From vineetdu at gmail.com Mon Nov 1 13:28:08 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 1 Nov 2010 13:28:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkpuCksOCkheCkuOCksiDgpIXgpKwg4KSF4KSq4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSnIOCkleCkviDgpI/gpJUg4KSU4KSc4KS+4KSwIOCkrOCkqCDgpJc=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: *कल बीजेपी के गुंडों ने अरुंधती के घर पर हमला किया। उस वक्‍त मीडिया के कैमरे हमले को लाइव कवर करने के लिए पहले से तैनात थे। आज द हिंदू में अरुंधती ने इस हादसे के बारे में रिपोर्ट की है। वह रिपोर्ट हम हिंदी में आपलोगों को पढ़ा रहे हैं। उनकी रिपोर्टिंग की भाषाई सरहद को मिटाने का काम किया है युवा मीडिया विश्‍लेषकविनीत कुमार ने। उनका शुक्रिया : मॉडरेटर* *A flower pot lies broken at the residence of writer Arundhati Roy at Kautilya Marg in New Delhi on Sunday, after a protest by BJP Mahila Morcha activists. Photo: RV Moorthy* 31अक्टूबर की सुबह 11 बजे करीब सौ लोगों की उत्पाती भीड़ मेरे घर पहुंची। दरवाजे को भेदते हुए अंदर घुसी और जमकर तोड़-फोड़ मचाया। सामने जो चीजें पड़ी मिलीं, उसे तहस-नहस किया। कश्मीर मामले पर मैंने जो अपने बयान दिये हैं, उसके विरोध में वो जमकर नारे लगा रहे थे और हमें सबक सिखाने की बात कह रहे थे। टाइम्स नाउ, एनडीटीवी और हिंदी न्यूज चैनल न्यूज 24 के ओबी वैन इस उत्पात को लाइव कवर करने के लिए पहले से ही तैनात नजर आये। टीवी में जो रिपोर्ट आये, उनके मुताबिक इसमें बड़ी संख्या में बीजेपी की महिला मोर्चा के लोग शामिल थे। जब वो लोग चले गये, तो पुलिसवालों ने हमें सलाह दी कि आगे से जब भी हमें चैनलों के ओबी वैन आसपास दिखाई दें, तो इसकी जानकारी हमें दें। ऐसा इसलिए क्योंकि ओबी वैन इस बात का संकेत देते हैं कि अगर वो हैं तो उसके पीछ जरूर रास्ते में भीड़ (उत्पात मचानेवाली) होगी। इसी साल के जून महीने में पीटीआई की एक झूठी खबर (जिसे कि तमाम अखबारों ने छापा) के बाद मोटरसाइकिल पर सवार दो लोगों ने मेरे घर की खिड़कियों पर पत्थरबाजी करने की कोशिश की। तब भी टेलीविजन के कैमरामैन साथ थे। *इस तरह का हंगामा* मचानेवाली उत्पाती भीड़, तमाशा पैदा करनेवाले इन लोगों और इस तरह के मीडिया के बीच का जो सांठ-गांठ है, आखिर उसका चरित्र कैसा है? इस तरह के तमाशे के बीच मीडिया अपनी भूमिका जिस तरह से एडवांस के तौर पर निर्धारित करता है, क्या वो इस बात की गारंटी दे सकता है कि जो भी विरोध प्रदर्शन और हमले होंगे, वो अहिंसक होंगे? अगर इस तरह से आपराधिक सक्रियता बनती है, हंगामे किये जाते हैं जैसा कि आज हुआ, इससे भी बदतर हो सकते हैं – तो क्या हम मानकर चलें कि मीडिया दरअसल अब अपराध का ही एक औजार बन गया है। ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ टीवी चैनल और अखबार बड़ी ही बेशर्मी और ढिठाई से लोगों को मेरे खिलाफ उकसाने में सक्रिय हैं। खबरों में सनसनी पैदा करने की उनकी आपसी छटपटाहट और अंधी दौड़ ने खबर देने और खबर पैदा करने के बीच के फर्क को ब्लर कर दिया है, खत्म कर दिया है। इनके लिए फिर क्या फर्क पड़ता है, अगर इस टीआरपी की बेदी पर कुछ लोगों की बलि चढ़ जाती है? *सरकार की तरफ से* जब इस बात के संकेत मिले कि कश्मीर मसले पर मैंने और दूसरे वक्ताओं ने *कश्मीर के लिए आजादी* विषयक सेमिनार में जो कुछ भी कहा, अपने वक्तव्य दिये, उसके आधार पर हमारे ऊपर राजद्रोह का मामला नहीं बनने जा रहा है, तब मुझे मेरी अपनी अभिव्यक्ति के लिए दंडित किये जाने का जिम्मा दक्षिणपंथी हंगामा माचनेवाले अगुआइयों ने अपने ऊपर ले लिया। बजरंग दल और आरएसएस के लोगों ने खुलेआम एलान किया है कि वो मुझे निबटाने (to fix me) जा रहे हैं। इस निबटा देने में देशभर में मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने से लेकर बाकी तमाम बातें भी शामिल हैं। पूरे देश ने देखा है कि वो क्या कर सकते हैं और कहां तक जा सकते हैं? इसलिए अब जब सरकार कुछ हद तक मैच्योरिटी दिखा रही है, ऐसे में क्‍या मीडिया और लोकतंत्र की मशीनरी ऐसे लोगों के हाथों भाड़े का टट्टू बनने जा रही है, जो कि उपद्रवी भीड़ के न्याय में यकीन रखते हैं। मैं समझ सकती हूं कि बीजेपी की महिला मोर्चा मुझ पर हमला करके इसका इस्तेमाल लोगों का ध्यान आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ता इन्द्रेश कुमार की तरफ से हटाने के लिए कर रही है, जिनका नाम अजमेरशरीफ में हुए बम ब्लास्ट, जिसमें कि कई लोगों की जानें गयीं और जख्मी हुए, में सीबीआई की चार्टशीट में शामिल है। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया का ये गुट ठीक यही काम क्यों कर रहा है? क्या इस देश में एक लेखक का औरों से अलग विचार, बम ब्लास्ट के आरोप में फंसे व्यक्ति से ज्यादा खतरनाक है? या फिर विचारधारा के स्तर पर इन सबका एक ही कतार में खड़े हो जाना है। *[image: arundhati roy](अरुंधती रॉय। अभिनेत्री। लेख‍िका। नॉवेल द गॉड ऑफ स्‍मॉल थिंग्‍स को 1997 में बुकर सम्‍मान।मैसी साहब और ऐनी फिल्‍म में मुख्‍य अभिनेत्री। द एलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस निबंध संग्रह ख़ासी चर्चा में रहा, जिसमें समय-समय पर लिखे गये आलेख संकलित हैं। विभिन्‍न जनांदोलनों में भागीदारी।)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Nov 2 11:39:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 2 Nov 2010 11:39:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KWB4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkpOCkv+Cksi3gpKTgpL/gpLIg4KSc4KSy4KS+4KSV4KSw?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpJXgpYsg4KSw4KWL4KS24KSoIOCkleCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+?= Message-ID: कुछ लोग जीते जी समाज के लिए प्रेरणा बन जाते हैं। वे अपने दुखों के लिए ईश्वर को नहीं कोसते, वे कर्म में विश्वास रखते हैं। ऐसे ही कुछ लोगों से आप इस आलेख में मुलाकात कर सकते हैं, जिन्होंने अपनी विकलांगता को कभी दूसरों की सहानुभूति की वजह नहीं बनने दिया, बल्कि अपने परिश्रम से लोगों के लिए मिसाल बने। पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Nov 2 11:39:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 2 Nov 2010 11:39:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KWB4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkpOCkv+Cksi3gpKTgpL/gpLIg4KSc4KSy4KS+4KSV4KSw?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpJXgpYsg4KSw4KWL4KS24KSoIOCkleCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+?= Message-ID: कुछ लोग जीते जी समाज के लिए प्रेरणा बन जाते हैं। वे अपने दुखों के लिए ईश्वर को नहीं कोसते, वे कर्म में विश्वास रखते हैं। ऐसे ही कुछ लोगों से आप इस आलेख में मुलाकात कर सकते हैं, जिन्होंने अपनी विकलांगता को कभी दूसरों की सहानुभूति की वजह नहीं बनने दिया, बल्कि अपने परिश्रम से लोगों के लिए मिसाल बने। पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Nov 3 13:30:39 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 3 Nov 2010 13:30:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCklSDgpK7gpL7gpLAg4KSw4KS54KS+IOCkueCliCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSa4KS+4KSwNOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: कॉर्पोरेट मीडिया और टेलीविजन चैनलों के बीच समाचार4मीडिया की अपनी एक खास पहचान है। वो इनमें शामिल लोगों को अच्छा-खासा स्पेस देता आया है। तथाकथित नामचीन मीडियाकर्मी इस पर अपनी तस्वीर,इंटरव्यू या कोई खबर आने पर इसके लिंक शान से फेसबुक पर साझा करते हैं,मेल के जरिए लोगों को पढ़ने का अनुरोध करते हैं। कुल मिलाकर मीडिया इन्डस्ट्री में ये वेबसाइट एक ब्रांड है। अभी इस वेबसाइट के आए एक साल भी नहीं हुए लेकिन मीडिया से जुड़े लोगों के बीच इसने अपनी एक खास पहचान बना ली है। खासकर उनलोगों के बीच जो मीडिया को माध्यम से कहीं ज्यादा बिजनेस परफार्मेंस का हिस्सा मानते हैं। समाचार4मीडिया को इतने कम समय में जो पहचान मिली है उसकी बड़ी वजह उसकी खुद की कोशिश से कहीं ज्यादा exchange4media से विरासत के तौर पर मिली नेटवर्किंग है। बहरहाल मीडिया इन्डस्ट्री के उपर के लेबल के गिने-चुने लोगों के बीच भले ही इसकी बेहतर पहुंच हो,बिजनेस परफॉर्मेंस में यकीन में रखनेवाले लोग इस साइट से अपने को नाक का सवाल जोड़कर देखते हों लेकिन आम इंटरनेट पाठकों, ब्लॉगरों और मीडिया की खबरों की जानकारी रखनेवाले लोगों के बीच इस साइट की कोई खास पहचान नहीं है। न तो लोग इसे रेगुलर पढ़ते हैं और न ही इसे अपनी मीडिया बहसों में शामिल करते हैं। इसकी बड़ी वजह है कि ये साइट मीडिया के मसलों पर बात करते हुए भी,उसकी खबरें छापते हुए भी उसके भीतर के सवालों को उठाने के बजाय उसकी पीआरगिरी में यकीन रखता है। मैंने कई बार महसूस किया कि उसने चैनलों औऱ मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर जब कई ऐसे मामले आए जिसमें कि उसके लिए काम करनेवाले लोगों के पक्ष सामने आने चाहिए ,इस साइट ने इसे या तो पूरी तरह नजरअंदाज किया या फिर चैनल के आलाकमान की राय छापी। ये शायद सबसे बड़ी वजह है कि मीडिया के सामान्य स्तर के मीडियाकर्मी इसे कभी भी अपनी साइट नहीं मानते। ये मीडिया मालिकों और आकाओं की साइट है,मीडियाकर्मियों की नहीं। दूसरी तरफ मीडिया में दिलचस्पी रखनेवाले सामान्य इंटरनेट पाठक इस साइट पर रेगुलर नहीं आते,इसकी बड़ी वजह है कि ये उन्हें प्रेस रिलीज का अड्डा से ज्यादा कुछ नहीं लगता। इंटरव्यू भी आते हैं तो वो जानकारी कम,पीआरगिरी ज्यादा होती है। अगर पाठक को यहां आकर मीडिया के नाम पर वही सबकुछ पने को मिले तो कोई फिर चैनल या संबंद्ध मीडिया संस्थान की ऑफिशियल साइट पर जाकर क्यों न पढ़े। वैसे भी जो पाठक आए दिन मीडिया की गड़बड़ियों और भारी घपले से त्रस्त है,उसके बारे में चारण-चर्चा किए जाने पर भला कैसे रास आएगी? इसलिए अगर ये साइट लाखों रुपये खर्च इसकी पहुंच और आमलोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए करती भी है तो ये अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर पाएगी। इसकी बड़ी वजह है कि ये पूरी तरह से मीडिया को लेकर अनक्रिटिकल साइट है। खैर हम इस साइट के अनक्रिटिकल और पीआरगिरी करने को लेकर यहां कोई सवाल खड़ी नहीं कर रहे। हमें पता है कि इस साइट की गर्दन लाखों रुपये की बिजनेस डील और विज्ञापन के बीच फंसी है। ऐसे में वो पीआरगिरी नहीं करेगी तो क्या करेगी? जिस मीडिया इन्डस्ट्री से इसके लिए धनवर्षा हो रही है,उस मीडिया को लेकर वो क्रिटिकल कैसे हो सकती है? ये उसकी अपनी समझ,बिजनेस पॉलिसी और मजबूरी है औऱ हो सकती है। हम यहां इससे अलग बिल्कुल दूसरी बात कर रहे हैं। मीडिया की समीक्षा और उसकी आलोचना के लिए वर्चुअल स्पेस की अपनी दुनिया है जहां कई ऐसी वेबसाइट, ब्लॉग्स और फोरम बेबाक तरीके से अपनी बात रख रहे हैं। उनके आगे न तो कोई बिजनेस को लेकर मजबूरी है और न ही खेल खराब हो जाने की चिंता। समाचार4मीडिया की इन फोरम पर लगातार नजर बनी हुई है। अब उसने शुरु क्या किया है कि इन फोरम से माल उड़ाकर अपनी साइट पर छापना शुरु किया है। इससे उसे दो स्तर पर सीधा फायदा हो रहा है। एक तो मुफ्त में उसे बेहतर और काम के कंटेंट मिल जा रहे हैं,उसके लिए एक पैसा भी भुगतान नहीं करना पड़ रहा और दूसरा कि अगर किसी पोस्ट में कोई किसी चैनल के खिलाफ भी लिखता है तो उसका पूरा ठिकरा वो लिखनेवाले पर फोड़कर हाथ खड़ी कर देगा।.इधर थोड़ा क्रिटिकल होने की जो कमी है,उसकी भी भरपाई हो जाएगी। इसी नीयत से अभी साइट ने रवीश कुमार की पोस्ट- हिन्दी न्यूज चैनलों की घड़ी ठीक हो गयी क्या? को अपनी साइट पर छापा। इतना ही नहीं साभार के साथ संपर्क भी दे डाला। बदले में उसने इसकी जानकारी न तो रवीश कुमार को दी और न ही पहले अनुमति ली और मुझे नहीं लगता कि इसके लिए उन्हें कुछ भुगतान ही किया होगा? यहां पर आकर कोई तर्क दे सकता है कि इंटरनेट में किसी का कुछ नहीं है,एक बार चीजें सार्वजनिक हुई नहीं कि आपका उस पर से कंट्रोव गया। सही बात है, लेकिन सवाल दूसरा है। सवाल ये कि कोई बिजनेस फोरम करोड़ों रुपये खर्च करता है,कंटेंट जेनरेट करनेवालों के लिए अलग से बजट रखता है और अब फ्री की सामग्री साभार छापता है तो इस पर बात होनी चाहिए कि नहीं? ऐसे में जो लेखक अपने ब्लॉग पर लिख रहा है,उसे यहां छपने का क्या लाभ मिलेगा? अगर साइट को फ्री की ही सामग्री छापकर अपनी दूकान चलानी है तो क्या वो इसकी चर्चा अपनी बैलेंस शीट में करेगा? मुझे याद है कि समाचार4मीडिया ने साइट लांच होने के पहले हम जैसे लोग जो कि इंटरनेट लेखन में कुछ ज्यादा ही सक्रिय है-मेल भेजा कि आप हमारी साइट के लिए लिखना चाहते हैं तो लिखें। मुझे इसमें दिलचस्पी नहीं थी सो हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन जो कुछ लोगों ने लिखना शुरु किया,हमें जानकारी मिली कि उसके लिए वो भुगतान करेंगे।..अब सवाल है कि तो इसी साइट पर अगर वो किसी का कहीं से कुछ लेकर छापते हैं तो वो लेखक भुगतान के दायरे में क्यों नहीं आता? इस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। इस पूरे मामले में मेरी अपनी समझ है कि समाचार4मीडिया पूरी तरह बिजनेस करनेवाली साइट है इसलिए उसका चरित्र पूरी तरह बिजनेस के हिसाब से ही निर्धारित होते हैं। ऐसे में अगर वो फ्री में उठाकर सामग्री छापती है औऱ गैरव्यावसायिक फोरम को मिलनेवाली सुविधा का लाभ उठाती है तो इस पर उंगली उठाने की जरुरत है। इसका विरोध किया जाना चाहिए और अगर छापती है तो उसमें लेखक की शर्तें शामिल हों। उसक मर्जी शामिल हो कि वो ऐसी मीडिया की पीआरगिरी करनीवाली साइट पर छपना चाहता है भी या नहीं? कहीं यहां पर छपने से उसकी इमेज पर बट्टा तो नहीं लगता,उसके पाठक उसे अन्यथा तो नहीं ले रहे? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Nov 3 13:39:44 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 3 Nov 2010 13:39:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSk?= =?utf-8?b?IOCkpuClh+CksCDgpLngpYHgpIgsIOCkheCkrCDgpIXgpKfgpL/gpJU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkpuClh+CkqOCkviDgpLngpYAg4KS54KWL4KSX4KS+OiA=?= =?utf-8?b?4KSF4KSn4KS/4KSV4KS+4KSwIOCkheCkreCkv+Ckr+CkvuCkqA==?= Message-ID: ‘चुप्पी-चुप्पी नहीं नहीं, बोलेंगे अब सभी-सभी’ इन्हीं नारों से दाहोद (गुजरात) का सीनियर रेलवे संस्थान परिसर 31 अक्टूबर को पूरे दिन गंूजता रहा। यहां गुजरात के बड़ोदरा, पंचमहल, सुरत, भड़ूच, डांग, बालसाड और साबरकांठा जिले से लगभग तीन हजार के आस पास विमुक्त एवं घुमंतू समाज से ताल्लुक रखने वाले लोग इकट्ठे हुए थे। मौका था, अधिकार अभियान की घोषणा का। उस समाज के लिए जो इस लोकतांत्रिक देश में अधिकार का अर्थ अभी तक समझ नहीं पाएं हैं। यह वह वंचित समाज है, जिन्हें आज भी पुलिस प्रशासन और समाज अपराधियों की नजर से देखता है। इस वंचित समाज से ताल्लुक रखने वालों को अपराधी साबित करने के लिए पुलिस को सबूत नहीं चाहिए होता। इनकी जाति ही इनके खिलाफ पुलिस रिकॉर्ड में सबसे बड़ा सबुत हो जाती है। एक समाज के साथ इससे बड़ी नाइंसाफी क्या होगी कि पूरा देश जब 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया। देश भर में हजारों विमुक्त एवं घुमंतू समुदाय से ताल्लुक रखने वालेे लोग बाग जेलों में ही कैद रहे। देश भर में समुदाय के लोगों के लिए जेल बने थे। जिन्हें आजादी के बाद भी खोला नहीं गया। इनमें सबसे बड़ा जेल शोलापुर का सेट्लमेन्ट था। इस सेट्लमेन्ट में नौ जमात के लोग रहते थे। इनको जेल से 31 अगस्त 1952 को आजादी मिली। देश के आजाद होने के भी पांच साल सोलह दिन बाद। पश्चिमी देश भारत को तीसरी दुनिया का देश कहते हैं। इस तीसरी दुनिया में चौथी दुनिया दलितों और आदिवासियों की माने तो उनसे भी अधिक बुरी दशा में अपनी जिन्दगी जीने को विवश विमुक्त समाज के लोगों की दुनिया को पांचवीं दुनियां ही कहना होगा। जिन्हें सरकार ने भी अपने नसीब के साथ मरने के लिए छोड़ रखा है। देश भर में इस प्रकार की 190 जातियां थीं, जिन्हें देश की आजादी के बाद भी आजादी नसीब नहीं हुई। उनमें अधिकांश जेल में थे और जो बाहर थे, वे पुलिस से खुद को बचाते मारे मारे फिर रहे थे। आयंगर कमिटी के अनुसार ऐसे विमुक्त एवं घुमुतू समुदाय से ताल्लुक रखने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ थी। (जो आज लगभग साढ़े छह करोड़ है) आयंगर कमिटी ने स्वीकार किया इस समुदाय की हालत अच्छी नहीं है। उन्होंने सरकार से इनको विशेष सुविधा देने की सिफारिश की। सकार का इस विषय में रुख यह रहा कि हमने जो सूचि बनानी थी, वह 1950 में बना ली। आदिवासी और पिछड़ी जाति के तौर पर। इन दो सूचियों के बाद अब तीसरी नई सूचि बनाना संभव नहीं है। उसके बाद 190 में से कुछ जातियों को पिछ़ड़ी और कुछ को आदिवासी जातियों में डालने की खानापूर्ति की गई। इसके बावजूद कई जातियां दोनों समुदायों में जाने से वंचित रहीं। दक्षिण भारत में एनाड़ी और एनाकुला नाम की दो वंचित जातियां हैं, जिन्होंने तय किया है कि वे वापस अपने समाज के लोगों को जेल में भेज दिए जाने के लिए अपील करेंगे। क्योंकि उन्हें समाज और पुलिस वालों केें जेल से भी बदत्तर बर्ताव को रोज-रोज झेलना पड़ रहा है। मुम्बई में आन्तोरोलिकर कमिटी बनी। आन्तोरोलिकर एक नेक इंसान थे। वे विमुक्त एवं घुमंतू समाज से ताल्लुक रखने वाले लोगों के घरो ंमें गए। उन्होंने स्थिति का अनुभव करके लिखा, इन समुदाय के लोगों की स्थिति में कैसे सुधार हो सकता है। उनकी शिक्षा और समाज के मूलभूत संरचना में सुधार के लिए उन्होंने कुछ सिफारिशें की। जो पूरी नहीं हो सकीं। 1980 में मंडल कमिशन आया। वहां इनकी कई जातियों को पिछड़ी जातियों में डाल दिया गया। लेकिन यह काम भी ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ। विमुक्त एवं घुमंतू समुदाय के साथ लंबे समय से काम कर रहे प्रोफेसर गणेश देवी के अनुसार ‘लगातार ‘विमुक्त एवं घुमुतू समुदाय’ के लोग छले जाते रहे हैं। उन्हंे अपनी सरकार से छल के सिवा कुछ नहीं मिला है। अब सरकार के पास हमलोग एक खत लिखने वाले हैं, जिसमें सिर्फ दो पंक्तियां लिखी होगी- ‘बहुत देर हुई है, अब आपको करना ही होगा।’ इसके सिवा हम कुछ नहीं लिखेंगे। इसके नीचे पचास हजार लोगों के हस्ताक्षर होंगे। 10 दिसम्बर को यह खत सरकार के पास चला जाएगा।’ अधिकार अभियान से जुड़े लोग अब छले जाने और सब्र के अश्वासनों के सहारे जीने को अब तैयार नहीं हैं। उनकी योजना स्पष्ट है। अगले साल इक्कीसवीं सदी के ग्यारहवें साल के ग्यारहवें महीने में विमुक्त समाज के लोगों के साथ कांजीभाई पटेल के नेतृत्व में ‘अधिकार अभियान’ के अन्तर्गत एक बड़ी रैली की जाएगी। यदि सरकार ने वंचित समाज के हक में कुछ काम किया तो उस रैली में समुदाय के लोग मिलकर खुशी मनाएंगे, नाचेंगे और गाएंगे। वह दिन दिपावली का होगा। यदि सरकार ने अगले एक साल में समुदाय की तरक्की के लिए कोई काम नहीं किया तो उस मुलाकात से यही संदेश समुदाय के लोग लेकर जाएंगे कि जो जहां है वहां रहकर अपने मरने का इंतजार करे क्योंकि इस देश में कोई उनकी तरफ देखने वाला नहीं है। अधिकार अभियान के साथ जुड़े साथियों ने इस अभियान के लिए गीत और कुछ गाने भी तैयार किए हैं, जो उनकी तकलीफ को बयान करता है। अधिकार अभियान के समापन पर जब छारा समाज के रॉक्सी छाड़ा की देख रेख में ‘बुद्धन थिएटर’ के बच्चों ने बुद्धन सबर की कहानी को मंचित किया, मैदान का नजारा कुछ इस तरह का था कि मानों यह नाटक बुद्धन की नहीं, वहां मौजुद हर एक विमुक्त एवं घुमंतू समाज से जुड़े व्यक्ति की कथा कह रहा हो। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Nov 5 11:37:52 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 5 Nov 2010 11:37:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KSDIOCkruClh+CksOClgCDgpK7gpL7gpIIg4KSP4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSy4KS+4KSv4KSVIOCkleCkqOCljeCknOCljeCkr+Clgg==?= =?utf-8?b?4KSu4KSwIOCkueCliA==?= Message-ID: तुम क्या लिए इस बार, पिछले सात-आठ सालों से दीवाली की सुबह फोन पर दीदी के इसी सवाल से शुरु होती है। पलटकर फिर मेरा सवाल तो तुमने क्या लिया? उसका अक्सर जबाब होता है-कुछ खास नहीं बस एक रिवाज है तो ले लिए कुछ। जाहिर है दीदी का ये कुछ मां के कुछ से बिल्कुल अलग होता है। मां को लगता है कि अग हम नहीं लेंगे तो घर में ये परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी जबकि दीदी महसूस करती है कि यही सब मौके होते हैं जिसमें हम एक-एक करके सामान जुटाते चले जाते हैं। दीदी की शादी के बाद से मैं लगातार देख रहा हूं कि किस तरह एक-एक करके सामान जुटाती आयी है और सबों की जानकारी मेरे दिल्ली बैठे देती आयी है। दीदी की इस कुछ में शुरुआत के सालों में घर की बहुत ही जरुरी चीजें शामिल होती- मिक्सी ग्रांइडर,फ्रीज,टीवी और भी घर की चीजें। दीवाली से ठीक एक दिन पहले संयुक्त परिवार को जिस तरह उसे सबों से अलग होना पड़ा था उसकी टीस के साथ वो इन सामानों को जुटाती आयी। अब इस कुछ में जो चीजें शामिल होती है वो मेरी डिक्शनरी में कई बार गैरजरुरी है लेकिन दीदी की भाषा में एसेट है..चांदी के सिक्के,अनिवार्य तौर पर गहने..वगैरह। जूस सेट,डिनर सेट,नॉनस्टिक,यही सब। मां के शब्दों में कोढ़ा-कपार इससे अलग और दुनिया के उन तमाम लोगों से अलग जो सामान बाजार से खरीदते हैं,बाजार की सोच के हिसाब से खरीदते हैं,मेरी मां सामान तो बाजार से खरीदती है लेकिन उसके बारे में घर में बैठकर सोचती है। उसकी इस सोच में नितांत उसका अपना नजरिया है। मां के साथ दीवाली की सुबह धनतेरस के दिन की उस नसीहत से शुरु होती है- बोले थे,एक चम्मच भी खरीद लेना,नेग रहता है बेटा, त कुछ लिए कि नहीं? पलटकर मैं भी सवाल करता हूं,मेरा छोड़ो- ये बताओ कि तुम क्या खरीदी इस साल? मां इस सवाल का जबाब मुझे याद नहीं पिछले कितने सालों से देती आयी है- कूकर,कड़ाही,कभी तांबे का तो कभी पीतल का लोटा,दूध गरम करने का बर्तन। मां की ग़हस्थी में बर्तनों की साइज के हिसाब से इतनी तेजी से बदलती रहती है कि धनतेरस में उसे खरीदना जरुरी हो जाता है। जो भी वो कूकर,कड़ाही,भगोने,स्टील के डिब्बे खरीदती है,उसके पीछे उसका एक तर्क होता है जिसके सुनने के बाद मैं सिर्फ यही कह पाता हूं- तो इतनी दिक्कत हो रही थी तो इतना इंतजार क्या कर रही थी,पहले ही खऱीद लेती? मुझे याद है बोर्ड की परीक्षा तक मैं मां के साथ रहा- हर साल दीवाली,धनतेरस में मुझे सबसे विश्वसनीय संतान मानकर अपने साथ रखती। तब बिहारशरीफ में दुनियाभर की चमकदार दुकानें खुल गयीं थी,एक से एक ऑफर मिलते लेकिन मां उस दिन भी अपनी पुरानी सहेली के पति दिनेशवा का दूकान ही जाती। वहां मुझे कोई भी बर्तन पसंद न आता। मैं अक्सर टोकता- देखो तो कैसी कडाही है,कोई फिनिशिंग नहीं,मत लो। मां चिढ़ जाती- तुम ही जब एतना टांग अड़ाते हो तो जब तुमरी मौगी आएगी त सब बर्तन लगता है कूड़ा पर फेंक आएगी। तुम बनाओगे इसमें,हम बनाएंगे,हम लें रहे हैं। दिनेशवा जो कि उम्र में मेरे पापा का पड़ता,मैंने उसे कभी भी शहर के बच्चे की तरह न तो अंकल कहा और न ही कस्बाई आदत के हिसाब से चचा। मां भी पता नहीं क्यों,सहेली का पति होने पर भी दिनेशवा ही कहती। वही आदत मुझे भी लग गयी थी। मेरी बात सुनकर एकदम से चिढ़ जाता और कहता- जब पसंद नहीं आता है तो काहे आते हैं मंटू के माय। ले लीजिए वही से जहां बढ़िया सामान के नाम पर मूड़ी कतरता है( मंहगा देता है)। मेरी मां कहती- काहे,लड़कन-बुतरु के बात पर गोस्सा रहे हैं,इ हैइए है कलाहा। सब चीज में नुक्स निकाल के कलह पसारेगा। मुझे दिनेशवा की दूकान और उसके प्रति कभी सम्मान नहीं जगा क्योंकि हर साल उसने वही घिसी-पिटी टिफिन बॉक्स दिए जिसे ले जाने पर स्कूल की लड़किया चिढ़ाती- किचन से रोटी रखने का डब्बा चुरा लाए क्या,मां को टिफिन खरीदने नहीं कहते और फिर एक स्वर में ही ही ही ही,ठी ठी ठी ठी। शहर बदला,घर में लोग बढ़े। भइया की शादी,फिर बच्चे। लोगों का आना-जाना बढ़ा। दीदी एक-एक करके ससुराल जाने लगीं। फैशनेबल भाभी से किचन का सौन्दर्यशास्त्र बदला। किचन में बर्तनों के नाम तेजी से बदलने लगे। बरगुन्ना,बटलोई,कठोती,तसली-तसला, सबके सब गायब होते चले गए। मुझे याद है मां की किचन में हर थाली,गिलास,कडाही का बाल-बच्चे की तरह अलग नाम होता- मंगउल्टा लोटा,उंचका गोड़ी का गिलास,टेढ़का मां के थाली,चुमउना परात...। समय के साथ हम स्टाइलिश हो गए। तसली को भगोना बोलने लग गए। थाली को प्लेट बोलने लग गए और देखते ही देखते पता नहीं वो सारे बर्तन कहां गए। सब एक साथ खाना खाते लेकिन जरुरी नहीं सबों की थाली एक हो। उम्र और अदब के हिसाब से थालियां होती। डिनर सेट ने इस समाजशास्त्र को खत्म कर दिया। अब पांच साल की खुशी और भइया की थाली की कोई अलग पहचान नहीं। किचन में अब न तो मां के खरीदे गए बर्तन दिखाई देते हैं और न उन बर्तनों के साथ वो भावनात्मक जुड़ाव बन पाता है। नहीं तो दादी( मां के शब्दों में मरकर देवता हो गयी) के गंगासागर से लायी लोटनी( लोटे का छोटा रुप) के अलावे पांच-छ साल तक किसी औऱ बर्तन में पानी नहीं पिया।..मां के खरीदे गयाब बर्तनों के बीच भी उसका अपने तरीके से खरीदना जारी है। अब वो दूध लाती है तो डोलनी,पहले से ज्यादा पूजा करती है तो अलग-अलग साइज की पीतल की थाली और परिवार के बढ़ते-घटते समीकरण के बीच वही कूकर कड़ाही। वो टीवी की मेरी तरह कट्टर दर्शक है,दैनिक जागरण पढ़ती है। लेकिन उस पर बोझा का बोझा आए विज्ञापनों और ऑफरों का रत्तीभर भी असर नहीं। दस साल पीछे जाकर देखता हूं तो किचन का संसार तेजी से बदला है। पहले मेरे घर में फाइवर,प्लास्टिक,कांच का कोई भी बर्तन नजर नहीं आता। मां द्रव्य( पीतल,कांसा,बाद में स्टील) के बर्तन का महत्व देती। इनके बारे में कहती कि छूतहर( अशुद्ध) लगता है। बढ़िया घर का आदमी इसमें थोड़ी ही खाता है। दूकान में चीजों के साथ कई सारी चीजें आती तो वो इधर-उधर हो जाते। लेकिन अब फाइवर,शीशे,प्लास्टिक के बर्तन मेरे यहां खरीदे जाते हैं। स्टील का रोटी का डब्बा को मिल्टन,सैलो के कैसरॉल और हॉटकेस ने रिप्लेस कर दिया। किचन में कई रंग के बर्तन,कंटेनर सब इसी फाइवर-प्लास्टिक की माया है। मैंने मां को थोड़ा उकसाया कि देखें इस पर उसकी क्या प्रतिक्रिया है- तो मां तुम अभी तक कूकर कड़ाही में ही फंसी हो.जमाना कहां से कहां चला गया। देखो तो एक बार बाजार जाकर,कितनी सारी नयी चीजें आ गयी हैं,उसमें दुनियाभर के ऑफर हैं,देखने में भी अच्छा लगता है। मां ने पहले थोड़े शांत स्वर में कहा- कितना भी कुछ आ जाए- प्लास्टिक तो प्लास्टिक ही रहेगा न,फाइवर का सामान में खाने में घिन लगता है,पीतल-कांसा के आगे कहां है मुकाबला? मैंने फिर उकसाया लेकिन इ कांसा-पीतल में फंसकर जब तुम बात करती हो तो लग रहा है कि अब तुम सचमुच बुढा गयी। अबकी बार मां थोड़ा सुलगती है- त रहि रहे हो दिल्ली में,आबेगी पूतोहू त लेगी सब रंग-बिरंगा सामान। उसको मत फंसाना,पीतल-कांसा में। फिर अचानक अपने पुराने बर्तनों और शब्दों के खो जाने की पीड़ा से भर जाती है- बाल-बच्चा के थोड़े बुझाता है,एक-एक करके माय-बाप सामान खरीदता है,कहां उडिया जाता है,पता चलता है। मैंने फिर कहा-तुम्हारी जैसे महिला तो येरा,लॉओपेला,एलजी जैसी कंपनियों को तो बंद करा दोगी। कसइया के सरापे से गाय मरती है। हम नय लेंगे त पूरा दुनिया छोड़ देगा लेना औ फिर तुमरा जैसा अदमी इ सब समान का बराहिलगिरी(पैरवी) करनेवाला तो हैइए है न।.देखो,बात मत बनाओ,साफ-साफ कहते हैं। आज भोरे ही नहा लेना,सांझ के दिया जला लेना,एगो छोट गो मूर्ति लाके लक्ष्मीजी को गोड लग लेना औ मिठाय में मिलावट है तबेसन का लड्डू ले लेना एक पाव। ऐसे मत रह जाना।..घर भर के आदमी हियां दीवाली के तैयारी में जुटा है औ हमरा बुतरु..अकेले परदेस में। लगा अब मां ने रोना शुरु कर दिया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Nov 6 17:03:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 6 Nov 2010 17:03:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSu4KS+?= =?utf-8?b?IOCkhuCkjy3gpK7gpL7gpK7gpL4g4KSG4KSPLOCkpuClh+CkluCliyA=?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KS+4KSVIOCkk+CkrOCkvuCkruCkviDgpIbgpI8=?= Message-ID: ये राइम्स किलकारी,खुशी,सुर,अरुणिमा,सौम्या,स्पर्श और देश के उन करोड़ों बच्चों के लिए जो महान कवियों की लिखी कविताओं और राइम्स पढ़कर बोर हो गए हैं। जिन कविताओं को उनके मम्मा-पापा ने याद किया,उन्हें भी वही सब याद करना पड़ता है,शिट्ट नो चेंज। बस चेंज के लिए। उम्मीद हैं उन्हें पसंद आएंगे ये राइम्स और कल से इसे याद करनी शुरु कर देंगे। चुलबुल पांडे इस्टाइल में बराक ओबामा की तस्वीर प्रकाश के रे की फेसबुक प्रोफाइल से उधार जिसे कभी नहीं लौटानी होगी।. *(1) शुरआती कविता* मामा आए,मामा आए देखो मम्मी बराक ओबामा आए नेता, मीडिया पलक बिछाए जनता घी का दीया जलाए कैसे हैं बराक ओबामा पहले पूछे साथ क्या लाए हाथ जोड़े हैं नेता सारे, इंडिया आएं पर पाकिस्तान न जाएं मौसी देखो बराक ओबामा आए * * *(2) ओबामा और नेता* मामा आए,मामा आए मम्मा देखो बराक ओबामा आए मनमोहन ताउ के लिए ब्लू कलर की पगड़ी लाए सोनिया आंटी के लिए भी पेंटागन से साड़ी लाए लालू अंकल के लिए देखो इम्पोर्टेड खैनी-सूरती लाए नीतिश चाचा के हाथ में अब्बी विकास सूत्री प्रोजेक्ट थमाए आडवाणी दादू के लिए हिन्दुत्व मार्का भभूत लाए कलमाडी अंकल के लिए भी इट मोर डाइजेस्ट मोर पाचन चूर्ण लाए शीला बुआ के लिए वाइपर लाए साफ रहे दिल्ली,मंत्र बताए मौसी देखो बराक ओबामा आए ........................................... *(3) ओबामा और मीडिया* मामा आए,मामा आए मम्मा देखो बराक ओबामा आए आजतक को अब नींद न आए,स्टार न्यूज को अल्सर छाए एनडी की आंख चमक जाए,जी न्यूज अब चुप न रह पाए ibn7 की आवाज कम हो जाए,आशुतोष का दहाड़ना छूट जाए न्यूज24 को अपना दामाद बनाए, सहारा सहाराश्री से उपर बताए हिन्दूस्तान लाल दरी बिछाए,दि हिन्दू संतुलन की बात दोहराए इंग्लिश चैनल अपना सगा बताए,इंग्लिश-इंग्लिश कार्ड चमकाए छुटभइया चैनल जंतर बनवाए,ओके उपर ओबामा नाम खुदवाए मामा आए,मामा आए मौसी देखो बराक ओबामा आए ............................................. *(4) ओबामा और एनजीओ* सरकार देश को चकमक दिखलाए जीडीपी रिपोर्ट दिखलाए एनजीओ बहती गंगा में हाथ धोवे खातिर बराक ओबामा को सच दिखलाए रोवें हैं बच्चे भूखे-नंगे,माताओं के आंसू न थम पाए भूख,गरीबी,बेकारी ही देश का सच है सो बतलाए हाल दिखाए असली हिन्दुस्तान का ऐसा मां कसम जो ओबामा को नींद फिर आ जाए फाइव स्टार लगे नरक फिर,ओंठ से कोमल गद्दा चुभता जाए देख के इस देश में दलिद्दर, होश में आए ओबामा,अब कोमा में चल जाएं गजनी बनकर मोटा फंड दे जाएं मामा आए,मामा आए मौसी देखो बराक ओबामा आए .......................................... *(5) ओबामा और जनता* * * जनता ने सुनी है बहुत कहानी एक था राजा एक थी रानी कभी शेरशाह,कभी कोई अकबर कभी हुमायूं कभी चंद्रगुप्त दौरे पर कैसे आते थे, क्या खाते थे क्या पीते थे कैसे वो जनता छूते थे नहीं पता है,नहीं चखा है सुनी-सुनाई में क्या रखा है.. अबकी बार ओबामा आए अकबर,हुमायूं फिर याद आए ऐसे ही आते होंगे वो भी ऐसे ही जनता धन्य होती होगी एक बार जो हाथ छू जाता होगी महीनों फिर न हाथ धोती होगी आए ओबामा,हम भी छुएं तुम भी छुओ,सब कोई छुओ फिर न धोना हाथ महीनों बना रहे एहसास महीनों मामा आए मामा आए देखो मौसी बराक ओबामा आए।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Nov 7 11:09:45 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 7 Nov 2010 11:09:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSu4KS44KSk?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS+IOCkruClh+CkgiDgpK7gpYfgpLDgpL4g4KSy4KWH4KSW?= =?utf-8?b?LSDgpJjgpYvgpJ/gpL7gpLLgpYcg4KSV4KWAIOCkpOCksOCkguCklw==?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: पिछले नौ साल से 106.4 मेगाहर्ट्ज पर प्रसारित एफएम गोल्ड को नौ दिन के भीतर 100.1 मेगाहर्ट्ज पर लाने की घोषणा और फिर मीडिया में लगातार इसका विरोध किए जाने के बाद दबाव में इस फैसले को वापस लिए जाने से भावनात्मक स्तर पर जुड़े एफएम गोल्ड के करोड़ों श्रोताओं और सालों से इसकी बेहतरी के लिए काम करनेवाले रेडियोकर्मियों को यह फैसला खुशी और राहल देनेवाला है। लेकिन आनन-फानन में फ्रीक्वेंसी बदलकर एक जमे-जमाए चैनल को उजाड़ने, उसकी जगह निजी एफएम चैनल को फ्रीक्वेंसी दिए जाने और विरोध की स्थिति में उस फैसले से प्रसार भारती का पैर खींच लेने की घटना कोई राहत की बात नहीं बल्कि रेडियो तरंगों को लेकर भारी घोटाले का संकेत है। पढ़ने-सुननेवाले लोगों को यह बात जरुर हैरान कर सकती है कि जिस गलत तरीके से इस देश में जमीन की अंधाधुन खरीद-फरोख्त जारी है,निजी कंपनियों और बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के तंत्र कमजोर किए जाते हैं,ठीक उसी तरह हवा में तैरनेवाली तरंगों की खरीद-फरोख्त और इससे जुड़े निजी मीडिया संस्थानों को फायदा पहुंचाने का काम जारी है। इस मामले में सबसे दुखद पहलू है कि यह काम कोई और नहीं बल्कि स्वंय प्रसार भारती कर रहा है जिसके उपर जनसंचार माध्यमों के जरिए देश की सुरक्षा,सांस्कृतिक विविधता और जागरुकता का विस्तार करने की जिम्मेदारी है। 22 अक्टूबर को प्रसार भारती ने घोषणा की कि एफएम गोल्ड चैनल को 106.4 मेगाहर्ट्स से हटाकर100.1 मेगाहर्ट्ज कर दिया जाएगा। पिछले चार-पांच दिनों में प्रसार भारती के इस फैसले का मीडिया में जमकर विरोध हुआ और यह सवाल लगातार उठाए गए कि नौ साल से जिस फ्रीक्वेंसी पर जनता के पैसे से कोई रेडियो पहले से ही प्रसारित हो रहा है,वो न केवल सबसे ज्यादा सुना जानेवाला चैनल है बल्कि व्यावसायिक दृष्टिकोण से आकाशवाणी के लिए आमदनी का जरिया भी है तो उसे महज निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने की नीयत से कैसे हटाया जा सकता है? प्रसार भारती ने इस मामले में पहले तो तर्क दिया कि ऐसा वह सिर्फ इसलिए कर रहा है कि इससे एफएम गोल्ड की गुणवत्ता में पहले से बढ़ोतरी होगी। प्रसार भारती का यह तर्क बहुत ही लचर है। इस बात को हम प्रसार भारती के फैसले के पहले दिन से ही समझ रहे थे। यह एक बड़ा सवाल था कि नौ साल से स्थापित चैनल की फ्रीक्वेंसी को सिर्फ नौ दिन के भीतर बदलने के लिए प्रसार भारती इतनी बेचैन क्यों है? एफएम गोल्ड जिसे कि मौजूदा फ्रीक्वेंसी पर बहुत ही बेहतर तरीके से सुना जा सकता है,अचानक से इसे हटाने के पीछे उसकी क्या रणनीति हो सकती है? तब मीडिया में आए इस तरह के सवालों को ध्यान में रखते हुए प्रसार भारती ने घोषणा की कि 31 अक्टूबर से लेकर 3 अक्टूबर तक एफएम गोल्ड को दोनों फ्रीक्वेंसी पर पर सुना जा सकेगा। 4 अक्टूबर से यह चैनल सिर्फ 100.1 मेगाहर्ट्ज पर होगा। दो दिनों तक हमने लगातार दोनों ही फ्रीक्वेंसी पर एफएम गोल्ड को सुना और कुछ हिस्से रिकार्ड भी किए। हमने साफ तौर पर महसूस किया कि जिस एफएम गोल्ड को 106.4 मेगाहर्ट्ज पर सुना, उसकी गुणवत्ता के आगे100.1 मेगाहर्ट्स पर एफएम गोल्ड की गुणवत्ता बहुत ही घटिया है। एक ही वॉल्यूम क्षमता पर दोनों फ्रीक्वेंसी पर सुनने से 100.1 पर आकर आवाज बिल्कुल दब जाती है। 100.1 वही फ्रीक्वेंसी है जिस पर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अलग से एक रेडियो चैनल स्थापित किया गया और जिसके लिए लाखों रुपये खर्च किए गए। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी जानकारी के लिए श्रोताओं ने इस चैनल को बिल्कुल नहीं सुना,इस पर राष्ट्रमंडल की खबरों से ज्यादा मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित हुए। नतीजा इस दौरान यह चैनल अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। अब दो महीने बाद राष्ट्रमंडल खेलों से पैदा हुए बाकी कचरे की तरह सरकार प्रसार भारती के सहयोग से इस चैनल को कचरा मानकर निबटाना चाहती है। जिस खेल भावना के विकास के लिए अकेले रेडियो पर लाखों रुपये खर्च हुए,उस रेडियो को दो महीने बाद ही रद्दी की टोकरी में डालने और उसकी जगह एफएम गोल्ड को स्थापित करने की बात पचाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। संभव है राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले के साथ इसकी भी जांच से कुछ नतीजे निकलकर सामने आएं। नहीं तो, होना तो यह चाहिए कि प्रसार भारती राष्ट्रमंडल के नाम पर बने इस चैनल को पूरी तरह खेल को समर्पित कर दे। इससे न केवल खेलजगत को फायदा होगा, अलग से आकाशवाणी की आमदनी बढ़ेगी बल्कि एफएम गोल्ड और रेनवो को भी विकास का ज्यादा मौका मिलेगा। मीडिया में खासकर अंग्रेजी अखबारों में यह बात प्रमुखता से और लगातार पहले पन्ने पर आते रहे। रेडियो की फ्रीक्वेंसी बदलने का मामला सिर्फ नंबर के बदल जाने का मामला नहीं है। रेडियो के लिए फ्रीक्वेंसी ही उसका ब्रांड हैं। खासतौर से अब जबकि एफएम चैनलों के जरिए एक माध्यम के तौर पर रेडियो का विस्तार हो रहा है जबकि एक संचार उपकरण के तौर पर रेडियो की हालत बहुत ही खराब है। अब श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग रेडियो या तो मोबाइल फोन के जरिए,या तो आइपॉड या एमपी थ्री के जरिए या फिर कम्प्यूटर पर मुफ्त में उपलब्ध साइटों के जरिए सुनता है,उनके लिए रेडियो चैनलों के नाम से ज्यादा फ्रीक्वेंसी मायने रखती है। सबसे बड़ा सवाल है कि प्रसार भारती ने नौ दिन में एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदलने के फैसले का प्रसार कितना किया? क्या उसने लगातार विज्ञापन और अभियान के माध्यम से यह माहौल बनाने की कोशिश की कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदली जा रही है? ले-देकर जो भी सूचना आयी वो या तो आकाशवाणी की वेबसाइट पर या फिर आकाशवाणी के चैनलों पर ही। इन सबके साथ एक बड़ा सवाल कि अगर एफएम गोल्ड की मौजूदा फ्रीक्वेंसी खराब है तो उसे कोई निजी मुनाफा कमानेवाली मीडिया कंपनी क्यों लेना चाहती है? 4 नबम्वर से एफएम गोल्ड को अपनी नयी फ्रीक्वेंसी 100.1 पर आ जाना चाहिए था। लेकिन प्रसार भारती ने अपने इस फैसले से पैर खींचते हुए उसे वापस वहीं पुरानी फ्रीक्वेंसी 106.4 पर बने रहने की बात की। जाहिर है प्रसार भारती का यह फैसला पहले की तरह ही उसके खुद का फैसला नहीं है। देशभर के राष्ट्रीय अखबारों ने फ्रीक्वेंसी बदलने का जिस तरह से विरोध किया,प्रसार भारती उस दबाव में आकर अपने फैसले वापस लिए। लेकिन,फिर वही सवाल कि क्या प्रसार भारती ने अपने इस नए फैसले के लिए कोई पहले से रणनीति बनायी? इस पूरे मामले में जो दिलचस्प पहलू निकलकर सामने आए,उस पर बात करने से फ्रीक्वेंसी यानी रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर का चल रहा बंदरबांट बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। पहली बात कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदले जाने की किसी भी तरह की जानकारी स्वयं प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे को नहीं दी गयी। मृणाल पांडे ने एक अंग्रेजी अखबार/ दि हिन्दू को बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया में आयी खबरों से मिली। इससे पहले भी आकाशवाणी के भीतर भारतीय भाषा को लेकर जो विवाद चल रहे हैं, उस पर गौर करें जिसमें नेपाली को विदेशी भाषा करार दिया गया और उसी हिसाब से प्रस्तोताओं को भुगतान किया,7 सितंबर को संसदीय राजभाषा समिति की मौखिक साक्ष्य सत्र में आकाशवाणी को इसके लिए फटकार लगायी गयी, तो यहां भी मृणाल पांडे को इससे दूर रखा गया। इससे समझा जा सकता है कि प्रसार भारती के भीतर किस तरह के फैसले लिए जा रहे हैं और काम हो रहा है जिसके बारे में स्वयं बोर्ड के अध्यक्ष को जानकारी नहीं है। दूसरी बात, फ्रीक्वेंसी बदले जाने के सवाल पर जब यह बात सामने आयी कि 2006 में ही दूसरे दौर में एफएम चैनलों की विस्तार योजना के तहत क्षेत्रीय स्तर पर 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी बीएजी प्रोडक्शन को दे दी गयी थी,इससे एक नयी कहानी सामने आयी। हरियाणा के करनाल और हिसार जैसी जगहों पर एक ही फ्रीक्वेंसी पर आकाशवाणी का एफएम गोल्ड चैनल भी चलता रहा और बीएजी प्रोडक्शन का रेडियो धमाल भी। ऐसा होने से एक-दूसरे के उपर फ्रीक्वेंसी की चढ़ा-चढ़ी होती रही और नतीजा यह कि वहां के श्रोता एफएम गोल्ड को बेहतर तरीके से सुन नहीं पाते। अब जबकि प्रसार भारती ने दिल्ली में एफएम गोल्ड को पुरानी फ्रीक्वेंसी पर बने रहने की बात दोहरायी है तो सवाल उठते हैं उन इलाकों में जहां कि एक ही फ्रीक्वेंसी पर निजी चैनल भी चल रहे हैं और एफएम गोल्ड भी,उसका क्या होगा?दिल्ली के श्रोताओं की समस्या फिर भी हल होती दिख रही है लेकिन देश के बाकी हिस्सों का क्या होगा? साथ ही अगर 2006 में ही निजी चैनल के हाथों 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी दे दी गयी थी तो अब तक उस पर एफएम गोल्ड क्यों चलाया जाता रहा? आनन-फानन में फैसला लेकर और पुरानी फ्रीक्वेंसी को एफएम गोल्ड के हवाले कर देने से प्रसार भारती को अपने गले की हड्डी निकलती जरुरी दिखाई दे रही है लेकिन श्रोताओं के सामने एक बड़े कुचक्र का संकेत सामने आया है और वह यह कि प्रसार भारती आकाशवाणी के तमाम चैनलों को 100 मेगाहर्ट्ज से 103.7 मेगाहर्ट्ज तक रखना चाहता है। ऐसा करने से बाकी की फ्रीक्वेंसी निजी कंपनियों के लिए सुरक्षित हो जाएगी। इस साल के दिसंबर में एफएम चैनलों के विस्तार का जो तीसरा दौर शुरु हुआ,ऐसा करने से निजी एफएम चैनलों पर समाचार प्रसारित किए जाने की जो बात चल रही है, उसका रास्ता साफ होगा। आज निजी चैनलों के लिए एफएम गोल्ड सबसे बड़ा बाधक है क्योंकि इस पर अभी 46 प्रतिशत सामग्री खबरों से संबंधित होती है। फ्रीक्वेंसी बदलने से एफएम गोल्ड अपने आप कमजोर हो जाएगा और निजी चैनलों को खबर के नाम पर वही सब करने का मौका मिल सकेगा जो कि टेलीविजन चैनल कर रहे हैं। एफएम गोल्ड को कमजोर और पंगु करने की कवायद पिछले कई महीनों से चल रही है। कभी महीनों प्रस्तोताओं का वेतन रोककर तो कभी गैरजरुरी शर्तों पर दबाव में हस्ताक्षर करवाकर। तकनीकी रुप से चैनल के लिए 20 मेगावाट क्षमता आवंटित करने की बात पर सिर्फ 10 मेगावाट क्षमता मुहैया करवाकर इसकी गुणवत्ता खराब की जा रही है। इस तरह रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर भारी गड़बड़ियां चल रही है और अपने स्थापित चैनलों को तहस-नहस करके निजी चैनलों को लाभ पहुंचाने का काम हो रहा है। चूंकि यह जमीन,पानी,प्राकृतिक संसाधनों की तरह सीधे-सीधे लोगों की जानकारी में नहीं है इसलिए इसके विरोध में आवाजें नहीं उठतीं। हम इस फैसले से खुश हो सकते हैं कि प्रसार भारती हमारे लोकप्रिय चैनल का गला घोंटने में नाकाम रहा है और हमें हमारा चैनल वापस उसी फ्रीक्वेंसी पर मिल रहा है। लेकिन देखना होगा कि तरंगों के इस घोटाले में शामिल बिचौलिए की पहचान प्रसार भारती और सरकारी तंत्र कितनी गंभीरता से कर पाती है और प्रसार भारती के भीतर संभावित बड़े घोटाले के पीछे के सच को कितना उजागर कर पाती है? 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URL: From vineetdu at gmail.com Mon Nov 8 20:23:25 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 8 Nov 2010 20:23:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKzgpLA=?= =?utf-8?b?4KS+4KSVIOCkk+CkrOCkvuCkruCkviDgpJXgpL4g4KSH4KSC4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KSoIOCkj+CkoeClgOCktuCkqA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2010/11/8 Subject: बराक ओबामा का इंडियन एडीशन To: vineet kumar इन तस्वीरों पर इन डॉट कॉम का लोगो चिपका है। जाहिर इसे इसी साइट ने जारी किया होगा। यूट्यूब पर बालिका वधू में अभिषेक बच्चन की एपीसोड खोजने के दौरान इस पर नजर चली गयी। यूट्यूब पर मुन्नी बदनाम हुई गाने के साथ इन तस्वीरों को स्लाइड शो के तौर पर जारी किया गया। इन डॉट कॉम नेटवर्क 18 की साइट है जिस पर कि आपको दुनियाभर के रेडियो स्टेशन ऑनलाइन मिल जाएंगे। नेटवर्क 18 का सीएनएन ग्रुप से भी बिजनेस टाइअप है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Nov 13 03:38:24 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 13 Nov 2010 03:38:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSh4KS84KSs?= =?utf-8?b?4KS54KWH4KSwIOCkueCliCzgpLjgpYHgpKzgpYHgpKbgpY3gpKfgpL8g?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KSv4KWLIOCkm+CkoOClgCDgpK7gpIfgpK/gpL4=?= Message-ID: जिस नदी के घाटों पर सालभर तक गू की लेड़ियों का थौरा(जमघट) लगा रहता,उस छठ पूजा के दिन ऐसा चमकता की छठव्रती महिलाएं नया लुग्गा(साड़ी सुखाती)। हरेक घर के बच्चे की कनपटी छठ पूजा के दौरान एक बार जरुर गरम कर दी जाती कि उसने फलां पूजा की सामग्री छुन्नी( पुरुष लिंग का छुटपन के दौरान का नाम) मसलने के बाद छू दी। आज उस घाट पर आकर सब पवित्र हो जाता,अब कोई इस पर पीतल की परात रख दे,छठ का दौरा या फिर नारियल,फल लगे सूप,सब शुद्ध। छठी मईया और सूरज की महिमा का बखान के साथ छठ पूजा में उस बल्ली गोप की महिमा का गुणगान रत्तीभर भी कम न होता जिस पर सालोंभर तक छिनतई, किडनेपिंग, गुंडागर्दी और यहां तक की मर्डर के आरोप लगते रहते। बल्ली गोप अपनी श्रद्धा से इस नदी के घाटों की अपने खर्च पर सफाई करवाता। गू की लेडियों की जगह सफेद चूने और गेरु से लाइनें खींचवाने और रंगोली बनावाने के पीछे पूरी मेहनत करता। उसकी इस आस्था के आगे उसके सताए लोगों की जुबान पर भी छठ के समय आशीर्वाद निकलते। मां के शब्दों में यही लच्छन सालोंभर तक रहे तो अदमी नहीं देउता कहलाए।.. आज बारह साल बाद मुझे इस हदस(डर) से अभी तक नींद नहीं आ रही है कि सुबह उठकर मुझे घाट पर जाना है। ये जानते हुए कि अट जाव्वल तो सुबह उठना ही नहीं है,फिर जाना कैसा? कानों में दूर से झन-झन मंजीरे की आवाज आ रही है,पड़ोस ने कुछ शहरी टाइप का व्रत आयोजन किया है जिसमें पिछले दो दिनों से किट्टी पार्टी की तरह खाने की चीजें तैयार होती हैं और उसके बाद देर रात तक भजन। मुझे हिन्दू न जानकर सबों को बुलाते हैं,दीवाली के दिन दीया-बत्ती घर में नहीं जलाने का लगता है साइड इफेक्ट है,नहीं तो मुफ्त के खाने में विचारधारा पेलने की क्या जरुरत,चला ही जाता। दिल्ली के उस नेता की बाइट याद आ रही है जिसने डेढ़ करोड़ लगवाकर एमसीडी की ओर से छठ घाट बनने की बात बतायी और जिसे बाद में स्विमिंग पूल करार दिया जाएगा।..इस झन-झन के बीच दूर से छठ के गीत बहुत ही कमजोर आवाज में सुनाई पड़ रही है और फिर मुझ पर मां की यादें सवार हो जा रही है। यही दिक्कत है,जितने भी पर्व-त्योहार आते हैं,मां की एक-एक बातें मुझ पर सवार हो जाती है। एक तो टेलीविजन से बड़ा संस्कृति रक्षक कोई रह नहीं गया,सब त्योहारों को लेकर इस नीयत से ऐसा पेलो कि बेटा मनाओगे नहीं तो जाओगे कहां और उपर से मां की बातें। ये दो चीजें त्योहारों में मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है। विचारधाराओं की थोड़ी समझ ने इन सबों को मनाने से मुक्त कर दिया लेकिन जिस दिन ये दोनों चीजें छूट जाए,उस दिन त्योहारों में औसात दिन का सुकून बना रहे। आज लोहण्डा है बेटा,रात में रोटी मत बनाना,कुछ दूसरा चीज बना लेना। जब तक छठ है प्याज-लहसुन मत बनाना की नसीहत के साथ दो दिन पहले ही फोन कर दिया। मेरे घर में कभी किसी ने छठ पूजा नहीं किया। मेरी जिंदगी में कई बार उठापटक आने की स्थिति में मां ने कई बार मनौती मांगने की कोशिश की कि इसके नाम से छठ करेंगे लेकिन मैंने ऐसी-ऐसी कसमें दिलायी और कहा कि तुम अगर ऐसा करोगी तो धर-द्वार सब छूट जाएगा आना मेरा। मेरे नाम से कोई व्रत-पूजा,उपवास मत किया करो प्लीज। मां कई बार कोसती- हमरे घर में पैदा लेवे के था इसको,अघोरी,खिटखिटाहा,लडबेहर।..लेकिन व्रत न करने की स्थिति में छठ पूजा को लेकर अपनी अपार श्रद्धा को दूसरे तरीके से जाहिर करती। मोहल्ले में लगभग सबों के यहां छठ पूजा होता। मां बहुत मन-मारकर,मेहनत और श्रद्धा से काम करनेवाली महिला रही है। मोहल्ले में सम्मान के साथ सरस संबंध थे। छठ पूजा के दस दिन पहले से ही पड़ोसी मां को एडवांस में बुक कर लेते- चाची,दीजी,अबकी छठ पूजा में आपको मेरे यहां प्रसाद बनाना है। मां की जिससे पहले बात हो जाती,उसके यहां प्रसाद बना देती। लोहण्डा यानी शाम की छठ से एक दिन पहले की रात लोगों को बुलाकर खिलाया जाता। इसमें दो तरह की चीजें लोग खिलाते- एक तो रसिया जो कि चावल में गुड डालकर बनाया जाता,मीठी खिचड़ी ही कहिए और दूसरा दाल-भात के साथ चावल के आटे का सादा छोटा पीठ्ठा। फिर घर ही में गेंहू पीसकर ठकुआ बनाया जाता। ठकुआ छठ पूजा का मुख्य आइटम या प्रसाद है। मेरी मां बहुत जोरदार बनाती है। मैं महसूस करता कि पड़ोस की भाभियां,चाचियां प्रसाद के नाम पर मां से बहुत सारा ठकुआ बनवा लेती और बाद में कई दिनों तक शाम के नाश्ते में इस्तेमाल करतीं। मैं जब कभी उनके घर जाता तो वापस आकर खूब हंगामा मचाता। कहता- तुम जाकर उनके यहां अपनी श्रद्धा जता आयी और देखो वो तुमसे बेगारी करवाकर नाश्ता बनवा ली,मत बनाया करो। मां दोनों हाथों से अपना काम छूती,कुछ-कुछ भुनभुनाती और कहती- लड़बहेर है,सुबुद्धि दीहो छठी मइया। इस त्योहार में भी मोहल्ले की राजनीति से पिंड न छूटता। किस घर का संबंध किससे बेहतर है,ये आज ही के दिन तय होता। कौन किसके साथ घाट पर जाता है और साथ में चादर बिछाकर बैठता है? जिनके घरों में छठ होते,उनकी तो अपनी ही फैमिली के लोग होते और अपना इंतजाम करते। हम जैसे घरों के लोगों के लिए फजीहत हो जाती कि किसके साथ जाएं? ये पहला मौका होता जब मोहल्लेवाले से मेरे अपने संबंध और मां के साथ जाने ा लोभ एक-दूसरे से क्लैश कर जाता। मां जूली के घर से साथ जाना चाहती जबकि वोलोग मुझे चिरकुट लगते और मैं मुरारी भइया के घर से जाना चाहता। कई बार होता कि शाम किसी एक के घर से जाओ तो सुबह किसी दूसरे के घर से। ये सोच भी पॉलिटिक्स का ही हिस्सा होता कि दोनों से संबंध दुरुस्त रहे। अब अगर मैं मां का साथ के लोभ में जूली के घर से चला जाता तो सारा मजा किरकिरा हो जाता। मुझसे भी बेगारी कराने के लिए वेलोग एडी-चोटी एक-कर देते। मैं न तो कोई सामान छूना चाहता,न ढोना। आ ही गए सो एहसान मानो के अंदाज में जाता। मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता,फुलटाइम मस्ती। कोई कुछ करने को नहीं कहेगा। मां इस बात को बेहतर समझती। कहती- इ लड़का हमको धरम-धक्का में डाल देता है हर साल,अब किसके घर से जाएं? मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता कि मदद करने से बचने के लिए ऐसा कर रहे हैं। खैर, घाट पर दो कामों को लेकर मां मेरे पीछे लगी रहती। एक तो दूध डालने जिसे कि सूर्य को अर्घ्य देना कहते हैं और दूसरा कि छठव्रती महिला की भीगी साड़ी से गाल पोछने और आरती लेने को लेकर। मां खाटी दूध जब अर्घ्य देने को देती तो मैं कहता- पापा वहां चाय के लिए हाय-तौबा मचा रहे होंगे दूध को लेकर और तुम यहां पानी में बहाने के लिए ले आयी। मां फिर कान छूती,बुदबुदाती। पीतल के दीए की लौ के उपर बहुत देर तक हाथ रखती और बहुत दबाकर मेरा माथा सेंकती। इतना गर्म और इतनी जोर से कि मैं झनझना उठता। मां का विश्वास इतना कि इतना उल्टा-सीधा बकता है,सब छठी मइया हर लेंगे ज्यादा गर्म करके सेंकने से। साड़ी से गाल पोंछने के नाम पर बिदक जाता तो कहती- छठी मइया का ऐसे अनादर नहीं करते बेटा। मोहल्ले के सारे लौंडे का सारा आकर्षण इस बात को लेकर रहता कि किसी बहिन कौन सा सूट-सलवार,कपड़ा झाड़कर आयी है। जहां भइया बोलर मुस्करायी तो चार नसीहत जड़ दो कि ऐसे झमका के काहे ठी ठी घूम रही हो,कमीना सब मुसलमान का भी लड़का सब आता है अब मेला घूमने। हिसाब-किताब से रहा करो और जहां बराबरी से नाम लेकर बात की रमेश-सुरेश। तो तुम भी बॉबी-चंचल बोलकर चिपक लो। बाकी का एकांत सूर्य मंदिर की बाउंडरी तो दे ही देगी। महिलाओं की श्रद्धा और आस्था की पोल-पट्टी तब खुलती जब वो अपनी नजर पूरी तरह इस बात में गडाए रखते कि किसकी बेटी,किसकी बहन किसके साथ नजर आयी। मुझे तो लगता था कि वेलेंटाइन डे के बीज ऐसे ही मेलों में छिपे होते होंगे। सार्वजनिक जगहों पर भी एक नजर देखने और तुम्हारी फिजिक्स की कोचिंग कैसी चल रही है,मैथ्स के शशिशेखर सर एक नंबर के मास्टर है,बाकी चाल-चलन के ठीक नहीं हैं। तुम लगा दो उसमें लुक्का कि एक बार थ्योरम समझाते-समझाते एक लड़की का हाथ दबा दिए। नीयत ऐसी कि वो संभले कि न संभले वही नजारा यहां भी रच दो। इसी बीच ऐसे लौंडों की टोली होती जो छातियों की टोह लेते फिरते और बार-बार जान-बूझकर टकराते। इस त्योहार में सुगा मिडिराय के बाद सबसे ज्यादा- कोढ़िया,देह गल जाएगा,दिखता नहीं है,सुनने को मिलता।. शहर में नीयत चाट की जितनी दूकानें होती,वो सबके सब अपनी अस्थायी दूकानें घाट से थोड़ी पीछे हटकर लगाते और उनकी अकड़ आज के मथुरा रोड पर हल्दीराम से रत्तीभर भी कम न होती। मां अपनी पैरवी भिड़ाती- दे न देहो कल्लू,पिल्लूभर के बुतरु घंटाभर से खड़ा है एक प्लेट घुघनी के लिए। कल्लू चचा शान से मुस्करात-कि करें भौजी,यही एक दिन तो कमाय के है, बेटवा तो घर के बच्चा है। मां की पैरवी से पहले घुघनी,कचड़ी लेना पड़ोस की उन लड़कियों को खल जाता जो हमें चुप्पा के साथ-साथ बोक्का समझती। ये अलग बात है मां के साथ पूंछ की तरह लटके रहने से कैरेक्टर को लेकर हमेशा चर्चा में रहता- लगता ही नहीं कि वही पब्लिक स्कूल में पढ़ता है जिसमें कोढिया रजीवा,भूषणा पढ़ता है,एकदम शरीफ है। मां नारियल लेने के पीछे तबाह रहती। वो हर मेले में मेरे साथ जाती तो नारियल जरुर लेती और मुझे ढ़ोना पड़ता। बारी-बारी से घाट पर चादर बिछाए पड़ोसियों से मिलते,सब कुछ न कुछ देते। कोई ये न कहे कि बाप तो भोला बाबा है,बेटा कइसन अइठल है,प्रसाद दिए तो नहीं लिया,चुपचाप ले लेता।..दीदी की सहेलियों के बीच सहमकर खड़ा हो जाता। कौन किस दर्जी से सूट सिलवाया,किसने उसके सूट के कपड़े बचा लिए,किसने सत्यानाश कर दिया,सुभषवा के यहां से हेयरबैंड लेना जान देने के बराबर है सुनता। ललमुनिया शादी के बाद मोटा गयी है,सरोजवा का दूल्हा हमसे बहुत लसक रहा था। पीछे से हमेशा चुप्प रहनेवाली बिदकी महीन आवाज में बोलती- एक के साथ एक फ्री चाह रहा होगा दीदी। फिर जोरदार लेडिस ठहाके। मैं टुकुर-टुकुर सबको देखता,उसी में कोई मेरा गाल छू देती और छोटू,कोई जमी? मैं बस सोचता,इतनी ही अच्छी,इतनी ही सुंदर मेरी जितनी बड़ी होती तो...या फिर यही मेरी जितनी बड़ी होती तो..? पापा धर्म,त्योहार और आस्था के मामले में बहुत ही अलग-थलग रहे। इन सबों को लेकर उनके भीतर कभी न तो उत्साह रहा,न ही कोई बेचैनी। घाट से लौटने पर वे या तो सोए मिलते या फिर उठकर फुलगोभी भुनते हुए। प्रसाद का एक दौर चलता,फूलगोभी खाते। पापा नारियल के पीछे दम लगाते और मां अब दुपहरिया में कौन बनाएगा खाना के साथ आउट हो जाती। हो-हल्ला,तबाही मचती। पापा की इस डांट के साथ कि- हुआ नहीं तुमलोगों का,पढ़ने-लिखने का नहीं तो टंडेली( टाइम पास) कर रहा है,हमारे लिए छठ पूजा खत्म होने की घोषणा हो जाती।. चारो तरफ बजना जारी रहता- मारिवौ रे सुगवा घनुख से, सुगा गिरी मुरझाए,सुगा गिरी मुरझाए -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Nov 13 19:45:45 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 13 Nov 2010 19:45:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= 2011 kyo Message-ID: नमस्ते सर किताब में पहला संस्करण 2011 किस हिसाब से लिखा है,समझ नहीं पाया। vineet -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Nov 14 23:25:13 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 14 Nov 2010 23:25:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIbgpJw=?= =?utf-8?b?4KSk4KSVIOCkmuCliOCkqOCksiDgpJXgpYsg4KSw4KS+4KSuIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkquClgeCksOClgeCkt+CkpOCljeCktSDgpKrgpLAg4KS24KSV?= =?utf-8?b?IOCkueCliA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2010/11/14 Subject: आजतक चैनल को राम के पुरुषत्व पर शक है To: vineet kumar आज की महिला को राम जैसा पति नहीं चाहिए। उसे थोड़ा बैड व्ऑय चाहिए। महिलाएं हो गयी और 'बोल्ड' नाम से अपने खास कार्यक्रम में एंकर ने साफ तौर पर कहा कि अब महिलाओं को राम जैसा पति नहीं चाहिए। फेसबुक पर जब मैंने इस लाइन को साझा किया तो 'हंस' पत्रिका में जेंडर जिहाद नाम से नियमित स्तंभ लिखनेवाली स्त्री मामलों की युवा विमर्शकार शीबा असलम फहमी ने सीधा सवाल किया कि- आप भी विनीत! क्या रामजी उस मामले में कमजोर थे जो अब नहीं चाहिए? भारतीयता,संस्कृति और काफी हद तक हिन्दुत्व के नाम पर अपनी दूकान चलानेवाले आजतक चैनल को इस बात का अंदाजा क्यों नहीं है कि इस देश की करोड़ों जनता अगर राम को अपना आदर्श मान रही है तो उस आदर्श होने में उनकी सेक्सुअल कैपिसिटी भी शामिल है। वैसे भी इस देश में तो आदर्श वही पुरुष हो सकता है जो कि संतान पैदा करने की क्षमता रखता हो। यहां तो सेक्स को लेकर पूरी अवधारणा ही इस आधार पर विकसित हुई है कि संभोग का परिणति संतान में होना अनिवार्य है,यह सिर्फ आनंद के लिए नहीं है। ये जार्ज लूकाच की अवधारणा तो है नहीं कि सेक्स का पहला काम प्लेजर है,आनंद है। कोई जरुरी नहीं कि इसे संतान पैदा करने के लिेए ही किया जाए। संभवतः यही वजह है कि यहां लोग सेक्स करने पर अगर संतान पैदा करने की बात नहीं सोचते तो अपराध करने जैसा करार दिए जाते हैं। इसे दूसरी तरह से कहें तो जो संतान पैदा करने की क्षमता नहीं रखता,उसे जीने तक का अधिकार नहीं है। अभी दो दिन से आपलोगों ने इसी चैनल पर देखा न कि राखी ने एक पुरुष को जब नामर्द कहा और वो भी एक बार तो इस चैनल ने उसे लूप करके कई बार चलाया और कहा कि उसने नामर्द कहे जाने पर सदमा झेल नहीं पाया और आत्महत्या कर ली। अब महिलाओं को राम जैसा पति नहीं चाहिए,आजतक के ऐसा कहने का क्या मतलब है? शीबा असलम फहमी अपने दूसरे कमेंट में फिर सवाल करती है कि एक पति रुप में राम भी तो एक पुरुष ही थे न। तो फिर राम जैसा पति नहीं चाहिए कहने का क्या तुक है,पता नहीं किस बददिमाग ने ये स्क्रिप्ट लिखी है? मामला साफ है कि जो देश राम के नाम पर मिनट भर में सुलग सकता है,वो इस देश के चिन्हों को तहस-नहस कर सकता है,वो किसी को जिंदा जला सकता है,आजतक जैसा चैनल अगर उसके पुरुषत्व को लेकर सवाल खड़े करता है तो इसे किस रुप में लेगा? अब महिलाओं को राम की जगह बैड ब्ऑय चाहिए। राम के साथ ये जुमला जोड़कर चैनल क्या साबित करना चाहता है कि एक पुरुष या पति के तौर पर श्रीराम पत्नी के आगे आरती उतारने का काम करते होंगे और इसलिए वो अच्छे कहलाएं जिससे कि आज की स्त्रियों को परहेज है? आज की महिलाओं को बोल्ड और बिंदास दिखाने के फेर में आजतक चैनल ने कितनी बड़ी बात कही है,इसका अंदाजा जनता अगर रिएक्ट करना शुरु करती है तो उससे लग सकता है। तुकबंदी और जुमलेबाजी में महारथ हासिल करनेवाले इस चैनल को शायद इस बात की फीडबैक नहीं मिलती होगी कि उसके ब्रॉडकास्ट किए गए एक-एक शब्द को ऑडिएंस किस रुप में लेती है? हरियाणा के खाप पंचात के लिए चैनल की एडीटिंग मशीन की संतानों ने लगातार तालिबानी शब्द का प्रयोग किया। ये शब्द वहां के लोगों को इतना चोट कर गया कि मिर्चपुर में जब हमने बताया कि दिल्ली से आए हैं और पूछा कि पत्रकार हो तो करीब चार सौ लोगों ने हमें मिनट भर के अंदर घेर लिया और तन गया कि क्या हम तुम्हें तालिबानी दिखते हैं? इस तरह की खबरें प्रसारित करके चैनल कितने मीडियाकर्मियों की जान जोखिम में डालने का काम करता है,इसका आभास शायद उसे नहीं है। आजतक चैनल ने सेक्स को लेकर सर्वे की यह सवारी इंडिया टुडे पत्रिका के ताजा अंक में सेक्स सर्वे पर चढकर की है जिसमें कहने को तो देश की महिलाओं को लेकर सर्वे किया गया है लेकिन वो दरअसल स्त्री और सेक्स से जुड़े उन चालू मसलों पर आधारित है जिसे कि मंडी में बेहतर तरीके से बेची जा सके। पिछले कई सालों से पत्रिकाओं की ओर से सेक्स को लेकर जो सर्वे होते आए हैं,उनकी प्रस्तुति और विजुअल्स साफ कर देते हैं कि ऐसे अंक निकालने की प्रेरणा उन्हें पोर्नोग्राफी पोर्टल,मैगजीनों से देखकर मिलती है। ये प्रिंट मीडिया में वही घिनौना खेल है जो कि चैनलों के लिए हरेक बुधवार के लिए किए जाते हैं। चैनल ने विजुअल्स के तौर पर सड़कों पर चलती, शॉपिंग करती, बात करती हुई लडकियों को दिखाया हैं। इन विजुअल्स से लड़कियों को लेकर जिस खुलेपन और आत्मविश्वास का बोध होता है वो बोल्ड शब्द के नजदीक का नहीं है। ये एक सामाजिक स्थिति है जबकि चैनल ने इसे सेक्स,पोर्नोग्राफी और बोल्ड मिलाकर एक करके दिखाने की कोशिश की है। एथिक्स के लिहाज से चैनल को इस बात का जबाब देना होगा कि उसने जिन लड़कियों को संदर्भ बदलकर दिखाने की कोशिश की क्या उन सबों की अनुमति उनके पास है? हालांकि ये बात चैनल और पत्रिका के लिए भैंस के आगे बीन बजाने जैसा होगा लेकिन गौर करनेवाली बात तो है ही अगर स्त्री और सेक्स को लेकर सर्वे किए जाते हैं तो क्या ये सर्वे का हिस्सा नहीं है कि इस देश में कितनी लड़कियां चरित्र पर शक किए जाने की स्थिति में छोड़ दी जाती है,कितनी स्त्रियों से परस्त्री के साथ संबंध होने पर पुरुष दबाव बनाकर डिबोर्स लेने की बात करता है? कितनी स्त्रियों की जिंदगी पोस्ट मैरिटल अफेयर से तबाह होती है,कितनी स्त्रियों की जिंदगी टीन एज में ही उनसकी इच्छा के खिलाफ ही बर्बाद कर दी गयी? चैनल को इस बात का अधिकार नहीं है कि सेक्स और पोर्नोग्राफी को एक कर दे। इस देश में अगर सेक्स शिक्षा को लेकर अगर बबाल मचते हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं इस तरह की स्टोरी काम करती है जो कि सेक्स को लेकर अनिवार्य समझ औऱ पोर्नोग्राफी के बीच की स्थिति को ब्लर कर देते हैं। ऐसा किया जाना प्रोग्रेसिव एप्रोच को कुचल देना है। स्क्रीन पर चटकारे लेकर और स्टोरी के हिसाब से ही लाल पोशाक में एंकर स्टोरी की शुरुआत करती है उससे साफ हो जाता है वो इस देश के कुंठा की शिकार ऑडिएंस को संबोधित कर रही है और इस क्रम में उसकी खुद की कुंठा जब-तब छलक जा रही है। वहीं पुरुष आवाज में जो वीओ कर रहा है उसका अंदाज ऐसा कि वो किसी अंग्रेजी पोर्नोग्राफी को देखते हुए उसका वर्णन अपने उन दोस्तों के लिए कर रहा है जो कि अंग्रेजी नहीं समझते और उन्हें हिन्दी तर्जुमा की जरुरत है। चैनल के लिे ये सब एक खेल और तान देने का हिस्साभर है लेकिन ये बात उसकी चिंता से बाहर है कि उसके ऐसा किए जाने से कुंठा में जी रहे समाज का नजरिया पहले से औऱ कितना मजबूत होता है? राम के सवाल पर और पोर्नोग्रापी और सेक्स के सवाल पर चैनल को जबाब देना भारी पड़ सकता है। इस वेशर्म वीडियो के लिए चटकाएं- http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/43579/2/116/Jewel-of-women-now-is-no-shame.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Tue Nov 16 00:20:25 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Tue, 16 Nov 2010 00:20:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KWZ4KSw4KSX4KWL?= =?utf-8?b?4KS2?= Message-ID: *‘ख़रगोश’* एक अद्भुत चाक्षुक अनुभव है. मुख्यधारा के सिनेमा से अलग, बहुत दिनों बाद इस फ़िल्म को देखते हुए आप परदे पर निर्मित होते वातावरण का रूप, रंग, गंध महसूस करते हैं. इसकी वजह है फ़िल्म बेहतरीन कैमरावर्क और पाश्वसंगीत. निर्देशक *परेश कामदार* की बनाई फ़िल्म ’ख़रगोश’ कथाकार *प्रियंवद* की एक हिन्दी कहानी पर आधारित है. काम इच्छाओं की किशोर जीवन में पहली आमद का एक व्यक्तिगत दस्तावेज़. जैसा परेश कामदार अपने निर्देशकीय वक्तव्य में लिखते हैं, “ख़रगोश एक दस साला लड़के के साथ ऐसा सफ़र है जिसमें वह इंद्रियबोध के नए बियाबान में कदम रख रहा है. कहीं यह कथा कामना के भंवर से उपजे तनावों की भी बात करती है. सिनेमाई भाषा के संदर्भ में यह एक ’सादा कविता’ जैसी है. कथा के भौतिक वातावरण में से उठाए चित्र और ध्वनियाँ एक ऐसा अनुभव संसार रचते हैं जो लड़के के अनुभव की जटिलता और आवेग हमारे सामने खोलता है.” कहानी के केन्द्र में है बंटू, एक दल साल का लड़का, याने हमारा कथानायक. उसकी दुनिया घर, स्कूल, माँ के चूल्हे की रोटियों, कटपुतली वाले के तमाशे के बीच फैली है. उस फ़ीके से कस्बाई माहौल में, बंटू के घर और स्कूल के बीच के अनमने चक्करों के बीच उसके सबसे अच्छे साथी हैं अवनीश भैया. वो उनके साथ पतंग उड़ाता है. एक दिन बंटू भैया उसे अपने साथ बाज़ार ले जाते हैं. बंटू उनकी आवेगभरी प्रेम-कहानी का अकेला गवाह है. उनके संदेसे लाना, चिठ्ठियाँ पहुँचाना, मिलने के अवसरों को सुलभ बनाना बंटू को उत्सुक्ता से भर देता है. लेकिन बंटू भी उमर के नाज़ुक दौर में है. केवल संदेसेवाला बने रह जाना उसे अख़रने लगता है. किशोरमन अब अवनीश में दोस्त और बड़े भाई की जगह प्रतिद्वंद्वी देखने लगा है. वो इस प्रेम-कहानी का एक सहायक किरदार नहीं, कथानायक होना चाहता है. एक विचारोत्तेजक अंत में परेश हमें किशोरमन के अनछुए पहलुओं से परिचित कराते हैं. ये ऐसे अंधेरे कोने हैं जिन्हें हिन्दी सिनेमा ने कम ही छुआ है. ’ख़रगोश’ चाक्षुक बिम्बों और रेखांकित करने योग्य घ्वनि संकेतों द्वारा किशोर मन के नितांत व्यक्तिगत अनुभवों से तैयार हुआ एक विहंगम कोलाज रचती है. -- *’नैनीताल फ़िल्म उत्सव’* की स्मारिका के लिए लिखा गया* ’ख़रगोश’ *फ़िल्म का परिचय. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mediamorcha at gmail.com Tue Nov 16 10:58:26 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Tue, 16 Nov 2010 10:58:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?pl=2Eread_=2E=2E?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSqIOCkleCliyDgpKzgpKjgpL4g4KSh4KS+4KSy4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWL4KSw4KWN4KSoISDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSv4KS54KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkh+CkguCkn+CksOCkqOClh+CknyDgpKrgpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+PyBvbiB3d3cubWVkaWFtb3JjaGEuY28u?= =?utf-8?q?in?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on November 16 2010 Read more... पत्रकारो के समक्ष अपनी विश्वसनीयता कायम रखना एक बड़ा चैलेंज-कुलदीप नैयर [image: पत्रकारो के समक्ष अपनी विश्वसनीयता कायम रखना एक बड़ा चैलेंज-कुलदीप नैयर] बाराबंकी / खबर / व्यवसायिकता के इस दौर मे जहाँ मीडिया के सामने नए नए चैलेंज खड़े किए है तो वहीं खुद मीडिया के सामने स्वयं उसकी विश्वसनीयता के सामने भी काफी बड़ा चैलेंज आज वर्तमान परिस्थितियों मे खड़ा हो चुका है। पत्रकारो के हितो के लिए काम करने वाले लखनऊ आधारित मीडिया के संगठन ... Posted on November 16 2010 Read more... रेप को बना डाला पोर्न! क्या यही है इंटरनेट पत्रकारिता? [image: रेप को बना डाला पोर्न! क्या यही है इंटरनेट पत्रकारिता?] अजय मोहन / मैंने जब इंटरनेट पत्रकारिता में कदम रखा तो पता चला कि दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल ने बड़े-बड़े फिल्टिर लगाकर सेक्स, पोर्न, न्यूड फोटो, आदि पर नियंत्रण कसा, लेकिन आज यही गूगल अपनी न्यूज साइट गूगल समाचार पर ऐसे कंटेंट को प्राथमिकता दे रहा है। जिनमें जितनी अधिक अश्लील तस्वीरें ... Posted on November 14 2010 Read more... A PEN AGAINST DICTATORSHIP [image: A PEN AGAINST DICTATORSHIP] (cartoon-courtsy by pawan) Ruminarayan / An aura of hope mingles with the air and gives a new way of life. Not only does it revitalizes us but surpasses an opportunity to realize and understand the ethos and ethics of human life. A beautiful mind not only thinks but let others to think too. A pen can ... Posted on November 10 2010 Read more... उर्दू पत्रकारिता का प्रारंभिक विकास और चुनौती [image: उर्दू पत्रकारिता का प्रारंभिक विकास और चुनौती] अर्चना / आजादी के बाद भारतीय समाचार जगत में क्रांतिकारी बदलाव आया। इस दौरान तकनीकी क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हुए और उसका असर मीडिया के बाजार पर भी पड़ा। लेकिन आज से करीब डेढ़-दो सौ साल पहले समाचार पत्रों के प्रकाषन और संपादन पर विचार करें तो लगता है कि कैसे संभव हुआ होगा। भारत ... Posted on November 8 2010 Read more... मीडिया के लिए अप्रासंगिक हो रहा विचार [image: मीडिया के लिए अप्रासंगिक हो रहा विचार] शषि भूषण लाल / पत्रकारिता और मीडिया में विचार के लिए कितना स्थान बच गया है ? माना जाता है कि समाचार पत्रों व चैनलों में तीन चीजें होती हैं, समाचार, विचार और मनोरंजन। इन्हीं के लिए पाठक या श्रोता कीमत भुगतान करता है। यह अलग बात है कि मीडिया में आय का वास्तविक स्रोत ... Posted on November 6 2010 Read more... मीडिया में नई पौध को अवसर मिले [image: मीडिया में नई पौध को अवसर मिले] संजय कुमार / जनसंचार शब्द से आज कोई अछूता नहीं है। खासकर जब 1780 में हिक्की ने भारत में जनसंचार के माध्यम समाचार पत्र की शुरुआत कर क्रांति का बीज जो डाला था, वह छोटा सा वृक्ष आज विशाल बरगद बन चुका है। संवाद को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के लिए जिन ... Posted on November 3 2010 Read more... लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति गठित [image: लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति गठित] नई दिल्ली/ खबर/ लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति का अध्यक्ष मलयालम मनोरमा के पत्रकार एस.सचिचदानंद मूर्ति को बनाया गया है। जबकि द टेलीग्राफ के मानिकी चटर्जी को उपाध्यक्ष बनाया । साथ ही 27 पत्रकारों को समिति का सदस्या बनाया गया है। एन.डी.टी.वी. के विजय त्रिवेदी को सचिव और दैनिक हिन्दुस्तान के उमाकांत लखेड़ा ... Posted on November 1 2010 Read more... मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय [image: मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय] माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर भोपाल । माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज ... Posted on November 1 2010 Read more... बिहार में विकास का सच और मीडिया [image: बिहार में विकास का सच और मीडिया] राजीव कुमार / बिहार के विभिन्न हिस्सों में जहरीली शराब से एक के बाद एक अंतहीन मौत देखी जा रही है। जहरीली शराब से मौत से ज्यादा चिन्ताजनक स्थिति मीडिया में इस गंभीर विषय की बेहद हल्की रिर्पोटिंग की है । राज्य सरकार ने राजस्व वसूली के विचार से नयी आबकारी नीति लागू ... Posted on October 24 2010 Read more... रचना शिविर का आयोजन होगा मुक्तिबोध की कर्मस्थली में – प्रविष्टियाँ आमंत्रित [image: रचना शिविर का आयोजन होगा मुक्तिबोध की कर्मस्थली में – प्रविष्टियाँ आमंत्रित] रायपुर / खबर । रचनाकारों की संस्था, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा देश के उभरते हुए कवियों/लेखकों/निबंधकारों/कथाकारों/लघुकथाकारों/ब्लॉगरों को देश के विशिष्ट और वरिष्ठ रचनाकारों द्वारा साहित्य के मूलभूत सिद्धातों, विधागत विशेषताओं, परंपरा, विकास और समकालीन प्रवृत्तियों से परिचित कराने, उनमें संवेदना और अभिव्यक्ति कौशल को विकसित करने, प्रजातांत्रिक और शाश्वत जीवन मूल्यों के ... -- www.mediamorcha.co.in -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mediamorcha at gmail.com Wed Nov 17 11:32:45 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Wed, 17 Nov 2010 11:32:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?cGwucmVhZCAuLi4=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSqIOCkleCliyDgpKzgpKjgpL4g4KSh4KS+4KSy4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWL4KSw4KWN4KSoISDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSv4KS54KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkh+CkguCkn+CksOCkqOClh+CknyDgpKrgpKTgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+PyBvbiB3d3cubWVkaWFtb3JjaGEuY28u?= =?utf-8?q?in?= Message-ID: Posted on November 17 2010 Read more... पत्रकारिता में संवेदना जरूरीः रमेश शर्मा [image: पत्रकारिता में संवेदना जरूरीः रमेश शर्मा] भोपाल / खबर । माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 16 नवम्बर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष कैलाशचंद्र पंत तथा मुख्यवक्ता वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। ... Posted on November 16 2010 Read more... पत्रकारो के समक्ष अपनी विश्वसनीयता कायम रखना एक बड़ा चैलेंज-कुलदीप नैयर [image: पत्रकारो के समक्ष अपनी विश्वसनीयता कायम रखना एक बड़ा चैलेंज-कुलदीप नैयर] बाराबंकी / खबर / व्यवसायिकता के इस दौर मे जहाँ मीडिया के सामने नए नए चैलेंज खड़े किए है तो वहीं खुद मीडिया के सामने स्वयं उसकी विश्वसनीयता के सामने भी काफी बड़ा चैलेंज आज वर्तमान परिस्थितियों मे खड़ा हो चुका है। पत्रकारो के हितो के लिए काम करने वाले लखनऊ आधारित मीडिया के संगठन ... Posted on November 16 2010 Read more... रेप को बना डाला पोर्न! क्या यही है इंटरनेट पत्रकारिता? [image: रेप को बना डाला पोर्न! क्या यही है इंटरनेट पत्रकारिता?] अजय मोहन / मैंने जब इंटरनेट पत्रकारिता में कदम रखा तो पता चला कि दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल ने बड़े-बड़े फिल्टिर लगाकर सेक्स, पोर्न, न्यूड फोटो, आदि पर नियंत्रण कसा, लेकिन आज यही गूगल अपनी न्यूज साइट गूगल समाचार पर ऐसे कंटेंट को प्राथमिकता दे रहा है। जिनमें जितनी अधिक अश्लील तस्वीरें ... Posted on November 14 2010 Read more... A PEN AGAINST DICTATORSHIP [image: A PEN AGAINST DICTATORSHIP] (cartoon-courtsy by pawan) Ruminarayan / An aura of hope mingles with the air and gives a new way of life. Not only does it revitalizes us but surpasses an opportunity to realize and understand the ethos and ethics of human life. A beautiful mind not only thinks but let others to think too. A pen can ... Posted on November 10 2010 Read more... उर्दू पत्रकारिता का प्रारंभिक विकास और चुनौती [image: उर्दू पत्रकारिता का प्रारंभिक विकास और चुनौती] अर्चना / आजादी के बाद भारतीय समाचार जगत में क्रांतिकारी बदलाव आया। इस दौरान तकनीकी क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हुए और उसका असर मीडिया के बाजार पर भी पड़ा। लेकिन आज से करीब डेढ़-दो सौ साल पहले समाचार पत्रों के प्रकाषन और संपादन पर विचार करें तो लगता है कि कैसे संभव हुआ होगा। भारत ... Posted on November 8 2010 Read more... मीडिया के लिए अप्रासंगिक हो रहा विचार [image: मीडिया के लिए अप्रासंगिक हो रहा विचार] शषि भूषण लाल / पत्रकारिता और मीडिया में विचार के लिए कितना स्थान बच गया है ? माना जाता है कि समाचार पत्रों व चैनलों में तीन चीजें होती हैं, समाचार, विचार और मनोरंजन। इन्हीं के लिए पाठक या श्रोता कीमत भुगतान करता है। यह अलग बात है कि मीडिया में आय का वास्तविक स्रोत ... Posted on November 6 2010 Read more... मीडिया में नई पौध को अवसर मिले [image: मीडिया में नई पौध को अवसर मिले] संजय कुमार / जनसंचार शब्द से आज कोई अछूता नहीं है। खासकर जब 1780 में हिक्की ने भारत में जनसंचार के माध्यम समाचार पत्र की शुरुआत कर क्रांति का बीज जो डाला था, वह छोटा सा वृक्ष आज विशाल बरगद बन चुका है। संवाद को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के लिए जिन ... Posted on November 3 2010 Read more... लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति गठित [image: लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति गठित] नई दिल्ली/ खबर/ लोकसभा प्रेस सलाहकार समिति का अध्यक्ष मलयालम मनोरमा के पत्रकार एस.सचिचदानंद मूर्ति को बनाया गया है। जबकि द टेलीग्राफ के मानिकी चटर्जी को उपाध्यक्ष बनाया । साथ ही 27 पत्रकारों को समिति का सदस्या बनाया गया है। एन.डी.टी.वी. के विजय त्रिवेदी को सचिव और दैनिक हिन्दुस्तान के उमाकांत लखेड़ा ... Posted on November 1 2010 Read more... मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय [image: मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय] माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर भोपाल । माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज ... Posted on November 1 2010 Read more... बिहार में विकास का सच और मीडिया [image: बिहार में विकास का सच और मीडिया] राजीव कुमार / बिहार के विभिन्न हिस्सों में जहरीली शराब से एक के बाद एक अंतहीन मौत देखी जा रही है। जहरीली शराब से मौत से ज्यादा चिन्ताजनक स्थिति मीडिया में इस गंभीर विषय की बेहद हल्की रिर्पोटिंग की है । राज्य सरकार ने राजस्व वसूली के विचार से नयी आबकारी नीति लागू ... -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From iilloovveeuu1975 at gmail.com Thu Nov 18 00:02:27 2010 From: iilloovveeuu1975 at gmail.com (rajni singh) Date: Thu, 18 Nov 2010 00:02:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSJ4KSy4KSy?= =?utf-8?b?4KWB4KSVIOCkleCkviDgpLjgpL7gpLngpL/gpKTgpY3gpK8g4KS44KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KWH?= Message-ID: प्रिय साथी, आउटलुक हिंदी साहित्य को लेकर एक सर्वे करा रहा है. पिछले साल हमने देखा कि इस सर्वे में कुछ ऐसे नाम थे, जिन्हें कम से कम शीर्ष पर तो नहीं ही होना था. इसके पीछे एक बड़ा कारण तो यही है कि हमारे-आपके जैसे लोग इस तरह के सर्वे से दूर रहे. माना कि इस तरह के सर्वे का साहित्य के लिहाज से बहुत महत्व न हो तो भी आम पाठक के पास तो इसके निष्कर्ष ही पहुंचे न ! इस साल भी आउटलुक सर्वे करा रहा है. मेरा अनुरोध है कि इस सर्वे पर अपनी राय जरुर दें. ऑनलाइन सर्वे में आप यहां से भाग ले सकते हैं- http://raviwar.com/dailynews/d2_outlook-famous-hindi-women-writer-poet-survey-raviwar.shtml आपका ही बीजू Fwd by Rajni -- regards Rajni Singh -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From blaft at blaft.com Thu Nov 18 09:42:15 2010 From: blaft at blaft.com (Blaft Publications) Date: Thu, 18 Nov 2010 04:12:15 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Tamil Pulp Fiction - 19 Nov - Press Club's Culture Beat Message-ID: Mumbai Press Club's Culture Beat presents Coffee and Conversations The Blaft Anthology of Tamil Pulp Fiction Vol. I and II Mad scientists, desperate housewives, murderous robots and scandalous starlets … where else would you find all these but in Tamil pulp fiction? The huge body of writing in this genre may have been produced for nearly a century, but it is only now that some attempt has been made to claim its status as literature. Blaft Publications co-founder Rakesh Khanna will discuss The Blaft Anthology of Tamil Pulp Fiction Vol. I and II, and present a slideshow of Tamil pulp cover art and video interviews. Date: Friday, November 19, 2010 Venue: Press Club Glass House, Azad Maidan, Mumbai -, Fort Bombay, Maharashtra 400001, India Tel: 022 22616463 Time: 7 p.m. The event is open to all. You are subscribed to "Blaft Publications" as deewan at sarai.net. If you do not wish to receive any further communications, please copy and paste this url into your browser to unsubscribe -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From raviratlami at gmail.com Thu Nov 18 12:46:28 2010 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Thu, 18 Nov 2010 12:46:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KSu4KS+4KSf?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KSCIOCkuOClhyDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSG4KSqIOCkreClgCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KWH4KS24KS+4KSoIOCkueCliOCkgj8=?= Message-ID: <4CE4D2CC.30609@gmail.com> बड़े दिनों बाद एक बढ़िया टमाटरी रसीला लालित्य निबंध पढ़ने को मिला जिसे लिखा है प्रतिभा सक्सेना ने. आप भी आनंद लें यदि टमाटरों से परेशान हैं. नहीं हैं तब भी शायद इसे पढ़कर टमाटरों से परेशानी होने लगे :) वाह टमाटर ,आह टमाटर ! (http://lambikavitayen5.blogspot.com/2010/11/blog-post.html) * जब हम छोटे थे तो टमाटर इतने नहीं चलते थे .हर सब्ज़ी का अपना स्वाद होता अपनी सुगंध,अपना रूप अपना रंग कहाँ ,अब तो सब टमाटर होता जा रहा है . टमाटर की लाली बिना सब बेकार . कोई चीज़ ऐसी नहीं दिखती जिसमें यह न हो . कल एक पार्टी में जाना हुआ .मारे टमाटर के मुश्किल . एक स्वाद सब में ,एक रंग टमाटर, टमाटर ! दाल में टमाटर सूप में तो चलो ठीक है ,कभी-कभी तो डर लगता है पानी में भी नीबू के कतरे की जगह टमाटर काट कर न डाल दिया हो . छोले तो छोले ,.मसाले के साथ पेल दिए टमाटर .पर नवरात्र के प्रसादवाले छौंके हुए काले चनों मे भी घुस-पैठ .और लौकी की तरकारी पर हो गया अतिक्रमण, टमाटरों की हनक के नीचे उसका अपना स्वाद ग़ायब ! मुँगौरी की सब्ज़ी में देखो, तो टमाटर घुले ,पता ही नहीं लगता मुँगौरी है या कुछ अल्लम-गल्लम , कल घर पर मैंने बिल्कुल सादे मटर छौंके चाय के साथ नाश्ते के लिए, और मैं ज़रा दूसरा काम करने लगी. वन्या ,अपनी भतीजी से कह दिया ,’ज़रा मटर चला देना, मैं अभी आ रही हूं .’ आई तो कहने लगी ,'बुआ ,मैंने सब ठीक कर दिया !आप ने मटर में टमाटर डाले ही नहीं थे मैंने डाल कर पका दिया.' 'अरे तुमने कहां से डाल दिये टमाटर तो थे नहीं .' 'वो जो प्यूरी रखी थी वह डाल दी ,नहीं तो क्या मज़ा आता खाने में !' हे भगवान ,बह गई मटर की मिठास ,अब चाटो टमाटर का स्वाद , क्या कहती उससे कुछ नहीं कहा . निगलना पड़ेगा मजबूरी में, सोंधापन डूब गया प्यूरी में ! . मारे टमाटरों के मुश्किल हो गई है ,कभी-कभी तो लगता है चाय में नीबू की जगह टमाटर न पड़ा हो . अरे इस बार तो गज़ब हो गया .टमाटर का पराँठा .रायते में टमाटर ,चटनी में ,अरे आलू की टिक्की भी सनी पड़ी है. कढ़ी में भी टमाटर. तहरी -खिचड़ी ,पुलाव कोई तो बचा रहे इसके अतिचार से . अभी उस दिन अपनी राजस्थानी मित्र के यहां गई थी ,उन्होंने गट्टे की तरकारी बनाई थी (जो चाहे सब्ज़ी कहे ,मुझे तरकारी कहना ज़्यादा स्वादिष्ट लगता है ). परोस कर बोलीं, ‘लो खाओ अपनी प्रिय चीज़ !’ चख कर मैंने पूछा,’ यह क्या नई तरह की कढ़ी है?’ खा जानेवाली निगाहों से देखती हुई बोलीं , 'ये गट्टे तुम्हें कढ़ी लग रहे हैं ?’ ‘अच्छा गट्टे हैं ?’ मैं दंग रह गई बेसन के घोल में खटास घोल दी जाए -चाहे टमाटर की ही ,कढ़ी तो कहलाएगी !उसी में समा गए गट्टे ,क्या ताल-मेल है , और रंग ?पूछिए मत बेसन टमाटर का मिक्स्ड, दोनों का स्वाद चौपट. और वे ऐसे देखे जा रही हैं जैसे मैं कोई अजूबा होऊँ . अब कहाँ सुकुमार स्वर्ण-हरित भिंडियों का सलोना करारापन. वह देव दुर्लभ स्वाद !उद्दाम टमाटरी प्रभाव सब कुछ लील गया ,उस रक्तिम शिकंजे में सब जकड़े जा रहे है . हे भगवान, यह .सर्वग्रासी आतंक हमारे सारे स्वाद ,सारे रंग मटियामेट कर के ही छोड़ेगा क्या ! **** From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Nov 18 16:46:38 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 18 Nov 2010 16:46:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KSn?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCliyDgpJfgpYvgpLLgpYAg4KSy4KSX4KSk4KWHIOCknA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KS54KWL4KSC4KSo4KWHIOCkpuClh+CkluCkviDgpKU=?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: *गांधी को गोली लगते जिन्होंने देखा था*** * * *ब्रजेश कुमार* “वह भी एक दिन था।” वे क्षण भर रुके। फिर थोड़ी दूर चलकर बताया," गांधीजी को जब गोली लगी तो मैं इस स्थान (10 से 12 फुट की दूरी) पर था।” यह बात के.डी. मदान कह रहे थे। सहसा इसपर आपको यकीन न हो। पर उन्हें सुनने के बाद वह पूरा दृश्य सभी के सामने नाचने लगता है। ऐसा ही उस समय हुआ जब गांधी स्मृति केंद्र के मैदान पर बुजुर्ग के.डी.मदान आंखों देखा हाल सुना रहे थे। मदान उन दो लोगों में हैं, जिन्होंने गांधी को करीब से गोली लगते देखा था और संयोग से हमारी जानकारी में हैं। उन दिनों मदान वहां ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से गांधी के भाषण को रिकार्ड करने रोजाना जाते थे। उन्होंने कहा कि 30 जनवरी की वह एक सामान्य शाम थी। गांधीजी प्रार्थना स्थल पर अपनी जगह पहुंचने ही वाले थे कि एक तेज आवाज आई। मुझे लगा कि कोई पटाखा छूटा है। कुछ और सोच पाता कि दूसरी आवाज सुनाई दी। थोड़ा आगे पहुंचा, तबतक तीसरी बार आवाज आई। वहां मैंने पाया कि जमीन पर गिरे गांधीजी को एक व्यक्ति उठा रहा है, जबकि गोली चलाने वाले को वहां मौजूद कुछेक लोग पकड़े हुए हैं। हालांकि, वह व्यक्ति पूरी तरह शांत और स्थिर था।" दरअसल घटना के 62 साल बाद मदान उस काली शाम की दुखद स्मृति सुना रहे थे। संयोग देखें, यह कहानी वे उसी मैदान में सुना रहे थे, जहां गांधी की हत्या हुई थी। हालांकि, तब यह स्थान बिड़ला हाउस के रूप में जाना जाता था। पर अब इसकी पहचान गांधी स्मृति केंद्र के रूप में ज्यादा है। परिसर में प्रवेश करते ही उन्हें रह-रहकर पुरानी बातें याद आती रहीं। यह सहज था, क्योंकि उन यादों को ताजा करने के लिए पुराने अवशेष अब भी वहां ज्यों के त्यों पड़े हैं। मदान ने परिसर में घूमते हुए बताया कि उस दिन गांधी किस रास्ते मनु और आभा के साथ प्रार्थना स्थल पर आ रहे थे ? किस स्थान व कितने करीब से उन्हें गोली मारी गई ?और स्वयं वे कितने फासले पर थे। प्रार्थना सभा से जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातें भी उन्होंने बताईं। तब ऐसा लग रहा था जैसे हम कोई वृतचित्र देख रहे हों। वैसे, परिसर में गांधी के पद-चिन्ह बने हैं। कई स्थानों पर पट्टियां भी लगी हैं, जिसपर जानकारियां दर्ज हैं। इससे मालूम होता है कि गांधी फलाने कमरे में आने वालों से मुलाकात करते थे और फलाने रास्ते से प्रार्थना स्थल तक जाते थे। इस छायादार परिसर में और भी सूचनाएं करीने से दर्ज हैं। लोग उसे पढ़कर सच जान सकते हैं। पर मदान करीब 45 मिनट तक 30 जनवरी की शाम का आंखों देखा हाल सुनाते रहे, जो वहां मौजूद लोगों के जेहन में गहरे उतरा। एकबारगी ऐसा लगा कि कोई अनुभव से पका पत्रकार उस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा है। यह अवसर 'गांधी दर्शन' के संपादक अनुपम मिश्र और गांधी स्मृति केंद्र की निदेशक मणिमाला के अथक प्रयास से ही संभव हुआ। अनुपम मिश्र ने ही उस शाम के प्रत्यक्ष गवाह मदान को ढूंढा। इसी क्रम में जब उन्हें मालूम हुआ कि इस घटना को और करीब देखने वाल कोई दूसरा व्यक्ति भी है तो पता-ठिकाना लेकर पत्रकार-लेखक देवदत्त के पास पहुंचे। फिर एक कार्यक्रम की कल्पना की गई, ताकि मदान व देवदत्त के स्मृति-खंड को सुना जा सके। जो लोग इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे और स्मृति-खंड को सुनने आए उनमें वीजी वर्गीस, गोपाल कृष्ण गांधी, तारा बेन, केएन. गोविंदाचार्य आदि शामिल थे। वे दोनों पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े रहे हैं। दोनों हमेशा उस दुखद स्मृति-खंड को सार्वजनिक करने से बचते रहे। आज जब पिद्दी खबरों व संस्मरणों पर भी अपनी पीठ थपथपाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है तो यह उम्मीद देवदत्त और मदान जैसे कुछेक पत्रकारों से ही कर सकते हैं, जिन्होंने गांधी को देख-सुनकर अपनी समझ बढ़ाई है। बहरहाल, मदान ने बताया कि उन दिनों वे 24 के थे और ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में बतौर कार्यक्रम अधिकारी नियुक्त थे। वे प्रार्थना सभा से ठीक पहले गांधीजी के कहे को रिकार्ड करने बिड़ला हाउस जाते थे। क्योंकि, रात 8.30 बजे गांधीजी का वही भाषण ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित किए जाता था। उन्होंने कहा, * > “मैं 19 सितंबर, 1947 से 30 जनवरी, 1948 तक करीब-करीब रोजाना प्रार्थना सभा > में उपस्थित था। इस बीच कुल चार दिन ही ऐसे थे, जब प्रार्थना-सभा नहीं हुई। > क्योंकि, एक दिन गांधीजी कुरुक्षेत्र में लगे शरणार्थी शिविर का दौरा करने गए > थे, जबकि तीन दिन वे किसी अन्य जगहों की यात्रा पर थे। संभवत: बंगाल गए थे। ” *अपनी स्मृति को साझा करते हुए मदान ने कहा कि प्रार्थना सभा का समय शाम पांच बजे निश्चित था। गांधीजी अधिक से अधिक पांच मिनट की देरी से अपने स्थान पर पहुंच जाते थे। पर घटना वाली शाम वे करीब 15 मिनट की देरी से वहां पहुंचे। कहा जाता है कि गांधीजी को शाम 5.17 बजे गोली लगी थी। पर मेरी घड़ी तब शाम के 5.16 का समय बता रही थी। इस तरह क्रमवार मदान की कभी न मिट पाने वाली इस स्मृति-खंड को सुनकर एक अजीब सा सूनापन महसूस हो रहा था। अब वे 86 के हो चुके हैं। पर आवाज साफ और उच्चारण स्पष्ट हैं। मदान ने कहा कि तब सूचना पहुंचाने का कोई सीधा माध्यम नहीं था। इसके बावजूद घटना की सूचना इतनी तेजी से फैली कि शाम के छह बजते-बजते करीब बीस हजार से अधिक लोग गेट के बाहर इकट्ठा हो गए थे। यहां पहुंचने वालों में लार्ड माउंटबेटन पहले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। इसके बाद नेहरू, सरदार पटेल व अन्य लोग आए।* मदान को इस बात का अब भी मलाल है कि वे उस व्यक्ति को नहीं ढूंढ़ पाए, जिसने घटनास्थल से गांधीजी के शरीर को उठाया था। लेकिन, उस मोमबत्ती के मद्धिम आलोक को वे आज भी नहीं भूले, जिसे तत्काल किसी ने उसी स्थान पर जला दिया था, जहां गांधीजी को गोली लगी थी और वे गिर पड़े थे।* स्मृति को सुनाते हुए कई बार मदान के भीतर छुपा पत्रकार भी जगता नजर आया। ऐसा एक मौका वह था, जब उन्होंने कहा कि घटना हमारे सामने हुई थी, पर कोई सच कहने-मानने को तैयार नहीं था। बीबीसी ने 5.35 बजे सबसे पहले इस खबर को प्रसारित किया। हालांकि, ऑल इंडिया रेडियो ने कुछ देर बाद घटनास्थल से ही नेहरू के शोकाकुल भाषण का सीधा प्रसारण किया। गांधी स्मृति केंद्र के एक प्रवेश द्वार की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “यहीं से नेहरू ने अपना भाषण दिया था। उनके आंसू बह रहे थे, पर वे लगातार बोलते रहे। उस शाम यहां इकट्ठा हुए सभी लोग शोक में गहरे डूबे थे। सबकुछ मौन में डूबा था। वह नजारा अलग था। ” हालांकि, पत्रकार-लेखक देवदत्त थोड़ी देर से आए, उन्होंने मदान की पूरी बातें नहीं सुनीं। पर जो थोड़ा-बहुत कहा उससे बात और साफ हुई। सवाल-जवाब का दौरान आया तो तथ्य बताते हुए कहा कि उन्होंने घटना को दो-तीन फुट की दूरी से देखा था। साथ ही यह भी कहा कि जो लोग गांधीजी पर गोली चलाने वाले को पकड़ रहे थे, वे कोई प्रशिक्षित नहीं लग रहे थे। * > जनसत्ता में छपे अपने पुराने स्मृति-खंड में वे कह चुके हैं कि गोली लगने के > बाद गांधी को “हे राम” कहते उन्होंने नहीं सुना था। *वही सवाल यहां के.डी.मदान से हुआ। उन्होंने कहा, > *“हालांकि, मैंने गांधी को ‘हे राम’ कहते नहीं सुना। पर यह लीजेंड है और इसे > लीजेंड ही रहने दिया जाय।** ”* मदान ने कहा कि प्रार्थना स्थल पर कोई पुलिसकर्मी तैनात नहीं रहता था और गोली चलाने वाले को पकड़ने वाले आस-पास खड़े लोग ही थे। दरअसल इन दोनों बुजूर्गों ने जो कहा उनमें कई समानताएं थीं। इन बातों से अलग होकर यहां मौजूद लोगों को देवदत्त ने अपनी दूसरी चिंताओं से भी वाकिफ कराया। उन्होंने कहा, “इस व्यवस्था ने गांधी को रीति-रिवाज का तरीका भर बना दिया है। वे गांधी का इस्तेमाल अपनी जरूरत भर करते हैं। हालांकि, हजारों लोगों के जहन में गांधी जीवित हैं। इसमें युवा ज्यादा है, वे गांधी को नजदीक से जानना-समझना चाहते हैं। ” कार्यक्रम की इसी श्रृंखला में *सन् 1937 में गांधीजी पर बनी 90 मिनट की एक डाक्युमेंट्री फिल्म का अंग्रेजी संस्करण दिखाया गया। इसे तैयार करने का श्रेय ए.के.चेट्टिआर को है। *हालांकि, मूल रूप से यह फिल्म तमिल भाषा में बनाई गई थी। बाद में उसे तेलगु और फिर हिन्दी में डब किया गया। अनुपम मिश्र ने कहा, “सन् 1940 में अंग्रेज सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था और इसकी कॉपियों को नष्ट करने के प्रयास हुए थे। खैर, फिल्म का अंग्रेजी संस्करण मुश्किल से मिला है।” नवंबर की भरी दोपहरी में मदान और देवदत्त को गांधी स्मृति केंद्र में सुनना एक अदभुत अनुभव था। गांधी स्मृति में दाखिल होते ही महसूस हुआ कि इस आंगन में न जाने कितनी पुरानी सदियों का मौन जमा है। मदान और देवदत्त उसी मौन की वजह बता रहे थे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Nov 18 22:11:56 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 18 Nov 2010 22:11:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KSW4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpuCkpOCljeCkpCDgpJXgpL4g4KSF4KS44KSy4KWAIOCkmuClhw==?= =?utf-8?b?4KS54KSw4KS+IOCkuOCkrOCkleClhyDgpLjgpL7gpK7gpKjgpYc=?= Message-ID: बरखा दत्त की जगह अभी कोई और होती तो या तो सलाखों के पीछे होती या फिर उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ती। मामला सच है या फिर झूठ, इसका फैसला बाद में होता। वैसे भी इस देश में दो तरह के फैसले काम करते हैं। एक कानून और कचहरी का फैसला जिसकी गति बहुत ही मंद है और दूसरा मीडिया का फैसला। कचहरी का फैसला आए इससे पहले कि मीडिया अपने तरीके से फैसले कर देता है।.इस तरह से पैकेज बनाए जाते हैं,शब्दों का प्रयोग किया जाता है,ऐसी इमेज बनायी जाती है कि जिस शख्स पर आरोप लगे होते हैं वह आम लोगों की निगाह में पूरी तरह दोषी करार दिया जा चुका होता है। इन दिनों में मैं वक्त है एक ब्रेक का( न्यूज चैनलों की कहानियां) पढञ रहा हूं और उसमें कई ऐसे संदर्भ हैं जो यह साफ कर देते हैं कि मीडिया आरोपी और दोषी के बीच की विभाजन रेखा को ब्लग कर देता है। मीडिया के फैसले के हिसाब से बात करें तो बरखा दत्त ने न केवल टेलीविजन जर्नलिस्जम को दागदार किया बल्कि देश की उन लाखों लड़कियों के बीच एक बड़ी दुविधा,बड़ा सवाल छोड़ दिया कि- क्या वो अब बरखा दत्त बनन चाहेगी? ये सिर्फ बरखा दत्त के लिए ही नहीं बल्कि हम सब के लिए,पूरी मीडिया इन्डस्ट्री केलिए खुशकिस्मती होगी कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया के साथ बरखा दत्त का भी नाम आना लगा है, वह पूरी तरह गलत हो। ऐसा होने से न केवल बरखा दत्त की की ध्वस्त होती छवि टूटने से बचेगी बल्कि देश की लाखों लड़कियों का सपना बच सकेगा जो कि बरखा दत्त जैसी बनन चाहती है। लेकिन ऐसा हो इसके पहले भड़ास4मीडिया ने नीरा राडिया और बरखा दत्त के बीच हुई बातचीत की ऑडियो जारी करने शुरु कर दिए हैं। अभी तक साइट ने दो खंड़ प्रकाशित कर दिए हैं और आगे भी इस ऑडियो को बढ़ाने की संभावना है। एक तो संभव है कि उसमें बरखा दत्त की बातचीत के और भी अंश हो और दूसरा कि इस घोटाले के साथ वीर सिंघवी( हिन्दूस्तान टाइम्स) का भी नाम है। साइट को इनकी बातचीत के अंश प्रकाशित करनी है। ऑडियो सुनकर जो पहली बार समझ आता है वो यह कि बरखा दत्त राजनीतिक उठापटक में सिर्फ एक पत्रकार की हैसियत से दिलचस्पी नहीं लेती हैं और न ही कोई तह तक की बातें हम तक पहुंचाने के लिए जानकारी इकठ्ठा कर रही हैं। अगर ऐसा होता तो आज वो खुद इस घोटाले की स्ट्रिंग ऑपरेशन हम तक पहंचा चुकी होती। जाहिर है उनकी ये दिलचस्पी एक पत्रकार से कहीं आगे की है। नहीं तो मंत्रियों के बनने न बनने की बात वो नीरा राडिया से क्यों करती? ऑडियो में जो दोनों के बीच के संवाद हैं, वो अपने आप में कई सवाल छोड़ जाते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में बड़े पत्रकारों( प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक) के होने की बात हिन्दी न्यूज चैनल का सबसे जाना-पहचाना चेहर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने भी की थी। भड़ास4मीडिया ने इस बात की चर्चा करते हुए पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग की उस पोस्ट का हिस्सा हमारे सामने रखा-''...नीरा राडिया ने अपने काम को अंजाम देने के लिये मीडिया के उन प्रभावी पत्रकारों को भी मैनेज किया किया, जिनकी हैसियत राजनीतिक हलियारे में खासी है।'' इसी पोस्ट में एक और जगह वे लिखते हैं- ''... नीरा राडिया हर उस हथियार का इस्तेमाल इसके लिये कर रही थीं, जिसमें मीडिया के कई नामचीन चेहरे भी शामिल हुये, जो लगातार राजनीतिक गलियारों में इस बात की पैरवी कर रहे थे कि राजा को ही संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय मिले.'' इससे पहले भी मीडियाखबर डॉट कॉम ने न्यूजx की डूबने की कहानी बताने के दौरान इस घोटाले में मीडिया दिग्गजों के शामिल होने की बात उठायी थी। लेकिन ये मामला चूंकि सीधे-सीधे मीडिया से जुड़े लोगों का था तो मेनस्ट्रीम की मीडिया ने जान-बूझकर अंजान बनने का नाटक किया। मीडिया के लोगों के बीच वेबसाइटों और पोर्टल पर आनेवाली खबरों की विश्वसनीयता को लेकर मीडिया के लोगों की ओर से जबरदस्त तरीके से संदेह फैलाए जाते हैं,उसके पीछे कहीं न कहीं सच के सामने आ जाने का डर काम करता है। लेकिन आज हम जिस दौर में जी रहे हैं,उसमें एक बात तो साफ है कि मेनस्ट्रीम मीडिया लाख कोशिशें कर ले,वो मीडिया मंडी के भीतर चल रही दलाली, घूसखोरी, दबंगई को पूरी तरह दबा नहीं सकता। इस बात की संभावना फिर भी जतायी जा सकती है कि संभव है कि बरखा दत्त का इसमें कोई भूमिका न हो,वो बेदाग होकर हमारे सामने निकले। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है,तब तक मीडिया के फैसले सुनाने के फर्मूले के तहत सोचें तो क्या निकलकर आता है,उसका कौन सा चेहरा हमारे सामने होता ? करगिल के बम धमाकों के बीच से पीटीसी देती हुई, वी दि पीपल में हक की आवाज बुलंद करती हुई, लक्ष्य जैसी फिल्म में प्रीति जिंटा के भीतर घुस आयी एक ईमानदार पत्रकार की आत्मा की या फिर राजनीतिक जोड़-तोड़ के लिए नीरा राडिया जैसी देश की सबसे बड़ी लॉबिइस्ट से फोन पर बात करती हुई? क्या बीए,एमए,डिप्लोमा करनेवाली, इन्टर्नशिप करती हुई,टेप इन्जस्ट और काउंटर नोट करती हुई देश की लाखों लड़कियां बनना चाहेगी ऐसी बरखा दत्त? भड़ास4मीडिया पर जाने के लिए चटकाएं- http://www.bhadas4media.com जारी की गयी ऑडियो के अंश- http://www.bhadas4media.com/tv/7432-2010-11-18-14-52-55.html http://www.bhadas4media.com/tv/7433-2010-11-18-15-11-39.html http://www.bhadas4media.com/tv/7434-2010-11-18-15-41-59.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Nov 19 02:41:16 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 19 Nov 2010 02:41:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Mkcg4KS44KWN4KSq?= =?utf-8?b?4KWH4KSV4KWN4KSf4KWN4KSw4KSuIOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSDIOCkteClgOCksCDgpLjgpL/gpILgpJjgpLXgpYAg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSR4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkn+Clh+CkqiDgpJzgpL7gpLDgpYA=?= Message-ID: 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में बरखा दत्त के साथ-साथ वीर सिंघवी(हिन्दुस्तान टाइम्स) का भी नाम लिया जा रहा है। देर रात वीर सिंघवी और नीरा राडिया( देश की सबसे बड़ी लॉबिइस्ट) के बीच हुई बातचीत की फोन टेप यूट्यूब पर जारी कर दिया गया है। 'डेथ टू ट्रेटर' नाम से यूट्यूब पर कुल तीन ऑ़डियो डाले गए हैं जिसमें नीरा राडिया मीडिया मुगल वीर सिंघवी से देश के अलग-अलग मसले पर बात करते हुए कैबिनेट पद, अंबानी बंधुओं और मीडिया प्लानिंग की बात करती है. वो इस देश के संदर्भ में बनाना रिपब्लिक( BANANA REPUBLIC) के बारे में बात करती है। मजेदार बात है कि वो बार-बार नेशनल इन्टरेस्ट की बात करती है। ये बात हैरान करनेवाली तो नहीं है लेकिन शर्मसार कर देनेवाली जरुर है कि जिस 2G स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देशभर में तूफान मचा हुआ है,डी.राजा के इस्तीफे से यूपीए सरकार ने अपने गले की फंसी हड्डी निकालने की कोशिश की और मीडिया ने उस हड्डी के उपर आसमान उठा लिया,वहीं देश के तमाम मीडिया चैनलों और संस्थानों ने दो मीडिया दिग्गजों के बारे में एक लाइन भी खबर नहीं चलायी। इस तरह से एक पारालाइज्ड स्टोरी को वो दिन-रात ब्रेकिंग और इक्सक्लूसिव चिपकाकर चलाते रहे। इंटरनेट की दुनिया में सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज है कि इस मामले में देश के दो सबसे बड़े,चर्चित और दिग्गज पत्रकार के नाम सामने आए हैं। बरखा दत्त जो कि वी दि पीपल( NDTV 24X7) सबसे ज्यादा हक और बेहतर समाज की बात करती हैं तो वहीं वीर सिंघवी TLC( ट्रेवलिंग एंड लिविंग चैनल), हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान पर कथावाचन करते हैं जिन्हें पढ़ते-देखते हुए एक हाइली एलिट पत्रकार से रु-ब-रु होने का एहसास होता है। वीर सिंघवी ने इस पूरे मामले में अपना नाम आने के बाद उसका जबाब अपनी साइट पर दिया है औऱ कहा है कि इस बातचीत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर ऐसा माना जाए कि मैंने मिस्टर राजा के लिए कोई लाबिइंग की है। वीर सिंघवी ने अंबानी बंधुओं को लेकर भी अपनी सफाई पेश की है। मामला जो भी हो लेकिन वेबसाइट के जरिए खासतौर से वीर सिंघवी का नाम आने से मीडिया समाज को गहरा धक्का जरुर लगा है और एक बात ये सोचने को मजबूर जरुर करता है कि क्या इस प्रोफेशन में भी वही सब कुछ होने लगा जिसके विरोध में ये प्रोफेशन अपने को डटे रहने के ढोल पीटता रहता है। संभव है वीर सिंघवी के खुद इस मामले में अपनी साइट पर लिख देने के बाद मेनस्ट्रीम मीडिया इस पर अपनी बात रखनी शुरु करे। ऐसे में अब देखना है कि वो इस पूरे मामले को किस तरह से उठाता है और किस तरह की लीपापोती की जाती है। यूट्यूब के तीनों लिंक- http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/1/ljLoovK9SQU http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/0/RXUNO1QsAwo http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/2/oIw7IfGYWEk -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Nov 19 12:33:31 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 19 Nov 2010 12:33:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Mkcg4KS44KWN4KSq?= =?utf-8?b?4KWH4KSV4KWN4KSf4KWN4KSw4KSuIOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSDIOCkteClgOCksCDgpLjgpL/gpILgpJjgpLXgpYAg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSR4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkn+Clh+CkqiDgpJzgpL7gpLDgpYA=?= In-Reply-To: References: Message-ID: विनीत का ध्यान मीडियावाजी कर रहे कुछेक लोगों पर टिका, अच्छा संकेत है। पर उनसे गहरे शोधपत्र की उम्मीद रहती है। हालांकि कई बार वे सभी को एक ही चाबुक से हांकते नजर आते हैं। जैसा कि अभी-अभी दिखा। अलबत्ता बता दें कि यह मामला सबसे पहले प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के 16 मई 2010 अंक में बतौर आवरण कथा दर्ज है। वह देख सकते हैं। अगले अंक में बरखा और वीर की कौन पूछे, चार और नाम दर्ज हैं। आप उनसे भी रू-ब-रू हो सकते हैं। भ्रम न पैदा हो इस वास्ते लिख रहा हूं। बाकी दीवान के पाठक समर्थ हैं। ब्रजेश झा On 11/19/10, vineet kumar wrote: > 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में बरखा दत्त के साथ-साथ वीर सिंघवी(हिन्दुस्तान टाइम्स) > का भी नाम लिया जा रहा है। देर रात वीर सिंघवी और नीरा राडिया( देश की सबसे > बड़ी लॉबिइस्ट) के बीच हुई बातचीत की फोन टेप यूट्यूब पर जारी कर दिया गया है। > 'डेथ टू ट्रेटर' नाम से यूट्यूब पर कुल तीन ऑ़डियो डाले गए हैं जिसमें नीरा > राडिया मीडिया मुगल वीर सिंघवी से देश के अलग-अलग मसले पर बात करते हुए कैबिनेट > पद, अंबानी बंधुओं और मीडिया प्लानिंग की बात करती है. वो इस देश के संदर्भ में > बनाना रिपब्लिक( BANANA REPUBLIC) के बारे में बात करती है। मजेदार बात है कि > वो बार-बार नेशनल इन्टरेस्ट की बात करती है। > > > ये बात हैरान करनेवाली तो नहीं है लेकिन शर्मसार कर देनेवाली जरुर है कि जिस 2G > स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देशभर में तूफान मचा हुआ है,डी.राजा के इस्तीफे से > यूपीए सरकार ने अपने गले की फंसी हड्डी निकालने की कोशिश की और मीडिया ने उस > हड्डी के उपर आसमान उठा लिया,वहीं देश के तमाम मीडिया चैनलों और संस्थानों ने > दो मीडिया दिग्गजों के बारे में एक लाइन भी खबर नहीं चलायी। इस तरह से एक > पारालाइज्ड स्टोरी को वो दिन-रात ब्रेकिंग और इक्सक्लूसिव चिपकाकर चलाते रहे। > इंटरनेट की दुनिया में सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज है कि इस मामले में देश के दो > सबसे बड़े,चर्चित और दिग्गज पत्रकार के नाम सामने आए हैं। बरखा दत्त जो कि वी > दि पीपल( NDTV 24X7) सबसे ज्यादा हक और बेहतर समाज की बात करती हैं तो वहीं वीर > सिंघवी TLC( ट्रेवलिंग एंड लिविंग चैनल), हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान पर > कथावाचन करते हैं जिन्हें पढ़ते-देखते हुए एक हाइली एलिट पत्रकार से रु-ब-रु > होने का एहसास होता है। > > वीर सिंघवी ने इस पूरे मामले में अपना नाम आने के बाद उसका जबाब अपनी > साइट पर > दिया है औऱ कहा है कि इस बातचीत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर ऐसा माना > जाए कि मैंने मिस्टर राजा के लिए कोई लाबिइंग की है। वीर सिंघवी ने अंबानी > बंधुओं को लेकर भी अपनी सफाई पेश की है। > > मामला जो भी हो लेकिन वेबसाइट के जरिए खासतौर से वीर सिंघवी का नाम आने से > मीडिया समाज को गहरा धक्का जरुर लगा है और एक बात ये सोचने को मजबूर जरुर करता > है कि क्या इस प्रोफेशन में भी वही सब कुछ होने लगा जिसके विरोध में ये > प्रोफेशन अपने को डटे रहने के ढोल पीटता रहता है। संभव है वीर सिंघवी के खुद इस > मामले में अपनी साइट पर लिख देने के बाद मेनस्ट्रीम मीडिया इस पर अपनी बात रखनी > शुरु करे। ऐसे में अब देखना है कि वो इस पूरे मामले को किस तरह से उठाता है और > किस तरह की लीपापोती की जाती है। > यूट्यूब के तीनों लिंक- > http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/1/ljLoovK9SQU > > http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/0/RXUNO1QsAwo > > http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/2/oIw7IfGYWEk > -- ब्रजेश कुमार झा (brajesh kumar jha) khambaa.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Sat Nov 20 13:18:01 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 20 Nov 2010 13:18:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSq4KWN4KSq?= =?utf-8?b?4KWCIOCkruCkpCDgpKzgpKjgpL/gpI8sMTEg4KSs4KSc4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiDgpJ/gpYfgpLLgpYDgpLXgpL/gpJzgpKgg4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSW4KS/4KSP?= Message-ID: *हालांकि यह प्रतिक्रिया विनीत ने उसी दिन लिखी थी, जिस दिन आईबी मिनिस्‍ट्री का नोटिफिकेशन आया था। कुछ तकनीकी दिक्‍कतों के चलते मोहल्‍ला लाइव अपडेट करने में दिक्‍कतें आ रही थीं। कुछ दूर हुई हैं, कुछ को दूर करने की कोशिश चल रही है। बहरहाल, टीवी पर रियलिटी शोज़ में अश्‍लील शरारतों को भारतीय जागरण अवधि में छिपाने की आईबी मिनिस्‍ट्री के निर्देश में छिपी चतुराई को समझने की कोशिश विनीत ने की है। दो दिनों बाद हालांकि एक शो बिग बॉस की टाइमिंग बहाल रहने दी गयी – लेकिन यह लेख चूंकि दो दिन पहले नोटिफिकेशन के तुरत बाद लिखा गया – लिहाजा इसमें उसका जिक्र उसी तरह से है :मॉडरेटर* लीजिए, देश के सूचना और प्रसारण मंत्रालय (IB ministry) ने हमें गर्व करने का एक और मौका दे दिया। गर्व कीजिए मंत्रालय के इस फैसले पर कि अब राखी का इंसाफ और बिग बॉस जैसे टेलीविजन शो देर रात 11 बजे के बाद प्रसारित होंगे। बकरीद के मौके पर मंत्रालय ने इन दोनों कार्यक्रमों को अश्लीलता का आरोप लगने की वजह से बच्चों के लिए नुकसान पहुंचानेवाला करार दिया और इसकी टाइमिंग देर रात से सुबह पांच बजे तक करने की बात कही। साथ में यह भी कहा कि शो शुरू करने से पहले चैनल यह भी प्रसारित करे कि इसमें कुछ ऐसी चीजें होंगी, जो बच्चों के लिए सही नहीं होगी और बच्‍चों को इसे न देखने दिया जाए। मंत्रालय के इस फैसले का न्यूज चैनलों ने नगाड़े पीट-पीटकर स्वागत किया और रियलिटी शो पर सरकारी चाबुक, गिरी गाज जैसे सुपर लगाकर प्राइम टाइम में खबरें चलायी गयीं। हां इन कार्यक्रमों की फुटेज किसी भी न्यूज चैनल पर नहीं दिखायी जानी चाहिए वाली बात या तो पचा गये या फिर हवा में उड़ते-उड़ाते बतायी। ये वही चैनल हैं, जो मनोरंजन चैनलों की गतिविधियों को आधार बनाकर रोज दो स्पेशल शो चलाते हैं और आये दिन रियलिटी शो को लेकर स्पेशल प्रोग्राम या स्टोरी बनाते हैं। न्यूज चैनलों को मंत्रालय के इस फैसले से कुछ फर्क नहीं पड़नेवाला है। बस इतना होगा कि आइटम की तलाश दूसरे कार्यक्रमों, यूट्यूब की खानों या फिर फिल्मों में जाकर करेंगे और इसकी शुरुआत आजतक और स्टार ने शीला की जवानी दिखाकर कर दी। *इस फैसले को* समाजशास्त्रियों और मीडिया मामले के जानकारों से भी समर्थन मिल रहे हैं। लेकिन इससे पहले कि मंत्रालय के इस फैसले से हमारा कलेजा फुलकर बड़ा पाव हो जाए कि वो इस देश की संस्कृति, ऑडिएंस, चेतना और नागरिक इच्छा का कितना ख्याल रखता है – जरूरी है कि इस फैसले के पीछे की समझ को विश्लेषित करने की कोशिश करें। टेलीविजन पर इस फैसले को लेकर जब खबरें चल रही थीं तो मेरे दिमाग में पहली बात आयी कि कहीं ये आनेवाले समय में पोर्नोग्राफी चैनल या प्लेबॉय जैसे कार्यक्रम के लिए जमीन तैयार करने की मंत्रालय की जनवादी कोशिश तो नहीं है। इस सवाल के साथ ही कई दूसरे सवाल एक-दूसरे से जुड़ते चले गये और तब समझ में आया कि ऐसा करके मिनिस्‍ट्री न तो किस तरह की अश्लीलता को कम करने की दिशा में कुछ कर रही है और न ही वो टेलीविजन और दूसरे माध्यमों से बननेवाली संस्कृति को लेकर कोई गंभीर सोच रखती है। उल्टे एक बार फिर साबित हो गया कि ये पहले की तरह ब्यूरोक्रेटिक निकम्मेपन की शिकार मिनस्ट्री है। *पहली बात तो ये* कि मिनिस्ट्री विवादित और अश्लीलता की चपेट में आनेवाले कार्यक्रमों को देर रात प्रसारित करने की बात करती है, वह व्यावहारिक तौर पर एक नयी टेलीविजन संस्कृति को जन्म देती है। वह एक तरह से प्राइम टाइम को रबड़ की तरह खींचकर 12 बजे तक ले जाना चाहती है। ऐसा करने से निजी चैनलों का धंधा पहले से और चमकेगा। जो ऑडिएंस प्रोग्राम को 9 या 10 बजे देख सकती है, वो 11-12 बजे देखेगी। ऐसी आदर्श स्थिति कभी नहीं आएगी कि लोग 11 बजे के बाद टेलीविजन बंद कर देंगे। बच्चों के स्कूल के दबाव और ऑफिस पहुंचने में देरी होने की वजह से अगर ऐसा करते भी हैं, तो भी प्राइम टाइम खिंचकर लंबा तो चला ही गया। ऑडिएंस प्रभाव के लिहाज से देखें, तो ऐसा करके मिनिस्ट्री देर रात टेलीविजन देखने की संस्कृति को बढ़ावा दे रही है और फिर एक-एक करके सारे चैनल इसी समय अधो-अश्लील (partial-porno) कार्यक्रम दिखाया करेंगे। ऑडिएंस की टेलीविजन देखने की टाइमिंग शिफ्ट आगे बढ़ जाएगी। दूरदर्शन के कार्यक्रमों और निजी चैनलों के आने के दौरान टाइमिंग की पॉलिटिक्स को हमने बेहतर तरीके से समझा है। *इस फैसले के पहले* मिनिस्ट्री ने सच का सामना शो के साथ यही दलीलें दी थीं और इसका समय देर रात कर दिया। बाद में ये शो बंद हो गया, जिसे कि मिनिस्ट्री अपना क्रेडिट मानकर एक फार्मूला गढ़ रही है कि किसी प्रोग्राम की व्यूअरशिप तोड़ने का बेहतर तरीका है कि देर रात ढकेल दो। ऐसा करके वह सरोगेट तौर पर पोर्नोग्राफी चैनल की जमीन तैयार कर रही है। साथ ही इससे इस बात का भी बढ़ावा मिलेगा कि ऐसे कार्यक्रम बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, बस समझदारी इतनी रखो कि इसे 11 बजे के बाद प्रसारित करो। कल को टेलीविजन टाइमिंग को लेकर विज्ञापन बन जाएंगे – पप्पू मत बनिए, 11 बजे के बाद टीवी देखिए। चैनलों को इस टाइमिंग में ढलते देर नहीं लगेगी। कभी इंडिया टीवी ने सेक्स जागरुकता के नाम पर देर रात सेक्स से जुड़े सवालों पर अधारित कार्यक्रम शुरू किया था, जिसमें सरस सलिल चिंतन को जमकर विस्तार दिया गया, वो तो कभी टीआरपी की मार से पस्त नहीं हुआ। अगर टाइमिंग ही बदलनी है तो 11 बजे रात के बाद क्यों, दिन में कर दें। बच्चों से ही डर है न, वो तो स्कूल में होंगे और जो बच्चे स्कूल जाने की हैसियत नहीं रखते, वो भला क्या टीवी देखते होंगे? लेकिन नहीं, मिनिस्ट्री बहते नाले को बेहतर सीवर बनाने की जगह उस पर तख्ती लगाकर फैसलेनुमा फूलदान डालने का काम कर रही है। *मिनस्ट्री का ये फैसला* साफ कर देता है कि उसके भीतर कैसे निकम्मेपन की संस्कृति काबिज है? क्या बिग बॉस पहली बार शुरू हुआ है या राखी का इंसाफ जैसे कार्यक्रम पहली बार आये हैं? सरकार और मिनस्ट्री हादसे और दुर्घटना के बाद ही निर्देश तैयार करने की अभ्यस्त क्यों है? क्या इन कार्यक्रमों के महीने भर से पहले जारी प्रोमो को मिनिस्ट्री के लोग नहीं देखते और उससे कुछ समझ नहीं आता कि ये कैसा कार्यक्रम है? इसके साथ ही बच्चों का हवाला देकर वो जिस तरह वो बार-बार फैसले सुनाती आयी है, उससे साफ हो जाता है कि उसने कभी भी ऑडिएंस-व्यवहार पर (consumer- behaviour की तरह) रिसर्च नहीं करवाया। वो आदिम जमाने की तरह आज भी मानकर चल रही है कि टेलीविजन का रिमोट घर के सबसे बुजुर्ग के हाथ में होता है और वही तय करते हैं कि क्या देखा जाएगा? ऑडिएंस-व्यवहार पर सबसे मौलिक काम डेविड मोर्ले (टेलीविजन ऑडिएंस एंड कल्चरल स्टडीज, राउटलेज प्रकाशन) ने किया है और फ्रॉम फैमिली टेलीविजन टू ए सोशियोलॉजी ऑफ मीडिया कनजंपशन अध्याय में ये सवाल उठाया है कि कैसे टेलीविजन एक सामाजिक विकास के माध्यम से मनोरंजन और फिर उपभोक्ता मिजाज की तरफ शिफ्ट कर जाता है। इसके साथ ही रिमोट पर किसका कंट्रोल है, टेलीविजन के जरिये संस्कृति का विस्तार इससे निर्धारित होता है। मिनिस्ट्री ने बेसिक बात ये मान ली है कि रिमोट पर बुजुर्ग और खासतौर से अगर सामाजिक संरचना पर गौर करें तो पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों का अधिकार होता है। अब ये समझ कितनी बचकानी है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि पिछले पांच साल में कार्टून चैनलों, मनोरंजन चैनलों, सोप ओपेरा और इससे संबंधित कार्यक्रमों का कितना विस्तार हुआ है, न्यूज चैनलों में इसकी कवरेज में कितना इजाफा हुआ है? दरअसल मिनिस्ट्री यहां पर आकर अपनी आदिम ऑडिएंस की समझ को आज थोपने की फिराक में है जबकि सामाजिक सत्ता के बहुत अधिक नहीं बदलने के बावजूद टेलीविजन और रिमोट पर की सत्ता उस मुकाबले तेजी से बदली है और उसमें बच्चों की दावेदारी मजबूत हुई है। उन आंकड़ों के साथ अगर मिनिस्ट्री काम करना शुरू करती है, तो उसे अपने इस तरह के फैसले बंडलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं लगेंगे। *तेजी से बदलती* माध्यम संस्कृति के बीच टेलीविजन अब कोई स्वतंत्र माध्यम नहीं रह गया है कि अगर आपने उसके साथ छेड़छाड़ और बदले की कोशिश की तो वो उसी तरह से बदल गया। अब पूरा मीडिया एक एसेम्बल्ड संस्कृति में काम करता है। रेडियो की कमी मोबाइल पूरी करता है,टेलीविजन की कमी मोबाइल और इंटरनेट। इसलिए बिग बॉस टीवी पर न सही, कलर्स की ऑफिशियल साइट इन डॉट कॉम पर देखा जा सकता है, बिग 92.7 पर सुना जा सकता है और लगातार बीप से एक अश्लील इमेज मन में पैदा किए जा सकते हैं। मिनिस्ट्री इस एसेम्बल्ड मीडिया संस्कृति के बीच से अश्लीलता को कैसे कम करने जा रहा है,असल सवाल यहां पर है। क्या वह अखबारों के पहले पर पमेला एन्डरसन की अधखुली छाती के साथ बिग बॉस के विज्ञापन को रोक देगी? अखबार कैसा करने दे देगा? आज जबकि सीरियल और रियलिटी शो के ह खास मौके के साथ नए प्रोमो बनाए जाते हैं,जिसकी प्राथमिकता में उस अश्लीलता को ही शामिल करना होता है,मिनिस्ट्री उसे लेकर क्या कर लेगी? कल रात आजतक और स्टार न्यूज ने आइटम बम कैटरीना, सबसे बोल्ड कैटरीना के नाम पर तीस मार खां और उसके आइटम गाना शीला की जवानी को पूरा-पूरा मिनटों तक दिखाता रहा। साथ में ये भी बताया कि अबतक की सबसे बोल्ड दिखी कैटरीना और वो भी सिर्फ एक चादर लपेटे। ये प्राइम टाइम की खबरें हैं जो कि इन्टरटेन्मेंट की पैकेज में आए,अभी तो रात बाकी ही है अंदाज में। *मतलब साफ है* कि अगर अश्लीलता को रोकने के लिए मिनिस्ट्री दोनों कार्यक्रमों के प्रसारण की टाइमिंग बढ़ा रही है तो फिर ऐसे कार्यक्रमों की फुटेज काट-काटकर पूरा पैकेज चलानेवाले चैनलों पर भी कुछ विचार कर रही है या नहीं? बिग बॉस सीजन फोर या राखी का इंसाफ कोई अकेला कार्यक्रम है नहीं, चैनल के पास तो सैंकड़ों विकल्प हैं। चैनल तो इन्हें फिर भी दिनभर दिखाएंगे और तब भी बच्चे होमवर्क कर रहे होंगे और तथाकथित आदर्श ऑडिएंस माता-पिता खबरिया चैनल देख रहे होंगे – शीला की जवानी, पामेला एंडरसन की हिस्स-हिस्स पर उनकी आंखें तब भी तो ठिठकेगी। न्यूज चैनल इस फैसले पर जो नगाड़े पीटने का काम कर रहे हैं, उन्हें पता है कि उनका कोई नुकसान होने से रहा। लेकिन अगर मिनिस्ट्री अश्लीलता को लेकर बात करना चाहती है तो उसे न्यूज चैनलों को भी इसके दायरे में रखना होगा। फिलहाल जो स्थिति बनी है, उसे देखते हुए एक माहौल तैयार किया जा रहा है कि टेलीविजन पर अश्लीलता बढ़ रही है, इसे देर रात तक ले जाओ और फिर देर रात के अलग से चैनल हो जाएंगे, जिसका एक दरवाजा पोर्नोग्राफी की तरफ खुलेगा। दिक्कत सिर्फ पोर्नोग्राफी के आने से नहीं है। मिनिस्ट्री जैसे ही किसी भी कार्यक्रम को बच्चों के लिए नहीं, बड़ों के लिए करार देती है तो एक तरह से उसे एडल्ट की ग्रेडिंग देती है। अब सवाल है कि एडल्ट और पोर्नोग्राफी के बीच क्या कोई विभाजन रेखा है? अगर नहीं तो फिर क्या चैनल इन कार्यक्रमों के लिए अलग से लाइसेंस ले और फिर उन कार्यक्रमों के लिए अलग से लाइसेंस फीस दे जो कि सामान्य कार्यक्रमों से अलग होंगे। *मिनिस्ट्री इस मामले को* सिर्फ एथिक्स और मुलायम निर्देशों के साथ डील करना चाहती है जबकि चैनल इस बात के संकेत देने लग गये हैं कि जल्दी आपकी सेवा में पोर्नोग्राफी हाजिर किये जाएंगे। ये मामला सांस्कृतिक के साथ-साथ बड़े स्तर पर इकॉनमी का हिस्सा है और इस पर उस स्तर से काम करने की जरूरत है। नहीं तो अभी हम जिसे महज नैतिकता की बहस मान रहें हैं, उस नैतिकता की टाट पर पोर्नोग्राफी की एक बड़ी इंडस्ट्री खड़ी होने जा रही है और उसके भीतर परनाले बहने के रास्ते भी तैयार होने जा रहे हैं। मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Nov 23 16:35:59 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 23 Nov 2010 16:35:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KWC?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpKjgpYzgpJ/gpILgpJXgpYAg4KSo4KWA4KSk4KWA4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkoeCljeCksOCkvuCkruCkviAtIOCkheCkrCDgpJXgpY3gpK8=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCli+CksuClhyDgpKzgpL/gpLngpL7gpLDgpYAg4KS14KWL4KSf?= =?utf-8?b?4KSwPw==?= Message-ID: <4CEBA017.90903@sarai.net> कल तो अगले पाँच साल तक के लिए - शायद- तय हो ही जाएगा कि नौटंकी जीती कि ड्रामा, लेकिन तमाम मीडिया-महोच्चार और भविष्यवाचन के बीच अलंकार के लिखे इस लेख में एक बात अलग है। वो अगर आपको पकड़ में न आए तो मैं कल बताऊँगा। सिर्फ़ एक सूत्र दे दूँ कि आम तौर पर अलंकार की चुनावी अटकलें काफ़ी सटीक बैठती हैं। कल क्या होता है देखना ये है। फ़िलहाल तो बीबीसी भी उसके साथ आ गएली है। मज़े लें। रविकान्त लालू की नौटंकी नीतीश का ड्रामा - अब क्या बोले बिहारी वोटर? अलंकार गब्बर की एक ज़बरदस्त लाइन थी - अब आएगा मज़ा! बिलकुल यही होने जा रहा है बिहार में. विकास यकीनन एक मुद्दा हो गया है लेकिन केवल एकरूपी अर्थ में ही नहीं. एक गाँव-देहात की पृष्ठभूमि वाले कृषि आधारित राज्य में किसान और खेती के विकास की कोई बात जब पूरे चुनाव में न सुनाई दे तब मन में कौतुहल जायज़ है. सड़क, पुल, विधि व्यवस्था, पटना में ज़मीन-अपार्टमेन्ट के बढ़ते दाम, पिज्जा पार्लर, शौपिंग माल, देशी-विदेशी ब्रांड के शोरूम, यकीनन नयी और ज़रूरी चीज़ें हैं लेकिन शायद खाती-पीती अपर और मिडिल क्लास के लिए. व्यापारी और दफ्तर में पक्की नौकरी वालों के लिए नितीश ने वाकई एक नया माडर्न बिहार बनाने की ख़ास कोशिश की है. छोटे मझोले किसान, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, रोज़ मेहनत कर दो जून की रोटी भी मुश्किल से कमाने वाले और उस पर छोटी या निचली जात के बहुसंख्यक गरीबों के लिए विकास का अर्थ होता नरेगा का सही क्रियान्वयन, इंदिरा आवास योजना में एक अदद सर छुपाने की छत, कुछ पक्की, रोजाना और बढ़ी हुई आमदनी. और सोने पे सुहागा होता लालू के राज में मिले हुए आत्मसम्मान पर नितीश के समय कुछ और चमक. पर अफ़सोस की पूरे शबाब में लौटी सामंती दबंगई बिहार में जद-यू-भाजपा के राज में. अब २ दिन बाद २४ को यही आपको शायद दिखे चुनाव नतीजे में. दबा कुचला तबका ही तो बोल नहीं पाया खुल के चुनाव में किसको वोट किया इसलिए ही तो चुनाव की कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं कर पाया कोई मीडिया या अखबार. जो बोले वह नितीश के पक्ष में ही लोटपोट दिखे क्यूंकि नितीश का वोटर और भाजपा का वोटर खाए पिए वर्ग से अधिक आता है और वह बोलता मिल गया. या शायद मीडिया को अपने तरह की इंडिया श्यय्निंग की सोच से ओत प्रोत एक व्यक्ति बिहार में भी चाहिए और जो भाजपा कांग्रेस से भी अलग पहचान रखता हो ताकि कहीं कोई वैकल्पिक आवाज़ राजनीति के इस मॉडल को मजबूती से न सवाल जवाब में फंसा पाए सो वह नितीश में मिल गया और उसे ५ साल टीवी अखबार में खूब जगह भी दे दी. बहुत शोर है नीतीश बाबू की आपने ५० हज़ार अपराधी जेल में बंद कर दिए लेकिन यह भी तो समझाइए की बड़े तेज़ तर्रार दबंगों, नौकरशाह, व्यापारियों को तो सरकारी पैसे की लूट, ठेकेदारी और विकास की अन्य योजनाओं में खूब लूटने के सुअवसर प्रदान किये. अन्य शब्दों में भ्रष्टाचार आपके राज में कहाँ से कहाँ उठता चला गया है? छोटा क्रिमिनल बंद कर दिया और बड़े क्रिमिनल विकास के ठेके से पैसा कमाने में लगा दिए! कहाँ से सीखा यह गुर नितीश बाबू? आप कहते हैं यह चुनाव जात पात पर नहीं हो रहा है...अति-पिछड़ा, महादलित, पसमांदा ...मुझे तो यह सब शब्द बिहार की राजनीति में नए जाति-वर्ग की राजनीति के ही सूचक से लगते रहे आपके कार्यकाल में. बस फर्क यही है की जो केवल पिछड़ा, दलित की बात करे मीडिया केवल उसे ही जातिवादी राजनेता और वोटर कहता रहता है. आपने जाति की नयी और वर्ग से और मिलती जुलती राजनीति की शुरुआत की है और हम चाहेंगे यह आपके रहते या आपके बिना अब हर सरकार के लिए और धारदार बने. जाति को वर्ग में बांटना और फिर गरीब के लिए असल काम करना इस देश की बुनियादी लड़ाई बनायीं ही जानी चाहिए. लेकिन सभी जातियों में सामान रूप से ...परन्तु आपका खेल बांटने का ज्यादा शक मन में पैदा कर रहा है हमारे. अब देखिये बिहार के बहुसंख्यक वोटर की मौन अस्वीकृति इस तरह के विकास के लिए जो नितीश जी ने दिया ५ साल में. नितीश जी इस उदारवादी मनमोहन-मोदी-नितीश ब्रांड विकास और बड़ी कम्पनियों के लिए हो रहे निजीकरण तथा अमरीका से जुड़े वैश्वीकरण के बहुत परोकर मिल जायेंगे आपको अखबार टीवी में लेकिन अगर बिहार को बदलना आपकी ख़ास इच्छा है तो अब आबादी के सदियों पुराने काम यानी गाँव देहात में होती असल खेती बाड़ी के लिए कुछ कीजियेगा अगर किसी कारणवश मेरी यह सोच के विपरीत आपको सत्ता वापस मिल जाए. लालू जी रेलवे में कुल्हड़ लस्सी सत्तू नहीं चल पाया लेकिन अगर वापस सत्ता आ जाए तो इस बार गरीब को आवाज़ के अलावा शरीर पर कुछ कपडा लत्ता, घर में कुछ साग सब्जी दाल भात, सर पर छत के लिए भी सोचियेगा. स्कूल-कॉलेज, खेती पर आधारित उद्योग, बेईमानी पर पूरी पकड़, गाँव गाँव में निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया की उम्मीद आप दोनों से कम ही है पर और रखे भी किस से आखिर हैं तो लोकतान्त्रिक देश के आशावादी नागरिक बिहारी. जिस दिन कोई ठोस विकल्प मिल गया, आपको तो दिमागी बुखार चढ़ा देंगे सब बिहारी. वैसे एक दिन में तो रोम भी नहीं बना था हमारा संघर्ष भी अन्दर ही अन्दर जारी है. हम होंगे कामयाब एक दिन. From prabhatkumar250 at gmail.com Tue Nov 23 18:03:45 2010 From: prabhatkumar250 at gmail.com (prabhat kumar) Date: Tue, 23 Nov 2010 13:33:45 +0100 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KWC?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpKjgpYzgpJ/gpILgpJXgpYAg4KSo4KWA4KSk4KWA4KS2?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKHgpY3gpLDgpL7gpK7gpL4gLSDgpIXgpKwg4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkrOCli+CksuClhyDgpKzgpL/gpLngpL7gpLDgpYAg4KS1?= =?utf-8?b?4KWL4KSf4KSwPw==?= In-Reply-To: <4CEBA017.90903@sarai.net> References: <4CEBA017.90903@sarai.net> Message-ID: इस चटपटे लेख के लिए शुक्रिया अलंकार. सही है रवि सर, मैंने तो पकड़ लिया है शायद. चुनाव का नतीजा आने के बाद, अलंकार को योगेन्द्र यादव की खाली गद्दी पर बिठाना है या नहीं, ये तय होगा. प्रभात 2010/11/23 ravikant > कल तो अगले पाँच साल तक के लिए - शायद- तय हो ही जाएगा कि नौटंकी जीती कि > ड्रामा, लेकिन तमाम मीडिया-महोच्चार और भविष्यवाचन के बीच अलंकार के लिखे इस > लेख में एक बात अलग है। वो अगर आपको पकड़ में न आए तो मैं कल बताऊँगा। सिर्फ़ > एक सूत्र दे दूँ कि आम तौर पर अलंकार की चुनावी अटकलें काफ़ी सटीक बैठती हैं। > कल क्या होता है देखना ये है। फ़िलहाल तो बीबीसी भी उसके साथ आ गएली है। मज़े > लें। > > रविकान्त > > > > लालू की नौटंकी नीतीश का ड्रामा - अब क्या बोले बिहारी वोटर? > > अलंकार > > गब्बर की एक ज़बरदस्त लाइन थी - अब आएगा मज़ा! बिलकुल यही होने जा रहा है > बिहार में. विकास यकीनन एक मुद्दा हो गया है लेकिन केवल एकरूपी अर्थ में ही > नहीं. एक गाँव-देहात की पृष्ठभूमि वाले कृषि आधारित राज्य में किसान और खेती के > विकास की कोई बात जब पूरे चुनाव में न सुनाई दे तब मन में कौतुहल जायज़ है. > सड़क, पुल, विधि व्यवस्था, पटना में ज़मीन-अपार्टमेन्ट के बढ़ते दाम, पिज्जा > पार्लर, शौपिंग माल, देशी-विदेशी ब्रांड के शोरूम, यकीनन नयी और ज़रूरी चीज़ें > हैं लेकिन शायद खाती-पीती अपर और मिडिल क्लास के लिए. व्यापारी और दफ्तर में > पक्की नौकरी वालों के लिए नितीश ने वाकई एक नया माडर्न बिहार बनाने की ख़ास > कोशिश की है. छोटे मझोले किसान, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, रोज़ मेहनत कर दो जून की > रोटी भी मुश्किल से कमाने वाले और उस पर छोटी या निचली जात के बहुसंख्यक गरीबों > के लिए विकास का अर्थ होता नरेगा का सही क्रियान्वयन, इंदिरा आवास योजना में एक > अदद सर छुपाने की छत, कुछ पक्की, रोजाना और बढ़ी हुई आमदनी. और सोने पे सुहागा > होता लालू के राज में मिले हुए आत्मसम्मान पर नितीश के समय कुछ और चमक. पर > अफ़सोस की पूरे शबाब में लौटी सामंती दबंगई बिहार में जद-यू-भाजपा के राज में. > अब २ दिन बाद २४ को यही आपको शायद दिखे चुनाव नतीजे में. दबा कुचला तबका ही तो > बोल नहीं पाया खुल के चुनाव में किसको वोट किया इसलिए ही तो चुनाव की कोई सटीक > भविष्यवाणी नहीं कर पाया कोई मीडिया या अखबार. जो बोले वह नितीश के पक्ष में ही > लोटपोट दिखे क्यूंकि नितीश का वोटर और भाजपा का वोटर खाए पिए वर्ग से अधिक आता > है और वह बोलता मिल गया. या शायद मीडिया को अपने तरह की इंडिया श्यय्निंग की > सोच से ओत प्रोत एक व्यक्ति बिहार में भी चाहिए और जो भाजपा कांग्रेस से भी अलग > पहचान रखता हो ताकि कहीं कोई वैकल्पिक आवाज़ राजनीति के इस मॉडल को मजबूती से न > सवाल जवाब में फंसा पाए सो वह नितीश में मिल गया और उसे ५ साल टीवी अखबार में > खूब जगह भी दे दी. > > > बहुत शोर है नीतीश बाबू की आपने ५० हज़ार अपराधी जेल में बंद कर दिए लेकिन यह > भी तो समझाइए की बड़े तेज़ तर्रार दबंगों, नौकरशाह, व्यापारियों को तो सरकारी > पैसे की लूट, ठेकेदारी और विकास की अन्य योजनाओं में खूब लूटने के सुअवसर > प्रदान किये. अन्य शब्दों में भ्रष्टाचार आपके राज में कहाँ से कहाँ उठता चला > गया है? छोटा क्रिमिनल बंद कर दिया और बड़े क्रिमिनल विकास के ठेके से पैसा > कमाने में लगा दिए! कहाँ से सीखा यह गुर नितीश बाबू? > > > आप कहते हैं यह चुनाव जात पात पर नहीं हो रहा है...अति-पिछड़ा, महादलित, > पसमांदा ...मुझे तो यह सब शब्द बिहार की राजनीति में नए जाति-वर्ग की राजनीति > के ही सूचक से लगते रहे आपके कार्यकाल में. बस फर्क यही है की जो केवल पिछड़ा, > दलित की बात करे मीडिया केवल उसे ही जातिवादी राजनेता और वोटर कहता रहता है. > आपने जाति की नयी और वर्ग से और मिलती जुलती राजनीति की शुरुआत की है और हम > चाहेंगे यह आपके रहते या आपके बिना अब हर सरकार के लिए और धारदार बने. जाति को > वर्ग में बांटना और फिर गरीब के लिए असल काम करना इस देश की बुनियादी लड़ाई > बनायीं ही जानी चाहिए. लेकिन सभी जातियों में सामान रूप से ...परन्तु आपका खेल > बांटने का ज्यादा शक मन में पैदा कर रहा है हमारे. > > > > > अब देखिये बिहार के बहुसंख्यक वोटर की मौन अस्वीकृति इस तरह के विकास के लिए > जो नितीश जी ने दिया ५ साल में. नितीश जी इस उदारवादी मनमोहन-मोदी-नितीश ब्रांड > विकास और बड़ी कम्पनियों के लिए हो रहे निजीकरण तथा अमरीका से जुड़े वैश्वीकरण > के बहुत परोकर मिल जायेंगे आपको अखबार टीवी में लेकिन अगर बिहार को बदलना आपकी > ख़ास इच्छा है तो अब आबादी के सदियों पुराने काम यानी गाँव देहात में होती असल > खेती बाड़ी के लिए कुछ कीजियेगा अगर किसी कारणवश मेरी यह सोच के विपरीत आपको > सत्ता वापस मिल जाए. लालू जी रेलवे में कुल्हड़ लस्सी सत्तू नहीं चल पाया लेकिन > अगर वापस सत्ता आ जाए तो इस बार गरीब को आवाज़ के अलावा शरीर पर कुछ कपडा > लत्ता, घर में कुछ साग सब्जी दाल भात, सर पर छत के लिए भी सोचियेगा. > स्कूल-कॉलेज, खेती पर आधारित उद्योग, बेईमानी पर पूरी पकड़, गाँव गाँव में > निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया की उम्मीद आप दोनों से कम ही है पर और रखे भी किस > से आखिर हैं तो लोकतान्त्रिक देश के आशावादी नागरिक बिहारी. जिस दिन कोई ठोस > विकल्प मिल गया, आपको तो दिमागी बुखार चढ़ा देंगे सब बिहारी. वैसे एक दिन में > तो रोम भी नहीं बना था हमारा संघर्ष भी अन्दर ही अन्दर जारी है. हम होंगे > कामयाब एक दिन. > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > -- Prabhat Kumar PhD student (Department of History, SAI, University of Heidelberg) Address Cluster of Excellence, Karl Jaspers Centre University of Heidelberg, Room No. 118, Voßstraße 2, Building No. 4400 69115 Heidelberg Germany kumar at asia-europe.uni-heidelberg.de Mobile: +49 176 850 500 77 Office: +49 6221 54 4305 Fax: +49 6221 54 4012 http://www.asia-europe.uni-heidelberg.de/en/research/b-public-spheres/b1/subprojects/kumar.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Nov 24 16:18:41 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 24 Nov 2010 16:18:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSV4KS4IOCkruClh+CkgiDgpKTgpKzgpY3gpKbgpYDgpLIg?= =?utf-8?b?4KS54KWLIOCkl+Ckr+ClhyDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSa4KWI4KSo?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KS4?= Message-ID: * जोर का झटका, हाय जोरों से लगा शादी बन गयी उम्रकैद की सजा* एक्शन रिप्ले के साथ लालू प्रसाद यादव की फुटेज बार-बार दिखायी जाती है और फिर उपहास उड़ाया जाता है। ये आजतक की क्रिएटिविटी है, जो कि उसे विरासत में मिली है। तब आजतक दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम की शक्ल में ही आता था और पहली बार एसपी सिंह ने लालू की होली की फुटेज इसमें डालकर भेजी थी और चूंकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, सो दूरदर्शन बड़े-बड़े दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के आगे लालू प्रसाद को चलाना नहीं चाहता था। खैर, एसपी सिंह की अपनी ठसक थी और कहा कि आप चलाएं अथवा न चलाएं, हम इसे इसी तरह भेज रहे हैं। लालू की वो होली चली और फिर एक ट्रेंड सेट हो गया कि होली मतलब लालू की होली और अब छठ पूजा मतलब पानी में आधी डूबी राबड़ी देवी को सूप पकड़ाते हुए लालू प्रसाद। धीरे-धीरे स्थिति ऐसी हुई कि आगे चलकर लालू प्रसाद एक नेता के बजाय न्यूज चैनलों के लिए ह्यूमरस एलीमेंट होते चले गये। इस बात को लालू प्रसाद ने भी बेहतर तरीके से समझा और न्यूज चैनलों को भी राजनीति की नीरस खबरों के बीच मसालेदार जायका पैदा करने में सहूलियत हुई। बिहार चुनाव 2010 की सबसे बड़ी उपलब्धि चाहे जो भी रही हो, विकास, मतदाता की बदलती समझ, जातिगत राजनीति का सफाया जैसी बड़ी-बड़ी बातें देशभर के एक्सपर्ट करेंगे लेकिन इस चुनावी कवरेज में कई ऐसी बातें साफ हुईं बल्कि एक ऐतिहासिक स्थिति बनी – इसे देखना-समझना अपने आप में दिलचस्प काम है। *तमाम* हिंदी न्यूज चैनलों के मुकाबले IBN7 थोड़ी बहुत आपसी जुगलबंदी (आशुतोष संग संदीप चौधरी) चुहल के बीच सबसे अच्छा परफार्म कर रही थी। खबरें बहुत ही गंभीरता से विश्लेषित की जा रही थीं और मुद्दों पर बहस चल रही थी। लेकिन जब उसने देखा कि आजतक ने तो इस राजनीतिक उठापटक के बीच टीआरपी एलीमेंट परोसने शुरू कर दिये हैं, तो चार-पांच मिनट के भीतर फिर वही काम किया। लालू प्रसाद की फुटेज दिखानी शुरू की और गाना बजाया – शादी हो गयी उम्रकैद की सजा। मुझे इस गाने को लालू प्रसाद के साथ जोड़कर दिखाये जाने का कोई तुक समझ नहीं आया लेकिन भेंड़चाल किसे कहते हैं, इसे समझने के लिए ऐसे नजारे बहुत काम करते हैं। *न्यूज 24* ने भी दौड़ लगाने की कोशिश की और स्क्रीन पर लालू प्रसाद का एक कैरिकेचर चलाना शुरू किया, जिसमें वो सिर पीटते नजर आते हैं। अजीत अंजुम ने इस तस्वीर की व्याख्या की और बताया कि बिहार में सिर पीटने का क्या मतलब होता है? इसी चैनल ने आगे चलकर हरे रंग की लुंगी और पंजाबी जूती (नीतीश कुमार को एक रंगोली की शक्ल देते हुए) में बंडी के साथ ढोल बजाते हुए नीतीश को भी दिखाया, सुशील मोदी को भी दिखाया और एक तरह से लालू-नीतीश की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन हमारे सामने रखने की कोशिश की। लेकिन ऐसा करते हुए चैनल ये भूल गया कि बिहार में ढोल बजाने के तरीके अलग हैं। दिलवाले दुल्हनियां के बाद से पूरे एनआरआई के लिए भारतीय संस्कृति मतलब पंजाबी संस्कृति हो सकती है लेकिन वहीं मॉरिशस और फिजी जैसे देश हैं, जहां शेक्सपीयर भी भोजपुरी में पढ़े-पढ़ाये जाते हैं और लोग खादी सदरी पहनकर पढ़ते-पढ़ाते हैं। नीतीश कुमार के प्रशंसकों को उनका ये हुलिया देखकर शायद धक्का लगा हो। एनडीटीवी इंडिया के संवाददाता ने साफ कर दिया कि लालू के घर पर मुर्दनी छायी है और रही सही कसर रवीश कुमार ने यह कहकर निकाल दी कि अब बिहार में कोई बाहुबली नहीं है बल्कि वो मुन्नी के पीछे लग गये हैं। बिहार में बाहुबलियों की बलि-बलि हो गयी है। *हार-जीत* के परिणामों से अलग हटकर मीडिया एलीमेंट के हिसाब से देखें तो इस चुनावी कवरेज में मीडिया ने अपने ही हाथों एक बहुत बड़े मीडिया एलीमेंट का नाश कर दिया। लालू ने दो दिन पहले यह जरूर कहा कि उनकी पार्टी के लोग मीडिया में किसी तरह की बयानबाजी न करें, लेकिन मीडिया के हाथों वो इस तरह से नाश किये जाएंगे, इसकी उम्मीद शायद उन्हें भी नहीं होगी। इस कवरेज को राजनीति के गलियारे से आनेवाले एक ह्यूमरस, बड़बोले और टीआरपी मीटर की धड़कन ऊपर करनेवाले एक एलीमेंट के खत्म होने के तौर पर याद किया जाएगा। मुझे 2007 की घटना याद है, जिसमें रेल बजट पर लालू प्रसाद बारी-बारी से सारे चैनलों के बनाये सेट पर जा रहे थे। रेल म्यूजियम में चैनल के सेट बनाये गये थे। सीएनबीसी से उठकर जैसे ही वो आजतक पर आये, पुण्य प्रसून वाजपेयी पर भड़क गये – *तुमलोग हमरा कार्टून चलाता है।* वाजपेयी बातों में मरहम पट्टी करते कि कहा – *हम सब देखते हैं… ई असुतोसवा कहां है।* वाजपेयी ने कहा कि वो IBN7 में हैं। इस पर लालू प्रसाद का जवाब था – *तुमलोग हियां-हुआं करते रहो फायदा के लिए औ हमलोग पर कार्टून चलाओ।* बहुत तंज अंदाज में उन्होंने अपनी बातें रखी। लेकिन जैसे ही हेडलाइंस टुडे पर जुझार सिंह ने सवाल शुरू किये, लालू ने कहा – *यू इंग्लिश पीपुल, डॉन्ट नो एनीथिंग…* और माइक को गले से निकालकर फेंक दिया। चैनल ब्लैक आउट हो गया। मुझे लगा कि लालू प्रसाद का कांसीराम की तरह मीडिया में अंत हो जाएगा लेकिन नहीं, वो आगे चले और चलते रहे। लेकिन इस चुनावी कवरेज में एक तरह से एक टीआरपी एलीमेंट के तौर पर उनके अंत की घोषणा कर दी गयी। ये देखना बहुत ही दिलचस्प है कि कैसे जो चैनल के लोग क्रिकेट, गुजरात, उत्तर भारत के लोगों पर हमले, राजनीति के सभी मसलों पर लालू प्रसाद से इसलिए बाइट लेने के लिए छुछुआते रहे, क्‍योंकि उनकी झड़प ने कई टेलीविजन पत्रकारों को एक पहचान दिलायी और वो उसकी कमाई आजतक खा रहे हैं। वो लालू यादव आज उन्‍हीं पत्रकारों के हाथों मारे गये। *न्यूज चैनलों* ने राहुल गांधी को अभी तक बबुआ नेता या राजा बच्चा की तरह ट्रीट किया है। चाहे वो दलित के घर ठहरने का मामला हो या फिर अमेठी के लोगों की पानी, बिजली और सड़क की मांग के बजाय राहुल के लिए बहू की मांग हो। सभी मामलों में तमाम न्यूज चैनलों उसे एक सॉफ्ट स्टोरी की शक्ल में पेश किया। इस काम में स्टार न्यूज और आजतक को महारत हासिल है। इस चुनावी कवरेज में पहली बार राहुल गांधी राजनीतिक खबरों के बीच एक सॉफ्ट स्टोरी से हटकर हार्डकोर पॉलिटिकल न्यूज के तौर पर देखे-दिखाये गये। संभव है, 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में यूपीए सरकार की गर्दन फंसी होने की वजह से चैनलों में इतनी कूव्‍वत आ गयी कि राहुल गांधी की राजनीति को पहली बार पैराशूट की राजनीति करते बताया लेकिन पिछले समय की बेईमान खबरों के बीच आज छोटे स्‍तर पर ही सही, ईमानदार खबर की एक रेखा दिखाई दी। राजनीतिक खबरों के बीच राहुल गांधी को पहली बार लाकर खड़ी करने की कोशिश की गयी है और अगर चैनल इस एप्रोच के साथ अड़े रहते हैं, तो बहुत जल्द ही राहुल गांधी की एक अलग छवि हमारे सामने होगी, जो कि राजा बेटा से अलग होगी। *जिनलोगों को* न्यूज चैनलों पर सिर्फ और सिर्फ महिला चेहरे, चाहे वो एंकर हों या फिर रिपोट्र्स देखकर कोफ्त होती है और आये दिन ताने मारते हैं कि लड़कियों और महिलाओं की सिर्फ शक्ल के दम पर भर्ती कर ली जाती है, इस बात को हमारे मीडिया साथी भी दोहराते फिरते हैं, उनके कलेजे को आज जरूर ठंडक पहुंची होगी। दस बजे तक मुझे सिर्फ न्यूज 24 पर अंजना कश्यप, जी न्यूज पर अलका सक्सेना और इंडिया टीवी पर महिला एंकर (नाम नहीं मालूम) दिखाई देती है। आज के दिन अभी तक फील्ड से रिपोर्टिंग करती हुई एक भी महिला संवाददाता दिखाई नहीं दी। इंडिया टीवी पर एक महिला पत्रकार की आवाज जरूर आयी लेकिन उसकी शक्ल स्क्रीन पर नहीं आयी। न्यूज चैनलों में बनते वूमेन स्पेस को लेकर जो अटकलें और कोफ्त लगाये-जताये जाते हैं, ये चुनावी कवरेज हमें न्यूज चैनलों की डायवर्सिटी पर एक बार फिर से सोचने को मजबूर करते हैं। 10 बजे के बाद एनडीटीवी इंडिया ने जरूर अपने चैनल की दो काबिल एंकर नगमा सहर और निधि कुलपति को एंकरिंग के लिए बिठाया लेकिन फील्ड में वहां भी पुरुष संवाददाता ही काबिज रहे। ये नजारा एक बहुत ही स्पष्ट संदेश देता है कि राजनीतिक मामलों के लिए चैनल्स अभी भी महिला मीडियाकर्मियों को तैयार नहीं करता। IBN7 को अगर मैं इस कवरेज के लिए सबसे संतुलित चैनल करार देता हूं, फिर भी ये सवाल उसके साथ भी रह जाता है कि एक भी महिला संवाददाता या एंकर क्यों नहीं? इन तमाम चैनलों की महिला मीडियाकर्मी फील्ड में नहीं उतारी गयीं। क्या यहां से न्यूज चैनलों के भीतर जेंडर डिस्कोर्स के सवाल ढूंढे जा सकते हैं। कहीं जिस तरह देश की राजनीति पुरुषवादी सत्ता के कब्जे में है, वही हाल न्यूज चैनलों के भीतर राजनीतिक खबरों की बीट को लेकर तो नहीं? चैनलों के भीतर बहुत ही गुपचुप तरीके से मान लिया गया है कि हार्ड न्यूज पर पुरुष मीडियाकर्मी को ही लगाए जाएं। इससे बेहतर नतीजे होंगे, अब तो बरखा दत्त के दागदार होने की संभावना की मिसाल भी दी जाएगी। ये अलग बात है कि अंग्रेजी चैनलों पर इनका अनुपात (दिखने के स्तर पर) ज्यादा है। *पुण्यप्रसून वाजपेयी* को आज के दिन आजतक के संवाददाता और कुछ हद तक समय के संवाददाता जरूर याद आ रहे होंगे। उनकी धारदार और धाराप्रवाह एंकरिंग के बीच इंद्रजीत जैसे बकलोल और डल संवाददाता के होने पर गुस्सा और अफसोस जरूर हो रहा होगा। वाजपेयी नोएडा से जिस सवाल को फेंकते, बख्यितारपुर की सड़कों पर खड़ा ये संवाददाता उसे लोगों के मुंह में माइक सटाकर उस सवाल को दोहराता। टीआरपी भले ही इंटरटेनमेंट चैनलों की फुटेज काटने, यूट्यूब से भूत-प्रेत की कथाओं को उड़ाने और क्रिकेट को मैदानी खेल से ज्यादा राजनीतिक घमासान में तब्दील करने से आती हो और पैकेज पर खर्च भी कम आते हों लेकिन चुनावी कवरेज आज भी अपना महत्व रखता है। ये चैनल की हैसियत को बताता है जिसका अंदाजा हम बैठी ऑडिएंस आसानी से लगा लेते हैं कि किस चैनल के पास कितनी रिसोर्सेज है। जी न्यूज पर संवाददाताओं को देखकर साफ लग रहा था कि अब चैनलों में भर्ती करने के आधार तेजी से खिसक रहे हैं और सिर्फ योग्यता आधार नहीं रह गया है। नहीं तो ऐसे लोलिआते संवाददाता हमें नहीं झेलने पड़ते। आजतक के महामहिम का दर्जा पा चुके अशोक सिंघल हम ऑडिएंस को बिना आंख का समझते हैं। नीतीश की ओर से प्लेट में मिठाइयां और समोसे परोसे जा रहे हैं और खासतौर से पत्रकारों को बांटे जा रहे हैं। वो प्लेट से एक-एक चीज उठाकर दिखा रहे हैं कि ये लड्डू है, ये समोसे हैं। मुझे यहां फिर पीपली लाइव का दीपक याद आता है, जो कि हमें गू का रंग दिखा रहा होता है। चैनलों पर विश्लेषण के स्तर को अगर आप एक घंटे तक गौर से देख लें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि वो किस लेबल से सोचते और काम करते हैं, उनकी रेंज क्या है? चैनल के लोग दर्जनों बार मुझे दलील दे चुके हैं कि टीआरपी के लिए हमें दोयम दर्जे के कार्यक्रम दिखाने पड़ते हैं। आज मुझे भरोसा हो गया कि नहीं, अगर उन्हें टीआरपी की चिंता नहीं भी हो और बेहतर प्रोग्राम बनाने की बात हो तो भी वो नहीं बना सकते क्योंकि अब न तो उनकी आदत रही है और न काबिलियत बरकरार है। नहीं तो बिहार के चुनावी कवरेज, जिसके लिए न्यूयार्क और कनाडा में बैठा शख्स भी यूट्यूब पर दनादन हिट्स मारे जा रहा है, सिर्फ फुटेज भी काटकर दिखाएं तो टीआरपी मिलनी ही मिलनी है। *बिहार सहित* भारत की राजनीति के लिए जरूरी तौर पर ऐतिहासिक जीत है। मुझे नहीं पता कि बिहार के लोगों ने नीतीश के पक्ष में विकास के काम को देखते हुए वोट दिया है या फिर मीडिया मैनेजमेंट की बड़ी भूमिका रही है, जिसने जनाधार तैयार करने में एक सक्रिय कमिटेड एजेंट का काम किया लेकिन लगभग सभी चैनलों पर जिस तरह से संवाददाताओं के चेहरे के जो एक्सप्रेशन बन रहे थे, जिन शब्दों का वो इस्तेमाल कर रहे थे, वो कहीं से भी तटस्थ नहीं था। स्टार न्यूज के संदीप झा की पीटूसी सुनकर शर्म आ रही थी कि यार – नीतीश का जंतर दीपक चौरसिया से पहले तुमने ही पहन ली। इस जीत के आगे बिहार के तमाम अंतर्विरोधों का धता बता दिया गया। दीपक चौरसिया ने साफतौर पर कहा कि बिहार से जातिवाद पूरी तरह खत्म हो गया है। राजनीतिक जीत क्या पूरी तरह किसी राज्य या देश की सामाजिक स्थिति को व्यक्त करती है, इस पर गंभीरता से बात करने की जरूरत है। हायपरबॉलिक अंदाज में चीजों को पेश करने से संभव है कि बिहार की इमेज बिल्डिंग बेहतर होती हो, होनी भी चाहिए लेकिन मास मीडिया को बहते परनाले के ऊपर डालनेवाली एक तख्ती के तौर पर नहीं बल्कि दोतरफा आईने के तौर पर मौजूद होना चाहिए। लेकिन ये नहीं होना है। ये पेड न्यूज से बारीक चीज है जो कि बिहार में पहली बार मीडिया के लोगों के बीच प्रयोग में लाये गये। मुझे आज के कवरेज के दिन इमरजेंसी के दौरान दूरदर्शन पर क्या हो रहा होगा जिसे कि मैंने सेवंती निनन और यूट्यूब के जरिये समझने की कोशिश की है, अंदाजा लगा रहा हूं। ये अघोषित तौर पर एक विपक्षविहीन मीडिया है। ये हमें पहली बार ज्यादा शिद्दत से देखने को मिले। *अगर आपको* आंकड़ों में दिलचस्पी है और लगता है कि देश और दुनिया की तमाम दिलचस्पी और समस्याओं के रहस्य आंकड़ों में छुपे हैं तो एनडीटीवी पर पंकज पचौरी को देखना एक राहत की खुराक साबित होगी। मनोरंजन भारती को नीतीश की तरफ से प्लास्टिक के कप में नहीं बल्कि बाकायदा चीनी मिट्टी की प्याली में चाय मिली। पंकज पचौरी को इसमें बिहार का विकास दिखाई दिया (अगर ये व्यंग्य किया तो और भी निराश करता है)। नजारों के बीच कुछ अलग बताने की कोशिश में पुण्य प्रसून हमारा ध्यान अनार की तरफ ले जाते हैं और बताते हैं कि ये तो फटते नहीं। ये कैसा अनार है, फिर बीजेपी ऑफिस में लटकी लड़ियों की तरफ इशारा करते हैं। अंजना कश्यप एलान करती हैं – नीतीश ही रहेंगे बिहार के बिग बॉस। इस चैनल की तो ओपनिंग शॉट भी बिग बॉस की है, जिसमें आंख के बीच में से नीतीश निकलते हैं। ये सारे के सारे एंकर चुनावी कवरेज के बीच एक तरह से अपने पुराने दिनों को जीने की कोशिश करते हैं और मुदित होकर कविताई करने लग जाते हैं। लेकिन वो इस बात को नहीं समझ पाते कि कविता का दौर तुकबंदी और अलंकारिक होने से कहीं आगे निकल चुका है। अब अंजना कश्यप से कोई ये सवाल करे कि नीतीश को बिहार की जनता ने चुना है जबकि बिग बॉस को जनता नहीं चुनती है बल्कि बिग बॉस जनता के बीच से कुछ को चुनते हैं। क्या ऐसा कहना गलत नहीं है? लेकिन नहीं, कोशिश है अलग दिखने की, मनोरंजन पैदा करने की तो कुछ भी बोल जाइए। इसलिए दीपक चौरसिया किसी भार-भरकम नेता के बोले जाने से पहले चुलबुल पांडे बोलेंगे की घोषणा करते हैं। *इधर IBN 7* अपनी संतुलित कवरेज के बीच एनडीए का ग्राफ ऊपर उठने के साथ ही अपनी पोस्ट पोल सर्वे को भुनाने को तैयार हो जाता है। संदीप चौधरी कहते हैं कि अब ताल ठोंकने का वक्त आ गया है क्योंकि हमारे चैनल का, IBN7 का सर्वे बिल्कुल सही निकला है। अब तक संतुलित रहा चैनल ताल ठुकाई में ऐसा भिड़ता है कि योगेंद्र यादव इस खुशी के बीच सच्चाई को देखने कहने का दिन करार देकर मामले को पटरी पर लाने की कोशिश करते हैं। इस तरह बिहार चुनाव कवरेज नयी सरकार बनने के पहले दि ग्रेट इंडियन कॉमेडी सर्कस का मजा देने की पूरी कोशिश करता है। लेकिन… *राजनीतिक खबरों*, विज्ञापनों और पेड न्यूज को लेकर जो लोग काम कर रहे हैं, हमारे बीच खासकर दिलीप मंडल, उन्हें ये कवरेज पेड न्यूज के बीच बहुत ही बारीक-बारीक चालबाजियों के उग आने के संकेत देते हैं। आप ये बिल्कुल नहीं कह सकते कि अगर इंडिया शाइनिंग का विज्ञापन कैंपेन पिट गया तो लोगों ने उसे फिर से इस्तेमाल करना छोड़ दिया। उन्होंने अपने तरीके बदल दिये। मिठाईवाले, फूलवाले, टेंट और दरीवाले, मीडिया के लोगों के लिए वाकई जश्न का माहौल है, लेकिन इन बारीकियों को पकड़ने के लिहाज से उन पर नयी जिम्मेदारी बन गयी है। *नीतीश की जीत* के आगे टेलीविजन के तमाम नामचीन पत्रकार जिस तरह से लोटते नजर आये, मुझे शक है कि इंडिया टीवी नीतीश को जल्द ही रामावतार करार न दे दे और सुशील मोदी को पूर्वजन्म का जयप्रकाश नारायण। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Thu Nov 25 15:41:13 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 25 Nov 2010 15:41:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCZ4KSq4KWA4KSq?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CkteKAmSDgpK7gpYfgpIIg4KSG4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpKbgpLDgpIXgpLjgpLIg4KS54KSu?= =?utf-8?b?IOCkueCliOCkgiA6IOCkleCkpeCkvuCkpuClh+CktiAo4KSo4KS14KSu?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KSwKQ==?= Message-ID: > > “मैं जिस गरीबी-मुक्त हिन्दुस्तान को देखता हूँ उसकी अधिकतर आबादी, यही कुछ > पचासी फ़ीसद लोग अंतत: शहरों में रहेंगे. महानगर न सही लेकिन शहरों में. इस शहरी > वातावरण में पानी, बिजली, शिक्षा, सड़क, मनोरंजन और सुरक्षा ज़्यादा आसानी से और > प्रभावकारी तरीके से मुहैया करवाना संभव होगा बनिस्पत छ: लाख गाँवों के. मेरा > मानना है कि कई लोग तब भी ग्रामीण इलाकों में रहेंगे और खेती करेंगे. और उनका > स्वागत किया जाना चाहिए, उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. लेकिन शहर को > जाने वालों के मुकाबले यह बहुत छोटी सँख्या होगी.” – *पी. चिदम्बरम.*तत्कालीन वित्तमंत्री, भारत सरकार. ‘ > *तहलका*’ को दिए एक साक्षात्कार में. *31 मई 2008*. > मुझे आज भी याद है कि यह ’सौ टके की बात’ मुझे सबसे पहले शिक्षाविद अनिल सदगोपाल ने बताई थी. मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में नया-नया आया था. एक्टिविटी सेंटर के उस छोटे से कमरे में उस रोज़ हम कुछ लोग ही थे. शायद सन छियासी की शिक्षा नीति पर बात करते हुए उन्होंने कहा था कि एक भ्रामक अवधारणा तमाम लोगों (ख़ासकर शहरी मध्यवर्ग) में फ़ैली है कि हमारे देश के नीति नियंता योजनाएँ और नीतियाँ तो बहुत अच्छी बनाते हैं लेकिन भ्रष्ट तंत्र की वजह से उन्हें कभी ठीक से लागू नहीं किया जाता. और इसीलिए वे अपने उद्देश्य पूरे करने में असफ़ल साबित होती हैं. यह गलत सोच है. मेरा मानना है कि हमारे नीति नियंता जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नीतियाँ बनाते रहे हैं वे हमेशा पूरे हुए हैं. या इस बात को बदलकर यूँ कहना चाहिए कि जिन्हें आप-हम हमेशा नीतियों के असल लक्ष्य समझते रहे, वे कभी नियंताओं के लक्ष्य रहे ही नहीं. शायद उनके लक्ष्य शुरु से वही रहे हों जिन्हें अंतत: हासिल किया गया है. यह बात एक ऐसा ’गुरु-मंत्र’ है जिसे मैंने उस दिन से गाँठ बाँध लिया है. इसकी ख़ासियत है कि इसे उठाकर किसी दूसरी जगह भी लागू किया जा सकता है, किसी और गड़बड़झाले में, किसी और ध्वस्त हुए ख्वाब में. आज खबरों में फ़्लैश करती किसी भी ’ज्वलंत समस्या’ पर इसे लागू कर देखिए, पूरी संभावना है कि आप सही रास्ते पर होंगे असल अर्थ समझने के. एक नज़र में देखकर कह सकते हैं कि *’पीपली लाइव’* उन तमाम सरकारी योजनाओं और राज्य की मशीनरी की असफ़लता दिखाती है जिन्हें नत्था जैसे विकास की अंतिम पायदान पर खड़े किसान के हित में बनाया गया था. लेकिन फिर आप एक हाथ में देश के वर्तमान गृहमंत्री का ऊपर आया बयान रखकर दूसरे हाथ से नत्था की अंतिम परिणति को तौलें. समझ आएगा कि कैसे एक तय प्रक्रिया के तहत नत्था को उसकी ’सही जगह’ पहुँचाया गया है. ’पीपली लाइव’ में वो विवेक है जिसे हम प्रेमचंद की रचनाओं में पाते हैं. यह एक कृषि प्रधान देश को जबरन एक पश्चिमी औद्योगीकृत व्यवस्था में बदलने की कोशिश से उपजी विडंबना को दिखाती है. यह किसान आत्महत्या के बारे में नहीं है. बेशक फ़िल्म में आया ’मीडिया’ उसे ही सबसे बड़ी खबर मानता हो और फ़िल्म से बाहर उसके प्रचार में लगा वास्तविक मीडिया भी चाहे उसे दिखाकर ही फ़िल्म बेच रहा हो, ’पीपली लाइव’ की केन्द्रीय समस्या किसान आत्महत्या नहीं है. यह एक किसान के कर्ज़ में दबकर अपनी ज़मीन खोने और अंत में शहर आकर दिहाड़ी मज़दूर हो जाने की कथा है. मुझे प्रेमचंद याद आए. क्योंकि जब हम उनके उपन्यास ’रंगभूमि’ में एक बंजर ज़मीन पर फैक्टरी लगने के विरोध में एक अंधे किसान का प्रतिरोध देखते हैं तो वह इसी अनर्गल विचार का प्रतिकार है. हम जानते हैं कि ’गोदान’ में होरी तो मर गया लेकिन गोबर की नियति शहर जाकर मजदूर हो जाना ही है. अगर उसे ज़िंदा रहना है तो यही एक रास्ता है (अगर इसे रास्ता कहें तो) उसके सामने. और जिन्होंने प्रेमचंद को पढ़ा है वे जानते हैं कि नत्था की एकमात्र तार्किक परिणिति यही हो सकती थी. लेकिन सिर्फ़ प्रेमचंद ही क्यों. हिन्दी सिनेमा की क्लासिक कृति ’दो बीघा ज़मीन’ की कथा भी क्या इससे अलग है? नम्रता जोशी ’आउटलुक’ के स्वतंत्रता दिवस पर आए विशेषांक में लिखती हैं, “दोनों फ़िल्मों का अंत उन्हें एक ज़मीन पर ला देता है. मीडिया के लिए पीपली की कहानी ख़त्म हो चुकी है. लेकिन नत्था के पास पीपली में रहकर ही मर जाने या दिल्ली के किसी अंधेरे कोने जाकर मज़दूर बन जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं. उसे इस तेज़ी से चौड़े होते शहरी-ग्रामीण क्षेत्र के अंतर को पार करना है और अंतत: शहर जाकर उसका एक गुमनाम हाशिया बन जाना है. दूसरे शब्दों में कहें तो उसे ’दो बीघा ज़मीन’ के शंभू का ही एक नया रूप हो जाना है. और यहीं सवाल है कि इतना समय गुज़रने के बाद भी - जिसमें लोगों की चेतना बदली है, परिस्थितियाँ बदली हैं, संदर्भ बदले हैं. तो फिर सिनेमा के परदे पर हमारे किसान का संघर्ष और उसका शोषण क्यों ज़रा भी नहीं बदला?” यहाँ ’पीपली लाइव’ में होरी महतो जैसा किरदार होना इसे ज़्यादा गहरे अर्थ प्रदान करता है. होरी के माध्यम से फ़िल्म आपको हर ब्रेकिंग न्यूज़ के पीछे छुपी क्रूरताओं से रूबरू करवाती है. प्रेमचंद को दी गई एक रचनात्मक श्रद्धांजलि में उस किरदार ’होरी महतो’ का नाम हमारी याद्दाश्त पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. ’पीपली लाइव’ में ऐसा निर्लज्ज तमाशा दिखाई देता है जो लगातार हमारे गाँव, देहातों में जारी है. जिसके दो सिरों पर दो एकदम विपरीत क्षमता वाले पक्ष खड़े हैं. एक ओर है सरकार और उनके साथ बड़ा कॉर्पोरेट/पूँजीपति समुदाय जिसका हित इसमें है कि कभी पानी, कभी जंगल, कभी ज़मीन और कभी ज़मीन के नीचे छुपे खज़ाने के लिए उसे इस महादेश के संसाधनों पर सीधा नियंत्रण दिया जाए. दूसरी ओर कभी किसी सीमांत जंगल में रहने वाला आदिवासी है, कभी नदी किनारे मछलियाँ पकड़ने वाला मछुआरा और कभी गरीब किसान. हर अलग उदाहरण में हर बार वही नियति पाने को अभिशप्त. लेकिन इस सबके बीच आप और मैं कहाँ हैं? ’हम’ याने इस देश का शहरी मध्यवर्ग. इस देश का मत निर्माता (ओपिनियन बिल्डर) क्या ’पीपली लाइव’ में मौजूद इन अतियों के टकराव में हमारा कोई प्रतिनिधित्व नहीं? यहीं आकर ’पीपली लाइव’ अचानक समसामयिक हो जाती है और ख़ास हमारे समय की कहानी कहने लगती है. इस फ़िल्म में ग्रामीण परिवेश और उससे जुड़े शोषण पर बनी अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह सिर्फ़ आपस में संघर्षरत दो विपरीत शक्तियाँ ही नहीं, इसका एक तीसरा पहलू भी है. ’पीपली लाइव’ इसलिए अलग है क्योंकि उसे देखते हुए हम सिर्फ़ दर्शक की भूमिका में नहीं, हम खुद एक किरदार के तौर पर उसमें मौजूद हैं. अपनी जायज़-नाजायज़ हर भूमिका को निभाते, कसौटी पर कसे जाने के लिए उपलब्ध. अपनी ज़मीन बचाने के लिए लड़ते एक ग्रामीण परिवार और उसका बचाया जाना असंभव बनाती संपूर्ण व्यवस्था के ऐन बीच में मौजूद, फ़िल्म का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण किरदार ’मीडिया’ आखिर किसकी नुमाइंदगी कर रहा है? गौर से देखिए, यह ऊपर-ऊपर से अति की हद तक संवेदनशील दिखने की कोशिश करता, लेकिन असल में खाँटी तमाशबीन तासीर वाला मीडिया दरअसल हम हैं. मैं, आप, हम सब. इस देश का शहरी मध्यवर्ग. इस देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार, ’ओपिनियन बिल्डर’. और सही कहूँ तो ’पीपली लाइव’ में आए इस अतिरेकी मीडिया के तमाशे को देखकर सिनेमाहाल में हँसने वाले तमाम दर्शक यह भूलकर हँस रहे हैं कि यह मीडिया दरअसल फ़िल्म में उनका ही प्रतिनिधित्व करता है. वो हमीं हैं जिन्होंने कई साल हुए छोटे-बड़े तमाम शहरों के बाहर रहती इस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी की तरफ़ से अपनी आँखें मूँद ली हैं. ऐसे में जब अचानक एक आत्महत्या करता हुआ किसान (इसे आप किसी और समीचीन उदाहरण से बदल भी सकते हैं) हमारे सामने आता है तो हमारी आँखें चौंधिया जाती हैं. हम उस एक किसान की जान बचाने के लिए अपनी तमाम ’संवेदनशीलता’ उँडेल देते हैं. लेकिन ठीक फ़िल्म में आए तमाशबीन मीडिया की तरह यह हमारे लिए सिर्फ़ एक ’घटना’ है. और तमाम ’घटनाओं’ की तरह एक घटना. अन्य तमाम ’घटनाओं’ की तरह ही अकेली और इसलिए किसी ’प्रक्रिया’ का हिस्सा नहीं. यह तमाम उछलकूद हमारे लिए अब किसी खेल का हिस्सा भर है जिसका हमारी ज़िन्दगियों से सीधा कोई लेना-देना नहीं. इसलिए देश भर में एक के बाद एक इलाकों में, भिन्न समुदायों के साथ बड़े व्यवस्थित तरीके से अनवरत जारी यह शोषण चक्र हमारे लिए कभी एक निरंतर चलती ’प्रक्रिया’ नहीं बन पाएगा. मीडिया यही करता है और कहीं न कहीं यह हमारा ही प्रतिबिम्ब है जो मीडिया के इस व्यवहार में दिखाई पड़ता है. पी. साईनाथ अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ’एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट’ की भूमिका में इसी ओर इशारा करते हैं, “इसके (पुस्तक के) पीछे उद्देश्य यह था कि उन स्थितियों को प्रक्रियाओं के संदर्भ में देखा जाए. प्राय: गरीबी और वंचनाओं के बारे में इस तरह लिखा जाता है गोया ये घटनाएं हों. कहने का मतलब यह कि जब कोई आपदा पड़ती है या जब लोग मारे जाते हैं तभी इन पर निगाह जाती है. भुखमरी से होने वाली मौतों अथवा लगभग अकाल जैसी स्थितियों से भी कहीं बढ़-चढ़कर गरीबी की विकरालता है.” ’पीपली लाइव’ के ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए पी. साईनाथ को पढ़ा जाना ज़रूरी है. फ़िर भी कुछ असुविधाजनक सवाल हैं जिन्हें पूछा ही जाना चाहिए. इसलिए भी कि कुछ गहराई में यह सवाल घूमकर हमारी ओर ही आते हैं. यह सवाल कि क्या ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी ’पीपली लाइव’ में एक नितांत शहरी फ़ेनोमिना ’मीडिया’ का एक मुख्य किरदार के रूप में उपस्थित होना ही क्या हमारे बीच उसकी स्वीकार्यता का सबसे बड़ा कारण नहीं? यहाँ यह भी कि इस संदर्भ में बात करते हुए ’पीपली लाइव’ को मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में ग्रामीण भारत की वापसी के तौर पर देखना उतना ही भ्रामक है जितना ’लगान’ को एक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म की सफ़लता का उदाहरण गिनना हो सकता है. मैंने यही सवाल अनुषा रिज़वी से बहसतलब के दौरान पूछा था. उसका सीधा जवाब तो वहाँ नहीं मिला लेकिन वहाँ अनुषा ने बताया कि किस तरह आजकल कुछ ’मार्केट रिसर्च टीम’ छोटे-बड़े शहरों में सर्वे कर यह तय करती हैं कि किस तरह की फ़िल्म दर्शक देखना चाहते हैं. फ़िल्मों की पटकथाएं इसी आधार पर निश्चित की जाती हैं और ’पीपली लाइव’ भी इसी तरह की एक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ी. अब यह देखना बड़ा मज़ेदार है कि किस तरह यह पूरा प्रसंग फ़िल्म की कहानी को ही दोहराने लगा है. फ़िल्म के दौरान अंग्रेज़ी चैनल की पत्रकार अपने लोकल स्ट्रिंगर राकेश को समझा रही हैं, “रिसर्च कहता है कि लोग सिर्फ़ नत्था में इंटरेस्टेड हैं. डू यू नो व्हाय? बिकॉज़ ही इज़ दि ओरिजिनल लाइव सुसाइडर. डू यू हैव एनी आइडिया हाउ बिग दिस इज़?” अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारुकी ने सत्रह अक्टूबर के इंडियन एक्सप्रेस में दिए एक साक्षात्कार में फिर इस बात को दोहराया है कि अब मुख्याधारा का हिन्दी सिनेमा एक ’मास मीडियम’ नहीं है. मुम्बई और गोरखपुर के सिनेमाहॉल के बीच कीमतों का ऐसा ज़मीन-आसमान का अंतर है कि गोरखपुर जैसे शहर अब फ़िल्म निर्माता के रेडार से बाहर हैं. अब दर्शकों का एक ख़ास क्लास है और उसी के अनुसार फ़िल्मों के विषय निर्धारित किए जा रहे हैं. ’पीपली लाइव’ इस पहचान के बावजूद भी व्यवस्था के बी़च से होकर एक रास्ता निकालने की कोशिश है. ’बावजूद’, वजह से नहीं. और सिर्फ़ इसके होने भर से व्यवस्था को लेकर किसी मुगालते में रहना बड़ी भूल होगी. -- *'कथादेश'* के *नवम्बर* अंक में प्रकाशित. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Nov 25 17:22:29 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 25 Nov 2010 17:22:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkueCkriDgpLLgpL7gpIfgpKzgpY3gpLDgpYfgpLDgpYAg4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkreClguCksiDgpKgg4KSc4KS+4KSP4KSC?= Message-ID: *कहीं हम लाइब्रेरी को भूल न जाएं **25 Nov 2010, 0400 hrs * हाल में एक तेलुगू अखबार में खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश के एक गांव में पुस्तकालय नहीं होने की वजह से एक लड़के की शादी टूट गई। वहां किसी गांव में पुस्तकालय नहीं होना हीनता का प्रतीक माना जाता है। लोग आपसी बातचीत में अक्सर पुस्तकालय का जिक्र करते हैं और यह बताते रहते हैं कि उन्होंने अमुक किताब पढ़ी है। लेकिन उत्तर भारत में स्थिति एकदम उलट है। यहां के पुस्तकालयों की हालत अच्छी नहीं है और समाज को उनकी चिंता भी नहीं है। आज इस बात के ठीक-ठीक आंकड़े नहीं हैं कि देश भर में कितने पुस्तकालय चलती हालत में हैं। देश में कितने पुस्तकालयों की जरूरत है, इसे लेकर भी कोई सर्वेक्षण नजर नहीं आता। एस. आर. रंगनाथन भारत में पुस्तकालय अभियान के जनक माने जाते हैं। उनकी पहल से ही 1948 में तमिलनाडु मंे पहला सार्वजनिक पुस्तकालय बिल पास हुआ था। रंगनाथन हमेशा अपने पाठकों का समय बचाने की वकालत करते थे। उनका मानना था कि अपने पाठकों का समय बचाना चाहिए, क्योंकि वह बहुत कीमती है। मगर रंगनाथन की पाठकों का समय बचाने की मांग और पुस्तकालय अभियान दोनों सफलता से अब तक बहुत दूर हैं। 1957 में सिन्हा समिति ने गांव-गांव तक पुस्तकालय पहुंचाने की सिफारिश की थी। सिन्हा समिति के गठन के ठीक सात साल के बाद 1964 में योजना आयोग ने इस विषय पर एक कार्यसमिति गठित की। कार्यसमिति ने भी सिन्हा समिति की अनुशंसाओं पर मुहर लगाई। पर वे सभी अनुशंसाएं फाइलों में दबी हैं। उन्हें लेकर कोई ठोस कार्रवाई नजर नहीं आती। आज पहले सार्वजनिक पुस्तकालय बिल को पास हुए साठ से अधिक साल गुजर चुके हैं। अब तक आधे दर्जन से अधिक ऐसे राज्य हैं, जहां यह बिल पास ही नहीं हुआ। इनमें छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश प्रमुख हैं। सन 1962 में केन्द्र सरकार ने अपनी तरफ से पहल करते हुए उन सभी राज्यों को सार्वजनिक पुस्तकालय बिल का एक मॉडल भेजा, जहां यह बिल उस समय तक पास नहीं हुआ था। गौरतलब है कि 62 में छत्तीसगढ़ और झारखंड नहीं बने थे लेकिन बिहार और मध्य प्रदेश की नींद तो अब तक नहीं खुली है। वैसे हिंदी पट्टी में नागरिकों के व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ अच्छे पुस्तकालय चलाए जा रहे हैं। मसलन पाश पुस्तकालय, जिसे करनाल के पुलिस वाले आम लोगों के लिए चला रहे हैं। यह अपने आप में ऐसा इकलौता पुस्तकालय है, जिसके एक हजार आजीवन सदस्यों में से सात सौ सदस्य पुलिस वाले हैं। इसे करनाल के पुलिस जवानों ने उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए अपने चार साथियों बलजीत सिंह, ब्रजेन्द्र सिंह, रघुनन्दन और नारायण सिंह की याद में बनाया। आज यह पुस्तकालय करनाल, पानीपत, कुरुक्षेत्र में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। इसी प्रकार रेड लाइट एरिया में रहने वाली महिलाओं के लिए बिहार के मुजफ्फरपुर में ' परचम ' नाम की संस्था ' जुगनू ' नाम से एक पुस्तकालय चला रही है। परचम की संयोजक नसीमा उन महिलाओं में आत्मविश्वास लाना चाहती हैं और उन्हें पता है कि इस काम में पुस्तकें सबसे कारगर साबित हो सकती हैं। इस तरह के व्यक्तिगत प्रयासों के तो दर्जनों उदाहरण हैं। लेकिन जो प्रयास हो रहे हैं , वे पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि पुस्तकालय राज्य सरकारों का विषय है , इसलिए राज्य सरकारों को इसके लिए आगे बढ़कर कुछ कारगर कदम उठाना चाहिए। पिछले कुछ समय से मूर्तियां और मालाएं लगातार विवाद की वजह बन रहीं हैं। इन पर जो पैसा खर्च हो रहा है उसे पुस्तकालयों पर खर्च किया जाए तो समाज का कहीं ज्यादा भला होगा। दुर्भाग्य है कि कई सरकारें दिखावे पर अनाप - शनाप खर्च कर रही हैं। यह राशि पुस्तकालयों पर खर्च की जा सकती है। इसी तरह कॉरपोरेट सेक्टर भी लाइब्रेरी खोल सकता है। बहरहाल सर्वशिक्षा अभियान के तर्ज पर अब हमारे देश में सर्व पुस्तकालय अभियान चलाने का यही सही समय है। इंटरनेट के आने से अब डिजिटल लाइब्रेरियां शहरों में पॉपुलर हो रही हैं , पर छोटे शहरों , कस्बों और गांवों में बड़े पैमाने पर पुस्तकालयों की जरूरत है। वहां कंप्यूटर और बिजली की सुविधाएं अब भी उपलब्ध नहीं हंै। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Nov 25 17:22:29 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 25 Nov 2010 17:22:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkueCkriDgpLLgpL7gpIfgpKzgpY3gpLDgpYfgpLDgpYAg4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkreClguCksiDgpKgg4KSc4KS+4KSP4KSC?= Message-ID: *कहीं हम लाइब्रेरी को भूल न जाएं **25 Nov 2010, 0400 hrs * हाल में एक तेलुगू अखबार में खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश के एक गांव में पुस्तकालय नहीं होने की वजह से एक लड़के की शादी टूट गई। वहां किसी गांव में पुस्तकालय नहीं होना हीनता का प्रतीक माना जाता है। लोग आपसी बातचीत में अक्सर पुस्तकालय का जिक्र करते हैं और यह बताते रहते हैं कि उन्होंने अमुक किताब पढ़ी है। लेकिन उत्तर भारत में स्थिति एकदम उलट है। यहां के पुस्तकालयों की हालत अच्छी नहीं है और समाज को उनकी चिंता भी नहीं है। आज इस बात के ठीक-ठीक आंकड़े नहीं हैं कि देश भर में कितने पुस्तकालय चलती हालत में हैं। देश में कितने पुस्तकालयों की जरूरत है, इसे लेकर भी कोई सर्वेक्षण नजर नहीं आता। एस. आर. रंगनाथन भारत में पुस्तकालय अभियान के जनक माने जाते हैं। उनकी पहल से ही 1948 में तमिलनाडु मंे पहला सार्वजनिक पुस्तकालय बिल पास हुआ था। रंगनाथन हमेशा अपने पाठकों का समय बचाने की वकालत करते थे। उनका मानना था कि अपने पाठकों का समय बचाना चाहिए, क्योंकि वह बहुत कीमती है। मगर रंगनाथन की पाठकों का समय बचाने की मांग और पुस्तकालय अभियान दोनों सफलता से अब तक बहुत दूर हैं। 1957 में सिन्हा समिति ने गांव-गांव तक पुस्तकालय पहुंचाने की सिफारिश की थी। सिन्हा समिति के गठन के ठीक सात साल के बाद 1964 में योजना आयोग ने इस विषय पर एक कार्यसमिति गठित की। कार्यसमिति ने भी सिन्हा समिति की अनुशंसाओं पर मुहर लगाई। पर वे सभी अनुशंसाएं फाइलों में दबी हैं। उन्हें लेकर कोई ठोस कार्रवाई नजर नहीं आती। आज पहले सार्वजनिक पुस्तकालय बिल को पास हुए साठ से अधिक साल गुजर चुके हैं। अब तक आधे दर्जन से अधिक ऐसे राज्य हैं, जहां यह बिल पास ही नहीं हुआ। इनमें छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश प्रमुख हैं। सन 1962 में केन्द्र सरकार ने अपनी तरफ से पहल करते हुए उन सभी राज्यों को सार्वजनिक पुस्तकालय बिल का एक मॉडल भेजा, जहां यह बिल उस समय तक पास नहीं हुआ था। गौरतलब है कि 62 में छत्तीसगढ़ और झारखंड नहीं बने थे लेकिन बिहार और मध्य प्रदेश की नींद तो अब तक नहीं खुली है। वैसे हिंदी पट्टी में नागरिकों के व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ अच्छे पुस्तकालय चलाए जा रहे हैं। मसलन पाश पुस्तकालय, जिसे करनाल के पुलिस वाले आम लोगों के लिए चला रहे हैं। यह अपने आप में ऐसा इकलौता पुस्तकालय है, जिसके एक हजार आजीवन सदस्यों में से सात सौ सदस्य पुलिस वाले हैं। इसे करनाल के पुलिस जवानों ने उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए अपने चार साथियों बलजीत सिंह, ब्रजेन्द्र सिंह, रघुनन्दन और नारायण सिंह की याद में बनाया। आज यह पुस्तकालय करनाल, पानीपत, कुरुक्षेत्र में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। इसी प्रकार रेड लाइट एरिया में रहने वाली महिलाओं के लिए बिहार के मुजफ्फरपुर में ' परचम ' नाम की संस्था ' जुगनू ' नाम से एक पुस्तकालय चला रही है। परचम की संयोजक नसीमा उन महिलाओं में आत्मविश्वास लाना चाहती हैं और उन्हें पता है कि इस काम में पुस्तकें सबसे कारगर साबित हो सकती हैं। इस तरह के व्यक्तिगत प्रयासों के तो दर्जनों उदाहरण हैं। लेकिन जो प्रयास हो रहे हैं , वे पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि पुस्तकालय राज्य सरकारों का विषय है , इसलिए राज्य सरकारों को इसके लिए आगे बढ़कर कुछ कारगर कदम उठाना चाहिए। पिछले कुछ समय से मूर्तियां और मालाएं लगातार विवाद की वजह बन रहीं हैं। इन पर जो पैसा खर्च हो रहा है उसे पुस्तकालयों पर खर्च किया जाए तो समाज का कहीं ज्यादा भला होगा। दुर्भाग्य है कि कई सरकारें दिखावे पर अनाप - शनाप खर्च कर रही हैं। यह राशि पुस्तकालयों पर खर्च की जा सकती है। इसी तरह कॉरपोरेट सेक्टर भी लाइब्रेरी खोल सकता है। बहरहाल सर्वशिक्षा अभियान के तर्ज पर अब हमारे देश में सर्व पुस्तकालय अभियान चलाने का यही सही समय है। इंटरनेट के आने से अब डिजिटल लाइब्रेरियां शहरों में पॉपुलर हो रही हैं , पर छोटे शहरों , कस्बों और गांवों में बड़े पैमाने पर पुस्तकालयों की जरूरत है। वहां कंप्यूटर और बिजली की सुविधाएं अब भी उपलब्ध नहीं हंै। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Nov 27 14:02:53 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 27 Nov 2010 14:02:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkqOClhyDgpJXgpIgg4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCkguCkuOCljeCkpeCkvuCkqOCli+CkgiDgpJXgpYsg?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KSv4KS+IOCkqOCkguCkl+Ckvg==?= Message-ID: अंग्रेजी पत्रिका* ओपन* ने अपने ताजा अंक के एक पन्ने पर हाउ इंडियन कवर्ड मीडिया स्कैंडल लिखकर पूरा ब्लैंक छोड़ दिया है। यह प्रतिरोध का वही तरीका है जिसे की इमरजेंसी के दौरान कई पत्रिकाओं ने अपनाए थे। कुछ ने तो पन्ने खाली छोड़ दिए थे और कुछ ने लाइनें लिखकर काट दी थी। उस समय का प्रतिरोध इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ था और मीडिया की आजादी का गला घोंटी जाने की स्थिति में पत्रकारों,साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने उन नीतियों के खिलाफ नाराजगी दर्ज करायी थी। उदारवादी अर्थव्यवस्था औऱ निजी मीडिया के पैर पसारने के बाद ये पहला मौका है जिसका विरोध एक मीडिया हाउस ने मीडिया के खिलाफ किया है। 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में देश के नामचीन पत्रकारों और दिग्गज हस्तियों जिनमे एनडीटीवी की बरखा दत्त, हिन्दुस्तान टाइम्स के वीर संघवी, टीवीटुडे नेटवर्क के चैनल आजतक पर सीधी बात करनेवाले प्रभु चावला जैसे लोगों के नाम सामने आने लगे हैं। वर्चुअल स्पेस पर उनकी ऑडियो टेप, स्क्रिप्ट के साथ तैरने लगे हैं। मोहल्लाLIVE ने इस पन्ने को लगाया है औऱ प्रतिरोध के इस तरीके को बहुत ही असरदार और सही ठहराया है। साइट की इस तस्वीर पर मैंने जो कमेंट किए,आज साइट ने पोस्ट की शक्ल में लगायी है। लिहाजा वो कमेंट पोस्ट की शक्ल में आपके सामने हैं। संभव है ये आज की मीडिया की शक्ल को समझने में थोड़ी मदद करे- मीडिया घरानों की इसी चुप्पी ने बिल्डर माफियाओं, रीयल स्टेट के दलालों, करप्ट पूंजीपतियों को मीडिया का धंधा करने के लिए उत्साहित किया है। सीधा फार्मूला है कि एक बार किसी तरह का कोई चैनल खोल लो, फिर तो आ ही गये मीडिया जमात में। फिर कोई उंगली नहीं रखेगा बल्कि देश के नामचीन पत्रकार आकर उसकी शोभा बढ़ाएंगे। जिस दिन जेट एयरवेज से करीब सवा सौ कर्मचारियों को निकाल बाहर किया गया, पूरे तीन दिनों तक मीडिया ने उस मामले को सिर पर उठा लिया। लेकिन उससे तिगुनी संख्या में उसी समय वाइस ऑफ इंडिया के मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन किसी अखबार ने एक लाइन लिखने की जुर्रत नहीं की। स्त्रियों के साथ होनेवाली बदसलूकी पर पूरे चैनल क्रिस्पी न्यूज के लोभ में उसे प्राइम टाइम तक घसीटते हैं लेकिन स्टार न्यूज की सायमा सहर का मामला राष्ट्रीय महिला आयोग और हाईकोर्ट तक आ जाने की स्थिति में भी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं कि स्टार न्यूज के आकाओं ने आपके साथ क्या किया? सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल के लिए मौत की खबर वारदात और जुर्म जैसे कार्यक्रम की झोली में सीधे जाकर गिरती है लेकिन अपने ही सिस्टर चैनल हेडलाइंस टुडे की आधी रात में हुई मौत की खबर को दिखाने में कुल 12-14 घंटे लगा दिये। पहले ये समझने की कोशिश की कि कहीं चैनल लपेटे में तो नहीं आ जाएगा कि शिफ्ट खत्म होने के बाद भी वो काम क्यों करती रह गयीं? *आजाद न्यूज के* एचआर ने लाइन लगाकर सालों तक सैलरी बांटी और कोई स्लिप नहीं दिया, कइयों के पीएफ मार लिये, कहीं कोई खबर नहीं बनी। हमार न्यूज में मैनेजमेंट के साथ कई बार मार-पीट की घटनाएं हुईं, किसी ने कुछ नहीं दिखाया-बताया। देश में दर्जनों ऐसे चैनल हैं, जो कि उधार के लाइसेंस पर चल रहे हैं। वो किस चैनल का लाइसेंस है, उसे क्या दिखाना है, इस पर कभी स्टोरी नहीं चली। दर्जनों ऐसे चैनल हैं, जो कि एक ही जगह से अपलिंक होते हैं औऱ एक ही जगह से डाउनलिंक ताकि मॉनिटरिंग कमेटी को ये लगे कि इस नाम से चैनल हैं और धंधा चमकता रहे, इस पर कभी स्टोरी नहीं चली। इसलिए कि सबों के बीच एक गुपचुप तरीके का समझौता है। *अगस्त महीने में* अहमदाबाद में एक चैनल के उकसावे में आकर एक शख्स ने आत्महत्या कर ली। उस चैनल पर बाजिव कार्रवाई होनी चाहिए थी लेकिन दस दिन के भीतर हमारी महान एनबीए टीम ने आठ पन्ने में ऐसी रिपोर्ट पेश की कि मामला रफा-दफा हो गया और एसोसिएशन के सर्वे-सर्वा शाजी जमा और उनके होनहार पत्रकार दीपक चौरसिया बाइक पर खुलेआम बिना हेलमेट, सैंकड़ों लोगों की जान गिरवी पर रखकर जान इब्राहिम के साथ इंटरव्यू लेते रहे। सीधी बात करनेवाले माननीय प्रभु चावला कई तरह के उल्टे कामों में शक के घेरे में आ चुके हैं लेकिन आजतक पर हीं हीं करते हुए लोकतंत्र पर प्रहसन जारी है। एक औसत व्यक्ति ऐसे आरोप लगने पर शर्म से मर जाता। मामूली चोरी करनेवाला शख्स भी कैमरे के आगे गमछा बांधकर आता है लेकिन ये अब भी प्राइम टाइम पर चुनावी नतीजे पर मसखरई करते नजर आते हैं। *मीडिया को* इस बात का पक्का भरोसा हो गया है कि वो चाहे कुछ भी कर ले, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ने वाला। क्योंकि उसे चलानेवाले के घर का एक दरवाजा मीडिया की तरफ खुलता है तो दूसरा दरवाजा सरकार और मंत्रालय की तरफ। जब सइयां भये कोतवाल तो अब डर काहे का। कार्पोरेट से लड़ने की ताकत जब सरकार की नहीं रही तो मीडिया रिस्क क्यों ले -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Nov 28 15:58:15 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 28 Nov 2010 15:58:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpIbgpJwg4KSt4KWAIOCkreCkvuCknOCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KS54KWI4KSCIOCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWCIQ==?= Message-ID: दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि यहाँ चुनाव परिणाम सिर्फ और सिर्फ जीत-हार के आधार पर तय होता है, न कि पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर. तभी तो बिहार विधानसभा के चुनाव में आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा जेडीयू के साथ सत्ता में बैठी है और लालू प्रसाद को धरासाई घोषित कर दिया गया है. आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा ने 91 सीटें जीत लीं और लालू जी को मिलीं महज़ 22 सीटें. यह लोकतंत्र का गड़बड़झाला है! दरअसल, राजनीति जनाधार का खेल है. इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी अपने संगठन को मज़बूत करना चाहती है, भले वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर. संगठन की सक्रियता ही पार्टी के लिए जनाधार तैयार करती है. यह जनाधार पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत से तय होता है, और यही तय करता है कि ज़मीन पर किस राजनीतिक पार्टी की कितनी पकड़ है. बहरहाल, बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम को लेकर मुगालते में न रहें भाजपा के नेता. चौंकाने वाली बात यह है कि बिहार में लालू प्रसाद का आरजेडी आज भी न केवल भाजपा पर भारी है बल्कि नीतीश सरकार को जमीन पर अच्छी-खासी चुनौती देने की कूव्वत रखता है. आंकड़ों का सच यह कह रहा है कि 243 सीटों के लिए हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में बेशक नीतीश कुमार की अगुआई वाले जेडीयू को सबसे ज़्यादा 22.61 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया. लेकिन दूसरे स्थान पर लालू प्रसाद का आरजेडी ही रहा जिसे 18.84 प्रतिशत वोट मिले. भाजपा तीसरे नंबर पर रही जिसे 16.46 प्रतिशत वोट मिले. यानी लालू के आरजेडी से कम. इन आंकड़ों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में लालू प्रसाद की भले बुरी तरह हार हुई हो लेकिन उनके आरजेडी की ज़मीन अब भी मज़बूत है और बिहार में आज भी उनका अच्छा-ख़ासा जनाधार है. सीएसडीएस द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव 2010 के जिलावार आंकड़े को देखें तो बिहार में सात जिले (भोजपुर, बांका, भागलपुर, सारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और मधुबनी) में लालू प्रसाद के आरजेडी को अन्य सभी दलों से ज़्यादा वोट मिले हैं. लेकिन वोट प्रतिशत के हिसाब से नंबर वन रहने के बावजूद आरजेडी को यहाँ महज नौ सीटें मिली हैं जबकि इन जिलों में विधानसभा की कुल 63 सीटें हैं. इसके अलावा सोलह जिलों (गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, अरवल, कैमूर, लखीसराय, मुंगेर, समस्तीपुर, वैशाली, सिवान, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, सुपौल और शिवहर) में आरजेडी वोट प्रतिशत के हिसाब से दूसरे नंबर पर है. इन जिलों में विधानसभा की कुल सत्तासी सीटें हैं जिनमें आरजेडी को सिर्फ 8 सीटें मिली हैं. इसी तरह, पूर्णिया, शेखपुरा, किशनगंज, नवादा, भागलपुर, बेगूसराय, सहरसा, सीतामढी और कैमूर जिले में कांग्रेस और आरजेडी के वोटों को मिला दिया जाए तो उनका प्रतिशत जेडीयू-भाजपा गठबंधन को मिले कुल वोटों से कहीं ज़्यादा होता है. उल्लेखनीय है कि इन जिलों में विधानसभा की कुल 48 सीटें हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत का जमीनी आधार बहुत मज़बूत नहीं कहा जा सकता. दरअसल बिहार के चुनाव में असली जीत जेडीयू-भाजपा गठबंधन हुई है न कि अकेले जेडीयू या भाजपा की. अकेले तौर पर लालू आज भी वोट प्रतिशत में भाजपा पर भारी हैं और जेडीयू से थोडा ही पीछे. इसलिए बिहार में गठबन्धन बनाए रखना जेडीयू-भाजपा की मज़बूरी है. अपने अच्छे-खासे जनाधार को मद्देनज़र रखते हुए लालू प्रसाद फिलहाल सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएं, बतौर सांसद बिहार के विकास के लिए काम करें, नीतीश सरकार की गलतियों का इंतज़ार करें और वैकल्पिक गठबंधन बनाने की रणनीति बनाएं, क्योंकि बिहार अब भी संभावना है लालू प्रसाद के लिए! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Sun Nov 28 16:47:23 2010 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 28 Nov 2010 16:47:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpIbgpJwg4KSt4KWAIOCkreCkvuCknOCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KS54KWI4KSCIOCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWCIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: शशिकांत, दोस्‍त, विचित्र गणित है है आपका... सेफोलॉजी के बेसिक्‍स को अनदेखा कर रहे हैं... ये न देखा कि किस पार्टी ने कितनी सीटें लड़ीं तब तक वोट प्रतिशत भ्रामक आंकड़ा है। अगर इन दो पार्टी की तुलना करनी ही है आरजेडी तथा भाजपा नि सीटों पर आमने सामने लड़ी हैं उनहें अलगकर वहॉं के वोट प्रतिशत की तुलना करें.... हमें तो इंडियालाइव की सनसनी टाईप लगी आपकी ये पोस्‍ट :) विजेंद्र 2010/11/28 shashi kant > > > > दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि यहाँ > चुनाव परिणाम सिर्फ और सिर्फ जीत-हार के आधार पर तय होता है, न कि पार्टियों को > मिले वोट प्रतिशत के आधार पर. तभी तो बिहार विधानसभा के चुनाव में आरजेडी से कम > वोट पाकर भी भाजपा जेडीयू के साथ सत्ता में बैठी है और लालू प्रसाद को धरासाई > घोषित कर दिया गया है. आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा ने 91 सीटें जीत लीं और > लालू जी को मिलीं महज़ 22 सीटें. यह लोकतंत्र का गड़बड़झाला है! > > दरअसल, राजनीति जनाधार का खेल है. इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी अपने संगठन को > मज़बूत करना चाहती है, भले वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर. संगठन की > सक्रियता ही पार्टी के लिए जनाधार तैयार करती है. यह जनाधार पार्टियों को मिले > वोट प्रतिशत से तय होता है, और यही तय करता है कि ज़मीन पर किस राजनीतिक पार्टी > की कितनी पकड़ है. > > बहरहाल, बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम को लेकर मुगालते में न रहें भाजपा के > नेता. चौंकाने वाली बात यह है कि बिहार में लालू प्रसाद का आरजेडी आज भी न > केवल भाजपा पर भारी है बल्कि नीतीश सरकार को जमीन पर अच्छी-खासी चुनौती देने की > कूव्वत रखता है. > > आंकड़ों का सच यह कह रहा है कि 243 सीटों के लिए हुए बिहार विधानसभा के चुनाव > में बेशक नीतीश कुमार की अगुआई वाले जेडीयू को सबसे ज़्यादा 22.61 प्रतिशत > लोगों ने वोट दिया. लेकिन दूसरे स्थान पर लालू प्रसाद का आरजेडी ही रहा जिसे > 18.84 प्रतिशत वोट मिले. भाजपा तीसरे नंबर पर रही जिसे 16.46 प्रतिशत वोट > मिले. यानी लालू के आरजेडी से कम. > > इन आंकड़ों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार > विधानसभा के चुनाव में लालू प्रसाद की भले बुरी तरह हार हुई हो लेकिन उनके > आरजेडी की ज़मीन अब भी मज़बूत है और बिहार में आज भी उनका अच्छा-ख़ासा जनाधार > है. > > सीएसडीएस द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव 2010 के जिलावार आंकड़े को देखें तो > बिहार में सात जिले (भोजपुर, बांका, भागलपुर, सारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और > मधुबनी) में लालू प्रसाद के आरजेडी को अन्य सभी दलों से ज़्यादा वोट मिले हैं. > लेकिन वोट प्रतिशत के हिसाब से नंबर वन रहने के बावजूद आरजेडी को यहाँ महज नौ > सीटें मिली हैं जबकि इन जिलों में विधानसभा की कुल 63 सीटें हैं. > > इसके अलावा सोलह जिलों (गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, अरवल, कैमूर, लखीसराय, > मुंगेर, समस्तीपुर, वैशाली, सिवान, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, सुपौल और > शिवहर) में आरजेडी वोट प्रतिशत के हिसाब से दूसरे नंबर पर है. इन जिलों में > विधानसभा की कुल सत्तासी सीटें हैं जिनमें आरजेडी को सिर्फ 8 सीटें मिली हैं. > > इसी तरह, पूर्णिया, शेखपुरा, किशनगंज, नवादा, भागलपुर, बेगूसराय, सहरसा, > सीतामढी और कैमूर जिले में कांग्रेस और आरजेडी के वोटों को मिला दिया जाए तो > उनका प्रतिशत जेडीयू-भाजपा गठबंधन को मिले कुल वोटों से कहीं ज़्यादा होता है. > उल्लेखनीय है कि इन जिलों में विधानसभा की कुल 48 सीटें हैं. > > बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत का जमीनी आधार बहुत मज़बूत नहीं कहा जा > सकता. दरअसल बिहार के चुनाव में असली जीत जेडीयू-भाजपा गठबंधन हुई है न कि > अकेले जेडीयू या भाजपा की. अकेले तौर पर लालू आज भी वोट प्रतिशत में भाजपा पर > भारी हैं और जेडीयू से थोडा ही पीछे. इसलिए बिहार में गठबन्धन बनाए रखना > जेडीयू-भाजपा की मज़बूरी है. > > अपने अच्छे-खासे जनाधार को मद्देनज़र रखते हुए लालू प्रसाद फिलहाल सकारात्मक > विपक्ष की भूमिका निभाएं, बतौर सांसद बिहार के विकास के लिए काम करें, नीतीश > सरकार की गलतियों का इंतज़ार करें और वैकल्पिक गठबंधन बनाने की रणनीति बनाएं, > क्योंकि बिहार अब भी संभावना है लालू प्रसाद के लिए! > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Sun Nov 28 17:35:22 2010 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 28 Nov 2010 17:35:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpIbgpJwg4KSt4KWAIOCkreCkvuCknOCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KS54KWI4KSCIOCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWCIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: जी बजा फरमा रहे हैं लेकिन ज‍हॉं तक मुझे जानकारी है आजेडी 168 सीट लड़ी तथा भाजपा शायद 102। अब 168 में 18.84 प्रति शत तथा 102 में 16.46 फीसदी में कौन सा ज्‍यादा है... ये अनुपात का सादा सवाल है। कुल मतदाता पता नहीं है पर रफ गणित से 102:168 के लिहाज से चलें तो भाजपा के बराबर वोट प्रति शत के लिए आरजेडी को 27.14 प्रतिश वोट मिलने चाहिए थे। उतने से तो लालू छा जाते :) क्‍या कहते हैं । दूसरी ओर आरजेडी के 18.84 फीसदी के बराबर के लिए भाजपा कसे केवल 11.43 प्रतिशत वोट मिलने चाहिए थे। (पूर्वधारणा- सभी सीटों पर औसतन बराबर मतदाता हैं) विजेंद्र 2010/11/28 shashi kant > भाई विजेंदर जी, > सबसे पहले टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया. > भाई जी मैं तो सिर्फ जनाधार आधारित लोकतंत्र की बात कर रहा हूँ. > यदि जेडीयू और भाजपा सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ी तो आरजेडी ने भी तो > रामविलास पासवान के साथ सीटों का बंटवारा किया. > > 2010/11/28 Vijender chauhan > > शशिकांत, >> दोस्‍त, विचित्र गणित है है आपका... सेफोलॉजी के बेसिक्‍स को अनदेखा कर रहे >> हैं... ये न देखा कि किस पार्टी ने कितनी सीटें लड़ीं तब तक वोट प्रतिशत भ्रामक >> आंकड़ा है। अगर इन दो पार्टी की तुलना करनी ही है आरजेडी तथा भाजपा नि सीटों पर >> आमने सामने लड़ी हैं उनहें अलगकर वहॉं के वोट प्रतिशत की तुलना करें.... हमें >> तो इंडियालाइव की सनसनी टाईप लगी आपकी ये पोस्‍ट :) >> >> विजेंद्र >> >> >> 2010/11/28 shashi kant >> >>> >>> >>> >>> दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि >>> यहाँ चुनाव परिणाम सिर्फ और सिर्फ जीत-हार के आधार पर तय होता है, न कि >>> पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर. तभी तो बिहार विधानसभा के चुनाव में >>> आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा जेडीयू के साथ सत्ता में बैठी है और लालू प्रसाद >>> को धरासाई घोषित कर दिया गया है. आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा ने 91 >>> सीटें जीत लीं और लालू जी को मिलीं महज़ 22 सीटें. यह लोकतंत्र का >>> गड़बड़झाला है! >>> >>> दरअसल, राजनीति जनाधार का खेल है. इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी अपने संगठन को >>> मज़बूत करना चाहती है, भले वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर. संगठन की >>> सक्रियता ही पार्टी के लिए जनाधार तैयार करती है. यह जनाधार पार्टियों को मिले >>> वोट प्रतिशत से तय होता है, और यही तय करता है कि ज़मीन पर किस राजनीतिक पार्टी >>> की कितनी पकड़ है. >>> >>> बहरहाल, बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम को लेकर मुगालते में न रहें भाजपा >>> के नेता. चौंकाने वाली बात यह है कि बिहार में लालू प्रसाद का आरजेडी आज भी >>> न केवल भाजपा पर भारी है बल्कि नीतीश सरकार को जमीन पर अच्छी-खासी चुनौती देने >>> की कूव्वत रखता है. >>> >>> आंकड़ों का सच यह कह रहा है कि 243 सीटों के लिए हुए बिहार विधानसभा के >>> चुनाव में बेशक नीतीश कुमार की अगुआई वाले जेडीयू को सबसे ज़्यादा 22.61 >>> प्रतिशत लोगों ने वोट दिया. लेकिन दूसरे स्थान पर लालू प्रसाद का आरजेडी ही रहा >>> जिसे 18.84 प्रतिशत वोट मिले. भाजपा तीसरे नंबर पर रही जिसे 16.46 >>> प्रतिशत वोट मिले. यानी लालू के आरजेडी से कम. >>> >>> इन आंकड़ों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार >>> विधानसभा के चुनाव में लालू प्रसाद की भले बुरी तरह हार हुई हो लेकिन उनके >>> आरजेडी की ज़मीन अब भी मज़बूत है और बिहार में आज भी उनका अच्छा-ख़ासा जनाधार >>> है. >>> >>> सीएसडीएस द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव 2010 के जिलावार आंकड़े को देखें तो >>> बिहार में सात जिले (भोजपुर, बांका, भागलपुर, सारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और >>> मधुबनी) में लालू प्रसाद के आरजेडी को अन्य सभी दलों से ज़्यादा वोट मिले हैं. >>> लेकिन वोट प्रतिशत के हिसाब से नंबर वन रहने के बावजूद आरजेडी को यहाँ महज नौ >>> सीटें मिली हैं जबकि इन जिलों में विधानसभा की कुल 63 सीटें हैं. >>> >>> इसके अलावा सोलह जिलों (गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, अरवल, कैमूर, लखीसराय, >>> मुंगेर, समस्तीपुर, वैशाली, सिवान, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, सुपौल और >>> शिवहर) में आरजेडी वोट प्रतिशत के हिसाब से दूसरे नंबर पर है. इन जिलों में >>> विधानसभा की कुल सत्तासी सीटें हैं जिनमें आरजेडी को सिर्फ 8 सीटें मिली हैं. >>> >>> इसी तरह, पूर्णिया, शेखपुरा, किशनगंज, नवादा, भागलपुर, बेगूसराय, सहरसा, >>> सीतामढी और कैमूर जिले में कांग्रेस और आरजेडी के वोटों को मिला दिया जाए तो >>> उनका प्रतिशत जेडीयू-भाजपा गठबंधन को मिले कुल वोटों से कहीं ज़्यादा होता है. >>> उल्लेखनीय है कि इन जिलों में विधानसभा की कुल 48 सीटें हैं. >>> >>> बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत का जमीनी आधार बहुत मज़बूत नहीं कहा >>> जा सकता. दरअसल बिहार के चुनाव में असली जीत जेडीयू-भाजपा गठबंधन हुई है न कि >>> अकेले जेडीयू या भाजपा की. अकेले तौर पर लालू आज भी वोट प्रतिशत में भाजपा पर >>> भारी हैं और जेडीयू से थोडा ही पीछे. इसलिए बिहार में गठबन्धन बनाए रखना >>> जेडीयू-भाजपा की मज़बूरी है. >>> >>> अपने अच्छे-खासे जनाधार को मद्देनज़र रखते हुए लालू प्रसाद फिलहाल सकारात्मक >>> विपक्ष की भूमिका निभाएं, बतौर सांसद बिहार के विकास के लिए काम करें, नीतीश >>> सरकार की गलतियों का इंतज़ार करें और वैकल्पिक गठबंधन बनाने की रणनीति बनाएं, >>> क्योंकि बिहार अब भी संभावना है लालू प्रसाद के लिए! >>> >>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jhasushant at gmail.com Sun Nov 28 17:42:00 2010 From: jhasushant at gmail.com (sushant jha) Date: Sun, 28 Nov 2010 17:42:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpIbgpJwg4KSt4KWAIOCkreCkvuCknOCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KS54KWI4KSCIOCksuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWCIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: विजेंद्रजी से सहमत। ये किसने कहा कि ये जीत अकेले जेडी-यू या बीजेपी की है। गठबंधन में आप वोटों का गणित अलग बिठाने लगे तो पता चला कि अकेले लड़ने की सूरत में या तो वोट घट जाएंगे या बढ़ ही जाएंगे। और वैसे भी लालू जी 168 सीट पर लड़कर अगर 18 फीसदी वोट ला पाए तो वाकई उन्हें अपने अतीत की लोकप्रियता को याद कर लेनी चाहिए। शायद वे याद नहीं करना चाहते होंगे। लेकिन एक बात और, बिहार में सकारात्मक विपक्ष की भूमिका की जहां तक बात है तो क्या वे पिछले पांच साल में ऐसा कर पाए....? बिहार के इतिहास को जरा देखिए, यहां एक बार जो गिरा वो फिर उठ नहीं पाया। बिहार अतीतजीवी राज्य नहीं है, वह नेताओं को धूल की तरह झाड़कर आगे बढ़ जाता है...और शिखरस्तर पर तो परिवारवाद बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं करता...लालू अभी भी उस बच्चे की तरह व्यवहार कर रहें जो साल भर पढ़ाई नहीं करता और इक्जाम के वक्त सिलेबस चेंज हो जाने के बहाने से परीक्षा का वहिष्कार कर देता है। वक्त अब लालू की तीसरी या चौथी पारी का नहीं, राजनीति में उनके मूल्यांकन का आ गया है। शायद यहां हमें कुछ कुछ सार्थक मिल जाए जिसका व्यापक समाज से नाता हो। सुशांत 2010/11/28 Vijender chauhan > शशिकांत, > दोस्‍त, विचित्र गणित है है आपका... सेफोलॉजी के बेसिक्‍स को अनदेखा कर रहे > हैं... ये न देखा कि किस पार्टी ने कितनी सीटें लड़ीं तब तक वोट प्रतिशत भ्रामक > आंकड़ा है। अगर इन दो पार्टी की तुलना करनी ही है आरजेडी तथा भाजपा नि सीटों पर > आमने सामने लड़ी हैं उनहें अलगकर वहॉं के वोट प्रतिशत की तुलना करें.... हमें > तो इंडियालाइव की सनसनी टाईप लगी आपकी ये पोस्‍ट :) > > विजेंद्र > > > 2010/11/28 shashi kant > >> >> >> दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ में इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि >> यहाँ चुनाव परिणाम सिर्फ और सिर्फ जीत-हार के आधार पर तय होता है, न कि >> पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर. तभी तो बिहार विधानसभा के चुनाव में >> आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा जेडीयू के साथ सत्ता में बैठी है और लालू प्रसाद >> को धरासाई घोषित कर दिया गया है. आरजेडी से कम वोट पाकर भी भाजपा ने 91 >> सीटें जीत लीं और लालू जी को मिलीं महज़ 22 सीटें. यह लोकतंत्र का >> गड़बड़झाला है! >> >> दरअसल, राजनीति जनाधार का खेल है. इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी अपने संगठन को >> मज़बूत करना चाहती है, भले वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर. संगठन की >> सक्रियता ही पार्टी के लिए जनाधार तैयार करती है. यह जनाधार पार्टियों को मिले >> वोट प्रतिशत से तय होता है, और यही तय करता है कि ज़मीन पर किस राजनीतिक पार्टी >> की कितनी पकड़ है. >> >> बहरहाल, बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम को लेकर मुगालते में न रहें भाजपा के >> नेता. चौंकाने वाली बात यह है कि बिहार में लालू प्रसाद का आरजेडी आज भी न >> केवल भाजपा पर भारी है बल्कि नीतीश सरकार को जमीन पर अच्छी-खासी चुनौती देने की >> कूव्वत रखता है. >> >> आंकड़ों का सच यह कह रहा है कि 243 सीटों के लिए हुए बिहार विधानसभा के चुनाव >> में बेशक नीतीश कुमार की अगुआई वाले जेडीयू को सबसे ज़्यादा 22.61 प्रतिशत >> लोगों ने वोट दिया. लेकिन दूसरे स्थान पर लालू प्रसाद का आरजेडी ही रहा जिसे >> 18.84 प्रतिशत वोट मिले. भाजपा तीसरे नंबर पर रही जिसे 16.46 प्रतिशत वोट >> मिले. यानी लालू के आरजेडी से कम. >> >> इन आंकड़ों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार >> विधानसभा के चुनाव में लालू प्रसाद की भले बुरी तरह हार हुई हो लेकिन उनके >> आरजेडी की ज़मीन अब भी मज़बूत है और बिहार में आज भी उनका अच्छा-ख़ासा जनाधार >> है. >> >> सीएसडीएस द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव 2010 के जिलावार आंकड़े को देखें तो >> बिहार में सात जिले (भोजपुर, बांका, भागलपुर, सारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और >> मधुबनी) में लालू प्रसाद के आरजेडी को अन्य सभी दलों से ज़्यादा वोट मिले हैं. >> लेकिन वोट प्रतिशत के हिसाब से नंबर वन रहने के बावजूद आरजेडी को यहाँ महज नौ >> सीटें मिली हैं जबकि इन जिलों में विधानसभा की कुल 63 सीटें हैं. >> >> इसके अलावा सोलह जिलों (गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, अरवल, कैमूर, लखीसराय, >> मुंगेर, समस्तीपुर, वैशाली, सिवान, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार, सुपौल और >> शिवहर) में आरजेडी वोट प्रतिशत के हिसाब से दूसरे नंबर पर है. इन जिलों में >> विधानसभा की कुल सत्तासी सीटें हैं जिनमें आरजेडी को सिर्फ 8 सीटें मिली हैं. >> >> इसी तरह, पूर्णिया, शेखपुरा, किशनगंज, नवादा, भागलपुर, बेगूसराय, सहरसा, >> सीतामढी और कैमूर जिले में कांग्रेस और आरजेडी के वोटों को मिला दिया जाए तो >> उनका प्रतिशत जेडीयू-भाजपा गठबंधन को मिले कुल वोटों से कहीं ज़्यादा होता है. >> उल्लेखनीय है कि इन जिलों में विधानसभा की कुल 48 सीटें हैं. >> >> बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत का जमीनी आधार बहुत मज़बूत नहीं कहा >> जा सकता. दरअसल बिहार के चुनाव में असली जीत जेडीयू-भाजपा गठबंधन हुई है न कि >> अकेले जेडीयू या भाजपा की. अकेले तौर पर लालू आज भी वोट प्रतिशत में भाजपा पर >> भारी हैं और जेडीयू से थोडा ही पीछे. इसलिए बिहार में गठबन्धन बनाए रखना >> जेडीयू-भाजपा की मज़बूरी है. >> >> अपने अच्छे-खासे जनाधार को मद्देनज़र रखते हुए लालू प्रसाद फिलहाल सकारात्मक >> विपक्ष की भूमिका निभाएं, बतौर सांसद बिहार के विकास के लिए काम करें, नीतीश >> सरकार की गलतियों का इंतज़ार करें और वैकल्पिक गठबंधन बनाने की रणनीति बनाएं, >> क्योंकि बिहार अब भी संभावना है लालू प्रसाद के लिए! 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URL: From vineetdu at gmail.com Mon Nov 29 17:53:57 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 29 Nov 2010 17:53:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS/4KSf4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCknOCkviDgpLDgpLngpL4g4KS54KWIIOCkj+CkqOCkoeClgA==?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkleCkviDgpLbgpYfgpK/gpLAs4KSs4KSw4KSW?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpuCkpOCljeCkpCDgpJXgpL4g4KSc4KSy4KWN4KSmIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCli+Ckl+CkviDgpKrgpKTgpY3gpKTgpL4g4KS44KS+4KSr?= Message-ID: 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में बरखा दत्त का नाम आने के बाद जिस तरह से लीपापोती का दौर शुरु हुआ है,पूरी कोशिश की गयी कि उसकी साख पहले की तरह बनी रहे। एनडीटीवी चैनल ने अपनी ऑफिशियल साइट पर इन सारी बातों को बेसलेस तक करार दिया लेकिन बरखा दत्त की गिरती हुई साख को रोक पाना कहीं से भी आसान नहीं दिख रहा। उल्टे अब इस साख की व्याख्या बिजनेस इन्डस्ट्री में भी होनी शुरु हो गयी है। बिजनेस और शेयर की सबसे लोकप्रिय बेवसाइट मनीकंट्रोल डॉट कॉम पर गेस्ट और टिप्पणीकारों ने बरखा दत्त की साख गिरने के बाद चैनल की सेहत क्या होगी,इसका आकलन करना शुरु कर दिया है। साइट में गेस्ट ने बरखागेट इम्पैक्ट नाम से एक शब्द गढ़ते हुए अनुमान लगाया है कि इस चैनल के शेयर की कीमत जल्द ही 50-60 रुपये हो जाएगी और फिलहाल इसके शेयर खरीदना किसी भी मामले में फायदेमंद नहीं है। इससे ठीक उल्टे जिनके पास ये शेयर हैं वो इसे भढञत की उम्मीद से लेकर बैठे हैं,भलाई इसी में है कि अभी ही इसे वो निबटा दें। पोस्ट लिखे जाने तक चैनल के शेयर की कीमत 87.95 रुपये है जो कि 2.51 प्रतिशत की बढ़त पर है। जिस चैनल ने कभी 482 रुपये के शेयर की कीमत देखी हो,उसके आगे ये कीमत हताश करनेवाली है। 8 मई 2009 को जब हमने पोस्ट लिखी थी हवा हो जाएगा एनडीटीवी और तब चैनल को 160.30 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था जिसे कि उसने शेयर बेचकर मुनाफे के तौर पर दिखाने की कोशिश की थी। उस समय भी चैनल के शेयर की कीमत इतनी खराब नहीं थी। पोस्ट लिखते वक्त शेयर की कीमत 119.85 रुपये थी। अभी बरखा दत्त का मामला ज्यादातर ओपन मैगजीन, छिटपुट तरीके से एकाध अंग्रेजी अखबारों और वर्चुअल स्पेस पर ही है लेकिन जिस तरह से बाकी के लोग अपने को पाक-साफ बताने के लिए बातों को आगे ले जा रहे हैं,जल्द ही ये बात एक सामान्य पाठक और शेयरधारकों तक पहुंचेगी। फिर संभव है कि इसका बहुत ही निगेटिव असर होगा। शुरुआती दौर में जिस तरह से मीडिया मुंह पर टेप लगाकर 2G स्पेक्ट्रम घोटाले की बात करते हुए भी मीडिया मसले को इससे पूरी तरह अलग रखा लेकिन वर्चुअल स्पेस से बने प्रेशर ने उन्हें मुंह खोलने के लिए मजबूर किया,ऐसे में एक-एक करके शक के घेरे में आए पत्रकार खुद ही इसे लेकर अपनी सफाई देने लग गए हैं। ऐसा करते हुए उन्हें भले ही लग रहा हो कि उनके पक्ष में जनाधार मजबूत होगा लेकिन दरअसल इससे मामला ज्यादा लोगों तक जा रहा है और वो भी मीडियाकर्मियों को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ऐसे में सोशल इमेज के करप्ट होते ही उसका असर बिजनेस पर दिखने शुरु होंगे। वैसे तो अब मीडिया में किसी की साख गिरने से तह तक बहुत फर्क नहीं पड़ता जब तक कि उसका सीधा असर बिजनेस पर न पड़ने लग जाएं। ऐसा इसलिए कि आज मीडिया साख पर नहीं बिजनेस पर आधारित है। किसी मीडिया हाउस या फिर मीडियाकर्मी की साख अगर चली भी जाती है लेकिन बिजनेस पर उसका कोई नुकसान नहीं होता तो उसे नुकसान नहीं माना जाता। पेड न्यूज के मामले में हमने देखा कि देश के एक से एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान जिसमें कि दि हिन्दू जैसे अंग्रेजी के अखबार भी शामिल रहे,उसकी साख शक के घेरे में आ गयी। हिन्दी के अखबार दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का नाम विशेष तौर पर आया लेकिन फिलहाल उसके बिजनेस पर कोई असर नहीं पड़ा तो मानकर चलिए कि बाजार में उसकी साख अभी भी बरकरार है। लेकिन जैसे ही इस साख का सवाल बिजनेस से जुड़ने शुरु होते हैं तब चैनल या फिर मीडियाकर्मी को सीधे नुकसान होने शुरु हो जाते हैं। बरखा दत्त के साथ संभव हो कि कुछ ऐसा ही हो। सोशल प्रेशर में न सही लेकिन बिजनेस प्रेशर में ही सही,उन्हें एनडीटीवी से अलग करनी पड़ जाए। एक दूसरे गेस्ट ने मनीकंट्रोल डॉट कॉम की ही साइट पर लिखा है कि लोगों ने चैनल और साइट का बहिष्कार करना शुरु कर दिया है। इस तरह से एक सीधा सा फार्मूला बनता है कि- पब्लिक के भरोसे में कमी का मतलब है टीआरपी में नुकसान और टीआरपी में नुकसान मतलब बिजनेस में नुकसान। ऐसे में संभव है कि चैनल इस नुकसान को बर्दाश्त न करने की स्थिति में बरखा दत्त को सम्मानित तरीके से इस्तीफा देने के लिए दबाव बना सकता है। बिगबुल 1979 नाम से एक तीसरे शख्स ने कमेंट करते हुए लिखा है कि बरखा भी रहेगी और एनडीटीवी भी रहेगा लेकिन इसका असर तो होगा ही। इसलिए मैं शेयर बेचने जा रहा हूं। यहां पर आकर सोशल इमेज की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें तो( ये जानते हुए कि चैनल ने बरखा दत्त के बचाव में बहुत ही लचर तर्क दिए थे) बिजनेस के लिहाज से एक निगेटिव माहौल बनने शुरु हो गए हैं। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि क्या चैनल बरखा दत्त के रहने की स्थिति में अपने इस आर्थिक घाटे को बर्दाश्त करना पसंद करेगा? इधर बरखा दत्त को एकदम से एनडीटी से इस्तीफा के लिए बात करना दो कारणों से आसान नहीं होगा। एक तो ये कि लंबे समय से उसने चैनल को एक विश्वसनीय मजबूत कंधे के तौर पर साथ दिया है लेकिन उससे भी बड़ी बात जिसे कि दिलीप मंडल ने फेसबुक पर हमसे साझा किया है वो ये कि जिस वक्त एनडीटीवी इमैजिन को लेकर जोरदार कैम्पेन चल रहे थे और नए और यंग ऑडिएंस को चैनल से जोड़ने की कोशिशें की जा रही थी जिसमें फेसबुक,ट्विटर से लेकर तमाम न्यू मीडिया के साधन आजमाए गए,इन सारे काम के लिए नीरा राडिया की कम्पनी विटकॉम लिमिटेड ही कर रही थी। दिलीप मंडल की स्टेटस लाइन है- जब इमेजिन चैनल का नाम एनडीटीवी इमेजिन हुआ करता था तब उसके प्रचार का जिम्मा नीरा राडिया की कंपनी विटकॉम ने संभाला था!!- we, at Vitcom came up with a specifically targeted social media campaign for NDTV Imagine. We had to weave the social media campaign to attract youth. For which, Vitcom Digital created a specific Social Media campaign largely using Facebook, Twitter, Orkut and YouTube. यहां से पूरे मामले के विश्लेषण को लेकर एक नए अध्याय की शुरुआत होती है। अब देखना ये है कि इस अध्याय का विश्लेषण किस रुप में होता है,होता है भी या नहीं। या फिर ऐसा कुछ किया जाना जरुरी है भी या नहीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Nov 30 14:10:46 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 30 Nov 2010 14:10:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkpuCkuCDgpKzgpJzgpYcg4KSV4KSf4KSY4KSw4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpKzgpLDgpJbgpL4g4KSm4KSk?= =?utf-8?b?4KWN4KSk?= Message-ID: आज रात दस बजे बरखा दत्त NDTV24X7 के कठघरे में होगी। अभी तक इस चैनल पर बतौर एंकर राज करनेवाली बरखा दत्त आज एक कथित तौर पर आरोपित पत्रकार के रुप में हाजिर होगी। ये सारी बातें एकबारगी तो जरुर हैरान करती है लेकिन एनडीटीवी की ऑफिशियल साइट खोलते ही विज्ञापन की शक्ल में जो मैसेज हमारे सामने आ रहे हैं उससे यही बात निकलकर सामने आ रही है। हालांकि साइट की ओर से कार्यक्रम को लेकर दी गयी सूचना में यह बात कहीं भी शामिल नहीं है कि बरखा दत्त चैनल पर किस भूमिका में शामिल होगी लेकिन एक खास सूचना या कहें कि विज्ञापन की शक्ल में साइट ने जिस तरह हमें बताने की कोशिश की है उसे ये अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि THE RADIA TAPE CONTROVERSY नाम से होनेवाले इस खास शो में मुद्दा किस ओर खिसक सकता है? हमारे इस अनुमान को तब थोड़ी और मजबूती मिल जाती है,जब हम एक बार पैनल की तरफ नजर डालते हैं। पैनल के सभी नाम पत्रकारिता से जुड़े हैं और खास बात कि ओपन पत्रिका के संपादक मनु जोसेफ भी होंगे। ओपन पत्रिका के संपादक मनु जोसेफ ने ही इस स्टोरी को ब्रेक की थी कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ दिग्गज पत्रकारों की नीरा राडिया से बातचीत हुई है,उसमें बरखा दत्त का भी नाम शामिल है। पत्रिका के माध्यम से बरखा दत्त की कही गयी ये लाइन-"TELL ME, WHAT SHOULD I TELL THEM?" बहुत ही लोकप्रिय हुई है और बाकी बातों के साथ ही इस लाइन के बिना पर ही बरखा दत्त को शक के घेरे में आम पाठक ले रहा है। अगर ये शो नीरा राडिया कॉन्ट्रोवर्सी के बहाने अपने ही गिरेबान में चैनल की झांकने की कोशिश है तो हमें निश्चित तौर पर एक ऑडिएंस की हैसियत से चैनल की इस पहल पर स्वागत करनी चाहिए। वैसे भी डॉ प्रणय राय के बारे में सम्मानपूर्वक ये बात प्रचलित है कि वो अपने मीडियाकर्मियों औऱ ब्रांड को बहुत प्यार करते हैं। वो किसी भी हालत में इनदोनों की न तो बदनामी बर्दाश्त कर सकते हैं और न ही किसी तरह के समझौते करना पसंद करते हैं। इस शो के जरिए बरखा दत्त अपना स्टैंड रखती है तो हम उम्मीद करते हैं कि कई ऐसी बातें जो कि अफवाहों की शक्ल में वर्चुअल स्पेस पर तैर रहे हैं,उस पर थोड़ी देर के लिए लगाम लग जाएगी। वैसे बरखा दत्त को ये काम बहुत पहले करना चाहिए था और IS IT NECESSARY TO CONFESS जैसा कोई कार्यक्रम करने चाहिए थे। जब से वर्चुअल स्पेस पर टेप आए और ओपन के लेख हाथ लगे, बरखा दत्त के खिलाफ वो तमाम बातें आनी शुरु हो गई जो कि तथ्यों की समझ बढ़ाने के साथ ही किसी खुर्राट पत्रकार की व्यक्तिगत कुंठा ज्यादा थी। ऐसा करने से मुद्दे न केवल डायवर्ट होते हैं बल्कि प्रतिरोध की ताकत कमजोर होती है और एक बेहतर काम के पीछे भी विपक्ष तैयार होते चले जाते हैं। उम्मीद है कि चैनल के इस स्टैंड से कुछ स्थिति साफ होगी। आमतौर पर होता ये आया है कि मीडिया अपनी बात कभी नहीं करता। जो संवाददाता जिंदगीभर खबरें और बाइट बटोर-बटोरकर मर जाता है,उसकी खबर कहीं नहीं होती या फिर वो खुद भी नहीं चाहता कि उसकी कोई खबर आए। दूरदर्शन औऱ लोकसभा जैसे चैनल कभी-कभार जब मीडिया को लेकर कोई शो या कार्यक्रम प्रसारित करते भी हैं तो उनका उद्देश्य सीधे तौर पर निजी मीडिया को कूड़ा और अपने को पवित्र गया बताना होता है जो कि उनका भी दामन साफ नहीं है। ऐसा होने से एक बहुत ही क्रूर और खतरनाक साजिश संस्कृति का विस्तार होता है। अगर मीडिया संस्थान बाकी मसलों के साथ-साथ खुद अपनी भी खबर लेनी शुरु करे तो एक बेहतर स्थिति बन सकती है। इसी क्रम में हमने अपनी अर्काइव छाननी शुरु कि तो CNN-IBN के शो की एक टेप मिली जिसमें 8 जून 2010 को मीडिया ट्रायल नाम से एक शो है और राजदीप सरदेसाई एक हद तक कॉन्फेस करतेनजर आते हैं। इससे बाद दूरदर्शन के पचास साल होने पर 2009 में CNN-IBN ने दूरदर्जशन को लेकर स्टोरी बनायी,तब भी राजदीप सरदेसाई ने सलमा सुल्ताना के आगे रुकावट के लिए खेद है से ब्रेकिंग न्यूज तक के दौर तक को याद करते हुए निजी चैनलों पर कटाक्ष किया और अपनी ही पीठ पर चाबुक मारने की कोशिश की। लेकिन गोलमोल तरीके से किसी घटना आधारित न होकर अपनी आलोचना करना स्वाभिक आलोचना के बजाय फैशन का हिस्सा ज्यादा लगता है। आज हम इस शो के इंतजार में हैं और बरखा दत्त का पक्ष सुनना चाहते हैं। वीर सांघवी ने अपने ब्लॉग और फिर दि हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने कॉलम काउन्टर प्वाइंट में जो तर्क दिए वो बहुत ही लचर और इनहाउस मैगजीन की प्रेस रिलीज लगी और हमें निराश किया। हम आज एनडीटीवी पर बरखा दत्त को देखना है कि वो इस पूरे मामले में किस तरह की बातें रखती हैं? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From janoktiwebmedia at gmail.com Sat Nov 27 23:50:40 2010 From: janoktiwebmedia at gmail.com (Janokti web Media) Date: Sat, 27 Nov 2010 18:20:40 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS/LuCkleClieCkriDgpKrgpLAg4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KS24KS/4KSkIOCkhuCksuClh+Cklg==?= Message-ID: *जनोक्ति.कॉम पर प्रकाशित आलेख * - 1/27 युवाओं से आह्वान - 11/27 अल्प विराम,पूर्ण विराम - 11/27 छात्रसंघ की बहाली लोकतान्त्रिक अधिकार - 11/27 काम को इनाम (बिहार चुनाव परिणाम) - 11/26 1 लाख 76 हजार करोड़ का घोटाला| - 11/26 देश के विकास में इंजन की भूमिका निभा सकता है बिहार - 11/26 समाजवादी आंदोलन – 2 - 11/25 सोमरस के विषय में कुछ निराकरण - 11/25 हकीम की दुकान पर राहुल-लालू-पासवान - 11/25 जानिये नये-नये ब्लॉग पते - 11/25 गुजरात की तरह बिहार ने विकास को चुना | - 11/25 बिहार मेँ राहुल का युवा फेक्टर फुस्स ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: