From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 1 10:12:35 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 1 Apr 2010 10:12:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSs4KSI?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJXgpLXgpL/gpKTgpY3gpLDgpYAg4KS54KS/4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KS+IOCkueCkv+CksuCkvuCksiDgpJXgpL4g4KS14KS/4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWL4KS5?= Message-ID: यहाँ सुनिए अरब की कवित्री हिस्सा हिलाल का साक्षात्कार यह वह महिला है जिसने दुबई में आयोजित 'पोएट ऑफ मिलानायर' कार्यक्रम में जीसने जड़ मान्यताओं के खिलाफ आग उगलने वाले शब्दों में अपना विरोध दर्ज किया. आज जहां एक तरफ हिस्सा को दुनिया भर से समर्थन मिल रहा है, वही उसे जान से मारने की धमकियों की भी कमी नहीं है. यहाँ प्रस्तुत है एक टी वी चॅनल द्वारा लिए गए उनके साक्षात्कार की ..... http://ashishanshu.blogspot.com/2010/03/blog-post_6059.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100401/7023f8e4/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 1 10:12:35 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 1 Apr 2010 10:12:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSs4KSI?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJXgpLXgpL/gpKTgpY3gpLDgpYAg4KS54KS/4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KS+IOCkueCkv+CksuCkvuCksiDgpJXgpL4g4KS14KS/4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWL4KS5?= Message-ID: यहाँ सुनिए अरब की कवित्री हिस्सा हिलाल का साक्षात्कार यह वह महिला है जिसने दुबई में आयोजित 'पोएट ऑफ मिलानायर' कार्यक्रम में जीसने जड़ मान्यताओं के खिलाफ आग उगलने वाले शब्दों में अपना विरोध दर्ज किया. आज जहां एक तरफ हिस्सा को दुनिया भर से समर्थन मिल रहा है, वही उसे जान से मारने की धमकियों की भी कमी नहीं है. यहाँ प्रस्तुत है एक टी वी चॅनल द्वारा लिए गए उनके साक्षात्कार की ..... http://ashishanshu.blogspot.com/2010/03/blog-post_6059.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100401/7023f8e4/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Thu Apr 1 12:36:42 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 1 Apr 2010 12:36:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSH4KSPLOCkheCktuCli+CklSDgpJrgpJXgpY3gpLDgpKfgpLAg4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpLjgpLDgpY3gpJ/gpL/gpKvgpL/gpJXgpYc=?= =?utf-8?b?4KSfIOCknOCkvuCksOClgCDgpJXgpLDgpYfgpII=?= Message-ID: अशोक चक्रधर ने पीएच.डी सहित उसके पहले और बाद जो भी डिग्रियां और सम्मान हासिल किये है,वो सब फर्जी है। अशोक चक्रधर को हिन्दी भाषा तकनीक के विकास के लिए'माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वेल्युएबल प्रोफेशनल'का जो अवार्ड मिला है उसकी कोई मुराद नहीं है,वो बाजार और कार्पोरेट प्रभावित अवार्ड है,उसका हिन्दी समाज के बीच कोई मोल नहीं है। हजारों की भीड़ जो उन्हें सुनती है वो औसत से भी कम दिमागवाले उनलोगों की जमात हैं जिन्हें साहित्य और सरोकार की एबीसी भी नहीं मालूम। टेलीविजन और जनमाध्यमों के जरिए हिन्दी के विकास के नाम पर जो कुछ भी किया वो सब बकवास है। ये सारे सम्मान और प्रोत्साहन पानेवाले अशोक चक्रधर को ये भले ही लग रहा होगा कि उन्होंने हिन्दी के जरिए नए और अलग किस्म की उंचाईयों को छुआ है,हिन्दी को एक नयी इमेज देने की कोशिश की है,खुद सम्मान देनेवाली संस्था को ऐसा लग रहा होगा कि उन्होंने एक जेनुइन 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'को सम्मान दिया है। लेकिन सच बात तो ये है कि हिन्दी समाज के लिए ये सब कुछ कूड़ा है। शुद्ध कचरा है। वैसे भी "साहित्य से चक्रधर का कोई लेना-देना नहीं है। मुक्तिबोध पर कभी पीएचडी जरूर की थी। जामिया में पढ़ाने भी लगे। लेकिन मशहूर हुए हास्यकवि के नाते। तुकों में उन्हें महारत हासिल है।" अशोक चक्रधर को हिन्दी साहित्य और समाज के लिए गैरजरुरी करार देने के लिए मुझे नहीं लगता कि इससे और अधिक शब्दों और अभिव्यक्ति की जरुरत होगी।..और जो थोड़ी बहुत कसर रह जाती है तो उनके काम को सत्ता के गलियारों के लिए चहलकदमी करार देकर मामले को नक्की किया जा सकता है। पूरे हिन्दी समाज के बीच एक दिलचस्प पहलू है कि यहां सक्रिय( ये सक्रियता लिखने-पढ़ने के अलावे बाकी कई स्तरों पर संभव है) वो तमाम लोग पुरस्कार,डिग्रियां और सर्टिफिकेट पाने के लिए जितने बेचैन रहते हैं,उससे रत्तीभर भी कम दूसरों के लिए सर्टिफिकेट जारी करने के लिए नहीं रहते। हर बड़ा से छोटा हिन्दी समाजी दूसरे 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'( पहले रचनाकार, अब इसी शब्द से काम चलाइए)के नाम सर्टिफिकेट जारी करने के लिए बेचैन है। ये हिन्दी के संस्कार में है और इसकी ट्रेनिंग हिन्दी समाज में आते ही मिलनी शुरु हो जाती है। इसलिए अब इसे कोई प्रवृत्ति न मानकर नस्ल पैदा करने की पुरजोर कोशिश कहें तो बात ज्यादा आसानी से समझ आएगी। ऐसे में बीए फर्स्ट इयर का बंदा भी आधा-गांव नाम शामिल करते हुए रज़ा साहब को पोंडी लिखनेवाला करार दे दे तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 'रंगभूमि'को जलाने पर आमादा हो जाए तो हमें अफसोस नहीं होना चाहिए। बल्कि साहित्य की इस नस्ल को बढ़ानेवालों के लिए सिलेब्रेट करने का दौर है कि उनकी मेहनत सही दिशा में काम कर रही है। हिन्दी समाज में लिखाई-पढ़ाई और विश्लेषण का एक बड़ा हिस्सा यही सर्टिफिकेट जारी करने और हर लिटरेचर प्रैक्टिसनर की पीठ पर लेबल चस्पाने के काम से जुड़ा है।.. लेबल चस्पाने की व्यक्तिगत स्तर पर ली गयी सबों की अपनी-अपनी ये ट्रेनिंग जब सामूहिक स्तर पर एकरुप होती है तो सर्टिफिकेट जारी करने की स्थिति तक पहुंचती है। हिन्दी अकादमी की बेशर्म लीला के बहाने अशोक चक्रधर को जो सर्टिफिकेट जारी करने की बात आज हम कर रहे हैं,जिसे कि हिन्दी समाज के नामी-गिरामी लोग सामूहिक प्रतिरोध का स्वर कह रहे हैं वो दरअसल लेबल चस्पाने के काम के पूरा कर लेने के बाद सर्टिफिकेट जारी करने की तैयारी है। यानी किसी लिटरेटर प्रैक्टिसनर पर लेबल चस्पाना वो शुरुआती प्रक्रिया है जहां से सर्टिफिकेट जारी करने की भूमिका शुरु होती है। लेकिन लेबल चस्पाने की इस बेशर्म आदत के बीच किसी शख्स को सर्टिफिकेट जारी करना,क्या मामला यही तक का है। हिन्दी समाज व्यवहार के स्तर पर जादुई यथार्थवाद का विरोध करते हुए भी उसका शिकार रहा है। उसने मोर्चे की लड़ाई को अक्सर सब्जेक्टिविटी में बदलने का काम किया है। बहस का दायरा यो तो इतना बड़ा किया है कि मुनिरका की स्थानीय समस्या में पूरी अमेरिका की समस्या समा जाए या फिर संसद के सवाल महज भटिंडा तक के सवाल बनकर रह जाएं। इन दोनों ही स्थितियों में अकाउंटबिलिटी के सवाल से वो मुक्त हो जाते हैं। किसी को कहीं कोई जबाव नहीं देना होता,न किसी से रार होती है क्योंकि सब तो सब्जेक्टिव है।..या फिर रार लेनी ही है तो उसे पर्सनल तक ले जाओ। अशोक चक्रधर के मामले में यही हुआ है। ये उदाहरण देते हुए थोड़ी असहजता भी होती है लेकिन अगर हिन्दी समाज के महारथियों को सचमुच में अगर साहित्य को लेकर चिंता होती तो फिर लोलियाकर बोलनेवाले मुकुंद द्विवेदी के उपाध्यक्ष बनने पर क्यों चुप मार गए? उससे पहले भी कई ऐसे लोग आए-गए,उन्हें क्यों पचा गए? अकादमियों में कितने और कैसे-कैसे गुणी लोग विराजमान है,यहां कोई लिस्ट जारी करने की जरुरत नहीं है। मुझे तो लगता है कि ऐसी संस्थाओं का एक आम फार्मूला है कि अध्यक्ष,उपाध्यक्ष,सचिव ऐसे लोगों को बनाओ जिसे कि सरकार के अलावे कोई नहीं जानता हो। जिनकी रचनाएं या तो सरकारी अलमारियों में सजी हो या फिर जिन्हें दोस्ती-यारी में बंटवाने के लिए छपवायी गयी है। जिसे कोई हिन्दी पाठक नहीं जानता हो। अशोक चक्रधर के मामले में अबकी बार सरकार से जरुर चूक हुई है। अशोक चक्रधर की जिस तुकनवाजी पर ओम थानवी ने व्यंग्य किया है वो दरअसल उनकी प्रतिभा और उनके आचरण को एक-दूसरे से गड्डमड्ड करके लाने की जुगत है। ओम थानवी जैसे भाषाई स्तर पर सचेत पत्रकार के लिए ये एक चूक है। अगर किसी इंसान में तुकबंदी करने का कौशल है और किसी पार्टी की सुविधा के लिए जय हो की पैरॉडी तैयार करता है तो आप उसका विरोध कीजिए,उनके खिलाफ अभियान चलाइए। लेकिन उसकी आड़ में आप तुक मिलाने की प्रतिभा को खारिज नहीं कर सकते। अशोक चक्रधर की कविताई,तुकबंदी और एक्सटेम्पोरे को लेकर जो गंभीर साहित्य को पूजनेवाले लोग विरोध कर रहे हैं वो ऐसा करते हुए भूल जाते हैं कि वो साहित्य और अभिव्यक्ति की एक मजबूत विधा को हतोत्साहित करने में लगे हैं। आप हिन्दी समाज की बिडम्बना देखिए कि उसने कभी दो सौ साल से भी ज्यादा इस समस्यापूर्ति,तुकबंदी,हाजिस जबाबी और छंदों का सेवन किया,एक-एक मिसरे पर तालियों की थाक लगा दी,इसके समर्थन में भी लिखनेवाले लोग हिन्दी के बाबा हुए और इसके विरोध में लिखनेवाले भी बाबा हुए। आज उस विधा को लेकर कैसी हिकारत है। ये पॉपुलर होते साहित्य का खास किस्म का एलीटिस्ट विरोध है। हिन्दी में क्या साहित्य है,क्या साहित्य नहीं है इस पर दर्जनों किताबें और लेख छप चुके हैं। इस पर बहस करनेवाले इससे भी ज्यादा दर्जन में डिफाइन करनेवाले लोग हैं। फिर भी है कि साहित्य की सुरक्षा घेरे में सेंध लग जाता है।..और अशोक चक्रधर जैसे तुक मिलानेवाले लोगों के आने पर फिर से डिफाईन करने की जरुरत पड़ जाती है। जब तक कोई और मानक तय न हो,सुविधा के लिए आप ये मान लीजिए कि गुपचुप तरीके से हिन्दी महारथियों का बनाया गया फार्मूला है कि जो ज्यादा पढ़ा जाए,ज्यादा पॉपुलर हो या सुना जाए वो कभी भी साहित्य नहीं हो सकता,वो कभी भी साहित्य की कोटि में नहीं आ सकते। जिस किताब को खोजने के लिए दरियागंज में तीन-चार चक्कर लगाने न पड़ जाएं वो फिर साहित्य कैसा? हिन्दी में कई ऐसी रचनाएं और रचनाकार इसी फार्मूले के तहत खारिज किए गए हैं। जिनकी कविताएं आपको जुबान पर याद है,वो कवि हो ही नहीं सकता। इस अर्थ में हिन्दी के हरेक लिटरेचर प्रैक्टिसर औऱ उसकी रचना को अनिवार्य रुप से दुर्लभ,खास मौके पर ही उपलब्ध,कम लोगों द्वारा पढ़ा जाना,पांच सौ प्रति के फार्मूले के तहत छापा जाना अनिवार्य है। इससे ज्यादा जहां वो पढ़ा गया,सुना या छापा गया तो समझ लीजिए कि वो बाजार का आदमी है,वो पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक है,वो सत्ता के लिए बोतल की तरह इस्तेमाल में आनेवाला शख्स है, वो संस्कृति विरोधी है।..और हिन्दी समाज ऐसे लोगों और रचनाओं को कैसे बर्दाश्त कर लेगी। इनके हिसाब से हिन्दी का विकास हर हाल में रहमो-करम पर ही संभव है। दया,सहानुभूति,अनुकंपा से इतर जहां इसके विकास और प्रसार के रास्तों की खोज की गयी तो समझिए कि हिन्दी का नाश हो रहा है। लेकिन अशोक चक्रधर और पॉपुलर माध्यमों के जरिए हिन्दी का विरोध करनेवाले लोग जिनकी कोशिश हिन्दी को हमेशा वर्जिनिटी के चश्मे से देखने की रही है,ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन सिर्फ और सिर्फ गंभीर और गरीष्ठ साहित्य के विकास के लिए नहीं किया गया है। उसमें हिन्दी भाषा और सांस्कृतिक कार्यक्रम से लेकर उन तमाम तरह की गतिविधियों की हिस्सेदारी उतनी ही शामिल है जितनी कि अकेले साहित्य की दावेदारी की की जाती है।..और अगर इतनी सी मोटी समझ भी वापस आ जाए कि हिन्दी का मतलब सिर्फ साहित्य ही नहीं है,उसमें भाषा का विकास भी शामिल है तो अशोक चक्रधर के जय हो,विजय हो लिखे जाने का पूरजोर विरोध किए जाने के बाद भी भाषाई स्तर की लोकप्रियता के लिए कुछ और चक्रधर की दरकरार महसूस होगी। इस काम के लिए हमें चक्रधर या किसी शख्स के विरोध और समर्थन में आने की जरुरत नहीं है बल्कि हमारी लड़ाई इस बात को लेकर होनी चाहिए कि हिन्दी भाषा के नाम पर साहित्यकारों और आलोचकों की जो किलाबंदी होती है,उसे ध्वस्त किए जाएं। अगर इन साहित्य के महारथियों को( कृष्ण वलदेव वैद के अपमान का प्रतिरोध करनेवाले लोगों का सम्मान करते हुए)हिन्दी को लेकर सचमुच कोई चिंता होती तो सबसे पहले हिन्दी अकादमी के नाम आरटीआई करते। उनसे ये जरुर सवाल करते कि करीब 90 लोगों का वेतन यहां से जाता है और मात्र 22 से 25 लोग हिन्दी अकादमी का काम करते हैं। बाकी के लोग सरकार के दूसरे विभागों में हैं,वो यहां अपनी शक्ल तक नहीं दिखाते,इस बारे में आपके पास क्या रिकार्ड है? हिन्दी पर एहसान करने का जो आंकड़ा आपके पास है उसके भीतर की सच्चाई क्या है? इन महारथियों को अगर भाषा को लेकर सचमुच सीरियसनेस होती तो हिन्दी भाषा के वर्चुअल स्पेस में आने के बाद 2.0 की पूरी कहानी बताते,समझाते। हिन्दी फॉन्ट को लेकर दुनियाभर में हुई मारामारी,परेशानियों और लगाए गए एफर्ट की चर्चा करते लेकिन इस मुकाम पर मुंह पर ताला जड़कर बैठे हैं। न्यू मीडिया के बीच की हिन्दी पर विस्तार से चर्चा करते। लेकिन नहीं, हिन्दी के ये महारथी,हिन्दी की पूरी पताका विचारों और भगवा और गाढ़ा भगवा के बीच ले जाकर ही फहराना चाहते हैं। लेकिन वो इस बात को इस स्तर पर विमर्श करने की जरुरत महसूस नहीं करते भाषा का विस्तार सिर्फ विचारधारा के बीच होकर संभव नहीं है और न ही हिन्दी प्रैक्टिसनर की पीठ को एमसीडी की दीवार में तब्दील करने से कुछ होनेवाला है। ये काम बहुत पहले हो चुका,अब कुछ तो चेंज कीजिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100401/a1158bb9/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Thu Apr 1 16:13:56 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 1 Apr 2010 16:13:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= LSD : Things we lost in the fire Message-ID: This is what I wrote as a 2nd part for my ongoing LSD footprints series. From my blog www.mihirpandya.com *’आवारा हूँ...’* __________ ’आश्विट्ज़ के बाद कविता संभव नहीं है.’ – *थियोडोर अडोर्नो *. जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन शब्दों में अपने समय के त्रास को अभिव्यक्ति दी थी. जिस मासूमियत को *लव, सेक्स और धोखा * की उस पहली कहानी में राहुल और श्रुति की मौत के साथ हमने खो दिया है, क्या उस मासूमियत की वापसी संभव है ? क्या उस एक ग्राफ़िकल दृश्य के साथ, ’जाति’ से जुड़े किसी भी संदर्भ को बहुत दशक पहले अपनी स्वेच्छा से त्याग चुके हिन्दी के ’भाववादी प्रेम सिनेमा’ का अंत हो गया है ? क्या अब हम अपनी फ़िल्मों में बिना सरनेम वाले ’हाई-कास्ट-हिन्दू-मेल’ नायक ’राहुल’ को एक ’अच्छे-अंत-वाली-प्रेम-कहानी’ की नायिका के साथ उसी नादानी और लापरवाही से स्वीकार कर पायेंगे ? क्या हमारी फ़िल्में उतनी भोली और भली बनी रह पायेंगी जितना वे आम तौर पर होती हैं ? *LSD * की पहली कहानी हिन्दी सिनेमा में एक घटना है. मेरे जीवनकाल में घटी सबसे महत्वपूर्ण घटना. इसके बाद मेरी दुनिया अब वैसी नहीं रह गई है जैसी वो पहले थी. कुछ है जो श्रुति और राहुल की कहानी ने बदल दिया है, हमेशा के लिए. * * *LSD * के साथ आपकी सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि उसे आप ’सिनेमा’ कैसे मानें ? देखने के बाद सिनेमा हाल से बाहर निकलते बहुत ज़रूरी है कि बाहर उजाला बाकी हो. सिनेमा हाल के गुप्प अंधेरे के बाद (जहां आपके साथ बैठे गिनती के लोग वैसे भी आपके सिनेमा देखने के अनुभव को और ज़्यादा अपरिचित और अजीब बना रहे हैं) बाहर निकल कर भी अगर अंधेरा ही मिले तो उस विचार से लड़ाई और मुश्किल हो जाती है. मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में देखते हुए कई बार ऐसा अनुभव किया है, शायद राकेश शर्मा की बनाई ’फ़ाइनल सल्यूशन’. लेकिन किसी हिन्दुस्तानी मुख्यधारा की फ़िल्म के साथ तो कभी नहीं. और सिर्फ़ इस एक विचार को सिद्ध करने के लिए दिबाकर हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा ’रिस्क’ लेते हैं. तक़रीबन चालीस साल पहले ऋषिकेश मुख़र्जी ने अमिताभ को यह समझाते हुए ’गुड्डी’ से अलग किया था कि अगर धर्मेन्द्र के सामने उस ’आम लड़के’ के रोल में तुम जैसा जाना-पहचाना चेहरा (’आनंद’ के बाद अमिताभ को हर तरफ़ ’बाबू मोशाय’ कहकर पुकारा जाने लगा था.) होगा तो फ़िल्म का मर्म हाथ से निकल जायेगा. दिबाकर इससे दो कदम आगे बढ़कर अपनी इस गिनती से तीसरी फ़िल्म में एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिसके नायक – नायिका लगता है फ़िल्म की कहानियों ने खुद मौहल्ले में निकलकर चुन लिये हैं. पहली बार मैं किसी आम सिनेमा प्रेमी द्वारा की गई फ़िल्म की समीक्षा में *ऐसा लिखा * पढ़ता हूँ कि ’देखो वो बैठा फ़िल्म का हीरो, अगली सीट पर अपने दोस्तों के साथ’ और इसी वजह से उन कहानियों को नकारना और मुश्किल हो जाता है. पहले दिन से ही यह स्पष्ट है कि *LSD * अगली *’खोसला का घोंसला’ * नहीं होने वाली है. यह ’डार्लिंग ऑफ़ द क्राउड’ नहीं है. *’खोसला का घोंसला’ * आपका कैथार्सिस करती है, लोकप्रिय होती है. लेकिन *LSD * ब्रेख़्तियन थियेटर है जहाँ गोली मारने वाला नाटक में न होकर दर्शकों का हिस्सा है, आपके बीच मौजूद है. मैं पहले भी यह बात कर चुका हूँ कि हमारा लेखन (ख़ासकर भारतीय अंग्रेज़ी लेखन) जिस तरह ’फ़िक्शन’ – ’नॉन-फ़िक्शन’ के दायरे तोड़ रहा है वह उसका सबसे चमत्कारिक रूप है. ऐसी कहानी जो ’कहानी’ होने की सीमाएं बेधकर हक़ीकत के दायरे में घुस आए उसका असर मेरे ऊपर गहरा है. इसीलिए मुझे अरुंधति भाती हैं, इसिलिये पीयुष मिश्रा पसंद आते हैं. उदय प्रकाश की कहानियाँ मैं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ता हूँ. खुद मेरे ’नॉन-फ़िक्शन’ लेखन में कथातत्व की सतत मौजूदगी इस रुझान का संकेत है. दिबाकर वही चमत्कार सिनेमा में ले आए हैं. इसलिए उनका असर गहरा हुआ है. उनकी कहानी [image: Love_sex_aur_dhokha]सोने नहीं देती, परेशान करती है. जानते हुए भी कि हक़ीकत का चेहरा ऐसा ही वीभत्स है, मैं चाहता हूँ कि सिनेमा – ’सिनेमा’ बना रहे. मेरी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. ‘हम’ चाहते हैं कि हमारी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. हम *LSD * को नकारना चाहते हैं, ख़ारिज करना चाहते हैं. चाहते हैं कि उसे किसी संदूक में बंद कर दूर समन्दर में फ़ैंक दिया जाए. उसकी उपस्थिति हमसे सवाल करेगी, हमारा जीना मुहाल करेगी, हमेशा हमें परेशान करती रहेगी. * * *LSD * पर बात करते हुए आलोचक उसकी तुलना *’सत्या’ *, *’दिल चाहता है’ *, और *’ब्लैक फ़्राइडे’ * से कर रहे हैं. बेशक यह उतनी ही बड़ी घटना है हिन्दी सिनेमा के इतिहास में जितनी *’सत्या’ * या *’दिल चाहता है’ * थीं. ’माइलस्टोन’ पोस्ट नाइंटीज़ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में. उन फ़िल्मों की तरह यह कहानी कहने का एक नया शास्त्र भी अपने साथ लेकर आई है. लेकिन मैं स्पष्ट हूँ इस बारे में कि यह इन पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह अपने पीछे कोई परिवार नहीं बनाने वाली. इस प्रयोगशील कैमरा तकनीक का ज़रूर उपयोग होगा आगे लेकिन इसका कथ्य, इसका कथ्य ’अद्वितीय’ है हिन्दी सिनेमा में. और रहेगा. यह कहानी फिर नहीं कही जा सकती. इस मायने में *LSD * अभिशप्त है अपनी तरह की अकेली फ़िल्म होकर रह जाने के लिए. शायद *’ओम दर-ब-दर’ * की तरह. क्लासिक लेकिन अकेली. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100401/b6753e1c/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Apr 2 15:39:35 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 02 Apr 2010 15:39:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KWH4KS1?= =?utf-8?b?4KS/IOCkleCkviDgpKTgpYHgpJfgpLzgpLLgpJXgpLzgpYAg4KSr4KS84KSw?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo?= Message-ID: <4BB5C25F.50901@sarai.net> Forwarded message ---------- From: Prakash K Ray Date: 2010/4/2 Subject: JNU To: ashish k singh जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि विश्वविद्यालय विचारों की अनजानी परतों की पड़ताल और सत्य की खोज की जगहें हैं, जहाँ मानवता के उच्चतर आदर्शों की ओर यात्रा निरंतर चलती है. नेहरु के इन शब्दों को बुनियादी मूल्य मानने वाले और उन्हीं के नाम पर स्थापित दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में इन दिनों प्रशासन और उसे निर्देशित करनेवाली केंद्र सरकार हर तरह के जनवादी अधिकारों को छीनने का लगातार प्रयास कर रही है. दो साल पहले केंद्र सरकार के वकील ने जेएनयू के छात्र संघ चुनावों पर रोक लगाने की याचिका दी थी. उसके बाद से विश्वविद्यालय में छात्र संघ चुनाव नहीं हुए हैं. इस स्थिति का फायदा उठाते हुए पिछले कुछ समय से कई ऐसी नीतियाँ लागू की गयी हैं जो व्यापक छात्र हित में नहीं हैं, जैसे कि फीस बढ़ोतरी, दलितों-पिछड़ों की आरक्षित सीटों को न भरना, आदि. इसी क्रम में जेनयू प्रशासन ने इस हफ़्ते एक तुगलकी फरमान जारी किया जिसके तहत 'राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा' के लिये 'संवेदनशील' मुद्दों पर सभाएं करने पर पाबन्दी लगा दी गयी. साथ ही ऐसी फिल्मों और वृत्तचित्रों को दिखाने पर भी रोक लगा दी गयी है, जिन्हें सेंसर बोर्ड ने पास न किया हो. यह निर्णय लेने से पहले प्रशासन ने किसी भी स्तर पर छात्र-प्रतिनिधियों से बातचीत नहीं की. दिलचस्प बात यह भी है कि प्रशासन ने 'राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा' के लिये 'संवेदनशील' क्या हो सकता है, इसे स्पष्ट करने की कोई कोशिश नहीं की है. उसने इस तथ्य को भी परे रख दिया कि किसी भी मुद्दे पर बात करना और अपनी राय रखना किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है. इस फरमान में फ़िल्म दिखाने को लेकर बने कानूनों की भी अनदेखी की गयी है. छात्रों या छोटे समूहों के बीच अव्यावसायिक फ़िल्में दिखाने के लिये किसी सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होती. आज के तकनीक के दौर में जहाँ हर हाथ में कैमरे और कंप्यूटर हैं, सेंसर का राग अलापना या तो बेवकूफी है या फिर गहरी साज़िश. लेकिन इस फैसले के लिये सिर्फ़ विश्वविद्यालय प्रशासन को कोसना इसकी गंभीरता को कम करके आंकना होगा. इस फैसले को हमें यूपीए सरकार द्वारा लगातार जाहिर की जा रही 'आन्तरिक सुरक्षा' की चिंता के साथ जोड़ कर देखना होगा. अब तक उसके लिये 'आंतरिक सुरक्षा' का ख़तरा गांवों-जंगलों में होता था. अब यह भय शैक्षणिक परिसरों तक पहुँच गया लगता है. पिछले दिनों उस्मानिया युनिवर्सिटी में सुरक्षा बलों की तैनाती इसका उदहारण है और जेएनयू प्रशासन का हालिया फ़रमान उसका विस्तार है. इस मसले पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों की चुप्पी भी अफसोसनाक है. प्रकाश कुमार राय (दैनिक भास्कर के २ अप्रैल के अंक में प्रकाशित) -- Prakash K Ray 0 987 331 331 5 www.cinemela.youthv.com http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts http://twitter.com/cinemela orry forgot about the dictionary. From miyaamihir at gmail.com Fri Apr 2 16:49:40 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 2 Apr 2010 16:49:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCZ4KSy4KWA4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkueCli+CkruKAmSDgpIbgpJwg4KS44KWHIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWH4KSu4KS+4KSY4KSw4KWL4KSCIOCkruClh+Ckgiwg4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KWN4KSr4KS8IOCkj+CklSDgpLngpKvgpLzgpY3gpKTgpYcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCksuCkv+Ckjy4=?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, आज से एक बहुत ही जादुई फ़िल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने जा रही है. ’लीविंग होम - लाइफ़ एंड म्यूज़िक ऑफ़ इंडियन ओशियन’ नाम की यह डाक्यूमेंट्री फ़िल्म अपनी तरह की पहली फ़िल्म है जिसे सिनेमाहाल का एक हफ़्ते का साथ नसीब हुआ है. मेरे पसंदीदा संगीत के रचयिता बैंड इंडियन ओशियन के जीवन और संगीत को तक़रीबन डेढ़ घंटे की कहानी में पिरोकर यह फ़िल्म हमारे सामने पेश करती है. जिन्हें इंडियन ओशियन का संगीत पसन्द है उन्हें भी और जो अभी तक इस सुख से अनजान हैं उन्हें भी, फ़िल्म सभी को अपने साथ जोड़ती है. यह डाक्यूमेंट्री बनाने की भी अद्भुत कला है जिसमें एक-एक गीत की अपनी कहानी है, उसी के साथ फ़िल्म आगे बढ़ती है. दिल्ली में यह फ़िल्म दो जगह दिखाई जा रही है. एक कनॉट प्लेस के सिनेमाघर ओडियन (बिग सिनेमास) में और दूसरा नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस के बिग सिनेमास में. दोनों ही जगह इसका प्रदर्शन समय शाम 6:35 का है. मैं यह फ़िल्म पहले देख चुका हूँ और इसके जादू से अभी तक चमत्कृत हूँ. इसीलिए सभी दोस्तों को सिफ़ारिश के साथ यह सूचना-चिट्ठी प्रेषित है... ...मिहिर. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100402/bb10b0b3/attachment.html From shashikanthindi at gmail.com Fri Apr 2 17:31:46 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Fri, 2 Apr 2010 17:31:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KWI4KSc?= =?utf-8?b?4KS8IOCkheCkueCkruCkpiDgpKvgpLzgpYjgpJzgpLwg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KWN4KSu4KS24KSk4KWAIOCkquCksA==?= Message-ID: खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जन्मशती पर विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी लाश को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था। फ़ैज़ साहब से मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फ़ैज़ साहब ने कहा, ‘‘इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है।’’ उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। फ़ैज़ साहब के बारे में ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस्तान टाइम्स" के संपादक थे। गांधीजी की ’शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था मेरी चले तो में उसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटूं। गांधीजी के व्यक्तित्व का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा। फ़ैज़ साहब ने लिखा था- ‘‘अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होनेवाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं लेकिन जिस मिललत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा है और जिस मुल्क़ से अपने मुल्क़ की लड़ाई हो रही है, उस पर शहीद होनेवाले गांधीजी अकेले थे। पार्टीशन के बाद उन दिनों पाकिस्तान से लड़ाई चल रही थी और गांधीजी ख़ुद बड़े गर्व से हिंदू कहते थे। यह इतिहास की विडंबना है कि नाथूराम गोडसे ने सेकुलर पंडित नेहरू को नहीं मारा, राम का भजन गानेवाले गांधीजी को मारा। पाकिस्तान बनने के बाद फ़ैज़ साहब जब भी हिंदुस्तान आते थे तो नेहरू जी उन्हें अपने यहां बुलाते थे और उनकी कविताएं सुनते थे। विजय लक्ष्मी पंडित और इंदिरा जी भी सुनती थीं। दरअसल नेहरूजी कवियों और शायरों की क़द्र करते थे। नेहरू जी ने लिखा था- "ज़िन्दगी उतनी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए जितनी कविता।" फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू में प्रगतिशील कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फ़िराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वे सबसे लोकप्रिय थे। उन्हें नोबेल प्राइज को छोड़कर साहित्य जगत का बड़े से बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला। फ़ैज़ साहब मूलत: अंगेजी के अध्यापक थे। पंजाबी थे। लेकिन उन कवियों में थे जिन्होंने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। मशहूर रावलपिंडी षडयंत्र केस के वे आरोपी थे। सज्ज़ाद जहीर और फ़ैज़ साहब पर पाकिस्तान में मुक़दमा चलाया गया था। उन्हें कोई भी सज़ा हो सकती थी। वे बहुत दिन जेल में रहे। उनके एक काव्य संकलन का नाम है- ‘ज़िन्दांनामा।’ इसका मतलब होता है कारागार। अयूब शाही के ज़माने में उन्होंने सीधी विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जानेवाले कई गीत लिखे जो आज भी प्रसिद्ध हैं। मसलन- ‘‘एक मुल्क नहीं, दो मुल्क नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।’’ या ‘‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब जुल्मोसितम के कोहे गिरा, रूई की तरह उड़ जाएंगे, हम महकूमों के पांव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहले हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी.............सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे, हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे।’’ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस चर्चित नज़्म को पिछले दिनों टेलिविजन पर सुनने का मौक़ा मिला। इसे पाकिस्तान की गायिका इकबाल बानो ने बेहद ख़ूबसूरती से गाया है। फ़ैज़ एक अच्छे अर्थों में प्रेम और जागरण के कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपभोग करते हैं जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं। फ़ैज़ साहब ने कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं जैसे उनकी एक प्ररंभिक कविता "रकीब से" है। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि अपनी प्रमिका के रूप् से मैं कितना प्रभावित हूँ ये मेरा रकीब जानता है। उन्होंन लिखा- ‘‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।’’ इतना ही नहीं उन्होंने लिखा- ‘‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा। राहते और भी वस्ल है राहत के सिवा।’’ और लेखकों के लिए उन्होंने लिखा- ‘‘माता-ए-लौह कलम छिन गई तो क्या ग़म है। कि खून -ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें। ’’ इसी तरह अयूब शाही के दिनों में लिखी उनकी एक मशहूर नज़्म है- ‘‘निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन कि जहां। चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले। जो काई चाहनेवाला तवाफ को निकले। नज़र चुरा के चले जामा ओ जां बचा के चले।’’ दरअसल फ़ैज़ में जो क्रांति है उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की भी कविताएं हैं और सरस कविताएं हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंत्र्य की कल्पना का जो उल्लास होता है, वो सब मौजूद हैं। फ़ैज़ की कविताओं में संगीतात्मकता, गेयता बहुत है। मैं समझता हूं कि जिगर मुरादाबादी, जो मूलत: रीतिकालीन भावबोध के कवि थे, में आशिकी का जितना तत्व है, बहुत कुछ वैसा ही तत्व अगर किसी प्रगतिशील कवि में है तो फ़ैज़ में है। उनकी सर्वाधिक लाकप्रिय और संगीतात्मकता की दृष्टि से बहुत उत्कृस्ट है, जिसे मेहंदी हसन ने गाया है- ‘‘गुलों में रंग भरे, वाद-ए-नौ बहार चले। चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।’’ भाषा में ऐसे जो अन्वय होते हैं वे कविता को एक नया अर्थ देते हैं। बड़ा ही नाज़ुक अर्थ है इसमें। बड़ी याचना है। फ़ैज़ की दो और ख़ासियतें हैं- एक, व्यंग्य वे कम करते हैं लेकिन जब करते हैं तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे- शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की।’’ और दूसरी बात, फ़ैज़ रूमान के कवि हैं। अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करनेवाले कवि हैं लकिन क्रांति तो सफल नहीं हुई। ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई ज़माने को गालियाँ देते हैं। फ़ैज़ वैसे नहीं हैं। फ़ैज़ में राजनीतिक असफलता से भी कहीं ज़्यादा अपनी कविता को मार्मिकता प्रदान की है। उनका एक शेर है- ‘‘करो कुज जबी पे सर-ए-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया।’’ अर्थात कफ़न में लिपटे हुए मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो, इसलिए कि मेरी हत्या करनेवालों का यह भस्म नहीं होना चाहिए कि मरने के बाद मुझ में प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है। यह ऐतिहासिक यातना की अभिव्यक्ति है। यह समाजवादी आंदोलन और समाजवादी चेतना की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में ऐसी अनेक कविताएं बालकृष्ण शर्मा नवीन, निराला आदि कवियों ने लिखी थीं। इसी भावबोध पर लिखी फ़ैज़ साहब की एक और नज़्म है, जो मुझे अभी याद नहीं है। एजाज़ अहमद ने उन पंक्तियों को अपने एक मशहूर लेख- ‘‘आज का माक्र्सवाद’’ में उद्धृत किया है, जिसका भाव है- हमने सोचा था कि हम दो-चार हाथ मारेंगे और यह नदी तैरकर पार कर लेंगे। लेकिन नदी में तैरते हुए पता चला कि कई ऐसी लहरें, धाराएं और भंवरें हैं जिनसे जूझने का तरीक़ा हमें नहीं आता था। अब हमें नए सिरे से नदी पार करनी होगी। सो, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ केवल रूप, सौदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं बल्कि असफलताओ और वेदना के क्षणों में भी साथ खड़े रहनेवाले पंक्तियों के कवि हैं। *(डॉ. शशि**कांत* के साथ बातचीत पर आधारित. *अमर उजाला*, 2 अप्रैल 2010 में प्रकाशित*)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100402/6f256cef/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Apr 2 17:44:09 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 02 Apr 2010 17:44:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?TFNEIDog4KSu4KSo?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJXgpL7gpLLgpL4g4KS44KS/4KSo4KWH4KSu4KS+?= Message-ID: <4BB5DF91.5090509@sarai.net> विनीत और मिहिर को पढ़ने के बाद अब वरुण को पढ़ा. दिलचस्प बातचीत जारी आहे. मैं भी देखने के एक अदद मौक़े की तलाश में हूँ. वरुण ने प्रेम की हमारी भाषा में सिनेमा के अकूत असर का अच्छा खाका पेश किया है, और निगहबान कैमरे की राजनीति भी उनकी ज़द में है. मोहल्ला लाइव से साभार. http://mohallalive.com/2010/03/29/review-of-dibakar-banerji-film-love-sex-and-dhokha/ रविकान्त मन का काला सिनेमा / वरुण ग्रोवर /*Spoiler Alert* : अगर आपने ये फिल्म अब तक नहीं देखी है, तो ये लेख पढ़ कर कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगेगा। प्लॉट से जुडी दो चार बातें और खुल जाएंगी। आगे आपकी श्रद्धा।/ लव LSD मैं तब करीब सोलह साल का था। (सोलह साल, हमें बताया गया है कि अच्छी उम्र नहीं होती। किसने बताया है, यह भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है। लेकिन शायद मैं खुद से आगे निकल रहा हूं।) क्लास के दूसरे सेक्शन में एक लड़की थी जिसे मेरा एक जिगरी दोस्त बहुत प्यार करता था। वाजिब सवाल – ‘प्यार करता था’ मतलब? वाजिब जवाब – जब मौका मिले निहारता था, जब मौका मिले किसी बहाने से बात कर लेता था। हम सब उसे महान मानते थे। प्यार में होना महानता की निशानी थी। ये बात और थी कि वो लड़की किसी और लड़के से प्यार करती थी। यहां भी ‘प्यार करती थी’ वाला प्रयोग कहावती है। फाइन प्रिंट में जाएं तो – दूसरा लड़का भी उसको बेमौका निहारता था, और (सुना है) उसके निहारने पर वो मुस्कुराती थी। दूसरा लड़का थोड़ा तगड़ा – सीरियस इमेज वाला था। जैसा कि हमने देखा है – एक दिन सामने वाले खेमे को मेरे दोस्त के इरादे पता चल गये और बात मार-पीट तक पहुंच गयी। मैंने भी बीच-बचाव कराया। सामने वाले लड़के से दबी हुई आवाज़ में कहा कि असल में तुम्हारी पसंद (माने लड़की) है ही इतनी अच्छी कि इस बेचारे की बड़ी गलती नहीं है। (ये लाइन मैं रट के गया था। ‘डर’ फिल्म में है।) सुलह हो गयी पर उसके बाद मेरे दोस्त का प्यार कुर्बान हो गया। उसने उस लड़की को भुलाने की कोशिश की। हम लोगों ने इस मुश्किल काम में उसकी मदद की। उसकी महानता ‘प्यार करने वाले’ खेमे से निकलकर ‘प्यार पूरा नहीं हो पाया’ वाले खेमे में शिफ्ट हो गयी। पर कभी भी, अगले दो सालों तक, ऐसा नहीं हुआ कि उसने हिम्मत हारी हो या हमने ही ये माना हो कि किस्सा ख़त्म हो गया है। हम सब मानते थे कि दोस्त का प्यार सच्चा है और यही वजह काफी है कि वो सफल होगा। आज सोच के लगता है कि हम लोग साले कितने फ़िल्मी थे। लेकिन फिर लगता है कौन नहीं होता? हमारे देश में (या आज की दुनिया में?) option ही क्या है? प्यार की परिभाषा, प्यार के दायरे, प्यार में कैसा feel करना चाहिए इसके हाव-भाव, और प्यार में होने पर सारे universe की हमारी तरफ हो जाने की चुपचाप साज़िश – ये सब हमें हिंदी रोमांटिक फिल्मों से बाल्टी भर भर के मिला है। हमने उसे माना है, खरीदा है, और मौक़ा पड़ने पर बेचा भी है। लंबी परंपरा है – या कहें पिछली सदी की सबसे बड़ी conspiracy। राज कपूर ने प्यार को नौकरी और चरित्र के बराबर का दर्ज़ा दिया, गुरुदत्त ने कविता और दर्द की रूमानियत से पोता, शम्मी कपूर, देव आनंद और राजेश खन्ना ने मस्ती का पर्याय बनाया, बच्चन एंड पार्टी ने सख्त मौसम में नर्मी का इकलौता outlet, और 80 के दशक के बाद यश चोपड़ा, करन जौहर, शाहरुख और अन्य खानों ने तो सब मर्जों की दवा। मैं जानता हूं ये कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इसमें खास ये है कि ये अब तक पुरानी भी नहीं हुई है। और एक खास बात है कि अब तक किसी ने भी ऊंची आवाज़ में ये नहीं कहा है कि इस conspiracy ने उसकी जिंदगी खराब कर दी। जब कभी ऐसा मौक़ा आया भी [एक दूजे के लिए (1981), क़यामत से क़यामत तक (1987), देवदास (2002)] जहां प्यार के चलते दुखांत हुआ, वहां भी प्यार को कभी कटघरे में खड़ा नहीं किया गया। बल्कि उल्टा ही असर हुआ – जमाने की इमेज और ज़ालिम वाली हो गयी (मतलब प्यार में एक नया element जुड़ गया – adventure का), प्यार के सर पर कांटों का ताज उसे ईश्वरीय aura दे गया, और ‘हमारे घरवाले इतने illogical नहीं’ का राग दुखांत के परदे के पीछे लड़खड़ाती सुखांत की अगरबत्ती को ही सूरज बना गया। (और ये भी जान लें कि फिल्मकार यही चाहते थे। कभी जाने, कभी अनजाने।) दिबाकर बनर्जी की ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी लव की इस लंबी चली आ रही conspiracy को तोड़ती है। बल्कि ये कहें कि उसकी निर्मम ह्त्या करती है। इस कहानी को देखते हुए मुझे वो सब बेवकूफियां याद आयीं जो मैंने कभी की हैं या दूसरों को सुझायी हैं – जैसे हाथ पर रूमाल बांध कर style मारना, पहली नज़र में प्यार हो जाना, आवाज़ बदल कर बोलना, ‘प्यार करते हो तो भाग जाओ, बाकी हम देख लेंगे’ वाला भरोसा देना। और इसमें एक दिल दहला देने वाला अंत है जो मैंने अक्सर अखबारों में पढ़ा है, पर सिनेमा के परदे पर देखूंगा – ये कभी नहीं सोचा था। और सिनेमा के परदे पर इस तरह देखना कि सच से भी ज्यादा खतरनाक, कई गुना ज्यादा magnified और anti-glorified लगे इसके लिए मैं तैयार नहीं था। ये परदे पर राहुल और श्रुति की honour killing नहीं, मेरी जवानी की जमा की हुई naivety का खून था। ये कुंदन शाह – अज़ीज़ मिर्ज़ा वाले फीलगुड शहर में कुल्हाड़ी लेकर आंखों से खून टपकाता, दौड़ता दैत्य था। (शायद ये उपमाएं खुद से खत्म न हों, इसलिए मुझे रुकना ही पड़ेगा) और दिबाकर ने बहुत चतुराई से इस दैत्य को छोड़ा। जब तक हमें भरोसा नहीं हो गया कि परदे पर दिखने वाले राहुल और श्रुति हमीं हैं, जब तक हमने उन पर हंसना छोड़कर उनके साथ हंसना शुरू नहीं किया, जब तक बार बार हिलते कैमरे के हम अभ्यस्त नहीं हो गये तब तक हमें उस काली रात में सुनसान रास्ते पर अकेले नहीं भेजा। और उस वक्त, जब बाहर के परेशान कर देने वाले सन्नाटे ने आगाह कर दिया कि अब कुछ बुरा होने वाला है, हम बेबस हो गये। कार रुक गयी, हमें उतारा गया, और… मिहिर ने District 9 के बारे में लिखा था – ये दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में ले जाकर मारती है। मैं कहूंगा ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी दूर तक आपके साथ चलती है, और आपके पसंदीदा अकेलेपन में ले जाकर मारती है। और तब आप सोचते हैं – ये आज तक सिनेमा में पहले क्यों नहीं हुआ? या शायद – अब भी क्यों हुआ? सेक्स अंग्रेज़ी में इसे ‘hot potato’ कहते हैं। और हमारे यहां नंगे हाथों की कमी नहीं। हमारे देश में सेक्स के बारे में बात करना कुंठा की पहली निशानी माना जाता है। साथ ही दुनिया में सबसे ज्यादा पोर्न वीडियो देखने वाले देशों में भी हमारा नंबर है। दुनिया में सबसे ज्यादा बलात्कार भी किसी किसी दिन भारत में होते हैं और किसी मॉडल के तौलिया लपेटने पर सबसे ज्यादा प्रदर्शन भी। मां-बहन-बीवी-बेटी से आगे हमारी मर्यादा के कोई symbol नहीं हैं, न ही इनके बहुत आगे की गालियां। इतनी सारी complexities के बीच दिबाकर ने डाल दिये दो किरदार – जो भले भी हैं, बुरे भी। इतिहास की चादर भी ओढ़े हुए हैं, और भविष्य की तरह नंगे भी हैं। एक मर्द है। सभी मर्दों की तरह। अपने बहुत अंदर ये ज्ञान लिये हुए कि ये दुनिया उसी की है। ये जानते हुए कि women empowerment सिर्फ एक बचकाना खेल है – चार साल के बच्चे को डाली गयी underarm गेंद ताकि वो बल्ले से कम से कम उसे छुआ तो पाये। ये जानते हुए कि औरत सिर्फ साक्षी है मर्द के होने की। मर्द के प्यार, गुस्से, बदतमीजी और उदारता को मुकम्मल करने वाली चश्मदीद गवाह। और सामने एक औरत है। ये जानते हुए कि दुनिया उसकी नहीं। ये जानते हुए कि साहब बीबी और गुलाम में असली गुलाम कौन है। ये जानते हुए कि वो कुछ नहीं अपनी देह के बिना। कुछ नहीं देह के साथ भी, शायद। जिस cold-blooded नज़र से दिबाकर ने ये कहानी दिखायी है, वो इसे दो बहुत ही अनोखे, एक बार फिर, परेशान कर देने वाले आयाम देती है। पहला – क्या दुनिया भर में लगे कैमरे ‘मर्द’ ही नहीं हैं? ठंडे, वॉयर, सब पर नज़र रखते। दूसरा – इस नये world order, जिसमें कैमरा हमेशा हमारे सर पर घूम रहा है, उससे हमारा आसान समझौता। सैम पित्रोदा ने हाल ही में कहा है कि तकनीकी क्रांति का पहला दौर खत्म हो गया है – सबके पास मोबाइल फोन है, सबके पास इंटरनेट होगा। दूसरा दौर शुरू होने वाला है जिसमें सबको tag किया जाएगा – हर इंसान आसानी से ‘पकड़ा’ जा सकेगा। मेरे लिए ये दोनों आयाम बहुत ही डरा देने वाले हैं। (यहां याद आती है 2006 की शानदार जर्मन फिल्म ‘द लाइव्ज ऑव अदर्ज़’ – एक तानाशाह सरकार की ‘total control’ policy को अमल में लाते छुपे हुए रिकॉर्डर।) भरोसा, जैसा कि इस कहानी में निशा करती है आदर्श पर, बहुत खतरनाक चीज़ हो जाएगी, जल्द ही। खास कर के मर्द-औरत के बीच, सत्ता-प्रजा के बीच, देखनेवाले-दिखनेवाले के बीच। इसलिए अगर कहा जाए कि इस कहानी में ‘सेक्स’ का असली मतलब सिर्फ ‘सेक्स’ की क्रिया से नहीं बल्कि महिला-पुरुष के फर्क से भी है, तो गलत नहीं होगा। इतनी loaded होने की वजह से ही इस कहानी में cinematic टेंशन सबसे ज्यादा है, (critics’-word-of-the-month) layers भी बहुत सारी हैं और किरदार भी सबसे ज्यादा relatable हैं। एक बार को आपको कहानी अधूरी लग सकती है। मुझे भी लगा कि कुछ और होना चाहिए था – आदर्श का बदलना या निशा का टूटना। लेकिन फिर याद आया कहानी दिबाकर नहीं दिखा रहे – कहानी वो कैमरा दिखा रहा है। जितनी दिखायी वो भी ज्यादा है। धोखा Sting operation हमारे लिए नये हैं। कुछ लोगों का मानना है ये ‘डेमोक्रेसी’ के मेच्योर होने का प्रमाण है। कुछ का इससे उल्टा भी मानना है। और कुछ का बस यही मानना है कि इससे उनके चैनल को फायदा होगा। इस तीन अध्याय वाली फिल्म की इस तीसरी कहानी में तीनों तरह के लोग हैं। ये कहानी बाकी दोनों कहानियों के मुकाबले हल्की और दूर की है। या शायद दूर की है, इसलिए हल्की लगी। लेकिन ये पक्का है कि दूर की है। इसलिए बहुत परेशान भी नहीं करती। इसमें भी, दूसरी कहानी की तरह, एक बहुत बड़ा moral decision बीचों-बीच है। लेकिन पहली और दूसरी कहानी के personal सवालों के बाद इसके सवाल बहुत ही दुनियावी, बहुत ही who-cares टाइप के लगते हैं। शायद दिबाकर यही चाहते हों। कह नहीं सकते। लेकिन ये जरूर है कि तीनों कहानियों की ordering काफी दिलचस्प है। फिल्म बहुत ही impersonal note पर शुरू होती है – और धीरे-धीरे personal होती जाती है। और फिर nudity की हद तक नज़दीक आने के बाद दूर जाना शुरू करती है। और अंत में इतनी दूर चली जाती है कि item song पर खत्म होती है। लेकिन item song से कुछ बदलता नहीं। ये फिल्म अंधकार का ही उत्सव है। हमारी सभ्यता का एक बेहद disturbing दस्तावेज – जिसने पुराने मिथकों को तोड़ने की कोशिश की है, नये डरों को जन्म दिया है, और अपने एक गीत में साफ़ कहा है – ‘सच सच मैं बोलने वाला हूं – मैं मन का बेहद काला हूं।’ Varun Grover/(*वरुण ग्रोवर*। आईआईटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद युवा फिल्‍मकार, पटकथा लेखक और समीक्षक हो गये। कई फिल्‍मों और टेलीविज़न कॉमेडी शोज़ के लिए पटकथाएं लिखीं। 2008 में टावर्स ऑफ मुंबई नाम की एक डाकुमेंट्री फिल्‍म भी बनायी। उनसे varun.grover26 at gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)/ From vineetdu at gmail.com Sat Apr 3 06:06:07 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 3 Apr 2010 06:06:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KWL4KSf4KS+?= =?utf-8?b?IOCkreClgCDgpLngpILgpLjgpL7gpKTgpL4g4KS54KWI?= Message-ID: ये आर्टिकल दैनिक जागरण ०१ अप्रैल में प्रकाशित किया गया। दरअसल जागरण ने अप्रैल फूल के नाम पर दो पेज में परिशिष्ट प्रकाशित किया जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों में कॉमेडी की स्थिति पर बात की गयी है। सिनेमा के लिए मिहिर पंड्या और अनुपम ने लिखा और टेलीविजन के लिए मैंने। समय हो तो गौर फरमाइए- [image: छोटा भी हंसाता है] स्टैंडिंग कॉमेडी। टीवी पर यह नई चीज है। इसमें स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर सस्ती गॉसिप्स हैं, जजों के बेवजह ठहाके हैं, डबल मीनिंग पैदा करने वाले जबर्दस्ती के प्रयोग हैं, तो बोलने से ज्यादा हरकतों से हास्य पैदा करने की कोशिश है.. यही टेलीविजन की स्टैंडिंग कॉमेडी का चालू फार्मूला है। कंटेंट को लेकर थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ टेलीविजन पर कॉमेडी के नाम पर जो भी शो दिखाए जा रहे हैं, वे इसी फार्मूले को अपना रहे हैं। इस फार्मूले को तोड़ना भले ही जरूरी हो, लेकिन फिलहाल टेलीविजन की स्टैंडअप कॉमेडी इससे अलग नहीं सोच पा रही है। क्योंकि व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के बावजूद न तो टीआरपी के स्तर पर इसे शिकस्त मिली है और न ही इसने अपनी संभावनाओं को सीरियसली समझने की कोशिश की है। वरना, निजी समाचार चैनलों में (जहां मीडिया का सरोकार मुद्दों और सवालों से हटकर फीलगुड खबरों की तरफ होता जा रहा है) ये शो हास्य-व्यंग्य अंदाज में सप्लीमेंटरी जर्नलिज्म की भूमिका जरूर निभा पाते। निजी मनोरंजन चैनल दूरदर्शन और निजी चैनलों के पुराने कार्यक्रमों को काफी हद तक फॉलो करते रहे, लेकिन कॉमेडी के मामले में वे इससे एकदम अलग हो गए। दूरदर्शन के मुंगेरीलाल के हसीन सपने, मेड इन इंडिया और टी टाइम मनोरंजन जैसे कार्यक्रमों की एक लंबी फेहरिस्त रही है, जिसमें स्वाभाविक हंसी पैदा करने की ताकत के साथ एक सोशल कंसर्न भी रहा है। शुरुआती दौर के निजी चैनलों के कार्यक्रमों में भी यह अंदाज बरकरार रहा। इसमें आप मूवर्स ऐंड शेकर्स, ऑफिस-ऑफिस और राजनीतिक घटनाओं पर आधारित पोल-खोल जैसे कार्यक्रमों को शामिल कर सकते हैं। यहां तक कि ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज ने कॉमेडी के ग्रामर को पूरी तरह बदल दिया। पहले के दो एपीसोड में उसने भी कॉमेडी में सोशल कंसर्न और स्वाभाविक हंसी को बरकरार रखा। उसने कॉमेडी को पॉपुलर और कमाऊ बनाने के लिए कई प्रयोग किए, जिसमें भाषा के साथ-साथ अभिनय शामिल है। तब भी व्यंग्य के जरिए सोशल रिपेयरिंग का काम जारी रहा। इन दोनों एपीसोड के अधिकांश कलाकारों ने अपनी-अपनी समझ और पकड़ के हिसाब से चरित्र गढ़े और फिर समाज का हाल बयान किया। ये चरित्र औसत दर्जे के वे भारतीय रहे, जो रीति-रिवाज, राजनीति, सिनेमा, सामयिक मसलों पर अपने तरीके से रिएक्ट करते हैं। राजू श्रीवास्तव के चरित्र गजोधर, छुट्टन, बिसेसर, सुनील पाल का रतन नूरा, एहसान कुरैशी का हकला और नवीन प्रभाकर की जूली, ये ऐसे ही औसत दर्जे के चरित्र हैं, जो आर्गूमेंटेटिव इंडियन के तौर पर हमारे सामने आते हैं। जो समाज की विसंगतियों पर प्रतिक्रिया देते हैं। इस कॉमेडी में स्वाभाविक स्तर पर ठहाकों की अपील के साथ सामाजिक स्थिति की समझ भी मौजूद है। एक तरफ मनोरंजन चैनलों के ऐसे कार्यक्रम हिट हुए, तो दूसरी तरफ न्यूज चैनलों ने इसके बीच से एवरेज टीआरपी जुटा लेने का फार्मूला निकाल लिया। नतीजा यह हुआ कि दूसरे चैनलों पर भी इस तरह के कॉमेडी शोज की बाढ़ आती गई और न्यूज चैनलों के लिए इसके फुटेज काटकर स्पेशल स्टोरी बनाया जाना खबर का अनिवार्य हिस्सा बनता चला गया। नतीजा हमारे सामने है। शुरुआती दौर के लॉफ्टर चैंपियनों के पास अब नया कहने के लिए नहीं रह गया। उनकी बातों से सोशल कंसर्न गायब होने के साथ-साथ ह्यूमर भी जाता रहा। इधर आए तमाम नए शो में मिमिक्री, सी ग्रेड एक्टिंग और सॉफ्ट इश्यू ही दिखाई पड़ रहे हैं। अभिनय में भोंडापन आता जा रहा है और डबल मीनिंग के प्रभाव में भाषा एमएमएस, एसएमएस के पोर्न चुटकुले जैसा असर छोड़ रही है। अब इसे देखने और समझने के लिए टीवी ऑडियंस में एडल्ट होने का एहसास अनिवार्य है। यह सिर्फ कॉमेडी सर्कस जैसे शो में ही नहीं, बल्कि बच्चों के शो छोटे मियां -जंग छोटे हंसगुल्लों की में मौजूद है। मम्मी-पापा, टीचर और पड़ोसी पर बनाए गए चुटकुले जब आप बच्चों की जुबान से सुनते हैं, तो लगता है कि इनका बचपन अब बस आवाज और लुक तक ही रह गया है। बाकी मामलों में वे एक वयस्क की ही तरह रिएक्ट करते हैं। ऐसा होने से टीवी पर दिखाई दे रही कॉमेडी की दुनिया पहले के मुकाबले सिकुड़ गई है। साहसिक तौर पर व्यवस्था पर चोट करने की बजाय यह आयोजन सेफ जोन का मैनेजिंग इवेंट बन गया है। जब न्यूज चैनल ही सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध नहीं रह गए, तो इनसे सरोकार की उम्मीद करना बेमानी होगा। लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि बदलाव की गुंजाइश रखने वाली इस कॉमेडी का दायरा क्या इतना सीमित होना चाहिए? क्या इसे पोर्नोग्राफी टेक्स्ट जैसा सुख लेने भर के लिए खुला छोड़ देना चाहिए। यकीन मानिए जिस स्तर की भाषा और लहजे का प्रयोग बुरा न मानो कॉमेडी है के नाम पर किया जाता है, उसमें स्त्री-छवि और क्षेत्रीय अस्मिता के आग्रह-दुराग्रह को लेकर कई सवाल उठ खड़े हो सकते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100403/e1f8ea58/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Sat Apr 3 08:52:54 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 3 Apr 2010 08:52:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KSyIOCkteCksOCljeCkruCkvg==?= Message-ID: निर्मल वर्मा आज ज़िंदा होते तो 81 बरस के होते। आज 3 अप्रैल ही के दिन 1929 में वे पैदा हुए थे। वे प्रेमचंद, और जैनेंद्र के बीच की एक ऐसी धारा थे जिसमें उन्होंने कहानी की ही नहीं, गद्य की अन्य विधाओं में भी नई संभावनाएं खोजीं। अक्सर आलोचना में उनको प्रेमचंद या भीष्म साहनी जैसे लेखकों के बीच रखकर देखने की कोशिश की जाती रही है जो कि सही नहीं है। निर्मल जी ने नई कहानी या हिंदी की आधुनिक कहानी का जन्म ही प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी से माना था। हिंदी गद्य में उपन्यास के रूप और संरचना को लेकर आलोचकों में लंबे अर्से तक दुविधा रही। यह कभी न भूलें कि निर्मल वर्मा ने भारतीय उपन्यास की एक मौलिक और तर्कसंगत अवधारणा प्रस्तुत की। गद्य का कोई ऐसा रूप नहीं है जिसमें उनकी प्रतिभा अपने शिखर तक न पहुंची हो- चाहे निबंध हो या कहानी, डायरी अथवा अनुवाद। मेरी दृष्टि में वे हिंदी के अबतक के अप्रतिम अनुवादक थे। ‘कारेलयापेक की कहानियां’, ‘एमेकेएकगाथा’, ‘रोमियो-जूलियट’ तथा ‘अंधेरा’ जैसे अनुवाद आज भी अप्रतिम हैं। महादेवी वर्मा के शब्द-चित्रों के बाद “शायद ही किसी हिंदी लेखक ने ऐसी गद्य रचनाएं की हों जैसी निर्मल जी ने अपने जर्नल और डायरी के रूप में की। वह हिंदी गद्य के सृजनात्मक इतिहास की धरोहर हैं। यह सच है कि निर्मल वर्मा ने भारतीयता की पहचान और उसकी खोज में अपने जीवन का एक लंबा समय लगाया जो अन्यथा उनकी कहानियों या उपन्यासों में लग सकता था। लेकिन वहां भी अगर ध्यान देकर देखें तो वे पौर्वात्यवाद (ओरिएंटलिज्म) की उस खाई में नहीं गिरे जिसमें हम वी एस नायपाल और अपने देश के कई पुनरुत्थानवादी भारतीयों को देखते हैं। मुझे कई बार लगता है कि निर्मल वर्मा की मूल चेतना में आधुनिकता थी। उदारता और लोकतांत्रिकता थी। यही कारण था कि सर्वसत्तावाद ने इस आधुनिक लोकतांत्रिकता का अतिक्रमण किया। चाहे 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सावियत रूस रहा हो या 1959 में तिब्बत में चीन रहा हो या 1975 में हमारे देश में आपातकाल रहा हो, निर्मल वर्मा ने अपना विरोध दर्ज कराया। परपराओं की ओर जाने और उनमें अपनी अस्मिता को खोजने की उनकी कोशिश को कई बार आब्सक्योर (दकियानूस) ठहराया गया। लेकिन यह कोशिश वैसी ही थी जैसी राधाकमल मुखर्जी, डा आबिद हुसैन या देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय में दिखाई देती है। यह कभी न भूलें कि फासीवाद और नाजीवाद की बर्बरता पर लिख गया उनका निबंध ‘लिदित्से’ एक ऐसा संस्मरण है जो उनके निबंध संग्रह ‘चीरो पर चांदनी’ में संकलित है। यह आज भी उनकी बुनियादी बौद्धिकता का प्रमाण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निर्मल वर्मा एक समय वामपंथी विचारधारा के काफी निकट थे और अपने युवाकाल के सबसे उत्पादक वर्ष उन्होंने उस चेकोस्लोवकिया में बिताया था जहां सर्वसत्तावाद और अधिनायकवाद के सिकंजे में फंस चुके समाजवाद को अधिक मानवीय बनाने की कोशिशें की जा रही थी। ‘प्राग के वसंत’ के इस प्रयोगात्मक काल में दुबचेक की अगुआई में बहुत सारे लेखक एक साथ थे। आज बहुत दुख होता है कि निर्मल वर्मा और उनकी अप्रतिम साहित्य साधना को जो सम्मान इस देश और हिंदी भाषा को देना चाहिए था वो संकीर्ण राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण उनके जीते जी नहीं दिया जा सका। *(डॉ शशिकांत* के साथ बातचीत पर आधारित. 3 अप्रैल 2010, *दैनिक भास्कर*, नई दिल्ली में प्रकाशित*)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100403/190ea15e/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Apr 3 12:40:11 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 03 Apr 2010 12:40:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KSyIOCkteCksOCljeCkruCkvg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4BB6E9D3.1070504@sarai.net> आदरणीय डॉ. शशिकांत अवाम को बता दिया जाए कि आपकी ये बातचीत उदय प्रकाश से हुई थी! कम से कम मैंने तो भास्कर में यही पढ़ा था. ;-) रविकान्त shashi kant wrote: > > > > > निर्मल वर्मा आज ज़िंदा होते तो 81 बरस > > > *(डॉ शशिकांत* के साथ बातचीत पर आधारित. 3 अप्रैल 2010, *दैनिक भास्कर*, नई > दिल्ली में प्रकाशित*)* > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From ravikant at sarai.net Sat Apr 3 13:06:13 2010 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Sat, 03 Apr 2010 13:06:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Znc6IOCkheCklg==?= =?utf-8?b?4KWc4KS+IOCkruCkueCkvuCkuOCkruCljeCkruClh+CksuCkqCDgpIXgpKwg?= =?utf-8?b?MjMtMjQg4KSF4KSq4KWN4KSw4KWI4KSyIDIwMTAg4KSV4KWL?= Message-ID: <4BB6EFED.6060400@sarai.net> झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का द्वितीय महासम्मेलन अब 16-17 अप्रैल की बजाय 23-24 अप्रैल 2010 को आयोजित हो रहा है. इसलिए महासम्मेलन में शामिल होने का अपना कार्यक्रम पुनर्संयोजित कर लें. अखड़ा महासम्मेलन का आयोजन स्थल रांची विश्वविद्यालय, रांची का मोरहाबादी स्थित क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषा विभाग परिसर है. और हां, यदि आपने अपना न्यूनतम सहयोग राशि रु. 100/- अभी तक नहीं भेजा है, तो अवश्य भेज दें आपके रचनात्मक आर्थिक सहयोग के अभाव में महाम्मेलन की सफलता संदिग्ध बनी रहेगी. विश्वास है, हासा (माटी) और भाषा के इस सृजनात्मक आंदोलन को आपका सहयोग और समर्थन अवश्य मिलेगा. महासम्मेलन की विस्तृत जानकारी के लिए देखें: http://akhra.co.in/Akhrasammelan2010.html कृपया इस मेल को अग्रसारित कर अन्य संगी-साथियो तक भी इस अपील को पहुंचाएं। वंदना टेटे संयोजक, द्वितीय महासम्मेलन आयोजन समिति झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा जोहार सहिया, 203, एमजी टॉवर, 23, पूर्वी जेल रोड, राँची (झारखण्ड) 834001 फोन: 9234678580, 9234301671, 9431109429 टेलीफैक्स: 0651-2562565 वेब पताः www.akhra.co.in ई-मेल: pkfranchi at gmail.com एकाउंट नं.: 106010100016861 एकाउंट नाम: Pyara Kerketta Foundation बैंक: Axis Bank Ltd. Main Road Ranchi Branch AKHRA 2nd Central Conference 23-24 April 2010 Ranchi, Jharkhand जोहार! झारखण्ड और देश की आदिवासी भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। पुरखा झारखंड के सभी राज्यों - झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा - में देशज-आदिवासी भाषाएं और जीवन-समाज राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट एवं ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के निशाने पर है। इन सभी राज्यों में सत्ता प्रायोजित राजकीय दमन के जरिए आर्थिक-सांस्कृतिक उत्पीड़न व प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चरम पर है, जिससे आदिवासी जीवन-संस्कृति, पर्यावरण और सांस्कृतिक विविधता खात्मे के कगार पर है। राष्ट्रीय विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन के मालिकाना हक तथा संविधान प्रदत्त अधिकारों का अपहरण कर लिया गया है। देशज-आदिवासी भाषा और संस्कृति के इन्हीं ऐतिहासिक सवालों पर झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का द्वितीय महासम्मेलन 23-24 अप्रैल 2010 को जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विवि परिसर मोरहाबादी, रांची में आयोजित होने जा रहा है। From vineetdu at gmail.com Sat Apr 3 17:45:28 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 3 Apr 2010 17:45:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSh4KS/4KSC4KSX4KWN4KS4IOCkruClh+CkgiDgpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSP4KSf4KS/4KS1IOCksuCli+Ckl+Cli+CkgiDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSc4KSu4KS+4KS14KSh4KS84KS+?= Message-ID: देहरादून में ‘दून रीडिंग्स’ के नाम से होनेवाले तीन दिवसीय (अप्रैल 2-4) साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता जब हमें पेंगुइन इंडिया की तरफ से मिला तो हम काफी एक्साइटेड हुए। एक तो दिल्ली की किचिर-पिचिर जिंदगी से छिटककर तीन-चार दिन तक देहरादून में पड़े रहने के सुख का ध्यान आया, ये अपने को रिचार्ज करने जैसा है और दूसरी बात कि प्रोग्राम शिड्यूल में प्रसून जोशी का नाम देखकर मेरी एक्साइटमेंट थोड़ी और बढ़ी कि टीवी देखते हुए, रियलिटी शो में कमेंट करते हुए और इनके लिखे गानों और विज्ञापनों को सुनते हुए अब तक जो छवि बनी है, जब वो साहित्य और संस्कृति के मसले पर बात करेंगे तो देखते हैं कि उनकी छवि पहले से और मजबूत होती है, ध्वस्त होती है या फिर कोई अलग किस्म की छवि बनती है। लेकिन हमें कार्यक्रम के शुरुआती दौर में ही उदासी झेलनी पड़ी। आयोजक की तरफ से घोषणा हुई कि वो नहीं आ सकेंगे। एसएमएस के जरिए जो उन्होंने खेद भरा संदेश भेजा, उसे ही सुना दिया गया। देहरादून आने का बहुत मन था। कुछ नयी कविताएं भी सुनाने वाला था। पर कुछ चीजें शायद हमारे हाथ में नहीं होतीं। अपनी नयी कविता ख्‍वाब खर्च करके भी सुनाता। मैं ख्‍वाब खर्च करके खाली हो गया हूं। पतझड़ के बाद गुमसुम डाली सा हो गया हूं। पर पूरी कविता वहीं आकर जल्‍द ही पढूंगा। आप सबसे रूबरू होकर। वैसे भी चाहे शरीर से मैं कहीं भी रहूं, मन हमेशा उत्तराखंड के पहाड़ों में ही रहता है। मेरे उत्तराखंड के सभी साथियों को बहुत बहुत स्‍नेह। आपका, प्रसून जोशी दिल्ली से मीडिया की जो पूरी टीम, इस इवेंट को कवर करने आयी, उनके हिसाब से कार्यक्रम का एक बड़ा आकर्षण खत्म हो गया। प्रसून जोशी जो भी बोलते, वो मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए खुराक होता। बहरहाल, दिल्ली और देहरादून के भारी ट्रैफिक जाम को झेलते हुए जब हम निर्धारित समय से करीब १५ मिनट लेट पहुंचे तब तक कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी। उत्तराखंड के प्रमुख सचिव एनएस नपालचायल के हाथों कैंडल लाइटनिंग और दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर के निदेशक डॉ बीएन जोशी के शुभकामना संदेश के साथ अकेता होटल के लॉन में छह सौ के करीब बैठी देहरादून की एलीट ऑडिएंस कार्यक्रम से जुड़ चुकी थी। मेरे पहुंचने तक कार्यक्रम का मिजाज पूरी तरह बदल चुका था। ये औपचारिकताओं से हट कर सीधे-सीधे मुद्दे पर जाकर फोकस हो गया था। लॉन में घुसते ही मंच पर हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, बॉलीवुड के मशहूर एक्टर और जादुई आवाज के मालिक टॉम आल्टर को देखकर अच्छा लगा। गढ़वाल के मशहूर लोक गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी को देखकर कतार में बैठी ऑडिएंस के बीच फुसफुसाहट शुरू हो गयी कि देखना, ये माहौल जमा देगें। मंच संचालक के तौर पर मौजूद डॉ शेखर पाठक को देखकर हमें क्भी जेएनयू में देखी ‘पहाड़ पत्रिका का ध्यान आया जो पर्वतों और उसकी संस्कृति से जुड़े सवालों पर काम करनेवाले लोगों के लिए एक जरूरी मटीरियल है। शेखर पाठक ने मंच पर बैठे कवियों को ऑडिएंस के मिजाज को देखते हुए कविता पाठ करने के लिए बुलाने से पहले हिंदी कविता की उस लंबी परंपरा का विस्तार से जिक्र किया जिससे कि देहरादून और उत्तराखंड में पले-बढ़े कवि जुड़ते हैं। तारसप्तक से लेकर अब तक कविता की चर्चा करते हुए शेखर पाठक ने समकालीन कविता की मौखिक किंतु गंभीर बारीक चर्चा की। ये अलग बात है कि हिंदी साहित्य से इतर लोगों के लिए ये सिर्फ परिचय जैसा ही था और देहरादून की ऑडिएंस के लिए बार-बार गर्व करने का विषय कि वो एक बहुत ही प्रसिद्ध और हैसियत रखनेवाले शहर से आते हैं। इस परिचय के दौरान ही उन्होंने कविता में हिंदी और अंग्रेजी का वर्चस्व होने की स्थिति में अभिव्यक्ति के स्तर पर विविधता के खत्म होने की बात की। एक भाषा के वर्चस्वकारी प्रभाव में आकर उसके साथ चलनेवाली बोलियां और भाषिक प्रयोग कैसे खत्म होते हैं, शेखर पाठक की टिप्पणियों से हमें बेहतर तरीके से समझ आया। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि प्रसून जोशी के न आने का मलाल जाता रहा और हम जैसा हिंदीवाला जो कि कभी मंच पर बैठे कवियों के एक-एक संकलन को खोजने के लिए दिल्ली के दरियागंज में पागल हुआ फिरता था, उसका चित्त स्थिर हो आया कि चलो कुछ बेहतर ही सुनने को मिलेगा। शेखर पाठक की तरफ से कविता को लेकर दिये गंभीर परिचय से मामला कुछ इस तरह से बन गया कि सामने बैठी ऑडिएंस ने मानसिक स्तर पर अपने को तैयार कर लिया कि ये आम तौर पर लाफ्टर चैलेंज से होड़ लेनेवाली कविता नहीं है। ये सरोकारों और साहित्यिक गंभीरता की कद्र करनेवाली कविता है। इसलिए ऑडिएंस के बीच थोड़ी सी आवाजाही का माहौल बनता लेकिन फिर लंबे समय तक ठहरनेवाली शांति छा जाती है। कविता पाठ के लिए सबसे पहले लीलाधर जगूड़ी को आमंत्रित किया जाता है। लीलाधर जगूड़ी अपनी दो कविता (एक तो बहुत लंबी और दूसरी उससे थोड़ी कम लंबी) पढ़ने के पहले साथ में एक जानकारी भरी टिप्पणी जड़ते हैं। जानकारी अपने रचना संसार को लेकर है कि उनके अब तक 12 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उनमें कुल सात सौ के करीब कविताएं संकलित हैं और टिप्पणी इस बात को लेकर कि अब सारी की सारी कविताएं तो याद नहीं रहती और न ही वो उन मंचीय कवियों की तरह हैं कि अपनी लिखी कुल कविताओं में से दस-बारह को याद कर लेते हैं और फिर उन्हीं को सब जगह बार-बार सुनाते रहते हैं। कंटेंट से इतर जगूड़ी ने आदत के स्तर पर भी मंचीय कवि से अपने को अलग किया। जगूड़ी ने इस बात पर जोर दिया कि कविता में इस बात को हर हाल में शामिल किया जाना चाहिए कि आज की दुनिया कैसी है, जीवन में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं। यानी सामयिक स्तर पर कविता को सचेत होना चाहिए और इसी क्रम में उन्होंने पुरुषोत्तम की जनानी नाम से अपनी लंबी किंतु प्रसिद्ध कविता का पाठ किया – एक पेड़ को छोड़कर फिलहाल मुझे कोई जिंदगी याद नहीं आ रही, जो जिस समय डरी हो, उसी समय मरी न हो। और दूसरी कविता नये जूते जो कि इस ग्लोबल होते बाजार के होने और न होने के बीच के सन्नाटे का बयान करती है। जगूड़ी के बाद हिंदी के मशहूर कवि मंगलेश डबराल जो कि कविता में अनरिटेन हिस्ट्री को सहेजने और संजोनेवाले कवि के रूप में जाने जाते हैं। जिनकी कविता पाठ रहित इतिहास के बीच लाइव हिस्ट्री समेटने की ताकत रखती है, उन्होंने कविता पाठ शुरू किया। मंगलेश डबराल ने लीलाधर जगूड़ी की कविता की साइज से अपनी कविता की साइज की तुलना करते हुए कहा कि मेरी कविता उतनी बड़ी नहीं है, उससे छोटी है और बाकी हर मामलों में छोटी है क्योंकि मैंने उनके बाद लिखना शुरू किया। मंगलेश डबराल ने सबसे पहले दरवाजे और खिड़कियां नाम की अपनी प्रसिद्ध कविता सुनायी और उसके बाद पत्थर। ये दोनों कविताएं अभी दो दिन पहले ही दिल्ली के इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में THE WORLD, THE POET, THE IMAGE कार्यक्रम में सुनकर आया था। इससे पहले भी ये दोनों कविताएं मैंने डी स्कूल में सुनी है। इसलिए मेरी तरह अगर किसी और ऑडिएंस ने इन कविताओं को एक से ज्यादा या फिर बार-बार सुनी हो तो वो लीलाधर जगूड़ी की इस बात से शायद असहमत हो जाएं कि रिपीटेशन का काम सिर्फ और सिर्फ मंचीय कवि करते हैं। सरोकार और गंभीरता के स्तर पर लिखनेवाले कवि भी अपनी कुछ कविताओं को लेकर बहुत ही पजेसिव होते हैं और इसे कई जगहों पर रिपीट करते हैं। इसके पीछे संभव है कि कई जेनुइन कारण हों। बहरहाल इन दोनों कविताओं के अलावा मां की तस्वीर से ऑडिएंस भावानात्मक स्तर पर जुड़ती है और तालियों की खनक भी यहां तक आते-आते बढ़ जाती है। पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100403/d2f02d08/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Sat Apr 3 21:43:23 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 3 Apr 2010 21:43:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkreCkvuCksOCkpCDgpK7gpLngpL7gpKgh?= Message-ID: हमारा भारत महान! महिला ने सड़क पर दिया बच्चे को जन्म राजेंद्र गौतम *[image: zanana_310]अस्पताल परिसर में खुले में दिया प्री मैच्योर बच्ची को जन्म, बच्ची की मृत्यु* जयपुर। जयपुर में शनिवार सुबह एक महिला ने सड़क पर ही बच्चे को जन्म दे दिया। अजीब बात यह है कि वह अस्पताल परिसर में ही थी, इसके बावजूद किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और उसे खुले में बच्चे को जन्म देना पड़ा। समय पर डाक्टरी मदद नहीं मिलने के कारण बच्ची की मृत्यु हो गई। घटनानुसार किशनबाग नया खेड़ा अंबाबाड़ी निवासी 35 वर्षीय महिला नीरा सात माह की गर्भवती थी, वह अपने पति रामरतन के साथ चांदपोल स्थित जनाना चिकित्लाय में दिखाने आई थी। वह जनाना अस्पताल में पीछे की ओर बने डॉक्टर्स क्वार्टर्स में गए। महिला जिस डॉक्टर से ईलाज ले रही थी, उस समय वह डॉक्टर वहां पर नहीं था। वे लोग इंतजार कर ही रहे थे कि महिला को वहीं प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। कुछ ही देर में वहीं खुले में ही महिला ने बच्चे को जन्म दे दिया। [image: zanana2_310] प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार महिला असहाय दर्द से कराहती रही लेकिन इसकी बावजूद कोई भी उसे चिकित्सकीय मदद देने नहीं आया। फिर महिला के पति द्वारा हल्ला मचाने पर आसपास से कुछ और लोग आए और उन्होंने 108 को फोन किया। लेकिन तब तक डिलीवरी हो गई। इमरजेंसी में ले जाने पर पता चला कि बच्ची मृत है। इधर, डाक्टरों का कहना है कि महिला को अस्पताल में लाने से पहले ही डिलीवरी हो चुकी थी। *फोटोः महेन्द्र शर्मा * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100403/904f297a/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Sun Apr 4 12:22:49 2010 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 4 Apr 2010 12:22:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWB4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCksOCkueCkviDgpLngpYgg4KSV4KWL4KSIIOCkruClgeCkneCklQ==?= =?utf-8?b?4KWLLCDgpLLgpYHgpK3gpL4g4KSw4KS54KS+IOCkueCliCDgpJXgpYs=?= =?utf-8?b?4KSILg==?= Message-ID: मेरे ब्लॉग ’आवारा हूँ...’ www.mihirpandya.com से. ***** बात पुरानी है, नब्बे का दशक अपने मुहाने पर था. अपने स्कूल के आख़िरी सालों में पढ़ने वाला एक लड़का राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में कैसेट रिकार्ड करने की दुकान खोलकर बैठे दुकानदार से कुछ अजीब अजीब से नामों वाले गाने माँगा करता. जो उम्मीद के मुताबिक उसे कभी नहीं मिला करते. दुकानदार उसे गुस्सैल नज़रों से घूरता. इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया को मैं तब से जानता हूँ. उसे जयपुर शहर में (जहाँ वो अपनी छुट्टियों में जाया करता) अजमेरी गेट के पास वाली एक छोटी सी गली बहुत पसन्द थी. इसलिए क्योंकि ट्रैफ़िक कंट्रोल रूम ’यादगार’ से घुसकर टोंक रोड को नेहरू बाज़ार से जोड़ने वाली यह गली उसे उसकी पसन्दीदा तीन चीज़ें देती थी. एक – क्रिकेट सम्राट, दो – इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया की ऑडियो कैसेट्स और तीसरी गुड्डू की मशीन वाली सॉफ़्टी. और अगर कभी वो जयपुर न जा पाता तो वो अपनी माँ के जयपुर से लौटकर आने का इंतज़ार करता. और उसकी माँ उसे कभी निराश नहीं करतीं. कितने दूर निकल आए हैं हम अपने-अपने घरों से. कल ओडियन, बिग सिनेमास में जयदीप वर्मा की बनाई ’लीविंग होम – लाइफ़ एंड म्यूज़िक ऑफ़ इंडियन ओशियन’ देखने हुए मुझे यह अहसास हुआ. ’लीविंग होम’ देखते हुए मैंने यह लम्बा सफ़र एक बार फिर से जिया. (और फ़िल्म के इंटरवल में आए ’वीको टरमरिक’ के विज्ञापन तो इसमें असरदार भूमिका निभा ही रहे थे!) और सच मानिए, मैं उल्लासित था. पहली बार अपने बीते कल को याद कर नॉस्टैल्जिक होते हुए भी मैं उदास बिलकुल नहीं था, प्रफ़ुल्लित हो रहा था. और यह असर था उस संगीत का जिसे सुनकर आप भर उदासी में भी फिर से जीना सीख सकते हैं. सीख सकते हैं छोड़ना, आगे बढ़ जाना. सीख सकते हैं भूलना, माफ़ करना. सीख सकते हैं खड़े रहना, आख़िर तक साथ निभाना. ’लीविंग होम’ किरदारों की कहानी नहीं है. यह उन किरदारों द्वारा रचे संगीत की कहानी है. इंडियन ओशियन के द्वारा रचित हर गीत का अपना व्यक्तित्व है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. इसीलिए फ़िल्म के लिए नए लेकिन बिलकुल माफ़िक कथा संरचना प्रयोग में निर्देशक जयदीप वर्मा इसे इंडियन ओशियन की कहानी द्वारा नहीं, उनके द्वारा रचे गीतों की कहानी से आगे बढ़ाते हैं. तो यहाँ जब ’माँ रेवा’ की कहानी आती है तो हम उस गीत के साथ नर्मदा घाटी के कछारों पर पहुँच जाते हैं और उस लड़के की शुरुआती कहानी से परिचित होते हैं जिसे आज पूरी दुनिया राहुल राम के नाम से जानती है. ’डेज़र्ट रेन’ की कहानी के साथ सुश्मित की कहानी खुलती है जो हमेशा से इंडियन ओशियन का आधार स्तंभ रहा है. ’कौन’ की कहानी एक नौजवान कश्मीरी लड़के की कहानी है. एक पिता हमें बात बताते हैं उन दिनों की जब एक पूरी कौम को उनके घर से बेदखल कर दिया गया था. और इसीलिए जब अमित किलाम कहते हैं कि मैं इसीलिए शुक्रगुज़ार हूँ भगवान का कि इतना सब होते हुए भी मेरे भीतर कभी वो साम्प्रदायिक विद्वेष नहीं आया, हमें भविष्य थोड़ा ज़्यादा उजला दिखता है. आगे जाकर ’झीनी’ की कथा है और अशीम अपने बचपन के दिनों के अकेलेपन को याद करते धूप के चश्मे के पीछे से अपनी नम आँखें छुपाते हैं. सुधीर मिश्रा कहते हैं कि अशीम को सुनते हुए मुझे कुमार गंधर्व की याद आती है. संयोग नहीं है कि इन दोनों ही गायकों ने कबीर की कविता को ऐसे अकल्पनीय क्षेत्रों में स्थापित किया जहाँ उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध थी. निर्गुण काव्य की ही तरह, इंडियन ओशियन भी एक खुला मंच है संगीत का. जहाँ विश्व के किसी भी हिस्से के संगीत की आमद का स्वागत होता है. यह फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण एंगल के साथ आई है. आमतौर पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में मूलत: अपने निर्देशक के दिमाग में आए एक अदद ख़पती विचार की उपज होती हैं. और ऐसे में निर्देशक ही कहानी को विभिन्न तरीकों से आगे बढ़ाते हैं. लेकिन ’लीविंग होम’ की ख़ास बात है कि निर्देशक यहाँ सायास लिए गए फ़ैसले के तहत खुद पीछे हट जाता है और अपनी कहानी को बोलने देता है. न ख़ुद बीच में कूदकर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश है और न ही कोई वॉइस-ओवर. यहाँ तक की व्यक्तिगत बातचीत भी इस तरह एडिट की गई है कि सवाल पूछने वाला कभी नज़र नहीं आता. बेशक यह सायास है. जैसा दिबाकर बनर्जी की हालिया फ़िल्म में एक किरदार का संवाद है, “डाइरेक्टर को कभी नहीं दिखना चाहिए, डाइरेक्टर का काम दिखना चाहिए.” जयदीप वर्मा का काम बोलता है. हाँ, एक छोटी सी नाराज़गी भी है मेरी. जिस तरह शुरुआत में फ़िल्म दिल्ली की सड़कों पर आम आदमी की तरह घूमती, उसकी नज़र से शहर को देखती करोलबाग की ओर बढ़ती है, वह मुझे बाँध लेता है. इंडियन ओशियन से हमारी पहली मुलाकात होती है. लेकिन फिर फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में ही हम दिल्ली के कई नामी चेहरों को इंडियन ओशियन की तारीफ़ करते (जैसे उन्हें सर्टिफ़िकेट देते) देखते हैं. उनमें से कई बाद में फ़िल्म में लौटकर आते हैं, कई नहीं. यह शुरुआती मिलना-मिलाना मुझे अखरा. हम इंडियन ओशियन को सीधे जानना ज़्यादा पसन्द करेंगे (या कहें जानते हैं) या फिर उनके संगीत के माध्यम से, जो आगे फ़िल्म करती है. न कि किसी और ’सेलिब्रिटी’ के माध्यम से. इंडियन ओशियन को अपने चाहने वालों के बीच (जो इस फ़िल्म के संभावित दर्शक होने हैं) आने के लिए मीडिया या सिनेमा के सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है शायद यह उन लोगों को फ़िल्म से जोड़ने का एक प्रयास हो जो सीधे इंडियन ओशियन के संगीत से नहीं बँधे हैं. अगर ऐसा है तो मैं भी इस प्रयोग के सफल होने की पूरी अभिलाषा रखता हूँ. लेकिन एक पुराना इंडियन ओशियन फ़ैन होने के नाते फ़िल्म की ठीक शुरुआत में हुए इस ’सेलिब्रिटी समागम’ पर मैं अपनी छोटी सी नाराज़गी यहाँ दर्ज कराता हूँ. फ़िल्म की जान हैं वो लाइव रिकॉर्डिंग्स जिन्हें यह फ़िल्म अपने मूल कथा तत्व की तरह बीच-बीच में पिरोए हुए है. सिनेमा हाल में इस संगीत के मेले का आनंद उठाने के बाद इन्हीं रिकॉर्डिंग्स की वजह से अब मैं इस फ़िल्म की अनकट डीवीडी के इंतज़ार में हूँ. सच है कि इंडियन ओशियन का संगीत ऐसे ही अच्छा लगता है. अपने मूल रूम में, बिना किसी मिलावट, एकदम रॉ. मैं वापस आकर अपनी अलमारी में से उनकी दो पुरानी ऑडियो कैसेट्स निकालता हूँ, धूल पौंछकर उनमें से एक को अपने कैसेट प्लेयर में डालता हूँ. अब कमरे में ’डेज़र्ट रेन’ का संगीत गूँज रहा है. मैं बत्ती बुझा देता हूँ. कुछ देर से बाहर मौसम ने अपना रुख़ पलट लिया है. मैं खिड़की पूरी खोल देता हूँ. बारिश… ***** जयदीप सिर्फ़ कमाल की फ़िल्में ही नहीं बनाते हैं, वे लिखते भी कमाल का हैं. इस फ़िल्म की सम्पूर्ण कथानुमा यात्रा आप तीन पोस्टों में – पहली यहाँ, दूसरी यहाँ और तीसरी यहाँ पढ़ सकते हैं. मेरी पोस्ट की तरह यह भी फ़िल्म देखने के बाद पढ़ेंगे तो और मज़ा आएगा. फ़िल्म कनॉट प्लेस के ओडियन में चल रही है और ऐसे ही शायद पांच-छ शहरों के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में. और कम से कम इस हफ़्ते तो है ही. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100404/d9ba756d/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 6 17:20:10 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 6 Apr 2010 17:20:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSv4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: यर और हमारे मित्र फ़ारूक आफ़रीदी साहब ने अपने गुलाबी शहर जयपुर से अभी-अभी फेसबुक पर एक तोहफ़ा भेजा है- आज के दौर के हम सबके बेहद प्रिय कथाकार उदयप्रकाश के साथ बातचीत के अंश. उदय जी के साथ यह बातचीत उन्होंने दिसंबर के आख़िरी हफ़्ते में जयपुर में आयोजित लेखक-पाठक संवाद के दौरान की थी, हम भी उदय जी के साथ थे. वक्त निकालकर पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. - शशिकांत *हिंदी का भविष्य उज्वल है* [image: Left] [image: Uday Prakash] [image: Left] *उदयप्रकाश हिन्दी साहित्य संसार के प्रतिष्ठित और चर्चित कथाकार हैं। इनकी रचनाएं न केवल भारतीय भाषाओं, बल्कि कई विदेशी भाषाओं में अनुदित होकर लोकप्रिय हुई। उदय प्रकाश की कहानियों में जहां कविताओं जैसी रवानगी और सरसता है, वहीं वे समय की विसंगतियों को बहुत शिद्दत से कुरेदती और सवाल खडा करती हैं। प्रस्तुत है कथाकार उदयप्रकाश से फारूक आफरीदी की हाल ही हुई बातचीत के प्रमुख अंश- * *मूलत: आप कवि हैं और आपके गद्य में भी कविता की सी अनुभूति होती है। फिर क्या कारण है कि आपकी विशेष पहचान एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में अधिक है* यह सही है कि मैं मूलत: कवि हूं। मैंने बहुत सारी कविताएं लिखीं और चित्र भी बनाए हैं। मैंने कॉलेज समय में एक कहानी लिखी थी जो बहुत लोकप्रिय हुई। मैं समझता हूं कि कहानी के पाठक अधिक होते हैं और वह ज्यादा लोगों तक पहुंचती है। उसे लोकप्रियता अधिक मिलती है। मैं लगभग इसी तरह का एक कुम्हार हूं जिसने कमीज सिल दी, तो लोग उसे दर्जी समझने लगे। लोग फिर सुराही लेने उसके पास नहीं जाएंगे, जबकि कुम्हार जानता है कि मिट्टी का काम वह ज्यादा अच्छे तरीके से कर सकता है और उसमें ही ज्यादा आनंद मिलता है। मेरे साथ यही है कि कवि होते हुए भी कहानी लिखकर समाज की सेवा कर रहा हूं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा भी है कि मेरी कहानियां दरअसल मेरी कविताओं का ही विस्तार हैं। कहानियां लिखते हुए मुझे भी नहीं लगता कि मैं कहानियां लिख रहा हूं, बल्कि जो काव्यात्मक संवेदना कविता में नहीं आ रही वह कहानियों में आ रही है। निर्मल वर्मा और ऎसे कई कहानीकारों के साथ भी लगभग यही रहा। उनकी कहानियां पढते हुए ऎसा लगता है जैसे कविताएं पढ रहे हैं। मैं कहानी लिखते हुए भी कवि हूं और कवि सदा कवि ही रहता है। *आप पहले भारतीय हिन्दी लेखक हैं जिन्हें जर्मनी के 23 शहरों में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। व्याख्यानों के विषय क्या रहे * जर्मन लोगों की भारत में गहरी रूचि है। मेरे व्याख्यान विभिन्न विषयों पर थे, लेकिन इंडोलोजी मुख्य विषय रहा। वहां भारत के नगरीकरण को लेकर बडी जिज्ञासाएं हैं। अपने प्रवास के दौरान मुझे कई छोटे-बडे 23 शहर-कस्बों और गांवों में व्याख्यान देने का मौका मिला। मैंने यहां अपनी कहानी 'और अंत में प्रार्थना' को अपनी तरह से पढा तो लोगों ने ऎसा अनुभव किया जैसे यह उनके अतीत की कहानी हो, क्योंकि वहां के लोग भी 1943-45 में ऎसी ही बर्बरता से गुजरे हैं। कुछ संकेत वैश्विक होते हैं। मेरे कहानी संग्रह 'और अंत में प्रार्थना' को अवार्ड मिला है। इसका जर्मनी में अनुवाद वहीं के 29-30 साल के युवा लेखक आन्द्रे पेई ने किया है। *आपकी कहानियों की संरचना विशिष्ट और कुछ अलग प्रकार की होती है। आप इन कथाओं के सूत्र कहां से तलाशते हैं * जीवन में आप जितना डूबेंगे उतना ही अच्छा लिख पाएंगे और ज्यादा लोगों तक पहुंचेंगे। कोई चीज लिखना बिना जीवन जिए संभव नहीं है, क्योंकि इससे ही अनुभव-संसार बढता है। अगर आप अपने समय के मनुष्य के संकट और उसके यथार्थ को व्यक्त करेंगे जिसमें हर कोई जी रहा है, तो वह साहित्य अवश्य ही लोकप्रिय होगा। अगर साहित्य किसी बाजार या एक सीमित वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है, तो बात अलग है। अगर कोई बडा उद्देश्य सामने रखकर साहित्य लिखा जाएगा तो उसका सम्मान होगा। *आप अपने समय के सबसे बडे और चर्चित कथाकार हैं। अपने समय के बडे यथार्थ को आप उद्घाटित करते हैं। अपनी चर्चित कृतियों में 'मोहनदास' मेंगोसिल, नीली छतरी वाली लडकी या ऎसी ही अन्य कथाओं को रचते हुए आपकी दृष्टि में क्या बातें रहीं* 'मोहनदास' अपने समय के प्रश्नों को कुरेदता है। मोहनदास एक सचमुच का पात्र है। वह आज भी है एक दलित व्यक्ति पूरी मेहनत के साथ पढ-लिखकर मेरिट से आगे बढता है, लेकिन हमारी लोकतांत्रिक स्थितियों में आज भी ऎसे व्यक्तियों के लिए कोई ठिकाना नहीं है। एक नकली मोहनदास नौकरी पा लेता है और असली मोहनदास दर-दर भटकने को मजबूर है। ऎसे ही मैंने हर कृति में समय के सच और विडंबनाओं के बीच जीवन जीने की मजबूरियों को उद्घाटित किया है। भारतीय और विदेशी भाषाओं में आपकी पुस्तकों के अनुवाद हुए हैं। अमरीकी पाठकों का रेस्पोंस कैसा रहा मेरे उपन्यास 'पीली छतरी वाली लडकी' का अनुवाद 29-30 वर्ष के एक युवा अमरीकन लेखक जीसोन ग्रूनबाम ने किया। इस अनुवाद के लिए उन्हें वर्ष 2005 का पेन यू.एस.ए. अनुवाद कोश सम्मान मिला। शिकागो मेे इस उपन्यास का लोकार्पण हुआ और इसे काफी लोकप्रियता मिली। छात्र तो हर जगह इसे पसन्द करते हैं, क्योंकि प्रेम तो वैश्विक है। जीसोन हाल ही भारत आए तो उन्होंने बताया कि वे मेरे कहानी संग्रह 'मेंगोसिल' का अनुवाद कर रहे हैं। *हिन्दी लेखकों को अंग्रेजी लेखकों के मुकाबले कम तरजीह क्यों मिलती है* भारतीय लेखकों का भी सम्मान तो होता है, लेकिन भारत के या एशियाई साहित्य का स्वीकार और बडा होना चाहिए। अंग्रेजी में हम देखते हैं कि जो कुछ भी नहीं है उसी भाषा में सब अवार्ड मिलते चले जाते हैं। इस बार एक अच्छी बात यह हुई कि साहित्य का तीसरा अवार्ड मेरी कृति 'और अंत में प्रार्थना' को मिला, जबकि इसमें अरविन्द अडिगा का अंग्रेजी उपन्यास भी था जिसे छठवां स्थान मिला। इससे हम कह सकते हैं कि चीनियों से तो हम काफी पीछे रहे लेकिन हिन्दी साहित्य ने अंग्रेजी को काफी पीछे छोड दिया है। *भारतीय समाज और लेखक के बीच क्या कोई अन्तरंग रिश्ता है* हमारे यहां सामाजिक स्थितियां बडी भयावह हैं, क्योंकि 28 करोड भारतीयों का भारत अलग है और उसके अलावा एक दूसरा भारत है, जबकि वृहत्तर भारत की चिंता केन्द्र में होनी चाहिए। एक लेखक ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन वह केवल लिख सकता है। रूसो की अवधारणा पर लोकतंत्र पैदा हुआ। उनकी एक प्रसिद्ध सूक्ति है कि परिवर्तन के पहले समाज रूढि अवस्थाओं में रहता है। हमारा समाज परिवर्तन के पहले का समाज है। मेरा मानना है कि परिवर्तन तो होकर रहेगा। जिस दिन यह परिवर्तन हो जाएगा उस दिन लेखक का दायित्व बदल जाएगा। आप हिन्दी साहित्य का भविष्य कैसा देखते हैं हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत उज्वल है। कहने वाले कह रहे हैं कि आने वाला समय हिन्दी भाषा को नष्ट और भ्रष्ट कर रहा है, तो ऎसा कुछ नहीं है। हिन्दी भारत की ताकत रही है। हर परिवर्तन को आत्मसात करना उसे आता है और जो रखने योग्य नहीं है उसे बाहर करना भी आता है। हिन्दी लगातार समृद्ध हो रही है। हिन्दी भारतीय भाषाओं, बोलियों और विश्व की भाषाओं से तमाम तरह के शब्द, व्यंजनाएं, मुहावरे और बहुत सारी चीजें ले रही है। *आपका बचपन कैसे बीता * मैं मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के एक छोटे से गांव सीतापुर में पैदा हुआ। आज भी वहां मिट्टी के 18 घर हैं। हमारा घर पक्का और पुराना है। गांव के पीछे एक बहुत बडी सोन नदी बहती है। जहां से सोन का उद्गम है उसी से कुछ दूर नर्मदा का उद्गम है। अमरकंटक मेरे गांव से पैदल जाएं, तो 23 किलोमीटर दूर है। मेरा जन्म 1952 में हुआ तब वहां बिजली नहीं थी। हम लोग लालटेन और ढिबरी की रोशनी में पढते थे। पुल नहीं था, इसलिए गांव के सभी लोग तैरना जानते हैं। पांचवीं कक्षा के बाद नदी को तैर कर स्कूल जाना होता था। कलम, फाउण्टेन पेन यह सब बाद में आया। हम शुरू में लकडी की पाटी पर लिखते थे छठे दर्जे से अंगे्रजी पढाई जाती थी। मैं जहां पर था, वहां छत्तीसगढ था और मध्य प्रदेश का सीमान्त है। मेरा गांव छत्तीसगढ सीमा में है। मेरी मां भोजपुर की और पिताजी बघेल के थे। *आपने 'मेंगोसिल' कहानी की संवेदना, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से अद्भुत संरचना की है। यह सब कैसे कर पाते हैं * 'मेंगोसिल' मेरे इर्द-गिर्द घटी एक सच्ची घटना पर आधारित है। एक सफाई कर्मचारी के परिवार में 45 साल की उम्र में पहली संतान पैदा हुई तो बहुत खुशी हुई, लेकिन कुछ समय बाद एक वज्रपात सा हुआ कि बच्चे का सिर असंतुलित रूप से बडा हो रहा है। बताया गया कि वह जीवित नहीं रहेगा। ज्यों-ज्यों बच्चा बडा होता गया तो घर की चिंताएं बढती गई, लेकिन उसका दिमाग बहुत तेज था। वह जगत की सब चीजों को समझता था। घर के लोगों की उपेक्षा के बावजूद उसकी मां जीवन के सारे सुख उसके लिए जुटाने में लगी थी। इस बीच घर में ध्यान हटाने के लिए नए बच्चे के जन्म लेने की घटना होती है। यह कथा विसंगतियों पर बुनी गई है जिसमें संवेदना को विशेष रूप से उभारा गया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100406/b44090be/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Tue Apr 6 17:27:04 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Tue, 6 Apr 2010 17:27:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSv4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: उर्दू के बहुचर्चित शायर और हमारे मित्र फ़ारूक आफ़रीदी साहब ने अपने गुलाबी शहर जयपुर से अभी-अभी फेसबुक पर एक तोहफ़ा भेजा है- आज के दौर के हम सबके बेहद प्रिय कथाकार उदयप्रकाश के साथ बातचीत के अंश. उदय जी के साथ यह बातचीत उन्होंने दिसंबर के आख़िरी हफ़्ते में जयपुर में आयोजित लेखक-पाठक संवाद के दौरान की थी, हम भी उदय जी के साथ थे. वक्त निकालकर पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. - शशिकांत *हिंदी का भविष्य उज्वल है* [image: Left] [image: Uday Prakash] [image: Left] *उदयप्रकाश हिन्दी साहित्य संसार के प्रतिष्ठित और चर्चित कथाकार हैं। इनकी रचनाएं न केवल भारतीय भाषाओं, बल्कि कई विदेशी भाषाओं में अनुदित होकर लोकप्रिय हुई। उदय प्रकाश की कहानियों में जहां कविताओं जैसी रवानगी और सरसता है, वहीं वे समय की विसंगतियों को बहुत शिद्दत से कुरेदती और सवाल खडा करती हैं। प्रस्तुत है कथाकार उदयप्रकाश से फारूक आफरीदी की हाल ही हुई बातचीत के प्रमुख अंश- * *मूलत: आप कवि हैं और आपके गद्य में भी कविता की सी अनुभूति होती है। फिर क्या कारण है कि आपकी विशेष पहचान एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में अधिक है* यह सही है कि मैं मूलत: कवि हूं। मैंने बहुत सारी कविताएं लिखीं और चित्र भी बनाए हैं। मैंने कॉलेज समय में एक कहानी लिखी थी जो बहुत लोकप्रिय हुई। मैं समझता हूं कि कहानी के पाठक अधिक होते हैं और वह ज्यादा लोगों तक पहुंचती है। उसे लोकप्रियता अधिक मिलती है। मैं लगभग इसी तरह का एक कुम्हार हूं जिसने कमीज सिल दी, तो लोग उसे दर्जी समझने लगे। लोग फिर सुराही लेने उसके पास नहीं जाएंगे, जबकि कुम्हार जानता है कि मिट्टी का काम वह ज्यादा अच्छे तरीके से कर सकता है और उसमें ही ज्यादा आनंद मिलता है। मेरे साथ यही है कि कवि होते हुए भी कहानी लिखकर समाज की सेवा कर रहा हूं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा भी है कि मेरी कहानियां दरअसल मेरी कविताओं का ही विस्तार हैं। कहानियां लिखते हुए मुझे भी नहीं लगता कि मैं कहानियां लिख रहा हूं, बल्कि जो काव्यात्मक संवेदना कविता में नहीं आ रही वह कहानियों में आ रही है। निर्मल वर्मा और ऎसे कई कहानीकारों के साथ भी लगभग यही रहा। उनकी कहानियां पढते हुए ऎसा लगता है जैसे कविताएं पढ रहे हैं। मैं कहानी लिखते हुए भी कवि हूं और कवि सदा कवि ही रहता है। *आप पहले भारतीय हिन्दी लेखक हैं जिन्हें जर्मनी के 23 शहरों में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। व्याख्यानों के विषय क्या रहे * जर्मन लोगों की भारत में गहरी रूचि है। मेरे व्याख्यान विभिन्न विषयों पर थे, लेकिन इंडोलोजी मुख्य विषय रहा। वहां भारत के नगरीकरण को लेकर बडी जिज्ञासाएं हैं। अपने प्रवास के दौरान मुझे कई छोटे-बडे 23 शहर-कस्बों और गांवों में व्याख्यान देने का मौका मिला। मैंने यहां अपनी कहानी 'और अंत में प्रार्थना' को अपनी तरह से पढा तो लोगों ने ऎसा अनुभव किया जैसे यह उनके अतीत की कहानी हो, क्योंकि वहां के लोग भी 1943-45 में ऎसी ही बर्बरता से गुजरे हैं। कुछ संकेत वैश्विक होते हैं। मेरे कहानी संग्रह 'और अंत में प्रार्थना' को अवार्ड मिला है। इसका जर्मनी में अनुवाद वहीं के 29-30 साल के युवा लेखक आन्द्रे पेई ने किया है। *आपकी कहानियों की संरचना विशिष्ट और कुछ अलग प्रकार की होती है। आप इन कथाओं के सूत्र कहां से तलाशते हैं * जीवन में आप जितना डूबेंगे उतना ही अच्छा लिख पाएंगे और ज्यादा लोगों तक पहुंचेंगे। कोई चीज लिखना बिना जीवन जिए संभव नहीं है, क्योंकि इससे ही अनुभव-संसार बढता है। अगर आप अपने समय के मनुष्य के संकट और उसके यथार्थ को व्यक्त करेंगे जिसमें हर कोई जी रहा है, तो वह साहित्य अवश्य ही लोकप्रिय होगा। अगर साहित्य किसी बाजार या एक सीमित वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है, तो बात अलग है। अगर कोई बडा उद्देश्य सामने रखकर साहित्य लिखा जाएगा तो उसका सम्मान होगा। *आप अपने समय के सबसे बडे और चर्चित कथाकार हैं। अपने समय के बडे यथार्थ को आप उद्घाटित करते हैं। अपनी चर्चित कृतियों में 'मोहनदास' मेंगोसिल, नीली छतरी वाली लडकी या ऎसी ही अन्य कथाओं को रचते हुए आपकी दृष्टि में क्या बातें रहीं* 'मोहनदास' अपने समय के प्रश्नों को कुरेदता है। मोहनदास एक सचमुच का पात्र है। वह आज भी है एक दलित व्यक्ति पूरी मेहनत के साथ पढ-लिखकर मेरिट से आगे बढता है, लेकिन हमारी लोकतांत्रिक स्थितियों में आज भी ऎसे व्यक्तियों के लिए कोई ठिकाना नहीं है। एक नकली मोहनदास नौकरी पा लेता है और असली मोहनदास दर-दर भटकने को मजबूर है। ऎसे ही मैंने हर कृति में समय के सच और विडंबनाओं के बीच जीवन जीने की मजबूरियों को उद्घाटित किया है। भारतीय और विदेशी भाषाओं में आपकी पुस्तकों के अनुवाद हुए हैं। अमरीकी पाठकों का रेस्पोंस कैसा रहा मेरे उपन्यास 'पीली छतरी वाली लडकी' का अनुवाद 29-30 वर्ष के एक युवा अमरीकन लेखक जीसोन ग्रूनबाम ने किया। इस अनुवाद के लिए उन्हें वर्ष 2005 का पेन यू.एस.ए. अनुवाद कोश सम्मान मिला। शिकागो मेे इस उपन्यास का लोकार्पण हुआ और इसे काफी लोकप्रियता मिली। छात्र तो हर जगह इसे पसन्द करते हैं, क्योंकि प्रेम तो वैश्विक है। जीसोन हाल ही भारत आए तो उन्होंने बताया कि वे मेरे कहानी संग्रह 'मेंगोसिल' का अनुवाद कर रहे हैं। *हिन्दी लेखकों को अंग्रेजी लेखकों के मुकाबले कम तरजीह क्यों मिलती है* भारतीय लेखकों का भी सम्मान तो होता है, लेकिन भारत के या एशियाई साहित्य का स्वीकार और बडा होना चाहिए। अंग्रेजी में हम देखते हैं कि जो कुछ भी नहीं है उसी भाषा में सब अवार्ड मिलते चले जाते हैं। इस बार एक अच्छी बात यह हुई कि साहित्य का तीसरा अवार्ड मेरी कृति 'और अंत में प्रार्थना' को मिला, जबकि इसमें अरविन्द अडिगा का अंग्रेजी उपन्यास भी था जिसे छठवां स्थान मिला। इससे हम कह सकते हैं कि चीनियों से तो हम काफी पीछे रहे लेकिन हिन्दी साहित्य ने अंग्रेजी को काफी पीछे छोड दिया है। *भारतीय समाज और लेखक के बीच क्या कोई अन्तरंग रिश्ता है* हमारे यहां सामाजिक स्थितियां बडी भयावह हैं, क्योंकि 28 करोड भारतीयों का भारत अलग है और उसके अलावा एक दूसरा भारत है, जबकि वृहत्तर भारत की चिंता केन्द्र में होनी चाहिए। एक लेखक ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन वह केवल लिख सकता है। रूसो की अवधारणा पर लोकतंत्र पैदा हुआ। उनकी एक प्रसिद्ध सूक्ति है कि परिवर्तन के पहले समाज रूढि अवस्थाओं में रहता है। हमारा समाज परिवर्तन के पहले का समाज है। मेरा मानना है कि परिवर्तन तो होकर रहेगा। जिस दिन यह परिवर्तन हो जाएगा उस दिन लेखक का दायित्व बदल जाएगा। आप हिन्दी साहित्य का भविष्य कैसा देखते हैं हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत उज्वल है। कहने वाले कह रहे हैं कि आने वाला समय हिन्दी भाषा को नष्ट और भ्रष्ट कर रहा है, तो ऎसा कुछ नहीं है। हिन्दी भारत की ताकत रही है। हर परिवर्तन को आत्मसात करना उसे आता है और जो रखने योग्य नहीं है उसे बाहर करना भी आता है। हिन्दी लगातार समृद्ध हो रही है। हिन्दी भारतीय भाषाओं, बोलियों और विश्व की भाषाओं से तमाम तरह के शब्द, व्यंजनाएं, मुहावरे और बहुत सारी चीजें ले रही है। *आपका बचपन कैसे बीता * मैं मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के एक छोटे से गांव सीतापुर में पैदा हुआ। आज भी वहां मिट्टी के 18 घर हैं। हमारा घर पक्का और पुराना है। गांव के पीछे एक बहुत बडी सोन नदी बहती है। जहां से सोन का उद्गम है उसी से कुछ दूर नर्मदा का उद्गम है। अमरकंटक मेरे गांव से पैदल जाएं, तो 23 किलोमीटर दूर है। मेरा जन्म 1952 में हुआ तब वहां बिजली नहीं थी। हम लोग लालटेन और ढिबरी की रोशनी में पढते थे। पुल नहीं था, इसलिए गांव के सभी लोग तैरना जानते हैं। पांचवीं कक्षा के बाद नदी को तैर कर स्कूल जाना होता था। कलम, फाउण्टेन पेन यह सब बाद में आया। हम शुरू में लकडी की पाटी पर लिखते थे छठे दर्जे से अंगे्रजी पढाई जाती थी। मैं जहां पर था, वहां छत्तीसगढ था और मध्य प्रदेश का सीमान्त है। मेरा गांव छत्तीसगढ सीमा में है। मेरी मां भोजपुर की और पिताजी बघेल के थे। *आपने 'मेंगोसिल' कहानी की संवेदना, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से अद्भुत संरचना की है। यह सब कैसे कर पाते हैं * 'मेंगोसिल' मेरे इर्द-गिर्द घटी एक सच्ची घटना पर आधारित है। एक सफाई कर्मचारी के परिवार में 45 साल की उम्र में पहली संतान पैदा हुई तो बहुत खुशी हुई, लेकिन कुछ समय बाद एक वज्रपात सा हुआ कि बच्चे का सिर असंतुलित रूप से बडा हो रहा है। बताया गया कि वह जीवित नहीं रहेगा। ज्यों-ज्यों बच्चा बडा होता गया तो घर की चिंताएं बढती गई, लेकिन उसका दिमाग बहुत तेज था। वह जगत की सब चीजों को समझता था। घर के लोगों की उपेक्षा के बावजूद उसकी मां जीवन के सारे सुख उसके लिए जुटाने में लगी थी। इस बीच घर में ध्यान हटाने के लिए नए बच्चे के जन्म लेने की घटना होती है। यह कथा विसंगतियों पर बुनी गई है जिसमें संवेदना को विशेष रूप से उभारा गया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100406/36b09fc3/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Apr 7 23:34:27 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 7 Apr 2010 23:34:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkquCksCDgpIXgpKrgpKjgpYAg4KSw4KS+4KSvIOCkpuClhw==?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: दीवान के साथियों मैं हिन्दी ब्लॉगिंग को लेकर एक रिसर्च आर्टिकल लिख रहा हूं। ये लेख हिन्दी पर लिखे गए अलग-अलग लेखों को लेकर एक किताब की शक्ल में प्रकाशित होगी। मेरी इच्छा है कि आप हिन्दी ब्लॉगिंग की दिशा,भविष्य,मौजूदा स्थिति और संभावना को लेकर जो भी महसूस करते हैं,हमें सौ-डेढ़ सौ शब्दों में लिखकर vineetdu at gmail.com पर मेल कर दें। अगर आपका ब्लॉग है तो आपके ब्लॉग से तो मैं संदर्भ दूंगा ही लेकिन आपकी बात आ जाए तो और बेहतर होगा। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100407/fa2b2e42/attachment.html From shashikanthindi at gmail.com Thu Apr 8 00:05:59 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Thu, 8 Apr 2010 00:05:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KS54KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCkuOCkqCDgpJXgpYAg4KSu4KS+4KSk4KWD4KSt4KWC4KSu?= =?utf-8?b?4KS/IOCksuClguCko+CkviDgpJfgpL7gpIHgpLUsIOCktuClh+Cklg==?= =?utf-8?b?4KS+4KS14KS+4KSf4KWALCDgpLDgpL7gpJzgpLjgpY3gpKXgpL7gpKgg?= =?utf-8?b?4KS44KWH?= Message-ID: हमारे मित्र *ईशमधु तलवार * ने अभी-अभी फेसबुक पर उर्दू के ग़ज़ल सम्राट मेहदी हसन की मातृभूमि लूणा गाँव, शेखावाटी, राजस्थान का दौरा करके फेसबुक पर हमें यह पोस्ट भेजा है. दीवान के साथी लोग इसको पढ़ कर यदि भावुक हो जाएं तो मुझे बेहद खुशी होगी. शुक्रिया. - डॉ शशिकांत *सरहद पार से आती हैं सदाएं - ईशमधु तलवार * *(आउटलुक के अप्रेल अंक में मेहदी हस**न पर मेरा लेख फोटो सेक्शन में है, जो कि संपादित है , उसे मूल रूप में यहां पढें- * ) आवाजों को सरहदों के पार जाने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए राजस्थान के लूणा गांव की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहदी हसन तक पहुंच जाती है और वे यहां आने के लिए छटपटाने लगते हैं। पाकिस्तान से खबर है कि अस्वस्थ होने के बावजूद वे एक बार फिर अपनी जन्म भूमि पर आना चाहते हैं। राजस्थान के शेखावाटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में वे लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है। छूटी हुई जन्म स्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है इसे 1977 के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। काफिला थम गया। सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला जा सकता है। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों। इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं-' वह भावुक कर देने वाला अद्भूत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा। धीरे-धीरे वह शांत हो गए। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया करते थे।' मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार में सब लोग शेखावाटी में बोलते हैं। शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती है। मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आए उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है-''दिल जो रोता है' । मेहदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया था-' मेंहद्यो आयो है, मेंहद्यो आयो है। ' मेहदी हसन जहां जाते, लोग उनका छाछ-राबड़ी और दूध-दही से स्वागत करते। इस यात्रा में झुंझुनूं में जिला कलेक्टर ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया था, लेकिन मेहदी हसन बिना बताए झुंझुनूं की एक बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर पहुंच गए और वहां मांग कर लहसन की चटनी के साथ बाजरे की रोटी खाई। प्रशासनिक अधिकारी उन्हें ढूंढते रहे। इस बार जब मेहदी हसन अपने गांव आएंगे तो शायद यह कहने वाला कोई नहीं मिलेगा कि 'मेंहद्यो आयो है।' गांव में अब एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है, लेकिन वह इतना जरूर जानती है कि इस गांव का मेहदी हसन गजल सम्राट है। जिन लोगों ने मेहदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-''मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।' लगभग 250 घरों के लूणा गांव में आज भी कोई कार जैसी चीज चली जाए तो लोगों को यह समझते देर नहीं लगती कि मसला मेहदी हसन के साथ जुड़ा है। मेहदी हसन की वजह से ही लूणा को एक सड़क उपहार में मिल गई है जो गांव तक जाती है। हमारी गाड़ी जैसे ही गांव में पहुंचती है तो एक ग्रामीण सांवरा छूटते ही बताता है कि मेहदी हसन के बारे में जानना है तो नारायण सिंह के पास चले जाओ। वही सब कुछ बता सकता है। दरअसल, लूणा में मेहदी हसन का अब एक ही साथी बचा है- नारायण सिंह। मेहदी हसन के एक दोस्त और हैं- अर्जुन सिंह, लेकिन वे विक्षिप्त हो चुके हैं और उन्हें कोई सुधबुध नहीं है। गांव का एक रिटायर्ड फौजी रामेश्वर लाल बताता है- ''मेहदी हसन मेरे पिताजी (मालाराम) के अच्छे दोस्त थे। उनके साथ गांव में कबड्डी खेलते थे, अखाड़े में कुश्ती करते थे। मेरे पिताजी के साथ उनकी फोटो भी थी, लेकिन अब वह भी नहीं रहे।' गांव में लोगों से बातचीत में ही यह पता चलता है कि अपने सुरों से दुनिया में राज करने वाले मेहदी हसन पहलवानी भी करते थे। शाम के झुरमुट में हम गांव की गलियों से गुजरते हैं। गांव के छान-छप्परों से धुआं उठ रहा था। लगा हवा में लहराते दरख्त मेहदी हसन की गजल गुनगुना उठे हों- ''ये धुआं सा कहां से उठता है, देख तो दिल कि जां से उठता हैं ' कुओं पर बीते वक्त की वास्तु के पनघट बने हैं। इन पर चकली की जगह लकड़ी के बड़े चक्के लगे हैं जिन पर कभी चरस से पानी खींचा जाता होगा। एक सरकारी स्कूल के परिसर में ही पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहदी हसन के दादा इमाम खां की मजार है, जो शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता माने जाते थे। उन्हीं से मेहदी हसन ने गायन सीखा। मजार पर पहले कुछ नहीं था। एक ग्रामीण युवक मुकुट सिंह ने बताया कि कोई एक दशक पहले मेहदी हसन निजी यात्रा पर इस मजार को ठीक कराने के लिए ही आए थे। तब वे झुंझुनूं से अपने साथ दो कारीगर लेकर आए थे, जिनसे मजार पर कुछ निर्माण कराया। मेहदी हसन की इस यात्रा के पीछे छिपे उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। अपनी जमीन से उखड़ जाने पर पीछे छूटी यादें किसी यातना से कम नहीं होती। मजार की बदहाली देखकर रोना आता है। मजार अब भी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है, जितना उसके पास खड़ा एक सूखा दरख्त। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- '' भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।'' नारायण सिंह कभी-कभी जुम्मे पर इस मजार पर हो आते हैं। नारायण सिंह अपने बेटों-पोतों के साथ ही कई घरों के बीच बनी एक कोठरी में रहते हैं, लेकिन भगवा वस्त्रों में। दस साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया। कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है। उन्होंने बताया कि मेहदी हसन के दादा इमाम खां से उन्होंने भी संगीत की तालीम पाई। आध्यात्मिक संगीत में उनकी रूचि है, लेकिन गजलें उन्हें नहीं आती। मेहदी हसन की भी कोई गजल उनको याद नहीं। वे कहते हैं- ''मेहदी हसन ने शास्त्रीय रागों से गजल को जोड़ा, इसलिए वे प्रसिद्ध हुए।'' नारायण सिंह दिनभर अपनी पुरानी किताबों की जिल्द बनाकर सिलाई करते रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें कुरान भी आती है। उन्होंने रामचरित मानस के उर्दू अनुवाद की एक दुर्लभ पुस्तक भी दिखाई। लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में ही मेहदी हसन ने ठुमरी, खयाल और दादरा में गायकी सीख ली थी। अपने पिता उस्ताद अजीम खां से भी उन्होंने शास्त्रीय गायन की तालीम ली। रेत के धोरों में संगीत की स्वर लहरियां जैसे आज भी मेहदी हसन को सुनाई देती हैं और वे इस धरती पर खिंच कर चले आते हैं। गांव में किसी से भी पूछो कि मेहदी हसन के पुराने घर कहां हैं, तो लोग सकुचाने लगते हैं। ज्यादातर लोग जुबान सिल लेते हैं। लगता है जैसे कोई गलत बात पूछ ली हो। एक ग्रामीण रामेश्वर दबे स्वरों में बताता है-'' जहां मेहदी हसन के कच्चे घर थे, वहां अब भागीरथ मीणा की पक्की कोठी है। ऐसी कोठी पूरे गांव में नहीं है। मीणा एक सरकारी अधिकारी हैं जो बाहर रहते हैं।'' पूरे गांव में बहती फिजां में मेहदी हसन की मौजूदगी का अहसास लगातार बना रहता है, लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने अब खुल कर सामने नहीं आते। उनके साथी नारायण सिंह के जेहन में भी बचपन की ज्यादा यादें बची नहीं हैं। वे अपनी उम्र 90 वर्ष बताते हैं, हालांकि इतनी उम्र के लगते नहीं हैं। कहते हैं- ''मेहदी हसन के पिता अजीम खां मंडावा के ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे जिन्हें गाने के बदले ठाकुर साहब से जमीन भी मिलती थी। चाचा इस्माइल खां पहलवान थे, जिनके अखाड़े में मेहदी हसन और उनके बड़े भाई गुलाम कादिर के साथ मैं भी जाता था। मेहदी हसन की दो बहनें थीं- रहमी और भूरी।'' मेहदी हसन जब भी लूणा गांव आते हैं, वे नारायण सिंह से जरूर मिलते हैं। वे दो बार सरकारी मेहमान बन कर भी आ चुके हैं। लूणा इस बार फिर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है। हैरत की बात यह है कि लूणा को लेकर मेहदी हसन के दिल में आज भी जुनून कम नहीं हुआ है। समय की परतें भी इसे दबा नहीं पाई हैं। तानसेन के बारे कहा जाता है कि लोग उनकी मजार पर जाते हैं तो कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने की कोशिश करते हैं- क्या पता कब उनके सुर फूट पड़े। लूणा गांव भी उनके आने की आहटों को कुछ इसी तरह सुनता रहता है। इस बार जब वे लूणा गांव आकर वापस लौटेंगे तो कौन जाने उनके मन में अपनी ही गजल के ये स्वर गूंज रहे होंगे-'' अब के हम बिछुड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।'' Updated about a week ago · Report Note -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100408/f2bb844f/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Apr 8 12:39:53 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 8 Apr 2010 12:39:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSqIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkrOCkvuCksCDgpLDgpLjgpY3gpJXgpL/gpKgg4KSs4KS+4KSC?= =?utf-8?b?4KShIOCklOCksCDgpLbgpYfgpJbgpLAg4KSq4KS+4KSg4KSVIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCknOCksOClgeCksCDgpK7gpL/gpLLgpL/gpI8=?= Message-ID: रस्किन बांड की बातों में हम इतनी बुरी तरह खो गये थे कि हमें पता ही नहीं चला कि आसपास बाकी क्या हरकतें हो रही हैं। ये तो जब उन्होंने रवि सिंह (पेंगुइन-इंडिया के प्रकाशक एवं मुख्य संपादक) से बातचीत पूरी की तो देखा कि हॉल पूरी तरह भरा हुआ है। एक भी कुर्सी खाली नहीं थी बल्कि कुछ लोग दीवार से सटकर खड़े थे। ऐसा लग रहा था कि रस्किन बांड के नाम पर रातोंरात देहरादून में कुछ अतिरिक्त बुद्धिजीवी पैदा हो गये हों या फिर उन्हें सुनने के लिए शहर के बाहर से आये हों। तीन दिन की इस पेंगुइन रीडिंग्स में रस्किन बांड के सत्र को मैं जादू की तरह याद करता हूं और बिरदा के गीत को नशा के तौर पर। रस्किन बांड को सुनने के बाद हर सत्र और घटनाओं के बारे में सोचता तो आप ही कल्पना करता कि रस्किन इस बात को किस तरह से बोलते और बिरदा ऐसे मौके पर कौन सा गीत गाते? रस्किन बांड जितना बड़ा नाम है, वो मुझे खुद उतने ही सहज इंसान लगे। चेहरे पर एक खास किस्म की चाइल्डिस इग्नोरेंस है। वो बच्चों के बीच इसी रूप में पॉपुलर हैं। शायद इसलिए उन्हें देखकर ऐसा लगा कि बच्चों के चेहरे का भोलापन रुई के फाहों की तरह उड़-उड़कर उनके चेहरे पर चिपककर एक स्थायी हिस्सा हो गया हो। ये अलग बात है कि मेरे साथ बैठी साना (दि पायनियर) ने चीट पर लिखकर बताया कि रस्किन यहां सीरियस हैं लेकिन अगर अकेले बात करो तो बहुत फनी हैं, एक समय था जब उन्हें गुस्सा बहुत आता था। रवि सिंह ने परिचय के दौरान हमें बताया कि जब वो उन्हें मसूरी लाने गये तो देखा कि बच्चे उन्हें घेरे हुए थे और सब उन्हें अंकल-अंकल पुकार रहे थे। रस्किन जब किताबों की दुकानों पर होते हैं तो ऑटोग्राफ देते नजर आते हैं। ये नजारा तो मैंने खुद सत्र खत्म होने के बाद देखा। स्टेज के चारों ओर से छिटक कर ऑडिएंस उस कोने से चिपक गयी थी जिधर रस्किन खुद बैठे थे। ऑटोग्राफ लेने वालों का तांता लगा था। कुछ लोगों ने तो किताब इसलिए खरीदी कि उन्हें फिर पता नहीं उनका ऑटोग्राफ कब मिले? कई बच्चों की मांओ ने रस्किन की स्टोरी की किताबें खरीदीं और मौका मिलते ही फोन करके बताया – बेटू, तुम्हारे लिए खुद रस्किन ने ऑटोग्राफ वाली किताब दी है। बहरहाल, कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी गयी थी – उसके अनुसार रस्किन अपनी रचनाओं के चुनिंदा अंशों का पाठ करते और फिर उनसे रवि सिंह की बातचीत होती। इस क्रम में उन्होंने रस्टी का पाठ किया और फिर रवि सिंह से बातचीत शुरू हुई। पूरी बताचीत में हमने जो महसूस किया कि रस्किन की दुनिया में फिक्शन और नेचर कायदे से तो मौजूद है ही, राइटिंग फॉर चाइल्ड के लिए भी वो मशहूर हैं। लेकिन शहर को समझने और उस पर बात करने की जो कला रस्किन के पास है, उसे सहेजने और विस्तार देने की जरूरत है। मौजूदा दौर में अकादमी की दुनिया में सिटी स्पेस एक नये विषय के तौर पर पॉपुलर हो रहा है। ऐसे में रस्किन की राइटिंग से शहर को समझने और व्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब वो देहरादून और मसूरी की प्रकृति पर बात करते हैं, उसके बदल जाने की बात करते हैं। बताते हैं कि तब पूरे शहर में दो ही मोटरकार हुआ करती थी। गिनती के लोगों के पास कलाई घड़ी थी। आप बॉटनी टीचर की बात करें तो लोग आपको उनके घर तक पहुंचा आते थे। शहर बनने की प्रक्रिया के साथ प्रकृति (रस्किन के लिए प्रकृति एक व्यापक शब्द है) किस तरह बदलती है, वो इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस तरह वो आपको प्रकृति के नाम पर सिर्फ पहाड़ों और पेड़ों के बीच खो जाने या फिर उसके नाम पर नास्टॉल्जिक हो जाने की राह नहीं थमाते बल्कि एक शहर के बनने की पूरी प्रक्रिया बारीकी तौर पर समझाते चले जाते हैं। पूरी बातचीत में हमने पाया कि रस्किन के पास सिर्फ वर्णन करने की बेहतरीन शैली ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा ऑब्जर्वेशन की असाधारण प्रतिभा भी है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा नहीं है लेकिन पूरी बातचीत की बदौलत कह सकता हूं कि उनकी ये जो ऑब्जर्वेशन है वो भी इन रचनाओं में क्रिएटिविटी का हिस्सा बनकर आती है। इससे आप आर्किटेक्ट लिटरेचर की समझ हासिल कर सकते हैं जो कि लंदन शहर पर जोन्थन रेबन (1974) के लिखे उपन्यास ‘सॉफ्ट सिटी’ में दिखाई देता है। शहर को इस बारीक समझ के साथ महसूस करने और फिर उस पर उतनी ही बारीकी से लिखने के सवाल पर रस्किन का जबाव जितना सहज था, अमल करने के स्तर पर उतना ही बड़ा चैलेंज। किसी भी शहर को समझने का सबसे बेहतर तरीका है कि आप उस शहर में पैदल चल कर चीजों को देखें। जब आप टहल रहे होते हैं, तो एक ही साथ कई चीजें आपके साथ जुड़ती चली जाती हैं। आपकी समझ का दायरा बढ़ता है जो कि बिना पैदल चले संभव नहीं है। लेकिन अब लोगों ने यही करना बंद कर दिया है। बच्चे लैपटॉप की स्क्रीनों में घुस गये हैं। उसी दुनिया में खो गये हैं। यही कारण है कि वो एक ही साथ शहर से एहसास के स्तर पर कटते चले जाते हैं और प्रकृति से भी दूर होते चले जाते। ये दोनों चीजें उनके कन्सर्न में नहीं है। रस्किन के लिए प्रकृति बाकी के लेखकों से कहीं ज्यादा बड़ा शब्द है बल्कि इसे आप शब्द न कहकर एनलिटिकल टूल कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। रवि सिंह ने जब सवाल किया कि क्या ऐसा है कि प्रकृति से जुड़ाव ने आपको ज्यादा संवेदनशील बनाया? इस सवाल के जबाव में उन्होंने कहा कि सिर्फ इस बात से चीजें तय नहीं होती है कि आप प्रकृति से जुड़े हैं, उस पर लिख रहे हैं, देख रहे और बात कर रहे हैं, बल्कि काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपकी प्रकृति (nature and the nature of the people) पर भी निर्भर करता है। इसलिए एक तरफ वो देहरादून की नेचर के स्तर पर के बदलावों की चर्चा करते हैं, तो दूसरी तरफ लोगों की उस प्रकृति की भी विस्तार से चर्चा करते हैं, जिन्होंने कि जेनुइन और इन पहाड़ों और प्रकृति के बीच रहनेवाले लोगों को बेदखल कर दिया है। विकास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है, उसमें वो कहीं भी शामिल नहीं हैं। रस्किन के हिसाब से शहर या प्रकृति को समझने का मतलब सिर्फ चीजों की मौजूदगी को महसूस करना भर नहीं है बल्कि उनके साथ हो रहे बदलावों की पूरी प्रक्रिया को समझना है। आसपास की दुनिया को इस रूप में पहचानना ज्यादा जरूरी है। पूरी रपट के लिए क्लिक करें- http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100408/843344eb/attachment-0001.html From chandan at csds.in Thu Apr 8 14:12:25 2010 From: chandan at csds.in (Chandan Srivastawa) Date: Thu, 8 Apr 2010 14:12:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSqIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkrOCkvuCksCDgpLDgpLjgpY3gpJXgpL/gpKgg4KSs4KS+4KSC?= =?utf-8?b?4KShIOCklOCksCDgpLbgpYfgpJbgpLAg4KSq4KS+4KSg4KSVIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCknOCksOClgeCksCDgpK7gpL/gpLLgpL/gpI8=?= In-Reply-To: References: Message-ID: *चाइल्डिस इग्नोरेंस*....सोच के देखें...अगर यह शब्द रस्किन की सहजता को व्यंजित करने के लिए आया है तो क्या मायने को बदल नहीं देता.....अगर बचपन में सही सुना है तो चाइल्डलाइक और चाइल्डिस में फर्क होता है..चाइल्डलाइक बालसुलभ जिज्ञासाभाव या मासूमियत आदि के लिए आता है( इस्लामी परंपरा में इसी अर्थ में फरिश्ते और इमाम को मासूम कहा जाता है)..चाइल्डिस का मतलब बचकानापन के नजदीक है..कभी कभी कहते हैं किसी के बारे में कि क्या बचकानी हरकतें किए जाते हो भाई.. Merriam-Webster's Dictionary of English Usage में चाइल्डिस को नकारात्मक अर्थध्वनि और चाइल्डलाइक को सकारात्मक अर्थध्वनि व्यंजित करने वाले पद कहा गया है। एक कवि के यहां चाइल्डिस का प्रयोग सकारात्मक भी हुआ है...आपने शायद यही सोच के लिखा होगा...नीचे थॉमस हुड की एक कविता चिपका दी है...पद सबसे आखिर के टुकड़े में आया है.. I REMEMBER, I remember The house where I was born, The little window where the sun Came peeping in at morn; He never came a wink too soon, Nor brought too long a day: But now, I often wish the night Had borne my breath away. I remember, I remember The roses, red and white, The violets, and the lily-cups— Those flowers made of light! The lilacs where the robin built, And where my brother set The laburnum on his birthday,— The tree is living yet! I remember, I remember Where I was used to swing, And thought the air must rush as fresh To swallows on the wing; My spirit flew in feathers then That is so heavy now, And summer pools could hardly cool The fever on my brow. I remember, I remember The fir trees dark and high; I used to think their slender tops Were close against the sky: It was a childish ignorance; But now 'tis little joy To know I'm farther off from heaven Than when I was a boy. 2010/4/8 vineet kumar > > > रस्किन बांड की बातों में हम इतनी बुरी तरह खो गये थे कि हमें पता ही नहीं चला > कि आसपास बाकी क्या हरकतें हो रही हैं। ये तो जब उन्होंने रवि सिंह > (पेंगुइन-इंडिया के प्रकाशक एवं मुख्य संपादक) से बातचीत पूरी की तो देखा कि > हॉल पूरी तरह भरा हुआ है। एक भी कुर्सी खाली नहीं थी बल्कि कुछ लोग दीवार से > सटकर खड़े थे। ऐसा लग रहा था कि रस्किन बांड के नाम पर रातोंरात देहरादून में > कुछ अतिरिक्त बुद्धिजीवी पैदा हो गये हों या फिर उन्हें सुनने के लिए शहर के > बाहर से आये हों। तीन दिन की इस पेंगुइन रीडिंग्स में रस्किन बांड के सत्र को > मैं जादू की तरह याद करता हूं और बिरदा के गीत को नशा के तौर पर। रस्किन बांड > को सुनने के बाद हर सत्र और घटनाओं के बारे में सोचता तो आप ही कल्पना करता कि > रस्किन इस बात को किस तरह से बोलते और बिरदा ऐसे मौके पर कौन सा गीत गाते? > > रस्किन बांड जितना बड़ा नाम है, वो मुझे खुद उतने ही सहज इंसान लगे। चेहरे पर > एक खास किस्म की चाइल्डिस इग्नोरेंस है। वो बच्चों के बीच इसी रूप में पॉपुलर > हैं। शायद इसलिए उन्हें देखकर ऐसा लगा कि बच्चों के चेहरे का भोलापन रुई के > फाहों की तरह उड़-उड़कर उनके चेहरे पर चिपककर एक स्थायी हिस्सा हो गया हो। ये > अलग बात है कि मेरे साथ बैठी साना (दि पायनियर) ने चीट पर लिखकर बताया कि > रस्किन यहां सीरियस हैं लेकिन अगर अकेले बात करो तो बहुत फनी हैं, एक समय था जब > उन्हें गुस्सा बहुत आता था। रवि सिंह ने परिचय के दौरान हमें बताया कि जब वो > उन्हें मसूरी लाने गये तो देखा कि बच्चे उन्हें घेरे हुए थे और सब उन्हें > अंकल-अंकल पुकार रहे थे। रस्किन जब किताबों की दुकानों पर होते हैं तो ऑटोग्राफ > देते नजर आते हैं। ये नजारा तो मैंने खुद सत्र खत्म होने के बाद देखा। स्टेज के > चारों ओर से छिटक कर ऑडिएंस उस कोने से चिपक गयी थी जिधर रस्किन खुद बैठे थे। > ऑटोग्राफ लेने वालों का तांता लगा था। कुछ लोगों ने तो किताब इसलिए खरीदी कि > उन्हें फिर पता नहीं उनका ऑटोग्राफ कब मिले? कई बच्चों की मांओ ने रस्किन की > स्टोरी की किताबें खरीदीं और मौका मिलते ही फोन करके बताया – बेटू, तुम्हारे > लिए खुद रस्किन ने ऑटोग्राफ वाली किताब दी है। > > > बहरहाल, कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी गयी थी – उसके अनुसार रस्किन अपनी रचनाओं > के चुनिंदा अंशों का पाठ करते और फिर उनसे रवि सिंह की बातचीत होती। इस क्रम > में उन्होंने रस्टी का पाठ किया और फिर रवि सिंह से बातचीत शुरू हुई। पूरी > बताचीत में हमने जो महसूस किया कि रस्किन की दुनिया में फिक्शन और नेचर कायदे > से तो मौजूद है ही, राइटिंग फॉर चाइल्ड के लिए भी वो मशहूर हैं। लेकिन शहर को > समझने और उस पर बात करने की जो कला रस्किन के पास है, उसे सहेजने और विस्तार > देने की जरूरत है। मौजूदा दौर में अकादमी की दुनिया में सिटी स्पेस एक नये विषय > के तौर पर पॉपुलर हो रहा है। ऐसे में रस्किन की राइटिंग से शहर को समझने और > व्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब वो > देहरादून और मसूरी की प्रकृति पर बात करते हैं, उसके बदल जाने की बात करते हैं। > बताते हैं कि तब पूरे शहर में दो ही मोटरकार हुआ करती थी। गिनती के लोगों के > पास कलाई घड़ी थी। आप बॉटनी टीचर की बात करें तो लोग आपको उनके घर तक पहुंचा > आते थे। शहर बनने की प्रक्रिया के साथ प्रकृति (रस्किन के लिए प्रकृति एक > व्यापक शब्द है) किस तरह बदलती है, वो इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस तरह > वो आपको प्रकृति के नाम पर सिर्फ पहाड़ों और पेड़ों के बीच खो जाने या फिर उसके > नाम पर नास्टॉल्जिक हो जाने की राह नहीं थमाते बल्कि एक शहर के बनने की पूरी > प्रक्रिया बारीकी तौर पर समझाते चले जाते हैं। > > पूरी बातचीत में हमने पाया कि रस्किन के पास सिर्फ वर्णन करने की बेहतरीन शैली > ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा ऑब्जर्वेशन की असाधारण प्रतिभा भी है। मैंने > उन्हें बहुत पढ़ा नहीं है लेकिन पूरी बातचीत की बदौलत कह सकता हूं कि उनकी ये > जो ऑब्जर्वेशन है वो भी इन रचनाओं में क्रिएटिविटी का हिस्सा बनकर आती है। इससे > आप आर्किटेक्ट लिटरेचर की समझ हासिल कर सकते हैं जो कि लंदन शहर पर जोन्थन रेबन > (1974) के लिखे उपन्यास ‘सॉफ्ट सिटी’ में दिखाई देता है। शहर को इस बारीक समझ > के साथ महसूस करने और फिर उस पर उतनी ही बारीकी से लिखने के सवाल पर रस्किन का > जबाव जितना सहज था, अमल करने के स्तर पर उतना ही बड़ा चैलेंज। > > किसी भी शहर को समझने का सबसे बेहतर तरीका है कि आप उस शहर में पैदल चल कर > चीजों को देखें। जब आप टहल रहे होते हैं, तो एक ही साथ कई चीजें आपके साथ > जुड़ती चली जाती हैं। आपकी समझ का दायरा बढ़ता है जो कि बिना पैदल चले संभव > नहीं है। लेकिन अब लोगों ने यही करना बंद कर दिया है। बच्चे लैपटॉप की > स्क्रीनों में घुस गये हैं। उसी दुनिया में खो गये हैं। यही कारण है कि वो एक > ही साथ शहर से एहसास के स्तर पर कटते चले जाते हैं और प्रकृति से भी दूर होते > चले जाते। ये दोनों चीजें उनके कन्सर्न में नहीं है। रस्किन के लिए प्रकृति > बाकी के लेखकों से कहीं ज्यादा बड़ा शब्द है बल्कि इसे आप शब्द न कहकर एनलिटिकल > टूल कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। > > रवि सिंह ने जब सवाल किया कि क्या ऐसा है कि प्रकृति से जुड़ाव ने आपको ज्यादा > संवेदनशील बनाया? इस सवाल के जबाव में उन्होंने कहा कि सिर्फ इस बात से चीजें > तय नहीं होती है कि आप प्रकृति से जुड़े हैं, उस पर लिख रहे हैं, देख रहे और > बात कर रहे हैं, बल्कि काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपकी प्रकृति > (nature and the nature of the people) पर भी निर्भर करता है। इसलिए एक तरफ वो > देहरादून की नेचर के स्तर पर के बदलावों की चर्चा करते हैं, तो दूसरी तरफ लोगों > की उस प्रकृति की भी विस्तार से चर्चा करते हैं, जिन्होंने कि जेनुइन और इन > पहाड़ों और प्रकृति के बीच रहनेवाले लोगों को बेदखल कर दिया है। विकास के नाम > पर जो कुछ भी चल रहा है, उसमें वो कहीं भी शामिल नहीं हैं। रस्किन के हिसाब से > शहर या प्रकृति को समझने का मतलब सिर्फ चीजों की मौजूदगी को महसूस करना भर नहीं > है बल्कि उनके साथ हो रहे बदलावों की पूरी प्रक्रिया को समझना है। आसपास की > दुनिया को इस रूप में पहचानना ज्यादा जरूरी है। > > पूरी रपट के लिए क्लिक करें- > http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Inclusive Media for Change, CSDS, 29 Rajpur Road, Delhi,110054 011-23981012 (for message and fax) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100408/285b314e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 9 11:07:20 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 9 Apr 2010 11:07:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkrOCljeCksuClieCkl+Ckv+CkguCklyDgpKrgpLAg4KSF?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KWAIOCksOCkvuCkryDgpKbgpYfgpIIg4KSq4KWN4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KSc?= Message-ID: जल्द ही हिन्दी का भविष्य और अलग-अलग माध्यमों की हिन्दी को लेकर एक किताब प्रकाशित की जानी है। मुझे इस किताब के लिए हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक लेख लिखने के लिए कहा गया है। ब्लॉगिंग को लेकर मेरी जो भी और जैसी भी समझ और अनुभव है,जिनलोगों को पढ़ता आया हूं,उनकी ब्लॉग सामग्री को रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल तो करुंगा ही। लेकिन मैं चाहता हूं कि इस बीच आप हिन्दी ब्लॉगिंग की स्थिति को लेकर क्या सोचते हैं,आपकी इस मामले में क्या राय है,हमसे शेयर करें। मैं अपनी बात रखने,पोस्टों के रेफरेंस शामिल करने के साथ-साथ आपकी बातें भी जोड़ता चला जाउंगा। कोशिश है कि हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक बेहतर लेख तैयार हो जाए। फेसबुक पर मैंने दो-तीन बार अनुरोध किया है। बज पर भी अपील की है कि आप अपनी राय मुझे दो-तीन के भीतर भेजें। रविरतलामी,रवीश कुमार,अनूप शुक्ल,यशवंत सिंह गिरीन्द्रनाथ झा,रचना सिंह,सुजाता,नीलिमा,प्रमोद रंजन,अजय कुमार झा,प्रशांत प्रियदर्शी और अफलातून की प्रतिक्रियाएं आयी हैं। इनमें से रविरतलामी और गिरीन्द्र ने तो लिखकर भेज दिया है। लेकिन बाकी के लोगों ने कुछ इन्क्वायरी के साथ एक-दो दिनों की अतिरिक्त समय की मांग की है। मुझे लगा कि अलग से लिखने के नाम पर शायद लोग कोताही कर जाएं इसलिए विज्ञापननुमा अंदाज में मैंने दो बातें लिखीं। एक तो ये कि आप अपनी बात सौ-सवा सौ में ही लिखकर भेज दें औऱ दूसरी बात कि जितनी देर में आप फेसबुक पर अपनी स्टेटस बदलते हैं,कमेंट करते हैं,उतनी देर में आप अपनी राय मुझे भेज सकते हैं। इन दोनों बातों से मेरा इरादा आपके लिए कोई शब्द सीमा बांधना नहीं है,आप अपनी मर्जी से जितना चाहें लिखें। फेसबुक,बज और पर्सनल मेल के जरिए मैंने लोगों से अपील की है। उम्मीद है कि लोग रिस्पांड करेंगे। लेकिन ब्लॉग की दुनिया के कई संजीदा और सक्रिय लोगों तक मेरी ये अपील नहीं पहुंच पायी होगी,इसलिए पोस्ट के जरिए राय मांगने की जरुरत पड़ी। उम्मीद है कि आप निराश नहीं करेंगे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100409/7e156913/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Fri Apr 9 13:47:57 2010 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 9 Apr 2010 13:47:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkrOCljeCksuClieCkl+Ckv+CkguCklyDgpKrgpLAg4KSF?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KWAIOCksOCkvuCkryDgpKbgpYfgpIIg4KSq4KWN4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KSc?= In-Reply-To: References: Message-ID: बंधु मैंने अपनी राय बीते सितंबर शिमला में पर्चे के तौर पर पेश की थी. शायद उस पर्चे की कॉपी आपके पास होगी ही. न हो तो बताइएगा मैं भेज दूंगा. शुक्रिया र 2010/4/9 vineet kumar > > > > जल्द ही हिन्दी का भविष्य और अलग-अलग माध्यमों की हिन्दी को लेकर एक किताब > प्रकाशित की जानी है। मुझे इस किताब के लिए हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक लेख लिखने के > लिए कहा गया है। ब्लॉगिंग को लेकर मेरी जो भी और जैसी भी समझ और अनुभव > है,जिनलोगों को पढ़ता आया हूं,उनकी ब्लॉग सामग्री को रेफरेंस के तौर पर > इस्तेमाल तो करुंगा ही। लेकिन मैं चाहता हूं कि इस बीच आप हिन्दी ब्लॉगिंग की > स्थिति को लेकर क्या सोचते हैं,आपकी इस मामले में क्या राय है,हमसे शेयर करें। > मैं अपनी बात रखने,पोस्टों के रेफरेंस शामिल करने के साथ-साथ आपकी बातें भी > जोड़ता चला जाउंगा। कोशिश है कि हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक बेहतर लेख तैयार हो जाए। > > फेसबुक पर मैंने दो-तीन बार अनुरोध किया है। बज पर भी अपील की है कि आप अपनी > राय मुझे दो-तीन के भीतर भेजें। रविरतलामी,रवीश कुमार,अनूप शुक्ल,यशवंत सिंह > गिरीन्द्रनाथ झा,रचना सिंह,सुजाता,नीलिमा,प्रमोद रंजन,अजय कुमार झा,प्रशांत > प्रियदर्शी और अफलातून की प्रतिक्रियाएं आयी हैं। इनमें से रविरतलामी और > गिरीन्द्र ने तो लिखकर भेज दिया है। लेकिन बाकी के लोगों ने कुछ इन्क्वायरी के > साथ एक-दो दिनों की अतिरिक्त समय की मांग की है। मुझे लगा कि अलग से लिखने के > नाम पर शायद लोग कोताही कर जाएं इसलिए विज्ञापननुमा अंदाज में मैंने दो बातें > लिखीं। एक तो ये कि आप अपनी बात सौ-सवा सौ में ही लिखकर भेज दें औऱ दूसरी बात > कि जितनी देर में आप फेसबुक पर अपनी स्टेटस बदलते हैं,कमेंट करते हैं,उतनी देर > में आप अपनी राय मुझे भेज सकते हैं। इन दोनों बातों से मेरा इरादा आपके लिए कोई > शब्द सीमा बांधना नहीं है,आप अपनी मर्जी से जितना चाहें लिखें। > > फेसबुक,बज और पर्सनल मेल के जरिए मैंने लोगों से अपील की है। उम्मीद है कि लोग > रिस्पांड करेंगे। लेकिन ब्लॉग की दुनिया के कई संजीदा और सक्रिय लोगों तक मेरी > ये अपील नहीं पहुंच पायी होगी,इसलिए पोस्ट के जरिए राय मांगने की जरुरत पड़ी। > उम्मीद है कि आप निराश नहीं करेंगे > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Media Consultant & Content Editor Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://sarokar.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100409/417466fe/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 10 20:06:43 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 10 Apr 2010 20:06:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSu4KSv?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkruClgOCkruCkvuCkguCkuOCkviDgpLLgpYfgpJY=?= Message-ID: http://www.meemansa.org/wp-content/uploads/2008/08/Samyik_Meemansa-July-Sept-08.pdf -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100410/857bf785/attachment.html From girindranath at gmail.com Sun Apr 11 08:29:28 2010 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 11 Apr 2010 08:29:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSj4KWB?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpKbgpYHgpKjgpL/gpK/gpL4tIOCknOCkv+CkuOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkv+CkqOCkviDgpLngpK4g4KSF4KSn4KWC4KSw4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWI4KSCLi4=?= Message-ID: '' कई बार चाहा कि, त्रिलोचन से पूछूँ- आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से, किसी कबिराहा-मठ पर गये हैं? किन्तु पूछकर इस भरम को दूर नहीं करना चाहता हूं। इसलिए, जब त्रिलोचन से मिलता हूं, हाथ जोड़कर, मन ही मन कहता हूं- "सा-हे-ब ! बं-द-गी !!"- फणीश्वर नाथ रेणु “आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं मिलने मेंहदी हसन से।“- गुलजार रेणु और गुलजार, दोनों को पढ़ते वक्त मन परत दर परत खुलने लगता है। मेरे लिए दोनों ही शबद-योगी हैं। गुलजार जहां आंखों को वीजा नहीं लगता..बता रहे हैं वहीं रेणु अपने जिले में रहकर भी दुनिया की बात बताते हैं। यही खासियत है दोनों शबद योगी की। दोनों ही सीमाओं को तोड़ना सीखाते हैं। साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु आज ही के दिन 11 अप्रैल 1977 को अनंत की ओर कूच कर गए थे। वे भले ही 33 वर्ष पहले हमसे दूर चले गए लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वे आज भी हमारे लिए जीवंत हैं। मैला आंचल, परती परिकथा, रसप्रिया तीसरी कसम, पंचलाइट जैसी रचनाएं कब हमारे अंदर बैठ गई, हमें पता ही नहीं चला। ठीक गुलजार की रूमानियत की तरह, कोल्ड कॉफी के फेन की तरह। रेणु की दुनिया हमें प्रशांत (मैला आंचल का पात्र) की गहरी मानवीय बेचैनी से जोड़ती है, हीरामन (तीसरी कसम का पात्र) की सहज, आत्मीय आकुलता से जोड़ती है। वह हमें ऐसे रागों, रंगों, जीवन की सच्चाई से जोड़ते हैं जिसके बिना हमारे लिए यह दुनिया ही अधूरी है। अधूरे हम रह जाते हैं, अधूरे हमारे ख्वाब रह जाते हैं। रेणु की दुनिया में जहां प्रशांत है तो वहीं जित्तन भी है। ठीक गुलजार के चांद की तरह। परती परिकथा का जित्तन ट्रैक्टर से परती तोड़ता है, रेणु असल जिंदगी में कलम से जमीन की सख्ती तोड़ते हैं। प्राणपुर में जित्तन परती को अपऩे कैमरे की कीमती आंखों से देख रहा है। किसान के पास इतनी कीमती आंख तो नहीं है पर उसकी अपनी ही आंख काफी कुछ देख लेती है। यह किसान और कोई नहीं अपने रेणु ही हैं। रेणु की जड़े दूर तक गांव की जिंदगी में पैठी हुई है। ठीक आंगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह। वे कभी-कभी शहर में भी हमें गांवों का आभास करा देते हैं। उनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा – जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला। (सुख के जीवन के लिए, यहां आइए, यहां ढूंढ़ना है और पाना है..) रेणु रोज की आपाधापी के छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे, ठीक उसी समय वे हमें सहज और आत्मीय लगने लगते हैं। यही वजह है कि वह त्रिलोचन को इस तरह याद करते हैं- कबीर को पढ़ते समय मेरा मन "भाई साधो" का हो जाता है। फारसी के कवि जलालुद्दीन रूमी का मैंने नाम सुना ही है। अर्थात विद्वानों के लेखों में उद्धृत उनकी पंक्तियों के भावानुवाद को पढ़कर ही रोम-रोम बजने लगते हैं। बंगाल के प्रसिद्ध बाउल गायक लालन फकीर के गीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का परस सा पाया है और त्रिलोचन के सॉनेट पढ़ते समय यह देह यंत्र "रामुरा झिं झिं" बजने लगता है और तन्मय मन को लगता है। त्रिलोचन (जी) को देखते ही हर बार मेरे मन के ब्लैक बोर्ड पर, एक अगणितक असाहित्यिक तथा अवैज्ञानिक प्रश्न अपने-आप लिख जाता है- वह कौन-सी चीज है, जिसे त्रिलोचन में जोड़ देने पर वह शमशेर हो जाता है और घटा देने पर नागार्जुन............... ("स्थापना" में सितम्बर 1970 में प्रकाशित "अपने-अपने त्रिलोचन" से ....) रेणु की खासियत उनका रचना संसार है। वे अपने पात्रों और परिवेश को एकाकार करना जानते थे। रेणु जैसे महत्वपूर्ण कथाशिल्पी का पत्रकार होना अपने आप में एक रोचक प्रसंग है। उन्होंने अपने रिपोतार्जों के जरिए हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया है। एकांकी के दृश्य पुस्तक में उनके रिपोर्जों को संकलित किया गया है। उन्होंने बिहार की राजनीति, समाज-संस्कृति आदि को लेकर पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लेखन किया था। चुनाव लीला- बिहारी तर्ज नाम से रेणु की एक रपट 17 फरवरी 1967 को प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने लिखा था- पत्र और पत्रकारों से कोई खुश नहीं है। न विरोधी दल के लोग और न क्रांगेसजन। एक पत्र को विरोधी दल की सभा में मुख्यमंत्री का पत्र कहा गया। और उसी पत्र के पत्रकार को मुख्यमंत्री के लेफ्टिनेंट ने धमकियां दीं। मुख्यमंत्री को शिकायत है कि पत्रकार उनके मुंह में अपनी बात पहना देते हैं। अ-राजनीतिक लोगों का कहना है कि चुनाव के समय पत्रकारों की पांचों ऊंगलियां घी में रहती हैं...। रेणु को इस रूप में पढ़ते हुए, जहां सबकुछ बेबाक लगता है, मुझे गुलजार भी याद आने लगते हैं। रेणु के ठेठ शब्दों में खोकर गुलजार से मिलना, एक अलग ही अनुभव है। गुलजार जब यह कहते हैं- कुछ रिश्ते नाम के होते हैं/ रिश्ता वह अगर मर जाये भी/ बस नाम से जीना होता है/बस नाम से जीना होता है/रिश्ते बस रिश्ते होते हैं……… इसके तुरंत बाद दूसरा शबद योगी, सामने आ जाता है..मैं मन ही मन बुदबुदाता हूं- "सा-हे-ब ! बं-द-गी ! गिरीन्द्र अनुभव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100411/b83da100/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Sun Apr 11 20:14:19 2010 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sun, 11 Apr 2010 20:14:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KSj4KWA4KS2?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KSw4KSo4KS+4KSlIOCksOClh+Cko+ClgQ==?= Message-ID: पुण्यतिथि के बहाने फणीश्वरनाथ रेणु को याद करते हुए : विश्वनाथ त्रिपाठी: http://shashikanthindi.blogspot.com/ *ग्यारह अप्रैल *को फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि है। 1977 में इमरजेंसी खत्म होने के डेढ़-दो महीने बाद ही उनकी मौत हो गई थी। रेणु को हम क्यों याद करते हैं? अभी तक का जो हिंदी साहित्य है उसमें सबसे उत्कृष्ट किसानी जीवन का साहित्य है। फणीश्वरनाथ रेणु के साथ एक शब्द आया- आंचलिकता। यद्यपि यह शब्द पंत जी का है। रेणु के साहित्य को आंचलिक साहित्य कहा गया। उसके बाद हिंदी साहित्य में आंचलिकता की पृवृत्ति पहचानी गई। रेणु का साहित्य वस्तुत: व्यतीतमानता (यानी जो हमेशा के लिए बीत रहा है, गुजर रहा है) का साहित्य है। इसका एक ऐतिहासिक कारण है। आज़ाद हिंदुस्तान में चुनाव हुए, पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, सड़कों का निर्माण हुआ और इन सबके साथ विस्थापन का बड़ा दौर शुरू हुआ। गांव के लड़के शिक्षा और नौकरी के लिए बड़ी तादाद में शहरों-महानगरों में आए। वहां उनको नौकरी मिली। शादी करके वे वहीं बीवी-बच्चों के साथ रहने लगे। यानी इनके लिए परिवार का मतलब था पत्नी और बच्चे। यह मध्यवर्ग कहलाया। यह मध्य वर्ग पैदा तो हुआ गांव में, वहीं पला-पुसा लेकिन लेकिन रहने लगा शहर में। जो देहाती शहरी बन गया उसकी निगाह से गांव को देखता है उसको ग्रामकथा, आंचलिक कहानी या आंचलिक उपन्यास कहा गया। इनके यहां खास तरह के पात्र आपको मिलेंगे। मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंहं, नागार्जुन, रामदरश मिश्र आदि के साहित्य में ऐसे कई पात्र आपको मिलेंगे। यह पृवृत्ति कविता में भी आई थी। शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह आदि उन दिनों ग्रामीण बिंबों, प्रतीकों का खूब इस्तेमाल कर रहे थे। इसी बीच में फणीश्वरनाथ रेणु आए। रेणु के आने के बाद ग्रामकथा एक नया रूप अख्तियार किया। रेणु के पहले ग्रामकथाओं की भाषा किताबी थी। उनमें कुछ आंचलिक शब्द जरूर डाल दिया जाता था। रेणु के साहित्य में एक अजीब बात सामने आई। उनकी भाषा में आंचलिक बोली की लय है और वह वाचिक अनुभाव के साथ है। बोलियों का जो वाचिक नाट्य है वो आश्चर्यजनक ढंग से रेणु की भाषा में है। इस वाचिक लय में देखा हुआ जीवन है, वह जीवन जो यथार्थ में है। रेणु ने पहली बार अपनी भाषा में इन सबका इस्तेमाल किया। इसके अलावा रेणु ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सबको अपनी रचनाओं जगह दी। ये सभी ग्रामीण जीवन की अंतरात्मा हैं। इन सबके बिना ग्रामीण जीवन की कथा नहीं कही जा सकती। प्रेमचंद का साहित्य ज्यादातर स्थितियों का साहित्य है लेकिन असलियत यह है कि समग्रता में रेणु के यहां जो ग्राम्य जीवन है, वह प्रेमचंद के यहां नहीं है। हिंदी आलोचना में इसे नोटिस नहीं लिया गया है। रेणु के यहां विपन्न लोगों के जीवन की सांस्कृतिक संपन्नता है। रेणु के ज्यादातर पात्र दलित, अवर्ण और पिछड़े तबकों से हैं। इस योगदान पर भी प्रगतिशील आलोचना ने ध्यान नहीं दिया। ग्रामीण यथार्थ की द्वंद्वात्मकता की जबरदस्त पकड़ है रेणु में। बिना विचारधारा के यथार्थ को नहीं देखा जा सकता लेकिन इतिहास के प्रवाह, राजनीति, संस्कृति - ये सब यथार्थ के ही अंग हैं पर यदि आपकी नज़र इन सब पर है तो आप यथार्थ को पकड़ सकते हैं। रेणु ने इसे भलीभांति पकड़ा है। रेणु की निगाह बदलते ग्रामीण समाज पर थी। जब कोई नई चीज गांव में आती है तो स्थानीय संस्कृति कैसे उसे अपनाती है (अंगरेजी में इसे ‘कल्चरल एक्सेप्टिबलिटी’ कहते हैं) रेणु ने ‘पंचलाइट’ कहानी में इसे बखूबी से दर्शाया है। उनकी लेखनी का जादू यह है कि ग्रामीण जिंदगी की छोटी से छोटी स्थितियां वे इतनी बारीकी से बयां करते हैं कि वे मोहक बन जाती हैं। दरअसल, साहित्य सिर्फ घटनाओं का वर्णन नहीं करता बल्कि वे घटनाएं गांव के लोगों के मन पर जो इमेज छोड़ती हैं, उन्हें शब्दबद्ध करके बड़ा रचनाकार अपनी रचना में जादू पैदा करता है। रेणु के साहित्य में पाठक इस तरह के इमेज जगह-जगह देखते हैं। ये सब रेणु के पहले हिंदी साहित्य में नहीं था। ग्रामकथा अपने अंधविश्वासों में, मिथकों में, लय में, प्रकृति में, अपने नाद और स्वर में, भाषा में नाट्य लय के साथ उपस्थित करते हैं रेणु। रेणु को पढ़ना ग्रामीण जीवन को जीने की तरह है। ‘तीसरी कसम’ रेणु की अद्भुत कहानी है। लेकिन इसमें प्रेम का कहीं भी ज़िक्र नहीं होता। 40 साल का गाड़ीवान हीरामन और खूबसूरत नर्तकी हीराबाई। हीरामन नहीं जानता कि वह प्रेम कर रहा है। हीराबाई हीरामन को ‘मीता’ कहती है, इसलिए नहीं कि दोनों का नाम एक है बल्कि दोनों की मानसिकता भी एक है। दोनों के बीच प्रेम का संयोग बेमिसाल है। दोनों में आंतरिक समानता भी है। हीरामन के जीवन में प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं और हीराबाई ऐसे पेशे में है जहां हर दिन उसे प्रेम का ढोंग करना पड़ता है। दोनों का हृदय प्रेम के अनुभव के लिहाज से रेगिस्तान की तरह है। इस रेगिस्तान में जब प्रेम का सोता फूटता है तो दोनों एक-दूसरे से गहरी अंतरंगता से जुड़ते हैं। हीरामन बार-बार स्वप्न-लोक में जाता है। उसके मन में जो संचित स्वप्न रहा होगा उसे वह जागती आंखों से देखता है। इस स्वप्न का क्लाइमेक्स है- ‘लाली लाली डोलिया पे लाली रे दुल्हनियां’ गाना, कहानी और फिल्म दोनों में। स्वप्न और स्वप्न-भंग की कहानी है ‘तीसरी कसम’। इस पर बहुत अच्छी फिल्म बनी है और म्युजिक तो कमाल का है। आज हम इसलिए रेणु को याद करते हैं क्योंकि उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। हाशिए के हिंदी समाज की अस्मिता और उसके स्वत्व को एक मजबूत भित्ति और सुरक्षा प्रदान करता है रेणु का साहित्य। (10 अप्रैल 2010 * दैनिक भास्कर*, दिल्ली में प्रकाशित. *शशिकांत* के साथ बातचीत पर आधारित) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100411/044cc11c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Apr 12 22:19:00 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 12 Apr 2010 22:19:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWAIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSa4KSy4KS+4KSk4KS+IOCkueCliCDgpLjgpL7gpKjgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkvizgpIXgpKwg4KSF4KSa4KS+4KSwIOCkleClgCDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWB4KSIIOCkpuClgOCkteCkvuCkqOClgA==?= Message-ID: ..जो सानिया तीन महीने पहले तक शोएब की दीवानी थी,अब वो अचार की दीवानी हो गयी है। देशभर के लोग उन्हें अचार का डब्बा भेज रहे हैं। इस मामले में 25 साल का छुट्टन भावुक हो जाता है और कहता-आज मेरी अम्मा जिंदा होती तो मैं भी सानिया के लिए कटहल का अचार बनवाकर भिजवाता। मेरी मां कटहल का अचार जितना बेहतर बनाती है,सवाल ही नहीं है कि सानिया को पसंद न आए।..उसी क्रम में देशभर में अचार की बेहतर कंपनियों,दुकानों,किस्मों और तरीकों की शिनाख्त होगी। राजस्थान या मेरठ का कोई बंदा तभी अकड़कर इंडिया टीवी पर बाइट दे रहा होगा कि उसी के यहां से अचार गयी है जिसे कि सानिया ने चटकारे लेकर मीडिया के सामने टेस्ट किया।..कहानियों का अंत नहीं है,एक के बाद एक कहानी बनेगी।..लेकिन न्यूज चैनल के लिए सानिया मिर्जा हमेशा खबर रहेगी। फेसबुक पर गिरीन्द्र ने मीडिया के लोगों खासकर न्यूज चैनलों से गुहार लगायी है कि अब वो सानिया मिर्जा को बख्श दें। अब निकाह तो हो गया,खुदा के वास्ते अब इनकी बातें करना छोड़ दें। गिरीन्द्र चैनलों को एक बार फिर उन मुद्दों की तरफ लौटने की अपील करते हैं जिसमें कि लोगों के कन्सर्न हैं। मुझे नहीं पता कि फेसबुक पर लिखी गिरीन्द्र की अपील न्यूज चैनलों से जुड़े कितने लोगों तक पहुंचेगी और अगर पहुंचेगी भी तो उसका असर उन पर होगा भी या नहीं? और अगर होगा भी तो वो इस स्थिति में होगें भी कि नहीं कि इसे मान लें। क्या न्यूज चैनल के लोगों का कलेजा इतना बड़ा है कि वो टीआरपी का लोभ छोड़कर एक आम ऑडिएंस की बात मान लें? मुझे तो रत्तीभर भी ऐसा नहीं लगता। बहरहाल मैं गिरीन्द्र को इस तरह की गुहार लगाते रहने की सलाह देने के वाबजूद घोषणा करता हूं कि सानिया मिर्जा की कहानी इतनी जल्दी टेलीविजन के पर्दे से नहीं उतरने वाली। मैंने कमेंट भी किया- अभी कहां गिरि,अभी तो मेंहदी और 15 तारीख की रिसेप्शन बाकी है। कुछ दिन तक मामला ठंडा पड़ भी जाए तो फिर ये खबर तो अभी से ही गदराने लगी है कि जी मचलता है सानिया का, अचार की आशिक हुई सानिया। कमेंट लिखने के बाद मैं तभी सोचने लगा कि आज से चार महीने बाद न्यूज चैनल सानिया मिर्जा को लेकर कौन सी स्टोरी बनाएंगे? न्यूज चैनलों के लिए सानिया मिर्जा के संबंध और सगाई को लेकर दुनियाभर की अटकलों और फजीहतों का एक राउंड हो चुका है। शोएब के साथ शादी के बाद अब तक की जो स्थिति बनी है उस आधार पर इन चैनलों के भीतर इतनी समझदारी आ चुकी है कि वो ये मानने को तैयार हो जाएं कि दोनों के बीच के संबंध स्टेबल होंगे। अब किसी तरह का लोचा नहीं होगा और ये सो कॉल्ड एक आइडियल फैमिली का रुप लेगा। ऐसे में चैनल अब इस संबंध को और मजबूती देने में अपनी तरफ से दम-खम लगाएंगे। दसवीं तक जिस किसी ने भी फिजीक्स की पढ़ाई की है उन्हें पता है कि उर्जा का कभी विनाश नहीं होता। टेलीविजन इसी फार्मूले पर काम करता है और इस क्रम में उसके लिए कुछ इमेज ऐसे हैं जो कि कभी नहीं मरेगें,कभी भी साइडलाइन में नहीं जाएंगे। वो इसी फीजिक्स के फार्मूले पर काम करते हैं। उनका स्टेटस भले ही बदल जाए लेकिन उनकी टीआरपी वैल्यू बनी रहेगी। वो टेलीविजन के कमाउ चरित्र है। कभी वो बाल बढ़ाकर चर्चा में रहेंगे तो कभी बाल झड़ने पर इलाज कराकर रहेंगे। कभी स्कर्ट पहनकर मेन न्यूज को खा जाएगी तो कभी लंहगे और लाल जोड़े में देशभर की खबरों को ढंक लेगी। सानिया मिर्जा की कैटगरी ऐसी ही है। ऐसे चरित्र अपने काम से आगे जाकर भी चर्चा में बने रहने की वजहों के साथ जुड़ जाते हैं। यकीन न हो तो मोटे तौर पर आप अंदाजा लगा ले कि सानिया मिर्जा जितना अपने खेल को लेकर चर्चा में नहीं रही उससे कहीं ज्यादा स्टेटमेंट,ड्रेसिंग सेंस,नथनी और अब तो माशाअल्लाह। ऐसे चरित्र जब एक बार चैनल को इस बात का एहसास करा जाते हैं कि उसकी हर बात बिकेगी,उसकी हर हरकत को देखा जाएगा। ऐसे में टेलीविजन का रवैया कैसा होगा,थोड़ा इसे प्रिडिक्ट कर लेना जरुरी होगा। सानिया और शोएब के बीच के संबंधों को स्टेबल करने के लिए चैनल लफंदरगीरी छोड़कर थोड़ा सुधर जाएंगे। वो अब 'हमारे चैनल में इस तरह का चूतियापा नहीं होता है'के अंदाज में काम करेंगे। वो साफ कर देंगे कि सानिया शोएब के साथ उसी तरह खुश है जैसे एक सम्पन्न भारतीय परिवार में ब्याहने पर कोई लड़की खुश रहती है। शोएब सानिया की गोद में दुनियाभर की शुशियां लाकर उझल दे रहा है। जी हां,सही सुना आपने,दुनियाभर की खुशियां जिसमें उसकी मां बनने की भी चाहत शामिल है। सानिया जल्द ही खुशखबरी देगी। जल्द ही उसके आंगन में किलकारियां गूंजा करेगी। आदर्श पत्नी के तौर पर तो सानिया ने सोएब के साथ छ महीने गुजार दिए। अब वो हमारे सामने एक आदर्श मां के रुप में पेश आए इसके लिए सानिया को ढेर सारी शुभकामनाएं। जिस चैनल की जैसी औकात होगी,वैसी वो बाइट जुटाकर ला सकेंगे। कुछ पहुंचे निकले तो उस लेडी डॉक्टर तक जा सकते हैं जो सानिया को कन्सल्टेंसी दे रही होगी। सानिया होनेवाले बच्चे का क्या नाम रखेगी,उसकी शक्ल शोएब पर जाएगी या फिर एक सानिया जो पाकिस्तान की पैदाइश है इस पर स्पेशल स्टोरी बनेगी। ये क्रम चलता रहेगा। भावनाओं में जीनेवाली इंडियन ऑडिएंस इसे आंखे चीर-चीरकर तब भी देखेगी। जिस गजोधर,छुट्टन, पिंटुआ,बबलुआ,माधो ने सानिया के बियाह के दिन मातम में अनाज का एक दाना मुंह में नहीं लिया वो भी मन ही मन सानिया के बच्चे के लिए नाम सोचकर रखेगा। चैनल थोड़ा दिमाग लगाए तो एक शो करा सकता है- सानिया के बच्चे का कीजिए नामाकरण और सानिया की फैमिली के साथ सिंगापुर में बिताइए पूरे एक सप्ताह टाइप का इनाम घोषित कर सकता है। इधर विज्ञापन की दुनिया भी सानिया की इस स्टेबल गृहस्थी से अपने को जोड़कर देखना शुरु कर देगी। पहले जो सानिया एडीडॉस बेचा करती थी,अब वो काजोल की ही तरह होम एप्लीएंन्सेज बेचा करेगी। सानिया फ्रीज से आम शर्बत निकालेगी तो शोएब उसी कंपनी के प्रेस बॉक्स से कपड़े प्रेस कर रहा होगा,पीछे से उसका बच्चा दाग लगे कपड़े को उसी कंपनी की वॉशिंग मशीन से झक-झक धोकर ले आएगा। इस तरह से विज्ञापनप्राप्त एक आदर्श न्यूक्लियर फैमिली बनेगी। वो भी काजोल की तरह टम्मी-मम्मी बोलकर सूप,सॉस,हेल्थ ड्रिंक बेचा करेगी जिसमें मां का प्यार बार-बार छलकरकर हम जिद्दी दर्शकों के बीच छलककर आएगा। कल तक जिस सानिया में अपनी गर्लफ्रैंड की छवि खोज रहे थे,अब पत्नी की खोजनी शुरु कर देंगे। मां की आंखों से आदर्श बहू के तौर पर तुलसी रिप्लेस हो जाएगी। अब सानिया जिस बच्चे को पोलियो ड्रॉप पिला रही होगी वो उसके अपने बच्चे होगे। लाइन इस तरह की होगी- मैं अपने बच्चे को सुरक्षित करती हूं,क्या आप नहीं? सानिया परिवार नियोजन करा रही होगी। विज्ञापन की लाइन होगी- जब मैं एक लड़की हूं तो एक से अधिक लड़की क्यों? शोएब को सरोगेट काम मिला करेगा। ये सबकुछ होगा। सानिया के बच्चे पाकिस्तान के स्कूल में पढेंगे और हिन्दुस्तान के मैंदान में फुटबॉल खेलेंगे,अमन की आशा का विज्ञापन करेंगे। सानिया के बाल पकने शुरु होंगे- वो लॉरिएल के कलर बेचा करेगी। सानिया थोड़ी कमजोर भी दिखेगी लेकिन इन्श्योरेंस पॉलिसी के विज्ञापन करेगी। लेकिन सानिया,सानिया न्यूज चैनल और टेलीविजन के लिए हमेशा खबर रहेगी,हमेशा एटेन्शन एलीमेंट रहेगी। नोट- सानिया की शादी पर एक टेलीविजन शुभचिंतक की ओर से इसे बेहतर कामना और क्या हो सकती है? एक प्रति प्रिंटआउट रख लें तो हमारे चैनल के साथी स्क्रिप्ट लिखने से भी बच जाएंगे,कॉपीराइट तो है नहीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100412/9420b6f9/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Apr 14 12:14:41 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 14 Apr 2010 12:14:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkleCliyDgpK7gpILgpKbgpL/gpLAg4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkruClguCkpOCljeCksOCkvuCksuCkryDgpJXgpYAg4KSc4KSw4KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KSkIOCkueCliA==?= Message-ID: देखो गदहे की औलाद पेशाब कर रहा है – गदहे के पूत यहां मत मूत – जो भी यहां पेशाब करते पाये गये, सौ रुपये जुर्माना जैसे निर्देश एक जमाने में यहां पेशाब करना सख्त मना है का ही विस्तार है। जैसे-जैसे कहीं भी कभी भी की तर्ज पर पेशाब करनेवालों की जमात ढीठ होती चली गयी वैसे-वैसे इन निर्देशों में सख्ती आती चली गयी। शुरुआती दौर में जो निर्देश अपील का असर पैदा करती थी, एक किस्म का अनुरोध किया जाता था, धीरे-धीरे उसमें आदेश, हिदायत, जुर्माना और अपमानित करने के भाव समाते चले गये। लेकिन इन सबसे भी पेशाब करने का सिलसिला नहीं थमा और इन निर्देशों के आगे बर्बर तरीके के पेशाब अड्डे बनते चले गये। एक बार जिस बाउंडरी वॉल, खाली जगहों, गलियों के आगे कुछ लोगों ने धार बहायी कि समझदार हिंदुस्तानी समाज जो कि महाजनो येन गतः सः पंथः की धारणा पर भरोसा करता है, उसे ताल का रूप देने में लग गये। फिर लाख निर्देश लिखे जाएं, जुर्माने की बात की जाए, कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली में इसी तरह निर्देशों के बेअसर हो जाने की वजह है कि हमें देखो मादरचोद पेशाब कर रहा है – देखो बहन का लंड पेशाब कर रहा है जैसे अश्लीलता की हद तक जानेवाले वाक्य दिखाई देते हैं। ऐसे वाक्य पेशाब करने और न करनेवाले को सामान्य रूप से अपमानित करते हैं। देशभर की वो तमाम स्त्रियां जो अपने घर में भी निपटान के लिए जाती हैं तो आगे-पीछे देख लेती हैं कि घर का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग ट्वायलेट के आसपास मंडरा तो नहीं रहा। लेकिन दिल्ली तो आखिर दिल्ली है। यहां ये दोनों संबोधन बहुत खास मायने नहीं रखते। यहां ये कोई गाली नहीं बल्कि झल्लाहट में निकले शब्द भर हैं। ऐसे में सीमापार जाकर अपमानित करनेवाले इन शब्दों की चिंता किये बगैर लोगों का पेशाब करना जारी रहता है। इन दोनों वाक्यों की लिखी तस्वीर रवीश कुमार ने अपने मोबाइल से खींची थी, जिसे कभी अविनाश ने मॉडरेटर कमेंट के साथ मोहल्ला लाइव पर लगाया। मैं दिल्ली के जिस ढीठपने और इन शब्दों को महज झल्लाहट में निकला शब्द कह रहा हूं, उसे रंगनाथ सिंह ने खांटी दिल्ली का उत्पाद बताया और साथ में ये भी जोड़ा कि बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों में मैंने देखा है कि कई लोग ऐसी जगहों पर देवी-देवतओं की तस्वीर लगा देते हैं। तस्वीर लगाने का ये काम दिल्ली में भी खूब होता है। मैंने देखा है कि जहां सारे निर्देश बेअसर हो जाते हैं, वहां गणेश मार्का, हनुमान या शिव छाप कोई फोटो या टूटी हुई तस्वीर लगा दो तो फिर लोग वहां अपने आप पेशाब करना बंद कर देते हैं। ये देवी-देवता एक अदनी सी मूर्ति में अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए भी असर पैदा करते हैं। घरों, दुकानों के लिए बेकार हो गयी ये मूर्तियां और तस्वीरें हजारों रुपये की लागत से बनी एमसीडी के साईनबोर्डों की ड्यूटी बजाते हैं। पेशाब करने और लोगों को थूकने से मना करने के लिए तस्वीर वाला ये काम रामबाण जैसा असर करता है। इसी क्रम में कई जगहों पर लोगों का पेशाब करना बंद भी हुआ है। इसलिए अब तक जिन लोगों को इस बात की दुविधा रही है कि देवी-देवताओं ने इस देश को क्या दिया है, उन्हें यहां पेशाब न करो अभियान के असर को समझना चाहिए। सफाई अभियान में इन देवी-देवताओं के आगे सारे प्रयास बेकार हैं। लेकिन पेशाब अड्डों की शर्तों पर लगी इन मूर्तियों और तस्वीरों के आगे की कार्यवाही को समझना कम दिलचस्प नहीं है। जहां-तहां धार बहाते हुए, रेड एफएम के लोगों को लाइन पर लाइन लाने और कन्टोल कल लोगे जैसे फीलर जनहित में जारी विज्ञापनों से बेपरवाह हम भूल जाते हैं कि हम पेशाब करते हुए इस शहर में, इस देश में मंदिर बनने की भूमिका तय कर रहे हैं। इस देश में पेशाब करने का मतलब है कि आप मंदिर बनाने की नींव तैयार कर रहे हैं। यहां ऐसे शुभचिंतकों, सफाई के महत्व को समझनेवाले और अव्वल दर्जे के धार्मिक लोगों की कमी नहीं है। दर्जन भर लोगों ने भी जहां कहीं लगातार धार बहानी शुरू की और उन्हें वहां स्थायी तौर पर पेशाब किये जाने के चिन्ह मिल गये कि समझिए वहां मंदिर बनाने और शिलान्यास का काम जरूरी हो गया। इस देश में जितने भी मंदिर हैं, उनके पीछे कोई न कोई मिथ, पौराणिक कथा या फिर दावे के साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। कहीं बैठकर राम सुस्ताने लगे थे, तो कहीं रावण लगातार शू शू करता जा रहा था सो देवघर बन गया। कहीं पार्वती जली थी… वगैरह, वगैरह। वो तमाम कहानियां मंदिरों के बनने के तर्क को मजबूत करते हैं जो उल्टे आप ही से सवाल करे कि अब वहां मंदिर नहीं बनाते तो क्या करते? मैंने तो यहां तक देखा है कि मेनरोड पर कोई बंदर करंट लगकर मर गया तो लोगों ने उसे साक्षात हनुमान का अवतार मानकर आनन-फानन में मंदिर बना दिया। नतीजा अब वो रोड दिनभर जाम रहता है। बहरहाल आप देशभर के मंदिरों के केयरटेकर पंडों से उसके बनने का इतिहास पूछें तो हरेक के पास कोई न कोई अलग किस्म की कथा होगी। लेकिन अपनी आंखों के सामने जो दर्जनों मंदिर मैंने बनते देखे हैं, अगर उन मंदिरों के पंडों ने ईमानदारी से जबाव देने शुरू किये तो सबों का जवाब लगभग एक होगा कि यहां पर आज से चार / पांच / छह / सात / आठ साल पहले लोग बहुत पेशाब करते थे। रास्ते से गुजरती हुई माताओं-बहनों को बहुत परेशानी होती थी। दिनभर भभका उठता था इसलिए स्थानीय भक्तजनों ने तय किया कि यहां मंदिर बना दिया जाए। देशभर में क्या, अकेले दिल्ली में ऐसे दर्जनों मंदिर हैं जहां कभी किसी देवी-देवता ने अवतार नहीं लिया (वैसे अवतार लेते कब हैं) और सिर्फ पेशाब करने से रोकने के लिए उन जगहों पर मंदिर बने हैं। अब असल सवाल है कि ये मंदिर किस हद तक जनहित का काम करते हैं। इंदिरा विहार, विजयनगर, आर्ट फैकल्टी, पटेल चेस्ट से लेकर दिल्ली के उन तमाम इलाकों में इस अभियान के तहत जितने भी मंदिर बने हैं, वो पहले के बर्बर पेशाब अड्डों से कहीं ज्यादा गंदगी फैला रहे हैं। पेशाबघर तो छोड़िए, दड़बेनुमा इन मंदिरों में पंडों के लिए पखाने से लेकर किचन तक की जो स्थायी/अस्थायी सुविधा जुटायी गयी है, उससे किस हद तक की गंदगी निकलती है – उसे आप खुद मेन रोड पर बहती गंदगियों को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं। अवैध पेशाब के अड्डे सिर्फ बदबू पैदा करते हैं लेकिन ये मंदिर कभी माता जागरण तो कभी रामलला के नाम पर नियमित शोर। पेशाब अड्डों की बदबू फिर भी बर्दाश्त कर लें लेकिन जीना हराम कर देनेवाले हो-हल्लों का क्या किया जाए। ये पूरे महौल का सत्यानाश कर रहे हैं, उसे कैसे रोका जाए? लोगों के आने-जाने और इस्तेमाल की जानेवाली चीजों से जो गंदगी बढ़ती है वो तो अलग है। पॉश इलाके के लोगों ने तो अपनी हैसियत से, स्पॉन्सर कराकर फाइव स्टार टाइप के मंदिर जरूर बना लिये, ये मंदिर भी टनों में कचरा पैदा करने के अड्डे बने लेकिन ये खोमचेनुमा सैकड़ों मंदिर जिस गंदगी को बढ़ा रहे हैं, उस पर कहीं कोई बात नहीं होती। ऐसे में आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अवैध तरीके से बनाये गये मंदिरों के मुकाबले इस देश को कहीं ज्यादा मूत्राशय और पखाने की जरूरत है। मनीषा पांडे के शब्दों में कहूं, तो वैसे तो ये पूरा देश ही ट्वायलेट है लेकिन अफसोस कि यहां ट्वायलेट नहीं है, इसे लेकर बहुत दिक्कत है। मन का मैल तो इन खोंमचेनुमा मंदिरों में पाखंड के रास्ते निकलकर डंप हो जाता है – लेकिन शरीर से जो मल निकल रहा है, उसका क्या? अगर इस देश में मूत्राशय से होड़ करके ही मंदिर बनना है तो सुलभ इंटरनेशनलवालो – प्लीज आप ही कुछ पहल कीजिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100414/a37f1bc0/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 22 17:17:38 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 22 Apr 2010 17:17:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSi4KS8?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpOClgOCkqCDgpLjgpL7gpLIg4KSu4KWH4KSCIOCkoeCliQ==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSf4KSwIOCkrOCkqOCkvuCkqOClhyDgpJXgpYAg4KSV4KWI?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkpOCksOCkleClgOCkrA==?= Message-ID: *डीडीएस* कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं। पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था। अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है। बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन। स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा। यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100422/70aac768/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 22 17:17:38 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 22 Apr 2010 17:17:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSi4KS8?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpOClgOCkqCDgpLjgpL7gpLIg4KSu4KWH4KSCIOCkoeCliQ==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSf4KSwIOCkrOCkqOCkvuCkqOClhyDgpJXgpYAg4KSV4KWI?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkpOCksOCkleClgOCkrA==?= Message-ID: *डीडीएस* कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं। पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था। अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है। बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन। स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा। यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100422/70aac768/attachment-0003.html From ramjas11 at yahoo.co.in Mon Apr 26 21:35:17 2010 From: ramjas11 at yahoo.co.in (shambhu nath mahto) Date: Mon, 26 Apr 2010 21:35:17 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?well_written_piece?= =?utf-8?b?ICEgUmU6IOCkuOCkvuCkouCkvOClhyDgpKTgpYDgpKgg4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkoeClieCkleCljeCkn+CksCDgpKzgpKjgpL7gpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkleCliOCkuOClgCDgpKTgpLDgpJXgpYDgpKw=?= In-Reply-To: Message-ID: <248401.71468.qm@web95504.mail.in.yahoo.com> hi aashish ! well written piece !  i thought that already there are many  "jhola chhaap' docters in villages who are earning well . and now this attempt seems like they are preparing these "short -term course" docters to give them a field for "practice " on the innocent villagers ! just a another attampt to take villagers as a mare  silent 'Animal" !!  why don't they place these "new practiceners"  in Cities and shift some good experienced old docters to the villages? -shambhu --- On Thu, 22/4/10, आशीष कुमार 'अंशु' wrote: From: आशीष कुमार 'अंशु' Subject: [दीवान]साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कैसी तरकीब To: deewan at sarai.net, deewan at mail.sarai.net Date: Thursday, 22 April, 2010, 5:17 PM डीडीएस कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं। पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था। अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है। बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन। स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा। यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/   -----Inline Attachment Follows----- _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100426/30dc866d/attachment-0001.html From ramjas11 at yahoo.co.in Mon Apr 26 21:35:17 2010 From: ramjas11 at yahoo.co.in (shambhu nath mahto) Date: Mon, 26 Apr 2010 21:35:17 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?well_written_piece?= =?utf-8?b?ICEgUmU6IOCkuOCkvuCkouCkvOClhyDgpKTgpYDgpKgg4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkoeClieCkleCljeCkn+CksCDgpKzgpKjgpL7gpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkleCliOCkuOClgCDgpKTgpLDgpJXgpYDgpKw=?= In-Reply-To: Message-ID: <248401.71468.qm@web95504.mail.in.yahoo.com> hi aashish ! well written piece !  i thought that already there are many  "jhola chhaap' docters in villages who are earning well . and now this attempt seems like they are preparing these "short -term course" docters to give them a field for "practice " on the innocent villagers ! just a another attampt to take villagers as a mare  silent 'Animal" !!  why don't they place these "new practiceners"  in Cities and shift some good experienced old docters to the villages? -shambhu --- On Thu, 22/4/10, आशीष कुमार 'अंशु' wrote: From: आशीष कुमार 'अंशु' Subject: [दीवान]साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कैसी तरकीब To: deewan at sarai.net, deewan at mail.sarai.net Date: Thursday, 22 April, 2010, 5:17 PM डीडीएस कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं। पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था। अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है। बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन। स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा। यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/   -----Inline Attachment Follows----- _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100426/30dc866d/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Wed Apr 28 11:26:33 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 28 Apr 2010 11:26:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSX4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkueClgeCkhiDgpLjgpY3gpJ/gpL7gpLAg4KSo4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWC4KScLCDgpLXgpLngpLbgpYAg4KSs4KWJ4KS4IOCkueClgeCkjyA=?= =?utf-8?b?4KSs4KWH4KSo4KSV4KS+4KSs?= Message-ID: "मैं तुम्हारा बॉस हूँ. यदि तुमने ड्रिंक नहीं लिया तो तुम अपनी नौकरी गवां सकती हो."- अविनाश पांडे,नेशनल सेल्स हेडः स्टार न्यूज। "तुम इतना सड़ा मुंह लेके क्यूँ घूमती हो ऑफिस में, Its not at all a pleasure to look at your face."- गौतम शर्मा, रीजनल हेड नार्थ इंडियाः स्टार न्यूज। स्टार न्यूज,दिल्ली के दफ्तर में लंबे अनुभव के साथ काम करनेवाली एक महिलाकर्मी के लिए प्रयोग किए जानेवाले ये दो ऐसे वाक्य हैं जिसने न सिर्फ स्टार न्यूज के बल्कि पूरी मीडिया इन्डस्ट्री के दामन को दागदार कर दिया है। स्टार न्यूज की उंची कुर्सी पर बैठे अविनाश पांडे और गौतम शर्मा नाम के शख्स ने साल 2006 में स्टार न्यूज़ में बतौर मैनेजर एड सेल्स ज्वाइन करनेवाली सायमा सहर को लगातार मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया,उसकी बेईज्जती की और ऐसे काम करने के लिए दबाव बनाए जिसकी वो न तो कभी अभ्यस्त रही है और न ही उसका कॉन्शस ऐसे कामों की इजाजत देता है। इन सारी बातों की शिकायत सायमा सहर ने पहले एचआर और उंचे अधिकारियों से की लेकिन चारो तरफ से मिली बेरुखी और हताशा के बाद उसे इस बात की शिकायत नेशनल कमीशन फॉर वूमेन में जाकर करनी पड़ी। कमीशन की तरफ से सायमा के पक्ष में फैसला आए और इन दोनों पर कारवायी हो इससे पहले ही उन्हें कई तरह की धमकियां मिलनी शुरु हो गयी। ये धमकियां अपने पद और रसूख का हवाला देकर गौतम शर्मा और अविनाश पांडे की तरफ से भी थी और कुछ बेनामियों की तरफ से भी। इस बीच वो मानसिक तौर पर परेशान रहने लगी,अपने को असुरक्षति महसूस करने लगी लेकिन अपने साथ हुए इस दुर्व्यवहार को लोगों के सामने लाने का मन भी बनाती रही। इसी क्रम में उन्होंने मीडियाखबर डॉट कॉम के मॉडरेटर पुष्कर पुष्प से सम्पर्क किया और अपनी आपबीती साझा की। पुष्कर पुष्प ने इस पूरी बातचीत को मीडियाखबर डॉट कॉम पर विस्तार से प्रकाशित किया है और इस संबंध में सारे कागजात होने की पुष्टि की है। हम चाहते हैं कि आप तफसील से पूरी रिपोर्ट वहीं पढ़ें। सायमा सहर की कहानी एक ऐसी सचेत स्त्री की कहानी है जिसके पास कॉर्पोरेट वर्ल्ड में काम करने का अच्छा-खासा अनुभव है। उसने अपने करियर की शुरुआत जिलेट इंडिया लिमिटेड से की और उसके बाद मार्क्स एंड स्पेंसर,स्कॉटलैंड के लिए भी काम किया। इस बीच उसने इस दुनिया के कई तरह के अनुभव हासिल किए,करीब तीन साल स्टार न्यूज में भी काम किया। इसलिए ये तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता कि वो काम के लिहाज से मिसफिट रही है या फिर उसे इस कल्चर में काम करने की समझ नहीं है। लेकिन फिर भी ये सबकुछ उनके साथ होता है। इन सबके वाबजूद अविनाश पांडे और गौतम शर्मा ने जो उन्हें लगातार परेशान करने की कोशिश की है जो कि पुरुष बॉस की आवारा नीयत को रेखांकित करता है। सायमा सहर ने अपनी पूरी बातचीत में ये स्पष्ट किया है कि किस तरह ये दोनों शख्स उस पर पब जाने के लिए,ड्रिंक करने के लिए,जबरदस्ती विश करने के लिए दबाव बनाते रहे और इस बात का एहसास कराते रहे कि बॉस की कही गयी बातें सही-गलत से परे हैं। ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जो लड़कियां/स्त्रियां वर्किंग कल्चर में नयी-नयी आती हैं,जिन्हें हर-हाल में काम चाहिए,उन्हें इस महौल में एडजस्ट करने औऱ काम की बदौलत अपने को साबित करने में कितना मुश्किलें होती होगी। कितनी ऐसी घटनाएं बनती होंगी जो कि हम तक नहीं आने पाती है और जिसे इनहाउस दफना दिया जाता है। खुद स्त्रियां भी जिसे पब्लिक डोमेन में लाना नहीं चाहती होगीं कि इससे उनके करियर पर सीधा असर पड़ सकता है। वीमेन कमीशन खुद कई बार सामाजिक दुर्गति होने की आशंका जाहिर करते हुए इनके मनोबल को कमजोर करता नजर आता है। ऐसी घटनाओं से गुजरते हुए एकबारगी तो भरोसा टूटने सा लगता है कि पढ़-लिखकर,आर्थिक तौर पर निर्भर होकर देश की स्त्रियां मानसिक रुप से अपने को पुरुषवादी जकड़बंदी से अपने को मुक्त कर पाएगी। शायद उसकी बेहतरी के कोई रास्ते अब नहीं बचे हैं। दूसरी तरफ ये एक ऐसे चैनल की कहानी है जो 'आपको रखे आगे'के दावे के साथ हमारे बीच पैर पसार रहा है। जाहिर है इस 'आप' में स्त्रियां भी शामिल है। अब गंभीर सवाल है कि जिस आगे रखने के काम में लोग लगे हैं,वहां काम करनेवाली स्त्रियां की धकेली जा रही हों,इतनी गुलाम है कि वो अपने साथ हुई ज्यादती की बात तक नहीं कर सकती, अगर करती है तो उसे धमकियां झेलनी पड़ती है,नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं। दुनियाभर के लोगों की कहानी सुनाने और बतानेवाले लोगों मेँ ठीठपना इस हद तक है कि वो इसें या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर पूरे मसले को दफनाने की कोशिश करते हैं,ऐसे में आप कैसे और किस तरह से आगे होने के दावे कर सकते हैं? आपको लगता है कि ये लाइनें बिजनेस और विज्ञापन की पंचलाइन से कुछ आगे जाकर असर करेगी? स्टार न्यूज देश के रिप्यूटेड चैनलों में से एक है जहां हम इस तरह की घटनाओं की उम्मीद नहीं कर सकते। लेकिन जो सच हमारे सामने आ रहा है उसे इसकी इमेज के आधार पर नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। ऐसे में मंझोले औऱ दोयम दर्जे के चैनलों पर गौर करना शुरु करें तो आपको सिर भन्ना जानेवाली घटनाएं और वारदात देखने को मिलेगी. किसी चैनल में रातोंरात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है,कोई चैनल साधन के अभाव का हवाला देकर रातोंरात बंद हो जाता है,किसी चैनल में महीनों वेतन न मिलने पर मजबूरी में काम करनेवाले लोगों को सड़कों पर उतर आना पड़ता है। खर्चे में कटौती के लिए स्थीयी मीडियाकर्मियों को हटाकर बड़े पैमाने पर इन्टर्न की भर्ती की जाती है,जिन्हे सोलह से अठारह घंटे काम करने होते हैं और कैब तक की सुविधा नहीं दी जाती। इन सारी कहानियों को सुनते हुए संभव हो आपको भरोसा न हो क्योंकि इनमें से कोई भी खबर किसी स्थापित और रिप्यूटेड अखबार या चैनल में नहीं आते। जो भी आते हैं उनका एकमात्र स्रोत ब्लॉग या मीडिया साइट्स है। लेकिन जब आप यकीन करना शुरु करेंगे तो आपका खून खौलने लगेगा। आपका मन करेगा कि ऐसे शख्सों को चौराहे पर उतारकर कुछ नागरिक स्तर की कारवायी करें,कोर्ट कचहरी जो बाद में करे से करे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100428/d576f661/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 29 12:17:17 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 29 Apr 2010 12:17:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSwIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWAIOCkleCliyDgpJrgpL7gpLngpL/gpI8g4KSF4KSq4KSo?= =?utf-8?b?4KWHLeCkheCkquCkqOClhyDgpKjgpL7gpK/gpJU=?= Message-ID: 28 Apr 2010,नवभारत टाइम्स *दिलीप मंडल * *दिल्ली की सबसे *ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम रखा गया है। यह इमारत दिल्ली नगर निगम की है, जिसमें इस समय भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है, न ही वामपंथी दलों या एसपी, बीएसपी, आरजेडी ने। सभी पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेक्युलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है। *नामांतरण विवाद * इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किए जाने पर ही होता है। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर समर्थक और विरोधी आंदोलन, हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। *कहां-कहां फिजूलखर्ची * नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद यूपी में बीएसपी के कार्यकाल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों का मुख्य तर्क यह है कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि बीएसपी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है वह यह सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क खोखले हैं और अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बीएसपी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है। कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बीएसपी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। यह बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और यह सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में उनके नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में थोड़ी-बहुत सेंधमारी बीजेपी ने भी की है। यह संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए यह सब करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं, जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है (दिल्ली में जिस मकान में रहते हुए उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं? इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकारी फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी व्याख्या जाति के अलावा और किस आधार पर हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का कोई असर नहीं है। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है। *सबका नायक कोई नहीं * ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के प्रयास में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? दलित-पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद ऐसा कोई नायक नहीं है, जो हर किसी का नायक हो। दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं तो यह देश के लिए शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100429/dd6d9390/attachment-0002.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Apr 29 12:17:17 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 29 Apr 2010 12:17:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSwIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWAIOCkleCliyDgpJrgpL7gpLngpL/gpI8g4KSF4KSq4KSo?= =?utf-8?b?4KWHLeCkheCkquCkqOClhyDgpKjgpL7gpK/gpJU=?= Message-ID: 28 Apr 2010,नवभारत टाइम्स *दिलीप मंडल * *दिल्ली की सबसे *ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम रखा गया है। यह इमारत दिल्ली नगर निगम की है, जिसमें इस समय भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है, न ही वामपंथी दलों या एसपी, बीएसपी, आरजेडी ने। सभी पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेक्युलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है। *नामांतरण विवाद * इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किए जाने पर ही होता है। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर समर्थक और विरोधी आंदोलन, हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। *कहां-कहां फिजूलखर्ची * नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद यूपी में बीएसपी के कार्यकाल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों का मुख्य तर्क यह है कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि बीएसपी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है वह यह सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क खोखले हैं और अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बीएसपी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है। कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बीएसपी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। यह बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और यह सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में उनके नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में थोड़ी-बहुत सेंधमारी बीजेपी ने भी की है। यह संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए यह सब करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं, जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है (दिल्ली में जिस मकान में रहते हुए उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं? इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकारी फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी व्याख्या जाति के अलावा और किस आधार पर हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का कोई असर नहीं है। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है। *सबका नायक कोई नहीं * ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के प्रयास में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? दलित-पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद ऐसा कोई नायक नहीं है, जो हर किसी का नायक हो। दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं तो यह देश के लिए शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100429/dd6d9390/attachment-0003.html From beingred at gmail.com Thu Apr 29 19:04:16 2010 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 29 Apr 2010 19:04:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWN4KSl4KS+4KSq4KS/4KSkIOCkleCkviDgpIXgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KS14KS+4KS4IOCkquCljeCksOCkuOCljeCkpOCkvuCktQ==?= Message-ID: एक विस्थापित का अविश्वास प्रस्ताव *देश का शासक वर्ग अपनी सीमाओं के भीतर एक और युद्ध लड़ रहा है. **कारपोरेट कंपनियों, **औपनिवेशिक स्वामियों और उनके दलाल देशी पूंजीवादी **घरानों के हित में लड़ी जा रही यह लड़ाई पिछले छह महीनों से अधिक समय से **लड़ी जा रही है. ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम से चल रहा यह युद्ध संघर्षरत जनता **पर सलवा जुडूम, **रणवीर सेना, **सेंद्रा और दूसरे दर्जनों हथियारबंद फासीवादी **हमलों की नाकामी के बाद उनकी निरंतरता में चलाया जा रहा है. इस औपनिवेशिक **लूट को देश के विकास के लिए जरूरी बताया जा रहा है, **लेकिन यह साफ झूठ है. **विकास के नाम पर की जा रही यह लूट कारपोरेट घरानों और पूंजी के साम्राज्य **के हित के लिए है और इसका देश की व्यापक जनता के हित और संपन्नता से कोई **लेना-देना नहीं है. **दिलीप मंडल** **बता रहे हैं कि विकास, **विस्थापन, **संसाधनों की लूट और इस युद्ध का निहितार्थ क्या है.* *मेरा* अविश्वास प्रस्ताव भारतीय लोकतंत्र के प्रति है। एक ऐसे लोकतंत्र के प्रति जहां लोगों की जमीन पर कब्जा करने और उसका सरकारी या निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने के लिए तो कानून है लेकिन पुनर्वास और पुनर्स्थापन के लिए आज तक कोई कानून नहीं बन पाया है। जमीन अधिग्रहण के लिए तो हमारे लोकतंत्र को कोई नया कानून बनाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। 1894 के जमीन अधिग्रहण कानून को ही मामूली फेरबदल के बाद जारी रखा गया और उसका इस्तेमाल करके लाखों परिवारों को उनकी जमीन से उखाड़ा जाता रहा। जमीन अधिग्रहण को लेकर 1894 के कानून को बदलने को लेकर सरकार की सुस्ती भी बताती है कि सरकार इस मामले में कितनी अगंभीर है। 10 सितंबर 2009 को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने लोकसभा में बताया कि 1894 के जमीन अधिग्रहण कानून में संसोधन का मसौदा तैयार करने में सरकार लगी है। इस सिलसिले में मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों, विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों, विशेषज्ञों और दूसरे संबंधित पक्षों से बात की है और उनके विचार जाने हैं। संसदीय समिति की 17 बैंठकें हो चुकी हैं और जो विचार विमर्श किया गया है उसके आधार पर समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है।(तारांकित प्रश्न संख्या 108 का 10 सितंबर, 2009 को लोकसभा में दिया गया जवाब) *पूरा पढ़िएः एक विस्थापित का अविश्वास प्रस्ताव * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100429/cb56d5dc/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Apr 30 15:07:13 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 30 Apr 2010 15:07:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSh4KWJIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS3LCDgpJzgpYsg4KS44KS/4KSw4KWN4KSrIOCkoeCliQ==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KSf4KSwIOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpYcsIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWHIOCkl+Ckr+Clhw==?= Message-ID: मोहल्ला डॉक्टर हर्ष से पहली मुलाकात कोसी की बाढ़ में हुई थी। वह अपने साथियों के साथ वहां आये थे। उसके बाद दिल्ली में कई बार मिले। इसी मेलजोल से पता चला वे हर महीने हजारीबाग (झारखंड) में नि:शुल्क कैंप लगाते हैं। अपनी तमाम व्यस्ताताओं के बीच महीने में एक-दो बार हजारीबाग जाना नहीं भूलते। अभी भगवत भजन वाली उम्र भी नहीं थी। 35 के आस-पास की उम्र रही होगी। क्या पता था, उनका साथ इतने कम दिनों का है? आज हर्ष हमारे बीच नहीं है। इसी महीने 14 तारीख की सुबह हर्ष की मौत बाली (इंडोनेशिया) में एक सड़क हादसे में हुई। वे कैंसर के ऊपर एक सेमिनार में भाग लेने बाली गये थे। हर्ष यूथ फॉर इक्वालिटी के संस्थापकों में रहे हैं। डॉक्टर हर्ष को बहुत अधिक जानता था, यह कहना ठीक नहीं होगा लेकिन इतना अवश्य जान पाया था कि वह देश में स्वास्थ सेवाओं की वर्तमान स्थिति से खुश नहीं थे। हर्ष के लिए डॉक्टरी खालिस पैसा बनाने का जरिया नहीं थी। युवा डॉक्टरों के बीच अपने लेक्चर में वह डॉक्टरी के सामाजिक सरोकारों की बात भी करते थे, जो धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। लेकिन हर्ष इस सरोकार को डॉक्टरों के ऊपर लादने के हक में कभी नहीं थे। सच भी है, सरोकार कभी लादे या ओढ़े नही जा सकते। याद कीजिए, जब पूर्व स्वास्थ मंत्री अंबुमणि रामदास एमबीबीएस डॉक्टरों को गांव भेज रहे थे। कितना हंगामा हुआ। अब नये स्वास्थ मंत्री आजाद साहब झोलाछाप डॉक्टरों की जमात खड़ी करने की तैयारी में हैं, साढ़े तीन साल में ग्रामीण एमबीबीएस की पढ़ाई कराके। डॉक्टर हर्ष से पिछले महीने जब चाणक्यपुरी के एक अस्पताल में मुलाकात हुई थी, तो वे इस फैसले से खिन्न नजर आये। मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि हर्ष के साथ वह मेरी अंतिम मुलाकात होगी। उस वक्त भी पता नहीं चल सका जब बाली जाने से कुछ दिनों पहले फोन पर उन्‍होंने वादा किया था कि वे कुछ ऐसे मरीजों मेरी मुलाकात करा देंगे, जो अपनी गंभीर बीमारी से लड़ते हुए दुनिया के लिए एक मिसाल बनने की काबलियत रखते हैं। चूंकि इस तरह के लोगों पर लिखना हमेशा मुझे पसंद है। उसी दिन उनसे हुई बातचीत से उस कैंसर मरीज के संबंध में भी पता चला, जिसका इलाज खर्चे के अभाव में असंभव था। कई लाख रुपये देने की स्थिति में वह नहीं था। अब यह बीमारी भी कौन सी औकात देख कर आती है। उस आदमी की खुशकिस्मती यही थी कि वह हर्ष के संपर्क में आ गया। हर्ष ने अपनी कोशिशों से और अपने दोस्तों की मदद से उसका इलाज मामूली खर्चे पर करा दिया। हर्ष की मृत्यु की खबर जैसे ही ग्रुप मेल पर आयी, एक के बाद एक दर्जनों मेल आने लगे। राजेश भाटिया, बिंदु पेरापप्दन, मिनित अरोड़ा, मनोज सिंह, अजीत कुमार, अभिषेक चावला, अनिरूद्ध शर्मा, संदीप देव कितनों के नाम लिखूं। सभी मेल का स्वर कमोबेश यही था कि ‘यह कैसे हुआ?’ इस बात पर विश्वास करना आसान नहीं था। जब हर्ष के दुर्घटना की खबर और मृत्यु की खबर और 16 तारीख को दिल्ली लाये जाने की खबर मेल पर आ रही थी, मैं उस वक्त भोपाल में था। इन मेल को देखने के बाद मुझे यही लगा कि यह कोई बेहूदा किस्म का मजाक है। अब जिस शख्स से आप 15-20 दिन पहले मिले हो। जो शख्स आपसे शहर छोड़ने के पहले फोन करके अनुपम सिब्बल (अपोलो वाले) के स्वास्थ सेवाओं संबंधी एक सरकारी कमिटी में शामिल किये जाने पर अफसोस जताता है। जिस बातचीत का लब्बोलुआब यही था कि अब अपोलो जैसे पांच-सात सितारा अस्पताल वाले लोग देश की स्वास्‍थ्‍य व्यवस्था को दुरुस्त करने की चिंता करेंगे तो देश की तंदुरुस्ती तो सिब्बल भरोसे होगी या भगवान भरोसे। अल्लाह जाने? अब डॉक्टर हर्ष के मोबाइल नंबर 09999097000 पर फोन मिलाने के बाद उनका जो कॉलर ट्यून ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूं इक ऐसे गगन के तले, जहां गम भी न हो आंसू भी न हो बस प्यार ही प्यार पले’ सुनने को मिलता था, अब नहीं मिला करेगा। अब डा हर्ष से चाहकर भी कभी मुलाकात नहीं होगी। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100430/8f935695/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Apr 30 15:07:13 2010 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 30 Apr 2010 15:07:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSh4KWJIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS3LCDgpJzgpYsg4KS44KS/4KSw4KWN4KSrIOCkoeCliQ==?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KSf4KSwIOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpYcsIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWHIOCkl+Ckr+Clhw==?= Message-ID: मोहल्ला डॉक्टर हर्ष से पहली मुलाकात कोसी की बाढ़ में हुई थी। वह अपने साथियों के साथ वहां आये थे। उसके बाद दिल्ली में कई बार मिले। इसी मेलजोल से पता चला वे हर महीने हजारीबाग (झारखंड) में नि:शुल्क कैंप लगाते हैं। अपनी तमाम व्यस्ताताओं के बीच महीने में एक-दो बार हजारीबाग जाना नहीं भूलते। अभी भगवत भजन वाली उम्र भी नहीं थी। 35 के आस-पास की उम्र रही होगी। क्या पता था, उनका साथ इतने कम दिनों का है? आज हर्ष हमारे बीच नहीं है। इसी महीने 14 तारीख की सुबह हर्ष की मौत बाली (इंडोनेशिया) में एक सड़क हादसे में हुई। वे कैंसर के ऊपर एक सेमिनार में भाग लेने बाली गये थे। हर्ष यूथ फॉर इक्वालिटी के संस्थापकों में रहे हैं। डॉक्टर हर्ष को बहुत अधिक जानता था, यह कहना ठीक नहीं होगा लेकिन इतना अवश्य जान पाया था कि वह देश में स्वास्थ सेवाओं की वर्तमान स्थिति से खुश नहीं थे। हर्ष के लिए डॉक्टरी खालिस पैसा बनाने का जरिया नहीं थी। युवा डॉक्टरों के बीच अपने लेक्चर में वह डॉक्टरी के सामाजिक सरोकारों की बात भी करते थे, जो धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। लेकिन हर्ष इस सरोकार को डॉक्टरों के ऊपर लादने के हक में कभी नहीं थे। सच भी है, सरोकार कभी लादे या ओढ़े नही जा सकते। याद कीजिए, जब पूर्व स्वास्थ मंत्री अंबुमणि रामदास एमबीबीएस डॉक्टरों को गांव भेज रहे थे। कितना हंगामा हुआ। अब नये स्वास्थ मंत्री आजाद साहब झोलाछाप डॉक्टरों की जमात खड़ी करने की तैयारी में हैं, साढ़े तीन साल में ग्रामीण एमबीबीएस की पढ़ाई कराके। डॉक्टर हर्ष से पिछले महीने जब चाणक्यपुरी के एक अस्पताल में मुलाकात हुई थी, तो वे इस फैसले से खिन्न नजर आये। मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि हर्ष के साथ वह मेरी अंतिम मुलाकात होगी। उस वक्त भी पता नहीं चल सका जब बाली जाने से कुछ दिनों पहले फोन पर उन्‍होंने वादा किया था कि वे कुछ ऐसे मरीजों मेरी मुलाकात करा देंगे, जो अपनी गंभीर बीमारी से लड़ते हुए दुनिया के लिए एक मिसाल बनने की काबलियत रखते हैं। चूंकि इस तरह के लोगों पर लिखना हमेशा मुझे पसंद है। उसी दिन उनसे हुई बातचीत से उस कैंसर मरीज के संबंध में भी पता चला, जिसका इलाज खर्चे के अभाव में असंभव था। कई लाख रुपये देने की स्थिति में वह नहीं था। अब यह बीमारी भी कौन सी औकात देख कर आती है। उस आदमी की खुशकिस्मती यही थी कि वह हर्ष के संपर्क में आ गया। हर्ष ने अपनी कोशिशों से और अपने दोस्तों की मदद से उसका इलाज मामूली खर्चे पर करा दिया। हर्ष की मृत्यु की खबर जैसे ही ग्रुप मेल पर आयी, एक के बाद एक दर्जनों मेल आने लगे। राजेश भाटिया, बिंदु पेरापप्दन, मिनित अरोड़ा, मनोज सिंह, अजीत कुमार, अभिषेक चावला, अनिरूद्ध शर्मा, संदीप देव कितनों के नाम लिखूं। सभी मेल का स्वर कमोबेश यही था कि ‘यह कैसे हुआ?’ इस बात पर विश्वास करना आसान नहीं था। जब हर्ष के दुर्घटना की खबर और मृत्यु की खबर और 16 तारीख को दिल्ली लाये जाने की खबर मेल पर आ रही थी, मैं उस वक्त भोपाल में था। इन मेल को देखने के बाद मुझे यही लगा कि यह कोई बेहूदा किस्म का मजाक है। अब जिस शख्स से आप 15-20 दिन पहले मिले हो। जो शख्स आपसे शहर छोड़ने के पहले फोन करके अनुपम सिब्बल (अपोलो वाले) के स्वास्थ सेवाओं संबंधी एक सरकारी कमिटी में शामिल किये जाने पर अफसोस जताता है। जिस बातचीत का लब्बोलुआब यही था कि अब अपोलो जैसे पांच-सात सितारा अस्पताल वाले लोग देश की स्वास्‍थ्‍य व्यवस्था को दुरुस्त करने की चिंता करेंगे तो देश की तंदुरुस्ती तो सिब्बल भरोसे होगी या भगवान भरोसे। अल्लाह जाने? अब डॉक्टर हर्ष के मोबाइल नंबर 09999097000 पर फोन मिलाने के बाद उनका जो कॉलर ट्यून ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूं इक ऐसे गगन के तले, जहां गम भी न हो आंसू भी न हो बस प्यार ही प्यार पले’ सुनने को मिलता था, अब नहीं मिला करेगा। अब डा हर्ष से चाहकर भी कभी मुलाकात नहीं होगी। -- आशीष कुमार 'अंशु' द्वारा: इण्डिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेंट स्टडिज, ४०६, ४९-५०, रेड रोज बिल्डिंग, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली- ११००१९ चलभाष: 09868419453 ब्लॉग पता: http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100430/8f935695/attachment-0002.html From act at pustak.org Tue Apr 6 06:19:08 2010 From: act at pustak.org (Abhilash Trivedi) Date: Tue, 06 Apr 2010 00:49:08 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Weekly_list_of_Hin?= =?utf-8?b?ZGkgQm9va3MgKOCkh+CkuCDgpLjgpKrgpY3gpKTgpL7gpLkg4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KS44KWN4KSk4KSV4KWH4KSCKQ==?= Message-ID: <4BBA84FB.6020008@pustak.org> प्रिय पाठकों, हर सप्ताह अपने संग्रह से कुछ पुस्तकें हम आपके सामने लाते हैं। प्रस्तुत हैं इस सप्ताह के कुछ आकर्षण: आतिशी शीशा दीपक शर्मा पृष्ठ 112 मूल्य $7.95 नारी आन्दोलन से जुड़ी हुई कहानियों का संग्रह...... आगे ... दुर्योधन के रहते क्या कभी महाभारत रुका है के.बी.यादव पृष्ठ 111 मूल्य $8.95 प्रस्तुत काव्य समाज और राजनीति का दर्पण है.... आगे ... मुसाहिबजू वृंदावनलाल वर्मा पृष्ठ 187 मूल्य $9.95 प्रस्तुत है मुसाहिबजू के जीवन पर आधारित उपन्यास.. आगे ... सीढ़ियाँ दया प्रकाश सिन्हा पृष्ठ 76 मूल्य $3.95 प्रस्तुत है सीढ़ियाँ नाटक.... आगे ... निबन्धों की दुनिया पं.चन्द्रधरशर्मा गुलेरी कुसुम भाटिया पृष्ठ 156 मूल्य $13.95 चन्द्रधर शर्मा के जीवन पर आधारित निबन्ध..... आगे ... बंदे आगे भी देख रामदेव धुरंधर पृष्ठ 230 मूल्य $13.95 प्रस्तुत है रोचक व्यंग्य आगे ... शायरी के नये दौर - भाग 1 अयोध्याप्रसाद गोयलीय पृष्ठ 336 मूल्य $7.95 प्रस्तुत है शायरी के नये दौर भाग-1.... आगे ... विक्रम-बेताल के रोमांचक किस्से संदीप गुप्ता पृष्ठ 75 मूल्य $9.95 विक्रम-वेताल की कहानियाँ "उड़ने वाला रथ" तथा अन्य हैरतअंगेज किस्से। आगे ... यदि आपको हमारी इस ई-मेल से कोई आपत्ति हो तो हमें अवश्य लिखें, ताकि भविष्य में इसे न भेजा जाये। धन्यवाद, http://www.pustak.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20100406/6c9e6d8c/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Apr 4 09:55:11 2010 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 04 Apr 2010 04:25:11 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KSu4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSV4KS+4KS2IOCkteCkvuCksuCljeCkruClgOCkleCkvyDgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOClh+CkmuCliOCkqCDgpJTgpLAg4KSX4KS/4KSw4KSm4KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpLngpK7gpYfgpIIg4KSq4KS+4KSX4KSyIOCkleCksCA=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: हिंदू होने पर मुझे पर मुझे गर्व नहीं, अपमान का बोध होता है। क्योंकि इसी ने मुझे अछूत बनाया। दलितों के आदर्श कभी भी राम नहीं हो सकते। दलित समाज कभी भी हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं रहा। मुझे कभी भी ऐसा एहसास नहीं होता कि मुझे धर्म की जरूरत है। जो दलित सफल हो जाते हैं, वो अपनी पहचान छिपाना शुरू कर देते हैं। वो या तो अपना नाम बदल लेते हैं या फिर अपना सरनेम बदल लेते हैं। ऐसा इसलिए कि सफल होने पर जैसे ही समाज को पता चलता है कि वो दलित है तो उसकी योग्यता को कमतर करके देखना शुरू कर देता है। उसकी प्रतिभा को शक की निगाह से देखना शुरू कर देता है। समाज उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करता। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साहित्य और समाज के बीच दलितों को लेकर जो रवैया है, उस पर कुछ इस तरह से अपनी बातें रखीं कि दून रीडिंग्स के दूसरे दिन, सुबह से ही महौल में गर्माहट पैदा हो गयी। वहां मौजूद जिन लोगों ने वाल्मीकि को सुना, सत्र के बाद उनसे अलग से बात करने के लिए अपने को रोक नहीं सके। जो लोग लंबे अरसे के बाद हिंदी साहित्य के बारे में सुन रहे थे उन्हें हैरानी हो रही थी कि लिटरेचर को समझने का नजरिया कितना कुछ बदल गया है। सुबह के सत्र को विंड ऑफ चेंज का नाम दिया गया, जिसे कि हिंदी में परिवर्तन की बयार भी कह सकते हैं। पहले सत्र की शुरुआत पेंगुइन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम और दलित साहित्य के शुरुआती दौर के आलोचक और जूठन जैसी हिट आत्मकथा के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से होती है। निरुपम उनसे बातचीत की शुरुआत हिंदी के संत साहित्य से शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे मामला समाज, राजनीति, दलितों की मौजूदा स्थिति और अस्मिता विमर्श तक पहुंचती है। सवालों के जवाब में वाल्मीकि कहीं भी दोहराव या उलझाव पैदा नहीं करते। इसकी बड़ी वजह है कि वो अपनी समझ को लेकर कॉन्शस हैं। साहित्य के मामले में उनकी समझ साफ है। हिंदी की मुख्यधारा लेखन में अपार श्रद्धा रखनेवाले लोगों को उनकी बातें एकतरफा लग सकती है लेकिन उनकी मान्यताओं में ग्रे एरिया नहीं है। जो है वो या तो स्याह या फिर बिल्कुल सफेद। शायद इसलिए, जब वो संत साहित्य पर बात करते हैं तो अपना आदर्श कबीर या तुलसीदास को नहीं मानते और न इसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहने से सहमत होते हैं। उनका साफ कहना है कि ये संभव है कि संतों ने समाज में बयार लाने की कोशिश की लेकिन दलितों को परिवर्तन के लिए बयार नहीं चक्रवात की जरूरत है और वो सहमति और सामंजस्य के साहित्य से नहीं बल्कि संघर्ष के साहित्य से ही संभव है। निरुपम ने कंटेंट के अलावा भाषा और शिल्प के स्तर पर वाल्मीकि से जो सवाल किये मसलन कि आपकी पूरी परवरिश मुख्यधारा का साहित्य पढ़ते हुए हुई है तो फिर आपकी भाषा किस हद तक वहां से आती है, उन सारे सवालों का जबाव देते हुए वो भाषा के भीतर के कुचक्र को बेपर्दा करते हैं। वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि धर्म में कोई आस्था न होने पर भी वो जूठन से अपनी मां के लिए दुर्गा का मेटाफर हटा नहीं सकते क्योंकि इससे ज्यादा प्रभाव पैदा करनेवाला कोई शब्द नहीं है। इसलिए उनकी पूरी राइटिंग में मुख्यधारा के जितने भी शब्द हैं वो प्रभाव को लेकर हैं, वो भाषिक परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं है। शिमला इंस्‍टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज में हमने वाल्मीकि को सुना। करीब सात महीने बाद उनके विचारों में और तल्खी आयी है। वो दलित साहित्य को अभिव्यक्ति से कहीं ज्यादा हिस्सेदारी का मामला मानते आये हैं। नमिता गोखले ने जब उनकी कविता प्रतिबंधित का अंग्रेजी अनुवाद सुनाया तो वो मूल कविता सुनाने से अपने को रोक नहीं पाये। उन्हें इस वक्त ठाकुर का कुआं कविता फिर से याद हो आयी। अंधड़ और सलाम जैसी कहानियां फिर से रेफरेंस प्वाइंट के तौर पर याद आये। देहरादून की पहाड़ों पर मल्टीनेशनल के होर्डिंग्स और बेतहाशा कंसट्रक्शन के बूते इसे संवेदनहीन शहर की शक्ल देते हुए मैं महसूस कर रहा हूं और ऐसे में वाल्मीकि की प्रतिबंधित कविता की ये लाइन हमेंशा याद रहेगा – मेरी जरूरतों में एक नदीं भी है… कागज, कलम और आस-पड़ोस। ओमप्रकाश वाल्मीकि, नमिता गोखले और निरुपम के बीच जो पूरी बातचीत हुई है वो हिंदी समाज के लिए एक जरूरी संवाद है। हमारी कोशिश रहेगी कि पूरी बातचीत जो मेरे आइपॉड में है, उसे रूपांतरित करके आप तक पहुंचाएं। इस संवाद के ठीक बाद दो किताबों का लोकार्पण हुआ, जिसकी चर्चा करने से पहले मैं अनलीशिंग नेपाल के लेखक सुजीव शाक्या और अमिताभ पांडे के बीच हुई बातचीत को शामिल करना पसंद करुंगा। मैंने अनलीशिंग नेपाल किताब पढ़ी नहीं है लेकिन इन दोनों के बीच हुई बातचीत को सुनने के बाद वापस दिल्ली जाकर इस किताब को खरीदना मेरी प्रायॉरिटी रहेगी। ये किताब न सिर्फ नेपाल के उन संदर्भों को टच करती है, जिस पर कि पहाड़, जनजातीय संस्कृति और मान्यताओं को लेकर लिखनेवाले ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है बल्कि सिटी स्पेस को समझने के लिए ये एक जरूरी किताब है। सुजीत शाक्या ने बातचीत में और अमिताभ पांडे के रिस्पांस को लेकर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए बताया कि जब उन्होंने इस किताब को लिखा तो प्राइवेट सेक्टर और बिजनेस, चैंबर्स से जुड़े लोग नाखुश हुए क्योंकि ये किताब नेपाल में उन लोगों के मतलब साधने की कहानी कहती है। कुछ लोगों ने कहा कि इसे आपको नेपाली भाषा में भी लिखना चाहिए क्योंकि नेपाल के लोग अभी भी ज्यादा इसी भाषा में समझ सकेंगे। बाकी लेखकों से अलग सुजीत मानते हैं कि पहाड़ के लोगों के लिए सिर्फ पहाड़ ही उनके दिमाग में है जबकि नेपाल में तराई क्षेत्र एक बहुत बड़ा क्षेत्र है जिस पर बात होनी चाहिए और इसके भीतर बननेवाली इकॉनमी को समझना चाहिए। माओवाद के सवाल पर सुजीत शाक्या का सीधा कहना रहा कि यहां माओवादी नेताओं ने मौके को बस भुनाने की कोशिश की। परिवर्तन या सरोकार उनके कंसर्न में नहीं है। उनके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि वो किस तरह से सत्ता में बने रहें। नेशन स्टेट और आइडेंटिटी के सवाल पर सुजीत की अपनी समझ है जो कि उनके मुताबिक किताब में भी शामिल है कि सवाल इस बात का नहीं है कि हमारी संस्कृति और मान्यताएं कितनी पुरानी है। इसकी पहचान सिर्फ टोपी और टीशर्ट के चिन्हों से नही बची रह सकती। एक अलग देश के तौर पर नेपाल का इतिहास 250 साल पुराना है और इसमें करीब 65 अलग-अलग मान्यताओं के समूह हैं। लेकिन इससे ? असल सवाल है कि इस वक्त ग्लोबल युग में नेपाल अपने को कहां खड़ा पाता है। जाहिर है इस सवाल में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास के सवाल शामिल हैं। सुजीत भारत और नेपाल के ओपन वार्डर रिलेशनशिप के समर्थक हैं और मानते हैं कि ये दोनों देशों के विकास में बराबरी का असर पैदा करेगा। अमिताभ पांडे ने जिस तरह से संतुलित होकर संवाद को जारी रखा इससे नेपाल, अनलीशिंग नेपाल को लेकर टेम्‍प्‍ट तो पैदा हुआ ही, इसके साथ ही लगा कि टेलीविजन और हिंदी के सेमिनारों मे बहुत कम ही ऐसे संवाद मय्यसर होते हैं। जिन दो किताबों के लोकार्पण की बात हमने ऊपर की, उनमें से एक किताब कुछ शब्द कुछ लकीरें उत्तराखंड से आये संसद सदस्य विश्वजीत की है। ये काव्य संकल्न है। दूसरी किताब विकी आर्य की कविताओं का संकलन बंजारे ख्वाब नाम से है। विकी आर्य की इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद दीप ने किया है। विश्वजीत की कविताओं में कोई दम नहीं है। ये बस प्रभाव में आकर छापी गयी किताब लगती है। विश्वजीत ने अपनी बातचीत में अशोक वाजपेयी को कोट करते हुए भले ही कह दिया कि सच्ची अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही आती है लेकिन उसका असर हमें उनकी कविताओं में कहीं से भी दिखाई नहीं दिया। तिस पर दून स्कूल के हिंदी विभाग के भूतपूर्व एचओडी डॉ हरिदत्त भट्ट शैलेश ने जब विश्वजीत को लेकर जो बातें कहीं, उसे साहित्य की समीक्षा न मान कर गुरु का शिष्य के प्रति अनिवार्य स्नेह ही मानें तो ज्यादा बेहतर है। विकी आर्य की कुछ कविताएं अच्छी हैं और महज चार-छह लाइनों में अपनी बातें कह जाती हैं। सतर्क होकर पढ़ें तो इसके कुछ गंभीर मायने भी निकल आते हैं। हिंदी मूल सुनने के बाद अंग्रेजी में दीप की जुबानी इन्हीं कविताओं को सुनकर ज्यादा अच्छा लगा। विकी आर्य का ऐसा कहना कि उन्होंने कविताएं नहीं लिखी हैं बल्कि कविताओं ने उन्हें लिखा है – पता नहीं ऐसा लिखना और कहना महज शिल्प का हिस्सा है या फिर व्यक्तिगत आग्रह लेकिन दोनों संकलनों से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि अभी भी कई लोगों के जेहन में कविता का मतलब जो मन में आये, लिख दो ही है। पॉलिटिकल करेक्टनेस और सोशल इंवाइडमेंट से वो कोसों दूर हैं। सुजीव शाक्या के सत्र के बाद दिल्ली से आये हम सारे पत्रकार दोस्त तीन घंटे के लिए देहरादून से मसूरी के लिए निकल गये। एक के बाद एक सत्र को एटेंड करते हुए हमें लग रहा था कि दिमाग हैंग हो जाएगा। हड़बड़ी में देखी गयी मसूरी की उपलब्धि के नाम पर माल रोड पर खींची गयी कुछ तस्वीरें है, जहां-तहां घाटियों में एक-दूसरे के साथ पोज देते हुए कुछ और तस्वीरें हैं और दोपहर का भोजन। उस पहाड़ी में छोटे से ढाबे में किये गये लंच की याद मुझे और मेरे साथियों को लंबे समय तक रहेगी। एक जमाने के बाद मैंने जीरे की खुशबू महसूस की। पहाड़ी स्त्री के हाथों की बनी वो रोटी अभी भी नजर से ओझल नहीं हो रही और वो सात महीने की बच्ची जो कि अविनाश से ऐसी चिपटी कि अपने भाई के पास तक जाने को तैयार नहीं। मेरे इस सवाल पर कि जब तुम बड़ी होकर मिस उत्तराखंड बनोगी तो मुझे पहचानोगी, मुंह में आंचल दबाते हुए उसकी मां का मुस्काराना टेस रंग की तरह जेहन में बना रहेगा। इस बीच कुमाऊं की गूंज थीम पर एक सत्र हुआ, जिसमें इरा पांडे ने इंडियन सोप ओेपेरा के जनक (हमलोग सीरियल) मनोहर श्याम जोशी की ट’टा प्रोफेसर और दिद्दी का अंश पाठ किया। इरा पांडे ने ट’टा प्रोफेसर का अंग्रेजी अनुवाद किया है। इस पर नमिता गोखले ने परिचर्चा की। उसके बाद इधर भी लंच हो गया। लंच के बाद इन सर्च ऑफ सीता : रिवीजिटिंग मायथलॉजी, जिसका संपादन मालाश्री लाल ने की है, खुद लेखक और नमिता गोखले ने इस पर बातचीत की। इस परिचर्चा में सीता के साथ स्त्री-अस्मिता के उन सारे सवालों को उठाया गया, जहां से बहस की एक मुकम्मल जमीन तैयार हो सकती है। एक स्त्री का स्त्रीत्व किन-किन शर्तों और स्थितियों से पारिभाषित होती है, सीता के संदर्भ से उन बिंदुओं पर बात की गयी। इसी बीच आदित्य सुदर्शन की फिक्शन जो कि उत्तराखंड के हिल स्टेशन भैरवगढ़ की एक मर्डर मिस्ट्री पर आधारित है, ए नाइस क्वाइट हॉलीडे, उस पर लेखक के साथ माया जोशी की परिचर्चा हुई। रचना जोशी का कविता-पाठ हुआ और नटराज पब्लिशर्स की ओर से प्रकाशित फ्लॉवर्स एंड एलिफेंट का लोकार्पण भी हुआ। तीन घंटे की थकान लेकर जब हम वापस होटल अकेता के सेमिनार हॉल में दाखिल हुए, तब गिरदा ने अपना जादू-जाल फैलाना शुरू ही किया था। गिरदा अपने गानों में उत्तराखंड के भूले-बिसरे चेहरों और यादों को फिर से अपनी आवाज के जरिये सामने लाते हैं। वो जब भी गाते हैं, उनकी आवाज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को दर्शाती है। इन्होंने फैज की कई कविताओं का अनुवाद भी किया है। गिरदा ने जब हमें सुनाया कि चूल्हा गर्म हुआ है, साग के पकने की गंध चारों ओर फैल रही है और आसमान में चांद कांसे की थाली की तरह टंगा है, तो बाबा नागार्जुन आंखों के आगे नाचने लग गये। यकीन मानिए आप गिरदा को सुनेंगे तो पागल हो जाएंगे। मैं दिल्ली आते ही उनके गाये गीतों का ऑडियो लोड करता हूं। नरेंद्र सिंह नेगी का पूरा उत्तराखंड दीवाना है, जो हमने पहले की पोस्ट में ही कहा। नेगी के गीतों में पहाड़ी सौंदर्य के साथ-साथ आज भी शामिल है, इसलिए वो हमें सिर्फ रोमैंटिक मूड की तरफ ले जाने के बजाय उस दर्द की तरफ घसीटता है जिसे सुन पाना तो आनंद पैदा करता है लेकिन जिसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल है। इसी कड़ी में डॉ अतुल शर्मा ने भी रचना-पाठ किया। हम इन सभी लोगों के बारे में फिलहाल विस्तार से बात नहीं कर रहे हैं। हमने इनके गीतों और कविताओं का जो आनंद लिया है, हम नहीं चाहते हैं कि उसके नाम पर आपके लिए कोई क्लासरूम खड़ी कर दें। इसे ऑडियो में ही आपके सामने लाना बेहतर होगा। कविता और गीत सत्र के बाद पेंगुइन-यात्रा बुक्स की संगीत शृंखला का विमोचन किया गया। इस शृंखला में संगीत और संगीतकारों से जुड़ी कुल छह किताबें हैं। साहिर लुधयानवी पर जाग उठे ख्वाब कई, बिस्मिल्ला खान की जीवनी पर सुर की बारादरी, मन्ना डे की आत्मकथा यादें जी उठीं, नौशाद की जीवनी पर जर्रा जो आफताब बना, नौटंकी की मलिका गुलाबबाई और कुंदन लाल सहगल पर कुंदन सहगल जीवन और संगीत। दिल्ली में इन किताबों का पहले भी विमोचन हो चुका है। संभवतः इसलिए पेंगुइन के हिंदी संपादक एसएस निरुपम ने जो कि इस पूरे सत्र का संचालन भी कर रहे थे कहा कि संगीत पर लिखी इन किताबों के लोकार्पण का मतलब महज इसे कागज या लिफाफे से बाहर लाना भर नहीं है। हम इस पर बातचीत करना चाहते हैं। बातचीत के लिए मंगलेश डबराल को आमंत्रित किया गया। एक कवि से इतर मंगलेश डबराल को सुनना सुखद लगा। उन्होंने सुर की बारादरी के लेखक यतींद्र मिश्र और जाग उठे ख्वाब कई के संपादक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह से बातचीत की। मंगलेश डबराल ने इन दोनों लेखकों से बातचीत करने से पहले भूमिका के तौर पर कहा कि फिल्मी गीत अब वो नहीं रह गये जो साहिर के समय में थे। साहिर की विशेषता थी कि वो अपनी नज्मों को फिल्मी गीतों में ले आते थे। उन्‍होंने विष्णु खरे की बात को शामिल करते हुए कहा कि साहिर फैज से बड़े कवि थे। मुझे लगता है कि साहिर लुधयानवी पर अब तक जो भी किताबें आयीं है, हिंद पॉकेट को छोड़ दें तो अब तक कि ये साहिर पर आयी संपूर्ण किताब है। संगीत पर ऐसी किताबें निकाल कर पेंगुइन-यात्रा ने सचमुच जोखिम का काम किया है और हमें उन्हें बधाई देनी चाहिए। मंगलेश डबराल के इतना कहने के बाद दोनों लेखकों से बातचीत का सिलसिला शुरू होता है जिसे मजाक में ही सही, यतींद्र मिश्र बार-बार प्रोमोशन कैंप करार देते हैं। साहिर पर किताब तैयार करने का विचार कैसे आया, मंगलेश डबराल के इस सवाल का जवाब देते हुए मुरलीबाबू ने कहा कि 1857 की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी तो हिंदी-उर्दू संबंध पर खोजबीन, नया पथ का विशेषांक निकालने के सिलसिले में शुरू की। मेरे लिए ये अचरज की बात थी कि 1856 से लेकर 61 के बीच लगभग पचास अखबार पत्रकार, अखबारनवीस और उर्दू के कल्चरल एक्टिविस्ट चाहे तो गोली से उड़ा दिये गये, काला पानी भेज दिए गये, जेलों में डाल दिये गये, घर-बदर कर दिये। तब मैंने खोजना शुरू किया कि उन्होंने ऐसा क्या लिख दिया। उसी क्रम में मैं हिंदी फिल्मी गीतों की तरफ गया। मैंने पाया कि जिसे हम हिंदी फिल्मी गीत कहते हैं, उसमें बड़ा कंट्रीब्‍यूशन शायरों का है। अली मेंहदी खां से लेकर जावेद अख्तर तक इसमें शामिल हैं। हम एक झूठा हिंदीवाद चलाते हुए उर्दू का जो कंट्रीब्‍यूशन हिंदी फिल्मों में रहा है उसको हम नकार देते हैं। इस क्रम में जब मैंने देखना शुरू किया तो पाया कि इसमें अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी इन बोलियों के साथ उर्दू, हिंदी, संसकृत, तत्सम के शब्द प्रयोग करके हिंदी के गीत रचे गये हैं। इसलिए इन फिल्मी गीतों में इन बोलियों का भी योगदान है, उर्दू का भी है। साहिर पर मैंने इसी रूप में काम करना शुरू किया। मुरली बाबू ने साहिर की नज्मों से जुड़े उन रोचक प्रसंगों पर भी बात की जब गीतकार अपनी शर्तों पर रचनाएं किया करते। जिसमें क्राइम और पनिशमेंट पर रमेश सहगल की बनायी फिल्म के गीत वो सुबह कभी तो आएगी का जिक्र किया। जिसे सुनकर फैज के गीत हम देखेंगे की याद आ जाती है। यतींद्र मिश्र ने संगीत के बाकी जानकारों की खुशफहमी से अपने को अलग करते हुए साफ तौर पर कहा कि मैं कानसेन हूं। मैं दुनियाभर के संगीत सुनता हूं। कइयों के पास जा-जाकर सुनता आया हूं। इसी क्रम में वो गिरिजा देवी के प्रसंग को याद करते हुए कहते हैं कि मैं अक्सर गिरजाजी के पास सुनने चला जाता और उनसे कभी ठुमरी तो कभी कुछ सुनाने को कहता। वो अपनी छात्राओं को सिखा रही होतीं और इसी बीच मैं पहुंच जाता। उनसे मेरा दादी-पोते जैसा संबंध था और वो मुझे उसी रूप में स्नेह भी करतीं। बात-बात में एक बार उन्होंने बताया कि उन्हें तो ये भी पता नहीं कि उनका एचएमवी वालों ने कब और क्या कलेक्शन निकाल। तभी मुझे महसूस हुआ कि यहां हस्तियों को लेकर कितनी बेअदबी है। मैंने मन बनाया कि मुझे इन लोगों पर काम करना चाहिए और पहला काम गिरिजा देवी पर ही किया। आज भी लोग मुझे अपनी उस पहली रचना गिरिजा के कारण ही ज्यादा जानते हैं। जिस समय मैं उन पर काम कर रहा था, मेरे साथ के लोगों ने कहा कि ये सब तुम क्या कर रहे हो – वामपंथी लोग नाराज हो जाएंगे। विद्यानिवास मिश्र ने ये जानने पर कहा कि अच्छा एलीट हो गये हो। बाइयों का लेखा-जोखा लिख रहे हो। लेकिन मुझे इन सबसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। मुझे रचना और लिखने के स्तर पर कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल ने बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैं अक्सर सोचता हूं कि इनकी कविताओं में कितना खिला गद्य है। इस सवाल के जवाब में कि उनकी किताबें कितनी बिकेंगी, ऐसी किताबों की कितनी मांग है, यतींद्र मिश्र ने साफ कहा कि ये काम पब्लिशर्स का है लेकिन मैं इतना जरूर मानता हूं कि इन किताबों की जरूरत है। यतींद्र मिश्र के पास यादों और संस्मरणों का खजाना है और सुनाने की वो खास शैली जिसे सुन कर मुझे अक्सर महमूद फारुकी की दास्तानगोई याद आती है। यतींद्र मिश्र की संपादित किताब कुंवर नारायण संसृति मैंने पूरी पढ़ी है और सुर की बारादरी का कुछ हिस्सा। लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूं कि संस्मरणों को सुनाने में यतींद्र मिश्र को महारत हासिल है। युवा पीढ़ी के लिए उनसे संस्मरण को सुनना साहित्य से नये किस्म से जुड़ना है। जब वो बिस्मिल्ला खान के संस्मरण सुना रहे होते हैं, तो हमारे मन में अक्सर सवाल उठते हैं – क्या हमारे आसपास कोई ऐसा शख्स नहीं है या फिर हममें नोटिस करने की काबिलियत ही नहीं है। उन्होंने यहां भी बिस्मिल्ला खान से जुड़े दो संस्मरण सुनाये जिसे कि मैं फिलहाल बचाकर रख ले रहा हूं। किताबों की पब्लिसिटी की चिंता के बीच भी कुल मिलाकर ये सत्र अच्छा रहा और लगा कि हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को संगीत के इस पक्ष पर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। एक घंटे के ब्रेक के बाद हम होटल अकेता से ग्रेट वेल्यू होटल की तरफ रवाना होते हैं जहां कि पेंगुइन-यात्रा बुक्स की ओर से संगीत शृंखला की संगीतमय प्रस्तुति और दून लाइब्रेरी की ओर से डिनर का आयोजन किया गया था। समरजीत और उनकी टीम ने एक के बाद एक गाने गाये और अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक लोग सुरों में खोते चले गये। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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