From vineetdu at gmail.com Sat May 1 13:04:32 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 1 May 2010 13:04:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSX4KWL4KSCIOCkleClgCDgpK7gpKjgpK7gpL7gpKjgpL8=?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSCIOCkleCkviDgpIXgpKHgpY3gpKHgpL4g4KSs4KSo4KS+?= =?utf-8?q?_AIR_FM_GOLD_106=2E4?= Message-ID: करोड़ो रेडियो लिस्नर (श्रोताओं) के दिलों पर राज करनेवाला AIR FM GOLD 106.4 आज खुद चंद लोगों की अफसशाही और मनमानी का अड्डा बनकर रह गया है। कार्यक्रमों के प्रसारण का जो स्तर और भीतर की जो हालत है, उसे देखकर किसी के भी मन में ये सवाल जरूर उठेगा कि सूचना, मनोरंजन और जागरुकता के नाम पर देश के मेहनतकश लोगों के खून-पसीने की करोड़ों रुपये की कमाई को जिस तरह पानी में बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं? इस माध्यम को कमजोर करने के जो कुचक्र रचे जा रहे हैं और देश के इस एफएम चैनल को कैसे किसी ऊटपटांग निर्देश जारी करनेवाले लोगों के हाथों सौंप दिया गया है, उनसे सवाल किये जाएं? हालात ये है कि संसद भवन के ठीक बगल में चलनेवाला ये चैनल अब धीरे-धीरे कबाड़खाना की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है। इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये के बजट तैयार किये जाते हैं, पैसे भी आवंटित होते हैं लेकिन लापरवाही और भीतरी गड़बड़ियों की वजह से करीब सालभर से प्रजेंटरों को कोई भुगतान नहीं किया जाता है, सही चीजों को हटाकर भारी ठेके देकर नयी गैरजरूरी चीजें लगायी जाती है, चालू हालत की चीजों को कबाड़खाने में डाल दिया जाता है। चीजों के रखरखाव का जो आलम है उसे देखते हुए किसी भी रेडियोप्रेमी का खून खौल जाए। दुर्लभ और कीमती रिकार्ड्स छतों पर फेंक दिये गये हैं जिसे कि कोई पूछनेवाला नहीं है। कुछ के पैकेट खोले तक नहीं गये और काफी कुछ कबाड़‍ियों के हाथों औने-पौने दामों पर बेच दिया गया। पूरे सिस्टम के डिजिटलाइज हो जाने की वजह से पुरानी मशीनें और सामान म्यूजियम के नाम पर साइड कर दिये गये हैं जिसका कुछ भी मेंटेनेंस नहीं है। शुरुआती दौर से जुड़े जिन लोगों ने इसे देश का नंबर वन एफएम चैनल बनाया, वो इस पूरी स्थिति को लेकर दुखी हैं। वो अभी भी दिन-रात इसकी बेहतरी के लिए काम करने को तैयार हैं। लेकिन भीतर का माहौल ऐसा है और इस किस्म की बदहाली है कि कोई चाहकर भी व्यक्तिगत स्तर पर बहुत कुछ नहीं कर सकता। इनके बीच लंबे समय से इन सब बातों को लेकर गहरा असंतोष रहा है। पिछले दिनों (17 फरवरी, 2010) AIR FM GOLD की बिगड़ती हालत और कार्यक्रमों के गिरते स्तर को लेकर रेडियो प्रजेंटरों ने इसकी शिकायत ऑल इंडिया के डायरेक्टर जेनरल से की थी। उस शिकायत पत्र में साफ कहा गया था कि इस चैनल को चलाने के लिए विज्ञापन की जो जरूरत है, उसे लेकर कोई मार्केट स्ट्रैटजी अपनाने के बजाय गलत हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा एसएमएस आधारित कार्यक्रमों को शामिल करने से कार्यक्रम की क्रिएटिविटी खत्म होती है। इधर जिन कायक्रमों और जिंग्लस को शामिल किया गया है, वे एफएम गोल्ड की ब्रांड इमेज के अनुकूल नहीं है। लेकिन इस दिशा में किसी भी तरह की संतोषजनक कारवाई न होने की स्थिति में अब उन्होंने save fm gold movement का एलान किया है। इस कड़ी में 26 अप्रैल 2010 को एक बार फिर ऑल इंडिया रेडियो की डायरेक्टर जेनरल को शिकायत पत्र लिखकर बद से बदतर होती चैनल की स्थिति से अवगत कराने की कोशिश की है। फिलहाल वो अपनी सारी कारवाई संबंधित अधिकारियों और विभागों के प्रति शिकायत दर्ज करके कर रहे हैं फिर भी किसी भी तरह का सुधार नहीं होता है तो जल्द ही सड़कों पर उतर आएंगे और फिर ये आंदोलन सिर्फ प्रजेंटरों का न होकर हम सब रेडियोप्रमियों का होगा। एफएम गोल्ड के भीतर जो भी गड़बड़ियां हैं, वो कोई एक स्तर पर नहीं है। इस संबंध में अगर आरटीआई डालें जाएं, तो संभव है कि आकाशवाणी के भीतर बड़े पैमाने पर घोटाले निकलकर सामने आएं जिसमें कि पैसे को लेकर भी घपले शामिल हो सकते हैं। इस बात की संभावना इसलिए भी जतायी जा रही है कि पिछले एक साल से करीब साठ एफएम गोल्ड के प्रजेंटरों, जो कि चैनल की आवाज हैं, जिनके कारण लोग चैनल से सीधे-सीधे जुड़ते हैं, उन्‍हें कोई भुगतान नहीं किया गया है। इस बात की शिकायत पर केंद्र के वित्तीय अधिकारी की तरफ से जवाब मिला कि उनका पैसा कॉमनवेल्थ के लिए लगा दिया गया है, इसलिए ऐसा हुआ है। लेकिन मामला ये नहीं है। इस पर डिप्टी डायरेक्टर जेनरल राजकमल ने प्रजेंटरों को साफ कहा कि आपलोगों के लिए दो करोड़ रुपये अलग से जारी किये गये हैं और कॉमनवेल्थ से आपकी पेमेंट का कोई संबंध ही नहीं है। उस काम के लिए अलग से 25 करोड़ रुपये आकाशवाणी को दिये गये हैं। ऐसे में सवाल उठते हैं कि एक ही संस्थान को लेकर दो अलग-अलग वर्जन क्या कहते हैं? जारी है यहां तुगलकी फरमान इन दिनों रेडियो प्रजेंटरों पर दबाव बनाकर एक ड्राफ्ट पर साइन करवाया जा रहा है, जिसमें ये लिखा है कि प्रजेंटर एक महीने में छह से ज्यादा किसी भी विभाग, चैनल में कार्यक्रम नहीं करेंगे। इस पर साइन करने का मतलब होगा कि प्रजेंटर अपनी मर्जी से छह से ज्यादा कार्यक्रम नहीं करना चाहते हैं जबकि ये छह कार्यक्रम करके भी उनका क्या होगा? एक कार्यक्रम के लिए उन्हें 1600 रुपये मिलने का प्रावधान है। पहले ये राशि लगभग इसकी आधी हुआ करती थी। बढ़ी हुई ये राशि उन्हें अभी मिली नहीं है। राजधानी या इंद्रप्रस्थ चैनल में ये राशि मात्र 400 रुपये है। अधिकांश लोगों को कम से कम तीन के बाद चार या पांच कार्यक्रम करने को मिलते हैं। अगर उन्हें 6 कार्यक्रम मिल भी गये तो कुल 9,600 रुपये बनते हैं। कुछ प्रजेंटर जो कि पार्टटाइम के तौर पर काम करते हैं, उन्हें छोड़ दें तो बाकी के जो पूरी तरह इस पर ही निर्भर हैं उन्हें अगर सालभर तक दस हजार के आसपास की ये रकम भी नहीं मिलती है तो उनकी हालत क्या होगी – इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। इस पर भी साइन करवाने के पीछे की राजनीति ये है कि कोई भी व्यक्ति अगर कैजुअल स्टेटस पर 90 दिनों तक संस्थान में काम कर लेता है, तो परमानेंट होने की उसकी दावेदारी बढ़ जाती है। इसलिए पूरी कोशिश होती है कि ऐसी स्थिति आने ही न दिया जाए। कागजी तौर पर ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि वो महीने में छह दिन ही कार्यक्रम देंगे। इस संबंध में जब एक प्रजेंटर ने साइन करने से ये कहते हुए मना कर दिया कि आप हमें लिखित तौर पर दिखाएं कि किस ऑफिशयल ऑर्डर के तहत ऐसा है, तो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव रीतू राजपूत का साफ कहना है कि अब हर बात के लिए फाइलें तो नहीं खोली जा सकती। वैसे भी आकाशवाणी से जुड़ते समय ही उसके कागजात में इतने क्लाउज पहले से शामिल होते हैं कि प्रजेंटर के हाथ-पैर पूरी तरह बंध चुके होते हैं। वो ज्यादा कुछ कर नहीं सकता। लेकिन उसके बाद पेक्स (प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव) की मनमानी के बीच सर्वाइव करने का एक ही तरीका है कि वो महज एक चमचा बनकर रह जाए। भाषा में बोल्‍ड हूं, इतना कायर हूं कि एफएम गोल्‍ड हूं भाषा को लेकर आकाशवाणी सहित एफएम गोल्ड में ऊटपटांग प्रयोग जारी है। चैनल की पेक्स रीतू राजपूत का जबरदस्ती का हिंदी प्रेम स्टूडियो के भीतर चस्पाये निर्देशों से लेकर कार्यक्रम में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों, संबोधनों में भी साफ तौर पर दिखाई देता है। यहां प्रजेंटरों के लिए सूत्रधार शब्द का प्रयोग किया जाता है और एसएमएस पैगाम हो जाता है। वैयाकरणिक तौर पर ये दोनों शब्द प्रयोग तो गलत हैं ही, दूसरी बात कि ये हिंदी को सहज बनाने के बजाय हास्यास्पद ज्यादा बनाते हैं। भाषा को लेकर आकाशवाणी सहित चैनल के भीतर का एक और गड़बड़झाला है। ऑडिशन की लंबी प्रक्रियाओं के बाद, जिसमें कि तीन से चार लोग ही पास हो पाते हैं, वाणी सर्टिफिकेट कोर्स नाम से पांच दिनों की ट्रेनिंग दी जाती है। इस ट्रेनिंग के लिए पास हुए लोगों से पांच हजार रुपये लिये जाते हैं। कोर्स के पीछे का तर्क है कि वो इसमें भाषा-दक्षता, विशेषता और व्यावहारिक प्रयोग के बारे में जानकारी देंगे। लेकिन दिलचस्प है कि ये ट्रेनिंग सिर्फ हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के लोगों के लिए है। बाकी नेपाली, तमिल, मलयालम या दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए नहीं है। विदेश प्रसारण सेवा में जो भाषाएं शामिल हैं, उनके लिए भी नहीं। वो बिना किसी तरह की रकम या ट्रेनिंग लिये प्रवेश पा जाते हैं। पिछले महीनों इस बात को लेकर काफी हंगामा भी हुआ जिसमें कि आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा ने नेपाली को विदेशी भाषा करार दे दिया। बहरहाल, ऐसा इसलिए है कि इतनी बड़ी आकाशवाणी के पास इन भाषाओं की ट्रेनिंग देने की कोई व्यवस्था नहीं है। लेकिन इसका नतीजा पांच हजार देकर आये लोगों के बीच के असंतोष का पनपना है और ये भाषाई भेदभाव का मामला बनता है। वो पांच हजार में पांच दिन कोई गंभीर ट्रेनिंग के बजाय खाने-खिलाने के तौर पर काट देते हैं। अगर इस तरह पांच हजार लेकर एक कमाई का जरिया ही बनाना है तो फिर ये काम बाकी भाषाओं के साथ क्यों नहीं? पिछले दिनों से आकाशवाणी के भाषा संबंधी रवैये को लेकर संसदीय राजभाषा समिति जो भी जांच कर रही है जिसमें कि नेपाली और फ्रेंच विशेष रूप से शामिल हैं, इस कड़ी में बाकी के भाषाई सवाल शामिल किये जाते हैं तो कई और गड़बड़ियां सामने आने की गुंजाइश बनती है। “वो भूली दास्‍तां” उर्फ कंटेंट और पुराने रिकॉर्डर का कबाड़ कंटेंट के स्तर पर एफएम गोल्ड का बुरा हाल है। मैं पिछले तीन महीने से लगातार इस चैनल को आब्जर्व कर रहा हूं। इसमें कोई निराला की कविता तोड़ती पत्थर को सिनेमा के गीत से जोड़ दे रहा है तो कोई शिवरात्रि के मौके पर आदिम जमाने के क्लास नोट्स पढ़ने लग रहा है। अधिकांश विशेष अवसरों के कंटेंट बदलते नहीं है। मसलन होली, दीवाली से लेकर तमाम आर्थिक-राजनीतिक घटनाएं तेजी से बदल रहे हैं लेकिन प्रस्तुति के स्तर पर कोई प्रयोग नहीं है। दूसरी बात कि जो ब्रॉडकास्ट हो रहा है, उसके पीछे कंटेंट को लेकर अगर ऑथेंटिसिटी और अकाउंटेबिलिटी की बात की जाए तो चैनल के पास शायद ही कोई संतोषजनक जवाब हो। अखबारों की कतरनों के बूते बनायी जानेवाली अधिकांश स्क्रिप्ट के पीछे कोई रिसर्च नहीं है। इस कंटेंट से ही जुड़ा एक बड़ा सवाल बजनेवाले संगीत का भी है। रेडियो प्रजेंटर के लिए ये भारी सिरदर्द का काम है कि वो जो भी ट्रैक बजाये, चाहे वो लिस्नर की फरमाइश पर ही क्यों न हो, उसे वो खुद मैनेज करे। म्यूजिक प्लेयर डिजिटलाइज हो जाने की वजह से पुराने सारे रिकार्डर बेकाम के हो गये हैं। करोड़ों रुपये की धरोहर बेकार हो गयी जिसकी कोई खोज-खबर नहीं है। एआईआर ने उसे गंभीरता से न लेकर डिजीटल फार्म में नहीं बदलवाया। नतीजा एक बड़ा भारी संसाधन बेकार हो रहा है। अगर जो मटीरियल यहां मौजूद हैं, तो वो भी सरकारी टाइम-टेबल से ही मिलने हैं – जिसमें कि दस से पांच की ड्यूटी के बीच लंच ब्रेक भी शामिल है, बाबू के नहीं होने की भी कहानी है। कुल मिलाकर एफएम गोल्ड के स्टॉक का कोई सीधा लाभ न तो लिस्नर को मिल रहा है और न ही प्रजेंटर को कोई सुविधा मिल पा रही है। अब एफएम गोल्ड पर जो बजता है वो समझिए प्रजेंटर का अपना जुगाड़ है। वो घर से, बाजार से जहां से भी हो, सीडी लाये और एफएम गोल्ड पर बजाये। पहले ये पैनड्राइव में लाया करते लेकिन वायरस आ जाने का हवाला देकर ऐसा नहीं करने दिया जाता। ऐसे में ये सवाल जरूर उठता है कि तब कार्यक्रम को बेहतर बनाने में प्रोग्रामिग टीम की तरफ से क्या एफर्ट लगाये जा रहे हैं। तकनीकी रूप से बात करें तो देशभर में चलनेवाले प्राइवेट एफएम चैनलों को प्रसारण सुविधा देने का काम स्वयं आकाशवाणी के ट्रांसमीटर से होता है। लेकिन ये बिडंबना देखिए कि निजी चैनलों के लिए जहां 20 किलोवाट का ट्रांसमीटर है वहां एफएम गोल्ड मात्र ढाई किलोवाट के ट्रांसमीटर पर चल रहा है। आधिकारिक रूप से इसे 5 किलोवाट पर चलाने का प्रावधान है। तकनीकी रूप से बहुत गहराई में न भी जाएं तो इतना तो समझ ही सकते हैं कि आकाशवाणी चैनलों जिसमें कि गोल्ड भी शामिल हैं, फ्रीक्वेंसी को लेकर एक-दूसरे पर जो चढ़ा-चढ़ी होती है, उसके पीछे इसी तरह की हरकतें जिम्मेदार हुआ करती होगी। एफएम गोल्ड डिजिटल फार्म में है फिर भी रेडियो सिटी या मिर्ची की तुलना में उसकी आवाज में स्पष्टता कम है। पैसा न कौड़ी, बाजार में दौड़ा दौड़ी और अंतिम बात कि माध्यम और प्रसारण का सारा खेल विज्ञापन का है, उसकी ब्रांडिंग और रेवेन्यू का है लेकिन एफएम गोल्ड की कहानी इस मामले में भी अलग है। चैनल को बेहतर विज्ञापन मिले इसके लिए कोई मार्केटिंग स्ट्रैटजी नहीं है। आकाशवाणी की साइट पर इसका कॉलम बुत्त पड़ा है, कहीं कोई अपडेट नहीं है। हैरानी की बात है कि जिस आकाशवाणी की ऑडियो रिसर्च यूनिट इसके सबसे ज्यादा सुने जाने का दावा करती है वही चैनल RAM (रेडियो ऑडिएंस मेजरमेंट) में शामिल नहीं है। ये RAM टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट जारी करनेवाले TAM का ही भाई है, जो कि रेडियो के लिए रेवेन्यू खड़ा करने का पैमाना है। मामला साफ है कि इस चैनल को बाहर की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है। जो भी विज्ञापन आते हैं, वो सराकारी तोड़-जोड़ का नतीजा है, जनहित में जारी का प्रसाद है। इन जनहित में भी क्या प्रसारित हो रहा है, इस पर बारीक नजर नहीं है। पिछले दिनों जेएनयू के प्रोफेसर चमनलाल ने कंडोम अपनाने के जनहित में जारी विज्ञापन पर जो लेख लिखा, उसे पढ़कर मामला और साफ हो जाता है। चैनल तुम्हारा वाला तो सिंकदर निकला, दिनभर में पंद्रह से बीस बार जरूर बोलता है लेकिन खुद ही कई मोर्चे पर लड़खड़ा रहा है। और ये सब कुछ हो रहा है स्वनामधन्य कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की नाक के नीचे, जिनकी कविताओं की पंक्तियों से बीच-बीच में सरोकार, मानवता, नैतिकता जैसे शब्द उड़-उड़कर कवि सम्मेलनों की शोभा बढ़ाते हैं। वाजपेयी के कंधे पर रखकर छोड़े जानेवाले रितू राजपूत के निर्देशों पर गौर करें तो अंदाजा लग जाएगा कि कैसे देश के कभी इतने मशहूर रहे चैनल का सत्यानाश करने की कवायदें की जा रही है और ये महज चंद लोगों को खुश करने का अड्डा बनकर रह गया है, जहां देर रात महिला प्रजेंटर को घर से दो किलोमीटर पहले ही छोड़ दिया जाता है और वीमेन सेल चुप्प मार जाता है। भीतर बहुत बड़ा सडांध है, घपला है, धोखा है। ये सब हमें रेडियो लिस्नर की हैसियत से कंटेंट और प्रस्तुति के स्तर पर दिखाई देता है जबकि भीतरी तौर पर कहीं न कहीं ये भारी वित्तीय गड़बड़ी की मामला हो सकता है, शोषण और सांकेतिक हिंसा का मामला हो सकता है। ऐसे में, आज मजदूर दिवस है। हम हर साल इस मौके पर मजदूर आंदोलनों की जरूरतों, अधिकारों और उनके भविष्य को लेकर बात करते हैं। इन दिनों आकाशवाणी और न्यूज चैनलों के भीतर काम कर रहे कलाकारों, पत्रकारों, स्क्रिप्ट लेखकों से बात करके, उनकी जो हालत मैंने देखी है, मेरी आप सबसे अपील है कि देशभर के मजदूरों पर बात करने के क्रम में आज उन्हें भी शामिल कर लें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100501/aab9a1cd/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat May 1 17:51:54 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 01 May 2010 17:51:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSX4KWL4KSCIOCkleClgCDgpK7gpKjgpK7gpL7gpKjgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleCkviDgpIXgpKHgpY3gpKHgpL4g4KSs4KSo4KS+IEFJUiBG?= =?utf-8?q?M_GOLD_106=2E4?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4BDC1CE2.5060907@sarai.net> शुक्रिया विनीत, मई दिवस पर शायद यह भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि इस चैनल को बहुत सारे सुननेवाले असंगठित, कुटीर उद्योग/वर्कशॉप में काम करने वाले मज़दूर होते हैं - ग़ाज़ियाबाद, फ़रीदाबाद, बुलंदशहर से लेकर बिहार के किसी कोने तक. उनकी फ़रमाइशें सुनो, जो कि अक्सर पुराने क्लैसिक बन चुके गानों के लिए होती हैं, या उनका समर्पण सुनो तो ये बात साफ़ हो जाती है. कम-से-कम इस मामले में यह चैनल बाक़ियो से अलग है, कि इसका श्रोता वर्ग अब भी विविध है, सिर्फ़ मेट्रो का मध्यवर्ग नहीं है. ये बात मुझे तब समझ में आई थी जब शाम में निवेश-संबंधी मशविरे वाले कार्यक्रम के तहत एक आदमी ने जिज्ञासा की थी कि उसके पास बैंक ख़ाता नहीं है तो वह शेयर कैसे ख़रीद सकता है? ये सही है कि आम तौर पर यहाँ भी उथलापन आता जा रहा है. लोग फ़िल्मी गानों पर सवार होकर हिन्दी साहित्य का घटिया ट्यूटोरियल पढ़ते हुए, मुग़ल-ए-आज़म के किसी गीत को निराला की रचना बताते हैं! ये सब सही है, लेकिन यहीं पर इरफ़ान जैसे मँजे हुए प्रस्तोता भी हैं, जो फ़िल्म और संगीत के इतिहास में काफ़ी डूब कर नायाब मोती निकाल ले आते हैं, प्यार से बातें करते हैं, और उनको सुनने वाले भी हैं. और ये सब वो अपनी तरफ़ जुगाड़ लगाके करते हैं, रेडियो के सड़ रहे अभिलेखागार से उनको कोई मदद नहीं मिलती, जैसा कि उनके ब्लॉग से साफ़ हो जाता है. जो कुछ अच्छा यहाँ बचा है, उसको बचाए जाने की ज़रूरत है, बल्कि और बेहतरी की ओर ले जाए जाने की ज़रूरत है. अपन लोग तो बाक़ी रसूख़दार लोगों से अपील ही कर सकते हैं कि वे आवाज़ से आवाज़ मिलाएँ, और सरकारी एफ़.एम. में सद्बुद्धि फैले कि वह अपनी लोकप्रिय ताक़त का यूँ बंटाढार न करे, लेकिन फिर भी अगर उन्होंने इसे निजी चैनलों के आगे निहत्था करके पछाड़ने का मन बना ही लिया है, तो क्या होगा! रेडियो को लेकर मेरा अपना तजुर्बा भी यही है कि वहाँ घुस के रिसर्च करना आसान नहीं है, इतिहास को झुठलाने की कोशिश करता हुआ गोपनीयता का अभेद्य दुर्ग है वह, जहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता. रंग दे बसंती का हौलनाक संदेश यूँ ही नहीं था! रही प्रोफ़ेसर चमन लाल की बात, तो एक टिप्पणीकार - किसी 'धर्म' ने - मोहल्ला लाइव में उनको अच्छा टोका है. माफ़ करना मुझे कंडोम के उस विज्ञापन में कोई बुराई नहीं नज़र आती. काफ़ी होशियार विज्ञापन है वो, और इसको लेकर न लाल साहब को परेशान होने की ज़रूरत है, न प्रधानमंत्री को, जिनके नाम ख़त लिखा है उन्होंने. नीचे देखें रविकान्त धर्म said: चमनलाल जी, भारतीय संस्कृति उदार है? इससे बड़ा फ्रॉड कुछ भी नहीं हो सकता। हम एक अनैतिक और अविकसित समाज में हैं। यूरोपीय और अमेरिकी नैतिकता को हमारे देश में लागू कर पाना संभव नहीं है। हम अपने मंत्रियों, प्रधानमंत्रियों तक से नैतिक होने की अपेक्षा नहीं करते। हमारे मंदिर की नग्न यौन क्रीड़ारत, अप्राकृतिक मैथुनरत मूर्तियां, मंदिरों की देवदासियां, देवदासियों का ईश्वर से संसर्ग और वर्तमान समय में देश के हजारों मंदिरों में ईश्वर की संतानें, कुंभ मेले के दौरान कंडोम की बंपर सेल, राधा का पति और राधा-कृष्ण का रास, खीर खाने से बच्चे पैदा होना, देवता के आशीर्वाद से पुत्र का जन्म, आधुनिक समय में संतान प्राप्ति के लिए बाबाओं की स्पेशल पूजाएं, 2010 के स्वामी नित्यानंद, हजारों नित्यानंदों की बहुचर्चित स्पेशल पूजाएं, इच्छाधारी बाबा, बाबाओं का सेक्स रैकेट, बाबा की कृपा, गोद में बच्चा, पुत्र कामेष्टि यज्ञ, एकनिष्ठता का क्षद्म, नारायण दत्त तिवारी की नैतिकता, नैतिकता की अनैतिक संतानें। इस देश में प्रभुवर्ग की संस्कृति जारकर्म को सत्यापित और स्थापित करती है। इसलिए कृपया कंडोम के ऐड से विचलित न हों। http://mohallalive.com/2010/04/28/an-all-india-radio-advertisement-open-call-for-sexual-indulgence/ vineet kumar wrote: > > करोड़ो रेडियो लिस्नर (श्रोताओं) के दिलों पर राज करनेवाला AIR FM GOLD 106.4 आज > खुद चंद लोगों की अफसशाही और मनमानी का अड्डा बनकर रह गया है। कार्यक्रमों के > प्रसारण का जो स्तर और भीतर की जो हालत है, उसे देखकर किसी के भी मन में ये सवाल > जरूर उठेगा कि सूचना, मनोरंजन और जागरुकता के नाम पर देश के मेहनतकश लोगों के > खून-पसीने की करोड़ों रुपये की कमाई को जिस तरह पानी में बहाया जा रहा है, उसके लिए > कौन लोग जिम्मेदार हैं? इस माध्यम को कमजोर करने के जो कुचक्र रचे जा रहे हैं और देश के > इस एफएम चैनल को कैसे किसी ऊटपटांग निर्देश जारी करनेवाले लोगों के हाथों सौंप दिया > गया है, उनसे सवाल किये जाएं? हालात ये है कि संसद भवन के ठीक बगल में चलनेवाला ये > चैनल अब धीरे-धीरे कबाड़खाना की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है। > > इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये के बजट तैयार किये जाते हैं, पैसे भी आवंटित होते हैं लेकिन > लापरवाही और भीतरी गड़बड़ियों की वजह से करीब सालभर से प्रजेंटरों को कोई भुगतान > नहीं किया जाता है, सही चीजों को हटाकर भारी ठेके देकर नयी गैरजरूरी चीजें लगायी > जाती है, चालू हालत की चीजों को कबाड़खाने में डाल दिया जाता है। चीजों के रखरखाव > का जो आलम है उसे देखते हुए किसी भी रेडियोप्रेमी का खून खौल जाए। दुर्लभ और कीमती > रिकार्ड्स छतों पर फेंक दिये गये हैं जिसे कि कोई पूछनेवाला नहीं है। कुछ के पैकेट खोले तक > नहीं गये और काफी कुछ कबाड़‍ियों के हाथों औने-पौने दामों पर बेच दिया गया। पूरे सिस्टम > के डिजिटलाइज हो जाने की वजह से पुरानी मशीनें और सामान म्यूजियम के नाम पर साइड > कर दिये गये हैं जिसका कुछ भी मेंटेनेंस नहीं है। > > ... > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From ravikant at sarai.net Sat May 1 18:00:33 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 01 May 2010 18:00:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS24KSoIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS44KS14KS+4KSyIOCknA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSs?= Message-ID: <4BDC1EE9.1010503@sarai.net> आगे बढ़ा रहा हूँ. आलोक श्रीवास्तव की प्रतिक्रिया समयांतर में छपे किसी लेख पर. श को ष पढ़ें - उल्टा भी सही है. समयांतर का वेबपता है: http://www.samayantar.com/ लेकिन ये नवंबर के बाद अपडेट नहीं हुआ है. रविकान्त आदरणीय पंकज बिश्ट जी समयांतर में प्रकाषित आपके एक लेख पर यह टिप्पणी भेज रहा हूं. चूंकि यह टिप्पणी समयांतर में प्रकाषित हुई है, और जहां तक मेरा विचार है, समयांतर एक लोकतांत्रिक मंच है, इसलिए आप उस टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया समयांतर के अगले अंक में प्रकाषित करेंगे. कृपया लौटती मेल से ही सूचना दें कि यह प्रतिक्रिया समयांतर में प्रकाषित हो पाएगी या नहीं. आपकी ओर से जवाब न मिलने की स्थिति में ही मैं इस प्रतिक्रिया को कहीं और या किसी ब्लॉग में प्रकाषनार्थ भेजूंगा, क्योंकि इसका प्रकाषन आवष्यक है -- कारण यह कि इसमें हिंदी के प्रकाषन जगत से संबंधित अत्यावष्यक और महत्व्पूर्ण बातें हैं. समायंतर के पाठकों और हिंदी के अन्य पाठकों के लिए भी यह प्रतिक्रिया पढ़ना जरूरी है. आषा है आप स्वस्थ और प्रसन्न होंगे. सादर आलोक श्रीवास्तव समयांतर के मार्च, 2010 अंक में नवीन पाठक के नाम से आपने पृश्ठ 39 पर लिखा है: ... इधर उभरे वामपंथी प्रकाषनगृहों से मुख्य तौर से वे किताबें नए सिरे से छप कर आई हैं जो सोवियत रूस के जमाने में प्रगति प्रकाषन मास्को से छपती थीं. इनकी लोकप्रियता देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिंदी में वामपंथी साहित्य का बड़ा बाजार है. कुछ ऐसे प्रकाषक भी थे जो साहित्य के नाम पर अनुवादों से पटे थे और ये अनुवाद 19 वीं और बीसवीं सदी के अंग्रेजी के लेखकों की रचनाएं थीं. यह अच्छा धंधा है क्योंकि इसमें किसी को रॉयल्टी नहीं देनी होती. जहां तक अनुवादों की गुणवत्ता का सवाल है उन पर जो न कहा जाए थोड़ा है... यह जानने की बलवती इच्छा हुई कि -- 1. प्रथम टिप्पणी किस / किन वामपंथी प्रकाषनों के बारे में है? 2. आपने पुस्तकों के बड़े ‘बाजार’ षब्द का उल्लेख किया है. तो यह बताएं कि बाजार क्या होता है, उसके घटक क्या होते हैं, प्रोडक्षन से लेकर और इस्तेमाल तक किसी वस्तु के वितरण में प्रयुक्त शृखला किस स्थिति में बाजार कहलाती है? और अंत में यह बताएं कि 10 प्रांतों के 50 करोड़ की हिंदी भाशी आबादी के बीच पुस्तकों के इस तथाकथित बाजार की ‘स्ट्रेंथ’ कितनी है? यह ‘बाजार’ कितनी प्रतियों या कितने लाख / करोड़ रुपयों का है? 3. यह सारी बातें आपने विष्व पुस्तक मेले के संदर्भ में कही हैं, जो दो साल में एक बार 9 दिनों के लिए होता है. बेषक इस मेले में स्टॉलों पर भीड़ दिखती है, और पुस्तकें भी खरीदी जाती हैं. परंतु इसका दूसरा यह पहलू यह भी है कि ‘बाजार’ किसी भी उत्पाद को षहर, गांव, कस्बे तक उसके ग्राहक के लिए सुलभ बनाता है. और मान्यवर बाजार का अर्थ मार्केट प्लेस मात्र नहीं होता, यह किसी उत्पाद के वितरण की पूरी प्रक्रिया होती है, जिसमें संलग्न ढेरों परिवारों का पालन पोशण इस पर निर्भर होता है. तो दूसरा पहलू यह है मान्यवर, कि गांव कस्बे तो दूर बड़े-बड़े षहरों तक में हिंदी की किताबें उपलब्ध नहीं हैं, वामपंथी पुस्तकों की तो बात ही छोड़िए. बहुत से लोगों के विष्व पुस्तक मेले में किताबें खरीदने का एक मुख्य कारण यह भी है कि बाद में ये किताबें उन्हें सहज रूप से मिल नहीं पाएंगी. विष्व पुस्तक मेले की भीड़ और पाठकों द्वारा पुस्तक खरीद से कुछ भी सिद्ध नहीं होता, मान्यवर. 4. जहां तक मेरी जानकारी है, यदि हिंदी पुस्तकों के व्यापार की बात की जाए तो यह आपकी ही भाशा में दो तरीके के ‘बाजारों’ में गतिषील है -- 1- वैयक्तिक पाठकों के बीच 2- पुस्तकालय खरीद के देषव्यापी नेटवर्क के बीच जिसकी षक्ति में हिंदी के राश्ट्रभाशा होने के कारण सरकारी पैसा बड़े पैमाने पर षामिल है. 5. तो मान्यवर, यदि आपका यह लेख और इसमें की गई आप्त टिप्पणियों का स्रोत यदि सचमुच उस मनस् में है जो हिंदी पुस्तकों की दुनिया और इससे पाठक के संबंध को लेकर जेनुइन तरीके से चिंतित है तो आपको इस दूसरे विशय पर लिखना चाहिए -- यानी स्पश्ट रूप से इस विशय पर कि हिंदी पुस्तकों के नाम पर पाठकों से छल करते हुए किस तरह की थोक पुस्तकालय खरीद की धंधेबाजी और कालाबाजारी चल रही है और इसमें हिंदी के बड़े बड़े लेखक और संस्थाएं सहअभियुक्त हैं. जबकि आप इस एकमात्र करणीय काम को छोड़ कर ठीक उल्टा काम कर रहे हैं, कि जो भी लोग निजी प्रयासों से हिंदी पुस्तकों और पाठकों के बीच एक सेतु बनाने के संघर्श में लगे हैं, आप उनका अप्रत्यक्ष रूप से चरित्र-हनन कर रहे हैं. 6. जहां तक मेरी जानकारी है आप जब धंधा, बाजार आदि षब्दों का इस्तेमाल करते हुए हिंदी के कुछ प्रकाषनों की आलोचना कर रहे हैं, तब आपकी बातों से यह स्पश्ट नहीं हो पाता कि आप उपरोक्त दो तरह के बाजारों में से किस बाजार की बात कर रहे हैं? क्योंकि यह स्पश्ट है कि सरकारी खरीद का बाजार अरबों रुपए का है, और बहुत बड़ा है और हिंदी के कतिपय बड़े प्रकाषकों का इस पर पूर्ण एकाधिकार है. बेषक यह एकाधिकार बड़े प्रकाषकों का है, परंतु इसके संचालन की एक अत्यंत प्रभावी धुरी हिंदी के स्वनामधन्य बड़े लेखकों का एक षक्तिषाली समूह भी है, जिनमें कई आपके मित्र भी हैं, और एक तो अत्यंत घनिश्ठ और समयांतर के अतिथि संपादक भी. 7. आप जिन प्रकाषकों को लक्षित कर रहे हैं, वे इस भ्रश्ट सरकारी खरीद से बिल्कुल बाहर के संघर्शषील और सचमुच मिषन की भावना से काम करने वाले प्रकाषक हैं. 8. अब आप यदि प्रकाषन, पुस्तक खरीद और पाठक के इस मुद्दे पर सचमुच ईमानदार हैं, और सिर्फ सनसनी पैदा कर समयांतर के एक प्रतिबद्ध पाठक-समुदाय के बीच झूठी आत्मगरिमा से संतुश्ट नहीं हो जाना चाहते तो आपका दायित्व है और आपके लिए अपने संपर्कों, हिंदी लेखन-प्रकाषन से लंबी संबद्धता के कारण यह बहुत आसान भी है कि थोक सरकारी खरीद के इस बाजार के बारे में -- इससे गलत ढंग से लाभान्वित होने वाले प्रकाषकों और निष्चय ही इसके जरिए ही षक्तिषाली होने वाले लेखकों / बुद्धिजीवियों पर तथ्यपरक लेख समयांतर में लिखें और बताएं कि कैसे हिंदी में नकली लेखकों का पूरा एक वर्ग उभर आया है, कैसे प्रकाषकों को इस बात से कुछ लेना देना नहीं रह गया है कि वह जो छाप रहे हैं, वह सचमुच पढ़ा जाने लायक / बिकने लायक है या नहीं. और इस पूरी तफतीष में यह भी लिखें कि समयांतर में छपे आपके लेखों का पुस्तकाकार संग्रह पुस्तक रूप में छापे जाने की क्या आवष्यकता थी? और वह भी हार्डबाउंड में और इसकी मंहगी कीमत का खरीदार कौन था? आप अपनी ही सिर्फ इस एक किताब के जरिए हिंदी के पूरे पुस्तक बाजार का यथातथ्य चित्र खींच सकते हैं. 9. हिंदी पुस्तकों की थोक सरकारी खरीद के रैकेट का बाजार कितना है, उसमें हिंदी के कौन कौन से लेखक षामिल हैं और इस थोक खरीद की चयन-समितियों में बैठकर वे किन प्रकाषकों को उपकृत करते हैं -- यदि इस पर पड़ताल कर थोड़ा लिख सकें तो हिंदी के वर्तमान परिदृष्य में एक महत्वपूर्ण काम होगा. इस संबंध में आपको काफी जानकारियां थोक सरकारी खरीद के अरबों रुपए का कारोबार जिस मानव संसाधन मंत्रालय के तहत आता है उसके पूर्व मंत्री अर्जुन सिंह पर दो दो किताबें लिखने वाले और उस मंत्रालय के उस संस्थान -- राजा राममोहन राय फाउंडेषन, कोलकाता, जो अरबों रुपए की सरकारी खरीद का संचालक है की समिति में रह चुके आपके मित्र, समयांतर के लेखक और समयांतर के अतिथि संपादक श्री रामषरण जोषी जी प्रचुर मात्रा में मुहैया करवा सकते हैं और वे प्रकाषक भी ये जानकारियां उपलब्ध करवा सकते हैं, जहां से स्वयं आपकी मौलिक किताबें छपी हैं. 10. यदि आप सचमुच चिंतित हैं, तो हिंदी में पुस्तक खरीद के जो-जो रैकेट हैं, उन्हें उजागर करें न कि अपनी सीमा भर हिंदी में कुछ बेहतर करने का संघर्श कर रहे प्रकाषकों पर एकसार ढंग से लाठी घुमा दें. अब आप बताएं कि -- 11. अनुवाद से पटे ये प्रकाषक कौन हैं? 12. ये अनुवाद से पटे प्रकाषक क्या सचमुच इसलिए किताबें निकाल रहे हैं कि इन पर रॉयल्टी नहीं देनी पड़ती और यह अच्छा धंधा है? 13. आपको यह कैसे पता कि किन किताबों पर रॉयल्टी दी जाती है और किन पर नहीं, और क्या आपने इन प्रकाषनों द्वारा छापी गई प्रत्येक किताब के बारे में आवष्यक तफतीष कर ली है? 14. हिंदी की मौलिक पुस्तकों पर आने वाले खर्च से इन किताबों पर आने वाले खर्च कम नहीं कई गुना ज्यादा पड़ते हैं -- क्या इस तथ्य को आप जानते हैं? और इस तथ्य को भी कि हिंदी की मौलिक किताबों को सरकारी खरीद में बिकवाने के लिए उसका लेखक या उसके संपर्क मददगार हो सकते हैं, परंतु ‘19 वीं सदी का’ कोई लेखक या उसका कोई षागिर्द अपनी पुस्तक भारत की राश्ट्रभाशा स्कीम की थोक खरीद में नहीं बिकवा पाएगा. इस बात को और स्पश्ट करना चाहें तो आपकी ही पत्रिका में नियमित विज्ञापन देने वाले ग्रंथषिल्पी की 10 किताबें चुनें और उसी वर्श उतने ही पेज की हिंदी के किसी बड़े स्थापित ‘मौलिक कृतियों’ के प्रकाषक की 10 मौलिक किताबें चुनें और उन पर आई लागत और उनकी बिक्री की तुलना करें. विष्वास करें चित्र अपने आप स्पश्ट हो जाएगा. लंतरानियां, तथ्यों का स्थानापन्न नहीं होतीं. 15. हिंदी में मौलिक या अनूदित सभी प्रकार की गंभीर साहित्यिक पुस्तकें आपके अनुमान से कुल कितनी बिक जाती होंगी? 16. आपने अपने लेख में एक तरह से अनूदित साहित्य के बरक्स हिंदी के समकालीन मौलिक साहित्य को रखने की चेश्ट की है. हालांकि इसकी न तो कोई जरूरत थी और न ही संदर्भ. दरअसल दुख की बात तो यह है कि हिंदी में विष्व भर का अनूदित साहित्य अब भी बहुत कम है. जिस बड़े पैमाने पर उसका अनुवाद और प्रसार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. बहरहाल यह एक गंभीर और व्यापक विशय है. इस पर फिर कभी. फिलहाल तो आप सिर्फ इतना जनहित में बता दें कि हिंदी की सभी विधाओं में पिछले पांच वर्शों में वे कौन सी महत्वपूर्ण मौलिक कृतियां आई हैं (कृपया सभी विधाओं से दस-दस कृतियों का नाम देने का कश्ट करें) महोदय जान पड़ता है हिंदी के समकालीन मौलिक साहित्य को लेकर आप काफी उत्साही हैं, पर यह उत्साह आप की किसी भी सार्वजनिक गतिविधि में कभी दिखाई नहीं पड़ा. और क्या यह सच नहीं है कि हिंदी का समकालीन मौलिक लेखन एक गंभीर संकट काल से गुजर रहा है. यह भी एक वृहत्तर विशय है. इस पर भी फिर कभी. 17. हिंदी प्रकाषन, पाठक, लेखक की वास्तविक समस्याएं क्या हैं? उनका समाजिक-सांस्कृतिक कारण क्या है? ये गंभीर सवाल हैं, कृपया इनसे गंभीरता से ही मुखातिब हों, और सच्चे हृदय से उपजी वास्तविक चिंता के साथ, न कि हिसाब चुकाने की भावना से प्रेरित हो कर या सस्ती लोकप्रियता पाने के इरादे से. -आलोक श्रीवास्तव मुंबई From abhaytri at gmail.com Sat May 1 18:51:53 2010 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Sat, 1 May 2010 18:51:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS24KSoIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS44KS14KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS14KS+4KSs?= In-Reply-To: <4BDC1EE9.1010503@sarai.net> References: <4BDC1EE9.1010503@sarai.net> Message-ID: <59CFFA5E3ACE4050A34B5E86DB6C12E7@AbhayTiwari> पंकज जी ने क्या लिखा है मैं ने नहीं पढ़ा है मगर यहाँ उद्धृत अंश के संदर्भ में आलोक के सवाल न्यायसंगत मालूम देते हैं। ----- Original Message ----- From: "ravikant" To: "Deewan" Sent: Saturday, May 01, 2010 6:00 PM Subject: [दीवान]प्रकाशन जगत के सवाल जवाब > आगे बढ़ा रहा हूँ. आलोक श्रीवास्तव की प्रतिक्रिया समयांतर में छपे किसी लेख > पर. श को ष > पढ़ें - उल्टा भी सही है. > समयांतर का वेबपता है: http://www.samayantar.com/ लेकिन ये नवंबर के बाद > अपडेट > नहीं हुआ है. > > > रविकान्त > > > आदरणीय पंकज बिश्ट जी > > समयांतर में प्रकाषित आपके एक लेख पर यह टिप्पणी भेज रहा हूं. चूंकि यह > टिप्पणी समयांतर में > प्रकाषित हुई है, और जहां तक मेरा विचार है, समयांतर एक लोकतांत्रिक मंच है, > इसलिए आप > उस टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया समयांतर के अगले अंक में प्रकाषित करेंगे. > कृपया लौटती मेल > से ही सूचना दें कि यह प्रतिक्रिया समयांतर में प्रकाषित हो पाएगी या नहीं. > आपकी ओर से > जवाब न मिलने की स्थिति में ही मैं इस प्रतिक्रिया को कहीं और या किसी ब्लॉग > में > प्रकाषनार्थ भेजूंगा, क्योंकि इसका प्रकाषन आवष्यक है -- कारण यह कि इसमें > हिंदी के > प्रकाषन जगत से संबंधित अत्यावष्यक और महत्व्पूर्ण बातें हैं. समायंतर के > पाठकों और हिंदी के > अन्य पाठकों के लिए भी यह प्रतिक्रिया पढ़ना जरूरी है. > > आषा है आप स्वस्थ और प्रसन्न होंगे. > > सादर > आलोक श्रीवास्तव > > > समयांतर के मार्च, 2010 अंक में नवीन पाठक के नाम से आपने पृश्ठ 39 पर लिखा > है: > > ... इधर उभरे वामपंथी प्रकाषनगृहों से मुख्य तौर से वे किताबें नए सिरे से छप > कर आई हैं जो > सोवियत रूस के जमाने में प्रगति प्रकाषन मास्को से छपती थीं. इनकी लोकप्रियता > देखते हुए > यह तो कहा ही जा सकता है कि हिंदी में वामपंथी साहित्य का बड़ा बाजार है. कुछ > ऐसे > प्रकाषक भी थे जो साहित्य के नाम पर अनुवादों से पटे थे और ये अनुवाद 19 वीं > और बीसवीं > सदी के अंग्रेजी के लेखकों की रचनाएं थीं. यह अच्छा धंधा है क्योंकि इसमें > किसी को रॉयल्टी > नहीं देनी होती. जहां तक अनुवादों की गुणवत्ता का सवाल है उन पर जो न कहा जाए > थोड़ा > है... > > यह जानने की बलवती इच्छा हुई कि -- > > 1. प्रथम टिप्पणी किस / किन वामपंथी प्रकाषनों के बारे में है? > 2. आपने पुस्तकों के बड़े ‘बाजार’ षब्द का उल्लेख किया है. तो यह बताएं कि > बाजार क्या > होता है, उसके घटक क्या होते हैं, प्रोडक्षन से लेकर और इस्तेमाल तक किसी > वस्तु के वितरण में > प्रयुक्त शृखला किस स्थिति में बाजार कहलाती है? और अंत में यह बताएं कि 10 > प्रांतों के 50 > करोड़ की हिंदी भाशी आबादी के बीच पुस्तकों के इस तथाकथित बाजार की ‘स्ट्रेंथ’ > कितनी > है? यह ‘बाजार’ कितनी प्रतियों या कितने लाख / करोड़ रुपयों का है? > 3. यह सारी बातें आपने विष्व पुस्तक मेले के संदर्भ में कही हैं, जो दो साल > में एक बार 9 > दिनों के लिए होता है. बेषक इस मेले में स्टॉलों पर भीड़ दिखती है, और > पुस्तकें भी खरीदी > जाती हैं. परंतु इसका दूसरा यह पहलू यह भी है कि ‘बाजार’ किसी भी उत्पाद को > षहर, > गांव, कस्बे तक उसके ग्राहक के लिए सुलभ बनाता है. और मान्यवर बाजार का अर्थ > मार्केट > प्लेस मात्र नहीं होता, यह किसी उत्पाद के वितरण की पूरी प्रक्रिया होती है, > जिसमें > संलग्न ढेरों परिवारों का पालन पोशण इस पर निर्भर होता है. तो दूसरा पहलू यह > है > मान्यवर, कि गांव कस्बे तो दूर बड़े-बड़े षहरों तक में हिंदी की किताबें उपलब्ध > नहीं हैं, > वामपंथी पुस्तकों की तो बात ही छोड़िए. बहुत से लोगों के विष्व पुस्तक मेले > में किताबें खरीदने > का एक मुख्य कारण यह भी है कि बाद में ये किताबें उन्हें सहज रूप से मिल नहीं > पाएंगी. विष्व > पुस्तक मेले की भीड़ और पाठकों द्वारा पुस्तक खरीद से कुछ भी सिद्ध नहीं होता, > मान्यवर. > 4. जहां तक मेरी जानकारी है, यदि हिंदी पुस्तकों के व्यापार की बात की जाए तो > यह > आपकी ही भाशा में दो तरीके के ‘बाजारों’ में गतिषील है -- > 1- वैयक्तिक पाठकों के बीच > 2- पुस्तकालय खरीद के देषव्यापी नेटवर्क के बीच जिसकी षक्ति में हिंदी > के > राश्ट्रभाशा होने के कारण सरकारी पैसा बड़े पैमाने पर षामिल है. > > 5. तो मान्यवर, यदि आपका यह लेख और इसमें की गई आप्त टिप्पणियों का स्रोत यदि > सचमुच > उस मनस् में है जो हिंदी पुस्तकों की दुनिया और इससे पाठक के संबंध को लेकर > जेनुइन तरीके से > चिंतित है तो आपको इस दूसरे विशय पर लिखना चाहिए -- यानी स्पश्ट रूप से इस > विशय पर > कि हिंदी पुस्तकों के नाम पर पाठकों से छल करते हुए किस तरह की थोक पुस्तकालय > खरीद की > धंधेबाजी और कालाबाजारी चल रही है और इसमें हिंदी के बड़े बड़े लेखक और > संस्थाएं सहअभियुक्त > हैं. जबकि आप इस एकमात्र करणीय काम को छोड़ कर ठीक उल्टा काम कर रहे हैं, कि > जो भी > लोग निजी प्रयासों से हिंदी पुस्तकों और पाठकों के बीच एक सेतु बनाने के > संघर्श में लगे हैं, आप > उनका अप्रत्यक्ष रूप से चरित्र-हनन कर रहे हैं. > 6. जहां तक मेरी जानकारी है आप जब धंधा, बाजार आदि षब्दों का इस्तेमाल करते > हुए हिंदी > के कुछ प्रकाषनों की आलोचना कर रहे हैं, तब आपकी बातों से यह स्पश्ट नहीं हो > पाता कि आप > उपरोक्त दो तरह के बाजारों में से किस बाजार की बात कर रहे हैं? क्योंकि यह > स्पश्ट है कि > सरकारी खरीद का बाजार अरबों रुपए का है, और बहुत बड़ा है और हिंदी के कतिपय > बड़े > प्रकाषकों का इस पर पूर्ण एकाधिकार है. बेषक यह एकाधिकार बड़े प्रकाषकों का > है, परंतु > इसके संचालन की एक अत्यंत प्रभावी धुरी हिंदी के स्वनामधन्य बड़े लेखकों का एक > षक्तिषाली > समूह भी है, जिनमें कई आपके मित्र भी हैं, और एक तो अत्यंत घनिश्ठ और समयांतर > के अतिथि > संपादक भी. > 7. आप जिन प्रकाषकों को लक्षित कर रहे हैं, वे इस भ्रश्ट सरकारी खरीद से > बिल्कुल बाहर के > संघर्शषील और सचमुच मिषन की भावना से काम करने वाले प्रकाषक हैं. > 8. अब आप यदि प्रकाषन, पुस्तक खरीद और पाठक के इस मुद्दे पर सचमुच ईमानदार > हैं, और > सिर्फ सनसनी पैदा कर समयांतर के एक प्रतिबद्ध पाठक-समुदाय के बीच झूठी > आत्मगरिमा से > संतुश्ट नहीं हो जाना चाहते तो आपका दायित्व है और आपके लिए अपने संपर्कों, > हिंदी > लेखन-प्रकाषन से लंबी संबद्धता के कारण यह बहुत आसान भी है कि थोक सरकारी > खरीद के इस > बाजार के बारे में -- इससे गलत ढंग से लाभान्वित होने वाले प्रकाषकों और > निष्चय ही इसके > जरिए ही षक्तिषाली होने वाले लेखकों / बुद्धिजीवियों पर तथ्यपरक लेख समयांतर > में लिखें और > बताएं कि कैसे हिंदी में नकली लेखकों का पूरा एक वर्ग उभर आया है, कैसे > प्रकाषकों को इस > बात से कुछ लेना देना नहीं रह गया है कि वह जो छाप रहे हैं, वह सचमुच पढ़ा > जाने लायक / > बिकने लायक है या नहीं. और इस पूरी तफतीष में यह भी लिखें कि समयांतर में छपे > आपके लेखों > का पुस्तकाकार संग्रह पुस्तक रूप में छापे जाने की क्या आवष्यकता थी? और वह > भी हार्डबाउंड > में और इसकी मंहगी कीमत का खरीदार कौन था? आप अपनी ही सिर्फ इस एक किताब के > जरिए > हिंदी के पूरे पुस्तक बाजार का यथातथ्य चित्र खींच सकते हैं. > 9. हिंदी पुस्तकों की थोक सरकारी खरीद के रैकेट का बाजार कितना है, उसमें > हिंदी के कौन > कौन से लेखक षामिल हैं और इस थोक खरीद की चयन-समितियों में बैठकर वे किन > प्रकाषकों को > उपकृत करते हैं -- यदि इस पर पड़ताल कर थोड़ा लिख सकें तो हिंदी के वर्तमान > परिदृष्य में > एक महत्वपूर्ण काम होगा. इस संबंध में आपको काफी जानकारियां थोक सरकारी खरीद > के अरबों > रुपए का कारोबार जिस मानव संसाधन मंत्रालय के तहत आता है उसके पूर्व मंत्री > अर्जुन सिंह > पर दो दो किताबें लिखने वाले और उस मंत्रालय के उस संस्थान -- राजा राममोहन > राय > फाउंडेषन, कोलकाता, जो अरबों रुपए की सरकारी खरीद का संचालक है की समिति में > रह चुके > आपके मित्र, समयांतर के लेखक और समयांतर के अतिथि संपादक श्री रामषरण जोषी जी > प्रचुर > मात्रा में मुहैया करवा सकते हैं और वे प्रकाषक भी ये जानकारियां उपलब्ध करवा > सकते हैं, जहां > से स्वयं आपकी मौलिक किताबें छपी हैं. > 10. यदि आप सचमुच चिंतित हैं, तो हिंदी में पुस्तक खरीद के जो-जो रैकेट हैं, > उन्हें उजागर करें > न कि अपनी सीमा भर हिंदी में कुछ बेहतर करने का संघर्श कर रहे प्रकाषकों पर > एकसार ढंग से > लाठी घुमा दें. अब आप बताएं कि -- > 11. अनुवाद से पटे ये प्रकाषक कौन हैं? > 12. ये अनुवाद से पटे प्रकाषक क्या सचमुच इसलिए किताबें निकाल रहे हैं कि इन > पर रॉयल्टी > नहीं देनी पड़ती और यह अच्छा धंधा है? > 13. आपको यह कैसे पता कि किन किताबों पर रॉयल्टी दी जाती है और किन पर नहीं, > और > क्या आपने इन प्रकाषनों द्वारा छापी गई प्रत्येक किताब के बारे में आवष्यक > तफतीष कर ली है? > 14. हिंदी की मौलिक पुस्तकों पर आने वाले खर्च से इन किताबों पर आने वाले > खर्च कम नहीं > कई गुना ज्यादा पड़ते हैं -- क्या इस तथ्य को आप जानते हैं? और इस तथ्य को भी > कि हिंदी > की मौलिक किताबों को सरकारी खरीद में बिकवाने के लिए उसका लेखक या उसके > संपर्क > मददगार हो सकते हैं, परंतु ‘19 वीं सदी का’ कोई लेखक या उसका कोई षागिर्द > अपनी पुस्तक > भारत की राश्ट्रभाशा स्कीम की थोक खरीद में नहीं बिकवा पाएगा. इस बात को और > स्पश्ट > करना चाहें तो आपकी ही पत्रिका में नियमित विज्ञापन देने वाले ग्रंथषिल्पी की > 10 किताबें > चुनें और उसी वर्श उतने ही पेज की हिंदी के किसी बड़े स्थापित ‘मौलिक कृतियों’ > के प्रकाषक > की 10 मौलिक किताबें चुनें और उन पर आई लागत और उनकी बिक्री की तुलना करें. > विष्वास > करें चित्र अपने आप स्पश्ट हो जाएगा. लंतरानियां, तथ्यों का स्थानापन्न नहीं > होतीं. > 15. हिंदी में मौलिक या अनूदित सभी प्रकार की गंभीर साहित्यिक पुस्तकें आपके > अनुमान से कुल > कितनी बिक जाती होंगी? > 16. आपने अपने लेख में एक तरह से अनूदित साहित्य के बरक्स हिंदी के समकालीन > मौलिक > साहित्य को रखने की चेश्ट की है. हालांकि इसकी न तो कोई जरूरत थी और न ही > संदर्भ. > दरअसल दुख की बात तो यह है कि हिंदी में विष्व भर का अनूदित साहित्य अब भी > बहुत कम > है. जिस बड़े पैमाने पर उसका अनुवाद और प्रसार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. > बहरहाल > यह एक गंभीर और व्यापक विशय है. इस पर फिर कभी. फिलहाल तो आप सिर्फ इतना > जनहित > में बता दें कि हिंदी की सभी विधाओं में पिछले पांच वर्शों में वे कौन सी > महत्वपूर्ण मौलिक > कृतियां आई हैं (कृपया सभी विधाओं से दस-दस कृतियों का नाम देने का कश्ट > करें) महोदय जान > पड़ता है हिंदी के समकालीन मौलिक साहित्य को लेकर आप काफी उत्साही हैं, पर यह > उत्साह > आप की किसी भी सार्वजनिक गतिविधि में कभी दिखाई नहीं पड़ा. और क्या यह सच नहीं > है > कि हिंदी का समकालीन मौलिक लेखन एक गंभीर संकट काल से गुजर रहा है. यह भी एक > वृहत्तर > विशय है. इस पर भी फिर कभी. > 17. हिंदी प्रकाषन, पाठक, लेखक की वास्तविक समस्याएं क्या हैं? उनका > समाजिक-सांस्कृतिक > कारण क्या है? ये गंभीर सवाल हैं, कृपया इनसे गंभीरता से ही मुखातिब हों, और > सच्चे हृदय से > उपजी वास्तविक चिंता के साथ, न कि हिसाब चुकाने की भावना से प्रेरित हो कर या > सस्ती > लोकप्रियता पाने के इरादे से. > > -आलोक श्रीवास्तव > मुंबई > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From shashikanthindi at gmail.com Sun May 2 11:19:54 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 2 May 2010 11:19:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= majdoor divas par Message-ID: सबसे बड़ी चिंता असंगठित मजदूर : मजदूर दिवस पर गुरुदास दासगुप्ता ने कहा आज देश में मजदूरों की हालत बहुत खराब है। कहीं तालाबंदी हो रही है तो कहीं मजदूरों की छंटनी। मजदूरों पर हमले हो रहे हैं। ट्रेड यूनियन के अधिकारों में कटौती की जा रही है। उन पर काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। उनसे दस से बारह घंटे काम लिया जा रहा है। कांट्रेक्ट लेबर के रूप में उनका शोषण किया जा रहा है। महिला मजदूरों की हालत और भी दयनीय है। कार्यस्थलों पर उन पर जुल्म किया जाता है। मेटरनिटी की सुविधाएं भी उन्हें नहीं मिलती। शारीरिक शोषण और अत्याचार किए जाते हैं सो अलग। यह सबकुछ आज के परिदृश्य में हम देख रहे हैं। ऐसा माहौल बन गया है कि पूंजीपति आज बिना किसी डर के मजदूरों का शोषण कर रहे हैं। मजदूरों से दिन-रात काम लेकर वे अधिक से अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। इतना ही नहीं, हिंदुस्तान में कम पैसे में लेबर मिलेगा और यहां मजदूरों के हित में बने कानूनों को लागू करने की कोई बाध्यता नहीं है, इसलिए विदेशी पूंजीपति धडल्ले से यहां आ रहे हैं। भारत में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों पर जितने हमले आज हो रहे हैं उतने पहले कभी नहीं हुए। लेकिन हमारे देश की सरकार पूंजीपतियों की इस हरकत पर लगाम लगाने के लिए कुछ नहीं कर रही है, उल्टा उनके लिए दरवाजा खोल रही है। श्रम मंत्रालय को मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए काम करना चाहिए लेकिन हमारे देश का श्रम मंत्रालय निकम्मा है, स्टेट और सेंटर दोनों जगह। असली चीज पर कोई ध्यान नहीं देता और असली चीज है इस देश का वर्किंग पोपुलेशन जो रोजी- रोटी के लिए कमरतोड़ मजदूरी कर रही है। वर्तमान सरकार उनके साथ अन्याय कर रही है। कुछ लोग अक्सर हमसे पूछते हैं कि वामपंथियों की मदद से केंद्र में पिछली सरकार चली। हमने मजदूरों के हित के लिए क्या किया? देखिए, 2004 में जो चुनाव हुआ उसके बाद यूपीए सरकार के गठन में हमने मदद की लेकिन हमने उस सरकार की जनविरोधी नीतियों का समर्थन नहीं किया। सरकार के गठन में मदद की एक वजह यह थी कि हम दोबारा चुनाव नहीं चाहते थे और दूसरी वजह थी कि हम भाजपा की सरकार नहीं बनने देना चाहते थे। उस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि ‘नरेगा’ यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना हमारे कारण आया। बाद में इन्होंने इसके साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया। हमने सरकार की निजीकरण की मांग को पूरा नहीं होने दिया। आदिवासियों की जमीन को सरकार को लेने से हमने रोका। लेकिन पूंजीपतियों की मदद के लिए सरकार जो ठोस कदम उठा रही थी उसे रोकने में हमें सफलता नहीं मिली। इन सबके अलावा हमने 10 मार्च 2007 को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हित के लिए दिल्ली में विशाल विरोध प्रदर्शन किया। इसके लिए हमने सभी ट्रेड यूनियन को मिलाकर एक मंच बनाया। बड़ी संख्या में मजदूर जेल गए। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की मुख्य मांग है उनके लिए सरकार नेशनल फंड बनाए। यह लड़ाई अभी चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, जबतक सरकार की ओर से इसका कोई समाधान नहीं निकल जाता। अभी तक इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है क्योंकि सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए कुछ नहीं करना चाहती। दरअसल यह सरकार मजदूर विरोधी है और पूंजीपतियों के हित में काम कर रही है। हिन्दुस्तान में 95 फीसद वर्कर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इनमें चालीस प्रतिशत महिलाएं हैं। उन महिलाओं को किसी तरह की कोई मेटरनिटी, मातृत्व की सुविधा नहीं मिलती। आज हमारी सबसे बड़ी चिंता उन्हीं को हक दिलाना है। हम इन मजदूरों को हक दिलाने के लिए पूरे देश में जोरदार आंदोलन करेंगे। फिलहाल हमारा लक्ष्य पूरे देश में एक दिन का हड़ताल करना है। संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत भी बहुत खराब है। सरकार उन पर नई-नई सेवाशर्तें लाद रही है। मजदूरों को कुचलने के लिए पूंजीपति लोग शर्तें दे रहे हैं। जिधर ताकत है उधर कर रहे हैं जिधर नहीं है उधर नहीं कर रहे हैं। पिछले साल जब बार-बार दिल्ली मेट्रो के लिए काम कर रहे मजदूरों की मौत हो रही थी तब मैंने ही इस मुद्दे को संसद में उठाया था। तब सरकार ने इसकी जांच करवाने का आ”वासन दिया था। महाराष्ट्र, असम, पंजाब आदि राज्यों में अक्सर प्रवासी मजदूरों पर हमले होते रहते हैं। यह बंद होना चाहिए। प्रवासी मजदूरों और स्थानीय घरेलू मजदूरों को मिलकर काम करना चाहिए। जब वे संगठित संगठित रूप से किया गया संघर्ष ही असली संघर्ष होता है और इसी तरीके से समस्या का समाधान निकलता है। घरेलू बाल मजदूरी कानून के लागू होने के बावजूद आज भी पूरे देश में गांव से शहर तक छोटे-छोटे बच्चे घरों, चाय की दुकानों, ढाबों आदि जगहों पर काम करने के लिए मजबूर हैं, यह हम-आप भी जानते हैं और सरकार भी जानती है। मेरा मानना है कि घरेलू बाल मजदूरी की समस्या गरीबी के साथ जुड़ी हुई है। जब तक देश से गरीबी नहीं मिटेगी तबतक घरेलू बाल मजदूरी की समस्या दूर नहीं होगी। लोग पश्चिम बंगाल और केरल में मजदूरों की दशा के बारे में अक्सर सवाल पूछते हैं। मेरा कहना है कि दोनों राज्य सरकारों ने मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कुछ कदम जरूर उठाए हैं। लेकिन केरल की तुलना में पश्चिम बंगाल सरकार के काम में अभी भी कुछ कमजोरी है। जहां तक केंद्र सरकार के कामकाज का सवाल है तो पूंजीवाद के इस दौर में यह सरकार पूंजीवादी स्टेट के रूप में काम कर रही है। मजदूरों, गरीबों, किसानों और आम आदमी का जीना आज मुश्किल हो गया है। सरकार की इस नीति के खिलाफ आज लड़ाई लड़ने की जरूरत है। आगामी 1 मई को मजदूर दिवस के दिन हम महंगाई के खिलाफ सरकार का विरोध करेंगे। *(लेखक सीपीआई के सीनियर लीडर हैं. शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. 1 मई 2010 के दैनिक भास्कर में प्रकाशित.) * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/56fbe19e/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Sun May 2 13:26:52 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 2 May 2010 13:26:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MSDgpK7gpIgg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOCkteCkvuCksg==?= Message-ID: हमारे प्रिय मित्र सतीश कुमार सिंह आजकल अटलांटा, अमेरिका की सैर कर रहे हैं. अभी-अभी उन्होंने मुझे यह पोस्ट भेजा है, दीवान के साथियों के लिए. एक बार पढ़कर तो देखें! *1 मई के सवाल* आज एक मई है. मैं अभी अमेरिका के खूबसूरत शहरों में से एक अटलांटा से यह पोस्ट लिख रहा हूँ. वही अटलांटा जहाँ मार्टिन लूथर किंग की समाधी है, जिन्होंने अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी थी, और जहाँ 1996 में ओलम्पिक खेल हुआ था. दुनिया के सबसे अमीर और सबसे पुराने लोकतान्त्रिक देश में मजदूर दिवस मनाने की कहीं कोई आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी. क्या अमेरिका के सारे मजदूर धनी हैं? क्या उन्हें वहां के सारे नागरिक अधिकार हासिल हैं? दुनिया के सभी मजदूरों के एक होने के स्वप्न का नारा क्रेमलिन के चौक पर भी सुनायी नहीं दिया. एकाएक ऐसा क्यों हो गया की मजदूरों की आवाज़ इस दुनियां में दम तोड़ती जा रही है. जबकि हकीक़त है की आज भी इस दुनियां में सबसे अधिक आबादी कामगारों की ही है. जनतंत्र के अपने मायनों के बीच अगर सबसे अधिक आबादी की आवाज़ गुम हो गयी है तो इसमे किसका दोष है? खुद कामगारों का या उनको इशारों पे नचाने वाले उन लोंगो का, जिनके लिए वे तिनके के बराबर भी हैसियत नही रखते. सवाल ये है कि दुनियां की सबसे बड़ी आबादी आज भी ये क्यों नही समझ पाती है कि उनकी अपनी नासमझी की वजह क्या है? कार्ल मार्क्स के इतने समय बीतने के बाद भी यदि मजदूरों की बात करने वाले संगठन अपनी हैसियत राजनीति में नहीं बना पाते है तो उनके संगठन के मूल मंत्र में जरुर कोई खामी है. मूल सूत्र के अभाव में कोई रास्ता तय नहीं हो सकता. वह सूत्र मजदूरों के अपने बीच से आएगा, प्रयोगशाला में बैठकर इसकी चिंता नहीं कि जा सकती है. जैसे प्यास लगने पे पानी के पास हम खुद ही जाते है, वैसे ही कामगारों को कोई दूसरा मंत्र नहीं देगा, उन्हें अपने लिए, अपने आपसे उस मंत्र को ढूढना होगा. पर ये भी सही है कि अमेरिका में बैठ कर मजदूरों और गरीबों कि चिंता नही कि जा सकती है, ये चिंता भी उतनी ही भोथरी है, जितना ये सोचना कि विश्व बैंक सचमुच में दुनिया से गरीबी को हटाना चाहता है. आधार वाक्य ही जब सही नहीं रहेगा तो निष्कर्ष कहाँ से सही होगा? इसलिए ये कहना लाज़मी है कि हमे प्यास बुझाने के लिए अपना कुआं खोदना ही पड़ेगा. विश्व बैंक की सोच को उधार लेकर जो तरक्की का रास्ता भारत में बताया जा रहा है और उसे इंद्र से मिला हुआ वरदान माना जा रहा है, उसकी पूरी स्थिति को छिपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है. भारत को अपने पैरों पे खड़ा होने के लिए, गरीबी को हटाने के लिए उसके अपने मर्म को समझना होगा. उधार के सिद्धांतो से कोई देश अमीर नहीं बनता. सतीश कुमार सिंह, 946, reed road, smyrna, atlanta, USA -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/425aaaa9/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun May 2 23:05:52 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 2 May 2010 23:05:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSw4KWB?= =?utf-8?b?4KSq4KSu4KS+IOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSo4KWN4KSv4KS+4KSv?= Message-ID: निरुपमा के लिए न्याय पिटीशन पर दस्तखत करें। निरुपमा की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि वह अपनी मर्जी से शादी करना चाहती थी। वर्णव्यवस्था के पुजारियों ने इस अपराध के लिए उसे मौत की सजा दे डाली। पिटीशन पर क्लिक करें। http://www.petitiononline.com/n1i2r3u4/petition.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/27e01d5d/attachment.html From sss0045 at gmail.com Sun May 2 23:28:56 2010 From: sss0045 at gmail.com (shyam s. sharma) Date: Sun, 2 May 2010 23:28:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= A management lesson Message-ID: Dear An episode I remember and would love to share. Best. S S Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/97de1b06/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: new.docx Type: application/vnd.openxmlformats-officedocument.wordprocessingml.document Size: 15098 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/97de1b06/attachment-0001.bin From pheeta.ram at gmail.com Sun May 2 23:42:53 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Sun, 2 May 2010 23:42:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSw4KWB?= =?utf-8?b?4KSq4KSu4KS+IOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSo4KWN4KSv4KS+4KSv?= In-Reply-To: References: Message-ID: Its an existential problem. Those who would like to respond please reply. Do such petitions really work? I believe, gut reaction though, they don't. If they do please tell me how? Else, pls don't bother to clog the mailing list with such useless petitions who only buttress the egos of tipsy elites in their five star bars. Awaiting a befitting reply. Pls don't let my nightmares come true and my convictions become stronger than ever. Pheeta 2010/5/2 vineet kumar > निरुपमा के लिए न्याय पिटीशन पर दस्तखत करें। निरुपमा की हत्या इसलिए कर दी गई > क्योंकि वह अपनी मर्जी से शादी करना चाहती थी। वर्णव्यवस्था के पुजारियों ने इस > अपराध के लिए उसे मौत की सजा दे डाली। पिटीशन पर क्लिक करें। > http://www.petitiononline.com/n1i2r3u4/petition.html > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100502/27ceaeff/attachment.html From pheeta.ram at gmail.com Mon May 3 00:06:33 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Mon, 3 May 2010 00:06:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MSDgpK7gpIgg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOCkteCkvuCksg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: dear satish, post ke liyae dhanyavaad! gmail kee hindi kae liyae ruk nahin saka, aasha hai ki diwan kae saathi gustaakhi muaaf karengae. Aaj galti sae ice-cream khaane ki tamanna hui. Ice-cream waale saathi sae guftgu hui; baat karnae par pata chala saathi 5000 Rs mahinaa kamaate hain aur bahut khush hai. Aisee zagah rehtae hain jahaan par paani 24 ghante aata hai aur naukri bhi 10 ghante hi karnee partee hai. Bihaar ghar paise bhejne ki itni suvidha hai ki Joint Account banaayaa huaa hai. Money Order karnae ki zaroorat nahin padti. Pucha bhiar main mahina kitna kamaa lete thae? 1000 rupae! Zabaab aayaa. Pucha kuch aur paanae ki tamanna hai. Bola: yeh to sahib swarga hai? Pucha sapnae dekhtae ho? Dekhtae the? Ab nahin, sab purae ho gayae. Main apna muh saa banaa kae laut aayaa. 2010/5/2 shashi kant > हमारे प्रिय मित्र सतीश कुमार सिंह आजकल अटलांटा, अमेरिका की सैर कर रहे हैं. > अभी-अभी उन्होंने मुझे यह पोस्ट भेजा है, दीवान के साथियों के लिए. एक बार > पढ़कर तो देखें! > *1 मई के सवाल* > आज एक मई है. मैं अभी अमेरिका के खूबसूरत शहरों में से एक अटलांटा से यह > पोस्ट लिख रहा हूँ. वही अटलांटा जहाँ मार्टिन लूथर किंग की समाधी है, > जिन्होंने अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी थी, और जहाँ 1996 में ओलम्पिक > खेल हुआ था. दुनिया के सबसे अमीर और सबसे पुराने लोकतान्त्रिक देश में मजदूर > दिवस मनाने की कहीं कोई आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी. क्या अमेरिका के सारे मजदूर धनी > हैं? क्या उन्हें वहां के सारे नागरिक अधिकार हासिल हैं? दुनिया के सभी > मजदूरों के एक होने के स्वप्न का नारा क्रेमलिन के चौक पर भी सुनायी नहीं > दिया. एकाएक ऐसा क्यों हो गया की मजदूरों की आवाज़ इस दुनियां में दम तोड़ती > जा रही है. जबकि हकीक़त है की आज भी इस दुनियां में सबसे अधिक आबादी कामगारों > की ही है. > > जनतंत्र के अपने मायनों के बीच अगर सबसे अधिक आबादी की आवाज़ गुम हो गयी है तो > इसमे किसका दोष है? खुद कामगारों का या उनको इशारों पे नचाने वाले उन लोंगो > का, जिनके लिए वे तिनके के बराबर भी हैसियत नही रखते. सवाल ये है कि दुनियां की > सबसे बड़ी आबादी आज भी ये क्यों नही समझ पाती है कि उनकी अपनी नासमझी की वजह > क्या है? > > कार्ल मार्क्स के इतने समय बीतने के बाद भी यदि मजदूरों की बात करने वाले > संगठन अपनी हैसियत राजनीति में नहीं बना पाते है तो उनके संगठन के मूल मंत्र > में जरुर कोई खामी है. मूल सूत्र के अभाव में कोई रास्ता तय नहीं हो सकता. वह > सूत्र मजदूरों के अपने बीच से आएगा, प्रयोगशाला में बैठकर इसकी चिंता नहीं कि > जा सकती है. जैसे प्यास लगने पे पानी के पास हम खुद ही जाते है, वैसे ही > कामगारों को कोई दूसरा मंत्र नहीं देगा, उन्हें अपने लिए, अपने आपसे उस मंत्र > को ढूढना होगा. > > पर ये भी सही है कि अमेरिका में बैठ कर मजदूरों और गरीबों कि चिंता नही कि जा > सकती है, ये चिंता भी उतनी ही भोथरी है, जितना ये सोचना कि विश्व बैंक सचमुच > में दुनिया से गरीबी को हटाना चाहता है. आधार वाक्य ही जब सही नहीं रहेगा तो > निष्कर्ष कहाँ से सही होगा? इसलिए ये कहना लाज़मी है कि हमे प्यास बुझाने के > लिए अपना कुआं खोदना ही पड़ेगा. > > विश्व बैंक की सोच को उधार लेकर जो तरक्की का रास्ता भारत में बताया जा रहा है > और उसे इंद्र से मिला हुआ वरदान माना जा रहा है, उसकी पूरी स्थिति को छिपाने > में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है. भारत को अपने पैरों पे खड़ा होने के > लिए, गरीबी को हटाने के लिए उसके अपने मर्म को समझना होगा. उधार के सिद्धांतो > से कोई देश अमीर नहीं बनता. > > सतीश कुमार सिंह, 946, reed road, smyrna, atlanta, USA > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100503/27db2b88/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon May 3 10:49:07 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 3 May 2010 10:49:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCksOClh+CkoeCkv+Ckr+CliyDgpKzgpJrgpL7gpJMg4KSF4KSt4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSoIOCktuClgeCksOClgQ==?= Message-ID: आकाशवाणी के कबाड़खाने की शक्ल में बदलते जाने और एफ.एम.गोल्ड 106.4 में भारी गड़बड़ियों के खिलाफ रेडियो प्रजेन्टरों ने अपनी मुहिम तेज कर दी है। अगर उनकी बातों को समय रहते नहीं सुना गया तो वो देशभर में संबंधित जिम्मेदार अधिकारियों के विरोध में अभियान शुरु करेंगे। रेडियों प्रजेन्टरों ने आज,3 मई को प्रेस रिलीज जारी कर साफ कर दिया है कि अब वो आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं।..और इस काम को अंजाम देने के लिए न केवल रेडियो से जुड़े लोगों को शामि करेंगे बल्कि इस संघर्ष में देश के हर उस शख्स को शामिल करेंगे जो कि रेडियो को समाज का एक अनिवार्य माध्यम मानता है। हमने इससे ठीक पहले की पोस्ट में विस्तार से बताया है कि आकाशवाणी के भीतर किस स्तर की घपलेबाजी है और वहां के लोगों का करीब सालभर से कोई भुगतान नहीं किया गया है। ऐसा होने के पीछे कोई आर्थिक मजबूरी होने के बजाय चंद लोगों की मनमानी है। यहां हम रेडियो प्रजेन्टरों की ओर से जारी प्रेस रिलीज को आपके सामने रख रहें। आपने भी अपनी जिंदगी के खूबसूरत लम्हें,तकलीफों के दिन,अकेलेपन से भरी शाम रेडियो के साथ बिताए हैं। ऐसे कई मौके पर जब जमाने ने आपका साथ छोड़ दिया तो इस रेडियो ने आपका साथ दिया। आज यही रेडियो लाचार है,इसे हमारी-आपकी जरुरत है। इसलिए जरुरी है कि हम अपने स्तर से लिखकर,चर्चा करके,हस्ताक्षर अभियान चलाकर आकाशवाणी के भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति असहमति दर्ज कराएं। अपना रेडियो बचाओ अभियान के स्वर को मजबूती दें- रेडियो प्रजेन्टरों की ओर से जारी प्रेस रिलीजः- नई दिल्ली । 3 मई २०१० । एफ एम सहित आकाशवाणी दिल्ली के विभिन्न चैनलों में काम करने वाले सैकड़ों उदघोषकों और कर्मियों में अधिकतर कलाकारों को पिछले ग्यारह महीनों से भुगतान नहीं किया गया है। कुछ तो ऐसे भी हैं जिन्हें इससे भी अधिक समय से पैसे नहीं मिले हैं।अपना रेडियो बचाओं अभियान का मानना है कि रेडियो के निजी चैनलों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से आकाशवाणी की स्थिति बदत्तर बनाई जा रही है। राजधानी में अपना रेडियो बचाओं अभियान में लगे श्रोताओं, कलाकारों व समाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि रेडियो की भी वैसी ही स्थिति बनाई जा रही है जैसा कि टेलीविजन के निजी चैनलों के लिए जगह बनाने के लिए वर्षों पूर्व दूरदर्शन की बनाई गई थी। निजी चैनलों के शुरू होने से पहले मैट्रों चैनल को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाने की कोशिश की गई। उसके जरिये दर्शकों की रूचि को मसलन भाषा और विषय वस्तु आदि हर स्तर पर बदलने की पूरी कोशिश शुरू की गई। दूरदर्शन के कर्मचारियों की भी शिकायतें उन दिनों काफी बढ़ रही थी और उन पर ध्यान देने की जरूरत सरकार महसूस नहीं कर रही थी। इन दिनों रेडियों के पर्याय के रूप में एफएम चैनलों को जाना जाता है। खासतौर से मनोरंजन के लिए श्रोताओं की बड़ी तादाद एफ एम चैनलों के कार्यक्रमों को सुनती है। लेकिन आकाशवाणी के एम एम चैनलों की जो स्थिति है उसे देखकर आश्चर्य ही नहीं होता है बल्कि ये एक भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रेडियों के निजी चैनलों के विस्तार के लिए आकाशवाणी के आला अधिकारी काम कर रहे हैं। याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि टेलीविजन के निजी चैनलों की शुरूआत में दूरदर्शन को छोड़कर उसके कई बड़े अधिकारी निजी चैनलों की सेवा में उंची तनख्वाह पर चले गए थे। एक तरफ तो रेडियो का तेजी से विस्तार हो रहा है और दूसरी तरफ आकाशवाणी पर वर्षों से नई नियुक्तियां नहीं हुईं हैं और यहाँ प्रोग्राम प्रजेंटेशन का काम आकस्मिक प्रस्तोता ही करते हैं। काम के घंटे अधिक और पारिश्रमिक कम, इस पर भी भुगतान में वर्ष भर की देरी । जबकि संसद की एक समिति ने आकाशवाणी में अस्थायी कलाकारों की बदतर स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए उनकी स्थायी नियुक्तियां करने की सिफारिश की थी। रेडियो के सबसे लोकप्रिय एम एफ चैनलों के लिए काम करने वाले कलाकारों ने दो महीने के दौरान सम्बंधित उच्चाधिकारियों से मिलकर इन स्थितियों से अवगत कराया है लेकिन स्थितियां जस की तस हैं । "अपना रेडियो बचाओ " मंच के तत्वावधान में लगभग बीस सक्रिय प्रज़ेन्टरों का एक प्रतिनिधिमंडल आकाशवाणी महानिदेशक को पहले १७ फरवरी और फिर २६ अप्रेल २०१० को ज्ञापन दे चुका है । इस ज्ञापन में कार्यक्रमों के गिरते स्तर, भुगतान में अभूतपूर्व विलम्ब के और ध्यान दिलाया गया है और एफ़ एम गोल्ड चैनेल में चल रही गडबडियों के लिए एफ़ एम गोल्ड चैनल की कार्यक्रम अधिशासी MrsMmmmmmmmm Mrs. Ritu Rajput को जिम्मेवार बताया गया है। लम्बे समय तक यह चैनल देश के सर्वाधिक लोकप्रिय चैनेल्स में रहा है और इसके सूझबूझ से भरे मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम व्यापक जनहित का काम करते रहे हैं और श्रोताओं का जीवन प्रकाशित करते रहे हैं. अपना रेडियो बचाओ मंच इस सन्दर्भ में सूचना और प्रसारण मंत्रालय से तत्काल हस्तक्षेप की मांग करता है और तुरंत भुगतान कर के कैजुअल प्रज़ेन्टरों के नियमितीकरण की प्रक्रिया आरम्भ करने की भी मांग करता है। साथ ही संसदीय समिति की सिफारिशों के आलोक में तत्काल कदम उठाने का आग्रह करता है। इस मंच के सदस्यों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि आकाशवाणी को बर्बाद करने की जो साजिश चल रही है उसका पर्दापाश करने के लिए मंच राजधानी और देश के दूसरे शहरों में अभियान चलाएगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100503/b9542343/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon May 3 17:33:35 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 3 May 2010 17:33:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClh+CkgiDgpIXgpKrgpLDgpL7gpKcg4KSV4KS+IOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KSk4KS+IOCkuOCkruCkvuCknOCktuCkvuCkuOCljeCkpA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw?= Message-ID: शहरों में अपराध का बदलता समाजशास्त्र *कभी मार्क्स का अपराधों पर लिखा वह दिलचस्प अंशभी हाशिया पर पेश किया जाएगा, जिसमें वे अपराध के राजनीतिक अर्थशास्त्र की खबर लेते (देते) हैं. दिलीप मंडल का यह लेख पढ़ते हुए महसूस होता है कि समाज के सभ्य होते जाने के जितने और जैसे दावे किए जा रहे हैं, अहिंसा और शांति के जितने कबूतर उड़ाए जा रहे हैं ( और उसी अनुपात में देश के दूर-दराज के इलाकों में जनता पर जितना कीचड़ उछाला जा रहा है) वह कितना क्रूर घोटाला है. कुछ साल पहले भाई प्रमोद रंजन ने भी एसा ही एक लेख लिखा था.* *नए *अपराधी आपके परिचित हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं, आपके विश्वसनीय हैं, सफेदपोश हैं और कई बार काफी पढ़े-लिखे हैं। ये कोई भी हो सकते हैं। ये नए अपराधी मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे की उपज हैं। किसी पड़ोसी या रिश्तेदार या दोस्त की नौकरी छिन जाए यो वह किसी तरह के आर्थिक संकट में हो तो क्या उससे सहानुभूति रखने की जगह उससे डरना चाहिए? दिल्ली पुलिस ने फिरौती के लिए हुए अपहरण की घटनाओं के बारे में जो जानकारियां दी हैं, उसके बाद तो ऐसा ही लगता है कि मानवीय रिश्तों की कुछ नई परिभाषाएं जोड़ने-गढ़ने और कुछ नए मानदंड बनाने का समय आ गया है। ऐसा लगता है कि रिश्तों की पवित्रता को लेकर पुरानी अवधारणाएं बदलते समय की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही हैं। विकास के वर्तमान मॉडल ने कई चीजों को खंडित किया है। मानवीय रिश्ते उनमें से एक हैं। दिल्ली पुलिस ने बताया है कि शहर में फिरौती के लिए हुई अपहरण की घटनाओं में 2009 में एक साल पहले यानी 2008 के मुकाबले डेढ़ गुना बढ़ोतरी हुई है। हालांकि पुलिस भी मानती है कि फिरौती के लिए अपहरण के काफी मामले पुलिस में दर्ज नहीं होते क्योंकि पीड़ित के परिवार वालों को लगता है कि ऐसा करने से अपह्रत की जान को खतरा बढ़ सकता है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि फिरौती के लिए अपहरण के जो मामले दर्ज हुए उनमें से एक को छोड़कर हर घटना में शामिल लोगों में कम से कम एक आदमी ऐसा जरूर था, जो पीड़ित यानी अपहृत का परिचित था। साथ ही अपहरण की घटनाओं में ऐसे लोगों का शामिल होना बढ़ा है जो पढ़े लिखे हैं और जिनका पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने आनन-फानन में पैसे कमाने के लिए अपने ही किसी परिचित या रिश्तेदार का अपहरण किया। दिल्ली पुलिस ने आंकड़ा दिया है कि 2009-2010 में फिरौती के लिए अपहरण की 33 वारदातें दर्ज हुईं, इनमें से 32 मामलों में कोई न कोई रिश्तेदार या दोस्त शामिल पाया गया।। इन वारदातों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए 73 लोगों में से ज्यादातर युवा थे और उनमें से कई ने अपराध के लिए प्रेरणा फिल्मों से ली। इनमें से कई लोग ऐसे भी हैं, जिनकी आर्थिक दशा आर्थिक मंदी की वजह से ठीक नहीं थी। फिरौती के लिए अपहरण के मामलों में एक और तथ्य ऐसा है जो अपराध का ट्रेंड बताने के साथ ही भारतीय समाज पर भी टिप्पणी है। पुलिस के मुताबिक दिल्ली में अपहरण के जो मामले दर्ज हुए उनमें से सभी में पीड़ित की उम्र 4 से 21 साल के बीच थी और ये सभी लड़के थे। यानी दिल्ली में किसी भी लड़की का फिरौती के लिए अपहरण नहीं किया गया। अपराधी भी दरअसल जानते हैं कि लड़की की तुलना में लड़के की कीमत परिवार वाले बेहतर ढंग से अदा करेंगे। परिवारों में लड़की और लड़के के बीच बरते जाने वाले भेदभाव को ये अपराधी भी जानते-समझते हैं। लड़का-लड़की एक समान के नारों के शोर बीच उच्च और मध्यवर्गीय परिवारों का ये एक और सच है। फिरौती के लिए अपहरण अकेला शहरी अपराध नहीं है, जिसमें शामिल होने वालों में परिचितों की बहुलता होती है। दरअसल घरों में लूट और चोरी की वारदात में भी पुलिस की शक की सुई सबसे पहले घरों में काम करने वालों और घर में आने जाने वालों पर होती है। पुलिस तफ्तीश की शुरुआत भी कई बार यहीं से शुरू होती है। घरेलू नौकर ऐसे अपराधों में सबसे पहले संदेह के दायरे में आते हैं। इसी सोच के तहत महानगरों में पुलिस इस बात पर काफी जोर देती है कि बिना पुलिस जांच कराए घर में कोई नौकर न रखें। घरों में आने वाले फेरी वाले, कामवाली बाई, ड्राइवर, इस्तरी वाले, भिखारी, कबाड़ वाले ये सब ऐसे लोग हैं जो चोरी और लूटपाट के बाद पुलिस की जांच के दायरे में सबसे पहले आते हैं। शहरी अपराध की सामाजिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए जरूरी है कि अपने समाज को समझा जाए और उसके बदलते रुझानों की समीक्षा की है। समानता और समाजवाद जैसे आदर्शों को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने के बावजूद ये सच है कि भारतीय समाज में असमानता बहुत ज्यादा है। शिखर पर मौजूद दस फीसदी लोगों के पास धन और समृद्धि का अपार संचय है तो नीचे के 10 फीसदी के हिस्से अतिशय गरीबी है। देश की एक तिहाई से ज्यादा आबादी की प्रतिदिन औसत आमदनी 20 रुपए से कम होना सिर्फ अर्थशास्त्रीय आंकड़ा भर नहीं है। इसका असर समाज पर चौतरफा होता है। देश की आबादी के बड़े हिस्से को इस असमानता का एहसास हो जाए तो ये बात सामाजिक असंतोष को बढ़ाती है। टेलीविजन से लेकर मोबाइल फोन तक के तूफानी रफ्तार से हुए विस्तार की वजह से अब सूचनाओं का प्रसार लगभग अबाध हो गया है। इलीट की जिंदगी, जो कभी उंची दीवारों के अंदर रहती है, और जिसे लेकर एक रहस्यलोक सा बना होता था, उसका भेद टीवी सीरियलों ने करोड़ों लोगों तक पहुंचा दिया है। वो वक्त भी बदल गया है जब समृद्ध लोगों में धन के प्रदर्शन की प्रवृत्ति नहीं थी या कम थी। अब धन का खुलेआम और अश्लीलता की हद तक प्रदर्शन आम है। ये सारी चीजें समाज के एक हिस्से में असंतोष को बढ़ा रही हैं। अमीरी एक ऐसी फैंटसी है, एक ऐसी मरीचिका है, जिसे हासिल करने के लिए लोग रात-दिन खट रहे हैं, फटाफट अमीर बनने के तरीके ढूंढ रहे हैं, पैसे बचा रहे हैं, मासिक किश्तों पर निर्भर हो रहे हों और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसी फैंटसी के पीछे भागते हुए अपराध की अंधी सुरंग में जाकर फंस रहे हैं। समाज के लिए ये नए तरह का खतरा है। पुलिस के लिए अपराध पर काबू पाना तब आसान होता है जब अपराधी जाना पहचाना हो, वो किसी गिरोह के सदस्य हों, अपराध का जाना-पहचाना सा तंत्र हो। लेकिन जब कोई आदमी पहली बार अपराध करे तो उसे अपराध करने से रोकना पुलिस के लिए बेहद मुश्किल होता है। नए अपराधी आपके परिचित हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं, आपके विश्वसनीय हैं, सफेदपोश हैं और कई बार काफी पढ़े-लिखे हैं। ये कोई भी हो सकते हैं। ये नए अपराधी मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे की उपज हैं। इस ढांचे को बदले बगैर ऐसे लोगों को अपराध करने से कैसे रोका जाए, ये सरकार और सत्ता के लिए एक बड़ी चुनौती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100503/4e57ab7b/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon May 3 17:39:17 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 3 May 2010 17:39:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSc4KSm4KWC?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KSCIOCkleCkviDgpKzgpILgpKfgpYHgpIYg4KSs4KSo4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYguLi4=?= Message-ID: हाशिया बीच सफ़हे की लड़ाई - पी साईनाथ - नक्सलवाद - कविताएं - बहस-मुबाहिसे - राम की अयोध्या - सवाल-दर-सवाल शहरों में अपराध का बदलता समाजशास्त्र Posted by Reyaz-ul-haque on 5/03/2010 05:27:00 PM *कभी मार्क्स का अपराधों पर लिखा वह दिलचस्प अंशभी हाशिया पर पेश किया जाएगा, जिसमें वे अपराध के राजनीतिक अर्थशास्त्र की खबर लेते (देते) हैं. दिलीप मंडल का यह लेख पढ़ते हुए महसूस होता है कि समाज के सभ्य होते जाने के जितने और जैसे दावे किए जा रहे हैं, अहिंसा और शांति के जितने कबूतर उड़ाए जा रहे हैं ( और उसी अनुपात में देश के दूर-दराज के इलाकों में जनता पर जितना कीचड़ उछाला जा रहा है) वह कितना क्रूर घोटाला है. कुछ साल पहले भाई प्रमोद रंजन ने भी एसा ही एक लेख लिखा था.* *नए *अपराधी आपके परिचित हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं, आपके विश्वसनीय हैं, सफेदपोश हैं और कई बार काफी पढ़े-लिखे हैं। ये कोई भी हो सकते हैं। ये नए अपराधी मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे की उपज हैं। किसी पड़ोसी या रिश्तेदार या दोस्त की नौकरी छिन जाए यो वह किसी तरह के आर्थिक संकट में हो तो क्या उससे सहानुभूति रखने की जगह उससे डरना चाहिए? दिल्ली पुलिस ने फिरौती के लिए हुए अपहरण की घटनाओं के बारे में जो जानकारियां दी हैं, उसके बाद तो ऐसा ही लगता है कि मानवीय रिश्तों की कुछ नई परिभाषाएं जोड़ने-गढ़ने और कुछ नए मानदंड बनाने का समय आ गया है। ऐसा लगता है कि रिश्तों की पवित्रता को लेकर पुरानी अवधारणाएं बदलते समय की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही हैं। विकास के वर्तमान मॉडल ने कई चीजों को खंडित किया है। मानवीय रिश्ते उनमें से एक हैं। दिल्ली पुलिस ने बताया है कि शहर में फिरौती के लिए हुई अपहरण की घटनाओं में 2009 में एक साल पहले यानी 2008 के मुकाबले डेढ़ गुना बढ़ोतरी हुई है। हालांकि पुलिस भी मानती है कि फिरौती के लिए अपहरण के काफी मामले पुलिस में दर्ज नहीं होते क्योंकि पीड़ित के परिवार वालों को लगता है कि ऐसा करने से अपह्रत की जान को खतरा बढ़ सकता है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि फिरौती के लिए अपहरण के जो मामले दर्ज हुए उनमें से एक को छोड़कर हर घटना में शामिल लोगों में कम से कम एक आदमी ऐसा जरूर था, जो पीड़ित यानी अपहृत का परिचित था। साथ ही अपहरण की घटनाओं में ऐसे लोगों का शामिल होना बढ़ा है जो पढ़े लिखे हैं और जिनका पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने आनन-फानन में पैसे कमाने के लिए अपने ही किसी परिचित या रिश्तेदार का अपहरण किया। दिल्ली पुलिस ने आंकड़ा दिया है कि 2009-2010 में फिरौती के लिए अपहरण की 33 वारदातें दर्ज हुईं, इनमें से 32 मामलों में कोई न कोई रिश्तेदार या दोस्त शामिल पाया गया।। इन वारदातों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए 73 लोगों में से ज्यादातर युवा थे और उनमें से कई ने अपराध के लिए प्रेरणा फिल्मों से ली। इनमें से कई लोग ऐसे भी हैं, जिनकी आर्थिक दशा आर्थिक मंदी की वजह से ठीक नहीं थी। फिरौती के लिए अपहरण के मामलों में एक और तथ्य ऐसा है जो अपराध का ट्रेंड बताने के साथ ही भारतीय समाज पर भी टिप्पणी है। पुलिस के मुताबिक दिल्ली में अपहरण के जो मामले दर्ज हुए उनमें से सभी में पीड़ित की उम्र 4 से 21 साल के बीच थी और ये सभी लड़के थे। यानी दिल्ली में किसी भी लड़की का फिरौती के लिए अपहरण नहीं किया गया। अपराधी भी दरअसल जानते हैं कि लड़की की तुलना में लड़के की कीमत परिवार वाले बेहतर ढंग से अदा करेंगे। परिवारों में लड़की और लड़के के बीच बरते जाने वाले भेदभाव को ये अपराधी भी जानते-समझते हैं। लड़का-लड़की एक समान के नारों के शोर बीच उच्च और मध्यवर्गीय परिवारों का ये एक और सच है। फिरौती के लिए अपहरण अकेला शहरी अपराध नहीं है, जिसमें शामिल होने वालों में परिचितों की बहुलता होती है। दरअसल घरों में लूट और चोरी की वारदात में भी पुलिस की शक की सुई सबसे पहले घरों में काम करने वालों और घर में आने जाने वालों पर होती है। पुलिस तफ्तीश की शुरुआत भी कई बार यहीं से शुरू होती है। घरेलू नौकर ऐसे अपराधों में सबसे पहले संदेह के दायरे में आते हैं। इसी सोच के तहत महानगरों में पुलिस इस बात पर काफी जोर देती है कि बिना पुलिस जांच कराए घर में कोई नौकर न रखें। घरों में आने वाले फेरी वाले, कामवाली बाई, ड्राइवर, इस्तरी वाले, भिखारी, कबाड़ वाले ये सब ऐसे लोग हैं जो चोरी और लूटपाट के बाद पुलिस की जांच के दायरे में सबसे पहले आते हैं। शहरी अपराध की सामाजिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए जरूरी है कि अपने समाज को समझा जाए और उसके बदलते रुझानों की समीक्षा की है। समानता और समाजवाद जैसे आदर्शों को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने के बावजूद ये सच है कि भारतीय समाज में असमानता बहुत ज्यादा है। शिखर पर मौजूद दस फीसदी लोगों के पास धन और समृद्धि का अपार संचय है तो नीचे के 10 फीसदी के हिस्से अतिशय गरीबी है। देश की एक तिहाई से ज्यादा आबादी की प्रतिदिन औसत आमदनी 20 रुपए से कम होना सिर्फ अर्थशास्त्रीय आंकड़ा भर नहीं है। इसका असर समाज पर चौतरफा होता है। देश की आबादी के बड़े हिस्से को इस असमानता का एहसास हो जाए तो ये बात सामाजिक असंतोष को बढ़ाती है। टेलीविजन से लेकर मोबाइल फोन तक के तूफानी रफ्तार से हुए विस्तार की वजह से अब सूचनाओं का प्रसार लगभग अबाध हो गया है। इलीट की जिंदगी, जो कभी उंची दीवारों के अंदर रहती है, और जिसे लेकर एक रहस्यलोक सा बना होता था, उसका भेद टीवी सीरियलों ने करोड़ों लोगों तक पहुंचा दिया है। वो वक्त भी बदल गया है जब समृद्ध लोगों में धन के प्रदर्शन की प्रवृत्ति नहीं थी या कम थी। अब धन का खुलेआम और अश्लीलता की हद तक प्रदर्शन आम है। ये सारी चीजें समाज के एक हिस्से में असंतोष को बढ़ा रही हैं। अमीरी एक ऐसी फैंटसी है, एक ऐसी मरीचिका है, जिसे हासिल करने के लिए लोग रात-दिन खट रहे हैं, फटाफट अमीर बनने के तरीके ढूंढ रहे हैं, पैसे बचा रहे हैं, मासिक किश्तों पर निर्भर हो रहे हों और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसी फैंटसी के पीछे भागते हुए अपराध की अंधी सुरंग में जाकर फंस रहे हैं। समाज के लिए ये नए तरह का खतरा है। पुलिस के लिए अपराध पर काबू पाना तब आसान होता है जब अपराधी जाना पहचाना हो, वो किसी गिरोह के सदस्य हों, अपराध का जाना-पहचाना सा तंत्र हो। लेकिन जब कोई आदमी पहली बार अपराध करे तो उसे अपराध करने से रोकना पुलिस के लिए बेहद मुश्किल होता है। नए अपराधी आपके परिचित हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं, आपके विश्वसनीय हैं, सफेदपोश हैं और कई बार काफी पढ़े-लिखे हैं। ये कोई भी हो सकते हैं। ये नए अपराधी मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे की उपज हैं। इस ढांचे को बदले बगैर ऐसे लोगों को अपराध करने से कैसे रोका जाए, ये सरकार और सत्ता के लिए एक बड़ी चुनौती है। No Comment [image: comment] | Posted in » अपराध, आओ बहसियाएं You might also like: ...क्योंकि वह अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं है एक दमनकारी होते राज्य में जनता का प्रतिरोध और साहित्य की ... किसे इडियट बना रहे हैं आमिर खान! अमेरिकी बम और फरीदकोट के बच्चों की विकलांगता *LinkWithin* मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है... *देवाशीष प्रसून का यह लेख कल के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था. विकास और सामाजिक उन्नति के बेशर्म और झूठे दावों के बीच जमीन पर वास्तविक हालत क्या है, इसे प्रसून ने दिखाने की कोशिश की है.* *अगर* भारत सरकार या देश के किसी भी राज्य सरकार से पूछा जाये कि क्या अब भी हमारे देश में मजदूरों को बंधुआ बनाया जा रहा है, तो शायद एक-टूक जबाव मिले - नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकारे अपने श्रम-मंत्रालयों के वार्षिक रपटों के जरिए हमेशा ऐसा ही कहती हैं। सन 1975 से देश में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन का कानून लागू है। इस कानून के लागू होने के बाद से सरकारों ने अपने सतत प्रयासों के जरिए बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका है, सरकारी सूत्रों से बस इस तरह के दावे ही किए जाते हैं। हालाँकि, हकीकत इसके बरअक्स कुछ और ही है। *पूरा पढ़िएः मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है... * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100503/8c9921dd/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed May 5 09:33:46 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 5 May 2010 09:33:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkquCksCDgpJzgpY3gpJ7gpL7gpKjgpYvgpKbgpK8g4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClieCksuCkrg==?= Message-ID: दीवान के साथियों नया ज्ञानोदय पत्रिका ने 'ब्लॉग के बहाने' नाम से मेरा नियमित कॉलम शुरु किया है। पहला आलेख मई अंके में- ब्लॉगिंग,जो हिन्दी विभाग की पैदाइश नहीं है,नाम से प्रकाशित है। आपने मुझे लगातार पढ़ा है। खासकर ब्लॉग पर मेरी समय-समय प्रतिक्रिया भी जानते आए हैं। आप इस कॉलम को पढ़े और हमसे साझा करें कि ब्लॉगिंग को विमर्श में शामिल करने के लिए और किस तरह के प्रयास होने चाहिए। विनीत ब्लॉगिंग जो हिंदी विभाग की पैदाइश नहीं है ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी। आपमें से जो कोई भी रवीश कुमार के ‘कस्बा’ की मोबाइल पत्रकारिता , ई-स्वामी का भाषा-प्रवाह मतलब “मन का रेडियो बजने दे जरा”, प्रमोद सिंह के पतनशील साहित्य ‘अजदक’, मनीषा पांडे की ‘बेदखल की डायरी’, ‘मोहल्ला’ की बौद्धिक खुराकों, सामूहिक ‘रिजेक्टमाल’ के दलित साहित्य, ‘कबाड़खाना’ की कविता और पेंटिग चर्चा और चोखेरबालियों की बहसों से गुजरा है – वे समझ सकते हैं कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली, भोजपुरी, हरियाणवी और टिपिकल दिल्ली की भाषा-बोली में लिखे साइनबोर्डों और बतकुच्चन के बीच जाकर अपनी दावेदारी वाली हिंदी कैसे एडजेस्ट कर जाती है? बिस्तरे ही बिस्तरे की तर्ज पर बड़े आराम से रिश्ते ही रिश्ते हो जाता है, चना सत्तू शेख हो जाता है, भोपाल में 90 एमएल बच्चा पैग हो जाता है। यानी साहित्यिक विमर्शों के लिए प्रयोग होनेवाली हिंदी से इतर हिंदी दो पैसा कमाने की भाषा, झाड़-झड़प गुस्सा जाहिर करने की भाषा, सेंटी होकर लोगों को अपनी तरफ खींचने की भाषा, भूली-बिसरी घटनाओं को संस्मरण की शक्ल देनेवाली भाषा कैसे बने, इसकी कोशिश में समाज का एक बड़ा तबका दिन-रात लगा है। हिंदी ब्लॉगिंग की अभिव्यक्ति का एक बड़ा हिस्सा इसी जद्दोजहद के बीच से विकसित होती है। यह बहुत हद तक संभव है कि भाषा के इस मौजूदा रूप में विमर्श न होने पाएगा, गुरु-गंभीर बातें अगर इस भाषा में की जाए तो फटीचरपने का एहसास होगा, विचारधारा और बदलाव की बात इसमें न की जा सकेगी लेकिन हिंदी का कल्याण करने की अपार चिंता और बंटाधार हो जाने की स्थायी कुंठा से मुक्त जिस हिंदी का विकास वर्चुअल स्पेस में हो रहा है, गूगल के हजारों पन्ने तैयार हो रहे हैं, वह किताबी दुनिया के भाषा-साहित्य से कम दिलचस्प नहीं है। हिंदी के इस रूप को समझने के लिए वैयाकरणाचार्यों, वाक्य विन्यास विशेषज्ञों और भारी-भरकम शब्दकोशों की तरफ नजर टिकाने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि मेरठ के बेगम पुल पर, दिल्ली के गफ्फार मार्केट में, बनारस के गुदौलिया चौक पर और बिहार के बलिया-बक्सर, लहेरियासराय के हाट-बाजार में टीशर्ट, मोबाइल, कैमरा, गुडपापड़ी, गुजिया, केले और संतेरे बेचनेवाले दुकानदारों, प्रोपर्टी डीलरों और आये दिन घरों-मोहल्लों में चिकचिक करते लोगों की जुबान पर गौर किये जाएं। हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया से अगर आप गुजरते हैं और आपको इसके इतिहास-वर्तमान की थोड़ी सी भी जानकारी है तो आप समझ सकते हैं कि इसमें जितने भी नामचीन ब्लॉगर हैं और बनने के कगार पर हैं, उनमें से एक का भी सीधा संबंध हिंदी विभाग और साहित्य से नहीं रहा है। हिंदी ब्लॉगिंग के पुरोधा रविरतलामी टेक्नोक्रेट हैं, उड़न तश्तरी नाम से मशहूर समीरलाल कनाडा के एक बिजनेस फर्म में कार्यरत हैं, सुनील दीपक इटली में डॉक्टर हैं, नारद नाम से एग्रीगेटर शुरू करनेवाले जितेंद्र का संबंध कंप्‍यूटर फर्म से रहा है, बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु-चिकित्सक हैं। यहां तक कि हिंदी के आदि ब्लॉगर आलोक कुमार का भी संबंध साहित्य से नहीं रहा। इस तरह हजारों ऐसे ब्लॉगर हैं जो सूचना प्रौद्योगिकी, इंजीनिरिंग, अकाउंटिंग, वकालत जैसे पेशे से जुड़े हैं जहां सीधे-सीधे हिंदी लेखन का काम नहीं है लेकिन वर्चुअल स्पेस पर ये कविता, कहानियां, संस्मरण, रिपोर्ताज और कई बार तो पेशेवेर पत्रकारों की तरह रिपोर्ट लिख रहे हैं..................... ..................................................इलाहाबाद के हिंदुस्तानी एकेडेमी सभागार में पहुंचते ही हिंदी चिठ्ठाकारी की दुनिया नाम से होनेवाले दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी (23-24 अक्टूबर) का जो पर्चा हमें थमाया गया, कार्यक्रम और बातचीत के विषयों की जो जानकारी हमें दी गयी उससे साफ हो गया कि हिंदी ब्लॉगिंग को अब अकादमिक जगत और साहित्य के संस्कार से विश्लेषित करने की तैयारी शुरू हो गयी है। यह संगोष्ठी देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में ब्लॉगिंग पर होनेवाली पहली और सबसे बड़ी संगोष्ठी थी जिसका श्रेय निश्चित रूप से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को दिया जाना चाहिए। ब्लॉगरों के लिए यह कम सम्मान की बात नहीं थी कि जिस काम को वे टाइम पास और मौज-मजे के तौर पर करते आये हैं, उस पर अब अकादमिक बहसें होनी शुरू हो गयी है। जिन लोगों ने इस काम की पार्श्व-निंदा की, मंच से अनुपयुक्त लेखन करार दिया, अब वे ही लोग पर बात करने हमारे सामने मौजूद हैं। लेकिन, हिंदी ब्लॉगिंग को साहित्य से संस्कारित किये जाने और इस पर अनावश्यक हिंदी प्रेम लुटाने के नतीजे से इन्हीं ब्लॉगरों को गहरा आघात लगा। थोड़ी देर पहले शुरू होनेवाले जिस आयोजन के पीछे ब्लॉगर, ब्लॉग की दुनिया का एक बड़ा भविष्य बनता देख रहे थे, उन्हें तुरंत ही इस दुनिया में कतर-ब्‍योंत करने की साजिश नजर आने लगी। हिंदी आलोचक नामवर सिंह ने जैसे ही हिंदुस्तानी एकेडेमी के सभागार को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा कि ब्लॉगिंग के लिए हिंदी में चिठ्ठाकारी शब्द खोज लाने का श्रेय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को जाता है तो सभागार की करतल ध्वनि के बीच देशभर से आये दर्जनों ब्लॉगरों के भीतर एक गलत इतिहास दर्ज किये जाने का दर्द उठा। अचानक से शोर-शराबा बढ़ गया। इसी बीच कानपुर से आये अनूप शुक्ल ( फुरसतिया) की लाइव पोस्ट मेरे लैपटॉप पर फ्लैश होती है, जिसके वाक्य कुछ इस तरह से थे – “नामवर जी ने ब्लाग के बारे में अपनी समझ बतायी। जब उन्होंने कहा कि चिट्ठाकारी शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया, तब हमें अपने भाई आलोक आदि चिट्ठाकार याद आये। तुम वहां चंड़ीगढ़ में हो भैया और तुम्हारे मानस शब्द का अपहरण हो गया। पूरा आलेख पढ़ने के लिए चटकाएं- http://mohallalive.com/2010/05/05/vineet-kumar-column-start-in-naya-gyanodaya/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100505/c0824fe5/attachment-0002.html From vineetdu at gmail.com Wed May 5 09:33:46 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 5 May 2010 09:33:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkquCksCDgpJzgpY3gpJ7gpL7gpKjgpYvgpKbgpK8g4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClieCksuCkrg==?= Message-ID: दीवान के साथियों नया ज्ञानोदय पत्रिका ने 'ब्लॉग के बहाने' नाम से मेरा नियमित कॉलम शुरु किया है। पहला आलेख मई अंके में- ब्लॉगिंग,जो हिन्दी विभाग की पैदाइश नहीं है,नाम से प्रकाशित है। आपने मुझे लगातार पढ़ा है। खासकर ब्लॉग पर मेरी समय-समय प्रतिक्रिया भी जानते आए हैं। आप इस कॉलम को पढ़े और हमसे साझा करें कि ब्लॉगिंग को विमर्श में शामिल करने के लिए और किस तरह के प्रयास होने चाहिए। विनीत ब्लॉगिंग जो हिंदी विभाग की पैदाइश नहीं है ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी। आपमें से जो कोई भी रवीश कुमार के ‘कस्बा’ की मोबाइल पत्रकारिता , ई-स्वामी का भाषा-प्रवाह मतलब “मन का रेडियो बजने दे जरा”, प्रमोद सिंह के पतनशील साहित्य ‘अजदक’, मनीषा पांडे की ‘बेदखल की डायरी’, ‘मोहल्ला’ की बौद्धिक खुराकों, सामूहिक ‘रिजेक्टमाल’ के दलित साहित्य, ‘कबाड़खाना’ की कविता और पेंटिग चर्चा और चोखेरबालियों की बहसों से गुजरा है – वे समझ सकते हैं कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली, भोजपुरी, हरियाणवी और टिपिकल दिल्ली की भाषा-बोली में लिखे साइनबोर्डों और बतकुच्चन के बीच जाकर अपनी दावेदारी वाली हिंदी कैसे एडजेस्ट कर जाती है? बिस्तरे ही बिस्तरे की तर्ज पर बड़े आराम से रिश्ते ही रिश्ते हो जाता है, चना सत्तू शेख हो जाता है, भोपाल में 90 एमएल बच्चा पैग हो जाता है। यानी साहित्यिक विमर्शों के लिए प्रयोग होनेवाली हिंदी से इतर हिंदी दो पैसा कमाने की भाषा, झाड़-झड़प गुस्सा जाहिर करने की भाषा, सेंटी होकर लोगों को अपनी तरफ खींचने की भाषा, भूली-बिसरी घटनाओं को संस्मरण की शक्ल देनेवाली भाषा कैसे बने, इसकी कोशिश में समाज का एक बड़ा तबका दिन-रात लगा है। हिंदी ब्लॉगिंग की अभिव्यक्ति का एक बड़ा हिस्सा इसी जद्दोजहद के बीच से विकसित होती है। यह बहुत हद तक संभव है कि भाषा के इस मौजूदा रूप में विमर्श न होने पाएगा, गुरु-गंभीर बातें अगर इस भाषा में की जाए तो फटीचरपने का एहसास होगा, विचारधारा और बदलाव की बात इसमें न की जा सकेगी लेकिन हिंदी का कल्याण करने की अपार चिंता और बंटाधार हो जाने की स्थायी कुंठा से मुक्त जिस हिंदी का विकास वर्चुअल स्पेस में हो रहा है, गूगल के हजारों पन्ने तैयार हो रहे हैं, वह किताबी दुनिया के भाषा-साहित्य से कम दिलचस्प नहीं है। हिंदी के इस रूप को समझने के लिए वैयाकरणाचार्यों, वाक्य विन्यास विशेषज्ञों और भारी-भरकम शब्दकोशों की तरफ नजर टिकाने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि मेरठ के बेगम पुल पर, दिल्ली के गफ्फार मार्केट में, बनारस के गुदौलिया चौक पर और बिहार के बलिया-बक्सर, लहेरियासराय के हाट-बाजार में टीशर्ट, मोबाइल, कैमरा, गुडपापड़ी, गुजिया, केले और संतेरे बेचनेवाले दुकानदारों, प्रोपर्टी डीलरों और आये दिन घरों-मोहल्लों में चिकचिक करते लोगों की जुबान पर गौर किये जाएं। हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया से अगर आप गुजरते हैं और आपको इसके इतिहास-वर्तमान की थोड़ी सी भी जानकारी है तो आप समझ सकते हैं कि इसमें जितने भी नामचीन ब्लॉगर हैं और बनने के कगार पर हैं, उनमें से एक का भी सीधा संबंध हिंदी विभाग और साहित्य से नहीं रहा है। हिंदी ब्लॉगिंग के पुरोधा रविरतलामी टेक्नोक्रेट हैं, उड़न तश्तरी नाम से मशहूर समीरलाल कनाडा के एक बिजनेस फर्म में कार्यरत हैं, सुनील दीपक इटली में डॉक्टर हैं, नारद नाम से एग्रीगेटर शुरू करनेवाले जितेंद्र का संबंध कंप्‍यूटर फर्म से रहा है, बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु-चिकित्सक हैं। यहां तक कि हिंदी के आदि ब्लॉगर आलोक कुमार का भी संबंध साहित्य से नहीं रहा। इस तरह हजारों ऐसे ब्लॉगर हैं जो सूचना प्रौद्योगिकी, इंजीनिरिंग, अकाउंटिंग, वकालत जैसे पेशे से जुड़े हैं जहां सीधे-सीधे हिंदी लेखन का काम नहीं है लेकिन वर्चुअल स्पेस पर ये कविता, कहानियां, संस्मरण, रिपोर्ताज और कई बार तो पेशेवेर पत्रकारों की तरह रिपोर्ट लिख रहे हैं..................... ..................................................इलाहाबाद के हिंदुस्तानी एकेडेमी सभागार में पहुंचते ही हिंदी चिठ्ठाकारी की दुनिया नाम से होनेवाले दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी (23-24 अक्टूबर) का जो पर्चा हमें थमाया गया, कार्यक्रम और बातचीत के विषयों की जो जानकारी हमें दी गयी उससे साफ हो गया कि हिंदी ब्लॉगिंग को अब अकादमिक जगत और साहित्य के संस्कार से विश्लेषित करने की तैयारी शुरू हो गयी है। यह संगोष्ठी देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में ब्लॉगिंग पर होनेवाली पहली और सबसे बड़ी संगोष्ठी थी जिसका श्रेय निश्चित रूप से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को दिया जाना चाहिए। ब्लॉगरों के लिए यह कम सम्मान की बात नहीं थी कि जिस काम को वे टाइम पास और मौज-मजे के तौर पर करते आये हैं, उस पर अब अकादमिक बहसें होनी शुरू हो गयी है। जिन लोगों ने इस काम की पार्श्व-निंदा की, मंच से अनुपयुक्त लेखन करार दिया, अब वे ही लोग पर बात करने हमारे सामने मौजूद हैं। लेकिन, हिंदी ब्लॉगिंग को साहित्य से संस्कारित किये जाने और इस पर अनावश्यक हिंदी प्रेम लुटाने के नतीजे से इन्हीं ब्लॉगरों को गहरा आघात लगा। थोड़ी देर पहले शुरू होनेवाले जिस आयोजन के पीछे ब्लॉगर, ब्लॉग की दुनिया का एक बड़ा भविष्य बनता देख रहे थे, उन्हें तुरंत ही इस दुनिया में कतर-ब्‍योंत करने की साजिश नजर आने लगी। हिंदी आलोचक नामवर सिंह ने जैसे ही हिंदुस्तानी एकेडेमी के सभागार को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा कि ब्लॉगिंग के लिए हिंदी में चिठ्ठाकारी शब्द खोज लाने का श्रेय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को जाता है तो सभागार की करतल ध्वनि के बीच देशभर से आये दर्जनों ब्लॉगरों के भीतर एक गलत इतिहास दर्ज किये जाने का दर्द उठा। अचानक से शोर-शराबा बढ़ गया। इसी बीच कानपुर से आये अनूप शुक्ल ( फुरसतिया) की लाइव पोस्ट मेरे लैपटॉप पर फ्लैश होती है, जिसके वाक्य कुछ इस तरह से थे – “नामवर जी ने ब्लाग के बारे में अपनी समझ बतायी। जब उन्होंने कहा कि चिट्ठाकारी शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया, तब हमें अपने भाई आलोक आदि चिट्ठाकार याद आये। तुम वहां चंड़ीगढ़ में हो भैया और तुम्हारे मानस शब्द का अपहरण हो गया। पूरा आलेख पढ़ने के लिए चटकाएं- http://mohallalive.com/2010/05/05/vineet-kumar-column-start-in-naya-gyanodaya/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100505/c0824fe5/attachment-0003.html From rajeshkajha at yahoo.com Thu May 6 11:08:57 2010 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 5 May 2010 22:38:57 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWC4KSX4KSy?= =?utf-8?b?IOCkteCksOCljeCkmuClgeCkheCksiDgpJXgpYDgpKzgpYvgpLDgpY3gpKE=?= Message-ID: <571441.90703.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> http://www.google.com/webelements/virtualkeyboard/ regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100505/101c9138/attachment.html From shashikanthindi at gmail.com Thu May 6 21:08:37 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 6 May 2010 21:08:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCksuCkvuCkqOCkviDgpKrgpL7gpJXgpL/gpLjgpY3gpKQ=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWA?= Message-ID: "नहीं कहलाना पाकिस्तानी"अमेरिका मे रह रहे हमारे पाकिस्तानी भाइयों को खुद को भारतीय कहने में कोई परेशानी नहीं होती. हमारे मित्र सतीश कुमार सिंह ने अभी-अभी अटलांटा से ये पोस्ट भेजा है. दीवान के हमारे साथी भी इसे पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. शशिकांतनहीं कहलाना पाकिस्तानी... नहीं कहलाना पाकिस्तानी... पाकिस्तान के लोग जो अमेरिका मे रहते हैं, उनमें से अधिकतर अपना परिचय एक भारतीय के रूप मे देना पसंद करते हैं. कोई अमेरिकन यदि उनसे पूछता है कि" आर यू इंडियन" तो उनका जबाब हाँ में होता है. यह बात मुझे पहली बार समझ में नही आई. लेकिन जो भारतीय यहाँ कई सालों से हैं, उन्होने जब यही बात कही तो मुझे सच में बहुत ही ताज्जुब हुआ. मेरी समझ में नहीं आया कि कोई कैसे अपनी राष्ट्रीयता छिपाने में गर्व महसूस कर सकता है. भारत और पाकिस्तान में कभी भी दोस्ती का संबंध नही रहा है, इसलिए मुझे समझने में परेशानी हुई कि कोई कैसे अपने को शत्रु राष्ट्र का नागरिक बताने में हिचकता नही है.जिस पाकिस्तान के निर्माण के लिए क़ायदे आज़म ने कोई कोर कसर नही छोड़ी, जिसके लिए लाखों लोगों का कत्लेआम हुआ, वहीं के लोग केवल ६ दशकों के बाद ही अपने को वहाँ का नागरिक कहलाने में अच्छा अनुभव नही करते हैं. जिन लोंगों ने आधुनिक भारत का इतिहास पढ़ा है, उन्हें यह बात हजम होने वक़्त लगेगा. ख़िलाफत मूवमेंट के बाद और डाइरेक्ट एक्सन दे और उसके बाद बटवारे के समय के दंगों की बात पढ़ने पर आज भी मॅन सिहर उठता है. जिस नयी राष्ट्रीयता की खोज के लिए यह सब हो रहा था, उसी राष्ट्र में पैदा हुए लोग विदेश में जाकर अपनी राष्ट्रीयता बताने में अच्छा महसूस नही करते है. वे अपने को भारतीय बताने में ज़्यादा अच्छा समझते हैं. राजनीतिक दर्शन का विद्यार्थी होने की वजह से पाकिस्तान की अराजकता, इस्लामिक कट्टरपंथ, ग़रीबी, तालिबान, अल क़ायदा जैसे ढेरों प्रश्न समझ में आते हैं. अपनी वास्तविक पहचान छिपाना कोई नही चाहता है, पर बदले हुए हालातों मे ऐसा हो रहा है तो नये राष्ट्रों के लिए होने वाले संघर्षों का अंजाम अच्छी तरह से देखा जा सकता है. अटलांटा में पाकिस्तान के बहुत से लोंगों के पास बिजनेस है, भारतीयों के पास भी बिजनेस है. वे एक दूसरे से मिलते हैं, साथ मे खाना भी खाते है. मैने किसी पाकिस्तानी नागरिक के साथ भारत में खाना नहीं खाया था.क्योंकि कभी ऐसा मौका ही नही मिला था. यहाँ लाहोर रेस्तूरेंट में एक पाकिस्तानी परिवार ने दावत दी थि.लजिज खाना के साथ हुई बातचीत में "राष्ट्रीयता" का दर्द साफ दिखायी दे रहा था. सतीश कुमार सिंह अटलांटा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100506/f375ecbb/attachment.html From rohitprakash2006 at gmail.com Fri May 7 21:49:22 2010 From: rohitprakash2006 at gmail.com (Rohit Prakash) Date: Fri, 7 May 2010 21:49:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kavita paath Message-ID: Ravikant ji, Deewan par is aamantran ko daal dijiyega. shukriya Rohit Prakash, Delhi Mob:-9868023074 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100507/37a9bfc9/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 8 11:13:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 8 May 2010 11:13:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkqOClguCkoQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KS4IiDgpLXgpL7gpLLgpYAg4KSm4KWA4KSm4KWA?= Message-ID: उत्तरी सिक्किम के मंगल वनवासी क्षेत्र के एक लेप्चा परिवार में जन्मी नीमा आज कलिमपोंग में "नूडल्स वाली दीदी" के नाम से प्रसिद्ध हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मंगन क्षेत्र आज भी वनवासी संरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। उस इलाके में आप अनुमति पत्र लेकर ही दाखिल हो सकते हैं। नीमा लेप्चा को उनके कस्बे कलिमपोंग में नाम से जानने वाले बहुत कम मिलेंगे, क्योंकि लोग-बाग उन्हें "नूडल्स वाली दीदी" के नाम से ही जानते हैं। आज नई जलपाईगुड़ी जिलान्तर्गत कलिमपोंग से लेकर लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम तक बड़ी संख्या में उनके "नूडल्स" के नियमित ग्राहक मौजूद हैं। दीदी कहती हैं- "जब कारोबार शुरू किया था, उस वक्त एक ही मंत्र था मेरे पास "परिश्रम" और शायद हर एक सफलता के पीछे यही एक मात्र मंत्र काम कर रहा होता है।" परिश्रम के इसी मंत्र को अपने जीवन का "गुरु-मंत्र" बनाकर वह आगे की तरफ बढ़ रही हैं। आज जब उपभोक्ता बाजार के अंदर सामान की गुणवत्ता पर कम और उसकी पैकिंग व ब्राांड नेम पर अधिक ध्यान देता है। अर्थात् वह सामान की नहीं ब्रांड की खरीदारी करता है। ऐसे घोर बाजारवादी युग में भी दीदी का "नूडल्स" बिना किसी आकर्षक पैकिंग और ब्राांड नेम के साधारण पैकेट में पैक होकर नेपाल, भूटान, लद्दाख और सिक्किम में खूब बिक रहा है। "नूडल्स" के नियमित खरीदार "ब्राांड नेम" न होने के बावजूद उनके "नूडल्स" के पैकेट को पहचान लेते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अपने ग्राहकों का इतना विश्वास उन्होंने मात्र 4 साल में अर्जित किया है। उन्होंने वर्ष 2005 में खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग से सात लाख रुपए ऋण लिया था। इन सात लाख रुपयों में उन्हें तीन लाख रुपए की छूट वनवासी होने की वजह से मिली। बत्तीस वर्षीया नीमा ने होवेथांग स्कूल से सिर्फ 9वीं तक की पढ़ाई की है। मंगन क्षेत्र के लोगों का आज भी बाहरी दुनिया के साथ सम्पर्क बहुत कम है। और बाहर से जो लोग वहाँ जाना चाहते हैं उनके लिए प्रशासन से एक अनुमति पत्र बनवाना अनिवार्य होता है। ऐसी जगह से निकल कर दीदी ने जिस उद्यमशीलता का परिचय दिया है वह वास्तव में अनुकरणीय है। दीदी ने बताया कि ऋण का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने "नूडल्स" के कारोबार में लगाया बाकी उन्होंने कृषि और पशुपालन क्षेत्र में निवेश किया। "नूडल्स" के काम में सहयोग करने के लिए पच्चीस लोगों को उन्होंने अपने साथ रखा है। "नूडल्स" बनाने का काम वे सितम्बर से अप्रैल तक सात महीने करती हैं। नूडल्स के अलावा दीदी गाय, बकरी, मुर्गी पालन का काम भी करती हैं। इससे उन्हें थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती है। उनके खेतों में आपको टमाटर, मिर्च, बैंगन, धनिया के पौधे मिल जाएँगे। वहीं दूसरी तरफ अल्जीरियन आर्किड, प्लेडूला सीजरनेम, एन्थोरेम इम्प्रेशन, ग्लैक्सिनिया, यूसिया आदि फूल भी दिखेंगे। उन्होंने अपने बगान में दर्जनों किस्म के कैक्टस भी लगा रखे हैं। और यह सब सिर्फ शौक के लिए नहीं, बल्कि पूरी तरह से उनके कारोबार का ही एक हिस्सा है। आम तौर पर खेती और पशुपालन से जुड़े लोग बाजार का रोना रोते हैं। जबकि दीदी को दूध हो या सब्जी या फूल उसे बेचने के लिए बाजार तक नहीं जाना पड़ता, बल्कि बाजार उनके पास आता है। पहाड़ों पर खेती कर रही नीमा दीदी के अनुसार दूध के कारोबारी प्रतिदिन उनके घर से दूध लेकर जाते हैं। जिसका हिसाब वे दूध लेने के साथ ही कर जाते हैं। सब्जी विक्रेता सप्ताह में दो बार आते हैं। और फूल व कैक्टस के व्यवसायी दो-तीन महीने में एक बार भूटान और सिक्किम से आते हैं। नीमा दीदी सिर्फ अपना कारोबार ही नहीं, बल्कि परिवार भी बेहतर तरह से संभाल रही हैं। अनुबंध पर सिंचाई विभाग में काम कर रहे पति ललित क्षेत्री अनुबंध खत्म होने के बाद उनके करोबार में सहयोग कर रहे हैं। प्रात: तीन बजे उठकर देर रात तक काम करने वाली नीमा दीदी ने साबित किया है कि यदि सच्ची लगन और कड़ा परिश्रम हो तो सफल होना बड़ी बात नहीं है। आज दीदी की सफलता से प्रभावित होकर उनके क्षेत्र की बहुत सी महिलाएँ अलग-अलग कारोबारों में खुद को आजमाने के लिए आगे आ रही हैं। उनके लिए दीदी सिर्फ प्रेरणा ही नहीं, मार्गदर्शक का काम भी कर रही हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100508/d6020959/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 8 11:13:22 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 8 May 2010 11:13:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkqOClguCkoQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KS4IiDgpLXgpL7gpLLgpYAg4KSm4KWA4KSm4KWA?= Message-ID: उत्तरी सिक्किम के मंगल वनवासी क्षेत्र के एक लेप्चा परिवार में जन्मी नीमा आज कलिमपोंग में "नूडल्स वाली दीदी" के नाम से प्रसिद्ध हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मंगन क्षेत्र आज भी वनवासी संरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। उस इलाके में आप अनुमति पत्र लेकर ही दाखिल हो सकते हैं। नीमा लेप्चा को उनके कस्बे कलिमपोंग में नाम से जानने वाले बहुत कम मिलेंगे, क्योंकि लोग-बाग उन्हें "नूडल्स वाली दीदी" के नाम से ही जानते हैं। आज नई जलपाईगुड़ी जिलान्तर्गत कलिमपोंग से लेकर लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम तक बड़ी संख्या में उनके "नूडल्स" के नियमित ग्राहक मौजूद हैं। दीदी कहती हैं- "जब कारोबार शुरू किया था, उस वक्त एक ही मंत्र था मेरे पास "परिश्रम" और शायद हर एक सफलता के पीछे यही एक मात्र मंत्र काम कर रहा होता है।" परिश्रम के इसी मंत्र को अपने जीवन का "गुरु-मंत्र" बनाकर वह आगे की तरफ बढ़ रही हैं। आज जब उपभोक्ता बाजार के अंदर सामान की गुणवत्ता पर कम और उसकी पैकिंग व ब्राांड नेम पर अधिक ध्यान देता है। अर्थात् वह सामान की नहीं ब्रांड की खरीदारी करता है। ऐसे घोर बाजारवादी युग में भी दीदी का "नूडल्स" बिना किसी आकर्षक पैकिंग और ब्राांड नेम के साधारण पैकेट में पैक होकर नेपाल, भूटान, लद्दाख और सिक्किम में खूब बिक रहा है। "नूडल्स" के नियमित खरीदार "ब्राांड नेम" न होने के बावजूद उनके "नूडल्स" के पैकेट को पहचान लेते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अपने ग्राहकों का इतना विश्वास उन्होंने मात्र 4 साल में अर्जित किया है। उन्होंने वर्ष 2005 में खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग से सात लाख रुपए ऋण लिया था। इन सात लाख रुपयों में उन्हें तीन लाख रुपए की छूट वनवासी होने की वजह से मिली। बत्तीस वर्षीया नीमा ने होवेथांग स्कूल से सिर्फ 9वीं तक की पढ़ाई की है। मंगन क्षेत्र के लोगों का आज भी बाहरी दुनिया के साथ सम्पर्क बहुत कम है। और बाहर से जो लोग वहाँ जाना चाहते हैं उनके लिए प्रशासन से एक अनुमति पत्र बनवाना अनिवार्य होता है। ऐसी जगह से निकल कर दीदी ने जिस उद्यमशीलता का परिचय दिया है वह वास्तव में अनुकरणीय है। दीदी ने बताया कि ऋण का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने "नूडल्स" के कारोबार में लगाया बाकी उन्होंने कृषि और पशुपालन क्षेत्र में निवेश किया। "नूडल्स" के काम में सहयोग करने के लिए पच्चीस लोगों को उन्होंने अपने साथ रखा है। "नूडल्स" बनाने का काम वे सितम्बर से अप्रैल तक सात महीने करती हैं। नूडल्स के अलावा दीदी गाय, बकरी, मुर्गी पालन का काम भी करती हैं। इससे उन्हें थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती है। उनके खेतों में आपको टमाटर, मिर्च, बैंगन, धनिया के पौधे मिल जाएँगे। वहीं दूसरी तरफ अल्जीरियन आर्किड, प्लेडूला सीजरनेम, एन्थोरेम इम्प्रेशन, ग्लैक्सिनिया, यूसिया आदि फूल भी दिखेंगे। उन्होंने अपने बगान में दर्जनों किस्म के कैक्टस भी लगा रखे हैं। और यह सब सिर्फ शौक के लिए नहीं, बल्कि पूरी तरह से उनके कारोबार का ही एक हिस्सा है। आम तौर पर खेती और पशुपालन से जुड़े लोग बाजार का रोना रोते हैं। जबकि दीदी को दूध हो या सब्जी या फूल उसे बेचने के लिए बाजार तक नहीं जाना पड़ता, बल्कि बाजार उनके पास आता है। पहाड़ों पर खेती कर रही नीमा दीदी के अनुसार दूध के कारोबारी प्रतिदिन उनके घर से दूध लेकर जाते हैं। जिसका हिसाब वे दूध लेने के साथ ही कर जाते हैं। सब्जी विक्रेता सप्ताह में दो बार आते हैं। और फूल व कैक्टस के व्यवसायी दो-तीन महीने में एक बार भूटान और सिक्किम से आते हैं। नीमा दीदी सिर्फ अपना कारोबार ही नहीं, बल्कि परिवार भी बेहतर तरह से संभाल रही हैं। अनुबंध पर सिंचाई विभाग में काम कर रहे पति ललित क्षेत्री अनुबंध खत्म होने के बाद उनके करोबार में सहयोग कर रहे हैं। प्रात: तीन बजे उठकर देर रात तक काम करने वाली नीमा दीदी ने साबित किया है कि यदि सच्ची लगन और कड़ा परिश्रम हो तो सफल होना बड़ी बात नहीं है। आज दीदी की सफलता से प्रभावित होकर उनके क्षेत्र की बहुत सी महिलाएँ अलग-अलग कारोबारों में खुद को आजमाने के लिए आगे आ रही हैं। उनके लिए दीदी सिर्फ प्रेरणा ही नहीं, मार्गदर्शक का काम भी कर रही हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100508/d6020959/attachment-0002.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon May 10 18:02:25 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 10 May 2010 18:02:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWM4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksOCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: *विस्फोट * *कोडरमा में निरुपमा की मौत की खबर उसके दोस्तों की वजह से इस मुकाम तक पहुंची कि प्रशासन को भी इसे गंभीरता से लेना पड़ा। वरना रोज कितनी ही निरुपमाएं मरती हैं, किसी को परवाह नहीं होती, सिवाय उन पत्राकारों के जो सिंगल कॉलम की खबर लिखकर अपनी जिम्मेवारी खत्म मानते हैं या इलैक्ट्रानिक मीडिया के वे बाइट कलेक्टर जो इस मौत की अच्छी पैकेजिंग करके ‘सनसनी’ बनाते हैं।* प्रियभांषु लगातार निरुपमा के प्रेमी के तौर पर प्रचारित हो रहा है, प्रचार पा रहा है। यह बात प्रियभांषु कभी नहीं कहता। वह सिर्फ इतना ही कहता है- ‘हम अच्छे दोस्त थे।’ क्या दोस्त होने और प्रेमी होने का अंतर मीडिया नहीं समझती? या मीडिया प्रियभांषु के ऊपर निरुपमा का प्रेम थोप रही है और प्रियभांषु के प्रेम को प्रचारित कर रही है। चूंकि प्रियभांषु का प्रेम जुड़ने मात्र से निरुपमा और प्रियभांषु की कहानी को एक एंगल मिलेगा। खबरों की दुनिया में हर स्टोरी को एक एंगल चाहिए। यहां एंगल विहीन खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। वरना ओलम्पिक खिलवाड़ के नाम पर दिल्ली से जो हजारों लोग बेघर हुए वे खबर क्यों नहीं बनते? क्योंकि इसमें खबर क्या है? दिल्ली की सरकार ब्लू लाइन बसों को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था से अलग करने की योजना बनाती है। उस बीच में पूरा एक दौर चलता है, जब दिल्ली की हर ब्लू लाइन बस ब्लू लाईन बस नहीं बल्कि किलर बस के नाम से पुकारी जाने लगती है। आतंक का माहौल इतना गहरा जाता है कि परिवार वाले फोन पर कहते हैं, सड़क पर ठीक से चलो। मतलब ब्लू लाईन बसों से बचकर चलो। आज भी दिल्ली में ब्लू लाईन बसें हैं। एक्सीडेंट भी कम नहीं हुए। फिर भी खबरों से यह किलर बसें पूरी तरह गायब हैं। खैर हम निरुपमा-प्रियभांषु की बात कर रहे थे। प्रियभांषु तो बेहद मासूम है- उसे तो यह भी पता नहीं था कि निरुपमा के गर्भ में तीन महीने का गर्भ पल रहा था. प्रेम हमारे समाज में बेहद फिल्मी हो गया है। नायक, नायिका से कहता है- अब मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं? मानों प्रेम कोई टेप रिकॉर्डर है। जिसे जब चाहो ऑन, जब चाहो ऑफ कर दो। जबकि हमारे समाज में ऐसे जोड़े भी हैं। जो पिछले दस-दस सालों से रिश्ते मे पति-पत्नी हैं। एक ही बिस्तर पर सोते हैं, लेकिन उनके बीच प्रेम नहीं है। क्या प्रेम से हमारा मतलब सेक्स है। दो लोगों के बीच शारीरिक संबंध है तो प्रेम होगा ही। क्या यह जरुरी है? यह थोड़ी स्टिरियो टाईप अप्रोच नहीं है। प्रियभांषु को प्रेमी-प्रेमी कहने की जगह निरुपमा को प्रेमिका कहना अधिक न्याय संगत होगा। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि निरुपमा हमारे बीच नहीं है, ना ही यह बात किसी सहानुभूमि में कही जा रही है। बल्कि इसलिए क्योंकि उसने अपने गर्भ में तीन महीने तक एक नए जीवन को संभाल कर रखने का साहस दिखाया। जबकि आज के समय में कम पढ़े लिखे लड़के लड़कियों को भी पता है, किस तरह की सावधनी बरत कर गर्भ से बचा जा सकता है। और गर्भ ठहर जाए तो किस प्रकार उससे निजात पाई जा सकती है। इन तमाम रास्तों के बावजूद कोई लड़की मां बनने का साहसी निर्णय लेती है तो इसके पीछे प्रेम छोड़कर और क्या वजह होगी? प्रियभांषु मीडिया के सामने इतना बताता है कि निरुपमा उसकी अच्छी दोस्त थी, उसे बिल्कुल पता नहीं था कि वह गर्भवति है। तीन महीने के गर्भ की अवधि छोटी अवधि नहीं होती। दूसरा यदि निरुपमा ने अपने जीवन की इतनी बड़ी घटना प्रियभांषु के साथ शेयर नहीं की तो इसके पीछे की वजह क्या होगी? जबसे कोडरमा पुलिस ने प्रियभांषु को तलब किया है। डर सिर्फ इतना है कि तमाम मीडिया हाईप के वावजूद दोनों परिवारों में समझौता हो जाएगा और निरुपमा की कहानी इस समझौते की बलि चढ़ जाएगी। उसके बाद, प्रियभांषु अपनी नौकरी में मस्त, निरुपमा के परिवार वाले अपने धंधे में मस्त और मीडिया संस्थान/ समूह अन्य खबरों में व्यस्त हो जाएंगे। सबको फिर उस दिन निरुपमा की याद आएगी, जब कोई और निरुपमा तीन महीने के गर्भ के साथ घर बुलाई जाएगी और उसके बेडरुम में पंखे से लटकी उसकी लाश मिलेगी। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100510/f38bb849/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon May 10 18:02:25 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 10 May 2010 18:02:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWM4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksOCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: *विस्फोट * *कोडरमा में निरुपमा की मौत की खबर उसके दोस्तों की वजह से इस मुकाम तक पहुंची कि प्रशासन को भी इसे गंभीरता से लेना पड़ा। वरना रोज कितनी ही निरुपमाएं मरती हैं, किसी को परवाह नहीं होती, सिवाय उन पत्राकारों के जो सिंगल कॉलम की खबर लिखकर अपनी जिम्मेवारी खत्म मानते हैं या इलैक्ट्रानिक मीडिया के वे बाइट कलेक्टर जो इस मौत की अच्छी पैकेजिंग करके ‘सनसनी’ बनाते हैं।* प्रियभांषु लगातार निरुपमा के प्रेमी के तौर पर प्रचारित हो रहा है, प्रचार पा रहा है। यह बात प्रियभांषु कभी नहीं कहता। वह सिर्फ इतना ही कहता है- ‘हम अच्छे दोस्त थे।’ क्या दोस्त होने और प्रेमी होने का अंतर मीडिया नहीं समझती? या मीडिया प्रियभांषु के ऊपर निरुपमा का प्रेम थोप रही है और प्रियभांषु के प्रेम को प्रचारित कर रही है। चूंकि प्रियभांषु का प्रेम जुड़ने मात्र से निरुपमा और प्रियभांषु की कहानी को एक एंगल मिलेगा। खबरों की दुनिया में हर स्टोरी को एक एंगल चाहिए। यहां एंगल विहीन खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। वरना ओलम्पिक खिलवाड़ के नाम पर दिल्ली से जो हजारों लोग बेघर हुए वे खबर क्यों नहीं बनते? क्योंकि इसमें खबर क्या है? दिल्ली की सरकार ब्लू लाइन बसों को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था से अलग करने की योजना बनाती है। उस बीच में पूरा एक दौर चलता है, जब दिल्ली की हर ब्लू लाइन बस ब्लू लाईन बस नहीं बल्कि किलर बस के नाम से पुकारी जाने लगती है। आतंक का माहौल इतना गहरा जाता है कि परिवार वाले फोन पर कहते हैं, सड़क पर ठीक से चलो। मतलब ब्लू लाईन बसों से बचकर चलो। आज भी दिल्ली में ब्लू लाईन बसें हैं। एक्सीडेंट भी कम नहीं हुए। फिर भी खबरों से यह किलर बसें पूरी तरह गायब हैं। खैर हम निरुपमा-प्रियभांषु की बात कर रहे थे। प्रियभांषु तो बेहद मासूम है- उसे तो यह भी पता नहीं था कि निरुपमा के गर्भ में तीन महीने का गर्भ पल रहा था. प्रेम हमारे समाज में बेहद फिल्मी हो गया है। नायक, नायिका से कहता है- अब मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं? मानों प्रेम कोई टेप रिकॉर्डर है। जिसे जब चाहो ऑन, जब चाहो ऑफ कर दो। जबकि हमारे समाज में ऐसे जोड़े भी हैं। जो पिछले दस-दस सालों से रिश्ते मे पति-पत्नी हैं। एक ही बिस्तर पर सोते हैं, लेकिन उनके बीच प्रेम नहीं है। क्या प्रेम से हमारा मतलब सेक्स है। दो लोगों के बीच शारीरिक संबंध है तो प्रेम होगा ही। क्या यह जरुरी है? यह थोड़ी स्टिरियो टाईप अप्रोच नहीं है। प्रियभांषु को प्रेमी-प्रेमी कहने की जगह निरुपमा को प्रेमिका कहना अधिक न्याय संगत होगा। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि निरुपमा हमारे बीच नहीं है, ना ही यह बात किसी सहानुभूमि में कही जा रही है। बल्कि इसलिए क्योंकि उसने अपने गर्भ में तीन महीने तक एक नए जीवन को संभाल कर रखने का साहस दिखाया। जबकि आज के समय में कम पढ़े लिखे लड़के लड़कियों को भी पता है, किस तरह की सावधनी बरत कर गर्भ से बचा जा सकता है। और गर्भ ठहर जाए तो किस प्रकार उससे निजात पाई जा सकती है। इन तमाम रास्तों के बावजूद कोई लड़की मां बनने का साहसी निर्णय लेती है तो इसके पीछे प्रेम छोड़कर और क्या वजह होगी? प्रियभांषु मीडिया के सामने इतना बताता है कि निरुपमा उसकी अच्छी दोस्त थी, उसे बिल्कुल पता नहीं था कि वह गर्भवति है। तीन महीने के गर्भ की अवधि छोटी अवधि नहीं होती। दूसरा यदि निरुपमा ने अपने जीवन की इतनी बड़ी घटना प्रियभांषु के साथ शेयर नहीं की तो इसके पीछे की वजह क्या होगी? जबसे कोडरमा पुलिस ने प्रियभांषु को तलब किया है। डर सिर्फ इतना है कि तमाम मीडिया हाईप के वावजूद दोनों परिवारों में समझौता हो जाएगा और निरुपमा की कहानी इस समझौते की बलि चढ़ जाएगी। उसके बाद, प्रियभांषु अपनी नौकरी में मस्त, निरुपमा के परिवार वाले अपने धंधे में मस्त और मीडिया संस्थान/ समूह अन्य खबरों में व्यस्त हो जाएंगे। सबको फिर उस दिन निरुपमा की याद आएगी, जब कोई और निरुपमा तीन महीने के गर्भ के साथ घर बुलाई जाएगी और उसके बेडरुम में पंखे से लटकी उसकी लाश मिलेगी। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100510/f38bb849/attachment-0002.html From vineetdu at gmail.com Mon May 10 18:05:16 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 10 May 2010 18:05:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KWM4KSrIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkuOCkvuCkr+ClhyDgpK7gpYfgpIIg4KS54KWIIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KWN4KSa4KSq4KWB4KSw?= Message-ID: हरियाणा में हिसार जिले के गांव मिरचपुर के दलितों को उनकी मांग के मुताबिक जल्द से जल्द हिसार शहर में जमीन देकर बसाया जाए। ये लोग गांव में खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। उन्हें शक है कि आने वाले दिनों में उन पर फिर हमले हो सकते हैं। वे अपने परिवार की महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा को लेकर खास तौर पर चिंतित हैं। मिरचपुर दलित हत्याकांड और उसके बाद हरियाणा पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही है, इसलिए आवश्यक है कि जब तक इन दलित परिवारों को कहीं और न बसाया जाए, तब तक उनकी सुरक्षा के लिए गांव में केंद्रीय पुलिस बल को तैनात किया जाए। बीते रविवार 9 मई 2010 को दिल्ली से मानवाधिकार समर्थकों की एक टीम ने रविवार को हिसार जिले के मिरचपुर गांव का दौरा किया। इस गांव में पिछले महीने की 21 तारीख (21 अप्रैल 2010) को दबंग जातियों के हमलावरों ने दलितों की बस्ती पर हमला किया था और 18 घरों को आग लगा दी थी। इस दौरान बारहवीं में पढ़ रही विकलांग दलित लड़की सुमन और उसके साठ वर्षीय पिता ताराचंद की जलाकर हत्या कर दी गई। दलितों की संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाया गया और कई लोगों को चोटें आईं। मिरचपुर का दौरा करने और अलग अलग पक्षों से बात करने के बाद इस जांच टीम ने पाया कि : 1. दलितों पर हमले और आगजनी की घटना के लगभग तीन हफ्ते बाद भी मिरचपुर गांव में जबर्दस्त तनाव है। इस गांव के कुछ दलित परिवार प्रशानस के दबाव की वजह से लौट आए हैं, लेकिन उन्होंने अपने परिवार की युवतियों और लड़कियों को गांव से बाहर रिश्तेदारों के पास रखने का रास्ता चुना है। उन्हें नहीं लगता कि दलित युवतियां और बच्चियां गांव में सुरक्षित रह सकती हैं। 2. मिरचपुर में दलित उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है। इससे पहले भी यहां दलितों के साथ मारपीट की घटनाएं होती रही हैं और खासकर दलित महिलाओं को यौन उत्पीड़न झेलना पड़ा है। महिलाओं के साथ बलात्कार और उन्हें नंगा करके घुमाने जैसी घटनाओं की पृष्ठभूमि और ऐसी तमाम घटनाओं में पुलिस और प्रशासन की भूमिका की वजह से मिरचपुर के दलित अब गांव छोड़ना चाहते हैं। 3. मिरचपुर में 21 अप्रैल को हुई आगजनी और हिंसा की घटनाओं के ज्यादातर आरोपी अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। दलितों का आरोप है कि इस घटना के मास्टरमाइंड अब भी खुलेआम घूम रहे हैं और लोगों को धमका रहे हैँ। 4. प्रशासन और पुलिस इस घटना को दबाने में जुटी है। इस घटना के बाद से ही हिसार के जिलाधिकारी कार्यालय में धरने पर बैठे दलितों को 20 अप्रैल को जबर्दस्ती वहां से हटा दिया गया और डरा-धमकाकर गांव लौटने को मजबूर किया गया, ताकि दुनिया को ये बताया जा सके कि मिरचपुर में सब कुछ सामान्य है। दलितों को बाध्य किया जा रहा है कि वे हमलावरों के साथ समझौता कर लें। 5. सर्व जाति सर्व खाप पंचायत की 9 मई को मिरचपुर में हुई सभा में ये कहा गया कि दलितों ने अब समझौता कर लिया है और वे “भाईचारे के साथ” गांव में रहने को तैयार हो गए हैं। मिरचपुर से दलितों ने जांच टीम को बताया कि पीड़ित परिवारों से कोई भी इस पंचायत में नहीं गया है और वे समझौते के लिए तैयार नहीं है। वाल्मीकियों के नेता सुरेश वाल्मीकि को उनलोगों ने अपने पक्ष में कर लिया और इसे वो पूरी वाल्मीकि समाज की सहमति करार दे रहे हैं। इस पंचायत को सर्वजाति पंचायत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें दलितों की हिस्सेदारी नहीं थी। मिरचपुर के दलितों का कहना है कि इस कांड के दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। इस बात पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। 6. राहत के नाम पर मिरचपुर के दलितों को प्रति परिवार दो बोरी गेहूं दिए गए हैं। राहत की बाकी घोषणाएं अब तक कागज पर ही हैं। 7. मिरचपुर के दलित इस घटना के सिलसिले में मौजूदा राजनीतिक दलों की भूमिका से नाराज हैं। उनका गुस्सा खास तौर पर सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ है। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों की मौजूदगी में हुए इस हत्याकांड से उनका विश्वास हिल गया है। 8. कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने घटना के बाद मिरचपुर का दौरा किया था, लेकिन गांव के दलितों का कहना है कि राहुल गांधी के दौरे के बाद भी प्रशासन और पुलिस का रवैया पहले जैसा है और वे अब भी सहमे हुए हैं। 9. पूछने पर दलित बस्ती के लोगों ने बताया कि वे अपनी मर्जी से वोट भी नहीं डाल सकते हैं। अपनी मर्जी से वोट डालने की मांग करने पर उनके साथ मारपीट होती है और उनका वोट जबरन डाल दिया जाता है। 10. मिरचपुर के सार्वजनिक शिव मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। गांव के दलित अपना मंदिर बनाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें अपना मंदिर नहीं बनाने दिया जा रहा है। इस वजह से गांव में दलितों का मंदिर अधूरा बना हुआ है। मिरचपुर गांव के स्कूल में एक भी दलित शिक्षक नहीं है। सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण के बावजूद ऐसा होना राज्य में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव का एक और प्रमाण है। इस जांच टीम में नेशनल फेडरेडशन ऑफ़ दलित वुमेन (एनएफ़डीडब्लेयू) की उत्तर भारत संयोजिका एवं मानवाधिकार वकील सुश्री चंद्रा निगम, शोधकर्ता विनीत कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता राकेश कुमार सिंह, पत्रकार अरविंद शेष तथा दिलीप मंडल शामिल थे। इस रिपोर्ट को अनुसूचित जाति आयोग और मानवाधिकार आयोग को भी भेज दिया गया है। (प्रेस रिलीज: 9 मई को मिर्चपुर से लौटकर मंडल,राकेश कुमार सिंह,विनीत कुमार,चंद्रा निगम और अरविंद शेष की ओर से जारी) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100510/079f22d8/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon May 17 13:03:29 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 17 May 2010 13:03:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS44KSk?= =?utf-8?b?4KSy4KSsIDEgOiDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSu4KWH4KSCIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSk4KWN4KSvIOCkleClgCDgpJbgpLzgpKTgpY3gpK4g4KS5?= =?utf-8?b?4KWL4KSk4KWAIOCknOCkl+CkuQ==?= Message-ID: <4BF0F149.60408@sarai.net> *मीडिया में साहित्य की ख़त्म होती जगह * इस विषय पर कल 6.30 बजे, इडिया हैबिटैट सेंटर, गुलमोहर हॉल में चाय के बाद 7 बजे शाम से एक मज़ेदार बहस होगी. वक्ता हैं: राजेन्द्र यादव, सुधीश पचौरी, ओम थानवी, रवीश कुमार और शीबा असलम फ़हमी संचालन विनीत कुमार करेंगे इनमें से कोई भी नाम दीवान के पाठकों के लिए अजूबा नहीं है. ये आयोजन यात्रा बुक्स, मोहल्ला लाइव और जनतंत्र की साझा पेशकश है. ज़रूर पहुँचें. रविकान्त From vineetdu at gmail.com Tue May 18 07:11:55 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 18 May 2010 07:11:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCklOCksCDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSq4KSw?= =?utf-8?b?IOCkuOClh+CkruCkv+CkqOCkvuCksCDgpIbgpJws4KS54KWI4KSs4KS/?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSfIOCkhuCkj+Ckgg==?= Message-ID: ** *हिंदी साहित्‍य* मीडिया के लिए सेलेबल कमॉडिटी (बिकाऊ माल) क्‍यों नहीं है? क्‍या यह सच है कि हिंदी साहित्‍य में अब लोगों की दिलचस्‍पी नहीं के बराबर है और एक हजार मामूली प्रिंट ऑर्डर वाले हिंदी साहित्‍य की हालत बहुत खराब है? हिंदी की आखिरी बेस्‍टसेलर “मुझे चांद चाहिए” थी, जो सन बानबे में आयी। उसके बाद ऐसी कौन सी किताब है, जिसको पढ़ने में पचास हजार लोगों ने सामूहिक दिलचस्‍पी दिखायी हो? अगर ऐसा नहीं है कि तो हमारा मीडिया लेखक को भी उतना ही सम्‍मान क्‍यों नहीं देता, जितना समाज के दूसरे मोर्चों पर सक्रिय रहने वाले नायकों को देता है? ये इतने बड़े मसले हैं, जिन पर बात होना जरूरी है। संभवत: अब तक बात इसलिए नहीं होती रही हो, क्‍योंकि हम सच का सामना करने से डरते हों! *हिंदी की वर्चुअल दुनिया* के सबसे पॉपुलर मंच जनतंत्र/मोहल्‍ला लाइव और पेंगुइन प्रकाशन के हिंदी सहयोगी यात्रा बुक्‍स के साझा प्रयास से इस विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया है। 18 मई की शाम सात बजे इंडिया हैबिटैट सेंटर, नयी दिल्‍ली के गुलमोहर सभागार में आयोजित इस सेमिनार में हिंदी साहित्‍य और मीडिया के पांच जरूरी नाम सेमिनार में अपनी बात रखेंगे। ये वक्‍ता होंगे : राजेंद्र यादव, सुधीश पचौरी, ओम थानवी, रवीश कुमार और शीबा असलम फहमी। *इस संगोष्‍ठी में* हम बात इस पर नहीं करना चाहेंगे कि अखबार साहित्‍य को कितनी जगह देते हैं या टीवी में साहित्यिक बुलेटिन्‍स को लेकर इतनी उदासीनता क्‍यों है – बात शायद इस पर करना चाहेंगे कि हिंदी साहित्‍य का असर समाज पर क्‍यों नहीं है और ब्रेकिंग न्‍यूज क्‍यों नहीं हैं? क्‍हिंदी साहित्‍य के साथ अपने ऑडिएंस से संवाद की ऐसी क्‍या मुश्किल है? *जनतंत्र*, मोहल्‍ला लाइव और यात्रा बुक्‍स ने मिल कर दिल्‍ली में सेमिनारों का सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिसमें हर महीने साहित्‍य, संस्‍कृति, समाज और राजनीति के नये सवालों पर चर्चा होगी। साहित्‍य और मीडिया पर बहस के साथ ही आज का आयोजन जनतंत्र/मोहल्‍ला लाइव और यात्रा बुक्‍स की इस साझा सेमिनार शृंखला की पहली कड़ी है। आप आएंगे, तो अच्‍छा लगेगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100518/3671258c/attachment.html From beingred at gmail.com Tue May 18 14:43:57 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 18 May 2010 14:43:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSh4KS84KWA?= =?utf-8?b?4KS44KS+IOCkruClh+CkgiDgpLbgpL7gpILgpKTgpL/gpKrgpYLgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KSjIOCkpOCksOClgOCkleClhyDgpLjgpYcg4KSG4KSC4KSm4KWL?= =?utf-8?b?4KSy4KSoIOCkleCksCDgpLDgpLngpYcg4KSy4KWL4KSX4KWL4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkquClgeCksuCkv+CkuCDgpLngpK7gpLLgpL4g4KSs4KSC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkleCksOCliw==?= Message-ID: उड़ीसा में शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे लोगों पर पुलिस हमला बंद करो *15 मई को उड़ीसा में प्रस्तावित पोस्को स्टील परियोजना का विरोध कर रहे किसानों के शांतिपूर्ण धरना पर पुलिस की 40 डिवीजनों ने हमला किया, ताकि किसानों को जमीन से हटा कर उसे पोस्को को सौंपा जा सके. पुलिस फायरिंग से सौ से अधिक लोग घायल हुए और कम से कम एक व्यक्ति की मौत हो गई. पुलिस ने दुकानें और घरों को आग लगा दिया. बड़े आंकड़ों के लिए अभ्यस्त हो चुके मन को ये आंकड़े भले साधारण लगें, लेकिन पुलिस ने गांव वालों के साथ जिस तरह का सुलूक किया- वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है. पूरी अपील पढ़ेंः** उड़ीसा में शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे लोगों पर पुलिस हमला बंद करो * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100518/fc0e7956/attachment.html From bartiya_suraj at yahoo.com Thu May 20 16:19:04 2010 From: bartiya_suraj at yahoo.com (Suraj Bartiya) Date: Thu, 20 May 2010 16:19:04 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Dalit lekhak sangh Message-ID: <777811.18264.qm@web94905.mail.in2.yahoo.com>     Dear Sir/ Madam You are cordially invited in the programme    on  22 May 2010.   Ek mulakat- Dalit Sahityakar Surajpal Chauhan ke Sath   Organise by Dalit Lekhak Sangh  Pls find the attachment of  invitation. Thanks & Regards Dr. Suraj Badtiya Media Coordinator Dalit Lekhak Sangh  9891438166 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100520/19dcb126/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: 22 May invitation.pdf Type: application/pdf Size: 16224 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100520/19dcb126/attachment-0001.pdf From ravikant at sarai.net Fri May 21 18:30:08 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 21 May 2010 18:30:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkqOCkvuCkmicg?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSo4KWA?= Message-ID: <4BF683D8.2090406@sarai.net> हिन्द युग्म के कहानी कलश से साभार, और हरे प्रकाश उपाध्याय को शुक्रिया सहित. http://kahani.hindyugm.com/2010/04/naach-story-hare-prakash-upadhyay.html रविकान्त From india.lalit at gmail.com Mon May 24 17:57:27 2010 From: india.lalit at gmail.com (Lalit Kumar) Date: Mon, 24 May 2010 17:57:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCli+CktiDgpJXgpYAg4KST4KSwIOCkuOClhy4uLg==?= Message-ID: आप सभी को मेरा नमस्कार, मेरा नाम ललित कुमार है। मैं कविता कोश नामक ऑनलाइन हिन्दी कविता संग्रह का संस्थापक और कविता कोश टीम का सदस्य हूँ। आप में से कुछ व्यक्ति तो अवश्य कविता कोश से परिचित होंगे। यह अपनी तरह का एक अनूठा प्रयास है। हज़ारों लोग प्रतिदिन इसका प्रयोग विभिन्न कारणों से करते हैं। मैं कविता कोश के बारे में आजकल एक छोटी-सी पुस्तक पर काम कर रहा हूँ। यदि कविता कोश शोधार्थियों के लिये लाभकर सिद्ध हुआ है तो मैं इस पुस्तक में एक अध्याय इस बारे में भी देना चाहता हूँ। यदि आप कविता कोश का प्रयोग करते हैं तो कृपया बताइये कि आप इसका प्रयोग किन कारणो से करते हैं। यदि आप विद्यार्थी या शोधार्थी हैं और आपने इस कोश को अपने कार्य के लिये प्रयोग किया है तो मैं आपसे विशेष-रूप से निवेदन करूँगा कि आप बतायें: १) आप कविता कोश को किस लिये प्रयोग करते हैं? २) कविता कोश की उपलब्धता ने आपकी किन समस्याओं को दूर किया है? ३) कविता कोश में उपलब्ध सामग्री, उसके प्रेज़ेन्ट किये जाने के तरीके और इसकी गुणवत्ता के बारे में आपके क्या विचार हैं? ४) इसके अलावा कोश के बारे में आपकी कोई भी सामान्य टिप्पणी। इस बाबत आपकी कही बातों को मैं, आपकी अनुमति से, पुस्तक में भी शामिल करना चाहूंगा। आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी! आप अपना उत्तर दीवान की मेल-लिस्ट के ज़रिये दे सकते हैं। यदि आप मुझसे सीधे सम्पर्क करना चाहते हैं तो मेरा मोबाइल नम्बर है: 9891039829 और मेरा ईमेल पता है: india.lalit at gmail.com शुभाकांक्षी ललित -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100524/ec18037c/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed May 26 13:05:17 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 26 May 2010 13:05:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkueCkv+CkqOCljeKAjeCkpuClgCDgpKzgpY3gpLLgpYngpJc=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkrOCliOCkoOCklSDgpLjgpILgpKrgpKjgpY3gpKg=?= Message-ID: <4BFCCF35.2060109@sarai.net> प्रकाशन के लिए सचित्र समाचार दिल्ली हिन्‍दी ब्लॉगर बैठक संपन्न : वैश्विक संगठन के निर्माण पर सहमति रविवार २३ मई को पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई में सर दीनबंधु छोटूराम जाट धर्मशाला में दिल्ली हिन्‍दी ब्‍लॉगरों की एक विस्तृत बैठक संपन्न हुई । ज्ञात हो कि दिल्ली ब्‍लॉगर्स इससे पहले भी कई बैठकों का सफल आयोजन कर चुके हैं । आभासी दुनिया के जरिए एक दूसरे से जुडे़ , समाज के विभिन्न वर्गों और देश के विभिन्न्न क्षेत्रों के लेखक और पाठक एक दूसरे के साथ साझे मंच पर न सिर्फ़ लिखने पढने तक सीमित रहे बल्कि उन्होंने आभासी रिश्तों के आभासी बने रहने के मिथकों को तोडते हुए आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर बहुत से मुद्दों पर विचार विमर्श किया । सुदूर छत्तीसगढ से आए साहित्यकार ब्‍लॉगर श्री ललित शर्मा जी और विख्यात ज्योतिष लेखिका श्रीमती संगीता पुरी जी के स्वागत और मिलन को एक सुनहरे मौके के रूप में लेते हुए आयोजित किए इस बैठक में लगभग ४० से भी अधिक ब्‍लॉगरों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई । इस बैठक में शामिल होने वाले ब्‍लॉगर साथी थे , श्री ललित शर्मा जी , श्रीमती संगीता पुरी जी , श्री अविनाश वाचस्पति,श्री रतन सिंह शेखावत ,श्री अजय कुमार झा, श्री खुशदीप सहगल,श्री इरफ़ान, श्री एम वर्मा , श्री राजीव तनेजा , एवं श्रीमती संजू तनेजा , श्री विनोद कुमार पांडे , श्री पवन चंदन जी , श्री मयंक सक्सेना , श्री नीरज जाट , श्री अमित (अंतर सोहिल ) , सुश्री प्रतिभा कुशवाहा जी, श्री एस त्रिपाठी ,श्री आशुतोष मेहता , श्री शाहनवाज़ सिद्दकी ,श्री जय कुमार झा, श्री सुधीर, श्री राहुल राय , डा. वेद व्यथित, श्री राजीव रंजन प्रसाद , श्री अजय यादव ,अभिषेक सागर , डा. प्रवीण चोपडा,श्री प्रवीण शुक्ल प्रार्थी , श्री योगेश गुलाटी , श्री उमा शंकर मिश्रा , श्री सुलभ जायसवाल ,श्री चंडीदत्त शुक्ला , श्री राम बाबू,श्री देवेंद्र गर्ग जी , श्री घनश्याम बाग्ला , श्री नवाब मियां , श्री बागी चाचा इत्‍यादि रहे। इस बैठक में औपचारिक परिचय ( आभासी दुनिया के लोगों का आमने सामने एक दूसरे से रुबरू होना एक दिलचस्प अनुभव होता है ) के बाद , हिन्‍दी ब्‍लॉगरों के बीच सम्‍मानीय चर्चित हिन्‍दी ब्‍लॉगर और बैठक के आयोजक श्री अविनाश वाचस्पति जी (जो कि सामूहिक ब्‍लॉग नुक्‍कड़ के मॉडरेटर हैं) ने प्रस्तावना में कई प्रमुख बातों को सबके सामने रखा, जिसमें उन्‍होंने कहा कि ''हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को उन दोषों से दूर रखने का प्रयास करेंगे जो टी वी, प्रिंट मीडिया और अन्‍य माध्‍यमों में दिखलाई दे रहे हैं। द्विअर्थी संवाद और शीर्षकों के जरिए सनसनी फैलाने से बचे रहेंगे। जो भाषा हम अपने लिए, अपने बच्‍चों के लिए चाहते हैं - वही ब्‍लॉग पर लिखेंगे और वही प्रयोग करेंगे। ब्‍लॉगिंग को पारिवारिक और सामाजिक बनायेंगे, जिससे भविष्‍य में इसे प्राइमरी शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सके। ब्‍लॉगिंग में वो आनंद आना चाहिए जो संयुक्‍त परिवार में आता है। यहां पर उसकी अच्‍छाईयां ही हों उसकी बुराईयों से बचे रहें। हम सबका प्रयास होना चाहिए कि जिस प्रकार आज मोबाइल फोन का प्रसार हुआ है उतना ही प्रचार प्रसार हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का भी हो परंतु उसके लिए हमें संगठित होना होगा। इसके लिए हमें एक वैश्विक संगठन बना लेना चाहिए। उपस्थित ब्‍लॉगरों ने इन मुद्दों के अलावा और भी ज्‍वलंत विषयों ब्‍लॉगिंग और हिंदी , पत्रकारिता को कड़ी चुनौती देती ब्‍लॉगिंग विधा, ब्‍लॉगिंग एक सामाजिक समरसता कायम करने के माध्‍यम के सशक्‍त रूप में, पर भी सबने गहन चिंतंन किया । ब्‍लॉगरों के एक संगठन की आवश्यकता पर सबने सहमति जताते हुए इस कार्य को आगे बढाने का कार्य शुरू कर दिया है। ब्‍लॉगिंग की बढ़ती हुई ताकत के कारण भविष्य में ब्‍लॉगिंग और हिन्‍दी ब्‍लॉगरों को दमन का सामना न करना पड़े और उनकी अभिव्‍यक्ति पर सेंसर न लगे, इसके लिए भी आज एक बड़ी आवश्‍यकता है इस तरह के संगठन के निर्माण की है जिससे हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग जगत स्‍वयं ही अनुशासित हो सके और इस प्रकार की संभावना ही पैदा न हो। इसी संकल्प के साथ बैठक का समापन हुआ । भविष्य में नियमित रूप से न सिर्फ़ ऐसी बैठकों अपितु तकनीकी कार्यशालाओं, विकीपीडिया को समृद्ध करने के लिए योगदान करते हेतु, साहित्यिक विधाओं के विशाल कोशों में सक्रिय भागीदारी के लिए युवाओं को तैयार करने के लिए आयोजनों के प्रस्‍ताव का सभी ने करतल ध्‍वनि से स्‍वागत किया। ... *कृपया विशेष ध्‍यान दें (नोट इस रिपोर्ट में प्रस्‍तुति में किसी का नाम न दिया जाये तो बेहतर रहेगा,धन्‍यवाद)* -- प्रेषक :- अविनाश वाचस्‍पति Avinash Vachaspati साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर नई दिल्‍ली 110065 Mobile 09868166586/09711537664 http://twitter.com/avachaspati http://avinashvachaspati.blogspot.com/ http://nukkadh.blogspot.com/ http://pitaajee.blogspot.com/ http://jhhakajhhaktimes.blogspot.com/ http://bageechee.blogspot.com/ http://tetalaa.blogspot.com/ http://avinashvachaspati.jagranjunction.com/ From ravikant at sarai.net Wed May 26 13:11:20 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 26 May 2010 13:11:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSk4KWA?= =?utf-8?b?IOCkrOClgCDgpKHgpYAg4KS24KSw4KWN4KSu4KS+IOCkleClgCwg4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KS34KWN4KSf4KWN4KSw4KSq4KSk4KS/IOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4=?= Message-ID: <4BFCD0A0.6070802@sarai.net> इस पर टीका-टिप्पणी दीवान के अलावा आप पंकज पुष्कर को भी भेज सकते हैं. डाक्टर बी डी शर्मा पूर्व आयुक्त - अनुसूचित जाति-जनजाति ए-११ नंगली रजापुर निजामुद्दीन पूर्व नई दिल्ली-११००१३ दूरभाष- 011-24353997 मई - १७ २०१० सेवा में, राष्ट्रपति, भारत सरकार नई दिल्ली महामहिम, विषय- जनजातीय इलाकों में शांति-स्थापना 1. विदित हो कि आदिवासी मामलों से अपने आजीवन जुड़ाव के आधार पर (जिसकी शुरुआत सन् १९६८ में बस्तर से तब हुई जब वहां संकट के दिन थे और फिर अनुसूचित जाति-जनजाति का अंतिम आयुक्त (साल १९८६-१९९१) रहने की सांविधानिक जिम्मेदारी) मैं आपको यह पत्र एक ऐसे संकटपूर्ण समय में लिख रहा हूं जब आदिवासी जनता के मामले में सांविधानिक व्यवस्था लगभग ढहने की स्थिति में है, आबादी का यह हिस्सा लगभग युद्ध की सी स्थिति में फंसा हुआ है और उस पर हमले हो रहे हैं। 2. इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे सीधा संवाद स्थापित कर रहा हूं क्योंकि जनता (और इसमें आदिवासी जनता भी शामिल है) आपको और राज्यपाल को भारत के सांविधानिक प्रधान के रूप में देखती है. संबद्ध राज्य संविधान की रक्षा-संरक्षा के क्रम में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इस बाबत शपथ उठाते हैं। अनुच्छेद ७८ के अन्तर्गत राष्ट्रपति के रूप में आपके कई अधिकार और कर्तव्य हैं जिसमें एक बात यह भी कही गई है कि मंत्रिमंडल और प्रशासन की सारी चर्चा की आपको जानकारी दी जाएगी और यह भी कि आप मंत्रिमंडल के समक्ष मामलों को विचारार्थ भेजेंगे। 3. खास तौर पर संविधान की पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 3 में कहा गया है- "ऐसे प्रत्येक राज्य का राज्यपाल जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या जब राष्ट्रपति अपेक्षा करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा और *संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में निर्देश देने तक होगा।" * इस संदर्भ में गौरतलब है कि कोई भी फलदायी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई है। आदिवासी मामलों की परामर्श-परिषद (पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 4) ने कोई प्रभावी परामर्श नहीं दिया। 4. विधि के अन्तर्गत राज्यपाल इस बात को सुनिश्चित कर सकता हैं कि संसद या राज्यों द्वारा बनाया गया कोई भी कानून आदिवासी मामलों में संकेतित दायरे में अमल में ना लाया जाय। मौजूदा स्थिति यह है कि भू-अर्जन और सरकारी आदेशों के जरिए आदिवासी का निर्मन दोहन और दमन हो रहा है। बावजूद इसके, कोई कार्रवाई नहीं की जा रही। 5. दरहकीकत, अगर गृहमंत्रालय के मंतव्य को मानें तो आदिवासी संघीय सरकार की जिम्मेदारी हैं ही नहीं। गृहमंत्रालय के अनुसार तो संघीय सरकार की जिम्मेदारी केवल राज्य सरकारों की मदद करना है। ऐसा कैसे हो सकता है? *संघ की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार पांचवी अनुसूची के विधान के अन्तर्गत समस्त अनुसूचित क्षेत्रों तक किया गया है*। इसके अतिरिक्त विधान यह भी है कि ‘ संघ अपनी कार्यपालिका की शक्ति के अन्तर्गत राज्यों को अनुसूचित इलाके के प्रशासन के बारे में निर्देश देगा ’ 6. आदिवासी जनता के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर मैं यह कहने से अपने को रोक नहीं सकता कि केंद्र सरकार आदिवासी जनता के मामले में अपने सांविधानिक दायित्वों का पालन नहीं करने की दोषी है। उसका दोष यह है कि उसने सन् साठ के दशक की स्थिति को जब आदिवासी इलाकों में छिटपुट विद्रोह हुए थे आज के ’युद्ध की सी स्थिति’ तक पहुंचने दिया। संविधान लागू होने के साथ ही आदिवासी मामलों के प्रशासन के संदर्भ में एक नाराजगी भीतर ही भीतर पनप रही थी मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। साठ सालों में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में एक भी निर्देश राज्यों को जारी नहीं किया। राष्ट्र के प्रधान के रुप में इस निर्णायक समय में आपको सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार भौतिक, आर्थिक और भावनात्मक रुप से तहस-नहस, धराशायी और वंचित आदिवासियों के प्रति यह मानकर कि उनकी यह क्षति अपूरणीय है खेद व्यक्त करते हुए अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी निभाये। आदिवासियों की इस अपूरणीय क्षति और वंचना समता और न्याय के मूल्यों से संचालित इस राष्ट्र के उज्ज्वल माथे पर कलंक की तरह है। 7. मैं आपका ध्यान देश के एक बड़े इलाके में तकरीबन युद्ध की सी स्थिति में फंसी आदिवासी जनता के संदर्भ में कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आकर्षित करना चाहता हूं। आपके एक सुयोग्य पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने २६ जनवरी २००१ को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बड़े जतन से उन महनीय कानूनों की तरफ ध्यान दिलाया था जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनाया गया है और जिन कानूनों को अदालतों ने भी अपने फैसलें देते समय आधारभूत माना है। श्री नारायणन ने गहरा अफसोस जाहिर करते हुए कहा था कि विकास की विडंबनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि, ‘ *कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां कहें कि भारतीय गणतंत्र को वन-बहुल धरती और उस धरती पर सदियों से आबाद वनवासी जनता का विनाश करके बनाया गया।.’ * 8. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अपने देश के सत्ताधारी अभिजन अक्सर आदिवासियों को गरीब बताकर यह कहते हैं कि उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। यह दरअसल आदिवासी जीवन मूल्यों के प्रति इनकी निर्मम संवेदनहीनता और समझ के अभाव का सूचक है। ऐसा कह कर वे उन सहज लोगों के मर्मस्थान पर आघात करते हैं जिन्हें अपनी इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। ध्यान रहे कि आदिवासी गरीब नहीं है। आदिवासी जनता को उसके ही देस में, उस देस में जहां धरती माता ने अपनी इस प्रिय संतान के लिए प्रकृति का भरपूर खजाना लुटाया है, दायवंचित किया गया है। अपनी जीवंत विविधता पर गर्व करने वाली भारतीय सभ्यता के जगमग ताज में आदिवासी जनता सबसे रुपहला रत्न है। 9. यही नहीं, आदिवासी जनता ’.इस धरती पर सर्वाधिक लोकतांत्रिक मिजाज की जनता’ है। राष्ट्रनिर्माताओं ने इसी कारण उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की। पांचवी अनुसूची को 'संविधान के भीतर संविधान' की संज्ञा दी जाती है। फिर भी, इस समुदाय का संविधान अंगीकार करने के साथ ही तकरीबन अपराधीकरण कर दिया गया। पुराने चले आ रहे औपनिवेशिक कानूनों ने उन इलाकों को भी अपनी जद में ले लिया जिसे संविधान अंगीकार किए जाने से पहले अपवर्जित क्षेत्र (एक्सक्लूडेड एरिया) कहा जाता था। औपनिवेशिक कानूनों में समुदाय, समुदाय के रीति-रिवाज और गाँव-गणराज्य के अलिखित नियमों के लिए तनिक भी जगह नहीं रही। ऐसी विसंगति से उबारने के लिए ही राज्यपालों को असीमित शक्तियां दी गई हैं लेकिन वे आज भी इस बात से अनजान हैं कि इस संदर्भ में उनके हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से आदिवासी जनता के जीवन पर कितना विध्वंसक प्रभाव पड़ा है। 10. *पेसा* यानी प्राविजन ऑव पंचायत (एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया - १९९६ ) नाम का अधिनियम एक त्राणदाता की तरह सामने आया। इस कानून की रचना आदिवासियों के साथ हुए उपरोक्त ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए किया गया था। पूरे देश में इस कानून ने आदिवासियों को आंदोलित किया। इस कानून को लेकर आदिवासियों के बीच यह मान्यता बनी कि इसके सहारे उनकी गरिमा की रखवाली होगी और उनकी स्वशासन की परंपरा जारी रहेगी। इस भाव को आदिवासी जनता ने 'मावा नाटे मावा राज' (हमारे गांव में हमारा राज) के नारे में व्यक्त किया। बहरहाल आदिवासी जनता के इस मनोभाव से सत्तापक्ष ने कोई सरोकार नहीं रखा। इसका एक कारण रहा सत्ताधारी अभिजन का पेसा कानून की मूल भावना से अलगाव। यह कानून कमोबेश हर राज्य में अपने अमल की राह देखता रहा। 11. आदिवासी जनता के लिए अपने देश में सहानुभूति की कमी नहीं रही है। नेहरु युग के पंचशील में इसके तत्व थे। फिर कुछ अनोखे सांविधानिक प्रावधान किए गए जिसमें आदिवासी मामलों को राष्ट्रीय हित के सवालों के रूप में दलगत संकीर्णताओं से ऊपर माना गया। साल १९७४ के ट्रायबल सब प्लान में आदिवासी इलाकों में विकास के मद्देनजर शोषण की समाप्ति के प्रति पुरजोर प्रतिबद्धता जाहिर की गई। फिर साल १९९६ के पेसा कानून में आदिवासी इलाके के लिए गाँव-गणराज्य की परिकल्पना साकार की गई और वनाधिकार कानून (साल २००६) के तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे का वादा किया गया। तो भी, इन प्रतिबद्धताओं का सबसे दुखद पहलू यह है कि आदिवासियों के साथ किए गए वादों की लंबी फेहरिश्त में कोई भी वादा ऐसा नहीं रहा जिसे तोड़ा नहीं गया, कई मामलों में तो वादों को तोड़ने की हद हो गई। मैं तोड़े गए वादों की एक फेहरिश्त भी इस सूची के साथ संलग्न कर रहा हूं। 12. वादे टूटते रहे और प्रशासन स्वयं शिकारी बन गया तथा सत्तापक्ष के शीर्षस्थ आंखे मूंदे रहे। ऐसी स्थिति में वे विस्थापन के कारण उजड़ने वाले आदिवासियों की गिनती तक भी नहीं जुटा सके। इस क्रम में बेचैनी बढ़ी और बलवे लगातार बढते गए। जंगल में रहने वाले जिन लोगों पर अंग्रेज तक जीत हासिल नहीं कर पाये थे उनके लिए यह राह चुनना स्वाभाविक था। तथाकथित विकास कार्यक्रमों के जरिए आदिवासियों को अपने साथ मिलाने की जुगत एक फांस साबित हुई। ये कार्यक्रम समता के मूल्यों का एक तरह से माखौल थे। गैरबराबरी के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले युवाजनों का एक हिस्सा आदिवासियों का साथी बना। साल १९९८ में मुझसे इन सहज-साधारण लोगों (आदिवासियों) ने कहा था- आसपास दादा (माओवादी) लोगों के आ जाने से हमें कम से कम दारोगा, पटवारी और फॉरेस्ट गार्ड के अत्याचारों से छुट्टी मिली है। फिर भी सत्तापक्ष इस बात पर डटा रहा कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है। उसने अपनी इस रटंत में बदलाव की जरुरत नहीं समझी। 13. निष्कर्ष रुप में मेरी विनती है कि आप निम्नलिखित बातों पर तुरंत ध्यान दें- (क) केंद्र सरकार से कहें कि वह आदिवासी जनता के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारी की बात सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे। (ख) आदिवासी इलाकों में तत्काल शांति बहाली का प्रस्ताव करें (ग) निरंतर पर्यवेक्षण, पुनरावलोकन और कार्रवाई के लिए उपर तक जवाबदेही का एक ढांचा खड़ा किया जाय जिस तक पीडितों की सीधी पहुंच हो। (घ) एक साल के अंदर-अंदर उन सारे वायदों का पालन हो जो आदिवासी जनता के साथ किए गए और जिन्हें राज्य ने तोड़ा है । (च) पेसा कानून के अन्तर्गत स्थानीय जनता की मंजूरी के प्रावधान का पालन दिखाने के लिए जिन मामलों में बलपूर्वक, धोखे-छल या फिर किसी अन्य जुगत से स्थानीय जनता की मंजूरी हासिल की गई और फैसले लिए गए उन फैसलों को पलटा जाये और उनकी जांच हो। (छ) मौजूदा बिगड़े हालात के समग्र समाधान के लिए लिए व्यापक योजना बने और, (ज) उन इलाकों में से कुछ का आप दौरा करें जहां सांविधानिक व्यवस्था पर जबर्दस्त संकट आन पड़ा है।. सादर, आपका विश्वासी बी डी शर्मा प्रति, 1.श्री मनमोहन सिंह जी , प्रधानमंत्री, भारत सरकार साऊथ ब्लॉक नई दिल्ली 2.श्री प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री, भारत सरकार नार्थ ब्लॉक नई दिल्ली 3. श्री वीरप्पा मोईली विधि और न्यायमंत्री, भारत सरकार शास्त्रीभवन, नई दिल्ली 4. श्री पी चिदंबरम् गृहमंत्री, भारत सरकार नार्थ ब्लॉक, नई दिल्ली 5 श्री कांतिलाल भूरिया मंत्री आदिवासी मामले, भारत सरकार शास्त्रीभवन, नई दिल्ली 6. डाक्टर सी पी जोशी ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री,भारत सरकार शास्त्रीभवन, नई दिल्ली 7 श्री जयराम रमेश वन एवम् पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार पर्यावरण भवन, लोदी रोड, नई दिल्ली From vineetdu at gmail.com Thu May 27 10:25:19 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 27 May 2010 10:25:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KWJ4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleCksOCkqOCkviDgpKrgpLk=?= =?utf-8?b?4KS+4KSh4KS8IOCksuCkl+CkpOCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: सोचता हूं तो हैरानी होती है कि मैं कैसे कुछ महीने पहले तक रोज पोस्टें लिखा करता था. कई ब्लॉग्स भी पढ़ लेता,अलबत्ता कमेंट्स न के बराबर करता। मेरे दिमाग में रोज इतने सारे मुद्दे होते,इतना कुछ लिखने का मन करता कि लगता कि सबों पर अलग से ब्लॉग बना लूं। इसी क्रम में टेलीविजन पर लिखने के लिए टीवी प्लस बनाया। जिस दिन अपने ब्लॉग पर नहीं लिखा उस दिन मोहल्लालाइव या फिर मीडिया खबर के लिए लिखा। लेकिन अब रेगुलर बेसिस पर पोस्टें लिखना पहाड़ सा लगता है।... मुझसे कई बार वर्चुअल स्पेस के जरिए जुड़े लोगों ने पूछा भी कि आप रोज-रोज कैसे लिख लेते हो,कैसे आपके दिमाग में रोज कुछ न कुछ लिखने को होता है। इसका जबाब मैंने या तो चैट बॉक्स पर दिया या फिर एक-दो बार सीधे-सीधे पोस्ट लिखकर ही साफ किया कि- ब्लॉगिंग की पैदाइश हूं,लिखूंगा नहीं तो मर जाउंगा। उस समय सचमुच रोज लिखना रोजमर्रा के काम में शामिल हो गया था।..और फिर समय भी कितना लगता,मुश्किल से बीस से पच्चीस मिनट। लाइनों की सतह तो पहले से तह लगकर दिमाग में पड़ी होती,लिखने बैठता तो लगता जैसे पापा साड़ी की गांठ खोलते हुए गिनती मिलाया करते हैं,मैं भी बस यही कर रहा हूं। लिखना मेरे लिए कोई अलग से विशेष एफर्ट कभी नहीं रहा। अगर मैं रिसर्च आर्टिकल को छोड़ दूं जिसमें कि कई स्तर पर संदर्भ देने होते हैं तो लिखने में और किसी के घर का खाना खाने के बीच कभी ज्यादा फर्क नहीं रहा। ये दोनों काम मैं चौबीस घंटे में कभी भी कर सकता हूं। उन दिनों ऐसा मेरे भरोसा जम गया था। अकादमिक तौर पर जो लोग मुझसे जुड़ें हैं औऱ मैं जिनसे जुड़ा हूं उन्हें मेरी रोज की लिखने की आदत से ये ...फहमी पैदा हो गयी कि मैं बस दिनभर ब्लॉगिंग करता रहता हूं और कुछ भी पढ़ाई-लिखाई नहीं करता। एक मास्टर साहब ने तो इस काम को चैटिंग से भी बदतर लत करार दिया। मैंने कभी किसी को इस मामले में सफाई देने की जरुरत नहीं समझी। उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है क्योंकि हिन्दी समाज "कब्जीयत शैली" का शिकार समाज रहा है। यहां लोग सीधे-सीधे जो जैसा सोचते हैं,वैसा बहुत ही कम लिखा करते है। पहले तो सोचते हैं,फिर विचारों और विमर्शों का तीर-तुक्का भिड़ाते हैं,फिर इस बात पर गुणा-गणित करते हैं कि अगर ऐसा लिखा तो किस-किस महंतों से खेल बिगड़ जाएगा। कुछ आलस्य का भी सम्मान करना होता है। कुछ लोगों के साथ ये भी दिक्कत है कि खुद हाथ से लिखा और चेले-चपाटियों से टाइपिंग करा ली।..तो ये सब में ले-देकर समय लग जाता है। यहां तो अपना मामला सीधा-सीधा था। जो करना था सो खुद ही।..और हम जैसे वेवकूफ को इस बात की चिंता क्यों सताने लगी कि मेरे लिखने से किस महंत की अनवरत साधना भंग होगी। अब महीनों तक तो यही भरोसा नहीं रहा कि मेरे लिखे को लोग पढ़ेगे और वो भी पढ़ेंगे जिनके पास किताबों की समीक्षा करने तक के लिए किताबें पढ़ने का समय नहीं। ये तो थोड़ी बहुत समझ तब पैदा हुई जब देखा कि कुछ लोग पटेल चेस्ट से मास्टरजी के लिए पोस्टों की प्रिंटआउट निकालकर सेवा में प्रेषित कर रहे हैं।..तो भी लिखता रहा,इस मिजाज से कि लिख ही तो रहा हूं किसी की जमीन थोड़े ही कब्जा ले रहा हूं और होए दिक्कत तो होए महंतों को। बाबूजी के साथ ब्रा,पैंटी और साड़ी-बिलाउज का धंधा जिंदाबाद। वैसे भी लंबे समय तक मुझे नक्कारा समझनेवाले पापा का मन अब बदल गया,मुझमें अब वो भविष्य देखते हैं। मैं उस सुख की कल्पना से रोमांचित हो जाता हूं जब किसी संतुष्ट ग्राहक के हाथ से पैसे लेकर पापा मुझे गल्ले में पैसे रखने कहते हैं और रात में बाइक पर उनके साथ लौटता हूं,वो भइया से भी ज्यादा स्पीड में स्पेल्डर चलाते हैं और मैं पीछे से लगातार कुछ न कुछ बोलता जाता हूं। मैंने तब सबसे ज्यादा पोस्टें लिखी जब मैं सबसे ज्यादा व्यस्त रहा। जब पीएचडी की रिपोर्ट बना रहा होता,थीसिस के चैप्टर लिख रहा होता,पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहा होता,टीवी देख रहा होता। मैंने एक बार कहा भी कि जब मैं रोज पोस्टें लिख रहा हूं तो समझिए कि मेरी लाइफ में सबकुछ अच्छा-अच्छा और व्यस्त चल रहा है। व्यस्त होने पर हमारी सक्रियता बढ़ा जाती है औऱ हम एक ही साथ कई काम करने लग जाते हैं।..इसलिए जब जब भी किसी ने कहा कि अरे अभी बंडे हो,लिख ले रहे हो,देखना जब विजी हो जाओगे तो ब्लॉगिंग छूट जाएगी,मैं मन ही मन मुस्कराता और कहता देखना नहीं छूटेगी। लिखने के लिए समय से कहीं ज्यादा इच्छाशक्ति जरुरी है और हम कोशिश करेंगे कि वो कभी मरने न पाए। लेकिन अबकी बार न जाने ऐसा क्या हुआ,दिन पर दिन बितते गए और देखते-देखते करीब १५ दिन हो गए और मैं कुछ भी लिख नहीं पाया। अगर मैं आपको वजह गिनाने लगूं तो बेमानी होगी। कायदे से मुझे जिन कारणों से रोज लिखना चाहिए था,मैं उसे ही वजह बताकर नहीं लिखा,ऐसा नहीं करना चाहता। कितने मुद्दे थे मेरे पास। तुरंत मिर्चपुर से खाप पंचायत और दलितों की जली बस्तियां देखकर लौटा था। उसके दो दिन बाद से ही दिल्ली में भरी दुपहरी में कमरा खोजने निकलना शुरु कर दिया था। चार दिनों तक प्रोपर्टी डीलर के पीछे चकरघिन्नी की तरह कैंस के इलाके मथ डाले थे। फिर हॉस्टल छोड़ दिया,नई जगह पर आ गया। तीन साल पहले चैनल की नौकरी के वक्त जो जिंदगी थी,खुद से खाना बनाना और टिफिन का इस्तेमाल करना,सब शुरु हो गया। १८ तारीख को मैंने एक जबरदस्त कार्यक्रम का संचालन किया। कितना कुछ था मेरे पास लिखने को। मैं एक-एक सामान जुटा रहा था। लेकिन नहीं,कुछ भी नहीं लिख पाया। पिछले तीन-चार दिनों से तो कीबोर्ड पर हाथ ही रुक से गए। मैं भीतर से हिल गया।..भीतर का अपाहिजपना तो नहीं,कोई दिमागी अटैक तो नहीं। मैं कोई कारणों की खोजबीन में उलझना नहीं चाहता। मैं बस रोज लिखना चाहता हूं,ये जानते हुए कि हिन्दी समाज में रोज औऱ बहुत पढ़ना तो अच्छी बात है लेकिन रोज लिखना अच्छा नहीं माना जाता।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100527/8715ef9d/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat May 29 20:19:39 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 29 May 2010 20:19:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KWI4KSo4KSyIOCknOCliyDgpIbgpKTgpILgpJXgpLXgpL7gpKYg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOCkvuCkpSDgpLngpYg=?= Message-ID: हम आतंकवाद के साथ हैं। किसी न्यूज चैनल के हेड का ऐसा कहना क्या सिर्फ जुबान के फिसल जाने का मामला है। यदि हां तो उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वो किस हैसियत से बात करते हैं और उन्हें बोलते वक्त सतर्क रहना चाहिए।..और अगर नहीं तो हमें सोचना होगा कि मीडिया इन्डस्ट्री में कैसे-कैसे चैनल हेड उग आए हैं जिन्हें इतना भी पता नहीं कि आतंकवाद क्या है? अगर कोई चैनल हेड कहे कि वो माओवाद के साथ हैं,उस माओवाद के साथ जिनकी पूरी क्रांति और बदलाव के सारी सोच मासूमों का खून बहाने तक जाकर खत्म हो जाती है फिर भी जमाने का जो चलन हैं उसमें उन्हें इन्टलैक्चुअल करार दे दिया जाएगा। लेकिन आतंकवाद के साथ होनेवाली बात मुझे नहीं लगता कि किसी आतंकवादी के पक्ष से केस लड़नेवाले वकील के अलावे कोई दूसरा शख्स कर सकता है। तो इसका मतलब ये साफ है कि मीडिया खबर ने जिस चैनल के बारे में हमें जानकारी दी है कि उन्होंने ये कहा कि हम आतंकवाद के साथ हैं,उन्हें ये पता ही नहीं कि आतंकवाद कोई विचारधारा है या फिर ग्लोबल स्तर का सबसे बड़ा संकट। इस साइट ने ऐेसे चैनल हेड पर लानतें-मलानते भेजते हुए जो कुछ भी लिखा है,उसके बड़े हिस्से से सहमति दर्ज करते हुए हमें लगता है कि इस पूरे मामले को थोड़ा और आगे जाकर सोचना चाहिए। किसी के लिए चैनल पापा का दिया हुआ गिफ्ट हो जाए,हमें इस सवाल से टकराना ही होगा कि फिर उसके औलाद इस गिफ्ट के साथ क्या करते हैं? इस पूरे मामले में सबसे जरुरी और बड़ा सवाल है कि आखिर उन दलालों,प्रोपर्टी डीलरों,बिल्डरों और एक का पांच बनाने वाले टाइप के लोगों के भीतर ये भरोसा किसने पैदा किया है कि अगर तुम्हारे पास डेढ़-दो सौ करोड़ रुपये हैं और अगर नहीं है तो अपनी ठसक के दम जुटा ले सकते हो तो चैनल खोल सकते हो,चला सकते हो और देश के किसी भी चुनिंदा कहे जानेवाले पत्रकार को अपनी जूती के नीचे,अपने तलबे से उसकी बजा सकते हो। नवरत्न पालने का शौक अकबर को भी रहा और उसके जखीरे में शामिल होने की ललक हर प्रतिभाशाली शख्स को रही होगी। अकबर का ये शौक आज अगर मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर प्रथा का रुप धारण कर चुका है तो सवाल ये है कि नवरत्न के तौर पर बहाल होनेवाले लोग ये समझे कि वो अपनी जमीर बचाते हुए ही उसमें शामिल होंगे। उन्हें फैसला लेने में थोड़ी भी उलझन होती हो तो बीरबल और तानसेन की जीवनी पढ़ लेनी चाहिए। दूसरी तरफ जो जखीरा बनाने का काम कर रहे हैं,उन्हें इस बात की तमीज होनी चाहिए कि ये देश अब सिर्फ शौक से नहीं बल्कि जरुरतों से चलेगा। ये देश दलाली,लूट-खसोट,गैरमानवीय तरीके से अकूत धन जुटाकर अय्य़ाशी करने की बात को तो फिर फिर घड़ी-दो घड़ी के लिए पचा ले जाएगा क्योंकि पचाएगा नहीं तो करेगा क्या लेकिन इस धन से शौकिया तौर पर मीडिया चैनल खोले जाएं इसके लिए न तो मानसिक तौर पर तैयार है और न ही इसके भीतर ऐसा बर्दाश्त कर लेने की ताकत आने पायी है। इस धन के दागदार चरित्र को पाक-साफ करार देने के लिए मीडिया हाउस खोले जाएंगे इसे कभी बर्दाश्त नहीं करेगा। मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर आज कौन कितना बड़ा पत्रकार है,अगर पत्रकारिता बची भी रह गयी है तो भी इस बात से तय नहीं होता कि उसने साल में कितनी बड़ी स्टोरी दी है। ऐसी स्टोरी जिससे कि सत्ता और समाज के किसी भी हल्के में असर हुआ हो,बल्कि पूरा मामला इस बात से तय होता है कि वो कितने बड़े से बड़े पैकेज पर दूसरे चैनल में शिफ्ट हुआ है। हमारी बात अगर भाषण या बंडलबाजी लगती है तो एक तरफ नामचीन पत्रकारों की लिस्ट बनाइए और दूसरी तरफ उनकी स्टोरी की,आपको अंदाजा लग जाएगा। कभी जमाने में बेहतर पत्रकारिता के नजदीक मिसाल कायम करने जैसी चीज कुछ कर गए और अब जिंदगी भर उसे उपलब्धि की कमीई इस गलीच महौल में खाने की फिराक में पड़े हमें महान मीडियाकर्मियों पर सिर्फ घृणा ही नहीं आ रही है,बल्कि हमें वो उतने ही खतरनाक नजर आ रहे हैं जितनी खतरनाक शक्लें टेलीविजन और अखबारों में आए दिन दिखाए जाते हैं। क्योंकि ऐसे महान मीडियाकर्मियों ने दल्ला समाज के हाथों एक बहुत ही आसान फार्मूला थमा दिया है कि आप हमें इतनी रकम दें,बाकी पत्रकारिता का सारा काम हम देख लेंगे। तो पत्रकारिता को फार्महाउस की तरह ठेके पर लेने का जो काम ये महान पत्रकार कर रहे हैं वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके काम को अगर बारीकी से समझा जाए तो दलालों और दालमंडी में रुमाल फिराकर धंधा करनेवालों से वो कहीं ज्यादा घटिया काम कर रहे हैं। मीडिया खबर ने जिस चैनल का जिक्र किया है,जिस चैनल के हेड की बात की है उसकी जूती के नीचे देश का एक बहुत ही अनुभवी पत्रकार मुखौटे की शक्ल में टांग दिया गया है। इस पत्रकार के जब तक पत्रकार बने रहने की गलत जानकारी हमारे पास रही,सामने से गुजरते हुए मैं भी सम्मान में खड़ा हो गया। लेकिन जब पता चला कि ये भी इस अनुभवहीन,बिगडैल और बदतमीज चैनल हेड के आगे जूते चटकाता है तो अपराधबोध से मन भर आया। हमें किसी के प्रति जल्दीबाजी में श्रद्धा व्यक्त नहीं करनी चाहिए,बल्कि ये मान लेना चाहिए कि जीता-जागता कोई भी शख्स इज्जत के लायक नहीं होता। हमें उसके मरने तक का इंतजार करना चाहिए क्योंकि उसके बाद गलीच से गलीच घटिया से घटिया शख्स भी स्वर्ग में जाने की वजह से भगवान के करीब हो जाता है। मरकर आदमी देवता बन जाता है,हमें अपनी नास्तिक विचारधारा को थोड़ी देर के लिए उतार फेंककर ऐसा ही सोचना चाहिए। ऐसे महान पत्रकार पूरी की पूरी पत्रकारों की पीढ़ी के स्वाभिमान को कैसे कुचलने का काम करते हैं,उनके मनोबल को ध्वस्त करते हैं,उनके भीतर फ्रस्ट्रेशन के लेबल को आगे तक ले जाते हैं इसका अंदाजा शायद अभी न हो। लेकिन मैं महसूस कर रहा हूं मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर ये चलन तेजी से पनप रहा है कि जो कभी इस फील्ड में ग्लैमर और पैसा के फेर में आए या फिर कुछ सरोकार से जुड़े काम करने आए,उन्हें अब जैसे ही इससे कोई बेहतर या कई बार तो इससे कमतर भी विकल्प मिल रहे हैं तो वो यहां से जा रहे हैं। ये वो जमात है जो इस बात की चिंता नहीं करती कि ये जमाने के लिए महान पत्रकार है। बल्कि ये इस बात का खुलासा करती है कि महान कहलानेवाला पत्रकार एसी कमरे में बैठकर कैसे केंचुए की जिंदगी जी रहा है,उसकी रीढ़ की हड्डी न्यूज रुउम में पहुंचने से पहले ही दफना दी गयी और अब उसके शरीर का सिर्फ एक ही हिस्सा उपर उठता है जो बॉस के आने पर सर तक छूकर वापस लौट आता है। इसलिए भोपाल में आजकल जो पहल चल रही है कि महान पत्रकारों पर डॉक्यूमेंटरी बनायी जाए,उनकी जीवनियां लिखी जाए,बहुत जरुरी हो गया है कि उनके जीवन के इस किस्से की सही से जांच पड़ताल हो कि वो पत्रकारिता के भीतर रहकर उसके विरोध में किस हद तक उसकी जड़े खोद रहा है। पत्रकार के तौर पर जानेवाले शख्स के भीतर कैसे एक दलाल, चाटुकार,निरीह और बेशर्म शख्स की आत्मा घुस आयी है,इसकी शिनाख्त दलाल मीडिया मालिकों को उखाड़ने और उस पर कार्यवाही करने से कम जरुरी नहीं है। चैनल हेड ने जिस आतंकवाद का साथ गलतजुबानी और काहिली में कर दी,उसके भीतर का अनुभवी पत्रकार वाकई में आतंकवाद से कम घिनोना खेल नहीं रच रहा। मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sat May 29 22:59:33 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sat, 29 May 2010 22:59:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KSuIOCkj+CklSDgpLDgpL7gpJzgpKjgpYDgpKTgpL/gpJUg4KSu4KS4?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: रेल पटरी को उखाड़ कर 140 लोगों को मार देना या बस को बारूद से उड़ा देना कौन सा मसला है?? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pheeta.ram at gmail.com Sun May 30 00:37:22 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Sun, 30 May 2010 00:37:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KSuIOCkj+CklSDgpLDgpL7gpJzgpKjgpYDgpKTgpL/gpJUg4KSu4KS4?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkueCliA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: देखो कौन पूछता है? नंदीग्राम जनसंहार को सही कहने वाला और वाहवाही लूटने के लिये उस पर बेशर्मी से दोकुमेंतरी बनाने वाला मसला-ऐ-हाल पूछता है! 2010/5/29 Prakash K Ray > रेल पटरी को उखाड़ कर 140 लोगों को मार देना या बस को बारूद से उड़ा देना कौन > सा मसला है?? > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing लिस्ट > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sun May 30 00:55:31 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sun, 30 May 2010 00:55:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KSuIOCkj+CklSDgpLDgpL7gpJzgpKjgpYDgpKTgpL/gpJUg4KSu4KS4?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkueCliA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: किसी के बुरा होने से कोई और अच्छा हो जाता है क्या?? वैसे भी नंदीग्राम की हत्याओं का आंकड़ा माओवादी आतंकी कब का पार कर चुके हैं. नंदीग्राम में मार्क्सवादी पार्टी के लोगों को मार कर चैन नहीं मिला तो लालगढ़ में हत्याओं का सिलसिला शुरू किया जो आजतक जारी है. ये आग कब बुझेगी? जो माओवादी आतंक के समर्थक हैं वे चोरी चोरी क्यों ऐसा करते हैं? लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या कर माओवादी रफ्फूचक्कर हो गए. जब संघ गिरोह ने आदिवासियों का कत्लेआम किया तो कहाँ थी क्रांति? किस बिल में सुस्ता रही थी वो? 2010/5/30 Pheeta Ram > देखो कौन पूछता है? नंदीग्राम जनसंहार को सही कहने वाला और वाहवाही लूटने के > लिये उस पर बेशर्मी से दोकुमेंतरी बनाने वाला मसला-ऐ-हाल पूछता है! > > 2010/5/29 Prakash K Ray > >> रेल पटरी को उखाड़ कर 140 लोगों को मार देना या बस को बारूद से उड़ा देना कौन >> सा मसला है?? >> >> >> >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon May 31 12:52:55 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 31 May 2010 12:52:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgCDgpLDgpLXgpL/gpLbgpILgpJXgpLAg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?IOCkueCkruCksuCkviDgpJXgpL/gpLjgpYAg4KS44KSC4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkueCkruCksuCkviDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS54KWI?= Message-ID: साधु-संतों से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है भला? वैसे भी ये देश एक नंबर के मक्कार,दलाल, अय्याश,देह- व्यपार धंधे में लिप्त शख्स के साधु का वेश धरते ही पूजनेवाला रहा है। साधु का चोला पहनते ही सब पवित्र हो जाता है। इतना पवित्र,इतना मानवीय कि कई बार सांवैधानिक प्रावधान भी बौने नजर आने लगते हैं। लेकिन आर्ट ऑफ लिविंग के संत श्री श्री रविशंकर पर हमला जरुर चौंकानेवाला है। आजतक को दिए अपने फोनो में उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि उन पर किसने हमला किया ये पता नहीं। आजतक की ऑफिशियल साइट ने लिखा कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उन पर हमला किया है जबकि आज बीबीसी से लेकर देश की प्रमुख साइट बता रही है कि ये श्री श्री रविशंकर पर हमला नहीं है। श्री श्री रविशंकर पूरी तरह सुरक्षित हैं और उन्‍हें किसी तरह की चोट नहीं आई है उन्हें किसी पर शक नहीं। हम देश के बाकी हमलों की तरह इस हमले की भी भर्त्सना करते हैं। हमारा ऐसा करना रुटीन का हिस्सा करार दिया जाए। लेकिन इसके आगे हम दूसरे सवाल की तरफ मुड़ना चाहेंगे। ये देश शुरु से ही साधु-संन्यासियों का सम्मान करनेवाला देश रहा है। साधुओं के मामले में इतना लिबरल रहा है कि गलत से गलत काम किए जाने पर भी उसे बख्शता आया है। पौराणिक कथाओं में भी साधुओं ने अगर कोई गलती की तो उसकी सजा प्रशासन की ओर से न देकर उसे भगवान इसका हिसाब करेगा जैसी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया गया। संभवतः इस मिली सुविधा की वजह से साधुता के खत्म होते जाने पर भी साधुओं की तादाद बढ़ती चली गयी। ऐसे हाल में भी ये विरला देश है जहां कि साधुओं के प्रति आस्था थोड़े-बहुत हिलने-डुलने के साथ भी बरकरार है। यह आमजनों की आस्था का ही नतीजा है कि साधु होना इस देश में सुरक्षा कवच के तौर पर इस्तेमाल किया गया विधान बनता चला गया। आप पत्रऔऱ कार हैं,डॉक्टर हैं,मास्टर हैं तो भी कभी भी जनता के हाथ से पिट सकते हैं लेकिन साधु होने की स्थिति में आप सुरक्षित हैं। साधुओं की ये सुरक्षा प्रशासन की ओर से शांति औऱ सुरक्षा बहाल किए जाने के दावे से कहीं आगे की चीज है क्योंकि ये पूरी तरह जनभावनाओं के बीच रहकर पाती है। शायद यही वजह है कि बाबाओं-साधुओं के आए दिन सेक्स स्कैंडल,तस्करी और दलाली जैसे काम में लिप्त होने पर लोकल स्तर के प्रशासन से लेकर केन्द्र तक की राजनीति हाथ डालने के पहले थोड़ी सकुचाती है,थर्राती है,जलजला आ जाने की धमकी से चुप मारकर बैठ जाती है। देशभर की मीडिया थोड़ी-बहुत मार खाती है और इन्हीं बाबाओं के चैनलों में शेयर खरीद लिए जैने पर चुप मारकर बैठ जाती है। ऐसे में जबकि चारों ओर से लोग बाबाओं और साधुओं पर हाथ डालने के पहले सौ बार सोचते हैं,उनके पास किसी भी बड़े नेता से ज्यादा मजबूत जनाधार होता है तो फिर उन पर कोई हमला कैसे कर सकता है? श्री श्री रविशंकर पर जो हमला हुआ है उससे एक बात तो तत्काल साफ हो गयी है कि ये हमला उनके संत होने की वजह से नहीं हुआ है। आर्ट ऑफ लिविंग के जरिए जो शख्स लाखों लोगों के बीच अमन औऱ शांति बहाल करना चाहता है उस पर भला कोई क्यों हमला करेगा? ये देश तमाम तरह के दुगुर्णों को धारण करते हुए भी बदलाव के स्वर को पचाता आया है। आखिर इतने सारे अग्रदूतों की लाइनें ऐसे ही नहीं लग गयी है। ये हमला देश के किसी भी संत के बदलते चरित्र पर हमला है। बाबा और साधु का पदनाम धरकर जो साम्राज्य और बिजनेस का प्रसार का काम हो रहा है उस पर हमला है। दरअसल बाबाओं की लोकप्रियता का जो आधार है उसके पीछे उनका धंधा,उनसे होनेवाले मुनाफे और कमीशन जैसी सारी बातें शामिल हैं। अगर आप देश के किसी भी बड़े बाबा औऱ उनके ट्रस्ट की वर्किंग कल्चर पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां भी सारे काम उसी तर्ज पर होते हैं जिस तर्ज पर देश में कोई साबुन,स्कीन क्रीम,कंडोम,गर्भनिरोधक गोली या फिर लग्जरी कार बनाने-बेचनेवाली कंपनी करती है। धर्म की आड में इन बाबाओं के बीच जबरदस्त किस्म की रायवलरी है। आपसी खींच-तान और कम्पटीशन है। हमले की जड़ यहां से पनपती है। अगर इस पूरी बात को एक लाइन में कहा जाए तो ये हमला उस संत के उपर है जिसका पदनाम संत का है लेकिन उसकी तमाम गतिविधियां कार्पोरेट,बाजार और किसी भी पूंजीपति से अलग नहीं है। ये धर्म और आस्था का रोजगार चलानेवाले एक प्रैक्टिसनर के उपर हमला है। कम से कम इस मौके पर इस देश को बख्श दीजिए कि ये देश किसी साधु-संन्यासी पर हमला करेगा। इस देश में पैदा होनेवाला अपराधिक तत्व भी पता नहीं कौन सी घुट्टी पीकर बड़ा होता है कि अगर वो हत्या भी करता है,लूटपाट भी करता है,किसी की संपत्ति पर कब्जा भी करता है तो उसका एक हिस्सा धार्मिक कार्य में लगाता है,साधुओं को दान करता है। साधुओं और उसकी महिमा से डरता है। ये डर कमोवेश में बना ही रहता है। औऱ फिर अपराधिक ही क्यों,अपराध को रोकने में लगे लोगों के बीच भी यह भय काम करता है कि अगर उसने देश के इन साधुओं पर हाथ डाला तो उसका अनिष्ट होगा। ये बयान हमें किसी सरकारी या गैर सरकारी अधिकारियों से सुनने को नहीं मिला बल्कि इसका हवाला देश को वो बाबा जरुर जब-तब देते आए हैं जो जमीन हड़पने से लेकर हत्या करवाने के आरोप में शामिल रहे हैं। लेकिन श्री श्री रविशंकर पर हमला करनेवाले ने रत्तीभर भी नहीं सोचा कि इतने बड़े पहुंचे हुए बाबा पर हमला करने से उसे कुछ नुकसान हो जाएगा। उसके संतान अकाल मारे जाएंगे,उसके शरीर का कोई हिस्सा काम करना बंद कर देगा,उसकी आंख की रोशनी चली जाएगी। ये सारी बातें इसलिए कहना जरुरी है कि साधुओं के प्रति आस्था हमें इसी तरह भय दिखाकर पैदा की गयी है। इस पर कई तो फिल्में बनी है और कई धार्मिक सीरियलों में टुकड़ों-टुकड़ों में भी देखा है। हमला करनेवाले के भीतर से इस तरह के भय का खत्म होना दो तरह के संकेत देते हैं। एक तो ये जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं कि ऐसे संत हम धर्म औऱ आस्था के प्रैक्टिसनर भर हैं। अगर इस देश में वाकई यशस्वी संतों की परंपरा रही है तो उससे इनका नाम जोड़ा जाना बेमानी है। लोगों को ये बात समझ आ रही है कि इन प्रैक्टिसनरों के पास अकूत सम्पत्ति है जिसे लूटा जा सकता है,धमकाकर हथिआया जा सकता है। इसके साथ ही ऐसे संत अपने साम्राज्य का विस्तार करने में जिन नीतियों का सहारा लेते हैं वो संतई और प्रवचन करने की आदि परंपरा से कही ज्यादा राजनीति,कूटनीति,मैनेजमेंट और जोड़-तोड़ के ज्यादा करीब हैं। यहीं पर आकर संत और बाकी वर्चस्वकारी,प्रभावी लोगों की स्थिति और उऩ पर होनेवाले हमले के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता। इसलिए ये कोई आरोप नहीं है बल्कि मौजूदा दौर में बाबाओं के काम करने के तरीके पर सोचने का नजरिया भर है। ऐसे में ये बाबा और संत सिर्फ और सिर्फ नाम के स्तर पर संत औऱ साधु रह जाते हैं। भीतर-भीतर जो अंडर करन्ट प्रवाहित होता है वो पूंजीपति,राजनीतिक और इन्टरपेन्योर की स्ट्रैटजी है। ये अंडर करन्ट इस हमले से खुलकर सामने आया है। इस हमले ने एक हद तक साफ कर दिया है कि इस देश में संतई का पैटर्न पूरी तरह बदल चुका है। इसके भीतर भी जबरदस्त किस्म की प्रतिस्पर्धा है,कम्पटीशन है। मुझे ध्यान आता है कि आज से करीब आठ-नौ महीने पहले मैं सिर्फ कुछ घंटे के लिए हस्तिनापुर गया था। लेकिन बाद में वहां जो मठ और बाबागिरी का आलम देखा तो चार दिनों तक रुक गया। सिर्फ ये पता करने के लिए कि आखिर इतने मठों को बनाने के पीछे क्या मकसद है? हमें जानकर हैरानी हुई कि दिल्ली में जैसे जीटी करनाल रोड पर फार्महाउस बनाकर कमाने का जरिया बना लिया गया है,नोएडा और ओखला में फैक्ट्रियां डाल दी जाती है,वैसे ही यहां मठ डाल दिए जाते हैं। मठों के अंदर इस्तेमाल हुए शब्दों को सुनकर हैरानी हुई कि सबकुच कितना स्ट्रैटिजिकली किया जाता है। एक मठ का दूसरे मठ से जबरदस्त कम्पटीशन है। विचारधारा,धार्मिक मान्यताओं को लेकर तो बहुत पीछे की बात हो गयी। इसलिए थोड़े से भी उत्सुक हुए लोगों के लिए ये शोध का विषय है कि आखिर ऐसे संतों पर हमले होने क्यों शुरु हुए हैं? नतीजे तक पहुंचने का एक स्ट्रक्चर ये भी हो सकता है। दूसरा ये कि ये हमला इसलिए नहीं हुआ कि श्री श्री रविशंकर ने लोगों की भावनाओं को किसी तरह से ठेस पहुंचाने का काम किया। संभव है कि ये हमला उस रुटीन के तहत किया गया जो आए दिन किसी न किसी दमदार शख्स के उपर किया जाता है। श्रद्धानत लोगों के लिए ये बात जरुर परेशान करेगी कि जिस देश में इतना बड़ा संत सुरक्षित नहीं है तो फिर उसकी क्या बिसात? लेकिन ऐसा होने से साधुओं का असर और आगे जाकर कहें तो शायद कुछ आतंक कम हो। पिछले छ महीने के भीतर देश के साधुओं/बाबाओं को लेकर आयी खबरों पर गौर करें तो कृपालु महाराज से लेकर आसाराम बापू तक,इनमें उन सेक्स स्कैंडल में फंसे साधुओं को भी शामिल कर लें तो ये साफ हो जाता है कि इन सबों को ठोस तौर पर कानूनी विधान से ही होकर गुजरना पड़ा है और अगर सबों की स्थिति बदतर होती है तो उसके पीछे कानूनी कारवायी ही होगी। अलग से कोई दैवी विधान नहीं होने जा रहा। श्री श्री रविशंकर के हमले के मामले में फिर भी इस बात की छूट मिलती है जिसे कि जरुर कोई नत्थी करके परोसेगा कि प्रभु की कृपा उन पर बनी है,लेकिन अगर घायल भक्त को शामिल कर लें तो आस्था जरुर डगमगाती है। ऐसे में आस्था की जमीन लगातार जरुर कमजोर होगी। ये बात भी है कि इस कमजोर होती जमीन का अंदाजा संतों को बेहतर तरीके से होने लगा है शायद इसलिए मैनेजमेंट और मीडिया के ऑक्सीजन से खुद को जिलाए रखने की कोशिशें तेज हुई हैं। हमले,अभी तो इन पर लेकिन कुछ दिनों पहले तांत्रिक के बयान पर कि संत आसाराम ने शिष्य ने फलां फलां के लिए मारक मंत्र इस्तेमाल करने को कहा था,कहे जाने पर तांत्रिक के आश्रम में हमले ये साफ करते हैं कि इस आस्था,धर्म और सद्भावनाओं की आढ़त चलानेवाले लोगों के बीच जो कि अपने को सांसारिकता से दूर रहने की बात करते हैं,सांसारिकता के जोड़-तोड़ जमकर चल रहे हैं। इस बात को सख्ती से प्रशासन और देश की आम जनता जितनी जल्दी समझ ले,उतना ही अच्छा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Mon May 31 13:57:02 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 31 May 2010 13:57:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkheCkn+CksOCkv+Ckr+CkviDgpKrgpYcg4KSG4KSTIOCkuOCkgg==?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: हमरी अटरिया पे आओ संवरिया कभी कभी कुछ गीत कितनी पुरानी यादों को छेड़ देते हैं. उस रात जब उमा (अचानक, जिसकी मैं अपेक्षा भी नहीं कर रहा था) ने यह गीत सुनाया तो हमें पटना के वे दिन याद आ गए, जब प्रभात खबर के दफ्तर के सामने अजय जी (जो तब प्रभात खबर के संपादक हुआ करते थे) के साथ फुटपाथ पर बैठ कर देर तक यह गीत गुनगुनाया करते थे. कभी यह गीत जब उन्हें अपने दफ्तर में याद आता तो वे टेबल पर थाप देकर गाते. इस गीत के साथ मैं उसी तरह बड़ा हुआ हूँ जैसे... नहीं, ज्यादा इंतजार नहीं. बस अब ये गीत सुनिए. हमरी अटरिया पे आओ संवरिया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: