From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jul 1 19:49:37 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 1 Jul 2010 19:49:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KSy4KWH4KSCIOCkleCkueClgOCkgiDgpJTgpLAg4KS54KWI?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: *मुश्किलें कहीं और हैं*** * * इस देश में धर्म का महत्व है, पर जाति उसपर हावी है। उसका महत्व बहुत ज्यादा है। इस देश के किसी भी गांव में तफरीह के दौरान आप किसी का परिचय पूछेंगे तो वह जाति को कहीं अधिक महत्व देता मालूम पड़ेगा। राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी इस बाबत विस्तार से कह चुके हैं। इस पंक्ति का लेखक भी महसूस कर रहा है कि लोग जाति के रास्ते समाज से जुड़ने का सरल रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। उसके लिए धर्म तो बाद की चीज है। इस देश में जो राजनेता जाति को नहीं जोड़ पाए, और उसकी राजनीति नहीं कर पाए, वे धर्म की राजनीति करने लगे। आप देख लें बसपा प्रमुख मायावती को या फिर शिबू सोरेन। उन्हें राजनीति के लिए धर्म की जरूरत नहीं है। पर हां, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को धर्मनिरपेक्ष बने रहना है, क्योंकि उनमें विचार और जाति के स्तर पर अपनी जाति को जोड़े रखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। भाजपा जिस हिंदुत्व के रास्ते चलने का दवा करती है, वह बड़ी चीज है। हिंदुत्व के उस शिखर तक पहुंचना भाजपा नेताओं के बूते की बात नहीं है। इससे भ्रम पैदा हो रहा है। यहां तो हिंदू के लिए सूफी आंदोलन का उतना ही महत्व है, जितना कि शैव और वैष्णव आंदोलन का है। उन्हें हाजी-अली से भी उतना ही लगाव है जितना महालक्ष्मी मंदिर से। तो यह तय है कि इस देश को वैसा हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता जैसा कुछेक लोग चाहते है। खैर, जिन्हें बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव याद है, उन्हें स्मरण होगा कि तब चुनाव प्रचार के समय कहा जा रहा था कि जदयू-भाजपा गठबंधन को वोट न दें। यदि वे जीतते हैं तो सूबे में अल्पसंख्यकों का रहना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक चुनाव प्रचार के दौरान इस ओर संकेत कर रहे थे। पांच साल बीत गए। अब अगला चुनाव होने वाला है। स्थिति जो बनी वह सबके सामने है। यकीनन, वहां जो कुछेक विकास के काम शुरू हुए, उस दौरान नारियल भी फोड़े गए। पर कोई बवेला नहीं मचा। दरअसल मुश्किलें तो कहीं और पैदा हो रही हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Fri Jul 2 20:37:48 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Fri, 2 Jul 2010 20:37:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpuCksOCkrOCkvuCksCDgpKrgpLAg4KSG4KSk4KSC4KSVIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkueCksA==?= Message-ID: http://www.visfot.com/index.php/dharma/3654.html अजमेर के महान सूफ़ी हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती ने लाहौर के सूफ़ी दाता गंज बख्श साहिब के बारे में कहा था - "गंज बख्श-ए-फ़ैज़-ए-आलम, मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा/ नक़ीसान रा पीर-ए-कामिल, कामिलान रा रहनुमा". विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के माननेवाले लोगों, राजाओं-नवाबों और सूफ़ी-संतों को यही भरोसा पिछले एक हज़ार साल से दाता गंज बख्श की मज़ार पर श्रद्धा अर्पित करने के लिये लाता रहा है. दाता गंज बख्श का पूरा नाम अबुल हसन अली बिन उस्मान बिन अबी अली अल-जुल्लाबी अल-हुजविरी अल- ग़ज़नवी था. उनकी पैदाइश अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी में 1000 ईस्वी में हुई थी और 1063 ईस्वी (कुछ स्रोतों के अनुसार 1071 और 1074) में लाहौर में उनका देहांत हुआ. आध्यात्मिक क्षुधा की शांति के लिये उन्होंने अरब, तुर्की, ईरान, इराक, सीरिया आदि देशों की यात्रा की और अनेक सूफियों और दरवेशों से मिले. इनका विस्तृत विवरण उनकी किताब 'कश्फ़-उल-महजूब' में मिलता है. उनकी गिनती सूफियों के जुनैदी चिश्ती सिलसिले में की जाती है. अपने पीर अबुल फज़ल के आदेश से इस्लाम के पवित्र संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिये 1041 ईस्वी में लाहौर आए और वहाँ रावी नदी के किनारे भाटी घाट के पश्चिम में एक टीले पर उन्होंने मस्जिद और ख़ानक़ाह की स्थापना की. कहा जाता है कि इस्लामी विद्वानों और मुल्लाओं ने मस्जिद के दरवाज़े को लेकर विवाद खड़ा कर दिया था. उनका कहना था कि दरवाज़ा दक्षिण की तरफ है जबकि क़ायदे से उसे काबा की ओर होना चाहिए. सूफ़ी ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिये सबको बुलाया और पूछा कि काबा किधर है. लोगों ने देखा कि दरवाज़े के सामने सचमुच में काबा था. इस चमत्कार ने दूर-दूर तक उनका नाम फैला दिया. उनके शुरूआती दिनों के बारे में एक और कहानी मशहूर है. उस समय लाहौर ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के अधीन था जिसका तत्कालीन गवर्नर एक हिन्दू राजा राय राजू था. वह लोगों से दूध की जबरन वसूली करता था. राय राजू को दूध देने जा रही एक औरत से दाता गंज बख्श ने थोड़ा सा दूध माँगा. औरत की हिचकिचाहट देखकर उन्होंने कहा कि उसकी गाय अब से ढेर सारा दूध दिया करेगी. औरत ने बर्तन सूफ़ी को दे दिया. सूफ़ी ने थोड़ा सा दूध पिया और बाकी नदी में डाल दिया. औरत ने घर जाकर देखा कि गाय के थन भरे हुए हैं. उसने तुरंत दूध निकालना शुरू किया लेकिन गाय का थन भरा का भरा ही था. जल्दी ही शहर में यह बात फैल गयी और लोग दूध लेकर दाता गंज बख्श के पास आने लगे. इसकी जानकारी जब राय राजू को मिली तो उसने इसकी जांच के लिये अपने आदमी भेजे लेकिन वे वापस लौट के नहीं गए. इसपर उसने और लोगों को भेजा. वे भी वापस नहीं गए. गुस्से से भरा गवर्नर ख़ुद ही आया और सूफ़ी को चमत्कार करने की चुनौती दे डाली. दाता ने यह कहकर मना कर दिया कि वह कोई करतबबाज़ नहीं हैं. इसपर राय राजू अपने चमत्कार की शक्ति दिखाते हुए उड़ने लगा और सूफ़ी को कहा कि वह उसे पकड़ कर दिखाए. इस पर सूफ़ी ने अपनी जूती को आदेश दिया कि वह गवर्नर को नीचे लाये. कहते हैं कि उड़ती जूतियाँ राय राजू के सर पर पड़ने लगीं और जल्दी ही वह ज़मीन पर आ गया. वह दाता गंज बख्श के पैरों पर गिर पड़ा और उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया. दाता ने उसका नाम रखा शेख अहमद हिन्दी और वह उनके सबसे नजदीकी शिष्यों में एक था. उन्होंने सूफ़ी सिद्धांतों और अपने उपदेशों को किताबों की श़क्ल दी. कहा जाता है कि दाता ने दस किताबें लिखीं, लेकिन दुर्भाग्य से आज सिर्फ़ एक किताब ही उपलब्ध है. कश्फ़-उल-महजूब नामक यह किताब सूफ़ी सिद्धांतों और व्यवहार की विस्तृत जानकारी देती है. इसमें उदारता, करूणा, दान, प्रार्थना, प्रेम, शुचिता आदि के पवित्र सन्देश हैं और साथ ही भ्रामक आध्यात्मिकता और ढोंग से बचने की हिदायतें भी बताई गई हैं. इसमें सूफ़ी संप्रदाय के इतिहास और विचारधारा की जानकारी के साथ कई महत्वपूर्ण सूफियों के सन्दर्भ भी मिलते हैं. अबुल कासिम कुशैरी की सूफी संप्रदाय पर किताब अर-रिसाला अल-कुशैरिया के साथ दाता गंज बख्श की किताब सूफी सम्प्रदाय को जानने-समझने के लिये अनिवार्य किताब है. कुशैरी दाता के समकालीन थे. दाता की दरगाह हमेशा से श्रद्धालुओं को खींचती रही है. ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती ने 1165 ईस्वी में वहाँ दो हफ़्तों तक प्रवास किया था. मुग़ल शहज़ादा दारा शिकोह, जो सूफ़ी संप्रदाय से बहुत प्रभावित था और उच्च धार्मिक-आध्यात्मिक आदर्शों का पालन करता था, ने दाता के मज़ार की कई बार यात्रा की थी. ऐतिहासिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि दरगाह और मस्जिद की लगातार मरम्मत और विस्तार किया जाता रहा है. बादशाह अकबर ने मज़ार के दक्षिण और उत्तर में विशाल दरवाजों और दाता की क़ब्र के आसपास के फ़र्श का निर्माण करवाया. औरंगज़ेब के शासनकाल के तीसरे साल रावी नदी में आई भारी बाढ़ में मस्जिद तबाह हो गयी थी. बादशाह के आदेश से कुछ ही दिनों में उसी नींव पर एक सुंदर इमारत खड़ी कर दी गयी. उसी समय नदी के किनारे एक तटबंध भी बनाया गया जिसके कारण बाद के वर्षों में मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुँच सका. महाराजा रणजीत सिंह दरगाह के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे और समय-समय पर उसकी मरम्मत कराते रहते थे. वह हर साल उर्स में दस हज़ार रुपये का दान भी करते थे. यह सिलसिला महारानी चाँद कौर के समय भी जारी रहा. महारानी ने क़ब्र के ऊपर एक खूबसूरत छत भी बनवाई जिसके नीचे रात-दिन पवित्र कुरान का पाठ होता रहता है. 1860 में गुलज़ार शाह नामक एक कश्मीरी ने मस्जिद के ऊपर एक बड़े गुम्बद और दोनों तरफ दो छोटे गुम्बदों का निर्माण करवाया. 1868 में हाजी मुहम्मद नूर ने दाता की मज़ार के ऊपर गुम्बद बनवाया. इनके अतिरिक्त छोटे-बड़े निर्माण कार्य होते रहते थे. 1921 में ग़ुलाम रसूल की निगरानी में मस्जिद के भवन को भव्य स्वरुप दिया गया जो दुर्भाग्य से 1960 के भूकंप में नष्ट हो गया. उसी साल पंजाब के सूबाई वक्फ़ विभाग ने मस्जिद और मज़ार को अपने नियंत्रण में लिया था. श्रद्धालुओं की लगातार बढ़ती संख्या ने ज़िया-उल हक़ पाकिस्तानी सरकार को इस इमारत के विस्तार की योजना बनाने के विवश कर दिया. दो चरणों की योजना का पहला हिस्सा उन्हीं के समय पूरा हुआ जिसमें मस्जिद को मूल स्थान से कुछ पश्चिम में स्थानांतरित कर दिया गया. दूसरे चरण को लगभग पूरा कर लिया गया है जिसमें कई छोटे भवन हैं और कुछ इमारतों को दोमंजिला बना दिया गया है. इस विस्तार की एक ख़ास बात यह है कि उस जगह को ठीक से सजा दिया गया है जहाँ हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती रुके हुए थे. नीले टाइलों से सजा दाता गंज बक्श मज़ार का अत्यंत सुंदर गुम्बद प्रार्थना-कक्ष के ऊपर है. दोनों तरफ को लम्बी मीनारों के उपरी हिस्से को सोने से मढ़ा गया है. मज़ार के सामने दो दरवाजें हैं जिनमें से एक ईरान के शाह ने दान किया था. इस दरवाज़े में ईरानी शैली में सोने का काम है. इस परिसर के तमाम कमानियों, खम्भों, खिडकियों के फ्रेम नक्क़ाशी किये हुए संगमरमर से बने हैं. पूरी फ़र्श भी संगमरमर की है. मस्जिद का कुल क्षेत्रफल 3,68,150 वर्ग फुट है और यह पाकिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी मस्जिद है. इसमें एक साथ 52 हज़ार से अधिक लोग बैठ सकते हैं. दाता गंज बख्श के पवित्र मस्जिद तथा मज़ार पर दहशतगर्द हमला कर लोगों की जान ले सकते हैं और इमारत को नुकसान पहुंचा सकते हैं लेकिन उन्हें यह ज़रूर समझना चाहिए कि उनकी यह नापाक और कायरतापूर्ण हरकत दाता के पवित्र संदेशों और लोगों में उनके प्रति अटूट विश्वास को नाम-मात्र भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं. गुरुवार की घटना दरअसल इस बात की ताक़ीद है कि सूफ़ी-संतों-बुद्धों की बातों का महत्व आज पहले से कहीं अधिक है और वहीं से एक बेहतर दुनिया की राह निकलती है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun Jul 4 17:37:04 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 4 Jul 2010 06:07:04 -0600 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSq4KSV4KWAIOCkuOClh+CkqOCkviDgpLngpYgg4KSu4KS/4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KSwIOCkmuCkv+CkpuCkguCkrOCksOCkrg==?= Message-ID: *यह आपकी सेना है मिस्टर चिदंबरम* *(और वे इस देश के लोग हैं)* एक तसवीर बहाव को मोड़ सकती है. एक तसवीर, जो एक राष्ट्र को अपनी जड़ता को तोड़ते हुए खुद से पूछने पर मजबूर कर सकती है कि हम बार-बार हो रही ऐसी कितनी आधिकारिक मूर्खताओं को स्वीकार कर सकते हैं और एक विकसित राष्ट्र बनने की खोज में इसे जायज ठहरा सकते हैं और उचित प्रक्रियाओं और मर्यादा को निरंकुश तरीके से नकारने को नजरअंदाज कर सकते हैं. एक तसवीर हमारी आत्मा को जगा सकती है, एक आखिरी झटका, एक फूंक जो किसी सभ्य समाज और एक पूरी तरह बर्बर समाज की मान्यताओं को अलग करनेवाली बारीक लकीर को मिटा सकती है. न्गूयेन न्गोक लोन बहुत कम लोगों को याद हैं. लेकिन यह तसवीर बहुत सारे लोगों को याद है. जिस आदमी- एडी एडम्स -ने इस तसवीर को खींचा था, उसे पुलित्जर पुरस्कार मिला था. इस तसवीर ने एक युद्ध की दिशा को मोड़ दिया था. वह युद्ध था- वियतनाम युद्ध. *ट्रेवर सेल्वम* *और* यह युद्ध हमारे अपने देश में हमारे अपने लोगों के खिलाफ चल रहा है. यह तसवीर हमारे अपने देश की है. एक साल पहले हम लालगढ़ के गांवों में थे, जहां औरतें हमें बता रही थीं कि कैसे वे पहली बार आजादी महसूस कर रही थीं. कि कैसे ब्रिटिश शासनकाल से ही उनके पुरखे गुलामी की जिंदगी जी रहे थे और पहली बार उनकी जिंदगी में ऐसे दिन आए हैं जिनके बारे में किसी से बता सकते थे कि वे अपने दिन और रातें अपने तरीके से गुजार रहे हैं. *पूरा पढ़िए: यह आपकी सेना है मिस्टर चिदंबरम * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From zaighamimam at gmail.com Mon Jul 5 12:01:19 2010 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Mon, 5 Jul 2010 12:01:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KSw4KWN4KSu?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KSq4KSw4KS/4KS14KWH4KS2?= Message-ID: दोस्तों, इंडिया टुडे ने अपने ताज़ा अंक में मेरी किताब दोज़ख़ का रिव्यू छापा है। आप स‌ब पहले भी दीवान पर इस किताब के अलग-अलग जगहों पर छपे रिव्यूज़ पढ़ चुके हैं...कृपया इसे भी देखें। -------------------------------------- धर्म पर भारी परिवेश अनंत विजय शानी के काला जल, राही मासूम रज़ा के आधा गांव, मंजूर एहतशाम के स‌ूखा बरगद, वजाहत के स‌ात आसमान और अब्दुल बिस्मिल्लाह की झीनी झीनी बीनी चदरिया को छोड़ दें तो हिंदी उपन्यासों में मुस्लिम जीवन का चित्रण बेहद कम हुआ है। मुस्लिम युवा मन की बेचैनी या फिर उसके मनोविज्ञान पर युवा पत्रकार स‌ैयद ज़ैगम इमाम का पहला उपन्यास दोज़ख़ इस कमी को पूरा करने की अच्छी कोशिश है। वैस‌े, रचनाकार को जाति या स‌मुदाय विशेष में बांटना उचित नहीं होगा लेकिन अगर कोई स‌माज स‌ाहित्य में हाशिये पर हो तो उस पर तो जमकर विमर्श होना ही चाहिए। यह उपन्यास बनारस की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। उसका नायक अल्लन एक ऎसा किशोर है जिसके लिए धर्म और पाबंदियां बहुत मायने नहीं रखतीं। स‌ुबह उठकर उसके कान में अज़ान और मंदिर की घंटियों की आवाज़ एक स‌ाथ जाती है। मां-बाप की तमाम नसीहतों के बावजूद उसका मन मंदिर में रमता है क्योंकि खेलने के लिए स‌ब वहीं जुटते हैं। इसके पीछे मज़हब स‌े विद्रोह जैसी कोई बात नज़र नहीं आती बल्कि स‌ामने आता है एक ऎसा परिवेश जो मज़हब के नाम पर बांट नहीं बल्कि जोड़ता है। अल्लन की प्रेमिका नीलू उसे मंदिर में मिलती है तो फिर फिर वो मस‌्जिद क्यों जाए। किशोर मन का प्रेम तो स‌ारे बंधनों को ढाह कर स‌िर्फ अपने प्रेम को ही पाना चाहता है। अल्लन मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार स‌े आता है। पिता कस्बे में दुकान चलाकर परिवार को पालते हैं और दोनों बेटों को पढ़ाते हैं। बड़ा बेटा पढ़ लिखकर इतना स‌मझदार हो जाता है कि शादी के बाद अब्बा-अम्मी उसे बोझ लगने लगते हैं। बेहद स‌ामान्य स‌ी परिस्थिति में उपन्यासकार ने परिवार के इस लाडले को अपनी बीवी के हाथों खेलते हुए दिखाया है। बड़े भाई के हाथों मां-बाप को जलील होता देखकर अल्लन के मन में भाई के प्रति नफरत पैदा हो जाती है जो कभी कभार विस्फोटक हो जाती है। भाई के घर छोड़कर चले जाने के बाद तनहा किशोर अल्लन को मंदिर में जाना और पुजारी स‌े बातें करना अच्छा लगता है उसे पता भी नहीं चलता कि कब उसका दिल नीलू पर आ गया लेकिन छोटे शहरों में जिस तरह का प्रेम होता है वही हुआ। वो प्रेम ही करता रह गया और नीलू की शादी किसी और स‌े हो गई। इस बीच अल्लन की मां की मौत हो जाती है। अल्लन जब देखता है कि उसकी जान स‌े प्यारी मां की लोग कब्रिस्तान में दफना रहे हैं तो उसका मन विद्रोह कर उठता है। वो चाहता है कि अब्बा स‌े कह दें, अम्मा को कब्र में न गाड़ें...इत्ते बड़े घर में रहने वाली अम्मा गड्ढे में कैसे रह पाएगी। लेकिन स‌ामाजिक मान्यताओं के दबाव में वो कुछ कह नहीं पाता। जब कुछ दिनों बाद वह अपने दोस्त मनोजवा के स‌ाथ अपनी मां की कब्र पर जाता है तो उसका दोस्त भी उसके मिजाज़ की ही बात कहता है। हम लोग में ठीक होता है। मर जाए तो जला दो और उसके बाद राख पानी में बहा दो..छुट्टी। स‌ड़ने गलने के लिए मिट्टी में छोड़ना ठीक नहीं है। अल्लन इस कशमकश स‌े गुज़र ही रहा था कि अचानक उसके पिता ने उसे इत्तला दी कि उसके बड़े भाई आलम घर आ रहे हैं। किशो बड़े भाई के आने पर उससे बात तक नहीं करता और उसे खरी खोटी भी स‌ुना देता है। उसे इस बात की बेहद तकलीफ थी कि अम्मा को जब स‌ुपुर्दे-ए-खाक किया जा रहा था तो आलम भाई क्यों नहीं आए। अल्लन के विद्रोही तेवर देखकर आलम वापस चले जाते हैं। लेकिन इसके बाद उसके पिता अल्लन की इतनी लानत मलामत करते हैं कि उसे लगता है दुनिया दोज़ख़ है और इस‌से मुक्त हो जाना चाहिए। अपने आप को मुक्त करने के लिए अल्लन उसी गंगा को चुनता है जिसमें डुबकी लगाकर वह बेहद खुश होता था। दो दिन तक जब अल्लन का पता नहीं चलता तो उसके पिता उसे खोजते-खोजते बनारस पहुंचते हैं जहां बीएचयू के मुर्दाघर में उसकी लाश मिलती है। पहाड़ जैसे दुख के बोझ तले दबे बूढ़े बाप पर बच्चे की चाहत मजहब पर भारी पड़ती है और बच्चे दफनाने के बदले वह उसे मणिकर्णिका घाट पर जलाकर अंतिम स‌ंस्कार करता है। पूरे प्रसंद को उपन्यासकार ने बेहद स‌ंजीदगी स‌े उठाया है और दुख की ज्वाला में जल रहे बाप के मनोविज्ञान को इस कदर उभारा है, जो लेखन की गंभीरता और मैच्योरिटी दिखाता है। हाशिम मियां अपने बेटे अल्लन की राख लेकर अपनी बीवी की कब्र पर पहुंचते हैं और उसके स‌ीने पर थोड़ा स‌ा गड्ढा खोद कर उसने राख दबाकर कहते हैं। लो स‌ंभालो अपने अल्लन को.... तो यहां स‌ंवेदना का एक ऎसा उत्स है जिसे इमाम बेहद शिद्दत स‌े स‌ंभाल ले जाते हैं। पहले ही उपन्यास में इमाम की लेखनी में एक प्रौढ़ता दिखाई देती है। एक ऎसा बच्चा जो बनारस की स‌ंस्कृति में पला और 16-17 स‌ाल की उम्र में अपनी जान दे देता है। उसके लिए मजहब कोई मायने नहीं रखता था। उसके लिए तो मायने रखता था पंडित जी के स‌ाथ बतकही, नीलू के स‌ाथ चुहलबाजी, मनोजवा के स‌ाथ चकल्लस‌ और मां बाप की मोहब्बत। शानी और राही की ही तरह इमाम को भी अपने अंचल स‌े लगाव है और उसके अनुरूप ही भाषा का स‌र्जनात्मक उपयोग उपन्यास में है। लेकिन दोज़ख़ का कथ्य आंचलिक न होकर व्यापक है। विवरणों को जो स‌जीवता उपन्यास में दिखाई देती है वो उसके एक अच्छे उपन्यासकार के रूप में हिंदी स‌ाहित्य के दरवाज़े पर दस‌्तक देती प्रतीत होती है। स‌ाभार-इंडिया टुडे, (अंक 7 जुलाई 2010) From shashikanthindi at gmail.com Tue Jul 6 09:56:48 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 6 Jul 2010 09:56:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= shashikant Message-ID: लेखकीय स्वतंत्रता और बाज़ार (अब्दुल बिस्मिल्लाह ने शशिकांत से कहा) जब इतिहास करवट लेता है या जब समय बदलता है तब उसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर पड़ता है। साहित्य और कला की विधाएं उससे अछूती नहीं रह सकतीं। इस संदर्भ में काफी विचार होता रहा है और चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं। लेकिन यह सच है कि जो बदलाव हो रहे हैं उन्हें चंद लोगों के विचार रोक नहीं सकते। लेकिन फिर भी हम लेखक और कलाकार इस पर विचार विमर्श करने से खुद को रोक नहीं सकते। साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर गौर करें तो बाज़ार का दबाव एक बड़ा मसला बनकर उभरा है। कला और साहित्य पर बाज़ार का इतना दबाव पहले कभी नहीं था जितना आज है। अब सवाल यह उठता है कि इस दबाव को पैदा करनेवाली कौन सी शक्तियां हैं? यह सच है कि लेखक या कलाकार यह दबाव पैदा नहीं कर रहा है। रचनाकार खुद को अभिव्यक्त करने के लिए रचना करता है। स्वान्त: सुखाय वाली बात तो अब रही नहीं। हां अपनी अभिव्यक्ति को वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहता है। इसके लिए आज कई नए माध्यम भी आ गए हैं। और जब सारे माध्यम बाज़ार से ही संचालित हो रहे हैं तो लेखक और कलाकार क्या करे। आज के बाज़ारवादी दौर में यदि कोई लेखक या कलाकार खुद को बाज़ार की गिरफ़्त से बाहर रखना चाहता है तो उसके सामने कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें आती हैं। एक लेखक कला के क्षेत्र में जब भी कोई सर्जनात्मक कार्य करता है तो वह उसको प्रकाशित, प्रसारित भी कराना चाहता है। इस लिहाज से लेखक का पहला रिश्ता मुद्रित माध्यम से है। यह माध्यम भी अब बाज़ार की गिरफ़्त से बाहर नहीं रह गया है। जहां तक हिंदी भाषा का सवाल है तो आज हिंदी मीडिया की भाषा हो गई है। मीडिया के साथ हिंदी अब लगातार सुदढ़ हो रही है। आज से पहले हिंदी में कभी भी इतने अखबार और पत्रिकाएं नहीं निकलती थी। बाज़ार सबको विज्ञापन भी मुहैया करा रहे हैं। टीवी चैनलों पर भी हिंदी के कार्यक्रमों की भरमार है। हिंदी की फिल्में पूरी दुनिया में लाकप्रिय हो रही हैं। हिंदी भाषा को इतना अधिक प्रसारित, प्रचारित करने का श्रेय आज की मीडिया को ही जाता है। हिंदी का यह रूप निश्चित रूप से हिंदी भाषा से जुड़े लोगों को रोजगार दिलाने में सहायक रहा है। लेकिन आज का हिंदी लेखक इसलिए लाचार है क्योंकि साहित्य आज भी किसी लेखक को रोज़गार नहीं दिला पाता। रोजगार के लिए वह न चाहते हुए भी समझौता करने करने के लिए बाध्य है। साहित्य रोज़गार बढ़ाने में सहायक क्यों नहीं है, यह एक गंभीर सवाल है। हिंदी की नई पीढ़ी क लेखक के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। बाजार में नाम बिकता है। नई पीढ़ी में इतना धैर्य कहां! आज का कड़वा सच यह है कि बड़े से बड़ा लेखक भी अपनी लाभ-हानि का खयाल करके लिखता, बोलता है। अपनी अभिव्यक्ति को लेकर वह सतर्क है। रचनात्मक सतर्कता फायदेमंद है लेकिन व्यक्तिगत सतर्कता कला और साहित्य के लिए घातक है क्योंकि व्यक्तिगत सतर्कता यानी स्वार्थ से जुड़ी सतर्कता सच कहने या लिखने से आपको रोकती है। आज मीडिया भी सतर्क है और अपनी लाभ-हानि के बारे में सोचता है। ज़माना काफी तेजी से बदल रहा है। अभिव्यक्ति के माध्यम बढ़े हैं तो रचनाकार और कलाकार भी बढ़े हैं। लेखक पर एक बड़ा सामाजिक और नैतिक दबाव भी होता है। अतीत हो या वर्तमान ऐसे गिने-चुने रचनाकार ही होते हैं जो बिना किसी दबाव के सर्जनात्मक कार्य करते हैं। आज जब कोई रचनाकार बेबाक तरीके से अपनी बात कहता या लिखता है तो उसके सामने कई तरह की दिक्कतें आती हैं और उसे संघर्ष करना पड़ता है। लेखक की स्वतंत्रता जब छीनी जाती है तो उसका असर रचना पर पड़ता है। उसका मूल स्वरूप ख़त्म हो जाता है। पहले सिर्फ मुद्रित माध्यम था। आज कई तरह के आडियो विजुअल माध्यम आ गए हैं। जाहिर है इतने माध्यम हैं तो लेखक को समझौते भी करने पड़ रहे हैं और जो समझौते नहीं कर रहे हैं वे या तो हाशिए पर धकेले जा रहे हैं या धैर्य के साथ अपनी छमता को स्वीकार करवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेखक और मध्यवर्ग के रिश्ते पर भी विचार होना चाहिए। आज के बाज़ारवादी समय में भी ऐसे कई रचनाकार हैं जो सादगी से रहते हैं। विज्ञान का सिद्धांत है कि कोई चीज ख़त्म नहीं होती सिर्फ उसका स्वरूप बदल जाता है। चूंकि लेखक और कलाकार को जीवनयापन के लिए कोई न कोई काम करना पड़ता है, और रोजगार शहर, महानगर में ही मिलते हैं, इसलिए शहर या महानगर में रह रहे आम मध्यवर्गीय लेखक से सादगी की उम्मीद करना आदर्शवादी सोच कही जाएगी, व्यावहारिक नहीं। सादगी गांव या छोटे शहरों में मिलती है। जैसे-जैसे आप शहर की ओर उन्मुख होंगे वैसे-वैसे आपके जीवनयापन के स्वरूप में परिवर्तन होता चला जाएगा। जाहिर है कोई इन्सान एक सामाजिक-आर्थिक परिवेश से निकलकर जब दूसरे सामाजिक आथिक परिवेश में जाता है तो उसके सामने खुद को बदलने की मजबूरी होती है। इस बदलाव के जिम्मेदार वह नहीं बल्कि शहरी या महानगरीय परिवेश, वहां का समाज, आसपड़ोस और उसके परिवार की नई पीढ़ी के सदस्य होते हैं। यानी समय, परिस्थिति, वातावरण, आसपास के परिवेश आपको मध्यवर्गीय बनने के लिए बाध्य करते हैं। ऐसे कम लोग होते हैं जो स्वत: मध्यवर्गीय बन जाते हैं। आज का जीवन ही दबाव का जीवन है। इस दबाव के कारण होने वाले बदलावों से कोई खुद कब तक बचा पाएगा। जहां तक हिंदी में स्त्री और दलित लेखन का सवाल है, साहित्य और कला के क्षेत्र में अलग-अलग खानों में बांटकर विचार विमर्श करना ठीक नहीं। मध्यकालीन भक्ति साहित्य को कभी भी जाति या धर्म में बांटकर नहीं देखा गया। साहित्य और कला की प्रवतियों का लेखन, विश्लेषण और विवेचन उसकी अपनी प्रवृतियों के आधार पर ही होना चाहिए। मैं कभी भी खुद को हिंदी का मुसलमान लेखक कहलाना पसंद नहीं करूंगा। *(दैनिक भास्कर, नई दिल्ली, 3 जुलाई 2010 को प्रकाशित)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From india.lalit at gmail.com Mon Jul 5 20:01:08 2010 From: india.lalit at gmail.com (Lalit Kumar) Date: Mon, 5 Jul 2010 20:01:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSk4KS+IOCkleCli+CktiDgpJXgpL4g4KSa4KWM4KSl4KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCljeCkpeCkvuCkquCkqOCkviDgpKbgpL/gpLXgpLgg4KS54KWI?= =?utf-8?q?!?= Message-ID: आज हम कविता कोश की स्थापना का चौथा वर्ष पूरा कर रहे हैं। हिन्दी काव्य का यह ऑनलाइन कोश इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है सामूहिक प्रयासों द्वारा किसी भी कठिन और विशाल लक्ष्य को पाया जा सकता है। कविता कोश साहित्य के भविष्य का भी दर्पण है। इस कोश में संकलन के द्वारा ना केवल दुर्लभ और लुप्त होती कृतियों को बचाया जा रहा है बल्कि ये कृतियाँ सर्व-सुलभ भी हो रही हैं। रचनाकार कविता कोश में अपनी रचनाओं के संकलन के बाद संतुष्टि का अनुभव करते है कि उनकी रचनाएँ समस्त विश्व में पढी़ जा सकती हैं और सुरक्षित व सुसंकलित हैं। इस तीसरे वर्ष में भी कोश तीव्र गति से आगे बढा़। इसी प्रगति की संक्षिप्त जानकारी नीचे दी जा रही है। * > 30,000 संग्रहित रचनाएँ * > 100,000 आगंतुक हर महीने आते हैं * > 1.5 million पन्नें हर महीने देखे जाते हैं * > 40 million हिट्स प्रति माह * > 3700 फ़ैन्स हैं फ़ेसबुक पर * > 80 नियमित योगदानकर्ता * > 4500 पंजीकृत प्रयोक्ता कविता कोश के विकास में हाथ बंटाने के उद्देश्य से कोश से जुड़ने वाले योगदानकर्ताओं की संख्या इस वर्ष भी निरंतर बढ़ती रही। साथ ही पुराने योगदानकर्ताओं ने भी अपना योगदान बनाये रखा। इस वर्ष कविता कोश टीम में संपादक श्री अनिल जनविजय ने सर्वाधिक योगदान करते हुए कोश में 10,000 पन्नें बनाने का आंकडा पार कर लिया। कोश से नए जुड़े कर्मठ योगदानकर्ता धर्मेंद्र कुमार सिंह ने तेज़ी से योगदान करते हुए 3000 से अधिक पन्नों का निर्माण किया। कविता कोश टीम के सदस्य श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’ ने ग़ज़ल और नज़्म विधा की रचनाओं को जोड़ने और उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ कोश में शामिल करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रसिद्ध ग़ज़लकारा श्रद्धा जैन अपने पिछले वर्ष के सक्रिय योगदान को आगे बढ़ाते हुए कोश में 1000 पन्नें जोड़ने वाली सातवीं योगदानकर्ता बनीं। अन्य प्रमुख योगदानकर्ताओं में प्रदीप जिलवाने, विभा झलानी, हिमांशु पाण्डेय, राजीव रंजन प्रसाद, अजय यादव, संदीप कौर सेठी, मुकेश मानस, नीरज दइया और वीनस केशरी के नाम शामिल हैं। नित नये योगदानकर्ताओं के कोश से जुड़ने का सिलसिला बदस्तूर ज़ारी है। इन सभी योगदानकर्ताओं के श्रम के कारण ही आज कविता कोश अपने वर्तमान स्वरूप को पा सका है। आप भी कोश के विकास दे सकते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Wed Jul 7 05:21:17 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Wed, 7 Jul 2010 05:21:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+IOCksOCkguCkl+CksOClh+CknCDgpI8g4KSs4KS+?= =?utf-8?b?4KSs4KWCIOKApi4u4KSw4KSC4KSXLeCksOCkguCkl+ClgOCksuCkviA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KSc4KS+4KSk4KSC4KSk4KSw?= Message-ID: बहुत बहुत दिनों के बाद ऐसी कोई फ़िल्म आ रही है जिसका इंतज़ार इतनी बेसब्री से मैं कर रहा हूँ. यह फ़िल्म है 'पीपली लाईव'. मुझे पक्का भरोसा है कि यही इंतज़ार वे सब लोग कर रहे हैं जिन्होंने महमूद फ़ारूक़ी, दानिश हुसैन और अनुषा रिज़वी के दास्तान गोई सुनी है, यह इस टीम की पहली फ़िल्म है जिसे अनुषा निर्देशित कर रही हैं; जिन्होंने मैसी साहब, मुंगेरी लाल के हसीं सपने, मुल्ला नसीरुद्दीन से लेकर सलाम बॉम्बे, लगान, वाटर तक रघुबीर यादव के अभिनय का आनंद उठाया है, रघु भाई बड़े दिनों के बाद परदे पर दिखेंगे इस फ़िल्म में; जिन्होंने हबीब तनवीर के 'नया थियेटर' के नाटकों में रंगमंच के अलहदा रूप का दीदार किया है, इस फ़िल्म के कलाकारों की बड़ी संख्या इसी मंडली से हैं और हबीब तनवीर-मोनिका तनवीर की बेटी नागिन तनवीर ने इस फ़िल्म में एक गीत गाया है और उसे संगीतबद्ध भी किया है जो मध्य प्रदेश के गोंड आदिवासियों के संगीत पर आधारित है. दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया से जुड़े लोगों के लिये गौरव की बात है कि अनुषा दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया की पढ़ीं हैं तो फ़िल्म की एक मुख्य कलाकार शालिनी वत्स जे एन यू की हैं. दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के कई कलाकार हैं. पूना फ़िल्म इंस्टीट्युट से प्रशिक्षित कई लोगों ने इस फ़िल्म के तकनीकी पक्ष को संभाला है. फ़िल्म की ख़ासियतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में यह बात भी है कि देश के सबसे लोकप्रिय संगीत-समूहों में से एक इंडियन ओशन ने संगीत में योगदान दिया है तो वहीं विश्व-भर में नामचीन मैथिअस डुप्लेसी ने पार्श्व-संगीत दिया है. लेकिन जिस गाने के कुछ सेकेंडों के टीज़र ने तहलका मचा दिया है उसे रघु भाई के साथ गाया है बडवाई गाँव के बाशिंदों ने- सखी सैंया तो बहुत ही कमात है... इस गाने के शब्द भी गांववालों के ही हैं. फिर इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं जिनके चाहने वालों की तादाद बहुत बड़ी है. कुछेक को छोड़ दें तो फ़िल्म का अनुभव लगभग सारे कलाकारों के लिये पहला था. निर्देशिका अनुषा के लिये भी. फ़िल्म की कहानी ग़रीब किसानों के दुःख और उनके प्रति सरकार तथा मीडिया के साथ-साथ शहर के लोगों की उदासीनता या नासमझी या उपेक्षा का बयान है. इस पूरे तमाशे के निर्माता हैं आमिर खान, अपनी पत्नी किरण खान और रोनी स्क्रूवाला के साथ, यानि पैसा इन्होंने लगाया है. पीपली लाईव इसलिये भी एक ज़रूरी फ़िल्म है कि यह हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी की एक कथा कहती है. ग्रामीण भारत भयानक तक़लीफ़ से गुज़र रहा है. किसानी बरबाद है, आर्थिक तंगी से लोग शहरों की ओर पलायन के लिये मजबूर हैं. सरकार और राजनेताओं का रवैया किसी से छूपा नहीं है. मुनाफ़ाखोर बनिए और लालची कॉरपोरेट सबकुछ हड़प जाना चाहते हैं. मध्यवर्ग और मीडिया के अपने स्वार्थ हैं. अनुषा कहती हैं कि फ़िल्म बनाने के लिये उन्हें कोई ख़ास रिसर्च की ज़रुरत नहीं थी, सबकुछ सामने है हमारी आँखों के. मैं थोड़ा इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि इस त्रासदी को जानने-समझने के लिये मुझे या किसी को फ़िल्म देखने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन ऐसी फ़िल्म बनाकर अनुषा और उनकी टीम ने बड़ा काम किया है. कहते हैं ज़रूरी हो तो सच को हज़ार बार कहो और हज़ार तरीकों से कहो. पर बॉलीवुड समय से कतरा कर चलता है. वह उन मुद्दों पर बात नहीं करता जिनसे समाज दो-चार होता है. अगर फ़िल्में बनती भी हैं तो बड़े सतही और अगंभीर अंदाज़ से. यह तो फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलेगा कि इसमें क्या है और कैसे है लेकिन इस हिम्मत के लिये पीपली लाईव की टीम बधाई की पात्र है. और यह हिम्मत बॉलीवुड के आउट साईडरों की इस टीम ने की है जिसकी धूरी बने हैं आमिर खान-हिंदी सिनेमा का एक बड़ा नाम. इस फ़िल्म से बॉलीवुड के नए युग के आरम्भ की सूचना मिलती है जिसकी झलक हालिया कुछ ऐसी ही छोटी फिल्मों में दिखी है. और यह सबसे बड़ी वज़ह है इस फ़िल्म को लेकर मेरे उत्साह की. पीपली लाईव में शहरी रंगमंच, लोक-कला, प्रशिक्षित तकनीशियन, देहाती कलाकार, अपने पटकथा को लेकर उत्साहित लेकिन फ़िल्म के किसी अनुभव से अछूती निर्देशिका, फ़िल्म और संगीत और तकनीक को समझने वाले, फ़िल्म उद्योग के सबसे बड़े खिलाडियों में से एक, मनोरंजन उद्योग की बारीकियों को समझने वाली प्रोफेशनल कंपनी---- इतने सारे घटक जुट सकते हैं और एक सुंदर फ़िल्म बन सकती है. यह फ़िल्म और लोगों को ऐसे ज़रूरी विषयों को खंगालने को उकसायेगी, रंगमंच और लोक-कलाओं में भरोसे को बल देगी, नए लोगों को हिम्मत देगी कुछ करने और नया करने की. अच्छी फ़िल्में बन सकती हैं और लोग उनका स्वागत करने के लिये भी तैयार हैं. इसका प्रमाण बनेगी पीपली लाईव. निःसंदेह, एक सफल फ़िल्म, एक सुंदर फ़िल्म. फ़िल्म तेरह अगस्त को रिलीज़ हो रही है. टिकट बुक कर लें. इस फ़िल्म को थियेटर में ही जा कर देखें. पाईरेटेड या डाउनलोडेड फ़िल्म न देखें. इससे इन कलाकारों का हौसला टूटता है. फ़िल्म की कुछ तस्वीरों और टीज़र के लिये आयें: www.bargad.wordpress.com -प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Jul 7 11:34:11 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 07 Jul 2010 11:34:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+IOCksOCkguCkl+CksOClh+CknCDgpI8g4KSs4KS+4KSs?= =?utf-8?b?4KWCIOKApi4u4KSw4KSC4KSXLeCksOCkguCkl+ClgOCksuCkviDgpKrgpLA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSk4KSC4KSk4KSw?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4C3418DB.9000206@sarai.net> शुक्रिया, प्रकाश! मैं सोच ही रहा था कि कोई प्रचार शुरू करे कि हम कैसे करें कि ये आमिर ख़ान के साथ हमारा भी होम-प्रोडक्शन ठहरा। वैसे आमिर ख़ान साहब तो हरकत में आ ही गए हैं, और उनकी पहुँच की हम क्या खाकर बराबरी करेंगे। बहरहाल, ये फ़िल्म इसलिए भी देखी जानी चाहिए कि एक और गाना बड़ा सटीक बैठ रहा है, हमारे समय पर: 'सैंया तो खूबे कमात हैं, महँगाई डायन खाए जात है", जो यूट्यूब पर बाक़ी टीज़रों के साथ मौजूद है: http://www.youtube.com/results?search_query=PEEPLI+LIVE&aq=f ये गाना पारंपरिक कीर्तन-शैली में चौपाल पर गाया जा रहा है, और दृश्य में जमता है। अनूषा, महमूद और दानिश को हमारी शुभकामनाएँ। 'पायरेसी' की चिन्ता करने की स्थिति में अगर हम आ गए तो समझेंगे कि हमारी फ़िल्म हिट हो गई! वैसे हम हॉल में ही जाकर ही देखेंगे। रविकान्त Prakash K Ray wrote: > बहुत बहुत दिनों के बाद ऐसी कोई फ़िल्म आ रही है जिसका इंतज़ार इतनी बेसब्री से मैं कर > रहा हूँ. यह फ़िल्म है 'पीपली लाईव'. मुझे पक्का भरोसा है कि यही इंतज़ार वे सब लोग > कर रहे हैं जिन्होंने महमूद फ़ारूक़ी, दानिश हुसैन और अनुषा रिज़वी के दास्तान गोई सुनी है, > यह इस टीम की पहली फ़िल्म है जिसे अनुषा निर्देशित कर रही हैं; जिन्होंने मैसी साहब, > मुंगेरी लाल के हसीं सपने, मुल्ला नसीरुद्दीन से लेकर सलाम बॉम्बे, लगान, वाटर तक रघुबीर > यादव के अभिनय का आनंद उठाया है, रघु भाई बड़े दिनों के बाद परदे पर दिखेंगे इस फ़िल्म > में; जिन्होंने हबीब तनवीर के 'नया थियेटर' के नाटकों में रंगमंच के अलहदा रूप का दीदार > किया है, इस फ़िल्म के कलाकारों की बड़ी संख्या इसी मंडली से हैं और हबीब > तनवीर-मोनिका तनवीर की बेटी नागिन तनवीर ने इस फ़िल्म में एक गीत गाया है और उसे > संगीतबद्ध भी किया है जो मध्य प्रदेश के गोंड आदिवासियों के संगीत पर आधारित है. > दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया > से जुड़े लोगों के लिये गौरव की बात है कि अनुषा दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया की > पढ़ीं हैं तो फ़िल्म की एक मुख्य कलाकार शालिनी वत्स जे एन यू की हैं. दिल्ली स्थित > राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के कई कलाकार हैं. पूना फ़िल्म इंस्टीट्युट से > प्रशिक्षित कई लोगों ने इस फ़िल्म के तकनीकी पक्ष को संभाला है. फ़िल्म की ख़ासियतों की > लम्बी फ़ेहरिस्त में यह बात भी है कि देश के सबसे लोकप्रिय संगीत-समूहों में से एक इंडियन > ओशन ने संगीत में योगदान दिया है तो वहीं विश्व-भर में नामचीन मैथिअस डुप्लेसी ने > पार्श्व-संगीत दिया है. लेकिन जिस गाने के कुछ सेकेंडों के टीज़र ने तहलका मचा दिया है उसे > रघु भाई के साथ गाया है बडवाई गाँव के बाशिंदों ने- सखी सैंया तो बहुत ही कमात है... > इस गाने के शब्द भी गांववालों के ही हैं. फिर इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं जिनके > चाहने वालों की तादाद बहुत बड़ी है. कुछेक को छोड़ दें तो फ़िल्म का अनुभव लगभग सारे > कलाकारों के लिये पहला था. निर्देशिका अनुषा के लिये भी. फ़िल्म की कहानी ग़रीब > किसानों के दुःख और उनके प्रति सरकार तथा मीडिया के साथ-साथ शहर के लोगों की > उदासीनता या नासमझी या उपेक्षा का बयान है. इस पूरे तमाशे के निर्माता हैं आमिर > खान, अपनी पत्नी किरण खान और रोनी स्क्रूवाला के साथ, यानि पैसा इन्होंने लगाया है. > > पीपली लाईव इसलिये भी एक ज़रूरी फ़िल्म है कि यह हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी की > एक कथा कहती है. ग्रामीण भारत भयानक तक़लीफ़ से गुज़र रहा है. किसानी बरबाद है, > आर्थिक तंगी से लोग शहरों की ओर पलायन के लिये मजबूर हैं. सरकार और राजनेताओं का > रवैया किसी से छूपा नहीं है. मुनाफ़ाखोर बनिए और लालची कॉरपोरेट सबकुछ हड़प जाना > चाहते हैं. मध्यवर्ग और मीडिया के अपने स्वार्थ हैं. अनुषा कहती हैं कि फ़िल्म बनाने के लिये > उन्हें कोई ख़ास रिसर्च की ज़रुरत नहीं थी, सबकुछ सामने है हमारी आँखों के. मैं थोड़ा इस > बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि इस त्रासदी को जानने-समझने के लिये मुझे या > किसी को फ़िल्म देखने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन ऐसी फ़िल्म बनाकर अनुषा और उनकी टीम ने > बड़ा काम किया है. कहते हैं ज़रूरी हो तो सच को हज़ार बार कहो और हज़ार तरीकों से > कहो. पर बॉलीवुड समय से कतरा कर चलता है. वह उन मुद्दों पर बात नहीं करता जिनसे > समाज दो-चार होता है. अगर फ़िल्में बनती भी हैं तो बड़े सतही और अगंभीर अंदाज़ से. यह > तो फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलेगा कि इसमें क्या है और कैसे है लेकिन इस हिम्मत के लिये > पीपली लाईव की टीम बधाई की पात्र है. और यह हिम्मत बॉलीवुड के आउट साईडरों की > इस टीम ने की है जिसकी धूरी बने हैं आमिर खान-हिंदी सिनेमा का एक बड़ा नाम. > > इस फ़िल्म से बॉलीवुड के नए युग के आरम्भ की सूचना मिलती है जिसकी झलक हालिया कुछ > ऐसी ही छोटी फिल्मों में दिखी है. और यह सबसे बड़ी वज़ह है इस फ़िल्म को लेकर मेरे > उत्साह की. पीपली लाईव में शहरी रंगमंच, लोक-कला, प्रशिक्षित तकनीशियन, देहाती > कलाकार, अपने पटकथा को लेकर उत्साहित लेकिन फ़िल्म के किसी अनुभव से अछूती > निर्देशिका, फ़िल्म और संगीत और तकनीक को समझने वाले, फ़िल्म उद्योग के सबसे बड़े > खिलाडियों में से एक, मनोरंजन उद्योग की बारीकियों को समझने वाली प्रोफेशनल > कंपनी---- इतने सारे घटक जुट सकते हैं और एक सुंदर फ़िल्म बन सकती है. यह फ़िल्म और > लोगों को ऐसे ज़रूरी विषयों को खंगालने को उकसायेगी, रंगमंच और लोक-कलाओं में भरोसे को > बल देगी, नए लोगों को हिम्मत देगी कुछ करने और नया करने की. अच्छी फ़िल्में बन सकती हैं > और लोग उनका स्वागत करने के लिये भी तैयार हैं. इसका प्रमाण बनेगी पीपली लाईव. > निःसंदेह, एक सफल फ़िल्म, एक सुंदर फ़िल्म. > > फ़िल्म तेरह अगस्त को रिलीज़ हो रही है. टिकट बुक कर लें. इस फ़िल्म को थियेटर में ही > जा कर देखें. पाईरेटेड या डाउनलोडेड फ़िल्म न देखें. इससे इन कलाकारों का हौसला टूटता > है. > फ़िल्म की कुछ तस्वीरों और टीज़र के लिये आयें: www.bargad.wordpress.com > > -प्रकाश > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From beingred at gmail.com Wed Jul 7 18:16:50 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 7 Jul 2010 18:16:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSu4KS1?= =?utf-8?b?4KSwIOCklOCksCDgpJrgpILgpKbgpY3gpLDgpKzgpLLgpYAg4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkm+Cli+CkoeCkvCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSV4KWHIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSk4KWN4KSv4KS/4KSVIOCkheCknOCljeCknuCkvg==?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCkueCliOCkgg==?= Message-ID: नामवर और चंद्रबली को छोड़ हिंदी के साहित्यिक अज्ञानी हैं *गिरीश मिश्र ने यह पत्र हरिवंश को प्रभात खबर में रविभूषण के आलेख हिंदी आलोचना का नया बखेड़ा के प्रकाशन के बाद उस पर प्रतिक्रिया के रूप में लिखा था. मूलतः अंगरेजी के इस पत्र के संपादित अंशों को हिंदी में अनुवाद करके प्रभात खबर ने अपने पत्रोंवाले स्तंभ में कुछ दिनों पहले प्रकाशित किया था. हम यहां प्रभात खबर में प्रकाशित पत्र, उस पर अखबार की ओर से लगाई गई टिप्पणी तथा गिरीश मिश्र का मूल अंगरेजी पत्र पोस्ट कर रहे हैं. पूरा पढ़िएः** नामवर और चंद्रबली को छोड़ हिंदी के साहित्यिक अज्ञानी हैं * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rakeshjee at gmail.com Wed Jul 7 11:58:56 2010 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 7 Jul 2010 11:58:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+IOCksOCkguCkl+CksOClh+CknCDgpI8g4KSs4KS+?= =?utf-8?b?4KSs4KWCIOKApi4u4KSw4KSC4KSXLeCksOCkguCkl+ClgOCksuCkviA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KSc4KS+4KSk4KSC4KSk4KSw?= In-Reply-To: <4C3418DB.9000206@sarai.net> References: <4C3418DB.9000206@sarai.net> Message-ID: प्रकाश, रविकांत तथा दीवान के तमाम दोस्‍तों को सलाम. ये फिल्‍म इसलिए भी देखिए कि पहली बार हम भी इस फिल्‍म में नजर आने वाले हैं, बशर्ते एडिटरों ने कैंची न चला दी हो तो. [?] अनुषा, महमूद और दानिश को ढेर सारा मुबारकबाद. हर लिहाज़ से एक जरूरी फिल्‍म. भैया हम तो देखे जाएंगे और अपने यार दोस्‍तों को ले जाएंगे. महमूद, अनुषा और दानिश की रचनात्‍मकता के हमेशा कायल रहे हैं इसलिए भी इसे देखना-दिखाना चाहता हूं. पीपली लाइव जिंदाबाद ! शुभकामनाएं राकेश [?] 2010/7/7 ravikant > शुक्रिया, प्रकाश! मैं सोच ही रहा था कि कोई प्रचार शुरू करे कि हम कैसे करें > कि ये आमिर ख़ान के साथ हमारा भी होम-प्रोडक्शन ठहरा। वैसे आमिर ख़ान साहब तो > हरकत में आ ही गए हैं, और उनकी पहुँच की हम क्या खाकर बराबरी करेंगे। बहरहाल, > ये फ़िल्म इसलिए भी देखी जानी चाहिए कि एक और गाना बड़ा सटीक बैठ रहा है, हमारे > समय पर: 'सैंया तो खूबे कमात हैं, महँगाई डायन खाए जात है", जो यूट्यूब पर > बाक़ी टीज़रों के साथ मौजूद है: > > http://www.youtube.com/results?search_query=PEEPLI+LIVE&aq=f > > ये गाना पारंपरिक कीर्तन-शैली में चौपाल पर गाया जा रहा है, और दृश्य में जमता > है। > > अनूषा, महमूद और दानिश को हमारी शुभकामनाएँ। 'पायरेसी' की चिन्ता करने की > स्थिति में अगर हम आ गए तो समझेंगे कि हमारी फ़िल्म हिट हो गई! वैसे हम हॉल में > ही जाकर ही देखेंगे। > > रविकान्त > > Prakash K Ray wrote: > >> बहुत बहुत दिनों के बाद ऐसी कोई फ़िल्म आ रही है जिसका इंतज़ार इतनी बेसब्री >> से मैं कर रहा हूँ. यह फ़िल्म है 'पीपली लाईव'. मुझे पक्का भरोसा है कि यही >> इंतज़ार वे सब लोग कर रहे हैं जिन्होंने महमूद फ़ारूक़ी, दानिश हुसैन और अनुषा >> रिज़वी के दास्तान गोई सुनी है, यह इस टीम की पहली फ़िल्म है जिसे अनुषा >> निर्देशित कर रही हैं; जिन्होंने मैसी साहब, मुंगेरी लाल के हसीं सपने, मुल्ला >> नसीरुद्दीन से लेकर सलाम बॉम्बे, लगान, वाटर तक रघुबीर यादव के अभिनय का आनंद >> उठाया है, रघु भाई बड़े दिनों के बाद परदे पर दिखेंगे इस फ़िल्म में; जिन्होंने >> हबीब तनवीर के 'नया थियेटर' के नाटकों में रंगमंच के अलहदा रूप का दीदार किया >> है, इस फ़िल्म के कलाकारों की बड़ी संख्या इसी मंडली से हैं और हबीब >> तनवीर-मोनिका तनवीर की बेटी नागिन तनवीर ने इस फ़िल्म में एक गीत गाया है और >> उसे संगीतबद्ध भी किया है जो मध्य प्रदेश के गोंड आदिवासियों के संगीत पर >> आधारित है. दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय और जामिया >> मिलिया इस्लामिया से जुड़े लोगों के लिये गौरव की बात है कि अनुषा दिल्ली >> विश्वविद्यालय और जामिया की पढ़ीं हैं तो फ़िल्म की एक मुख्य कलाकार शालिनी >> वत्स जे एन यू की हैं. दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के कई >> कलाकार हैं. पूना फ़िल्म इंस्टीट्युट से प्रशिक्षित कई लोगों ने इस फ़िल्म के >> तकनीकी पक्ष को संभाला है. फ़िल्म की ख़ासियतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में यह बात >> भी है कि देश के सबसे लोकप्रिय संगीत-समूहों में से एक इंडियन ओशन ने संगीत में >> योगदान दिया है तो वहीं विश्व-भर में नामचीन मैथिअस डुप्लेसी ने पार्श्व-संगीत >> दिया है. लेकिन जिस गाने के कुछ सेकेंडों के टीज़र ने तहलका मचा दिया है उसे >> रघु भाई के साथ गाया है बडवाई गाँव के बाशिंदों ने- सखी सैंया तो बहुत ही कमात >> है... इस गाने के शब्द भी गांववालों के ही हैं. फिर इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन >> शाह भी हैं जिनके चाहने वालों की तादाद बहुत बड़ी है. कुछेक को छोड़ दें तो >> फ़िल्म का अनुभव लगभग सारे कलाकारों के लिये पहला था. निर्देशिका अनुषा के लिये >> भी. फ़िल्म की कहानी ग़रीब किसानों के दुःख और उनके प्रति सरकार तथा मीडिया के >> साथ-साथ शहर के लोगों की उदासीनता या नासमझी या उपेक्षा का बयान है. इस पूरे >> तमाशे के निर्माता हैं आमिर खान, अपनी पत्नी किरण खान और रोनी स्क्रूवाला के >> साथ, यानि पैसा इन्होंने लगाया है. >> >> पीपली लाईव इसलिये भी एक ज़रूरी फ़िल्म है कि यह हमारे समय की सबसे बड़ी >> त्रासदी की एक कथा कहती है. ग्रामीण भारत भयानक तक़लीफ़ से गुज़र रहा है. >> किसानी बरबाद है, आर्थिक तंगी से लोग शहरों की ओर पलायन के लिये मजबूर हैं. >> सरकार और राजनेताओं का रवैया किसी से छूपा नहीं है. मुनाफ़ाखोर बनिए और लालची >> कॉरपोरेट सबकुछ हड़प जाना चाहते हैं. मध्यवर्ग और मीडिया के अपने स्वार्थ हैं. >> अनुषा कहती हैं कि फ़िल्म बनाने के लिये उन्हें कोई ख़ास रिसर्च की ज़रुरत नहीं >> थी, सबकुछ सामने है हमारी आँखों के. मैं थोड़ा इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहना >> चाहता हूँ कि इस त्रासदी को जानने-समझने के लिये मुझे या किसी को फ़िल्म देखने >> की ज़रुरत नहीं है. लेकिन ऐसी फ़िल्म बनाकर अनुषा और उनकी टीम ने बड़ा काम किया >> है. कहते हैं ज़रूरी हो तो सच को हज़ार बार कहो और हज़ार तरीकों से कहो. पर >> बॉलीवुड समय से कतरा कर चलता है. वह उन मुद्दों पर बात नहीं करता जिनसे समाज >> दो-चार होता है. अगर फ़िल्में बनती भी हैं तो बड़े सतही और अगंभीर अंदाज़ से. >> यह तो फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलेगा कि इसमें क्या है और कैसे है लेकिन इस >> हिम्मत के लिये पीपली लाईव की टीम बधाई की पात्र है. और यह हिम्मत बॉलीवुड के >> आउट साईडरों की इस टीम ने की है जिसकी धूरी बने हैं आमिर खान-हिंदी सिनेमा का >> एक बड़ा नाम. >> >> इस फ़िल्म से बॉलीवुड के नए युग के आरम्भ की सूचना मिलती है जिसकी झलक हालिया >> कुछ ऐसी ही छोटी फिल्मों में दिखी है. और यह सबसे बड़ी वज़ह है इस फ़िल्म को >> लेकर मेरे उत्साह की. पीपली लाईव में शहरी रंगमंच, लोक-कला, प्रशिक्षित >> तकनीशियन, देहाती कलाकार, अपने पटकथा को लेकर उत्साहित लेकिन फ़िल्म के किसी >> अनुभव से अछूती निर्देशिका, फ़िल्म और संगीत और तकनीक को समझने वाले, फ़िल्म >> उद्योग के सबसे बड़े खिलाडियों में से एक, मनोरंजन उद्योग की बारीकियों को >> समझने वाली प्रोफेशनल कंपनी---- इतने सारे घटक जुट सकते हैं और एक सुंदर >> फ़िल्म बन सकती है. यह फ़िल्म और लोगों को ऐसे ज़रूरी विषयों को खंगालने को >> उकसायेगी, रंगमंच और लोक-कलाओं में भरोसे को बल देगी, नए लोगों को हिम्मत देगी >> कुछ करने और नया करने की. अच्छी फ़िल्में बन सकती हैं और लोग उनका स्वागत करने >> के लिये भी तैयार हैं. इसका प्रमाण बनेगी पीपली लाईव. निःसंदेह, एक सफल फ़िल्म, >> एक सुंदर फ़िल्म. >> >> फ़िल्म तेरह अगस्त को रिलीज़ हो रही है. टिकट बुक कर लें. इस फ़िल्म को >> थियेटर में ही जा कर देखें. पाईरेटेड या डाउनलोडेड फ़िल्म न देखें. इससे इन >> कलाकारों का हौसला टूटता है. फ़िल्म की कुछ तस्वीरों और टीज़र के लिये आयें: >> www.bargad.wordpress.com >> -प्रकाश >> >> ------------------------------------------------------------------------ >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Media Consultant & Content Developer Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://sarokar.net Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/png Size: 569 bytes Desc: not available URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/png Size: 776 bytes Desc: not available URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jul 8 10:39:18 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 8 Jul 2010 10:39:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSk4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkteCkvuCksuClgCDgpKvgpL/gpLLgpY3gpK4=?= Message-ID: ज़ैग़म इमाम के पहले उपन्यास *दोजख* का विमोचन हो रहा था। इक संपादक लंबी छोड़ रहे थे। अपनी समझ से जानकारी दे रहे थे कि इस मुल्क का मुसलमान आखिर क्या सोचता है। तभी महमूद वहां से उठ चले। सीपी के एक हॉस्पोदां में दानिस के साथ किसी शीतल पेय की चुस्की ले रहे थे। यह मैंने तब देखा जब उनके ही मित्र रविकांत के साथ वहां पहुंचा। सभा से उठ आने की वजह पर उन्होंने रविकांत से कहा, “अब हमें ही सुनना पड़ रहा है कि इस मुल्क का मुसलमान क्या सोचता है।” तब किसी तीसरे ने कहा, “बताइये महसूद क्या सोचते हैं, उन्हें ही नहीं मालूम पर न्यूज चैनल के संपादक को मालूम है।” खैर, बात आई गई। उसी शाम एक फिल्म की चर्चा हो रही थी, जो कुछ ही दिन पहले पूरी हुई थी। फिल्म के नाम को लेकर जो कुछ चल रहा था, उन बातों को वे अपने मित्र रविकांत से बांट रहे थे। हम तो सुनने वाले थे। लगता है वह फिल्म 13 जुलाई को आ रही है। ऐसे में यदि ठीक-ठीक याद है तो महमूद ने इस बात का जिक्र किया कि फिल्म के शुरुआती कुछेक मिनटों के दृश्य ऐसे हैं जो थोड़े विचित्र लगेंगे। इकबारगी मालूम होगा कि पता नहीं फिल्म कहां ले जा रही है, यहीं एक उत्सुक्ता पैदा लेती है। यकीनन, देश के भीतर और भीतर धंस्ते जाने की कथा रोचक होगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jul 8 10:36:08 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 8 Jul 2010 10:36:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSk4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkleCkviDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4=?= Message-ID: ज़ैग़म इमाम के पहले उपन्यास *दोजख* का विमोचन हो रहा था। इक संपादक लंबी छोड़ रहे थे। अपनी समझ से जानकारी दे रहे थे कि इस मुल्क का मुसलमान आखिर क्या सोचता है। तभी महमूद वहां से उठ चले। सीपी के एक हॉस्पोदां में दानिस के साथ किसी शीतल पेय की चुस्की ले रहे थे। यह मैंने तब देखा जब उनके ही मित्र रविकांत के साथ वहां पहुंचा। सभा से उठ आने की वजह पर उन्होंने रविकांत से कहा, “अब हमें ही सुनना पड़ रहा है कि इस मुल्क का मुसलमान क्या सोचता है।” तब किसी तीसरे ने कहा, “बताइये महसूद क्या सोचते हैं, उन्हें ही नहीं मालूम पर न्यूज चैनल के संपादक को मालूम है।” खैर, बात आई गई। उसी शाम एक फिल्म की चर्चा हो रही थी, जो कुछ ही दिन पहले पूरी हुई थी। फिल्म के नाम को लेकर जो कुछ चल रहा था, उन बातों को वे अपने मित्र रविकांत से बांट रहे थे। हम तो सुनने वाले थे। लगता है वह फिल्म 13 जुलाई को आ रही है। ऐसे में यदि ठीक-ठीक याद है तो महमूद ने इस बात का जिक्र किया कि फिल्म के शुरुआती कुछेक मिनटों के दृश्य ऐसे हैं जो थोड़े विचित्र लगेंगे। इकबारगी मालूम होगा कि पता नहीं फिल्म कहां ले जा रही है, यहीं एक उत्सुक्ता पैदा लेती है। यकीनन, देश के भीतर और भीतर धंस्ते जाने की कथा रोचक होगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From sadanjha at gmail.com Thu Jul 8 13:26:03 2010 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Thu, 8 Jul 2010 13:26:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkpuCksuClhyDgpJzgpJfgpLksIOCksOCkvuCktw==?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSwIOCkleClhyDgpKzgpKbgpLLgpYcg4KSq4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWN4KSkOuCksOClh+Cko+ClgSDgpLjgpL7gpLngpL/gpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KSvIOCklOCksCDgpIbgpILgpJrgpLLgpL/gpJUg4KSG4KSn4KWB?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSk4KS+?= Message-ID: प्रिय मित्रों, मैंने प्रतिलिपि के लिए हाल में यह लेख लिखा. इस का कुछ अंश शिमला में और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी पढ़ा गया था. रेणु साहित्य और आंचलिक आधुनिकता सदन झा यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि महबूब खान की मशहूर सिनेमा मदर इंडिया और फणीश्वर नाथ रेणु का दूसरा उपन्यास परती: परिकथा 1957 में एक मास के भीतर ही रिलीज हुए. मदर इंडिया उस बरस पहले पहल 25 अक्टुबर को बम्बई और कलकत्ता में परदे पर आयी और परती: परिकथा के लिये इससे कुछ पहले 21 सितम्बर को राजकमल प्रकाशन के दफ्तर में दिल्ली में और 28 सितम्बर को पटना में बड़े धूम-धाम से ‘प्रकाशनोत्सव’ मनाया गया. देश के अख़बारों में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ साथ था. गौर तलब कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी. मदर इंडिया और परती: परिकथा दोनो ही भारत के ग्रामिण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं. मदर इंडिया की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं जो सन् पचास के नव भारत के सपनो की धरती है. एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं. पूरे लेख के लिए देखें http://pratilipi.in/2010/07/sadan-jha-on-renu/ -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com http://www.css.ac.in/sadan_jha.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From girindranath at gmail.com Thu Jul 8 15:18:11 2010 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Thu, 8 Jul 2010 15:18:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KWA?= =?utf-8?b?IOCknOCli+Ckl+Ckv+CkqOClgCDgpKzgpKjgpL4g4KSV4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSBIOCkl+Ckh+CksuClhyDgpLDgpYcg4KSc4KWL4KSX4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+?= Message-ID: प्रतिलिपि में इस दफे फणीश्वर नाथ रेणु के गाम (village) पर लिखा है. आप भी पढ़ें . कोसी के दोनों पाटों के बीच गूंजती हैं चिड़िया-चूरमून की आवाजें…चूं..चूं.चूं.. भैया उठिए, आ गया रेणु का देश, भोर (सुबह) हो गई है. जम्हाई लेते हुए, गाड़ी से बाहर देखता हूँ. बांस-फूस की बनी बस्तियां. कुछ पक्के मकान भी. मटमैल धोती और कुर्ते में एक बुजुर्ग पर नजर टिकी तो उसने पूछा- कि बात भाईजी, गाम में पहली बार आएं है क्या? किसके घर जाना है? मैंने कहा, रेणु जी का घर किधर है? उन्होंने पूछा- दिल्ली-विल्ली से आए हैं क्या? रिसरच करने आए हैं? दरअसल यहाँ बाहर से लोग रेणु के गाँव की फोटू उतारने आते हैं..फेमस राटर (राइटर) कहते हैं सब रेणु बाबू को………….. पूरा पढने के लिए क्लिक करें - http://pratilipi.in/2010/07/girindra-on-renus-village/ शुक्रिया गिरीन्द्र -- regards Girindra Nath Jha www.anubhaw.blogspot.com 09559789703 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Fri Jul 9 00:10:15 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 9 Jul 2010 00:10:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkpuClguCkuOCksOClhyDgpJXgpL7gpLLgpJbgpILgpKEg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCOiDgpK7gpL/gpLngpL/gpLAg4KSq4KSC4KSh4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, प्रतिलिपि के नए अंक में एक निबंध आया है. साथ लिंक भी लगा रहा हूँ. दादा को याद होगा शायद, इसके कुछ हिस्से उन्होंने सुने थे कुछ साल पहले... ********** “इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है” (1) “छोटे-छोटे शहरों से खाली बोर दुपहरों से हम तो झोला उठाके चले बारिश कम-कम लगती है नदिया मद्धम लगती है हम समन्दर के अन्दर चले हम चले, हम चले, ओये रामचंद रे…” – गुलज़ार. ’बंटी और बबली’, 2005 (2) फ़िल्म में भी उनका नाम ’बंटी’ और ’बबली’ नहीं था. एक था फ़ुरसतगंज का राकेश और एक थी पंखीनगर की विम्मी. लेकिन वो दोनों ’बंटी’ और ’बबली’ हो जाना चाहते थे. और इसी ’बंटी’ और ’बबली’ हो जाने की चाहत के चलते उन्हें अपने ’छोटे शहरों’ की ’बारिशें कम-कम लगने लगी’ थीं और ’नदिया मद्धम लगने लगी’ थी. मेरे ही पुश्तैनी शहर से आई मेरी बचपन की क्लासमेट के साथ जब मैं एक दिन दिल्ली के कनॉट प्लेस में घूम रहा था तो उसने मुझे बताया था कि उसे ऐसी भीड़ बहुत पसन्द है जिसमें आपको कोई ना पहचानता हो. जिसमें आपके लिए खो जाना संभव हो. आगे इस निबंध में बस इन्हीं वजहों की कुछ और तलाशें हैं… अशोक वाजपेयी को कहते सुना था कहीं… (3) हमारी पीढ़ी कस्बों की पैदाइश है. कस्बे… छोटे-बड़े, नए-पुराने, बहुत सी कहानियाँ अपने में समेटे, सिमटे से बैठे कस्बे. लेकिन आज की पीढ़ी शहरों की पैदाइश है. शहर… जगमगाते, दूर से बुलाते, बने-ठने से. दिल्ली जैसे पसरते-फैलते शहर, मुम्बई जैसे खड़े, एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते शहर. अब कस्बे वहाँ नहीं हैं. वे गायब हो रहे हैं. नक्शों से, फ़िल्मों से, यादों से. वे शर्माते हैं अपने होने पर, दरवाज़े की आड़ में छुपते, कनखियों से देखते. जैसे किसी सरकारी स्कूल में टाटपट्टी पर बैठकर पढ़े बच्चे को आप सीधा किसी ’सेंट ….. स्कूल’ की चलती क्लास के बीच खड़ा कर दें. वह चाहता है कि उसका अस्तित्व किसी अदृश्य शून्य में विलीन हो जाए. वो वहाँ न होकर कहीं और हो, काश वो वहाँ न हो. हमारे कस्बे कुछ-कुछ ऐसे ही हो गए हैं. और यह अहसास आपको वहाँ रहकर नहीं होगा. वहाँ जाकर होगा. पूरा निबंध यहाँ पढ़े - http://pratilipi.in/2010/06/mihir-pandya-non-fiction/ ...miHir. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kissakhwar at gmail.com Fri Jul 9 11:51:42 2010 From: kissakhwar at gmail.com (kamal mishra) Date: Fri, 9 Jul 2010 11:51:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkpuCksuClhyDgpJzgpJfgpLksIOCksOCkvuCktw==?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSwIOCkleClhyDgpKzgpKbgpLLgpYcg4KSq4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWN4KSk?= Message-ID: रेणु के परती: परिकथा पर सदन की टीका न सिर्फ रोचक है बल्कि आंचलिकता-आधुनिकता विमर्श की कड़ी में 'दूर की कौड़ी' भी. इस बेहतरीन 'पाठ' के लिए सदन को बहुत -बहुत धन्यवाद!! देखें: "रेणु के यहाँ गाँव का अतीत है. यह इतिहास में विलीन नहीं. यहां गोदान या श्रीनिवास के गाँवों की तरह इतिहास नदारद नहीं है. रेणु के गाँव के पास उसका अतित भी है और इतिहास भी. इन दोनो की सक्रिय भागेदारी इसलिये भी संभव हो पायी है क्योंकि रेणु अपने गाँव को महज समय के स्केल पर स्थानिकता से नंगा कर खड़ा नहीं कर रहे. यही कारण है कि रेणु के गाँव में समय भी बहुवचन में कई स्तरों पर कथाशिल्प से खिलवाड़ करता हमारे सामने आता है. एक क्षण में पंडुकी की कहानी, अगले क्षण में कोशिका मैया की कहानी फिर अगले क्षण में धरती के लाश बनते जाने का इतिहास और नेहरू के सपनो के भारत का भीषण आशावाद. यहाँ सब कु्छ है और यह सब रिक्त (एम्पटी) होमोजिनियस समय में नहीं (जैसा कि राष्ट्रवाद के एक विद्वान ने हमे किसी और संदर्भ में बताया है). यहां हेटरोजिनस समय की बात भी नहीं है जैसा कि दूसरे विद्वान ने हमें भारत के संदर्भ में बताया है. लब्बो लुआब यह कि रेणु के गाँव को उनके शिल्प को यदि समझना है तो हमे आधुनिकता के समय केंद्रित विमर्श से बाहर आना होगा. देश को देखने की तकनीक से अपने को दूर हटाना होगा. यहाँ साहित्य और गाँव की अंत: क्रिया को परिभाषित करने के लिये नये सवाल गढ़ने होंगे. समय के बदले केंद्र में जगह और उसकी स्थानिकता को रखना होगा. देश के एब्सट्रेक्ट स्पेस की जगह प्लेस की बात करनी होगी जहाँ जमीन पूंजी का महज एक और उदाहरण नहीं रह जाता और जमीन से लगाव महज इसलिये नहीं कि वह किसान का खेत है. यहाँ जमीन मतलब धरती है. मैया भी और बन्धया भी. रेणु का लेखन हमें ले जाता है राष्ट्र से प्रान्त की ओर. एक प्रान्त जो आधुनिकता के साथ साथ अपनी विरासत को भी इस्तेमाल कर रहा है, किसी और समय में नहीं अपने समकालीन समय में अपने शर्तों पर. यह इच्छित समय है, जो आधुनिकता भी चाहता है, इतिहास भी चाहता है, विकास भी चाहता है, खुला अतीत और उसकी स्मृति भी. और यह सब आंचलिक साहित्य में, एक खुले भविष्य के लिए. यदि कुछ शेष रह जाता है तो अंचल का मोह और अंचल को शव्दों में पिरोने की तकनीक". (सदन झा, *समय के बदले जगह, राष्ट्र के बदले प्रान्त* से) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Fri Jul 9 12:24:41 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 09 Jul 2010 12:24:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KSVIOCkheCkguCktiA6IOCkleCksuCkvuCkruClhyDgpLDgpYLgpK4=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpK7gpYfgpII=?= Message-ID: <4C36C7B1.60401@sarai.net> /मैं कोई नमूना यहाँ नहीं डाल पा रहा हूँ गड़बड़झाला हो जा रहा है। अनुराग या अभय के चिट्ठे से तफ़सीलात हासिल करें: सबद: http://vatsanurag.blogspot.com/2010/07/blog-post_08.html निर्मल आनंद: //*/*/*/*/*/*/*/*/*(http://nirmal-anand.blogspot.com ) */*/*/*/*/*/*/*/*//रविकान्त [ अभय तिवारी द्वारा रूमी के कव्यानुवादों की पुस्तक ''कलामे रूमी'' को पढ़ते हुए यह अनुभव होता है कि यह महज मेरी हिंदी में रूमी के अथाह में से कुछ को ले आने का उद्दयम नहीं है. कव्यानुवादों के पूर्व रूमी के काव्य, उसकी प्रकृति पर सुशोधित लेखों के अलावा कवि की पत्री, उसके किस्से और करामातों की जितनी रोचक और ज़रूरी जानकारी अभय ने दी है, वह भरेपूरेपन में आपको रामनाथ सुमन के ग़ालिब और मीर पर तैयार की गई पुस्तकों की याद दिलाता है. लिप्यंतरण के आदी दिमाग़ को अभय के मूल फ़ारसी से किये गए काव्यानुवाद रुचेंगें.] // vatsanurag.blogspot.com / -- anurag From vineetdu at gmail.com Sat Jul 10 13:10:31 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 10 Jul 2010 13:10:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkn+ClgOCkteClgCDgpLngpYAg4KSo4KS54KWA4KSCLA==?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSw4KSV4KWB4KSf4KSIIOCkruClh+CkgiDgpJfgpY3gpLI=?= =?utf-8?b?4KWL4KSs4KSyIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK3gpYAg4KS24KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSy?= Message-ID: खबरों के नाम पर चिरकुटई का काम सिर्फ इंडिया टीवी और वहां के मीडियाकर्मी ही नहीं किया करते बल्कि इसमें ग्लोबल मीडिया तक शामिल है। अगर आप इंडिया टीवी पर पाखंड,अंधविश्वास,अनर्गल खबरों का प्रसार और खबरों के नाम पर रायता फैलाने का आरोप लगाते आए हैं तो एकबारगी आपको ग्लोबल मीडिया की तरफ भी आंख उठाकर देखना होगा। आमतौर पर एक औसत टेलीविजन ऑडिएंस के लिए शायद ये संभव नहीं है कि वो देश के तमाम चैनलों को देखते हुए ग्लोबल चैनलों को भी एक साथ वॉच करे। फिर ग्लोबल स्तर पर जो जरुरी खबरें होती हैं उसे सात संमदर पार,अराउंड दि वर्ल्ड, दि वर्ल्ड जैसे कार्यक्रमों के जरिए इन्हें शामिल कर लिया जाता है। इसलिए अलग से इन चैनलों को देखने की शायद बहुत अधिक जरुरत महसूस नहीं की जाती। दूसरी स्थिति ये भी है कि बिना देखे-सुने ये मान लिया गया,एक अवधारणा सी बन गयी है कि जिस तरह हिन्दी के चैनल खबरों के नाम पर चिरकुटई करते हैं वो काम अंग्रेजी के चैनल नहीं करते और ग्लोबल मीडिया तो करती ही नहीं। इस देश की ऑडिएंस ने ग्लोबल मीडिया को बिना बहुत बारीकी तौर पर देखें ही पाक-साफ होने का प्रमाण पत्र और ऑथेंटिसिटी लेटर जारी कर दिया है। मामला ये भी है कि औसत दर्जे की ऑडिएंस विदेशी और ग्लोबल मामलों को बहुत बारीकी से गौर नहीं पाती शायद इसलिए भी वो ये समझ नहीं पाती कि इन एजेंसियों और चैनलों ने किस खबर को लेकर किस तरह का स्टैंड लिया। लेकिन फीफा वर्ल्ड कप में ऑक्टोपस के जरिए जो भविष्यवाणी की बातें लगातार की जाती रही,हिन्दी चैनलों की तो बात ही छोड़िए,आठ पैर का पंडित ब्ला,ब्ला.. जिसे कि नेशनल और रीजनल चैनलों ने देसी मसाला मारकर हमें दिखाया-सुनाया,मुझे लगता है कि इस खबर को लेकर इनका विश्लेषण करने के बजाय ग्लोबल मीडिया का विश्लेषण कहीं ज्यादा होने चाहिए।जिसे ग्लोबल मीडिया ने भी लाइव दिखाया इस ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी की पैकेजिंग और मार्केटिंग ग्लोबल मीडिया ने जितने आक्रामक तरीके से किया उसे देखते हुए लगा कि इंडिया टीवी अभी भी इस मामले में बच्चा है। उसे अभी भी बहुत कुछ सीखने और समझने की जरुरत है। न्यूज बिजनेस पर गौर करें तो ये खबर पिछले तीन महीने में सबसे ज्यादा सेलबुल साबित होगी। ऐसे में जो भी मीडिया विश्लेषण इस आधार पर मीडिया की आलोचना करते आए हैं कि इस देश में शिक्षा का स्तर इतना नीचे है कि लोग पाखंड और अंधविश्वास से जुड़ी खबरें देखना पसंद करते हैं,उनका ये औजार भोथरा ही नहीं बेकार साबित होगा। आपमे अगर हिम्मत है तो कहिए कि दुनियाभर के वो लोग जाहिल हैं जिन्होंने कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी में दिलचस्पी ली। फिर आपके उपर जमाना हंसे इसके लिए तैयार रहिए। स्थति ये है कि इस तरह की खबरें जिसे कि रेशनलिस्ट बेसिर पैर की बातें मानते हैं या फिर मार्केटिंग के लोग ये मानते हैं कि मामला कुछ भी नहीं है,सारा खेल मार्केटिंग का है-कल को आप जंतर-मंतर के आगे तोते लिए बैठे को पकड़कर ले आएं और उनकी मार्केटिंग कर दें तो वो देश का सबसे बड़ा भविष्यवेत्ता हो जाएगा,उनके लिए एक निष्कर्ष तो साफ है कि ग्लोबल स्तर पर भी इस तरह की खबरों का बड़ा बाजार है जिसका संबंध बौद्धिक स्तर और शिक्षा से न होकर एक खास तरह की टेम्पट सॉयक्लॉजी से है। सॉफ्ट स्टोरीज के नाम पर विदेशी एजेंसियों से जो फीड आती हैं उसमें ऐसी स्टोरियां भरी पड़ी होती है। हिन्दी न्यूज चैनलों पर अजब-गजब कारनामें,अजूबा,आठवां आश्चर्य आदि के नाम पर जो स्टोरीज चलती हैं उनकी सारी फीड एपीटीएन, रायटर जैसी एजेंसियों से आती हैं। इंडिया टीवी पर चल रही एक स्टोरी को देखकर मैं पानी पी-पीकर गाली दे रहा था। स्टोरी थी कि एक बकरा ब्रेकफास्ट में डेढ़ किलो तंबाकू खाता है,लंच में तीन किलो और डीनर में तीन किलो तंबाकू। स्टोरी का नाम था-नशाखोर बकरा। स्टोरी देखते हुए गरिआ ही रहा था कि मेरे पास रायटर की फीड आयी जिसमें ये स्टोरी थी और मुजे भी अपने चैनल के लिए यही स्टोरी बनानी थी,फ्लेबर थोड़ी बदल भर देनी थी। कुल मिलाकर कहानी ये थी कि एक बकरा ऐसी जगह फंस गया था कि तंबाकू के अलावे आस-पास खाने की कुछ भी चीजें नहीं थी। ऐसा लिखकर मैं किसी भी एंगिल से इंडिया टीवी के एप्रोच की तारीफ नहीं कर रहा और न ही उसका डीफेंड कर रहा लेकिन ये बात जरुर समझना होगा कि जिस स्टोरी को देखकर हम दांत पीसते हैं,हिन्दी चैनलों पर पाखंड फैलाने का आरोप लगाते हैं,खबरों के नाम पर रायता फैला देने की बात करते हैं,अंग्रेजी चैनल और ग्लोबल मीडिया उससे बरी नहीं है। ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी के बहाने हमें इसे समझने की जरुरत है।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From abhay.news at gmail.com Mon Jul 12 17:36:29 2010 From: abhay.news at gmail.com (Abhay) Date: Mon, 12 Jul 2010 17:36:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWM4KSwIOCkruClh+CkgiDgpIXgpLLgpY3gpLLgpKg=?= Message-ID: सैयद जैगम इमाम के मशहूर उपन्यास दोजख के बारे में आप पहले भी पढ़ चुके होंगे। अखबारों और पत्रिकाओं के कई समीक्षकों ने इस किताब और कहानी को अपनी नजर से देखने और समझने की कोशिश की है। नए कलेवर में दिख रहे हिंदी के प्रमुख अखबार अमर उजाला में इसी रविवार को जिंदगी लाइव में इसकी समीक्षा छपी है। कल्लोल चक्रवर्ती के शब्दों में इस दौर में अल्लन के होने की वजहों के बारे में आप भी पढ़ें। इस दौर में अल्लन एक अपेक्षाकृत नए लेख का यह उपन्यास दो वजहों से महत्वपूर्ण है। एक तो इसमें बालपन का जैसा व्यापक और प्रभावी चित्रण किया गया है, वह दिल को छू लेने वाला है। दूसरे, इसमें सांप्रदायिक सद्भाव जिस तरह से अनायास आया है, वह देखने लायक है। सांप्रदायिक दुर्भावना दुर्योग से जब देश की साझा संस्कृति को नष्ट करने पर तुली है, तब अल्लन की आंखों से दुनिया देखने की वाकई जरूरत है। दोजख, लेखक : सैदय जैगम इमाम, प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्या : 250 रुपये । -कल्लोल चक्रवर्ती साभार@ अमर उजाला -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: allan.pdf Type: application/pdf Size: 54849 bytes Desc: not available URL: From ravikant at sarai.net Mon Jul 12 18:36:09 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 12 Jul 2010 18:36:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSr4KS8?= =?utf-8?b?4KSwIOCkquCkqOCkvuCkueClgCA6IOCkteCkv+Ckt+CljeCko+ClgSDgpJY=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH?= Message-ID: <4C3B1341.5060500@sarai.net> कादंबिनी और सबद से साभार: http://vatsanurag.blogspot.com/2010/07/3.html / / रविकान्त/ / /ईरानी फिल्मकार जफ़र पनाही पर लिखा विष्णु खरे का यह लेख ईरान, वहां की शाषण-प्रणाली और उसकी कलाओं के प्रति असहिष्णु रुख का जितना खुलासा है, उतना ही हिंदी में उपलब्ध उन मुग्ध यात्रा-गल्पों और गदगद भाव से लिखे गद्य का तार्किक खंडन भी जिसकी बुनियाद में चतुर-चयन और लापरवाह सुना-सुनायापन है. जफ़र कल यानी ११ जुलाई को ५० के हो रहे हैं. सबद उनके काम और प्रतिरोध में आवाज़ मिलाता है./ *जिन्हें अपने वतन में पनाह नहीं* विष्णु खरे जिस सिने-प्रतिभा ने अपनी बेहतरीन फिल्मों से सारे विश्व में अपने मुल्क का नाम रोशन किया हो,जिसे २५ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हों,जो संसार के शीर्षस्थ फिल्म-समारोहों में नियमित रूप से आमंत्रित होता हो,उसे उसके देश का निजाम उसके ५०वें जन्म-वर्ष के दौरान कैसे नवाजेगा ? ईरान के विख्यात और निस्बतन कमउम्र फिल्म-निदेशक जफ़र पनाही ( ज. ११ जुलाई १९६० ) को महमूद अहमदीनिजाद सरकार ने अव्वल तो इस वर्ष की शुरूआत में बर्लिन फिल्मोत्सव में नहीं जाने दिया,फिर मार्च में गिरफ्तार कर लिया जिससे वे कान फिल्मोत्सव की ज्यूरी में शामिल नहीं हो सके,१५ मई से वे जेल में भूख-हड़ताल पर चले गए और अंततः २५ मई को करीब १ करोड़ रुपये के बराबर ज़मानत पर रिहा किए गए. जफ़र पनाही के असली गुनाह की बात तो बाद में होगी – उनका ताज़ा अपराध यह है कि वे ईरान में पिछले वर्ष हुए चुनाव को,जिसमें अहमदीनिजाद फिर सत्तारूढ़ हुए,ईरान के लाखों नागरिकों और संसार के हज़ारों तटस्थ प्रेक्षकों और विश्लेषकों की तरह एक धोखाधड़ी मानते हैं.वे पराजित विपक्षी “ग्रीन” पार्टी नेता मीर हुसैन मूसवी के सक्रिय समर्थक हैं और चुनाव के बाद प्रदर्शनों में शहीद हुए एक युवक निदा आगा सुल्तान की कब्र पर फातिहा पढ़ने भी गए थे.उनके अहमदीनिजाद-विरोधी वक्तव्यों और मंतव्यों में कोई बदलाव नहीं आया है.जब जफ़र पनाही जैसा विश्वविख्यात फिल्म-निर्माता अपनी सरकार के खिलाफ कुछ कहता है तो सारी दुनिया उसे सुनती है और ईरान-जैसे शासन के पास उसकी जुबान बंद करने का पहला तरीका उसे गिरफ्तार कर लेने का ही होता है.विडम्बना यह है कि ऐसा करने के बाद कान महोत्सव के लिए इकठ्ठा हुई विश्व सिने-बिरादरी और फ़्रांस के कुछ मंत्रियों ने पनाही का इतना ज़बरदस्त समर्थन और अहमदीनिजाद सरकार की ऐसी बेपनाह मजम्मत की कि फिलहाल उन्हें ज़मानत पर छोड़ना पड़ा. लेकिन यह पनाही के पुराने संघर्ष का ‘इंटरवल’ कतई नहीं है बल्कि उसके ‘रिपीट शो’ की नई शुरूआत है.१९७९ की आयतुल्लाही “क्रान्ति” के बाद ईरान में प्रतिक्रियावादी मजहबी दकियानूसियत रह-रह कर हावी होती रही है और आधुनिकता,प्रबुद्धता और प्रगतिकामिता से लेशमात्र भी सम्बन्ध रखनेवाली हर तहरीक और कला पर वहाँ सिर्फ मुसीबतें नाजिल होती हैं – सिनेमा इनमें सबसे खतरनाक और सेंधमार समझा जाता है.भारत में भी सेंसर बोर्ड की जहालतें और ‘किस्सा कुर्सी का’, ‘आंधी’ और ताज़ा ‘राजनीति’ जैसे कमतर उदाहरण हैं लेकिन ईरान सरीखे मुल्क अपने सिनेमा और अन्य कलाओं और उनके सर्जकों के साथ जो करते हैं उसके सामने भारतीय हरकतें तो खटमल-मच्छरों की तरह हैं,यद्यपि ऐसे जंतुओं से भी निपटा जाना चाहिए. पनाही ने बहुत ज्यादा फ़िल्में नहीं बनाई हैं.’घायल माथे’ ( ‘वूंडेड हैड्स’,फारसी में शायद ‘यराली बश्लार’,१९८८ ) उनकी पहली स्वतंत्र कृति थी और २००६ में आई,अब तक की उनकी आख़िरी,फिल्म ‘ऑफसाइड’ (फुटबॉल आदि का सुपरिचित शब्द,२००६ ) नवीं है.पनाही जैसा फिल्मकार पिछले चार वर्षों में कुछ नहीं बना सका,यही ईरानी हालात पर एक खुली टिप्पणी है.बहरहाल,पनाही अपने आज के समाज पर फ़िल्में बनाते हैं,जो दुर्भाग्यवश ‘देशभक्ति’ से ओतप्रोत ,’सकारात्मक’,दीनपरस्त और आशावादी नहीं हो सकतीं.वे घोर यथार्थवादी होती हैं जिनमें अमानवीय धार्मिक-राजनीतिक प्रतिबंधों में घुटते-पिसते,किसी तरह ज़िंदा रहते मर्द,औरतें,बच्चे और परिवार दिखाई देते हैं.यह कोई संयोग नहीं कि उनकी एक फिल्म का शीर्षक ही ‘आईना’ (२०००) है. मुक्ति चाहती औरतों का भयावह जीवन और गिरफ्तारियां उनकी फिल्मों में बार-बार लौटते हैं.स्त्रियाँ स्टेडियम में मर्दों के साथ फुटबाल नहीं देख सकतीं ,लिहाजा कुछ दुस्साहसी किशोरियां मर्दों के भेस में वहाँ घुस जाती हैं लेकिन पकड़ी जाती हैं – वे वहाँ ‘ऑफसाइड’ हैं !इसी तरह अपना-अपना ‘दायरा’ (२०००) तोड़ने की कोशिश में अलग-अलग कहानियों वाली औरतों को रात में कैदखाना ही एक करता है. फिल्म का वह दृश्य,जिसमें एक अनब्याही गरीब माँ अपनी चार बरस की प्यारी बेटी को अच्छी ‘ड्रेस’ पहनाकर अजनबियों की रहमदिली के भरोसे एक नुक्कड़ पर त्याग देती है,अपनी मार्मिकता में कभी भुलाया नहीं जा सकता. दस वर्ष की उम्र से ही लेखन और फिल्म-निर्माण में सक्रिय रुचि रखनेवाले पनाही ने १९८०-९० के ईरान-इराक युद्ध में शिरकत की थी और उस पर एक वृत्तचित्र भी बनाया था.लाम से लौट कर वे ईरान के सिने-विश्वविद्यालय में पढ़े, जहां उन्होंने चोरी-छिपे रात-रात भर ‘गैरकानूनी’ फ़िल्में देखीं और सुप्रसिद्ध निदेशक अब्बास किआरुस्तमी की फिल्म ‘जैतून के दरख्तों के बीच से’ (१९९४) में उनके सहायक रहे.’सफ़ेद गुब्बारे’ शीर्षक अपनी जिस फिल्म से उन्हें ख्याति मिली उसकी पटकथा उस्ताद किआरुस्तमी ने ही लिखी थी और १९९५ में उसे कान का ‘स्वर्ण कैमरा’ सम्मान मिला.’दायरा’ को २००० में वेनिस का ‘गोल्डन लायन’, २००३ में ’तिलाए-सुर्ख’ (‘लाल सोना’) को कान का ‘अं सेर्तैं रेगार्द’ और २००६ में ‘ऑफसाइड’ को बर्लिन का ‘सिल्वर बेअर’ सम्मान दिए गए.इनके बाद भी उन्हें कई पुरस्कार हासिल हुए हैं. पनाही कहते हैं कि मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए – आप पाएंगे कि उसके हालात उसके परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ.जहां तक मेरे सिनेमा में इतालवी नव-यथार्थवाद का सवाल है तो जो कुछ भी बहुत कलात्मक तरीके से समाज के सच को दिखाता है वह अपना नव-यथार्थवाद खुद खोज लेगा.मेरी फिल्मों में इंसानी बर्ताव और किस्सागोई मिले-जुले रहते हैं.सरकारी ज़ुल्मों को लेकर उनका छोटा-सा वक्तव्य है : “कोई भी निजाम मुस्तकिल तो होता नहीं.मैं इंतज़ार कर सकता हूँ”. दुर्भाग्य यह है कि पनाही अकेले ईरानी फिल्मकार नहीं हैं जो निजाम के बदलने का इंतज़ार कर रहे हैं.एक और निदेशक,मुहम्मद नूरीजाद, पिछले कोई चार महीनों से गिरफ्तार हैं.ज़लावतन निदेशक दर्यूश शोकोफ़ हाल ही में जर्मनी में रहस्यमय ढंग से लापता हो गए हैं.खुद अब्बास किआरुस्तमी की सारी फ़िल्में ईरान में प्रतिबंधित हैं.इनके अलावा पिता-पुत्री मोहसिन और समीरा मखमलबाफ,अमीर नादिरी,दर्यूश मेह्र्जुई,बहराम बेईजाई,रख्शान बनी-एतमाद आदि मशहूर-ओ-मारूफ सिनेकारों पर ईरान में फ़िल्में बनाने या दिखाने पर सख्त रोक लगी हुई है.इनकी फ़िल्में आयतुल्लाहों और हुक्मरान को रास नहीं आतीं.वैसे सार्थक सिनेमा इतना सशक्त जन-माध्यम है कि उस पर हर धर्म और हर सरकार की शनि-दृष्टि रहती ही है. मिलीभगत हो,कायरता हो या खालिस जहालत,ईरान के सिनेमाकारों के संकट को हम भारतीय नहीं जानते-स्वीकारते.कुछ महीनों पहले एक वजीह लेखक-पटकथाकार ईरान की मेहमाननवाजी से इस क़दर निहाल थे कि उन्होंने लौटकर फतवा दिया कि वहाँ सब-कुछ बढ़िया चल रहा है.हाल में एक प्रबुद्ध दैनिक के बहुपाठी फिल्म-समीक्षक ने एलान किया कि शिया मुल्क होने के बावजूद ईरान में उम्दा फ़िल्में बन रही हैं.इधर हिंदी-पट्टी में कुछ घुमंतू स्वयम्भू “फिल्म-समारोह-निदेशक” कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो अपने फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं के बल पर निरीह दर्शकों को बहका कर कस्बाई सिने-बजाज बने कमा-खा रहे हैं.उनसे आप कभी समसामयिक विश्व-सिनेमा की उम्मीद नहीं कर सकते.आज जब डीवीडी और उनके प्लेयर इतने सस्ते हो चुके हैं और एक-दो प्रबुद्ध टीवी चैनलें भी हैं जो दिन-भर बेहतर सिनेमा दिखा रही हैं,हम जफर पनाही ही नहीं,संसार-भर के उन जैसे फिल्मकारों के साथ अपनी एकात्मता कम-से-कम इस तरह तो व्यक्त कर सकते हैं कि यथासंभव उनकी श्रेष्ठ फ़िल्में देखें और खुद को बेहतर,जुझारू इंसान बनाने की कोशिश करें. **** /(कादम्बिनी के जुलाई अंक से साभार)/ From beingred at gmail.com Mon Jul 12 19:08:31 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 12 Jul 2010 19:08:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkuOCkguCkquCkvuCkpuCklSDgpLDgpL7gpJzgpYfgpII=?= =?utf-8?b?4KSm4KWN4KSwIOCkr+CkvuCkpuCktSDgpJXgpYsg4KSP4KSVIOCklA==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOClgA==?= Message-ID: हंस के संपादक राजेंद्र यादव को एक और चिट्ठी *दिल्ली में होने जा रहे हंस के सालाना जलसे पर जनज्वार ने कुछ सवाल उठाये थे. उन सवालों पर ज्यादातर पाठकों ने सहमति जाहिर की. मसला जलसे पर न अटके और बात साहित्य के सरोकारों तक पहुंचे, इसके मद्देनज़र जनज्वार अगला लेख युवा पत्रकारविश्वदीपक का प्रकाशित कर रहा है. लेख के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित की जा रही है जो वामपंथी लेखकों के मौजूदा सरोकारों की घनीभूत अभिव्यक्ति है. उम्मीद है कि लेख और तस्वीर दोनों ही बहस को एक नए धरातल पर पहुंचाने का जरिया बनेंगी-अजय प्रकाश. * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From kshwetketu at gmail.com Mon Jul 12 22:59:03 2010 From: kshwetketu at gmail.com (shwet ketu) Date: Mon, 12 Jul 2010 22:59:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hello Message-ID: *प्रवेश निषेध : यह सांस्कृतिक केंद्र नहीं* श्वेतकेतु पिछले दिनों पटना गया था| एक लम्बे वक़्त के बाद जाना हुआ था सो वहां की कुछ पुरानी चीज़ों को फिर से देखने की उत्सुकता वाजिब थी| वैसी चीज़ें जो हमेशा से ही मेरी बचपन की यादों को खुद में सहेजे हुए थीं| उन्हीं पुरानी चीज़ों में से एक गोलघर दर्शन भी शामिल था| बस एक दिन उठा और चला आया उसे देखने, पर इस बार नज़रें गोलघर से ज्यादा उसके आस पास की चीजों पर अधिक थीं|गोलघर के समीप ही एक अर्धनिर्मित भवन है- 'एकता भवन' जो किन्ही कारणों से पूरा बन नहीं पाया| आस पास से वहां की वर्तमान गतिविधियों पर मालूम करना चाहा तो पता चला कि सन २००० से ही एस टी एफ ने वहां डेरा जमाए रखा है| वहां पर उनका कैम्प है| भवन के बाहर बड़े बड़े अक्षरों में अन्दर आने पर सख्त पाबंदी होने कि सूचना और साथ ही उसे एक सुरक्षित स्थान के रूप में तब्दील करता हुआ एक साइन बोर्ड टंगा हुआ था|कई सारे राजनीतिक मुद्दों के बीच एक लम्बे अरसे से सोए हुए एक मामले ने मुझे झकझोरा जैसे मैं सोया हुआ था| दरअसल इस भवन का निर्माण प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के आदर्शों को ध्यान में रखते हुए एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने १९८५ में शुरु करवाया था| पर राजनीतिक अस्थिरता के उस दौर का असर इसके निर्माण कार्य पर भी पड़ना था सो पड़ा| १९८५ में बिन्देश्वरी दूबे कि सरकार के वक़्त शुरु हुए इस कार्य ने १९८८ में भागवत झा आजाद, १९८९ में सत्येन्द्र नारायण सिन्हा और मार्च १९९० तक कि जगन्नाथ मिश्र कि अल्प अवधि कि सरकार में अपनी रफ़्तार पकडे रखी पर १० मार्च १९९० में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही इसकी रफ़्तार धीमी हो गई और देखते ही देखते इस भवन निर्माण के कार्य ने अपना दम तोड़ दिया|आखिर क्यों? एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक में राबड़ी देवी सरकार(१९९७-२०००) के वक़्त तत्कालीन कला,संस्कृति और पुरातत्व विभाग के सचिव श्री राम शंकर तिवारी ने कहा था कि "हमारा विभाग एकता भवन को जल्द ही रिलीज़ करवा कर एक कला संग्रहालय के रूप में विकसित करेगा ताकि बिहार में विकसित कला के विभिन्न रूपों को एक ही भवन के नीचे सुरक्षित रखा जा सके| इस सिलसिले में एक पत्र विचार के लिए मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के पास भेजा जा चुका है|" इसी सिलसिले में मैं सदाकत आश्रम स्थित कांग्रेस के कार्यालय में गया| पता चला कि बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अनिल शर्मा जी शहर से बाहर गए हुए हैं और मुझे बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के मीडिया विभाग के चेयरमेन श्री एच के वर्मा से मिलने को कहा गया| श्री वर्मा मिले और उन्होंने बड़े ही कड़े लफ़्ज़ों में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि "हमने पिछले सारे मुख्यमंत्रियों को भवन निर्माण कार्य अविलम्ब शुरु करने को ले कर पत्र दिया पर किसी का भी ज्कवाब हमें आज तक नहीं मिला| हम अब आन्दोलन करेंगे| जिन उद्देश्यों को लेकर भवन कि स्थापना हुई थी उसे पूरा किया जाना चाहिए| एस टी एफ को फ़ौरन वहां से हटा कर उनका कही और बंदोबस्त किया जाना चाहिए| सत्र चलने के कारण मेरी मुलाकात किसी नेता से नहीं हो पाई पर मै आगे यह जानना चाहूँगा| आज सवाल यह नहीं कि वहां एस टी एफ का कैम्प क्यों है? आज न कल उनका बंदोबस्त कहीं और कर दिया जाएगा| सवाल यह है कि आखिर जिन उद्देश्यों को लेकर वह करोड़ों कि ज़मीन चुनी गई और कई लाखों कि लागत से निर्माण कार्य शुरू हुआ वह आज बदहाल स्थिति में चंद राजनीतिक स्वार्थों कि बलि चढ़ रहा है| हमें इस पर ध्यान देना होगा| http://www.tiruwara.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ved1964 at gmail.com Tue Jul 13 06:19:20 2010 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Tue, 13 Jul 2010 06:19:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJzgpKg=?= =?utf-8?b?4KS44KSk4KWN4KSk4KS+IOCkteCkvuCksuCkviDgpLLgpYfgpJY=?= In-Reply-To: References: Message-ID: प्रिय मित्रो, रविवारीय जनसत्ता में दलित मुद्दों पर आ रहे एक आयामी लेखों में महिलाओं की आवाज़ उठाने वाला यह लेख महत्त्वपूर्ण है, सादर, वेद प्रकाश ---------- Forwarded message ---------- From: ved prakash Date: 2010/7/13 Subject: Fwd: जनसत्ता वाला लेख To: vedprakash at orientalinsurance.co.in ---------- Forwarded message ---------- From: Anita Bharti Date: 2010/7/12 Subject: Fwd: जनसत्ता वाला लेख To: ved prakash , VED PRAKASH < vedprakash at orientalinsurance.co.in> आदरणीय रमणिका जी, मैं जनसत्ता में छपा लेख भैज रही हूँ। > *सदाचारी मंडल का > बेबुनियादी आलाप* > > पिछले कुछ समय से जनसत्ता में डॉ धर्मवीर और उनके खेमे के लोग कुछ सामाजिक > प्रश्नों को जिस तरह पेश कर रहे हैं उसे देख-पढ़ कर यही लगता है कि सदाचार का > उपदेश देने वाले ये लोग पूरी तरह दिग्भ्रमित हो चुके हैं या फिर कुछ गहरी > कुंठाएं इन्हें भीतर तक खाए जा रही हैं। मुश्किल यह है कि जनसत्ता जैसे > प्रगतिशील अखबार का इस्तेमाल इन प्रश्नों पर कोई स्वस्थ बहस कराने के बजाय इन > लोगों के कुंठित विचारों को स्थापना देने में किया जा रहा है। > > 'सदाचार' का यह "उत्सव" गंभीर सवाल खड़े करता है। यह पूरा विचार और इसकी भाषा > भारतीय संविधान में वर्णित किसी भी व्यक्ति की गरिमा और उसकी स्वतंत्रता के > खिलाफ है। धर्मवीर और उनकी मंडली के सभी भक्त और चेले असंवैंधानिक रूप में खाप > पंचायतों के प्रतिनिधि बन सारे समाज में स्वर्निमित विद्रूप नैतिकता का टोकरा > सिर पर धरे ऐसे "गलत" स्त्री-पुरुषों को ढूंढ़ रहे हैं जिनको दिन-दहाड़े खुलेआम > "नंगा" किया जा सके । सवाल है कि क्या ये सारे शब्द और विचार समाज के सबसे > शोषित तबके- स्त्री के प्रति घृणा और उन्माद फैलाने का काम नहीं कर रहे। > इन सदाचारियों की निगाह में वे "गलत" लोग कौन हैं जिनको नैतिकता के कोड़े मार > कर न केवल अमानवीय, असाहित्यिक, वरन असंवैधानिक कृत्य किया जा रहा है। इनके > सारे लेखों का मूंछ-पूंछ पकड़ने के बाद यह निष्कर्ष सामने आया है कि इनकी निगाह > में "गलत" वे लोग हैं और विशेष रुप से वह स्त्री है, जिसने धर्म-जाति के बंधन > तोड़ कर अपनी मर्जी से प्रेम विवाह किया है। दूसरे वह, जो इनकी गाली-गलौच खाकर, > अपमान सह कर भी स्वाभिमान से सिर उठाए जी रही है, पर इनके "कब्जे" में नहीं आ > रही या इनके पैरों की जूती बनने से इंकार कर रही है। अब चाहे वह इनकी पत्नी ही > क्यों न हो। इसलिए पत्नी के बहाने ये देश की सारी स्त्रियों पर चरित्रहीनता का > आरोप मढ़ अपनी कुत्सित मानसिकता से लबरेज फालिश मारी वैचारिकी को बेबुनियाद > दार्शनिकता का जामा पहनाने की नाकामयाब कोशिश कर रहे हैं। > जनसत्ता में प्रकाशित 9 मई को दिनेश राम का लेख बुनियाद-बेबुनियाद दृष्टव्य है > जिसमें उन्होने अपने स्वघोषित गुरु धर्मवीर की प्रशंसा में कसीदे काढते हुए > उनकी पत्नी के खिलाफ गैरकानूनी फतवा जारी करते हुए अपने जासूसी अंदाज में लिखा > है- उनकी पत्नी के उनके छोटे भाई से अवैध संबंध थे। (लगता है इनके पास सबके > अवैध संबंधो के दस्तावेज हैं) पता चलने पर धर्मवीर ने उन्हें ऐसा करने से मना > किया। पत्नी ने उनकी बात नहीं मानी, फिर उन्होंने अपनी पत्नी को सलाह दी कि वह > उनके छोटे भाई के साथ ही रहे, उन्हें तलाक दे दें, ताकि वह दूसरी शादी कर सके। > इससे भी आगे बढ़ कर दिनेश राम कहते है- "विकल्पहीनता की स्थिति में अपने बचाव > में धर्मवीर ने लक्षणा में यह कह कर क्या गुनाह कर दिया कि उन्होंने अपनी पत्नी > को नंगा करना शुरु कर दिया।" दिनेश राम क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए > पुलिसिया भाषा में कहते हैं- "ऐसी स्थिति में हर गलत स्त्री और पुरुष को समाज > के सामने नंगा किया जाना चाहिए।" ( मैं अपनी चिट्ठी में नंगा शब्द की जगह > बेइज्जत शब्द का इस्तेमाल करूंगी) > तथाकथित पत्नी-पीडित धर्मवीर अपनी पत्नी से तलाक लेना चाहते हैं ( बिना > भरण-पोषण और मुआवजा दिए बिना ) पर पत्नी दे नहीं रही। तलाक लेने के लिए > उन्होंने कोर्ट के भी चक्कर काटे, पर पत्नी निष्कलंक साबित हुई तो कोर्ट ने > तलाक की अर्जी खारिज कर दी। इसलिए धर्मवीर और उनकी भक्त मंडली उस अनपढ़ निरीह > पत्नी (पांच-छह बच्चे भी हैं) के पीछे पड गई, जिसके साथ लोगों की सहानुभूति है > और कोर्ट भी पक्ष में खड़ा है। असल में दिनेश राम और धर्मवीर जैसे मर्दों की > पीड़ा यह है कि जब वे पढ़-लिख जाते हैं, जीवन में सफल हो जाते हैं, तथाकथित > विद्वानों की श्रेणी में गिनने लायक हो जाते हैं, तो सबसे पहले उन्हें अपनी > मां-बाप की पसंद से चुनी गई बीवी (जिनसे इन्होंने अपने मन-मुताबिक बच्चे पैदा > किए) गले में पड़ा फांसी का फंदा लगने लगती है। ( शादी तय होते वक्त ये पूरे > श्रवण कुमार की भूमिका में होते हैं) अब इन्हें हर हाल में उस नापसंद बीवी से > छुटकारा चाहिए। वही वर्षों पुराना रामबाण अचूक तरीका, परंतु सौ फीसद कामयाब कि > किसी तरह उनको साम- दाम- दंड- भेद से चरित्रहीन साबित कर दो। लक्षणा की भाषा > में इससे दो काम एक साथ सध जाते है। एक तो चरित्रहीन कहते ही मर्द को इस समाज > मे सबके सामने औरत को जलील करने का लाइसेंस मिल जाता है। दूसरे लोग इसे दोनों > का व्यक्तिगत मामला मान कर पीड़िता पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार की मौन > स्वीकृति दे देते है। > धर्मवीर की पत्नी पांचवी पास है। गोबर पाथ कर उन्होंने उन्हें आईएएस और लेखक > बनने में मदद की। जब तक आईएएस नहीं थे, तब तक ये महाशय अपनी पत्नी को अपनी सबसे > अच्छी दोस्त मानते थे, पर लेखक और प्रशासनिक अधिकारी बनते ही, इन्हे सबसे पहला > इहलाम यह हुआ कि वह सबसे अच्छी दोस्त बदसूरत, चरित्रहीन और सबके सामने बेइज्जत > करने लायक हो गई। > पत्नी को बेइज्जत करने में धर्मवीर की हिमायत कई साहित्यकार मौन रह कर तथा कुछ > दिनेश राम जैसे मुखर हो कर कर रहे हैं और उनका निजी ( परन्तु सार्वजनिक रुप > में) मामला बता कर लोगों को बरगला रहे हैं। जब एक औरत को सबके सामने सार्वजनिक > रुप में बेइज्जत किया जा रहा हो, वह भी घोषित रूप में, तो आप ही बताएं कि वह > निजी मामला कैसे हुआ। इन दबंगों की हिम्मत तो देखिए कि ये कोर्ट को भी गरियाने > से नहीं चूकते, क्योंकि कोर्ट इनकी पत्नी को गलत न समझ कर न्याय देता है। यही > नहीं, जो भी उस गरीब दबी- कुचली औरत के हक में बोलने की हिम्मत करेगा, ये भक्त > मंडली और उनके स्वघोषित गुरु, उस शोषित महिला के पक्ष और हक में खडी लेखक > बिरादरी की मां और पत्नी तक पहुंच कर उनकी जाति-गोत्र ढूंढ़ने लग जाएगी। > दिनेश राम अपने लेख में भाषा की सारी हदें पार करते हुए रमेश मीणा के प्रति > अपने अश्लील और पोर्नोग्राफिक अंदाज में कहते है- "जब ये लोग सार्वजनिक रूप से > ‘बिना लगोंट बांधे हमारे सामने जमींदारों के कारिदों की तरह टूट पड़े।’ जिस तरह > की अश्लील और भद्दी भाषा का प्रयोग दिनेश राम अपने लेखक साथियों के लिए अखबार > में कर रहे हैं तो वे घरों में अपनी स्त्री व बच्चियों के लिए कौन-सी भाषा > इस्तेमाल करते होंगे, यह कल्पना से भी परे है। यही दिनेश राम जहां एक ओर जीती > जागती किसी की पत्नी को बेइज्जत करने में अपनी शेखी समझ रहे हैं, वही दूसरी ओर > जनसत्ता में ही प्रकाशित एक अन्य लेख में हिन्दू देवियों के सामने हाथ जोड़ > आरती उतारते हुए गौरव से कहते है- ‘सरस्वती का हिंदू धर्म में ऊंचा स्थान है। > वे एक आदर्श की प्रतीक हैं। निश्चित रूप से उनसे लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं। > ऐसे में उनका नग्न चित्र बनाना कहीं से भी उचित नहीं।’ (आजादी का दायरा, 18 > अप्रैल, जनसत्ता) > यह कैसा दोगलापन है। विश्व प्रसिद्ध कलाकार मकबूल फिदा हुसेन द्वारा सरस्वती > का निर्वस्त्र चित्र बनाने पर यह भक्त महाशय बहुत दुखी हैं। लेकिन हे पुजारी > दिनेश राम जी, धर्मवीर की पत्नी को सबके सामने बेइज्जत करने की हिमायत करके > क्या आप अपना और सबके मनोविनोद का प्रबंध कर रहे है। "सदाचार" का ताबीज दुनिया > को बांटने, जार कर्म को मिटाने का ठेका लेकर बैठे चेले और अन्य हिमायतियों को > मेरा एक सुझाव है कि वे एकपक्षीय एकालापी हिमायत लेकर सदाचार का उपदेश देना बंद > करे। पहले अपनी "गुरुमाता" का पक्ष सुन कर आएं और उसको प्रस्तुत करने की हिम्मत > भी रखें। अगर आप ऐसा नही करते तो सब यही कहेंगे कि ये कैसा चेला है जो "गुरू" > को तो पूजता है और "गुरुमाता" को सरेआम बेइज्जत करने की हिमायत कर मजा लूटता > है। > > > अनिता भारती > ए.डी 118बी शालीमार बाग दिल्ली-88 मोबाईल- 9899700767 > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Jul 13 12:37:59 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 13 Jul 2010 12:37:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLngpLAg4KSX4KS+4KSy4KWAIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSF4KS44KSwIOCksuCkl+CkpOClgCDgpLngpYg=?= Message-ID: हममें से अधिकांश लोग उस परिवेश से आते हैं जहां स्साला भर बोल देने से सामनेवाला कॉलर पकड़ लेता है,कई बार पटकर मारने पर उतारु हो जाता है। मां-बहन की गाली देने पर खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। मैंने खुद कई ऐसे मामले देखे हैं जिसमें एक शख्स ने दूसरे शख्स को मारकर सिर फाड़ दिया है,बुरी तरह लहूलुहान कर दिया है लेकिन भीड़ उस शख्स के प्रति हमदर्दी जताने के बजाय मारनेवाले का पक्ष लेती हैं क्योंकि उसने मां-बहन की गाली दी है। इस तरह हमारे संस्कार को देखने-परखने का एक तरीका ये भी है कि हम गाली देते हैं,नहीं देते हैं। गाली देने की स्थिति में हमारी सारी समझदारी एक तरफ,पढ़ा-लिखा आभिजात्यपन एक तरफ और गाली दूसरी तरफ। ऐसा मान लिया गया है कि जो सभ्य होगा,पढ़ा-लिखा होगा वो गाली नहीं देगा। पढ़-लिखकर कोई गाली देने जैसा गलीच काम नहीं कर सकता। दूसरी तरफ दिल्ली में हमारा पाला समाज के जिस तबके से पड़ता है,दिन-रात हम जिनसे मिलते-जुलते और बात करते हैं वो पढ़ा-लिखा समाज है। आइएस-आइपीएस,एकेडमीशियन,रिसर्चर,पत्रकार और इसी तरह के पेशे के लोगों से हमारी बातचीत होती है। बाकी पब्लिक डोमेन में जिसमें की डीटीसी के बस कन्डक्टर से लेकर मदर डेयरी पर बैठे लोग तक शामिल हैं,उन्हें शायद ही कभी इस बात का एहसास होता हो कि वो एक वाक्य में कारक चिन्हों को छोड़कर बाकी के जो शब्द उच्चारते हैं वो गाली हैं। दीप्ति दुबे जो कि लोकसभा चैनल की संजीदा पत्रकार और मशहूर ब्लॉगर भी है ने इस पर बहुत ही बेहतरीन लिखा है। उन गालियों को कविता की शक्ल में देनेवाले लोगों की मानसिकता और प्रयोग को कुछ इस तरह लिखा है कि वो छंदबद्ध रचना लगती है। लेकिन पब्लिक डोमेन के इन लोगों के अलावे,पढ़ा-लिखा आभिजात्य समाज भी उन्हीं गालियों का इस्तेमाल धडल्ले से करता है। कोई स्त्री-विमर्श का पैरोकार बहन लगाकर गाली दे दे तो कोई अजूबा नहीं लगता। शिमला सेमिनार के दौरान फुर्सत में जब एक शख्स ने यही काम किया तो शीबा असलफ फहमी ने उस समय टोका था,वो महाशय भूल गए थे कि शीबा की बातों का समर्थन में कितनी जोरदार गाली दे दी थी। अब सवाल ये है कि क्या समाज के इस पढ़े-लिखे क्रीमी समाज को इस बात का एहसास होता है कि जो वो बक रहे हैं,वो गाली है? और अगर हां तो फिर गाली देना बदस्तूर क्यों जारी है? मेरी परवरिश जिस तरह से हुई है वो एक औसत दर्जे के झारखंडी-बिहारी परिवार से अलग नहीं है। हम पर भी वो तमाम बंदिशें जिसे की मूल्य,संस्कार और परंपरा का हवाला देकर थोपे गए। वहीं हमें बताया गया कि स्साला कितनी गंदी गाली होती है। गाली देनेवाले लौंडों से हमें दूर रखा गया। बाद में हमारी तारीफ में घर के लोग कहा करते कि-मजाल है कि इसके मुंह से स्साला शब्द भी निकले। घर के लोग बहुत खुश होते लेकिन घर के बाहर के कुछ लोगों का कहना था कि आपने शरीफ बनाने के नाम पर इसे छौडी( लड़की) बना दिया है। दू-चार गाली देगा नहीं तो जिएगा कैसे? उस समय तो मेरा काम चल गया,बिना किसी तरह की गाली दिए मैट्रिक तक अच्छे नंबरों से पास हो गया। हां यहां ये फिर से दोहराना जरुरी है कि गांड़ शब्द को लेकर हमें कभी एहसास नहीं हुआ कि ये गाली है इसलिए मैंने अनुराग कश्यप की पोस्ट पर इसे लेकर कमेंट भी किया। लेकिन दिल्ली की आवोहवा में पता नहीं ऐसा क्या है कि बिना गाली के काम नहीं चलता। हम चाहते न चाहते हुए भी दिनभर में दस बार गाली तो दे ही देते हैं। घर से बाहर निकलने पर ये संख्या औऱ बढ़ जाती है। हम स्त्री अधिकारों,उनकी अस्मिता और सम्मान को लेकर संवेदनशील होते हैं लेकिन कार्पेट एरिया के भीतर घर में,कमरे में ही निर्जीव चीजों को लेकर गालियां बकते हैं। भोसड़ी के ये मोबाईल चार्जर कहां चला गया, मादरचो..ये कूलर का पंप बार-बार आजकल बंद हो जा रहा है। दिल्ली में रहते हुए ये गालियां इतनी कॉमन लगती है,हम इसका इस्तेमाल इतनी सहजता से करते हैं कि कई बार बहुत ज्यादा गुस्सा आने पर,किसी से बहुत अधिक नफरत होने पर हमारे पास गालियों का टोटा पड़ जाता है। मां की,बहन की,उसे थोड़ा इधर-उधर करके गालियां तो दे देते हैं लेकिन भीतर से लगता है कि न इसका कुछ असर ही नहीं हुआ। कई बार तो मैंने लोगों के मुंह पर तथाकथित गंदी गालियां दी है लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं बने-बदले। उन्होंने कभी कॉलर नहीं पकड़ा,कभी खून-खराबा की नौबत नहीं आयी।..सारी की सारी गालियां बेअसर लगने लगती है। लेकिन वही जब हम रांची की ट्रेन पर बैठते हैं शिवाजी ब्रीज क्रॉस करते हैं तो लगता है कि हम कितनी गालियां बकते हैं,तमाम तरह के खुलेपन के वाबजूद,घर में पूरी तरह दोस्ताना महौल होने पर भी धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं मां या भाभी के सामने मुंह से गाली न निकल जाए। ये चौबीस घंटे की जर्नी का असर कहिए या फिर दिल्ली से दूरी कि सच में घर में कदम रखते ही,शू रैक से ठोकर भी लग जाए तो मां-बहन क्या मुंह से स्साला तक नहीं निकलता। लड़्कियां भी देती हैं मादरचो..की गालियां,तू किसके साथ() करती है,नोएडा फिल्म सीटी में मीडिया की लड़कियां देती हैं धडल्ले से गालियां,हमारा साहित्य भी मादर,बहनचो..को लेकर अभ्यस्त हो चला है और चैनलों में गाली को लेकर एक खास किस्म की भाषा विकसित हो रही है।..ये सब पढ़िए अगली पोस्ट में.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue Jul 13 15:49:40 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 13 Jul 2010 15:49:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSwIOCklw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkpuClh+Cktiwg4KSF4KSw4KWHLCDgpJzgpYDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSkIOCksOCkuSDgpJfgpK/gpYcg4KSk4KWB4KSu?= Message-ID: मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुमदर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी करते रहो और बहस भी चलाते रहो. अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है, लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो, जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है, गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे ! अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं. *पूरा पढ़िएः मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Jul 13 17:56:35 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 13 Jul 2010 17:56:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KSs?= Message-ID: बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर यह ख़बर आज ही पोस्ट की गई है. मनमोहनोमिक्स का एक विद्रूप चेहरा आप भी देख सकते हैं. शुक्रिया. -शशिकांत आठ राज्यों में अफ़्रीका से अधिक ग़रीब [image: छत्तीसगढ़ का एक गाँव] छत्तीसगढ़ के एक गाँव में एक रोगी महिला को अस्पताल ले जा रहा बच्चा ग़रीबी का एक नए तरह से माप करनेवाली पद्धति का कहना है कि भारत के आठ प्रदेशों में अफ़्रीका के 26 देशों से अधिक ग़रीब बसते हैं. मल्टीडायमेन्शनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) नामक इस नई माप को ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग ने संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनडीपी के साथ मिलकर बनाया है. इस नई माप को यूएनडीपी की सालाना मानव विकास रिपोर्ट की 20वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित होनेवाली रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा जो अक्तूबर में आएगी. मगर ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय और यूएनडीपी की ओर से एमपीआई के आधार पर सामने आए निष्कर्षों को इस सप्ताह लंदन में सार्वजनिक किया जा रहा है. नई माप को बनानेवाले विशेषज्ञों ने बताया है कि भारत के आठ राज्यों में 42 करोड़ 10 लाख लोग़ ग़रीब हैं जो अफ़्रीका के 26 निर्धनतम देशों में ग़रीबों की संख्या से अधिक है जहाँ 41 करोड़ लोग ग़रीब हैं. जिन आठ भारतीय राज्यों के ग़रीबों का उल्लेख किया गया है वे हैं – बिहार, झारखंड, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पश्चिम बंगाल. *साफ़ तस्वीर* एमपीआई एक बहुत ही अधिक साफ़ तस्वीर लेनेवाला लेंस है जिससे निर्धनतम परिवारों के सामने खड़ी किस्म-किस्म की चुनौतियाँ देखी जा सकती हैं डॉक्टर सबीना अल्किरे, निदेशक, ओपीएचआई एमपीआई माप बनानेवाले विशेषज्ञों का कहना है कि इस नई पद्धति से ग़रीबी का सामना करनेवाले लोगों की एक बहुआयामी तस्वीर को समझा जा सकता है जिससे विकास के संसाधनों का और प्रभावी तरीक़े से उपयोग हो सकता है. इस नई माप में एक सामान्य परिवार में कई तरह की विपन्नताओं का लेखा-जोखा लिया जाता है जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, संपत्ति और उपलब्ध सेवाएँ शामिल हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इन कारकों से भारी ग़रीबी की एक संपूर्ण तस्वीर सामने आती है जो कि केवल आय के आधार पर ग़रीबी मापने की पद्धति से संभव नहीं हो पाता. एमपीआई को विकसित करनेवाले दल की प्रमुख, ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की – ग़रीबी एवं मानवीय विकास शाखा – की निदेशक डॉक्टर सबीना अल्किरे कहती हैं,"एमपीआई एक बहुत ही अधिक साफ़ तस्वीर लेनेवाला लेंस है जिससे निर्धनतम परिवारों के सामने खड़ी क़िस्म-क़िस्म की चुनौतियाँ देखी जा सकती हैं." ग़रीबी की माप की इस नई बहुआयामी पद्धति को मेक्सिको में राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल में लाया जा रहा है और चिली और कोलंबिया में इसके बारे में विचार किया जा रहा है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue Jul 13 19:44:41 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 13 Jul 2010 19:44:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KWB4KSC?= =?utf-8?b?4KSn4KSk4KS/IOCkleCkviDgpIjgpK7gpYfgpLI6IOCkueCkguCkuCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljeCksOCkriDgpK7gpYc=?= =?utf-8?b?4KSCIOCktuCkvuCkruCkv+CksiDgpLngpYvgpKjgpYcg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KSIIOCkh+CksOCkvuCkpuCkviDgpKjgpLngpYDgpII=?= In-Reply-To: References: Message-ID: अरुंधति का ईमेल * हंस के कार्यक्रम में शामिल होने का कोई इरादा नहीं * *नीलाभ * *हंस* ने जो अगले सालाना आयोजन कि रूप-रेखा प्रचारित की थी उसमें सब को यह आभास दिया था कि इस बार वे पुलिस अधिकारी विश्वरंजन और अरुंधति राय को एक ही मंच पर लायेंगे. लोगों में इस पर बड़ा आक्रोशथा. मैंने दो-तीन दिन पहले हंस कार्यालय में राजेंद्र जी से पूछा तो उन्होंने भी तस्दीक की. लेकिन जब मैं ने अरुंधति से पूछा तो उन्होंने साफ़ कहा कि वे ऐसे कार्यक्रम में नहीं जा रहीं हैं. उनका जवाब संलग्न है. *Dear Neelabh* Thanks for alerting me about a meeting I had no idea about! Rajendra Yadav did call a few weeks ago and ask whether I could come to a Hans event in July. I was travelling at the time and said I'd speak to him later. And now you tell me that without my ever having agreed, it's being billed as a debate between me and the notorious policeman Mr Vishwaranjan! I had no idea about all this. I have no intention of being there. Not after my recent experience with PTI and the rubbish that is being put out by the Chhattisgarh police and headlined in the Indian Express. You say a bunch of youngsters are putting together a petition asking me not to go...please tell them that I don't need a petition to persuade me! I never agreed to go in the first place. And now it's beginning to look like a set up . You can circulate this to anyone who is worried that I might walk into this trap. (translate it if it will help?) I think there are better ways of having debates in which co-opted media people controlled by the police cannot misquote you. All the best *Arundhati* -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Jul 15 13:26:17 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 Jul 2010 13:26:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSQ4KS44KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkuOCkteCkv+CkpOCkvuCkreCkvuCkreClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KSt4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpK7gpLDgpYfgpJfgpYAg4KSF4KSC?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSV4KS+IOCkuOCli+CkqOClgOCknOClgC4u?= Message-ID: सविताभाभी की नयी सीरिज एक बार फिर से आपके सामने है। सविताभाभी इन गोवा नाम से kirtu.com ने इस सीरिज की शुरुआत आज यानी 15 जुलाई से शुरु की है। इसके अलावे भी ये साइट कई नयी सीरिज शुरु करने जा रहा है। अन्तर्वासना डॉट कॉम पर दिए गए विज्ञापन में किरतु डॉट कॉम ने कहा है कि- प्रिय बन्धुवर, सविता भाभी के हज़ारों प्रशंसकों के अनुरोध पर हमने सविता भाभी पर एक मुफ़्त श्रृंखला आरम्भ करने का निश्चय किया है। 15 जुलाई, 2010 से आरम्भ होने वाली एवम् केवल www.kirtu.com पर प्रदर्शित होने वाली इस श्रृंखला में हर रोज़ नई कड़ियाँ जोड़ी जाएँगी। कृपया उस दिन इस साईट को देखना ना भूलें ! *सविता भाभी गोआ में* जब शोभा एक सप्ताह की छुट्टी मनाने के लिए सविता भाभी को गोआ में आमंत्रित करती है तो सविता को उसकी नीरस शादीशुदा जिन्दगी के सभी बंधन तोड़ कर इतने सारे गर्म और प्यारे युवकों और तट-रक्षकों के साथ पूरा सप्ताह बिताने का मौका मिलता है। सविता अपने जीवन के कभी ना भूलने वाले इस अवकाश का आनन्द उठाने के लिए तैयार है। अपनी पसंदीदा सविता भाभी के रोमांच को देखें कि कैसे वो अपनी मोहक, उत्तेजक और आकर्षक काया से गोआ के तट पर आग लगा देती है। नई लघु श्रृंखला "सविता गोआ में !" केवल किरतु पर प्रदर्शित होने वाली इस श्रृंखला को निशुल्क देखने के लिए यहाँ क्लिक करें ! इंटरनेट के जरिए अश्लीलता फैलाने का कलंक झेल रही सविताभाभी को 3 जून 2009 में सरकार की तरफ से बैन कर दिया गया। उस दिन मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए देश की सबसे पॉपुलर पॉर्न टून सविताभाभी.कॉम को बैन करना एक खबर थी। अंग्रेजी सहित हिन्दी के अखबारों ने इस खबर को दिलचस्पी के साथ प्रकाशित किया। इस खबर को लेकर लोगों के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया सामने आयी लेकिन पाठकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी रहा जिसने की इस साइट पर बैन लग जाने पर अफसोस जाहिर किया। इस अफसोस का ही एक नतीजा ये भी रहा कि रहा कि बैन किए जाने के वाबजूद सविताभाभी को देखने की लालसा लोगों की बनी रह गयी और खबरों की प्रमुखता से इसके नए पाठक वर्ग पैदा हुए। सविताभाभी.कॉम पर तो नयी फीड और सीरिज आनी बंद हो गयी,पहले के भी अर्काइव गायब हो गए लेकिन बैन करने के अगले ही दिन दूसरी लिंक से सविताभाभी की सारी सीरिज को देखा जा सकता था। बाद में doodhwali.com और kirtu.com पर ये सारी सीरिज नजर आने लगे। सरकार की लाख औपचारिक कोशिशों के वाबजूद लोगों का सविताभाभी का देखा जाना जारी रहा। इसकी लोकप्रियता में रत्तीभर भी कमी नहीं आयी। दूसरी तरफ अपने शुरुआती दिनों से ही इस साइट ने इतनी पॉपुलरिटी अर्जित की कि इसकी हिट्स में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। साइट की लोकप्रियता की दो बड़ी वजह थी। एक तो इसके कार्टून्स जिसे देखकर मेरा एक दोस्त इसे बनानेवाले को एम.एफ.हुसैन से भी बड़ा चित्रकार मानता आया है और दूसरा कॉमिक्स की शक्ल में इसकी प्रस्तुति जिसके छोटे-छोटे वाक्य इंडियन सेक्स मेंटलिटी को बेहतर तरीके से रिप्रजेंट करते हैं। इससे भी बड़ी बात कि इस साइट ने पहले तो अंग्रेजी में लेकिन बाद में कई भारतीय भाषाओं में पढ़ने की सुविधा मुहैया करा दी। हिन्दी में जिन अश्लील शब्दों औऱ सेक्स संकेतों का प्रयोग किया जाता उनका बिल्कुल ही देशज अंदाज होता। इस साइट के जरिए पहली बार सेक्स को लेकर उत्तेजना पैदा करने का काम विदेशी नग्न तस्वीरों के अलावे छपे हुए शब्द करने लगे। टेक्सट ने अपना अलग से असर पैदा किया। एलेक्सा की माने तो उस समय सविताभाभी देश का 82 वां सबसे ज्यादा देखी जानेवाली साइट रही है,ये BSE यानी बॉम्बे एस्टॉक एक्सचेंज से भी ज्यादा देखी जानेवाली साइट रही है। बाद में इस साइट की रैंकिंग में तेजी से सुधार होते चले गए। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता का असर इस हद तक हुआ कि THE TELEGRAPH, MINT,THE TIMES OF INDIA ने इस पर स्टोरी की। बाद में TEHELKA ने The Beautitudes Of A Bountiful Bhabhi ( Anastasia Guha, मई 17 2008) नाम से एक स्पेशल स्टोरी की जिस पर कल्चर एंड सोसायटी के लेबल लगे थे। जाहिर है कि जिस पोर्न साईट को देखना एक कुंठाग्रस्त और बदमाश मानसिकता की हरकत माना जाता रहा उस साइट पर बाकायदा मीडिया हलकों में चर्चा होनी शुरु हो गयी। तहलका में छपी स्टोरी का असर कहें कि लोग इस पर खुलेपन से बात करने लगे। तहलका ने इस साइन के पोर्न एल्टीमेंट को कम करके इसके बहस का हिस्सा बनाने में मदद की। सविताभाभी की लोकप्रियता टेलीविजन में भी सिर चढ़कर बोलने लगी। इन्टरनेट पर jayhindtv ने सविताभाभी के कैरेक्टर को विजुअल प्रजेंटेशन देने लगा जो कि कि पोर्न टून सविताभाभी के अंदाज में ही सवालों के जबाव और बोलने-बतियाने लगी। इसके कई एपीसोड इन्टरनेट पर मौजूद हैं जिसमें टीवी सीरियलों के कई चर्चित चेहरे शामिल हैं। ये सविताभाभी कैरेक्टर की बड़ी स्टेप थी जिसमें अब तक पैसिव होकर सिर्फ उसकी बातों को पढ़ते आए पाठक सीधे-सीधे उससे एक्टिव मोड में बोल-बतियाने लग गए। इस तरह सरकार ने जिस साइट को पोर्न साइट करार देकर बैन कर दिया उससे जो नार्म्स पैदा हुए वो प्रिंट मीडिया,इन्टरनेट से लेकर टेलीविजन में पसर गए। आज माध्यमों के जितने भी रुप हो सकते हैं वहां सविताभाभी किसी न किसी रुप में मौजूद हैं। हां खिलौने की दुनिया और फ्रैब्रिक्स इन्डस्ट्री में इसे आना बाकी है। हम हर बार की तरह इस साइट के बंद करने या न करने पर बहस करें इससे ज्यादा जरुरी है कि हम सरकार के उन प्रयासों पर बात करें कि किस तरीके से वो ऐसी साइटों को बैन करती है और फिर जब वो बैन करती है तो उसकी कोशिश किसी एक हायपर लिंक को बंद करना होता है या फिर समाज में फैलते इस नार्म्स को रोकने की। माफ कीजिएगा,नार्म्स के स्तर की कार्यवाही के लिए सरकार को भारी मशक्कत करनी होगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Thu Jul 15 20:12:16 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 15 Jul 2010 20:12:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KSC4KSX?= =?utf-8?b?4KS+4KSI4KSDIOCkteCljeCkr+CkteCkuOCljeCkpeCkviDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSd4KWC4KSgIOCklOCksCDgpJzgpKjgpKTgpL4g4KSV4KS+IOCkrw==?= =?utf-8?b?4KSl4KS+4KSw4KWN4KSl?= Message-ID: महंगाईः व्यवस्था का झूठ और जनता का यथार्थ अब किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता गांवों से कोई रचनात्मक कार्य नहीं करता है. राजनीतिक दलों के आयोजन शहर केंद्रित हो गये हैं. नेताओं की जीवन शैलियां बदल चुकी हैं. उनका जन प्रतिनिधि रहना एक बडा झूठ है. सरकार को केवल चुनाव के समय जनता से मतलब होता है. वे जनोन्मुखी नहीं, बाजारोन्मुखी हैं. लोकसभा में तीन सौ से अधिक सांसद करोड़पति हैं. किस तर्क से उन्हें गरीबों और बेरोजगारों का प्रतिनिधि कहा जायेगा? बंद एक अभिव्यक्ति है, दबाव है, प्रतीक है, जिसका संबंध व्यापक जन समूह से नहीं है. वेतन-वृद्धि का भी मूल्य वृद्धि से संबंध है. 80-90 करोड़ की जनता के लिए महंगाई का जो अर्थ है, वही अर्थ 10-20 करोड़ लोगों के लिए नहीं है. नौकरी करनेवालों का वेतन पांच-10 वर्ष बाद बढता है. वर्ष में दो-चार बार महंगाई भत्ता बढता चलता है. यह वर्ग सरकार और व्यवस्था के साथ है. भारतीय मध्यवर्ग अपनी सकारात्मक-विधेयात्मक भूमिका त्याग चुका है. वह महंगाई से प्रभावित नहीं है. सरकार भयावह भारतीय यथार्थ को देखना नहीं चाहती. एक दिन का भारत बंद उसे परेशान करता है. जबकि इसका कोई बडा प्रभाव नहीं पडता. बंद कई कारणों से होते हैं. धार्मिक कारणों से होनेवाले बंद और सामाजार्थिक कारणों से होनेवाले 'बंदों' में अंतर है. राजनीतिक दल वास्तविक विपक्ष की भूमिका में नहीं हैं. संसद में वे अपनी वास्तविक भूमिका का कम निर्वाह करते हैं. संसद और सडक, दोनों ही जगहों में विरोध जरूरी है. -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Fri Jul 16 00:09:14 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Fri, 16 Jul 2010 00:09:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSj4KWH?= =?utf-8?b?IOCkq+CkvOCkv+CksuCljeCkriDgpLjgpILgpLjgpY3gpKXgpL7gpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkquCkmuCkvuCkuCDgpLXgpLDgpY3gpLc=?= Message-ID: FTII पर भाई अरविन्द का लेख पढ़ें. यह लेख जनसत्ता में छप चुका है. संस्थान के निदेशक पंकज राग का संक्षिप्त साक्षात्कार भी है: www.bargad.wordpress.com prakash -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Jul 16 14:23:02 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 16 Jul 2010 14:23:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkquCksCDgpKzgpLngpLjgpKTgpLLgpKwtMyzgpJXgpL8=?= =?utf-8?b?4KS44KSo4KWHIOCkleCljeCkr+CkviDgpJXgpLngpL4/?= Message-ID: मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive *बाजार का मीडिया और* जैसा बाजार चाहे, वैसा मीडिया। बाजार का कोई सपना नहीं होता, बाजार मुनाफे से चलता है और वो किसी का नहीं होता। बाजार मीडिया को पूरी तरह नियंत्रित कर रहा है। बहसतलब 3 में “किसका मीडिया कैसा मीडिया” बहस का जो मुद्दा रखा गया, इस पर बात करते हुए मणिमाला की ये लाइन पूरी बहस के बीच सबसे ज्यादा असरदार रही। ये वो लाइन है, जिसके वक्ताओं के बदल जाने के वाबजूद बहस का एक बड़ा हिस्सा इसके आगे-पीछे चक्कर काटते हैं। इस लाइन को आप पूरी बहस के निष्कर्ष के तौर पर भी देख सकते हैं या फिर बहस का वो सिरा, जिसे लेकर सूत्रधार सहित कुल चारों वक्ता सहमत नजर आये। मीडिया को बाजार का हिस्सा मानने से हमारे कई भ्रम दूर होते हैं और इसके चरित्र को समझने में सुविधा होती है। शुरुआती वक्ता के तौर पर मणिमाला ने पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश की। हम मणिमाला की इस शानदार बात को आगे बढ़ाएं इससे पहले बहस की भूमिका किस तरह से तैयार होती है, थोड़ी चर्चा इस पर भी कर लें। *किसका मीडिया कैसा मीडिया* ऐसा मसला है, जिस पर अंतहीन बहसें जारी रहने की संभावना है। कहीं से कुछ भी बोला जा सकता है। ऊपरी तौर पर एक विषय दिखते हुए भी इसके बहुत जल्द ही एब्सट्रेक्ट में बदल जाने की पूरी गुंजाइश दिखती है। इसके नाम पर पत्रकारिता के पक्ष में कसीदे पढ़े जा सकते हैं, उसके भ्रष्ट हो जाने पर मातमपुर्सी की जा सकती है या फिर बेहतर बनाने के नाम पर यूटोपिया रचा जा सकता है। संभवतः इन्हीं खतरों को ध्यान में रखते हुए आनंद प्रधान ने बहस की शुरुआत में ही जो एजेंडा हमारे सामने रखा – उससे एक तरह से साफ हो गया कि इसके भीतर वक्ता क्या बोलने जा रहे हैं और हमें क्या सुनने को मिलेगा? *वक्ता के तौर पर* मंच पर बैठे पारांजॉय गुहा ठाकुरता, सुमित अवस्थी, दिलीप मंडल और मणिमाला के बोलने के ठीक पहले सूत्रधार आनंद प्रधान ने जो भूमिका रखी, उसमें जो सवाल उठाये, वो इसी बाजार के बीच पनप रहे मीडिया को लेकर उठाये गये सवाल थे। आनंद प्रधान ने इस बहस में तीन बिंदुओं पर बात करना जरूरी बताया। सबसे पहले तो ये कि मीडिया का सवाल ऑनरशिप के सवाल से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। हमें हर हाल में इस बात की खोजबीन करनी होगी कि इस मीडिया पर किसका कंट्रोल है, किसके हाथ से ये संचालित है और इसके भीतर कितनी गुंजाइश रह गयी है? दूसरा बड़ा सवाल जनआंदोलनों को लेकर मीडिया का क्या रवैया है? आज आखिर ऐसा क्यों है कि देशभर में जितने भी छात्र आंदोलन होते हैं वो टेलीविजन से लेकर समाचारपत्रों तक के लिए बेगानी बात है, उसमें कहीं कोई मुद्दा मीडिया को दिखाई नहीं देता? इसी के साथ जुड़ा एक ये भी सवाल है कि आखिर क्या वजह है कि नब्बे के देशक में जो पत्रकार जनआंदोलनों की पृष्ठभूमि से आये थे, चाहे वो सीधे तौर पर किसी संगठन से या फिर छात्र आंदोलनों से जुड़े थे, उन्हें एक-एक करके साइडलाइन कर दिया जा रहा है? इन पत्रकारों को बाहर कर देने के साथ-साथ उनके मुद्दों की भी नोटिस नहीं ली जाने लगी। न्यूजरूम के भीतर स्त्री और दलित की मौजूदगी कितनी है, उनसे जुड़े कितने मुद्दे मीडिया की नोटिस में हैं? आज हेमचंद्र माओवादी करार दिया जाता है और इस पर मीडिया किसी भी तरह की खोजबीन या अफसोस जाहिर करने के बजाय उल्टे इसे सरकार के साथ जस्‍टीफाइ करने लग जाता है, ये हमारे सामने एक सवाल है। और तीसरा बड़ा सवाल है – विकल्प की बात। क्या हम मीडिया को इसी तरह कोसते रहेंगे या फिर इसे दुरुस्त करने जिसे कि आनंद प्रधान ने रिकवरी टर्म दिया, इस दिशा में भी कुछ काम कर पाएंगे, हमारे पास किस तरह के मॉडल हैं, किस तरह का खाका है, इस पर भी बात होनी चाहिए.. पूरी पोस्ट पढञने के लिए चटका लगाएं- http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/3.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Jul 17 12:40:40 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 17 Jul 2010 12:40:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpIbgpLDgpI/gpLjgpI/gpLgg4KSV4KWHIOCkl+ClgQ==?= =?utf-8?b?4KSC4KSh4KS84KWL4KSCIOCkleCkviDgpLngpK7gpLLgpL4=?= Message-ID: कल शाम करीब पांच बजे आरएसएस के गुंड़ों ने आजतक चैनल के दिल्ली दफ्तर पर हमला किया और भारी तोड़-फोड़ मचायी। हजारों की संख्या में वीडियोकॉन टावर के भीतर जबरदस्ती घुस आए इन गुंड़ों ने ग्राउंड फ्लोर पर करीने से सजे गमले,मेटल डिटेक्टर डोर और कैफे कॉफी डे को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया। चैनल की फुटेज देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये लोग कितनी तैयारी के साथ हमले की नीयत से यहां पहुंचे थे। लेकिन इस हमले को लेकर आरएसएस प्रवक्ता राम माधव ने साफ कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है। आजतक के संवाददाता बार-बार वीडियो फुटेज का हवाला देते रहे कि ये सब कैमरे में कैद है लेकिन माधव ने बस इतना कहा कि उत्साह में आकर थोड़ा-बहुत कुछ कर दिया होगा,इसके लिए भी जिम्मेवार आप ही लोग(आजतक) हैं लेकिन लोगों का इरादा हमला करना बिल्कुल भी नहीं था। अब सवाल है कि वन्दे मातरम का नारा लगानेवाले आरएसएस और उसके प्रवक्ता यदि झूठ बोलते हैं तो फिर आगे क्या किया जाए? फिलहाल तो आरएसएस के इन गुंड़ों पर इस बात का चार्ज जरुर बनता है कि उन्होंने जो जमा होकर विरोध प्रदर्शन किया उसकी किसी भी तरह की अनुमति प्रशासन की तरह से नहीं ली। मनमाने तरीके से झंडेवालान की गलियों में जमा हुए और कुछ तख्तियां लगटाकर पहले नारेबाजी और बाद में तोड़-फोड़ मचानी शुरु कर दी। खबर दिखाए जाने तक इस मामले में कुल 9 लोगों की गिरफ्तारी हुई है जिसकी शक्लें चैनल ने अलग-अलग दिखाई। ऐसी शक्लों से हम बुरी तरह घिरे हैं और उनसे निबटने की जरुरत है। हमले की जो वजह निकलकर सामने आयी है उससे ये साफ है कि चैनल ने आरएसएस और बीजेपी के उन कारनामों को बेनकाब करने की कोशिश की है जिसके मुताबिक वो राष्ट्रीय संगठन या पार्टी कम देश में दहशत और आतंक फैलानेवाली एजेंसी ज्यादा मालूम पड़ते हैं। लोगों के सामने सच आ जाने से बौखलाए इस संगठन ने विरोध की आड में हमला बोल दिया। मामला कुछ इस तरह से है कि आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइन्स टुडे ने उग्र हिन्दूवाद पर एक स्टिंग ऑपरेशन किया। इस स्टिंग के मुताबिक देश के भीतर जो आतंकवाद पनप रहा है उसमें कहीं न कहीं आरएसएस और बीजेपी जैसे संगठनों और राजनीतिक पार्टियों का भी हाथ है। स्टिंग में कुछ ऐसे फुटेज हैं जिन्हें देखने के बाद कहीं से कोई शक-सुवह की गुंजाईश नहीं रह जाती। चैनल ने इसे SAFFRON TERROR का नाम दिया और स्पष्ट तरीके से उन तमाम धमाकों की चर्चा की जिसमें कि इनके किसी न किसी रुप में शामिल होने के सबूत मिलते हैं। आजतक की वेबसाइट पर लिखा है-भारत के उप राष्‍ट्रपति हामिद अंसारी की हत्‍या की होती है साजिश. आरएसएस का एक पदाधिकारी अजमेर शरीफ और मक्‍का मस्जिद में हुए धमाकों को निर्देशित करता है. बीजेपी नेता बी.एल शर्मा,दयानंद पांडे और आरएसएस के अधिकारियों की तस्वीरें बार-बार इस स्टिंग में दिखाई देती हैं। पूरी स्टिंग में ये बात पक्के तौर पर स्थापित होती है कि ये लोग कौमी एकता के खिलाफ लगातार सक्रिय हैं और उसके पक्ष में महौल बनाने का काम कर रहे हैं। वैसे भी इस देश में खुद मीडिया,सिनेमा और दूसरे माध्यमों के जरिए एक खास कौम को आतंकवादी करार देने की जो कोशिशें की जाती रही है ऐसे में इन संगठनों को अपना काम करने में बहुत आसानी हो जाती है। अभी तक तो यही आवोहवा बनी है कि कोई भी हिन्दू और उससे जुड़े संगठन आतंकवादी नहीं हो सकते। लेकिन, हेडलाइन्स टुडे की इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद मुझे लगता है कि देश के सामने एक बड़ा भ्रम जिसे कि मिथक के तौर पर लगातार स्थापित किया जाता रहा है कि हिन्दू कभी भी आतंक का दामन नहीं पकड़ सकते,झटके से टूटता है। साध्वी प्रज्ञा के मामले में कुछ निशान तो जरुर पड़े थे लेकिन भारी राजनीति के बीच वो इस मिथक को पूरी तरह खंडित नहीं कर पाया लेकिन स्टिंग ऑपरेशन और उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया आरएसएस और बीजेपी के लोगों की तरह से आयी और गुंडागर्दी का जो आलम फैलाया उसे देखते हुए हमें इस दिशा में सीरियस रिसर्च की जरुरत है। स्टेट मशीनरी जो सरनेम के हिसाब से कार्यवाही और व्यवहार करती है,उनके आंख और कान और तराशे जाने की जरुरत है। स्टिंग में आरएसएस के एक शख्स ने कहा कि वो एक ऐसी बीज डाल देना चाहते हैं....हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं,ये सब सुनते हुए,देखते हुए। ये पहला मौका नहीं है जब आरएसएस जैसे हिन्दूवादी संगठन ने किसी मीडिया पर हमला किया है। इससे कुछ ही महीने पहले मुंबई के IBN7 लोकमत पर शिवसेना के लोगों ने हमला किया और भारी तोड़-फोड़ मचायी,गुंडागर्दी की। उससे कुछ महीने पहले ही संत आसाराम के गुर्गों ने अहमदाबाद के गुरुकुल में दो बच्चों की हत्या के मामले में विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला किया,मीडिया के लोगों को नुकसान पहुंचाया, आजतक की टीम को घायल किया। गुजरात में ऐसे मामलों की पूरी की पूरी एक शृंखला ही है।..क्या ये महज संयोग है कि लगातार मीडिया पर जो भी हमले हो रहे हैं वो हिन्दू संगठनों की ओर से हो रहे हैं या फिर कहीं न कहीं इस बात के संकेत भी हैं कि खोजी पत्रकारिता को हिन्दू संगठन किसी भी रुप में पचा पाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी दिलचस्प बात है कि जब-जब इन संगठनों के असली चेहरे को लोगों के सामने लाने की कोशिश की जाती है,ये संगठन जो कि सालभर तक संस्कृति,शालीनता,भाईचारा,राष्ट्र-निर्माण का पाखंड रचते हैं,अचानक से सबकुछ छोड़कर बर्बर हो उठते हैं। इस किस्म की बर्बरता मौके-मौके पर होती है या फिर इनके वर्किंग कल्चर में ही ये बात शामिल है कि जो भी हमारी बात से सहमत नहीं है,उन्हें तहस-नहस कर दो,उसे बर्बाद कर दो। आज ये मामला देश के एक बड़े चैनल के साथ हुआ तो हमलोगों के सामने आने पाया है लेकिन ऐसे हजारों मामले होंगे जहां लोग इनकी बातों से सहमत नहीं होते होंगे और संगठन के गुंडे उनके साथ जबरदस्ती करते होंगे,उन्हें बर्बाद करने की कोशिश करते होंगे। दिल्ली ऑफिस में आजतक और यहां के लोगों के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसका असर देश के बाकी हिस्सों में भी तो हो ही रहा होगा। ..और फिर क्या गारंटी है कि इस एक हमले के बाद उनकी साजिश थम जाए। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि ऐसे संगठनों और उसके आकाओं की शह पर गुंडागर्दी फैलानेवाले के साथ कानूनी स्तर के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर क्या कार्यवाही होनी चाहिए? चैनल सहित दूसरे मंचों ने क्या आरएसएस को बैन कर देना चाहिए जैसे सवाल के साथ राय भेजने की सुविधा शुरु कर दी है लेकिन क्या हर सवालों की तरह इस सवाल का हल क्या सिर्फ एसएमएस के जरिए हल होना है। नोट- हमने अपने प्रयास से आजतक की इस स्टोरी के कई सारे टुकड़े यूट्यूब पर डाउनलोड किए हैं ताकि आप हमले की फुटेज देख सकें,कल रात( 16 जुलाई) शम्स ताहिर खान की स्टोरी का यहां ऑडियो लिंक डाल रहे हैं। ताकि आप खबर को सुन सकें। हेडलाइंस टुडे की जिस स्टिंग ऑपरेशन को लेकर आरएसएस के गुंड़ों ने हमला किया,उसका भी लिंक डाल रहे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि मीडिया पर इस बड़े हमले के सारे प्रायमरी सोर्स आपको मुहैया कराएं जिससे कि इसकी चर्चा महज एक घटना के तौर पर नहीं बल्कि एक समस्या के तौर पर हो सके। आजतक पर हमले की निंदा एडिटर्स गिल्ड,प्रेस क्लब,बीइए सहित देश के तमाम पत्रकारों और मीडियाकर्मियों ने इस घटना की निंदा की है। फेसबुक,बज और ब्लॉग के जरिए लोगों के विरोध हम तक लगातार पहुंच रहे हैं। वेब पर लगातार लिखने और अपनी बात रखने की हैसियत से हम इस घटना की न सिर्फ निंदा करते हैं बल्कि इसके प्रतिरोध में लगातार सक्रिय भी रहेंगे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sat Jul 17 16:16:00 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 17 Jul 2010 16:16:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpIbgpLDgpI/gpLjgpI/gpLgg4KSV4KWHIOCkl+ClgeCkgg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KWL4KSCIOCkleCkviDgpLngpK7gpLLgpL4=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4C4189E8.3060102@sarai.net> शुक्रिया, विनीत. यानि उन्होंने एक बार फिर साबित किया: "माय नेम इज़ आरएसएस ऐन्ड आय ऐम अ टेररिस्ट!" रविकान्त vineet kumar wrote: > > कल शाम करीब पांच बजे आरएसएस के गुंड़ों ने आजतक चैनल के दिल्ली दफ्तर पर हमला किया > और भारी तोड़-फोड़ मचायी। हजारों की संख्या में वीडियोकॉन टावर के भीतर जबरदस्ती > घुस आए इन गुंड़ों ने ग्राउंड फ्लोर पर करीने से सजे गमले,मेटल डिटेक्टर डोर और कैफे कॉफी डे > को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया। चैनल की फुटेज देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता > है कि ये लोग कितनी तैयारी के साथ हमले की नीयत से यहां पहुंचे थे। लेकिन इस हमले को > लेकर आरएसएस प्रवक्ता राम माधव ने साफ कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है। आजतक के > संवाददाता बार-बार वीडियो फुटेज का हवाला देते रहे कि ये सब कैमरे में कैद है लेकिन > माधव ने बस इतना कहा कि उत्साह में आकर थोड़ा-बहुत कुछ कर दिया होगा,इसके लिए भी > जिम्मेवार आप ही लोग(आजतक) हैं लेकिन लोगों का इरादा हमला करना बिल्कुल भी नहीं > था। अब सवाल है कि वन्दे मातरम का नारा लगानेवाले आरएसएस और उसके प्रवक्ता यदि झूठ > बोलते हैं तो फिर आगे क्या किया जाए? फिलहाल तो आरएसएस के इन गुंड़ों पर इस बात का > चार्ज जरुर बनता है कि उन्होंने जो जमा होकर विरोध प्रदर्शन किया उसकी किसी भी > तरह की अनुमति प्रशासन की तरह से नहीं ली। मनमाने तरीके से झंडेवालान की गलियों में > जमा हुए और कुछ तख्तियां लगटाकर पहले नारेबाजी और बाद में तोड़-फोड़ मचानी शुरु कर > दी। खबर दिखाए जाने तक इस मामले में कुल 9 लोगों की गिरफ्तारी हुई है जिसकी शक्लें > चैनल ने अलग-अलग दिखाई। ऐसी शक्लों से हम बुरी तरह घिरे हैं और उनसे निबटने की जरुरत है। > हमले की जो वजह निकलकर सामने आयी है उससे ये साफ है कि चैनल ने आरएसएस और बीजेपी > के उन कारनामों को बेनकाब करने की कोशिश की है जिसके मुताबिक वो राष्ट्रीय संगठन या > पार्टी कम देश में दहशत और आतंक फैलानेवाली एजेंसी ज्यादा मालूम पड़ते हैं। लोगों के सामने > सच आ जाने से बौखलाए इस संगठन ने विरोध की आड में हमला बोल दिया। मामला कुछ इस > तरह से है कि आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइन्स टुडे ने उग्र हिन्दूवाद पर एक स्टिंग ऑपरेशन > किया। इस स्टिंग के मुताबिक देश के भीतर जो आतंकवाद पनप रहा है उसमें कहीं न कहीं > आरएसएस और बीजेपी जैसे संगठनों और राजनीतिक पार्टियों का भी हाथ है। स्टिंग में कुछ ऐसे > फुटेज हैं जिन्हें देखने के बाद कहीं से कोई शक-सुवह की गुंजाईश नहीं रह जाती। चैनल ने इसे > SAFFRON TERROR का नाम दिया और स्पष्ट तरीके से उन तमाम धमाकों की चर्चा की > जिसमें कि इनके किसी न किसी रुप में शामिल होने के सबूत मिलते हैं। आजतक की वेबसाइट पर > लिखा है-भारत के उप राष्‍ट्रपति हामिद अंसारी की हत्‍या की होती है साजिश. > आरएसएस का एक पदाधिकारी अजमेर शरीफ और मक्‍का मस्जिद में हुए धमाकों को निर्देशित > करता है. बीजेपी नेता बी.एल शर्मा,दयानंद पांडे और आरएसएस के अधिकारियों की तस्वीरें > बार-बार इस स्टिंग में दिखाई देती हैं। पूरी स्टिंग में ये बात पक्के तौर पर स्थापित होती > है कि ये लोग कौमी एकता के खिलाफ लगातार सक्रिय हैं और उसके पक्ष में महौल बनाने का > काम कर रहे हैं। वैसे भी इस देश में खुद मीडिया,सिनेमा और दूसरे माध्यमों के जरिए एक खास > कौम को आतंकवादी करार देने की जो कोशिशें की जाती रही है ऐसे में इन संगठनों को अपना > काम करने में बहुत आसानी हो जाती है। अभी तक तो यही आवोहवा बनी है कि कोई भी > हिन्दू और उससे जुड़े संगठन आतंकवादी नहीं हो सकते। लेकिन, > > हेडलाइन्स टुडे की इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद मुझे लगता है कि देश के सामने एक > बड़ा भ्रम जिसे कि मिथक के तौर पर लगातार स्थापित किया जाता रहा है कि हिन्दू कभी > भी आतंक का दामन नहीं पकड़ सकते,झटके से टूटता है। साध्वी प्रज्ञा के मामले में कुछ निशान > तो जरुर पड़े थे लेकिन भारी राजनीति के बीच वो इस मिथक को पूरी तरह खंडित नहीं कर > पाया लेकिन स्टिंग ऑपरेशन और उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया आरएसएस और बीजेपी के > लोगों की तरह से आयी और गुंडागर्दी का जो आलम फैलाया उसे देखते हुए हमें इस दिशा में > सीरियस रिसर्च की जरुरत है। स्टेट मशीनरी जो सरनेम के हिसाब से कार्यवाही और > व्यवहार करती है,उनके आंख और कान और तराशे जाने की जरुरत है। स्टिंग में आरएसएस के एक > शख्स ने कहा कि वो एक ऐसी बीज डाल देना चाहते हैं....हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं,ये > सब सुनते हुए,देखते हुए। > > ये पहला मौका नहीं है जब आरएसएस जैसे हिन्दूवादी संगठन ने किसी मीडिया पर हमला > किया है। इससे कुछ ही महीने पहले मुंबई के IBN7 लोकमत पर शिवसेना के लोगों ने हमला > किया और भारी तोड़-फोड़ मचायी,गुंडागर्दी की। उससे कुछ महीने पहले ही संत आसाराम के > गुर्गों ने अहमदाबाद के गुरुकुल में दो बच्चों की हत्या के मामले में विरोध प्रदर्शन कर रहे > लोगों पर हमला किया,मीडिया के लोगों को नुकसान पहुंचाया, आजतक की टीम को घायल > किया। गुजरात में ऐसे मामलों की पूरी की पूरी एक शृंखला ही है।..क्या ये महज संयोग है > कि लगातार मीडिया पर जो भी हमले हो रहे हैं वो हिन्दू संगठनों की ओर से हो रहे हैं या > फिर कहीं न कहीं इस बात के संकेत भी हैं कि खोजी पत्रकारिता को हिन्दू संगठन किसी भी > रुप में पचा पाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी दिलचस्प बात है कि जब-जब इन संगठनों के > असली चेहरे को लोगों के सामने लाने की कोशिश की जाती है,ये संगठन जो कि सालभर तक > संस्कृति,शालीनता,भाईचारा,राष्ट्र-निर्माण का पाखंड रचते हैं,अचानक से सबकुछ छोड़कर > बर्बर हो उठते हैं। इस किस्म की बर्बरता मौके-मौके पर होती है या फिर इनके वर्किंग > कल्चर में ही ये बात शामिल है कि जो भी हमारी बात से सहमत नहीं है,उन्हें तहस-नहस कर > दो,उसे बर्बाद कर दो। > > आज ये मामला देश के एक बड़े चैनल के साथ हुआ तो हमलोगों के सामने आने पाया है लेकिन ऐसे > हजारों मामले होंगे जहां लोग इनकी बातों से सहमत नहीं होते होंगे और संगठन के गुंडे उनके > साथ जबरदस्ती करते होंगे,उन्हें बर्बाद करने की कोशिश करते होंगे। दिल्ली ऑफिस में आजतक > और यहां के लोगों के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसका असर देश के बाकी हिस्सों में भी तो > हो ही रहा होगा। ..और फिर क्या गारंटी है कि इस एक हमले के बाद उनकी साजिश थम > जाए। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि ऐसे संगठनों और उसके आकाओं की शह पर गुंडागर्दी > फैलानेवाले के साथ कानूनी स्तर के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर क्या कार्यवाही होनी > चाहिए? चैनल सहित दूसरे मंचों ने क्या आरएसएस को बैन कर देना चाहिए जैसे सवाल के साथ > राय भेजने की सुविधा शुरु कर दी है लेकिन क्या हर सवालों की तरह इस सवाल का हल क्या > सिर्फ एसएमएस के जरिए हल होना है। > > नोट- हमने अपने प्रयास से आजतक की इस स्टोरी के कई सारे टुकड़े यूट्यूब पर डाउनलोड किए > हैं ताकि आप हमले की फुटेज देख सकें,कल रात( 16 जुलाई) शम्स ताहिर खान की स्टोरी का > यहां ऑडियो लिंक डाल रहे हैं। ताकि आप खबर को सुन सकें। हेडलाइंस टुडे की जिस स्टिंग > ऑपरेशन को लेकर आरएसएस के गुंड़ों ने हमला किया,उसका भी लिंक डाल रहे हैं। हम कोशिश > कर रहे हैं कि मीडिया पर इस बड़े हमले के सारे प्रायमरी सोर्स आपको मुहैया कराएं जिससे > कि इसकी चर्चा महज एक घटना के तौर पर नहीं बल्कि एक समस्या के तौर पर हो सके। > आजतक पर हमले की निंदा एडिटर्स गिल्ड,प्रेस क्लब,बीइए सहित देश के तमाम पत्रकारों और > मीडियाकर्मियों ने इस घटना की निंदा की है। फेसबुक,बज और ब्लॉग के जरिए लोगों के > विरोध हम तक लगातार पहुंच रहे हैं। वेब पर लगातार लिखने और अपनी बात रखने की > हैसियत से हम इस घटना की न सिर्फ निंदा करते हैं बल्कि इसके प्रतिरोध में लगातार > सक्रिय भी रहेंगे > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From ravikant at sarai.net Sat Jul 17 16:54:08 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 17 Jul 2010 16:54:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [?????]???? ?? ?????? ?? ??????? ?? ???? In-Reply-To: References: <4C4189E8.3060102@sarai.net> Message-ID: <4C4192D8.2030003@sarai.net> zaroor. ravikant Ravish Kumar wrote: > ha ha....sanaatani terrorist. bhai aap log aaj raat mera show > dekhiyyegaa. 10:30pm...main bhi ab amir khan kee tarah show karne ke > baad katoraa le ke nikalne wala hun..dekho dekho... > > ------------------------------------------------------------------------ > *From:* deewan-bounces at sarai.net on behalf of ravikant > *Sent:* Sat 7/17/2010 4:16 PM > *To:* Deewan > *Subject:* Re: [दीवान]आजतक पर आरएसएस के गुंड़ों का हमला > > > शुक्रिया, विनीत. यानि उन्होंने एक बार फिर साबित किया: "माय नेम इज़ आरएसएस ऐन्ड > आय ऐम अ टेररिस्ट!" > > रविकान्त > > > > vineet kumar wrote: > > > > > कल शाम करीब पांच बजे आरएसएस के गुंड़ों ने आजतक चैनल के दिल्ली दफ्तर पर हमला किया > > और भारी तोड़-फोड़ मचायी। हजारों की संख्या में वीडियोकॉन टावर के भीतर जबरदस्ती > > घुस आ > From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jul 17 16:59:52 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 17 Jul 2010 16:59:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSm4KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleCliyDgpLjgpY3gpLXgpLAg4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSo4KWHIOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpK/gpL7gpLg=?= Message-ID: कोई भी पत्रकार अपने तरीके से जंगल में रह रहे आदिवासियों की स्थिति को समझते-बूझते हुए खबर को पाठकों/दर्शकों के सामने रख देता है। ज्यादातर खबरों की रिपोर्टिंग स्थानीय थाने से ही हो जाती है। जैसा पुलिस ब्रीफ में बताया गया, वही अगले दिन छप जाता है। आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक संगठनों की शिकायत रही है कि आदिवासी समाज के साथ अन्याय की सच्ची तस्वीर समाज के बीच नहीं आ रही है। ऐसे पत्रकार आज भी बहुत कम हैं जो आदिवासियों की बोली जानते-समझते हैं। लेकिन किसी ऐसे माध्यम की कल्पना कीजिए जिससे आदिवासी समाज से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सिर्फ एक टेलीफोन कॉल के जरिए पूरी दुनिया तक अपनी बात पहुंचा दे। इस दिशा में मेसाच्यूट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के साथ मिलकर माइक्रोसॉफ्ट की मदद से छत्तीसगढ़ नेटवर्क वेबसाइट काम कर रहा है। यहां कोई भी व्यक्ति एक खास नंबर पर फोन करके अपनी बात रिकॉर्ड करा सकता है। यह जानकारी एक बार रिकॉर्ड हो जाने के बाद दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति उसी नंबर को डायल कर या सीजीनेट स्वर की वेबसाइट पर जाकर उसे सुन या पढ़ सकता है। छत्तीसगढ़ नेटवर्क वेबसाइट ने अपने प्रयास से हर आदिवासी को स्वर देने का प्रयास किया है। 2001 की जनगणना के अनुसार पांच राज्यों में 27 लाख गोंड लोगों की बात बहुत मुश्किल से मीडिया मे आ पाती है। ऐसा नहीं है कि मीडिया उनकी बात कहना नहीं चाहता लेकिन उनकी बात लिखने के लिए उनकी बोली समझना जरूरी है। छत्तीसगढ़ नेट पर गोंडी बोलने वाले लोग खुद अपनी बात रखेंगे। इसके गोंडी भाषा के मॉडरेटर हिमांशु कुमार गोंडी, हिन्दी और अंग्रेजी अच्छी तरह बोल-लिख पाते हैं। रिकॉर्ड हुए फोन का शब्दश: अनुवाद होगा। अभी यह सुविधा सिर्फ हिन्दी में है। वेबसाइट के मॉडरेटर शुभ्रांशु पिछले साल जुलाई में ‘इंटरनेशनल सेन्टर फॉर जर्नलिस्ट’ द्वारा ‘द नाईट इंटरनेशनल जर्नलिज्म फेलोशिप’ से सम्मानित हो चुके हैं। उसी दौरान उन्होंने तय किया कि आदिवासियों के लिए कोई ऐसी संरचना खड़ी करेंगे, जिसके माध्यम से उनकी दुनिया का दर्द समाज के सामने आए। वह अपनी बात कहें, खुद अपना मीडिया खड़ा करें और उसे संवारे। इसमें तकनीक के स्तर पर माइक्रो सॉफ्ट इंडिया ने उन्हें मदद दी। अब कोई भी आदिवासी समाज से जुड़ा व्यक्ति खास नंबर दबाकर अपनी बात वहां दर्ज करा सकता है। नंबर को मिलाने के बाद उसके पास दो विकल्प होते हैं, या तो अपनी खबर रिकॉर्ड कराए या फिर पहले रिकॉर्ड की गई खबरों को सुने। सीजी स्वर की इस योजना में सुधार की भी जरूरत है। मसलन इस तकनीक को और सस्ता करने का प्रयास किया जाना चाहिए। दरअसल इस वक्त फोन करने पर आदिवासियों को एसटीडी का बिल चुकाना पड़ता है अत: यह सुविधा अगर किसी लोकल नंबर के माध्यम से उन्हें मिले तो स्थानीय कॉल के खर्चे पर वे अपनी बात पहुंचा पाएंगे। सबसे उपयुक्त होगा कि उनके लिए एक टॉल फ्री नंबर की व्यवस्था की जाए। अभी वेबसाइट के मॉडरेटर के पास फोन करने वालों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। फोन करने वाले खुद अपना परिचय बताते हैं। इस तरह गलत सूचनाओं के मॉडरेट होने का खतरा बना रहेगा और जरूरत पड़ने पर सूचना देने वाले को तलाशना मुश्किल होगा। समूह से जुड़े लोगों को इस तरह के प्रयास भी करने चाहिए, जिससे मॉडरेटरों द्वारा खबरों को चुनने और खारिज करने की प्रक्रिया पारदर्शी हो। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jul 17 16:59:52 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 17 Jul 2010 16:59:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSm4KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleCliyDgpLjgpY3gpLXgpLAg4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSo4KWHIOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpK/gpL7gpLg=?= Message-ID: कोई भी पत्रकार अपने तरीके से जंगल में रह रहे आदिवासियों की स्थिति को समझते-बूझते हुए खबर को पाठकों/दर्शकों के सामने रख देता है। ज्यादातर खबरों की रिपोर्टिंग स्थानीय थाने से ही हो जाती है। जैसा पुलिस ब्रीफ में बताया गया, वही अगले दिन छप जाता है। आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक संगठनों की शिकायत रही है कि आदिवासी समाज के साथ अन्याय की सच्ची तस्वीर समाज के बीच नहीं आ रही है। ऐसे पत्रकार आज भी बहुत कम हैं जो आदिवासियों की बोली जानते-समझते हैं। लेकिन किसी ऐसे माध्यम की कल्पना कीजिए जिससे आदिवासी समाज से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सिर्फ एक टेलीफोन कॉल के जरिए पूरी दुनिया तक अपनी बात पहुंचा दे। इस दिशा में मेसाच्यूट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के साथ मिलकर माइक्रोसॉफ्ट की मदद से छत्तीसगढ़ नेटवर्क वेबसाइट काम कर रहा है। यहां कोई भी व्यक्ति एक खास नंबर पर फोन करके अपनी बात रिकॉर्ड करा सकता है। यह जानकारी एक बार रिकॉर्ड हो जाने के बाद दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति उसी नंबर को डायल कर या सीजीनेट स्वर की वेबसाइट पर जाकर उसे सुन या पढ़ सकता है। छत्तीसगढ़ नेटवर्क वेबसाइट ने अपने प्रयास से हर आदिवासी को स्वर देने का प्रयास किया है। 2001 की जनगणना के अनुसार पांच राज्यों में 27 लाख गोंड लोगों की बात बहुत मुश्किल से मीडिया मे आ पाती है। ऐसा नहीं है कि मीडिया उनकी बात कहना नहीं चाहता लेकिन उनकी बात लिखने के लिए उनकी बोली समझना जरूरी है। छत्तीसगढ़ नेट पर गोंडी बोलने वाले लोग खुद अपनी बात रखेंगे। इसके गोंडी भाषा के मॉडरेटर हिमांशु कुमार गोंडी, हिन्दी और अंग्रेजी अच्छी तरह बोल-लिख पाते हैं। रिकॉर्ड हुए फोन का शब्दश: अनुवाद होगा। अभी यह सुविधा सिर्फ हिन्दी में है। वेबसाइट के मॉडरेटर शुभ्रांशु पिछले साल जुलाई में ‘इंटरनेशनल सेन्टर फॉर जर्नलिस्ट’ द्वारा ‘द नाईट इंटरनेशनल जर्नलिज्म फेलोशिप’ से सम्मानित हो चुके हैं। उसी दौरान उन्होंने तय किया कि आदिवासियों के लिए कोई ऐसी संरचना खड़ी करेंगे, जिसके माध्यम से उनकी दुनिया का दर्द समाज के सामने आए। वह अपनी बात कहें, खुद अपना मीडिया खड़ा करें और उसे संवारे। इसमें तकनीक के स्तर पर माइक्रो सॉफ्ट इंडिया ने उन्हें मदद दी। अब कोई भी आदिवासी समाज से जुड़ा व्यक्ति खास नंबर दबाकर अपनी बात वहां दर्ज करा सकता है। नंबर को मिलाने के बाद उसके पास दो विकल्प होते हैं, या तो अपनी खबर रिकॉर्ड कराए या फिर पहले रिकॉर्ड की गई खबरों को सुने। सीजी स्वर की इस योजना में सुधार की भी जरूरत है। मसलन इस तकनीक को और सस्ता करने का प्रयास किया जाना चाहिए। दरअसल इस वक्त फोन करने पर आदिवासियों को एसटीडी का बिल चुकाना पड़ता है अत: यह सुविधा अगर किसी लोकल नंबर के माध्यम से उन्हें मिले तो स्थानीय कॉल के खर्चे पर वे अपनी बात पहुंचा पाएंगे। सबसे उपयुक्त होगा कि उनके लिए एक टॉल फ्री नंबर की व्यवस्था की जाए। अभी वेबसाइट के मॉडरेटर के पास फोन करने वालों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। फोन करने वाले खुद अपना परिचय बताते हैं। इस तरह गलत सूचनाओं के मॉडरेट होने का खतरा बना रहेगा और जरूरत पड़ने पर सूचना देने वाले को तलाशना मुश्किल होगा। समूह से जुड़े लोगों को इस तरह के प्रयास भी करने चाहिए, जिससे मॉडरेटरों द्वारा खबरों को चुनने और खारिज करने की प्रक्रिया पारदर्शी हो। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From aboutsandeep123 at gmail.com Wed Jul 21 12:15:58 2010 From: aboutsandeep123 at gmail.com (Sandeep Pandey) Date: Tue, 20 Jul 2010 23:45:58 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Invitation to connect on LinkedIn Message-ID: <495363718.8657628.1279694758978.JavaMail.app@ech3-cdn13.prod> LinkedIn ------------Sandeep Pandey requested to add you as a connection on LinkedIn: ------------------------------------------ Journalist ANANDMANI, I'd like to add you to my professional network on LinkedIn. - Sandeep Accept invitation from Sandeep Pandey http://www.linkedin.com/e/-e5cm4c-gbvt7vi8-23/uT_ZuzIAB7mujqllua9tezkG1t8vbb3IyT/blk/I88873139_5/6lColZJrmZznQNdhjRQnOpBtn9QfmhBt71BoSd1p65Lr6lOfPlvejcNcPsUe3x9bTBxqkJlgCJLbPcOdz0Qe3kUd34LrCBxbOYWrSlI/EML_comm_afe/ View invitation from Sandeep Pandey http://www.linkedin.com/e/-e5cm4c-gbvt7vi8-23/uT_ZuzIAB7mujqllua9tezkG1t8vbb3IyT/blk/I88873139_5/dlYVcP4PdPwUe4ALqnpPbOYWrSlI/svi/ ------------------------------------------ Why might connecting with Sandeep Pandey be a good idea? Sandeep Pandey's connections could be useful to you: After accepting Sandeep Pandey's invitation, check Sandeep Pandey's connections to see who else you may know and who you might want an introduction to. Building these connections can create opportunities in the future. ------ (c) 2010, LinkedIn Corporation -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jul 21 22:35:03 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 21 Jul 2010 22:35:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KWAIOCksOCliOCkqOCkviDgpJXgpYAg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpL/gpKQg4KSq4KS5?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCkteCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: हमारे बड़े भाई श्रद्धेय बद्री रैना साहब ने अभी-अभी यह कविता हमें पोस्ट की है. बकौल रैना साहब हिन्दी में प्रकाशित उनकी यह पहली कविता है. रोमन लिपि में प्रेषित उनकी कविता को http://www.quillpad.in/editor.html की मदद से देवनागरी लिपि में अपने साथियों के लिए पेश करते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है. आइए हम-आप सब उनकी कविता पढ़ें : -- शशिकांत कविता फिर वही मंगलवार का दिन फिर वही हनुमान मंदिर का द्वार, फिर वही दो तरह की क़तारें-- एक चमकीले गाड़ियों की एक माँगनेवाले बच्चों की कितना सुखद दृशय है-- चमकीली गाड़ियाँ नहीं होतीं तो प्रसाद की ढेर कैसे लगती, पुरोहित जी मोटे-ताज़े कैसे होते; माँगने वाले बच्चे नहीं होते तो चमकीली आत्माओं को राहत कैसे मिलती खाली हनुमान काफ़ी नही होते. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jul 21 23:19:43 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 21 Jul 2010 23:19:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+4KSBIOCkuOClgeCkp+CkvuCksCDgpJXgpLAg4KSq4KSi?= =?utf-8?b?4KS84KWH4KSCICjgpKzgpKbgpY3gpLDgpYAg4KSw4KWI4KSo4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSV4KS+4KS24KS/4KSkIOCkquCkueCksuClgCDgpJXgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+ICk=?= Message-ID: बद्री रैना की हिन्दी में प्रकाशित पहली कविता : हमारे बड़े भाई श्रद्धेय बद्री रैना साहब ने अभी-अभी यह कविता हमें पोस्ट की है. बकौल रैना साहब हिन्दी में प्रकाशित उनकी यह पहली कविता है. रोमन लिपि में प्रेषित उनकी कविता को http://www.quillpad.in/editor.html की मदद से देवनागरी लिपि में अपने साथियों के लिए पेश करते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है. आइए हम-आप सब उनकी कविता पढ़ें : -- शशिकांत कविता फिर वही मंगलवार का दिन फिर वही हनुमान मंदिर का द्वार, फिर वही दो तरह की क़तारें-- एक चमकीली गाड़ियों की एक माँगनेवाले बच्चों की कितना सुखद दृशय है-- चमकीली गाड़ियाँ नहीं होतीं तो प्रसाद के ढेर कैसे लगते पुरोहित जी मोटे-ताज़े कैसे होते; माँगने वाले बच्चे नहीं होते तो चमकीली आत्माओं को राहत कैसे मिलती खाली हनुमान काफ़ी नही होते. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Jul 23 19:15:51 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 23 Jul 2010 19:15:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSy4KWAIOCkueCliCDgpKTgpYsg4KSr4KS/4KSwLi4u?= Message-ID: सोचा था कि प्रभाष परंपरा न्यास पर जो बहस चल रही है, उसका एक पक्ष दीवान पर दिया जाए। शब्दों की महत्ता समझते हुए। पर, मोहल्ला-लाइव पर पहले गए। उम्मीद है कई लोग पढ़ चुके होंगे। फिर भी-- *बात निकली है तो फिर...* प्रभाष परंपरा न्यास पर लोगों ने अपनी राय रखी है। यकीनन, समय से पहले है। कई जगह तो कथन हांकने के अंदाज में है। उट्का-पेची भी साथ है। इसमें किसी पुरानी खुन्नस का असर भी नजर आता है। लिखने वाले नामचीन और बड़े कहलाते होंगे, पर लेखनी से कहीं ऐसा मालूम नहीं पड़ा। बहरहाल, 15 जुलाई के कार्यक्रम के लिए करीब हजार लोगों का पता-ठिकाना खोजने का लक्ष्य रखा गया था। कुछ ऐसे स्थान तय कर लिए गए थे, जहां सामुहिक निमंत्रण पत्र जाना था। इसमें प्रमुख रूप से जनसत्ता अखबार, प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के दफ्तर थे। प्रेस क्लब जैसी कुछेक जगहें भी इस सूची में थीं। इस काम को मात्र दो-एक लोगों की टीम कर रही थी। वह भी अपने दफ्तरी काम के साथ-साथ। खैर, काम पूरा हुआ। लोगों को पत्र भेजा गया। काफी लोग आए। इनमें कई ऐसे थे, जिन्हें सूचना भर थी। उन्हें पत्र नहीं मिल पाया था। इनलोगों ने पत्र की जरूरत भी नहीं समझी। वे आए। इसमें जनसत्ता परिवार के भी कई लोग थे। पर कुछ लोगों को पत्र नहीं मिला या वे पता सूची में नहीं आ पाए। यहीं से नाराजगी का दौर चल पड़ा है। शिकायत का दायरा जबरन बढ़ा दिया गया। बात उक्त न्यास और प्रभाष परंपरा पर आ टिकी है। ऐसे में कुछ बातें साफ हो जाएं, यह जरूरी है। पहली- जो लोग प्रभाष परंपरा न्यास पर बात कर रहे हैं, उन्हें अधिकार होगा। अपना तो फिलहाल इससे कोई सरोकार नहीं है। पर जनसत्ता का पाठक आज भी यह जानना चाहता है कि प्रभाष जोशी की मृत्यु की खबर अगली सुबह उक्त अखबार में क्यों नहीं थी ? हालांकि कई अखबारों ने अपने पाठकों को इसकी जानकारी दी थी। इसमें गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) से काफी दूर छपने वाले स्थानीय अखबार भी थे। सुना है खबर को लेकर उत्तर प्रदेश की राजधानी किसी अंबरीश के हवाले है। वही प्रमुख हैं। अब सही का फैसला पाठक अपने विवेक से करें कि प्रभाष परंपरा में कौन कितना डूबा है। दूसरी बात, कुछ लोगों को यह गहरे चुभ रही है कि न्यास में उक्त लोग हैं, उक्त नहीं। संघी जैसे शब्द का इस्तेमाल किया गया है। बतौर जानकारी प्रभाष जोशी अपना अंतिम तुफानी दौरा संघ से जुड़े व्यक्ति के साथ ही कर रहे थे। नाम है के.एन.गोविंदाचार्य। न्यास में शामिल राजनाथ सिंह को लेकर सवाल हो रहे हैं। वे बतौर सांसद न्यास में हैं। ऐसी जानकारी है। अगली बार गाजियाबाद की जनता किसी अंबरीश को संसद भेजती है तो वे स्वत: न्यास में होंगे। एन.एन.ओझा को लेकर भी सवाल हो रहे हैं। पेड-न्यूज को लेकर जब देश के किसी अखबार व पत्रिका ने कोई खबर नहीं छपी थी, तब यही वह व्यक्ति थे जिनकी पत्रिका में इसपर आवरण कथा छपी। और लगातार खबरें छप रही हैं। लोग मानते हैं कि यह वह आंदोलन था, जिसे प्रभाष जोशी अपने अंतिम दिनों चला रहे थे। अब आप तय करें प्रभाष परंपरा के ज्यादा करीब कौन है। बात कुछ ऐसी है कि संबंधों को जीना तो सभी जानते हैं। कुछ लोग बोलकर जीते हैं। कुछ लोग परंपरा में डूबकर जीते हैं। यह अच्छा रहा है कि 15 जुलाई के कार्यक्रम में जितने वरिष्ठ लोग थे, उससे कहीं ज्यादा युवा पत्रकार थे। ऐसा लगता है कि प्रभाष परंपरा दूर तक जाएगी। वैसे न्यास के सही और गलत कामों की व्याख्या तो समय करेगा। थोड़ा इंतजार जरूरी है। चर्चा में जो निजी बातें आई हैं, उसका कोई वजूद नहीं। बस इतना ही- “जो लोग कर रहे हैं नई रोशनी की बात, बरगद का पेड़ है उनके आंगन में लगा।।” -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Mon Jul 26 01:24:06 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Mon, 26 Jul 2010 01:24:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= The ugliness of the indian male : Udaan Message-ID: दीवान के दोस्तों के लिए, मेरा टेक ’उड़ान’ पर ... From websites :- http://mohallalive.com/2010/07/25/the-ugliness-of-the-indian-male-udaan/ http://mihirpandya.com/2010/07/udaan/ ********** The ugliness of the indian male : Udaan अगर आप भी मेरी तरह *’तहलका’ *के नियमित पाठक हैं तो आपने पिछले दिनों में ’*स्पैसीमैन हंटिंग : ए सीरीज़ ऑन इंडियन मैन’* नाम की उस सीरीज़ पर ज़रूर गौर किया होगा जो हर दो-तीन हफ़्ते के अंतर से आती है और किसी ख़ास इलाके/संस्कृति से जुड़े हिन्दुस्तानी मर्द का एक रफ़ सा, थोड़ा मज़ाकिया ख़ाका हमारे सामने खींचती है. वो बाहरी पहचानों से मिलाकर एक स्कैच तैयार करती है, मैं भीतर की बात करता हूँ… ’हिन्दुस्तानी मर्द’. आखिर क्या अर्थ होते हैं एक ’हिन्दुस्तानी मर्द’ होने के? क्या अर्थ होते हैं अपनी याद्दाश्त की शुरुआत से उस मानसिकता, उस सोच को जीने के जिसे एक हिन्दुस्तानी मर्द इस समाज से विरासत में पाता है. सोचिए तो, हमने इस पर कितनी कम बात की है. * * सही है, इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री होना एक सतत चलती लड़ाई है, एक असमाप्त संघर्ष. और हमने इस निहायत ज़रूरी संघर्ष पर काफ़ी बातें भी की हैं. लेकिन क्या हमने कभी इस पर बात की है कि इस पुरुषसत्तात्मक समाज में एक पुरुष होना कैसा अनुभव है? और ख़ास तौर पर तब जब वक़्त के एक ख़ास पड़ाव पर आकर वो पुरुष महसूस करे कि इस निहायत ही एकतरफ़ा व्यवस्था के परिणाम उसे भी भीतर से खोखला कर रहे हैं, उसे भी इस असमानता की दीवार के उस तरफ़ होना चाहिए. इंसानी गुणों का लिंग के आधार पर बँटवारा करती इस व्यवस्था ने उससे भी बहुत सारे विकल्प छीन लिए हैं. क्या कोई कहेगा कि जैसे बचपन में एक लड़की के हाथ में गुड़िया दिया जाना उसके मूल चुनाव के अधिकार का हनन है ठीक वैसे ही लड़के के हाथ में दी गई बंदूक भी अंतत: उसे अधूरा ही करती है. * * और फिर *’उड़ान’* आती है. * * जैसी ’आम राय’ बनाई जा रही है, मैं उसे नकारता हूँ. *’उड़ान’* पीढ़ियों के अंतर (जैनरेशन गैप) के बारे में नहीं है. यह एक ज़ालिम, कायदे के पक्के, परंपरावादी पिता और अपने मन की उड़ान भरने को तैयार बैठे उसके लड़के के बीच पनपे स्वाभाविक तनाव की कहानी नहीं है जैसा इसका प्रचार संकेत करता रहा. किसी भी महिला की सक्रिय उपस्थिति से रहित यह फ़िल्म मेरे लिए एक नकार है, नकार लड़कपन की दहलीज़ पर खड़े एक लड़के का उस मर्दवादी अवधारणा को जिसे हमारा समाज एक नायकीय आवरण पहनाकर सदियों से तमाम लोकप्रिय अभिव्यक्ति माध्यमों में बेचता आया है. नकार उस खंडित विरासत का जिसे लेकर उत्तर भारत का हर औसत लड़का पैदा होता है. विरासत जो कहती है कि वीरता पुरुषों की जागीर है और सदा पवित्र बने रहना स्त्रियों का गहना. पैसा कमाकर लाना पुरुषों का काम है और घर सम्भालना स्त्रियों की ज़िम्मेवारी. * * उड़ान एक सफ़र है. *निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने* के रचे किरदार, सत्रह साल के एक लड़के *’रोहन’ *का सफ़र. जिसे त्रिआयामी बनाते हैं फ़िल्म में मौजूद दो और पुरुष किरदार, *’भैरव सिंह’ *और *’अर्जुन’*. शुरुआत से नोटिस कीजिए. जैसे भैरव सिंह रोहन पर अपना दबदबा स्थापित करते हैं ठीक वैसे ही रोहन सिंह अर्जुन पर अपना दबदबा स्थापित करता है. अर्जुन के घर की सीढ़ियों पर बार-बार ऊपर नीचे होने के वो दृश्य कौन भूल सकता है. वो अभी छोटा है, दो ’मर्दों’ के बीच अपनी मर्दानगी दिखाने का ज़रिया, एक शटल-कॉक. बेटा सीढ़ियों पर बैठा अपने पिता को इंतज़ार करवाता है और पिता अपने हिस्से की मर्दानगी भरा गुस्सा दिखाता उन्हें पीछे छोड़ अकेला ही गाड़ी ले जाता है. नतीजा, बेचारा बीमार अर्जुन पैदल स्कूल जाता है. रास्ते में वो रोहन का हाथ थामने की कोशिश करता है. वो अकेला बच्चा सिर्फ़ एक नर्म-मुलायम अहसास की तलाश में है. लेकिन रोहन कोई उसकी ’माँ’ तो नहीं, वो उसे झिड़क देता है. * * लेकिन फिर धीरे से किरदार का ग्राफ़ घूमने लगता है. जहाँ एक ओर भैरव सिंह अब एक खेली हुई बाज़ी हैं, तमाम संभावनाओं से चुके, वहीं रोहन में अभी अपार संभावनाएं बाक़ी हैं. इस लड़के की ’एड़ी अभी कच्ची है’. बदलाव का पहिया घूमने लगता है. हम एक मुख़र मौन दृश्य में रोहन और अर्जुन के किरदारों को ठीक एक सी परिस्थिति में खड़ा पाते हैं. शायद फ़िल्म पहली बार वहीं हमें यह अहसास करवाती है. अर्जुन का किरदार अनजाने में ही रोहन के भीतर छिपे उस ज़रा से ’भैरव सिंह’ को हमारे सामने ले आता है जिसे एक भरा-पूरा ’भैरव सिंह’ बनने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगने वाला. लेकिन शायद तभी… किसी अदृश्य कोने में छिपा रोहन भी ये दृश्य देख लेता है. * * चक्का घूम रहा है. रोहन लगातार तीन दिन तक अर्जुन की तीमारदारी करता है. उसे कविताएँ सुनाता है. उसके लिए नई-नई कहानियाँ गढ़ता है. उसे अपना प्यारा खिलौना देता है और खूब सारी किताबें भी. उससे दोस्तों के किस्से सुनता है, उसे दोस्तों के किस्से सुनाता है. उसके बदन पर जब चमड़े की मार के निशान देखता है तो पलटकर बच्चे से कोई सवाल नहीं करता. सवाल मारनेवाले से करता है और तनकर-डटकर करता है. पहचानिए, यह वही रोहन है जो ’कोई उसकी माँ तो नहीं’ था. * * मध्यांतर के ठीक पहले एक लम्बे और महत्वपूर्ण दृश्य में भैरव सिंह रोहन को धिक्कारता है, धिक्कारता है बार-बार ’लड़की-लड़की’ कहकर. धिक्कारता है ये कहकर कि ’थू है, एक बार सेक्स भी नहीं किया.’ यह भैरव सिंह के शब्दकोश की गालियाँ हैं. एक ’मर्द’ की दूसरे ’मर्द’ को दी गई गालियाँ. लेकिन हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा की उम्मीदों से उलट, फ़िल्म का अंत दो और दो जोड़कर चार नहीं बनाता. रोहन इन गालियों का जवाब क्लाइमैक्स में कोई ’मर्दों’ वाला काम कर नहीं देता. या शायद यह कहना ज़्यादा अच्छा हो कि उसके काम को ’असली मर्दों’ वाला काम कहना उसके आयाम को कहीं छोटा करना होगा. * * एक विशुद्ध काव्यात्मक अंत की तलाश में भटकती फ़िल्मों वाली इंडस्ट्री से होने के नाते तो उड़ान को वहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था जहाँ अंतत: रोहन के सब्र का बाँध टूट जाता है. वो पलटकर अपने पिता को उन्हीं की भाषा में जवाब देता है. और फिर एक अत्यंत नाटकीय घटनाक्रम में उन्हें उस ’जैसे-सदियों-से-चली-आती-खानदानी-दौड़’ में हराता हुआ उनकी पकड़ से बचकर दूर निकल जाता है. * * लेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता. फ़िल्म का अंत यह नहीं है, हो भी नहीं सकता. रोहन वापस लौटता है. ठीक अंत से पहले, पहली बार फ़िल्म में एक स्त्री के होने की आहट है. वो स्त्री जिसका अक़्स पूरी फ़िल्म में मौजूद रहा. पहली बार उस स्त्री का चेहरा दिखाई देता है. वो स्त्री जो रोहन के भीतर मौजूद है. अंत जो हमें याद दिलाता है कि हर हिन्दुस्तानी मर्द के DNA का आधा हिस्सा उसे एक स्त्री से मिलता है. और ’मर्दानगी’ की हर अवधारणा उस भीतर बसी स्त्री की हत्या पर निर्मित होती है. यह अंत उस स्त्री की उपस्थिति का स्वीकार है. न केवल स्वीकार है बल्कि एक उत्सवगान है. क्या आपको याद है फ़िल्म का वो प्रसंग जहाँ अर्जुन और रोहन अपनी माँओं के बारे में बात करते हैं. रोहन उसे बताता है कि मम्मी के पास से बहुत अच्छी खुशबू आती थी, बिलकुल मम्मी वाली. अर्जुन उस अहसास से महरूम है, उसने अपनी माँ को नहीं देखा. * * हमें पता नहीं कि रोहन ने उन तसवीरों में क्या देखा. लेकिन अब हम जानते हैं कि रोहन वापस आता है और अर्जुन को अपने साथ ले जाता है. उस रौबीली शुरुआत से जहाँ रोहन ने अर्जुन से बात ही ’सुन बे छछूंदर’ कहकर की थी, इस ’माँ’ की भूमिका में हुई तार्किक परिणिति तक, रोहन के लिए चक्का पूरा घूम गया है. एक लड़के ने अपने भीतर छिपी उस ’स्त्री’ को पहचान लिया जिसके बिना हर मर्द का ’मर्द’ होना कोरा है, अधूरा है. फ़िल्म के अंतिम दृश्य में रास्ता पार करते हुए रोहन अर्जुन का हाथ थाम लेता है. गौर कीजिए, इस स्पर्श में दोस्ती का साथ है, बराबरी है. बड़प्पन का रौब और दबदबा नहीं. * * अंत में रोहन की भैरव सिंह को लिखी वो चिठ्ठी बहुत महत्वपूर्ण है. आपने गौर किया – वो अर्जुन को अपने साथ ले जाने की वजह ये नहीं लिखता कि “नहीं तो आप उसे मार डालेंगे”, जैसा स्वाभाविक तौर पर उसे लिखना चाहिए. वो लिखता है कि “नहीं तो आप उसे भी अपने जैसा ही बना देंगे. और इस दुनिया में एक ही भैरव सिंह काफ़ी हैं, दूसरा बहुत हो जाएगा.” क्या आपने सोचा कि वो ऐसा क्यों लिखता है? दरअसल खुद उसने अभी-अभी, शायद सिर्फ़ एक ही रात पहले वो लड़ाई जीती है. ’वो लड़ाई’… ’भैरव सिंह’ न होने की लड़ाई. अब वो फ़ैंस के दूसरी तरफ़ खड़ा होकर उस किरदार को बहुत अच्छी तरह समझ पा रहा है जो शायद कल को वो खुद भी हो सकता था, लेकिन जिसे उसने नकार दिया. वो अर्जुन को एक भरपूर बचपन देगा. जैसा शायद उसे मिलना चाहिए था. और बीते कल में शायद कहीं भैरव सिंह को भी. * * रोहन उस चिठ्ठी के साथ वो खानदानी घड़ी भी भैरव सिंह को लौटा जाता है. परिवार के एक मुखिया पुरुष से दूसरे मुखिया पुरुष के पास पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचती ऐसी अमानतों का वो वारिस नहीं होना चाहता. यह उसकी परंपरा नहीं. होनी भी नहीं चाहिए. यह उसका अंदाज़ है इस पुरुषवर्चस्व वाली व्यवस्था को नकारने का. वो और उसकी पीढ़ी अपने लिए रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ेगी. ऐसे रिश्ते जिनमें संबंधों का धरातल बराबरी का होगा. * * किसी भी महिला किरदार की सचेत अनुपस्थिति से पूरी हुई उड़ान हमारे समय की सबसे फ़िमिनिस्ट फ़िल्म है. *अनुराग कश्यप *की पिछ्ली फ़िल्म *’देव डी’ *के बारे में लिखते हुए मैंने यह कहा था – दरअसल मेरे जैसे (उत्तर भारत के भी किसी शहर, गाँव कस्बे के ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास से निकलकर आया) हर लड़के की असल लड़ाई तो अपने ही भीतर कहीं छिपे ’देवदास’ से है. अगर हम इस दुनिया की बाकी आधी आबादी से बराबरी का रिश्ता चाहते हैं तो पहले हमें अपने भीतर के उस ’देवदास’ को हराना होगा जिसे अपनी बेख़्याली में यह अहसास नहीं कि पुरुष सत्तात्मक समाज व्यवस्था कहीं और से नहीं, उसकी सोच से शुरु होती है. ’उड़ान’ के रोहन के साथ हम इस पूरे सफ़र को जीते हैं. यह एक त्रिआयामी सफ़र है जिसके एक सिरे पर भैरव सिंह खड़े हैं और दूसरे पर एक मासूम सा बच्चा. रोहन के ’भैरव सिंह’ होने से इनकार में दरअसल एक स्वीकार छिपा है. स्वीकार उस आधी आबादी के साथ समानता के रिश्ते की शुरुआत का जिससे रोहन भविष्य के किसी मोड़ पर टकराएगा. * * और सिर्फ़ रोहन ही क्यों. जैसा मैंने पहले लिखा था, “उड़ान हमारे वक़्तों की फ़िल्म है. आज जब हम अपने-अपने चरागाहों की तलाश में निकलने को तैयार खड़े हैं, ’उड़ान’ वो तावीज़ है जिसे हमें अपने बाज़ू पर बाँधकर ले जाना होगा. याद रखना होगा.” ठीक, याद रखना कि हम सबके भीतर कहीं एक ’लड़की’ है, और उसे कभी मिटने नहीं देना है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From coolnirmal07 at gmail.com Sat Jul 17 11:28:46 2010 From: coolnirmal07 at gmail.com (nirmal verma) Date: Fri, 16 Jul 2010 22:58:46 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkhuCkqiDgpK3gpYAg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWB4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWAIOCkueCliOCkgiA/?= In-Reply-To: References: Message-ID: madarchod On 7/15/10, jayram viplav wrote: > - क्या आप भी हिन्दुस्तानी हैं ? हाँ , तो १८ जुलाई को नई दिल्ली बाराखम्भा > रोड , आर्य अनाथालय में आयोजित उपवास में शामिल होकर " मेरी जात > हिन्दुस्तानी " > आन्दोलन को मजबूती दें . > > > > जयराम विप्लव > संपादक , जनोक्ति.कॉम > From vineetdu at gmail.com Tue Jul 27 15:44:51 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 27 Jul 2010 15:44:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSW4KSs4KSwIOCkleClhyDgpLjgpILgpKrgpL7gpKbgpJUg?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkruCkv+CksuClgCDgpJzgpL7gpKgg4KS44KWHIOCknA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWHIOCkleClgCDgpKfgpK7gpJXgpYA=?= Message-ID: *पिछले दो साल से लगातार मीडिया के भीतर के सच को बेपर्द कर रही साइट मीडियाखबर डॉट कॉम को अभी कुछ दिनों से एक न्यूज चैनल की ओर से धमकियां मिलनी शुरु हुई है। साइट ने "मिशन आजाद" नाम से न्यूज चैनल के भीतर हो रही गड़बड़ियों का पर्दाफाश किया था। उसने बताया कि कैसे एक चैनल में लाइन में लगाकर पत्रकारों को सैलरी दी जाती है,उन्हें किसी भी तरह की सैलरी स्लिप नहीं दी जाती। इसके अलावे इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर कई खामियां है। न्यूज रुम में एसी काम नहीं करता,पीने का पानी तक नहीं है। इस चैनल के भीतर स्त्री मीडियाकर्मियों की भी स्थिति ठीक नहीं है। कुल मिलाकर इस चैनल के भीतर मीडिया संस्थान जैसा माहौल नहीं है। इन खबरों के प्रकाशित किए जाने के बाद चैनल के भीतर हडकंप मच गया। मीडियाखबर के संपादक/मॉडरेटर पुष्कर पुष्प को विश्वसनीय सूत्रों से जो लगातार जानकारी मिली उसके मुताबिक साइट के जरिए चैनल के भीतर की गड़बड़ियों के खुलासे किए जाने से मैनेजमेंट पर जबरदस्त असर हुआ है। दूसरी तरफ चैनल के भीतर काम कर रहे लोगों के भीतर जो लंबे समय से असंतोष रहा,अब वो किसी न किसी रुप में सामने आने लग गए। उनकी आवाज संगठित होने लगी,उऩ्हें लगा कि उनकी सुध ली जा रही है। ये सारी बातें मैनेजमेंट को नागवार गुजरी और उन्होंने अपने कुछ पाले हुए पहरुओं को इस काम के लिए लगा दिया कि चैनल से जुड़ी खबरें बाहर तक न जाए।* *आज मीडियाखबर के मॉडरेटर ने अपनी तरफ से प्रेस रिलीज जारी करके पूरी घटना की व्योरेवार जानकारी दी है और साफ शब्दों में कहा है कि हम खबरों की खबर को आप तक पहुंचाने के लिए न तो किसी से समझौता करेंगे और न ही उनकी घिनौनी हरकतों से प्रभावित होकर अपना कदम पीछे खींच लेगें। हम पोस्ट के साथ ये प्रेस रिलीज प्रकाशित कर रहे हैं और साथ में वो शिकायत पत्र भी जिसे कि उन्होंने पुलिस थाने में दर्ज करायी है-* आज़ाद न्यूज़ या इसके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ ख़बर करोगे तो जान से जाओगे. यह धमकी पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया ख़बर.कॉम के संपादक को मिल रही है. धमकी फ़ोन से दी जा रही है. यह फ़ोन बार - बार आ रहा है. फ़ोन का नंबर है - (+911203140856 / +911204262205). फ़ोन के जरिये धमकाया जा रहा है कि कमलकांत गौरी (इनपुट हेड), रवींद्र शाह (आउटपुट हेड), नवीन सिन्हा (पॉलिटिकल एडिटर) या हिंदी समाचार चैनल आज़ाद न्यूज़ के खिलाफ कुछ भी लिखा तो अच्छा नहीं होगा. अंजाम बुरा होगा. कुछ भी हो सकता है. कुछ भी... मीडिया खबर.कॉम के संपादक की खता इतनी है कि कुछ वक़्त पहले मीडिया खबर पर मिशन आज़ाद नाम से कुछ स्टोरीज प्रकाशित की गयी थी. उसमें चैनलों के अंदर चल रहे फर्जीवाड़े और उसमें संलिप्त ऊँचे पद पर बैठे कई कथित पत्रकारों का पर्दाफाश किया गया था. चैनलों के अंदर की अव्यवस्था, पत्रकारों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और श्रम कानूनों के उल्लंघन को बेनकाब किया गया था. हालाँकि किसी खास व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया था. इससे कुछ लोग खफ़ा थे. लिहाजा, इन लोगों ने साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से ख़बरें रूकवाने की कोशिश की. लेकिन जब खबर रूकवा नहीं पाए तो ओछेपन पर उतर आये. पहले अलग - अलग माध्यमों से धमकाया गया. फिर झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गयी. चैनल का रूतबा दिखाकर पुलिस से पिटवाना चाहा. लेकिन जब कुछ नहीं कर पाए तो लगे फ़ोन से धमकी देने. इसके पहले आज़ाद न्यूज़ के इनपुट हेड कमलकांत गौरी, आउटपुट हेड रवींद्र शाह और पॉलिटिकल एडिटर नवीन सिन्हा ने मीडिया खबर.कॉम को मेल के जरिये नोटिस भेजा था जिसका जवाब मीडिया खबर के लीगल सेल की तरफ से दे दिया गया. लेकिन इस बीच, मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प को डराने और धमकाने की कोशिशें लगातार जारी रहीं. घर पर गुंडे भेजे गए. नोटिस मिला है की नहीं. यह पूछने के लिए कई लोगों को मीडिया खबर के संपादक के घर भेजा गया. यह लोग सफ़ेद रंग की कार से आये. कार में कई लोग थे. इनका मकसद नोटिस के बारे में पूछना नहीं बल्कि टोह (रेकी) लेना था. यदि नोटिस के बारे में ही पूछना था तो फोन करके या मेल के जरिए पूछा जा सकता था। मुंहज़बानी पूछने का क्या मतलब? यदि पूछने ही आये तो कार भर के आदमियों के साथ क्यों आये? उसके बाद भी कई संदिग्ध लोगों का आना - जाना जारी रहा. इसके बाद मीडिया खबर.कॉम के संपादक ने पांडव नगर थाने में शिकायत दर्ज करवायी. शिकायत की कॉपी साथ में संलग्न है. पुलिस के आला अधिकारियों से भी मुलाकात की गयी और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत करवाया गया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue Jul 27 17:14:53 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 27 Jul 2010 17:14:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+Ckj+CklSDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSl4KS24KS+4KS44KWN4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkleClgCA=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS14KWH4KSV4KS54KWA4KSoIOCkn+Ckv+CkquCljeCkqg==?= =?utf-8?b?4KSj4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleCkviDgpJzgpLXgpL7gpKwn?= Message-ID: 'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब' *सदानंद शाही के संपादन में निकलने वाली पत्रिका साखी के 20वें अंक में छपे अपने (मूलतः अंगरेजी में लिखे) पत्रमें आर्थिक इतिहासकार गिरीश मिश्र ने रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय के कार्यों पर गंभीर टिप्पणियां की थीं. इस पर रविभूषण जी ने एक जवाब लिखा, जिसे प्रभात खबर ने छापा और इसे हमने हाशिया पर भी पोस्ट किया. इस आलेख की प्रतिक्रिया में गिरीश मिश्र ने प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी को एक पत्र लिखा था, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया था और यह सूचना दी थी कि अखबार में अब इस संदर्भ में कोई भी टिप्पणी प्रकाशित नहीं होगी. यह पत्र भी हाशिया पर पोस्ट किया गया था. * *हाशिया पर पोस्ट किए गए रविभूषण के आलेख पर गिरीश मिश्र ने एक कमेंट भी किया था और अब उस कमेंट तथा गिरीश मिश्र द्वारा हरिवंश को लिखे पत्र के जवाब के रूप में रविभूषण ने हाशिया के लिए यह टिप्पणी लिखी है. यह टिप्पणी हमें 23 तारीख को हासिल हो गई थी, लेकिन बाहर रहने के कारण मैं इसे पोस्ट नहीं कर सका था. इस संदर्भ में बहस हाशिया पर आगे भी जारी रहेगी. पोस्ट पढ़ेंः **'एक अर्थशास्त्री की विवेकहीन टिप्पणियों का जवाब' * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Jul 27 20:19:34 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 27 Jul 2010 20:19:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: अपनी भाषा, अपनी अभिव्यक्ति और अपने सरोकारों के प्रति सच्चे, नैतिक और संवेदनशील एक लेखक को जब बार-बार यंत्रणाओं, विवादों और लांछनों से गुज़रना पड़ता है तभी ऐसी तकलीफ़ भरी आह निकलती है. राजनीति, जातीयता, पूंजी की तमाम संरचनाओं, गुट, झुंड, संगठन, संस्थान आदि से दूर रहने के बाद भी बार-बार उत्पीड़ित किया जाना अन्याय और अत्याचार की पराकाष्ठाहै. विडंबना यह है कि रूसी कवि ओसिप माम्देल्स्ताम के साथ घटित यह त्रासदी आज हमारे हिन्दी समाज के भीतर दोहराई जा रही है. ऐसे में उम्मीद की सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही किरण दिखती है, वह है उसका पाठक : "अगर यह कोई किरण है, अगर यह सचमुच कोई रोशनी है तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि प्यार करने वालों की फुसफुसाहटों और सरगोशियों ने इसे गर्माहट दी है....आंच और ज़रा सी ताकत." हमारे बेह्द प्रिय लेखक उदय प्रकाश की इस मार्मिक टिप्पणी को आप सब भी पढ़ सकते हैं और हिन्दी के दुर्दांत सत्ता समाज को गरिया सकते हैं. - शशिकांत Wednesday, July 21, 2010 साहित्य एक अंतिम शरण्य : विस्थापन के विरुद्ध कुछ फुसफुसाहटें ''मैं चाहता हूं कैसे मैं किस तरह उड़ जाऊं, वहां जहां मुझे कोई न देख सके उजाले की उस किरण के उस पार पीछे अपना कोई निशान छोड़े बिना. लेकिन तुम - तुम तो उजाले को अपने चारों ओर से घेर लेने दो, वही एक खुशी है रोशनी या उजाले का मतलब तुम नक्षत्रों की टिमटिमाहट से सीखो अगर यह कोई किरण है, अगर यह सचमुच कोई रोशनी है तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि प्यार करने वालों की फुसफुसाहटों और सरगोशियों ने इसे गर्माहट दी है....आंच और ज़रा सी ताकत और मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि मैं भी फुसफुसाहटों में कुछ कह रहा हूं, मैं तुम्हें उजाले को सौंप रहा हूं, एक छोटी सी किरण को, फुसफुसाहटों के बीच.'' क्या आपने कभी 'होप अगेंस्ट होप्स' पढी हैं? विश्व विख्यात रूसी कवि ओसिप माम्देल्स्ताम की वह जीवनी, जो उसकी पत्नी नादेज्दा ने लिखी थी. मैंने इसे १९७६-७७ में तब पढ़ा था, जब देश में 'आपातकाल' घोषित था. मेरी राय हैं कि आप उसे 'अघोषित आपातकाल' के इस कठिन समय में ज़रूर पढ़ें. उसे पढ़ कर यह जाना जा सकता हैं कि सर्वसत्तावादी या किसी लक्ष्य के उन्माद में ग्रस्त राजनीतिक सरकारें किस निर्ममता से अपने से असहमत किसी स्वतंत्र लेखक या नागरिक का उत्पीडन करती हैं. यह जीवनी कई मायने में एक वास्तविक लेखक के जीवन में हमेशा और हरबार घटित होने वाले 'होलोकास्ट' या त्रासदी का बयान करती हैं. महान प्रतिभा और रूस में सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय कवि होने के बावजूद ओसिप माम्देल्स्ताम को बार बार यंत्रणाओं, कैद , विवादों, लांछनों से गुज़रना पडा, इसके पीछे कई वजहें थीं. एक तो (शायद सबसे पहली) वह उस जाति और धर्म का नहीं था, जिसके हाथ में समाजवादी सोवियत रूस की सत्ता थी. (महा-वृत्तांतों के परदों के पीछे छुपे ऐसे 'लघु और क्षुद्र वृत्तांतों' को हमेशा छुपाया जाता है. आज तक.) ओसिप यहूदी था. दूसरे, वह जिस तरह की कवितायेँ लिख रहा था, वह ज़्यादातर उस समय की मुख्यधारा की रूसी कविता से अलग तरह की कवितायेँ थीं. ये किसी 'यूटोपिया' या विचारधारा के वाग्जाल (रेटरिक) को नहीं रचती थीं. ये किसी सामूहिक विकल्प, राजनीति या सामाजिक दर्शन को समर्पित नहीं थीं. बल्कि अपने और अपने जीवन के इर्द गिर्द के असली रोज़मर्रा अनुभवों को किसी नैतिक पीडा के साथ, कविता कही जा सकने वाली संरचनाओं में बदलती थीं. विख्यात रूसी 'प्रतीकवाद' के वर्चस्व को तोडने वाली इस कविता को 'पराकाष्ठावादी' या 'एक्मिस्ट' कविता का नाम दिया गया था. अन्ना अख्मातोवा भी ऐसी ही कवितायेँ लिख रही थी और उसका जीवन भी बहुत छिन्न-भिन्न, अनिश्चयों से भरा और यातनापूर्ण रहा. ये ऐसी कवितायेँ थीं, जो अपने होने और अस्तित्व में आने के लिए बाहर की किसी सैद्धांतिकी, एजेंडे या पूर्व प्रस्तावित काव्य-विधानों का सहारा नहीं लेती थीं, बल्कि अपने समय और स्पेस में अपने जिए जा रहे जीवन के ब्यौरों से जिस तरह की विनिर्मितियाँ प्रस्तुत कर रहीं थीं, वह उस राजनीति और संस्कृति के सारे 'महावृत्तांतों' के धुर्रे चुपचाप, पूरी खामोशी के साथ बिखेर रही थी, जिसको छुपाने ढकने के लिए सारा राज्यतंत्र, मीडिया, संस्थान, अभिजन, ताकतें और प्रशासन-प्रणाली लगी हुई थी. ये अकेली कविताएं सामूहिक महानताओं के भव्य स्थापत्यों, गुंबदों और मज़बूत किलों के भीतर पहुंच जाने वाली वाली सत्य और आवयविक यथार्थ की विस्फोटक सामग्री की तरह थीं. निजी हताशाओं, नैतिक पीड़ा और अक्सर विषाद से भरी ये निर्बल, 'आफ़बीट' कविताएं, किसी भी तरह की मुख्यधारा के लिए, इसीलिए खतरों की तरह थीं. संभवत: इसीलिए इनको विस्थापित और अपदस्थ करने में, उस समय की मुख्यधारा की राजनीति, संस्कृति और साहित्य ने एक जैसी 'उत्पीड़क' की भूमिका निभाई. ऐसा ही हमेशा हुआ करता है. होता आया है. ऐसा नहीं था कि ओसिप मान्देल्स्ताम या अन्ना अख्मातोवा कोई क्रान्तिविरोधी गतिविधियाँ चला रहे थे. बल्कि उनका जीवन तो बहुत एकान्तिक और अकेले का जीवन था. ओसिप मान्देल्स्ताम ने तो १९१७ की सोविएत क्रान्ति का स्वागत और समर्थन भी किया था. लेकिन समस्या सबसे बड़ी यही थी, और जो हर उस सच्चे और अभागे लेखक के साथ होती हैं, जो अपने समय में राज्य और 'अदृश्य सरकारों' द्वारा दण्डित होता हैं, कि वह ईमानदार था. वह समाजवाद और मार्क्सवाद के साथ तो था, लेकिन उसे स्टालिन और उसके आसपास मौजूद सरकारी लगुओं-भगुओं (जिन्हें हम शालीन और स्वीकृत भाषा में 'एलीट', 'अभिजन' या 'भद्र-लोग' या फिर 'बुद्धिजीवी' कहते है) पर संदेह था. यह 'भद्र वर्ग', जिसे ई.पी. थांपसन ने अपनी विख्यात किताब ' दि एलीट पावर' में बहुत अच्छी तरह से विश्लेषित किया हैं, स्वयं को वामपंथी और मार्क्सवादी कहता था. 'इतिहास', 'वर्गचेतना' और 'विचारधारा' के महावृत्तांतों के भीतर यह अपने असली 'लघु और क्षुद्र वृत्तांतों' को छुपाता था. यही वह लोग थे, जिन्होंने मान्देल्स्ताम समेत कई महान रचनाकारों के जीवन को असह्य बनाया और ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित कीं कि इनमे से कई को आत्मह्त्या करनी पडी, कुछ विक्षिप्त हो गए, कई को लेबर कैम्प भेज दिया गया. और कुछ को तो गोली से उड़ा दिया गया. ओसिप मान्देल्स्ताम और अन्ना अख्मातोवा कविता के जिस 'पराकाष्ठावादी' स्कूल से जुड़े हुए थे, उसके व्याख्याकार और अगुआ बुद्धिजीवी गुमिलेव को तो बाकायदा १९२१ में फायरिंग स्क्वैड ने गोली मार दी. ओसिप मान्देल्स्ताम को कई बार लेबर कैम्प भेजा गया. कई तरह की क्रूर चालाकियों में उसे ठगा गया और फंसाया गया. उससे बार-बार सरकार के समर्थन वाले काम करवाए गए. उससे बार-बार उसकी वफादारी पूछी गयी. जीवित रहे आने के दुर्निवार लोभ में वह अपनी अंतरात्मा के साथ यह धोखा फुटकर गद्य में तो अक्सर करता रहा लेकिन कविता में वह ऐसा नहीं कर पाता था. वह हर देश और हर तरह के सर्वसत्तावादी तंत्र में पाए जाने वाले उन 'अदृश्य सरकारों' (invisible governments) के लिए संदिग्ध हो चुका था, जिसके लिए अख्मातोवा, राहुल सांकृत्यायन, वैक्कुम मोहम्मद बशीर, अत्तिला योजेफ़, नज़रुल, नागार्जुन, मुक्तिबोध, ब्रेख्त, लोर्का आदि सभी सच्चे और ईमानदार लेखक संदिग्ध हुआ करते हैं. अफसरों, पुलिस अधिकारियों, मंत्रियों, सचिवों, संस्थानों आदि सत्ताकेंद्रों के इर्दगिर्द हमेशा बनने वाली ये 'अदृश्य सरकारें' ऐसे लेखकों को हमेशा अपने लिए असुविधाजनक मानती हैं. अनुवाद, छिट-पुट लेखन, अनियत पत्रकारिता और सरकारी दिहाड़ी पर किसी तरह जीवित रहने वाले इस महान कवि के बारे में पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों और प्रकाशनों को चेतावनी दी जा चुकी थी. अपने अकेले दैनिक जीवन के ब्यौरों में खोये ओसिप मांदेल्स्ताम को पता भी नहीं था कि वह सत्ता-तंत्र द्वारा 'वर्ग शत्रु' घोषित किया जा चुका था. १९३८ में उसे एक बार फिर साइबेरिया के लेबर कैंप में भेजा जा रहा था, तब तक उस पर बीच-बीच में स्मृतिहीनता के दौरे पड़ने लगे थे. अपनी आख़िरी चिट्ठी में उसने अपनी पत्नी नादेज्दा से कुछ गर्म कपडे और रुपये भेजने को कहा था. आज से लगभग ७२ साल पहले, २७ दिसंबर १९३८ को उसके भाई अलेक्सांद्र मान्देल्स्ताम को सरकार की और से चिट्ठी मिली कि ओसिप की मृत्यु 'हार्ट फेल' हो जाने से हो गयी. यह जीवनी भी इसलिए संसार के सामने आ सकी कि उसकी पत्नी में अपूर्व हिम्मत और शब्दों की शक्ति थी वर्ना महान कथाकार मिखाइल बुल्गाकोव या जर्मनी की महान आलोचक प्रतिभा वाल्टर बेंजामिन की तरह उसका जीवन भी अंधेरे में रहा आता. मै दरअसल, आप सबके लिए अपनी जर्मनी तथा फ्रांस की यात्रा और वहां फ्रैंकफुर्ट में आयोजित होने वाले अत्यंत महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सेमीनार के बारे में और अपनी लगभग दो महीने तक चली इस यात्रा में अलग-अलग शहरों, विश्व विद्यालयों और संस्थानों में रचना पाठ और संवाद -व्याख्यानों के अनुभवों के बारे में बताने बैठा था कि ओसिप मान्देल्स्ताम का जीवन चुपचाप सामने आ गया. ऐसा शायद इसलिए हुआ कि सिर्फ अपनी भाषा और अपनी रचना के लोक में जीने वाले अकेले हर लेखक के जीवन की स्थितियां बहुत कुछ मिलती-जुलती होती है. पिछले पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक स्वतन्त्र (यहाँ स्वतन्त्र का उपयोग मैं सिर्फ 'फ्रीलांस' के अर्थ में नहीं, बल्कि लगभग समग्र अर्थों में कर रहा हूँ. यानी उन्हीं 'एक्मिस्ट' या 'पराकाष्ठावादी' अर्थों में, जैसा अन्ना अख्मातोवा और ओसिप मान्देल्स्ताम ने किया था. यानी 'धर्म', 'नस्ल', 'जाति', 'राजनीति' आदि अन्य सामूहिक अधिरचनाओं के वर्चस्व से मुक्ति, तटस्थता और निस्संगता के अर्थ में. ) लेखक अपनी भाषा का मूल निवासी होता हैं. लेखक भाषा का 'आदिवासी' या 'अबोरिजिन' होता है. वह भाषा का उपयोग पूरी तरह से प्राकृतिक और मानवीय परियोजना में करता है. भाषा एक तरफ़ उसकी वैयक्तिक व्यावहारिक चेतना का निर्माण करती है, तो दूसरी ओर भाषा ही उसके बाहरी मानवीय सामुदायिक समाज को भी बनाती है. जो लोग सिर्फ़ इस 'क्लीशे' को मानते हैं कि 'भाषा एक सामाजिक उत्पाद है' (Language is a social product) वे यह समझने में असफल हो सकते हैं कि दरअसल इसका उल्टा अधिक सच है. यानी भाषा ही समाज का निर्माण करती है. भाषा समाज को बदलती और रूपांतरित भी करती है. (आज के 'कंज्यूमरिस्ट' नव-धनाढ्य मध्यवर्ग का नया समाज मीडिया, नेट, विग्यापन, टेक्नोलाजी के नव-साम्राज्यवादी आक्रामकता के ज़रिये बनाया और बदला गया है.) भाषा ही स्वतंत्र अकेले लेखक का पहला और अंतिम शरण्य होती हैं. उसका ठौर-ठिकाना. उसका देश. जल-जंगल-ज़मीन. उसका खेत और कुआं. उसकी छत और उसका शहर. (याद करें, विट्गेंस्टाइन ने भाषा को अतीत से लेकर आज तक की असंख्य सभ्यताओं वाला 'शहर' या 'मानवीय 'बस्ती' कहा था.) भाषा के बाहर लेखक की कोई अन्य सत्ता नहीं होती. आज के सत्ताकेंद्रिक अर्थों में वह सत्ताहीन होता है, किसी आदिवासी या वंचित मनुष्य की तरह. अगर उसका कोई समुदाय होता भी है, तो वह सिर्फ़ अपनी प्राथमिक ज़रूरत और अनिवार्य आत्मरक्षा के लिए बना हुआ 'सत्ताहीन समाज' होता है. वह 'लेखक', जिसकी सत्ता अगर उसकी भाषा से ज़्यादा कहीं बाहर है, राजनीति, जातीयता, पूंजी की तमाम संरचनाओं, गुट, झुंड, संगठन, संस्थान आदि में, तो इसके मायने हैं कि वह लेखक कम और भाषा की सरहद पर मौज़ूद कोई बाहरी कोई हमलावर, अतिक्रमणकारी या फिर भाषा के भीतर दाखिल कोई बाहरी सत्ताओं का एजेंट, भेदिया, आतंकवादी होता है. ऐसे लोग अपनी-अपनी ताकतों का निर्माण जिन स्रोतों से करते हैं, वे स्रोत भाषा के कत्तई नहीं होते. उन्हें भाषा की सत्ता पर भरोसा ही नहीं होता जबकि (मैंने पहले भी कई बार कहा है कि रोलां बाथ भाषा को ऐसी 'सत्ता' मानते हैं, जहां अन्य सत्ताएं निसर्जित हो जाती हैं. शब्द को वह 'उत्कीर्णित सत्ता' (power inscribed) मानते हैं.हमारे अपने देशी भाषा चिंतन में भी शब्द-सत्ता की तुलना सर्वोच्च सत्ता (ब्रह्म) से की गयी है.) भाषा सर्वोच्च सत्ता होती है. अन्य सत्ताएं जहां स्मृति और स्वप्न को नष्ट करती हैं, या कृत्रिम स्मृतियों और स्वप्नों का सामूहिक उत्पादन (mass production) करती हैं, वहां किसी लेखक की भाषा निजी, भिन्न और वैयक्तिक स्मृति और स्वप्नों को रचती है, इसीलिए 'इतिहास' की सामूहिक संरचनाओं से वह हरबार मुठभेड़ करती है और अक्सर 'फेक-एनकाउंटर' में 'ताकतवर' पूंजी-तकनीकी और राजनीति की 'ऐतिहासिक' सत्ताओं द्वारा मार दी जाती है. फ़्रैंकफ़ुर्ट में १ जून से ४ जून तक चलने वाले इस सेमिनार का विषय था 'साहित्य एक शरण्य और लेखक का विस्थापन'. मैंने इसे हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस समय चल रहे आदिवासियों, वंचितों, दलितों और सत्ताहीन वर्गों के विस्थापन और उत्पीडन से जोड कर देखा. आप ध्यान से देखें तो जिस भाषा (हिंदी) में बुनियादी रूप से मैं लिखता हूं, उस भाषा पर जिन वर्गों-जातियों-समूहों का वर्चस्व या आधिपत्य है, वे ठीक वही वर्ग-जाति-समूह हैं, जो वास्तविक समय और यथार्थ में, हमारे देश के आदिवासियों-जनजातियों, दलितों, अल्पसंख्यकों को उनकी जगहों, उनके घरों या 'शरण्यों' से बेदखल करने में पूरी मुस्तैदी के साथ लगे हैं. उनमॆ कोई खास अंतर नहीं है. हां, उनकी राजनीतिक 'विचारधाराएं' (आइडियोलाजी) अलग-अलग पाठ (टेक्स्ट) में प्रस्तुत हो सकती है. लेकिन अगर आप चोम्सकी की प्रसिद्ध किताब, 'आन लैंगुएज़' याद करें, जिसमें उसकी भाषा पर विचार की अन्य कृतियां भी शामिल हैं, (लैंगुएज़ एंड रिस्पोंसिबिलिटी' तथा 'रिफ़्लेक्शंस आन लैंगुएज़) तो उसने कहा था : ''For the analysis of ideology, which occupies me very much, a bit of open mindedness, normal intelligence and healthy skepticism will generally suffice.'' इसका मतलब ही यह हुआ कि हम जिस समय में आज हैं, उसमें प्रदत्त 'आइडियोलाजी' के पाठ को नये सिरे से हमें 'स्वस्थ संदेह', 'खुले दिमाग' और 'सामान्य-स्वाभाविक विवेक' के साथ देखना होगा. ... .(बाकी अगली पोस्ट में फ़्रैंकफुर्ट के महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के बारे में कुछ जानकारियां और गोटिंगन विश्वविद्यालय, कोलोन, बोन और हाइडेलबर्ग के दक्षिण एशियाई अध्ययन संस्थान आदि में व्याख्यान और रचनापाठ के बारे में कुछ बातें और बर्लिन, फ़्राइबुर्ग, ट्युबिंगन, स्त्रासबुर्ग, स्टुटगार्ड की यात्राओं के कुछ ब्यौरे.) 10 comments: शरद कोकास said... ओसिप माम्देल्स्ताम , एक अकेली जान और इतने सारे दुश्मन ?"वह उस जाति और धर्म का नहीं था, जिसके हाथ में समाजवादी सोवियत रूस की सत्ता थी ". यह सही है कि यह वृतांत अब तक छुपा रहा लेकिन अब अन्ना अख़्मातोवा , ओसिप माम्देल्स्ताम ऐसे ही कई कवियों के बहाने प्रकट हो रहा है । हमारे देश में इन स्थितियों के लिये आपने यद्यपि आपातकाल की ओर ध्यान दिलाया है लेकिन उस दौर में ऐसे लेखक कम से कम घोषित तो हो चुके थे । इस अघोषित आपातकाल में तो ऐसे लेखकों के चेहरे पहचानना मुश्किल है और इस आपातकाल के पोषकों के चेहरे पहचानना तो और भी बहुत मुश्किल । बहरहाल ओसिप माम्देल्स्ताम की जीवनी के बहाने आपने समय और समाज की अनेक विसंगतियों की ओर हम सबका ध्यान आकर्षित करवाया है । इसी सन्दर्भ में समाज और भाषा पर आपका चिंतन भी महत्वपूर्ण है । फ़्रैंकफुर्ट के यात्रा विवरण में हम सिर्फ विवरण पढ़ना भी नहीं चाहते । हमे उम्मीद है इसी तरह देश और काल की नब्ज़ पर हाथ रखते हुए आप इतिहास के उन अलिखित पृष्ठों को हमारे सामने रखेंगे जिन्हे आपकी पारखी नज़र ने विगत दिनों देखा है । धन्यवाद उदयप्रकाश जी । July 21, 2010 9:29 PM Farid Khan said... "जिस भाषा (हिंदी) में बुनियादी रूप से मैं लिखता हूं, उस भाषा पर जिन वर्गों-जातियों-समूहों का वर्चस्व या आधिपत्य है, वे ठीक वही वर्ग-जाति-समूह हैं, जो वास्तविक समय और यथार्थ में, हमारे देश के आदिवासियों-जनजातियों, दलितों, अल्पसंख्यकों को उनकी जगहों, उनके घरों या 'शरण्यों' से बेदखल करने में पूरी मुस्तैदी के साथ लगे हैं." इस 'अघोषित आपातकाल' को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। July 22, 2010 12:40 AM शेखर मल्लिक said... मुझे आपकी जर्मनी यात्रा के संस्मरणों का इन्तजार है. आपकी बातों से प्रभावित हुआ. July 22, 2010 6:41 PM डॉ .अनुराग said... एक दूसरे संसार से गुजर कर वापस तो आ गया हूँ पर दिमाग पर उसका असर अब भी है..... July 22, 2010 8:04 PM अजेय said... # डॉ. अनुराग ,कभी कभी हम दूसरे संसार मे जीना पसन्द करते हैं. वर्ना यह क़तई दूसरा संसार नहीं है. हमारा अपना ही है. *उदय प्रकाश* ने हमें अपने ही संसार से परिचित कराया, आभार. July 23, 2010 9:18 AM संजय ग्रोवर Sanjay Groversaid... सच कहूँ तो अरसे बाद 'उदय प्रकाश' को पढ़ा... July 23, 2010 7:28 PM Rangnath Singh said... आपकी पीड़ाएं-चितांए हम सभी के दुख को साझा करती हैं। भाषा में मुक्ति खोजने की विवश कातरता को हम सभी कभी न कभी महसूस करते हैं। अभी किसी साथी ने ओरहान पामुक का माइ फादरस सुटकेस के अंश भेजे। मैं समझ नहीं पाया कि ये आप बोल रहे हैं कि पामुक बोल रहे हैं या माम्देल्स्ताम या कोई और लेख !! शायद अनुचित लगे लेकिर कहुंगा कि ऐसा लगता है कि सभी लेखक किसी एक पीड़ित वृहत आत्मा के लघु अंश हैं !! यह भी लगता है कि,ईसा के शाश्वत पाप का बोझ लेखकों ने मानवता की रक्षा के लिए अपने सिर पर ले लिया है। लेखक होता जाना संभवतः भीतर ही भीतर से और छिलते जाना है। लिखना उस छिलन के कष्ट से मुक्ति पाने का एक असहाय प्रयास भर रह जाता है। इन पंक्तियों को लिखते वक्त मुझे बेवजह स्वेदश दीपक याद आ रहे हैं !! जिस व्यक्ति को मैंने कभी नहीं देखा,वो अक्सर मेरे तसव्वुर में आ जाता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि,स्वेदश कहां होंगे ? कैसे होंगे ? होंगे या नहीं भी होंगे ? और उनके साथ ऐसा क्यों हुआ ? हिंसक मनुष्यों के समूह में एक कृशकाय जीव (लेखक) अपने को कैसे बचाए रखे, मैं अक्सर सोचता हूं ?? July 23, 2010 7:29 PM अनहद/aNHAD said... आप हर बार नए सिरे से झकझोरते हैं...काश की इतना ही जेनुईन गुस्सा समय के हर लेखक के पास होता.... July 24, 2010 6:54 PM सुशीला पुरी said... ''और मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि मैं भी फुसफुसाहटों में कुछ कह रहा हूं, मैं तुम्हें उजाले को सौंप रहा हूं, एक छोटी सी किरण को, फुसफुसाहटों के बीच.'' मेरी उम्मीद मुझे वहाँ तक ले जा रही है जहाँ से आपकी 'फुसफुसाहटों' ने एक ऐसी नई दुनिया की नीव डाल दी है जहाँ न सत्ताओं के दलाल जा पायेंगे और न ही अघोषित आपात की हवा प्रवेश पा सकेगी, आपने भाषा के जिस अंतिम शरण्य की ओर इशारा किया ....एक जीवित मनुष्य के जिस आखिरी सदन की बात की वह निश्चितरुप से आज के इस बहुरूपिया समय मे ऐसी छांव है, जहाँ न उसकी चालाक चाल चल पाएगी और न ही वहाँ दलालों की दाल गल सकेगी । भाषा के भीतर आपकी फुसफुसाहटों से एक दिन ऐसा सिंहनाद होगा कि बहरे और गूँगे समय के कान के पर्दे फट जायेंगे और उसकी बोली फूट पड़ेगी ,इस अघोषित आपात के विरुद्ध ..........., July 26, 2010 7:44 PM अजेय said... well said Susheela ji, isee ummeed par ham kavita ko jari rakkhenge. July 26, 2010 10:03 PM -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Jul 28 18:25:01 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 28 Jul 2010 18:25:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSkIOCklOCksCDgpLjgpYfgpLngpKQ=?= Message-ID: दोस्त बनाइए, सेहतमंद रहिए समाज में हमेशा से ही दोस्तों को जीवन में अहम जगह दी गई है. अब अमरीका में हुए शोध से भी ये बात सामने आई है कि अगर आप मित्रों और अच्छे पड़ोसियों के बीच रहते हैं तो ज़िंदा रहने के आसार 50 फ़ीसदी बढ़ जाते हैं. http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2010/07/100728_friend_lifespan_va.shtml -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Thu Jul 29 17:59:36 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 29 Jul 2010 17:59:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWB4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSy4KSW4KSC4KShIOCkuOCkguCkleCknyDgpKrgpLAg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCksOCkv+CkquCli+CksOCljeCknw==?= Message-ID: पिछले एक दशक से अधिक समय से बुंदेलखंड लगातार सूखा झेल रहा है. 2008 को छोड़कर जब इस इलाके में पर्याप्त बारिश हो गई थी, इस दौरान यहां औसत से बहुत कम बारिश हुई है. महोबा जैसे जिले में तो 2008 में औसत से 66 प्रतिशत कम बारिश हुई थी. सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए. एेसे में, जब इलाके की 80 फीसदी आबादी खेती और पशुपालन से होने वाली आय पर निर्भर है, खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं. सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही. सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है. गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में नेशनल रेनफेड एरियाज अथॉरिटी के जेएस सामरा के नेतृत्व में एक केंद्रीय टीम गठित की थी. 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के अनुसार 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 वर्ष सूखा पड़ा था. यानी इस अवधि में सूखा पड़ने का औसत हर 16 वर्ष में एक बार का था. लेकिन 1968 से लेकर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में औसतन पांच साल में एक बार सूखा पड़ने लगा. और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है. *पूरी रिपोर्ट पढ़िएः http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/635.html* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Jul 29 21:06:46 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 29 Jul 2010 21:06:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSc4KS84KWLIOCkleCli+CkueCkv+CkqOClguCksCDgpLU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSq4KS4IOCkleCksOCliw==?= Message-ID: अंग्रेज़ो कोहिनूर वापस करो अंग्रेज़ो कोहिनूर वापस करो अंग्रेज़ो कोहिनूर वापस करो मित्रो, राष्ट्रमंडल खेल सामने है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन इन दिनों हिन्दुस्तान में. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ग्रीक चेयर के प्रोफेसर उदय प्रकाश अरोड़ा के दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित इस लेख को आप सब भी पढ़ सकते हैं और ब्रिटेन से अपने लूटे हुए बेशक़ीमती सामान लौटाने की माँग कर सकते हैं. -- शशिकांत धरोहर को वापस लाने का मौका उदय प्रकाश अरोड़ा मनवेल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं। ‘क्वींस बैटन’ घुमाकर ब्रिटिश साम्राज्य की यादें ताजी की जा रही हैं। इस समय 2004 का एथेन्स ओलंपिक याद आ रहा है। मैं उस समय यूनान में था। एक ओर तो खेलों की तैयारी हो रही थी तो दूसरी ओर एक आंदोलन भी चल रहा था, जिसमें केवल जनता ही नहीं सरकार भी शामिल थी। आंदोलन था ब्रिटिश अधिकारी लार्ड एलगिन द्वारा एथेन्स के प्राचीन पाथ्रेनन मंदिर से चुराई गई मूर्तियों की वापसी के लिए। यूनान का यह सामान अंग्रेजों ने लूटा था। इस हिसाब से देखें तो ब्रिटेन में हमारा भी बहुत कुछ है। कोहिनूर हीरा, दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नटराज मूर्तियां, मुगलकालीन चित्र आदि के सुन्दर नमूने ब्रिटेन में हैं। क्या हम ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ के मौके पर यह मांग नहीं कर सकते कि जो हमारी धरोहर ब्रिटेन में है, वे लौटायी जाए। साम्राज्यवाद के दौर में उपनिवेशों की तमाम संपदाओं के साथ पुरातात्विक संपदा को भी जमकर लूटा गया था। भारत, मिस्र और यूनान जैसी समृद्ध सभ्यताओं की कलाकृतियों से ब्रिटेन और फ्रांस के संग्रहालय भरे पड़े हैं। आज ये मुल्क आजाद हैं। क्या अब इनका यह हक नहीं बनता कि उनकी अमानत उन्हें वापस मिल जाए। ये कलाकृतियां मात्र पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं ही नहीं हैं। ये इन राष्ट्रों की सांस्कृतिक विरासत हैं। इनसे उनकी पहचान बनती है। भारत में धरोहर की वापसी के लिए कुछ फुसफुसाहट भले ही होती हो, किन्तु सरकार या किसी प्रकार के संगठन द्वारा वापसी के लिए कोई सार्थक प्रयत्न कभी नहीं किया गया। ऐसा यूनान और मिस्र के साथ नहीं है। सफलता मिले या न मिले, इन दोनों देशों ने अपनी विरासत वापस पाने की जंग निरंतर जारी रखी है। आर्थिक मंदी के कारण यूनान इस समय सुर्खियों में है, लेकिन मंदी के इस दौर में ही वहां लगभग 1350 लाख डॉलर अर्थात 63 अरब रुपयों की लागत से बने पुरातात्विक संग्रहालय का निर्माण पूरा हुआ। निर्माण पूरा होना आवश्यक था, क्योंकि यह यूनानियों के राष्ट्रीय स्वाभिमान का मुद्दा बन गया था। दो सौ वर्ष पहले यूनान जब तुर्की साम्राज्य के अधीन था तब लार्ड एलगिन को ब्रिटेन ने तुर्की साम्राज्य के लिए अपना राजदूत नियुक्त किया था। एलगिन की नजर एथेंस की पाथ्रेनन देवी के मंदिर की मूर्तियों पर थी, जो यूनानी कला का सवरेत्तम उदाहरण मानी जाती हैं। तुर्क अधिकारियों के सहायोग के कारण मूर्तियां हासिल करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। मूर्तियां ब्रिटिश सरकार को बेच दी गईं और सरकार ने उन्हें ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में रखवा दिया। तुर्की से आजाद होने के बाद यूनानी बुद्धिजीवी वर्ग ने मूर्तियों को लौटाए जाने की मांग की। अस्सी के दशक में जब मेलिना मरक्यूरी यूनान में सांस्कृतिक मामलों की मंत्री थी, तब इस अभियान को अनेक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संगठनों का समर्थन मिला। इन सबके बावजूद ब्रिटेन के रुख में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अंग्रेजों ने कहा कि ब्रिटिश संग्रहालय से टक्कर लेने वाला कोई संग्रहालय यूनान में नहीं है, इसलिए यूनानी कलाकृतियां ब्रिटेन में अधिक सुरक्षित हैं। यह बात यूनानियों को चुभी। यूनान की संस्कृति मंत्री मेलिना मरक्यूरी ने ब्रिटेन को एक खुले खत में याद दिलाया कि एक समय जब तुर्की ने पाथ्रेनन मंदिर को तोप बारूद सहित अपने हथियारों का भंडार बना रखा था, जब बारूद के गोले समाप्त होने लगे तब तुर्की ने मंदिर में पड़े प्राचीन स्तम्भ के टुकड़ों का प्रयोग तोप के गोलों के स्थान पर प्रारंभ कर दिया था। एथेन्स की जनता से यह देखा न जा सका, तुरंत नागरिकों के एक दल ने तुर्क सिपाहियों को भेंट स्वरूप बारूद के गोले दिए ताकि वे प्राचीन पत्थरों का प्रयोग कर यूनानियों की विरासत को नष्ट न कर सकें। जो यूनानी 400 वर्ष पूर्व दासता के युग में भी अपनी विरासत के लिए मर मिटने को तैयार थे, तो आज तो वे उससे कहीं अधिक कुछ करने के लिए तैयार होंगे। यह यूनानी स्वाभिमान ही था कि वहां तकनीकी दृष्टि से ब्रिटिश संग्रहालय से कहीं अधिक विकसित संग्रहालय का निर्माण करवाया गया। एथेन्स ने जब 2004 में ओलंपिक खेलों की मेजबानी की, उस समय यूनान को पूरी उम्मीद थी कि इस शुभ अवसर पर ब्रिटेन अवश्य एलगिन मूर्तियों को वापस लौटाने की घोषणा करेगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब नए संग्रहालय का उद्घाटन हुआ, तब लगभग निश्चित-सा हो गया था कि इस बार यूनान को अपनी अमानत वापस मिल जाएगी। आखिरी घड़ी में पता नहीं क्या हुआ कि इंग्लैंड ने फिर विचार बदल दिया। पर यूनान ने आशा नहीं छोड़ी है। एलगिन मूर्तियों के प्रदर्शन के लिए नए संग्रहालय भवन में एक विशिष्ट गैलरी खाली रखी गई है। मंदीग्रस्त यूनान के किसी नागरिक से जब मैं बातचीत करता हूं तो वह यूरोपीय संघ का सदस्य होते हुए भी यूरोप से बहुत खफा लगता है। वह नहीं मानता कि उसका मुल्क कर्ज से दबा है। सब कुछ वह अपने विरुद्ध यूरोप की साजिश मानता है। उनके अनुसार यूनानी विरासत को जो एलगिन ने लूटा है, उसकी कीमत यदि आंकी जाए तो वह यूनान को दिए गए कर्जे से कई गुना अधिक होगी। यूनान की तरह ही मिस्र ने भी अपनी पुरातात्विक विरासत के लिए आवाज उठाई है। इसका कुछ असर भी हुआ। सिकंदरिया नगर, जहां कभी विश्व का सबसे बड़ा पुस्तकालय था, वहां अनेक संस्थाओं के सहयोग से एक भव्य पुस्तकालय और संग्रहालय बनाया गया है। फ्रांस और इटली ने तमाम प्राचीन मिस्री कलाकृतियां और ग्रंथ सिकंदरिया के पुस्तकालय के लिए मिस्र को वापस लौटाए हैं। इस पुस्तकालय का भ्रमण करते समय मुङो नालंदा की याद आई, जो प्राचीन समय में सिकंदरिया के ही समान विद्या का अंतरराष्ट्रीय केन्द्र था। भारत अपनी विरासत के लिए क्या कर रहा है? कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में हम अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं। जो हमारा अमूल्य खजाना लूटा गया, उसे वापस प्राप्त करने की मांग अच्छा होगा कि कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन से पूर्व कॉमनवेल्थ के सिरमौर ब्रिटेन के समक्ष हम प्रस्तुत करें। किंतु क्या हम में इतना साहस है? अपनी ऑक्सफोर्ड यात्र में हमारे प्रधानमंत्री उस समय बहुत गौरवान्वित थे जब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष ने उनका नाम भारत पर शासन करने वाले उन अंग्रेज वायसराय के साथ लिया जो ऑक्सफोर्ड के भूतपूर्व छात्र थे। वहां अंग्रेजों ने भारत को क्या-क्या दिया, इसकी खूब चर्चा हुई। क्या लूटा इसको कहने वाला वहां कोई नहीं था। क्या यूनान और मिस्र के उदाहरणों से हम सबक नहीं ले सकते? (लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ग्रीक चेयर के प्रोफेसर हैं।) uparora at gmail.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Jul 30 09:24:40 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 30 Jul 2010 09:24:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS84KSs4KSw?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClgCDgpJbgpLzgpKzgpLDgpIMg4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCklOCksCDgpJXgpL/gpKTgpKjgpL4g4KSc4KSw4KWB4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpKzgpLngpLgg4KSG4KScLg==?= Message-ID: दुनिया की ख़बर लेनेवाली मीडिया और मीडिया संस्थानों की जब ख़बरें ली जाने लगती है,तब वो इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। वो नहीं चाहते कि लोकतंत्र की हिफाजत के नाम पर, ख़बरों की दुनिया के पीछे का जो खुल्ला-खेल फर्रुखाबादी चलाते आए हैं,वो सब लोगों के सामने आ जाए। दुनिया की ख़बरें कब्र से निकाल ली जाए लेकिन उनकी ख़बरें सामने आने के पहले ही कब्र में दफना दी जाए। शायद यही वजह है कि जिस समय एक एयरलाइंस में जितनी संख्या में लोगों को नौकरी से बेदखल किया जाता है,ठीक उसी समय उससे कहीं ज्यादा संख्या में एक मीडिया संस्थान के मीडियाकर्मी सड़कों पर आ जाते हैं। एयरलाइंस की खबर चौबीस घंटे से ज्यादा अबाध गति से चलती है लेकिन इन मीडियाकर्मियों की हालत पर कहीं एक लाइन भी कुछ दिखाया/बताया नहीं जाता। मीडिया और चैनलों की बाढ़ के बीच जहां छोटी से छोटी ख़बर के ब्रेकिंग न्यूज बनने की लगातार संभावना बनी रहती है,देश की हर लड़की,हर स्त्री एक पैकेज है की गुंजाईश में देखी-समझी जाती है,वहीं देश के सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल की एक मीडियाकर्मी की देर रात काम की शिफ्ट से लौटने के दौरान हत्या कर दी जाती है और चैनल पर बारह घंटे तक कोई ख़बर नहीं आती। देश में हजारों ऐसे मीडियाकर्मी हैं जो एक मजदूर से भी ज्यादा बदतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। उन बदतर स्थिति में जीनेवाले मजदूरों पर रवीश कुमार फिर भी कभी आधे घंटे की स्टोरी बना देते हैं लेकिन इन मीडियाकर्मियों की सुध लेनेवाला कोई नहीं है।..वो दुनिया के लिए ख़बर तो जरुर दिखा-बता सकते हैं लेकिन उन ख़बरों में वो खुद कहीं नहीं शामिल हैं। ये स्थिति ठीक उसी तरह की है जिस तरह से एक मजदूर दिन-रात रिबॉक और नाइकी के जूते बनाए और उसके खुद के पैरों की फटी विवाई जूते के जरिए एडवांस समाज बनने के उपर तमाचे जड़ दे। ऐसे में मीडिया आलोचना के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है,जिस जार्गन के तहत उसकी बात की जाती है,वो पूरी तरह स्टैब्लिश करते हैं कि ये मीडिया के विरोध में,उसके खिलाफ सक्रिय होने की कोशिशें हैं। जबकि सच बात तो ये है कि मीडिया आलोचना और ख़बरों की ख़बर दोनों एक चीज नहीं है। इस देश में मीडिया आलोचना की अब तक की जो परंपरा रही है उसमें या तो इसे विकासवादी माध्यम साबित करके सारी जिम्मेदारी इस पर लाद दी जाए या फिर इसे पूंजीवादी माध्यम बताकर इसे नेस्तनाबूद करने के दिशा में सोचा जाए या फिर( जो कि इन दिनों प्रचलन में है) फूहड़ बताकर किनाराकशी कर लिया जाए। ख़बरों की ख़बर में ये तीनों स्थितियां अलग है। वर्चुअल स्पेस पर मीडिया को लेकर ख़बरों की ख़बर का जो दौर चल रहा है वो विश्लेषण या आलोचना से न केवल अलग है बल्कि उससे कहीं ज्यादा आगे की चीज है। यहां अगर आलोचना भी की जा रही है तो उसके पहले कंटेंट जेनरेट करने का काम ज्यादा जरुरी है। बल्कि मीडिया पर बात करने के लिए उसे लेकर गहरे विमर्श में घंसने के बजाय ज्यादा जरुरी काम है कि जो तथ्य आते हैं उन्हें हू बू हू लोगों के सामने रख दिए जाएं। ज्यादा से ज्यादा घटनाओं और कंटेंट को सामने रख देनेभर से ही कई स्थितियां साफ हो जाती है। खबरों की बाकी बीट के मुकाबले मीडिया में फिलहाल विश्लेषण का काम न भी हो,लोगों को सिर्फ ये बताया जाए कि कहां क्या हो रहा है,उसी से बहुत बड़ा काम हो जाएगा और हो भी रहा है। ऐसा होने से ये बात बिल्कुल साफ हो जाएगी कि ख़बरों की ख़बर का मतलब ख़बर लेनेवाले को आलोचना की तरह खत्म करना नहीं है बल्कि इतनाभर बताना है कि लोकतंत्र को बचाने के नाम पर जिस मीडिया को आपने चंडूखाना बना दिया है,उसकी सारी ख़बरें रिस-रिसकर लोगों तक पहुंच रही है,आपकी एक-एक हरकत पर नजर रखी जा रही है। संस्थान के भीतर किस तरह की गड़बड़ियां चल रही है,कंटेंट को लेकर किस तरह के समझौते चल रहे हैं,ये सब लोगों के सामने आ रहे हैं। ऐसा होने से मीडिया आलोचना को मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के खिलाफ समझा जाता रहा है,ख़बरों की ख़बर इस दिशा में उनके अधिकारों की वापसी की बात करता है। ये मीडिया के प्रति नफरत पैदा करने के बजाय समझदारी पैदा करता है। इन सारे मसलों पर आज बात होनी है। आज शाम तीन बजे प्रेस क्लू ऑफ इंडिया,रायसीना रोड, नई दिल्ली में "ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" पर एक परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है। ये परिचर्चा मीडियाखबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने के मौके पर आयोजित किया जा रहा है। मीडिया से जुड़े मसले में जिन्हें भी दिलचस्पी है,उऩके लिए ये एक जरुरी इवेंट है। मीडिया,खासतौर से टेलीविजन इन्डस्ट्री के नामचीन लोगों के साथ मीडिया विश्लेषक इसमें अपनी बात रखेंगे। हम सब उनसे सवाल-जबाब करेंगे।.. नोट- कार्यक्रम की पूरी डीटेल इमेज की शक्ल में मौजूद है,आप इस पर क्लिक करके देख सकते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Fri Jul 30 09:38:27 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Fri, 30 Jul 2010 09:38:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSc4KS84KWLIOCkleCli+CkueCkv+CkqOClguCksCDgpLU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSq4KS4IOCkleCksOCliw==?= Message-ID: निःसंदेह साम्राज्यवादी देशों पर पूर्व उपनिवेशों का भारी क़र्ज़ है. विडम्बना यह है कि बरसों पहले शुरू हुयी यह लूट आज भी जारी है. जहाँ तक कोहिनूर की बात है तो मुझे लगता है कि इस पर हक़ पाकिस्तान का बनता है. रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर थी और उनके राज का अधिकांश आज पाकिस्तान है. और बात बार-बार कोहिनूर की ही क्यों होती है! विदेशी बैंकों में जमा धन और विदेशों में में निवेश भी तो वापस आए या कम-से-कम उसका हिसाब देश को पता रहे. बिल्डरबर्ग के इशारे पर होने वाले खेल का भी विरोध हो. उस देश को कोई नैतिक अधिकार नहीं है इस तरह की मांग रखने का जो साम्राज्यवादियों के साथ सांठ-गांठ कर अफ़गानिस्तान, इराक, अफ़्रीका आदि में लूट में शामिल हो. प्रकाश के रे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From raviratlami at gmail.com Sat Jul 31 10:10:16 2010 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Sat, 31 Jul 2010 10:10:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy4KWL4KSF4KSwIOCkrOCkqOCkqOClhyDgpK7gpYfgpIIg4KSG4KSW?= =?utf-8?b?4KS/4KSwIOCkleCljeCkr+CkviDgpJzgpL7gpKTgpL4g4KS54KWIPw==?= Message-ID: <4C53A930.5090605@gmail.com> आप फेस बुक में दोस्त बनते हैं, ट्विटर में फालोअर बनते हैं, ओरकुट में फोकटिया ओरकुटाते रहते हैं, मगर जब बात सीरियस फालोइंग की होती है तो कन्नी काट जाते हैं. क्यों? क्यो?? अभी भी 19 फालोअर बनने बाकी हैं - हिंदी भाषा में एक फोरम चालू करने के लिए. फालोअर ही तो बनना है. कोई चंदा नहीं देना है. बस, आपके फालतू 180 सेकण्ड चाहिए. इतने से आपका क्या घाटा हो जाएगा? तो जल्द ही बनिए फालोअर, और हो सके तो अपने संभावित प्रश्न भी वहाँ लिखिए जिनके उत्तर आप नेट पर खोजते रहते हैं. लिंक यह रही - http://area51.stackexchange.com/proposals/11782/indic-qa और यदि आप सोच रहे होंगे कि ये गोरख धंधा आखिर क्या है तो अधिक विवरण के लिए यहाँ देखें - http://raviratlami.blogspot.com/2010/07/blog-post_30.html ---- वैधानिक सूचना - ये स्पैम नहीं है! :) From vineetdu at gmail.com Sat Jul 31 14:48:43 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 31 Jul 2010 14:48:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS84KSs4KSw?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClgCDgpJbgpLzgpKzgpLAg4KSq4KSwIOCknOCliw==?= =?utf-8?b?4KSw4KSm4KS+4KSwIOCkueClgeCkiCDgpKzgpLngpLg=?= Message-ID: "ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" को लेकर प्रेस क्लब में गर्माहट का माहौल बना रहा। सलाह, नसीहतें और असहमति के बीच से जो भी कुछ निकलकर सामने आया,उसका लब्बोलुआब इतना है कि खबरों की खबर लिया जाना अनिवार्य है। न केवल अनिवार्य है बल्कि इस दिशा में,उन्हें दुरुस्त करने के लिए लगातार सक्रिय रहने की जरुरत है। बहस की शुरुआत न्यूज 24 के मैराथन एंकर सईद अंसारी से होती है। सईद अंसारी ने बमुश्किल दो मिनट बातें की होगी कि जनतंत्र के मॉडरेटर समरेन्द्र ने सवाल किया कि यहां सवाल-जबाब का भी प्रावधान है? मतलब ये कि सईद अंसारी ने जिस अंदाज में अपनी बात शुरु की,बहस की गुंजाइश तत्काल वहीं से बननी शुरु हो गयी। उन्होंने आते ही कहा कि खबरों की खबर जरुर,जरुर लेनी चाहिए लेकिन सवाल है कि क्या वेबसाइट,पोर्टल और इंटरनेट पर जो लोग लिख रहे हैं वे खबरों की खबर ले रहे हैं? वो खबरियों की खबर के पीछे उलझकर रह जा रहे हैं। वो इस मामले में उसी तरह से काम कर रहे हैं जिस तरह के काम न्यूज चैनल के लोग करते हैं। वो भी इस बात में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं कि किस चैनल के मीडियाकर्मी ने अपने बॉस को गाली दे दी,किस चैनल में किसका चक्कर किसके साछ चल रहा है,नोएडा फिल्म सीटी में किस चैनल के भीतर इश्किया चल रहा है? क्या ये खबरों की खबर है, वेबसाइट के लोगों को इस पर गंभीरता से विचार करने होंगे। सईद अंसारी के हिसाब से खबरों की खबर लेनेवाली वेबसाइट को न्यूज चैनल के डुप्लीकेट्स बनने से बचना चाहिए। आज न्यूज चैनल जिस बात के लिए बदनाम है,वही रास्ता उन्हें नहीं अख्तियार करना चाहिए। इसके बजाय वेबसाइट को चाहिए कि वो न्यूज चैनलों ने खबरों में जो दिखाया है,उस पर बात करे। वो बताए कि अमित शाह को लेकर, किसी भी राजनीतिक घटना को लेकर जो खबरें चलायी है,वो इस तरह से नहीं है। उन्हें बताना चाहिए कि किसी खबर को किस चैनल ने किस तरह से दिखाया और उसे कैसे दिखाना चाहिए? न्यूज चैनलों की खबरों को मसालेदार और चटपटी बनाने के बजाय उन्हें ये देखना चाहिए कि चैनल में किसकी स्क्रिप्ट अच्छी है,कौन रन-डाउन पर बैठा है जिसके आए अभी दो साल ही हुए और बेहतरीन काम कर रहा है,किस चैनल का कैमरामैन सबों से हटकर काम कर रहा है? मीडिया की खबर का मतलब सिर्फ बड़े और नामचीन हस्तियों की बातों को छापना भर नहीं है,उनकी भी सुध लेनी चाहिए जो कि बहुत ही कम समय के अनुभव के साथ जबरदस्त तरीके से काम कर रहे हैं। सईद अंसारी ने उस जरुरी बात की तरह इशारा किया जो कि इधर कुछ महीनों से वेबसाइट में तेजी से फैल रहा है कि-किसी एक-दो लोगों के फोन आ जाने पर खबरें हटा ली जाती है? सईद अंसारी ने सीधा सवाल किया कि वो कौन लोग हैं जिनके कहने पर आप खबरें हटा लेते हैं,क्यों हटा लेते हैं,आपके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी होती है? आपको हर हाल में दबाबों से मुक्त होकर एक आजाद माध्यम के तौर पर काम करना चाहिए। तीसरी बात जो उऩ्होंने जोर देकर कहा वो ये कि आप जो भी खबरें छापते हैं,उसकी ऑथेंटिसिटी क्या है? कोई जुनूनी पत्रकार नाम से आपको मेल करता है और आप उसे प्रकाशित कर देते हैं। बिना ये जाने कि इस खबर का दूसरा पक्ष क्या है? इस तरह से एकतरफा ढंग से खबरें छापना,बिना ये बताए कि किसने इसे लिखा है,सही नहीं है। आपको कम से कम एक लाइन में लिखना चाहिए कि हम व्यावसायिक प्रावधानों को लेकर इनका परिचय नहीं दे पा रहे हैं। इस तरह से बेनामी लोगों की बातों को छापने के पहले आपको खबरों की विश्वसनीयता पर विचार करने होंगे। सईद अंसारी ने जो भी सवाल उठाए और जिस भी तरह की असहमति वेबसाइट को लेकर जतायी वो सारे सवाल देश के न्यूज चैनलों की ऑडिएंस भी करती है। न्यूज चैनलों को लेकर एक ऑडिएंस का जो दर्द,जो बेचैनी और उसकी चिरकुटई को लेकर जो परेशानी ऑडिएंस को होती है,सईद अंसारी ने वो सबकुछ वेबसाइट को लेकर शेयर करने की कोशिश की जिस पर कि बाद में कई सवाल खड़े हुए। सईद अंसारी के बाद, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक विश्लेषक दिलीप मंडल ने इस मसले पर अपनी बात रखी। दिलीप मंडल साफ तौर पर कहा कि आज मीडिया का जो ढांचा है उसमें मीडिया वेबसाइट बहुत ही छोटे प्लेयर हैं। मीडिया साइट क्या चैनल और संस्थानों में भी जो लोग काम कर रहे हैं,डिसीजन मेकिंग में उनकी कोई बहुत हैसियत नहीं है। अगर आप अरुण पुरी और प्रणय राय को पत्रकार मानते हैं तो इनको छोड़कर बाकी मीडिया का कोई भी शख्स बोर्ड मीटिंग में नहीं बैठता। नहीं बैठते मतलब कि वो तय भी नहीं करते कि इसमें क्या होना चाहिए क्या नहीं। दिलीप मंडल ने मीडिया संस्थानों की इकॉनमी ताकतों की बात करते हुए विज्ञापन पॉलिसी पर बात की। उन्होंने बताया कि मीडिया के भीतर जो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं,उसके भीतर का इकॉनमी सच कुछ और ही है। प्रॉक्टल एंड गेंबल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये कंपनी उन मीडिया हाउसों को विज्ञापन नहीं देती जो कि क्रिटिकल इकॉनमी से जुड़ी खबरें करते हैं। इसी तरह बाकी कंपनियों की भी अपनी-अपनी बिजनेस स्ट्रैटजी है। दिलीप मंडल की इस बात से जो चीजें सामने आती है वो ये कि किसी न किसी रुप में लगभग सारे संस्थान इन कंपनियों की स्ट्रैटजी के सांचे में अपने को ढालने की कोशिश में होते हैं। ऐसे में मीडिया की बहुत सारी बातें बहुत पीछे चली जाती है। इसलिए मीडिया वेबसाइट फिलहाल जो काम कर रहे हैं,उससे बहुत अधिक फर्क पड़नेवाला नहीं है। आज आप मानिए या न मानिए,मीडिया और इन्टरटेन्मेंट दोनों एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। केपीएमजी,प्राइसवाटर कूपर्स सहित दूसरे जितने भी रिपोर्ट आते हैं,उनमें दोनों को इसी कैटेगरी में शामिल किया जाता है। मैंने खुद भी देखा है कि बिजनेट साइस भी इन्हें इसी कैटेगरी में रखते हैं। ऐसे में मीडिया वेबसाइट के पास संभावनाएं बहुत हैं। वो अगर इस खेल को लोगों के सामने ला पाते हैं तो बड़ा काम कर सकेंगे। मीडिया इन्डस्ट्री के जो भी मॉडल हैं और उनके भीतर जो तोड़-जोड़ चलते रहते हैं,उसे शामिल किए जाने से एक अलग किस्म की चीज निकलकर सामने आएगी। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_31.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vivek.rai at gmail.com Wed Jul 28 19:21:41 2010 From: vivek.rai at gmail.com (Vivek Rai) Date: Wed, 28 Jul 2010 13:51:41 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?aGktLeWPlg==?= Message-ID: HI: Just received my iPad Wi-Fi (32GB) W e bsite:hotrademe.com It's so cheaper but genuine , I like it very much ,I paid it 500USD couier charges included , They have some other products. If you want to get one. you can check it out . Hope everything goes well 陇 From vivek.rai at gmail.com Wed Jul 28 20:20:05 2010 From: vivek.rai at gmail.com (Vivek Rai) Date: Wed, 28 Jul 2010 14:50:05 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Ignore previous mail from my id Message-ID: Hi, an email was sent from my email account a short while back. Subject was "hi-" I was not the sender, so this could be some malicious hacker, or a dangerous virus/script. Please ignore the email, and if possible delete without opening it. Apologies for any confusion, regards, Vivek From vineetdu at gmail.com Sat Jul 31 14:43:26 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 31 Jul 2010 09:13:26 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS84KSs4KSw?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClgCDgpJbgpLzgpKzgpLAg4KSq4KSwIOCknOCliw==?= =?utf-8?b?4KSw4KSm4KS+4KSwIOCkueClgeCkiCDgpKzgpLngpLg=?= Message-ID: "ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" को लेकर प्रेस क्लब में गर्माहट का माहौल बना रहा। सलाह, नसीहतें और असहमति के बीच से जो भी कुछ निकलकर सामने आया,उसका लब्बोलुआब इतना है कि खबरों की खबर लिया जाना अनिवार्य है। न केवल अनिवार्य है बल्कि इस दिशा में,उन्हें दुरुस्त करने के लिए लगातार सक्रिय रहने की जरुरत है। बहस की शुरुआत न्यूज 24 के मैराथन एंकर सईद अंसारी से होती है। सईद अंसारी ने बमुश्किल दो मिनट बातें की होगी कि जनतंत्र के मॉडरेटर समरेन्द्र ने सवाल किया कि यहां सवाल-जबाब का भी प्रावधान है? मतलब ये कि सईद अंसारी ने जिस अंदाज में अपनी बात शुरु की,बहस की गुंजाइश तत्काल वहीं से बननी शुरु हो गयी। उन्होंने आते ही कहा कि खबरों की खबर जरुर,जरुर लेनी चाहिए लेकिन सवाल है कि क्या वेबसाइट,पोर्टल और इंटरनेट पर जो लोग लिख रहे हैं वे खबरों की खबर ले रहे हैं? वो खबरियों की खबर के पीछे उलझकर रह जा रहे हैं। वो इस मामले में उसी तरह से काम कर रहे हैं जिस तरह के काम न्यूज चैनल के लोग करते हैं। वो भी इस बात में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं कि किस चैनल के मीडियाकर्मी ने अपने बॉस को गाली दे दी,किस चैनल में किसका चक्कर किसके साछ चल रहा है,नोएडा फिल्म सीटी में किस चैनल के भीतर इश्किया चल रहा है? क्या ये खबरों की खबर है, वेबसाइट के लोगों को इस पर गंभीरता से विचार करने होंगे। सईद अंसारी के हिसाब से खबरों की खबर लेनेवाली वेबसाइट को न्यूज चैनल के डुप्लीकेट्स बनने से बचना चाहिए। आज न्यूज चैनल जिस बात के लिए बदनाम है,वही रास्ता उन्हें नहीं अख्तियार करना चाहिए। इसके बजाय वेबसाइट को चाहिए कि वो न्यूज चैनलों ने खबरों में जो दिखाया है,उस पर बात करे। वो बताए कि अमित शाह को लेकर, किसी भी राजनीतिक घटना को लेकर जो खबरें चलायी है,वो इस तरह से नहीं है। उन्हें बताना चाहिए कि किसी खबर को किस चैनल ने किस तरह से दिखाया और उसे कैसे दिखाना चाहिए? न्यूज चैनलों की खबरों को मसालेदार और चटपटी बनाने के बजाय उन्हें ये देखना चाहिए कि चैनल में किसकी स्क्रिप्ट अच्छी है,कौन रन-डाउन पर बैठा है जिसके आए अभी दो साल ही हुए और बेहतरीन काम कर रहा है,किस चैनल का कैमरामैन सबों से हटकर काम कर रहा है? मीडिया की खबर का मतलब सिर्फ बड़े और नामचीन हस्तियों की बातों को छापना भर नहीं है,उनकी भी सुध लेनी चाहिए जो कि बहुत ही कम समय के अनुभव के साथ जबरदस्त तरीके से काम कर रहे हैं। सईद अंसारी ने उस जरुरी बात की तरह इशारा किया जो कि इधर कुछ महीनों से वेबसाइट में तेजी से फैल रहा है कि-किसी एक-दो लोगों के फोन आ जाने पर खबरें हटा ली जाती है? सईद अंसारी ने सीधा सवाल किया कि वो कौन लोग हैं जिनके कहने पर आप खबरें हटा लेते हैं,क्यों हटा लेते हैं,आपके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी होती है? आपको हर हाल में दबाबों से मुक्त होकर एक आजाद माध्यम के तौर पर काम करना चाहिए। तीसरी बात जो उऩ्होंने जोर देकर कहा वो ये कि आप जो भी खबरें छापते हैं,उसकी ऑथेंटिसिटी क्या है? कोई जुनूनी पत्रकार नाम से आपको मेल करता है और आप उसे प्रकाशित कर देते हैं। बिना ये जाने कि इस खबर का दूसरा पक्ष क्या है? इस तरह से एकतरफा ढंग से खबरें छापना,बिना ये बताए कि किसने इसे लिखा है,सही नहीं है। आपको कम से कम एक लाइन में लिखना चाहिए कि हम व्यावसायिक प्रावधानों को लेकर इनका परिचय नहीं दे पा रहे हैं। इस तरह से बेनामी लोगों की बातों को छापने के पहले आपको खबरों की विश्वसनीयता पर विचार करने होंगे। सईद अंसारी ने जो भी सवाल उठाए और जिस भी तरह की असहमति वेबसाइट को लेकर जतायी वो सारे सवाल देश के न्यूज चैनलों की ऑडिएंस भी करती है। न्यूज चैनलों को लेकर एक ऑडिएंस का जो दर्द,जो बेचैनी और उसकी चिरकुटई को लेकर जो परेशानी ऑडिएंस को होती है,सईद अंसारी ने वो सबकुछ वेबसाइट को लेकर शेयर करने की कोशिश की जिस पर कि बाद में कई सवाल खड़े हुए। सईद अंसारी के बाद, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक विश्लेषक दिलीप मंडल ने इस मसले पर अपनी बात रखी। दिलीप मंडल साफ तौर पर कहा कि आज मीडिया का जो ढांचा है उसमें मीडिया वेबसाइट बहुत ही छोटे प्लेयर हैं। मीडिया साइट क्या चैनल और संस्थानों में भी जो लोग काम कर रहे हैं,डिसीजन मेकिंग में उनकी कोई बहुत हैसियत नहीं है। अगर आप अरुण पुरी और प्रणय राय को पत्रकार मानते हैं तो इनको छोड़कर बाकी मीडिया का कोई भी शख्स बोर्ड मीटिंग में नहीं बैठता। नहीं बैठते मतलब कि वो तय भी नहीं करते कि इसमें क्या होना चाहिए क्या नहीं। दिलीप मंडल ने मीडिया संस्थानों की इकॉनमी ताकतों की बात करते हुए विज्ञापन पॉलिसी पर बात की। उन्होंने बताया कि मीडिया के भीतर जो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं,उसके भीतर का इकॉनमी सच कुछ और ही है। प्रॉक्टल एंड गेंबल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये कंपनी उन मीडिया हाउसों को विज्ञापन नहीं देती जो कि क्रिटिकल इकॉनमी से जुड़ी खबरें करते हैं। इसी तरह बाकी कंपनियों की भी अपनी-अपनी बिजनेस स्ट्रैटजी है। दिलीप मंडल की इस बात से जो चीजें सामने आती है वो ये कि किसी न किसी रुप में लगभग सारे संस्थान इन कंपनियों की स्ट्रैटजी के सांचे में अपने को ढालने की कोशिश में होते हैं। ऐसे में मीडिया की बहुत सारी बातें बहुत पीछे चली जाती है। इसलिए मीडिया वेबसाइट फिलहाल जो काम कर रहे हैं,उससे बहुत अधिक फर्क पड़नेवाला नहीं है। आज आप मानिए या न मानिए,मीडिया और इन्टरटेन्मेंट दोनों एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। केपीएमजी,प्राइसवाटर कूपर्स सहित दूसरे जितने भी रिपोर्ट आते हैं,उनमें दोनों को इसी कैटेगरी में शामिल किया जाता है। मैंने खुद भी देखा है कि बिजनेट साइस भी इन्हें इसी कैटेगरी में रखते हैं। ऐसे में मीडिया वेबसाइट के पास संभावनाएं बहुत हैं। वो अगर इस खेल को लोगों के सामने ला पाते हैं तो बड़ा काम कर सकेंगे। मीडिया इन्डस्ट्री के जो भी मॉडल हैं और उनके भीतर जो तोड़-जोड़ चलते रहते हैं,उसे शामिल किए जाने से एक अलग किस्म की चीज निकलकर सामने आएगी। मीडिया के सवाल पर मैं दिलीप मंडल को लगातार सुनता आया हूं। उनके डिस्कोर्स के दरवाजे एथिक्स,कंटेंट और एडीटोरियल से न खुलकर जो कि ज्यादा आसान है,बिजनेस और इकॉनमी से खुलती है। ऐसा होने से वो उस लाचारी की तरह इशारा करते नजर आते हैं जहां एथिक्स एक भद्दा मजाक और एडीटोरियल बहुत ही निरीह की शक्ल में हमें दिखाई देने लगता है जबकि उनकी बातों की विश्वसनीयता कहीं अधिक बढ़ जाती है। उनके हिसाब से मीडिया वेबसाइट बहुत कुछ कर सकते हैं, बस जरुरत इस बात की है कि वो मीडिया की इकॉनमी के खेल को गंभीरता से ले,उसे सामने लाने की कोशिश करे। सिर्फ एडीटोरियल पर टिककर बहुत कुछ निकाला नहीं जा सकता। दिलीप मंडल ने मीडिया वेबसाइटों को ये साफ तौर पर बता कि आप जहां खड़े हैं,वहां की जमीन कैसी है? वर्तिका नंदा दिलीप मंडल के बाद अपनी बात रखती है। वर्तिका नंदा के बात करने का अंदाज एकदम जुदा है। विमर्श की भाषा इतनी सरस हो सकती है,हैरानी होती है। अपराध पत्रकारिता पर किताब पढ़ते हुए और उन्हें बोलते हुए सुनने के बाद एक अलग किस्म की अनुभूति होती है। उनकी बातों में एक काव्यात्मक असर है जो साहित्य की संवेदना और मीडिया की तथ्यात्मक दृष्टिकोण से विकसित हुई है। बहुत ही सॉफ्ट अंदाज में अपनी बात की शुरुआत करती है- एक कविता है- मोचीराम। उसकी चार पंक्तियां मुझे याद आती हैं- सच कहूं बाबूजी मेरी नजर में कोई इंसान न तो बड़ा है,छोटा मेरी नजर में हर इंसान एक जोड़ी जूता है जो मरम्मत के लिए मेरे सामने खड़ा है।.. जब ये कविता लिखी गयी थी,उस समय ये न्यूज चैनल्स नहीं आए थे लेकिन कविता की ये पंक्तियां इन चैनलों पर बिल्कुल फिट बैठती है। आज न्यूज चैनलों की,मीडिया की स्थिति कुछ वैसी ही है। वर्तिका नंदा जिस बात की तरफ इशारा कर रही थी उसका साफ मतलब है कि मीडिया ने चुनाव की समझदारी खो दी है। उसके सामने अच्छा और खराब के चुनने की काबिलियत खत्म हो गयी है। अगर काबिलियत बची भी है तो सिर्फ इस बात के लिए कि सबको एक सिरे से कैसे सेलेबल बनाया जाए। सबकुछ ताक पर रखकर सिर्फ और सिर्फ बेचने की काबिलियत आज की मीडिया की पहचान है। खबर है कि एक चैनल ने कॉमनवेल्थ के खिलाफ स्टोरी न दिखाने को लेकर लगभग समझौता ही कर लिया है। वर्तिका नंदा मीडिया के इस सच को वेबसाइट में भी आ जाने के प्रति शंका जाहिर करती है। मीडिया की आलोचना करनेवाले,उनकी खबर लेनेवाले भी कहीं यही सब तो नहीं करने लग गए? वो मीडियाखबर डॉट कॉम के मॉडरेटर पुष्कर पुष्प की तरह सवाल भरी निगाहों से देखती है,फिर कहती है- याद है पुष्कर,मैंने पहले भी आफसे पूछा था कि आप ये सब करते हुए,लिखते हुए अपनी मर्यादाओं का तो ख्याल कर रहे हैं न? यही सवाल मैं आज भी करना चाहती हूं। वर्तिका नंदा का ये सवाल सईद अंसारी के ऑथेंटिसिटी के सवाल के साथ जुड़ता है। आगे वो कहती हैं- ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि खबरों की खबर लेनेवाले की खबर नहीं ली जानी चाहिए। ये बहुत ही जरुरी काम है। मीडिया संस्थानों के भीतर ऐसा बहुत कुछ घटित होता है जिसे कि लोगों के सामने आना चाहिए। पहले लोग मेल के जरिए अपनी बातें एक-दूसरे से शेयर करते थे। बाद में पता चला कि ये सब तो बॉस पढ़ लेते हैं तो फिर क्या करें? इन्हीं झंझटों के बीच कई विकल्प खुले। फिर वो अपनी एक कूलिग की छुट्टी मांगने का वाक्या शेयर करती है कि कैसे उसे एमए की परीक्षा देने के नाम पर छुट्टी नहीं मिलती जबकि दोबारा लंदन जाने के नाम पर दस दिनों की छुट्टी मिल जाती है। मीडिया चिलआउट को ज्यादा जेनुइन मानता है,बजाय इसके कि किसी मीडियाकर्मी का दिमाग पढ़ने-लिखने की तरफ सक्रिय रहे। वेबसाइट के लोग अगर मीडिया की खबर ले रहे है तो कहीं न कहीं उन्हें अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। उन्हें देखना होगा कि वो जो कुछ लिख रहे हैं,उसका क्या असर हैं,उसके पीछे का क्या सच हो सकता है? 29 साल का एक नौजवान वेबसाइट बस इसलिए खोलना चाहता है कि वो कुछ लोगों को बजा देना चाहता है। ऐसे में तय करना होगा कि इसका इस्तेमाल किस दिशा की ओर किया जा रहा है? एक बिहार या पंजाब के शख्स को अगर इस बात से शिकायत है कि उसका बॉस उसके यहां के नहीं होने की वजह से उसे परेशान करता है तो इस खबर को छापने के पहले समझना होगा कि इस बात में कितनी सच्चाई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बॉस को इस समीकरण की कहीं कोई जानकारी नहीं। जरुरी सुझावों के साथ वो इस तरह के एफर्ट की सराहना करती हुई अपनी बात खत्म करती है। रंजन जैदी के आने से थोड़ी देर के लिए माहौल अलग हो जाता है। थोड़ा-थोड़ा सूफियाना और बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक। अब तक तीनों वक्ताओं के बोले जाने से जो जाने-अनजाने नसीहतों का रियाज चल रहा था,रंजन जैदी उसे भंग करते हैं। उन्हें इस बात पर फक्र होता है कि कोई तो है जो इस सब चीजों से लड़-भिड़ रहा है,डटकर मुकाबला कर रहा है। नहीं तो सब कुछ तो चलता ही रहता है। वो वेबसाइट के लोगों का हौसला बढ़ाते हुए कहते हैं कि कहीं कुछ भी लेकर डरने की बात नहीं है। बिना किसी समझौते के,बिना कोई भय के अपनी बात करनी चाहिए। इन सारी बातों के बीच कविता और शेर का दौर चलता रहता है। कविताओं की पंक्तियों को सुनते हुए मेरी तरह शायद बाकी लोगों को भी दिनकर की 'कुरुक्षेत्र' की याद जरुर आ रही होगी। गंभीर विमर्श के बीच कविता माहौल को थोड़ा हल्का करती है और हमें एहसास होता है- और भी हैं गम जमाने में। विषयों से हटकर बोलने के वाबजूद भी रंजन जैदी,अलग फ्लेवर में अपनी बात रखने के कारण ऑडिएंस के बीच अपनी पैठ बनाए रखते हैं। लेकिन चलते-चलते के अंदाज में ये जरुर कह जाते हैं कि हां मीडिया की खबर के नाम पर निजी जिंदगी को लेकर चर्चा नहीं होनी चाहिए। सबों की जिंदगी में कुछ न कुछ पर्सनल है,वेबसाइट को चाहिए कि वो इसे इग्नोर करे। अजयनाथ झा हमारे जमाने के पुराने पत्रकार हैं। लंबे समय तक अंग्रेजी पत्रकारिता करने के बाद जब वो हिन्दी में लिखने पर विचार करते हैं तो बातचीत की शुरआत उस बिंदु से करते हैं जहां वो भाषाई स्तर पर लिखने में फर्क महसूस करते हैं। इसके बाद खबरों की खबर लिए जाने के मसले पर राजेन्द्र माथुर की कही हुई बात याद करते हैं कि मीडिया के लोगों को चाहिए कि दुनिया की मुठ्ठी खोल दे लेकिन अपनी मुठ्ठी कभी न खोले। अजयनाथ झा ने बहुत मौके पर ये बात कही। बल्कि इस पर अलग से बात होनी चाहिए। मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़े कई ऐसे लोग इस बात की दलील तो जरुर देते हैं कि जो लोग देखना/पढ़ना चाहते हैं,वहीं वो दिखाते हैं,लिखते हैं लेकिन क्या सच ऐसा ही है,इसकी टोह लेने का माद्दा,लोगों के बीच आकर बात करने की हैसियत उनमें नहीं है। ये लोग नहीं चाहते कि मीडिया के नाम पर जो खेल चल रहे हैं,वो लोगों के सामने खुलकर आ जाए। राजेनद्र माथुर ने मुठ्ठीवाली बात जिस संदर्भ में की थी,आज संभव है कि वो संदर्भ पूरी तरह बदल गए हों लेकिन ऐसा किया जाना सिर्फ प्रोफेशन की अनिवार्यता और मजबूरियों को लेकर नहीं है बल्कि इनमें कई ऐसे मामले हैं जो कि सीधे-सीधे नागरिक अधिकार,श्रमजीवी पत्रकार कानून और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं। ऐसे मामलों का लोगों के सामने खुलकर सामने आना जरुरी है। अजयनाथ झा ने पत्रकारों की पूरी की पूरी उस जमात की तरफ इशारा किया जो मौके से पत्रकार बन गए। उऩके भीतर पत्रकारिता का न तो वो जज्बा है और न ही वो कोई बदलाव की नीयत से काम कर रहे हैं। अजयनाथ झा की बात को समझें तो मौके से बन हुए पत्रकार क्या कर रहे हैं, ये सब हमारे सामने साफ है। इस बीच दिलीप मंडल जरुरी काम से विदा लेते हैं औऱ ठीक उसी वक्त प्रभात शुंगलू आते हैं। हमारे अनुरोध पर वो भी इस मसले पर अपनी बात रखने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रभात शुंगूल अपनी बात की शुरुआत सीधे-सीधे चैनलों की आलोचना से करते हैं। उनका मानना है कि मीडिया को अब दूकान कहना सही नहीं होगा,इसे आप मॉल कहिए। पत्रकारों का एक तबका ऐसा है जिसके पास बहुत पैसा आ गया है, दुनियाभर की सुविधाएं जुटा लिए हैं। ऐसे में उनके सोचने का तरीका भी बदल गया है। प्रभात शुंगलू आते ही वक्ता के तौर पर बुलाए गए उन नामों के प्रति अपनी असहमति जताते हैं जो ऐसे मसले पर बोलने का अधिकार खो चुके हैं। उन्होंने कहा कि वो अपनी किताब के लोकार्पण के लिए पत्रकारों की तरफ नजर दौड़ते हैं। उन्हें एक भी ऐसा नाम दिखाई नहीं देता जो कि पूरा तरह निष्पक्ष हो। शुंगलू ने अपनी किताब का नाम रखा है- यहां मुखौटे बिकते हैं। मुझे लगता है कि किताब तो किताब, ये शीर्षक ही मीडिया इन्डस्ट्री के समझने में बहुत मददगार साबित होंगे। प्रभात शुंगलू ने जिस बेबाकी से अपनी बात रखी,मुझे उनकी आज से करीब सालभर पहले कही बात याद आ गयी कि न्यूजरुम नरक हो गया है। उन्होंने ये बात प्रेस क्लब के उसी हॉल में कहीं थी जहां कल कही। तब देश के तमाम बड़े चैनलों के एडीटर मौजूद थे और शुंगूल खुद भी खबर हर कीमत पर के लिए काम कर रहे थे। आज वो मीडिया इन्डस्ट्री से अपने को अलग कर लिया है। लेकिन मीडिया और उसके लोगों की तीखी और जरुरी आलोचना करते हुए भी प्रभात शुंगलू वेबसाइट के हड़बड़ी में लिखे गए उस रवैये पर आपत्ति दर्ज करते हैं कि बिना मुझसे कंसेंट लिए लिखा जाता है कि इस्तीफा दे दिया। भाई,इस्तीफा दिया या फिर दिलाया गया,पूरी मामला क्या है इसकी छानबीन तो जरुरी है। मतलब ये कि वेबसाइट को न्यूज चैनलों की तरह ब्रेकिंग न्यूज की लग न लग जाए,इसके प्रति वो सचेत करते हैं। प्रभात शुंगलू आखिरी वक्ता के तौर पर अपनी बात खत्म करते हैं। उसके बाद सवाल-जबाब का दौर शुरु होता है। जनतंत्र डॉट कॉम के संपादक समरेन्द्र सईद अंसारी के बोलने के समय ही सवाल करना चाह रहे थे,अब वो एक्टिव होते हैं। समरेन्द्र ने साफ कहा कि आपके उपर भड़ास4मीडिया का असर इतना है कि आफ सारी वेबसाइट को इसी तरह से देख-समझ रहे हैं जबकि बाकी की साइट अलग काम कर रही है। उन्होंने *श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का सवाल उठाया और बोर्ड ने इस सिलसिले ठोस कदम उठाने का संकेत भी दिया है *है जैसी खबर शायद ही कहीं मिले,इस पर चर्चा हुई हो लेकिन वेबसाइट ने इसे छापा है। अखबार की चालीस हजार प्रति की सर्कुलेशन पर लाख रुपये वेतन पा रहे हैं पत्रकार,इस पर कौन बोल रहा है? उन्होंने सईद अंसारी की इस बात का कि आप किसके कहने पर खबरें हटा देते हैं के जबाब में कहा कि हमलोगों के पास पैसा उसी तरह से नहीं आता जिस तरह से राजीव शुक्ला के चैनल को आता है। दबाब की बात को मोहल्लालाइव के मॉडरेटर जो कि अभी-अभी आए ही थे,आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमलोगों पर भी व्यक्तिगत स्तर के दबाब काम करते हैं। हम खबरों को हटाते हैं तो ये काम टेलीविजन में भी होता है। वहां भी कई खबर कवर होने के बाद नहीं चलायी जाती,एक बार चलाकर बंद कर दी जाती है। अखबार में भी गलत खबर छापकर माफी मांगी जाती है। इसलिए ये कहना कि वेबसाइट ऐसा करते हैं सही नहीं होगा। इसी क्रम में अविनाश ने बेनामी का समर्थन करते हुआ कि असल मसला है कि तथ्य के तौर पर चीजें सामने आ रही है या नहीं? यहां बहस थोड़ी और तल्ख होती है, प्रभात शुंगूल और सईद अंसारी थोड़े और गर्म होते हैं। प्रभात शुंगलू का चैनल के विरोध में स्वर और तेज होता है जबकि सईद अंसारी अपने पक्ष को दोबारा रखते हैं कि बेनामी लोग हमें नहीं तो कम से कम संपादक को तो बताएं कि वौ कौन हैं? इन्हीं मसलों के बीच कुछ और सवाल आते हैं।.. हॉल खाली करने का समय होने लग जाता है। प्रेस क्लब हॉल 6 बजे तक खाली करने का प्रेशर होता है। बहस की गुंजाईश बनी रहती है लेकिन लोग उठने लग जाते हैं। मंच संचालक के तौर पर मेरे आग्रह से लोग रुकते हैं। जब आपने हमें इतनी देर तक बर्दाश्त किया तो दो मिनट और बर्दाश्त करें। प्रमोद तिवारी को धन्यवाद ज्ञापन दे लेने दें। प्रमोद तिवारी बहुत ही कम शब्दों में सबों का शुक्रिया अदा करते हैं। वो आज से तीन साल पहले उन पलों को याद करते हुए भावुक हो उठते हैं कि कैसे जब मीडिया मंत्र के पहले अंक का विमोचन किया जा रहा था, इसी हॉल में प्रभाष जोशी ने कहा था कि ये नन्हें शावक हैं,इन्हें कूदने-कुलांचे भरने का मौका दें,उनका हौसला बढ़ाएं। तीन साल में मीडिया मंत्र और दो साल में मीडियाखबर ने ये सफर तय किया है।..हम इसे मिल-जुलकर औऱ आगे ले जाएं। खबरों की खबरः क्यों और कितना जरुरी? विषय पर परिचर्चा का आयोजन मीडिया खबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने के मौके पर किया गया। मीडियाखबर डॉट कॉम ने अपने आमंत्रण पत्र में लिखा था कि अपने हाथों कीजिए,अपनी वेबसाइट रिलांच। चार बजे क्लिक कीजिए मीडियाखबर डॉट कॉम। साढ़े तीन बजे से कार्यक्रम की शुरुआत होनी थी और चार बजे साइट रिलांच होना था,अपने नए रंग-रुप में. इसी बीज टेलीविजन के पत्रकारों ने लामंबदी कर ली और लिफ्ट में हैं,रास्ते में हैं,पांच मिनट में पहुंच रहे हैं करके अंत तक नहीं आए। उनके न आने से बातचीत में लेकिन कोई खास फर्क तो नहीं पड़ा लेकिन हां न आकर उन्होंने शिड्यूल को बेतरतीब जरुर कर दिया। बहरहाल,पहले से तय तक कि किसी बिग शॉट से साइट का विमोचन नहीं कराना है,एक नया प्रयोग था,इसलिए वक्ता सहित मौजूद लोगों ने साइट का विमोचन अपने हाथों किया. अपने-अपने घरों,ऑफिसों और डेस्क पर बैठे लोगों को चार बजने का इंतजार था,उन्हें और परेशान नहीं किया जा सकता था। दो साल के भीतर साइट ने जो काम किया,उसे लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रिया है,इसे समझने में ये परिचर्चा मददगार साबित होगी। इस मौके पर मीडियाखबर डॉट कॉम के संपादक पुष्कर पुष्प ने अपने उन अनुभवों को साझा किया जो आज की कार्पोरेट मीडिया और भारी पूंजी से अपने को अलग काम करने से हासिल हुए। उन तनावों,झंझटों और दबाबों को हमारे सामने रखने की कोशिश की जिसे सुन-समझकर बिना बड़ी पूंजी के पत्रकारिता को जिंदा रखने की जद्दोजहद पर हमें नए सिरे से विचार करना जरुरी लगता है। लोगों का स्वागत करते हुए ज़ैन अवान ने शायद ठीक ही कहा कि हर किसी के भीतर सपने होते हैं और उन सपनों को सच्चाई में बदलने में बहुत सारी मुश्किलें आती है,यह भी उसी तरह का एक काम है।* * * * *नोट- मंच संचालन करते हुए जितनी बातें मैं सुन-समझ सका,उसे आपसे साझा कर रहा हूं। संभव है इसमें वक्ता के बोले गए शब्दों से पोस्ट के शब्द हूबहू मेल न खाते हों लेकिन पूरी कोशिश रही है कि वक्तव्य की मूल भावना में रत्तभर भी फर्क न आने पाए।.* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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