From vineetdu at gmail.com Sun Aug 1 09:28:17 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 1 Aug 2010 09:28:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KWL4KS34KWN4KSg4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpJc=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCksOClhy0g4KS14KS/4KSt4KWC4KSk4KS/LOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS54KSk4KS+IOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrOCkvuCkpiEg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSw4KWN4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmLOCkruClgeCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmIQ==?= Message-ID: *हिंदी लिटरेचर की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच कही जानेवाली पत्रिका हंस की संगोष्ठी में जो नजारा हमने देखा, उससे एक साथ कई चीजें तार-तार हो गयीं। इस संगोष्ठी को मैं अपनी याददाश्त बरकरार रहने तक लोकतंत्र के मूल्यों की सरेआम धज्जियां उड़ानेवाली संगोष्ठी के तौर पर याद रखूंगा। ये मैंने अपने अकादमिक जीवन में पहली बार देखा कि किसी संगोष्ठी में वक्ता अपनी बात कहने के तुरंत बाद ही दर्शकों की चिंता किये बगैर मंच से नीचे उतरकर फील्डिंग करने लग गये। मंच की कुर्सियां एक-एक करके खाली होने लग जाती हैं। मंच संचालक का मंच, उस पर स्थापित लोगों और माहौल से पकड़ फिसलकर चुप्पी की नाली में जा गिरती है। वो विश्वरंजन की स्टेपनी के तौर पर आये विभूति नारायण राय से लाख अपीलें करते हैं कि मंच पर बने रहें लेकिन हजारों छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ानेवाले, फैकल्टी को ठोक-पीटकर अपने काम लायक बनानेवाले विभूति नारायण इसकी परवाह किये बगैर सीधे गेट की तरफ बढ़ते हैं। सभागार में बैठी ऑडिएंस इसे सीधा-सीधा अपना अपमान मानती है और हंगामा मच जाता है। उनकी सिर्फ इतनी ही मांग होती है कि हमने आपको इतनी देर तक बैठकर सुना, हमारे पास कुछ सवाल हैं, आप उन सवालों के जवाब दिये बगैर नहीं जा सकते। जाहिर है महीनों से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है, उसे लेकर कई सवाल बनते हैं*। * * *जिन ऑडिएंस ने* अगस्त महीने के नया ज्ञानोदय में उनका इंटरव्यू पढ़ा होगा, वो सवाल करना चाह रहे होंगे कि आखिर आपने किस अधिकार से कह दिया कि हमारी लेखिकाओं में अपने को एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा छिनाल साबित करने की होड़ है। उपन्यास का नाम ‘कितनी बिस्तरों पर कितना बार’ होना चाहिए, बताया। ये मसला पॉपुलरिटी स्टंट बोलकर नजरअंदाज करने का नहीं बल्कि उनसे जबाबतलब करने का है। ये मामला उनके इस्तीफे की मांग तक जा सकता है। सामूहिक तौर पर माफी मांगने पर जा सकता है। ये एक ऐसे विश्वविद्यालय के वीसी की भाषा कैसे हो सकती है, जहां वेब पर हिंदी के पन्ने तैयार करने के लाखों रूपये के ठेके दिये जाते हैं, हिंदी शब्दकोश के विस्तार के लिए दर्जनों आदमी काम पर लगाये जाते हैं, जहां एमए स्त्री अध्ययन का अलग से कोर्स चलाया जा रहा हो? इन सारे सवालों को अगर ये कहकर नकारा भी जाता कि सेमिनार में जो कहा है, उससे सवाल करें तो भी विभूति नारायण राय को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ता कि आप स्टेट मशीनरी के कुचक्र को ताकतवर बताकर किसी न किसी रूप में उसको डीफेंड क्यों कर रहे हैं? उनसे ये सवाल तो किया ही जाता कि आप संगोष्ठी, अकादमिक और कोतवाली की भाषा के फर्क को किस रूप में लेते हैं? लेकिन विभूत नारायण ने किसी का मान नहीं रखा। न मंच का, न संचालक का, न हंस का। पूरी संगोष्ठी में प्रेमचंद सिर्फ बैनर पर ही छपा रह गया, किसी की जुबान से एक बार भी प्रेमचंद नहीं निकला। नहीं तो जिन मूल्यों को सहेजने की कोशिशें और दावे हंस के मंच से किया जाता रहा है, उन तमाम मूल्यों को ठोकर मारकर विभूति नारायण ने छितरा दिया – होरी के वंशजो, इसे तुम एक-एक करके चुनो, समेटो। इस पूरे रवैये से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस माहौल के भीतर वर्धा विश्वविद्यालय की फैकल्टी काम करती है? ये सोचते हुए भी सिहरन होती है कि वहां के स्टूडेंट किस जम्‍हूरित के शिकार हैं, कैसे अपनी असहमति के स्वर को रख पाते होंगे? विश्वविद्यालय की जो कुछ खबरें अब तक हमारे सामने आयी हैं, हमारे भीतर एक उसी किस्म की बेचैनी पैदा होती है, आज विभूति नारायण को सुनते हुए ये बेचैनी और बढ़ गयी जो बेचैनी हमें मिर्चपुर में सुमन और उसके बाप को जिंदा जला देने की खबर से हुई थी। इस गहरी रात में, ये लाइन लिखते हुए मैं वर्धा के छात्रों से मिलने के लिए बेचैन हो रहा हूं। एक अकेला शख्स लोकतंत्र की ताकत पाकर किस हद तक अलोकतांत्रिक, अमर्यादित हो सकता है, इसका नमूना आज हमें लाइव देखने को मिला। लोकतंत्र की धज्जियां तब भी भयानक स्तर पर उड़ायी गयीं, जब आलोक मेहता जैसा पत्रकार (जिनके पत्रकारीय कर्म को अगर पीआर, लॉबिइंग की परिभाषा के हिसाब से समझें तो वो इसके ज्यादा करीब होगी) हेमचंद्र पांडे के मामले में हत्या की अगली सुबह कहता है कि वो नई दुनिया के लिए काम नहीं करता था, उसका इससे कोई संबंध नहीं था – पता नहीं किस हैसियत से अपने को डीफेंड करने के लिए मंच पर काबिज होने की कोशिश करता है। स्वामी अग्निवेश ने जब माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत की पहल के संदर्भ में अपनी बात शुरू की, तभी पत्रकार हेमचंद्र का नाम आया और उन्होंने नई दुनिया अखबार का नाम लिया कि उसके संपादक ने इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। एक तरफ सेकंड लास्ट की सीट पर बैठे आलोक मेहता पर लोगों की नजर गयी और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने कहा कि संपादक खुद यहां बैठे हैं, उन्हीं से पूछ लिया जाए। आलोक मेहता की तरफ से एक शख्स बोलने की अनुमति लेने की चीट लेकर राजेंद्र यादव के पास जाता है और उन्‍हें बोलने की अनुमति मिल जाती है। *आलोक मेहता तीन-चार* मिनट तक दायें-बायें करते हैं। पीछे बैठे लोग उनसे मुद्दे यानी हेमचंद्र पर बात करने के लिए कहते हैं। *(आलोक मेहता की वॉयस डिलीवरी आमतौर पर बहुत सॉफ्ट है। ये चैनल में सॉफ्ट स्टोरी या इंटरटेनमेंट की खबरों के लिए बहुत ही परफेक्ट है। मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे पत्रकारों की पूरी की पूरी एक जमात है, जिनकी आवाज को ऐसी स्टोरी के वीओ (वॉयस ओवर) के लिए काम में लाया जा सकता है। बहरहाल…)* ऑडिएंस के दबाब के बीच आलोक मेहता का स्वर अचानक से ऊंचा होने लग जाता है और धीरे-धीरे अंदाज के स्तर पर विभूति नारायण के स्वर के साथ एकाकार हो जाता है। ये कोई चैनल की बहस नहीं थी, जिससे कि आप एंकर पर तोहमत जड़कर मुक्त हो जाएं कि वो कहते ही हैं मामले को गर्म करने के लिए। ये एक विमर्श का मंच था, जिस पर कि इरा झा ने अपनी रिपोर्टिंग की बातें शेयर की, आदित्य निगम ने स्टेट लेजिटिमेसी की बात गंभीरतापूर्वक रखा, रामशरण जोशी अपनी क्षमता के अनुसार जितना बेहतर कर सकते थे, कोशिश की। लेकिन आलोक मेहता की आवाज अचानक से रामलीला मैदान की हो जाती है। अगर मैं गलत मिलान कर रहा हूं तो संभव है कि नई दुनिया के पत्रकार भाई इसे चैंबर में किसी पत्रकार से बात करने के अंदाज से इसका मिलान कर सकते हैं। *आलोक मेहता ने जो* तर्क दिया वो न केवल कमजोर और लचर था बल्कि मनोहरश्याम जोशी, राजेंद्र माथुर की परंपरा से अपने को जोड़कर उनकी बराबरी में अपने को खड़ा करने की कोशिश की। कहा कि नाम बदलकर अगर हेमचंद्र ने लिखा तो वो इतने महान तो हैं नहीं कि पता कर लेते। उन्होंने अपने को इस बिना पर जस्‍टीफाइ करने की जबरदस्ती की कि ऐसा पहले भी हुआ है। ऑडिएंस का धैर्य कंट्रोल से बाहर होने को आया। वो सीधे-सीधे उनसे जबाब चाह रही थी। लेकिन जो आलोक मेहता दो मिनट बोलने का समय मांग रहे थे, उऩ्हें दो घंटे भी बोलने को दिया जाता तो भी कुछ न बोलते। गोल-मोल बातें करके बीच में अपने को बिग शॉट साबित करने की कोशिश आलोक मेहता की वाचन शैली का हिस्सा है। ऐसा करते हुए मैं दसियों बार देख चुका हूं। लेकिन पत्रकार बिरादरी के बीच शायद ही कोई सवाल कर पाता है। यही काम उन्होंने पिछले दिनों उदयन शर्मा की याद में हुई संगोष्ठी के मामले में किया। बात हो रही थी पेड न्यूज की और बयान दिया कि वो बिहार के मुजफ्फरपुर जैसी जगह में पत्रकारिता कर चुके हैं। उन्हें दोस्तों की नसीहतें याद आती, सुरक्षा को लेकर चौकस होने की बात करते कि उन्होंने मेले से लोहे की एक खुरपी खरीदी थी। बहरहाल… *अभी तक हमने* किसी भी पत्रकार को इस तरह सार्वजनिक रूप से बेआबरू होते नहीं देखा है। ऑडिएंस के वाजिब गुस्से से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि सत्ता के गलियारों में चमकनेवाले सफल पत्रकार और होते हैं और जो लोगों के दिलों पर राज करते हैं, वो और ही पत्रकार होते हैं। ऐवाने गालिब जैसे भरे सभागार में हमें एक शख्स भी ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा कि अरे बैठ जाइए, मेहता साहब को बोलने दीजिए। ये अलग बात है कि उसी सभागार में आलोक मेहता के कूल्हे के नीचे काम करनेवाले नई दुनिया के पत्रकार भी मौजूद थे और मीडिया की नामचीन हस्तियां भी। एक भी स्वर, एक भी हाथ आलोक मेहता के पक्ष में न सही, बोलने देने के आग्रह के लिए नहीं उठे। ये नजारा तत्काल कई चीजें एक साथ साफ कर देता है। आप इस घटना से अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या स्थिति है? आलोक मेहता मंच से बार-बार कहते हैं कि मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का पतन हुआ है। पीछे से आवाज आती है – पत्रकारिता का नहीं आपका पतन हुआ है। सत्ता के साथ टांग पर टांग चढ़ाकर पत्रकारिता करने से पत्रकार की हैसियत क्या रह जाती है, ये समझने के लिए इस घटना से बेहतर नमूना शायद ही कभी आपको देखने को मिले होंगे। *मंच संचालक ने* कार्यक्रम शुरू होते ही सारे वक्ताओं से अनुरोध किया कि आपलोग अपनी बात संक्षेप में रखें ताकि सवाल-जबाब के लिए ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। विभूति नारायण ने भी ये कहते हुए कम बोला कि सवाल-जवाब के दौरान नयी बातें सामने आएगी लेकिन जब एक-एक करके वक्ता मंच से खिसकते चले गये तो सवाल किससे किया जाता? *यह एक गैरलोकतांत्रिक* किस्म की संगोष्ठी थी, जिसमें कि एक बड़े पढ़ने-लिखनेवाले वर्ग का सीधा-सीधा अपमान हुआ। जिन मूल्यों, जिन फ्लेवर को बचाने के लिए इस तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, वो इस गोष्ठी में बुरी तरह छितरा गया। राजेंद्र यादव की तरफ कैमरा बढ़ता है। वो उदासी से जवाब देते हैं – अब किसके लिए कर रहे हो, जिनका लेना था वो तो गए… “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” पर बात करने जुटे लोग बहुत कुछ खत्म हो जाने के बोध के साथ बाहर निकले।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ved1964 at gmail.com Mon Aug 2 09:21:36 2010 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Mon, 2 Aug 2010 09:21:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KWL4KS34KWN4KSg4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpJc=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCksOClhy0g4KS14KS/4KSt4KWC4KSk4KS/LOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS54KSk4KS+IOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrOCkvuCkpiEg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSw4KWN4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmLOCkruClgeCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: प्रिय साथियो, हंस की गोष्ठी निश्चित ही काफी स्तरहीन ही थी, विषय की अपेक्षा थी कि किन्हीं समाजशास्त्री या राजनीतिशास्त्री को बुलाया जाए तथा गंभीरता पूर्वक इस समस्या पर सवाल-दर-सवाल बहस की जाए. लेकिन आजकल वक्ताओं में अजीब अहं है कि वे अपनी बात कहकर चलते बनते हैं, और जो सवाल वे उठाते हैं उन पर दूसरे पक्ष को सुनने का धैर्य नहीं रखते. ऐसा ही एक नाटक रमणिका गुप्ता फाउंडेशन द्वारा साहित्य अकादेमी के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में देखने को मिला. मस्तराम कपूर ने अपनी बात रखी, श्रोताओँ को संवाद की नसीहतें दीं और चलते बने. हंस की गोष्ठी में विभूति नारायण राय ने पूरी तरह सरकार के पक्ष का समर्थन किया वे ठीक ही विश्वरंजन की प्रौक्सी थे. लेकिन अन्य वक्ताओं में से भी कोई तैयारी के साथ आया हो, और तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखे, ऐसा नहीं लगा. मज़े की बात यह है कि बुद्धिजीवियों की बैठक में महफिल लूट ले गए स्वामी अग्निवेश. अपने निजी अनुभवों को सुनाते सुनाते पूरा घंटा सर्फ कर दिया और यार लोग न केवल झेल गए बल्कि तालियों द्वारा उनका उत्साह भी बढ़ाते रहे. जब हमारे बुद्धिजीवी बिना तैयारी के आएँगे तो ऐसे ही रंग देखने को मिलेंगे. आपका, वेद प्रकाश 2010/8/1 vineet kumar > > > *हिंदी लिटरेचर की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच कही जानेवाली पत्रिका > हंस की संगोष्ठी में जो नजारा हमने देखा, उससे एक साथ कई चीजें तार-तार हो > गयीं। इस संगोष्ठी को मैं अपनी याददाश्त बरकरार रहने तक लोकतंत्र के मूल्यों की > सरेआम धज्जियां उड़ानेवाली संगोष्ठी के तौर पर याद रखूंगा। ये मैंने अपने > अकादमिक जीवन में पहली बार देखा कि किसी संगोष्ठी में वक्ता अपनी बात कहने के > तुरंत बाद ही दर्शकों की चिंता किये बगैर मंच से नीचे उतरकर फील्डिंग करने लग > गये। मंच की कुर्सियां एक-एक करके खाली होने लग जाती हैं। मंच संचालक का मंच, > उस पर स्थापित लोगों और माहौल से पकड़ फिसलकर चुप्पी की नाली में जा गिरती है। > वो विश्वरंजन की स्टेपनी के तौर पर आये विभूति नारायण राय से लाख अपीलें करते > हैं कि मंच पर बने रहें लेकिन हजारों छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ानेवाले, > फैकल्टी को ठोक-पीटकर अपने काम लायक बनानेवाले विभूति नारायण इसकी परवाह किये > बगैर सीधे गेट की तरफ बढ़ते हैं। सभागार में बैठी ऑडिएंस इसे सीधा-सीधा अपना > अपमान मानती है और हंगामा मच जाता है। उनकी सिर्फ इतनी ही मांग होती है कि हमने > आपको इतनी देर तक बैठकर सुना, हमारे पास कुछ सवाल हैं, आप उन सवालों के जवाब > दिये बगैर नहीं जा सकते। जाहिर है महीनों से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय > विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है, उसे लेकर कई सवाल बनते हैं*। > > > > * > * > *जिन ऑडिएंस ने* अगस्त महीने के नया ज्ञानोदय में उनका इंटरव्यू पढ़ा होगा, > वो सवाल करना चाह रहे होंगे कि आखिर आपने किस अधिकार से कह दिया कि हमारी > लेखिकाओं में अपने को एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा छिनाल साबित करने की होड़ > है। उपन्यास का नाम ‘कितनी बिस्तरों पर कितना बार’ होना चाहिए, बताया। ये मसला > पॉपुलरिटी स्टंट बोलकर नजरअंदाज करने का नहीं बल्कि उनसे जबाबतलब करने का है। > ये मामला उनके इस्तीफे की मांग तक जा सकता है। सामूहिक तौर पर माफी मांगने पर > जा सकता है। ये एक ऐसे विश्वविद्यालय के वीसी की भाषा कैसे हो सकती है, जहां > वेब पर हिंदी के पन्ने तैयार करने के लाखों रूपये के ठेके दिये जाते हैं, हिंदी > शब्दकोश के विस्तार के लिए दर्जनों आदमी काम पर लगाये जाते हैं, जहां एमए > स्त्री अध्ययन का अलग से कोर्स चलाया जा रहा हो? इन सारे सवालों को अगर ये कहकर > नकारा भी जाता कि सेमिनार में जो कहा है, उससे सवाल करें तो भी विभूति नारायण > राय को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ता कि आप स्टेट मशीनरी के कुचक्र को > ताकतवर बताकर किसी न किसी रूप में उसको डीफेंड क्यों कर रहे हैं? उनसे ये सवाल > तो किया ही जाता कि आप संगोष्ठी, अकादमिक और कोतवाली की भाषा के फर्क को किस > रूप में लेते हैं? लेकिन विभूत नारायण ने किसी का मान नहीं रखा। न मंच का, न > संचालक का, न हंस का। पूरी संगोष्ठी में प्रेमचंद सिर्फ बैनर पर ही छपा रह गया, > किसी की जुबान से एक बार भी प्रेमचंद नहीं निकला। नहीं तो जिन मूल्यों को > सहेजने की कोशिशें और दावे हंस के मंच से किया जाता रहा है, उन तमाम मूल्यों को > ठोकर मारकर विभूति नारायण ने छितरा दिया – होरी के वंशजो, इसे तुम एक-एक करके > चुनो, समेटो। इस पूरे रवैये से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस माहौल के भीतर > वर्धा विश्वविद्यालय की फैकल्टी काम करती है? ये सोचते हुए भी सिहरन होती है कि > वहां के स्टूडेंट किस जम्‍हूरित के शिकार हैं, कैसे अपनी असहमति के स्वर को रख > पाते होंगे? विश्वविद्यालय की जो कुछ खबरें अब तक हमारे सामने आयी हैं, हमारे > भीतर एक उसी किस्म की बेचैनी पैदा होती है, आज विभूति नारायण को सुनते हुए ये > बेचैनी और बढ़ गयी जो बेचैनी हमें मिर्चपुर में सुमन और उसके बाप को जिंदा जला > देने की खबर से हुई थी। इस गहरी रात में, ये लाइन लिखते हुए मैं वर्धा के > छात्रों से मिलने के लिए बेचैन हो रहा हूं। एक अकेला शख्स लोकतंत्र की ताकत > पाकर किस हद तक अलोकतांत्रिक, अमर्यादित हो सकता है, इसका नमूना आज हमें लाइव > देखने को मिला। > > > > लोकतंत्र की धज्जियां तब भी भयानक स्तर पर उड़ायी गयीं, जब आलोक मेहता जैसा > पत्रकार (जिनके पत्रकारीय कर्म को अगर पीआर, लॉबिइंग की परिभाषा के हिसाब से > समझें तो वो इसके ज्यादा करीब होगी) हेमचंद्र पांडे के मामले में हत्या की अगली > सुबह कहता है कि वो नई दुनिया के लिए काम नहीं करता था, उसका इससे कोई संबंध > नहीं था – पता नहीं किस हैसियत से अपने को डीफेंड करने के लिए मंच पर काबिज > होने की कोशिश करता है। स्वामी अग्निवेश ने जब माओवादियों और सरकार के बीच > बातचीत की पहल के संदर्भ में अपनी बात शुरू की, तभी पत्रकार हेमचंद्र का नाम > आया और उन्होंने नई दुनिया अखबार का नाम लिया कि उसके संपादक ने इससे अपना > पल्ला झाड़ लिया। एक तरफ सेकंड लास्ट की सीट पर बैठे आलोक मेहता पर लोगों की > नजर गयी और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने कहा कि संपादक खुद यहां बैठे हैं, उन्हीं > से पूछ लिया जाए। आलोक मेहता की तरफ से एक शख्स बोलने की अनुमति लेने की चीट > लेकर राजेंद्र यादव के पास जाता है और उन्‍हें बोलने की अनुमति मिल जाती है। > *आलोक मेहता तीन-चार* मिनट तक दायें-बायें करते हैं। पीछे बैठे लोग उनसे > मुद्दे यानी हेमचंद्र पर बात करने के लिए कहते हैं। *(आलोक मेहता की वॉयस > डिलीवरी आमतौर पर बहुत सॉफ्ट है। ये चैनल में सॉफ्ट स्टोरी या इंटरटेनमेंट की > खबरों के लिए बहुत ही परफेक्ट है। मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे पत्रकारों की पूरी > की पूरी एक जमात है, जिनकी आवाज को ऐसी स्टोरी के वीओ (वॉयस ओवर) के लिए काम > में लाया जा सकता है। बहरहाल…)* ऑडिएंस के दबाब के बीच आलोक मेहता का स्वर > अचानक से ऊंचा होने लग जाता है और धीरे-धीरे अंदाज के स्तर पर विभूति नारायण के > स्वर के साथ एकाकार हो जाता है। ये कोई चैनल की बहस नहीं थी, जिससे कि आप एंकर > पर तोहमत जड़कर मुक्त हो जाएं कि वो कहते ही हैं मामले को गर्म करने के लिए। ये > एक विमर्श का मंच था, जिस पर कि इरा झा ने अपनी रिपोर्टिंग की बातें शेयर की, > आदित्य निगम ने स्टेट लेजिटिमेसी की बात गंभीरतापूर्वक रखा, रामशरण जोशी अपनी > क्षमता के अनुसार जितना बेहतर कर सकते थे, कोशिश की। लेकिन आलोक मेहता की आवाज > अचानक से रामलीला मैदान की हो जाती है। अगर मैं गलत मिलान कर रहा हूं तो संभव > है कि नई दुनिया के पत्रकार भाई इसे चैंबर में किसी पत्रकार से बात करने के > अंदाज से इसका मिलान कर सकते हैं। > *आलोक मेहता ने जो* तर्क दिया वो न केवल कमजोर और लचर था बल्कि मनोहरश्याम > जोशी, राजेंद्र माथुर की परंपरा से अपने को जोड़कर उनकी बराबरी में अपने को > खड़ा करने की कोशिश की। कहा कि नाम बदलकर अगर हेमचंद्र ने लिखा तो वो इतने महान > तो हैं नहीं कि पता कर लेते। उन्होंने अपने को इस बिना पर जस्‍टीफाइ करने की > जबरदस्ती की कि ऐसा पहले भी हुआ है। ऑडिएंस का धैर्य कंट्रोल से बाहर होने को > आया। वो सीधे-सीधे उनसे जबाब चाह रही थी। लेकिन जो आलोक मेहता दो मिनट बोलने का > समय मांग रहे थे, उऩ्हें दो घंटे भी बोलने को दिया जाता तो भी कुछ न बोलते। > गोल-मोल बातें करके बीच में अपने को बिग शॉट साबित करने की कोशिश आलोक मेहता की > वाचन शैली का हिस्सा है। ऐसा करते हुए मैं दसियों बार देख चुका हूं। लेकिन > पत्रकार बिरादरी के बीच शायद ही कोई सवाल कर पाता है। यही काम उन्होंने पिछले > दिनों उदयन शर्मा की याद में हुई संगोष्ठी के मामले में किया। बात हो रही थी > पेड न्यूज की और बयान दिया कि वो बिहार के मुजफ्फरपुर जैसी जगह में पत्रकारिता > कर चुके हैं। उन्हें दोस्तों की नसीहतें याद आती, सुरक्षा को लेकर चौकस होने की > बात करते कि उन्होंने मेले से लोहे की एक खुरपी खरीदी थी। बहरहाल… > *अभी तक हमने* किसी भी पत्रकार को इस तरह सार्वजनिक रूप से बेआबरू होते नहीं > देखा है। ऑडिएंस के वाजिब गुस्से से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि सत्ता > के गलियारों में चमकनेवाले सफल पत्रकार और होते हैं और जो लोगों के दिलों पर > राज करते हैं, वो और ही पत्रकार होते हैं। ऐवाने गालिब जैसे भरे सभागार में > हमें एक शख्स भी ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा कि अरे बैठ जाइए, मेहता साहब को > बोलने दीजिए। ये अलग बात है कि उसी सभागार में आलोक मेहता के कूल्हे के नीचे > काम करनेवाले नई दुनिया के पत्रकार भी मौजूद थे और मीडिया की नामचीन हस्तियां > भी। एक भी स्वर, एक भी हाथ आलोक मेहता के पक्ष में न सही, बोलने देने के आग्रह > के लिए नहीं उठे। ये नजारा तत्काल कई चीजें एक साथ साफ कर देता है। आप इस घटना > से अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या स्थिति है? आलोक मेहता मंच से बार-बार कहते हैं > कि मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का पतन हुआ है। पीछे से आवाज आती है – > पत्रकारिता का नहीं आपका पतन हुआ है। सत्ता के साथ टांग पर टांग चढ़ाकर > पत्रकारिता करने से पत्रकार की हैसियत क्या रह जाती है, ये समझने के लिए इस > घटना से बेहतर नमूना शायद ही कभी आपको देखने को मिले होंगे। > *मंच संचालक ने* कार्यक्रम शुरू होते ही सारे वक्ताओं से अनुरोध किया कि > आपलोग अपनी बात संक्षेप में रखें ताकि सवाल-जबाब के लिए ज्यादा से ज्यादा समय > मिल सके। विभूति नारायण ने भी ये कहते हुए कम बोला कि सवाल-जवाब के दौरान नयी > बातें सामने आएगी लेकिन जब एक-एक करके वक्ता मंच से खिसकते चले गये तो सवाल > किससे किया जाता? > *यह एक गैरलोकतांत्रिक* किस्म की संगोष्ठी थी, जिसमें कि एक बड़े > पढ़ने-लिखनेवाले वर्ग का सीधा-सीधा अपमान हुआ। जिन मूल्यों, जिन फ्लेवर को > बचाने के लिए इस तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, वो इस गोष्ठी में बुरी > तरह छितरा गया। राजेंद्र यादव की तरफ कैमरा बढ़ता है। वो उदासी से जवाब देते > हैं – अब किसके लिए कर रहे हो, जिनका लेना था वो तो गए… “वैदिकी हिंसा हिंसा न > भवति” पर बात करने जुटे लोग बहुत कुछ खत्म हो जाने के बोध के साथ बाहर निकले।. > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chandan at csds.in Mon Aug 2 12:50:39 2010 From: chandan at csds.in (Chandan Srivastawa) Date: Mon, 2 Aug 2010 12:50:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KWL4KS34KWN4KSg4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpJc=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCksOClhy0g4KS14KS/4KSt4KWC4KSk4KS/LOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS54KSk4KS+IOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrOCkvuCkpiEg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSw4KWN4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmLOCkruClgeCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: दीवान के दोस्तों से गुजारिश कि विभूति नारायण का उक्त इंटरव्यू कोई दीवान मेलिंग लिस्ट के लिए भी मुहैया करा दे.. अभिवादन 2010/8/2 ved prakash > प्रिय साथियो, > हंस की गोष्ठी निश्चित ही काफी स्तरहीन ही थी, विषय की अपेक्षा थी कि किन्हीं > समाजशास्त्री या राजनीतिशास्त्री को बुलाया जाए तथा गंभीरता पूर्वक इस समस्या > पर सवाल-दर-सवाल बहस की जाए. लेकिन आजकल वक्ताओं में अजीब अहं है कि वे अपनी > बात कहकर चलते बनते हैं, और जो सवाल वे उठाते हैं उन पर दूसरे पक्ष को सुनने का > धैर्य नहीं रखते. ऐसा ही एक नाटक रमणिका गुप्ता फाउंडेशन द्वारा साहित्य > अकादेमी के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में देखने को मिला. मस्तराम कपूर ने > अपनी बात रखी, श्रोताओँ को संवाद की नसीहतें दीं और चलते बने. > > हंस की गोष्ठी में विभूति नारायण राय ने पूरी तरह सरकार के पक्ष का समर्थन > किया वे ठीक ही विश्वरंजन की प्रौक्सी थे. लेकिन अन्य वक्ताओं में से भी कोई > तैयारी के साथ आया हो, और तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखे, ऐसा नहीं लगा. > > मज़े की बात यह है कि बुद्धिजीवियों की बैठक में महफिल लूट ले गए स्वामी > अग्निवेश. अपने निजी अनुभवों को सुनाते सुनाते पूरा घंटा सर्फ कर दिया और यार > लोग न केवल झेल गए बल्कि तालियों द्वारा उनका उत्साह भी बढ़ाते रहे. > > जब हमारे बुद्धिजीवी बिना तैयारी के आएँगे तो ऐसे ही रंग देखने को मिलेंगे. > > आपका, > वेद प्रकाश > > 2010/8/1 vineet kumar > >> >> *हिंदी लिटरेचर की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच कही जानेवाली >> पत्रिका हंस की संगोष्ठी में जो नजारा हमने देखा, उससे एक साथ कई चीजें तार-तार >> हो गयीं। इस संगोष्ठी को मैं अपनी याददाश्त बरकरार रहने तक लोकतंत्र के मूल्यों >> की सरेआम धज्जियां उड़ानेवाली संगोष्ठी के तौर पर याद रखूंगा। ये मैंने अपने >> अकादमिक जीवन में पहली बार देखा कि किसी संगोष्ठी में वक्ता अपनी बात कहने के >> तुरंत बाद ही दर्शकों की चिंता किये बगैर मंच से नीचे उतरकर फील्डिंग करने लग >> गये। मंच की कुर्सियां एक-एक करके खाली होने लग जाती हैं। मंच संचालक का मंच, >> उस पर स्थापित लोगों और माहौल से पकड़ फिसलकर चुप्पी की नाली में जा गिरती है। >> वो विश्वरंजन की स्टेपनी के तौर पर आये विभूति नारायण राय से लाख अपीलें करते >> हैं कि मंच पर बने रहें लेकिन हजारों छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ानेवाले, >> फैकल्टी को ठोक-पीटकर अपने काम लायक बनानेवाले विभूति नारायण इसकी परवाह किये >> बगैर सीधे गेट की तरफ बढ़ते हैं। सभागार में बैठी ऑडिएंस इसे सीधा-सीधा अपना >> अपमान मानती है और हंगामा मच जाता है। उनकी सिर्फ इतनी ही मांग होती है कि हमने >> आपको इतनी देर तक बैठकर सुना, हमारे पास कुछ सवाल हैं, आप उन सवालों के जवाब >> दिये बगैर नहीं जा सकते। जाहिर है महीनों से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय >> विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है, उसे लेकर कई सवाल बनते हैं*। >> >> >> >> * >> * >> *जिन ऑडिएंस ने* अगस्त महीने के नया ज्ञानोदय में उनका इंटरव्यू पढ़ा होगा, >> वो सवाल करना चाह रहे होंगे कि आखिर आपने किस अधिकार से कह दिया कि हमारी >> लेखिकाओं में अपने को एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा छिनाल साबित करने की होड़ >> है। उपन्यास का नाम ‘कितनी बिस्तरों पर कितना बार’ होना चाहिए, बताया। ये मसला >> पॉपुलरिटी स्टंट बोलकर नजरअंदाज करने का नहीं बल्कि उनसे जबाबतलब करने का है। >> ये मामला उनके इस्तीफे की मांग तक जा सकता है। सामूहिक तौर पर माफी मांगने पर >> जा सकता है। ये एक ऐसे विश्वविद्यालय के वीसी की भाषा कैसे हो सकती है, जहां >> वेब पर हिंदी के पन्ने तैयार करने के लाखों रूपये के ठेके दिये जाते हैं, हिंदी >> शब्दकोश के विस्तार के लिए दर्जनों आदमी काम पर लगाये जाते हैं, जहां एमए >> स्त्री अध्ययन का अलग से कोर्स चलाया जा रहा हो? इन सारे सवालों को अगर ये कहकर >> नकारा भी जाता कि सेमिनार में जो कहा है, उससे सवाल करें तो भी विभूति नारायण >> राय को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ता कि आप स्टेट मशीनरी के कुचक्र को >> ताकतवर बताकर किसी न किसी रूप में उसको डीफेंड क्यों कर रहे हैं? उनसे ये सवाल >> तो किया ही जाता कि आप संगोष्ठी, अकादमिक और कोतवाली की भाषा के फर्क को किस >> रूप में लेते हैं? लेकिन विभूत नारायण ने किसी का मान नहीं रखा। न मंच का, न >> संचालक का, न हंस का। पूरी संगोष्ठी में प्रेमचंद सिर्फ बैनर पर ही छपा रह गया, >> किसी की जुबान से एक बार भी प्रेमचंद नहीं निकला। नहीं तो जिन मूल्यों को >> सहेजने की कोशिशें और दावे हंस के मंच से किया जाता रहा है, उन तमाम मूल्यों को >> ठोकर मारकर विभूति नारायण ने छितरा दिया – होरी के वंशजो, इसे तुम एक-एक करके >> चुनो, समेटो। इस पूरे रवैये से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस माहौल के भीतर >> वर्धा विश्वविद्यालय की फैकल्टी काम करती है? ये सोचते हुए भी सिहरन होती है कि >> वहां के स्टूडेंट किस जम्‍हूरित के शिकार हैं, कैसे अपनी असहमति के स्वर को रख >> पाते होंगे? विश्वविद्यालय की जो कुछ खबरें अब तक हमारे सामने आयी हैं, हमारे >> भीतर एक उसी किस्म की बेचैनी पैदा होती है, आज विभूति नारायण को सुनते हुए ये >> बेचैनी और बढ़ गयी जो बेचैनी हमें मिर्चपुर में सुमन और उसके बाप को जिंदा जला >> देने की खबर से हुई थी। इस गहरी रात में, ये लाइन लिखते हुए मैं वर्धा के >> छात्रों से मिलने के लिए बेचैन हो रहा हूं। एक अकेला शख्स लोकतंत्र की ताकत >> पाकर किस हद तक अलोकतांत्रिक, अमर्यादित हो सकता है, इसका नमूना आज हमें लाइव >> देखने को मिला। >> >> >> >> लोकतंत्र की धज्जियां तब भी भयानक स्तर पर उड़ायी गयीं, जब आलोक मेहता जैसा >> पत्रकार (जिनके पत्रकारीय कर्म को अगर पीआर, लॉबिइंग की परिभाषा के हिसाब से >> समझें तो वो इसके ज्यादा करीब होगी) हेमचंद्र पांडे के मामले में हत्या की अगली >> सुबह कहता है कि वो नई दुनिया के लिए काम नहीं करता था, उसका इससे कोई संबंध >> नहीं था – पता नहीं किस हैसियत से अपने को डीफेंड करने के लिए मंच पर काबिज >> होने की कोशिश करता है। स्वामी अग्निवेश ने जब माओवादियों और सरकार के बीच >> बातचीत की पहल के संदर्भ में अपनी बात शुरू की, तभी पत्रकार हेमचंद्र का नाम >> आया और उन्होंने नई दुनिया अखबार का नाम लिया कि उसके संपादक ने इससे अपना >> पल्ला झाड़ लिया। एक तरफ सेकंड लास्ट की सीट पर बैठे आलोक मेहता पर लोगों की >> नजर गयी और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने कहा कि संपादक खुद यहां बैठे हैं, उन्हीं >> से पूछ लिया जाए। आलोक मेहता की तरफ से एक शख्स बोलने की अनुमति लेने की चीट >> लेकर राजेंद्र यादव के पास जाता है और उन्‍हें बोलने की अनुमति मिल जाती है। >> *आलोक मेहता तीन-चार* मिनट तक दायें-बायें करते हैं। पीछे बैठे लोग उनसे >> मुद्दे यानी हेमचंद्र पर बात करने के लिए कहते हैं। *(आलोक मेहता की वॉयस >> डिलीवरी आमतौर पर बहुत सॉफ्ट है। ये चैनल में सॉफ्ट स्टोरी या इंटरटेनमेंट की >> खबरों के लिए बहुत ही परफेक्ट है। मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे पत्रकारों की पूरी >> की पूरी एक जमात है, जिनकी आवाज को ऐसी स्टोरी के वीओ (वॉयस ओवर) के लिए काम >> में लाया जा सकता है। बहरहाल…)* ऑडिएंस के दबाब के बीच आलोक मेहता का स्वर >> अचानक से ऊंचा होने लग जाता है और धीरे-धीरे अंदाज के स्तर पर विभूति नारायण के >> स्वर के साथ एकाकार हो जाता है। ये कोई चैनल की बहस नहीं थी, जिससे कि आप एंकर >> पर तोहमत जड़कर मुक्त हो जाएं कि वो कहते ही हैं मामले को गर्म करने के लिए। ये >> एक विमर्श का मंच था, जिस पर कि इरा झा ने अपनी रिपोर्टिंग की बातें शेयर की, >> आदित्य निगम ने स्टेट लेजिटिमेसी की बात गंभीरतापूर्वक रखा, रामशरण जोशी अपनी >> क्षमता के अनुसार जितना बेहतर कर सकते थे, कोशिश की। लेकिन आलोक मेहता की आवाज >> अचानक से रामलीला मैदान की हो जाती है। अगर मैं गलत मिलान कर रहा हूं तो संभव >> है कि नई दुनिया के पत्रकार भाई इसे चैंबर में किसी पत्रकार से बात करने के >> अंदाज से इसका मिलान कर सकते हैं। >> *आलोक मेहता ने जो* तर्क दिया वो न केवल कमजोर और लचर था बल्कि मनोहरश्याम >> जोशी, राजेंद्र माथुर की परंपरा से अपने को जोड़कर उनकी बराबरी में अपने को >> खड़ा करने की कोशिश की। कहा कि नाम बदलकर अगर हेमचंद्र ने लिखा तो वो इतने महान >> तो हैं नहीं कि पता कर लेते। उन्होंने अपने को इस बिना पर जस्‍टीफाइ करने की >> जबरदस्ती की कि ऐसा पहले भी हुआ है। ऑडिएंस का धैर्य कंट्रोल से बाहर होने को >> आया। वो सीधे-सीधे उनसे जबाब चाह रही थी। लेकिन जो आलोक मेहता दो मिनट बोलने का >> समय मांग रहे थे, उऩ्हें दो घंटे भी बोलने को दिया जाता तो भी कुछ न बोलते। >> गोल-मोल बातें करके बीच में अपने को बिग शॉट साबित करने की कोशिश आलोक मेहता की >> वाचन शैली का हिस्सा है। ऐसा करते हुए मैं दसियों बार देख चुका हूं। लेकिन >> पत्रकार बिरादरी के बीच शायद ही कोई सवाल कर पाता है। यही काम उन्होंने पिछले >> दिनों उदयन शर्मा की याद में हुई संगोष्ठी के मामले में किया। बात हो रही थी >> पेड न्यूज की और बयान दिया कि वो बिहार के मुजफ्फरपुर जैसी जगह में पत्रकारिता >> कर चुके हैं। उन्हें दोस्तों की नसीहतें याद आती, सुरक्षा को लेकर चौकस होने की >> बात करते कि उन्होंने मेले से लोहे की एक खुरपी खरीदी थी। बहरहाल… >> *अभी तक हमने* किसी भी पत्रकार को इस तरह सार्वजनिक रूप से बेआबरू होते >> नहीं देखा है। ऑडिएंस के वाजिब गुस्से से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि >> सत्ता के गलियारों में चमकनेवाले सफल पत्रकार और होते हैं और जो लोगों के दिलों >> पर राज करते हैं, वो और ही पत्रकार होते हैं। ऐवाने गालिब जैसे भरे सभागार में >> हमें एक शख्स भी ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा कि अरे बैठ जाइए, मेहता साहब को >> बोलने दीजिए। ये अलग बात है कि उसी सभागार में आलोक मेहता के कूल्हे के नीचे >> काम करनेवाले नई दुनिया के पत्रकार भी मौजूद थे और मीडिया की नामचीन हस्तियां >> भी। एक भी स्वर, एक भी हाथ आलोक मेहता के पक्ष में न सही, बोलने देने के आग्रह >> के लिए नहीं उठे। ये नजारा तत्काल कई चीजें एक साथ साफ कर देता है। आप इस घटना >> से अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या स्थिति है? आलोक मेहता मंच से बार-बार कहते हैं >> कि मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का पतन हुआ है। पीछे से आवाज आती है – >> पत्रकारिता का नहीं आपका पतन हुआ है। सत्ता के साथ टांग पर टांग चढ़ाकर >> पत्रकारिता करने से पत्रकार की हैसियत क्या रह जाती है, ये समझने के लिए इस >> घटना से बेहतर नमूना शायद ही कभी आपको देखने को मिले होंगे। >> *मंच संचालक ने* कार्यक्रम शुरू होते ही सारे वक्ताओं से अनुरोध किया कि >> आपलोग अपनी बात संक्षेप में रखें ताकि सवाल-जबाब के लिए ज्यादा से ज्यादा समय >> मिल सके। विभूति नारायण ने भी ये कहते हुए कम बोला कि सवाल-जवाब के दौरान नयी >> बातें सामने आएगी लेकिन जब एक-एक करके वक्ता मंच से खिसकते चले गये तो सवाल >> किससे किया जाता? >> *यह एक गैरलोकतांत्रिक* किस्म की संगोष्ठी थी, जिसमें कि एक बड़े >> पढ़ने-लिखनेवाले वर्ग का सीधा-सीधा अपमान हुआ। जिन मूल्यों, जिन फ्लेवर को >> बचाने के लिए इस तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, वो इस गोष्ठी में बुरी >> तरह छितरा गया। राजेंद्र यादव की तरफ कैमरा बढ़ता है। वो उदासी से जवाब देते >> हैं – अब किसके लिए कर रहे हो, जिनका लेना था वो तो गए… “वैदिकी हिंसा हिंसा न >> भवति” पर बात करने जुटे लोग बहुत कुछ खत्म हो जाने के बोध के साथ बाहर निकले।. >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Inclusive Media for Change, CSDS, 29 Rajpur Road, Delhi,110054 011-23981012 (for message and fax) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Mon Aug 2 22:58:45 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Mon, 2 Aug 2010 22:58:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KWL4KS34KWN4KSg4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpJc=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCksOClhy0g4KS14KS/4KSt4KWC4KSk4KS/LOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS54KSk4KS+IOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrOCkvuCkpiEg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSw4KWN4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmLOCkruClgeCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmIQ==?= Message-ID: चन्दन जी, मोहल्ला पर एक पन्ना टांका गया है. लिंक यह है- http://mohallalive.com/wp-content/uploads/2010/08/Vibhuti-Narayan-Rai-Statement.jpg प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Aug 3 10:46:52 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 3 Aug 2010 10:46:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCliCDgpIngpLgg4KSs4KWI4KSg4KSVIOCkleCkviDgpIc=?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KSc4KS+4KSw?= Message-ID: लुप्त होती संभावनाओं के इस दौर में उम्मीद बाकी है। ऐसे कई दरवाजे अभी खुले हैं, जिस रास्ते चलकर गांधी के भारत का निर्माण हो सकता है। जल, जंगल और जमीन पर सामुदायिक हकदारी की बात उठाने वाले जब पिछले दिनों दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में इकट्ठा हुए तो एकबारगी ऐसा महसूस हुआ। यहां वे लोग एक निर्णयात्मक संवाद के लिए आए थे। उनका मकसद नए कंपनी युग से निपटने के लिए एक माकूल औजार की खौज करना था, ताकि प्राकृतिक संपदाओं पर सामुदायिक हकदारी बरकरार रखी जा सके। यह वही स्थान है जहां से सरकारी नीति को चुनौती मिलती रहती है। गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट के बुलावे पर देशभर से बैठक में आए लोगों ने माना कि जल, जंगल और जमीन से जुड़ा सवाल गहरा है। क्योंकि, जमीन की तो छोड़े अब उसके नीचे के संसाधनों के हक को लेकर प्रश्न हो रहे हैं। पानी व खनिज पदार्थों से जुड़े सवाल उठ रहे है। लोगों ने कहा कि पहले वन सामुदायिक संपत्ति थी। इसके सारे हक-हकूक सामुदायिक ही थे। अब यह सरकारी हकदारी में पहुंच गए हैं। अमीर तबका जल, जंगल औऱ जमीन के सारे सुख भोग रहा है। हर तरफ निजीकरण का दौर चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में जनता बेचैन है। वह नेतृत्व का इंतजार कर रही है। इन्हीं बातों की ओट में गत 17 और 18 जुलाई को विचार मंथन होता रहा। राधा भट्ट चाहती हैं लड़ाई मिलकर लड़ी जाय। उनकी कही बातों से यह स्पष्ट हुआ। बैठक में देशभर से आए अन्य लोगों ने भी अलग-अलग तरीके से यही राय रखी। गुजरात से आए लोक संघर्ष समिति के चुन्नी भाई वैद्य ने तो यहां तक कहा कि हमारी बैठक में ज्यादा रुचि नहीं है। कोई काम की बात हो तब बात बने। उन्होंने कहा, “ लोग तैयार हैं। वे नेतृत्व का इंतजार कर रहे हैं। देखना यह है कि हमारी तैयारी कितनी है। वक्त जाया करना ठीक नहीं है। हमें निर्णय करना चाहिए। बातचीत के दौरान लोगों ने कहा कि जमीन समाज की है। भूमि सुधार दरअसल भूमि समस्या को जिंदा रखने का तरीका है। अत: खेत का ग्रामीणीकरण व सामाजिकरण होना चाहिए। पर, यह बैठक की सीमा ही थी कि तमाम समस्याओं के सामने आने व लोगों की ललकार के बावजूद आगे की लड़ाई का कोई कारगर तरीका नहीं खोज जा सका। निश्चय ही ऐसी कोशिशों के सफल न होने से सरकार का मन बढ़ता रहा है। ताज्जुब की बात है, एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की जरूरत तो देशभर में लोग महसूस कर रहे हैं। जनता उन लोगों की तरफ देख रही है, जिनसे उन्हें उम्मीद है। पर यह तय नहीं हो पा रहा है कि बिखरी शक्तियों को कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए। गांधी शांति प्रतिष्ठान में दो दिनों तक यह कोशिश होती रही। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Tue Aug 3 17:27:28 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 3 Aug 2010 17:27:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSt4KWC?= =?utf-8?b?4KSk4KS/LeCkm+Ckv+CkqOCkvuCksiDgpKrgpY3gpLDgpLjgpILgpJcg?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCLOCkquCkv+CknyDgpJfgpK/gpL4g4KSo4KS+4KSu4KS1?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCkviDgpKzgpY3gpLDgpL7gpILgpKE=?= Message-ID: *हिंदी लिटरेचर की दुनिया* में कहीं-कोई पत्ता हिला नहीं कि मीडिया नामवर सिंह से बयान लेने दौड़ पड़ते हैं। नामवर सिंह से बयान लेने का मतलब है कि उस मसले पर हिंदी समाज क्या सोचता है, इसका प्रतिनिधित्व हो जाता है। बाकी पीछे या अलग से कोई कहे, असहमत हो जाए, ये सब नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। हिंदी संगोष्ठी की ग्रामेटलॉजी भी कुछ इस तरह से बनी है कि अगर आयोजन को सफल बनाना है तो बाकी कोई आये या न आये – नामवर को बुला लो। हिंदी की दुनिया में नामवर एक जरूरी हस्ताक्षर होने से कहीं ज्यादा ब्रांड सिंबल हैं, जिनकी डिमांड पूरी तरह बाजार के पैटर्न पर है। हालांकि ऐसी ब्रांडिंग करना आसान काम नहीं है, कई रचनाकार तो जिंदगी भर ठेले लगाते-लगाते ही पस्त हो जाते हैं। जैसे ठंडा मतलब कोका कोला, हर चिपकाने वाली चीज फेवीकॉल, हर वनस्‍पति घी डालडा, सर्दी में हर सूंघने-रगड़नेवाली चीज विक्स के नाम से बेची-खरीदी जाती है, फिर उस नाम के, पैटर्न के आजू-बाजू कई उत्पाद बाजार में आ जाते हैं। वो कहीं न कहीं मदर ब्रांड की इमेज को कैरी करते हैं, कम दाम में भी वही असर के दावे के साथ। *नामवर सिंह हिंदी में* ग्राहकों/पाठकों/श्रोताओं की इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदी समाज में लिखनेवालों का एक वर्ग यही पाइरेटेड नामवर हैं जो कि मदर ब्रांड इमेज को कैरी करते हैं। हिंदी में नामवर का वर्चस्व बाजार के इसी फार्मूले की तरह है। जिस तरह बाजार में उत्पाद अपने ब्रांड को लेकर चौकस रहता है, उसी तरह हिंदी समाज में नामवर सिंह का नाम है। ऐसे में बाजार में ब्रांड के वर्चस्व और उसके कायम रखने के तरीके और नामवर सिंह का ब्रांड, वर्चस्व और कायम रखने के तरीके में कोई अंतर नहीं है। लेकिन सालों से ब्रांड और बाजार के फार्मूले पर नामवर सिंह को इस्तेमाल में लानेवाले मीडिया और साहित्यिक मंचों पर लांच करते रहनेवाले लोगों ने विभूति-छिनाल प्रसंग में जिसे कि वर्चुअल स्पेस में हंटर साहब की कोतवाली जुबान के तौर पर भी जाना जाने लगा है, नामवर सिंह को इस मसले पर ब्रांड के तौर पर सामने लाने की कोशिशें नहीं की। नहीं की इसलिए कि अगर की भी होगी और उन्होंने मना भी कर दिया होगा तो भी कहीं भी ये लाइन नहीं आयी कि इस मसले पर उन्होंने कुछ भी बोलने से मना कर दिया। *चैनलों में बाइट लेने* के जो बंधे-बंधाये चालू फार्मूले हैं, उस हिसाब से भी नामवर सिंह का बोलना जरूरी है लेकिन कहीं कुछ भी नहीं। यहां मौके के बीच ब्रांड पिट गया या फिर उसे मैदान में उतरने ही नहीं दिया गया। ऐसा करके (मीडिया, मंच और खुद नामवर सिंह भी) बेवजह झंझटों से मुक्त होने के मुगालते में भले ही हों, लेकिन हिंदी मतलब नामवर सिंह जो पंचलाइन बनी रही है, वो ध्वस्त होती है। इस पूरे प्रकरण से आप ये भी समझ सकते हैं कि कई बार बाजार खुद भी अपने ही बनाये फार्मूले से मुकर जाता है और नये फार्मूले की खोज में भटकने लग जाता है। विभूति नारायण के मामले में नामवर सिंह की चुप्पी कुछ इसी तरह से है। हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज फिर भी समझता है कि हिंदी का मतलब सिर्फ नामवर सिंह नहीं होता लेकिन समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिए नामवर एक हिंदी ब्रांड है, वो उन्हें यहां न देखकर हैरान है। *दूसरी बात, नामवर सिंह ने* हिंदी समाज के भीतर अपनी ब्रांडिंग उन मल्टीनेशनल कंपनियों की तरह बनायी है, जो कान खोदने की बड से लेकर इंटरनेशनल हाइवे पर दौड़नेवाली कार/जेट तक बना सकती है और बना रही है। अपने यहां आप इसे टाटा कंपनी को ध्यान में रखकर सोच सकते हैं। नामवर एक ऐसे ब्रांड हैं, जो अपभ्रंश के विकास से लेकर उत्तर-उपनिवेशवाद, इतिहासवाद तक बात कर सकते हैं। उनके यहां विचारों का उत्पाद इन्हीं मल्टीनेशनल कंपनियों के फार्मूले पर होता है। यह अकारण नहीं है कि हर कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना तो उनकी मदर ब्रांड ही है पर बोलने-लिखने के लिए रचना उत्पादकों का तांता लगा रहता है। नामवर सिंह ने इसके लिए कट्टरता की हद तक (रचनाकर्म के साथ-साथ मार्केटिंग मैनेजमेंट तक) मेहनत की है। ऐसे में होता ये है कि जहां किसी एक उत्पाद का नाम चमक गया और कंपनी ने उसकी इमेज को दूसरे उत्पाद के साथ रिस्टैब्लिश कर दिया तो दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा, फिर पांचवां इसी तरह से सारे उत्पाद चमकने लग जा सकते हैं। अब अगर अमूल बटर बेहतरीन है तो अमूल चीज खराब कैसे हो सकती है, ये बात कनज्‍यूमर के दिमाग में कंपनी स्टैब्लिश कर देती है। नामवर सिंह ने अपने अथक परिश्रम से यही किया है, इसलिए वो हिंदी में एक यूनिवर्सल ब्रांड के तौर पर उभरे हैं। ये अलग बात है कि इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस ब्रांड इमेज को भुनाने में उनकी भारी भद पिटी थी। इस हालत में अब जबकि पूरा हिंदी समाज विभूति-छिनाल प्रसंग को लेकर सुलगा हुआ है और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड चुप्प है तो हम मानकर चल रहे हैं कि बाजार का एक बड़ा फार्मूला ध्वस्त हुआ है। *लेकिन, अभी-अभी* मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर ने एक पोस्ट के इंट्रो में लिखा है कि ऐसा इसलिए है कि विभूति नारायण जिस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, नामवर सिंह इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। अब ऐसे में वो कैसे बोल सकते हैं। ब्रांड का फार्मूला कहता है कि ऐसे नाजुक मौके पर जबकि अपने ही हाउस के किसी उत्पाद में शिकायत आ जाती है तो वो इसे बाजार से वापस ले लेता है, इससे उसकी बाजार में साख घटने के बजाय बढ़ती है। नोकिया के मोबाइल, बैटरी, सोनी के लौपटॉप, मारुति की गाड़ियां इसी बिना पर बाजार से वापस लिये जाते हैं। ऐसे में बाजार का फार्मूला बताता है कि नामवर सिंह को चुप रहने के बजाय उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए और बाजर से इस घटिया, नाक कटानेवाले उत्पाद को वापस ले ले। कोई दूसरी लांच करने की बात करे। इस मोर्चे पर भी नामवर की ब्रांड ध्वस्त होती है। अब आइए हिंदी मान्यताओं पर जो कि बाजार से थोड़ा अलग है। *हिंदी में जड़ जमा* चुके उन दो शब्दों पर, जिसके बिना एक पन्ने की कहानी से लेकर सात खंडों की रचनावली और रचनाकारों तक को विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ये शब्द है – सफल और सार्थक। हिंदी की पूरी बहस इस बात पर टिकी होती है कि आप सफल तो हैं लेकिन क्या सार्थक भी हैं? जाहिर है हम बाजार के फार्मूले की बात करते हुए हिंदी के इस फार्मूले को नजरअंदाज नहीं कर सकते। नामवर सिंह एक सफल आलोचक-रचनाकार हैं। रचनाकार भी क्योंकि स्वयं नामवर आलोचना को रचना मानते हैं। लंबे समय तक हम नामवर सिंह को सफल होने के साथ-साथ सार्थक मानते आये हैं। उन्होंने हिंदी की उन गुत्थियों को बहुत ही साफ-सधे हुए शब्दों में, बहुत ही कम पन्ने खर्च किये किताबों, जो कि हैंडीबुक्स हैं, के माध्यम से सुलझाया। अपभ्रंश जैसे बोरिंग मुद्दे पर ऐसी किताब लिखी कि उसे पढ़ते हुए रचना का सुख मिलता रहा है, छायावाद अपने आप में इतना चिपचिपा (संश्लिष्ट) है कि झमेला हो जाता है, उसे बहुत ही रोचक शैली में हमारे सामने रखा। कुल मिलाकर नामवर सिंह ने कॉलेजों में पढ़ रहे अब तक लाखों लोगों का बेड़ा पार किया, एक साफ समझ पेश की है। लेकिन जो नामवर सिंह लगभग सभी मुद्दों पर बात करने का माद्दा रखते हैं, जिनकी पहचान ही ओवरऑल आलोचक के तौर पर है, वो अपने परिवेश के सामयिक मुद्दे पर कितनी बात करते हैं? यहां मुद्दे गिनाने की जरूरत नहीं है। इसे आप घटनाक्रम के हिसाब से आसानी से समझ सकते हैं। वो खाप-पंचायत पर क्या रुख रखते हैं, ऑनर कीलिंग के मामले पर क्या स्टैंड हैं, कहीं जान-समझ नहीं सकते। अभी उनसे लाभान्वित एक शिष्य ने सालों से ऑडियो वर्जन में कही गयी बातों को लिखित रूप दिया है। ये किताबें नामवर सिंह की उस छवि को तोड़ने के काम थोड़ी देर तक तो आ सकते हैं कि इन्होंने सालों से कुछ लिखा नहीं लेकिन उसमें सामयिक मुद्दे कितने शामिल हैं, इसे देखना दिलचस्प होगा। *दिलीप मंडल ने हवाला* दिया है कि सामयिक मसलों पर चुप मार जानेवाले नामवर सिंह ने हाल में जाति आधारित जनगणना के सवाल पर बोला भी तो कहीं से उसमें लंबे समय तक प्रगतिशील मूल्यों को बरतनेवाले शख्सियत के बयान की झलक नहीं है। ये उस किस्म का बयान है जैसे कोई समर्थ, समृद्ध और ठसकवाला शख्स अपनी जाति (रामविलास शर्मा का जाति शब्द नहीं) में पैदा होने का कर्ज जातिगत उत्थान के लिए चुकाने की तत्परता दिखाता है। *आज नामवर सिंह* इतने बड़े मसले पर चुप हैं। उनके प्रगतिशील तरकश में एक भी वो मारक तीर नहीं है जो कि इस बेहूदेपन को ध्वस्त करके अपने मूल्यों को बचा सके। ऐसे में अगर आप सार्थकता के सवाल को यहां रखें, हिंदी के लोगों के पास तो कोई उपाय भी नहीं है, अभी तक जब वो इसी से सारी चीजें देखते-समझते आये हैं तो फिर यहां क्यों नहीं, तो नामवर सिंह को लेकर एक नये किस्म की धारणा बनती, विकसित होती है। इस धारणा का तेजी से प्रसार जरूरी है। इधर बाजार-ब्रांड-मार्केट मैनेजमेंट अभी भी इसे कैरी करता है, तो हम मानकर चल रहे हैं कि ये ब्रांड भी मिलावट के वाबजूद बाजार पर काबिज है। साहित्य की दुनिया में भी कुछ खांटी नहीं रह गया। घी, तेल, दूध, सब्जी की तरह अब साहित्य और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड मिलावटी हो गया। हम अभिशप्त हैं मिलवाटी उत्पादों के इस्तेमाल के लिए -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Aug 3 19:59:30 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 3 Aug 2010 19:59:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSyIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KWAIOCkquClgOCkquCksuClgCDgpLLgpL7gpIfgpLUnIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkueCkteCkvg==?= Message-ID: फिल्म 'पीपली लाइव' तो 13 अगस्त को बड़े पर्दे नजर आएगी। पर इसका असर दिखने लगा है। इसे दुनियाभर में पहचान मिल रही है। अब देखिए, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित 31वें डरबन अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में इसे सर्वश्रेष्ठ पहले फीचर फिल्म का खिताब दिया गया। फिल्म का निर्देशन अनुशा रिज्वी ने किया है। उनके निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है। दरअसल, यह फिल्म देश में हो रही किसानों की आत्महत्या और उसपर होने वाली मीडियावाजी व राजनीति पर तीखा व्यंग्य है। यह पुरस्कार मिलने के बाद हर कोई बहुत उत्साहित है। निर्णायक मंडल ने फिल्म की काफी तारीफ की है। उनका कहना है कि 'पीपली लाइव' एक महत्वाकांक्षी और वास्तविक फिल्म है। यह गंभीर राजनीतिक मुद्दों को विनोदपूर्ण तरीके से उठाती है। फिल्म की कहानी दो गरीब किसानों के इर्द-गिर्द घूमती है। वे दोनों पीपली नामक गांव में रहते हैं और कर्ज में डूबे हूए हैं। इससे उनकी जमीन भी हाथ से निकलने वाली होती है, तभी एक नेता उन्हें सरकारी सहायता लेने के वास्ते आत्महत्या का सुझाव देता है। खबर तत्काल फैल जाती है। उक्त किसान मीडिया के लिए भी खास हो जाता है। यकीनन, फिल्म आपको बज्र देहाती दुनिया की सैर कराएगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Wed Aug 4 14:19:04 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 4 Aug 2010 14:19:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KWA4KS2?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJXgpK7gpYfgpILgpJ/gpY3gpLDgpYDgpIMg4KSu4KWA?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleClgCDgpK7gpL7gpLjgpY3gpJ/gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSv4KS+IOCkrOCljeCksuClieCkl+CksOClgA==?= Message-ID: हिन्दी न्यूज चैनलों का आलोचना काल चल रहा है। उनके हर काम की कड़ी परीक्षा ली जा रही है। जितनी कड़ी परीक्षा ली जाती है, हिन्दी न्यूज चैनल उतने ही बिगड़े जा रहे हैं। जब से टीआरपी बलम ने चैनलों को सताना शुरू किया है, सजनी कजरी छोड़ कजरारे गाने लगी हैं। सारी कोशिश है कि आप जैसे ही रिमोट उठायें, आपकी आंखों को बदहवास कर दें ऐसा कोई विजुअल या संवाद चलता दिखे और आप एक मिनट के लिए आंखें फाड़ कर देखते रहे ताकि टीआरपी मीटर आपको रिकार्ड कर ले। एक मिनट तक आप खबरों की कैबरे देखते रहें इसलिए खबरों को हमेशा चिर यौवना बना कर रखा जा रहा है। न्यूज चैनलों की हर खबर की खबर लेने में ब्लॉग ने धारदार भूमिका अदा की। आनंद प्रधान, विनीत कुमार, दिलीप मंडल ये कुछ नाम ऐसे हैं जो आलोचना की तटस्थ परंपरा कायम कर रहे हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान में पढ़ाने वाले आनंद प्रधान का एक ब्लॉग है तीसरा रास्ता। आनंद अब मीडिया विशेषज्ञ की भूमिका में माध्यम का विश्लेषण कर रहे हैं। एक लेख है ‘अपराध रिपोर्टिंग का’। पहले तो आप क्लिक कीजिए http//taanabaana.blogspot.com। आनंद लिखते हैं कि हिन्दी के अधिकांश चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं लेकिन अपराध की वह खबर शहरी मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है। दिक्कत तब होती है जब एक दूसरे से होड़ करने के लिए रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों को अनदेखा कर दिया जाता है। चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगता है। आनंद हिन्दुस्तान टाइम्स का उदाहरण देते हैं। मार्च के महीने में हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान ने भूख के व्यापक साम्राज्य पर सीरीज चलाई थी। आनंद कहते हैं कि इस तरह की खबरें हिन्दी के अन्य अखबारों और चैनलों में पहली खबर क्यों नहीं बनती हैं। क्या भूख तब तक खबर नहीं है जब तक कोई मौत न हो जाए? क्या स्थाई और नियमित भूख से तिल-तिलकर मर रहे और कुपोषण के शिकार बच्चों की खबर नहीं है? सवाल वाजिब है लेकिन पाठक की भूमिका क्या सिर्फ अखबार और केबल वाले को पैसे देने तक ही सीमित है। जब सब उसी के नाम पर हो रहा तो वो क्यों नहीं कहता है कि खराब क्यों परोसा जा रहा है। आनंद पुराने जमाने के किसी मास्टर की तरह नए जोश से सवाल उठा रहे हैं। मास्टर का यही काम भी है। विनीत कुमार के ब्लॉग पर जरूर जाइये। विनीत टीवी के एक गंभीर दर्शक हैं। विश्व कप फुटबाल के दौरान आक्टोपस बाबा की खबरों में दिलचस्पी के लिए ग्लोबल मीडिया की आलोचना करते हैं। कहते हैं कि हमारे हिन्दी टीवी वालों को ही क्यों गरियाया जा रहा है। इंग्लिश चैनल वाले भी कम चिरकुटई नहीं करते हैं। न्यूज बिजनेस पर गौर करें तो पिछले तीन महीने में यह खबर सबसे ज्यादा सेलेबल साबित हुई है। विनीत के ब्लॉग गाहे-बगाहे पर जाने के लिए क्लिक करना होगा http//taanabaana.blogspot.com विनीत लिखते हैं कि दसवीं तक जिस किसी ने फिजिक्स की पढ़ाई की है उन्हें पता है कि ऊर्जा का विनाश नहीं होता। टेलीविजन इसी फार्मूले पर काम करता है। इस क्रम में उसके लिए कुछ इमेज ऐसी हैं जो कभी नहीं मरेंगे। उनका स्टेटस भले ही बदल जाए लेकिन उनकी टीआरपी वैल्यू बनी रहेगी। विनीत अपनी बात शोएब और सानिया मिर्जा की शादी की कवरेज के संदर्भ में लिख रहे हैं। विश्वास था कि न्यूज चैनल वाले महेंद्र सिंह धोनी और साक्षी की शादी में ऐसा ही करने वाले हैं। इन आलोचनाओं से इत्तफाक रखते हुए एक सवाल का जवाब नहीं मिलता। कितने दर्शकों ने इस तरह की कवरेज को गलत समझा और न्यूज चैनल न देखने का फैसला किया। न्यूज चैनलों और सीरियलों की दुनिया पर विनीत अच्छा विमर्श पेश कर रहे हैं। अखबारों में टीवी आलोचनाओं का हाल बहुत बुरा है। गनीमत है ये ब्लॉगर समीक्षक टीवी समीक्षा को भी नया रंग दे रहे हैं। इसी कड़ी में एक और साइट है *मीडिया खबर डॉट कॉम।* उसका नया संस्करण लांच हो चुका है। इनका असर तो हो ही रहा है। न्यूज रूम में संपादक या पत्रकार नजरें बचा कर एक बार तो देख ही लेता है कि भड़ास ने क्या लिखा, विनीत ने क्या लिखा, आनंद क्या कह रहे हैं और *मीडिया खबर *पर क्या खबर लगी है। अब तो कई लोग इनको मीडिया की खबर लीक भी कर देते हैं। मीडिया के भीतर के मंच यही हैं। *( ravish at ndtv.com लेखक का ब्लॉग है naisadak.blogspot.com)* *(हिन्दुस्तान से साभार.)* *04 अगस्त 2010* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Wed Aug 4 17:17:16 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 4 Aug 2010 17:17:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KSc4KWC?= =?utf-8?b?4KSwISDgpK/gpLkg4KS14KS/4KSV4KS+4KS4IOCkleCkviDgpK7gpKQ=?= =?utf-8?b?4KSy4KSsIOCkleCljeCkr+CkviDgpLngpYvgpKTgpL4g4KS54KWIPw==?= Message-ID: *भारत समेत तीसरी दुनिया के अर्धउपनिवेशों के लिए विकास का क्या मतलब है? सिर्फ यह कि वे अपने संसाधनों और सस्ते श्रम को विकसित साम्राज्यवादी देशों के बहुराष्ट्रीय निगमों के मुनाफे और अपार लालच के लिए उन्हें सौंप दें. और इन कथित विकासशील देशों में लोकतंत्र का क्या मतलब है? यह कि अपने संसाधनों की लूट का विरोध कर रही अपनी जनता को संसद में बनाए कानूनों के जरिए बंदूक और सेना के बल पर चुप रखना या कुचल देना. पश्चिम बंगाल से लेकर उड़ीसा, झारखंड और बस्तर तक यही चल रहा है. पूरे भारत में और पूरी दुनिया में विकास और लोकतंत्र के नाम पर पर जो हो रहा है उसके निहितार्थ क्या हैं? इससे किनको फायदा हो रहा है? जाने-माने नृतत्वशास्त्री फेलिक्स पैडेल और समरेंद्र दास की यह शोधपरक रिपोर्ट हमें इसका ब्योरा देती है. इसे हम पानोस दक्षिण एशिया की पुस्तक बुलडोजर और महुआ के फूल से साभार पेश कर रहे हैं. * *फ़ेलिक्स पैडेल और समरेन्द्र दास: * उड़ीसा में अल्युमिनियम की तलाश का नतीजा सांस्कृतिक जनसंहार के रूप में सामने आया है. विस्थापन ने जहाँ एक ओर आदिवासी समाज की संरचना की रीढ़ तोड़ दी है वहीं कारखानों से फैलते प्रदूषण ने इलाके से खेती की सम्भावना समाप्त करके यहाँ के बाशिन्दों से उनकी जीविका का सबसे अहम स्रोत छीन लिया है। चूंकि अल्युमिनियम उत्पादन को आगे बढ़ाने में हथियारों के उद्योग का वरदहस्त है, इसलिए स्थानीय लोगों की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता और यह कहीं ज्य़ादा आपराधिक है। *पूरा पढ़िएः हुजूर! यह विकास का मतलब क्या होता है? * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sat Aug 7 12:28:41 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 07 Aug 2010 12:28:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSaIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkvuCkueCkuDog4KSo4KS+4KSX4KS+4KSw4KWN4KSc4KWB4KSo?= =?utf-8?b?L+CkheCksOCkteCkv+CkguCkpiDgpKbgpL7gpLg=?= Message-ID: <4C5D0421.4030400@sarai.net> _सच का साहस___ अरविंद दास दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में ‘बंबई’ आम तो नहीं दिखता पर ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ की भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं...हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बाद’ में प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है. बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता ‘सरल सूत्र उलझाऊ’ है. नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. युवा कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें ‘सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- ‘कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)...’ तब आश्चर्य नहीं कि ...बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को...’सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी! उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखी’ है. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है ‘परम सत्य’ जिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, ओ, ई, थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.) नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.’ देखा है, यह सुनाई सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे ‘अनभै सांचा’ कहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है. कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेछली हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है. असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. ‘सिके हुए दो भुट्टे’ सामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ उन्हें मोह जाती है. ‘काले काले घन कुरंग’ उन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे. नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता है जन के प्रति और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-‘लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.’ नागार्जुन जीवन पर्यंत सत्ता और व्यवस्था के आलोचक रहे. जन्मशती वर्ष में यदि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें याद नहीं करें तो बात समझ में आती है, पर जिस ‘जन’ को उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया उसने उन्हें कैसे भूला दिया? *(**दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित)*** -- Sincerely, Dr. Arvind Kumar Blog:http://www.arvinddas.blogspot.com Mobile: 91-09990306477 From vineetdu at gmail.com Sat Aug 7 12:59:30 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 7 Aug 2010 12:59:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSc4KWA4KSk?= =?utf-8?b?IOCkheCkguCknOClgeCkriDgpJXgpLngpKTgpYcg4KS54KWI4KSCLSA=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy4KWL4KSCIOCkleClgCDgpKTgpL7gpLDgpYDgpKsg?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWL?= Message-ID: अजीत अंजुम हमारे जमाने के काबिल मीडिया पत्रकारों में से गिने जाते हैं। उऩकी ये काबिलियत का ही नतीजा है कि उऩ्होंने सनसनी,पोल-खोल,टारगेट जैसे कार्यक्रमों को जन्म दिया। वो कभी इस बात को मानने को तैयार ही नहीं होते कि चैनल में गलत होता है। अगर मान भी लें तो इसे टीआरपी की दुहाई देकर मामले को रफा-दफा करना चाहते हैं। कॉमनवेल्थ को लेकर मीडिया कवरेज और घोटाले की खबर को लेकर वो लट्टू होते नजर आए और फेसबुक पर लिखा। हमें उनकी बात से घोर असहमति हुई,कमेंट किया लेकिन अब पूरा मामला पोस्ट की शक्ल में पढ़िए- *अ*भी हम ये बात सोच ही रहे थे कि अभी तक न्यूज चैनल के एंकर्स कॉमनवेल्थ के शेरु का छापावाली टीशर्ट पहनकर एंकरिंग क्यों नहीं कर रहे कि देखता हूं वो टीशर्ट पहनने के बजाय कॉमनवेल्थ की बाट लगाने में जुट गए। एंकरों को टीशर्ट में देखने की उम्मीद इसलिए कि अब ये एक चलन-सा बन गया है। न्यूज24 ने तो कभी आइपीएल की सभी टीमों की ड्रेस पहनाकर अपने एंकरों की लाइन लगा दी थी स्क्रीन पर। आइपीएल का बिग शो नाम दिया था तब,बिग बॉस और आइपीएल की कॉकटेल परोसी थी जो कि हमें रास न आयी थी। कॉमनवेल्थ को लेकर होनेवाले घोटाले की कहानी साठ दिन बाकी रहने के दिन से शुरु हुई। इसके पहले अधिकांश चैनल आकाओं की बाइट,उनकी प्रसन्न मुद्रा और इस खेल के जरिए इंडियननेस पैदा करने के काम में जुटे रहे। बीच-बीच में जो कहानी दिखाई-बताई भी तो वो भी सिर्फ अधूरी तैयारियों को लेकर,गड़बड़ियों को लेकर नहीं। ऐसे में, आज सारे चैनलों पर कॉमनवेल्थ को लेकर जो घोटाले दिखाए जा रहे हैं वो न तो इन खबरों की फॉलोअप है और न ही उसके पीछे लगातार लगे रहने के कारण कोई खोजी किस्म की पत्रकारिता के तहत इन घोटालों का खुलासा हो पाया। चैनलों पर जिस तरह की खबरें आ रही हैं,उसे देखते हुए मुझे कहीं से भी नहीं लगता कि चैनल के लोग कभी इस तरह के घोटाले को लेकर स्टोरी करने की बात सोच रहे होंगे। वो क्या सोच रहे होंगे,इसकी चर्चा आगे। फिलहाल, अब जबकि चैनलों ने इस घोटाले को लेकर लगातार खबरें चलानी शुरु की जिसमें कि बारीकियों के बजाय कुछ लोगों को टांग देने भर का मूड ज्यादा है, हिन्दी मीडिया के वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार और इस साल गोयनका अवार्ड से सम्मानित अजीत अंजुम न्यूज चैनलों के इस काम पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उनके लिए इस घोटाले की खबर का दिखाया जाना उन उदाहरणों में से है जिसे लहराकर हमारे बीच किल्ला ठोंक दावे कर सकते हैं कि देखो तुमलोग न्यूज चैनलों को कोसते फिरते हो,कितना बड़ा काम कर रहा है ये। इसी मुग्धता की चपेट में आकर उन्होंने फेसबुक के वॉल पर लिखा- टीवी चैनल और अखबार कलमाड़ी एंड कंपनी के काले कारनामों और घोटालों का लगातार खुलासा कर रहे हैं . मीडिया को गैरजिम्मेदार मानकर दिन रात कोसने वालों आलोचकों और निंदकों को कम से कम इस मामले में मीडिया की तारीफ करनी ही चाहिए . मीडिया इस मामले में अपना काम कर रहा है अगर सरकार भी करने लगे तो गेम्स खत्म होते होते कलमाड़ी एंड कंपनी को सलाखों के पीछे भी जाना पड़ सकता है . क्या लूट मचा रखी है इन सबने.. अजीत अंजुम इससे पहले भी मीडिया और न्यूज चैनलों के पक्ष में अपनी वॉल पर लिखते आए हैं। उनके ऐसा लिखने के पीछे न्यूज चैनलों का पक्ष लेने से कहीं ज्यादा मीडिया आलोचकों को उकसाना और उनकी औकात बताने की नीयत ज्यादा रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो वो जरुर न्यूज चैनलों के पक्ष में जो बात लिखते हैं उसका मजबूत आधार होता। उकसाने की उऩकी इस आदत को हम कई बार मारकर बर्दाश्त कर लेते लेकिन अबकी बार जो उन्होंने कॉमनवेल्थ घोटाले को दिखाए जाने पर न्यूज चैनलों को अपनी तरह से क्रांतिकारी होने का बिल्ला बांटने लगे तो हमेशा रहा नहीं गया। हमने फेसबुक पर इसका जबाब देना जरुरी समझा। जो जबाब हमने वहां दिया,उसकी स्क्रीन शॉट तस्वीर की शक्ल में यहां लगा दे रहा हूं। लेकिन पूरी बात थोड़ा और विस्तार देकर रखना जरुरी है। अजीत अंजुम जिस बिना पर न्यूज चैनलों पर लट्टू हुए जा रहे हैं उसके जबाब में एक ऐसी ऑडिएंस जो लगातार टेलीविजन तो देखती है लेकिन भीतर के खेल तक उसकी पहुंच नहीं है, वो भी यही कहेगा कि- रहने दीजिए,हमारी अक्ल घास चरने नहीं गयी है। सौदा पटा नहीं तो घोटाले की खबर दिखाने लग गए, नहीं तो अभी शेरु के छापेवाली टीशर्ट पहनकर एंकर तो एंकर चैनल के सारे रिपोटर्स पीटीसी देते नजर आते। क्या घोटाला कोई एख दिन में हुआ है। इतने-इतने प्रेस कॉन्फ्रेंस हुए,कॉमनवेल्थ की मसाल को लेकर जो कार्यक्रम आयोजित हुए,उन सब में से किसी के दौरान कुछ गड़बड़ होने की भनक आपको नहीं मिली। पूरी दिल्ली इस खेल के नाम पर खोद दी गयी,जो टाइल्स तीन महीने पहले लगे थे,उसे दोबारा और उससे कहीं ज्यादा घटिया लगाए गए। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा कि डीयू कैंपस में जो डिवाइडर दोपहर को लगाए हैं,शाम तक धाराशायी हो गए। एफएम चैनलों ने बार-बार बताया कि रॉ मटीरियल बड़े पैमाने पर लोग अपने घरों में ले जा रहे हैं। जितने पत्थर सड़कों पर काम के लिए गिराए गए वो सबके सब चाय-समोसे की रेड़यों के आगे बैठने के काम आने लगे। ये कोई एक दिन का घोटाला नहीं है, इसके पीछे लंबी और शुरु से कहानी है। कभी किसी चैनल ने पता करने की कोशिश की कि जो भी कन्सट्रक्शन चल रहे हैं,उसकी एक्सपेक्टेड लागत और जो लगे हैं उसके बीच कितना का फर्क है। वो साठ दिन पहले तक सिर्फ अधूरे काम,कब पूरे होंगे पर स्टोरी करते रहे। ये एक सॉफ्ट स्टोरी बनकर रह गयी। न्यूज चैनलों के भीतर वाकई सरोकार है( मैं इसे मौके-मौके पर उमड़ आनेवाली चीज मानता हूं) तो उसका काम सिर्फ घोटाले की खबर को हम तक लाना नहीं है। उसका काम घोटाले के अंदेशे से भी हमें अवगत कराना है। अगर उऩ्हें लगता है कि वो घोटाले की खबर दिखाकर कोई बहुत बड़े सरोकार का काम कर रहे हैं। उऩके ऐसे घोटाले की खबर दिखाए जाने से भविष्य में ऐसे घोटालों पर लगाम कसे जा सकेंगे तो माफ कीजिएगा ऐसे घोटाले सीरियल और आरुषि हत्याकांड की खबर जैसा मजा तो दे सकते हैं जिनमें सस्पेंस और थ्रिलर एलीमेंट होते हैं,लेकिन इन खबरों से घोटालों पर लगाम नहीं लगेगा,न अभी न कभी भी। क्योंकि एक तो इन घोटालों मे तथ्यों की अनदेखी करके जल्दी से जल्दी इसे एक रोचक धारावाहिक कथा में बदल देने की चैनलों की छटपटाहट होती है और दूसरा गदहे के सिर से सिंघ गायब हो जाने की पुरानी आदत इसके असर को खत्म कर देती है। अजीतजी,आप बता सकते हैं कि संसद में नोटो की जो गड्डियां लहाराई गयी थी और अपने सबसे काबिल टीवी पत्रकार ने हमसे कहा था कि हमारे पास इसके पीछे की पूरी कहानी की सीडी है,हम इसे फिलहाल देशहित में रख रहे हैं,ब्रॉडकास्ट नहीं कर रहे,उस सीडी का क्या हुआ? वो किस मरघट में स्वाहा कर दी गयी। अजीतजी आप बता सकते हैं कि अगर चैनल सचमुच इतना सरोकार रखते हैं तो सबसे करप्ट रीयल स्टेट दुनिया की खबर, पानी के पीछे माफिया की खबर, एफसीआई के भीतर भयंकर गड़बड़ियों की खबर,वीपीओ में हिला देनेवाली करप्शन, मल्टीनेशनल कंपनियों के दलालों की खबर हम तक क्यों नहीं पहुंचाते? आखिर ऐसा क्यों है कि जो राजदीप सरदेसाई,शायद आप भी ये मानते हैं कि अब दिनभर प्रधानमंत्री और राजनेताओं के चेहरे ही टेलीविजन स्क्रीन की खबर बने,जरुरी नहीं। इसे टीआरपी के लिहाज से भी अलग कर देते हैं, जब अपने को सरोकार से जुड़ा होनेवाला साबित करना हो तो इन्हीं नेताओं को कटघरे में शामिल करके क्रांति का बिल्ला बांटने-लगाने लग जाते हैं। आखिर सरोकारी पत्रकारिता सिर्फ राजनीतिक खबरों के बीच से ही क्यों पनपती है? क्या बाकी के सेक्टर में कोई गड़बड़ियां नहीं है,क्या उसमें करप्शन नहीं है,क्या वो खबर नहीं है? ऐसा इसलिए कि आपलोगों को राजनीतिक लोगों की बाट लगाने के बाद भी उन्हें मैनेज करने का पुराना अभ्यास है, उनकी बत्ती लगाकर भी कल को आप उन्हें मैनेज कर लेंगे लेकिन कार्पोरेट की बत्ती लगाकर बाद में साधने की कला अभी आपने सीखी नहीं। एक बार हाथ से गया सो गया। फ्यूचर में सीख लें तो शायद वहां के घोटाले की भी खबर देने लग जाए। सब है,तब आप टीआरपी की दुहाई देंगे,लोग किसान,भूखमरी की बातें नहीं देखना चाहते। हमें हैरानी होती है कि जब हम वाकई सरोकारी खबरों की बात करते हैं तब आप टीआरपी की दुहाई देने लग जाते हैं और जब हम न्यूज चैनलों की स्टोरी को स्ट्रैटजी मानते हैं तो उसे आप सरोकारी पत्रकारिता का लेबल चस्पाने लग जाते हैं। सच्चाई आप भी जानते हैं,टुकड़ो-टुकड़ों में कुछ-कुछ हम भी कि लालाओं के पैसे से एक का माल दो किया जा सकता है,दो का चार,एक सरोकार से जुड़ा संवेदनशील समाज नहीं। दिलीप मंडल दो मंचों से ये कह भी चुके हैं कि जिन मीडिया संस्थानों में करोड़ों रुपये लगे हों,वहां के मालिक जब बोर्ड की मीटिंग में बैठते हैं तो आपको क्या लगता है कि मूल्य,सरोकार,नैतिकता,जागरुकता की बात करते होंगे? राजदीप ने तो उदयन शर्मा की संगोष्ठी में लगभग समर्पण ही कर दिया कि हम विज्ञापन और कंपनियों के आगे विवश हैं। संपादकों में न बोलने की ताकत नहीं रह गयी। अब आप अकेले इस किस्म की पत्रकारिता को सरोकारी पत्रकारिता का नाम दे रहे हैं तो आगे क्या कहें? सच बात तो ये है कि ऑडिएंस ने अब आपलोगों से इस तरह की उम्मीद और मांग करना छोड़ दिया है। वो मानकर चलने लगी है कि ये एक किस्म का धंधा है। आपसे अपील है कि इस तरह की बातें करके उन्हें कन्फ्यूज न करें। अब देखिए- इस घोटाले की उत्तर कथा क्या होगी? ये महज मेरा अनुमान है. जिस खेल के पीछे शीला दीक्षित और उनकी टीम ने महीनों लगाया उसे वो चैनलों के हाथ का झुनझुना कभी नहीं बनने देगी। अभी दो-चार दिन और बजा लेने दीजिए। जब उऩका मन भर जाएगा,भीतर के सारे विकार बाहर आ जाएंगे ( इसे अरस्तू ने कार्थासिस( विरेचन) कहा था) तब नए सिरे से फ्रेश मूड में आक्रमक तरीके से कॉमनवेल्थ फेवर का काम होगा। तब सारे चैनलों को कुछ-कुछ टुकड़े फेंक दिए जाएंगे। चैनल के भीतर जो अभी सरोकारी पत्रकारिता का गूलकोज-पानी चढ़ा है,उसके बदले सरकार का चढ़ेगा। वो कॉमनवेल्थ के पक्ष में खड़े होते जाएंगे। अजीतजी, लेकिन आप चिंता बिल्कुल न करें। आपके न्यूज चैनलों के पत्रकार तब भी सरोकारी पत्रकार ही कहलाएंगे। आपने जो उन्हें क्रांतिकारी पत्रकार के बिल्ले बांटे हैं,उनकी भी तो इज्जत रखनी है। आखिर खबर का असर वाला चालू फार्मूला किस दिन काम आएगा? सारे चैनलों पर लिखा आएगा- खबर का असर, शीला सरकार आयी हरकत में,कॉमनवेल्त से सारी गड़बड़ियों का सफाया,अब कहीं कोई खोट नहीं। ऐतिहासिक होगा कॉमनवेल्थ, शीला की अपील- देशहित में दें हमारा साथ।..चैनल की तरफ से अपील- आपने हमें घोटाले के वक्त देखा,अब देखिए जब हम इस खेल से घोटाले को जड़ से खत्म कर दिया। खबर का असर- सुधर गया सबकुछ, न्यूज इज बैक,खबर हर कीमत पर,दिल में सच,जुबां पे इंडिया।..देखते रहिए -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Aug 7 22:32:08 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 7 Aug 2010 22:32:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkquCljeCksOCkpuClh+CktiDgpJTgpLAg4KSb4KS14KS/?= =?utf-8?b?IOCkreCkguCknOCklSDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4=?= Message-ID: दीवान के हमारे साथी लोग फिलिम देखने और उस पर गर्मागर्म बहस करने में खूब दिलचस्पी लेते हैं. मौर्या टीवी के साइट पर विचरते हुए अभी-अभी मुझे पटना के भाई विनोद अनुपम जी का यह लेख मिला. ये लीजिए आपको पास कर दे रहा हूँ. शुक्रिया. -- शशिकांत हिन्दी प्रदेश और छवि भंजक सिनेमा Vinod Anupam आदित्य चोपड़ा की ‘बदमाश कंपनी’ की नायिका की कोई पृष्ठभूमि नहीं बतायी जाती, संवादों के सहारे सिर्फ इतनी जानकारी मिलती है कि वह जयपुर से आयी है। हालांकि अधनंगी होकर पूरी दुनिया घूमती और नायक के साथ लिव इन रिलेशनशिप बिताती नायिका यदि जयपुर से आयी नहीं भी बतायी जाती तो कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यह शायद नामुमकिन था कि हिन्दी में ‘बदमाश कंपनी’ तैयार हो और उसमें कोई भी हिन्दी प्रदेश से न हो। इसके पूर्व भी आदित्य चोपड़ा ने ‘बंटी और बबली’ बनायी थी, तो संयोग नहीं कि उसमें नायक और नायिका दोनों ही कानपुर से निकलते हैं, और पूरे देश में अपनी ठगी का आतंक मचाते हुए मुम्बई पहुंचते हैं। हिन्दुस्तान की नकारात्मकता के केन्द्र में हिन्दी प्रदेशों को चित्रित करने का शगल हिन्दी सिनेमा के लिए नया नहीं, लेकिन हाल के दिनों में इसे खास तौर से रेखांकित करने की शुरूआत हुई है। आश्चर्य यह कि हिन्दी सिनेमा की इस कोशिश में सिर्फ चोपड़ा और जौहर नहीं बल्कि प्रकाश झा, विशाल भरद्वाज और इम्तियाज अली जैसे फिल्मकार और भी ज्यादा मुखर दिखते हैं। इम्तियाज अली की फिल्म ‘जब वी मेट’ में नायक और नायिका जब भटिंडा ;पंजाब पहुंचते हैं, तो संयुक्त परिवार के प्रेम, त्याग और स्नेह के अद्भुत दर्शन होते हैं। गीत, संगीत के सहारे पंजाब के रंगारंग संस्कृति का इन्द्रध्नुषी परिदृश्य बनाया जाता है। लेकिन नायक-नायिका जब रतलाम ;मध्यप्रदेश स्टेशन उतरते हैं तो सबसे पहले उनका सामना गुंडों से होता है, जो नायिका की इज्जत लूटने की कोशिश करते हैं। गुंडों से बचकर आगे बढ़कर होटल पहुंचते हैं तो वहां उन्हें घन्टे की दर से कमरा दिया जाता है। जैसे इतना ही काफी नहीं उसी रात होटल पर पुलिस की रेड भी पड़ जाती है, और बाकी लोगों की तरह नायक-नायिका को भी मुंह छिपाकर भागना पड़ता है। हो सकता है यह संयोग हो, लेकिन यह संयोग वाकई चिन्ताजनक है कि आखिर क्यों अपराध और हिंसा की परिकल्पना की जाती है तो उसके लिए आधार हिन्दी प्रदेशों में ही ढूंढा जाता है? इम्तियाज अली तो आज के झारखंड और कल के बिहार के निवासी हैं, उन्हें भी हिन्दी प्रदेश की सरलता, सहजता आकर्षित नहीं करती, हिन्दी प्रदेशों की सांस्कृतिक परम्परा में उन्हें कुछ भी उल्लेख्य नहीं मिलता। मानवीय स्वभाव की श्रेष्ठता ढूंढने के लिए उन्हें पंजाब पहुंचना होता है। वास्तव में इम्तियाज अली की यह मजबूरी भी हो सकती है। परम्परा से बाहर निकलना जोखिम भरा होता है, जिसे स्वीकार करना इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशक के लिए आसान नहीं हो सकता। हिन्दी सिनेमा में प्रेम और परिवार का एक ही मान्य प्रतीक है, पंजाब। ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ से लेकर ‘लव आज कल’ तक चाहे ‘वीरजारा’ हो या ‘सिंह इज किंग’, ‘दिल बोले हड़िप्पा’ हो या ‘प्यार तो होना ही था’, हिन्दी सिनेमा में प्यार पंजाब का पर्याय माना जाता रहा है। पंजाब की ऊर्जा से लवरेज संस्कृति को प्यार का प्रतीक बना देना कोई ऐतराज की बात भी नहीं। निश्चित रूप से लंबे समय तक आतंक की आग में झुलसते पंजाब को वह छवि सुकून भी देती है। लेकिन सवाल है सिर्फ पंजाब ही क्यों? और फिर पंजाब के ‘प्रेम’ को दर्शाने के लिए हिन्दी प्रदेशों को ‘घृणा’ से दर्शाना क्यों अनिवार्य हो जाता है हिन्दी सिनेमा के लिए? सवाल यह भी है कि क्या हिन्दी प्रदेशों में प्रेम नहीं होते? शायद प्रेम के कारण ‘शहीद’ होने वाले सबसे अध्कि जोड़े हिन्दी प्रदेश से होते हैं। चाहे जाति का मामला हो या गोत्र का प्रेम, कहानियां सबसे अधिक यहीं जटिल होती हैं, बावजूद इसके यदि यहां की प्रेम कहानियां यहां के फिल्मकारों के लिए भी आकर्षण का कारण नहीं बनती तो सिवा पूर्वाग्रह के इसे और क्या कहा जा सकता है। विशाल भारद्वाज उत्तरप्रदेश की माटी से हैं, अभिषेक चौबे उत्तरप्रदेश से हैं, दोनों उत्तरप्रदेश की माटी पर फिल्म परिकल्पित करते हैं ‘इश्किया’। कहानी भोपाल से चलकर गोरखपुर में ठहर जाती है। जहां दिखती है आपसी बातचीत में गालियां, परिवारिक वैमनस्य, गुरबत, षड्यंत्र और जातीय हिंसा। फिल्म में पांच साल का बालक सरे आम हाथों में पिस्तौल लिए दौड़ता दिखता है। आठ साल का बालक कहता है, मेरे गांव में तो लोग गांड़ धोने से पहले बंदूक चलाना सीख जाते हैं। हो सकता है यह सच्चाई भी हो लेकिन क्या उस गोरखपुर को इसीलिए याद किया जाना चाहिए, जो गोरखपुर पूरी दुनिया में जानी जाती है तो सिर्फ धर्मिक पुस्तकों के लिए। जैसे इतना ही काफी नहीं, हिन्दी समाज की वीभत्सता दर्शाने के लिए पति को पत्नी की हत्या की कोशिश करते तो पत्नी को पति के खिलाफ षड्यंत्र करते, शादीशुदा महिला को अपने ही गांव में दो अजनबी लोगों के साथ रहते और उन्हें अपने आकर्षण के जाल में फँसाते भी अभिषेक चौबे दिखाते हैं। क्या यही उबड़-खाबड़ समाज हिन्दी क्षेत्र की सच्चाई है? इसके पूर्व भी विशाल भारद्वाज ‘ओंकारा’ बनाते है तो हिंसा का वीभत्स रूप वहां दिखता है। कहने को राजनीतिक अपराध पर आधरित इस कहानी में बाप को बेटी के खिलाफ षड्यंत्र करते देखते हैं और पत्नी को पति की हत्या करते तो पति को पत्नी की। ‘ओंकारा’ ऐसी विरले फिल्मों में होगी जिसमें सारे चरित्र अन्त तक मार दिये जाते है। होगी यह शेक्सपीयर की ‘ओथेलो’, लेकिन ओथेलो का आधार उत्तरप्रदेश ही स्थापित क्यों किया जाता है? क्यों विशाल के लिए हिन्दी प्रदेश को स्थापित करना अनिवार्य हो जाता है? इसका उत्तर जितना विशाल भारद्वाज से वांछित है उतना ही प्रकाश झा से भी। ‘अपहरण’, ‘गंगा जल’ दोनों ही फिल्में बिहार की सच्ची घटना पर आधरित बतायी जाती हैं। कमोबेश हैं भी। लेकिन एक बिहारी, जो बिहार को प्रतिष्ठित करने की राजनीति भी कर रहा हो, उसे भी बिहार की सच्चाई के नाम पर अपहरण और भागलपुर अंखपफोड़वा कांड की ही याद आती है तो चिन्ता होती है। क्या बिहार के गांव में ‘दिलवाले दुल्हनिया’ नहीं फिल्मायी जा सकती? ठीक है वह उतनी ग्लौसी नहीं हो सकती, लेकिन प्रेम की सहजता और ईमानदारी तो यहां के खेतों में भी दिखायी जा सकती है। ‘नदिया के पार’ अभी भी भूले नहीं हैं हम। सवाल नीयत का है क्या बिहार या अन्य हिन्दी प्रदेशों की संस्कृति को हम अपने सिनेमा से प्रतिष्ठित करना चाहते है? उत्तर है, नहीं। नहीं, इसलिए की हिन्दी प्रदेश सिनेमा का बाजार नहीं है। मैं बिहार, युपी के चवन्नी के दर्शकों के लिए फिल्में नहीं बनाता, जो बात सुभाष घई बेधड़क बोल डालते हैं वही ये फिल्मकार अपनी फिल्मों में साकार करते हैं। उन्हें पता है बाजार में पंजाब का प्रेम और हिन्दी प्रदेश की हिंसा बिक रही है तो भला क्यों वे जोखिम उठाना चाहेंगे? होगी यह बुद्ध- महावीर की भूमि, होगी यह विद्यापति जैसे प्रेमिल कवि की भूमि, होगी यह शरतचंद्र को रचनात्मक ऊर्जा देने वाली भूमि, होगी यह बिस्मिल्लाह खान के शहनाई को सुर प्रदान करने वाली भूमि, उनकी बला से। वास्तव में यह भूमि इन पिफल्मकारों के लिए भी सरोकार से ज्यादा व्यापार की वजह है। इसीलिए वे अपनी ओर से किसी ‘नदिया के पार’ की कल्पना नहीं कर सकते, किसी ‘गंगा जमुना’ को साकार नहीं कर सकते। इन्हें भी सहूलियत होती है हिन्दी फिल्मकारों की भीड़ में शामिल हो जाने में जिनके लिए हिन्दी प्रदेश अपराध और हिंसा का या तो अजस्त्र स्रोत होता है या फिर उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। वर्षों पहले आई ‘जोश’ ने गोवा में जो व्यक्ति कागजों की हेरा-फेरी कर सम्पत्ति पर अवैध कब्जा दिलाने का काम करता है, वह बिहार का दिखाया जाता है। हिंसा के दौर पंजाब ने भी देखे, लेकिन आज हिन्दी सिनेमा में कोई उसे याद करना नहीं चाहता। यह तथ्य है कि हर्षद मेहता से लेकर ललित मोदी तक जो भी आर्थिक घोटाले के केन्द्र में रहे हैं, उसमें से शायद ही कोई नाम हिन्दी प्रदेशों से हो। देश के खिलाफ जासूसी करते जितने भी लोग अभी तक पकड़े गये हैं उसमें से भी हिन्दी प्रदेश से गये नाम ढूंढने मुश्किल होंगे, आयकर की चोरी करने वालों में भी सबसे कम लोग हिन्दी प्रदेशों से हैं, भ्रष्टाचार में शीर्ष पदों पर रह रहे जितने भी अधिकारी लिप्त पाये गये हैं उनमें सबसे कम संख्या हिन्दी प्रदेश के अधिकारियों की होगी। बावजूद इसके हिन्दी प्रदेशों को यदि अपराध के प्रतीक के रूप में स्थापित किया जाता है तो सिवा पूर्वाग्रह के इसे और क्या कहा जा सकता है? श्याम बेनेगल ने अभिनव कोशिश की ‘वेलडन अब्बा’ में जब भ्रष्टाचार की अपनी कहानी को लेकर वे आन्ध्र प्रदेश चले गये। वास्तव में जो संकट सर्वव्यापी है उसे लेकर मात्र हिन्दी प्रदेशों को कटघरे में खड़ा करना कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सवाल है अपनी छवि के चित्राण से हमें ऐतराज भी कहां है? अपनी विद्रूप छवि देखकर यदि हम खुश हो रहे हैं तो सामने वाले को भला क्या आपत्ति? आज यदि हिन्दी सिनेमा पंजाब की हिंसा को भूल गयी है तो इसकी वजह है कि वहां के लोग इसे कतई स्वीकार्य नहीं सकते। आज असंभव है बंगाल की अराजकता को कोई हिन्दी सिनेमा अपना विषय बना ले। क्योंकि उन्हें पता है यह स्वीकार्य नहीं होगा। जब तक हिन्दी प्रदेशों से भी अस्वीकार्यता की धमक हिन्दी सिनेमा तक नहीं पहुंचेगी हमारी छवि के साथ इसी तरह खिलवाड़ होता रहेगा। कम से कम अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता को तो परदे पर देखने की उम्मीद तो नहीं ही कर सकते हम लोग, चाहे हिन्दी सिनेमा में कितने भी सशक्त स्थिति में पहुंच जाएं प्रकाश झा या विशाल भारद्वाज। -विनोद अनुपम, बी-53, सचिवालय कॉलोनी, कंकड़बाग, पटना-20, आदित्य चोपड़ा, जब वी मेट, जयपुर, दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे, प्यार, प्रकाश झा, प्रेम कहानियां, बदमाश कंपनी, मुम्बई, विनोद अनुपम, विशाल भरद्वाज, वेलडन अब्बा, श्याम बेनेगल, हिन्दुस्तान -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Aug 8 13:19:21 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Aug 2010 13:19:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSc4KWAIOCkleClhyDgpKrgpL7gpLgg4KSX4KS/4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLDgpJbgpYAg4KS54KWIIOCkleCksg==?= =?utf-8?b?4KSu?= Message-ID: हंटर साहब-छिनाल प्रसंग पर हमने शुरुआती दौर में ही जो लिखा सो लिखा। बाद में जो चल रहा है उसमें हमें मामले को गंभीरता से लेने के बजाय पुराने हिसाब-किताब चुकता करनेवाला अंदाज ज्यादा लगा। हमने लिखना छोड़ दिया। तभी अविनाश ने रात में एक मेल फार्वर्ड किया जिसमें किसी बेनामी ने मुझे कहा कि मैंने अपनी कलम कालियाजी के यहां गिरवी तो नहीं रख दी। अविनाश हमें फिल्म रिलीज होने के पहले ही नत्था की शक्ल में देखना चाहते थे जो घोषित करें कि वो आत्महत्या कर रहा है। पूरी बात तब मैंने पोस्ट की शक्ल में लिख दी- *विभूति छिनाल प्रसंग* में सुधीर सुमन की ओर से फोन पर अविनाश को धमकी देने के बाद से मैंने तय कर लिया कि मुझे इस बहस से अपने को अलग कर लेना है। इस प्रसंग में नामवर सिंह की चुप्पी मुझे लगातार हैरान कर रही थी इसलिए इस पर लिखना जरूरी समझा और मोहल्ला लाइव पर लिखा। अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में उस बात को आज उठाया है। सुधीर सुमन ने जिस तरह से अविनाश को फोन करके धमकाया, जिसे लिखने के बाद फिर जिस तरह के कमेंट आने शुरू हुए, उसे देखते हुए मुझे अपनी तरफ की एक कहावत याद आयी – *भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़े।* हालांकि ये कहावत अपने आप में स्त्री-विरोधी है लेकिन स्त्री को जैसा कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुष से कमजोर और लाचार मानता आया है, (इस मुहावरे को स्त्री विरोधी मानते हुए) उस अर्थ में हुआ ये कि जब विभूति नारायण को लेकर खुलकर विरोध करने की बात आयी, राज्य की हिंसा का खुलेआम समर्थन करने पर अगले दिन देश के किसी भी हिंदी बुद्धिजीवी ने अखबार में लेख या वर्चुअल स्पेस पर पोस्ट लिखकर विरोध नहीं जताया लेकिन जब बेशर्मी से राठौर के अंदाज में हंटर साहब ने माफी मांग ली तो एक-एक करके तथाकथित महान, प्रतिबद्ध और पार्टीलाइन को ब्रह्म वाक्य माननेवाले लेखक उनके विरोध में जुटने लगे। वो विरोध भी हंटर साहब से कहीं ज्यादा इस तीन-चार दिन के प्रकरण में जो हंटर साहब के आजू-बाजू मुद्दे और विरोध में लोग आये थे, उनकी बात को कुचलने के लिए लोग जमा हुए। *इस क्रम में* सुधीर सुमन ने अविनाश को भोपाल प्रसंग की याद दिलायी, दो-तीन बेनामी दम-खम के साथ मैदान में उतरे और एक-दूसरे पर लगे कीचड़ उछालने। इस बीच जानकीपुल पर स्थापित नाम हस्ताक्षर अभियान में शामिल होते रहे। सुधीर सुमन की भाषा में जो तल्खी अविनाश को हड़काते हुए दिखी, हम इंतजार ही करते रहे कि वो भाषा हंटर साहब के विरोध में भी उठते। मैंने तब सुधीर सुमन को संबोधित करते हुए कमेंट किया कि *सुधीरजी, आपको जो कहना है कहिए, लिखिए… बस इतनी अपील है कि यहां मसला विभूति नारायण राय की बेशर्मी और उसके लिए इस्तीफे की मांग है, न कि अविनाश, आप मुद्दे को डायवर्ट मत कीजिए।* हमें लगा कि अब लोगों के लिए ये मुद्दा स्त्री सम्मान की खुलेआम धज्जियां उड़ाने, उसकी भर्त्सना करने और दंडित करने के बजाय एक-दूसरे को पॉलिटिकली करेक्ट और इनकरेक्ट साबित करने का हो गया है। ये बचपन की उस हरकत की याद दिलाती है जब हममें से कोई गू मख जाता (गू पर पैर पड़ जाना) तो बाकी बच्चे हमें चिढ़ाएं, हमें अपने समुदाय से अलग कर दें, हम तत्काल दो-तीन को छू देते, फिर वो किसी और को। … और इस तरह कोई भी कंचन नहीं बचता, सबमें गू मखने का बोध पैदा हो जाता और चुप मार जाते। यहां भी उसी शैली में जिस बात का विरोध किया जाना चाहिए, वो धीरे-धीरे गायब होने लग गया है। वैसे भी हिंदी समाज में, जिसमें कि मैं खुद भी शामिल हूं, तात्कालिकता को बहुत ही ओछी चीज मानते हैं। *हिंदी समाज* अतीत के भारी-भरकम बोझ को फिर भी उठाने को तैयार रहता है, भविष्य के लिए फिर भी जतन से खाई, पहाड़ सब खोदने को तैयार रहता है लेकिन तात्कालिक मामलों से अपने को दूर रखता है। मैं सोचता हूं कि जितनी बातें अब अखबारों में बुद्धिजीवियों की जुबानी आ रही है, वही बात जब गिनती की महिला लेखिकाओं के कपिल सिब्बल से मिलने वक्त आतीं तो कुछ अलग किस्म का असर होता। उन पर विचारधारा का मुलम्‍मा न चढ़ता, अपने हित के गुणा-गणित की चिंता से मुक्त होकर लिखा जाता तो हिंदी समाज की जीवंतता खुलकर सामने आने पाती। बहरहाल, मैं इस मसले पर चुप हो गया, सुधीर सुमन वाली पोस्ट में लिखा भी कि सब अपनी-अपनी चमकाने में लगे हैं, मुद्दे से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बीच-बीच में विभूति-छिनाल प्रसंग की उत्तर कथा नाम से एक पोस्ट लिखने की हुलस उठती-बैठती रही… मोहल्ला पर झांकना उसी तरह जारी रहा, जिस तरह से एक जवान लौंडा दिनभर में चार से पांच बार अपनी जुल्फी और दाढ़ी की बढ़ती साइज निहारने के लिए आईने देखा करता है। *मैं मोहल्ला लाइव का* कट्टर पाठक/लेखक हूं, एक-एक चीजें नजर से होकर गुजरती है, ये जानते हुए भी अविनाश ने देर रात मुझे एक कमेंट फारवर्ड किया – *विनीत कुमार का फैन said: मोहल्ला के नियमित लेखक विनीत कुमार इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिख रहे हैं! नामवर सिंह जैसे अप्रासंगिक वृद्ध और संन्यास ले चुके आलोचक के ऊपर प्रवचन के अतिरिक्त उन्होंने कुछ नहीं लिखा। उनकी तलवार की धार जैसी तीखी भाषा में एक लेख इस मुद्दे पर आना ही चाहिए। किसी भी पाप्युलर इश्यु पर उनका राय न देना खटकता है। उनके नियमित पाठक के रूप में हमें उनके स्‍टैंड का इंतजार रहता है। उम्मीद है, विनीत कुमार जल्द ही अपने पाठकों के सामने हमेशा की तरह बोल्ड एंड ब्यूटीफुल तेवर में सामने आएंगे। उम्मीद है उनकी कलम रवींद्र कालिया के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी।* *कमेंट पढ़कर* एकबारगी तो जोर से हंसी आयी! सबसे ज्यादा इस पर कि हाय, मेरा मासूम पाठक नामवर सिंह को वृद्ध और संन्यास ले चुका मानता है। अपनी जानकारी बढ़ाये और पता करे कि बाबा अभी भी कहां-कहां जमे हुए हैं? फिर अविनाश की नीयत के बारे में सोचा कि ये हमें फिल्म रिलीज होने के पहले ही (पीपली लाइव) नत्था की शक्ल में देखना चाहते हैं, जो अपने आप ही घोषित करे कि वो आत्महत्या करना चाहता है। फिर मैं एक तमाशे में तब्दील हो जाऊं। मैं बेनामियों को भी अपनी ही तरह हांड़-मांस का इंसान मानता हूं। आप खुद ही इन लाइनों को पढ़िए न बेनामी – इस कमेंट पर कौन न मर जाए? जिससे कोई पाठक इस कदर मोहब्बत करता है, उसे और क्या चाहिए? उसके हाथ चूमने को जी करता है। उसके आगे राष्ट्रपति सम्मान, गोयनका अवार्ड, आइटीए अवार्ड सब मद्धिम और कसैले पड़ जाते हैं। ये जानते हुए कि बेबाक और तत्काल लिखने के अपने खतरे हैं, लिखना जरूरी है। जिसे भी अपने प्रकाशकों से रॉयल्टी, कमेटियों से टोकन मनी के बजाय पाठकों का प्यार पाना है, उसे हर हाल में ऐसा लिखना होगा। मेरे प्रिय पाठक, मैं मन से, विचार से, विश्वास से आपका प्यार चुनता हूं। मुझे अहं न होते हुए भी भरोसा है कि अगर मेरे लिखने में कुछ बात होगी तो मेरा लेखन किसी भी पत्रिका, संपादक या व्यक्ति का मोहताज नहीं होगा। आप हम पर वही *भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़ें* वाला फार्मूला लागू करना चाहते हैं तो कोई बात नहीं। *ऐसे समय में* मुझे पता नहीं कि हंटर साहब के साथ क्या होगा, कालियाजी को बने रहना चाहिए या जाना चाहिए, लोग तय करें – लेकिन हां, एक अदने से ब्लॉगर का मनोबल जरूर बढ़ा है, उसकी कसमें और मजबूत हुई हैं कि वो जमाने के चलन से अलग हटकर पाठक का प्यार चुनेगा, लेखन को कभी भी सरसराकर आगे बढ़ने और लोहा-लक्कड़ (जिसे दुनिया समृद्धि कहती है) जुटाने का जरिया नहीं बनाएगा। *लेकिन मेरे पाठक*, तुमसे एक शिकायत जरूर रहेगी कि तुमने अपने जिस ब्लॉग लेखक पर भरोसा किया, उसी के दामन में दाग खोजने की कोशिश की। सोचो न, तुमने लिखा कि उम्मीद है कि विनीतजी की कलम कालियाजी के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी। अब तुम ही बताओ न, पच्चीस-पचास की कलम होती तो गिरवी रख भी दी होती। लेकिन पचास हजार रुपये का लैपटॉप (इसमें अलग से कीबोर्ड की कीमत पता नहीं – इसलिए पूरा दाम लिखा) भला कालियाजी के यहां गिरवी कैसे रख दूं? जिसे मैंने बड़े जतन से खरीदा, जिसके कागज को कोर्ट में जमानत के मामले में नहीं जाने दिया, उसे मैं कालियाजी के पास धूल खाने के लिए कैसे रख दूं? आपने जिस लेखक की मंशा और भरोसे पर शक किया, उससे ये कैसी मोहब्बत है कि चाहते हो वो कालियाजी के खिलाफ खुलकर सामने आये और उसका आगे से उस पत्रिका में लिखना बंद हो जाए? मुझे हैरानी होती है कि तुम्हारा कलेजा कितना कमजोर है? तुम हमसे मजे लेने के मूड में हो शायद। लेकिन यकीन करो कि किसी पत्रिका में छपने, नहीं छपने से कोई लेखक नहीं मर जाता है। मैं पांचजन्य और रामसंदेश जैसी पत्रिकाओं को छोड़कर कहीं भी छपूंगा। *लेखक मरता है*, अपनी विश्वसनीयता के खत्म हो जाने से, पाठकों के बीच सेटर कहलाने से, जुगाड़ी वाली छवि बन जाने से। मुझे अगर ऐसे होकर लेखक घोषित होना औऱ भीतर से मर जाना होता तो मैं डेढ़-दो फीट की लंबी पोस्ट आये दिन लिखने के बजाय, छपवाने की जुगाड़ में लग जाता। संभव है, तुम मेरी इस भावुकता पर ठहाके लगा रहे होगे कि लपेट लिया न। लेकिन लगाओ ठहाके, मैं इसे अपनी नीयत सार्वजनिक करने का एक बहुत ही सूफीयाना मौका मानता हूं। तुम मुझे लगातार पढ़ते हो तो ये भी पढ़ा होगा कि – हंस की संगोष्ठी से लौटने के बाद जहां हंटर साहब, आलोक मेहता का मामला गप्प, भसोड़ी और मसखरई में तब्दील में होने को थी, बाकी वेबपोर्टल के संपादकों की तरह तुम्हारा लेखक भी आधी रात तक जागा रहा, कुछ उनलोगों के प्रतिरोध में लिखा, नया ज्ञानोदय में हंटर साहब के “छिनाल” शब्द पर सवाल खड़े किये। लिटरेचर के तौर पर सबसे पहले किया, तब तो तुम्हारे हाथों में पत्रिका शायद आयी भी नहीं होगी। ये सब लिखते वक्त उसकी उंगलियां सही-सही कीबोर्ड पर जा रही थी, कांप नहीं रही थी क्योंकि ये पहला मौका नहीं था जब उसे कुछ लिखने पर गंवाना पड़ता। वो वर्धा का टुकड़ा जिसे कि लोग हंटर साहब के हरम का सुख कहते हैं, ठुकरा चुका है। इसके पहले वो एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम तैयार करने का आनंद त्याग चुका है। इसके पहले वो हिंदी के बाबाओं के सान्निध्य सुख से वंचित (अच्छा ही लगा) हो चुका है। तुम मुझे नाहक ही अपने को महान साबित करवाने पर तुले हुए हो। *मैं, बाकी लोगों की* तरह आज भी और भविष्य में भी हंटर साहब, रवींद्र कालिया की संपादन नीति, चमकानेवाले बुद्धिजीवी जमात के प्रति प्रतिरोध में खड़ा हूं, रहूंगा। संभव है कि तुम्हें ये प्रतिरोध कई बार साफ दिखाई न दे। ऐसा इसलिए कि कई नामचीन लोगों की आक्रामक चौंधियायी चमक के आगे तुम्हें इस लेखक की मौजूदगी दिखाई न देती है। संभव हो, हो-हल्ला और हुड़दंगी शैली के प्रतिरोध के बीच ये लेखक नदारद मिले। लेकिन वो हमेशा प्रतिरोध में खड़ा रहेगा, पोटैटो एक्टिविस्ट बनकर नहीं, कीबोर्ड पर बिना थरथरानेवाली उंगलियों को लेकर। जो सवाल तुमने खड़े किये जो कि मेरे लिए एक घिनौनी गाली ही है, वही सवाल कभी प्रखर युवा आलोचक रंगनाथ सिंह ने भी उठाये थे। मेरी पीठ पर राजेंद्र यादव का नाम चस्‍पां कर दिया था। पोस्ट लिखने के बाद शाम को फोन करके पूछा था कि आप हंस में नहीं लिखते क्या? उसे इस बात का अफसोस हुआ था कि बिना वहां छपे ही उसने मेरे ऊपर लेबल चस्‍पांये थे। मैंने तब भी कहा था कि मेरी पीठ को एमसीडी की दीवार मत बनाओ। आज फिर कहता हूं, हम जो प्रयोग कर रहे हैं, जो कोशिशें कर रहे हैं, वो आपसे ही मजबूत होनी है। जिस दिन इस लेखक ds कीबोर्ड से चारण लाइन लिखा जाने लगेगा, वो लिखना बंद कर देगा… अपनी उंगलियों को न तो नाड़े की तरह हिलने देगा और न ही किसी के नापाक विचारों की काई को अपने ऊपर जमने देगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Mon Aug 9 11:40:33 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Mon, 09 Aug 2010 11:40:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Aj sham sarai mein kavya path Message-ID: <4C5F9BD9.7040607@sarai.net> zaroor aayein. ravikant Sarai-CSDS City As Studio & Sarai Media Lab Presents: SURFACES / 6 Younger Poets & Chapbook Launch Monday August 9 - Sarai Cafe - 6 PM Featuring readings in Hindi and English by: Geet Chaturvedi Giriraj Kiradoo Monica Mody Nabina Das Nitoo Das Rahul Soni Vyomesh Shukla (Event arranged in collaboration with Pratilipi, a bilingual online literary magazine.) The evening will also include a short discussion around innovation in poetry editing and publishing and launch of a special limited edition chapbook, made together with the visual artists of Sarai's City As Studio fellowship, featuring some of the poems that will be read. *About the readers:* Poet and fiction writer Geet Chaturvedi has published five books including two translations. He is Editor (Magazines), Dainik Bhaskar. Poet and translator Giriraj Kiradoo co-edits the bilingual journal Pratilipi: http://pratilipi.in/ Born in Ranchi, Monica Mody just received her M.F.A. in poetry from the University of Notre Dame where she won the 2010 Nicholas Sparks Prize. Her poetry has appeared in Wasafiri, Pratilipi, nthposition and elsewhere. Nabina Das's first novel, Footprints in the Bajra, was published this year by Cedar Books. She is a poet, fiction writer and India editor for the literary journal Danse Macabre. Nitoo Das teaches English at Indraprastha College for Women, University of Delhi. Her first collection, Boki, was published by Virtual Artists Collective, Chicago, in September 2008. Rahul Soni is a writer, editor and translator "of no fixed address". He co-edits the bilingual journal Pratilipi and works with Writer's Side ( www.writersside.com ) among other things. Vyomesh Shukla has published a poetry collection and is editor of a magazine, Samas. From zaighamimam at gmail.com Tue Aug 10 10:05:18 2010 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Tue, 10 Aug 2010 10:05:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KSc4KWN4KSu?= =?utf-8?b?LCDgpKzgpJzgpY3gpK4sIOCkpOCkv+CksuCkv+CkuOCljeCkriwg4KSF?= =?utf-8?b?4KSv4KWN4KSv4KS+4KSw4KWALi4uIuCksuCkvuCkh+CktSI=?= Message-ID: हाज़रीन, दास्तानगोई की इस महफिल में एक ऐसी दास्तान जो अब तक न कही गई...न सुनी गई। यूं तो "अफ़रासियाब" (दास्तानगोई के लफ्ज़ों में जादूगर बादशाह की ज्यादतियों के किस्से...मेरे लफ्ज़ों में कमबख्त पॉलिटिशियन्स या सिस्टम की कमीनगी) के किस्सों ने न जाने कितने टन कागज़ काले किए...न जाने कितने किलो लीटर स्याहियां जाया कीं। लेकिन नतीजा??? अय्यारों की अय्यारी काम न आई..."अफ़रासियाब" का कुछ न बिगड़ा अलबत्ता उनकी कमीनगी और बढ़ गई। तो साहेबान इस बार दास्तानगोई में किस्सए "नत्था अय्यार" जो इंशाअल्लाह "अफराशियाब" की मां......देगा (माफी चाहूंगा लेकिन फिल्म "ए" है इसलिए इतनी छूट मिलनी चाहिए) ये तो हुआ छोटा सा तआर्रुफ। बड़ा वाला तआर्रुफ तो आप में से कई लोग मुझसे बेहतर जानते हैं। मैं तो बस शर्त लगाना चाहता हूं कि नत्था मरेगा या नहीं? मुंबई में रहता हूं...यहां के रेडियो स्टेशन जमके बजा रहे हैं...बेट लगा रहे हैं। नत्था मरेगा?? नत्था नहीं मरेगा?? मरेगा या नहीं ये तो मुझे भी नहीं मालूम...लेकिन इतना पक्का है कि कुछ न कुछ करेगा। करेगा क्या? कर ही रहा है। जिसने आने से पहले "मैडम" को डायन का खिताब दिलवा दिया, "सईंया" को सुपरहिट बना दिया...वो आने के बाद क्या-क्या करेगा...आप खुद अंदाजा लगाइए। खै़र समझने समझाने की बातों के बीच असली बात भूल गया। आखिर इस "नत्था अय्यार" ने मेरे दिमाग पर कब्जा किया कैसे। तो हुआ यूं कि मैं अंधेरी के इन्फिनिटी मॉल में खड़ा होकर पीपली का पोस्टर देख रहा था...उस पर छपे नाम पढ़ रहा था। अचानक पीछे से आवाज़ आई....विल नत्था डाई?? मैं चौंककर पलटा एकबारगी लगा कि सवाल मुझसे पूछा गया है। लेकिन नहीं...पीछे एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड से शायद शर्त लगा रहा था। मैं सुनना चाहता था कि लड़की क्या कहती है। लेकिन लड़की शायद मेरे इरादों को भांप गई। उसने कंधे उचका दिए। डोंट नो? मैं भी मुस्कुराकर बाहर निकल आया लेकिन पहली बार लगा कि सवाल है बड़ा दिलचस्प। खेलने लायक। नत्था मरेगा? नत्था नहीं मरेगा? एकाध बार सोचा की महमूद साहब को फोन करके पूछ लूं...लेकिन लगा कि अय्यार के राज़ खुल गए तो फिर अय्यारी का मज़ा जाता रहेगा। चलिए, दिलचस्प और मजेदार इंतजार खत्म होने को आया। कम से कम दीवान लिस्ट के लिए खुशी की बात है....और मेरे लिए भी क्योंकि मैं महमूद साहब और अनुषा रिज़्वी को सराय के थ्रू जान पाया। दिसंबर 2007 की कड़कड़ाती सर्दियों में सराय के लॉन में पहली बार महमूद साहब से मिला तो बस यही लगा था कि कोई इतनी नफ़ीस और ख़ूबसूरत उर्दू कैसे बोल सकता है। अब शायद...पीपली लाइव देखने के बाद ये कहूं...कोई इतनी बेबाक और बेहतरीन फिल्म कैसे बना सकता है। तो हाज़रीन, होशियार, ख़बरदार.... आ रहा है "नत्था अय्यार" From shashikanthindi at gmail.com Wed Aug 11 23:10:09 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 11 Aug 2010 23:10:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KS+4KSoIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL7gpKLgpLws?= Message-ID: पाकिस्तान में बाढ़, सहायता के लिए यूएन की गुहार [image: पाकिस्तान में बाढ़] पाकिस्तान में मौजूद राहत एजेंसियों का कहना है कि अगर देश में बाढ़ से पनपे हालात से निबटने के लिए तुरंत अंतरराष्ट्रीय सहायता में बढ़ोतरी नहीं की गई तो और कई लोगों की जान ख़तरे में पड़ जाएगी. पाकिस्तान में बाढ़ अब देश की दक्षिणी हिस्सों की ओर बढ़ रही है और हर वक़्त नए इलाक़े इसके प्रभाव में आ रहे हैं. बुधवार को सयुंक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय के लिए ताज़ा अपील जारी करेगा. सयुंक्त राष्ट्र के आपातकालीन राहत कॉ-ऑर्डिनेटर जॉन होल्म्स ने बीबीसी को बताया, “हम फ़िलहाल 40 से 50 करोड़ अमरीकी डॉलर तक की सहायता की अपील करने वाले हैं. और ये सिर्फ़ पहले तीन महीनों के लिए एक प्रारंभिक आंकड़ा है जो मौजूदा हालात में संभव आकलन पर आधारित है.” बड़ी त्रासदी "हमारे लिए समस्या ये नहीं है कि कितने लोग मारे गए हैं बल्कि ये है कि कितने लोगों को सहायता चाहिए. हम कह रहे हैं कि पाकिस्तान में बाढ़ से प्रभावित लोगों की तादाद बहुत बड़ी है और ये लगातार बढ़ रही है." - जॉन होल्म्स, सयुंक्त राष्ट्र के आपातकालीन राहत कॉ-ऑर्डिनेटर सयुंक्त राष्ट्र का कहना है कि पाकिस्तान में आई मौजूदा बाढ़ से प्रभावित लोगों की संख्या अब एशिया में सुनामी, दक्षिण एशिया में वर्ष 2005 में आए भूकंप और हैटी में आए भूंकप से प्रभावित लोगों से अधिक हो गई है. जॉन होल्म्स के बीबीसी को बताया कि पाकिस्तान में मरने वालों की संख्या भले ही इन त्रासदियों से कम हो लेकिन वहां भारी संख्या में लोगों की पीड़ा कहीं ज़्यादा है. जॉन होल्म्स ने कहा, “हमारे लिए समस्या ये नहीं है कि कितने लोग मारे गए हैं बल्कि ये है कि कितने लोगों को सहायता चाहिए. हम कह रहे हैं कि पाकिस्तान में बाढ़ से प्रभावित लोगों की तादाद बहुत बड़ी है और ये लगातार बढ़ रही है.” -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Aug 12 02:03:37 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 12 Aug 2010 02:03:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkm+Ckv+CkqA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSyIiDgpKrgpY3gpLDgpLjgpILgpJcg4KSV4KWHIOCkquClgA==?= =?utf-8?b?4KSb4KWHIOCkleClgCDgpLDgpL7gpJzgpKjgpYDgpKTgpL8h?= Message-ID: "छिनाल" प्रसंग के पीछे की राजनीति! हम इनफॉर्मल रूप में रोज़मर्रा तौर पर अपने घर और बाहर गाली-गलौच करते हैं-यह सच है, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर और एक सभ्य नागरिक के रूप में हम गाली-गलौच को फॉर्मल तौर पर कतई नही स्वीकार करते. मैने मर्दों से ज़्यादा भद्दी गालियाँ औरतों को देते हुए देखा-सुना है, अपने बिहार के गाँव की तथाकथित 'अनपढ़', 'गँवार' औरतों से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के मानसरोवर हास्टल के प्रो. वॉर्डन और उनकी प्रो. बीवी को ("वॉर्डन की बीवी: "तुम कुत्ता हो", वॉर्डन : "तुम कुत्ती हो"...)ठिठुरती सर्दी की रात में दरवाज़े के बाहर खड़े-खड़े. औरतों के सभ्य समाज में मर्द लोग तो गाली देने के लिए ही पैदा होते हैं. विनारा एक वीसी हैं, कि एक लेखक हैं या क़ि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं-उन्हें सार्वजनिक तौर पर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहिए था, और यदि उन्होने किया तो "एनजी" के संपादक रवीन्द्र कालिया को उसे एडिट कर देना चाहिए था. इसके लिए दोनो ज़िम्मेदार हैं बराबर. दोनो हमारे दौर के महान नहीं लेकिन ठीक-ठाक लेखक हैं. इन दोनो से मैं आजतक ना मुखमुखाम मिला हूँ और न कभी दूरभाष पर बात की है (और किसी तरह का लाभ लेने का तो दूर-दूर तक कोई सवाल ही नहीं उठता. दिल्ली और दिल्ली यूनिवर्सिटी में रहते हुए १८ साल में नामवर सिंह, निर्मला जैन, नित्यानंद तिवारी, सुधीश पचौरी जैसों से कोई लाभ नहीं ले पाया तो इनसे क्या लूँगा). खैर, गैर हिन्दी के मेरे कई मित्रों ने मेरे सामने विनारा के "शहर में कर्फ़्यू" और रवीन्द्र कालिया के "ग़ालिब छूटी शराब" की तारीफ़ की है. हिन्दी के एक मामूली पाठक और स्वतंत्र साहित्यिक पत्रकार के तौर पर मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर शुरू से अब तक राजनीति हो रही है. आज के दौर में 'राजनीति' का मतलब गाली यानी वस्तुस्थिति से ऊपर उठकर अपने हित के लिए स्टैंड लेना है. प्रो निर्मला जैन ने दैनिक भास्कर में कहा है कि मैंने पूरा इंटरव्यू पढ़ा है और गालियों को निकाल दें तो विनारा का इंटरव्यू स्त्रियों के पक्ष में है. उन्होंने उन लेखिकाओं जिन्होंने राजेंद्र यादव की अगुआई में देह विमर्श की कहानियाँ और उपन्यास लिख कर स्त्री विमर्शकार के रूप में सामने आयी हैं उनका विरोध किया है, और पुरुष सत्ता का विरोध किया है. आज की तारीख में दोनों ने सार्वजनिक तौर पर माफी भी माँग ली है. हम हिन्दी वाले रहीं की उस परंपरा के पोषक हैं जिन्होने लिखा है- "वे रहीम नर मर चुके जे कछू माँगन जात उनसे पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहीं." फिर भी उनका विरोध जारी है, और कई लोग उनके माफी माँगने के पहले प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर उनके समर्थन में खड़े थे और हैं. मुझे लगता है विरोधी खेमे के कुछ लेखकों को विनारा से व्यक्तिगत खुंदक है और जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जैसे कई लोगों को रवीन्द्र कालिया से. हिन्दी में क्रांतिकारी लेखक के तौर पर उभरे विष्णु खरे खरी-खोटी लिखने की लाख कोशिश करें दिल्ली में हिन्दी की गिरोहबंदी की खबर रखने वाले लोग जानते हैं कि उनकी आईआईसी में ओम थानवी से हमप्याला दोस्ती है (और १० और ११ अगस्त को जनसत्ता में इस मसले पर प्रकाशित लेख इसी के परिणाम हैं). रही बात देह विमर्श से जुड़ी लेखिकाओं की, तो इंटरव्यू में इस्तेमाल आपत्तिजनक शब्दों को वे बहाना बना कर विरोध कर रही हैं, जबकि उनका दिल जानता है कि विनारा ने देह विमर्शपरक उनकी लेखनी पर जिस तरह से सवाल उठाए हैं उसके तईं देहवादियों की पूरी लेखनी को खारिज किया जा है. इसका उन्हें ज़्यादा दुःख है, और इसीलिए स्वस्थ बहस करके नहीं, उनके द्वारा प्रयुक्त गालियों के बहाने मामले को सर पर उठा लिया है. विनारा के आपतिजनक शब्दों की निंदा करते हुए और उन्हें प्रकाशित करने वाले रवीन्द्र कालिया की भर्त्सना करते हुए, और इसके लिए दोनों के सार्वजनिक तौर पर माफी माँगने के बाद माफ़ करते हुए बहस इस बात पर होनी चाहिए जिस मुद्दे को विनारा और रवींद्र कालिया संपादित पत्रिका ने उठाया है--बहस देह विमर्श, स्त्री विमर्श, अस्मितामूलक विमर्श/विमर्शों और साहित्य के साथ इनके रिश्ते पर होनी चाहिए. आख़िर क्यों हमारे दौड़ के बड़े लेखक और आलोचक (नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, असग़र वजाहत, उदय प्रकाश आदि) स्त्रियों के पक्ष में क्लैसिक रचनाएँ/आलोचनाएँ लिखते हुए भी अस्मितामूलक विमर्शों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देते, इसे साहित्यिक कम राजनीतिक मसले ज़्यादा मानते हैं, क्योंकि साहित्य अलग मंच है, और यहाँ राजनीतिक मसले राजनीतिक रूप में नहीं, साहित्यिक रूप में उठाए जाने चाहिए! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From abhaytri at gmail.com Thu Aug 12 16:47:43 2010 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCklOCksCDgpJvgpL/gpKjgpL7gpLA=?= Message-ID: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> सदाचार और छिनार हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक अत्याचार की भावना से उबल रहा है। निन्दा और भर्त्सना प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए होंगे कि मैं विभूति नारायण राय के कुख्यात बयान और उससे उपजी प्रतिक्रियाओं की बात कर रहा हूँ। इसके पहले कि मैं अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल का उद्धरण देना चाहूँगा। वे इसी विवाद के सन्दर्भ में लिखती हैं- "हम उस नैतिक आघात से सहमत नहीं है जो वेश्यावृत्ति या बेवफ़ाई के उल्लेख भर से मीडिया में आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन करते हैं कि यौनिकता के मसले गम्भीर मसले हैं, जिन पर और सार्वजनिक बहस और समझदारी की ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये से यौनिकता के मामले को और समझने के लिए हमें राय जैसे लेखकों को चुनौती देनी चाहिये ना कि सार्वजनिक नैतिकता में उलझना चाहिये।" मैरी जौन ने सहज रूप से इस मामले के मूल में बैठी समस्या को रेखांकित कर दिया है। मेरी नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं आई जिसने इस मसले को नैतिक अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये से देखने की कोशिश की हो। उपकुलपति महोदय ने कहा, “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है।” उसके जवाब में कहा गया “..लेखिकाओं के बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है, बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक है।” देखने में दोनों एकदम विपरीत बयान मालूम देते हैं मगर एक जगह जाकर दोनों एक हो जाते हैं- राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन को छिनाल के अपमानजनक विशेषण से नवाजते हैं तो वे छिनाल का इस्तेमाल इस अर्थ में करते हैं कि छिनालपन एक निन्दनीय कृत्य है जिस से बचा जाना चाहिये। और दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने वाले इस बात पर आपत्ति करते हैं कि राय गरिमामय हिन्दी लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग कर सकते हैं? ‘छिनाल’ के अपमानजनक होने पर दोनों की सहमति है! दोनों ही परोक्ष रूप से मान रहे हैं कि स्त्री का वांछित, नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला ही है। एक और मज़े की बात यह है कि एक पेटीशन जो राय साहब को हटाने के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में भी इस छिनार शब्द का अनुवाद प्रौस्टीट्यूट किया गया है। जो निहायत ग़लत है। प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी या वेश्या शब्द है। रसाल जी के कोष में छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा, परपुरुषगामिनी, और इसकी उत्पत्ति छिन्ना+नारी से बताई गई है। इन्ही में इस शब्द की पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर महिला लेखकों पर हमला करने वाले विभूति नारायण राय और उनका उच्च स्वर से विरोध करने वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा कर देती है। वैवाहिक सम्बन्ध से इतर दैहिक सम्बन्ध बनाने से जिसका चरित्र खण्डित होता हो, वह है छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े से भी दैहिक विचलन की कड़ी से कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही है हर समाज में। आज भी कई समाज ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को ही मिलती है, पुरुष को कुछ नहीं। इसी तरह के दोहरे व्यवहार, दोहरी नैतिकता का नतीजा है यह छिनार का शब्द। स्त्री को अपने शरीर का स्वामित्व नहीं है। आज भी कई समाज व नैतिक परम्पराएं उसे गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं कराने देतीं। कई उसे परदे से बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री सम्पत्ति है इसीलिए उसका ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ होता है। उसकी कोख पर उसका नहीं उसके स्वामी का अधिकार है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य से यौन सम्बन्ध बनाये या गर्भधारण करे तो पापचारिणी कहलाती है। और सन्तान भी नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल तक सन्तान की माता के प्रति ही पूरे सत्यापन से कहा जा सकता था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। मगर फिर भी अज्ञात पिता होने से, या वैधानिक पति की सन्तान न होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / हरामी हो जाती थी/ है। गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज स्त्री के लिए अपने शरीर पर स्वामित्व और अधिकार पाना मुमकिन हो गया है। इतिहास में पहली बार, सारे प्राणियों से अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है कि वह बिना गर्भधारण की चिंता किए दैहिक सुख ले सके जैसे आदमी लेता रहे हैं हमेशा। लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस की इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; वह उसे मातृत्व और पत्नीत्व के दायरे में ही क़ैद रखना चाहता है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, देवी होती है, सती-सावित्री होती है। स्त्री यदि भोग की, दैहिक आनन्द की बात करती है तो लोग असहज हो जाते हैं; कहते हैं कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात करो! अपने साक्षात्कार में राय कहते हैं “इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।” मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे ही है जैसे कि बहुत सारे लोग मायावती की राजनीति से नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' फैला रही हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण की बात मत करो, योग्यता की बात करो। इसी तरह राय कह रहे हैं “देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है” मेरा कहना है कि ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस आधार से स्त्री वर्ग को हज़ारों सालों से पीड़ित किया गया हो वो थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार की उपभोग न करे, तो ये कैसे आज़ादी है? स्त्री का शोषण और उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय भूमिका में रहे। और फिर सबसे बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां स्वयं तय करेंगी कि वे किस बारे में लिखना चाहेंगी और किस बारे में नहीं। अंत में मैं एक बात यह भी कहूँगा कि इस मसले पर विभूति नारायण राय के जो विचार हैं उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा किया जाय। ये सब साहित्य की अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न कि लोगों का मुँह बन्द करने की कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल में आ गए हैं और नारीवाद ने भी उन के अर्थों को पुनर्परिभाषित कर के समाज को अपना रवैया बदलने पर मजबूर किया है। पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी पंजाब में आए एक नए बदलाव को पकड़ा। हज़ारों सालों से उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर गा रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। जबकि दलित मामलों के प्रति संवेदनशील उत्तर प्रदेश में इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा हो सकती है। हिन्दी समाज की नैतिकता के रखवाले शब्दों के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील है और समाज के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि शब्दों को लेकर सदाचारी और असहिष्णु रवैये की एक अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती है। http://nirmal-anand.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Thu Aug 12 18:22:16 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 12 Aug 2010 18:22:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSm4KS+?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KSDIOCkueCkv+CkpuClgeCkpOCljeCktSDgpJTgpLAg4KS4?= =?utf-8?b?4KS+4KSu4KWN4KSw4KS+4KSc4KWN4KSv4KS14KS+4KSm4KWAIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KWC4KSs4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLXgpL/gpKfgpY3gpLU=?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KSVIOCkruCkv+CktuCljeCksOCkow==?= Message-ID: वेदांतः हिदुत्व और साम्राज्यवादी मंसूबों का विध्वंसक मिश्रण *रोजर मूडी*, ब्रिटिश शोधकर्ता विभिन्न देशों के कानून और पर्यावरण नियमों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन करने में वेदांत रिसोर्सेज़ की एक अलग पहचान है. कहने को तो यह कम्पनी एक पब्लिक कम्पनी है मगर इसमें वर्चस्व खुले तौर पर केवल एक व्यक्ति, उसके परिवार और इष्ट मित्रों का ही है. इस कम्पनी को इस बात पर भी नाज़ है कि वह हिन्दुत्व और नव-उदार रूढ़िवादिता में समन्वय स्थापित करती है. परेशानी की बात यह है कि इसका चेहरा जानुस (एक रोमन मिथकीय पात्र जिसके दो विपरीत दिशाओं में जुड़े सिर थे और वह कोई भी दरवाज़ा खोल सकता था) की तरह है जिससे अधिकांश भारतीयों को कोई समस्या नहीं होती. *पूरा पढ़िएः वेदांतः हिदुत्व और साम्राज्यवादी मंसूबों का विध्वंसक मिश्रण * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From rohitprakash2006 at gmail.com Thu Aug 12 19:14:53 2010 From: rohitprakash2006 at gmail.com (Rohit Prakash) Date: Thu, 12 Aug 2010 19:14:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Demonstration Message-ID: *विभूतिनारायण राय *द्वारा सामंती मानसिकता से प्रेरित लेखिकाओं पर की गई कुत्सित टिप्पणी के विरोध में उनकी * बर्ख़ास्तगी की माँग* के लिए *विरोध - प्रदर्शन* **** १३ अगस्त २०१० को सुबह ११:३० से *स्थान * मानव संसाधन विकास मंत्रालय(शास्त्री भवन) आपसे गुजारिश है कि आप जरुर हिस्सा लें! ** *निवेदक*** *वर्धा-ज्ञानपीठ मुद्दे पर * *जनसंघर्ष अभियान*** -- Rohit Prakash, Delhi Mob:-9868023074 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Aug 12 23:08:37 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 12 Aug 2010 23:08:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClgeCksuCkvuCkleCkvOCkvuCkpCDgpK7gpYfgpIIg4KSb4KWC?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkuOClhyDgpKzgpJrgpYfgpII=?= Message-ID: मित्रो, कॉमनवेल्थ गेम्स में अब सिर्फ पचास दिन बाकी रह गए हैं. तैयारियों में देरी, घोटाले आदि पर हो रही राजनीति से ज़्यादा ज़रूरी है कि हम इस खेल को सुचारू ढंग से संपन्न कराने में योगदान करें, खास कर हम दिल्लीवासियों के कंधे पर बड़ी ज़िम्मेदारी है. इस तैयारी के दौरान जो भी त्रुटियाँ हुईं हम उन पर गेम के बाद वाद, विवाद, संवाद, जांच और सजा आदि तय करेंगे. आख़िर हम एक लोकतांत्रिक मुल्क़ के नागरिक हैं. बहरहाल, खिलाड़ियों क साथ-साथ दुनिया भर के लाखों लोग हमारे दिल्ली शहर में तशरीफ़ ला रहे हैं. हम हिन्दुस्तानियों को मेहमाननवाजी कि महान परम्परा विरासत में मिली है. आज ही बीबीसी हिंदी.कॉम पर दो साल बाद लंदन में होनेवाले ओलंपिक खेल के दौरान दुनिया भर से ब्रिटेन आने वाले मेहमानों का स्वागत ठीक से हो इसके लिए वहां कि पर्यटन एजेंसी के अधिकारियों ने एक गाइड जारी की है. इस गाइड के जारी करने का उद्देश्य यह है कि ओलम्पिक के दौरान दुनिया भर से ब्रिटेन आने वाले मेहमानों का स्वागत ठीक से हो. वहां के पर्यटन विभाग का मानना है कि यदि पर्यटन क्षेत्र से जुड़े लोग, जैसे- होटल वाले, टैक्सी वाले, दुकानदार आदि, विदेशी मेहमानों की सांस्कृतिक संवेदनशीलता का ख़ास ध्यान रखें तो ओलम्पिक के दौरान ब्रिटेन को पर्यटकों से होने वाली आमदनी 60 प्रतिशत तक बढ़ सकती है. मुझे लगता है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के सन्दर्भ में ब्रिटिश पर्यटन अधिकारियों द्वारा जारी की गई यह सूची हमारे लिए भी अहम् मायने रखती है. *बीबीसी हिंदी.कॉम से साभार - शशिकांत * ब्रिटेन की राष्ट्रीय पर्यटन एजेंसी विजिटब्रिटेन की गाइड में विस्तार से बताया गया है कि किस देश के पर्यटकों से किस तरह पेश आना चाहिए. भारतीयों के बारे में भी विजिटब्रिटेन की गाइड में कई बातें कही गई हैं. जैसे- *कि**सी भारतीय से पहली बार मिल रहे हों तो उन्हें छूने या उनके ज़्यादा निकट जाने से बचें. यदि कोई भारतीय ज़ोरज़ोर से बोलते हुए नज़र आए या विनम्र नहीं दिखे रहा हो, तो घबराएँ नहीं...धैर्य रखें क्योंकि भारतीय आमतौर पर भीड़ और शोरगुल वाली पृष्ठभूमि से आते हैं.वैसे भारतीयों के बारे में गाइड में एक अच्छी बात का भी उल्लेख है कि यदि चीज़ें व्यवस्थित दिख रही हों तो भारतीय इस बात की खुल कर तारीफ़ करने से पीछे नहीं हटते.* *कोई जापानी मुस्कुरा रहा हो तो कोई ज़रूरी नहीं कि वो ख़ुश ही हो क्योंकि जापानी आम तौर पर क्रोधित, उदासी या निराशा की स्थिति में मुस्कुराते हैं. किसी जापानी को घूर कर देखना या उससे आँखें मिलाना भी ठीक नहीं है. एक जापानी के सामने बैठे हों तो प्रयास इस बात का करें कि आपके जूते के सोल उन्हें नहीं दिखे.* *हांगकांग के किसी व्यक्ति से बातचीत में अंगुली नहीं दिखाएँ. ज़रूरी ही पड़ जाए तो पूरे हाथ से इशारा करें. बातचीत में नाकामी, ग़रीबी या मौत के ज़िक्र से हांगकांग से आया पर्यटक आहत महसूस कर सकता है. * *संयुक्त अरब अमीरात के किसी पर्यटक से ये नहीं कहें कि उसे क्या करना है...वो बुरा मान जाएगा.* *दक्षिण अफ़्रीका के किसी व्यक्ति से मुलाक़ात हो तो उसके सामने भूल कर भी अपने अंगूठे को दो अंगुलियों के बीच नहीं दबाएँ क्योंकि इसे वो अश्लील इशारे के रूप में लेगा.* *किसी ब्राज़ीलियन से उम्र, वेतन या शादी जैसी व्यक्तिगत बातें कभी नहीं पूछें. किसी ब्राज़ीलिन को अर्जेंटीनीयिन नहीं कहें. दोनों देशों के बीच बहुत प्रतिद्वंद्विता है.* *इसी तरह कनाडा का कोई व्यक्ति ख़ुद को अमरीकी कहे जाने पर अपमानित महसूस कर सकता है.* *मेक्सिको के किसी पर्यटक के साथ बातचीत में ग़रीबी, दूसरे ग्रह के जीव, भूकंप या मेक्सिको और अमरीका के बीच 1845 में हुई लड़ाई का ज़िक्र नहीं करें.* *यदि 'थैंक्यू' कहने पर कोरियाई पर्यटक 'नो-नो' कहे तो घबराएं नहीं क्योंकि इस स्थिति में नहीं-नहीं का मतलब हुआ- यू आर वेलकम!* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Aug 14 11:25:00 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 14 Aug 2010 11:25:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CkteCkgyDgpJzgpKwg4KS44KWN4KSf4KWH4KSc?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpK7gpLngpK7gpYLgpKYg4KSU4KSwIOCkpuCkvuCkqA==?= =?utf-8?b?4KS/4KS2IOCkpeClhyDgpLLgpL7gpIfgpLU=?= Message-ID: फिल्म पीपीली लाइव के इस शो में इन्टर्वल के दौरान पीवीआर साकेत के पर्दे पर लुई फिलिप,बिसलरी और अल्सायी हुई लड़की के साथ पल्सर के विज्ञापन नहीं आते हैं।..और न ही एक तरफ फुफकारती हुई डंसने पर आमादा नागिन और दूसरी तरफ सुर्ख लाल पानी से भरी बोतल जिसे दिखाकर सरकार हमारे बीच चुनने के टेंशन पैदा करना चाहती है। म्यूजिक बंद करने की अपील के साथ पर्दे के आगे मंच पर माइक लिए हमारे सामने होते हैं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन। वो हमें जो वजह बता रहे होते हैं जिससे जेब में पड़ी पूरी टिकट के वाबजूद आधी फिल्म निकल गयी थी। हमने जो समझा वो साफ तौर पर ये कि मीडिया की आलोचना और उसे कोसने की एक परंपरा तो विकसित हो चली है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन के निर्मम खेल की तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया है। इस पर बात किया जाना जरुरी है,महमूद हैं तो अब बात क्या पूरी फिल्म बनायी जा सकती है,जैसी डिमांड रख सकते हैं। हम सिनेमा और मीडिया के कंटेंट में ही फंसे हैं जबकि डिस्ट्रीव्यूशन कैसे कंटेंट और एडीटोरियल के आगे बेशर्मी से दांत निपोरने लग जाता है,इसे हमने महसूस किया। बहरहाल, महमूद और दानिश फिल्म के छूट गए हिस्से को जिस तरह से बता रहे थे,वो फिल्म देखने से रत्तीभर भी कम दिलचस्प नहीं था। दोनों के लिए एक लाइन- अब तो फिलम भी बना दी लेकिन दास्तानगोई की आदत बरकरार है,सही है हजूर। उनके ऐसा करने से हम पहली बार पीवीआर में होमली फील करते हैं,एकबारगी चारों तरफ नजरें घुमाई तो दर्जनों परिचित पत्रकार,सराय के साथी,डीयू और जेएनयू के सेमिनार दोस्त दिख गए। आप सोचिए न कि पीवीआर में दो शख्स जिसमें एक बिना माइक के ऑडिएंस से बातें कर रहा हो और किसी के खांसने तक कि आवाज न हो,कैसा लगेगा? लौंडों के अठ्ठहास करने,पीवीआर इज वेसिकली फॉर कपल के अघोषित एजेंडे, एक-दूसरे की उंगलियों में उंगलियां फंसाकर जिंदगी सबसे मजबूत गांठ तैयार करने की जगह अगर ये सिनेमा पर बात करने की जगह बन जाती है तो कैसा लग रहा होगा? सच पूछिए तो महमूद से लगातार मेलबाजी करके इसी किसी अलग "इक्सक्लूसिव" अनुभव की लालच में पड़कर मैं और मिहिर मार-काट मचाए जा रहे थे। एक तो अपनी लाइफ में ये पहली फिल्म रही जिसकी टिकट खुद बनानेवाला नाम पुकारकर भाग-भागकर दे रहा था और हमारी बेशर्मी तब सारी हदें पार कर जाती है जब हम अपनी आंखें सिर्फ महमूद पर टिकाए हैं कि देख रहें हैं न हमें,हम भी हैं। हमें अनुराग कश्यप के साथ बहसतलब की पूरी सीन याद आ गयी,जहां अनुराग सिनेमा जिस राह पर चल पड़ा है,बदल नहीं सकता। ये राह लागत की नहीं डिस्ट्रीव्यूशन की है,की बात करते हैं। फिर सारी बहस इस पर कि सिनेमा समाज को बदल सकता है कि नहीं? पीपली लाइव देखने के दौरान जो नजारा हमने देखा उससे ये बात शिद्दत से महसूस की कि समाज का तो पता नहीं लेकिन कुछ जुनूनी लोग धीमी ही सही अपने जज्बातों को, ड्रीम प्लान को आंच देते रहें तो सिनेमा को तो जरुर बदल सकते हैं। इन सबके बीच अनुषा रिजवी( फिल्म की डायरेक्टर) बहुत ही कूल अंदाज में पेप्सी के साथ चिल्ल हो रहीं होती हैं। महमूद के मेल के हिसाब से सचमुच ये फैमिली शो था, अनुभव के स्तर पर सचमुच एक पारिवारिक आयोजन। लोग घर बनाने पर दिखाते हैं,बच्चे पैदा होने पर बुलाते हैं। उऩ्होंने फिल्म बनाने पर हम सबको बुलाया था। इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु से पहले दोनों ने हमें जो कुछ बताया और जो बातें हमें याद रह गयी उसमें तीन बातें बहुत जरुरी है। पहली तो ये कि नत्था के आत्महत्या करने की योजना के बीच उनके बच्चों पर जिस किस्म के दबाब बनते हैं वो दबाब कम्युनिस्ट परिवार में पैदा होनेवाले बच्चे ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। दूसरा कि शुरुआत में तो ये फिल्म हम किसान-समस्या पर बनाने चले थे लेकिन मैं और अनुषा चूंकि मीडिया बैग्ग्राउंड से हैं तो फिल्म बनने पर पता चला कि अरे हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी। फिर हमें दिलाया गया वो भरोसा कि अगर आप इस फिल्म में मीडिया ट्रीटमेंट देखना चाहते हैं तो असल कहानी अभी ही शुरु होनी है। मतलब कि मैं जिस नीयत से फिल्म देखने गया था,उसकी पूरी होने की गारंटी मिल गयी।..औऱ तीसरी और सबसे जरुरी बात डिस्ट्रीव्यूशन और मल्टीप्लेक्स के बीच का कुछ-कुछ..।( ये महमूद के शब्द नहीं है,बस भाव हैं)। ये कुछ-कुछ जिसके भीतर बहुत सारे झोल हैं जिसका नाम लेते ही धुरंधर लिक्खाड़ों की कलम गैराजों में चली जाती है और जुबान मौसम का हाल बयान करने लग जाते हैं। इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु होती है.. नत्था के घर के आजू-बाजू मीडिया,चैनल क्र्यू का जमावड़ा। आप पीपली लाइव से इन सारे 6-7 मिनट की फुटेज को अलग कर दें और सारे चैनलों को उसकी एक-एक कॉपी भेज दें। आजमा कर देखा जाए कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और हां इस क्रम में रामगोपाल वर्मा के पास एक सीडी जानी बेहद जरुरी है जिससे कि वो समझ सकें कि मीडिया की आलोचना भाषणदार स्क्रिप्ट के दम पर नहीं उसके ऑपरेशनल एटीट्यूड को बस हमारे सामने रख देनेभर से हो जाती है। इस अर्थ में ये फिल्म किसी डायरेक्टर या प्रोड्यूसर से कहीं ज्यादा एक ऐसे "इन्क्वायरिंग माइंड' की फिल्म है जो सीधे तौर पर सवाल करता है कि क्यों दिखाते रहते हो ये सब? अकेले नत्था थोड़े ही आत्महत्या करेगा,करने जा रहा है..जो कर चुके उसका क्या? यही पर आकर फिल्म चैनल की पॉपुलिज्म संस्कृति से प्रोटीन-विटामिन निचोड़कर काउंटर पॉपुलिज्म के फार्मूले को मजबूती से पकड़ती है और नतीजा हमारे सामने है कि आज हर तीन में से दो शख्स फोन करके,चैट पर,फेसबुक स्टेटस पर यही सवाल कर रहा है कि आपने पीपली लाइव देख ली क्या? महमूद फारुकी ने हमसे दो-तीन बार कह दिया कि जब तक आप इस फिल्म को पूरी न देख लें,तब तक इस पर न लिखें। इसलिए फिल्म पर अलग से.. फिल्म खत्म होती है और हम धीरे-धीरे एग्जिट की तरफ खिसकते हैं। अनुषा,महमूद,दानिश सबके सब तैनात हैं लोगों से मिलने के लिए। एक-एक से हाथ मिलाना,गले मिलना और विदा करना। हमसे हाथ मिलाते हुए फिर एक बार-फिल्म अगली सुबह देखकर ही लिखना,ऐसे मत लिख देना। तेज बारिश के बीच मेट्रो की सीट पर धप्प से गिरने के बाद सामने एक मुस्कराहट। चेहरा जाना-पहचाना। थोड़ी यादों की बार्निश से सबकुछ अपडेट हो जाता है। वो कहते हैं- क्या फिल्म बना दी पीपली लाइव, क्या नत्था की जो समस्या है,वही आखिरी समस्या है एक किसान की? न्यूज चैनलों की आलोचना कर रहे हो तो बताओ न यार कि हम क्या करें? मालिक कहता है कि रिवन्यू जेनरेट करो तो हम क्या करें? फिर बीबीसी की पत्रकारिता को आहें भरकर याद करते हैं, जहां हैं वहां के प्रति अफसोस जाहिर करते हैं।...देखो न मेरे दिमाग में एक आइडिया है, आमिर को बार-बार फोन कर रहा हूं,काट दे रहा है? ओह..एक चैनल के इनपुट हेड का दर्द,वो भी आज ही के दिन मेरे हिस्से आना था। महमूद साहब,ये आपने क्या कर दिया कि जिस टीवी चैनल के इनपुट हेड ने हमें खबर के नाम पर बताशे बनाने और आइडियाज को चूल्हे में झोंक देने की नसीहतें दिया करते थे, वो भी आइडियाज ग्रस्त हो गए? आप और अनुषा टीवी में आइडियाज क्यों ठूंसना चाहते हैं? सबके सब आइडियाज के फेर में ही पड़ जाएंगे तो फिर बताशे कौन बनाएंगे? देर रात लैप्पी स्क्रीन पर लौटने पर सौरभ द्विवेदी की फेसबुक स्टेटस पर नजर गयी। लिखा था- पीपली लाइव जरूर देखिए, प्रेमचंद की कहानी कफन जैसा ट्रैजिक सटायर है ये फिल्म, सिर्फ एक बात के सिवा, इसमें अनुषा रिजवी ने अपने एनडीटीवी संस्कारों के तले दबकर दीपक चौरसिया सर नुमा कैरेक्टर के बहाने हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कुछ ज्यादा ही खिंचाई की है। फिल्म का अंत खासा मानीखेज है। सौरभ अपने दीपक सर नुमा कैरक्टर के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खिंचाई से थोड़े आहत हैं और एनडीटीवी का संस्कार थोड़ा परेशान करता है। काश,ये संस्कार खुद एनडीटीवी में ही बचा रह जाए और संस्कार में दबकर ही कुछ और कर जाए। आधी फिल्म और जींस की जेब में पड़ी पूरी टिकट के गुरुर में पूरी की पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है लेकिन मिहिर देर रात जागा हुआ है, पोस्ट लिखने के बजाय ट्विटर से मन बहला रहा है, महमूद के प्रति मैं खिलाफत करना नहीं चाहता।..तो एक बार फिर पीपली लाइव समग्र देखने की तैयारी में... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Aug 14 22:55:56 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 14 Aug 2010 22:55:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+4KSV4KWL4KS2IOCkleCkviDgpJXgpL7gpLDgpY3gpK/gpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4KSw4KSu?= Message-ID: ललित के कहने पर सार्वजनिक निमंत्रण चस्पा रहा हूं- कविता कोश द्वारा आयोजित पहली कवि सभा!कविता कोश पहली बार युवा कवियों की एक सामान्य मिलन सभा आयोजित कर रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य दिल्ली और आस-पास के इलाकों से कवियों का मिलन कराना है। इसके अलावा कोश से संबंधित आपके प्रश्नों के उत्तर भी आपको इस सभा में मिल सकेंगे। कविता कोश में योगदान किस तरह किया जाता है इसके बारे में भी एक प्रेज़ेन्टेशन दी जाएगी। इस सभा में कोश में सूचीबद्ध बहुत से युवा रचनाकारों के भाग लेने की उम्मीद है। आप भी इस सभा में सादर आमंत्रित हैं। इस सभा में कविता कोश टीम के सदस्य ललित कुमार (संस्थापक) और अनिल जनविजय (संपादक) उपस्थित होंगे। कृपया अपने आने के बारे में पहले से हमें सूचित करें इससे हमें आयोजन संबंधी कार्यों को करने में सहायता मिलेगी। इसके लिये आप india.lalit at gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं अथवा 9891039829 (ललित कुमार) / 9810867221 (अनिल जनविजय) को फ़ोन कर सकते हैं। तिथि व समय: 21 अगस्त 2010 (शनिवार) को 2:00 बजे स्थान: Sarai-CSDS 29 राजपुर रोड सिविल लाइन्स दिल्ली - 110054 (सिविल लाइन्स मेट्रो स्टेशन के पास) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sun Aug 15 12:25:38 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> Message-ID: बहुत ख़ूब अजय, कल लगभग यही बात हो रही थी दो-एक दोस्तों से। दीवान डाक सूची से यही उम्मीद भी की जाती है सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस या उस अभियान की वकालत कर दी जाए। क्योंकि ऐसे लोगों भतेरे हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए तो उसे संगसार करने से नहीं चूकते हैं - मध्यकालीन भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय चाहिए। अपने गिरेबान में भी नहीं देखते लोग, कुछ करने से पहले। शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है कम-से-कम मगही मे On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" wrote > सदाचार और छिनार > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > अत्याचार की भावना से उबल रहा > है। निन्दा और भर्त्सना > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > होंगे कि मैं विभूति नारायण > राय के कुख्यात बयान और उससे > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात कर > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > इसी विवाद के सन्दर्भ में > लिखती हैं- > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत नहीं > है जो वेश्यावृत्ति या बेवफ़ाई > के उल्लेख भर से मीडिया में > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > करते हैं कि यौनिकता के मसले > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > से यौनिकता के मामले को और > समझने के लिए हमें राय जैसे > लेखकों को चुनौती देनी चाहिये > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > उलझना चाहिये।" > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > मामले के मूल में बैठी समस्या > को रेखांकित कर दिया है। मेरी > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं आई > जिसने इस मसले को नैतिक > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > से देखने की कोशिश की हो। > उपकुलपति महोदय ने कहा, > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > छिनाल कोई नहीं है।” उसके जवाब > में कहा गया “..लेखिकाओं के > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न > केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > के लिए अपमानजनक है।” > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > बयान मालूम देते हैं मगर एक > जगह जाकर दोनों एक हो जाते हैं- > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन को > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > इस्तेमाल इस अर्थ में करते हैं > कि छिनालपन एक निन्दनीय कृत्य > है जिस से बचा जाना चाहिये। और > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > वाले इस बात पर आपत्ति करते > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग कर > सकते हैं? ‘छिनाल’ के अपमानजनक > होने पर दोनों की सहमति है! > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला > ही है। > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > जो निहायत ग़लत है। > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > या वेश्या शब्द है। रसाल जी के > कोष में छिनार का अर्थ है > व्यभिचारिणी, कुलटा, > परपुरुषगामिनी, और इसकी > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से बताई > गई है। इन्ही में इस शब्द की > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर > महिला लेखकों पर हमला करने > वाले विभूति नारायण राय और > उनका उच्च स्वर से विरोध करने > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > कर देती है। > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर दैहिक > सम्बन्ध बनाने से जिसका > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही > है हर समाज में। आज भी कई समाज > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > नहीं। इसी तरह के दोहरे > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > स्त्री को अपने शरीर का > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > कराने देतीं। कई उसे परदे से > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ > होता है। उसकी कोख पर उसका > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > से यौन सम्बन्ध बनाये या > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > कहलाती है। और सन्तान भी > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > तक सन्तान की माता के प्रति ही > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > से, या वैधानिक पति की सन्तान न > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / > हरामी हो जाती थी/ है। > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > स्वामित्व और अधिकार पाना > मुमकिन हो गया है। इतिहास में > पहली बार, सारे प्राणियों से > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है > कि वह बिना गर्भधारण की चिंता > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस की > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; वह > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > देवी होती है, सती-सावित्री > होती है। स्त्री यदि भोग की, > दैहिक आनन्द की बात करती है तो > लोग असहज हो जाते हैं; कहते हैं > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > करो! > > > अपने साक्षात्कार में राय > कहते हैं “इस पूरे प्रयास में > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > देह विमर्श तक सिमट गया है और > स्त्री मुक्ति के दूसरे > मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।” > मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > मायावती की राजनीति से नाक-भौं > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > आरक्षण की बात मत करो, योग्यता > की बात करो। इसी तरह राय कह रहे > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > बनाता है” मेरा कहना है कि > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > आधार से स्त्री वर्ग को हज़ारों > सालों से पीड़ित किया गया हो वो > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > बारे में लिखना चाहेंगी और किस > बारे में नहीं। > > > अंत में मैं एक बात यह भी > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > नारायण राय के जो विचार हैं > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > किया जाय। ये सब साहित्य की > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > कि लोगों का मुँह बन्द करने की > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > उन के अर्थों को > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > किया है। > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > पकड़ा। हज़ारों सालों से > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर गा > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। > जबकि दलित मामलों के प्रति > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > हो सकती है। > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > अधिक ही संवेदनशील है और समाज > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > शब्दों को लेकर सदाचारी और > असहिष्णु रवैये की एक > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती > है। > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ From ravikant at sarai.net Sun Aug 15 12:42:01 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> , Message-ID: <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> गतांक से आगे... जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम बिहार की ज़बानों में ये शब्द स्त्री-पुरुष दोनों के लिए इस्तेमाल होता है, और चुहलबाज़ी के अर्थ में, छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, और गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' वाली नैतिक निंदा का वज़न इसमें नहीं है। आपने सही कहा कि अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों में कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट होती है लेकिन मसला इतना नहीं है। जैसे मायावती को ये नसीहत देने से पहले लोग ये नहीं सोच पाते कि जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का रास्ता जाति के रणक्षेत्र से ही जाता है, वैसे ही स्त्री-दैहिकता में लिपटी पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश का रास्ता स्त्री देह की मुक्ति के ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन कई लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक ठेकेदारो On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" wrote > बहुत ख़ूब अजय, > > कल लगभग यही बात हो रही थी दो-एक > दोस्तों से। दीवान डाक सूची से > यही उम्मीद भी की जाती है > सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस > या उस अभियान की वकालत कर दी > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों भतेरे > हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए > तो उसे संगसार करने से नहीं > चूकते हैं - मध्यकालीन > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > पहले। > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > कम-से-कम मगही मे > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" wrote > > > सदाचार और छिनार > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > अत्याचार की भावना से उबल रहा > > है। निन्दा और भर्त्सना > > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > > होंगे कि मैं विभूति नारायण > > राय के कुख्यात बयान और उससे > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात कर > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > > नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल > > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > लिखती हैं- > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत नहीं > > है जो वेश्यावृत्ति या बेवफ़ाई > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > करते हैं कि यौनिकता के मसले > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > > से यौनिकता के मामले को और > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > लेखकों को चुनौती देनी चाहिये > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > > उलझना चाहिये।" > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > मामले के मूल में बैठी समस्या > > को रेखांकित कर दिया है। मेरी > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं आई > > जिसने इस मसले को नैतिक > > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > > से देखने की कोशिश की हो। > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके जवाब > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न > > केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते हैं- > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन को > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते हैं > > कि छिनालपन एक निन्दनीय कृत्य > > है जिस से बचा जाना चाहिये। और > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग कर > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के अपमानजनक > > होने पर दोनों की सहमति है! > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला > > ही है। > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > > जो निहायत ग़लत है। > > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी के > > कोष में छिनार का अर्थ है > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से बताई > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर > > महिला लेखकों पर हमला करने > > वाले विभूति नारायण राय और > > उनका उच्च स्वर से विरोध करने > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > > कर देती है। > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर दैहिक > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही > > है हर समाज में। आज भी कई समाज > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > कराने देतीं। कई उसे परदे से > > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > कहलाती है। और सन्तान भी > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > > तक सन्तान की माता के प्रति ही > > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > > था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। > > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > > से, या वैधानिक पति की सन्तान न > > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > मुमकिन हो गया है। इतिहास में > > पहली बार, सारे प्राणियों से > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है > > कि वह बिना गर्भधारण की चिंता > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस की > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; वह > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > > देवी होती है, सती-सावित्री > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > दैहिक आनन्द की बात करती है तो > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते हैं > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > > करो! > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास में > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > देह विमर्श तक सिमट गया है और > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।” > > मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > मायावती की राजनीति से नाक-भौं > > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > > आरक्षण की बात मत करो, योग्यता > > की बात करो। इसी तरह राय कह रहे > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > > आधार से स्त्री वर्ग को हज़ारों > > सालों से पीड़ित किया गया हो वो > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > > बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > बारे में लिखना चाहेंगी और किस > > बारे में नहीं। > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > > नारायण राय के जो विचार हैं > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > > कि लोगों का मुँह बन्द करने की > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर > > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > > के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > > बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल > > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > > उन के अर्थों को > > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > किया है। > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर गा > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > > हो सकती है। > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > > अधिक ही संवेदनशील है और समाज > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > असहिष्णु रवैये की एक > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती > > है। > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From ravikant at sarai.net Sun Aug 15 13:09:50 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 15 Aug 2010 13:09:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> , , <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> Message-ID: <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> माफ़ी अभय... ..की परवाह किए बग़ैर किया। उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह 'कौए के टरटराने से धान का सूखना बंद नहीं हो जाता'; हम जो मर्ज़ी लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे भी ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम ऐसा नहीं कहते दोनों पक्षों की बातों में कोई मूलभूत अंतर करना मुश्किल है। रविकान्त On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" wrote > गतांक से आगे... > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > बिहार की ज़बानों में ये शब्द > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > इस्तेमाल होता है, और > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, और > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > वाली नैतिक निंदा का वज़न > इसमें नहीं है। आपने सही कहा कि > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों में > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > होती है लेकिन मसला इतना नहीं > है। > > जैसे मायावती को ये नसीहत देने > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते कि > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > ही जाता है, वैसे ही > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश का > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति के > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन कई > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > ठेकेदारो > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" > wrote > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी दो-एक > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची से > > यही उम्मीद भी की जाती है > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों भतेरे > > हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > पहले। > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" > > wrote > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > अत्याचार की भावना से उबल रहा > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > > > होंगे कि मैं विभूति नारायण > > > राय के कुख्यात बयान और उससे > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > कर > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > > > नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > नहीं > > > है जो वेश्यावृत्ति या > बेवफ़ाई > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > करते हैं कि यौनिकता के मसले > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > > > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > > > से यौनिकता के मामले को और > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > लेखकों को चुनौती देनी > चाहिये > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > मामले के मूल में बैठी समस्या > > > को रेखांकित कर दिया है। मेरी > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं > आई > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > > > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > जवाब > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > गरिमा > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > हैं- > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > को > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > हैं > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > कृत्य > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। और > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > कर > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > अपमानजनक > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला > > > ही है। > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > > > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > > > जो निहायत ग़लत है। > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी के > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > बताई > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > उनका उच्च स्वर से विरोध करने > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > > > कर देती है। > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > दैहिक > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही > > > है हर समाज में। आज भी कई समाज > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > > > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > कराने देतीं। कई उसे परदे से > > > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > > > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > > > तक सन्तान की माता के प्रति ही > > > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > > > से, या वैधानिक पति की सन्तान > न > > > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास में > > > पहली बार, सारे प्राणियों से > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है > > > कि वह बिना गर्भधारण की चिंता > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > की > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; > वह > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > > > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > दैहिक आनन्द की बात करती है तो > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > हैं > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > > > करो! > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास में > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > देह विमर्श तक सिमट गया है और > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > हैं।” > > > मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > मायावती की राजनीति से > नाक-भौं > > > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > > > आरक्षण की बात मत करो, योग्यता > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > रहे > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > > > आधार से स्त्री वर्ग को > हज़ारों > > > सालों से पीड़ित किया गया हो वो > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > > > बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > किस > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > > > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने की > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > > > बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > > > उन के अर्थों को > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > किया है। > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर > गा > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > > > हो सकती है। > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > > > अधिक ही संवेदनशील है और समाज > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > From avinashonly at gmail.com Sun Aug 15 14:23:59 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 15 Aug 2010 14:23:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> Message-ID: *रविकांत जी के लिए* विभूति का यह कथन गलत है कि ‘छिनाल’ का अर्थ वेश्या नहीं है। अरविंद कुमार के ‘सहज समांतर कोश’ में ‘छिनाल’ का अर्थ कुलटा और वेश्या दिया गया है, जिसका इसी शब्दकोश में ‘अवैध यौन संबंध रखने वाली स्त्री’, ‘दुराचारिणी’, ‘पतुरिया’, ‘हरजाई’ और ‘कुतिया’ तक का अर्थ दिया गया है। अलाइड के प्रसिद्ध हिंदी-अंग्रेजी कोश में ‘छिनाल’ के लिए ‘प्रोस्टिट्यूट’ शब्द मौजूद है। हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति इस अर्थ को नहीं जानता और बिना जाने ही उसका प्रयोग करता है, क्या यह मानने योग्य बात है? जाहिर है, विभूति इस अर्थ के प्रति अनभिज्ञता दिखा कर अपनी रक्षा ही कर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वे अगले ही वाक्य में इस छिनालत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक हो सकता था। यानी वे खुद ‘छिनाल’ शब्द का वही अर्थ ले रहे हैं जो शब्दकोशों में है और जो हिंदी समाज समझता है। *आज के जनसत्ता में कमल किशोर गोयनका के लेख से उधार...* 2010/8/15 ravikant at sarai.net > माफ़ी अभय... > > ..की परवाह किए बग़ैर किया। > उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह > 'कौए के टरटराने से धान का सूखना > बंद नहीं हो जाता'; हम जो मर्ज़ी > लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे भी > ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति > नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम > तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम ऐसा > नहीं कहते दोनों पक्षों की > बातों में कोई मूलभूत अंतर > करना मुश्किल है। > > रविकान्त > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" < > ravikant at sarai.net> > wrote > > > गतांक से आगे... > > > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > > बिहार की ज़बानों में ये शब्द > > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > > इस्तेमाल होता है, और > > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, > और > > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > > वाली नैतिक निंदा का वज़न > > इसमें नहीं है। आपने सही कहा > कि > > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों में > > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > > होती है लेकिन मसला इतना नहीं > > है। > > > > जैसे मायावती को ये नसीहत देने > > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते > कि > > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > > ही जाता है, वैसे ही > > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश > का > > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति > के > > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन > कई > > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > > ठेकेदारो > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" < > ravikant at sarai.net> > > wrote > > > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी > दो-एक > > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची > से > > > यही उम्मीद भी की जाती है > > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं > > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस > > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों > भतेरे > > > हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक > > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस > > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए > > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > > पहले। > > > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी > > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" > > > wrote > > > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > > अत्याचार की भावना से उबल > रहा > > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के > नारे > > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > > > > होंगे कि मैं विभूति नारायण > > > > राय के कुख्यात बयान और उससे > > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > > कर > > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > > > > नाम की एक नारीवादी के एक > ईमेल > > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > > नहीं > > > > है जो वेश्यावृत्ति या > > बेवफ़ाई > > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > > करते हैं कि यौनिकता के मसले > > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > > > > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > > > > से यौनिकता के मामले को और > > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > > लेखकों को चुनौती देनी > > चाहिये > > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > > मामले के मूल में बैठी > समस्या > > > > को रेखांकित कर दिया है। > मेरी > > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं > > आई > > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > > > > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > > जवाब > > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. > न > > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > > गरिमा > > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > > हैं- > > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > > को > > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > > हैं > > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > > कृत्य > > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। > और > > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > > कर > > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > > अपमानजनक > > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' > वाला > > > > ही है। > > > > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > > > > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा > है, > > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस > में > > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > > > > जो निहायत ग़लत है। > > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी > के > > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > > बताई > > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ > लेकर > > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > > उनका उच्च स्वर से विरोध > करने > > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता > के > > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > > > > कर देती है। > > > > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > > दैहिक > > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती > रही > > > > है हर समाज में। आज भी कई समाज > > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी > को > > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > > > > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > > कराने देतीं। कई उसे परदे से > > > > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका > ‘पति’ > > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > > > > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > > > > तक सन्तान की माता के प्रति > ही > > > > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ > नहीं। > > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > > > > से, या वैधानिक पति की सन्तान > > न > > > > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ > / > > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास > में > > > > पहली बार, सारे प्राणियों से > > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव > है > > > > कि वह बिना गर्भधारण की > चिंता > > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > > की > > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; > > वह > > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > > > > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > > दैहिक आनन्द की बात करती है > तो > > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > > हैं > > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > > > > करो! > > > > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास > में > > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > > देह विमर्श तक सिमट गया है और > > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > > हैं।” > > > > मेरा मानना है कि यह सलाह > वैसे > > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > > मायावती की राजनीति से > > नाक-भौं > > > > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > > > > आरक्षण की बात मत करो, > योग्यता > > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > > रहे > > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > > > > आधार से स्त्री वर्ग को > > हज़ारों > > > > सालों से पीड़ित किया गया हो > वो > > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण > में > > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > > > > बड़ी बात ये भी है कि > स्त्रियां > > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > > किस > > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > > > > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने > की > > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी > ऊपर > > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के > 'स्लट > > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > > > > बने रहते हुए भी, सहज > इस्तेमाल > > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > > > > उन के अर्थों को > > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > > किया है। > > > > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने > भी > > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर > > गा > > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा > दे। > > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > > > > हो सकती है। > > > > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > > > > अधिक ही संवेदनशील है और > समाज > > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' > में > > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी > होती > > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > Deewan mailing list > > > Deewan at sarai.net > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan 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URL: From vineetdu at gmail.com Sun Aug 15 14:26:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 15 Aug 2010 14:26:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CkteCkgyDgpJrgpYjgpKjgpLIg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSh4KWC4KSW4KS+4KSo4KS+IOCkuOCkguCkuOCljeCklQ==?= =?utf-8?b?4KWD4KSk4KS/IOCkquCksCDgpKzgpKjgpYAg4KSr4KS/4KSy4KWN4KSu?= Message-ID: पीपली लाइव "इन्क्वायरिंग माइंड" की फिल्म है। हममें से कुछ लोग जो काम सोशल एक्टिविज्म, आरटीआई, ब्लॉग्स,फेसबुक,ट्विटर के जरिए करने की कोशिश करते हैं,वो काम अनुषा रिजवी,महमूद फारुकी और उनकी टीम ने फिल्म बनाकर की है। इसलिए हम जैसे लोगों को ये फिल्म बाकी फिल्मों की तरह कैरेक्टर के स्तर पर खुद भी शामिल होने से ज्यादा निर्देशन के स्तर पर शामिल होने जैसी लगती है। फिल्म देखते हुए हमारा भरोसा पक्का होता है कि सब कुछ खत्म हो जाने के बीच भी,संभावना के बचे रहने की ताकत मौजूद है। इस ताकत से समाज का तो पता नहीं लेकिन खासकर मीडिया और सिनेमा को जरुर बदल जा सकता है। ऐसे में ये हमारे समुदाय के लोगों की बनायी गयी फिल्म है। इस फिल्म में सबसे ज्यादा इन्क्वायरिंग मीडिया को लेकर है,किसानों की आत्महत्या और कर्ज की बात इस काम के लिए एक सब्जेक्ट मुहैया कराने जैसा ही है। फिल्म की शुरुआत जिस तरह से एक लाचार किसान परिवार के कर्ज न चुकाने, जमीन नीलाम होने की स्थिति,फिर नत्था(ओंकार दास) के आत्महत्या करने की घोषणा से होती है, उससे ये जरुर लगता है कि ये किसान समस्या पर बनी फिल्म है। लेकिन आगे चलकर कहानी का सिरा जिस तरफ मुड़ता है,उसमें ये बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि ये सिर्फ किसानों की त्रासदी और उन पर राजनीतिक तिगड़मों की फिल्म नहीं है। सच बात तो ये है कि ये फिल्म जितनी किसानों के कर्ज में दबकर मरने और आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाने की कहानी है,उससे कहीं ज्यादा बिना दिमाग के, भेड़चाल में चलनेवाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बीच से जर्नलिज्म के खत्म होने और जेनुइन पत्रकार के पिसते-मरते जाने की कहानी है। ये न्यूज चैनलों के एडीटिंग मशीन की उन संतानों पर बनायी गई फिल्म है जो बताशे चीनी के नहीं,खबरों के बनाते हैं। न्यूज चैनल्स किस तरह से अपनी मौजूदगी,गैरबाजिव दखल और अपाहिज ताकतों के दम पर पहले से बेतरतीब समाज और सिस्टम को और अधिक वाहियात और चंडूखाने की शक्ल देते हैं,फिल्म का करीब-करीब आधा हिस्सा इस बात पर फोकस है। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया( यहां पर न्यूज चैनल्स) ने इसे किसान पर बनी फिल्म बताकर इसके पूरे सेंस को फ्रैक्चर करने की कोशिश की है। वो इस फिल्म में मीडिया ऑपरेशन और ट्रीटमेंट के दिखाए जाने की बात को सिरे से पचा जाती है जिसकी बड़ी वजह है कि दुनिया की आलोचना करनेवाले चैनलों की आलोचना सिनेमा या नए माध्यम करें,ये उसे बर्दाश्त नहीं। चैनल्स इस बात को पचा नहीं सकते इसलिए वो फिल्म में मीडिया चैनल्स की बेशर्मी की बात को पचा गए। साथ ही जमकर आलोचना के लिए भी चर्चा नहीं कि तो उसकी भी बड़ी वजह है कि उनके पास ये कहने को नहीं है कि बनानेवाले को चैनल की समझ नहीं है। वो निर्देशक की बैकग्राउंड को बेहतर तरीके से जानते हैं। फिल्म "रण" (2010) की तरह तो इस फिल्म के विरोध में दिखावे के लिए ही सही पंकज पचौरी की पंचायत नहीं बैठी और न ही आशुतोष(IBN7) का रंज मिजाज खुलकर सामने आया। हां अजीत अंजुम को अपने फैसले पर जरुर अफसोस हुआ कि पहले बिना फिल्म देखे जो उऩ्होंने इसे बनानेवाले को सैल्यूट किया और फाइव स्टार दे दी,अब फेसबुक पर लिखकर भूल सुधार रहे हैं कि-बहुत से सीन जबरन ठूंसे गए हैं , ताकि टीवी चैनलों के प्रति दर्शकों के भीतर जमे गुस्से को भुनाया जा सके . दर्शक मजे भी लें और हाय - हाय भी करें . लेकिन अतिरंजित भी बहुत किया गया है इन सबके बीच हमें हैरानी हुई एनडीटीवी इंडिया और उसके सुलझे मीडियाकर्मी विजय त्रिवेदी पर जिन्होंने पीपली लाइव को लेकर सैंकड़ों बोलते शब्दों के बीच एक बार भी मीडिया शब्द का नाम नहीं लिया। छ मिनट तो जो हमने देखा उसमें सिर्फ किसान पर बनी फिल्म पीपली लाइव स्लग आता रहा। हमें हैरानी हुई आजतक पर जिसने "सलमान को छुएंगे आमिर,वो हो जाएगा हीरा" नाम से स्पेशल स्टोरी चलायी लेकिन एक बार भी पीपीली लाइव के साथ चैनल शब्द नहीं जोड़ा( गोलमोल तरीके से मीडिया शब्द,वो भी व्ऑइस ओवर में)। न्यूज चैनलों की जब भी आलोचना की जाती है,वो इसमें मीडिया शब्द घुसेड़ देते हैं ताकि उसमें प्रिंट भी शामिल हो जाए और उन पर आलोचना का असर कम हो। ये अलग बात है कि खबर का असर में अपने चैनल का नाम चमकाने में रत्तीभर भी देर नहीं लगाते। इस पूरे मामले में पीपली लाइव फिल्म देखकर न्यूज चैनलों की जो इमेज बनती है वो इस फिल्म की कवरेज को लेकर बननेवाली इमेज से मेल खाती है। ऐसे में फिल्म के भीतर चैनल्स ट्रीटमेंट को पहले से और अधिक विश्वसनीय बनाता है। हमें अजीत अंजुम की तरह जबरदस्ती ठूंसा गया बिल्कुल भी नहीं लगता। हां ये जरुर है कि.. घोषित तौर पर मीडिया को लेकर बनी फिल्म "रण"की तरह पीपली लाइव ने मीडिया पर बनी फिल्म के नाम पर स्टार न्यूज पर दिनभर का मजमा नहीं लगाया, IBN7 को स्टोरी चलाने के लिए नहीं उकसाया, आजतक को घसीटने का मौका नहीं दिया। लेकिन ये रण से कहीं ज्यादा असरदार तरीके से न्यूज चैनलों के रवैये पर उंगली रखती है। रण पर हमारा भरोसा इसलिए भी नहीं जमता कि उसमें चैनलों की आलोचना के वाबजूद तमाम न्यूज चैनलों से एक किस्म की ऑथेंटिसिटी बटोरी जाती है। जिस चैनल संस्कृति की आलोचना फिल्म रण करती है,वही दिन-रात इन चैनलों की गोद का खिलौना बनकर रह जाता है और सबके सब विजय मलिक( अमिताभ बच्चन) के पीछे भागते हैं। नतीजा फिल्म देखे जाने के पहले ही अविश्वसनीय और मजाक लगने लगती है। फिल्म के भीतर की कहानी इस अविश्वास को और मजबूत तो करती ही है,हमें रामगोपाल वर्मा की मीडिया समझ पर संदेह पैदा करने को मजबूर करती है। स्टार न्यूज पर दीपक चौरसिया के साथ टहलते हुए अमिताभ बच्चन भले ही बोल गए हों कि उन्होंने इस फिल्म के लिए चैनल को समझा,लगातार वहां गए लेकिन फिल्म के भीतर वो एक मीडिया प्रैक्टिसनर के बजाय क्लासरुम के मीडिया उपदेशक ज्यादा लगे। चैनल ऑपरेशन को जिसने गोलमोल तरीके से दिखाया गया, विजय मलिक चरित्र को जिस मीडिया देवदूत के तौर पर स्टैब्लिश किया है,ऐसे में ये फिल्म चैनल की संस्कृति की वाजिब आलोचना करने से चूक जाती है। इस लिहाज से कहीं बेहतर फिल्म शोबिज(2007) है जिसकी बहुत ही कम चर्चा हुई। न्यूज चैनलों को लेकर लोगों के बीच जो बाजिव गुस्सा और अजूबे की दुनिया के तौर पर जो कौतूहल है उस लिहाज से सिनेमा में चैनलों को शामिल किए जाने का ट्रेंड शुरु हो गया है। फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी से लेकर शोबिज,मोहनदास,रण,एलएसडी और अब पीपली लाइव हमारे सामने है। दूसरी तरफ मीडिया पार्टनरशिप के तहत रंग दे बसंती,देवडी,गजनी,फैशन,कार्पोरेट जैसी तमाम फिल्में हैं जिसे देखते हुए सिनेमा के भीतर के न्यूज चैनल्स पर बात की जा सकती है। लेकिन इन सबके बीच एक जरुरी सवाल है कि न्यूज चैनलों के मामले में सिनेमा ऑडिएंस रिएक्शन को,चैनल संस्कृति को और आलोचना के टूल्स को कितनी बारीकी और व्यावहारिक तरीके से पकड़ पाता है? इस स्तर पर पीपली लाइव की न्यूज चैनलों की समझ बाकी फिल्मों से एकदम से अलग करती है। पीपली लाइव चैनल संस्कृति की आलोचना के लिए किसी चैनल से अपने को ऑथराइज नहीं कराती है। हां ये जरुर है कि फिल्म की जरुरत के लिए एनडीटीवी 24x7 और IBN7 का सहयोग लेती है। ये फिल्म रण की तरह विजय मलिक के इमोशनल स्पीच की बदौलत चैनल के बदल जाने का भरोसा पैदा करने की कोशिश नहीं करती है। न ही रामगोपाल वर्मा की तरह पूरब( रीतेश देशमुख) को खोज लेती है जिसके भीतर एस पी सिंह या प्रणव रॉय की मीडिया समझ फिट करने में आसानी हो। मोहनदास( 2009) का स्ट्रिंगर दिल्ली में आकर चकाचक पत्रकार हो जाता है। लेकिन ये फिल्म ट्रू जर्नलिज्म का उत्तराधिकारी चुनकर हमें देने के बजाय चैनल को कैसे बेहतर किया जाए,ये सवाल ऑडिएंस पर छोड़ देती है। इस फिल्म के मुताबिक नत्था की संभावना शहर में है लेकिन राकेश जैसे पत्रकार की संभावना कहां है,इसका जबाब कहीं नहीं है। फिल्म, ये सवाल चैनल के उन तमाम लोगों पर छोड़ देती है जिन्होंने इसे एस संवेदनशील माध्यम के बजाय चंडूखाना बनाकर छोड़ दिया है। फिल्म को लेकर जिस इन्क्वायरी माइंड की बात हमने की, चैनल को लेकर ये माइंड हमें फिल्म के भीतर राकेश( नवाजउद्दीन) नाम के कैरेक्टर में दिखाई देता है। राकेश( नवाजउद्दीन) नंदिता( मलायका शिनॉय) से जर्नलिज्म को लेकर दो मिनट से भी कम के जो संवाद हैं,अगर उस पर गौर करें तो चैनल इन्डस्ट्री पर बहुत भारी पड़ती है। ये माइंड वहीं पीप्ली में ट्रू जर्नलिज्म करते हुए मर जाता है। ऐसे में ये फिल्म मोहनदास और रण के चैनल्स से ज्यादा खतरनाक मोड़ की तरफ इशारा करती है जहां न तो दिल्लीः संभावना का शहर है और न ही कोई उत्तराधिकारी होने की गुंजाइश है। फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती कोई विकल्प के नहीं रहने,दिखाने की है। कुमार दीपक( विशाल शर्मा) के जरिए हिन्दी चैनल की जमीनी पत्रकारिता के नाम पर जो शक्ल उभरकर सामने आती है,संभव है ये नाम गलत रख दिए गए हों लेकिन चैनल का चरित्र बिल्कुल वही है। अजीत अंजुम जिसे जबरदस्ती का ठूंसा हुआ मान रहे हैं,इस पर तर्क देने के बजाय एक औसत ऑडिएंस को एक न्यूज चैनल के नाम पर क्या और कैसी लाइनें याद आती हैं,इस पर बात हो तो नतीजा कुछ अलग नहीं होगा। नंदिता के चरित्र से जिस एलीट अंग्रेजी चैनलों का चरित्र उभरकर सामने आता है,वो राजदीप सरदेसाई की अपने घर की आलोचना से मेल खाती है। वो बार-बार नत्था के अलावे बाकी लोगों को कैमरे की फ्रेम से बाहर करवाती है। फ्रेम से बाहर किए गए लोग समाज से,खबर से हाशिए पर जाने पर की कथा है। ये अंग्रेजी जर्नलिज्म की सरोकारी पत्रकारिता है। ऐसे में ये बहस भी सिरे से खारिज हो जाती है कि ये महज हिन्दी चैनलों की आलोचना है। हां ये जरुर है कि अंग्रेजी चैनल को ज्यादा तेजतर्रार और अपब्रिंग होते दिखाया गया है। इन सबके वाबजूद जिस किसी को भी ये फिल्म चैनलों की जरुरत से ज्यादा खिंचाई जैसा मामला लग रहा है,उसकी बड़ी वजह है कि इस फिल्म ने चैनलों की पॉपुलिज्म सडांध को बताने के लिए कॉउंटर पॉपुलिज्म मेथड अपनाया। उसने उसी तरह के संवाद रचे,शब्दों का प्रयोग किया,जो कि चैनल खबरों के नाम पर किया करते हैं। चैनल को अपने ही औजारों से आप ही बेपर्द हो जाने का दर्द है। प्राइवेट न्यूज चैनलों को पिछले कुछ सालों से जो इस बात का गुरुर है कि वो देश चलाते हैं,उनमें सरकार बदलने की ताकत है,वो सब इस फिल्म में ऑपरेट होते दिखाया गया है। कई बार सचमुच पूरी मशीनरी इससे ड्राइव होती नजर आती है लेकिन जब चैनलों की हेडलाइंस खुद सलीम साहब(नसरुद्दीन शाह) की भौंहें के इशारे से बदलती हैं तो फिर खुद चैनल को अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए नहीं बचता। चैनल के लिए गंध मचाना एक मेटाफर की तरह इस्तेमाल होता आया है। लेकिन फिल्म में ये गंध अपने ठेठ अर्थ गंदगी फैलाने के अर्थ में दिखाई देता है। नत्था के पीपली से गायब हो जाने की खबर के बाद से मौत का जो मेला लगा था,वो सब समेटा जाने लगता है। सारे चैनल क्र्यू और उनकी ओबी वैन धूल उड़ाती चल देती है। उसके बाद गांव को लेकर फुटेज है। ये फुटेज करीब 10-12 सेकण्ड तक स्क्रीन पर मौजूद रहती है- चारो तरफ पानी की बोतलें,गंदगी,कचरे। पूरा गांव शहरी संस्कार के कूड़ों से भर जाता है।...फिल्म देखने के ठीक एक दिन पहले मैं नोएडा फिल्म सिटी की मेन गेट के बजाय बैक से इन्ट्री लेता हूं। मुझे वहां का नजारा पीपली लाइव की इस फुटेज से मेल खाती नजर आती है। बल्कि उससे कई गुना ज्यादा जायन्ट। दिल्ली या किसी शहर में जहां हम गंदगी के मामले में किसी को भी ट्रेस करके कह नहीं सकते कि ये गंदगी फैलानेवाले लोग कौन है,नोएडा फिल्म सिटी के इस कचरे की अटारी को देखकर आप बिना कुछ किए उन्हें खोज सकते हैं? बल्कि थोड़ा टाइम दें तो काले कचरे की प्रेत पैकटों को ट्रेस कर सकते हैं कि कौन किस हाउस से आया? इस तरह पूरी की पूरी फिल्म लचर व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन के सवाल से जूझने और खोजने का नाटक करनेवाले चैनलों सेल्फ एसेस्मेंट मोड(MODE) की तरफ ले जाती है। अब अगर महमूद फारुकी कहते हैं कि हम फिल्म तो बनाने चले थे किसान पर लेकिन बना ली तो पता चला कि हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी- तो ऐसे में चैनल के लोग इसे एक ईमानदार स्टेटमेंट मानकर ऑडिएंस को भरमाने की जगह किसान के बजाय मीडिया एनलिसिस नजरिए से फिल्म को देखना शुरु करें तो शायद इस फर्क को समझ पाएं कि होरी महतो के मर जाने और नत्था के मरने की संभावना के बीच भी कई खबरें हैं,कई पेचीदगियां हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Aug 15 14:31:20 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 15 Aug 2010 14:31:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpKrgpLAg4KSs4KWL4KSy4KWHIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSw?= Message-ID: *आजाद भारत को और नत्था नहीं चाहिए : **आमिर खान* 'पीपली लाइव' की चर्चा हर जुबां पर है, खासकर 'महंगाई डायन...' गाना ने तो हलचल पैदा कर दी है। फिल्म को सामाजिक चेतना जगाने वाली फिल्मों की श्रेणी में रखा जा रहा है। यह फिल्म बतौर निर्माता आमिर खान की चौथी फिल्म है। इससे पहले उनकी फिल्में लगान और तारे जमीं पर भी चर्चा में रही है। आमिर परफेक्शनिस्ट हैं तो उनकी फिल्म भी ज्वलंत समस्याओं पर आधारित होती है। देश के किसानों की दुर्दशा 'पीपली लाइव' में देखी जा सकती है। स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले दर्शकों के सामने 'पीपली लाइव' को परोसने वाले *आमिर खान *के दिमाग को खंगालने के लिए उनसे मुंबई में रूबरू हुए *दैनिक हिन्दुस्तान* के विशेष संवाददाता *नवीन कुमार :* *पीपली लाइव के रिस्पांस से आप खुश हैं?* मुझे खुशी है कि दर्शक पीपली लाइव देख रहे हैं। पीपली लाइव एक सेटायर है जो मध्य भारत के गांवों के चारों ओर घूमता है। इन गांवों की दशा को नत्था के जरिए दिखाने की कोशिश की गई है। *पीपली लाइव नॉन स्टार के साथ बनाई है। आपको खतरा महसूस नहीं हुआ? *मेरे फिल्म बनाने का तरीका अलग है। मैं बनिये की तरह जोड़-घटाव करके फिल्म नहीं बनाता हूं। दर्शकों का ख्याल रखता हूं। अगर कोई दर्शक टिकट खरीदकर फिल्म देखने आया है तो उसका मनोरंजन होना चाहिए। एक निर्माता के तौर पर मैं इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं। फिल्म से सिर्फ पैसे नहीं कमाए जाते हैं। निर्माता के तौर पर मेरा फर्ज है कि दर्शकों को एक बेहतरीन फिल्म दी जाए। *आपकी फिल्मों से कुछ न कुछ संदेश मिलता है। इसके पीछे सोच क्या है?* सबसे पहली बात मैं कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हूं। मैं फिल्म मनोरंजन के लिए बनाता हूं। हां, अगर मनोरंजन के साथ कोई संदेश भी लोगों को मिले तो यह अच्छी बात है। *आप मानते हैं कि पीपली लाइव एक समानांतर सिनेमा है? *यह मेनस्ट्रीम सिनेमा नहीं है। इसे व्यावसायिक फिल्म भी नहीं कह सकते। लेकिन यह भारतीय सिनेमा के मापदंड पर पूरी तरह से खरी उतरती है। *अनुषा रिजवी की कहानी को परदे पर देखकर कितना खुश हैं?* पेपर पर जो था, उसे अनुषा ने स्क्रीन पर उतारा है। इस तरह की एक अच्छी फिल्म से जुड़ने का मुझे मौका मिला। इसलिए मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं। *फिल्म के कलाकारों के बारे में क्या कहेंगे? *सचमुच इन कलाकारों ने मुझे प्रभावित किया है। मैंने पिछले 20 सालों में जितना काम किया है, वह इन कलाकारों के सामने कुछ नहीं है। इनके अभिनय को देखकर मुझे सीखने का भी मौका मिला है। *आप भी मानते हैं कि पीपली लाइव में आज के देश का चित्र साफ झलकता है? *नजरिया अपना-अपना है। यह अपने नजरिए की बात है कि लोग फिल्म में क्या देखना चाहते हैं। *आजादी के बाद हमारे देश का यही चेहरा है?* फिल्म देखकर खुद जान लीजिए। *किसानों की दुर्दशा पर आप क्या कहेंगे? *किसानों की हालत बेहतर होनी चाहिए। हमें और नत्था नहीं चाहिए। *इस भूमिका में ओमकार दास माणिकपुरी आपको कैसे लगे? *ओमकार बेहतर कलाकार हैं और भोलेभाले भी हैं। उन्होंने दीपिका पादुकोन से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। दीपिका के अलावा प्रियंका चोपड़ा, सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन से भी मिलकर वह काफी खुश हैं। *आप एक गंभीर निर्माता के रूप में उभर रहे हैं?* यह सच है कि मैं कुछ अच्छी फिल्में बनाना चाहता हूं और इसके लिए प्रयास कर रहा हूं। मेरे लिए फिल्म ही सब कुछ है। इसलिए मैं फिल्म के जरिए भी कुछ करने की कोशिश करता रहता हूं। पीपली लाइव के लिए अनुषा जब मेरे पास आई थीं तब मैं मंगल पांडे की शूटिंग कर रहा था। शूटिंग के दौरान मैं कहानी नहीं सुनता हूं। अनुषा ने अच्छी पटकथा लिखी थी और वह मेरे लायक पटकथा लगी थी। इसलिए मैंने पीपली लाइव फिल्म बनाई है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From ravikant at sarai.net Sun Aug 15 15:42:53 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 15 Aug 2010 15:42:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> , Message-ID: भैया अविनाश, एक शब्द के कई शब्दार्थ या रूपकार्थ हो सकते हैं मैंने इसके हल्के अर्थ की ओर इसलिए इशारा किया था कि हमारा 'गुरु-गंभीर पॉलिटिकली करेक्ट' हिन्दी जनपद थोड़ा ये सोचे कि वह अपनी पॉलिटिकली इन्करेक्ट जड़ों से दूर होकर साफ़-सुथरा बनने की कोशिश करते हुए कितना हास्यास्पद हो जाता है कि कभी कृष्ण बलदेव वैद फ़ोहश साबित होते हैं, कभी अशोक चक्रधर को जोकर माना जाता है। कभी उदय प्रकाश को सूली पर चढ़ा दिया जाता है। कभी विक्रम सिंह को लेकर अनावश्यक अटकलपच्ची की जाती है। कुल मिलाकर यह माहौल घुटन पैदा करता है, इस तरह की स्थिति में भाषा का रचनात्मक इस्तेमाल न करके लोग एक सेंसरशिप से डरकर जिएँगे, जो कुल मिलाकर साहित्य और प्रतिबद्धता दोनों के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। अब जहाँ तक इन कोशों की बात है तो सहज-समांतर कोश थिसॉरस है, जिसमें हर शब्द दूसरे का एकदम पर्यायवाची नहीं होता, और अलायड को मैं गंभीरता से नहीं लेता,चाहे कमलकिशोर गोयनका कहें या तुम कहो, क्योंकि अपनी देसी हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों पर मुझे काफ़ी भरोसा है। अगर उलटना ही है तो फ़ैलन का कोश उलटकर देखो, अगर तुम्हें अपनी देसी ज़बान की छटा या उनकी स्मृति पर भरोसा नहीं रहा। यह लगभग उसी तरह की सेंसरशिप है जिसके चलते आजकल आप जातिवाचक नाम नहीं ले सकते, भले ही जाति की हक़ीक़त से हमेशा त्रस्त रहते हों। रविकान्त On Sun, 15 Aug 2010 14:23:59 +0530 avinash das wrote > *रविकांत जी के लिए* > > विभूति का यह कथन गलत है कि ‘छिनाल’ का अर्थ वेश्या नहीं है। अरविंद कुमार के > ‘सहज समांतर कोश’ में ‘छिनाल’ का अर्थ कुलटा और वेश्या दिया गया है, जिसका इसी > शब्दकोश में ‘अवैध यौन संबंध रखने वाली स्त्री’, ‘दुराचारिणी’, ‘पतुरिया’, > ‘हरजाई’ और ‘कुतिया’ तक का > अर्थ दिया गया है। अलाइड के > प्रसिद्ध हिंदी-अंग्रेजी > कोश में ‘छिनाल’ के लिए > ‘प्रोस्टिट्यूट’ शब्द मौजूद > है। हिंदी विश्वविद्यालय का > कुलपति इस अर्थ को नहीं जानता और बिना जाने ही उसका प्रयोग करता है, क्या यह > मानने योग्य बात है? जाहिर है, > विभूति इस अर्थ के प्रति > अनभिज्ञता दिखा कर अपनी > रक्षा ही कर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वे अगले ही वाक्य में इस छिनालत्व को > स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ लेखिका की आत्मकथा > का शीर्षक हो सकता था। यानी वे खुद ‘छिनाल’ शब्द का वही अर्थ ले रहे हैं जो > शब्दकोशों में है और जो हिंदी समाज समझता है। > > *आज के जनसत्ता में कमल किशोर गोयनका के लेख से उधार...* > > 2010/8/15 ravikant at sarai.net > > > माफ़ी अभय... > > > > ..की परवाह किए बग़ैर किया। > > उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह > > 'कौए के टरटराने से धान का सूखना > > बंद नहीं हो जाता'; हम जो मर्ज़ी > > लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे भी > > ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति > > नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम > > तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम ऐसा > > नहीं कहते दोनों पक्षों की > > बातों में कोई मूलभूत अंतर > > करना मुश्किल है। > > > > रविकान्त > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > ravikant at sarai.net> > > wrote > > > > > गतांक से आगे... > > > > > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > > > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > > > बिहार की ज़बानों में ये शब्द > > > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > > > इस्तेमाल होता है, और > > > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > > > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, > > और > > > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > > > वाली नैतिक निंदा का वज़न > > > इसमें नहीं है। आपने सही कहा > > कि > > > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > > > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > > > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों में > > > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > > > होती है लेकिन मसला इतना नहीं > > > है। > > > > > > जैसे मायावती को ये नसीहत देने > > > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते > > कि > > > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > > > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > > > ही जाता है, वैसे ही > > > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > > > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश > > का > > > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति > > के > > > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन > > कई > > > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > > > ठेकेदारो > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > ravikant at sarai.net> > > > wrote > > > > > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी > > दो-एक > > > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची > > से > > > > यही उम्मीद भी की जाती है > > > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं > > > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस > > > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों > > भतेरे > > > > हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक > > > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस > > > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए > > > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > > > पहले। > > > > > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी > > > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" > > > > wrote > > > > > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > > > अत्याचार की भावना से उबल > > रहा > > > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > > > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के > > नारे > > > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > > > > > होंगे कि मैं विभूति नारायण > > > > > राय के कुख्यात बयान और उससे > > > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > > > कर > > > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > > > > > नाम की एक नारीवादी के एक > > ईमेल > > > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > > > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > > > नहीं > > > > > है जो वेश्यावृत्ति या > > > बेवफ़ाई > > > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > > > करते हैं कि यौनिकता के मसले > > > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > > > > > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > > > > > से यौनिकता के मामले को और > > > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > > > लेखकों को चुनौती देनी > > > चाहिये > > > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > > > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > > > मामले के मूल में बैठी > > समस्या > > > > > को रेखांकित कर दिया है। > > मेरी > > > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > > > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं > > > आई > > > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > > > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > > > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > > > > > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > > > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > > > जवाब > > > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > > > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. > > न > > > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > > > गरिमा > > > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > > > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > > > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > > > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > > > हैं- > > > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > > > को > > > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > > > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > > > हैं > > > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > > > कृत्य > > > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। > > और > > > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > > > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > > > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > > > कर > > > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > > > अपमानजनक > > > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > > > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > > > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' > > वाला > > > > > ही है। > > > > > > > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > > > > > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > > > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा > > है, > > > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस > > में > > > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > > > > > जो निहायत ग़लत है। > > > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > > > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी > > के > > > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > > > बताई > > > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > > > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ > > लेकर > > > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > > > उनका उच्च स्वर से विरोध > > करने > > > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता > > के > > > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > > > > > कर देती है। > > > > > > > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > > > दैहिक > > > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > > > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > > > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > > > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती > > रही > > > > > है हर समाज में। आज भी कई समाज > > > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > > > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी > > को > > > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > > > > > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > > > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > > > कराने देतीं। कई उसे परदे से > > > > > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > > > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका > > ‘पति’ > > > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > > > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > > > > > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > > > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > > > > > तक सन्तान की माता के प्रति > > ही > > > > > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > > > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ > > नहीं। > > > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > > > > > से, या वैधानिक पति की सन्तान > > > न > > > > > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ > > / > > > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > > > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास > > में > > > > > पहली बार, सारे प्राणियों से > > > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव > > है > > > > > कि वह बिना गर्भधारण की > > चिंता > > > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > > > की > > > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; > > > वह > > > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > > > > > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > > > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > > > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > > > दैहिक आनन्द की बात करती है > > तो > > > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > > > हैं > > > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > > > > > करो! > > > > > > > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास > > में > > > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > > > देह विमर्श तक सिमट गया है और > > > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > > > हैं।” > > > > > मेरा मानना है कि यह सलाह > > वैसे > > > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > > > मायावती की राजनीति से > > > नाक-भौं > > > > > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > > > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > > > > > आरक्षण की बात मत करो, > > योग्यता > > > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > > > रहे > > > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > > > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > > > > > आधार से स्त्री वर्ग को > > > हज़ारों > > > > > सालों से पीड़ित किया गया हो > > वो > > > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > > > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > > > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > > > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > > > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण > > में > > > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > > > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > > > > > बड़ी बात ये भी है कि > > स्त्रियां > > > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > > > किस > > > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > > > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > > > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > > > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > > > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > > > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > > > > > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > > > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने > > की > > > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > > > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > > > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी > > ऊपर > > > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > > > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के > > 'स्लट > > > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > > > > > बने रहते हुए भी, सहज > > इस्तेमाल > > > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > > > > > उन के अर्थों को > > > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > > > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > > > किया है। > > > > > > > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने > > भी > > > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर > > > गा > > > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा > > दे। > > > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > > > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > > > > > हो सकती है। > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > > > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > > > > > अधिक ही संवेदनशील है और > > समाज > > > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' > > में > > > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > > > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी > > होती > > > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > Deewan mailing list > > > > Deewan at sarai.net > > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > Deewan mailing list > > > Deewan at sarai.net > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > From abhaytri at gmail.com Sun Aug 15 16:52:52 2010 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Sun, 15 Aug 2010 16:52:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari><8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net><0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> Message-ID: यानी कुतिया और वेश्या एक बराबर हुई..? यह कुत्तो और वेश्याओं दोनों के प्रति जानकारी का अभाव दर्शाता है..दोनों के प्रेमप्रसंग में बहुत फ़र्क़ है वेश्या जीवनयापन के लिए प्रेम का सौदा करती है जबकि कुत्तो के समाज में बाज़ार जैसी कोई चीज़ है ही नहीं जहाँ ऐसा कोई सौदा किया जा सके.. ये ज़रूर है कि गाली के तौर पर कुतिया और वेश्या और छिनाल तीनों का इस्तेमाल होता है.. यदि इस अर्थ में अरविंद कुमार जी की श्रमसाध्य उपलब्धि समान्तर कोष में ये शब्द एक साथ मिल जाते हैं तो इसका आशय यह नहीं कि तीनों का भावार्थ एक ही है.. जब विभूति नारायण राय ने इस शब्द का इस्तेमाल महिला लेखिकाओं के लिए इस्तेमाल किया तो उन्हे नीचा दिखाने और अपमानित करने के लिए ही.. क्योंकि इस आशय के और भे संकेत उस साक्षात्‌कार में मौजूद हैं.. जैसे कि जब वे 'बहुप्रमोटेड' और 'ओवररेटेड' कहते हैं तो उसका प्रयोग भी नीचा दिखाने के लिए ही किया जा रहा होता है.. लेकिन उनकी इस गाली -छिनाल- का अर्थ वहाँ व्यभिचारिणी ही किया जा सकता है वेश्या नहीं.. पुनः कहता हूँ व्यभिचारिणी और वेश्या दो एकदम अलग अवधारणाएं हैं.. व्यभिचारिणी स्वयं, बिना किसी दबाव के, दैहिक आनन्द के लिए, सामाजिक सीमाओं और पितृसत्ता के दायरे से बाहर जा कर, एक से अधिक मर्दों से शारीरिक सम्बन्ध बनाती है जबकि वेश्या अपना पेट पालने के लिए शरीर बेचती है.. 'छिनाल' यानी 'व्यभिचारिणी' को वेश्या कहना भारी भूल है.. ----- Original Message ----- From: avinash das To: ravikant at sarai.net Cc: deewan at sarai.net Sent: Sunday, August 15, 2010 2:23 PM Subject: Re: [दीवान]सदाचारऔरछिनार रविकांत जी के लिए विभूति का यह कथन गलत है कि ‘छिनाल’ का अर्थ वेश्या नहीं है। अरविंद कुमार के ‘सहज समांतर कोश’ में ‘छिनाल’ का अर्थ कुलटा और वेश्या दिया गया है, जिसका इसी शब्दकोश में ‘अवैध यौन संबंध रखने वाली स्त्री’, ‘दुराचारिणी’, ‘पतुरिया’, ‘हरजाई’ और ‘कुतिया’ तक का अर्थ दिया गया है। अलाइड के प्रसिद्ध हिंदी-अंग्रेजी कोश में ‘छिनाल’ के लिए ‘प्रोस्टिट्यूट’ शब्द मौजूद है। हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति इस अर्थ को नहीं जानता और बिना जाने ही उसका प्रयोग करता है, क्या यह मानने योग्य बात है? जाहिर है, विभूति इस अर्थ के प्रति अनभिज्ञता दिखा कर अपनी रक्षा ही कर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वे अगले ही वाक्य में इस छिनालत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक हो सकता था। यानी वे खुद ‘छिनाल’ शब्द का वही अर्थ ले रहे हैं जो शब्दकोशों में है और जो हिंदी समाज समझता है। आज के जनसत्ता में कमल किशोर गोयनका के लेख से उधार... 2010/8/15 ravikant at sarai.net माफ़ी अभय... ..की परवाह किए बग़ैर किया। उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह 'कौए के टरटराने से धान का सूखना बंद नहीं हो जाता'; हम जो मर्ज़ी लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे भी ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम ऐसा नहीं कहते दोनों पक्षों की बातों में कोई मूलभूत अंतर करना मुश्किल है। रविकान्त On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" wrote > गतांक से आगे... > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > बिहार की ज़बानों में ये शब्द > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > इस्तेमाल होता है, और > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, और > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > वाली नैतिक निंदा का वज़न > इसमें नहीं है। आपने सही कहा कि > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों में > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > होती है लेकिन मसला इतना नहीं > है। > > जैसे मायावती को ये नसीहत देने > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते कि > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > ही जाता है, वैसे ही > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश का > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति के > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन कई > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > ठेकेदारो > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" > > wrote > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी दो-एक > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची से > > यही उम्मीद भी की जाती है > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई घटनाओं > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे इस > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों भतेरे > > हैं हिन्दी जनपद में जो नैतिक > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर उस > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर जाए > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > पहले। > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली थी > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" > > wrote > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > अत्याचार की भावना से उबल रहा > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए > > > होंगे कि मैं विभूति नारायण > > > राय के कुख्यात बयान और उससे > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > कर > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन > > > नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। वे > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > नहीं > > > है जो वेश्यावृत्ति या > बेवफ़ाई > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > करते हैं कि यौनिकता के मसले > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी की > > > ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये > > > से यौनिकता के मामले को और > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > लेखकों को चुनौती देनी > चाहिये > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता में > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > मामले के मूल में बैठी समस्या > > > को रेखांकित कर दिया है। मेरी > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं > आई > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह > > > साबित करने के लिए उनसे बड़ी > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > जवाब > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > गरिमा > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम विपरीत > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > हैं- > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > को > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण से > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > हैं > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > कृत्य > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। और > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > कर > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > अपमानजनक > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > रहे हैं कि स्त्री का वांछित, > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला > > > ही है। > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि एक > > > पेटीशन जो राय साहब को हटाने > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया है। > > > जो निहायत ग़लत है। > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी के > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > बताई > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > उनका उच्च स्वर से विरोध करने > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा > > > कर देती है। > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > दैहिक > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह है > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी से > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही > > > है हर समाज में। आज भी कई समाज > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी कई > > > समाज व नैतिक परम्पराएं उसे > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > कराने देतीं। कई उसे परदे से > > > बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > नहीं उसके स्वामी का अधिकार > > > है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल > > > तक सन्तान की माता के प्रति ही > > > पूरे सत्यापन से कहा जा सकता > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता होने > > > से, या वैधानिक पति की सन्तान > न > > > होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास में > > > पहली बार, सारे प्राणियों से > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है > > > कि वह बिना गर्भधारण की चिंता > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > की > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; > वह > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व के > > > दायरे में ही क़ैद रखना चाहता > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > दैहिक आनन्द की बात करती है तो > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > हैं > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात > > > करो! > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास में > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > देह विमर्श तक सिमट गया है और > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > हैं।” > > > मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > मायावती की राजनीति से > नाक-भौं > > > सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं कि > > > आरक्षण की बात मत करो, योग्यता > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > रहे > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस > > > आधार से स्त्री वर्ग को > हज़ारों > > > सालों से पीड़ित किया गया हो वो > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण और > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > भूमिका में रहे। और फिर सबसे > > > बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > किस > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > कहूँगा कि इस मसले पर विभूति > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन > > > पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने की > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक > > > बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने भी > > > उन के अर्थों को > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज को > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > किया है। > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर > गा > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश में > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा > > > हो सकती है। > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > रखवाले शब्दों के प्रति कुछ > > > अधिक ही संवेदनशील है और समाज > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at sarai.net > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at sarai.net https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan From rajkiradoo at gmail.com Sun Aug 15 18:56:51 2010 From: rajkiradoo at gmail.com (giriraj kiradoo) Date: Sun, 15 Aug 2010 18:56:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KS+4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> Message-ID: इस सिलसिले में यह भी पठनीय: (Lawrence Summers lost his job as Harvard president for a much smaller sin, all things considered: for merely floating the thought-bubble about women’s under-representation in the sciences, and the reasons underlying them.) http://www.indianexpress.com/news/textual-violence/654764/ 2010/8/15 ravikant at sarai.net > भैया अविनाश, > > एक शब्द के कई शब्दार्थ या > रूपकार्थ हो सकते हैं मैंने > इसके हल्के अर्थ की ओर इसलिए > इशारा किया था कि हमारा > 'गुरु-गंभीर पॉलिटिकली करेक्ट' > हिन्दी जनपद थोड़ा ये सोचे कि > वह अपनी पॉलिटिकली इन्करेक्ट > जड़ों से दूर होकर साफ़-सुथरा > बनने की कोशिश करते हुए कितना > हास्यास्पद हो जाता है कि कभी > कृष्ण बलदेव वैद फ़ोहश साबित > होते हैं, कभी अशोक चक्रधर को > जोकर माना जाता है। कभी उदय > प्रकाश को सूली पर चढ़ा दिया > जाता है। कभी विक्रम सिंह को > लेकर अनावश्यक अटकलपच्ची की > जाती है। कुल मिलाकर यह माहौल > घुटन पैदा करता है, इस तरह की > स्थिति में भाषा का रचनात्मक > इस्तेमाल न करके लोग एक > सेंसरशिप से डरकर जिएँगे, जो > कुल मिलाकर साहित्य और > प्रतिबद्धता दोनों के लिए > मुश्किलें पैदा कर सकता है। अब > जहाँ तक इन कोशों की बात है तो > सहज-समांतर कोश थिसॉरस है, > जिसमें हर शब्द दूसरे का एकदम > पर्यायवाची नहीं होता, और > अलायड को मैं गंभीरता से नहीं > लेता,चाहे कमलकिशोर गोयनका > कहें या तुम कहो, क्योंकि अपनी > देसी हिन्दी और अंग्रेज़ी > दोनों पर मुझे काफ़ी भरोसा है। > अगर उलटना ही है तो फ़ैलन का कोश > उलटकर देखो, अगर तुम्हें अपनी > देसी ज़बान की छटा या उनकी > स्मृति पर भरोसा नहीं रहा। यह > लगभग उसी तरह की सेंसरशिप है > जिसके चलते आजकल आप जातिवाचक > नाम नहीं ले सकते, भले ही जाति > की हक़ीक़त से हमेशा त्रस्त > रहते हों। > > रविकान्त > > On Sun, 15 Aug 2010 14:23:59 +0530 avinash das > wrote > > > *रविकांत जी के लिए* > > > > विभूति का यह कथन गलत है कि > ‘छिनाल’ का अर्थ वेश्या नहीं > है। अरविंद कुमार के > > ‘सहज समांतर कोश’ में ‘छिनाल’ > का अर्थ कुलटा और वेश्या दिया > गया है, जिसका इसी > > शब्दकोश में ‘अवैध यौन संबंध > रखने वाली स्त्री’, > ‘दुराचारिणी’, ‘पतुरिया’, > > ‘हरजाई’ और ‘कुतिया’ तक का > > अर्थ दिया गया है। अलाइड के > > प्रसिद्ध हिंदी-अंग्रेजी > > कोश में ‘छिनाल’ के लिए > > ‘प्रोस्टिट्यूट’ शब्द मौजूद > > है। हिंदी विश्वविद्यालय का > > कुलपति इस अर्थ को नहीं जानता > और बिना जाने ही उसका प्रयोग > करता है, क्या यह > > मानने योग्य बात है? जाहिर है, > > विभूति इस अर्थ के प्रति > > अनभिज्ञता दिखा कर अपनी > > रक्षा ही कर रहे हैं। लेकिन > दुर्भाग्य से वे अगले ही वाक्य > में इस छिनालत्व को > > स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि > ‘कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ > लेखिका की आत्मकथा > > का शीर्षक हो सकता था। यानी वे > खुद ‘छिनाल’ शब्द का वही अर्थ > ले रहे हैं जो > > शब्दकोशों में है और जो हिंदी > समाज समझता है। > > > > *आज के जनसत्ता में कमल किशोर > गोयनका के लेख से उधार...* > > > > 2010/8/15 ravikant at sarai.net > > > > > माफ़ी अभय... > > > > > > ..की परवाह किए बग़ैर किया। > > > उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह > > > 'कौए के टरटराने से धान का > सूखना > > > बंद नहीं हो जाता'; हम जो > मर्ज़ी > > > लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे > भी > > > ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति > > > नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम > > > तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम > ऐसा > > > नहीं कहते दोनों पक्षों की > > > बातों में कोई मूलभूत अंतर > > > करना मुश्किल है। > > > > > > रविकान्त > > > > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > > ravikant at sarai.net> > > > wrote > > > > > > > गतांक से आगे... > > > > > > > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > > > > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > > > > बिहार की ज़बानों में ये > शब्द > > > > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > > > > इस्तेमाल होता है, और > > > > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > > > > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, > > > और > > > > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > > > > वाली नैतिक निंदा का वज़न > > > > इसमें नहीं है। आपने सही कहा > > > कि > > > > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > > > > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > > > > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों > में > > > > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > > > > होती है लेकिन मसला इतना > नहीं > > > > है। > > > > > > > > जैसे मायावती को ये नसीहत > देने > > > > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते > > > कि > > > > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > > > > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > > > > ही जाता है, वैसे ही > > > > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > > > > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश > > > का > > > > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति > > > के > > > > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन > > > कई > > > > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > > > > ठेकेदारो > > > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > > ravikant at sarai.net> > > > > wrote > > > > > > > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > > > > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी > > > दो-एक > > > > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची > > > से > > > > > यही उम्मीद भी की जाती है > > > > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई > घटनाओं > > > > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > > > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे > इस > > > > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > > > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों > > > भतेरे > > > > > हैं हिन्दी जनपद में जो > नैतिक > > > > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > > > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर > उस > > > > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर > जाए > > > > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > > > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > > > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > > > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > > > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > > > > पहले। > > > > > > > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली > थी > > > > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > > > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > > > > > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" < > abhaytri at gmail.com> > > > > > wrote > > > > > > > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > > > > अत्याचार की भावना से उबल > > > रहा > > > > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे > हैं, > > > > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के > > > नारे > > > > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही > गए > > > > > > होंगे कि मैं विभूति > नारायण > > > > > > राय के कुख्यात बयान और > उससे > > > > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > > > > कर > > > > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई > जौन > > > > > > नाम की एक नारीवादी के एक > > > ईमेल > > > > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। > वे > > > > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > > > > नहीं > > > > > > है जो वेश्यावृत्ति या > > > > बेवफ़ाई > > > > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > > > > करते हैं कि यौनिकता के > मसले > > > > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी > की > > > > > > ज़रूरत है। नारीवाद के > नज़रिये > > > > > > से यौनिकता के मामले को और > > > > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > > > > लेखकों को चुनौती देनी > > > > चाहिये > > > > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता > में > > > > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > > > > मामले के मूल में बैठी > > > समस्या > > > > > > को रेखांकित कर दिया है। > > > मेरी > > > > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी > तक > > > > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी > नहीं > > > > आई > > > > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > > > > अतिक्रमण से अलग किसी > नज़रिये > > > > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है > यह > > > > > > साबित करने के लिए उनसे > बड़ी > > > > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > > > > जवाब > > > > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > > > > बारे में अपमानजनक > वक्तव्य.. > > > न > > > > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > > > > गरिमा > > > > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > > > > प्रयुक्त शब्द > स्त्रीमात्र > > > > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम > विपरीत > > > > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > > > > हैं- > > > > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > > > > को > > > > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण > से > > > > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > > > > हैं > > > > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > > > > कृत्य > > > > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। > > > और > > > > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध > करने > > > > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' > जैसा > > > > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > > > > कर > > > > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > > > > अपमानजनक > > > > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > > > > रहे हैं कि स्त्री का > वांछित, > > > > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' > > > वाला > > > > > > ही है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि > एक > > > > > > पेटीशन जो राय साहब को > हटाने > > > > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा > > > है, > > > > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस > > > में > > > > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया > है। > > > > > > जो निहायत ग़लत है। > > > > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए > रण्डी > > > > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी > > > के > > > > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > > > > बताई > > > > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, > वो > > > > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ > > > लेकर > > > > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > > > > उनका उच्च स्वर से विरोध > > > करने > > > > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता > > > के > > > > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर > खड़ा > > > > > > कर देती है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > > > > दैहिक > > > > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह > है > > > > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक > थोड़े > > > > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी > से > > > > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी > जाती > > > रही > > > > > > है हर समाज में। आज भी कई > समाज > > > > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी > ‘अवैध’ > > > > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले > नारी > > > को > > > > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी > कई > > > > > > समाज व नैतिक परम्पराएं > उसे > > > > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > > > > कराने देतीं। कई उसे परदे > से > > > > > > बाहर नहीं आने देतीं। > स्त्री > > > > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका > > > ‘पति’ > > > > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > > > > नहीं उसके स्वामी का > अधिकार > > > > > > है। इसीलिए अगर वह किसी > अन्य > > > > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत > हाल > > > > > > तक सन्तान की माता के प्रति > > > ही > > > > > > पूरे सत्यापन से कहा जा > सकता > > > > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ > > > नहीं। > > > > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता > होने > > > > > > से, या वैधानिक पति की > सन्तान > > > > न > > > > > > होने से सन्तान अवैध / > नाजायज़ > > > / > > > > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये > आज > > > > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास > > > में > > > > > > पहली बार, सारे प्राणियों > से > > > > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव > > > है > > > > > > कि वह बिना गर्भधारण की > > > चिंता > > > > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > > > > की > > > > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं > है; > > > > वह > > > > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व > के > > > > > > दायरे में ही क़ैद रखना > चाहता > > > > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य > नहीं, > > > > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > > > > दैहिक आनन्द की बात करती है > > > तो > > > > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > > > > हैं > > > > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत > बात > > > > > > करो! > > > > > > > > > > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास > > > में > > > > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > > > > देह विमर्श तक सिमट गया है > और > > > > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > > > > हैं।” > > > > > > मेरा मानना है कि यह सलाह > > > वैसे > > > > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > > > > मायावती की राजनीति से > > > > नाक-भौं > > > > > > सिकोड़ते हैं कि वे > 'जातिवाद' > > > > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं > कि > > > > > > आरक्षण की बात मत करो, > > > योग्यता > > > > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > > > > रहे > > > > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन > को > > > > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर > जिस > > > > > > आधार से स्त्री वर्ग को > > > > हज़ारों > > > > > > सालों से पीड़ित किया गया > हो > > > वो > > > > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस > आधार > > > > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण > और > > > > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार > पर > > > > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी > है > > > > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण > > > में > > > > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > > > > भूमिका में रहे। और फिर > सबसे > > > > > > बड़ी बात ये भी है कि > > > स्त्रियां > > > > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > > > > किस > > > > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > > > > कहूँगा कि इस मसले पर > विभूति > > > > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, > मगर > > > > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर > इस > > > > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला > खड़ा > > > > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं > इन > > > > > > पर ज़ोरदार बहस होनी > चाहिये न > > > > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने > > > की > > > > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > > > > अपमानजनक ज़रूर है और > 'नैतिक' > > > > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी > > > ऊपर > > > > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर > छिनार > > > > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के > > > 'स्लट > > > > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, > अपमानजनक > > > > > > बने रहते हुए भी, सहज > > > इस्तेमाल > > > > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने > भी > > > > > > उन के अर्थों को > > > > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज > को > > > > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > > > > किया है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने > > > भी > > > > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक > कर > > > > गा > > > > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा > > > दे। > > > > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश > में > > > > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर > सज़ा > > > > > > हो सकती है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > > > > रखवाले शब्दों के प्रति > कुछ > > > > > > अधिक ही संवेदनशील है और > > > समाज > > > > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' > > > में > > > > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है > कि > > > > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी > > > होती > > > > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > > Deewan mailing list > > > > > Deewan at sarai.net > > > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > Deewan mailing list > > > > Deewan at sarai.net > > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > 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URL: From shashikanthindi at gmail.com Sun Aug 15 23:34:49 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 15 Aug 2010 23:34:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuIOCkquClgOCkquCksuClgCDgpLLgpL7gpIfgpLUh?= Message-ID: किसान विरोधी है फिल्म पीपली लाइव! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sun Aug 15 23:49:10 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sun, 15 Aug 2010 23:49:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuIOCkquClgOCkquCksuClgCDgpLLgpL7gpIfgpLUh?= Message-ID: एक झटके में फ़ैसला!! ज़िल्लेइलाही ऐसा ग़ज़ब न करें!! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Sun Aug 15 23:56:38 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 15 Aug 2010 23:56:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuIOCkquClgOCkquCksuClgCDgpLLgpL7gpIfgpLUh?= In-Reply-To: References: Message-ID: जिन्‍हें पीपली लाइव नहीं समझ में आयी, उन्‍हें न भारतेंदु समझ में आएंगे, न ही हरिशंकर परसाई... इन्‍हें फैसला करने दें प्रकाश... ये एक दिन अपने ही फैसलों की घुटन में पीले पड़ जाएंगे - देखिएगा। 2010/8/15 Prakash K Ray > एक झटके में फ़ैसला!! ज़िल्लेइलाही ऐसा ग़ज़ब न करें!! > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Mon Aug 16 00:40:21 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 16 Aug 2010 00:40:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuICLgpKrgpYDgpKrgpLLgpYAg4KSy4KS+4KSH4KS1Jw==?= Message-ID: "किसान विरोधी है फिल्म पीपली लाइव " " पीपली लाइव" फिल्म में दिखाया गया है कि पैसे की खातिर किसान आत्महत्या करते हैं. यह सरासर ग़लत है. लगातार फसल खराब होने और बैंक के क़र्ज़ न चुका पाने की वजह से मज़बूर होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं..." आत्महत्या करनेवाले एक किसान की बेवा ने कैमरे के सामने कहा. विदर्भ में पंद्रह अगस्त, रविवार को आमिर ख़ान के विरोध में हज़ारों किसानों ने प्रदर्शन किया. आत्महत्या करनेवाले किसानों की विधवाओं, उनके अनाथ बच्चों और उनके परिवार के सदस्यों ने आज आमिर ख़ान का पुतला फूँका. ये क्या कर दिया आपने आमिर भाई, अनूषा जी और महमूद भाई? एक लाख रुपये की खातिर किसान आत्महत्या करते हैं? एक ग़रीब किसान का भाई ही पैसे के लोभ में अपने भाई को आत्महत्या करने के लिए बाध्य करता है? भाई-बहन, वाकई आपने ये सब यदि फिल्म में दिखाया है तो भयानक है. आपकी यह फिल्म पूरी तरह किसान विरोधी है. अरे, आप दिल्ली, बम्बई वाले क्या जानें किसानों को? नहीं कुछ तो यह फिल्म बनाने से पहले प्रेमचंद की "पूस की रात" कहानी ही पढ़ लेते. आपलोगों ने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया. हिन्दुस्तान के किसान ईश्वर, खुदा, जीसस या कहें वाहे गुरु होते हैं. किसानों को अमूमन मुनाफ़ा नहीं होता. वे नो प्रॉफिट नो लौस पर खेती करते हैं. जो फसल उपजाते हैं, उसे खुद नही खाते, गाय-भैंस पोसते हैं लेकिन सारा दूध बेच देते हैं,ना खुद खाते ना अपने मासूम बच्चों को खिलाते हैं, मज़बूरन. (मैं बिहार के एक किसान परिवार से हूँ और मेरे तीनों बड़े भाई खेती करते है. उन तीनों की सालाना आमदनी से ज़्यादा अकेली मेरीसालाना आमदनी है. जबकि मेरे पास दिल्ली में कोई नौकरी नहीं है, फ्रीलांसिंग करता हूँ.) ..और ऐसे किसानों का आपने अपनी "पीपली लाइव" फिल्म में मज़ाक उड़ाया है? आपलोगों ने ठीक से होमवर्क नहीं किया.यह अच्छी बात नहीं है आमिर भाई, अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी जी. माफ़ कीजिएगा. -शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Mon Aug 16 01:08:37 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Mon, 16 Aug 2010 01:08:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuICLgpKrgpYDgpKrgpLLgpYAg4KSy4KS+4KSH4KS1Jw==?= Message-ID: शशिकांत भाई, विदर्भ के किसानों को भड़काया जा रहा है. मैं दावे से कह सकता हूँ कि अभी तक उन तक यह फ़िल्म नहीं पहुंची है. उनके नेताओं को पहले फ़िल्म देखनी चाहिए. फ़िल्म उन विडम्बनाओं की ओर हमारा ध्यान ले जा रही है जिनमें नत्था, बुधिया, धनिया, अम्मा, होरी जैसे असंख्य किसान, ख़ासकर वैसे किसान जिनकी जोत काफ़ी कम है या खेतिहर मज़दूर हैं, उलझ के रह गए हैं. रही बात आपकी, तो मैं आग्रह करूँगा कि थोड़ा ग़ौर करें तो अपने को आप उस राकेश की तरह पाएंगे जो नत्था की तरह बच-बचा कर शहर तो आ गया, लेकिन है वह दिहाड़ी का मज़दूर ही. आमदनी तो ज़िंदगी का एक हिस्सा भर है शशि भाई. यह फ़िल्म किसानों के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उनकी लड़ाई में एक छोटी-सी भागीदारी है. सफ़दर ने कहा था कि जब मेहनतकश नुक्कड़ पर खड़े हो कर अपनी ही ज़िंदगी बने नाटकों के प्रहसन पर हँसता है तब वह असल में हुकमरानों के ख़िलाफ़ बयान दे रहा होता है. यदि पीपली लाइव किसान विरोधी है तो गोदान, मैला-आँचल, सावकारी पाश, इप्टा के नाटक, घटक का मेलोड्रामा वगैरह सबको भांड़ में झोंक देना चाहिए. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mahmood.farooqui at gmail.com Mon Aug 16 10:27:21 2010 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Mon, 16 Aug 2010 10:27:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuICLgpKrgpYDgpKrgpLLgpYAg4KSy4KS+4KSH4KS1Jw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: "waqai aapne yadi ye sab film men dikhaya hai..." picturiya dekhi nahi hai kya aapne? Agar aap ise dekh len to aapke ghusse ko aur hawa milegi aur tab main aap se qaide se mafi bhi mang sakunga. Prakash--'ek hi jhatke men faisla. Zille-ilahi...' maza aa gaya parh ke, ek line men aisa visphotak mazaq! 2010/8/16 shashi kant > "किसान विरोधी है फिल्म पीपली लाइव > " > > > > " पीपली लाइव" फिल्म में दिखाया गया है कि पैसे की खातिर किसान आत्महत्या करते > हैं. यह सरासर ग़लत है. लगातार फसल खराब होने और बैंक के क़र्ज़ न चुका पाने की > वजह से मज़बूर होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं..." आत्महत्या करनेवाले एक > किसान की बेवा ने कैमरे के सामने कहा. > > विदर्भ में पंद्रह अगस्त, रविवार को आमिर ख़ान के विरोध में हज़ारों किसानों > ने प्रदर्शन किया. > > आत्महत्या करनेवाले किसानों की विधवाओं, उनके अनाथ बच्चों और उनके परिवार के > सदस्यों ने आज आमिर ख़ान का पुतला फूँका. > > ये क्या कर दिया आपने आमिर भाई, अनूषा जी और महमूद भाई? > > एक लाख रुपये की खातिर किसान आत्महत्या करते हैं? > > एक ग़रीब किसान का भाई ही पैसे के लोभ में अपने भाई को आत्महत्या करने के लिए > बाध्य करता है? > > भाई-बहन, वाकई आपने ये सब यदि फिल्म में दिखाया है तो भयानक है. > > आपकी यह फिल्म पूरी तरह किसान विरोधी है. > > अरे, आप दिल्ली, बम्बई वाले क्या जानें किसानों को? > > नहीं कुछ तो यह फिल्म बनाने से पहले प्रेमचंद की "पूस की रात" कहानी ही पढ़ > लेते. > > आपलोगों ने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया. > > हिन्दुस्तान के किसान ईश्वर, खुदा, जीसस या कहें वाहे गुरु होते हैं. किसानों > को अमूमन मुनाफ़ा नहीं होता. वे नो प्रॉफिट नो लौस पर खेती करते हैं. > > जो फसल उपजाते हैं, उसे खुद नही खाते, गाय-भैंस पोसते हैं लेकिन सारा दूध बेच > देते हैं,ना खुद खाते ना अपने मासूम बच्चों को खिलाते हैं, मज़बूरन. > > (मैं बिहार के एक किसान परिवार से हूँ और मेरे तीनों बड़े भाई खेती करते है. > उन तीनों की सालाना आमदनी से ज़्यादा अकेली मेरीसालाना आमदनी है. जबकि मेरे पास > दिल्ली में कोई नौकरी नहीं है, फ्रीलांसिंग करता हूँ.) > > ..और ऐसे किसानों का आपने अपनी "पीपली लाइव" फिल्म में मज़ाक उड़ाया है? > > आपलोगों ने ठीक से होमवर्क नहीं किया.यह अच्छी बात नहीं है आमिर भाई, अनूषा > रिज़वी और महमूद फारूकी जी. > > माफ़ कीजिएगा. > > -शशिकांत > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Mon Aug 16 11:18:42 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Mon, 16 Aug 2010 11:18:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkteCkv+CksOCli+Ckp+ClgCDgpLngpYgg4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSuICLgpKrgpYDgpKrgpLLgpYAg4KSy4KS+4KSH4KS1Jw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: महमूद भाई, कल रात को ही शशिकांत जी ने मान लिया की उन्होंने फ़िल्म नहीं देखी है. अब वह पीपली से लौटने के बाद ही इस बारे में बतियाएंगे. नीचे मेरा और उनका मेलाचार चिपका है: *मेरा मेल: शशिकांत भाई, विदर्भ के किसानों को भड़काया जा रहा है. मैं दावे से कह सकता हूँ कि अभी तक उन तक यह फ़िल्म नहीं पहुंची है. उनके नेताओं को पहले फ़िल्म देखनी चाहिए. फ़िल्म उन विडम्बनाओं की ओर हमारा ध्यान ले जा रही है जिनमें नत्था, बुधिया, धनिया, अम्मा, होरी जैसे असंख्य किसान, ख़ासकर वैसे किसान जिनकी जोत काफ़ी कम है या खेतिहर मज़दूर हैं, उलझ के रह गए हैं. रही बात आपकी, तो मैं आग्रह करूँगा कि थोड़ा ग़ौर करें तो अपने को आप उस राकेश की तरह पाएंगे जो नत्था की तरह बच-बचा कर शहर तो आ गया, लेकिन है वह दिहाड़ी का मज़दूर ही. आमदनी तो ज़िंदगी का एक हिस्सा भर है शशि भाई. यह फ़िल्म किसानों के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उनकी लड़ाई में एक छोटी-सी भागीदारी है. सफ़दर ने कहा था कि जब मेहनतकश नुक्कड़ पर खड़े हो कर अपनी ही ज़िंदगी बने नाटकों के प्रहसन पर हँसता है तब वह असल में हुकमरानों के ख़िलाफ़ बयान दे रहा होता है. यदि पीपली लाइव किसान विरोधी है तो गोदान, मैला-आँचल, सावकारी पाश, इप्टा के नाटक, घटक का मेलोड्रामा वगैरह सबको भांड़ में झोंक देना चाहिए. *शशिकांत भाई का जवाब: प्रकाश भाई, आपने सफ़दर का नाम लिया. और लिखा, "सफ़दर ने कहा था कि जब मेहनतकश नुक्कड़ पर खड़े हो कर अपनी ही ज़िंदगी बने नाटकों के प्रहसन पर हँसता है तब वह असल में हुकमरानों के ख़िलाफ़ बयान दे रहा होता है. यदि पीपली लाइव किसान विरोधी है तो गोदान, मैला-आँचल, सावकारी पाश, इप्टा के नाटक, घटक का मेलोड्रामा वगैरह सबको भांड़ में झोंक देना चाहिए." आपकी इज्ज़त करते हुए फिल्म देख कर बात करूँगा. शुक्रिया. -शशिकांत 2010/8/16 mahmood farooqui > "waqai aapne yadi ye sab film men dikhaya hai..." > > picturiya dekhi nahi hai kya aapne? Agar aap ise dekh len to aapke ghusse > ko aur hawa milegi aur tab main aap se qaide se mafi bhi mang sakunga. > > Prakash--'ek hi jhatke men faisla. Zille-ilahi...' maza aa gaya parh ke, ek > line men aisa visphotak mazaq! > > 2010/8/16 shashi kant > >> "किसान विरोधी है फिल्म पीपली लाइव >> " >> >> >> >> " पीपली लाइव" फिल्म में दिखाया गया है कि पैसे की खातिर किसान आत्महत्या >> करते हैं. यह सरासर ग़लत है. लगातार फसल खराब होने और बैंक के क़र्ज़ न चुका >> पाने की वजह से मज़बूर होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं..." आत्महत्या करनेवाले >> एक किसान की बेवा ने कैमरे के सामने कहा. >> >> विदर्भ में पंद्रह अगस्त, रविवार को आमिर ख़ान के विरोध में हज़ारों किसानों >> ने प्रदर्शन किया. >> >> आत्महत्या करनेवाले किसानों की विधवाओं, उनके अनाथ बच्चों और उनके परिवार के >> सदस्यों ने आज आमिर ख़ान का पुतला फूँका. >> >> ये क्या कर दिया आपने आमिर भाई, अनूषा जी और महमूद भाई? >> >> एक लाख रुपये की खातिर किसान आत्महत्या करते हैं? >> >> एक ग़रीब किसान का भाई ही पैसे के लोभ में अपने भाई को आत्महत्या करने के लिए >> बाध्य करता है? >> >> भाई-बहन, वाकई आपने ये सब यदि फिल्म में दिखाया है तो भयानक है. >> >> आपकी यह फिल्म पूरी तरह किसान विरोधी है. >> >> अरे, आप दिल्ली, बम्बई वाले क्या जानें किसानों को? >> >> नहीं कुछ तो यह फिल्म बनाने से पहले प्रेमचंद की "पूस की रात" कहानी ही पढ़ >> लेते. >> >> आपलोगों ने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया. >> >> हिन्दुस्तान के किसान ईश्वर, खुदा, जीसस या कहें वाहे गुरु होते हैं. किसानों >> को अमूमन मुनाफ़ा नहीं होता. वे नो प्रॉफिट नो लौस पर खेती करते हैं. >> >> जो फसल उपजाते हैं, उसे खुद नही खाते, गाय-भैंस पोसते हैं लेकिन सारा दूध बेच >> देते हैं,ना खुद खाते ना अपने मासूम बच्चों को खिलाते हैं, मज़बूरन. >> >> (मैं बिहार के एक किसान परिवार से हूँ और मेरे तीनों बड़े भाई खेती करते है. >> उन तीनों की सालाना आमदनी से ज़्यादा अकेली मेरीसालाना आमदनी है. जबकि मेरे पास >> दिल्ली में कोई नौकरी नहीं है, फ्रीलांसिंग करता हूँ.) >> >> ..और ऐसे किसानों का आपने अपनी "पीपली लाइव" फिल्म में मज़ाक उड़ाया है? >> >> आपलोगों ने ठीक से होमवर्क नहीं किया.यह अच्छी बात नहीं है आमिर भाई, अनूषा >> रिज़वी और महमूद फारूकी जी. >> >> माफ़ कीजिएगा. >> >> -शशिकांत >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Prakash K Ray Research Scholar, Cinema Studies, School of Arts & Aesthetics, Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. 0 987 331 331 5 http://bargad.wordpress.com/ http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Mon Aug 16 18:52:28 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 16 Aug 2010 18:52:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkuOCkruCkvuCknCDgpJTgpLAg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpLjgpL7gpLngpL/gpKTgpY3gpK/gpL/gpJUg4KSq?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSw4KS/4KSk4KS+?= Message-ID: मोहल्लालाइव,यात्रा बुक्स और जनतंत्र की साझा पेशकश * बहसतलब-4* * * * हिन्दी समाज औऱ हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता* * * बीच बहस में मौजूद होगें- अनामिका,पंकज बिष्ट,मनीषा,राजेन्द्र यादव,मंगलेश डबराल सूत्रधार- संजीव( युवा आलोचक एवं प्राध्यापक) 17 अगस्त,शाम साढे छह बजे, गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबिटेट सेंटर, नई दिल्ली -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Wed Aug 18 21:33:55 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 18 Aug 2010 21:33:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSq4KWC?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpIbgpJbgpLzgpL/gpLDgpYAg4KSV4KWN4KS34KSj?= Message-ID: *बापू के आख़िरी क्षण * तारीख़ 30 जनवरी सन 1948 नव-स्वाधीन भारत का काला दिन दक्षिणपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले एक दिग्भ्रमित युवक ने (मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता) हमारे बापू को हमसे छीन लिया था. आज तक बापू को, बापू के बारे में (खिलाफ़ और पक्ष में) बहुत कुछ पढ़ा, सुना और कुछ फ़िल्में भी देखी ....लेकिन अभी-अभी फेसबुक पर विचरते हुए मुझे बापू के आख़िरी क्षण का फोटो मिला है. आप सब भी देख सकते हैं. शुक्रिया. *- शशिकांत *बापू के आख़िरी क्षण http://shashikanthindi.blogspot.com/2010/08/blog-post_18.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Thu Aug 19 13:08:43 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 19 Aug 2010 13:08:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= Message-ID: 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* *#शोले * *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* मित्रो, आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या के इर्द-गिर्द घूमती है. मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. आख़िर क्यों? मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म में...वो सब अगली डाक में...! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Thu Aug 19 13:18:54 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 19 Aug 2010 13:18:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? 2010/8/19 shashi kant > 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... > > *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* > * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” > वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए > किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… > गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” > गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव > वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” > **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम > सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” > वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी > है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* > *#शोले * > > *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * > *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* > > मित्रो, > आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन > में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या > के इर्द-गिर्द घूमती है. > > मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ > घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. > > मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो व्यावसायिक > खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. > > बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान चाहे > जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे हों > लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. > > आख़िर क्यों? > > मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या > को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह > सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म > में...वो सब अगली डाक में...! > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Thu Aug 19 13:30:50 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 19 Aug 2010 13:30:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAn4KSq4KWA?= =?utf-8?b?4KSq4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: avinash das Date: 2010/8/19 Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... To: khadeeja arif Cc: shashikanthindi at gmail.com खदीजा, आप मुझे भी तो बात करने दीजिए। अगर शशिकांत ने अपनी तरह से फिल्‍म समझा है - तो उनसे बात न करें? मुंह फेर लें? एक फिल्‍म को दो लोगों ने देखी और उनका नजरिया अलग-अलग है - तो क्‍या वे बात न करें और अपनी अपनी समझदारी को छुपाये रखें? हम अपनी बात लिख रहे हैं - शशिकांत अपनी - बेहतर हो, आप भी अपनी लिखें। 2010/8/19 khadeeja arif Avinash > Her ek ko haq hai film apni tarah se samjhne ka... Shashkinat ko jo laga > woh likh rahe hain! yeh bhi film ki saflta hi hai ki us per baat tau ho rahi > hai.. phir chahe woh kisi bhi nazarye se ho! > Best > K > > 2010/8/19 avinash das > > शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >> >> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >> >> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक >> स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी >> होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है >> और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >> >> 2010/8/19 shashi kant >> >>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>> >>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>> *गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी >>> है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>> *#शोले * >>> >>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>> >>> मित्रो, >>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >>> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >>> के इर्द-गिर्द घूमती है. >>> >>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ >>> घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. >>> >>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>> >>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>> >>> आख़िर क्यों? >>> >>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>> में...वो सब अगली डाक में...! >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > Khadeeja > +9899258592 > khadeeja.arif at bbc.co.uk > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Thu Aug 19 13:30:50 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 19 Aug 2010 13:30:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAn4KSq4KWA?= =?utf-8?b?4KSq4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: avinash das Date: 2010/8/19 Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... To: khadeeja arif Cc: shashikanthindi at gmail.com खदीजा, आप मुझे भी तो बात करने दीजिए। अगर शशिकांत ने अपनी तरह से फिल्‍म समझा है - तो उनसे बात न करें? मुंह फेर लें? एक फिल्‍म को दो लोगों ने देखी और उनका नजरिया अलग-अलग है - तो क्‍या वे बात न करें और अपनी अपनी समझदारी को छुपाये रखें? हम अपनी बात लिख रहे हैं - शशिकांत अपनी - बेहतर हो, आप भी अपनी लिखें। 2010/8/19 khadeeja arif Avinash > Her ek ko haq hai film apni tarah se samjhne ka... Shashkinat ko jo laga > woh likh rahe hain! yeh bhi film ki saflta hi hai ki us per baat tau ho rahi > hai.. phir chahe woh kisi bhi nazarye se ho! > Best > K > > 2010/8/19 avinash das > > शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >> >> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >> >> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक >> स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी >> होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है >> और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >> >> 2010/8/19 shashi kant >> >>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>> >>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>> *गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी >>> है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>> *#शोले * >>> >>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>> >>> मित्रो, >>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >>> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >>> के इर्द-गिर्द घूमती है. >>> >>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ >>> घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. >>> >>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>> >>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>> >>> आख़िर क्यों? >>> >>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>> में...वो सब अगली डाक में...! >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > Khadeeja > +9899258592 > khadeeja.arif at bbc.co.uk > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mahmood.farooqui at gmail.com Thu Aug 19 13:36:56 2010 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Thu, 19 Aug 2010 13:36:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAn4KSq4KWA?= =?utf-8?b?4KSq4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: main shashikant ki is tathya se bakhoobi waqif hun ki kisan aatmhatya un ilaaqon men zyada kar rahe hain jahan kheti commercial hai...aur ye film darasal kisanon ya unki aatmhatya ke baare men zyada kuchh nahi, balki kuchh bhi nahi batati... maseva iske ki haan bhaiyya kisaanon ki halat kharab hai...na bhoosa na pani... shayad isse zyada dikhana chahiye tha...shayad nahi... par ab film hamari pakar aur hamare vishleshan se bahar nikal gayi hai... Jiski jaisi shraddha...aur sab log apni jagah sahi hain... ek bahut critical magar shandar review expressbuzz men bhardwaj rangan saheb ne likha hai. Use bhi aap log dekh len http://expressbuzz.com/entertainment/reviews/peepli-live/198182.html 2010/8/19 avinash das > > > ---------- Forwarded message ---------- > From: avinash das > Date: 2010/8/19 > Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... > To: khadeeja arif > Cc: shashikanthindi at gmail.com > > > खदीजा, आप मुझे भी तो बात करने दीजिए। अगर शशिकांत ने अपनी तरह से फिल्‍म समझा > है - तो उनसे बात न करें? मुंह फेर लें? एक फिल्‍म को दो लोगों ने देखी और उनका > नजरिया अलग-अलग है - तो क्‍या वे बात न करें और अपनी अपनी समझदारी को छुपाये > रखें? हम अपनी बात लिख रहे हैं - शशिकांत अपनी - बेहतर हो, आप भी अपनी लिखें। > > 2010/8/19 khadeeja arif > > Avinash >> Her ek ko haq hai film apni tarah se samjhne ka... Shashkinat ko jo laga >> woh likh rahe hain! yeh bhi film ki saflta hi hai ki us per baat tau ho rahi >> hai.. phir chahe woh kisi bhi nazarye se ho! >> Best >> K >> >> 2010/8/19 avinash das >> >> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >>> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >>> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >>> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>> >>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>> >>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक >>> स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी >>> होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है >>> और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>> >>> 2010/8/19 shashi kant >>> >>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>> >>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>> *गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>> *#शोले * >>>> >>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>> >>>> मित्रो, >>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >>>> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >>>> के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>> >>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>> ज़्यादातर. >>>> >>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>> >>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>> >>>> आख़िर क्यों? >>>> >>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> >> -- >> Khadeeja >> +9899258592 >> khadeeja.arif at bbc.co.uk >> > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Thu Aug 19 14:09:47 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 19 Aug 2010 14:09:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAn4KSq4KWA?= =?utf-8?b?4KSq4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: हां, ये बात मैं क्‍यों नहीं लिख सकता हूं कि शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म समझी नहीं। मुझे अगर लगेगा कि कोई गलत इंटरप्रेट कर रहा है, तो मैं आपत्ति करूंगा उस समझदारी पर। अगर किसी को लगता है कि मैं गलत हूं - तो वो भी उलट कर वही बात लिख सकता है। इस शैली में दिक्‍कत क्‍या है यार? 2010/8/19 mahmood farooqui > main shashikant ki is tathya se bakhoobi waqif hun ki kisan aatmhatya un > ilaaqon men zyada kar rahe hain jahan kheti commercial hai...aur ye film > darasal kisanon ya unki aatmhatya ke baare men zyada kuchh nahi, balki kuchh > bhi nahi batati... > > maseva iske ki haan bhaiyya kisaanon ki halat kharab hai...na bhoosa na > pani... > > shayad isse zyada dikhana chahiye tha...shayad nahi... > > par ab film hamari pakar aur hamare vishleshan se bahar nikal gayi hai... > > Jiski jaisi shraddha...aur sab log apni jagah sahi hain... > > ek bahut critical magar shandar review expressbuzz men bhardwaj rangan > saheb ne likha hai. Use bhi aap log dekh len > > http://expressbuzz.com/entertainment/reviews/peepli-live/198182.html > > 2010/8/19 avinash das > >> >> >> ---------- Forwarded message ---------- >> From: avinash das >> Date: 2010/8/19 >> Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >> To: khadeeja arif >> Cc: shashikanthindi at gmail.com >> >> >> खदीजा, आप मुझे भी तो बात करने दीजिए। अगर शशिकांत ने अपनी तरह से फिल्‍म >> समझा है - तो उनसे बात न करें? मुंह फेर लें? एक फिल्‍म को दो लोगों ने देखी और >> उनका नजरिया अलग-अलग है - तो क्‍या वे बात न करें और अपनी अपनी समझदारी को >> छुपाये रखें? हम अपनी बात लिख रहे हैं - शशिकांत अपनी - बेहतर हो, आप भी अपनी >> लिखें। >> >> 2010/8/19 khadeeja arif >> >> Avinash >>> Her ek ko haq hai film apni tarah se samjhne ka... Shashkinat ko jo laga >>> woh likh rahe hain! yeh bhi film ki saflta hi hai ki us per baat tau ho rahi >>> hai.. phir chahe woh kisi bhi nazarye se ho! >>> Best >>> K >>> >>> 2010/8/19 avinash das >>> >>> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >>>> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >>>> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >>>> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>>> >>>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>>> >>>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध >>>> एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं >>>> देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी >>>> है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>>> >>>> 2010/8/19 shashi kant >>>> >>>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>>> >>>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>>> *गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>>>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>>> *#शोले * >>>>> >>>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>>> >>>>> मित्रो, >>>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के >>>>> निर्देशन में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की >>>>> आत्महत्या के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>>> >>>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>>> ज़्यादातर. >>>>> >>>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>>> >>>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>>>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>>>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>>> >>>>> आख़िर क्यों? >>>>> >>>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>>> >>>>> _______________________________________________ >>>>> Deewan mailing list >>>>> Deewan at sarai.net >>>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>> >>>>> >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >>> >>> -- >>> Khadeeja >>> +9899258592 >>> khadeeja.arif at bbc.co.uk >>> >> >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From dnyan21 at yahoo.com Thu Aug 19 17:16:03 2010 From: dnyan21 at yahoo.com (Ashutosh Shyam Potdar) Date: Thu, 19 Aug 2010 04:46:03 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCkleClhyA=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSmIC4uLi4=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur nirdeshak ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana jaruri hai. mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity se dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane wala kuch piche aata naahi. film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar kaam karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi dikhata hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming chod dete hai. ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. usaki jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background pe hai. ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere log hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura vishas hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale film par kaam karenge. main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative tension dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. she can start with where the character has reached- construction site. she can get back and start looking at rural reality again.... but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex mein baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! amen, Ashutosh ________________________________ From: avinash das To: shashi kant Cc: deewan Sent: Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? 2010/8/19 shashi kant 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... > >वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...” >गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए किया >था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”गाँव वाला-२ : >“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >गाँव वाला-३ : “वो….”गाँव वाला -१ : “अरे भाई बात क्या है? तुम सुसाइड क्यों करना >चाहते हो?” >वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी है. इस >स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!" > >#शोले >“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” > ># महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’) >मित्रो, >आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन में अभी >हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या के >इर्द-गिर्द घूमती है. > >मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ घटी >हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. > > >मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो व्यावसायिक खेती >कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. > > >बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान चाहे >जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे हों लेकिन >वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. > > >आख़िर क्यों? > >मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या को ग़लत >पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह सुसाइड का ख़ूब >ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म में...वो सब अगली डाक >में...! > >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at sarai.net >https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Fri Aug 20 00:05:36 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Fri, 20 Aug 2010 00:05:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Wz8/Pz8/XUZ3ZDog?= =?utf-8?b?Jz8/Pz8/ID8/Pz8nID8/Pz8/ID8/ID8/PyAuLi4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: रवीश जी का लिखा हमेशा की तरह अच्छा लगा, ख़ासकर दूसरा पैरा. लेकिन आख़िरी पैरा में 'साऊथ दिल्ली की लड़कियां' लिखना उचित नहीं है. इसे हटा लिया जाना चाहिए. प्रकाश 2010/8/19 Ravish Kumar > http://naisadak.blogspot.com/2010/08/blog-post_18.html > और राकेश मारा गया....पीपली लाइव की समीक्षा > पीपली लाइव के आखिर के उस शाट्स पर आंखें जम गई...जब कैमरे ने कलाई में बंधे > ब्रैसलेट को देखा था। जला हुआ। यहां भी मीडिया ग़लत ख़बर दे गया। नत्था तो नहीं > मरा लेकिन एक संवेदनशील और मासूम पत्रकार मारा गया। फिल्म की कहानी आखिर के इसी > शॉट के लिए बचा कर रखी गई थी। किसी ने राकेश को ठीक से नहीं ढूंढा, सब नत्था के > मारे जाने की कहानी को खत्म समझ कर लौट गए। ओबी वैन और मंच के उजड़ने के साथ जब > कॉफी के स्टॉल उखाड़ कर जा रहे थे तो लगा कि कैसे बाज़ार राकेश को मार कर > चुपचाप और खुलेआम अपना ठिकाना बदल रहा है। नत्था तो अपनी किस्मत के साथ कलमाडी > के सपनों के नीचे इमारती मज़दूर बनकर दबा मिल जाता है लेकिन राकेश की ख़बर किसी > को नहीं मिलती। हम इस आपाधापी में अपना ही क़त्ल कर रहे हैं। इसीलिए मरेगा > राकेश ही। जो सवाल करेगा वही मारा जाएगा। > > इस फिल्म को सबने हिस्सों में देखा है। किसी को मल का विश्लेषण करता हुआ > पत्रकार नज़र आता है तो किसी समझ नहीं आता कि सास पुतोहू के बीच की कहानी > व्यापक वृतांत का हिस्सा कैसे बनती है। धनिया और उसकी सास अपने प्रसंगों में ही > फंसे रहते हैं। उन पर मीडिया न मंत्री का असर पड़ता है। दो औरतों के बीच की वो > दुनिया जो रोज़ की किचकिच से शुरू होती है और उसी पर ख़त्म हो जाती है। यही > मज़ा है पीपली लाइव का। कई कहानियों की एक कहानी। मोटा भसका हुआ बीडीओ और उसका > गंदा सा स्वेटर। जीप की खड़खड़ आवाज़। कृषि सचिव सेनगुप्ता की दार्जिलिंग टी और > सलीम किदवई का जैकेट और पतलून में इंग्लिश स्टुडियो जाना और हिन्दी स्टुडियो > में जाते वक्त कुर्ता पायजामा और अचकन पहनना। नत्था का अपने बड़े भाई के सामने > बेबस हो जाना। उसकी मां का बेटे के लिए दहाड़ मार कर नहीं रोना। पत्नी धनिया > किसी साइलेंट मूवी की हिरोईन की तरह चुप रहती है और जब फटती है तो लाउडस्पीकर > चरचरा जाता है। मीडिया के अपने द्वंद से गुज़रती हुई इसकी कहानी एक परिवार,एक > गांव,एक ज़िला,एक राज्य,एक देश और एक विश्व की तमाम विसंगतियों के बीच बिना > किसी भावनात्मक लगाव के गुज़रती चलती है। राकेश की तुकबंदी में इराक भी है और > किसानों की बातचीत में अमरीकी बीज कंपनी भी। > > फोकस में ज़रूर मीडिया है लेकिन जब कैमरा शिफ्ट फोकस करता है तो लेंस की हद > में कई चीज़े आ जाती हैं।सियासत की नंगई भी खुल जाती है। दिल्ली में बैठा > इंग्लिश बोलने वाला सलीम किदवई भी चालबाज़ियां करता हुआ एक्सपोज़ हो जाता है। > राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना का नया प्रतीक लाल बहादुर। गांव गांव में नलकूप > योजनाओं का यही गत है मेरे भाई। मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक सब एक ही कतार > में। पीपली लाइव नाम बहुत सही रखा है। सब कुछ लाइव ही था। इंग्लिश की पत्रकार > हिन्दी के पत्रकार को छू देती है। वो सारी प्रतिस्पर्धा भूल जाता है। हिन्दी और > इंग्लिश के पत्रकार के लाइव चैट में भी अंतर है। हिन्दी की लड़की अपने लाइव > भाषण में देश,समाज और राजनीति का ज़िक्र करती है। इंग्लिश की पत्रकार एक > व्यक्ति की कहानी से आगे नहीं बढ़ती। इंग्लिश की पत्रकार के लिए नत्था एक > इंडिविजुअल स्टोरी है और हिन्दी के पत्रकारों के लिए नौटंकी के साथ-साथ एक > सिस्टम की स्टोरी। हिन्दी और इंग्लिश मीडिया के पत्रकारों के रिश्तों में > झांकती इस फिल्म पर अलग से लिखा जा सकता है। > > फिल्म के फ्रेम बहुत तेज़ी से बदलते हैं। कहानी किसी घटना का इंतज़ार नहीं > करती। बस आगे बढ़ जाती है। पूरी फिल्म में प्रधानमंत्री का कोई किरदार नहीं है। > मनमोहन सिंह ने इस पद को वाकई अपनी चुप्पी से मिट्टी में मिला दिया है। एक > फ्रेम में धनिया और सास की लड़ाई है तो अगले फ्रेम में मुख्यमंत्री की सेटिंग। > वैसे में राकेश का यह सवाल कि मर तो होरी महतो भी गया है। होरी महतो का बीच > फ्रेम में आकर गड्ढा खोदते रहना। राकेश का बगल से गुज़रना। एक दिन उसकी मौत। > स्टोरी और हकीकत के बीच मामूली सा द्वंद। स्ट्रींगर राकेश का सपना। नेशनल चैनल > में नौकरी का। उसकी स्टोरी पर बड़े पत्रकारों का बड़ा दांव। संपादक की लंपटई। > कैमरा बड़ा ही बेरुख़ेपन से सबको खींचता चलता है। अनुषा के निर्देशन की यही > खूबी है। > > पत्रकारिता के फटीचर काल का सही चित्रण है पीपली लाइव। गोबर हमारे टाइम का > सबसे बड़ा आइडिया है। अनुषा और महमूद के कैमरे ने तो गोबर से गू तक के सफर को > बखूबी दिखाया है। इंग्लिश और हिन्दी दोनों ही माध्यमों में काम करने वाला > पत्रकार एक-एक फ्रेम को देखकर कह सकता है सही है। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी के > पत्रकारों ने कभी अच्छा काम नहीं किया है। वही तो याद दिलाने के लिए यह फिल्म > बनी है। हम क्या से क्या हो गए हैं। किरदारों के किसी असली नाम से मिलाने का > कोई मतलब नहीं है। हर किरदार में हर पत्रकार शामिल है। मीडिया मंडी में बिक गया > तो पगड़ी तो उछलेगी ही। कई फिल्मों और लेखों में मीडिया के इस फटीचर काल की > आलोचना होती रही है। लेकिन पीपली लाइव ने आलोचना नहीं की है। सरेस काग़ज़ लेकर > आलोचना से खुरदरी हुई परतों को और उधेड़ दिया है। टीवी और टीआरपी की लड़ाई को > मल्टीप्लेक्स से लेकर सिंगल स्क्रिन के दर्शकों के बीच लाकर पटक दिया है जिनके > नाम पर करीना के कमर की मोटाई न्यूज़ चैनलों में नापी जा रही है। यह फिल्म > मीडिया से नहीं दर्शकों से टकराती है। > > आप इस फिल्म को कई बार देख सकते हैं। अनुषा और महमूद को बधाई लेकिन विशेष बधाई > शालिनी वत्स को। धनिया बनने के लिए। कौन बनता है आज के ज़माने में पर्दे पर > नत्था और धनिया और कौन बनाता है ऐसी फिल्में। उम्मीद है साउथ दिल्ली की > लड़कियां अपना पेट या कैट नाम धनिया भी रखेंगी। अनुषा का रिसर्च बेज़ोड़ है। > निर्देशन भी बढ़िया है। वैसे याद रहे। बदलेगा कुछ नहीं। मीडिया ने महंगाई डायन > को छोड़ अब मुन्नी बदनाम हो गई का दामन थाम लिया है। > ------------------------------ > *From:* deewan-bounces at sarai.net on behalf of mahmood farooqui > *Sent:* Thu 8/19/2010 1:36 PM > *To:* avinash das; deewan > *Subject:* Re: [दीवान]Fwd: 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... > > main shashikant ki is tathya se bakhoobi waqif hun ki kisan aatmhatya un > ilaaqon men zyada kar rahe hain jahan kheti commercial hai...aur ye film > darasal kisanon ya unki aatmhatya ke baare men zyada kuchh nahi, balki kuchh > bhi nahi batati... > > maseva iske ki haan bhaiyya kisaanon ki halat kharab hai...na bhoosa na > pani... > > shayad isse zyada dikhana chahiye tha...shayad nahi... > > par ab film hamari pakar aur hamare vishleshan se bahar nikal gayi hai... > > Jiski jaisi shraddha...aur sab log apni jagah sahi hain... > > ek bahut critical magar shandar review expressbuzz men bhardwaj rangan > saheb ne likha hai. Use bhi aap log dekh len > > http://expressbuzz.com/entertainment/reviews/peepli-live/198182.html > > 2010/8/19 avinash das > >> >> >> ---------- Forwarded message ---------- >> From: avinash das >> Date: 2010/8/19 >> Subject: Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >> To: khadeeja arif >> Cc: shashikanthindi at gmail.com >> >> >> खदीजा, आप मुझे भी तो बात करने दीजिए। अगर शशिकांत ने अपनी तरह से फिल्‍म >> समझा है - तो उनसे बात न करें? मुंह फेर लें? एक फिल्‍म को दो लोगों ने देखी और >> उनका नजरिया अलग-अलग है - तो क्‍या वे बात न करें और अपनी अपनी समझदारी को >> छुपाये रखें? हम अपनी बात लिख रहे हैं - शशिकांत अपनी - बेहतर हो, आप भी अपनी >> लिखें। >> >> 2010/8/19 khadeeja arif >> >> Avinash >>> Her ek ko haq hai film apni tarah se samjhne ka... Shashkinat ko jo laga >>> woh likh rahe hain! yeh bhi film ki saflta hi hai ki us per baat tau ho rahi >>> hai.. phir chahe woh kisi bhi nazarye se ho! >>> Best >>> K >>> >>> 2010/8/19 avinash das >>> >>> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >>>> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >>>> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >>>> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>>> >>>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>>> >>>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध >>>> एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं >>>> देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी >>>> है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>>> >>>> 2010/8/19 shashi kant >>>> >>>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>>> >>>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>>> *गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>>>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>>> *#शोले * >>>>> >>>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>>> >>>>> मित्रो, >>>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के >>>>> निर्देशन में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की >>>>> आत्महत्या के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>>> >>>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>>> ज़्यादातर. >>>>> >>>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>>> >>>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>>>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>>>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>>> >>>>> आख़िर क्यों? >>>>> >>>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>>> >>>>> _______________________________________________ >>>>> Deewan mailing list >>>>> Deewan at sarai.net >>>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>> >>>>> >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >>> >>> -- >>> Khadeeja >>> +9899258592 >>> khadeeja.arif at bbc.co.uk >>> >> >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mahmood.farooqui at gmail.com Fri Aug 20 00:12:19 2010 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Fri, 20 Aug 2010 00:12:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> References: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Message-ID: avinash aapki baat bhi sahi hai. Par sahi ya ghalat aap kahte jaiye, aapki baaten hamen achhi lagti hai 2010/8/19 Ashutosh Shyam Potdar > Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur nirdeshak > ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana jaruri hai. > > mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka > hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate > hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. > > aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity se > dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is > point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar > paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi > aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar > mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye > rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. > > is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf > aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me > bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane > wala kuch piche aata naahi. > > film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar kaam > karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi dikhata > hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming chod dete > hai. > > ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. usaki > jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background pe hai. > ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere log > hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. > > is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. > > ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura vishas > hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale film > par kaam karenge. > > main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative tension > dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. she can > start with where the character has reached- construction site. she can get > back and start looking at rural reality again.... > > but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex mein > baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! > > amen, > > Ashutosh > ------------------------------ > *From:* avinash das > *To:* shashi kant > *Cc:* deewan > *Sent:* Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM > *Subject:* Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... > > शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या > पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय > विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी > विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। > > शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और > खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून > बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। > > आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक > स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी > होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है > और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? > > 2010/8/19 shashi kant > >> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >> >> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >> * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी >> है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >> *#शोले * >> >> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >> >> मित्रो, >> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >> के इर्द-गिर्द घूमती है. >> >> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ >> घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. >> >> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो व्यावसायिक >> खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >> >> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >> >> आख़िर क्यों? >> >> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >> में...वो सब अगली डाक में...! >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Fri Aug 20 12:49:45 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Fri, 20 Aug 2010 12:49:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Message-ID: आशुतोष जी, औपचारिकता और सिंबॉलिज्‍म में फर्क है। इस फिल्‍म का मकसद रूरल को स्‍टैब्लिश करना नहीं है। यह फिल्‍म नेहरू की तरह भारत की खोज नहीं करती, आरके लक्ष्‍मण की तरह करती है - इसे हमें समझना चाहिए। आखिर में पलायन के जिस संदर्भ को आप औपचारिकता की चाशनी में छान रहे हैं - वह भी एक प्रतीक है और उस प्रतीक के अर्थ आप रोज श्रमजीवी रेलों से दिल्‍ली आती भीड़ में पा सकते हैं। शुक्रिया। 2010/8/20 mahmood farooqui > avinash aapki baat bhi sahi hai. Par sahi ya ghalat aap kahte jaiye, aapki > baaten hamen achhi lagti hai > > 2010/8/19 Ashutosh Shyam Potdar > > Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur nirdeshak >> ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana jaruri hai. >> >> mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka >> hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate >> hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. >> >> aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity se >> dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is >> point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar >> paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi >> aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar >> mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye >> rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. >> >> is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf >> aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me >> bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane >> wala kuch piche aata naahi. >> >> film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar kaam >> karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi dikhata >> hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming chod dete >> hai. >> >> ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. usaki >> jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background pe hai. >> ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere log >> hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. >> >> is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. >> >> ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura vishas >> hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale film >> par kaam karenge. >> >> main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative tension >> dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. she can >> start with where the character has reached- construction site. she can get >> back and start looking at rural reality again.... >> >> but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex mein >> baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! >> >> amen, >> >> Ashutosh >> ------------------------------ >> *From:* avinash das >> *To:* shashi kant >> *Cc:* deewan >> *Sent:* Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM >> *Subject:* Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >> >> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >> >> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >> >> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक >> स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी >> होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है >> और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >> >> 2010/8/19 shashi kant >> >>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>> >>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>> * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी कहानी >>> है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>> *#शोले * >>> >>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>> >>> मित्रो, >>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >>> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >>> के इर्द-गिर्द घूमती है. >>> >>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी घटनाएँ >>> घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ज़्यादातर. >>> >>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>> >>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>> >>> आख़िर क्यों? >>> >>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>> में...वो सब अगली डाक में...! >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Fri Aug 20 12:54:08 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Fri, 20 Aug 2010 12:54:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Message-ID: एक बात और - हमारी दिल्‍ली में भी रूरल है। मैं दिल्‍ली और गाजियाबाद के बोर्डर पर रहता हूं। शालीमार गार्डेन में। सीमापुरी से शालीमार गार्डेन पैदल आते हुए गेणशपुरी नाम की एक बस्‍ती है, जहां ठेले वालों, रिक्‍शेवालों, मजदूरी करने वालों ने थोड़ा थोड़ा पैसा जुटा कर अपना आशियाना बना लिया है। वहां से शाम-रात नौ-दस बजे आप गुजरें, तो ढोलक-मंजीरा और हार‍मोनियम के साथ गांव-जवार से आयातित कीर्तन-होरी-चैता आपको सुनाई पड़ेगा। अब इसको आप ये तो कहेंगे नहीं कि इतने भर से दिल्‍ली से सटी यूपी की गणेशपुरी गांव तो हो नहीं जाएगी? 2010/8/20 avinash das > आशुतोष जी, औपचारिकता और सिंबॉलिज्‍म में फर्क है। इस फिल्‍म का मकसद रूरल को > स्‍टैब्लिश करना नहीं है। यह फिल्‍म नेहरू की तरह भारत की खोज नहीं करती, आरके > लक्ष्‍मण की तरह करती है - इसे हमें समझना चाहिए। आखिर में पलायन के जिस संदर्भ > को आप औपचारिकता की चाशनी में छान रहे हैं - वह भी एक प्रतीक है और उस प्रतीक > के अर्थ आप रोज श्रमजीवी रेलों से दिल्‍ली आती भीड़ में पा सकते हैं। > > शुक्रिया। > > 2010/8/20 mahmood farooqui > > avinash aapki baat bhi sahi hai. Par sahi ya ghalat aap kahte jaiye, aapki >> baaten hamen achhi lagti hai >> >> 2010/8/19 Ashutosh Shyam Potdar >> >> Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur nirdeshak >>> ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana jaruri hai. >>> >>> mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka >>> hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate >>> hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. >>> >>> aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity se >>> dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is >>> point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar >>> paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi >>> aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar >>> mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye >>> rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. >>> >>> is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf >>> aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me >>> bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane >>> wala kuch piche aata naahi. >>> >>> film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar kaam >>> karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi dikhata >>> hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming chod dete >>> hai. >>> >>> ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. usaki >>> jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background pe hai. >>> ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere log >>> hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. >>> >>> is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. >>> >>> ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura vishas >>> hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale film >>> par kaam karenge. >>> >>> main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative tension >>> dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. she can >>> start with where the character has reached- construction site. she can get >>> back and start looking at rural reality again.... >>> >>> but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex mein >>> baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! >>> >>> amen, >>> >>> Ashutosh >>> ------------------------------ >>> *From:* avinash das >>> *To:* shashi kant >>> *Cc:* deewan >>> *Sent:* Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM >>> *Subject:* Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>> >>> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की समस्‍या >>> पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई समाजशास्‍त्रीय >>> विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी ढेर सारी >>> विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>> >>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>> >>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध एक >>> स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं देखी >>> होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी है >>> और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>> >>> 2010/8/19 shashi kant >>> >>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>> >>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>> * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>> *#शोले * >>>> >>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>> >>>> मित्रो, >>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के निर्देशन >>>> में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की आत्महत्या >>>> के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>> >>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>> ज़्यादातर. >>>> >>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>> >>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>> >>>> आख़िर क्यों? >>>> >>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Fri Aug 20 13:33:52 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Fri, 20 Aug 2010 13:33:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Message-ID: Dear All, plz see the link : http://mohallalive.com/2010/08/20/debate-on-peepli-live/ regards, *avinash* 2010/8/20 avinash das > एक बात और - हमारी दिल्‍ली में भी रूरल है। मैं दिल्‍ली और गाजियाबाद के > बोर्डर पर रहता हूं। शालीमार गार्डेन में। सीमापुरी से शालीमार गार्डेन पैदल > आते हुए गेणशपुरी नाम की एक बस्‍ती है, जहां ठेले वालों, रिक्‍शेवालों, मजदूरी > करने वालों ने थोड़ा थोड़ा पैसा जुटा कर अपना आशियाना बना लिया है। वहां से > शाम-रात नौ-दस बजे आप गुजरें, तो ढोलक-मंजीरा और हार‍मोनियम के साथ गांव-जवार > से आयातित कीर्तन-होरी-चैता आपको सुनाई पड़ेगा। > > अब इसको आप ये तो कहेंगे नहीं कि इतने भर से दिल्‍ली से सटी यूपी की गणेशपुरी > गांव तो हो नहीं जाएगी? > > 2010/8/20 avinash das > > आशुतोष जी, औपचारिकता और सिंबॉलिज्‍म में फर्क है। इस फिल्‍म का मकसद रूरल को >> स्‍टैब्लिश करना नहीं है। यह फिल्‍म नेहरू की तरह भारत की खोज नहीं करती, आरके >> लक्ष्‍मण की तरह करती है - इसे हमें समझना चाहिए। आखिर में पलायन के जिस संदर्भ >> को आप औपचारिकता की चाशनी में छान रहे हैं - वह भी एक प्रतीक है और उस प्रतीक >> के अर्थ आप रोज श्रमजीवी रेलों से दिल्‍ली आती भीड़ में पा सकते हैं। >> >> शुक्रिया। >> >> 2010/8/20 mahmood farooqui >> >> avinash aapki baat bhi sahi hai. Par sahi ya ghalat aap kahte jaiye, aapki >>> baaten hamen achhi lagti hai >>> >>> 2010/8/19 Ashutosh Shyam Potdar >>> >>> Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur nirdeshak >>>> ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana jaruri hai. >>>> >>>> mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka >>>> hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate >>>> hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. >>>> >>>> aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity se >>>> dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is >>>> point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar >>>> paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi >>>> aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar >>>> mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye >>>> rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. >>>> >>>> is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf >>>> aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me >>>> bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane >>>> wala kuch piche aata naahi. >>>> >>>> film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar kaam >>>> karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi dikhata >>>> hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming chod dete >>>> hai. >>>> >>>> ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. >>>> usaki jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background >>>> pe hai. ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere >>>> log hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. >>>> >>>> is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. >>>> >>>> ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura vishas >>>> hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale film >>>> par kaam karenge. >>>> >>>> main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative tension >>>> dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. she can >>>> start with where the character has reached- construction site. she can get >>>> back and start looking at rural reality again.... >>>> >>>> but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex mein >>>> baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! >>>> >>>> amen, >>>> >>>> Ashutosh >>>> ------------------------------ >>>> *From:* avinash das >>>> *To:* shashi kant >>>> *Cc:* deewan >>>> *Sent:* Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM >>>> *Subject:* Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>> >>>> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की >>>> समस्‍या पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई >>>> समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी >>>> ढेर सारी विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>>> >>>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>>> >>>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध >>>> एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं >>>> देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी >>>> है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>>> >>>> 2010/8/19 shashi kant >>>> >>>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>>> >>>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>>> * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के >>>>> लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>>> *#शोले * >>>>> >>>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>>> >>>>> मित्रो, >>>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के >>>>> निर्देशन में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की >>>>> आत्महत्या के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>>> >>>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>>> ज़्यादातर. >>>>> >>>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>>> >>>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के किसान >>>>> चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी रहे >>>>> हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>>> >>>>> आख़िर क्यों? >>>>> >>>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>>> >>>>> _______________________________________________ >>>>> Deewan mailing list >>>>> Deewan at sarai.net >>>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>> >>>>> >>>> >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Aug 20 20:37:28 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 20 Aug 2010 20:37:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS84KS+4KSwIOCkuOCkvuCkrCDgpJXgpYcg4KSc4KSo4KWN4KSu4KSm?= =?utf-8?b?4KS/4KSoIOCkquCksA==?= Message-ID: मित्रो, बीते कल यानि १९ अगस्त २०१० को गुलज़ार साहब और ह्जारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन था. पेश है गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर अपनी माँ को समर्पित उनकी एक अनूठी नज़्म! दीवान के साथियों के लिए गुलज़ार साहब के ब्लॉग "ख़ुशबू.ए.गुलज़ार" से साभार. शुक्रिया. - शशिकांत माँ (mother) (गुलज़ार साब के जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनकी एक अनूठी पर्सनल नज़्म जो उन्होनें अपनी माँ को समर्पित की है!) तुझे पहचानूंगा कैसे? तुझे देखा ही नहीं ढूँढा करता हूं तुम्हें अपने चेहरे में ही कहीं लोग कहते हैं मेरी आँखें मेरी माँ सी हैं यूं तो लबरेज़ हैं पानी से मगर प्यासी हैं कान में छेद है पैदायशी आया होगा तूने मन्नत के लिये कान छिदाया होगा सामने दाँतों का वक़्फा है तेरे भी होगा एक चक्कर तेरे पाँव के तले भी होगा जाने किस जल्दी में थी जन्म दिया, दौड़ गयी क्या खुदा देख लिया था कि मुझे छोड़ गयी मेल के देखता हूं मिल ही जाए तुझसी कहीं तेरे बिन ओपरी लगती है मुझे सारी जमीं तुझे पहचानूंगा कैसे? तुझे देखा ही नहीं ख़ुशबू.ए.गुलज़ार [Fragrance of Gulzar] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Aug 21 01:20:14 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 21 Aug 2010 01:20:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpIfgpLjgpLLgpL/gpI8g4KSF4KSa4KWN?= =?utf-8?b?4KSb4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpYAuIQ==?= Message-ID: पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर सबको पगला दिए हैं. - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा मिलेगा कि नहीं. - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव पढ़ा है, शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता. - हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे से उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को उलट दिखाया गया है. - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई स्तर पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा नहीं नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना कि जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा होता! ( शेष अगली डाक में) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From pkray11 at gmail.com Sat Aug 21 02:44:38 2010 From: pkray11 at gmail.com (Prakash K Ray) Date: Sat, 21 Aug 2010 02:44:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpIfgpLjgpLLgpL/gpI8g4KSF4KSa4KWN?= =?utf-8?b?4KSb4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpYAuIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: बस इक शेर- जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये -अदम गोंडवी. 2010/8/21 shashi kant > पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... > > > - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते हैं, > किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. > नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर > सबको पगला दिए हैं. > > > - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद > में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को > आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा > मिलेगा कि नहीं. > > > - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म > साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब > का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव पढ़ा है, > शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है > कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. > > > - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं > जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ > हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि > रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता. > > > - हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे से > उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को उलट > दिखाया गया है. > > > - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई > सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. > > > - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई स्तर > पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा नहीं > नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. > > > - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना कि > जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने > वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, > ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये > ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा > होता! > > > ( शेष अगली डाक में) > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- Prakash K Ray Research Scholar, Cinema Studies, School of Arts & Aesthetics, Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. 0 987 331 331 5 http://bargad.wordpress.com/ http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Sat Aug 21 04:57:17 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sat, 21 Aug 2010 04:57:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkquClgOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktScg4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCkpiAuLi4u?= In-Reply-To: References: <940997.62335.qm@web30705.mail.mud.yahoo.com> Message-ID: कमाल है!!! शशिकांत ने जो जो बातें कही हैं, उन सबको एक बार फिर इस तरह देखें... - आत्महत्या करने वाले भले खामोशी से अलविदा कह जाते हों - लेकिन पीपली का नत्‍था और बुधिया दुख की कातर कथा में छिपी खामोश शख्‍सीयत नहीं है। आत्‍महत्‍या का आइडिया उसके अंदर के आवेग से आया - वह ज़माने के तंज से आया और उसी आइडिया के साथ नत्‍थ और बुधिया ने ज़माने पर तंज किया। - इसी हिंदुस्‍तान में पति के रहते बीवियां मोहब्‍बत करती हैं और आशिक के साथ भाग जाती हैं। अखबार में छपता है : चार बच्‍चों की मां प्रेमी के साथ भागी। इसी हिंदुस्‍तान में बीवियां उलाहने देती हैं : आज भी कुछ नहीं लाये - इससे तो बेहतर था कहीं मर-खप जाते। और कोष्‍ठक में जिस अपवाद का जिक्र कर रहे हैं - ये पीपली के संदर्भ में क्‍यों नहीं मानते। - हमने मुआवज़े तब पढ़ा था, जब ये मध्‍यप्रदेश साहित्‍य परिषद की पत्रिका साक्षात्‍कार में छपा था। बाद में इसका मंचन पटना के तनवीर अख्‍तर के निर्देशन में हुआ, जिसे देखा भी। परसाई का व्‍यंग्‍य भोलाराम का जीव भी पढ़ा है और हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं भी। शरद जोशी और चार्ली चैप्लिन भी नहीं छूटे हैं। इसलिए कह रहा हूं कि पीपली लाइव एक अविस्‍मरणीय व्‍यंग्‍य कथा है। - मीडिया के इतिहास में कई बार ऐसी खबरें बनी हैं। आपको उस एक कैरेक्‍टर को याद करना चाहिए - जिसने कहा था कि फलां तारीख को मेरे जीवन का अंत है और सारे टीवी चैनल का कैमरा उसको कैद करने उसके गांव पहुंच गया। बाद में वो नहीं मरा और फिर टीवी वाले नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगे थे। - राज्‍य में चुनावी आचार संहिता के बीच राज्‍य सरकार कोई फैसला नहीं ले सकती, लेकिन केंद्र सरकार तो ले ही सकती है। नत्‍था कार्ड केंद्र सरकार की योजना थी और वह भी सिर्फ पीपली या मुख्‍यप्रदेश के लिए नहीं - पूरे देश के लिए। - आफ्टर पार्टीशन ही अयोध्‍या का राम मंदिर आंदोलन हुआ - जो अयोध्‍या से निकल कर पूरे देश में फैला और एक राजनीतिक मुद्दा बना। - अव्‍वल तो ये मानना नहीं चाहिए कि कुमार दीपक दीपक चौरसिया का कैरीकेचर है। अगर मानते भी हैं - तो दीपक चौरसिया और प्रभु चावला को छोटे पर्दे पर किसी गेस्‍ट से बात करते हुए देखें - आपको पता चलता है कि ये कितनी बेमजेदार लोग हैं और इनकी समझ कितनी सतही है। लगता है कि एक चांटा मारें। आपका भावुक प्रलाप कि "दीपक चौरसिया जैसा सीनियर एंकर" - घंटा सीनियर एंकर। सीनियर एंकर ऐसे होते हैं - तो जूनियर एंकरों से काम चलाना चाहिए। और ये भी आपत्तिजनक लाइन है कि टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं खासकर महिला टीवी रिपोर्टर। वे प्रिंट के रिपोर्टर से ज्‍यादा मेहनत करते हैं खासकर महिलाएं किसी भी मर्द रिपोर्टर से ज्‍यादा सजग रहती है। न हो तो आप कभी किसी रिपोर्टर के साथ स्‍पॉट पर चले जाइए। 2010/8/21 shashi kant > पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... > > > - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते हैं, > किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. > नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर > सबको पगला दिए हैं. > > > - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद > में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को > आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा > मिलेगा कि नहीं. > > > - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म > साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब > का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव पढ़ा है, > शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है > कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. > > > - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं > जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ > हज़ारों ऐसी घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं. हमारे मुल्क़ की > मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे से उसका नहीं के बराबर > सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को उलट दिखाया गया है. > - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई > सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. > > > - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई स्तर > पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा नहीं > नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. > > > - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना कि > जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने > वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, > ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसे प्राइम टाइम में ये > ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा > होता! > शेष अगली डाक में) > > > > > 2010/8/20 avinash das > >> Dear All, plz see the link : >> http://mohallalive.com/2010/08/20/debate-on-peepli-live/ >> regards, * >> avinash* >> >> >> 2010/8/20 avinash das >> >>> एक बात और - हमारी दिल्‍ली में भी रूरल है। मैं दिल्‍ली और गाजियाबाद के >>> बोर्डर पर रहता हूं। शालीमार गार्डेन में। सीमापुरी से शालीमार गार्डेन पैदल >>> आते हुए गेणशपुरी नाम की एक बस्‍ती है, जहां ठेले वालों, रिक्‍शेवालों, मजदूरी >>> करने वालों ने थोड़ा थोड़ा पैसा जुटा कर अपना आशियाना बना लिया है। वहां से >>> शाम-रात नौ-दस बजे आप गुजरें, तो ढोलक-मंजीरा और हार‍मोनियम के साथ गांव-जवार >>> से आयातित कीर्तन-होरी-चैता आपको सुनाई पड़ेगा। >>> >>> अब इसको आप ये तो कहेंगे नहीं कि इतने भर से दिल्‍ली से सटी यूपी की >>> गणेशपुरी गांव तो हो नहीं जाएगी? >>> >>> 2010/8/20 avinash das >>> >>> आशुतोष जी, औपचारिकता और सिंबॉलिज्‍म में फर्क है। इस फिल्‍म का मकसद रूरल >>>> को स्‍टैब्लिश करना नहीं है। यह फिल्‍म नेहरू की तरह भारत की खोज नहीं करती, >>>> आरके लक्ष्‍मण की तरह करती है - इसे हमें समझना चाहिए। आखिर में पलायन के जिस >>>> संदर्भ को आप औपचारिकता की चाशनी में छान रहे हैं - वह भी एक प्रतीक है और उस >>>> प्रतीक के अर्थ आप रोज श्रमजीवी रेलों से दिल्‍ली आती भीड़ में पा सकते हैं। >>>> >>>> शुक्रिया। >>>> >>>> 2010/8/20 mahmood farooqui >>>> >>>> avinash aapki baat bhi sahi hai. Par sahi ya ghalat aap kahte jaiye, >>>>> aapki baaten hamen achhi lagti hai >>>>> >>>>> 2010/8/19 Ashutosh Shyam Potdar >>>>> >>>>> Is film ka form alag hai. satire ka mamala aisehi hota hai. aur >>>>>> nirdeshak ne bekhubi se dikhaya hai. usake liye unaka abhinandan karana >>>>>> jaruri hai. >>>>>> >>>>>> mujhe lagata hai ki nirdeshak bahut andarse janate hai media walonka >>>>>> hungama. insider ka role ada karate huye wo outside rahake bhi dekh sakate >>>>>> hai. ye isaki mahatwapurna khubi hai. usako sarahana chahiye. >>>>>> >>>>>> aaajkal jo urban aur rural mein badhati hui duriya hai wo complexity >>>>>> se dikhane kaa prayant karati hai ye film. but ye sirf prayant kahunga. is >>>>>> point ko lekar mujhe reservation hai film ke bare mein. rural khada nahi kar >>>>>> paati hai. sirf harmonium par gana gane se ya rural geography se rural nahi >>>>>> aayega. usaka context nahi aata hai. ye is film ki kami hai. bahut baar >>>>>> mujhe lagata hai ki landscape dikhane ke liye aur wo bhasha sunane ke liye >>>>>> rural le liya hai. rural culture nahi aata hai bulki sirf setting ata hai. >>>>>> >>>>>> is background pe, kisano ki aatmahattya ke baare mein bolana sirf >>>>>> aupcharikata hoti hai. akhiri statement jo farmers ke migration ke bare me >>>>>> bolati hai wo bhi ek aupcharikata banati hai. kyonki, usako support karane >>>>>> wala kuch piche aata naahi. >>>>>> >>>>>> film dikhati hai ki wo character jo kisi construction mein jaa kar >>>>>> kaam karane lagata hai wo media ki behuda harkato ki vajah se. wo nahi >>>>>> dikhata hai ki farming mei kya issues hai jinaki wajah se farmers farming >>>>>> chod dete hai. >>>>>> >>>>>> ik kua(well) khodane wala character farmer nahi hai wo laborer hai. >>>>>> usaki jamin hai kya nahi hai iska bhashya nahi hai.(??) wo sirf background >>>>>> pe hai. ye samajhana mahatwa purna hai ki rural mein- kisan, laborer vaigere >>>>>> log hote hai. usaka study karana jaroori tha character dikhane ke pahale. >>>>>> >>>>>> is mudhe ko leke film ke team ne kuch kaam karana jaruri tha. >>>>>> >>>>>> ab to film ho chuki hai, jaise M. Faroquee bolate hai. mujhe pura >>>>>> vishas hai ki ye film nirdeshak ke liye ek learning tha. iske saath wo agale >>>>>> film par kaam karenge. >>>>>> >>>>>> main suzav dunga ki sequel kare is film ka. bahut acha creative >>>>>> tension dikhane ki kshamata nirdeshak mein hai. wo agale film mein ayega. >>>>>> she can start with where the character has reached- construction site. she >>>>>> can get back and start looking at rural reality again.... >>>>>> >>>>>> but, congratulations for this film. is film ki vajaha se multiplex >>>>>> mein baithkar is desh ki kuch 'unseen' pahalu to 'enjoy' kar sakate hai!! >>>>>> >>>>>> amen, >>>>>> >>>>>> Ashutosh >>>>>> ------------------------------ >>>>>> *From:* avinash das >>>>>> *To:* shashi kant >>>>>> *Cc:* deewan >>>>>> *Sent:* Thu, August 19, 2010 1:18:54 PM >>>>>> *Subject:* Re: [दीवान]'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>>>> >>>>>> शशिकांत जी, दरअसल आपने फिल्‍म को समझा ही नहीं। ये न तो किसानों की >>>>>> समस्‍या पर एक डॉकुमेंट्री फिल्‍म है, न ही भारतीय मीडिया का कोई >>>>>> समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण। ये फिल्‍म इस देश की उलझी हुई बुनावट के भीतर छिपी >>>>>> ढेर सारी विडंबनाओं पर एक फीकी हंसी हंसने की कोशिश है। >>>>>> >>>>>> शुरू से अंत तक ये एक इंटरटेनमेंट फिल्‍म है। किसान की समस्‍या, लोन और >>>>>> खुदकुशी तो एक प्रतीक है - उसके बहाने मीडिया और राजनीति के खेल पर एक कार्टून >>>>>> बनाने की कोशिश है ये फिल्‍म। >>>>>> >>>>>> आप अजीत अंजुम की भाषा में बात मत कीजिए। विदर्भ में हुआ फिल्‍म का विरोध >>>>>> एक स्‍टंट है। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि विदर्भ के किसानों ने पीपली लाइव नहीं >>>>>> देखी होगी। क्‍या आपको याद है, मीडिया का वो तमाशा - जिसमें किरदार राहुल गांधी >>>>>> है और विदर्भ की एक विधवा है। आपको पता है, उस विधवा का क्‍या हुआ? >>>>>> >>>>>> 2010/8/19 shashi kant >>>>>> >>>>>>> 'पीपली लाइव' देखने के बाद .... >>>>>>> >>>>>>> *वीरू : “कूद जाऊँगा...फाँद जाऊँगा... मर जाऊँगा…हट जाओ...”* >>>>>>> * गाँव वाला -१ : “अरे-अरे ये क्या कर रहे हो?” >>>>>>> वीरू : “वही कर रहा हूँ जो मजनूं ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर >>>>>>> के लिए किया था रोमियो ने जूलियट के लिया था, सुसाइड, सुसाइड… >>>>>>> गाँव वाला-२ : “अरे भाई ये 'सुसाइड' क्या होता है?” >>>>>>> गाँव वाला-३ :"अँग्रेज़ लोग जब मरते हैं तो उसे 'सुसाइड' कहते हैं.”**गाँव >>>>>>> वाला-२ : **“लेकिन ये अँग्रेज़ लोग मरते क्यों हैं?” >>>>>>> **गाँव वाला-३ : **“वो….”**गाँव वाला -१ : **“अरे भाई बात क्या है? तुम >>>>>>> सुसाइड क्यों करना चाहते हो?” >>>>>>> वीरू : “ये मत पू्छो चाचा, तुम्हारे आँसू निकल आएँगे. ये बड़ी दुख भरी >>>>>>> कहानी है. इस स्टोरी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है!!!"* >>>>>>> *#शोले * >>>>>>> >>>>>>> *“हम किसानों पर फिल्म बनाने चले थे लेकिन बन गई मीडिया पर…!” * >>>>>>> *# महमूद फारूकी (सह-निर्देशक, ‘पीपली लाइव’)* >>>>>>> >>>>>>> मित्रो, >>>>>>> आमिर ख़ान प्रोडक्शन के बैनर तले अनूषा रिज़वी और महमूद फारूकी के >>>>>>> निर्देशन में अभी हाल में रीलीज़ हुई फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी किसानों की >>>>>>> आत्महत्या के इर्द-गिर्द घूमती है. >>>>>>> >>>>>>> मैने जो पढ़ा है, पिछले सालों में किसानों की 'सुसाइड' करने की जो भी >>>>>>> घटनाएँ घटी हैं और घट रही हैं वे महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में >>>>>>> ज़्यादातर. >>>>>>> >>>>>>> मेरा मानना है कि ये सुसाइड उन किसानों ने की है और कर रहे हैं जो >>>>>>> व्यावसायिक खेती कर रहे थे/हैं, और जो बॅंक लोन के जाल में फँस गये थे/हैं. >>>>>>> >>>>>>> बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे ग़रीब राज्यों के >>>>>>> किसान चाहे जितने भी बदहाल, फटेहाल और लाचार हों और भारी से भारी तकलीफ़ में जी >>>>>>> रहे हों लेकिन वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते. >>>>>>> >>>>>>> आख़िर क्यों? >>>>>>> >>>>>>> मुझे खेद है कि ’पीपली लाइव’ फिल्म में किसानों की आत्महत्या की समस्या >>>>>>> को ग़लत पृष्ठभूमि में पेश किया गया है, 'शोले' के वीरू (धर्मेंद्र) की तरह >>>>>>> सुसाइड का ख़ूब ड्रामा करते हैं दोनों भाई, और भी बहुत से झोल हैं फिल्म >>>>>>> में...वो सब अगली डाक में...! >>>>>>> >>>>>>> _______________________________________________ >>>>>>> Deewan mailing list >>>>>>> Deewan at sarai.net >>>>>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>>>> >>>>>>> >>>>>> >>>>>> >>>>>> _______________________________________________ >>>>>> Deewan mailing list >>>>>> Deewan at sarai.net >>>>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>>>> >>>>>> >>>>> >>>> >>> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Sat Aug 21 04:59:47 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sat, 21 Aug 2010 04:59:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpIfgpLjgpLLgpL/gpI8g4KSF4KSa4KWN?= =?utf-8?b?4KSb4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpYAuIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: वाह वाह! वाह वाह!! वाह वाह!!! 2010/8/21 Prakash K Ray > बस इक शेर- > जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये > आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये > -अदम गोंडवी. > > 2010/8/21 shashi kant > >> पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... >> >> >> - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते >> हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. >> नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर >> सबको पगला दिए हैं. >> >> >> - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद >> में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को >> आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा >> मिलेगा कि नहीं. >> >> >> - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म >> साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब >> का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव पढ़ा है, >> शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है >> कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. >> >> >> - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं >> जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ >> हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि >> रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता. >> >> >> - हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे >> से उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को >> उलट दिखाया गया है. >> >> >> - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई >> सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. >> >> >> - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई >> स्तर पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा >> नहीं नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. >> >> >> - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना >> कि जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने >> वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, >> ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये >> ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा >> होता! >> >> >> ( शेष अगली डाक में) >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > Prakash K Ray > Research Scholar, Cinema Studies, > School of Arts & Aesthetics, > Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. > > 0 987 331 331 5 > http://bargad.wordpress.com/ > > http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From uchaturvedi at gmail.com Sat Aug 21 08:15:39 2010 From: uchaturvedi at gmail.com (umesh chaturvedi) Date: Sat, 21 Aug 2010 08:15:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSq4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpIfgpLjgpLLgpL/gpI8g4KSF4KSa4KWN?= =?utf-8?b?4KSb4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpYAuIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: अविनाश जी, बढ़िया विश्लेषण...और जवाब भी... बहस अच्छी चल रही है 2010/8/21 avinash das > वाह वाह! वाह वाह!! वाह वाह!!! > > 2010/8/21 Prakash K Ray > >> बस इक शेर- >> जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये >> आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये >> -अदम गोंडवी. >> >> 2010/8/21 shashi kant >> >>> पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... >>> >>> >>> - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते >>> हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. >>> नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर >>> सबको पगला दिए हैं. >>> >>> >>> - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद >>> (अपवाद में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के >>> फ़ैसले को आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी >>> मुआवज़ा मिलेगा कि नहीं. >>> >>> >>> - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म >>> साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब >>> का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव पढ़ा है, >>> शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है >>> कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. >>> >>> >>> - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं >>> जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ >>> हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि >>> रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता. >>> >>> >>> - हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे >>> से उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को >>> उलट दिखाया गया है. >>> >>> >>> - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई >>> सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. >>> >>> >>> - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई >>> स्तर पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा >>> नहीं नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. >>> >>> >>> - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना >>> कि जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने >>> वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, >>> ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये >>> ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा >>> होता! >>> >>> >>> ( शेष अगली डाक में) >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> >> -- >> Prakash K Ray >> Research Scholar, Cinema Studies, >> School of Arts & Aesthetics, >> Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. >> >> 0 987 331 331 5 >> http://bargad.wordpress.com/ >> >> http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -- उमेश चतुर्वेदी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sat Aug 21 17:45:17 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 21 Aug 2010 17:45:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKrgpYA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSy4KWAIOCksuCkvuCkh+CktSDgpIfgpLjgpLLgpL/gpI8g4KSF?= =?utf-8?b?4KSa4KWN4KSb4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpYAuIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2010/8/21 Subject: Re: [दीवान]पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी.! To: umesh chaturvedi शशिकांतजी, बाकी की देश-दुनिया की जानकारी और समझ हमें तो नहीं है लेकिन मैं महसूस करता हूं कि जब भी आप टेलीविजन पर बात करते हैं,संभव है आप अपनी समझदारी को हमसे शेयर कर रहे हों लेकिन उसे पढ़ते हुए हमें अक्सर महसूस करता हूं आप अपनी दुराग्रह हमारे सामने पटक दिए दे रहे हैं। पीपीली लाइव के मामले में ये बात साफ तौर पर दिखाई देती है। ये खुशफहमी या गलतफहमी आपको ही नहीं प्रिंट के भतेरे लोगों में है कि प्रिंट के लोग ज्यादा काम करते हैं और टेलीविजन के लोग कामचोर होते हैं। फिर ये कि प्रिंट में ज्यादा काबिल लोग होते हैं,इलेक्ट्रॉनिक में कम। ये आप एक जेनरल फेनोमेना की तरह बात कर रहे हैं जिसमें या तो सुनी-सुनाई बात का हिस्सा ज्यादा है या फिर आपको आउटपुट के तौर पर जो दिखाई देता है,उसके अंदाज पर ऐसा कह रहे हैं। जबकि ये बात मैं सिरे से खारिज करता हूं। फिल्म में नंदिता को कामचोर नहीं दिखाया गया है बल्कि जिस सीनियर दीपक चौरसिया के कैरिकेचर कुमार दीपक से आप तुलना कर रहे हैं उससे कहीं ज्यादा चुस्त औऱ चौकस दिखाया गया है। नंदिता को कामचोर नहीं बल्कि अंग्रेजी चैनल के लोगों में जो एक्स्ट्रा एटीट्यूड है,उस पर फोकस किया गया है। अब बात दीपक की,यहां न तो हमें चौरससिया लगाने की जरुरत है और न ही कुमार। आपके मन में सम्मान का भाव है तो बरकरार रखिए,कोई दिक्कत नहीं है। आपकी तरह बाकी के लोगों के मन में भी इस तरह का भाव बना रहे। लेकिन यहां बात दीपक की नहीं हो रही है,हिन्दी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उस एप्रोच की हो रही है जिसे हमेशा एख-दूसरे से अलग दिखने-दिखाने की छटपटाहट है। अब देखिए न,सब सो रहे हैं तो वो दीपक लोग खेतों में ही पॉटी कैसे करते हैं,उसे कवर करने के लिए कैमरामैन को अटारी पर चढ़ा दिया।..फिर देखिए कि कैसे अफरा-तफरी मची और इस बीच नत्था गायब। दीपक ने अपने एफर्ट से उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। मतलब ये कि हिन्दी मीडिया का ये तथाकथित सबसे काबिल पत्रकार किस तरह खबर से ज्यादा तमाशे बनाने में दिलचस्पी लेता है,इसे समझा जाना चाहिए। बाकी लोगों का क्या कहा जाए? मैं जो महसूस कर रहा हूं कि आपने शुरुआत में ही फिल्म को गलत तरीके से समझा या फिर ये भी संभव है कि गलत नीयत से देखा इसलिए कई चीजें वेवजह उलझकर रह गयी है। नहीं तो कई बातों के मायने हमें सिनेमा और असल जिंदगी से मिलान करने पर भी अलग नहीं लगते। आपलोग दीवान पर जिन मुद्दों को पीपली के बहाने उठा रहे हैं,माफ कीजिएगा मेरी समझ का दायरा उतना पैन इन नहीं है लेकिन करते-करते आप मीडिया पर आ गए तो कमेंट करना जरुरी समझा। पीपली लाइव अब तक की पहली फिल्म है जो स्टीरियोटाइप से चैनलों की हो रही समीक्षा के बरक्स एक ठोस एवीडेंस हमारे सामने पेश करती है,एक टेक्सट देती है जिसे डिकन्सट्रक्ट कर कई मायने निकाले जा सकते हैं। विनीत 2010/8/21 umesh chaturvedi > > अविनाश जी, > बढ़िया विश्लेषण...और जवाब भी... > बहस अच्छी चल रही है > 2010/8/21 avinash das > > वाह वाह! वाह वाह!! वाह वाह!!! >> >> 2010/8/21 Prakash K Ray >> >>> बस इक शेर- करता हूं >>> >>> जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये >>> आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये >>> -अदम गोंडवी. >>> >>> 2010/8/21 shashi kant >>> >>>> पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी..... >>>> >>>> >>>> - आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते >>>> हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. >>>> नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर >>>> सबको पगला दिए हैं. >>>> >>>> >>>> - हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद >>>> (अपवाद में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के >>>> फ़ैसले को आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी >>>> मुआवज़ा मिलेगा कि नहीं. >>>> >>>> >>>> - जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं >>>> भीष्म साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, >>>> गज़ब का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य भोलाराम का जीव >>>> पढ़ा है, शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये >>>> संभव है कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. >>>> >>>> >>>> - मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं >>>> जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ >>>> हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि >>>> रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता. >>>> >>>> >>>> - हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे >>>> से उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को >>>> उलट दिखाया गया है. >>>> >>>> >>>> - चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी >>>> कोई सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर. >>>> >>>> >>>> - आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई >>>> स्तर पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा >>>> नहीं नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर. >>>> >>>> >>>> - टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना >>>> कि जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने >>>> वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, >>>> ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये >>>> ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा >>>> होता! >>>> >>>> >>>> ( शेष अगली डाक में) >>>> >>>> _______________________________________________ >>>> Deewan mailing list >>>> Deewan at sarai.net >>>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>>> >>>> >>> >>> >>> -- >>> Prakash K Ray >>> Research Scholar, Cinema Studies, >>> School of Arts & Aesthetics, >>> Jawaharlal Nehru University, New Delhi-67. >>> >>> 0 987 331 331 5 >>> http://bargad.wordpress.com/ >>> >>> http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at sarai.net >>> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at sarai.net >> https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > उमेश चतुर्वेदी > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From avinashonly at gmail.com Sun Aug 22 09:46:51 2010 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 22 Aug 2010 09:46:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Demonstration?= In-Reply-To: References: Message-ID: जो मेल जारी करता है, वो अपना नाम सबसे नीचे रखता है। On 22 August 2010 09:40, Rohit Prakash wrote: > > *Demonstration at Bhartiya Gyanpith, New Delhi to seek removal of V.N Rai, > VC of MGIHU Wardha and Ravinder Kalia, Editor, Naya Gyanoday.* > > You are invited to participate in a *Demonstration to seek the dismissal > of V.N.Rai (Vice Chancellor, MGIHU.) and Ravinder kalia, (the Editor of Naya > Gyanoday).* > > You may be aware that V.N.Rai has a long track record of being Anti - > Dalit, Anti - Poor and Anti - Women, which he has demonstrated on various > occasions. Latest has been highly derogatory sexist abuse aimed > towards women writers of eminence, in his interview that appeared in > 'Naya Gyanoday', magazine of Bhartiya Gyanpith. > > It is highly deplorable that such people are holding offices of eminence in > the Country and are allowed to inflict a serious blow to negate the efforts > of Dalits, Disadvantaged and Women of India, to rise from their current > deplorable state and progress to steer the direction of the maintream Indian > society - which is their rightful place! > > *VENUE : Bhartiya Gyanpith, Institutional Area Lodi Road, (behind Sai Baba > Temple) , NEW DELHI-110003*. > *TIME : 10:00 AM Onwards* > *DATE: 23rd AUGUST 2010.* > ** > *Seeking your support and participation!* > *In solidarity,* > ** > *Maitrayee Pushpa, * > *Rohit Prakash, * > *Uma Shankar, * > *Wajda Tabassum, * > *Alpana Mishra, * > *Anita Bharti,* > *Ranjit Verma, * > *Arvind Kumar, * > *Pankaj Chaudhary, * > *Subhash Gatade,* > *Anjali Sinha, * > *Rajni Tilak, * > *Rajeev Singh, * > *Bhasha Singh, * > *Swatantra Mishra,* > *Praful Moon,* > *Bajrang Bihari,* > *Anjani Kumar,* > *Kumar Mukul,* > *Jitendra Kumar,* > *and Others......* > > -- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Sun Aug 22 15:51:48 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 22 Aug 2010 15:51:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpJfgpL/gpLDgpKbgpL4=?= Message-ID: इस अल्सायी और मेरे लिए लंबे समय से ह्रासमेंट में धकेलती आयी दुपहरी में अविनाश ने जैसे ही बताया कि गिरदा नहीं रहे तो सोने-सोने को होने आयी आंखों में बरबस आंसू आ गए। अविनाश ने उनकी उन तस्वीरों की ताकीद की जिसे कि हमने दून रीडिंग्स के दौरान देहरादून में लिए थे। हमें एकबारगी अपनी गलती का एहसास हुआ कि हम क्यों एक ऐसे फोटो पत्रकार साथी के भरोसे रह गए जिन्होंने हमें इस बिना पर ज्यादा तस्वीरें नहीं लेने दी कि वो सब दे देंगे और दूसरा कि जो भी तस्वीरें ली उसे आज दिन तक भेजी नहीं। हम गिरदा की तस्वीरें खोजने की पूरी कोशिश में जुटे हैं। गिरदा के बारे में न तो हमें बहुत अधिक जानकारी है और न ही वो जो अब तक गाते आए हैं,उसकी कोई गहरी समझ। कविता और गीत के प्रति एक नकारात्मक रवैया शुरु से रहा है इसलिए इसकी जानकारी मं शुरु से बाधा आती रही है। सुबह के विमर्श और तीन घंटे के लिए मसूरी से लौटने के बाद पेट में हायली रिच खाना गया तो न तो कुछ और सुनने की इच्छा हो रही थी और न ही कुछ कहने की। हम कुर्सी में धंसकर सोना चाहते थे,बैठना नहीं। तभी गिरदा दूसरे सत्र में मंच पर होते हैं। ये वो सत्र रहा जिसमें कि गिरदा सहित बाकी लोगों ने उत्तराखंड के लोगों के दर्द को गाकर या कविता की शक्ल में हमसे साझा किया। गिरदा ने जब गाना शुरु किया तो लगातार भीतर से आत्मग्लानि का बोध होता रहा। दो तरह की पनीर,करीब 80-90 रुपये किलो के चावल,रायता और तमाम रईसजादों का खाना खाकर जब हम जंगली साग रांधने(पकाने) की बात गिरदा के स्वरों में सुनने लगे तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था। गिरदा के गीत सुनकर हमें उबकाई आने लगी। हमारा जिगरा इतना बड़ा तो नहीं कि लोगों के दर्द को सुनकर अपना सुख और प्लेजर को लात मार दें लेकिन उस समय जो खाया था,उसकी उबकाई हो जाती और फिर गिरदा को सुनता,तब उन गीतों के साथ न्याय हो पाता। गिरदा के गाने की जो आवाज थी,वो इतनी बारीक लेकिन दूर तक जानेवाली,इतनी दूर जानेवाली कि देहरादून,मसूरी की पहाडियों में जो वीकएंड,हनीमून मनाने आते हैं, गरीबी और भूखमरी पर विमर्श करने आते हैं,कॉर्पोरेट की टेंशन लेकर यहां चिल्ल होने आते हैं,उन सबके कलेजे में नश्तर की तरह चुभती चली जाए। वो अपने गीतों में हद तक लोगों के बेशर्म होने का एहसास भरते। गिरदा को सुनने से तिल-तिलकर मरते हुए गीतकार के सामने से गुजरने का एहसास होता जिसका हर अंतरा,हर मुखड़ा सुनने के बाद कब्र और नजदीक होती जाती। मफल्ड ड्रम की हर बीट जैसे मुर्दे को कब्र के नजदीक ले जाती है। उनको सुनने से ऐसा लगता था कु दूर कोई पहाड़ की तलहटी में ऐसा शख्स गा रहा है जिसके पेट तीर से छलनी हो और गले में खून जमा हुआ है। डेढ़ से दो घंटे की सेशन में गिरदा को सुनकर हम सचमुच पागल हो गए थे। छूटते ही हमने तय किया कि उनके कुछ गीतों की हम अलग से रिकार्डिंग करेंगे। लोग उनकी सीडी,कैसेट निकालने की बात कर रहे थे लेकिन उसमें उलझनें जानकर हमने तय किया था कि कुछ नहीं तो रिकार्ड करके यूट्यूब पर डाल देंगे। मैं तब अकेले गिरदा के पास गया और कहा कि ऐसा कुछ करना चाहते हैं। वो बच्चे की तरह खुश हो गए। साथ में अविनाश भी ऐसा करने में बहुत उत्साह दिखाया। लेकिन हम दिल्ली आते-आते तक ऐसा नही कर सके। उस रात डिनर में गिरदा अपनी मौज में थे। हिमांशु शेखर,पुष्पेश पंत और दिल्ली से गए तमाम साहित्यकारों के बीच वो उफान पर थे..सब तरह से। लेकिन हम उनका कोई भी गीत रिकार्ड न कर पाए। देहरादून की होटल में देर रात हमने उनके लिए सिर्फ इतना लिखा- गिरदा ने हमें पागल कर दिया तीन घंटे की थकान लेकर जब हम वापस होटल अकेता के सेमिनार हॉल में दाखिल हुए, तब गिरदा ने अपना जादू-जाल फैलाना शुरू ही किया था। गिरदा अपने गानों में उत्तराखंड के भूले-बिसरे चेहरों और यादों को फिर से अपनी आवाज के जरिये सामने लाते हैं। वो जब भी गाते हैं, उनकी आवाज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को दर्शाती है। इन्होंने फैज की कई कविताओं का अनुवाद भी किया है। गिरदा ने जब हमें सुनाया कि चूल्हा गर्म हुआ है, साग के पकने की गंध चारों ओर फैल रही है और आसमान में चांद कांसे की थाली की तरह टंगा है, तो बाबा नागार्जुन आंखों के आगे नाचने लग गये। यकीन मानिए आप गिरदा को सुनेंगे तो पागल हो जाएंगे। मैं दिल्ली आते ही उनके गाये गीतों का ऑडियो लोड करता हूं। लेकिन,हम उस दिन से लेकर आज दिन तक कोई ऑडियो अपलोड नहीं कर पाए। जब अब तक नहीं किया तो क्या कर पाएंगे? सोचता हूं तो लगता है कि हम गिरदा के कुछ गाने अगर रिकार्ड करते तो क्या खर्चा जाता। गिरदा तो हमसे लगातार बस बीड़ी मिलती रहने की शर्त पर गाने को तैयार थे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Sun Aug 22 21:03:40 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 22 Aug 2010 21:03:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSt4KWC?= =?utf-8?b?4KSk4KS/LeCkleCkvuCksuCkv+Ckr+Ckvjog4KSP4KSVIOCkquCkvw==?= =?utf-8?b?4KSk4KWD4KS44KSk4KWN4KSk4KS+4KSk4KWN4KSu4KSVIOCkquCknw==?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+?= Message-ID: विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा *नया ज्ञानोदय में छपे विभूति के इंटरव्यू के बाद काफी कुछ हुआ है, कहा गया है, लिखा गया है. लेकिन साथ में, काफी कुछ नहीं भी कहा गया है, काफी कुछ नहीं भी लिखा गया है और जो होना चाहिए वह अब तक नहीं हुआ है. यह महज गलत शब्दों का चयन या बदजुबानी नहीं है, जैसा कि इसे कई बार साबित करने की कोशिश की गई है. साथ ही यह सिर्फ बिक जाने की मानसिकता भी नहीं है. इसकी गहरी वजहें हैं. यह टिप्पणी बाजार, इस व्यवस्था के पितृसत्तात्मक आधारों, सामंतवाद के साथ उपनिवेशवाद की संगत और महिलाओं के साथ-साथ समाज के सभी उत्पीड़ित वर्गों की मुक्ति के संघर्षों से कट कर जी रहे और साथ में कुछ हद तक सुविधाभोगी हुए एक तबके के हितों के आपस में गठजोड़ का एक (एकमात्र नहीं, सिर्फ एक) उदाहरण भर है. इसलिए हैरत नहीं कि दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के पक्ष में हो रहे लेखन की मलामत करते हुए इसी ज्ञानोदय में कुछ समय पहले लिखे गए संपादकीय पर किसी का ध्यान नहीं गया था. कितना गहरा रिश्ता है आपस में इन सबका. एक व्यवस्था आदिवासियों को विस्थापित करती है, उनके संघर्षों को कुचलने के लिए सेना उतारती है. उसका एक तबका दलितों पर लगातार अत्याचार करता है. उसका एक दूसरा तबका महिलाओं को अपनी विजय के तमगे के रूप में इस्तेमाल करता है और एक संपादक (जिसके पीछे लेखकों और दूसरे बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है) उन सबके समर्थन में लिखे जा रहे को हिकारत से खारिज कर देता है. विभूति प्रसंग में हम हाशिया पर ईपीडब्ल्यू के ताजा संपादकीय का अनिल द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं.* *पूरा पढ़ेंः विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mediamorcha at gmail.com Sun Aug 1 13:07:54 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Sun, 01 Aug 2010 07:37:54 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpJzgpKgg4KS44KSw4KWL4KSV4KS+4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkhyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpL/gpJXgpL4gd3d3Lm1lZGlh?= =?utf-8?q?morcha=2Eco=2Ein?= In-Reply-To: References: Message-ID: *मीडिया के जन सरोकार की इ पत्रिका * *pl.read on www.mediamorcha.co.in * Media: landscape is changing [image: Media: landscape is changing] SHAN SINGH from USA/ The media is slowly becoming the mind of many people. Humans all around the world are subtly, but surely, giving up their own opinion for that of what the media conjures up. See, the media is an extremely powerful entity, one which has the capacity of controlling mass numbers of ... Posted on July 29 2010 Read more... कर्तव्य और उद्देश्य के बीच हिचकोले खाता मीडिया [image: कर्तव्य और उद्देश्य के बीच हिचकोले खाता मीडिया] रूमी नारायण। किसी ने सच कहा है कलम की ताकत तलवार की धार से भी तेज होती है। कलम से निकला हर शब्द बारूद के गोले की तरह अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उसके हर शब्द में एक अनकही कहानी और अनेक महत्वपूर्ण बातें होती है। स्याही के बूंद से बनी शब्दों में सच्चाई और ... Posted on July 27 2010 Read more... पहली बार हिंदी के पत्रकार बने राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति के चेयरमैन [image: पहली बार हिंदी के पत्रकार बने राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति के चेयरमैन] ख़बर/ नई दिल्ली । हमेशा से अंग्रेजी पत्रकारों को तरजीह देने वाले राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति ने पहली बार एक हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार को अपना अध्यक्ष मनोनित किया है। दैनिक भास्कर समूह से जुड़े पत्रकार उर्मिलेश राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति के चेयरमैन मनोनीत किये गये हैं। इससे पहले अंग्रेजी के पत्रकार ... Posted on July 26 2010 Read more... उपक्रम में बदलते मीडिया के खिलाफ गोलबन्दी [image: उपक्रम में बदलते मीडिया के खिलाफ गोलबन्दी] डा. देवाशीष बोस / आजादी से पूर्व पत्रकारिता खास कर हिन्दी पत्रकारिता का काम देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराना था। आजादी के बाद देश का नवनिर्माण पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए था। लेकिन पत्रकारिता ,मीडिया बनते ही अपने लक्ष्य से भटक गया। गणेश शंकर विद्यार्थी , अम्बिका दत्त बाजपेयी तथा पराकर ... Posted on July 23 2010 Read more... देख तमाशा देख ! [image: देख तमाशा देख !] लीना / विधानसभा अध्यक्ष पर चप्पल फेंकी , कुर्सियां पटकीं , एक दूसरे पर हमला किया , मार्शल पर गमला दे मारा , पिछले कई दिनों से मीडिया पर बिहार विधानमंडल का यह तमाशा-माननीय विधायकों की जूतम पैजार खूब देखने को मिल रहा है। और कैमरा को देख-देख कर विधायकों ने भी तमाशा तहेदिल से ... Posted on July 21 2010 Read more... शुभ समाचार [image: शुभ समाचार] कविता / शिवानी प्रकाश / अत्याचार भ्रष्टाचार हहाकार यही है आजकल के समाचार आरुषि रुचिका जेसिका जैसो को अभी भी है न्याय की आस सरकार कहती है इसी ओर तो चल रहा है प्रयास होगा मां-बाप का नारको टेस्ट लगता है वो है दोषी फिर छाई लम्बी खामोशी ये है आज के ताजा समाचार कहीं कर रहा किसान आत्महत्या चारों ओर महंगाई ... Posted on July 21 2010 Read more... भटकाव के राह पर है मीडिया ? [image: भटकाव के राह पर है मीडिया ?] कीर्ति सिंह । मीडिया जो हमारे लोकतंत्र का चौथा खंभा है और इसका काम है लोगों तक सकारात्मक और जन उपयोगी खबरों को पूरी ईमानदारी के साथ पहुंचाना, जो अपने एथिक्स पर चलता है। लेकिन सच्चाई यह है कि मीडिया ने अपने ... Posted on July 19 2010 Read more... किसका मीडिया, कैसा मीडिया [image: किसका मीडिया, कैसा मीडिया]♦ संजय कुमार / किसका मीडिया, कैसा मीडिया। जवाब सीधा है, पूंजीपतियों का मीडिया। सामंतों का मीडिया। दलालों का मीडिया। समरथ को नहीं दोष गोषाईं… आदि-आदि का मीडिया। जी हां, मीडिया की परिभाषा आज बदल चुकी है। मीडिया यानी खबरों, विचारों और मनोरंजन को लोगों तक पहुंचाना अब गाली लगती है। खबरें, साबुन, सर्फ, पेस्ट की ... Posted on July 19 2010 Read more... न्‍याय के पक्ष में खड़ा होना लेखक की जि‍म्‍मेदारी है – हृषीकेश सुलभ (ब्रि‍टेन के हाउस ऑफ कामन्‍स में सुलभ को इंदु शर्मा कथा-सम्‍मान) [image: न्‍याय के पक्ष में खड़ा होना लेखक की जि‍म्‍मेदारी है – हृषीकेश सुलभ (ब्रि‍टेन के हाउस ऑफ कामन्‍स में सुलभ को इंदु शर्मा कथा-सम्‍मान)] खबर / ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त नलिन सूरी ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में हिन्दी लेखक हृषिकेश सुलभ को उनके कथा संकलन ‘वसन्त के हत्यारे’ के लिये ‘सोलहवां अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान’ प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंने ब्रिटेन में बसे हिन्दी लेखक महेन्द्र दवेसर और कादम्बरी मेहरा को ग्यारहवां पद्मानंद ... Posted on July 19 2010 Read more... एक अख़बार का पहला पन्ना [image: एक अख़बार का पहला पन्ना] अरुण लाल।/ सबसे पहले अख़बार का नाम। उसके बाद एक अधनंगी लडकी (हिरोईन) की तस्वीर जिसके तन पर कपड़ों को तलाशना पड़ता हो। सम्पादक का मानना है कि मांस का लोथडा देख कर लोग अख़बार खरीदते है. सम्पादक इसे महिलाओं की आजादी का नाम भी देता है। नीचे किसी महात्मा के बोल है - कर्म ... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From filmashish at gmail.com Tue Aug 17 13:05:31 2010 From: filmashish at gmail.com (ashish k singh) Date: Tue, 17 Aug 2010 13:05:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Amitaabh reviews Peepli Live In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: ndfs desk Date: Tue, Aug 17, 2010 at 12:26 PM Subject: Amitaabh reviews Peepli Live To: alok bhalla *Hi,* ** ** ** *Plz Visit* http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/ *to read पीपली का परजातंतर : Review of Anusha Rizvi's film 'Peepli Live'* ** *by* ** *senior TV journalist* *Amitaabh.* ** *and post your comments.* ** ** ** ** *Best,* ** *NDFS Desk* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From jhamanoj01 at yahoo.com Sun Aug 1 14:49:55 2010 From: jhamanoj01 at yahoo.com (manoj jha) Date: Sun, 01 Aug 2010 09:19:55 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Rnc6IOCkueCkgg==?= =?utf-8?b?4KS4IOCkuOCkguCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KSy4KSX?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCksOClhy0g4KS14KS/4KSt4KWC4KSk4KS/LOCkruClhw==?= =?utf-8?b?4KS54KSk4KS+IOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrOCkvuCkpiEg4KSu4KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSm4KS+4KSs4KS+4KSmLOCkruClgeCksOCljeCkpuCkvuCkrA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <72837.99415.qm@web112607.mail.gq1.yahoo.com> saahsik report ,zaroori loktaantrik kaarwaaee.vinitji ko badhai,thanks Subject: Re: [दीवान]हंस संगोष्ठी में लगे नारे- विभूति,मेहता मुर्दाबाद! मुर्दाबाद,मुर्दाबाद,zaroori loktaantrik kaarwaiee,vinitji ko badhai ________________________________ From: vineet kumar To: deewan Sent: Sun, August 1, 2010 9:28:17 AM Subject: [दीवान]हंस संगोष्ठी में लगे नारे- विभूति,मेहता मुर्दाबाद! मुर्दाबाद,मुर्दाबाद! हिंदी लिटरेचर की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच कही जानेवाली पत्रिका हंस की संगोष्ठी में जो नजारा हमने देखा, उससे एक साथ कई चीजें तार-तार हो गयीं। इस संगोष्ठी को मैं अपनी याददाश्त बरकरार रहने तक लोकतंत्र के मूल्यों की सरेआम धज्जियां उड़ानेवाली संगोष्ठी के तौर पर याद रखूंगा। ये मैंने अपने अकादमिक जीवन में पहली बार देखा कि किसी संगोष्ठी में वक्ता अपनी बात कहने के तुरंत बाद ही दर्शकों की चिंता किये बगैर मंच से नीचे उतरकर फील्डिंग करने लग गये। मंच की कुर्सियां एक-एक करके खाली होने लग जाती हैं। मंच संचालक का मंच, उस पर स्थापित लोगों और माहौल से पकड़ फिसलकर चुप्पी की नाली में जा गिरती है। वो विश्वरंजन की स्टेपनी के तौर पर आये विभूति नारायण राय से लाख अपीलें करते हैं कि मंच पर बने रहें लेकिन हजारों छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ानेवाले, फैकल्टी को ठोक-पीटकर अपने काम लायक बनानेवाले विभूति नारायण इसकी परवाह किये बगैर सीधे गेट की तरफ बढ़ते हैं। सभागार में बैठी ऑडिएंस इसे सीधा-सीधा अपना अपमान मानती है और हंगामा मच जाता है। उनकी सिर्फ इतनी ही मांग होती है कि हमने आपको इतनी देर तक बैठकर सुना, हमारे पास कुछ सवाल हैं, आप उन सवालों के जवाब दिये बगैर नहीं जा सकते। जाहिर है महीनों से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है, उसे लेकर कई सवाल बनते हैं। जिन ऑडिएंस ने अगस्त महीने के नया ज्ञानोदय में उनका इंटरव्यू पढ़ा होगा, वो सवाल करना चाह रहे होंगे कि आखिर आपने किस अधिकार से कह दिया कि हमारी लेखिकाओं में अपने को एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा छिनाल साबित करने की होड़ है। उपन्यास का नाम ‘कितनी बिस्तरों पर कितना बार’ होना चाहिए, बताया। ये मसला पॉपुलरिटी स्टंट बोलकर नजरअंदाज करने का नहीं बल्कि उनसे जबाबतलब करने का है। ये मामला उनके इस्तीफे की मांग तक जा सकता है। सामूहिक तौर पर माफी मांगने पर जा सकता है। ये एक ऐसे विश्वविद्यालय के वीसी की भाषा कैसे हो सकती है, जहां वेब पर हिंदी के पन्ने तैयार करने के लाखों रूपये के ठेके दिये जाते हैं, हिंदी शब्दकोश के विस्तार के लिए दर्जनों आदमी काम पर लगाये जाते हैं, जहां एमए स्त्री अध्ययन का अलग से कोर्स चलाया जा रहा हो? इन सारे सवालों को अगर ये कहकर नकारा भी जाता कि सेमिनार में जो कहा है, उससे सवाल करें तो भी विभूति नारायण राय को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ता कि आप स्टेट मशीनरी के कुचक्र को ताकतवर बताकर किसी न किसी रूप में उसको डीफेंड क्यों कर रहे हैं? उनसे ये सवाल तो किया ही जाता कि आप संगोष्ठी, अकादमिक और कोतवाली की भाषा के फर्क को किस रूप में लेते हैं? लेकिन विभूत नारायण ने किसी का मान नहीं रखा। न मंच का, न संचालक का, न हंस का। पूरी संगोष्ठी में प्रेमचंद सिर्फ बैनर पर ही छपा रह गया, किसी की जुबान से एक बार भी प्रेमचंद नहीं निकला। नहीं तो जिन मूल्यों को सहेजने की कोशिशें और दावे हंस के मंच से किया जाता रहा है, उन तमाम मूल्यों को ठोकर मारकर विभूति नारायण ने छितरा दिया – होरी के वंशजो, इसे तुम एक-एक करके चुनो, समेटो। इस पूरे रवैये से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस माहौल के भीतर वर्धा विश्वविद्यालय की फैकल्टी काम करती है? ये सोचते हुए भी सिहरन होती है कि वहां के स्टूडेंट किस जम्‍हूरित के शिकार हैं, कैसे अपनी असहमति के स्वर को रख पाते होंगे? विश्वविद्यालय की जो कुछ खबरें अब तक हमारे सामने आयी हैं, हमारे भीतर एक उसी किस्म की बेचैनी पैदा होती है, आज विभूति नारायण को सुनते हुए ये बेचैनी और बढ़ गयी जो बेचैनी हमें मिर्चपुर में सुमन और उसके बाप को जिंदा जला देने की खबर से हुई थी। इस गहरी रात में, ये लाइन लिखते हुए मैं वर्धा के छात्रों से मिलने के लिए बेचैन हो रहा हूं। एक अकेला शख्स लोकतंत्र की ताकत पाकर किस हद तक अलोकतांत्रिक, अमर्यादित हो सकता है, इसका नमूना आज हमें लाइव देखने को मिला। लोकतंत्र की धज्जियां तब भी भयानक स्तर पर उड़ायी गयीं, जब आलोक मेहता जैसा पत्रकार (जिनके पत्रकारीय कर्म को अगर पीआर, लॉबिइंग की परिभाषा के हिसाब से समझें तो वो इसके ज्यादा करीब होगी) हेमचंद्र पांडे के मामले में हत्या की अगली सुबह कहता है कि वो नई दुनिया के लिए काम नहीं करता था, उसका इससे कोई संबंध नहीं था – पता नहीं किस हैसियत से अपने को डीफेंड करने के लिए मंच पर काबिज होने की कोशिश करता है। स्वामी अग्निवेश ने जब माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत की पहल के संदर्भ में अपनी बात शुरू की, तभी पत्रकार हेमचंद्र का नाम आया और उन्होंने नई दुनिया अखबार का नाम लिया कि उसके संपादक ने इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। एक तरफ सेकंड लास्ट की सीट पर बैठे आलोक मेहता पर लोगों की नजर गयी और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने कहा कि संपादक खुद यहां बैठे हैं, उन्हीं से पूछ लिया जाए। आलोक मेहता की तरफ से एक शख्स बोलने की अनुमति लेने की चीट लेकर राजेंद्र यादव के पास जाता है और उन्‍हें बोलने की अनुमति मिल जाती है। आलोक मेहता तीन-चार मिनट तक दायें-बायें करते हैं। पीछे बैठे लोग उनसे मुद्दे यानी हेमचंद्र पर बात करने के लिए कहते हैं। (आलोक मेहता की वॉयस डिलीवरी आमतौर पर बहुत सॉफ्ट है। ये चैनल में सॉफ्ट स्टोरी या इंटरटेनमेंट की खबरों के लिए बहुत ही परफेक्ट है। मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे पत्रकारों की पूरी की पूरी एक जमात है, जिनकी आवाज को ऐसी स्टोरी के वीओ (वॉयस ओवर) के लिए काम में लाया जा सकता है। बहरहाल…) ऑडिएंस के दबाब के बीच आलोक मेहता का स्वर अचानक से ऊंचा होने लग जाता है और धीरे-धीरे अंदाज के स्तर पर विभूति नारायण के स्वर के साथ एकाकार हो जाता है। ये कोई चैनल की बहस नहीं थी, जिससे कि आप एंकर पर तोहमत जड़कर मुक्त हो जाएं कि वो कहते ही हैं मामले को गर्म करने के लिए। ये एक विमर्श का मंच था, जिस पर कि इरा झा ने अपनी रिपोर्टिंग की बातें शेयर की, आदित्य निगम ने स्टेट लेजिटिमेसी की बात गंभीरतापूर्वक रखा, रामशरण जोशी अपनी क्षमता के अनुसार जितना बेहतर कर सकते थे, कोशिश की। लेकिन आलोक मेहता की आवाज अचानक से रामलीला मैदान की हो जाती है। अगर मैं गलत मिलान कर रहा हूं तो संभव है कि नई दुनिया के पत्रकार भाई इसे चैंबर में किसी पत्रकार से बात करने के अंदाज से इसका मिलान कर सकते हैं। आलोक मेहता ने जो तर्क दिया वो न केवल कमजोर और लचर था बल्कि मनोहरश्याम जोशी, राजेंद्र माथुर की परंपरा से अपने को जोड़कर उनकी बराबरी में अपने को खड़ा करने की कोशिश की। कहा कि नाम बदलकर अगर हेमचंद्र ने लिखा तो वो इतने महान तो हैं नहीं कि पता कर लेते। उन्होंने अपने को इस बिना पर जस्‍टीफाइ करने की जबरदस्ती की कि ऐसा पहले भी हुआ है। ऑडिएंस का धैर्य कंट्रोल से बाहर होने को आया। वो सीधे-सीधे उनसे जबाब चाह रही थी। लेकिन जो आलोक मेहता दो मिनट बोलने का समय मांग रहे थे, उऩ्हें दो घंटे भी बोलने को दिया जाता तो भी कुछ न बोलते। गोल-मोल बातें करके बीच में अपने को बिग शॉट साबित करने की कोशिश आलोक मेहता की वाचन शैली का हिस्सा है। ऐसा करते हुए मैं दसियों बार देख चुका हूं। लेकिन पत्रकार बिरादरी के बीच शायद ही कोई सवाल कर पाता है। यही काम उन्होंने पिछले दिनों उदयन शर्मा की याद में हुई संगोष्ठी के मामले में किया। बात हो रही थी पेड न्यूज की और बयान दिया कि वो बिहार के मुजफ्फरपुर जैसी जगह में पत्रकारिता कर चुके हैं। उन्हें दोस्तों की नसीहतें याद आती, सुरक्षा को लेकर चौकस होने की बात करते कि उन्होंने मेले से लोहे की एक खुरपी खरीदी थी। बहरहाल… अभी तक हमने किसी भी पत्रकार को इस तरह सार्वजनिक रूप से बेआबरू होते नहीं देखा है। ऑडिएंस के वाजिब गुस्से से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि सत्ता के गलियारों में चमकनेवाले सफल पत्रकार और होते हैं और जो लोगों के दिलों पर राज करते हैं, वो और ही पत्रकार होते हैं। ऐवाने गालिब जैसे भरे सभागार में हमें एक शख्स भी ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा कि अरे बैठ जाइए, मेहता साहब को बोलने दीजिए। ये अलग बात है कि उसी सभागार में आलोक मेहता के कूल्हे के नीचे काम करनेवाले नई दुनिया के पत्रकार भी मौजूद थे और मीडिया की नामचीन हस्तियां भी। एक भी स्वर, एक भी हाथ आलोक मेहता के पक्ष में न सही, बोलने देने के आग्रह के लिए नहीं उठे। ये नजारा तत्काल कई चीजें एक साथ साफ कर देता है। आप इस घटना से अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या स्थिति है? आलोक मेहता मंच से बार-बार कहते हैं कि मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का पतन हुआ है। पीछे से आवाज आती है – पत्रकारिता का नहीं आपका पतन हुआ है। सत्ता के साथ टांग पर टांग चढ़ाकर पत्रकारिता करने से पत्रकार की हैसियत क्या रह जाती है, ये समझने के लिए इस घटना से बेहतर नमूना शायद ही कभी आपको देखने को मिले होंगे। मंच संचालक ने कार्यक्रम शुरू होते ही सारे वक्ताओं से अनुरोध किया कि आपलोग अपनी बात संक्षेप में रखें ताकि सवाल-जबाब के लिए ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। विभूति नारायण ने भी ये कहते हुए कम बोला कि सवाल-जवाब के दौरान नयी बातें सामने आएगी लेकिन जब एक-एक करके वक्ता मंच से खिसकते चले गये तो सवाल किससे किया जाता? यह एक गैरलोकतांत्रिक किस्म की संगोष्ठी थी, जिसमें कि एक बड़े पढ़ने-लिखनेवाले वर्ग का सीधा-सीधा अपमान हुआ। जिन मूल्यों, जिन फ्लेवर को बचाने के लिए इस तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, वो इस गोष्ठी में बुरी तरह छितरा गया। राजेंद्र यादव की तरफ कैमरा बढ़ता है। वो उदासी से जवाब देते हैं – अब किसके लिए कर रहे हो, जिनका लेना था वो तो गए… “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” पर बात करने जुटे लोग बहुत कुछ खत्म हो जाने के बोध के साथ बाहर निकले।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Sat Aug 7 18:46:00 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 07 Aug 2010 13:16:00 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?NTAg4KSV4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSh4KS8IOCkuOCljeCkpOCljeCksOCkv+Ckr+Cli+CkgiDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSV4KWN4KSk4KS/IOCkrOCksOCkvuCkuOCljeCkpOClhyA=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS5IOCkteCkv+CkruCksOCljeCktj8=?= Message-ID: मित्रो, पिछले दिनों 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित विभूति नारायण राय के विवादास्पद इंटरव्यू के मसले पर आज के 'दैनिक भास्कर' ने पूरा ऑप-एड पेज़ दिया है. प्रो निर्मला जैन ने इंटरव्यू में प्रकाशित आपत्तिजनक शब्दों पर जांच की मांग की है, लेकिन कुल मिलाकर उनके इंटरव्यू को स्त्रियों के पक्ष में बताया है. दरअसल यह मामला अब देह विमर्श के समर्थन और विरोध - दो खेमों में बंटता दिख रहा है. खैर, इस मसले पर आज के 'दैनिक भास्कर' में कृष्णा सोबती, मैनेजर पांडे, पंकज बिष्ट, विमल थोरात की प्रतिक्रिया और खुद विभूति नारायण राय की सफाई पढ़ सकते हैं. --शशिकांत 50 करोड़ स्त्रियों की मुक्ति बरास्ते देह विमर्श? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: 7-nat-7.pdf Type: application/pdf Size: 1226690 bytes Desc: not available URL: From ajkumar1933 at yahoo.co.in Wed Aug 18 06:30:22 2010 From: ajkumar1933 at yahoo.co.in (ajit kumar) Date: Wed, 18 Aug 2010 06:30:22 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= a note- 'baat ka batangad Message-ID: <536009.23740.qm@web94614.mail.in2.yahoo.com> एक लेख भेजता हूँ-- इसमें तथ्य की या अन्य भूलें दिखें तो सुधारने की कृपा करें-- सादर, अजितकुमार                 बात का बतंगड़                     -अजितकुमार पहली अगस्त 2010 से लेकर अब तक हिन्दी की लेखक-पत्रकार बिरादरी ‘छिनाल प्रसंग’ पर जिस ‘विच हंट’ या ‘भूतभगाओ’ आन्दोलन में सक्रिय हो उठी है, उसके मद्देनज़र शक तो है राय और कालिया को खदेड़्कर ही वह चैन पाएगी, लेकिन इस वक़्त देश को मथ रहे जो और तमाम मुद्दे हैं- मसलन राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन में भ्रष्टाचार से पड़नेवाली बाधाएँ, सरकारों द्वारा पूँजीपतियों को बढा़वा देने के लिए किसानों-आदिवासियों-गिरिजनों की ज़मीनें हड़पने की पेशकश, खाप पंचायतों के हत्यादेश,... ऐसे मसलों के खिलाफ़ देशभर के लेखक एकजुट क्यों नहीं हुए ? माना कि बाहरी देशों के उकसावे या अन्दरूनी नीतियों से पनप रहे आतंकवाद और उग्र वामपन्थ से वे अकेले अपने दम पर जूझ  नहीं सकते लेकिन यह दबाव तो बना ही सकते हैं कि खेल ठीक से संपन्न हों, भूमिधारियों को उचित मुआवजे़ के साथ उद्योगों में बराबर की भागीदारी मिले, ज़माने की बदलती रफ्तार समझ, खाप पंचायतें अपना अडि़यल रूख छोडे़ ।.... और यदि यह कुछ भी व्यावहारिक न था तो लेखकगण कम-से-कम इतना तो कर ही सकते थे कि किताबों की सरकारी खरीदों में व्याप्त घूसखोरी के खिलाफ माहौल बनाते  ताकि उनकी की़मतें कम हो सकतीं और संपन्न जन या पुस्तकालय ही नहीं, आम लोग भी उन्हें खरीद सकते । शायद इस तरह कुछ माहौल बदलता, ‘पुस्तकें न बिकने’ का प्रकाशकीय रोना थमता और दो-चार लोग उभरते जो केवल लेखनकर्म से अपना तथा परिवार का पेट भर सकें । एक संस्करण के बाद लुप्त  पु्स्तकों का उद्धार होता ... हम  यह तो नहीं जानते कि भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘नया ज्ञानोदय’ के प्रेम विशेषाकों  के पुनर्मुद्रणों से हुए लाभ का कोई हिस्सा पारिश्रमिक के तौर पर दिया कि नहीं लेकिन ‘न्यास’ होने के नाते वहाँ से यदि लेखकों को अन्य प्रकाशकों की तुलना में  कुछ अधिक रायल्टी मिल सकी है और  वर्धा-स्थित हिन्दी विश्वविद्यालय अधिक कुछ भले न कर सका हो, कम-से-कम इतना तो हुआ ही कि ‘समय डाट काम’ के ज़रिए समग्र हिन्दी साहित्य को दुनिया भर के वास्ते इंटरनेट पर सुलभ करने का बीड़ा उठाया जबकि देश की तमाम सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएँ  इसके प्रति उदासीन रहीं- केवल ‘कविताकोश’ और ‘गद्यकोश’ आदि के कुछ समर्पित स्वयंसेवी दलों ने भागीदारी निभाई ।  अभियान फिर भी थम नहीं रहा तो सन्देह होता है-  पीछे कोई अन्य  कारण और प्रयोजन होंगे !  तनिक गौर किया जाय कि यह मसला है क्या ? एक ओर यह  पारंपरिक सोच कि पंति-पत्नी-संबंध जन्म-जन्मान्तर के और पवित्र होते हैं; दूसरी ओर वह आधुनिक नारी विमर्श कि स्त्री-देह पर किसी का भी एकाधिकार नहीं होता... औरत की  मर्जी है- वह चाहे तो अपनी देह को सहेज कर, सेंत कर अपने लिए रखे या फिर उसे जिस तरह चाहे, वैसा बरते । पति का आग्रह भी जब पत्नी की निगाह मॅ बलात्कार हो चला हो और भारत जैसे रूढ़िबद्ध देश के महानगरों में भी कौमार्य-रक्षा का कारण मात्र ‘एड्स’संक्रमण का भय  बचा हो -ऐसे बदले हुए माहौल में, जब यौनशुचिता अनिवार्य नहीं रही, भोग सबकी ज़रूरत बन गया,  तथाकथित ‘सेक्स वर्कर’ को समाज में सर उठाकर सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार मिला और ‘पेन्टहाउस’, ‘प्ले बाँय’ जैसी पत्रिकाओं ने ही नहीं, प्रतिष्ठित दैनिकों ने भी अपने पृष्टों पर नग्नताएँ  छाप कर न केवल अपनी लोकप्रियता बढ़ाई... नैतिकता के पुराने मानदंड भी तहस-नहस किए... तो इस नई लहर की झोंक में पड़ या स्वेच्छा से किन्हीं लेखिकाओं ने यदि आत्मकथाओं में अपने पराक्रमों की सच्ची-झूठी गाथाएँ लिखकर वाहवाही लूटी, और इससे व्यथित हो पुरानी चाल का कोई व्यक्ति इसे ‘छिनरपन’ समझ बैठा...तो उचित था कि उसकी दकियानूसी  हँसकर बिसरा दी जाती । ज़रूरी न था कि तमाम लेखिकाएँ-लेखक व्यग्र हो स्त्री की सीता-सावित्री-छवि बरक़रार रखने में जुट जाएँ । वह छवि अभियान चलाने से लौटनेवाली नहीं –यदि वह होगी या रहेगी तो स्त्री-पुरुषों के और पूरे समाज के संयत-मर्यादित आचरण से ही...स्वेच्छाचार की नकारात्मकता के आन्तरिक बोध से ही...इसका अभियान तो केवल कुंठित-प्रतिबन्धित ही करेगा—सबसे अधिक उस स्वतन्त्रचेता नारी समुदाय को, जो  अपनी नवअर्जित ‘बोल्डनेस’ या प्रखरता के रास्ते पर अबाध बढ़ते जाना चाहता है । रही बात दाम्पत्य-निष्ठा की तो क्या हम जानते नहीं कि  उसके विचलनों के बहुतेरे मामलों में पति-पत्नी दोनों -स्वेच्छा या विवशता से- अपना जीवन-साथ  निभाते चले जाते हैं; यही नहीं, कभी-कभी वे विवाहेतर संबंधों को अनेक कारणों से बढावा भी देते हैं -। ऐसे में, दो के बीच तीसरे-चौथे की मौजूदगी विचारणीय हो तो हो । पर एक भोली टिप्पणी  पर या पत्रिका का प्रसार बढाने की निर्दोष न सही, स्वाभाविक इच्छा पर इस तरह बौखला उठना तो यही दर्शाता है कि उनसे माफ़ी मँगवा कर ही वे संतुष्ट नहीं, शिक्षामन्त्री और न्यासियों के आगे क़ानून मन्त्री तक जाएँगे और वहाँ भी न्याय न मिला तो पत्थर उठा  संबद्ध लोगों के सर फोड़ेंगे । तालिबान भी तो यही-कुछ कर रहे हैं । क्रान्तदर्शी लेखक उनसे पीछे क्यों रहें ? अजितकुमार 166 वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034  मो0 9811225605  -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: छिनालप्रसंग.doc Type: application/msword Size: 34816 bytes Desc: not available URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Aug 24 22:22:54 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 24 Aug 2010 22:22:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCkuOClhyDgpJbgpKTgpY3gpK4g4KS54KWL4KSk4KWH?= =?utf-8?b?IOCkl+CkvuCkgeCktSDgpJTgpLAg4KSV4KS/4KS44KS+4KSo?= Message-ID: मित्रो, लेखक अपने समय और समाज का अगुआ होता है. जब ग्लोबलाइजेशनी विकास से लबरेज राजधानी दिल्ली बारिश से पानी-पानी हो रही हो और मुल्क़ के सबसे पिछड़े राज्य (बिहार) की जनता के सामने अकाल मुंह बाए खड़ी हो, जब हिन्दुस्तान के सिरमौर कश्मीर का एक हिस्सा लेह और पड़ोसी मुल्क़ में आई प्राकृतिक आपदा से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो, जब डेढ़ सौ करोड़ से शुरू हुआ कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट 1 लाख करोड़ पहुँच गया हो और उसमें भ्रष्टाचार के मामले-दर-मामले सामने आ रहे हों, जब 1 सौ करोड़ से ज्यादा मुल्क़वासियों की पेट भरनेवाला किसान खेती छोड़ने को बाध्य हो रहा हो, फटेहाल हो और आत्महत्या कर रहा हो और उस मसले पर बनी 1 फिल्म (पीपली लाइव) पर बहस हो रही हो. वैसे दौर में एम्पावर्ड लेखकों की दो जमातें अपने अपने वर्चस्व जमाने की ख़ातिर पावर डिस्कोर्स कर रही हों- इस पर हमें शर्मिंदा होना चाहिए. इतिहास यह सवाल हम सबसे पूछेगा बेशक! खैर, 'पीपली लाइव' फिल्म से मुल्क के किसानों और गाँवों की बदहाली की शुरू हुई बहस को साहित्य और पत्रकारिता (प्रिंट मीडिया) की बहस बनाने का आगाज़ करते हुए मैंने अपने बड़े भाई और मित्र विमल झा से 'दैनिक भास्कर' में यह लेख प्रकाशित करने का अनुरोध किया. 21 अगस्त के 'दैनिक भास्कर' के ऑप-एड पेज पर छपे इस लेख को आप भी पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. शशिकांत साहित्य से खत्म होते गाँव और किसान इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ग्रामीण जन-जीवन और किसानों की समस्या पर आजकल हमारे साहित्यकारों और पत्रकारों का कम ही ध्यान जाता है. बड़ी तेजी से हो रहे शहरीकरण के बावजूद भारत की अधिकाँश जनता अभी भी गाँवों में रह रही है और खेती-बाड़ी एवं पशुपालन ही उनकी रोज़ी-रोटी का मुख्य जरिया है. हमारे देश में वातावरण, मौसम, जमीन, अनाज, खेती-बाड़ी के तौर-तरीके आदि में इतनी विविधता (जो हमारी कृषि संस्कृति का निर्माण करते हैं) है कि यदि हम यहाँ कृषि को उद्योग बनाना चाहें तो हमारा देश संसार के सर्वोत्तम देशों में एक होगा. बहुत प्रयासों के बाद और तमाम गुण-दोषों के बावजूद हमने खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबन पा लिया था लेकिन गलत सरकारी नीतियों के कारण देश में फिर से खाद्यान्न संकट और महंगाई पैदा हो रही है. इसका मूल कारण यह है कि हमारे देश में विकास और बढ़ोतरी के अंतर को ठीक से समझा नहीं जा रहा है. बढ़ोतरी को विकास नहीं कहा जा सकता. देश में जीडीपी के ग्रोथ और अरबपतियों के बढ़ने का मतलब यह नहीं कि यहाँ विकास हो रहा है बल्कि इन सब के कारण गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ रह रही है. बढ़ोतरी का जब जनता के बीच ठीक से वितरण होता है तब वह विकास कहलाता है. पी. वी. नरसिंह राव के समय से जब से मनमोहन सिंह ने इस देश का वित्त संभाला है तब से समाजवादी सपनों को सरकारी नीतियों के माध्यम से एक-एक कर तोड़ा जा रहा है. हमारे यहाँ आजादी के बाद से देखे जा रहे इस समाजवादी सपने को गढ़ने में गाँधी, नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश, मौलाना आजाद, आम्बेडकर, डांगे, नम्बूदरीपाद जैसे नेताओं ने गढ़ा था, और तमाम तरह के आपसे मतभेदों के बावजूद ये सभी समाजवादी थे. इस लिहाज से देखें तो आज हमारे देश में देश की जमीन और देश की जनता से सरोकार रखने वाला नेता नाम का कोई व्यक्ति नहीं है. बड़े ही सुनियोजित षड़यंत्र रच कर और चालाकी से समाजवादी नीतियों के तहत दिए गए अधिकार और सुविधाएं देश की जनता से एक-एक कर चीने जा रहे हैं. गाँव और खेती की जमीन का जबरन अधिग्रहण कर शहर और राजमार्ग बनाए जा रहे हैं और कारपोरेट घरानों को दिया जा रहा है. सबको गाँव और खेती छोड़कर शहर आने के लिए बाध्य किया जा रहा है. आज कोई आदर्श, बलिदान, त्याग जैसे मानवीय मूल्यों की बात ही नहीं करता. ख़ूब पैसे कमाओ और ऐश-मौज करो - यही हमारा आख़िरी उद्देश्य रह गया है. इसने हमारी चेतना और हमारी राजनीति को बिगाड़ कर रख दिया है. धूमिल ने कहा था कि ये लोग हमारी भाषा बिगाड़ रहे हैं. और जब कोई हमारी भाषा बिगाड़ता है तो वह हमारा मन भी बिगाड़ देता है. गाँव की तरफ बिल्कुल ध्यान न देने का मतलब है किसानों पर ध्यान न देना. नंदीग्राम, सिंगूर से लेकर मथुरा-अलीगढ, हर जगह किसानों से खेती कि जमीन छीनी जा रही है. देश के हर जगह पर छोटा-छोटा कस्बा भी शहर बनने का स्वप्न देख रहा है. महानगरों के आसपास के किसानों की जमीनें ली जा रही हैं. फिर जमीन जाने के बाद वे आत्महत्या कर रहे हैं. इतना ही नहीं बीज और नई-नई कृषि टेक्नोलॉजी भी आयात किए जा रहे हैं. सरकार को न किसान से मतलब है, न पर्याप्त अनाज उत्पादन की, न गोदामों में अनाज सड़ने की, और न महंगाई बढ़ने की चिंता है. शहरो में फलों और सब्जियों कि इतना प्रदूषित कर दिया गया है कि वे खाने लायक नहीं रह गई हैं. सरकार में विषमता बढाने का उन्माद है. जनता के खाने-पीने कि उसे कोई चिंता नहीं है. इस देश के नेताओं की नैतिकता का हाल यह है कि संसद में कहा जाता है कि विकास होगा तो थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार तो होगा ही. अब गाँव और खेती-बाड़ी जब सुनियोजित ढंग से ख़त्म किये जा रहे हैं तो लोग रोज़ी-रोटी की खोज में शहर और महानगर आ रहे हैं. अन्य पढ़े-लिखे लोगों की तरह हिन्दी के साहित्यकारों का एक तबका भी दिल्ली की ओर देख रहा है. दिल्ली के अलावा भोपाल, मुंबई आदि महानगर आजकल साहित्य के केंद्र हैं. इस समय हिंदी साहित्य नया ट्रेंड यह आया है कि ऐसा साहित्य लिखा जाए जो ग्लोबल हो यानी जो अंग्रेजी में अनूदित हो, जो अमेरिका और यूरोप में रहनेवाले लोगों को पसंद आए. इस समय अचानक विदेश में हिंदी के पुरस्कारों कि बाढ़ आ गई है. हमारे गाँव, हमारी जड़, हमारी बोलियाँ-भाषाएँ, हमारे आदिवासी, खानाबदोस जनजातियों के विविधतापूर्ण जनजीवन और उनकी जीवन स्थितियों को लेकर कितना नया और उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा सकता है. लेकिन उनकी उपेक्षा की जा रही है. दरअसल पूंजीवादी गिरफ़्त में आ गए हैं हमारे लेखक. सबकुछ चाहिए उन्हें. यश भी. सिर्फ पैसा और पोलिटिकल पोस्ट ही पावर नहीं होता, यश भी पावर होता है. स्वाधीनता आन्दोलन के समय गांधी कहते थे कि हमारा भगवान गाँवों में रहता है. प्रेमचंद का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसानी जन-जीवन को आधार बनाकर लिखा गया है. आजादी के बाद फनीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों और कहानियों में किसानी और ग्रामीण संस्कृति को व्यापक अभिव्यक्ति मिली. ग्राम-कथाओं और ग्राम-कविताओं का भी दौर आया. हिंदी की उन रचनाओं में गाँव और किसानी जन-जीवन के साथ-साथ ऋतुओं, फसलों, नदियों, इनसे जुड़े गीतों, पर्व-त्योहारों आदि का भी वर्णन मिलता था लेकिन हमारे हिंदी साहित्य से ये सब धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं. चूंकि हमारे लेखक जमीन से कटते जा रहे हैं इसलिए किसानों और गानों के समस्या अब उनके लिए ख़ास मायने नहीं रखतीं. दलित और स्त्री लेखन को मैं आजादी के बाद हिंदी साहित्य की दो बड़ी उपलब्धि मानता हूँ लेकिन ताज्जुब है कि उनके लेखन में भी गाँव, ग्रामीण और किसानी संस्कृति आदि नहीं के बराबर आ रहे हैं. दलित साहित्य में स्त्री विचित्र रूप में आ रही है. असल में दलित और गरीब स्त्रियाँ अभी लिख नहीं रही हैं. आलो आंधारि अपवाद हैं, आज जो लिख रही हैं वे अच्छी-अच्छे साड़ियाँ पहनने वाली औरतें हैं. जब दलित और गरीब औरतें लिखने लगेगी तब वे ये सब भी दर्ज करेंगी, ऐसी मुझे उम्मीद है. अभी हाल में मैंने पंजाबी के लेखक रामस्वरूप अणखी का उपन्यास 'सल्फास' पढ़ा है. पिछले दिनों उनकी मौत हो गई. 'समकालीन भारतीय साहित्य' में अरुण प्रकाश ने तेलगु के वरिष्ट लेखक केशव रेड्डी का 'भू देवता' उपन्यास भी छापा था. उसे भी मैंने पढ़ा है. हिन्दी में प्रेमचंद किसानों की जमीन चले जाने की वेदना को गहराई से समझते थे. प्रेमचंद का होरी जमीन बेच कर जब बेटी की शादी करता है है तो बेटी और जमीन दोनों एक हो जाता है. उन्हीं के 'रंगभूमि' उपन्यास का सूरदास जमीन के लिए काफ़ी संघर्ष करता है. सूरदास दलित है, किसान है और विकलांग है. इस लिहाज से देखें तो आज के दलित चित्रण और प्रेमचंद के दलित चित्रण में कितना फर्क है. 'रंगभूमि' के सूरदास का संघर्ष बहुत बड़ा सांस्कृतिक सन्देश है. यह बहुत चिंता की बात है कि आज हमारे कथा साहित्य, कविता और ख़ास तौर पर नाटकों से किसानी जन-जीवन पूरी तरह से ख़त्म होता जा रहा है हमारे नाटककारों ने लोरिकायन, चनैनी, नाचा,-ये सब छोड़ दिया है. गाँव की कहानी जब जाएगी तो गाँव भी चला जाएगा. जो जमीनी समस्या है यदि हमारे लेखक उस पर ध्यान देंगे तो किसानों की समस्या, उसका हर्ष-विषाद, वहां के चरित्र सबकुछ आ जाएंगे. इस देश का विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास भी होना चाहिए, वह तभी संभव है जब यहाँ की किसानी संस्कृति का विकास होगा. यह समझ हमारे वर्तमान और भविष्य के भारत के लिए जितना पथ निर्देशक बना रहे उतना अच्छा है. *(विश्वनाथ त्रिपाठी से शशिकांत की बातचीत पर आधारित, 21 अगस्त, 2010 के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित )* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Aug 24 22:30:21 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 24 Aug 2010 22:30:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCkuOClhyDgpJbgpKTgpY3gpK4g4KS54KWL4KSk4KWH?= =?utf-8?b?IOCkl+CkvuCkgeCktSDgpJTgpLAg4KSV4KS/4KS44KS+4KSo?= Message-ID: मित्रो, लेखक अपने समय और समाज का अगुआ होता है. जब ग्लोबलाइजेशनी विकास से लबरेज राजधानी दिल्ली बारिश से पानी-पानी हो रही हो और मुल्क़ के सबसे पिछड़े राज्य (बिहार) की जनता के सामने अकाल मुंह बाए खड़ी हो, जब हिन्दुस्तान के सिरमौर कश्मीर का एक हिस्सा लेह और पड़ोसी मुल्क़ में आई प्राकृतिक आपदा से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो, जब डेढ़ सौ करोड़ से शुरू हुआ कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट 1 लाख करोड़ पहुँच गया हो और उसमें भ्रष्टाचार के मामले-दर-मामले सामने आ रहे हों, जब 1 सौ करोड़ से ज्यादा मुल्क़वासियों की पेट भरनेवाला किसान खेती छोड़ने को बाध्य हो रहा हो, फटेहाल हो और आत्महत्या कर रहा हो और उस मसले पर बनी 1 फिल्म (पीपली लाइव) पर बहस हो रही हो. वैसे दौर में एम्पावर्ड लेखकों की दो जमातें अपने अपने वर्चस्व जमाने की ख़ातिर पावर डिस्कोर्स कर रही हों- इस पर हमें शर्मिंदा होना चाहिए. इतिहास यह सवाल हम सबसे पूछेगा बेशक! खैर, 'पीपली लाइव' फिल्म से मुल्क के किसानों और गाँवों की बदहाली की शुरू हुई बहस को साहित्य और पत्रकारिता (प्रिंट मीडिया) की बहस बनाने का आगाज़ करते हुए मैंने अपने बड़े भाई और मित्र विमल झा से 'दैनिक भास्कर' में यह लेख प्रकाशित करने का अनुरोध किया. 21 अगस्त के 'दैनिक भास्कर' के ऑप-एड पेज पर छपे इस लेख को आप भी पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. शशिकांत साहित्य से खत्म होते गाँव और किसान -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From water.community at gmail.com Wed Aug 25 11:26:50 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 25 Aug 2010 11:26:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWL4KSr4KWH4KS44KSwIOCkheCkl+CljeCksOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSyIOCkqOClhyDgpIXgpKjgpLbgpKgg4KSW4KSk4KWN4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: प्रोफेसर अग्रवाल ने अनशन खत्म किया Source: जनसत्ता 25 अगस्त 2010 Author: सुनील दत्त पांडेय [image: जीडी अग्रवाल के साथ बातचीत करते केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश]*जीडी अग्रवाल के साथ बातचीत करते केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश* कहा- दिए गए आश्वासन भी पूरे होंहरिद्वार, 24 अगस्त, उत्तराखंड में भागीरथी नदी पर बन रही लोहारी नागपाला जलविद्युत परयोजना को बंद करने की मांग को लेकर 36 दिन से आमरण अनशन पर बैठे आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जीडी अग्रवाल को जूस पिलाकर व फल खिलाकर केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने संयुक्त रूप से अनशन तुड़वाया। प्रो. अग्रवाल ने एलान किया कि वे अन्न तभी लेंगे, जब राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक में उनकी मांग पूरी होने पर मुहर लग जाएगी और अन्य मुद्दे भी संतोषजनक तरीके से सुलझा लिए जाएंगे। केंद्र सरकार ने भरोसा दिया है कि Read More यह भी पढ़ें - गोमुख से उत्तरकाशी तक का 135 किमी क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील घोषित - इस साल के सूखे में दक्षिण बिहार के लोगों की मदद करें - प्रो. अग्रवाल के साथ खड़े हुए गोविंदाचार्य, अनशन का आज दसवां दिन - जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन सातवें दिन भी जारी - पर्यावरणविद् अग्रवाल का अनशन स्थल तय नहीं - डॉ. जीडी अग्रवाल 5अगस्त 2009 से फिर आमरण अनशन पर - उत्तराखंड उच्च न्यायालय की भागीरथी पर बांध को मंजूरी - प्रोफेसर अग्रवाल का आमरण उपवास टूटा, लोहारीनागा पाला पनबिजली परियोजना रुकी - भागीरथी में पर्यावरणीय प्रवाह की आवश्यकता -- Minakshi Arora Chairperson-Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Wed Aug 25 11:26:50 2010 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 25 Aug 2010 11:26:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWL4KSr4KWH4KS44KSwIOCkheCkl+CljeCksOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSyIOCkqOClhyDgpIXgpKjgpLbgpKgg4KSW4KSk4KWN4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: प्रोफेसर अग्रवाल ने अनशन खत्म किया Source: जनसत्ता 25 अगस्त 2010 Author: सुनील दत्त पांडेय [image: जीडी अग्रवाल के साथ बातचीत करते केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश]*जीडी अग्रवाल के साथ बातचीत करते केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश* कहा- दिए गए आश्वासन भी पूरे होंहरिद्वार, 24 अगस्त, उत्तराखंड में भागीरथी नदी पर बन रही लोहारी नागपाला जलविद्युत परयोजना को बंद करने की मांग को लेकर 36 दिन से आमरण अनशन पर बैठे आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जीडी अग्रवाल को जूस पिलाकर व फल खिलाकर केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री जयराम रमेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने संयुक्त रूप से अनशन तुड़वाया। प्रो. अग्रवाल ने एलान किया कि वे अन्न तभी लेंगे, जब राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक में उनकी मांग पूरी होने पर मुहर लग जाएगी और अन्य मुद्दे भी संतोषजनक तरीके से सुलझा लिए जाएंगे। केंद्र सरकार ने भरोसा दिया है कि Read More यह भी पढ़ें - गोमुख से उत्तरकाशी तक का 135 किमी क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील घोषित - इस साल के सूखे में दक्षिण बिहार के लोगों की मदद करें - प्रो. अग्रवाल के साथ खड़े हुए गोविंदाचार्य, अनशन का आज दसवां दिन - जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन सातवें दिन भी जारी - पर्यावरणविद् अग्रवाल का अनशन स्थल तय नहीं - डॉ. जीडी अग्रवाल 5अगस्त 2009 से फिर आमरण अनशन पर - उत्तराखंड उच्च न्यायालय की भागीरथी पर बांध को मंजूरी - प्रोफेसर अग्रवाल का आमरण उपवास टूटा, लोहारीनागा पाला पनबिजली परियोजना रुकी - भागीरथी में पर्यावरणीय प्रवाह की आवश्यकता -- Minakshi Arora Chairperson-Water Community India hindi.indiawaterportal.org Delhi-91 91 9250725116 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From rajkiradoo at gmail.com Wed Aug 25 19:43:06 2010 From: rajkiradoo at gmail.com (giriraj kiradoo) Date: Wed, 25 Aug 2010 19:43:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLjgpKY=?= =?utf-8?b?4KS+4KSa4KS+4KSw4KSU4KSw4KSb4KS/4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: References: <422CA261EBEF407DB754C20CD5627B82@AbhayTiwari> <8b6a46aa536459caf80fea26ae54fe53@mail.sarai.net> <0f75931f5cda8a15e0c37d0f20a84579@mail.sarai.net> Message-ID: और यह भी पठनीय: Rai’s assumption that feminist discourse must not centre on the body but must take up other issues and include dalits and tribals, smacks of an arrogance which has much to do with patriarchal blindnesses as well as a quaint social-reformist understanding of caste and other social issues. It does not appear to be a considered view of literary production or criticism. As a writer and vice chancellor, Rai has the right to express literary criticism. His statements however reveal and represent a patronising and sexist attitude that seeks to control women’s writing according to a patriarchal script. http://epw.in/epw/uploads/articles/15055.pdf 2010/8/15 ravikant at sarai.net > भैया अविनाश, > > एक शब्द के कई शब्दार्थ या > रूपकार्थ हो सकते हैं मैंने > इसके हल्के अर्थ की ओर इसलिए > इशारा किया था कि हमारा > 'गुरु-गंभीर पॉलिटिकली करेक्ट' > हिन्दी जनपद थोड़ा ये सोचे कि > वह अपनी पॉलिटिकली इन्करेक्ट > जड़ों से दूर होकर साफ़-सुथरा > बनने की कोशिश करते हुए कितना > हास्यास्पद हो जाता है कि कभी > कृष्ण बलदेव वैद फ़ोहश साबित > होते हैं, कभी अशोक चक्रधर को > जोकर माना जाता है। कभी उदय > प्रकाश को सूली पर चढ़ा दिया > जाता है। कभी विक्रम सिंह को > लेकर अनावश्यक अटकलपच्ची की > जाती है। कुल मिलाकर यह माहौल > घुटन पैदा करता है, इस तरह की > स्थिति में भाषा का रचनात्मक > इस्तेमाल न करके लोग एक > सेंसरशिप से डरकर जिएँगे, जो > कुल मिलाकर साहित्य और > प्रतिबद्धता दोनों के लिए > मुश्किलें पैदा कर सकता है। अब > जहाँ तक इन कोशों की बात है तो > सहज-समांतर कोश थिसॉरस है, > जिसमें हर शब्द दूसरे का एकदम > पर्यायवाची नहीं होता, और > अलायड को मैं गंभीरता से नहीं > लेता,चाहे कमलकिशोर गोयनका > कहें या तुम कहो, क्योंकि अपनी > देसी हिन्दी और अंग्रेज़ी > दोनों पर मुझे काफ़ी भरोसा है। > अगर उलटना ही है तो फ़ैलन का कोश > उलटकर देखो, अगर तुम्हें अपनी > देसी ज़बान की छटा या उनकी > स्मृति पर भरोसा नहीं रहा। यह > लगभग उसी तरह की सेंसरशिप है > जिसके चलते आजकल आप जातिवाचक > नाम नहीं ले सकते, भले ही जाति > की हक़ीक़त से हमेशा त्रस्त > रहते हों। > > रविकान्त > > On Sun, 15 Aug 2010 14:23:59 +0530 avinash das > wrote > > > *रविकांत जी के लिए* > > > > विभूति का यह कथन गलत है कि > ‘छिनाल’ का अर्थ वेश्या नहीं > है। अरविंद कुमार के > > ‘सहज समांतर कोश’ में ‘छिनाल’ > का अर्थ कुलटा और वेश्या दिया > गया है, जिसका इसी > > शब्दकोश में ‘अवैध यौन संबंध > रखने वाली स्त्री’, > ‘दुराचारिणी’, ‘पतुरिया’, > > ‘हरजाई’ और ‘कुतिया’ तक का > > अर्थ दिया गया है। अलाइड के > > प्रसिद्ध हिंदी-अंग्रेजी > > कोश में ‘छिनाल’ के लिए > > ‘प्रोस्टिट्यूट’ शब्द मौजूद > > है। हिंदी विश्वविद्यालय का > > कुलपति इस अर्थ को नहीं जानता > और बिना जाने ही उसका प्रयोग > करता है, क्या यह > > मानने योग्य बात है? जाहिर है, > > विभूति इस अर्थ के प्रति > > अनभिज्ञता दिखा कर अपनी > > रक्षा ही कर रहे हैं। लेकिन > दुर्भाग्य से वे अगले ही वाक्य > में इस छिनालत्व को > > स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि > ‘कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ > लेखिका की आत्मकथा > > का शीर्षक हो सकता था। यानी वे > खुद ‘छिनाल’ शब्द का वही अर्थ > ले रहे हैं जो > > शब्दकोशों में है और जो हिंदी > समाज समझता है। > > > > *आज के जनसत्ता में कमल किशोर > गोयनका के लेख से उधार...* > > > > 2010/8/15 ravikant at sarai.net > > > > > माफ़ी अभय... > > > > > > ..की परवाह किए बग़ैर किया। > > > उन्हें कहना चाहिए कि जिस तरह > > > 'कौए के टरटराने से धान का > सूखना > > > बंद नहीं हो जाता'; हम जो > मर्ज़ी > > > लिखेंगे, जितना लिखा है, उससे > भी > > > ज़्यादा लिखेंगे, और विभूति > > > नारायण या कोई भी कुछ कह ले, हम > > > तो बेबाक लिखेंगे! जब तक हम > ऐसा > > > नहीं कहते दोनों पक्षों की > > > बातों में कोई मूलभूत अंतर > > > करना मुश्किल है। > > > > > > रविकान्त > > > > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:42:01 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > > ravikant at sarai.net> > > > wrote > > > > > > > गतांक से आगे... > > > > > > > > जैसा कि मैं आपके शब्दचर्चा > > > > समूह पर कह रहा था कि कम-से-कम > > > > बिहार की ज़बानों में ये > शब्द > > > > स्त्री-पुरुष दोनों के लिए > > > > इस्तेमाल होता है, और > > > > चुहलबाज़ी के अर्थ में, > > > > छेड़-छाड़ करनेवालों के लिए, > > > और > > > > गाली के अर्थ में भी। 'वेश्या' > > > > वाली नैतिक निंदा का वज़न > > > > इसमें नहीं है। आपने सही कहा > > > कि > > > > अंग्रेज़ी तर्जुमा में बात > > > > ज़्यादा बिगड़ गई है। लोग > > > > कहेंगे कि 'कितने बिस्तरों > में > > > > कितनी बार'से उनकी बात पुष्ट > > > > होती है लेकिन मसला इतना > नहीं > > > > है। > > > > > > > > जैसे मायावती को ये नसीहत > देने > > > > से पहले लोग ये नहीं सोच पाते > > > कि > > > > जातिवाद के ख़िलाफ़ जंग का > > > > रास्ता जाति के रणक्षेत्र से > > > > ही जाता है, वैसे ही > > > > स्त्री-दैहिकता में लिपटी > > > > पुरुष नैतिकता के पर्दाफ़ाश > > > का > > > > रास्ता स्त्री देह की मुक्ति > > > के > > > > ज़रिए ही संभव है, जिस पर लेखन > > > कई > > > > लेखक-लेखिकाओं ने नैतिक > > > > ठेकेदारो > > > > > > > > On Sun, 15 Aug 2010 12:25:38 +0530 "ravikant at sarai.net" < > > > ravikant at sarai.net> > > > > wrote > > > > > > > > > बहुत ख़ूब अजय, > > > > > > > > > > कल लगभग यही बात हो रही थी > > > दो-एक > > > > > दोस्तों से। दीवान डाक सूची > > > से > > > > > यही उम्मीद भी की जाती है > > > > > सनसनीख़ेज़ बना दी गई > घटनाओं > > > > > पर यहाँ ठहर कर सोचा जाए न कि > > > > > बग़ैर पढ़े-लिखे, सोचे-समझे > इस > > > > > या उस अभियान की वकालत कर दी > > > > > जाए। क्योंकि ऐसे लोगों > > > भतेरे > > > > > हैं हिन्दी जनपद में जो > नैतिक > > > > > झंडा लेकर अपनी शर्तों पर आज > > > > > भगवान गढ़ते हैं, और कल अगर > उस > > > > > भव्य गगनचुंबी आसन से गिर > जाए > > > > > तो उसे संगसार करने से नहीं > > > > > चूकते हैं - मध्यकालीन > > > > > भीड़तंत्र को फ़ौरी न्याय > > > > > चाहिए। अपने गिरेबान में भी > > > > > नहीं देखते लोग, कुछ करने से > > > > > पहले। > > > > > > > > > > शब्दचर्चा पर ये बात भी चली > थी > > > > > कि 'छिनाल' शब्द समदर्शी है > > > > > कम-से-कम मगही मे > > > > > > > > > > > > > > > On Thu, 12 Aug 2010 16:47:43 +0530 "Abhay Tiwari" < > abhaytri at gmail.com> > > > > > wrote > > > > > > > > > > > सदाचार और छिनार > > > > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक > > > > > > अत्याचार की भावना से उबल > > > रहा > > > > > > है। निन्दा और भर्त्सना > > > > > > प्रस्ताव निकाले जा रहे > हैं, > > > > > > ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के > > > नारे > > > > > > लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही > गए > > > > > > होंगे कि मैं विभूति > नारायण > > > > > > राय के कुख्यात बयान और > उससे > > > > > > उपजी प्रतिक्रियाओं की बात > > > > कर > > > > > > रहा हूँ। इसके पहले कि मैं > > > > > > अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई > जौन > > > > > > नाम की एक नारीवादी के एक > > > ईमेल > > > > > > का उद्धरण देना चाहूँगा। > वे > > > > > > इसी विवाद के सन्दर्भ में > > > > > > लिखती हैं- > > > > > > > > > > > > > > > > > > "हम उस नैतिक आघात से सहमत > > > > नहीं > > > > > > है जो वेश्यावृत्ति या > > > > बेवफ़ाई > > > > > > के उल्लेख भर से मीडिया में > > > > > > आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन > > > > > > करते हैं कि यौनिकता के > मसले > > > > > > गम्भीर मसले हैं, जिन पर और > > > > > > सार्वजनिक बहस और समझदारी > की > > > > > > ज़रूरत है। नारीवाद के > नज़रिये > > > > > > से यौनिकता के मामले को और > > > > > > समझने के लिए हमें राय जैसे > > > > > > लेखकों को चुनौती देनी > > > > चाहिये > > > > > > ना कि सार्वजनिक नैतिकता > में > > > > > > उलझना चाहिये।" > > > > > > > > > > > > > > > > > > मैरी जौन ने सहज रूप से इस > > > > > > मामले के मूल में बैठी > > > समस्या > > > > > > को रेखांकित कर दिया है। > > > मेरी > > > > > > नज़र में हिन्दी जगत से अभी > तक > > > > > > एक भी प्रतिक्रिया ऐसी > नहीं > > > > आई > > > > > > जिसने इस मसले को नैतिक > > > > > > अतिक्रमण से अलग किसी > नज़रिये > > > > > > से देखने की कोशिश की हो। > > > > > > उपकुलपति महोदय ने कहा, > > > > > > “लेखिकाओं में होड़ लगी है > यह > > > > > > साबित करने के लिए उनसे > बड़ी > > > > > > छिनाल कोई नहीं है।” उसके > > > > जवाब > > > > > > में कहा गया “..लेखिकाओं के > > > > > > बारे में अपमानजनक > वक्तव्य.. > > > न > > > > > > केवल हिंदी लेखिकाओं की > > > > गरिमा > > > > > > के खिलाफ है, बल्कि उसमें > > > > > > प्रयुक्त शब्द > स्त्रीमात्र > > > > > > के लिए अपमानजनक है।” > > > > > > > > > > > > > > > > > > देखने में दोनों एकदम > विपरीत > > > > > > बयान मालूम देते हैं मगर एक > > > > > > जगह जाकर दोनों एक हो जाते > > > > हैं- > > > > > > राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन > > > > को > > > > > > छिनाल के अपमानजनक विशेषण > से > > > > > > नवाजते हैं तो वे छिनाल का > > > > > > इस्तेमाल इस अर्थ में करते > > > > हैं > > > > > > कि छिनालपन एक निन्दनीय > > > > कृत्य > > > > > > है जिस से बचा जाना चाहिये। > > > और > > > > > > दूसरी तरफ़ उनका विरोध > करने > > > > > > वाले इस बात पर आपत्ति करते > > > > > > हैं कि राय गरिमामय हिन्दी > > > > > > लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' > जैसा > > > > > > अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग > > > > कर > > > > > > सकते हैं? ‘छिनाल’ के > > > > अपमानजनक > > > > > > होने पर दोनों की सहमति है! > > > > > > दोनों ही परोक्ष रूप से मान > > > > > > रहे हैं कि स्त्री का > वांछित, > > > > > > नैतिक रूप 'सती-सावित्री' > > > वाला > > > > > > ही है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > एक और मज़े की बात यह है कि > एक > > > > > > पेटीशन जो राय साहब को > हटाने > > > > > > के लिए नेट पर चलाया जा रहा > > > है, > > > > > > उस में और अंग्रेज़ी प्रेस > > > में > > > > > > भी इस छिनार शब्द का अनुवाद > > > > > > प्रौस्टीट्यूट किया गया > है। > > > > > > जो निहायत ग़लत है। > > > > > > प्रौस्टीट्यूट के लिए > रण्डी > > > > > > या वेश्या शब्द है। रसाल जी > > > के > > > > > > कोष में छिनार का अर्थ है > > > > > > व्यभिचारिणी, कुलटा, > > > > > > परपुरुषगामिनी, और इसकी > > > > > > उत्पत्ति छिन्ना+नारी से > > > > बताई > > > > > > गई है। इन्ही में इस शब्द की > > > > > > पूरी राजनीति छिपी हुई है, > वो > > > > > > राजनीति जो इस शब्द की आड़ > > > लेकर > > > > > > महिला लेखकों पर हमला करने > > > > > > वाले विभूति नारायण राय और > > > > > > उनका उच्च स्वर से विरोध > > > करने > > > > > > वाले तथाकथित प्रगतिशीलता > > > के > > > > > > ठेकेदारों को एक ज़मीन पर > खड़ा > > > > > > कर देती है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > वैवाहिक सम्बन्ध से इतर > > > > दैहिक > > > > > > सम्बन्ध बनाने से जिसका > > > > > > चरित्र खण्डित होता हो, वह > है > > > > > > छिनाल। हज़ारों सालों तक > थोड़े > > > > > > से भी दैहिक विचलन की कड़ी > से > > > > > > कड़ी सज़ा स्त्री को दी > जाती > > > रही > > > > > > है हर समाज में। आज भी कई > समाज > > > > > > ऐसे हैं जहाँ किसी भी > ‘अवैध’ > > > > > > सम्बन्ध की सज़ा अकेले > नारी > > > को > > > > > > ही मिलती है, पुरुष को कुछ > > > > > > नहीं। इसी तरह के दोहरे > > > > > > व्यवहार, दोहरी नैतिकता का > > > > > > नतीजा है यह छिनार का शब्द। > > > > > > > > > > > > > > > > > > स्त्री को अपने शरीर का > > > > > > स्वामित्व नहीं है। आज भी > कई > > > > > > समाज व नैतिक परम्पराएं > उसे > > > > > > गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं > > > > > > कराने देतीं। कई उसे परदे > से > > > > > > बाहर नहीं आने देतीं। > स्त्री > > > > > > सम्पत्ति है इसीलिए उसका > > > > > > ‘स्वामी’ होता है, उसका > > > ‘पति’ > > > > > > होता है। उसकी कोख पर उसका > > > > > > नहीं उसके स्वामी का > अधिकार > > > > > > है। इसीलिए अगर वह किसी > अन्य > > > > > > से यौन सम्बन्ध बनाये या > > > > > > गर्भधारण करे तो पापचारिणी > > > > > > कहलाती है। और सन्तान भी > > > > > > नाजायज़ हो जाती है। बहुत > हाल > > > > > > तक सन्तान की माता के प्रति > > > ही > > > > > > पूरे सत्यापन से कहा जा > सकता > > > > > > था, पिता के प्रति हरगिज़ > > > नहीं। > > > > > > मगर फिर भी अज्ञात पिता > होने > > > > > > से, या वैधानिक पति की > सन्तान > > > > न > > > > > > होने से सन्तान अवैध / > नाजायज़ > > > / > > > > > > हरामी हो जाती थी/ है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > गर्भनिरोध आदि के ज़रिये > आज > > > > > > स्त्री के लिए अपने शरीर पर > > > > > > स्वामित्व और अधिकार पाना > > > > > > मुमकिन हो गया है। इतिहास > > > में > > > > > > पहली बार, सारे प्राणियों > से > > > > > > अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव > > > है > > > > > > कि वह बिना गर्भधारण की > > > चिंता > > > > > > किए दैहिक सुख ले सके जैसे > > > > > > आदमी लेता रहे हैं हमेशा। > > > > > > लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस > > > > की > > > > > > इस आज़ादी के साथ सहज नहीं > है; > > > > वह > > > > > > उसे मातृत्व और पत्नीत्व > के > > > > > > दायरे में ही क़ैद रखना > चाहता > > > > > > है, जहाँ स्त्री मनुष्य > नहीं, > > > > > > देवी होती है, सती-सावित्री > > > > > > होती है। स्त्री यदि भोग की, > > > > > > दैहिक आनन्द की बात करती है > > > तो > > > > > > लोग असहज हो जाते हैं; कहते > > > > हैं > > > > > > कि बाक़ी सब बात करो, ये मत > बात > > > > > > करो! > > > > > > > > > > > > > > > > > > अपने साक्षात्कार में राय > > > > > > कहते हैं “इस पूरे प्रयास > > > में > > > > > > दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह > > > > > > देह विमर्श तक सिमट गया है > और > > > > > > स्त्री मुक्ति के दूसरे > > > > > > मुद्दे हाशिये पर चले गए > > > > हैं।” > > > > > > मेरा मानना है कि यह सलाह > > > वैसे > > > > > > ही है जैसे कि बहुत सारे लोग > > > > > > मायावती की राजनीति से > > > > नाक-भौं > > > > > > सिकोड़ते हैं कि वे > 'जातिवाद' > > > > > > फैला रही हैं। वे कहते हैं > कि > > > > > > आरक्षण की बात मत करो, > > > योग्यता > > > > > > की बात करो। इसी तरह राय कह > > > > रहे > > > > > > हैं “देह से परे भी बहुत कुछ > > > > > > ऐसा घटता है जो हमारे जीवन > को > > > > > > अधिक सुन्दर और जीने योग्य > > > > > > बनाता है” मेरा कहना है कि > > > > > > ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर > जिस > > > > > > आधार से स्त्री वर्ग को > > > > हज़ारों > > > > > > सालों से पीड़ित किया गया > हो > > > वो > > > > > > थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस > आधार > > > > > > की उपभोग न करे, तो ये कैसे > > > > > > आज़ादी है? स्त्री का शोषण > और > > > > > > उत्पीड़न उसकी देह के आधार > पर > > > > > > ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी > है > > > > > > कि उसकी आज़ादी के संक्रमण > > > में > > > > > > दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय > > > > > > भूमिका में रहे। और फिर > सबसे > > > > > > बड़ी बात ये भी है कि > > > स्त्रियां > > > > > > स्वयं तय करेंगी कि वे किस > > > > > > बारे में लिखना चाहेंगी और > > > > किस > > > > > > बारे में नहीं। > > > > > > > > > > > > > > > > > > अंत में मैं एक बात यह भी > > > > > > कहूँगा कि इस मसले पर > विभूति > > > > > > नारायण राय के जो विचार हैं > > > > > > उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, > मगर > > > > > > निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा > > > > > > कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर > इस > > > > > > तरह का 'राजनीतिक' बावेला > खड़ा > > > > > > किया जाय। ये सब साहित्य की > > > > > > अन्दरूनी बहस के मसले हैं > इन > > > > > > पर ज़ोरदार बहस होनी > चाहिये न > > > > > > कि लोगों का मुँह बन्द करने > > > की > > > > > > कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द > > > > > > अपमानजनक ज़रूर है और > 'नैतिक' > > > > > > आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी > > > > > > नैतिकता के आधार पर जिसकी > > > ऊपर > > > > > > चर्चा की गई। दूसरी ओर > छिनार > > > > > > के समान्तर अंग्रेज़ी के > > > 'स्लट > > > > > > 'और 'बिच' जैसे शब्द, > अपमानजनक > > > > > > बने रहते हुए भी, सहज > > > इस्तेमाल > > > > > > में आ गए हैं और नारीवाद ने > भी > > > > > > उन के अर्थों को > > > > > > पुनर्परिभाषित कर के समाज > को > > > > > > अपना रवैया बदलने पर मजबूर > > > > > > किया है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > पिछले दिनों रवीश कुमार ने > > > भी > > > > > > पंजाब में आए एक नए बदलाव को > > > > > > पकड़ा। हज़ारों सालों से > > > > > > उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक > कर > > > > गा > > > > > > रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा > > > दे। > > > > > > जबकि दलित मामलों के प्रति > > > > > > संवेदनशील उत्तर प्रदेश > में > > > > > > इसी शब्द के इस्तेमाल पर > सज़ा > > > > > > हो सकती है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > हिन्दी समाज की नैतिकता के > > > > > > रखवाले शब्दों के प्रति > कुछ > > > > > > अधिक ही संवेदनशील है और > > > समाज > > > > > > के 'सदाचार उन्नयन अभियान' > > > में > > > > > > संलग्न हैं। उल्लेखनीय है > कि > > > > > > शब्दों को लेकर सदाचारी और > > > > > > असहिष्णु रवैये की एक > > > > > > अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के > > > > > > ‘१९८४’ जैसे समाज में भी > > > होती > > > > > > है। > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > http://nirmal-anand.blogspot.com/ > > > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > > Deewan mailing list > > > > > Deewan at sarai.net > > > > > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > > 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URL: From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Aug 26 14:21:31 2010 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 26 Aug 2010 14:21:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KS+4KSH4KSu?= =?utf-8?b?4KWN4KS4IOCkkeCkqyDgpIfgpILgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWL4KSyIOCkluClgeCksuClgA==?= Message-ID: *सौदा नहीं पटा तो अभियान** *** ** *प्रथम प्रवक्ता टीम *** * ‘**टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **खोजी खबरों के लिए नहीं जाना जाता। उसकी छवि सरकार के मुखपत्र की रही है। गत **31** जुलाई को टाइम्स ऑफ इंडिया के पाठकों को नया अनुभव हुआ। उन्हें महसूस हुआ कि अपना अखबार नए अवतार में हैं। उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। **‘**टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **जैसा बड़ा अखबार जब खेल-कूद के एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन की तमाम गड़बड़ियों को उजागर करने पर उतर आया तो लोगों को चारो तरफ गड़बड़ ही नजर आने लगा। उन्हें क्या पता था कि यह वह खीझ है जो अखबार में इसलिए प्रकट हो रही है**, **क्योंकि सौदा पटा नहीं। *** * * *इसका दूसरा पहलू भी देखे बिना बात साफ नहीं होगी। कॉमनवेल्थ गेम्स की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी हैं। वे कांग्रेस के नेता हैं। पार्टी में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। वे साफ-सुथरी छवि के लिए नहीं जाने जाते हैं। भ्रष्टाचार की खबर उनपर आसानी से चिपकाई जा सकती है।*** *क्या किसी अखबार को सौदा न पटने पर भ्रष्टाचार के अभियान से रोका जा सकता है**? **यह तो नहीं हो सकता। लेकिन अखबार को अपने पाठकों को क्या यह सूचित नहीं करना चाहिए कि उसकी ओर से कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में प्रचार-प्रसार और आयोजन को सफल बनाने के लिए एक प्रस्ताव दिया गया था जो नामंजूर हो गया। यह सूचना दे देने से उसके अभियान में वह बल नहीं रहता जो अखबार में दिख रहा है। उदाहरण के लिए ** 31** जुलाई का अखबार सामने रख सकते हैं। उस दिन **‘**टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **ने पहले पेज पर **‘**खास खबर**’ **दी। जिसका शीर्षक यह बताता था कि खेल के कर्ताधर्ता लालच के वश देश के सम्मान से खिलवाड़ कर रहे हैं। उसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई के हवाले से सभी सोलह प्रोजेक्ट में हुई धांधली की खबर थी। लंदन से **‘**टाइम्स नाऊ**’ **की नाविका कुमार की खबर साथ में छपी थी कि अक्टूबर **2009** में जब क्विंस बैटन रिले का समारोह हुआ तो उसका इंतजाम जिस कंपनी को दिया गया वह एक फर्जीवाड़ा था। उसके लिए कोई टेंडर आमंत्रित नहीं किया गया। उस सामारोह में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी मौजूद थी। जिस ए.एम. फिल्म्स को प्रबंध करना था उसे एक करोड़ अड़सठ लाख रुपए का ठेका दिया गया था। अगले दिन पहली अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पेज पर जो खबरें छपीं**, **उनमें खासतौर पर भारतीय उच्चायुक्त के हवाले से कहा गया था कि सुरेश कलमाड़ी का दावा सही नहीं है। सुरेश कलमाडी ने दावा किया था कि ए.एम. फिल्म्स को ठेका देने में किसी तरह की गड़बड़ी नहीं की गई।*** * * *एक तरफ **‘**टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **अभियान चला रहा था**, **क्योंकि उसे मनचाहा ठेका नहीं मिला। लेकिन **‘**हिंदुस्तान टाइम्स**’ **ने एक अगस्त को **‘**टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **के जवाब में सुरेश कलमाडी का इंटरव्यू छापा। उस लंबे इंटरव्यू में आरोपों पर सफाई है। **‘**हिंदुस्तान टाइम्स**’ **के मनीष तिवारी की रिपोर्ट भी बताती है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रहा है। आरोप तो आरोप ही है। उसे फैसला के रूप में तभी पेश किया जाता है**, **जब वह किसी खास मकसद से किया जा रहा हो। अगस्त महीने में करीब रोज टाइम्स ऑफ इंडिया ने तैयारी में किए जा रहे भ्रष्टाचार और घटिया तैयारी पर खबरें छापता रहा। **‘* *टाइम्स ऑफ इंडिया**’ **अपने पाठक को **54 **पेज का अखबार देता है। वह दो हिस्से में होता है। पहले हिस्से में **32 **पेज रहता है। इन **32 **पेजों में औसतन छह पेज पर अखबार ने खेल की तैयारी में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार को जगह दी।*** * * *पूरी खबर के लिए प्रथम प्रवक्ता के 16 सितंबर वाले अंक को देखें।*** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Thu Aug 26 16:51:19 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 26 Aug 2010 16:51:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS44KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSkIOCklOCksCDgpK7gpILgpJ/gpYsg4KS44KWHIOCkueCliCDgpKo=?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KS+4KSwIOCkpOCliyDgpJzgpLDgpYHgpLAg4KSc4KS+4KSH?= =?utf-8?b?4KSP?= Message-ID: * * * * * * * * * * * * *दीवान के साथियों* *आयोजकों की तरफ से मुझे ये मेल भेजा गया है कि आप इसे सार्वजनिक आमंत्रण के तौर पर प्रकाशित करें। कार्यक्रम की जो रुपरेखा है,उसे देखते हुए मुझे लगता है कि दीवान के हमारे बहुत सारे साथियों को इसमें दिलचस्पी होगी। लिहाजा आप सबों के लिए कार्यक्रम की डीटेल नीचे चस्पा रहा हूं। पूरी सूचना अंग्रेजी में है,कोई लिटरेचर नहीं है इसलिए इसका हिन्दी तर्जुमा पेश करना अनिवार्य नहीं,जैसा मुझे लगा।* *विनीत* * * * * * * * * * * * * *ISMAT & MANTO: Life, Times and Legacy* India Habitat Centre, *27-28 August 2010* * * *August 27, Stein Auditorium* 7p.m. *Inauguration *: Sh. Kapil Sibal, Panel on ‘*Ismat & Manto : Life, Times and Legacy’* Speakers : Gulzar, Padma Sachdev, Rakhshanda Jalil * * *August 28 Gulmohar* * * 11a.m. *Screening of “Ismat and Annie”* (English/2008/28mins) Dir. Juhi Sinha (supported by MEA) 12 noon “*Pom Pom Darling and Lady Chengis Khan* Qurratulain Haider and Ismat Chughtai in a Literary Feud” Speakers: Javed Akhtar, Sukrita Paul Kumar, Baran Farooqi 2:15 p.m. *Syah Hashiye (Black Margins) :* Narrating Partition Speakers: Urvashi Butalia, Alok Bhalla, Mushirul Hasan Moderator: Nirupama Dutt 4:00- 5.15 p.m. *Afsane : Readings from Ismat and Manto* Speakers: Sadia Dehlvi, Farhan Mujeeb, Syeda Hameed *August 28 Stein Auditorium* 7p.m. *Ismat and Manto vs. the Crown: Censorship and Sexuality in the 1940s* Comments: Nirupama Dutt , Ritu Menon Ghazala Amin : Dramatic Readings from Ismat & Manto Closing Comments by Javed Akhtar ___________________________________________________ *Programme Directors :* *Namita Gokhale, Alka Pande, Sukrita Paul Kumar, Malashri Lal* *An Exhibition has been curated by Alka Pande at the Experimental Art Gallery* * * * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Thu Aug 26 18:49:16 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 26 Aug 2010 18:49:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KS14KS+4KSmIOCklOCksCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWB4KSm4KS+4KSv?= Message-ID: राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय फ्रांज फैनन ('दि रेचेड ऑफ दि अर्थ') बताते हैं कि यूरोप खुद तीसरी दुनिया की सृष्टि है. उपनिवेशों और अन्य उत्पीड़ितदेशों के बौद्धिक समुदाय का एक हिस्सा न सिर्फ उन दिनों पश्चिम में प्रचलित विभिन्न विचाशाखाओं से गहरे रूप में प्रभावित था और उन्हीं की रोशनी में, उन्हीं के नक्शेकदम पर अपने समाज की भावी तस्वीर देखता था, बल्कि उसकी नजर में मानवजाति में जो भी उदात्त है, वरेण्य है, उन सब का मूर्त्तिमान रूप था यूरोप. पूरा पढ़िएः http://hashiya.blogspot.com/2010/08/blog-post_26.html -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From vineetdu at gmail.com Fri Aug 27 14:29:06 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 27 Aug 2010 14:29:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkh+CkruCli+CktuCkqOCksiDgpIXgpKTgpY3gpK/gpL7gpJo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkruCkpCDgpJXgpYDgpJzgpL/gpI8g4KSw4KS+4KSc4KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KS24KWL4KSw4KSc4KWA?= Message-ID: मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट के जरिए वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार राजकिशोर को बिका हुआ बताया गया। राजकिशोर के बारे में लिखा गया कि वो विभूति-प्रसंग पर विभूति नारायण राय के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। जिस विभूति के विरोध में देश के सैंकड़ों लेखक और लिटरेचरप्रेमी खड़े हैं,वो उनके बचाव के लिए खुलकर सामने आ गए हैं। राजकिशोर ने इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में आज मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट लिखी है और इन सारी बातों का जबाब देने के बजाय पाठकों से अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है। राजकिशोर की बातों का कोई भी तार्किक आधार नहीं है। लिहाजा उनकी इस पोस्ट से भावुक तो हुआ जा सकता है लेकिन उनके डीफेंड में आने की स्थिति नहीं बनती। एक पाठक की हैसियत से जिसने की साढ़े तीन रुपये लगाकर जनसत्ता खरीदी और उनके लेखों को पढ़ा,मैं अपनी असहमति दर्ज करता हूं। ये जितना राजकिशोर के एक पाठक की असहमति है,उससे कहीं ज्यादा एक उपभोक्ता का अधिकार। कमेंट की शक्ल में ये मोहल्लालाइव पर मौजूद है लेकिन यहां बतौर पोस्ट आपके सामने- राजकिशोरजी, आपके अलावा बाकी लोगों को भी मैंने शुरु से ही उनके बारे में जानने से कहीं ज्यादा पढ़ना पसंद किया है। अगर मुझे लगा कि इन्हें पढ़ जाना चाहिए। एक हद तक मैंने उसी आधार पर उनके प्रति धारणा भी बनायी। फिलहाल इस बहस में न जाएं कि एक घोर सामंती भी मुक्ति की अगर रचना करे तो आप उसके प्रति कैसी धारणा बनाएंगे,इस पर फिर कभी। आपकी मेहनत,काबिलियत,लगातार अपने को खराद पर घिसकर कमाने की आदत पर न तो हमें पहले कभी शक था और न ही अभी है। आप या कोई भी जीवन में रोजी-रोजगार के लिए किस तरह के माध्यमों का चुनाव करता है,ये उसका व्यक्तिगत फैसला है। संभव है इस देश में जूते गांठकर या फिर लॉटरी,शेयर की टिकटें और फार्म बेचकर कविताएं लिख रहा हो,कहानियां लिखता हो। इसलिए आप इस बहस में इन बातों को शामिल न करें,बहुत होगा तो इससे हम पाठकों पर आपके प्रति भावुकता, संवेदनशीलता या सहानुभूति का रंग पहले से और गाढ़ा होगा। आप ही नहीं हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य में कमोवेश सभी लोग इसी तरह से आगे बढ़ते हैं,उसी तरह का जीवन जीते हुए आगे जाते हैं।..लेकिन आपके इस हवाले से कहीं भी ये साफ नहीं होता कि आप सिद्धांतों के बजाय मूल्यों को जब चुनते हैं तो उसका आधार क्या हुआ करता है? माफ कीजिएगा,बहुत ही बेसिक बातें जब अवधारणा की शक्ल में गढ़ी जाने लगती है तो बेचैनी महसूस होती है। हम आपसे वो मानसिक प्रक्रिया की व्याख्या नहीं जानना चाह रहे जिसके तहत आप सिद्धांतों औऱ मूल्यों को अलग कर पाते हैं, फिर सिद्धांतों को साइड रहने को कहते हैं और मूल्यों का अंगीकार करते हैं। जिस पोस्ट में आपको बिका हुआ बताया गया और कहा गया कि आप विभूति नारायण के पक्ष में हस्ताक्षर करवा रहे हैं,आपने आज की पोस्ट में कहीं एक लाइन में भी इसका खंडन किया कि नहीं आप ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं? और अगर कर रहे हैं तो उसके पीछे मूल्यों की वो कौन सी ताकतें हैं जो आपको विभूति के पक्ष में खड़े होने के लिए ज्यादा प्रेरित करती है। जिसके आगे सिद्धांत दौ कौड़ी की चीज बनकर रह जाती है? आपने इस मुद्दे पर सीरियसली( महसूस भले ही कर रहे हों) बात करने के बजाय हम पाठकों पर इमोशनल अत्याचार कर गए। कब तक हिन्दी समाज के बाकी लोगों की तरह उद्धव की ज्ञान की गठरी को भावना के आगे दो कौड़ी की चीज करार देते रहेंगे,ज्ञान की गठरी के आंधी में तब्दील होने और फिर कोरी भावुकता,छद्म की टांट उड़ने की भी तो कहानी बताया करें। राजकिशोरजी,माफ कीजिएगा,अनुभव और समझदारी के स्तर पर मैं आपके आगे बहुत ठिगना हूं लेकिन इतना जरुर समझ पाता हूं कि कोई भी लेखक या पत्रकार किसी घोषणा के तहत नहीं लिखता कि वो कोई सिद्धांत गढ़ने जा रहा है। लिखते वक्त उसके सामने मूल्य ही सक्रिय रहते हैं जो मूल्य वगैरह बातों को बकवास मानते हैं उनके आगे संपादक की डिमांड,मानदेय आदि। लेकिन लिखते हुए वो मूल्य या फिर डिमांड एंड सप्लाय का लेखन एक समय के बाद एक सैद्धांतिक आकार तो ले ही लेता है न। अब ये सिद्धांत किसी भी लेखक के चुनाव करने या न करने का मसला नहीं रह जाता। ये एक ठोस आधार के तौर पर पाठकों के सामने काम करने लग जाते हैं। अब जो लेखक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का भावानुवाद,उसके सांचे में ही कविता,कहानी,उपन्यास लिखते हुए विचारों की वरायटी गढ़ रहा हो,उसकी बात थोड़ी अलग जरुर है.इसमें भी सिद्धांत का एक आधार तो जरुर बनता है जो कि उसे बाकी के लोगों से अलग करता है। आपको पढ़ते हुए बहुत मोटी बात है जो कि किसी भी आपके रोजमर्रा लेख और रोजमर्रा पाठक के पढ़ने के दौरान समझ आ जाती है आप स्त्री मामले को लेकर काफी संजीदा है। आप भले ही इसे सिद्धांत न मानें लेकिन आपको देखने-समझने का एक सैद्धांतिक आधार स्त्री लेखन तो है ही न। अब आपको यहां आकर बताना होगा कि आपने किस मूल्य के तहत( सिद्धांत को तो पहले ही खारिज कर चुके है) विभूति-प्रसंग में जो कुछ भी हुआ,उसे आप किस मूल्य के तहत देखते हैं,उसके पक्ष में हैं? ये बहुत ही सपाट बात है जिसके लिए मुझे नहीं लगता कि आपको आरोपों की फेहरिस्त जुटाकर मामले को भटकाने की जरुरत होगी। वैसे लेख की शक्ल में तो पाठक कुछ भी पढ़ ही लेगा लेकिन यहां आकर आपको इसे लेख का मुद्दा नहीं एक सवाल के तौर पर लेना चाहिए।..सबकुछ छोड़कर और अंत में प्रार्थना की मोड में आ जाना तो हिन्दी समाज की आदिम प्रवृत्ति है ही जिससे आप भी न बच सकें। आपसे सवाल करने की हैसियत मेरी बस इतनी है कि कई मर्तबा आपके लेख के लिए मैंने साढ़े तीन रुपये की जनसत्ता खरीदी है और मैंने जिस लेखक के लिए पैसे खर्च किए हैं,उनसे ये जानने का अधिकार तो रखता ही हूं। हिन्दी में ये बदतमीजी समझी जाएगी लेकिन बाजार की भाषा में ये एक उपभोक्ता अधिकार है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From mediamorcha at gmail.com Thu Aug 26 09:47:48 2010 From: mediamorcha at gmail.com (mediamorcha mediamorcha) Date: Thu, 26 Aug 2010 09:47:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?pl=2Eread_on_www?= =?utf-8?b?Lm1lZGlhbW9yY2hhLmNvLmluIOCkrOClgOCkmiDgpK7gpYfgpIIg4KSo?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkueCliOCkgiDgpIXgpJbgpKzgpL7gpLAgLi4u4KSk?= =?utf-8?b?4KSsIOCkquClguCkm+CliyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLDgpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClhyDgpKjgpYjgpKTgpL/gpJUg4KSu4KWC4KSy4KWN4KSv?= =?utf-8?b?LCwsLCzigJjgpKjgpYzgpJXgpLDgpYDigJkg4KSV4KSwIOCksOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkluCkrOCksOCkqOCkteClgOCkuA==?= In-Reply-To: References: Message-ID: Posted on August 24 2010 Read more... बीच में नहीं हैं अखबार www.mediamorcha.co.in [image: बीच में नहीं हैं अखबार] कविता / संजय ग्रोवर अखबार में छपने के लिए चाहिए सम्पर्क जो नहीं हैं मेरे पास खाली-सा बैठा हूँ मैं आते हैं मेरे दोस्त तो सुनाता हूँ कविता सुनाते-सुनाते कहने लगता हूँ और कहते-कहते बतियाने दोस्त सुनते हैं अनमने से कभी नाराज़ होते हैं तो एकाध दफ़ा ख़ुश भी होते है अब तो एकाध बार यह भी कहते हैं यार कविता न होती तो क्या होता मेरे ... Posted on August 20 2010 Read more... तब पूछो पत्रकारों के नैतिक मूल्य [image: तब पूछो पत्रकारों के नैतिक मूल्य] रंजन जैदी। पत्रकार पहले भी सुरक्षित नहीं था, आज भी नहीं है. पहले पत्रकार पत्रकारिता को मिशन के रूप में लेता था, (तब माफिया सशक्त नहीं था), आज रोज़गार के रूप में लेता है. पहले पत्रकार नैतिक मूल्यों के साथ जीता था, आज स्थिति बदल गई है. पत्रकारिता में पहले भी दलाली थी, आज कुछ ... Posted on August 18 2010 Read more... ‘नौकरी’ कर रहे खबरनवीस [image: ‘नौकरी’ कर रहे खबरनवीस] डा. अशोक प्रियदर्शी। आप बहुत इमोशनल है। बहुत संवेदनशील हैं। समाज की समस्याओं पर पैनी नजर रखते हैं। काम के प्रति ईमानदार हैं। जनसरोकार से गहरी रूचि रखते हैं। तो अब मीडिया में आने की जरूरत नही है। चूंकि यह सब अपने ... Posted on August 14 2010 Read more... राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने मीडिया को नारी पूजा याद आयी [image: राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने मीडिया को नारी पूजा याद आयी] डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'। खबरें बेचने के लिये मीडिया अनेक प्रकार के तरीके ईजाद करने लगा है। यदि घटनाएँ नहीं हो तो पैदा की जाती हैं। वैसे घटनाएँ रोज घटित होती हैं, लेकिन कितने लोगों को लूटा गया, कितनी स्त्रियों के साथ बलात्कार हुआ, कितनों की दुर्घटना में मौत हुई, कितने करोड़ किसने डकारे आदि खबरों ... Posted on August 13 2010 Read more... पटना से “वाॅयस आफ बिहार” हिन्दी और उर्दू में [image: पटना से “वाॅयस आफ बिहार” हिन्दी और उर्दू में] खबर। बिहार की राजधानी पटना से "वाॅयस आॅफ बिहार" पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो गया है। हिन्दी और उर्दू में इस मासिक पत्रिका के पहले अंक (अगस्त 2010 का लोकार्पण फिल्म अभिनेता और सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने 11 अगस्त को किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि बिहार में पत्रकारिता की जितनी संभावनाएं हैं उतनी ... Posted on August 11 2010 Read more... विभूतिनारायण राय और रवीन्द्र कालिया के बहिष्कार की अपील [image: विभूतिनारायण राय और रवीन्द्र कालिया के बहिष्कार की अपील]खबर। लखनऊ में जन संस्कृति मंच(जसम), अलग दुनिया और प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) ने लेखकों व संस्कृतिकर्मियों से विभूतिनारायण राय और रवीन्द्र कालिया के बहिष्कार की अपील की है। लखनऊ के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और महिला व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा ‘नया ज्ञानोदय’ के अंक ... Posted on August 9 2010 Read more... खबरों की खबर जरूरी-रंजन जैदी [image: खबरों की खबर जरूरी-रंजन जैदी]नई दिल्ली । जाने-माने एंकर सईद अंसारी ने न्यूज पोर्टल्स में छप रही खबरों और उनके रवैये को लेकर सवाल उठाये। उन्होंने न्यूज पोर्टल मीडिया खबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने पर साइट की रिलॉचिंग के मौके पर गत शुक्रवार को नई दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में कही। इस ... Posted on August 8 2010 Read more... संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान [image: संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान] बिलासपुर।पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष *संजय द्विवेदी* को प्रज्ञारत्न सम्मान से सम्मानित किया गया है। यह सम्मान पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पिछले दिनों बिलासपुर के राधवेंद्र राव सभा भवन में आयोजित समारोह में छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने प्रदान किया। कार्यक्रम का आयोजन छत्तीसगढ़ ... Posted on August 8 2010 Read more... नक्सलवाद पर मीडिया की लफ्फाजी [image: नक्सलवाद पर मीडिया की लफ्फाजी] अरूण लाल। नक्सलवाद-मीडिया और राजनीति को लेकर जमकर चर्चाओं का दौर चल रहा है। देश की लगभग हर वैचारिक पत्रिका, अखबार में दूसरे तीसरे दिन नक्सलवाद पर पन्ने रंगे जा रहे हैं। टीवी चैनलों के संवाददाता चीख-चीख कर नक्सलवाद के बढ़ते भयानक खतरे से लोगों को भयभीत कर रहे हैं। हमारे राजनेताओं के पास भी ... Posted on August 6 2010 Read more... पेड न्यूज पर आयोग की पैनी नजर [image: पेड न्यूज पर आयोग की पैनी नजर] लीना @ पिछले दिनों नए चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने कहा कि पेड न्यूज पर आयोग की पैनी नजर रहेगी। ऐसा कह कर उन्होंने भी सर्वविदित पेड न्यूज की वास्तविकता पर मुहर तो लगा ही दिया है यह भी जताया कि वे इससे चिंतित भी हैं। स्पष्ट है पेड न्यूज हमारे लोकतंत्र की ... -- www.mediamorcha.co.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Fri Aug 27 16:58:38 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 27 Aug 2010 16:58:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkk+Ckm+ClgCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSkIOCkm+Ckv+CkqOCkvuCksiDgpJXgpYAuLi4uIg==?= Message-ID: *"ओछी पीत छिनाल की...."* साथियो, आजकल हमारी हिंदी में *छिनाल प्रसंग* का टीआरपी टॉप पर है! *एस डब्ल्यू फालोन* की *"अ न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी विद इलस्ट्रेशंस फ्रॉम हिन्दुस्तानी लिटरेचर एंड फोक लोर" * को पलटते हुए मेरी जिज्ञासा* 'छिनाल' *शब्द पर जा अटकी. सन 1889 में यह डिक्शनरी लन्दन से छपी थी जिसे बाद में भारती भण्डार, इलाहाबाद ने भी मुद्रित किया. आप सब जानते हैं फालोन साहब कई साल तक हिन्दुस्तान ख़ासकर बिहार में रहे थे और यहाँ के फोक लोर का अध्ययन किया था. बहरहाल, उन्होंने *'छिनाल' *शब्द का विश्लेषण करते हुए एक कविता की ये दो पंक्तियाँ उद्धृत की है. गौर फरमाइए : *"ओछी पीत छिनाल की निभे न काहू साथ, * *नाउ की सी आरसी हर काहू के हाथ." * हिन्दी की एक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार के बाद छिनाल प्रसंग पर हुए विवाद के सन्दर्भ में आप इन पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कर सकते हैं! शुक्रिया. शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From chauhan.vijender at gmail.com Sat Aug 28 19:20:56 2010 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 28 Aug 2010 19:20:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?help_help_help?= In-Reply-To: References: Message-ID: कम से कम अभी तक तो आप दीवान पर हैं... अगर अनसब्‍सक्राइब हो ही गए हों तो फिर से सब्‍सक्राइब कर लें यहॉं कौन सा सीनीयर होने पर मुरब्‍बे मिला करते हैं :)) विजेंद्र On Thu, Aug 26, 2010 at 9:02 PM, shashi kant wrote: > To deewan, > > saathi, > > galti se mujh se "unsubscribe unsubscribe from this mailing-list" click ho > gaya hai. > > main deewan mailing list se juda rahna chahtaa hoon. > > please help me. > thnx > SHASHIKANT > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at sarai.net > https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From arshad.mcrc at gmail.com Tue Aug 31 19:18:35 2010 From: arshad.mcrc at gmail.com (arshad amanullah) Date: Tue, 31 Aug 2010 19:18:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: 2nd Nainital Film Festival In-Reply-To: References: Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: Sanjay Joshi Date: 2010/8/31 Subject: 2nd Nainital Film Festival To: arshad amanullah , Varun Arya < aryans4ever at rediffmail.com> प्रिय मित्रों , दूसरे नैनीताल फिल्म फेस्टिवल संबंधी सूचना भेज रहा हूँ. मेहरबानी करके इसे अन्य जगहों पर भी प्रकाशित करवाने का प्रयास करें. नैनीताल में सितम्बर के महीने में मौसम सुहावना रहता है लेकिन फिर भी गरम कपड़ों की जरुरत पड़ सकती है. सस्ते और सुन्दर होटल के लिए आप फेस्टिवल के संयोजक ज़हूर आलम से बात कर सकते हैं या खुद भी internet के जरिये अच्छे विकल्प तलाश सकते हैं. फेस्टिवल 24 सितम्बर को दुपहर में 3.30 बजे शुरू होगा. उस दिन वसुधा जोशी की अल्मोड़े के दशहरे पर केन्द्रित डाक्यूमेंटरी *अल्मोडियाना* और बेला नेगी की पहाड़ के जीवन पर आधारित फीचर फ़िल्म *दायें या बाएं* का प्रदर्शन होगा. इस फ़िल्म में हाल ही में दिवंगत गिर्दा का भी जीवंत अभिनय है. अगले दोनों दिन यानि 25 और २६ सितम्बर को फेस्टिवल सुबह 10.30 बजे से शुरू होकर रात 9 बजे तक चलेगा . आपके सहयोग की आकांछा में. संजय जोशी दूसरे नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के लिए दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल २४ से २६ सितम्बर, २०१० शैले हाल, नैनीताल क्लब, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड * गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में *युगमंच और द ग्रुप, जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित *प्रमुख आकर्षण : फीचर फिल्म:* दायें या बायें (निर्देशिका: बेला नेगी), खरगोश(निर्देशक: परेश कामदार), छुटकन की महाभारत (निर्देशक: संकल्प मेश्राम) *डाक्यूमेंटरी: *वसुधा जोशी की फिल्मों पर ख़ास फोकस ( फिल्में : अल्मोडियाना, फॉर माया, वायसेस फ्राम बालियापाल) जश्ने आज़ादी (निर्देशक: संजय काक), कित्ते मिल वे माह़ी (निर्देशक: अजय भारद्वाज ), फ्राम हिन्दु टू हिन्दुत्व (निर्देशक: देबरंजन सारंगी ), आई वंडर ( निर्देशिका: अनुपमा श्रीनिवासन ), अँधेरे से पहले (निर्देशक: अजय टी जी ) और मेकर्स ऑफ़ दुर्गा (निर्देशक: राजीव कुमार). *अन्य आकर्षण* : प्रयाग जोशी का सम्मान, बी मोहन नेगी के चित्रों और कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, अफ्रीका के जन जीवन पर पत्रकार राजेश जोशी का व्याख्यान -प्रदर्शन , युगमंच के बाल कलाकारों द्वारा लघु नाटक, तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा संयोजित म्यूजिक विडियो का गुलदस्ता, लघु फिल्मों का पैकेज,फिल्मकारों के साथ सीधा संवाद और फैज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और गिर्दा की कविताओं के पोस्टरों का लोकार्पण . *ख़ास बात:* यह आयोजन पूरी तरह निशुल्क है . फिल्म फेस्टिवल में प्रवेश के लिए किसी भी तरह के औपचारिक आमंत्रण की जरुरत नहीं है. *संपर्क:* ज़हूर आलम , संयोजक , दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल इन्तखाब, मल्लीबाज़ार, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड फ़ोन: 09412983164, 05942- 237674 संजय जोशी, फेस्टिवल निदेशक, दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल C-303 जनसत्ता अपार्टमेंट्स , सेक्टर 9, वसुंधरा गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश -201012 फ़ोन: 09811577426, 0120-4108090 -- Regards, Sanjay Joshi Convener THE GROUP Film group of Jan Sanskriti Manch C-303 Jansatta Apartments Sector 9, Vasundhara, Ghaziabad, Uttar Pradesh, India- 201012 Contacts: 91-9811577426, 91-120-4108090 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Aug 31 20:58:06 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 31 Aug 2010 20:58:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS84KS+4KSwIOCkqOClhyDgpK/gpL7gpKYg4KSV4KS/4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSf4KWLIOCkleCliw==?= Message-ID: गुलज़ार ने याद किया मंटो को मिर्ज़ा एबी बेग दीवान के तमाम साथियों की ख़ातिर बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार यह रपट पेश कर रहा हूँ. शुक्रिया. शशिकांत बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, दिल्ली से [image: सआदत हसन मंटो] उर्दू के सुप्रसिद्ध कहानीकार मंटो की कहानियों पर पाबंदी भी लगी सआदत हसन मंटो और इस्मत चुग़ताई को लीक से हटकर जीने वाले लोगों में शुमार किया जाता है. दोनों अपनी तरह के एक ही थे और अपनी इसी पहचान के लिए वे शुक्रवार की शाम दिल्ली में याद किए गए. उन्हें याद किया दिल्ली के साहित्य प्रेमियों ने और हिंदी सिनेमा के जाने माने लेखक और गीतकार गुलज़ार ने. एक ओर अगर मंटो से अपनी पहचान को गुलज़ार ने अपने ही अनूठे अंदाज़ में पेश किया तो दूसरी ओर हिंदी की कहानीकार पदमा सचदेव ने इस्मत चुग़ताई से अपनी पहचान पेश की. ऐसा लगा जैसे इन दोनों ने उन दोनों को सबके सामने ज़िंदा कर दिया. बहुत से लोग मंटो और इस्मत को एक सिक्के के दो पहलू की तरह देखते हैं. मंटो ने भी एक बार कहा था अगर मैं औरत होता तो इस्मत होता या इस्मत अगर मर्द होती तो वह मंटो होती. बहरहाल, चलिए देखते हैं पहले फ़िल्मकार और गीतकार गुलज़ार क्या कहते हैं मंटो के बारे में: गुलज़ार की नज़र में मंटो मंटो को कुछ सुना है, कुछ देखा है, कुछ पढ़ा है. बस इसी तरतीब से मैं उन्हें जानता हूं. मुझे याद है उनकी मौत पर राजेंद्र सिंह बेदी साहब ने फ़र्माया था, "अपनी तमाम बदमाशियों के बावजूद वह हम सब का लाडला था, एक बिगड़े हुए बच्चे की तरह वह अपनी ज़िंदगी से बहुत खिलवाड़ करता रहा, एक फ़नकार की हैसियत से उसे अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास भी होना चाहिए था." मंटो अगर ऐसा ही सतर्क होता तो फिर ये मंटो न होता. ये भी सुना है कि वह बहुत ज़िद्दी था. शराब के लिए ये मेरा नाम है, लेकिन कुछ लोग प्रगतिशील साहित्य को साआदत हसन मंटो भी कहते हैं. और जिन्हें मर्द पसंद नहीं वह उसे इसमत चुग़ताई भी कह लेते हैं. मंटो मंटो एक बार अहमद नदीम क़ासमी के दफ़्तर पहुंचे जो उस समय 'नक़ूश' (लाहौर से प्रकाशित मशहूर पत्रिका) के संपादक थे. मंटो उनसे कहने लगे, "15 रुपए दे दीजिए शराब लेनी है." मंटो पहले से जानते थे कि क़ासमी साहब उसे शराब के लिए पैसा नहीं देंगे, लेकिन एक शरारत, एक शोख़ी, मंटो का ही हिस्सा थी. क़ासमी साहब ने साफ़ कह दिया, "मंटो मैं तुम्हें शराब के लिए पैसे नहीं दे सकता, अफ़्साने (कहानी) के लिए तुम्हें पेशगी दे सकता हूं." मंटो चले गए और क़ासमी साहब के अनुसार एक घंटे बाद फिर आ धमके साथ में नया अफ़साना था, क़ासमी साहब ने उन्हें 15 रुपए दे दिए. पैसे जेब में रखकर मंटो बोले, "शराब महंगी ज़रूर है लेकिन अफ़साना भी इतना सस्ता नहीं." क़ासमी साहब ने 15 रुपए और दिए तो पैसे जेब में रख कर जाते हुए कहने लगे, "बाक़ी अफ़साना छपने के बाद ले लूंगा." मंटो से बेहतर... [image: गुलज़ार] गुलज़ार के मुताबिक़ मंटो को मंटो से बेहतर कोई नहीं जानता मंटो से बेहतर मंटो को कोई नहीं जानता. 'मैं क्यों लिखता हूं?' सवाल का जवाब मंटो कुछ यूं देते थे - "ये एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूं क्यों पीता हूं, लेकिन इस लिहाज़ से अलग है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं. लेकिन जब लिखता हूं तो मुझे नक़दी के रूप में कुछ ख़र्च नहीं करना पड़ता...." "मंटो लिखता इसलिए है कि वो ख़ुदा जितना बड़ा अफ़साना साज़ और शायर नहीं--- ये उसका करम है कि वह उससे लिखवाता है." उनका एक बड़ा मशहूर वाक़या है जो उन्होंने 1944 में नए साल के दिन मुंबई में पढ़ा था, "ये मेरा नाम है, लेकिन कुछ लोग प्रगतिशील साहित्य को सआदत हसन मंटो भी कहते हैं. और जिन्हें मर्द पसंद नहीं वह उसे इस्मत चुग़ताई भी कह लेते हैं." "मैं चीज़ों के नाम रखने को बुरा नहीं समझता, मेरा अपना नाम अगर न होता तो वो गालियां किसे दी जातीं जो अब तक हज़ारों और लाखों की तादाद में अपने आलोचकों से वसूल चुका हूं. नाम हो तो गालियां और शाबाशियां देने-लेने में बहुत सहूलियत होती है." कहानी के पात्र मेरी हिरोइन चकले की रंडी हो सकती है जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी कभी ये ख़्वाब देखती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आया है. सआदत हसन मंटो अपनी कहानी के पात्रों के चुनाव के बारे में मंटो कहते हैं, "मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़रा भी हमदर्दी पैदा नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है और पति को दो घंटा सख़्त परेशानी में देखता हूं तो मुझे हमदर्दी होती है." "किसी लड़के को लड़की से इश्क़ हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं देता." "चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को चैन से सो जाती है मेरे अफ़सानों की नायिका नहीं हो सकती, मेरी नायिका चकले की रंडी हो सकती है जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी ये ख़्वाब देखती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आया है." मंटो को मुंहफट कहा जाता रहा, फ़हश यानी अश्लील लिखने के लिए उन पर मुक़दमा भी चलाया गया लेकिन वह कहते हैं: "मुझमें जो बुराईयां हैं वह इस युग की बुराईयां हैं मेरे लिखने में कोई खोट नहीं. जिस खोट को मेरे नाम किया जाता है वह कमी मौजूदा व्यवस्था की है. मैं हंगामापसंद नहीं. मैं सभ्यता, संस्कृति और समाज की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी." गंजे फ़रिश्ते [image: जावेद अख़तर और गुलज़ार] मंटो का रिश्ता जावेद और गुलज़ार की तरह फ़िल्मों से था फ़िल्मों में रहकर उन्होंने बहुत सी फ़िल्मी हस्ती पर कहानियां लिखीं जिनमें नसीम बानो पृथ्वीराज कपूर, नसीम बानो, श्याम, कॉमेडियन दीक्षित और बहुत से लोग शामिल हैं. उस संग्रह का नाम उन्होंने गंजे फ़रिश्ते रखा जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा, "वक़्त ने उनके सर से बाल उड़ा दिए और बचे थे वो मैंने उड़ा दिए." इसी में वह बड़े स्पष्ट अंदाज़ में कहते हैं, "आग़ा हश्र की भेंगी आंख मुझसे सीधी नहीं हो सकती, उसके मुंह से गालियों के बजाए मैं फूल नहीं झड़वा सकता. मीरा जी की ज़लालत पर मुझसे स्त्री नहीं हो सकती, और न मैं अपने दोस्त श्याम को मजबूर कर सका हूं कि वह ग़लत औरतों को सालियां न कहे." "गंजे फ़रिश्ते में जो फ़रिश्ता आया है उसका मुंडन हुआ है और ये रस्म मैंने बड़े सलीक़े से अदा की है." मंटो ने अपनी क़ब्र की तख़्ती के लिए खुद ही लिखा था यहां मंटो दफ़्न और उसके साथ ही दफ़्न है कहानी का फ़न. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From beingred at gmail.com Tue Aug 31 21:57:41 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 31 Aug 2010 21:57:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KSw4KWN4KSu?= =?utf-8?b?LCDgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4g4KSU4KSwIOCkuOCljeCkpOCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: धर्म, सत्ता और स्त्री *रणेन्द्र* *बात *की शुरूआत माधवी की कथा से करता हूँ. महाभारत के उद्योगपर्व के 106वें अध्याय से 123वें अध्याय तक माधवी के आख्यान का वर्णन है. माधवी नहुष कुल में उत्पन्न चन्द्रवंश के पांचवें राजा ययाति की पुत्री थी. गालव ऋषि को अपने गुरू विश्वामित्र को गुरूदक्षिणा में श्यामकर्ण और चन्द्रप्रभायुक्त आठ सौ घोड़े देने थे. गालव राजा ययाति के पास पहुंचे. राजा के पास भी श्यामकर्ण घोड़े नहीं थे. उन्होंने अपनी बेटी माधवी ऋषि को दे दी ताकि उसे अन्य राजाओं को सौंप कर घोड़े प्राप्त करे. *पूरा पढ़ेंः धर्म, सत्ता और स्त्री * -- Nothing is stable, except instability Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: From shashikanthindi at gmail.com Tue Aug 31 23:26:06 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 31 Aug 2010 23:26:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSV4KSw?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruCkvuCkryDgpK7gpLDgpYcg4KST4KSV4KSw4KWHIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkquCkpOCljeCkpOCksiDgpK3gpL7gpKQg4KSo4KSvJw==?= Message-ID: *जेकरे माय मरे ओकरे एक पत्तल भात नय **"पीपली लाइव से मिला मेहनताना इतना नहीं था की" घर पक्का करवा पाते."* - ओंकारदास मानिकपुरी ('पपली लाइव' फिल्म में नत्था की भूमिका निभाने वाला कलाकार) *"पीपली लाइव' के हीरो का घर आज भी कच्चा" * इस शीर्षक से आज 31 अगस्त 2010 को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में सोनाली चक्रवर्ती की छह कॉलम में एक ख़बर छपी है. ख़बर का पहला पैरा इस प्रकार है- *"बॉलीवुड स्टार आमिर खान की फिल्म 'पीपली लाइव' में नत्था की भूमिका में छाप छोड़ने वाले ओंकारदास मानिकपुरी कभी भिलाई की गलियों में सब्जी बेचते थे. लेकिन आज वे अपने घर में नहीं रुक पा रहे क्योंकि उनके घर पहुँचते ही प्रशंसकों की भीड़ जो घेर लेती है. वे छिप कर अपने बहनोई के घर में रह रहे हैं. उनका अपना घर आज भी कच्ची मिट्टी का बना है. वे कहते हैं कि 'पीपली लाइव'से मिला मेहनताना इतना नहीं था की घर पक्का करवा पाते...." 'दैनिक भास्कर' की रिपोर्टर सोनाली चक्रवर्ती भिलाई में अपने बहनोई के घर में ठहरे नत्था से जब बातचीत कर रही थीं ठीक उसी दिन 'पीपली लाइव' फिल्म के प्रोड्यूशर आमिर खान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर 'पीपली लाइव' फिल्म दिखा दिखा रहे थे. (पता नहीं फिल्म की डायरेक्टर अनुषा रिजवी और को-डायरेक्टर महमूद फारूकी को प्रधानमंत्री आवास बुलाया गया था या नहीं) * खैर, जिस इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ़ 'पीपली लाइव' फिल्म बनी है उसी का सच मानूं तो यह फिल्म हिट हुई है. रिलीज़ होने के पहले ही हफ्ते में 600 प्रिंटों को बेचकर इस फिल्म की लागत (100 मिलियन यानि 10 करोड़) निकल चुकी थी. उसके बाद तीसरा हफ्ता बीतने वाला है. याद रहे, 'पीपली लाइव' रिलीज़ होने के पहले फिल्म के बहुचर्चित गाने 'महंगाई डायन..." के मेहनताने को लेकर भी विवाद हो चुका है. ......................................................... हमारे मगही में एक कहावत है- *'जेकरे माय मरे ओकरे एक पत्तल भात नय'* मित्रो, मेरे कहने का मतलब यह कतई नहीं कि 'पीपली लाइव' के हीरो नत्था को उचित मेनाताना नहीं मिला. यह तो बॉलीवुड का इतिहास रहा है. हाँ, आमिर खान साहब ने बॉलीवुड में नवागंतुकों के शोषण की परम्परा का निर्वाह भर किया है. उम्मीद की जानी चाहिए की अगले 2-4 साल बाद नत्था यानी ओंकारदास मानिकपुरी भाई की मुंबई में कोठी नहीं तो फ़्लैट तो ज़रूर होगा, क्योंकि कई फिल्मों के ऑफर उन्हें मिल रहे हैं. उन्होंने ख़ुद इंटरव्यू में बताया है. ...और इस बात की क्या गारंटी की कल नत्था (ओंकारदास मानिकपुरी) भी आमीर खान की तरह बॉलीवुड में नवागंतुकों का शोषण नहीं करेगा. हमारे बहुत सारे साथी किसानों की खुदकुशी पर बने फिल्म 'पीपली लाइव' को देख कर गंड़थैयो हो रहे हैं. भगवान, खुदा, वाहे गुरू, जीसस कॉमर्शियल खेती के लोभ में फंस कर खुदकुशी करनेवाले किसानों को नहीं बल्कि परम्परागत खेती करके बदहाली और फटेहाली में भी ज़िन्दगी जी रहे या थेथरई कर रहे किसानों को जीने की हिम्मत दे. आमीन. - शशिकांत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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