From vineetdu at gmail.com Tue Jun 1 12:09:34 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 1 Jun 2010 12:09:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSJ4KSf4KSy?= =?utf-8?b?4KWB4KSVIOCkqOClhyDgpJzgpL7gpKjgpL4s4KSs4KS54KSm4KS+4KSy?= =?utf-8?b?L+CkrOCkpuCkqOCkvuCkriDgpIbgpJXgpL7gpLbgpLXgpKPgpYAg4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCkvuCksg==?= Message-ID: आकाशवाणी सहित एफ.एम गोल्ड की दुर्दशा को लेकर चिंतित हुए रेडियोप्रेमियों के लिए आउटलुक,जून का अंक खास है। इस अंक में बदहाल लेबल के तहत अजीत सिंह की एक स्टोरी है जो कि इसके भीतर की तमाम तरह की गड़बड़ियों को उजागर इन करती है। इन गड़बड़ियों के बारे में पढ़ते हुए हमें एक बार फिर महसूस होता है कि आकाशवाणी किसी गहरी साजिश और चंद काहिल लोगों का शिकार हो गया है और पूरी तरह कबाड़खाने में तब्दील हो चुका है। एफ.एम.गोल्ड की बदहाली की कहानी हमने आपको पहले भी बतायी,( देशभर के एफ.एम गोल्ड के श्रोताओं एक हों,आकाशवाणी में नेपाली भाषा के साथ कबड्डी-कबड्डी उस समय बतायी जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया के गलियारों में इसकी कायदे से या तो चर्चा ही नहीं थी और अगर उसकी सुगबुगाहट हुई भी तो कुछ मीडिया संस्थानों ने छापने के नाम पर ना-नुकुर किया। इसलिए अजीत सिंह की रिपोर्ट पढ़ते हुए भी आपको कई बार लगेगा कि कई लाईनें हमने पहले भी हूबहू पढ़ी है। अब धीरे-धीरे सारे अखबार और पत्रिकाएं इस खबर को गंभीरता से लेने लगे हैं। इस बीच दो अच्छी बात हुई है कि आकाशवाणी और एफ.एम.गोल्ड के लोगों में अपना रेडियो बचाओ नाम से एक संगठन बनाया है जहां वो अपनी बात मुक्कमल तरीके से कर पा रहे हैं और दूसरी कि सरकारी महकमे और प्रशासन से जुड़े लोग इस संगठन को आधिकारिक तौर पर नोटिस ले रहे हैं। इस बात का अंदाजा हमें प्रसार भारती के सीइओ बी.एस.लाली के उस स्टेटमेंट से लग जाता है जहां वो कहते हैं कि वे अपना रेडियो बचाओ अभियान के लोगों की परेशानियों से वाकिफ हैं। हमने आज से करीब डेढ़ महीने पहले इस मामले में स्टोरी की थी तो कोई भी अधिकारी सीधे तौर पर या तो बात करने के लिए तैयार नहीं होता या फिर वौ उपलब्ध नहीं होता। आज है कि वो मीडिया से बात करने के लिए तैयार हैं। इसका सीधा मतलब है कि अब धीरे-धीरे उन पर भी तरीके से प्रेशर बन रहा है। ये अपना रेडियो बचाओ अभियान में जुटे लोगों के लिए बेहतर संकेत है। फिलहाल हम आउटलुक की उस पूरी स्टोरी को स्कैन करके लगा रहे हैं जिससे कि आप भी 55 साल में ही बुजुर्ग और जर्जर हो चुके आकाशवाणी के बारे में जान सकें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jun 3 14:54:25 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 3 Jun 2010 14:54:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KSu4KSC4KSh4KSyIOCkluClh+Cksg==?= Message-ID: *जीवन पर हुआ खेल भारी*** * * राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी के दौरान उसका भयानक चेहरा सामने आया है। एक तरफ हजारों परिवार उजाड़े गए हैं। दूसरी तरफ पूरी रफ्तार से चल रहा निर्माण-कार्य मजदूरों की जान पर बन आया है। ख्वाबों के इस खेल की तैयारी में मेहनत-मशक्कत करने वाले मजदूर अपनी जान गंवा रहे हैं। मार्च 2008 में ही सौ से अधिक मजदूरों की मौत हो गई थी। यह आंकड़ा केवल राष्ट्रमंडल खेल गांव (सीडब्ल्यूजी) के निर्माण स्थल का है। इन बातों की चर्चा हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की हालिया रिपोर्ट में है। रिपोर्ट से यह भी साफ होता है कि शहर को खूबसूरत बनाने के नाम पर हजारों लोगों से उनका रोजगार छीना जा रहा है। उन्हें उजाड़ा जा रहा है। इन दिनों पूरे शहर का यही मंजर है। एचएलआरएन की यह रिपोर्ट 13 मई को जारी की गई है। इससे मालूम पड़ता है कि मानवीय जीवन को दाव पर लगाकर खेल की तैयारियां हो रही हैं। कहा गया है कि राष्ट्रमंडल खेल की विभिन्न परियोजनाओं के बहाने राजधानी में अबतक एक लाख से भी अधिक परिवार उजाड़े जा चुके हैं। अगले कुछेक महीने में उजाड़े गए लोगों की संख्य 30 से 40 हजार तक और बढ़ सकती है। पिछले दिनों खबर आई थी कि जंगपुरा स्थित बारापुलाह नुलाह इलाके से 368 दलित तमिल परिवारों को उजाड़ दिया गया। वे लोग गत 35 वर्षों से वहां रह रहे थे। अब भीषण गर्मी में बेघर कर दिए गए हैं। वे खुले आसमान के नीचे हैं। इस तपती धूप में सिर छुपाने के लिए उन्हें कोई स्थान मुहैया नहीं कराया गया है। कहा जा रहा है कि वहां खेल के दौरान आने वाली गाड़ियां खड़ी की जाएंगी। यानी उक्त स्थान को पार्किंग स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। यह उस घटना का एक हालिया उदाहरण है, जो पिछले पांच-छह सालों से चल रहा है। दिल्ली श्रमिक संगठन के मुताबिक वर्ष 2003 से 2008 के बीच 350 झुग्गी बस्तियों को उजाड़ गया था। इससे करीब तीन लाख लोग बेघर हो गए। घर-बदर करने का यह सिलसिला अब भी जारी है। और यह सब राष्ट्रमंडल खेल के मद्देनजर किया जा रहा है। * * इस रिपोर्ट में उन हालातों की गहरी पड़ताल है, जिसका मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। और वह उनकी जान पर बन आता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, इंदिरा गांधी स्टेडियम, दिल्ली विश्वविद्यालय, नेहरू स्टेडियम आदि निर्माणाधीन स्थलों पर मजदूरों के रहने की व्यवस्था है। इनका अस्थाई बसेरा टीन के बड़े-बड़े चदरों का इस्तेमाल कर बनाया गया है। ताज्जुब की बात है कि एक कमरे में छह से आठ मजदूरों को ठहराया जाता है। जबकि, इसका आकार 10 बाय 10 का है। यहां हजारों प्रवासी मजदूरों को अपनी न्यूनतम जरूरत की चीजों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। रिपोर्ट में इस बात की चर्चा है कि इंदिरा गांधी स्टेडियम के नजदीक जिन मजदूरों को रखा गया है, वहां 107 मजदूरों पर केवल एक शौचालय की व्यवस्था है। वैसे दिल्ली हाई कोर्ट ने मजदूरों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक समिति गठित की तो पाया कि वहां 50 मजदूरों पर एक शौचालय है। राष्ट्रमंडल खेल के निर्माणाधीन स्थलों से कई मजदूरों के मरने की खबर आई है। पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट (पीयूडीआर) ने विभिन्न निर्माणाधीन स्थलों पर 49 मजदूर की मौत होने की बात कही है। दरअसल, इन स्थानों पर प्रवासी मजदूरों को उन हालातों में रखा गया है, जिससे उनके बीमार पड़ने की संभावना 80 प्रतिशत से अधिक है। खैर, यह आश्चर्य की बात है कि अबतक किसी मृतक मजदूर के परिवार वालों को बतौर मुआवजा एक रुपया भी नहीं मिला है। जबकि, सरकार लगातार दावा कर रही है कि परियोजना से जुड़े मजदूरों का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। उनके लिए एक खास राशि रखी गई है। पर यह रपट उन दावों की पोल खलती है। परियोजना में 2000 से अधिक बाल मजदूर काम कर रहे हैं। इनकी आयु 14 से 16 वर्ष के बीच है। इन्हें सरकार की तरफ से न्यूनतम निर्धारित मजदूरी से भी कम दिहाड़ी मिल रही है। इन नन्हें मजदूरों पर भी समय रहते परियोजना को पूरा करने का जो दबाव है, सो अलग। ताज्जुब की बात है, परियोजना से जुड़ी तमाम एजेंसियां इन बातों को छुपा रही हैं। परियोजना स्थल या प्रवासी मजदूरों के लिए बनाए गए आवासीय इलाकों में भी दूसरे लोगों को जाने की इजाजत नहीं है। एचएलआरएन की एसोसिएट कॉर्डिनेटर शिवानी चौधरी ने बताया कि रिपोर्ट तैयार करने के लिए कई फिल्ड वर्क किए गए हैं। सूचना का अधिकार (आरटीआई) और समय दर समय मीडिया में आई खबरों से जो जानकारी मिली उसका पूरा उपयोग किया गया। हालांकि, ऐसा कई बार अनुभव हुआ कि जानकारियां छुपाई जा रही हैं। जहां पहुंचने पर स्थितियों से रूबरू हुआ जा सकता है वहां जाने नहीं दिया जा रहा है। *राष्ट्रमंडल खेल का सीधा असर शहर की उस अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है, जिससे निम्न वर्ग जुड़ा है। यहां विभिन्न स्थानों से रेड़ी-खोमचे वाले को हटाया जा रहा है।** **यह खेल के दौरान शहर को खूबसूरत दिखाने की कवायत है। एक आंकड़े के मुताबिक शहर में तकरीबन तीन लाख रेड़ी-खोमचे और फेरीवाले हैं, जिनका सालाना व्यापार 3,500 करोड़ रुपए का है। पर अब सरकार को इसका आबाद होना पसंद नहीं। इन्हें हटाने का काम जारी है। 19 जनवरी, 2010 को एक लाख से अधिक आवेदन दिल्ली नगर निगम के पास आए थे। पर, 14,000 रेड़ी-खोमचे वालों को ही नए लाइसेंस जारी किए गए। रिक्शा चालकों, गलि-कूची में चलने वाली फुटकर दुकानें और ऐसे ही दूसरे छोटे-मोटे रोजगार के साधनों को सरकार बंद करने पर तुली है। कायदे-कानून व न्यायालय के आदेश को ताक पर रखकर शहर को सुंदर बनाने का तानाबाना बुना जा रहा है।*** खेल के दौरान राजधानी में भिखारी दिखे यह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व समाज कल्याण मंत्री मंगतराम सिंघल को पसंद नहीं। इस समय सरकार ऐसे लोगों को नजर से बहुत दूर पहुंचा देने पर अमादा है। उसे अपने लोगों से ज्यादा खेल के दौरान आने वाले अमीर मेहमानों के मिजाज की चिंता है। अब राष्ट्रमंडल खेल के निर्माण कार्यों में जुटे प्रवासी मजदूरों, रोजाना कमाने-खाने वाले छोटे व्यापारियों व भिखारियों के लिए कौन बोले ? और उनकी पीड़ा को व्यक्त करे ? ये ऐसे सवाल है, जो हमारी वर्तमान राजनीति और समाज को नाप देते हैं। शुरू में इस खेल के लिए 1,900 हजार करोड़ रुपए का बजट रखा गया था। पर विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक अबतक 70,000 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। सरकारी आंकड़ 30,000 हजार रुपए का है। पर तैयारी अधूरी है। वर्ष 1988 के सिओल ओलंपिक में 720,000 लोगों को उजाड़ा गया था। जबकि 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक में 600 से अधिक परिवार उजाड़े गए थे। अटलांटा ओलंपिक का भी यही आलम था। वर्ष 2008 में हुए बीजिंग ओलंपिक में 1,500,000 लोगों को उजाड़ा गया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Jun 4 12:27:30 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 4 Jun 2010 12:27:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWMLeCkpg==?= =?utf-8?b?4KWMIOCkuOCljCDgpKbgpYDgpJzgpL/gpI8s4KSs4KWH4KSr4KS/4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KSwIOCkueCli+CkleCksCDgpLjgpYfgpJXgpY3gpLgg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSP?= Message-ID: जहां-तहां इस्तेमाल किए गए जूठे कंडोम,बीयर की केन और बोतलें,पांच फुट के घेरे में बिछे अखबार और कई बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और मोबाईल कंपनियों के नोचकर लाए गए बैनर से बने टैम्पररी बिस्तर कूड़े-कचरे का नहीं बल्कि किसी खेल के लगातार चलने का ईशारा करते हैं। आप इस सेटअप को देखते ही अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां क्या चलता होगा? ये सारी चीजें हर दो-चार कदम की दूरी पर आपको मिलेंगे। वन-विभाग और एमसीडी की ओर से बैठने के लिए जो बेंचें लगायी गयी हैं, जिसे कि सीमेंट से जमाया तक गया है,उनमें से कईयों को उखाड़कर बिल्कुल अंदर झाड़ियों में टिका दिया गया है। इस बियावान रिज में जहां कि सुबह और शाम तो हजारों लोग मार्निंग वॉक के लिए आते हैं लेकिन दोपहर में कहीं-कोई दिखाई नहीं देता,वहां भी आपको दाम से दुगनी कीमत पर कोक-पेप्सी,पानी बोतल बेचते कई छोकरे मिल जाएंगे। इन छोकरें से आप कई तरह की सुविधाएं ले सकते हैं। ये नजारा है दिल्ली विश्वविद्यालय से सटे उस रिज का जिसका एक हिस्सा सीधे-सीधे कैंपस को छूता है,दूसरा हिस्सा राजपुर रोड को,सामने खैबर पास का इलाका पड़ता है और उसके ठीक विपरीत कमलानगर। हॉस्टल के कुछ दोस्तों ने जब बताया कि यहां सौ-दो सौ रुपये देकर जगह मुहैया कराया जाता है,आप किसी लड़की के साथ जाओ..वहां जो चौकीदार,वन-विभाग के कर्मचारी है उन्हें कुछ माल-पानी पकड़ाओ,फिर तुम्हें कहीं कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं है। एकबारगी तो हमें इस बात पर यकीन ही नहीं हुआ,लेकिन जब कल मैंने अपने जीमेल स्टेटस पर लिखा कि जूठे कंडोम से अटा-पड़ा है डीयू रिज,जल्द ही पढ़िए तो देर रात कुछ लोगों ने फोन करके अपने अनुभव शेयर किए। एक ने साफ कहा कि अगर आप शाम को जब थोड़ा-थोड़ा अंधेरा हो जाता है,रिज के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही जहां कि बेंचें लगायी गयी हैं,वहां अपनी दोस्त के साथ बैठते हो तो थोड़ी ही देर में आपके पास कोई आएगा और पूछेगा- आपको जगह चाहिए? आप को ये स्थिति एम्बैरेसिंग लग सकती है लेकिन कैंपस के ठीक बगल में ये धंधा बड़े आराम से सालों से चल रहा है। इतना ही नहीं डीयू कैंपस के रिज का ये पूरा इलाहा ड्रग,गांजा आदि के अभ्यस्त लोगों के लिए स्वर्ग है। ड्रग तो नहीं लेकिन गांजा और शराब के लिए ये ऐशगाह है,इसे तो हमने अपनी आंखों से देखा है। रिज के भीतर कुछ चायवाले हैं जो कि अपने लकड़ी के बक्से और ठीया रखते हैं। वो इस तरह से बने और रखे हैं कि आपको पता तक नहीं चलेगा कि यहां कोई इस तरह से भी कुछ रखता है। उसमें उनके चाय का सारा सामान होता है। दिन में तो चाय की सेवा दी जाती है लेकिन रात के आठ-दस बजे तक शहर के शौकीन लोग सीधे उन ठिकानों पर पहुंचते हैं। उसे कुछ पैसे देते हैं और फिर दौर शुरु होता है। जिस रिज में रात को गुजरने में रोंगटे खड़े हो जाए वही रिज कुछ लोगों के लिए एशगाह बन जाता है। शराब का ये अड्डा रिज से बाहर निकलकर अब फैकल्टी ऑफ आर्ट्स तक फैल गया है। फैकल्टी ऑफ आर्टस की मेन गेट जो कि लॉ फैकल्टी की तरफ है,सामने पार्किंग है वहां शाम को मजमा लगते हमने कई बार अपनी आंखों से देखा है। 2004 में जब मशहूर पटकथा लेखक और राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा के पोते की देर रात रिज में मौत हुई थी,इसके पहले भी रिज के भीतर खूनी खा झील में कुछ लोगों की मौत हुई थी तो रिज के भीतर सुरक्षा व्यवस्था काफी बढ़ा दी गयी थी। ये सुरक्षा कागजी तौर पर आज भी बरकरार है। बीच में इसी सुरक्षा के बीच ऐसी स्थिति बनी कि अकेले किसी लड़के को जाने नहीं दिया जाता,अगर उसके साथ लड़की होती तो कोई दिक्कत नहीं होती। इसी में गुपचुप तरीके से लेकिन जाननेवालों और लगातार जाने के अभ्यस्त लोगों के लिए ये सबकुछ खुल्ल्-खुल्ला है। रिज में कई तरह के अवैध काम होने की जब तब जानकारी हमें सालों से टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही है। तब हॉस्टल के लड़कों के बीच ये गप्प हांकने से ज्यादा कुछ नहीं होता। लोग अक्सर गर्मियों में लंच करने के बाद रिज के भीतर जाते,ऐसी जगहों पर जहां कि फ्रीक्वेंटली नहीं जाया जा सकता,कई तरह की झाडियां,कांटेदार पेड़ जिससे होकर गुजरना मुश्किल होता। वहां से लौटकर आते तो बताते कि उसने कैसे-कैसे सीन देखें हैं। संभव हो कि वो इसमें कुछ अपनी तरफ से जोड़ देते। लेकिन मैंने कई बार देखा कि झाड़ियों में जो गुलाबी और पीले फूल खिलते हैं,कपल बिल्कुल उसी के रंग के कपड़ों में जगह का चुनाव करते हैं ताकि दूर से कुछ अलग दिखाई न दे। कॉमनवेल्थ की तैयारी के नाम पर जैसे-जैसे पूरे कैंपस में डेमोलिशन और नए कन्सट्रक्शन का काम होने शुरु हुए,हम थोड़े ज्यादा कन्सर्न बनाने लगे। हमने देखना शुरु किया कि कहां पर गया बन-बदल रहा है। जो फुटपाथ अभी छ महीने पहले ही बनाए गए थे उसे पूरी तरह तोड़कर दुबारा बनाया जा रहा है। जो दीवारें काफी मजबूत और नयी थी,उसे पूरी तरह ढाह दिया गया है और फिर से बनाया जा रहा है। इसी क्रम में हमने रिज में भी जाना-झांकना शुरु किया। पेड़ों की छटाई पहले से बहुत बेहतर हुई है। नयी बेंचें लग गयी है,मेन्टेनेंस पर पहले से बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इस भयंकर गर्मी में जबकि आधी से ज्यादा दिल्ली पानी के लिए बिलबिला रही है,वहां पानी की इतनी मोटी धार से पेड़ों को धोया जा रहा है कि आप हैरान हो जाएं। कुल मिलाकर कॉमनवेल्थ की तैयारी का असर हमें इस रिज में साफ तौर पर दिखाई दे रहे हैं। इधर छ महीने से एक और नजारा आपको देखने को मिलने लगेंगे। सुबह-सुबह माला-ताबीज,चूर्ण,आयुर्वेदिक दवाई,ठेले पर मोटर लगाकर जूस आदि की अस्थायी दूकानें रोज खुलती हैं। ये बाबा रामदेव के उस शिविर का असर है जो कि पिछले तीन-चार महीने से वो इस पूरे इलाके में लगवा रहे हैं।..तो कहानी ये है कि जिस रिज को पर्यावरण के लिहाज से,हरा-भरा रखने के लिहाज से बचाने की कवायदें चल रही है,उसके भीतर कई किस्म के धंधे एक सात पनप रहे हैं। आज से चार दिन पहले हमें पूरी रात नहीं आयी। कुछ भी करने का मन नहीं किया,पढ़ने या सर्फिंग करने तक का नहीं। अंत में साढ़े चार बजे होते-होते जुबली हॉल के उन दोस्तों के जागने का इंतजार करने लगे जो सात बजे तक थोड़ी मशक्कत के बाद उठ जाते हैं। तब हम फिर रिज गए। इस बार विश्वविद्यालय वाले रास्ते से नहीं बल्कि खैबरपास वाले रास्ते सर। थोड़ी दूर जाने के बाद अगर पेड़ों की संख्या और हरियाली को छोड़ दें तो कहीं से हमें नहीं लगा कि ये भी रिज का ही हिस्सा है। कदम दर कदम उसी तरह बिछे अखबार,बीयर की बोतलें,इस्तेमाल किए कंड़ोम,उसके फेंके गए पैकेट। कुछ बोतलें तो इतनी नयी कि जिसमें बीयर का कुछ हिस्सा अब भी बच्चा था,कुछ कंडोम तो इतने ताजे कि उसमें स्पर्म अब भी मौजूद थे, कुछ अखबार तो ऐसे बिछे कि लगा नहीं कि पिछले घंटों हवा चली हो। उपर जो और सुविधाओं वाली जो बात हम कह रहे थे,उसके निशान हमें यहां दिखाई देने लगे। हमने नोटिस किया है कि अंदर जितने भी कंड़ोम के पैकेट मिले उसमें 'कोबरा'नाम के कंड़ोम के पैकेट सबसे ज्यादा थे। उसके बाद डीलक्स निरोध,कुछ मूड्स के और बहुत कम ही कामसूत्र या फिर कोई दूसरे। इससे क्या इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोबरा नाम का कंडोम अंदर से ही सप्लाय की जाती हो। कौन करते हैं सेक्स और किनके लिए है ये धंधा,आगे की किस्त में. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From anant7akash at gmail.com Sat Jun 5 15:35:42 2010 From: anant7akash at gmail.com (anand tripathi) Date: Sat, 5 Jun 2010 15:35:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWMLeCkpg==?= =?utf-8?b?4KWMIOCkuOCljCDgpKbgpYDgpJzgpL/gpI8s4KSs4KWH4KSr4KS/4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KSwIOCkueCli+CkleCksCDgpLjgpYfgpJXgpY3gpLgg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSP?= In-Reply-To: References: Message-ID: ek aadmi jo yah kam karta hai uska naam dinesh hai aur dushare ka ram narayan dono ne sadak jo riz ke bich se gujarti hai us hissab se baat rakaha hai pachim ka ilaka dinesh ka hai aur purab ka ram narayan ka 2010/6/4 vineet kumar > > > जहां-तहां इस्तेमाल किए गए जूठे कंडोम,बीयर की केन और बोतलें,पांच फुट के घेरे > में बिछे अखबार और कई बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और मोबाईल कंपनियों के नोचकर > लाए गए बैनर से बने टैम्पररी बिस्तर कूड़े-कचरे का नहीं बल्कि किसी खेल के > लगातार चलने का ईशारा करते हैं। आप इस सेटअप को देखते ही अंदाजा लगा सकते हैं > कि यहां क्या चलता होगा? ये सारी चीजें हर दो-चार कदम की दूरी पर आपको मिलेंगे। > वन-विभाग और एमसीडी की ओर से बैठने के लिए जो बेंचें लगायी गयी हैं, जिसे कि > सीमेंट से जमाया तक गया है,उनमें से कईयों को उखाड़कर बिल्कुल अंदर झाड़ियों > में टिका दिया गया है। इस बियावान रिज में जहां कि सुबह और शाम तो हजारों लोग > मार्निंग वॉक के लिए आते हैं लेकिन दोपहर में कहीं-कोई दिखाई नहीं देता,वहां भी > आपको दाम से दुगनी कीमत पर कोक-पेप्सी,पानी बोतल बेचते कई छोकरे मिल जाएंगे। इन > छोकरें से आप कई तरह की सुविधाएं ले सकते हैं। ये नजारा है दिल्ली > विश्वविद्यालय से सटे उस रिज का जिसका एक हिस्सा सीधे-सीधे कैंपस को छूता > है,दूसरा हिस्सा राजपुर रोड को,सामने खैबर पास का इलाका पड़ता है और उसके ठीक > विपरीत कमलानगर। > > हॉस्टल के कुछ दोस्तों ने जब बताया कि यहां सौ-दो सौ रुपये देकर जगह मुहैया > कराया जाता है,आप किसी लड़की के साथ जाओ..वहां जो चौकीदार,वन-विभाग के कर्मचारी > है उन्हें कुछ माल-पानी पकड़ाओ,फिर तुम्हें कहीं कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं है। > एकबारगी तो हमें इस बात पर यकीन ही नहीं हुआ,लेकिन जब कल मैंने अपने जीमेल > स्टेटस पर लिखा कि जूठे कंडोम से अटा-पड़ा है डीयू रिज,जल्द ही पढ़िए तो देर > रात कुछ लोगों ने फोन करके अपने अनुभव शेयर किए। एक ने साफ कहा कि अगर आप शाम > को जब थोड़ा-थोड़ा अंधेरा हो जाता है,रिज के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही जहां कि > बेंचें लगायी गयी हैं,वहां अपनी दोस्त के साथ बैठते हो तो थोड़ी ही देर में > आपके पास कोई आएगा और पूछेगा- आपको जगह चाहिए? आप को ये स्थिति एम्बैरेसिंग लग > सकती है लेकिन कैंपस के ठीक बगल में ये धंधा बड़े आराम से सालों से चल रहा है। > इतना ही नहीं डीयू कैंपस के रिज का ये पूरा इलाहा ड्रग,गांजा आदि के अभ्यस्त > लोगों के लिए स्वर्ग है। ड्रग तो नहीं लेकिन गांजा और शराब के लिए ये ऐशगाह > है,इसे तो हमने अपनी आंखों से देखा है। > > रिज के भीतर कुछ चायवाले हैं जो कि अपने लकड़ी के बक्से और ठीया रखते हैं। वो > इस तरह से बने और रखे हैं कि आपको पता तक नहीं चलेगा कि यहां कोई इस तरह से भी > कुछ रखता है। उसमें उनके चाय का सारा सामान होता है। दिन में तो चाय की सेवा दी > जाती है लेकिन रात के आठ-दस बजे तक शहर के शौकीन लोग सीधे उन ठिकानों पर > पहुंचते हैं। उसे कुछ पैसे देते हैं और फिर दौर शुरु होता है। जिस रिज में रात > को गुजरने में रोंगटे खड़े हो जाए वही रिज कुछ लोगों के लिए एशगाह बन जाता है। > शराब का ये अड्डा रिज से बाहर निकलकर अब फैकल्टी ऑफ आर्ट्स तक फैल गया है। > फैकल्टी ऑफ आर्टस की मेन गेट जो कि लॉ फैकल्टी की तरफ है,सामने पार्किंग है > वहां शाम को मजमा लगते हमने कई बार अपनी आंखों से देखा है। > > 2004 में जब मशहूर पटकथा लेखक और राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा के पोते की > देर रात रिज में मौत हुई थी,इसके पहले भी रिज के भीतर खूनी खा झील में कुछ > लोगों की मौत हुई थी तो रिज के भीतर सुरक्षा व्यवस्था काफी बढ़ा दी गयी थी। ये > सुरक्षा कागजी तौर पर आज भी बरकरार है। बीच में इसी सुरक्षा के बीच ऐसी स्थिति > बनी कि अकेले किसी लड़के को जाने नहीं दिया जाता,अगर उसके साथ लड़की होती तो > कोई दिक्कत नहीं होती। इसी में गुपचुप तरीके से लेकिन जाननेवालों और लगातार > जाने के अभ्यस्त लोगों के लिए ये सबकुछ खुल्ल्-खुल्ला है। रिज में कई तरह के > अवैध काम होने की जब तब जानकारी हमें सालों से टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही > है। तब हॉस्टल के लड़कों के बीच ये गप्प हांकने से ज्यादा कुछ नहीं होता। लोग > अक्सर गर्मियों में लंच करने के बाद रिज के भीतर जाते,ऐसी जगहों पर जहां कि > फ्रीक्वेंटली नहीं जाया जा सकता,कई तरह की झाडियां,कांटेदार पेड़ जिससे होकर > गुजरना मुश्किल होता। वहां से लौटकर आते तो बताते कि उसने कैसे-कैसे सीन देखें > हैं। संभव हो कि वो इसमें कुछ अपनी तरफ से जोड़ देते। लेकिन मैंने कई बार देखा > कि झाड़ियों में जो गुलाबी और पीले फूल खिलते हैं,कपल बिल्कुल उसी के रंग के > कपड़ों में जगह का चुनाव करते हैं ताकि दूर से कुछ अलग दिखाई न दे। > > कॉमनवेल्थ की तैयारी के नाम पर जैसे-जैसे पूरे कैंपस में डेमोलिशन और नए > कन्सट्रक्शन का काम होने शुरु हुए,हम थोड़े ज्यादा कन्सर्न बनाने लगे। हमने > देखना शुरु किया कि कहां पर गया बन-बदल रहा है। जो फुटपाथ अभी छ महीने पहले ही > बनाए गए थे उसे पूरी तरह तोड़कर दुबारा बनाया जा रहा है। जो दीवारें काफी मजबूत > और नयी थी,उसे पूरी तरह ढाह दिया गया है और फिर से बनाया जा रहा है। इसी क्रम > में हमने रिज में भी जाना-झांकना शुरु किया। पेड़ों की छटाई पहले से बहुत बेहतर > हुई है। नयी बेंचें लग गयी है,मेन्टेनेंस पर पहले से बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा > रहा है। इस भयंकर गर्मी में जबकि आधी से ज्यादा दिल्ली पानी के लिए बिलबिला रही > है,वहां पानी की इतनी मोटी धार से पेड़ों को धोया जा रहा है कि आप हैरान हो > जाएं। कुल मिलाकर कॉमनवेल्थ की तैयारी का असर हमें इस रिज में साफ तौर पर दिखाई > दे रहे हैं। इधर छ महीने से एक और नजारा आपको देखने को मिलने लगेंगे। सुबह-सुबह > माला-ताबीज,चूर्ण,आयुर्वेदिक दवाई,ठेले पर मोटर लगाकर जूस आदि की अस्थायी > दूकानें रोज खुलती हैं। ये बाबा रामदेव के उस शिविर का असर है जो कि पिछले > तीन-चार महीने से वो इस पूरे इलाके में लगवा रहे हैं।..तो कहानी ये है कि जिस > रिज को पर्यावरण के लिहाज से,हरा-भरा रखने के लिहाज से बचाने की कवायदें चल रही > है,उसके भीतर कई किस्म के धंधे एक सात पनप रहे हैं। > > आज से चार दिन पहले हमें पूरी रात नहीं आयी। कुछ भी करने का मन नहीं > किया,पढ़ने या सर्फिंग करने तक का नहीं। अंत में साढ़े चार बजे होते-होते जुबली > हॉल के उन दोस्तों के जागने का इंतजार करने लगे जो सात बजे तक थोड़ी मशक्कत के > बाद उठ जाते हैं। तब हम फिर रिज गए। इस बार विश्वविद्यालय वाले रास्ते से नहीं > बल्कि खैबरपास वाले रास्ते सर। थोड़ी दूर जाने के बाद अगर पेड़ों की संख्या और > हरियाली को छोड़ दें तो कहीं से हमें नहीं लगा कि ये भी रिज का ही हिस्सा है। > कदम दर कदम उसी तरह बिछे अखबार,बीयर की बोतलें,इस्तेमाल किए कंड़ोम,उसके फेंके > गए पैकेट। कुछ बोतलें तो इतनी नयी कि जिसमें बीयर का कुछ हिस्सा अब भी बच्चा > था,कुछ कंडोम तो इतने ताजे कि उसमें स्पर्म अब भी मौजूद थे, कुछ अखबार तो ऐसे > बिछे कि लगा नहीं कि पिछले घंटों हवा चली हो। उपर जो और सुविधाओं वाली जो बात > हम कह रहे थे,उसके निशान हमें यहां दिखाई देने लगे। हमने नोटिस किया है कि अंदर > जितने भी कंड़ोम के पैकेट मिले उसमें 'कोबरा'नाम के कंड़ोम के पैकेट सबसे > ज्यादा थे। उसके बाद डीलक्स निरोध,कुछ मूड्स के और बहुत कम ही कामसूत्र या फिर > कोई दूसरे। इससे क्या इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोबरा नाम का कंडोम > अंदर से ही सप्लाय की जाती हो। > > कौन करते हैं सेक्स और किनके लिए है ये धंधा,आगे की किस्त में. > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- ANAND TRIPATHI -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun Jun 6 19:06:08 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 6 Jun 2010 19:06:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS/4KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KS2IOCkruCkv+CktuCljeCksCDgpJXgpYcg4KSy4KWH4KSW4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkheCknOCljeCknuCkvuCkqCDgpJTgpLAg4KSJ4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KSm4KSC4KSh4KSk4KS+IOCkleCkviDgpK7gpL/gpLbgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSjIOCkpuCkv+CkluCkvuCkiCDgpKrgpKHgpLzgpKTgpL4g4KS54KWI?= Message-ID: गिरीश मिश्र के लेखन में अज्ञान और उद्दंडता का मिश्रण दिखाई पड़ता है *सदानंद शाही के संपादन में निकलने वाली पत्रिका साखी के 20वें अंक में छपे अपने (मूलतः अंगरेजी में लिखे) पत्र में, अर्थशास्त्र के प्राध्यापक **और** आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के कार्यों पर गंभीर टिप्पणियां की थीं. इस पर रविभूषण जी ने एक जवाब लिखा है, जिसे हम यहां पेश कर रहे हैं. यह लेख प्रभात खबर में संपादकीय पन्ने (अभिमत) पर भी छपा है. जल्दी ही मैनेजर पांडेय से एक बातचीत (बातचीत का मुद्दा यह पत्र नहीं है) भी हाशिया पर पेश करेंगे.* *हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा* *हिंदी *में विगत कुछ वर्षों से आलोचना के नाम पर कई लोग अगंभीर टिप्पणियां कर रहे हैं. फालतू और विवेकहीन टिप्पणी पर कोई 'बहस' नहीं हो सकती. कई वर्षों से अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र का एकसूत्री अभियान विख्यात आलोचक रामविलास शर्मा की निंदा का है. उनके इस निंदा अभियान में हिंदी के कई अध्यापक, संपादक और आलोचक भी हैं. रामविलास शर्मा की स्थापनाओं से असहमत व्यक्तियों को तथ्य-तर्क के साथ अपने विचार प्रस्तुत करने चाहिए. संवाद और बहस की गुंजाइश बनी रहेगी. *पूरा पढ़िए: गिरीश मिश्र के लेखन में अज्ञान और उद्दंडता का मिश्रण दिखाई पड़ता है * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Jun 7 11:21:18 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 7 Jun 2010 11:21:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KWA4KSo?= =?utf-8?b?IOCkuOCkr+CkvuCkqOClgCDgpJXgpYAg4KS14KS+4KSq4KS44KWA?= Message-ID: दीवान के साथियों रेडियो के लीजेंड माने जानेवाले अमीन सयानी की एक बार फिर से वापसी हुई है। पिछले 6 जून से रेडियो सिटी( दिल्ली ऑडिएंस के लिए फ्रीक्वेंसी,91.1 एफएम) पर रविवार,सुबह 11 बजे से गीतमाला नाम के कार्यक्रम लेकर आ रहे हैं। प्रोमो और कार्यक्रम का एक हिस्सा सुनकर लगा कि आवाज की खनक पहले की तरह बरकरार है। हां बिनाका गीतमाला वाली बहनों और भाइयों वाली मासूमियत नहीं रह गयी है। अब बोलने के अंदाज में एक सिलेब्रेटीपना आ गया है। आप भी सुनिए और मजे लीजिए। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue Jun 8 12:51:37 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 8 Jun 2010 12:51:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KSs4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleClgCDgpLXgpLngpYAg4KSq4KWB4KSw4KS+4KSo4KWA?= =?utf-8?b?IOCkpuCkvuCkuOCljeCkpOCkvuCkqDog4KSo4KS54KSwIOCkleCkviA=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSo4KWAIOCkluCkviDgpJfgpK/gpL4g4KSW4KWH4KSk4KWA?= Message-ID: बरबादी की वही पुरानी दास्तान: नहर का पानी खा गया खेती रायबरेली से लौट कर *रेयाज उल हक* *अपनी* फूस की झोंपड़ी में गरमी से परेशान छोटेलाल बात की शुरुआत आसान हो गई खेती के जिक्र से करते हैं. वे कहते हैं, ‘पानी की अब कोई कमी नहीं रही. नहर से पानी मिल जाता है तो धान के लिए पानी की दिक्कत नहीं रहती.’ पास बैठे रामसरूप यादव मानो एक जरूरी बात जोड़ते हैं, ‘अब बाढ़ का खतरा कम हो गया है.’ राजरानी इलाके में खर-पतवार के खत्म होने का श्रेय नहर को देती हैं. लेकिन छोटेलाल ने बात अभी खत्म नहीं की है. उनका सुर भी अब थोड़ा बदल रहा है, ‘गेहूं की फसल लेकिन अब खराब हो गई है. राशन से गेहूं न मिले तो गेहूं के दर्शन नहीं होते. जिनके पास कार्ड नहीं हैं उनकी दशा और खराब है.’ धीरे-धीरे उनकी आवाज में नाराजगी बढ़ रही है, ‘पहले अच्छी फसल होती थी. नहर ने खेती बरबाद कर दी. सीलन से नहर के पासवाली जमीनें खराब हो गई हैं. पहले धान, गेहूं, अरहर, साग-सब्जी हो जाती थी, अब जैसे-तैसे धान ही हो पाता है. गेहूं तो होता ही नहीं.’ आखिर में छोटेलाल सबसे मतलब की बात पर आते हैं, ‘जब से शारदा आई है मेरी 15-16 बिस्वा जमीन बेकार पड़ी है. याद ही नहीं उसमें कब फसल बोई गई थी.’ वे शारदा सहायक नहर की बात कर रहे हैं, जो रायबरेली जिले में अमावां प्रखंड के उनके गांव खुदायगंज के दक्षिण से होकर गुजरती है. *पूरी रिपोर्ट पढ़िए रविवारपर * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jun 8 17:10:21 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 8 Jun 2010 17:10:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KWI4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KWHIOCkleClgCDgpLDgpL7gpKQg4KSV4KWHIOCkqOCljeCkr+Clgg==?= =?utf-8?b?4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCljeCkuA==?= Message-ID: आजतक से लेकर एनडीटीवी,स्टार न्यूज,जी न्यूज,IBN7 सबके सब भोपाल गैस कांड में आए फैसले को लेकर खफा नजर आए। एक जमाने के बाद लगभग सभी चैनलों का सुर एक था जिसमें मझोले और छोटे कद के चैनल भी शामिल दिखे। बल्कि मझोले और छोटे चैनलों के सुर बड़े कार्पोरेट की शक्ल में दिखाई देनेवाले इन चैनलों से कहीं ज्यादा उंचे रहे। उनके लिए शायद ये साल की दूसरी बड़ी घटना रही होगी जहां कि अपने को पक्षधरता और सरोकार की पत्रकारिता से जुड़े होने जैसी साबित करने का मौका मिला। जिन चैनलों को अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ ही महीने या साल आए हुए हुए हैं वो भी दम मारकर भोपाल गैसकांड से जुड़ी ऐसी फुटेज मुहैया करा रहे थे कि मानो ऐसी ही खबरें दिखाने और बताने के लिए ही चैनल खोलने का सपना देखा था। दूसरी तरफ बड़े चैनल जो कि भोपाल गैसकांड को करगिल और 26/11 की तरह ही एक इवेंट माकर कुछ दिन पहले ही पैकेज तैयार कर लिया था और उसके लगातार प्रोमोज दिखाए जा रहे थे,उन्होंने अपनी कई दिनों की मेहनत को दरकिनार करते हुए कल के फैसले पर आकर टिक गए। संभव हो ऐसे में इन्होंने अपनी कुछ पहले से बनायी स्पेश स्टोरी गिरा दी हो और अगर चलायी भी हो तो फैसले पर बनी स्टोरी के बीच दबकर रह गयी हो। कल अगर आपने शाम/रात तीन-चार घंटे तक न्यूज चैनल देखें होंगे तो आपको अंदाजा लग गया होगा कि कैसे एक-एक करके सारे चैनल भोपाल गैसकांड में आए फैसले को लेकर विरोध में चले गए। मैं अगर इसे एक जार्गन का सहारा लेते हुए कहूं कि कल लगभग सभी चैनलों में एस.पी.सिंह की आत्मा घुस गयी थी तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि चैनल किस हद तक पीड़ितों के पक्ष में थे। आजतक पर अभिसार शर्मा ने साफ तौर पर कहा कि वो आज न सिर्फ सियासी लोगों पर उंगली उठाएंगे,न सिर्फ प्रसासन पर,बल्कि आज वो पूरी की पूरी न्यापालिका और न्याय व्यवस्था पर उंगली उठाएंगे। जिन सियासी लोगों का मजमा लगाकर चैनल न्यायिक फैसले की रिप्लिका तैयार करती आयी है,अभिसार ने कहा कि वो आज की बहस में किसी भी सियासी शख्स को शामिल नहीं करेंगे औऱ सचमुच फैसला पूरा इंसाफ अधूरा नाम से स्पेशल स्टोरी में किसी भी सियासी शख्स को शामिल नहीं किया। बल्कि ये काम कमोवेश कई चैनलों ने किया। सीधे रवीन्द्र भवन भोपाल से एंकरिंग कर रही सिक्ता दवे( एनडीटीवी इंडिया) का गला बार-बार फंस जा रहा था। अगर ये एंकरिंग की शैली के तौर पर विकसित होती है तो जल्द ही अविश्वसनीय करार दे दी जाएगी लेकिन संवेदनशील नजरिए से इसे गला रुंध जाना या फिर भर आना कह सकते हैं। IBN7 पर समीर अब्बास बहुत ही गुस्से में नजर आए,ये न्याय के नाम पर भद्दा मजाक है। हां ये जरुर है कि स्टार न्यूज,जिसे कि भोपाल गैसकांड पर बनी स्टोरी के लिए इंडियन टेलीविजन एवार्ड मिला है,अभी भी सबसे ज्यादा असरदार लगी इसलिए उसने उसे ही प्रमुखता से दिखाया। चैनल पर ये सबकुछ तीन-चार घंटे तक ये सब लगातार चला जिसे देख-सुनकर हम भी भावुक हुए। हमारा टेलीविजन के प्रति नजरिया बदलता नजर आने लगा और तमाम विरोधों के वाबजूद जो मैं तर्क देता फिरता हूं कि अभी भी टेलिवीजन में भरपूर संभावनाएं हैं,ये हर समय गलत नहीं करता,इसके कारण एक हद तक लोकतंत्र बचा हुआ है,इन सब बातों को मजबूती मिली। लेकिन इतना सबकुछ होते हुए भी कुछ सवालों के साथ ही दिल्ली से एनडीटीवी इंडिया के लिए चैट पर मौजूद रघु राय (वही रघु राय जिनकी फोटोग्राफी से पूरी दुनिया ने इस भोपाल गैसकांड की हकीकत को समझा) की बाइट हमें परेशान करती है। हम इन दर्दनाक फुटेज और एस.पी.सिंह की घुस आयी आत्मा के प्रभाव में आकर काम कर रहे चैनलों के बारे में एक बार फिर से सोचना शुरु करते हैं। मेरे दिमाग में कौन से सवाल उभरे इसके पहले रघु राय की बात को शामिल करना ज्यादा जरुरी है। रघु राय से सिक्ता ने कई तरह के सवाल किए जिसमें कि एक सवाल ये भी कि क्या आपका मन था कि आप भी आज भोपाल आते और पीड़ित लोगों के साथ न्यायालय में जाकर देखते कि क्या फैसला सुनाया जा रहा है? रघु राय ने जिन सारे सवालों के जबाब दिए उसमें एक ईमानदार सर्जक,कलाकार और पत्रकार की खनक और असहमति मौजूद थी। उन्हें इस बात को मजबूती से रखा कि हम पैनल डिशक्शन में आते हैं और समझिए कि कुछ नहीं करते,सिर पीट कर चले जाते हैं। कहीं कुछ नहीं होता। आप सोचिए न इस देश मे जो न्याय व्यवस्था है उसे देखकर तो लगता है कि गरीबों का कहीं कुछ होनेवाला ही नहीं है। सब जैसे-तैसे चल रहा है। हम इसे मेरा देश महान कहते हैं,देखिए आप हालात। सबकुछ ऐसा है कि लगता ही नहीं कि ये देश संभल पाएगा। रघु राय की बातों में एक ठोस निराशा जो कि शायद ही कभी पिघले बार-बार हमारे सामने चक्कर काट रही थी और वहीं से हमारे दिमाग में सवाल उठने शुरु हुए।---- सबसे पहला सवाल कि चैनलों ने इस फैसले के खिलाफ स्टैंड लिया क्या ये उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति का हिस्सा है? क्या वो ऐसे सारे मौके पर स्टैंड लेते आए हैं इसलिए इस मौके पर भी ऐसा ही किया? मेरे इस सवाल पर चैनल सहित इसके समर्थन में जुटे लोग एक लंबी-चौड़ी फेरिस्त हमारे हाथों में थमा सकते हैं और बड़ी आसानी से साबित कर सकते हैं कि हां,आप देखिए-पूरे सिलसिलेबार तरीके से जहां कहीं भी पीड़ितों और आम आदमी के प्रति अन्याय हुआ है,नाइंसाफी हुई है,हमने उसका विरोद किया है। संभव है कि उनका एक तर्क एक हद तक सच हो। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर जो न्यायालय सैंकड़ों टीवी क्र्यू से घिरा है,उसे ये फैसला सुनाने में रत्तीभर की हिचक क्यों नहीं होती? वो क्यों ऐसे फैसले सुना जाती है औऱ सिर्फ सुनाती ही नहीं बल्कि सरकारी वकील अकड़ के साथ बाहर आकर बाइट भी दे जाते हैं कि जिन पर जो चार्ज लगाए गए हैं उसके हिसाब से सजा दी गयी है। अगर इन चैनलों ने लगातार इसी तरह के प्रतिरोध किए हैं तो कैसे ऐसे फैसले आ जाते हैं जिसे सुनकर पांच मिनट के भीतर पूरे भोपाल के लोगों के बीच गुस्से का लावा फूट पड़ता है? ये सवाल सिर्फ भोपाल गैसकांड के मामले में ही नहीं बनता है बल्कि उन तमाम मामलों में बनता है जहां न्यायपालिका या सरकार ऐसी नीतियों और फैसलों को सुनाती है जो कि आमलोगों के विरोध में जाते हैं,फिर भी बेपरवाह होकर उसे लागू कर दिया जाता है। आप खुद भी सोचिए न कि जो चैनल सालभर तक चड्डी,चप्पल से लेकर दस-दस लाख की कार बेचनेवाली कंपनियों का विज्ञापन करती है,उन अंखुआयी हुई कंपनियों का हर चार के बाद एक बार उसका विज्ञापन करती है कि कल को ये घरेलू स्तर की कंपनी कार्पोरेट की शक्ल में तब्दील होगी तो उन्हें फायदा होगा,वही चैनल आज कैसे कार्पोरेट के खिलाफ खड़ी हो गयी? ये हममें से शायद ही किसी को स्वाभाविक लगे। इसका एक सिरा इस बात से भी जुड़ता है कि इस फैसले को लेकर आमलागों के बीच जो असंतोष और गुस्से का भड़कना था औऱ जो एक हद तक भड़का,चैनल ने उसका समर्थन करके,आमलोगों की भावनाओं के साथ अपनी आवाज शामिल करके सरकार को किसी न किसी रुप में राहत देने का काम किया। लोगों का सारा गुस्सा चैनल और पिक्चर ट्यूब के रास्त बहा ले जाने की कोशिश की। सरकार और न्यापालिका के प्रति जो घोर असहमति रही उसका फायदा चैनल ने उठाने की कोशिश की और इस विपरीत परिस्थिति में एक भरोसा कायम करने का जुगत भिड़ाया। तीन पहले के प्रोमो को देखकर जो हम समझ रहे थे कि इसे भी चैनल ने इवेंट बना दिया,फैसले पर जब इसने ये स्टोरी करनी शुरु की तो लगा कि ये रिद्म टूट गया लेकिन नहीं। ये रिद्म टूटा नहीं था,बल्कि थोड़ी देर के लिए स्टीमुलेट भर कर दिया गया था। इसे चैनल की स्टोरी एंगिल और भाषा के जरिए सबसे आसानी से समझ सकते हैं। ये फैसला एक बड़ी खबर थी लेकिन चैनल इसे खबर के बजाय फीचर की ही शक्ल में दिखाते रहे। दो-चार लाइन फैसले पर बात हुई,कुछ फुटेज भर से काम चला लिया और बाकी वही का वही कंटेंट जो कि इवेंट के तौर पर दिखाया जाना तय था। खबर की भाषा में जो तल्खी होती है,जो ऑब्जेक्टिविटी होती है,वो लगभग गायब रही। ले देकर वही हायपर इमोशन का तड़का, एंकर के चेहरे पर वही बरगला ले जानेवाली भंगिमा। अधिकांश चैनलों ने फैसले की पेंच को लेकर कोई गंभीर रिसर्च वर्क नहीं किया। इसलिए ये सारी स्टोरी उपरी तौर पर पीड़ितों के पक्ष में दिखती नजर आने के वाबजूद भी सरोगेट तौर पर सरकार की सेफ्टी में काम करती है। फीचर के आगे खबर का असर कम कर दिया गया। हम चैनल ने भोपाल गैस पीड़ितों के लिए चार-पांच घंटे तक जो किया उसके प्रति आभार प्रकट करते हैं लेकिन इतना साफ है कि नाइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलंद करने की कोई डियूरेशन नहीं होती,कोई वैलिडिटी नहीं होती। ऐसा नहीं होता कि तीन घंटे तक उसके खिलाफ आवाज उठाए जाएं और फिर बाकी सबकुछ पहले की तरह चलता रहे। ये जंतर-मंतर पर धरने में भले ही होता है कि कुछ घंटे का प्रदर्शन फिर खामोशी। लेकिन उस खामोशी में भी आगे की रणनीति तय करने का विराम भर होता है। ग्यारह बजे नहीं कि सारे चैनल अपनी पुरानी रंगत में आ गए। आजतक से एस.पी.सिंह की आत्मा गायब हो चुकी थी। अब वहां इस बात का हिसाब-किताब लगाया जा रहा था कि राखी सावंत को कैसे छोटा पर्दा ऐसा गेटअप देता है कि वो ग्लैमरस ही न दिखे। इंडिया टीवी पर दो हजार साल पुरानी भीम की कब्र खोदी जा रही थी। न्यूज 24 में अंजना कश्यप,सईद अंसारी कुछ बाबाओं के एफर्ट से भूत बुला रहे थे। एनडीटीवी इंडिया पुराने गीतों के कार्यक्रम में खो गया। देर रात होते-होते चैनल एक बार फिर टीम इंडियां के भीतर की कलह में डूब गए। जरुरी नहीं कि हर वक्त भोपाल गैसकांड की ही स्टोरी दिखायी जाए,करगिल में हुई गड़बड़ियों की स्टोरी स्क्रीन पर स्टिल कर दी जाए लेकिन सच्चाई है कि इंसाफ की लड़ाई घंटों में नहीं जीती जा सकती। जिन चैनलों को देखते हुए मेरे सहित देश की करोड़ों जनता ने आंसू बहाए,भावुक हुए,अपना समझा,वो चैनल ऐसी घटनाएं बार-बार न हो इसके लिए कितना और किस हद तक दबाब बनाए रखती है,असल सवाल ये है। पीड़ितों का दर्द उनसे सटकर पीटीसी करने से कम नहीं होता,लगातार उनके साथ खड़े होने से होता है जिसके लिए ये चैनल शायद ही अपने को तैयार कर पाए हैं। नहीं तो बाकी मीडिया रुटीन इंवेट का हिस्सा तो है ही। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Jun 9 11:58:21 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 9 Jun 2010 11:58:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSf4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpJXgpYcg4KSs4KS54KS24KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWJ4KS4IOCkleClgCDgpJXgpLngpL7gpKjgpYAg4KSF4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSW4KSs4KS+4KSw4KWL4KSCIOCkruClh+CkgiDgpK3gpYA=?= Message-ID: स्टार न्यूज चैनल के टॉप लेबल के दो बॉस अविनाश पांडे(नेशनल सेल्स हेड) और गौतम शर्मा(रीजनल हेड नार्थ इंडिया) की करतूतों की जानकारी पिछले दिनों हमने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट "दागदार हुआ स्टार न्यूज, वहशी बॉस हुए बेनकाब" लिखकर दी थी। हमने आपको बताया कि कैसे इन दोनों ने अपनी सहकर्मी सायमा सहर के उपर तरह-तरह से दबाव बनाए,उन्हें चैनल में काम करना मुश्किल कर दिया और ऐसे-ऐसे काम करने के लिए प्रेशर बनाए जिसकी न तो वो कभी अभ्यस्त रही है और न ही जिस काम के लिए उसकी समझ इजाजत देती है। इस पोस्ट को लेकर मेरे पास कई तरह की प्रतिक्रिआएं आयीं। आपमें से अधिकांश लोगों ने इस पोस्ट को सराहते हुए दोनों के खिलाफ सख्त से सख्त कारवायी की मांग की थी। इस बीच विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक चैनल के भीतर इन दोनों ने चैनलकर्मियों के बीच लगातार दबाब बनाने की कोशिश की। उनसे कहा गया है कि इस तरह की जो भी बातें की जा रही है वो सब सरासर झूठ है। बेहतर हो कि इन बातों पर ध्यान न दिया जाए। इतना ही नहीं सायमा सहर जो कि अपने हक में जो लड़ाई लड़ रही है उसे लेकर भी इन लोगों ने तरह-तरह की अफवाहें फैलाने की कोशिश की गयी। चैनल के मीडियाक्रमियों के बीच ये बात फैलायी गयी कि सायमा ये सब इसलिए कर रही है कि उसे नौकरी चाहिए,वो समझौते करने जा रही है वगैरह,वगैरह। हमने अपनी तरफ से साफ कहा था कि सायमा अगर ऐसा करती है तो हम जैसे लोगों का सरोकार की पत्रकारिता करने से भरोसा उठ जाएगा। बहरहाल लेकिन मीडिया खबरों से जुड़ी साइट मीडियाखबर डॉट कॉम(जिसकी खबर के आधार पर हमने पोस्ट लिखी थी) ने जब इस स्टोरी को लगातार फॉलोअप किया तो बात काफी दूर तक पहुंच गयी। साइट के मॉडरेटर ने कई बार इस बात के संकेत भी दिए कि उन पर अलग-अलग तरह से इस स्टोरी को न छापने या फिर नजरअंदाज करने के दबाब बनाए जा रहे हैं। अब जो नयी स्थितियां बनी है उसके हिसाब से चैनल चाहकर भी,दबाब बनाकर भी इस खबर को लेकर किसी भी तरह से मैनेज करने का काम नहीं कर सकता। शुरुआत में सायमा सहर के राष्ट्रीय महिला आयोग के दरवाजे इन सारी घटनाओं को हाजिर कर देने के वाबजूद भी मेनस्ट्रीम मीडिया ने कहीं कोई खोजखबर नहीं ली क्योंकि ऐसे सैंकड़ों मामले हैं जिसमें मीडिया के भीतर की गड़बड़ियां कभी भी मीडिया में खबर नहीं बनने पाती। और वैसे भी इस बात का भरोसा तो रहा ही कि चैनल किसी तरह मैनेज कर ले जाएगा। लेकिन अब जब देखा कि कहानी उलटी पड़ गयी है। इस पूरे मामले की छानबीन के लिए जो जांच कमेटी गठित की गयी,सायमा ने उसकी ऑब्जेक्टिविटी पर ही सवाल खड़े कर दिए और आगे हाइकोर्ट की तरफ से सायमा को स्टे आर्डर मिल गया ,तब जाकर मेनस्ट्रीम मीडिया भी एक-एक करके इस खबर में दिलचस्पी लेने लग गए हैं। जब मेनस्ट्रीम मीडिया को इस बात का एहसास हो गया कि पलड़ा सायमा सहर का भारी है तब जाकर स्टोरी करनी शुरु कर दी है। तो भी ऐसा होना सायमा सहर के पक्ष में है। पहले दि टाइम्स ऑफ इंडिया ने और अब आज नवभारत टाइम्स ने इसे छापा है और तफसील से पूरे मामले की जानकारी दी है। सायमा सहर को न्याय मिलना ही है और उसकी क्रेडिट हमसे डेढ़ महीने बाद भी छापने पर दि टाइम्स ऑफ इंडिया को मिलेगी क्योंकि कल सबसे पहले उसने ही इस खबर को प्रमुखता से छापी है। इन सबके बावजूद मेनस्ट्रीम मीडिया में लगातार खबरें आने से सायमा का पक्ष मजबूत होगा। ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बात पहुंचेगी और एक डेमोक्रेटिक प्रेशर बनेगा। यहां हम दोनों स्टोरी लगा रहे हैं। बेहतर तरीके से पढ़ने के लिए दोनों अखबारों की हायपर लिंक पर क्लिक करें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Fri Jun 11 12:52:02 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 11 Jun 2010 12:52:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSi4KS84KS/?= =?utf-8?b?4KSPLCDgpIXgpLDgpYHgpILgpKfgpKTgpL8g4KSV4KWHICfgpLXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KSC4KSXIOCkteCkv+CkpSDgpJXgpYngpK7gpLDgpYfgpKE=?= =?utf-8?b?4KWN4KS4JyDgpJXgpL4g4KSq4KWC4KSw4KS+IOCkueCkv+CkguCkpg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkheCkqOClgeCkteCkvuCkpg==?= Message-ID: पढ़िए, अरुंधति के 'वाकिंग विथ कॉमरेड्स' का पूरा हिंदी अनुवाद, पहली बार *हाशिया पर हमने आउटलुक में प्रकाशितअरुंधति राय की चर्चित रिपोर्ट का अभिषेक श्रीवास्तव द्वारा हिंदी में संक्षिप्त अनुवादपोस्ट किया था. इस रिपोर्ट ने देश और दुनिया में माओवाद और सामाजिक रूपांतरण में हिंसा के उपयोग पर एक नई बहस को जन्म दिया था. इस विवाद में भारत के गृह मंत्री से लेकर अनेक बुद्धिजीवी भी शामिल हुए. यह विवाद अब भी थमा नहीं है. पेश है, पहली बार इस रिपोर्ट का पूरा हिंदी अनुवाद. यह अनुवाद नीलाभ ने किया है, जिन्होंने अरुंधति के मशहूर उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स का अनुवाद किया था. यह रिपोर्ट बहुत लंबी है, इसलिए यहां इसका पीडीफ वर्जन पोस्ट किया जा रहा है, ताकि आप इसे डाउनलोड करके पढ़ सकें.* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jun 11 18:13:39 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 11 Jun 2010 05:43:39 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSw4KSVIOCkleCkviDgpLjgpKvgpL7gpK/gpL4=?= Message-ID: धर्म और सामाजिक परंपरा के नाम पर औरतों के कितने नरक हो सकते हैं, इसे अगर जानना हो तो आप कुछपुरदर गांव की सरपंच रत्न कुमारी से बात कर सकते हैं. रत्न कुमारी यूं तो समाज सेवा के लिये ढेरों काम करती हैं, बाढ़ राहत से लेकर नारी शिक्षा तक लेकिन उनके मन में औरतों का नरक किसी फांस की तरह है. दलित समुदाय से जुड़ी हुई रत्न कुमारी ऐसे ही नरक के सफाये के लिये जी जान से जुटी हुई हैं. जानते हैं, इस नरक का नाम ? इस नरक का नाम है- कोलकुलम्मा. कोलकुलम्मा यानी जोगिनी, यानी मातंगी यानी देवदासी. अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संबोधन लेकिन हश्र सबका एक जैसा. यानी धर्म के नाम पर लड़कियों को मंदिर में ईश्वर की सेवा के लिए रखा जाना. यह बात बहुत साफ है कि कोलकुलम्मा के तहत मंदिरों में रखी गई इन लड़कियों का स्थानीय आर्थिक-सामाजिक शक्ति संपन्न लोग शारीरिक शोषण भी करते हैं. ये शक्ति संपन्न लोग ही मंदिर में उस स्त्री के खाने पीने और रहने की व्यवस्था करते हैं. एक तरह से यह प्रथा पुरुषों द्वारा एक स्त्री को रखैल बनाकर रखने को सामाजिक मान्यता प्रदान करता है. धर्म के नाम पर चल रही इस तरह की वेश्यावृत्ति 1988 से आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित है, लेकिन इस कानून को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार अब तक नाकाम रही है. रत्न कुमारी के अनुसार, उन्होंने पिछले कुछ समय में गुंटूर और आस पास के जिलों में एक दर्जन से अधिक कोलकुलम्माओं की पहचान की है और इन कोलकुलम्माओं को इस नर्क की जिंदगी से निकालने के लिए लगातार कोशिश कर रही हैं. रत्न कुमारी कहती हैं- “छोटी उम्र की लड़कियों का परंपरा के नाम पर कोलकुलम्मा बनाकर समाज के दबंग लोग यौन शोषण करते हैं. यह सब आजादी के साठ साल बाद भी हमारे समाज में बचा हुआ है. इसे खत्म होना ही चाहिए.” आंध्र प्रदेश के इलाके में कोलकुलम्मा के लिए चुनकर आने वाली लड़कियां एक खास दलित जाति मडिगा समाज से चुनकर आती हैं. रत्न बताती हैं, किस प्रकार एक कोलकुलम्मा को उसके गांव से बाहर निकालना मुश्किल होता है, क्योंकि उस वक्त समाज तो आपका दुश्मन होता ही है, कई मौकों पर कोलकुलम्मा के परिवार वाले भी आपके खिलाफ हो जाते हैं. उस समय साहस और संयम से काम लेना होता है. हालांकि मडिगा समाज के लोग भी धीरे-धीरे रत्न के इस अभियान में धीरे-धीरे शामिल हो रहे हैं. रत्न की आने वाले समय में मडिगा समाज के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके बीच स्वयं सहायता समूह जैसे प्रयास प्रारंभ करने की योजना है. आरंभ रत्न कुमारी के सामाजिक जीवन की शुरूआत कॉलेज में राष्ट्रीय सेवा योजना के साथ काम करते हुए हुई. लगातार तीन सालों तक उन्हें कॉलेज में बेस्ट वालेंटियर का अवार्ड मिला. घर में पिता की सराहना मिली. कॉलेज की पढ़ाई के समय ही लगा कि कुछ अलग करना है. कुछ ऐसा, जिससे समाज बदले. एक दोस्त निर्मला ने हौसला बढ़ाया और फिर दोनों ने मिलकर 1993 में एक संस्था का निर्माण किया. नाम रखा ‘डेवलपमेन्ट एक्शन फॉर वूमेन इन नीड सोसायटी’, संक्षिप्त नाम हुआ, ‘डॉन’ यानी सूर्योदय. इसी संस्था के बैनर तले रत्न ने अपने समाज के लोगों को शिक्षित करने की जिम्मेवारी ली. रत्न के अनुसार- “यह जरूरी था, क्योंकि हमारे समाज के लोग अधिक पढ़े लिखे नहीं थे. वे यदि पढ़ जाते हैं, साक्षर होते हैं, उसके बाद वे अपने लिए सही-गलत का फैसला कर सकते हैं. वे अपने अधिकारों से वाकिफ हो सकते हैं.” जब उन्होंने यह संस्था शुरू की, उस वक्त एक जुनून था. 1993 से 1999 तक उन्होंने अपने समाज के लोगों से मिले छोटी सहायताओं के दम से ही समाज के बीच अपना अभियान जारी रखा. 1999 में अपने एक साथी की सलाह पर बच्चों के लिये काम करने वाली संस्था क्राई से उन्होंने संपर्क साधा. जब वह अपना आवेदन लेकर गुंटूर से बैंगलोर गई तो वहां 300 आवेदकों को देखकर उनके होश उड़ गए. बकौल रत्न- “वहां एक से एक शक्ल सूरत वाले, धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग मौजूद थे और मैं उसके उलट सीधी-साधी तेलुगु भाषी महिला थी.” वह साक्षात्कार से पहले ही हिम्मत हार कर बैठ गईं. लेकिन जब निर्णय आया तो यह जानकर उन्हें बेहद हैरानी हुई कि क्राई ने मदद करने के लिए जिन छह संस्थाओं का चयन किया है, उसमें एक उनकी संस्था भी है. हौसले की उड़ान आर्थिक मदद के बाद तो रत्न कुमारी ने एक नई उड़ान शुरु की. संस्था से जो पैसा मिला, उसकी मदद से उन्होंने चुंडूर मंडल के अंदर पेडगाडलवाड़ू, चिंगाडलवाडू, कारुमू, पारिमी और रिम्पालम गांव में शिक्षा केन्द्र प्रारंभ किए. यह शिक्षा केन्द्र खास तौर से दलित छात्रों के लिए थे. रत्न की हमेशा कोशिश रही कि दलित परिवार के जिन बड़े बुजुर्गों ने पढ़ाई नहीं की है, उनको भी पढ़ाया जाए. इस तरह के काम के लिये हैदराबाद की निर्णय ट्रस्ट और डीवीएएफ से भी समय समय पर मदद मिलती रही है. आज की तारीख में रत्न कुमारी इलाके में समाजसेवी संस्थाओं के लिये मिसाल बन गई हैं. रत्न के पति बाबू राव से अपनी पत्नी के काम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. कई बार जरुरत होने पर वे अपने काम से छुट्टी लेकर रत्न के साथ खड़े होते हैं. गुंटूर में बाढ़ के दौरान वे लंबे समय तक रत्न के साथ बाढ़ पीड़ितों के बीच ही रहे. रत्न की सेवा निष्ठा को देखकर ही उनके तेनाली से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव कुछपुरदर के लोगों ने उन्हें अपना सरपंच चुना. गांव वालों की अपनी अपेक्षायें हैं, अपनी उम्मीदें हैं. लेकिन रत्न कुमारी की आंखों में एक सपना बराबर तैरता रहता है-“कोलकुलम्मा समाज पर एक कलंक की तरह है. इसका जल्दी से जल्दी खत्म होना ही देश और समाज के हित में है.” * रविवार* (http://raviwar.com/news/337_kolkulamma-women-sex-worker-anshu.shtml ) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jun 11 18:13:39 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 11 Jun 2010 05:43:39 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSw4KSVIOCkleCkviDgpLjgpKvgpL7gpK/gpL4=?= Message-ID: धर्म और सामाजिक परंपरा के नाम पर औरतों के कितने नरक हो सकते हैं, इसे अगर जानना हो तो आप कुछपुरदर गांव की सरपंच रत्न कुमारी से बात कर सकते हैं. रत्न कुमारी यूं तो समाज सेवा के लिये ढेरों काम करती हैं, बाढ़ राहत से लेकर नारी शिक्षा तक लेकिन उनके मन में औरतों का नरक किसी फांस की तरह है. दलित समुदाय से जुड़ी हुई रत्न कुमारी ऐसे ही नरक के सफाये के लिये जी जान से जुटी हुई हैं. जानते हैं, इस नरक का नाम ? इस नरक का नाम है- कोलकुलम्मा. कोलकुलम्मा यानी जोगिनी, यानी मातंगी यानी देवदासी. अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संबोधन लेकिन हश्र सबका एक जैसा. यानी धर्म के नाम पर लड़कियों को मंदिर में ईश्वर की सेवा के लिए रखा जाना. यह बात बहुत साफ है कि कोलकुलम्मा के तहत मंदिरों में रखी गई इन लड़कियों का स्थानीय आर्थिक-सामाजिक शक्ति संपन्न लोग शारीरिक शोषण भी करते हैं. ये शक्ति संपन्न लोग ही मंदिर में उस स्त्री के खाने पीने और रहने की व्यवस्था करते हैं. एक तरह से यह प्रथा पुरुषों द्वारा एक स्त्री को रखैल बनाकर रखने को सामाजिक मान्यता प्रदान करता है. धर्म के नाम पर चल रही इस तरह की वेश्यावृत्ति 1988 से आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित है, लेकिन इस कानून को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार अब तक नाकाम रही है. रत्न कुमारी के अनुसार, उन्होंने पिछले कुछ समय में गुंटूर और आस पास के जिलों में एक दर्जन से अधिक कोलकुलम्माओं की पहचान की है और इन कोलकुलम्माओं को इस नर्क की जिंदगी से निकालने के लिए लगातार कोशिश कर रही हैं. रत्न कुमारी कहती हैं- “छोटी उम्र की लड़कियों का परंपरा के नाम पर कोलकुलम्मा बनाकर समाज के दबंग लोग यौन शोषण करते हैं. यह सब आजादी के साठ साल बाद भी हमारे समाज में बचा हुआ है. इसे खत्म होना ही चाहिए.” आंध्र प्रदेश के इलाके में कोलकुलम्मा के लिए चुनकर आने वाली लड़कियां एक खास दलित जाति मडिगा समाज से चुनकर आती हैं. रत्न बताती हैं, किस प्रकार एक कोलकुलम्मा को उसके गांव से बाहर निकालना मुश्किल होता है, क्योंकि उस वक्त समाज तो आपका दुश्मन होता ही है, कई मौकों पर कोलकुलम्मा के परिवार वाले भी आपके खिलाफ हो जाते हैं. उस समय साहस और संयम से काम लेना होता है. हालांकि मडिगा समाज के लोग भी धीरे-धीरे रत्न के इस अभियान में धीरे-धीरे शामिल हो रहे हैं. रत्न की आने वाले समय में मडिगा समाज के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके बीच स्वयं सहायता समूह जैसे प्रयास प्रारंभ करने की योजना है. आरंभ रत्न कुमारी के सामाजिक जीवन की शुरूआत कॉलेज में राष्ट्रीय सेवा योजना के साथ काम करते हुए हुई. लगातार तीन सालों तक उन्हें कॉलेज में बेस्ट वालेंटियर का अवार्ड मिला. घर में पिता की सराहना मिली. कॉलेज की पढ़ाई के समय ही लगा कि कुछ अलग करना है. कुछ ऐसा, जिससे समाज बदले. एक दोस्त निर्मला ने हौसला बढ़ाया और फिर दोनों ने मिलकर 1993 में एक संस्था का निर्माण किया. नाम रखा ‘डेवलपमेन्ट एक्शन फॉर वूमेन इन नीड सोसायटी’, संक्षिप्त नाम हुआ, ‘डॉन’ यानी सूर्योदय. इसी संस्था के बैनर तले रत्न ने अपने समाज के लोगों को शिक्षित करने की जिम्मेवारी ली. रत्न के अनुसार- “यह जरूरी था, क्योंकि हमारे समाज के लोग अधिक पढ़े लिखे नहीं थे. वे यदि पढ़ जाते हैं, साक्षर होते हैं, उसके बाद वे अपने लिए सही-गलत का फैसला कर सकते हैं. वे अपने अधिकारों से वाकिफ हो सकते हैं.” जब उन्होंने यह संस्था शुरू की, उस वक्त एक जुनून था. 1993 से 1999 तक उन्होंने अपने समाज के लोगों से मिले छोटी सहायताओं के दम से ही समाज के बीच अपना अभियान जारी रखा. 1999 में अपने एक साथी की सलाह पर बच्चों के लिये काम करने वाली संस्था क्राई से उन्होंने संपर्क साधा. जब वह अपना आवेदन लेकर गुंटूर से बैंगलोर गई तो वहां 300 आवेदकों को देखकर उनके होश उड़ गए. बकौल रत्न- “वहां एक से एक शक्ल सूरत वाले, धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग मौजूद थे और मैं उसके उलट सीधी-साधी तेलुगु भाषी महिला थी.” वह साक्षात्कार से पहले ही हिम्मत हार कर बैठ गईं. लेकिन जब निर्णय आया तो यह जानकर उन्हें बेहद हैरानी हुई कि क्राई ने मदद करने के लिए जिन छह संस्थाओं का चयन किया है, उसमें एक उनकी संस्था भी है. हौसले की उड़ान आर्थिक मदद के बाद तो रत्न कुमारी ने एक नई उड़ान शुरु की. संस्था से जो पैसा मिला, उसकी मदद से उन्होंने चुंडूर मंडल के अंदर पेडगाडलवाड़ू, चिंगाडलवाडू, कारुमू, पारिमी और रिम्पालम गांव में शिक्षा केन्द्र प्रारंभ किए. यह शिक्षा केन्द्र खास तौर से दलित छात्रों के लिए थे. रत्न की हमेशा कोशिश रही कि दलित परिवार के जिन बड़े बुजुर्गों ने पढ़ाई नहीं की है, उनको भी पढ़ाया जाए. इस तरह के काम के लिये हैदराबाद की निर्णय ट्रस्ट और डीवीएएफ से भी समय समय पर मदद मिलती रही है. आज की तारीख में रत्न कुमारी इलाके में समाजसेवी संस्थाओं के लिये मिसाल बन गई हैं. रत्न के पति बाबू राव से अपनी पत्नी के काम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. कई बार जरुरत होने पर वे अपने काम से छुट्टी लेकर रत्न के साथ खड़े होते हैं. गुंटूर में बाढ़ के दौरान वे लंबे समय तक रत्न के साथ बाढ़ पीड़ितों के बीच ही रहे. रत्न की सेवा निष्ठा को देखकर ही उनके तेनाली से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव कुछपुरदर के लोगों ने उन्हें अपना सरपंच चुना. गांव वालों की अपनी अपेक्षायें हैं, अपनी उम्मीदें हैं. लेकिन रत्न कुमारी की आंखों में एक सपना बराबर तैरता रहता है-“कोलकुलम्मा समाज पर एक कलंक की तरह है. इसका जल्दी से जल्दी खत्म होना ही देश और समाज के हित में है.” * रविवार* (http://raviwar.com/news/337_kolkulamma-women-sex-worker-anshu.shtml ) -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jun 14 17:00:58 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 14 Jun 2010 17:00:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSo4KWH?= =?utf-8?b?4KSu4KS+?= Message-ID: *‘**राजनीति**’ **में राजनीति* फिल्म राजनीति चार जून को परदे पर आई तो इससे जुड़े विवाद एकबारगी थम गए। फिल्म देखकर लौटे सिने प्रेमियों के मुताबिक राजनीति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का अक्स दिखलाई नहीं पड़ता। हालांकि, कांग्रेसी कार्यकर्ता कुछ ऐसा ही दावा कर रहे थे। वे शोर मचाते हुए उच्च अदालत तक पहुंच गए। वहां कहा कि फिल्म में कटरीना कैफ का किरदार सोनिया गांधी पर केंद्रित है। इससे उनके अध्यक्ष की छवि धूमिल होती है। इस विवाद से फिल्म की खूब चर्चा हुई। फिल्म को सफल बनाने में इस विवाद का खासा योगदान रहा। वैसे फिल्म के परदे पर आने से पहले निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा इस बात का खंडन कर चुके थे। खैर, झा वैसे फिल्मकार हैं जो अपनी कृति से सार्थक बहस पैदा करते रहे हैं। पर, उनकी हालिया फिल्म ‘राजनीति’ विवादों में रही। इसने किसी नई बहस को पैदा नहीं किया। कहा जाता है कि झा की इस फिल्म पर कांग्रेसी शुरू से ही निगाह गड़ाए बैठे थे। फिल्म सेंसर बोर्ड के पास गई तो इससे पहले ही कांग्रेस पार्टी की तीन सदस्यों वाली एक समिति ने इसे देखा। कुछ दृश्यों को हटाने व संवादों के साथ बीप के इस्तेमान की बात कही थी। इसके बाद मजबूरन कुछेक फेर-बदल प्रकाश झा को करने पड़े। दरअसल, सत्ता का भान कराने का कांग्रेसियों में पुराना रिवाज है। यहां उन्होंने यही किया। पर, सिनेमा के शिल्प को नहीं समझ पाए और सही जगह पहुंचने से रह गए। काट-छांट के बावजूद झा उनसे आगे ही रहे। पृथ्वीप्रताप (अर्जुन रामपाल) की विधवा के रूप में इंदु (कटरीना कैफ) का जनता के बीच जाकर भावनात्मक भाषण देना सतर्क निगाह को पुरानी याद दिलाता है। जानकारों का मानना है, “यही तो राजनीति है, आप आपना काम कर जाएं। दूसरों को देर बाद मामूल पड़े। न पड़े तो और भी अच्छा।” बहरहाल, भारतीय राजनीति में दलीय मतभेदों व टकराव की शिनाख्त करने वाली कम फिल्में हैं जिन्हें लंबे समय तक याद रखा जा सके। ऐसी फिल्में तो और भी कम हैं जो परिवार के भीतर पॉलिटीकल पॉवर हासिल करने के मकसद में जुटे लोगों की पहचान कराती है। यह नहीं कहा जा सकता कि झा की ‘राजनीति’ ने इस कमी को पूरा कर दिया है। पर इसे देखते हुए मालूम पड़ता है कि यह फिल्म वर्तमान भारतीय राजनीति के विषय में और अधिक समझ पैदा करने के लिए बनाई गई है। पर, यहां कई ऐसे गड़बड़झाले हैं जो दर्शकों को उलझाते है। आगे चलकर फिल्म हिंसक ज्यादा हो जाती है। चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पृथ्वी प्रताप के घर में विस्फोट इसका प्रमाण है। गत दो दशकों से राजनीतिक घटनाएं तेजी से घटी हैं। इसने बौद्धिक लेखन को प्रेरित किया। कई सामग्रियां प्रकाश में आई हैं। पर सिनेमा मौन ही रहा। हालांकि अपवाद हैं। 21वीं शताब्दी में स्थितियां कुछ ऐसी बदलीं कि पहले की अपेक्षा भारतीय राजनीति में युवकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। वे शीर्ष पद की दौर में शामिल हो गए हैं। झा इसे विभिन्न कोणों से परदे पर उतारते हैं। यह जोखिम था। पर झा ने उसे उठाया है। आंधी और हु-तू-तू जैसी राजनीतिक फिल्म बना चुके गुलजार एक जगह कहते हैं- “अपने पोलिटिकल पीरियड पर कमेंट करना आसान नहीं होता है। पर मैंने यह रिस्क उठाया है। आंधी को लेकर मुझे काफी दिक्कतें उठानी पड़ीं। हालांकि, आज राजनीतिक हस्तक्षेप पहले से कम हुए हैं। पर, आज राजनीतिक गिरोहों द्वारा हस्तक्षेप हो रहा है।” झा की फिल्म प्रदर्शित होने से पहले जो विवाद गहराया, उससे गुलजार सौ फीसद सही साबित होते हैं। आखिरकार प्रकाश झा भी तो फिल्म ‘राजनीति’ के माध्यम से अपने पोलिटिकल पीरियड पर कमेंट कर रहे हैं। लेकिन, फिल्म को कमर्शियली सफल करने के लिए जिस तामझाम की जरूरत होती है ‘राजनीति’ में वे सारी चीजें हैं। इसमें सच कई जगहों पर छुप सा गया है। शायद झा भी यही चाहते थे, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि सीधी बात होगी तो बवेला मचाएंगे। वैसे राजनीति भी साफ और सीधी कहां रह गई है! भारत में क्षेत्रों की राजनीति पेचीदा है, पर उसका महत्व और भी बढ़ा है। इसे परदे पर अच्छी तरह उतारना सरल नहीं था। पर फिल्म को देखते समय ऐसा लगता है कि निर्देशक तामझाम के बीच कुछ वाजिब सवालों को उठाने और उसे गति देने में सफल रहा है। फिल्म का एक दलित नेता कहता है- “जीवन कुमार हमारी जात के भले हों, बीच के कैसे हो गए।” यह चुनाव के दौरान ऊपर से थोपे गए उम्मीदवार के खिलाफ बगावत है। हालांकि, शीर्ष नेतृत्व ने एक चाल चली, उक्त दलित नेता के पिता को ही उम्मीदवार घोषित करवा देता है। राजनीति के ये दाव-पेंच फिल्म को कहीं-कहीं रोचक बनाए रखते हैं। पर शुरुआती घंटे के बाद ही कसाव बिखर जाता है। निर्देशक उस बिंदु की तलाश में घटनाक्रम को अंजाम देता चलता है, जहां पॉवरफुल शख्स का अक्स डाला जा सके। दरअसल यह फिल्म कम राजनीति ज्यादा है। प्रकाश झा यहां गिरोहबाजों को चकमा देने में सफल रहे हैं। ब्रजेश कुमार 09350975445 khambaa.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Tue Jun 15 11:46:13 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 15 Jun 2010 11:46:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCknOCliyDgpJzgpKjgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4g4KSo4KWHIOCkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkm+CkvuCkquCkvg==?= Message-ID: <4C171AAD.8070203@sarai.net> आप सब के सूचनार्थ, अग्रेषित. रविकान्त 2010/6/12 WomenForDignity > /पिछले दिनों *जनसत्ता* के २३ मई और ३० मई अंक में *मदन भास्कर* नाम से हिन्दी अकादमी पुरस्कार प्रकरण में लेखिका *गगन गिल* पर जो विक्षोभकारी, कुतर्कपूर्ण व्यक्तिगत प्रहार किये गए, उस पर समूचे हिन्दी लेखक समाज में ही नहीं, भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी व्यापक रोषपूर्ण प्रतिक्रया हुई है. उनमें से एक, यहाँ दी गई टिप्पणी हिन्दी कवि *तेजी ग्रोवर *की भी थी. क्योंकि जनसत्ता ने किसी कारणवश यह प्रतिक्रया नहीं छापी, हम इसे आप मित्रों तक पहुंचा रहे हैं./ *पत्र जो जनसत्ता ने नहीं छापा* *प्रिय संपादक महोदय * * * *मैं यह पत्र आपको इसलिए लिख रही हूँ कि हिंदी अकादेमी के पुरस्कारों का बहिष्कार करने वाले लेखकों से एक अपील कर सकूं. हिंदी लेखकों का एक समूह एकजुट होकर एक लेखक के सम्मान में खुद को मिले हुए पुरस्कार को ठुकरा दे, यह मेरे लिए एक हिंदी कवि होने के नाते गर्व की बात है. मैं आपको बताना चाहती हूँ, कि कृष्ण बलदेव वैद मेरे प्रिय लेखक ही नहीं, निर्मल जी कि तरह मेरे गुरु भी हैं. चंडीगढ़ में हमने उनके उपन्यास 'बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ' का नाट्य-रूपांतरण कर उनके अपने निर्देशन में इसे मंचित भी किया था. मेरी नयी किताब मेरे इन दो प्रिय लेखकों को समर्पित भी है. लेकिन क्षमा कीजिये, गगन अपने हित और अहित का फैसला खुद कर सकती हैं, और इसी तरह हिंदी अकादेमी का विरोध करने के बावजूद पुरस्कार लेना न लेना उनका अपना फैसला है, इस बात का हमें कितना भी दुःख क्यों ना हो कि उन्होंने इस पुरस्कार का बहिष्कार नहीं किया. * * * *जिन लेखकों ने पुरस्कारों को अस्वीकार किया है, मैं उनसे गुज़ारिश कर रही हूँ कि वे जनसत्ता में लिखे गए कुछ लेखों में गगन के लिए जिस भाषा का उपयोग किया जा रहा है, उसको लेकर भी अपना क्षोभ व्यक्त करें. गगन के फैसले पर सवाल उठाना एक बात है, लेकिन उनपर पथराव करना और गाली देना बिलकुल दूसरी बात है. अगर आप मित्र लोग कठिन घडी में गगन का साथ देंगे तो इससे वैद साहब के सम्मान में हो रही मुहिम की एक अंतरात्मा भी प्रकट हो जाएगी. * * * *गगन मेरी सहोदर और समकालीन उपस्थिति हैं, और उनकी आवाज़ का बने रहना मेरे लिए मानी रखता है. शायद आप सब के लिए भी रखता है जिन्होंने उनकी रचनाओं को पढ़ा और सराहा है. जिस तरह इन लेखों में निर्मल जी के नाम को लाया जा रहा है उसका कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि वे तो निश्चित ही गगन को अपने विवेक से काम लेने देते. गगन को निर्मल जी के सन्दर्भ में ठेस पहुंचाना कितना सही है, इसका फैसला भी आप मित्र लोग करें, जो कवि हैं और लेखक हैं, और जिन्होंने जीवन में कोई कठिन प्रेम किया है. फिर आप वैद साहब को भी तो कोई ख़ुशी हासिल करने दीजिये न कि उनके सम्मान को बहाल करने के उपक्रम में हमारी एक प्रिय हिंदी कवि का अपमान शामिल न हो.* * * * मैं गगन के साथ हो रहे इस अन्याय से ज़ाती तौर पर खुद भी बहुत आहत महसूस कर रही हूँ, जैसे यह चोट मुझ पर ही की जा रही हो. मैं जनसत्ता के उस अखबार से अपील करती हूँ जिसमे हमारे बहुत से प्रिय लेखक लिख रहे हैं, कि वे गगन के सम्मान को पहुंची ठेस को खुद पर घटा कर देखें कि क्या वे वाकई इस भाषा कि हक़दार हैं जो उनके लिए इस्तेमाल की जा रही है?* * * * * *मैं हिंदी के साहित्यिक समाज से यह उम्मीद भी करती थी\हूँ कि वे गगन के प्रति इस बात के लिए भी कृतज्ञ हो कि उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा निर्मल जी कि अनथक सेवा में बिताया है और इस तरह प्रेम के ऐसे काठिन्य को साधा है जो बहुतों के बस का नहीं है. निर्मल जी के साहित्यिक धरोहर को जी जान से संजोने का काम उन्होंने बड़ी निष्ठां से किया है, आप वे १६ पुस्तकें देख सकते हैं जो हाल ही में वाणी प्रकाशन से छपी हैं. उन्होंने पुरस्कार लेकर किसी के नाम को नहीं डुबाया, कोई किसी के नाम को भला डुबा भी कैसे सकता है?* ** *मैं यह पत्र आपको बड़ी उम्मीद से लिख रही हूँ, संपादक महोदय.* ** *तेजी ग्रोवर * * * * * -- Dr.J.P.Das 305 Hauz Khas Apartments New Delhi-110016 From avinashonly at gmail.com Wed Jun 16 10:46:38 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 16 Jun 2010 10:46:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCknOCliyDgpJzgpKjgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4g4KSo4KWHIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkm+CkvuCkquCkvg==?= In-Reply-To: <4C171AAD.8070203@sarai.net> References: <4C171AAD.8070203@sarai.net> Message-ID: http://mohallalive.com/2010/06/16/poetess-teji-grover-with-gagan-gill/ 2010/6/15 ravikant > आप सब के सूचनार्थ, अग्रेषित. > > रविकान्त > > 2010/6/12 WomenForDignity womenfordignity at gmail.com>> > > > /पिछले दिनों *जनसत्ता* के २३ मई और ३० मई अंक में *मदन भास्कर* नाम से > हिन्दी > अकादमी पुरस्कार प्रकरण में लेखिका *गगन गिल* पर जो विक्षोभकारी, > कुतर्कपूर्ण व्यक्तिगत प्रहार किये गए, उस पर समूचे हिन्दी लेखक समाज में ही > नहीं, > भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी व्यापक रोषपूर्ण प्रतिक्रया हुई है. उनमें से > एक, यहाँ > दी गई टिप्पणी हिन्दी कवि *तेजी ग्रोवर *की भी थी. क्योंकि जनसत्ता ने > किसी > कारणवश यह प्रतिक्रया नहीं छापी, हम इसे आप मित्रों तक पहुंचा रहे हैं./ > *पत्र जो जनसत्ता ने नहीं छापा* *प्रिय संपादक महोदय * > * * > *मैं यह पत्र आपको इसलिए लिख रही हूँ कि हिंदी अकादेमी के पुरस्कारों का > बहिष्कार करने वाले लेखकों से एक अपील कर सकूं. हिंदी लेखकों का एक समूह > एकजुट होकर > एक लेखक के सम्मान में खुद को मिले हुए पुरस्कार को ठुकरा दे, यह मेरे लिए > एक > हिंदी कवि होने के नाते गर्व की बात है. मैं आपको बताना चाहती हूँ, कि > कृष्ण बलदेव > वैद मेरे प्रिय लेखक ही नहीं, निर्मल जी कि तरह मेरे गुरु भी हैं. चंडीगढ़ > में हमने उनके > उपन्यास 'बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ' का नाट्य-रूपांतरण कर उनके अपने > निर्देशन में > इसे मंचित भी किया था. मेरी नयी किताब मेरे इन दो प्रिय लेखकों को समर्पित > भी > है. लेकिन क्षमा कीजिये, गगन अपने हित और अहित का फैसला खुद कर सकती हैं, > और > इसी तरह हिंदी अकादेमी का विरोध करने के बावजूद पुरस्कार लेना न लेना उनका > अपना > फैसला है, इस बात का हमें कितना भी दुःख क्यों ना हो कि उन्होंने इस > पुरस्कार का > बहिष्कार नहीं किया. * > * * > *जिन लेखकों ने पुरस्कारों को अस्वीकार किया है, मैं उनसे गुज़ारिश कर रही > हूँ कि वे > जनसत्ता में लिखे गए कुछ लेखों में गगन के लिए जिस भाषा का उपयोग किया जा > रहा > है, उसको लेकर भी अपना क्षोभ व्यक्त करें. गगन के फैसले पर सवाल उठाना एक > बात > है, लेकिन उनपर पथराव करना और गाली देना बिलकुल दूसरी बात है. अगर आप मित्र > लोग कठिन घडी में गगन का साथ देंगे तो इससे वैद साहब के सम्मान में हो रही > मुहिम > की एक अंतरात्मा भी प्रकट हो जाएगी. * > * * > *गगन मेरी सहोदर और समकालीन उपस्थिति हैं, और उनकी आवाज़ का बने रहना मेरे > लिए > मानी रखता है. शायद आप सब के लिए भी रखता है जिन्होंने उनकी रचनाओं को > पढ़ा > और सराहा है. जिस तरह इन लेखों में निर्मल जी के नाम को लाया जा रहा है उसका > कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि वे तो निश्चित ही गगन को अपने विवेक से काम > लेने देते. > गगन को निर्मल जी के सन्दर्भ में ठेस पहुंचाना कितना सही है, इसका फैसला भी > आप > मित्र लोग करें, जो कवि हैं और लेखक हैं, और जिन्होंने जीवन में कोई कठिन > प्रेम किया > है. फिर आप वैद साहब को भी तो कोई ख़ुशी हासिल करने दीजिये न कि उनके > सम्मान > को बहाल करने के उपक्रम में हमारी एक प्रिय हिंदी कवि का अपमान शामिल न हो.* > * * > * मैं गगन के साथ हो रहे इस अन्याय से ज़ाती तौर पर खुद भी बहुत आहत महसूस > कर > रही हूँ, जैसे यह चोट मुझ पर ही की जा रही हो. मैं जनसत्ता के उस अखबार से > अपील करती हूँ जिसमे हमारे बहुत से प्रिय लेखक लिख रहे हैं, कि वे गगन के > सम्मान को > पहुंची ठेस को खुद पर घटा कर देखें कि क्या वे वाकई इस भाषा कि हक़दार हैं > जो उनके > लिए इस्तेमाल की जा रही है?* > * * > * * > *मैं हिंदी के साहित्यिक समाज से यह उम्मीद भी करती थी\हूँ कि वे गगन के > प्रति इस > बात के लिए भी कृतज्ञ हो कि उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा निर्मल > जी कि > अनथक सेवा में बिताया है और इस तरह प्रेम के ऐसे काठिन्य को साधा है जो > बहुतों के बस > का नहीं है. निर्मल जी के साहित्यिक धरोहर को जी जान से संजोने का काम > उन्होंने > बड़ी निष्ठां से किया है, आप वे १६ पुस्तकें देख सकते हैं जो हाल ही में > वाणी प्रकाशन से > छपी हैं. उन्होंने पुरस्कार लेकर किसी के नाम को नहीं डुबाया, कोई किसी के > नाम को > भला डुबा भी कैसे सकता है?* > ** *मैं यह पत्र आपको बड़ी उम्मीद से लिख रही हूँ, संपादक महोदय.* > ** *तेजी ग्रोवर * > * * > * * > > > > > -- > Dr.J.P.Das > 305 Hauz Khas Apartments > New Delhi-110016 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Thu Jun 17 15:53:56 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Thu, 17 Jun 2010 15:53:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCknOCliyDgpJzgpKjgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4g4KSo4KWHIOCkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkm+CkvuCkquCkvg==?= In-Reply-To: References: <4C171AAD.8070203@sarai.net> Message-ID: <4C19F7BC.8010202@sarai.net> दीवान के पाठकों से माफ़ी माँगते हुए, ये दो प्रतिक्रियाएँ मैं यहाँ बग़ैर अनुवाद के डाल रहा हूँ. मैं कई बार जनसत्ता नहीं पढ़ पाता, इसलिए मुझे नहीं पता कि पिछले दस-बारह दिनों में क्या छपा, नहीं छपा. इन दोनों प्रतिक्रियाओं को देखकर लगता है कि भाषा को लेकर तेजी ग्रोवर की प्रतिक्रिया थोड़ी अतिरंजित है. पहली बात nilanjanadebashish73 at gmail.com की है. दूसरी राजकिशोर जी की, जो उनके दस्तख़त से ज़ाहिर है. अविनाश से अपील करूँगा कि मोहल्ला लाइव के उस पोस्ट से जुड़ी जिस टिप्पणी पर मेरा नाम चिपका है, उसे हटा दे, या कम-से-कम ये चीज़े भी डाल दे क्योंकि वह बात दरअसल किसी डॉ. जेपी दास ने कही थी, जिसका सबूत इस पोस्ट में भी बिल्कुल पेंदे पर मौजूद है. शुक्रिया रविकान्त I entirely agree. What is the basic objection of Teji Grover one is unable to understand. Jansatta is published from my city Kolkata also and is known for its serious concerns for culture as well as human rights and women dignity. Women authors like Taslima Nasreen, Alka Saraogi, Anamika, Mrinal Pandey have been paper's known columnist (which other Hindi paper gives columns to women writers, by the way?) and Krishna Sobti, Nirmala Jain, Nasira Sharma etc had been its regular contributors. Not only this, as a keen reader and an occasional contributor to Jansatta, I know well that how the paper has supported Gagan Gill's fight with Rajkamal Publication and Mahatma Gandhi Hindi University. Making a serious allegations and propagating a tirade against a reputed, though not much circulated, paper is unfair unless the examples of foul or abusive language are cited categorically. No paper can publish such a long letter without any reference of the writers or the articles published. So, I am sorry to say, that no point has been made. Seems an effort only to divert the attention of the literary world after getting defamed and criticised by writers of stature like Ashok Vajpayee and Rajkishor etc. I have read Gagan Gill's rejoinder published in Jansatta. She had made her point, convincingly or unconvincingly. No Hindi writer has come forward in her favour except close friend Teji with a vague letter. She has cleverly saved the writers of the disputed articles also! Of course, its a writer's prerogative to accept an award. But at the same time its an equal right of other writers also to comment. By Gagan's sudden change of stand whole moment for a writer's ( KB Vaid) dignity has met with a big setback. Ashok Vajpayee's anguish is understandable. Teji's letter can't help Gagan much I am afraid. NDeb From: Raj Kishore Date: Thu, 17 Jun 2010 00:16:19 +0530 i am very much disturbed by the news that that Gagan Gil is being attacked in Jansatta. it's shameful that 'foul' and 'undemocratic' and 'vulgar' language is being used against her. however, i am not sure that the allegation is based on facts. i am a regular reader of Jansatta. i never came across any piece that seemed to attack Gagan who is a long-standing and close friend of Om Thanwi, the editor of Jansatta. there was an article by Madan Bhaskar. it was not at all focused on Gil. her name came just incidentally and that too minus any foul language. on the same day, Ashok Vajpayee, also a close friend of Gagan, criticised her action of accepting the Hindi Academy prize, which was in complete reversal of her earlier public stand of refusing the controversial prize. in his widely read column, Ashok did accept the right of a writer to accept or reject any prize. he was, however, very annoyed and angry that one of her family friends chose to turn 360 degrees without explaining her reasons for the same. an author is a public person and cannot change her decisions according to her whims. Gagan's husband Nirmal Varma could never even think of such betrayal of a public cause. despite all this, i am fully ready to join the campaign led by Gagan Gill and Teji Grover, whose long association with Ashok Vajpayee is a shining example of what wonders can happen when two writers of substance work together, to defend the dignity of a writer of Gagan's stature. but before that i need convincing evidence of the use of foul language against her. For me, it's not a matter of dignity of women alone, it's also a matter of dignity of an author. i would rather die defending the dignity of a woman and a writer than side with the mischief-makers, whoever they may be. but i cannot move in thin air. i, therefore, request Teji to provide at least a few instances of vulgar language used against Gagan. Alas, she had done it in the very letter to Jansatta editor, which is being circulated on a mass scale. avinash das wrote: > http://mohallalive.com/2010/06/16/poetess-teji-grover-with-gagan-gill/ > > 2010/6/15 ravikant > > > आप सब के सूचनार्थ, अग्रेषित. > > रविकान्त > > 2010/6/12 WomenForDignity > >> > > > /पिछले दिनों *जनसत्ता* के २३ मई और ३० मई अंक में *मदन भास्कर* नाम से हिन्दी > अकादमी पुरस्कार प्रकरण में लेखिका *गगन गिल* पर जो विक्षोभकारी, > कुतर्कपूर्ण व्यक्तिगत प्रहार किये गए, उस पर समूचे हिन्दी लेखक समाज में ही नहीं, > भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी व्यापक रोषपूर्ण प्रतिक्रया हुई है. उनमें से एक, यहाँ > दी गई टिप्पणी हिन्दी कवि *तेजी ग्रोवर *की भी थी. क्योंकि जनसत्ता ने किसी > कारणवश यह प्रतिक्रया नहीं छापी, हम इसे आप मित्रों तक पहुंचा रहे हैं./ > *पत्र जो जनसत्ता ने नहीं छापा* *प्रिय संपादक महोदय * > * * > *मैं यह पत्र आपको इसलिए लिख रही हूँ कि हिंदी अकादेमी के पुरस्कारों का > बहिष्कार करने वाले लेखकों से एक अपील कर सकूं. हिंदी लेखकों का एक समूह एकजुट होकर > एक लेखक के सम्मान में खुद को मिले हुए पुरस्कार को ठुकरा दे, यह मेरे लिए एक > हिंदी कवि होने के नाते गर्व की बात है. मैं आपको बताना चाहती हूँ, कि कृष्ण बलदेव > वैद मेरे प्रिय लेखक ही नहीं, निर्मल जी कि तरह मेरे गुरु भी हैं. चंडीगढ़ में हमने उनके > उपन्यास 'बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ' का नाट्य-रूपांतरण कर उनके अपने निर्देशन में > इसे मंचित भी किया था. मेरी नयी किताब मेरे इन दो प्रिय लेखकों को समर्पित भी > है. लेकिन क्षमा कीजिये, गगन अपने हित और अहित का फैसला खुद कर सकती हैं, और > इसी तरह हिंदी अकादेमी का विरोध करने के बावजूद पुरस्कार लेना न लेना उनका अपना > फैसला है, इस बात का हमें कितना भी दुःख क्यों ना हो कि उन्होंने इस पुरस्कार का > बहिष्कार नहीं किया. * > * * > *जिन लेखकों ने पुरस्कारों को अस्वीकार किया है, मैं उनसे गुज़ारिश कर रही हूँ कि वे > जनसत्ता में लिखे गए कुछ लेखों में गगन के लिए जिस भाषा का उपयोग किया जा रहा > है, उसको लेकर भी अपना क्षोभ व्यक्त करें. गगन के फैसले पर सवाल उठाना एक बात > है, लेकिन उनपर पथराव करना और गाली देना बिलकुल दूसरी बात है. अगर आप मित्र > लोग कठिन घडी में गगन का साथ देंगे तो इससे वैद साहब के सम्मान में हो रही मुहिम > की एक अंतरात्मा भी प्रकट हो जाएगी. * > * * > *गगन मेरी सहोदर और समकालीन उपस्थिति हैं, और उनकी आवाज़ का बने रहना मेरे लिए > मानी रखता है. शायद आप सब के लिए भी रखता है जिन्होंने उनकी रचनाओं को पढ़ा > और सराहा है. जिस तरह इन लेखों में निर्मल जी के नाम को लाया जा रहा है उसका > कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि वे तो निश्चित ही गगन को अपने विवेक से काम लेने देते. > गगन को निर्मल जी के सन्दर्भ में ठेस पहुंचाना कितना सही है, इसका फैसला भी आप > मित्र लोग करें, जो कवि हैं और लेखक हैं, और जिन्होंने जीवन में कोई कठिन प्रेम किया > है. फिर आप वैद साहब को भी तो कोई ख़ुशी हासिल करने दीजिये न कि उनके सम्मान > को बहाल करने के उपक्रम में हमारी एक प्रिय हिंदी कवि का अपमान शामिल न हो.* > * * > * मैं गगन के साथ हो रहे इस अन्याय से ज़ाती तौर पर खुद भी बहुत आहत महसूस कर > रही हूँ, जैसे यह चोट मुझ पर ही की जा रही हो. मैं जनसत्ता के उस अखबार से > अपील करती हूँ जिसमे हमारे बहुत से प्रिय लेखक लिख रहे हैं, कि वे गगन के सम्मान को > पहुंची ठेस को खुद पर घटा कर देखें कि क्या वे वाकई इस भाषा कि हक़दार हैं जो उनके > लिए इस्तेमाल की जा रही है?* > * * > * * > *मैं हिंदी के साहित्यिक समाज से यह उम्मीद भी करती थी\हूँ कि वे गगन के प्रति इस > बात के लिए भी कृतज्ञ हो कि उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा निर्मल जी कि > अनथक सेवा में बिताया है और इस तरह प्रेम के ऐसे काठिन्य को साधा है जो बहुतों के बस > का नहीं है. निर्मल जी के साहित्यिक धरोहर को जी जान से संजोने का काम उन्होंने > बड़ी निष्ठां से किया है, आप वे १६ पुस्तकें देख सकते हैं जो हाल ही में वाणी प्रकाशन से > छपी हैं. उन्होंने पुरस्कार लेकर किसी के नाम को नहीं डुबाया, कोई किसी के नाम को > भला डुबा भी कैसे सकता है?* > ** *मैं यह पत्र आपको बड़ी उम्मीद से लिख रही हूँ, संपादक महोदय.* > ** *तेजी ग्रोवर * > * * > * * > > > > > -- > Dr.J.P.Das > 305 Hauz Khas Apartments > New Delhi-110016 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > From vineetdu at gmail.com Thu Jun 17 21:53:34 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 17 Jun 2010 21:53:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS44KSk?= =?utf-8?b?4KSy4KSsLTI=?= Message-ID: दीवान के साथियों बहसतलब-1 के बाद अब बहसतलब-2. इस बार का विषय है- अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी... 18 जून, शाम सात बजे,कैसुरिना सभागार, इंडिया हैबिटेट सेंटर, नयी दिल्ली -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jun 18 11:46:11 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 18 Jun 2010 11:46:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpLngpKXgpL/gpK/gpL7gpLAsIOCkleCkruCkvg==?= =?utf-8?b?4KSyIOCkleCkviDgpIXgpKfgpL/gpJXgpL7gpLA=?= Message-ID: दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा हाउस से स्नातक प्रवीण अमानुल्लाह ने पटना के पीएमसीण्च अस्पताल में ‘बिहार सूचना का अधिकार मंच’ और ‘हमलोग ट्रस्ट’ के माध्यम से जन जागरुकता की अलख पिछले कुछ सालों से जगाने के लिए प्रयासरत हैं। उनके माध्यम से पटना के पीएमसीएच अस्पताल में जिस प्रकार का परिवर्तन आया है, उसे देखने के बाद इस बात में संदेंह नहीं कि सूचना का अधिकार एक अहिंसक और प्रभावशाली हथियार है। निसंदेह इस काम में उन्हें कई लोगों का सहयोग भी मिला। पीएमसीएच में अपने एक रिश्तेदार का ईलाज कराने आए प्रकाशलाल ने बताया कि पिछले दो एक साल से इस अस्पताल में साफ सफाई दिखने लगी है। पहले यहां के कर्मचारी ईलाज के नाम पर बेलगाम पैसा वसूली करते थे। अब उनके वसूली पर भी लगाम लगी है। पैसा वसूली के संबंध में प्रवीण विस्तार से बताती हैं। - यहां जब किसी बच्चे का जन्म होता था, उसके परिवार वालों से कर्मचारी 500 रुपए से कम नहीं लेते थे। जब हमने इस वसूली के खिलाफ अभियान चलाया तो वे 500 रुपए से 200 रुपए पर आए। जब हमने थोड़ी सख्ती और बरती उसके बावजूद सुनने मेें आ रहा है कि वे अब भी 25-50 रुपए ले ही लेते हैं। प्रवीण ने बताया कि अस्पताल में कैंसर के मरीजों और अधिक शोषण था। उन्हें दवा लाने के लिए एक खास दुकान पर भेजा जाता था। उस दुकान पर दवाएं एमआरपी पर मिलती थीं। जबकि किसी भी दूसरी दुकान पर वहीं दवाएं तीस फीसदी की छुट पर उपलब्ध थीं। दूसरी दुकान से लाई गई वही दवा डॉक्टर लेने को तैयार नहीं होते थे। इसी प्रकार अस्पताल का ईएनटी विभाग आंखों के ऑपरेशन के लिए हजार रुपए वसूल लेता था। वैसे प्रवीण प्रवीण की राह में अपने इस अभियान के दौरान कई तरह की परेशानियां भी आईं। मई 2007 में पीएमसीएच में चलाए जा रहे अभियान के दौरान कई तरह की परेशानियां भी आईं। मई 2007 में पीएमसीएच में मरीजों की असुविधा को लेकर जब उनका अभियान शुरू हुआ, अस्पताल प्रशासन मानों बेचैन हो उठा। अस्पताल में उनकी बढ़ रही लोकप्रियता अस्पताल प्रशासन के गले की हड्डी बन गई। अस्पताल सुपरिटेन्डेन्ट से अधिक शिकायतें प्रवीण के पास आने लगीं। अगस्त 2007 में सरकारी काम में हस्तक्षेप का आरोप लगाकर अस्पताल प्रशासन ने उनका अस्पताल परिसर में आने पर प्रतिबंध लगा दिया। आज जब वे अस्पताल नहीं जा रहीं हैं, पीड़ित पीएमसीएच से संबंधित शिकायतों को लेकर पटना स्थित ‘हमलोग ट्रस्ट’ के दफ्तर आ जाते हैं। यह ट्रस्ट प्रवीण अपने मित्रों की मदद से चला रहीं हैं। वह अपनी समाज सेवा के लिए सरकार या किसी फंडिंग एजेन्सी से मदद नहीं लेती। इस ट्रस्ट की अगुवाई की वजह से अस्पताल आने वाले आम लोगोुं का आत्मविश्वास बढ़ा और आज अस्पताल प्रशासन के पास 2500 शिकायतें और लगभग आरटीआई के अन्तर्गत पूछे गए 800 पीड़ितों के सवाल इकट्ठे हो चुके हैं। प्रवीण ने जो पहल की आज उसी का परिणाम है कि वहां आने वाले आम जन भी अब अस्पताल में किसी प्रकार का लूट या भ्रष्टाचार देखते हैं तो उसके खिलाफ आवाज बुलन्द करते हैं और एक खास बात और वह यह कि आजकल आमजन के हाथों में एक खास तरह का हथियार भी है, जिसे सूचना का अधिकार कहते हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jun 18 11:46:11 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 18 Jun 2010 11:46:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpLngpKXgpL/gpK/gpL7gpLAsIOCkleCkruCkvg==?= =?utf-8?b?4KSyIOCkleCkviDgpIXgpKfgpL/gpJXgpL7gpLA=?= Message-ID: दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा हाउस से स्नातक प्रवीण अमानुल्लाह ने पटना के पीएमसीण्च अस्पताल में ‘बिहार सूचना का अधिकार मंच’ और ‘हमलोग ट्रस्ट’ के माध्यम से जन जागरुकता की अलख पिछले कुछ सालों से जगाने के लिए प्रयासरत हैं। उनके माध्यम से पटना के पीएमसीएच अस्पताल में जिस प्रकार का परिवर्तन आया है, उसे देखने के बाद इस बात में संदेंह नहीं कि सूचना का अधिकार एक अहिंसक और प्रभावशाली हथियार है। निसंदेह इस काम में उन्हें कई लोगों का सहयोग भी मिला। पीएमसीएच में अपने एक रिश्तेदार का ईलाज कराने आए प्रकाशलाल ने बताया कि पिछले दो एक साल से इस अस्पताल में साफ सफाई दिखने लगी है। पहले यहां के कर्मचारी ईलाज के नाम पर बेलगाम पैसा वसूली करते थे। अब उनके वसूली पर भी लगाम लगी है। पैसा वसूली के संबंध में प्रवीण विस्तार से बताती हैं। - यहां जब किसी बच्चे का जन्म होता था, उसके परिवार वालों से कर्मचारी 500 रुपए से कम नहीं लेते थे। जब हमने इस वसूली के खिलाफ अभियान चलाया तो वे 500 रुपए से 200 रुपए पर आए। जब हमने थोड़ी सख्ती और बरती उसके बावजूद सुनने मेें आ रहा है कि वे अब भी 25-50 रुपए ले ही लेते हैं। प्रवीण ने बताया कि अस्पताल में कैंसर के मरीजों और अधिक शोषण था। उन्हें दवा लाने के लिए एक खास दुकान पर भेजा जाता था। उस दुकान पर दवाएं एमआरपी पर मिलती थीं। जबकि किसी भी दूसरी दुकान पर वहीं दवाएं तीस फीसदी की छुट पर उपलब्ध थीं। दूसरी दुकान से लाई गई वही दवा डॉक्टर लेने को तैयार नहीं होते थे। इसी प्रकार अस्पताल का ईएनटी विभाग आंखों के ऑपरेशन के लिए हजार रुपए वसूल लेता था। वैसे प्रवीण प्रवीण की राह में अपने इस अभियान के दौरान कई तरह की परेशानियां भी आईं। मई 2007 में पीएमसीएच में चलाए जा रहे अभियान के दौरान कई तरह की परेशानियां भी आईं। मई 2007 में पीएमसीएच में मरीजों की असुविधा को लेकर जब उनका अभियान शुरू हुआ, अस्पताल प्रशासन मानों बेचैन हो उठा। अस्पताल में उनकी बढ़ रही लोकप्रियता अस्पताल प्रशासन के गले की हड्डी बन गई। अस्पताल सुपरिटेन्डेन्ट से अधिक शिकायतें प्रवीण के पास आने लगीं। अगस्त 2007 में सरकारी काम में हस्तक्षेप का आरोप लगाकर अस्पताल प्रशासन ने उनका अस्पताल परिसर में आने पर प्रतिबंध लगा दिया। आज जब वे अस्पताल नहीं जा रहीं हैं, पीड़ित पीएमसीएच से संबंधित शिकायतों को लेकर पटना स्थित ‘हमलोग ट्रस्ट’ के दफ्तर आ जाते हैं। यह ट्रस्ट प्रवीण अपने मित्रों की मदद से चला रहीं हैं। वह अपनी समाज सेवा के लिए सरकार या किसी फंडिंग एजेन्सी से मदद नहीं लेती। इस ट्रस्ट की अगुवाई की वजह से अस्पताल आने वाले आम लोगोुं का आत्मविश्वास बढ़ा और आज अस्पताल प्रशासन के पास 2500 शिकायतें और लगभग आरटीआई के अन्तर्गत पूछे गए 800 पीड़ितों के सवाल इकट्ठे हो चुके हैं। प्रवीण ने जो पहल की आज उसी का परिणाम है कि वहां आने वाले आम जन भी अब अस्पताल में किसी प्रकार का लूट या भ्रष्टाचार देखते हैं तो उसके खिलाफ आवाज बुलन्द करते हैं और एक खास बात और वह यह कि आजकल आमजन के हाथों में एक खास तरह का हथियार भी है, जिसे सूचना का अधिकार कहते हैं। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jun 19 13:00:25 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 19 Jun 2010 13:00:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIOCkquCksCDgpKzgpLngpLjgpKTgpLLgpKwsIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkhuCkpuCkruClgCDgpI/gpJUg4KSt4KWAIOCkqOCkueClgA==?= =?utf-8?b?4KSCIQ==?= Message-ID: *मोहल्ला ( http://mohallalive.com/2010/06/19/ashish-kumar-anshu-react-on-bahastalab-panel-discussion/ )* *कल बहसतलब दो में* पहली बार नामवर सिंह को वक्ता के तौर पर इतना कम बोलते सुना। वक्ता से अधिक फुटेज तो उनके परिचय में मॉडरेटर ले गये। दूसरी बात आप मंच संचालन की परंपरा में मॉडरेटर को लेकर आये, अच्छा लगा। वैसे मॉडरेटर के फायदे हैं, तो उससे खतरे भी कम नहीं। आम आदमी से जुड़ी बहस को, इससे जुड़े सवाल-जवाब को आपने कैजुरिना तक समेट कर नहीं रखा और मोहल्ला-जनतंत्र पर आगे भी बहस जारी रखने की बात कही। यदि आपकी तरफ से यह ‘स्पेस’ नहीं मिलता, तो जो सवाल कैजुरिना में पूछे नहीं जा सके, वे अनसुने रह जाते। *जब हम आम आदमी की बात* करते हैं तो उसका प्रतिनिधि चेहरा इस देश का आदिवासी और दलित समाज है। क्या मोहल्ला लाइव, यात्रा, जनतंत्र के पास कल आये श्रोताओं की सूची है? क्या आप बता पाएंगे, कल आये श्रोताओं में दलित और आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व कितना था? कल जिस प्रकार दिलीप मंडल के सवालों की कमसुनी (अनसुनी कहना उचित नहीं होगा) की गयी, यदि आप श्रोताओं के प्रतिनिधित्व में संतुलन बनाने की कोशिश करते तो शायद ऐसा नहीं होता। वहां आदिवासी और दलित समाज का प्रतिनिधित्व न के बराबर ही दिख रहा था, वरना अनुराग कैटरिना के पोस्टर की आड़ में दिलीप मंडल के गंभीर सवालों से बचकर नहीं निकल सकते थे? *यदि आप आगे से बहसतलब में* कम से कम तैंतीस प्रतिशत दलित और आदिवासी समाज के श्रोताओं की उपस्थिति सुनिश्चित करें तो क्या इससे बहसतलब का रंग और नहीं निखरेगा? सक्षम आयोजकों के लिए यह अधिक मुश्किल भी नहीं होगा। *क्या आपको* ‘अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी’ के ऊपर अपनी बात रखने के लिए एक भी अच्छा आदिवासी या दलित समाज का प्रतिनिधि नहीं मिला। कैजुरिना में आयोजक, मॉडरेटर से लेकर सभी के सभी वक्ता तक सवर्ण ही थे। ऐसा क्यों भाई, क्या आपको आदिवासी और दलित समाज से एक भी चेहरा ऐसा नहीं मिला, जो मुकम्मल तरिके से अपना पक्ष रखता। *अनुराग अपनी एक फिल्म* के हवाले से बता रहे थे कि उनकी वह फिल्म चार घंटे की थी और पर्दे पर आते आते दो घंटे चालिस मिनट की रह गयी। मतलब जो बात अपने फिल्म के माध्यम से वे कहना चाह रहे थे, वह सही सही दर्शकों तक कनवे नहीं हो पायी। उनके कहने का लब्बो लुआब यही था कि फिल्म के दर्शकों तक पहुंचते पहुंचते निर्देशक फिल्म के ऊपर से अपनी अथॉरिटी खो चुका होता है। यह बात जानते बूझते उन जैसे संवेदनशील फिल्म निर्माता ने कैसे तय किया कि ‘राजनीति’ प्रकाश झा की सबसे कमजोर फिल्म है। क्या उन्होंने झा की ‘राजनीति’ का असंपादित वीडियो देखा हुआ है? -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jun 19 13:00:25 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 19 Jun 2010 13:00:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIOCkquCksCDgpKzgpLngpLjgpKTgpLLgpKwsIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkhuCkpuCkruClgCDgpI/gpJUg4KSt4KWAIOCkqOCkueClgA==?= =?utf-8?b?4KSCIQ==?= Message-ID: *मोहल्ला ( http://mohallalive.com/2010/06/19/ashish-kumar-anshu-react-on-bahastalab-panel-discussion/ )* *कल बहसतलब दो में* पहली बार नामवर सिंह को वक्ता के तौर पर इतना कम बोलते सुना। वक्ता से अधिक फुटेज तो उनके परिचय में मॉडरेटर ले गये। दूसरी बात आप मंच संचालन की परंपरा में मॉडरेटर को लेकर आये, अच्छा लगा। वैसे मॉडरेटर के फायदे हैं, तो उससे खतरे भी कम नहीं। आम आदमी से जुड़ी बहस को, इससे जुड़े सवाल-जवाब को आपने कैजुरिना तक समेट कर नहीं रखा और मोहल्ला-जनतंत्र पर आगे भी बहस जारी रखने की बात कही। यदि आपकी तरफ से यह ‘स्पेस’ नहीं मिलता, तो जो सवाल कैजुरिना में पूछे नहीं जा सके, वे अनसुने रह जाते। *जब हम आम आदमी की बात* करते हैं तो उसका प्रतिनिधि चेहरा इस देश का आदिवासी और दलित समाज है। क्या मोहल्ला लाइव, यात्रा, जनतंत्र के पास कल आये श्रोताओं की सूची है? क्या आप बता पाएंगे, कल आये श्रोताओं में दलित और आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व कितना था? कल जिस प्रकार दिलीप मंडल के सवालों की कमसुनी (अनसुनी कहना उचित नहीं होगा) की गयी, यदि आप श्रोताओं के प्रतिनिधित्व में संतुलन बनाने की कोशिश करते तो शायद ऐसा नहीं होता। वहां आदिवासी और दलित समाज का प्रतिनिधित्व न के बराबर ही दिख रहा था, वरना अनुराग कैटरिना के पोस्टर की आड़ में दिलीप मंडल के गंभीर सवालों से बचकर नहीं निकल सकते थे? *यदि आप आगे से बहसतलब में* कम से कम तैंतीस प्रतिशत दलित और आदिवासी समाज के श्रोताओं की उपस्थिति सुनिश्चित करें तो क्या इससे बहसतलब का रंग और नहीं निखरेगा? सक्षम आयोजकों के लिए यह अधिक मुश्किल भी नहीं होगा। *क्या आपको* ‘अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी’ के ऊपर अपनी बात रखने के लिए एक भी अच्छा आदिवासी या दलित समाज का प्रतिनिधि नहीं मिला। कैजुरिना में आयोजक, मॉडरेटर से लेकर सभी के सभी वक्ता तक सवर्ण ही थे। ऐसा क्यों भाई, क्या आपको आदिवासी और दलित समाज से एक भी चेहरा ऐसा नहीं मिला, जो मुकम्मल तरिके से अपना पक्ष रखता। *अनुराग अपनी एक फिल्म* के हवाले से बता रहे थे कि उनकी वह फिल्म चार घंटे की थी और पर्दे पर आते आते दो घंटे चालिस मिनट की रह गयी। मतलब जो बात अपने फिल्म के माध्यम से वे कहना चाह रहे थे, वह सही सही दर्शकों तक कनवे नहीं हो पायी। उनके कहने का लब्बो लुआब यही था कि फिल्म के दर्शकों तक पहुंचते पहुंचते निर्देशक फिल्म के ऊपर से अपनी अथॉरिटी खो चुका होता है। यह बात जानते बूझते उन जैसे संवेदनशील फिल्म निर्माता ने कैसे तय किया कि ‘राजनीति’ प्रकाश झा की सबसे कमजोर फिल्म है। क्या उन्होंने झा की ‘राजनीति’ का असंपादित वीडियो देखा हुआ है? -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Jun 19 18:06:45 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 19 Jun 2010 18:06:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS44KSk?= =?utf-8?b?4KSy4KSsLeCkpuCliyDgpJXgpYcg4KSs4KS+4KSs4KSk?= Message-ID: *बहसतलब-दो के बाबत*** *कुछ अटकाव के बावजूद बहसतलब-दो **कायदे का रहा। बड़ी सहजता से नाटक की दुनिया से जुड़ीं त्रिपुरारी शर्मा ने इसे समझाया भी। सवाल हुए तो बड़े उदात्त भाव से कहा, **“**बहस कहां हो रही है, मेरे लिए यह सवाल महत्व का नहीं है। महत्व की बात तो इतनी भर है कि आम आदमी के लिए बहस जारी है।**” **दरअसल यही वह बिंदु है जो बहसतलब में जान डालती है।** **उसके मतलब को बताती है। साथ ही उसे आगाह भी करती है।*** *बहरहाल, इस विमर्श के दौरान नामवर सिंह ने अपने नाम के साथ न्याय नहीं किया। ऐसा लगा कि जल्दी में आए हुए हैं। कथाकार राजेंद्र यादव के एक सवाल का जवाब देने की बारी आई तो थोड़े उलझते मालूम हुए। लगा कोई पुरानी कसर निकाल रहे हैं। राजेंद्र यादव शायद भांप गए और चुप ही रहे। आम आदमी का बहसतलब एकबारगी दो खास लोगों के अखाड़े में तबदील होता मालूम हुआ। दुर्भाग्य से अविनाश भी यही चाह रहे थे। यादव को बारंबार माइक थमा रहे थे कि वे कुछ बोलें। पर रंग गाढ़ा करने में विफल रहे। वैसे भी उक्त लोग बड़े हैं तो बात बड़प्पन में आई-गई। * *अरविंद मोहन ने बताया कि आम आदमी का मीडिया किन हालातों से निपट रहा है। उन्होंने सच्चाई मानी। कई बातें इशारों में कह गए। शायद बहसतलब का संचालन कर रहे विनीत कुमार उसे पकड़ने से चूक गए। कह बैठे कि अरविंद मोहन डिफेंसिव खेल गए। यकीनन, अनुराग यहां आम लोगों से दो-चार हुए। और खूब कहा। पर सवाल करने वालों को संतुष्ट नहीं कर पाए। अजय ब्रह्मात्‍मज** **पूरी तरह आम आदमी की तरफ खड़े नजर आए।*** *कुल मिलाकर त्रिपुरारी शर्मा की बातें बहसतलब की उपलब्धियां रहीं। वहां न कोई आक्रामकता थी, न दंभ। न ही अपने खास होने का बोध। दरअसल आज वही तो है आम आदमी।* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sat Jun 19 18:09:02 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sat, 19 Jun 2010 18:09:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS44KSk?= =?utf-8?b?4KSy4KSsIC0yIOCkquCksCDgpJXgpYHgpJsg4KSl4KWL4KWc4KS+LQ==?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSk?= Message-ID: http://www.visfot.com/index.php/seminar/3610.htmlदिल्ली में यूँ तो रोज़ाना अनेक गोष्ठियां अनेक विषयों पर होती रहती हैं, लेकिन ऐसी गोष्ठियां कभी-कभार ही होती हैं जिनमें विभिन्न क्षेत्रों के अनुभवी, विशेषज्ञ, पेशेवर, कार्यकर्ता आदि एक साथ किसी एक मुद्दे पर अपना नज़रिया पेश करते हों. शुक्रवार की शाम दक्षिण दिल्ली के हैबिटैट सेंटर में ऐसी ही एक गोष्ठी आयोजित की गई जिसमें 'अभिव्‍यक्ति माध्‍यमों में आम आदमी' विषय पर चर्चा हुई.वक्ताओं में स्वनामधन्य नामवर सिंह (साहित्य), त्रिपुरारी शर्मा (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय/रंगमंच), अरविन्द मोहन (पत्रकारिता), अजय ब्रह्मात्‍मज (फ़िल्म समीक्षक) और अनुराग कश्यप (फिल्मकार) शामिल थे. डेढ़ घंटे चली इस चर्चा को समाचार-साहित्य की हिंदी वेब साईटों - मोहल्ला लाईव एवं जनतंत्र, और पेंग्विन की सहयोगी संस्था- यात्रा बुक्स ने बहसतलब श्रृंखला के तहत आयोजित किया था. यह गोष्ठी इस श्रृंखला की द्वितीय कड़ी थी. पहली गोष्ठी के बारे में आप विस्फोट पर पढ़ चुकेहैं. आयोजकों की तरफ से आमंत्रण में कहा गया था कि अभिव्यक्ति के तमाम माध्यम आज बाज़ार की चाकरी कर रहे हैं और उन्हें आम आदमी से कोई सरोकार नहीं है जिसकी बुनियाद पर लोकतंत्र की इमारत खड़ी है. उन्होंने सवाल किया था कि क्या इन माध्यमों की सरहद से बाहर जा चुके इस आम आदमी की वापसी हो पायेगी. यह एक अतिवादी धारणा है लेकिन आम आदमी और उसकी चिंताओं को चिंतन और सृजन के केंद्र में लाने तथा माध्यमों की व्यापक जिम्मेदारी को यह धारणा रेखांकित भी करती है. इस लिहाज़ से यह गोष्ठी एक महत्वपूर्ण पहल मानी जानी चाहिए और इसी वज़ह से बड़ी संख्या में लोगों ने इसमें शिरकत की. लेकिन निराशाजनक पहलू यह है कि वक्ता बिना किसी तैयारी के आए थे और सतही बातों के अलावा कोई समझदारी बनाने वाली बातचीत नहीं हो पाई. फ़िल्म लेखन और निर्देशन के नए तेवर की बदौलत अपना स्थान बना चुके अनुराग कश्यप फ़िल्म निर्माण, वितरण और प्रदर्शन के अर्थतंत्र की भयावहता को गिना रहे थे और बता रहे थे कि बाज़ार के चंगुल से मुक्ति लगभग असंभव है. उनके अनुसार फ़िल्मकारों पर यह दबाव रहता है कि वह तीन दिनों के भीतर अपनी लागत और मुनाफ़ा बटोर ले क्योंकि चौथे ही दिन लोगों के पास इन्टरनेट या पाईरेटेड सीडी की कृपा से फ़िल्म पहुँच जायेगी. अनुराग कह रहे थे कि हम पाईरेटेड या डाउनलोड कर फ़िल्में देख वैसे फ़िल्मकारों का नुकसान कर रहे हैं जो कुछ अच्छा कर सकते हैं. वैसे जाते जाते उन्होंने यह भी कह दिया कि दर्शकों की रूचि को अभी परिष्कृत होना है- 'यदि एक थियेटर में सामाजिक मुद्दे पर बनी फ़िल्म लगी हो और बगल वाले सिनेमा घर में कैटरीना कैफ़ की फ़िल्म लगी हो तो आम आदमी दूसरे सिनेमा घर जाएगा'. नामवर सिंह यूँ तो बोलने के लिये पिछले कई वर्षों से जाने जाते हैं (माने भी जाते हैं), लेकिन इस गोष्ठी में वे बमुश्किल दो मिनट बोले और बताया कि रचना में आम चरित्र ख़ास हो जाता है और हो जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो वह कमज़ोर रचना मानी जायेगी. नामवर जी जैसे धाकड़ विद्वान से लगभग बेमतलब की बात सुन कर खीझ सी हुई. इस कैफीयत को परवान दिया वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने. कहने लगे अखबार की लागत बहुत ज्यादा होती है इसीलिए हमारे पास विज्ञापनों पर निर्भरता और उनसे निर्देशित होने के लिये विवश हैं. अनुराग की तरह अपनी कमजोरी का ठीकरा समाज पर फोड़ते गए कि जब समाज में ही आन्दोलन नहीं हैं तो मीडिया क्या करे. हालांकि उन्होंने इतना भलापन (भोलापन!!) ज़रूर दिखाया कि आम आदमी मीडिया के धोखे में नहीं आता. त्रिपुरारी शर्मा जी ने कहा रंग-कर्म सबसे पुराना माध्यम है और वह बुनियादी रूप से हाशिये के लोगों का माध्यम है. चूँकि थियेटर में बाज़ार-वाणिज्य का वह दखल अभी तक नहीं हो पाया है जैसा कि अन्य माध्यमों में है इसलिए उसके बारे में अन्य माध्यमों की तरह बात नहीं कर सकते. गोष्ठी के अंतिम वक्ता थे फ़िल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्‍मज और वही कुछ तैयारी से बोले रहे थे. फ़िल्म-व्यवसाय के बदलते स्वरुप का बयान करते हुए वह बम्बईया सिनेमा के सरोकारों के बदलने का विवरण दे रहे थे. बड़े शहरों और विदेश में रह रहे भारतीयों को केंद्र में रख कर फ़िल्में बनाई जा रही हैं क्योंकि धन की तुरंत वसूली वहीँ से हो रही है. उनके हिसाब से यह एक बड़ा कारण है जिसकी वज़ह से गाँव, क़स्बा और पीछे छूट गया आदमी सिनेमा से दरकिनार है. वक्ताओं के बोलने के बाद श्रोताओं की बारी थी और उन्होंने कई सवाल पूछे. सबसे ज्यादा सवाल अनुराग के खाते में गए और उनसे कुछ कम अजय जी से पूछे गए. नामवर जी और अरविन्द मोहन से नहीं के बराबर सवाल हुए जिस पर उन्हें सोचना चाहिए. त्रिपुरारी जी से सवाल नहीं पूछे गए क्योंकि ज़्यादातर श्रोता थियेटर की गतिविधियों से परिचित नहीं थे और इसे हम सब को एक चिंता के रूप लेना चाहिए. सिनेमा पर सवालों की बौछार इस बात को एक बार फिर रेखांकित कर गयी कि सिनेमा की लोकप्रियता और उसको लेकर हिंदी लोकवृत्त में रूचि/चिंता काफी गहरी है. मेरे विचार से आयोजकों को 'आम आदमी' जैसी अवधारणायें स्पष्टता से रखनी चाहिए और वक्ताओं को विषय और बहस के सरोकारों से आगाह कर देना चाहिए. एक सलाह और कि बड़े और भीड़जुटाऊ नामों की जगह ज़रूरी नामों को आमंत्रित किया जाये. बहस का विषय व्यापक रखने से बहस का स्तर निर्धारित नहीं होता. इसके लिये ज़रूरी हैं- गंभीरता, ताज़गी और सरोकार. बहसतलब के दोनों कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी ने हिंदी लोकवृत के न सिर्फ़ जीवंत होने का प्रमाण है, बल्कि उसकी बहस के केंद्र में राजनीति और साहित्य के साथ अन्य क्षेत्रों के आने और जमने की सूचना भी है. बहसतलब के अगले आयोजन का इंतज़ार है. -प्रकाश कुमार रे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Jun 21 10:05:47 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 21 Jun 2010 10:05:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIOCkleClhyDgpLjgpLXgpL7gpLIg4KSq4KSwIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KWB4KSw4KS+4KSXIOCkleCktuCljeCkr+CkqiDgpLjgpYcg4KSy?= =?utf-8?b?4KWH4KSV4KSwIOCkqOCkvuCkruCkteCksCDgpLjgpL/gpILgpLkuLi4=?= Message-ID: *प्रतीकों के अंबार के बीच* अभ्यस्त जीनेवाले समाज में कुछ प्रतीक ऐसे हैं, जिसे हथियाने के लिए लगातार आपाधापी मची रहती है। बाद में इन प्रतीकों के भीतर के अर्थ खत्म होते हैं, सीमित होते हैं, गायब हो जाते हैं या फिर इसके अर्थ के चेहरे बहुत ही खतरनाक और विद्रूप बनकर हमारे सामने उभरते हैं, इसकी चिंता नहीं हो पाती है। शायद यही वजह है कि जिस समय हम अपने क्लासरूम में प्रतिपादित कीजिए कि कबीर के राम तुलसी के राम से अलग हैं, सवाल के जवाब में राम को और अधिक तार्किक, संवेदनशील और मानवीय साबित करने की कोशिश में लगे रहे, ठीक उसी वक्त देश की एक राजनीतिक पार्टी उसी राम के आगे श्री लगाकर उसे अपने लिए उपयोगी बनाने में जुट गयी। शायद यही वजह है कि जिस वक्त स्लमडॉग को ग्लोबल बनाने के लिए जी-जान से जुटे थे, देशभर के संवाददाता धारावी की सीढ़‍ियों से ऊपर-नीचे होते हुए पीटूसी दे रहे थे, संपादकीय पन्नों पर आम आदमी के मरने-खपने की गिनती मिला रहे थे, ऐन उसी वक्त पर देश की एक दूसरी राजनीतिक पार्टी के कारनामे से कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखनेवाला आम आदमी का बच्चा झक-झक स्कूल ड्रेस में सूरज सा चमकने लग गया। साहित्य में जो आम आदमी खा ले मिठुआ गेहूं की रोटी है की बात करता है, तो टेलीविजन स्क्रीन पर का आम आदमी तेंदुलकर के सेंचुरी बनाने पर मिल्क केक बांटता है। सिनेमा का आम आदमी कैसा है, है भी या नहीं… इस पर कैसे बहस करें – ये भी एक टेढ़ा सवाल है। कुल मिलाकर कभी जिस राम के भीतर सबने अपने-अपने मतलब के अर्थ ठूंस दिये, आज वही काम आम आदमी को एक प्रतीक की शक्ल में तब्दील करके किया जा रहा है। संभवतः इसलिए मीडिया का आम आदमी साहित्य के आम आदमी से मेल नहीं खाता और इन सबका आम आदमी समाज के आम आदमी से मेल नहीं खाता। थिएटर का आम आदमी सिनेमा में जाकर एहसास की लड़ाई लड़ता नजर आता है। आम आदमी को लेकर बहस की शुरुआत नये सिरे से शुरु हुई है, बहसतलब 2 के दौरान। *18 जून को मोहल्ला लाइव*, जनतंत्र और यात्रा बुक्स की साझा पेशकश के दौरान अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी में जिस बहस की शुरुआत हुई, उसके कई संस्करण अब वर्चुअल स्पेस की दुनिया में पसर रहे हैं। इस बहस में जो भी लोग शामिल हुए, वो वक्ताओं से या तो असहमत हैं या उनकी बातों को सिरे से खारिज करते हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि इस तरह के आयोजन आम आदमी के सवाल को ईमानदारी से उठाने में बहुत मददगार साबित होंगे, इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। हम भी जुबान रखते हैं की तर्ज पर सबों के विचार आने शुरु हो गये हैं। किसी को ये लग रहा है कि नामवर सिंह में अब वो बात नहीं रह गयी, वो अब बोलने के नाम पर स्ट्रैटिजकली बाइट देने भर का काम करते हैं। नामवर सिंह से राजेंद्र यादव का सवाल दरअसल एक-दूसरे की धुरा-कुश्ती का हिस्सा है, सवाल कम पुरानी खुन्नस निकालने का काम ज्‍यादा है, अनुराग कश्यप जब परिधि पर रहे तो आम आदमी के सवाल को दूसरे ढंग से देखा, अब कुछ और बोल रहे हैं। अजय ब्रह्मात्मज को इस बात की पूरी समझ है कि सामने कैसी ऑडिएंस बैठी है और क्या बोलने से मामला जम सकता है। त्रिपुरारी शर्मा के भीतर एक खास किस्म की सादगी है, जो इंडिया हैबिटैट के भीतर और बाहर भी लगातार सक्रिय रहता है। *इन तमाम वक्ताओं* को लेकर लगातार असहमति और बहस जारी रहे, अच्छा रहेगा। लेकिन उन्होंने दरअसल कहा क्या, उससे हम हूबहू सुनकर लगातार टकरा सकें, अपनी बात के बीच उनकी बात को उसी शक्ल में रख सकें, फिलहाल उस नीयत से उनकी बात ऑडियो की शक्ल में सुनिए... अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी ऑडियो लिंक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Mon Jun 21 17:20:33 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Mon, 21 Jun 2010 17:20:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWC4KSw4KWAIOCktuCkvuCkriDgpJTgpLAg4KSP4KSVIOCkquClgg==?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkheCkqOClgeCksOCkvuCklyDgpJXgpLbgpY3igI3gpK8=?= =?utf-8?b?4KSqLCDgpLngpK4g4KSt4KWA4oCm?= Message-ID: *सुबह की शुरुआत* एक फोन कॉल के साथ हुई थी। अजय जी ने फोन पर बताया था कि अनुराग आये हैं अपनी नयी फिल्म के साथ शहर में। शाम को शो होगा, पहुंच जाना। और मुझे ‘उड़ान’ का कई शामों से इंतजार है, जाना ही था। अनुराग थे, इसलिए थोड़ा भरोसा था, दोस्तों को भी बुलाने की छूट ले ली थी। *और फिर शाम हमने* (गौरव सोलंकी, रेणु कश्यप, मिहिर पंड्या) विक्रमादित्य और अनुराग की ‘उड़ान’ के साथ बितायी। रेलगाड़ियों से उठता धुआं पिघलते इस्पात में बदलता रहा। हम बड़े हुए, बेवजह सड़कों पर भागे, गिरे, फिसले, जमीन देखी नजदीक से। छोटे शहरों से फिर प्यार करना सीखा। आंखों के पोरों को चुभती गरम धूल से जलाया। पीछे छूटे शहरों की उस याद आती, बरसात के मौसम की अलसायी सुबह को नजदीक से देखा फिर एक बार। स्लो मोशन में, लड़कपन की देहरी उलांघते दो पैरों पर भागते। ‘मैं’ बोलने का, ‘मैं’ होने का, ‘मैं’ का मतलब जाना, और उसके नतीजे भी। जाना कि सड़क पार करने से पहले किसी का हाथ थाम लेने का क्या अर्थ है। अंत में फिर छोटे बच्चे हुए और पहचाना कि वो क्या है जिसे बड़े होने पर भी नहीं बदलने देना है, बचाकर रखना है। *‘उड़ान’ हमारे वक्तों की* फिल्म है। आज जब हम अपनी-अपनी चारागाहों की तलाश में निकलने को तैयार खड़े हैं, ‘उड़ान’ वो तावीज है जिसे हमें अपने बाजू पर बांधकर ले जाना होगा। याद रखना होगा। इस फिल्म पर गहरे कहीं अनुराग की छाप है। ‘देव डी’ और ‘गुलाल’ से बना मेरा मत ‘उड़ान’ के साथ और पुख्ता होता है कि हमारी सोसायटी में कहीं गहरे छिपे, इसकी संरचना के मूल तत्वों में से एक तत्व, ‘मेल शॉवेनिज्म’ की इस त्रिआयामी चेहरे के साथ आलोचना प्रस्तुत करने वाला यह अकेला फिल्मकार है। और मेरे लिए यह (बहुत ही व्यक्तिगत स्तर पर) बड़ा महत्वपूर्ण तथ्य रहा है। फिल्म पर लंबी बात करने का मन है, फिल्म पर लंबी बात होगी। अभी सिर्फ इतना ही कि बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी है, जिसके प्रीमियर शो से निकलकर मैं फिल्ममेकर से सबसे पहला सवाल यह पूछता हूं, “वो सारी कविताएं किसने लिखी हैं?” इंतजार करूंगा आपके भी फिल्म देख पाने का। अब सोलह जुलाई का आपसे ज्यादा इंतजार मुझे है। *इस बीच, हमें* अपनी फिल्म के साथ बिठाकर अनुराग ‘बहसतलब’ की ओर निकल गये थे। सुना वहां हमेशा की तरह काफी दंगा-दंगल हुआ। वैसे मुनासिब भी है, ‘आम आदमी’ की बात करते हुए अक्सर हम खास आदमियों के बीच तलवारें खिंच जाया करती हैं। वहां से निकलकर दोस्त लोग जब साथ आये, तो बातें फिर लोकतंत्र के तकाजे के तहत कई अराजक रास्तों पर चलीं। अजय ब्रह्मात्मज, विनीत कुमार, स्वप्निल दीक्षित, गौरव सोलंकी, रेणु कश्यप, अविनाश, समरेंद्र, मिहिर और अनुराग थे साथ। कुछ छूटी बातें दोस्त ‘बहसतलब’ से साथ बांध लाये थे, कुछ देर वही चलीं। मजेदार था ये अनुभव, हम अनुराग को देख हतप्रभ थे, और अनुराग नामवर सिंह से मिलकर हतप्रभ थे। इससे हम और हतप्रभ थे! आते हुए घंटे में हिंदीपट्टी की उलझाऊ खासियतों पर बात होती रही, सिनेमा की दुनिया के उजले-काले कोनों का जिक्र आता रहा। कई भौंचक खुलासे थे, कई पुरानी दोस्तियां थीं, कई नयी मुलाकातें थीं। जो बात मुझे याद रह गयी वो अजय जी ने अनुराग से कही थी। अनुराग, इस इंडस्ट्री को जो भी उर्वरता दी है, बाहर से आये लोगों ने दी है। तुम भी परिधि के आदमी थे, लेकिन अब तुम ऐन भीतर हो। तुमने चीजों को बदला है, आगे बढ़ाया है। लेकिन अब अगली पीढ़ी में वो तुम्हारी बेटी नहीं होगी जो बदलाव लाएगी क्योंकि वो इसी दुनिया में बड़ी हो रही है। देखना, फिर जौनपुर, यूपी से कोई लड़का आएगा अपने पोटले में किस्सों-ख्वाहिशों-मुकद्दरों को बांधे, और फिर वही इस दुनिया को बदलेगा। *ठीक इससे पहले* अनुराग ने मुझे बताया था कि वे किसी बीते जमाने में मेरे एकदम पड़ौस की एक कॉलोनी (आउट्रम लाइंस) में रहा करते थे। कालक्रमों की रेखा को पाटते हुए मैंने पूछा पलटकर उनसे कि क्या तब आपके भी सारे पड़ौसी मेरे पड़ौसियों की तरह प्रतियोगी परीक्षाओं की, एक उजले सपने ‘आईएएस’ की तैयारियां करा करते थे? और उन्होंने पलटकर कहा, पड़ौसी क्यों? मेरे पिता क्या अपने जमाने के नहीं थे? और कहां से आया है वो सब, जो तुम मेरी इन फिल्मों में देखते आये हो? *अब मैं उनकी* फिल्मों को थोड़ा और आंखें गड़ाकर देखूंगा। http://mohallalive.com/2010/06/19/an-evening-with-anurag-kashyap/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Tue Jun 22 06:43:49 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Tue, 22 Jun 2010 06:43:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS24KSoIOCkleCliyDgpLjgpYvgpJbgpJXgpLAg4KSw4KS4?= =?utf-8?b?4KWC4KSW4KSm4KS+4KSwIOCkueClgeCkjyDgpLDgpJzgpKQg4KS24KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KS+IC3gpIbgpLLgpYvgpJUg4KSk4KWL4KSu4KSw?= Message-ID: *विस्फोट.कॉम पर वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर क यह आलेख आया है. इसका लिंक है: http://www.visfot.com/index.php/corporate_media/3623.html. कुछ समय पहले आलोक जी का एक लेख उनके वेब साईट डेट लाईन इंडिया पर आया था जिसमे उन्होंने टाटा और विभिन्न चैनलों के संबंधों की पोल खोली थी.* *प्रकाश. * *एक टीवी चैनल स्थापित करने में करोडों रुपए लगते हैं और उसे चलाने में करोड़ों रुपए हर साल। दिल्ली एक ऐसा टीवी चैनल है जिनका मालिक कश्मीरी गेट के एक अपेक्षाकृत गरीब परिवार में पैदा हुए थे जिसमें एक कमरे में दर्जनों लोग सोते थे। लेकिन आज वही आदमी एक न्यूज चैनल का मालिक है. बात इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा की हो रही है।* रजत शर्मा को जिंदगी में पत्रकारिता का ब्रेक जल्दी मिला। वे प्रभु चावला के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दिल्ली विश्वविद्यालय के जमाने के साथी हैं और भले ही प्रभु चावला जैसा होने का इल्जाम उन पर नहीं लगाया जाता लेकिन साइकिल से आधुनिकम कारों और एक, भूत- प्रेत दिखाकर ही सही, सफल होने वाले टीवी चैनल की सफलता की कहानी के पीछे की कहानी आपको बतानी है। साल था सन 2000। सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की थी और सूचना और प्रसारण मंत्री देश के जाने माने वकील और भाजपा के सबसे ताकतवर नेताओं में से एक अरुण जेटली हुआ करते थे। रजत शर्मा जिन्होंने प्रेस इंन्फॉरमेशन ब्यूरो का कार्ड लेने के लिए ग्वालियर के एक अखबार दैनिक स्वदेश से फर्जी अनुभव प्रमाण पत्र लिया था, जी टीवी के जरिए और आपकी अदालत जैसे सफल प्रोग्राम के रास्ते टीवी की दुनिया में आए थे मगर उनका असली उध्दार उनके पुराने नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे अरुण जेटली ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के जरिए किया। अरुण जेटली ने रजत शर्मा की कंपनी जो वे अपनी दूसरी पत्नी रितु धवन के साथ चला रहे थे और चला रहे हैं और जिसका नाम इंडीपेंडेंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को एक डेढ़ घंटे का दैनिक कार्यक्रम बनाने के लिए सन 2000 में 55 लाख रुपए प्रति माह दूरदर्शन से देने का करार किया था। यह करार इसलिए विचित्र था कि तकनीकी साधन और कर्मचारी भी दूरदर्शन के ही काम करते थे और कई बार दूरदर्शन का ही फूटेज इस्तेमाल किया जाता था, मगर रजत शर्मा की कंपनी को 55 लाख रुपए हर महीने मिलते रहते थे। यह राज्यसभा का रिकॉर्ड कह रहा है। महान पत्रकार और आपातकाल में रजत शर्मा से ज्यादा जेल में रहे और माफी मांग कर बाहर नहीं निकले कुलदीप नायर ने राज्यसभा के सदस्य की हैसियत से सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली से यह सवाल पूछा। जवाब मिला था कि सप्ताह में पांच दिन सुबह सेवन टू नाइन नाम का एक समाचार कैप्सूल बनाने के लिए इंडीपेंडेंट मीडिया को 55 लाख रुपए दिए जाते थे। हिसाब लगाएं तो बीस दिन 90 मिनट प्रतिदिन यानी 1800 मिनट का यह कार्यक्रम होता था और इसके लिए 55 लाख का नियमित भुगतान दूरदर्शन से होता था। प्रति मिनट भुगतान की गिनती आप कर लीजिए क्योंकि अपना गणित ज्यादा कमजोर हैं। कुलदीप नायर ने अरुण जेटली से पूछा था कि उन संस्थाओं और व्यक्तियों के नाम बताएं जाएं जिन्हें दूरदर्शन से लगातार पैसा दिया जा रहा है। इनमें इंडीपेंडेंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का नाम तो बता दिया गया मगर रजत शर्मा और रितु धवन का नाम नहीं बताया गया। इसके पहले राहुल देव और मृणाल पांडे को डेढ़ डेढ़ लाख रुपए महीने पर समाचार सलाहकार रखा गया था तो काफी हंगामा मचा। कुलदीप नायर के सवाल के जवाब में रजत शर्मा और रितु धवन का नाम तो नहीं बताया गया मगर बीएजी फिल्म्स की अनुराधा प्रसाद का नाम बता दिया गया जो कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला की पत्नी हैं और भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद की बहन भी हैं। वे रोजाना के नाम से एक समाचार बुलेटिन बनाती थी जिसके लिए उन्हें 22 लाख रुपए प्रतिमाह मिलते थे और दूरदर्शन के ढांचे का कोई सहयोग नहीं था। असली मुफ्तखोरी तो रजत शर्मा की कंपनी ने की। इसके अलावा 31 और कंपनियों के नाम थे जिनमें से ट्रांस वर्ल्ड इंटरनेशनल 36 लाख रुपए महीने में दैनिक खेल समाचार देती थी। दूरदर्शन के ही एक भूतपूर्व कैमरामैन प्रेम प्रकाश की कंपनी एशियन न्यूट इंटरनेशनल - एएनआई को चौदह लाख दस हजार रुपए महीने मिलते थे। रिवर बैंक स्टूडियो सप्ताह में एक कार्यक्रम बनाता था और उसे चौदह लाख साठ हजार रुपए मिलते थे। शैली सुमन प्रोडक्शन को विज्ञान पर साप्ताहिक कार्यक्रम बनाने के लिए दस लाख साठ हजार महीने मिलते थे। टीम वर्ग फिल्म्स और आईएमए के नाम की कपंनी को सप्ताह में तीन बार पंचायत यानी टॉप शो करने के दस लाख चालीस हजार रुपए मिलते थे और वर्ल्ड रिपोर्ट नाम की कंपनी को साप्ताहिक बुलेटिन विश्व समाचारों का निकालने के लिए दस लाख रुपए महीने मिलते थे। कुलदीप नायर ने जोर दे कर अरुण जेटली से पूछा था कि 55 लाख रुपए महीने दूरदर्शन से लूटने वाली इस कंपनी के असली मालिक कौन है यानी किससे जेब में यह पैसा जा रहा है? उन्होंने पूछा था कि वे तीन व्यक्ति कौन है जो दूरदर्शन की आउटसोर्सिंग नीति के तहत सबसे ज्यादा कमाई कर रहे हैं? जेटली ने कहा कि दस्तावेजों में सबके नाम है। मगर कुलदीप नायर अड़े रहे और अरुण जेटली भी कम नहीं थे इसलिए उन्होंने लिखित बयान में इन सभी कंपनियों के कार्यक्रमों की समीक्षा पेश कर दी। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि वीर सांघवी, नलिनी सिंह, मृणाल पांडे, चंदन मित्रा और सईद नकवी जैसे बड़े नामों को जोड़कर उन्होंने अच्छा काम किया हैं। मृणाल पांडे अब प्रसार भारती की मुखिया बन गई है और रजत शर्मा अब इंडिया टीवी चलाते हैं और लोगों को डराते है। चंदन मित्रा दूसरी बार भाजपा की ओर से सांसद बने हैं और सई नकवी अपने आप में इतने बड़े पत्रकार रहे हैं कि उनकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती। ** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jun 22 11:56:48 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 22 Jun 2010 11:56:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+Ckn+CljeCksOCliyDgpLngpL/gpKjgpY3gpKY=?= =?utf-8?b?4KWB4KST4KSCIOCkleClgCDgpKzgpKrgpYzgpKTgpYAg4KS54KWIPw==?= Message-ID: कुतुबमीनार से गुड़गांव तक मेट्रो के शुरु होने पर जो फुटेज हमें टीवी चैनलों पर दिखे,उसमें बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ये तिलक कोई आम आदमी लगाकर नहीं बैठा था। खबरों के मुताबिक कल तो इस मेट्रो में किसी आम आदमी के बैठने की इजाजत भी नहीं थी। इसमें सिर्फ मेट्रो के अधिकारी,पत्रकार और समाज के प्रभावी लोग ही थे। तिलक भी वो घर से लगाकर नहीं आए थे। ये काम मेट्रो स्टेशन पर ही हुआ। फेसबुक पर मैंने लिखा- कुतुबमीनार से गुड़गांव तक शुरु हुई मेट्रो में बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ट्रेन चलने के पहले हवन हुआ और फिर नारियल फोड़े गए। क्या सार्वजनिक कही जानेवाली मेट्रो या फिर ऐसे दूसरे कामों की शुरुआत टिपिकल हिन्दू रीति से होना जायज है,तब भी हम धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते रहें। फुटेज में एक दूसरी बात भी दिखने को मिली। जब भी आप दिल्ली मेट्रो पर सवार होते हैं,निर्देशों की झड़ी लगा दी जाती है। इन निर्देशों में एक ये भी होता है कि मेट्रो के अंदर कुछ भी खाना-पीना मना है। कल फुटेज में हमने देखा कि लगभग सारे तिलक लगाए सीट पर बैठे लोग खा रहे हैं। जाहिर ये हवन का प्रसाद ही होगा। अब सवाल ये है कि क्या आम आदमी भी ट्रेन के भीतर प्रसाद के नाम पर कुछ बी खा-पी सकता है। अगर मेट्रो के पास इस बात की दलील है कि पूजा के दिन तो ऐसा होना स्वाभाविक है तो फिर अगर पहले ही दिन मेट्रो के अधिकारी इस नियम को तोड़ते हैं,अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं तो फिर आप किस अधिकार से इस बात की उम्मीद करते हैं कि लोग निर्देशों का हूबहू पालन करेंगे। हालांकि मेट्रो के भीतर बैठनेवाले लोगों में 12 रुपये 14 रुपये देकर इतनी तमीज जरुर आ जाती है कि वो अपने मन को रोके रखती है,खाते-पीते नहीं हैं। मैंने दर्जनों बार देखा है कि खाने के लिए मचलते बच्चे की मां ने उसे समझाने की कोशिश की है कि नहीं,ट्रेन में नहीं खाते,बाहर निकलने पर खाना। बच्चा ट्रॉपीकाना की पैकेट थामे राजीव चौक से विधान सभा तक बर्दाश्त कर लेता है। फेसबुक पर लिखे स्टेटस को लेकर कई कमेंट आए जिसमें दो कमेंट को विशेष तौर पर शामिल करना जरुरी है। एक तो प्रशांत के पान का और दूसरा राकेश कुमार सिंह का कमेंट। प्रशांत ने एक नहीं दो-दो कमेंट किए। पहले व्यंग्य के अंदाज में और फिर मेरे प्रति थोड़े और बेरहम हुए। प्रशांत के पान ने पहले लिखा- इसपे किसी का ध्यान ही नहीं गया था...आपने सही कहा...इसकी शुरुआत हमे नमाज के साथ करनी चाहिए...क्योंकि नमाज पढ़ना धर्मनिरपेक्षता की निशानी है। आगे प्रशांत और तल्ख हो गए- खराब न तो हिन्दू में है और न मुसलमान में है...हर रीति-रिवाजों का मकसद एक ही होता है...खराबी तुम जैसे कमीने और संकीर्ण विचारोंवाले लोगों में होती है..जो सिर्फ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उलजूलूल बयान देते हैं। राकेश कुमार सिंह ने कमेंट किया- न छेड़ें ऐसी बातें,अंदर तक आग लग जाता है.बड़े-बड़े प्रक्षेपास्त्रों की लांचिंग के वक्त भी नारियल ही फोड़ते हैं। देख नहीं रहे हो इनके आगे पीपल के पेड़ कैसे पनाह मांग रहे हैं। सबके नीचे रिजेक्टेड गणेश और हनुमान रखकर प्राचीन मंदिरों का निर्माण किस तरह हो रहा है। आड़ में हर तरह का दो नंबरी काम चल रहा है। फिर जब इच्छाधारी औऱ नित्यानंद निकलने लगता है तो इ सब बिलबिलाने लगते हैं। इनकी ऐसी की तैसी।.... इस पूरे मसले पर सिर्फ दो सवालों पर गौर करें। पहली तो ये कि जब चारों तरफ तिलक लगाकर मेट्रो के अधिकारी हवन में शामिल होते हैं,उस समय अगर कोई मुस्लिम,इसाई या फिर दूसरी मान्यता का अधिकारी होता है तो वो किस तरह का महसूस करता है? क्या ऐसी स्थिति में वो अपनी मौजूदगी का एहसास कर पाता है? क्या उसे नहीं लगता कि ये सबकुछ सिर्फ हिन्दू कौम के लिए है? उसके नजरिए से चीजों को देखने-समझने पर क्या निकलकर आता है? देखना तो होगा ही न।. दूसरी बात कि मेट्रो,फैक्ट्री,सड़कें ये न सिर्फ सार्वजनिक होते हैं बल्कि इसका संबंध सीधे-सीधे बाजार से भी होता है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या इस बाजार को आगे ले जाने में सिर्फ तिलक लगानेवाले समाज का ही योगदान होता है? बाकी का समाज का कोई योगदान नहीं होता। अगर सरकारी संस्थान हैं औऱ वहां की शुरुआत में नारियल फोड़े जाते हैं तो क्या उसमें इनके रिवन्यू का हिस्सा नहीं जाता? बाजार में मौजूद इस "बाकी के समाज" को सामाजिक तौर पर नजरअंदाज करना या फिर सिर्फ तिलक लगानेवाली कौम की रीतियों को शामिल करना किस हद तक सही है? मुझे नहीं पता कि कल जिन पत्रकारों को नई-नवेली मेट्रो की सवारी कराई गयी,उन्होंने भी तिलक लगाए या नहीं,मेट्रो की सीट पर बैठकर प्रसाद खाया या नहीं लेकिन मेरी आंखें उस पीटूसी के इंतजार में जरुर फैली रही जो कह पाते- मेट्रो ने खुद उड़ाई अपने नियमों की धज्जियां. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Jun 23 13:46:37 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 23 Jun 2010 13:46:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWLIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KSVIOCksuCkl+CkvuCkleCksCDgpKbgpL/gpLLgpY3gpLI=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruClh+Ckn+CljeCksOCliyDgpK7gpYfgpIIg4KSW4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KWHIOCkpeClhw==?= Message-ID: दिल्ली मेट्रो सिर्फ हिन्दुओं की बपौती है, मेरी इस पोस्ट पर दर्जनों ब्लॉगर और पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है। कुछ लोग तो पिल पड़ने के अंदाज में भला-बुरा कहा है। मेरे ये लिखने पर कि मैं इस बात का इंतजार ही करता रहा कि कोई चैनल दिल्ली मेट्रो की अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाने पर कुछ कहता,एक ने पूरी की पूरी पोस्ट ही लिख डाली है । हम सबकी जज्बातों का सम्मान करते हैं। लेकिन दिल्ली मेट्रो के इस रवैये से असहमति पहले की तरह बरकरार है बल्कि पिल पड़नेवाले अंदाज में लिखनेवाले लोगों को पढ़कर हमारी इस समझ को और मजबूती मिली है। मेरी पूरी पोस्ट में नारियल फोड़ने और तिलक लगानेवाली बात को लेकर तो सबों ने रिस्पांड किया। उसे संस्कृति का हिस्सा बताया,उसे हिन्दु मान्यता के साथ नत्थी करने के बजाय देश की संस्कृति मानने की दलील दी,कुछ ने हमें समाज में दरार पैदा करनेवाला बताते हुए साझा संस्कृति की मिसाल दी। ये सारी बातें पढ़ने,सुनने और समाज के लोगों के बीच रखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन पावर डिस्कोर्स में ये सारी बातें एक गहरी साजिश का नतीजा है। फिलहाल हम उस बहस में बिल्कुल भी जाना नहीं चाहते। दरगाह में जाने या फिर मुसलमान होने पर भी अंडा नहीं छूने जैसी बातों का कितना तार्किक आधार है,ये एक अंतहीन बहस साबित होगी। यहां हम उस दूसरी बात को फिर से रखना चाह रहे हैं जिस पर कि किसी ने रिस्पांड नहीं किया। संभव हो इस बात की काट के लिए कोई मजबूत तर्क न जुटा पाए हों या फिर उसमें उलझने पर खुद ही फंसने का डर बन आया है। ये सवाल फिर से यहां उठाना जरुरी है जो किसी रिचुअल्स या परंपरा का हिस्सा नहीं बल्कि उस नियम का हिस्सा है जिसे कि खुद दिल्ली मेट्रो ने बनाया है। ये नियम सब्जेक्टिविटी के सवाल से नहीं जुड़ते हैं बल्कि मामला बिल्कुल सीधा-सीधा है कि इसका हर हाल में पालन किया जाना चाहिए। दिल्ली मेट्रो के भीतर किसी भी तरह की चीज का खाना-पीना मना है। मैंने एक संवेदनशील नजारे को याद करते हुए बताने की कोशिश की-एक चार साल का बच्चा भी मेट्रो के अंदर जब खाने के लिए मचलता है तो उसकी मां उसे ऐसा करने से रोक देती है। वो हाथ में ट्रॉपिकाना का डिब्बा पकड़े-पकड़े राजीव चौक से विधान सभा तक आ जाता है। मुझे याद है 15 दिन पहले दो लड़कियां ऑफिस से छूटने पर रुमाल से ढंककर सैंडविच खा रही थी तो आसपास के लोगों ने कितने कंमेंट किए थे,फब्तियां कसी थी। लेकिन परसों की फुटेज देखकर मुझे हैरानी हुई कि मेट्रो के अधिकारी झकझक मेट्रो की ड्रेस पहने,तिलक लगाए बेशर्मी से टांग फैलाकर मेट्रो में खा रहे हैं। ये कुतुबमीनार से गुड़गांव के लिए शुरु हुई मेट्रो का पहला दिन और पहली ट्रिप थी। अब एक तरफ तो आप हवन और तिलक इसलिए करते हो कि सबकुछ अच्छा-अच्छा हो,शुभ हो,मेट्रो का और अधिक विस्तार हो और दूसरी तरफ अपने ही बनाए नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हो। मुझे अब भी हैरानी हो रही है कि जिस मेट्रो के भीतर सिर्फ ट्रेन के अधिकारी और पत्रकारों को घुसने की इजाजत थी,एक भी पत्रकार,चैनल या अखबार ने इस नजारे पर गौर क्यों नहीं किया? ऐसा लिखकर मैं कोई तीर मारने का काम नहीं कर रहा। लेकिन उनका कवर नहीं किया जाना,उस पर बात नहीं करना,ये जरुर साबित करता है कि ये रोजमर्रा का हिस्सा है। हर मेट्रो की शुरुआत के पहले हवन होना है,प्रसाद बंटना है और उसे लेकर अधिकारियों का अंदर बैठना औऱ खाना है। इस तरह नियमों की धज्जियां उडाना भी जब एक अभ्यस्त आदत बन जाती है तो हमें इस बात का एहसास तक नहीं होता कि इसमें कुछ गलत है,कुछ गड़बड़ियां है। मेट्रो अधिकारियों का ये रवैया जिसे कि आप जबरदस्ती रिचुअल्स का हिस्सा बना दे रहे हैं,वो दरअसल अपने ही नियमों को ध्वस्त करने का मामला है,इस पर बात होनी चाहिए। मैंने देश-विदेश की कई न्यूज एजेंसियों को खंगाला,लगभग सबों ने तिलक लगाकर,नारियल फोड़कर मेट्रो ट्रेन की शुरुआत को ओपनिंग शॉट के तौर पर इस्तेमाल किया है। देश के बाहर इस शॉट्स की क्या डीकोडिंग होती है,इसे समझने की जरुरत है। अधिकारियों के खाते हुए चैनल की फुटेज रॉ से फाइनल नहीं हो पायी है इसलिए माफी मांगते हुए इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed Jun 23 16:26:01 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 23 Jun 2010 16:26:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KS5IOCkleClhyDgpJXgpYfgpILgpKbgpY3gpLAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpJTgpLAg4KSw4KS+4KSk4KWH4KSC?= Message-ID: विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें * ** * *जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के प्रभाव वाले इलाकों में गए थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव गणपति से भी मुलाकात की थी. इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं. पेश है हाशिया पर इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद. ** * * * *जब* माओवादियों के खिलाफ हर तरह के अपशब्द और कुत्साप्रचार का इस्तेमाल किया जाता है तो झूठ और अर्धसत्य को भी पंख लग जाते हैं और इसकी चीरफाड़ के बहाने उनका दानवीकरण किया जाता है। बुद्धिजीवी समुदाय तथ्य का सामना करने से बचता है। फिर भी हम यथार्थ को उसके असली रूप में जानने का प्रयास करते हैं और कुछ मूलभूत सवालों का उत्तर तलाश करते हैं- यह युद्ध क्यों? जिन्हें भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ‘सबसे बड़ा खतरा’ समझा जाता है, वे लोग कौन हैं? उनकी राजनीति क्या है? वे हिंसा को क्यों जायज़ ठहराते हैं? वे अपने ‘जनयुद्ध’, अपने राजनीतिक लक्ष्य और अपने बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं? अपने मजबूत जंगली क्षेत्रों से बाहर की दुनिया में छलांग लगाने के बारे में वे क्या सोचते है? माओवादियों को दानव के रूप में दिखाए जाने की प्रक्रिया के खिलाफ उन्हें मानव के रूप में जानने समझने और माओवादियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी लेने की इच्छा (सिर्फ किताबों, दस्तावेजों, बातचीत के जरिएही नहीं बल्कि उनके बीच जाकर और उनसे मुलाकात करके ) विगत कई वर्षों से मेरे दिमाग में निर्मित हो रही थी। दो बार मैं इस यात्रा के काफी करीब पहुंच गया था। पहली बार मुझे दो नवजवान पत्रकारों ने धोखा दे दिया और नियत समय और स्थान पर नहीं आए। दूसरी बार बहुत कम समय की नोटिस पर मैं अपने आप को तैयार नहीं कर सका। यह तीसरा अवसर था और मैं इसे गंवाना नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह यात्रा सम्पन्न हुयी और मैंने स्वीडेन के लेखक जॉन मिर्डल के साथ जनवरी 2010 में सीपीआई माओवादियों के गुरिल्ला जोन (जहां वे अपनी जनताना सरकार या जन सरकार चलाते हैं ) में दो सप्ताह गुजारे। इस दौरान हमने देखा, सुना, पढ़ा और काफी बहसें की। यद्यपि ‘गुरिल्ला जोन’ अभी भी सरकार और विद्राहियों के बीच संघर्ष और इस पर नियंत्रण की लड़ाई में फंसा है लेकिन यह भी सच है कि इस क्षेत्र से भारतीय राज्य को पीछे हटना पड़ा है और अब वह अपने प्राधिकार को पुनः स्थापित करने के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है। *पूरा पढ़िएः विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed Jun 23 16:26:01 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 23 Jun 2010 16:26:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KS5IOCkleClhyDgpJXgpYfgpILgpKbgpY3gpLAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpJTgpLAg4KSw4KS+4KSk4KWH4KSC?= Message-ID: विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें * ** * *जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के प्रभाव वाले इलाकों में गए थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव गणपति से भी मुलाकात की थी. इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं. पेश है हाशिया पर इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद. ** * * * *जब* माओवादियों के खिलाफ हर तरह के अपशब्द और कुत्साप्रचार का इस्तेमाल किया जाता है तो झूठ और अर्धसत्य को भी पंख लग जाते हैं और इसकी चीरफाड़ के बहाने उनका दानवीकरण किया जाता है। बुद्धिजीवी समुदाय तथ्य का सामना करने से बचता है। फिर भी हम यथार्थ को उसके असली रूप में जानने का प्रयास करते हैं और कुछ मूलभूत सवालों का उत्तर तलाश करते हैं- यह युद्ध क्यों? जिन्हें भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ‘सबसे बड़ा खतरा’ समझा जाता है, वे लोग कौन हैं? उनकी राजनीति क्या है? वे हिंसा को क्यों जायज़ ठहराते हैं? वे अपने ‘जनयुद्ध’, अपने राजनीतिक लक्ष्य और अपने बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं? अपने मजबूत जंगली क्षेत्रों से बाहर की दुनिया में छलांग लगाने के बारे में वे क्या सोचते है? माओवादियों को दानव के रूप में दिखाए जाने की प्रक्रिया के खिलाफ उन्हें मानव के रूप में जानने समझने और माओवादियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी लेने की इच्छा (सिर्फ किताबों, दस्तावेजों, बातचीत के जरिएही नहीं बल्कि उनके बीच जाकर और उनसे मुलाकात करके ) विगत कई वर्षों से मेरे दिमाग में निर्मित हो रही थी। दो बार मैं इस यात्रा के काफी करीब पहुंच गया था। पहली बार मुझे दो नवजवान पत्रकारों ने धोखा दे दिया और नियत समय और स्थान पर नहीं आए। दूसरी बार बहुत कम समय की नोटिस पर मैं अपने आप को तैयार नहीं कर सका। यह तीसरा अवसर था और मैं इसे गंवाना नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह यात्रा सम्पन्न हुयी और मैंने स्वीडेन के लेखक जॉन मिर्डल के साथ जनवरी 2010 में सीपीआई माओवादियों के गुरिल्ला जोन (जहां वे अपनी जनताना सरकार या जन सरकार चलाते हैं ) में दो सप्ताह गुजारे। इस दौरान हमने देखा, सुना, पढ़ा और काफी बहसें की। यद्यपि ‘गुरिल्ला जोन’ अभी भी सरकार और विद्राहियों के बीच संघर्ष और इस पर नियंत्रण की लड़ाई में फंसा है लेकिन यह भी सच है कि इस क्षेत्र से भारतीय राज्य को पीछे हटना पड़ा है और अब वह अपने प्राधिकार को पुनः स्थापित करने के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहा है। *पूरा पढ़िएः विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From abhaytri at gmail.com Wed Jun 23 17:05:55 2010 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Wed, 23 Jun 2010 17:05:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSt4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KSoIOCkleClhyDgpKrgpLngpLLgpYcg4KS14KS/4KS14KS/4KSn?= =?utf-8?b?4KSk4KS+?= Message-ID: <5DCC4402A5154AC2BF75FB803EEC18A6@AbhayTiwari> लगभग सभी प्रगतिशील चिन्तक और विचारक यह मानते आए हैं कि फ़ोर्ट विलियम वाले गिलक्रिस्ट साहब ने हिन्दी/उर्दू ज़ुबान का साहित्य नागरी लिपि में लिखवा कर एक साम्प्रदायिक दीवार की नींव रखी। धारणा यह रही है कि लल्लू लाल जी और इंशाअल्ला खां साहब के पहले नागरी लिपि में खड़ी बोली का कोई साहित्य नहीं रचा गया था। इसी बात को आगे खींचते हुए 'हिन्दी' भाषा के बाद के साहित्यकारों पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उन्होने आमफ़हम उर्दू के भीतर संस्कृत के शब्द भर कर एक विकृत भाषा को जन्म दिया और समाज को साम्प्रदयिक चेतना से दूषित किया। असल में इन अवधारणाओं के मूल में वही वृत्ति है जिस से लगभग हर पश्चिमी परिपाटी बीमार रहती है- प्रमाण की अनुपस्थिति को, अनुपस्थिति का प्रमाण मान लिया जाता है। हिन्दी-उर्दू मसले पर फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित किताब 'बिफ़ोर द डिवाइड' इन सवालों की पड़ताल करने के लिए गिलक्रिस्ट के फ़ोर्ट विलियम के पहले रचे साहित्य को खंगाल कर नए तथ्य सामने लाती है और हमें उन की रौशनी में इस पूरे मामले को नए नज़रिये से देखने के लिए मजबूर करती है। ओर्सिनी अपनी भूमिका में कहती हैं कि हिन्दी-उर्दू बहस में एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि साहित्यिक कृतियों की भाषा को लोगों की आम ज़बान के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। (आज भी हमारी बोलने वाली और लिखने वाली भाषा में लहज़े और वाक्य संऱचना के अलावा शब्द-सम्पदा का बड़ा फ़र्क़ रहता है) हिन्दी और उर्दू के बीच झगड़े का मुख्य आधार उनकी ऐतिहासिकता रही है। उर्दू वालों, और समझदार विद्वानों के एक बड़े तबक़े का मानना रहा है कि तथाकथित खड़ी बोली को साहित्य के रूप में व्यवहार करने का काम नस्तालिक़ लिपि में होता रहा है और इसलिए मोटे तौर पर दिल्ली और दकन के मुस्लिम अशराफ़ द्वारा विकसित भाषा (खड़ी बोली के साहित्य) को नागरी लिपि में लिखना एक किसी अन्य (औपनिवेशिक व साम्प्रदायिक) मक़सद से प्रेरित हरकत हैं। और हिन्दुओं द्वारा १९वीं सदी में अपनाई गई हिन्दी थोपी हुई, बनाई हुई, गढ़ी हुई भाषा है जिसके अन्दर संस्कृत की शब्दावली घुसा दी गई। हालांकि हिन्दी-उर्दू के बीच साहित्य का बँटवारा अकेले लिपि के आधार पर तो नहीं होता रहा है। रसखान, रहीम, कबीर और जायसी हिन्दी साहित्य की परम्परा में गिने जाते रहे हैं और तमाम ग़ैर-मुस्लिम शाएर नस्तालिक़ में लिखने के बावजूद मुहम्मद हुसैन आज़ाद के उर्दू साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित किताब आबेहयात में जगह नहीं पा सके। हिन्दी साहित्य का नाम जपने वाले मीर और नज़ीर को गुनते तो रहे मगर इतिहास लिखते समय संकोच वृत्ति/स्मृति लोप/भेद दृष्टि का शिकार हो गए। उर्दू वालों ने अपने इतिहास को महज़ मुस्लिमों द्वार रचित खड़ी बोली के साहित्य (और उसमें भी मोटे तौर पर गज़ल) तक सीमित रखा था, हालांकि विगत कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आए हैं। लेकिन इमरै बंघा के शोध से पता चलता है कि खड़ी बोली का साहित्य फ़ारसी लिपि के अलावा देवनागरी और गुरमुखी में भी लिखा गया है।फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित ‘बिफ़ोर द डिवाइड’ में पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारत के भाषाई परिदृश्य पर केन्द्रित नौ लेख हैं। सभी लेख पढ़ने योग्य और गुनने योग्य हैं मगर विस्तार और विषयान्तरके भय से मैं यहाँ पर तीन लेखों की ही चर्चा कर रहा हूँ; १) इमरै बंघा का “रेख़्ता: पोएट्री इन मिक्स्ड लैंग्वेज” (द इमर्जेन्स औफ़ खड़ी बोली लिट्रेचर इन नोर्थ इंडिया), २) एलीसन बुश का “रीति एण्ड रेजिस्टर” (लेक्सिकल वैरिएशन इन कोर्टली ब्रज भाषा टेक्स्ट), और ३) फ़्रंचेस्का ओर्सिनी का “बारहमासा इन हिन्दी एण्ड उर्दू”। आगे पढ़ने के लिए यहाँ जायें : विभाजन के पहले विविधता http://nirmal-anand.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pheeta.ram at gmail.com Wed Jun 23 19:59:53 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Wed, 23 Jun 2010 19:59:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KS5IOCkleClhyDgpJXgpYfgpILgpKbgpY3gpLAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpJTgpLAg4KSw4KS+4KSk4KWH4KSC?= In-Reply-To: References: Message-ID: साथी रियाज़, हिंदी अनुवाद के लिये धन्यवाद! 2010/6/23 reyaz-ul-haque > विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें > > * ** * > > *जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम > नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के > प्रभाव वाले इलाकों में गए थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव > गणपति से भी मुलाकात की थी. इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख > लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से > पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने > की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं. पेश > है हाशिया पर इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद. ** * > > * * > > *जब* माओवादियों के खिलाफ हर तरह के अपशब्द और कुत्साप्रचार का इस्तेमाल किया > जाता है तो झूठ और अर्धसत्य को भी पंख लग जाते हैं और इसकी चीरफाड़ के बहाने > उनका दानवीकरण किया जाता है। बुद्धिजीवी समुदाय तथ्य का सामना करने से बचता है। > फिर भी हम यथार्थ को उसके असली रूप में जानने का प्रयास करते हैं और कुछ मूलभूत > सवालों का उत्तर तलाश करते हैं- यह युद्ध क्यों? जिन्हें भारत की आन्तरिक > सुरक्षा के लिए ‘सबसे बड़ा खतरा’ समझा जाता है, वे लोग कौन हैं? उनकी राजनीति > क्या है? वे हिंसा को क्यों जायज़ ठहराते हैं? वे अपने ‘जनयुद्ध’, अपने > राजनीतिक लक्ष्य और अपने बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं? अपने मजबूत जंगली > क्षेत्रों से बाहर की दुनिया में छलांग लगाने के बारे में वे क्या सोचते है? > > माओवादियों को दानव के रूप में दिखाए जाने की प्रक्रिया के खिलाफ उन्हें मानव > के रूप में जानने समझने और माओवादियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी लेने की > इच्छा (सिर्फ किताबों, दस्तावेजों, बातचीत के जरिएही नहीं बल्कि उनके बीच जाकर > और उनसे मुलाकात करके ) विगत कई वर्षों से मेरे दिमाग में निर्मित हो रही थी। > दो बार मैं इस यात्रा के काफी करीब पहुंच गया था। पहली बार मुझे दो नवजवान > पत्रकारों ने धोखा दे दिया और नियत समय और स्थान पर नहीं आए। दूसरी बार बहुत कम > समय की नोटिस पर मैं अपने आप को तैयार नहीं कर सका। यह तीसरा अवसर था और मैं > इसे गंवाना नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह यात्रा सम्पन्न हुयी और मैंने स्वीडेन > के लेखक जॉन मिर्डल के साथ जनवरी 2010 में सीपीआई माओवादियों के गुरिल्ला जोन > (जहां वे अपनी जनताना सरकार या जन सरकार चलाते हैं ) में दो सप्ताह गुजारे। इस > दौरान हमने देखा, सुना, पढ़ा और काफी बहसें की। यद्यपि ‘गुरिल्ला जोन’ अभी भी > सरकार और विद्राहियों के बीच संघर्ष और इस पर नियंत्रण की लड़ाई में फंसा है > लेकिन यह भी सच है कि इस क्षेत्र से भारतीय राज्य को पीछे हटना पड़ा है और अब > वह अपने प्राधिकार को पुनः स्थापित करने के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहा > है। > *पूरा पढ़िएः विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें > * > > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pheeta.ram at gmail.com Wed Jun 23 19:59:53 2010 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Wed, 23 Jun 2010 19:59:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWL4KS5IOCkleClhyDgpJXgpYfgpILgpKbgpY3gpLAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpJTgpLAg4KSw4KS+4KSk4KWH4KSC?= In-Reply-To: References: Message-ID: साथी रियाज़, हिंदी अनुवाद के लिये धन्यवाद! 2010/6/23 reyaz-ul-haque > विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें > > * ** * > > *जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता और ईपीडब्ल्यू के सलाहकार संपादक गौतम > नवलखा तथा स्वीडिश पत्रकार जॉन मिर्डल कुछ समय पहले भारत में माओवाद के > प्रभाव वाले इलाकों में गए थे, जिसके दौरान उन्होंने भाकपा माओवादी के महासचिव > गणपति से भी मुलाकात की थी. इस यात्रा से लौटने के बाद गौतम ने यह लंबा आलेख > लिखा है, जिसमें वे न सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट के निहितार्थों की गहराई से > पड़ताल करते हैं, बल्कि माओवादी आंदोलन, उसकी वजहों, भाकपा माओवादी के काम करने > की शैली, उसके उद्देश्यों और नीतियों के बारे में भी विस्तार से बताते हैं. पेश > है हाशिया पर इस लंबे आलेख का हिंदी अनुवाद. ** * > > * * > > *जब* माओवादियों के खिलाफ हर तरह के अपशब्द और कुत्साप्रचार का इस्तेमाल किया > जाता है तो झूठ और अर्धसत्य को भी पंख लग जाते हैं और इसकी चीरफाड़ के बहाने > उनका दानवीकरण किया जाता है। बुद्धिजीवी समुदाय तथ्य का सामना करने से बचता है। > फिर भी हम यथार्थ को उसके असली रूप में जानने का प्रयास करते हैं और कुछ मूलभूत > सवालों का उत्तर तलाश करते हैं- यह युद्ध क्यों? जिन्हें भारत की आन्तरिक > सुरक्षा के लिए ‘सबसे बड़ा खतरा’ समझा जाता है, वे लोग कौन हैं? उनकी राजनीति > क्या है? वे हिंसा को क्यों जायज़ ठहराते हैं? वे अपने ‘जनयुद्ध’, अपने > राजनीतिक लक्ष्य और अपने बारे में किस तरह की धारणा रखते हैं? अपने मजबूत जंगली > क्षेत्रों से बाहर की दुनिया में छलांग लगाने के बारे में वे क्या सोचते है? > > माओवादियों को दानव के रूप में दिखाए जाने की प्रक्रिया के खिलाफ उन्हें मानव > के रूप में जानने समझने और माओवादियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी लेने की > इच्छा (सिर्फ किताबों, दस्तावेजों, बातचीत के जरिएही नहीं बल्कि उनके बीच जाकर > और उनसे मुलाकात करके ) विगत कई वर्षों से मेरे दिमाग में निर्मित हो रही थी। > दो बार मैं इस यात्रा के काफी करीब पहुंच गया था। पहली बार मुझे दो नवजवान > पत्रकारों ने धोखा दे दिया और नियत समय और स्थान पर नहीं आए। दूसरी बार बहुत कम > समय की नोटिस पर मैं अपने आप को तैयार नहीं कर सका। यह तीसरा अवसर था और मैं > इसे गंवाना नहीं चाहता था। कुल मिलाकर यह यात्रा सम्पन्न हुयी और मैंने स्वीडेन > के लेखक जॉन मिर्डल के साथ जनवरी 2010 में सीपीआई माओवादियों के गुरिल्ला जोन > (जहां वे अपनी जनताना सरकार या जन सरकार चलाते हैं ) में दो सप्ताह गुजारे। इस > दौरान हमने देखा, सुना, पढ़ा और काफी बहसें की। यद्यपि ‘गुरिल्ला जोन’ अभी भी > सरकार और विद्राहियों के बीच संघर्ष और इस पर नियंत्रण की लड़ाई में फंसा है > लेकिन यह भी सच है कि इस क्षेत्र से भारतीय राज्य को पीछे हटना पड़ा है और अब > वह अपने प्राधिकार को पुनः स्थापित करने के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहा > है। > *पूरा पढ़िएः विद्रोह के केंद्र में दिन और रातें > * > > -- > Nothing is stable, except instability > Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sat Jun 26 07:30:41 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sat, 26 Jun 2010 07:30:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KS+4KSv?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSC4KSG4KSc4KS24KS+4KSuJ+CkmOClgeCkruCkleCljeCklQ==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSs4KS+4KSc4KS+Jw==?= Message-ID: वैसे तो सबको मज़ा आना चाहिए, लेकिन जिन लोगों की रेडियो तकनीक में दिलचस्पी है, उनके लिए ख़ास मौक़ा. माइक्रोवेव से रेडियो प्रसारण कैसे हो सकता है, इसे देखने-सुनने के लिए ज़रूर आएँ. रविकान्त City as Studio : EXB 10.03 Presents == Ghumakkad Baaja == An open collaboration between Prayas Abhinav, Hemant Babu, Ram Bhatt and Nishant Sharma A demonstration of an open and unregulated way of doing audio transmissions along with discussions about transmissions, public networks and "selling air". ====================================================================================================== Can we be active broadcasters and not just passive consumers ? Can we create and share audio/video content in a widely accessible way? Could there be a platform much like satellite T.V, but in an on-the-move outdoor friendly format without needing a multi-crore license? ====================================================================================================== 6:30 p.m, Saturday, 26th June, 2010 Sarai-CSDS, 29, Rajpur Road, Civil Lines, Delhi-110054 We plan to use an amplified and meshed version of 2.4 ghz (Wi-fi) transmission. This micro-wave segment of spectrum is not radio-waves. We are doing this through high powered 4 Watt ERP transmitter-antennas, at city scale, to make unregulated open-to-air audio broadcasting. We are also developing a low-cost device which can receive these audio broadcasts on the move. Leveraging the potential of an open community of content creators, existing professionals, we will be populating multiple channels of community, local and entertainment content on this infrastructure. India has a heavily regulated and censored radio-spectrum use policy for broadcasters. There are no ways for people to create and share audio content in a widely-accessible way. Internet-radio is not localized due to bandwidth access. Community radio is very restrictive, low power and does not allow news and political content. The radio industry is dominated by commercial music syndicates and public bodies which restricts the kind of content possibilities. In comparison, other media (like TV, print, Internet) has much more diversity to offer. Audio platforms have remained mostly one-way, and have not exploited opportunities of p2p broadcasting networks. A meshed Wi-fi local network (wireless ethernet) offering audio content on a low cost device, so that news, local content and entertainment in audio form can be accessed widely. The use of amplified wi-fi bandwidth delivers high speed, interactive audio content city-wide. Our solution will provide a platform much like satellite TV, but on audio and in a on-the-move, outdoor-friendly format. The solution will inherently be capable of being used for p2p data exchange and audio streaming. This will enable people to be active broadcasters and not just passive consumers of information. ==================================== City as Studio: EXB 10.03 is showing works by: Prayas Abhinav Shamsher Ali Love Anand Hemant Babu Konrad Bayer Ram Bhat Nabina Das Neelofer Gaigongmei Gangmei Goutam Ghosh Deepankar Gohain Niha Masih Suraj Rai Ish S Nishant Sharma Realised by Iram Ghufran, Amitabh Kumar Produced at Sarai Media Lab, Sarai- CSDS June 2010 Exhibition Timings: 11 am to 5 pm Monday to Friday from June 18 to July 14, 2010 For details on the works, go here - http://www.sarai.net/practices/media-forms/city-as-studio-exb/exb-10-03 From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jun 26 16:37:08 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 26 Jun 2010 16:37:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSk4KWN4KSw4oCZIOCkleClgCDgpKTgpLLgpL7gpLYg4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOKAmOCkhuCkriDgpIbgpKbgpK7gpYDigJk=?= Message-ID: *बात थोड़ी पुरानी है भाई जान।* एक बार आम आदमी भारत में लोकतंत्र को तलाशता हुआ आया। *आम आदमी *का नाम सुनकर आप भ्रमवश इसे प्रेमचंद का आम आदमी ना समझ लीजिएगा। चूंकि वह आम आदमी आज के दौर में सिर्फ प्रेमचंद सरीखे साहित्यकारों की चिन्ता में ही शामिल है। ना यह कांग्रेस का आम आदमी है। जिसके साथ अपने चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ के होने का दावा (याद कीजिए: कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ) कांग्रेस करती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस पार्टी का हाथ या तो उद्योगपतियों की पीठ पर धरा मिलेगा या एनरॉन जैसे मुद्दे पर अमेरिका की जेब में। भाजपा ने भी कौन सा आम आदमियों का भला किया है। वह तो घोषित तौर पर व्यावसायियों और पैसे वालों की पार्टी है। इसलिए समझिए यह आम आदमी भाजपाई भी नहीं था। बसपा, लोजपा, सपा, झामुओ आदि-आदि से भी इस आम आदमी का कोई ताल्लुक नहीं था। चलते-चलते एक बात और साफ कर दूं कि इस आम आदमी का किसी विदेशी साजिश से भी कुछ लेना-देना नहीं था। इसके आईएसआई से भी संबंध होने की कोई संभावना नहीं थी। यह खालिश स्वदेशी इलीट एंटिलेक्चुअल किस्म का आम आदमी था। जो भारत में लोकतंत्र को तलाश रहा था। उसने इतिहास और समाज शास्त्र की किताबों में पढ़ रखा था कि भारत एक लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक देश है। बताया जाता है, इस तंत्र में लोक, लोक द्वारा लोक पर शासन करते हैं। लेकिन आम आदमी ने देखा कुछ और, उसने अपनी डायरी के किसी पन्ने पर लिखा है, ‘लोकतत्र में खास आदमी पैसों के दम पर – और पैसा और शक्ति कमाने/बनाने के लिए- आम आदमी का रक्त चूसता है।’ *आम आदमी *के लोकतंत्र की तलाश को समझने के लिए पहले आम आदमी को समझना बहूत जरूरी है। आम आदमी भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा चेहरा है, जिसके सब चाहने वाले हैं लेकिन उसका कोई नहीं है। यह सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों में तो दाखिल है लेकिन इसके जीवन का स्तर कैसे ऊपर उठे यह बात किसी पार्टी की चिन्ता में शामिल दिखाई नहीं देता। सब आम आदमी की बात करते हैं, भाजपा हो या कांग्रेस। लेकिन इन पार्टियों में आम चुनाव के समय जब टिकट देने की बारी आती है, चुन-चुनकर उन लोगों को तलाशा जाता है, जो पैसे वाले हों, बाहुबली हों। आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने के लायक क्या अब इस देश के आम आदमियों (गरीब वर्ग) में कोई बचा ही नहीं? क्यों जनप्रतिनिधि बनने की पहली शर्त पैसा वाला होना बनता जा रहा है? भाजपा या कांग्रेस ऐसी सूची जारी कर सकती हैं, जिसमें ऐसे व्यक्तियों के नाम हों, जो साइकिल पर चढ़ता हो या पैदल चलता हो, उसके बावजूद चुनावों में पार्टी उम्मीदवार हो। क्यों भारतीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिए करोड़पति होना पहली जरूरत बन गई है? क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारों को टिकट बाद में देती है और उनकी जेब पहले टटोलती है? *वास्तव *में लोकतंत्र के नाम पर इस देश में सपाई, बसपाई, कांग्रेसी, भाजपाई और आदि आदि नोटतंत्र चला रहे हैं। टिकट से लेकर वोट तक सबकुछ नोट से मैनेज हो जाता है। व्यावसायिक बुद्धि वाले धनिकों के लिए चुनाव एक इन्वेस्टमेंट है और ‘जीत’ देश को पांच साल तक लूटने का लाइसेंस जैसा। मध्यावधि चुनाव हो जाए तो समझिए कारोबार में घाटा हो गया। एक बार मध्यावधि चुनाव घोषित हुए और एक सांसद जी अपने मित्र को फोन पर बताते हुए मिले, ‘भाई अभी तो लागत भी नहीं निकाल पाए थे। चुनाव फिर आ गया।’ *ऐसे* माहौल में ‘ईमानदारी’ और ‘साफ छवि’ को अपनी ताकत समझने वाले लोग टिकट पाने वाली कतार में पीछे खड़े रह जाते हैं। वहीं हत्या-बलात्कार के आरोपियों और दंगे के अनुभवियों को टिकट आसानी से मिल जाती है। पार्टी भी समझती है, ऐसी ‘प्रतिबद्धता’ के साथ काम करने वाला आदमी ही समय आने पर पार्टी के लिए जान दे भी सकता है और जान ले भी सकता है। पार्टी यह भी भली भांति जानती है कि यदि इस प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया, उसके बावजूद जान लेने और देने वाली कार्यवाही को यह ‘डाइरेक्शन’ बदल कर अंजाम दे सकता है। इसलिए टिकट वितरित करने वाले ऐसे लोगों को टिकट देने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वैसे भी इस कलिकाल में ईमानदारी, चरित्र और साफ छवि जैसे निरर्थक मूल्यों का पार्टी क्या करेगी? पार्टी के अलंबरदार जानते हैं कि इस युग के अंदर भारत जैसे देश में चरित्रवान लोगों को तो सरकारी कार्यालयों में चरित्र का प्रमाण्ापत्र तक आसानी से नहीं मिलता। उन्हें बाबू कम से कम पांच-सात बार दफ्तर के चक्कर कटवाता है और उसके बाद भी चाय-नाश्ता के बाद ही यह प्रमाण पत्र बनाकर देता है। जबकि आप कैरेक्टर से जरा से गिरे हुए हैं तो आपका काम वही बाबू विदाउट चाय-पानी विदिन टेन मिनट करके देता है। पार्टी से टिकट की उम्मीद लगाए उम्मीदवारों को भी पता है कि यहां बर्थ से लेकर डेथ सर्टिफिकेट तक बनवाने के लिए सरकारी बाबू को ‘खुश’ करना होता है। मानों ईमानदारी तो अब बस इस देश में सिर्फ ‘बेईमानी’ में बची है। ईमान से। वरना कोई कैसे कह सकता था कि फलाना ऑफिस के चिलाना अधिकारी बड़े ईमानदार हैं। पैसा तो जरूर लेते हैं लेकिन काम समय पर पूरा करके देते हैं। कोई कह दे, साहब ने पैसा लेकर काम ना किया हो। सुनने को नहीं मिल सकता। यह ‘ईमानदारी’ की नई परिभाषा है। अब आप ही कहिए इस जमाने में खालिस ईमानदारी दिखाकर किसी को पार्टी का टिकट क्या खाक मिलेगा? *मोटी रकम *लेकर बहनजी टिकट देती हैं, यह बात तो जगजाहिर है। लेकिन बहनजी तो नाहक ही बदनाम हुई हैं। वरना बाकि पार्टियों के भाई साहबों, अम्माओं, आंटियों और बाबूजीओं का रिकार्ड भी बहुत अच्छा नहीं है। खैर, आम आदमी ने लोकतंत्र की तलाश में कन्याकुमारी से जम्मू-कश्मीर तक की खाक छान मारी। लेकिन उसे लोकतंत्र नहीं मिला। कहीं-कहीं उसे मतदान होता जरूर दिखा। मतदान भाईजान लोकतंत्र थोड़े ही ना है। यह तो लोकतंत्र का ‘लक्षण’ मात्र है। क्या आपमें से कोई आम आदमी को लोकतंत्र से मिला सकता है। आम आदमी लोकतंत्र से पूछना चाहता है, जब सभी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ होने का विश्वास दिला रहे हैं। आम आदमी के पक्ष में इतनी सारी योजनाएं बन रही है। फिर इस देश में आम आदमी का इतना बुरा हाल क्यों है? आम आदमी इस मुल्क में कंगाल क्यों है? -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jun 26 16:37:08 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 26 Jun 2010 16:37:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSk4KWN4KSw4oCZIOCkleClgCDgpKTgpLLgpL7gpLYg4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOKAmOCkhuCkriDgpIbgpKbgpK7gpYDigJk=?= Message-ID: *बात थोड़ी पुरानी है भाई जान।* एक बार आम आदमी भारत में लोकतंत्र को तलाशता हुआ आया। *आम आदमी *का नाम सुनकर आप भ्रमवश इसे प्रेमचंद का आम आदमी ना समझ लीजिएगा। चूंकि वह आम आदमी आज के दौर में सिर्फ प्रेमचंद सरीखे साहित्यकारों की चिन्ता में ही शामिल है। ना यह कांग्रेस का आम आदमी है। जिसके साथ अपने चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ के होने का दावा (याद कीजिए: कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ) कांग्रेस करती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस पार्टी का हाथ या तो उद्योगपतियों की पीठ पर धरा मिलेगा या एनरॉन जैसे मुद्दे पर अमेरिका की जेब में। भाजपा ने भी कौन सा आम आदमियों का भला किया है। वह तो घोषित तौर पर व्यावसायियों और पैसे वालों की पार्टी है। इसलिए समझिए यह आम आदमी भाजपाई भी नहीं था। बसपा, लोजपा, सपा, झामुओ आदि-आदि से भी इस आम आदमी का कोई ताल्लुक नहीं था। चलते-चलते एक बात और साफ कर दूं कि इस आम आदमी का किसी विदेशी साजिश से भी कुछ लेना-देना नहीं था। इसके आईएसआई से भी संबंध होने की कोई संभावना नहीं थी। यह खालिश स्वदेशी इलीट एंटिलेक्चुअल किस्म का आम आदमी था। जो भारत में लोकतंत्र को तलाश रहा था। उसने इतिहास और समाज शास्त्र की किताबों में पढ़ रखा था कि भारत एक लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक देश है। बताया जाता है, इस तंत्र में लोक, लोक द्वारा लोक पर शासन करते हैं। लेकिन आम आदमी ने देखा कुछ और, उसने अपनी डायरी के किसी पन्ने पर लिखा है, ‘लोकतत्र में खास आदमी पैसों के दम पर – और पैसा और शक्ति कमाने/बनाने के लिए- आम आदमी का रक्त चूसता है।’ *आम आदमी *के लोकतंत्र की तलाश को समझने के लिए पहले आम आदमी को समझना बहूत जरूरी है। आम आदमी भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा चेहरा है, जिसके सब चाहने वाले हैं लेकिन उसका कोई नहीं है। यह सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों में तो दाखिल है लेकिन इसके जीवन का स्तर कैसे ऊपर उठे यह बात किसी पार्टी की चिन्ता में शामिल दिखाई नहीं देता। सब आम आदमी की बात करते हैं, भाजपा हो या कांग्रेस। लेकिन इन पार्टियों में आम चुनाव के समय जब टिकट देने की बारी आती है, चुन-चुनकर उन लोगों को तलाशा जाता है, जो पैसे वाले हों, बाहुबली हों। आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने के लायक क्या अब इस देश के आम आदमियों (गरीब वर्ग) में कोई बचा ही नहीं? क्यों जनप्रतिनिधि बनने की पहली शर्त पैसा वाला होना बनता जा रहा है? भाजपा या कांग्रेस ऐसी सूची जारी कर सकती हैं, जिसमें ऐसे व्यक्तियों के नाम हों, जो साइकिल पर चढ़ता हो या पैदल चलता हो, उसके बावजूद चुनावों में पार्टी उम्मीदवार हो। क्यों भारतीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिए करोड़पति होना पहली जरूरत बन गई है? क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारों को टिकट बाद में देती है और उनकी जेब पहले टटोलती है? *वास्तव *में लोकतंत्र के नाम पर इस देश में सपाई, बसपाई, कांग्रेसी, भाजपाई और आदि आदि नोटतंत्र चला रहे हैं। टिकट से लेकर वोट तक सबकुछ नोट से मैनेज हो जाता है। व्यावसायिक बुद्धि वाले धनिकों के लिए चुनाव एक इन्वेस्टमेंट है और ‘जीत’ देश को पांच साल तक लूटने का लाइसेंस जैसा। मध्यावधि चुनाव हो जाए तो समझिए कारोबार में घाटा हो गया। एक बार मध्यावधि चुनाव घोषित हुए और एक सांसद जी अपने मित्र को फोन पर बताते हुए मिले, ‘भाई अभी तो लागत भी नहीं निकाल पाए थे। चुनाव फिर आ गया।’ *ऐसे* माहौल में ‘ईमानदारी’ और ‘साफ छवि’ को अपनी ताकत समझने वाले लोग टिकट पाने वाली कतार में पीछे खड़े रह जाते हैं। वहीं हत्या-बलात्कार के आरोपियों और दंगे के अनुभवियों को टिकट आसानी से मिल जाती है। पार्टी भी समझती है, ऐसी ‘प्रतिबद्धता’ के साथ काम करने वाला आदमी ही समय आने पर पार्टी के लिए जान दे भी सकता है और जान ले भी सकता है। पार्टी यह भी भली भांति जानती है कि यदि इस प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया, उसके बावजूद जान लेने और देने वाली कार्यवाही को यह ‘डाइरेक्शन’ बदल कर अंजाम दे सकता है। इसलिए टिकट वितरित करने वाले ऐसे लोगों को टिकट देने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वैसे भी इस कलिकाल में ईमानदारी, चरित्र और साफ छवि जैसे निरर्थक मूल्यों का पार्टी क्या करेगी? पार्टी के अलंबरदार जानते हैं कि इस युग के अंदर भारत जैसे देश में चरित्रवान लोगों को तो सरकारी कार्यालयों में चरित्र का प्रमाण्ापत्र तक आसानी से नहीं मिलता। उन्हें बाबू कम से कम पांच-सात बार दफ्तर के चक्कर कटवाता है और उसके बाद भी चाय-नाश्ता के बाद ही यह प्रमाण पत्र बनाकर देता है। जबकि आप कैरेक्टर से जरा से गिरे हुए हैं तो आपका काम वही बाबू विदाउट चाय-पानी विदिन टेन मिनट करके देता है। पार्टी से टिकट की उम्मीद लगाए उम्मीदवारों को भी पता है कि यहां बर्थ से लेकर डेथ सर्टिफिकेट तक बनवाने के लिए सरकारी बाबू को ‘खुश’ करना होता है। मानों ईमानदारी तो अब बस इस देश में सिर्फ ‘बेईमानी’ में बची है। ईमान से। वरना कोई कैसे कह सकता था कि फलाना ऑफिस के चिलाना अधिकारी बड़े ईमानदार हैं। पैसा तो जरूर लेते हैं लेकिन काम समय पर पूरा करके देते हैं। कोई कह दे, साहब ने पैसा लेकर काम ना किया हो। सुनने को नहीं मिल सकता। यह ‘ईमानदारी’ की नई परिभाषा है। अब आप ही कहिए इस जमाने में खालिस ईमानदारी दिखाकर किसी को पार्टी का टिकट क्या खाक मिलेगा? *मोटी रकम *लेकर बहनजी टिकट देती हैं, यह बात तो जगजाहिर है। लेकिन बहनजी तो नाहक ही बदनाम हुई हैं। वरना बाकि पार्टियों के भाई साहबों, अम्माओं, आंटियों और बाबूजीओं का रिकार्ड भी बहुत अच्छा नहीं है। खैर, आम आदमी ने लोकतंत्र की तलाश में कन्याकुमारी से जम्मू-कश्मीर तक की खाक छान मारी। लेकिन उसे लोकतंत्र नहीं मिला। कहीं-कहीं उसे मतदान होता जरूर दिखा। मतदान भाईजान लोकतंत्र थोड़े ही ना है। यह तो लोकतंत्र का ‘लक्षण’ मात्र है। क्या आपमें से कोई आम आदमी को लोकतंत्र से मिला सकता है। आम आदमी लोकतंत्र से पूछना चाहता है, जब सभी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ होने का विश्वास दिला रहे हैं। आम आदमी के पक्ष में इतनी सारी योजनाएं बन रही है। फिर इस देश में आम आदमी का इतना बुरा हाल क्यों है? आम आदमी इस मुल्क में कंगाल क्यों है? -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Jun 27 00:43:37 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 27 Jun 2010 00:43:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sorry Message-ID: दीवान के साथियों गर्व से कहो हम चमार हैं पोस्ट में मैंने पंजाब की राजधानी लुधियाना लिख दिया है,आप सुधार कर पढ़ें। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon Jun 28 14:13:31 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 28 Jun 2010 14:13:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkluCkvuCkqi0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk4KS+Jw==?= Message-ID: <4C2860B3.6040301@sarai.net> विजेताओं का दल, राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल., -सुमन केशरी।, sumankeshari at gmail.com , सुमन केशरी की लंबी कविता-‘राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल’ के कुछ अंश। यह कविता ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ ( राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008) में संकलित है।, राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल, गाँव के बीचोंबीच, सरपंच के दरवाजे के ऐन सामने, गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौजूदगी में, बिरादरी के मुखियों ने वह फैसला सुनाया था..., उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी, कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे, तो कोई जीत की खुशी में मगन थे, कुछ छोड़ जाना चाहते थे कदमों के निशान, तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा,संस्कृति की पहचान, दालान के कोने में लड़की खौफजदा थी, छिटकी सहेलियाँ थीं, और माँ मानो पाप की गठरी, सिर झुकाए खड़ी थी, बीच बीच में घायल शेरनी सी झपटने को तैयार, आँखों से ज्वाला बिखेरती, दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती , सब कुछ बड़ा अजीब था, न तो लड़के ने कोई डाका डाला था, न किया था किसी का बलात्कार, और न लड़की ने किया था कोई झगड़ा, या फिर किसी बड़े का अपमान, बस किया था तो बस प्यार, ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते माँ, और तुमने बाँध दिया खुद अपनी जाई को अपने हाथों, मानो कोख ही को बाँध दिया हो मर्यादा की रस्सी से, ऐसा क्या तो कर दिया मैंने, बस मन ही तो लग जाने दिया, जहाँ उसने चाहा, कभी जाति की चौहद्दी से बाहर, तो कभी रुतबे की खाई को लांघ, तो कभी धर्म की दीवार के पार।, हमने प्रेम...बस प्रेम को जीया, केवल प्रेम किया, और छोड़ प्रेम को कोई नहीं जानता, कि प्रेम की अपनी ही मर्यादा है, अपने ही नियम हैं, और अपना ही संसार..., लटका दो इन्हें फाँसी पर, ताकि समझ लें अंजाम सभी, प्रेम का, मनमानी का, मर्यादा के नाश का, संस्कारों के ह्रास का, तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को, गाँव के पार, पीपल की डार पर, सभी साथ थे कोलाहल करते, ताकि आत्मा की आवाज सुनाई न पड़े, घेर न ले वह किसी को अकेला पा कर, आखिर संस्कार और मर्यादाएं, बचाए रखती हैं जीव को, अनसुलझे प्रश्नों के दंशों से, दुरुह अकेलेपन से..., तो जयजयकार करता, समूह लौट चला उल्लसित कि, बच गयीं प्रथाएँ, रह गया मान, रक्षित हुई मर्यादा, फिर से खड़ा है धर्म बलपूर्वक, हमारे ही दम पे, जयजयकार, तुमुल निनाद, दमकता दर्प, सब ओर अद्भुत हलचल, लौटता है विजेताओं का दल, राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल., -सुमन केशरी।, sumankeshari at gmail.com From beingred at gmail.com Wed Jun 30 18:14:47 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Jun 2010 18:14:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSu4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSVIOCkqOCljeCkr+CkvuCkryDgpJTgpLAg4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkleClhyDgpLXgpL/gpLDgpYHgpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KSnIOCkueCliCDgpLXgpL/gpKbgpYfgpLbgpYAg4KS24KS/4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KS34KSjIOCkuOCkguCkuOCljeCkpeCkvuCkqCDgpIXgpKfgpL/gpKg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KSu?= Message-ID: सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के विरुद्ध है विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम *एक सपना बेचा जा रहा है- देश में रह कर विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई और डिग्रियों का सपना. इससे उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा खुश है और उसके साथ ही दूसरे तबके भी यह उम्मीद पाले हुए हैं कि उनके दिन सुधरेंगे. जो काम यह सरकार नहीं कर पाई, उसे विदेशी विश्वविद्यालय पूरा करेंगे. वे उच्च शिक्षा से वंचित रह गए बाकी के 89 प्रतिशत छात्रों को पढ़ाएंगे. लेकिन जमीनी सच्चाइयां बताती हैं कि यह झूठ है और विदेशी विश्वविद्यालयों को कमाई करने और भारतीय छात्रों को लूटने की इजाजत देने के लिए इस सपने की ओट ली जा रही है. निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोलते समय एसे ही दावे हर बार किए गए- भूख से बाजार बचाएगा, किसानों को बाजार अमीर बनाएगा, बीमारों की सेहत बाजार सुधारेगा, बच्चों को बाजार पढ़ाएगा. इस कह कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म कर दी गई, किसानों को दी जा रही रियायतें बंद कर दी गईं, स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में भारी कटौती हुई और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को आपराधिक प्रयोगों की प्रयोगशाला बना दिया गया. और नतीजा? भूख से पीड़ित और मर रहे लोगों की संख्या बढ़ रही है. खेती बरबाद हो रही है और किसान आत्महत्या कर रहे हैं. साधारण इलाज से ठीक हो सकनेवाली बीमारियों से भी लाखों लोग (बच्चों समेत) हर साल मर रहे हैं. 6-15 साल के 20 प्रतिशत बच्चे अब भी स्कूल से बाहर हैं औऱ जो स्कूल जाते हैं, उन्हें निम्नस्तरीय शिक्षा हासिल हो रही है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे दावे का भी यही हश्र होगा, यह तह है. इसके जो लक्ष्य बताए जा रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे. लेकिन इसके साथ ही, हम सामाजिक रूप इसकी जो कीमत चुकाने जा रहे हैं और दशकों के संघर्षों के बाद हासिल किए गए अधिकारों को भी (जो वैसे अब भी पूरी तरह लागू नहीं किए जा रहे हैं) खोने जा रहे हैं. दिलीप मंडल की यह आंख खोलती रिपोर्ट, आज के जनसत्ता से साभार. रिपोर्ट पढ़िएः *सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के विरुद्ध है विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed Jun 30 18:14:47 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Jun 2010 18:14:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSu4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSVIOCkqOCljeCkr+CkvuCkryDgpJTgpLAg4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkleClhyDgpLXgpL/gpLDgpYHgpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KSnIOCkueCliCDgpLXgpL/gpKbgpYfgpLbgpYAg4KS24KS/4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KS34KSjIOCkuOCkguCkuOCljeCkpeCkvuCkqCDgpIXgpKfgpL/gpKg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KSu?= Message-ID: सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के विरुद्ध है विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम *एक सपना बेचा जा रहा है- देश में रह कर विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई और डिग्रियों का सपना. इससे उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा खुश है और उसके साथ ही दूसरे तबके भी यह उम्मीद पाले हुए हैं कि उनके दिन सुधरेंगे. जो काम यह सरकार नहीं कर पाई, उसे विदेशी विश्वविद्यालय पूरा करेंगे. वे उच्च शिक्षा से वंचित रह गए बाकी के 89 प्रतिशत छात्रों को पढ़ाएंगे. लेकिन जमीनी सच्चाइयां बताती हैं कि यह झूठ है और विदेशी विश्वविद्यालयों को कमाई करने और भारतीय छात्रों को लूटने की इजाजत देने के लिए इस सपने की ओट ली जा रही है. निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोलते समय एसे ही दावे हर बार किए गए- भूख से बाजार बचाएगा, किसानों को बाजार अमीर बनाएगा, बीमारों की सेहत बाजार सुधारेगा, बच्चों को बाजार पढ़ाएगा. इस कह कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म कर दी गई, किसानों को दी जा रही रियायतें बंद कर दी गईं, स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में भारी कटौती हुई और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को आपराधिक प्रयोगों की प्रयोगशाला बना दिया गया. और नतीजा? भूख से पीड़ित और मर रहे लोगों की संख्या बढ़ रही है. खेती बरबाद हो रही है और किसान आत्महत्या कर रहे हैं. साधारण इलाज से ठीक हो सकनेवाली बीमारियों से भी लाखों लोग (बच्चों समेत) हर साल मर रहे हैं. 6-15 साल के 20 प्रतिशत बच्चे अब भी स्कूल से बाहर हैं औऱ जो स्कूल जाते हैं, उन्हें निम्नस्तरीय शिक्षा हासिल हो रही है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे दावे का भी यही हश्र होगा, यह तह है. इसके जो लक्ष्य बताए जा रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे. लेकिन इसके साथ ही, हम सामाजिक रूप इसकी जो कीमत चुकाने जा रहे हैं और दशकों के संघर्षों के बाद हासिल किए गए अधिकारों को भी (जो वैसे अब भी पूरी तरह लागू नहीं किए जा रहे हैं) खोने जा रहे हैं. दिलीप मंडल की यह आंख खोलती रिपोर्ट, आज के जनसत्ता से साभार. रिपोर्ट पढ़िएः *सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के विरुद्ध है विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jun 30 20:10:09 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 30 Jun 2010 20:10:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KSyIOCkrOCkqOCkvuCkriDgpKjgpL7gpLDgpL/gpK/gpLI=?= Message-ID: *नारियल पर बात निकली है तो - *** चंद रोज पहले दीवान के नामदार लेखक (विनीत कुमार) ने दिल्ली मेट्रो रेलवे के बाबत एक पोस्ट जारी किया। वह नई लाइन की शुरुआत पर तिलक लगाने व नारियर फोड़ने से संबंधित पोस्ट था। उन्होंने हद तक गहरे सवाल उठाए। हम उनके लेखनी की कद्र करते हैं। पर क्या है कि कुछ अपने मन में भी है। सोचता हूं कह दूं। हमारी शुरुआती पढ़ाई भागलपूर के जिस स्कूल (सीएमएस हाई स्कूल) में हुई वहां कोई पूजा वगैरह नहीं होती थी। अब भी शायद यही आलम है। स्कूल में सरस्वती की मूर्ति भी परिसर से बाहर एक कोने में बैठाई जाती थी। यह उस प्रदेश की बात है, जहां सरस्वती पूजा का छात्रों के लिए खासा महत्व है। इसके बावजूद स्कूल में कभी ऐसे सवाल नहीं उठे कि आखिर सरस्वती की मूर्ति परिसर के बाहर क्यों बिठाई जाती है ?सूबे में ऐसे बहुतेरे स्कूल हैं जहां सरस्वती पूजा नहीं होती है। पर यह सवाल कोई महत्व नहीं रखता कि क्यों नहीं होती या फिर क्यों होती है? दरअसल चर्च के उन अर्ध सरकारी स्कूलों में यह रिवाज बन गया है और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता है। अतः इससे जुड़े सभी सवाल गैर जरूरी हैं। पर, नारियल फोड़ने पर सवाल होंगे तो वहां भी बाल मन में सवाल उठ सकते हैं। वह स्थिति यकीनन अभी से बुरी होगी। मैं जिस स्कूल की चर्चा कर रहा था ठीक उसी विद्यालय के सामने एक चौंक (चौराहा) है। नाम है आदमपुर चौंक। वहां जामने से मस्जिद नूमा आकार खड़ा है। एक दफा कुछ लोगों ने वहां शिवजी के प्रतीक को बैठा दिया। गौर करें.इस पर कोई हंगामा नहीं हुआ, जिन लोगों ने ऐसा किया था वे हंसी के पात्र हो गए। अब वह स्थान पूर्ववत है। वहां कई नारियल फोड़े गए थे, पर कोई असर नहीं हुआ। खैर, इसे भी रहने दें। इस मुल्क में करोड़ों आंगन हैं जहां तुलसी के पौधे लगे हैं। इनमें कई लोग पौधे को प्रणाम कर बाहर निकलते हैं और कई यूं ही। पर इन लोगों में सांप्रदायिक तत्व ढूंढ़ना गैरवाजिब ही होगा। देश की धर्मनिरपेक्षता इतनी कमजोर नहीं है। थोड़ा पहले कह रहा हूं पर जरूरी है- *यदि इस देश में राम मंदिर बल से बनाने की कोशिश हुई तो उसका वही हाल होगा जो आदमपुर के उक्त स्थान को हो गया है। *क्योंकि आस्था थोपी नहीं जा सकती, वह तो पैदा लेती है। वहां हिंसा का कोई मोल नहीं होता है। वहां तो सिर्फ और सिर्फ सूर, कबीर तुलसी व जायसी की भक्ति का बोलबाला है। देश में सांप्रदायिक हिंसा का जो इतिहास है, उसकी वजहें दूसरी हैं। हां एक सच यह है कि कुछ लोग उस आस्था तक को चोट पहुंचाने में लगे हैं। इससे गंभीर समस्या पैदा हो सकती है। इस देश में ऊपर से लादे गए धर्मनिरपेक्षता शब्द से पहले भी लोग मजे में रहते थे। तब कोई ट्रेन जलाई गई हो, अहमदाबाद हुआ हो यह जानकार बताएंगे। पर यह सच है तब भी गांव के इस देश में मस्जिद भी थे और मंदिर भी। कई-कई स्थानों पर चर्च भी। दूसरे भी थे। आज भी हैं, पर सबों के मन में एक अटकाव है। ऐसे माहौल में सतर्क लेखन की जरूरत है। *अगला भाग अगले दिन*** *शुक्रिया* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed Jun 30 22:36:35 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Jun 2010 22:36:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSt4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCktuCkrOCljeCkpuCli+CkgiDgpJXgpYsg4KSJ4KSB4KSX?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkquCkleClnCDgpJrgpLLgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSt4KWN4KSv4KS+4KS4IOCkleCksOCkviDgpLDgpLngpL4g4KS54KWC?= =?utf-8?b?4KSB?= Message-ID: अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ *हम इन्हें पहचानते हैं. इससे पहले उनकी शानदार कविताएं पढ़ चुके हैं. उनके साथ हम कुछ संबल देती कविताओं से संवाद करते हैं, हम उनके जरिए जानते हैं कि जंगल में सपने देखना कितना खतरनाक है, लेकिन यह सारी दुनिया की सांसों और सपनों के लिए कितना जरूरी है, उनकी कविताएं हमें बताती हैं कि शब्दों नहीं, सिर्फ जमीन पर हो रहे बदलाव ही हमें आश्वस्त कर सकते हैं. उनकी हर कविता की तरह यह भी रणेंद्र की कविता है, जहां एक-एक शब्द निरंतर युद्ध है* *कविता पढ़िएः अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From water.community at gmail.com Tue Jun 15 12:45:50 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 15 Jun 2010 07:15:50 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KS+4KSn4KS/4KSV4KS+4KSwIOCkueCliCDgpKrgpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KS14KSw4KSj?= Message-ID: जनाधिकार है पर्यावरण वेब/संगठन: pravakta com Author: जगदीश्‍वर चतुर्वेदी आज समय की मांग है कि विश्व के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए, जो मानव जाति की एकता, समाज और प्रकृति में समन्वय के सिध्दान्त पर आधारित हो। विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के ‘अधिकार’ को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ‘ पृथ्वी’ पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं। ‘पृथ्वी’ को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी ‘अपनी संपत्ति’ नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को ‘अपनी संपत्ति’ मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे। उल्लेखनीय है कि भारतीय कानून प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति के अधिकार के दायरे में रखता है। आज दुनिया में 200 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय कानून हैं। 600 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते हो चुके हैं। 150 से ज्यादा क्षेत्रीय कानून हैं।ये ज्यादातर यूरोपीय देशों में हैं। भारत ने समस्त अंतर्राष्ट्रीय कानूनों पर दस्तखत किए हैं और उनकी संगति में प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कानूनों को बदला है। Read More सिन्धु नदी तंत्र और राजस्थान Source: मरुधरा अकादमी, 2009 Author: लक्ष्मी शुक्ला जिस गति से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है, वह निश्चय ही राष्ट्रीय विकास नीति निर्धारकों के समक्ष एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है और समय रहते हुए जल नियोजन के लिए सटीक प्रयास नहीं किए गये तो राष्ट्रीय विकास गति मन्थर पड़ जाएगी, यद्यपि यह निश्चित है कि बदली हुई पर्यावरणीय दशाओं के कारण समाप्त हुए भू-जल स्रोतों का पुनर्भरण तो नहीं हो सकता किन्तु जल की खपत को नियंत्रित कर उसके विकल्प तलाशे जा सकते हैं, जैसे कठोर जनसंख्या नियंत्रण, शुष्क-कृषि पद्धतियां एवम् जल उपयोग के लिए राष्ट्रीय राशनिंग नीति इत्यादि। साथ ही के. एल. राव (1957)द्वारा सुझाए गए नवीन नदी प्रवाह ग्रिड सिस्टम का अनुकरण एवम् अनुसंधान कर हिमालियन एवम् अन्य नदियों को मोड़ कर देश के आन्तरिक जल न्यून वाले सम्भागों की ओर उनके जल को ले जाया जा सकता है। सम्प्रति देश की समस्त नदियों के जल का 25 प्रतिशत भाग ही काम में आता है। शेष 75 प्रतिशत जल समुद्र में गिर कर सारा खारा हो जाता है। नदियों के मार्ग बदलना आधुनिक तकनीकी कौशल में कोई असम्भव कार्य नहीं है। केवल उत्तम राष्ट्रीय चरित्र के साथ दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ ब्रह्मपुत्र नदी में ही इतना पानी व्यर्थ बहता है कि उसके 10 प्रतिशत पानी को भारत भूमि के मध्य से गुजरने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो देश के समस्त जल संकट दूर हो जाएंगे। भारतवर्ष जैसे देश में नदियों के भागों को मनोवांच्छित दिशा में प्रवाहित करवाने की परम्परा कोई नयी अवधारणा भी तो नहीं हैं। ऐतिहासिक सत्य के अनुसार महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा गंगासिंह जी का उदाहरण भी हमारे समक्ष है जिन्होंने सिन्धु नदी प्रवाह से एक नयी नदी (राजस्थान नहर) का निर्माण कर थार के प्यासे मरुस्थल तक हिमालय का पानी ले आये जो निश्चय ही अनुकरणीय है। Read More जल सत्याग्रह पर राष्ट्रीय सम्मेलन [image: राष्ट्रीय सम्मेलन]*राष्ट्रीय सम्मेलन* 25-26 जून को भोपाल में वाटर डाइजेस्ट जो जल उद्योगों के लिए एक मीडिया कंपनी के रूप में काम कर रहा हैं। वाटर डाइजेस्ट, दैनिक भास्कर प्रकाशन समूह के सहयोग से जल पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन कर रहा हैं। इसके साथ ही भास्कर का जल सत्याग्रह अभियान अब पानी से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों और उनके हल के लिए विचार-विमर्श व सुझावों का मंच बनकर उभर रहा है। इस प्रयास को आग बढ़ाते हुए भास्कर फाउंडेशन 25-26 जून को भोपाल में जल और उसकी महत्ता पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर रहा है। होटल नूर-उस-सबाह में आयोजित होने वाले इस सम्मेलन का उद्घाटन संसदीय कार्य एवं जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल करेंगे। जल संरक्षण पर केंद्रित इस आयोजन में जल Read More वर्षा आधारित क्षेत्रों को भगवान भरोसे छोड़ते हुए, बारिश के उपहार की उपेक्षा वेब/संगठन: SANDRP Author: हिमांशु ठक्कर भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 1410 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य क्षेत्र में से मोटे तौर पर 810 लाख हेक्टेअर क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसके अलावा 600 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य सिंचित इलाकों में से करीब 370-380 लाख हेक्टेअर भूजल द्वारा सिंचित है। अन्य करीब 50-90 लाख हेक्टेअर इलाका लघु सतही जल योजनाओं से सिंचित होता है, जो कि अनिवार्य तौर पर जल संरक्षण योजनाएं हैं। सिंचित इलाकों की ये श्रेणियां मूलतः किसी तरीके से वर्षा पर ही निर्भर हैं। भूजल रिचार्ज का प्राथमिक स्रोत वर्षाजल है और लघु सतही जल योजनाएं भी तभी भरती हैं जब बारिश होती है। इसका मतलब यह हुआ कि 1410 लाख शुद्ध कृषि योग्य इलाकों में से 1240-1260 लाख हेक्टेअर को अनिवार्य रूप से वर्षा आधारित क्षेत्र कहा जा सकता है, जो कि कुल शुद्ध कृषि योग्य इलाकों का 89 फीसदी होता है। अब यदि हम केन्द्र एवं राज्य सरकार की जल संसाधनों या कृषि क्षेत्रों में नी Read More -- Minakshi Arora Chairperson Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Tue Jun 15 12:45:50 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 15 Jun 2010 07:15:50 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KS+4KSn4KS/4KSV4KS+4KSwIOCkueCliCDgpKrgpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KS14KSw4KSj?= Message-ID: जनाधिकार है पर्यावरण वेब/संगठन: pravakta com Author: जगदीश्‍वर चतुर्वेदी आज समय की मांग है कि विश्व के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए, जो मानव जाति की एकता, समाज और प्रकृति में समन्वय के सिध्दान्त पर आधारित हो। विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के ‘अधिकार’ को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ‘ पृथ्वी’ पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं। ‘पृथ्वी’ को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी ‘अपनी संपत्ति’ नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को ‘अपनी संपत्ति’ मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे। उल्लेखनीय है कि भारतीय कानून प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति के अधिकार के दायरे में रखता है। आज दुनिया में 200 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय कानून हैं। 600 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते हो चुके हैं। 150 से ज्यादा क्षेत्रीय कानून हैं।ये ज्यादातर यूरोपीय देशों में हैं। भारत ने समस्त अंतर्राष्ट्रीय कानूनों पर दस्तखत किए हैं और उनकी संगति में प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कानूनों को बदला है। Read More सिन्धु नदी तंत्र और राजस्थान Source: मरुधरा अकादमी, 2009 Author: लक्ष्मी शुक्ला जिस गति से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है, वह निश्चय ही राष्ट्रीय विकास नीति निर्धारकों के समक्ष एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है और समय रहते हुए जल नियोजन के लिए सटीक प्रयास नहीं किए गये तो राष्ट्रीय विकास गति मन्थर पड़ जाएगी, यद्यपि यह निश्चित है कि बदली हुई पर्यावरणीय दशाओं के कारण समाप्त हुए भू-जल स्रोतों का पुनर्भरण तो नहीं हो सकता किन्तु जल की खपत को नियंत्रित कर उसके विकल्प तलाशे जा सकते हैं, जैसे कठोर जनसंख्या नियंत्रण, शुष्क-कृषि पद्धतियां एवम् जल उपयोग के लिए राष्ट्रीय राशनिंग नीति इत्यादि। साथ ही के. एल. राव (1957)द्वारा सुझाए गए नवीन नदी प्रवाह ग्रिड सिस्टम का अनुकरण एवम् अनुसंधान कर हिमालियन एवम् अन्य नदियों को मोड़ कर देश के आन्तरिक जल न्यून वाले सम्भागों की ओर उनके जल को ले जाया जा सकता है। सम्प्रति देश की समस्त नदियों के जल का 25 प्रतिशत भाग ही काम में आता है। शेष 75 प्रतिशत जल समुद्र में गिर कर सारा खारा हो जाता है। नदियों के मार्ग बदलना आधुनिक तकनीकी कौशल में कोई असम्भव कार्य नहीं है। केवल उत्तम राष्ट्रीय चरित्र के साथ दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ ब्रह्मपुत्र नदी में ही इतना पानी व्यर्थ बहता है कि उसके 10 प्रतिशत पानी को भारत भूमि के मध्य से गुजरने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो देश के समस्त जल संकट दूर हो जाएंगे। भारतवर्ष जैसे देश में नदियों के भागों को मनोवांच्छित दिशा में प्रवाहित करवाने की परम्परा कोई नयी अवधारणा भी तो नहीं हैं। ऐतिहासिक सत्य के अनुसार महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा भागीरथ ने गंगा के मार्ग को स्वयं निर्धारित किया था तो 19वीं शदी के अन्तर्गत महाराजा गंगासिंह जी का उदाहरण भी हमारे समक्ष है जिन्होंने सिन्धु नदी प्रवाह से एक नयी नदी (राजस्थान नहर) का निर्माण कर थार के प्यासे मरुस्थल तक हिमालय का पानी ले आये जो निश्चय ही अनुकरणीय है। Read More जल सत्याग्रह पर राष्ट्रीय सम्मेलन [image: राष्ट्रीय सम्मेलन]*राष्ट्रीय सम्मेलन* 25-26 जून को भोपाल में वाटर डाइजेस्ट जो जल उद्योगों के लिए एक मीडिया कंपनी के रूप में काम कर रहा हैं। वाटर डाइजेस्ट, दैनिक भास्कर प्रकाशन समूह के सहयोग से जल पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन कर रहा हैं। इसके साथ ही भास्कर का जल सत्याग्रह अभियान अब पानी से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों और उनके हल के लिए विचार-विमर्श व सुझावों का मंच बनकर उभर रहा है। इस प्रयास को आग बढ़ाते हुए भास्कर फाउंडेशन 25-26 जून को भोपाल में जल और उसकी महत्ता पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर रहा है। होटल नूर-उस-सबाह में आयोजित होने वाले इस सम्मेलन का उद्घाटन संसदीय कार्य एवं जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल करेंगे। जल संरक्षण पर केंद्रित इस आयोजन में जल Read More वर्षा आधारित क्षेत्रों को भगवान भरोसे छोड़ते हुए, बारिश के उपहार की उपेक्षा वेब/संगठन: SANDRP Author: हिमांशु ठक्कर भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 1410 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य क्षेत्र में से मोटे तौर पर 810 लाख हेक्टेअर क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसके अलावा 600 लाख हेक्टेअर शुद्ध कृषि योग्य सिंचित इलाकों में से करीब 370-380 लाख हेक्टेअर भूजल द्वारा सिंचित है। अन्य करीब 50-90 लाख हेक्टेअर इलाका लघु सतही जल योजनाओं से सिंचित होता है, जो कि अनिवार्य तौर पर जल संरक्षण योजनाएं हैं। सिंचित इलाकों की ये श्रेणियां मूलतः किसी तरीके से वर्षा पर ही निर्भर हैं। भूजल रिचार्ज का प्राथमिक स्रोत वर्षाजल है और लघु सतही जल योजनाएं भी तभी भरती हैं जब बारिश होती है। इसका मतलब यह हुआ कि 1410 लाख शुद्ध कृषि योग्य इलाकों में से 1240-1260 लाख हेक्टेअर को अनिवार्य रूप से वर्षा आधारित क्षेत्र कहा जा सकता है, जो कि कुल शुद्ध कृषि योग्य इलाकों का 89 फीसदी होता है। अब यदि हम केन्द्र एवं राज्य सरकार की जल संसाधनों या कृषि क्षेत्रों में नी Read More -- Minakshi Arora Chairperson Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Wed Jun 16 18:25:56 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 16 Jun 2010 12:55:56 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS24KSo4KS+4KSw4KWN4KSlIOCkluCkrA==?= =?utf-8?b?4KSwIC0g4KSq4KSC4KSc4KS+4KSsIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJo=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLLgpYvgpIIg4KSu4KWH4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSw4KWH4KSo4KS/4KSv4KSu?= In-Reply-To: References: Message-ID: पंजाब के बच्चों के बालों में यूरेनियम Author: मीनाक्षी अरोड़ा [image: यूरेनियम का कहर]*यूरेनियम का कहर*16 जून 2010 फरीदकोट। फरीदकोट के मंदबुद्धि संस्थान “बाबा फ़रीद केन्द्र” के 149 बच्चों के बालों के नमूनों में यूरेनियम सहित अन्य सभी हेवी मेटल, सुरक्षित मानकों से बहुत अधिक पाये गये हैं। यह निष्कर्ष जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब द्वारा पंजाब के बच्चों के बालों के नमूनों के गहन परीक्षण के पश्चात सामने आया है। मस्तिष्क की विभिन्न गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त लगभग 80% बच्चों के बालों में घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ यूरेनियम की पुष्टि हुई है और इसका कारण भूजल और पेयजल में यूरेनियम का होना माना जा रहा है। रविवार, 13 जून 2010 को फ़रीदकोट में एक प्रेस वार्ता में जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब की रिपोर्ट रखी गई। प्रेस वार्ता खेती विरासत मिशन की ओर से बुलाई गयी थी। प्रेस वार्ता में यह बात बताई गई कि समूचे क्षेत्र के पानी के नमूनों में यूरेनियम की मात्रा मानक स्तर (Maximum Permissible Counts) से काफ़ी अधिक है। पंजाब के कई क्षेत्रों, विशेषकर मालवा इलाके में भूजल और पेयजल में यूरेनियम पाये जाने की पुष्टि हो गई है। इस खतरनाक “भारी धातु” (Heavy Metal) के कारण पंजाब में छोटे-छोटे बच्चों को दिमागी सिकुड़न और अन्य विभिन्न तरह की जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ रहा Read More यह भी पढ़ें कीड़ों की मौत मरते पंजाब के किसान पंजाब के पानी में यूरेनियम भटिण्डा में कैंसर के लिये यूरेनियम भी एक कारण हो सकता है कीटनाशकों के शिकार होते पंजाब के किसान मालवा क्षेत्र में महामारी बन रहा कैंसर -- सिराज केसर ब्लू-ग्रीन मीडिया 47 प्रताप नगर, इंडियन बैंक के पीछे कीड्स होम के ऊपर, मयूर विहार फेज 1, दिल्ली - 91 मो- 9211530510 hindi.indiawaterportal.org http://twitter.com/hindiwater http://groups.google.com/group/hindiwater -- Minakshi Arora Chairperson Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Wed Jun 16 18:25:56 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 16 Jun 2010 12:55:56 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS24KSo4KS+4KSw4KWN4KSlIOCkluCkrA==?= =?utf-8?b?4KSwIC0g4KSq4KSC4KSc4KS+4KSsIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJo=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLLgpYvgpIIg4KSu4KWH4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSw4KWH4KSo4KS/4KSv4KSu?= In-Reply-To: References: Message-ID: पंजाब के बच्चों के बालों में यूरेनियम Author: मीनाक्षी अरोड़ा [image: यूरेनियम का कहर]*यूरेनियम का कहर*16 जून 2010 फरीदकोट। फरीदकोट के मंदबुद्धि संस्थान “बाबा फ़रीद केन्द्र” के 149 बच्चों के बालों के नमूनों में यूरेनियम सहित अन्य सभी हेवी मेटल, सुरक्षित मानकों से बहुत अधिक पाये गये हैं। यह निष्कर्ष जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब द्वारा पंजाब के बच्चों के बालों के नमूनों के गहन परीक्षण के पश्चात सामने आया है। मस्तिष्क की विभिन्न गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त लगभग 80% बच्चों के बालों में घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ यूरेनियम की पुष्टि हुई है और इसका कारण भूजल और पेयजल में यूरेनियम का होना माना जा रहा है। रविवार, 13 जून 2010 को फ़रीदकोट में एक प्रेस वार्ता में जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब की रिपोर्ट रखी गई। प्रेस वार्ता खेती विरासत मिशन की ओर से बुलाई गयी थी। प्रेस वार्ता में यह बात बताई गई कि समूचे क्षेत्र के पानी के नमूनों में यूरेनियम की मात्रा मानक स्तर (Maximum Permissible Counts) से काफ़ी अधिक है। पंजाब के कई क्षेत्रों, विशेषकर मालवा इलाके में भूजल और पेयजल में यूरेनियम पाये जाने की पुष्टि हो गई है। इस खतरनाक “भारी धातु” (Heavy Metal) के कारण पंजाब में छोटे-छोटे बच्चों को दिमागी सिकुड़न और अन्य विभिन्न तरह की जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ रहा Read More यह भी पढ़ें कीड़ों की मौत मरते पंजाब के किसान पंजाब के पानी में यूरेनियम भटिण्डा में कैंसर के लिये यूरेनियम भी एक कारण हो सकता है कीटनाशकों के शिकार होते पंजाब के किसान मालवा क्षेत्र में महामारी बन रहा कैंसर -- सिराज केसर ब्लू-ग्रीन मीडिया 47 प्रताप नगर, इंडियन बैंक के पीछे कीड्स होम के ऊपर, मयूर विहार फेज 1, दिल्ली - 91 मो- 9211530510 hindi.indiawaterportal.org http://twitter.com/hindiwater http://groups.google.com/group/hindiwater -- Minakshi Arora Chairperson Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From mediamorcha at gmail.com Sat Jun 19 12:22:33 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Sat, 19 Jun 2010 06:52:33 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: pl. see......www.mediamorcha.co.in In-Reply-To: References: Message-ID: प्रिय मित्र नमस्कार *अब हमारी मीडियामोरचा वेबसाइट पर आ गयी है. कृपया इसे देखें और अपनी प्रतिक्रिया दें . साथ ही इस विषय में रूचि रखने वालों से हम अपनी पत्रिका के लिए आलेख, पुस्तक समीक्षा या मीडिया से सम्बंधित कहानी कवितावों की भी अपेक्षा रखते है . कृपया अपना सहयोग दें .* धन्यवाद् लीना संपादक मीडियामोरचा * www.mediamorcha.co.in* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From filmashish at gmail.com Fri Jun 25 12:44:32 2010 From: filmashish at gmail.com (ashish k singh) Date: Fri, 25 Jun 2010 12:44:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Latest at NDFS In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: ndfs desk Date: Fri, Jun 25, 2010 at 12:19 PM Subject: Latest at NDFS To: alok bhalla hI, Pl visit http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/ to read the folowing, 1.Censor Board denies certificate to 'Flames of the Snow' 2.हिंदी का 'जलसा' 3.ये कौन सी राजनीति है?- by Shailendra Kumar and post your comments. best, NDFS Desk -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Wed Jun 30 01:07:10 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Wed, 30 Jun 2010 01:07:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWL?= =?utf-8?b?LiDgpKrgpYHgpLDgpYHgpLfgpYvgpKTgpY3gpKTgpK4g4KSF4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSyIOCkleClgCDgpJXgpL/gpKTgpL7gpKwgJ+CkhQ==?= =?utf-8?b?4KSV4KSlIOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpKrgpY3gpLDgpYfgpK4g4KSV?= =?utf-8?b?4KWALSDgpJXgpKzgpYDgpLAg4KSV4KWAIOCkleCkteCkv+CkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkieCkqOCkleCkviDgpLjgpK7gpK8n?= Message-ID: पुस्तक: अकथ कहानी प्रेम की- कबीर की कविता और उनका समय लेखक: प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन मूल्य: 500 रुपए (सजिल्द), 250 रुपए (अजिल्द) पृष्ठ: 455 बहुत कम किताबों के साथ ऐसा होता है कि वह छपने के साथ ही व्यापक चर्चा का केंद्र बन जाती हैं. प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर किताब ऐसी ही कुछ किताबों में एक है जो उनके कबीर को पढ़ते-गुनते विगत तीस सालों के निरंतर शोध का परिणाम है जिसे वह 'जिज्ञासा-यात्रा' की संज्ञा देते हैं. यह यात्रा कबीर की कविता के ज़रिये उनकी आध्यात्मिकता, प्रेम-संवेदना और सामाजिकता को समझने की कोशिश करती है. इस यात्रा में देशज मनीषा और औपनिवेशिक हस्तक्षेप की समानान्तर पड़ताल राह बनाती चलती है. यात्रा के अंत तक कबीर की विराट छवि उभरती है, वहीं अब तक स्वार्थ, सुविधा और संकीर्णता के संकुचित सांचे में ढाली गयीं कबीर की कई प्रतिमाएं ढह जाती हैं अपने ढालने वालों के साथ. आलोचना संस्कृति का अनिवार्य तत्व है. कबीर अपने समय को पढ़ रहे थे, लेखक कबीर और उनके समय को पढ़ रहा है. इस प्रक्रिया में वह अपने यानि हम सबके समय को भी पढ़ता है. इस तरह वह इस सांस्कृतिक कार्य को साधते हुए संस्कृति को भी पढ़ता है. इसीलिए यह किताब साहित्य के विद्यार्थियों-अनुरागियों के लिये ही नहीं, सामाजिक विज्ञान और सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े लोगों के लिये भी महत्वपूर्ण हो जाती है. किताब में दस अध्याय हैं. पहले अध्याय में प्रो अग्रवाल ने कबीर के अध्ययन की समस्याओं को रेखांकित किया है. उनकी दृढ़ मान्यता है कि कबीर और उनके समय को औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के षड्यंत्र तथा उससे बनी बौनी बौद्धिकता के भरोसे नहीं, बल्कि देशभाषा के स्रोतों और तत्कालीन समाज के रोज़मर्रा के बोध से ही समझा जा सकता है. दूसरा अध्याय इसी गुत्थी को सुलझाता है. लेखक ने विभिन्न अध्ययनों, शोधों और स्रोतों के आधार पर यह स्थापित किया है कि औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड और इससे प्रभावित-आतंकित बौद्धिकता ने नगरीकरण और व्यापारिक गतिविधियों से भरा-पूरा और अपने समकालीन समाजों से कहीं अधिक समृद्ध और गतिमान समाज को जड़ माना जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल उलट थी. उन्होंने साबित किया है कि भक्ति के व्यापक लोकवृत और व्यापार के विश्वव्यापी विस्तार ने देशज आधुनिकता की निर्माण-प्रक्रिया तेज़ हो रही थी जिसे औपनिवेशिक सत्ता ने बाद में अवरुद्ध कर दिया. यूरोपीय आधुनिकता के ही एकमात्र आधुनिकता होने के दावे को पिछले कुछ समय से ठोस चुनौती मिल रही है. देश-विदेश के विद्वानों के निष्कर्षों और अपने अध्ययन और तर्कों से लेखक ने बताया है कि भारतीय समाज को जड़ कहे बिना यूरोपीय श्रेष्ठता के दंभ और उसके औपनिवेशिक लूट को न तो वैचारिक आधार मिल सकता था और न ही उनके व्यापार के लिये फ़ायदेमंद ज़मीन. यह अध्याय हमें अपने इतिहास को सही रूप में समझने के लिये नयी दृष्टि और औज़ार देता है. तीसरे अध्याय में कबीर के जीवन-वृत्त की पड़ताल है. उनकी कविता और उनसे जुड़ी किंवदंतियों के ज़रिये लेखक कबीर की जीवन यात्रा का मार्मिक वर्णन प्रस्तुत करते हैं. कबीर मगहर में हैं और काशी की याद में तड़प रहे हैं. यह वही कबीर हैं जो यह कह कर काशी छोड़ आए थे कि अगर काशी में मरने-मात्र से स्वर्ग मिलेगा तो फिर इतनी भक्ति का क्या मतलब. उसी कबीर की काशी के लिये तड़प कबीर के व्यक्तित्व का नया आयाम खोलती है जिसमें आत्म-भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साहस भी है. ऐसा ही कुछ वह तब कर रहे हैं जब वह हिन्दुओं और मुसलमानों को फूल देकर हमेशा के लिये विदा हो जाते हैं. इसी अध्याय में प्रो. अग्रवाल उन मान्यताओं को ख़ारिज़ करते हैं जिनमें कहा जाता है कि कबीर की आवाज़ हाशिये की आवाज़ है. ऐसे आदमी की आवाज़ हाशिये की नहीं हो सकती जिसकी शिकायत पंडित-मौलवी बादशाह से करें या जिसके चमत्कारों की कथा आज भी कही-सुनी जाती है. जहाँ इस अध्याय में प्रो अग्रवाल अत्यंत रूमानी अंदाज़ में कबीर-कथा कर रहे हैं, वहीं पिछले अध्याय के तेवर भी बरकरार हैं. तथ्यों-तर्कों के बगैर कुछ भी लिख-पढ़ देने वाले विद्वानों की ख़बर लेना वह नहीं भूलते. अगला अध्याय कबीर की रचनाओं-उपरचनाओं की बहस से मुखातिब है और पांचवें अध्याय में रामानंद और कबीर के गुरु-शिष्य संबंधों का अध्ययन है. इन दो अध्याओं के बाद लेखक कबीर की साधना और भक्ति का विश्लेषण करते हुए साबित करता है कि कबीर को धर्मगुरु, अवतार या पंथ-प्रवर्तक के रूप में देखना उनके साथ अन्याय है. कबीर तो संगठित धर्मों की आलोचना भर नहीं कर रहे थे, बल्कि वह तो धर्म-मात्र के विक्लप की खोज में थे तथा उनकी भक्ति भागीदारी और उच्च मानवीय आदर्शों के पक्ष में खड़ी थी. प्रो. अग्रवाल इस संवेदना और ज्ञान-मीमांसा को तत्कालीन परिवेश में फलित देशज आधुनिकता के घटक के तौर पर देखते हैं और आज के विमर्श को उससे संवाद की सलाह देते हैं. कबीर के नारी-विषयक विचार पसोपेश में डालते हैं. एक तरफ नारी-निंदक कबीर हैं जो साधक को नारी से बचने का निदेश करते हैं, वहीं दूसरी तरफ वह स्वयं नारी बनकर राम का मनुहार करते हैं और वह भी कामपरक और दैहिक शब्दों का सहारा लेकर. प्रो. अग्रवाल इधर-उधर का तर्क देकर या आँख फेर कर इस द्वंद्वात्मक स्थिति से कबीर को बचाने की कोशिश नहीं करते, बल्कि इसे समझने की कोशिश करते हैं. इस कोशिश में वह दो महत्वपूर्ण बात कहते हैं - संस्कारजनित आदर्शों के कारण नारी-निंदा का आग्रह है जो उनकी सीमा है, लेकिन उनकी बेचैनी कविता के अपने स्वभाव और पुरुष शरीर में स्त्रीत्व के अंश होने के चलते उभयलिंगी होने के बोध के कारण उनकी नकारात्मकता से अलहदा प्रेम रचित करती है जिसमें कबीर स्त्री हो जाते हैं. इतना ही नहीं, जिन कारणों से वह साधकों को वर्जित करते हैं, ठीक वही दैहिक संवेदना और इच्छा उनकी कविता में मुखरित होती है. लेखक इस कड़ी में कबीर की प्रेमधारणा में प्रेम की वैचारिकी के बीज देखते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को गति दे सकती है. आखिरी अध्याय कबीर की कविता पर विमर्श है. इसमें कबीर को कवि मानकर पढ़ने की 'जिद्द' को समझाने के साथ प्रो अग्रवाल उनके 'सुनो भई साधो' संबोधन का निहितार्थ समझाते हैं और उलटबांसी के बारे में लिखते हुए कहते हैं- कविता का अर्थ समग्रता में ही होता है. इसीलिए वह कबीर की कविता में बार बार आए घर और मृत्यु पर विचार करना नहीं भूलते. परिशिष्ट में कई पद और साखी दिए गए हैं जिन्हें इस किताब को पढ़ लेने के बाद पढ़ना एक अलग ही अनुभूति देता है. निःसंदेह यह किताब कबीर को एक नयी रौशनी में समझने की दृष्टि तो देती ही है, साथ ही अबतक की हमारी ऐतिहासिक समझदारी को भी झकझोर देती है. कबीर के बहाने यह हमारे समय की खोज भी है. यह खोज प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल के लिये भी पूरी नहीं हुई है. इसे तो वह 'कबीर से संवाद का एक दौर' कहते हैं. गाँधी के 'हिंद-स्वराज' और गुरुदेव के 'गोरा' के सौ साल बाद आयी इस किताब को पढ़ना अपने आप से संवाद का एक दौर भी है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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