैयार कर लिया जाय. > पच्चीकारी बाद में भी की जा सकती है. > -नरेश > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From shashikanthindi at gmail.com Wed Apr 13 18:57:15 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 13 Apr 2011 18:57:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Hazare meets a wet blanket : Shiv Visvanathan Message-ID: Hazare meets a wet blanket *Shiv Visvanathan,Hindustan Times* April 09, 2011 Sociology as a vocation is often depressing. The ideas and theories one proposes go against the conventional grain. The recent events around Anna Hazare put me in that mood. The media are acclaiming the movement. TV commentators in particular have gone ecstatic with a ringside seat to revolution. Words like 'Ground zero' and comparisons with the recent demands for democracy in Egypt and Tunisia give India a feeling of global togetherness. Yet the more I watch it, the more puzzled I feel. Spontaneously, I am all with its demands. But sociologically I feel something does not make sense. What we are watching is a sociological simulacra, an imitation of a social movement that looks more authentic than the original. The recent scams, the epidemics of scandals have left middle-class India tongue-tied. What is worse is that there seems to be no mechanisms either for outlining the truth or bringing the criminals to justice. Our institutional systems seem too slow or appear to be in the hands of corrupt politicians. Reform becomes an invitation for oxymorons. Politics seems to be a desert between India's achievements in sport and India's capability in technology. Our democracy seems to be emptying out in our ability to handle corruption. Enter Anna Hazare, an old-style Gandhian. An ex-army havaldar who has introduced social reform in his village combating alcoholism and advocating drip irrigation. He is a Gandhian who believes in development and has the Magsaysay award to prove it. Hazare, who has been around on the fringes of the development debate, becomes an archetypal Gandhian. He decides to fast unto death if the Lokpal Bill is not passed. The prefix 'Gandhian' always intrigued me. The word is used loosely. Even scholars who study Gandhi call themselves Gandhian. People influenced by Gandhi, involved in politics or social work, dub themselves Gandhian. All they imply is an ascetic life and an honest character. The complexity, the diversity, the chaotic nature of the Gandhian experiment is a distant memory. These Gandhians are simplified versions of the original. But the simplification is crucial. They are easy to grasp. They have a single-point value. Their morality is unquestionable, their social work visible; they become vectors of a middle-class dream. Their message is simple: a fast unto death until the Lokpal Bill is passed. In four days, the fast is termed 'the second war of Independence'. People are galvanised and the media see in Hazare the makings of the second JP movement. Oddly there is little memory here. The styles of politics are so different. JP worked with -isms and parties and fought both authoritarianism and corruption. Hazare's movement is anti-politician. His movement refuses to let any politician grab presence on the dais. Uma Bharati had to beat a hurried exit. The movement seems to be anti-politically political. Yet it encourages visitors from Anupam Kher to Meghnad Desai, who turns press conferences into quick tutorials. It is almost as if the movement originates on Page 3 with approval ratings from fashion designers, movie directors and the city glitterati. There's a wonderful middle classness to it. Professionals drift to it; housewives, students, young professionals, a coterie of NGOs provide the voices for it. Although it's a mix of generations, there is a preponderance of youth. It almost appears a part of the new demographic dividend, a more youthful idea of politics. It conveys the right mix of professionalism, lifestyle and a need for a deep sense of integrity. There is almost no sense of the usual agitations, with the violence of lathi-charges or arrests. This demonstration seems different. Politicians from Sonia Gandhi to Narendra Modi approve of it and the BJP and the CPI(M) express support. Yet to those who have watched Nav Nirman, or the Emergency campaigns, this one doesn't look like a movement. It's more like a happening. The candlelight rituals publicised by Aamir Khan's movie and the Jessica Lall campaign also provide a difference in style. The excitement is high. An India proud of its democracy pans its politicians. There is something surreal about the amiability, the bonhomie. Even the answers sound like something from a market survey, endorsing Hazare like a brand name. He could have been a piece of toothpaste or a pair of shoes. The space within which it is enacted seems magical. It is carnival time but it reverses no categories. It does not threaten the regime, triggers no violence. It's almost playful as a spectacle. It appeals to a whole beyond parties, claiming a politics outside politics. It is an invitation to a temporary utopia where actors enact new rituals of hope, new possibilities of empowerment. The closest I can get to it is to say that it reminds me of the great millennial movements. These were usually led by prophets and these Christ-like figures promised a new reign of prosperity. The Anna Hazare movement as the Second Independence movement has shades of milleniality with those joining caught in an ecstasy of empowerment. The Millenialists felt bullets could not harm them and here protestors feel that authority can't touch them. They feel they are at the roots of law, creating law for a new era. As a simulacrum, it seeks a different code of revolution through reform, of realism through innocence, by legislation through tantrums, appropriating Gandhian idioms. It seeks to create history without a sense of history, forcing global affinities where there are none. One meets it with a sense of celebration and doubt because standard categories do not quite capture the nature of this happening. *Shiv Visvanathan is a social scientist. The views expressed by the author are personal.* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From abhaytri at gmail.com Wed Apr 13 20:02:14 2011 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Wed, 13 Apr 2011 20:02:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Hazare_meets_a_wet?= =?utf-8?q?_blanket_=3AShiv_Visvanathan?= In-Reply-To: References: Message-ID: <054BE3DE1CB641FFB4C329D010D9B5BF@AbhayTiwari> पहली लाइन में सारा राज़ छिपा है- द ऑथर इज़ डिप्रेस्ड! और सम्भवतः उन्हे वास्तविकता से अधिक वास्तविक किसी सत्य की तलाश है! गांधीवादी गांधीवादी जैसे नहीं है? आन्दोलन आन्दोलन जैसा नहीं है? इतिहास इतिहास जैसा नहीं है? मालूम देता है जनाब आदर्शवादी हैं! कैटेगरी का पैमाना लेकर नाप रहे हैं सबको.. अगर नहीं नपा तो खारिज! ----- Original Message ----- From: shashi kant To: deewan Sent: Wednesday, April 13, 2011 6:57 PM Subject: [दीवान] Hazare meets a wet blanket :Shiv Visvanathan Hazare meets a wet blanket Shiv Visvanathan,Hindustan Times April 09, 2011 Sociology as a vocation is often depressing. The ideas and theories one proposes go against the conventional grain. The recent events around Anna Hazare put me in that mood. The media are acclaiming the movement. TV commentators in particular have gone ecstatic with a ringside seat to revolution. Words like 'Ground zero' and comparisons with the recent demands for democracy in Egypt and Tunisia give India a feeling of global togetherness. Yet the more I watch it, the more puzzled I feel. Spontaneously, I am all with its demands. But sociologically I feel something does not make sense. What we are watching is a sociological simulacra, an imitation of a social movement that looks more authentic than the original. The recent scams, the epidemics of scandals have left middle-class India tongue-tied. What is worse is that there seems to be no mechanisms either for outlining the truth or bringing the criminals to justice. Our institutional systems seem too slow or appear to be in the hands of corrupt politicians. Reform becomes an invitation for oxymorons. Politics seems to be a desert between India's achievements in sport and India's capability in technology. Our democracy seems to be emptying out in our ability to handle corruption. Enter Anna Hazare, an old-style Gandhian. An ex-army havaldar who has introduced social reform in his village combating alcoholism and advocating drip irrigation. He is a Gandhian who believes in development and has the Magsaysay award to prove it. Hazare, who has been around on the fringes of the development debate, becomes an archetypal Gandhian. He decides to fast unto death if the Lokpal Bill is not passed. The prefix 'Gandhian' always intrigued me. The word is used loosely. Even scholars who study Gandhi call themselves Gandhian. People influenced by Gandhi, involved in politics or social work, dub themselves Gandhian. All they imply is an ascetic life and an honest character. The complexity, the diversity, the chaotic nature of the Gandhian experiment is a distant memory. These Gandhians are simplified versions of the original. But the simplification is crucial. They are easy to grasp. They have a single-point value. Their morality is unquestionable, their social work visible; they become vectors of a middle-class dream. Their message is simple: a fast unto death until the Lokpal Bill is passed. In four days, the fast is termed 'the second war of Independence'. People are galvanised and the media see in Hazare the makings of the second JP movement. Oddly there is little memory here. The styles of politics are so different. JP worked with -isms and parties and fought both authoritarianism and corruption. Hazare's movement is anti-politician. His movement refuses to let any politician grab presence on the dais. Uma Bharati had to beat a hurried exit. The movement seems to be anti-politically political. Yet it encourages visitors from Anupam Kher to Meghnad Desai, who turns press conferences into quick tutorials. It is almost as if the movement originates on Page 3 with approval ratings from fashion designers, movie directors and the city glitterati. There's a wonderful middle classness to it. Professionals drift to it; housewives, students, young professionals, a coterie of NGOs provide the voices for it. Although it's a mix of generations, there is a preponderance of youth. It almost appears a part of the new demographic dividend, a more youthful idea of politics. It conveys the right mix of professionalism, lifestyle and a need for a deep sense of integrity. There is almost no sense of the usual agitations, with the violence of lathi-charges or arrests. This demonstration seems different. Politicians from Sonia Gandhi to Narendra Modi approve of it and the BJP and the CPI(M) express support. Yet to those who have watched Nav Nirman, or the Emergency campaigns, this one doesn't look like a movement. It's more like a happening. The candlelight rituals publicised by Aamir Khan's movie and the Jessica Lall campaign also provide a difference in style. The excitement is high. An India proud of its democracy pans its politicians. There is something surreal about the amiability, the bonhomie. Even the answers sound like something from a market survey, endorsing Hazare like a brand name. He could have been a piece of toothpaste or a pair of shoes. The space within which it is enacted seems magical. It is carnival time but it reverses no categories. It does not threaten the regime, triggers no violence. It's almost playful as a spectacle. It appeals to a whole beyond parties, claiming a politics outside politics. It is an invitation to a temporary utopia where actors enact new rituals of hope, new possibilities of empowerment. The closest I can get to it is to say that it reminds me of the great millennial movements. These were usually led by prophets and these Christ-like figures promised a new reign of prosperity. The Anna Hazare movement as the Second Independence movement has shades of milleniality with those joining caught in an ecstasy of empowerment. The Millenialists felt bullets could not harm them and here protestors feel that authority can't touch them. They feel they are at the roots of law, creating law for a new era. As a simulacrum, it seeks a different code of revolution through reform, of realism through innocence, by legislation through tantrums, appropriating Gandhian idioms. It seeks to create history without a sense of history, forcing global affinities where there are none. One meets it with a sense of celebration and doubt because standard categories do not quite capture the nature of this happening. Shiv Visvanathan is a social scientist. The views expressed by the author are personal. ------------------------------------------------------------------------------ _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Apr 14 11:08:59 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 14 Apr 2011 11:08:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSm4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpK7gpYHgpKbgpY3gpKbgpYcg4KSq4KSwIOCkq+Ckgg==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkueCknOCkvOCkvuCksOClhw==?= Message-ID: मोदी के मुद्दे पर फंसे हज़ारे - बीबीसीहिंदी.कॉम गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करके सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे मुश्किल में फँस गए हैं. स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि भ्रष्टाचार से निपटने की लड़ाई में उनके साथ आने वाले कई सामाजिक कार्यकर्ता नाराज़गी व्यक्त कर रहे हैं और कह रहे हैं कि ऐसे में तो उन्हें अन्ना हज़ारे से अपने रास्ते अलग करने होंगे. हालांकि अन्ना हज़ारे ने एक बार फिर सफ़ाई दी है कि वे विकास के उन कार्यों की सराहना कर रहे थे जो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने ग्रामीण इलाक़े में किए हैं. उन्होंने कहा है कि वे साम्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा के सख़्त ख़िलाफ़ हैं. दिल्ली के जंतर-मंतर पर जन-लोकपाल विधेयक के लिए आमरण अनशन कर रहे अन्ना हज़ारे ने चा र दिनों बाद जब अपना अनशन तोड़ा तो अपने भाषण में उन्होंने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ़ की थी. उसके बाद उनके इस बयान को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया हुई है और अन्ना हज़ारे को लगभग हर दिन सफ़ाई देनी पड़ रही है. चेतावनी सुप्रसिद्ध नृत्यांगना और सामाजिक कार्यकर्ता मल्लिका साराभाई गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़ी रही हैं. उन्होंने अन्ना हज़ारे के बयान पर सवाल उठाते हुए कहा है कि वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हज़ारे के साथ हैं लेकिन अगर वे नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करते हैं तो उन्हें अपना रास्ता अलग करना होगा. नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने भी अन्ना हज़ारे के बयान पर आपत्ति जताई है. इसी तरह पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) की राष्ट्रीय सचिव कविता श्रीवास्तव ने भी अन्ना हज़ारे के बयान पर आपत्ति जताई है. एक टेलीविज़न चैनल पर उन्होंने कहा, "वर्ष 2002 में हुए दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी ने आजतक कोई अफ़सोस प्रकट नहीं किया है, वे इन दंगों के मास्टरमाइंड रहे हैं." इसके अलावा गुजरात के कई संगठनों ने अन्ना हज़ारे के बयान का विरोध किया है. लोकआंदोलन गुजरात नाम का स्वयंसेवी संगठन चलाने वाले डीके रथ ने स्वामी अग्निवेश को लिखे अपने पत्र में कहा है कि अन्ना हज़ारे के बयान ने मन में आशंकाएँ पैदा कर दी हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार उन्होंने कहा है, "मैं उम्मीद करता हूँ कि आप (अग्निवेश), अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी यह सुनिश्चित करेंगे कि आंदोलन की दिशा न बदले." इससे पहले नरेंद्र मोदी ने पत्र लिखकर अन्ना हज़ारे को धन्यवाद ज्ञापित किया था और उन्हें आगाह किया था कि उनकी तारीफ़ करने की वजह से वे परेशानी में पड़ सकते हैं. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी अन्ना हज़ारे के बयान की तारीफ़ की थी. सफ़ाई लेकिन अन्ना हज़ारे को लगातार सफ़ाई देनी पड़ रही है कि वे सिर्फ़ मोदी के विकास के कार्यों की सराहना कर रहे थे. उन्होंने मल्लिका साराभाई को लिखे पत्र में एक बार फिर सफ़ाई देते हुए कहा है, "मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं एक अराजनीतिक व्यक्ति हुँ और सांप्रदायिकता के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ." पीटीआई के अनुसार उन्होंने अपने पत्र में लिखा है,"मुझे दुख है कि मुझे नरेंद्र मोदी के मामले में सफ़ाई देनी पड़ रही है. दिल्ली की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मुझसे गुजराज और बिहार के मुख्यमंत्रियों के विकास कार्यों के बारे में सवाल पूछा गया था और मीडिया रिपोर्टों के आधार पर मैंने कहा था कि बिहार और गुजरात ने ग्रामीण विकास के क्षेत्र में अच्छा काम किया है." उन्होंने कहा, "मैंने उसी समय वर्ष 2002 के दंगों और सांप्रदायिकता की निंदा की थी." अन्ना हज़ारे ने आम लोगों को भी एक पत्र लिखा है. इस पत्र में उन्होंने लोगों को आगाह किया है कि कुछ लोग भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में दरार पैदा करना चाहते हैं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Apr 14 21:25:07 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 14 Apr 2011 21:25:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSqLiDgpKzgpII=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSyIOCksuClh+ClnuCljeCknyDgpJXgpYsg4KSV4KWB4KSy?= =?utf-8?b?IDI5NCDgpK7gpYfgpIIg4KSu4KS54KWbIDc0IOCkuOClgOCkn+Clhw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruCkv+CksiDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSCLi4uISEh?= Message-ID: मित्रो, स्टार न्यूज़ का प. बंगाल चुनाव पर सनसनीखेज खुलासा. स्टार-ए सी नील्सन का ओपीनियन पोल कह रहा है- लेफ़्ट को कुल 294 में महज़ 74 सीटें मिल रही हैं. प बंगाल में ममता की आंधी बह रही है. तृणमूल कॉंग्रेस- कॉंग्रेस गठबंधन को मिलने जा रही हैं 215 सीटें. गुरुदास दास गुप्ता ने कहा- "आप सर्वे कर रहे हैं...हम हारने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. हम जानते हैं यह लड़ाई कठिन है." -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jhasushant at gmail.com Thu Apr 14 22:25:42 2011 From: jhasushant at gmail.com (sushant jha) Date: Thu, 14 Apr 2011 22:25:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSqLiDgpKzgpII=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSyIOCksuClh+ClnuCljeCknyDgpJXgpYsg4KSV4KWB4KSy?= =?utf-8?b?IDI5NCDgpK7gpYfgpIIg4KSu4KS54KWbIDc0IOCkuOClgOCkn+Clhw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruCkv+CksiDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSCLi4uISEh?= In-Reply-To: References: Message-ID: लेकिन चुनाव आयोग को क्या हो गया? उसने चुनावों से एन पहले ऐसे सर्वे पर रोक क्यों नहीं लगाई..जबकि पहले कई चुनावों में वो ऐसा कर चुका है? क्या हम मान लें कि चुनाव आयोग में भी कोई सीवीसी थॉमस बैठा है....? स्वायत्त संस्थाओं को क्या होता जा रहा है..........! मैंने यहीं सवाल अपने फेसबुक वाल पर भी उठाया है। 2011/4/14 shashi kant > मित्रो, > > स्टार न्यूज़ का प. बंगाल चुनाव पर सनसनीखेज खुलासा. > > स्टार-ए सी नील्सन का ओपीनियन पोल कह रहा है- > > लेफ़्ट को कुल 294 में महज़ 74 सीटें मिल रही हैं. > > प बंगाल में ममता की आंधी बह रही है. > > तृणमूल कॉंग्रेस- कॉंग्रेस गठबंधन को मिलने जा रही हैं 215 सीटें. > > गुरुदास दास गुप्ता ने कहा- "आप सर्वे कर रहे हैं...हम हारने के लिए चुनाव > नहीं लड़ रहे हैं. हम जानते हैं यह लड़ाई कठिन है." > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > http://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Apr 15 07:45:40 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 15 Apr 2011 07:45:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSI4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSoIOCkl+Ckr+ClgCDgpLngpYgsIOCknOCljeCknuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KS+4KSj4KWAIOCkqOCljeKAjeCkr+CkvuCkryDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSG4KS14KS+4KScIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLjgpYHgpKjgpKTgpYA=?= Message-ID: * विनीत कुमार* *इससे पहले नईम अख्‍तर की मुश्किलों और उनके संघर्ष के बारे में हमने राजकिशोर की रपट छापी थी, आप नईम अख्‍तर को जानिए और उनके साथ खड़े होइए : मॉडरेटर* *नईम अख्‍तर* *कैजुअल उदघोषिका, एफएम, इग्‍नू* ज्ञानवाणी इग्नू की एफएम रेडियो सेवा है, जिसके माध्यम से देशभर में शिक्षा और अलग-अलग पाठ्यक्रमों का प्रसारण करके क्लासरूम की कमी को पूरा करने का काम किया जाता है। जिसकी फ्रीक्वेंसी 105.6 मेगाहर्ट्ज है। लेकिन पिछले कुछ सालों से इसके माध्यम से देश और दुनिया में ज्ञान की रोशनी बिखेरनेवाले यहां के लोग खुद ही अन्याय के अंधेरे में जीने के लिए विवश कर दिये जा रहे हैं। नईम अख्तर का मामला भी कुछ इसी तरह का है। साल 2003 से ज्ञानवाणी, इग्नू के लिए अस्थायी पद पर बतौर उदघोषिका काम करनेवाली नईम अख्तर को इग्नू के ईएमपीसी (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रोडक्शन सेंटर) परिसर से तड़ीपार कर दिया गया। तड़ीपार करने के पहले जनवरी 2011 के मध्य में के रविकांत(निर्देशक, ईएमपीसी, इग्नू), नहीद अजीज (स्टेशन प्रबंधक, ज्ञानवाणी), जीपी सिंह (सहायक रजिस्ट्रार, ईएमपीसी) और अरुण जोशी (सलाहकार, ज्ञानवाणी) जैसे आला अधिकारियों ने परिसर में यह अफवाहें फैलायीं कि इग्नू के कुलपति ने आदेश जारी करके नईम अख्तर को ब्लैक लिस्टेड कर दिया है और अब उनका प्रवेश वर्जित है। उसके बाद ईएमपीसी की रिसेप्शन के आगे नईम अख्तर की तस्वीर और स्टेशन मैनेजर के हाथ से लिखा उनका नाम लगाकर सुरक्षाकर्मियों को सख्त हिदायत दी गयी कि यह लड़की किसी भी हाल में ईएमपीसी के भीतर न घुसने पाये। 27 जनवरी 2011 को ईएमपीसी के सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया। ईएमपीसी और ज्ञानवाणी के अधिकारियों को जब इतने से भी संतोष नहीं हुआ, तो उन्होंने परिसर में नईम अख्तर को लेकर माहौल बनाना शुरू कर दिया कि यह लड़की पागल हो चुकी है। *नईम अख्तर के साथ* जो कुछ भी हुआ और हो रहा है, सचूना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत वो आरटीआई की कुल छह अर्जियां अब तक दर्ज कर चुकी है। इनमें से कुछ अर्जियों के जवाब अभी तक नहीं आये हैं और जिनके आये हैं, उसे पढ़ते हुए साफतौर पर झलक जाता है कि इग्नू, ज्ञानवाणी और ईएमपीसी इसे लेकर न केवल लापरवाह हैं बल्कि आरटीआई प्रावधान के प्रति लोगों को अविश्वसनीय बना रहे हैं। ऐसे में सब कुछ बर्दाश्त करते हुए नईम अख्तर का अपने तरीके से हक की लड़ाई लड़ना जारी है। *नईम अख्तर ने* ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है कि ईएमपीसी और ज्ञानवाणी के अधिकारियों के लगातार निशाने पर बनी हुई है, इस पर विस्तार से चर्चा करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि इग्नू के कुलपति ने अपनी ओर से ऐसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया, जिसमें उन्हें तड़ीपार करने की बात कही गयी हो। यह मामला तब खुलकर सामने आया, जब उन्होंने कुलपति के सहायक से संपर्क करके इस बारे में जानने की कोशिश की। इसका साफ मतलब है कि ये अधिकारी कुलपति के नाम का गलत इस्तेमाल करते हुए नईम अख्तर को धमकाने, मानसिक और आर्थिक तौर पर प्रताड़ित करने की कोशिश कर रहे हैं। *इस मामले में* इससे भी दिलचस्प बात है कि आदेश न जारी करने की बात की मांग जब उन्होंने कुलपति कार्यालय से लिखित तौर पर की तो साफ मना कर दिया गया। कार्यालय ने उन्हें किसी भी तरह का पत्र जारी नहीं किया, जिससे यह प्रस्तावित हो सके कि कुलपति ने तड़ीपार करने का कोई भी आदेश जारी नहीं किया है। इस संबंध में नईम अख्तर ने पहले तो कुलपति, इग्नू के नाम 27-1-11 को हाथ से लिखा एक प्रार्थना पत्र और फिर 2-2-11 और 4-2-11 को दो और प्रार्थना पत्र फैक्स के जरिये भेजे। कुलपति के अलावा ईएपीसी को भी तीन बार प्रार्थना पत्र भेजे और जानकारी हासिल करने की कोशिश की। लेकिन हमेशा की तरह इसका कोई जवाब नहीं आया। अंत में सूचना का अधिकार का प्रयोग करते हुए नईम अख्तर ने जनसूचना अधिकारी (ज्ञानवाणी, ईएमपीसी, इग्नू-नयी दिल्ली) के लिए 10-2-11 को अर्जी दाखिल किया। इस अर्जी में उन्होंने प्रमुखता से सवाल उठाये हैं – एक तो यह कि क्या उन्हें इग्नू, ज्ञानवाणी और ईएमपीसी से ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है या फिर सिर्फ प्रवेश वर्जित है? यदि हां, तो इसके लिखित आदेश मुहैया कराये जाएं? दूसरा कि क्या उन्हें इग्नू के कुलपति की तरफ से आदेश जारी करके ब्लैकलिस्टेड किया गया है, यदि हां तो इस संबंध में लिखित आदेश उपलब्ध कराये जाएं? तीसरा कि उनके साथ किन आधारों पर ऐसा किया गया? और सबसे जरूरी बात कि अगर इस तरह का कोई भी आदेश जारी नहीं किया गया तो फिर वे कौन लोग हैं, जिन्होंने कुलपति के नाम का गलत इस्तेमाल करते हुए यह सब किया और उनके लिए किस तरह की सजा का प्रावधान है? जिन लोगों ने एक उदघोषिका की छवि को धूमिल करने की कोशिश की है, उसके पीछे क्या कारण रहे हैं? *नईम अख्तर की तरफ से* आरटीआई के तहत पूछे गये सवालों का 5 मार्च 2011 को जवाब देते हुए ईएमपीसी के जनसूचना अधिकारी एससी कतोच ने लिखा कि ये सारे फैसले समर्थ प्राधिकारी की तरफ से लिये गये हैं। ये समर्थ प्राधिकारी कौन हैं, इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं की गयी। सवालों में जहां-जहां भी संबंधित अधिकारियों या कुलपति के आदेश की चर्चा की गयी थी, वहां जवाब में समर्थ अधिकारी शब्द का प्रयोग किया गया। उन्हें ब्लैक लिस्टेड करने के पीछे के कारण क्या थे, इस संबंध में सिर्फ इतना ही कहा गया कि चूंकि वह अस्थायी कर्मी हैं, इसलिए नियम एवं शर्तों के उल्लंघन किये जाने की स्थिति में बिना किसी पूर्व सूचना के संस्थान से निलंबित किया जा सकता है। बाकी सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझा गया और उसके आगे खाली स्थान छोड़ दिया गया। *आरटीआई 2005 के तहत* नईम अख्तर को जो जवाब मिले हैं, वे निराश करने के साथ-साथ संदेह पैदा करनेवाले भी हैं। यह संदेह इस बात को लेकर है कि ज्ञानवाणी के भीतर कामकाज को लेकर भारी अनियमितताएं हैं और ऐसे में यह मामला अकेले नईम अख्तर का न होकर दर्जनों ऐसे उदघोषकों, निर्माताओं और ईएमपीसी, इग्नू के लिए काम करनेवाले मीडियाकर्मियों का है, जो कि अस्थायी तौर पर काम कर रहे हैं और लगातार गलत होते रहने की स्थिति में अपने हक की लड़ाई लड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश में उन्हें फिलहाल प्रताड़ना के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है। इसका मतलब साफ है कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का ऊपरी ढांचा भले ही अधिकारों, मूल्यों और अपने यहां काम करनेवाले लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर खड़ा किया गया हो लेकिन इसके भीतर जिस तरह ठेके या अस्थायी तौर पर नियुक्तियां होती है, कोई भी व्यक्ति शोषण और दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता। सेवा से कभी भी मुक्त कर दिये जाने का यही भय है कि ज्ञानवाणी और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग की संस्थाओं का सच हमारे सामने नहीं आने पाता है। ऐसे में नईम अख्तर ने ऐसा क्या कर दिया, जिससे कि संस्थान और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग की शर्तों का उल्लंघन होता है, यह तो किसी भी आरटीआई के जवाब से निकलकर नहीं आया लेकिन तड़ीपार करने के पहले जो कुछ भी घटित हुआ, उसके भीतर से इस बात के सवाल ढूंढे जा सकते हैं। *दरअसल साल 2009-10 के दौरान* नईम अख्तर सहित आठ अस्थायी उदघोषकों को वित्तीय वर्ष 2009-10 में टीडीएस (टैक्स डिडक्शन एट सोर्स) गलत काटा गया। नईम अख्तर का फार्म 16-ए गलत जारी किया गया। छह महीने लगातार ज्ञानवाणी दिल्ली के टेलीफोन के जरिये सुझाव देने संबंधी कार्यक्रम में बाहर से आने वाले सारे विशेषज्ञों को 250/- रुपये प्रति कार्यक्रम के हिसाब से कम भुगतान किया। इग्नू के दीक्षांत समारोह के चार उदघोषकों को 250/- रुपये प्रति व्यक्ति के अनुसार कम भुगतान किया। कुछ उदघोषकों को उनकी ड्यूटी किये जाने के बावजूद उनका भुगतान नहीं किया। ज्ञानवाणी दिल्ली द्वारा जारी जिन उदघोषकों के चेक गड़बड़ जारी होने से नकद नहीं हो पाये थे, बार-बार प्रार्थना करने के बावजूद उन्‍हें सुधारकर नहीं दिये जा रहे थे जैसी गड़बड़ियां थीं, जिसके खिलाफ सबसे पहले नईम अख्तर ने आवाज उठायी। उन्होंने सबसे पहले तो स्टेशन प्रबंधन से इन सारी बातों की मौखिक शिकायत की लेकिन दो महीने के इंतजार के बावजूद भी कुछ नहीं किया गया तो इस संबंध में 25-06-2010 को लिखित प्रार्थना पत्र दिया। उसके बाद अगस्त आते-आते उन्होंने तीन और प्रार्थना-पत्र दिये। इन प्रार्थना पत्रों पर किसी भी स्तर पर विचार नहीं किया गया और किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं हुई। आखिरकार फार्म 16-ए और टीडीएस से जुड़े सवालों के जवाब के लिए नईम ने 10-9-10 को एक आरटीआई प्रार्थना-पत्र दाखिल कर दिया। उसके ऐसा करने से ज्ञानवाणी और ईएमपीसी, इग्नू के भीतर की गड़बड़ियां एक के बाद एक खुलकर सामने आने लगीं। मसलन इसी समय इस बात की जानकारी मिली कि जून 2009 से जनवरी 2011 तक अस्थायी अकाउंटेंट के तौर पर शिवानी नरुला की जो नियुक्ति की गयी, उसमें कई नियम एवं शर्तों की अनदेखी की गयी। इस पद के लिए निर्धारित योग्यताओं को नजरअंदाज किया गया। पहले नईम अख्तर, उसके बाद नीतू शर्मा और अब रविशंकर कुमार के साथ हुई जिन वित्तीय गड़बड़ियों के मामले सामने आ रहे हैं, वे सबके सब इसी दौरान की गयी है। इन लोगों ने जब इस संबंध में मौखिक शिकायत की थी, तो शिवानी नरुला ने कोई न कोई कारण बताकर उसे तर्कसंगत करार दिया था। लेकिन अब एक-एक करके ये लोग आरटीआई के तहत शिकायत दर्ज कर रहे हैं तो या तो वो राशि वापस भेजी जा रही है या फिर ऐसे तर्क दिये जा रहे हैं, जो अपने आप में ज्ञानवाणी और ईएमपीसी को लेकर सवाल खड़े करते हैं। यहां तक कि आरटीआई के जवाब में शिवानी नरुला की नियुक्ति को जायज ठहराया गया। उद्षोषिका नीतू शर्मा के मामले में ऐसा ही सुधार किया गया। मार्च 2010 में उन्होंने कुल 12 शो किये, जिनमें कि 11 का ही भुगतान किया गया। एक के भुगतान के बारे में जवाब मांगने पर शिवानी नरुला उपस्थिति आदि का हवाला देते हुए मामले को टाल गयीं। लेकिन इस संबंध में नीतू शर्मा ने जब आरटीआई (10.12.2010) के तहत जवाब मांगा तो कहा गया कि 3.01.11 को इस एक दिन की राशि का भुगतान कर दिया गया है। रविशंकर के मामले में जो जवाब दिया गया, वह ईएमपीसी के गैरमानवीय हो जाने का संकेत करते हैं। *रविशंकर ने* ईडीयूसैट परियोजना के तहत ईएमपीसी, इग्नू में अस्थायी तौर पर दो सालों तक जूनियर सलाहाकार के पद पर काम किया। इन दो सालों में उन्होंने 104 शनिवार जो कि छुट्टी के दिन होते हैं, काम किया। दो साल का करार खत्म होने पर भी उन्हें आने से मना नहीं किया गया और इस तरह उन्होंने 11 दिनों तक आगे भी काम लिया गया। शनिवार और 11 दिनों के काम के लिए उन्हें कुछ भी भुगतान नहीं किया गया। इस संबंध में उन्होंने 2-2-2011 को जब आरटीआई के तहत शिकायत की, तो 8 मार्च 2011 के जवाब में ईएमपीसी के जनसूचना अधिकारी की ओर से लिखा गया कि चूंकि रविशंकर अस्थायी और ठेके के आधार पर कार्यरत थे और उन्हें मासिक वेतन दिया जाता था, इसलिए शनिवार का अलग से वेतन दिया जाना संभव नहीं है। रविशंकर कुमार का करार 4.08.08 से 3.08.10 तक ही था और ऐसे में वे ईएमपीसी में किसी भी पद पर कार्यरत नहीं थे, तो 11 दिनों का वेतन देने का कोई सवाल ही नहीं बनता है। ईएमपीसी जिन नियम और शर्तों की बात जिस अंदाज में कर रहा है, उसमें यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि यहां अस्थायी और स्थायी तौर पर काम करनेवाले लोगों के लिए मापदंड न केवल अलग हैं बल्कि उनमें जमीन-आसमान का फर्क है। स्थायी कर्मचारी अगर छुट्टी के दिन या निर्धारित समय से अधिक काम करता है, तो उन्हें अलग पैसे दिये जाते हैं जबकि अस्थायी के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है। दूसरी बात कि अगर रविशंकर ने करार खत्म होने के बाद भी ईएमपीसी में आना जारी रखा तो उन्हें उसी वक्त रोकने के बजाय 11 दिनों तक काम क्यों लिया जाता रहा? *इधर नईम अख्तर के* सवाल खड़े किये जाने पर उसके पक्ष में नतीजा तो कुछ नहीं आया लेकिन 29-9-10 और 30-9-10 को अधिकारियों ने उनके खिलाफ एक-एक करके दो फरमान जारी किये। एक के अनुसार, ज्ञानवाणी दिल्ली में काम करने वाले हर उदघोषक को इग्नू में कोई भी काम करने से पहले स्टेशन मैनेजर की अनुमति लेना आवश्यक होगा। इसकी अवहेलना आज भी धड़ल्ले से जारी है। दूसरा, जो कि सिर्फ उनके लिए था कि जिसमें 1-4-2009 से 10-10-2010 तक इग्नू से कमायी गयी सारी राशि का हिसाब देना था। नईम अख्तर के लिए यह बिल्कुल नया फरमान था, जिसका कि अधूरे तरीके से ही सही उन्होंने 11.10.10 को जवाब दिया। उसके बाद से उनके शो की संख्या लगातार कम कर दी जाने लगी और आखिर में तड़ीपार कर दिया गया। *ऐसा करके* ज्ञानवाणी और ईएमपीसी, इग्नू अपने भीतर फैली अनियमिततातों को लगातार ढंकने की कोशिश में जुटा है लेकिन नईम अख्तर के अलावा दूसरे लोगों ने भी आरटीआई के तहत जिस तरह से सवाल-जवाब करने शुरू कर दिये हैं, इससे इस बात की बड़ी संभावना है कि प्रसार भारती की तरह ही इसके भीतर कई दूसरे स्तर के घपले निकल कर सामने आएंगे। नईम अख्तर के मामले पर गौर करने के बाद ऐसे दर्जनों सवाल हमारे सामने से गुजरे, जिस पर कि सख्ती से सवाल करने की जरूरत है। मसलन अस्थायी उदघोषकों के लिए जो ऑडिशन लिये जाते हैं, उन्हें स्वीकृत कर लिये जाने के बाद भी कभी क्यों नहीं बुलाया जाता? उन्हें काम करते रहने के बावजूद स्वीकृति पत्र क्यों नहीं दिये जाते या फिर इंटर्नशिप करने के बावजूद भी अनुभव पत्र जारी क्यों नहीं किये जाते? ज्ञानवाणी अपनी मेल आइडी सार्वजनिक करने के बावजूद, उस पर संदेश भेजे जाने और जवाब मांगने पर इसे सिर्फ कार्यालयी और सांस्थानिक प्रयोग की बात कहकर क्यों टालता है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनकी गहराई में जाने पर ज्ञानवाणी का असली चेहरा कुछ और ही सामने आता है। -mohallalive * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Apr 18 08:45:28 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 18 Apr 2011 08:45:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCktuCklSDgpK7gpL/gpLDgpY3gpJrgpKrgpYHgpLAg4KS14KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSj4KS+4KS24KWN4KSw4KSuIOCkrOCksOCljeCkrOCksOCkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkrOCknOCkrOCknOCkvuCkpOClgCDgpKjgpL7gpLLgpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWIIQ==?= Message-ID: मिर्चपुर, हरियाणा में एक बार फिर अगड़ी जाति के दबंगों ने दो दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करने की कोशिश की है। अगड़ी जाति के दबंगों ने खेत में काम करते वक्त मनमानी करने की कोशिश की और नाकाम होने पर पर सरेआम उन पर कुचलने की मंशा से ट्रैक्टर चढ़ा दिया। दोनों महिलाएं बड़ी मुश्किल से वहां से जान बचाकर निकल पायीं। लेकिन अब वो सामान्य स्थिति में नहीं हैं। मानसिक तौर पर उनकी क्या हालत हुई होगी, इसका सहज अंदाजा हम लगा सकते हैं। एनडीटीवी की खबर (17 अप्रैल 2011) के मुताबिक इन दोनों को स्थानीय अस्पताल में भर्ती किया गया और अपराधियों को धर-दबोचने की कोशिशें की जा रही हैं। मिर्चपुर में ये कोई पहली घटना नहीं है कि दलित महिलाओं और लड़कियों की इज्जत के साथ खेलने का काम किया गया, ये वहां की दबंग जातियों की रूटीन का हिस्सा है बल्कि उनकी भाषा में कहें तो एक परंपरा सी बनी हुई है कि अगड़ी जाति में पैदा होने की तमाम सुविधाओं के साथ एक सुविधा ये भी है कि वो दलित घर की बहू-बेटियों के साथ मनमर्जी कर सकें। *पिछले साल* 21 अप्रैल को 72 वर्षीय ताराचंद को इसलिए जला दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी विकलांग बेटी के साथ की जानेवाली जबरदस्ती का विरोध किया था। उसे जिंदा जलाने के दौरान बचाने आये थे। सुमन को तो कमरा बंद करके जिंदा जला ही दिया गया, साथ में ताराचंद को भी उन वहशियों ने नहीं छोड़ा। 9 मई 2010 को जब दिल्ली से हम कुछ लोगों ने उस इलाके का दौरा किया तो कई ऐसे सच हमारे सामने खुलकर आये जिसे कि मेनस्ट्रीम मीडिया (समचार चैनल और अखबार दोनों) ने कभी दिखाने-बताने की जरूरत महसूस नहीं की। दोपहर में जब हम मिर्चपुर पहुंचे, तो दलितों की वो बस्ती पूरी तरह वीरान थी। चारों तरफ पुलिस बल तैनात थे। वो हमें बहुत ही कठोरता के साथ निहार रहे थे लेकिन हमने जले हुए करीब सात घरों में भीतर तक जाकर देखा कि कैसे दबंग अगड़ी जातियों ने दलित परिवारों को अपनी मनमानी का शिकार बनाया है। हम तब पूरी तरह खाक हो चुके सुमन के घर के सामने एक तख्ती पर बैठे थे। साथ में उसका भाई, उसकी मां जिनकी आंखें पूरी तरह सूज गयी थीं और उसकी दीदी भी थी। करीब चालीस मिनट की बातचीत में हम उसकी दीदी से नजर नहीं मिला पा रहे थे। सुमन की मां रो रही थी, फिर भी उनकी तरफ देख ले रहे थे लेकिन उसकी दीदी बिना रोये हमारी बातों को आगे बढ़ा रही थी लेकिन हमारी हिम्मत नहीं हुई कि हम आंख मिलाकर बात कर सकें। लौटते वक्त हमने एक बार जरूर भर नजर देखने की कोशिश की थी और वो चेहरा अभी तक मेरे दिमाग में कैद है – सपाट, संवेदनाएं एक जगह खून के थक्के-सी जमी हुई। उसी दौरान बस्ती के कुछ और लोग जमा हो गये और उनमें शामिल एक बुजुर्ग ने जो हमें बताया, वो हमें पूरी तरह हिला देनेवाला था। *मिर्चपुर की अगड़ी जातियां*, यहां की दलित बहू-बेटियों पर अपना अधिकार समझते हैं। वो कई बार जबरदस्ती दलितों के घरों में शाम के वक्त घुस आते हैं, भीतर से दरवाजे बंद कर लेते हैं और पूरी रात वहीं रुक जाते हैं। इस बीच वो शराब पीते हैं, हमलोगों को लेकर अंट-शंट बकते हैं, जमकर गालियां देते हैं और जो मन आये, करते हैं। विरोध करने पर कई बार तो वो बहू-बेटियों को नंगा करके बस्ती में घुमाते हैं। ये सब सुनना हमारे लिए जितना असहज है, उनके लिए करना उतना ही सहज। उस बुजुर्ग की बात के साथ जब एक महिला ने ये भी जोड़ा कि जिस दिन सुमन को कमरे में बंद करके जिंदा जलाया जा रहा था, उस दिन भी वो लोग घर के बाहर बैठकर शराब पी रहे थे और गालियां दे रहे थे। अगड़ी जातियों का रौब इसी बात को लेकर है कि वो इस परंपरा को किस तरह और कितने लंबे समय तक बनाये रखते हैं। शायद यही कारण है कि जब-जब हरियाणा में ऐसी घटनाएं होती हैं और दबे-सहमे तरीके से ही सही लोग (इन मामलों में एनजीओ की भी बहुत सक्रियता दिखायी नहीं देती) सड़कों पर उतरते हैं, तो उससे कई गुणा ताकतवर और विकराल समुदाय उनके इस प्रतिरोध को तहस-नहस करने में सक्रिय हो जाते हैं। वो पीड़ित, दलित बस्ती के लोगों और उनके समर्थन में आये लोगों को या तो डराने-धमाने की पुरजोर कोशिशें करते हैं या फिर छोटे-मोटे प्रलोभन के साथ मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं। ये समुदाय इतनी मजबूती से अपनी मौजूदगी दर्ज करता है कि सरकार को भी इस बात का भय सताने लग जाता है कि अगर इनके विरोध में कदम उठाये गये तो इसका नकारात्मक प्रभाव राजनीतिक करियर पर साफ तौर पर पड़ सकता है। *वहां मौजूद मीडिया भी* इनके खिलाफ बहुत अधिक लिख-बोल नहीं सकता, क्योंकि जिस तरह से हमें पहले तो सम्मान देकर और बाद में ये जानने पर कि दिल्ली से आये हैं, घेरकर सवाल-जवाब करने और हड़काने का काम किया गया, उससे अंदाजा लग गया कि यहां मीडिया और पत्रकार उनके पालतू बनकर अपने को बचा सकते हैं। स्थानीय मीडियाकर्मियों से वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे भी हमने भांप लिया था कि उनकी तरफ से इन्हें नियमित सेवाएं इस बात की दी जाती है कि वो कभी भी इनके खिलाफ कीबोर्ड और माइक का इस्तेमाल न करें। *ऐसे में* 17 अप्रैल 2011 को दो दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करने की कोशिश की जो खबर हमारे सामने आयी है, वो इस पूरी प्रक्रिया का एक नमूना भर ही है। मिर्चपुर और हरियाणा में इस तरह की घटनाएं सालोंभर होती रहती हैं, अगर ऐसा कहा जाए, तो शायद कुछ गलत न होगा। गूगल पर अखबार की कतरनों को खोजने की कोशिश में अभी भी जुटें, तो आपको निराशा होगी कि ये नदारद है। इसकी वजह साफ है, जिसका कि हमने ऊपर जिक्र किया। एक तो ये कि संवैधानिक रूप से ऐसा करना गलत माने जाने के बावजूद भी दबंग जातियों के भीतर ही भीतर इस बात की स्वीकृति है कि दलित जातियों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए, वो इसी लायक हैं। उनकी हैसियत तब बौनी हो जाती है, जब वो ऐसा करना बंद कर देते हैं। तभी तो ऊपरी तौर पर सुमन के पक्ष में न्याय की बात करते हुए भी 9 मई को मिर्चपुर में जब पूरे हरियाणा की खापों को लेकर महापंचायत बुलायी गयी, तो किसी भी वक्ता ने खुलकर नहीं कहा कि जो हुआ वो गलत हुआ और भविष्य में ऐसा नहीं होगा। किसी ने ये नहीं कहा कि इसे अगड़ी जाति के लोगों ने अंजाम दिया जबकि सब कुछ बहुत साफ था और जो कुछ हुआ था, वो अगड़ी जातियों के भीतर ही भीतर स्वीकृत की जानेवाली परंपरा का हिस्सा था। सबों ने सुमन और ताराचंद के प्रति सहानुभूति जताने के बहाने अगड़ी जातियों के एकजुट होने के लिए खाप पंचायत बुलायी थी और उल्टे सरकार को अल्टीमेटम दिया था कि अगर उनके लड़के को रिहा नहीं किया गया, तो इसका अंजाम सही नहीं होगा। साझी संस्कृति का हवाला देकर मंच से इस बात को उन वक्ताओं ने भी दुहराया, जो कि कभी सरकारी नौकरियों में शामिल रहे थे, सेना में थे। मुझे हैरानी हो रही थी कि साझी संस्कृति को लेकर वो इस तरह बोल रहे थे कि जैसे दलितों ने ही इसे नष्ट या चोट पहुंचाने का काम किया है। उन सारे वक्ताओं का जो स्वर था, उससे बार-बार यही निकलकर आ रहा था कि इन दलितों ने हरियाणा की संस्कृति को कलंकित किया है, उन्हें इस तरह विरोध दर्ज करने के लिए हिसार के जिला मुख्यालय के आगे धरना-प्रदर्शन नहीं करना चाहिए था। *मिर्चपुर के पहले* जब हम हिसार के इस जिला मुख्यालय के आगे पहुंचे थे, तो एक महिला पुलिसकर्मी ने बहुत ही स्वाभाविक तरीके से कहा कि वो लोग यहां से चले गये, अच्छा हुआ जी, हरियाणा की बड़ी बदनामी हो रही थी। बाद में हमें ये भी पता चला कि वहां से लोग चले नहीं गये थे, डरा-धमकाकर, मार-पीटकर भगा दिया गया था। तो सवाल है कि जिस मिर्चपुर और हरियाणा के अधिकांश इलाके में अगड़ी जातियों के दबंगों द्वारा दलित महिलाओं का बलात्कार करना या उन्हें जिंदा जला देना, उसके प्रतिरोध में उठ खड़े होने से ज्यादा स्वाभाविक है, वहां अगर इस तरह की घटनाएं लगातार घटित होती हैं लेकिन कभी-कभी मुख्यधारा के मीडिया की खबर बन पाती है, तो इसमें आश्चर्य कैसा? *अच्छा, अब इन* घटनाओं की तारीखों पर एक बार नजर डालें तो आपको सहज ही अंदाजा लग जाएगा कि ये काम अगड़ी जातियों द्वारा सिर्फ और सिर्फ हवश को पूरी करने के लिए नहीं किये जाते, इसका एक राजनीतिक अर्थ भी है जिसे कि व्यापक तौर पर समझा जाना चाहिए। सुमन के साथ पिछले साल जो कुछ भी हुआ, वो भी अंबेडकर जयंती के एक सप्ताह भी नहीं बीते थे, तब किया गया और इस साल भी जिन दो दलित महिलाओं के साथ तब किया गया जबकि कुछ जगहों पर इस उपलक्ष्य में जो कार्यक्रम आयोजित किये गये, उनके शायद टेंट, बैनर-पोस्टर भी नहीं उतरे होंगे। इसका साफ मतलब है कि दलित समाज को किसी भी हाल में अंबेडकर को लेकर दर्प में भीगने का मौका न दिया जाए। बाबा साहब को लेकर जो उनके भीतर स्वाभिमान है, उनके आदर्शों को अपनाते हुए, एकजुट होकर कुछ करने और सुधार की योजना है, उसे ध्वस्त कर दिया जाए ताकि हरियाणा के भीतर वो कभी भी संगठित आवाज की शक्ल में न उभरने पाएं। ऐसे में इस तरह की घटना सिर्फ अपराधिक मामले के दायरे में नहीं आती बल्कि दलितों की जातीय अस्मिता को कुचलने के तौर पर आती है, जिसमें कि किसी एक-दो शख्स को दंडित करके दुरुस्त नहीं किया जा सकता। ये वो राजनीतिक कुचक्र का हिस्सा है, जिसमें सिर्फ सुमन और ताराचंद जैसे लोग शिकार नहीं हुए होंगे बल्कि पूरा दलित समाज चपेट में आ चुका है। और वैसे भी जब ये सब कुछ करना दबंग जातियों के लिए भीतर ही भीतर परंपरा को बनाये रखने का मामला करार दे दिया गया हो, राजनीतिक पार्टियों के लिए सत्ता का खेल गड़बड़ा जाने का भय हो और दलितों का प्रतिरोध, दबंगों के बलात्कार किये जाने से कहीं ज्यादा अस्वाभाविक हो तो दलितों के लिए अस्मिता के भरभरा जाने जैसे चीत्कार का संकट तो है ही। ऐसे में हम इन दो महिलाओं के साथ कुकर्म करने की मंशा रखनेवाले अपराधियों के पकड़े जाने के इंतजार से कहीं ज्यादा कॉलर ऊंची करके चलते हुए देखने के अभिशप्त हैं। मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive (हमने इस पोस्ट के लिए एनडीटीवी इंडिया की खबर को आधार बनाया है लेकिन मोहल्लालाइव के सहयोग से ndtv24x7 की खबर की वीडियो मिली जिसमें हत्या की मंशा की बात कही गयी है। हम दोनों चैनलों की लिंक लगा रहे हैं और आप देखें ि कैसे भाषा बदलने से खबरें भी बदल जाती है। वीडियो के लिए क्लिक करें- http://www.ndtv.com/video/player/news/man-arrested-for-running-over-tractor-on-2-dalit-women/196863- ndtv24x7 http://www.ndtv.com/video/player/news/video-story/196861 ndtv india -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Apr 19 14:08:48 2011 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 19 Apr 2011 14:08:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkleCkiCDgpJo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSB4KSmIOCkpeClhyDgpLjgpLDgpYcg4KSG4KS44KSu4KS+4KSBJyA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkleClg+Ckt+CljeCkoyDgpK7gpYvgpLngpKg=?= Message-ID: <4DAD4A18.6050603@sarai.net> http://apvaad.blogspot.com/2010/10/blog-post.html#comment-form (अपवाद से साभार, अनुराग को शुक्रिया सहित। मज़े लें: रविकान्त *कृष्णमोहन* शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के इसी साल उर्दू से हिंदी में आए उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आस्माँ’ को पढ़ते हुए पेज-दर-पेज यह ख़याल आता है कि संस्कृति और परंपरा की वो कैसी-कैसी ख़ूबियाँ और रंगीनियाँ थीं, जो अंग्रेज़ों का वर्चस्व बढ़ने के साथ हिंदुस्तान की ज़मीन से हमेशा के लिए ग़ायब होती चली गईं। वैसे तो यह कहानी 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक लगभग एक सदी की है, लेकिन इसमें 1857 से पहले के लगभग तीन दशक की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक तस्वीर अपने ख़ास बाँकपन के साथ मुकम्मल तौर पर मौजूद है। यानी कि उस फ़ैसलाकुन जंग में पराजित होकर तबाह हो जाने से ठीक पहले हमारी सूरत क्या थी, हमारी मूल्य-मान्यताएँ और प्रेरणाएँ क्या थीं और उस ज़माने में मौजूद तमाम चीज़ों के प्रति हमारा नज़रिया कैसा था, इस उपन्यास से ये बातें बख़ूबी ज़ाहिर होती हैं। उस खोई हुई दुनिया को अपने सामने ज़िन्दा होते देख बरबस ही ग़ालिब का यह शेर याद हो आता है- सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहा हो गईं राजपुताने से कश्मीर तक और महाराष्ट्र से बिहार के सोनपुर तक फैले इस विस्तृत आख्यान में, जिसके केंद्रीय पात्र दिल्ली और उत्तर प्रदेश के रामपुर से ताल्लुक़ रखते हैं, ख़ास-ओ-आम चरित्रों के विशाल समूह के बीच जाने पर जो सबसे अहम बात पता चलती है, वह यह कि इनमें से हर व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है, अपना अंदाज़ है। सोच भले ही पारंपरिक है, लेकिन उसे व्यक्त करने का तरीका हर शख़्स का अपना है, और कम से कम इस मामले में निस्संदेह उन्हें आधुनिक प्रवृत्ति का नुमाइंदा बताया जा सकता है। विषम से विषम परिस्थिति में भी वे अपनी मूल्य-मान्यताओं को नहीं भूलते और किसी न किसी तरह उसे ज़ाहिर भी कर देते हैं। उपन्यास के आरंभिक पृष्ठों पर ही महरौली से लौटते समय वज़ीर ख़ानम की बहली (बैलगाड़ी) के पहिए का धुरा टूट जाता है और बियाबान में रात बिताने की नौबत आ जाती है, जिसका संभावित नतीजा रहजनों के ख़ौफ के सबब यह था कि, ‘लड़की को तो लौंडी या तवायफ़ बनना था और बाप की कब्र वहीं बननी थी। गाड़ीवान शायद बच निकलता तो बच निकलता।‘(पृ. 3) ऐसे में कम्पनी का अंग्रेज़ अधिकारी मार्स्टन ब्लेक उधर आ निकलता है। घबराई हुई वज़ीर ख़ानम की ओर उसे घूरता पाकर गाड़ीवान कहता है, ‘हाज़िर हैं सरकार, बस ज़नाना एक तिल ओट हो जाए, बेपर्दगी होती है।’ कथाकार की टिप्पणी है, ‘उस मुसीबत के आलम में भी गाड़ीवान का इशारा था कि फ़िरंगी मर्द ज़रा दूर ही रहे तो बेहतर है।‘(पृ. 4) इसी तरह दिल्ली का रेज़ीडेंट विलियम फ्रेज़र जब औरंगज़ेब की तर्ज़ पर दिल्ली में हाथी से सैर करने का शौक़ फ़रमाते हुए वज़ीर ख़ानम के दरवाजे पर पहुँचता है और अंदर जाना चाहता है तो वहाँ नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ के लोहारू से मंगाकर तैनात, लठैत उसका रास्ता रोक देते हैं। इस मौके पर फ्रेज़र के बंदूकधारी शहसवार और लठैत के संवाद के वर्णन का एक अंश दर्शनीय है, जो भाषा के चुटीलेपन, अपनी पहचान के गौरव और फ़र्ज अदायगी की अनूठी मिसाल पेश करता है- ‘फ्रेज़र ने होश सलामत रखे और ख़ुद कुछ न कहा लेकिन उसका इशारा समझकर एक शहसवार घोड़ा डपटाकर क़राबीन ताने हुए आगे आया और कड़ककर लठैत से बोला, ‘‘अबे माँ के ख़सम, खड़ा देखता क्या है? हाथ-पाँव रह गए हैं क्या? साहब कलाँ बहादुर के हाथी को रास्ता क्यों नहीं दे रहा?’’ ‘लठैत ख़ालिस मेवाती क़बाइली था। सफ़ेद ज़ीन का तंग पाजामा, उसके ऊपर पूरे आस्तीन का शलूकानुमा कुर्ता, उसी कपड़े का, कमर में सुर्ख़ दुपट्टा और उसमें एक पेशक़ब्ज़ खोंसा हुआ, सर पर सियाह रंग का फेंटा, कलाइयों में लोहे के कड़े, हाथ में नौ सेर का कद्दे-आदम लट्ठ जिसे कई बरसों तक बारिश में रख़कर और फिर कई महीनों तक सरसों का तेल पिला-पिला कर कलछांऊँ लोहे के सरिये से ज़्यादा सख़्त और लचीला बना दिया गया था। लट्ठ के एक सिरे पर पीतल की मूठ और दूसरे सिरे पर लोहे की नोंकदार शाम चढ़ी हुई थी। लठैत ने आधे खुले फाटक में से लट्ठ को लंबा किया और उसे शहसवार के घोड़े के गर्दन पर, फेफड़े के पास हल्के से रखकर बोला, ‘‘ज़री जबान को लगाम दो, तिलंगे साहब (तिलंगे के एक मानी ‘घुड़सवार’ भी थे। मराठों की फौज़ के तिलंगो ने देहली में बहुत जुल्म ढाए थे और हालांकि बादशाह सलामत की फौज में भी तिलंगो की एक पलटन थी, लेकिन आम देहली वालों की ज़बान पर यह लफ़्ज़ गाली से कुछ ही कम था।) और अपने घोड़े को भी लगाम दो, नहीं तो एक क़दम आगे डगो और यह लट्ठ तुम्हारे मलेपंज (दस से चौदह पंद्रह बरस का घोड़ा, यानी बूढ़ा घोड़ा। ज़ाहिर है, लठैत ने यह शब्द तौहीन आमेज़ मानी में इस्तेमाल किया था) के जिगर के पार हो जाएगा।’’ ‘‘अबे तिलंगा किसको कहता है? हम बाडूज़ई पठान हैं। अभी उतरकर ज़बान गुद्दी से ख़ींच लूँगा।’’ (पृ. 332) जाने को तो फ्रेज़र थोड़ी और कशमकश के बाद अंदर चला जाता है, लेकिन उसके धमकी भरे बरताव से ख़फा होकर वज़ीर ख़ानम उसे घर से करीब-करीब बाहर निकाल देती है। इस रंजिश का नतीजा निकलता है नवाब शम्सुद्दीन अहमद के हाथ से लोहारू रियासत के निकल जाने के रूप में। फ्ऱेज़र पहले से ही इस मुक़दमे में नवाब के सौतेले भाइयों की तरफदारी कर रहा था। अब उसने उनकी पैरवी करके फ़ैसला करा दिया। नवाब के मुख़्तार ने इसकी सूचना रातों-रात ख़त में लिखकर नवाब को भिजवाई। ख़त पढ़कर नवाब अभी सदमे से बाहर आने की कोशिश में है कि उनका मीरे-शिकार और बचपन से साथ खेला अपने ज़माने का मशहूर शिकारी और निशानेबाज करीम ख़ाँ आ जाता है। ख़त को पढ़ने के बाद दोनों की बातचीत देखें तो करीम ख़ाँ की कुशलता का पता चलता है जिसने एकबारगी नवाब को भी चकरा दिया- ‘‘क्या हो गया मेरे बादशाह को? किसने दुखी किया है? किसने ऐसी गुस्ताख़ी की?’’ ‘नवाब ने छत की तरफ़ से आँखें हटाकर उसी तरह ख़ाली-ख़ाली नज़रों से करीम ख़ाँ की तरफ़ देखा लेकिन कहा कुछ नहीं। करीम ख़ाँ को देखकर वह हमेशा ख़ुश हो जाते थे, लेकिन आज उनका चेहरा जज़्बात से बिल्कुल ख़ाली था। ‘‘कुछ मुँह से बोलिए तो सही, मेरे सरकार’’, करीम ख़ाँ ने इस बार नवाब का घुटना पकड़कर हल्के से हिलाया जैसे नींद से जगा रहा हो। ‘‘आप हुक्म तो फ़रमाइए। सब जाँनिसार हाज़िर हैं; आपकी मर्ज़ी फ़ौरन पूरी होगी।’’ ‘नवाब ने इस बार करीम ख़ाँ को इस तरह देखा गोया अब उसके आने का पता चला हो। ‘‘करीम ख़ाँ’’ नवाब ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा। ‘‘ अब कुछ नहीं। अब मरने-मारने का वक़्त है।’ ‘करीम ख़ाँ ने ज़रा सा कहकहा लगाया। ‘‘सरकार फ़रमा तो दें किसके मरने का वक़्त है। मारने को हम तैयार हैं।’’ ‘‘लोहारू हमसे छिन गया। यह सब उसी भड़वे की कारस्तानी है। क्या अच्छा होता अगर हमने उसी रोज़ उसे मार दिया होता।’’ ‘‘सरकार तो पहेलियाँ बुझा रहे हैं’’, करीम ख़ाँ ने पुराने दोस्तों के से अंदाज़ में कहा। नवाब ने ज़मीन पर पड़े हुए काग़ज़ की तरफ़ इशारा किया, ‘‘इसे उठाकर पढ़ क्यों नहीं लेते। सब तो इसी में लिखा हुआ है।’’ करीम ख़ाँ ने काग़ज़ उठाकर पढ़ा तो चंद ही पलों में सारी हक़ीक़त ज़ाहिर हो गई। उसके चेहरे पर अफ़सोस के बादल आए,लेकिन फ़ौरन ही गुज़र गए। अफ़सोस की जगह संजीदगी और पक्के इरादे की सख़्ती ने ले ली। ‘‘मैं सरकार के हुक्म का मुंतज़िर हूँ। दिल्ली जाऊँ या कलकत्ता चला जाऊँ? क्या फ़िरंगी बादशाह के यहाँ दर्ख़ास्त दाख़िल होगी?’’ ‘‘दर्ख़ास्त कैसी और इल्तेजा कैसी?’’ नवाब ने उदास लहजे में कहा। ‘‘जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता। अब अल्लाह ही उनसे इंतक़ाम लेगा। वह ज़बरदस्त इंतक़ाम लेने वाला है।’’ ‘‘इंतक़ाम तो हम भी ले सकते हैं, सरकार।’’ नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ ने आरामचौकी के हत्थे पर ज़ोर से मुक्का मारकर ऊँची आवाज़ में कहा,‘‘क्या कोई ऐसा नहीं जो उस काफ़िर दुष्ट फ्रेज़र को ठिकाने लगा देता कि मेरे जी को कुछ तस्कीन होती।’’ हर तरफ़ सन्नाटा सा छा गया। कुछ देर बाद करीम ख़ाँ ने कहा, ‘‘मैंने सुना है सरकार ने खाना भी नहीं तनावुल फ़रमाया। हवेली के अन्दर लोगों में बड़ी बेचैनी और घबराहट है। बारे आप उन्हें और नन्हे बच्चों को कब तक इंतज़ार में रखेंगे?’’ नवाब ने करीम ख़ाँ की तरफ़ कुछ हैरत से नज़र की। बातचीत का मौज़़ू अचानक बदल जाने की कुछ वजह होगी, लेकिन क्या वजह हो सकती है? वह कुछ कहना चाहते थे कि करीम ख़ाँ ने आगे कहा, ‘‘मैं तो वलीनेमत दौलतमदार से इजाज़त लेने आया था।’’ वह एक पल को रुका, गोया कोई आम सी बात कह रहा हो, कहीं कुछ जल्दी या घबराहट न हो। ‘‘एक ज़रुरी काम आ पड़ा है। मैं अभी-अभी दिल्ली के लिए कूच करना चाहता हूँ। आला हज़रत ख़ासा नोश फ़रमाएँ। आपका जी मांदा हो रहा है। ज़रा आराम फ़रमाएँ। फिर गुलाम कुछ तदवीरें अर्ज़ करेगा।’’यह कहकर करीम ख़ाँ ने नवाब के घुटनों को फिर हाथ लगाया और उठकर सात बार झुक-झुककर सलाम किया। ‘‘जाओ, तुम्हें ख़ुदा को सौंपा,’’ नवाब ने फुसफुसाहट के लहजे में कहा। (पृ. 402-403) इसी बातचीत के बाद करीम ख़ाँ दिल्ली चला गया और महीनों तक घात लगाए रखकर उसने फ्ऱेज़र का काम लगभग अकेले दम पर तमाम कर दिया। मसले की नज़ाकत की समझ और वाणी पर संयम का ही नतीजा था कि अंग्रेज़ों ने उसे तो गिरफ़्तार कर लिया, पर लाख कोशिश करने पर भी नवाब के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं जुटा सके। और अंततः बरतानिया के एक बकवास क़ानून के सहारे, जिसके मुताबिक़ नौकर के काम का ज़िम्मेदार मालिक होता है, उन्होंने नवाब को फाँसी दी। वज़ीर ख़ानम से मुलाकात तो बहरहाल फ्रे़ज़र की हुई लेकिन गुफ़्तगू में बात बिगड़ गई। अपनी रवायत के मुताबिक़ ख़ातिर तवाजो तो ख़ानम ने की लेकिन फ्ऱेज़र को मुँह न लगने दिया। इधर अपनी सत्ता के मद में चूर फ्रे़ज़र कुछ ज़्यादा ही खुले इशारे करने लगा। उनकी रोचक बातचीत का यह अंतिम टुकड़ा देखें जो हिन्दुस्तानी तौर-तरीक़ों में माहिर समझे जाने वाले फ्रे़ज़र की पोल खोल देता है- ‘‘ये बुलंदख़्यालियाँ खूब सही, लेकिन हमें पर कतरने और पंख-बाजू बाधने के हुनर भी आते हैं।’’ ‘हम बंधे हुए परिन्दों को उड़ने से कोई ग़रज़ नहीं, नवाब रेज़ीडेंट बहादुर, लेकिन हम हर सुख़न मौके़ और हर नुक्ता जगह पर रखने के क़ायल हैं।’’ वह एक लम्हे के लिए चुप रही। ‘‘आप शायद दूसरे की क़द्रदानी से इंकार और हटने के दावेदार हैं।’’ यह बयान भी फ्रे़ज़र के लिए ज़रा हलतलब निकला। मजबूरन उसे फिर कुछ सोचकर जवाब देना पड़ा और इस देरी ने भी उसे शर्मिन्दगी और नाराज़गी के एहसास से दो-चार किया। लेकिन वह इतना ज़रूर समझता था कि इस वक्त नाराज़गी का खुला इज़हार उसकी साख को और भी कम कर देगा। उसे बहुत फूँक-फूँककर क़दम रखने की ज़रूरत थी। ‘‘हम तुम्हारी तो क़द्र करते हैं छोटी बेगम, लेकिन शायद तुम पारखी नहीं।’’ ‘‘हम कहाँ के जौहरी और कहाँ के शाह ! नवाब रेज़ीडेन्ट साहब की उम्मीदें हम ग़रीब-गुरबा से पूरी न होंगी।’’ ‘‘मैं उम्मीद नही रखता,’’ फ्ऱेज़र ने टेढ़ी मुस्कराहट के साथ कहा । ‘‘में इरादे और नतीजे की एकता का क़ायल हूँ।’’ ‘‘ वजीर थोड़ा-सा पीछे खिसकी, गोया उठना चाहती थी, लेकिन फौरन ही इरादा बदल लिया हो, और बोली,’’जी, तो आप एकता के इस क़द्र क़ायल हैं तो आईने में मुँह भी न देखते होंगे। देख लेते तो बेहतर होता।’’ ‘‘फ्रेज़र ने अपनी समझ में बड़ी गहरी और वज़नदार बात कही थी। मगर उसे वज़ीर जैसी लड़की से साबक़ा ही कब पड़ा था, न उसने कोई हिन्दुस्तानी लड़की ऐसी देखी थी जो इतनी नाज़ुक तबीयत की हो और जिसका मिज़ाज किसी अंग्रेज़ के सामने भी पल में बिगड़ सकता हो। वज़ीर का जवाब सुनकर वह हक्का-बक्का रह गया । हिन्दुस्तानी तहज़ीब और नफ़ासत और इशारों वाले बयान का मुलम्मा एकदम से यूँ उड़ गया गोया उस पर तेज़ाब पड़ गया हो । उसने ख़ासदान की तिपाई पर हाथ मार कर ख़ासदान और तिपाई दोनों उलट दिये और अकड़कर यूँ खड़ा हो गया जैसे सिपाहियों की परेड देख रहा हो, ‘‘छोटी बेग़म यह सौदा तुम्हें महंगा पडे़गा।’’ ‘‘ मेरा आपका कोई सौदा नहीं और मैं वारे का सौदा भी नही ढूँढती। मैं तो ख़रीदार तबीयत का मानक देखती हूँ।’’ यह कहकर वज़ीर भी उठ खड़ी हुई और बाहर की तरफ़ इशारा करती हुए बोली , ‘‘ दरवाज़ा उधर की जानिब है, साहब कलाँ बहादुर।’’ (पृ. 337-338) उस समय पूरे देश में अंग्रेज़ों का सिक्का चलता था और दिल्ली के बडे़ हिस्से पर बादशाह की नहीं फ्रेज़र की हुकूमत चलती थी । लेकिन तहजीब के मामले में वे हिंदुस्तानियों से मीलो पीछे थे । इसी तहज़ीब का पैमाना था कि बातचीत में शिकस्त खाने के बाद फ्रेज़र ख़ुद अपनी नज़रो में भी शर्मिंदा हो जाता है और रही-सही कसर वज़ीर ख़ानम की बाँदियाँ पूरी कर देती हैं। फ्रेज़र को ख़ुद अपने जूते पहनने पड़ते हैं और शुक्र है कि उसने पम्प शू पहन रखा था जिसे वह खडे़-खड़े ही अँड़सने में कामयाब हो गया वरना कमरे में किसी कुर्सी वगैरह के अभाव में उसे घुटनों के बल बैठकर जूता पहनना पड़ता और ‘वह हमेशा के लिए मज़ाक बन जाता।’ इसी वजह से वह वज़ीर के घर से निकलते समय दिल में जलने-भुनने के साथ-साथ ख़ुदा का शुक्र भी अदा करता है। क़िस्सा कोताह यह कि इस उपन्यास में आए सैकड़ों चरित्रों में कोई भी ऐसा नहीं है जिसका अपना व्यक्तित्व न हो । यह व्यक्तित्व उनके अंदाज़े बयाँ से झलकता है। एक पल के लिए भी कोई हरकत करने आया पात्र जिस तरह से अपने काम को अंजाम देता है उससे इस बात की झलक मिलती है कि उसे अपनी भूमिका के महत्व का पता है, और उसे निभाने में अपनी क़ाबिलियत पर पूरा यक़ीन है। यह आत्मविश्वास उस मूल्य व्यवस्था से आता है जिसमें इस उपन्यास के पात्र यक़ीन करते हैं । दूसरे शब्दों में ब्रिटिशपूर्व भारत के मूल्य बोध की जडे़ं परंपरा में जितनी गहराई तक गयी थीं , उसकी साखें समाज में भी उतना ही घना फैलाव लिए हुए थीं। आज के आत्महीन-औपनिवेशिक भारत के अग्रगण्य लोगों के बौनेपन का आदी हो जाने के कारण हमें कई बार यह समझ में नहीं आता कि 18वीं सदी तक रहन-सहन और अदब-आदाब के मामले में हमने असाधारण परिष्कार हासिल किया था, जिसका कम से कम यूरोप में कोई सानी न था। अपनी खोई हुई भव्यता को रचना का विषय बनाने में इस बात का ख़तरा हमेशा मौजूद रहता है कि अतीत के प्रति मोहग्रस्त होकर हम उसकी विडंबना को न समझ सकें। सौभाग्य से इस उपन्यास में इस विषय में पर्याप्त परिपक्वता का परिचय दिया गया है। भारतीयों की ख़ूबियों को दिखाते समय कहीं भी अंग्रेजों के व्यक्तित्व अथवा उनकी प्रतिबद्धता को कम करके आँकने की कोशिश नही की गयी है। अंग्रेजों की अकड़, ख़तरों से बिना डरे उनका सामना करने का जज़्बा और निर्णायक प्रहार के महत्त्व की उनकी समझ का अच्छा परिचय इससे मिलता है। कुल मिलाकर, उनकी तस्वीर महासागर में अपना जहाजी बेड़ा लेकर घुस आए नाविकों सी उभरती है, जो हर लहर का मुकाबला कल, बल, छल से करते हैं और चूँकि जीतने या मरने के अलावा दूसरा कोई रास्ता उनके पास नहीं है, वे अपना सबकुछ दाँव पर लगाने को प्रस्तुत रहते हैं। यह तस्वीर तत्कालीन भारत के यथार्थ और अंग्रेज़ों के जातीय चरित्र के अनुरूप ही है । दूसरी तरफ़ भारतीयों की छवि कविता, कला, भाषा और आचार-व्यवहार की बारीकियों में रमे ऐसे लोगों की बनती है जो व्यक्तिगत विशेषताओं में तो बहुत बढ़े-चढ़े हैं लेकिन राजनीतिक-सामरिक तैयारियों के लिए जो सामूहिक निष्ठा और एकाग्रता चाहिए उसका उनमें अभाव है। सदियों के परिष्कार से निखरी हुई जीवन-शैली और जीवन-मूल्य मानो उन्हें सम्मोहित कर लेते हैं और वे अंततः उन्हीं के दायरे में सिमटकर रह जाते हैं। पूरे उपन्यास में इसके अनेक मर्मस्पर्शी प्रसंग मिलते हैं। उनमें से एक तब गुज़रता है जब नवाब शम्सुद्दीन अहमद खाँ आगबबूला होकर रात में विलियम फ्ऱेज़र की कोठी पर आ धमकते हैं। फ्रे़ज़र को इसका कुछ अंदेशा है, सो उसने पहरेदारों को सचेत कर रखा है। आमतौर पर खुला रहने वाला बाहरी दरवाज़ा बंद है और नवाब के आने पर भी खुलता नहीं। ‘‘क्या बात है, फाटक क्यों नहीं खोलते ? देखते नहीं, सरकार मुलाक़ात को तशरीफ़ लाये हैं ?’’ शम्सुद्दीन अहमद के एक सवार ने़ आगे बढ़ कर मुलायमियत मगर मज़बूती के लहजे में कहा। ‘वहाँ तो सब सधे हुए थे। एक संतरी ने चालाक मुस्कुराहट मुस्कुराकर जवाब दिया, ‘‘हमारी क्या मजाल जो फाटक न खोलें, लेकिन साहब कलाँ बहादुर सुख कर गये हैं। उनके हुक्म के बगै़र हम किसी को अन्दर न जाने देंगे।’ ‘’सुख कर गये हैं’’ अल्फाज़ शम्सुद्दीन अहमद के कान में तेज़ाब बनकर टपके। ‘सो जाने’ के लिए यह मुहावरा सिर्फ़ बादशाह जी-ज़ाह के लिए बोला जाता था। दूसरों के लिए मनाही न थी लेकिन एक रस्म -सी बन गयी थी और किले के बाहर यह मुहावरा रिवाज में भी न था। उस दो टके के मामूली ख़ानदान वाले फ़िरंगी की यह मजाल कि हमारे बादशाह दींपनाह के लिए जो जुमला इस्तेमाल होता है उसे ये हथिया ले । मुल्क तो ये लोग लिए ही जा रहे हैं, अब हमारे ख़ास रोज़मर्रे और मुहावरे भी अपने लिए इस्तेमाल करने लगे।’(पृ. 375 ) इस प्रसंग में एक बात यह भी ध्यान देने की है कि तत्कालीन भारतीय समाज में जाति और वंश के प्रति एक पारंपरिक नज़रिया तो था लेकिन वह कोई ‘टैबू’ नहीं था। अपने हुनर और अपनी क्षमता के बल पर आगे आने और समाज में असाधारण मान-प्रतिष्ठा हासिल करने के रास्ते खुले हुए थे और आम जनजीवन में यह सब रोज़मर्रा की बातें थीं । कश्मीरी कालीनसाज़ों और मराठा सेनापति माधवराव सिंधिया के प्रसंग में इसे देखा जा सकता है। इस उपन्यास पर लिखते हुए अपने साथ-साथ समीक्षाकर्म की सीमा का एहसास घेर लेता है। इन चन्द पंक्तियों को इस उपन्यास को पढ़ने का प्रस्ताव ही मानना उचित होगा। इसे पढ़ते हुए कुछ वैसी ही अनुभूति मुझे हुई जैसे टॉल्स्टाय के उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ को पढ़ते हुए हुई थी। शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने इसकी रचना करके भारतीय साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ा है, इसमें कोई शक नहीं। सच्ची भारतीयता सुदूर अतीत में स्थित न होकर अगर ब्रिटिशपूर्व युग में स्थित है, तो यह उसकी तस्वीर है, भारतीय क़ायदे के मुताबिक उसकी विशिष्टता को उभारने वाले चित्रण के साथ। इस असाधारण कृति का अध्ययन अनिवार्य संदर्भग्रंथ की तरह होना चाहिए। ................................................................................................. /(*) *कृष्णमोहन* हिंदी के युवा आलोचकों में अग्रगण्य हैं. आलोचनात्मक अवदान के लिए प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान. तीन आलोचना पुस्तक प्रकाशित. / ..................................................................................................... /(**) कई चाँद थे सरे आस्माँ/ /लेखक : *शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी*/ /प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स,इंडिया/यात्रा बुक्स/ /संस्करण : २०१०/ /कीमित : ४७५/-/ /......................./ From noreply+11899530515706124378 at google.com Sun Apr 3 14:58:24 2011 From: noreply+11899530515706124378 at google.com (=?UTF-8?B?4KSF4KSu4KSy4KWH4KSo4KWN4KSm4KWBIOCkieCkquCkvuCkp+CljeCkr+CkvuCkrw==?=) Date: Sun, 03 Apr 2011 09:28:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWBIOCkieCkquCkvuCkp+CljeCkr+CkvuCkryDgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkhuCkquCkleCliyBoYXN0YWtzaGVwLmNvbSDgpJXgpYAg4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSB4KSaIOCkleCksOCkqOClhyDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KS/4KSkIOCkleCkv+Ckr+CkviDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWI?= Message-ID: <001636af00fd28761004a00043c7@google.com> मैं hastakshep.com में शामिल हुआ/हुई हूँ और मुझे लगता है कि इसमें आपकी भी दिलचस्पी होगी. जाँच करने के लिए, नीचे दिए गए लिंक का अनुसरण करें: http://hastakshep.com/?psinvite=ALRopfXsfOBfs7CgZPFEaMAMALiJ09YnucAuNVLqaZiOiR8Jc8g-oCqx8c0UkOUwKonHZSUuGd1QukJZGYFXRDib4N54wNhjjA "Enter a message" ----- Google Connect समान रुचि के लोगों की दिलचस्प 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URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Apr 4 00:00:45 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 03 Apr 2011 18:30:45 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSm4KWH?= =?utf-8?b?4KS5IOCkleClhyDgpJXgpKDgpJjgpLDgpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIIOCkheCkquCkqOClhyDgpLngpL/gpKQg4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCksuCkv+CkluCkviDgpJfgpK/gpL4g4KSH4KSk4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpIngpKbgpK8g4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: संदेह के कठघरे में है अपने हित के लिए लिखा गया इतिहास: उदय प्रकाश *उदय प्रकाश* *मित्रो, पिछले दिनों बर्कले, कैलिफोर्निया विवि में अज्ञेय की जन्मसदी पर वसुधा डालमिया ने एक गोष्ठी आयोजित की थी. उसमें भारत से उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, आलोक राय और संजीव कुमार ने हिस्सा लिया था. उदय प्रकाश ने उस गोष्ठी में अज्ञेय की क्रांतिकारिता, प्रगतिशीलता और आधुनिकता की पहचान की और साथ-साथ अज्ञेय-विरोध के पीछे की प्रगतिशील वामपंथी साजिशों का खुलासा भी किया था. उदय प्रकाश का मानना है कि औपनिवेशिक काल से ही भारत में वामपंथ की कई धाराएं रही हैं लेकिन सन 47 से पहले और बाद में मुख्यधारा के वामपंथ ने सत्ता-सुख के लिए इसे हाईजेक कर लिया...और दूसरे कई प्रगतिशील समाजवादी लेखकों के ख़िलाफ़ झूठा दुष्प्रचार किया. * *पेश है उदय प्रकाश का यह लेख, जो आज (3 अप्रैल 2011) के राष्ट्रीय सहारा के उमंग रविवारीय परिशिष्ट में छपा है. यह लेख मेरे साथ बातचीत पर आधारित है. - शशिकांत * *किसी भी *लेखक या कलाकार के बारे में फतवे और फैसले जिन दो शिविरों से आते हैं, वे शिविर ज्यादातर धर्म-संप्रदाय और राजनीति के हुआ करते हैं। यह हमशा ध्यान रखना चाहिए कि समाजवादी विचारक और नेता लोहिया ने अपने विख्यात वक्तव्य में इन दोनों को एक ही माना था : ‘धर्म लंबे समय की राजनीति है और राजनीति छोटे समय का धर्म।’ *फिर ऐसे समाजों में *जहां पश्चिम की औद्योगिक आधुनिकता पूरी तरह आई नहीं, लेकिन किसी संयोग से वहां की राजनीति और उसके सांस्थानिक ढांचे आ गए, तो किसी भी लेखक या कलाकार के बारे में दिए जाने वाले फतवे में इन दोनों, यानी धर्म और राजनीति की एकजुट सक्रियता को अलगाना खासा मुश्किल हो जाता है। ये दोनों एक-दूसरे में एक-दूसरे को छुपाते हुए एक साथ बहुरूपिया-कपट के साथ सक्रिय होते हैं। *हिंदी भाषी कहे जानेवाले *इलाके में, जहां पूर्व-आधुनिक सामंती मूल्यों-मान्यताओं की जकड़बंदी सबसे विकट है और जहां पिछले साठ से भी अधिक सालों में बरती गई चुनावी या संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने जातिवाद और सांप्रदायिक अस्मिताओं को लगातार सशक्तऔर सांस्थानीकृत किया है, वहां इनमें से किसी भी एक की चीरफाड़ दूसरे की फोरेंसिक रिपोर्ट बन जाती है। पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों में विचाधाराओं के महावृत्तांतों का अंत अन्य कारणों से हुआ होगा, उत्तर-भारत की इस पट्टी में उनका विघटन और पतन धर्म, सांप्रदायिकता, जाति, क्षेत्रीयता, स्वार्थ और लगातार भ्रष्ट होती जाती राजनीति की बदौलत हुआ। *हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की* बलशील राजनीतिक अथवा सांस्थानिक आलोचना के हाथों बार-बार अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकार, जो समाज में सक्रिय सांस्कृतिक चेतना की ऐसी क्षुद्र संरचनाओं (माइक्रोस्ट्रक्चर्स) को रेखांकित करते रहे हैं, हमेशा अपने जीवन के सक्रिय रचनाकाल में विवादों और हाशियों के पार धकेले जाते रहे हैं। और यह सब एक संगठित प्रायोजित राज्य-पोषित उपक्रम के तहत किया जाता रहा है। जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों-कलाकारों के साथ ऐसा किया गया, उसकी सूची राहुल-हुसैन से लेकर आज तक लगातार लंबी ही होती जा रही है। *पिछले दिनों *जन्मशती की शुरुआत के साथ ही अज्ञेय के संदर्भ में ऐसे ही विवाद फिर से उठाने की संगठित कोशिशें हुईं। अगर साठ के दशक के प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद की छद्म शीतयुद्धवादी राजनीति के तहत उन्हें ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ का सदस्य घोषित किया गया तो अभी हाल में दिल्ली की एक लोकल टैबलायड ने उन पर 1942 में ब्रिटिश सेना की नौकरी करने पर उन्हें ब्रिटिश एजेंट बताने की हास्यास्पद और रोचक कोशिश की। *हास्यास्पद इसलिए कि* इन्हीं तर्कों पर भारतीय उपमहाद्वीप के महान क्रांतिकारी कवि, संयोग से से जिनकी जन्मशती का आयोजन भी इसी साल दुनिया भर में मनाया जा रहा है, पर भी यही आरोप ज्यों का त्यों लगाया जा सकता है। फैज ने भी 1942 में जर्मन नाज़ीवाद के विश्वव्यापी खतरे को भंापते हुए, ब्रिटिश फौज की बर्दी पहनी थी और अज्ञेय की तरह तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के कहने पर आकाशवाणी में अपनी सेवाएं सौंपी थीं। क्योंकि नाजीवाद के विरुद्ध मोर्चा सिर्फ जमीनी लड़ाई में ही नहीं, सूचना और संचार के मोर्चे पर भी जरूरी था। *अगर हर ईमानदार *और महत्वपूर्ण रचनाकार के मुंह पर कालिख पोतने के धतकर्म में दशकों से सक्रिय राजधानियों के ऐसे गुटों-स्वार्थसमूहों की बात मानें तो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत समेत संसार की सभी कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी शक्तियां ‘एलाइड फौजों’ की एजेंट सिद्ध हो जाएंगी। फिर आप स्टालिन और सुभाषचंद्र बोस का क्या करेंगे? *अगर ध्यान दें तो *अज्ञेय के साथ-साथ उनके सहकर्मी रह चुके ‘झूठा-सच’ और ‘दादा कॉमरेड’ जैसे बहुचर्चित उपन्यासों के प्रतिबद्ध माक्र्सवादी लेखक यशपाल को भी विवादों में घेर कर हाशिए में डाल दिया गया। अगर अज्ञेय को व्यक्तिवादी प्रतिक्रियावादी कह कर खारिज किया गया तो यशपाल को मनोविकार और काम भावना का चितेरा कहा गया। *यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि* आजादी के पहले, तीसरे दशक में, राष्ट्रवादी-समाजवादी आंदोलन में यशपाल और अज्ञेय दोनों एक ही समाजवादी विचारधारा के संगठन में सक्रिय थे। जिसमें भगत सिंह, धन्वंतरी, चंद्रशेखर आजाद, उधम सिंह, सुखदेव, अशफाक, राजगुरू, भगवतीचरण बोहरा, प्रकाशवती और दुर्गा भाभी आदि सक्रिय थे। अज्ञेय का ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘विपथगा’ कथा-संग्रह की कहानियां और यशपाल का ‘सिंहावलोकन’ तथा ‘झूठा सच’ साथ-साथ पढ़ें तो उस समय की राजनीति को समझा जा सकता है। इस राजनीति से इन दोनों रचनाकारों के मोहभंग और उससे विरक्ति या अलगाव के कारणों को भी समझा जा सकता है। *इसके अतिरिक्त यह भी* ध्यान रखें कि 1947 में विभाजन के दौरान भयावह सांप्रदायिकता, रक्तपात और उससे जुड़े सांप्रदायिक, जातीय, व्यक्तिवादी (राजनीति में जिसे ‘अधिनायकवादी’ कह सकते हैं।) और राजनीतिक यथार्थ को हिंदी के जिन दो रचनाकारों ने सर्वाधिक प्रमाणिकता और विस्तार के साथ प्रकट किया उनमें से एक थे अज्ञेय और दूसरे थे यशपाल। *आज समय के इस बिंदु पर* जब बर्लिन की दीवार नहीं है, सोवियत संघ का पुराना झंडा और लेनिनग्राद कहीं नहीं है, तेलंगाना-त्रिभागा जनआंदोलन की लाल-सेनाएं नहीं हैं, जब उस जमाने की लोकप्रिय वामपार्टियां हिंदी की समूची पट्टी में जनता का विश्वास खो चुकी हैं और एक विधायक तक चुनवा पाने की स्थिति में नहीं हैं, जब एक दूसरे ‘द्वितीय शीतयुद्ध’ की शुरुआत हो चुकी है, जो दो दो सुपर पावर्स के बीच नहीं, नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था की कोख से जनमे नव-साम्राज्यवाद और उसकी हिंसा और दमन को झेलते-सहते वंचित नागरिकों-प्रजाओं के बीच है, तब हम अतीत और पिछले राजनीतिक इतिहास को नयी आंख से देख और समझ सकते हैं। उस समय की दुरभिसंधियों और रहस्यों के उत्तर पाना भी बहुत आसान हो गया है। *क्या यह सिर्फ संयोग है कि* भारत के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों पर मार्मिक संवेदना, ईमानदारी और साहसिकता के साथ लिखनेवाले लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों को मुख्यधारा की सांस्थानिक आलोचना ने हाशिए में फेंक दिया। अज्ञेय, उपेंद्रनाथ अश्क और यशपाल इनमें प्रमुख हैं। क्या सरहद के इस पार अज्ञेय और यशपाल के साथ जो हुआ वही उस पार फैज, मंटो, हबीब जालिब के साथ नहीं हुआ। क्या कारण था कि मलयालम के प्रेमचंद कहे जाने वाले वैक् कम मोहम्मद बषीर आजादी के पहले ब्रिटिश और आजादी के बाद देशी जेल में रहे। नजरुल आजादी के पहले संदिग्ध और आजादी के बाद विक्षिप्त माने गए। *राजनीति की ओर देखें तो* राष्ट्रीय कांग्रेस में नेहरू और पटेल से भी अधिक लोकप्रिय सुभाशचंद्र बोस आजादी के पहले जर्मनी और जापान के एजेंट और विश्वयुद्ध के बाद ‘युद्ध-अपराधी’ घाषित किए गए। मानवेंद्रनाथ राय, अरबिंद घोष, सरलादेवी, मैडम कामा, जतींद्रनाथ, रासबिहारी बोस, सतीनाथ भादुड़ी, करतार सिंह, लाला हरदयाल, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, जैसे असंदिग्ध समाजवादी क्रांतिकारियों के नामों से भरपूर यह सूची बहुत मार्मिक और दहशतनाक तरीके से बहुत लंबी हो जाती है। *इन सब के *छवि-भंजन करने और उन्हें संदिग्ध बनाने का संगठित अभियान लगातार चलता रहा। दरअसल 1947 में अंग्रजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण के बाद से ही एक ऐसी सत्तापरस्त दलाल राजनीतिक संस्कृति ने अपना वर्चस्व स्थापित किया जो सिर्फ हिंदी तक ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी उतना ही प्रभावी रही। *हमें यह हमेशा *ध्यान में रखना होगा कि हमारे देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलनों का जन्म 1917 में हुई सोवियत क्रांति और उसके बाद उसके प्रभाव से बननेवाले राजनीतिक दलों के बहुत पहले से हो चुका था। यह रूस और विलायत का मुखापेक्षी ऐतिहासिक तौर पर नहीं रहा। स्वयं प्रेमचंद, 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी बनने के सात साल पहले समाजवादी सिद्धांतों के ‘कायल’ हो चुके थे। *मुझे कई बार* लगता है कि अगर प्रेमचंद की इतनी लोकप्रियता न होती और अगर ‘संयोग’ से वे 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता न करते, तो क्या उनके साथ भी वाम कही जाने वाली हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की समस्याग्रस्त आलोचना वही कुछ करती, जो उसने राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, यशपाल आदि के साथ किया। *दरअसल बीसवीं सदी की* शुरुआत में ही बंगाल में हुए नवजागरण और वहां की राष्ट्र्रवादी चेतना ने क्रांतिकारी और वामपंथी आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार करनी शुरू कर दी थी। अगर आप प्रमथ मित्र और अरविंदो घोष का समय देखें और ‘अनुशीलन’ और ‘जुगांतर’ के दौर को देखें तो ‘सोवियत क्रांति’ के एक दशक पूर्व ही बंगाल राष्ट्रवादी और वामपंथी (समाजवादी) गतिविधियों का केंद्र बन चुका था। *बंगाल में *आनेवाले नवजागरण के प्रभाव को हिंदी के प्राध्यापक-आलोचक-मीडियाकार जिस लोलुप आतुरता से स्वीकार करते हैं, आश्चर्य है कि वे वहीं से उपजी राष्ट्र्रीय और क्रांतिकारी प्रेरणा और प्रमुख क्रांतिकारियों के योगदान के बारे में चुप्पी साध जाते हैं। वे यह तथ्य भरसक छुपाने की कोशिश करते हैं कि 1919 में जालियांवाला बाग जैसे जनसंहार, जिसकी तुलना आज भी लातीनी अमेरिका के ‘बनाना रिपब्लिक’ के बर्बर जनसंहार के साथ की जाती है, के बाद पंजाब में पनपे क्रांतिकारी उभार का सीधा संबंध बंगाल से था। भगत सिंह, सीताराम तिवारी उर्फ चंद्रशेखर आजाद, अशफाक आदि का जन्म भले ही उत्तर-भारत के इलाकों में हुआ हो, वे बंगाल से आनेवाली क्रांतिकारी चेतना के ही ‘मानस-पुत्र’ थे। *1925 में जब* भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनी उसके पहले से ही कई राष्ट्र्रवादी और वामपंथी क्रांतिकारी संगठन उस दिशा में काम कर रहे थे। अविभाजित पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की जो लहर आई उसका संबंध बंगाल से ही था। अज्ञेय, यशपाल और उन सरीखे अन्य विप्लवी और सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़े लेखकों को हाशिए पर धकेलने का प्रमुख कारण यह था कि वामपंथ, समाजवाद और प्रगतिशीलता आदि को परिभाषित करने का इकहरा पैमाना उसी ब्रिटेन में जनमे और पनपे राजनीति और विचारों के आधार पर बनाया गया जिसे हम कैंब्रिज के ‘फेबियन समाजवाद’ के नाम से जानते हैं। *यह विचारधारा *कांग्रेस के प्रमुख नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरू और मुख्य धारा के वामपंथी नेताओं में समान थी। यही कारण है कि आजादी के बाद सत्ता के सामने पैदा होनेवाले संकटों की हर घड़ी में दोनों हमेशा बार-बार एक साथ होते रहे। 1975 के आपातकाल ही नहीं अभी पिछले यूपीए काल तक यह सत्तापरस्ती जारी रही। साहित्य और संस्कृति के इलाके में तो खैर यह बदस्तूर निरंतर और शाश्वत है। *आज हम *इक्कीसवीं सदी के इस उत्तर औपनिवेशिक नव साम्राज्यवादी समय में हैं। वहां से हम इस अतीत को साफ-साफ देख सकते हैं। और तब हमें यह दिखाई देता है कि एक नहीं बल्कि अनेक राजनीतिक दलों की तरह, जो लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के एक जैसे दावे करते थे, उसी तरह सामाजिक समानता और वर्गीय शोषण के अंत का दावा करनेवाले वामपंथी दल भी बहुसंख्यक थे, एक नहीं। *भारत में समाजवाद* सिर्फ सोवियत संघ की क्रांति से बरास्ता ब्रिटेन ही नहीं आया था बल्कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों की देशी जमीन में उसकी गहरी जड़ें थीं, और उसको समय-समय पर समर्थन देनेवाले पश्चिम के एक नहीं कई देश थे। पश्चिम के विकसित औद्योगिक पूंजीवादी देशों की आपसी टकराहटों के कारण भारत ही नहीं बल्कि अन्य औनिवेशिक दशों के राष्ट्रीय और क्रांतिकारी आंदोलनों को मदद और समर्थन मिलता था। * उदाहरण के लिए* जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के पहले फ्रांस ने ब्रिटेन का साथ देना शुरू किया तो भयभीत जर्मनी को अपनी रक्षा के लिए यह जरूरी लगा कि वह ब्रिटेन की ताकत के असली केंद्र को कमजोर करे। और वह केंद्र था औपनिवेशिक भारत। इतिहास के तमाम दस्तावेज मौजूद हैं कि जर्मनी ने भारत के उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों को हर तरह से मदद पहुंचाने की कोशिश की। बल्कि 1914-15 में ठीक 1857 की गदर की तरह भारत में सैन्य विद्रोह की कोशिशें की भी गईं। *‘बर्लिन कमेटी’ बनी, *‘इंड्स-जर्मन कांस्पिरेसी’ के तथ्य हैं। भारत में क्रांति और राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए समर्पित लोग सिर्फ मास्को और लंदन ही नहीं गए, उन्होंने सैनफ्रांसिस्को, बर्लिन, पेरिस, स्विट्जरलैंड, टोक्यो आदि विदेशी शहरों में भी जाकर काम किया। कहने का आशय सिर्फ यह कि बीसवीं सदी में औपनिवेशिक देशों के अपने अंतर्विरोध और टकराहटों का असर भारत के राजनीतिक आंदोलनों, और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों पर पड़ रहा था। यहां कोई एक वामपंथ और कोई एक प्रगतिशील विचारधारा न पहले थी न आज है। आज भी प. बंगाल की वाममोर्चा में एक-दो नहीं सोलह वामपंथी राजनीतिक दल हैं जिनमें सुभाषचंद्र बोस का फॉरवर्ड ब्लॉक भी है। *अज्ञेय जब *अपनी युवावस्था में लाहौर आए थे तब उनका संबंध भारत नौजवान सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के साथ हुआ। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव अशफाक सब उसी दल में थे। अज्ञेय, भगवतीचरण वोहरा और यशपाल भी। 1919 का जालियांवाला बाग का भयानक हादसा उन्हीं दिनों हुआ था। उन्होंने भगत सिंह को लाहौर से छुड़ाने की असफल योजना में भी हिस्सा लिया था। 1930 में अज्ञेय को 19 साल की उम्र में आम्र्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था और दोबारा 1931 में दिल्ली षडयंत्र केस में ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों के पास उनके विरुद्ध बम बनाने और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के तमाम प्रमाण मौजूद थे। *अज्ञेय ने अपना *महत्वपूर्ण उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ का आधार पाठ इसी कैदी जीवन में लिखा। यहीं रहते हुए वे प्रेमचंद और जैनेंद्र के संपर्क में आए और ‘अज्ञेेय’ नाम हासिल किया। और यहीं उनके विचारों में वह मूलगामी परिवर्तन हुआ जिसने उन्हें सशक्तहिंसक आंदोलनों से अलग बदलाव के दूसरे विकल्पों की ओर बढऩे के लिए प्रेरित किया। *इस वैचारिक परिवर्तन* का आधार था 1915 में गांधी का भारत आगमन और जनता का उनके अहिंसक आंदोलनों में हिस्सा लेना। यह कुछ ऐसा ही दृश्य था जैसा अभी हाल में मिस्र, ट्यूनिशिया, सीरिया आदि देशों में दिखाई दे रहा है। यह ध्यान रखने की बात है कि 1930 में गिरफ्तार होने से पहले अज्ञेय कांग्रेस सेवा दल में वोलंटियर के रूप में शामिल हो चुके थे और उनपर गांधी का साफ प्रभाव दिखने लगा था। बौद्ध-दर्शन उनकी चेतना के केंद्र में बचपन से ही था। *क्या यह सिर्फ* संयोग ही है कि अज्ञेय और उनके उपन्यास के नायक ‘शेखर’, दोनों का जन्म उसी एक जगह होता है, जहां स्वयं बुद्ध का देहपात हुआ था, यानी कुशीनगर। और दोनों हिंदू जातिवादी व्यवस्था को त्यागते हुए उसी दिशा में बढ़ते हैं, जिधर बुद्ध और उनके बाद अंबेडकर, राहुल, नागार्जुन, भदंत कौशल्यायन आदि गये। *अगर ‘शेखर: एक जीवनी’ *और अज्ञेय की अन्य रचनाएं पढें तो इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। यह विडंबना ही है कि बुद्ध और गांधी के मार्ग पर जानेवाले हर समाजवादी लेखक विचारक को हिंदी की मुख्यधारा की राजनीतिक संस्कृति ने हमेशा हाशिए पर धकेला। क्या यह स्वयं राज्य और बाजार के हितों के लिए निर्मित और आज तक कार्यरत सांस्थानिक-आधिकारिक राजभाषा ‘हिंदी’ के प्रच्छन्न मानस या उसकी आंतरिक चेतना के असली बनावट को उद्घाटित नही करती। *अज्ञेय एक और* वजह से हाशिए पर धकेले गए, वह था उनकी व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति गहरी निष्ठा। किसी भी राजनीतिक राज्य-व्यवस्था में व्यक्ति-इकाई के रूप में जीवित नागरिक की स्वतंत्रता। निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध आदि अन्य रचनाकार भी इसी के शिकार बने। इन सबको ‘सामूहिक-समवेत’ सुर में ‘व्यक्तिवादी’, ‘आत्मकेंद्रित’ लगभग ‘अ-सामाजिक’ तक घोषित किया गया और स्कूलों-विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में अध्यापकों द्वारा यही युवा छात्रों को पढ़ाया जाता रहा। क्या ऐसे पाठ्यक्रमों और जातिवाद तथा राजनीति के चोर दरवाजों से संस्थानों में दाखिल ऐसे प्राध्यापकों की ‘आलोचना’ को खारिज करने का समय नहीं आ गया है। *यह एक अजीब* विरोधाभास है कि जिस पूंजीवादी लोकतंत्र ने अपने जन्म के समय व्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा सबसे पहले दिया था उसी ने अपनी व्यवस्था में स्वतंत्र व्यक्ति की जगह एक सर्वव्यापी निरंकुश स्वतंत्र बाजार का निर्माण किया, जिसमें ‘व्यक्ति’ का कोई शरण्य नहीं बचा। दूसरी तरफ औद्योगिक-समाजवाद ने भी एक ऐसे सर्वसत्तावादी राज्य और नौकरशाही का निर्माण किया, जिसमें वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग करनेवाला हर नागरिक प्रति-क्रांतिकारी, व्यक्तिवादी और समाजविरोधी मान लिया गया। *बहरहाल, *हम आज जिस समय में हैं उसमें सत्ता के तमाम हिंसाओं और दमन के बावजूद व्यक्ति कम से कम अभिव्यक्तिके मामले में अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है। और यह स्वतंत्रता उसे टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, मोबाइल फोन, फेसबुक आदि ने दी है। अब अभिव्यक्ति की वैयक्तिक-नागरिक आजादी के असर दिखने शुरू हो गए हैं। एक जूलियन असांजे, वाएल गोनिम या तरुण तेजपाल कई बड़े दशों के बड़े राजनेताओं के सामने भारी पड़ रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अज्ञेय और दूसरे बड़े लेखकों के मूल्यांकन का काम अब बड़े संगठनों का मोहताज नहीं बल्कि व्यक्तिया व्यक्तियों के छोटे-छोटे नेटिव समूह भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि अब अबोधताओं और मासूमियतों के युग का अंत हो चुका है। वह इतिहास अब संदेहों के कठघरे में है, जिसे समय-समय की सत्ताओं ने अपने हितों के लिए लिखा था। *समय आ गया है कि *अज्ञेय, फैज, मंटो, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, ऋत्विक घटक, निर्मल वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र आदि ही नहीं, अन्य पुराने और एकदम समकालीन रचनाकारों के सृजनात्मक योगदान की आलोचना के लिए नए प्रतिमान विकसित किए जाएं। *(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)* * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From surya.journalist at gmail.com Sat Apr 16 14:50:24 2011 From: surya.journalist at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS44KWC4KSw4KWN4KSvIOCkl+Cli+Ckr+Cksg==?=) Date: Sat, 16 Apr 2011 14:50:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWM4KSoIOCkuOClhyDgpLXgpL/gpJXgpL7gpLgg4KSV4KWAIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYs=?= Message-ID: *प्रिय बंधू, नमस्कार! आपको मेरी वेबसाईट सहित कुछ खास खबरों के लिंक मेल कर रहा हूँ. कृपया एक बार देखने-पढ़ने का कष्ट करें. शायद आपको मेरी गुफ्तगू पसंद आएगी. अगर अच्छी लगे तो कोमेंट देकर मेरा हौसला बढ़ाये. क्योंकि यह है -* *देश की पहली आम नजरिये को खास खबरों में पेश करती हिंदी न्यूज वेबसाईट* गुफ्तगू :- समाचार ! एक पहलु यह भी *KLICK ON LINK* :- www.gooftgu.co.nr *या सीधे यह पढ़े :- तो कौन से विकास की बात करते हो मौका भी - दस्तूर भी लेकिन... गांधीवाद की नहीं गांधी की है जरुरत तीखी ख़ुशी-मीठा गम यह गलत बात है ** * SURYA GOYAL MOB- 99916-10952 HISAR (HARYANA) WebRep Overall rating -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 19 11:46:41 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 19 Apr 2011 11:46:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+4KStIOCkleCkviDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4gOiDgpLjgpYE=?= =?utf-8?b?4KS24KWA4KSyIOCkleClg+Ckt+CljeCkoyDgpJfgpYvgpLDgpYc=?= Message-ID: मित्रो, भाई अरुणदेव जी ने कहा तो हम समालोचन ब्लॉग ( http://samalochan.blogspot.com/2011/04/blog-post_18.html) पर पहुँच गए...पहुंचे तो *सुशील कृष्ण गोरे के इस लेख पर निगाह पड़ी...फिर पढ़ता चला गया... अमिताभ बच्चन में दिलचस्पी रखनेवालों को तो मज़ा आ जाएगा, वाकई. - शशिकांत * महाकाव्य और नाटक ने आधुनिक युग में उपन्यास और सिनेमा के रूप में अपना कायांतरण किया. सिनेमा अनंत दर्शक समूह और पूंजी से जुड़कर यह एक बड़े सांस्कृतिक उद्योग में बदल गया. हिंदुस्तान में यह कभी पराया माध्यम नहीं लगा. प्राचीन नाट्य परम्परा और पारसी थियेटर ने इसके रूप का निर्धारण किया. सुख-अंत और गीत–संगीत भारतीय सिनेमा की ख़ास पहचान हैं. बींसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध का हिंदी रजतपट अमिताभ का रजतपट है. *सुशील कृष्ण गोरे* ने सिनेमा में अमिताभ के होने का अर्थ तलाश किया है. सचेत विश्लेषक की तरह उनकी दृष्टि समाज पर भी टिकी हुई है. *अमिताभ का सिनेमा* *सुशील कृष्ण गोरे*** डॉ.हरि‍वंशराय बच्चन ने उन्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ कवि‍ता माना है. मैं अमि‍ताभ को सभी सर्वनामों की एक संज्ञा मानता हूँ. अश्चर्यजनक सफलता के बीच सौम्यता, दंभहीन अनुशासन, वि‍नम्र स्पष्टता, धैर्यवान संतुलन, संकटों को परास्त कर देने वाली अदम्य शक्ति जैसे गुणों की अद्भुत खान हैं अमि‍ताभ. एक ऐसा वि‍शेष्य जि‍सके आगे सभी वि‍शेषण छोटे पड़ते हों. उनकी अपराजेय शक्ति का लोहा तो दो बार काल को भी मानना पड़ा है. सि‍नेमा का रूपहला पर्दा हो या जीवन की जंग अमि‍ताभ अंत में एक अपराजि‍त नायक बनकर उभरते हैं. यह संयोग ही है कि फि‍ल्मी पर्दे पर उनके द्वारा नि‍भाए गए एंग्री यंगमैन के जि‍न सशक्त कि‍रदारों को बॉक्स ऑफि‍स पर कीर्ति‍मानों के नए झण्डे गाड़ने वाला माना जाता है - वे सब *वि‍जय* थे. *एंग्री यंगमैन* नाम से एक *आयरिश लेखक लेजली एलन पॉल* ने 1951 में अपनी आत्मकथा लिखी थी. संभवत: यह मुहावरा यहीं से प्रचलित हुआ था. बाद में *जॉन ऑसबर्न* के नाटक *Look Back in Anger (1956) *को प्रोमोट करने के लिए इसी तर्ज़ पर एंग्री यंगमेन शब्द चल निकला. इन सब का मतलब एक ही होता है – व्यवस्था और दमनकारी सत्ताओं का पुरजोर विरोध. अमिताभ को अपने युग के गुस्से का अभिनेता माना जाता है. सातवां दशक आजादी के बाद 20 सालों में व्यवस्था से मोहभंग का प्रतिनिधि दशक था. गरीबी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, अपराध और हिंसा सिस्टम में रचते-बसते जा रहे थे. आजादी की लड़ाई में जिस सुशासन और सुराज के ख्वाब़ सजाए गए थे वे चकनाचूर होने लगे थे. सत्ता और वर्चस्व की लड़ाई हावी हो गयी. इसमें गरीब, असहाय, बेबस और मज़लूम तबके की ज़िंदगी पिसने लगी थी. अमिताभ इसी तबके के एक नुमाइंदे के रूप में सामने आते हैं. उनके चेहरे पर एक ईमानदार मिल मजदूर बाप के बेटे का संपूर्ण स्वाभिमान और गौरव दमकता रहता है जब वे दीवार में फेंके हुए पैसे नहीं उठाते. पोर्ट पर गोरखपुर से आए एक कुली के हफ्ता न देने का दर्दनाक हस्र देखने के बाद उनका गुस्सा गुंडों के खिलाफ जंग के रूप में फूटता है. अमिताभ शोषण और दमन के शिकार वर्गों के नायक बनकर उभरे. वे सत्ता के जुल्म का प्रतिरोध थे. सत्ता चाहे किसी भी किस्म की हो. बाहर वे गैर-कानूनी और असामाजिक तत्वों की धुलाई करते हैं तो घर के भीतर वे अपने पिता को भी चुनौती देते हैं. चाहे वे *त्रिशूल *में आर.के.गुप्ता यानी संजीव कुमार हों या *शक्ति *में अश्विनी कुमार यानी दिलीप कुमार ही क्यों न हों. वे माँओं के दुलारे बेटे के रूप में बेजोड़ हैं. माँओं के लिए पिता से टक्कर लेने में भी अमिताभ के एंग्री एंगमैन का एक बारीक आयाम देखा जा सकता हैं. *त्रिशूल* में वे आर.के.गुप्ता कंस्ट्रक्शन कं. के हर सौदे को छीनकर अपनी परित्यक्ता माँ के नाम से शांति देवी कंस्ट्रक्शन का एक समानांतर साम्राज्य खड़ा करते हैं. *शक्ति, देशप्रेमी, सुहाग * जैसी फिल्मों में अपनी माँ के प्रति हमदर्द है. दीवार में माँ की ख़ातिर वे जहाँ पहले कभी नहीं गए थे उस मंदिर की चौखट पर भी प्रार्थना के लिए गए. अमिताभ का यह तेवर स्त्रीवादी विमर्श का एक भाष्य खड़ा करता है. इन फि‍ल्मों में जि‍न कि‍रदारों को अमि‍ताभ ने अपने दमदार अभि‍नय से यादगार बना दि‍या था वे आज उम्र के 35-40वें पायदान पर पहुँच चुके उस समय के कि‍शोर-युवकों को सम्मोहन पाश में बाँध लेते थे. वे अमि‍ताभ में अपनी ही छवि नुमाया होते देख रहे थे. अमि‍ताभ का गुस्सा, आक्रोश, गुंडों-अपराधि‍यों के सिंडीकेट पर गरीबों के रक्षक के रूप में उनका हमला और शोषण, अन्याय एवं अत्याचार के वि‍रुद्ध उनकी अकेली जंग कहीं-न-कहीं हर युवा दि‍ल में पक्के इरादे से गरीब एवं कमजोर आदमी के पक्ष में लड़ने का जोश भरती थी. इस प्रकार वे समकालीन समाज एवं उसकी परि‍स्थि‍ति‍यों में नि‍र्मि‍त हो रहे युवा मानस के प्रतीक बन गए थे. भले ही अमि‍ताभ बच्चन को उनकी ज्यादातर शुरूआती फि‍ल्मों में क्रोध से लाल आंखों वाले खामोश परंतु अकेले नि‍हत्थे दस-दस गुंडों को पीटकर धराशायी कर देने में समर्थ एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी नायक के रूप में पेश कि‍या गया हो लेकि‍न जो कई बार खुद कानून को अपने हाथों में लेकर शंहशाह की तरह अपने फैसले लेने लगता है जि‍सके सामने इंसाफ की खाति‍र अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खि‍लाफ बंदूक उठा लेने का ही एक आखि‍री रास्ता बच जाता है. जब वह कहता है – *लगता है जो दीवार हम दोनों के बीच है वह इस पुल से भी ऊँची है...*......... या *उफ्फ! तुम्हारे उसूल, तुम्हारे आदर्श.......तुम्हारे सारे उसूलों को गूँथकर एक वक्त की रोटी भी नहीं बनाई जा सकती..........* तो समय का सारा वृतांत सारे भाष्यों की लकीरों और किरिचों के साथ व्यक्त हो जाता है........तालियों की गड़गड़ाहट थमती नहीं.........आज भी उसकी अनुगूँजें बजती हैं - स्मृतियों के पार्श्व में मद्धम.....मद्धम....... बात कहीं से भी करि‍ए आपको अमि‍ताभ के चरि‍त्रों में एक साथ हमारे साधारण मध्यवर्गीय पारि‍वारि‍क जीवन के सभी मानवीय एवं भावनात्मक रूप एवं उनकी अभि‍व्यक्ति‍यां दि‍ख जाएंगी. माँ से आदि‍म कि‍स्म का गहरा लगाव, छल और बेईमानी से पराजि‍त एक पि‍ता का दर्द एक सुलगते अंगार की तरह जीवन भर अपने सीने में दबाए और इस कारण भगवान से भी खफ़ा और उसके प्रति अनास्था के कारण मंदि‍र के बाहर बैठे अमि‍ताभ का जि‍द्दी स्वभाव उनके खुरदरे चेहरे और भारी आवाज की हर लकीर और हर परत से बयां हो जाता है. तनाव, घुटन, जज्बातों की कश्मकश, आत्मालाप, वसूल पर अडि‍ग चरि‍त्र को जीता उनका हर कि‍रदार खरा बन जाता है. उसका गुस्सा केवल व्यवस्था से ही नहीं, भगवान की सत्ता से भी है. लेकिन इसी अमिताभ की प्रतिभा हास्य और प्रेम के रूपों में भी अद्वितीय कलाकारी का नमूना पेश करती है. *कोलकाता *के *बर्ड एंड कं.* नामक एक *शिपिंग कंपनी* की एक नौकरी छोड़कर मुंबई में हीरो बनने आए जिस आदमी की आवाज को भद्दी और लंबाई को बाँस जैसी कहकर फिल्म निर्माताओं ने तिरस्कृत किया, कौन जानता था कि वही एक दिन इस मायानगरी का कभी अस्त न होने वाला सुपरस्टार बन जाएगा. उसी की तूती बोलेगी. उसी आवाज की दीवानी पीढ़ियाँ हो जाएंगी. क्या आप जानते हैं सत्यजीत रॉय की फिल्म *शतरंज के खिलाड़ी * तथा मृणाल सेन की फिल्म *भुवनसोम* के वायस नेरेटर अमिताभ बच्चन ही थे. अभी 2005 में Luc Jacquet निर्देशित एक फ्रेंच डाक्यूमेंटरी फिल्म *मार्च ऑफ पेंग्विन्स* में भी उनकी आवाज का इस्तेमाल किया गया. इस वृत्तचित्र को आस्कर पुरस्कार मिला. अमि‍ताभ ने हिंदी सि‍नेमा के कई बने-बनाए सांचों को तोड़ा. जैसे उन्होंने पहली बार मुख्यधारा के सुपर स्टार को उसके हास्य के साथ जोड़ा. इस थीम पर बनी *चुपके **-**चुपके**, **डॉन**, **अमर** **अकबर** **एंथोनी**, **दो** **और** **दो** **पांच, नमक हलाल* जैसी फि‍ल्में अभि‍नय के इस नाटकीय रूपांतरण को चरि‍तार्थ करती हैं. इसी प्रकार अमि‍ताभ ने नायि‍का के साथ रोमांस के फार्मूला सि‍द्धांतों को भी तोड़ा. वे पहली बार उस भाव के साथ अपनी नायि‍काओं से मुख़ाति‍ब हुए जि‍सका इंतजार हिंदी सि‍नेमा की नायि‍का मोतीलाल, दि‍लीप कुमार आदि के जमाने से कर रही थी. जीतेंद्र, राजेंद्र कुमार, शशि कपूर जैसे अभि‍नेताओं ने तो अपना ज्यादा समय नायि‍काओं से अभि‍सार या उनके आगे-पीछे कल्लोल करने में खर्च कि‍या. नायि‍काएं इसके बावजूद उन्हें एकदम दयनीय रूप से भोला समझती रहीं और ऊपर से नाज-नखरे दि‍खाकर उन्हें रुलाती-तड़पाती रहीं. अमि‍ताभ अपनी कि‍सी भी नायि‍का का दि‍ल जीतने के लि‍ए न तो कभी पानी की टंकी पर चढ़े और न ही दि‍ल टूटने पर आरा मशीन पर कटने के लि‍ए समाधि लगाकर बैठे. तो एक खास प्रकार के पौरुषेय प्रेम का आवि‍र्भाव अमि‍ताभ के एंग्री यंगमैन के अवतार के साथ-साथ होता है. एक धीरोद्दात नायक. इसकी तफ़सील में जाने की जरूरत नहीं. अमि‍ताभ ने अतीत के रि‍कॉर्ड तो तोड़ ही डाले और इस दि‍ग्वि‍जय अभि‍यान के दौरान उन्होंने न केवल सि‍नेमा बल्कि इस उत्तर-आधुनि‍क समय के तमाम क्षेत्रों में जो नया रच दि‍या वह भवि‍ष्य के लि‍ए भी अप्रति‍म मानक बन गए हैं. यह अमि‍ताभ का व्यक्ति‍त्व है या उनका नक्षत्र कि वे जि‍स चीज को हाथ लगा देते हैं वह शि‍खर छू लेता है. उसके बाद कोई ऊँचाई नहीं बचती. *कौन** **बनेगा** ** करोड़पति*, जि‍से मीडि‍या शास्त्र में रि‍यल्टी शो कहा जाता है, की बेजोड़ सफलता की वज़ह अमि‍ताभ ही थे. यही वह मोड़ है जहां से अमि‍ताभ बाजार के सबसे महंगे ब्रांड बन जाते हैं. उनकी यह भूमि‍का उनके नायकों के वि‍परीत थी. अब अमि‍ताभ बड़े पर्दे के अलावा छोटे पर्दे पर वि‍लासि‍ता के उत्पाद लेकर उपस्थि‍त था. अब उसके चेहरे पर व्यवस्था के खि‍लाफ क्रोध की कोई भी शि‍कन शेष नहीं थी. बल्कि अब उसका वही चेहरा पूँजी के प्रकाश में नहाकर दमकने लगा था. वे जमाने के रंग में इस कदर रंगते चले गए कि व्यावसायि‍कता को मंत्र मानने के सि‍वा सब कुछ भुलाते रहे. वि‍ज्ञापन की दुनि‍या में चाहें अगर तो अभि‍नय सम्राट दि‍लीप कुमार, इंडि‍यन ग्रेगरी पैक देव आनंद, राजेश खन्ना जैसे चोटी के सि‍तारे भी आ सकते थे. लेकि‍न शायद उनके वसूल फि‍ल्मी पर्दे पर नि‍भाए गए वसूलों से ज्यादा ठोस एवं पक्के हैं. देव आनंद जब सक्रि‍य दि‍खते हैं तो साफ दि‍खता है कि वे कि‍सी कृति की आत्मा को ढूँढ़ रहे हैं. वे फि‍ल्म नि‍र्माण कला से प्रेरि‍त दि‍खते हैं. कुछ योगदान करते हैं. वे शुद्ध पेशेवर कलाकर की तरह अंधाधुंध अपनी बाजारू कीमत वसूलते नहीं दि‍खते. अमिताभ को अपनी कीमत का अंदाज़ा रहा है. विकीपीडिया के अनुसार *शोले* ने 2,36,45,00,000 रुपये यानी 60 मिलियन डॉलर की रिकार्डतोड़ आमदनी की थी. 1999 में बी.बी.सी. ने शोले को "*फिल्म आफ दि मिलेनियम*" घोषित किया. बॉलीवुड के के इस शंहशाह की बेशुमार कामयाबी और शोहरत को देखकर फ्रांसीसी फिल्म डायरेक्टर *फ्रांक्वा त्रूफा* ने अमिताभ को पहली बार One-man Industry कहा था. कुछ आलोचक अमि‍ताभ के फि‍ल्मी चरि‍त्रों से बनी उनकी महानायक या मिलेनि‍यम स्टार (जि‍से अमि‍ताभ लगातार खारि‍ज करते हैं) की छवि को महत्व नहीं देते हैं. वे कहते हैं कि यह सारा घटनाक्रम एक संयोग है जि‍समें अमि‍ताभ को अच्छी फि‍ल्में मि‍लीं, उनकी पटकथाएं समकालीन सामाजि‍क परि‍स्थि‍ति‍यों को उकेरने में समर्थ थीं, बहुत सार्थक संवाद लि‍खे गए, बड़े नि‍र्देशक और बड़े बैनर मि‍ले इत्यादि‍. उनकी शुरूआत ही ख्वाज़ा अहमद अब्बास जैसे एक बड़े लेखक द्वरा निर्देशित फिल्म सात हिंदुस्तानी से हुई। इसके बाद प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई जैसे दिग्गज डायरेक्टर के अलावा *सलीम-जावेद *की जोड़ी अमिताभ को मिली जिनकी मेहनत और हुनर ने अमिताभ को लंबी रेस का घोड़ा बना दिया. साथ ही अमि‍ताभ एक कुलीन घराने से ताल्लुक रखने वाले उस जमाने के प्रसि‍द्ध प्रोफेसर, कवि एवं सांसद डॉ.हरि‍वंशराय बच्चन के सुपुत्र थे. अपने माता-पि‍ता से वि‍रासत में मि‍ली प्रति‍भा, लगन, अनुशासन, नि‍ष्ठा, समर्पण के संस्कार के अलावा उन्हें नेहरू परि‍वार का संरक्षण भी प्राप्त था. इसी प्रकार कुछ समीक्षक यह भी कहते हैं कि फि‍ल्मों तक तो फि‍र भी ठीक था लेकि‍न इतने बड़े पि‍ता (जि‍न्हें अमि‍ताभ अपने से सहस्र गुना बड़ा मानते हैं - यहाँ तक कि दो-तीन साल पहले जब उन्हें लंदन में किसी विश्विद्यालय द्वारा प्रति‍ष्ठि‍त डॉक्टरेट की उपाधि से अलंकृत कि‍या जा रहा था तो वे कुछ लज्जालु से दि‍खने लगे थे - पूछने पर कहा कि उन्हें डॉ.बच्चन न कहा जाए क्योंकि डॉ. बच्चन एक ही है जो वे नहीं हो सकते) के सुपुत्र का तेल-साबुन-चॉकलेट आदि का व्यावसायि‍क वि‍ज्ञापन करना कुछ हजम नहीं होता. उनके कॉमर्शियल एंडोरश्मेंट ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग के उपभोग की वस्तुओं पर केंद्रित हैं जो सीधे-सीधे मुनाफा के अर्थशास्त्र से जुड़ते हैं। वे कहते हैं कि अमि‍ताभ बच्चन को ब्रांड एंबेसडर कहलाना पसंद है लेकि‍न डॉ.बच्चन कहलाना नहीं. इसी द्वंद्वात्मकता के बीच एक व्यावसायि‍क अमि‍ताभ बच्चन छि‍पा है जो अपने सेलेब्रि‍टी का पाई-पाई वसूलना जानता है. वह एबीसीएल के घाटे को पूरा करने वाला एक मध्यवर्गीय इंसान सरीखा अमिताभ है जिसे केनरा बैंक के कर्ज़ को चुकता कर अपने घर प्रतीक्षा को गिरवीमुक्त करना है. सन् 2000 में अमिताभ ने फिर एक बार भारतीय मनोरंजन जगत पर अपनी छाप-छवि छोड़ने में कामयाबी हासिल की. यह ब्रिटेन के एक क्विज प्रोग्राम का भारतीय संस्करण *केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति* का प्रसारण था जिसे अमिताभ की नायाब प्रस्तुति ने टीआरपी की नई बुलंदियों पर पहुँचा दिया. उन दिनों दिल्ली की सारी सड़कें खाली हो जाती थीं जब टी.वी. पर कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो जाता था. यह अमिताभ के अपनी शैली में दर्शकों को नमस्कार, आदाब़, सतश्री अकाल कहने का समय होता था जिससे देश के सभी माता-पिता, बहन और भाई संबोधित होना चाहते थे. महानायक की एक अजीब सी पकड़ जिसकी गिरफ्त में न आना एक असंभव सत्य था. *सुधीश पचौरी* ने *जनसत्ता *में उन्हीं दिनों लिखा था कि छोटे परदे पर जो करिश्मा अमिताभ ने किया है वह सिर्फ़ अमिताभ ही कर सकते थे. माताजी नमस्कार, पिताजी नमस्कार को हिंदी में जिस ढंग से कहा जाना चाहिए वह केवल कविवर *हरिवंशराय बच्चन* के सुपुत्र अमिताभ की हिंदी ही कर सकती थी. यह केवल अमिताभ बच्चन से ही संभव था. अमिताभ के मुँह से हिंदी पुन:-पुन: संस्कारित होती एक आकर्षक और ज़हीन जुबान बनती चली जाती है. उनकी हिंदी में संस्कार और बाजार दोनों का अद्भुत साम्य और विस्तार है. अमिताभ की हिंदी का जादू दुर्निवार है.... इर्रेजेस्टिबल. इसे अमिताभ का दूसरा अवतार कहा जाता है. यह उनके कॅरियर और असली ज़िंदगी दोनों के कष्टों से उबरने का समय था. यहाँ तक आते-आते वे 58 साल की बुढ़ाती उम्र में पहुँच चुके थे. सोचिए फिल्मी परदे का यह *बिग बी* असली ज़िंदगी में भी कितना साहसी हो चुका था कि किसी तूफान से उसके अंदर का मर्द परास्त नहीं हो सकता था. उसके एक फिल्मी किरदार ने सच ही कहा था – *अभी तक आपने जेल की जंजीरें देखीं हैं जेलर साहब.....कालिया के हिम्मत का फौलाद नहीं देखा जेलर साहब...........* अमिताभ की प्रोफेसनल ऊर्जा भी गज़ब की है. वे कहते हैं कि *जब** **तक** **शरीर ** **में** **दम** **है** **काम** **करता** **रहूँगा** **या** **जब** **तक** ** काम** **मि‍लता** **रहेगा** **काम** **करता** **रहूँगा* जबकि काम वे इस कदर करना चाहते हैं कि शरीर का दम छूटने लगे. अखबारों की रि‍पोर्ट मानें तो वे जरूरत से ज्यादा काम करने या भागदौड़ से थकने के कारण ही कुछ साल गंभीर रूप से बीमार हो गए थे. अभी कल यानी 16 अप्रैल 2011 के डी.एन.ए., मुंबई संस्करण में एक ख़बर मैंने ट्रैक की कि अमिताभ फिर बहुत प्रोफेशनल हो रहे हैं और बहुत ज्यादा काम कर रहे हैं. रिपोर्टर ने लिखा है कि वे अपने व्यस्त शूटिंग कार्यक्रमों के कारण बहुत भागदौड़ और हवाई यात्राएं कर रहे हैं. अंग्रेजी में इसे जेटलैग और चॉक-ए-ब्लॉक शेड्यूल कहा जाता है. वे कभी कि‍सी सामाजि‍क या राहत के कार्यों में हि‍स्सा लेते हुए नहीं देखे जाते हैं. कभी वे पुणे और बाराबंकी में कि‍सान बनकर जमीन लेकर वि‍वाद में फँस जाते हैं तो कभी उनके आयकर को लेकर हंगामा खड़ा हो जाता है. बुरी तरह बीमार हो जाते हैं तो सुर्खि‍यों में, वि‍स्तर से उठकर कुछ महीने आराम करने के बाद धुआँधार शूटिंग में व्यस्त हो जाते हैं तो सुर्खि‍यों में. *जे.एन.यू* की छात्रा *सुष्मिता दासगुप्ता* ने अमिताभ पर एम.फिल. का पर्चा *Social Construction of A Hero: Images by Amitabh Bachchan* और बाद में अपनी पी.एच.डी. का शोध-प्रबंध *Sociology of Hindi Commercial Cinema: A Study of Amitabh Bachchan* विषय पर पूरा किया. इसे पेंग्विन बुक्स ने *Amitabh – The Making of A Super Star* नाम से पुस्तकाकार छापा है. सुष्मिता ने बताया है कि शुरू-शुरू में अमिताभ जी उन्हें इस विषय पर पी.एच.डी. करने से यह कहते हुए रोकते रहे कि उनके पर शोध का कोई अकादमिक मूल्य या महत्व नहीं होगा. लेकिन * एम.फिल* डिजर्टेशन पढ़ने के बाद उन्हें अच्छा लगा और आगे के शोध के दौरान अमिताभ जी के आतिथेय में उन्हें पूरे सात दिन मुंबई स्थित उनके घर प्रतीक्षा में ठहरने का अविस्मरणीय अवसर भी मिला था. इतनी हैरतअंगेज कामयाबियों के बावज़ूद अमिताभ बच्चन की विनम्रता और अडिग अनुशासन अपने आपमें एक अध्याय है. प्रशस्तियों से अमिताभ की दूरी उनकी भव्यता को असाधारण बनाती है. यदि आप उनका चर्चित ब्लॉग बिगअड्डा विजिट करें तो आपको उसके होमपेज पर ही डॉ.बच्चन द्वारा यीट्स की एक सुंदर और जीवन में उतारने वाली कविता का हिंदी अनुवाद पढ़ने को मिलेगा. अमिताभ बच्चन को पिता की पसंद की कविता कितनी पसंद है. शायद पिता-पुत्र की इस महान जोड़ी की सबसे निराली अदा उनकी विनम्रता में छिपी है जो उन्हें अभेद्य बना देती है. वे जब ख़ुद समीक्षा के लिए प्रस्तुत हों तो कौन उन्हें हरा सकता है. देखिए यह कविता: *मैं आमंत्रित करता हूँ उनको जो मुझको बेटा कहते *** *पोता या परपोता कहते,*** *चाचा और चाचियों को भी,*** *ताऊ और ताइयों को भी,*** *जो कुछ मैंने किया उसे वे जांचे-परखे-*** *उसको मैंने शब्दों में रख दिया सामने-*** *क्या मैंने अपने बुज़ुर्गवारों के वारिस नुत्फे को*** *शर्मिंदा या बर्बाद किया है?*** *जिन्हें मृत्यु ने दृष्टि पारदर्शी दे रक्खी*** *वे ही जाँच-परख कर सकते.*** *अधिकारी मैं नहीं*** *कि अपने पर निर्णय दूँ,*** *लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हूँ.* डब्ल्यु.बी.ईट्स, अनुवाद: डॉ.हरिवंशराय बच्चन -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chandrika.media at gmail.com Thu Apr 21 13:04:20 2011 From: chandrika.media at gmail.com (chandrika media) Date: Thu, 21 Apr 2011 13:04:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSW4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkpuClgeCkqOCkv+Ckr+Ckvjog4KSv4KWHIOCknOCliyA=?= =?utf-8?b?4KSc4KSyIOCksOCkueCkviDgpLngpYgg4KSm4KSj4KWN4KSh4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KSo4KWN4KSvIOCkleClhyDgpJzgpILgpJfgpLLgpYvgpIIg4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: see new post. http://dakhalkiduniya.blogspot.com/ -- chandrika c/o krishna rao nakhale tirmurti nagar, po- manas mandir, wardha maharashtra. pin-442001. mo-09890987458 http://dakhalkiduniya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Apr 22 18:50:34 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 22 Apr 2011 18:50:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCknOCkvuCksOClhyDgpK7gpYfgpLDgpYcg4KSy4KS/4KSP?= =?utf-8?b?ICfgpLngpYDgpLDgpYsnIOCkqOCkueClgOCkgiA6IOCkruCkueClhw==?= =?utf-8?b?4KS2IOCkreCkn+CljeCknw==?= Message-ID: नई दिल्ली ।। अन्ना हजारे के समर्थन में बॉलिवुड की कई हस्तियां सामने आईं, पर इस बार महेश भट्ट जैसे बड़े फिल्मकार ने उनसे अलग अपने विचार रखे हैं। उनके अनुसार अन्ना हजारे और सिविल सोसायटी के सदस्यों का कमेटी में शामिल होना सरासर अलोकतांत्रिक है। शुक्रवार दोपहर मीडिया से बात करते हुए उन्होंने अन्ना हजारे को गांधीवादी मानने से भी इनकार कर दिया। उनके अनुसार अन्ना हजारे ने नरेंद मोदी जैसे नेता की तारीफ करके एक बुरा उदाहरण पेश किया है। उन्होंने कहा कि भ्रष्ट सिर्फ वह नहीं है जो रिश्वत लेता है। भ्रष्ट वह भी है जो सांप्रदायिक उन्माद को बढ़वा देता है और धर्म के नाम पर लोगों से भेदभाव करता है। महेश भट्ट ने अन्ना हजारे के विचारों की सक्षमता गांव स्तर तक ही बतायी। उन्होंने कहा कि ' मै अन्ना हजारे को नायक नहीं मानता और मुझे बदलाव के लिए किसी नायक की जरूरत भी नहीं है। कोई भी बदलाव तब तक नहीं आ सकता जब तक मैं खुद बदलाव लाने में सक्षम न रहूं। ' कार्यक्रम में मौजूद इतिहासकार प्रो.के.एन पणिक्कर ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ इस पूरी मुहिम पर सवाल उठाए। उनका कहना था कि क्यों सरकार इस बिल को लाने की जल्दी में है और वह इस मुहिम के सामने इतनी जल्दी झुक कैसे गई? तेलंगाना और इरोम शर्मिला जैसे मसले पर बरसों गुजर जाने के बाद भी सरकार असंवेदनशील बनी हुई है। उन्होंने जन लोकपाल विधेयक को अव्यावहारिक बताते हुए इसे फासीवाद की तरफ एक कदम की तरह बताया। उनकी चिंताएं इस बात को लेकर भी दिखीं कि केंद्र सरकार हमेशा से ही ऐसे कदम उठाने के लिए उत्सुक दिखती है जिसमें ताकत कुछ लोगों तक सीमित हो सके। उनके अनुसार लोकपाल के गठन में सरकार कोई समय सीमा में बंध कर काम न करे और पंचायत स्तर से राय लेकर ही कोई बिल पास करे। महेश भट्ट, प्रो. पणिक्कर ने यह भी कहा कि अन्ना हजारे महाराष्ट्र में राज ठाकरे के मराठी मानुस की विचारधारा का समर्थन करके देश की बड़ी समस्याओं पर बोलने का नैतिक हक खो चुके हैं। उन्होंने इस पूरे आन्दोलन के पीछे आरएसएस जैसे कट्टर सांप्रदायिक संगठन को खड़ा बताया। प्रो. पणिक्कर के अनुसार लोकपाल बिल के गठन में हम सिर्फ इस बात पर जोर दे रहें हैं कि भ्रष्टाचारी को सजा कैसे दी जाए, लेकिन यह सोचना भी जरूरी है कि इसे रोका कैसे जाए। उनके अनुसार कोई भी कानून अधिक से अधिक अपराधी को सजा ही दे सकता है, पर जब तक जमीनी स्तर पर इस बात के लिए जागरूकता नहीं होगी कि भ्रष्टाचार से लड़ा कैसे जाए, तब तक इस लड़ाई में सफलता संदिग्ध है। प्रो. पणिक्कर ने भी अन्ना हजारे की तुलना गांधी और जयप्रकाश नारायण से करना बेमानी बताया। उनके अनुसार कोई भी गांधीवादी नहीं हो सकता। वह तो सिर्फ महात्मा गांधी ही थे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Apr 23 16:45:04 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 Apr 2011 16:45:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSq4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KWH4KSVIOCkleClgCDgpLDgpJrgpKjgpL4g4KSq4KWN4KSw4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSv4KS+KOCkj+CklSk=?= Message-ID: * फेसबुक पर रवीश कुमार ने आज से कोई तीन महीने या उससे भी पहले लप्रेक यानी लघु प्रेमकथा की शुरुआत की तो एकबारगी पढ़कर ऐसा लगा कि जो शख्स टेलीविजन स्क्रीन पर और जीवन में इतना सरोकारी है,गंभीरता से मुद्दों की बात करता है,उसके भीतर का कोई आदिम फटीचर निकलकर हमारे सामने नंग-धडंग आकर खड़ा हो गया है। कभी किसी दिलफेंक,लुच्चे-लफंगे की तरह सार्वजनिक जगहों पर इश्किया के लिए स्पेस तैयार करने की फिराक में है तो कभी पान बेचनेवाले कल्लू और डीपीएस में पढ़नेवाली लड़की के बीच कुछ-कुछ हो जाने की उम्मीद पाले बैठा है। तब हमने इस लप्रेक को किसी भी अवधारणा के नट-बोल्ट के भीतर कसने की जरुरत महसूस नहीं की थी और उसे यह सोचकर पढ़ने लग गए थे कि रवीश क्या हर इंसान के बीच एक ऐसा दिल धड़कता है जो सिर्फ रक्त प्रवाह के लिए मदद करने और सांसों की आवाजाही से हरकत करने के लिए नहीं होते,उसका कुछ भावनात्मक और मानवीय भूमिका भी होती है। हम अपने भीतर उसी दिल को टटोलने लगे थे और पाया कि वो हमारे भीतर भी मौजूद है। साहित्यिक लेखन जिस गंभीरता और कालजयी होने की उत्कंठा की मांग करती है,लप्रेक पहली की रचना में उसके प्रतिरोध से पैदा हुई थी। मेरे लिए आकर्षण की सबसे बड़ी वजह यही थी और वैसे भी दिल जिसका टूटा है,किसी को लेकर रतजग्गा जिसने की है,फ्रैक्चरड अफेयर का शिकार जो हुआ है,उसे क्या कोई साहित्य का कालजयी आलोचक बताएगा कि वो अपनी गाथा,ह़दय विदारक अनुभवों को कैसे लिखे? भोगा हुआ सच लिखने के लिए शिल्प की बारीक समझ से कहीं ज्यादा अन्तर्वस्तु के प्रति ईमानदारी की जरुरत होती है,ये कुछ चंद लाइनें दिमाग में ऐसे चक्कर काट रही थी कि लिहाजा हमने भी रवीश की तर्ज पर लप्रेक लिखने का मन बनाया। मेरे लिए लप्रेक लिखना,अपने हिस्से के अनुभव से कहीं-कहीं ज्यादा दूसरों के प्रति ऑब्जर्वेशन थे जिसमें कि कई बार मैं अपनी भी उपस्थिति घुसेड़ देता। इस बात का तो भय तो था ही फेसबुकिए साथी कहेंगे कि रवीश की नकल उतार रहा है तो इसके पहले ही हमने अपने को "पायरेटेड रवीश"घोषित कर दिया। ऐसा करने से रवीश का दुमछल्लो होने का भय तो था लेकिन हमारे लिखे की गुणवत्ता पर कोई सवाल खड़ी नहीं कर सकता था। रवीश से तुलना करके प्रतिक्रिया देने का मतलब था कि जबाब पहले से ही तैयार- पायरेटेड की गुणवत्ता इससे अधिक नहीं हो सकती। रवीश के लिए लप्रेक के मुकाबले बहुत ही कम लेकिन प्रतिक्रियाएं आने लगी और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर कहा कि अच्छा लग रहा है आपलोग जो फेसबुक पर इस तरह से लिख रहे हैं। तारीफ और उत्साह की बात छोड़कर बात करें तो देखते ही देखते एक माहौल तो बन ही गया जो कि रवीश या मेरे लिखने से बहुत आगे की चीज थी कि मेरी तरह कई और भी लोग इसी तरह से लिखने के लिए तैयार हो गए। घंटे-दो घंटे में लप्रेक लेखकों की संख्या बढ़ने लग गयी और दो दिनों के भीतर फेसबुक पर कुल 17 लप्रेक लेखक हो गए। फेसबुक के भीतर कहानीकारविहीन पहचान लोगों की जमात पैदा होने लग गयी थी जिसके भीतर के कैदखाने में कुछ कहानियां सालों से कैद थी,कहानी नहीं तो धुंधली या स्क्रैच खायी हुई यादें या फिर इश्क के अनुभवों के चिद्दी-चिद्दी टुकड़े। ये प्यार भी हैं या नहीं,सिर्फ आभासीय सच या प्लेटोनिक,प्रेम-प्रेम सी दिखती हुई सहज मानवीय अनुभूतियां,इसका विश्लेषण आगे कभी। लेकिन वो सबके 420 शब्दों में उसे लप्रेक के तौर पर एक जींस की शक्ल दे रहे थे। हमने किसी को नहीं कहा था कि आप लिखें लेकिन कोई ये कहता कि हम भी लिखना चाहते हैं तो जरुर उत्साह बढ़ाते। लप्रेक लेखकों की संख्या जब बढ़ी तो इस पर बात करने का लोगों का तरीका भी बदला। अब लोग इसे महज 420 शब्दों में उंगलियों की कीबोर्ड पर आकर खुजलाहट मिटाने की सस्ती वजह देखने के बजाय आलोचनात्मक होकर देखने लग गए। सबसे पहले मिहिर ने शुरुआत में लिखा कि रवीश जो लप्रेक लिख रहे हैं,दरअसल उसमें प्रेम से कहीं ज्यादा नायक के तौर पर शहर है,उसका परिवेश और आप इसके माध्यम से दिल्ली को समझ सकते हैं,सिटी स्पेस के बारे में जान सकते हैं। ठीक उसी तरह विनीत के लिखे में मीडिया और अकादमिक दुनिया का परिवेश है। हमें खुशी हुई कि हमने जिस चार सौ बीसी लेखन की शुरुआत प्रेम को केन्द्र में रखकर किया,वो अब अवधारणाओं की देहरी को छूने लगी है और इस पर भी बात हो सकती है। कल अगर पत्रिकाओं का ध्यान इस पर जाता है तो संभव है पूरा-पूरा एक लेख का शीर्षक ही होगा- लप्रेक के बहाने कालजयी प्रेमकथाओं पर एक बहस। हमने सहज अंदाज में लिखा कि मिहिर इस लप्रेक के पहले आलोचक हैं और वो हमारे लिखे पर इस तरह की प्रतिक्रिया देते रहें। वैसे भी रचना लंबे समय तक आलोचना से निस्संग होकर नहीं रह सकती और फिर आलोचनात्मक दृष्टि भी तो रचना ही है। इस तरह लप्रेक लिखनेवालों के साथ-साथ उस पर आलोचनात्मक समझ के साथ बात करनेवाले मिहिर जैसे लोग भी शामिल होने लगे। हमने तब मजाक-मजाक में ही उम्मीद पाल ली थी कि कभी बहुत सारे लप्रेक को जमा करके इकठ्ठे छपवाएंगे और उसे"फेसबुक फिक्शन" नाम देंगे। हमने तो अपने लिखे को पायरेटेड रवीश नाम इसलिए दिया था कि हमारे लिखे की गुणवत्ता की कोई मिलान न करे और दूसरा कि हम पर कोई नकलचेपी का आरोप लगाए कि इससे पहले ही अपने को घोषित कर दो कि हम पायरेटेड माल प्रसारित कर रहे हैं। लेकिन बाद में जब लोगों ने इसकी शुरुआत की तो आप इसे विधान कह लें या फिर वर्चुअल स्पेस पर पैदा हुई ईमानदारी की सबों ने लप्रेक लेखक के तौर पर अपना नाम कुछ इस तरह से रखा कि उसमें रवीश किसी न किसी रुप में आ ही जाता। उदाहरण के तौर पर हिमांशु पंड्या ने लिखा- रवीश उदयपुरी, कानपुर से गिरीन्द्र ने रवीश मैनिया, दिल्ली से शैलेन्द्र ने खाटी रवीश...। उदयपुर से प्रज्ञा जोशी ने जब लप्रेक लिखना शुरु किया तो लगा कि हजार लुक्का के बीच वो अकेले भारी पड़ेगी टुच्चागिरी की हाइट कर दी उसने। शोहा महेन्द्रू की लप्रेक,इश्क अकेला नहीं है दुनिया में गालिब,जमाने के दर्द और भी हैं टाइप से इसके कन्सर्न को विस्तार देने की शुरुआत की। निहिता सोलेस की लप्रेक की लाइनें ऐसी होतीं कि इरफान के ब्लॉग-टूटी बिखरी हुई की याद दिलाती। लगातार भीतर कुछ छीज रहे ठोस अनुभवों से रिसकर फेसबुक पर जमा होती हुई एक रचना। सब रवीश के लप्रेक विधान से शुरु करते हुए भी,प्रेम पर बात करते हुए भी,उसके घनत्व को अलग-अलग दिशा में ले जा रहे थे और पाठ के स्तर पर,विचारणा की धरातल पर अलग तरीके से जमीन तैयार कर रहे थे।..(आगे भी जारी) * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Apr 24 11:46:22 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 24 Apr 2011 11:46:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjUg4KSV4KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpKrgpLAg4KSs4KS54KS4?= Message-ID: दीवान के साथियों आप इधर लगातार देख रहे होंगे कि देश और समाज के नाजुक मौके( जिसमें वर्ल्ड कप से लेकर बाबरी मस्जिद को लेकर आनेवाले फैसले तक शामिल हैं) पर मीडिया को अलग से संतुलित और संयम बरतने की अपील की जाने लगी है। उसी मीडिया को जो सालों से ये अपील देश की जनता से करता आया है। दरअसल खुद मीडिया के भीतर उत्पाती प्रवृत्ति में जिस तरह से इजाफा हुआ है,सरकार सहित हमें भी भरोसा नहीं होता कि पता नहीं घंटेभर में कैसी शक्ल में उभरकर हमारे सामने आ जाए। इसकी एक शक्ल हमें राडिया-मीडिया प्रकरण में देखने को मिली और दूसरा पीपली लाइव जैसी फिल्मों में। हम कचोट खाकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हैं कि काश नत्था के साथ-साथ पत्रकार राकेश भी किसी तरह जीवित रह जाता। कथादेश का मीडिया विशेषांक,मीडिया की इसी बनती-बदलती शक्ल को चिन्हित करता हुआ हमारे बीच आया और उसके कई लेखों ने ये प्रस्तावित किया कि जितनी जल्दी हो सके मीडिया से हीरो कहलाने का तमगा छीन लिया जाए या फिर इतिहास का अंत,ईश्वर की मृत्यू या विचारना का अंत की ही प्रक्रिया में 2010 की घटना के बाद मेनस्ट्रीम मीडिया के अंत की घोषणा कर दी जाए। हम मीडिया के नाम पर बाबुओं और पीआरओ की ओर से जारी की गई प्रेस रिलीज को पत्रकारिता मानने के लिए कब तक अभिशप्त रहेगे? ये एक ऐतिहासिक फैसला होगा और इस फैसले के पहले जाहिर तौर पर एक लंबी बहस श्रृंखला से गुजरने की जरुरत होगी। इन्हीं सब बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए कथादेश 25 अप्रैल,दिन सोमवार को मीडिया पर एक बड़ी बहस का आयोजन कर रहा है। जगह हम सबों के लिए परिचित है जहां कि आने के लिए किसी बहाने की जरुरत नहीं होती लेकिन हम जैसे लोगों के हाथ में एक बहाना होता है तो भीतर घुसने में हौसला बना रहता है कि चलो काम से आए हैं,कोई पूछे तो ठसक से बता सकते हैं कि क्यों आए हैं? ये जगह है सीएसडीसएस,सराय.. नीचे कार्यक्रम का विवरण चेप रहा हूं, फिर तो मिलते हैं सोमवार को.. yyy -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Apr 24 11:55:41 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 24 Apr 2011 11:55:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkquCksCDgpKzgpLngpLg=?= Message-ID: दीवान के साथियों आप इधर लगातार देख रहे होंगे कि देश और समाज के नाजुक मौके( जिसमें वर्ल्ड कप से लेकर बाबरी मस्जिद को लेकर आनेवाले फैसले तक शामिल हैं) पर मीडिया को अलग से संतुलित और संयम बरतने की अपील की जाने लगी है। उसी मीडिया को जो सालों से ये अपील देश की जनता से करता आया है। दरअसल खुद मीडिया के भीतर उत्पाती प्रवृत्ति में जिस तरह से इजाफा हुआ है,सरकार सहित हमें भी भरोसा नहीं होता कि पता नहीं घंटेभर में कैसी शक्ल में उभरकर हमारे सामने आ जाए। इसकी एक शक्ल हमें राडिया-मीडिया प्रकरण में देखने को मिली और दूसरा पीपली लाइव जैसी फिल्मों में। हम कचोट खाकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हैं कि काश नत्था के साथ-साथ पत्रकार राकेश भी किसी तरह जीवित रह जाता। कथादेश का मीडिया विशेषांक,मीडिया की इसी बनती-बदलती शक्ल को चिन्हित करता हुआ हमारे बीच आया और उसके कई लेखों ने ये प्रस्तावित किया कि जितनी जल्दी हो सके मीडिया से हीरो कहलाने का तमगा छीन लिया जाए या फिर इतिहास का अंत,ईश्वर की मृत्यू या विचारना का अंत की ही प्रक्रिया में 2010 की घटना के बाद मेनस्ट्रीम मीडिया के अंत की घोषणा कर दी जाए। हम मीडिया के नाम पर बाबुओं और पीआरओ की ओर से जारी की गई प्रेस रिलीज को पत्रकारिता मानने के लिए कब तक अभिशप्त रहेगे? ये एक ऐतिहासिक फैसला होगा और इस फैसले के पहले जाहिर तौर पर एक लंबी बहस श्रृंखला से गुजरने की जरुरत होगी। इन्हीं सब बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए कथादेश 25 अप्रैल,दिन सोमवार को मीडिया पर एक बड़ी बहस का आयोजन कर रहा है। जगह हम सबों के लिए परिचित है जहां कि आने के लिए किसी बहाने की जरुरत नहीं होती लेकिन हम जैसे लोगों के हाथ में एक बहाना होता है तो भीतर घुसने में हौसला बना रहता है कि चलो काम से आए हैं,कोई पूछे तो ठसक से बता सकते हैं कि क्यों आए हैं? ये जगह है सीएसडीसएस,सराय.. नीचे कार्यक्रम का विवरण चेप रहा हूं, फिर तो मिलते हैं सोमवार को.. yyy -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Apr 25 00:30:42 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 25 Apr 2011 00:30:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCklw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSn4KWA4KSX4KWA4KSw4KWAIOCkleClgCDgpLDgpL7gpLkg?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkh+CkruCksOCkvuCkqC4uLg==?= Message-ID: ड्रोन हमलों के ख़िलाफ़ इमरान धरने पर : BBC Hindi पाकिस्तान के कुछ इलाक़ों में लगातार जारी चालकरहित विमान यानी ड्रोन हमलों के ख़िलाफ़ पूर्व क्रिकेटर और पाकिस्तानी राजनितिज्ञ इमरान ख़ान और उनके समर्थको का धरना जारी है. सरहदी प्रांत ख़ैबरपख़्तूनख़्वा की राजधानी पेशावर में इमरान ख़ान ने अपने हज़ारों समर्थकों के साथ रात सड़क पर ग़ुज़ारी. इस धरने की वजह से अफ़गानिस्तान स्थित नेटो सेना के लिए दो दिनों से रसद नहीं जा पा रही है. पंजाब के अटक से लेकर पेशावर शहर तक ग्रांड ट्रंक रोड पर नेटो के लिए रसद लेकर जा रहे सैकड़ों ट्रक जगह-जगह खड़े है. हालांकि ख़बर है कि इमरान खान और उनके कुछ समर्थक धरना स्थल से चले गए हैं. धरने पर बैठे लोगों में काफी संख्या में कॉलेजों के छात्र मौजूद है जो ड्रोन हमलों को रोकने की मांग कर रहे हैं. पेशावर से बीबीसी संवाददाता दिलावर ख़ान वज़ीर का कहना है कि पुलिस ने धरने के इलाक़े हयाताबाद जानेवाली दो सड़कों को छोड़कर बाक़ी सभी रास्तों को सील कर दिया है. धरना स्थल के पास पुलिस की एक टुकड़ी अलग से तैनात की गई है. *हमले की शुरुआत* पाकिस्तान में हालांकि ड्रोन हमलों का सिलसिला 2004 से ही जारी है लेकिन इसके ख़िलाफ़ इससे पहले इस तरह के प्रर्दशन कम ही देखने को मिले हैं. इमरान ख़ान के दल तहरीके इंसाफ़ के कार्यक्रम से पहले उत्तरी वज़ीरिस्तान में ड्रोन हमलों के ख़िलाफ़ प्रर्दशन हुए थे जिसमें हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया था. हालांकि उस विरोध कार्यक्रम को किसी राजनीतिक दल का समर्थन प्राप्त नहीं था. धरने में शामिल लोगों का कहना है कि इन हमलों में बेगुनाह लोग ही मारे जाते हैं और पुरा इलाक़ा इससे ख़ौफ़ज़दा है. पाकिस्तान के क़बायली इलाक़ों में अबतक लगभग 200 ड्रोन हमले हो चुके हैं और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ इनमें 1300 लोग मारे गए हैं. जबकि स्थानीय लोग मौतों की तादाद दो हज़ार बताते हैं. इन हमलों की वजह से पाकिस्तान और अमरीका के रिश्तों थोड़े तनावपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं. पाकिस्तानी सेना प्रमुख अशफाक़ क़यानी ने भी फ़ौरन इन हमलों को बंद करने की मांग की है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Apr 30 14:53:39 2011 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 30 Apr 2011 14:53:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSq4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleCliyDgpK7gpYHgpJ3gpLjgpYcg4KSq4KWN4KSv4KS+4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWLIOCkl+Ckr+CkviDgpLngpYgg4KSU4KSwIOCkruCliOCkgiA=?= =?utf-8?b?4KSP4KSrIOCkj+CkriDgpJfgpYvgpLLgpY3gpKEg4KS44KWB4KSo4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkl+CkviDgpLngpYLgpII=?= Message-ID: तहलका में "एक छोटी सी जिंदगी" पर लिखा तुम्हारा पढ़ा,पहिले से बहुत साफ और बढ़िया लिखने लगे हो,अच्छा लगा पढ़कर,मां को भी पढ़वाए हम।(पापा ने मुझे बचपन में थोड़ा-बहुत पढ़ाया है जिसमें मैंने हिन्दी में चौदह को एक बार चोदा लिख दिया था और तब देह पर खून की रेखाएं उभार दी थी पापा ने। उन्हें लगा था कि मैंने बदमाशी से ऐसा किया है लेकिन एलकेजी का ये बच्चा तब कहां जानता था इन शब्दों का क्या अर्थ होता है) अभी दूकान पर कोई कस्टमर नहीं है तो सोचे कि हाल-चाल जान लें। गर्मी तो दिल्ली में भी बढ़ गया होगा तो लगा कि बोल दें कि कूलर लगा लेना।..पापा इन दिनों मुझे रोज किसी न किसी बात को लेकर जो कि बहाने की शक्ल में होती,फोन करने लगे हैं। फोन पर बात शुरु करने से पहले वो कोई ऐसी सफाई देते हैं जैसे टीनएज का कोई लौंडा अपनी किसी क्लासमेट पर दिल आ जाने पर जज्बाती तरीके से किसी न किसी बहाने फोन करता है,जान-बूझकर क्लास में नोट्स नहीं लेता है और कहता है-रिया तुम कल आ रही हो न,प्लीज सोशल साइंस की अपनी नोटबुक लेती आना। वो सीधे कैसे कह दे कि तुम्हें मिस्स करता हूं सो फोन किया।..पापा इन दिनों इसी तरह से बहाने बनाकर फोन करते हैं,सालों से उनके मन में मेरे प्रति जो अविश्वास रहा है,नालायक हो जाने की आशंका बनी रही है,भावनाओं के वेग से उसे इस कठोर जंगले को कैसे टूटने दे दें और वो भी सिर्फ इस एक लाइन में कि तुम्हारी याद आ गयी तो फोन कर दिया। बहरहाल,मुझे अब मजा आने लगा है और अच्छा भी लगता है,एक उत्सुकता भी बनी रहती है कि देखें,अबकी बार पापा किस बहाने फोन करते हैं? पापा हमें बचपन से अपनी रिप्लिका बनाना चाहते थे। इस रिप्लिका के बनाने में जरुरी था कि मेरे भीतर जो मेरी मां बढ़ रही थी,उसके कतरकर छोटी कर दें। लोगों की तकलीफ में तुरंत संवेदनशील हो जाना,बहुत ही मामूली बातों को भी गंभीरता से लेना,गलत होने पर गम खाने के बजाए तुरंत अपनी असहमति जाहिर करना और सबसे ज्यादा तो ये कि पढ़े-लिखे से ही बाल-बच्चा आदमी बनता है का समर्थन करना। पापा मुझे अपनी रिप्लिका बनाने के फेर में अगर मेरे भीतर की बढ़ती मां को कुतरने की कोशिश न करते तो शायद हम कुछ-कुछ पापा की तरह भी बन पाते और ये भी कि वो ज्यादा बेहतर होता। कम से कम बात-बात पर मां की तरह आंखों में आंसू तो नहीं ही आते,निरुपमा राय की फिल्मों में तो जाकर न धंसते और दुनियादारी के मामले में थोड़े ढीठ तो हो लेते जो कि आज की दुनिया में जीने के लिए जरुरी है। जब मुझे अपनी मां पर गुस्सा आता है तभी कहता हूं कि इससे बेहतर होता कि पापा की राह पकड़ते,कम से कम हमारी भावनाओं के साथ तो कोई धोखाधड़ी तो नहीं करता। करता भी तो पापा की तरह मूलधन के साथ सूद वसूलने के तरीके तो आते ही हमें। मां की संगति ने मुझे नकरोना बना दिया जो कि थोड़ी सी तकलीफ से हों.हों.हों.हों. करके बिसूरने लग जाता है। फिर भी, बचपन से ही हम पापा से इसलिए नहीं दूर होते चले गए कि वो हमें आदर्श और नसीहतों की बेडियों में बाधंकर बड़े होने देना चाहते थे बल्कि इसलिए कि मेरी हर बुरी आदत का जिक्र करने के साथ एक लाइन अलग से जोड़ देते- जैसा पैदा की है,वैसा हुआ है। अब मेरी मां ने मुझे पैदा ही लुच्चा,नकरोना,नालायक के तौर पर किया तो फिर मेरा भविष्य भला बेहतर कैसे होता? मेरा तब दिमाग कहां चलता था उस वक्त लेकिन हां इतना जरुर समझता कि गलती हम करते हैं तो इसका मां के पैदा करने से क्या संबंध है? मुझे नहीं पता कि मेरे पापा किस एकांत क्षणों में मां की समझ,तर्क और काबिलियत की सराहना किया करते थे लेकिन जब भी हमने सुना तो मां को हमेशा कटघरे में ही खड़े रखने पर आमादा रहे। नतीजा,कई अच्छी बातों के होने पर भी चूंकि पापा मेरी हर गलतियों पर मां को मेरे पैदा होने के दोष के साथ जोड़कर देखते,हमने उनकी बातों से,उनकी नसीहतों से पिंड छुड़ाने के लिए कोशिशें करते रहे। डर से हम उनकी बातें मान भी लेते लेकिन अन्तर्रात्मा में उन बातों के लिए कोई सम्मान नहीं होता। इन बातों को वो महसूस करने लगे थे और जब भी मैं छुट्टियों में रांची से घर जाता वो मां से कहा करते- आता है तो तुम्हारे पास ही घुसा रहता है,हमसे बोलता-बतिआता नहीं है। मेरे बचपन की पूरी पढ़ाई घर के उन जगहों पर हुई जहां-जहां पापा गैरमौजूद होते और रसोई से बेहतर जगह शायद ही कोई होती। हम पापा से जितनी नजरें बचाते,मां के पीछे-पीछे होने के लिए उतनी ही कोशिशें करते। मां कभी-कभी चिढ़ भी जाती कि लुटकुन्ना जैसे पीछे-पीछे लगा रहता है..इ क्या कि आदमी पर-पेसाब के लिए भी जाय तो बाहर अगोरिया के लिए खड़ा है। धक्के देकर कहती जाओ,बाहर खेलो। दुनियाभर के बाल-बच्चा ऐसे थोड़े ही फोहवा(नवजात शिशु) की तरह मां के पीछे पड़ा रहता है। मां की इस तरह की संगत ने मुझे घरघुसरा बना दिया है। घर से सोलह साल से बाहर रहने पर भी मैं जिस भी कमरे में रहता हूं,तब तक वहां से बाहर नहीं निकलता,जब तक कि निकला एकदम से जरुरी न हो जाए। कॉलेज जाने तक मेरी समझ थोड़ी बढ़ने लगी। उसी बीच स्त्री विमर्श और पितृसत्तात्मक समाज को पढ़ना शुरु किया। प्रभा खेतान से लेकर वर्जिनिया वुल्फ तक को तो लगा कि मेरे पापा पितृसत्तात्मक समाज के सबसे जिंदा और सक्रिय उदाहरण हैं। लिहाजा,उनके प्रति असहमति और बहुत-बहुत गुस्सा जो मेरे भीतर मां के नहीं पनपने देने को लेकर था,इन अवधारणाओं से सुविधा ये हुई कि मैंने मानसिक तौर पर घोषित कर दिया कि मेरे पापा पितृसत्ता के समर्थक हैं और मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैं किसी ऐसे शख्स से प्यार करुं। इन किताबों ने पापा के प्रति असहमति के साथ थोड़ी घृणा भी पैदा कर दी थी। इधर मेरी पढ़ाई और वो भी साहित्य को लेकर नाउम्मीद हो चुके थे। हमदोनों ने अपने-अपने हिस्से से एक-दूसरे से दूरियां(भौगोलिक तो हो ही चुकी थी,मानसिक तौर पर भी) तो बनाने के लिए तर्क और वजह ढूंढ ली थी। पापा के आगे दर्जनभर हिन्दी के मिश्रा,तिवारी,झा और सिन्हाजी जैसे हिन्दी के मास्टर थे जो पान-सूरती के चस्के में अपने मसूड़ों को खंडहर की शक्ल दे चुके थे,होली की उधारी को दीवाली में चुकाने से ये प्रमाण दे चुके थे कि हिन्दी पढ़कर यही हाल होता है और इधर मैंने तय कर लिया था कि एक पितृसत्ता के संरक्षक से किसी तरह की मदद नहीं लेनी है। किसी बाप की अपने बेटे को लेकर नाउम्मीदी और हाफ फ्राय उम्र में बेटे का अवधारणा की जकड़बंदी में जा फंसने पर कोई उपन्यास है तो प्लीज मुझे सजेस्ट करें,नहीं तो मेरे हिस्से अनुभव का ये बेहतर नमूना तो है ही। चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद मैं धुंआधार लिखने लगा था। भइया अक्सर समय मिलने पर मेरी पोस्टें पढ़ते और पापा को बताते कि आप पर भी लिखता है विनीत। पापा शुरुआत में खुन्नस से कहते- हमही मिले हैं लिखने के लिए तो किस पर लिखेगा,हम उसका नरेटी(गला) दबाते रहे तो लिखेगी नहीं? लेकिन बाद में जब कुछ लोगों ने खासकर नानीघर के लोगों और वहां के प्रभात खबर,हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण अखबारों ने मेरी पोस्टें छापनी शुरु की तो पापा अकड़ से लोगों को बताने लगे कि-हमरा लड़का भी लिखता है,लेखक बन रहा है। भइया या मां से कहते,तिवारीजी को लगता है कि एक वही काबिल हैं,हम मुंहए पर कह दिए कि सुनिए तिवारीजी,हमरा लड़का भी वही सब पढ़ रहा है,जो आपलोग पढ़ाते हैं। पापा को मेरे प्रति अनुराग जगने लग गया था। इसलिए नहीं कि मैं आर्थिक तौर पर कुछ बेहतर कर रहा था बल्कि इसलिए कि वो समाज के जिन लोगों के बीच उठते-बैठते,मेरे नाम से,मेरे लिखे से उनका अहं तुष्ट होता है। अब मैं इसे भी पितृसत्ता का ही एक चिन्ह मानकर उघड़ने लग जाउं तो अलग बात है लेकिन मैं फिलहाल थोड़ा इमोशनल होना चाहता हूं। मेरे लिखे पर नामवर सिंह अपनी राय दे इससे कहीं ज्यादा मेरे लिए सुखद है कि पापा पढ़कर बताते हैं कि-पहले से साफ लिखने लगे हो(मतलब चौदह को चोदा नहीं लिखते और अगर लिखोगे भी तो उसकी प्रासंगिकता तय करोगे टाइप का भाव)। लेकिन इन सबसे भी एक मजेदार बात( मिहिर का असर है,इस शब्द को लेकर) कि पापा मेरे भीतर की विकसित हुई मेरी मां को बहुत प्रोत्साहित करने लगे हैं। कई बार तो हूबहू वही लाइनें बोलने लगे हैं जो कि मां कहा करती है- खाने-पीने पर ध्यान देना,जितना हो,उतना ही काम करना। जान देवे से कोई फायदा नहीं है। जिंदगी जान-बचेगा तो बहुत पैसा औ नाम होगा। यही पापा पहिले मां की इन बातों को सुनकर चिढ़ जाते और कहते- बउआ है जो एतना तोता जैसा समझाती हो,सब कर लेगा। मुझे नहीं पता कि पापा को अपना विपक्षी होने से खुन्नस थी या फिर मां के आसपास घिरे रहने से लेकिन वो इन सब बातों को स्वाभाविक तौर पर नहीं लेते। मैं अब खुश होता हूं कि वो मां की शब्दावली को उधार लेकर मेरे लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। मैं यही तो चाहता था कि पापा मां से कुछ उधार लेकर मुझे दें,उनकी इस अकड़ को भरभराकर टूटते हुए देखना अच्छा लग रहा है। अब मैं अपने पापा पर भरोसा कर सकता हूं कि वो मेरी बातें,मेरे तर्क को उस जमीन पर रखकर सोचेंगे जहां उनकी राय मुझे प्रभावित करेगी,असहमति में भी एक खास किस्म का सुकून पहुंचानेवाली होगी,वो नसीहत के बजाय शेयरिंग की कैटेगरी में शामिल की जाएगी। इस इमोशनल एप्रोच में भी मैं महसूस करता हूं कि उनके भीतर का पितृसत्ता के चिन्ह ध्वस्त हो रहे हैं और फिर मां से इन सब बातों की चर्चा कि पापा ऐसे बात करते हैं और मां का जबाब कि पहिले से बहुत ज्यादा बदल गए हैं इ आदमी। लेकिन इस बीच,जिद में,इगो में आकर पापा की वो जो अच्छी बातें मैं इग्नोर करता आया और मां की अव्यावहारिक बातें जिसे अतिउत्साह में सीने से चिपकाए रहा,धीरे-धीरे क्रमशः अपनाने और छोड़ने की कोशिश में हूं। अपने भीतर पापा के भी कुछ हिस्से को भी शामिल करने लगा हूं।..और तभी,एक ही वक्त में मां का कयामत से कयामत तक और पापा के गाइड देखने के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करना चाहता हूं। पापा की जिद से मैंने यूथ कल्चर को डिफाइन करते वक्त यहां आपके जमाने के गाने बजेंगे, बाप के जमाने के गाने नहीं कहनेवाले चैनल को न केवल डीफेंड किया बल्कि रेडियो के पुराने लिस्नर से बदला लेने के तौर पर प्रस्तावित किया,अब एफ एम गोल्ड सुनने लगा हूं। उन पुराने गाने को सुन रहा हूं जिसके सुनते हुए पापा मधुबाला,नरगिस और सुरैया की चर्चा इतने सम्मान से करते जितना कि आज कोई अपनी बहू-बेटियों की भी शायद ही करता हो। फैन होकर अपनी सेलेब्रेटी के सम्मान के लिए शब्दों का चयन पापा का अद्भुत हुआ करता। अब तो सारी पसंद ही लड़कियां और हीरोईनों की तारीफें हॉट और सेक्सी दो जातिवाचक संज्ञा में जाकर खो जाती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Apr 30 19:30:04 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 30 Apr 2011 19:30:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkleCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSk4KS/JyDgpJXgpL4g4KSc4KSC4KSk4KSwIOCkruCkgg==?= =?utf-8?b?4KSk4KSwIDog4KSF4KSw4KWB4KSC4KSn4KSk4KS/IOCksOClieCkrw==?= Message-ID: *मित्रो,* *फेहरिस्त लम्बी होती जा रही है, अन्ना हजारे के आन्दोलन को किन्तु-परन्तु के साथ देखनेवालों की. * *शुद्धाव्रत सेन गुप्ता, शिव विश्वनाथन, बद्री रैना, हर्षमंदर, योगेन्द्र यादव, के एन पणिक्कर, महेश भट्ट, मृणाल पांडे, मस्तराम कपूर....और अब अरुंधति रॉय. * *जनतांत्रिक आंदोलनों के गठबंधन की ओर से बीते 29 अप्रैल को दिल्ली में आयोजित एक सेमीनार में अरुंधति रॉय के भाषण के संपादित अंश को बीबीसीहिंदीडॉटकॉम ने प्रस्तुत किया है. * * * *दीवान के साथियों के लिए पेश है -* शशिकांत 'क्रांति' का जंतर मंतर *- अरुंधति रॉय* * * बीस साल पहले जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर हम पर थोपा गया तब हमें बताया गया था कि सार्वजनिक उद्योग और सार्वजनिक संपत्ति में इतना भ्रष्टाचार और इतनी अकर्मण्यता फैल गई है कि अब उनका निजीकरण ज़रूरी है. हमें बताया गया था कि मूल समस्या इस प्रणाली में ही है. अब लगभग हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है. हमारी नदियाँ, पहाड़, जंगल, खनिज, पानी सप्लाई, बिजली और संचार प्रणाली प्राइवेट कंपनियों को बेच दिए गए हैं. तब भी भ्रष्टाचार सुरसा के मुँह की तरह फैलता जा रहा है. भ्रष्टाचार की विकास दर कल्पना से परे है. घोटाला दर घोटाला जितनी बड़ी रक़में निगली जा रही हैं उसका कोई हिसाब नहीं. इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस देश के लोग बुरी तरह नाराज़ हैं. लेकिन ग़ुस्से में होने का मतलब ये नहीं है कि आप साफ़ साफ़ सोच भी पा रहे हों. अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के समर्थन में जंतर मंतर पहुँचे हज़ारों हज़ार लोगों के सामने भ्रष्टाचार को एक नैतिक मुद्दे की तरह पेश किया गया, एक राजनैतिक या व्यवस्था की कमज़ोरी की तरह नहीं. वहाँ भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलने या उसे तोड़ने का कोई आह्वान नहीं किया गया. जंतर मंतर की क्रांति इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि जंतर मंतर पर मौजूद मध्यम वर्ग के ज़्यादातर लोगों और कॉरपोरेट-समर्थित मीडिया को भ्रष्टाचार के जनक इन आर्थिक सुधारों का बहुत फ़ायदा हुआ. मीडिया ने इस आंदोलन को “क्रांति” और भारत का तहरीर चौक बताया. इसी मीडिया ने पहले दिल्ली में हज़ारों हज़ार ग़रीब लोगों की रैलियों को नज़रअंदाज़ किया क्योंकि उनकी माँगें कॉरपोरेट एजेंडा के माफ़िक़ नहीं थीं. जब भ्रष्टाचार को धुँधले तरीक़े से, सिर्फ़ एक ‘नैतिक’ समस्या के तौर पर देखा जाता है तो हर कोई इससे जुड़ने को तैयार हो जाता है – फ़ासीवादी, जनतांत्रिक, अराजकतावादी, ईश्वर-उपासक, दिवस-सैलानी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और यहाँ तक कि घनघोर भ्रष्ट लोग जो आम तौर पर प्रदर्शन करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं. ये एक ऐसा घड़ा है जिसे बनाना बहुत आसान है और उससे आसान उसे तोड़ना है. अन्ना हज़ारे ने अपने बनाए इस बर्तन पर सबसे पहले पत्थर मारा और वामपंथी समर्थकों को हैरान कर दिया जब वो नरेंद्र मोदी को विकास-प्रतिबद्ध मुख्यमंत्री का जामा पहना कर अपने मंच के केंद्र में ले आए. उन्होंने विकास के नाम पर मोदी की उपलब्धियों की झूठी प्रकृति पर बहस में पड़ना ठीक नहीं समझा. हम में से कई लोग ये सोचते रह गए कि क्या हमें भ्रष्ट मगर कथित जनतांत्रिक लोगों की जगह एक ईमानदार फ़ासीवादी नेता का विकल्प दिया जा रहा है. मूलभूत प्रश्न मैं एक मज़बूत भ्रष्टाचार-विरोधी संस्था के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, पर मैं ये भरोसा पाना चाहूँगी कि ऐसी संस्था बहुत सारे अधिकार पाने के बाद ग़ैरज़िम्मेदार और ग़ैरजनतांत्रिक न हो जाए. हालाँकि मैं ये नहीं मानती कि सिर्फ़ क़ानूनी तरीक़ों से ही सांप्रदायिक फ़ासीवाद और उस आर्थिक निरंकुशता के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है जिसके कारण 80 करोड़ से ज़्यादा लोग क़ानूनी तरीक़े से 20 रुपए प्रतिदिन पर गुज़र करते हैं. जब तक मौजूदा आर्थिक नीतियाँ जारी हैं तब तक राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना से भूख और कुपोषण ख़त्म नहीं किया जा सकता. भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून से अन्याय नहीं ख़त्म हो सकता और अपराध विरोधी क़ानूनों से सांप्रदायिक फ़ासीवाद को ख़त्म नहीं किया जा सकता. क्या सूचना के अधिकार या जन लोकपाल बिल के ज़रिए उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में किए गए उन गुप्त सहमति पत्रों को सामने लाया जा सकता है जिन पर सरकार ने व्यापार घरानों के साथ दस्तख़त किए हैं और जिनके लिए वो अपने सबसे ग़रीब नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने को तैयार है? अगर ऐसा हो सकता है तो इन सहमति पत्रों से ये स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार देश की खनिज संपदा को निजी कॉरपोरेशनों के हाथों कौड़ियों के मोल बेच रही है. लेकिन ये भ्रष्टाचार नहीं है. ये पूरी तरह क़ानूनी लूट है और 2-जी घोटाले से कई गुना बड़ा घोटाला है. अगर हमें सूचना के अधिकार के तहत ये सूचना मिल भी जाती है तो हम उस सूचना का क्या कर पाएँगे? मैं मानती हूँ कि जंतर मंतर की क्रांति में अगर किसी ने इन समझौता पत्रों का सवाल उठाया होता तो टीवी कवरेज और वहाँ मौजूद भीड़ का एक बड़ा हिस्सा तुरंत ग़ायब हो गया होता. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Apr 30 19:57:17 2011 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 30 Apr 2011 19:57:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkleCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSk4KS/JyDgpJXgpL4g4KSc4KSC4KSk4KSwIOCkruCkgg==?= =?utf-8?b?4KSk4KSwIDog4KSF4KSw4KWB4KSC4KSn4KSk4KS/IOCksOClieCkrw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: “जब से अन्ना हजारे की गांधीवादी क्रांति की धूम मची है, इस क्रांति की वाहक सिविल सोसायटी के इतिहास की ख़ोज में बुद्धिजीवियों के बीच होड़ चली है. मार्क्स, ग्राम्सी, वेब्बर, और जाने किस-किस को इस संकल्पना की ख़ोज का श्रेय दिया जा रहा है, जबकि यह सिविल सोसायटी हमारे यहाँ 19 वीं सदी के राष्ट्रीय नवजागरण की क्रांति के वाहक भद्र लोक का ही पर्याय है और इस सिविल सोसायटी का चरित्र ठीक वैसा ही है, जैसा कि भद्रलोक का था. दूसरे शब्दों में, यह सिविल समाज, समाज का वह वर्ग है जो उत्पादन नहीं करता, बल्कि उससे परहेज करता है. वह उत्पादन का प्रबंधन कर सकता है, हेर-फेर कर सकता है किन्तु उत्पादन में हाथ मैले करने से वह बचता रहा है. इसकी लाई हुई क्रांति सफेदपोश क्रांति होती है, जो मोमबत्तियों के जुलूस, मोबाइल फ़ोनों के एसएमएस और टीवी चैनलों के धुआंधार प्रचार से दो-तीन दिन में ही लाई जा सकती है. आज इसी क्रांति का बोलबाला है.” *- मस्तराम कपूर,* * ‘मजदूर वर्ग की क्रांति का सपना’ (1 मई मजदूर दिवस के अवसर पर) 30 अप्रैल, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित लेख से.* 2011/4/30 shashi kant > *मित्रो,* > *फेहरिस्त लम्बी होती जा रही है, अन्ना हजारे के आन्दोलन को किन्तु-परन्तु के > साथ देखनेवालों की. * > *शुद्धाव्रत सेन गुप्ता, शिव विश्वनाथन, बद्री रैना, हर्षमंदर, योगेन्द्र > यादव, के एन पणिक्कर, महेश भट्ट, मृणाल पांडे, मस्तराम कपूर....और अब अरुंधति > रॉय. **जनतांत्रिक आंदोलनों के गठबंधन की ओर से बीते 29 अप्रैल को दिल्ली > में आयोजित एक सेमीनार में अरुंधति रॉय के भाषण के संपादित अंश > को बीबीसीहिंदीडॉटकॉम ने प्रस्तुत किया है. * > * > * > *दीवान के साथियों के लिए पेश है -* शशिकांत > > 'क्रांति' का जंतर मंतर > > *- अरुंधति रॉय* > > * > * > > > बीस साल पहले जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर हम पर थोपा गया तब > हमें बताया गया था कि सार्वजनिक उद्योग और सार्वजनिक संपत्ति में इतना > भ्रष्टाचार और इतनी अकर्मण्यता फैल गई है कि अब उनका निजीकरण ज़रूरी है. हमें > बताया गया था कि मूल समस्या इस प्रणाली में ही है. > > अब लगभग हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है. हमारी नदियाँ, पहाड़, जंगल, खनिज, > पानी सप्लाई, बिजली और संचार प्रणाली प्राइवेट कंपनियों को बेच दिए गए हैं. तब > भी भ्रष्टाचार सुरसा के मुँह की तरह फैलता जा रहा है. > > भ्रष्टाचार की विकास दर कल्पना से परे है. घोटाला दर घोटाला जितनी बड़ी रक़में > निगली जा रही हैं उसका कोई हिसाब नहीं. इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस > देश के लोग बुरी तरह नाराज़ हैं. लेकिन ग़ुस्से में होने का मतलब ये नहीं है कि > आप साफ़ साफ़ सोच भी पा रहे हों. > > अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के समर्थन में जंतर मंतर पहुँचे हज़ारों हज़ार लोगों > के सामने भ्रष्टाचार को एक नैतिक मुद्दे की तरह पेश किया गया, एक राजनैतिक या > व्यवस्था की कमज़ोरी की तरह नहीं. वहाँ भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था को > बदलने या उसे तोड़ने का कोई आह्वान नहीं किया गया. > जंतर मंतर की क्रांति > > इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि जंतर मंतर पर मौजूद मध्यम वर्ग के > ज़्यादातर लोगों और कॉरपोरेट-समर्थित मीडिया को भ्रष्टाचार के जनक इन आर्थिक > सुधारों का बहुत फ़ायदा हुआ. > > मीडिया ने इस आंदोलन को “क्रांति” और भारत का तहरीर चौक बताया. इसी मीडिया ने > पहले दिल्ली में हज़ारों हज़ार ग़रीब लोगों की रैलियों को नज़रअंदाज़ किया > क्योंकि उनकी माँगें कॉरपोरेट एजेंडा के माफ़िक़ नहीं थीं. > > जब भ्रष्टाचार को धुँधले तरीक़े से, सिर्फ़ एक ‘नैतिक’ समस्या के तौर पर देखा > जाता है तो हर कोई इससे जुड़ने को तैयार हो जाता है – फ़ासीवादी, जनतांत्रिक, > अराजकतावादी, ईश्वर-उपासक, दिवस-सैलानी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और यहाँ तक कि > घनघोर भ्रष्ट लोग जो आम तौर पर प्रदर्शन करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं. > > ये एक ऐसा घड़ा है जिसे बनाना बहुत आसान है और उससे आसान उसे तोड़ना है. अन्ना > हज़ारे ने अपने बनाए इस बर्तन पर सबसे पहले पत्थर मारा और वामपंथी समर्थकों को > हैरान कर दिया जब वो नरेंद्र मोदी को विकास-प्रतिबद्ध मुख्यमंत्री का जामा पहना > कर अपने मंच के केंद्र में ले आए. > > उन्होंने विकास के नाम पर मोदी की उपलब्धियों की झूठी प्रकृति पर बहस में > पड़ना ठीक नहीं समझा. हम में से कई लोग ये सोचते रह गए कि क्या हमें भ्रष्ट मगर > कथित जनतांत्रिक लोगों की जगह एक ईमानदार फ़ासीवादी नेता का विकल्प दिया जा रहा > है. > मूलभूत प्रश्न > > मैं एक मज़बूत भ्रष्टाचार-विरोधी संस्था के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, पर मैं ये भरोसा > पाना चाहूँगी कि ऐसी संस्था बहुत सारे अधिकार पाने के बाद ग़ैरज़िम्मेदार और > ग़ैरजनतांत्रिक न हो जाए. हालाँकि मैं ये नहीं मानती कि सिर्फ़ क़ानूनी तरीक़ों > से ही सांप्रदायिक फ़ासीवाद और उस आर्थिक निरंकुशता के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है > जिसके कारण 80 करोड़ से ज़्यादा लोग क़ानूनी तरीक़े से 20 रुपए प्रतिदिन पर > गुज़र करते हैं. > > जब तक मौजूदा आर्थिक नीतियाँ जारी हैं तब तक राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना > से भूख और कुपोषण ख़त्म नहीं किया जा सकता. भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून से अन्याय > नहीं ख़त्म हो सकता और अपराध विरोधी क़ानूनों से सांप्रदायिक फ़ासीवाद को ख़त्म > नहीं किया जा सकता. > > क्या सूचना के अधिकार या जन लोकपाल बिल के ज़रिए उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ > में किए गए उन गुप्त सहमति पत्रों को सामने लाया जा सकता है जिन पर सरकार ने > व्यापार घरानों के साथ दस्तख़त किए हैं और जिनके लिए वो अपने सबसे ग़रीब > नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने को तैयार है? अगर ऐसा हो सकता है तो इन सहमति > पत्रों से ये स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार देश की खनिज संपदा को निजी कॉरपोरेशनों > के हाथों कौड़ियों के मोल बेच रही है. > > लेकिन ये भ्रष्टाचार नहीं है. ये पूरी तरह क़ानूनी लूट है और 2-जी घोटाले से > कई गुना बड़ा घोटाला है. अगर हमें सूचना के अधिकार के तहत ये सूचना मिल भी जाती > है तो हम उस सूचना का क्या कर पाएँगे? > > मैं मानती हूँ कि जंतर मंतर की क्रांति में अगर किसी ने इन समझौता पत्रों का > सवाल उठाया होता तो टीवी कवरेज और वहाँ मौजूद भीड़ का एक बड़ा हिस्सा तुरंत > ग़ायब हो गया होता. > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From siyahi.jaipur at gmail.com Thu Apr 28 17:08:38 2011 From: siyahi.jaipur at gmail.com (Siyahi) Date: Thu, 28 Apr 2011 11:38:38 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Charles Dickens: The continuing story.....May 2nd at the Habitat Centre Message-ID: Your email client cannot read this email. To view it online, please go here: http://email.vcampaigner.com/display.php?M=273458&C=c676c89d3e08e2a82ba2bde5290bb9d1&S=88&L=67&N=48 To stop receiving these emails:http://email.vcampaigner.com/unsubscribe.php?M=273458&C=c676c89d3e08e2a82ba2bde5290bb9d1&L=67&N=88 Powered by vCampaigner Powered by vCampaigner -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: