From vineetdu at gmail.com Wed Dec 1 01:51:35 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 1 Dec 2010 01:51:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSf4KSY4KSw?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruClh+CkgiDgpK3gpLDgpYvgpLjgpL4g4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkpuCkv+CksuCkviDgpKrgpL7gpK/gpYAg4KSs4KSw4KSW4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSk4KWN4KSk?= Message-ID: मुझे लगता है कि मैं जबाब देती हुई थोड़ी बोल्ड हो रही हूं। मनु जोसेफ का जबाब देते हुए बरखा दत्त ने जब माहौल को थोड़ा हल्का करने की कोशिश की तो मनु जोसेफ ने भी उसी अंदाज में कहां- इट्स योर ऑफिस। बरखा ने इसे अनफेयर बताया और फिर सवाल-जबाब का सिललिला आगे बढ़ता रहा। पूरी बातचीत क्या हूं इसे मैं देर रात की थकान में ट्रांसक्रिप्ट नहीं कर सकता लेकिन ये लिखते हुए कि अपनी पूरी बातचीत में बरखा दत्त हमें इस बात का भरोसा नहीं दिला पायी कि ओपन मैगजीन ने टेप के माध्यम से जो बात कही है वो पूरी तरह से निराधार है और इसे सिरे से खारिज किया जाना चाहिए। जिस तरह से पत्रिका ये कहती है और आज संपादक मनु जोसेफ ने भी दोहराया कि हम बरखा दत्त के बारे में ये बिल्कुल नहीं कह रहे कि कोई करप्शन किया है,उसी तरह से हम भी यही बात दोहराते हैं। लेकिन बरखा ने आज जिस तरह से अपनी बात रखी उससे कई सवाल अभी भी ज्यों के त्यों बने रह जाते हैं। कुछ मामूली टिप्पणी और ऑब्जर्वेन्स के साथ आपके बीच ऑडियो औऱ वीडियो लिंक रख दे रहा हूं। आप खुद भी इसे देख-सुनकर अपनी राय कायम कर सकेंगे। 30 दिसंबर रात दस बजे NDTV24X7 ने नीरा राडिया और 2G स्पेक्ट्रम घोटाला को लेकर बरखा दत्त का नाम सामने आने के बाद एक कार्यक्रम प्रायोजित किया। RADIA TAPE CONTROVERSY नाम से प्रसारित इस कार्यक्रम में संजय बारू,(संपादक बिजनेस स्टैन्डर्ड, स्‍वपन दासगुप्‍ता( सीनियर जर्नलिस्ट), दिलीप पडगांवकर( पूर्व संपादक दि टाइम्स ऑफ इंडिया) और मनु जोसेफ( संपादक, ओपन मैगजीन) को बरखा दत्त से सवाल-जबाब के लिए पैनल में शामिल किया गया। आउटलुक के विनोद मेहता को भी इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए बुलाया गया लेकिन उन्होंने आने से मना कर दिया। बहरहाल इस पूरी बातचीत में ERROR OF JUDGEMENT शब्द को बार-बार दोहराया गया और अंत में संजय बारु ने कहा भी कि हम सबसे गलतियां होती रहती है,बरा तुम्हें चाहिए कि इसे एरर ऑफ जजमेंट मानकर अपने दर्शकों से माफी माग लें, जस्ट से- SORRY। बरखा दत्त ने कहा कि वो जरुर माफी मागती है लेकिन इस बात पर बिल्कुल भी नहीं कि कौन एडीटर क्या स्टोरी करेंगे और कौन नहीं,ये कोई और बताए। दरअसल पूरी बातचीत का ए बड़ा हिस्सा इस बात पर आकर अटक गया जिसे कि मनु जोसेफ ने उठाया कि एक कार्पोरेट की पीआर,अंबानी कंपनी की पीआर को इस बात में दिलचस्पी है कि दो पार्टियों में से किस पार्टी का कौन क्या बनेगा जो कि इस शताब्दी की बड़ी स्टोरी हो सकती है,वो आपके लिए कोई स्टोरी नहीं है? ये कैसे हो सकता है? मनु अपने सवाल में बरखा दत्त से इसी बात का जबाब चाह रहे थे जिसे कि बरखा दत्त ने कई तरीके से घुमाने-फिराने की कोशिश की। पहले तो ये कहा कि उसके पास कई तरह के लोगों के फोन आते रहते हैं और कहते हैं कि फलां ये बन रहा है,फलां वहां जा रहा है,लेकिन इस पर ध्यान देने की जरुरत मैं नहीं समझती। लेकिन जब मनु ने दोबारा दोहराया कि अंबानी ग्रुप की पीआर ये जानना चाह रही है कि कौन क्या बनेगा और ये स्टोरी नहीं है? उसके बाद बरखा दत्त ने कहा कि कौन स्टोरी है औऱ कौन नहीं ये चुनाव करने का हर एडीटर और पत्रकार को अपना निजी नजरिया होता है। मैं भी उसी तरह से सवाल कर सकती हूं कि बिजनेस स्टैन्डर्ड ने ये स्टोरी क्यों नहीं छापी,ओपन ने वो क्यों नहीं छापी। ये कोई तर्क नहीं हैं। बरखा मनु के इस सवाल में जाल पैदा करती है और जिसे लेकर मनु जोसेफ अंत तक असंतुष्ट नजर आए। बरखा ने शुरुआत में ही कहा कि मीडिया ने इसे तोड़-मरोड़कर पेश किया है,सभी ने नहीं भी तो कुछ ने ऐसा जरुर किया है और सबसे बड़ी बात है कि ये रॉ टेप हैं। बरखा दत्त के ऐसा कहने का मतलब है कि इसमें संभव है कि छेड़छाड़ की गयी हो,इसकी ऑथेंटिसिटी को लेकर भी सवाल किए जा सकते हैं। उसने यहां तक कहा कि मेरे साथ ये सब जोड़कर स्टोरी क्रिएट की गयी है और भी 40 पत्रकारों की बातचीत हुई,उनके टेप क्यों नहीं जारी हुए? यहां पर आकर एक राजनीतिक पर्सनालिटी और बरखा दत्त में कोई खास फर्क नहीं रह जाता और वो भी दूसरे पत्रकारों के शामिल किए जाने की मांग और मीडिया को इसके लिए जिम्मेदार बताती नजर आयी। ये बहुत ही दिलचस्प और हास्यास्पद है कि आज एक मीडिया की बड़ी शख्सीयत मीडिया के काम करने के तरीके पर सवाल खड़ी कर रही है। इस बातचीत का एक हिस्सा मीडिया एथिक्स की तरफ जाता हुआ दिखाई देने लगा जिसमें बरखा दत्त ने ओपन पर आरोप लगाते हुए कहा कि उसने इस एथिक्स को नजरअंदाज करने का काम किया है और बिना उसकी बात जाने प्रकाशित किया। किसी को किसी के व्यक्तित्व के साथ ऐसा करने का अधिकार नहीं है। अपने 16 साल के करियर का हवाला देते हुए उसने अपनी समान सोच और निष्पक्ष समझ की बातें शामिल की। लेकिन बरखा रौ में ये सब जब कुछ बोल रही थी तो हमें पता नहीं क्यों भरोसा नहीं जम रहा था। आगे स्वप्न दासगुप्ता ने कहा भी कि हम यहां मीडिया एथिक्स पर बात करने नहीं आए हैं,हम बात करने आए हैं बरखा दत्त औऱ राडिया टेप को लेकर जो हुआ है। बरखा दत्त ये मानती रही कि मीडिया एथिक्स का सवाल इन सबसे अलग नहीं है। मनु जोसेफ का यह सवाल धरा का धरा ही रह गया कि यदि ये एरर ऑफ जजमेंट था तो फिर 2010 में भी ये स्टोरी क्यों नहीं चली? मनु जोसेफ ने साफ कहा कि सॉरी,मैं आपके जबाब से खुश नहीं हूं। बरखा दत्त के पास इस बात का भी साफ-साफ जबाब नहीं था जिसे कि दिलीप पडगांवकर ने उठाया कि एक पत्रकार की सीमा रेखा कहां जाकर ब्लर हो जाती है। ये एक जेनरल पर्सपशेन बनी है कि ऐसा हुआ है। सवाल ये भी है कि एक पीआर और एक एडीटर के बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा क्या? इसके साथ ही वो एक पीआर को ये क्यों बता रही हैं कि मेरे जर्नलिस्ट क्या कहते हैं? स्वपन दासगुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट के जज के मामले में जो बातचीत हुई उसे लेकर एक ग्रुप एडीटर की बातचीत में और एक पीआर के बात करने में क्या फर्क होने चाहिए,इस पर सोचना होगा। इस सवाल ने भी जोर पकड़ा कि आखिर नीरा राडिया ने बरखा दत्त को ही क्यों फोन किया? बरखा दत्त अपने तर्कों में बार-बार में कवरेज को ईमानदारीपूर्वक देखने की बात करती है। हालांकि अंत में चैनल की तरफ से एंकर सोनिया सिंह ने इस बात की तरफ हमारा इशारा जरुर किया कि संभव हो कि ये कॉर्पोरेट वॉर हो लेकिन उन इस इशारे की खोज में हम आए नहीं थे। हम आए थे कि बरखा पर जितने भी तरह के आरोप लगे और लगाए जा रहे हैं,उसे लेकर वो अपना पक्ष किस तरह से रखती है? बरखा दत्त ने बार-बार कहा कि उसका 2G स्पेक्ट्रम, डी राजा और ऐसे तमाम मामलों औऱ घोटालों के साथ जोड़कर देखना नाइंसाफी होगी। पैनल में मनु जोसेफ सहित किसी ने भी नहीं कहा कि उसका संबंध करप्शन से हैं लेकिन जिस बरखा दत्त की स्टोरी,उसके बोलने के अंदाज के हम जमाने से कायल रहे हें,अपना ही पक्ष लेती हुई हमें इस तरह से निराश करेगी, इसकी हमें उम्मीद नहीं थी। बरखा दत्त को नेताओं और बच्चों की तरह उसके कपड़े भी मैले हैं कोई उसे क्यों नहीं कहता के अंदाज में बात करने के बजाय मजबूती से अपने पक्ष रखने चाहिए थे। चैनल ने इस तरह का कार्यक्रम आयोजित करके भले ही विश्वास जुटाने की कोशिश की हो लेकिन हमारा भरोसा कार्यक्रम देखने के बाद बढ़ा नहीं है। हममें से जो लोग फेस रीडिंग औऱ बॉडी लैंग्वेज के जानकर हैं वो बरखा दत्त और इस शो में उसके रवैये से भी काफी कुछ मायने निकाल सकते हैं। हालांकि उसने नार्मल होने की पूरी कोशिश की लेकिन हमारी आंखें भी तो कुछ फर्क करना जानती है न। बाकी आप नीचें की वीडियो लिंक पर चटकाकर पूरी स्टोरी खुद देखें और अपनी राय दें- वीडियो के लिए चटकाएं- बरखा दत्त विवाद -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Dec 1 02:05:21 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 1 Dec 2010 02:05:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSbIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSy4KSk4KS/4KSv4KS+4KSCIOCklOCksCDgpJHgpKHgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KWLIOCkuOClgeCkrOCkuQ==?= Message-ID: दीवान के साथियो देर रात ऑडियो अपलोड न करने की स्थिति में बरखा दत्त और पैनल के बीच क्या बात हुई,इसे सुबह अपलोड करुंगा। कुछ शब्द मैंने गलत इस्तेमाल किए हैं जैसे लाउड की जगह बोल्ड,वो वीडियो देखते समय सुधार लेंगे और इसके लिए सॉरी। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Dec 1 17:31:11 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 1 Dec 2010 17:31:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkleCkviDgpK7gpKTgpLLgpKw=?= Message-ID: *कहीं हो न जाए हार का विस्तार* बात 2005 की है। बिहार में चुनाव का दौर था। इधर सराय में एक अनौपचारिक बातचीत में सिने प्रेमी व इतिहासकार रविकांत कह रहे थे- ‘लालू प्रसाद ने इतना जरूर किया कि उनके दौर में सूबे में कहीं कोई दंगा नहीं हुआ।’ बात सही थी। वे जिस ओट में बात कह रहे थे, वह सही बैठी। उस चुनाव के बाद नीतीश कुमार की जो सरकार बनी, उसे मुसलमानों का वोट नहीं मिला था। वर्ष 2010 में स्थिति बदली है। वहां 243 में 54 ऐसी सीटें हैं जिसमें मुसमान ही उम्मीदवारों की जीत-हार का फैसला करते हैं। इन क्षेत्रों में वे कम से कम 20 प्रतिशत और ज्यादा से ज्यादा 80 प्रतिशत मुसलमान हैं। इन सीटों में 30 ऐसी हैं जहां से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए हैं। संतोष कुमार बायसी विधानसभा से जीतकर आए हैं। वहां 69 प्रतिशत मुसलमान हैं। 12 जदयू के हैं। तीन निर्दलीय हैं। वे तीनों हिन्दू हैं और मुस्लिम प्रतिद्वंद्वी को ही चुनाव हरा कर आए हैं। तो क्या सूबे के एक वर्ग का सांप्रदायिक डर खत्म हो गया है? या वह एक हवा है, जिसे मुसलमान समझ गए... और सांप्रदायिकता की राजनीति को खारिज कर दिया ? इस स्थिति में बिहार चुनाव परिणाम जितना चौंकाता है, उतना रोचक भी है। स्वयं देख लें- क्योटी विधानसभा सीट से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के उम्मीदवार फराज फातमी मात्र 29 वोटों से हारे। संयोग देखिए, वे 29 के ही हैं। इस चुनाव में वे सबसे कम उम्र के उम्मीदवार थे। उन्हें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अशोक कुमार यादव ने हराया। लोग कह रहे हैं कि जनता ने परिवारवाद को खारिज कर दिया, पर वे दोनों राजनीतिक परिवार से हैं। एक और बात, क्षेत्रीय दलों के प्रभावी होने के बाद ऐसा कम होता आया है कि विधानसभा चुनाव में जीत का अंतर 40 हजार वोटों से भी अधिक हो। पर, भाजपा के अरुण कुमार सिंह ने कुम्हरार विधानसभा सीट से अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 67,808 वोटों से हराया। वे ऐसे अकेले नहीं हैं। दस से भी अधिक ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को करीब 50 हजार या उससे भी अधिक वोटों से हराया। इसकी वजह गहरी है। खैर, इन दिनों बिहारवासियों को देखते-सुनते फिल्म इकबाल का एक गीत याद आता है,“कुछ ऐसा कर के दिखा...कि खुश हो जाए खुदा। ” इसी उम्मीद में सूबे के लोगों ने नीतीश कुमार को चौंकाने वाला जनादेश दिया है। हालांकि, कुछ लोग कह रहे हैं, “यह विकास नहीं, बल्कि उसकी आस का वोट है।“ और इसमें महिलाओं का बड़ा योगदान रहा। यह सच है कि सूबे की महिलाओं ने जातिवाद से ऊपर उठकर झूमकर वोटिंग की। निर्वाचन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में महिलाओं ने 54.85 फीसद मतदान किया, जबकि पुरुषों के मतदान का प्रतिशत 50.70 है। आंकड़े बता रहे हैं कि सूबे के कुल 38 जिलों में से नौ ऐसे जिले हैं, जहां महिलाओं ने 60 फीसद मतदान किया। अन्य 23 जिलों में भी इनका मतदान अनुपात पुरुषों से अधिक रहा। इसकी वजह गत पांच सालों के दौरान विकास का झोंका उनतक पहुंचना मान जा रहा है। वहां की आबो-हवा में महिलाएं स्वयं को पहले से अधिक सुरक्षित व उनमुक्त महसूस कर रही हैं। स्वयं राबड़ी देवी बड़े अंतर से हार गईं। ऐसा लगता है कि सूबे की जनता अंत तक लालू और रामविलास पासवान पर यकीन नहीं कर पाई। लोग पुन: उस भय के माहौल में नहीं लौटना चाहते थे, जिसे आधार बनाकर फिल्म निर्माताओं ने शूल और अपहरण जैसी फिल्में बनाई थीं। कांग्रेस ने जो राहल भ्रम का जाल बुना था जनता ने उसे भी तोड़ दिया। वामगढ़ ढह गया। विपक्ष को इतना भी कमजोर नहीं होना चाहिए था। यह अपने लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Dec 1 22:57:35 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 1 Dec 2010 22:57:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ISI chief met Israelis to stop India attack Message-ID: WikiLeaks: ISI chief met Israelis to stop India attack The ISI chief had been in direct touch with the Israelis on possible threats against Israeli targets in India. PHOTO: AFP *ISLAMABAD: The chief of the Inter-Services Intelligence (ISI) agency said he had contacted Israeli officials to head off potential attacks on Israeli targets in India, according to an October 2009 US diplomatic cable published by WikiLeaks. * Lieutenant General Ahmad Shuja Pasha, head of Pakistan’s spy agency, told former US Ambassador Anne Patterson that he wanted Washington to know he had been to Oman and Iran “to follow up on reports which he received in Washington about a terrorist attack on India”. “Pasha asked Ambassador to convey to Washington that he had followed up on threat information that an attack would be launched against India between September-November. He had been in direct touch with the Israelis on possible threats against Israeli targets in India,” the Oct 7, 2009 cable reported. An ISI spokesman had no immediate comment. Pakistan has no diplomatic relations with Israel. Such contacts would infuriate militants waging a campaign to topple the government. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Dec 2 00:51:15 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 2 Dec 2010 00:51:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSy4KWL4KSCLOCkr+ClhyAyRyDgpLjgpY3gpJ/gpYfgpJU=?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSw4KSuIOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkviDgpLngpYgs?= =?utf-8?b?IOCksOCkvuCkruCkl+Cli+CkquCkvuCksiDgpLXgpLDgpY3gpK7gpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KWAICfgpLDgpKMnIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: कल NDTV24X7 पर बरखा दत्त को कटघरे में लाने के बाद 1 दिसंबर की रात 9 बजे हेडलाइंस टुडे ने आजतक पर सीधी बात करनेवाले प्रभु चावला और कार्पोरेट पत्रकार वीर सांघवी को अपने पक्ष में बात रखने के लिए बुलाया। इन दोनों से सवाल-जबाव करने के लिए एमजे अकबर, एन राम, किरन बेदी और दिलीप चेरियन को पैनल में शामिल किया गया और 2G स्पेक्ट्रम मामले के बाहने मीडिया एथिक्स पर बात की गयी। उपरी तौर पर देखने से तो ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल्स और मीडिया संस्थानों इस पूरे मामले में अपने नाम आने से चिंतित हैं और वो नहीं चाहते कि उनकी बदनामी हो,संभवतः इसलिए वो पूरे मामले को ऑडिएंस के सामने रख दे रहे हैं। कथित तौर पर जो भी मीडियाकर्मी शक के घेरे में हैं,उन्हें आडिएंस के सामने ला दे रहे हैं ताकि किसी तरह की कोई शंका न रह जाए। कल एनडीटीवी की एंकर सोनिया सिंह ने कहा भी कि जब हम इस पर बात नहीं कर रहे थे तो लोगों को लगा कि हम कुछ छुपा रहे हैं,इसलिए इस तरह से शो करना जरुरी समझा। चैनलों के इतिहास के तौर पर देखें तो ये शायद पहला मौका है जब मीडियाकर्मी अपनी सफाई में खुद अपने-अपने चैनल के कटघरे में एक आरोपी के तौर पर खड़े हैं और पैनल के लोगों के सवालों के जबाव दे रहे हैं। कल जब हमने दिन में एनडीटीवी की साइट पर बरखा दत्त के इसी तरह एक खास शो में सवालों के जबाव देने की बात पढ़ी तो हमें भी अच्छा लगा कि चलो इसी बहाने कई चीजें साफ होगी। लेकिन देर रात जब हमने शो देखा तो महसूस किया कि ऐसा करके न तो बरखा दत्त औऱ न ही चैनल किसी तरह का भरोसा कायम कर पाए हैं तो वह हमें पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं लगा। 1 दिसंबर को NDTV24X7 नेबरखा दत्त की दलील को लिखित तौर पर अपनी ऑफिशियल साइट में लगायी है लेकिन पाठकों के लिए कमेंट के ऑप्शन नहीं दिए। अब 1 दिसंबर को हेडलाइंस टुडे ने लाइव शो के इसी पाखंड को दोहराया। चैनलों पर आकर शक के घेरे में आए पत्रकारों जिसमें अभी तक बरखा दत्त,वीर सांघवी औऱ प्रभु चावला का नाम विशेष तौर पर लिया जा रहा है,अपनी बात रखने में कोई हर्ज नहीं है औऱ न ही हम इनकी नीयत पर कोई शक कर रहे हैं लेकिन चैनल अगर ये सबकुछ अपनी ब्रांड इमेज को मजबूत करने औऱ पहले की तरह बरकरार करने के लिए कर रहे हैं तो उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। साफतौर पर शो को देखकर लगता है कि ये सब कार्पोरेट हाउसेज में जो नुकसान हो रहे हैं,उसे डैमेज कंट्रोल के लिए ये सब किया जा रहा है लेकिन आम ऑडिएंस और पाठक के बीच जो इनकी साख गिरी है,उसे दोबारा हासिल कर पाना फिलहाल नामुमकिन है। ऐसे में थोड़ी गहराई में ाकर पूरी बात समझें तो कुछ दूसरा ही खेल नजर आता है। सबसे पहले तो ये कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला देश के भीतर कुछ प्रभावी लोगों और संस्थानों की ओर से किया गया एक बड़ा करप्शन है जिसमें कि करोड़ों रुपये के घोटाले उनलोगों के पैसे के किए गए हैं जो कि दिन-रात एक औशत जिंदगी जीकर-खटकर सरकार को टैक्स के तौर पर अदा करते हैं। ये कोई रामगोपाल वर्मा की बनायी फिल्म रण नहीं है जिसमें कि विजय हर्षवर्धन मलिक( अमिताभ बच्चन) आए और बहुत ही भावुक तरीके से लाइव माफी माग ले कि हमने अपने चैनल के माध्यम से जो कुछ भी किया,वह गलत है। अभी जो चैनलों ने अपने पक्ष में बात रखने का काम शुरु किया है वह इस पूरे मामले का स्वाभाविक हिस्सा न होकर कर्मकांड भर है। और उससे भी खतरनाक बात ये कि ऐसा करके पूरे मामले को सॉफ्ट करने और उसकी हवा निकालने की कोशिश है। आप खुद ही सोचिए न,जिन मीडियाकर्मियों पर नीरा राडिया के साथ संवाद करने और दो पार्टियों के बीच कौन क्या बनेगा,उसके लिए लॉबिंग करने के आरोप हैं,वह सीधे-सीधे अपराध का मामला है,इसमें मीडिया एथिक्स पर क्या बहस करनी है? लेकिन नहीं आज हेडलाइंस टुडे ने मीडिया एथिक्स पर अपने को फोकस रखा और कल बरखा दत्त पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश करती नजर आयी। ये तो स्वप्न दासगुप्ता ने कहा कि आज हम यहां मीडिया एथिक्स पर बात करने नहीं आए हैं,तब जाकर मुद्दे पर बात हो सकी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स काम मामला बनाने का मतलब है कि मुद्दे को सॉफ्ट स्टोरी या परिचर्चा में तब्दील करने की साजिश की जा रही है। ऐसी परिचर्चा आए दिन दूरदर्शन और लोकसभी चैनल पर होते रहते हैं,इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है। इसलिए सबसे जरुरी बात है कि इस पर मीडिया एथिक्स का मामला न बताकर अपराध या मीडिया अपराध का मामला बताकर बात करनी होगी। ऐसा करके चैनल एक-दूसरे के लिए डीफेंड करने का ही काम करते हैं और आपसी बचाव के लिए माहौल बनाने का काम कर रहे हैं। दूसरी बात कि चैनलों पर जिस तरह से पंचायती दौर शुरु हुआ है उससे ऐसा लग रहा है कि चैनल पर आकर कुछ लोग जो तय कर देंगे वही इन मीडियाकर्मियों के लिए अंतिम फैसला होगा। ये मुझे यूनिवर्सिटी कैंपस में पांच साल रहते हुए उसी तरह का मामला लग रहा है कि दबंग टाइप के ग्रुप कमजोर को दमभर मारते और फिर आपसी सुलह कर लेने के नाम पर पूरे मामले को दबा दिया जाता। ये मामला सिर्फ नैतिक नहीं है और जब तक पूरा फैसला आ नहीं जाता,अपराध के घेरे में ही आता है। इसलिए इस पर सिर्फ और सिर्फ नैतिक आधार पर बात करने का मतलब है पूरे मामले से ऑडिएंस की नजर को भटकाना और केस को कमजोर करना। ये मामला उस आधार पर नैतिक जरुर है कि जब तक फैसला आ नहीं जाता,बरखा दत्त,वीर सांघवी,प्रभु चावला औऱ बाद में जितनों के भी नाम आएं नैतिकता के आधार पर पत्रकारिता कर्म छोड़ दें। चैनलों पर वी दि पीपुल औऱ सीधी बात करने से अपने को अलग कर लें। वो मान लें कि जब तक उनके दामन को पाक-साफ करार नहीं दिया जाता,तब तक वो दूसरों से सवाल-जबाब नहीं करेंगे। ये नैतिक औऱ मीडिया एथिक्स के दायरे में आएगा। ये कभी नहीं आएगा कि जो बाकी के लोगों के लिए अपराध है औऱ जिसे मीडियाकर्मियों ने किया है वह बस मीडिया एथिक्स का हिस्सा है। आप समझिए न कि ये मीडिया की ओर से कितनी बड़ी चालबाजी है कि देश के तमाम लोगों के लिए फैसला देने का काम कानून और जूडिशियरी करती है और मीडिया के लोग आप ही पंचायती करने बैठ गए हैं। ये कोई रजत शर्मा की आप की अदालत शो है कि किसी बड़ी शख्सियत को बुलाऔ और कहो कि आप पर मुकदमा चलेगा और अंत में बाइज्जत बरी कर दो। ये कर्मकांड औऱ चोचलेबाजी उस खास दिन में चैनल की टीआरपी बढ़ाे के काम जरुर आएंगे लेकिन लोगों का भरोसा हासिल होने के बजाय इस साजिश पर उंगली उठाने का मौका मिलेगा। ऐसे शो करके मीडिया संस्थान न केवल अपने को पाक-साफ करार देने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि मामले को बिना फैसले के प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन सबों की नैतिकता वहीं तक है कि सब फैसले आने तक अपने को जर्नलिज्म से दूर रखे, फिक्शन लिखें। इसके आगे वो जो कुछ भी करते हैं वह अपने को बचाने के लिए कोशिश औऱ साजिश का हिस्सा होगा,इससे ज्यादा कुछ नहीं। कानून को अपने तरीके से काम करने देना चाहिए। अभी यही सबकुछ एक औसत व्यक्ति के साथ होता जिसके फुटपाथ पर गोभी बेचने से छ आदमी के पेट पलते हैं तो सलाखों के भीतर होता,पुलिस की रोज पूछताछ होती। खुद चैनल के भीतर ही औसत हैसियत के साथ काम करनेवालों की छुट्टी हो जाती लेकिन चूंकि इसमें कई सेक्टर के लोगों की गर्दन फंसी हुई है और उनकी हैसियत से इन मीडियाकर्मियों की हैसियत मेल खाती है इसलिए चैनल ने ड्रामेबाजी शुरु कर दी है। इन्हें चाहिए कि ये सब नाटक बंद कर सीधे अपने संस्थानों से इन सबों को फैसले आने तक अलग कर दें।......नैतिकता भी इससे कम की मांग नहीं करती। हेडलाइंस टुडे पर बातचीत की वीडियो देखने के लिए चटकाएं- हेडलाइंस टुडे पर नाडिया-मीडिया मामला -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Dec 2 08:46:55 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 2 Dec 2010 08:46:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSy4KWL4KSCLOCkr+ClhyAyRyDgpLjgpY3gpJ/gpYfgpJU=?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSw4KSuIOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkviDgpLngpYgs?= =?utf-8?b?IOCksOCkvuCkruCkl+Cli+CkquCkvuCksiDgpLXgpLDgpY3gpK7gpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KWAICfgpLDgpKMnIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: कल NDTV24X7 पर बरखा दत्त को कटघरे में लाने के बाद 1 दिसंबर की रात 9 बजे हेडलाइंस टुडे ने आजतक पर सीधी बात करनेवाले प्रभु चावला और कार्पोरेट पत्रकार वीर सांघवी को अपने पक्ष में बात रखने के लिए बुलाया। इन दोनों से सवाल-जबाव करने के लिए एमजे अकबर, एन राम, किरन बेदी और दिलीप चेरियन को पैनल में शामिल किया गया और 2G स्पेक्ट्रम मामले के बाहने मीडिया एथिक्स पर बात की गयी। उपरी तौर पर देखने से तो ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल्स और मीडिया संस्थानों इस पूरे मामले में अपने नाम आने से चिंतित हैं और वो नहीं चाहते कि उनकी बदनामी हो,संभवतः इसलिए वो पूरे मामले को ऑडिएंस के सामने रख दे रहे हैं। कथित तौर पर जो भी मीडियाकर्मी शक के घेरे में हैं,उन्हें आडिएंस के सामने ला दे रहे हैं ताकि किसी तरह की कोई शंका न रह जाए। कल एनडीटीवी की एंकर सोनिया सिंह ने कहा भी कि जब हम इस पर बात नहीं कर रहे थे तो लोगों को लगा कि हम कुछ छुपा रहे हैं,इसलिए इस तरह से शो करना जरुरी समझा। चैनलों के इतिहास के तौर पर देखें तो ये शायद पहला मौका है जब मीडियाकर्मी अपनी सफाई में खुद अपने-अपने चैनल के कटघरे में एक आरोपी के तौर पर खड़े हैं और पैनल के लोगों के सवालों के जबाव दे रहे हैं। कल जब हमने दिन में एनडीटीवी की साइट पर बरखा दत्त के इसी तरह एक खास शो में सवालों के जबाव देने की बात पढ़ी तो हमें भी अच्छा लगा कि चलो इसी बहाने कई चीजें साफ होगी। लेकिन देर रात जब हमने शो देखा तो महसूस किया कि ऐसा करके न तो बरखा दत्त औऱ न ही चैनल किसी तरह का भरोसा कायम कर पाए हैं तो वह हमें पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं लगा। 1 दिसंबर को NDTV24X7 नेबरखा दत्त की दलील को लिखित तौर पर अपनी ऑफिशियल साइट में लगायी है लेकिन पाठकों के लिए कमेंट के ऑप्शन नहीं दिए। अब 1 दिसंबर को हेडलाइंस टुडे ने लाइव शो के इसी पाखंड को दोहराया। चैनलों पर आकर शक के घेरे में आए पत्रकारों जिसमें अभी तक बरखा दत्त,वीर सांघवी औऱ प्रभु चावला का नाम विशेष तौर पर लिया जा रहा है,अपनी बात रखने में कोई हर्ज नहीं है औऱ न ही हम इनकी नीयत पर कोई शक कर रहे हैं लेकिन चैनल अगर ये सबकुछ अपनी ब्रांड इमेज को मजबूत करने औऱ पहले की तरह बरकरार करने के लिए कर रहे हैं तो उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। साफतौर पर शो को देखकर लगता है कि ये सब कार्पोरेट हाउसेज में जो नुकसान हो रहे हैं,उसे डैमेज कंट्रोल के लिए ये सब किया जा रहा है लेकिन आम ऑडिएंस और पाठक के बीच जो इनकी साख गिरी है,उसे दोबारा हासिल कर पाना फिलहाल नामुमकिन है। ऐसे में थोड़ी गहराई में ाकर पूरी बात समझें तो कुछ दूसरा ही खेल नजर आता है। सबसे पहले तो ये कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला देश के भीतर कुछ प्रभावी लोगों और संस्थानों की ओर से किया गया एक बड़ा करप्शन है जिसमें कि करोड़ों रुपये के घोटाले उनलोगों के पैसे के किए गए हैं जो कि दिन-रात एक औशत जिंदगी जीकर-खटकर सरकार को टैक्स के तौर पर अदा करते हैं। ये कोई रामगोपाल वर्मा की बनायी फिल्म रण नहीं है जिसमें कि विजय हर्षवर्धन मलिक( अमिताभ बच्चन) आए और बहुत ही भावुक तरीके से लाइव माफी माग ले कि हमने अपने चैनल के माध्यम से जो कुछ भी किया,वह गलत है। अभी जो चैनलों ने अपने पक्ष में बात रखने का काम शुरु किया है वह इस पूरे मामले का स्वाभाविक हिस्सा न होकर कर्मकांड भर है। और उससे भी खतरनाक बात ये कि ऐसा करके पूरे मामले को सॉफ्ट करने और उसकी हवा निकालने की कोशिश है। आप खुद ही सोचिए न,जिन मीडियाकर्मियों पर नीरा राडिया के साथ संवाद करने और दो पार्टियों के बीच कौन क्या बनेगा,उसके लिए लॉबिंग करने के आरोप हैं,वह सीधे-सीधे अपराध का मामला है,इसमें मीडिया एथिक्स पर क्या बहस करनी है? लेकिन नहीं आज हेडलाइंस टुडे ने मीडिया एथिक्स पर अपने को फोकस रखा और कल बरखा दत्त पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश करती नजर आयी। ये तो स्वप्न दासगुप्ता ने कहा कि आज हम यहां मीडिया एथिक्स पर बात करने नहीं आए हैं,तब जाकर मुद्दे पर बात हो सकी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स काम मामला बनाने का मतलब है कि मुद्दे को सॉफ्ट स्टोरी या परिचर्चा में तब्दील करने की साजिश की जा रही है। ऐसी परिचर्चा आए दिन दूरदर्शन और लोकसभी चैनल पर होते रहते हैं,इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है। इसलिए सबसे जरुरी बात है कि इस पर मीडिया एथिक्स का मामला न बताकर अपराध या मीडिया अपराध का मामला बताकर बात करनी होगी। ऐसा करके चैनल एक-दूसरे के लिए डीफेंड करने का ही काम करते हैं और आपसी बचाव के लिए माहौल बनाने का काम कर रहे हैं। दूसरी बात कि चैनलों पर जिस तरह से पंचायती दौर शुरु हुआ है उससे ऐसा लग रहा है कि चैनल पर आकर कुछ लोग जो तय कर देंगे वही इन मीडियाकर्मियों के लिए अंतिम फैसला होगा। ये मुझे यूनिवर्सिटी कैंपस में पांच साल रहते हुए उसी तरह का मामला लग रहा है कि दबंग टाइप के ग्रुप कमजोर को दमभर मारते और फिर आपसी सुलह कर लेने के नाम पर पूरे मामले को दबा दिया जाता। ये मामला सिर्फ नैतिक नहीं है और जब तक पूरा फैसला आ नहीं जाता,अपराध के घेरे में ही आता है। इसलिए इस पर सिर्फ और सिर्फ नैतिक आधार पर बात करने का मतलब है पूरे मामले से ऑडिएंस की नजर को भटकाना और केस को कमजोर करना। ये मामला उस आधार पर नैतिक जरुर है कि जब तक फैसला आ नहीं जाता,बरखा दत्त,वीर सांघवी,प्रभु चावला औऱ बाद में जितनों के भी नाम आएं नैतिकता के आधार पर पत्रकारिता कर्म छोड़ दें। चैनलों पर वी दि पीपुल औऱ सीधी बात करने से अपने को अलग कर लें। वो मान लें कि जब तक उनके दामन को पाक-साफ करार नहीं दिया जाता,तब तक वो दूसरों से सवाल-जबाब नहीं करेंगे। ये नैतिक औऱ मीडिया एथिक्स के दायरे में आएगा। ये कभी नहीं आएगा कि जो बाकी के लोगों के लिए अपराध है औऱ जिसे मीडियाकर्मियों ने किया है वह बस मीडिया एथिक्स का हिस्सा है। आप समझिए न कि ये मीडिया की ओर से कितनी बड़ी चालबाजी है कि देश के तमाम लोगों के लिए फैसला देने का काम कानून और जूडिशियरी करती है और मीडिया के लोग आप ही पंचायती करने बैठ गए हैं। ये कोई रजत शर्मा की आप की अदालत शो है कि किसी बड़ी शख्सियत को बुलाऔ और कहो कि आप पर मुकदमा चलेगा और अंत में बाइज्जत बरी कर दो। ये कर्मकांड औऱ चोचलेबाजी उस खास दिन में चैनल की टीआरपी बढ़ाे के काम जरुर आएंगे लेकिन लोगों का भरोसा हासिल होने के बजाय इस साजिश पर उंगली उठाने का मौका मिलेगा। ऐसे शो करके मीडिया संस्थान न केवल अपने को पाक-साफ करार देने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि मामले को बिना फैसले के प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन सबों की नैतिकता वहीं तक है कि सब फैसले आने तक अपने को जर्नलिज्म से दूर रखे, फिक्शन लिखें। इसके आगे वो जो कुछ भी करते हैं वह अपने को बचाने के लिए कोशिश औऱ साजिश का हिस्सा होगा,इससे ज्यादा कुछ नहीं। कानून को अपने तरीके से काम करने देना चाहिए। अभी यही सबकुछ एक औसत व्यक्ति के साथ होता जिसके फुटपाथ पर गोभी बेचने से छ आदमी के पेट पलते हैं तो सलाखों के भीतर होता,पुलिस की रोज पूछताछ होती। खुद चैनल के भीतर ही औसत हैसियत के साथ काम करनेवालों की छुट्टी हो जाती लेकिन चूंकि इसमें कई सेक्टर के लोगों की गर्दन फंसी हुई है और उनकी हैसियत से इन मीडियाकर्मियों की हैसियत मेल खाती है इसलिए चैनल ने ड्रामेबाजी शुरु कर दी है। इन्हें चाहिए कि ये सब नाटक बंद कर सीधे अपने संस्थानों से इन सबों को फैसले आने तक अलग कर दें।......नैतिकता भी इससे कम की मांग नहीं करती। हेडलाइंस टुडे पर बातचीत की वीडियो देखने के लिए चटकाएं- हेडलाइंस टुडे पर नाडिया-मीडिया मामला -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Dec 3 23:33:21 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 3 Dec 2010 23:33:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSm?= =?utf-8?b?4KWA4KSqIOCkuOCksOCkpuClh+CkuOCkvuCkiCDgpLjgpYcg4KSP4KSu?= =?utf-8?b?IOCknOClhyDgpIXgpJXgpKzgpLAg4KSk4KSVLSDgpLjgpKwg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSm4KS+IOCkoeCkvuCksuCkqOClhyDgpK7gpYfgpIIg4KSc4KWB?= =?utf-8?b?4KSf4KWHIOCkueCliOCkgg==?= Message-ID: मीडिया इन्डस्ट्री में सबसे कमजोर,लाचार और निरीह कोई है तो वो हैं राजदीप सरदेसाई। आपको जानकर ये हैरानी होगी कि सैलरी,शख्सीयत और शोहरत के लिहाज से जिस टेलीविजन पत्रकार को सबसे मजबूत माना जाता है,लोगों के बीच इसी तरह की इमेज है,वो अपने को पिछले एक साल से सबसे मजबूर और लाचार बताता आ रहा है। मौका चाहे जगह-जगह मीडिया सेमिनार के नाम पर स्यापा करने और छाती कूटने का हो या फिर 2G स्पेक्ट्रम घोटाले मामले में दिग्गज मीडियाकर्मियों के नाम आने पर मीडिया की साख मिट्टी में मिल जाने पर सफाई के मकड़जाल बुनने के,राजदीप सरदेसाई सीधे तौर पर मानते हैं कि अब एडीटर मजबूर है,मीडिया के भीतर जिस तरह के ऑनरशिप का मॉडल बना है,उसमें एडीटर बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है। मैं उनके मुख से मालिकों के आगे एडीटर के मजबूर हो जाने की बात पिछले छ महीने में चार बार सुन चुका हूं। उदयन शर्मा की याद में पहली बार कन्स्टीच्युशन क्लब में सुना तो एकबारगी तो उनकी इस ईमानदारी पर फिदा हो गया। लगा कि इस शख्स को इस बात का मलाल है कि जैसे-जैसे गाड़ी और फ्लैट की लंबाई बढ़ती जाती है,पत्रकार होने का कद छोटा होता जाता है। फिर दूसरी बार सुना तो लगा कि आजकल फैशन में इसे चालू मुहावरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं कि अपनी ही पीठ पर आप ही कोड़े मारो ताकि लोग ईमानदारी पर लट्टू हो जाएं। लेकिन सवाल है कि इस स्वीकार के बाद राजदीप सरदेसाई या फिर उनके जैसा कोई भी पत्रकार सुधार की दिशा में क्या कर रहा है। जबाब है,कुछ भी नहीं। तो यकीन मानिए कि आज जब राडिया और मीडिया प्रकरण पर फिर प्रेस क्लब में हुई एडीटर्स गिल्ड की बैठक की फुटेज में राजदीप सरदेसाई को बोलते हुए सुना तो लगा कि बेहया हो जाना आज के जमाने की सबसे खूबसूरत और कारगार शैली है। इसी बीच जब IBN7 चैनल पर एक बार फिर आशुतोष के सवालों के जबाब देते सुना तो लगा कि राजदीप सरदेसाई ने मीडिया पर गंभीरता से सोचना-समझना पूरी तरह बंद कर दिया है।..और इस बंद कर देने में अपने नाम के दम पर यकीन रखते हैं कि वो जैसे चाहें मीडिया के प्रति लोगों की समझ को ड्राइव कर ले जाएंगे। आप याद कीजिए ये आज के वही मजबूर राजदीप सरदेसाई हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर हुए टॉक शो में लगभग दहाड़ते हुए कहा था कि- हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है जिसका समर्थन कांग्रेस के मुखौटे पत्रकार और मौजूदा नई दुनिया के संपादक आलोक मेहता ने यह कहकर दिया कि टेलीविजन का मतलब सिर्फ खबर और राजनीतिक खबर नहीं है। भला हो दूरदर्शन का कि अपने 50 साल को याद करते हुए जब “The Golden Trail , DD at 50 :Special feature o Golden Jubilee of Doordarshan” नाम से आधे घंटे की फीचर बनायी तो इस बातचीत को शामिल किया। राजदीप सरदेसाई ने निजी मीडिया की मार्केटिंग इसी तरह से की और निजी चैनलों को दूरदर्शन के विपक्ष के तौर पर खड़ी करने की कोशिश की। इसकी ताकत को इसी रुप में भुनाने की कोशिश की कि वो सरकार से पूरी तरह मुक्त है और दूरदर्शन से अलग सबसे मजबूत और स्वतंत्र माध्यम है। आज वही राजदीप सरदेसाई जिन्हें कि सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं था,पूरी तरह आजाद थे,कार्पोरेट की गोद में गिरते हैं और बनावटी तौर पर ही सही बिलबिलाने और मजबूर होने का नाटक करते हैं। निष्कर्ष ये है कि न तब मीडिया आजाद और मुक्त था और न आज था। तब उसे सरकार ने अपना भोंपू बनाया और आज ये कार्पोरेट का दुमछल्लो बना हुआ है। राजदीप सरदेसाई बहु ही खूबसूरती से ये बात मानते हैं कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला और नीरा राडिया के मामले में मीडिया के कुछ लोगों ने लक्ष्मण रेखा तोड़ी है,उन्होंने पत्रकार के तौर पर वो किया है जो कि उन्हें नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसके आगे जो वो कहते हैं वो वही एजेंडा है जिसे कि सबसे पहले 30 दिसंबर को NDTV24X7 ने बरखा दत्त को अपना पक्ष रखने की बात के दौरान किया था। राजदीप का कहना है कि हालांकि जो कुछ भी हुआ है उसमें मीडिया पर उंगलियां उठ रही है लेकिन ये पूरे खेल का बहुत ही छोटा हिस्सा है,बड़ा हिस्सा है कि कैसे कार्पोरेट चीजों को अपने तरीके से बदलना चाहता है। हम सब उसमें बंधे हैं। फिर वो मीडिया के खर्चे, स्पान्सरशिप और मॉडल पर बात करते हैं जिसका निष्कर्ष ये है कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। यही पर आकर एडीटर सबसे लाचार हो जाता है। आज चैनल के रिपोर्टर्स पर अगर प्रेशर है तो वो इसलिए कि वो चाहकर भी मुस्तैदी से अपने तरीके से स्टैंड नहीं ले सकता। नहले पर दहला आज आशुतोष के भीतर पीपली लाइव के संवाददाता दीपक की आत्मा घुस आती है और ताल ठोककर कहते हैं कि ये भी तो देखिए कि आज इसी मीडिया ने डी राजा और स्पेक्ट्रम घोटाला की बातें आप तक पहुंचाने का काम किया। थोड़ी गंभीरता से विचार करें तो एक ही मीडिया हाउस का एक एडीटर कह रहा है कि वो कार्पोरेट के आगे मजबूर है लेकिन उसी मीडिया हाउस के एक चैनल का मैनेजिंग एडीटर कह रहा है कि इस मजबूरी में भी वो तीर मार लेने का काम कर ले रहा,ये क्या कम है? राडिया और मीडिया को लेकर आजतक न्यूज चैनलों पर इसी तरह के कर्मकांड जारी हैं और शुरु में बरखा दत्त ने 30 नबम्वर को जब अपनी बात हमसे साझा करने की कोशिश की तो लगा कि वो सचमुच हमारी गलतफहमियों को दूर करना चाहती है लेकिन अब एक के बाद एक चैनल जिस तरह से तुम मेरी खुजाओ,मैं तुम्हारी खुजाउं का काम कर रहे हैं,साफ लग रहा है कि एक नए किस्म की लाबिंग कर रहे हैं जिसमें ईरादा है कि सब झाड़कर खड़े हो जाओ और साबित कर दो कि या तो हमाम में सब नंग हैं या फिर हम बेदाग हैं। आप बस अपने को बेदाग साबित करने की इस जुगलबंदी पर गौर कीजिए,आपको मीडिया बेशर्मी के इस नए अध्याय से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। 3 दिसंबर 2010 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 11 बजे एडीटर्स गिल्ड की आम पत्रकारों से राडिया और मीडिया को लेकर बातचीत हुई। विनोद मेहता ने कहा कि हमें अलग से एथिक्स की बात करने और नियम की चर्चा रने की क्या जरुरत है,सबकुछ साफ है कि एक पत्रकार को क्या करना चाहिए,क्या नहीं करना चाहिए। पीआरओ अगर अपने एजेंडे के साथ आ रहा है तो हमें किस तरह से समझना है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे जिन्होंने पिछले दिनों एफ एम गोल्ड मामले में दि हिन्दू अखबार से कहा था फ्रीक्वेंसी बदले जाने की बात उन्हें किसी ने नहीं बतायी और ये बात उन्हें मीडिया के जरिए पता चली,इस एडीटर्स गील्ड और पत्रकारों की बातचीत में कहा कि आज दरअसल अंग्रेजी मीडिया के एडीटर मालिक हो गए हैं और हिन्दी मीडिया के मालिक एडीटर हो गए हैं। ये पूरी बातचीत IBN LIVE पर वीडियो की शक्ल में मौजूद है। इतने दिनों से चुप रहने के बाद जब NDTV24X7 ने बरखा दत्त पर लगे आरोप को लेकर एडीटर के साथ शो कराया तो फिर हेडलाइंस टुडे भी इसी तरह के शो कराए। उसके बाद तो समझिए कि इन दिनों चैनलों पर एक एक पैटर्न ही बन गया है कि मीडिया को लेकर स्पेशल स्टोरी की जाए। लिहाजा 3 दिसंबर की अधिकांश फुटेज और ओपन और आउटलुक पत्रिका की स्टिल फोटो का इस्तेमाल करते हुए आजतक ने प्राइम टाइम पर स्पेशल स्टोरी चलायी-"मीडिया की लक्ष्मण रेखा"। चैनल ने इस स्टोरी के जरिए ये साबित करने की कोशिश की कि मीडिया को लेकर जो कुछ भी कहा जा रहा है वो दरअसल कुछ लोगों के इसके एथिक्स के फॉलो नहीं किए जाने की वजह से हुआ है,नहीं तो मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी बहुत ही ईमानदारी से निभायी है,चाहे वो 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामला ही क्यों न हो। इससे ठीक पहले IBN7 पर आशुतोष ने एजेंडा कार्यक्रम में मीडिया ट्रायल पर शो किया जिसमें कि श्रवण गर्ग(दैनिक भास्कर), एस के सिंह( इटीवी) और राजदीप सरदेसाई( CNN-IBN) को बहस के लिए शामिल किया। इस पूरी बातचीत में करीब 30 फीसदी आशुतोष ने बोला 40 फीसदी राजदीप ने और बाकी तीस फीसदी में दोनों को निबटा दिया गया। आशुतोष के भीतर आज नब्बे के दशक के पत्रकारों की सिम लगी थी। लिहाजा जिस तरह के सवाल किए,वो सारे सवाल एक टेलीविजन ऑडिएंस के मन में स्वाभाविक तौर पर उठनेवाले सवाल है। आशुतोष ने राजदीप सरदेसाई से साफ तौर पर पूछा कि मीडिया किसी भी तरह का फैसला आने के पहले ही अपनी तरफ से फैसला नहीं दे देता क्या,उसकी इमेज को,उसके करियर को पूरी तरह खत्म कर देता है,डी राजा के मामले में भी मीडिया ने खुद वही किया तो फिर मीडिया अपने मामले में ऐसा होने पर क्यों परेशान है? इस पर राजदीप सरदेसाई ने कहा कि जब तक आरोप दाखिल नहीं हो जाते,मीडिया ऐसा नहीं करता। हम सुनते हुए साफ तौर पर महसूस कर रहे थे कि वो बचाव करने की मुद्रा में बात कर रहे हैं। ल ही हमने स्टार न्यूज पर 'सेक्स का सॉफ्टवेयर' स्टोरी देखी जिसमें चैनल ने मॉडल भैरवी के लड़की सप्लाय के धंधे में होने की बात की और कहा कि हालांकि बातचीत की टेप अभी सीबीआई के पास भेजी गयी है कि ये उनकी और उसके पति विनीत कुमार की आवाज है या नहीं। लेकिन आधे घंटे की स्टोरी में चैनल ने कहा कि बिना किसी बिजनेस बैग्ग्रांउड के वो शेयर की कंपनी की सीइओ कैसे बन सकती है और लगभग साबित कर दिया कि भैरवी ने वही सब किया है जिस बात के आरोप लगे हैं। इसलिए राजदीप सरदेसाई हों या फिर कोई और ये बात दावे के साथ नहीं कह सकते कि चैनल जो कुछ भी दिखाते हैं,उनकी सत्यता की जांच पूरी तरह कर ली जाती है। आज वो ओपन और आउटलुक के मामले में मीडिया एथिक्स की बात कर रहे हैं। क्या कभी सिस्टर चैनल IBN7 ने आए दिन करनेवाले स्टिंग ऑपरेशन में शामिल करनेवालें लोगों को बताया कि वो उनके साथ क्या करने जा रहे हैं? घंटों यूट्यूब से फुटेज काटकर स्टोरी चलानेवाले चैनल जिसमें कि वर्ल्ड न्यूज के नाम पर भी चीजें शामिल होती हैं,कभी उस आवारा वीडियो की ऑथेंटिसिटी पर बात की? श्रवण गर्ग ने साफ तौर पर कहा कि मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर बहुत सारे पत्रकार दलाली और लॉबिइंग के काम में लगे हैं,ये अलग बात है कि सबके सब वैसे नहीं है। मुझे आशुतोष के सवाल पर हंसी आयी कि वो पूछते है कि ऐसे कितने पत्रकार हैं? जैसे श्रवण गर्ग दलाल पत्रकारों की जनगणना में लगे हों। इतना होने पर भी श्रवण गर्ग को आज की मीडिया में उम्मीद दिखाई देती है,ऐसा नहीं है कि सबकुछ पूरी तरह खत्म हो गया है। उनकी इस बात को मजबूती देते हुए एस के सिंह ने कहा कि अच्छे पत्रकार आज की पत्रकारिता को नई दिशा दे सकते हैं जिस पर कि आशुतोष ने संतोष जताते हुए कहा कि आज जबकि पिछले छह महीने में मीडिया ने बड़े-बड़े खुलासे किए लेकिन खुद संकट के दौर में आ गया..लेकिन मानना होगा कि इसी मीडिया ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाला का पर्दाफाश किया। बातचीत करण जौहर और यश चोपड़ा की हैप्पी एन्डिंग सिनेमा की तरह खत्म हो जाती है। 2G स्पेक्ट्रम घोटाला और मीडिया को लेकर न्यूज चैनलों पर जितने भी शो चले,सबके सब इसी तरह कुछ कमेटी गठित करने,आदर्श बघारने और सेल्फ जजमेंट जैसे फफूंदी लगे शब्दों की रिपीटेशन के साथ खत्म हो जाते हैं। नतीजा कुछ भी निकलकर नहीं आता है। उल्टे ऑडिएंस को गहरी साजिश का एहसास होता है कि पूरे मामले को पूरी तरह सॉफ्ट किया जा रहा है। अब बताइए कि जो मीडिया किसी का नाम भर आ जाने से उसका पूरा जीवन,करिअर,परिवार,सोशल लाइफ सबकुछ लील जाता है,श्रवण गर्ग जैसे दमदार माने जानेवाले पत्रकार कहते है कि तो क्या इन पत्रकारों को नौकरी छोड़ देनी चाहिए,करियर छोड़ देना चाहिए? अर्थात् नहीं। गर्ग साहब तो क्या इन पत्रकारों को थाने में अठन्नी जमाकर करके सिर्फ सॉरी बोल लेना चाहिए कि मैंने एरर ऑफ जजमेंट का काम किया है,आगे से नहीं करुंगा। मैंने पहले भी कहा था और अब भी कहता हूं कि जिस नैतिकता की बात राजदीप सरदेसाई से लेकर एम जे अकबर, श्रवण गर्ग और बाकी के पत्रकार बघार रहे हैं, उस नैतिकता में जब तक वो पूरी तरह पाक-साफ करार नहीं दे दिए जाते,उन्हें कहानी-कविता-चुटकुले के बीच अपना समय बिताना चाहिए। किसी से सवाल करने का न तो हक है और न कि किसी को उनका जबाब देने की अनिवार्यता। उन्हें समझना चाहिए कि उन्होंने सोशली अपना एक बहुत बड़ा अधिकार खो दिया है। इस तरह की नैतिकता की बात करके हमारे ये महान मीडियाकर्मी जिस तरह से पूरे मामले पर पर्दा डालने के लिए बेचैन हो रहे हैं,उसमें ये भी चिंता शामिल है कि अभी दो मामला दो-तीन पत्रकारों के नाम भर आने का है,आए दिन लाबिइंग और दलाली के बीच होनेवाली पत्रकारिता की शक्ल उघड़कर सामने आ जाएगा तो क्या होगा? हमें ये लोग जो मीडिया को कार्पोरेट से अलग बता रहे हैं,आज मीडिया खुद कार्पोरेट है। कार्पोरेट का पक्ष लेते हुए वो एक तरह से अपना ही पक्ष ले रहे होते हैं। इस मामले में 3 दिसंबर 2010 को पी साईनाथ का दि हिन्दू में लिखा लेख- THE REPUBLIC ON A BANANA PEEL पढ़ा जाना चाहिए। कुल मिलाकर मेरी अपनी समझ है कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसी लगभग अब फर्जी हो चली बात को छोड़कर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया बिजनेस एथिक्स की बात करनी चाहिए और हमें एक रीडर और ऑडिएंस के बजाय एक कन्ज्यूमर के तौर पर ईमानदारी से प्रोडक्ट मुहैया कराने चाहिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Dec 7 12:13:53 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 7 Dec 2010 12:13:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?TkRUViDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSy4KS44KS+4KSc4KWAIOCkuOClhyDgpIngpKDgpL4g4KSq?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSm4KS+?= Message-ID: ICICI की मिलीभगत से कौड़‍ियों के शेयर सैकड़ों में बेचे, देश के बाहर हुआ सारा खेल *♦ विनीत कुमार* 2Gस्पेक्ट्रम मामले में अपनी तेज तर्रार पत्रकार पर आरोपों के छींटे पड़ने से जो सदमा एनडीटीवी प्रबंधन को लगा था, उससे उबरने की सूरत तलाशी ही जा रही थी कि करोड़ों रुपये की जालसाजी के आरोपों ने प्रबंधन को नये सिरे से सकते में डाल दिया है। द संडे गार्जियन नाम के अखबार की साइट ने, जिसे कि इसी साल के जनवरी महीने (31 जनवरी 2010) में 3 रुपये की कीमत के साथ एमजे अकबर ने लांच किया, खबर दी है कि एनडीटीवी ने इस देश को करोड़ों रुपये का चूना लगाने का काम किया है। द संडे गार्जियन इस खबर को लगातार फॉलो कर रहा है और 6 दिसंबर तक इसकी ऑफिशियल साइट ने कुल तीन रिपोर्टें प्रकाशित की हैं। पहली बार 4 दिसंबर को साइट ने *NDTV-ICICI loan chicanery saved Roys* नाम से पहली रिपोर्ट प्रकाशित की और उसमें बताया कि कैसे उसे ICICI बैंक ने गलत तरीके से कर्ज दिये। इस खबर में ये भी बताया कि किस तरह से मनोरंजन चैनल (GEC) एनडीटीवी इमैजिन, जिसे कि अब *TURNER GENERAL ENTERTAINMENT NETWORKS INDIA PRIVATE LIMITED* के हाथों बेच दिया गया है, उसके शेयर की फेस वैल्यू यानी बाजार मूल्य 10 रुपये थे, उसे 776 रुपये में बेचे गये और ये सारा खेल देश के बाहर हुआ। भारत में जो निवेशक थे, जो कि यहां की कंपनी में थे, उन तक ये लाभ नहीं पहुंचा। रिपोर्ट ने बताया कि एनडीटीवी लगातार विदेशों में शेयरों की खरीद-बिक्री, कर्ज लेने का काम करता रहा है और ऐसी दरों पर शेयरों की खरीद-बिक्री की है, जिसका कि वास्तविक मूल्य से कोई तालमेल नहीं रहा है। इधर भारतीय बाजार में देखें, तो एनडीटीवी के शेयर लगातार तेजी से लुढ़कते रहे हैं। जाहिर सी बात है कि एनडीटीवी के जिंदा रहने के पीछे मूल रूप से विदेशों से हो रहे शेयरों की खरीद-बिक्री और लेन-देन रहे हैं। *ICICI बैंक से* गलत तरीके से कर्ज लेने के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि ये डील जुलाई और अक्टूबर 2008 के बीच हुई, जब एनडीटीवी ने अपने शेयर वापस खरीदने चाहे। तब एनडीटीवी के शेयर की कीमत 439 यानी वूम पर थी और उसे लग रहा था कि इसकी कीमत और बढ़ सकती है। लिहाजा एनडीटीवी ने चाहा कि वो अपने शेयर वापस खरीदे लेकिन उसके पास लिक्विड फंड नहीं था। तब उसने कुल 90,70,297 शेयर के बदले India Bulls Financial Services से 363 करोड़ रुपये उधार लिये। ये जुलाई 2008 की बात है। अगस्त 2008 में शेयर मार्केट बुरी तरह कोलैप्स कर गया। अमेरिका की वजह से पूरी दुनिया में शेयर बाजार की मिट्टी पलीद हो गयी। ऐसे में इंडिया बुल्स के पास गिरवी के तौर पर जो शेयर रखे गये थे, उसकी कीमत गिरकर 100 रुपये प्रति शेयर हो गया। इंडिया बुल्स ने अपने दिये हुए लोन की बात दोहरायी और कंपनी से पैसे की मांग की। एनडीटीवी के पास इतने पैसे कहां थे, जो कि वो इंडिया बुल को चुका पाता। लिहाजा उसने ICICI बैंक का हाथ थामा और बैंक ने अक्टूबर महीने में कुल 375 करोड़ रुपये एनडीटीवी को दिये। बदले में एनडीटीवी ने कुल 47,41,721 शेयर बैंक के पास गिरवी के तौर पर रखे, जिसकी औसत कीमत 439 रुपये लगायी गयी, जो कि लगभग 208 करोड़ रुपये होती है। *ये पहली बार था* कि इस तरह से लगभग आधी रकम के शेयर के बदले इतनी रकम लोन के तौर पर दी गयी। द संडे गार्जियन का कहना है कि इसे वित्तीय जालसाजी न कहा जाए, तो और क्या कहा जाए। इतना ही नहीं, जिस समय एक शेयर की कीमत 439 रुपये लगायी गयी, उस समय (23 अक्टूबर 2008) बाजारू कीमत मात्र 99 रुपये थी। इस तरह शेयर की राशि बनती थी मात्र 46.94 करोड़ रुपये। इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्‍प पहलू है कि एनडीटीवी के जो भी शेयर इंडिया बुल्स को दिये गये, फिर बाद में ICICI बैंक को दिये गये, वो सबके सब *RRPR Holding Private Limited* के जिम्मे थे। ये वही कंपनी थी, जिसमें बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में दो ही लोग थे – मिस्टर रॉय और मिसेज रॉय। जुलाई 2008 के पहले इस कंपनी ने एनडीटीवी के एक भी शेयर नहीं खरीदे। मामले में एक और दिलचस्प पहलू है कि इंडिया बुल्स के भुगतान किये जाने के बाद RRRR के एक बोर्ड डायरेक्टर को 73.91 करोड़ रुपये बिना किसी ब्याज के लोन दिये गये। ये वही पैसे थे, जो ICICI बैंक से कर्ज के तौर पर लिये गये और जो SARFAESI Act 2002 का सीधा-सीधा उल्लंघन था। *इस मामले में* चौंकानेवाली बात है कि मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को इन सारी सूचनाओं की जानकारी मिलती रही, लेकिन वे चुप रहे। एक बड़ा सवाल है कि बैंक ने इतनी आसानी से क्यों कर्ज दे दिया? द संडे गार्जियन का कहना है कि जब पिछले ही महीने 2000 करोड़ रुपये के लोन घोटाले में सीबीआई ने LIC और दूसरे बैंकों के आठ सीनियर मैनेजरों को गिरफ्तार किया, तो फिर क्या ये मामला उससे अलग है? *द संडे गार्जियन ने* अपनी दूसरी रिपोर्ट जो कि 5 दिसंबर को प्रकाशित हुई है – *NDTV juggles funds, shares abroad, avoids tax*, उसमें बताया है कि NDTV किस तरह से फंड को लेकर चालबाजी करता आया है, विदेशों में शेयरों के लेन-देन करके भारत में अपने को टैक्स से बचाता है। इस रिपोर्ट में साइट ने एनडीटीवी के एक के बाद एक चैनल के खोलने और फिर उसके धड़ाधड़ हिस्सेदारी बेचने के पीछे की कहानी को विस्तार से बताया है। अपने विदेशी सहायक चैनलों और वेंचरों के माध्यम से कैसे उसने भारतीय टैक्स और कार्पोरेट कानून का उल्लंघन किया है, इसकी पूरी कहानी रिपोर्ट में दी गयी है? नवंबर 2006 में NDTV Network Plc, UK को स्थापित किया गया, जिसकी बैलेंस शीट भारत में फाइल नहीं की गयी। इस कंपनी ने बहुत पैसे अर्जित किये और NDTV Imagine (जो कि अब बिक गया), NDTV Lifestyle, NDTV Labs, NDTV Convergence और NGEN Media में बहुत पैसे लगाये भी। अधिकांश डील एनडीटीवी के नाम से हुए लेकिन एक भी पैसा भारत में टैक्स के तौर पर नहीं आया। एनडीटीवी इंडिया ग्रुप ने अप्रैल 2008 के दौरान 804.6 करोड़ रुपये उगाहे, जो कि सितंबर 2009 तक आते-आते 982.2 करोड़ रुपये हो गये। एनडीटीवी ने ये पैसे अपने विदेशी स्रोतों से अर्जित किये, जो कि यूके और नीदरलैंड में उसके सहयोगी चैनलों और वेंचरों की बदौलत आये थे। इस तरह भारत में एनडीटीवी के साथ इसकी बैलेंस शीट नहीं अटैच की गयी, तो दूसरी तरफ विदेशों में जो इसके सहयोगी वेंचर हुए, उसमें विस्तार से सब कुछ नहीं बताया गया। यहां तक कि यूके NDTV Network Plc में जो कंपनी खोली गयी, उसका अपना कोई कर्मचारी भी नहीं था। जो था वो एक ही साथ कई कंपनियों का भी काम संभालता था। एनडीटीवी ने नीदरलैंड में वेंचर मजबूत करने के लिए यूके के वेंचर का इस्तेमाल किया। यूके के वेंचर को मजबूती देने के लिए नीदरलैंड के वेंचर का इस्तेमाल किया और इस तरह एक-दूसरे के सपोर्ट से काम चलता रहा। लेकिन भारत में जो इसकी बैलेंस शीट थी, उसमें यह सब दर्ज नहीं था जबकि देखा जाए तो ये भारत की एनडीटीवी के ही सहयोगी वेंचर थे। इनमें से कइयों की साइट खोलने पर डीटेल के बजाय यही आता कि यह भारत की एनडीटीवी की सहयोगी कंपनियां हैं। *रिपोर्ट ने* विस्तार से बताया कि कैसे देश के बाहर इसके वेंचर को मजबूती मिलती रही, जबकि यहां इसके शेयरधारकों को इसका कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि जिस वेंचर को लाभ पहुंचते, उसका यहां जिक्र नहीं होता। *चार दिसंबर को ही* साइट ने *NDTV CEO gives reply, Guardian responds* शीर्षक से एक और रिपोर्ट छापी है, जिसमें कि उसने एनडीटीवी से एक बेहतर पत्रकारिता की संभावना बनी रहे, इसलिए नौ सवालों के जवाब मांगे गये। एनडीटीवी के सीईओ ने द संडे गार्जियन की इस खबर को निराधार और फर्जी करार दिया और साथ में यह भी कहा कि पब्लिकेशन और व्यक्तिगत स्तर पर सिविल और क्रिमिनल दोनों कानूनों के तहत अदालती कार्रवाई की जाएगी। साइट ने एनडीटीवी के सीईओ केएल नारायण राव के जवाब को भी प्रकाशित किया है और उसके आगे लिखा है कि उन्होंने गोलमोल तरीके से जवाब दिया है। *30 नवंबर 2010 को* जब बरखा दत्त NDTV 24X7 के कठघरे में एडिटर्स के सवालों के जवाब दे रही थीं, तो एंकर सोनिया सिंह ने कहा था कि संभव हो ये पूरा मामला कार्पोरेट वार का हिस्सा हो। वर्चुअल स्पेस पर जनतंत्र डॉट कॉम ने भी इसे इसी तरह से विस्तार देने की कोशिश की है और मीडिया के लोगों के नाम आने को बहुत ही छोटा खेल बताया जा रहा है। उसमें इस बात की आशंका जतायी गयी है कि संभव है कि ओपन और आउटलुक जैसी पत्रिका भी सत्ता की दलाली के लिए ये सब कर रहे हों, इस सवाल में एक सच्चाई यहां आकर जुड़ती है कि क्या द संडे गार्जियन भी कुछ ऐसा ही कर रहा है? जनवरी में शुरू हुए इस अखबार ने एनडीटीवी के 2007-08 की डील और बिजनेस का ब्योरा अब जाकर देते हुए सारी बातें सामने लायी हैं। बैलेंस शीट भी प्रकाशित किया है। अगर ऐसा है, तो कार्पोरेट वार के साथ-साथ मीडिया वार भी शुरू हो चुका है। *एमजे अकबर इन दिनों* इंडिया टुडे ग्रुप में हैं। इससे पहले महीने भर के लिए इंडिया न्यूज को सेवा देकर आये हैं। प्रेस क्लब में राजदीप सरदेसाई, द संडे इंडियन में अरिंदम चौधरी के आरोपी पत्रकारों के बचाव में उतर आने और नीरा राडिया से पत्रकारों की बातचीत के टेप आने के करीब तीन सप्ताह बाद दैनिक भास्कर में 6 दिसंबर को दो पन्ने में एक्सक्लूसिव खबर छपने की घटना से अंदाजा लगाना चाहिए कि अब मीडिया वार शुरू हो गया है। ये मीडिया वार अब खबरों की दुनिया से आगे निकलकर एक-दूसरे को पूरी तरह तहस-नहस कर देने की नीयत से शुरू हुआ है। इसके पीछे की लीला शायद यह भी हो कि ऐसी स्थिति कर दी जाए कि इस देश में बिग पिक्चर, बिग सिनेमा, बिग टीवी के साथ-साथ सिर्फ बिग मीडिया रहे, बिग खबरें रहे, दूसरा कोई नहीं। इन सबों पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है। हालांकि द संडे गार्जियन की इस खबर पर कई ऐसे कमेंट आये हैं, जो इस खबर को बकवास बताते हैं लेकिन अगर ये खबर सच है तो समझिए कि हमारे सामने कितना बड़ा आदर्श ध्वस्त होता नजर आ रहा है? मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Dec 8 12:37:36 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 08 Dec 2010 12:37:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSv4KWL4KSn?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KS+IOCkq+CkvOCkv+CksuCljeCkriDgpK7gpLngpYvgpKTgpY0=?= =?utf-8?b?4KS44KS1?= Message-ID: <4CFF2EB8.2070200@sarai.net> *आवाम का सिनेमा: सिलसिला जो चल पड़ा* अयोध्या फिल्म महोत्सव अपने चौथे संस्करण की दहलीज पर है। 2006 से शुरु हुआ यह सिलसिला दरअसल अपने शहर की पहचान को बदलने की जद्दोजहद का परिणाम था। उस पहचान के खिलाफ जो फासीवादी सियासत ने गढ़ी थी और जिसके चलते लोग गुजरते वक्त को इससे गिनते थे कब यहां नरबलियां हुयी, कब हमारे आशियानें जलाए गए, कब घंटों की आवाज सायरनों में तब्दील हो गयी और रंग-रोगन वाली हमारी सौहार्द की संस्कृति के सब रंग बेरंग हो गए। लेकिन इस सिलसिले की शुरुआत ने धीरे-धीरे ही सही शहर के स्मृति पटल पर अपनी उम्र गिनने का एक नया अंकगणित गढ़ना शुरु कर दिया, आज हम कह सकते हैं कि हमने कब से ‘प्रतिरोध की संस्कृति और अपनी साझी विरासत’ का जश्न मनाने के लिए फिल्म महोत्सव शुरु किया था। कब आवाम के सिनेमा के इस सिलसिले ने अपना राब्ता राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान की साझी विरासत-साझी शहादत से जोड़ ली। इस सफर में हमने दुनिया भर के लोगों के सघंर्षों, उन संघर्षों के सतरंगी आयामों को समझाने वाली फिल्मों का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि इस आयोजन से प्राप्त ऊर्जा ने हमसे ‘राइजिंग फ्राम दि ऐशेज’ जैसी फिल्म भी दुनिया के सामने अपने शहर की वास्तविक छवि को रखने के लिए बनवाई। यह फिल्म पचहत्तर वर्षीय उस शरीफ चचा की कहानी है जो बिना धर्मों का फर्क किए लावारिस लाशों को मानवीय गरिमा प्रदान करते हैं। आखिर गंगा-जमुनी तहजीब और धार्मिक सौहार्द के इस शहर की आत्मा भी तो यही है। इस सफर में हमारा खास जोर फिल्म माध्यम से जुड़े नए और युवा साथियों को अपना हमसफर बनाना भी रहा। जिसके तहत हमने पिछले साल ‘भगवा युद्ध’ और ‘साइलेंट चम्बल’ फिल्मों को जारी किया। आवाम के सिनेमा के इस सफर में शहर के बाहर से फिल्मकार और सृजनात्मक आंदोलनों में लगे साथियों ने अपने खर्चे से इस आयोजन में शामिल होकर हमारा हौसला बढ़ाया। और हमें इसे और बेहतर और व्यापक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। साथियों, आगामी 19 से 21 दिसंबर2010 तक हाने वाले तीन दिवसीय इस फिल्म महोत्सव का आयोजन अयोध्या- फैजाबाद में होने जा रहा है, ऐसे में इतिहास में नया अंकगणित गढ़ने और लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करने वाली ताकतों को शिकस्त देने के लिए आप हमारे इस सफर में हमसफर हों। shah alam 9873672153 From vineetdu at gmail.com Fri Dec 10 23:44:58 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 10 Dec 2010 23:44:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWL4KSh?= =?utf-8?b?4KS84KWL4KSCIOCkleCkviDgpKjgpYHgpJXgpLjgpL7gpKgg4KSq4KS5?= =?utf-8?b?4KWB4KSC4KSa4KS+4KSo4KWHIOCkruClh+CkgiDgpKvgpILgpLjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KS44KS+4KSw4KWAIOCkreCkvuCksOCkpOClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOClgOCkh+CkkyDgpKzgpYDgpI/gpLgg4KSy4KS+4KSy4KWA?= Message-ID: ये मीडिया में करप्शन के उजागर होने और बड़े-बड़े आयकन के ध्वस्त हो जाने का दौर चल रहा है। इस कड़ी में अब प्रसार भारती के सीइओ बीएस लाली भी शामिल हो गए हैं। बीएस लाली पर आरोप है कि उन्होंने निजी प्रसारण कपंनियों को फायदा पहुंचाने का काम किया है जिससे प्रसार भारती को करोड़ों रुपये का नुकान हुआ है। प्रसार भारती के भीतर उनकी मनमर्जी इस तरह से बनी रही कि उन्होंने प्रावधानों को ताक पर रखकर निजी स्पोर्ट्स चैनलों से सांठ-गांठ कर उन्हें फायदा पहुंचाया है। बीएस लाली का कोई एक कारनामा नहीं है जिसे कि बताया जाए,उनके कार्यकाल में दबंगई की लंबी सूची है जिसे देखकर हैरानी होती है कि सरकार ने अब जाकर क्यों कारवायी करने का मन बनाया है? यह काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। पहले राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की तरफ से बीएस लाली के खिलाफ जांच करने की सिग्नल मिलने के बाद शुक्रवार को सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की तरफ से भी हरी झंडी दिखा दी गयी है। बीएस लाली का दावा है कि वो सुप्रीम कोट में अपने को दूध का धुला साबित कर पाएंगे क्योंकि जो कुछ भी आरोप लगाए गए हैं,वो सबके सब कुछ बाहरी प्रभावी ताकतों की ओर से लगाए गए हैं। अखबारी रिपोर्टों और प्रसार भारती से जुड़े लोगों की मानें तो बीएस लाली की पहचान शुरु से ही एक निरंकुश सीइओ के तौर पर रही है। प्रसार भारती को हमेशा अपने इशारे पर न केवल नचाने की कोशिश की है बल्कि जब जैसा मौका मिला निजी कंपनियों,चैनलों को फायदा पहुंचाने के फेर में उटपटांग और पब्लिक ब्राडकास्टिंग को नुकसान पहुंचानेवाले फैसले लिए हैं। अभी हाल ही में प्रसार भारती और आकाशवाणी ने 1 नबम्वर से सबसे लोकप्रिय एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी आनन-फानन में बदलने के फैसले लिए गए तो इस फैसले से अपना पल्ला झाड़ते हुए लाली ने कहा कि उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे ने तो यहां तक कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया के जरिए हुई। बाद में मेनस्ट्रीम मीडिया में इस बात का विरोध किए जाने के बाद एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी वहीं बनी रहने दी गयी लेकिन ऐसा करके एक बहुत बड़े स्तर पर हेरा-फेरी का होनेवाले धंधे पर पर्दा डालने का काम किया गया। दरअसल ये फ्रीक्वेंसी बीएजी फिल्मस के रेडियो चैनल रेडियो धमाल को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा था। इसके साथ ही जिस फ्रीक्वेंसी 100.1 पर एफएम गोल्ड को शिफ्ट किया जा रहा था वो दरअसल राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े प्रसारण के लिए खोला गया था। फ्रीक्वेंसी बदलते समय तर्क दिया गया था कि ये ज्यादा बेहतर फ्रीक्वेंसी है लेकिन 6 नबम्वर को इस चैनल को बंद कर दिया गया। प्रसार भारती और आकाशवाणी से जुड़े लोगों के मुताबिक इस चैनल को खोलने में लाखों रुपये खर्च किए गए और इसके लिए मुंबई से कुछ चहेते लोग महीने भर तक होटल में आकर मौज करते रहे। आगे प्रसार भारती की तरफ से इस चैनल के बंद किए जाने को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं आया। जिस राष्ट्रमंडल खेलों में करोड़ों रुपये के घोटाले की बात की जा रही है,उसमें अगर प्रसारण और प्रसार भारती के भीतर हुई दलाली और गड़बड़ियों को शामिल किया जाए तो बहुत संभव है कि उसमें बीएस लाली का भी नाम शामिल हो। वैसे भी लाली ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के निर्देशों को ताक पर रखते हुए अपनी चहेती कंपनी सिस लाइव को 246 करोड़ रुपये का प्रसारण अधिकार देने का काम किया है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान जिस मनमानी तरीके से कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन ठूंसे गए और प्रति 10 सेकंड के विज्ञापन की कीमत को 60 हजार से ढाई लाख तक ले जाने का काम किया,लाली और प्रसार भारती के सामने इस बात का तर्क नहीं है कि 100 से 200 करोड़ तक की कमाई का दावा करने के बावजूद अगर 58.19 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ तो टार्गेट से आधी से भी कम और ओवरलोडेड विज्ञापनों के पीछे की क्या वजह रही है? प्रसार भारती पर कॉन्ट्रेक्ट के स्तर पर काम कराए जाने और निजी कंपनियों के साथ समझौते कराने के मामले में भी लगातार आरोप लगते रहे हैं। स्पोर्ट्स चैनल इएसपीएन को फायदा पहुंचाने के लिए और इक्सक्लूसिव कवरेज के लिए दूरदर्शन ने अधिकार रहते हुए भी T-20 का प्रसारण नहीं किया। इसके अलावे लाली ने वकीलों को वाजिव रेट से कहीं ज्यादा भुगतान कराने का काम किया है। सेवंती निनन ने अपने लेख MEDIA MATTERS: CAN BE AFFORD PRASAR BHARTI? में इन सारी घटनाओं की विस्तार से चर्चा की है और नोट लगाकर यह भी लिखा कि जब इस मामले में बीएस लाली से बाचतीत करने की कोशिश की तो उन्होंने कोई रिस्पांस नहीं दिया। बीएस लाली के निरंकुश होने के किस्से कापरनिकस मार्ग,मंडी हाउस और संसद मार्ग आकाशवाणी में चाय पीते हुए लोग रोजमर्रा की रुटीन के तहत किया करते हैं। मौजूदा दौर में मीडिया के भीतर एक के बाद एक आयकन और मिथक तेजी से जिस तरह ध्वस्त हो रहे हैं,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी पर पैसे के हेर-फेर और अपने पद का दुरुपयोग करने का आरोप लगना,कहीं से भी किसी तरह उम्मीद के नहीं बचे रहने की कहानी कहता है। अभी प्रणय राय और एनडीटी के महान होने का मिथक टूटा है, बरखा दत्त और वीर सांघवी सवालों के घेरे में हैं,राजदीप सरदेसाई के मीडिया के पक्ष में दिए गए सारे तर्क बंडलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं लगता,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग के भीतर की सडांध का उघड़कर आना मीडिया की सबसे बदतक स्थिति को सामने लाकर रख देता है। लेकिन इन सबके बीच जरुरी सवाल है कि क्या बीएस लाली पर होनेवाली कारवायी बलि का बकरा बनाए जाने या फिर एक को निबटाओ,बाकी मामला अपने आप शांत हो जाएगा कि रणनीति है या फिर प्रसार भारती और आकाशवाणी के भीतर और भी कई मगरमच्छ तैर रहे हैं जिनका बेनकाब होना जरुरी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Dec 11 19:11:29 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 11 Dec 2010 19:11:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSV4KS8IOCkruClh+CkgiDgpK3gpY3gpLDgpLfgpY3gpJ/gpL7gpJo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkueCliOCkgiDgpK/gpYcg4KSy4KWH4KSW4KSV?= Message-ID: *मुल्क़ में भ्रष्टाचार से परेशान हैं ये लेखक* *मित्रो, * *आज हम एक ऐसे वक्त में रह रहे हैं जब पूरे मुल्क़ में घपले, घोटाले और भ्रष्टाचार के नए-नए मामले रोज़-ब-रोज़ हमारे सामने आ रहे हैं. इनमें नेता भी हैं पूंजीपति भी, ब्यूरोक्रेट्स भी हैं जज भी, और पत्रकार भी. और अब भ्रष्टाचार की तोहमत सिर्फ मर्दों पर भी नहीं लगाईं जा सकती. हर दिन, हर पल मीडिया की सुर्खियाँ बन रही भ्रष्टाचार की इन अनगिनत दस्तानों पर हमारा लेखक तबका क्या सोच रखता है, इसको लेकर 10 दिसंबर 2010 को चार लेखकों (अशोक वाजपेयी, असगर वजाहत, आलोक राय और अनामिका ) से बातचीत हुई, जो 11 दिसंबर के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में साहित्य के पन्ने पर प्रकाशित हुई है. इन्हें आपके हवाले कर रहा हूँ. * *शुक्रिया. * *- शशिकांत * *लालची हो गया है हमारा मध्य वर्ग : अशोक वाजपेयी* *देश* में चौतरफा फैले भ्रष्टाचार के मामले में दो-तीन मुख्य बातें हैं। पहली, संविधान की धारा तीन सौ गयारह है। इस धारा में देश के सिविल सेवकों को सुरक्षा मिली हुई है! पहला सवाल यह उठता है कि सिविल सेवकों को इस तरह की सुरक्षा क्यों मिली हुई है। आज जब रोज-रोज घपले और घेटाले के मामले सामने आ रहे हें तो धारा तीन सौ गयारह, जो उन्हें सुरक्षा देती है, उस पर पुनर्विचार होना चाहिए। क्योंकि या तो देश के सिविल सेवकों द्वारा इसका दुरूपयोग हो रहा है, या इसके कारण भ्रष्टाचार में संलिप्त सिविल सेवकों पर ठोस कार्रवाई विलंबित हो रही है। दूसरी बात ये है कि भारत सरकार यदि सचमुच देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती है या इस तरह के मामलों को लेकर गंभीर है तो वह तत्काल प्रभाव से कम से कम पांच सौ प्रथम स्रेणी के वैसे अधिकारियों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई करके उन्हें बर्खास्त करने की पहल करे जिनकी भ्रष्टाचार के गंभीर मामले में संलिप्तता रही है और जिनकी अक्षमता जगजाहिर है। सरकार यह कदम सख्ती से उठाए ताकि सबको सबक मिल सके और लोग भ्रष्टाचार के मामलों में संलिप्त होने से परहेज कर सकें। तीन, देश में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध और उसको पोसनेवाली राजनीति के विरुद्ध एक देशव्यापी सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ताकि नागरिक निगरानी और चौकसी बढ़ाई जा सके । दरअसल राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना भी उतना ही जररूरी है। आज के समय में हम जिन घपलों और घेटालों को लेकर चितित हैं। यह अब जगजाहिर है कि देश के मध्य वर्ग में बड़ी तेजी से बढ़ती दौलत और इसी मध्य वर्ग में बढ़ते लालच की वजह से ये सब हो रहे हैं। मेरा कहना है कि हमारे देश के विराट मध्य वर्ग को थोड़ा ठिठकर, थोड़ा ठहरकर अपने अंत:करण को टटोलना चाहिए और अचने लालच पर लगाम लगाना चाहिए।यदि हमारा मध्य वर्ग ऐसा करता है तो मुझे उम्मीद है कि भ्रष्टाचार की वर्तमान स्थिति में सार्थक बदलाव होगा। ये काम सरकारें और अदालतें नहीं कर सकतीं बल्कि हमारे समाज को ही करना होगा, जो इसका भुक्तभोगी है। चूंकि भ्रष्टाचार अब मीडिया तक फैल गया है, ऐसे में हमें देश के भीतर व्यापक स्तर पर ऐसे मंच बनाने होंगे और ऐसे मंचों को लगातार पोसना पड़ेगा जहां से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जोरदार ढंग से आवाज उठाई जा सके। अव्वल तो यह है कि हमारे लेखकों की अब ऐसी स्थिति नहीं रहने दी गई है कि उसकी सामाजिक आवाज देश की आम जनता सुन सके और उसके आधार पर अपनी समस्याओं का हल ढूंढ सके। लेकिन इस विपरीत माहौल में ऐसा कोई कारण नहीं है कि लेखक तबका इन घपलों और घोटालों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाए। *भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए : असगर वजाहत* *मेरा *यह मानना है कि हमारी जो सत्ता है इसमें आते हैं राजनीतिज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स और बड़े पूंजीपति। इन्हीं सब से बनती है सत्ता। सत्ता ने इस देश को बंधक बना लिया है। ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसा जमींदार बंधुआ मजदूरों के साथ करता है कि जब तक वह मर नहीं जाता तब तक उसका शोषण करता रहता है। हमारा यह देश बहुत बड़ा है। यह मरेगा तो नहीं लेकिन यहां जो लोग सत्ता में आ रहे हैं वे लगातार देश के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। हमारे यहां की गरीबी, बेरोजबारी की वजह यही है। हमारे देश के संसाधन देश की जनता पर खर्च नहीं किया जाता, सत्ता पर खर्च होता है। ये राजनीतिज्ञ लोग गरीबों के घर जाकर खाना खाते हैं, विकास को लेकर झूठ का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। असली मसला यह है कि संसद में भ्रष्टाचार पर आजतक कोई कानून नहीं बना। यही वजह है कि सारे भ्रष्टाचारी बच जाते हैं। यह आपत्तिजनक और निराशाजनक स्थिति है जिसमें लेखक समाज दिक्कत महसूस कर रहा है। इस माहौल को देखकर लेखक समुदाय में कटुता आ गई है। निर्मम और संवेदनहीन बनी हुई है सत्ता। लाखों-करोड़ों रुपये विदेशों में पड़े हैं। ये ऐसा काम कर रहे हैं कि अंततः डेमोक्रसी पर से देश के लोगों का विश्वास उठ जाएगा। ये भयानक काम कर रहे हैं। जब तक पारदर्शिता, सहभागिता नहीं होगी तब तक हालात ऐसे ही रहेंगे। आप एमपी को पांच करोड़ रुपये देते हैं क्षेत्र में विकास करने के लिए। वो किसी से पूछता है कि कहां कौन काम करना है? काम करता है या नहीं यह भी उससे नहीं पूछा जाता। इसलिए पारदर्शिता और जनता की सहभागिता जरूरी है। जनता को इन्होंने जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर बांट रखा है। अशिक्षित बनाकर रखा है पिछले साठ सालों से। जनता की जागरूकता जरूरी है। लेकिन सत्ता ने चालाकी से जनता को शिक्षित होने नहीं दिया। कितना खर्च है शिक्षा पर? बजट का सिर्फ दो प्रतिशत। जहां से विरोध की संभावना थी सत्ता ने उसे ही खत्म कर दिया। उपाय यह है कि मीडिया आंदोलन चलाए। हालांकि मीडिया में भी करप्शन है लेकिन उतना नहीं जितना सत्ता में। हमारी सिविल सोसायटी, एनजीओ, मीडिया और सुप्रीम कोर्ट मिलकर एक माहौल बनाए। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून बनाने की जरूरत है। चीन में यदि भ्रष्टाचारी को गोली मारी जा सकती है तो हम क्यों नहीं मार सकते? लेकिन सत्ता में भ्रष्टाचारी लोग ही बैठे हैं और संसद में भी, तो ऐसा शख्त कानून कौन बनाएगा? *भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोई लेखक कैसे लिखे? : आलोक राय* *भ्रष्टाचार* के मामले आज देश में जिस तरह के मामले रोज-रोज सामने आ रहे हैं और इन मामलों में जो कुछ हो रहा है, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि ये सब क्या हो रहा है। मुझे तो लगता है कि सभी भ्रष्टाचारी आपस में मिले हुए हैं। आपस में मिल-बांट कर खा रहे हैं। ताज्जुब होता है कि आखिर इनके विरुद्ध कोई आवाज क्यों नहीं उठ रही है। और जब कभी इनके खिलाफ कोई आवाज उठती है तो ये सभी मिल जाते हैं। ऐसे में क्या कहूं, बड़ी विकट स्थिति है। कई बार तो मुझे लगता है कि इन भ्रष्टाचारियों को फांसी लगाना भी काफी नहीं है। इससे भी बड़ा गुनाह कर रहे हैं ये। यदि सचमुच हम भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं तो हमें गंभीरतापूर्वक सोचना होगा। इसके लिए पर्याप्त कदम उठाना होगा। आज हम देख रहे हैं कि जिन-जिन लोगों का नाम भ्रष्टाचार के मामले में सामने आ रहा है उनमें हर कोई अपनी सफाई दे रहा है कि वो निर्दोष है। सभी में आपसी मिलीभगत है। एक जैसे हैं ये लोग। मेरे जैसा व्यक्ति इस माहौल में बड़ा ही असहज महसूस कर रहा है। लेकिन देश के आम आदमी की दृष्टि से देखा जाए तो स्थिति की गंभीरता भयानक रूप लेती हुई दिखाई देती है। इन भ्रष्टाचारियों को मालूम होना चाहिए कि ये जो घोटाले कर रहे हैं वह सारा पैसा देश की आम जनता का पैसा है। इनको कल्पना भी नहीं होगी कि देश की आम जनता के मन में आज इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कितना आक्रोश, कितना गुस्सा और कितनी बौखलाहट है। इन्हें नहीं भूलना चाहिए कि आज हमारे देश में करोड़ों की तादाद में ऐसे गरीब और फटेहाल लोग हैं जिन्हें भर पेट खाना भी नहीं मिल रहा है। करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के खुलासे की खबर सुनकर वह गरीब और फटेहाल जनता क्या सोच रही होगी, इसका एहसास क्या इन्हें है, शायद नहीं। ऐसे भयानक माहौल में लेखक तबके का एक ही काम है कि वह इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ लगातार लिखता रहे। लेकिन कोई लेखक जब इनके खिलाफ लिखता या बोलता है तो ये सब मिलकर उसे देशद्रोही साबित कर देते हैं। दरअसल आम आदमी का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि वह रोज-रोज एक ही तरह की बातें सुनकर उसे अनसुना कर देता है या ऐसी बातें सुनना नहीं चाहता। लेखक भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार ऐसा धारदार लेखन करे कि ऐसी बातों की धार बनी रहे। आज के समय में लेखक का यही काम है। *ईमानदार बुजुर्गों और नवयुवकों का गठजोड़ बने : अनामिका* *धूल* के साफ-सफाई की रोज जरूरत होती है। आदमी, उसके कामकाज, चरित्र और नैतिकता पर भी जब धूल जम जाती है तो उसकी सफाई होनी चाहिए। इसके लिए एक सजग नागरिक समूह की जरूरत पड़ती है। आज के समय में हमें लगातार नैतिकता की परीक्षा देनी पड़ती है। हम जो नव स्वतंत्र समूह हैं, स्त्रियों या गरीबी से जो लोग उपर उठे हैं उनसे मुझे काफी उम्मीद रहती है लेकिन जब दंगे फैलाने या भ्रष्टाचार में लिप्त सित्रयों का नाम सुनती हूं तो बहुत तकलीफ होती है। स्त्रियों को यदि स्वतंत्रता, सुरक्षा और अधिकार मिले हैं तो उनका दायित्व भी बढ़ गया है। ऐसी सजग और जागरूक स्त्रियों से मेरी अपेक्षा रहती है कि घर का कोई पुरुष यदि कहीं से काला धन ला रहा है तो वे पूछें कि ये पैसे वो कहां से ला रहा है? हर आदमी के मन पर किसी न किसी स्त्री मन का दबाव रहता है चाहे वह पत्नी, बेटी, बहन, दोस्त, सहकर्मी या प्रेमिका कोई भी हो। पुरुष स्त्री का मन जीतना चाहता है। और यहीं पर औरत की भूमिका कारगर साबित हो सकती है। नैतिकता एक बड़ा मसला है जिसके निर्माण में सित्रयां महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं लेकिन सित्रयां जब खुद इसमें फंस जाती हैं तो यह सुनकर मन बेचैन हो जाता है। जहां तक सिस्टम का सवाल है तो इसमें बहुत सारी खामियां हैं। कहां से पैसा आया? किसने दिया? क्यों दिया? किस काम के लिए दिया? कहां खर्च हुआ? योग्य को दिया गया या चमचे-चालूसों, पिछलग्गुओं को? ये सारे सवाल पूछने के लिए हमारे नवयुवकों को सामने आना होगा। असली दायित्व उन्हीं की है। आज के समय में हर सिटीजन एक जर्नलिस्ट है। सजग और जागरूक सिटीजन। हर नागरिक एक पत्रकार है। ऐसे माहौल में औरतों और युवकों की भूमिका बढ़ जाती है। मैं चाहती हूं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए हर मोहल्ले में युवकों की टोलियां बने। पुलिस और सीबीआई जो काम नहीं कर सकी वो काम युवकों के हाथ में सौंपा जा सकता है। पढ़े-लिखे बेरोजगार और ईमानदार युवको को यह काम सौंपा जा सकता है। इस मुहिम में ऐसे रिटायर्ड अफसरों की मदद ली जानी चाहिए जिन्होंने जिंदगी भर ईमानदारी से काम किया। ऐसे बुजुर्गों की संख्या बहुत बड़ी है जो अलग-अलग क्षेत्र में काम करने का लबा अनुभव रखते हैं, जो अपनी ईमानदार छवि की वजह से खुद अपने ही बाल-बच्चों से ताने सुनते रहते हैं। अक्सर इनमें कई स्वभव से चिड़चिड़े और डिप्रेस्ड हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि जिंदगी भर ईमानदारी से काम करनेवाले बुजुर्गों को पुरस्कृत किया जाए ताकि नई पीढ़ी उनसे प्ररण ले सके। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए ऐसे ईमानदार बुजुर्गों का एक संगठन बनाना होगा। बुजुर्गों का पज्ञाकोष और नवयुवकों का हौसला- इन्हें मिलाकर भ्रश्टाचार के खिलाफ बलपूर्वक लड़ा जा सकता है। युवकों की जनजागरण टोली घर, मोहलले और आस-पड़ोस के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ हल्ला बोले, उन्हें सुधार गृह भेजे, मनोचिकित्सकों से उनका इलाज कराए और फिर भी वे न सुधरें तो उनका अस्पतालों में उनका इलाज करवाए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Dec 11 23:42:54 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 11 Dec 2010 23:42:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KWBIOCkmuCkvuCkteCksuCkviDgpJXgpL4g4KSG4KSc4KSk4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkquCkpOCljeCkpOCkviDgpLjgpL7gpKs=?= Message-ID: सीधी बात के नाम पर अगर आप अब तक प्रभु चावला की मसखरी से तंग आ चुके हैं तो खुश हो लीजिए,अब वो सीधी बात में नजर नहीं आएंगे। आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप से उनका पत्ता साफ हो गया है। आजतक के सूत्रों के मुताबिक प्रभु चावला ने मैनेजमेंट को इस्तीफा सौंपा है यानी कि खुद अपनी इच्छा से वहां से चल देने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन मीडिया कल्चर के हिसाब से सोचें तो यहां कभी भी कोई बड़ा मीडियाकर्मी निकाला नहीं जाता बल्कि या तो वो कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर चला जाता है या फिर खुद इस्तीफी दे देता है। आप लिस्ट उठाकर देख लीजिए,जितने भी बड़े नामों की मीडिया संस्थानों से विदाई होती है तो पहली खबर बनती है कि वो कुछ दिनों के लिए आराम करना चाहते हैं,अपने परिवारवालों पर समय देना चाहते हैं। इस बीच हमारी भूलने की आदत इतनी है कि हम दोबारा नोटिस ही नहीं लेते कि जो छुट्टी पर गया वो लौटा क्यों नहीं। हल्के से तब तक वो इस्तीफा देकर बाहर हो लेते हैं या तो कर दिए जाते हैं। दर्जनभर मीडियाकर्मियों को तो मैंने खुद मैनेजमेंट के दबाव में आकर इस्तीफा देते देखा है। चैंबर या न्यूजरुम में उनके उदास चेहरे बाहर आते ही ऐंठकर अकड़ में तब्दील हो जाती है- मार दिया लात स्साली इस नौकरी को,रखा ही क्या था इसमे? शुक्र है कि प्रभु चावला छुट्टी पर नहीं गए,सीधे वहां से विदा करार दिए गए हैं। टीवी टुडे ग्रुप से प्रभु चावला का जाना एक बड़ी घटना है क्योंकि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया के साथ बातचीत के टेप बाकी लोगों के साथ इनकी भी वर्चुअल स्पेस पर तैर रहे थे,इनकी भी गर्दन अटकी हुई थी। तब आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइंस टुडे ने 1 दिसंबर की रात मीडिया दिग्गजों को बुलाकर पंचायती की थी और प्रभु चावला को पाक-साफ करार दिया था। अब आज उनके इस्तीफे की खबर से ये साफ होने लगा है कि चैनल ने जो पंचायती की और जो नतीजे निकलकर आए,उस पर उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है। लिहाजा मैनेजमेंट ने सोचा कि इस बदनामी का वजन बेईज्जती में डूबकर और भारी हो जाए,इससे बेहतर है कि इन्हें अलग कर दिया जाए। उनके जाने के कारणों को लेकर जो कयास लगाए जा रहे हैं,उनमें से एक कारण ये भी है कि उन्होंने ओमपुरी की सेवा देने से मुक्त होने का मन तब ही बना लिया था जब एम जे अकबर को ठीक उनके सिर पर लाकर बिठा दिया गया। एम जे अकबर कायदे से महीने भर भी इंडिया न्यूज में रहकर कुछ भी करिश्मा नहीं कर पाए होंगे कि इंडिया टुडे ग्रुप में आ धमके और तो और प्रभु चावला जो कि इंडिया टुडे के ग्रुप एडीटर हुआ करते, उस कुर्सी को उनसे छीनकर और उसमें हेडलाइंस टुडे चैनल की भी तख्ती लगाकर एम जे अकबर के आगे बढ़ा दी गयी और प्रभू चावला के लिए इंडिया टुडे के रिजीनल संस्करण प्रभारी नाम की एक नयी लेकिन कमजोर कुर्सी बनयी गयी और उनके आगे सरका दिया गया। प्रभु चावला को अपनी छोटी होती साइज देखकर खुन्नस आया और तभी से उन्होंने मन बना लिया कि यहां से कट लेना है। बीच में ये भी हल्ला हुआ कि वो इंडिया न्यूज का रुख करेंगे। इंडिया न्यूज इंडिया टुडे को बता देना चाहता है कि अगर वो उनसे एम जे अकबर को छीन सकता है तो वो भी प्रभु चावला को अपने यहां सटा सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मेरी अपनी समझ है कि इंडिया टुडे और टीवीटुडे नेटवर्क मीडिया में उन विरले संस्थानों में से हैं जहां किसी के जाने से कोई फर्क पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से देखा कि जब पुण्य प्रसून वाजपेयी मोटी पैकेज के आगे और अंदुरुनी राजनीति से पिंड छुड़ाने के फेर में सहारा चले गए और समय चैनल चलाने लगे,तब भी लोगों को लगा कि आजतक तो गया,कम से कम 10तक तो पिट ही गया लेकिन आजतक पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। दीपक चौरसिया गए तो लगा कि आजतक की दीवार ढह गयी लेकिन कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। न्यूज इज बैक का नगाड़ा पीटते हुए न्यूज24 में जब आजतक के सुप्रिया प्रसाद जैसे दिग्गज,आउटपुट हेड और टीआरपी की मशीन कहे जानेवाले अपने साथ भारी-भरकम टीम लेकर गए तो लगा कि आजतक तो अब अनाथ ही हो गया। सुमित अवस्थी IBN7 गए तो लगा कि ढह जाएगा आजतक। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैनल अपने तरीके से चलता रहा,ये टीवीटुडे नेटवर्क मैनेजमेंट की अपनी खासियत है। उल्टे जानेवाले लोग जल्द ही छटपटाकर वापस आने की फिराक में लगे रहते हैं जिसमें सुमि अवस्थी और श्वेता सिंह कामयाब हैं। इसलिए प्रभु चावला के जाने से संस्थान को कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है और न ही वो अपनी साइज छोटी होने की वजह से गए हैं। जाने की पूरी-पूरी वजह राडिया-टेप,मीडिया कलह ही है। अब इस संदर्भ में देखें तो ये कितना दिलचस्प मामला है कि एक चैनल सालों से काम करनेवाले अपने मीडिया दिग्गज का जमकर बचाव करता है और अभी दस दिन भी नहीं होते हैं कि उसे बाहर का रास्ता दिखा देता है। ये किस किस्म का भरोसा और किस किस्म की दावेदारी है कि जिस पर उसे खुद भी यकीन नहीं है। प्रभु चावला का जाना साफ करता है कि पत्रकार चाहे कितना भी बड़ा हो,बात जहां पर्सनल पर आती है तो संस्थान उसे दूध की मक्खी की तरह फेंकने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगाता। वीर साघंवी का नाम आया तो सांघवी ने खुद ही भावुक अंदाज में कॉलम लिखकर कुछ दिन बाद सामान्य स्थिति होने तक आराम करने की बात कर दी। फिर पता चला कि मैनेजमेंट ने उनकी साइज एडीटोरियल एडवाइजर से छोटी करके एडवायजर कर दी है। अभी तक सिर्फ NDTV24X7 ही है जो बरखा दत्त की साख में बट्टा लगने के बावजूद भी उसे ऑन स्क्री बनाए हुए है और उसका पद भी बना हुआ है। लेकिन हां सोशल साइट और बाकी इन्टरेक्टिव जगहों से उसे भी गायब कर दिया है। बरखा दत्त के बने रहने की एक वजह ये भी हो सकती है कि पिछले संडे को दि संडे गार्जियन ने NDTV24X7 में प्रणय रॉय और राधिका राय की ओर से करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी करने के मामले में जो खबरें प्रकाशित की है,उसका असर हो। इस बीच बरखा दत्त को बने रहने देने में ही अपना भला चाह रहा हो। लेकिन इतना तो साफ है कि किसी भी मीडिया संस्थान का कलेजा इतना मजबूत नहीं है कि वो अपने मीडियाकर्मी का लंबे समय तक साथ दे। अब जबकि मीडिया संस्थान के लोग एक-एक करके खुद ही अपने आरोपित मीडियाकर्मियों को अलग कर रहे हैं ऐसे में चैनलों पर मीडिया एथिक्स को लेकर भाषणबाजी करना कितना भौंडेपन का काम है,आप ही सोचिए। इधर खबर है कि प्रभु चावला न्यू इंडियन एक्सप्रेस ज्वायन करने जा रहे हैं जो कि मूल रुप से बैंग्लूरु की कंपनी है। अब सवाल है कि इंडिया टुडे ने तो आरोप के बिना पर प्रभु चावला की सजा का एलान कर दिया। लेकिन क्या आरोप सच साबित होने पर कानून और न्यायपालिका ऐसे पत्रकारों को दबोच पाएगी? एक बड़ा तबका जिस पत्रकार को देखकर अपनी राय बनाता आया है,क्या ऐसे दागदार पत्रकारों को अपनी तरफ से कोई सजा मुकर्रर करने की स्थिति में होगा? इनलोगों ने तो अपनी इतनी ताकत पैदा कर ली है कि टुडे की चौखट से धकिआए जाएंगे तो न्यूज एक्सप्रेस की गोद में गिरेंगे लेकिन सोशल जस्टिस......लागू होता भी है या नहीं इन पर? इस मौके पर पढ़िए और सुनिए- प्रभु चावला के मास्टरी छोड़कर साईकिल से पत्रकारिता करने और इंडिया टुडे तक पहुंचने की कहानी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Sun Dec 12 11:59:37 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 12 Dec 2010 11:59:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkteCliyDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkpuCkv+CkqOKAmSA6IOCkruCkvuCkruClgCAyMDEw?= Message-ID: दिसंबर महीने के ’कथादेश’ में प्रकाशित कॉलम से ********** मैं राजधानी में था उस वक़्त ही वरुण ने मुझे एसएमएस किया था, “जल्दी आओ, तुम्हारे लिए दो सरप्राइज़ हैं.” और मुम्बई में वो पहला दिन प्रस्तावना था आने वाले पूरे हफ़्ते की जिसकी भूमिका नीली कमीज़ और ख़ाकी निक्कर पहने दो भिन्न कला माध्यमों में आए कुछ बच्चों द्वारा लिखी गई. दोपहर में हमने जयदीप वर्मा के आमंत्रण पर देखी बेला नेगी की फ़िल्म ’दायें या बायें’ और शाम को वरुण की विशेष सिफ़ारिश पर पृथ्वी में देखा गया मानव कौल का नया नाटक ’ममताज़ भाई पतंग वाले’. *’दायें या बायें’* वो फ़िल्म है जिसे मुख्यधारा सिनेमा की खुली चौधराहट के इस निर्लज्ज दौर में अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. फ़िल्म की निर्देशिका बेला नेगी ने फ़िल्म को बड़ा बनाने के लिए उसकी प्रामाणिकता से कोई समझौता नहीं किया. ’असल’ को लेकर बेला का जुनून ऐसा था कि कुछ मुख्य कलाकारों को छोड़ दें तो पूरी फ़िल्म पहाड़ के असल लोगों को उनके ही परिवेश में अलग-अलग भूमिकाओं में कास्ट कर बनाई गई है. ’दायें या बायें’ की जान हैं उसकी अन्तरकथाएं जो ज़्यादातर छोटे-बड़े प्रसंगों, कई ख़ास दृश्यों और कभी कभी सिर्फ़ किसी एक प्रतीक में छिपकर पूरी फ़िल्म में बिखरी हैं. कभी मुख्य कथा गोता भी खाती है तो कोई चमत्कारिक सा क्षण अचानक आकर सब सम्भाल लेता है. अपने छोटे लेकिन अत्यंत प्रभावशाली फ़िल्मी जीवन की पहली ’मुख्य भूमिका’ करते नायक दीपक डोबरीयाल अपनी पूरी रंगत में हैं यहाँ. सच में, इस बात के लिए तो बेला का सार्वजनिक रूप से शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि उन्होंने दीपक को उनकी पहली शीर्षक भूमिका दी और हमारी मन की मुराद को पूरा किया. लेकिन यह विडम्बना भी हमारे सामने ही होनी थी कि मल्टीप्लैक्स का दौर आने के बाद जिस समय को छोटे और स्वतन्त्र सिनेमा के लिए स्वर्णकाल बताया जा रहा है वहाँ ’दायें या बायें’ जैसी फ़िल्म को रिलीज़ के दिन सिर्फ़ एक दिल्ली शहर के सिर्फ़ एक सिनेमाहाल का सिर्फ़ एक परदा नसीब हुआ. *’ममताज़ भाई पतंग वाले’* के बारे में निरपेक्ष भाव से लिख पाना संभव नहीं शायद. वो नाटक स्टेज का दायरा छोड़ मेरी ज़िन्दगी में, उसकी यादों में घुस आया था. आपने देखा होगा, पृथ्वी का स्टेज यूँ भी तो देखने वाले के कुछ ज़्यादा क़रीब होता है! बस अगले डेढ़ घंटे मैंने जो जिया उसमें सौ ग्राम मेरा बचपन, पचास ग्राम कुछ पुराने दोस्त, आधा चम्मच एक सरकारी स्कूल की जर्जर होती इमारत, कुछ टुकड़े मेरे तमाम अधूरे अरमानों के और एक चुटकी मेरे मन का अपराधबोध घुले थे. शर्तिया कह सकता हूँ कि अगर आप उस रॉबिनसन क्रूसो की तरह टापू पर अकेली ’ओम-दर-बदर’ को छोड़ दें तो खुद हिन्दी सिनेमा में भी इस तरह का कुछ कभी नहीं देखा गया. इस महीने मानव कौल का यह नाटक दिल्ली भी आ रहा है. इसे देखिए. यह भूमिका थी उस आने वाले फ़िल्म समारोह की जिसमें हमने अलग-अलग नज़रियों से एक चीज़ को होते बार-बार देखा और वो चीज़ थी एक असमय ख़त्म होता हुआ बचपन. और इसकी शुरुआत एक स्तब्ध कर देने वाले अनुभव के साथ *’पोयट्री’* से ही हो गई थी. समारोह में हमारी देखी पहली फ़िल्म ’पोयट्री’ बेहतरीन फ़िल्म थी और शायद हमारी सबसे बड़ी गलती भी जो हम ’सोशल नेटवर्क’ देखने के लालच में फ़िल्म का अंत देखे बिना उठ गए. ऐसे शुद्ध काव्यात्मक अंत कम ही फ़िल्मों को नसीब होते हैं. साउथ कोरिया के निर्देशक ली चांग डंग की फ़िल्म ’पोयट्री’ की शुरुआत एक किशोरवय लड़की की नदी में दूर से तैरकर आती लाश के दृश्य से होती है. फ़िल्म के केन्द्र में एक उम्रदराज़ महिला मीज़ा की कहानी है. मीज़ा हान नदी के किनारे बसे कस्बे में अपने किशोरवय पोते के साथ रहती है. मीज़ा बड़ी उमर में अपने जीवन की एक अधूरी चाह पूरी करना चाहती है. वह कविता लिखना सीखना चाहती है. उसे उसकी कविता की क्लास के अध्यापक ने बताया है कि हर चीज़ को ऐसे देखो जैसे उसे पहली बार देख रहे हो. कविता की प्रेरणा वहीं से मिलेगी. फ़िल्म तनाव के अनेक घेरों में सफ़र करती है. मीज़ा को पता चलता है कि जिस लड़की की मौत हुई उसके साथ उसके ही स्कूल के साथी लड़कों ने महीनों तक बलात्कार किया था. इन छ लड़कों में एक उसका पोता भी है. एक स्तब्ध कर देने वाले दृश्य में इन छ बच्चों के संरक्षक खाने की मेज़ पर इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि कैसे उस लड़की के घरवालों को ’मैनेज’ किया जा सकता है. न कोई भावुकता, न कोई पुनर्विचार. सीधा ठोस यथार्थ आपकी आँखों में चुभता है. यह आपको भीतर तक हिला देता है. ऐसे दृश्य फ़िल्म को अमर बनाने की काबिलियत रखते हैं. ऐसी फ़िल्म जिसे व्यावसायिक घाटे के डर की वजह से कोई वितरक अमेरिका के मुख्य बाज़ार में प्रदर्शन के लिए खरीदने को तैयार न हो, अगर उसे देखने के लिए मुम्बई के सिनेमाहाल में दंगे की नौबत आ जाए तो इसे हमारे शहर के सिने-माहौल की बड़ी तारीफ़ माना जाना चाहिए. नौबत यह थी कि खुद फ़ेस्टिवल के निर्देशक को आकर मजबूरी में वहीं दो और प्रदर्शनों की घोषणा करनी पड़ी. नहीं मैं अब भी किसी खुशफ़हमी में नहीं हूँ लेकिन मामी में मैक्सिकन निर्देशक अलेज़ेंद्रो गोंज़ालेस इनारिटू की नई फ़िल्म *’ब्यूटीफ़ुल’* देखने के लिए मारामारी होते देखना बड़ा तसल्लीबक्श अनुभव था. ’ब्यूटीफ़ुल’ आपके भीतर बहुत गहरे जाती है. कोई मुझसे इस फ़िल्म का मूल कथ्य पूछे तो मैं उसे अज्ञेय की यह कविता पंक्ति याद दिलाऊँ, ’दुख सबको मांजता है’. बहु-कथा-संरचनाओं वाली इनारिटू की पिछली फ़िल्मों ’एमोरेस पैरोस’ और ’बाबेल’ से अलग ’ब्यूटीफ़ुल’ कुछ ज़्यादा व्यक्तिगत है और शायद ज़्यादा त्रासद भी. एक ओर यह पिता-पुत्र के गहरे बंधे, आध्यात्मिकता की हद को छूते आपसी रिश्ते की कहानी है वहीं दूसरी ओर एक बड़े फ़लक पर देखें तो यह फ़िल्म इंसानियत से जुड़े मूल विचार, उसकी अवधारणा को कथा रूप में कहती है. लेकिन विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों से मिलकर बनता फ़िल्म का फ़लक इनारिटू की वही सिग्नेचर स्टाइल है जिसे हमने पहले देखा है. कथानायक के रूप में ज़ेवियर बॉरडम विस्मयकारी हैं और यकीन करना मुश्किल है कि इन्हें ही हमने ’नो कन्ट्री फ़ॉर ओल्ड मैन’ में उस हृदयहीन ह्त्यारे की भूमिका में देखा था और यही थे जो वुडी एलन की 'विकी, क्रिस्टीना, बार्सिलोना' में वो दिलफरेब आशिक बने थे. यह लिखा जाना चाहिए कि इस समय विश्व सिनेमा पटल पर अग्रणी पुरुष अभिनेताओं में ज़ेवियर बॉरडम सबसे महत्वपूर्ण उपस्थिति हैं. जैसा उनके एक और प्रशंसक और मेरे मित्र वरुण ग्रोवर का कहना था कि एक ही अभिनेता का कान्स और ऑस्कर दोनों की पसन्द बनना उसकी रेंज खुद दर्शाता है. और रात ढलने के साथ हम माइकल हनेके की शरण में थे. हनेके वर्तमान सिनेमा पटल की सबसे चुनौतीपूर्ण उपस्थिति में से एक हैं. ऐसा फ़िल्मकार जो आपको बैचेनी की हद तक असहज बनाता है और राहत की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता. सिनेमा के चाहनेवालों की उन पर, उनके काम पर लगातार नज़र है. पिछले दिनों एक सेमीनार में बोलते हुए जनसत्ता के सम्पादक और विश्व सिनेमा के बड़े संग्राहक ओम थानवी ने भी दिबाकर बनर्जी की फ़िल्मों पर बात करते हुए उनका ज़िक्र किया था. पिछले साल कान्स फ़िल्मोत्सव की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनी गई उनकी फ़िल्म *’दि व्हाइट रिबन’* बड़ी स्याह फ़िल्म है. इस फ़िल्म की जान है इसकी अद्भुत सिनेमैटोग्राफ़ी. जैसे सत्तर साल पुराना जर्मनी अपनी तमाम ख़रोंचों के साथ हमारे सामने है. फ़िल्म में प्रथम विश्वयुद्ध से ठीक पहले जर्मनी के एक गांव में हुई कुछ अजीब दुर्घटनाओं के सिलसिले को एक स्कूल मास्टर की ज़बान में सुनाया जा रहा है. युद्ध जब क्षितिज पर हो तो उसके असर के कई आयाम होते हैं. युद्ध समाज से उसकी उन्मुक्तता छीन लेता है और उसके बदले डर उसकी सामान्य दिनचर्या में शामिल हो जाता है. ’दि व्हाइट रिबन’ इसे बच्चों तक पहुँचता दिखाती है. यहाँ भी असमय बचपन की मौत है. कुछ उनके परिजनों द्वारा, कुछ परिस्थितियों द्वारा. लेकिन इसके परिणाम भी भयावह हैं. अब आपके सामने जो तस्वीर है वो नाकाबिलेबर्दाश्त होने की हद तक क्रूर है. अगला दिन आया और आए तकेशी कितानो. *’आउटरेज’* जापानी निर्देशक तकेशी कितानो की नई फ़िल्म है. अपने रामगोपाल वर्मा की तरह कितानो भी अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि पर अपने सिनेमा की इमारत बनाते हैं लेकिन उनका ईंट और गारा रामू के स्तर से कहीं ऊँचा है. बेशक हिंसा है, खून से लबरेज़ वीभत्स रस की अति है लेकिन उसे इस तीख़े और मारक अंदाज़ में पेश किया जाता है जिसे त्रुटिरहित सिनेमा की मिसाल के तौर पर पेश किया जाना चाहिए. ’आउटरेज’ अंडरवर्ल्ड पर काबिज और निरंतर पूर्ण सत्ता के लिए संघर्षरत दो परस्पर विरोधी पारिवारिक सल्तनतों की कहानी है. क्रूरता इस हद तक है कि सवाल ये रह ही नहीं जाता कि मौत किसे आनी है, बल्कि कब और कैसे आनी है सिर्फ़ यही जानने को बचता है. खुद कितानो एक अद्भुत प्रतिभा के धनी अदाकार हैं और ’आउटरेज’ में मुख्य किरदार में उनके चेहरे के भाव इस हृदयहीन समय को बख़ूबी ज़ाहिर करते हैं. *’दि अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ *शायद हमारे समय की सबसे आश्चर्यजनक फ़िल्मों में से एक है. पहली बार ऐसा हुआ कि मैंने फ़िल्म के प्रीमियर के ठीक एक दिन पहले उसके ’टाइटल’ के साथ.. जी हाँ टाइटल के साथ बैठकर कॉफ़ी पी! इसके निर्माता-निर्देशक श्रीनिवास सुन्दरराजन का कहना है कि उन्होंने इसे कैश चालीस हज़ार रुपए और तमाम दोस्तों की साल भर की मेहनत को जोड़कर बनाया है. इन दोस्तों में एक कार्तिक कृष्णन भी है! जी हाँ, इसी कार्तिक की कहानी फ़िल्म में है जो यूँ तो सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है लेकिन उसके दिमाग़ में हमेशा टेरेन्टीनो और स्कोर्सेसी घूमते हैं. ब्लॉग्स, वेबसाइट्स पर लिखता हुए वो ’पैशन फ़ॉर सिनेमा’ तक जा पहुँचता है. वो निर्देशक श्रीनिवास के साथ मिलकर अपनी फ़िल्म बनाना शुरु करता है. फ़िक्शन और नॉन फ़िक्शन के बीच तनी किसी पतली रस्सी पर चलती इस फ़िल्म के शुरुआती हिस्से प्रामाणिकता के बहुत निकट हैं. छायांकन को लेकर एक दूसरी तरह का नज़रिया और ब्लैक एंड व्हाइट में चलती फ़िल्म की इसमें बड़ी भूमिका है. आगे कहानी को लेकर कुछ और प्रयोग हैं. इनमें यथार्थ को लेकर खेल किए गए हैं और फ़िक्शन की अपनी स्वतंत्र सत्ता को लेकर कुछ सवाल उठाए गए हैं. पटकथा में एक-दो प्रयोग ऐसे भी हैं जिनसे मेरी असहमति रही. लेकिन अपनी सम्पूर्णता में ’दि अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ निरंतर खदबदाते हिन्दुस्तानी स्वतंत्र सिनेमा के फ़लक पर एक साहसिक प्रयास है. बीच में आई *’आफ़्टरशॉक’*. यह फ़िल्म इस साल चीन की ऑफ़िशियल ऑस्कर एंट्री है. यह शुद्ध फ़ॉर्मूला फ़िल्म है जिसे देखते हुए बरबस मनमोहन देसाई की याद आती है. भव्यता इस फ़िल्म के गुणसूत्रों में है और यह राजनीतिक रूप से भी तमाम सही-सही बातें ही कहती है. कहानी एक विनाशकारी भूकंप में बिछड़े दो जुड़वाँ भाई-बहन की है जिन्हें कुदरत बरसों बाद फिर से मिलाती है. बहन के मन में यह गाँठ है कि प्रलय के उस विनाशकारी समय में जब उन दोनों भाई-बहनों की जान में से एक को जुनने की बारी आई तो उनकी माँ ने उसे नहीं, उसके भाई को चुना था. इस बीच दो किरदारों की बचपन से जवानी तक की कहानी है और इसी बीच चीन का भी ख़ूब विकास हो रहा है, दिखाया जा रहा है. तमाम बेहतरीन फ़िल्मों के बीच ’आफ़्टरशॉक’ एक औसत सौदा बनकर रह गई. हम आखिरी दिन के नज़दीक थे और एक दिन सुबह-सुबह हमने अब्बास किरोस्तामी और जुलिएट बिनोचे की शास्त्रीय जुगलबंदी *’सर्टीफ़ाइड कॉपी’* देखी. इस फ़िल्म की खूबसूरती इसमें है कि यह असल में अपने अंत के बाद शुरु होती है. इसका खुला हुआ और अनेक व्याख्याओं को संभव बनाता अंत इसे मेरे लिए एक दिलचस्प विचार बनाकर छोड़ गया. कहानी एक लेखक की है जो शहर में अपनी नई किताब के प्रचार के लिए आया है. बिनोचे उस समारोह में बैठी हैं जहाँ इस किताब पर लेखक के साथ चर्चा जारी है. इसके बाद दोनों का सफ़र साथ-साथ पूरी फ़िल्म में चलता है. क्या ये पहली बार मिले हैं? या क्या ये दोनों पति-पत्नी हैं जिनका एक बेटा है? जितना आप इनके रिश्ते के बारे में जानते हैं उतना आप अनजान होते जाते हैं. फ़िल्म कहती है कि ’असल’ का महत्व इसीलिए है कि उसे हमने असल माना हुआ है. बाक़ी एक ’सर्टीफ़ाइड कॉपी’ भी वैसे ही असल है जैसे मूल असल है. शायद बहुत उम्मीद भी फ़िल्म के लिए अच्छी नहीं होती. मैं इस उम्मीद में था कि कश्मीर पर राष्ट्रवादी उफ़ान से बजबजाती मुख्यधारा की फ़िल्मों के बीच आमिर बशीर की *’हारूद’* हमें कुछ नया देने वाली है. बेशक ’हारूद’ में कश्मीर को लेकर एक संयत दृष्टि दिखाती है और यह अंधराष्ट्रवाद से भरे हिन्दी सिनेमा से बिलकुल अलग है लेकिन मुझे इसने एक फ़िल्म के तौर पर निराश किया. इसमें तमाम मुद्दे हैं जिनकी वर्तमान कश्मीर के संदर्भ में बात की जानी चाहिए जैसे निरुद्देश्य भटकता युवा वर्ग, राज्य का दमन, हिंसा और उससे उपजता आक्रोश, दुतरफ़ा पिसता कश्मीरी समाज और उसकी मानसिक यंत्रणा, ’गायब’ हो गई एक समूची पीढ़ी और उनके इंतज़ार में आँखें जलाते उनके परिजन.. लेकिन ’हारूद’ इन्हें एक फ़िल्म के रूप में ठीक से जोड़ ही नहीं पाती. मुझे बार-बार संजय काक के बनाए बेहतरीन वृत्तचित्र ’जश्न-ए-आज़ादी’ की याद आती है और बार-बार यह भी लगता है कि इससे ज़्यादा कथा तत्व तो उनके वृत्तचित्र में थे. ऐसी भी क्या प्रयोगात्मकता कि फ़िल्म अपनी पटरी से ही पूरी तरह उतर जाए. फ़िल्म में रेज़ा नेज़ी जैसे अदाकार हैं लेकिन उन्हें ठीक से हिन्दी बोलनी नहीं आती और वो जब भी बोलते हैं बहुत अजीब लगते हैं. रेज़ा नेज़ी जैसे अदाकार का तो चेहरा ही सब बोलता है, ऐसे में उन्हें संवाद दिए ही न जाते तो शायद सबसे अच्छा होता. हाँ ’हारूद’ में देखा गया कश्मीर यथार्थ के बहुत निकट है और यह फ़िल्म की सबसे बड़ी तारीफ़ है. यूँ तो फ़िल्म में सीधे कोई बड़ी राजनीतिक बहस शामिल नहीं है लेकिन जाते-जाते फ़िल्म एक पाकिस्तान विरोधी संवाद ज़रूर जोड़ती जाती है. और सच मानिए, अगर यह फ़िल्म के प्रदर्शन से जुड़ी मजबूरी का हिस्सा है तो यह फ़िल्म खराब होने से भी ज़्यादा ख़राब खबर है. लेकिन जाने से पहले एक और फ़िल्म की बात जिसे इस समारोह की उपलब्धि कहा जा सकता है. गिरीश कासरवल्ली की नई कन्नड़ फ़िल्म *’कानासेम्बा कुडूरेयानेरी’* फिर एक बार सिनेमा का असली जादू हमारे सामने लाती है. यह सिनेमा का मास्टर हमें याद दिलाता रहता है कि एक अच्छी कहानी को सही तरीके से और पूरी ईमानदारी से कहना ही असली सिनेमा है. एक निचली जाति का किसान जो मृतकों की कब्र खोदकर अपना जीवन चलाता है उसके सपने और उसकी यथार्थ से मुतभेड़ की कथा है ’कानासेम्बा कुडूरेयानेरी’ में. क्या नहीं है इस फ़िल्म में.. बाज़ार के नियमों पर बदलते संबंध, आस्था और उसके साथ छोड़ देने पर गरीब इंसान की निस्हायता, पति-पत्नी का एक ऐसा रिश्ता जिसके सूत्र उनकी आस्था से भी गहरे हैं. गिरीश इस फ़िल्म में भू-वर्तमान-भविष्य के कालक्रम को उलट समय के क्रम को भी उलट-पुलट कर देते हैं. पटकथा के साथ उनका यह प्रयोग फ़िल्म को किसी और ही ऊँचाई पर ले जात है. गिरीश एक बार फिर हमें याद दिलाते हैं कि हमारे लिए विश्व सिनेमा देखने की शुरुआत अपने घर से होती है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Dec 12 13:49:28 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 12 Dec 2010 13:49:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSV4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS/LeCkquClguCknOCkviDgpJTgpLAg4KS44KWN4KSk4KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpK7gpYHgpJXgpY3gpKTgpL8gOiDgpIngpKbgpK8g4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2L+CkheCkqOCkvuCkruCkv+CkleCkvg==?= Message-ID: शक्ति-पूजा और स्त्री की मुक्ति : उदय प्रकाश/अनामिका * *5 अक्टूबर 2010. दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू हो चुका था. कॉमनवेल्थ खेल गाँव के ठीक सामने नोएडा मोड़ के पास की जिस दिल्ली पुलिस सोसायटी में आजकल मेरा बसेरा है, उसके इर्द-गिर्द पुलिस चाक-चौबंद थी. रेहड़ी-पटरी और तरकारी बेचनेवालों पर तो शामत आ गई थी. सबको खदेड़ दिया गया था. कहीं जाना-आना भी गोआम. दुर्गापूजा नज़दीक था. 10-15 सालों से बिहार का दशहरा नहीं देखा था. झट से गाँव जाने का प्लान बन गया. माँ की तबीयत भी ठीक नहीं थी. उन्हें दिल्ली लाना था. शाम की ट्रेन. दोपहर को अल्ट्रा स्त्रीवादी लेखिका और *'राष्ट्रीय सहारा'* की वरिष्ठ पत्रकार *मनीषा जी *का आदेश हुआ, *"दुर्गापूजा के अवसर पर भारत में शक्ति-पूजा की परम्परा और भारतीय समाज में स्त्री की दशा के सन्दर्भ में उदय प्रकाश और अनामिका जी से बातचीत कर लो 'आधी दुनिया' के लिए."* फ़टाफ़ट मोबाइल उठाया. दोनों से बातचीत की और कम्पोज़ करके अनामिका जी का लेख मनीषा जी को और उदय जी का लेख उदय जी को प्रकाशन से पूर्व एक नज़र डाल लेने के लिए भेजकर नदिरे रवाना हुआ...अपने गाँव बड़हिया में उदय प्रकाश और अनामिका जी के विचारों को पढ़ना सुखद था. आप सब भी पढ़ सकते हैं. देर से पोस्ट करने के लिए खेद के साथ.* * - *शशिकांत * समाज की मुक्ति से जुड़ी है स्त्री की मुक्ति : उदय प्रकाश *मेरा* मानना है कि यथार्थ को झुठलाने के लिए सबसे ज्यादा धर्म और आध्यात्म का इस्तेमाल किया जाता है, मामला चाहे स्त्री का हो या दलित का या हाशिए पर की अन्य अस्मिताओं का। हमारे यहां कहा जाता है कि काशी का राजा डोम था। उत्तर प्रदेश में ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा की जाती है। दरअसल जब से स्त्री की सत्ता छीनी गई तब से उसकी पूजा की जाने लगी। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में आज भी कई जगहों पर मातृसत्तात्मक समाज है। लेकिन पूरे उत्तर भारत का समाज मातृसत्तात्मक है। यहां आज भी कन्या भ्रूण हत्या, दहेज और खाप पंचायतों द्वारा प्रेम करने पर स्त्रियों की जान ले ली जाती है। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि यही समाज दूर्गा की भी पूजा करता है। यथार्थ यह है कि स्त्रियों की स्थिति यहां अच्छी नहीं है। मुझे लगता है कि स्त्री सशक्तीकरण पर विचार करते हुए हमें पितृसत्तात्मक समाज की स्थापना पर गौर करना चाहिए। यूनानी सभ्यता में इडीपस की जीत पितृसत्तात्मक समाज की जीत मानी जाती है। इस समय स्त्री पर ज्यादा जोर इसलिए दिया जा रहा है कि पुरुषसत्तात्मक समाज व्यवस्था के समने कई तरह की अस्मिताएं आ खड़ी हुई हैं। अस्मिताओं में बंटे समाज में जातियों, धर्मों आदि के टुकड़े करने पड़ेंगे। भारतीय समाज की संरचना यूरोप से भिन्न है, इसलिए यहां यूरोप की तरह सिर्फ स्त्री और पुरुष के बीच समाज को बांट कर नहीं देखा जा सकता। दलित कहां जाएंगे? आदिवासी कहां जाएंगे? हाशिए पर की कई और अस्मिताएं कहां जाएंगी? जेंडर भारत का अकेला मसला नहीं है। इसके साथ और भी कई गंभीर मुद्दे हैं। यह सच है कि भारत की स्त्रियां आज घर से बाहर निकल रही हैं, लेकिन वह शिकार भी हो रही हैं। रॉबर्ट जेनसेन की बहुचर्चित किताब ‘‘गेटिंग ऑफ: पोर्नोग्राफी एंड दि एंड ऑफ मेस्कुलिनिटी’’ में उन्होंने माना है कि भूमंडलीकरण के बाद विज्ञापन, बाजार और नव साम्राज्यवादी आचरण के पीछे सबसे पहला मुखौटा स्त्री का है। रॉबर्ट जेनसेन बाजारवादी नारीवाद को ग्लोबल पोर्न इंडस्ट्री का ही विस्तार मानते हैं। स्त्री मुकित आंदोलन के इस रूप को बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों तक चलनेवाले उस स्त्री स्वाधीनता संग्राम के साथ जोड़ पाने में कई बार मुझे भी मुश्किल होती है जिसमें स्त्री ने समाज के दलित और वंचित तबकों की मुक्ति का सपना देखा था। इस संदर्भ में देखें तो हमारे सामने क्लारा जेटकिन, क्रुप्स काया, लेनिन की बीवी, एरन गुल, सीमोन द बोउवार, केट मिलेट और भारत में कस्तूरबा से लेकर बहुत सारी महिलाएं थीं, और आज भी मेधा पाटकर, वंदना शिवा, अरुंधति रॉय, सुनीता नारायण, आंग सान सूकी, इरोम शर्मिला आदि ऐसी महिलाएं हैं जो आज की सत्ता के विरुद्ध समूचे मानवीय समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही हैं। इन्होंने कभी जेंडर का नारा नहीं दिया। इनका कोई गॉड फादर नहीं है। दरअसल भारत में स्त्री मुक्ति का सवाल हाशिए पर के कई अन्य समूहों की मुक्ति से जुड़ा हुआ है। स्त्री को मुक्त करते हुए हमें पूरे समाज को मुक्त करना होगा। यह सच है कि यह शताब्दियों से सबसे उत्पीड़ित अस्मिता रही है और जब तक यह ऐसी अन्य अस्मिताओं को साथ नहीं लेती तब तक वह बाजार और अन्य पितृसत्तात्मक सत्ता का लाभ लेकर भले लाभ उठाए, यह एक खास वर्ग का ही सत्तारोहण होगा, स्त्री की मुक्ति का नहीं। मुझे लगता है इस बात को जनता समझ चुकी है। यह मत भूलें कि विजय लक्ष्मी पंडित से लेकर इंदिरा गांधी, मार्गेट थैचर और सोनिया गांधी तक, जयललिता से लेकर मायावती तक और भंडारनायके से लेकर शेख हसीना वाजिद तक सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली महिलाएं स्त्री नहीं बलिक पुरुष सत्ता की ही प्रतीक रही हैं, और यही बात संसकृति ओर साहित्य में भी लागू होती है। ये गॉड फादर्स की सत्ताएँ थीं और हैं, मां की सत्ता की प्रतिष्ठा कहीं नहीं हुई। फासीवाद के बाद सबसे ज्यादा दमन फॉकलैंड वार में मार्गेट थैचर ने किया। इंदिरा गांधी ने भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार इमरजेंसी लागू किया और लागों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी। बेगम खलिदा जिया बांग्लादेश में फौजी शासन लागू किया। जेंडर की निगाह से सत्ता को देखना मेरे लिए कभी सुकूनदेह नहीं रहा, क्योंकि मेरे लिए मान्यताओं का मूल्यांकन मायने रखता है। स्त्री मुक्ति की राह में देह सबसे बड़ी बाधा : अनामिका ** भारतीय परंपरा में शिव का संबंध शक्ति से है। शक्ति का सीधा संबंध स्त्री से है, स्त्री का प्रकृति से और प्रकृति का संबंध शक्ति से। शक्ति का ताल्लुक दुर्गा से है और दुर्गा को आद्य शक्ति कहा गया है। शक्ति के बिना मनुष्य शव के समान है। शक्ति का संचार होते ही वह सजीव, सचेतन और सक्रिय हो जाता है। शक्ति के बिना शिव भी शव के समान माने जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी पदार्थ में शिवत्व की शक्ति मंगल भाव से आती है। जब हम किसी देवता के आगे सिर झुकाते हैं तो तो हम उसकी शक्ति के आगे सिर झुकाते हैं और हमें लगता है कि वहां से एक तरह की एनर्जी हमारे भीतर आ रही है। देवी की पूजा इसलिए की जाती है क्योंकि उन्हें शक्ति स्वरूपा माना जाता है। उनके अंदर ममता, क्षमा, न्याय की शक्ति होती है। ममता और क्षमा से जब बात नहीं बनती तब न्याय की बात की जाती है। सांस्कृतिक रूप से इसे समझा जा सकता है। आज की स्त्री जितनी थकी और हारी हुई है और सशक्तीकरण के लिए संघर्ष कर रही है उसे आधुनिकता के संदर्भ में समझने की जरूरत है। दरअसल स्त्री सशक्तीकरण की प्रक्रिया एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। मध्यकालीन भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्रियों की दशा अनुकूल नहीं थी। उन्नीसवीं सदी में भारत में जब नवजागरण की शुरुआत हुई और स्वाधीनता आंदोलन में भारतमाता की जो छवि गढ़ी गई उसमें शक्ति का वही स्वरूप देखी गई। उस दौरान राजाराम मोहन राय एवं अन्य नवजागरणवादियों ने सती प्रथा, बाल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह की हिमायत की। लेकिन मुझे लगता है कि उस वक्त स्त्रियों के राजनीतिक चेतना की बात नहीं उठाई गई। महात्मा गांधी जब आए तो उन्होंने कहा कि अगर मानसिक और नैतिक बल की बात की जाए तो स्त्रियां ज्यादा नैतिक और सशक्त हैं। मुझे लगता है कि महात्मा गांधी ने पहली बार इस बात को समझा कि भारतीय स्त्रियां जब पढ़-लिख कर अपनी राजनीतिक चेतना के साथ सड़क पर आएंगी तो वे दहेज एवं अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ ताकतवर रूप से खड़ी होंगी, और तभी भारतीय स्त्री समाज में सच्चे नवजागरण की शुरुआत होगी। उसके बाद हमने देखा कि भारतीय स्त्रियां पढ़-लिकर चेतना संपन्न होने लगी और बहुत सारी स्त्रियों ने आजादी की लडाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। आजादी के बाद भारतीय स्त्रियों पर एक बड़ी जिम्मेदारी आई। पहले की स्त्री तन और मन से अपने परिवार की सेवा करती थी लेकिन आजादी के बाद वह तन, मन और धन से अपने परिवार की सेवा करने लगी, जिसके दायरे में रक्त और यौन संबंध के अलावा घर से बाहर, समाज, राजनीति और कार्यस्थलों पर बनाए गए उसके कई संबंध भी शामिल हुए। यानि कहा जा सकता है कि आधुनिक स्त्री ने अपने दिल का दायरा बढ़ाया। जहां तक स्त्री शक्ति का सवाल है तो हर पुरुष की जिंदगी का सबसे यादगार संबंध किसी न किसी स्त्री से जुड़ा होता है, चाहे वह मां के साथ जुड़ा हो या बहन के साथ अथवा प्रेमिका, पत्नी और बेटी के साथ। जब कभी काई पुरुष बाहर की दुनिया से थक-हार कर घर आता है तो उसे सबसे ज्यादा नैतिक और भावनात्मक सुरक्षा और समर्थन उसे स्त्री की तरफ से ही मिलती है। लेकिन आज भी स्त्री के सामने पुरुष का चेहरा उसे कमतर ही आंकते हुए, उसे आंखें दिखाते हुए और मारते-पीटते हुए ही आता है। पुरुषों ने अपना चित्त विस्तार नहीं किया। पुरानी मानसिकता के पुरुषों में आज भी पूर्वग्रह बचे हुए हैं। उनको मांज-मांज कर ठीक करना है, जिस तरह गंदे बर्तन को मांज-मांज कर चमकाया जाता है उस तरह। स्त्री आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि स्त्रियां मनोवैज्ञानिक तरीके से आंदोलन करती हैं। स्त्री के हक की लड़ाई लड़ रही स्त्रियों ने कभी शस्त्र नहीं उठाया है। स्त्री सशक्तीकरण आंदोलन हमेशा निःशस्त्रीकरण को प्रश्रय देता रहा है। इस पर गौर करने की जरूरत है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जूझ रही हैं स्त्रियां। स्त्रियां हमेशा अपने समय के जो वृहत्तर संदर्भ रहे हैं उन्हें साथ लेकर चलती रही हैं। पश्चिम में रेडिकल फेमिनिज्म अश्वेतों के अधिकार दिलाने की लड़ाई में उनके साथ खड़ा था। आज यह देखकर खुशी होती है कि भारत में गांव-गांव की स्त्रियों में भी यह चेतना आ रही है। वे अपने और अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सरोकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं। स्त्री के अंदर की दुर्गा शक्ति अब जाग चुकी है। गांव-देहात से लेकर चौपाल तक वह अपने और वृहत्तर मानवीय सरोकारों के लिए उठ रही है। हालांकि देह अभी भी स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा है। दुर्गा को भी इसीलिए शस्त्र उठाना पड़ क्योंकि महिषासुर उनके साथ विवाह करना चाहता था। *(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित.)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Sun Dec 12 13:56:55 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Sun, 12 Dec 2010 13:56:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= film review Message-ID: नहीं बजता दिमाग का बैंड विनीत उत्पल फिल्म : बैंड बाजा बरात निर्देशक : मनीष शर्मा निर्माता : आदित्य चोपड़ा कलाकार : रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, मनमीत सिंह, मनीष चौधरी, नीरज सूद दिल्ली की जिंदगी पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन डीयू के यंगस्टर्स और करियर कांसस बिहेवियर को लेकर 'बैंड बाजा बारात" शायद ऐसी पहली फिल्म होगी। यंगस्टर्स की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म यंगस्टर्स को नए-नए करियर और उसकी संभावनाओं के नजरिए दिखाती नजर आती है। फिल्म की अधिकतर शूटिंग दिल्ली में हुई है लेकिन शुरुआत में ही दर्शक आसानी से कहानी के क्लाइमेक्स को समझ जाता है। क्योंकि अधिकतर फिल्मों या यों कहें हमारी जिंदगी में यही होता है कि एक साथ काम करते-करते एक-दूसरे को समझने लगते हैं और फिर प्यार भी करने लगते हैं। चूंकि निर्देशक मनीष शर्मा खुद डीयू से हैं, इसलिए लगता है कि उनके दिमाग में पहले से ही कहानी और लोकेशन तय था। उन्होंने दिल्ली के उन लोकोशनों पर शूटिंग की है जहां अभी तक किसी भी फिल्म मेकर्स की नजर नहीं गई है। डीयू के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली श्रुति (अनुष्का शर्मा) और हंसराज कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त बिट्टू शर्मा (रणवीर सिंह) की यह कहानी है। एक ओर जहां श्रुति पढ़ाई खत्म करने के बाद वेडिंग प्लानर का बिजनेस करना चाहती है वहीं बिट्टू मस्तमौला है। श्रुति को लुभाने के लिए जहां वह पूरी रात जग कर उसके डांस के कैसेट तैयार करता हैं वहीं गांव में पापा के गन्ने के बिजनेस में न जाने की इच्छा के कारण वह श्रुति के बिजनेस में पार्टनर बन जाता है। दोनों के बीच पार्टनरशिप का अहम सिद्धांत है, 'जिससे व्यापार करो, उससे कभी प्यार न करो"। दोनों साथ मिलकर अपनी कंपनी 'शादी मुबारक" को पहले मिडिल क्लास फैमिली से लांच करते हैं और धीरे-धीरे उस मुकाम तक ले जाते हैं जहां बड़े-बड़े लोगों की इच्छा होती है कि उसके यहां की शादी का सारा तामझाम 'शादी मुबारक" संभाले। दिल्ली के सैनिक फार्म से लेकर राजस्थान की भव्य शादियों में इनकी कंपनी की ही मांग होती है। धीरे-धीरे दोनों अपने कामों में इतने मशगूल हो जाते हैं कि अपने पार्टनरशिप के सिद्धांत को भूलकर एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। एक रात जब दोनों अपनी पहली सफलता मना रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है कि दोनों के बीच के समीकरण बदल जाते हैं और बाद में श्रुति उससे कंपनी छोड़ देने के लिए कह देती है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ती हैं और श्रुति अपना अलग बिजनेस शुरू की लेती है। बिट्टू भी 'हैप्पी मैरिज" नाम से दूसरी कंपनी खोल लेता है लेकिन दोनों के काम सही नहीं होते और उन पर काफी कर्ज हो जाता है। हालांकि एक भव्य शादी की तैयारी की चुनौती मिलने पर दोनों एकसाथ हो जाते हैं। फिल्मी दुनिया में डेबू कर रहे रणवीर सिंह इंटरवल के बाद थोड़े से जमे दिखाई देते हैं, बावजूद इसके उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है। यशराज फिल्म के बैनर तले अनुष्का शर्मा की यह तीसरी फिल्म है, फिर भी एक्टिंग में खुद को और डुबोना बाकी है। यह फिल्म चूंकि यंगस्टर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए ठीक है, वरना कोई बड़ा स्टार होता तो दोनों पानी मांगते नजर आते। फिल्म में अनुष्का और रणवीर के बीच लंबा लिप टू लिप किसिंग सीन तो हर किसी को खटता है, यह मनीष शर्मा की असफलता कही जाएगी। डायलॉग में दिल्ली के शब्द दर्शकों को फिल्म से जोड़ते हैं। इसके गाने लोगों की जुबान पर भले ही न चढ़ पाए हों लेकिन धुनें कर्णप्रिय हैं। बहरहाल, जिस तरह 'मूंगफली" एक तरह टाइम पास है, खाते हैं और भूल जाते हैं, उसी तरह इंटरटेनमेंट के लिए यह फिल्म टाइम पास है। नाम तो बैंड बाजा बारात है लेकिन आपके दिमाग का बैंड बजाए, इतना मसाला इसमें नहीं है। -- Vinit Utpal 09911364316 http://vinitutpal.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Sun Dec 12 13:56:55 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Sun, 12 Dec 2010 13:56:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= film review Message-ID: नहीं बजता दिमाग का बैंड विनीत उत्पल फिल्म : बैंड बाजा बरात निर्देशक : मनीष शर्मा निर्माता : आदित्य चोपड़ा कलाकार : रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, मनमीत सिंह, मनीष चौधरी, नीरज सूद दिल्ली की जिंदगी पर तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन डीयू के यंगस्टर्स और करियर कांसस बिहेवियर को लेकर 'बैंड बाजा बारात" शायद ऐसी पहली फिल्म होगी। यंगस्टर्स की जिंदगी पर आधारित यह फिल्म यंगस्टर्स को नए-नए करियर और उसकी संभावनाओं के नजरिए दिखाती नजर आती है। फिल्म की अधिकतर शूटिंग दिल्ली में हुई है लेकिन शुरुआत में ही दर्शक आसानी से कहानी के क्लाइमेक्स को समझ जाता है। क्योंकि अधिकतर फिल्मों या यों कहें हमारी जिंदगी में यही होता है कि एक साथ काम करते-करते एक-दूसरे को समझने लगते हैं और फिर प्यार भी करने लगते हैं। चूंकि निर्देशक मनीष शर्मा खुद डीयू से हैं, इसलिए लगता है कि उनके दिमाग में पहले से ही कहानी और लोकेशन तय था। उन्होंने दिल्ली के उन लोकोशनों पर शूटिंग की है जहां अभी तक किसी भी फिल्म मेकर्स की नजर नहीं गई है। डीयू के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली श्रुति (अनुष्का शर्मा) और हंसराज कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त बिट्टू शर्मा (रणवीर सिंह) की यह कहानी है। एक ओर जहां श्रुति पढ़ाई खत्म करने के बाद वेडिंग प्लानर का बिजनेस करना चाहती है वहीं बिट्टू मस्तमौला है। श्रुति को लुभाने के लिए जहां वह पूरी रात जग कर उसके डांस के कैसेट तैयार करता हैं वहीं गांव में पापा के गन्ने के बिजनेस में न जाने की इच्छा के कारण वह श्रुति के बिजनेस में पार्टनर बन जाता है। दोनों के बीच पार्टनरशिप का अहम सिद्धांत है, 'जिससे व्यापार करो, उससे कभी प्यार न करो"। दोनों साथ मिलकर अपनी कंपनी 'शादी मुबारक" को पहले मिडिल क्लास फैमिली से लांच करते हैं और धीरे-धीरे उस मुकाम तक ले जाते हैं जहां बड़े-बड़े लोगों की इच्छा होती है कि उसके यहां की शादी का सारा तामझाम 'शादी मुबारक" संभाले। दिल्ली के सैनिक फार्म से लेकर राजस्थान की भव्य शादियों में इनकी कंपनी की ही मांग होती है। धीरे-धीरे दोनों अपने कामों में इतने मशगूल हो जाते हैं कि अपने पार्टनरशिप के सिद्धांत को भूलकर एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। एक रात जब दोनों अपनी पहली सफलता मना रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है कि दोनों के बीच के समीकरण बदल जाते हैं और बाद में श्रुति उससे कंपनी छोड़ देने के लिए कह देती है। दोनों के बीच दूरियां बढ़ती हैं और श्रुति अपना अलग बिजनेस शुरू की लेती है। बिट्टू भी 'हैप्पी मैरिज" नाम से दूसरी कंपनी खोल लेता है लेकिन दोनों के काम सही नहीं होते और उन पर काफी कर्ज हो जाता है। हालांकि एक भव्य शादी की तैयारी की चुनौती मिलने पर दोनों एकसाथ हो जाते हैं। फिल्मी दुनिया में डेबू कर रहे रणवीर सिंह इंटरवल के बाद थोड़े से जमे दिखाई देते हैं, बावजूद इसके उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है। यशराज फिल्म के बैनर तले अनुष्का शर्मा की यह तीसरी फिल्म है, फिर भी एक्टिंग में खुद को और डुबोना बाकी है। यह फिल्म चूंकि यंगस्टर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, इसलिए ठीक है, वरना कोई बड़ा स्टार होता तो दोनों पानी मांगते नजर आते। फिल्म में अनुष्का और रणवीर के बीच लंबा लिप टू लिप किसिंग सीन तो हर किसी को खटता है, यह मनीष शर्मा की असफलता कही जाएगी। डायलॉग में दिल्ली के शब्द दर्शकों को फिल्म से जोड़ते हैं। इसके गाने लोगों की जुबान पर भले ही न चढ़ पाए हों लेकिन धुनें कर्णप्रिय हैं। बहरहाल, जिस तरह 'मूंगफली" एक तरह टाइम पास है, खाते हैं और भूल जाते हैं, उसी तरह इंटरटेनमेंट के लिए यह फिल्म टाइम पास है। नाम तो बैंड बाजा बारात है लेकिन आपके दिमाग का बैंड बजाए, इतना मसाला इसमें नहीं है। -- Vinit Utpal 09911364316 http://vinitutpal.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Dec 12 14:47:18 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 12 Dec 2010 14:47:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWLLCDgpIbgpKrgpJXgpYsg4KSV4KWN4KSv4KS+IOCksuCklw==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkueCliD8=?= Message-ID: *मित्रो, आपको क्या लगता है?* *“कश्मीर एक बार फिर जल रहा है. युवाओं का गर्म ख़ून पानी की तरह बहाया जा रहा है. पुलिस और सेना छोटे बच्चों को भी पीट-पीट कर मार रहे हैं. प्रशासक ऐसे देख रहे हैं मानो वो मूक, बधिर और अंधे हो गए हों.”* ये वाक्य स्नातक प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए तैयार किये गए प्रश्नपत्र के हिस्से हैं. इन वाक्यों को ऊर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद करना था. इस प्रश्न पत्र को तैयार किया था प्रोफ़ेसर नूर मोहम्मद बट ने. प्रो बट श्रीनगर के गांधी मेमोरियल कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. अब बीबीसी ने ख़बर दी है कि प्रोफ़ेसर नूर मोहम्मद बट को भारत-विरोधी प्रश्न पत्र तैयार करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है. श्रीनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के अनुसार, प्रोफ़ेसर नूर की गिरफ़्तारी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक एक्ट के तहत की गई है. इसके अलावा पुलिस ने एक विशेष समिति बनाई है जो इस बात की जाँच करेगी कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस तरह का विवादित प्रश्न पत्र कैसे छाप दिया. यूनिवर्सिटी भी अपने स्तर पर जाँच कर रही है. मालूम हो कि यह प्रश्न पत्र उस वक्त तैयार किया गया था जब पिछले दिनों कश्मीर काफ़ी अशांत था और वहां झड़प एवं गोलीबारी की घटनाओं में 100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. ................................ *मैंने भी चार साल दिल्ली वि.वि. में पढ़ाया है. अर्धवार्षिक परीक्षाओं के सवाल तैयार किये थे. मुंबई हमले की रिपोर्टिंग पर बनाए थे सवाल, देशबंधु कॉलेज में. वि.वि के शिक्षक क्या पढ़ायें, कैसे पढाएं, क्या सवाल पूछें - ये सब पुलिस, सेना, प्रशासन और सरकार तय करेगी क्या? मुझे तो इमरजेंसी जैसे हालात लग रहे हैं. आपको क्या लगता है?* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Dec 12 19:41:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 12 Dec 2010 19:41:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWB4KSk?= =?utf-8?b?4KWL4KS3KCBJQk43KSDgpJXgpYAg4KSq4KSw4KS/4KSt4KS+4KS34KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpIngpKrgpYfgpKjgpY3gpKbgpY3gpLAg4KSw4KS+4KSv?= =?utf-8?b?KOCkuOCkueCkvuCksOCkviDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4pIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkvuCkriDgpKbgpLLgpY3gpLLgpL7gpJfgpL/gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkueClgCDgpLDgpLngpL4g4KS54KWI?= Message-ID: 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया से हुई बातचीत के टेप इंटरनेट पर लगातार तैरते रहने से एक के बाद एक मीडिया दिग्गज लपेटे में आते रहे हैं। लेकिन अब तक इन टेपों में खास बात रही है कि इनमें से कोई भी पत्रकार हिन्दी मीडिया का नहीं रहा। इससे उपरी तौर पर ये मैसेज गया कि हिन्दी के मीडियाकर्मी अंग्रेजी मीडियाकर्मियों के मुकाबले कहीं ज्यादा पाक-साफ हैं। वो छोटे-मोटे समझौते तो करते रहते हैं लेकिन इस तरह देश को हिला देनेवाले करनामे नहीं करते। तब भाषाई स्तर पर ये निष्कर्ष निकाला गया कि आखिर हिन्दी तो है अपनी भाषा,इस देश की भाषा। कितना भी कुछ हो जाए,इस भाषा से जुड़े मीडियाकर्मी देश को इस तरह से बेच खाने का काम नहीं करेंगे। कुछ मीडियाकर्मियों ने इसे ईमानदारी के तौर पर प्रोजेक्ट किया और आशुतोष(IBN7) जैसे पत्रकार ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि उन्हें सब पता होता है कि मीडिया के भीतर कुछ पत्रकार जो करते हैं वो दरअसल दल्लागिरी कहते हैं,अंग्रेजी में इसे भले ही लॉबिइंग कहा जाता हो। इस काम को करनेवाले दल्ले होते हैं। आशुतोष को ये जुमला इतना हिट समझ आया कि पटना गांधी मैदान में चल रहे पुस्तक मेले में इसे दोबारा दोहराया और जमकर तालियां बटोरी। यूट्यूब पर डाली गयी वीडियो को देखकर मैं मन मसोसकर रह गया कि उनमें से किसी ने ये सवाल क्यों नहीं किया कि अगर आपको पता है कि मीडिया में कुछ लोग दल्लागिरी करते हैं तो अब तक ऐसे कितने दल्लों पर स्टोरी चलायी है या फिर अपने सबसे प्रिय अखबार हिन्दुस्तान में उनके बारे में लिखा है। 2G स्पेक्ट्रम मामले में मीडिया की गर्दन बुरी तरह फंस जाने की स्थिति हिन्दी मीडिया जहां पूरी तरह खामोश है,वहीं आशुतोष लीड ले रहे हैं और एक तरह से कहिए तो हिन्दी मीडिया की ईमानदारी के झंडे गाड़ रहे हैं।लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष है कि मीडिया और सत्ता के गलियारों में हिन्दी पत्रकारों को लेकर बहुत ही नकारात्मक छवि बनी है। लोगों को अफसोस हो रहा है कि हिन्दी में ऐसा कोई भी एक पत्रकार नहीं है जिसकी इतनी हैसियत हो कि वो नीरा राडिया जैसी लॉबिइस्ट से बात कर सके। यकीन मानिए दूसरा खेमा इसे हिन्दी पत्रकारों की ईमानदारी न समझकर उसकी औकात पर तरस खा रहा है कि बेकार में इतना हो-हल्ला मचाए फिरते हैं ये लोग,नीरा राडिया से बात तक नहीं होती। आज मीडिया के भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जो कि उघड़कर आम लोगों के बीच सामने न आ गया हो,मीडिया एमसीडी की बजबजाती हुई नाली की तरह दिख रहा है,ऐसे में हिन्दी के पत्रकारों का नाम न आना खुशी नहीं शर्म की बात है। बीबीसी के विनोद वर्मा ने बीबीसी ब्लॉग खरी-खरी में लिखा कि आज बड़े पत्रकार होना का सीधा पैमाना है कि आपकी नीरा राडिया से बातचीत होती है या हुई है कि नहीं। ये आज का एक बड़ा पैमाना है और फिर विस्तार से इसके कारणों की चर्चा की है। उस हिसाब से सोचें तो सहारा मीडिया के न्यूज डायरेक्टर उपेन्द्र राय हिन्दी के अकेले मीडियाकर्मी हैं जिन्होंने कि हिन्दी मीडिया की इज्जत बचा ली है। 12 दिसंबर 2010 को JOURNALIST FIGURED IN TALKS WITH IA EX-CHIEF नाम से छपी स्टोरी में मेल टुडे ने बताया है उपेन्द्र राय की नीरा राडिया से बातचीत हुई है। स्टोरी में बताया गया है कि उपेन्द्र राय जब स्टार न्यूज के लिए एयरलाइंस पर स्टोरी कर रहे थे,उस दौरान नीरा राडिया से बातचीत की थी। उपेनद्र ने भी स्पष्ट किया है कि उसकी नीरा राडिया से बातचीत हुई है जिसकी जानकारी स्टार न्यूज को उस समय दे दी गयी थी। नीरा राडिया ने दूसरी खेप में जो ताजा टेप जारी हुए हैं उसमें पू्र्व आइएस अधिकारी औऱ 2002 में एयर इंडिया के हेड हुए सुनील अरोड़ा को बता रही है कि उपेन्द्र से उसकी बात हुई है और साथ में ये भी सवाल कर रही है कि क्या उपेन्द्र ने उन्हें फोन किया है क्योंकि वो आधे घंटे की स्टोरी बनाना चाह रहा था। अरोड़ा साहब बता रहे हैं कि उपेन्द्र का एक मिस्ड कॉल तो था। इस बातचीत से ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं होता जिससे कि उपेन्द्र राय पर शंका जाहिर की जा सके। लेकिन स्टोरी के मुताबिक तीन चीजें स्पष्ट है- 1. उपेन्द्र राय नीरा राडिया से बतौर मैजिक और क्रॉन एयरलाइंस की चैयरपर्सन होने के नाते बातचीत करना चाह रहे थे. 2. एयर इंडिया के हेड सुनील अरोड़ा के नीरा राडिया से बहुत ही अच्छे संबंध हैं और 3. उपेन्द्र राय ने नीरा राडिया को ये भी बताया कि वो सुनील अरोड़ा से भी बात करेंगे। 28 साल से भी कम उम्र के होने पर उपेन्द्र राय जब उसी सहारा मीडिया में बतौर न्यूज डायरेक्टर बनकर आए जिसमें कभी स्ट्रिंगर हुआ करते तो मीडिया गलियारों में हंगामा मच गया। मीडिया के बड़े-बड़े तुर्रम खां के तोते उड़ गए। हिन्दी-अंग्रेजी की मीडिया साइटों ने उनके नाम के कसीदे पढ़ने शुरु कर दिए। मीडिया का काम करते हुए एमबीए कोर्स करने को लेकर जमकर तारीफें की गयीं और उन्हें औसत मीडियाकर्मियों से अलग बात बताया गया। लेकिन जिनलोगों को चैनलों और मीडिया के भीतर उपर बढ़ने के तरीके महीनी से पता है,उनलोगों ने आपसी बातचीत में कहना शुरु किया- कुछ तो बात है,बॉस। नहीं तो एक से एक धुरंधर पड़े हैं। इसी बीच खबर मिलने लगी कि सहारा एयरलाइंस और जेटलाइट के बीच जो डील हुई है,उसके सूत्रधार उपेन्द्र राय ही हैं और उन्हें न्यूज डायरेक्टर का ये प्रसाद उसी काम के लिए मिला है। ये खबर इतनी गर्म हुई कि देखते ही देखते हमलोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि एकदम से बदल गयी। पत्रकारिता की सीढ़ी चढ़कर उपेन्द्र राय ने कैसे पीआरगिरी शुरु कर दी है,इसके कई किस्से टुकड़ों-टुकड़ों में हमें कई लोगों से सुनने को मिलने लगे। साफ-सुथरी छविवाले उपेन्द्र राय के लिए पीआरगिरी हॉबी का हिस्सा रहा है। इसलिए अब जब उपेन्द्र राय का नाम आया तो लोगों को हैरानी होने के बजाय इस बात पर हैरानी हुई कि अब तक इनका नाम क्यों नहीं आया। वो कुछ नहीं,बस लोगों से संपर्क बनाने में अपनी खुशी ढूंढते हैं और वो भी बहुत ही ईमानदार तरीके से। बाकी के लोगों की तरह वो 2sk फार्मूले पर काम नहीं करते। मीडिया के लोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि जबरदस्त ढंग से नेटवर्किंग करनेवालों में से रही है। पत्रकारिता करने की उनकी पहचान बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। सहारा में आकर भी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके दम पर उन्हें पत्रकार के तौर पर जाना जाए। हां,इसके ठीक उलट उन्होंने ऐसा हिसाब-किताब जरुर लगाया कि सालों से बीबीसी में काम करते आए संजीव श्रीवास्तव जिनका की अपना नाम और शोहरत है,उपेन्द्र राय के आगे सहारा से उन्हें जाना पड़ा। लोगों का मानना है कि ये उपेन्द्र राय की पत्रकारिता के बदौलत नहीं बल्कि पीआरगिरी की महिमा है। उनकी इस कला के आगे अच्छे-अच्छे महारथी पानी भरने लग जाएं। जिस तरह का माहौल बना है,ऐसे में स्टार न्यूज की एयर इंडिया पर बनी स्टोरी सहित उपेन्द्र राय की कवर की गयी उन तमाम स्टोरी पर विश्लेषण की जरुरत है जिसके बिना पर कुछ तथ्य खुलकर सामने आ सकेंगे। मीडिया में आए दिन मीडियाकर्मियों को लेकर जो खबरें आ रही है,उससे एक बात तो साफ है कि मीडिया के भीतर लॉबिइंग का काम सालों से तेजी से चल रहा है,जिसमें हिन्दी मीडिया के लोग भी शामिल है। आशुतोष जैसे काबिल पत्रकार इसका ठिकरा भले ही सिर्फ स्ट्रिंगरों पर फोड़कर बड़े पत्रकारों को महान साबित करने में जुटे हैं लेकिन आशुतोष को ये साफ करना चाहिए कि दिल्ली-नोएडा से स्ट्रिंगरों को विज्ञापन उगाहने के जो दबाव बनाने का काम किया जाता है,उसमें चैनल और स्ट्रिंगरों का कमीशन कितना होता है? जाहिर है खेल किसी एक शख्स का नहीं बल्कि पूरे के पूरे संस्थान के भीतर का है। नोट- पोस्ट के साथ पटना गांधी मैंदान में लगे पुस्तक मेला में आशुतोष की अमृतवाणी और मेल टुडे की लिंक अटैच्ड है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Dec 13 15:40:49 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 13 Dec 2010 15:40:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4uIOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4KSc4KScIOCkuOCkvuCkrCDgpJXgpYAg4KSf4KS/4KSq4KWN4KSq4KSj?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCksCDgpLngpL7gpK8t4KSk4KWM4KSs4KS+IOCkleCljQ==?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSCIOCkqOCkueClgOCkgj8=?= Message-ID: ... तो जज साब की टिप्पणी पर हाय-तौबा क्यों नहीं? *पुरुष* सत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्री को हर पल, हर घण्टे और हर दिन स्त्री होने की सजा भुगतनी पड़ती है. कन्या भ्रून हत्या, बेटियों के साथ भेदभाव, दहेज़ उत्पीडन, राह चलते छेडछाड, बलात्कार और फिर उसकी हत्या...और न जाने किस-किस रूप में. *भारतीय* संविधान में हर भारतीय नागरिक को समानता का अधिकार दिया गया है. अनुच्छेद चौदह से अठारह तक में इसका जिक्र है. इन अनुच्छेदों में कहाँ गया है कि *धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। * बावजूद इसके पिछ्ले साठ सालों में अनगिनत भारतवासियों से उनका ये अधिकार छीना गया है और आज भी छीना जा रहा है. *न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू*** *लिंगभेद* की वजह से स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार का मामला हो या कोई और, आम औरत या आदमी अदालत की शरण में जाता है और न्याय की गुहार लागाता है, यह जानते और झेलते हुए कि अदालातों में तारीख दर तारीख खिंचती हैं कार्रवाइयाँ, नीचे से ऊपर तक व्याप्त है भ्रष्टाचार, पुलिस, गुन्डों और माफिया तत्वों के बीच होती है मिलीभगत. *इन* भयानक हालातों के बीच कोई औरत फिर भी यदि दुस्साहस करके न्याय की गुहार लगाती है तो साक्ष्य और गवाह की गुलाम न्यायपालिका उसे कितना न्याय दिला पाती है, यह तो बाद की बात है, लेकिन अदालत में सरेआम पूरी स्त्री बिरादरी को अपमानित और बेईज्जत ज़रूर किया जाता है. विडम्बना तो यह है कि यह हादसा किसी लोअर कोर्ट, सेशन कोर्ट या हाइ कोर्ट में नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट में हो जाता है. यानी छोटे मिया तो छोटे मिया बडे मिया सुभान अल्ला! *न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर* *पिछ्ले* दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट के कई न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने वाले और उनके खिलाफ सख्त टिप्पणी करनेवाले सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अब खुद अपने फैसले में अपशब्द टिप्पणियाँ करने के आरोप से घिर चुके हैं. वैवाहिक विवाद संबंधी एक याचिका का निपटारा करते हुए पीठ ने २१ अक्टूबर को कहा था कि *अगर महिला ‘रखैल’ है, शारीरिक संबंधों के उद्देश्य के लिए रखी गई एक ‘नौकरानी’ है या उस महिला और पुरूष के बीच सिर्फ ‘एक रात का संबंध’ बना है तो आपराधिक दंड संहिता की धारा 125 और घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के तहत उस महिला को गुजारा भत्ता नहीं मिल सकता। * *इंदिरा जयसिंह* *फैसले* के बाद देश की एकमात्र महिला अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने 22 अक्तूबर को *न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू *और *न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर* की खंडपीठ से कहा था कि उन्हें अपने फैसले से ये अपशब्द हटाने ही होंगे। इंदिरा जयसिंह की इस टिप्पणी के बाद महिलाओं के लिए काम करने वाले संगठन * ‘महिला दक्षता समिति’* ने सुप्रीम कोर्ट में एक समीक्षा याचिका दायर कर उच्चतम न्यायालय से मांग की है कि वह अपने एक फैसले से *‘रखैल’, ‘नौकरानी’* और *‘एक रात का संबंध’* जैसी टिप्पणियां हटाएं क्योंकि यह महिलाओं का अपमान करने वाली टिप्पणी हैं। *साथियो, *अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं, एक कुलपति ने कुछ लेखिकाओं को 'छिनाल' कहा था. उनकी इस टिप्पणी पर मीडिया और सडक पर काफी बवाल माछा था. अब माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सरेआम अदालत में *‘रखैल’, ‘एक रात का संबंध’, एक ‘नौकरानी’ ** *जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं. क्या यह हिन्दुस्तान की पचास करोड औरतों का अपमान नहीं है? *यदि पुरुषवादी मानसिकता वाले हिन्दी लेखक की स्त्री विरोधी टिप्पणी पर हाय-तौबा मच सकती है तो जज साब की टिप्पणी पर क्यों नहीं?* * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Dec 13 23:30:09 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 13 Dec 2010 23:30:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleClhyDgpKDgpL7gpJXgpYHgpLDgpYvgpIIt4KSs4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS54KWN4KSu4KSj4KWL4KSCIOCkleCliyDgpKzgpYHgpLI=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWHIOCkuOClhyzgpLjgpYfgpK7gpL/gpKjgpL7gpLAg4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KS34KWN4KSf4KWN4KSw4KWA4KSvIOCkueCliyDgpJzgpL7gpKQ=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: दूधनाथ सिंह को छोड़कर दिल्ली से बाहर का एक भी वक्ता नहीं है लेकिन ये यूजीसी की ओर से फंडेड राष्ट्रीय संगोष्ठी है। राष्ट्रीयता की अवधारणा के साथ इतना घटिया और अश्लील मजाक शायद ही आपको कहीं देखने को मिले। जिस हिन्दी साहित्य और समाज के लोगों का ककहरा राष्ट्रीय शब्द से शुरु होता है और जर्जर होने तक इसी राष्ट्रीय पर जाकर खत्म हो जाता है,वहां राष्ट्रीयता के नाम पर इस तरह की बेशर्मी की जाएगी,इस बेशर्मी से ही हिन्दी समाज की तंग मानसिकता उघड़कर बजबजाती हुई हमारे सामने आ जाती है। हिन्दू कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में अज्ञेय की जन्मशती को लेकर दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी( दिसंबर 13 और 14) का आयोजन किया गया है। इस आयोजन के लिए यूजीसी की तरफ से पैसे मिले हैं। जाहिर है जब पैसे यूजीसी से मिले हैं और वो भी राष्ट्रीय संगोष्ठी के नाम पर तो इसका सीधा मतलब है कि इसमें देश के अधिक से अधिक लोगों,कॉलेजों और विचारों की भागीदारी हो। वैसे भी अगर संगोष्ठी के लिए पैसे यूजीसी की तरफ से दिए जाते हैं तो आयोजकों पर इस बात की खास जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो इस राष्ट्रीय संगोष्ठी की अवधारणा को लेकर चौकस रहे। लेकिन दिल्ली से बाहर एक अकेले दूधनाथ सिंह को बुलाकर बाकी दिल्ली के 20-25 किलोमीटर की रेडियस पर रह रहे और लगभग जंग खा चुके आलोचकों को बुलाकर उसे राष्ट्रीय संगोष्ठी का नाम देना पूरी अवधारणा की सरेआम धज्जियां उड़ाने जैसा है। मुझे याद है अब तक मैंने कम से कम दस राष्ट्रीय(यूजीसी की ओर से फंडेड) में हिस्सा लिया है और दो संगोष्ठियों में बतौर आयोजकों की तरफ से शामिल रहा हूं,इस तरह की पहली घटना मुझे दिखाई दे रही है जहां कि एक शख्स के दिल्ली से बाहर होने पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करा ली जा रही है। मैंने तमाम सेमिनारों में कम से कम छ-सात राज्यों के प्रतिनिधि वक्ता और कुछ हद तक श्रोताओं के शामिल होने की स्थिति को ही राष्ट्रीय संगोष्ठी के तौर पर देखा है। जहां तक मेरी अपनी समझदारी और जानकारी है कि इस तरह के सेमिनार के लिए ऐसा किया जाना जरुरी भी है। यूजीसी इसके लिए दो स्तरों पर पैसे देती है- एक तो कार्यक्रम के आयोजन के लिए और दूसरा कि कुल की आधी रकम प्रकाशन के लिए। हिन्दू कॉलेज या देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय की अपनी इच्छा है कि वो अज्ञेय,मुक्तिबोद या किसी भी रचना या रचनाकार के बहाने राजपूत सभा,ब्राह्ण सभा या दिल्ली सभा का आयोजन करा दें। लेकिन यूजीसी की ओर से सहयोग दी जानेवाली संगोष्ठी कोई हेयर कटिंग सलून या होटल नहीं होते कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए वाम के आगे नेशनल या इन्टरनेशनल जोड़ दिया जाए। बाकी सारे ग्राहक भले ही चार-पांच गलियों में सिमटे हुए लोग हों। विभाग इस तरह से संगोष्ठी के आगे राष्ट्रीय चस्पाकर एक बड़ी अवधारणा को फ्रैक्चरड करने की कोशिश कर रहा है जो कि किसी भी अर्थ में सही नहीं है। सिर्फ दिल्ली के साहित्यकार अज्ञेय पर पंचायती कर देंगे और वो राष्ट्रीय संगोष्ठी का दर्जा पा जाएगा,ऐसी स्थिति में यूजीसी को विभाग से सवाल किए जाने चाहिए कि आपने बाहर से कितने लोगों को बुलाया या फिर सिर्फ दिल्ली के ही लोगों को क्यों बुलाया? देशभर के हिन्दी विभागों के रिसर्चर से मिलिए,आपको हर चार में से एक अज्ञेय,मुक्तिबोध या नई कविता पर शोध करता मिल जाएगा। इन विषयों पर रिसर्च कर चुके लोगों की एक लंबी फौज है। लेकिन वक्ताओं की लिस्ट में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि 40 साल से नीचे का हो। अभी अज्ञेय,नागार्जुन,शमशेर जैसे रचनाकारों की सीजन होने की वजह से दर्जनों साहित्यिक पत्रिकाएं इन पर विशेषांक निकाल रही हैं। मेरे कुछ साहित्यिक साथी इनके लिए शोधपरक लेख भी लिख रहे हैं और खुद संपादकों की डिमांड में नए लोग हैं। आप उन अंकों को पलटें तो 25 से 35-40 तक के लोगों की एक लंबी सूचि मिल जाएगी। लेकिन इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है। आयोजक इस बात से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि उन्हें ऐसे नए लोगों के एक भी नाम नहीं मिले,बल्कि उन्होंने इस दिशा में न तो पहल की और न ही ऐसा करना जरुरी समझा। इससे क्या संदेश जाता है कि पिछले दस-पन्द्रह साल में पूरे दे के िसी भी विश्वविद्यालय ने एक भी अज्ञेय का जानकार पैदा नहीं किया। अगर 15 साल में सैंकड़ों रिसर्चर अज्ञेय और नई कविता पर शोध करने और लेख लिखने के बावजूद यूजीसी के पैसे पर आयोजित किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी में आने का दर्जा नहीं पा सकते तो फिर सरकार के लाखों रुपये खर्च करके इन्हें जारी रखने का क्या तुक है? मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि रिसर्चर की सारी काबिलियत उसकी संगोष्ठी में शिरकत करने से ही साबित होगी लेकिन कल को इस संगोष्ठी के वक्तव्य पर आधारित पाठ और पुस्तकें तैयार होंगी तो उसमें तो 45 से नीचे का कोई भी लेखक नहीं होगा जबकि पत्रिकाओं में वो लगातार लिख रहा है। अब सोचिए कि ऐसे में वो कितनी बड़ी साजिश का शिकार होता है? इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि केंद्रीय विश्वविद्यालय से बाहर के हों। मतलब ये कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय से बाहर एक भी ऐसा साहित्यकार या आलोचक नहीं है जो कि अज्ञेय पर बात करने की क्षमता रखता हो। ये कॉलेज के विभाग की अपनी समझ है। जो विभाग तमाम रचना और रचनाकारों में राष्ट्रीयता,आंचलिकता और सरोकार की घुट्टी बीए फर्स्ट इयर के स्टूडेंट से ही पिलानी शुर कर देता हो,उसकी इस हरकत पर सैद्धांतिक अवधारणाओं और व्यवहार के बीच उसके जड़ हो जाने की स्थिति बहुत ही नंगई के साथ सामने आती है। दिल्ली में बैठे साहित्यकारों और आलोचकों के प्रति देशभर के लोगों की टकटकी बंधी रहती है,यहां से जब लोग छोटे शहरों और कस्बों के कॉलेजों में बोलने और शिरकत करने जाते हैं,उनकी जो कहां उठाउं-कहां बिठाउं की शैली में स्वागत किए जाते हैं, फेसबुक पर टंगी इस सूचना और वक्ताओं की लिस्ट देखकर कैसा महसूस करते हैं,इसका शायद रत्तीभर भी अंदाजा नहीं है। बड़े नामों को जुटाने से एकबारगी तो लगता है कि भव्य आयोजन होगा लेकिन इसके साथ ही आयोजकों की ठहर चुकी समझ की तरफ इशारा करता है कि उसने पिछले 15 सालों में एक भी नया नाम नहीं खोज पाए। बड़े नामों का आना आयोजन की सफलता जरुर तय करती है लेकिन नए नामों को शामिल नहीं किया जाना,उसकी जड़ता को रेखांकित करती है। हालांकि इस तरह की संगोष्ठियां नेक्सस बनाने और एक-दूसरे को तुष्ट करने के लिए पूरी तरह बदनाम हो चुकी हैं,जिसके प्रतिरोध में लिखे जाने की स्थिति में एवनार्मल करार दिए जाने का खतरा है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर नए विचारों और चिंतन के लिए ही यूजीसी लाखों रुपये खर्च करके कराती है। इस संगोष्ठी में एक भी दलित वक्ता नहीं है। नहीं हैं तो इसका मतलब है कि देश में अज्ञेय के एक भी दलित जानकार नहीं है। कुल चार सत्र में से पहले के तीन सत्र में एक भी स्त्री वक्ता नहीं है। अंतिम सत्र में जो कि अज्ञेय के चिंतन पक्ष को लेकर है,उसमें दो स्त्री वक्ताओं निर्मला जैन(अध्यक्षता) और राजी सेठ को रखा गया है। पहले के तीन सत्र जिसमें कि उनके गद्य और कविता से संबंधित सत्र है,एक भी वक्ता नहीं है। कुल बारह वक्ताओं में से दो स्त्री वक्ता हैं और बाकी पुरुष वक्ता। बाकी इन वक्ताओं के नाम के अंत में लगे हॉलमार्क काफी कुछ कह देते हैं। अब सवाल है कि ये सबकुछ बस आयोजन का एक स्वाभाविक हिस्सा है या फिर इसमें गलत क्या है? फेसबुक पर एक शख्स ने इस सेमिनार के प्रति अहमति में लिखे जाने पर खुन्नस में आकर ऐसा लिखने की बात कही। लेकिन इसका प्रतिरोध किया जाना वाकई खुन्नस का हिस्सा है या फिर कार्यक्रम की रुपरेखा एक सैंपल पेपर की तरह है जिसके आधार पर हमें देशभर में होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी जिसे कि यूजीसी पैसे देती है,उस पर सोचने और तय करने के लिए विवश करती है कि यूजीसी के करोड़ों रुपये किस तरह एक अवधारणा को फ्रैक्चरड किए जाने,खंडित और क्षतिग्रस्त किए जाने के लिए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की अवधारणा अपने आप में बहुत विवादास्पद है जिसका मैं खुद भी पक्षधर नहीं हूं। लेकिन अगर राष्ट्रीयता सुविधा और शामिल किए जाने की शर्त तक परिभाषित होती है तो दिल्ली के चंद साहित्यकारों को पूरे देश को काटकर,उनका हक मारकर राष्ट्रीय होने और कहलाने का कुचक्र कितनी घिनौनी साजिश को मजबूत करती हैं,जरा सोचिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Wed Dec 15 15:52:54 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 15 Dec 2010 15:52:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWN4KSl?= Message-ID: <4D0896FE.3090407@sarai.net> अगर आपको दुबारा-तिबारा मिला हो ये, तो माफ़ी चाहता हूँ, लेकिन मुझे पता है यहाँ ऐसे लोग हैं जो सही लोगों तक ये सूचना पहुँचा सकते हैं, या प्रॉजेक्ट में ख़ुद शिरकता करना चाहेंगे। रविकान्त --------- Forwarded message ---------- From: *Abhishek Avtans* > Date: 2010/12/15 Subject: अवधी, बुन्देली, गढ़वाली, मगही, कांगड़ी, छत्तीसगढ़ी, मालवी और हरियाणवी To: Abhishek Avtans > आदरणीय जनों / प्रिय मित्रों, नमस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा पिछ्ले 3वर्षों से हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना चलाई जा रही है। इस परियोजना के अंतर्गत हिंदी की 48 लोकभाषाओं (2001 की जनगणना के आधार पर) के डिजिटल और मुद्रित त्रिभाषी (लोकभाषा-हिंदी-इंग्लिश) बनने हैं। इन लोक शब्दकोशों में उन शब्दों का संग्रह किया जाना है जो विलुप्तप्राय (एन्डेन्जर्ड) हैं या विलुप्त हो गए हैं। परियोजना का मूल उद्देश्य हिंदी की शाब्दिक संपदा को समृद्ध करने के साथ-साथ हिंदी की इन लोकभाषा रूपी माँओं के शब्दों का संरक्षण भी है। वर्ष 2009 में परियोजना की पहली प्रस्तुती भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोक शब्दकोश का प्रकाशन किया गया है। जैसा कि आप जानते हैं कि इस परियोजना को महान कोशकार श्री अरविंद कुमार जी के प्रधान संपादकत्व में शुरू किया गया था और आज भी यह समय-समय पर उनसे दिशा निर्देशित है।,वर्तमान में राजस्थानी (मारवाड़ी) और ब्रजभाषा के त्रिभाषी लोक शब्दकोशों का संपादन समाप्ति पर है और आशा है कि ये कोश 2011 के पूर्वाध में उपलब्ध होंगे। अवधी, बुन्देली, गढ़वाली, मगही, कांगड़ी, छत्तीसगढ़ी, मालवी और हरियाणवी पर कोश कार्य विभिन्न चरणों में है।,परियोजना एकक जनवरी-फरवरी 2011 में अवधी, बुन्देली, गढ़वाली, मगही, कांगड़ी, छत्तीसगढ़ी, मालवी और हरियाणवी के विद्वानों के साथ एक दो-दिवसीय कार्यशाला आयोजित करना चाहता है। कार्यशाला में लोकभाषा कोशों के भावी भाषा संपादकों, कार्य-योजना, संकलित शब्दावली आदि पर चर्चा की जानी है।,आपसे अनुरोध है कि इन लोकभाषाओं के विद्वानों या भाषाविदों या साहित्यकारों को आमंत्रित करने के लिए उनके नाम, पते, फोन नंबर अदि मुझे भिजवाने की कृपा करें। आशा है आपका सहयोग परियोजना को जरूर मिलेगा। अग्रिम धन्यवाद सहित।, सादर,-- Abhishek Avtans अभिषेक अवतंस, Central Institute of Hindi केंद्रीय हिंदी संस्थान,Agra - 282005, UP, India आगरा -२८२००५, उ.प्र. भारत From shashikanthindi at gmail.com Sat Dec 18 23:23:12 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 18 Dec 2010 23:23:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkhuCkriDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWB4KS44KSy4KSu4KS+4KSo4KWL4KSCIOCkleCliyDgpKjgpLngpYA=?= =?utf-8?b?4KSCIOCksuClgeCkreCkvuCkpOCkviDgpJrgpLDgpK7gpKrgpILgpKUn?= Message-ID: मित्रो, हिन्दुत्ववादियों यानि भाजपा, आरएसएस, शिवसेना, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् आदि के लिए मुसीबत बनकर आया विकिलीक्स. हे राम! अब काया होगा? न विश्वास हो तो बीबीसीहिंदी की ये ख़बर पढ़ लीजिये! शुक्रिया. - शशिकांत 'आम मुसलमानों को नहीं लुभाता चरमपंथ' [image: भारतीय मुसलमान] विकीलीक्स की ओर से जारी ताज़ा दस्तावेज़ के मुताबिक़ भारत में अमरीका के पूर्व राजदूत डेविड मलफ़र्ड का कहना है कि भारत में 15 करोड़ से ज़्यादा की मुस्लिम आबादी में अधिकतर को चरमपंथ आकर्षित नहीं करता है. मलफ़र्ड के अनुसार भारत का जीवंत लोकतंत्र, देश की संस्कृति और राष्ट्रवादी प्रकृति अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को बहुत लुभाती हैं. उन्होंने भारतीय संस्कृति की बेहद प्रशंसा की है. विकीलीक्स की ओर से जारी इस संदेश में डेविड मलफ़र्ड ने कहा कि अलगाववाद और धार्मिक चरमपंथ भारतीय मुस्लिमों को कम ही प्रभावित कर पाए हैं और ज़्यादातर उदार रास्ते को अपनाते हैं. आकलन संदेश में कहा गया है कि भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था, जीवंत लोकतंत्र और समग्र संस्कृति मुस्लिमों को सफ़लता और मुख्याधारा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करती है और उनका अलगाव दूर होता है. अपने नोट्स में उन्होंने ये भी लिखा है कि न केवल विभिन्न संप्रदायों के लोग सदभाव के साथ रहते हैं बल्कि विभिन्न विचारधाराओं के अतिवादी यानी चरमपंथी भी एक साथ रहते हैं. मसलन जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख धर्मों में बहुत से चरमपंथी तत्व हैं वहीं राजनीतिक विचारधाराओं में भी चरमपंथी समुदाय शामिल है. इन राजनीतिक चरमपंथियों में नक्सलवादियों और दक्षिणपंथी संगठनों का ज़िक्र शामिल है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Dec 18 23:47:03 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 18 Dec 2010 23:47:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS54KWB?= =?utf-8?b?4KSyIOCkl+CkvuCkguCkp+ClgCDgpJXgpL4g4KSs4KSv4KS+4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkuOCkmiDgpLngpYvgpKTgpL4g4KSm4KS/4KSWIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS54KS+IOCkueCliCE=?= Message-ID: मित्रो, भारत के हिन्दुत्ववादी लगातार भारतीय मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल उठाते रहे हैं. महात्मा गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे जिस प्रतिक्रियावादी विचारधारा से प्रभावित होकर बापू को मारा था वो संगठन आर एस एस हो या शिवसेना, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् या फिर इनका राजनीतिक मुखौटा भाजपा यानि भारतीय जनता पार्टी, ये सब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ हिन्दुस्तान के क़रीब पंद्रह करोड़ मुसलमानों की राष्ट्रवादिता को कठघरे में खड़े कर अपनी राजनीतिक रोटी सकते रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से दुनिया के सबसे बड़े दादा की नाक में घुसने की गुस्ताखी करनेवाला विकीलीक्स ने दुनिया के जिन मुल्कों की धांधलियों का पर्दाफास किया हो लेकिन आज उसने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क़ के पंद्रह करोड़ मुसलामानों को क्लीनचिट दे दी है. याद कीजिये विकीलीक्स का यह बयान हिन्दुस्तान के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की फजीहत वाले बयान के चौबीस घंटे बाद आया है. विकिलीक्स का भारतीय मुसलामानों पर किया गया यह खुलासा यदि सच है तो यह हिन्दुस्तान के युवराज राहुल गांधी के पक्ष में है. गाज अब हिन्दुस्तान के हिन्दुत्ववादियों पर गिरेगी, न कि राहुल गांधी पर. राहुल का बयान अब सच होता दिख रहा है. हाँ, हिन्दुस्तान के कुछ प्रगतिशील राष्ट्रवादी अभी भी यह सवाल ज़रूर उठाएंगे कि राहुल को यह बात अमेरिकी राजदूत से नहीं कहनी चाहिए थी. शुक्रिया. - शशिकांत 'आम मुसलमानों को नहीं लुभाता चरमपंथ' [image: भारतीय मुसलमान] विकीलीक्स की ओर से जारी ताज़ा दस्तावेज़ के मुताबिक़ भारत में अमरीका के पूर्व राजदूत डेविड मलफ़र्ड का कहना है कि भारत में 15 करोड़ से ज़्यादा की मुस्लिम आबादी में अधिकतर को चरमपंथ आकर्षित नहीं करता है. मलफ़र्ड के अनुसार भारत का जीवंत लोकतंत्र, देश की संस्कृति और राष्ट्रवादी प्रकृति अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को बहुत लुभाती हैं. उन्होंने भारतीय संस्कृति की बेहद प्रशंसा की है. विकीलीक्स की ओर से जारी इस संदेश में डेविड मलफ़र्ड ने कहा कि अलगाववाद और धार्मिक चरमपंथ भारतीय मुस्लिमों को कम ही प्रभावित कर पाए हैं और ज़्यादातर उदार रास्ते को अपनाते हैं. आकलन संदेश में कहा गया है कि भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था, जीवंत लोकतंत्र और समग्र संस्कृति मुस्लिमों को सफ़लता और मुख्याधारा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करती है और उनका अलगाव दूर होता है. अपने नोट्स में उन्होंने ये भी लिखा है कि न केवल विभिन्न संप्रदायों के लोग सदभाव के साथ रहते हैं बल्कि विभिन्न विचारधाराओं के अतिवादी यानी चरमपंथी भी एक साथ रहते हैं. मसलन जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख धर्मों में बहुत से चरमपंथी तत्व हैं वहीं राजनीतिक विचारधाराओं में भी चरमपंथी समुदाय शामिल है. इन राजनीतिक चरमपंथियों में नक्सलवादियों और दक्षिणपंथी संगठनों का ज़िक्र शामिल है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Dec 19 16:36:12 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 19 Dec 2010 16:36:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KWH4KS4IOCkleClgCDgpIbgpJzgpLzgpL7gpKbgpYAg4KSP4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSwIOCkq+Ckv+CksCDgpJbgpKTgpLDgpYcg4KSu4KWH4KSC?= =?utf-8?b?IOCkueCliCE=?= Message-ID: *हिन्दुस्तान में प्रेस की आज़ादी एक बार फिर खतरे में है! * * * जी हाँ, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लग रहा है! यह वाकया अपने गृहमंत्री पी. चिदंबरम साहब से ही जुड़ा हुआ है. हम-आप सब जानते हैं कि पिछले 13 दिसंबर यानि सोमवार को उन्होंने दिल्ली में बढ़ते अपराध के लिए प्रवासियों को ज़िम्मेदार ठहराया था और जब चौतरफा उनके इस गैरजिम्मेदाराना बयान की भर्त्सना हुई तो उन्होंने अपने उस बयान को वापस ले लिया. ............................... लेकिन, वह मामला वहीं ख़त्म नहीं हुआ! हुआ यूं कि 15 दिसंबर को दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण के ऑप-एड पेज 'समय' पर "अपराध और दोषारोपण की राजनीति" शीर्षक से अंजनी कुमार ( anjani.dost at yaahoo.co.in) का एक लेख प्रकाशित हुआ. वह लेख चिदंबरम साहब के गैरजिम्मेदाराना बयान के खिलाफ़ था. सुबह-सुबह मेरी निगाह सबसे पहले उसी पर पड़ी, और पूरा पढ़ गया. दिल को तसल्ली हुई. अंजनी भाई, दैनिक भास्कर अखबार और पेज इंचार्ज को मन ही मन बधाई दी. .................... लेकिन, 2 दिन बाद पता चला कि अंजनी भाई के लेख पर गृह मंत्रालय में हड़कंप मच गया. और इतना मचा कि गृह मंत्रालय से दैनिक भास्कर अखबार के प्रबंधक को फ़ोन करके इस लेख के प्रकाशन पर आपत्ति जताई गई. उसके बाद दैनिक भास्कर के दिल्ली कार्यालय में ख़ूब अफरातफरी मची रही. .......................... मित्रो, पी. चिदंबरम साहब की यह करामात प्रेस के मुंह पर लगाम लगाने की कोई पहली घटना नहीं है! क़रीब छह माह पहले वे नक्सलियों के पीछे लट्ठ लेकर पड़े थे. तब नक्सलवाद के विषय पर दैनिक भास्कर अखबार के दिल्ली संस्करण में इसी ऑप-एड 'समय' पेज पर प्रकाशित एक लेख पर गृह मंत्रालय में हाय-तौबा मची थी, और गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने अखबार के समूह संपादक को फ़ोन कर उस लेख के प्रकाशन पर आपत्ति दर्ज कराई थी. ........................ साथियो, ये सब क्या हो रहा है? क्या हिन्दुस्तान में प्रेस की आज़ादी एक बार फिर खतरे में है? आपको क्या लगता है? *- शशिकांत* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Dec 19 17:12:44 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 19 Dec 2010 17:12:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWD4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KS+4KSy4KSvIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiA=?= =?utf-8?b?4KSn4KSu4KSV4KS+IOCksOCkueCkviDgpLngpYgg4KSm4KWI4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KSVIOCkreCkvuCkuOCljeCkleCksCDgpJXgpYs/?= Message-ID: गृह मंत्रालय क्यों धमका रहा है दैनिक भास्कर को? *जी हाँ, * भारत सरकार का गृह मंत्रालय दैनिक भास्कर अखबार को धमका रहा है! क्यों? सुनिए!!! *यह* वाकया भी अपने गृहमंत्री पी. चिदंबरम साहब से ही जुड़ा हुआ है. हम-आप सब जानते हैं कि पिछले 13 दिसंबर यानि सोमवार को उन्होंने दिल्ली में बढ़ते अपराध के लिए प्रवासियों को ज़िम्मेदार ठहराया था और जब चौतरफा उनके इस गैर जिम्मेदाराना बयान की भर्त्सना हुई तो उन्होंने अपने उस बयान को वापस ले लिया. ............................... *लेकिन,* वह मामला वहीं ख़त्म नहीं हुआ! हुआ यूं कि 15 दिसंबर को दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण के ऑप-एड पेज 'समय' पर "अपराध और दोषारोपण की राजनीति" शीर्षक से अंजनी कुमार ( anjani.dost at yaahoo.co.in) का एक लेख प्रकाशित हुआ. वह लेख चिदंबरम साहब के गैरजिम्मेदाराना बयान के खिलाफ़ था. सुबह-सुबह मेरी निगाह सबसे पहले उसी पर पड़ी, और पूरा पढ़ गया. दिल को तसल्ली हुई. अंजनी भाई, दैनिक भास्कर अखबार के संपादक और पेज इंचार्ज को मन ही मन बधाई दी. .................... *लेकिन,* 2 दिन बाद पता चला कि अंजनी भाई के लेख पर गृह मंत्रालय में हड़कंप मच गया. और इतना मचा कि गृह मंत्रालय से दैनिक भास्कर अखबार के प्रबंधक को फ़ोन करके इस लेख के प्रकाशन पर आपत्ति जताई गई. उसके बाद दैनिक भास्कर के दिल्ली कार्यालय में ख़ूब अफरातफरी मची रही. .......................... *पी. चिदंबरम* साहब की यह करामात प्रेस के मुंह पर लगाम लगाने की कोई पहली घटना नहीं है! क़रीब छह माह पहले वे नक्सलियों के पीछे लट्ठ लेकर पड़े थे. तब नक्सलवाद के विषय पर दैनिक भास्कर अखबार के दिल्ली संस्करण में इसी ऑप-एड 'समय' पेज पर प्रकाशित एक लेख पर गृह मंत्रालय में हाय-तौबा मची थी, और गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने फ़ोन कर उस लेख के प्रकाशन पर आपत्ति दर्ज कराई थी. ........................ *साथियो, *ये सब क्या हो रहा है? क्या हिदुस्तान में प्रेस की आज़ादी एक बार फिर खतरे में है? आपको क्या लगता है? *- शशिकांत* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Dec 20 14:51:11 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 20 Dec 2010 14:51:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2IOCkleCliyDgpLjgpL7gpLngpL/gpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KSvIOCkheCkleCkvuCkpuClh+CkruClgCDgpKrgpYHgpLDgpLg=?= =?utf-8?b?4KWN4KSV4KS+4KSw?= Message-ID: मित्रो, हिंदी के पचास करोड़ पाठक-लेखक समाज के लिए एक ब्रेकिंग न्यूज़! साहित्य अकादेमी ने उदय प्रकाश को इस साल का साहित्य अकादेमी पुरस्कार देने की घोषणा कर दी है. अपने प्रिय लेखक को बहुत-बहुत मुबारकबाद. - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Dec 20 15:37:26 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 20 Dec 2010 15:37:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2IOCkleCliyDgpLjgpL7gpLngpL/gpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KSvIOCkheCkleCkvuCkpuClh+CkruClgCDgpKrgpYHgpLDgpLg=?= =?utf-8?b?4KWN4KSV4KS+4KSw?= Message-ID: उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार *साथियो, * हमारे दौर के हिंदी के एक चर्चित कवि, कथाकार पत्रकार और फिल्मकार *उदय प्रकाश *को सन 2008 का हिंदी का* साहित्य अकादेमी पुरस्कार* देने की घोषणा कर दी गई है. *उदय प्रकाश* की कुछ कृतियों के अंग्रेज़ी, जर्मन, जापानी एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। लगभग समस्त भारतीय भाषाओं में रचनाएं अनूदित हैं। इनकी कई कहानियों के नाट्यरूपंतर और सफल मंचन हुए हैं। *'उपरांत' *और 'मोहन दास' के नाम से इनकी कहानियों पर फीचर फिल्में भी बन चुकी हैं, जिसे अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिल चुके हैं। *उदय प्रकाश* स्वयं भी कई टी.वी.धारावाहिकों के निर्देशक-पटकथाकार रहे हैं। *सुप्रसिद्ध *राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा की कहानियों पर बहु चर्चित लघु फिल्में प्रसार भारती के लिए निर्देशित-निर्मित की हैं। *भारतीय कृषि का इतिहास* पर महत्वपूर्ण पंद्रह कड़ियों का सीरियल 'कृषि-कथा' राष्ट्रीय चैनल के लिए निर्देशित कर चुके हैं। *'सुनो कारीगर',* 'अबूतर कबूतर', 'रात में हारमोनियम', 'एक भाषा हुआ करती है', 'कवि ने कहा' उदय प्रकाश के कविता संग्रह हैं. *और* 'दरियायी घोड़ा', 'तिरिछ', 'दत्तात्रेय के दुख', 'और अंत में प्रार्थना', 'पॉलगोमरा का स्कूटर', 'अरेबा-परेबा', 'मोहन दास', 'मैंगोसिल', 'पीली छतरीवाली लड़की' कथात्मक कृतियाँ. *उदय प्रकाश* के दो निबंध और आलोचना संग्रह भी हैं*- '*ईश्वर की आंख' और 'नयी सदी का पंचतंत्र'. इनके अलावा उनके कई अनुवाद भी प्रकाशित हैं. *साहित्य अकादेमी पुरस्कार* से पहले उदय प्रकाश को 'भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार', 'ओम प्रकाश सम्मान', 'श्रीकांत वर्मा पुरस्कार', 'मुक्तिबोध सम्मान', 'साहित्यकार सम्मान', 'द्विजदेव सम्मान', 'वनमाली सम्मान', 'पहल सम्मान', 'सार्क राइटर्स अवार्ड', 'पेन ग्रांट फॉर दि ट्रांसलेशन ऑफ दि गर्ल विद दि गोल्डन परासोल, अनुवाद : जैसन ग्रुनेबौम', 'कृष्णबलदेव वैद सम्मान', 'महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार' और 'तिरिछ अणि इतर कथा' अनु. जयप्रकाश सावंत पुरस्कार/सम्मान मिल चुके हैं. आइये आज हम सब अपने प्रिय लेखक उदय प्रकाश को मुबारकबाद दें. *- शशिकांत * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Dec 20 17:06:20 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 20 Dec 2010 17:06:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSC4KSt4KWA?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClgeCkpuCljeCkpuClhyDgpKrgpLAg4KSt4KSf4KSV4KSk?= =?utf-8?b?4KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkrg==?= Message-ID: गंभीर मुद्दे पर भटकती फिल्म क्षेत्रवाद के आंधी में राजनीति उठापटख खूब होती है लेकिन इसकी शिकार होती है आम जनता। खासकर पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र हो या असम, हर जगह क्षेत्रवाद का बोलबाला रहा। इसे भुनाने में फिल्मकार भी पीछे नहीं रहे। हालांकि यह और बात है कि ऐसी फिल्मों को दर्शकों ने कभी भी हाथोंहाथ नहीं लिया है। ऐसी ही मामले को लेकर कुछ अर्सा पहले फिल्म आई थी ‘देशद्रोही”। इसके जरिए कमाल खान ने महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के संघर्ष को दिखाया था। इसी परंपरा की फिल्म ’332-मुंबई टू इंडिया” भी है। फिल्म की कहानी सच्ची घटना पर आधारित है, जब 27 अक्तूबर 2008 को पटना के राहुल राज ने मुंबई में बेस्ट की एक बस का अपहरण किया था और जिसे पुलिस ने इनकाउंटर कर मार गिराया था। फिल्म ’332-मुंबई टू इंडिया” में कुंठा में जी रहा राहुल अंधेरी-कुर्ला के बीच चलने वाली बेस्ट की डबलडेकर बस का अपहरण करता है और बस की ऊपरी फ्लोर पर मौजूद यात्रियों को बंदी बनाता है। फिल्म में सामानांतर तौर पर बीएचयू के हॉस्टल में रह रहे महाराष्ट्र के लड़के और उसके साथियों के अलावा मुंबई की लड़की और उत्तर भारत के लड़के के बीच के प्रेम-प्रसंग और विवाह की कहानी भी चलती है। लेखक निर्देशक महेश पांडे ने सच्ची और गंभीर विषय पर करीब पौने दो घंटे की फिल्म तो बनाई लेकिन सही तरीके से पूरे मामले को दर्शकों के सामने नहीं रख सके। क्योंकि फिल्म आखिर तक भटकती नजर आती है। पूर्वांचल में मनाए जाने वाले छठ पर्व और टीवी चैनल पर इससे और उत्तर भारतीयों को लेकर दिखाई जा रही खबरें भी फिल्म में अपरोक्ष किरदार के तौर पर दर्शकों के सामने है। हालांकि उत्तर भारतीय बनाम मराठी विवाद को एक आम आदमी के नजरिए को दर्शाने वाली यह फिल्म है जिसमें आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक रोजगार की लड़ाई लड़ता रहता है। मामले की गहराई में उतरने के साथ कुछ ट्विस्ट होता तो बेहतर हो सकता था। हालांकि नए स्टार्स ने काफी मेहनत की है, बावजूद इसके वे दर्शकों को खुद से बांध नहीं पाते। हालांकि बिहार के किसी पिता की बेचैनी और बस में यात्रियों के बेबसी दर्शकों को बखूबी फिल्म से जोड़ने का माद्दा रखते हैं। अंतिम दृश्य में एकता का संदेश देने के लिए ताज पर आतंकी हमले के बाद के परिदृश्य का सहारा लेना लगता है कि निर्देशक की मंशा फिल्म बनाने को लेकर यही दिखाने की थी। गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के बाद भी फिल्म में कहीं गंभीरता नहीं है। बहरहाल, आम दर्शकों के मन में यह फिल्म भले ही कौतुहल पैदा न करे लेकिन ‘क्षेत्रवाद” के नाम पर रोटी सेंकने वालों के साथ त्रस्त लोगों को आकर्षित करेगी। -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-1, 2,3,4 Sector-11 NOIDA (UP) 09911364316 http://vinitutpal.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Dec 21 15:03:47 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 21 Dec 2010 15:03:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KSH4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCksuCkvuCkh+CkqyDgpK7gpYfgpILigJk=?= Message-ID: ‘इसी लाइफ में’ “फिल्म युवाओं के बारे में हैं। दरअसल युवावस्था में हमारे ढेरों सपने होते हैं। और तब वे यह सोचते रहते हैं कि इन सपनों को पूरा भी कर पाएंगे या नहीं। फिल्म बताती है कि अगर सपने हैं तो सोचना छोड़कर उन्हें इसी जिंदगी में पूरा करने की कोशिश होनी चाहिए।” यह कहना है फिल्म ‘इसी लाइफ में’ की निर्देशक विधि कासलीवाल का। राजश्री प्रोडक्शन की यह फिल्म 24 दिसंबर को परदे पर आएगी। इस प्रोडक्शन की पहली फिल्म ‘आरती’ थी जो 1962 में प्रदर्शित हुई थी। बहरहाल, 1964 में प्रदर्शित हुई उस दौर की मशहूर फिल्म ‘दोस्ती’ और 24 दिसंबर को आनेवाली ‘इसी लाइफ में’ कई बातें समान हैं। मसलन, जब ‘दोस्ती’ आई थी तो उसमें कोई बड़ा स्टार नहीं था। सभी नए चेहरे थे। हालांकि, वह जमाना दिलीप कुमार का था। फिल्म उनके नाम से चल पड़ती थी। अब तीन खानों का जमाना है। कुछेक और भी स्टार हैं, जिनके होने से फिल्म निर्माता स्वयं को सुरक्षित महसूस करते है। इसके बावजूद ‘इसी लाइफ में’ न तो कोई खान है। न दूसरा कोई बड़ा स्टार। फिल्म में नए चेहरे हैं। राजश्री प्रोडक्सन का यह अपना अंदाज है। इसी प्रोडक्शन हाउस से दो दशक पहले आई फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ बतौर उदाहरण हमारे सामने है। यही वह ऐतिहासिक फिल्म है, जिससे सलमान खान बतौर सिने स्टार उभरे। नई रोमांटिक जोड़ी को लेकर यह फिल्म बनाई गई थी। बॉलीवुड में यह फिल्म मील का पत्थर साबित हुई। इसने परदे पर हिंसा व प्रतिद्वंद्विता के दौर को रोमांस की तरफ मोड़ दिया। राजश्री प्रोडक्शन की आनेवाली फिल्म से दर्शक वर्ग कुछ ऐसी ही उम्मीद लगाए बैठा है। फिल्म में अक्षय ओबेराय और संदीपा धर मुख्य किरदार में हैं। दोनों की यह पहली फिल्म है। यहां सलमान खान मेहमान कलाकार की भूमिका में हैं। यह राजश्री प्रोडक्शन से उनके पुराने रिश्ते का वास्ता है। 15 अगस्त, 1947 को स्थापित हुई राजश्री पिक्चर्स की पहचान पारिवारिक फिल्में बनाने की है। 1960 और फिर 80 के दौर में ताराचंद बड़जात्या ने दोस्ती, गीत गाता चल, अखिंयों के झड़ोंखों से, चितचोर और दुल्हन वही जो पिया मन भाय जैसी फिल्में बनाकर इस पहचान को कायम किया था। फिल्म दोस्ती को वर्ष 1964 का बेहतरीन हिन्दी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। बाद में ताराचंद की विरासत को सूरज बड़जात्या ने संभाला। सूरज मानते हैं कि राजश्री प्रोडक्शन की वर्षों पहले बनी पहचान इस फिल्म में भी कायम है। वे ‘इसी लाइफ में’ को एक पारिवारिक फिल्म बता रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि सिनेमा का बदलता दर्शक वर्ग व उन्मुक्त रहने वाला युवावर्ग क्या किसी मूल्य को ढोना चाहता है और वह इस फिल्म को पसंद करेगा ? इस बाबत फिल्म की निर्देशक विधि ने पिछले दिनों कहा था कि आज भारत में दो अलग-अलग दुनिया है। एक तरफ छोटे शहरों वाला परंपरागत भारत है। दूसरी ओर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों वाला आधुनिक भारत है। कैसे दोनों भारत को एक साथ लाना संभव है, यह फिल्म में दिखाने की कोशिश है। विधि की यह पहली फिल्म है। यानी अभिनय से लेकर निर्देशन तक का जिम्मा नई टीम ने संभाल रखा है। दरअसल, यहां राजश्री पुन: अपने इतिहास को दोहरा रहा है। जब फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ बन रही थी तो उसका निर्देशन स्वयं सूरज बड़जात्या कर रहे थे। तब वे 24 के थे। फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे सलमान और भाग्यश्री भी नए चेहरे थे। राजश्री की आखिरी सुपर हिट फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ वर्ष 1994 में आई थी। इसे एक बड़ी हिट फिल्म का बेसब्री से इंतजार है। यह उनकी पहचान को बनाए रखने के लिए जरूरी भी है। -- ब्रजेश कुमार झा (brajesh kumar jha) khambaa.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Thu Dec 23 09:30:26 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 23 Dec 2010 09:30:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2IOCkluClgeCktiDgpLngpYjgpIIg4KSH?= =?utf-8?b?4KS44KSy4KS/4KSPIOCkruCliOCkgiDgpK3gpYAg4KSW4KWB4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KS54KWC4KSC?= Message-ID: मुझे नहीं पता कि साहित्य अकादमी ने उदय प्रकाश को साल 2008 का साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अपनी किस भूल को सुधारने की कोशिश की है? मुझे यह भी नहीं पता कि जिस लेखक के "मोहनदास" की नौकरी पर साजिश करके कब्जा कर लिया जाता है, सरेआम उसका हक मार लिया जाता है,उसी लेखक को अकादमिक जगत में कभी भी नौकरी न देने और अब साहित्य अकादमी देने के बीच क्या साम्य है? मुझे ये भी नहीं पता कि यह पुरस्कार आज के दौर के हिन्दी के सबसे सक्रिय और संवेदनशील लेखक के लिए सम्मान है या फिर पढ़ने-पढ़ानेवाली दुनिया से निर्वासित रखकर अब मुआवजा देने की कोशिश? हां इतनी दिलचस्पी जरुर रहेगी कि हमें कोई बता दे कि पुरस्कार चयन समिति में वे कौन लोग थे जिन्होंने उदय प्रकाश के नाम पर पहली बार अडंगा न लगाया हो और अपने स्वाभाविक कर्म से चूक गए? लेकिन मैं परसों से लेकर आजतक बहुत खुश हूं। अपने प्रिय लेखक को लेकर तब तक खुश रहूंगा,जब तक फेसबुक,ट्विटर और वर्चुअल माध्यम पर उनके लिए बधाई संदेशों का तांता लगा रहता है। मैं इसलिए खुश हूं कि हमारा प्रिय लेखक इस पुरस्कार से खुश है। रचना के स्तर पर अगर मेरा लेखक एक चरित्र की हैसियत से आता है और रचना के आखिरी पन्ने तक उदास,व्यवस्था के प्रति उदासीन और अपने साथ किए जानेवाले कुचक्रों को लेकर संवेदना के स्तर पर या तो अतितरल या अतिकठोर हो जाता है तो मुझे कोई तकलीफ नहीं होती,कुछ भी अटपटा नहीं लगता। लेकिन जीवन के ठोस,निर्मम और वास्तविक धरातल पर मैं हमेशा चाहूंगा कि वह खुश रहे। यह एक पाठक की बहुत ही स्वाभाविक सद्इच्छा है,प्लीज इस पर नजर न लगाएं और न ही इसमें गहन बौद्धिकता के क्षण तलाशने की कोशिश न करें। मेरे बधाई संदेश के बाद उदय प्रकाश की तरफ से जो जबाबी संदेश मिला,उसे तीन-चार बार पढ़ते हुए सहज ही अंदाजा लगा सका था कि उन्हें इस पुरस्कार को लेकर कितनी खुशी हो रही होगी? हम चाहेंगे कि वो इस खुशी को लंबे समय तक के लिए अपने भीतर समेट लें। लेकिन हम अपने कमरे में बैठे-बैठे महसूस कर रहे हैं कि उनकी यह खुशी कुछ पाने के बजाय खो जाने के बीच मिल जाने की खुशी है जो स्वाभाविक खुशी से कहीं ज्यादा गाढ़ी,स्थायी और टिकाउ है। मुझे खतरा इस बात का है कि कहीं उदय प्रकाश को सिस्टम के प्रति एक बार फिर से न भरोसा जाग जाए। लेकिन फिर सोचता हूं कि एक लेखक होने के पहले नाक से सांस लेनेवाले और आंखों से नम हो जानेवाले औसत दर्जे के इंसान के तौर पर उदय प्रकश के बीच इस रत्तीभर भरोसे का लौट आना अनिवार्य है,ये भरोसा उन्हें सहमति से कहीं ज्यादा सुकून देगा। लगातार छीजती जाती उम्मीदों के बीच पैबंद की ही तरह ही सही,सिस्टम की देह पर टांगे रखेगा। इस रत्तीभर भरोसे का बना रहना औसत दर्जे के इंसान उदय प्रकाश के साथ-साथ इस पूरी व्यवस्था के लिए भी जरुरी है नहीं तो या तो आत्मघाती या फिर बर्बर हो जाने का बराबर खतरा बना रहेगा। उदय प्रकाश से मेरी कुल मुलाकात आधे दर्जन के आसपास की होगी। इस आधे दर्जन की मुलाकात में कभी ज्यादा सघन तो कभी थोड़ा कम लेकिन सामान्य रहा- एक समृद्ध सोच,उत्साहित कर देनेवाला अंदाज,लगातार लिखते रहने के लिए सुलगा देनेवाली तारीफें और जिंदगी पर भरोसा करने की हिदायतें और सलाह। यह सबकुछ मिलकर अपने आप एक ऐसा व्योम रच जाता कि जिससे निकलने का मन नहीं करता। एक बार मैंने उनके ब्लॉग पर कमेंट कर दिया था- उदय प्रकाश मुझे हिन्दी के अकेले ऐसे रचनाकार लगते हैं जिन्हें देखकर महसूस करता हूं और भरोसा जगता है कि आप लिखकर भी वो सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसके लिए लोग दुनियाभर के समझौते करते हैं। अपने प्रिय लेखक ने अपने घर की एक-एक चीज को दिखाते हुए कहा था- ये सब हासिल कर सकते हैं,आपने कहा था न। हां,सब हासिल कर सकते हैं,बस भरोसे से लिखते रहिए। लेकिन इस भरोसे के बीच भी जिसे कि लंबे समय तक खुश रहने की कामना के साथ भी उस प्रसंग और उस परिवेश को याद करना जरुरी लग रहा है। उदय प्रकाश के साथ मैं जब भी मिला,वो बहुत ही समृद्ध माहौल रहा। ये समृद्धि सिर्फ वैचारिक या फिर अनुभव के स्तर पर नहीं ठेठ वस्तु आधारित समृद्धि के स्तर पर जिस पर हिन्दी समाज दुनियाभर की शैतानी स्टीगरें चस्पाता है और जिसे हासिल करने के लिए मारा-मारा फिरता है। यूनिवर्सिटी का सबसे खूबसूरत सेमिनार हॉल,दिल्ली का सबसे पॉश इलाका,किताबों और मंहगी शराब की बोतलों के बीच अटके हमलोग। लेकिन इस समृद्धि के बीच कई बार वो भाव आ जाते जिसे महसूस करते हुए मुझे अफसोस होता। यह मुझे एक लेखक के दर्द से कहीं ज्यादा हिन्दी समाज के ओछेपन और बजबजाती मानसिकता का हिस्सा लगता। मुझे नहीं पता कि अकादमिक जगत में किसी को नहीं जुड़ने देने के पीछे उसकी कौन सी कमी आड़े आ जाती है लेकिन जिन योग्यताओं और खूबियों के बारे में सुनता आया हूं,वो सब तो अपने लेखक के पास सालों से है। फिर वह क्यों इस दुनिया से निर्वासित कर दिया गया? मैं देश के अंग्रेजी अखबारों और विदेशी पत्रिकाओं की कतरनों के बीच उनके साथ बैठा हूं जो कि उन पर लिखे गए हैं। हमें अपने उपर भी भरोसा नहीं होता और जैसे कभी आंखों में आंसू के छलक जाने पर पास की चीजें भी बहुत दूर की दिखाई देती है,वैसी स्थिति बनती है और लेखक बिल्कुल पास में बैठा है। क्या इतनी सारी चीजें,तारीफ और सम्मान में लिखे गए इन हजारों शब्दों के बीच लेखक इस स्तर पर आकर इतना इमोशनल हो जाएगा,यकीन नहीं होता। मुझे फिर लेखक पर गुस्सा आता है,इतनी चीजों के बावजूद अकादमिक दुनिया में न होने का दुख सालता है,यह सचमुच इतना बड़ा दुख है? फिर मैं अपने को धिक्कारता हूं कि तुम अपने लेखक की इस स्वाभाविक स्थिति के साथ पिंड़ छुड़ाकर भागना चाहते हो? फिर जब-तब महसूस करता हूं कि आप दुनियाभर में कितने भी फूलों से न लाद दिए जाएं,तारीफों के मानपत्र से दराज भर जाएं लेकिन अपने ही समाज में,अपने ही लोगों के बीच निर्वासित कर दिए जाने का दर्द उस पर भारी पड़ता है। मैंने तब भी कहा था और आज भी कहता हूं कि आप जिस मुकाम पर है, लोग देखकर न जाने अपनी कितनी रातें और कितनी चेलों की खेप वहां तक पहुंचने के लिए खेप देते हैं? लेकिन इस अकादमिक सींकचों को छोड़ दें तो उदय प्रकाश इससे ठीक उलट पाठकों से प्यार पानेवाले सबसे ज्यादा खुशनसीब लेखकों में से हैं। उन तमाम बड़े लेखकों से भी कहीं ज्यादा जो विश्वविद्यालयों की सिलेबस में तो जगह पा लेते हैं लेकिन जिन पर प्रश्नोत्तर तैयार करते समय छात्र बिना उनके साहित्यिक अवदान पर गौर फरमाए, आड़ी-तिरछी गालियां बक दिया करते हैं। ये उदय प्रकाश के लिए कितना सुखद है कि वो ऐसे महान रचानकार नहीं बने जिन्हें लोग परीक्षा में सफल होने के लिए पढ़ा करते हों और जिनकी लिखी गई रचनाएं परीक्षा खत्म होने के बाद व्ऑयज टायलेट में गंधाने लग जाती हों। ये कितना अलग और खुश होने की वजह है कि उनकी रचनाएं लाइब्रेरी की तोड़-जोड़ से नहीं पाठकों की मांग पर बिकती है. उनकी एक-एक रचनाओं को जीनेवाला पाठक,उनके एक-एक गढ़े गए चरित्रों में अपने हिस्से का सच खोजनेवाला पाठक बेहतर तरीके से जानता है कि उसके लेखक का क्या कद है? वो अपनी कद के साथ जीता रहे,इससे बड़ी खुशी एक पाठक के लिए और क्या हो सकती है? उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Dec 23 09:41:18 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 23 Dec 2010 09:41:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIngpKY=?= =?utf-8?b?4KSvIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktiDgpJbgpYHgpLYg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?IOCkh+CkuOCksuCkv+CkjyDgpK7gpYjgpIIg4KSt4KWAIOCkluClgQ==?= =?utf-8?b?4KS2IOCkueClguCkgg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2010/12/23 Subject: उदय प्रकाश खुश हैं इसलिए मैं भी खुश हूं To: deewan मुझे नहीं पता कि साहित्य अकादमी ने उदय प्रकाश को साल 2008 का साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अपनी किस भूल को सुधारने की कोशिश की है? मुझे यह भी नहीं पता कि जिस लेखक के "मोहनदास" की नौकरी पर साजिश करके कब्जा कर लिया जाता है, सरेआम उसका हक मार लिया जाता है,उसी लेखक को अकादमिक जगत में कभी भी नौकरी न देने और अब साहित्य अकादमी देने के बीच क्या साम्य है? मुझे ये भी नहीं पता कि यह पुरस्कार आज के दौर के हिन्दी के सबसे सक्रिय और संवेदनशील लेखक के लिए सम्मान है या फिर पढ़ने-पढ़ानेवाली दुनिया से निर्वासित रखकर अब मुआवजा देने की कोशिश? हां इतनी दिलचस्पी जरुर रहेगी कि हमें कोई बता दे कि पुरस्कार चयन समिति में वे कौन लोग थे जिन्होंने उदय प्रकाश के नाम पर पहली बार अडंगा न लगाया हो और अपने स्वाभाविक कर्म से चूक गए? लेकिन मैं परसों से लेकर आजतक बहुत खुश हूं। अपने प्रिय लेखक को लेकर तब तक खुश रहूंगा,जब तक फेसबुक,ट्विटर और वर्चुअल माध्यम पर उनके लिए बधाई संदेशों का तांता लगा रहता है। मैं इसलिए खुश हूं कि हमारा प्रिय लेखक इस पुरस्कार से खुश है। रचना के स्तर पर अगर मेरा लेखक एक चरित्र की हैसियत से आता है और रचना के आखिरी पन्ने तक उदास,व्यवस्था के प्रति उदासीन और अपने साथ किए जानेवाले कुचक्रों को लेकर संवेदना के स्तर पर या तो अतितरल या अतिकठोर हो जाता है तो मुझे कोई तकलीफ नहीं होती,कुछ भी अटपटा नहीं लगता। लेकिन जीवन के ठोस,निर्मम और वास्तविक धरातल पर मैं हमेशा चाहूंगा कि वह खुश रहे। यह एक पाठक की बहुत ही स्वाभाविक सद्इच्छा है,प्लीज इस पर नजर न लगाएं और न ही इसमें गहन बौद्धिकता के क्षण तलाशने की कोशिश न करें। मेरे बधाई संदेश के बाद उदय प्रकाश की तरफ से जो जबाबी संदेश मिला,उसे तीन-चार बार पढ़ते हुए सहज ही अंदाजा लगा सका था कि उन्हें इस पुरस्कार को लेकर कितनी खुशी हो रही होगी? हम चाहेंगे कि वो इस खुशी को लंबे समय तक के लिए अपने भीतर समेट लें। लेकिन हम अपने कमरे में बैठे-बैठे महसूस कर रहे हैं कि उनकी यह खुशी कुछ पाने के बजाय खो जाने के बीच मिल जाने की खुशी है जो स्वाभाविक खुशी से कहीं ज्यादा गाढ़ी,स्थायी और टिकाउ है। मुझे खतरा इस बात का है कि कहीं उदय प्रकाश को सिस्टम के प्रति एक बार फिर से न भरोसा जाग जाए। लेकिन फिर सोचता हूं कि एक लेखक होने के पहले नाक से सांस लेनेवाले और आंखों से नम हो जानेवाले औसत दर्जे के इंसान के तौर पर उदय प्रकश के बीच इस रत्तीभर भरोसे का लौट आना अनिवार्य है,ये भरोसा उन्हें सहमति से कहीं ज्यादा सुकून देगा। लगातार छीजती जाती उम्मीदों के बीच पैबंद की ही तरह ही सही,सिस्टम की देह पर टांगे रखेगा। इस रत्तीभर भरोसे का बना रहना औसत दर्जे के इंसान उदय प्रकाश के साथ-साथ इस पूरी व्यवस्था के लिए भी जरुरी है नहीं तो या तो आत्मघाती या फिर बर्बर हो जाने का बराबर खतरा बना रहेगा। उदय प्रकाश से मेरी कुल मुलाकात आधे दर्जन के आसपास की होगी। इस आधे दर्जन की मुलाकात में कभी ज्यादा सघन तो कभी थोड़ा कम लेकिन सामान्य रहा- एक समृद्ध सोच,उत्साहित कर देनेवाला अंदाज,लगातार लिखते रहने के लिए सुलगा देनेवाली तारीफें और जिंदगी पर भरोसा करने की हिदायतें और सलाह। यह सबकुछ मिलकर अपने आप एक ऐसा व्योम रच जाता कि जिससे निकलने का मन नहीं करता। एक बार मैंने उनके ब्लॉग पर कमेंट कर दिया था- उदय प्रकाश मुझे हिन्दी के अकेले ऐसे रचनाकार लगते हैं जिन्हें देखकर महसूस करता हूं और भरोसा जगता है कि आप लिखकर भी वो सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसके लिए लोग दुनियाभर के समझौते करते हैं। अपने प्रिय लेखक ने अपने घर की एक-एक चीज को दिखाते हुए कहा था- ये सब हासिल कर सकते हैं,आपने कहा था न। हां,सब हासिल कर सकते हैं,बस भरोसे से लिखते रहिए। लेकिन इस भरोसे के बीच भी जिसे कि लंबे समय तक खुश रहने की कामना के साथ भी उस प्रसंग और उस परिवेश को याद करना जरुरी लग रहा है। उदय प्रकाश के साथ मैं जब भी मिला,वो बहुत ही समृद्ध माहौल रहा। ये समृद्धि सिर्फ वैचारिक या फिर अनुभव के स्तर पर नहीं ठेठ वस्तु आधारित समृद्धि के स्तर पर जिस पर हिन्दी समाज दुनियाभर की शैतानी स्टीगरें चस्पाता है और जिसे हासिल करने के लिए मारा-मारा फिरता है। यूनिवर्सिटी का सबसे खूबसूरत सेमिनार हॉल,दिल्ली का सबसे पॉश इलाका,किताबों और मंहगी शराब की बोतलों के बीच अटके हमलोग। लेकिन इस समृद्धि के बीच कई बार वो भाव आ जाते जिसे महसूस करते हुए मुझे अफसोस होता। यह मुझे एक लेखक के दर्द से कहीं ज्यादा हिन्दी समाज के ओछेपन और बजबजाती मानसिकता का हिस्सा लगता। मुझे नहीं पता कि अकादमिक जगत में किसी को नहीं जुड़ने देने के पीछे उसकी कौन सी कमी आड़े आ जाती है लेकिन जिन योग्यताओं और खूबियों के बारे में सुनता आया हूं,वो सब तो अपने लेखक के पास सालों से है। फिर वह क्यों इस दुनिया से निर्वासित कर दिया गया? मैं देश के अंग्रेजी अखबारों और विदेशी पत्रिकाओं की कतरनों के बीच उनके साथ बैठा हूं जो कि उन पर लिखे गए हैं। हमें अपने उपर भी भरोसा नहीं होता और जैसे कभी आंखों में आंसू के छलक जाने पर पास की चीजें भी बहुत दूर की दिखाई देती है,वैसी स्थिति बनती है और लेखक बिल्कुल पास में बैठा है। क्या इतनी सारी चीजें,तारीफ और सम्मान में लिखे गए इन हजारों शब्दों के बीच लेखक इस स्तर पर आकर इतना इमोशनल हो जाएगा,यकीन नहीं होता। मुझे फिर लेखक पर गुस्सा आता है,इतनी चीजों के बावजूद अकादमिक दुनिया में न होने का दुख सालता है,यह सचमुच इतना बड़ा दुख है? फिर मैं अपने को धिक्कारता हूं कि तुम अपने लेखक की इस स्वाभाविक स्थिति के साथ पिंड़ छुड़ाकर भागना चाहते हो? फिर जब-तब महसूस करता हूं कि आप दुनियाभर में कितने भी फूलों से न लाद दिए जाएं,तारीफों के मानपत्र से दराज भर जाएं लेकिन अपने ही समाज में,अपने ही लोगों के बीच निर्वासित कर दिए जाने का दर्द उस पर भारी पड़ता है। मैंने तब भी कहा था और आज भी कहता हूं कि आप जिस मुकाम पर है, लोग देखकर न जाने अपनी कितनी रातें और कितनी चेलों की खेप वहां तक पहुंचने के लिए खेप देते हैं? लेकिन इस अकादमिक सींकचों को छोड़ दें तो उदय प्रकाश इससे ठीक उलट पाठकों से प्यार पानेवाले सबसे ज्यादा खुशनसीब लेखकों में से हैं। उन तमाम बड़े लेखकों से भी कहीं ज्यादा जो विश्वविद्यालयों की सिलेबस में तो जगह पा लेते हैं लेकिन जिन पर प्रश्नोत्तर तैयार करते समय छात्र बिना उनके साहित्यिक अवदान पर गौर फरमाए, आड़ी-तिरछी गालियां बक दिया करते हैं। ये उदय प्रकाश के लिए कितना सुखद है कि वो ऐसे महान रचानकार नहीं बने जिन्हें लोग परीक्षा में सफल होने के लिए पढ़ा करते हों और जिनकी लिखी गई रचनाएं परीक्षा खत्म होने के बाद व्ऑयज टायलेट में गंधाने लग जाती हों। ये कितना अलग और खुश होने की वजह है कि उनकी रचनाएं लाइब्रेरी की तोड़-जोड़ से नहीं पाठकों की मांग पर बिकती है. उनकी एक-एक रचनाओं को जीनेवाला पाठक,उनके एक-एक गढ़े गए चरित्रों में अपने हिस्से का सच खोजनेवाला पाठक बेहतर तरीके से जानता है कि उसके लेखक का क्या कद है? वो अपनी कद के साथ जीता रहे,इससे बड़ी खुशी एक पाठक के लिए और क्या हो सकती है? उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Dec 24 23:55:56 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 24 Dec 2010 23:55:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KWN4KSk4KS+4KSo4KSX4KWL4KSIIOCkteCkv+CkqOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSv4KSVIOCkuOClh+CkqCDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCkieCkoA==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkj+CklSDgpIbgpLXgpL7gpJwg4KSl4KWA?= Message-ID: आज से करीब ढाई साल पहले 16 मई 2008 को महमूद फारुकी ने विनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ होनेवाले कार्यक्रम में दास्तानगोई की थी। साथ में दानिश भी थे। उस दिन इन दोनों का मिजाज बिल्कुल अलग था। माहौल के मुताबिक एक ही साथ कई मिले-जुले भाव। रवीन्द्र भवन,साहित्य अकादमी परिसर में खचाखच लोग भरे थे। खुले में देर शाम तक लोग टस से मस नहीं हुए। आज उस शाम और दास्तानगोई का जिक्र फिर से करना चाहता हूं। वहां से लौटकर मैंने जो पोस्ट लिखी,एक बार फिर से साझा करना चाहता हूं। दीवान के भंडार में ये पोस्ट आज भी मौजूद हैं। लेकिन नए सिरे से इसे आज फिर पढ़ना आपको जरुर लगे,ऐसी उम्मीद है। इस नीयत और भरोसे के साथ कि अब किसी एक शख्स और मुद्दे के साथ छिटपुट तरीके से प्रतिरोध जाहिर करने से कहीं ज्यादा जरुरी है,अभिव्यक्ति की आजादी सुनिश्चित न किए जाने तक लड़ते रहना,धक्के देते रहना,चीजों को अपनी कोशिशों से दरकाते रहना- महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि- *यदि देश की सुरक्षा यही होती है *** *कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए* ** *आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द* ** *अश्लील हो* ** *और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे* ** *तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा* *है* *-पाश* ** * * ** फारुकी साहब की दास्तान गोई में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था जहां जादूगर अय्यारों को कुछ इस तरह की सुरक्षा दे रहे थे कि अय्यार तबाह-तबाह हो गए। लेकिन ये जादूगर एक सुरक्षित मुल्क बनाने पर आमादा थे। फारुकी साहब के हिसाब से वो मुल्क-ए-कोहिस्तान बनाना चाह रहे थे। जहां के लिए सबसे खतरनाक शब्द था- आजादी। हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे। छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है। लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी। सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है। दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं। छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं। विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो- या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है.. नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस... लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Dec 25 05:17:56 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 25 Dec 2010 05:17:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSw4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSV4KS+4KSwIOCkquCkvuCkleCksCDgpKzgpLngpYHgpKQg4KSW?= =?utf-8?b?4KWB4KS2IOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYjgpIIg4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2IQ==?= Message-ID: पुरस्कार पाकर बहुत खुश नहीं हैं उदय प्रकाश!शशिकांत *हिंदी* के बहुचर्चित कथाकार और कवि उदय प्रकाश को इस वर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हो चुकी है. यह पुरस्कार उन्हें उनकी बेहद मार्मिक बहुचर्चित लम्बी कहानी 'मोहनदास' के लिए दिया जाएगा.* * *अब* चूँकि "मोहनदास" पुरस्कृत की जा चुकी है तो इस बात का खुलासा हो जाना चाहिए कि "मोहनदास" उदय प्रकाश की आत्मकथात्मक कृति है. *बहुत* कम लोग जानते हैं कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं और विश्व की आधी दर्जन भाषाओं में अनूदित हो चुकी "मोहनदास" कहानी उदय प्रकाश ने तब लिखी थी जब दिल्लीविश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर के पद के लिए उन्होंने इंटरव्यू दिया था और उन्हें वह नौकरी नहीं दी गई थी. *तब* उदय प्रकाश को नौकरी इसलिए नहीं दी गई थी क्योंकि चयन समिति के एक सदस्य को इस बात पर गहरा ऐतराज था कि उदय प्रकाश के पास पीएच.डी. की डिग्री नहीं है.*हालांकि * तबतक उदय प्रकाश की कहानियों और कविताओं पर देश भर के विश्वविद्यालयों में तब तक आधे दर्जन से ज़्यादा पीएच.डी और एक दर्जन से ज़्यादा एम.फिल की उपाधियाँ बांटी जा चुकी थीं. इसके अलावा कई विदेशी विश्वविद्यालयों के सिलेबस में उनकी कहानियां जगह पा चुकी थीं और वहां पढ़ाई जा रही थीं. *वह* उदय प्रकाश की ज़िन्दगी का वो दौर था जब वे कई महीने तक बोन टीबी की बीमारी से ग्रस्त थे, ठीक से फ्रीलांसिंग भी नहीं कर पा रहे थे और आर्थिक असुरक्षा के कारण घर-परिवार को पालने में भी दिक्कत हो रही थी. * उदय प्रकाश* को उन दिनों उस नौकरी की सख्त दरकार थी और उसके लिए वे डीजर्व भी करते थे, लेकिन संवेदनाओं की मलाई खानेवाले हिंदी के सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज शातिर लोग इतने निर्मम और मोटी खाल के थे कि सबने मिलकर हिंदी के इस बेहद संकोची लेकिन नैतिक और प्रतिभाशाली रचनाकार को दलितों और अछूतों की तरह लगभग देशनिकाला कर दिया था. *हिंदी *और अन्य भारतीय भाषाओं के संवेदनशील पाठक को यह जानकार आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपनी निजी ज़िन्दगी में घटित एक बेहद दर्दनाक और अनितिक हादसे को आधार बनाकर उदय प्रकाशने एक ऐसा महा-आख्यान (मोहनदास) रच दिया जिसको पढ़ते हुए न जाने कितने पाठक फूट-फूट कर रोए है. *कभी* विचारधारा की गिरोहबंदी करके तो कभी सत्ता के गलियारे में तीन तिकड़म करके विश्वविद्यालयों, अकादमियों और विभिन्न सरकारी संस्थाओं में पहले ख़ुद घुसने और फिर अपने चेलों-चमचों, चापलूसों, भाई-भतीजों, बेटी-दामादों को फिट कराने की जुगत में लगे हिंदी के बहुतेरे भ्रष्ट, अनैतिक और मीडियाकर लेखकों-अध्यापकों की छाती पर आज उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने की ख़बर के बाद सांप लोट रहा है. * उदय प्रकाश* आज भी परछाई बनकर मोहनदास के साथ खड़े हैं. ताकि फिर कोई किसी और मोहनदास के साथ ऐसा अत्याचार न कर सके. शायद इसीलिए बड़े रचनाकार हैं उदय प्रकाश और इसीलिए पाठक उन्हें बेहद प्यार करते हैं, वरना पुरस्कृत होने मात्र से लेखक बड़ा नहीं हो जाता. *..... तभी तो पुरस्कार पाकर बहुत खुश नहीं हैं उदय प्रकाश ! * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Dec 25 11:07:25 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 25 Dec 2010 11:07:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4u4KSk4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWI4KSm4KS+IOCkueCli+CkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KSJ4KSm?= =?utf-8?b?4KSvIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktiAh?= Message-ID: ...तब पैदा होते हैं उदय प्रकाश ! * शशिकांत* *जब किसी के साथ अन्याय होता है, और होता चला जाता है.....तब पैदा होते हैं उदय प्रकाश ! * *हिंदी* के बहुचर्चित कथाकार और कवि उदय प्रकाश को इस वर्ष साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हो चुकी है. यह पुरस्कार उन्हें उनकी बेहद मार्मिक बहुचर्चित लम्बी कहानी "मोहनदास" के लिए दिया जाएगा. *अब* चूँकि "मोहनदास" पुरस्कृत की जा चुकी है तो इस बात का खुलासा हो जाना चाहिए कि "मोहनदास" उदय प्रकाश की आत्मकथात्मक कृति है. *बहुत* कम लोग जानते हैं कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं और विश्व की आधी दर्जन भाषाओं में अनूदित हो चुकी "मोहनदास" कहानी उदय प्रकाश ने तब लिखी थी जब दिल्लीविश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर के पद के लिए उन्होंने इंटरव्यू दिया था और उन्हें वह नौकरी नहीं दी गई थी. *तब *उदय प्रकाश को नौकरी इसलिए नहीं दी गई थी क्योंकि चयन समिति के सदस्य को इस बात पर गहरा ऐतराज था कि उदय प्रकाश के पास पीएच.डी की डिग्री नहीं है. *हालांकि* तबतक उदय प्रकाश की कहानियों और कविताओं पर देश भर के विश्वविद्यालयों में आधे दर्जन से ज़्यादा पीएच.डी और एक दर्जन से ज़्यादा एम.फिल की उपाधियाँ बांटी जा चुकी थीं. इसके अलावा कई विदेशी विश्वविद्यालयों के सिलेबस में उनकी कहानियां जगह पा चुकी थीं और वहां पढ़ाई जा रही थीं. * * * * *वह* उदय प्रकाश की ज़िन्दगी का वो दौर था जब वे कई महीने तक बोन टीबी की बीमारी से ग्रस्त थे, ठीक से फ्रीलांसिंग भी नहीं कर पा रहे थे और आर्थिक तंगहाली में घर-परिवार चलाने में भी दिक्कत हो रही थी. *उदय प्रकाश* को उन दिनों उस नौकरी की सख्त दरकार थी और उसके लिए वे डीजर्व भी करते थे, लेकिन संवेदनाओं की मलाई खानेवाले हिंदी के सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज शातिर लोग इतने निर्मम और मोटी खाल के थे कि सबने मिलकर हिंदी के इस बेहद संकोची लेकिन नैतिक और प्रतिभाशाली रचनाकार को दलितों और अछूतों की तरह लगभग देशनिकाला कर दिया था. *हिंदी *और अन्य भारतीय भाषाओं के संवेदनशील पाठक को यह जानकार आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपनी निजी जि़न्दगी में घटित एक बेहद दर्दनाक और अनैतिक हादसे को आधार बनाकर उदय प्रकाश ने एक ऐसा महा-आख्यान (मोहनदास) रच दिया जिसको पढ़ते हुए न जाने कितने पाठक फूट-फूट कर रोए हैं. *कभी* विचारधारा की गिरोहबंदी करके तो कभी सत्ता के गलियारे में तीन तिकड़म करके विश्वविद्यालयों, अकादमियों और विभिन्न सरकारी संस्थाओं में पहले ख़ुद घुसने और फिर अपने चेलों-चमचों, चापलूसों, भाई-भतीजों, बेटी-दामादों को फिट कराने की जुगत में लगे हिंदी के बहुतेरे भ्रष्ट, अनैतिक और मीडियाकर लेखकों, अध्यापकों की छाती पर आज उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने की ख़बर के बाद सांप लोट रहा है. *उदय प्रकाश* आज भी परछाई बनकर मोहनदास के साथ खड़े हैं. ताकि फिर कोई किसी और मोहनदास के साथ ऐसा अत्याचार न कर सके. शायद इसीलिए बड़े रचनाकार हैं उदय प्रकाश और पाठक उन्हें बेहद प्यार करते हैं, वरना पुरस्कृत होने मात्र से लेखक बड़ा नहीं हो जाता..... तभी तो पुरस्कार पाकर बहुत खुश नहीं हैं उदय प्रकाश ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Dec 25 11:08:13 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 25 Dec 2010 11:08:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruCkvuCkguCkl+CkqOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYcg4KSW4KWB?= =?utf-8?b?4KSmIOCkreClgCDgpKrgpL7gpLDgpKbgpLDgpY3gpLbgpYAg4KSs4KSo?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: सूचना मांगने वाले खुद भी पारदर्शी बनें सूचना अधिकार कार्यकर्ता मनीष सिसोदिया ने ‘अपना पन्ना’ (सूचना अधिकार की मासिक पत्रिका) के माध्यम से सूचना अधिकार की लोकप्रियता और इसके मार्ग में बाधा को लेकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि देश भर में सूचना के अधिकार की शक्ति से जन-जन को परिचित कराने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वेक्षण में 54 फीसदी लोगों ने माना कि उन्हें सूचना अधिकार कानून की जानकारी प्रिंट मीडिया से हुई। अर्थात अखबार और पत्रिकाओं ने उन्‍हें इस कानून से परिचित कराया। 09 फीसदी लोगों को इस कानून के संबंध में पहली जानकारी टीवी से प्राप्त हुई। 09 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्‍हें रेडियो ने बताया कि सूचना का अधिकार है क्या? 13 फीसदी लोगों को इसकी जानकारी किसी स्वयं सेवी संस्थान और 13 फीसदी लोगों को यह जानकारी मित्रों और सगे संबंधियों से मिली। सिसोदिया के अनुसार सर्वे के परिणाम से दो बातें बिल्कुल साफ होती हैं। एक तरफ जहां आम जनता आरटीआई कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी, नेता, ठेकेदार मिल कर कानून की धार को कुन्द करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। अब देखना यह है कि जीत किसकी होती है? पारदर्शिता के जुड़ा हुआ ही एक दूसरा प्रश्‍न भी है, जो आजकल सूचना अधिकार के कानून के साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए बड़ा सवाल होगा। जिस पारदर्शिता की उम्मीद हम सरकार से करते हैं, वह पारदर्शिता उन संगठनों और व्यक्तियों को भी अपने जीवन, व्यवहार और काम काज में लाना चाहिए। इससे वे आम जन का विश्वास जीत पाएंगे। यह विश्वास उस समय बहुत काम आएगा, जब कोई सरकारी अधिकारी किसी सूचना अधिकार कार्यकर्ता को झूठे मुकदमे में फंसाने की कोशिश करेगा। इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानो जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग बिहार, बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय ने जीती। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय ने अपने काम काज और जीवन में जो पारदर्शिता बरती है, उसी की वजह से यह फैसला उनके हक में आया। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया। शिवप्रकाश राय सिर्फ एक व्यक्ति का नाम है, जो बक्सर में एक संस्था की तरह काम कर रहे हैं। आज भी वे लगातार सूचना अधिकार को लेकर सक्रिय हैं। बात को आगे बढ़ाने से पहले एक कहानी। यह कहानी हो सकता है, आपने पहले कहीं सुनी होगी, जिसमें एक बच्चे को सात दिनों बाद बुलाकर महात्मा गांधीजी सिर्फ ईमली ना खाने का आग्रह इसलिए करते हैं, क्योकि जब वह पहली बार आया था उस वक्त तक वे खुद भी ईमली बड़े चाव से खाते थे। गांधीजी का मानना था यदि किसी को संयम की सीख देनी है तो यह संयम पहले खुद से ही शुरू होना चाहिए। यही बात सूचना के अधिकार कानून पर भी लागू होनी चाहिए। हाल में ही एक सूचना अधिकार कार्यकर्ता अफरोज आलम ने आधे दर्जन से अधिक सूचना अधिकार पर काम करने वाले संगठनों को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपने कुछ सवाल दर्ज किए और साथ में दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर भी लगाया। मतलब साफ था, वह उन लोगों से सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सवाल पूछना चाहता था, जिनपर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। तर्क स्पष्ट था, यदि कोई संगठन सूचना के अधिकार और पारदर्शिता की बात करता है तो उसे यह पारदर्शिता अपने संगठन से शुरू करनी चाहिए। हर बात के लिए यह जरूरी तो नहीं कि कानून का पेंच मौजूद ही हो। कुछ बातें नैतिकता के मानदंड पर भी तो तय होनी चाहिए। वैसे सवाल का जवाब उन सभी संगठनों की तरफ से आया, जिनसे सवाल पूछे गए थे। दिलचस्प यह था कि सवाल जितने बेबाक और बेलाग थे, जवाब उतने ही गोलमोल तरीके से लिखे गए थे। मसलन अधिकांश संस्थानों से आए जवाबों का सार यही था कि हम आपके सूचना के अधिकार की अर्जी का हार्दिक स्वागत तो करते हैं, लेकिन हम पर सूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। दो-तीन संगठनों ने जवाब के लिए अपनी वेबसाईट देखने की बात की लेकिन सवाल के बावत वहां कोई जानकारी नहीं मिली। अफरोज द्वारा संगठनों से कुल आठ से दस सवाल पूछे गए थे। मसलन संस्था की स्थापना कब और क्यों की गई? स्थापना का उद्देश्य क्या था? पिछले तीन वर्षों में संस्था द्वारा कितने और कब कब कार्यक्रम आयोजित किए गए, पिछले तीन वर्षों में संस्था को कहां-कहां से कितनी राशि फंड के रुप में मिली है? पिछले तीन वर्षों में संस्था के लोगों ने कहां-कहां की यात्राएं की और इस पर आने वाले खर्च का ब्योरा क्या है? इस तरह के सवाल का जवाब देना एक दो संस्थाओं को छोड़कर लगभग सभी के लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए उन्होंने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। जिन संगठनों से सवाल पूछे गए थे, उस सूची में राजस्थान के राजसमन्द जिले के देवडूंगरी की भी एक संस्था थी, ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन।' इस संगठन द्वारा जो जवाब दिया गया, वह वास्तव में काबिले तारीफ ही नहीं काबिले गौर भी है। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि संस्था ने दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर वापस नहीं किया और सभी सवालों का विस्तार से जवाब दिया। उन्होंने जवाब में यह दलील भी नहीं दी कि वे सूचना के अधिकार कानून के अंदर नहीं आते। संगठन से आए पत्र की शुरुआत कुछ इन शब्दों में थी- ' आपका आवेदन हमें प्राप्त हुआ। पत्र पढ़ते ही हमें बहुत अच्छा लगा कि आपने संगठन से सूचनाएं मांगी हैं। आपके पत्र का हम स्वागत करते हैं और निम्नलिखित सूचनाएं बिन्दुवार भिजवा रहे हैं।' उसके बाद एक एक करके मांगी गई सभी सूचनाओं के जवाब विस्तार से दिए गए हैं। सूचना के अधिकार पर काम करने वाले संगठनों के लिए ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ एक आदर्श संगठन हो सकता है। वास्तव में यदि कोई संगठन व्यवस्था में पारदर्शिता की मांग करता है, तो यह बेहद जरुरी है कि वह सबसे पहले अपने काम काज के तरीके में पारदर्शिता लाए। वह खुद को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर नहीं बल्कि अंदर माने। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Dec 25 11:08:13 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 25 Dec 2010 11:08:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruCkvuCkguCkl+CkqOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYcg4KSW4KWB?= =?utf-8?b?4KSmIOCkreClgCDgpKrgpL7gpLDgpKbgpLDgpY3gpLbgpYAg4KSs4KSo?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: सूचना मांगने वाले खुद भी पारदर्शी बनें सूचना अधिकार कार्यकर्ता मनीष सिसोदिया ने ‘अपना पन्ना’ (सूचना अधिकार की मासिक पत्रिका) के माध्यम से सूचना अधिकार की लोकप्रियता और इसके मार्ग में बाधा को लेकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि देश भर में सूचना के अधिकार की शक्ति से जन-जन को परिचित कराने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वेक्षण में 54 फीसदी लोगों ने माना कि उन्हें सूचना अधिकार कानून की जानकारी प्रिंट मीडिया से हुई। अर्थात अखबार और पत्रिकाओं ने उन्‍हें इस कानून से परिचित कराया। 09 फीसदी लोगों को इस कानून के संबंध में पहली जानकारी टीवी से प्राप्त हुई। 09 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्‍हें रेडियो ने बताया कि सूचना का अधिकार है क्या? 13 फीसदी लोगों को इसकी जानकारी किसी स्वयं सेवी संस्थान और 13 फीसदी लोगों को यह जानकारी मित्रों और सगे संबंधियों से मिली। सिसोदिया के अनुसार सर्वे के परिणाम से दो बातें बिल्कुल साफ होती हैं। एक तरफ जहां आम जनता आरटीआई कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी, नेता, ठेकेदार मिल कर कानून की धार को कुन्द करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। अब देखना यह है कि जीत किसकी होती है? पारदर्शिता के जुड़ा हुआ ही एक दूसरा प्रश्‍न भी है, जो आजकल सूचना अधिकार के कानून के साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए बड़ा सवाल होगा। जिस पारदर्शिता की उम्मीद हम सरकार से करते हैं, वह पारदर्शिता उन संगठनों और व्यक्तियों को भी अपने जीवन, व्यवहार और काम काज में लाना चाहिए। इससे वे आम जन का विश्वास जीत पाएंगे। यह विश्वास उस समय बहुत काम आएगा, जब कोई सरकारी अधिकारी किसी सूचना अधिकार कार्यकर्ता को झूठे मुकदमे में फंसाने की कोशिश करेगा। इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानो जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग बिहार, बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय ने जीती। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय ने अपने काम काज और जीवन में जो पारदर्शिता बरती है, उसी की वजह से यह फैसला उनके हक में आया। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया। शिवप्रकाश राय सिर्फ एक व्यक्ति का नाम है, जो बक्सर में एक संस्था की तरह काम कर रहे हैं। आज भी वे लगातार सूचना अधिकार को लेकर सक्रिय हैं। बात को आगे बढ़ाने से पहले एक कहानी। यह कहानी हो सकता है, आपने पहले कहीं सुनी होगी, जिसमें एक बच्चे को सात दिनों बाद बुलाकर महात्मा गांधीजी सिर्फ ईमली ना खाने का आग्रह इसलिए करते हैं, क्योकि जब वह पहली बार आया था उस वक्त तक वे खुद भी ईमली बड़े चाव से खाते थे। गांधीजी का मानना था यदि किसी को संयम की सीख देनी है तो यह संयम पहले खुद से ही शुरू होना चाहिए। यही बात सूचना के अधिकार कानून पर भी लागू होनी चाहिए। हाल में ही एक सूचना अधिकार कार्यकर्ता अफरोज आलम ने आधे दर्जन से अधिक सूचना अधिकार पर काम करने वाले संगठनों को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपने कुछ सवाल दर्ज किए और साथ में दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर भी लगाया। मतलब साफ था, वह उन लोगों से सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सवाल पूछना चाहता था, जिनपर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। तर्क स्पष्ट था, यदि कोई संगठन सूचना के अधिकार और पारदर्शिता की बात करता है तो उसे यह पारदर्शिता अपने संगठन से शुरू करनी चाहिए। हर बात के लिए यह जरूरी तो नहीं कि कानून का पेंच मौजूद ही हो। कुछ बातें नैतिकता के मानदंड पर भी तो तय होनी चाहिए। वैसे सवाल का जवाब उन सभी संगठनों की तरफ से आया, जिनसे सवाल पूछे गए थे। दिलचस्प यह था कि सवाल जितने बेबाक और बेलाग थे, जवाब उतने ही गोलमोल तरीके से लिखे गए थे। मसलन अधिकांश संस्थानों से आए जवाबों का सार यही था कि हम आपके सूचना के अधिकार की अर्जी का हार्दिक स्वागत तो करते हैं, लेकिन हम पर सूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। दो-तीन संगठनों ने जवाब के लिए अपनी वेबसाईट देखने की बात की लेकिन सवाल के बावत वहां कोई जानकारी नहीं मिली। अफरोज द्वारा संगठनों से कुल आठ से दस सवाल पूछे गए थे। मसलन संस्था की स्थापना कब और क्यों की गई? स्थापना का उद्देश्य क्या था? पिछले तीन वर्षों में संस्था द्वारा कितने और कब कब कार्यक्रम आयोजित किए गए, पिछले तीन वर्षों में संस्था को कहां-कहां से कितनी राशि फंड के रुप में मिली है? पिछले तीन वर्षों में संस्था के लोगों ने कहां-कहां की यात्राएं की और इस पर आने वाले खर्च का ब्योरा क्या है? इस तरह के सवाल का जवाब देना एक दो संस्थाओं को छोड़कर लगभग सभी के लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए उन्होंने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। जिन संगठनों से सवाल पूछे गए थे, उस सूची में राजस्थान के राजसमन्द जिले के देवडूंगरी की भी एक संस्था थी, ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन।' इस संगठन द्वारा जो जवाब दिया गया, वह वास्तव में काबिले तारीफ ही नहीं काबिले गौर भी है। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि संस्था ने दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर वापस नहीं किया और सभी सवालों का विस्तार से जवाब दिया। उन्होंने जवाब में यह दलील भी नहीं दी कि वे सूचना के अधिकार कानून के अंदर नहीं आते। संगठन से आए पत्र की शुरुआत कुछ इन शब्दों में थी- ' आपका आवेदन हमें प्राप्त हुआ। पत्र पढ़ते ही हमें बहुत अच्छा लगा कि आपने संगठन से सूचनाएं मांगी हैं। आपके पत्र का हम स्वागत करते हैं और निम्नलिखित सूचनाएं बिन्दुवार भिजवा रहे हैं।' उसके बाद एक एक करके मांगी गई सभी सूचनाओं के जवाब विस्तार से दिए गए हैं। सूचना के अधिकार पर काम करने वाले संगठनों के लिए ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ एक आदर्श संगठन हो सकता है। वास्तव में यदि कोई संगठन व्यवस्था में पारदर्शिता की मांग करता है, तो यह बेहद जरुरी है कि वह सबसे पहले अपने काम काज के तरीके में पारदर्शिता लाए। वह खुद को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर नहीं बल्कि अंदर माने। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Dec 26 23:07:45 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 26 Dec 2010 23:07:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSh4KS84KWH?= =?utf-8?b?IOCkl+CkquCli+CkoeCkvCDgpLngpYvgpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkueCkv+CkguCkpuClgOCkteCkvuCksuClhyAh?= Message-ID: बड़े गपोड़ होते हैं ये हिंदीवाले ! मित्रो,* *यह टिप्पणी आज राष्ट्रीय सहारा के रविवारीय 'उमंग' में प्रकाशित हुई है. इसका मज़ा लें ! - शशिकांत * * *‘‘गप्प-शप्प का अपना रस होता है। इस गप्प शप्प में हम सांस्कृतिक क्षेत्र में चलने वाले कार्यकलाप, * *लेखक के आपसी रिश्ते, उन्हें परेशान करनेवाले तरह-तरह के मसले, उनके जीवनयापन की स्थिति, * *उनके आपसी झगड़े और मनमुटाव आदि आदि हमारी सांस्कृतिक गतिविधि से पर्दा उठाते है और* * हम लेखक को हाड़ मांस के पुतले के रूप में देख पाते है। लेखक अपनी इन कमजोरियों के रहते * *अपनी लीक पर चलता हुआ सृजन के क्षेत्र में कहीं सफल और कहीं असफल होता * *हुआ अपनी इस यात्रा को कैसे निभा पाता है, इसे हम उसके जीवन के * *परिप्रेक्ष्यमें देख पाते हैं।’’ ** * *- भीष्म साहनी* *गॉ*सिप यानि गप्प। यानि अफवाह, झूठ, छद्म वगैरह-वगैरह। सेलिब्रेटी लोग गॉसिप से खार खाते हैं। खासकर बॉलिवुड के स्टार्स। पता नहीं कौन पेपर, मैगजीन या इंटरटेनमेंट चैनल किसके बारे में कौन सी गॉसिप उड़ा दे, और वो भी नमक-मिर्च मिलाकर। कुछ सेलिब्रेटिज गॉसिप को अपनी पर्सनल लाइफ में मीडिया की घुसपैठ मानते हैं तो कुछ इसके खूब मजे लेते हैं। आखिर इससे उनकी पॉपुलरिटी जो बढ़ती है। आम लोगों के लिए तो सेलिब्रेटिज की पर्सनल लाइफ को जानने का एकमात्र जरिया है गॉसिप। Add caption *वैसे *हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में काफी पोपुलर है गॉसिप। कई मुल्कों के अखबारों में तो हर दिन गॉसिप के कॉलम छपते हैं। वहां हर फील्ड के सेलिब्रेटीज इसके दायरे में होते हैं। क्या नेता, क्या अभिनेता, उद्योगपति, यहाँ तक कि वैज्ञानिक, खिलाड़ी, और तो और बड़े लेखक भी। मीडिया एक्टिविज्म के दौर में अब अपने यहाँ भी अलग-अलग क्षेत्रों की बड़ी शख्सियतों से जुड़े गॉसिप सामने आने लगे हैं। भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य भी गॉसिप से अछूता नहीं है। आए दिनों यहां तरह-तरह के गॉसिप चलते रहते हैं। मसलन, साहित्यिक हलके में सन 2010 की कुछ बहुचर्चित गॉसिपों को ही देख लीजिये! स्नोवा बार्नो *गॉसिप नंबर 1*. *ये स्नोवा बार्नो कौन है?* साल 2009-10 में हिंदी साहित्य जगत में एक गॉसिप छाया रहा एक छद्म लेखिका को लेकर। स्नोवा बार्नो उसका नाम है। विदेशी चेहरे-मोहरे और नामवाली इस अज्ञात युवा कथा लेखिका ने *‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘पाखी’, ‘पहल’, वागर्थ’, ‘वसुधा’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘इंडिया टुडे’, ‘आउटलुक’, ‘सरिता’* जैसी हिंदी की बड़ी और चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं में लीक से हटकर दे दनादन कई कहानियाँ लिखीं और वो भी हिंदी में. इस लेखिका को लेकर समूची साहित्यिक बिरादरी काफी दिनों तक उद्वेलित रही। * * *‘हंस’ *के दफ्तर में डाक से आई रचना के लिफाफे पर लिखे मनाली के पते पर उसको तलाशा गया। उसके बाद कलकत्ते में। सबसे पहले इसका जन्म मनाली (हिमाचल प्रदेश) में एवं शिक्षा-दीक्षा हेलसिंकी (फिनलैंड), वार्सा (पोलैंड) बनारस, लखनऊ और लेह में बताया गया, जो फिलहाल मनाली में रहकर सजृन कर रही हैं। *भूमिगत* होकर लिख रही और बड़ी तेजी से उभरी इस गुप्त लेखिका की खोज में मनाली के कुछ साहित्यकारों को भिड़ाया गया। लेकिन चूंकि इस मायावी युवा लेखिका का सम्पर्क-पता मनाली (हिमाचल प्रदेश) स्थित किसी पोस्ट ऑफिस का एक पोस्ट बॉक्स नम्बर था इसलिए उनकी तलाश करनेवाले को हाथ ही मलना पड़ा।* * *यह *भी खबर आई कि वहां ऐसी कोई लेखिका तो है ही नहीं और न ही वहां (मनाली में) कभी किसी ने उसे देखा है। यानि अब यह माना जाने लगा कि स्नोवा बार्नो के छद्म नाम से कोई और शख्स लेखन कर रहा है या कर रही है। लेकिन फिर भी इस सहस्यमय लेखिका के ठिकाने की खोजबीन जारी रही, जो भूमिगत रहते हुए बोल्ड किस्म का लेखन कर रही थी।* * *दरियागंज* स्थित ‘हंस’ दफ्तर में राजेंद्र यादव की बैठकी में शामिल लेखकों के बीच इस लेखिका के बारे में तरह-तरह के गप्प चलते रहे। खूब ब्लॉगबाजियां भी हुईं। फिर एक सूचना आई कि स्नोवा बार्नो को ओशो आश्रम में देखा गया है। एक साहब ने तो इसे किसी विदेशी सैलानी दल के साथ किसी पर्यटन स्थल पर देखा जाना भी बताया जिसके साथ कैमरा बदलकर उन्होंने एक दूसरे के फोटो भी खीचे। राजेन्द्र यादव *एक* संभावना यह भी जताई गई कि किसी विदेशी सैलानी की फोटो का उपयोग कर यह मायाजाल रचा गया है। आगे चलकर राजेंद्र जी के खुफिया साहित्यकारों ने यह भी खबर जुटाई कि फ्रीलांसिंग करनेवाली इस तथाकथित प्रतिभाशाली बाला नें कुछ अँग्रेजी कहानियाँ, कविताएँ, यात्रा वृतांतों के साथ* ‘द वंडर जर्नी’* शीर्षक से एक उपन्यास भी लिखा है। *‘हंस’* में स्नोवा बार्नो की कई कहानियां छपीं, मसलन ‘बारदो’, ‘मुझे घर तक छोड़ आइए’, ‘मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता है।’ लेखन में निरालापन और ताजगी, कथाशिल्प और शैली के अनोखेपन, बेबाकी और बेहतरीन कसावट से प्रभावित होकर कई दिलफेंक हिंदी पाठक, लेखक और संपादक इस खूबसूरत युवा लेखिका को बधाई देने के मौके तलाशते रहे। *कुछ* उसे निरंतर लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते थे तो कई खतो-किताबत कर उससे टांका भिड़ाने का बहाना ढूँढ रहे थे। कुछ तो इस कदर बेताब हो गए कि मनाली की फ्लाइट का समय पूछते नजर आए। *मार्च *2009 के ‘हंस’ में स्नोवा के एक पत्र के साथ उसकी तथाकथित अंतिम कहानी छपी- *‘लो आ गई मैं तुम्हारे पास।’* बेहतर शिल्प, परिपक्व किस्म का लेखन, उन्मुक्ततावादी बुद्धिजीविता जनित दर्शन, स्त्री-पुरुष के नितान्त अंतरंग संबंधों की शुद्ध जैविक यौन अनुभूति, अविवेकपूर्ण कामशास्त्रीय अभिव्यक्ति और अप्रासंगिक रूप से गुजरात दंगों एवं साम्प्रदायिक शक्तियों के प्रति भोंडी और अ-कलात्मक प्रतिक्रिया। *पत्र* में अपने अस्तित्व को लेकर उठ रहे प्रश्न की पृष्ठभूमि में स्नोवा ने खुद को एक साल के लिए किसी आकल्ट स्कूल द्वारा सौंपे गए कार्य के तहत स्त्री-पुरुषों के नैसर्गिक और चेतनापूर्ण प्रेम संबंधों पर नई तरह की रचनाएँ रचने और पाठकों तक पहुँचाने के एक तरह से मिशननुमा कार्य में लगे होने की अनोखी सूचना देते हुए और भी कई सारे बौद्धिक स्पष्टीकरण दिये हैं। जया जादवा *कई* बड़े संपादकों, साहित्यकारों, और समीक्षकों से मिले समर्थन को, नारी सुलभ आकर्षण विकसित करने में प्राप्त सफलता के रूप में देखते हुए स्नोवा ने उन (इस आकर्षण में सफलता से फँसे) तमाम बुद्धिजीवियों के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने स्नोवा की कहानियाँ, कविताएँ पढकर उसे प्रोत्साहित किया और शाबाशियाँ दीं। कुछ ने फोन करके लेखिका का हौसला बढाया। स्नोवा ने सभी को नतमस्तक भाव से ग्रहण किया। इधर कुछ सिरफिरे पाठकों और लेखक-लेखिकाओं ने इस पूरे मामले को मिथ्या बताया। *राजेन्द्र यादव* ने बताया,* ‘‘पिछले साल ‘हंस’ में मैंने स्नोवा बार्नो की कई कहानियां प्रकाशित कीं और इस साल उसको लेकर तरह-तरह के गॉसिप सामने आए। कई लोग मनाली में उसके डाक के पते पर उसे खोजने गए लेकिन वह नहीं मिली। फिर खबर मिली कि वो कलकत्ते में रह रही है। कुछ लोगों ने वहां भी उसे खोजा लेकिन वह नहीं मिली। लेकिन अब पता चला है कि जया जादवानी ही स्नोवा बार्नो के नाम से वो कहानियां लिख रही थीं। वैसे एक खबर यह भी है कि जया जादवानी और स्नोवा बार्नो मिलकर लिख रही थीं और स्नोवा अब पोलैंड, फिनलैंड या स्वीटजरलैंड लौट गई हैं।"*राजेंद्र जी से बात करने के बाद मैंने गूगल इमेज में jayajaadvanee कंपोज कर एंटर दबाया तो पेज नंबर दो पर स्नोवा बार्नो का हिंदी लोक में अवतरित फोटो ही खुला। आप लोग भी देख सकते हैं। *गॉसिप नंबर 2.* *जब अशोक वाजपेयी को सफाई देनी पड़ी:* रवींद्र कालिया के संपादन में भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाषित विभूति नारायण राय के विवादास्पद इंटरव्यू के और प्रसंग में हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक अशोक वाजपेयी के खिलाफ ऐसी अफवाह उड़ी कि उन्हें हिंदी के एक अखबार में सफाई देनी पड़ी। अशोक वाजपेयी *अपने* उस साप्ताहिक कॉलम में अशोक वाजपेयी* *ने लिखा, *‘‘इस बीच एक और अफवाह फैलाई गई। कुंवर नारायण और मैं इस प्रसंग में ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन से मिले हैं। अव्वल तो इस प्रसंग को लेकर कुंवर जी से मेरी बात तक नहीं हुई। दूसरे इंदू जैन से कोई बीस बरस पहले नाश्ते पर एक सौजन्य भेंट हुई थी, जब मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक का पद ऑफर किया गया था। उसके बाद उनसे कभी नहीं मिला। तीसरे, जो कुछ मैं इस विवाद में चाहता हूं, उसे खुलकर बता चुका हूं, गुप्त कोई काम करना मेरी आदत में शामिल नहीं है। पर इस झूठ को सरासर फैलाने का काम शुरू किया गया।’’** * *गॉसिप नंबर 3. * *जब बीबीसी ने भारत की एक इंटरनेशनल हिंदी यूनिवर्सिटी को इंटरनेशनल कॉलेज बना दियाः *16 अगस्त 2010 को बीबीसीहिंदीडॉटकॉम ने अपने साईट पर एक खबर पोस्ट की। उस पोस्ट में उसने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय महाविद्यालय लिख दिया. हिंदी के कई बलॉगरों ने जब बीबीसीहिंदीडॉटकॉम की इस हरकत को नोटिस लिया और ध्यान दिलाया कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय है न कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय महाविद्यालय। तब कहीं जाकर इसे दुरुस्त किया गया। लेकिन तब तक कई ब्लॉगर कॉपी करके इस खबर को अपने ब्लॉग पर चढ़ा चुके थे. बड़े गपोर होते हैं ये हिंदीवाले! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Dec 27 18:25:59 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 27 Dec 2010 18:25:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSlLCA=?= =?utf-8?b?4KSr4KWI4KSu4KS/4KSy4KWAIOCklOCksCDgpLLgpL7gpIfgpKs=?= Message-ID: यूथ, फैमिली और लाइफ राजश्री प्रोडक्शन की पहचान जिस तरह की फिल्मों के लिए है, काफी हद तक ’इसी लाइफ में‘ उसी लीक पर है। विधि कासलीवाल ने स्वच्छ मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अंतर यह है कि पारंपरिक और संस्कार के ईद-गिर्द आधुनिकता भी है। ’इसी लाइफ में‘ के जरिए कई बातें सामने आती हैं, मसलन छोटे और बड़े शहर के लोग एक-दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं, थियेटर को लेकर लोगों की सोच क्या है। सबसे अहम यह कि शहरी युवाओं में संस्कार होते हैं या नहीं। हालांकि बखूबी यह दिखाने की कोशिश की गई है कि युवा पीढ़ी बिना बगावत किए भी घर के बुजुर्गो से अपनी बात मनवाने का माद्दा रखती है। साथ ही, संदेश देने की कोशिश भी की है कि विवाह जिंदगी नहीं, उसका एक हिस्सा है। कहानी अजमेर में रहने वाले रवि प्रकाश (मोहनीश बहल) के इर्द-गिर्द घूमती है। वे आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कार को दूषित होने से बचाना चाहते हैं। उनकी रूढिवादी सोच अखबारी और टेलीविजन की खबरों से प्रखर होती है। उनकी बेटी राजनंदिनी (संदीपा धर) राज्य की टॉपर बनती है। वह आगे की पढ़ाई करना चाहती है, लेकिन रविप्रकाश इसके खिलाफ हैं। विदेशी खाना बनाना सीखने के बहाने राजनंदिनी की मां उसे आगे की पढ़ाई के लिए मौसी के पास मुंबई भेज देती है। मुंबई के कॉलेज में दाखिला लेने के बाद राजनंदिनी यानी आरजे कॉलेज की ड्रैमेटिक सोसायटी में शामिल हो जाती है। वहीं उसकी दोस्ती विवान (अक्षय ओबेरॉय) से होती है, जो ड्रैमेटिक सोसायटी का चेयर पर्सन और प्ले डायरेक्टर है। नेशनल प्ले काम्पिटिशन के लिए विवान और उसकी टीम शेक्सिपयर के नाटक को प्ले करने की तैयारी करते हैं। नाटक का लीड रोल आरजे को मिलता है और वह अपना लुक भी बदल लेती है। आखिर तक दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से कह नहीं पाते। हालांकि नये और पुराने के बीच की यह कहानी दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं छोड़ती। ’इसी लाइफ में‘ की स्क्रीन प्ले ’हम आपके हैं कौन‘ की तरह है। पहले एक घंटे तक कहानी उसी तर्ज पर है पर इंटरवल के बाद फिल्म रोचक बनी है। कहानी का प्लॉट नया कतई नहीं है। हां, थियेटरकर्मियों को परिवार से न मिलने वाले सपोर्ट का दर्द पूरी फिल्म में है। नई अभिनेत्री संदीपा धर ने बखूबी राजनंदिनी का किरदार निभाया है, जिसकी मुस्कान के साथ आंखें काफी कुछ कह जाती हैं। विवान के किरदार में अभिनय और डांस का बेहतर प्रदर्शन अक्षय ओबेरॉय ने किया है। सलमान खान का बस गेस्ट एपीयरेंस है। मोहनीश बहल ठीक-ठाक हैं। फिल्म का संगीत इतना आकषर्क नहीं बन पाया है जो दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर करे। http://vinitutpal.blogspot.com/2010/12/blog-post_27.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Dec 27 18:31:04 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 27 Dec 2010 18:31:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSlLCA=?= =?utf-8?b?4KSr4KWI4KSu4KS/4KSy4KWAIOCklOCksCDgpLLgpL7gpIfgpKs=?= In-Reply-To: References: Message-ID: यूथ, फैमिली और लाइफ राजश्री प्रोडक्शन की पहचान जिस तरह की फिल्मों के लिए है, काफी हद तक ’इसी लाइफ में‘ उसी लीक पर है। विधि कासलीवाल ने स्वच्छ मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अंतर यह है कि पारंपरिक और संस्कार के ईद-गिर्द आधुनिकता भी है। ’इसी लाइफ में‘ के जरिए कई बातें सामने आती हैं, मसलन छोटे और बड़े शहर के लोग एक-दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं, थियेटर को लेकर लोगों की सोच क्या है। सबसे अहम यह कि शहरी युवाओं में संस्कार होते हैं या नहीं। हालांकि बखूबी यह दिखाने की कोशिश की गई है कि युवा पीढ़ी बिना बगावत किए भी घर के बुजुर्गो से अपनी बात मनवाने का माद्दा रखती है। साथ ही, संदेश देने की कोशिश भी की है कि विवाह जिंदगी नहीं, उसका एक हिस्सा है। कहानी अजमेर में रहने वाले रवि प्रकाश (मोहनीश बहल) के इर्द-गिर्द घूमती है। वे आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कार को दूषित होने से बचाना चाहते हैं। उनकी रूढिवादी सोच अखबारी और टेलीविजन की खबरों से प्रखर होती है। उनकी बेटी राजनंदिनी (संदीपा धर) राज्य की टॉपर बनती है। वह आगे की पढ़ाई करना चाहती है, लेकिन रविप्रकाश इसके खिलाफ हैं। विदेशी खाना बनाना सीखने के बहाने राजनंदिनी की मां उसे आगे की पढ़ाई के लिए मौसी के पास मुंबई भेज देती है। मुंबई के कॉलेज में दाखिला लेने के बाद राजनंदिनी यानी आरजे कॉलेज की ड्रैमेटिक सोसायटी में शामिल हो जाती है। वहीं उसकी दोस्ती विवान (अक्षय ओबेरॉय) से होती है, जो ड्रैमेटिक सोसायटी का चेयर पर्सन और प्ले डायरेक्टर है। नेशनल प्ले काम्पिटिशन के लिए विवान और उसकी टीम शेक्सिपयर के नाटक को प्ले करने की तैयारी करते हैं। नाटक का लीड रोल आरजे को मिलता है और वह अपना लुक भी बदल लेती है। आखिर तक दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से कह नहीं पाते। हालांकि नये और पुराने के बीच की यह कहानी दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं छोड़ती। ’इसी लाइफ में‘ की स्क्रीन प्ले ’हम आपके हैं कौन‘ की तरह है। पहले एक घंटे तक कहानी उसी तर्ज पर है पर इंटरवल के बाद फिल्म रोचक बनी है। कहानी का प्लॉट नया कतई नहीं है। हां, थियेटरकर्मियों को परिवार से न मिलने वाले सपोर्ट का दर्द पूरी फिल्म में है। नई अभिनेत्री संदीपा धर ने बखूबी राजनंदिनी का किरदार निभाया है, जिसकी मुस्कान के साथ आंखें काफी कुछ कह जाती हैं। विवान के किरदार में अभिनय और डांस का बेहतर प्रदर्शन अक्षय ओबेरॉय ने किया है। सलमान खान का बस गेस्ट एपीयरेंस है। मोहनीश बहल ठीक-ठाक हैं। फिल्म का संगीत इतना आकषर्क नहीं बन पाया है जो दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर करे। http://vinitutpal.blogspot.com/2010/12/blog-post_27.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vinitutpal at gmail.com Mon Dec 27 18:31:04 2010 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 27 Dec 2010 18:31:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSlLCA=?= =?utf-8?b?4KSr4KWI4KSu4KS/4KSy4KWAIOCklOCksCDgpLLgpL7gpIfgpKs=?= In-Reply-To: References: Message-ID: यूथ, फैमिली और लाइफ राजश्री प्रोडक्शन की पहचान जिस तरह की फिल्मों के लिए है, काफी हद तक ’इसी लाइफ में‘ उसी लीक पर है। विधि कासलीवाल ने स्वच्छ मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की परंपरा को आगे बढ़ाया है। अंतर यह है कि पारंपरिक और संस्कार के ईद-गिर्द आधुनिकता भी है। ’इसी लाइफ में‘ के जरिए कई बातें सामने आती हैं, मसलन छोटे और बड़े शहर के लोग एक-दूसरे के बारे में क्या सोचते हैं, थियेटर को लेकर लोगों की सोच क्या है। सबसे अहम यह कि शहरी युवाओं में संस्कार होते हैं या नहीं। हालांकि बखूबी यह दिखाने की कोशिश की गई है कि युवा पीढ़ी बिना बगावत किए भी घर के बुजुर्गो से अपनी बात मनवाने का माद्दा रखती है। साथ ही, संदेश देने की कोशिश भी की है कि विवाह जिंदगी नहीं, उसका एक हिस्सा है। कहानी अजमेर में रहने वाले रवि प्रकाश (मोहनीश बहल) के इर्द-गिर्द घूमती है। वे आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कार को दूषित होने से बचाना चाहते हैं। उनकी रूढिवादी सोच अखबारी और टेलीविजन की खबरों से प्रखर होती है। उनकी बेटी राजनंदिनी (संदीपा धर) राज्य की टॉपर बनती है। वह आगे की पढ़ाई करना चाहती है, लेकिन रविप्रकाश इसके खिलाफ हैं। विदेशी खाना बनाना सीखने के बहाने राजनंदिनी की मां उसे आगे की पढ़ाई के लिए मौसी के पास मुंबई भेज देती है। मुंबई के कॉलेज में दाखिला लेने के बाद राजनंदिनी यानी आरजे कॉलेज की ड्रैमेटिक सोसायटी में शामिल हो जाती है। वहीं उसकी दोस्ती विवान (अक्षय ओबेरॉय) से होती है, जो ड्रैमेटिक सोसायटी का चेयर पर्सन और प्ले डायरेक्टर है। नेशनल प्ले काम्पिटिशन के लिए विवान और उसकी टीम शेक्सिपयर के नाटक को प्ले करने की तैयारी करते हैं। नाटक का लीड रोल आरजे को मिलता है और वह अपना लुक भी बदल लेती है। आखिर तक दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से कह नहीं पाते। हालांकि नये और पुराने के बीच की यह कहानी दर्शकों पर कुछ खास असर नहीं छोड़ती। ’इसी लाइफ में‘ की स्क्रीन प्ले ’हम आपके हैं कौन‘ की तरह है। पहले एक घंटे तक कहानी उसी तर्ज पर है पर इंटरवल के बाद फिल्म रोचक बनी है। कहानी का प्लॉट नया कतई नहीं है। हां, थियेटरकर्मियों को परिवार से न मिलने वाले सपोर्ट का दर्द पूरी फिल्म में है। नई अभिनेत्री संदीपा धर ने बखूबी राजनंदिनी का किरदार निभाया है, जिसकी मुस्कान के साथ आंखें काफी कुछ कह जाती हैं। विवान के किरदार में अभिनय और डांस का बेहतर प्रदर्शन अक्षय ओबेरॉय ने किया है। सलमान खान का बस गेस्ट एपीयरेंस है। मोहनीश बहल ठीक-ठाक हैं। फिल्म का संगीत इतना आकषर्क नहीं बन पाया है जो दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर करे। http://vinitutpal.blogspot.com/2010/12/blog-post_27.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Dec 27 22:44:12 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 27 Dec 2010 22:44:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?2001-2010_?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/4KSk4KWN4KSvIDog4KSV4KSy4KSuIOCkleCkviA=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KS+4KSy?= Message-ID: 2001-2010 साहित्य : कलम का कमाल *साथियो, * * यह टिप्पणी कल 26 दिसम्बर 2010 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। अपने प्रिय भाई हेतु व्यास के आग्रह पर जल्दबाजी में लिखी गई यह टिप्पणी आपके हवाले कर रहा हूं। - शशिकांत * - भारतीय मूल के लेखकों का दुनिया में दबदबा। - 88 साल बाद भारतीय मूल के लेखक को मिला नोबेल। - अंग्रेजी साहित्यिक लेखन में यूरोप और अमरीका के लेखकों का आधिपत्य टूटा है। अरुंधति रॉय *अक्टूबर* 2001 भारतीय साहित्य जगत में घटित वह यादगार तारीख थी जब स्वीडिश अकेडमी ने भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल को साहित्य का नोबेल प्राइज देने की घोषणा की। भारतीय या भारतीय मूल के किसी लेखक को साहित्य का यह नोबेल पुरस्कार अठ्ठासी साल बाद मिला था। *उसके *बाद सन् 2006 का बुकर पुरस्कार भारतीय मूल की लेखिका किरण देसाई को उनकी किताब ‘दि इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस’ को दिया गया।* ** * * * उदय प्रकाश *उसके* बाद सन 2008 का बुकर पुरस्कार एक बार फि र भारतीय मूल के लेखक अरविन्द अडिगा को उनके उपन्यास ‘दि ह्वाइट टाइगर’ पर मिला। उस साल बुकर पुरस्कार के लिए आखिरी दौर में जिन छह लेखकों की किताबें पहुंचीं उनमें भारतीय मूल के लेखक अमिताव घोष की किताब ‘सी ऑफ पोपीज’ भी थी। झु्पा लाहिरी *बीते *दशक में मुख्यधारा के साहित्य के साथ-साथ पोपुलर साहित्य ने भी भारत और भारत से बाहर अपना जलवा बिखेरा है। बॉलीवुड में सक्रिय बहुचर्चित गीतकार गुलजार को 2009 में ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ फिल्म के गाने ‘जय हो...’ गाने लिखने के लिए के लिए ऑस्कर और ग्रेमी पुरस्कार से स्मानित किया गया। अमिताव कुमार *पिछले* दशक में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में भारत और भारतीय मूल के बहुत सारे लेखक सक्रिय रूप से सामने आए हैं। वी एस नायपॉल, विक्रम सेठ, सलमान रश्दी, कुर्तुल एन हैदर, निर्मल वर्मा, कुंवरनारायण, अरुंधति रॉय, उदय प्रकाश, चेतन भगत, अरविन्द अडिगा, झु्पा लाहिरी, अमिताव कुमार सरीखे भारतीय या भारतीय मूल के लेखकों की अंतरराष्ट्रीय ख्याति इस बात का प्रमाण है। *भारतीय* साहित्य के लिए यह गर्व की बात है। खास बात यह है कि अंग्रेजी किरण देसाई साहित्यिक लेखन पर से यूरोप और अमरीका के लेखकों का एकछत्र आधिपत्य टूटा है और भारतीय मूल के लेखकों ने उन्हें तगड़ी चुनौती दी है। *इस *दशक में एक खास बात यह देखी कि इस दौरान भारत में अरुंधति रॉय, उदय प्रकाश, प्रसून जोशी, चेतन भगत, बेबी हालदार जैसे युवा लेखकों की एक ऐसी जमात सामने आई जिसने लेखन को काफी लोकप्रिय बनाया। पिछले दशक में अंग्रेजी के कई बड़े लेखकों की बहुचर्चित किताबें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में छपकर आई हैं। *इसी* तरह हिंदी और अन्य भारतीय भाषा के लेखकों की लोकप्रिय कृतियां अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, पोलिस, जापानी, स्पैनिश, इटैलियन और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं। अनुवाद ने इसमें महती भूमिका निभायी है। विक्रम सेठ *इस *दशक में विक्रम सेठ, वी एस नायपॉल, सलमान रश्दी, अरुंधति रॉय, उदय प्रकाश, चेतन भगत, प्रसून जोशी, बेबी हालदार, अशोक वाजपेयी, गुलजार, जावेद अख्तर, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी, विजयदान देथा, विष्णु खरे जैसे सेलिब्रेटी बनकर उभरे लेखकों की किताबें अनूदित होकर भाषाई दीवारों के दायरे से बाहर के पाठकों के हाथों में पहुंची हैं। *यह* इस दशक की एक बड़ी साहित्यिक उपलब्धि है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Dec 28 12:07:01 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 28 Dec 2010 12:07:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Mjcg4KSm4KS/4KS4?= =?utf-8?b?4KSC4KSs4KSw4KSDIOCkl+CkvuCksuCkv+CkrCDgpJXgpYAg4KSc4KSv?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KWAIOCkr+CkviDgpIngpKrgpYfgpKjgpY3gpKbgpY3gpLAg?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSvIOCkleCkviDgpLjgpLngpL7gpLDgpL4g4KSq4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSj4KS+4KSuIOCkpuCkv+CkteCkuA==?= Message-ID: सहारा मीडिया ग्रुप के न्यूज डायरेक्टर उपेन्द्र राय ने 27 दिसंबर 2010 को दिल्ली के ली मीरिडियन होटल में उर्दू चैनल आलमी सहारा के उद्घाटन के मौके पर कहा कि उनकी इच्‍छा थी कि इस चैनल को एक ऐसी तारीख से जोड़ पाएं जो वाकई एक तारीख हो और मिर्जा गालिब की जयंती से बेहतर कोई दिन हो नहीं सकता था। हमने चैनल पर भी देखा कि मिर्जा गालिब की जयंती से जुड़ी दिखाई खबरें दिखाई जा रही है। इस मौके पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गालिब की शायरी और हवेली का जिक्र करते हुए कहा कि देखिए मिर्चा गालिब की हवेली कितनी छोटी है लेकिन उन्होंने कितनी बड़ी-बड़ी शायरी की। इस बात को आगे बढ़ाते हुए फेसबुक पर मेरा लिखने का मन हुआ कि- देखिए,गालिब कितनी छोटी सी हवेली में रहा करते थे,खुद ही कहा करते थे कि लोग पूछते हैं गालिब कौन है और आज उनके नाम का इस्तेमाल करते हुए कितने बड़े होटल में,कितने लोगों के बीच एक उर्दू चैनल लांच किया जा रहा है। उपेन्द्र राय ने मिर्जा गालिब की जयंती 27 दिसंबर को चैनल लांच करके लोगों के बीच ये संदेश देने की भरपूर कोशिश की कि उर्दू तहजीब और भाषा को वो कितना सम्मान देते हैं। उर्दू प्रेमियों को ऐसे मीडिया चैनलों के प्रति एक बार फिर प्यार उमड़ जाए। लेकिन मीडिया की शक्ल क्या वाकई इतनी खूबसूरत है कि उससे थोड़ी-बहुत किच-किच के बाद फिर प्यार हो जाए? हम सबके लिए 27 दिसंबर मिर्जा गालिब की जयंती के तौर पर एक खास दिन है। अगर इस दिन में मीडिया के लिए न्यूज वैल्यू है तो खास दिन है,अगर नहीं है तो वैसा ही है जैसे आए दिन साहित्यकारों,नोबल पुरस्कार विजेताओं या फिर दूसरे संस्कृतिकर्मियों की जयंतियां बिना किसी आहट के गुजर जाती है। उपेन्द्र राय के वक्तव्य पर गौर करें कि वो आलमी सहारा चैनल को किसी ऐतिहासिक दिन से जोड़ना चाहते थे। ये ऐतिहासिक दिन जाहिर तौर पर उर्दू से जुड़े किसी महान शख्स का होता या फिर कोई ऐसी घटना जो कि उर्दू की तहजीब से जुड़ती हो। ये सुनने में कितना अच्छा लगता है कि उपेनद्र राय को यहां की संस्कृति और ऐतिहासिक बोध को लेकर कितनी गहरी चिंता है? लेकिन आज सुबह जब हमने उपेन्द्र राय की इस महानता और उदात्त विचारों को जानकर उनके बारे में और अधिक जानने की कोशिश की तो गूगल पर सबसे ज्यादा जिन खबरों को लेकर लिंक मिले वो यह कि- 27 दिसंबर को ही उपेन्द्र राय ने स्टार न्यूज को बाय बाय करके सहारा का दामन पकड़ा था। साथ में बीबीसी के पुराने मीडियाकर्मी संजीव श्रीवास्तव भी आए। यानी इन लिंक्स से मिली खबरों के मुताबिक 27 दिसबंर वो तारीख है जिस दिन उपेन्द्र राय ने पहली बार सहारा प्रणाम कहा और ऐसा करते हुए उन्हें कल दो साल हो गए। उनके जीवन का यह सबसे जरुरी तारीख है जहां वो महज 28 साल की उम्र में सहारा मीडिया ग्रप के न्यूज डायरेक्टर बन जाते हैं। उपेन्द्र राय के लिए इससे बड़ा ऐतिहासिक दिन औऱ भला क्या हो सकता है कि जो शख्स कुछ साल पहले तक स्ट्रिंगर की हैसियत से मीडिया की दुनिया में कदम रखता हो,स्टार न्यूज के लिए एयरलाइंस पर स्टोरी करते वक्त कार्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया को इन्टर्न की तरह बात-बात में मैम,मैम कहता हो,उसके हाथ में देश के एक बड़े मीडिया ग्रुप की चाबी है। अब यहां से फिर उपेन्द्र राय के वक्तव्य को जोड़ें कि क्या 27 दिसंबर वाकई कोई तारीख नहीं है? इससे बड़ी तारीख और क्या हो सकती है? 27 दिसंबर की शाम ली मेरिडियन में आलमी सहारा के मौके पर जुटे जो लोग चाय-नाश्ता कर रहे थे,मुन्नवर राणा की शायरी में डूब-उतर रहे थे,गालिब की हवेली के पास उन्हें याद कर रहे थे,पाकिस्ताम से आए मेहमान चैनल पर अपनी बाइट दे रहे थे, उपेन्द्र राय के लिए वो सबके सब उनकी ही कामयाबी का जश्न मना रहे थे। अब यहां पर आकर सोचें तो 27 तारीख उपेन्द्र राय के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है या फिर मिर्जा गालिब के लिहाज से। अगर उर्दू के इतिहास की नजर से देखें तो इससे बड़ी तारीख खोजने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ सकती है। लेकिन अगर उपेन्द्र राय 27 दिसंबर को पहली बार सहारा प्रणाम न करके किसी औऱ तारीख को किया होता तो क्या मिर्जा गालिब को आलमी सहारा पर यही इज्जत नसीब होती? तब तो उनका ये हक कोई और मार ले जाता। ऐसे में हम ये कहें कि मिर्जा गालिब की सहारा में बस इसलिए लॉटरी लग गयी क्योंकि उपेन्द्र राय ने पहली बार सहारा प्रणाम इसी तारीख को किया। उपरी तौर पर इससे फर्क नहीं पड़ता। आखिर हममें से कितने लोगों को पता है कि उपेन्द्र राय ने ये तारीख अपनी उपलब्धि के ऐतिहासिक दिन के तौर पर तय किया? फिर स्टोरी तो मिर्जा गालिब की ही चली,उपेन्द्र राय की तो नहीं ही। लेकिन आज प्राइवेट न्यूज चैनलों का जो आलम है,उसे देखते हुए ये अस्वाभाविक और लगभग बेहूदा हरकत की तरह नहीं लगता। मतलब ये कि अगर कल को किसी चैनल ने पंत,महादेवी वर्मा,फिरदौस,मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों की जयंतियां मनानी शुरु कर दी तो उस दिन अनिवार्य रुप से चैनल के आकाओं के घर बच्चा पैदा हुआ होगा,उसकी पत्नी के साथ 25 सफल साल गुजर गए होंगे,आका किसी चैनल का मालिक बन गया हो आदि-आदि। राजनीति में तो खोज-खोजकर ऐसी तारीखें निकाली जाती है और उनसे जुड़े लोगों की भावनाओं के साथ खेला जाता है लेकिन मीडिया में भी कल ये जो खेल शुरु हुआ,वो आनेवाले समय में एक बेहूदा ट्रेंड को जन्म देगा। ऐसे में होटल ताज में रैदास जयंती के मौके पर किसी चैनल की शुरुआत होती है,सांगरिला में सरहपा के नाम पर कोई क्षेत्रीय चैनल की शुरुआत होती है तो ऑडिएंस को एकबारगी तो ताज्जुब जरुर होगा कि न्यूज चैनलों को अचानक से इन विभूतियों को याद करने का ख्याल क्यों आया? उन्हें भला क्या पता होगा कि इस दिन किसी चैनल के आका की जिंदगी का सबसे खास दिन है। मीडिया में तारीखें ऐसी ही बदलती है,मीडिया अपना कलेंडर इसी तरह से बदलता है। सामाजि तौर पर खास तारीखों में अपने मायने पैदा करता है। कन्ज्यूमर ल्चर का एक बड़ा बाजार मीडिया ने इन्हीं तारीखों के भीतर के मायने बदलकर पैदा किए हैं। जो समाज के जिस तबके के लिए खास दिन है,उसमें अपने मतलब के अर्थ भर दो,वो खुश भी हो जाएंगे और तुम्हारा काम भी हो जाएगा। उपेन्द्र राय ने 27 दिसंबर के साथ यही काम किया है। 27 दिसंबर को आलमी सहारा शुरु करके उपेन्द्र राय ने मिर्जा गालिब की आत्मा और उनके मुरीदों के दिल को सुकून नहीं पहुंचाया है बल्कि सहाराश्री के सामने अपनी दमखम को साबित किया है कि उर्दू चैनल के लांच किए जाने में हुजुर जो सबसे बड़े रोड़ा थे अजीज बर्नी,उन्हें देखिए हमने जैसे ही हटाया नहीं कि कुछ महीने बाद ही चैनल आपकी आंखों के सामने है,उसकी फुटेज देशभर में तैरनी शुरु हो गयी है। इसलिए मालिक,आप सहारा के कैलेंडर में 27 दिसबंर की तारीख को मिर्जा गालिब की जयंती से काटकर आलमी सहारा की लांचिंग डेट कर दीजिए ताकि अगले साल से लोग इसी तौर पर याद करें। इधर मैं अपने कैलेंडर में इसमें कुछ और जोड़कर बदलता हूं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Dec 28 15:29:34 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 28 Dec 2010 15:29:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCklw==?= =?utf-8?b?4KWB4KSo4KS54KSX4KS+4KSwIOCklOCksOCkpOClhyDgpLngpYjgpIIs?= =?utf-8?b?IOCkqCDgpLjgpLAg4KSd4KWB4KSV4KS+4KSP4KSCLCDgpKgg4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSlIOCknOCli+CkoeCkvOClh+CkgiA6IOCkleCkv+CktuCljeCktQ==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkqOCkvuCkueClgOCkpg==?= Message-ID: हम गुनहगार औरते हैं, न सर झुकाएं, न हाथ जोड़ें : किश्वर नाहीद कीश्वर नाहीद *"हमारे *यहां लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है, अगर तुम लड़कियों को पढ़ाओगी तो मेरे घर मत आना।" यह बात कही थी उर्दू की बहुचर्चित रायटर किश्वर नाहीद के अब्बू ने उनकी अम्मी से, क्योंकि वो अपनी बेटी किश्वर नाहीद को तालीम दिलाने की ख्वाहिश रखती थीं। बड़ी तकलीफ के साथ उन लम्हों को याद करती हुई वो कहती हैं, "मैंने उस जमाने में तालीम हासिल की जब लड़कियों की पढ़ाई को अहमियत नहीं दी जाती थी। मेरे नाना उस वक्त बुलंदशहर के मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने अम्मा से कहा, "हमारे यहां लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है, अगर तुम लड़कियों को पढ़ाओगी तो मेरे घर मत आना।" अम्मा ने कहा, "ठीक है मैं नहीं आऊंगी, लेकिन लड़कियों को पढ़ाऊंगी जरूर।" अब्बा ने कहा, "जितने पैसे घर खर्च के देता हूं, उससे एक पैसा ज्यादा नही दूंगा।" अम्मा ने कहा, "आधी रोटी ख़ाऊंगी लेकिन लड़कियों को पढ़ाऊंगी।" अम्मा ने सोचा कि लड़कियां मैट्रिक पास करके अपना घर बसाएंगी। लेकिन मैट्रिक पास करने के बाद मैंने शोर मचाया कि मुझे कॉलेज जाना है। फिर मैंने बी.ए. किया, एम.ए. किया और नौकरी की।" *किश्वर* नाहीद की पैदाइश सन 1940 में बुलंदशहर में हुई थी। पार्टीशन के बाद वो पाकिस्तान चली गई। अपने बचपन और हिंदुस्तान के प्रति अपनी फीलिंग को याद करती हुई किश्वर कहती हैं, "उस वक्त मैं बहुत छोटी थी। भाइयों के साथ खेलती थी। गुल्ली-डंडा, पतंग उड़ाना। बँटवारे के बाद कत्ल-ओ-गारत हुई, लड़कियों का बलात्कार किया गया, लड़कियां अगवा की गईं। आज भी उन सब चीजों का अक्स नजर आता है। लेकिन हिंदुस्तान से मेरा रिश्ता घर-आंगन जैसा है।" *उर्दू *अदब में आज किश्वर नाहीद की एक खास मुकाम है लेकिन एक औरत होने की वजह से उन्हें कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी, खुद उन्हीं की जुबान से सुन लीजिए, "मैंने कॉलेज के जमाने से ही शेरो-शायरी शुरू कर दी थी। एक रोज अब्बा ने कहा, "तुम्हें जितना मशहूर होना था हो चुकी, अब जिससे गजल ली है उसे वापस करो और एक शरीफ लडक़ी की तरह जिंदगी गुजारो।" उन्होंने माना ही नहीं कि यह शायरी मैंने की थी। शुरू में पाबंदियां लगाई गई थीं कि आप इश्क का जिक्र नहीं करेंगी, आप महिला की आजादी की बात नहीं करेंगी। लेकिन मैंने शुरू ही यहां से किया- घर के धंधे तो निबटते ही नहीं नाहीद / मैं निकलना भी अगर शाम को घर से चाहूं।" धीरे-धीरे शायरात आती गईं काफिला बढ़ता गया। फेहमिदा रियाज आईं, सारा शगुफ्ता आईं। और भी बहुत अच्छे नाम हैं जिन्होंने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। लेकिन आलोचकों ने कभी इस पर गौर नहीं किया कि एक महिला किस तरह अपनी सोच से समाज को बदल रही है, क्या नई चीज पेश कर रही है।" *पाकिस्तान* में रहते हुए भी किश्वर नाहीद ने अपनी शेरो-शायरी में औरत की नई तस्वरीर पेश की है। औरत को वह मर्द के सामने दोयम दर्जे में नहीं देखना चाहतीं। यहां तक कि वो इश्क करने के मामले में भी। वो कहती हैं, आज के वक्त में मेरा मानना है कि अगर मर्द को इश्क करने का हक़ है तो वह औरत को भी है। लेकिन उसके इजहार के अंदाज अलग हो सकते हैं। जैसे मीरा ने कहा है, "मैं तो प्रेम दीवानी" लेकिन मैं यह नहीं कहूंगी, मैं तो कहूंगी, "मैं नजर आऊं हर सिम्त से, जिधर से जाऊं / मैं गवाही हरेक आइनागर से चाहूं।" *आलोचकों* ने कभी इस पर गौर नहीं किया कि एक औरत किस तरह अपनी सोच से समाज को बदल रही है, क्या नई चीज पेश कर रही है। मतलब यह कि मेरी मौजूदगी को, मेरे वजूद को मानना चाहिए। बाद में, मैंने जो कुछ कहा वह सभी औरतों ने कहा। इसकी जरूरत भी थी ताकि औरत का लहजा सामने आए।" *किश्वर* नाहीद आज उर्दू अदब में ही नहीं पाकिस्तान की सरजमीन पर भी औरतों को हक दिलाने की लड़ाई लड़ रही हैं। "औरतों के हक को लेकर मैं शुरू से फिक्रमंद रही हूँ। शहर की जिंदगी में औरत की लाइफ में थोड़ा बहुत बदलाव जरूर नजर आया है लेकिन गांव की जिंदगी अभी उससे अछूती है। आज भी गांव की औरत मटर तोड़ती, आलू तोड़ती नजर आती है। हमें उन्हें पढ़ाना है, बहुत कुछ सिखाना है। ह्यूमन राइट ऑर्गनाइजेशन्स के साथ काम करते समय मैंने पाया कि कामकाज करने वाली औरतों का कितना शोषण किया जा रहा है। उनका सारा मुनाफा तो दलाल खा जाते है। मैंने अपने फंड के पैसे से "हौवा" नामक संस्था बनाई। मेरी संस्था औरतों से हस्तशिल्प का सामान खरीदती है। हर महीने की पहली तारीख से लेकर सात तारीख तक उनके पैसे पहुंचा दिए जाते हैं। इसके अलावा कानूनी और आर्थिक मदद भी दी जाती है।" यह कहना है पाकिस्तान की बहुचर्चित रायटर किश्वर नाहीद का। *अदब* और इंसानियत की कोई सीमा नहीं होती। हिंदुस्तान में पैदा हुई पाकिस्तान की यह मशहूर लेखिका हिंद-पाक रिश्तों में अक्सर आनेवाले उतार-चढ़ाव को लेकर खुद को असहज महसूस करती हैं, "मेरे अंदर शुरू से यह एहसास था कि चाहे वह घर हो या मुल्क, जंग से कुछ हासिल नहीं होता। हमें जंग नहीं सुलह की बात करनी चाहिए और यही लोग चाहते हैं क्योंकि एटम बम रोटी नहीं खिला देता, गरीबी नहीं दूर करता। लोगों को तालीम देने के लिए एटम बम की नहीं ऐसे समाज की जरूरत है जो इंसान को इंसान बनना सिखाए।" *शायद* यही वजह है कि किश्वर नाहीद को जब भी मौका मिलता है तो वो मुशायरों में शरीक होने हिंदुस्तान आना पसंद करती हैं। हिंदुस्तान में लोग अक्सर मेरी चर्चित नज्म "हम गुनाहगार औरतें हैं" सुनना पसंद करते हैं- "ये हम गुनहगार औरतें हैं जो अहले-जुब्बा की तमकनत से न रोआब खोएं न बेचें न सर झुकाएं न हाथ जोड़ें ये हम गुनहगार औरते हैं के : जिनके जिस्मों की फसल बेचें जो लोग वो सरफराज ठहरें नियाबते-इम्तियाज ठहरें ये हम गुनहगार औरते हैं के : सच का परचम उठा के निकलीं तो झूठ से शहराहें अटी मिली हैं हरएक दहलीज पे सजाओं की दास्तानें रखी मिली हैं जो बोल सकती थीं, वो जबानें कटी मिली हैं के : अब ताअकुब रात भी आए तो ये आंखें नहीं बुझेंगी के : अब जो दीवार गिर चुकी है उसे उठाने की जिद न करना ये हम गुनहगार औरते हैं जो अहले जुब्बा की तमकनत से न रोआब खोएं न बेचें न सर झुकाएं, न हाथ जोड़ें." शब्दार्थ : (अहले जुब्बा : मजहब के ठेकेदार, सरफराज : सम्मनित, नियाबते इम्तियाज : सही गलत में फर्क करनेवाला, ताअकुब : तलाश में, तमकनत : प्रतिष्ठा) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Dec 30 23:56:35 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 30 Dec 2010 23:56:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjAxMCDgpIfgpII=?= =?utf-8?b?4KSh4KWLLeCkr+ClguCkj+CkuCDgpLDgpL/gpLLgpYfgpLbgpKg6IA==?= =?utf-8?b?4KS24KSk4KSw4KSC4KScIOCkleCkviDgpJbgpYfgpLIg4KSW4KWH4KSy?= =?utf-8?b?IOCksOCkueCkviDgpIXgpK7gpYfgpLDgpL/gpJXgpL4=?= Message-ID: 2010 इंडो-यूएस रिलेशन: शतरंज का खेल खेल रहा अमेरिका: *पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी, **टी. एस. आर. सुब्रमण्यम *** *टी. एस. आर. सुब्रमण्यम* *मित्रो, * * उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस ऑफिसर * *और भारत सरकार के पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी * *टी. एस. आर. सुब्रमण्यम रिटायर होकर * *आजकल नोएडा में रह रहे हैं. * *रिटायरमेंट के बाद भी वे 3-4 चैरिटी आर्गनाइजेशन से जुड़कर * *सोसायटी के डेवलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं। * *वे एक कैनेडियन एनजीओ "मैक्रो न्यूट्रीशन" के चेयरमैन भी हैं। सुब्रमण्यम साहब 1983 में जेनेवा गए. * *उन्होंने गैट और डब्ल्यूटीओ में 5-6 साल काम किया. * *बड़े भाई विमल झा के आदेश पर जब 28 दिसंबर 2010 की शाम को * *मैंने उनको फ़ोन किया तो वे मद्रास में थे. * *उन्होंने सुबह 8.30 बजे फ़ोन करने कहा. * *कल सुबह-सुबह उनसे बात हुई जो आज दैनिक भास्कर* * नई दिल्ली संस्करण में प्रकाशित हुई है. आप भी पढ़ें ! * * -शशिकांत * *सन 2010 में* बराक ओबामा साहब मुंबई और नई दिल्ली आए। दरअसल, 2008 में फाइनेंसियल क्राइसिस के बाद वहां बहुत सारी नौकरियां चली गईं। इतना ही नहीं, पिछले सालों में चीन ने विश्व की अर्थव्यवस्था में अमेरिका को तगड़ी चुनौती देकर अपनी धाक जमाई है। विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा में चीन अमेरिका को लगातार पछाड़ रहा है। इसी तरह, पिछले दस सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का ग्राफ भी काफी तेजी से बढ़ रहा है। अमेरिका यह जानता है कि इसकी एक बड़ी वजह है भारत और चीन में उपलब्ध विशाल मानव संसाधन और सस्ता श्रम। *अमेरिका* को अब यह समझा में आ गया है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को इस बड़ी चुनौती से निपटने में भारत उसके लिए काफी कारगर सिद्ध होगा। इसीलिए पहले बुश साहब भारत आए और फिर ओबामा साहब। रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट्स- दोनों भारत को अमेरिका का पार्टनर बनाना चाहते हैं। अमेरिका को पता है कि भारत के साथ यदि अमेरिका संबंध सुधरता है तो राजनीतिक और आर्थिक- दोनों फ्रंट पर अमेरिका को फायदा ही फायदा होनेवाला है। वह यह भी जानता है कि वैश्विक आर्थिक मंदी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर नहीं के बराबर असर पड़ा है इसलिए अमेरिका में आर्थिक मंदी से उबरने भारत उसकी मदद करेगा। *अगले *दस-बारह सालों में, यानि सन 2020-23 तक चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया में नंबर एक पर हो जाएगी। अमेरिका को यह खतरा दिख रहा है। इसलिए भी वह भारत के साथ राजनीतिक और आर्थिक दोनों फ्रंट पर डायलॉग करना चाहता है और भारत के साथ संबंध सुधारना चाहता है। ऐसे माहौल अब भारत को समझना है कि चीन भारत और अमेरिका के संबंध को किस निगाह से देखता है। *जब* *से *भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौता हुआ है उसके बाद, एक महीने के भीतर जी-फाइव के सदस्य देशों के नेता एक-एक कर भारत की यात्रा पर आए हैं। हमें अपनी विदेश नीति बनाते हुए इस बात का खयाल रखना चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौते के बाद चीन, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन जैसे देश भारत के साथ राजनीतिक और आर्थिक संबंध सुधारने की दिशा में यदि रुचि ले रहे हैं तो इसकी वजह क्या है। *भारत* की आबादी आज लगभग एक सौ बीस करोड़ है और चीन की डेढ़ अरब। हम दोनों आज विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। हमारे यहां बहुत बड़ा मानव संसाधन है और विकास की संभावनाएं भी। एशिया के हम दोनों पड़ोसी देश यदि मिल जाएंगे तो हम आधी दुनिया के बराबर होंगे। उसके बाद संयुत राष्ट्र, विश्व बैंक, डब्ल्यूटीओ और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत और चीन का दबदबा होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के साथ संबंध सुधारने के पीछे अमेरिका की रुचि इसलिए है क्योंकि इसमें उसका व्यापार हित छिपा हुआ है। *दिक्कत *यह है कि अमेरिका का जिस देश के साथ अपना रिश्ता सुधारता है तो उस रिश्ते में वह अपने राजनीतिक और आर्थिक हित के साथ-साथ कूटनीतिक और सामरिक हित भी जोडऩा चाहता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, उत्तर कोरिया और जहां-जहां उसकी गर्दन फंसी हुई है, भारत को दोस्त बनाकर वह अपने पक्ष में खड़ा करना चाहता है। अफगानिस्तान में फेल हो गया है अमेरिका। अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान का रिश्ता जुड़ा हुआ है। इस बीच पाकिस्तान और चीन के बीच रिश्ते को लेकर भी वह संजीदा है। इसलिए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका भारत के साथ संबंध सुधार के मामले में आर्थिक-राजनीतिक शतरंजी गेम खेल रहा है। *अमेरिका* के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच कई तरह के आर्थिक समझौते हुए हैं। इसी समझौते के तहत अमरीका की बहुराष्ट्रीय कंपनी बोल्मार्ट भारत आएगी। वह अपनी पहले भारत के महानगरों में और उसके बाद छोटे शहरों और गांवों में बड़ी-बड़ी दुकानें खोलेंगी। *इन *दुकानों में वह गांव के किसानों से खरीदी ताजी सब्जी, दूध, फल, अंडे जैसी रोजमर्रा के इस्तेमाल के सामान बेचेगी। इस समझौते के पीछे एक तरफ यह दिया जा रहा है कि इससे गांव के लोगों को आर्थिक विकास का फायदा मिलेगा। लेकिन मेरा मानना है सिर्फ मुट्ठी भर बड़े किसानों को इसका फायदा मिलेगा। जबकि इससे देश मे छोटे किसानों की हालत बदतर होगी और बेरोजगारी भी बढ़ेगी। *बराक ओबामा* की भारत यात्रा के दौरान जिन अमेरिकी कंपनियों के साथ परमाणु करार हुए हैं उसका फायदा हमें तो बीस-तीस साल बाद नजर आएगा लेकिन इस करार के बाद अगले दो-तीन सालों में ही वहां हजारों की संख्या में नई नौकरियां सृजित होंगी और निर्यात को बढ़ावा मिलेगा, जो आर्थिक मंदी से निपटने में उसकी मदद करेगा। *जहां तक* सुयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता का सवाल है तो मरा मानना है कि यह सिर पर सजे कांच के मुकुट की तरह तरह है, जो कभी भी जमीन पर गिरकर बिखर सकता है। हम पांच देशों के एक ऐसे क्लब का सदस्य बनना चाह रहे हैं जो खुद अब पतनशील है। बदलते वैश्विक समीकरण में उसकी कोई खास सार्थकता भी नहीं रह गई है। *लेकिन,* हमें अमेरिका या चीन उतना खतरा नहीं है जितना हमारी अपनी अंदरूनी समस्याओं से है। आज हमारा देश भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, क्षेत्रीयतावाद, सांप्रदायिकता जैसी आंतरिक समस्याओं से ग्रस्त है। हम यदि इन अंदरूनी समस्याओं से जितनी जल्दी निजात पा लें, हमारे देश और यहां की जनता का उतना भला होगा। * * *(दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में 30 दिसंबर 2010 को प्रकाशित)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Dec 31 12:16:16 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 31 Dec 2010 12:16:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksiDgpJXgpYcg4KSm4KS4IOCkuOCkvuCksg==?= Message-ID: *♦ विनीत कुमार* आज से ठीक दस साल पहले यानी 31 दिसंबर 2000 को आजतक न्यूज चैनल की शुरुआत हुई। यह देश का पहला चौबीस का घंटे का न्यूज चैनल था, जिसकी पहचान सबसे तेज के तौर पर बनी। अरुण पुरी ने इसकी शुरुआत सदाव्रत, सत्य और अहिंसा के विस्तार के लिए नहीं की थी बल्कि ये शुद्ध रूप से उनका व्यावसायिक फैसला था, जिसे कि उन्होंने बहुत ही डरते-डरते लिया था। उन्हें इस बात की आशंका थी कि इंडिया टुडे के धंधे में जिस तरह के मुनाफे हो रहे हैं, शायद सेटेलाइट टेलीविजन चैनल में न हो। लेकिन चौबीस घंटे का न्यूज चैनल शुरू करने के पीछे उनके पास दो बड़े अनुभव थे। एक तो वीडियो कैसेट की संस्कृति के दौर में न्यूजट्रैक वीडियो मैगजीन को जो सफलता मिली थी, उसने यह साबित कर दिया था कि लोगों के बीच मनोरंजन कार्यक्रमों के अलावा खबरों में भी दिलचस्पी है, आनेवाले समय में खबरों का भी एक बड़ा बाजार है। *यह वह दौर था*, जब लोग दूरदर्शन की खबरों के प्रति लापरवाह होकर, भाड़े पर लाये गये वीसीआर पर “खुदगर्ज” या “गंगा मईया तोरे पियरी चढ़इबो” जैसी फिल्में देखा करते। उन पर इस बात का दबाव रहता कि अगर रात में देखकर खत्म नहीं कर ली, तो कल दुगना किराया देना होगा। लेकिन 1988 में अपनी शुरुआत के साथ ही न्‍यूज ट्रैक मैगजीन ने बेहद कम समय में जबरदस्त मार्केट पकड़ लिया। एक कैसेट की कीमत 150 रुपये होती और लोग इसे खरीदने (बाद में कुकुरमुत्ते की तरह वीडियो लाइब्रेरी खुलने से किराये पर भी) के लिए लाइन लगाया करते। 1990 में मंडल कमीशन के दौरान इस मैगजीन को भारी लोकप्रियता हासिल हुई। उस दौरान इसकी विश्वसनीयता दूरदर्शन से ज्यादा बनी। *दूसरा* कि 1995 में डीडी मेट्रो पर 20 मिनट के लिए जिस आजतक की शुरुआत हुई, उसने और भी बेहतर तरीके से साबित कर दिया कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग के अलावा भी एक खाली स्पेस है, जिसे कि निजी मीडिया के माध्यम से भरा जा सकता है। आजतक का यह अंदाज दूरदर्शन के समाचारों से बिल्कुल अलग था जिसे कि ऑडिएंस ने हाथोंहाथ लिया। एसपी सिंह ने टेलीविजन की भाषा को लेकर जो प्रयोग किये थे, खबरों के साथ पैश्टिच तैयार की थी, उसने बहुत जल्द ही ऑडिएंस का एक बड़ा वर्ग तैयार कर लिया था। एसपी सिंह ने दूरदर्शन के रिवाजों को कई स्तरों पर तोड़ा और खबर को सरकारी कर्मकांडों से बाहर निकालने का काम किया। जिस दूरदर्शन की लगभग सभी बुलेटिन प्रधानमंत्री ने कहा है कि से शुरू होती, एसपी सिंह ने उसमें समाज के नये चेहरों, अल्पसंख्यक, दलित और स्त्रियों के स्वर को शामिल करना शुरू किया। दूसरी तरफ खबरों में टीआरपी के बताशे बनाने के जो खेल शुरू हुए हैं, उसकी शुरुआत भी उन्होंने ही की। होली पर पटना में कोई खबर नहीं है, तो लालू की होली शूट कर लाओ। उन्होंने ही अपने संवाददाता को मोटरसाइकिल से लालू की होली शूट करने के लिए भेजा था, आप याद कीजिए, उसमें आपको पीपली लाइव का दीपक नजर आएगा। दूरदर्शन इसे चलाने से एतराज कर रहा था लेकिन एसपी सिंह की ठसक की वजह से ये स्टोरी चली और पहली बार कोई राजनीतिक व्यक्ति गैरराजनीतिक खबर के लिए इस्तेमाल में लाया गया। एसपी सिंह की चर्चा करते वक्त उनकी इस ट्रीटमेंट की चर्चा कम ही होती है। आगे चलकर ऐसा किया जाना ट्रेंड बन गया और अब राजनीतिक व्यक्ति शौक से कॉमेडी सर्कस में भी आने की इच्छा रखते हैं। *आजतक ने* दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रसारित करते हुए भी उससे अपने को बिल्कुल अलग रखने की कोशिश की और पहचान बनायी। आगे चलकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा – अगर एक अखबार में दो संपादकीय नहीं हो सकते तो फिर यह कैसे संभव है कि दूरदर्शन पर दो अलग-अलग किस्म के समाचार हों। डीडी वन पर अलग तरह के समाचार और डीडी टू पर उससे ठीक अलग समाचार। अगर ऐसा है तो फिर डीडी के एक ब्रांड होने का क्या मतलब है। 29 जनवरी 1999 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक ये संकेत मिलने लगे थे कि दूरदर्शन पर आजतक बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। प्रमोद महाजन ने इस पर भी एतराज जताया था कि आज से तीन साल पहले जब आजतक की शुरुआत हुई थी, तो तय ये किया गया था कि इस पर सामयिक मसले से जुड़े कार्यक्रम दिखाये जाएंगे। लेकिन मैं देख रहा हूं कि ऐसा नहीं हो रहा है। प्रमोद महाजन का इशारा उन खबरों की तरफ था, जिसमें खबर के नाम पर लोकप्रियता बटोरने की कोशिशें होने लगी थी। दूसरी वजह ये भी थी कि खुद दूरदर्शन के समाचार इस तरह से पेश किये जाते कि उसके मुकाबले लोगों को आजतक बहुत पसंद आता। दूरदर्शन ने जिस बेतहाशा तरीके से लाइसेंस फीस लेकर निजी मीडिया हाउसों को स्लॉट दे रखे थे, उसका उसे भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। प्रमोद महाजन ने तब कहा था कि सरकार दूरदर्शन को 1700 करोड़ रुपये इस बात के लिए नहीं देती कि उस पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रहे। बाहर से आनेवाले को इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि 25000 हजार रुपये देकर प्रसार भारती को ही चलाने लग जाए। इशारा साफ था कि आजतक जैसा कार्यक्रम दूरदर्शन को लॉन्चिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर रहा है। लिहाजा अरुण पुरी को इन दोनों उपलब्धियों का स्वाद मिल चुका था और अब इसे दूरदर्शन से अलग करने का भी मन वे बना चुके थे। 31 दिसंबर 2000 को आजतक को एक निजी सेटेलाइट चैनल के तौर पर लांच कर दिया गया। *आजतक ने* दूरदर्शन का सरकारी भोंपू न बनने वाली छवि का पूरा फायदा उठाया। उसने ऑडिएंस के बीच अपनी इस तरह से पहचान बनायी कि उन्हें लगने लगा कि ये चैनल सरकार से कहीं ज्यादा भरोसेमंद और उनके प्रति चिंतित है। आजतक के कम समय में सफल होने की वजह तकनीक के स्तर पर मजबूत पकड़ और भाषा के स्तर पर क्लासरूम के बजाय कैंटीन और चौपाल की तरफ लौटना था। उसने बाकी मीडिया हाउस की तरह महंगे सेटअप के बजाय विदेशों की छोटी-छोटी कंपनियों से तकनीक आधारित सौदे किये और एसेंबल्ड तकनीक पर जोर दिया। तब आजतक के कैमरे एनडीटीवी के कैमरे से चार गुना कम कीमत पर होते। ज्यादा खबर, स्पॉट की खबर और कैमरा और आंखों के भरोसे को एक करने देने की रणनीति ने उसे ऊपर उठाया। चैनल ने अपनी ब्रांडिंग इस भरोसे को जीतने के तौर पर की। 2005 में रायटर ने जो सर्वे किया, उसमें आजतक को दूरदर्शन से ज्यादा विश्वसनीय बताया गया। आजतक को 11 प्वाइंट मिले थे जबकि दूरदर्शन को 10… लेकिन आगे चलकर आजतक ने अपनी इस विश्वसनीयता को बनाये रखने के बजाय खुद को महज ब्रांड के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया। *दमदार खबरों के* दम पर उसने मीडिया इंडस्ट्री में जिस तरह की इंट्री ली थी, धीरे-धीरे अपनी पहचान रिड्यूस करके टीआरपी की पहचान पर जीने लग गया। शुरुआत के चार-पांच सालों तक टीआरपी और धार दोनों साथ-साथ चलते रहे लेकिन 2005-06 के बाद से सिर्फ टीआरपी ही उसकी पहचान बनती चली गयी। नतीजा, जोड़-तोड़, उठापटक और तमाशों को किसी तरह दिखाकर चैनल नंबर वन की कैटरेस में किसी तरह तो बना रहा लेकिन उसकी साथ धीरे-धीरे मिट्टी में मिलती चली गयी। दूसरा कि जिस गोबरछत्ते की तरह टेलीविजन पर न्यूज चैनल सवार हैं, उसके बीच चैनल ने अपनी अलग पहचान खो दी। पिछले दो-तीन साल से ऐसी स्थिति बनी कि जो आजतक पर चले, वही खबर है की भी ताकत खत्म हो गयी। मतलब कि वह इंडस्ट्री का ट्रेंड सेटर नहीं रह गया। वह कभी चार घंटे के लिए इंडिया टीवी हो जाता तो अगले दो घंटे के लिए स्टार न्यूज तो फिर अगले तीन घंटे के लिए संस्कार या आस्था टीवी। चौबीस घंटे के भीतर आजतक दो घंटे तक के लिए भी आजतक नहीं बना रहा। पुण्य प्रसून वाजपेयी इस पूरी स्थिति को गिरावट के तौर पर देखते हैं, जिससे लगता है कि इसने अपना स्वर्ण युग खो दिया है। लेकिन… *मेरी अपनी समझ* है कि आजतक की शुरुआत कोई संतई कर्म के लिए नहीं हुई थी। उसका शुरू से उद्देश्य था कि इसे मुनाफा का माध्यम बनाया जाए। हां, शुरुआत में जो खबरें दिखायी गयीं, उसमें उन तमाम ऑडिएंस की चिंता होती जो कि सीधे तौर पर चैनल से परिभाषित होते हैं। बाद में जब वो ऑडिएंस पहले टीआरपी बक्से से और तब थोड़ा बहुत जेनरल कांशसनेस से पारिभाषित होने लगे तो कंटेंट बदलना शुरू हो गया। अब ऑडिएंस की पसंद और इच्छा के नाम पर उसके फ्लेवर हैं, जिसके नाम पर चैनल चल रहा है। इस बीच चैनल की पहचान सिर्फ और सिर्फ टीआरपी के स्तर की है। खबर का असर अब उसी तरह से है, जैसा कि बाकी चैनल विज्ञापन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इंडस्ट्री के बीच यहां के लोगों की पहचान भी उसी रूप में है कि अगर आजतक में कोई काम करके आया है तो जाहिर है कि उसे टीआरपी के बताशे बेहतर तरीके से बनाने आते होंगे। शुरुआती दौर के मीडियाकर्मी, जिन्होंने कि एसपी सिंह के साथ काम किया, वे भी एक हद तक तमाम चैनलों के मैनेजिंग एडीटर या प्रमुख इसलिए बने क्योंकि इस कला को लेकर उन पर भरोसा किया जा सकता था। वे चैनल चला सकते थे, यानी कि चैनल को टीआरपी और मुनाफे के फार्मूले के साथ जोड़कर रख सकते थे। आजतक के किसी भी मीडियाकर्मी को इसलिए नहीं बुलाया जाता कि वह कोई सरोकारी पत्रकारिता करेगा? पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ऐसे ही पत्रकारों को ब्रांड में तब्दील हो जाना कहा है। बिजनेस के लिहाज से सोचें तो चैनल को न तो आज से दस साल पहले कोई नुकसान था और न ही आज कोई नुकसान है। लेकिन ऑडिएंस और मीडियाकर्मी के स्तर पर सोचें तो इस चैनल को भारी नुकसान हुआ है। ये नुकसान हालांकि सब्जेक्टिव किस्म का है, जिसका हर कोई आकलन अलग-अलग तरीके से कर सकता है। लेकिन हम जैसे लोगों के लिए एक ऐसा चैनल, जिसे देखकर एक ही साथ तीन सपने देखे थे और जो कि अब शायद ही कोई ऐसा देखता हो… *(1) स्कूल से ही ये सपना कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है (2) आजतक का पत्रकार बनना है और (3) पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसा पत्रकार बनना है* *ये सपने* वक्‍त के साथ ध्वस्त हो गये। तमाम बातों के बावजूद इस चैनल ने लंबे समय तक एक पीढ़ी को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि बड़ा होकर उसे पत्रकार बनना है। शायद ये नास्टॉल्जिया का हिस्सा हो लेकिन हमने बचपन के इसी सपने के बूते आजतक की इंटर्नशिप के नाम पर दिल्ली के कम से कम 20-35 इलाकों में टेंट हाउस से लाकर कुर्सियां लगवाने का काम किया। उस दौरान जहां-जहां चैनल के शो होते, उसकी व्यवस्था में लगा रहा। घोर नास्तिक और भाग्य और ज्योतिष पर ठोकर मारने की आदत होने पर भी आपके तारे जैसे कार्यक्रम पर रोज कुंडलियां देखी, फर्जी ज्योतिष के बकवास के ग्राफिक्स बनाये। कई बार ये ख्याल आया कि ये हमारा वो आजतक नहीं है, जिसे देखते हुए हम अपनी होमवर्क की कॉपियां रोल करते और पुण्य प्रसून की नकल उतराते – कैमरा मैन आसिफ के साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी, दिल्ली, आजतक। फिर भी… *ये बचपन में* आजतक को लेकर देखे गये सपने का असर ही था कि हम दिनभर जब ऐसे काम करते जिसे कि हमने कभी भी मीडिया का हिस्सा नहीं माना, जो काम घर-दुकान के नौकर-चाकर कर दिया करते हैं, बुरी तरह थककर चूर हो जाते तो खाली स्टूडियो में जाकर पुण्य प्रसून वाजपेयी की तरह हाथ रगड़ते और कई बार जी बोलते, स्क्रिप्ट में ज्यादा से ज्यादा बार कहीं न कहीं और आम आदमी घुसेड़ते। मैं हूं प्रतीक त्रिवेदी और आज खड़ा हूं जंतर-मंतर पर। जी हां, एक ऐसे इलाके में जहां कुछ भी कहा जाए, तो आवाज सीधे सरकार के कानों तक जाती है। हमने बचपन के उन सपनों के भरोस दस साल तक मीडिया की पढ़ाई कर ली, लिखना और बोलना सीख लिया। आजतक में काम करने का मौका मिला तो उन सपनों की बदौलत सब कर गये। मन में सवाल उठते तो अपने को समझाता – तुम यहां मीडिया का काम नहीं, बचपन के अपने सपने पूरे करने आये हो, वो पूरे हो रहे हैं। खुश रहो। आज मैं सोचता हूं कि क्या आजतक को देखकर इस पीढ़ी के बच्चे उसी तरह के सपने पालते होंगे और उन्हें भी दो-चार ऐसे पत्रकार जंच गये होंगे जिसकी वो नकल उतारकर उनकी तरह बनना चाहते हों। अरुण पुरी के लिए वो सब तब भी धंधा था और आज भी है। लेकिन तब के धंधे में एक मासूमियत थी, बॉटमलाइन की एक सच्चाई थी जो ऑडिएंस के भरोसे को बनाये रखती। आज ये भरोसा खत्म हो गया है। ऑडिएंस और पत्रकारों को नुकसान इसी स्तर पर है। *आज से* तीन-चार दिन पहले पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अरुण पुरी की उस मीटिंग का जिक्र किया है (*टीवी पत्रकारिता कहां से चली थी, कहां पहुंच गयी?*), जिसके अनुसार उन्होंने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा कि अब ये चैनल आपके हाथ में है, आप इसे चाहे जैसे चलाएं। वाजपेयी अरुण पुरी की ये बात रिपोर्टरों की ईमानदारी और काबिलियत रेखांकित करने के तौर पर कर रहे थे। अच्छी बात है कि अरुण पुरी ने तब अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों पर भरोसा किया और उन्हें अपने मुताबिक काम करने का मौका दिया। लेकिन इस प्रसंग का दूसरा पक्ष भी है कि अरुण पुरी किस दौर में आकर अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों से ये कहना शुरू करते हैं कि सवाल ईमानदारी का नहीं है। सवाल इतने बड़े वेंचर के बने रहने, आपलोगों को समय पर सैलरी मिलती रहने और चैनल की टीआरपी बनी रहने की है। दूसरे चैनलों की बात छोड़ दें तो आजतक एक ऐसा चैनल है, जिसमें कि मालिकाना हक से लेकर बाकी स्तरों पर बहुत कम ही फेरबदल हुए हैं। ऐसे में इस दूसरे पक्ष की पड़ताल बहुत जरूरी है। पहले जिन रिपोर्टरों को बिना बाइट के भी, अगर उसे अपनी खबर पर भरोसा है, तो चला देने को कहा, अब ऐसी कौन सी स्थिति आ गयी कि बलात्कार तक की खबर (पीड़‍ित के मौजूद होने पर भी) बिना एसएचओ की बाइट के नहीं चलने पाती है। ऐसा क्या हो गया कि पांच करोड़ पर प्रियंका चोपड़ा के शीला की जवानी गाने पर नहीं नाचने से आजतक की एंकर आश्चर्य प्रकट करती हैं, जैसे कि वो खुद मना नहीं कर सकेगी? चैनल के भीतर खबरों को लेकर जो नजरिया बदला है, वो क्या सिर्फ टीआरपी के बक्से के डर से है या फिर यह पूरा मामला मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है? क्योंकि बात जब हम अरुण पुरी के आजतक चैनल की कर रहे हैं, तो हम पूरी तरह होशोहवास में हैं कि हम एक ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं, जिसने कि चैनल की शुरुआत ही सरोकार उद्योग से की लेकिन अब उससे सरोकार शब्द हट गया। अगर ये डर और बदलाव टीआरपी के बक्से की वजह से है तो हमें आजतक के दस साल होने पर जश्न मनाने के बजाय मनुस्मृति की तरह टीआरपी के बक्से को जलाना चाहिए जिसने मुनाफे की स्थिति में भी चलनेवाले हमारे एक भरोसेमंद चैनल की जुबान खींच ली. मूलतः प्रकाशित- मोहल्लालाइव.कॉम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From miyaamihir at gmail.com Fri Dec 31 23:52:22 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 31 Dec 2010 23:52:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= 2010 in Cinema : A fun roundup Message-ID: *पांच किरदार* * * - *विद्या बालन – इश्किया* * * जवान होती शीलाओं और बदनाम होती मुन्नियों के समय में हो सकता है कि आप विद्या बालन की ठीक-ठीक जगह न पहचान पाएं. लेकिन बीस-तीस साल बाद जब इतिहास के पन्नों में यह धुंध छंट चुकी होगी, उनका नाम उसी क्रम में होगा जहाँ ऊपर मधुबाला, वहीदा रहमान और नूतन का नाम लिखा है. हिन्दी सिनेमा की वर्तमान नायिका के लिए यह एक असल ’गैर-परंपरागत’ रोल था. और जैसा काम उन्होंने कर दिखाया है, सुंदरता/मादकता/यौवन/आकर्षण के तमाम मापदंड उलट-पलट जाते हैं. इश्किया की ’कृष्णा’ इंसान के भीतर बसे भगवान और शैतान दोनों को एक साथ जगा देती है. - *रोनित रॉय – उड़ान* यह आकाशवाणी जयपुर है. अब आप सुनेंगे प्रायोजित कार्यक्रम ’युववाणी’. तक़रीबन पन्द्रह साल हुए उस बात को जब ’जान तेरे नाम’ का वो गाना दादा ने मेरी विशेष फ़रमाइश पर रेडियो पर सुनवाया था. और इसीलिए आज यहाँ ’भैरव सिंह’ का नाम लिखते हुए मुझे बखूबी मालूम है कि रोनित रॉय के लिए यह कितना लम्बा फ़ासला है. यह साल का सबसे उल्लेखनीय पुरुष किरदार है, और सबसे ज़्यादा कोसा गया भी. - *रघुबीर यादव – पीपली लाइव* वजह वही जो दिबाकर की “ओये लक्की लक्की ओये” में ’लक्की सिंह’ से ज़्यादा ’बंगाली’ की तरफ़दारी करने की है. आपके पास कोई तय दिशा-निर्देश नहीं होता ऐसा किरदार निभाते वक़्त. यह करतब/कलाबाज़ी है. धार पर चलने बराबर. न आप उतने भोले हैं कि दुनिया के झमेले न समझें, न आप उतने चालाक/ताक़तवर हैं कि उन्हें धता बताते हुए बचकर निकल जाएं. आप ऐसे शिकार हैं जो अपने शिकारी की सूरत तो पहचानता है, लेकिन उससे बचने का कोई रास्ता उसके पास नहीं. और रघुबीर इस मुश्किल को ऐसे निकाल ले जाते हैं जैसे इसमें और बीड़ी सुलगाने में कोई अंतर ही न हो. - *दीपक डोबरियाल – दायें या बाएं* मक़बूल, ओमकारा, 1971, शौर्य, दिल्ली6, 13B, गुलाल. दीपक डोबरियाल हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता हैं. और ’रमेश मजीला’ की भूमिका निभाते हुए उनकी उलझनों में गज़ब की सच्चाई है. ’नायक’ होने की तमाम मान्य परिभाषाओं को झुठलाते दीपक इस छोटी मगर खूबसूरत फ़िल्म के सबसे बड़े सितारे हैं. सहेजने के किए झोली भर के चमत्कारी क्षण दे जाते हैं. - *राजकुमार यादव – लव, सेक्स और धोखा* इनमें से चुनाव कठिन है. लेकिन श्रुति, राहुल या रश्मि होने के मुकाबले ’आदर्श’ होना मुझे ज़्यादा मुश्किल लगता है. इस किरदार के लिए रचा गया घटनाचक्र पूरी तरह नकारात्मक था. लेकिन इसे ’नकारात्मक’ नहीं होना था. इस किरदार को निभाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि इसे व्यवस्था का ’शिकार’ दिखाना सबसे मुश्किल था. ज़रा सी चूक और ’आदर्श’ हिन्दी सिनेमा का आदर्श विलेन होता और हमारी नज़रों के सामने से वो आईना ओझल हो जाता जो उस किरदार ने हमें दिखाया. राज कुमार यादव साल के इस सबसे मुश्किल इम्तिहान में पूरे खरे उतरते हैं.  *छोटा है लेकिन तलवार है* *नम्रता राव* - ’डे वाली सेल्सगर्ल’ फ़िल्म “लव, सेक्स और धोखा” *राम कपूर* - ’जिम्मी’ फ़िल्म “उड़ान” *नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी* – ’राकेश’ फ़िल्म “पीपली [लाइव]” *अदिति वासुदेव* – ’पायल दुग्गल’ फ़िल्म “दो दुनी चार” *एल. एन. मालवीय* – ’होरी महतो’ फ़िल्म “पीपली [लाइव]” - Best thing happen to Indian television in 2010 : *Powder* - Worst thing happen to Indian television in 2010 : *Pamela Anderson* - Best thing happen to 70mm in 2010 : *Leaving Home* - Worst thing happen to 70mm in 2010 : *Golmal 3 * ( I successfully escaped Kites, Houseful, Guzarish, KHJJS, TMK and We are family on 70mm last year ;-) - ‘Man of the moment’ : *Habib Faisal.* And not to forget..... - "भोर का, सांझ का, आग उमंग, आस का, प्यार का लाल है रंग." - "तुम्हारा इश्क़ इश्क़, और हमारा इश्क़ सेक्स!" - "The Sub-Textual, Emotional Violence of The 19th Century Victorian Poetry" Bye Bye 20 10 ..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vijayvijaymishra at gmail.com Thu Dec 2 12:50:22 2010 From: vijayvijaymishra at gmail.com (vijay kumar mishra) Date: Thu, 02 Dec 2010 07:20:22 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Samyik Meemansa - April-September 2010 In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: vijay kumar mishra Date: Wed, 21 Jul 2010 17:07:02 +0530 Subject: Samyik Meemansa - April-September 2010 To: vijay kumar mishra Kripya apna sujhav den Vijay Kumar Mishra Sampadak Samyik Meemansa From mediamorcha at gmail.com Tue Dec 21 10:04:03 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Tue, 21 Dec 2010 04:34:03 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?pl=2Eread_---?= =?utf-8?b?4KSo4KSa4KS/4KSV4KWH4KSk4KS+IOCklOCksCDgpLjgpYHgpLDgpYc=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCkuOCljeCkqOCkv+Ckl+CljeCkpyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWLIOCkrOCkqOCkvuCksOCkuOClgCDgpKrgpY3gpLDgpLjgpL7gpKYg?= =?utf-8?b?4KSt4KWL4KSc4KSq4KWB4KSw4KWAIOCkuOCkruCljeCkruCkvuCkqG9u?= =?utf-8?q?_www=2Emediamorcha=2Eco=2Ein?= Message-ID: Posted on December 20 2010 Read more... नचिकेता और सुरेन्द्र स्निग्ध को बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान [image: नचिकेता और सुरेन्द्र स्निग्ध को बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान] पटना / खबर । हिन्दी साहित्य का बहुचर्चित ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ वर्ष 2008 एवं 2009 के लिए क्रमश: प्रसिद्ध गीताकर नचिकेता तथा हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर सुरेन्द्र स्निग्ध को दिया गया है। इस सम्मान के चयन के लिए निर्णायक मंडल के सदस्य थे-वरिष्ठ हिन्दी आलोक आलोचक डाॅ॰ विजेन्द्र नारायण सिंह एवं डाॅ॰ खगेन्द्र ... 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[image: जब लोकतंत्र के प्रहरी ही निकले दलाल …????]ब्रज किशोर सिंह / मुद्दा / हजारों साल पहले की बात है.किसी राज्य का राजा बड़ा जालिम था.उसके शासन में चारों तरफ लूटमार का वातावरण कायम हो गया.कुछ लोगों ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराने की कोशिश भी की.लेकिन उन सबको अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.उसी राज्य में एक वृद्ध और बुद्धिमान व्यक्ति रहता ... Posted on December 13 2010 Read more... पत्रकार सुबोध की पुस्तक का लोकार्पंण [image: पत्रकार सुबोध की पुस्तक का लोकार्पंण] पटना / खबर / मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शुक्रवार को पटना पुस्तक मेला में हिन्दुस्तान पटना के पत्रकार सुबोध कुमार नन्दन द्वारा लिखित पुस्तक ‘बिहार के पर्यटन स्थल और सांस्कृतिक धरोहर‘ पुस्तक का लोकार्पंण किया। प्रभात प्रकाशन (नई दिल्ली) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में बिहार की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व ... Posted on December 12 2010 Read more... पत्रकारिता कोश – 2011 के प्रकाशन हेतु नामों का संकलन [image: पत्रकारिता कोश – 2011 के प्रकाशन हेतु नामों का संकलन] मुंबई। खबर / समकालीन हिंदी साहित्य व पत्रकारिता की विविध जानकारियों से परिपूर्ण "पत्रकारिता कोश " के 11वें अंक के प्रकाशन हेतु मुंबई सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले विविध भाषाओं के समाचारपत्र - पत्रिकाओं / समाचार चैनलों, आदि के साथ - साथ उनमें कार्यरत लेखक - पत्रकारों / कवि - साहित्यकारों ... Posted on December 11 2010 Read more... अवैध वसूली करते दो पत्रकार गिरफ्तार [image: अवैध वसूली करते दो पत्रकार गिरफ्तार] मध्‍य प्रदेश / खबर/ सिवनी जिले में टीआई बनकर अवैध वसूली करते दो पत्रकारों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है. दोनों टोटल टीवी के पत्रकार हैं. दोनों एक ट्रक चालक को धमकाकर उससे पचास हजार रूपये की मांग कर रहे थे. शक होने पर चालक ने इसकी सूचना पुलिस को दी. जिसके बाद पुलिस ने ... Posted on December 10 2010 Read more... घोसला.. परिंदों के लिए……. [image: घोसला.. परिंदों के लिए…….] पिछले दिनों मीडिया में जो भूचाल आया उससे पूरा मीडिया जगत हिला हुआ है...पैसे कमा कर अपना घर भरने वालों के लिए यहंा हम कुछ दे रहे हैं कानपुर से एक साथी ने भेजा है थोड़ा हट कर हैः संपादक कल्पना पांडे / आशियाने क़ि ख्वाहिश इंसानों को ही नहीं बल्कि आसमान ... Posted on December 6 2010 Read more... आकाश पर मत थूको [image: आकाश पर मत थूको] संजय कुमार / कहानी / शाम का वक्त था। समाचार पत्र 'सत्य' के डाक संस्करण को अंतिम रूप देने में समाचार संपादक त्रिभुवन जी पूरे जोश-खरोश से लगे थे। आम दिनों की तरह आज पेज छोड़ने को लेकर अफरा-तफरी और कोलाहल वाला माहौल नहीं था। दफ्तर में हर ओर एक अजीब तरह की खामोशी थी। ... Posted on December 4 2010 Read more... छत्तीसगढ़ को नई नजर से देखती एक किताब पत्रकार तपेश जैन की पुस्तक पर समीक्षा गोष्ठी [image: छत्तीसगढ़ को नई नजर से देखती एक किताब पत्रकार तपेश जैन की पुस्तक पर समीक्षा गोष्ठी] रायपुर । खबर / छत्तीसगढिय़ा कौन ? कई बार यह सवाल किया जाता हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नद्दष्टा स्व. खूबचंद बघेल ने इसे स्पष्ट किया है कि जो छत्तीसगढ़ के विकास से गौरवान्वित हो वही छत्तीसगढिय़ा है। यह उद्दगार कृष्टि एवं बीज विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस ने पत्रकार एवं फ़िल्मकार तपेश जैन ... -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From water.community at gmail.com Mon Dec 27 14:25:42 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Mon, 27 Dec 2010 08:55:42 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSo4KWAIOCksOClhyDgpKrgpL7gpKjgpYA6IOCkj+CklSA=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KS/4KSu4KWH4KS24KSoIOCkq+Ckv+CksuCljeCkriAvIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS1IOCkteCksOCljeCktyDgpJXgpYAg4KSs4KSn4KS+4KSIIC8g?= =?utf-8?b?4KSG4KSq4KSV4KWAIOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: पानी रे पानी 'पानी रे पानी' फिल्म एक एनिमेशन फिल्म है। बच्चों के लिये बनी इस फिल्म में बड़ों के सीखने के लिए भी काफी कुछ है। इस फिल्म में यह बताने का प्रयास किया गया है कि हमारे सब ओर पानी ही पानी है लेकिन पीने के लिये बूंद भी नहीं है, यानी एक ओर बाढ़ है तो दूसरी ओर सुखाड़। कुछ लोग काम करते समय नल खुला छोड देते हैं तो दूसरी ओर कुछ बूंद-बूंद के लिये तरस रहे हैं। ऐसी समस्या का क्या उपाय हो सकता है। कैसे करें हम अपने पानी का प्रबंधन...जानने के लिये देखिये यह फिल्म.... और वीडियो देखें - हिन्डन : पवित्र नदी या नाला - खेती बदली रे, आश जागी रे - 'पानी जहाँ जीवन नहीं, मौत देता है' - इंडिया वाटर पोर्टल सर्वेक्षण के लिए फार्म प्रिय मित्रों, इंडिया वाटर पोर्टल के समर्थन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। पिछले 4-5 सालों में आपकी सलाह, सुझावों और आलोचनाओं ने पोर्टल के विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। हमें विश्वास है कि पोर्टल को विकसित करने, नई वेबसाइट के निर्माण, और मौजूदा पोर्टल की सुविधाओं में वृद्धि करने के लिये आप अपना अनुभव हमसे साझा करेंगे। इंटरनेट प्रौद्योगिकी लगातार विकसित हो रही है और पानी एक विशाल विषय है। आपकी प्रतिक्रिया से हम इस मुद्दे को बेहतर समझ पाएंगें और पोर्टल को बेहतर बना पाएंगें। हम अपने अगले 5 साल की योजना विकसित कर रहे हैं. क्या आप अपने कीमती समय से मात्र10 मिनट इस प्रयोक्ता सर्वेक्षण को भरने के लिये दे सकते हैं? ताकि हम पोर्टल को और बेहतर बना सकें..... सर्वेक्षण के लिए यहाँ क्लिक करें Dear Friends of the Portal, Thank you for supporting the India Water Portal. Your advice, suggestions and criticisms have helped the portal evolve through the past 4-5 years. We have always relied on user experience to develop the portal, to create new websites, and to enhance the features of the existing portal. Internet technologies evolve continuously, and water is a vast subject. Your feedback helps us understand the issue better, and develop the portal better. We are developing our next 5 year plan. Could you spend 10 minutes and fill our user survey? Click Here to take the survey -- Minakshi Arora Chairperson-Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Mon Dec 27 14:25:42 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Mon, 27 Dec 2010 08:55:42 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSo4KWAIOCksOClhyDgpKrgpL7gpKjgpYA6IOCkj+CklSA=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KS/4KSu4KWH4KS24KSoIOCkq+Ckv+CksuCljeCkriAvIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS1IOCkteCksOCljeCktyDgpJXgpYAg4KSs4KSn4KS+4KSIIC8g?= =?utf-8?b?4KSG4KSq4KSV4KWAIOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: पानी रे पानी 'पानी रे पानी' फिल्म एक एनिमेशन फिल्म है। बच्चों के लिये बनी इस फिल्म में बड़ों के सीखने के लिए भी काफी कुछ है। इस फिल्म में यह बताने का प्रयास किया गया है कि हमारे सब ओर पानी ही पानी है लेकिन पीने के लिये बूंद भी नहीं है, यानी एक ओर बाढ़ है तो दूसरी ओर सुखाड़। कुछ लोग काम करते समय नल खुला छोड देते हैं तो दूसरी ओर कुछ बूंद-बूंद के लिये तरस रहे हैं। ऐसी समस्या का क्या उपाय हो सकता है। कैसे करें हम अपने पानी का प्रबंधन...जानने के लिये देखिये यह फिल्म.... और वीडियो देखें - हिन्डन : पवित्र नदी या नाला - खेती बदली रे, आश जागी रे - 'पानी जहाँ जीवन नहीं, मौत देता है' - इंडिया वाटर पोर्टल सर्वेक्षण के लिए फार्म प्रिय मित्रों, इंडिया वाटर पोर्टल के समर्थन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। पिछले 4-5 सालों में आपकी सलाह, सुझावों और आलोचनाओं ने पोर्टल के विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। हमें विश्वास है कि पोर्टल को विकसित करने, नई वेबसाइट के निर्माण, और मौजूदा पोर्टल की सुविधाओं में वृद्धि करने के लिये आप अपना अनुभव हमसे साझा करेंगे। इंटरनेट प्रौद्योगिकी लगातार विकसित हो रही है और पानी एक विशाल विषय है। आपकी प्रतिक्रिया से हम इस मुद्दे को बेहतर समझ पाएंगें और पोर्टल को बेहतर बना पाएंगें। हम अपने अगले 5 साल की योजना विकसित कर रहे हैं. क्या आप अपने कीमती समय से मात्र10 मिनट इस प्रयोक्ता सर्वेक्षण को भरने के लिये दे सकते हैं? ताकि हम पोर्टल को और बेहतर बना सकें..... सर्वेक्षण के लिए यहाँ क्लिक करें Dear Friends of the Portal, Thank you for supporting the India Water Portal. Your advice, suggestions and criticisms have helped the portal evolve through the past 4-5 years. We have always relied on user experience to develop the portal, to create new websites, and to enhance the features of the existing portal. Internet technologies evolve continuously, and water is a vast subject. Your feedback helps us understand the issue better, and develop the portal better. We are developing our next 5 year plan. Could you spend 10 minutes and fill our user survey? Click Here to take the survey -- Minakshi Arora Chairperson-Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Dec 3 17:19:30 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 03 Dec 2010 11:49:30 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= P sainaths lecture on paid news yesterday in Mumbai Message-ID: P sainaths lecture on paid news yesterday in Mumbai -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Dec 24 13:09:56 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 24 Dec 2010 07:39:56 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruCkvuCkguCkl+CkqOClhyDgpLXgpL7gpLLgpYcg4KSW4KWB?= =?utf-8?b?4KSmIOCkreClgCDgpKrgpL7gpLDgpKbgpLDgpY3gpLbgpYAg4KSs4KSo?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: सूचना मांगने वाले खुद भी पारदर्शी बनें सूचना अधिकार कार्यकर्ता मनीष सिसोदिया ने ‘अपना पन्ना’ (सूचना अधिकार की मासिक पत्रिका) के माध्यम से सूचना अधिकार की लोकप्रियता और इसके मार्ग में बाधा को लेकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि देश भर में सूचना के अधिकार की शक्ति से जन-जन को परिचित कराने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वेक्षण में 54 फीसदी लोगों ने माना कि उन्हें सूचना अधिकार कानून की जानकारी प्रिंट मीडिया से हुई। अर्थात अखबार और पत्रिकाओं ने उन्‍हें इस कानून से परिचित कराया। 09 फीसदी लोगों को इस कानून के संबंध में पहली जानकारी टीवी से प्राप्त हुई। 09 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्‍हें रेडियो ने बताया कि सूचना का अधिकार है क्या? 13 फीसदी लोगों को इसकी जानकारी किसी स्वयं सेवी संस्थान और 13 फीसदी लोगों को यह जानकारी मित्रों और सगे संबंधियों से मिली। सिसोदिया के अनुसार सर्वे के परिणाम से दो बातें बिल्कुल साफ होती हैं। एक तरफ जहां आम जनता आरटीआई कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी, नेता, ठेकेदार मिल कर कानून की धार को कुन्द करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। अब देखना यह है कि जीत किसकी होती है? पारदर्शिता के जुड़ा हुआ ही एक दूसरा प्रश्‍न भी है, जो आजकल सूचना अधिकार के कानून के साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए बड़ा सवाल होगा। जिस पारदर्शिता की उम्मीद हम सरकार से करते हैं, वह पारदर्शिता उन संगठनों और व्यक्तियों को भी अपने जीवन, व्यवहार और काम काज में लाना चाहिए। इससे वे आम जन का विश्वास जीत पाएंगे। यह विश्वास उस समय बहुत काम आएगा, जब कोई सरकारी अधिकारी किसी सूचना अधिकार कार्यकर्ता को झूठे मुकदमे में फंसाने की कोशिश करेगा। इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानो जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग बिहार, बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय ने जीती। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय ने अपने काम काज और जीवन में जो पारदर्शिता बरती है, उसी की वजह से यह फैसला उनके हक में आया। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया। शिवप्रकाश राय सिर्फ एक व्यक्ति का नाम है, जो बक्सर में एक संस्था की तरह काम कर रहे हैं। आज भी वे लगातार सूचना अधिकार को लेकर सक्रिय हैं। बात को आगे बढ़ाने से पहले एक कहानी। यह कहानी हो सकता है, आपने पहले कहीं सुनी होगी, जिसमें एक बच्चे को सात दिनों बाद बुलाकर महात्मा गांधीजी सिर्फ ईमली ना खाने का आग्रह इसलिए करते हैं, क्योकि जब वह पहली बार आया था उस वक्त तक वे खुद भी ईमली बड़े चाव से खाते थे। गांधीजी का मानना था यदि किसी को संयम की सीख देनी है तो यह संयम पहले खुद से ही शुरू होना चाहिए। यही बात सूचना के अधिकार कानून पर भी लागू होनी चाहिए। हाल में ही एक सूचना अधिकार कार्यकर्ता अफरोज आलम ने आधे दर्जन से अधिक सूचना अधिकार पर काम करने वाले संगठनों को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपने कुछ सवाल दर्ज किए और साथ में दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर भी लगाया। मतलब साफ था, वह उन लोगों से सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सवाल पूछना चाहता था, जिनपर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। तर्क स्पष्ट था, यदि कोई संगठन सूचना के अधिकार और पारदर्शिता की बात करता है तो उसे यह पारदर्शिता अपने संगठन से शुरू करनी चाहिए। हर बात के लिए यह जरूरी तो नहीं कि कानून का पेंच मौजूद ही हो। कुछ बातें नैतिकता के मानदंड पर भी तो तय होनी चाहिए। वैसे सवाल का जवाब उन सभी संगठनों की तरफ से आया, जिनसे सवाल पूछे गए थे। दिलचस्प यह था कि सवाल जितने बेबाक और बेलाग थे, जवाब उतने ही गोलमोल तरीके से लिखे गए थे। मसलन अधिकांश संस्थानों से आए जवाबों का सार यही था कि हम आपके सूचना के अधिकार की अर्जी का हार्दिक स्वागत तो करते हैं, लेकिन हम पर सूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। दो-तीन संगठनों ने जवाब के लिए अपनी वेबसाईट देखने की बात की लेकिन सवाल के बावत वहां कोई जानकारी नहीं मिली। अफरोज द्वारा संगठनों से कुल आठ से दस सवाल पूछे गए थे। मसलन संस्था की स्थापना कब और क्यों की गई? स्थापना का उद्देश्य क्या था? पिछले तीन वर्षों में संस्था द्वारा कितने और कब कब कार्यक्रम आयोजित किए गए, पिछले तीन वर्षों में संस्था को कहां-कहां से कितनी राशि फंड के रुप में मिली है? पिछले तीन वर्षों में संस्था के लोगों ने कहां-कहां की यात्राएं की और इस पर आने वाले खर्च का ब्योरा क्या है? इस तरह के सवाल का जवाब देना एक दो संस्थाओं को छोड़कर लगभग सभी के लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए उन्होंने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। जिन संगठनों से सवाल पूछे गए थे, उस सूची में राजस्थान के राजसमन्द जिले के देवडूंगरी की भी एक संस्था थी, ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन।' इस संगठन द्वारा जो जवाब दिया गया, वह वास्तव में काबिले तारीफ ही नहीं काबिले गौर भी है। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि संस्था ने दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर वापस नहीं किया और सभी सवालों का विस्तार से जवाब दिया। उन्होंने जवाब में यह दलील भी नहीं दी कि वे सूचना के अधिकार कानून के अंदर नहीं आते। संगठन से आए पत्र की शुरुआत कुछ इन शब्दों में थी- ' आपका आवेदन हमें प्राप्त हुआ। पत्र पढ़ते ही हमें बहुत अच्छा लगा कि आपने संगठन से सूचनाएं मांगी हैं। आपके पत्र का हम स्वागत करते हैं और निम्नलिखित सूचनाएं बिन्दुवार भिजवा रहे हैं।' उसके बाद एक एक करके मांगी गई सभी सूचनाओं के जवाब विस्तार से दिए गए हैं। सूचना के अधिकार पर काम करने वाले संगठनों के लिए ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ एक आदर्श संगठन हो सकता है। वास्तव में यदि कोई संगठन व्यवस्था में पारदर्शिता की मांग करता है, तो यह बेहद जरुरी है कि वह सबसे पहले अपने काम काज के तरीके में पारदर्शिता लाए। वह खुद को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर नहीं बल्कि अंदर माने। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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