From vineetdu at gmail.com Sat Oct 2 10:38:02 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 2 Oct 2010 10:38:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWH4KShIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC4KScIOCkquCksCDgpKrgpLngpLLgpYAg4KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSs?= Message-ID: पिछले कुछ महीनों या कहें कि डेढ़ दो सालों से पेड न्यूज को लेकर जितना हंगामा मचा,वो टुकड़ों-टुकड़ों और लेख की शक्ल में जहां-तहां मौजूद है। हम सब उससे गुजरते आए हैं। लेकिन इस पूरी बहस और पेड न्यूज के बीच मीडिया की बदलती शक्ल को बतौर एक रिसर्च का मुद्दा बनाते हुए वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विश्लेषक दिलीप मंडल ने पहली बार इसे किताबी रुप दिया है। ये किताब हिन्दी-अंग्रेजी सहित दूसरी किसी भी भारतीय भाषा में पहली किताब है जो मीडिया और पत्रकार की तेजी से गिरती हुई साख की तटस्थ आलोचना करती है। लिहाजा फ्लैप का पूरा हिस्सा यहां चेप रहा हूं- [image: पेड न्यूज पर पहली किताब] पेड न्यूज वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है। समाचार को लेकर जिस पवित्रता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की शास्त्रीय कल्पना है, उसका विखंडन हम सब अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। मीडिया छवि बनाता और बिगाड़ता है। इस ताकत के बावजूद भारतीय मीडिया अपनी ही छवि का नाश होना नहीं रोक सका। देखते-देखते पत्रकार आदरणीय नहीं रहे। लोकतंत्र का चौथा खंभा आज धूल धूसरित गिरा पड़ा है। खबरें पहले भी बिकती थीं। सरकार और नेता से लेकर कंपनियां और फिल्में बनाने वाले खबरें खरीदते रहे हैं। बदलाव सिर्फ इतना है कि पहले खेल पर्दे के पीछे था। अब मीडिया अपना माल दुकान खोलकर और रेट कार्ड लगाकर बेच रहा है। विलेन के रूप में किसी खास मीडिया हाउस को चिन्हित करना काफी नहीं है। सारा कॉरपोरेट मीडिया ही बाजार में बिकने के लिए खड़ा है। बहरहाल, मीडिया की बंद मुट्ठी क्या खुली, एक मूर्ति टूटकर बिखर गई। यह किताब इसी विखंडन को दर्ज करने की कोशिश है।देश-काल की बड़ी समस्याओं पर लिखी गई किताबों में आम तौर पर समाधान की भी बात होती है। समस्या का विश्लेषण करने के साथ ही अक्सर यह भी बताया जाता है कि रास्ता किस ओर है। इस मायने में यह किताब आपको निराश करेगी। हाल के वर्षों में जनसंचार के क्षेत्र के सबसे विवादित और चर्चित विषय पेड न्यूज को केंद्र में रखकर लिखी गई यह किताब समस्या का कोई समाधान नहीं सुझाती।यह पुस्तक यह समझने की कोशिश भर है कि पेड न्यूज बीमारी है, या फिर बीमार का लक्षण। पुस्तक में मीडिया अर्थशास्त्र और व्यवसाय के जरिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अपनी वर्तमान संरचना की वजह से मीडिया के लिए खबरें बेचना अस्वाभाविक नहीं है। मीडिया के लिए पैसा कमाना महत्वपूर्ण है और इसके लिए छवि की कुर्बानी कोई बड़ी कीमत नहीं है। मीडिया के लिए छवि की चिंता उसी हद तक है जहां उसकी कमाई पर बुरा असर न होने लगे। यह पुस्तक मीडिया के बारे में आपकी स्थापित मान्यताओं को लगातार चुनौती देगी, आपको नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करेगी। इसे मीडियाकर्मियों, मीडिया के विद्यार्थियों, शोधार्थियों के साथ ही उन तमाम लोगों को ध्यान में रखकर लिखा गया है जो भारतीय मीडिया को देखकर कहते हैं-(फ्लैप से) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Oct 2 22:28:15 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 2 Oct 2010 22:28:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KSq4KSV?= =?utf-8?b?IOCkmuCljOCksOCkuOCkv+Ckr+CkviDgpLjgpYcg4KSs4KSh4KS84KS+?= =?utf-8?b?IOCkh+CkuCDgpKbgpYfgpLYg4KSu4KWH4KSCIOCkleCli+CkiCDgpKg=?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSC?= Message-ID: दीपक चौरसिया टेलीविजन का जाना-पहचाना और सबसे पॉपुलर चेहरा है। वो इतना पॉपुलर तो जरुर है कि फिल्म पीपली लाइव में उनके आस-पास का एक कैरक्टर गढ़ा जाता है और स्वाभाविक तौर पर उसका भी नाम दीपक रखा जाता है जिसकी ठसक एक-दो बार चैनल हेड से उपर तक की दिखाई जाती है,जिसके उपर मंत्रीजी की विशेष कृपा है। सिनेमा है इसलिए सीधे-सीधे हम असली दीपक चौरसिया से इसे जोड़कर देखें तो बेमानी होगी। लेकिन आज जो अभी हम शो देख रहे हैं उससे ये बात जरुर समझ आ जाती है कि दीपक चौरसिया पर सिस्टम की खास मेहरबानी जरुर है। "बाइक पर आया जॉन" नाम से एक खास शो आ रहा है जिसमें वो जॉन इब्राहिम के साथ बाइक पर बैठकर इंटरव्यू ले रहे हैं। एक ऑडिएंस के तौर पर हमारी सबसे पहली नजर जिस बात पर जाती है वो ये कि एक तो दोनों में से किसी ने हेमलेट नहीं पहने हैं और दूसरी कि उनकी बाइक के पीछे चलनेवाली गाडियां परेशानी झेल रही है। स्टार न्यूज इतना स्मार्ट चैनल तो जरुर है कि उसे पता है कि इस नजारे को देखते ही ऑडिएंस एकदम से भड़क जाएगी कि जो मीडिया हमें दिन-रात नियमों के पालन की नसीहतें देता रहता है वो खुद सरेआम नियमों की धज्जियां उड़ा रहा है। इसलिए स्क्रीन के नीचे पीले रंग से मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा आता है कि- इस कार्यक्रम के लिए चैनल ने विशेष अनुमति ले रखी है,दर्शकों से अनुरोध है कि बिना हेलमेट बाइक की सवारी न करें। इस लाइन को पढ़ते हुए हमें बस यही मुहावरा याद आता है- सइंया भए कोतवाल, तो अब डर काहे का। जब अनुमति ले ही ली है तो देश का सबसे नामी टेलीविजन चेहरा अगर नियमों को अपनी जेब में रखकर घूमता है तो क्या फर्क पड़ता है? हम दीपक चौरसिया सहित स्टार न्यूज को किसी भी तरह से कानूनी स्तर पर चैलेंज नहीं कर सकते क्योंकि उसने कुछ भी नियम से हटकर नहीं किया है? उनके पास संभवतः सारे लिखित दस्तावेज होंगे जिसमें बिना हेलमेट के काला चश्मा लगाए लौंडे टाइप से जॉन इब्राहिम के साथ बाइम में बैठकर इंटरव्यू ले सकेंगे। हम तो बस उस अधिकारी की डिसीजन लेने की क्षमता और उसकी बुद्धि की बलिहारी पर रो सकते हैं जिसने कि चैनल या दीपक चौरसिया से एक बार भी ये सवाल नहीं किया कि क्या ऐसा करना इतना जरुरी है कि बिना हेलमेट के सड़कों पर मनमाने ढंग से बाइक चलाने,बात करने की अनुमति दी जा सके। मैं लगतार देख रहा हूं उनके इस तरह बातचीत करने से पीछे की गाड़ियां, ट्रैफिक डिस्टर्ब हो रही है। दीपक चौरसिया और स्टार न्यूज उस लिखित अनुमति और हमसे बिना हेलमेट के बाइक की सवारी न करने की नसीहत देकर एक तरह से हमें ठेंगा दिखाने का काम करते हैं। साथ ही ये भी बताने की कोशिश भी कि अगर आपके पास ऐसा करने की इजाजत है तो घंटा कोई कुछ कर सकता है। लेकिन सवाल दूसरा है- सवाल ये है कि क्या स्टार न्यूज कोई फिल्म प्रोडक्शन हाउस है या फिर दिखाया जानेवाला शो सिनेमा है कि उन्हें शूटिंग करने के लिए इस तरह की इजाजत दे दी जाए? क्या चैनल ने इसके लिए फिल्मों की शूटिंग इतनी रकम अदा की है,इसे चैनल को साफ करना चाहिए? स्टार न्यूज को कल को ये क्रेडिट भले ही मिल जाए कि वो ऐसा करने का ट्रेंड सेटर है लेकिन ये किस तरह की ट्रेंड होगी इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। इस देश में जितने भी चैनल हैं उनमें से लगभग सबों के पास इतनी हैसियत और आकात है कि वो इस तरह की परमीशन ले सके। अब ऐसा करना बाकी चैनलों ने भी शुरु कर दिया तो फिर आगे कहां जाकर थमेगा? माफ कीजिएगा,मैं किसी भी तरह के कठमुल्लेपन की तरफ नहीं जा रहा लेकिन कल आप जॉन इब्राहिम ही क्यों,बिकनी के साथ विपाशा वसु को बिठाकर इंटरव्यू लें..लेकिन टीआरपी के कुछ टुकड़ों के अलावे आप बाकी क्या देना चाहते हैं,इस पर बात करनी जरुरी है। इस शो में इस रवैये को मैं प्रशासन और ट्रैफिक नियम की धज्जियां उड़ाने का मामला मानता हूं। साथ ही शख्स की हैसियत के हिसाब से नियम बदल जाते हैं,ये भी मामला बनता है। दूसरी बात ये दोनों शख्स जिस मसले पर बात कर रहे हैं, उसका किसी विपदा या इमरजेंसी से संबंध नहीं है कि मजबूरी में ही सही इसकी इजाजत दे देनी चाहिए। माफ करेंगे मैं किसी भी तरह से सरोकारी पत्रकारिता की बात नहीं कर रहा क्योंकि देखते और लिखते हुए इसकी उम्मीद बहुत पहले से जाती रही है,लेकिन मीडिया के भीतर घटनाओं का जो महत्व है उसका आप क्या करेंगे? फिर तो दिनभर में चार बार ऐसी जरुरत पड़ेगी हरेक चैनल को एक सिलेब्रेटी,एक बाइक और बिना हेलमेट की फुटेज की जरुरत पड़ेगी। अगर प्रशासन उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती तो फिर उसकी तटस्थता कहां तक रह जाती है? स्टार न्यूज को इसकी इजाजत देकर उसने एक बहुत ही बेहुदे परंपरा की नींव रखी है जिसमें कि चैनल और वो बराबर का जिम्मेवार है। तीसरी बात कि दीपक साहब, आज आपने कानूनी इजाजत ले ली है औऱ नंगे सिर सड़क पर लहरा रहे हैं, हमें ठेंगा दिखाकर आगे बढ़े जा रहे हैं लेकिन ऑडिएंस आपको कानून और नियमों के आइने में देखकर पसंद-नापसंद नहीं करती है बल्कि वो आपको इसलिए पसंद करती है कि आप उनके मसले को संवेदनशील तरीके से उठाते हैं। इसे मैं आपके एक अच्छा इंसान होने के तौर पर नहीं एक अच्छी ब्रांड इमेज के तौर पर लेता हूं जिसे कि आज आपने ध्वस्त कर दिया। आज आपने एक पट्टी चलाकर अपने को एक जिम्मेदार नागरिक घोषित कर दिया लेकिन कभी पीछे पलटकर देखा कि आपके ऐसा करने से कितने लोग फॉलो कर रहे हैं? फुटेज में हमें दिखाई दिया कि कई लोग बिना हेलमेट के चले आ रहे है? क्या सबों के पास ऐसा करने की परमीशन थी? एक बंदा हेलमेट उतारता है और जॉन इब्राहिम सवाल करते हैं कि आप हेलमेट क्यों उतार रहे हैं? उनके चेहरे से साफ झलकता है कि इजाजत ले लेने के वाबजूद भी कुछ गलत करने का बोध पैदा हो रहा है। दीपक साहब, हम आपसे गांधी बन जाने की उम्मीद नहीं करते कि दूसरों को नसीहत देने के पहले खुद सुधरो, बच्चे को मीठा खाने से मना करने के पहले खुद खाना बंद करो। ये अलग बात है कि आपने ठीक गांधी जयंती के मौके पर ऐसा किया है। लेकिन इतना तो जरुर कह सकते हैं कि आपको क्या कभी नैतिक अधिकार होगा कि आप लोगों से देश की किसी भी सामाजिक बुराईयों को रोकने के लिए,नियम से चलने की बात कर सकें। मुझे इतना तो पता ही है कि जॉन इब्राहिम फिर भी किसी मैराथन के एंमबेसडर बनेंगे, रेसलाइन में दौड़ेंगे या साइकिल चलाएंगे लेकिन आप?.. दरअसल आप जिस जॉन इब्राहिम की सबसे बेहतर बाइक राइडर की इमेज को भुनाना चाह रहे हैं,उससे आपकी खुद की इमेज न केवल करप्ट हुई है बल्कि एक न्यूज चैनल की साख को बट्टा लगा है। दिनभर नंबर तीन चैनल हो जाने की कुंठा से मुक्त होने की जुगाड़ों के लिए क्या भूत होते हैं से चैनल को तो जूझते देखा ही,प्राइम टाइम में इस तरह का कबाड़ा।..अफसोस होता है,एक पॉलिटिकल कॉरेसपॉडेंट का इस तरह से पतन होते हुए देखकर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Oct 8 16:12:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 8 Oct 2010 16:12:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSoIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+IOCkleCkviDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KS44KWH4KSm4KS+4KSwIOCkrOCkqOCkqOClhyDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: *जन पत्रकारिता का हिस्सेदार बनने की अपील* संदर्भ: सीजीनेट स्वर प्रिय दोस्तों, अकबर इलाहाबादी का यह शेर बहुत मशहूर है कि ‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो/जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो.’ यानी ताक़त के मामले में अख़बार किसी तोप से कमतर नहीं होते. आज़ादी से पहले तमाम अख़बारों ने इसे साबित कर दिखाया और देश की जनता के साथ मिल कर गोरी हुक़ूमत को देश से खदेड़ देने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की. ज़ाहिर है कि इसकी उन्होंने भारी कीमत भी चुकायी. कुर्की, जेल, ज़ुर्माना, शहर निकाला-- ना जाने क्या-क्या झेला लेकिन अपने क़दम पीछे नहीं किये. तब अख़बार कम थे और आज अख़बारों की भरमार है. पहले अख़बार निकालने का मक़सद जनता की आवाज़ बनना था. आज ज़्यादातर अख़बारों का मक़सद दौलत कमाना है. ख़बरिया चैनलों का हाल तो और बुरा है. कुल मिला कर कहें तो पत्रकारिता में जन सरोकारों की जगह तेज़ी से घटती जा रही है. लगता है जैसे मीडिया के बड़े हिस्से में तोप से भिड़ने के बजाय उसका भोंपू बनने की होड़ मच गयी हो. यह गंभीर चिंता का विषय है. जन पत्रकारिता की ज़रूरत इसीलिए है और यह तभी संभव है जब ऐसे माध्यम सामने हों जिन तक साधारण लोगों की सीधी और आसान पहुंच हो और जो किसी भी तरह के दबावों और मज़बूरियों से भी आज़ाद हों. कभी फ़ोन रखना सबके बूते की बात नहीं थी और आज मोबाइल फ़ोन तेज़ी के साथ आम ज़िंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है, गांव-गांव पहुंच गया है. इसी को ध्यान में रख कर यह विचार उभरा कि क्यों न इस बदलाव का बेहतर उपयोग किया जाये, मोबाइल फ़ोन को जन पत्रकारिता का माध्यम बनाया जाये. सीजीनेट स्वर इसी विचार की उपज है (सीजीनेट में सीजी का अर्थ है सेंट्रल गोंडवाना). यह मोबाइल फ़ोन आधारित समाचार सेवा है जो उपयोग करने में बेहद आसान और मुफ़्त भी है. इसके ज़रिये आप भी सिटिज़न जर्नलिस्ट की भूमिका में उतर सकते/सकती हैं. इसके लिए पढ़ा-लिखा होना कतई ज़रूरी नहीं. इस अनूठे प्रयोग की शुरुआत फ़रवरी 2010 में मध्य भारत के आदिवासी इलाकों से हुई थी. यह छोटी सी एक टीम की मेहनत और आम लोगों के उत्साहजनक योगदान का नतीज़ा है कि दूर-दराज़ के कई इलाक़ों में आज सीजी नेट स्वर कोई अनजाना नाम नहीं है | बहरहाल, दूसरों का संदेश सुनने या अपना संदेश रिकार्ड करने के लिए आप सीजी नेट स्वर का यह नंबर डायल करें- 08041137280. घंटी बजने पर फ़ोन काट दें और सीजी नेट स्वर से काल बैक का इंतज़ार करें. यह नंबर दरअसल कम्प्यूटर है जो आपकी मिस्ड काल पर आपको वापस फ़ोन करता है. सुझाव है कि पहले इसके संदेशों को सुनें. संदेश रिकार्ड करने के लिए अच्छा होगा कि अपना संदेश तैयार कर पहले उसका पाठ कर लें. संदेश अधिकतम दो मिनट का होना चाहिए. संदेश को इस समय सीमा में बांधें और तब रिकार्ड करें. आप अपने आसपास की उन घटनाओं और समस्याओं पर अपना संदेश तैयार कर सकते/सकती हैं जिन्हें दूसरी जगहों के लोगों को भी जानना चाहिये. इसके अलावा आप कोई ऐसा गीत भी चुन सकते/सकती हैं जिसका रिश्ता लोगों के सुख-दुख, आशाओं या संघर्षों से जुड़ता हो. अगर गीत स्थानीय भाषा में है तो आप पहले उसका बहुत छोटे में परिचय भी दें तो अच्छा रहेगा. फ़िलहाल यह सुविधा हिंदी, गोंडी और छत्तीसगढ़ी में संदेशों तक सीमित है लेकिन जल्द ही दूसरी भाषाओं को भी इसमें शामिल किये जाने की योजना है. संदेशों को *www.cgnetswara.org* पर भी पढ़ा-सुना जा सकता है. निवेदन है कि जन पत्रकारिता के इस मंच का पूरा लाभ उठायें और उसे दूसरों तक भी पहुंचायें. आपका जुड़ाव पत्रकारिता के लोकतांत्रिककरण की इस कोशिश को मज़बूत करने का बड़ा काम करेगा. अधिक जानकारी लेने या अपने सुझाव साझा करने के लिए कृपया इस पते पर संपर्क करें; *सीजीनेट** **स्वर** *** 312 पत्रकार परिसर, सेक्टर 5, वसुन्धरा, गाज़ियाबाद- 201012 *shu at cgnet.in* आपका साथी, आदियोग (09415011487, *awazlko at hotmail.com* ) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Oct 8 16:12:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 8 Oct 2010 16:12:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSoIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+IOCkleCkviDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KS44KWH4KSm4KS+4KSwIOCkrOCkqOCkqOClhyDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: *जन पत्रकारिता का हिस्सेदार बनने की अपील* संदर्भ: सीजीनेट स्वर प्रिय दोस्तों, अकबर इलाहाबादी का यह शेर बहुत मशहूर है कि ‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो/जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो.’ यानी ताक़त के मामले में अख़बार किसी तोप से कमतर नहीं होते. आज़ादी से पहले तमाम अख़बारों ने इसे साबित कर दिखाया और देश की जनता के साथ मिल कर गोरी हुक़ूमत को देश से खदेड़ देने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की. ज़ाहिर है कि इसकी उन्होंने भारी कीमत भी चुकायी. कुर्की, जेल, ज़ुर्माना, शहर निकाला-- ना जाने क्या-क्या झेला लेकिन अपने क़दम पीछे नहीं किये. तब अख़बार कम थे और आज अख़बारों की भरमार है. पहले अख़बार निकालने का मक़सद जनता की आवाज़ बनना था. आज ज़्यादातर अख़बारों का मक़सद दौलत कमाना है. ख़बरिया चैनलों का हाल तो और बुरा है. कुल मिला कर कहें तो पत्रकारिता में जन सरोकारों की जगह तेज़ी से घटती जा रही है. लगता है जैसे मीडिया के बड़े हिस्से में तोप से भिड़ने के बजाय उसका भोंपू बनने की होड़ मच गयी हो. यह गंभीर चिंता का विषय है. जन पत्रकारिता की ज़रूरत इसीलिए है और यह तभी संभव है जब ऐसे माध्यम सामने हों जिन तक साधारण लोगों की सीधी और आसान पहुंच हो और जो किसी भी तरह के दबावों और मज़बूरियों से भी आज़ाद हों. कभी फ़ोन रखना सबके बूते की बात नहीं थी और आज मोबाइल फ़ोन तेज़ी के साथ आम ज़िंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है, गांव-गांव पहुंच गया है. इसी को ध्यान में रख कर यह विचार उभरा कि क्यों न इस बदलाव का बेहतर उपयोग किया जाये, मोबाइल फ़ोन को जन पत्रकारिता का माध्यम बनाया जाये. सीजीनेट स्वर इसी विचार की उपज है (सीजीनेट में सीजी का अर्थ है सेंट्रल गोंडवाना). यह मोबाइल फ़ोन आधारित समाचार सेवा है जो उपयोग करने में बेहद आसान और मुफ़्त भी है. इसके ज़रिये आप भी सिटिज़न जर्नलिस्ट की भूमिका में उतर सकते/सकती हैं. इसके लिए पढ़ा-लिखा होना कतई ज़रूरी नहीं. इस अनूठे प्रयोग की शुरुआत फ़रवरी 2010 में मध्य भारत के आदिवासी इलाकों से हुई थी. यह छोटी सी एक टीम की मेहनत और आम लोगों के उत्साहजनक योगदान का नतीज़ा है कि दूर-दराज़ के कई इलाक़ों में आज सीजी नेट स्वर कोई अनजाना नाम नहीं है | बहरहाल, दूसरों का संदेश सुनने या अपना संदेश रिकार्ड करने के लिए आप सीजी नेट स्वर का यह नंबर डायल करें- 08041137280. घंटी बजने पर फ़ोन काट दें और सीजी नेट स्वर से काल बैक का इंतज़ार करें. यह नंबर दरअसल कम्प्यूटर है जो आपकी मिस्ड काल पर आपको वापस फ़ोन करता है. सुझाव है कि पहले इसके संदेशों को सुनें. संदेश रिकार्ड करने के लिए अच्छा होगा कि अपना संदेश तैयार कर पहले उसका पाठ कर लें. संदेश अधिकतम दो मिनट का होना चाहिए. संदेश को इस समय सीमा में बांधें और तब रिकार्ड करें. आप अपने आसपास की उन घटनाओं और समस्याओं पर अपना संदेश तैयार कर सकते/सकती हैं जिन्हें दूसरी जगहों के लोगों को भी जानना चाहिये. इसके अलावा आप कोई ऐसा गीत भी चुन सकते/सकती हैं जिसका रिश्ता लोगों के सुख-दुख, आशाओं या संघर्षों से जुड़ता हो. अगर गीत स्थानीय भाषा में है तो आप पहले उसका बहुत छोटे में परिचय भी दें तो अच्छा रहेगा. फ़िलहाल यह सुविधा हिंदी, गोंडी और छत्तीसगढ़ी में संदेशों तक सीमित है लेकिन जल्द ही दूसरी भाषाओं को भी इसमें शामिल किये जाने की योजना है. संदेशों को *www.cgnetswara.org* पर भी पढ़ा-सुना जा सकता है. निवेदन है कि जन पत्रकारिता के इस मंच का पूरा लाभ उठायें और उसे दूसरों तक भी पहुंचायें. आपका जुड़ाव पत्रकारिता के लोकतांत्रिककरण की इस कोशिश को मज़बूत करने का बड़ा काम करेगा. अधिक जानकारी लेने या अपने सुझाव साझा करने के लिए कृपया इस पते पर संपर्क करें; *सीजीनेट** **स्वर** *** 312 पत्रकार परिसर, सेक्टर 5, वसुन्धरा, गाज़ियाबाद- 201012 *shu at cgnet.in* आपका साथी, आदियोग (09415011487, *awazlko at hotmail.com* ) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Oct 9 20:05:24 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 9 Oct 2010 20:05:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWB4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSwIOCkueCliCwg4KS14KSw4KWN4KSn4KS+IOCkruClh+CkgiDgpJY=?= =?utf-8?b?4KS+4KSqIOCkquCkguCkmuCkvuCkr+CkpOClgCDgpKzgpY3gpLLgpYk=?= =?utf-8?b?4KSX4KSwIOCkqOCkueClgOCkgiDgpJzgpYHgpJ/gpYcg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: देखिए,बहस या सेमिनार का मुद्दा चाहे जो भी हो,वो किसी भी रुप में अकारथ नहीं जाता। ये सवाल अक्सर किसी के भी मन में आया करते हैं कि इन सेमिनारों और चर्चाओं से भला होता क्या है, जो जहां पत्थर तोड़ रही होती है,जो जहां कूड़े बीन रहा होता है,वो सालों से बीनता-तोड़ता चला आता है..तो फिर क्यों करते हो उनके नाम पर चर्चा या सेमिनार? यही सवाल यहां भी उठते हैं कि जब कोई आचार संहिता मानने को तैयार ही नहीं है,आचार संहिता जैसी बात पर सहमत ही नहीं है तो फिर क्यों करा रहे हैं इस पर विमर्श? इस मामले में मेरी अपनी राय है- इस तरह के मुद्दे पर विमर्श करने से न तो लिखने के चलन में कोई फर्क आनेवाला है और न ही इस संहिता को ध्यान में रखकर लिखना शुरु करेंगे। लिखेंगे वही जो महसूस करेंगे और जो महसूस करेंगे वो संहिता के सींकचे में ही हो,उनकी सहमति की मोहताज हो,जरुरी नहीं।..तब तो फिर हो गया वर्चुअल स्पेस पर लेखन भला। तो फिर... जैसा पहले भी कहा कि कोई भी सेमिनार न तो अकारथ जाती है और न इस नीयत से कराए जाते हैं। इस तरह के मुद्दे पर भी कराने से ऐसा ही होगा। कुछ लोग पंडितई की पांत में आगे बढ़ जाएंगे। कल को वो संहिता बनानेवाली कमेटी में घुस-घुसा दिए जाएंगे। उसके विशेषज्ञ करार दिए जाएंगे..कई और सभाओं में अपनी शक्ल चमकाएंगे और इस तरह अभी महज जो गैरजरुरी मुद्दा है वो कल को एक सांस्थानिक शक्ल के तौर पर हमारे सामने होगें। पेड न्यूज,आदिवासी अस्तिमता विमर्श,दलित औऱ स्त्री-विमर्श करने में माहिर लोग इसे बेहतर समझ सकते हैं। संहिता के होने या न होने का संबंध सीधे वर्चुअल स्पेस पर लिखनेवाले लोगों से है। ये कोई एक राज्यकीय स्पेस नहीं है कि कोई खाप पंचायती करने बैठ जाए। ये खुली दुनिया है। ये अलग बात है कि हम तीस-चालीस ब्लॉगरों को शक्ल,नाम और पता ठिकाने को जान लेते हैं तो बस इसे ही दुनिया मान लेते हैं। अगर कन्सेप्चुअली वर्चुअल स्पेस को समझने की कोशिश करें तो आचार संहिता पूरी तरह वर्चुअल स्पेस की अवधारणा के खिलाफ बात करनेवाला मुद्दा है। व्यावहारिक तौर पर देखें तो आपको कुछ ब्लॉगरों को नाम-पता सब ठीक-ठीक मालूम है तो आप लाद दें उन पर आचार संहिता और बाकियों के साथ आप क्या करेंगे? या फिर देर रात उस लेखक की नीयत बिगड़ जाए और बेनामी होकर कुछ लिख जाए तो आप क्या कर लेंगे? आप तकनीकी रुप से उसे आइडेंटिफाय भी कर लें तो फिर उससे ये कहां साबित हो सकेगा कि उसने ऐसा किस मनःस्थिति में रहकर किया? आप किसी की मनोदशा,उसकी चलन पर आचार संहिता लागू नहीं कर सकते। ये जब नागरिक संहिता के तहत जीनेवाले इंसान के बीच संभव नहीं हो पाता है तो आप मन की बारीकियों पर कैसे लागू कर सकेंगे? ये एक ग्लोबल माध्यम हैं,जिसमें आए दिन रगड़े होंगे और ये रगड़े जरुरी नहीं कि बलिया, बक्सर, बनारस, दिल्ली का ही लेखक करे और जिसका निपटारा वर्धा,इलाहाबाद में किया जाए? ये अमेरिका की समस्या पर मुनिरका( दिल्ली में एक स्टूडेंट प्रो इलाका)में बैठकर ताल ठोंकने का काम होगा। इसलिए मेरी अपनी समझ है कि ये मुद्दा वर्चुअल स्पेस की पूरी अवधारणा को बहुत ही सीमित और फ्रैक्चरड तरीके से देखने की कोशिश करता है। मुझे तो यहा तक लगता है कि जो कोई भी बेबाक तरीके से ब्लॉगिंग करता आया है,उसके दिमाग में इस मुद्दे का आना ही उसके लिखने पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।.. मेरी बात पढ़कर आप कहेंगे कि मैं तब लिखने के नाम पर फुलटाइम,फुलटू,फुलस्पीड में आवारगी की डिमांड कर रहा हूं। नहीं,ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कोई भी लेखक जब इस स्पेस पर लिखता है तो लिखने के साथ उसकी किसी न किसी रुप में प्रतिबद्धता होती है। बल्कि लिखना अपने आप में एक प्रतिबद्धता का काम है,खास तरीके की कमिटमेंट है। ये संहिता से कहीं आगे और बड़ी चीज है। संभव है कि ये प्रतिबद्धता हर किसी के लिखने में अलग-अलग तरीके और साइज के हो। कोई लिखकर किसी एक या दो शख्स की कनपटी गरम करना चाह रहा हो तो कोई अपने लेखन से पूरी सिस्टम को हिलाकर रख देने की मंशा रखता हो। ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उसकी उस प्रतिबद्धता को लेकर बात करनी चाहिए,संहिता की नहीं। संहिता वाली बात संभव है जिस किसी के दिमाग में उपजी है,संभव है कि वो कुछ अश्लील और गालियों के इस्तेमाल किए जानेवाले शब्द को लेकर भी पनपी हो। लेकिन आप इन गालियों को प्रोत्साहित न करते हुए भी इसके समाजशास्त्र और लिखनेवाले के एग्रेशन लेबल तक ले जाकर सोचेंगे तो पूरे विमर्श का आधार ही बदल जाएगा। संहिता की बात करना दरअसल ब्लॉगिंग के भीतर की बनती संभावित कॉम्प्लीकेटेड बहस को सतही तौर पर जेनरलाइज और सतही कर देना होगा। हां इस पूरी बहस में एक चीज का जरुर पक्षधर हूं और वो भी किसी नियम के तहत नहीं,एक अपील भर कि लिखने के साथ-साथ अगर अकांउटबिलिटी आ जाए तो कुछ स्थिति और बेहतर हो सकती है। क्योंकि अनामी होकर हर कोई बहुत गहरी और व्यापक सरोकार की बात करेगा,जरुरी नहीं। अगर न भी अकांउटेबल होते हैं तो फिर बहुत दिक्कत नहीं है। हां बस अगर वो बम धमाके की तरह आतंकवादी संगठन जैसे जिम्मेदारी अपने-आप ले लेते हैं तो इससे व्यक्तिगत स्तर पर ब्लॉगरों की ताकत में जरुर इजाफा होगा और टेलीविजन के अतिरिक्त "वर्चुअल स्पेस पर स्टिंग ऑपरेशन" होते रहने का भय बना रहेगा।. सिद्धार्थजी का मैं शुक्रिया अदा करने के साथ माफी मांगता हूं कि आ न सका। हम लाख तार्किक बातों के बीच रहते,करते हुए भी कुछ मामलों में अपने फैसले इमोशन के आधार पर ही लेते रहते हैं। मैं यूपीएससी पास करनेवाले उन लौंड़ों में से नहीं हूं जो कि इमोशन को अपने व्यक्तित्व की खोट मानते हैं। मैं इसे अपनी पूंजी के तौर पर लेता हूं और बची रहे,इसकी लगातार कोशिश रहती है। दिल्ली से यशवंत गए हैं,हम यहां बैठे-बैठे उम्मीद और भरोसा करते हैं कि वो अपनी बात में मेरा भी तेवर शामिल करेंगे। बाकी ब्लॉगर गुर्गे तो अपनी बात कह ही रहे हैं। उम्मीद करता हूं कि उनके मुंह से भी हमारी ही जुबान निकलेगी। आप जितना महसूस करें,जैसा अनुभव रहे,उसके एक-एक रेशे को भाषिक रुप दें,इसी उम्मीद के साथ आप सबका, विनीत ( ये पीस दरअसल कमेंट के तौर पर चिठ्ठाचर्चा के बक्से में जाकर लिखा। लेकिन सेंटियाकर लंबा लिखता चला गया तो पोस्ट करने से मना कर दिया। लिहाजा बना हुआ भोजन और लिखा हुआ माल बेकार न चली जाए,पोस्ट की शक्ल में आपके सामने धर दिया ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Oct 11 10:13:16 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 11 Oct 2010 10:13:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSbIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWL4KSy4KWN4KShIOCkuOClgOCkqCDgpKXgpYcs4KSy4KWH4KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KSoIOCkq+ClgeCkuOCkq+ClgeCkuOCkvuCkueCknyDgpKjgpLk=?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkpeClgOCkgizgpKDgpLngpL7gpJXgpYcg4KSl4KWA4KSC?= Message-ID: ओमपुरी ने सिर्फ इतना कहा कि देवियों और इस संबोधन के बाद वे बोले, यहां तो देवियां ही देवियां हैं, देवता तो मुझे कहीं दिखाई ही नहीं दे रहे – तो मैंने भी पीछे मुड़कर एक बार नजर घुमायी। मुझे सचमुच कोई भी मेल ऑडिएंस दिखाई नहीं दिया। दो-चार जो भी थे, वो सबके सब आगे मंच-काज में रमे हुए या फिर सोफा में धंसे हुए। बाकी करीब छह सौ की संख्या में सिर्फ और सिर्फ लड़कियां। आगे की पहली लाइन और कुछ आती-जाती फीमेल ऑडिएंस को छोड़ दें तो सबके सब बीए और बाहर से आयीं कुछ एमए लड़कियां। इन लड़कियों को शायद पता भी नहीं होगा कि वो जिस तरह से सिनेमा देख रही हैं, वो किसी भी स्त्री-विमर्शकार के लिए कितना मौजूं मुद्दा हो सकता है? और फिर सिनेमा देखने के दौरान जो उनकी एक्टिविटी और हरकतें हम नोटिस करते रहे, उसे भी डिकोड कर काफी-कुछ मायने निकाले जा सकते हैं। *मेरे लिए* ये पहला अनुभव रहा, जब हम डीएवी गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर जैसे लड़कियों के कॉलेज में, इस तरह की खचाखच भरी ऑडिएंस के बीच सिनेमा देख रहे थे और कुछ-कुछ वैसा ही महसूस करते रहे जैसे आमतौर पर लड़कियां मर्दों के जमावड़े के बीच होने पर करती हैं। मर्दों की मसखरई के बीच पड़कर कोई लड़की कैसा महसूस करती है, इसे समझने के लिए ऐसे जमावड़े में पड़ना और सिनेमा देखना मुझे सबसे ज्यादा जरूरी लगा। मेरी बॉडी लैंग्वेज सिकुड़ती है और हम अतिरिक्त तौर पर सतर्क होते हैं। हमारे लिए ये बहुत आसान था कि हम इससे उबरने के लिए हॉल से बाहर निकल जाएं। लेकिन रोजमर्रा तौर पर लड़कियों और स्त्रियों की ये बेचैनी कैसे दूर होती होगी, कहां-कहां से निकलकर किधर-किधर भागने के बारे में सोचती होगी, ये सवाल हमें लगातार मथे जा रहा था। बहरहाल…** *ओमपुरी और* फिर हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टीवल के डायरेक्टर अजीत राय के छोटे से वक्तव्य के बाद उदयन प्रसाद की फिल्म *My Son the Fanatic* की स्क्रीनिंग शुरू हो जाती है। एक टैक्सी ड्राइवर की भूमिका में ओमपुरी पक्के पोस्टमार्डनिस्ट साबित होते हैं। हम अगले करीब ढाई घंटे के लिए घुप्प अंधेरे में पर्दे पर बदलते मंजरों के हवाले खुद को कर देते हैं। बीच-बीच में लोगों की आवाजाही बनी रहती है और इसकी जो रोशनी इस अंधेरे को काटती है तो मेरा लोभ उन बैठी करीब छह सौ लड़कियों के बीच जहां-तहां से चेहरे के भाव पढ़ने का लोभ बनता जाता है। हम सिनेमा का तत्काल रिएक्शन उन पर क्या हो रहा है, पढ़ना चाहते हैं, जो कि आसान काम नहीं होता है। कोई सीधे कहे कि या तो सिनेमा देख लो या फिर उन चेहरों की टोह ही लेते रहो। लेकिन उन लड़कियों और आगे बैठी स्त्रियों के रिएक्शन को समझने का एक सतही की सही, फार्मूला हमें मिलता दिखाई देता है। *मेरे ठीक पीछे* बैठी स्त्रियां जिनमें से कुछ उस कॉलेज की लेक्चरर भी होती हैं, जिस सीन को देखकर फुसफुसाना शुरू करती हैं, ठीक उसी सीन पर पीछे से लड़कियों के ठहाके शुरू होते हैं। उन ठहाकों में अगर आधी लड़कियों की भी गूंज शामिल हैं, तो ये विश्लेषण की एक कच्ची सामग्री है ही। अधेड़, तीस साल पार स्त्रियों के लिए सिनेमा के जो सीन्स फुसफुसाहट पैदा करते हैं, ठीक पीछे बैठी लड़कियां उन पर ठहाके लगाती हैं। मैंने लेडिज सीट पर बैठकर दीदी की सहेलियों और सबसे ज्यादा मां के साथ दर्जनों फिल्में देखीं है। मुझे तब याद है कि जब हीरो किस भी नहीं लेता, सिर्फ उसकी बांह पकड़कर अपनी ओर खींचता तो हीरोइन कहती – कोई देख लेगा… बाबूजी आते होंगे… (विवाहित होने पर) मांजी बुला रही है, तो इधर दर्शक दीर्घा में लड़कियां समीज से सरक आये दुपट्टे को दुरुस्त करतीं और महिलाएं साड़ी के पल्लू को ब्लॉउज पर जमातीं। *यहां सीन ये है* कि हीरो और हीरोइन बिल्‍कुल नंगे एक-दूसरे से लेटे-लिपटे जा रहे हैं और पीछे बैठी स्त्रियां फुसफुसाना शुरू करती हैं – बोल्ड सीन है। दूसरी ने कहा कि हां, इंग्लिश फिल्मों में ऐसा होती ही होता है जबकि लड़कियों के ठहाके साफ कर देते हैं कि मर्डर जैसी हिंदी फिल्म में ये तो कॉमन है। फिर इरफान हाशमी, मल्लिका शेरावत पैसे किस बात के लेते हैं? इतना तो छोड़ो, अब तो हीरोइन गद्दे लेकर खेत भी जाने लगी है। मुझे लग रहा था कि दुपट्टे दुरुस्त करनेवाली तब की लड़कियां अब अधेड़ फुसफुसानेवाली महिला में तब्दील हो चुकी है और टीनएजर्स और कॉलेज की लड़कियों की बिल्कुल एक नयी खेप पैदा हो रही है, जो कि इनसे जुदा है। ऐसे सीन्स को देखकर उनकी कनपटी लाल नहीं होती बल्कि इसे इजी टू सी मानकर आगे बढ़ जाती है। इसे आप बेशर्मी कहें या फिर ऑडिएंस के स्तर की मैच्योरिटी, लेकिन इसमें मैं एक आजाद ख्याल के चिन्ह जरूर देखता हूं। *इतना ही नहीं*, यमुनानगर पहुंचने के दौरान जो हमें क्वांरा चौक मिला और उस नाम पर हमने ठहाके लगाये – मेरे मन में एक घड़ी ये ख्याल भी आया कि गर्ल्स कॉलेज के ठीक पहले क्वांरा चौक, ये युवा पीढ़ी पर किस तरह का शोषण है? वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी तो बीएचयू के महिला कॉलेज को याद करते हुए पीएमसी (पिया मिलन चौक) की उम्मीद कर रहे थे। खैर, हमें अंदर एक खुला माहौल दिखाई दिया। दिल्ली अगर खुलेपन का पर्याय मानी जाती है तो माफ कीजिएगा – कुछ इलाकों और कॉलेजों में हमें वो बहुत ही बंधा-फंसा, कंजर्वेटिव नजारा दिखाई देता है, यमुनानगर का ये कॉलेज उसे उलाहने देता नजर आया। गर्ल्स कॉलेज के भीतर फेस्टिवल के नाम पर ही सही, बाहर के बहुत सारे लड़के कॉरीडोर में लड़कियों से आराम से गप्‍पें लड़ाते नजर आये। लड़कियों के बात करने का अंदाज साफ बता रहा था कि ये कोई नया परिचय नहीं है बल्कि पुराना परिचय नये माहौल में रम गया है। अब बाउंडरी बॉल से छड़प-तड़पकर सिनेमा देखने की जरूरत नहीं रह गयी है। *डीएवी के कॉलेज*, स्कूलों को लेकर जब भी सोचना शुरू करता हूं तो पहला शब्द हवन-पूजन याद आता है लेकिन यहां बर्गमैन से लेकर रोनॉल्ड जॉफी की फिल्में बड़े इत्‍मीनान से देखी और शेयर की जा रही थीं। पहुंचनेवाली रात जब अजीत राय हमसे मिले, तो फेस्टिवल को लेकर कुछ प्रसंगों की चर्चा की। एक प्रसंग ये भी कि वो जो फिल्म दिखाना चाह रहे थे, उसमें हीरोइन आग से बचने के लिए बिल्कुल नंगी दौड़ रही है। उन्होंने उस फिल्म का नाम भी बताया, मुझे याद नहीं। इसे दिखाने, न दिखाने पर जब बात हुई, तो कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ सुषमा आर्य का जवाब था कि ये किसी तरह की उत्तेजना या अश्लीलता पैदा नहीं करता बल्कि इसमें तो दहशत का माहौल दिखाया गया है। ओमपुरी ने भी ‘माय सन द फैनेटिक’ की स्क्रीनिंग के पहले यही बात कही कि आज जबकि लगभग हर सिनेमा में कुछ बोल्ड सीन एक फार्मूला बन गया है, इस फिल्म में भी कुछ सीन हैं लेकिन ये आपको अलग से, फार्मूला के नहीं लगेंगे, बहुत ही स्वाभाविक और जरूरत के हिसाब से हैं। सिनेमा को लेकर प्रिंसिपल की जो राय रही, वो हमें कॉलेज कैंपस के भीतर भी दिखाई दिया। मुझे नहीं पता कि ये कितना स्वाभाविक या फिर मौके भर के लिए था। लेकिन जो बॉडी लैंग्वेज, बात करने के तरीके और कॉनफीडेंस लड़कियों के बीच हमने देखे, वो रातोंरात, कोई एक दिन में इनबिल्ट चीज नहीं थी। *हां, इस पूरे* 13-14 घंटे तक करीब छह सौ लड़कियों और दर्जनों महिला लेक्चररों के बीच गुजारते हुए हमें दो बातें जरूर चुभ गयीं। एक तो ये कि कुछ कोर्स ने कैसे पहले ही दिन से लड़कियों की शक्ल बदल दी है। प्रोफेशनल कोर्स उन पर इतना हावी है कि वो पहले ही दिन से अपने कब्जे में कर लेता है। एक ही कैंपस में इन कोर्स की लड़कियां ट्राउजर, शर्ट, टाई और हॉफ ब्लेजर में नजर आयीं, जो कि उनका ड्रेस कोड था तो बाकी सलवार सूट या फिर जींस शर्ट में। सलवार-कमीज वाली लड़कियों को संभव है कि कॉम्प्लेक्स होता हो और ट्राउजर पहनती लड़कियों को कोर्स चुने जाने पर फख्र। लेकिन हमें अफसोस इन्हें देखकर हो रहा था कि अभी से ही इन्हें वेटर जैसी शक्ल देने की क्या जरूरत है? फैमिली बैकग्राउंड का प्रेशर उन्हें ऐसे में मॉड बनाने के बजाय लाचार शक्ल देता है। और दूसरी बात कि जिन लड़कियों ने सिनेमा देखते हुए ठहाके लगाये, उनसे सिनेमा को लेकर राय ली जानी चाहिए थी, विमर्श जरूरी था। वो एक बड़ा और अलग काम कर रही हैं, उन्हें एक एकेडमिक, इंटलेक्चुअल टच दिया जाना जरूरी है। *वैसे आप* यकीन नहीं करेंगे कि इससे पहले जिस हरियाणा में मैं सुमन को जिंदा जला दिये जाने की घटना के बाद देखने-समझने के लिए गया था, अबकी बार उसी हरियाणा में सिनेमा के बीच खिलखिलाती छह सौ सुमन को देखकर कितना अच्छा महसूस कर रहा हूं। हरियाणा में स्त्री-सत्ता को मजबूती देने के लिए इस गर्ल्स कॉलेज में सिनेमा फेस्टिवल का आयोजन एक जरूरी कदम है। हवन, धार्मिक कर्मकांड तो इनके अधिकारों को लील गये, उम्मीद है कि मीडिया कल्चर के बीच जीने की अनिवार्यता में सिनेमा उनकी दावेदारी को मजबूत करेगा। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Oct 12 09:07:40 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 12 Oct 2010 09:07:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSw4KWH4KS2?= =?utf-8?b?IOCkl+Cli+CkuOCljeCkteCkvuCkruClgOCkgyDgpLjgpLXgpL7gpLIg?= =?utf-8?b?4KSm4KSwIOCkuOCkteCkvuCksiDgpKXgpL4sIOCkqOCknOCkteCkvg==?= =?utf-8?b?4KSsIOCkleClgCDgpIXgpK3gpL/gpLLgpL7gpLfgpL4g4KSl4KWAIQ==?= Message-ID: न सवाल दर सवाल था, न जवाब की अभिलाषा थी! 12 OCTOBER 2010 NO COMMENT *♦ नरेश गोस्‍वामी* *naresh.goswami at gmail.com* *बहसतलब पांच की अनुगूंज हमें अब भी अक्‍सर सुनाई पड़ती है। कल के दैनिक भास्‍कर में बहसतलब में सवाल-जवाब को लेकर श्रोताओं के आग्रह-दुराग्रह पर नरेश जी ने लिखा है। हम उनके शुक्रगुजार हैं और उनका लिखा मोहल्‍ला लाइव के पाठकों से साझा कर रहे हैं : मॉडरेटर* सवाल करना या पूछना ज्ञान-निर्माण का एक जरूरी तरीका माना जाता है। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि कोई समाज, सत्ताधीश आदमी या फिर राज्य एक आम नागरिक को ऐसी आजादी और माहौल देता है कि वह किसी विसंगति या गड़बड़ी पर सवाल उठा सके। दूसरे कोण से इसे यूं भी रखा जा सकता है कि प्रश्नकर्ता किसलिए सवाल कर रहा है? क्‍या वह किसी अबूझ स्थिति को समझने के लिए सवाल कर रहा है? या कोई बात ऐसी रह गयी है, जिसे वह समझ नहीं सका है या फिर उसके सवाल में कुछ ऐसा है, जो किसी विमर्श को नये ढंग से विन्यस्त कर सकता है। प्रश्नाकुलता के संदर्भ में इन्हें कुछ आदर्श स्थितियों की तरह रखा जा सकता है। लेकिन हकीकत यह है कि इनके बरअक्‍स सवाल पूछने की मंशा के पीछे कुछ अलग तरह के आवेग भी काम कर रहे होते हैं। *अभी पिछले दिनों* दिल्ली-हरियाणा की सीमा पर स्थित सूरजकुंड के एक खुले रिसोर्ट में स्वतंत्र सिनेमा के बारे में आयोजित बातचीत के एक दो-दिवसीय कार्यक्रम को देखने-सुनने का मौका मिला। यह हर तरह से एक जरूरी कार्यक्रम था। हिंदी के लिहाज से तो और भी ज्यादा क्‍योंकि आम तौर पर हिंदी फिल्मों को लेकर जो अकादमिक विमर्श पिछले एक-दो दशक में पैदा हुआ है, वह निरपवाद रूप से अंग्रेजी में है। कार्यक्रम में नये और युवा निर्देशकों – अनुराग कश्यप से लेकर सुधीर मिश्रा और चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसे स्थापित निर्देशक आये थे। वे फिल्म-निर्माण के व्यावसायिक पहलुओं से लेकर नये विषयों को स्क्रीन पर लाने की दिक्‍कतों के बारे में बात कर रहे थे। वक्‍ताओं के पैनेल में कई ऐसे युवा फिल्मकार भी थे, जिन्होंने श्रोताओं को यह भी बताया कि अपने ढंग से फिल्म पूरी करना कई बार मानसिक रूप से कितना दर्दनाक और व्यावसायिक रूप से कितना खतरनाक होता है। यह साहित्य के ऐसे उत्साहियों के लिए फिल्म-निर्माण की बारीकियों को समझने का एक अवसर साबित हो सकता था, जो कहीं न कहीं अपने अनुभवों को रजत पटपर उतारने की हसरत पाले रखते हैं। *लेकिन किसी वक्‍ता के* वक्‍तव्य के बाद सवाल जवाब का दौर जैसे ही शुरू होता था, तो कई श्रोताओं की तरफ से ऐसे सवाल आने लगते थे कि प्रस्तोता कुछ समझ ही नहीं पाता था कि वह क्‍या कहे। कई श्रोता कहते थे कि वे सवाल कर रहे हैं, लेकिन मिनट-दर-मिनट गुजरते यह जाहिर हो जाता था कि दरअसल यह एक मुकम्‍मल टिप्‍पणी है। कई प्रश्नकर्ता तो वक्‍ताओं से इस तरह पेश आये, जैसे फिल्म बनाकर उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। ऐसे सवाल ज्यादातर वे लोग पूछ रहे थे, जिनके पास लगी-बंधी नौकरी थी या फिर वे ऐसे गैर-सरकारी संगठनों में काम करते थे, जहां लोगों को ‘एक्‍िटविस्ट’ होने के बदले मासिक तनख्‍वाह मिलती है। मिसाल के तौर पर, एक साहब ने अनुषा रिजवी और महमूद फारूखी की फिल्म ‘पीपली लाइव’ के बारे में यह सवाल उठाया कि फिल्म में किसानों को चार फुटिया क्‍यों दिखाया गया है। *कहना न होगा कि* ऐसे सवाल सिर्फ तंग करने या महफिल लूट लेने की मंशा से उठाये जाते हैं। इस तरह के सवाल पूछते हुए प्रश्नकर्ता के जेहन में शायद हुज्जत करने की भावना ज्यादा रहती है। वे सवाल दाग देते हैं, पर जवाब नहीं सुनना चाहते। ऐसे सवालों के मामले में यह पूछने का मन होता है कि ‘एक्‍िटविस्ट’ श्रेणी के लोगों के लिए क्‍या कलाएं भी ऐसी ही कोई चीज होती हैं, जिस पर झट से सवाल दाग दिया जाए और तड़ से जवाब मिलने की उम्‍मीद की जाए? क्‍या इन्हें प्रायोजित किस्म के सवाल कहने की हिमाकत नहीं की जानी चाहिए? *कोई व्यक्‍ित* फिल्म-निर्माण जैसे अनिश्चित क्षेत्र में जाता है तो वह आईएएस से लेकर अध्यापन जैसे स्थिर और स्थायी कामों को छोड़कर जाता है। जब तक वह प्रसिद्ध नहीं होता, लोगों को उसके बारे में कुछ भी जानने की जिज्ञासा नहीं होती। वह कैसे जी रहा है, कहां रह रहा है और क्‍या खा रहा है, ऐसे सवाल प्रश्नकर्ताओं की रडार में दर्ज नहीं होते। ऐसे में क्‍या किसी की रचना-प्रक्रिया को मुगदर टाइप सवाल से ध्वस्त करना एक सर्जनात्मक क्रिया माना जा सकता है? यह तय है कि जब तक समाज, सत्ता और राज्य रहेंगे, उन पर सवाल उठाने वाले भी रहेंगे। शायद यह प्रश्नाकुलता रचना के परिष्कार के लिए जरूरी भी है। लेकिन क्‍या हमें ऐसे सवाल उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, जो अमूर्त आदर्शों को परे हटाकर यह पूछने का हौसला भी दिखा सके कि विचारों को मूर्त रूप देने की जटिलताएं क्‍या होती हैं? *इस कार्यक्रम में* कई लोग ऐसे थे, जो सवाल पूछने के लिए इतने आतुर रहते थे कि पहले से सवाल कर रहे व्यक्‍ित की बात खत्म होने से पहले ही खड़े हो जाते थे। इस बीच वह न प्रश्नकर्ता की बात सुन रहा होता था न वक्‍ता के जवाब पर ध्यान दे रहा होता था। वह बार-बार अपना हाथ उठाने लगता था ताकि कहीं उसकी बारी न कट जाए। क्‍या सवाल सिर्फ इसलिए पूछे जाने चाहिए कि प्रश्नकर्ता वक्‍ताओं में शामिल नहीं है? *साभार : दैनिक भास्‍कर, 11 अक्‍टूबर, दिल्‍ली एडिशन* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Oct 12 11:09:09 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 12 Oct 2010 11:09:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCknOCkruCkvuCkqOCkvizgpJXgpYfgpKzgpYDgpLjgpYAg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpLjgpKHgpLzgpJXgpYfgpIIg4KS44KWC?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYvgpILgpJfgpYA=?= Message-ID: कौन बनेगा करोड़पति की ओपनिंग यानी पहले ही शो में मनहूसियत-सी छा गयी। शो शुरु होते ही हम उत्साह के बजाय बहुत ही डार्क शॉरो में डूबते गए। स्टार प्लस को लांघकर केबीसी जिस सोनी इंटरटेन्मेंट पर पहुंचा है,उसमें कुछ अलग और बेहतर करने की तड़प तो साफ तौर पर दिखाई दिया। लेकिन हर अलग चीज ऑडिएंस को रास ही आए,इसकी गारंटी तो नहीं ही ली-दी जा सकती। लिहाजा,कौन बनेगा करोड़पति जितनी ग्रैबिटी के साथ और आम ऑडिएंस को जोड़नेवाला शो रहा है,बिना किसी अतिरिक्त ताम-झाम के भी अपने से बांधे रखनेवाला है,अबकी बार उसका कबाड़ा होते हमने देखा। अगले दस मिनट में ही मन उचट गया। पूरे एपीसोड को हमने बस इसलिए देखा कि जो कुछ बदलाव हुए हैं,उसे समझ भर लें। नहीं तो ये रेगुलर देखनेवाला शो तो नहीं बन पाएगा। इसके लिए अब रात नौ बजे तो सड़कें सूनी होने से रही। अमिताभ बच्चन ने इसे नौ हफ्ते तक चलने की बात कही है। ये नौ हफ्ते भी अपनी रोचकता के साथ,ऑडिएंस के बीच अपनी पकड़ बनाए रखेगा,इसमें मुझ शक है। शो में खेल शुरु होने से पहले अमिताभ बच्चन की बचपन से लेकर अब तक के सफर को दिखाया गया। जन्मदिन के मौक पर सुबह से ही हम वो सबकुछ देखते आए,इसलिए उसका हम पर खास असर होने के बजाय रिपीटेशन ही लगा। *कविताओं का वो मनहूस दौर* उसके बाद शो अमिताभ बच्चन के अपने बाबूजी यानी मधुशाला और हालावाद के कवि हरिवंश राय बच्चन की कविताओं के पाठ को लेकर आगे बढ़ता है। हिन्दी के कुछ मठाधीशों और फरमानी आलोचकों ने तमाम लोकप्रियता के वाबजूद हरिवंश राय बच्चन और उनकी कविताओं को जिस तरह से साहित्य की दुनिया से बेदखल किया, पिछले कुछ सालों से अमिताभ बाबूजी की उन्हीं कविताओं का लगातार पाठ करते आए हैं। शुरुआती दौर में तो ये उनके जीवन,कविता औऱ बाबूजी के प्रति संवेदना का हिस्सा रहा जिसे कि लोगों ने बहुत सराहा। पिछले दिनों जब उन्होंने,एश्वर्य राय बच्चन और अभिषेक बच्चन ने उनकी कविताओं का पाठ किया तो मुंबई में समा बंध गया। स्टार न्यूज ने इसे लगातार दिखाया और हमें एक न्यूज चैनल पर पहली बार कविता पाठ का आनंद मिला। टीआरपी चार्ट पलटकर देखें तो अंदाजा है कि उस शो को ठीक-ठाक टीआरपी मिली होगी। सोनी की क्रिएटिव टीम ने ओपनिंग शो के साथ कविता पाठ कराकर इसे इन्कैश कराने की कोशिश तो जरुर की लेकिन ये स्वाभाविक लगने के बजाय बहुत ही फूहड़ और उचाटने वाला साबित हुआ। अमिताभ की तरफ से कोशिशें जबरदस्त रही लेकिन कविताओं के पीछे जो बैग्ग्राउंड म्यूजिक चलते रहे- एक तो वो बहुत ही मातमी और दूसरा कि कविता और पंक्तियों के बदलते जाने के वाबजूद भी वही की वही धुने। मानों कोई धुन न होकर सिग्नेचर ट्यून बज रही हो।लड़कियों का सफेद पोशाक में लहराना और भी भारी लगा। सारा माहौल वहीं से खराब शुरु होता है। *अमिताभ के डायलॉग ने छोड़ दिया उनका साथ* * * कविता पाठ के बाद अमिताभ के डायलॉग बोलने का काम शुरु होता है। अमिताभ ने पिछले तीस-चालीस साल में जिन फिल्मों के जरिए,जिन संवादों को गली-कूचे के बच्चे-लौंडो को किताबी पाठ की तरह दुहराने को मजबूर किया,उसे वो 2010 में आकर एक बार फिर से डिलीवर करते हैं। जैसे खुश तो बहुत होगे कि जिसने आज दिन तक....। अमिताभ बच्चन के लिहाज से सोचें तो ये एक जरुर ऐतिहासिक नजारा बनता है कि जिस इंसान ने अलग-अलग दौर में संघर्ष करते हुए अलग-अलग किस्म की फिल्में बनायी। उस दौरान उसकी मनोदशा एक फिल्म की दूसरी फिल्म से बहुत अलग रही होगी,आज 2010 में आकर जबकि वो पा फिल्म के लिए नेशनल फिल्म अवार्ड विनर है, पार्कर,रीड एंड टेलर,बिमानी सीमेंट,कैडवरी जैसे उत्पादों का ब्रांड एम्बेस्डर और एश्वर्य का श्वसुर और अभिषेक का बाप है,वो सब फिर से एक ही मनोदशा में दुहरा रहा है। लेकिन उस एहसास के इतिहास का एक हिस्साभर हो जाने के बाद जब वो डॉयलॉग अमिताभ बोल रहे होते हैं तो वो सारी की साफी लाइनें अमिताभ से जुदा होती चली जाती है,उन लाइनों को कभी अमिताभ ने ही डिलीवर किया था-हमें भरोसा नहीं होता। केबीसी की फीस भी उनमें बहुत खनक पैदा नहीं करने पाती। *खईके पान बनारसवालाः कुली और हेलेन का एक बेहूदा फ्यूजन* * * तीसरा नजारा होता है जब खइके पान बनारस वाला गाने की पॉप और देशी का फ्यूजन बनाया जाता है जिसकी कोरियोग्राफी में नया करने की कोशिश की जाती है। इस फ्यूजन को गाते हुए अमिताभ हमें एक घड़ी को बंटी-बबली में मैडम,आय एम योर एडम बोलनेवाले अंदाज में बिंदास जरुर नजर आते हैं लेकिन ये गाना औऱ कोरियोग्राफी भी पूरी तरह संभल नहीं पाती। पूरी टीम के साथ जो विजुअल्स हमारे सामने आते हैं,उसमें लगता है कि इतनी भारी संख्या में सपोर्टिव डांसर कुछ क्रिएटिव करने के बजाय भीड़ बन गए हैं जिसे कि हमारा टेलीविजन संभाल नहीं पा रहा है। देखते हुए बार-बार लग रहा था,कुछ लोग साइड हो जाओ यार। लड़कों के कपड़े कुली बने अमिताभ की याद दिलाते हैं और लड़कियां हेलेन की। हां जब पगे घुंघरु बांधे,मीरा नाचती है लाइन आती है और सारी हेलेननुमा लड़कियां दो-दो,तीन-तीन बित्ते की घुंघुरी पट्टियां बांधे पैरों को उठाती है तो हाथ में वीणा लिए भक्तिकाल की मीरा और गहरे तौर पर याद आती है। *मेरे अपने से ज्यादा रीड एंड टेलर के लगे अमिताभ* * * इस पूरे कर्मकांड में अमिताभ के करीब छ सूट और पोशाक बदल जाते हैं। पगे घुघरुं बांधते में सफेद रंग डांस के खत्म होते-होते डार्क मैगनेटिक ब्लैक में तब्दील हो जाता है और वो पुराने अमिताभ बच्चन की शक्ल में हमारे सामने होते हैं। कल दि हिन्दू के दूसरे पन्ने पर केबीसी के लिए खासतौर पर अमिताभ बच्चन के जितने ड्रेस डिजाइन किए हैं रवि बजाज,उनकी बातें डीटेल में छापी गयी है। उनके मुताबिक अमिताभ ज्यादातर डार्क शेड की सूट में होंगे। वैसे भी कैडवरी को छोड़ दें तो रीड एंड टेलर में लगातार उन्हें इस शक्ल में देखने के हम पहले से अभ्यस्त हैं। *आवाज में खनक बरकरार है* * * अमिताभ की आवाज में पहले की तरह खनक बरकरार है। अपने पुराने अंदाज को उन्होंने बखूबी संभालकर रखा है। लेकिन खेल में कुछ बदलावों,नए शब्दों मसलन घड़ी की बदली आवाज और घड़ी के लिए घड़ियालजी, ऑप्शन में दो डुबकी और लाइफ लाइन के तौर पर अपने गांव-मोहल्ले के लोगों को फोन लगाने के बजाय सीधे स्टूडियो में ही एक्सपर्ट होने जैसी बातों के वाबजूद बुनियादी तौर पर हमें इसमें कुछ नया नहीं लगा। रकम पांच करोड़ भी अंत में जाकर ध्यान खींच पाती है। कैडवरी के प्रेशर में अमिताभ की पहलीवाली लाइन- तो आइए हम और आप शुरु करते हैं कौन बनेगा करोड़पति अब शुभारंभ हो जाता है। स्क्रीन पर कैडवरी और आइडिया के ब्रांड कलर हावी हैं। हमें जिन दो बातों से खुशी हुई वो पहली तो ये कि इसे इंडियाटाइम्स के बूते सीधे इंटरनेट के जरिए भी देखा जा सकता है औऱ दूसरा कि अगर किसी ने अमिताभ या इंडिया टाइम्स के ब्लॉग पर लिखा और वो रास आया तो उसे शो के दौरान पढ़ा जाएगा। दो नए उभरते माध्यमों की ताकत मेनस्ट्रीम मीडिया समझ रहा है,हमारे लिए ये खुशी की बात है। केबीसी का लोगो अंग्रेजी के रुपीज की जगह हिन्दी का रुपया हो गया,अच्छा लगा देखकर। *टेलीविजन से अब भी लोगों को हैं उम्मीदें* * * कल तो हमने दो ही प्रतिभागियों को देखा। शो में कुछ नया नहीं होने के वाबजूद और अगले दिन फिर देखेंगे जैसी टेम्पटेशन पैदा न होने के वाबजूद भी ये शो एक बार फिर गांव और दूरदराज के लोगों के चेहरे को टेलीविजन स्क्रीन पर जगह देता है जो कि इसका सबसे बड़ा उजला पक्ष है। नहीं तो दूरदराज और गांव के लोग न्यूज चैनलों पर या तो अपराध करते नजर आते हैं या फिर नाव बह जाने,बेटी के वहशी के हाथों पड़ जाने या बेटे के बेमौत मर जाने पर विलाप करते हुए। राजेश चौहान ने बताया कि वो पिछले दस सालों से इसकी तैयारी कर रहे थे। मास कॉम के स्टूडेंट आलोक कुमार ने कहा कि जब वो इसमें आना चाहते थे तो उनकी उम्र 18 साल नहीं हुई थी। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अभी भी इंतजार करती हुई एक पीढ़ी मौजूद है जो कि केबीसी जैसे टेलीविजन कार्यक्रमों के बूते अपनी किस्मत को बदलने की उम्मीद रखते हैं। इनकी संख्या 60 लाख है। टेलीविजन के रियलिटी शो इसी उम्मीद से अपना खाद-पानी खींचते हैं। बहरहाल ऑडिएंस का मनोरंजन के स्तर पर ये शो हमें निराश करता है। अमिताभ बच्चन में रिपिटेशन वैल्यू खत्म हुआ है लेकिन जिन्हें उम्मीद हैं,उन उम्मीदों के दम पर सोनी कुछ अच्छा कर जाए।..और क्या कह सकते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Oct 14 13:59:26 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 14 Oct 2010 13:59:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkh+CkqOCljeCkoeCkuOCljeCkn+CljeCksOClgCDgpKo=?= =?utf-8?b?4KSwIOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYgg4KS24KS/4KS14KS44KWH4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClgCDgpJfgpYHgpILgpKHgpL7gpJfgpLDgpY3gpKbgpYA=?= Message-ID: मुंबई के थाने और कल्याण के केबल ऑपरेटरों ने शिवसेना जैसे कट्टर हिन्दूपंथी संगठन से डरकर,दबाव में आकर कलर्स चैनल दिखाना बंद कर दिया है। अब इन इलाकों की ऑडिएंस कलर्स चैनल को नहीं देख सकेंगे। चैनल बंद किए जाने की वजह है बिग बॉस। बिग बॉस ने जैसे ही सीजन-4 में पाकिस्तान की वीणा मल्लिक और बेगम नवाजिश अली के आने की बात कही,उसी समय से कट्टर हिन्दूवादी संगठन इसके विरोध में सक्रिय हो उठे। शिव सेना,एमएनएस सहित महाराष्ट्र के दूसरे हिन्दूवादी संगठन और उनके गुर्गे इसके विरोध में सड़कों पर उतरे। शिव सेना के दर्जनों सैनिकों ने लोनावना में बने बिग बॉस के घर को घेर लिया और हंगामा मचाने की कोशिश की। स्टूडियों के काम को रोकने की कोशिश की। उसके बाद बिग बॉस के घर का बाहरी इलाका मुंबई पुलिस की छावनी में तब्दील हो गयी। 24 सैनिकों पर बॉम्बे पुलिस एक्ट की धारा 68 के तहत मामला दर्ज किया गया और क्रिमिनल प्रोसिज्योर कोर्ट की सेक्शन 149 के तहत नोटिस भी भेजी गयी है। अब देखना होगा कि इस मामले में आगे उन पर किस तरह की कारवायी होती है। इंडियन टेलीविजन डॉट कॉम ने जहां-जहां हमने दबाव में आकर लिखा है,वहां रिक्वेस्ट शब्द का इस्तेमाल किया है। ये इस साइट की कार्पोरेट जुबान है जबकि हम जानते हैं कि शिव सेना और एमएनएस जैसे हिन्दूवादी संगठन की भाषा अनुरोध की नहीं रही है। टेलीविजन और साइट पर जो भी फुटेज हैं,उससे और भी साफ हो जाता है। भारतीय संस्कृति और देशभक्ति के बचाने के नाम पर शिवसेना और एमएनएस की गुंड़ागर्दी की ये कोई नई और पहली कहानी नहीं है। इससे पहले भी उसने इस तरह की सस्ती लोकप्रियता बटोरने और सुर्खियों में बने रहने के लिए उलजलूल मुद्दों को लेकर विरोध और तोड़-फोड़ मचाए हैं जिसका शिकार लगातार हमारे टेलीविजन चैनल,सिनेमा और इंटरटेन्मेंट इन्डस्ट्री होती आयी है। इस पर कई लोग या तो बचते आए हैं या फिर खुलकर विरोध नहीं किया है। जूम ने अपनी एक स्टोरी में इस रवैये को लेकर वॉलीवुड को शिवसेना की कठपुतली बन जाने तक का करार दिया है। अमिताभ बच्चन की इस पूरे मामले में चुप्पी पर भी सवाल उठे। हमें अफसोस है कि हमारा टेलीविजन भी इसका लगातार शिकार होता जा रहा है। पहले ibn7 लोकमत और आजतक जैसे चैनल और अब फिर लगातार मनोरंजन चैनल। न्यूज चैनलों पर हमले और जो लगातार विरोध इन संगठनों की ओर से किए जाते हैं,उसके विरोध के पीछे तो एक हद तक बात समझ आती है कि वो इनके खिलाफ( जरुरी होने पर ही) स्टोरी दिखाते हैं जिससे उनके संगठन की इमेज करप्ट होती है। लेकिन मनोरंजन चैनलों पर उनकी ओर से किए गए हमले साफ करते हैं कि वो महज संस्कृति के नाम पर अपनी गुंडागर्दी कायम रखना चाहते हैं। गौर से देखें और कुछ घटनाओं पर विचार करें तो मामला साफ बनता है कि पहले जो शुरुआत में उन्होंने फायर और वाटर जैसी फिल्मों का संस्कृति का हवाला देकर विरोध किया,अब उसक दायरा तेजी से लगातार बढ़ता जा रहा है। सिनेमा के साथ फिर क्रिकेट शामिल हो गया। पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को मुंबई में खेलने नहीं दिया। आइपीएल में शाहरुख खान के पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी लिए जाने पर उसका जमकर विरोध किया,माइ नेम इज खान चलने नहीं दिया। और अब उन्होंने अपनी इस गुंड़ागर्दी में टेलीविजन के शो को भी शामिल कर लिया। पिछले दिनों बाल ठाकरे ने छोटे उस्ताद( अमूल व्ऑअस ऑफ इंडिया) में पाकिस्तान से आए बाल प्रतिभागी के विरोध में बयान दिया,कॉमेडी सर्कस में शकील सिद्दकी के आने का विरोध किया और अब बिग बॉस। इसके साथ ही उनके गुंडागर्दी किए जाने की फ्रीक्वेंसी तेजी से बढ़ रही है। अब महीने में कोई न कोई एक शो,सिनेमा या फिर चैनल इनके विरोध का शिकार हो जाता है। और इससे भी बड़ी अफसोस की बात है कि अब इसमें डिस्ट्रीब्यूशन के लोग भी लगभग सहमति जताने के अंदाज में हथियार डाल देते हैं। माइ नेम इज खान के विरोध पर सिनेमा मालिकों के नहीं दिखाए जाने के तर्क पर आप ध्यान दें तो उसमें उनके विरोध का डर से कहीं ज्यादा सहमति शामिल है। यही हाल अब केबल ऑपरेटरों के साथ भी है। ऐसे में सवाल है कि एक चैनल या फिर सिनेमा अपने डिस्ट्रीब्यूटर को शो दिखाने के लिए पूरे पैसे देता है और डिस्ट्रीब्यूटर इन संगठनों के प्रेशर में आकर उन्हें प्रदर्शित नहीं करते तो क्या वो बाजार की शर्तों की धज्जियों नहीं उड़ाते? ऐसी खबरों के आते ही पुलिस की ओर से बयान आने शुरु हो जाते हैं कि कारवायी की जा रही है। लेकिन इन डिस्ट्रीब्यूटरों और केबल ऑपरेटरों के उपर क्या किसी तरह की कारवायी का मामला बनता है,इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। क्योंकि इनके लिए विरोध के डर का बहाना बनाकर एक तरह से उनका समर्थन करना बहुत ही आसान है। हिन्दी कट्टरपंथियों की जड़े इस तरह से मजबूत होती है। इसके साथ ही कलर्स जैसे कुछ चैनल ऐसे हैं जिसके लिए कि केबल ऑपरेटर एक्सट्रा चार्ज करते हैं। यहां तक कि टाटा स्काई में भी उसके लिए अलग से पैकेज लेने पड़ते हैं। इस स्थिति में एक कन्ज्यूमर के स्तर पर ऑडिएंस क्या करे,इस बारे में सोचने की जरुरत है। और इन सबसे बड़ा सवाल कि सिनेमा और टेलीविजन के वेन्चर ग्लोबल स्तर पर बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस और कन्ग्लामरट्स से टाइअप कर रहे हैं और हमें लग रहा है कि मीडिया और इन्टर्टेन्मेंट इंजस्ट्री बड़ी तेजी से ग्लोबल होती जा रही है। कंटेंट के स्तर पर ऐसा होता दिखायी भी दे रहा है,बाजार के स्तर पर भी ऐसा होता दिखाई दे रहा है। लेकिन इस ग्लोबल होने के दावे को अगर शिवसेना और एमएनएस जैसे संगठन जिसके सैनिक सैंकड़ों या दर्जनों में आकर धमकाते हैं और पूरी इन्डस्ट्री चुप्प मार जाती है तो ऐसे में हम मनोरंजन उद्योग के विस्तार पर कितना थै-थै कर सकते हैं,ये सोचना बहुत जरुरी है। ये संगठन न केवल समाज के भीतर के आर्ट और विजुअल फार्म को एक उत्पात में तब्दील कर रहे हैं बल्कि ये साबित करने की घटिया कोशिश कर रहे हैं कि हमारे उपर कोई नहीं है। इसे सख्ती से तोड़ा जाना,कुचला जाना जरुरी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Oct 16 17:19:37 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 16 Oct 2010 17:19:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWB4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSqIOCksOCkueCliyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLDgpYvgpIIs?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgiDgpKTgpYsg4KS24KS+4KS54KWAIOCkh+Ckrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCkl+CksOCljeCkpuCkqCDgpKjgpL7gpKog4KSm4KWH4KSC?= =?utf-8?b?4KSX4KWH?= Message-ID: "सुन लो मौलाना, आप जैसे छत्तीस हजार घूमते हैं। चुप्प.. चुप्प बैठ जाओ,वहीं पर खामोशियों से। नहीं तो वहीं गर्दन आकर नाप दूंगा।" जिस सिनेमाई अंदाज में दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने लखनउ में उर्दू के पत्रकार अब्दुल वाहिद चिश्ती को जान से मारने की धमकी दी और प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मारपीट किया,उससे साफ है कि धार्मिक संगठनों का तेवर किस तरह का है? अब्दुल वाहिद चिश्ती ने इस घटना के बाद मीडिया को दिए अपने बयान में साफतौर पर कहा कि इमाम ने न केवल उन्हें जान से मारने की धमकी दी बल्कि अपने साथ आए लोगों से ये भी कहा कि इसे यही मारो,दफन कर दो,आगे ये हमारे लिए नासूर बन जाएगा। दर्जनों नेशनल चैनलों और मीडिया के सामने अहमद बुखारी ने जिस तरह की हरकत की है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका मुस्लिम समाज के बीच किस तरह का खौफ और दबदबा बरकरार है। अहमद बुखारी साहब ने साफ कर दिया कि धर्म की सत्ता,कानून की सत्ता से उपर होती है भले ही देश में लोकतंत्र बहाल हो गया हो,एक संवैधानिक प्रावधान के तहत शासन किए जाते हैं जहां सबों को अपनी बात कहने औऱ जानने का अधिकार है। फिर अब्दुल वाहिद चिश्ती अहमद बुखारी से जिस मसले को लेकर सवाल करना चाह रहे थे वो इस देश के लिए एक बड़ा मसला है और उस पर शाही इमाम की हैसियत से उनका मत जानना बेहद जरुरी है। एक उर्दू अखबार के पत्रकार की हैसियत से अब्दुल वाहिद चिश्ती ने अहमद बुखारी से अयोध्या मामले में उनकी राय जाननी चाही और जिस पर कि वो बुरी तरह भड़क गए। न सिर्फ भड़के बल्कि सुन लो मौलाना,तुम्हारे जैसे36 हजार फिरते हैं,चुप बैठ जाओ खामोशियों से नहीं तो आकर गर्दन नाप दूंगा जैसी धमकी भी दे डाली। लखनउ में हो रहे प्रेस कॉन्फ्रेंस के खत्म होते ही वो चिश्ती की तरफ झपटे और अपने लोगों से इन्हें निबटा देने की बात कही। अहमद बुखारी प्रेस कॉन्फ्रेंस में थे और उनसे सवाल भी वही किया गया था। उन्हें इस माइंड सेट के साथ वहां होना चाहिए था कि कोई किसी भी तरह का सवाल कर सकता है। अगर उ्हें लगता है कि इस बात का जबाब उन्हें नहीं देनी है तो चुप मार जाते। लेकिन ऐसा करने के बजाय जो कुछ वहां किया उससे ये साफ हो गया कि उन्हें इस बात का गुरुर है कि वो जामा मस्जिद के शाही इमाम हैं औऱ वो चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। कुछ भी कर सकते हैं का ये गुरुर अहमद बुखारी को खुद की मेहनत,एफर्ट या फिर लोगों का प्यार पाकर हासिल नहीं हुआ है। उन्हें ये हैसियत सिर्फ और सिर्फ इमाम के घर पैदा होने की वजह से हासिल हुआ है। ये पद उन्हें इस बात पर नहीं मिली है कि उन्हें इस्लाम की कितनी समझ है,बल्कि राजतंत्र की तरह एक के बाद एक गद्दी का जैसे हस्तांतरण होता है,वैसे ही है। शायद इसलिए भी इस्लाम में जिस इंसानियत औऱ मजहबी तहजीब की बात की जाती है,उसे लात मारकर इन सबसे महरुम शख्स की तरह बर्ताव किया। स्टार न्यूज ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि अगर अहमद साहब खुलेआम ऐसा कर सकते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो बाकी क्या कर सकते हैं? दुनियाभ के लोगों को इंसानी तहजीब का पाठ पढ़ानेवाले शाही इमाम का ये चेहरा है तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भीतरी हालात किस तरह के होंगे? ये कोई पहला मौका नहीं है जब अहमद बुखारी किसी पत्रकार पर इस तरह झपट पड़े हों और खुलेआम धमकी दी हो। इससे पहले 2006 में दिल्ली में और वो भी प्रधानमंत्री निवास के ठीक सामने एक पत्रकार से बुरी तरह उलझ गए थे और अपना आपा बुरी तरह खो दिया था। मीडिया में ये बात आयी और बहुत ही हल्के तरीके से सरककर गयी। मीडिया इस तरह के मामले को बहुत ज्यादा तूल देने में संभव है कि हिचकता हो। लेकिन इस तरह से लगातार धार्मिक संगठनों,मतो और समुदायों का प्रतिनिधित्व करनेवाले धार्मिक सत्ता की सबसे उंची कुर्सी पर बैठनेवाले लोग कानून की बेसिक समझ की भी धज्जियां उड़ाते हैं तो ये साफ हो जाता है कि वो अब भी मानकर चलते हैं कि इस देश में उनका ओहदा कानून,सरकार और संविधान से उपर है। वो चाहे जैसे चाहें,चीजों को लेकर समाज के ड्राइविंग फोर्स बन सकते हैं। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में शिवसेना,एमएनएस और दूसरे कट्टर हिन्दू संगठनों के आए दिन काननू को अपने हाथ में लेकर उपद्रव मचाने का जो घिनौना खेल चलता है,वो इसी सोच का नतीजा है। कुछ तो ढीली-ढाली व्यवस्था और बाकी वोट की राजनीति इन्हें नजरअंदाज करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। दूसरी तरफ मीडिया जिस अंदाज में इन घटनाओं को दिखाते हैं,वो एक तरह से उनकी सत्ता को मजूबती ही देते हैं। संस्कृति और समुदाय के लिए काम करने के नाम पर वो एक बंद जुबान रचना चाहते हैं जहां कि सिर्फ और सिर्फ उनकी बात सुनी जाए,उनकी बात मानी जाए और उन्ही की भाषा में उसके अर्थ लिए जाएं। इससे अलग अगर कोई कुछ बोलता या करता है तो वो उसे कुचल देंगे। जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने लखनउ में जो हरकत की है वो न केवल देश के संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाता है बल्कि लाखों इस्लाम में आस्था रखनेवाले लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाता है। उन्हें सोचने पर मजबूर करता है कि देश का एक सामान्य मुसलमान भी अगर संवैधानिक प्रावधानों के तहत जीता है,जीने की लगातार कोशिश करता है,उसका प्रतिनिधित्व करनेवाला शाही इमाम उसके इज्जत की टोपी उछाल आता है। हमारे लिए तो संविधान बड़ा है लेकिन अहमद बुखारी साहब के लिए इससे भी अगर कुछ उपर है तो वो है एक गुरुर कि वो इस देश के करोड़ों मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें अगर मजहब के इस मर्म को बचाना है और सही अर्थों में उनका प्रतिनिधि बनना है तो देश के लोगों से इस बात की माफी मांगनी ही चाहिए। दूसरी तरफ इस तरह की घटनाओं को राजनीति का हिस्सा न बनाकर नागरिक और इस्लाम के सम्मान-अपमान का मामला माना जाना चाहिए और प्रशासन को भी चाहिए कि इस मामले को गंभीरता से ले। मीडिया को इसे एक बिकाउ एलीमेंट बनाने के बजाय समाज के भीतर वो ताकत पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए,वो माहौल पैदा करनी चाहिए कि लोग खुलकर ऐसी घटनाओं का विरोध कर सकें। बेहतर हो कि पत्रकार संगठन इसमें आपसी राजनीति चमकाने के बजाय बिरादरी का मामला मानकर इसके विरोध में एकजुट हों। क्या कहा अहमद बुखारी ने,सुनने के लिए नीचें चटकाएं- सुन लो मौलाना -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Oct 18 13:31:01 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 18 Oct 2010 13:31:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSf4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpJXgpYcg4KSw4KS+4KS14KSjIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkpuCkueCkqCDgpJXgpYzgpKgg4KSV4KSw4KWH4KSX4KS+?= =?utf-8?q?=3F?= Message-ID: अबकी बार स्टार न्यूज ने जब अपने दिल्ली ऑफिस कैंपस में ही रावण दहन किया और पेड पंडित ने जब इसे राष्ट्र निर्माण का हिस्सा बताया तो मेरे मन में अचानक से सवाल उठा- क्या कभी ऐसा समय आएगा कि स्टार न्यूज बाहर से,पैसे से खरीदकर रावण लाकर जलाने के बजाय,चैनल के भीतर के रावणों को हमारे सामने करे। हमसे पूछे कि बताइए कि अब जब हमने अपने चैनल के भीतर रावण दहन शुरु कर दिया है लेकिन अपने ही चैनल के भीतर कुछ रावण मौजूद हैं तो उसका क्या करें? पेड पंडित के हिसाब से, टीआरपी की जुबान बकनेवाले पंडित के हिसाब से अगर सोचें तो अगर स्टार न्यूज अपने चैनल के भीतर के रावणों का दहन कर पाता है तो यकीन मानिए कि इससे बड़ा राष्ट्र निर्माण शायद ही कभी हो सकेगा। ये अलग बात है कि राष्ट्र शब्द अपने आप में एक भटकानेवाली अवधारणा है जिसकी एक गली अंधराष्ट्रवाद,पाखंड और आगे चलकर कट्टरता में खुलती है जिसका परिचय भी खुद स्टार न्यूज नें आज दिया। फिर भी, अगर स्टार न्यूज रावण दहन को लेकर सीरियस है तो उसे इस बात की पहल तो जरुर करनी चाहिए कि वो अपने भीतर पल रहे उन रावणों की साइज छोटी करे जिनका कद घटने के बजाय और बढ़ता चला जा रहा है। बल्कि हम ये कहें कि सिर्फ स्टार न्यूज ही क्यों,चैनल इन्डस्ट्री में ऐसे कई रावण हैं,जिनके हर साल के दहन के बीच उनका कद और अधिक पहले से बड़ा,खतरनाक और समाज को तहस-नहस करनेवाला होता जाता है। स्टार न्यूज ने जब अपनी ऑफिस में ही रावण दहन का कॉन्सेप्ट बनाया तो जाहिर है कि उसके दिमाग में सिर्फ औऱ सिर्फ बाकी दूसरे चैनलों को पटकनी देते हुए आगे निकलने की रही। लेकिन ऐसा सोचते हुए चैनल के दिमागदार लोग ये भूल जाते हैं कि घर में टेलीविजन के आगे अपने को झोंक चुकी ऑडिएंस इस बात को इस रुप में नहीं लेती। कोई भी ऑडिएंस हवा में चीजों और टेलीविजन को नहीं लेती। वो उसे एक कॉन्टेक्स्ट के साथ जोड़कर देखती है। मैंने भी यही किया। जब मैंने इस ड्रामे को देखना शुरु किया तो सोचने लगा कि क्या ऐसा करते हुए चैनल के आकाओं को कभी इस बात पर ध्यान गया होगा कि इसी चैनल में सायमा सहर के साथ कुछ दबंग( दीपक चौरसिया वाला दबंग नहीं जो बिहार में दबंग मुख्यमंत्री चुनने की सलाह दिए फिर रहे हैं) और मनचले चैनलकर्मियों ने क्या किया? अविनाश पांडे और गौतम शर्मा ने किस हद तक सायमा सहर को परेशान किया, किस तरह उनपर लगातार प्रेशर क्रिएट किया औऱ जब मामला बढ़ता गया,तब वीमेन कमीशन तक जाकर चैनल के सो कॉल्ड समझदार मीडियाकर्मियों ने सबकुछ मैनेज करने की कोशिश की,ये सब अब सार्वजनिक है। इसकी खबर एनबीटी और दि टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी ली है। क्या एक ऑडिएंस की निगाह में ये सारे लोग रावण नहीं हैं और दहन करते वक्त इनकी तस्वीर दिमाग में नहीं आती? उम्मीद है कि बॉस लोग उस अक्लमंद प्रोड्यूसर की पीठ ठोक रहे होंगे और वो भी खुद फैल रहा होगा जिसने पिछली रात "लक्ष्मण का रावण वध" स्टोरी बनायी। मिथकों में जाएं तो राम ने रावण का वध किया था,लक्ष्मण ने नहीं। लेकिन चूंकि इस देश में सबसे ज्यादा दिमाग चैनल में काम कर रहे लोगों के पास हैं क्योंकि उनके पास करोड़ों रुपये की छतरी है इसलिए वो जो करें,सब सही है। चैनल ने लक्ष्मण बनाया क्रिकेट के वी वी एस लक्ष्मण को और रावण माना अस्ट्रेलिया को और उतार दिया एक झटके में क्रिकेट की पटरी पर। सारे के सारे फुटेज क्रिकेट के और वी वी एस लक्ष्मण की क्रिकेट गाथा। एक सीधा सवाल कि जिस अस्ट्रेलिया से भारत के संबंध सुधारने की लगातार कोशिशें जारी है, फॉरेन अफेयर्स दिन-रात जिसके पीछे लगा है,उसे आप रावण करार देते हैं और वो भी भारतीय छात्रों की हत्या करने के बजाय से नहीं बल्कि क्रिकेट में वी वी एस लक्ष्मण के प्रयास से हराने की वजह से। ऐसा लगातार दिखाकर चैनल या तो ये समझता है कि उससे ज्यादा देशभक्ति किसी और में नहीं या फिर ये मानकर चलता है कि अस्ट्रेलिया के लोगों को हिन्दी नहीं आती,चाहे जो दिखाओ। उसकी इस समझ के आगे कोई क्या कहे? लेकिन, चैनल की ऐसी ही स्टोरी से अगर अस्ट्रेलिया के लोगों के बीच नफरत पनपती है,संबंध बनने के बजाय और बदतर होते हैं तो फिर ये चैनल के अक्लमंद, देशभक्त प्रोड्यूसर उनके और उनके परिवारवालों के लिए मर्यादापुरुषोत्तम राम होगें या फिर असली रावण करार दिए जाएंगे,इस फैसले को लेकर कोई विकल्प नहीं बचता। रावण कुछ किलो के बारुदी पटाखों का नाम नहीं है,वो समाज के उस खौफनाक इरादों का नाम है जिसका होना ही समाज को मौत के उपर टिके होने जैसा है। क्या चैनल तैयार है,अपने भीतर के इस रावण के दहन के लिए? 2 अक्टूबर को दीपक चौरसिया ने बाइक पर लहराते हुए जॉन इब्राहिम के साथ बिना हेलमेट पहने इंटरव्यू लिया।..नीचे पट्टी आयी कि चैनल ने ऐसा करने की इजाजत ले रखी है। गौतमबुद्धनगर पुलिस स्टेशन ने हमारी शंका का समाधान करते हुए ये कहा भी कि हां ऐसी अनुमति मिल जाती है। लेकिन साथ में मेरी इस बात पर सहमति भी जतायी कि कल अगर बाकी के चैनल भी ऐसी ही अनुमति मांगने लगेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? बात करनेवाले अधिकारी का कहना है- बात तो आपने बहुत सही पकड़ी है। क्या बाइक विपासा से सुंदर है का जबाब जानने के लिए देश का सो कॉल्ड सबसे सक्रिय टीवी पत्रकार के भीतर अगर ये बदमाशी घुस आती है और सैंकड़ों लोगों की जान खतरे में पड़ सकती है,जिस सड़क पर परसों ही एक बच्चे की मौत हो गयी, आप उस पत्रकार के भीतर के रावण का दहन कैसे करेंगे? इतना ही नहीं,इसके बाद भी जैसा कि कुछ पत्रकार साथियों ने फोन करके बताया कि दीपक चौरसिया बिहार में कर रहे अपने स्पेशल शो-कौन बनेगा मुख्यमंत्री में भी कुछ लोगों के साथ बाइक पर लहराते नजर आए।( मैंने इस शो के इस हिस्से को देखा नहीं इसलिए यकीन के साथ नहीं कह सकता) क्या चैनल को उस रावणी मानसिकता की पहचान है? 13 अगस्त 2010 को गुजरात के मेहसाना में एक शख्स आग लगाकर आत्महत्या कर लेता है जिसके पीछे एक मीडिया संस्थान के दो पत्रकारों पर आरोप है कि उसने उसे इस काम के लिए उकसाया। इस बाबत ठीक दस दिन बाद यानी 27 अगस्त को दिल्ली में ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आ जाती है। कुल दस पन्ने की रिपोर्ट में जो कि एक ही तरफ छपाई है, 4 पन्ने कवर,कंटेंट और सिग्नेचर के पन्ने हैं। सिर्फ 6 पन्ने पर केस स्टडी है,उसमें सारी बातें समेट दी जाती है और टीवी-9 के जो एक्यूज्ड पत्रकार है कमलेश रावल,उनसे फोन पर बात करने की अपार्चुनिटी का जिक्र भर है। इसी तरह की कुछ सतही बातें और फाइंडिंग्स हैं जिन्हें पढ़ते ही अंदाजा लग जाता है कि ये खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद हमें मेहसाना में आत्महत्या करनेवाले शख्स के बारे में मीडिया की तरफ से कोई जानकारी नहीं है। अगर ये मामला कोर्ट,पुलिस के अधीन है तो इसकी फॉलोअप स्टोरी हमें कहीं दिखाई नहीं दी। इस मामले को स्टार न्यूज के रावण के तहत देखना इसलिए जरुरी लगा क्योंकि जिस ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन ने रिपोर्ट जारी की है, उसके अध्यक्ष स्टार न्यूज चैनल हेड के शाजी जमां है। उनकी नाक के नीचे अगर चैनल में जर्नलिज्म के अलावे बाकी सबकुछ हो रहा है,चलताउ तरीके से किसी की आत्महत्या की रिपोर्ट पेश की जा रही है और वही चैनल अगर मौज में आकर ऑफिस में रावण दहन कर रहा है तो ये पाखंड से कहीं ज्यादा घिनौनी हरकत नहीं तो और क्या है? दशहरे के मौके पर लगभग सारे चैनल अपने-अपने तरीके से रावण की ब्रांड वैल्यू बेचने में लगे थे। खुद स्टार न्यूज 51 रावण का दहन दिखा रहा था तो न्यूज 24 अलग-अलग फील्ड और कुकर्मों के रावण की खोज कर रहा था। ऐसे ही वक्त दिमाग में आया कि क्या न्यूज चैनलों में रावण नहीं हैं और अगर हैं तो उसकी साइज दिनदुनी रात चौंगुनी बढ़ती ही क्यों चली जा रही है? क्या इस रावण पर अंकुश लगाना समाज की सबसे बड़ी चुनौती है या फिर समाज अभी इस लायक हुआ ही नहीं है कि वो इस पर लगाम कस सके। इसलिए जिस तरह चैनल ने अपने-अपने तरीके से रावण खोजे,सच बात तो ये है कि चैनल के भीतर उनके अपने-अपने रावण है। कहीं कोई रावण सैंकड़ों पत्रकारों का करियर लील जा रह रहा है तो कहीं कोई चैनल को आजाद नाम देकर उसके पत्रकारों को लाइन में लगाकार सैलरी बांटता है।..जरुरत है कि चैनलों पर रावण देखने के बजाय,चैनलों के रावण की शिनाख्त करें,सरेआम उन्हें हतोत्साहित करे। बेहतरा दशहरा यही होगा। फिलहाल मैंने स्टार न्यूज के भीतर जो रावण पल रहें हैं,किसी शख्स से ज्यादा वो मानसिकता है,उस पर लिखा है। आप सब पहल करेंगे तो बाकी चैनलों के भी रावण हमारे सामने बेनकाब हो सकेंगे। कोशिश कीजिए, अच्छा रहेगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Oct 19 15:21:15 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 19 Oct 2010 15:21:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSH4KS1?= =?utf-8?b?IOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpL4g4KSw4KS+4KS14KSj4KSD?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksiDgpLngpYfgpKEg4KS44KWB4KSn4KWA4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSa4KWM4KSn4KSw4KWA?= Message-ID: कल हमने आपसे अपील की थी कि मैंने तो स्टार न्यूज के भीतर रावण और चैनल के रावण मानसिकता से ड्राइव होने की बात लिख दी है। आप भी पहल करें,अच्छा रहेगा। ठीक उसी रात मीडिया फोकस साइट मीडियाखबर डॉट कॉम ने एक सीरिज शुरु की- न्यूज चैनलों के नौ रावण और उनलोगों की पूरी एक लिस्ट जारी है जो वाकई अलग-अलग खौपनाक कारनामे से मीडिया इन्डस्ट्री के रावण हैं। लिहाजा हम वहां से वो पोस्ट उधार लेकर आपसे साझा कर रहे हैं। ये बहुत ही मौजूं दौर है,जहां आकर मीडिया जिसे की लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और बदलाव का नायक करार देते रहे,उसकी शक्ल एक विलेन के तौर पर बन गयी है। पहले पीपली लाइव और अब नॉक आउट देखकर हम इसे आसानी से समझ सकते हैं। अगस्त तीस (2007) को दरियागंज के तुर्कमान गेट के इलाके में अचानक बवाल हुआ, तोड़-फोड़ आगजनी हुई और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाई गयी, आरोपी शिक्षिका उमा खुराना को सजा देने के लिए सच्चरित्र और ईमानदार लोगों की भारी भीड़ जमा हो गयी। आरोपी शिक्षिका के कपड़े फाड़े गए, बाल पकड़ कर घसीटा गया और पूरी कोशिश की गयी कि उसे जज जनता सजा-ए-मौत दे दे। उसे बचाने वाली पुलिस पर भी इन जजों का गुस्सा उतरा, पथराव हुआ और वह जिप्सी जला दी गयी जिसमें अन्य कई केसों की महत्वपूर्ण फाइलें भी थीं जिनको फिर से तैयार करना एक दुष्कर और अत्यंत खर्चीला कार्य होगा। उमा खुराना पर स्कूल में सेक्स रैकेट चलाने का आरोप लगा. इन सारी घटनाओं का सूत्रधार चैनल ‘लाइव इंडिया’जो कुछ ही दिन पहले इस रूप में आया था तत्काल चर्चित हो गया। न्यूज़ चैनल ‘जनमत’ को न्यूज़ चैनल ‘लाइव इंडिया’ बनाने वाले उसके मालिक ‘मार्कंड अधिकारी' इस बात से खुश थे कि खबरिया चैनलों की भीड़ के बावजूद मात्र 20 दिनों में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। जनता सड़कों पर उतर गयी। एक तरह की क्रांति हो गयी। 50 साल पुराने विद्यालय के गेट में रस्सी बांध दी गयी। 1200 छात्राओं में से 80 छात्राओं ने विद्यालय का बहिष्कार कर दिया। तीसरी कक्षा तक की छात्राओं को अभिभावकों ने रोककर उमा खुराना रूपी राक्षसी से उनकी रक्षा कर ली। इस प्रकार लाइव इंडिया ने समाज के बड़े हिस्से को गर्त में गिरने से बचा लिया। अब तस्वीर का दूसरा पहलू. लाइव इंडिया का यह स्टिंग फर्जी साबित हुआ. इस स्टिंग को करने वाला लाइव इंडिया के रिपोर्टर प्रकाश सिंह का यह फर्जीवाडा था . उमा खुराना के बारे में न्यायाधीश ने कहा कि उमा खुराना अपराधी नहीं अपराधियों की करतूत की शिकार हुई लगती हैं. अब लाइव इंडिया के चैनल हेड सुधीर चौधरी की इजाजत से चले स्टिंग ऑपरेशन की हकीकत सुनिए. जांच – पड़ताल के बाद पता चला कि लाईव इंडिया के रिपोर्टर ने स्टिंग में जिस छात्रा को दिखाया था, वह नोएडा से निकलनेवाले एक साप्ताहिक समाचारपत्र निर्भीक प्रहरी की संवाददाता थी. पत्रकारिता में तेजी से ऊपर पहुंचने के लिए उसने प्रकाश सिंह के कहने पर यह सब किया. बिहार से दिल्ली पत्रकारिता करने आयी रश्मि सिंह वह लड़की बन गयी जिसे उमा खुराना किसी ग्राहक को सौंप रही हैं. पुलिस की जांच-पड़ताल में ये बात सामने आई कि यह सब एक छोटे व्यापारी वीरेन्द्र अरोड़ा का रचा गया षड़यंत्र था. पूर्वी दिल्ली में चिटफंड का छोटा-मोटा धंधा करनेवाले अरोड़ा ने शिक्षिका को पैसे उधार दिये थे. डेढ़ लाख की वसूली नहीं हो पा रही थी इसलिए उसे बदनाम करवाने के लिए वह स्टिंग करवाना चाहता था. उसने एक दो चैनलों के रिपोर्टरों से इस सिलसिले में बात की. इन्हीं में से एक प्रकाश सिंह था जो ऐसा करने के लिए तैयार हो गया. वह स्टिंग में कुछ ऐसा दिखाना था जिससे यह लगे कि उमा खुराना वैश्यावृत्ति के धंधे में शामिल हैं. कम से कम तीन चैनलों को इस पेशकश की जानकारी थी. प्रकाश सिंह तब आईबीएन-7 में था जब अरोड़ा ने उससे संपर्क किया था. दोनों ने मिलकर तय किया कि वे इस खबर पर काम करेंगे. प्रकाश सिंह भी रातों-रात स्टार पत्रकार बनने की हसरत पाले हुए था. उसने इसी दौरान रश्मि सिंह से भी बात की. और रश्मि सिंह भी अच्छी नौकरी की आस में तैयार हो गयी. इस तरह एक स्टिंग तैयार हो गया और उमा खुराना को पर्दे पर स्कूली छात्राओं से देह व्यापार करनेवाला साबित कर दिया गया। यह खबर आईबीएन सेवेन के लैब में संपादित हुई. सीडी तैयार थी और पता नहीं क्यों उसे दिखाने से मना कर दिया गया. प्रकाश सिंह को लगा उसका सपना चकनाचूर होने जा रहा है. उसने चैनल छोड़ दिया. कारण शायद कुछ और भी रहे होंगे. लेकिन वह लाईव इंडिया में आ गया. उसको काम करते हुए महीनाभर भी नहीं बीता होगा कि यह खबर सबके सामने आ गयी. स्टिंग के टेप में कहीं वीरेन्द्र अरोड़ा फोन करके लड़की का इंतजाम करने को कह रहे हैं और उमा खुराना “करती हूं” जैसी कोई बात कहते हुए सुनाई पड़ती हैं. इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के भंडाफोड के बाद लाइव इंडिया की फजीहत हुई. चैनल पर एक महीने का बैन लगा. फर्जी स्टिंग करने वाला रिपोर्टर प्रकाश सिंह गिरफ्तार हुआ. चारो तरफ चैनल की थू – थू हुई. लाइव इंडिया के साथ दूसरे समाचार चैनलों की भी थुक्कम – फजीहत हुई. मिला – जुलाकर ऐसा माहौल बन गया कि समाचार चैनलों में सारे ऐसे ही फर्जी स्टिंग ऑपरेशन होते हैं. टीवी न्यूज़ की विश्वसनीयता घेरे में आ गयी. लाइव इंडिया के चैनल हेड सुधीर चौधरी ने कहा कि प्रकाश सिंह ने चैनल को अँधेरे में रखा. एक अंग्रेजी वेबसाइट ने सुधीर चौधरी के इसी बयान को कोट करते हुए लिखा : Now Sudhir Chaudhary is saying that the reporter kept the channel in the dark. He had only recently left India TV to head Live India (formerly Janmat). What about the editorial skills of your editors. Poor Choudhary can't be expected to deliver better, after all, he is graduated from India TV school of journalism. सुधीर चौधरी का ये बयान थोथी दलील से ज्यादा कुछ नहीं था .यदि सही – गलत कंटेंट के फर्क को समझने की आपकी समझ नहीं है तो फिर एक चैनल का नेतृत्व आप किस मुंह से करते हैं. क्या ऐसी दलील देते सुधीर चौधरी को शर्म नहीं आई. उमा खुराना को झूठे मामले में ही सही गलत सिद्ध किये जाने पर उसके बाल पकड़कर घसीटा गया तो क्या सुधीर चौधरी को भी बाल पकड़ कर क्यों नहीं घसीटा जाना चाहिए?ऐसे व्यक्ति और चैनल को हम रावण न कहे तो क्या कहें? कहने को सुधीर चौधरी का पत्रकारिता में 15 से ज्यादा वर्षों का अनुभव है. लाइव इंडिया से पहले जी न्यूज़, सहारा और इंडिया टीवी में काम का अनुभव है. लेकिन यह अनुभव किस काम का? टीवी पत्रकारिता का सबसे काला अध्याय सुधीर चौधरी के कंधे पर चढ़कर प्रकाश कुमार ने लिखा. अफ़सोस की बात है कि पत्रकारिता के तीनों रावण आज भी जिंदा हैं. लाइव इंडिया चल रहा है और उसी सुधीर चौधरी के नेतृत्व में चल रहा है. फर्जी स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम देने वाला प्रकाश सिंह न्यूज़ इंडस्ट्री में अब भी काम कर रहा है. (अब नयी खबर आई है कि किसी केन्द्रीय नेता का वह मीडिया कॉर्डिनेटर बन गया है.). सबसे अफसोसजनक बात तो ये है कि सुधीर चौधरी उस एनबीए के सदस्य हैं जो न्यूज़ चैनलों के कंटेंट की निगरानी रखती है. मतलब साफ़ है कि अपने अविवेक और टीआरपी की ललक में ऐसी पीत पत्रकारिता करने के बावजूद उमा खुराना का यह रावण न केवल जिंदा है बल्कि अपने जड़े भी तेजी से मजबूत कर रहा है. क्या किसी दशहरे इस रावण का भी दहन होगा ? (स्रोत – मीडिया मंत्र, प्रथम प्रवक्ता,नवभारत टाइम्स,NDTV24X7) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Oct 20 11:08:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 20 Oct 2010 11:08:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS2IOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJzgpYsg4KSy4KS+4KSH4KS1IA==?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleCkviDgpLjgpKzgpLjgpYcg4KSs?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KS+IOCksOCkvuCkteCkoyDgpKzgpKjgpL4=?= Message-ID: हिरासत में प्रकाश सिंह ( बीच में ) प्रकाश सिंह टेलीविजन पत्रकारिता का एक स्याह चेहरा. उमा खुराना के फर्जी स्टिंग ऑपरेशन का सूत्रधार. एक नया रावण जिसकी जन्मस्थल बनी लाइव इंडिया और जन्मदाता बने चैनल हेड सुधीर चौधरी. अब इसे विडंबना कहिये या फिर टेलीविजन न्यूज़ चैनलों का घटिया चरित्र, उमा खुराना के फर्जी स्टिंग और उस वजह से जेल जाने के बावजूद प्रकाश सिंह न्यूज़ इंडस्ट्री में लगातार पनाह पाता रहा. जेल की हवा खाने और फिर लाइव इंडिया से निकाले जाने के बाद, पहले वायस ऑफ इंडिया (वीओआई) फिर P7 न्यूज़ में प्रकाश सिंह ने नौकरी कर सरोकारी पत्रकारिता करने वालों के मुंह पर तमाचा जड़ा. उसे धत्ता बत्ताते हुए मानो कहा जो करना है कर लो मेरा कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता. फर्जी स्टिंग के बाद उमा खुराना पर क्रुद्ध भीड़ आखिर प्रकाश यह क्यों न कहे. उसे यह कहने का हौसला भी तो न्यूज़ इंडस्ट्री ही दे रहा है. समाज को नैतिकता का पाठ पढाने वाले न्यूज़ चैनल कितने अनैतिक हो सकते हैं, यह प्रकाश सिंह को बार - बार नौकरी देकर चैनलों ने साबित किया. अब प्रकाश सिंह की तरक्की की कहानी सुनिए. यदि डॉक्टरी या वकालत का ये पेशा होता और किसी डॉक्टर या वकील ने ऐसा जघन्य अपराध किया होता तो उसका लाइसेंस हमेशा के लिए जब्त कर लिया जाता. जीवन में दुबारा वह कभी प्रैक्टिस नहीं कर पाता. लेकिन लाइव इंडिया में ऐसा कुकृत्य करने के बावजूद प्रकाश सिंह न केवल टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री में टिका रहा बल्कि उसने तरक्की भी की. आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि तरक्की की सीढियाँ चढ़ते - चढ़ते यह शख्स पहले वीओआई और फिर P7 न्यूज़ में गेस्ट कॉर्डिनेशन का प्रमुख बन गया. P7 न्यूज़ से निकलने के बाद आजकल यह एक केन्द्रीय मंत्री के मीडिया कॉर्डिनेशन का काम संभाल रहा है. कल को किसी नेता या मंत्री - संत्री के चैनल का चैनल हेड / सीईओ बन कर आ जाए तो ज्यादा अचरज नहीं होगा और यकीन मानिए ऐसा हो सकता है. तब यही व्यक्ति मीडिया और नेताओं में सांठ-गाँठ करवाएगा. उनके बीच सूत्रधार का काम करेगा. बड़े - बड़े घोटालों को अंजाम देगा और उसे दबाने के लिए मीडिया को टूल की तरह इस्तेमाल करेगा. फिर आप इस रावण का क्या कर लेंगे. कैसे करेंगे इस सहस्त्र सिरों वालों रावण का दहन? कैसे दहन करेंगे लाइव इंडिया और सुधीर चौधरी के पैदा हुए इस रावण का ? 25 साल की उम्र में जो शख्स “उमा खुराना फर्जी स्टिंग” जैसे कुकृत्य को अंजाम दे सकता है वह अगले 25 साल में क्या – क्या कर सकता है, उसकी कल्पना भी भयावह है. प्रकाश सिंह जैसे घटिया मानसिकता के लोगों का स्वभाव कभी नही बदलता. अपनी गलतियों पर ये पछताते नहीं बल्कि समय के साथ और बड़े फ्रॉड करते हैं. देश के जाने – माने मीडिया आलोचक और विशेषज्ञसुधीश पचौरी ‘नया मीडिया और नए मुद्दे’ नाम की अपनी किताब में प्रकाश की इसी बेहायापन की तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं :टाइम्स ऑफ इंडिया में 13 सितम्बर को छपे चित्र में वह (प्रकाश सिंह) कैमरे की आँख को निर्भीकता से देख रहा है. एक कैमरा पीछे से भी उसे शूट कर रहा लगता है. वह नीली शर्ट पहने है और तनकर खड़ा है. यदि यह फोटो गिरफ्तारी के बाद का है तो उसके निर्भीक लूकस को देखकर और भी हैरत होती है. चेहरे व्यक्तिव का पूरा आईना नहीं होते लेकिन ऐसे आकस्मिक प्रसंगों में उनके माने अचानक चमक उठते हैं.' प्रकाश सिंह जैसे रावण को पहला मौका आईबीएन-7 ने दिया. न्यूज़ इंडस्ट्री के अपने सूत्रों की माने तो आईबीएन- 7 में उसे काम का मौका सीनियर पत्रकार प्रबल प्रताप सिंह के रिकमेंडेशन पर मिला. सूत्रों की माने तो जुगाड फिट करने में माहिर प्रकाश ने प्रबल प्रताप सिंह को जातिगत आधार पर साधा. आईबीएन – 7 में रहते हुए इसने उमा खुराना से सम्बंधित फर्जी स्टिंग ऑपरेशन तैयार किया. लेकिन वह स्टिंग वहां नहीं चली. हालाँकि प्रकाश ने उस स्टिंग को चलवाने के लिए एड़ी – चोटी का जोर लगाया. पर उसे कामयाबी नहीं मिली. यही अंतर होता है एक संजीदा चैनल और एक गैर ज़िम्मेदार चैनल में. आईबीएन-7 के लिए बनी स्टोरी आईबीएन-7 पर नहीं चली तो कोई तो बात होगी. शायद उन्हें इसके फर्जी होने का एहसास हो गया था. यदि ख़बरों की माने तो खुद प्रबल प्रताप ने इस स्टोरी को चलाने से मना करवाया था. संभवतया वे प्रकाश के चाल – चरित्र से तबतक परिचित हो चुके थे. उसके बाद ही आईबीएन-7 से प्रकाश की छुट्टी हुई. उमा खुराना के फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के बाद आईबीएन – 7 के एडिटर – इन – चीफराजदीप सरदेसाई ने अपने एक बयान में कहा था कि हम बच गए. भगवान का शुक्रिया हमने ये टेप नही चलायी. इस मुद्दे पर शुक्रवार 14 सितम्बर,2007 को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे अपने एक लेख “Sting in the Tale” में राजदीप लिखते हैं : “A few weeks ago, I received an SMS: "Dear sir, I am from Patna. I have more than 40 stings with me. Meet me once, you will not be disappointed. Trust me, together we will create a tehelka (pun possibly intended)!" I chose not to respond in the firm belief that this was one tehelka I did not want to part of. After all, 40 sting operations at one go sounded a bit unreal. I have little doubt though that someone, somewhere would have responded to the man from Patna. In this open season for outsourcing sting journalism, there must be a buyer who found the offer attractive. As perhaps did the editorial team of the news channel that aired the now infamous Uma Khurana sting, where a schoolteacher was alleged to be a willing accomplice to a prostitution racket till it was discovered that the schoolgirl who was being used as bait wasn't a student after all.” प्रकाश सिंह, सुधीर चौधरी और लाइव इंडिया के इस कुकृत्य ने शिक्षिका उमा खुराना को शिक्षिका से सेक्स रैकेट चलाने वाली बना दिया. दस दिनों तक उसे न्यायिक हिरासत में रहना पड़ा. उसकी इज्जत सरेआम नीलाम हो गयी. उसे बाल पकड़ कर घसीटा गया. उसके कपडे क्रुद्ध भीड़ ने फाड़ दिया. उमा खुराना ने कहा कि इस पूरे षड्यंत्र के पीछे उसे जान से मारने की भी साजिश थी. सीएनएन – आईबीएन को दिए इंटरव्यू में उमा खुराना ने कहा : CNN – IBN: Why the person has targeted you what is the reason behind that? Uma Khurana: I cant say why he was making me target what was the motive behind that. But yes there was a great conspiracy behind this to kill me. The whole episode was shown on TV when I was in class thinking that people can attack me and can kill me. अफ़सोस की बात है कि इतना सब होने के बावजूद उमा खुराना का रावण अब भी जिंदा है. उसका दहन नहीं हुआ. लाइव इंडिया का बनाया रावण बीतते समय के साथ ज्यादा बड़ा और ताकतवर होता जा रहा है. कल को यही रावण सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी और उमा खुराना के मान – सम्मान से खेले तो सुनकर कोई आश्चर्य नहीं होगा. समय – समय पर वह इसका प्रमाण भी दे रहा है. एक मीडिया वेबसाईट पर जनवरी, 2010 को यह खबर आई थी कि प्रकाश सिंह को दिल्ली के न्यू अशोक नगर थाने की पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. खबर के मुताबिक एनडीटीवी की गेस्ट कोआर्डिनेशन टीम में कार्यरत एक लड़की ने प्रकाश पर अभद्रता करने का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज करायी थी. इसके बाद पुलिस ने प्रकाश को हिरासत में लेकर पूछताछ की. आरोप लगाने वाली लड़की पहले पी7 न्यूज में प्रकाश के अधीन गेस्ट कोआर्डिनेशन की टीम में काम करती थी. बाद में वह इस्तीफा देकर एनडीटीवी चली गई. सूत्रों का कहना है कि प्रकाश ने एनडीटीवी के आफिस और फिर बाद में उस लड़की के घर पर पहुंचकर अभद्रता की. उसके बाद लड़की ने प्रकाश पर अभद्रता करने का आरोप लगाते हुए इसकी शिकायत प्रबंधन और पुलिस से कर दी. दशहरे के दिन लाइव इंडिया पर रावण दहन दिखाया जा रहा था. लाइव इंडिया के एंकर प्रवीण तिवारी बुराई पर अच्छाई की जीत की बातें कर रहे थे. लेकिन क्या कभी लाइव इंडिया अपने अंदर के रावण का दहन करेगा? उस रावण का दहन करेगा जिसका जन्मदाता खुद वो है। साभारः- मीडियाख़बर डॉट कॉम , न्यूज चैनलों के नौ रावण -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Oct 23 11:28:03 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 Oct 2010 11:28:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSW4KS/4KSw?= =?utf-8?b?IOCkuOClgeCkguCkpuCksCDgpLLgpKHgpLzgpJXgpL/gpK/gpL7gpIIg?= =?utf-8?b?4KS54KWAIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpLngpYvgpKTgpYAg4KS54KWI?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpI/gpILgpJXgpLA/?= Message-ID: अपनी हमउम्र टेलीविजन एंकर दोस्तों से जब भी बात होती है तो खुद अपने ही बारे में कहा करती है- मुझे पता है कि पांच-छ साल बाद हमें कौन पूछेगा? इसलिए सोचती हूं कि अभी जितना बेहतर कर सकूं( इस बेहतर में काम,पैसा,नाम,स्टैब्लिश होना सब शामिल है) कर लेती हूं। फिर न तो ये चेहरा रहेगा और न ही हमारी अभी जैसी पूछ रहेगी। सुनने में तो ये बात बहुत ही सहज लगती है और एक घड़ी को हम मान भी लेते हैं कि सही बात है कि जब उनके चेहरे पर वो चमक,वो फ्रेशनेस और वो चुस्ती झलकेगी ही नहीं तो कोई चैनल क्यों उन्हें भाव देगा? लेकिन इस सहजता से मान लेनेवाली बात को थोड़ा पलटकर एक सवाल की शक्ल में सामने रखें तो- क्या न्यूज चैनलों में फीमेल एंकर को सिर्फ और सिर्फ शक्ल के आधार पर रखा जाता है? यानी एंकरिंग के लिए सिर्फ अच्छी शक्ल का ही होना काफी है,इसके अलावे किसी तरह की काबिलियत की जरुरत नहीं होती? अगर इसका जबाब हां है तो फिर बेहतर है कि इस पेशे में आने के लिए मॉडलिंग के कोर्स करने चाहिए,लड़कियों आप मीडिया कोर्स करना छोड़ दें। ये समझ इसलिए भी पक्की हो सकती है कि पिछले साल जिस तरह से एक न्यूज चैनल ने अपनी ग्रांड ओपनिंग के मौके पर अपनी फीमेल एंकरों को रैंप पर चलवाया तो इससे साफ हो गया कि एंकर को लेकर चैनल मालिकों और उसके प्रबंधन से जुड़े लोगों के दिमाग में क्या चलता-रहता होगा? ये शायद गॉशिप हो लेकिन जो चैनल पूरी तरह से वीमेन इम्पावरमेंट के नाम पर खोला गया,उसके रसूकदार मालिक ने रसरंजन कर लेने की स्थिति में एक लड़की को देखकर कहा- इसे एंकर बनाना है। पिछले दिनों सीएनएन में लंबे समय तक पत्रकारिता और अब मीडिया टीचिंग में लगे एक पत्रकार ने जब ये सवाल उठाया कि यहां के चैनलों में सिर्फ सुंदर लड़कियां ही एंकर क्यों होती है तो हम सबका ध्यान अचानक से इस सवाल से टकरा गया। आप गौर करें तो सीएनएन-आइबीएन की दो-तीन एंकरों को छोड़ दें तो बाकी चैनलों में जितनी भी एंकर हैं,उनमें से अधिकांश को पहली नजर में देखकर उनके रखे जाने का आधार क्या है? चेहरा सब ढंक देगा के अंदाज में जिस तेजी से एंकर होने की शर्तों को बदल दे रहा है,वो मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर एक नए किस्म की स्थिति पैदा कर रहा है। यहांआकर एयरहॉस्टेस,मॉडलिंग,ब्यूटीशियन,स्पा थेरेपी, इवेंट मैनेजमेंट,फैशन डिजाइनिंग और इन सबके बीच मीडिया कोर्स एक-दूसरे के बीच इस तरह से गड्डमड्ड हो जाते हैं कि संभव है आनेवाले दिनों में इस पेशे में आने के पहले लड़कियों के बीच अपने-आप ही गुपचुप तरीके से शर्तें तय हो जाने लगे कि अगर वो सुंदर नहीं है (इस सुंदर होने में गोरा होना भी शामिल है) तो किसी भी हाल में न्यूज एंकर बनने के सपने छोड़ दे। वही दूसरी तरह जो लड़कियां सुंदर है उसके दिमाग में ये बात मजबूती से बैठ जाए कि वो सुंदर है,कुछ नहीं तो कम से कम न्यूज एंकर तो बन ही जाएगी।ठीक उसी तरह से जिस तरह एक जमाने में साहित्य पढ़नेवाले, कम्युनिस्ट पार्टी की होलटाइमरी करनेवाले नौजवानों के दिमाग में ये बात भरी रहती थी कि अगर प्रोफेसरी या कमिशन की नौकरी नहीं मिली तो मीडिया की नौकरी तो धरी ही है। इस तरह की मानसिकता मीडिया के भीतर के उन प्रोफेशनल एप्रोच को ध्वस्त करती है,जिसके दावे के लिए अब निजी संस्थान लाखों रुपये ऐंठ रहे हैं। 10-12 हजार रुपये की एंकर की नौकरी बारह तरह की झंझटों से गुजरने के बाद मिलती है जिसमें ग्लैमर की चमक के आगे तमाम दर्द को हवा में उड़ा देने की कोशिशें होती हैं। ऐसा होने से सुंदर लड़कियां भी अपनी तमाम योग्यता और एकेडमिक और मीडिया समझ के साथ आती भी है तो उसके आने में उसकी देह को ही प्रमुख माना जाएगा। चैनलों में लड़कों या फिर आपस में नहीं बननेवाली फीमेल कूलीग के एक-दूसरे के प्रति ये शब्द कि हमें खूब पता है कि वो किस बिना पर एंकर बनी है,इसी सोच का व्यावहारिक नतीजा है। इन सबके बीच मीडिया प्रोफेशनलिज्म कहां हवा हो जाती है,इस पर गंभीरता से विचार करने का काम अभी शुरु नहीं हुआ है? इसके साथ जो दूसरी बड़ी और जरुरी बात है वो ये कि जब शुरु से ही इस नीयत से फीमेल एंकरों की भर्ती की जाती हो कि वो देखने में अनिवार्य रुप से सुंदर हो तो क्या इस सुंदर दिखने की मानसिकता यहीं आकर रुक जाती है? यहां यह ध्यान रहे कि टेलीविजन पर प्रजेंटेवल दिखना और शरीरी तौर पर सुंदर होना दो अलग-अलग चीजें हैं। स्क्रीन पर प्रजेंटेवल दिखाना ये मीडिया प्रोफेशनलिज्म का काम है जिसे कि वो लगातार नजरअंदाज करता है जबकि शरीरी तौर पर सुंदर होने को ज्यादा तबज्जो दिया जाता है। ऐसा होने से चैनल के भीतर एक खास किस्म का कॉमप्लेक्स और शोषण की गुंजाईश तेजी से पनप सकती है। कुछ चैनलों के भीतर से इव टीजिंग और सेक्सुअल हर्सामेंट के मामले आने शुरु हुए हैं जिससे ये साफ हो रहा है कि सुंदर दिखाने की मानसिकता ऑडिएंस को अपनी तरफ खींचने तक जाकर ठहरती नहीं है बल्कि इसके पीछे भी एक सक्रिय खेल शुरु हो गए है। हालांकि ये कोई बंधा-बंधाया फार्मूला नहीं है कि इस तरह के काम सिर्फ सुंदर लड़कियों क साथ ही किया जा सकता है। जरुरी बात उस मानसिकता के तेजी से फैलने की है जहां आकर एक फीमेल एंकर पत्रकार का दर्जा आए दिन खोकर एक मॉडल,एयर हॉस्टेस या फिर दूसरे उन प्रोफेशन के तौर पर पाती हैं जहां वो अपनी आवाज सख्ती से नहीं उठाने पाती या फिर धीरे-धीरे इसे प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाती है। प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाना जाहिर तौर पर एक फीमेल एंकर को पत्रकार के दर्जे से बिल्कुल अलग करके देखना है। मेरी दोस्तों ने जो पांच साल की करियर लाइफ वाला फार्मूला अपने आप ही मान लिया,ये उसी सोच का नतीजा है। न्यूज चैनल के भविष्य के लिए ये बहुत ही खतरनाक स्थिति है। फिर सालों से जो अनुभव हासिल किए,उसका लाभ चैनल को किस रुप में मिल सकेगा या फिर क्या चैनल को देह के स्तर की सुंदरता के आगे इसकी जरुरत नहीं रह जाती,ये भी अपने-आप में एक बड़ा सवाल है। एंकरिंग अनुभव को लेकर मेरे इस सवाल पर कि तुम कभी निधि कुलपति, अलका सक्सेना, या नीलम शर्मा जैसी क्यों नहीं बनना चाहती,क्या होता है उनका जबाब। आगे पढ़िए.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pheeta.ram at gmail.com Sun Oct 24 00:25:31 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Sun, 24 Oct 2010 00:25:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSW4KS/4KSw?= =?utf-8?b?IOCkuOClgeCkguCkpuCksCDgpLLgpKHgpLzgpJXgpL/gpK/gpL7gpIIg?= =?utf-8?b?4KS54KWAIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpLngpYvgpKTgpYAg4KS54KWI?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpI/gpILgpJXgpLA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: "Paid News" का ज़माना है भाई, इतना अचरज काहे को? आजकल फिरंगी सेब ( माने genetically modified ) भी स्वेटर में सजा कर बेचा जाता है ( हमारे जैसे guinea pigs के लिये ) फिर यहाँ तो लाखों-करोड़ों दाव पर लगे हैं. यूरोप में तो नग्न न्यूज़ एंकर ज़माने से हैं, इसी लिये तो वहां सिर्फ गुलामों की ज़मातें उपजती हैं. हमारा देश एक ऐसा चूहा है जो मरी हुई गीदड़ की पूँछ छोड़ने को तैयार ही नहीं. 2010/10/23 vineet kumar > > > अपनी हमउम्र टेलीविजन एंकर दोस्तों से जब भी बात होती है तो खुद अपने ही बारे > में कहा करती है- मुझे पता है कि पांच-छ साल बाद हमें कौन पूछेगा? इसलिए सोचती > हूं कि अभी जितना बेहतर कर सकूं( इस बेहतर में काम,पैसा,नाम,स्टैब्लिश होना सब > शामिल है) कर लेती हूं। फिर न तो ये चेहरा रहेगा और न ही हमारी अभी जैसी पूछ > रहेगी। > > सुनने में तो ये बात बहुत ही सहज लगती है और एक घड़ी को हम मान भी लेते हैं कि > सही बात है कि जब उनके चेहरे पर वो चमक,वो फ्रेशनेस और वो चुस्ती झलकेगी ही > नहीं तो कोई चैनल क्यों उन्हें भाव देगा? लेकिन इस सहजता से मान लेनेवाली बात > को थोड़ा पलटकर एक सवाल की शक्ल में सामने रखें तो- क्या न्यूज चैनलों में > फीमेल एंकर को सिर्फ और सिर्फ शक्ल के आधार पर रखा जाता है? यानी एंकरिंग के > लिए सिर्फ अच्छी शक्ल का ही होना काफी है,इसके अलावे किसी तरह की काबिलियत की > जरुरत नहीं होती? अगर इसका जबाब हां है तो फिर बेहतर है कि इस पेशे में आने के > लिए मॉडलिंग के कोर्स करने चाहिए,लड़कियों आप मीडिया कोर्स करना छोड़ दें। > > > > ये समझ इसलिए भी पक्की हो सकती है कि पिछले साल जिस तरह से एक न्यूज चैनल ने > अपनी ग्रांड ओपनिंग के मौके पर अपनी फीमेल एंकरों को रैंप पर चलवाया तो इससे > साफ हो गया कि एंकर को लेकर चैनल मालिकों और उसके प्रबंधन से जुड़े लोगों के > दिमाग में क्या चलता-रहता होगा? ये शायद गॉशिप हो लेकिन जो चैनल पूरी तरह से > वीमेन इम्पावरमेंट के नाम पर खोला गया,उसके रसूकदार मालिक ने रसरंजन कर लेने की > स्थिति में एक लड़की को देखकर कहा- इसे एंकर बनाना है। > > पिछले दिनों सीएनएन में लंबे समय तक पत्रकारिता और अब मीडिया टीचिंग में लगे > एक पत्रकार ने जब ये सवाल उठाया कि यहां के चैनलों में सिर्फ सुंदर लड़कियां ही > एंकर क्यों होती है तो हम सबका ध्यान अचानक से इस सवाल से टकरा गया। आप गौर > करें तो सीएनएन-आइबीएन की दो-तीन एंकरों को छोड़ दें तो बाकी चैनलों में जितनी > भी एंकर हैं,उनमें से अधिकांश को पहली नजर में देखकर उनके रखे जाने का आधार > क्या है? चेहरा सब ढंक देगा के अंदाज में जिस तेजी से एंकर होने की शर्तों को > बदल दे रहा है,वो मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर एक नए किस्म की स्थिति पैदा कर रहा > है। > > > यहांआकर एयरहॉस्टेस,मॉडलिंग,ब्यूटीशियन,स्पा थेरेपी, इवेंट मैनेजमेंट,फैशन > डिजाइनिंग और इन सबके बीच मीडिया कोर्स एक-दूसरे के बीच इस तरह से गड्डमड्ड हो > जाते हैं कि संभव है आनेवाले दिनों में इस पेशे में आने के पहले लड़कियों के > बीच अपने-आप ही गुपचुप तरीके से शर्तें तय हो जाने लगे कि अगर वो सुंदर नहीं है > (इस सुंदर होने में गोरा होना भी शामिल है) तो किसी भी हाल में न्यूज एंकर बनने > के सपने छोड़ दे। वही दूसरी तरह जो लड़कियां सुंदर है उसके दिमाग में ये बात > मजबूती से बैठ जाए कि वो सुंदर है,कुछ नहीं तो कम से कम न्यूज एंकर तो बन ही > जाएगी।ठीक उसी तरह से जिस तरह एक जमाने में साहित्य पढ़नेवाले, कम्युनिस्ट > पार्टी की होलटाइमरी करनेवाले नौजवानों के दिमाग में ये बात भरी रहती थी कि अगर > प्रोफेसरी या कमिशन की नौकरी नहीं मिली तो मीडिया की नौकरी तो धरी ही है। इस > तरह की मानसिकता मीडिया के भीतर के उन प्रोफेशनल एप्रोच को ध्वस्त करती > है,जिसके दावे के लिए अब निजी संस्थान लाखों रुपये ऐंठ रहे हैं। > > 10-12 हजार रुपये की एंकर की नौकरी बारह तरह की झंझटों से गुजरने के बाद मिलती > है जिसमें ग्लैमर की चमक के आगे तमाम दर्द को हवा में उड़ा देने की कोशिशें > होती हैं। ऐसा होने से सुंदर लड़कियां भी अपनी तमाम योग्यता और एकेडमिक और > मीडिया समझ के साथ आती भी है तो उसके आने में उसकी देह को ही प्रमुख माना > जाएगा। चैनलों में लड़कों या फिर आपस में नहीं बननेवाली फीमेल कूलीग के > एक-दूसरे के प्रति ये शब्द कि हमें खूब पता है कि वो किस बिना पर एंकर बनी > है,इसी सोच का व्यावहारिक नतीजा है। इन सबके बीच मीडिया प्रोफेशनलिज्म कहां हवा > हो जाती है,इस पर गंभीरता से विचार करने का काम अभी शुरु नहीं हुआ है? > > > इसके साथ जो दूसरी बड़ी और जरुरी बात है वो ये कि जब शुरु से ही इस नीयत से > फीमेल एंकरों की भर्ती की जाती हो कि वो देखने में अनिवार्य रुप से सुंदर हो तो > क्या इस सुंदर दिखने की मानसिकता यहीं आकर रुक जाती है? यहां यह ध्यान रहे कि > टेलीविजन पर प्रजेंटेवल दिखना और शरीरी तौर पर सुंदर होना दो अलग-अलग चीजें > हैं। स्क्रीन पर प्रजेंटेवल दिखाना ये मीडिया प्रोफेशनलिज्म का काम है जिसे कि > वो लगातार नजरअंदाज करता है जबकि शरीरी तौर पर सुंदर होने को ज्यादा तबज्जो > दिया जाता है। > > ऐसा होने से चैनल के भीतर एक खास किस्म का कॉमप्लेक्स और शोषण की गुंजाईश तेजी > से पनप सकती है। कुछ चैनलों के भीतर से इव टीजिंग और सेक्सुअल हर्सामेंट के > मामले आने शुरु हुए हैं जिससे ये साफ हो रहा है कि सुंदर दिखाने की मानसिकता > ऑडिएंस को अपनी तरफ खींचने तक जाकर ठहरती नहीं है बल्कि इसके पीछे भी एक सक्रिय > खेल शुरु हो गए है। हालांकि ये कोई बंधा-बंधाया फार्मूला नहीं है कि इस तरह के > काम सिर्फ सुंदर लड़कियों क साथ ही किया जा सकता है। जरुरी बात उस मानसिकता के > तेजी से फैलने की है जहां आकर एक फीमेल एंकर पत्रकार का दर्जा आए दिन खोकर एक > मॉडल,एयर हॉस्टेस या फिर दूसरे उन प्रोफेशन के तौर पर पाती हैं जहां वो अपनी > आवाज सख्ती से नहीं उठाने पाती या फिर धीरे-धीरे इसे प्रोफेशन का हिस्सा मानकर > चुप्प मार जाती है। > > > > प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाना जाहिर तौर पर एक फीमेल एंकर को > पत्रकार के दर्जे से बिल्कुल अलग करके देखना है। मेरी दोस्तों ने जो पांच साल > की करियर लाइफ वाला फार्मूला अपने आप ही मान लिया,ये उसी सोच का नतीजा है। > न्यूज चैनल के भविष्य के लिए ये बहुत ही खतरनाक स्थिति है। फिर सालों से जो > अनुभव हासिल किए,उसका लाभ चैनल को किस रुप में मिल सकेगा या फिर क्या चैनल को > देह के स्तर की सुंदरता के आगे इसकी जरुरत नहीं रह जाती,ये भी अपने-आप में एक > बड़ा सवाल है। एंकरिंग अनुभव को लेकर मेरे इस सवाल पर कि तुम कभी निधि कुलपति, > अलका सक्सेना, या नीलम शर्मा जैसी क्यों नहीं बनना चाहती,क्या होता है उनका > जबाब। आगे पढ़िए.. > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Oct 25 11:47:29 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 25 Oct 2010 11:47:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkreCkvuCksOCkpOClgOCkr+CkpOCkviDgpJXgpL4g4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkquCkleCljeCktyDgpIfgpKTgpKjgpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL4KSCIOCkrOCli+CksuCkpOCkviDgpLngpYg/?= In-Reply-To: References: Message-ID: 2010/10/25 vineet kumar > दिग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के लेखक पवन वर्मा की किताब विकमिंग इंडियन इन > दिनों खासी चर्चा में है। हिंदी समाज के बीच इस किताब की चर्चा की मूल वजह > कंटेंट के अलावा इसका हिंदी अनुवाद की शक्ल में आना है। हिंदी के युवा आलोचक > वैभव सिंह ने इस किताब का अनुवाद *भारतीयता की ओर : संस्कृति और अस्मिता की > अधूरी क्रांति* शीर्षक से किया है। मूलतः अंग्रेजी में छपी किताब का प्रकाशन > पेंगुइन ने किया है और इसका अनुवाद भी पेंगुइन हिंदी और यात्रा प्रकाशन की ओर > से ही है। लिहाजा इस किताब को और खासकर हिंदी में पढ़ने की बेचैनी को हम बहुत > अधिक रोक नहीं पाये और आखिरकार ये किताब मेरे हाथ लग गयी। कोर्स की किताब की > तरह पहले पन्ने से शुरू करने के बजाय हमने इस किताब को आखिरी अध्याय से पढ़ना > शुरू किया। विश्वग्राम के अंदर : विषमता और समायोजन अध्याय को पूरा पढ़ गया। इस > किताब को लेकर मेरी पूरी दिलचस्पी इस बात को लेकर रही है कि पवन वर्मा ने आज के > परिवेश को जिसे कि *ल्योतार* के शब्दों को उधार लेकर कुछ लोग पोस्ट मार्डन > कंडीशन कहते हैं, कुछ लोग लेट कैपिटलिस्जम (फ्रेडरिक जेमसन) का सांस्कृतिक तर्क > तो कुछ लोग मैक्लूहान की समझ अपनाते हुए ग्लोबल विलेज की स्थिति बताते हैं, को > कैसे परिभाषित किया है और इन सबके बीच भारतीयता और संस्कृति को किस रूप में > डिफाइन किया है। > > *हममें से* जिन लोगों को भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के चिन्हों > को एक दूसरे से अलग करने के लिए आये दिन माथापच्ची करनी पड़ती है, उनके लिए ये > किताब रामबाण का काम करती है। इस अध्याय में पवन वर्मा ने बिल्कुल ही साफ और > स्पष्ट विभाजन हमारे सामने किया है। हम भारतीय संस्कृति को लेकर बड़े ही मजे से > थै-थै कर सकते हैं और दूसरी तरफ पाश्चात्य संस्कृति की खामियों को और मजबूती से > रेखांकित कर पाते हैं। लेकिन विभाजन की यह सुविधा आगे चलकर पूरे विमर्श को बहुत > विश्वसनीय नहीं रहने देती। इस स्पष्ट विभाजन के बीच जैसे ही हम कल्चरल > रेजिस्टेंस के सवाल को डालते हैं, उपभोक्तावादी आदतें जो कि अब खुद में एक > संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं, की बहस को शामिल करते हैं तो पवन वर्मा के इस > स्पष्ट विभाजन की बाउंड्री ब्लर हो जाती है। ये एक बड़ा सच है कि संस्कृति को > लेकर इस तरह का विभाजन न तो बहुत साफ तौर पर संभव है और न ही इसकी कोशिशें > विश्वसनीय क्योंकि संस्कृति का एक रूप, दूसरी संस्कृति के किस रेशे से जाकर > कहां मिल जाता है, इसे रेखांकित किया ही नहीं जा सकता। फिर भी पवन वर्मा अगर > ऐसा कर पाते हैं तो हमें जाहिर तौर पर उनकी समझ पर थोड़ी बात करनी होगी। > > *पवन वर्मा* भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति को एक-दूसरे से अलगाने के क्रम में > खान-पान, पोशाक, अभिवादन के तरीके और ह्यूमन मेंटलिटी की बात करते हैं। इस > फेहरिस्त से गुजरते हुए लगता है कि वो रेमंड विलियम्स की परिभाषा –*culture > is basically the way of life* का ही व्यावहारिक विस्तार दे रहे हैं। लेकिन > पंक्ति दर पंक्ति जब हम गुजरते हैं, तो हमें सहज ही एहसास हो जाता है कि दरअसल > संस्कृति को लेकर उनकी जो समझ है, वो पूरी तरह से नेशन स्टेट की जो संस्कृति > होती है और जिसे खुद नेशन स्टेट वैलिडिटी देता है, वो संस्कृति इनकी बहस में > शामिल है। वैसे भी उन्होंने तमाम उदाहरण राज्यकीय और प्रशासनिक संदर्भों के बीच > संस्कृति रूपों के आधार पर ही दिये हैं। संस्कृति के इस रूप को कल्चरल स्टडीज > के तहत *अल्थूसर* ने *ऑडियोलॉजी एंड ऑडियोलॉजिकल स्टेट अपरेटस* के तहत > विस्तार से चर्चा की है। फिर *हेबरमास* ने *दि पब्लिक स्फीयर में संस्कृति* के > इसी रूपों की बात की है। पवन वर्मा की भारतीयता और उसकी सांस्कृतिक समझ इन्हीं > दो-तीन विद्वानों के लक्षणों को लेकर विकसित होती है। हां ये जरूर है कि > उन्होंने जो भी उदाहरण और संदर्भ दिये हैं, उसमें व्यक्तिगत स्तर के अनुभव और > सच्चाई हैं। कविता की भाषा में कहें तो भोगा हुआ सच है, जिसका मैं पूरा सम्मान > करता हूं। > > *आगे वो* एक बड़ी स्थापना देते हैं कि अंग्रेजों के अधीन जो भी देश या नेशन > स्टेट रहे, उनके भीतर आज भी इनफीरियर कॉम्प्लेक्स बरकरार है। बल्कि अपनी इस > स्थापना को वो पाश्चात्य संस्कृति और ग्लोबल डिस्कोर्स तक विस्तार देते हैं। वो > साफ तौर पर मानते हैं कि भारत अगर अपने को, अपनी संस्कृति को एक स्वतंत्र > संस्कृति मानता है, तो ये इसकी भारी भूल है। आज भी दरअसल हम पाश्चात्य को लेकर > श्रेष्ठताबोध से ग्रसित हैं, वो बेहतर हैं और हम उनसे कमतर। इस बात को उन्होंने > बुकर, नोबेल और बाकी बातों के साथ जोड़ते हुए विस्तार दिया। “हमारी पूरी सोच पर > नियंत्रण की एक मिसाल यह भी है कि हम पश्चिम द्वारा की गयी आलोचना व प्रशंसा > दोनों को ही जरूरत से ज्यादा अहमियत देते हैं।” (भारतीयता की ओर, पेज नं 273) > पवन वर्मा का मानना है कि इन सबके वाबजूद अगर हमें उनलोगों की ओर से कोई सम्मान > मिलता है, तो वह भी कहीं न कहीं उनकी नीयत, उनकी मंशा और उनकी ही समझ का > विस्तार होता है। संभवतः वो इसलिए भूमंडलीकरण को हम जैसे प्रगतिशील देशों के > लिए कोई नया अवसर न मानकर उपनिवेशवाद और सामंतवाद का ही नया और बारीक रूप मानते > हैं। मीडिया और तकनीक को आधार लेकर *इलिहू कर्टज* ने ये सारी बातें आज से आठ > साल पहले ही कही थी और मोटे तौर पर उदाहरण दिया कि शेर और चूहे की बीच भला > बराबरी के मौके कहां पनप सकते हैं? पवन वर्मा इस आलोक में जो तर्क और संदर्भ > देते हैं वो बहुत ही विश्वसनीय लगते हैं और पढ़नेवालों के बीच संभव है एक जमीनी > हकीकत से गुजरने का एहसास हो। उन्होंने लिखा है – “यह मान लेना महज भोलापन होगा > कि भूमंडलीकरण सभी को समान लाभ का अवसर देता है या उंच-नीच के तंत्र से मुक्त > कराता है। अतीत व वर्तमान को इस तरह से दो भिन्न हिस्सों में नहीं बांटा जा > सकता है। जो पहले शासक रह चुके हैं, वो रातोंरात अपना चरित्र नहीं बदल सकते और > न ही वे, जिन्होंने गुलामी को सहा है। राजनीतिक आजादी तो आत्मोद्धार का केवल एक > हिस्सा है। राजनीतिक समानता का दावा करना आसान है, आर्थिक विषमता का भी आकलन कर > उसके लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक असमानता बड़े सूक्ष्म ढंग से काम > करती है और उसे चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।” (वही, पेज नं 247) पवन वर्मा के > इन तर्कों को संभव है, सैद्धांतिक तौर पर और भी मजूबती मिले क्योंकि वैश्विक > स्तर पर नव्यमार्क्सवादी लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो उनकी इस तरह की मान्यता > को मजबूत आधार देते हैं। फीदेल कास्त्रो ने तो सांस्कृति संप्रभुता की पूरी बहस > की छेड़ दी है। > > *लेकिन* इन सबके वाबजूद पवन वर्मा अगर सचमुच में भारतीयता की बहस के बीच उसकी > संस्कृति की चर्चा को एक रिसर्च की शक्ल तक ले जाने की इच्छा रखते हैं तो > उन्हें भारतीय और पाश्चात्य के बीच सपाट रेखा खींचने के बजाय उनके छोटे-छोटे > कॉनटेशंस को भी गंभीरता से बहस के दायरे में लाना चाहिए था। इस बहस से भला कौन > अनजान है कि हम चाहे जितने भी ग्लोबल सीनेरियो की बात कर लें लेकिन हम चंद > देशों के दबदबे से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। ये बहस जितनी बड़ी है, > उसमें पेंच भी उतने ही कम हैं और अंत में निष्कर्ष तक आने में सहूलियत होती है। > लेकिन जैसे ही हम छोटे और बारीक संदर्भों को शामिल करते हैं, अभी पवन वर्मा और > आगे ऐसे ही तर्क लड़खड़ाने लग जाते हैं। उन्होंने संस्कृति की इस पूरी बहस मैं > कैपिटल सी “C” को ध्यान में रखकर अपनी बात की है, जिसे की *बौद्रिआं* बहुत ही > बारीकी तौर पर विश्लेषित करते हैं। मौजूदा संस्कृति की जो बहसें हैं, उनमें इन > छोटे-छोटे कान्टेशंस को शामिल किया जाना न केवल अनिवार्य है बल्कि इसके बिना आप > आगे बात कर ही नहीं सकते। ये केवल विमर्श के फैशन के स्तर पर नहीं है बल्कि > आलोचना की बारीकियों और उसके टूल्स पैदा करने के लिए भी अनिवार्य है। पवन वर्मा > अपने इस पूरे विमर्श में इससे या तो स्ट्रैटिजकली अनजान नजर आते हैं या फिर इस > हिस्स को पूरी तरह छोड़ने में ही अपने को बेहतर समझते हैं। नहीं तो वो जिस > खान-पान, पोशाक और माध्यम की बात करते हैं, वहां वे इसकी पसंद-नापसंद के बजाय > उपलब्धता और पर्चेजिंग पावर की बात करते। अंग्रेजी स्टाइल की शर्ट के बजाय खादी > कुर्ते खरीदने की पर्चेजिंग पावर की बहस को शामिल करते। मॉल और मल्टीप्लेक्स के > बरक्स 25 रुपये में पांच फिल्में देख लेने की बनती स्वतंत्र सीडी पर चर्चा करते > लेकिन नहीं। > > *अगर वो* ऐसा कर रहे होते तो मौजूदा संस्कृति के इसी रूप के बीच से > अस्मिताविमर्श के पैदा होने की संभावनाओं और विस्तार को इस तरह से अनदेखा नहीं > करते और ये लाइनें शायद ही लिखते – “उन्हें यह भी पता होगा कि भारत एक > धर्मनिरपेक्ष देश है और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण व भयावह घटनाओं के बावजूद यहां के > हिंदू अन्य धर्मानुयायियों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाएं नहीं रखते हैं। हिंदू > धर्म दूसरों का धर्मांतरण करानेवाला धर्म नहीं है। न ही कभी यह धर्मयुद्ध करता > है। प्राचीनकाल में हिंदू राजाओं ने बौद्ध विहार और अपने मंदिरों दोनों को > संरक्षण दिया…” (वही पेज 262) पवन वर्मा अपनी इस समझ को पुख्ता करने के लिए आगे > हार्वर्ड के दो विद्वानों की रिपोर्ट शामिल करते हैं। पवन वर्मा अपने इस पूरे > अध्याय में हमें वस्तु, सुविधा और संसाधन के स्तर पर पाश्चात्य देशों से मुक्त > होने के साथ-साथ मानसिक स्तर पर भी मुक्त होने की बात करते हैं। यहां अगर वो > हार्वर्ड के इन दोनों विद्वानों के रिसर्च को शामिल करने के साथ-साथ गुजरात > दंगे को लेकर सरूप बेन की 300 कहानियों – कोई तो उम्मीद होगी, असगर अली > इंजीनियर और 84 दंगे पर जरनैल सिंह की किताब – कब कटेगी चौरासी की कुछ लाइनों > को भी शामिल कर पाते तो संभव है कि हार्वर्ड विद्वानों का रिसर्च हल्का पड़ > जाता। लेकिन नहीं… > > *कुल मिलाकर* इस किताब के इस एक अध्याय को पढ़ते हुए मैंने जो महसूस किया, वो > ये कि ये किताब भारतीयता और भारतीय संस्कृति को एक ब्यूरोक्रेटिक नजरिये से > डिफाइन करती है, जो कि नेशन स्टेट की परिभाषाओं के नजदीक है। भारतीय और > पाश्चात्य जीवनशैली और वस्तुओं की फेहरिस्त में स्वदेशी जागरण मंच की समझ के > करीब लगती है। पवन वर्मा ये बताने में पूरी तरह चूक जाते हैं कि भारतीय के बीच > के जो झोल हैं, जो शोषण का स्तर है, इंडियन और देसी शब्दों के जोड़ने के बाद जो > उसकी कीमतें तय की जाती हैं, उसके पीछे की क्या राजनीति है? इसलिए ये किताब एक > नास्‍टैल्जिक भारतीय, प्रवासी हिंदू भारतीय की मानसिकता की समझ से लिखी गयी > किताब है। इस किताब को किसी समाजशास्त्री या फिर संस्कृति व्याख्याकार की समझ > की किताब मानने में हमें भारी मशक्कत करनी होगी। ये किताब इनक्रीडबल इंडिया पर > भरोसा रखनेवाले लोगों के बीच बहुत पॉपुलर होगी वहीं अस्मिताविमर्श में लगे > लोगों के इरादे को अपनी टाट कसने के लिए लाचार तरीके से ही सही ललकारेगी। हिंदी > समाज ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए अभ्यस्त रहा है, इसलिए बाकी किताबों की तरह > ही ये एक श्रेष्ठ पुस्तक करार दी जाएगी। > > मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Oct 25 13:41:54 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 25 Oct 2010 13:41:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSn4KWB4KSo?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkreCkvuCksOCkpCDgpJXgpL4g4KSF4KSo4KWC4KSg4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpOClgOCksOCljeCkpSDgpLngpYgg4KSJ4KWc4KS14KS+4KS54KS+?= Message-ID: जब पूरी दुनिया की नजर राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से दिल्ली पर थी। जहां 33,000 करोड़ रुपए का खेल चल रहा था। उसी दौरान ग्वालियर और भोपाल की मीडिया की नजर शिवपुरी पर आ टिकी थी। यहां का निहारगढ़ ‘पीप्पली लाईव’ को जीवन्त कर रहा था। बड़ी बड़ी गाड़ियों से पत्रकार-राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता भूख से हुई मौत को रिपोर्ट करने के लिए इकट्ठे हो रहे थे। http://ashishanshu.blogspot.com/2010/10/blog-post_25.html -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Oct 25 13:59:24 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 25 Oct 2010 13:59:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSoIA==?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KWN4KSu4KS+IOCkleCkviDgpJXgpLngpL4g4KSu4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KS/4KSPLOCkreCkvuCksOCkpCDgpI/gpJUg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWCIOCksOCkvuCkt+CljeCkn+CljeCksCDgpLngpYg=?= Message-ID: दि ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के लेखक पवन वर्मा की किताब विकमिंग इंडियन इन दिनों खासी चर्चा में है। हिंदी समाज के बीच इस किताब की चर्चा की मूल वजह कंटेंट के अलावा इसका हिंदी अनुवाद की शक्ल में आना है। हिंदी के युवा आलोचक वैभव सिंह ने इस किताब का अनुवाद *भारतीयता की ओर : संस्कृति और अस्मिता की अधूरी क्रांति* शीर्षक से किया है। मूलतः अंग्रेजी में छपी किताब का प्रकाशन पेंगुइन ने किया है और इसका अनुवाद भी पेंगुइन हिंदी और यात्रा प्रकाशन की ओर से ही है। लिहाजा इस किताब को और खासकर हिंदी में पढ़ने की बेचैनी को हम बहुत अधिक रोक नहीं पाये और आखिरकार ये किताब मेरे हाथ लग गयी। कोर्स की किताब की तरह पहले पन्ने से शुरू करने के बजाय हमने इस किताब को आखिरी अध्याय से पढ़ना शुरू किया। विश्वग्राम के अंदर : विषमता और समायोजन अध्याय को पूरा पढ़ गया। इस किताब को लेकर मेरी पूरी दिलचस्पी इस बात को लेकर रही है कि पवन वर्मा ने आज के परिवेश को जिसे कि * ल्योतार* के शब्दों को उधार लेकर कुछ लोग पोस्ट मार्डन कंडीशन कहते हैं, कुछ लोग लेट कैपिटलिस्जम (फ्रेडरिक जेमसन) का सांस्कृतिक तर्क तो कुछ लोग मैक्लूहान की समझ अपनाते हुए ग्लोबल विलेज की स्थिति बताते हैं, को कैसे परिभाषित किया है और इन सबके बीच भारतीयता और संस्कृति को किस रूप में डिफाइन किया है। *हममें से* जिन लोगों को भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के चिन्हों को एक दूसरे से अलग करने के लिए आये दिन माथापच्ची करनी पड़ती है, उनके लिए ये किताब रामबाण का काम करती है। इस अध्याय में पवन वर्मा ने बिल्कुल ही साफ और स्पष्ट विभाजन हमारे सामने किया है। हम भारतीय संस्कृति को लेकर बड़े ही मजे से थै-थै कर सकते हैं और दूसरी तरफ पाश्चात्य संस्कृति की खामियों को और मजबूती से रेखांकित कर पाते हैं। लेकिन विभाजन की यह सुविधा आगे चलकर पूरे विमर्श को बहुत विश्वसनीय नहीं रहने देती। इस स्पष्ट विभाजन के बीच जैसे ही हम कल्चरल रेजिस्टेंस के सवाल को डालते हैं, उपभोक्तावादी आदतें जो कि अब खुद में एक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं, की बहस को शामिल करते हैं तो पवन वर्मा के इस स्पष्ट विभाजन की बाउंड्री ब्लर हो जाती है। ये एक बड़ा सच है कि संस्कृति को लेकर इस तरह का विभाजन न तो बहुत साफ तौर पर संभव है और न ही इसकी कोशिशें विश्वसनीय क्योंकि संस्कृति का एक रूप, दूसरी संस्कृति के किस रेशे से जाकर कहां मिल जाता है, इसे रेखांकित किया ही नहीं जा सकता। फिर भी पवन वर्मा अगर ऐसा कर पाते हैं तो हमें जाहिर तौर पर उनकी समझ पर थोड़ी बात करनी होगी। *पवन वर्मा* भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति को एक-दूसरे से अलगाने के क्रम में खान-पान, पोशाक, अभिवादन के तरीके और ह्यूमन मेंटलिटी की बात करते हैं। इस फेहरिस्त से गुजरते हुए लगता है कि वो रेमंड विलियम्स की परिभाषा –*culture is basically the way of life* का ही व्यावहारिक विस्तार दे रहे हैं। लेकिन पंक्ति दर पंक्ति जब हम गुजरते हैं, तो हमें सहज ही एहसास हो जाता है कि दरअसल संस्कृति को लेकर उनकी जो समझ है, वो पूरी तरह से नेशन स्टेट की जो संस्कृति होती है और जिसे खुद नेशन स्टेट वैलिडिटी देता है, वो संस्कृति इनकी बहस में शामिल है। वैसे भी उन्होंने तमाम उदाहरण राज्यकीय और प्रशासनिक संदर्भों के बीच संस्कृति रूपों के आधार पर ही दिये हैं। संस्कृति के इस रूप को कल्चरल स्टडीज के तहत *अल्थूसर* ने *ऑडियोलॉजी एंड ऑडियोलॉजिकल स्टेट अपरेटस* के तहत विस्तार से चर्चा की है। फिर *हेबरमास* ने *दि पब्लिक स्फीयर में संस्कृति* के इसी रूपों की बात की है। पवन वर्मा की भारतीयता और उसकी सांस्कृतिक समझ इन्हीं दो-तीन विद्वानों के लक्षणों को लेकर विकसित होती है। हां ये जरूर है कि उन्होंने जो भी उदाहरण और संदर्भ दिये हैं, उसमें व्यक्तिगत स्तर के अनुभव और सच्चाई हैं। कविता की भाषा में कहें तो भोगा हुआ सच है, जिसका मैं पूरा सम्मान करता हूं। *आगे वो* एक बड़ी स्थापना देते हैं कि अंग्रेजों के अधीन जो भी देश या नेशन स्टेट रहे, उनके भीतर आज भी इनफीरियर कॉम्प्लेक्स बरकरार है। बल्कि अपनी इस स्थापना को वो पाश्चात्य संस्कृति और ग्लोबल डिस्कोर्स तक विस्तार देते हैं। वो साफ तौर पर मानते हैं कि भारत अगर अपने को, अपनी संस्कृति को एक स्वतंत्र संस्कृति मानता है, तो ये इसकी भारी भूल है। आज भी दरअसल हम पाश्चात्य को लेकर श्रेष्ठताबोध से ग्रसित हैं, वो बेहतर हैं और हम उनसे कमतर। इस बात को उन्होंने बुकर, नोबेल और बाकी बातों के साथ जोड़ते हुए विस्तार दिया। “हमारी पूरी सोच पर नियंत्रण की एक मिसाल यह भी है कि हम पश्चिम द्वारा की गयी आलोचना व प्रशंसा दोनों को ही जरूरत से ज्यादा अहमियत देते हैं।” (भारतीयता की ओर, पेज नं 273) पवन वर्मा का मानना है कि इन सबके वाबजूद अगर हमें उनलोगों की ओर से कोई सम्मान मिलता है, तो वह भी कहीं न कहीं उनकी नीयत, उनकी मंशा और उनकी ही समझ का विस्तार होता है। संभवतः वो इसलिए भूमंडलीकरण को हम जैसे प्रगतिशील देशों के लिए कोई नया अवसर न मानकर उपनिवेशवाद और सामंतवाद का ही नया और बारीक रूप मानते हैं। मीडिया और तकनीक को आधार लेकर *इलिहू कर्टज* ने ये सारी बातें आज से आठ साल पहले ही कही थी और मोटे तौर पर उदाहरण दिया कि शेर और चूहे की बीच भला बराबरी के मौके कहां पनप सकते हैं? पवन वर्मा इस आलोक में जो तर्क और संदर्भ देते हैं वो बहुत ही विश्वसनीय लगते हैं और पढ़नेवालों के बीच संभव है एक जमीनी हकीकत से गुजरने का एहसास हो। उन्होंने लिखा है – “यह मान लेना महज भोलापन होगा कि भूमंडलीकरण सभी को समान लाभ का अवसर देता है या उंच-नीच के तंत्र से मुक्त कराता है। अतीत व वर्तमान को इस तरह से दो भिन्न हिस्सों में नहीं बांटा जा सकता है। जो पहले शासक रह चुके हैं, वो रातोंरात अपना चरित्र नहीं बदल सकते और न ही वे, जिन्होंने गुलामी को सहा है। राजनीतिक आजादी तो आत्मोद्धार का केवल एक हिस्सा है। राजनीतिक समानता का दावा करना आसान है, आर्थिक विषमता का भी आकलन कर उसके लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक असमानता बड़े सूक्ष्म ढंग से काम करती है और उसे चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।” (वही, पेज नं 247) पवन वर्मा के इन तर्कों को संभव है, सैद्धांतिक तौर पर और भी मजूबती मिले क्योंकि वैश्विक स्तर पर नव्यमार्क्सवादी लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो उनकी इस तरह की मान्यता को मजबूत आधार देते हैं। फीदेल कास्त्रो ने तो सांस्कृति संप्रभुता की पूरी बहस की छेड़ दी है। *लेकिन* इन सबके वाबजूद पवन वर्मा अगर सचमुच में भारतीयता की बहस के बीच उसकी संस्कृति की चर्चा को एक रिसर्च की शक्ल तक ले जाने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें भारतीय और पाश्चात्य के बीच सपाट रेखा खींचने के बजाय उनके छोटे-छोटे कॉनटेशंस को भी गंभीरता से बहस के दायरे में लाना चाहिए था। इस बहस से भला कौन अनजान है कि हम चाहे जितने भी ग्लोबल सीनेरियो की बात कर लें लेकिन हम चंद देशों के दबदबे से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। ये बहस जितनी बड़ी है, उसमें पेंच भी उतने ही कम हैं और अंत में निष्कर्ष तक आने में सहूलियत होती है। लेकिन जैसे ही हम छोटे और बारीक संदर्भों को शामिल करते हैं, अभी पवन वर्मा और आगे ऐसे ही तर्क लड़खड़ाने लग जाते हैं। उन्होंने संस्कृति की इस पूरी बहस मैं कैपिटल सी “C” को ध्यान में रखकर अपनी बात की है, जिसे की *बौद्रिआं* बहुत ही बारीकी तौर पर विश्लेषित करते हैं। मौजूदा संस्कृति की जो बहसें हैं, उनमें इन छोटे-छोटे कान्टेशंस को शामिल किया जाना न केवल अनिवार्य है बल्कि इसके बिना आप आगे बात कर ही नहीं सकते। ये केवल विमर्श के फैशन के स्तर पर नहीं है बल्कि आलोचना की बारीकियों और उसके टूल्स पैदा करने के लिए भी अनिवार्य है। पवन वर्मा अपने इस पूरे विमर्श में इससे या तो स्ट्रैटिजकली अनजान नजर आते हैं या फिर इस हिस्स को पूरी तरह छोड़ने में ही अपने को बेहतर समझते हैं। नहीं तो वो जिस खान-पान, पोशाक और माध्यम की बात करते हैं, वहां वे इसकी पसंद-नापसंद के बजाय उपलब्धता और पर्चेजिंग पावर की बात करते। अंग्रेजी स्टाइल की शर्ट के बजाय खादी कुर्ते खरीदने की पर्चेजिंग पावर की बहस को शामिल करते। मॉल और मल्टीप्लेक्स के बरक्स 25 रुपये में पांच फिल्में देख लेने की बनती स्वतंत्र सीडी पर चर्चा करते लेकिन नहीं। *अगर वो* ऐसा कर रहे होते तो मौजूदा संस्कृति के इसी रूप के बीच से अस्मिताविमर्श के पैदा होने की संभावनाओं और विस्तार को इस तरह से अनदेखा नहीं करते और ये लाइनें शायद ही लिखते – “उन्हें यह भी पता होगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण व भयावह घटनाओं के बावजूद यहां के हिंदू अन्य धर्मानुयायियों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाएं नहीं रखते हैं। हिंदू धर्म दूसरों का धर्मांतरण करानेवाला धर्म नहीं है। न ही कभी यह धर्मयुद्ध करता है। प्राचीनकाल में हिंदू राजाओं ने बौद्ध विहार और अपने मंदिरों दोनों को संरक्षण दिया…” (वही पेज 262) पवन वर्मा अपनी इस समझ को पुख्ता करने के लिए आगे हार्वर्ड के दो विद्वानों की रिपोर्ट शामिल करते हैं। पवन वर्मा अपने इस पूरे अध्याय में हमें वस्तु, सुविधा और संसाधन के स्तर पर पाश्चात्य देशों से मुक्त होने के साथ-साथ मानसिक स्तर पर भी मुक्त होने की बात करते हैं। यहां अगर वो हार्वर्ड के इन दोनों विद्वानों के रिसर्च को शामिल करने के साथ-साथ गुजरात दंगे को लेकर सरूप बेन की 300 कहानियों – कोई तो उम्मीद होगी, असगर अली इंजीनियर और 84 दंगे पर जरनैल सिंह की किताब – कब कटेगी चौरासी की कुछ लाइनों को भी शामिल कर पाते तो संभव है कि हार्वर्ड विद्वानों का रिसर्च हल्का पड़ जाता। लेकिन नहीं… *कुल मिलाकर* इस किताब के इस एक अध्याय को पढ़ते हुए मैंने जो महसूस किया, वो ये कि ये किताब भारतीयता और भारतीय संस्कृति को एक ब्यूरोक्रेटिक नजरिये से डिफाइन करती है, जो कि नेशन स्टेट की परिभाषाओं के नजदीक है। भारतीय और पाश्चात्य जीवनशैली और वस्तुओं की फेहरिस्त में स्वदेशी जागरण मंच की समझ के करीब लगती है। पवन वर्मा ये बताने में पूरी तरह चूक जाते हैं कि भारतीय के बीच के जो झोल हैं, जो शोषण का स्तर है, इंडियन और देसी शब्दों के जोड़ने के बाद जो उसकी कीमतें तय की जाती हैं, उसके पीछे की क्या राजनीति है? इसलिए ये किताब एक नास्‍टैल्जिक भारतीय, प्रवासी हिंदू भारतीय की मानसिकता की समझ से लिखी गयी किताब है। इस किताब को किसी समाजशास्त्री या फिर संस्कृति व्याख्याकार की समझ की किताब मानने में हमें भारी मशक्कत करनी होगी। ये किताब इनक्रीडबल इंडिया पर भरोसा रखनेवाले लोगों के बीच बहुत पॉपुलर होगी वहीं अस्मिताविमर्श में लगे लोगों के इरादे को अपनी टाट कसने के लिए लाचार तरीके से ही सही ललकारेगी। हिंदी समाज ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए अभ्यस्त रहा है, इसलिए बाकी किताबों की तरह ही ये एक श्रेष्ठ पुस्तक करार दी जाएगी। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Oct 27 16:25:58 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 27 Oct 2010 16:25:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSoIA==?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KWN4KSu4KS+IOCklOCksCDgpJrgpILgpKbgpY3gpLDgpK0=?= =?utf-8?b?4KS+4KSoIOCkquCljeCksOCkuOCkvuCkpiDgpK7gpYfgpIIg4KS54KWL?= =?utf-8?b?4KSX4KWAIOCkreCkv+CkoeCkguCkpA==?= Message-ID: शुक्रवार यानी 29 अक्टूबर 2010 को होनेवाली बहसतलब की सूचना और छपे कार्ड का वर्चुअल संस्करण हमसे साझा करते हुए अविनाश ने फेसबुक वॉल पर लिखा- *"शुक्रवार की हमारी बहसतलब में हिंदीवादी भारतीयता के व्‍याख्‍याकार पवन कुमार वर्मा और* * अंग्रेजीवादी भारतीयता के पैरोकार चंद्रभान प्रसाद आपस में टकराएंगे। * *क्‍या आप दोस्‍तों से हमारी मुलाकात वहां हो रही है।**"* * * भारतीयता की ओरः संस्कृति और अस्मिता की अधूरी क्रांति को पढ़ने के बाद पवन वर्मा को लेकर मेरी बनी समझ इन दिनों मुझ पर इतनी हावी है कि मैं हिन्दीवादी को हिन्दूवादी पढ़ गया। आपकी समझ अगर इससे अलग बनती हो तो जरुर साझा करें। लिहाजा अब अविनाश की ओर से साझा किया गया छपे कार्ड का वर्चुअल संस्करण- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Oct 28 14:58:35 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 28 Oct 2010 14:58:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSC4KSnIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSa4KS+4KSo4KWHIOCkleClgCDgpJzgpYDgpLXgpILgpKQg4KSV?= =?utf-8?b?4KSl4KS+LOCkieCksOCljeCkqyDgpLDgpJzgpKQg4KS24KSw4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpJXgpLDgpLXgpL4g4KSa4KWM4KSl?= Message-ID: करवा चौथ के नाम पर एकाध हिन्दी चैनलों को छोड़कर बाकियों ने जमकर गंध मचाये। चूंकि ऐसे मौके के लिए आजतक और इंडिया टीवी को महारथ हासिल है इसलिए उन पर इस त्यौहार का रंग कुछ ज्यादा ही गाढ़े तौर पर चढ़ा। टेलीविजन पर से ऐतिहासिक तथ्य तो गायब हो ही गए हैं,मौके की खासियत भी खत्म हो गयी है। जहां लिखा है प्यार,वहां लिख दो सड़क की तर्ज पर पूरी टेलीविजन इन्डस्ट्री बदहवाश काम किए जा रही है। ऐसे में पूरी कोशिशें इस बात की है कि कौन कितने ज्यादा वॉल्यूम में गंध मचा सकता है। कीचड़ में लीथ-लीथकर लोटने की आदत कोई मजबूरी नहीं बलिक शौक का हिस्सा बन गया है। लिहाजा करवा चौथ की कवरेज पर एक नजर- आजतक की दो एंकर सोलह सिंगार के अंदाज में स्क्रीन पर काबिज हुई और उसी अंदाज में एंकरिग किया। किस रंग के रत्न,जेवर पहनने से और कब पहनने से इस व्रत का सही आउटपुट मिलेगा,इसके लिए पेड पंडित को स्टूडियो में हायर किया। फिर एक के बाद एक पैकेज। मसलन टेलीविजन की हस्तियों का करवाचौथ,बॉलीवुड की पत्नियों का करवाचौथ। फिर लगातार अपील आजतक छोड़कर कहीं मत जाइए,आपको चांद देखने के लिए बालकनी या छत पर नहीं जाना होगा,हम यहीं बताएंगे कि चांद निकला या नहीं,बस देखते रहिए आजतक। ऑडिएंस को अपने पर कितना भरोसा है,नहीं पता लेकिन चैनल को अपने उपर भरोसा रत्तीभर भी नहीं,इसलिए लगा कि इतनी मनुहार के बाद भी कहीं वो छिटक न जाए तो सीधे ऑफर किया- आजतक देखो,सोना जीतो। कोई हिन्दी चैनल लाख कोशिशें कर लें,गंध मचाने के मामले में मैं इंडिया टीवी को सबका बाप मानता हूं। उसके आगे अब आजतक भी पायरेसी लगती है और आइबीएन7 इन दोनों चैनलों की कॉकटेल। इसलिए अगर आपको हिन्दी न्यूज चैनलों की गंध मचाई का मौलिक वर्जन देखना हो तो इंडिया टीवी के आगे कोई विकल्प नहीं। इंडिया टीवी ने करवा चौथ को ईद के बराबर में लाकर खड़ा कर दिया। एक ही साथ स्क्रीन पर दस शहरों में कब,कहां चाद निकलेगा इसकी जानकारी देने में जुट गया और फिर शार्टकट में ही सही सभी जगहों का नजारा। पेड पंडित यहां भी बताने लग गए कि बस तीन मिनट बाकी है लखनउ में चांद निकलने में जबकि दिल्ली के लोग देख सकते हैं अभी चांद। इसके बाद वो सीधे खाने पर उतर गया। किस राशि की महिला कौन सा आइटम खाकर अपना व्रत तोड़ेगी तो उसके दाम्पत्य जीवन के लिए बेहतर होगा और फिर एक-एक राशियों के हिसाब से उसकी चर्चा। ये अब एक कॉमन फार्मूला हो गया है खासकर इंडिया टीवी और आजतक के लिए कि चाहे सूर्यग्रहण हो,चाहे कोई व्रत हो सभी राशियों को लेकर एक पैकेज बना दो,पेड पंडित को बिठा लो। राशियों पर आधारित कार्यक्रमों की टीआरपी अच्छी होती है। एक सेलबुल एलीमेंट हैं। अबकी बार टीआरपी के मैदान में सहारा ने न्यूज24 की कनपटी गरम कर दी है और उसे धकियाकर उसके आगे काबिज हो गया है। लिहाजा चैनल के भीतर कुछ अलग और डिफरेंट करने की जबरदस्त बेचैनी है जो कि चैनल के एंकरों सहित पैकेज में साफ तौर पर दिखाई देता है। लेकिन चैनल के भीतर एक भी दमदार प्रोड्यूसर नहीं है,इस सच को टेलीविजन देख रही ऑडिएंस भी बेहतर तरीके से समझती है। कायदे के एक-एक करके खिसक गए आजतक रिटर्न प्रोड्यूसर की कमी पैकेज को एक बेउडे मटीरियल की शक्ल में बदल देती है। वो आपको दिख जाएगा।..तो इसी डिफरेंट दिखने की बेचैनी ने उसे आज की सावित्री खोजने पर विवश किया। उसने स्पेशल पैकेज के तौर पर हॉस्पीटल की बेड पर पड़ी एक ऐसी महिला की स्टोरी दिखायी जो कि अपने पति के खराब लीवर की जानकारी के बाद अपने लीवर का पचास फीसदी हिस्सा देकर उसकी जान बचाती है। जाहिर तौर पर ये अच्छी और मानवीयता की बात है। ये मध्यवर्ग के बीच की गाथा है। लेकिन चैनल इस पैकेज को संभाल नहीं पाता है। डॉक्टर की बाइट और लगातार हॉस्पीटल के फुटेज, करवाचौथ के लाल और चटकीले रंगों के बीच सफेद,लाइट ब्लू रंग मनहुसियत पैदा करते हैं। नतीजा,लिजलिजे पैकेज और इस मनहूसियत से मन उखड़ जाता है जिसका फायदा सीधे तौर पर इंडिया टीवी उठाता है उसी स्टोरी को ज्यादा रोचक तरीके से पेश करता है। हां,सिेनेमा ने कैसे इस करवाचौथ को एक नेशन कल्चरल व्रत बनाया,करवाचौथ के एक दिन पहले की स्टोरी ज्यादा बेहतर और देखने लायक थी। स्टार न्यूज पर बिहार चुनाव का सुरुर अभी भी सवार है लेकिन करवा चौथ भला उसके इस सुरुर से रुक तो नहीं जाएगा। लिहाजा वहां भी पैकेज चले। कुछ ऐतिहासिक तथ्यों तो कुछ फिल्मी हस्तियों की कहानी को जोड़ते हुए। लेकिन आजतक का मूवी मसाला इस मामले में बाजी मार गया। दीपिका कैसे अपने फिल्म प्रोमोशन-खेले हम जी जान से के लिए इस व्रत को भुनाती है,ढंग से बताया। मल्लिका को कैसे करवाचौथ के नाम पर सुरसुरी छूट जाती है और मातमी शक्ल में नजर आने लगती है,आजतक की इस खोजी पत्रकारिता( हंसिए मत प्लीज) के स्टार न्यूज फीका पड़ गया। हां,उसकी बॉल सबसे बेहतरीन और कलात्मक लगी देशभर में जहां-जहां भी महिलाओं ने करवा चौथ मनाएं और मेंहदी से शुरु होनेवाले सोलह सिंगार किए,उनमें से एक भी सांवली या काली त्वचा वाली महिला ने या तो मेंहदी नहीं लगाए या फिर व्रत नहीं किया। न्यूज चैनलों की करवा चौथ कवरेज से मेरी तो यही समझ बनी। ये त्योहार सिर्फ गोरी महिलाओं के लिए है और गोरी कलाइयों पर ही मेंहदी का रंग चढ़ सकता है। पूरे टेलीविजन में मुझे सिर्फ नकुषा( लागी तुझसे लगन) ही ऐसी लड़की नजर आती है जिसे कि काली और कुरुप होते हुए भी सिंगार करने का अधिकार है,मेंहदी रचा सकती है। करवाचौथ का एक एक्सटेंशन वेलेंटाइन डे के तौर पर ही हुआ है और संभव है कि आनेवाले समय में ये आइडिय लव फॉर लाइव डे के तौर पर इमर्ज कर जाए। इसलिए एक मजबूत स्टोरी बनती है जिसे कि चैनलों ने दिखाया कि कैसे अब पति भी अपनी पत्नी के लिए ये व्रत करते हैं और चैनलों ने उन पतियों को उस दिन का हीरो बना दिया जो कि पत्नी के साथ व्रत रखे हैं। दूसरा कि अब सिर्फ अच्छा पति के लिए नहीं,अच्छा पति मिलने की कामना के लिए भी व्रत रखा जाता है। चैनल इस कॉन्सेप्ट को विस्तार देते हैं और इस पर भी जमकर स्टोरी चली और जोड़े विदाउट मैरिज खोजे गए। इस करवाचौथ में देशभर की महिलाओं ने सोलह सिंगार किए,लंहगें और चटकीले रंगों की साडियां पहनी। फैशन की मार में काले रंग की भी साडियों पहनी,अपशगुन का कोई लोचा नहीं रहा। धोनी ने भी पहली बार व्रत कर रही अपनी पत्नी साक्षी के लिए सूरत से खासतौर पर साडियां खरीदीं लेकिन चैनलों ने उसे साड़ी या जोड़े में दिखाने के बजाय दो दिन पहले की गोवा बीच वाली अधनंगी दिखती फुटेज ही दिखाए। चैनल की कुंठा के आगे साक्षी करवा चौथ में भी सोलह सिंगार नहीं कर सकी,धोनी की लायी हुई साड़ी नहीं पहन सकी। इसका अफसोस है। इस पूरे प्रकरण में मुझे अमिताभ बच्चन के घर के आगे ब्लू टीशर्ट पहनी आजतक की रिपोर्टर बहुत ही लाचार नजर आयी,उस पर तरस आया। देशभर की लड़कियां,महिलाएं उस्तवी माहौल में रंगी है,वो बाइट न मिल पाने की स्थिति में लाचार और पुअर बाइट बेगर के तौर पर दिखाई देती है। तमाम चैनलों पर एंकर को जिस अंदाज में पेश किया गया,उनके चेहरे पर प्रोफेशन के अलावे निजी जिंदगी की कामना( फ्राइड की भाषा में लिबिडो), ललचायी इरादे ंसाफ तौर पर झलक गए। कई व्ऑइस ओवर को सुनकर महसूस किया कि वो मानो कह रही हो- क्या हर लड़की की जिंदगी त्योहारों के लिए बस आवाज देने के लिए है,उसकी अपनी आवाज नहीं है। चैनल की इस पूरी चिरकुटई को मीडिया आधारित साइट मीडियाखबर ने बेहतर तरीके से पकड़ा और कल्पना किया कि अगर चैनल के मालिक और बड़े पत्रकार नए फैशन के हिसाब से करवाचौथ करेंगे तो वो अपनी चंदा को देखकर क्या मांगेंगे,लिहाजा- रजत शर्मा का करवाचौथ। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Fri Oct 29 17:28:57 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 29 Oct 2010 17:28:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KS14KS+4KSmIOCklOCksCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWB4KSm4KS+4KSvIC0y?= Message-ID: *राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय -2 *हिंदुत्व की विचारधारा ने भी एक अमूर्त हिंदू-जनता की रचना की और उसे समय-समय पर मूर्त हिंदू जनता का रूप देने की कोशिश की. यह प्रयास भी काफी रक्तरंजित रहा और भयानक दंगों का सबब बना. उन्होंने जबरन समूची हिंदू जनता का प्रवक्ता बनने की कोशिश की और हिंदुओं के पूरे स्पेस पर अपना एकाधिकार जताना चाहा. बहरहाल, उन्हें इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली और वे लंबे समय तक हाशिए पर ही रहे. अमूर्त हिंदू जनता को मूर्त रूप देने में उन्हें सबसे बड़ी कामयाबी रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान मिली. लेकिन यह कामयाबी भी अपर्याप्त थी और उसका भी एक बड़ा कारण उसकी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियां की कमजोरी और गलतियां थीं. इसलिए हिंदुत्व के नेता ने जब जिन्ना की कब्र पर उनके द्वारा एक ‘सेक्यूलर’ राष्ट्र की रचना के लिए उनकी तारीफ की, तो इसमें उनकी ‘ईर्ष्या’ भी छिपी थी-खुद वही मुकाम न पाने का दर्दं भी था. साथ ही यह दोनों धाराओं के वैचारिक साम्य की स्वीकारोक्ति भी थी. * * http://hashiya.blogspot.com/2010/10/blog-post_29.html -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Fri Oct 29 17:28:57 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 29 Oct 2010 17:28:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KS14KS+4KSmIOCklOCksCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWB4KSm4KS+4KSvIC0y?= Message-ID: *राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय -2 *हिंदुत्व की विचारधारा ने भी एक अमूर्त हिंदू-जनता की रचना की और उसे समय-समय पर मूर्त हिंदू जनता का रूप देने की कोशिश की. यह प्रयास भी काफी रक्तरंजित रहा और भयानक दंगों का सबब बना. उन्होंने जबरन समूची हिंदू जनता का प्रवक्ता बनने की कोशिश की और हिंदुओं के पूरे स्पेस पर अपना एकाधिकार जताना चाहा. बहरहाल, उन्हें इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली और वे लंबे समय तक हाशिए पर ही रहे. अमूर्त हिंदू जनता को मूर्त रूप देने में उन्हें सबसे बड़ी कामयाबी रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान मिली. लेकिन यह कामयाबी भी अपर्याप्त थी और उसका भी एक बड़ा कारण उसकी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियां की कमजोरी और गलतियां थीं. इसलिए हिंदुत्व के नेता ने जब जिन्ना की कब्र पर उनके द्वारा एक ‘सेक्यूलर’ राष्ट्र की रचना के लिए उनकी तारीफ की, तो इसमें उनकी ‘ईर्ष्या’ भी छिपी थी-खुद वही मुकाम न पाने का दर्दं भी था. साथ ही यह दोनों धाराओं के वैचारिक साम्य की स्वीकारोक्ति भी थी. * * http://hashiya.blogspot.com/2010/10/blog-post_29.html -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Oct 31 10:35:32 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 31 Oct 2010 10:35:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSo4KSc?= =?utf-8?b?4KWALOCkuOCkmiDgpK7gpYfgpIIg4KS54KSuIOCkreCkvuCksOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkqOClgOCkmiDgpJTgpLAg4KSo4KSV4KSy4KSa4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWI4KSCPw==?= Message-ID: मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive मैंपवन कुमार वर्मा की किताब भारतीयता की ओर पढ़ने के बाद बहसतलब 6 में उन्हें इस नीयत से बिल्कुल सुनने नहीं गया था कि किताब पढ़ने के बाद जो कई सवाल मेरे मन में लगातार उठ रहे हैं, उसका समाधान वो करेंगे, उस पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन हां, इतनी बदतर उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी लंबी-चौड़ी टिप्पणी के बीच घुले कई सवालों को गौर से सुनने के बाद (गौर से सुना, ये उनके ही शब्द हैं) एक शायरी कहते हुए कहेंगे कि मुझे तो याद नहीं कि सवाल क्या थे? मैं वहां मौजूद लोगों और इस पोस्ट को पढ़नेवाले अपने तमाम लोगों से सॉरी कहता हूं कि मैंने बहुत अधिक वक्त लिया। शायद मुझे उतना अधिक नहीं बोलना चाहिए था लेकिन मैं कल लगभग समझिए कि बिफर गया। दिमाग में बस एक ही बात घूमती रही कि अगर इसी किताब को कोई हिंदी का लेखक लिखता तो क्या अंग्रेजी समाज और खुद हिंदी समाज उसे इस तरह से सिर पर बिठा लेता। यकीनन उनकी भारी फजीहत होती और आलोचना की पहली लाइन होती – ये एचएमटी (हिंदी मीडियम टाइप) लेखक अभी तक भारतीयता और पाश्‍चात्य के बीच एक वर्जिन स्पेस खोजने में लगे हैं। लेकिन नहीं, लोग वहां इस बात को लेकर गदगद हो रहे थे कि एक अंग्रेजी लेखक ने अंग्रेजी में लिखते हुए अंग्रेजी को गरियाकर हिंदी को बेहतर बताया है। ये भी एक किस्म की गुलाम मानसिकता है। पवन वर्मा के हिसाब से आज अगर ये देश अंग्रेजी की उपनिवेशवादी दबाब से मुक्त नहीं हुआ है तो वही पढ़े-लिखे लेकिन लोभ-लाभ में पड़े लोगों के बीच से सामंती चारण का संस्कार गया नहीं, बल्कि महीन तरीके से बरकरार है। इसलिए ये अकारण नहीं था कि जिस किताब में दुनियाभर के झोल हैं, कई तथ्यात्यमक गलतियां हैं, उस किताब को हाथोंहाथ लिये जाने के लिए जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिशें की गयीं। *मैंने* टिप्पणी क्या की थी, कुछ चालू जार्गन का इस्तेमाल करते हुए (जिसे नहीं भी किया जाता तो बात हो सकती थी) पवन कुमार वर्मा की समझ, नास्टैल्जिक होकर हिंदी, भारतीयता, ऐतिहासिक आदतों और अस्मिता के सवाल और जीवन शैलियों को बेहतर करार देने पर असहमति दर्ज की थी। ये असहमतियां बहसतलब से निकलने के बाद और मजबूत और तल्ख हुई है। किताब का एक अध्याय पढ़ने के बाद पवन वर्मा पर मैंने जो *मोहल्ला लाइव पर लिखा*, उस पर कुछ जो कमेंट आये, उसका मिजाज ये साफ तौर पर बताना था कि एक अध्याय पढ़कर लिखना सिर्फ अपने को चर्चा और पवन कुमार वर्मा से नजदीकियां बनाना भर है। दो दिन बाद जब पूरी किताब पढ़ी तो लगा कि इस पर और तल्खी से लिखे जा सकते हैं। *सवाल और* असहमतियां बहुत साफ हैं कि अगर पवन कुमार वर्मा को भारतीय अस्मिता की इतनी गहरी चिंता है तो उस अस्मिता के दायरे में स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता और आदिवासी अस्मिता (आदिवासी संस्कृति को अगर आप पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिहाज से देखें, तो सबसे बेहतर संस्कृति जान पड़ेगी) के सवाल क्यों नहीं आते? क्या ये अकारण है कि जब भी वो भारतीय संस्कृति और उसकी धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो उसमें हिंदू और उनके रीति-रिवाज एक-दूसरे से घुल-मिल जाते हैं और निष्कर्ष के तौर पर हिंदू संस्कृति, भारतीय संस्कृति का पर्याय के तौर पर दिखाई देते हैं। माफ कीजिएगा, गालिब पर किताब लिखकर और शुरुआती अध्याय में मुगलों के आने से कला के विस्तार की चर्चा करके पवन कुमार वर्मा को इस बात की कतई छूट नहीं मिल जाती कि आगे वो भारतीय संस्कृति पर बात करने के लिए हिंदू संस्‍कृति को हाइवे की तरह इस्तेमाल करें। ये नजरिया विभूति नारायण राय से अलग नहीं है, जो कि शहर में कर्फ्यू लिखने के बाद उसकी जिंदगी भर की कमाई जाति आधारित फैसले लेने और लेखिकाओं को जलील करने में लगाएं। लेखन कोई जाति प्रमाण पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है कि एक बार मिल जाने के बाद आप उसे हर फॉर्म के साथ चिपका दें। जैसे वहां रिन्यूअल की जरूरत होती है, लेखन में भी आपको लगातार उस स्टैंड को लेते हुए सक्रिय बने रहना होता है। *पवन वर्मा की* इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं प्रेम करना इस देश की अपनी स्वायत्त संस्कृति है तो फिर अलग से वेलेंटाइन डे की चोंचलेबाजी क्यों? सही बात है, लेकिन पवन वर्मा से सीधे तौर पर सवाल करें कि अगर प्रेम इस देश की संस्कृति है तो फिर ऑनर किलिंग किस देश की संस्कृति है? निरुपमा जैसी एक युवा पत्रकार का जाति के दबाब में जान लेना-देना किस देश की संस्कृति है? गर्व करने को मैं भी हिंदी के अपने उन तमाम कवियों पर गर्व कर सकता हूं, जिन्होंने प्रेम को लेकर कालजयी रचनाएं की लेकिन क्या मैं उन कवियों और आलाचकों पर गर्व कर सकता हूं जो इन कविताओं पर बात करते हुए, ऐसी कविताओं लिखते भार-विभोर हो उठते हैं जबकि दिल्ली से सटे मेरठ में प्रेमी की हत्या कर दी जाती है तो एक लाइन लिखना जरूरी नहीं समझते। इस तरह के झोल सिर्फ प्रेम को लेकर ही नहीं बल्कि भारतीयता की उन तमाम सर्किट में हैं, जिस पर कि पवन वर्मा को गर्व है। *पवन वर्मा का* कहना है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो ये देश धर्मनिरपेख है,यहां के हिन्दुओं ने धर्मांतरण का काम नहीं करवाया। इस देश की संस्कृति अगर उदार और सहोदर है,इसका पैमाना सिर्फ हिंदू बरक्स मुस्लिम,हिंदू बरक्स इसाई के तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्या? इस बात पर सवाल नहीं की जानी चाहिए कि खुद हिंदू अपने भीतर जाति,मान्यताओं,रिवाजों को लेकर एक-दूसरे क्यों इतना कट्टर है? अगर सामंजस्य हिन्दुओं की संस्कृति है तो इंटर में पढ़ाई करनेवाली एक विकलांग दलित लड़की सुमन को उसके घर में जिंदा जला देने की संस्कृति किस देश के हिस्से में आती है? गोहाना,मिर्चपुर में हुआ,वो देश का कौन सा हिस्सा है? 84 के दंगों में जिस गर्व करनेवाले हिन्दुओं ने सिक्खों के साथ जो कुछ किया वो किस देश का हिस्सा है जिसकी चर्चा जरनैल सिंह ने अपनी किताब कब कटेगी चौरासी में विस्तार से की है। मैं फिर कहता हूं पवन वर्मा जिस भारतीयता की बात करते हैं वो मध्यवर्ग की चोचलेबाजी को ही सांस्कृति नकल का हिस्सा मानकर डिफाइन करना भर है। संस्कृति को लेकर समाज में जो आये दिन टेंशन्स पनपते हैं, संस्कृति और तनाव एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं, वो सिरे से गायब है। ये सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि नास्टॉल्जिया का शिकार होने की वजह से हुआ है जो कि हिंदी भाषा के विश्लेषण में साफ तौर पर दिखाई देता है। *वो एक जगह* लिखते हैं कि एक सर्वे के मुताबिक जीटीवी के समाचार में 70 फीसदी शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं यानी कि चैनल ने हिंदी का कबाड़ा किया है। आगे कुछ पन्ने बढ़कर लिखते हैं कि टेलीविजन और सिनेमा ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया है यानी कि हिंदी के प्रसार में उसका योगदान है। ये परस्पर विरोधी बातें इसलिए आती हैं कि वो तय नहीं कर पाते हैं कि दरअसल हिंदी के विकास के ड्राइविंग फोर्स के रूप में कौन काम करते हैं। पवन वर्मा का कहना है कि ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग अपनी भाषा यानी हिंदी, बांग्ला… आदि का एक भी अखबार नहीं पढ़ते। इसे वो खुद भी साबित कर देते हैं, ये अलग बात है कि ये हिंदी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दिखाने से चूक हुई है। उन्होंने लिखा कि इस तरह की गड़बड़ियां अंग्रेजी के अखबार अक्सर किया करते हैं लेकिन देशी भाषा के अखबार नहीं करते। …ये कौन सा भाषाई प्रेम है जो कि गड़बड़ियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। एक-दो अखबारों को छोड़कर पवन वर्मा को कोई बताये कि अंधिकांश हिंदी अखबार, बाकी के बारे में जानकारी नहीं, किस तरह अंग्रेजी अखबारों की रिप्लिका बनने की छटपटाहट में होते हैं और आये दिन भारी गड़बड़ियां करते हैं। लेकिन पवन वर्मा का ये अतिरिक्त भारतीय और भाषाई प्रेम इसे देख नहीं पाता और वो हिंदी समाज की मनोदशा को ताड़ते हुए उन्हें खुश कर जाते हैं। *दरअसल* अंग्रेजी में एक छोटा ही सही लेकिन खिलाड़ी लेखक तेजी से उभर रहा है जिसने कि अब हिंदी भाषा और साहित्य के मसले पर अंग्रेजी में बात करनी शुरू कर दी है। इरादा साफ है कि ग्लोबल स्तर पर जब भी वर्नाकुलर, हिंदी भाषा और साहित्य की बात हो तो वो जाकर मलाई काटें और इधर टिपिकल हिंदी का लेखक और मास्टर त्रिवेणी, इंडिया हैबिटेट की बहसों और मानदेय में ही फंसा रह जाए। हिंदी समाज जिस अंग्रेजी लेखकों को अपने ऊपर किया गया एहसान समझ रहा है, वो दरअसल उसके स्पेस को पूरी तरह हाइजैक करने का मामला है। इस खेल में हरीश त्रिवेदी भी एक मंजे खिलाड़ी हैं और हिंदी नेशनलिज्म के बहाने अलोक राय की दावेदारी से हम सब परिचित हैं। हरीश त्रिवेदी जब हिंदी पर स्यापा करते हैं, तो वो इतना कलात्मक होता है कि हिंदी समाज अभिभूत हो उठता है लेकिन जैसे ही इसके विस्तार पर जश्न मनाने की बारी आती है, वो इसका क्रेडिट आजतक चैनल और विज्ञापनों को दे डालते हैं। ये खेल महीन है, इसलिए इसे समझने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगेगा लेकिन कायदे से अगर ये खेल समझ आ गया तो ये अकादमिक जगत की औपनिवेशिक, भूमंडलीकृत और सामंती मानसिकता एक कॉकटेल के तौर पर दिखाई देंगी। अभी हिंदी समाज को पवन वर्मा की भारतीयता की चिंता इसलिए रास आ रही है क्योंकि वो हिंदी समाज की छाती कूटने की अभ्यस्त आदतों से मेल खाती है। *इन तमाम* असहमतियों और सवालों के बीच एक बड़ा सवाल कि भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो की तर्ज पर ही दिखाई देता है, प्रतिरोध के जो छोटे-छोटे पॉकेट्स बने हैं और सक्रिय है, पवन वर्मा को उन सब पर बात करना क्यों जरूरी नहीं लगता? हम अपनी संस्कृति छोड़कर पाश्चात्य के नकलची बनते जा रहे हैं, ये सारी बातें अनुवाद के जरिये हिंदी के उन लोगों के बीच लाने की क्या जरूरत है, जो कि अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भारतीयता के टेढ़े-मेढ़े खांचे के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनके भीतर ये कॉम्प्लेक्स पैदा करने की कोशिश तो नहीं कि तुम जो हो पतित हो, घटिया हो, नकलची हो। ये नजरिया पवन वर्मा को एक एलीटिस्ट सोच में बंधे लेखक से क्यों अलग नहीं है, इसे खोजने की जरूरत है। जिसकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा रोज भारतीयता को जीते-ओढ़ते बीतता है, उसके आगे पवन वर्मा की भारतीयता क्यों एक ब्यूरोक्रेट की नसीहत से ज्यादा नहीं लगती? कहीं पवन कुमार वर्मा प्रशासन के डिक्टेटरशिप फार्मूले को अकादमिक जगत पर लागू तो नहीं कर रहे कि हम संहिता बना रहे हैं और तुम्हें उस हिसाब से जीना होगा? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Oct 31 11:12:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 31 Oct 2010 11:12:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSoIA==?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KWN4KSu4KS+IOCkleClgCDgpK3gpL7gpLDgpKTgpYDgpK8=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkquCkvuCktuCljeCkmuCkvuCkpOCljeCkryDgpLjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSc4KWN4KSv4KS+4KSm4KS+IOCkluCkpOCksOCkqOCkvuCklSDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWI?= Message-ID: मैंपवन कुमार वर्मा की किताब भारतीयता की ओर पढ़ने के बाद बहसतलब 6 में उन्हें इस नीयत से बिल्कुल सुनने नहीं गया था कि किताब पढ़ने के बाद जो कई सवाल मेरे मन में लगातार उठ रहे हैं, उसका समाधान वो करेंगे, उस पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन हां, इतनी बदतर उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी लंबी-चौड़ी टिप्पणी के बीच घुले कई सवालों को गौर से सुनने के बाद (गौर से सुना, ये उनके ही शब्द हैं) एक शायरी कहते हुए कहेंगे कि मुझे तो याद नहीं कि सवाल क्या थे? मैं वहां मौजूद लोगों और इस पोस्ट को पढ़नेवाले अपने तमाम लोगों से सॉरी कहता हूं कि मैंने बहुत अधिक वक्त लिया। शायद मुझे उतना अधिक नहीं बोलना चाहिए था लेकिन मैं कल लगभग समझिए कि बिफर गया। दिमाग में बस एक ही बात घूमती रही कि अगर इसी किताब को कोई हिंदी का लेखक लिखता तो क्या अंग्रेजी समाज और खुद हिंदी समाज उसे इस तरह से सिर पर बिठा लेता। यकीनन उनकी भारी फजीहत होती और आलोचना की पहली लाइन होती – ये एचएमटी (हिंदी मीडियम टाइप) लेखक अभी तक भारतीयता और पाश्‍चात्य के बीच एक वर्जिन स्पेस खोजने में लगे हैं। लेकिन नहीं, लोग वहां इस बात को लेकर गदगद हो रहे थे कि एक अंग्रेजी लेखक ने अंग्रेजी में लिखते हुए अंग्रेजी को गरियाकर हिंदी को बेहतर बताया है। ये भी एक किस्म की गुलाम मानसिकता है। पवन वर्मा के हिसाब से आज अगर ये देश अंग्रेजी की उपनिवेशवादी दबाब से मुक्त नहीं हुआ है तो वही पढ़े-लिखे लेकिन लोभ-लाभ में पड़े लोगों के बीच से सामंती चारण का संस्कार गया नहीं, बल्कि महीन तरीके से बरकरार है। इसलिए ये अकारण नहीं था कि जिस किताब में दुनियाभर के झोल हैं, कई तथ्यात्यमक गलतियां हैं, उस किताब को हाथोंहाथ लिये जाने के लिए जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिशें की गयीं। *मैंने* टिप्पणी क्या की थी, कुछ चालू जार्गन का इस्तेमाल करते हुए (जिसे नहीं भी किया जाता तो बात हो सकती थी) पवन कुमार वर्मा की समझ, नास्टैल्जिक होकर हिंदी, भारतीयता, ऐतिहासिक आदतों और अस्मिता के सवाल और जीवन शैलियों को बेहतर करार देने पर असहमति दर्ज की थी। ये असहमतियां बहसतलब से निकलने के बाद और मजबूत और तल्ख हुई है। किताब का एक अध्याय पढ़ने के बाद पवन वर्मा पर मैंने जो *मोहल्ला लाइव पर लिखा*, उस पर कुछ जो कमेंट आये, उसका मिजाज ये साफ तौर पर बताना था कि एक अध्याय पढ़कर लिखना सिर्फ अपने को चर्चा और पवन कुमार वर्मा से नजदीकियां बनाना भर है। दो दिन बाद जब पूरी किताब पढ़ी तो लगा कि इस पर और तल्खी से लिखे जा सकते हैं। *सवाल और* असहमतियां बहुत साफ हैं कि अगर पवन कुमार वर्मा को भारतीय अस्मिता की इतनी गहरी चिंता है तो उस अस्मिता के दायरे में स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता और आदिवासी अस्मिता (आदिवासी संस्कृति को अगर आप पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिहाज से देखें, तो सबसे बेहतर संस्कृति जान पड़ेगी) के सवाल क्यों नहीं आते? क्या ये अकारण है कि जब भी वो भारतीय संस्कृति और उसकी धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो उसमें हिंदू और उनके रीति-रिवाज एक-दूसरे से घुल-मिल जाते हैं और निष्कर्ष के तौर पर हिंदू संस्कृति, भारतीय संस्कृति का पर्याय के तौर पर दिखाई देते हैं। माफ कीजिएगा, गालिब पर किताब लिखकर और शुरुआती अध्याय में मुगलों के आने से कला के विस्तार की चर्चा करके पवन कुमार वर्मा को इस बात की कतई छूट नहीं मिल जाती कि आगे वो भारतीय संस्कृति पर बात करने के लिए हिंदू संस्‍कृति को हाइवे की तरह इस्तेमाल करें। ये नजरिया विभूति नारायण राय से अलग नहीं है, जो कि शहर में कर्फ्यू लिखने के बाद उसकी जिंदगी भर की कमाई जाति आधारित फैसले लेने और लेखिकाओं को जलील करने में लगाएं। लेखन कोई जाति प्रमाण पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है कि एक बार मिल जाने के बाद आप उसे हर फॉर्म के साथ चिपका दें। जैसे वहां रिन्यूअल की जरूरत होती है, लेखन में भी आपको लगातार उस स्टैंड को लेते हुए सक्रिय बने रहना होता है। *पवन वर्मा की* इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं प्रेम करना इस देश की अपनी स्वायत्त संस्कृति है तो फिर अलग से वेलेंटाइन डे की चोंचलेबाजी क्यों? सही बात है, लेकिन पवन वर्मा से सीधे तौर पर सवाल करें कि अगर प्रेम इस देश की संस्कृति है तो फिर ऑनर किलिंग किस देश की संस्कृति है? निरुपमा जैसी एक युवा पत्रकार का जाति के दबाब में जान लेना-देना किस देश की संस्कृति है? गर्व करने को मैं भी हिंदी के अपने उन तमाम कवियों पर गर्व कर सकता हूं, जिन्होंने प्रेम को लेकर कालजयी रचनाएं की लेकिन क्या मैं उन कवियों और आलाचकों पर गर्व कर सकता हूं जो इन कविताओं पर बात करते हुए, ऐसी कविताओं लिखते भार-विभोर हो उठते हैं जबकि दिल्ली से सटे मेरठ में प्रेमी की हत्या कर दी जाती है तो एक लाइन लिखना जरूरी नहीं समझते। इस तरह के झोल सिर्फ प्रेम को लेकर ही नहीं बल्कि भारतीयता की उन तमाम सर्किट में हैं, जिस पर कि पवन वर्मा को गर्व है। *पवन वर्मा का* कहना है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो ये देश धर्मनिरपेख है,यहां के हिन्दुओं ने धर्मांतरण का काम नहीं करवाया। इस देश की संस्कृति अगर उदार और सहोदर है,इसका पैमाना सिर्फ हिंदू बरक्स मुस्लिम,हिंदू बरक्स इसाई के तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्या? इस बात पर सवाल नहीं की जानी चाहिए कि खुद हिंदू अपने भीतर जाति,मान्यताओं,रिवाजों को लेकर एक-दूसरे क्यों इतना कट्टर है? अगर सामंजस्य हिन्दुओं की संस्कृति है तो इंटर में पढ़ाई करनेवाली एक विकलांग दलित लड़की सुमन को उसके घर में जिंदा जला देने की संस्कृति किस देश के हिस्से में आती है? गोहाना,मिर्चपुर में हुआ,वो देश का कौन सा हिस्सा है? 84 के दंगों में जिस गर्व करनेवाले हिन्दुओं ने सिक्खों के साथ जो कुछ किया वो किस देश का हिस्सा है जिसकी चर्चा जरनैल सिंह ने अपनी किताब कब कटेगी चौरासी में विस्तार से की है। मैं फिर कहता हूं पवन वर्मा जिस भारतीयता की बात करते हैं वो मध्यवर्ग की चोचलेबाजी को ही सांस्कृति नकल का हिस्सा मानकर डिफाइन करना भर है। संस्कृति को लेकर समाज में जो आये दिन टेंशन्स पनपते हैं, संस्कृति और तनाव एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं, वो सिरे से गायब है। ये सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि नास्टॉल्जिया का शिकार होने की वजह से हुआ है जो कि हिंदी भाषा के विश्लेषण में साफ तौर पर दिखाई देता है। *वो एक जगह* लिखते हैं कि एक सर्वे के मुताबिक जीटीवी के समाचार में 70 फीसदी शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं यानी कि चैनल ने हिंदी का कबाड़ा किया है। आगे कुछ पन्ने बढ़कर लिखते हैं कि टेलीविजन और सिनेमा ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया है यानी कि हिंदी के प्रसार में उसका योगदान है। ये परस्पर विरोधी बातें इसलिए आती हैं कि वो तय नहीं कर पाते हैं कि दरअसल हिंदी के विकास के ड्राइविंग फोर्स के रूप में कौन काम करते हैं। पवन वर्मा का कहना है कि ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग अपनी भाषा यानी हिंदी, बांग्ला… आदि का एक भी अखबार नहीं पढ़ते। इसे वो खुद भी साबित कर देते हैं, ये अलग बात है कि ये हिंदी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दिखाने से चूक हुई है। उन्होंने लिखा कि इस तरह की गड़बड़ियां अंग्रेजी के अखबार अक्सर किया करते हैं लेकिन देशी भाषा के अखबार नहीं करते। …ये कौन सा भाषाई प्रेम है जो कि गड़बड़ियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। एक-दो अखबारों को छोड़कर पवन वर्मा को कोई बताये कि अंधिकांश हिंदी अखबार, बाकी के बारे में जानकारी नहीं, किस तरह अंग्रेजी अखबारों की रिप्लिका बनने की छटपटाहट में होते हैं और आये दिन भारी गड़बड़ियां करते हैं। लेकिन पवन वर्मा का ये अतिरिक्त भारतीय और भाषाई प्रेम इसे देख नहीं पाता और वो हिंदी समाज की मनोदशा को ताड़ते हुए उन्हें खुश कर जाते हैं। *दरअसल* अंग्रेजी में एक छोटा ही सही लेकिन खिलाड़ी लेखक तेजी से उभर रहा है जिसने कि अब हिंदी भाषा और साहित्य के मसले पर अंग्रेजी में बात करनी शुरू कर दी है। इरादा साफ है कि ग्लोबल स्तर पर जब भी वर्नाकुलर, हिंदी भाषा और साहित्य की बात हो तो वो जाकर मलाई काटें और इधर टिपिकल हिंदी का लेखक और मास्टर त्रिवेणी, इंडिया हैबिटेट की बहसों और मानदेय में ही फंसा रह जाए। हिंदी समाज जिस अंग्रेजी लेखकों को अपने ऊपर किया गया एहसान समझ रहा है, वो दरअसल उसके स्पेस को पूरी तरह हाइजैक करने का मामला है। इस खेल में हरीश त्रिवेदी भी एक मंजे खिलाड़ी हैं और हिंदी नेशनलिज्म के बहाने अलोक राय की दावेदारी से हम सब परिचित हैं। हरीश त्रिवेदी जब हिंदी पर स्यापा करते हैं, तो वो इतना कलात्मक होता है कि हिंदी समाज अभिभूत हो उठता है लेकिन जैसे ही इसके विस्तार पर जश्न मनाने की बारी आती है, वो इसका क्रेडिट आजतक चैनल और विज्ञापनों को दे डालते हैं। ये खेल महीन है, इसलिए इसे समझने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगेगा लेकिन कायदे से अगर ये खेल समझ आ गया तो ये अकादमिक जगत की औपनिवेशिक, भूमंडलीकृत और सामंती मानसिकता एक कॉकटेल के तौर पर दिखाई देंगी। अभी हिंदी समाज को पवन वर्मा की भारतीयता की चिंता इसलिए रास आ रही है क्योंकि वो हिंदी समाज की छाती कूटने की अभ्यस्त आदतों से मेल खाती है। *इन तमाम* असहमतियों और सवालों के बीच एक बड़ा सवाल कि भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो की तर्ज पर ही दिखाई देता है, प्रतिरोध के जो छोटे-छोटे पॉकेट्स बने हैं और सक्रिय है, पवन वर्मा को उन सब पर बात करना क्यों जरूरी नहीं लगता? हम अपनी संस्कृति छोड़कर पाश्चात्य के नकलची बनते जा रहे हैं, ये सारी बातें अनुवाद के जरिये हिंदी के उन लोगों के बीच लाने की क्या जरूरत है, जो कि अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भारतीयता के टेढ़े-मेढ़े खांचे के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनके भीतर ये कॉम्प्लेक्स पैदा करने की कोशिश तो नहीं कि तुम जो हो पतित हो, घटिया हो, नकलची हो। ये नजरिया पवन वर्मा को एक एलीटिस्ट सोच में बंधे लेखक से क्यों अलग नहीं है, इसे खोजने की जरूरत है। जिसकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा रोज भारतीयता को जीते-ओढ़ते बीतता है, उसके आगे पवन वर्मा की भारतीयता क्यों एक ब्यूरोक्रेट की नसीहत से ज्यादा नहीं लगती? कहीं पवन कुमार वर्मा प्रशासन के डिक्टेटरशिप फार्मूले को अकादमिक जगत पर लागू तो नहीं कर रहे कि हम संहिता बना रहे हैं और तुम्हें उस हिसाब से जीना होगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pheeta.ram at gmail.com Sun Oct 31 11:21:25 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Sun, 31 Oct 2010 11:21:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS14KSo4KSc?= =?utf-8?b?4KWALOCkuOCkmiDgpK7gpYfgpIIg4KS54KSuIOCkreCkvuCksOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkqOClgOCkmiDgpJTgpLAg4KSo4KSV4KSy4KSa4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWI4KSCPw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: विनीत भाई की यही अदा हमें पसंद है: दो टूक, साफ़-साफ़ बात, बिना लगाईं-पुताई के ! ज़रा ध्यान दीजिए, किताब का कवर बहुत कुछ ज़ाहिर करता है: धोती-कुरता ! और विनीत भाई, बात रही पवन वर्मा से नजदीकियां बढ़ाने की तो यह अब जग-ज़ाहिर है की असल में कौन चुस्त कनेक्शन बनाने के लिये बहुत उछल-कूद करता है; नाम लेने की ज़रुरत नहीं ! हम आप से इसी सरीखे सटीक लेखों की आशा करते हैं ! फीता राम 2010/10/31 vineet kumar > मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive > > मैंपवन कुमार वर्मा की किताब भारतीयता की ओर पढ़ने के बाद बहसतलब 6 में > उन्हें इस नीयत से बिल्कुल सुनने नहीं गया था कि किताब पढ़ने के बाद जो कई सवाल > मेरे मन में लगातार उठ रहे हैं, उसका समाधान वो करेंगे, उस पर अपनी राय रखेंगे। > लेकिन हां, इतनी बदतर उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी लंबी-चौड़ी टिप्पणी के बीच > घुले कई सवालों को गौर से सुनने के बाद (गौर से सुना, ये उनके ही शब्द हैं) एक > शायरी कहते हुए कहेंगे कि मुझे तो याद नहीं कि सवाल क्या थे? मैं वहां मौजूद > लोगों और इस पोस्ट को पढ़नेवाले अपने तमाम लोगों से सॉरी कहता हूं कि मैंने > बहुत अधिक वक्त लिया। शायद मुझे उतना अधिक नहीं बोलना चाहिए था लेकिन मैं कल > लगभग समझिए कि बिफर गया। दिमाग में बस एक ही बात घूमती रही कि अगर इसी किताब को > कोई हिंदी का लेखक लिखता तो क्या अंग्रेजी समाज और खुद हिंदी समाज उसे इस तरह > से सिर पर बिठा लेता। यकीनन उनकी भारी फजीहत होती और आलोचना की पहली लाइन होती > – ये एचएमटी (हिंदी मीडियम टाइप) लेखक अभी तक भारतीयता और पाश्‍चात्य के बीच एक > वर्जिन स्पेस खोजने में लगे हैं। लेकिन नहीं, लोग वहां इस बात को लेकर गदगद हो > रहे थे कि एक अंग्रेजी लेखक ने अंग्रेजी में लिखते हुए अंग्रेजी को गरियाकर > हिंदी को बेहतर बताया है। ये भी एक किस्म की गुलाम मानसिकता है। पवन वर्मा के > हिसाब से आज अगर ये देश अंग्रेजी की उपनिवेशवादी दबाब से मुक्त नहीं हुआ है तो > वही पढ़े-लिखे लेकिन लोभ-लाभ में पड़े लोगों के बीच से सामंती चारण का संस्कार > गया नहीं, बल्कि महीन तरीके से बरकरार है। इसलिए ये अकारण नहीं था कि जिस किताब > में दुनियाभर के झोल हैं, कई तथ्यात्यमक गलतियां हैं, उस किताब को हाथोंहाथ > लिये जाने के लिए जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिशें की गयीं। > > *मैंने* टिप्पणी क्या की थी, कुछ चालू जार्गन का इस्तेमाल करते हुए (जिसे > नहीं भी किया जाता तो बात हो सकती थी) पवन कुमार वर्मा की समझ, नास्टैल्जिक > होकर हिंदी, भारतीयता, ऐतिहासिक आदतों और अस्मिता के सवाल और जीवन शैलियों को > बेहतर करार देने पर असहमति दर्ज की थी। ये असहमतियां बहसतलब से निकलने के बाद > और मजबूत और तल्ख हुई है। किताब का एक अध्याय पढ़ने के बाद पवन वर्मा पर मैंने > जो *मोहल्ला लाइव पर लिखा*, > उस पर कुछ जो कमेंट आये, उसका मिजाज ये साफ तौर पर बताना था कि एक अध्याय पढ़कर > लिखना सिर्फ अपने को चर्चा और पवन कुमार वर्मा से नजदीकियां बनाना भर है। दो > दिन बाद जब पूरी किताब पढ़ी तो लगा कि इस पर और तल्खी से लिखे जा सकते हैं। > > *सवाल और* असहमतियां बहुत साफ हैं कि अगर पवन कुमार वर्मा को भारतीय अस्मिता > की इतनी गहरी चिंता है तो उस अस्मिता के दायरे में स्त्री अस्मिता, दलित > अस्मिता और आदिवासी अस्मिता (आदिवासी संस्कृति को अगर आप पर्यावरण और > पारिस्थितिकी के लिहाज से देखें, तो सबसे बेहतर संस्कृति जान पड़ेगी) के सवाल > क्यों नहीं आते? क्या ये अकारण है कि जब भी वो भारतीय संस्कृति और उसकी > धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो उसमें हिंदू और उनके रीति-रिवाज एक-दूसरे से > घुल-मिल जाते हैं और निष्कर्ष के तौर पर हिंदू संस्कृति, भारतीय संस्कृति का > पर्याय के तौर पर दिखाई देते हैं। माफ कीजिएगा, गालिब पर किताब लिखकर और > शुरुआती अध्याय में मुगलों के आने से कला के विस्तार की चर्चा करके पवन कुमार > वर्मा को इस बात की कतई छूट नहीं मिल जाती कि आगे वो भारतीय संस्कृति पर बात > करने के लिए हिंदू संस्‍कृति को हाइवे की तरह इस्तेमाल करें। ये नजरिया विभूति > नारायण राय से अलग नहीं है, जो कि शहर में कर्फ्यू लिखने के बाद उसकी जिंदगी भर > की कमाई जाति आधारित फैसले लेने और लेखिकाओं को जलील करने में लगाएं। लेखन कोई > जाति प्रमाण पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है कि एक बार मिल जाने के बाद आप > उसे हर फॉर्म के साथ चिपका दें। जैसे वहां रिन्यूअल की जरूरत होती है, लेखन में > भी आपको लगातार उस स्टैंड को लेते हुए सक्रिय बने रहना होता है। > > *पवन वर्मा की* इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं प्रेम करना इस देश की अपनी > स्वायत्त संस्कृति है तो फिर अलग से वेलेंटाइन डे की चोंचलेबाजी क्यों? सही बात > है, लेकिन पवन वर्मा से सीधे तौर पर सवाल करें कि अगर प्रेम इस देश की संस्कृति > है तो फिर ऑनर किलिंग किस देश की संस्कृति है? निरुपमा जैसी एक युवा पत्रकार का > जाति के दबाब में जान लेना-देना किस देश की संस्कृति है? गर्व करने को मैं भी > हिंदी के अपने उन तमाम कवियों पर गर्व कर सकता हूं, जिन्होंने प्रेम को लेकर > कालजयी रचनाएं की लेकिन क्या मैं उन कवियों और आलाचकों पर गर्व कर सकता हूं जो > इन कविताओं पर बात करते हुए, ऐसी कविताओं लिखते भार-विभोर हो उठते हैं जबकि > दिल्ली से सटे मेरठ में प्रेमी की हत्या कर दी जाती है तो एक लाइन लिखना जरूरी > नहीं समझते। इस तरह के झोल सिर्फ प्रेम को लेकर ही नहीं बल्कि भारतीयता की उन > तमाम सर्किट में हैं, जिस पर कि पवन वर्मा को गर्व है। > > *पवन वर्मा का* कहना है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो ये देश धर्मनिरपेख > है,यहां के हिन्दुओं ने धर्मांतरण का काम नहीं करवाया। इस देश की संस्कृति अगर > उदार और सहोदर है,इसका पैमाना सिर्फ हिंदू बरक्स मुस्लिम,हिंदू बरक्स इसाई के > तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्या? इस बात पर सवाल नहीं की जानी चाहिए कि खुद > हिंदू अपने भीतर जाति,मान्यताओं,रिवाजों को लेकर एक-दूसरे क्यों इतना कट्टर है? > अगर सामंजस्य हिन्दुओं की संस्कृति है तो इंटर में पढ़ाई करनेवाली एक विकलांग > दलित लड़की सुमन को उसके घर में जिंदा जला देने की संस्कृति किस देश के हिस्से > में आती है? गोहाना,मिर्चपुर में हुआ,वो देश का कौन सा हिस्सा है? 84 के दंगों > में जिस गर्व करनेवाले हिन्दुओं ने सिक्खों के साथ जो कुछ किया वो किस देश का > हिस्सा है जिसकी चर्चा जरनैल सिंह ने अपनी किताब कब कटेगी चौरासी में विस्तार > से की है। मैं फिर कहता हूं पवन वर्मा जिस भारतीयता की बात करते हैं वो > मध्यवर्ग की चोचलेबाजी को ही सांस्कृति नकल का हिस्सा मानकर डिफाइन करना भर है। > संस्कृति को लेकर समाज में जो आये दिन टेंशन्स पनपते हैं, संस्कृति और तनाव > एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं, वो सिरे से गायब है। ये सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि > नास्टॉल्जिया का शिकार होने की वजह से हुआ है जो कि हिंदी भाषा के विश्लेषण में > साफ तौर पर दिखाई देता है। > > *वो एक जगह* लिखते हैं कि एक सर्वे के मुताबिक जीटीवी के समाचार में 70 फीसदी > शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं यानी कि चैनल ने हिंदी का कबाड़ा किया > है। आगे कुछ पन्ने बढ़कर लिखते हैं कि टेलीविजन और सिनेमा ने हिंदी को लोकप्रिय > बनाया है यानी कि हिंदी के प्रसार में उसका योगदान है। ये परस्पर विरोधी बातें > इसलिए आती हैं कि वो तय नहीं कर पाते हैं कि दरअसल हिंदी के विकास के ड्राइविंग > फोर्स के रूप में कौन काम करते हैं। पवन वर्मा का कहना है कि ऊंचे ओहदे पर बैठे > लोग अपनी भाषा यानी हिंदी, बांग्ला… आदि का एक भी अखबार नहीं पढ़ते। इसे वो खुद > भी साबित कर देते हैं, ये अलग बात है कि ये हिंदी के प्रति अतिरिक्त प्रेम > दिखाने से चूक हुई है। उन्होंने लिखा कि इस तरह की गड़बड़ियां अंग्रेजी के > अखबार अक्सर किया करते हैं लेकिन देशी भाषा के अखबार नहीं करते। …ये कौन सा > भाषाई प्रेम है जो कि गड़बड़ियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। एक-दो > अखबारों को छोड़कर पवन वर्मा को कोई बताये कि अंधिकांश हिंदी अखबार, बाकी के > बारे में जानकारी नहीं, किस तरह अंग्रेजी अखबारों की रिप्लिका बनने की छटपटाहट > में होते हैं और आये दिन भारी गड़बड़ियां करते हैं। लेकिन पवन वर्मा का ये > अतिरिक्त भारतीय और भाषाई प्रेम इसे देख नहीं पाता और वो हिंदी समाज की मनोदशा > को ताड़ते हुए उन्हें खुश कर जाते हैं। > > *दरअसल* अंग्रेजी में एक छोटा ही सही लेकिन खिलाड़ी लेखक तेजी से उभर रहा है > जिसने कि अब हिंदी भाषा और साहित्य के मसले पर अंग्रेजी में बात करनी शुरू कर > दी है। इरादा साफ है कि ग्लोबल स्तर पर जब भी वर्नाकुलर, हिंदी भाषा और साहित्य > की बात हो तो वो जाकर मलाई काटें और इधर टिपिकल हिंदी का लेखक और मास्टर > त्रिवेणी, इंडिया हैबिटेट की बहसों और मानदेय में ही फंसा रह जाए। हिंदी समाज > जिस अंग्रेजी लेखकों को अपने ऊपर किया गया एहसान समझ रहा है, वो दरअसल उसके > स्पेस को पूरी तरह हाइजैक करने का मामला है। इस खेल में हरीश त्रिवेदी भी एक > मंजे खिलाड़ी हैं और हिंदी नेशनलिज्म के बहाने अलोक राय की दावेदारी से हम सब > परिचित हैं। हरीश त्रिवेदी जब हिंदी पर स्यापा करते हैं, तो वो इतना कलात्मक > होता है कि हिंदी समाज अभिभूत हो उठता है लेकिन जैसे ही इसके विस्तार पर जश्न > मनाने की बारी आती है, वो इसका क्रेडिट आजतक चैनल और विज्ञापनों को दे डालते > हैं। ये खेल महीन है, इसलिए इसे समझने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगेगा लेकिन > कायदे से अगर ये खेल समझ आ गया तो ये अकादमिक जगत की औपनिवेशिक, भूमंडलीकृत और > सामंती मानसिकता एक कॉकटेल के तौर पर दिखाई देंगी। अभी हिंदी समाज को पवन वर्मा > की भारतीयता की चिंता इसलिए रास आ रही है क्योंकि वो हिंदी समाज की छाती कूटने > की अभ्यस्त आदतों से मेल खाती है। > > *इन तमाम* असहमतियों और सवालों के बीच एक बड़ा सवाल कि भारतीयता और भारतीय > संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये > किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ > छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ > रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की > कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच > भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो > बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो > की तर्ज पर ही दिखाई देता है, प्रतिरोध के जो छोटे-छोटे पॉकेट्स बने हैं और > सक्रिय है, पवन वर्मा को उन सब पर बात करना क्यों जरूरी नहीं लगता? हम अपनी > संस्कृति छोड़कर पाश्चात्य के नकलची बनते जा रहे हैं, ये सारी बातें अनुवाद के > जरिये हिंदी के उन लोगों के बीच लाने की क्या जरूरत है, जो कि अपनी लाख कोशिशों > के बावजूद भारतीयता के टेढ़े-मेढ़े खांचे के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनके > भीतर ये कॉम्प्लेक्स पैदा करने की कोशिश तो नहीं कि तुम जो हो पतित हो, घटिया > हो, नकलची हो। ये नजरिया पवन वर्मा को एक एलीटिस्ट सोच में बंधे लेखक से क्यों > अलग नहीं है, इसे खोजने की जरूरत है। जिसकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा रोज > भारतीयता को जीते-ओढ़ते बीतता है, उसके आगे पवन वर्मा की भारतीयता क्यों एक > ब्यूरोक्रेट की नसीहत से ज्यादा नहीं लगती? 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URL: From mediamorcha at gmail.com Sun Oct 3 10:37:22 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Sun, 03 Oct 2010 05:07:22 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLDgpL/gpKTgpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkl+CljOCksOCktSDgpJXgpY3gpLDgpYLgpKrgpL7gpJU=?= =?utf-8?q?=E0=A4=B0=E0=A4=A3_and_Force_of_faith_trumps_law_and_rea?= =?utf-8?q?son_in_Ayodhya_case_=2E=2ERead_more=2E=2E=2Eon_www=2Emed?= =?utf-8?b?aWFtb3JjaGEuY28uaW4u?= Message-ID: Posted on October 3 2010 Read more... बिहार की पत्रकारिता के गौरव क्रूपाकरण [image: बिहार की पत्रकारिता के गौरव क्रूपाकरण] पटना / खबर / बिहार से एक हजार किलोमीटर से ज्यादा दूर पांडिचेरी में जन्मे पी॰के॰ क्रूपाकरण (पांडिचेरी कनक सभापति क्रूपाकरण) ने बिहार और बिहार की पत्रकारिता को अपनी जिंदगी क्यों दे दी? एक तमिल भाषी, अंग्रेजी पत्रकार ने क्यों बिहार की धरती, बिहार की भाषा, बिहार की संस्कृति को इतनी तरजीह दी? बिहार के ... 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Posted on October 1 2010 Read more... अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद और विश्व हिंदी सेवा सम्मान अलंकरण समारोह उज्जैन में [image: अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद और विश्व हिंदी सेवा सम्मान अलंकरण समारोह उज्जैन में] *उज्जैन* / खबर/ .हिन्दी दिवस के अवसर पर उज्जैन में अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद और विश्व हिंदी सेवा सम्मान अलंकरण समारोह का आयोजन हुआ। परिसंवाद‘विश्व पटल पर हिन्दी का बदलता स्वरूप’ पर एकाग्र था । इस मौके पर उत्कृष्ट हिंदी सेवा के लिए देश दुनिया के अनेक साहित्यकार,संस्कृतिकर्मी और हिंदीसेवियों को विश्व हिंदी सेवासम्मान से विभूषित ... Posted on September 30 2010 Read more... अखबार [image: अखबार] कविता / जितेन्द्र कुमार सोनी "प्रयास" सुबह का अखबार रंगा होता है खून से अक्षर पोतते हैं कालिख इंसानियत पर और छपे चित्र दिखाते हैं नंगा नाच हैवानियत का ! सुर्खियाँ अक्सर दिखाती हैं लाशों का ढ़ेर निर्दोष का लहू पसरा सन्नाटा ! चाहा था पढ़कर जाने जहां की नई सुकून - ओ - अमन की बातें पर मिली एक ग्लानि दिल का ... Posted on September 28 2010 Read more... हिन्दी यूएनओ की भाषा बने – अनिरूद्ध जगन्नाथ, राष्ट्रपति, मारीशस [image: हिन्दी यूएनओ की भाषा बने – अनिरूद्ध जगन्नाथ, राष्ट्रपति, मारीशस]रायपुर। खबर/ मारीशस के राष्ट्रपति श्री अनिरूद्ध जगन्नाथ ने कहा कि छत्तीसगढ़, भारत की साहित्यिक संस्था सृजन सम्मान द्वारा विश्वभर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार, साहित्यकारों का सम्मान एवं हिन्दी की जो सेवा की जा रही है वह प्रशंसनीय है। उन्होंने कहा कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाओं में सम्मिलित करने का प्रयास करना ... Posted on September 27 2010 Read more... एनबीटी मुम्बई के सम्पादक शचींद्र को पत्रकारिता पुरस्कार [image: एनबीटी मुम्बई के सम्पादक शचींद्र को पत्रकारिता पुरस्कार] खबर/मुबई। शचींद्र त्रिपाठी भाषा, भाव और विचार से समृद्ध उच्चकोटि के पत्रकार है। मूल्यों के प्रति समर्पित शचींद्र त्रिपाठी के पास अपना नज़रिया और अपना दृष्टिकोण है। तीस साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया मुम्बई के लोकप्रिय हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स में उपसम्पादक के रूप में शुरू हुई उनकी यात्रा आज स्थानीय सम्पादक के रूप ... Posted on September 26 2010 Read more... बिहार के मुसलमान राजनीति में हिस्सेदारी [image: बिहार के मुसलमान राजनीति में हिस्सेदारी] ( प्रख्यात पत्रकार श्रीकांत की सद्यः प्रकाशित पुस्तिका “ बिहार के मुसलमान राजनीति में हिस्सेदारी ” की राजनीति और मीडिया में खूब चर्चा है , पाठकों के लिए यहां पुस्तिका प्रस्तुत है – संपादक) बिहार के मुसलमान राजनीति में हिस्सेदारी 243 विधानसभा क्षेत्रों में आबादी श्रीकांत भूमिका बिहार में मुस्लिम समुदाय की आबादी और राजनीतिक स्थिति को लेकर ... Posted on September 25 2010 Read more... नहीं रहे साहित्यकार – पत्रकार कन्हैयालाल नंदन [image: नहीं रहे साहित्यकार – पत्रकार कन्हैयालाल नंदन] नयी दिल्ली / खबर। जाने माने साहित्यकार - पत्रकार कन्हैयालाल नंदन का आज 25 सितंबर को तड़के नयी दिल्ली में निधन हो गया। वह 77 वर्ष के थे। उन्हें बुधवार शाम रक्तचाप कम होने और साँस लेने में तकलीफ़ होने के बाद रॉकलैंड अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उन्होंने आज तडके तीन बजकर ... Posted on September 25 2010 Read more... हां,मैने ख़बरों को करीब से देखा है [image: हां,मैने ख़बरों को करीब से देखा है] कविता / नवीन देवांगन हां,मैने ख़बरों को करीब से देखा है कलम और स्याही के दम को देखा है ख़बर जो होती है समाज का आईना मैने उस आईने में ख़बरों को सिसकते देखा है जिसे कहते है लोकतंत्र का चौथा खंबा उसी खंबे को मैने अक्सर दरकते देखा है न आता है एतबार अब इन ख़बरों पर इन ख़बरों को मैने तिज़ोरी ... -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: