From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Sep 2 10:41:47 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 2 Sep 2009 10:41:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSl?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClh+CkgiDgpKrgpL/gpLjgpKTgpYAg4KSc4KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KSX4KWA?= Message-ID: <196167b80909012211h788a0c10l17e0f843769f9f0e@mail.gmail.com> *रायखेड़ा के बालमुकुन्द वर्मा के घर इस साल 19 अगस्त की तारीख बड़ी मनहूसियत लेकर आई। वे नहींं भूलते उस दिन को जब दो लोग इनके घर आए, यह खबर लेकर की उनका 22 वर्षीय लड़का दीपक वर्मा अस्पताल में भर्ती है। उसे गंभीर चोट लगी है। वे दो लोग बालमुकुन्द को अपने साथ लेकर अस्पताल जाना चाहते थे। बालमुकुन्द को पहले गड़बड़ की आशंका हुई और उसने साथ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन बेटे के मोह में वे अपने को रोक भी नहीं पाए।* वे दो लोगों के साथ खरोड़ा उच्च विद्यालय के पास स्थित अस्पताल में चले गए। वहां अस्पताल में उन्हें उनका बेटा तो मिला लेकिन अस्पताल की बेड पर लेटा हुआ नहीं बल्कि अर्थी पर लेटा हुआ। उसकी मौत पहले ही हो चुकी थी। बालमुकुन्द के अनुसार- दीपक को अस्पताल में भर्ती कराने की बात झूठी साबित हुई। दीपक की मां पिछले दस-बारह सालों से लकवा ग्रस्त है। उनके लिए अपने जवान बेटे की मौत किसी वज्रपात से कम नहीं था। इस घटना के बाद उनकी हालत विक्षिप्त सी हो गई है। यह कहानी है रायपुर के धाड़िशवा विधानसभा क्षेत्र के तील्दा प्रखंड की। दीपक यहीं के एक पत्थर मील मालिक विट्ठल भाई राजू पटेल के यहां काम करता था। उसकी मौत कार्य स्थल पर हुई। लेकिन जिस प्रकार पिता बालमुकुन्द वर्मा को बेटे के दाह संस्कार के लिए दस हजार रुपए देकर पूरे मामले को निपटाने की कोिशश की गई, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। पत्थर खदानों के लिए प्रसिद्ध रायपुर के तील्दा प्रखंड की यह इकलौती घटना नहीं है। वहां के चीचौली रायखेड़ा, मढ़ही, सोनतरा, गैतरा, मूरा, टांड़ा, तारािशव आदि गांवों में अब दुर्घटना मानों आम सी बात है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 1500 मजदूरों को श्रम कानून, मजदूरों के बीमा, भविष्यनिधि जैसे सामाजिक सुरक्षा इंतजामों के संबंध में कोई जानकारी ही नहीं है। पत्थर खदानों में होने वाली दुर्घटनाओं को उन्होंने अन्य आम घटनाओं की तरह अपनाना सीख लिया है। इसे वे अपनी नीयति मान चुके हैं। इसलिए वे अपनों की मौत पर, या खुद खाई चोट पर कोई सवाल खड़ा नही करते। वरना नितिन खाकरिया के खदान में काम करते हुए एक दुर्घटना में अपने आंखों की पचास फीसदी से अधिक रोशनी गंवा चुके लल्ला राम सागरवंशी 400 रुपए लेकर संतोश नहीं करते। ऊपर से सागरवंशी खुश होकर बताते हैं- `आंखों से कम दिखने के बावजूद मुझे मालिक ने काम से नहीं निकाला।´सागरवंशी को यह चोट खाकरिया के पत्थर खदान में काम करते हुए जून 2009 में लगी थी। एक महीना मजबूरीवश उन्हें बीस्तर पर रहना पड़ा चूंकि वे उठने की हालत में ही नहीं थे। बेड की मियाद वैसे और भी लंबी थी लेकिन पेट की भूख ने उन्हें जुलाई से ही काम पर लगा दिया। अख़्तर हुसैन का इस दुनिया में मां सीमा बेगम के सिवा कोई नहीं था। पिता की मृत्यु पहले हो चुकी थी। इसी 18 अप्रैल को नविन शर्मा के पत्थर खदान में पत्थर तोड़ने की मशीन में फंस कर सीमा बेगम की मौत हो गई। उनकी हडिडयों का मशीन में फंसकर चूरा हो गया था। अख्तर के अनुसार जब उनकी अम्मी मशीन में पत्थर डाल रही थी, उस वक्त वहां कोई नहीं था। उनकी साड़ी मशीन में फंसी और वह मशीन के अंदर चली गई। इन दिनों अख्तर अपने फूफा शेख मुम्ताज के साथ रहता है। शेख मुम्ताज के अनुसार सीमा बेगम की मौत के बाद नविन शर्मा उनके परिवार से बात करने को भी तैयार नहीं है। तील्दा प्रखंड में लगभग 50 क्रेशर मालिकों की खदाने हैं। अनिल रुपरैला इनके नेता माने जाते हैं। जब उनसे मजदूरों के साथ लगातार हो रही दुर्घटनाओं और उनके सामाजिक सुरक्षा को लेकर बातचीत हुई तो उन्होंने माना कि लगातार हो रही दुर्घटनाएं चिन्ताजनक है। इसलिए सभी क्रेशर मालिक मजदूरों की सुरक्षा को लेकर चिन्तित है। यदि साल दो साल में एक घटना हो तो उसे अपवाद माना जा सकता है। लेकिन एक के बाद एक हो रही दुर्घटनाओं को रोकने का उपाय हमें मिलकर करना ही होगा। रुपरैला ने विश्वास दिलाया कि अगले छह महीने के अंदर तील्दा क्षेत्र में काम कर रहे सभी मजदूरों का बीमा कराया जाएगा। साथ भविश्य में किसी भी दुर्घटना पर क्रेशर मालिकों की तरफ से भी पीड़ित को अथवा उसके परिवार को सम्मानजनक सहायता रािश दी जाएगी। रुपरैला की बातों पर रायपुर पत्थर-खदान मजदूर संघ के सदस्य अविश्वास प्रकट करते हैं। उनका मानना है- रुपरैला की बातें राजनीतिक बयानबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस तरह की बातें करना और उसे समय के साथ भूल जाना उनकी आदत रही है। संघ के अध्यक्ष नरोत्तम शर्मा कहते हैं- `यहां पत्थर खदान मालिकों ने श्रम कानूनों का माखौल बनाकर रखा है। यहां पत्थर मजदूरों से अधिक काम लेकर कम पगार दी जाती है। पगार का भी कहीं आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है।´ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090902/34c0a084/attachment.html From water.community at gmail.com Thu Sep 3 01:28:08 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Thu, 3 Sep 2009 01:28:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_W?= =?utf-8?b?aGF0J3MgTmV3IGluIFdBVEVSIC0g4KS24KWH4KSW4KSwIOCkl+ClgQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSk4KS+IOCknOClgCDgpJDgpLjgpYcg4KSk4KSl4KWN4KSv?= =?utf-8?b?IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpK3gpYLgpLIg4KSc4KS+4KSk4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWI4KSCPw==?= In-Reply-To: <8b2ca7430908291007q2313e60dx9871f7d1742b34bb@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430908291007q2313e60dx9871f7d1742b34bb@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430909021258s4c2fd623kb9291989c4cb539f@mail.gmail.com> मित्रों 24 अगस्‍त को दैनिक भास्‍कर में श्री शेखर गुप्‍ता का लेख एक और हरितक्रांति शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। मंथन के रहमत भाई ने तथ्‍यों से परे तथा निहित उद्देश्‍यों से लिखे इस लेख पर अपनी प्रतिक्रिया 25 अगस्‍त को भास्कर को भेजी थी। लेकिन भास्‍कर की और से कोई जवाब नहीं मिला। पढ़ें रेहमत भाई की प्रतिक्रिया - http://hindi.indiawaterportal.org/content/शेखऱ-गुप्ता-का-यह-लेख-तथ्यों-से-परे पढ़ें हिमांशु ठक्कर की प्रतिक्रिया - http://hindi.indiawaterportal.org/content/comment_on_ek_aur_harit_kranti 24 अगस्‍त को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित शेखर गुप्‍ता का मूल लेख http://hindi.indiawaterportal.org/content/ek_aur_harit_kranti * Report-* *State of the Environment 2009 by GOI * *Future of water in India * *Read What happened with Kosi water management * State of water in Ambala ______________________________________________________ *Alert* *Planning for encroachment on Yamuna-Bed *** * .............................................................................. * *Documents-* *Guidelines for Water Quality by WHO * *National Register of Big Dams 2009 * *Degraded Environment * *……………………………………………………………………………..* *Video* *Water Crisis in Delhi * *Water Detectives in Delhi * *Ujjain: Suffering again water crisis *** *……………………………………………………………………………*** *Success Stories* *Vegetable Pit in Barmer * *Water management in Laporia * * ........................................................................................................ *** *Special Reports on Arsenic in various parts of Country * अच्छी वर्षा के लिए पढ़ी जाने वाली 'नमाज -ए -इस्तिश्ता'[image: 'नमाज -ए -इस्तिश्ता']*'नमाज -ए -इस्तिश्ता'* *अच्छी बारिश की दुआओं के लिये की जाने वाली विशेष नमाज़ को अरबी में कहते हैं 'नमाज -ए -इस्तिश्ता', जो कि पैगम्बर मोहम्मद साहब की परम्परा के अनुरूप है। इस्लामी सूत्रों के मुताबिक पैगम्बर मोहम्मद ने अपने जीवन में भी अल्लाह से अच्छी बारिश की दुआ करते हुए यह विशेष प्रार्थना की थी। इसी परम्परा का निर्वहन * * * *Read More * *………………………………………………………………………………..*** *Award* Water Prize Winner Bindeshwar Pathak * ................................................................................... * Ask a water question *जल शब्दकोश* *जल समाचार* *हमसे जुड़ें* *हमें लिखें* *हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें* *अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- ** water.community at gmail.com*** -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090903/84908f99/attachment-0001.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From pramodrnjn at gmail.com Fri Sep 4 08:56:04 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Thu, 3 Sep 2009 22:26:04 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W+CkquCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqF0g4KSc4KWLIOCkpOClgiDgpKw=?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSt4KSoLCDgpLXgpL7gpILgpK3gpKjgpYAg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSv4KS+?= In-Reply-To: <1252034219633.cf6a4865-3b34-4a73-bf53-3594e67c2e4a@google.com> References: <1252034219633.cf6a4865-3b34-4a73-bf53-3594e67c2e4a@google.com> Message-ID: <9c56c5340909032026x3189d1fnba4d5088edf9f027@mail.gmail.com> प्रभाष जोशी ने पिछले दिनों दिये गये अपने एक साक्षात्‍कार में श्रम की महत्‍ता के पक्ष में जाने वाले तर्कों को सर के बल खडा करने की कोशिश की है। आश्‍चर्यजनक रूप से जोशी इसमें सफल भी रहे हैं क्‍योंकि विभिन्‍न हिंदी ब्‍लॉगों पर चल रही बहस उनके ही ऐजेंडे के आसपास घूमती रही है। श्री जोशी ने श्रम की अवहेलना को ब्राहमण श्रेष्‍ठता के पक्ष में खडा किया है। वास्‍तव में यह कोई नयी बात नहीं है। जाति व्‍यवस्‍था पूरी तरह इसी तर्क पर आधरित है। इस व्‍यवस्‍था में जो तबका जितना अधिक श्रम करता है, जितना चुनौतीपूर्ण काम करता है, उसे उतना ही नीचा दर्जा दिया जाता है। जोशी ने अपने साक्षात्‍कार में मुख्‍य उदाहरण कंप्‍यूटर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र का दिया है। सॉफ्टवेयर का निर्माण लगभग गणित के मानसिक विलास जैसी चीज है। भारत के ब्राहमण इसमें आगे रहे। लेकिन हार्डवेयर के निर्माण में ब्राह्मणों ने कोई योगदान नहीं दिया। यह उनके लिए संभव भी नहीं है। पडोसी देश चीन हार्डवेयर मे आगे गया है क्‍योंकि वहां मानसिक विलास की परंपरा नहीं है। न जापान जैसी उपलब्धियां भारतीय ब्राहमणों के लिए संभव हैं। श्रम पर कम तथा ट्रिक पर अधिक आधारित क्रिकेट और फुटबॉल-हॉकी जैसे शारीरिक श्रम पर आधारित खेलों की तुलना से भी इसे समझा जा सकता है। भारतीय क्रिकेट टीम जैसी सामाजिक संरचना के बूते इन खेलों में कोई भी उल्‍लेखनीय प्रदर्शन संभव नहीं है। बहरहाल, एकलव्‍य यह पत्र इस क्रम में पढा जाना चाहिए कि एक शूद्र इन मुददों पर एक शुद्र का चिंतन किस तरह अलग होता है। उसकी भाषा में बिना अशोभनीय शब्‍दों के भी कैसी मारक तल्‍खी होती है। वह प्रभाष जोशियों के तर्को की व्‍याख्‍या में नहीं उलझता, न ही गैर-ब्राह्मण प्रधानमंत्रियों और गैर ब्राह्मण क्रिकेटरों का कौशल बखानने में अपना वक्‍त जाया करता है। उसकी चिंताएं क्‍या हैं, आप खुद देखें। पत्र युवा पत्रकार नवल ने लिखा है। नवल पटना से प्रकाशित दैनिक आज के विचारोत्‍तेजक परिशिष्‍ट 'दृष्टि' का संपादन करते हैं। *आदरणीय जोशी जी,* सादर प्रणाम! सविनय निवेदन है कि आपकी महानता को शत प्रतिशत प्रकट करने में सक्षम कोई शब्द इस समय मेरे मानस पटल पर अंकित नहीं हो पा रहा है। इस समय मेरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि मेरी लेखनी और मेरा मस्तिष्क दोनों सीमायें तोड़ देना चाहते हैं। मैं जानता हूं कि मेरे लहू का एक कतरा भी आपके ब्राहमणत्व को सर्वश्रेष्ठ साबित नहीं करने में सफ़ल नहीं हो सकता क्योंकि आपके शरीर के अंदर जो रक्त है वह हम शूद्रों के रक्त से पृ्थक है। मुझे उस कबीर पर दया आ रही है जिसने कभी यह कहने की गुस्ताख़ी की थी कि- तुम कत ब्राहम्ण हम कत शुद, हम कत लोहू तुम कत दूध । जो तुम ब्राहम्ण-ब्राहम्णी जाया, फ़िर आन बाट काहे नहीं आया॥ असल में वह कबीर भी मेरी तरह या फ़िर आम्बेदकर या आज के राजेंद्र यादव की तरह कोई सिरफ़िरा था जिसके सर पर कुछ कर गुजरने की धुन सवार थी। बिना यह सोचे कि पुष्यमित्र शुंग आस्तिन का सांप है और आज जो हम इसे दूध पिला रहे हैं वह इसका थोड़ा भी मूल्य चुकाने की इच्छा रख़ता है। इतिहास साक्षी है कि आजादी देश के बाहम्णों को मिली क्योंकि आज तक देश पर शासन तो इन्हीं ब्राहम्णों को ही मिली है। हमारे नेता तो बस कभी नेहरु की जयकार या इन्दिरा की वंदना और अब सोनिया गांधी का वरदहस्त पाने के आस में आरती गान कर रहे हैं। हमारी इस स्थिति के लिये न तो आप जिम्मेवार हैं और न ही आपका ब्राहमणत्व। इसके लिये हम खुद ही जिम्मेवार हैं। खैर आप, आपका क्रिकेट और आपकी महिला पाठक (जिसका जिक्र आपने रविवार डाट कौम पर प्रकाशित साक्षात्कार में किया है) तीनों अतुलनीय हैं। देश में महंगाई हो, बाढ हो, आतंकवाद से भारत माता का कलेजा छलनी हो जाता हो, आपका और इन्डिया का क्रिकेट दोनों देश में घटित किसी भी अन्य महत्वपूर्ण घटना से अधिक महत्वपूर्ण है। तभी तो दूरदर्शन भी क्रिकेट मैचों के सीधा प्रसारण के लिये एक दिन में अरबों तक खर्च करने को तैयार हो जाता है। यह सब आपके ब्राहमणत्‍व का परिणाम है क्योंकि हम शूद्रो का शूद्र्त्व कभी भी नून रोटी को छोड़ किसी अन्य वस्तु अथवा विषयों के बारे में सोचने की इजाजत भी नहीं देता। आखिर हम ठहरे भी तो निरे शूद्र। आप का क्रिकेट प्रेम हमारे लिये प्रेरणाश्रोत है परंतु हम करें भी तो क्या करें कहीं हमारे घर में बिजली नहीं है तो कहीं टेलीविजन नहीं है। कहीं टेलीविजन है भी तो आपका क्रिकेटिया विजन नहीं है। हमें तो धोनी भी उतना ही अच्छा लगता है जितना कि सचिन तेंदुलकर्। हम तो जानते भी नहीं थे कि गावस्कर और तेंदुलकर भारतीय न हो पहले ब्राहम्ण हैं। हम तो बस इतना जानते हैं कि आपके क्रिकेट मैच की बराबरी नहीं कर सकते क्योंकि आप इन्टर्नेशनल पिचों पर खेलकर देश का नाम बढाते हैं जबकि हम पूरा बचपन गिल्ली डंडा के सहारे बीता कर जवानी में सारी उम आपकी बेगारी कर सकते हैं। आपके क्रिकेटिया मैच में वह चाहे इन्डिया जीते या हारे हार तो हम भारत वंशियों की ही होती है। आपने क्रिकेट प्रेम के सहारे मीडिया जगत में एक ऐसी लकीर खींच दी है जिसे पार करना न हमारे वश में है और न ही पार करने की इच्छा ही है। आपके वेदों ने हमें बताया है कि हम शूद्र एकलव्य तो हो सकते हैं लेकिन अर्जुन नहीं हो सकते हैं। आपके द्वारा 5000 साल पहले स्थापित सच आज भी भारतीय खेलों मे जिंदा है अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार के रुप में, जबकि सभी यह मानते हैं कि अर्जुन कितने बड़े धनुर्धारी थे और आप जैसे द्रोणाचार्य कितने मेधावी। मौका मिले तो पटना युनिवर्सिटी अवश्य घूमें आपको थोक के भाव में द्रोणाचार्य मिल ही जायेंगे। आपने सही कहा है कि ब्राह्म्ण सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि हमारे नेता कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी हो सकते हैं परंतु हमारे नेता लंपट से ज्यादा अधिक नहीं हो सकते। लिखने को बहुत कुछ है लेकिन आपके ब्राहम्णत्व के समय का अधिक हिस्सा लेकर मैं पूण्य का हकदार नहीं बनना चाहता क्योंकि आप महान, आपका क्रिकेट महान और आपका ब्राह्म्णत्व महान है क्योंकि हम शूद्र हैं। आपका, एकलव्य नवल किशोर कुमार ब्रहम्पुर, फुलवारी शरीफ़, पटना-801505 मो-9304295773 -- मूल पोस्‍ट यहां देखें प्रमोद रंजन -- Pramod ranjan mo : 9234382621 Patna. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090903/3566e1b0/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Fri Sep 4 08:56:04 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Thu, 3 Sep 2009 22:26:04 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W+CkquCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqF0g4KSc4KWLIOCkpOClgiDgpKw=?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSt4KSoLCDgpLXgpL7gpILgpK3gpKjgpYAg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSv4KS+?= In-Reply-To: <1252034219633.cf6a4865-3b34-4a73-bf53-3594e67c2e4a@google.com> References: <1252034219633.cf6a4865-3b34-4a73-bf53-3594e67c2e4a@google.com> Message-ID: <9c56c5340909032026x3189d1fnba4d5088edf9f027@mail.gmail.com> प्रभाष जोशी ने पिछले दिनों दिये गये अपने एक साक्षात्‍कार में श्रम की महत्‍ता के पक्ष में जाने वाले तर्कों को सर के बल खडा करने की कोशिश की है। आश्‍चर्यजनक रूप से जोशी इसमें सफल भी रहे हैं क्‍योंकि विभिन्‍न हिंदी ब्‍लॉगों पर चल रही बहस उनके ही ऐजेंडे के आसपास घूमती रही है। श्री जोशी ने श्रम की अवहेलना को ब्राहमण श्रेष्‍ठता के पक्ष में खडा किया है। वास्‍तव में यह कोई नयी बात नहीं है। जाति व्‍यवस्‍था पूरी तरह इसी तर्क पर आधरित है। इस व्‍यवस्‍था में जो तबका जितना अधिक श्रम करता है, जितना चुनौतीपूर्ण काम करता है, उसे उतना ही नीचा दर्जा दिया जाता है। जोशी ने अपने साक्षात्‍कार में मुख्‍य उदाहरण कंप्‍यूटर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र का दिया है। सॉफ्टवेयर का निर्माण लगभग गणित के मानसिक विलास जैसी चीज है। भारत के ब्राहमण इसमें आगे रहे। लेकिन हार्डवेयर के निर्माण में ब्राह्मणों ने कोई योगदान नहीं दिया। यह उनके लिए संभव भी नहीं है। पडोसी देश चीन हार्डवेयर मे आगे गया है क्‍योंकि वहां मानसिक विलास की परंपरा नहीं है। न जापान जैसी उपलब्धियां भारतीय ब्राहमणों के लिए संभव हैं। श्रम पर कम तथा ट्रिक पर अधिक आधारित क्रिकेट और फुटबॉल-हॉकी जैसे शारीरिक श्रम पर आधारित खेलों की तुलना से भी इसे समझा जा सकता है। भारतीय क्रिकेट टीम जैसी सामाजिक संरचना के बूते इन खेलों में कोई भी उल्‍लेखनीय प्रदर्शन संभव नहीं है। बहरहाल, एकलव्‍य यह पत्र इस क्रम में पढा जाना चाहिए कि एक शूद्र इन मुददों पर एक शुद्र का चिंतन किस तरह अलग होता है। उसकी भाषा में बिना अशोभनीय शब्‍दों के भी कैसी मारक तल्‍खी होती है। वह प्रभाष जोशियों के तर्को की व्‍याख्‍या में नहीं उलझता, न ही गैर-ब्राह्मण प्रधानमंत्रियों और गैर ब्राह्मण क्रिकेटरों का कौशल बखानने में अपना वक्‍त जाया करता है। उसकी चिंताएं क्‍या हैं, आप खुद देखें। पत्र युवा पत्रकार नवल ने लिखा है। नवल पटना से प्रकाशित दैनिक आज के विचारोत्‍तेजक परिशिष्‍ट 'दृष्टि' का संपादन करते हैं। *आदरणीय जोशी जी,* सादर प्रणाम! सविनय निवेदन है कि आपकी महानता को शत प्रतिशत प्रकट करने में सक्षम कोई शब्द इस समय मेरे मानस पटल पर अंकित नहीं हो पा रहा है। इस समय मेरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि मेरी लेखनी और मेरा मस्तिष्क दोनों सीमायें तोड़ देना चाहते हैं। मैं जानता हूं कि मेरे लहू का एक कतरा भी आपके ब्राहमणत्व को सर्वश्रेष्ठ साबित नहीं करने में सफ़ल नहीं हो सकता क्योंकि आपके शरीर के अंदर जो रक्त है वह हम शूद्रों के रक्त से पृ्थक है। मुझे उस कबीर पर दया आ रही है जिसने कभी यह कहने की गुस्ताख़ी की थी कि- तुम कत ब्राहम्ण हम कत शुद, हम कत लोहू तुम कत दूध । जो तुम ब्राहम्ण-ब्राहम्णी जाया, फ़िर आन बाट काहे नहीं आया॥ असल में वह कबीर भी मेरी तरह या फ़िर आम्बेदकर या आज के राजेंद्र यादव की तरह कोई सिरफ़िरा था जिसके सर पर कुछ कर गुजरने की धुन सवार थी। बिना यह सोचे कि पुष्यमित्र शुंग आस्तिन का सांप है और आज जो हम इसे दूध पिला रहे हैं वह इसका थोड़ा भी मूल्य चुकाने की इच्छा रख़ता है। इतिहास साक्षी है कि आजादी देश के बाहम्णों को मिली क्योंकि आज तक देश पर शासन तो इन्हीं ब्राहम्णों को ही मिली है। हमारे नेता तो बस कभी नेहरु की जयकार या इन्दिरा की वंदना और अब सोनिया गांधी का वरदहस्त पाने के आस में आरती गान कर रहे हैं। हमारी इस स्थिति के लिये न तो आप जिम्मेवार हैं और न ही आपका ब्राहमणत्व। इसके लिये हम खुद ही जिम्मेवार हैं। खैर आप, आपका क्रिकेट और आपकी महिला पाठक (जिसका जिक्र आपने रविवार डाट कौम पर प्रकाशित साक्षात्कार में किया है) तीनों अतुलनीय हैं। देश में महंगाई हो, बाढ हो, आतंकवाद से भारत माता का कलेजा छलनी हो जाता हो, आपका और इन्डिया का क्रिकेट दोनों देश में घटित किसी भी अन्य महत्वपूर्ण घटना से अधिक महत्वपूर्ण है। तभी तो दूरदर्शन भी क्रिकेट मैचों के सीधा प्रसारण के लिये एक दिन में अरबों तक खर्च करने को तैयार हो जाता है। यह सब आपके ब्राहमणत्‍व का परिणाम है क्योंकि हम शूद्रो का शूद्र्त्व कभी भी नून रोटी को छोड़ किसी अन्य वस्तु अथवा विषयों के बारे में सोचने की इजाजत भी नहीं देता। आखिर हम ठहरे भी तो निरे शूद्र। आप का क्रिकेट प्रेम हमारे लिये प्रेरणाश्रोत है परंतु हम करें भी तो क्या करें कहीं हमारे घर में बिजली नहीं है तो कहीं टेलीविजन नहीं है। कहीं टेलीविजन है भी तो आपका क्रिकेटिया विजन नहीं है। हमें तो धोनी भी उतना ही अच्छा लगता है जितना कि सचिन तेंदुलकर्। हम तो जानते भी नहीं थे कि गावस्कर और तेंदुलकर भारतीय न हो पहले ब्राहम्ण हैं। हम तो बस इतना जानते हैं कि आपके क्रिकेट मैच की बराबरी नहीं कर सकते क्योंकि आप इन्टर्नेशनल पिचों पर खेलकर देश का नाम बढाते हैं जबकि हम पूरा बचपन गिल्ली डंडा के सहारे बीता कर जवानी में सारी उम आपकी बेगारी कर सकते हैं। आपके क्रिकेटिया मैच में वह चाहे इन्डिया जीते या हारे हार तो हम भारत वंशियों की ही होती है। आपने क्रिकेट प्रेम के सहारे मीडिया जगत में एक ऐसी लकीर खींच दी है जिसे पार करना न हमारे वश में है और न ही पार करने की इच्छा ही है। आपके वेदों ने हमें बताया है कि हम शूद्र एकलव्य तो हो सकते हैं लेकिन अर्जुन नहीं हो सकते हैं। आपके द्वारा 5000 साल पहले स्थापित सच आज भी भारतीय खेलों मे जिंदा है अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार के रुप में, जबकि सभी यह मानते हैं कि अर्जुन कितने बड़े धनुर्धारी थे और आप जैसे द्रोणाचार्य कितने मेधावी। मौका मिले तो पटना युनिवर्सिटी अवश्य घूमें आपको थोक के भाव में द्रोणाचार्य मिल ही जायेंगे। आपने सही कहा है कि ब्राह्म्ण सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि हमारे नेता कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी हो सकते हैं परंतु हमारे नेता लंपट से ज्यादा अधिक नहीं हो सकते। लिखने को बहुत कुछ है लेकिन आपके ब्राहम्णत्व के समय का अधिक हिस्सा लेकर मैं पूण्य का हकदार नहीं बनना चाहता क्योंकि आप महान, आपका क्रिकेट महान और आपका ब्राह्म्णत्व महान है क्योंकि हम शूद्र हैं। आपका, एकलव्य नवल किशोर कुमार ब्रहम्पुर, फुलवारी शरीफ़, पटना-801505 मो-9304295773 -- मूल पोस्‍ट यहां देखें प्रमोद रंजन -- Pramod ranjan mo : 9234382621 Patna. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090903/3566e1b0/attachment-0003.html From noreply at netlogmail.com Fri Sep 4 14:26:05 2009 From: noreply at netlogmail.com (Ved Prakash) Date: Fri, 4 Sep 2009 14:26:05 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Visit my Netlog profile Message-ID: <20090904085606.8C9402C48091@mail.sarai.net> Hey, I have created a Netlog profile with my pictures, videos, blogs and events and I want to add you as a friend so you can see it. You first need to register on Netlog! When you log in, you can create your own profile. 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090904/006d29a1/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Sep 5 17:33:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 5 Sep 2009 17:33:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSq4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleCkv+CkuOClgCDgpJ/gpYDgpJrgpLAg4KSV4KWLIOCkquCljQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KSq4KWL4KScIOCkleCkv+Ckr+CkviDgpLngpYg/?= Message-ID: <829019b0909050503j109c0a7bn21aabf3fac8988ff@mail.gmail.com> पोस्ट की टाइटल पढ़ते ही आप मेरे नाम से मन ही मन गालियां भुनभुनाने लगें इसके पहले ही सफाई दे दूं कि इस तरह के घटिया विचार(समाज की ओर से लिया गया पदबंध)मेरे मन में आजतक कभी नहीं आया। पिछले डेढ़ घंटे से रेड एफएम 93.5 पर एक कॉन्टेस्ट चल रहा है जिसमें जॉकी की ओर से लगातार सवाल किया जा रहा है-क्या आपने किसी टीचर को प्रपोज किया है,अगर हां तो हमें फलां नंबर पर कॉल करके बताएं। मेरे हाथों में साबुन लगे हैं,कपड़े धोने जैसा बोरिंग काम कर रहा हूं,इसलिए रेडियो बजा रहा हूं। बिना रेडियो बजाए मैं कपड़े धो नहीं सकता। लेकिन दिक्कत है कि बार-बार मैं चैनल बदल नहीं सकता इसलिए शुरु से जो बज रहा है उसे बजने दे रहा हूं। कई लड़कों ने इस कॉन्टेस्ट में भाग लिया है। कुछ लड़कियां भी अपने अनुभव बता रही है,रेडियो जॉकी को अपना नाम बताए बिना सारी बातें बता दे रही है। एक लड़के ने बताया- एक दिन मैंने एक टीचर को कहा- मैम मुझे सिर में बहुत जोर से दर्द हो रहा है। मैम ने मेरे सिर गोद में ले लिए और सहलाने लगी। मैंने पांच मिनट बाद कहा-मैम आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं,आइ लव यू मैम। जॉकी ने उधर से सवाल किया- तब तो बहुत जूते पड़ेगे होंगे बेटे। लड़का हंसता है और फिर गाना बजने लग जाता है। जॉकी फिर से अपील करता है-आप हमें बताइए,क्या कभी आपने किसी टीचर को प्रपोज किया है।...ये है आज हैप्पी टीचर्स डे के मौके पर टीचर और स्टूडेंट के बीच बनते-बदलते नए संबंधों की तलाश,सर्वे या खोजबीन। मैंने यहां जान-बूझकर गुरु-शिष्य शब्द का प्रयोग नहीं किया,इससे संदर्भ पूरी तरह से बदल जाते हैं। अब मैंने कपड़े धो लिए हैं। एक-एक करके अलगनी पर उसे फैला रहा हूं। अब मैंने रेड एफएम की जगह रेडियो सिटी 91.1 लगा दिया है। यहां है रेडियो जॉकी फबेहा। उसने हम ऑडिएंस के सामने शायरी की एक लाइन छोड़ दी है और हमें मिसरे पर मिसरा फेंकते रहने को कहा है। शायरी की लाइन है- उस टीचर की आंखों में है कैद है मेरा दिल। एक गाना बजता है- साथिया..मद्धि-मद्धिम तेरी भीगी हंसी। फबेहा सतर्क करती है- आप इसे ऐसे गाइए-टीचर,मद्धम,मद्धम तेरी.. रेडियो सिटी टीचर से अपने दिल की बात कह डालने के टिप्स बता रहा है। अब मैंने सारे कपड़े अलगनी पर डाल दिए हैं,क्लिप भी लगा दिए हैं। अब कमरे के अंदर हूं। कुछ खाने का मन कर रहा है लेकिन इसके पहले रेडियो सिटी बदलकर ममा म्यओं 104.8 सुनना चाहता हूं। यहां टीचर अपना एक्सपीरियंस बता रही हैं। बच्चे कैसे पहले से कई गुना स्मार्ट हो गए हैं,ऐसे बहाने बनाते हैं कि आप चाहेंगे कि आपको भी ऐसे ही बच्चे मिलें। मैं कुछ दिनों के लिए बाहर चली गयी थी। वापस आयी तो पूछा-तुमलोग स्कूल क्यों नहीं आ रहे थे? उनका जबाब था- मैम आपके बिना हमारा बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा था। फिर एक रोमैंटिक-सा गाना बजता है। अब मैंने चैनल बदलने के बजाए रेडियो की बैंड को ऐंठना शुरु कर दिया है जहां टीचर्स डे के नाम पर एक ही रंग-ढंग की बातें और कॉन्टेस्ट जारी है। चोर बजारी दो नयनों की के बाद ब्रेक और फिर एक सिग्नेचर..हैप्पी टीचर्स डे। अब मैं पूरी तरह से इत्मिनान हो गया हूं। एक बॉल में स्प्राउट, प्लेट में दो मोनैको बिस्किट और सेब के चार टुकड़े मैंने तैयार कर लिए हैं। तकिए से झुककर अब मैं इसे भकोसने के मूड में हूं। कुछ पुरानी यादों और बातों के साथ। पहली बार में तो मुझे टीचर्स डे के नाम पर एफ एम चैनलों का ये रवैया बिल्कुल अटपटा नहीं लगता है। बहुत नैचुरल बात है यार,इसमें नया क्या है? यकीन नहीं होता तो एक बार मैं हूं न में कैमेस्ट्री की टीचर बनी लाल साड़ी में सुष्मिता को देख लो और उसके पीछे फुद्दू बने स्टूडेंट शाहरुख को। नहीं तो एक बार यूट्यूब पर जान तेरे नाम का ये गाना ही देख लो- माना की कॉलेज में पढ़ना चाहिए..रोमांस का भी एक पीरियड होना चाहिए,गाना देख लीजिए।। फिर अपने साथ भी तो कुछ इसी तरह का मामला बन गया था एक बार- बेरोजगारी के उपर विजी होने और काम मिल जाने का पैबंद लगाने के चक्कर में मैंने दो साल लक्ष्मीनगर के एक इन्स्टीट्यूट में हिन्दी और कम्युनिकेशन स्किल की क्लासें ली हैं। बीएड और डाइट की तैयारी कर रहे बच्चों को मुझे रोज दो से तीन क्लासें देनी होती। पूरी 60-65 स्टूडेंट के बीच मात्र 3 से 4 लड़के होते। मेरे लिए यहां पढ़ाना बड़ा ही अलग किस्म का अनुभव रहा है। आप कह लीजिए कि यहां पढ़ाकर एक हद तक मैंने अपने को अपडेट किया है। खैर,एक लड़की अक्सर क्लास के बाद कुछ न कुछ पूछने आ जाती। सीढ़ियों से उतरते के क्रम में मैं उसे जितना बता पाता,बता देता। मैंने इस बात पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया लेकिन चार-पांच दिनों बाद मैंने महसूस किया किया कि कुलीग और कुछ स्टूडेंट के बीच कहानियां बननी शुरु हो गयी है। रोज की तरह एक दिन वो क्लास शुरु होने के पहले मोबाईल नंबर मांगा। मैंने कहा-चलो देता हूं। क्लास में आते ही ब्लैकबोर्ड पर मैंने मोबाइल नंबर लिखा और कहा जिस किसी को भी कभी किसी चीज की जरुरत हो बेहिचक फोन करना। इस किसी चीज में भावुकतावश मैंने किताब,स्टडी मटीरियल की भी बातें जोड़ दी थी। क्लास खत्म होते ही वो लड़की तेजी से निकली और डपटते हुए अंदाज में कहा- सर, इट्स नॉट फेयर,आपको नंबर इस तरह पब्लिकली नहीं देने चाहिए। आपको पता नहीं है कि ये लड़कियां आपका कितना भेजा खाएगी। आपने मुझे चीट किया है। े ठीक नहीं है सर। उसके बाद उसने क्लास के बाहर आकर पूछना बंद कर दिया। मैने भी नोटिस नहीं ली। फिर मेरे क्लास में आना भी बंद कर दिया। अंतिम क्लास के एक दिन पहले उसकी एक दोस्त ने मुझे कहा-आपने उसे हर्ट किया है सर। आपको इस तरह से ब्लैकबोर्ड पर अपना नंबर नहीं लिखना चाहिए था। नंबर तो वो आपसे इसलिए मांग रही थी कि वो कोर्स के अलावे भी अपने मन की बात शेयर कर सके। मैं अवाक् था। मैंने कहा-अरे,मुझसे पढ़ाई के अलावे ऐसी कौन सी बातें शेयर करना चाह रही थी। उसकी दोस्त का जबाब था-आप डीयू से पढ़े,आप इतने भी अंजान नहीं हो,आप फ्लर्ट कर रहे हो। शहरों में पढ़े रहे बच्चों के बीच स्टूडेंट औऱ टीचर का संबंध कस्बाई स्कूलों के टीचर-स्कूल संबंधों से बिल्कुल अलग है। गांव के स्कूलों पर कोई कमेंट नहीं कर सकता,कुछ नहीं जानता इस बारे में। लेकिन इतना जरुर कह सकता हूं कि स्टूडेंट के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर जिस तरह के इगो क्लैश करते हैं,एकाकीपन का एहसास होता है,अपने को किताबों और क्लासरुम के बीच इतना घिरा और फंसा पाता है कि उसके मन की कई चीजें कहीं भी निकलकर नहीं आने पाती। तारे जमीं की पूरी थीसिस इसी पर है। ऐसे में स्टूडेंट,टीचर को एक सिम्पैथी बॉक्स की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं जिसके भीतर अपने मन की बात,भावुकता,लड़कपन के सारे भाव उड़ेल देना चाहते हैं। ये भाव जाहिर तौर पर अफेयर और प्रपोज करने से अलग हैं। मुझे तो उस कोचिंग में अगले साल भी पढ़ाना था इसलिए मैंने इस भाव को नजरअंदाज करके किनाराकशी कर गया। हम उदात्त नहीं हो पाए। शायद यही वजह है कि हमारे और स्टूडेंट के बीच पलनेवाले भाव महज शेयरिंग की जरुरत के तौर पर नहीं बल्कि एफएम पर अफेयर और प्रपोज के तौर पर उभरकर सामने आ गए हैं। हम जैसे लोग एक हद तक इसके दोषी हैं जो दामन बचाने के चक्कर में लोगों के सोचने के मिजाज को बदल नहीं पाए और देखिए न,कैसे एकाएक इचक दाना,बिचक दाना,दाने उपर दाना अपने लिए आउटडेटेड हो गयी,हफीज मास्टर जैसे लाखों टीचर को आज कोई याद करनेवाला नहीं है। शब्दों का संस्कार देनेवाले पाठक सर अब याद नहीं आते। इतना तो छोड़िए..रट-रटकर क्यों टैंकर फुल,आंखे बंद तो डिब्बा गुल वाला टीचर भी प्रपोज करने की बात के बीच मजा किरकिरा करनेवाला लग जाता है। टीचर के बारे में जितना भी कहा जाए कम है लेकिन सब एफएम गोल्ड,रैनवो और लोकसभा टीवी चैनल के भरोसे छोड़कर सिर्फ इतना भर याद दिलाने की कोशिश-आपने कभी किसी टीचर को प्रपोज किया है,कैसा लगता है सुनकर और कैसा महसूस करते हैं जब बच्चे अपनी टीचर को लेकर सिर्फ इसी दिशा में सोचते हैं और हुमककर एफ एम चैनलों पर जबाब देते हैं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090905/b518f4ca/attachment-0001.html From raviratlami at gmail.com Mon Sep 7 13:40:11 2009 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Mon, 07 Sep 2009 13:40:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KSa4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSwIOCkleClhyDgpLXgpY3gpK/gpILgpJfgpY3gpK8g4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSW4KSoIOCkquClgeCksOCkuOCljeCkleCkvuCksCDgpIbgpK/gpYvgpJw=?= =?utf-8?b?4KSoIOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpLjgpY3gpLjgpYfgpKbgpL7gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWH4KSk4KWBIOCkhuCkruCkguCkpOCljeCksOCkow==?= Message-ID: <4AA4BFE3.6050100@gmail.com> दोस्तों, व्यंग्य लेखन को बढ़ावा देने के लिए 'रचनाकार' द्वारा व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन 1 सितम्बर 09 से 31 दिसम्बर 09 तक किया जा रहा है. वर्तमान में रु. 5000 के पुरस्कार विविध श्रेणियों में दिए जाएंगे. पुरस्कार राशि व श्रेणियों में इजाफ़ा होने की पूरी संभावना है. इस आयोजन में आप भी अपनी हिस्सेदारी दर्ज कर सकते हैं. अपने व्यंग्य लेख जल्द से जल्द रचनाकार को प्रेषित करें. आग्रह है कि कृपया साथी रचनाकारों को भी सूचित करें. विभिन्न श्रेणी के पुरस्कारों के प्रायोजन हेतु भी आपसे विनम्र आग्रह है. इस हेतु पुरस्कारों में सहयोग हेतु हर किस्म की राशि का स्वागत है. पुस्तकों या अन्य चीज़ों को भी पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया जा सकता है. विस्तृत जानकारी यहाँ पर दर्ज है – http://rachanakar.blogspot.com/2009/08/blog-post_18.html किसी भी सम्बन्ध में और जानकारी पाने हेतु rachanakar at gmail.com पर ईमेल भेजने में हिचकें नहीं. सादर, रवि From ravikant at sarai.net Tue Sep 8 13:18:52 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 8 Sep 2009 13:18:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kammenay ke bahane Message-ID: <200909081318.52781.ravikant@sarai.net> New Delhi Film Society Blog se saabhaar. tippaniyan neeche hain. ravikant http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/2009/09/blog-post.html#comments 'कमीने' के मायने के बिक्रम सिंह कई दफा भाषा इतना आगे बढ़ जाती है कि वह सिर्फ भाषा बनकर रह जाती है, उसके अलावा कुछ नहीं । मशहूर कहावत 'माध्यम स्वयं संदेश है' का एक यह भी मतलब है कि माध्यम के पास कोई संदेश देने लायक है ही नहीं। हाल ही में जब मैंने विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' देखी तो मेरे मन में बा र-बार यही ख्याल आता रहा। 'कमीने' में तकनीकी चमक है, अच्छी ध्वनि है, रहस्यपूर्ण छायांकन है जो कुछ चीजें साफ दिखाता है और बहुत सारी चीज़ें केवल सुझाता है। संगीत भी ठीक-ठाक ही है, लेकि न इसमें बदहवास तेज़ी है जो दर्शक को सोचने समझने का मौका नहीं देती और न ही ऐसे किरदार हैं जो दर्शक के मन पर हमेशा के लिए छाप छोडें। इसलिए यह फिल्म केवल फिल्म-भाषा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, न कि एक कलाकृति के रुप में। यदि हम कला-सिनेमा, जिसे मैं विचार-सिनेमा कहना ज़्यादा पसंद करता हूं, को अलग छोड़ दें तो मनो रंजन प्रधान सिनेमा में कुछ गिनी-चुनी ही फिल्में हैं जो फिल्म-भाषा के लिहाज से मील का पत्थर मा नी जा सकती हैं। सिनेमा में ध्वनि आने के बाद कई दशकों तक भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा एक सीधी गीतों भरी कहानी बनाने में ही मशगूल रहा। इसीलिए कई कहानी लेखक फिल्म के साथ जुड़े जिन्हे पटकथा लिखना बिलकुल नहीं आता था। फिल्म की भाषा साहित्यिक नहीं है क्योंकि वह केवल शब्दों पर निर्भर नहीं करती। फिल्म के लिए शब्द केवल एक तत्व है। बाकी और बहुत तत्व हैं जैसे कैमरा, शॉ ट लेने का तरीका, प्रकाश-संयोजन, सेट तथा लोकेशन, वेशभूषा, श्रृंगार, ध्वनि, पार्श्व-संगीत, कला कर, अभिनय और एडिटिंग यानी संकलन इत्यादि। जिस लेखक को इन चीज़ों के बारे में ज्ञान नहीं है, वह फिल्म के लिए अच्छा पटकथा-लेखन नहीं कर सकता, क्योंकि किसी भी माध्यम में काम करने के लिए उसी माध्यम में सोचने की आवश्यकता है, चाहे वह साहित्य हो, चित्रकला हो या फिर सिनेमा। मेरे विचार में 1975 में बनी 'शोले' ऐसी फिल्म थी जो फिल्म माध्यम में ही सोची गई थी। यह दीगर बात है कि उसे कुछ हॉलीवुड और कुछ कुरोसावा की 'सेवन समुराई' से चुराया गया था। इस फिल्म में लैंडस्केप, खुली लेकिन वीरानी कृति, साधारण जीवन से बड़े किरदार, एक ऐसी शाब्दिक भाषा जो हिं दी होते हुए भी न ही खड़ी बोली है और न ही किसी विशेष क्षेत्र की हिंदी, अच्छे किरदार तथा उत्कृष्ट ध्वनि एवं संगीत का इस्तेमाल कर जो फिल्म की एक नई भाषा गढ़ी गई वह भारतीय सिनेमा में पहले कभी देखने में नहीं आई थी। बहुत सालों के बाद सन 2004 में मणि रत्नम की 'युवा' ने फिल्म भाषा के इतिहास में एक नए मील के पत्थर की स्थापना की। इस फिल्म में तीन कहानियां अलग-अलग शुरू होती हैं, जो अंत में जाकर एक ही धारा में मिल जाती हैं। साहित्य जगत में यह तकनीक कई दफा इस्तेमाल की गई है, लेकिन हिंदी सिनेमा में मेरे ख्याल से यह पहली दफा देखा गया था। लगभग पांच साल पहले जब मैंने विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' (2004) फिल्म देखी थी तो मुझे यह लगा था कि यह फिल्म-निर्देशक सिनेमा से प्रयोग करने की हिम्मत कर सकता है। लेकिन 'मकबूबल' की सफलता उसके बनाने के ढंग पर कम और उसके कलाकरों और किरदारों पर ज्यादा निर्भर थी। मकबूल में कई पाए के कलाकार थे, जैसे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफान खान, पीयूष मिश्रा और तब्बू। ये सब ऐसे कलाकार हैं जो छोटे किरदार को भी जीवंत बना सकते हैं। इसके अलावा 'मकबूल' शेक्सपियर के नाटक 'मैकबेथ' पर आधारित थी और उसमें अतिनाटकीयता का भरपूर योग था। इसके दो साल बाद 'ओमकारा' आई जो 'ओथेलो' पर आधारित थी। 'मकबूल' और 'ओमकारा' में ज़मी न-आसमान का फ़र्क था। 'ओमकारा' आधुनिक नाटक की भाषा को बिलकुल तज कर फिल्म की अपनी एक भाषा गढ़ती है जो एक तरफ कहीं जाकर 'शोले' से मिलती है और दूसरी तरफ स्वांग और तमाशा की लोक नाटक शैलियों से, जिनमें 'खेला' पर अधिक ज़ोर रहता था। 'ओमकारा' में कोई बड़े कलाकार नहीं थे। इसमें अजय देवगन और करीना कपूर जैसे स्टार ज़रुर थे, लेकिन वे अपने अभिनय के लिए कुछ ज़्या दा नहीं जाने जाते थे। 'ओमकारा' ने यह सिद्ध कर दिया कि विशाल भारद्वाज साधारण कलाकारों से भी प्रभावशाली भूमिकाएं करवा सकता है। 'ओमकारा' के सबसे महत्वूर्ण 'लंगड़ा त्यागी' का किरदार सैफ अली खान ने निभाया था जो उस समय तक कुछ नर्म-गर्म शहरी किरदार निभाने के लिए जाना जाता था। विशाल भारद्वाज के निर्देशन में वह एक बिल्कुल नए रुप में उभर कर सामने आया, जिसके बाद सैफ अली खान के करियर को दूसरा जन्म मिला। 'ओमकारा' किसी भी घटनाक्रम को विस्तार से नहीं कहती, केवल इतना बताती है कि बाकी चीज़ें दर्शक खुद समझ जाएं। यह फिल्म संवाद का भी बहुत कम सहारा लेती है। शाब्दिक भाषा की दृष्टि से 'शोले' की ही तरह यह फिल्म भी एक नई भाषा गढ़ती है, जो न ही बुंदेलखंड की है, न ही राजस्थान की और न ही पूरब की। एक तरह की खिचड़ी है, लेकिन यह खि चड़ी अच्छी लगती है, और एक ऐसे देश का ज़रुर आह्वान करती है जहां पर 'ओमकारा' का घटनाक्रम घट सकता था। इसके विपरीत 'कमीने' केवल हिंसा, हैंड-हेल्ड यानी हस्तचालित कैमरा, अंधेरे के प्रयोग और शोर भर ध्वनि पर निर्भर करती है। प्रियंका चोपड़ा के किरदार के अलावा कोई भी किरदार मन को नहीं छूता। जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति के बाहर है। यह सही है कि अब भारत की लगभग पचास प्रतिशत आबादी छोड़े-बड़े शहरों में रहती है, लेकिन इनमें रहने वाले लोग अब भी शहरों के अंधेरों के बाशिंदे नहीं हैं क्योंकि वे आज भी गांव के बहुत करीब हैं। इसमें शक नहीं कि वि शाल भारद्वाज एक निहायत ही प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, किंदु यदि उन्हे क्राइजिसटोफ किस्लोविस्की का थोड़ा सा भी ऋण चुकाना है, जिनक फिल्में देखकर उन्हे फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली थी, तो उन्हे फिल्म भाषा के साथ-साथ फिल्म में विचार की तरफ भी ध्यान देना होगा। हमारे यहां विचारहीन सिनेमा की बहुतायत है। इसे और उत्कृष्ट बनाने के लिए विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की आवश्यकता नहीं है। (K Bikram Singh is a very senior writer, filmmaker & journalist. This article has been published in the hindi daily 'Hindustan'. Mr Singh can be contacted at kbikramsingh at bol.net.in) -- comments: प्रबुद्ध said... कमीने में विचार नहीं था क्या? मुझे लगा विचार ये था कि इस दुनिया में सब के सब कमीने हैं, ज़रा संभलकर रहो ! आपने कहा- "जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति से बाहर है" - अब बेचारे विशाल ने कब कहा कि उन्होंने ये फ़िल्म साधारण भारतीय दर्शक के लिए बनाई है। और पर्दे पर बात अच्छी तरह रखी गई हो तो कहां का साधारण और कहां का असाधारण। जब 1975 में शोले को हाथों-हाथ लिया गया तो क्या कहानी के इस एकदम बदलाव के लिए रातों रात साधारण दर्शक, असाधारण में बदल गया था जैसा आपने ज्ञानवर्धन किया कि वो सैवन सैमुराय से प्रेरित थी। अब बेचारे इस'साधारण दर्शक' के बारे में सोचते हुए हम इतनी उदारता तो रख ही सकते हैं कि शोले के बाद के इन 35 सालों में ये ख़ुद को फ़िल्मों के चयन और ज़ायक़े के बारे में बेहतर बना पाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो यक़ीन मानिए किसी में इतनी नई कहानियां कहने की हिम्मत नहीं होती । रविकान्त said... शुक्रिया, मज़ा आया. सही बात है कि सिनेमा में बोली एक तत्व है, लेकिन कम-से-कम हिन्दुस्तानी सि ने-इतिहास में शब्दों का बहुत महत्व है. हमारी फ़िल्में अपेक्षाकृत ज़्यादा बोलती हैं. हम फिल्मों को उनके गानों से याद रखते हैं, डायलॉग हमारे युग की सूक्तियाँ हैं, वैसे ही जैसे रामचरितमानस पढ़ने-गुने वाली पीढ़ियों के लिए गोसाईँ जी के दोहे और चौपाइयाँ. और अकारण नहीं है कि शोले को याद करते हुए हम उसके डायलॉग सबसे ज़्यादा याद करते हैं! ये दीगर बात है कि अब डायलॉग-युग का एक तरह से अंत हो गया है, लेकिन यह अंत काफ़ी लंबे समय में, और धीरे-धीरे हुआ है. जैसा कि एक मित्र ने कल फ़रमाया, मुग़ल-ए-आज़म में पृथ्वीराज कपूर और दि लीप कुमार के संवाद और उसकी अदायगी में जो फ़र्क़ है, वह पारसी थिएटर की उस हिन्दुस्तानी परंपरा और हॉलीवुड शैली की अदायगी का फ़र्क़ भी है, जो दिल चाहता है में आकर बिल्कुल मुख्यधारा बन जाता है. वैसे कमीने देखने के बाद और बात होगी. From anant7akash at gmail.com Wed Sep 9 04:49:53 2009 From: anant7akash at gmail.com (anant7akash) Date: 8 Sep 2009 23:19:53 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Anant7akash_invite?= =?utf-8?q?s_you_to_join_Zorpia?= Message-ID: <20090908231953.16584.qmail@zorpia.com> An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090908/5b0257c1/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Sep 10 13:49:50 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 10 Sep 2009 13:49:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS44KWA4KSw?= =?utf-8?b?4KWB4KSm4KWN4KSm4KWA4KSoIOCktuCkvuCkuSA6IOCkr+ClguCkgSDgpLA=?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KSu4KSC4KSaIOCkleClgCDgpLDgpL7gpLkg4KSa4KSy4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSC?= Message-ID: <200909101349.50718.ravikant@sarai.net> यूँ रंगमंच की राह चला मैं/ नसीरुद्दीन शाह तहलका: 20/08/09 से साभार: http://www.tehelkahindi.com/mulakaat/shakhsiyat/354.html अपने थियेटर ग्रुप मॉटली प्रोडक्शंस के तीस साल पूरे होने के मौके पर जाने-माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह नाटकों के प्रति अपने जुनून के सफर को साझा कर रहे हैं सिनेमा की तरह थियेटर के प्रति भी मेरा लगाव जिस माहौल में पनपा वो ऐसा था जिसे इस तरह की चीजों के लिए जरा भी माकूल नहीं कहा जा सकता. पेशे से प्रशासनिक अधिकारी मेरे वालिद बेहद कड़कमिजाज थे. वो चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं और इज्जत कमाऊं. लेकिन मुझे एक्टिंग पसंद थी जो उनकी नजर में घटिया दर्जे का काम था. यही वजह थी कि मुझे शुरू से ही बर्बाद करार दे दिया गया था. उन्हें मैं एक ऐसा लड़का लगता था जो किसी काम का नहीं था. ऐसा कई सालों तक चलता रहा. मैं किसी भी हालत में एक्टिंग के जरिये मशहूर होने के अपने ख्वाब को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. नतीजा घर में खूब लड़ाई होती. गुस्सा, लानत, बेइज्जती..हर तरह के हथियार से काम लिया जाता. मगर क्या मजाल कि मैं टस से मस हो जाऊं. लगता था जैसे मुझ पर कोई साया हो. मैंने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया था. इसके बाद कई साल तक मेरे वालिद से मेरी बात नहीं हुई. फि र मेरी पहली फिल्म निशांत आई. उन्होंने भी ये देखी और उन्हें ये अच्छी लगी. मगर हमारा रिश्ता पूरी तरह से पटरी पर आता उससे पहले ही वो गुजर गए. उनका जाना मेरी जिंदगी में एक ऐसा खाली पन छोड़ गया जो आज तक नहीं भर पाया है. उनकी मौत के बाद मैंने उनके एक जोड़ी जूते अपने पास रख लिए थे, स्टैंडर्ड बाटा नॉटी ब्वॉय शूज जिनकी उम्र अब कम से कम पचास साल हो चुकी होगी. कभी-कभी मैं इन्हें अपने नाटकों के दौरान पहन लेता हूं और सोचता हूं कि क्या वो मुझे कहीं से देख रहे होंगे. थियेटर से लगाव का बीज मुझमें सेंट जोजेफ के दौरान पड़ा जो नैनीताल में मेरा बोर्डिंग स्कूल था. वहां पर नाटक, ऑपरा वगैरह होते रहते थे. वैसे तो ये स्कूल था मगर यहां पर नाटकों का मंचन बड़े ही भव्य स्तर पर किया जाता था. हालांकि मुझे वहां कभी भी मंच पर आने का मौका नहीं दिया गया. मैं पढ़ने-लिखने में भी होशियार नहीं था और इसका मतलब था हर चीज में पीछे रहने का दर्द झेलना. मैं खामोशी से इस दर्द को सहता रहा. फिर भी नाटकों का जादू मेरे सर चढ़कर बोला करता था. स्कूल में हमें बहुत सी बढ़िया फिल्में देखने को भी मिलीं. और कहा जाए तो मेरी असली शिक्षा बुनियादी रूप से यही फिल्में और नाटक रहे. मेरी जिंदगी के सांचे को इन्होंने ही ढाला. साल में एक बार ज्योफरी केंडल का ब्रिटिश थियेटर ग्रुप शेक्सपियराना भी वहां आता था. मैंने अपनी जिंदगी में केंडल से महान अभिनेता और इंसान नहीं देखा. उनका काम मुझे अब भी राह दिखाता है. थियेटर के काम को उन्होंने नए मायने दिए. वो हमेशा कहा करते थे, ‘मैं कोई एक्टर या डायरेक्टर नहीं हूं, मैं एक मिशनरी हूं और मेरा मिशन है शेक्सपियर के का म को फैलाना.’ केंडल के मंचन का एक पहलू मुझे हमेशा बड़ा चकित करता था. हमारे स्कूल में जो नाटक होते थे उनमें जंगल, नदी, ड्राइंग रूम जसी चीजों को दिखाने के लिए गत्ते से बने सेट्स इस्तेमाल होते थे. मगर केंडल के नाटकों में ऐसा कोई सेट नहीं होता था. बल्कि उनके नाटकों के दौरान मंच की पृष्ठभूमि काली हो ती थी और वे एक कुर्सी और हैट जैसी कम से कम चीजों के साथ मंच पर प्रकट होते थे. मुझे इसकी वजह समझने में कई साल या कहिए कि दशक लग गए. और जब मैं इसे समझा तो मुझे इस बात की खुशी हुई कि सौंदर्यबोध की अपनी यात्रा में मैं खुद ही उस नतीजे पर पहुंच गया हूं जिस पर कभी केंडल भी पहुंचे होंगे. स्कूल के बाद घरवालों के दबाव में मैं अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी गया. यहां फिर से मुझे कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने मुझे निराशा से उबारा और जिनका मैं जिंदगी भर शुक्रगुजार रहूंगा. ये थे बेकेट, चेखव, शॉ और खासकर एक जाहिदा जदी जिन्होंने मुझे न सिर्फ वेटिंग फॉर गोडॉट और चेयर्स जैसे नाटक पढ़वाए (जिनका मुझे न सर समझ में आता था न पैर) बल्कि जो इस पर भी अड़ी रहीं कि मैं मंच पर उनका हिस्सा भी बनूं. अलीगढ़ जैसे शहर में चेयर्स जैसे नाटक का मंचन या तो बहादुरी की सबसे बड़ी मिसाल कहा जा सकता है या फिर बेवकूफी की. मेरी कोशिश इन दोनों के कहीं बीच की रही. अलीगढ़ के बाद अगला पड़ाव था नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा यानी एनएसडी. यहां इब्राहीम अलकाजी की शानदार मंच प्रस्तुतियां थीं जिनकी भव्यता सम्मोहित करने वाली थी. बारीकी उनके काम की खासि यत थी और नाटक के हर पहलू से जुड़ी छोटी से छोटी चीज पर भी बेहद ध्यान दिया जाता था फिर चाहे वो किसी चरित्र के जूते हों या पृष्ठभूमि में किसी पेड़ की पत्तियों का रंग. एनएसडी के बाद बारी थी पुणे के एफटीआईआई की. यहां आने के बाद पांच साल तक मैं थियेटर से कटा रहा. फिर एक दिन बेंजामिन गिलानी और मैं जुनून के सेट पर बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक बेंजामि न बोले, ‘मैं तुम्हारे साथ एक नाटक करना चाहता हूं. चलो एक कोशिश करते हैं.’ बेंजामिन भी एफटी आईआई से ही निकले थे और मेरी और उनकी पहली मुलाकात के वक्त से ही जमने लगी थी. हमारे शौक भी मिलते-जुलते थे मगर हमारा स्वभाव बिल्कुल जुदा था. शायद यही वजह है कि तीन दशक बाद आज भी हम अच्छे दोस्त हैं. बेंजामिन की राय थी कि हमें वेटिंग फॉर गोडॉट करना चाहिए. मैं अपनी कुर्सी से लगभग उछलता हुआ बोला, ‘अरे नहीं! मुझे तो इसका एक भी शब्द समझ में नहीं आता.’ मगर बेंजामिन अपनी जिद पर अड़े रहे और हम आगे बढ़ चले. हम यानी टॉम ऑल्टर, बेंजामिन, एफटीआईआई में हमारे प्रोफेसर तनेजा और मैं. हमने एक साल तक इसकी तैयारी की. इसमें पढ़ना और रिहर्सल जैसी चीजें शामिल थीं. हौसला का यम रखने के लिए हमने इसके कुछ दूसरे मंचन भी देखे. इनमें से एक गुजराती में भी था जिसे देखकर हमारा आत्मविश्वास बढ़ा. गोडॉट और वो भी गुजराती में, यानी इस तरह की चीजें भी मुमकिन थीं. तो इस तरह तीस साल पहले 29 जुलाई 1979 को हमने गोडॉट का पहला शो किया. ये बुरी तरह फ्ला प रहा. इसके बाद हमने इसे इसके हाल पर छोड़ दिया. छह महीने बाद हमने एक बार फिर इसके बारे में सोचा. उन दिनों ओमपुरी का मजमा के नाम से अपना एक ग्रुप था. हमने उनसे कहा कि वे हमारे प्रायोजक बन जाएं. आखिर एक साल बाद हमें बांबे के सोफिया कालेज से इस नाटक के प्रदर्शन का नि मंत्रण मिला. हमें दो हजार छात्रों की भीड़ के सामने दो शो करने थे. दर्शकों की प्रतिक्रिया शा नदार रही. पहली बार हमें लगा कि हम कुछ अच्छा कर रहे हैं. मंचन में हमने मुश्किल से 1000 रुपए खर्च किए होंगे. इस तरह से इन प्रदर्शनों से जो भी पैसा मिला वह हमारा शुद्ध लाभ था. इस सफलता के बाद हमारा अपना ग्रुप वजूद में आया. बेंजामिन ने इसका नाम रखा मॉटली वक्त के साथ प्रोफेसर तनेजा और टॉम की राह अलग हो गई और रत्ना (पाठक शाह), बेंजामिन, आकर्ष खुराना और मैं मॉटली प्रोडक्शंस के अहम सदस्य बन गए. आज मॉटली विदेश में शो करता है और कभी-कभी तो हमें एक शो के 15 हजार डॉलर तक मिल जाते हैं. मगर जब तीस साल पहले हमने अपने सफर की शुरुआत की थी तो हालात ऐसे नहीं थे. एनसीपीए के पास 50 दर्शकों की क्षमता वाला एक छोटा सा थियेटर था जिसमें सिर्फ हिंदी के नाटक होते थे. इसके अलावा दादर के छबील दास हाईस्कूल के पास एक छोटा सा ऑडिटोरियम था जिसे वो किराए पर देता था. बांबे का सारा प्रयोगवादी थियेटर, चाहे वो मराठी हो, गुजराती या हिंदी, यहीं पैदा हुआ. यहीं पर अरविंद और सुलभा देशपांडे ने आविष्कार की शुरुआत की और यहीं से नाना पाटेकर और रो हिणी हटंगड़ी जैसे कलाकार भी निकले. यही वो जगह थी जहां उन दिनों हम 10-12 दर्शकों के सामने शो करते थे. रिहर्सल के लिए जुगाड़ टेक्नॉलॉजी से काम चलाना पड़ता था. ये डबल डेकर बस के ऊपरी फ्लोर पर होती थी या फिर दोपहर के वक्त लोकल ट्रेन में जब वे खाली चलती थीं. रिहर्सल की जगह पर एक हैट उल्टा करके रखा होता था और किसी दुर्लभ दिन कोई उसमें 100 रुपये का नोट डाल देता था. हालांकि ज्यादातर दिन इसके नसीब में एक, पांच या फिर ज्यादा से ज्यादा दस रुपये के नोट होते थे. तो वो भी दिन थे. और आज ये दिन हैं कि मॉटली में शामिल होने की चाह में नौजवान एक मील लंबी लाइन लगा देते हैं. मैं उन सब से कहता हूं कि जाइए और अपने बूते कुछ करिए. हर एक में कुछ न कुछ खा स होता है और इंसान उसे तभी पा सकता है जब वो अपने मकसद के जुनून और उसके रास्ते में आने वाली मुश्किलों से दोचार हो. मॉटली में हमने शुरुआत से ही ये फैसला कर लिया था कि हम कलाकारों की संख्या कम से कम रखेंगे. इसकी वजह सिर्फ यही नहीं थी कि ज्यादा कलाकारों को ज्यादा पैसा देना पड़ता बल्कि ये भी थी कि ज्यादा कलाकारों को एक साथ रखने में बड़ी मुश्किलें होती थीं. अक्सर को ई बीमार हो जाता या किसी को कोई बहुत जरूरी काम पड़ जाता. हमारे नाटक भी छोटे-छोटे होते थे जिनमें ज्यादा ताम-झाम नहीं होता था. ताम-झाम के लिए पैसे की जरूरत होती थी और हम कोई ब्रॉडवे तो थे नहीं. मगर एक दिन मेरे भीतर छिपा हुआ इब्राहिम अलकाजी का सपना बाहर निकल आया और मैंने जूलियस सी जर करने का फैसला किया. ये 1992 की बात है. विक्रम कपाड़िया इसके सहनिर्देशक थे. हमारे पास 70 कलाकारों की कास्ट थी. इसमें केके मेनन भी थे जो भीड़ में खड़े एक्स्ट्राज में से एक थे. हमने इसमें काफी पैसा खर्च किया मगर कोई इसे देखने नहीं आया. इस नाटक ने हमारी जेब की हालत खस्ता कर दी. मुझे लगा था कि जूलियस सीजर तो हर स्कूल में पढ़ाया जाता है और कम से कम छात्र तो इसे देखने के लिए उमड़ेंगे ही. मगर आए तो सिर्फ कुछ टीचर्स और वो भी दूसरे दिन. और वो भी इस बात से बेहद नाराज हुए कि हमने नाटक में बदलाव कर दिया था. हमारी खूब हूटिंग हुई. जूलियस सीजर के सदमे से उबरने के बाद हमने डियर लायर नाम का एक नाटक किया. इसमें सिर्फ दो कलाकार थे. आज 20 साल बाद भी इसका मंचन हो रहा है. गोडॉट को चलते हुए 30 साल हो गए हैं और इस्मत आपा के नाम को 10. धीरे-धीरे हम अपने मुकाम तक पहुंच गए हैं. मुख्यधारा के सिनेमा से ऊबकर मैं 1981 में अपनी गाढ़ी कमाई के 35 हजार रुपये खर्च कर पोलैंड चला गया था ताकि थियेटर जगत के दिग्गज जेर्जी ग्रोतोवस्की के साथ काम कर सकूं. उनकी किताब टुवर्ड्स अ पुअर थियेटर पढ़कर मैं उनका मुरीद हो गया था और आज भी मुझे लगता है कि थियेटर पर मैंने जितनी भी किताबें पढ़ी हैं उनमें से ये सबसे ज्यादा गहराई से इस दुनिया के बारे में कहती है. हालांकि उनसे मेरी मुलाकात थोड़ी निराशाजनक रही मगर इसने मुझे खोज की एक अहम राह पर धकेल दिया. ग्रोतोवस्की ब्रॉडवे के बहुत बड़े आलोचक थे. उनका सवाल था कि जब विशेष प्रभाव पैदा करने के मामले में थियेटर कभी भी सिनेमा की बराबरी नहीं कर सकता तो फिर ये इस मामले में सिनेमा से मुकाबला करने पर क्यों आमादा है? वो कहते थे कि आदमी को अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने की जरूरत होती है और इसी जरूरत से थियेटर का जन्म हुआ है इसलिए अपनी बात पहुंचाने के लिए हमें मंच पर बड़े-बड़े कि ले, हेलीकॉप्टर आदि जैसी भव्यताओं की जरूरत नहीं होनी चाहिए. ग्रोतोवस्की का तर्क था कि थि येटर का असली जादू दर्शक की कल्पना को जगाने में है इसलिए संसाधनों की कमी हमारी कमजोरी नहीं ताकत होनी चाहिए. उनके मुताबिक अगर आप हर ऊपरी चीज को हटा दें - सेट्स, लाइट्स, कॉस्ट्यूम्स - तो आपको बस साधारण कपड़े पहने एक अभिनेता की जरूरत है जो मेहनत करने के लिए तैयार हो और बस हो गया थियेटर तैयार. ग्रोतोवस्की का कहना था कि थियेटर का मतलब ज्यादा ताम-झाम नहीं हैं. दो लोग मिलें और बात करने लगें तो इसी को थियेटर कहा जा सकता है. बाद में वो अपने इस तर्क को इतना आगे ले गए कि उन्होंने इसमें से संवाद की जरूरत को भी हटा दि या. मगर मुझे ये सब चीजें धीरे-धीरे ही समझ में आईं. ग्रोतोवस्की की वजह से ही मैं केंडल के थियेटर के उस अंदाज को समझ पाया जो कभी मैंने सालों पहले अपने स्कूली दिनों में देखा था. केंडल भी अपने सेट पर ज्यादा ताम-झाम नहीं रखते थे और इसके बावजूद मैंने अपनी जिंदगी में उससे ज्यादा जादुई थियेटर नहीं देखा. इसलिए जब हमने अपना थियेटर ग्रुप बनाया तो हमने किस्सागोई की उस कला पर ज्यादा जोर रखा जो हमेशा से हमारे समाज में रही है. मॉटली प्रोडक्शंस में हमारी कोशिश ये रहती है कि हम दर्शकों की कल्पना को जगाएं. इस्मत चुगताई, मंटो और मोहन राकेश की कहानियों पर आधारित श्रंखला और हाल ही में दास्तानगोई के जरिए हम यही कर रहे हैं. दास्तानगोई का हिस्सा बनने के बाद मुझे लगता है जैसे मैंने अपना घर पा लिया है. कला के नजरिये से देखा जाए तो इससे बड़ी चुनौती कोई नहीं और अब मैं बाकी की जिंदगी यही करना चाहता हूं. महमूद फारुकी ने सिनेमा की वजह से खत्म हो चुकी इस महान कला को जिलाने के लिए जो काम किया है इसके लिए उनका जितना शुक्रिया किया जाए कम है. अलकाजी की शैली वाले थियेटर के लिए मेरा जो पागलपन था दास्तानगोई ने उसे खत्म कर दिया. अब मेरी इस तरह का थियेटर करने की कोई इच्छा नहीं. बल्कि मुझे तो अब इसे देखने में भी मजा नहीं आता. अब मेरा सिर्फ एक ही सपना है कि मॉटली मेरे बाद भी जिंदा रहे. बदकिस्मती से इसे अब मेरे साथ ही जोड़कर देखा जाने लगा है मगर मैं चाहता हूं कि ये मेरे बगैर भी चले. मैं चाहता हूं कि लोग मॉटली को इसके काम के लिए जानें, नसीरुद्दीन शाह की वजह से नहीं. From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Sep 12 13:20:49 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 12 Sep 2009 13:20:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSC4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSo4KS+4KSu4KS+IOCklOCksCDgpKbgpYLgpLAg4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkhuCkjyDgpKXgpYcg4KS44KS+4KSV4KWAOiAn4KSo4KSc4KS84KWA?= =?utf-8?b?4KSwJyDgpIXgpJXgpKzgpLDgpL7gpKzgpL7gpKbgpYA=?= Message-ID: <196167b80909120050q459f53cfp538de56a011f6e30@mail.gmail.com> बंजारानामा और दूर से आए थे साकी: 'नज़ीर' अकबराबादी विजय अनत जी की तरफ से आज यह मेल आया था. नजीर अकबराबादी मुझे हमेशा प्रिय रहे हैं. उनकी रचना आप सबके नजर कर रहा हूँ.. यह कहने की जरूरत तो नहीं रचना पढने के बाद दाद भी देनी होगी.. पूरी गजल यहाँ पढ़ सकते हैं- http://ashishanshu.blogspot.com/ ------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090912/9cf278dc/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Sep 12 13:46:10 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 12 Sep 2009 13:46:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSq4KWL4KSw4KWH4KSfIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYcg?= =?utf-8?b?4KSn4KWN4KS14KS44KWN4KSkIOCkueCli+CkqOClhyDgpJXgpYcg4KSm?= =?utf-8?b?4KS/4KSoIOCktuClgeCksOClgSzgpKvgpLDgpY3gpLjgpY3gpJ8g4KSr?= =?utf-8?b?4KWH4KScIOCkteClgOCkk+CkhuCkiA==?= Message-ID: <829019b0909120116n33d95b7cqe8c72518741ffb2b@mail.gmail.com> वाइस ऑफ इंडिया के ब्लैकआउट होने के बाद अंदर की खबर सार्वजनिक करने और अपने हक की लड़ाई में हम जैसे लोगों का नैतिक समर्थन जुटाने के इरादे से इस चैनल के मीडियाकर्मियों ने long live voi नाम से एक ब्लॉग बनाया जिसे कि बाद में समझौते के आसार देखकर बंद कर दिया। अभी क्लिक किया तो ये फिर से एक्टिव है। इस ब्लॉग ने कई ऐसी बातें प्रकाशित की जिससे हमें यहां बैठे-बैठे ही चैनल के भीतर की कई सारी गड़बड़ियों और इसके खोखले होते जाने का अंदाजा लगने लगा। लेकिन ब्लॉग पर आयी दो बातों ने मुझे सबसे ज्यादा परेशान किया। एक तो ये कि यहां न्यूज रुम में आरती की थालियां घुमायी जाती है और दूसरा कि ब्लैकआउट और कई महीनों से पैसे न मिलने की स्थिति में मीडियाकर्मियों को अपने बच्चों की स्कूल फीस देनी भारी पड़ रही है,खर्चे में कटौती लाने के लिए वो अपनी पत्नी को मायके भेज दे रहे हैं। मेरी अपनी समझ है कि देश का चाहे जो भी न्यूज चैनल हो उसे हर हाल में सेकुलर होना चाहिए। इस बात का अंदाजा हमें है कि जिन मान्यताओं और विश्वासों से हमारा कभी कोई सरोकार नहीं रहा है,हमारे जैसे कई लोग अगर वहां मौजूद रहे होंगे जिन्हें कि ये सब कुछ कमजोरी में अपनाया जानेवाला पाखंड लगता हो वो काम करते वक्त कैसे असहज महसूस करते होंगे। नैतिक रुप से किसी भी संस्थान को ये अधिकार नहीं है कि वो अपनी मर्जी की मान्यताओं और धार्मिक विश्वासों को अपने यहां काम कर रहे लोगों पर थोपने की कोशिश करे। मैंने लेखन के स्तर पर इस रवैये का विरोध किया और इसके साथ ही चैनल के सीइओ अमित सिन्हा के उस वक्तव्य का भी जिसे कि एक न्यूज पोर्टल ने उनके इंटरव्यू प्रकाशित करने के दौरान किया- वो साईं के भक्त हैं और उन्हें पूरा भरोसा है,सब ठीक हो जाएगा।..आज ये चैनल बंद है, सैंकड़ोंमीडियाकर्मी सड़कों पर आ गए हैं,उनकी जिम्मेवारी लेनेवाला कोई नहीं है।.. मैंने तब भी कहा कि चैनल धार्मिक विशेवासों के बूते नहीं,मार्केट स्ट्रैटजी के दम पर चलते हैं और अमित सिन्हा को चाहिए कि वो एक भावुक भक्त के बजाय एक प्रोफेशनल की तरह सोचें औऱ काम करें। मेरी इस बात पर चैनल के ही एक एंकर-प्रोड्यूसर को इतनी मिर्ची लगी कि उन्होंने संजय देशवाल,एक फर्जी नाम से हम पर बहुत ही बेहुदे और अपमानजनक तरीके से कमेंट किया। हम पर आरोप लगाए कि हमें कुछ भी पता नहीं है,हम लिखने के नाम पर बकवास कर रहे हैं,इस मामले में हमें कुछ भी बोलने की औकात नहीं है। आज उनकी महानता स्वीकार करते हुए हम अपील करते हैं कि रोजी-रोजगार छिन जानेवाले सैकड़ों मीडियाकर्मियों को लेकर आपके पास जो जानकारी है,संभव हो तो उनके पक्ष में या फिर हमेशा की तरह अपने मालिक के पक्ष में कुछ तो करें। ये अलग बात है कि अगले ही दिन उन्होंने करीब पन्द्रह मिनट तक मुझसे फोन पर बात की और अलग-अलग तरीके से अपने को जस्टीफाय करने की कोशिश की कि यार हमें मालिक के पक्ष का तो ध्यान रखना ही होता है न। बात भी सही है कि अगर रोटी की जुगाड़ मालिक के रहमो करम पर हो रही है तो वो हमारा पक्ष क्यों लेंगे या फिर उन मीडियाकर्मियों का पक्ष क्यों लेंगे जिन्हें अगले महीने बैंकवाले नोचने आएंगे,सुबह से खटनेवाली उनकी पत्नी के दोपहर थोड़ी देर तक सुस्ताने के समय ही कॉल वैल बजा-बजाकर उसका जीन हराम कर देंगे। ये मालिक के प्रति वफादारी ही तो है कि तथ्यों को ताक पर रखकर हम जैसे लोगों को दमभर लताड़ो,हमें सार्वजनिक तौर पर जलील करने की कोशिश करो और रात होते ही थोड़ी -बहतु बची जमीर जब अंदर से धक्का देने लगे तो फोन करके जस्टिफाय करने लगो,अपने को मजबूर बताओ....अब तक दर्जनों लोगों को फाड़ देने,निपटा देने का रेफरेंस दो। आपको ये सब पढ़-सुनकर हैरानी हो रही होगी न कि ग्लोबल स्तर पर खबरों को बांचने वाला मीडियाकर्मी कितना व्यक्तिगत स्तर पर आकर सोचता है,व्यवहार करता है जहां चार सौ से भी ज्यादा अपने सहकर्मियों के दर्द के आगे उसे अपने मालिक के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध बने रहना ज्यादा जरुरी हो जाता है। आप यहीं से सोच सकते हैं कि चैनलों की बाढ़ और बिग मीडिया के बीच मीडियाकर्मियों का कद कितना छोटा होता चला गया है,कितने बौने हो गए वो कि मालिक की एक घुड़की के आगे कहीं भी समा जाएं। मीडिया कंटेंट पर जब भी मैं मीडिया से जुड़े लोगों से बात करता हूं उनका एक ही तर्क होता है वो टीआरपी के आगे नहीं जा सकते। उनके पास बाकायदा कई ऐसे रेफरेंस होते हैं जो ये साबित करते हैं कि टीआरपी के आगे गए तो मारे जाओगे। उन्हें हर हाल में इसी खांचे के भीतर रहकर सोचना होगा। इस बात को मैं भी मानता हूं कि टीआरपी का ये चक्कर हमेशा खबरों को बकवास की तरफ नहीं ले जाता,उसमें एक हद तक सरोकार नहीं भी सही तो खबर को खबर बने रहने की गुंजाइश रहती है। दर्जनों ऐसे मीडिया समीक्षक हैं जो टीआरपी के इस खेल को लेकर चैनलों को कोसने का काम करते हैं लेकिन इस टीआरपी को अगर आप देखें और मीडिया संस्थानों के बीच जो कुछ भी चल रहा है वो दरअसल मालिकों के रहनुमा हो जाने का एक प्रोफेशन जुमले से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ईमानदारी से अगर टीआरपी ही चैनल के चलने और बने रहने का पैटर्न हो तो मुझे नहीं लगता कि ऐसी परेशानियां हो जो कि आज किसी के चैनल के बंद हो जाने,सैकड़ों मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने और किसी चैनल के चलाए जानेवाली कंपनी पर छापा पड़ने की घटना के तौर पर सामने आ रहे हैं। दिक्कत सिर्फ टीआरपी के खेल से नहीं है और न ही विज्ञापन बटोरने की कलाबाजियों को लेकर है। पूरी मीडिया इंडस्ट्री के भीतर दिक्कत इन सबसे अलग और सबसे ज्यादा खतरनाक है। ये मीडिया इन्डस्ट्री का अब तक का शायद सबसे खतरनाक दौर है। ये इन्डस्ट्री के कुछेक लेकिन प्रभावशाली मीडियाकर्मियों के एक का दो,दो का चार बनानेवाले पूंजीपतियों को सब्जबाग दिखाने का खतरनाक दौर है। अगर कोई मीडियाकर्मी इस दम से कहता है कि आप पैसे तो लगाइए,हम सब देख लेगें तो आप अंदाजा लगाइए कि वो चैनल को बनाए रखने में किस-किस स्तर पर मैनेज करने का काम करेगा। पूंजीपति और मीडियाकर्मी के बीच जो एक तीसरी जमात तेजी से पनप रही है वो है उन गिद्ध मीडियाकर्मियों की जिनका चरित्र पूंजीपतियों का है सामाजिक स्तर की पहचान मीडियाकर्मी की है। सामाजिक तौर पर वो मीडियाकर्मी हैं जबकि प्रोफेशनली वो मालिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय के हिसाब से अगर सारे मीडियाकर्मियों की तरक्की होती रही तो एक दिन सब के सब इसी जमात के हिस्से होंगे। ईंट,पत्थर और सीमेंट से जोड़कर दबड़ेनुमा फ्लैट जिसे कि बाजार सपनों का आशियाना कहता है,बनाकर बेचनेवाले लोग जब इस प्रोफेशन में पैसे लगाते हैं तो आपको समझने में परेशानी नहीं होती कि मीडिया कितना तेजी से धंधे में तब्दील हो रहा है। आपको विश्वास न हो तो चले जाइए किसी चैनल के न्यूज रुम या असाइनमेंट डेस्क पर। वहां आपको जो शब्द सुनाई देंगे,खबरों के साथ जो लेबल लगे मिलेंगे उससे आपको समझ आ जाएगा कि मीडिया की तस्वीर असल में क्या बन रही है। मैं बाकी के मीडिया समीक्षकों की तरह इसे भारतेन्दु युग की पत्रकारिता से जोड़कर नहीं देखता,मैं मानकर चल रहा हूं कि इसे प्रोफेशन ही होना चाहिए। इसलिए बात-बात में इसके पीछे सरोकारों की उम्मीद नहीं करता। टाटा स्काई के तीन सौ रुपये देता हूं,मुझे खबर मिले,मनोरंजन हो जाए,बस हो गया अपना काम। लेकिन कहानी सिर्फ खबरों को दिखाने,छुपाने,बदलने और बकवास करने की नहीं,मीडिया के भीतर उन आवाजों के लगातार दम तोड़ देने की है जिसमें गलत के आगे प्रतिरोध की ताकत होती है,बेहतर करने की गुंजाईश होती है। मीडियाकर्मियों की ये जमात उस आवाज को,उस उम्मीद को लगातार ध्वस्त करने का काम कर रहे हैं। यहां आकर बस इतना कहना चाहता हूं कि- महानुभावों, आपने टीआरपी के नाम पर जो गंध फैलाया है। मीडिया को पहले मिशन से प्रोफेशन,फिर प्रोफेशन से धंधे की दहलीज पर ला पटका है,उसके बीच एक बार अपने को परखकर देखिए। आप मत दीजिए सरोकारों की खबरें,विदर्भ के मरते किसानों की खबरें। आप टीआरपी की ही कंठी-माला पहने रहिए लेकिन कम से कम अपने मालिकों के तो बने रहिए। सब्जबाग दिखाते हैं तो अपने भीतर कूबत पैदा कीजिए कि टीआरपी की इस दौड़ में आगे जाएं,चाहे जहां से भी हो,चैनल को मुनाफे पर ले जाएं। कोई एक तरह से दुरुस्त तो हों। आप मेरे नहीं रहे और न मैं ऐसा होने की अपील करता हूं लेकिन अपने मालिक के तो हों ताकि हमें भी अपने उपर ग्लानि हो कि हम बेकार इन्हें गाली देते हैं,ये तो ठीक ही मुनाफा बना रहे हैं। अगर ये मुनाफा नहीं दिखाएंगे तो चार-पांच सौ इनसे जुड़े मीडियाकर्मियों की रोटी छिन जाएगी। वैसे भी सफल होने की स्थिति में गड़बड़ियां फैलाने की स्थिति में भी आप नजरअंदाज कर दिए जाएंगे। कंधार प्रकरण के मॉडल पर हम चार-पांच सौ पत्रकारों के आगे देश की चालीस करोड़ ऑडिएंस के सरोकारों को ताक पर रखने को तैयार हैं,आप कुछ तो कीजिए।...लेकिन ये कब तक चलेगा कि आपके मालिक मुनाफा न देने पर आपको धोखेबाज समझते रहें और इधर एक ही साथ चार-पांच सौ मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने पर भी किसी भी चैनल या अखबार में एक लाइन तक न लिखी जाए। आप तो अंत में परेशान होकर किसी और चैनल में,किसी और उंचे पदों पर चले जाएंगे लेकिन औसत दर्जे पर काम करनेवाले मीडियाकर्मियों की सांसे जो अटकती है उसके प्रति कौन अकाउंटेबल होगा..जरा सोचिए -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090912/49e50106/attachment-0001.html From pkray11 at gmail.com Sat Sep 12 13:50:56 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Sat, 12 Sep 2009 13:50:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Cinemela 2009 Message-ID: <98f331e00909120120l6699412eq7786a5f77341154c@mail.gmail.com> Dear friend, You are invited to the inaugural session of the 4th edition of Cinemela Festival on 13th September. Please inform your friends also. The details are as follows: CINEMELA 2009 13 September/6.30 pm onwards KC Open Air Theatre, Jawaharlal Nehru University, New Delhi GUESTS/SPEAKERS: Anwar Jamal, Renowned filmmaker and Director of National Award winning film, Swaraaj: The Little Republic Prof Amitabh Mattoo, Renowned academician and Former Vice Chancellor, Jammu University Prof S.N Malakar, President, Jawaharlal Nehru University Teacher's Association Dr Ira Bhaskar, Associate Professor, Cinema Studies, Jawaharlal Nehru University Happymon Jacob, Assistant Professor, CIPOD/SIS, Jawaharlal Nehru University Dr. Chandan Srivastava, Senior Associate Fellow, CSDS Sandeep Singh, President, Jawaharlal Nehru University Students’ Union HIGHLIGHTS OF THE EVENING PHOTO EXHIBITION: Inauguration of 4 days Photo exhibition on Peace Builders in 30 crises zones world over. Photo exhibition on Tibet MUSICAL PERFORMANCE: Sufi-Bhakti Music by Dhruv Sangari and the Rooh THEATER: Wed-Lock, a theater Performance by Pandies’ Theater Quintessentially a forum exercise, Wed_Lock – directed by Sanjay Kumar - puts the beleaguered institution of marriage on the table. SCREENINGS: Films made by Lumière brothers- Auguste Lumière & Louis Lumière (1895) Shot Dead for Development/Surya Shankar Dash/Kui/1min The film uses the sacred art form to depict the devastation brought by the big companies in the tribal areas. Gaon Chodab Nahi/K.P Sasi/4 min The video song describes the present day exploitation of tribal land and forests in the name of development. takemetothestart at yahoo.co.in/Sreedeep/English/15min A sexual-monologue regarding boredom with the body. The film is made with 2000 still photos. Shruti/Harish Vyas/Hindi/30min A true story of a schoolgirl who contracted HIV from her own uncle who was sexually abusing her for long. -- Prakash K Ray 0 987 331 331 5 www.cinemela.youthv.com http://www.facebook.com/group.php?gid=118193556385&ref=ts http://twitter.com/cinemela From vineetdu at gmail.com Mon Sep 14 12:36:32 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 14 Sep 2009 12:36:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWL4KSa4KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KSvIOCkleClgCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSs4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSuIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpJrgpYjgpKjgpLLgpYvgpIIg4KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCkn+Clh+CkgiDgpJ/gpYfgpIIg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWA?= =?utf-8?q?_14-Sep?= Message-ID: <829019b0909140006k6cff1ac4l3f39c4f77521ac43@mail.gmail.com> आज की हिन्दी कई रुपों में,कई खेमों में,कई धंधों और तिकड़मों में बंटी हुई हिन्दी है। इसलिए आज प्रायोजित तरीके से हिन्दी का रोना रोने के पहले ये समझ लेना जरुरी है हम किस हिन्दी के नाम पर विलाप कर रहे हैं। एफ.एम.चैनलों की हिन्दी पर शोध करने के दौरान मैंने इसे समझने की कोशिश भर की और बाद में अलग-अलग संदर्भों में इसके विस्तार में गया। इस बंटी हुई,बिखरी हुई,अपने-अपने मतलब के लिए मशहूल हिन्दी को बिना-जाने समझे अगर आप हिन्दी की दुर्दशा पर सरेआम कलेजा पीटना शुरु कर दें तो जो लोग बाजार के बीच रहकर हिन्दी के बूते फल-फूल रहे हैं, सिनेमा,मीडिया,इंटरनेट और दूसरे माध्यमों के बीच हिन्दी का इस्तेमाल करते हुए कमा-खा रहे हैं,वो आपको पागल करार देने में जरा भी वक्त नहीं लगाएंगे। दूसरी तरफ अगर कोई मनोरंजन और महज मसखरई की दुनिया में तेजी से पैर पसारती हिन्दी को ही हिन्दी का विस्तार मान रहा है तो उन्हें सोचालय की हिन्दी(साहित्य और अकादमिक संस्थानों से जुड़े लोग)के लोगों से आज क्या सनातनी तौर पर हमेशा ही लताड़ खाने के लिए तैयार रहना होगा। उनके लिहाज से ये लोग हिन्दी के विस्तार के नाम पर टेंटें कर रहे हैं और ज्यादा कुछ नहीं। जबकि आज मोहल्लाlive परविभा रानी ने हिन्दी को लेकर जो कुछ लिखा है उसके हिसाब से सोचालय के लोग हिन्दी के नाम पर जबरदस्ती टेंटे कर रहे हैं। हिन्दी की पूरी बहस इसकी ऑथिरिटी को लेकर है। सब अपने-अपने तरीके से इसकी हालत और शर्तों को तय करना चाहते हैं यही कारण है कि कभी हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़ना जरुरी लगता है तो कभी हिन्दी को लेकर आंकडें देखते ही,हिन्दी चैनलों से दस हजार करोड़ सलाना कमाई की बात सुनकर हिडिप्पा और हिप्प हिप्प हुर्रे करने का मन करने लग जाता है। किसी के लिए हिन्दी में होना ईंद है तो किसी के लिए मुहर्रम। साल 2007 में मुझे सीएसडीएस-सराय के खर्चे पर निजी समाचार चैनलों की भाषा पर रिसर्च करने का मौका मिला। शोध के लिए मैंने जो रुप-रेखा(synopsis) तैयार की वो विस्तृत और बहुत ज्यादा समय लेनेवाला साबित हुआ इसलिए अपने शोध-निर्देशकरवि सुंदरम की सलाह पर मैंने इसे सिर्फ एक चैनल आजतक तक केंद्रित रखा। उस समय मैं आजतक से सीधे तौर पर जुड़ा था इसलिए मुझे रिसर्च करने में सहूलियत हुई और कई ऐसी चीजों को आब्जर्व किया जिसे लेकर मीडिया लेखन की दुनिया में आमतौर पर सिर्फ अटकलों से ही काम चलाया जाता रहा है। इस महीने सितंबर 23 से 29 तक इंडियन इन्सटीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज ,शिमला हिन्दी की आधुनिकता पर सेमिनार का आयोजन करने जा रहा है। अभय कुमार दुबे के शब्दों में सात दिनों तक हिन्दी की आधुनिकता के उपर सात दिनों तक जमकर बहस-बुहस होगी,अब तक सिर्फ हिन्दी में आधुनिकता पर बात हुई है। वक्ता के तौर पर मुझे टेलीविजन की हिन्दी पर बात करने के लिए बुलाया गया है। अपनी उस प्रस्तुति में मैं सराय के काम को ही आगे बढ़ाते हुए अपनी बात रखने जा रहा हूं। लेकिन यह किसी एक चैनल पर केंद्रित होने के बजाय टेलीविजन के अलग-अलग चैनलों औऱ कार्यक्रमों पर आधारित होगा। कार्यक्रम खत्म होते ही कही गयी बातों की लिखित प्रति लगाउंगा। फिलहाल समाचार चैनल की भाषा पर सराय के लिए किए गए काम का एक टुकड़ा बतौर हिन्दी दिवस के नाम पर पेश है- आम तौर पर समाचार चैनलों की भाषा पर जो भी बहसें हुई हैं,उनमें दो तरह के लोग शमिल हैं। एक वे जो अकादमिक संस्थानों से जुड़े हैं,जिनके हिसाब से चैनलों ने भाषा को भर्ष्ट किया है,अपने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा है,व्याकरणिक शर्तों की परवाह नहीं की है। दूसरे वे लोग हैं जो सीधे-सीधे सहै कि चैनल की भामाचार चैनलों से जुड़े हैं जिनके मुताबिक चैनलों के लिए भाषा की शुद्धता और नियमों की अनिवार्यता से ज्यादा महत्वपूर्ण है सहज संप्रेषण यानी(आम आदमी/दर्शकों) के हिसाब से भाषा प्रयोग। इन दोनों स्थितियों पर गौर किए जाएं तो चैनलों की भाषा को लेकर कोई विश्लेषण पद्धति या प्रक्रिया का विकास नहीं हुआ है बल्कि अपने-अपने पक्ष में तर्क खड़े करने की कोशिश भर है। ऐसा इसलिए हुआ है कि अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोग भाषा की शुद्धता,नियम एवं उसकी शर्तों को पकड़कर चलना चाहते हैं और जब समाचार चैनलों की भाषा पर बात करते हैं तो उन जोर होता है कि चैनल भी भाषा प्रयोग इसी के हिसाब से करे। एक तरह से चैनल की कौन-सी भाषा,किस रुप में प्रयोग करे,अकादमिक क्षेत्र के लोग तय करना चाहते हैं। यह संभव है कि भाषा के प्रति समझदारी पैदा करने में अकादमिक संस्थानों का बड़ा योगदान रहा हो,इन संस्थानों ने लोगों को भाषा-प्रयोग से लेकर इसके महत्व के बारे में जानकारी दी हो और आज अगर ये संस्थान टेलीविजन औऱ समाचार चैनलों का भाषा-प्रयोग अपने हिसाब से करना चाहते हैं तो इसकी वजह भी यही है कि जब समाज को भाषा पढ़ाने-समझाने का जिम्मा है तो टेलीविजन अपने मुताबिक उनसे अलग भाषा-प्रयोग क्यों करे या उनकी शर्तों के हिसाब से क्यों न करे। लेकिन अकादमिक स्तर का यह तर्क समाचार चैनलों के व्यावहारिक तर्क से बहुत पीछे छूट जाता है क्योंकि समाचार चैनल जब भी भाषा प्रयोग करते हैं तो उसके पीछे सिर्फ सहज संप्रेषण का मसला नहीं होता बल्कि उसके पीछे एक दबाब की रणनीति काम कर रही होती है। दबाब की यह रणनीति समय,बाजार एवं व्यावसायिक शर्तों को लेकर अपने को हमेशा बनाए एवं बचाए रखने की होती है। यानी टेलीविजन में भाषा-प्रयोग का एक बड़ा आधार है है खुद को बचाए रखने एवं सबसे आगे ले जाने की कोशिश। इसलिए समाचार चैनल भाषा प्रयोग करते समय अपने को ऑथिरिटी मानकर नहीं चलते,ये अलग बात है कि आम जनता आज टेलीविजन की प्रस्तुति एवं भाषा को ऑथिरिटी मानती है और उस हिसाब से उनका भाषा-व्यवहार भी एक हद तक बदलता है जबकि एकादमिक संस्थान शुरु से ही भाषा के मामले में अपने को ऑथिरिटी मानती आयी है। यहां दिलचस्प नजारा है कि आज समाचार चैनलों ने लगातार अपने ढंग से जो भाषा-प्रयोग शुरु किया है,ऐसे में अकादमिक संस्थानों की ऑथिरिटी ध्वस्त हुई है। इस लिहाज से हम बात करें तो समाचार चैनलों को लेकर जो भी बहसें होती रही हैं उनमें अपने-अपने पक्ष में बात करने का सीधा मतलब है कि भाषा को आखिर कौन तय करेगा? इस पर बहस हो और दूसरा कि समाचार चैनल अपनी भाषा-स्ट्रैटजी तय करते समय आम आदमी की भाषा की जो बात करते हैं,वह आम आदमी की भाषा कौन सी है या फिर टेलीविजन में सचमुच आम आदमी की कोई भाषा होती है। इसके साथ ही एक बड़ा सवाल और कि समाचार चैनल आज मीडिया कर्म से अधिक प्रबंधन का काम हो गया है जिसमें समाचार निर्माण की पूरी प्रक्रिया, वस्तु निर्माण की प्रक्रिया की तरह,उनकी शब्दावलियों के बीच रहकर होने लगे हैं,वस्तु के लिए जो पैकेजिंग और वितरण है वह समाचार के लिए भी है,ऐसे में भाषा किस रुप में काम करती है,इस पर बात हो। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090914/b5e81074/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Sep 14 12:55:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 14 Sep 2009 12:55:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sorry Message-ID: <829019b0909140025y31f4ebe6i9ec1dfe4087b7b7b@mail.gmail.com> मशहूल को आप अपनी तरफ से मशगूल पढ़ें।धन्यवाद विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090914/9f2c811e/attachment.html From water.community at gmail.com Mon Sep 14 22:48:42 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Mon, 14 Sep 2009 22:48:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_W?= =?utf-8?b?aGF0J3MgTmV3IGluIFdBVEVSIC0gIuCkh+CkleCli+CkuOCliOCkqCA=?= =?utf-8?b?4KSf4KWJ4KSv4KSy4KWH4KSfIiDgpJXgpYAg4KS44KWB4KSX4KSC4KSn?= =?utf-8?b?4KWA?= In-Reply-To: <8b2ca7430909140333k48f1b5efj86422764744205ba@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430909140333k48f1b5efj86422764744205ba@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430909141018p2f5ac487n9b254eda335a0a91@mail.gmail.com> Water Hindi Updates: ** * ठाणे के बदलापुर के एक कॉलेज के "इकोसैन टॉयलेट" की सुगंधी इंजीनियरों के अनुमान के मुताबिक दिन भर में 6.8 घनमीटर बायोगैस का उत्पादन सम्भव है, जो कि लगभग 4 लीटर डीज़ल के बराबर होता है। इस बायोगैस का उपयोग छोटे लैम्प जलाने, होस्टल की कैण्टीन के स्टोव आदि में उपयोग कर लिया जाता है। इस सिस्टम में बायोगैस की 97% मात्रा उपयोग कर ली जाती है। बायोगैस प्लाण्ट का खराब पानी एक ट्रीटमेंट प्लांट के जरिये साफ़ करके कॉलेज के खेल मैदान में छिड़काव और पौधों के लिये किया जाता है। इस प्रकार कॉलेज कम से कम सात टैंकरों के बराबर पानी (अर्थात 2000 रुपये) की बचत प्रतिमाह कर रहा है। Read More * *From Fields:* पंजाबः सब्मर्सिबलों की शर-शय्या पर सांभर में पसेरी भर अन्याय *Water & Judiciary*: एक और झील गायब *Tools & Techniques* दिल्ली की यमुना में भूजल को बचाने की एक योजना VDOs: मथुरा- वृन्दावन में मौत बांटती यमुना गंगा में प्रदूषण पर डॉक्यूमेंट्री कैसा जमाना आया , पानी भी बिक रहा है पानी के लिए खून कानपुर में गंगा के प्रदूषण पर संगीतमय वीडियो काला सोना *Power of Community /लोक शक्ति का नमूनाः* शहडोल - तालाब ने बदल दी तकदीर जैसलमेरः सामुदायिक प्रयास से जी उठीं वाटर बॉडीज़ *Memories /**भूले- बिसरेः*** उकाई: हम भी बह गए थे राजसमन्द का पानी दिल्ली की प्यास Watersheds /वाटरशेडः राजस्थान की प्रमुख झीलें गंगोत्री से गंगासागर एक मरती हुई नदी गोमती Views /विचार मंथनः हिमांशु ठक्करः मानव निर्मित बांध, मानव निर्मित बाढ़ दूनू रायः नदी परियोजनायें: बेहतर विकल्प ढूँढें वैज्ञानिक और विशेषज्ञ राहुल गांधीःनदी- जोड़ परियोजना ठीक नहीं हिमांशु शेखरः बेहतर जल प्रबंधन से सुलझेंगी कई समस्याएं विमल भाईः उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं पर श्वेतपत्र जारी करे सरकार Water Warriors/जल योद्धाः अनिल राणा- अनिल राणा पानी-पर्यावरण का अगुआ (स्मृति पत्र ) किसानों से सीखें मौसम का पूर्वानुमान इंटरव्यूः इरफान हबीबः ‘नदियों ने मनुष्य की चेतना और सभ्यता को इस मुकाम तक पहुँचाया Policies /सरकारी स्कीमः एक लाख जल निकायों की बहाली (रिपेयर, रिनोवेशन , रिस्टोरेशन वाटरबॉडीज स्कीम ) Up & Down/ गतिविधियाः जलयात्रा साफ, सुरक्षित जल सदा , सबके लिए कार्यशाला का आयोजन- डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्ज हिंदी और कम्प्यूटर विषय पर कार्यशाला Jobs जॉब्स ऑफिसर- अकाउंट्स एंड एडमिनिस्ट्रेशन सीनियर फाइनेंस मैनेजरः अर्घ्यम् Read more *Book Shelf: * नदियां गाती हैं : लेखक- ओम प्रकाश भारती * **Ask a water question * *जल शब्दकोश* *जल समाचार* *हमसे जुड़ें* *हमें लिखें* *हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें* *अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- water.community at gmail.com* -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090914/97ee291f/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Mon Sep 14 22:48:42 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Mon, 14 Sep 2009 22:48:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_W?= =?utf-8?b?aGF0J3MgTmV3IGluIFdBVEVSIC0gIuCkh+CkleCli+CkuOCliOCkqCA=?= =?utf-8?b?4KSf4KWJ4KSv4KSy4KWH4KSfIiDgpJXgpYAg4KS44KWB4KSX4KSC4KSn?= =?utf-8?b?4KWA?= In-Reply-To: <8b2ca7430909140333k48f1b5efj86422764744205ba@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430909140333k48f1b5efj86422764744205ba@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430909141018p2f5ac487n9b254eda335a0a91@mail.gmail.com> Water Hindi Updates: ** * ठाणे के बदलापुर के एक कॉलेज के "इकोसैन टॉयलेट" की सुगंधी इंजीनियरों के अनुमान के मुताबिक दिन भर में 6.8 घनमीटर बायोगैस का उत्पादन सम्भव है, जो कि लगभग 4 लीटर डीज़ल के बराबर होता है। इस बायोगैस का उपयोग छोटे लैम्प जलाने, होस्टल की कैण्टीन के स्टोव आदि में उपयोग कर लिया जाता है। इस सिस्टम में बायोगैस की 97% मात्रा उपयोग कर ली जाती है। बायोगैस प्लाण्ट का खराब पानी एक ट्रीटमेंट प्लांट के जरिये साफ़ करके कॉलेज के खेल मैदान में छिड़काव और पौधों के लिये किया जाता है। इस प्रकार कॉलेज कम से कम सात टैंकरों के बराबर पानी (अर्थात 2000 रुपये) की बचत प्रतिमाह कर रहा है। Read More * *From Fields:* पंजाबः सब्मर्सिबलों की शर-शय्या पर सांभर में पसेरी भर अन्याय *Water & Judiciary*: एक और झील गायब *Tools & Techniques* दिल्ली की यमुना में भूजल को बचाने की एक योजना VDOs: मथुरा- वृन्दावन में मौत बांटती यमुना गंगा में प्रदूषण पर डॉक्यूमेंट्री कैसा जमाना आया , पानी भी बिक रहा है पानी के लिए खून कानपुर में गंगा के प्रदूषण पर संगीतमय वीडियो काला सोना *Power of Community /लोक शक्ति का नमूनाः* शहडोल - तालाब ने बदल दी तकदीर जैसलमेरः सामुदायिक प्रयास से जी उठीं वाटर बॉडीज़ *Memories /**भूले- बिसरेः*** उकाई: हम भी बह गए थे राजसमन्द का पानी दिल्ली की प्यास Watersheds /वाटरशेडः राजस्थान की प्रमुख झीलें गंगोत्री से गंगासागर एक मरती हुई नदी गोमती Views /विचार मंथनः हिमांशु ठक्करः मानव निर्मित बांध, मानव निर्मित बाढ़ दूनू रायः नदी परियोजनायें: बेहतर विकल्प ढूँढें वैज्ञानिक और विशेषज्ञ राहुल गांधीःनदी- जोड़ परियोजना ठीक नहीं हिमांशु शेखरः बेहतर जल प्रबंधन से सुलझेंगी कई समस्याएं विमल भाईः उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं पर श्वेतपत्र जारी करे सरकार Water Warriors/जल योद्धाः अनिल राणा- अनिल राणा पानी-पर्यावरण का अगुआ (स्मृति पत्र ) किसानों से सीखें मौसम का पूर्वानुमान इंटरव्यूः इरफान हबीबः ‘नदियों ने मनुष्य की चेतना और सभ्यता को इस मुकाम तक पहुँचाया Policies /सरकारी स्कीमः एक लाख जल निकायों की बहाली (रिपेयर, रिनोवेशन , रिस्टोरेशन वाटरबॉडीज स्कीम ) Up & Down/ गतिविधियाः जलयात्रा साफ, सुरक्षित जल सदा , सबके लिए कार्यशाला का आयोजन- डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्ज हिंदी और कम्प्यूटर विषय पर कार्यशाला Jobs जॉब्स ऑफिसर- अकाउंट्स एंड एडमिनिस्ट्रेशन सीनियर फाइनेंस मैनेजरः अर्घ्यम् Read more *Book Shelf: * नदियां गाती हैं : लेखक- ओम प्रकाश भारती * **Ask a water question * *जल शब्दकोश* *जल समाचार* *हमसे जुड़ें* *हमें लिखें* *हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें* *अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- water.community at gmail.com* -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090914/97ee291f/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From ravikant at sarai.net Wed Sep 16 14:42:32 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Sep 2009 14:42:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKzgpL8=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSwIOCkleClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLDgpL/gpKQ=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClh+CkgiDgpJzgpL7gpKTgpL8g4KSV4KWAIOCkuOCkoeCkvA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSnIOCkquCksCDgpLjgpLDgpY3gpLXgpYcg4KS44KWHIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KS14KS/4KSn4KS+IDE2IFNFUFRFTUJFUiAyMDA5?= Message-ID: <200909161442.32909.ravikant@sarai.net> x-posting ke liye maafi mangte hue. ravikant Subject: बिहार की पत्रकारिता में जाति की सड़ांध पर सर्वे से असुविधा 16 SEPTEMBER 2009 Date: बुधवार 16 सितम्बर 2009 07:18 From: Pramod Ranjan बिहार की पत्रकारिता में जाति की सड़ांध पर सर्वे से असुविधा मोहल्‍ला पर पूरा सर्वे यहां देखें - http://mohallalive.com/2009/09/16/caste-survey-in-media-of-bihar/ सार्वजनिक महत्व की किसी संस्था का सामाजिक अध्ययन अकादमिक किस्म का काम है। लेकिन पूर्वग्रहों से भरे समाज में आप इसकी शुरुआत की मानसिक प्रक्रिया के दौरान ही एक आवाजविहीन युद्ध से जा टकराते हैं। आगे बढ़ने के साथ हर कदम राजनीतिक होता जाता है। अब आप बोलें, चाहे चुप रहें, राजनीति से बच नहीं सकते। बिहार में कार्यरत मीडिया संस्थानों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि का सर्वे भी ऐसा ही एक काम है। आपने अगर इसके नतीजों को देख लिया है तो इस तथ्य को कैसे अनदेखा कर सकते हैं कि इस विशालकाय राज्य के हिंदी-अंग्रेजी मीडिया संस्थानों में ‘फैसला लेने वाले पदों’ पर न कोई आदिवासी है, न दलित, न पिछड़ा, न ही कोई महिला। *( देखें-कुछ मीडिया संस्थानों की नमूना तालिकाएं – 5, 6, 7 और 8 )* *मोहल्‍ला पर पूरा सर्वे यहां देखें - http://mohallalive.com/2009/09/16/caste-survey-in-media-of-bihar/* -- http://janvikalp.blogspot.com/ http://sanshyatma.blogspot.com/ mo : 9234382621 ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Wed Sep 16 19:35:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 16 Sep 2009 19:35:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWJ4KSq4KWB?= =?utf-8?b?4KSy4KSwIOCkleCksuCljeCkmuCksCDgpKrgpLAg4KS44KWH4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw?= Message-ID: <829019b0909160705k1a0c504aib0cfb7c9764923d0@mail.gmail.com> दीवान के साथियोंदिल्ली विश्वविद्यालय पॉपुलर लेक्चर सीरिज के तहत प्रत्येक 15 दिन पर अपने विषय के विशेषज्ञ को स्पेशल लेक्चर के लिए आमंत्रित करता है। अबकी बार इस कड़ी में पॉपुलर कल्चर और मास मीडिया पर बात करने के लिए मीडिया विशेषज्ञ और हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीश पचौरी को आमंत्रित किया गया है। नीचे विवरण इस प्रकार है- पॉपुलर लेक्चर सीरिज,डीयू प्रो.सुधीश पचौरी *मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर*** 17 सितंबर,3 बजे दोपहर * क्रॉन्फ्रेस हॉल *** *फैकल्टी ऑफ आर्टस के सामने, डीयू*** * **दिल्ली- 110007*** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090916/14a71794/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Sep 17 01:47:22 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 17 Sep 2009 01:47:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCklOCksCDgpKrgpYngpKrgpYHgpLI=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCksuCljeCkmuCksCDgpKrgpLAg4KSy4KWH4KSV4KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <829019b0909161317w61df7235uc4a6bac975ab813c@mail.gmail.com> [image: sudhish pachauri]मीडिया औऱ संस्कृति के बीच बनते-बदलते रिश्तों को विश्लेषित करने के अधिकांश दरवाज़े जहां खास तरह की कुलीनतावादी (इलीटिसिज्म) अवधारणा की ओर खुलती है, नैतिक आग्रहों से लदे-फदे सिद्धांतों को ढोनेवाले समीक्षक जहां इसे रद्दी और अपसंस्कृति साबित करने में थोड़ा भी वक्त नहीं लगाते, वहीं पॉपुलर संस्कृति की अवधारणा और इसकी विचार पद्धति मौजूदा मीडिया और संस्कृति को समझने के लिए एक नयी खिड़की का काम करती है। यह मौजूदा मीडिया, संस्कृति और समाज को लेकर उन आग्रहों से अपने को अलग करती है, जो समाज के मुट्ठी भर लोगों की गतिविधियों, आदतों और जीवन शैली को ही संस्कृति मानने और न मानने की ज़‍िद पर टिकी है। समाज का अभिजात्य वर्ग जिन चीज़ों को बेहतर मानता है, जिन किताबों और मनोरंजन के साधनों को जीवन के लिए अनिवार्य समझता है, वही संस्कृति है जिसे कि जॉन बौद्रिआं ने कैपिटल C के तहत विश्लेषित किया है। इसके अलावा जो कुछ भी है, वो कूड़ा है। पॉपुलर संस्कृति इस तरह की मान्यताओं को न केवल खारिज़ करती है बल्कि वस्तु, सूचना और मनोरंजन के नये रूपों और माध्यमों के जरिये इसे लोकतांत्रिक बनाने का दावा भी करती है। इसलिए एक तरह से संस्कृति और मीडिया को लेकर पूरी बहस वस्तु, उपभोग और जीवन शैली को लेकर शुरू होती है, तो दूसरी तरफ संस्कृति को लेकर लोकतांत्रिक और वर्चस्ववादी नीतियों के टकराव के रूप में भी उभर कर सामने आता है। एडोर्नों के लिए वस्तु के माध्यम से लोकंतांत्रिक संस्कृति पैदा करने का दावा अगर छलना है, उपभोक्ता संस्कृति के जरिये नये किस्म के पूंजीवाद को बढ़ावा देना है, तो वहीं वाल्टर बेंजामिन जैसे समीक्षकों के लिए सिनेमा, पॉपुलर आर्ट और मास मीडिया कला, मनोरंजन और सूचना को पहले से कहीं अधिक लोकतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया का एक हिस्‍सा है। पॉपुलर संस्कृति के समर्थन में जॉन वीवर अपनी किताब ‘पॉपुलर कल्चर प्राइमर’ में संस्कृति के नाम पर उस वर्चस्ववादी नीतियों का हवाला देते हैं, जब 1800 ई के शुरुआती दौर में इंग्लैंड के म्यूजियम को इसलिए बंद कर दिया गया कि वहां के लोगो के बीच म्यूजियम और उसमें रखी वस्तुओं को देखने की समझ नहीं थी। बाद में फिल्म और मीडिया ही ऐसा माध्यम बना, जिसने धीरे-धीरे म्यूजियम जाकर देखने की प्रासंगिकता को ही कम कर दिया। इस तरह मौजूदा मास मीडिया और संस्कृति को लेकर बहस के कई स्तर बनते हैं – उच्च संस्कृति बनाम निम्न संस्कृति, संस्कृति का वास्तविक रूप बनाम छद्म संस्कृति, लोकतांत्रिक संस्कृति बनाम बुर्जुआ संस्कृति आदि-आदि। मौटे तौर पर या फिर कहें कि सतही तौर पर इन सबका विश्लेषण उपभोक्ता संस्कृति और सहज संस्कृति के खांचे में रख कर कर दिया जाता है जबकि यह जल्दीबाज़ी में किया गया विभाजन भर है। पॉपुलर संस्कृति के बीच पैदा होनेवाली इन तमाम बहसों पर अपनी बात रखने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने पॉपुलर लेक्चर सीरीज़ के तहत मीडिया विशेषज्ञ और हिंदी विभाग (डीयू) के अध्यक्ष प्रो सुधीश पचौरी को आमंत्रित किया है। विश्वविद्यालय प्रत्येक 15 दिनों के अंतराल में अकादमिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और समसामयिक मसलों से जुड़े विषयों पर विशेष व्याख्यान का आयोजन करता है। प्रो सुधीश पचौरी को इसी योजना के तहत आमंत्रित किया गया है। प्रो पचौरी विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में पॉपुलर संस्कृति और मास मीडिया पर न केवल लगातार लेख लिखते रहे हैं बल्कि पॉपुलर संस्कृति पर स्वतंत्र रूप से किताब भी लिखी है। टेलीविजन कल्चर पर दुनियाभर की किताबों के बावजूद टेलीविज़न पर लिखी उनकी किताब *दूरदर्शन : दशा और दिशा* अपने आप में बेजोड़ है। *पॉपुलर लेक्चर सीरिज, डीयू* *प्रो सुधीश पचौरी* मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर तारीख़ : 17 सितंबर, दोपहर 3 बजे जगह : क्रॉन्फ्रेस हॉल, फैकल्टी ऑफ आर्टस के सामने, डीयू, दिल्ली 110007 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090917/bcb74c60/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Sep 17 10:18:40 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 17 Sep 2009 10:18:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KWAIOCkuOCksCDgpJXgpLLgpY3gpJrgpLAg4KSV4KWHIOCklg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS+4KSrLOCkl+CkvuCkueClhyDgpKzgpJfgpL7gpLngpYcg?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkquClguCksOClhyDgpJXgpL/gpI8g4KSm4KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy?= Message-ID: <829019b0909162148s4c2c5440qb4718bb4bbb30ec4@mail.gmail.com> हां जी सर कल्चर के खिलाफ लिखते हुए,जो हो रहा है उसे होने दो के प्रतिरोध में अपनी बेबाक राय देते हुए आज गाहे बगाहे ने 385 पोस्टों के साथ दो साल पूरे कर लिए। मुझे अच्छी तरह याद है आज से दो साल पहले 17 सितंबर की सुबह मैंने इस ब्लॉग की शुरुआत की।..और दिनों से बिल्कुल अलग तरह की सुबह। एक साल से लगातार मैं अपनी जुराब कैब या मेट्रो में बैठने पर पहनता, शर्ट के बटन घर की सीढ़ियों से उतरते हुए लगाता,सुबह साढ़े चार बजे उठने के वाबजूद भी ऑफिस पहुंचने पर लेट करार दे दिया जाता। बहुत ही व्यस्त और दिनभर घिसनेवाली दिनचर्या होती। इस बीच कहीं कोई सोशल लाइफ नहीं,किसी भी दोस्त या रिश्तेदार के फोन आने पर मैं थोड़ी देर में कॉल बैक करता हूं,कहना जैसे एक मुहावरा-सा बन गया। ऑफिस के फोन छोड़ बाकी कहीं से भी कोई फोन आने पर आपसे बाद में बात करता हूं कहना एक आदत सी बनती चली गयी। उस दिन को याद करता हूं तो ताज्जुब होता है कि कैसे इतनी मेहनत कर लेता,सुबह से लेकर रात के बारह-एक बजे तक नॉनस्टॉप स्टोरी लिखने,पैकेज कटाने,पचासों बार सीढ़ियों से चढ़ने-उतरने का काम। कैसे कर लिया मैंने एक साल तक ये सब कुछ। अब तो कोई एक बार से दो बार उपर-नीचे करा दे तो खुन्नस आ जाती है। बहरहाल, ब्लॉग बनाने की सुबह बिल्कुल अलग किस्म की सुबह थी। हमें सुबह उठने की कोई जरुरत नहीं थी। लेकिन आदत के मुताबिक थोड़ी देर से ही छ बजे के करीब उट गया। दो घंटे तो इधर-उधर करके गुजार दिए लेकिन फिर समझ नहीं आया क्या करें? मीडिया के लिए काम करते हुए एक दिन मैंने यूजीसी की साइट देखी और पता चला कि मेरा यूजीसी जेआरएफ हो गया है। पहले के 15 दिन तो मैंने बहुत ही दुविधा में गुजारे। मुझे क्या करना चाहिए,मीडिया की नौकरी छोड़कर वापस रिसर्च की दुनिया में लौटना चाहिए या फिर मीडिया में ही बने रहना चाहिए। मीडिया में काम बहुत करने होते,पत्थर की तरह अपनी घिसाई हो रही थी लेकिन मीडिया की दुनिया छोड़ना मेरे लिए आसान नहीं था। मैंने शुरु से ही अपने को एक मीडियाक्रमी के तौर पर काम करने की कल्पना की। थोड़ी देर के लिए ही, कभी-कभी तो लगता कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है लेकिन फिर ये सोचकर मन रम जाता कि कितनों को ऐसा मौका मिलता है कि कोर्स खत्म होने के दो दिन बाद ही,कम पैसे में ही सही नौकरी मिल जाए।.. इस दुविधा के बीच बाद में कुछ लोगों के सुझाव औऱ कुछ अपनी व्यक्तिगत समस्याओं की वजह से वापस अकादमिक क्षेत्र में जाने का मन बनाया। मार्निंग शिफ्ट के लिए मेरा दोस्त पहले ही जा चुका था। मैं अंत में इंटरनेट की शरण में गया। त्रिवेणी सभागार के एक कार्यक्रम में मिलने पर अविनाश ने मुझे बताया था कि आप कभीमोहल्ला देखें। उस समय मोहल्ला की बड़ी धूम थी। मैंने एकदम से मोहल्ला क्लिक किया,कुछ पोस्ट पढ़े और फिर खुद का अपना ब्लॉग बनाने में भिड़ गया। एक घंटे के भीतर मोटे तौर पर एक ब्लॉग बनकर तैयार था। जल्दीबाजी में मैंने एक पोस्ट लगायी और अपने कुछ करीबी दोस्तों को ब्लॉग का लिंक एसएमएस किया। दोस्तों ने ब्लॉग की सराहना की और फिर देखा कि मसीजीवी जिनसे कि पहले मेरा कोई परिचय नहीं था और राकेश सिंहजिन्हें मैं पहले जानता था,उन दोनों के शाम तक कमेंट भी आ गए हैं। मैं लगभग रोज लिखता रहा। ये एक ऐसा दौर था जब काम के स्तर पर पूरी तरह बेराजगार था। ये अलग बात है कि जिस दिन से मैंने नौकरी छोड़ी,उसी दिन से ही फैलोशिप के पैसे जोड़कर मिलने की बात से पैसे को लेकर इत्मिनान हो गया। लेकिन सत्रह-अठारह घंटे की व्यस्तता के बीच अचानक ब्रेक आ जाने से ब्लॉगिंग करने के अलावे मेरे पास कोई दूसरा ठोस काम नहीं था। मेरी सारी किताबें डीयू हॉस्टल में दोस्तों की अलमारियों में पैक थी। पिछले सात महीने में मैंने कोर्स और हिन्दी साहित्य से जुड़ी एक भी किताबें नहीं पढ़ी थी। दस दिन के भीतर मैंने देखा कि लोगों ने रिस्पांस देने शुरु कर दिए हैं। मुझे भी मजा आने लगा। फिर मैंने मीडिया के अलावे कई दूसरे मसलों पर भी लिखना शुरु किया। जमकर लिखने लगा और फिर लिखने लगा तो लिखने लगा। मेरे ब्लॉग की पंचलाइन है- जब हां जी सर,हां जी सर कल्चर में दम घुटने लगे और मन करे कहने का-कर लो जो करना है। इस एक लाइन को लेकर कई झमेले हुए जो कि अब भी जारी है। शुरुआती दौर में दोस्तों सहित मुझे पढ़नेवाले लोगों ने इसे महज फैशन के तौर पर लिया। वैसे भी जिस समय मैंने ब्लॉगिंग करनी शुरु की उस समय लोग अपने ब्लॉग का नाम और उसका परिचय कुछ इस तरह से दे रहे थे कि समझिए वो अपने मौजूदा हालत से बुरी तरह उबे हुए हैं और अब वो अपने को जिद्दी,अक्खड़,बिंदास,बेलौस और बेफ्रिक साबित करने पर आमादा हैं। लिंक भेजते हुए मोहल्ला के अविनाश को मैंने लिखा कि मैं हिन्दी और मीडिया समाज के बीच होनेवाली हलचलों के बारे में अलग तरीके से लिखना चाहता हूं।अविनाश ने कहा-अलग क्या लिखेंगे,हिन्दी की कुछ क्षणिकाएं ही पेश कर दीजिए तो बेहतर होगा। लेकिन मैं अपनी इस पंचलाइन को लेकर भीतर ही भीतर बहुत सीरियस रहा। मेरी लगातार कोशिश बनी रही कि मैं सचमुच उन मसलों पर लिखूं जो हां जी सर,हां जी सर कल्चर को बढ़ावा देते हैं। नतीजा ये हुआ कि मैं धीरे-धीरे कई तरह के विवादों में उलझता चला गया। जनसत्ता पर लिखे जाने की शिकायत मेरे विभाग तक गयी,भड़ास पर लिखने पर उखाड़ लोगे क्या जैसे शब्द सुनने पड़े,कनकलता प्रकरण में.ये कौन लौंड़ा है,जरा मिलवइयो तो,निपटाना पड़ेगा उसे भी का संदेश मिला। साहित्य के मसलों पर लिखने पर पोस्ट के प्रिंटआउट निकालकर लोगों ने अपने बाबाओं को पेश किए,नमक मिर्ज लगाकर मेरे बारे में काफी कुछ कहा गया। नतीजा ये हुआ कि ऐसे बाबा ब्लॉगिंग की परिभाषा बदलने लग गए और ब्लॉगिंग को चैटिंग जैसी ही कोई घटिया और बाहियात चीज के तौर पर प्रचारित करने लगे। मीडिया के मसले पर लिखने पर,बेकार में टांग क्यों फंसाते हो,रिसर्च कर रहे हो चुपचाप रिसर्च करो जैसी चेतावनी भी मिली। दूसरी तरफ लोगों का लगातार प्रोत्साहन मिला। थोड़ा संभलकर लिखने के साथ ही कई दोस्तों और मीडिया के बुजर्ग लोगों ने मेरे लिखे की लगातार तारीफ करके मेरा हौसला बढ़ाया। आज इसी का परिणाम है कि जिस मसले पर मैं(खासकर मीडिया से जुड़े)लिखता हूं,उनसे संबद्ध लोग सीधे मुझसे सम्पर्क करते हैं। कई बार खुश होकर,कई बार नाराज होकर लेकिन इस बात की सराहना करते हुए कि आप अच्छा काम कर रहे हैं। मीडिया में नौकरी करने के मुकाबले लिखने की वजह से लोग मुझे जानते हैं। दो साल की ब्लॉगिंग ने मुझे नयी पहचान दी है,आपलोगों ने लगातार प्यार दिया है। मेरी बातों को सीरियसली पढ़ने-समझने के लिए अपना समय दिया है। यही वजह है कि कई बार जब मैं विवादों से घिर जाता हूं,चारों तरफ से लोगों के सुझाव आने लग जाते हैं कि फिलहाल लिखना छोड़ दो, तब भी मैं लिखने से अपने को रोक नहीं पाता। इसे आप मेंटल डिस्ऑर्डर कहें या फिर कोई लत,आज मेरे लिए लिखने से ज्यादा चुनौती का काम है नहीं लिखना। आप हंसेंग लेकिन इस लगातार लिखने के काम ने मेरे भीतर एक भरोसा पैदा किया है कि मैं कहीं भी रहूं,कमा खा लूंगा। इस मौके पर मैं अपने सारे ब्लॉगर साथियों,दोस्तों और अभिभावक के तौर पर मुझे लगातार सुझाव और नैतिक समर्थन देते आए लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। भाषा को लेकर मेरा थोड़ा मुंहफट अंदाज है जिसे मैं लगातार दुरुस्त करने की कोशिश में हूं। दोस्तों की राय का ख्याल है मुझे कि मैं बातों-बातों में बेकार ही लोगों की नजर पर आ रहा हूं,ऐसे मुद्दों पर लिखना छोड़ दूं। शायद उनकी ये राय मुझे मानी नहीं जाएगी,जब तक लिख रहा हूं,इसी अंदाज में लिखूंगा...हां जी सर कल्चर के खिलाफ। लिखने के लिए मैं कभी नहीं लिख सकता। अभी तक तो ठीक है,जिस दिन लगने लगेगा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता,उस दिन मैं अपने ब्लॉग बंद कर देने की खुली घोषणा करुंगा। ब्लॉगिंग करने और टाइमपास करने करने के बीच के फर्क को मैं हमेशा बनाए रखना चाहता हूं। पढ़ने-लिखने के स्तर पर जिस दिन समझौते करने पड़ गए,उस दिन सबकुछ छोड़-छाड़कर चीकू बेचना,बल्ली मरान में धूप चश्मा बेचना ज्यादा पसंद करुंगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090917/e3743751/attachment-0001.html From v1clist at yahoo.co.uk Thu Sep 17 15:37:07 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Thu, 17 Sep 2009 03:07:07 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= asli culture :-) Message-ID: <780087.22931.qm@web26608.mail.ukl.yahoo.com> http://www.youtube.com/watch?v=hqdzWoH7I6A Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090917/4df1cce5/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Sep 17 22:46:36 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 17 Sep 2009 22:46:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCklOCksCDgpKrgpYngpKrgpYHgpLI=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCksuCljeCkmuCksCDgpKrgpLAg4KSy4KWI4KSV4KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <829019b0909171016u7203386r284d300b348fc06@mail.gmail.com> 17 सितंबर 09 को दिल्ली विश्वविद्यालय के पॉपुलर लेक्चर सीरिज के तहत आयोजित बदलती हिन्दी की समस्याएं(संदर्भः मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर) पर प्रो. सुधीश पचौरी का लैक्चर सुनने के लिए नीचे की लिंक पर चटकाएं- http://www.esnips.com/doc/4a4ee7c7-f2d7-4359-a768-d5c17b4ff434/mass-media-aur-popular-culture:-sudhish-pachauri विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090917/903694ca/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Sep 18 12:37:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 18 Sep 2009 12:37:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KSkIOCkueCliCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSo4KWJ4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KScIOCkleClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4g4KSs4KSo4KWH4KSDIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWLLuCkuOClgeCkp+ClgOCktiDgpKrgpJrgpYzgpLDgpYA=?= Message-ID: <829019b0909180007o3418d340t27a1a9f8ec2040ae@mail.gmail.com> [image: sudhish pachauri lecture]हिंदी पर सोचने के लिए हिंदी के बरक्स से शुरुआत नहीं होनी चाहिए। हिंदी पर जितनी बहसें हैं उसमें किससे आक्रांत है, शुरू वहां से होनी चाहिए। माने एक भाषा को खतरा है – इस मनोवृत्ति से सोचना शुरू करते हैं तो एक किस्म का पेरोनोइ, पेरोनोइड किस्म का अनुभव रहता है और हम सहज मनोवृत्ति से, सहज मन से समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं? हिंदी भाषा और हिंदी जनक्षेत्र – इन दोनों को मैं साथ-साथ लेकर चलता हूं, ऑब्लिक करके चलता हूं। मेरे लिए ये दोनों अलग-अलग नहीं है। मैंने पहले ही ये कहने की कोशिश की है कि हिंदी का कोई बरक्स नहीं है, किसी भी भाषा का कोई बरक्स नहीं है। अगर है भी तो पड़ोस। भाषा का पड़ोस होता है, बरक्स नहीं। बरक्स एक कल्चरल डिस्कोर्स है जो आ जाती है। यानी मैं इक्सक्लूसिविटी चाहता हूं, अतिविशिष्टता चाहता हूं, ऐसी भाषा चाहता हूं, उसे रक्त से ऐसी शुद्ध, रक्त से ऐसी शुद्ध कर देना चाहता हूं, उसमें कोई और रक्त न मिले तो निश्चित रूप से ये अलग ही ढंग का डिस्कोर्स है जो भाषा का तो नहीं है। कबीर का जो कथन है, उस हिसाब से भाषा बहता नीर है। नीर बहेगा तो उसमें पता नहीं क्या-क्या मिलेगा। हाल ही में प्रसून जोशी के वक्तव्य को शामिल किया – जो भाषा अड़ गयी, वो सड़ गयी। इसलिए न तो अंग्रेजी हिंदी के बरक्स है और न ही उर्दू हिंदी के बरक्स है। ये हिंदी के विलोम नहीं हैं। पॉपुलर लेक्चर सीरीज, डीयू के तहत वर्तमान हिंदी की समस्याएं (संदर्भ : मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर) पर अपने विचार जाहिर करते हुए मीडिया विशेषज्ञ और हिंदी विभाग (डीयू) के अध्यक्ष प्रोफेसर सुधीश पचौरी ने बातचीत की शुरुआत इसी बिंदु से की। प्रोफेसर पचौरी भाषा के नाम पर शुद्धतावादी आग्रह और भाषा को महज संस्कृति के दायरे में रख कर देखने के पक्ष में नज़र नहीं आये। यही वजह है कि उन्होंने हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग को चिंता के बजाय सुविधा और विस्तार का मामला बताया। भारतीय जनगणना सर्वे की ओर से भाषा सर्वेक्षण की रिपोर्ट को शामिल करते हुए उन्होंने साफ किया कि हिंदी का विस्तार पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा है इसलिए हिंदी को लेकर चिंतित होने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। हिंदी समाज में हिंदी की दशा पर जब भी चर्चा होती है, तो उसे साहित्य की सीखचों के बीच रख कर विश्लेषित करने का काम किया जाता है। प्रोफेसर पचौरी ने इसे कन्ज्यूमरिज्म और कारपोरेट जगत के बीच के भाषाई प्रयोग की नीतियों पर बात करते हुए बताया कि अब हिंदी का मसला सिर्फ इस बात से जुड़ा नहीं है कि उसमें कितनी साहित्यिक रचनाएं हो रही हैं बल्कि इससे भी है कि हिंदी के ऊपर कारपोरेट मोटी रकम लगाकर विज्ञापन कर रहा है। आज से करीब 15 साल पहले आये गंगा साबुन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि गोदरेज की ओर से लांच किया गया ये साबुन सप्ताह भर के भीतर बाजार में बुरी तरह पिट गया। ये गोदरेज कंपनी की रिपोर्ट है। गंगा का मतलब शुद्धता से है। गंगा साबुन मैल धोने का काम करती है लेकिन अगर गंगा साबुन मैल धोएगा तो फिर गंगा क्या करेगी। एक नाम, एक शब्द को लेकर साबुन बुरी तरह पिट गया। दूसरी तरफ आप देखिए कि लाइफबॉय के विज्ञापन पर अगर करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं तो उसके साथ रोज दस लाख साबुन की बट्टियां बेचने का टार्गेट होता है। अगर हिंदी की ये दो लाइन के विज्ञापन को देखकर कन्ज्यूमर उससे जुड़ नहीं पाता तो करोड़ों का नुकसान होगा। इसलिए हिंदी भाषा के जरिये सिर्फ संप्रेषण का काम नहीं हो रहा है बल्कि इसके पीछे एक भारी इन्वेस्टमेंट और बिजनेस का रिस्क जुड़ा हुआ है। हिंदी को लेकर जिस भाषा विस्तार और भौगोलिक क्षेत्र की बात करते हैं प्रोफेसर पचौरी ने उसे कन्ज्यूमर रिच यानी उपभोक्ता की पहुंच के तौर पर विश्लेषित किया। उदाहरण देते हुए बताया कि अगर कोई विज्ञापन हिंदी में बनते हैं, तो उसकी पहुंच करीब पैंतालीस करोड़ की जनता तक है जबकि दूसरी भाषाओं में पांच से दस करोड़ तक। इसलिए कारपोरेट और बाजार के लिए इस भाषा का प्रयोग लागत से जुड़ा है। इसे आप एसएमएस और बाकी तमाम तरह के शार्ट होती जा रही भाषा के तौर पर भी देख सकते हैं। प्रिंट की भाषा एक तरह से नेशनलिज्म की बाउंड्री तय करती है। उसका एक खास तरह का रूप होता है जबकि टेलीविजन भाषा के इस रूप को ध्वस्त करता है। टेलीविजन एक हद तक भाषाई कॉम्प्लेक्स को भी तोड़ने का काम करता है। लेकिन अब दिक्कत कहां है? दिक्कत इस बात से है कि सिनेमा, मनोरंजन और नाच-गानों के बीच तो हिंदी का खूब विस्तार हो रहा है। इसमें हमें लगातार एक संभावना दिख रही है लेकिन ये नॉलेज की भाषा नहीं बन पा रही है, इसके भीतर डिस्कोर्स नहीं हो रहे हैं। हिंदी को लेकर हमें यहां से सोचने की जरूरत है। इसलिए यहां आकर हमें सोचना होगा कि हम हिंदी के जरिये नॉलेज प्रोड्यूस करें और इस मामले में अनुवाद के जरिये भी ज्ञान के विकास को कोई हीन चीज नहीं मानता। हमें चाहे जैसे भी हो हिंदी को भावना और रस पैदा करने वाली भाषा से थोड़ा आगे जाकर ज्ञान पैदा करनेवाली भाषा के तौर पर बरतने का काम करना चाहिए। रस पैदा करने का काम हमने बहुत कर लिया। इस संदर्भ में उन्होंने टेलीविजन और मास मीडिया से कई उदाहरण दिये। लैक्चर के अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी को लेकर किसी भी तरह से, किसी भी रूप में हीन मानने और समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमारे भीतर हीनता आती है, तो ये हिंदी की वजह से नहीं बल्कि इसकी कोई और ही वजह है, जिसकी हमें तलाश की जानी चाहिए। बातचीत के बाद ऑडिएंस की ओर से कई सवाल पूछे गये, जिसका विस्तार से उन्होंने जवाब दिया। पूरी बातचीत और सवाल-जवाब सुनने के लिए आप नीचे मौजूद बक्‍से का यूज़ करें। [image: mass media aur popular culture: sudhish pachauri] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090918/a54509f5/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Sep 18 13:17:52 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 18 Sep 2009 13:17:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KSkIOCkueCliCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSo4KWJ4KSy4KWH4KSc?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4g4KSs4KSo4KWH4KSDIOCkquCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KWLLuCkuOClgeCkp+ClgOCktiDgpKrgpJrgpYzgpLDgpYA=?= In-Reply-To: <829019b0909180007o3418d340t27a1a9f8ec2040ae@mail.gmail.com> References: <829019b0909180007o3418d340t27a1a9f8ec2040ae@mail.gmail.com> Message-ID: <200909181317.53599.ravikant@sarai.net> बहुत बहुत शुक्रिया विनीत. रविकान्त शुक्रवार 18 सितम्बर 2009 12:37 को, vineet kumar ने लिखा था: > [image: sudhish pachauri > lecture]-lecture.jpg>हिंदी पर सोचने के लिए हिंदी के बरक्स से शुरुआत नहीं होनी चाहिए। > हिंदी पर जितनी बहसें हैं उसमें किससे आक्रांत है, शुरू वहां से होनी चाहिए। > माने एक भाषा को खतरा है – इस मनोवृत्ति से सोचना शुरू करते हैं तो एक किस्म > का पेरोनोइ, पेरोनोइड किस्म का अनुभव रहता है और हम सहज मनोवृत्ति से, सहज मन > से समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं? हिंदी भाषा और हिंदी जनक्षेत्र – इन > दोनों को मैं साथ-साथ लेकर चलता हूं, ऑब्लिक करके चलता हूं। मेरे लिए ये दोनों > अलग-अलग नहीं है। मैंने पहले ही ये कहने की कोशिश की है कि हिंदी का कोई बरक्स > नहीं है, किसी भी भाषा का कोई बरक्स नहीं है। अगर है भी तो पड़ोस। भाषा का > पड़ोस होता है, बरक्स नहीं। बरक्स एक कल्चरल डिस्कोर्स है जो आ जाती है। यानी > From ravikant at sarai.net Sat Sep 19 12:50:58 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 19 Sep 2009 12:50:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= online journalism course Message-ID: <200909191250.59063.ravikant@sarai.net> Maaf kiijiyega, yeh sandesh angrezi mein hai. Course bhi shayad angrezi mein hi. baharhal. ravikant IGNOU is conducting three programmes in the areas of online journalism, training of trainers and media management in collaboration with Deutsche Welle (DW), Academy, Germany.  DW Academy is one of the premier institutions of media education and training not only in Europe but across the world. The DW also runs television channels and radio stations. We propose to conduct the Training of Trainers programme tentatively   from October 26 until November 6, 2009.  The programme will be of immense value for all those who are associated with media education (the programme is in training methodology so we can also consider candidates from other disciplines). We are still working our fee structure but it would be roughly around Rs. 10,000. Willingness to participate in the programme may please be communicated at the earliest. This will help us to develop profile of participants. This is for you information and also to request you to circulate the information among your faculty members/ media professionals; and all other concerned. Thanking you, Subhash Dhuliya. -- Subhash Dhuliya Professor (Communication) School of Journalism & New Media Studies EMPC Building Indira Gandhi National Open University (IGNOU) Maidan Garhi New Delhi-110068 Phones: 29534450(O) 40524672 (R) From ravikant at sarai.net Tue Sep 22 18:05:21 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 22 Sep 2009 18:05:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+ICfgpJXgpL7gpKbgpK7gpY3gpKzgpL/gpKjgpYAnIOCkleCkviA=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS44KS+4KSoIOCkleCksOClgOCkrCDgpLngpYg/IChreWEgeWVo?= =?utf-8?q?_band_honi_chahiye=3F=29?= Message-ID: <200909221805.23267.ravikant@sarai.net> किसी भी पत्रिका का बंद होना वैसे तो अफ़सोसनाक होना ही चाहिए. पर यहाँ उद्धृत ख़यालात से लगता है कि कादंबिनी कुछ सही नहीं जा रही थी, और उसका चले जाना ही बेहतर है. मैंने भी काफ़ी समय से उसको पढ़ने की ज़रूरत नहीं समझी. एकाध बार ललक कर उठाया भी तो एकाध चीज़ पढ़ कर पटक देने के लिए ही. मेरा अपना बचपन धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादंबिनी और नवनीत की संगति में बीता है. एक समय था जब राजेन्द्र अवस्थी बहुत बड़े काल-चिंतक लगते थे, क्योंकि वो चौंका देने वाली बातों की पूरी क़तार खड़ी कर देते थे. पर बाद में तो हमें लगने लगा कि कोरा बकवास कर रहे हैं. ख़ास तौर पर जब भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र के विशेषांक अबाध रूप से छपने लगे तो निराशा होने लगी थी. बहरहाल कोई भी पत्रिका अगर लाखों की तादाद में बिकती थी तो ज़रूर कोई न कोई तबक़ा उसे काम की चीज़ मानता होगा. मत भूलिए कि कई शहरों में कादंबिनी क्लब थे, लोग उसके मँड़वे तले नाना प्रकार के साहित्यिक आयोजन करते थे, और कादंबिनी का स्तर बनाए रखने की अपनी तरफ़ से काफ़ी कोशिश करते थे. और कई नए कवियों ने तो अपने हस्ताक्षर पहले-पहल वहीं किए होंगे. अगर आप इसे नॉस्टैल्जिया मानकर ख़ारिज न कर दें तो मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि डॉ. सरोजनी प्रीतम की हँसिकाएँ मैं बड़े चाव से पढ़ता था. यह एक बिल्कुल नई विधा थी, हास्य-व्यंग्य से लबरेज़ चुटीली और बाक़ायदा गेय. बुद्धि विलास नामक स्तंभ कभी-कभी अच्छा होता था, पारिभाषिक शब्दा वली वाला स्तंभ तो वाक़ई उपयोगी होता था. पर सबसे मज़ा मुझे उसके सबसे बड़े स्तंभ - सार-संक्षेप - को पढ़ने में आता था. दुनिया भर की कई शास्त्रीय साहित्यिक कृतियों से मेरी पहली मुलाक़ात इसी स्तंभ के ज़रिए हुई. उनको मूल से तो मिलाने का कभी मौक़ा नहीं मिला पर लगता था कि उस स्तंभ पर काफ़ी मेहनत किया जाता था, वह हिन्दी पाठकों के लिए शेष विश्व साहित्य का झरोखा सा था. और उसमें प्रवाह भी अद्भुत होता था, यानी उल्था करने वाले की प्रतिभा की आपको तारीफ़ करनी पड़ेगी. पर घर से हाॉस्टल आने पर कादंबिनी का साथ जैसे छूट गया. कोई ढंग का संपादक उठाकर चला ले तो शायद अच्छा होगा. या वक़्त बदल गया है, और कादंबिनी टाइप के पाठक क्या अहा ज़िन्दगी पढ़ने लगे हैं, जैसे कि मैं? रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: क्या 'कादम्बिनी' का अवसान करीब है? (kya yeh band honi chahiye?) Date: मंगलवार 22 सितम्बर 2009 00:34 From: Hind Yugm To: undisclosed-recipients:; एक समय की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रिका 'कादम्बिनी' अपने बुरे दिनों से गुजर रही है। हिन्द-युग्म ने राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ट, मदन कश्यप, भारत भारद्वाज, रामजी यादव, प्रमोद कुमार तिवारी, विमल चंद्र पाण्डेय और गौरव सोलंकी जैसे बुद्धिजीवियों से इस विषय पर राय ली कि कादम्बिनी का भविष्य क्या है? और इसकी यह हालत आखिर हुई कैसे? आप भी पढ़ें और अपनी महत्वपूर्ण राय दें- http://baithak.hindyugm.com/2009/09/kadambini-ke-sarokar-samkalinata-sawal.ht ml आपकी राय महत्वपूर्ण हैं। धन्यवाद। निवेदक- www.hindyugm.com ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Sep 23 11:34:16 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 23 Sep 2009 11:34:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Re=3A_Fwd?= =?utf-8?b?OiDgpJXgpY3gpK/gpL4gJ+CkleCkvuCkpuCkruCljeCkrOCkv+CkqOClgCcg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkheCkteCkuOCkvuCkqCDgpJXgpLDgpYDgpKwg4KS54KWIPyAo?= =?utf-8?q?kya_yeh_band_honi_chahiye=3F=29?= Message-ID: <200909231134.16732.ravikant@sarai.net> हाँ, विभास, अच्छा याद दिलाया. मुझे त्रिपाठी जी की दो-एक चीज़े पड़ने का मौक़ा मिला था. कुछ और लेख इंटरनेट वग़ैरह को लेकर छपे थे, नागर जी के ज़माने में जो बुरे नहीं थे. बल्कि मुझे लगता था कि कादंबिनी अपने आपको नए ढंग से पेश करने की कोशिश कर ही है. इसलिए ये ख़बर और उस पर लोगों की ख़ारिज करती टिप्पणियाँ देखकर थोड़ा नॉस्टैल्जिक हो गया था. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान]Fwd: क्या 'कादम्बिनी' का अवसान करीब है? (kya yeh band honi chahiye?) Date: बुधवार 23 सितम्बर 2009 00:04 From: vibhas verma To: ravikant at sarai.net aapne idhar nikalnewali Kadambini ko nahi dekha.Vishnu nagar jab nikalte the. usme Vishwanath tripathi ne jo apne students par jo series likhi wo ek aisee cheez hai jiski misal mujhe kahin nahi milti.usme jin students ka jikra tha unme harish khare , deepak sinha jaise logon ke alaawaa shriprakash jaise kaii gumnaam log bhi the.iske alaawa bhi kaii achhe stambh the. vibhas 2009/9/22 Ravikant : > किसी भी पत्रिका का बंद होना वैसे तो अफ़सोसनाक होना ही चाहिए. पर यहाँ उद्धृत > ख़यालात से लगता है कि कादंबिनी कुछ सही नहीं जा रही थी, और उसका चले जाना ही > बेहतर है. मैंने भी काफ़ी समय से उसको पढ़ने की ज़रूरत नहीं समझी. एकाध बार > ललक कर उठाया भी तो एकाध चीज़ पढ़ कर पटक देने के लिए ही.  मेरा अपना बचपन > धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादंबिनी और नवनीत की संगति में बीता है. एक > समय था जब राजेन्द्र अवस्थी बहुत बड़े काल-चिंतक लगते थे, क्योंकि वो चौंका > देने वाली बातों की पूरी क़तार खड़ी कर देते थे. पर बाद में तो हमें लगने लगा > कि कोरा बकवास कर रहे हैं. ख़ास तौर पर जब भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र के > विशेषांक अबाध रूप से छपने लगे तो निराशा होने लगी थी. बहरहाल कोई भी पत्रिका > अगर लाखों की तादाद में बिकती थी तो ज़रूर कोई न कोई तबक़ा उसे काम की चीज़ > मानता होगा. मत भूलिए कि कई शहरों में कादंबिनी क्लब थे, लोग उसके मँड़वे तले > नाना प्रकार के साहित्यिक आयोजन करते थे, और कादंबिनी का स्तर बनाए रखने की > अपनी तरफ़ से काफ़ी कोशिश करते थे. और कई नए कवियों ने तो अपने हस्ताक्षर > पहले-पहल वहीं किए होंगे. > > अगर आप इसे नॉस्टैल्जिया मानकर ख़ारिज न कर दें तो मैं निवेदन करना चाहता हूँ > कि डॉ. सरोजनी प्रीतम की हँसिकाएँ मैं बड़े चाव से पढ़ता था. यह एक बिल्कुल नई > विधा थी, हास्य-व्यंग्य से लबरेज़ चुटीली और बाक़ायदा गेय. बुद्धि विलास नामक > स्तंभ कभी-कभी अच्छा होता था, पारिभाषिक शब्दा वली वाला स्तंभ तो वाक़ई उपयोगी > होता था. पर सबसे मज़ा मुझे उसके सबसे बड़े स्तंभ - सार-संक्षेप - को पढ़ने > में आता था. दुनिया भर की कई शास्त्रीय साहित्यिक कृतियों से मेरी पहली > मुलाक़ात इसी स्तंभ के ज़रिए हुई. उनको मूल से तो मिलाने का कभी मौक़ा नहीं > मिला पर लगता था कि उस स्तंभ पर काफ़ी मेहनत किया जाता था, वह हिन्दी पाठकों > के लिए शेष विश्व साहित्य का झरोखा सा था. और उसमें प्रवाह भी अद्भुत होता था, > यानी उल्था करने वाले की प्रतिभा की आपको तारीफ़ करनी पड़ेगी. > > पर घर से हाॉस्टल आने पर कादंबिनी का साथ जैसे छूट गया. कोई ढंग का संपादक > उठाकर चला ले तो शायद अच्छा होगा. या वक़्त बदल गया है, और कादंबिनी टाइप के > पाठक क्या अहा ज़िन्दगी पढ़ने लगे हैं, जैसे कि मैं? > > रविकान्त > > > > > > > ----------  आगे भेजे गए संदेश  ---------- > > Subject: क्या 'कादम्बिनी' का अवसान करीब है? (kya yeh band honi chahiye?) > Date: मंगलवार 22 सितम्बर 2009 00:34 > From: Hind Yugm > To: undisclosed-recipients:; > > एक समय की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रिका 'कादम्बिनी' अपने बुरे > दिनों से गुजर रही है। हिन्द-युग्म ने राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ट, मदन कश्यप, > भारत भारद्वाज, रामजी यादव, प्रमोद कुमार तिवारी, विमल चंद्र पाण्डेय और गौरव > सोलंकी जैसे बुद्धिजीवियों से इस विषय पर राय ली कि कादम्बिनी का भविष्य क्या > है? और इसकी यह हालत आखिर हुई कैसे? > > आप भी पढ़ें और अपनी महत्वपूर्ण राय दें- > http://baithak.hindyugm.com/2009/09/kadambini-ke-sarokar-samkalinata-sawal. >ht ml > > आपकी राय महत्वपूर्ण हैं। > > धन्यवाद। > > निवेदक- > www.hindyugm.com > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Sep 23 11:50:42 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 23 Sep 2009 11:50:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KS44KSg?= =?utf-8?b?IOCkteCksOCljeCkt+ClgOCkryDgpLjgpL7gpLDgpLgg4KSU4KSwIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWL4KSu4KSh4KS84KWA?= Message-ID: <200909231150.43166.ravikant@sarai.net> http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/08/post-22.html aur aaj ke jansatta/samaantar se saabhar. maze lein. ravikant बासठ वर्षीय सारस और लोमड़ी वुसतुल्लाह ख़ान | गुरुवार, 13 अगस्त 2009, 14:41 IST कराची से दिल्ली हफ़्ते में एक बार फ़्लाइट जाती है और बहुत ही भरी हुई फ़्लाइट होती है. लेकिन उस रूट पर चलने वाली पीआईए के बोइंग 737 में घुसते ही दोनों देशों के आपसी संबंधों का अंदाज़ा हो जा ता है. दोनों देश चूँकि हर कुछ समय के बाद एक दूसरे से किसी भी बात को लेकर हत्थे से उखड़ जाते हैं शायद इसलिए सीट पर बैठते ही एक हत्था हिला और मेरे हाथ में आ गया. उस फ़्लाइट में किसी दुबली पतली नाज़ुक सी एयर होस्टेस या स्मार्ट स्टुवर्ड के बजाए मोटा ताज़ा और पहलवान दिखने को मिलता है. शायद इसलिए कि भारतीय यह नहीं समझ लें कि हम देखने में उन से कमज़ोर या उन्नीस हैं. एक मुसाफ़िर ने जब 50 वर्षीय एयर होस्टेस से पानी माँगा तो उसने दिल को लुभा लेने वाली मुस्कुरा हट के साथ बहुत जल्द काग़ज़ का गिलास, पेपर नैपकिन के साथ आगे कर दिया. मैंने पानी माँगा तो अभी लाती हूँ कह कर आगे बढ़ गई. दस मिनट बाद फिर पानी माँगा तो उसने काग़ज़ का गिलास बिना पेपर नैपकिन मेरी तरफ़ ऐसी मुस्का न के साथ बढ़ाया जैसे दोनों देश एक दूसरे को देख यूं मुस्कुराते हैं जैसे कर्ज़ ब्याज के साथ लौटा रहे हों. मैंने सोचना शुरू किया कि इस एयर होस्टेस ने एक मुसाफ़िर को क्यों मुस्कुरा कर पेपर नैपकिन के साथ पानी दिया और मुझे क्यों एक बनावटी मुस्कान के साथ गिलास थमाया. यूरेका!!! वजह समझ में आ गई !!! उस मुसाफ़िर ने सफ़ेद शलवार कमीज़ पहनी हुई थी और मैंने बदक़िस्मती से जींस पर फ़ैब इंडिया का गेरूआ शर्ट कुर्ता पहना हुआ था!!! ये फ़्लाइट जिसमें आधे से अधिक वो दक्षिण भारतीय कामगार और उत्तर भारतीय प्रवासी थे जो खाड़ी के अरब देशों से कराची के रास्ते दिल्ली जा रहे थे. उन्होंने शुद्ध उर्दू में ये एलान सुना. ख़्वातीन-ओ-हज़रात अस्सलाम अलैकुम. हम आपके शुक्रगुज़ार हैं कि आपने अपनी परवाज़ के लिए पीआईए का इंतख़ाब किया.बराहेकरम अपनी निशस्त की पुश्त सीधा कर लीजिए. बालाइख़ाना बंद कर लीजिए. आपके मुलाहिज़े के लिए हिफ़ाज़ती तादाबीर का किताबचा आपके सामने की सीट की जेब में है. हंगामी हालात में इस्तेमाल के लिए हिफ़ाज़ती जैकेट ज़ेरे निशस्त है. उम्मीद है आपका सफ़र पुरकैफ़-ओ-ख़ुशगवार गुज़रेगा. मैंने साथ बैठे सरदार जी से पूछा गुरू जी एलान पल्ले पड़ा? कहने लगे वाहे गुरु जाने. मेरे पल्ले ते कुछ नहीं पया. मुझे कुछ साल पहले की एक और फ़्लाइट की घोषणा याद आ गई. कृपया करके ये घोषणा ध्यान से सुनि ए. ;हम मुंबई से कराची की उडा़न पर आपका हार्दिक स्वागत करते हैं. हमारी यह उडा़न एक घंटा एवं पाँच मिनट की होगी. कृपया सुरक्षा बेल्ट बाँधे रखिए. इलेक्ट्रानिक उपकरण बंद रखिए क्योंकि उड़ान के दौरान विमान के संचार तंत्र में गड़बड़ी हो सकती है. आशा है कि इंडियन एयरलाइंस से आपकी यात्रा सुरक्षित, सुखद एवं मंगलमय रहेगी.' मुझे याद है कि मैंने एयर होस्टेस से पूछा था कि अभी जो घोषणा हुई उसमें क्या कहा गया. कहने लगी सर आप बैठिए मैं अभी सर से पूछ कर बताती हूँ कि इसका आसान हिंदीकरण क्या है. लेकिन इसमें इन बेचारों का क्या क़सूर! दोनों देश जब भी दिल्ली और इस्लामाबाद या न्यू यॉर्क या शर्म-अल-शेख़ या सार्क की साइडलाइंस पर वार्तालाप का मंडप सजाते हैं तो दोनों तरफ़ के नेताओं और नौकरशाहों की कोशिश होती है कि ऐसी ज़बान बोलें जिस से देखने वाले को यह शक हो कि कुछ बात हो रही है. पर इस बात का कोइ मतलब न निकलने पाए. एक था सारस और एक थी लोमड़ी. दोनों में हर समय ख़ट-पट रहती थी. एक दिन शेर की कोशिशों से दोनों में तालमेल हो गया. लोमड़ी ने कहा सारस भाई हमारे गिले-शिकवे दूर हो गए. आप मेरे घर खा ने पर आइए. सारस जब बन ठन कर लोमड़ी के यहाँ पहुँचा तो लोमड़ी ने मुस्कुराते हुए एक प्लेट में पतला शोरबा उसके सामने रखा दिया. सारस ने लंबी चोंच में शोरबा भरने की बहुत कोशिश की लेकिन कुछ कामयाबी न हुई. और लोमड़ी अरे आप तो बहुत तकल्लुफ़ कर रहे हैं कहती हुई लप-लप सारा शोरबा पी गई. सारस ने लोमड़ी से कहा कि कल शाम आप मेरे यहाँ खाने पर आइए मुझे बहुत ख़ुशी होगी. लोमड़ी जब पहुंची तो सारस ने एक सुराही में बोटियाँ डालकर लोमड़ी के सामने रख दिया. लोमड़ी ने अपनी थूथनी सुराही में डालने की कई बार कोशिश की लेकिन वो एक भी बोटी न निकाल सकी. सारस ने कहा अरे आप तो मुझ से भी ज़्यादा तकल्लुफ़ कर रही हैं. सारस ने अपनी लंबी चोंच सुराही में डाली और सब बोटियाँ चट कर गया. बासठ वर्ष बाद कॉंफ़िडेंस बिल्डिंग और कंपोज़िट डायलॉग के साए में सारस और लोमड़ी की कहानी जा री है. From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Sep 23 15:10:58 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 23 Sep 2009 15:10:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KWL4KSf4KWH?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpL4g4KS44KSa?= Message-ID: <196167b80909230240ydd3a409sf9d257eded536f02@mail.gmail.com> *यह लेख तो मीडिया स्कैन के लिए लिखा गया था, लेकिन लेखक नहीं चाहते थे कि लेख के साथ उनका नाम भी जाए, इसलिए इसे ब्लौग पर डाल रहा हूँ. चूकि बात आप लोगों तक पहुँचे*.------------ -------------------------------------------------- दिल्ली के खजुरीखास इलाके की स्कूल में हुए भगदड़ में सात छात्राओं की मौत की खबर क्या आई... इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई दुकानों में जैसे खलबली सी मच गई... जिन चैनलों के पास अपने संसाधन है... उन ने तो जमकर खबर को बेचा... लेकिन कुछ छोटे दर्जे के चैनल को भी तो अपनी दुकान चलानी है.... अभी मैं चैनल पहुंचा ही था कि आउटपुट एडिटर की आवाज मेरे कानो में गुंजी... अरे यार काट लो काट लो... अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि आखिर काटना क्या है... चलिए हम ही बता देते है... दरअसल ये सारी कवायद दूसरे चैनल पर आ रहे विजुअल को कैप्चर करने या बिंदास कहे तो उसे चुराने की चल रही थी...अरे भईया मैं ये क्या कह गया.... आखिर मैं भी तो इसी दुकान में काम करता हूं... तो फिर मालिक के खिलाफ ऐसी नाफरमानी... चलिए जब कुछ भड़ास निकलना ही है तो जमकर निकाला जाए... मुझे न तो अपने संस्थान से शिकायत है और न ही इस ग्लैमर की दुनिया से ही कोई गिला... शिकायत तो बस कुकरमुत्ते की तरह उपज रहे इन छोटे दर्जे की चैनलों से है... चैनल के नाम पर इन्हे लाइसेंस तो मिल जाता है लेकिन इनकी पहुंच बस चैनल के मालिकों तक ही सिमटी होती है... कुछ तो ऐसे चैनल भी है जिसका नाम कभी नहीं सुना पर कहने को नेशनल चैनल है...ऐसा नहीं कि इस चैनल में काम करने वालों को सैलरी नहीं मिलती... मिलती है पर कब मिलती और कब खत्म हो जाती इसका तो पता ही नहीं चलता...मतलब नहीं समझे तो लिजिए समझ लिजिए... दरअसल इन चैनलों में वैसे लोग ही आते है जिनकी सोच यहां आने से पहले तो क्लियर रहती है लेकिन जैसे जैसे मीडिया के वास्तवित रुप से रु-ब-रु होते है... एक अलग ही सोच विकसित हो जाती है... फिर भी नहीं समझे... अरे भाई ये लोग इन चैनलों को सफलता की पहली सीढ़ी समझकर इस पर चढ़ तो जाते है लेकिन अगली सीढ़ी के लिए बस तरसते रह जाते है....उसके बाद उम्र से पहले ही बुजुर्ग की तरह मीडिया में आए बस आए नए छात्रों को उपदेश ही देते रह जाते है... कि भईया अभी भी समय है सभंल जाओ... नहीं तो बस फंस गए तो फंस गए। *( लेखक परिचय- लेखक एम एच वन, एस वन, फोकस, आजाद, प्रज्ञा में से किसी एक चॅनल में कार्यरत हैं...)* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090923/80f609df/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Sep 24 09:48:24 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Sep 2009 09:48:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS/4KSu4KSy?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSm4KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KS44KSDIOCkpuCksuCkv+CkpCDgpLXgpL/gpK7gpLDgpY3gpLYg4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCksOCkueCkviDgpKrgpLngpLLgpL4g4KSm4KS/4KSo?= Message-ID: <829019b0909232118m16ce1d19ufd5c49368d69eea7@mail.gmail.com> 23 सितंबर से शिमला की गुलाबी ठंड के बीच बुद्धिजीवी समाज के बीच गर्माहट पैदा करने का दौर शुरु हो गया है। हिन्दी की आधुनिकताःएक पुनर्विचार पर विमर्श करने के लिए देशभर के बुद्धिजीवियों का जुटान यहां के शिमला उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला(Indian Institute of Advance Studies,Shimla) में हुआ है। सात दिनों तक चलनेवाले इस विमर्श में ये लोग अपनी-अपनी विशेषज्ञता और लेखन अभिरुचि के अनुसार हिन्दी,आधुनिकता,भाषा,अस्मिता और इनसे जुड़े सवालों पर अपनी बात रखेंगे। दिलचस्प है कि यहां वक्ताओं को अपनी बात रखने के लिए जहां 40 मिनट का समय दिया गया है,करीब उतना ही समय और उससे कहीं ज्यादा उनकी बातों से उठनेवाले सवालों और असहमतियों पर बहस करने के लिए श्रोताओं को भी समय दिया जा रहा है इसलिए सुननेवालों के बीच उम्मीद है कि वो दिल्ली की तरह पैसिव ऑडिएंस नहीं होंगे और उनकी भी सक्रियता लगातार बनी रहेगी। अभय कुमार दुबे के शब्दों में-राष्ट्रपति निवास के इस सेमिनार हॉल की छत इतनी उंची है कि किसी भी विचारधारा को,किसी भी मत से टकराने में कोई असुविधा नहीं होगी,ये विचारों का कारखाना है और हम सब यहां मिस्त्री हैं इसलिए जो चाहें,जैसे चाहें,स्वाभाविक तरीके से अपनी बात यहां रख सकते हैं। हम इस उम्मीद से यहां जमे हुए हैं कि दिल्ली की किचिर-पिचिर पेंचों और चुटुर-पुटुर बहसों से थोड़े दिनों के लिए बचते हुए बौद्धिक स्तर की उंचाइयों को देख-समझ सकें और अपनी काबिलियत के अनुसार कुछ साझा कर सकें। हिन्दी की आधुनिताःएक पुनर्विचार पर सितंबर 23 से लेकर 29 तक चलनेवाले इस सात दिवसीय वर्कशॉप की शुरुआत भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला के नेशनल फैलोप्रोफेसर सी.एम.नईम के स्वागत भाषण के दौरान दिए गए इस वक्तव्य से हुई कि- ये हमारे लिए सीखने का बहुत ही महत्वपूर्ण क्षण है नहीं तो उर्दूवाले अपनी बात और बाकी लोग अपनी-अपनी बात तो कहते ही रहते हैं। उन्होंने इस पूरे सेमिनार को अधिक से अधिक संवादपरक बनाने की बात कही। विषय की प्रस्तावना को स्पष्ट करते हुए अभय कुमार दुबेने कहा कि- ये सवाल सबके मन में उठ सकता है कि हिन्दी और आधुनिकता पर बात करने के बजाय हिन्दी की आधुनिकता पर बात क्यों? ऐसा नहीं है कि मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। दरअसल हिन्दी पर बात करते हुए हमें भाषा की भूमिका पर बात करना अनिवार्य है क्योंकि भाषा अब सिर्फ यथार्थ का निरुपण नहीं है बल्कि भाषा लगातार यथार्थ को गढ़ने का भी काम करती है। इसलिए इस बहस की शुरुआत का श्रेय सास्यूर को तो जरुर जाता है लेकिन उन्होंने पैरोल यानी बोली जानेवाली भाषा पर कम ही ध्यान देते हैं,उनका जोर लिखित भाषा की ओर ज्यादा रहा है। इसलिए जब हम हिन्दी की आधुनिकता की बात करते हैं तब ये लिखित भाषा से कहीं आगे जाकर माध्यमों और संप्रेषण की दूसरी भाषाओं को भी इसमें शामिल करने की गुंजाईश बनती है। दुबे ने इस क्रम में हिन्दी को लेकर कुछ स्थापनाओं को सामने रखा जिसे कि बाद में बीज वक्तव्य के दौरान प्रसिद्ध इतिहासकार औऱ स्तंभकार सुधीर चंद्र ने खारिज कर दिया। दुबे की मान्यता रही है कि हिन्दी का जन्म भारतीय आधुनिकता के गर्भ से हुआ है। इसके साथ ही हम यहां हिन्दी का मतलब उत्तर-औपनिवेशिक यथार्थ के ईर्द-गिर्द बनने वाली भाषा की चर्चा करेंगे। देशभर में चलनेवाले तमाम तरह के विमर्श जहां 19वीं शताब्दी में जाक फेंस जाते हैं,वहीं उत्तर-औपनिवेशिक परिवेश में हिन्दी का एक लोकतंत्र तेजी से बन रहा है। अभय कुमार दुबे की बात से अपनी असहमति जताते हुए सुधीर चन्द्र ने आधुनिकता का द्वंद्व और हिन्दी पर अपना बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी बात की शुरुआत ही इस बिन्दु से की कि भाषा के मामले में मैं 19 वीं सदी पर खास तौर पर जोर देना चाहता हूं। उन्होंने हिन्दी और आधुनिकता इन दोनों शब्दों को पूरे वर्कशॉप का केन्द्रीय शब्द बताते हुए कहा कि जब भी हम हिन्दी शब्द का प्रयोग करते हैं,कोई नाम देते हैं तो इसका मतलब है कि हमारे जेहन में इसको लेकर के कोई तस्वीर बनती है,यही मामला आधुनिकता के साथ भी है। लेकिन इसकी शुरुआत को हम किसी एक तारीख से बांधकर बात नहीं कर सकते,हिन्दी का विकास एक प्रक्रिया के तहत हुआ है और हमें इसे इसी रुप में समझना चाहिए। ये अलग बात है कि ब्रज की हिन्दी,अवधी से अलग होगी उसी तरह एक दौर की हिन्दी दूसरे दौर की हिन्दी से अलग होगी। लेकिन ये परस्पर अन्तर्विरोध तो एक व्यक्ति के भीतर भी होता है तो क्या हम उसका भी विभाजन इसी रुप में कर देते हैं। इसलिए उत्तर-औपनिवेशिक हिन्दी के नाम से विश्लेषण करने से बेहतर है कि हम इस पूरी प्रक्रिया को समझें,बल्कि 19 वीं सदी को खास-तौर पर शामिल करें। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम हिन्दी और आधुनिकता दोनों के बीच मौजूद संश्लिष्टता को खत्म कर देने की ओर बढ़ते हैं औऱ वैसे भी उत्तर-औपनिवेशिक में उत्तर कमजोर शब्द है,आधार तो औपनिवेशिक ही है। सुधीर चंद्र के बीज वक्तव्य के बाद सेमिनार सत्र की शुरुआत होती है और दिनभर अलग-अलग संदर्भों में हिन्दी की आधुनिकता और दलित विमर्श के संदर्भ में बातचीत का दौर चलता है। सत्र के पहले वक्ता के तौर पर दलित साहित्य के प्रसिद्ध रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित लेखन की आधुनिकता और सांस्कृतिक विरासत पर अपनी बात रखते हैं। वाल्मीकि ने पूरे हिन्दी साहित्य में उन तमाम संदर्भों की विस्तार से चर्चा की जहां दलितों को हाशिए पर,उनका अपमान करते हुए साहित्य लिखने का काम किया गया। उन्होंने कहा कि- पिछले सत्तर वर्षों से हिन्दी के विद्वान आलोचक,शिक्षक इस कहानी को कलात्मक श्रेष्ठ,कालजयी कहानी कहते रहे हैं। लेकिन किसी ने कभी ये नहीं सोचा कि जब एक दलित इस कहानी को पढ़ता है तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? कहानी में चित्रित पात्र या स्थितियां किस प्रकार के यशार्थ को प्रस्तुत कर रही है। कहानी में पिरोय गए शब्द कुनबा,चमार,प्रसव पीड़ा का दृश्य कितना यथार्थवादी है और कितना कल्पना आधारित,शायद विद्वानों ने इन तथ्यों पर सोचने-समझने की जरुरत ही नहीं समझी। उन्होंने अकादमिक जगत के हिन्दी साहित्य और हिन्दी के विद्वानों पर आरोप लगाते हुए कहा कि जो बदलाव के साहित्य है उसे अकादमिक जगत में,कोर्स में शामिल नहीं किया जाता औऱ इधर इन विद्वानों की सोच में दलित के लिए किंचित मात्र भी संवेदना का कोई अंश नहीं रहा है।..जिस मुख्यधारा का हिस्सा ये विद्वान और साहित्यिक लोग हैं,कम से कम उस मुख्यधारा से स्वयं को जोड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। हिन्दी के आलोचक,लेखक,बुद्धिजीवी,दलित साहित्य की आंतरिकता को समझने से पहले ही उस पर तलवार लेकर पिल पड़ते हैं। उसे अधकचरा,कमजोर शिल्पहीन जैसे आरोपों से सुसज्जित कर अपनी साहित्यिक श्रेष्ठता का दम्भ भरने लगते हैं। दलित लेखकों की बात को ठीक से सुने बगैर या बिना पढ़े वक्तव्य देने का रिवाज हिन्दी में स्थापित हो चुका है,इसकी चपेट में महान नाम भी आ चुके हैं जिन्हें हिन्दी जगत सिर आंखों पर बिठाये हुए है। वाल्मीकि ने देश के भीतर कि उस बड़ी सच्चाई को हमारे सामने रखा कि दलित समाज एक वस्तु(comodity) के रुप में एक इस्तेमाल की चीज बनकर रह गया है। जब गिनती बढ़ाने के लिए सिर गिनने की जरुरत है तब दलित हिन्दू है। अन्यथा स्कूलों में सरकारी अनुदान से चलनेवाले मिड डे मील बनाने के लिए कोई दलित महिला नहीं रखी जाएग,बच्चे उसके हाथों का बना खाना नहीं खाएंगे। आधुनिकता और आजादी के दावों के बीच इस तरह की निर्मम स्थितियों की चर्चा करते हुए वाल्मीकि का लोगों ने जोरदार समर्थन किया लेकिन दलित साहित्य में स्त्रियों की मौजूदगी के सवाल में उनका ये बयान अचानक से अन्तर्विरोध पैदा कर गया। वाल्मीकि ने इस सवाल पर कहा कि दलितों में कोई लिंग नहीं होता,इस जबाब को विमल थोरात ने हायली पॉलिटिकल स्टेटमेंट बताया जबकि सभा में मौजूद लोगों भेद के नहीं किए जाने को भी भेद का ही एक कारण बताया। दोपहर के भोजन के बाद दूसरे सत्र की शुरुआत युवा रचनाकार और दलित-विमर्श के जानकार अजय नावरिया के दलित लेखन की हाशियागत आधुनिकता और सांस्कृतिक राजनीति पर दिए गए विचार से होती है। अजय नावरिया ने आते ही स्पष्ट किया कि जिसे हम हाशियागत दलित लेखन कह रहे हैं,दरअसल वो हाशियाकृत है। वो हाशिए पर नहीं है बल्कि उसे ऐसा कर दिया गया है। इसलिए इसे मैं अपने वक्तव्य में हाशियाकृत कहना ही ज्यादा उचित समझता हूं। दलित साहित्य कहीं से भी हाशियागत नहीं है बल्कि ये कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में है,कहीं ज्यादा आधुनिकता का पक्षधर है और पितृसत्ता के विरोध में है। दलित राजनीति और उसके चिंतन के सवाल पर नावरिया ने कहा कि दलित राजनीति से कहीं ज्यादा उम्र दलित चिंतन की है। संभव है कि स्वार्थवश लोग दलित राजनीति को उसके चिंतन से जोड़कर देख रहे हों लेकिन ऐसा करना उचित नहीं होगा। अजय नावरिया के फुटनोट सहित उस वक्तव्य पर अच्छी-खासी गर्माहट पैदा हुई जब उन्होंने राजा राम मोहन राय की सती प्रथा पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राय ने स्त्रियों के पक्ष में जिस सती प्रथा का विरोध किया वही दलितों के मामले में बिल्कुल चुप रहे। इसका सीधा मतलब है कि वो उनके इस कदम को कोई व्यापक बदलाव का हिस्सा नहीं माना जा सकता। नावरिया की इस बात का समर्थन करते हुए कवयित्री और स्त्रीवादी लेखिका सविता सिंह ने इसे सीमित दायरे में उठाया गया कदम माना। नावरिया ने अपनी पूरी प्रस्तुति में बार-बार हमें बताने की कोशिश की कि अगर वो किसी भी धर्म के बारे में बात कर रहे हैं तो इससे कतई ये अंदाजा न लगाया जाए कि मैं धर्म का समर्थन कर रहा हूं बल्कि वो धर्म के बीच मौजूद वैज्ञानिकता की पहचान कर रहे हैं और उसके पक्ष की बात कर रहे हैं। दलित नारीवादी के आयाम पर बात करते हुए दलित विमर्श की चर्चित लेखिका विमल थोरात ने सामान्य स्त्रियों की समस्याएं और दलित स्त्री की समस्याओं को अलगाते हुए कहा कि दलित स्त्री की समस्याओं को सामान्य स्त्री की समस्याओं के साथ घालमेल करके नहीं देखा जा सकता। सच्चाई तो ये है कि दलित स्त्री की समस्याओं की प्रकृति बिल्कुल अलग है। काम पाने के दौरान शोषण से लेकर परिवार के स्तर पर जिस तरह से उसके साथ भेदभाव होते हैं,दलित लड़की जब स्कूल पढ़ने जाती है तो उससे जबरदस्ती ट्वॉयलेट साफ कराए जाते हैं,इसे आप सामान्य स्त्रियों की समस्याओं के साथ जोड़कर नहीं देख सकते हैं। जिस तरह से दलित स्त्रियों का अपमान किया जाता है उसे अगर आप स्त्री-विमर्श के अन्तर्गत देखने-समझने की कोशिश करें तो आपको हैरानी होगी कि उनके स्वर तो कई स्तरों पर तो मौजूद नहीं है। यही कारण है कि आज दलित स्त्री अपने अधिकारों के लिए स्त्री-विमर्श से अपने को अलग करती है। दलित स्त्री को हम सामान्य स्त्री के कम्पार्टमेंट में नहीं डाल सकते। थोरात दलित स्त्री के शिक्षा दरों,उत्पादन के साधनों और भागीदारी के सवाल पर विस्तार से चर्चा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि उनके बीच आज से 50 साल पहले की जद्दोजहद अब भी बरकरार है। नोटः- पूरे सत्र के दौरान कई संदर्भों में,अलग-अलग लोगों की ओर से सवाल किए गए जिसका कि वक्ताओं ने विस्तार से जबाब भी दिया। मेरी इच्छा है कि हम इसका ऑडियो वर्जन हूबहू आपके सामने रखें लेकिन फिलहाल यहां इंटरनेट की गति इतनी धीमी है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सात दिनों तक चलनेवाले सेमिनार की विस्तृत रिपोर्ट हम आपको देते रहेंगे। आप अपनी प्रतिक्रियाएं हमें भेजते रहें। रिपोर्ट की लंबाई को बर्दाश्त करेंगे औऱ इसके अतिरिक्त कोई सुझाव हो तो देते रहें। फिलहाल गहमागहमी विमर्श का दौर शुरु होनेवाला है। देखिए न,लिखने के चक्कर में अभी तक ब्रश तक नहीं किया। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090924/5a643cb3/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu Sep 24 13:01:15 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 24 Sep 2009 13:01:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAiIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS24KWAIOCkreCkvuCkt+CkvuCkk+CkgiDgpK7gpYfgpIIg4KS44KSu?= =?utf-8?b?4KS+4KScIOCkteCkv+CknOCljeCknuCkvuCkqCAiIChTb2NpYWwgU2NpZW5j?= =?utf-8?b?ZXMgaW4gTG9jYWwgTGFuZ3VhZ2VzKSDgpKrgpLAg4KSP4KSVIOCkrOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWJ4KSXIGh0dHA6Ly9zYW1hanZpZ3lhbi5ibG9nc3BvdC5jb20=?= Message-ID: <200909241301.15911.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: "देशी भाषाओं में समाज विज्ञान" (Social Sciences in Local Languages) पर एक ब्लॉग http://samajvigyan.blogspot.com Date: रविवार 20 सितम्बर 2009 00:53 From: Pankaj Pushkar To: samajvigyan at gmail.com, Pankaj Pushkar Dear friend, Please register your views and comments on the blog "Social Sciences in Local Languages". Pls forward the link http://samajvigyan.blogspot.com/ to other friends. प्रिय साथी, "देशी भाषाओं में समाज विज्ञान" पर अपनी समझ और अनुभवों का साझा करने के लिए एक ब्लॉग शुरू किया गया है. आपकी आलोचना, टिप्पणी या सुझाव का इंतजार रहेगा. यदि आपको हिंदी में मेल करने में असुविधा हो तो आप http://www.google.com/transliterate/indic पर जाकर रोमन में टाइप कर सकतें हैं. यह नागरी में बदल जायेगा. फिर इसे मेल बॉक्स में पेस्ट कर सकतें हैं. आप चाहें तो इंग्लिश में भी ब्लॉग http://samajvigyan.blogspot.com/ पर या samajvigyan at gmail.com पर मेल कर सकतें हैं. साथियों के बीच यह मेल फॉरवर्ड करने का अनुरोध भी है. सहकार की अपेक्षा के साथ. सादर, पंकज पुष्कर ब्लॉग पर जाने के लिए क्लिक कीजिये http://samajvigyan.blogspot.com/ samajvigyan at gmail.com *देशी भाषाओं में समाज विज्ञान Social Sciences in Local Languages* : *An Introduction* यह ब्लॉग ऐसे लोगों का अड्डा है जो ज्ञान निर्माण से जुड़े सवालों को भाषा से जोड़ कर देखते हैं. इस मंच की शुरूआती मंशा यह है कि समाज विज्ञानों की स्थिति को हिंदी क्षेत्र और इसकी भाषाओं के सन्दर्भ में देखा जाए. यह सोच-विचार रोजमर्रा की जिंदगी के तजुर्बों से लेकर ज्ञान-मीमांसा के बारीक सवालों तक जायेगा. कोशिश रहेगी कि बात सीखने-सिखाने के अनुभवों की साझीदारी से शुरू हो. आइए समय और समाज को समझने से जुडे अपने-अपने तजुर्बों पर खुलकर बात करें. आपकी टिप्पणियों और सहयोग - सहकार का इंतजार रहेगा. ------------------------------------------------------- From rakeshjee at gmail.com Thu Sep 24 17:27:57 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Thu, 24 Sep 2009 17:27:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KWL4KSf4KWH?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpL4g4KS44KSa?= In-Reply-To: <196167b80909230240ydd3a409sf9d257eded536f02@mail.gmail.com> References: <196167b80909230240ydd3a409sf9d257eded536f02@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0909240457m1809773ds346eca85793b60e9@mail.gmail.com> क्‍यों भइया इतना कमज़ारे हैं क्‍या लेखक महोदय. बहरहाल, ठीक रही बात. शुक्रिया 2009/9/23 आशीष कुमार 'अंशु' > *यह लेख तो मीडिया स्कैन के लिए लिखा गया था, लेकिन लेखक नहीं चाहते थे कि > लेख के साथ उनका नाम भी जाए, इसलिए इसे ब्लौग पर डाल रहा हूँ. चूकि बात आप > लोगों तक पहुँचे*.------------ > -------------------------------------------------- > दिल्ली के खजुरीखास इलाके की स्कूल में हुए भगदड़ में सात छात्राओं की मौत की > खबर क्या आई... इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई दुकानों में जैसे खलबली सी मच गई... > जिन चैनलों के पास अपने संसाधन है... उन ने तो जमकर खबर को बेचा... लेकिन कुछ > छोटे दर्जे के चैनल को भी तो अपनी दुकान चलानी है.... अभी मैं चैनल पहुंचा ही > था कि आउटपुट एडिटर की आवाज मेरे कानो में गुंजी... अरे यार काट लो काट लो... > अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि आखिर काटना क्या है... चलिए हम ही बता देते > है... दरअसल ये सारी कवायद दूसरे चैनल पर आ रहे विजुअल को कैप्चर करने या > बिंदास कहे तो उसे चुराने की चल रही थी...अरे भईया मैं ये क्या कह गया.... आखिर > मैं भी तो इसी दुकान में काम करता हूं... तो फिर मालिक के खिलाफ ऐसी > नाफरमानी... चलिए जब कुछ भड़ास निकलना ही है तो जमकर निकाला जाए... मुझे न तो > अपने संस्थान से शिकायत है और न ही इस ग्लैमर की दुनिया से ही कोई गिला... > शिकायत तो बस कुकरमुत्ते की तरह उपज रहे इन छोटे दर्जे की चैनलों से है... चैनल > के नाम पर इन्हे लाइसेंस तो मिल जाता है लेकिन इनकी पहुंच बस चैनल के मालिकों > तक ही सिमटी होती है... कुछ तो ऐसे चैनल भी है जिसका नाम कभी नहीं सुना पर कहने > को नेशनल चैनल है...ऐसा नहीं कि इस चैनल में काम करने वालों को सैलरी नहीं > मिलती... मिलती है पर कब मिलती और कब खत्म हो जाती इसका तो पता ही नहीं > चलता...मतलब नहीं समझे तो लिजिए समझ लिजिए... दरअसल इन चैनलों में वैसे लोग ही > आते है जिनकी सोच यहां आने से पहले तो क्लियर रहती है लेकिन जैसे जैसे मीडिया > के वास्तवित रुप से रु-ब-रु होते है... एक अलग ही सोच विकसित हो जाती है... फिर > भी नहीं समझे... अरे भाई ये लोग इन चैनलों को सफलता की पहली सीढ़ी समझकर इस पर > चढ़ तो जाते है लेकिन अगली सीढ़ी के लिए बस तरसते रह जाते है....उसके बाद उम्र > से पहले ही बुजुर्ग की तरह मीडिया में आए बस आए नए छात्रों को उपदेश ही देते रह > जाते है... कि भईया अभी भी समय है सभंल जाओ... नहीं तो बस फंस गए तो फंस गए। > *( लेखक परिचय- लेखक एम एच वन, एस वन, फोकस, आजाद, प्रज्ञा में से किसी एक > चॅनल में कार्यरत हैं...)* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090924/1f2f926f/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Sep 25 11:45:15 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 25 Sep 2009 11:45:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkteCkv+CkruCksOCljeCktiDgpKrgpLAg4KSF4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSV4KS+IOCklOCksCDgpLjgpLXgpL/gpKTgpL4g4KS44KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KS5LOCktuCkv+CkruCksuCkviDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSfLTI=?= Message-ID: <829019b0909242315k3c340700p59cc08f098221e9@mail.gmail.com> मशहूर कवयित्री औऱ लेखिका अनामिका का ये कथन कि इंटरनेट ने स्त्रियों के बीच के संदर्भकीलित चुप्पियां दूर करने का काम किया है। स्त्री-भाषा जो कि अपने मूल रुप में ही संवादधर्मी भाषा है,जो बोलती-बतियाती हुई विकसित हुई है,एक-दूसरे के घर आती-जाती हुई,बहनापे के तौर पर विकसित हुई है,इंटरनेट पर स्त्रियों द्वारा लेखन,स्त्री सवालों पर की जा रही रचनाएं उसकी इस भाषा-संभावना को और विस्तार देती है,स्त्री-मुक्ति और संवादधर्मिता के स्पेस के विस्तार में इंटरनेट की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करती है। हिन्दी के हिटलर,भाषिक बमबारियाःस्त्री का भाषा-घर विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए अनामिका ने स्त्री-भाषा को पुरुषों की वर्चस्वकारी भाषा से अलगाने के क्रम में चोखेरबाली जैसे ब्लॉग, फेसबुक, एफ.एम.रेडियो ममा म्याउं 104.8 और इमेल को साहित्य के पार नयी भाषिक कनातों के तन जाने के रुप में विश्लेषित किया। अनामिका का मानना है कि किसी भी मनोवैज्ञानिक युद्ध में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिये पर धकेल दिया जाता है,पता नहीं किस क्षतिपूर्ति सिद्धांत के तहत उसकी भाषा ओजपूर्ण हो जाती है,जिसका मुकाबला शास्त्रीय भाषा नहीं कर सकती। स्त्री-भाषा अपना विकास इसी रुप में कर पाती है। लेकिन स्त्री-भाषा, पुरुषों की भाषा की तरह हिंसक भाषा बनने के बजाय प्रतिपक्ष के बीच नैतिक विश्वास की तलाश करती है। इसलिए वो हमेशा झकझोरने वाली भाषा के तौर पर काम करती है,हमले करने और धराशायी करने के रुप में नहीं। हिन्दी में स्त्री-भाषा के इस रुप की तलाश के क्रम में अनामिका उन चार संदर्भों को रेखांकित करती है जहां से कि लेखन के स्तर पर स्त्री-भाषा के रुप विकसित होते हैं- 1.विद्याविनोदी परीक्षा की शुरुआत।यहां से चिठ्ठी-पतरी के लिखने के क्रम में स्त्रियों की भाषा बनती-बदलती है। 2.महादेवी वर्मा के चांद का संपादकीय 3.बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान जेएनयू,डीयू,पटना यूनिवर्सिटी जैसे अभ्यारण्यों में स्त्रियों के आने के बाद भाषा का एक नया रुप दिखायी देता है। इसी समय यहां पढ़नेवाली लड़कियां मजाक में ही सही,पुरुषों के प्रेम-पत्र पर अश्लील शब्दों पर गोले लगाती हैं और नॉट क्वालिफॉयड का लेबल लगाती है। दरअसल एक तरह से वो पुरुष-भाषा के औचित्य-अनौचित्य पर सवालिया निशान पैदा करने का काम शुरु कर देती है। इस तरह के शिक्षण संस्थानों और उसके आस-पास के लॉज और हॉस्टलों में रहकर एक स्त्री जो भाषा पाती है,प्रयोग करती है और उसका विस्तार करती है उसकी अभिव्यक्ति हमें पचपन खंभें लाल दीवारें और मित्रो मरजानी जैसी हिन्दी रचनाओं की याद दिलाते हैं। अनामिका का मानना है कि इन सबके वाबजूद यहां तक आते-आते स्त्री भाषायी स्तर पर अकेली पड़ जाती है इसलिए स्त्री-भाषा के चौथे संदर्भ या पड़ाव के तौर पर इंटरनेट और ब्लॉग पर बननेवाली स्त्री-भाषा का जिक्र करती है। अनामिका पूरे पर्चे में गांव से लेकर हॉस्टल/लॉज के दबड़ेनुमा कमरे में बनने और बरती जानेवाली उस भाषा को प्रमुखता से पकड़ती हैं जो कि संवादधर्मिता की प्रवृत्ति को मजबूत करते हैं। इसलिए शब्दों,शैलियों और कहने के अंदाज के स्तर पर एक-दूसरे से अलग होने के वाबजूद वो एक-दूसरे के विकासक्रम का ही हिस्सा मानती है। इसी क्रम में भूमंडलीकरण के बाद के बलात् विस्थापन में फुटपाथओं पर चूल्हा-चौका जोड़नेवाली मजदूरनी आपस में जिस भाषा में बतियाती है या बच्चों को,जिस खिचड़ी भाषा में नयी उठान की लोककथाएं सुनाती है या लोकगीत,उसकी भी छव बिल्कुल निराली है। इस प्रस्तुति के दौरान अनामिका की दो प्रमुख स्थापनाएं रहीं जिसे कि स्त्री-भाषा के दो प्रमुख अवदान के तौर पर विश्लेषित करती हैं- 1. जिस तरह अच्छी कविता इंद्रियों का पदानुक्रम नहीं मानती-दिल-दिमाग और देह को एक ही धरातल पर अवस्थित करती हुई तीनों को एक-दूसरे के घर आना-जाना कायम रखती है,स्त्री-भाषा पर्सनल-पॉलिटिकल,कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,सेक्रेड-प्रोफेन,रैशनल-सुप्रारैशनल के बीच के पदानुक्रम तोड़ती हुई उद्देश्य स्थान-विधेय स्थान के बीच म्यूजिकल चेयर सा खेल आयोजित करती है जिससे कि बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै/अन्धरो को सबकुछ दरसाई का सही प्रजातांत्रिक महोत्सव घटित होता है। 2. स्त्री-भाषा ने आधुनिकता का कठमुल्लापन झाड़कर उसके तीन प्रेमियों का दायरा बड़ा कर दिया है-शुष्क तार्किकता का स्थानापन्न वहां सरस परा-तार्किता है,परातार्किकता जो बुद्धि को भाव से समृद्ध करती है। प्रस्तरकीलित धर्मनिरपेक्षता का स्थानापन्न वहां है इगैलिटेरियन किस्म का अध्यात्म,अध्यात्म,अध्यात्म जो कि मानव-मूल्यों को स्पेक्ट्रम ही है-और क्या? आधुनिकता के तीसरे प्रमेय,सतर्क वैयक्तियन का स्थानापन्न स्त्री-भाषा में है। सर्वसमावेशी हंसमुख दोस्त-दृष्टि जो यह अच्छी तरह समझती है कि मनुष्य की बनावट ही ऐसी है कि वह लगातार न सर्वजनीनता को समर्पित रह सकता है,न निरभ्र एकांत को। उसे पढ़ने-लिखने,सोचने-सोने और प्यार करने का एकांत चाहिए तो चिंतन और प्रेम के सारे निष्कर्ष साझा करने का सार्वजनिक स्पेस भी? एक सांस भीतर गयी नहीं कि उल्टे पांव वापस लौट आती है। लेकिन बाहर भी उससे बहुत देर ठहरा नहीं जाता,सारे अनुभव,बिम्ब,अनुभूतियां और संवाद समेटकर फिर से चली जाती है भीतर-गुनने,समझने,मनन करने। स्त्री-भाषा ये समझती है- इसलिए उसके यहां कोई मनाही नहीं। सब तरह के उच्छल भावों की खातिर उसके दरवाजे खुले हुए हैं। वह किसी से कुछ भी बतिया सकती है-संवादधर्मी है स्त्री-भाषा। पुरुषों की मुच्छड़ भाषाधर्मिता उसमें नहीं के बराबर है। अनामिका के पर्चे के उपर कई तरह के सवाल उठाए गए। स्त्री-विमर्श से जुड़े संदर्भ को लेकर,पीछे लौटकर महादेवी वर्मा में इस विमर्श के संदर्भ खोजने को लेकर,जेपी आंदोलन और स्त्रियों के घर से बाहर आकर भाषा बरतने को लेकर लेकिन इन सबसे अलग जो सबसे अहम सवाल उठे वो ये कि क्या स्त्री-विमर्श की यही भाषा होगी जो अनामिका प्रयोग कर रही है? अभय कुमार दुबे स्त्री विमर्श की बिल्कुल नयी भाषा रचने के लिए अनामिका को बधाई देते हैं। स्त्री-भाषा और विमर्श को लेकर अनामिका ने जो स्थापनाएं दी सोशल फेमिनिस्ट और कवयित्रीसविता सिंह उससे सहमत नहीं है। उन्हें स्त्री विमर्श के लिए बार-बार इतिहास औऱ परंपरा की ओर लौटना अनिवार्य नहीं लगता,वो इस नास्टॉल्जिक और रोमैंटिक हो जाने से ज्यादा कुछ नहीं मानती। घरेलू आधुनिकता का प्रश्नपर अपना पर्चा पढ़ते हुए सविता सिंह ने इसे पॉलिटिकल इकॉनमी के तहत विश्लेषित करने की घोषणा की और इसलिए पर्चे के शुरुआत में इसकी सैद्धांतिकी की विस्तार से चर्चा करते हुए घरेलू आधुनिकता के सवाल और अपने यहां इसके मौजूदा संदर्भों का विश्लेषण किया। सविता सिंह की मान्यता है कि ये सच है कि मार्क्स के यहां स्त्री के सवाल बहुत ही विकसित रुप में हैं लेकिन उनके यहां वर्ग इतना प्रमुख रहा है कि वो इसके विस्तार में नहीं जाते। सोशल फेमिनिस्ट की जिम्मेदारी यहीं पर आकर बढ़ती है। सविता सिंह इससे पहले भी दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में कात्यायनी की स्त्री-विमर्श की समझ पर असहमति जताते हुए घोषणा कर चुकी है कि स्त्री-विमर्श को समझने के लिए मार्क्सवाद के टूल्स पर्याप्त नहीं हैं। सविता सिंह बताती है कि मार्क्स के यहां घरेलू श्रम को बारीकी से समझने की कोशिश नहीं की गयी जबकि घरेलू श्रम,श्रम से बिल्कुल अलग चीज है। घरेलू श्रम को कभी भी प्रोडक्टिव लेवर के तौर पर विश्लेषित ही नहीं किया गया जबकि यह श्रम का वह स्वरुप है जो कि बाजार और फ्रैक्ट्री में उत्पादन करने के लिए मनुष्य को तैयार करती है। एक स्त्री दिनभर घर में काम करके,एक पुरुष को इस लायक बनाती है कि वो बाहर जाकर काम कर सके। लेकिन इस श्रम शक्ति का कोई मूल्य नहीं है, इसके साथ स्लेव लेबर का रवैया अपनाया जाता है। इस श्रम को बारीकी से समझने की जरुरत है. फ्रैक्टी जो कि लेबर पॉवर खरीदता है वो कैसे बनते हैं,इस पर विस्तार से चर्चा करनी जरुरी है। सविता सिंह जब घरेलू श्रम की बात करती है तो उसे बाजार में बेचे जानेवाले श्रम से बिल्कुल अलग करती है। ये सचमुच ही बहुत पेंचीदा मामला है कि घरेलू स्तर पर स्त्री जो श्रम करती है उसके मूल्य का निर्धारण किस तरह से हो? एक तरीका तो ये बनता है कि वो जितने घंटे काम करती है उसे मॉनिटरी वैल्यू में बदलकर देखा जाए। लेकिन क्या सिर्फ ऐसा किए जाने से काम बन जाएगा। इस तरह का मूल्य निर्धारण किसी भी रुप में न्यायसंगत नहीं है। सविता सिंह का मानना है कि उपरी तौर पर पूंजीवादी समाज में यह भले ही लगने लगे कि घरेलू श्रम का बाजार के स्तर पर निर्धारण शुरु हो गया है लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह पहले के मुकाबले औऱ अधिक नृशंस होता चला जा रहा है। मशीन आने पर भी घरेलू स्तर पर स्त्री-श्रम कम नहीं होता। बहुत ही मोटे उदाहरण के तौर पर हम देखें तो हमें चार दिन के बदले दो दिन में धुले बेडशीट चाहिए,पहले से कहीं ज्यादा साफ। पढ़ी-लिखी स्त्री इसलिए भर चाहिए कि वो बच्चों को पाल सके,सास की दवाईयों के अंग्रेजी में नाम पढ़ सके। इससे ज्यादा एक स्वतंत्र छवि बनने की गुंजाईश बहुत एधिक दिखायी नहीं देती। परिवार में इस घरेलू श्रम के उपर,प्यार,सौहार्द्र और लगाव जैसे शब्दों को डालकर उसके भीतर की विसंगतियों को लगातार ढंकने का काम किया गया। एक बेटी को प्रेम तब बिल्कुल भी नहीं मिलेगा जबकि वो घर का काम करने से इन्कार कर देती है। इसकी पूरी संभवना बनती है कि उसे प्रताड़ित किए जाएं। घरेलू हिंसा का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है। इस बात पर शीबा असलम फहमी ने अफगानिस्तान के उस उदाहरण को शामिल किया जहां अपने पति से साथ सेक्स नहीं करने पर स्त्री को रोटी नहीं दिए जाने की बात कही गयी। सविता सिंह के हिसाब से पूंजीवाद कभी भी इस हॉउसहोल्ड को खत्म नहीं करना चाहता। वो कभी नहीं चाहता कि इस घरेलूपन की संरचना टूटे। क्योंकि ऐसा होने से उसे भारी नुकसान होगा। फर्ज कीजिए कि विवाह संतान उत्पत्ति के बजाय प्लेजर,शेयरिंग और साइकोसैटिस्फैक्शन का मामला बनता है तो इससे पूंजीवादी समाज में उत्पादन औऱ उपभोग पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। इसलिए पूंजीवाद स्त्री श्रम और घरेलूपन को नए रुप में लगातार बदलने का काम करता है। वो स्त्रियों को घर पर ही काम मुहैया कराता है जिससे कि वो घरेलू जिम्मेवारियों को भी बेहतर ढंग से निभा सके। फैक्ट्री श्रम-शक्ति खरीदता है,पूंजीवाद श्रम-समय खरीदता है लेकिन अब एक तीसरा रुप उभरकर सामने आ रहा है जो कि अनुशासित तरीके से समय भी नहीं खरीदता है बल्कि सीधे-सीधे आउटपुट पर बात करता है जो कि उपरी तौर पर सुविधाजनक दिखाई देते हुए भी ज्यादा खतरनाक स्थिति पैदा करता है। इसलिए स्त्री-मुक्ति के सवाल में यह सबसे ज्यादा जरुरी है कि हाउसहोल्ड का डिस्ट्रक्शन हो,उसका छिन्न-भिन्न होना जरुरी है। सविता सिंह के इस पर्चे पर आदित्य निगम की टिप्पणी रही कि उन्हें लग रहा है कि वो आज से तीस साल पहले के सेमिनार में बैठे हों क्योंकि सविता सिंह की पूरी बातचीत उसी दौर के स्त्री-विमर्श की बहसों के इर्द-गिर्द जाकर घूमती है,उसके बाद क्या हुआ इसे विस्तार से नहीं बताया। अभय कुमार दुबे का मानना रहा कि आधुनिक परिवार कहे जानेवाले परिवार में किस तरह की समस्याएं हैं,इस पर बात करनी चाहिए। उन परिवारों की चर्चा की जानी चाहिए जहां का पुरुष घोषित तौर पर स्त्री को खुली छूट देता है लेकिन वहां भी पाबंदी की महीन रेखाएं दिख जाती है,वो रेखाएं कौन सी है,इस पर बात होनी चाहिए। इन सबों के सवाल में सविता सिंह बार-बार दोहराती है कि ग्लोबल कैपिटलिज्म में स्त्री के श्रम का प्रॉपर कॉमोडिफेकेशन नहीं हुआ है। मार्केट तो चाहता है कि सबकुछ का कॉमोडिफिकेशन हो,संबंधों का हो।इस कॉमोडिफिकेशन के बाद स्त्री-विमर्श के संदर्भ किस तरह से बनेंगे इसे भी बारीकी से समझने की जरुरत है। नोटः- अनामिका और सविता सिंह के पर्चे के बाद आदित्य निगम ने राजनीतिक अभिव्यक्ति की भाषा और पंकज पुष्कर ने हिन्दी और ज्ञान की रचना पर अपने पर्चे पेश किए। हम इन दोनों पर्चों का सार यहां नहीं दे रहे हैं। इसे हम अलग से हिन्दी और भाषा के सवाल पर पेश किए जानेवाले दूसरे और लोगों के पर्चे की चर्चा करने के क्रम में पेश करेंगे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090925/9f50d97c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Sep 27 08:36:39 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 27 Sep 2009 08:36:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS44KS14KS+4KSm4KWAIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCA=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSa4KSo4KS+IOCkleClhyDgpIXgpKjgpY3gpKTgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KS/4KSw4KWL4KSnLOCktuCkv+CkruCksuCkviDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSq4KWL4KSw4KWN4KSfLTM=?= Message-ID: <829019b0909262006l7fd6c10sb1b4c61ba1e88a70@mail.gmail.com> हिंदी का मार्क्सवाद पर बात करते हुए युवा मार्क्सवादी आलोचक संजीव ने जब इसे जात्याभिमानी आलोचना नाम दिया तो राष्ट्रपति निवास (भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) शिमला में मानो एक और ‘इतिहास’ दर्ज हो गया। संजीव ने मार्क्सवादी हिंदी आलोचना के बीच के अंतर्विरोधों को जिस विस्तार और तथ्यात्मक रूप से रखा उससे एकबारगी तो ताज्जुब जरूर हुआ कि स्वयं एक मार्क्सवादी इसके भीतर की गड़बड़ियों और मार्क्सवाद के नाम पर किये जानेवाले विचारात्मक और जातिवादी खेलों को कैसे हमारे सामने उघाड़ कर रख रहा है? इससे हिंदी साहित्य और समाज के बीच की जानेवाली साजिशों के नये सिरे से दर्शन होते हैं। दलित, जाति और वर्ण व्यवस्था को लेकर उठनेवाले सवालों को थोड़ा और विस्तार मिल जाता है। [image: vimal thorat]पिछले दो दिनों से शिमला में हिंदी की *आधुनिकता : एक पुनर्विचार* (सितंबर 23 से 29) पर होनेवाली बहसों में ये बात बार-बार खुल कर सामने आ रही है कि आखिर दलित विमर्श हिंदी की मुख्यधारा का साहित्य क्यों नहीं बन पा रहा है? दलित के सवाल को एक गैरदलित उतनी तल्खी से क्यों नहीं उठाता? पत्रिकाओं को इस विमर्श के विस्तार के नाम पर अलग से विशेषांक क्यों निकाले जाते हैं? इसी दौरान शिमला में चल रही इस कार्यशाला में तुलसी, प्रेमचंद सहित हिंदी के उन तमाम नामचीन रचनाकारों और आलोचकों के नाम सामने आने लग जाते हैं, उनके प्रसंगों पर ज़ोरदार बहस होती है और उन्हें वर्ण-व्यवस्था का समर्थक और विरोधी मानने और न मानने के सबूत जुटाये जाते हैं। इन बहसों के बीच दिलचस्प बात है कि लगभग रोज विमल थोरात की ओर से नामवर सिंह के दलित विरोधी रवैयों को पुख्ता प्रमाण के तौर पर रखा जाता है। बहरहाल, नामवर सिंह बकौल विमल थोरात दलित साहित्य को इग्नू के पाठ्यक्रम में न आने देने के लिए एड़ी-चोटी एक कर देते हैं, इसे अपरिपक्व करार देते हैं, साहित्य के नाम पर ‘जूठन’ का नाम सुनते ही मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक बौखलाहट में कुर्सी से गिर पड़ते हैं, निर्मला जैन जैसी तथाकथित प्रबुद्ध और वरिष्ठ आलोचक दलित विमर्श के साथ ही स्त्री विमर्श को बेमतलब करार देती हैं। थोरात ने इसी क्रम में अपना एक और संस्मरण सुनाते हुए कहा कि – ये वही मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह हैं, जिन्होंने एमफिल के दौरान निर्धारित बीस सीटों की फाइनल लिस्ट आ जाने के बावजूद दस लोगों को ही कोर्स में शामिल किया। 11 वां मेरा नंबर था और मैं लिस्ट से कत्ल कर दी गयी। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये एकेडमिक कौंसिल का नहीं बल्कि जनपक्षधरता का समर्थन करनेवाले नामवर सिंह का फैसला था। तत्कालीन वीसी केआर नारायणन की ओर से छह महीने गुज़र जाने के बाद क्लास ज्वायन करने का लेटर जब हमें मिला, तो व्यक्तिगत स्तर पर शिक्षा से वंचित करने का नामवर सिंह का रवैया हमारे सामने साफ हो गया। संजीव का पर्चा और विमल थोरात का संस्मरण सुनते हुए हमें यह सब केवल हिंदी साहित्य की दुनिया के कारनामे और साज़‍िशें नहीं लगतीं बल्कि साहित्य को परंपरा के विकास के आधार पर पढ़ने-पढ़ाने के अभ्यस्त होने की तरह ही हम इन कारनामों को भी एक लंबी परंपरा का ही विस्तार मानने की स्थिति में अपने को खड़ा पाते हैं। [image: sanjeev]संजीव ने अपने पर्चे में कई ऐसी स्थापनाएं रखीं, जिनके आलोक में इन नामवरों की एक भरी-पूरी परंपरा दिखाई देती है। उन्होंने तदभव में छपे बजरंग बिहारी के उस लेख की चर्चा की है, जिसमें तर्कपूर्ण ढंग से स्थापित किया गया है कि ब्राह्मणों की ओर से इस्लाम का विरोध इसलिए नहीं किया गया कि वो यहां आकर हमारी संस्कृति को भ्रष्ट कर रहे हैं बल्कि उन्होंने इसका विरोध बहुत ही निजी स्वार्थ को साधने के एंजेंडे के तहत किया। इस्लाम के आने के 200-300 सालों तक कहीं कोई विरोध नहीं हुआ लेकिन जैसे ही उनकी सुविधाओं में कटौती की जाने लगी, वे विरोध पर उतर आये। इतना ही नहीं, ब्राह्मणों ने दलितों के शिक्षित होने पर आपत्ति जतायी और बादशाह की ओर से आदेश जारी करवाया कि उनके लिए शिक्षा व्यव्स्था रोक दी जाए। संजीव का कहना रहा कि इन सबके बावजूद मार्क्सवादी आलोचकों के लिए उस दौरान लिखा जानेवाला ‘भक्तिकाव्य महान है, तुलसी महान हैं’ और सिर्फ महान ही नहीं बल्कि हर नामचीन आलोचकों और कवियों के प्रिय कवि तुलसीदास हैं। यहां पर ठहर कर हम सोचें तो संजीव ने मार्क्सवादी हिंदी आलोचना की जो व्याख्या की, उसमें एक स्पष्ट नज़रिया सामने आता है कि हम अक्सर प्रदत्त संस्कारों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करते हैं इसलिए हम या तो तथ्यों को दबाते हैं या फिर उसे ज़बरदस्ती प्रगतिशील बताने की कोशिश करते हैं। तुलसीदास की व्याख्या करने के क्रम में रामविलास शर्मा सहित विश्वनाथ त्रिपाठी आदि की परंपरा वालों ने यही काम किया है। दूसरी ओर रांघेय राघव और शिवदान सिंह चौहान जैसे आलोचकों ने वास्तविक मार्क्सवादी आलोचना को विस्तार देने की कोशिश की तो उसे दबा दिया गया। उसका विस्तार आज हिंदी आलोचना में दिखाई नहीं देता। इतना ही नहीं, अपने दौर में रांघेय राघव को हाशिया पर धकेल दिया गया। संजीव का मानना है कि हिंदी की पूरी मार्क्सवादी आलोचना, रामविलास शर्मा के अनुयायी के तौर पर आगे बढ़ी है। रामविलास शर्मा से आगे और अलग मार्क्सवादी आलोचना के विकास की संभावनाओं की तलाश नहीं की गयी। संजीव ने यहां तक कहा कि भले ही रामविलास शर्मा ने करीब 75 मौलिक किताबें लिख दी हों और जिसे सुन कर एक झटके में श्रद्धा पैदा होने की गुंजाइश बन जाती है लेकिन हिंदी जाति के नाम पर गौरव करने के जो औज़ार हिंदी समाज के पाठकों को उन्‍होंने थमाये, वो तार्किक नहीं हैं – इसे नवजागरण के संदर्भ में विशेष तौर पर देखा जा सकता है। संजीव के पर्चे पर हस्तक्षेप करते हुए प्रमोद रंजन अरुण कमल की कविता दस जन की पंक्ति – फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते – की याद दिलाते हुए कहा कि सिर्फ रामविलास शर्मा आदि आलोचकों की ही नहीं बल्कि मौजूदा समय में रचनारत मार्क्सवादियों की प्रतिबद्धताओं की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि अरुण कमल ने यह कविता यह कविता 1978 में उस समय लिखी जब उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी। ये गली के कुत्ते कौन हैं, आप समझ सकते हैं। इसी कविता में अरुण कमल की ही पंक्ति है – मारे गये दस जन/ मरेंगे और भी…/ बज रहा जोरों से ढोल/ बज रहा जोरों से ढोल/ ढोल… कौन हैं ये दस जन? *मरेंगे और भी* पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह *दस जन* नब्बे जनों के विरुद्ध एक रूपक है। संजीव का पर्चा, विमल थोरात का मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह को लेकर सुनाये गये संदर्भ और संस्मरण और प्रमोद रंजन की ओर से अरुण कमल की याद दिलायी जानेवाली कविता सचमुच मार्क्सवादी हिंदी आलोचना और रचना के बीच पसरे अंतर्विरोंधों का विद्रूप चेहरा पेश करती है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090927/fb028e5f/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Mon Sep 28 02:29:48 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 28 Sep 2009 02:29:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpLjgpKzgpLjgpYcg4KSu4KS24KS54KWC4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSP4KSX4KWN4KSw4KWA4KSX4KWH4KSf4KSwIOCkrOCljeKAjeCksg==?= =?utf-8?b?4KWJ4KSX4KS14KS+4KSj4KWAIOCkrOCkguCkpg==?= Message-ID: <85de31b90909271359n50e0ddc7o86d38d02d9db62fe@mail.gmail.com> ब्‍लॉगवाणी बंद हो चुकी है। आप अगर उसके *यूआरएल* पर जाएंगे, तो वहां गुडबाय मैसेज आएगा। ब्‍लॉगवाणी को बंद करने के जो कारण उसके मॉडरेटर ने बताये हैं, वे उनकी निजी आत्मिक खुशी या नाखुशी से जुड़े हैं। ये दुखद है। ब्‍लॉगवाणी कोई दुकान नहीं थी। हालांकि आमतौर पर ऐसा कोई भी वर्चुअल प्रोडक्‍ट दुकान ही होता है। मोहल्‍ला लाइव को भी आप दुकान मान सकते हैं, क्‍योंकि इसकी पैदाइश का एक मक़सद प्रॉफिट भी है। लेकिन ब्‍लॉगवाणी हिंदी ब्‍लॉगिंग के लिए विदेह आग्रहों से चलाया जाने वाला एक प्‍लेटफॉर्म था, दुकान नहीं। मॉडरेटर को उससे लाभ-हानि की अपेक्षा नहीं थी। जो विज्ञापन उस पर दिखते थे, वे उनके मातृसंस्‍थान के साथ थे। उनसे कोई रेवेन्‍यू नहीं आता था। इसलिए हम मान सकते हैं कि ब्‍लॉगवाणी के मालिकाना पर इसके मॉडरेटरों के हक़ के बावजूद ये आम ब्‍लॉगरों की थाती थी। इस पर ताला लगाने से पहले आम सहमति ज़रूरी थी। इसके बावजूद अगर कुछ *“निराधार” आरोपों* ने ब्‍लॉगवाणी के मॉडरेटर को तक़लीफ़ दी है, और उस तक़लीफ़ की प्रतिक्रिया में ब्‍लॉगवाणी को बेहोशी का इंजेक्‍शन दिया गया है, तो ये निश्‍चय ही अफ़सोसनाक़ है। हम उम्‍मीद करते हैं कि मॉडरेटरों ने ब्‍लॉगवाणी की हत्‍या नहीं की है। वे अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करेंगे। * * * http://mohallalive.com/2009/09/27/the-most-famous-hindi-aggregator-blogvani-closed/ * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090928/cd13adb7/attachment.html From v1clist at yahoo.co.uk Mon Sep 28 12:20:57 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Mon, 28 Sep 2009 06:50:57 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWA4KSWIOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <402902.10738.qm@web26603.mail.ukl.yahoo.com> Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090928/1c93108e/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 66628 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090928/1c93108e/attachment-0001.jpe From pankaj.pushkar at gmail.com Sun Sep 20 00:47:34 2009 From: pankaj.pushkar at gmail.com (Pankaj Pushkar) Date: Sat, 19 Sep 2009 19:17:34 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?IuCkpuClh+Cktg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkreCkvuCkt+CkvuCkk+CkgiDgpK7gpYfgpIIg4KS44KSu4KS+?= =?utf-8?b?4KScIOCkteCkv+CknOCljeCknuCkvuCkqCIgKFNvY2lhbCBTY2llbmNl?= =?utf-8?b?cyBpbiBMb2NhbCBMYW5ndWFnZXMpIOCkquCksCDgpI/gpJUg4KSs4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWJ4KSXIGh0dHA6Ly9zYW1hanZpZ3lhbi5ibG9nc3BvdC5jb20v?= Message-ID: Dear friend, Please register your views and comments on the blog "Social Sciences in Local Languages". Pls forward the link http://samajvigyan.blogspot.com/ to other friends. प्रिय साथी, "देशी भाषाओं में समाज विज्ञान" पर अपनी समझ और अनुभवों का साझा करने के लिए एक ब्लॉग शुरू किया गया है. आपकी आलोचना, टिप्पणी या सुझाव का इंतजार रहेगा. यदि आपको हिंदी में मेल करने में असुविधा हो तो आप http://www.google.com/transliterate/indic पर जाकर रोमन में टाइप कर सकतें हैं. यह नागरी में बदल जायेगा. फिर इसे मेल बॉक्स में पेस्ट कर सकतें हैं. आप चाहें तो इंग्लिश में भी ब्लॉग http://samajvigyan.blogspot.com/ पर या samajvigyan at gmail.com पर मेल कर सकतें हैं. साथियों के बीच यह मेल फॉरवर्ड करने का अनुरोध भी है. सहकार की अपेक्षा के साथ. सादर, पंकज पुष्कर ब्लॉग पर जाने के लिए क्लिक कीजिये http://samajvigyan.blogspot.com/ samajvigyan at gmail.com *देशी भाषाओं में समाज विज्ञान Social Sciences in Local Languages* : *An Introduction* यह ब्लॉग ऐसे लोगों का अड्डा है जो ज्ञान निर्माण से जुड़े सवालों को भाषा से जोड़ कर देखते हैं. इस मंच की शुरूआती मंशा यह है कि समाज विज्ञानों की स्थिति को हिंदी क्षेत्र और इसकी भाषाओं के सन्दर्भ में देखा जाए. यह सोच-विचार रोजमर्रा की जिंदगी के तजुर्बों से लेकर ज्ञान-मीमांसा के बारीक सवालों तक जायेगा. कोशिश रहेगी कि बात सीखने-सिखाने के अनुभवों की साझीदारी से शुरू हो. आइए समय और समाज को समझने से जुडे अपने-अपने तजुर्बों पर खुलकर बात करें. आपकी टिप्पणियों और सहयोग - सहकार का इंतजार रहेगा. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090919/d2e3c9ad/attachment.html From samvad.in at gmail.com Sun Sep 20 18:45:52 2009 From: samvad.in at gmail.com (alok shrivastav) Date: Sun, 20 Sep 2009 13:15:52 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <2e09e36a0909200613w5b1c3c42jdc7780eef476b989@mail.gmail.com> -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090920/69d7b643/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Cover_067.jpg Type: image/jpeg Size: 203886 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090920/69d7b643/attachment-0002.jpg -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Cover_054.jpg Type: image/jpeg Size: 225797 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090920/69d7b643/attachment-0003.jpg