From rohitprakash2006 at gmail.com Wed Sep 1 10:09:32 2010 From: rohitprakash2006 at gmail.com (Rohit Prakash) Date: Wed, 1 Sep 2010 10:09:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= aamantran Message-ID: दोस्‍तो, पिछले दिनों हमारे प्रिय जन कवि गिर्दा नहीं रहे। गिरीश तिवाड़ी गिर्दा के जाने से जो जगह सांस्‍कृतिक-राजनीतिक जगत में खाली हुई है, उसे भरना अब मुमकिन नहीं। हम में से सभी के पास गिर्दा की अलग-अलग यादें और संस्‍मरण हैं। इनके बारे में बात करना ही गिर्दा को असली श्रद्धांजलि होगी। इसीलिए हम जन संस्कृति मंच की तरफ से गिर्दा को याद करते हुए एक बैठक बुला रहे हैं। गिर्दा की याद में होने वाली इस बैठक में उत्‍तराखंड से गिर्दा के कुछ पुराने साथी भी आएंगे। दिल्‍ली के उनके कुछ पुराने मित्र भी होंगे और वे युवा भी, जिन्‍होंने आखिरी क्षणों में गिर्दा को सुनने का सुख प्राप्‍त किया है। जगह है गांधी शांति प्रतिष्‍ठान और दिन है 4 सितंबर, शनिवार शाम 5 बजे कुछ महत्‍वपूर्ण वक्‍ताओं में प्रो. शेखर पाठक, चंडी प्रसाद भट्ट, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्‍ट, आनंद स्वरुप वर्मा आदि होंगे। इसके अलावा उनकी कुछ कविताओं का पाठ और कुछ गीतों की प्रस्तुति भी होगी। उत्तराखंड की लोक कला पर बनी एक लघु फिल्‍म का भी प्रदर्शन किया जाएगा, जिसमे गिर्दा सूत्रधार की भूमिका में हैं। साथ ही गिर्दा के अवसान के बाद उन पर निर्मित एक ऑडियो-विजुअल कोलाज की भी प्रस्तुति होगी। हमें उम्‍मीद है कि आप इस कार्यक्रम में जरूर आएंगे। -- Rohit Prakash, Delhi Mob:-9868023074 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Thu Sep 2 00:00:12 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Thu, 2 Sep 2010 00:00:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCktuCkrOCljeCkpi3gpJXgpYvgpLcg4KSv4KS+IEZpcmVm?= =?utf-8?b?b3ggYWRkIC1vbiDgpKHgpL7gpIngpKjgpLLgpYvgpKE=?= Message-ID: साथियों, कोई ऐसा शब्द-कोष या Firefox add -on डाउनलोड की जानकारी है तो बताने की कृपा करें जिससे अंग्रेजी बोलने वाले को हिन्दी सीखने-समझने में मदद मिल सके . धन्यवाद प्रकाश http://bargad.wordpress.com/ http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rohitprakash2006 at gmail.com Thu Sep 2 10:25:57 2010 From: rohitprakash2006 at gmail.com (Rohit Prakash) Date: Thu, 2 Sep 2010 10:25:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= girda ki yaad me aayojan Message-ID: पुराने निमंत्रण में आयोजन स्थल गाँधी शांति प्रतिष्ठान था, जो बदल गया है. अब कार्यक्रम राजेंद्र भवन में होगा. दोस्‍तो, पिछले दिनों हमारे प्रिय जन कवि गिर्दा नहीं रहे। गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के जाने से जो जगह सांस्‍कृतिक-राजनीतिक जगत में खाली हुई है, उसे भरना अब मुमकिन नहीं। हम में से सभी के पास गिर्दा की अलग-अलग यादें और संस्‍मरण हैं। इनके बारे में बात करना ही गिर्दा को असली श्रद्धांजलि होगी। इसीलिए हम जन संस्कृति मंच की तरफ से गिर्दा को याद करते हुए एक बैठक बुला रहे हैं। गिर्दा की याद में होने वाली इस बैठक में उत्‍तराखंड से गिर्दा के कुछ पुराने साथी भी आएंगे। दिल्‍ली के उनके कुछ पुराने मित्र भी होंगे और वे युवा भी, जिन्‍होंने आखिरी क्षणों में गिर्दा को सुनने का सुख प्राप्‍त किया है। जगह है सेमीनार हॉल, दूसरा तल, राजेंद्र भवन, दीनदयाल उपाध्‍याय मार्ग, दिल्‍ली और दिन है 4 सितंबर, शनिवार शाम 5 बजे कुछ महत्‍वपूर्ण वक्‍ताओं में प्रो. शेखर पाठक, चंडी प्रसाद भट्ट, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्‍ट, आनंद स्वरुप वर्मा आदि होंगे। इसके अलावा उनकी कुछ कविताओं का पाठ और कुछ गीतों की प्रस्तुति भी होगी। उत्तराखंड की लोक कला पर बनी एक लघु फिल्‍म का भी प्रदर्शन किया जाएगा, जिसमे गिर्दा सूत्रधार की भूमिका में हैं। साथ ही गिर्दा के अवसान के बाद उन पर निर्मित एक ऑडियो-विजुअल कोलाज की भी प्रस्तुति होगी। हमें उम्‍मीद है कि आप इस कार्यक्रम में जरूर आएंगे। -- Rohit Prakash, Delhi Mob:-9868023074 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rajeshkajha at yahoo.com Thu Sep 2 11:42:58 2010 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 1 Sep 2010 23:12:58 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KS+4KSv?= =?utf-8?b?4KSw4KSr4KS84KWJ4KSV4KWN4KS4IOCkruCliOCkpeCkv+CksuClgCDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkpOCliOCkr+CkvuCksCDgpLngpYguLi4=?= Message-ID: <182040.46852.qm@web52903.mail.re2.yahoo.com> फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली में तैयार है... जाना-माना लोकप्रिय वेब ब्राउज़र फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली में तैयार है. हमलोगों कुछ वर्ष पहले मैथिली में पूरा का पूरा कंप्यूटर तैयार करने की आकांक्षा पाली थी और खुशी है कि हम इसे पूरा कर पा रहे हैं. इसका उपयोग कीजिए और बताइए कि कहाँ-कहाँ हम इसे सुधार सकते हैं. हम पहले ही फेडोरा, गनोम, केडीई जैसे मुक्त स्रोत सॉफ़टवेयरों को मैथिली में ला चुके है. फ़ायरफ़ॉक्स लोकप्रिय है. उम्मीद है कि मैथिली जानने वाले लोग हमें अपने सुझावों के रूप में योगदान देंगे. डाउनलोड करें — फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली - विंडोज़ मशीन के लिए फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली - लिनक्स मशीन के लिए फ़ायरफ़ॉक्स मैथिली - मैक मशीन के लिए अगर आप संस्थापित नहीं करना चाहते हैं तो उदाहरण के लिए आप विंडोज वाली लिंक डाउनलोड करें और अपने पहले के खुले फ़ायरफ़ॉक्स बंद कर अनजिप करके फ़ायरफ़ॉक्स चलाएँ. अधिक विकल्पों के लिए लोकेल नाम mai खोज कर  यहाँ से डाउनलोड करें. आपके सुझाव की प्रतीक्षा में — मैथिली कंप्यूटरीकरण टीम regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah http://kramashah.blogspot.com/2010/09/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Sep 2 17:08:51 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 2 Sep 2010 17:08:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkteCkv+CktuCljeCkteCkteCkv+CkpuCljeCkr+Ckvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KSvIOCkm+CkvuCkpOCljeCksOCkuOCkguCkmCDgpJrgpYHgpKg=?= =?utf-8?b?4KS+4KS1?= Message-ID: यह अजीब बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ अपने ही परिसर में लगातार महत्वहीन होता जा रहा है। छात्रसंघ के प्रतिनिधि उसे सार्थक बनाए रखने का कोई रचनात्मक प्रयास नहीं कर पा रहे हैं। विश्वविद्यालय कैंपस में इन दिनों घूमते हुए सहज की यह महसूस होता है। ऐसे में जो छात्रसंघ अपने ही समुदाय का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहा हो उससे यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि वह पूरे देश के छात्रों को मंच देने का कोई प्रयास करेगा। अब तक के डुसू अध्यक्ष *वर्ष - अध्यक्ष - सचिव* 1954-55 गजराज बहादुर नागर, ----- 1955-56 प्रेम सबरवाल, एचडी तुलसीदास 1956-57 यदुकुल भूषण , अशोक कुमार तनवर 1957-58 कृष्णानंद शर्मा , अदिश जैन 1958-59 नरेंद्र मेहता कलश कपूर 1959-60 राम लुभाया सरवीना, अश्वनी सेठ 1960-61 विदेश प्रताप चौधरी, मदन सलूजा 1961-62 मदन लाल सलूजा , श्याम सुंदर भाटिया 1962-63 जोगिंदर संत सेट्ठी, यश लाल शर्मा 1963-64 नरेंद्र नाथ कालिया , सुरेंद्र सेट्ठी 1964-65 सुरेंद्र सेट्ठी , राजवंसल जैन 1965-66 अशोक मारवाह, मनमोहन सिंह जुनेजा 1966-67 सुभाष गोयल, प्रदीप सेठ 1967-68 हरचरण सिंह जोश, विनय सेठ 1968-69 अजित सिंह चड्ढा, रमेश वर्मा 1969-70 सुभाष सोनी , .... 1970-71 सुभाष चोपड़ा , भगवान सिंह 1971-72 भगवान सिंह, रावत कुमार 1972-73 श्रीराम खन्ना , शेर सिंह डागर 1973-74 अशोक कुमार , अटल भाटिया 1974-75 अरुण जेटली , हेमंत विश्नोई 1975-76 आपात काल--------------------------- 1976-77 आपात काल ------------------------------- 1977-78 विजय गोयल, रजत शर्मा 1978-79 हरिशंकर, विजय जॉली 1979-80 राजेश ओबरॉय, पिंकी आनंद 1980-81 विजय जॉली , सुशील कुमार 1981-82 सुधांशु मित्तल, अजित पांडे 1982-83 योगेश शर्मा , आर पी सिंह 1983-84 आर सोनी, नरेश शर्मा 1984-85 बलराम यादव, सतपाल 1985-86 अजय माकन, राजेश गर्ग 1986-87 मदन सिंह बिष्ट, नरेंद्र टंडन 1987-88 नरेंद्र टंडन , अंजु सचदेवा 1988-89 आशीष , हरिओम 1989-90 अंजु सचदेवा, कमल कांत सचदेवा 1990-91 मंडल आंदोल------------------------------ 1991-92 राजीव गोस्वामी (निर्दलीय) सोनिया सेठ 1992-93 अवधेश शर्मा , मोनिका कक्कर 1993-94 मोनिका कक्कर, शालू मलिक 1994-95 शालू मलिक , वंदना मिश्रा 1995-96 अलका लांबा , रेखा जिंदल 1996-97 रेखा जिंदल , सुरेंद्र गोयल 1997-98 अनिल झा , सुनीता नारंग 1998-99 जयवीर राणा , रीतू वर्मा 1999-00 रीतू वर्मा , नीतू वर्मा 2000-01 अमित मलिक , तरुण कुमार 2001-02 नीतू वर्मा , विकास सोकीन 2002-03 नकुल भारद्वाज , दीप्ति रावत 2003-04 रोहित चौधरी , रागिनी नायक 2004-05 नरेंद्र टोकस , अमृता धवन 2005-06 रागिनी नायक , रमित सहरावत 2006-07 अमृता धवन , ..... 2007-08 अमृता बाहरी , मनीष चौधरी 2008-09 नुपूर शर्मा , अमित चौधरी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Sep 3 21:44:11 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 3 Sep 2010 21:44:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSh4KWJIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KS24KWA4KS3IOCkqOCkguCkpuClgCDgpJXgpL4g4KS14KWLIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSWIOCkquClneClhyDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCkr+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSBIOCkleCljeCksuCkv+CklSDgpJXgpLDgpYfgpIIgOg==?= Message-ID: आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात में मुकदमा, दिल्ली हाईकोर्ट में नंदी की याचिका खारिज मित्रो, यही वह लेख है जिसके आधार पर गुजरात सरकार ने एक एनजीओ के माध्यम से विश्वविख्यात समाज मनोवैज्ञानिक लेखक आशीष नंदी के खिलाफ़ धारा 153 (ए) और 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर किया है. डॉ नंदी पर सांप्रदायिक वैमनष्य फैलाने और राज्य की ग़लत छवि पेश करने जैसे आरोप लगाए गए हैं. हालांकि सुप्रीम कोर्ट उनकी गिरफ्तारी पर पहले ही रोक लगा चुका है लेकिन पिछले 1 सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार द्वारा मुकदमा चालने के खिलाफ़ दायर डॉ आशीष नंदी की याचिका को खारिज कर दिया. यह लेख 8 जनवरी 2010 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. याद रहे दिसंबर 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद डॉ नंदी ने यह लेख लिखा था जिसमें नरेन्द्र मोदी फिर से चुनाव जीतकर गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे. मेरा मानना है कि आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात सरकार द्वारा की गई यह कार्रवाई गुजरात दंगे का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने का एक घृणित कृत्य है. जिस लेखक ने अपनी ज़िन्दगी के 73 साल समाज को जोड़ने के लिए न्यौछावर कर दिया हो उनके खिलाफ़ इस तरह का मुकदमा दर्ज करना क़ानून का दुरुपयोग करना है. गुजरात सरकार की यह कार्रवाई यदि लेखकों-कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मुंह चुप कराने की हिमाकत है तो क्या इसके खिलाफ़ मुहिम नहीं चलाई जानी चाहिए? -शशिकांत* डॉ आशीष नंदी का वो लेख पढ़े के लिए यहाँ क्लिक करें : http://shashikanthindi.blogspot.com/2010/09/blog-post_03.html* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Sep 3 22:28:34 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 3 Sep 2010 22:28:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWA4KS3?= =?utf-8?b?IOCkqOCkguCkpuClgCDgpJXgpYcg4KSW4KS/4KSy4KS+4KSr4KS8IA==?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSc4KSw4KS+4KSkIOCkuOCksOCkleCkvuCksC4g4KSo4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleCkviDgpLXgpYsg4KSy4KWH4KSWIOCkquCkouCkvA==?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSV4KWN4KSy4KS/4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWH4KSCIDo=?= Message-ID: आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात में मुकदमा, दिल्ली हाईकोर्ट में नंदी की याचिका खारिज मित्रो, यही वह लेख है जिसके आधार पर गुजरात सरकार ने एक एनजीओ के माध्यम से विश्वविख्यात समाज मनोवैज्ञानिक लेखक आशीष नंदी के खिलाफ़ धारा 153 (ए) और 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर किया है. डॉ नंदी पर सांप्रदायिक वैमनष्य फैलाने और राज्य की ग़लत छवि पेश करने जैसे आरोप लगाए गए हैं. हालांकि सुप्रीम कोर्ट उनकी गिरफ्तारी पर पहले ही रोक लगा चुका है लेकिन पिछले 1 सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार द्वारा मुकदमा चालने के खिलाफ़ दायर डॉ आशीष नंदी की याचिका को खारिज कर दिया. यह लेख 8 जनवरी 2008 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. याद रहे दिसंबर 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद डॉ नंदी ने यह लेख लिखा था जिसमें नरेन्द्र मोदी फिर से चुनाव जीतकर गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे. मेरा मानना है कि आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात सरकार द्वारा की गई यह कार्रवाई गुजरात दंगे का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने का एक घृणित कृत्य है. जिस लेखक ने अपनी ज़िन्दगी के 73 साल समाज को जोड़ने के लिए न्यौछावर कर दिया हो उनके खिलाफ़ इस तरह का मुकदमा दर्ज करना क़ानून का दुरुपयोग करना है. गुजरात सरकार की यह कार्रवाई यदि लेखकों-कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मुंह चुप कराने की हिमाकत है तो क्या इसके खिलाफ़ मुहिम नहीं चलाई जानी चाहिए? -शशिकांत* डॉ आशीष नंदी का वो लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें : http://shashikanthindi.blogspot.com/2010/09/blog-post_03.html* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From guru.abhishek at gmail.com Sat Sep 4 01:06:35 2010 From: guru.abhishek at gmail.com (Abhishek Srivastava) Date: Sat, 4 Sep 2010 01:06:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWA4KS3?= =?utf-8?b?IOCkqOCkguCkpuClgCDgpJXgpYcg4KSW4KS/4KSy4KS+4KSr4KS8IA==?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSc4KSw4KS+4KSkIOCkuOCksOCkleCkvuCksC4g4KSo4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleCkviDgpLXgpYsg4KSy4KWH4KSWIOCkquCkouCkvA==?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSV4KWN4KSy4KS/4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWH4KSCIDo=?= In-Reply-To: References: Message-ID: इस लेख का अनुवाद कर दीजिए सर तो ज्‍यादा लोगों तक बात पहुंचेगी... 2010/9/3 shashi kant > आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात में मुकदमा, दिल्ली हाईकोर्ट में नंदी की > याचिका खारिज > > मित्रो, > यही वह लेख है जिसके आधार पर गुजरात सरकार ने एक एनजीओ के माध्यम से > विश्वविख्यात समाज मनोवैज्ञानिक लेखक आशीष नंदी के खिलाफ़ धारा 153 (ए) और 153 > (बी) के तहत मुकदमा दायर किया है. > > डॉ नंदी पर सांप्रदायिक वैमनष्य फैलाने और राज्य की ग़लत छवि पेश करने जैसे > आरोप लगाए गए हैं. > > हालांकि सुप्रीम कोर्ट उनकी गिरफ्तारी पर पहले ही रोक लगा चुका है लेकिन > पिछले 1 सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार द्वारा मुकदमा चालने > के खिलाफ़ दायर डॉ आशीष नंदी की याचिका को खारिज कर दिया. > > यह लेख 8 जनवरी 2008 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ > था. याद रहे दिसंबर 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद डॉ नंदी > ने यह लेख लिखा था जिसमें नरेन्द्र मोदी फिर से चुनाव जीतकर गुजरात के > मुख्यमंत्री बने थे. > > मेरा मानना है कि आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात सरकार द्वारा की गई यह कार्रवाई > गुजरात दंगे का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने का एक घृणित कृत्य > है. > > जिस लेखक ने अपनी ज़िन्दगी के 73 साल समाज को जोड़ने के लिए न्यौछावर कर दिया > हो उनके खिलाफ़ इस तरह का मुकदमा दर्ज करना क़ानून का दुरुपयोग करना है. > > गुजरात सरकार की यह कार्रवाई यदि लेखकों-कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मुंह > चुप कराने की हिमाकत है तो क्या इसके खिलाफ़ मुहिम नहीं चलाई जानी चाहिए? > -शशिकांत* > > डॉ आशीष नंदी का वो लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें : > http://shashikanthindi.blogspot.com/2010/09/blog-post_03.html* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Abhishek Srivastava -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Sep 4 12:31:23 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 4 Sep 2010 12:31:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJXgpIgg4KSo4KSk4KWN4KSl4KS+ICfgpLLgpL4=?= =?utf-8?b?4KSy4KSs4KS54KS+4KSm4KWB4KSwJyDgpLjgpYcg4KSV4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSa4KSy4KS+IOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: आजतक पर टीआरपी की चाबुक लगातार चल रही है और वो पछाड़ खाकर गिर रहा है। जिस टीआरपी के बक्से ने उसे मीडिया इन्डस्ट्री का बेताज बादशाह बनाया,पिछले कुछ हफ्तों से वही उसकी चमड़ी उधेड़कर रख दिया है। पहले से ही लहूलूहान हुए इस चैनल पर इन्डस्ट्री के अनुभवी पत्रकार नागार्जुन(बदलता हुआ नाम) मरहम-पट्टी करने के बजाय उनके जख्मों को और हरा कर दिया। उन तमाम मसलों पर बेबाकी से बात की जिसकी वजह से आजतक की ये हालत हुई है। नागार्जुन की नींबू निचोड़ शैली में अपनी बात रखने के बाद कहने को कुछ रह नहीं जाता लेकिन जो मसला हमें जरुरी लगा उसे मैंने आजमोहल्लालाइव पर शेयर किया। वो कमेंट और पोस्ट की शक्ल में मौजूद है। लिहाजा ये पोस्ट आपसे साझा कर रहा हूं- *डिस्ट्रीब्‍यूशन के सवाल पर* हमें जो जानकारी मिली उसके अनुसार हमसे ही सवाल किया गया – आनेवाले पंद्रह दिन आजतक के साथ ऐसा ही रहेगा, पता है क्यों? मैंने कहा – नहीं, मुझे नहीं पता। विश्‍लेषण के आधार पर जो अटकलें लगा सकता था, उसे मैंने सामने नहीं रखा था। उनका जबाब था – डिस्ट्रीब्यूशन। आजतक ने अपना डिस्ट्रीब्यूशन दिल्ली सहित दूसरे शहरों में कम करके साउथ की तरफ इसे बढ़ाया है और बढ़ाने जा रहे हैं। आनेवाले समय में वो कुछ और चैनल उधर लांच करेंगे। *उनके हिसाब से* आजतक की जो हालत हुई है, वो जान-बूझकर हुई है और आजतक के लोग भी इसे जानते हैं। ये तो बाहर के लोग बेवजह हो-हल्ला मचा रहे हैं। लेकिन किसी के लिए भी ये बात समझ से परे है कि कोई भी चैनल जमी-जमायी रिच को उखाड़कर दूसरी जगह डिस्ट्रीब्यूशन पर ध्यान जमाएगा। टीआरपी की शर्त पर दूसरे नये वेंचर नहीं खड़े किये जा सकते। ये इनहाउस संतोष कर लेने की रणनीति का हिस्सा हो सकता है लेकिन आजतक की गिरती हालत को डिस्ट्रीब्यूशन की बहानेबाजी के तहत नहीं धकेला जा सकता है। हां, ये जरूर है कि अगर आजतक आनेवाले समय में मामूली रिसोर्सेज बढ़ाते हुए (जिसमें ट्रांस्पॉन्डर स्पेस भी शामिल हैं) नये वेंचर खड़ा करने की कोशिश करता है, तो परेशानी हो सकती है। *इसी क्रम में* जो एक सवाल जो कि संभव है, थोड़ा सब्जेक्टिव हो वो ये कि अब आजतक के लोगों के बीच काम करने का उत्साह पहले जैसा नहीं रह गया है। उन्हें अब महसूस नहीं होता कि वो देश के सबसे बेहतर चैनल, सबसे तेज चैनल और नियम-कायदे से चलनेवाले चैनल में काम कर रहे हैं। नंबर वन बनाये रखने का जज्बा उनके भीतर से लगातार मर रहा है, जिसकी एक वजह तो ये कि इसे लीड करनेवाले लोग उन्हें अपने फैसले से जोश में बनाये रखने की स्थिति में नहीं हैं और दूसरी वजह जो कि ज्यादा ठोस हो सकती है – चार साल से कोई इनक्रीमेंट नहीं। इस साल एप्रेजल मिलेगा, अबकी बार तो पक्का, फिर आर्थिक मंदी का हवाला, फिर उबरने की कोशिशों के बीच चार साल तक लोगों ने बर्दाश्त किया। अब कोई जेनुइन वजह नहीं रह गयी और लोगों के बीच गहरा असंतोष है। *जेनुइन वजह तो* तब भी नहीं थी जब विश्व आर्थिक मंदी का दौर चल रहा था। केपीएमजी की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें, तो बाकी सेक्टर के मुकाबले इस सेक्टर पर कम असर हुआ। अगर आप टीवीटुडे नेटवर्क की बैलेंस सीट से मिलान करें तो संभव है कुछ वैसे ही नतीजे सामने आएंगे कि हाउस को कोई नुकसान नहीं हुआ। हां अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी दौरान संस्थान ने नये वेंचर खड़ा करने और उसे विस्तार देने के फैसले लिये, इनवेस्ट किया। इसका मतलब कोई चाहे तो आसानी से निकाल सकता है कि जो पैसे वहां के लोगों के इनक्रीमेंट के खाते में जाने चाहिए थे, उसे वेंचर को विस्तार देने के काम में लगाया गया। ये तस्वीर अमिताभ के सिनेमा में मिल मजदूरों की दिखायी गयी हालत से कुछ अलग नहीं है। आर्थिक स्तर पर पूंजीवाद से कार्पोरेट में घुस आया हमारा विकास भले ही ज्यादा चमकीला दिखाई देता हो लेकिन शोषण का असर पूंजीवाद से कम बदतर नहीं है। *अब स्थिति ये है* कि मीडिया इंडस्ट्री के भीतर का जो माहौल है, उसमें कोई भी सेफ जोन में नहीं है। वीओआई जैसे टाइटेनिक जहाज के डूबने, पीटर मुखर्जी के आइनेक्स को जहांगीर पोचा जैसे शख्स के हाथों बेचने, न्यूज24 के लड़खड़ाने जैसे मामलों के बीच लोगों को ये समझ आने लगा है कि महज पूंजी के बल पर मीडिया का धंधा करना आसान काम नहीं है। इस बीच बड़े-बड़े नामों के धुर्रे उड़ गये। जो कभी ऑडिएंस के दिलों पर राज करते रहे, कलेजे पर सवार रहे, उनका आज कोई नामलेवा नहीं है। किसी बड़े बाबा का हाथ थामकर आंख मूंदकर दूसरे चैनल में कूदने से क्या हश्र होता है, ये लोग पंडिजी के साथ जाकर लोग झेल चुके हैं और उसके शिकार अभी भी लोग भटक रहे हैं। कुल मिलाकर इंडस्ट्री के भीतर स्थिति इतनी आसान नहीं है कि कोई कहीं भी छोड़कर आसानी से चला जाए और वो भी आजतक से… तो सवाल है कि आदमी करे तो क्या करे? चार साल से जो जहां जिस पगार पर काम कर रहा है, कर रहा है। इन तीन-चार सालों में एक बड़ा मिथक टूटा है कि मीडिया इंडस्ट्री में अथाह पैसा है। ये बात कम से कम निचले और बीच के स्तर के लोगों पर तो अब लागू नहीं ही होती। *आजतक शुरू से* दूरदर्शी चैनल रहा है। उसे इस बात का शुरू से आभास रहा है कि आनेवाले समय में टीमें टूट सकती हैं, लोग बिखर सकते हैं इसलिए जानकारी ही बचाव की तर्ज पर उसने अपनी नर्सरी में ही आजतक के मीडियाकर्मियों की पौध तैयार करनी शुरू की। टीवीटीएमआइ के जरिए हर साल 25-30 ऐसे मीडियाकर्मी तैयार किये जाते रहे हैं जो कि इंट्री के पहले दिन से ही टीआरपी के बताशे बनाने के बीच सांस लेना शुरू कर देते हैं। ये कितने काबिल मीडियाकर्मी हैं और होंगे (चार साल में हमने यहां से निकले एक का भी नाम नहीं सुना), इस बहस में न भी जाएं तो भी टीआरपी का खेल भंडुल न हो, इसकी तैयारी चैनल ने पहले से कर रखी है। यहां आनेवाला शख्स इस बात से खुश होता है कि करीब डेढ़ लाख देकर वो देश के सबसे तेज चैनल का मीडियाकर्मी बन ही जाएगा। असल जिंदगी में वो सबसे लद्धड़ भी रहा, तो फर्क नहीं पड़ता। जिस कॉनफ‍िडेंस के साथ वो ट्रेनी के कार्ड से चैनल का दरवाजा खोलता है, अच्छे से अच्छा पुराना मीडियाकर्मी उसके आगे मद्धिम पड़ जाए। वैसे भी जहां दूसरे संस्थान इससे कहीं अधिक पैसे लेकर इंटर्नशिप तक की गारंटी नहीं देते, उस लिहाज से तो ये इंस्‍टीट्यूट अच्छा ही है न। *लेकिन, यहां से पासआउट* लोगों की हालत तो ऊपर के कसमसा रहे मीडियाकर्मियों से भी बदतर है। आये दिन खुलनेवाले नये चैनलों के झांसे में ही आकर सही, वो आजतक के नाम पर दूसरे चैनलों के बड़े पद पर फिर भी जा सकते हैं, चैनल लांच करानेवाली टीम का सेहरा अपने ऊपर बांध सकते हैं लेकिन इस संस्थान के लोग तीन साल से पहले कहीं नहीं जा सकते। इन्हें जो रकम इस दौरान दी जाती है और जिस कॉन्ट्रेक्ट पेपर पर साइन कराये जाते हैं, वो पीपली लाइव के सीन की याद दिलाता है। नत्था को लालबहादुर दिया जाता है। लालबहादुर यानी हरे रंग का एक चापानल। जो रंग नत्था के चेहरे पर हरियाली बिखेरने के बजाय चिंता बिखेरता है। पेपर पर अंगूठा लगाने के बाद वो आत्महत्या भी नहीं कर सकता, अगर करता है तो पैसे नहीं मिलेंगे। तो आजतक के भीतर एक बड़ी तादाद में लालबहादुर पा चुके मीडियाकर्मी काम कर रहे हैं, जिनका टीआरपी के बताशे बनाने में कितनी भूमिका है, नहीं पता – लेकिन उनकी हालत नत्था के करीब है। *इस तरह कहानी बनती है* कि चैनल का बिजनेस, ब्रांडिंग और टीआरपी के लिहाज से जो हाल है, उसके लिए जिम्मेदार अगर मौजूदा टीम है, तो चैनल के लोगों की जो अंदरूनी हालत है, उसके लिए भी कौन जिम्मेदार है, इस पर बहस होनी चाहिए। बाहर से अनुमान लगाने की स्थिति में मेरी कई स्थापनाएं गलत हो सकती हैं, उसे आगे दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन आजतक के कई मिथक अगर टूटते हैं, सरकारी नौकरी की तरह ये निश्चिंत होकर काम करने का मीडिया संस्थान नहीं रह गया है तो इस मिथक के टूटने के तमाम कारणों पर भी विचार करने की जरूरत है। हम अपने सबसे पुराने चैनल को (कभी भी दूरदर्शन का दर्शक नहीं रहा, जिसके हिसाब से हम अपने उम्र की गिनती मिलाते हैं) इस तरह तार-तार होता नहीं देखना नहीं चाहते। इस लिहाज से इस पर बात करना, बहस करना जरूरी लगता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sat Sep 4 15:04:19 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 04 Sep 2010 15:04:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWA4KS3?= =?utf-8?b?IOCkqOCkguCkpuClgCDgpJXgpYcg4KSW4KS/4KSy4KS+4KSr4KS8IOCklw==?= =?utf-8?b?4KWB4KSc4KSw4KS+4KSkIOCkuOCksOCkleCkvuCksC4g4KSo4KSC4KSm4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpLXgpYsg4KSy4KWH4KSWIOCkquCkouCkvOCkqOClhyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpJXgpY3gpLLgpL/gpJUg4KSV4KSw4KWH4KSCIDo=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4C82129B.8090203@sarai.net> शशि कान्त जी, किस समय की बात कर रहे हैं आप? मेरे ख़याल से तो ये मुक़दमा सर्वोच्च न्यायालय से ख़ारिज हो गया है: http://ashisnandysolidarity.blogspot.com/ भास्कर की कड़ी भेजिए तो कुछ पता चले, खोजने पर नहीं मिल रहा है। रविकान्त Abhishek Srivastava wrote: > इस लेख का अनुवाद कर दीजिए सर तो ज्‍यादा लोगों तक बात पहुंचेगी... > > 2010/9/3 shashi kant > > > आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात में मुकदमा, दिल्ली हाईकोर्ट में नंदी की याचिका खारिज > > मित्रो, > यही वह लेख है जिसके आधार पर गुजरात सरकार ने एक एनजीओ के माध्यम से > विश्वविख्यात समाज मनोवैज्ञानिक लेखक आशीष नंदी के खिलाफ़ धारा 153 (ए) और > 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर किया है. > > डॉ नंदी पर सांप्रदायिक वैमनष्य फैलाने और राज्य की ग़लत छवि पेश करने जैसे आरोप > लगाए गए हैं. > > हालांकि सुप्रीम कोर्ट उनकी गिरफ्तारी पर पहले ही रोक लगा चुका है लेकिन पिछले > 1 सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार द्वारा मुकदमा चालने के > खिलाफ़ दायर डॉ आशीष नंदी की याचिका को खारिज कर दिया. > > यह लेख 8 जनवरी 2008 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ > था. याद रहे दिसंबर 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद डॉ नंदी > ने यह लेख लिखा था जिसमें नरेन्द्र मोदी फिर से चुनाव जीतकर गुजरात के मुख्यमंत्री > बने थे. > > मेरा मानना है कि आशीष नंदी के खिलाफ़ गुजरात सरकार द्वारा की गई यह कार्रवाई > गुजरात दंगे का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने का एक घृणित कृत्य है. > > जिस लेखक ने अपनी ज़िन्दगी के 73 साल समाज को जोड़ने के लिए न्यौछावर कर दिया > हो उनके खिलाफ़ इस तरह का मुकदमा दर्ज करना क़ानून का दुरुपयोग करना है. > > गुजरात सरकार की यह कार्रवाई यदि लेखकों-कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मुंह चुप > कराने की हिमाकत है तो क्या इसके खिलाफ़ मुहिम नहीं चलाई जानी चाहिए? > -शशिकांत* > > डॉ आशीष नंदी का वो लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें : > http://shashikanthindi.blogspot.com/2010/09/blog-post_03.html* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > -- > Abhishek Srivastava > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 6 12:50:07 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 6 Sep 2010 12:50:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KS/4KSk?= =?utf-8?b?IOCkieCkpuCljeCkr+CkruCkv+Ckr+Cli+CkgiDgpJXgpL4g4KSs4KSi?= =?utf-8?b?4KS84KSk4KS+IOCkpuCkrOCkpuCkrOCkvg==?= Message-ID: (http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/3926.html) पहले दलित उद्यमी गंगाराम कांबले के राज्य महाराष्ट्र में इन दिनों दलित उद्यमशीलता की नई इबारत लिखी जा रही है। कांबले ज्ञात दलित इतिहास में भारत के पहले दलित उद्यमी के तौर पर नजर आते हैं। वे शाहूजी महाराज के समकालीन थे। आज दलित समाज से निकलकर व्यवसाय में पांव जमाने वाले उद्यमियों की संख्या पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। लेकिन यह गति महाराष्ट्र में थोड़ी तेज है. अब महाराष्ट्र में दलित व्यवसायियों को एक मंच पर लाकर खड़ा करने के लिए दलित इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) जैसा मंच भी तैयार हो चुका है। इस तरह की शुरुआत के लिए ‘डिक्की’ के अध्यक्ष अम्बेदकरवादी मिलिन्द कांबले बधाई के पात्र हैं। वे महाराष्ट्र की निर्माण क्षेत्र की एक कंपनी ‘फॉर्च्यून कन्स्ट्रशन’ के मालिक हैं। उनकी कंपनी का साल का कारोबार 60 करोड़ का है। कांबले सोमवार से शुक्रवार तक डिक्की के लिए समय निकालते ही हैं लेकिन शनिवार और रविवार के पूरे 48 घंटे वे अपनी छोटी सी टीम के साथ डिक्की को समर्पित करते हैं। डिक्की और डिक्की से जुड़े साथियों के श्रम की वजह से आज दलित समाज से जुड़े व्यावसायी अपनी पहचान के साथ सामने आ रहे हैं। डिक्की की अपनी टीम इस वक्त जितनी बड़ी है, उसके शुभ चिन्तकों की टीम उससे कई सौ गुणा बड़ी है। सूर्याटेक सोलर सिस्टम के मालिक मुकुन्द कमलाकर ने अपनी दलित पहचान छुपाने के लिए कभी मुकूुन्द कांबले से अपनी पहचान कमलाकर कर ली थी। आज उनकी कंपनी का साल का दो करोड़ का टर्न ओवर है, इस समय उनके ग्राहकों की लिस्ट में जहीर खान जैसे क्रिकेटर भी शामिल हैं। पूणे के समाज में वे एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के तौर पर जाने जाते हैं। इन सबके साथ आज कमलाकर डिक्की के सदस्य होकर अपने पुराने कांबले पहचान के साथ खड़े हैं। अब उन्हें फर्क नहीं पड़ता की लोग उन्हें कांबले कहें या कमलाकर। महाराष्ट्र में इन युवा दलित उद्यमियों के बढ़ते कदमों की थाप अभी धीमी है, लेकिन उन सभी व्यवसायियों के हौंसले बुलन्द हैं। 300 दलित कारोबारियों से मिलकर बनी डिक्की, जिसका साल का संयुक्त टर्नओवर पांच हजार करोड़ का है। वैसे तो यह पहल अपने शैशवावस्था में है। अभी इस मुहीम के साथ देशभर के दलित उद्यमियों का जुड़ना शेष है। हाल ही में जब डिक्की ने दलित उद्यमियों के लिए एक बड़े ट्रैड फेयर ‘दलित डीप एक्सपो’ का आयोजन पूणे में किया। उस आयोजन को देखने के लिए देश भर से व्यवसायी एकत्रित हुए। इस आयोजन में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए की लागत आई। आयोजकों ने इस बात का विशेष ख्याल रखा कि आयोजन का आर्थिक बोझ ट्रेड फेयर में स्टॉल लगाने वाले छोटे व्यवसायियों पर ना आए। उनके लिए स्टॉल निशुल्क ही उपलब्ध कराया गया। जिन लोगों से शुल्क लिया भी गया, तो वह भी नाम मात्र को ही था। यह आयोजन का जादू ही था, जिसकी वजह से कम विज्ञापन के बावजूद, इसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के लगभग सौ व्यवसायी शामिल हुए। व्यावसायी आयोजकों से मिले और उनसे आग्रह किया कि वे उनके राज्य में भी डिक्की को लेकर आएं। बाबा साहब के सपनों की बात अक्सर सेमिनार, परिसंवादों में होती ही रहती है। यह सारी बहस आरक्षण और दलितों के साथ समाज में हो रहे भेदभाव से शुरू होकर मनुवाद और कर्मकांड को कोसते हुए सिमट कर रह जाती है। अम्बेदकर के उन सपनों पर बात नहीं होती, जिनमें वे भारत के दलितों को धन सम्पन्न देखना चाहते थे। समृद्ध देखना चाहते थे। हमेशा नौकरी लेने वालों की कतार में नहीं, नौकरी देने वालों में देखना चाहते थे। आज वह सपना साकार होता दिख रहा है। आज महाराष्ट्र के राजेन्द्र गायकवाड़ की आठ करोड़ की टर्न ओवर वाली ‘जीटी पेस्ट कंट्रोल कंपनी’ की वजह से छह सौ लोगों को रोजगार मिला है। इसमें बड़ी संख्या सवर्णों की भी है। इतना ही नहीं उनकी कंपनी की कई शाखा भारत में तो है ही, एक शाखा सिंगापुर में भी है और आने वाले दो सालों में वे अपनी को कंपनी को जापान और मलेशिया में लेकर जाने वाले हैं। देवानन्द लोंधे जो सांगली के छोटे से गांव हिंगनगांव में दास्ताने बनाने का काम करते हैं। उनकी कंपनी खासियत यह नहीं है कि वह दास्ताने बनाती है, बल्कि खासियत यह है कि उनकी कंपनी से बने सौ फीसद दास्ताने निर्यात होते हैं। महज दो साल पुरानी कंपनी का साल का कारोबार अस्सी लाख पर पहुंच गया है। वे चाहते तो अधिक उत्पादन वाली मशीने लगाकर अपने कर्मचारियों की संख्या कम कर सकते थे लेकिन उनका मकसद सिर्फ व्यवसाय करना नहीं था। वे अपने गांव में जिनके पास रोजगार नहीं है, उनके लिए रोजगार पैदा करने की इच्छा लेकर अफगानिस्तान से अपने गांव लौटे थे। वे एक संस्था की तरफ से दो साल अफगानिस्तान रहे, उससे पहले लंबा समय उन्होंने चेन्नई के सुनामी पीड़ितों के बीच बिताया था। देवानन्द ने अपनी कंपनी में 150 महिलाओं के लिए रोजगार की व्यवस्था की। महिलाओं को रोजगार देने के पीछे उनकी दूरदर्शिता भी नजर आती है। चूंकि पैसा महिला के हाथ में आएगा तो उससे पूरे परिवार का सही सही विकास होगा। महाराष्ट्र में चीनी माफिया की कहानी देश प्रसिद्ध है। वहां चीनी मिल के कारोबार में नए लोगों के आने के रास्ते में बड़ी बाधाएं हैं। विपरित परिस्थ्तिियों में 20 सालों के लंबे प्रयास के बाद तीन साल पहले स्वप्निल भिंगारदवे महाराष्ट्र के पहले दलित चीनी मिल मालिक बने। उनके कुछ कारोबार पहले से भी चल रहे थे। चीनी मिल उसमें अब जाकर जुड़ा है। उनके सभी कारोबारों का संयुक्त सालाना टर्नओवर 90 करोड़ रुपए का है। उन्होंने 250 लोगों को रोजगार दिया है। डिक्की ईकाई से खड़ी और बड़ी हुई संस्था है, ईकाई, दहाई से सैकड़ा पर पहुंचे डिक्की से जुड़े लोगों का आत्मविश्वास देखकर महसूस होता है कि आने वाले समय में यह सफर हजार, लाख से होता हुआ आगे बढ़ेगा। आज यह सवाल उठना लाजिमी है, देश में फिक्की, एसोचैम, सीआईआई जैसी बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट तरिके से काम करने व्यावसायियों के हितों का ख्याल रखने वाली संस्थाएं पहले से मौजूद हैं। इनकी मौजूदगी में दलितों के लिए क्या है? इनमें दलितों की भागीदारी कितनी है और कहां है? दलित वहां नही ंतो क्या हुआ, दलित डिक्की में हैं। अब इन्हें नजर अंदाज करना आसान नहीं होगा। (http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/3926.html) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 6 12:50:07 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 6 Sep 2010 12:50:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KS/4KSk?= =?utf-8?b?IOCkieCkpuCljeCkr+CkruCkv+Ckr+Cli+CkgiDgpJXgpL4g4KSs4KSi?= =?utf-8?b?4KS84KSk4KS+IOCkpuCkrOCkpuCkrOCkvg==?= Message-ID: (http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/3926.html) पहले दलित उद्यमी गंगाराम कांबले के राज्य महाराष्ट्र में इन दिनों दलित उद्यमशीलता की नई इबारत लिखी जा रही है। कांबले ज्ञात दलित इतिहास में भारत के पहले दलित उद्यमी के तौर पर नजर आते हैं। वे शाहूजी महाराज के समकालीन थे। आज दलित समाज से निकलकर व्यवसाय में पांव जमाने वाले उद्यमियों की संख्या पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। लेकिन यह गति महाराष्ट्र में थोड़ी तेज है. अब महाराष्ट्र में दलित व्यवसायियों को एक मंच पर लाकर खड़ा करने के लिए दलित इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) जैसा मंच भी तैयार हो चुका है। इस तरह की शुरुआत के लिए ‘डिक्की’ के अध्यक्ष अम्बेदकरवादी मिलिन्द कांबले बधाई के पात्र हैं। वे महाराष्ट्र की निर्माण क्षेत्र की एक कंपनी ‘फॉर्च्यून कन्स्ट्रशन’ के मालिक हैं। उनकी कंपनी का साल का कारोबार 60 करोड़ का है। कांबले सोमवार से शुक्रवार तक डिक्की के लिए समय निकालते ही हैं लेकिन शनिवार और रविवार के पूरे 48 घंटे वे अपनी छोटी सी टीम के साथ डिक्की को समर्पित करते हैं। डिक्की और डिक्की से जुड़े साथियों के श्रम की वजह से आज दलित समाज से जुड़े व्यावसायी अपनी पहचान के साथ सामने आ रहे हैं। डिक्की की अपनी टीम इस वक्त जितनी बड़ी है, उसके शुभ चिन्तकों की टीम उससे कई सौ गुणा बड़ी है। सूर्याटेक सोलर सिस्टम के मालिक मुकुन्द कमलाकर ने अपनी दलित पहचान छुपाने के लिए कभी मुकूुन्द कांबले से अपनी पहचान कमलाकर कर ली थी। आज उनकी कंपनी का साल का दो करोड़ का टर्न ओवर है, इस समय उनके ग्राहकों की लिस्ट में जहीर खान जैसे क्रिकेटर भी शामिल हैं। पूणे के समाज में वे एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के तौर पर जाने जाते हैं। इन सबके साथ आज कमलाकर डिक्की के सदस्य होकर अपने पुराने कांबले पहचान के साथ खड़े हैं। अब उन्हें फर्क नहीं पड़ता की लोग उन्हें कांबले कहें या कमलाकर। महाराष्ट्र में इन युवा दलित उद्यमियों के बढ़ते कदमों की थाप अभी धीमी है, लेकिन उन सभी व्यवसायियों के हौंसले बुलन्द हैं। 300 दलित कारोबारियों से मिलकर बनी डिक्की, जिसका साल का संयुक्त टर्नओवर पांच हजार करोड़ का है। वैसे तो यह पहल अपने शैशवावस्था में है। अभी इस मुहीम के साथ देशभर के दलित उद्यमियों का जुड़ना शेष है। हाल ही में जब डिक्की ने दलित उद्यमियों के लिए एक बड़े ट्रैड फेयर ‘दलित डीप एक्सपो’ का आयोजन पूणे में किया। उस आयोजन को देखने के लिए देश भर से व्यवसायी एकत्रित हुए। इस आयोजन में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए की लागत आई। आयोजकों ने इस बात का विशेष ख्याल रखा कि आयोजन का आर्थिक बोझ ट्रेड फेयर में स्टॉल लगाने वाले छोटे व्यवसायियों पर ना आए। उनके लिए स्टॉल निशुल्क ही उपलब्ध कराया गया। जिन लोगों से शुल्क लिया भी गया, तो वह भी नाम मात्र को ही था। यह आयोजन का जादू ही था, जिसकी वजह से कम विज्ञापन के बावजूद, इसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के लगभग सौ व्यवसायी शामिल हुए। व्यावसायी आयोजकों से मिले और उनसे आग्रह किया कि वे उनके राज्य में भी डिक्की को लेकर आएं। बाबा साहब के सपनों की बात अक्सर सेमिनार, परिसंवादों में होती ही रहती है। यह सारी बहस आरक्षण और दलितों के साथ समाज में हो रहे भेदभाव से शुरू होकर मनुवाद और कर्मकांड को कोसते हुए सिमट कर रह जाती है। अम्बेदकर के उन सपनों पर बात नहीं होती, जिनमें वे भारत के दलितों को धन सम्पन्न देखना चाहते थे। समृद्ध देखना चाहते थे। हमेशा नौकरी लेने वालों की कतार में नहीं, नौकरी देने वालों में देखना चाहते थे। आज वह सपना साकार होता दिख रहा है। आज महाराष्ट्र के राजेन्द्र गायकवाड़ की आठ करोड़ की टर्न ओवर वाली ‘जीटी पेस्ट कंट्रोल कंपनी’ की वजह से छह सौ लोगों को रोजगार मिला है। इसमें बड़ी संख्या सवर्णों की भी है। इतना ही नहीं उनकी कंपनी की कई शाखा भारत में तो है ही, एक शाखा सिंगापुर में भी है और आने वाले दो सालों में वे अपनी को कंपनी को जापान और मलेशिया में लेकर जाने वाले हैं। देवानन्द लोंधे जो सांगली के छोटे से गांव हिंगनगांव में दास्ताने बनाने का काम करते हैं। उनकी कंपनी खासियत यह नहीं है कि वह दास्ताने बनाती है, बल्कि खासियत यह है कि उनकी कंपनी से बने सौ फीसद दास्ताने निर्यात होते हैं। महज दो साल पुरानी कंपनी का साल का कारोबार अस्सी लाख पर पहुंच गया है। वे चाहते तो अधिक उत्पादन वाली मशीने लगाकर अपने कर्मचारियों की संख्या कम कर सकते थे लेकिन उनका मकसद सिर्फ व्यवसाय करना नहीं था। वे अपने गांव में जिनके पास रोजगार नहीं है, उनके लिए रोजगार पैदा करने की इच्छा लेकर अफगानिस्तान से अपने गांव लौटे थे। वे एक संस्था की तरफ से दो साल अफगानिस्तान रहे, उससे पहले लंबा समय उन्होंने चेन्नई के सुनामी पीड़ितों के बीच बिताया था। देवानन्द ने अपनी कंपनी में 150 महिलाओं के लिए रोजगार की व्यवस्था की। महिलाओं को रोजगार देने के पीछे उनकी दूरदर्शिता भी नजर आती है। चूंकि पैसा महिला के हाथ में आएगा तो उससे पूरे परिवार का सही सही विकास होगा। महाराष्ट्र में चीनी माफिया की कहानी देश प्रसिद्ध है। वहां चीनी मिल के कारोबार में नए लोगों के आने के रास्ते में बड़ी बाधाएं हैं। विपरित परिस्थ्तिियों में 20 सालों के लंबे प्रयास के बाद तीन साल पहले स्वप्निल भिंगारदवे महाराष्ट्र के पहले दलित चीनी मिल मालिक बने। उनके कुछ कारोबार पहले से भी चल रहे थे। चीनी मिल उसमें अब जाकर जुड़ा है। उनके सभी कारोबारों का संयुक्त सालाना टर्नओवर 90 करोड़ रुपए का है। उन्होंने 250 लोगों को रोजगार दिया है। डिक्की ईकाई से खड़ी और बड़ी हुई संस्था है, ईकाई, दहाई से सैकड़ा पर पहुंचे डिक्की से जुड़े लोगों का आत्मविश्वास देखकर महसूस होता है कि आने वाले समय में यह सफर हजार, लाख से होता हुआ आगे बढ़ेगा। आज यह सवाल उठना लाजिमी है, देश में फिक्की, एसोचैम, सीआईआई जैसी बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट तरिके से काम करने व्यावसायियों के हितों का ख्याल रखने वाली संस्थाएं पहले से मौजूद हैं। इनकी मौजूदगी में दलितों के लिए क्या है? इनमें दलितों की भागीदारी कितनी है और कहां है? दलित वहां नही ंतो क्या हुआ, दलित डिक्की में हैं। अब इन्हें नजर अंदाज करना आसान नहीं होगा। (http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/3926.html) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Sep 7 11:35:17 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 7 Sep 2010 11:35:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KWB4KSF4KSyIOCkuOCljeCkquClh+CkuCDgpKrgpLAg4KSf4KWH4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KS14KS/4KSc4KSoIOCkteCkv+CkruCksOCljeCktg==?= Message-ID: सबलोग पत्रिका ने अगस्त-सितंबर के अंक का बड़ा हिस्सा मीडिया को दिया है जिसमें दर्जन भर से ज्यादा लेख मीडिया के अलग-अलग संदर्भों को लेकर है। आज मीडिया पर लिखने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है लेकिन जो सबसे जरुरी मुद्दा मुझे समझ आता है वो ये कि वर्चुअल स्पेस पर मीडिया को जिस तरीके से देखा-समझा जा रहा है,उस पर बात शुरु की जाए। लिहाजा इसी नीयत से मैंने ये लेख पत्रिका के लिए भेजी। प्रकाशित होने के बाद अब आपके सामने- न्यूज चैनलों पर हमला होते ही टेलीविजन पर बात करने का हमारा नजरिया एकदम से बदल जाता है। हम सालभर तक जिन चैनलों की आलोचना सरोकारों से कटकर भूत-प्रेत, पाखंड, सांप-सपेरे और मनोरंजन चैनलों की फुटेज काटकर घंटों चलाते रहने के कारण करते हैं, उन्हीं चैनलों पर जब कभी भी हमले होते हैं, हम एकदम से उनके साथ खड़े हो लेते हैं। चैनलों की ओर से अपने उपर हुए हमले को लेकर जो भी खबरें और पैकेज दिखाये-बताये जाते हैं, उसे लेकर हमारे बीच कई स्तरों पर असहमति होती हैं। वे जो इसे सीधे तौर पर लोकतंत्र पर हमला,कुचलने की कोशिश बताते हैं, हम इसे जनमाध्यमों के बीच पनप रहा पाखंड मानते हैं। लेकिन यहां हम माध्यमों के चारित्रिक विश्लेषण में फंसने के बजाय सीधे तौर पर चैनल का समर्थन करते हैं। इससे अलग प्रिंट माध्यमों में मीडिया पर हमले को लेकर बहुत ही कम देखने-पढ़ने को मिल पाता है। मेनस्ट्रीम मीडिया से अलग वर्चुअल स्पेस पर मीडिया और टेलीविजन को लेकर अपनी बात रखनेवाले हम जैसे लोगों की कोशिश होती है कि हमले की बात जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। हम इस बात पर यकीन रखते हैं कि हमारा काम गहरे विश्लेषण से पहले वर्चुअल स्पेस पर हिन्दी और मीडिया के ज्यादा से ज्यादा पन्नों और लिंक पैदा करना है जिससे कि तमाम दूसरे माध्यमों से जुड़े लोग सर्च इंजन में चैनल के नाम के साथ अटैक या हमला लिखें तो उन्हें कई लिंक मिलने लग जाएं। 16 जुलाई शाम के करीब पांच बजे आरएसएस के हजारों कार्यकर्ताओं ने आजतक न्यूज चैनल के दिल्ली ऑफिस करोलबाग पर हमला कर दिया,वहां जमकर तोड़-फोड़ मचायी और कॉफी हाउस को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया। तब इंटरनेट पर हमले को लेकर कोई खबर नहीं थी। चैनल की ऑफिशियल साइट पर चार-पांच लाइनों से ज्यादा कुछ नहीं। हम बज्ज, फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर लगातार सक्रिय हो जाते हैं। इस खबर को लेकर कई लिंक पैदा करना चाहते हैं। ऐसा करते हुए हमें सबसे ज्यादा जरुरी लगता है कि हमले की वीडियो फुटेज दुनियाभर के लोगों के बीच जानी चाहिए और तब टेलीविजन से रिकार्ड करके एक-एक फुटेज यूट्यूब पर अपलोड करते चले जाते हैं। दो घंटे के भीतर यूट्यूब की इस लिंक पर साठ से ज्यादा विजिट होते हैं। उस समय से लेकर सुबह तक ब्लॉग पर दर्जनों कमेंट आ जाते हैं और ब्लॉग पर लिखी पोस्ट दूसरी साइटों पर साभार के साथ लग जाती है। बाकी जगहों पर भी रिस्पांस मिलने शुरु हो जाते हैं और इस तरह “तात्कालिक पक्षधरता” का यह काम,चैनल की संस्कृति और उसके भीतर लोकतंत्र के चरित्र के विश्लेषण से बहुत पहले हो चुका होता है। हम हमले का विरोध करते हुए किसी न किसी रुप में न केवल चैनल के पक्ष में माहौल बनाने का काम करने लग जाते हैं, बल्कि जो काम चैनल के लोग मोटी तनख्वाह लेकर करते हैं,उसे हम अपने-अपने घुप्प अंधेरे कमरों में बैठकर करते हैं। यह बिल्कुल ही नए किस्म का टेलीविजन विमर्श है जिसकी आलोचना करते हुए भी उसका विस्तार देने का काम हजारों वेब लेखक लगातार कर रहे हैं। दूसरी तरफ प्रिंट माध्यमों में टेलीविजन पर जो कुछ भी लिखा जाता है उनमें से अधिकांश को पढ़ते हुए साफ तौर पर लगता है कि यह गैरजरुरी माध्यम है, भ्रष्ट है और इस पर लिखा ही इसलिए जा रहा है कि लिख-लिखकर इसे नेस्तनाबूद् कर देना है। इस नजरिए के साथ टेलीविजन और मीडिया पर लिखने का ही नतीजा है कि कार्यक्रमों की प्रकृति,दिखाए जाने के तरीके और तेजी से बदलती तकनीक और विस्तार के वाबजूद विश्लेषण के तरीके में बहुत फर्क नहीं आया है। पूरे टेलीविजन विश्लेषण में दो तरह की ही सैद्धांतिकी या अवधारणा काम करती है। एक जो कि बिल्बर श्रैम ने विकासशील देशों के लिए माध्यम का काम अनिवार्य रुप से सामाजिक विकास की गति में सहयोग करना है और दूसरा मार्क्सवादी समीक्षा जिसके अनुसार टेलीविजन एक पूंजीवादी माध्यम है इसलिए ये सरोकार और जनपक्षधरता की बात नहीं कर सकता। टेलीविजन को लेकर यह समझ पैदा करने में शुरुआती दौर में अडोर्नों, अल्थूसर,रेमंड विलियम्स,मार्शल मैक्लूहान और जॉन फिस्के जैसे मीडिया और संस्कृति आलोचकों से मदद मिली तो बाद में इलिहू कर्ट्ज,मैनचेस्नी और संस्कृति के मामले में एक हद तक फीदेल कास्त्रों के लेखन के आधार पर सैद्धांतिकियां विकसित की गयी। खासकर हिन्दी में टेलीविजन और मीडिया विश्लेषण की बात करें तो यही आधार के तौर पर स्थापित हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कई सिद्धांत सीधे-सीधे मीडिया से नहीं जुड़ते हैं जबकि मीडिया समीक्षा के दौरान मीडिया,संस्कृति और समाज सबों को एक ही मान लिया जाता है। इन सैद्धांतिकियों का प्रयोग खासतौर पर निजी चैनलों की आलोचना के लिए की जाती है। इसके साथ ही बिल्बर श्रैम ने जो सिद्धांत बताए,जिसका बड़ा हिस्सा यूनेस्को और बाद में प्रसार भारती ने अपनाया,उसके तहत पूरी मीडिया संस्कृति को देखने-समझने का काम किया जाता रहा है। सच्चाई है कि इन सारे सिद्धांतों में पहले के मुकाबले बहुत अधिक विकास हुआ है,इसकी बुनियादी मान्यताओं के नए संस्करण बने हैं। पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग के मामले में तो फिर भी ये विकासवादी सिद्धांत एक हद तक काम में आ सकते हैं लेकिन कॉर्पोरेट मीडिया को इन सिद्धांतों के जरिए विश्लेषित कर पाना असंभव है। हिन्दी में मीडिया विश्लेषण सिद्धांतों के इन पुराने संस्करण से बाहर नहीं निकल पाया है। वर्चुअल स्पेस में खासकर हिन्दी में मीडिया और टेलीविजन को लेकर विमर्श अपने शुरुआती दौर में है। अभी तक जो भी और जितना भी लिखा गया है उस आधार पर किसी भी तरह के बड़े दावे करना बेमानी होगी। हम अभी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि इसने किसी तरह की नई मीडिया सैद्धांतिकियों को गढ़ लिया है और यह भी नई कह सकते है कि यह अब तक की विश्लेषण पद्धतियों को शिकस्त देने की रणनीति बना चुके हैं। लेकिन इतना जरुर है कि वर्चुअल स्पेस पर मीडिया लेखन का जो दौर शुरु हुआ है उसमें विश्लेषण की बारीकियों के चिन्ह साफ तौर पर दिखाई देते हैं। प्रिंट माध्यम का लेखन जहां टेलीविजन के सारे कार्यक्रमों को मिलाकर जहां एक गोल-मोल समझ पैदा करने की प्रक्रिया में होता है वहीं वर्चुअल स्पेस पर एक-एक कार्यक्रम को लेकर विश्लेषण पद्धति खोजने और गढ़ने की प्रक्रिया जारी है। दिलचस्प है कि साहित्य,सिनेमा,कला आदि की दुनिया में किसी एक शख्सियत और उनके काम को लेकर लिखने की लंबी परंपरा रही है लेकिन टेलीविजन विमर्श में यह नदारद है। किसी एक प्रोड्यूसर, कैमरामैन,रिपोर्टर का व्यक्तिगत स्तर पर कोई जिक्र नहीं। रियलिटी शो पर बात करते हुए वही फार्मूले चिपकाए जाते हैं जिसके तहत हम टीवी सीरियलों की बात करते हैं,न्यूज चैनल की प्रकृति मनोरंजन चैनलों की प्रकृति से बिल्कुल अलग होनी चाहिए लेकिन सबकुछ कुछ जार्गन और शब्दों के बीच फंसा हुआ है। इसके साथ ही एक-एक खबर को लेकर चैनलों का क्या रवैया रहा,उसके लिए किस तरह के मोंटाज,सुपर,हेडर लगाए गए,इन सबकी चर्चा बारीकी से होनी चाहिए। वर्चुअल स्पेस में प्रोडक्शन की पूरी प्रक्रिया के बीच में रखकर टेलीविजन और उसके कार्यक्रमों को देखने की कोशिश विश्लेषण की एक नयी समझ पैदा करती है। ऐसा होने से टेलीविजन और मीडिया को लेकर विमर्श का जो दायरा कंटेंट से शुरु होकर कंटेंट पर जाकर ही खत्म हो जाया करते, आलोचना का अर्थ पूरी तरह प्रभावों की चर्चा तक जाकर सिमट जाती है,यहां तकनीक और रिवन्यू के बीच फंसी मीडिया को देखने-समझने की कोशिशें तेजी हुई है। यहां चुनौती इस बात को लेकर नहीं है कि मीडिया की जो सैद्धांतिकियां पहले से स्थापित है,उसके खांचे में रखकर विश्लेषण का काम कैसे किया जाए बल्कि चुनौती इस बात को लेकर है कि मीडिया की कार्य-संस्कृति और उसकी शर्तों को समझते हुए( जिसमें की तकनीक से लेकर अर्थशास्त्र के मसले शामिल हैं) उसके भीतर की संभावनाओं को कैसे बचाया जा सके,विस्तार दिया जा सके। ऐसे में आज यदि हम वर्चुअल स्पेस पर विमर्श के इन तरीकों को मजबूती दे रहे हैं तो यह बहुत हद तक संभव है कि एक बड़ा सवाल पैदा हो कि ऐसा करते हुए भी हम चैनल की जड़ों को मजबूत कर रहे हैं,उनके पक्ष को ही मजबूती दे रहे हैं और इस तरह किसी न किसी तरह से बाजार,पूंजीवाद औऱ कार्पोरेट ताकतों से लैस मीडिया के साथ खड़े हैं। लेकिन इसके साथ ही एक सवाल यह भी है कि प्रिंट माध्यमों की टेलीविजन समीक्षा कितनी व्यावहारिक और विश्वसनीय है? यह सवाल इसलिए भी जरुरी है कि आलोचना का अर्थ किसी विधा को विकसित करते रहना भर नहीं है बल्कि जिस विधा या क्षेत्र को लेकर आलोचना की जा रही है उस पर असर भी पैदा करना है। ऐसे में वर्चुअल स्पेस पर हो रहे टेलीविजन और मीडिया विमर्श के बीच से व्यावहारिक समीक्षा के सूत्र खोजे जा सकते हैं,इस पर भी बात होनी चाहिए -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Sep 7 13:00:26 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 07 Sep 2010 13:00:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KS+IOCkquCkv+CkjyDgpLXgpLkg4KSm4KWH4KS14KSk4KS+LCA=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSV4KS84KWAIOCkheCkuOClgeCksCE=?= Message-ID: <4C85EA12.8070108@sarai.net> http://mishraarvind.blogspot.com/2010/01/blog-post_10.html अरविन्द मिश्र के चिट्ठे क्वचिदन्यतोअपि..........! से साभार। शुक्रिया शब्दचर्चा का भी जिसके ज़रिए वहाँ तक पहुँचा। रविकान्त Sunday, 10 January 2010 सुर असुर का झमेला ,हल्की होती जेब -ब्लागिंग जो भी न कराये .... कडाके की ठण्ड पड़ रही है इधर इस पूर्वांचल में भी .....देवताओं के लिए घर में ही आधुनिक सुरा -ब्रांड, ब्रांडी को कंठस्थ करने के वाजिब बहाने का मौसम है यह ...सुर असुर की पिछली पोस्ट पर अनुराग जी ने हड़का लिया कि कुछ पढ़ वढ कर लिखा करिए -बात लग गयी ....घरेलू बजट के लिए 'ईयरमार्क' रूपयों में से घरनी को बिना बताये चुपके से १ हजार निकाल कर (आगे देखा जायेगा... ) कल पहुँच ही तो गया बनारस की चौक स्थित इंडोलोजी पर मशहूर किताबों की *मोतीलाल बनारसीदास की दूकान *पर -तीन किताबें खरीद ही तो ली ! आर्थर एंटोनी मैकडोनेल की *'अ वैदिक रीडर फार स्टुडेंट्स* '(आक्सफोर्ड प्रकाशन ) ,*डॉ राजबली पाण्डेय की हिन्दू धर्मकोश * (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ) और * डॉ उषा पुरी विद्यावाचस्पति की भारतीय मिथक कोश*. (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली ) ....और इस सप्ताहांत के एकांतवास में जुट गया इन किताबों का अवगाहन करने -खासकर सुर असुर की उत्पत्ति और उनके सुरापान आदि प्रसंगों के प्रामाणिक संदर्भ खोजने ,और जितना पढता गया मामला सुलझने के बजाय उलझता ही गया है. ईरानियों/पारसियों के धर्मग्रन्थ *अवेस्ता *और भारतीय *ऋग्वेद *में बहुत समानता है जिसके आधार पर मैकडोनेल भारत में आये आर्यों का उदगम इरान को मानते है -अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने बहुत सी रोचक बातों का इशारा किया है -उन्होंने राक्षसों के बारे में लिखा है कि उनकी दो कोटियाँ वर्णित हुई हैं -एक देवलोक (आकाशीय ) देवताओं की दुश्मन है तो दूसरी धरती वासियों मतलब मनुष्य की .देवताओं के दुश्मनों को असुर भी कहा गया है . *अवेस्ता* में ये असुर जो *अहुर *(स को ह का संबोधन !) कहे गए हैं अलौकिक प्राणी ( डिवायिन बीइंग ) हैं -स्पष्ट है धरती का न होने के कारण ही ये अलौकिक है .जब हम दैव प्रकोप कहते हैं तो शायद इशारा इन असुरों की ओर भी होता हो .अब जो निचली श्रेणी के असुर हैं उनमें राक्षस ,यातुधान (जातुधान ) और सबसे क्रूरकर्मी पिशाच रहे हैं जो नरमांस खाने वाले हैं -रामयुग के राक्षसों में ऋषि मुनियों के मांस भक्षी यही राक्षस थे जिनका समूल नाश श्री राम ने किया ,ज्ञात हो राम आर्य वंश के प्रतिनिधि हैं . एक लम्बे चले युद्ध में कही भारत भूमि के मूल निवासियों जिन्हें अनार्य ,दस्यु ,दास तक कहा गया है और जो काले थे (आश्चर्य है राम भी सावले हैं ) के समूल नाश का उपक्रम तो नहीं किया गया था ? .*ये तथ्य जितना तो समाधान नहीं देते उससे कहीं अधिक प्रश्न उठा देते हैं *..बहरहाल यह चर्चा फिर कभी .... . बात सुरापान की चल रही थी .इस पर डॉ. राजबली पाण्डेय ने भी रामायण से ही एक श्लोक का उद्धरण दिया है - *सुराप्रति ग्रहाद देवाः सुरा इत्यभि विश्रुताः * *अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा स्मृताः* अर्थात सुरा =मादक तत्वों का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये ,किन्तु ऐसा न करने से दैतेय लोग असुर कहलाये . यहाँ भी देखिये - *असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादिते : सुताः हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन वारूणीग्रहणात सुराः * सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य " असुर " कहलाये और सुरा सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों को सुर संज्ञा मिली वारूणी (सुरा की देवी ) को ग्रहण करने से देवता हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमय हो गए बालकाण्ड पञ्चचत्वारिन्शः ...सर्गः ,श्लोक ३८ , गीता प्रेस देवों के शत्रु होने के कारण असुरों को दुष्ट दैत्य कहा गया मगर सामान्यतः वे दुष्ट नहीं थे .वे विद्याधरों की कोटि में भी आते थे -परम विद्वान् शुक्राचार्य उनके गुरु थे जो विद्वता में देवताओं के गुरु बृहस्पति से किसी भी तरह कमतर नहीं थे. भगवान् कृष्ण ने गीता में खुद को *कविनाम उसना कविः* कहा है -यानि कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ ,बृहस्पति नहीं! हाँ असुर रहस्यमयी पेय *सोम* जो केवल धार्मिक अनुष्ठानों में पिया जाता था और *सुरा* जो अन्न के किण्वन से बनती थी का सेवन नहीं करते थे.कुछ और भले पीते रहे हों .ये पेय केवल सुर यानि देवताओं के लिए ही संरक्षित था . इंद्र तो सोमपान करके इतने ओजस्वी हो जाते थे कि भयानक दैत्यों का संहार कर डालते थे.सबसे भयंकर वृत्रासुर का संहार उन्होंने सोमपान करके ही किया था .मगर आश्चर्य है कि इंद्र अवेस्ता में देव /दैत्य /दानव (demon) रूप में वर्णित है -हमारे यहाँ देवताओं का राजा होकर भी इंद्र को नीच कर्मों में लिप्त दिखलाया गया है -*रामचरित मानस में राम के मुंह से इंद्र को कुत्ता तक कहा गया है *.कृष्ण से तो इनकी तकरार ही हुई है .जाहिर है राम और कृष्ण के धुर विरोधी भी हैं इंद्र . कहीं हमारे ग्रंथों में इंद्र के इस दानवी स्वरुप की प्रच्छाया अवेस्ता से तो नहीं आई है ? अवेस्ता में वर्णित दैत्यतुल्य इंद्र कैसे परवर्ती देश काल ,भारत भूमि में देवताओं के राजा बन बैठे यह एक पहेली से कम नहीं है जिसमें मनुष्य के इतिहास पुराण की कोई लुप्त कड़ी आज भी उत्खनन की बाट जोह रही है ..... From ravikant at sarai.net Fri Sep 10 12:12:53 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 10 Sep 2010 12:12:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KS+4KSv?= =?utf-8?b?LeCkuOClgOCkj+CkuOCkoeClgOCkj+CkuCDgpK7gpYfgpIIg4KSG4KScOiA=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIOCkruClh+CkgiDgpKrgpYHgpLjgpY3gpKTgpJXgpL7gpLI=?= =?utf-8?b?4KSv?= Message-ID: <4C89D36D.6090106@sarai.net> दिल्ली शहरी मंच की ओर से आयोजित गोष्ठी, शाम छह बजे। विषय अनूठा है और उम्मीद है बातचीत दिलचस्प होगी। तफ़सीलात नीचे/ ज़रूर आएँ। रविकान्त * The Delhi Urban Platform invites you to a discussion on Libraries and the City 6 pm, 10th September, 2010 Library, CSDS, 29 Rajpur Road, Delhi-54 * Imagine Paradise, like Jorge Luis Borges did, as some kind of library. And this sprawling Paradise of great big wooden shelves sky high that you have to manoeuvre like a silverfish trapped in bookspines. The Library Space is a realm of imagined realities, the space of lore and learning and shared knowledge, where you can roam free and be what you read. Ideas rippling with magical electricity, surprising you in explosive ways. A physical landscape and simultaneously an imagined one, of the mind but rendered with texture and organisation and meaning. Do such spaces exist in great big cities like Delhi, where the quiet hum of a reading community can come together and access knowledge and gather to think? The library is now the bureaucratised machinery of catalogues and storage space. The lack of public libraries and libraries as public spaces proclaims an absence of a culture of an opening up of the library to the reader,the absence of a librarian who is not merely the taxonomist of dead cellulose, and the absence of books that are not only bought or owned, but savoured in circulation. This Friday, the 10th of September, we invite librarians, publishers, readers and book lovers to to reflect on the role of libraries as a site of public gathering and learning in the city. Join us for an conservation with: Shuddhabrata Sengupta (Media practitioner, filmmaker, writer, and reader) Sikander Changezi (Founder of a community library in Old Delhi) Chiki Sarkar (Editor-in-chief of Random House India) Avinash Jha (Librarian, CSDS) Cordelia Jenkins (Journalist at Mint) Anjana Chatthopadhyay (Director, Delhi Public Library) Sheeba Cchachi ( Installation artist, photographer, activist, and writer) [Shuddhabrata Sengupta as chair] From vineetdu at gmail.com Sun Sep 12 09:22:51 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 12 Sep 2010 09:22:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS4LeCkrOCkueClgSDgpKbgpYfgpJbgpKTgpYAg4KSw4KS5?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkruCkvuCkgizgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSa4KWI4KSo?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KS4IOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: मां रोज के मुकाबले आज कुछ ज्यादा परेशान थी। बातचीत में साफ झलक रहा था कि उसकी दिल्ली में बाढ़ को लेकर चिंता( मुझे लेकर,वैसे सचिवालय,विधान सभा डूब जाए क्या मतलब) बढ़ती जा रही है। पिछले चार-पांच दिनों से वो रोज पूछती- सुन रहे हैं दिल्ली में बाढ़ आ गया है और फिर कुछ सवाल। पहले एक दिन मजाक में कहा भी.हियां( गरमी से परान जा रहा है,भेज दो कुछ पानी इधरे) लेकिन बाद में न्यूज चैनलों ने बाढ़ की खबरों का जो तंबू ताना कि वो मजाक करना भूलकर चिंतिंत होने लग गयी। आज तो हद ही हो गयी। जब उसने चैनल में मयूर विहार का भी नाम सुन लिया। उसे मेरे रहने का इलाका ठीक से पता नहीं था लेकिन हाल ही पता लिखाने के दौरान उसे याद हो आया था। झूठ्ठा- और कोई नहीं मिला तो हमरे से झूठ बोल दिए कि सब ठीक है,हिआं टाटा स्काई पर दिखा रहा है कि जहां तुम रहते हो,हुआं(वहां ) भी बाढ़ आ गया है। तुमको बोले थे उ दिन कि इंडिया टीवी में सब देखा रहा है तो तुम बोले कि दू कौड़ी का चैनल है,मत देखा करो उसको,सब बकवास देखाता है। आज तो स्टार न्यूज भी यही सब देखा रहा है औ उ दाढ़ीवाला भी बोल रहा था कि आ गया है बाढ़। बता रहा था कि सब डूब गया,तब तो खाय-पिए में बड़ी दिक्कत हो जाता होगा बेटा,सर-समान ठीक से रखना। मैंने मजे लेने शुरु कर दिए,मां को हल्का करने के लिए। कहा- कौन दीपक चौरसिया,वही कह रहे थे? अच्छा ये बताओ कि जब सबकुछ डूब गया तो फिर उनको एकदम से टीवी स्क्रीन में हेकड़ी दिखाने के लिए गुटखा कहां से मिल गया,देख नहीं रही थी..कैसे भसर-भसर चिबा रहे थे। मां लगातार बोले जा रही थी..तुम हमको बहलाते हो,जरुर संकट में हो,आवाजे से लग रहा है,माय का करेजा तुम कैसे समझोगे,है तीन-चार साल। समझ में आ जाएगा कि कैसन होता है माय-बाप का बाल-बच्चा के लिए दर्द। दिल्ली में बाढ़ को लेकर मां सहित तीन अलग-अलग शहरों में बसी दीदी से बात होती रही। सबके साथ वही परिहास। दिल्ली का पानी यहां भेज दो,बहुत गर्मी है। लेकिन आज सब थोड़े-थोड़े चिंतिंत। मां जितनी तो नहीं लेकिन मेरी बातों पर पूरी तरह भरोसा भी नहीं नहीं और बेफिक्र भी नहीं। मैंने सबों से यही कहा कि सबसे ज्यादा बाढ़ न्यूज चैनलों पर आया है। अगर मेरा बस चलता तो स्टोरी करता- फिल्म सिटी में हाहाकार,कौन है जिम्मेदार? डूब गया फलां चैनल का न्यूजरुम,छतरी लगाकर कर रहे हैं एंकरिंग। लेकिन क्या करें? सबों की एक ही लाइन,फिर भी- तुम सब बात हंसी में टाल देते हो,ध्यान रखना। आज तो सीरियसली सबने दिखाया है। ये कहानी सिर्फ मेरी और मेरे घर के लोगों की चिंता को लेकर नहीं है। संभव है मेरी तरह अकेले दिल्ली में रहनेवाले लोगों के घर से भी लगातार फोन आ रहे होंगे,घर के लोग परेशान होंगे। वो बिहार-झारखंड,यूपी देश के दूरदराज इलाके में बैठकर न्यूज चैनल्स देख रहे हैं,उन्हें कैसे समझाया जाए कि दिल्ली में बाढ़ से ज्यादा चैनलों में एडीटिंग मशीन की संतानों की कारस्तानी है। वो अपनी पीटूसी पर लट्टू हुए जा रहे होंगे और यहां है कि लाखों-हजारों परिवार के लोगों की जान अटकी हुई होगी। उन्हें इन सबसे क्या मतलब? वो एक टीवी कर्मचारी होने के अलावे किसी का बेटा,किसी के भाई,किसी के पति,किसी के देवर थोड़े ही है? उनके पीछे उन्हें याद करनेवाला,रोनेवाला थोड़े ही है?..और अगर है भी तो देख ही रहे होंगे कि मेरा बेटा कैसे शान से केसरिया रंग का डूबने से बचनेवाला जैकिट पहनकर हीरोगिरी कर रहा है,वोट में बैठकर सैर कर रहा है और जो कुछ भी कविता-कहानी बांच रहा है उसको लाखों लोग आंख गड़ाकर सुन-देख रहे होंगे? इंडिया टीवी की क्या कहें- बाढ़ वाली दिल्ली की दस कहानियां। इस चैनल को दस का अंक लगाने की ऐसी लत लगी है कि लगता है दाती महाराज ने सलाह दी है,हर बात में दस..दस चुलबुल पांडे तक।.हद है।. ऐसी स्थिति में हम और बाकी लोग अपने घर के लोगों को टेलीविजन की उन बारीकियों को नहीं समझा सकते,जहां पर वो निरा चिरकुटई का काम करते हैं। शाम को स्टार न्यूज जिसने कि बाढ़ की खबरों को लेकर सबसे ज्यादा तंबू खड़ा किए हुए है,उसके दर्जनभर संवाददाता इसी काम में लगे हुए हैं कि वो दिल्ली के कुछ इलाकों में घुस आए पानी को कोसी के कहर से भी बड़ा दिखाएं-बताएं-उनकी बेशर्मी चरम पर है। एक संवाददाता प्रफुल्ल पटेल तो भी- मोटर लगी नाव में खड़ा है-चारो तरफ पानी है। जाहिर है ये इलाके के भीतर का पानी नहीं है-वहीं से खड़े होकर चारों तरफ के उन इलाकों को डूबा हुआ बता रहा है जहां कि सड़के सूखी है। वो प्रोपर्टी डीलर की तरह हाथें फैलाता है-ये देखिए,इधर डूबा,वो देखिए सब डूबा।.वो जहां खड़ा है वहां की पूरी चौहद्दी को डूबा करार दे रहा है। जब शहर को डूबा हुआ ही दिखाना है तो लोकेशन वाइज मैंदान में उतरकर बात करो न। तुम पेड़ की तरफ इशारा किए और कह दिया-ये रहा निगम बोधघाट और हम मान लें।.. गदहे हैं क्या? उसी चैनल का संवाददाता वही काम कर रहा है जबकि फुटेज में चैनल की ओबी दिख रही है जिसके टायर तक डूबे नहीं है। लोकेशन को लेकर चैनल जो घपलेबाजी कर रहा है,वो आम ऑडिएंस के बीच आतंक से कम दहशत पैदा नहीं कर रहा। मयूर विहार में पानी,डूब गया।..तो भाई कौन सा इलाका,माचिस की डिबिया है क्या मयूर विहार? प्रोपर्टी के लिए इंच-इंच की मारकाट मची होती है और आप हो कि राउंड फीगर में सब बता रहे हो। हमें ये बात समझ आ रही है कि ये चैनल ऐसा क्यों कर रहा है? आजतक ने कल से जो ऑपरेशन हे राम जिसमें आशाराम बापू से लेकर दाती महाराज,सुधांशु महाराज, महाकाल सब लपेटे में आ गए हैं,उससे चैनल को अच्छी टीआरपी मिलनी लगभग तय है। इधर इंडिया टीवी ने लीग मैच पूरी लाइव दिखायी थी और एंकर ने हिन्दी में कमेंटरी कर दी,ये न्यूज चैनल पर क्रिकेट को पेश करने का नया तरीका था,अब इस चैनल के पास भी अच्छी टीआरपी आनी चाहिए। अब स्टार के पास क्या बचता तो बस खेल गए दिल्ली में बाढ़ और पल-पल की खबर पर। अश्लील तो तब लगा जब संवाददाता ने कहा कि आज दोपहर तक कॉमनवेल्थ के फ्लैट्स जहां बने हैं दोपहर तक पानी नहीं था और जब प्रत्यक्षदर्शी से बोलने कहा तो उसने बताया कि सुबह चार बजे ही पानी घुस आया था। फील्ड में अपने को चमकाने की बेहूदा हरकतें लाखों ऑडिएंस के जीवन को किस तरह प्रभावित करती है,इसका कोई अंदाजा इन्हें नहीं है। खबरों के पीछे का समाजशास्त्रीय विश्लेषण पूरी तरह मर गया,उसका गला घोंट दिया गया है। टीआरपी आ जाने की स्थिति में वो ठहाके लगाएंगे- अच्छा खेल गए हम इस बाढ़ पर। संभव है अबकी बार फिर बाढ़ की स्टोरी पर किसी को पॉलिटिकल कैटेगरी में गोयनका अवार्ड मिल जाए। लेकिन, जिस अंदाज में वो दिल्ली में बाढ़ की खबरें दिखा रहे हैं वो खबरें देने का काम कम,डराने का काम ज्यादा कर रहे हैं। उनके लिए बाढ़ का आना उत्सव है, पानी का उतरना मातम। लेकिन शायद वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि इस अफरा-तफरी में लोगों से टीवी देखना ही छूट गया तो टीआरपी के बदले क्या आएगा- घंटा? मां को कई तरह से आश्वस्त किया। इतना तक कहा कि जब बाढ़ से ही डूबकर मरना है तो बिहार-झारखंड ही ठीक है न। घर छोड़कर इतनी दूर आए हैं,दिल्ली में कुछ करने आए हैं,कुछ और नहीं तो बाढ़ में डूबकर मरेंगे क्या? मां तुम टेंशन मत लो और हां एक काम करो,मैं तुम्हें सास-बहू सीरियलों के अलावे कुछ इधर-उधर मतलब न्यूज चैनलों को भी देखने की जो राय देता रहा,उसे भूल जाओ। तुम सास-बहू ही देखती रहो। हम तुमसे इसी पर बात करेंगे कि लाडो की सिया कैसे धीरज को बचा पाएगी, उतरन की तपस्या फिर किसके जाल में फंसेगी,गीत का सपना पूरा होगा भी या नहीं, ललिया की यादाश्त वापस आएगी कि नहीं? मां,अगली बार फोन पर यही सब बात करुंगा,एपीसोड देखकर तैयार रहना.. *नोट-* चैनलों की इस गंध मचाने,बाढ़ के नाम पर रायता फैलाने की तरफ वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने भी फेसबुक पर नोटिस ली है- दिल्ली के एक हिस्से में यमुना बहती है। उसके आसपास रहने वाले कुछ इलाकों में पानी भर गया है। इनसाइट फाउंडेशन के मित्र अनूप कुमार ने अपनी मां को मैसेज भेजा है कि ज्यादा परेशान न हों और हो सके तो न्यूज चैनल कम देखें। दिल्ली का राष्ट्रीय मीडिया दिल्ली-मुंबई को लेकर जिस तरह पगलाया हुआ है, वह उसके राष्ट्रीय होने पर सवालिया निशान खड़ा करता है। कोशी की बाढ़ में 15000 लोगों के मरने से बड़ी है यमुना की बाढ़! शर्म...शर्म। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Sep 14 12:04:05 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 14 Sep 2010 12:04:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4g4KSV4KS+IOCkheCkrCDgpK4=?= =?utf-8?b?4KSV4KSs4KSw4KS+IOCkrOCkqOCkvuCkh+Ckjw==?= Message-ID: इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में,अलग-अलग जगहों पर हिन्दी को मरी हुई क्यों करार देते हैं? हिन्दी के विकास के नाम पर ऐश करने का काम जब सामूहिक तौर पर होता आया है तो उसके नाम की मर्सिया पढ़ने का काम क्यों न सामूहिक हो? इस प्रोजोक्ट में बेहतर हो कि एक नीयत जगह पर उसके नाम का मकबरा बनाया जाए जहां 14 सितंबर के नाम पर लोग आकर अपनी-अपनी पद्धति से मातम मनाने,कैंडिल जलाने का काम करें। कोशिश ये रहे कि इसे अयोध्या-बाबरी मस्जिद की तरह सांप्रदायिक मामला न बनाकर मातम मनाने की सामूहिक जगह के तौर पर पहचान दिलाने की कोशिश हो। वैसे भी पूजा या इबादत की जगह सांप्रदियक करार दी जा सकती है, मातम मनाने के लिए इसे सांप्रदायिक रंग-रोगन देने की क्या जरुरत? बेहतर होगा कि इसे कबीर की तरह अपने-अपने हिस्से का पक्ष नोचकर मंदिर या मस्जिदों में घुसा लेने के बजाय खुला छोड़ दिया जाए। देश में कोई तो एक जगह हो जो कि शोक के लिए ही सही सेकुलर( प्रैक्टिस के स्तर पर ये भी अपने-आप में विवादास्पद अवधारणा है लेकिन संवैधानिक है इसलिए) करार दी जाए। बस मूल भावना ये रहे कि ये जगह उन तमाम लोगों के लिए उतनी ही निजी है जितनी कि किसी के सगे-संबंधी के गुजर जाने पर उसके कमरे की चौखट,तिपाई,चश्मा,घाघरा जिसे पकड़कर वो लगातार रोते हैं। जिनके लिए हिन्दी बाजार के हाथों लगातार कुचली जाकर,पूंजीवाद के माध्यम से छली जाकर और अब इंटरनेट के दंगाइयों के संसर्ग में आकर अधमरी या पूरी तरह मर गयी है,उन्हें इसके विकास का राग अलपाने और जर्जर कोशिश करने के बजाय इसकी मौत की विधि-आयोजनों में शामिल हो जाना चाहिए। हिन्दी दिवस के नाम पर जबरदस्ती के उत्सवधर्मी रंगों के बैनर टांगकर अंदर सेमिनार हॉलों में टेसू बहाने से अच्छा है कि वे घर बैठकर सादगी से मातम मनाने का काम करें। कुछ नहीं तो कम से कम सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये तो बचेंगे। बाकी जिन्हें लगता है कि हिन्दी का लगातार विस्तार हो रहा है,वो ऐसी बातें सेमिनार और आयोजनों के बूते ऐसा नहीं कह रहे बल्कि वो अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा लगातार कर रहे हैं। हमारी अपील बस इतनी भर है कि जिन्हें हिन्दी मरती हुई नजर आती है,खासकर सालभर में केवल एक सप्ताह तक,जो पेशेवर तौर पर छाती पिटनेवाले लोग हैं,उन्हें इसे बेहतर करने के प्रयास आज से ही छोड़ देने चाहिए। वेवजह में हर साल उम्मीदों का पखाना छिरियाते हैं और अगले साल तक जिसकी बदबू अकादमियों में बजबजायी रहती है,जिसे ठोस रुप देने के लिए लाखों के खर्चे होते हैं। कुछ साल तक हिन्दी जिस हाल में है,उसे उसी हाल में छोड़कर देखिए,व्यक्तिगत स्तर पर जो लोग जैसा कर रहे हैं केवल उन्हें ऐसा करने की छूट दे दें,फिर देखिए कि हिन्दी को चील-कौए खाते हैं या फिर हिन्दी सद्यस्नात: स्त्री( तुरंत नहाकर बाथरुम से निकली हुई) की तरह खिलकर हमारे सामने आती है। मेरी अपनी समझ है कि हिन्दी की सेहत अव्वल तो पहले से बेहतर हुई है,पहले जो रघुवीर सहाय की दुहाजू बीबी हुआ करती थी,अब ज्यादा स्लीम ट्रीम हुई है। अब अगर ये अनमैरिड है तब तो सौन्दर्य के सैंकड़ों पैमाने उस पर अप्लाय कर दें लेकिन विवाहित भी है तो उसका रुप उन विवाहित स्त्रियों की तरह है जो रियलिटी शो के फैशन शो या डांस कॉम्पटीशन में शामिल होने के लिए कुलांचे भर रही है। जिस बाजार की हिन्दी समाज के अधिकांश आलोचक पानी पी-पीकर गरिआते हैं,उसी बाजार ने इसे एक प्रोफेशनल एटीट्यूड दिया है। अब वो अपने दम पर अपनी पेट भरने की हैसियत में आने लगी है। अब वो संस्थानों के पराश्रित नहीं है। आप चाहें तो हिन्दी की इस बदलती हालत पर स्त्री विमर्श के डॉमेस्टिक लेवर और मार्केट लेवर कॉमडिटी के तहत विश्लेषित कर हिन्दी की सेवाभावना को एक ठोस मनी वैल्यू निकाल सकते हैं। घरेलू हिंसा और सांस्थानिक जबरदस्ती से स्त्रियों के मुक्त होने की तरह ही आज की हिन्दी को समझ सकते हैं। वर्चुअल स्पेस के जिन बलवाइयों से हिन्दी के गिद्ध-जड़ आलोचकों को खतरा है,उन वलवाइयों के पास इतनी तमीज तो जरुर है कि जिस हिन्दी के साथ वो खाते-पीते,डेटिंग करते हैं,उसे हमराज मानते हैं,उसकी लुक्स को फिट रखे। वर्चुअल स्पेस के वलवाईयों ने हिन्दी को इसी रुप में विस्तार दिया है जो कि ग्लोबल स्तर पर जाकर भी मैं हिन्दी हूं कहकर शान से अपना परिचय दे सकें। फिलहाल मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि ऐसा करते हुए इन लोगों ने वर्तनी,शिल्प,संरचना और शब्दों के स्तर पर कितना कबाड़ा किया है,सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि आज अगर हिन्दी दबी जुबान में बोलनेवाली भाषा एक हद तक नहीं रह गयी है( इसे ज्यादा मजबूती से कहना ज्यादती होगी) जिसकी क्रेडिट खुद हिन्दी के गिद्ध-सिद्ध आलोचक भी लेने में नहीं चूकते तो इसमें इनलोगों के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। संभव है कि इस स्पेस पर लिखनेवाले लोगों ने अज्ञेय की तरह प्रतीक और बिंब न गढ़े हों,मुक्तिबोध की तरह कोई सभ्यता-समीक्षा न प्रस्तावित की हो, निराला की तरह छंदों को नहीं साधा हो लेकिन मौजूदा परिवेश में उसने हिन्दी के भीतर जितनी कॉन्फीडेंस पैदा की है,उस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत है। तो भी.. जिस किसी को हिन्दी भ्रष्ट होती हुई,छिजती हुई नजर आती है तो यकीन मानिए उसकी ये हालत सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों के हाथों हुई है जिनके उपर इसे सेहतमंद रखने का जिम्मा डाला गया या फिर उन्होंने रोजी-रोटी के चक्कर में ये जिम्मेदारी अपने आप ले ली। अभी सप्ताह भर भी नहीं हुए कि राजभाषा समिति की रिपोर्ट अंग्रेजी में आने पर भारी हंगामा मचा। पिछले साल इस समिति से संबंद्ध पी.चिदमबरम के अंग्रेजी में भाषण दिए जाने पर छीछालेदर हुई। हिन्दी को बेहतर बनानेवाले पहरुओं ने इसे एक सहज भाषा के तौर पर विस्तार देने के बजाय इसे अपने कुचक्रों से एक अंतहीन समस्या के तौर पर तब्दील कर दिया। अगर किसी राजनीतिक विश्लेषक के आगे आतंकवाद,कश्मीर जैसी समस्याएं,तमाम प्रशासनिक सक्रियताओं के वावजूद एक अंतहीन समस्या जैसी जान पड़ती है तो भाषा पर बात करनेवालों के लिए हिन्दी की समस्या कुछ इसी तरह है। हिन्दी के पहरुओं ने इसका बंटाधार क्रमशः दो स्तरों पर किया है। एक तो ये कि उन्होंने एक जड़ समझ विकसित कर ली है कि हिन्दी का मतलब अधिक से अधिक तत्सम शब्दों का प्रयोग है.अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी अनुवाद है और दूसरा कि ये एक ऐसी भाषा है जिसका काम अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं को ठिकाने लगाने का है। इन पहरुओं ने ये काम शब्दकोश बनाने,प्रशासनिकों कामों में हिन्दी प्रयोग करने,दिशा-निर्देश जारी करने से लेकर अनुवाद करने तक में किया है। नतीजा ये हुआ कि जिस हिन्दी को सबसे सहज भाषा बननी चाहिए वो लोगों से दूर होती चली गयी और बाबुओं की भाषा बनकर रह गयी। इसका एक सिरा इस रुप में विकसित हुआ कि हिन्दी का ये रुप मजाक उड़ाने और इससे तौबा कर लेने के तौर पर स्थापित होता चला गया। टेलीविजन चैनलों पर ऐसी हिन्दी को लेकर वकायदा लॉफ्टर शो आने लगे हैं। दूसरा कि निबटाने वाली भाषा के तौर पर शक्ल देने की वजह से ये आपसी मतभेदों को और अधिक उजागर करता रहा। इस बीच बोलचाल,बाजार,मनोरंजन,माध्यमों के बीच हिन्दी जिस रुप में विकसित होती रही उसे हिन्दी के सरकारी पहरुओं और आलोचकों ने सीरियसली नहीं लिया। वे सिर्फ हिन्दी के बीच से अंग्रेजी के शब्द बीन-बीनकर फेंकने में ही लगे रहे जबकि सवाल हिन्दी के बीच अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के शब्दों का आना नहीं है,उन शब्दों के प्रयोग की स्वाभाविकता को लेकर है। अप्रतलित हिन्दी शब्दों का जबरिया इस्तेमाल और पॉपुलर हिन्दी शब्दों की जगह वेवजह अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग इसी राजनीति की शिकार हुई है। इसलिए. जरुरी है कि हर साल हिन्दी दिवस के नाम पर सप्ताहभर पहले से मंत्रालयों औऱ तमाम सरकारी दफ्तरों के आगे उत्सवधर्मी रंगों के बैनर टांगने और अंदर जाकर मर्सिया पढ़ने का जो काम चला आ रहा है,उसकी प्रकृति पर बात हो। ये तय हो कि ये आयोजन हिन्दी के मर जाने पर आयोजित होती है,उसके जिंदा रखने की कोशिशों के लिए होती है,उसके विस्तार को दिशा देने के लिए होती है या फिर हिन्दी के चंद खुर्राट पेशेवर लिफाफादर्शी लोगों के थकाउ भाषणों में प्रसव की गुंजाईश आजमाने के लिए होती है? अगर ये हिन्दी के नाम का सिलेब्रेशन है तो माफ कीजिएगा इसकी शक्ल ऐसी बिल्कुल नहीं हो सकती जो हमें हिन्दी पखवाड़े में दिखाई देती है।.ये बहुत ही व्यक्तिगत स्तर पर अपने आप सिलेब्रेट करनेवाली चीज है या फिर बहुत हुआ तो छोटे-छोटे समूहों में कविता,कहानी,संस्मरणों के अंशों को पढ़कर और उनके शब्दों के बीच अर्थों में डूबकर.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Sep 16 00:57:04 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 16 Sep 2010 00:57:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkquCkpOCljeCkpOClhyDgpJXgpYAg4KSk4KSw4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSW4KSwIOCksOCkueCkviDgpLngpYgg4KSG4KSc4KSk4KSV?= Message-ID: टीआरपी को मीडिया इन्डस्ट्री का अंतिम सत्य माननेवाले कमर वहीद नकवी साहब सहित आजतक टीम की हालत इन दिनों इसी टीआरपी ने पस्त कर रखी है। वो लगातार इसी टीआरपी से पिछले चार सप्ताह से भी ज्यादा से लहुलूहान होते आए हैं। इस बीच चैनल नें अपने को नंबर वन पर लाने के लिए तमाम तरह के हथकंड़े अपनाए और दुनियाभर के हाथ-पैर मारे। इसी छटपटाहट में उसने एक तरह अपने को इंडिया टीवी के संस्कार में ढालने की कोशिश की तो दूसरी तरफ ऑपरेशन हे राम के जरिए अपने पुराने तेवर में भी लौटने का प्रयास किया। आजतक की ये कोशिश उसकी बेचैनी को साफ बयान कर देती है कि वो अपने इस हालात को लेकर कितनी कनफ्यूज है? वो इस बात को तय ही नहीं कर पा रही है कि ऑडिएंस उसके इंडिया टीवी बन जाने से ज्यादा जुट पाएंगे या फिर पुराने आजतक की शक्ल में लौटने पर? हमारी जैसी ऑडिएंस भी इसके इंडिया टीवी की शक्ल में आने पर घबराने लग गयी कि बस एक ही उल्लू काफी है,बर्बाद ए गुलिस्ता करने को,हर साख पे उल्लू बैठा है,अंजाम ए गुलिस्ता क्या होगा वाला मामला होता जा रहा है तो फिर न्यूज कल्चर का आगे क्या हाल होगा? लेकिन इसी ऑडिएंस ने ऑपरेशन हे राम देखकर मन ही मन शुभकामना भी जाहिर किया और आगे चलकर फेसबुक पर लिखा कि- आजतक की ऑपरेशन हे राम के जरिए देश के अय्याश और दलाल बाबाओं पर की गयी स्टोरी जबरदस्त है। इस स्टोरी के जरिए उसे इस सप्ताह अच्छी टीआरपी मिलेगी। इस स्टोरी को पहले हमने टेलीविजन पर देखा और जो हिस्से छूट गए उसे उसकी ऑफिशियल साइट पर अपलोड किए गए वीडियो के जरिए देखा। ये और बाद है कि चैनल ने इसे बाद में स्टिंग से ज्यादा रायता में तब्दील कर दिया और अगले दिन भी फैलाता रहा। स्टोरी देखने के बाद हम उम्मीद कर रहे थे कि अगले दिन तक हंगामा मच जाएगा। देशभर में आग लग जाएगी,दंगे की शक्ल में देश जल उठेगा। इस देश में जहां हर पीपल का पेड़ अपनी पैदाइश के साथ एक मंदिर का भविष्य लेकर आता है और एक बेरोजगार के बाबा हो जाने की गारंटी देता है वहां आसाराम बापू,सुधांशु महाराज,महाकाल और दाती महाराज जैसे महंत को बेनकाब कर देने से स्थिति सामान्य नहीं रह जाएगी। वैसे भी हमने आज तक के कम से कम आधे दर्जन स्टिंग ऑपरेशन के असर को तो देखा ही है जिससे पूरा देश हिल गया है। हम अगले पांच घंटे और अगले दिन तक चैनल के 6-8 विंडो में कटकर देशभर की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और ये स्टिंग हवा में उड़ गया। ये वो नाजुक मौका है जिस पर आजतक को सीरियसली सोचना चाहिए कि आखिर क्यों उसके इस स्टिंग ऑपरेशन को लोगों ने पाद धरकर उड़ा दिया,उस पर गौर नहीं किया, हंगामा क्यों नहीं बचा। ये सबसे बड़ा चिन्ह है जो ये बताता है कि आजतक की ब्रांडिंग और उसकी विश्वसनीयता झरझराकर गिर गयी है। इस पर सिर्फ एडीटोरियल की टीम को ही नहीं,बल्कि मार्केटिंग के लोगों को भी लगना होगा। पैकेज पर काम करने के साथ ही ब्रांड वैल्यू और रीस्टैब्लिशमेंट पर भी ध्यान देना होगा। बहरहाल आजतक खबरों और कंटेंट के स्तर पर जहां रद्दोबदल कर रहा है जिसे हम उसका कन्फ्यूज्ड हो जाना कह रहे हैं,वही लोगों की जिम्मेदारी तय करने में भी भारी फेरबदल कर रहा है। चैनल की भाषा में कहें तो वो वास्तुशास्त्र के हिसाब अपने चैनल को दुरुस्त करने में जुटा है। संभव है उसे साढ़े साती की चपेट में आने का भान हो रहा है। वास्तुशास्त्र के हिसाब से दो स्तर के बदलाव होते हैं। एक तो ये कि जो भीतरी स्ट्रक्चर है,उसमें ही फेरबदल कर दिया जाय- जैसे जो बेडरुम है,उसे बाथरुम बना दिया जाए और जो बेडरुम है उसमें एक चापानल या लोहे की कोई चीज जड़ दी जाए। मतलब जहां लिखा है प्यार,वहां लिख दो सड़क टाइप से बदलाव जिसका खूबसूरती और यूटिलिटी से तो कोई मतलब न हो बल्कि कबाड़ा ही हो लेकिन वास्तुशास्त्र के लिहाज से ये जरुरी है। चैनल ने फिलहाल ये बदलाव भीतरी स्ट्रक्चर के हिसाब से ही किया है। सबसे बड़ा बदलाव कि अजय कुमार जो कि अबतक आजतक के आउटपुट हेड हुआ करते थे,उन्हें अब स्ट्रिंगर और रिपोर्टर्स हेड बनाया गया है। ये अजय कुमार के कद को कतरकर छोटा करने का काम हुआ। इसका साफ मतलब है कि अजय कुमार पर से आजतक का भरोसा उठ गया। इनके बारे में चंद जरुरी लाइनें आगे।..फिलहाल,शैलेन्द्र झा जो कि तेज के हेड हुआ करते थे अब उन्हें अजय कुमार की जगह आजतक का आउटपुट हेड बना दिया गया है जबकि स्पोर्टस कवर करती आयी पूनम शर्मा को तेज का हेड बना दिया गया है। लोगों को ये बदलाव संभव हो कि बहुत ही अटपटा लग रहा हो लेकिन अगर वास्तुशास्त्र का यही उचित विधान है तो इस अटपटेपन का क्या कीजिएगा? संभव हो कि अजय कुमार इस अल्टरेशन को आनेवाले समय में चलते-चलते मेरे ये गीत,याद रखना के सीन के तौर पर ले रहे हों तो वहीं शैलेन्द्र झा और पूनम शर्मा को इस प्रोमोशन से अपने भीतर छिपी प्रतिभा, आंचल में बंधे तो भी चंदन,आग में जले तो भी चंदन जैसी लग रही हो। लेकिन एन्टीएन्क्रीमेंट के माहौल में उनका ये प्रोमोशन बाकी लोगों को कितनी रास आएगी,चैनल के भीतर के माहौल के लिहाज से ये भी एक बड़ा सवाल है। अभी चैनल के भीतर भारी अफरा-तफरी मची हुई है। लोगों पर गहरी नजर रखी जा रही है और तय किया जा रहा है कि ये बंदा/बंदी शक्ल से ही लग रहा/रही है कि टीआरपी मजबूत करने के काम आएगा,इसे प्रोमोट करो।..न न ये तो अजय कुमार की ही कार्बन कॉपी है,इसे थोड़ा ऑल्टर करो। ऐसे माहौल में एक तो एंटीइन्क्रीमेंट और दूसरा कि कद छोटा किए जाने,हालत यही रही तो शैक कर दिए जाने के बीच टीआरपी कितनी बढ़ेगी,ये चैनल के भीतर आतंकवाद से भी बड़ी समस्या है। लेकिन अगर ये सारे बदलाव टोटके के तौर पर आजमाए जा रहे हैं तो समझिए कि चैनल नें मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर एक नए खेल को जन्म दिया है- आओ बदलें कोना-कोनी का खेल। भीतरी स्ट्रक्चर में हेर-फेर करने पर अगर चैनल को वास्तुशास्त्र का लाभ न मिला तो संभव है कि गणपति बप्पा विसर्जन और मां दुर्गा की स्थापना के बीच तक आजतक के भीतर किसी बड़े बाबा की प्राण प्रतिष्ठापना हो जाए। इसे लेकर फिजा में स्टार न्यूज से इम्पोर्ट करने की खबर भी है जो कि कभी यहीं से एक्सपोर्ट हुए।. अब अजय कुमार को लेकर कुछ छूट गयी लाइनें।..आजतक में इन्क्रीमेंट के सवाल को लेकर जब मैंने लिखा कि आजतक में कई नत्था लालबहादुर के भरोसे जी रहे हैं तो हमें एक पुराने मीडियाकर्मी ने अजय कुमार की प्रोफाइल को लेकर विस्तार से जानकारी दी। उसमें उन्होंने बताया कि वो सिविल सर्विसेज बैग्ग्राउंज से आते हैं,उन्होंने सिविल सर्विसेज के लिए आइआएएम लखनउ की अधूरी पढ़ाई छोड़ दी। फिर जर्नलिज्म के लिए सिविल सर्वेिसेज को बाय कर दिया। एंकरिंग करने के दौरान भी मैंने कई बार महसूस किया है कि अजय कुमार जिस अंदाज में ज्ञान देने की मुद्रा में आते हैं,वो चैनल की ट्रेनिंग न होकर इन्हीं प्रोफेशन की ट्रेनिंग है जिसे कि डेप्थ के नाम की ब्रांडिंग की जाती है। ऑपरेशन हे राम में वो बहुत बेहतर लगे। फिर हमें दूसरे सूत्रों से जानकारी मिली कि वो टीटीएम कला( ताबड़तोड़ तेल मालिश) में भी निपुण रहे हैं जो कि चैनल क्लचर के लिए योग्यता से ज्यादा जरुरी चीज है बल्कि ये भी योग्यता ही है। फिर ये टोटका उन्हीं के साथ क्यों लागू किया गया? हमें फिर वही कहावत याद आती है- झाड-फूंक में सबसे बेशकीमती चीज ही तो चढ़ायी जाती है न बबुआ।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Thu Sep 16 02:03:52 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 16 Sep 2010 02:03:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSa4KWN4KSb?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOCkguCkl+ClgOCkpCDgpJTgpLAg4KSJ4KS44KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSm4KWN4KSw4KSm4KS+4KSoIOCkleClhyDgpKzgpYDgpJog4KSF?= =?utf-8?b?4KSsIOCkleCli+CkiCDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: दीवान के दोस्तों के लिए... मूलत: *नवभारत टाइम्स* के कॉलम *’रोशनदान’* में पाँच सितंबर को प्रकाशित. ***** *इंडियन ओशियन * हिन्दुस्तान का नामी-गिरामी म्यूजिक बैंड है. न सिर्फ़ नामी-गिरामी, इसके संगीत की विविधता इसे हिन्दुस्तान जैसे महादेश का प्रतिनिधि चरित्र भी बनाती है. इनके संगीत में ठेठ राजस्थानी लोकसंगीत की खनक है तो कश्मीर की ज़मीन से आए बोलों की गमक भी. इनके गीतों में कबीर की उलटबांसियाँ भी हैं और नर्मदा के जनांदोलन की अनुगूँज भी. पिछले दिनों जब आप-हम इनके गीत ’देस मेरा रंगरेज़ ये बाबू’ की धुन में खोये हुए थे, इसी इंडियन ओशियन ने एक अनूठा और मज़ेदार प्रयोग किया. इन्होंने अपने नए म्यूज़िक एलबम *’16/330, खजूर रोड’* को रिलीज़ करने और बाज़ार में बेचने के बजाए इसके गीतों को मुफ़्त जारी करने की घोषणा की. इसके तमाम अर्थ समझने से पहले देखें कि यह होगा कैसे? इंडियन ओशियन हर महीने अपने एलबम का एक नया गाना mp3 फॉरमैट में अपनी वेबसाइट * www.indianoceanmusic.com* पर अपलोड करेगा. आप वहाँ बताई गई जगह पर क्लिक करें और अपना नाम, ई-मेल भरें. फिर आपको एक लिंक मेल किया जाएगा जिस पर क्लिक कर आप अपना गीत डाउनलोड कर पायेंगे. सारा कुछ बिलकुल मुफ़्त. यह सिलसिला पिछली 25 जुलाई से शुरु हुआ है और अब तक नए एलबम के दो गाने ’*चांद’* और *’शून्य’*सुननेवालों तक सीधे पहुँच चुके हैं. हर महीने की पच्चीस तारीख़ को एक नए गाने के साथ यह सिलसिला आगे बढ़ता रहेगा और इस तरह कुछ महीनों के भीतर ही पूरा एलबम हमारे सामने होगा. लेकिन ’कि पैसा बोलता है’ कहे जाने वाले इस दौर में मुफ़्त क्यों? दरअसल इंडियन ओशियन की यह कोशिश बाज़ार के मकड़जाल से निकलने का एक रास्ता है. ऐसा मकड़जाल जिसमें संगीत रचता है कोई और उस पर मुनाफ़ा कमाता है कोई और. बैंड अपनी वेबसाइट पर लिखता है, “बहुत से लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि हम अपना संगीत मुफ़्त क्यों बाँट रहे हैं? इसकी पहली वजह तो ये कि इससे संगीत के रचयिता बैंड और उसे सुननेवाले के बीच की दूरी बहुत कम हो जाती है. आजकल ज़्यादातर नई उमर के लोग संगीत खरीदकर नहीं सुनते, बल्कि उसे इंटरनेट से मुफ़्त डाउनलोड ही करते हैं. तो ऐसे में हम उनका अपराधबोध कुछ कम ही कर रहे हैं. इसके साथ ही संगीत कम्पनियों से सौदेबाज़ी और कॉपीराइट के झंझट ख़त्म हो जाते हैं. इस बात की चिंता नहीं रहती कि हमारा संगीत सभी जगह तक पहुँच रहा है कि नहीं. और सच कहें, कोई हिन्दुस्तानी कलाकार रॉयल्टी के पैसे पर नहीं जीता. हमारी तक़रीबन सारी कमाई तो लाइव शो और फ़िल्मों के लिए म्यूज़िक बनाकर होती है. हमें उम्मीद है कि यह प्रयोग और हिन्दुस्तानी कलाकारों के लिए भी एक ज़रिया बनेगा उन्हें सुननेवाली जनता तक पहुँचने का.” सच बात यही है कि हमारे देश में फ़िल्मी संगीत की आदमकद उपस्थिति के सामने गैर-फ़िल्मी संगीत हमेशा आर्थिक चुनौतियों से लड़ता रहा है. पहले भी बड़ी-बड़ी संगीत कम्पनियाँ मुनाफ़ा कमाती रहीं और कलाकार ख़ाली जेब घूमता रहा. अगर आपके पास बिक्री के सही रिकॉर्ड ही न हों तो आप कैसे मुनाफ़े में हिस्सा माँगेगे? और फिर डिस्ट्रीब्यूशन का सही चैनल इन्हीं कम्पनियों के पास रहा जिसके बगैर कलाकार लाचार था. इस दशक में इंटरनेट के साथ ’पब्लिक शेयरिंग’ और ’फ्री डाउनलोड’ कल्चर आने के साथ संगीत उद्योग का संकट और बढ़ गया है. इसका असर नज़र आता है. युवाओं में सबसे लोकप्रिय म्यूज़िक बैंड ’यूफ़ोरिया’ का सालों से कोई नया एलबम नहीं आया है. दलेर मेंहदी से लेकर अलीशा चिनॉय तक प्राइवेट एलबम्स की दुनिया के बड़े सितारे या तो हाशिए पर हैं या फ़िल्म संगीत की शरण में. लेकिन इंडियन ओशियन ने संकट की वजह बनी इसी ’फ्री डाउनलोड’ की कल्चर को अपना हथियार बना लिया है अपने श्रोता तक सीधे पहुँचने का. बैंड का यह तरीका गैर-फ़िल्मी संगीत के लिए आगे बढ़ने का एक नया रास्ता हो सकता है. आज अगर श्रोता गाना पसंद करेगा तो कल पैसा भी देगा. शायद यहीं से कोई नई पगडंडी निकले मंज़िल की ओर. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Fri Sep 17 12:26:57 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 17 Sep 2010 12:26:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWC4KSu4KSj?= =?utf-8?b?4KWN4KSh4KSy4KWA4KSV4KSw4KSjIOCkleClhyDgpKbgpYzgpLAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkueCkv+CkguCkpuClgA==?= Message-ID: <4C931139.7020404@sarai.net> आज के जनसत्ता से साभार। शुक्रिया, अरविन्द। लेख के रुदाली भाग को छोड़कर शेष ठीक है, मेरे ख़याल से। लेकिन सवाल ये भी है न कि संचार के बाज़ार में जो लोग जिन विषयों पर हिन्दी बोलते हैं, वे तो अपने तरह की हिन्दी ही बोलेंगे न! उनका अर्थशास्त्र बेहतर है, हिन्दी कमज़ोर तो क्या किया जाए। मुझे ये ज़माना बेहतर लगता है इसलिए कि पहरेदारियाँ उठ गई हैं ज़बानों से, विश्वास नहीं है तो एफ़एम पर ग़ैर-हिन्दी प्रदेशों से समाचारों की रपटें सुनो। इन सजीव प्रसारणों को अब कोई हिन्दी अधिकारी पहले दुरुस्त करने की ज़रूरत नहीं समझता। वैसा आत्मविश्वास पहले सिर्फ़ अंग्रेज़ी वाले पालते थे। रविकान्त *भूमण्डलीकरण के दौर में हिंदी*_ *अरविंद दास * कवि रघुवीर सहाय ने कविता के जरिए 25-30 साल पहले कहा था- हिंदी है मालिक की/ तब आज़ादी से लड़ने की भाषा फिर क्या होगी?/ हिंदी की माँग/ अब दलालों की अपने दास-मालिकों से/ एक माँग है/ बेहतर बर्ताव की/ अधिकार की नहीं.’ तब समकालीन भूमंडलीकरण का उड़नखटोला भारत नहीं पहुँचा था. पर ये पंक्तियाँ मौजूदा समय में हिंदी की सूरते-हाल बखूबी बयां करती है. करोड़ो वंचितों, दलितों, स्त्रियों के संघर्ष की भाषा होने के कारण ही महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने आजादी के आंदोलन के दौर में हिंदी के पक्ष में पुरजोर ढंग से वकालत की थी. उन्होनें हिंदी को स्वराज से जोड़ा . आज हिंदी संघर्ष की भाषा होने की ताक़त खोती जा रही है. आम जन से भाषा की दूरी बढ़ती जा रही है. हिंदी पर बाजार और संचार के माध्यमों का दबाव है. दशकों से सत्ता की घोर उपेक्षा झेल रही हिंदी को लेकर भारतीय समाज में गहरी उदासीनता है. भूमंडलीकरण एक ऐसा कनखजूरा है जिसके बावन हाथ हैं. वर्तमान जीवन का कोई पहलू, कोई कोना इससे अछूता नहीं है. 90 के दशक में भारत में उदारीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रकिया ने अपने साथ संचार क्रांति लेकर आया, या कहना चाहिए कि संचार माध्यमों के रथ पर चढ़ कर ही भूमंडलीकरण ने भारत में अपना पाँव फैलाया. वर्तमान में केबल, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से एक नई हिंदी गढ़ी जा रही है. यह हिंदी फिल्मों, सिरीयलों, विज्ञापनों, समाचार पत्रों और खबरिया चैनलों के माध्यम से तेजी से फैल रही है. सच है कि देश-विदेश में हिंदी की पहुँच इससे काफी बढ़ी है. सच है कि ‘विज्ञापन की हिंदी’ सहज ही लोगों के दिल में जगह बना लेती है, लेकिन यह भाषा भूमंडलीकरण के साथ फैल रही उपभोक्ता संस्कृति की है, विमर्श की नहीं. इस भाषा में लोक-राग और रंग नहीं है जहाँ से हिंदी अपनी जीवनीशक्ति पाती रही है . किसी भी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों का विशिष्ट योगदान रहा है. हिंदी इसका अपवाद नहीं है. उन्नीसवी सदी के आखिरी तथा बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में हिंदी भाषा, विशेष रूप से हिंदी गद्य के विकास और परिमार्जन में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं के योगदान का ऐतिहासिक महत्व है. पर पिछले दशकों में हिंदी के स्वरूप में काफी तेजी से बदलाव हुआ है. खास तौर पर हिंदी अखबारों में, जिसकी पहुँच भारत के कोने-कोने में बढ़ती जा रही है. 90 के दशक में तकनीक उपलब्धता, फैलते बाजार तथा सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में हिंदी के दर्जनों खबरिया चैनलों का प्रवेश हुआ. हिंदी अखबारों की भाषा पर इन चैनलों का खासा प्रभाव दिखता है. 80 के दशक के किसी भी अखबार की सुर्खियां स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और अभिधापरक हुआ करती थी. अखबार की सुर्खियों से खबरों का आभास अच्छी तरह मिल जाता था. अंग्रेजी के उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल होता था जो सहज और सरल हों, जिससे पूरी पंक्ति के प्रवाह में बाधा नहीं पड़ती हो. प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों ने इस दशक में ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू किया जिसकी पहुँच हिंदी के बहुसंख्य पाठकों तक थी. इन पत्रकारों ने बोलियों और लोक से जुड़ी हुई भाषा का इस्तेमाल किया जिससे अखबार की भाषा लोगों के सरोकारों से जुड़ी. लेकिन आज अखबारों की सुर्खियां चुटीली, मुहावरेदार और अंग्रेजी की छौंक लिए होती है. कई बार शीर्षक और खबर में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है. बजट और चुनाव जैसी महत्वपूर्ण खबरों को भी मनोरंजक भाषा में प्रस्तुत करने का चलन जोर पकड़ रहा है. हिंदी समाचार पत्रों के कई संपादक इस भाषा के पक्ष में दलील देते हुए मिलते हैं. पर सवाल है कि हिंदी समाज का वह कौन सा वर्ग है जो इस भाषा को अपना कर गौरवान्वित हो रहा है, और जिसके प्रतिनिधि होने का दावा हिंदी के अखबार आज कर रहे है? भाषा महज अभिव्यक्ति का साधन ही नही है. भाषा में मनुष्य की अस्मिता स्वर पाती है. उसमें सामाजिक-साँस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति होती है. समय के साथ होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों की अनुगूँज उसमें सुनाई पड़ती है. भूमण्डलीकरण के बाद हिंदी के अखबारों में भाषा का रूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से हिंदी मानस की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना नहीं बदली है. नतीजतन यह बदलाव अनायास न होकर सायास है. एक खास उभर रहे उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रखकर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है. यह शहरी नव धनाढ्य वर्ग है जिसकी आय में अप्रत्याशित वृद्धि उदारीकरण, बाजारीकरण और भूमण्डलीकरण के दौर में हुई है. यही वर्ग खुद को इस भाषा में अभिव्यक्त कर रहा है. इस वर्ग में हिंदी क्षेत्र के बहुसंख्यक किसान, मजदूर, स्त्री तथा दलित नहीं आते. हिंदी के विद्वान-आलोचक राम विलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ‘समाज में वर्ग पहले से ही होते हैं. भाषा में कठिन और अस्वभाविक शब्दों के प्रयोग से वे नहीं बनते किंतु इन शब्दों के गढ़ने और उनका व्यवहार करने के बारे में वर्गों की अपनी नीति होती है.’ हिंदी के साथ शुरू से ही यह विडंबना रही है कि कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थों के चलते कभी इसे उर्दू, कभी तमिल तो कभी अंग्रेजी के बरक्स खड़ा किया जाता रहा. स्वाभाविक हिंदी जिसे बहुसंख्य जनता बोलती-बरतती है, का विकास इससे बाधित हुआ . राजभाषा हिंदी को वर्षों तक ठस, संस्कृतनिष्ठ, उर्दू-फारसी शब्दों से परहेज के तहत तैयार किया गया. क़ाग़ज पर भले ही राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिंदी का विशाल भवन तैयार किया जाता रहा, सच्चाई यह है कि हिंदी की जमीन लगातार कमजोर होती गई. राजनीतिक स्वार्थपरता, सवर्ण मानसिकता तथा राष्ट्रभाषा-राजभाषा के तिकड़म में सबसे ज्यादा दुर्गति हिंदी की हुई. 1960 के दशक में उत्तर भारत में ‘अंग्रेजी हटाओ’, और दक्षिण भारत में ‘हिंदी हटाओ’ के राजनीतिक अभियान में भाषा किस कदर प्रभावित हुई इसे हिंदी कवि धूमिल ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया था- ‘तुम्हारा ये तमिल दुःख/ मेरी इस भोजपुरी पीड़ा का/ भाई है/ भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है.’/ / हिंदी की अस्मिता विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से मिलकर बनी हैं. कबीर से लेकर प्रेमचंद और बाबा नागार्जुन का साहित्य इसका दृष्टांत है. हिंदी भाषा का विकास और प्रसार इन्हीं बोलियों, क्षेत्रीय भाषाओं के साथ संवाद के माध्यम से संभव है. तब कहीं जाकर सही मायनों में हिंदी अखिल भारतीय भाषा होने का दावा कर सकती है. सरकारी संस्थानों ने, जिनका काम हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग देना है, हिंदी का प्रचार-प्रसार कम, अपकार ज्यादा किया है. सरकार और उसकी सहयोगी संस्था हर साल बस हिंदी दिवस मना कर अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेती है. आजादी के 63 साल बाद भी समाज विज्ञान, विज्ञान और तकनीक जैसे विषयों पर कोई ढंग का हिंदी में मौलिक लेखन काफी ढूढ़ने पर मिलता है. हिंदी में कायदे की कोई शोध पत्रिका नहीं मिलती जिसमें शोध लेख छपवाया जा सके. देश के प्रतिष्ठित उच्च अध्ययन संस्थानों में सारा शोध अंग्रेजी भाषा में हो रहा है. देश की बहुसंख्य जनता की जिसमें कोई हिस्सेदारी नहीं है. सारा शोध जिन गरीबों, पिछड़ों, दलित-आदिवासियों, स्त्रियों को केंद्र में रख कर किया जाता उसकी पहुँच उन तक कभी भी नहीं हो पाती. पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र की /‘आज भी खरे हैं तालाब’/ जैसी किताबें, जिसकी सफलता और पहुँच असंदिग्ध है, उन लोगों पर करारा व्यंग्य है जो इस बात का रोना रोते है कि हिंदी में लोक-मन को छूने वाली भाषा में साहित्य से इतर कोई रचना संभव ही नहीं है. राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी /‘भारत में राजनीति’/ जैसी किताब की हिंदी में पुनर्रचना कर एक नई पहल की शुरूआत करते हैं. कभी समाजशास्त्री केएल शर्मा ने एनसीईआरटी की समाजशास्त्र की किताब मूल हिंदी में लिख कर साबित किया था कि स्कूल-कालेज की समाजविज्ञान की किताबें हिंदी में लिखना संभव है. दिक्कत यह है कि हिंदी क्षेत्र के कई विद्वान अंग्रेजी और हिंदी दोनों में दक्ष होने के बावजूद हिंदी में लिखने की जहमत नहीं उठाते. इसकी वजह सिर्फ आर्थिक नहीं, कहीं गहरे अवचेतन में हिंदी के प्रति हीनता बोध भी है. भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी का ऐसा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है कि हिंदी के पक्ष में की गई किसी भी बात को दकियानूसी विचार करार दिया जाता है. निहित स्वार्थ के कारण हिंदी के एजंडे को हिंदी और अंग्रजी के प्रभुवर्गों ने आपसी गठजोड़ कर हथिया लिया है. निस्संदेह अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा है. इस भाषा के माध्यम से हम एक बड़े समूह तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं. इस भाषा की जानकारी भूमंडलीकरण के इस दौर में हमारी जरूरत है. इस बात से शायद ही किसी को कोई गुरेज हो कि अंग्रेजी के बूते अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीयों की एक पहचान बनी हैं. पर अंग्रेजी अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधि कभी नहीं कर सकती. देश-विदेश में रह रहे भारतीयों की अस्मिता, उसकी असली पहचान निज भाषा में ही संभव है. कवि विद्यापति ने सदियों पहले इसी को लक्ष्य कर ‘ /देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ ’ कहा होगा. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत एक बड़ा बाजार है. इस बाजार में हिंदी में आज अंग्रेजी के शब्दों को ठूँस कर हिंदी को विश्व भाषा बनाने की मुहिम चल रही है. कई अखबारों में हिंदी को रोमन लिपि में लिखने का प्रयोग जोर पकड़ रहा है. क्या यह विचित्र नहीं कि जो भाषा ठीक से ‘राष्ट्रीय’ ही नहीं बन पाई हो उसे ‘अंतरराष्ट्रीय ’ बनाने की कोशिश की जा रही है ? 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद से लड़ कर हिंदी ने सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फ़ियर) में अपनी एक भूमिका अर्जित की थी. इस दुनिया में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर बहस-मुबाहिसा संभव था. आजादी के बाद प्रतिक्रियावादी, सवर्ण प्रभुवर्ग जिनकी साठगांठ अंग्रेजी के अभिजनों के साथ थी, हिंदी की सार्वजनिक दुनिया पर क़ाबिज़ होते गये. इससे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया सिकुड़ती और आमजन से कटती चली गई. एक बार फिर हिंदी को महज बोल-चाल के माध्यम तक ही सीमित रखने का कुचक्र चल रहा है. भूमंडलीकरण का सबसे प्रभावी औजार है सूचना. यह सूचना इंटरनेट के माध्यम से पूरे भूमंडल के फासले को चंद लम्हों में नापने का माद्दा रखती है. लेकिन चूँकि सत्ता की भाषा अंग्रेजी है, इंटरनेट की भाषा भी अंग्रेजी ही है. बहरहाल, हिंदी देर ही सही अंग्रेजी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब हो रही है. इसका सबूत है विभिन्न वेब साइटों पर मौजूद हिंदी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ. इससे हिंदी का प्रसार और पहुँच देश-विदेश में तेजी से हो रहा है. साथ ही हाल के वर्षों में जिस तेजी से हिंदी के ब्लॉग इंटरनेट पर फैलें है, एक उम्मीद बंधती है कि ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ फिर से जीवित होगा. क्योंकि यहाँ हर लेखक को अपनी भाषा में कहने-लिखने की छूट है. इसका अंदाजा विभिन्न ब्लॉगों की भाषा पर एक नजर डालने पर लग जाता है. पर किसी भी तकनीक की उपयोगिता उसके इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है. सवाल है कि जिस समाज में सूचना तकनीक का इस्तेमाल एक छोटे तबके तक सीमित हो, जिस भाषा में की-बोर्ड तक उपलब्ध नहीं वह भाषा-समाज किस तरह इंटरनेट का इस्तेमाल कर आगे बढ़ेगा ? From vineetdu at gmail.com Tue Sep 21 01:18:44 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 21 Sep 2010 01:18:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkleCkviDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSu4KWC4KSy?= =?utf-8?b?4KSk4KSDIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgeCkk+CkgiDgpJXgpL4g4KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: 17तारीख को विश्वकर्मा पूजा के मौके पर झारखंड से प्रकाशित होने वाले सभी अखबार नहीं छपे। जाहिर है, इसमें मशीन चलानेवाले लोगों से ज्यादा मशीन को राहत देनेवाली बात रही होगी। जिस मशीन की भगवान मानकर पूजा करें, उसे उसी दिन खटने के लिए लगा दें, ऐसा कैसे हो सकता है? दूसरी तरफ सारे न्यूज चैनलों का प्रसारण जारी रहा। चाहते तो चैनल में भी इस मौके पर एक दिन के लिए चैनल बंद कर सकते थे। आखिर वहां भी तो लोहे-लक्कड़ के कई सामान होंगे, जिसमें भगवान विश्वकर्मा विराज रहे होंगे। दिल्ली में हमें अखबार दिखाई दिये तो समझिए कि झारखंड के अखबार की मशीन विश्वकर्मा भगवान और दिल्ली में वही अखबार की मशीन खालिस लोहा। ये ऐसे कुछ मौके होते हैं जहां मीडिया एहसास करा देता है कि इस देश का मीडिया मूलतः हिंदुओं का मीडिया है, जिसको चलानेवाले से लेकर पढ़नेवाले लोग हिंदू हैं। बाकी के समुदाय से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। साल के कुछ खास दिन जिसमें विश्वकर्मा पूजा, दीवाली सहित हिंदुओं के कुछ ऐसे त्योहार हैं, जिसमें अखबार खरीदनेवाले को न तो पाठक और न ही ग्राहक की हैसियत से देखा जाता है बल्कि हिंदू के हिसाब से देखा जाता है। बाकी के जो रह गये वो अपनी बला से। उन्हें अगर उस दिन अखबार पढ़ना है, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही होगा कि वो एक हिंदू बहुल मुल्क में रह रहे हैं। अब आप कहते रहिए इसे सामाजिक विकास का माध्यम और पढ़ाते रहिए लोगों को बिल्बर श्रैम की थीअरि। पत्रकारिता के भीतर कर्मकांड और पाखंड पहले की तरह जस का तस पसरा हुआ है। ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पक्ष में एक राय बनायी जा सकती है कि वो प्रिंट मीडिया के मुकाबले ज्यादा खुले मिजाज का है, ज्यादा सेकुलर और कर्मकांडों से मुक्त है। मीडिया को जो लोग एक ऑडिएंस-रीडर की हैसियत से देखते हैं, वो ये काम बहुत आसानी से कर सकते हैं और इस मौके पर प्रिंट मीडिया की बजा सकते हैं कि बड़ा अपने को भांय-भांय करनेवाले न्यूज चैनलों से अलग बताते हो, तुम तो उससे भी ज्यादा पाखंडी और कर्मकांडों में फंसे हो। लेकिन जो लोग इसके अंदरूनी सच को जानते हैं वो समझ सकते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां भी कर्मकांड के आगे कानून को धत्ता बता दिया जाता है और जिस चैनल के नाम से रजिस्ट्रेशन है, उस पर दूसरे नये खुलनेवाले चैनल को कुछ देर के लिए इसलिए दिखाया जाता है कि उस दिन किसी पहुंचे हुए बाबा ने शुभ मुहूर्त बताया था। दूसरी तरफ एक चैनल में नारियल फोड़ने में थोड़ा ज्यादा टाइम इसलिए लिया जाता है कि मनहूस वक्त निकल जाए। मनोरंजन चैनलों में खासकर सीरियलों पर गौर करें, तो लगभग सारे हिंदुओं के त्योहार के मौके पर उनके स्पेशन एपिसोड तैयार किये जाते हैं। दूसरी मान्यताओं का कोई शख्स अगर इन सीरियलों को देखना चाहे तो वो हिंदुओं के कर्मकांड और पाखंड को झेलने के लिए अभिशप्त है। कुल मिलाकर मीडिया के तमाम रूपों का चरित्र लगभग एक-सा है। जिस मीडिया की जुबान पर बात-बात में राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति की बहुलता को बचाने की चिंता और सबसे ज्यादा सेकुलर साबित करने की होड़ लगी रहती है, वो खुद किस तरह से राष्ट्रीयता की मूल भावना में मठ्ठा घोलने का काम करता है, इसे ऐसे ही मौके पर बारीकी से समझने की जरूरत है। यहां ये साफ कर दूं कि राष्ट्रीयता को लेकर मेरी अपनी वही समझ नहीं है, जो कि 15 अगस्त और 26 जनवरी में सरकारी चबूतरों से दोहराये जाते हैं और न ही जिसके राग अलापकर सिम बेचे जाते हैं। मैं इसे आधुनिकता की सबसे शातिर अवधारणा मानता हूं। खैर, जो प्रभात खबर ये लिखता है – अखबार नहीं आंदोलन, वो अगर विश्वकर्मा पूजा के दिन अखबार नहीं छापता है, मशीन को देवता मानकर पूजता है और उसे रेस्ट देता है, वो अपनी सालभर की प्रगतिशीलता के बावजूद भी किस तरह के मैसेज समाज को दे रहा है, इस पर बात होनी चाहिए। फेसबुक पर बस दो लाइन का ही स्टेटस लिखने पर लोगों की नसीहतें मिलने लगी। कुछ ने बहुत ही महीन तरीके से रिएक्ट किया और मजदूरों को आराम देने के एंगिल से असहमति जगायी तो तो किसी ने बातचीत के माध्यम से कहा कि यहां अखबार विश्वकर्मा पूजा के मौके पर नहीं छपेंगे तो तुम क्या चाहते हो कि ईद के मौके पर न छपे? माफ कीजिएगा, मैं इस तरह के समाहार की समझ लेकर नहीं सोचता कि ऐसा किया जाए कि एक-एक दिन उन तमाम समुदायों, पंथों और मान्यताओं के खास मौके पर अखबार नहीं छापे जाएं। ये काम नेताओं के लिए ही छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा। फिलहाल हम दूसरे मसले को लेकर बात को आगे बढ़ाना चाहेंगे। इस देश के ज्यादातर अखबार, देश को फिलहाल रहने दीजिए, झारखंड की ही बात करें तो ज्यादातर अखबार उन हिंदू मालिकों के हैं जो कि हिंदू कर्मकांडों और मान्यताओं पर घनघोर तरीके से भरोसा रखते हैं। वैसे भी धंधा करनेवाले लोग धार्मिक क्रियाकर्म में अक्सर सक्रिय पाये जाते हैं। उस एक मालिक की समझ और मान्यता पूरे अखबार पर लाद दी जाती है जिसे कि पत्रकार छुट्टी मानकर मौज में आकर हम जैसे लोगों को फोन करके टाइम पास करते हैं। एहसास कराते हैं कि आज रिलेक्स फील कर रहे थे तो सोचा कि याद कर लूं। वो हमारे माई-बाप जैसे बन जाते हैं और हमसे हिसाब-किताब मांगने लग जाते हैं कि क्या चल रहा है? क्या किसी पत्रकार के दिमाग में ये सवाल कभी आता होगा कि जिस विश्वकर्मा पूजा या दीवाली के नाम पर वो चिल्ल हो रहे हैं, उसका बड़े संदर्भ में क्या अर्थ जाता होगा? कहने को बहुत ही सपाट तरीके से कहा जा सकता है कि पत्रकार क्या कोई काठ का बना हुआ है, उसके घर-परिवार बच्चे नहीं हैं कि वो त्योहार मनाएं? ये सरासर जबरदस्ती का मुद्दा बनानेवाली बात हो गयी। सही कह रहे हैं, लेकिन कभी सोचा कि जिस राष्ट्रीयता और अनेकता में एकता की दुहाई आपकी कलम और उस दिन तो आपका मालिक भी देता है, उसमें आपके खुद के एटीट्यूड भी शामिल होते हैं। ऐसे में आपको आज के एटीट्यूड का ध्यान दिलाया जाए तो इसमें बेजा क्या है? सबसे बेसिक और जरूरी सवाल और वो भी खासकर प्रिंट मीडिया के लोगों से कि आपने पूरे देश के लोगों के लिए जो पैमाना बना रखा है, क्या वही पैमाना खुद आप पर लागू नहीं किया जा सकता? आप जिसे छुट्टी मानकर मजे ले रहे हैं, वो दरअसल एक तंग सोच को मजबूती दे रहे हैं। आपके कहने और लिखने के अंदाज से तो ऐसा लगता है कि आपको जैसे किसी बड़ी शक्ति ने कान में मंत्र फूंक दिया कि जा तेरा काम समाज को ठोक-पीटकर दुरुस्त करना है, तू पैदा ही इस काम के लिए हुआ है और आप लग गये राष्ट्रीयता की रक्षा करने में। जिसने हमसे सवाल किया कि आप मजदूरों के लिहाज से सोचिए न कि इसी बहाने उन्हें एक दिन की छुट्टी मिल जाती है, तो इसमें बुरा क्या है? हुजूर, क्या अब तक इस देश में मानव कल्याण के सारे एजेंडे धर्म के जरिये ही पूरे किए जाएंगे, बाकी मानवाधिकार, कानून सब पुटपुटिया बजाने के लिए हैं क्या? आप अगर इन मजदूरों को लेकर सचमुच कुछ सीरियसली सोच रहे हैं तो बेहतर हो कि आप इस बात पर गौर करें कि उन्हें कैसे 14-15 घंटे बिना अतिरिक्त पैसे दिये काम की भट्टी में झोंका जाता है। जहां दिन-रात मानवाधिकार, इंसानियत, न्याय जैसे शब्द सैकड़ों बार सिर्फ एक दिन के अखबार में छपते हैं। सालभर तक चूसने का जो विधान चला आ रहा है, उससे एक दिन विश्वकर्मा पूजा के नाम पर रिहा करना जितना जेनुइन और मासूम दिखाई देता है, वो उतना ही खतरनाक है। दिक्कत तो ये है कि ये ऐसा मसला है कि इसमें आरक्षण, सरकारी हस्तक्षेप और कानून का मामला सीधे-सीधे भी नहीं बनता। रह जाती है तो वही नेतागिरी, जिसमें ये कहा जाए कि होली-दीवाली, विश्वकर्मा पूजा की ही तरह ईद, क्रिसमस के नाम पर भी उस दिन अखबार नहीं छपेंगे। लेकिन पत्रकारों की दफन हो चुकी पहल के आगे इस नेतागिरी का क्या रंग होगा, ये हमें पहले से मालूम है। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Tue Sep 21 09:33:19 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 21 Sep 2010 09:33:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS/4KSq4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkuOClhyDgpK3gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSo4KS/4KSv4KS+IOCkruClhyDgpK7gpYzgpLLgpL/gpJUg?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSo4KWHIOCkleClgCDgpJzgpL/gpKY=?= Message-ID: *कल चंद्रशेखर का जन्‍मदिन था। जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्‍यक्ष और बाद में सीपीआई एमएल के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने चंद्रशेखर की एक दुर्लभ तस्‍वीर अभी पटना के वरिष्‍ठ रंगकर्मी जावेद अख्‍तर खान ने जारी की है, एक प्‍यारे से नोट के साथ। दोनों ही चीजें आपके लिए…* * * *http://mohallalive.com/2010/09/21/chandrashekhar-in-spartacus/* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Tue Sep 21 09:33:19 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 21 Sep 2010 09:33:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS/4KSq4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkuOClhyDgpK3gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSo4KS/4KSv4KS+IOCkruClhyDgpK7gpYzgpLLgpL/gpJUg?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSo4KWHIOCkleClgCDgpJzgpL/gpKY=?= Message-ID: *कल चंद्रशेखर का जन्‍मदिन था। जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्‍यक्ष और बाद में सीपीआई एमएल के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने चंद्रशेखर की एक दुर्लभ तस्‍वीर अभी पटना के वरिष्‍ठ रंगकर्मी जावेद अख्‍तर खान ने जारी की है, एक प्‍यारे से नोट के साथ। दोनों ही चीजें आपके लिए…* * * *http://mohallalive.com/2010/09/21/chandrashekhar-in-spartacus/* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mediamorcha at gmail.com Fri Sep 3 11:24:25 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Fri, 03 Sep 2010 05:54:25 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSPIOCkuOCljeCkpOCkruCljeCkrSDgpJXgpYcg4KS44KS+4KSlIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+4KSu4KWL4KSw4KSa4KS+IC4uLi4uIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+IDog4KSP4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KWb4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on September 2 2010 Read more... पेड न्यूज के खिलाफ बिहार में शुरू हुई मुहिम [image: पेड न्यूज के खिलाफ बिहार में शुरू हुई मुहिम] खबर/ पटना / बिहार की राजधानी पटना में पिछले दिनों पेड न्यूज के खिलाफ मुहिम शुरू हुई है। राष्ट्रीय जनता दल ने साफ कह दिया कि इस बार के चुनाव में पेड न्यूज का कोई पैकेज नहीं लेगा। ललित नारायण मिश्र आर्थिक अध्ययन संस्थान में ... Posted on September 2 2010 Read more... मौर्य को छोड़ कई ने आर्यन टीवी चैनल का दामन थामा [image: मौर्य को छोड़ कई ने आर्यन टीवी चैनल का दामन थामा] खबर / पटना/ फिल्म निर्माता प्रकाश झा के टी0 वी0 चैनल मौर्या से कई पत्रकारों ने दामन छोड़कर पटना से जल्द ही प्रसारित होने वाले आर्यन चैनल का दामन थाम लिया है। खबर है कि कई दिग्गजों ने चैनल को छोड़ दिया है। सूत्रों के अनुसार प्रोड्यूसर साकिब जिया, आन लाईन एडीटर राजीव कुमार ... Posted on September 2 2010 Read more... पत्रकारिता के गौरव क्रूपाकरण जी [image: पत्रकारिता के गौरव क्रूपाकरण जी] खबर / (पटना) श्रमजीवी पत्रकार यूनियन, पटना के कार्यालय में वरिष्ठ पत्रकार पी॰ के॰ क्रूपाकरण (पांडिचेरी कनकसभापति क्रूपाकरण) की याद में गत गुरुवार को श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया। जिसकी अध्यक्षता मौर्या टी॰वी॰ के निदेशक मुकेश कुमार ने की। वरिष्ठ अंग्रेजी पत्रकार अभय सिंह ने क्रूपाकरण जी को बिहार की ... Posted on August 28 2010 Read more... कब तक छुपोगे [image: कब तक छुपोगे] कविता / कैलाश / ओ अंगुलिमाल तुम तो मुक्त हो गए बुद्ध का सानिध्य पा कर विलाप करते रहे उन के परिजन जिन की हत्या की थी तुम ने बढ़ता गया उन का विलाप फिर, बढ़ते ही गए अंगुलिमाल गूंजने लगा अट्टहास हत्यारों का बढ़ गई चीखें इतनी, कि सुनाई ही नहीं देता बुद्ध का स्वर- उधर वे फांसी देना चाहते हैं अंगुलिमाल को जो अभी भी मुस्कुरा रहा ... Posted on August 24 2010 Read more... पत्रकारिता : एक नज़र में - अर्थ और परिभाषा पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी में जर्नलिज्म शब्द का इस्तेमाल होता है, यह शब्द जर्नल से निकला है। इसका शाब्दिक अर्थ है- दैनिक। दिन प्रतिदिन के क्रियाकलापों, सरकारी बैठकों का विवरण जर्नल में रहता है। -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Mon Sep 20 23:47:41 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 20 Sep 2010 23:47:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= BAHASTALAB 5 : Dream Sold by Hindi Cinema and Seen by Hindi Society Message-ID: मोहल्‍ला लाइव, यात्रा बुक्‍स और जनतंत्र इस महीने की 23 और 24 तारीख को आगमन (जंगल फॉल कैंप) के सौजन्‍य से हिंदी सिनेमा पर दो दिन की बहसतलब आयोजित कर रहा है। इस बहसतलब में हम सिनेमा के उस पहलू पर बात करना चाहते हैं, जहां से सिनेमा को दर्शक का हो जाना चाहिए। न फिल्‍मकारों का, न फिल्‍म के विक्रेताओं का। बहसतलब के इस पांचवें आयोजन में हिंदी सिनेमा के विभिन्‍न आयामों को समझने की कोशिश की जाएगी। साथ ही उस बिंदु को तलाशने की कोशिश की जाएगी, जहां से वो आम दर्शकों का हो पाएगा। बहसतलब पांच के चार सत्र इस तरह हैं… ♦ किसके हाथ में बॉलीवुड की कंटेंट फैक्‍ट्री की लगाम *पहले सत्र में हिंदी सिनेमा की कंटेंट फैक्‍ट्री की ओनरशिप पर बात करेंगे। इसमें हिंदी सिनेमा जिस तरह के विषयों को छूता है, उसकी वजहों पर बात होगी और यह भी कि हिंदी सिनेमा में विषय की बंदिशें/सरहदें खुलेंगी तो कैसे। यह सत्र 23 सितंबर की सुबह साढ़े दस बजे से शुरू होकर करीब एक बजे तक चलेगा।* *मॉडरेटर* मिहिर पंड्या *विषय प्रवर्तन* अजय ब्रह्मात्‍मज *वक्‍ता* सुधीर मिश्र | अनुराग कश्‍यप | महमूद फारूकी | अनुषा रिजवी | जयदीप वर्मा | डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी *हस्‍तक्षेप* अतुल तिवारी | भूपेन *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* ♦ न तुम हमें जानो, न हम तुम्‍हें जानें *दूसरे सत्र में, जो 23 सितंबर की दोपहर से शुरू होकर शाम तक चलेगा, हम हिंदी सिनेमा में स्‍त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर बात करेंगे। इसकी भूमिका हालिया रीलीज फिल्‍म मिस्‍टर सिंह मिसेज मेहता के निर्देशक प्रवेश भारद्वाज रखेंगे और बहस को आगे बढ़ाएंगे।* *मॉडरेटर* निधि सक्‍सेना *विषय प्रवर्तन* प्रवेश भारद्वाज *वक्‍ता* सुधीर मिश्र | नीलेश मिश्र | अनुषा रिजवी | विनोद अनुपम | अनुराग कश्‍यप *हस्‍तक्षेप* दिनेश श्रीनेत | मृत्‍युंजय प्रभाकर *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* *23 सितंबर की शाम में अनुराग कश्‍यप की नयी फिल्‍म दैट गर्ल इन येलो बूट्स का शो और अनुराग कश्‍यप से बातचीत होगी।* ♦ हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाजार की तरह *(उठती है हर निगाह खरीदार की तरह)* *तीसरा सत्र दूसरे दिन, 24 सितंबर की सुबह शुरू होगा। इस सत्र में हम हिंदी सिनेमा के बाजार पर बात करेंगे। डिस्‍ट्रीब्‍यूशन सिस्‍टम पर बात करेंगे। मल्‍टीप्‍लेक्‍सेज के गणित को समझेंगे और छोटे सिनेमाघरों की मरणासन्‍न स्थिति पर बात करेंगे।* *मॉडरेटर* वरुण ग्रोवर *विषय प्रवर्तन* वरुण ग्रोवर *वक्‍ता* महेश भट्ट | अनीश | जयदीप वर्मा | अजय ब्रह्मात्‍मज | अनवर जमाल *हस्‍तक्षेप* अनुराग कश्‍यप | राकेश कुमार सिंह *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* ♦ पिक्‍चर अभी बाकी है *चौथा और अंतिम सत्र 24 सितंबर को ही दोहर से शाम तक चलेगा। इस सत्र में हम हिंदी सिनेमा की दूसरी दुनिया के लिए संभावनाएं तलाशेंगे। इसी सत्र में हम बात करेंगे कि क्‍या कभी सिनेमा का बनना मुंबई से बाहर संभव हो पाएगा। क्‍या हम जितनी आसानी से सिनेमा के बारे में सोच सकेंगे, उतनी ही आसानी से सिनेमा बना पाएंगे?* *मॉडरेटर* रामकुमार सिंह *विषय प्रवर्तन* रविकांत *वक्‍ता* डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी | अतुल तिवारी | अनवर जमाल | प्रवेश भारद्वाज | ओम थानवी | विनोद अनुपम *हस्‍तक्षेप* विनीत कुमार | अरविंद अरोरा *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* आयोजन स्‍थल है, आगमन (जंगल फॉल कैंप)। यह सूरजकुंड में है। दिल्‍ली से शून्‍य किलोमीटर की दूरी पर है। इसी रिसॉर्ट से सटी हुई राजहंस होटल की दीवार है, जो कि काफी मशहूर होटल है। तुगलकाबाद शूटिंग रेंज भी इस जगह से एक किलोमीटर की दूरी पर है। और अधिक जानकारी के लिए आप चार लोगों से संपर्क कर सकते हैं… *अविनाश 9811908884 समरेंद्र 9013335984 संजय छोकर 9810322284 शबनम पटियाल 011-41504458* आग्रह है कि आप इस आयोजन में आएं और बहस में हिस्‍सा लें। *अविनाश, बहसतलब टीम की ओर से* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Aagman - Surajkund CWG Oct 2010.pps Type: application/vnd.ms-powerpoint Size: 2085888 bytes Desc: not available URL: From avinashonly at gmail.com Mon Sep 20 23:47:41 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 20 Sep 2010 23:47:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= BAHASTALAB 5 : Dream Sold by Hindi Cinema and Seen by Hindi Society Message-ID: मोहल्‍ला लाइव, यात्रा बुक्‍स और जनतंत्र इस महीने की 23 और 24 तारीख को आगमन (जंगल फॉल कैंप) के सौजन्‍य से हिंदी सिनेमा पर दो दिन की बहसतलब आयोजित कर रहा है। इस बहसतलब में हम सिनेमा के उस पहलू पर बात करना चाहते हैं, जहां से सिनेमा को दर्शक का हो जाना चाहिए। न फिल्‍मकारों का, न फिल्‍म के विक्रेताओं का। बहसतलब के इस पांचवें आयोजन में हिंदी सिनेमा के विभिन्‍न आयामों को समझने की कोशिश की जाएगी। साथ ही उस बिंदु को तलाशने की कोशिश की जाएगी, जहां से वो आम दर्शकों का हो पाएगा। बहसतलब पांच के चार सत्र इस तरह हैं… ♦ किसके हाथ में बॉलीवुड की कंटेंट फैक्‍ट्री की लगाम *पहले सत्र में हिंदी सिनेमा की कंटेंट फैक्‍ट्री की ओनरशिप पर बात करेंगे। इसमें हिंदी सिनेमा जिस तरह के विषयों को छूता है, उसकी वजहों पर बात होगी और यह भी कि हिंदी सिनेमा में विषय की बंदिशें/सरहदें खुलेंगी तो कैसे। यह सत्र 23 सितंबर की सुबह साढ़े दस बजे से शुरू होकर करीब एक बजे तक चलेगा।* *मॉडरेटर* मिहिर पंड्या *विषय प्रवर्तन* अजय ब्रह्मात्‍मज *वक्‍ता* सुधीर मिश्र | अनुराग कश्‍यप | महमूद फारूकी | अनुषा रिजवी | जयदीप वर्मा | डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी *हस्‍तक्षेप* अतुल तिवारी | भूपेन *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* ♦ न तुम हमें जानो, न हम तुम्‍हें जानें *दूसरे सत्र में, जो 23 सितंबर की दोपहर से शुरू होकर शाम तक चलेगा, हम हिंदी सिनेमा में स्‍त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर बात करेंगे। इसकी भूमिका हालिया रीलीज फिल्‍म मिस्‍टर सिंह मिसेज मेहता के निर्देशक प्रवेश भारद्वाज रखेंगे और बहस को आगे बढ़ाएंगे।* *मॉडरेटर* निधि सक्‍सेना *विषय प्रवर्तन* प्रवेश भारद्वाज *वक्‍ता* सुधीर मिश्र | नीलेश मिश्र | अनुषा रिजवी | विनोद अनुपम | अनुराग कश्‍यप *हस्‍तक्षेप* दिनेश श्रीनेत | मृत्‍युंजय प्रभाकर *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* *23 सितंबर की शाम में अनुराग कश्‍यप की नयी फिल्‍म दैट गर्ल इन येलो बूट्स का शो और अनुराग कश्‍यप से बातचीत होगी।* ♦ हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाजार की तरह *(उठती है हर निगाह खरीदार की तरह)* *तीसरा सत्र दूसरे दिन, 24 सितंबर की सुबह शुरू होगा। इस सत्र में हम हिंदी सिनेमा के बाजार पर बात करेंगे। डिस्‍ट्रीब्‍यूशन सिस्‍टम पर बात करेंगे। मल्‍टीप्‍लेक्‍सेज के गणित को समझेंगे और छोटे सिनेमाघरों की मरणासन्‍न स्थिति पर बात करेंगे।* *मॉडरेटर* वरुण ग्रोवर *विषय प्रवर्तन* वरुण ग्रोवर *वक्‍ता* महेश भट्ट | अनीश | जयदीप वर्मा | अजय ब्रह्मात्‍मज | अनवर जमाल *हस्‍तक्षेप* अनुराग कश्‍यप | राकेश कुमार सिंह *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* ♦ पिक्‍चर अभी बाकी है *चौथा और अंतिम सत्र 24 सितंबर को ही दोहर से शाम तक चलेगा। इस सत्र में हम हिंदी सिनेमा की दूसरी दुनिया के लिए संभावनाएं तलाशेंगे। इसी सत्र में हम बात करेंगे कि क्‍या कभी सिनेमा का बनना मुंबई से बाहर संभव हो पाएगा। क्‍या हम जितनी आसानी से सिनेमा के बारे में सोच सकेंगे, उतनी ही आसानी से सिनेमा बना पाएंगे?* *मॉडरेटर* रामकुमार सिंह *विषय प्रवर्तन* रविकांत *वक्‍ता* डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी | अतुल तिवारी | अनवर जमाल | प्रवेश भारद्वाज | ओम थानवी | विनोद अनुपम *हस्‍तक्षेप* विनीत कुमार | अरविंद अरोरा *इसके बाद श्रोताओं के साथ संवाद* आयोजन स्‍थल है, आगमन (जंगल फॉल कैंप)। यह सूरजकुंड में है। दिल्‍ली से शून्‍य किलोमीटर की दूरी पर है। इसी रिसॉर्ट से सटी हुई राजहंस होटल की दीवार है, जो कि काफी मशहूर होटल है। तुगलकाबाद शूटिंग रेंज भी इस जगह से एक किलोमीटर की दूरी पर है। और अधिक जानकारी के लिए आप चार लोगों से संपर्क कर सकते हैं… *अविनाश 9811908884 समरेंद्र 9013335984 संजय छोकर 9810322284 शबनम पटियाल 011-41504458* आग्रह है कि आप इस आयोजन में आएं और बहस में हिस्‍सा लें। *अविनाश, बहसतलब टीम की ओर से* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Aagman - Surajkund CWG Oct 2010.pps Type: application/vnd.ms-powerpoint Size: 2085888 bytes Desc: not available URL: From vineetdu at gmail.com Wed Sep 22 10:17:00 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 22 Sep 2010 10:17:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWA4KSoIOCkuOCkvuCksiDgpLngpYsg4KSX4KSPIOCkrOCljeCksg==?= =?utf-8?b?4KWJ4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYHgpI8=?= Message-ID: ब्लॉगिंग करते हुए,देखते-देखते आज तीन साल हो गए। आज ही के दिन चैनल की नौकरी छोड़कर वापस रिसर्च की दुनिया में लौटा था. दिनभर की व्यस्तता,लगभग डबल शिफ्ट की नौकरी करते रहने के बाद अचानक से अपने पास बहुत समय मिलने लग गया था। कहां तो अमूमन साढ़े चार बजे उठकर साढे छह बजे तक ब्रेकफास्ट और लंच भी तैयार कर लेता,सबसे ज्यादा जो कि अब विश्वास नहीं होता,नहा भी लेता,आज की सुबह अपने पास समय ही समय..। जागने के तीन घंटे बाद तक इधर-उधर करने के बाद सोचा कि किया क्या जाए? लिखना किसी हाल में छोड़ना नहीं चाहता था। फिर अविनाश का कहा याद आया,कभी मोहल्ला देखिएगा। सदन सर की सलाह भी कि कभी कुछ पोस्ट भी कर दिया करो दीवान पर। सदन सर ने ये सलाह मुझे तब दी थी जब मैं सीएसडीएस-सराय की स्टूडेंट फैलोशिप के तहत न्यूज चैनलों की भाषिक संस्कृति पर रिसर्च कर रहा था। आज वो सोच रहे होंगे कि मैंने किस पागल को ये सलाह दे दी थी लिखने की।.बहरहाल,डेढ़-दो घंटे की माथापच्ची के बाद लिखने और दिखने लायक ब्लॉग बन गया,फिर मैं शुरु भी हो गया। नौकरी छूटी, पटेलनगर का इलाका छूटा। डीयू कैंपस में एक बार फिर रहना होने लग गया। हॉस्टल के कई मसले,रिसर्च से जुड़ी कई बातें,टेलीविजन के कई मुद्दे। एक बार लिखने लगा तो फिर लिखने के बहाने देश की जनसंख्या की गति से पैदा होने लग गए। लिखना नियमित होने लगा। शुरुआत में तो नए अफेयर में पड़े आशिक की तरह कमिटेड रहा। फिर कुछ-कुछ लफड़े होने लगे। फिर गाड़ी पटरी पर आती,फिर उतरती और इस धकमपेल में मैंने 503 पोस्ट लिख डाले। कुछ दूसरों के लिए भी लिखे। इस बीच कई लोगों ने न लिखने के,कुछ बदलकर लिखने के,कुछ उनके पक्ष में लिखने के दबाव बनाए। शुरु से जो नींबू निचोड़ शैली में लिखना शुरु किया,आगे चलकर लगने लगा कि ऐसा लिखना बहुत दिनों तक संभव न हो सकेगा। मैंने अपने ब्लॉग की दूसरी एनिवर्सरी के मौके पर जो पोस्ट लिखी उसमें इस बात का जिक्र भी किया कि चाहे कुछ भी हो जाए,लेकिन इसी अंदाज में लिखना जारी रहेगा। जिस दिन लगने लगा कि ऐसा करना बिल्कुल भी संभव नहीं है,उस दिन घोषणा करके ब्लॉगिंग बंद कर दूंगा। ऐसा नहीं था कि मेरे भीतर राजा हरीशचन्द्र की आत्मा घुस आयी थी या फिर दुनिया का सबसे बड़ा साध मैं हूं। लेकिन भीतर से लगातार ये महसूस करता हूं मैं जिस बात को मौज में आकर या फिर भावुक होकर लिख देता हूं,लोगों का उस पर भरोसा होता है और लोग हमसे ये उम्मीद बनाए रखते हैं कि मैं इसी अंदाज में,बिना किसी लागलपेट के लिखता रहूं। कोशिश तो बनी है लेकिन यकीन मानिए बड़े -बड़े सेमिनारों में सरोकारी पत्रकारिता और प्रतिबद्ध लेखन का रोना वो अंग्रेजी और बाजार के नाम पर रोते हैं,ब्लॉगिंग में ये दोनों ही समस्या नहीं है । जो जिस अंदाज में,जिस जार्गन के साथ चाहे लिख सकता है,पैसे के लिहाज से अबतक फ्री है लेकिन लोग ये हिन्दी समाज नहीं चाहता कि आप चीजों को इस रुप में लिखें। दरअसल अपने को नंगा होता देख वो बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए कई बार भाषा का,कई बार इंडिया टीवी हो जाने का,कई बार मोहल्लालाइव के नक्शे कदम पर चलने का आरोप लगाया। हमने अपने भीतर सुधार तो नहीं किया क्योंकि कभी इसकी जरुरत महसूस नहीं हुई। लेकिन सरोकारी पत्रकारिता और मानवीयता का नगाड़ा पीटनेवाले ऐेसे दर्जनों लोगों के चेहरे आंखों के सामने बेपर्द हो गए। वो इसके नाम पर अपनी दूकान चलाना चाहते हैं,सचमुच उनका बदलाव से कोई लेना-देना नहीं है। खैर, तीन साल से ब्लॉगिंग करते हुए मैंने इसे कहां तक पहुंचाया इसका आकलन कभी न कभी आप सब करेंगे। लेकिन इस आए दिन की लिक्खाड़ी और ब्लॉगिंग ने लिखने को लत में और जिंदगी को कैन डू इट में बदल दिया। समय के दबाव में चैनल के भीतर स्क्रिप्ट लिखने की आदत और हॉस्टल में सिर्फ आधे घंटे के लिए कम्प्यूटर मिलने की मजबूरी ने टाइपिंग स्पीड बढ़ा दी। इसलिए मेरी पोस्ट की लंबाई इस आधे घंटे से तय होती। जितनी लिख सकते हो इस बीच,सब लिख दो टाइप। जिंदगी का जो फलसफा हम रिसर्च करते हुए, लोगों से मिलकर भी शायद सीख पाते भी या नहीं,अकेले कमरे में खट-खट कीबोर्ड पर कुछ-कुछ लिखते रहने से सिखता रहा। छोटी-छोटी बातों का असर कम होने लगा। हममे पॉजिटिव बेहयापन आने लग गया। पहले कोई कमेंट कर जाता-ये विनीत एक नंबर का चूतिया मालूम पड़ता है,अबे विनीत तुम क्या किसी चैनल के बारे में लिखोगे,तुम्हारी औकात तो इन्टर्न की भी नहीं है। जल्दीबाजी में गरिआने के फेर में कहीं से मीडिया कोर्स करने की सलाह तक दे डालते तो बुरी तरह परेशान हो जाता। ये जो अपने भीतर की खुशफहमी होती है कि आपको सब अच्छा-अच्छा ही कहेगा। इस दौरान कई नए लोगों से रिश्ते बने,बनते से लगे,कई लोगों से बनकर टूट गए। छोटे-छोटे मसले पर उनके स्वार्थ खुलकर बजबजाने लग गए। मैं तो कहता हूं जिसकी लाइफ में आत्मविश्वास की कमी है,लोगों को जज करने की क्षमता नहीं,वो ब्लॉगिंग जरुर करें। पहले मैंने ब्लॉग को गाहे-बगाहे नाम से शुरु किया,जिसका लिंक तानाबाना था, कल तक उसका वही नाम था। लेकिन आज मैंने उसे बदलकर हुंकार कर दिया। लिंक का नाम भी वही कर दिया। अब लिखना न तो गाहे बगाहे का मामला रह गया है और न ही ताना-बाना की मासूमियत में खालिस नास्टॉल्जिक ही इसलिए ऐसा करना जरुरी समझा। फिर हां जी सर कल्चर के खिलाफ लाइन को हुंकार बेहतर तरीके से सपोर्ट करता है। इच्छा तो ये भी थी कि इसे और एडवांस शक्ल दी जाए। एक दोस्त के उकसावे और लगातार सहयोग ने इसमें गति भी दी लेकिन बीच की स्थितियों की किच-किच में हम फिर से वहीं आ गए। एक लेखक के चीजों को अपनी समझ,पसंद,सौन्दर्य के नजरिए के हिसाब से तकनीक को नहीं ढाल पाने की छटपटाहज आज महसूस करता हूं। आप सब मुझे पढ़ते हैं,मेरे कुछ दिन न लिखने पर मेल और फोन के जरिए आशंका जाहिर करते हैं कि मैं कहीं बीमार तो नहीं। यही बात हमसे अक्सर लिखवा जाती है। इसे आप दीहाड़ी की हाजिरी समझे या वेवजह की बकर-बकर लेकिन मैं समझता हूं जारी ही रहे तो अच्छा रहेगा। बस आज तीन साल होने पर मुझे वो कई सारे ब्लॉगर याद आ रहे हैं जिनसे लगातार उत्थम-गुत्थी होती रहे,फोन पर तक भिड़ते रहे,अब वो अपने-अपने धंधे-पानी में लग गए हैं,बच्चे को नियमित टीका दिलाने ले जाने लगे हैं या फिर साइलंट रीडर हो रहे हैं। वो फिर से पुराने तेवर में आ जाएं तो मजा आ जाए। आज के दिन ब्लॉगवाणी को बहुत मिस कर रहा हूं। मेरी बड़ी इच्छा थी कि ज्ञानोदय में ब्लॉग पर जो मेरा कॉलम शुरु हुआ था,जिसे मैंने नैतिक आधार पर जारी रखना बेहतर नहीं समझा,वहां पूरी की पूरी स्टोरी लिखूं। यही पर आकर हमारी ब्लॉग की सक्रियता पर एक सवालिया निशान खड़ा हो जाता है कि तीन-चार महीने तो हो गए हमने इस एग्रीगेटर को फिर से खड़ी करने की न तो कोशिश की और न ही इसकी जरुरत पर गंभीरता से कोई चर्चा ही की।..ये सब याद आता है,अपने वर्थडे को जैसे-तैसे पिछले 15-16 सालों से किसी तरह कट जानेवाले दिन की तरह गुजारता आया लेकिन ब्लॉग शुरु करनेवाले दिन को लेकर कुछ ज्यादा ही इमोशनल हो जाता हूं।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Sep 22 20:29:44 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 22 Sep 2010 20:29:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS44KSk?= =?utf-8?b?4KSy4KSsIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSu4KSC4KSh4KWAIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSJ4KS4LCDgpJzgpYfgpI/gpKjgpK/gpYIg4KSV4KWHIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+4KS4IOCkueCli+Ckl+ClgCDgpJfgpL7gpKHgpLzgpYA=?= Message-ID: बहसतलब 5 “सिनेमा देखता समाजः सपना दिखाता सिनेमा” में शामिल होने की इच्छा रखनेवाले लोगों के लिए आने-जाने की व्यवस्था है। आपलोगों में से जो भी आना चाहे,वो अपनी सुविधानुसार इनमें से किसी भी जगह से आयोजक की ओर से की गयी कैब से आ-जा सकते हैं। - जेएनयू की मेन गेट के पास बहसतलब की गाड़ी होगी जो कि वहां से सुबह आठ बजे खुलेगी। थोड़े अंतराल पर दूसरी गाड़ी खुलेगी। - हिमाचल भवन के ठीक सामने से, मंडी हाउस से आठ बजे बहसतलब की कैब छूटेगी। आप विशेष स्थिति में अविनाश-9811908884 से संपर्क कर सकते हैं>. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Sep 27 09:11:44 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 27 Sep 2010 09:11:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCkpOCljeCksCDgpKzgpYngpLLgpYDgpLXgpYHgpKEg4KS44KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSu4KS+4KSDIOCkleCkguCkn+Clh+CkguCknyDgpKvgpYg=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSf4KWN4KSw4KWAIOCkleClgCDgpLLgpJfgpL7gpK4g4KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KSV4KWHIOCkueCkvuCkpQ==?= Message-ID: बहसतलब 5- मेरी रिपोर्ट पढ़ने के दौरान बार-बार सिनेमा शब्द आने से आप भी सोचेगें कि इन सिरफिरों को सिनेमा की अच्छी ठरक चढ़ी है। जहां पूरा देश राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मसले पर आनेवाले फैसले को लेकर सुलगने-बुझने की स्थिति में है, सब जगह चौक-चौबंद लगा दिए गए हैं, दूसरी तरफ दिल्ली का हर शख्स बाढ़ और कॉमनवेल्थ की खबरों के बीच डूब-उतर रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जब ये देश दो सबसे बड़े मुद्दों के बीच अटक सा गया है, ये लोग उससे मुक्ति सिनेमा में जाकर खोज रहे हैं। जिस सूरजकुंड के रिसॉर्टों के बीच लोग चिल्ल होने आते हैं, वो सिनेमा के पचड़ों को लेकर क्यों चले गए? मौजूदा हालातों से अगर ये पलायन है तो फिर ये योग और आध्यात्म की गोद में गिरने के बजाय सिनेमा के बीच जाकर क्यों गिरे? इसे आप खास तरीके का बनता समाज कहें, तारीखों का संयोग या फिर देश की राजनीति और खेल की तरह ही सिनेमा का भी उतना ही जरुरी करार दिया जाना, ये आप तय करें। फिलहाल… ये कोई नई बात नहीं है कि सिनेमा को लेकर अपने-अपने दौर में हममे से अधिकांश लोग पागल होते आए हैं। कोई किसी खास हीरो हीरोईन को लेकर, कोई सीन को लेकर तो फिर कोई खालिस सिनेमा देखने को लेकर। तब हीरो-हीरोईन, फिल्म स्टोरी चाहे जो भी हो क्या फर्क पड़ता है? लेकिन सिनेमा को लेकर इस पागलपन में अगर उससे जुड़ी बहसें और विमर्श भी शामिल हो जाएं तो क्या कुछ मामला बदल सकता है? हम अपने मिजाज का सिनेमा होने की मांग को, सिनेमा बनानेवालों के बीच एक दखल के तौर पर रख सकते हैं, कुछ इसी नीयत से बहसतलब 5 में “सपने दिखाता सिनेमा, सिनेमा देखता समाज” के आयोजन में हम शामिल हो गए। सिनेमा को लेकर कुछ सपने तो हमें इस बहस में शामिल होते ही पूरे होते दिख गए कि जिन फिल्मकारों की फिल्मों को देखने के दौरान हम सिनेमाघरों में रुमाल नचाने और सिटी बजानेवाले का काम करते आए, कभी सीरियस हुए तो कभी अपने भीतर उनके बनाए चरित्र खोजने लग जाते, वे कई फिल्मकार हमें चाय पीते, मौसम का हाल पर बात करते नजर आ गए। बहरहाल, निर्धारित समय से करीब पच्चीस मिनट की देरी पर करीब 11 बजे सुबह सिनेमा पर इस बहसतलब की शुरुआत हो जाती है। कार्यक्रम को लेकर औपचारिक परिचय देते हुए यात्रा बुक्स की संपादक नीता गुप्ता जून में हुई बहसतलब के बीच से छिटककर आए इस विषय पर बात करती है और इन सब बातों की चर्चा करते हुए वो माइक मोहल्लालाइव के मॉडरेटर अविनाश की ओर माइक बढ़ाती है। सिनेमा ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक हो, मुंबई से बाहर निकले सिनेमाः अविनाश अविनाश इस कार्यक्रम की जरुरत को सीधे-सीधे आम आदमी की बेचैनी से जोड़ते हैं। लोगों के पास बहुत सारे सवाल हैं। इन सवालों का जबाब देने के लिए लोग भी हैं। लेकिन सवाल कायदे से पहुंच नहीं पाते। बहुत सारे सवाल फुसफुसाहट बनकर रह जाते हैं। मई में हमने बहसतलब की शुरुआत की। जून में विषय रखा था – अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी। अनुराग अचानक से आए, सवालों की बारिश शुरु हो गयी। लगा कि पहली बार ऐसा आदमी फंसा है, सारे सवाल इन्हीं पर उतारो। दोनों ने इन्ज्वॉय किया। लगा की बात अधूरी रह गयी लेकिन इंडिया हैबिटेट में समय की बंदिश थी। फिर इसे बड़े फलक पर कराने का मन बनाया। हमने फिल्मकारों को बुलाने की सोची। सिनेमा को लेकर जो कॉमन पीपल के दिमाग में सवाल होता है वो फिल्मकारों से सीधे बात करे। जो अलग किस्म का मेनस्ट्रीम बन रहा है, हम चाहते हैं कि सिनेमा मुंबई से कभी पटना में चला जाए, जयपुर चला जाए। सिनेमा में लोकतांत्रिककरण हो, हम इसे कितना बेहतर कर पाते हैं, इस पर फोकस करेंगे। हमने इन कार्यक्रमों के संचालन के लिए बिल्कुल नए लोगों को चुना है। सारे मॉडरेटर नौजवान हैं, सीधे सिनेमा में नहीं है लेकिन सिनेमा पर बात करते हैं। सिनेमा देखते हुए उनकी अपनी समझ है। हम चाहते हैं कि बहस इन्हीं लोगों से बीच होकर आगे बढ़े। पहला सत्रः किसके हाथ में वॉलीवुड की कंटेंट फैक्ट्री की लगाम कंटेट फैक्ट्री की लगाम किसके हाथ में होती है, इस पर तो वक्ताओं ने अलग-अलग राय जाहिर किए ही जिनके मत एक-दूसरे से विल्कुल अलग रहे लेकिन करीब तीन घंटे तक चलनेवाले सत्र की लगाम मिहिर के हाथ में रही। मिहिर नये दौर की फिल्म समीक्षा में एक जरुरी नाम हैं, इस सत्र के मॉडरेटर के तौर पर उन्होंने बहस का माहौल ‘हरीश्चंद्राची फैक्ट्री’ सिनेमा की उस सीन से बताया जहां दादा साहेब फाल्के सिनेमा को पर्दे के सामने बैठकर देखने के बजाय उल्टा होकर देखने लगते हैं प्रोजेक्टर की तरफ। उन्हें समझ में आ जाता है कि असल में वहीं फिल्म की चाबी है। कई मायनों में यही हिन्दुस्तानी सिनेमा के जन्म का बिंदु है। इसी मेटाफर को बदलकर देखें तो पर्दे के आगे का सच क्या है, इसे समझकर हम पर्दे पर चलनेवाली फिल्म के कंटेंट की लगाम को समझ सकते हैं। यानी ऑडिएंस कौन है, उसकी क्या पहचान है, उसके क्या सवाल हैं? साथ ही बहस शुरु होने से पहले ही एक संभावित सवाल उठाए कि मल्टीप्लेक्स के आने के बाद से क्या सिनेमा का कंटेंट तेजी से बदल रहा है? और यदि बदला है तो वो सिनेमा के कंटेंट के लिए किस हद तक साकारात्मक या नकारात्मक है? इसे भी समझना दिलचस्प होगा। अपनी इस छोटी सी नोट्स के बाद मिहिर ने वॉलीवुड की कंटेंट फैक्ट्री की लगाम विषय पर बहस के पहले उसकी जमीन तैयार करने के लिए अजय ब्रह्मात्मज को बुलाया। सिनेमा हिन्दी का और विमर्श अंग्रेजी में, ये सही नहीं है – अजय ब्रह्मात्मज अजय ब्रह्मात्मज के हिसाब से फिल्में अच्छी हिन्दी में बनती है लेकिन विमर्श अंग्रेजी में होता है। कुछ लोगों ने साजिशन सिनेमा को अपनी की तरफ किया है। ये वैसे लोग (मंच पर बैठे लोगों की तरफ इशारा करते हुए) हैं, जो सिनेमा में सेंध मार चुके हैं, अपनी एक जगह भी बना रहे हैं। मैं इसे ऐतिहासिक कदम मानता हूं। हर लंबे सफर की शुरुआत एक छोटे कदम से होती है। इस बहसतलब में ऐसे लोगों को चुना है, जो सवाल हिन्दी में सुनकर जबाब अंग्रेजी में नहीं देते, वो आपकी भाषा में बात करेंगे। अजय ब्रह्मात्मज की अपनी समझ है कि इस तरह के विमर्श से मेनस्ट्रीम की सिनेमा के बीच नई तरह की स्थितियां पैदा हो सकती है। उनकी इस समझ और विषय प्रवर्तन (सब्जेक्ट इन्ट्रोडक्शन) के साथ पहले सत्र की बहस की शुरुआत हो जाती है जिसे आगे पहले वक्ता के तौर पर अनुराग कश्यप और गर्माते चले जाते हैं। सिनेमा की लगाम मेरे ही हाथ में होती हैः अनुराग कश्यप मेरे सिनेमा की लगाम मेरे हाथ में है। वैसे बजट डिसाइड करता है कि सिनेमा की लगाम किसके हाथ में होगी। प्रोड्यूसर का पेट कितना मजबूत या कमजोर है, किसे जल्दी बबासीर हो जाता है और किसे नहीं होता, ये भी बहुत निर्भर करता है। इसमें फंड भी एक जरुरी मसला है। अलग-अलग देशों में इसके लिए ग्रांट हैं। दीपा मेहता को कनाडा से ग्रांट मिलता है। कई देश इसे टूरिज्म के हिस्से का मानकर ग्रांट देते हैं। हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। अपने पर्सनल अनुभवों को शेयर करते हुए उन्होंने आगे कहा कि उड़ान बहुत अच्छा नहीं कर पायी लेकिन उस वक्त सेटेलाइट का मार्केट अच्छा था उस वक्त तो रिकवरी हो गयी। मैं पब्लिक स्कूल का पढ़ा हूं, मेरे कुछ दोस्त हैं जिनके पास पैसे हैं तो उनसे उधार मिल जाती हैं। लेकिन अनुराग के फंड के इस तरीके को हम एक ढांचा तो नहीं ही मान सकते हैं। बस इतना है कि आप पर्सनल लेवल पर फिल्म बनाने के साथ-साथ उसके बनाने के साधन और खर्चे किस तरह से जुटा पाते हैं, ये एक जरुरी सवाल बनकर सामने आता है। मतलब ये कि फिल्म बनाने की कामना के साथ-साथ इस बारीकी को भी समझना अनिवार्य है कि सिर्फ आइडिया ही काफी नहीं है, उसे फिल्म की शक्ल देने के लिए बाकी के भी ताम-झाम समझने होंगे। एक समस्या और भी है कि जब मैं फिल्म बनाने की सोचता हूं तो उस समय तो कोई फंड देने को तैयार नहीं होता लेकिन वही बन जाने पर रिलीज करने के वक्त लड़ाई शुरु हो जाती है। वैसे रिस्क कोई नहीं लेना चाहता। आगे उन्होंने कहा कि मेरे ख्याल से कंटेंट की जब बीज डाली जाती है तब प्रोड्यूसर की भूमिका होती है लेकिन चूल्हे पर चढ़ने पर मसाला बदल जाता है। हम वही फिल्म हूबहू नहीं बनाते जो स्क्रिप्ट हम सुनाते हैं। हमें ये करना पड़ता है। एक भी फिल्म अच्छी चल गयी तो कई बाहरी फायदे हैं लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता। कई बार एक फिल्म के सक्सेस होने से 2-3 साल तक छूट मिल जाती है। आप उसके नाम की कमाई खा सकते हो लेकिन ये काम लंबे समय तक नहीं चल सकता। रामू यानी रामगोपाल वर्मा के साथ फिलहाल वही स्थिति है, अब वो ऐसा नहीं करने की स्थिति में नहीं हैं। फिल्म में जो सबसे बड़ी बात है वो ये कि बजट ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है लोगों के आइडियाज बंटने लग जाते हैं। बजट बढ़ने से ओपिनियन मेकर की भूमिका बढ़ जाती है। मतलब साफ है जिसे कि अनुराग बहुत जोर देकर बताते हैं कि जैसे-जैसे आपकी फिल्म का बजट बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे उसमें बाकी लोगों की मर्जी और इच्छाएं शामिल होती जाएगी, सिनेमा की लगाम बंटती चली जाएगी। फिर कोई एक यूनिनेमस तरीके से लगाम नहीं रह जाती है। एक और जरुरी बात कि हमारे हिन्दी सिनेमा का प्रॉब्लम इटरवल है। आप हिन्दुस्तान में बिना इन्टर्वल के फिल्म बना नहीं सकते। इसमें फूड एंड वेवरेज का बड़ा बिजनेस हैं। इन्टर्वल होने से कहानी के दो भाग हो जाते हैं। इस इन्टर्वल के दौरान विज्ञापन का स्पेस तो जरुर बन जाता है लेकिन कई ऐसी चीजें बिखरती जाती है। लेकिन हमें ये बात समझनी होगी कि ये आर्ट फार्म तो है लेकिन बिजनेस का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल है। इसलिए कल के लिहाज से आज के सिनेमा में उसी तरह से आर्ट को देखना मुश्किल हो गया है और आज उसी रुप में सिनेमा को बनाना मुश्किल काम है। इंडियन सिनेमा का ये सबसे खराब फेज हैः जयदीप वर्मा जयदीप अपनी बात की शुरुआत एक प्रसंग से करते हैं। सुधीर मिश्रा, सईद मिर्जा औऱ कुंदन साह बैठे थे। 45 मिनट से बात कर रहे थे… उनकी बाते… मतलब बहुत ही मजा आ रहा था। कुछ देर के बाद मैंने उनसे पूछा कि इस तरह की बातें कर रहे हो तो इस किस्म की फिल्में क्यों नहीं बनाते। उन्होंने कहा कि पैसा कौन देगा? इस मामले में अनुराग से अलग लगता है मेरा व्यू- इंडियन सिनेमा का सबसे खराब फेज है। सुधीर मिश्रा ने कहा कि हजारों ख्वाहिशें जैसी फिल्म फिर नहीं बना सकते। अगर वो नहीं बना सकते तो बाकी के क्या चांस हैं? कुछ नहीं. कुछ देर के लिए मैं बाहर जा रहा हूं, मेरे को नहीं करना है ये? जिस लेबल पर जाना पड़ता है, ये सिर्फ इंडिया में नहीं हो रहा है, ये दुनियाभर में जारी है. सिनपेन ने इनटू दि वाइल्ड फिल्म बनायी लेकिन वही शख्स इस तरह की फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। ये बहुत ही भयावह है। इंडिया में और भी बुरा है, बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं। मेरे ख्याल से सब कुछ होना चाहिए लेकिन सबसे बड़ी बिडंबना है कि ये सबसे डायवर्स कंट्री है लेकिन सबसे कम विविधता वाली स्टोरी आती है। सबसे इम्पार्टटेंट लोग प्रोड्यूसर है लेकिन… अपने यहां वो अवार्ड नहीं देते… शायद इससे मोटिवेशन चेंज हो जाए। प्रोड्यूसर के पास ये स्कोप है, लेकिन वो ऐसा नहीं करते। स्टार में सिर्फ ऐसा आमिर खान ही करते हैं। लेकिन क्या, इस देश में सिर्फ पल्प फिक्शन बनकर रहेगा, क्या लिटरेचर पर कोई फिल्म नहीं बन पाएगी। जिनके पास पैसा है उनके पास स्पिरिट क्यों नहीं है कि कुछ अलग प्रोजेक्ट पर काम करें। रिलांयस के पास पैसा है, इतना बड़ा वेंचर है लेकिन वो चींटी को भी बुरी तरह पीस कर खा जाएंगे। ये बहुत बुरी चीज है इनके पास इतना पैसा है लेकिन सबको पीस डालने की जो प्रवृति है वो चिंताजनक है। पूरी रिपोर्ट पढञने के लिए चटकाएं- http://mohallalive.com/2010/09/24/bahastalab-5-first-day-first-session/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Sep 27 09:12:54 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 27 Sep 2010 09:12:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KS44KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkpOCljeCksOCkgyDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWH4KSu4KS+IOCkruClh+CkgiDgpLjgpY3gpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KWALeCkquClgeCksOClgeCktyDgpLjgpILgpKzgpILgpKc=?= Message-ID: न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें। हां, दूसरे सत्र का शीर्षक यही था, जिसमें हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर लंबी बहस चली। सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध जहां उसकी लोकप्रियता का बड़ा आधार तय करते हैं, वहीं प्रयोग का एक बड़ा दायरा इन संबंधों को लकर ही बनते हैं। सिनेमा को लेकर समाज का जो बड़ा तबका राय बनाता आया है, उसमें कहीं न कहीं स्त्री-पुरुष संबंध के ट्रीटमेंट शामिल हैं जो कि आगे चलकर संस्कृति, मूल्य, परंपरा और नैतिकता आदि के सवाल से जुड़ जाते हैं। इसी के हवाले से सेंसर बोर्ड की सहमति के बावजूद प्रतिक्रियावादी लोगों, संगठनों की सक्रियता बढ़ जाती है। बहरहाल, इस दूसरे सत्र के मॉडेरेशन का काम निधि सक्सेना के जिम्मे होता है। निधि दूरदर्शन के लिए डॉक्यूमेंटरी फिल्में बनाती हैं। फाइन आर्ट्स पर लिखी उनकी पोस्टों को हम लगातार मोहल्ला लाइव पर पढ़ते आये हैं। बहस की शुरुआत उनकी छोटी सी लेकिन जरूरी नोट्स से शुरू होती है, जहां वो स्त्री-पुरुष संबंध का खांचा हमारे सामने दो स्तरों पर खींचकर रखती हैं – एक संबंध जो कि समाज में मौजूद है, सक्रिय और प्रैक्टिस में है और दूसरा कि सिनेमा में कैसे संबंध बनते आये हैं। इन दोनों तरह के संबंधों में हमेशा बदलाव की गुंजाइश तो बनी रहती है लेकिन ओवरऑल वो क्या स्टैब्लिश करते हैं इसे समझना जरूरी है। इसलिए निधि ने शुरुआत में ही साफ कर दिया कि इस सत्र में हम दुनियावी और सिनेमाई दोनों स्त्री-पुरुष संबंधों पर बात करेंगे। उसके ऐसा कहने के बाद से वक्ताओं के बोलने का दौर शुरू होता है और सबसे पहले मिस्टर सिंह मिसेज मेहता के डायरेक्टर प्रवेश भारद्वाज विषय प्रवर्तक के तौर पर अपनी बात रखते हैं। फिल्में बेसिकली हीरो की होती हैं, हीरोइन की नहीं – प्रवेश भारद्वाज प्रवेश भारद्वाज के हाथ में जो पर्चा होता है, उसमें हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम और इसके बीच हीरोइन की क्या हैसियत होती है, उसकी एक लंबी सूची होती है। वो सिनेमा एक-एक करके रेफरेंस देते हुए बताते हैं कि कैसे सिनेमा हीरो और हीरोइन की न होकर अंततः हीरो का ही होता है। इस बात को वो एक संस्मरण के जरिये और साफ करते हैं। आज हम हीरो-हीरोइन की बात करेंगे। फिल्मों में हीरोइन इसलिए होती है कि वो हीरो को रिझा सके। फिल्म में एक से ज्यादा नायिका होने की स्थिति में नायिका बंट सी जाती है। हमने जब फिल्म बनानी चाही और उसकी कहानी सुनाया तो हमें सलाह दी गयी कि फिल्म हीरो की होती है, तुम्हारी फिल्म हीरोइन की है, तुम सीरियल बनाओ। प्रवेश भारद्वाज की कुल बातों में से सबसे असरदार बात यही रही कि उन्होंने कहा कि आमतौर पर किसी भी फिल्म में हीरोइन के प्रति चार्म, ललक होने के बावजूद भी वो हीरो का ही सिनेमा होता है। उनकी ये बात समाज में स्त्री-पुरुष के बीच स्त्री की हैसियत को काफी हद तक स्‍पष्‍ट करती है। लेकिन वो खुद कभी भी स्त्री-पुरुष शब्द का नहीं बल्कि हीरो-हीरोइन शब्द का प्रयोग करते हैं। हीरो-हीरोइन के बीच के संबंधों को लेकर फिल्मों की सूची में सबसे पहले वो देवदास की बात करते हैं। देवदास ने प्रेम को कहीं पारिभाषित कर दिया है और कुछ इस तरह से कि प्रेम इसी तरह से होते हैं या हो सकते हैं। पारो और देवदास को एक ही मोहल्ले का दिखाया गया है। दोनों बचपन में साथ खेलते-पढ़ते हैं और बड़े होकर प्रेम करने लग जाते हैं। मुझे ऐसे रिश्ते में कई प्रैक्टिकल प्रॉब्लम आती है। मोहल्ले में साथ रहनेवाले लड़के-लड़कियां आपस में भाई-बहन के तौर पर माने जाते हैं और यहां… फिर मुझे इस बात में दिक्कत लगती है कि हीरो दुखी होकर शराब क्यों पीता है, ये समझ नहीं आता। आदित्य चोपड़ा की दिलवाले हम सबने देखी। अब तक फिल्म उतरी नहीं है। लड़की प्रेम करती है लेकिन मर्यादा में रहकर। यशराज की फिल्मों की सफलता में सबसे बड़ा रोल इसी बात का रहा है। हीरोइन आधी से ज्यादा फिल्मों में मिनी स्कर्ट और टॉप पहनेगी लेकिन वो प्यार करने के लिए प्रेमिका के तौर पर तभी दिखेगी जबकि वो साड़ी पहनकर आती है। हम जैसे दर्शकों ने भी कई ऐसी फिल्में देखी हैं, जहां हीरोइन के साड़ी पहनकर आते ही हीरो को प्यार हो जाता है गोया प्यार की वजह हीरोइन न होकर साड़ी ही हो। ऐसे सीन और फिल्मों का एनआरआइ रुचि बनाने में योगदान रहा। टीनएज में रोमांस पर बनी फिल्मों में देखें तो बाबी… बाबी और राजा की कहानी… ग्लैमर को पुनः परिभाषित कर दिया गया। टीन एज रोमांस पहले भी आया। अल्हड़ लड़की के आने से बात बदल गयी। ऐसी फिल्मों का अंत दुखांत होता है लेकिन बॉबी इसका अपवाद है। इसी तरह आप देखेंगे कि फिल्म में हीरो-हीरोइन के स्टेटस को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं। प्रवेश भारद्वाज ने साफ कहा कि फिल्मों में प्रेम को जिस रूप में दिखाया जाता है, उसमें सबसे ज्यादा पहली बार में जो प्रेम हो जाता है, उससे दिक्कत है। ऐसा लगता है कि प्रेम सिर्फ और सिर्फ खूबसूरत लड़कियों से ही संभव है। पहली बार में प्रेम हो जाने का आधार भी वही होता है। इसी प्रेम को लेकर कई फिल्मों में प्रेम-त्रिकोण पैदा करने का फॉर्मूला है। संगम इसका एक उदाहरण है। गोपाल और राधा की प्रेम कहानी। लेकिन शादी सुंदर से होती है। इस प्रेम-त्रिकोण में शादी बहुत इपॉर्टेंट होती है। हर हाल में ऐसे में दिखाया जाता है कि प्रेम किसी और से है और शादी किसी और से होती है। शादी जब भी होती है, मुश्किल हालात में ही होती है। त्रिकोण की फिल्मों में दोहरी भूमिका का योगदान होता है। इस प्रेम को लेकर शहरी-प्रेम को थोड़ा अलग करके दिखाया जाता है। शहरी परवरिश में अधिकतर में शादी गायब रहती है। अगर अपनी तरफ से एक फिल्म चुनूं तो अर्थ महत्वपूर्ण है। गाइड में एक और रूप दिखता है। ये थीम बहुत कम आया है कि नायिका अपनी मर्जी से शादी के स्वार्थ से अलग हुई है। अब फिल्मों में स्टेटस की बात करें जो कि एक ही साथ कई अर्थों को स्टैब्लिश करता है… कि हीरो अक्सर खानदानी होता है। खानदान के फेर में प्रेम की बलि चढ़ जाती है। लेकिन हां, पाकीजा सरीखी कुछ फिल्मों में तवायफ को खुशनसीबी जरूर मिल जाती है। फिर भी मीना कुमारी को एक सुख भी नहीं मिलता है। हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में जो कुछ भी कहा, वो दरअसल संबंधों और प्रेम को लेकर सिनेमा में जो फार्मूला बने हैं, उसका एक ब्योरा है, जिसे कि उन्होंने खुद भी एक फार्मूले की शक्ल देकर हमारे सामने रखा। मैं तो सुनते हुए सोच रहा था कि काश यहां डीयू के ज्यादा से ज्यादा वो स्टूडेंट मिल जाते जो कि सिनेमा पर एमफिल कर रहे हैं, तो एक चैप्टर लिखने से बच जाते। प्रवेश भारद्वाज के बाद सुधीर मिश्रा ने माहौल को संजीदा बनाने के अंदाज में कहा कि ये तो सबसे अच्छा है कि स्त्री-पुरुष में संबंध बने। हॉल ठहाकों से गूंज गया लेकिन फिर हम कब अचानक से सीरियस हो गये पता ही नहीं चला। रिश्तों के मामले में हिंदी सिनेमा एक बड़ा एचीवमेंट है – सुधीर मिश्रा मैंने कई बार इस बात पर सोचने की कोशिश की, ये कठिन विषय है। यही कहा जा सकता है कि रिश्ते होने चाहिए। मैं कभी फंसा नहीं इस रिश्ते के दायरे में, जिसे हिंदी सिनेमा डिफाइन करता है। इसलिए इस मामले में इस तरह से बात नहीं कर सकता। जब हजारों ख्वाहिशें ऐसी की स्क्रिप्ट लेकर घूम रहे थे… चार-पांच साल लेकर घूमा… एक ने कहा कि ये लड़की यानी फिल्म की हीरोइन गीता तो छिनाल है। अब आप बताएं कि आप इस बात को किस तरह से डिफाइन करेंगे। एक सीन है, जिसमें विक्रम गीता से मिलने जाता है एक घर में, जो उसने गीता को दिलाया है। गीता से कहता है, क्या तुम अपने पति से प्यार करती हो और गीता इस बात पर हंसती है। मैं जा रही हूं सिद्धार्थ के पास। एक ही सीन में अपने पति को रिजेक्ट करती है, दोस्त को रिजेक्ट करती है। आप उससे चिढ़ते नहीं। आप नहीं मानते कि गलत है। ये जो ख्वाहिश है हिंदी सिनेमा में, उसमें आप रिश्‍तों का फर्क देख रहे होंगे। इम्तियाज अली की फिल्म देखेंगे तो खासा इंटरेस्टिंग है। लव आजकल में देखें तो लड़की एक इंडीविजुअल है। ये बहुत ही रैडिकल है जो कि गाइड के बाद दिखता है। इसका एक उदाहरण देव डी भी है। देवदास प्रोटोटाइप है। गद्दावाला सीन ये डिमांड करता है उसकी तरफ से सेक्सुअल डिजायर है। मैं तो कहता हूं कि काफी बदलाव आ रहा है। जिस तरह से आप रिश्तों को देख रहे हैं वो हिंदी सिनेमा में काफी दिलचस्प है। इस हिसाब से नासिर हुसैन साहब की फिल्मों की देखिए। दूसरी बात कि हिंदुस्‍तानी सिनेमा ने, गानों ने इसे बहुत ही आर्टिकुलिकेट किया है। हर हिंदुस्तानी फिल्मकार की ख्वाहिश रही है कि वो इस रिश्ते की खूबसूरती को बयान करे। ये एक तरह की एचीवमेंट है। राजकपूर की फिल्मों में एक भली सी स्त्री भटके हुए पुरुष को राह दिखाती है। इस मामले में हिंदी सिनेमा ने कई चीजों को तोड़ा है। इसके फार्म में बहुत जगह है, वहां भी एक्सप्लोरेशन है। जो सामाजिक त्रुटियां रही हैं, उसमें कसकर टिप्पणी की गयी है, इस मामले में हिंदी सिनेमा की एक बड़ी उपलब्धि है। प्रवेश भारद्वाज के बाद सुधीर मिश्रा को सुनते हुए हमने महसूस किया कि प्रवेश जहां हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर एक फार्मूला बन जाने की बात कर रहे हैं और इस हिसाब से एक स्टैटिक सिचुएशन की ओर इशारा कर रहे हैं, जो कि निस्संदेह ज्यादा बड़ा हिस्सा है, वहीं उनसे अलग सुधीर मिश्रा उन चिन्हों और फिल्मों की तरफ इशारा करते हैं, जहां सिनेमा के भीतर एक प्रोग्रेसिव और स्त्री की स्वतंत्र सत्ता बनती नजर आती है। इन दोनों वक्ताओं के बाद फिल्म समीक्षक और पत्रकार विनोद अनुपम ने जो कहा वो बहस के मौके को बढ़ाने के लिए जोरदार साबित हुए। सिनेमा में अराजक हुआ है स्त्री-पुरुष संबंध – विनोद अनुपम इस मामले में बड़ी गड्डमड्ड स्थिति है। हम सिर्फ स्त्री-पुरुष, विवाहेतर संबंधों में फंसकर रह जाते हैं। देवर-भाभी, बहन सब पर फिल्में बनी हैं लेकिन आज नहीं हैं। मां-बेटे के रिश्ते क्यों नहीं दिखाई देते। देवर-भाभी के संबंध में दिखाई क्यों नहीं देते। लेकिन आज जब भी चर्चा करते हैं तो स्त्री कितनी स्वतंत्र हो गयी है, पुरुष कितना अराजक हो गया। ये बहस सही दिशा में नहीं जाती। गाइड सबसे बड़ी फिल्म है नारी मुक्ति की। ये समाज के अंदर की फिल्म है इसलिए वो अराजक नहीं लगती जितना कि जिस्म की स्वतंत्रता अराजक दिखाई देती है। जहां फिल्मों से संबंध गायब हो गये और प्रवेश को इंग्लैंड जाना पड़ा मिसेज मेहता बनाने के लिए। परिवार के दिखाने पर रिश्ते अराजक नहीं रह जाते। फिल्मों से सामाजिक नियंत्रण कितना रह गया है, ये बहुत जरूरी मुद्दा है। क्या सामाजिक नियंत्रण नहीं है? अगर नहीं है तो रिश्तों में अराजकता है, क्या उसका हम सम्मान करेंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Sep 27 09:14:46 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 27 Sep 2010 09:14:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KS44KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkpOCljeCksOCkgyDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWH4KSu4KS+IOCkruClh+CkgiDgpLjgpY3gpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KWALeCkquClgeCksOClgeCktyDgpLjgpILgpKzgpILgpKc=?= Message-ID: न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें। हां, दूसरे सत्र का शीर्षक यही था, जिसमें हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर लंबी बहस चली। सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध जहां उसकी लोकप्रियता का बड़ा आधार तय करते हैं, वहीं प्रयोग का एक बड़ा दायरा इन संबंधों को लकर ही बनते हैं। सिनेमा को लेकर समाज का जो बड़ा तबका राय बनाता आया है, उसमें कहीं न कहीं स्त्री-पुरुष संबंध के ट्रीटमेंट शामिल हैं जो कि आगे चलकर संस्कृति, मूल्य, परंपरा और नैतिकता आदि के सवाल से जुड़ जाते हैं। इसी के हवाले से सेंसर बोर्ड की सहमति के बावजूद प्रतिक्रियावादी लोगों, संगठनों की सक्रियता बढ़ जाती है। बहरहाल, इस दूसरे सत्र के मॉडेरेशन का काम निधि सक्सेना के जिम्मे होता है। निधि दूरदर्शन के लिए डॉक्यूमेंटरी फिल्में बनाती हैं। फाइन आर्ट्स पर लिखी उनकी पोस्टों को हम लगातार मोहल्ला लाइव पर पढ़ते आये हैं। बहस की शुरुआत उनकी छोटी सी लेकिन जरूरी नोट्स से शुरू होती है, जहां वो स्त्री-पुरुष संबंध का खांचा हमारे सामने दो स्तरों पर खींचकर रखती हैं – एक संबंध जो कि समाज में मौजूद है, सक्रिय और प्रैक्टिस में है और दूसरा कि सिनेमा में कैसे संबंध बनते आये हैं। इन दोनों तरह के संबंधों में हमेशा बदलाव की गुंजाइश तो बनी रहती है लेकिन ओवरऑल वो क्या स्टैब्लिश करते हैं इसे समझना जरूरी है। इसलिए निधि ने शुरुआत में ही साफ कर दिया कि इस सत्र में हम दुनियावी और सिनेमाई दोनों स्त्री-पुरुष संबंधों पर बात करेंगे। उसके ऐसा कहने के बाद से वक्ताओं के बोलने का दौर शुरू होता है और सबसे पहले मिस्टर सिंह मिसेज मेहता के डायरेक्टर प्रवेश भारद्वाज विषय प्रवर्तक के तौर पर अपनी बात रखते हैं। फिल्में बेसिकली हीरो की होती हैं, हीरोइन की नहीं – प्रवेश भारद्वाज प्रवेश भारद्वाज के हाथ में जो पर्चा होता है, उसमें हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम और इसके बीच हीरोइन की क्या हैसियत होती है, उसकी एक लंबी सूची होती है। वो सिनेमा एक-एक करके रेफरेंस देते हुए बताते हैं कि कैसे सिनेमा हीरो और हीरोइन की न होकर अंततः हीरो का ही होता है। इस बात को वो एक संस्मरण के जरिये और साफ करते हैं। आज हम हीरो-हीरोइन की बात करेंगे। फिल्मों में हीरोइन इसलिए होती है कि वो हीरो को रिझा सके। फिल्म में एक से ज्यादा नायिका होने की स्थिति में नायिका बंट सी जाती है। हमने जब फिल्म बनानी चाही और उसकी कहानी सुनाया तो हमें सलाह दी गयी कि फिल्म हीरो की होती है, तुम्हारी फिल्म हीरोइन की है, तुम सीरियल बनाओ। प्रवेश भारद्वाज की कुल बातों में से सबसे असरदार बात यही रही कि उन्होंने कहा कि आमतौर पर किसी भी फिल्म में हीरोइन के प्रति चार्म, ललक होने के बावजूद भी वो हीरो का ही सिनेमा होता है। उनकी ये बात समाज में स्त्री-पुरुष के बीच स्त्री की हैसियत को काफी हद तक स्‍पष्‍ट करती है। लेकिन वो खुद कभी भी स्त्री-पुरुष शब्द का नहीं बल्कि हीरो-हीरोइन शब्द का प्रयोग करते हैं। हीरो-हीरोइन के बीच के संबंधों को लेकर फिल्मों की सूची में सबसे पहले वो देवदास की बात करते हैं। देवदास ने प्रेम को कहीं पारिभाषित कर दिया है और कुछ इस तरह से कि प्रेम इसी तरह से होते हैं या हो सकते हैं। पारो और देवदास को एक ही मोहल्ले का दिखाया गया है। दोनों बचपन में साथ खेलते-पढ़ते हैं और बड़े होकर प्रेम करने लग जाते हैं। मुझे ऐसे रिश्ते में कई प्रैक्टिकल प्रॉब्लम आती है। मोहल्ले में साथ रहनेवाले लड़के-लड़कियां आपस में भाई-बहन के तौर पर माने जाते हैं और यहां… फिर मुझे इस बात में दिक्कत लगती है कि हीरो दुखी होकर शराब क्यों पीता है, ये समझ नहीं आता। आदित्य चोपड़ा की दिलवाले हम सबने देखी। अब तक फिल्म उतरी नहीं है। लड़की प्रेम करती है लेकिन मर्यादा में रहकर। यशराज की फिल्मों की सफलता में सबसे बड़ा रोल इसी बात का रहा है। हीरोइन आधी से ज्यादा फिल्मों में मिनी स्कर्ट और टॉप पहनेगी लेकिन वो प्यार करने के लिए प्रेमिका के तौर पर तभी दिखेगी जबकि वो साड़ी पहनकर आती है। हम जैसे दर्शकों ने भी कई ऐसी फिल्में देखी हैं, जहां हीरोइन के साड़ी पहनकर आते ही हीरो को प्यार हो जाता है गोया प्यार की वजह हीरोइन न होकर साड़ी ही हो। ऐसे सीन और फिल्मों का एनआरआइ रुचि बनाने में योगदान रहा। टीनएज में रोमांस पर बनी फिल्मों में देखें तो बाबी… बाबी और राजा की कहानी… ग्लैमर को पुनः परिभाषित कर दिया गया। टीन एज रोमांस पहले भी आया। अल्हड़ लड़की के आने से बात बदल गयी। ऐसी फिल्मों का अंत दुखांत होता है लेकिन बॉबी इसका अपवाद है। इसी तरह आप देखेंगे कि फिल्म में हीरो-हीरोइन के स्टेटस को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं। प्रवेश भारद्वाज ने साफ कहा कि फिल्मों में प्रेम को जिस रूप में दिखाया जाता है, उसमें सबसे ज्यादा पहली बार में जो प्रेम हो जाता है, उससे दिक्कत है। ऐसा लगता है कि प्रेम सिर्फ और सिर्फ खूबसूरत लड़कियों से ही संभव है। पहली बार में प्रेम हो जाने का आधार भी वही होता है। इसी प्रेम को लेकर कई फिल्मों में प्रेम-त्रिकोण पैदा करने का फॉर्मूला है। संगम इसका एक उदाहरण है। गोपाल और राधा की प्रेम कहानी। लेकिन शादी सुंदर से होती है। इस प्रेम-त्रिकोण में शादी बहुत इपॉर्टेंट होती है। हर हाल में ऐसे में दिखाया जाता है कि प्रेम किसी और से है और शादी किसी और से होती है। शादी जब भी होती है, मुश्किल हालात में ही होती है। त्रिकोण की फिल्मों में दोहरी भूमिका का योगदान होता है। इस प्रेम को लेकर शहरी-प्रेम को थोड़ा अलग करके दिखाया जाता है। शहरी परवरिश में अधिकतर में शादी गायब रहती है। अगर अपनी तरफ से एक फिल्म चुनूं तो अर्थ महत्वपूर्ण है। गाइड में एक और रूप दिखता है। ये थीम बहुत कम आया है कि नायिका अपनी मर्जी से शादी के स्वार्थ से अलग हुई है। अब फिल्मों में स्टेटस की बात करें जो कि एक ही साथ कई अर्थों को स्टैब्लिश करता है… कि हीरो अक्सर खानदानी होता है। खानदान के फेर में प्रेम की बलि चढ़ जाती है। लेकिन हां, पाकीजा सरीखी कुछ फिल्मों में तवायफ को खुशनसीबी जरूर मिल जाती है। फिर भी मीना कुमारी को एक सुख भी नहीं मिलता है। हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में जो कुछ भी कहा, वो दरअसल संबंधों और प्रेम को लेकर सिनेमा में जो फार्मूला बने हैं, उसका एक ब्योरा है, जिसे कि उन्होंने खुद भी एक फार्मूले की शक्ल देकर हमारे सामने रखा। मैं तो सुनते हुए सोच रहा था कि काश यहां डीयू के ज्यादा से ज्यादा वो स्टूडेंट मिल जाते जो कि सिनेमा पर एमफिल कर रहे हैं, तो एक चैप्टर लिखने से बच जाते। प्रवेश भारद्वाज के बाद सुधीर मिश्रा ने माहौल को संजीदा बनाने के अंदाज में कहा कि ये तो सबसे अच्छा है कि स्त्री-पुरुष में संबंध बने। हॉल ठहाकों से गूंज गया लेकिन फिर हम कब अचानक से सीरियस हो गये पता ही नहीं चला। रिश्तों के मामले में हिंदी सिनेमा एक बड़ा एचीवमेंट है – सुधीर मिश्रा मैंने कई बार इस बात पर सोचने की कोशिश की, ये कठिन विषय है। यही कहा जा सकता है कि रिश्ते होने चाहिए। मैं कभी फंसा नहीं इस रिश्ते के दायरे में, जिसे हिंदी सिनेमा डिफाइन करता है। इसलिए इस मामले में इस तरह से बात नहीं कर सकता। जब हजारों ख्वाहिशें ऐसी की स्क्रिप्ट लेकर घूम रहे थे… चार-पांच साल लेकर घूमा… एक ने कहा कि ये लड़की यानी फिल्म की हीरोइन गीता तो छिनाल है। अब आप बताएं कि आप इस बात को किस तरह से डिफाइन करेंगे। एक सीन है, जिसमें विक्रम गीता से मिलने जाता है एक घर में, जो उसने गीता को दिलाया है। गीता से कहता है, क्या तुम अपने पति से प्यार करती हो और गीता इस बात पर हंसती है। मैं जा रही हूं सिद्धार्थ के पास। एक ही सीन में अपने पति को रिजेक्ट करती है, दोस्त को रिजेक्ट करती है। आप उससे चिढ़ते नहीं। आप नहीं मानते कि गलत है। ये जो ख्वाहिश है हिंदी सिनेमा में, उसमें आप रिश्‍तों का फर्क देख रहे होंगे। इम्तियाज अली की फिल्म देखेंगे तो खासा इंटरेस्टिंग है। लव आजकल में देखें तो लड़की एक इंडीविजुअल है। ये बहुत ही रैडिकल है जो कि गाइड के बाद दिखता है। इसका एक उदाहरण देव डी भी है। देवदास प्रोटोटाइप है। गद्दावाला सीन ये डिमांड करता है उसकी तरफ से सेक्सुअल डिजायर है। मैं तो कहता हूं कि काफी बदलाव आ रहा है। जिस तरह से आप रिश्तों को देख रहे हैं वो हिंदी सिनेमा में काफी दिलचस्प है। इस हिसाब से नासिर हुसैन साहब की फिल्मों की देखिए। दूसरी बात कि हिंदुस्‍तानी सिनेमा ने, गानों ने इसे बहुत ही आर्टिकुलिकेट किया है। हर हिंदुस्तानी फिल्मकार की ख्वाहिश रही है कि वो इस रिश्ते की खूबसूरती को बयान करे। ये एक तरह की एचीवमेंट है। राजकपूर की फिल्मों में एक भली सी स्त्री भटके हुए पुरुष को राह दिखाती है। इस मामले में हिंदी सिनेमा ने कई चीजों को तोड़ा है। इसके फार्म में बहुत जगह है, वहां भी एक्सप्लोरेशन है। जो सामाजिक त्रुटियां रही हैं, उसमें कसकर टिप्पणी की गयी है, इस मामले में हिंदी सिनेमा की एक बड़ी उपलब्धि है। प्रवेश भारद्वाज के बाद सुधीर मिश्रा को सुनते हुए हमने महसूस किया कि प्रवेश जहां हिंदी सिनेमा में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर एक फार्मूला बन जाने की बात कर रहे हैं और इस हिसाब से एक स्टैटिक सिचुएशन की ओर इशारा कर रहे हैं, जो कि निस्संदेह ज्यादा बड़ा हिस्सा है, वहीं उनसे अलग सुधीर मिश्रा उन चिन्हों और फिल्मों की तरफ इशारा करते हैं, जहां सिनेमा के भीतर एक प्रोग्रेसिव और स्त्री की स्वतंत्र सत्ता बनती नजर आती है। इन दोनों वक्ताओं के बाद फिल्म समीक्षक और पत्रकार विनोद अनुपम ने जो कहा वो बहस के मौके को बढ़ाने के लिए जोरदार साबित हुए। सिनेमा में अराजक हुआ है स्त्री-पुरुष संबंध – विनोद अनुपम इस मामले में बड़ी गड्डमड्ड स्थिति है। हम सिर्फ स्त्री-पुरुष, विवाहेतर संबंधों में फंसकर रह जाते हैं। देवर-भाभी, बहन सब पर फिल्में बनी हैं लेकिन आज नहीं हैं। मां-बेटे के रिश्ते क्यों नहीं दिखाई देते। देवर-भाभी के संबंध में दिखाई क्यों नहीं देते। लेकिन आज जब भी चर्चा करते हैं तो स्त्री कितनी स्वतंत्र हो गयी है, पुरुष कितना अराजक हो गया। ये बहस सही दिशा में नहीं जाती। गाइड सबसे बड़ी फिल्म है नारी मुक्ति की। ये समाज के अंदर की फिल्म है इसलिए वो अराजक नहीं लगती जितना कि जिस्म की स्वतंत्रता अराजक दिखाई देती है। जहां फिल्मों से संबंध गायब हो गये और प्रवेश को इंग्लैंड जाना पड़ा मिसेज मेहता बनाने के लिए। परिवार के दिखाने पर रिश्ते अराजक नहीं रह जाते। फिल्मों से सामाजिक नियंत्रण कितना रह गया है, ये बहुत जरूरी मुद्दा है। क्या सामाजिक नियंत्रण नहीं है? अगर नहीं है तो रिश्तों में अराजकता है, क्या उसका हम सम्मान करेंगे। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए चटकाएं- http://mohallalive.com/2010/09/27/bahastalab-5-second-session-report/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 27 14:07:44 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 27 Sep 2010 14:07:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSn4KWAIOCkteCljeCkr+CkteCkuOCljeCkpeCkviDgpK7gpYfgpIIg?= =?utf-8?b?4KSY4KWB4KSu4KSC4KSk4KWCIOCknOCkqOCknOCkvuCkpOCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC?= Message-ID: बुद्धन सबर की मौत को आज बारह साल से अधिक हो गए. पुरुलिया में वह एक साधारण दिहाड़ी मजदूर था, जिसे चोरी के आरोप में पुलिस पकड़ के ले गई. हिरासत में उसके साथ इतनी मारपीट की गई कि वहीं उसने दम तोड़ दिया. पुलिस ने अपने रिकार्ड में दर्ज किया कि बुद्धन ने आत्महत्या कर ली है. बाद में बुद्धन के परिजनों और कुछ संगठनों की पहल से न्यायालय में चले लंबे संघर्ष के बाद, बुद्धन की पत्नी श्यामोली सबर के हक में फैसला सामने आया. http://www.raviwar.com/news/390_criminel-tribes-india-ashish-kumar-anshu.shtml -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Sep 27 14:07:44 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 27 Sep 2010 14:07:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSn4KWAIOCkteCljeCkr+CkteCkuOCljeCkpeCkviDgpK7gpYfgpIIg?= =?utf-8?b?4KSY4KWB4KSu4KSC4KSk4KWCIOCknOCkqOCknOCkvuCkpOCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC?= Message-ID: बुद्धन सबर की मौत को आज बारह साल से अधिक हो गए. पुरुलिया में वह एक साधारण दिहाड़ी मजदूर था, जिसे चोरी के आरोप में पुलिस पकड़ के ले गई. हिरासत में उसके साथ इतनी मारपीट की गई कि वहीं उसने दम तोड़ दिया. पुलिस ने अपने रिकार्ड में दर्ज किया कि बुद्धन ने आत्महत्या कर ली है. बाद में बुद्धन के परिजनों और कुछ संगठनों की पहल से न्यायालय में चले लंबे संघर्ष के बाद, बुद्धन की पत्नी श्यामोली सबर के हक में फैसला सामने आया. http://www.raviwar.com/news/390_criminel-tribes-india-ashish-kumar-anshu.shtml -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Sep 28 22:11:37 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 28 Sep 2010 22:11:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWA4KS44KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkpOCljeCksOCkgyDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4g4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkrOCkvuCknOCkvuCksA==?= Message-ID: *मंच पर बैठे हैं संजय झा मस्‍तान, अजय ब्रह्मात्‍मज, अनवर जमाल, जयदीप वर्मा और अनुराग कश्‍यप* सिनेमा के होने और बनने में बाजार बड़ी भूमिका है। अगर हम मेनस्ट्रीम सिनेमा की बात करें तो कंटेंट से लेकर ट्रीटमेंट तक में बाजार और पैसा साफ तौर पर दिखाई देता है। सिनेमा पर इसके बिना बात नहीं की जा सकती। बहसतलब 5 के तीसरे सत्र में हिंदी सिनेमा का बाजार पर जमकर चर्चा हुई, जिसमें सिनेमा की लागत से लेकर अपनी मर्जी का सिनेमा बनाने, ऑडिएंस ढूंढने, नये माध्यमों से बाजार तलाशने और छोटे-छोटे एफर्ट से मेरठ और मालेगांव जैसे शहरों के स्वतंत्र बाजार खड़ा हो जाने पर विस्तार से चर्चा हुई। इस सत्र में कई दिलचस्प बातें हुईं, जिसमें कि सत्र शुरू होते ही मॉडरेटर के तौर पर युवा पटकथा लेखक वरुण ग्रोवर, जिन्होंने कि लॉफ्टर शो से लेकर दस का दम जैसे कार्यक्रमों के लिए लिखा और अभी हाल ही में अनुराग कश्यप के लिए फ्रस्टीआओ नहीं मूरा जैसे गीत लिखे, को मंच पर बुलाया जाना एक है। अविनाश ने सत्र को लेकर एक छोटी सी भूमिका बनाते हुए जैसे ही वरुण ग्रोवर को मंच पर बुलाया, अनुराग कश्यप ने चुटकी लेते हुए कहा – सिनेमा और बाजार के सत्र का मॉडरेशन उस आदमी से करवा रहे हो, जो खुद अपने आपको नहीं बेच सकता। ये वरुण को लेकर जितनी चुटकी थी, उतनी उसकी इंडस्ट्री में जाकर फार्मूला लेखक न हो जाने की तारीफ भी। बहरहाल… वरुण ग्रोवर ने बाकी मॉडरेटर से अलग विषय को और बेहतर तरीके से खोला। चूंकि विषय प्रवर्तन का काम भी उनके ही जिम्मे था, तो इसलिए भी उन्हें ऐसा करने का मौका ज्यादा मिल पाया। मंच पर बैठे सारे वक्ताओं का परिचय उन्होंने अपने तरीके से दिया। ये जानते हुए कि दूसरे दिन तक हममें से अधिकांश लोग सबों को बेहतर तरीके से जान गये हैं। वरुण ग्रोवर ने अपना परिचय देते हुए कहा कि मेरा मेन काम सटायर राइटिंग है। टेलीविजन पर सटायर का जो हाल है, मुझे लगा कि बुरा ही करना है तो सोचा कि मैं ही करूं, लोग बहुत बुरा कर रहे हैं इस फील्ड में। यहां मॉडरेटर हूं, मेरी कोई इज्जत नहीं है, आप जब चाहें मुझे टोक सकते हैं। सुकेतु मेहता ने लिखा एक जगह, जयदीप ने ये बात कही थी इस इंडस्ट्री में जिस समझदारी से फिल्म बना रहे हैं, उससे ज्यादा समझदार लोग हैं। कई बार समझदारी सिनेमा में खो जाती है। यहां बड़ा इनसेंटिव है कि आप सीधे बात कर सकते हैं। वक्ताओं का परिचय देने के क्रम में ही उन्हें हमसे इस रूप में परिचित कराया कि हमारे दिमाग में साफ नक्शा बन जाए कि किस वक्ता से किस तरीके के सवाल किये जा सकते हैं और हमें उसे किस तरह की उम्मीद रखनी चाहिए? अनवर जमाल का परिचय देते हुए कहा कि साहित्यकारों पर फिल्मों की एक सीरीज बनायी हैं, स्वराज फिल्म बनायी है। एनजीओ के लिए फिल्म बनाते हैं, इससे आप एक हद तक समझ सकते हैं कि ये भी सिनेमा का एक रेवेन्‍यू मॉडल हो सकता है। अजय ब्रह्मात्मज के बारे में वरुण कहते हैं कि एक फिल्म पर जितने रिव्यू आये हैं, वो सब मेरे ब्लॉग पर आ जाएं। अजय मानते हैं कि हिंदी सिनेमा की बात हिंदी में हो। वरुण ने तीसरे वक्‍ता का परिचय देते हुए कहा कि संजय झा के साथ मस्तान नाम जोड़ा जाए। कुल तीन फिल्में बनायी हैं इन्होंने, एक फिल्म है इनकी – प्राण जाए पर शान न जाए। हम जो सटायर से डरते हैं, हम सिनेमा में अपनी बुराई करते हैं, तो वो एक तरह की प्रीज ही लगती है। संजय झा मस्‍तान ने स्ट्रिंग और मुंबई चकाचक नाम से फिल्म बनायी है। मुंबई चकाचक को लेकर झमेले की एक लंबी कहानी है, जिसे कि बाद में अजय ब्रह्मात्मज साफ करते हैं। जयदीप के बारे में वरुण कहते हैं कि वो इकलौते हैं जिनकी म्यूजिक की समझ बहुत सधी हुई है। कहते हैं कि म्यूजिक की कोई भाषा नहीं होती। हल्ला फिल्म बनायी है, आज के कनटेंपररी शहर पर बहुत ही सटायर किया है। इंडियन ओशन बैंड पर लिविंग होम नाम से फिल्म बनायी। क्रिकेट से बहुत लगाव है। बहुत सारे टूल्स बनाये हैं जो कि क्रिकेटर को नापने-समझने के काम आ सकें। अनुराग कश्यप की बाकी फिल्मों की चर्चा बहुत हुई यहां, पर लेकिन लास्ट ट्रेन टू महाकाली नाम से जो फिल्म बनायी है वो यूट्यूब पर आ गयी है। वक्ताओं का परिचय देने के बाद वरुण ग्रोवर ने विषय को लेकर एक मजबूत भूमिका रखी और सिनेमा और बाजार के संदर्भ में किन-किन बिंदुओं को उठाया जाना चाहिए, इसे विस्तार से बताया। बाजार और बिजनेस का मतलब सिर्फ बेचना नहीं – वरुण ग्रोवर हिंदी सिनेमा का जो बिजनेस है, इसको समझना बहुत जरूरी है, ये एब्सट्रेक्ट बिजनेस है। इसमें साबुन नहीं, आइडिया बेचना है। पैसा तो कमाना ही है क्योंकि पैसा कमाये बिना आप सिनेमा बना नहीं सकते। एक तरीका तो ये है कि आप सीडी बनाकर घर-घर भेज दीजिए, आपको दुख नहीं होगा। इतनी जटिलता है सिनेमा में… सबलोग गणित लगाते हैं लेकिन सक्सेस नहीं हो पाता, अरिंदम ने लगाया, यशराज ने लगाया। बिजनेस की जो जटिलता है, उसे वो किस तरह से सिंप्‍लीफाय करते हैं। बिजनेस को लेकर एक सवाल जयदीप ने उठाया था कि हम कहते हैं बिजनेस लेकिन स्पिरिट ऑफ बिजनेस नहीं है। हमारे बिजनेस में रिस्क टेकिंग है क्या? मेरे हिसाब से हमें लोगों को बेचना आता है – इनोवेटिव तरीके से बेच सकते हैं। हम बेचने के लिए मनीषा कोइराला के मर्डर की अफवाह भी फैला सकते हैं लेकिन हम अच्छी फिल्म कैसे बनाएं, इस पर काम नहीं होता। हमारी पब्लिसिटी, पीआर और बेचने के तरीके में इनोवेशन दिखता है, लेकिन रिस्क नहीं है। हम चाहते हैं कि कोई आगे बढ़े और फिर हम उसके पीछे चलेंगे लेकिन पहले कौन बनाएगा इसी में साल निकल गये हैं। एक और बात, क्या बिजनेस को सिर्फ बेचने तक ही सीमित हो जाना चाहिए या फिर रिस्क टेकिंग भी होगा, क्या ये सिर्फ रिस्क टेकिंग में ही रह जाएगा। अगला सवाल कि मल्टीप्लेक्स आया था इस वादे के साथ कि छोटी फिल्मों को प्रोमोट करेगा। राहुल बोस की फिल्म को मल्टीप्लेक्स में देखेंगे। राहुल और मल्टीप्लेक्स एक दूसरे के पर्याय या ट्विन के तौर पर दिखे। लेकिन अब लग रहा है कि मल्टीप्लेक्स छोटी फिल्मों का दुश्मन हो गया है। लेकिन ये मल्टीप्लेक्स की अलग ही दुनिया है। सारी चीजें मंहगी है। बहुत जुगत लगानी पड़ती है। बहुत ताम-झाम है कि कि कॉबो मील लेना है कि नहीं। तो ये जो आडंबर बन गया है, उसका माइंड सेट ही बताता है कि वो आम लोगों के लिए नहीं रह जाता। तो मल्टीप्लेक्स का सपना कितना पूरा होता है, इस पर बात होनी चाहिए। वरुण ग्रोवर की बातचीत के दौरान अनुराग कश्यप लोगों से सॉरी बोलते हुए हस्तक्षेप करते हैं और अपनी तरफ से क्या प्रयास होने चाहिए, उस पर फोकस करते हैं। पायरेसी अपने आप में एक माध्यम है – अनुराग कश्यप हमारे सौ लोगों के मिलने से सीन बदलनेवाला है। हम किस तरह से अपनी जगह बना सकते हैं, उस पर बात कर सकते हैं। हम कैसे एक मार्केट बना सकते हैं, इस पर बात करनी चाहिए। हमारी भड़ास सेम है, हम निकाल चुके हैं। हमलोग इस पर बात करें। मैंने मोबाइल के लिए तीन-तीन मिनट की फिल्में बनायी है, जो कि मेरी सिनेमा की अब तक की कुल कमाई से ज्यादा है। पायरेसी अपने आप में एक नया मीडियम है, हम इसे पायरेसी बोलकर नकार नहीं सकते। ये कौन सोचेगा कि हम उसी दिन 20 रुपये में ऑरिजिनल सीडी निकालेंगे। ये एक ऑल्टरनेट मीडिया है, इस पर बात होगी। अनुराग की बात को बढ़ाते हुए अनवर जमाल ने आगे हमसे अपने अनुभव शेयर किये। मल्टीप्लेक्स में अच्‍छे सिनेमा के लिए रिजर्वेशन जैसा कुछ हो – अनवर जमाल बाजार को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला। जो बाजार की स्थिति है, उससे कोई लेना देना नहीं है। सारा खेल नंबर का है, एक्सेल सेल पर किसका नंबर है। हम जब सिनेमा की बात करते हैं, तो ऑरिजिनलिटी या संवेदना की बात करते हैं। तब मुझे लगता है कि अलग से बॉलीवुड शब्द की जरूरत क्यों है? मुझे लगता है कि आप एक खास तरह का, फारुकी ने बोला कि सारा का सारा जो संबोधन है और उसका जो बाजार है – भोजपुरी और बाकी तमाम है, वहां से मुझे लगता है कि सिनेमा को समझना चाहिए। सिनेमा आज भी कहीं न कहीं एक बड़े समाज के लिए बहुत अच्छी चीज नहीं है। जैसे पहले नौटंकी को खराब समझा जाता है। सिनेमा की एक बड़े समाज में आज भी एक्सेप्टेंस नहीं है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Sep 30 11:33:24 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 30 Sep 2010 11:33:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KS24KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpIXgpLjgpY3gpLjgpYAg4KSX4KS/4KSr4KWN4KSfIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSk4KWAIOCkteCliyDgpLLgpKHgpLzgpJXgpYA=?= Message-ID: लंबी बीमारी से लौटने के बाद जब वो मुझसे मिली तो काशी का अस्सी गिफ्ट कर रही थी मुझे। शर्मायी हुई थी बहुत और वो मुझसे आंखें तक भी नहीं मिला रही थी।..मैंने तुम्हारे लिए खरीदी है। मैं वहीं आर्ट्स फैकल्टी की कॉरीडोर में पलटकर देखने लगा तो सिर्फ इतना कहा-घर जाकर नहीं देख सकते इसे। मैंने मन ही मन सोचा कि लगता है इस किसी लड़के को गिफ्ट देने की आदत नहीं है या फिर वो नहीं चाहती कि जमाने के लोग देखें कि उसने मुझे कुछ दिया है। इसके पहले हमदोनों के बीच किताबों का लेन-देन तो चलता ही रहा है लेकिन आज मैं सोचता तो हंसी और हैरानी दोनों होती है कि कुल छ घंटे की एक यूजीसी-परीक्षा ने हमारी जिंदगी को कैसे फिक्स कर दी कि हमने उसके जन्मदिन के मौके पर भी रामचंद्र शुक्ल,हजारीप्रसाद द्विवेदी,रामविलास शर्मा और इन जैसे आलोचकों की किताबें ही गिफ्ट में दी। पब्लिक स्कूल में और फिर बाद में संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ने की वजह से आर्चिज गैलरी,हालमार्क,म्यूजिक प्लैनेट के रास्ते मेरे लिए अंजान नहीं थे। कुछ नहीं तो दर्जनों बार हमने इन जगहों से कार्ड खरीदे और उन लड़कियों को भी बर्थडे विश के तौर पर कार्ड पर डीयर लिखकर दिया जिसका व्ऑयफ्रैंड अपने नसीब और हालात के बीच फिफ्टी-फिफ्टी के बीच झूलता रहता। मेरे उस डीयर शब्द पर कुछ लड़कियां जोर से ठहाके लगाती और कहती-बस सिर्फ डीयर ही लिखोगे या फिर कुछ और..। आज मैं सोचता हूं वो तमाम लड़कियां मुझसे कितनी-कितनी मैच्योर रही होगी,मां के शब्दों में गुंडी या बेलज्जी। आलोचना की उन किताबों को जब उसके पापा देखते तो बहुत खुश होते,कहते-बहुत समझदार लड़का है। हम बाप के रास्ते से जाना चाहते थे जिसमें कहीं न कहीं अच्छा बच्चा की मुहर लगवाकर ही अपने पसंद की जिंदगी जी सकें। खैर,घर आकर जब मैंने उस किताब में क्या लिखा है,उसे तो बाद में पढ़ा लेकिन सबसे पहले ये देखना चाहा कि उसने किताब के भीतर मेरे लिए क्या लिखा है। मैं उम्मीद कर रहा था कि लिखा को- टू डीयर विनीत,विद बेस्ट विशेज और नीचे शर्माने के अंदाज में सिकुड़े हुए शब्दों में उसकी साइन या फिर हिन्दी में ही- विनीत की प्रति,विनीत के प्रति। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं। बिल्कुल सादा। ठीक उसके चेहरे की तरह जब आप पूछो कि इतनी जल्दी कर लोगी शादी,और ये यूजीसी लेक्चरशिप. इसका क्या करोगे? मेरे इन सवालों से उसके चेहरे के सारे भाव एक जगह जमा होकर जाने कहां कैद हो जाते? बीमार होने के पहले मैंने कासी का अस्सी की चर्चा उससे की थी। वैसे भी हिन्दू कॉलेज में मेरे हिन्दी साहित्य के जितने भी क्लासमेट थे,उनके बीच इन किताबों के नाम फैशन के तौर पर लिए जाते। किसने कितना पढ़ा,इससे मतलब नहीं लेकिन अगर आपने किताबों के नाम नहीं सुने तो आपको फट से नक्कारा करार दिया जाता। पढ़ने-लिखने के स्तर पर मुझे शुरु से ही थोड़ी सो कॉल्ड बदतमीज किस्म की चीजें पसंद आती जिसमें एक ये भी किताब थी। आज जब चालीस दिनों बाद वापस कैंपस आया तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये किताब मुझे इस तरह से मिलेगी। जाहिर है उसने ये बात सोचने में कुछ तो समय लगाया होगा कि मैं वापस आउंगा तो वो मुझे क्या गिफ्ट करेगी कि मैं अचानक से खुश हो जाउंगा। किताब खरीदने की तो उसने बहुत हिम्मत जुटायी लेकिन वही विनीत की प्रति,विनीत के प्रति लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। यकीन मानिए दिल्ली आकर लोग और खुले माहौल में जीना शुरु करते,और बिंदास हो जाते हैं,मेरे साथ उल्टा हुआ। जेवियर्स रांची के जिस खुले माहौल में मैंने पढ़ाई की,यहां आकर सब बंद-बंद सा लगा। हम बड़े आराम से अपनी क्लासमेट के कंधे पर हाथ रख देते या फिर वो हमें खींचती हुई कैंटीन की तरफ ले जाती लेकिन मैंने तो जो महसूस किया वो ये कि एक बार गलती से लड़की के हाथ छू जाएं तो शायद वो घर जाकर मेडीमिक्स से हाथ धोती होगी। इसे मैं जेनरलाइज नहीं कर रहा। लोग बताते कि ऐसा सिर्फ हिन्दी विभाग में है,चले जाओ बाकी जगहों पर तो लगेगा कि डिपार्टमेंट के आगे वॉलीवुड तैर रहा है। आज जब मैं उसी हिन्दी विभाग के सामने से गुजरता हूं तो अक्सर लड़कियां अपने दोस्त को कोहनी मारते हुए या फिर एक ही मंच को आधा-आधा शेयर करते हुए दिख जाती है। देखकर अच्छा लगता है। किताब को लेकर जो उत्साह था वो सिर्फ एक लाइन या कुछ शब्द नहीं लिखे जाने की वजह से ठंडा पड़ चुका था। ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ कि जिस वक्त नहई किताब हाथ लगी तो उसी वक्त उसके दो-चार पन्ने न पढ़ लिए हों। मैंने किताब को साइड रख दिया। फिर उस लड़की से सोचना शुरु करते हुए हिन्दी समाज,लिटरेचर,हिन्दी विभाग पता नहीं क्या-क्या सोचने लग गया। मैं फिर उस एक शब्द या लाइन के न होने के दर्द से दूर चला गया और सिर्फ टिककर ये सोचने लगा कि ऐसा उसने किताब की वजह से तो नहीं किया। ये किताब तो लोग बता रहे थे कि थोड़ी हटकर है और कुछ गालीगलौच भी। कहीं इस वजह से तो नहीं।.अच्छा हो उसके शर्माने की वजह सिर्फ और सिर्फ वही हो। हिन्दी साहित्य की जिन किताबों की लेन-देन करके हम अपने को बाकियों से अलग,बेहतर और खुद की आख्यान में डूबते-उतरते रहे,ये किताब हमारी इस आत्ममुग्धता को इस तरह से ध्वस्त करेगी,अंदाजा नहीं था। मैंने किताब देखनी शुरु कर दी। पहले ही पन्ने पर- मित्रों,यह संस्मरण वयस्कों के लिए है,बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं;और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा में गंदगी,गाली,अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें मोहल्ले के भाषाविद् "परम"(चूतिया का पर्याय) कहते हैं,वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं- आगे काशी और यहां के लोगों के परिचय में लिखा है- जमाने को लौड़े पर रखकर मस्ती में घूमने की मुद्रा 'आइडेंटिटी कार्ड'है इसका। फिर इसी शैली में पूरी किताब जिसके कि मैंने आधे से ज्यादा पन्ने पूरन की टिफिन मिस करके पढ़ गया। तब मुझे उस लड़की का शर्माना बाजिब लगा था,आज भले ही उसे भी किसी विमर्श के आगे झोंककर उसे गलत करार दे दूं। मन में ये बेचैनी तो थी ही कि उसके शर्माने की सौ फीसदी वजह सिर्फ और सिर्फ किताब की लिखी वो शैली थी या फिर कुछ और भी? किताब पढ़ते हुए मुझे काशीनाथ सिंह पर भारी गुस्सा आया था क्या समझते हैं,अपने आप को? शुरु में ही देसी अंदाज में निर्देश लिखकर ये साबित करना चाहते हैं कि हमने ये सारे शब्द पहले कभी सुने नहीं? लेकिन फिर प्यार उमड़ आया कि बेटा कॉन्वेंट में,पब्लिक स्कूल में और मेट्रो सिटी में जाकर भले ही यू नो आइ मीन करती रहो,तुमरे बाबूजी अभी भी वहां राशनकार्ड नहीं मिलने पर पीठ पीछे गरिआ रहे होगें कि- कहते हैं कि ताखा पर रखा करो इसे तो नहीं गांड में घुसा लेगा चीनी करासन लाकर। अगले दिन मैंने कहा- यार,तुमझे कुछ बात करनी है। आज तो आधी दर्जन लड़कियां है जिसे यार कह दो तो नोटिस तक नहीं लेती,पलटकर लिखती है- यार,आगे पोस्ट लिखना- खबरों का बलात्कार। मैं कहता हूं शर्म नहीं आती मुझसे इस तरह अश्लील बातें करती हो। उसका जबाब होता है- इस असभ्य माहौल में जो थोड़े सभ्य बचे हैं,उनमें से एक मैं भी हूं। ही ही ही ही ही..। यार बोलने से वो घबरा जाती और वैसे भी कुछ नमकहराम दोस्तों ने उसके कान भर दिए थे कि बड़े बाप का बेटा है,बिगड़ा हुआ है.इस्तेमाल करके छोड़ देगा। सीधे कहा-यार,वार मत बोला करो प्लीज। तुम पढ़ने में इतने अच्छे हो फिर ऐसी भाषा क्यों बोलते हो? मैंने सॉरी के बाद अपना जबाब दाग दिया- तुम किताब देते हुए क्यों शर्मा रही थी कल? उसने कहा- नहीं,पता है क्या हुआ? मैं किताब लेने मम्मी के साथ गयी थी नई सड़क। जब मैंने दूकानदार से किताब मांगी तो वो थोड़ा मुस्कराया और मां से पूछा- आपकी बच्चिया क्या करती है? मां ने बताया कि हिन्दी साहित्य से एमए कर रही है। फिर उसने मुझसे पूछा- इसे तुम पढ़ोगी,कोर्स में तो नहीं है। मैंने धीरे से कहा कि नहीं मेरा एक दोस्त है,उसे पढ़नी है। दूकानदार ने कहा कि जरुर वो बहुत अलग किस्म का बंदा होगा। काशीनाथ सिंह ने हमें एक किताब की पसंद की बदौलत जमाने से असाधारण बना दिया था। मैंने आगे कहा- तो तुम इसलिए शर्मा रही थी। उसने कहा- हां। फिर सवाल किया-सिर्फ और सिर्फ इस बात के लिए। उसने कहा-हां। तुम सच तो बोल रही हो न। उसने कहा-और क्या? और कोई बात नहीं। तब उसने कहा- सच कहूं,मुझे ये सब करने की आदत नहीं है,पता नहीं कैसा फील करती हूं?..ये तो तुम बीमार होने के लंबे समय बाद आए थे तो सोची कि... (इस संस्मरण को याद करवाने के लिए सिर्फ और सिर्फ मिहिर और पल्लव जिम्मेवार हैं जिन्होंने बनास-2 काशीनाथ सिंह और काशी का अस्सी पर निकाली है। अब इसमें चंद्रप्रकाश द्विवेदी भी जुड़ गए हैं जो इस किताब पर फिल्म बना रहे हैं और पिछले दिनों इस मसले पर थोड़ी-बहुत चर्चा हुई।. आज मैंने उस किताब को फिर से निकाला जिस पर आज से चार साल पहले मैंने ही पेंसिल से उसका फ्रॉम के बाद उसका नाम लिखकर एक लाइन दाग दी थी- WITHOUT SAYING ANYTHING ELSE.) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Thu Sep 30 12:03:59 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Thu, 30 Sep 2010 12:03:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KS24KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpIXgpLjgpY3gpLjgpYAg4KSX4KS/4KSr4KWN4KSfIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KSk4KWAIOCkteCliyDgpLLgpKHgpLzgpJXgpYA=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4CA42F57.8080105@sarai.net> विनीत, बेहद दिलचस्प! लेकिन सबसे ज़रूरी बात तो तुम शायद उस लड़की से पूछना भूल ही गए कि उसने ये किताब पढ़ी या बग़ैर पढ़े दिया तुम्हें! दीवान के पाठकों को याद ही होगा कि गौतम सान्याल ने बहुत सुंदर लेख लिखा था 'कौन जाए काशी की गालियाँ छोड़के', जो पहले हंस में छपा था, फिर दीवान-ए-सरा02: शहरनामा में। अच्छि ख़बर है कि चंद्रप्रकाश द्विवेदी उस पर फ़िल्म बनाने की सोच रहे हैं। रविकान्त पुनश्च: बनास का ताज़ा शुमारा भी मज़ेदार लग रहा है , मोहल्ला लाइव पर पोस्टर चिपका है, देखें: http://mohallalive.com/2010/06/29/banaas-2-ad/ गल्पेतर गल्प का ठाठ काशी का अस्सी पर विशेषांक Ÿ रचना प्रक्रिया और अंतरंग – काशीनाथ सिंह Ÿ राजकमल चौधरी, धूमिल, राजेन्द्र यादव, भीष्म साहनी, कमला प्रसाद, मूलचन्द गौतम, दिनेश कुशवाह, उदय प्रकाश और स्वयं प्रकाश का काशीनाथ सिंह से पत्राचार। Ÿ प्रतिभा कटियार, रामकली सर्राफ और पल्लव के साक्षात्कार। Ÿ बहस में नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेन्द्र यादव, नवलकिशोर, मधुरेश, नन्दकिशोर नवल, जीवन सिंह और सुवास कुमार। Ÿ एक दर्जन युवा आलोचकों द्वारा काशी का अस्सी का मूल्यांकन। Ÿ रमाकांत श्रीवास्तव, श्रीवल्लभ शुक्ल और वरुण ग्रोवर के संस्मरण। Ÿ उषा गांगुली, शशिकला त्रिपाठी, अरुण पाण्डेय और मलय पानेरी द्वारा काशी का अस्सी के मंचन पर चर्चा। Ÿ इनके अलावा और भी बहुत कुछ तीन सौ पृष्ठों के विशेषांक में। प्रति हेतु सम्पर्क : पल्लव, 403, बी-3, वैशाली अपार्टमेंट्स, हिरण मगरी, से.-4, उदयपुर-31 vineet kumar wrote: > लंबी > बीमारी से लौटने के बाद जब वो मुझसे मिली तो काशी का अस्सी गिफ्ट कर रही थी मुझे। > शर्मायी हुई थी बहुत और वो मुझसे आंखें तक भी नहीं मिला रही थी।..मैंने तुम्हारे लिए > खरीदी है। मैं वहीं आर्ट्स फैकल्टी की कॉरीडोर में पलटकर देखने लगा तो सिर्फ इतना > कहा-घर जाकर नहीं देख सकते इसे। मैंने मन ही मन सोचा कि लगता है इस किसी लड़के को > गिफ्ट देने की आदत नहीं है या फिर वो नहीं चाहती कि जमाने के लोग देखें कि उसने मुझे कुछ > दिया है। इसके पहले हमदोनों के बीच किताबों का लेन-देन तो चलता ही रहा है लेकिन आज > मैं सोचता तो हंसी और हैरानी दोनों होती है कि कुल छ घंटे की एक यूजीसी-परीक्षा ने > हमारी जिंदगी को कैसे फिक्स कर दी कि हमने उसके जन्मदिन के मौके पर भी रामचंद्र > शुक्ल,हजारीप्रसाद द्विवेदी,रामविलास शर्मा और इन जैसे आलोचकों की किताबें ही गिफ्ट में > दी। पब्लिक स्कूल में और फिर बाद में संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ने की वजह से आर्चिज > गैलरी,हालमार्क,म्यूजिक प्लैनेट के रास्ते मेरे लिए अंजान नहीं थे। कुछ नहीं तो दर्जनों बार > हमने इन जगहों से कार्ड खरीदे और उन लड़कियों को भी बर्थडे विश के तौर पर कार्ड पर > डीयर लिखकर दिया जिसका व्ऑयफ्रैंड अपने नसीब और हालात के बीच फिफ्टी-फिफ्टी के बीच > झूलता रहता। मेरे उस डीयर शब्द पर कुछ लड़कियां जोर से ठहाके लगाती और कहती-बस > सिर्फ डीयर ही लिखोगे या फिर कुछ और..। आज मैं सोचता हूं वो तमाम लड़कियां मुझसे > कितनी-कितनी मैच्योर रही होगी,मां के शब्दों में गुंडी या बेलज्जी। > > आलोचना की उन किताबों को जब उसके पापा देखते तो बहुत खुश होते,कहते-बहुत समझदार > लड़का है। हम बाप के रास्ते से जाना चाहते थे जिसमें कहीं न कहीं अच्छा बच्चा की मुहर > लगवाकर ही अपने पसंद की जिंदगी जी सकें। खैर,घर आकर जब मैंने उस किताब में क्या लिखा > है,उसे तो बाद में पढ़ा लेकिन सबसे पहले ये देखना चाहा कि उसने किताब के भीतर मेरे लिए > क्या लिखा है। मैं उम्मीद कर रहा था कि लिखा को- टू डीयर विनीत,विद बेस्ट विशेज और > नीचे शर्माने के अंदाज में सिकुड़े हुए शब्दों में उसकी साइन या फिर हिन्दी में ही- विनीत > की प्रति,विनीत के प्रति। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं। बिल्कुल सादा। ठीक उसके चेहरे की > तरह जब आप पूछो कि इतनी जल्दी कर लोगी शादी,और ये यूजीसी लेक्चरशिप. इसका क्या > करोगे? मेरे इन सवालों से उसके चेहरे के सारे भाव एक जगह जमा होकर जाने कहां कैद हो जाते? > > बीमार होने के पहले मैंने कासी का अस्सी की चर्चा उससे की थी। वैसे भी हिन्दू कॉलेज में > मेरे हिन्दी साहित्य के जितने भी क्लासमेट थे,उनके बीच इन किताबों के नाम फैशन के तौर > पर लिए जाते। किसने कितना पढ़ा,इससे मतलब नहीं लेकिन अगर आपने किताबों के नाम नहीं > सुने तो आपको फट से नक्कारा करार दिया जाता। पढ़ने-लिखने के स्तर पर मुझे शुरु से ही > थोड़ी सो कॉल्ड बदतमीज किस्म की चीजें पसंद आती जिसमें एक ये भी किताब थी। आज जब > चालीस दिनों बाद वापस कैंपस आया तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये किताब मुझे इस तरह से > मिलेगी। जाहिर है उसने ये बात सोचने में कुछ तो समय लगाया होगा कि मैं वापस आउंगा तो > वो मुझे क्या गिफ्ट करेगी कि मैं अचानक से खुश हो जाउंगा। किताब खरीदने की तो उसने > बहुत हिम्मत जुटायी लेकिन वही विनीत की प्रति,विनीत के प्रति लिखने की हिम्मत नहीं > जुटा सकी। यकीन मानिए दिल्ली आकर लोग और खुले माहौल में जीना शुरु करते,और बिंदास > हो जाते हैं,मेरे साथ उल्टा हुआ। जेवियर्स रांची के जिस खुले माहौल में मैंने पढ़ाई की,यहां > आकर सब बंद-बंद सा लगा। हम बड़े आराम से अपनी क्लासमेट के कंधे पर हाथ रख देते या फिर > वो हमें खींचती हुई कैंटीन की तरफ ले जाती लेकिन मैंने तो जो महसूस किया वो ये कि एक > बार गलती से लड़की के हाथ छू जाएं तो शायद वो घर जाकर मेडीमिक्स से हाथ धोती > होगी। इसे मैं जेनरलाइज नहीं कर रहा। लोग बताते कि ऐसा सिर्फ हिन्दी विभाग में है,चले > जाओ बाकी जगहों पर तो लगेगा कि डिपार्टमेंट के आगे वॉलीवुड तैर रहा है। आज जब मैं उसी > हिन्दी विभाग के सामने से गुजरता हूं तो अक्सर लड़कियां अपने दोस्त को कोहनी मारते हुए > या फिर एक ही मंच को आधा-आधा शेयर करते हुए दिख जाती है। देखकर अच्छा लगता है। > > किताब को लेकर जो उत्साह था वो सिर्फ एक लाइन या कुछ शब्द नहीं लिखे जाने की वजह > से ठंडा पड़ चुका था। ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ कि जिस वक्त नहई किताब हाथ लगी तो > उसी वक्त उसके दो-चार पन्ने न पढ़ लिए हों। मैंने किताब को साइड रख दिया। फिर उस > लड़की से सोचना शुरु करते हुए हिन्दी समाज,लिटरेचर,हिन्दी विभाग पता नहीं क्या-क्या > सोचने लग गया। मैं फिर उस एक शब्द या लाइन के न होने के दर्द से दूर चला गया और > सिर्फ टिककर ये सोचने लगा कि ऐसा उसने किताब की वजह से तो नहीं किया। ये किताब > तो लोग बता रहे थे कि थोड़ी हटकर है और कुछ गालीगलौच भी। कहीं इस वजह से तो > नहीं।.अच्छा हो उसके शर्माने की वजह सिर्फ और सिर्फ वही हो। हिन्दी साहित्य की जिन > किताबों की लेन-देन करके हम अपने को बाकियों से अलग,बेहतर और खुद की आख्यान में > डूबते-उतरते रहे,ये किताब हमारी इस आत्ममुग्धता को इस तरह से ध्वस्त करेगी,अंदाजा नहीं > था। मैंने किताब देखनी शुरु कर दी। > > पहले ही पन्ने पर- मित्रों,यह संस्मरण वयस्कों के लिए है,बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं;और > उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा में गंदगी,गाली,अश्लीलता और > जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें मोहल्ले के भाषाविद् "परम"(चूतिया का पर्याय) कहते > हैं,वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं- > > आगे काशी और यहां के लोगों के परिचय में लिखा है- जमाने को लौड़े पर रखकर मस्ती में घूमने > की मुद्रा 'आइडेंटिटी कार्ड'है इसका। फिर इसी शैली में पूरी किताब जिसके कि मैंने आधे से > ज्यादा पन्ने पूरन की टिफिन मिस करके पढ़ गया। तब मुझे उस लड़की का शर्माना बाजिब > लगा था,आज भले ही उसे भी किसी विमर्श के आगे झोंककर उसे गलत करार दे दूं। मन में ये > बेचैनी तो थी ही कि उसके शर्माने की सौ फीसदी वजह सिर्फ और सिर्फ किताब की लिखी > वो शैली थी या फिर कुछ और भी? किताब पढ़ते हुए मुझे काशीनाथ सिंह पर भारी गुस्सा > आया था क्या समझते हैं,अपने आप को? शुरु में ही देसी अंदाज में निर्देश लिखकर ये साबित > करना चाहते हैं कि हमने ये सारे शब्द पहले कभी सुने नहीं? लेकिन फिर प्यार उमड़ आया कि > बेटा कॉन्वेंट में,पब्लिक स्कूल में और मेट्रो सिटी में जाकर भले ही यू नो आइ मीन करती > रहो,तुमरे बाबूजी अभी भी वहां राशनकार्ड नहीं मिलने पर पीठ पीछे गरिआ रहे होगें कि- > कहते हैं कि ताखा पर रखा करो इसे तो नहीं गांड में घुसा लेगा चीनी करासन लाकर। > > अगले दिन मैंने कहा- यार,तुमझे कुछ बात करनी है। आज तो आधी दर्जन लड़कियां है जिसे यार > कह दो तो नोटिस तक नहीं लेती,पलटकर लिखती है- यार,आगे पोस्ट लिखना- खबरों का > बलात्कार। मैं कहता हूं शर्म नहीं आती मुझसे इस तरह अश्लील बातें करती हो। उसका जबाब > होता है- इस असभ्य माहौल में जो थोड़े सभ्य बचे हैं,उनमें से एक मैं भी हूं। ही ही ही ही > ही..। यार बोलने से वो घबरा जाती और वैसे भी कुछ नमकहराम दोस्तों ने उसके कान भर > दिए थे कि बड़े बाप का बेटा है,बिगड़ा हुआ है.इस्तेमाल करके छोड़ देगा। सीधे > कहा-यार,वार मत बोला करो प्लीज। तुम पढ़ने में इतने अच्छे हो फिर ऐसी भाषा क्यों > बोलते हो? मैंने सॉरी के बाद अपना जबाब दाग दिया- तुम किताब देते हुए क्यों शर्मा रही > थी कल? उसने कहा- नहीं,पता है क्या हुआ? मैं किताब लेने मम्मी के साथ गयी थी नई सड़क। > जब मैंने दूकानदार से किताब मांगी तो वो थोड़ा मुस्कराया और मां से पूछा- आपकी बच्चिया > क्या करती है? मां ने बताया कि हिन्दी साहित्य से एमए कर रही है। फिर उसने मुझसे > पूछा- इसे तुम पढ़ोगी,कोर्स में तो नहीं है। मैंने धीरे से कहा कि नहीं मेरा एक दोस्त है,उसे > पढ़नी है। दूकानदार ने कहा कि जरुर वो बहुत अलग किस्म का बंदा होगा। काशीनाथ सिंह > ने हमें एक किताब की पसंद की बदौलत जमाने से असाधारण बना दिया था। मैंने आगे कहा- > तो तुम इसलिए शर्मा रही थी। उसने कहा- हां। फिर सवाल किया-सिर्फ और सिर्फ इस > बात के लिए। उसने कहा-हां। तुम सच तो बोल रही हो न। उसने कहा-और क्या? और कोई > बात नहीं। तब उसने कहा- सच कहूं,मुझे ये सब करने की आदत नहीं है,पता नहीं कैसा फील > करती हूं?..ये तो तुम बीमार होने के लंबे समय बाद आए थे तो सोची कि... > > (इस संस्मरण को याद करवाने के लिए सिर्फ और सिर्फ मिहिर और पल्लव जिम्मेवार हैं > जिन्होंने बनास-2 काशीनाथ सिंह और काशी का अस्सी पर निकाली है। अब इसमें चंद्रप्रकाश > द्विवेदी भी जुड़ गए हैं जो इस किताब पर फिल्म बना रहे हैं और पिछले दिनों इस मसले पर > थोड़ी-बहुत चर्चा हुई।. आज मैंने उस किताब को फिर से निकाला जिस पर आज से चार साल > पहले मैंने ही पेंसिल से उसका फ्रॉम के बाद उसका नाम लिखकर एक लाइन दाग दी थी- > WITHOUT SAYING ANYTHING ELSE.) > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >