From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Oct 1 13:28:05 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 1 Oct 2009 13:28:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSo4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSVIOCkheCkleCkpOClguCkrOCksCDgpajgpabgpabgpa8=?= Message-ID: <196167b80910010058i410cf8dfo19c63ecdc5b07934@mail.gmail.com> http://docs.google.com/fileview?id=0Bwlqv2sx92YmZDdkMGFmYTQtYzAwOS00YmZmLThlZDEtMzYxZDUxNmFhNjlh&hl=en (मीडिया स्कैन का नया अंक अकतूबर २००९ आपके राय की प्रतीक्षा) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091001/1ddfb1dc/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Oct 1 13:28:05 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 1 Oct 2009 13:28:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSo4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSVIOCkheCkleCkpOClguCkrOCksCDgpajgpabgpabgpa8=?= Message-ID: <196167b80910010058i410cf8dfo19c63ecdc5b07934@mail.gmail.com> http://docs.google.com/fileview?id=0Bwlqv2sx92YmZDdkMGFmYTQtYzAwOS00YmZmLThlZDEtMzYxZDUxNmFhNjlh&hl=en (मीडिया स्कैन का नया अंक अकतूबर २००९ आपके राय की प्रतीक्षा) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091001/1ddfb1dc/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Oct 6 18:08:54 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 6 Oct 2009 18:08:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KS4IOCkleCliyDgpLbgpL/gpJXgpL7gpK/gpKQg4KSoIOCkleCksOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpOCliyDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSV4KSw4KSk4KS+Pw==?= In-Reply-To: <1662afad0910060518h3a0a2920j65686015c08ca9d4@mail.gmail.com> References: <1662afad0910031239i4cfff470jaa124a46c72706bd@mail.gmail.com> <1662afad0910060518h3a0a2920j65686015c08ca9d4@mail.gmail.com> Message-ID: <200910061808.55739.ravikant@sarai.net> जगदीप साहब, मैंने ये लिंक देखी थी. कविवर मोहन राणा ने इस ओर मेरा ध्यान खींचा था. जितनी निंदा की जाए कम है. लोग संस्थाओं को अपनी जागीरदारियाँ समझते हैं और खुलेआम ग़ुण्डागर्दी करते हैं. मैंने भोपाल में रह रहे अपने दोस्त रवि रतलामी से भी पूछा था. आपसे यही कहूँगा कि ये बड़े छोटे लोग हैं, आप पुलिस में गए, बहुत अच्छा किया. हमारी ज़रूरत हो तो ज़रूर याद कीजिए, हम आपके साथ हैं. रविकान्त मंगलवार 06 अक्टूबर 2009 17:48 को, आपने लिखा था: > Please visit the link:- > > http://nukkadh.blogspot.com/2009/10/blog-post_04.html > > --- > Jagdeep Dangi > Ward No. 2, > Behind Co-operative Bank, > Station Area Ganj Basoda, > Distt. Vidisha (M.P.) India. > PIN- 464 221 > Res. (07594) 222457 > Mob. 09826343498 > Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm From ravikant at sarai.net Thu Oct 8 11:11:48 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 8 Oct 2009 11:11:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJDgpLY=?= =?utf-8?b?4KWB?= Message-ID: <200910081111.49298.ravikant@sarai.net> ये संदेश दरअसल पंकज पुष्कर के लिए है, पर दीवान सूची पर ऐसे कई लोग हैं जिनकी दिलचस्पी भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञान रचने में है. आपने तो यह कड़ी देखी ही होगी: http://samajvigyan.blogspot.com/ आप सबको बता दूँ कि ऐश्वर्ज कुमार ने दिल्ली विवि के इतिहास विभाग से हिन्दी में ही एम फ़िल किया था और अब केम्ब्रिज से भाषाई मसलों पर इतिहास में पीएचडी कर रहे हैं. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: ऐशु Date: बुधवार 07 अक्टूबर 2009 18:17 From: "A. Kumar" To: ravikant at sarai.net प्रिय रवि, कैसे हैं? आशा करता हूँ कि सबकुछ अच्छा है। इधर मैंने देसी भाषाओं में समाज विज्ञान के लिए अभियान छेड़ने की ख़बर सुनी। मुझे जानकर बेहद खुशी हुई कि आप भी उसमें शामिल हैं। मैंने ब्लॉग भी देखा और चाहा कि मैं भी अपनी शुभकामना भेज दूं। लेकिन जब करने लगा तो कुछ समझ नहीं आया। इसलिए मैंने अपना संदेश नीचे जोड़ दिया है अगर आप इस संदेश को अन्य कार्यकर्ताओं तक पहुँचा दें तो मुझे बेहद खुशी होगी। आगे की गतिविधियों की जानकारी भेज सकें तो आपका आभारी रहूँगा। आपका सदैव, ऐश्वर्ज संदेश मैं आप सभी को बधाई देना चाहता हूँ कि आपने इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर वैचारिक पहलकदमी की ताकत दिखाई है। देशी भाषाओं में समाज विज्ञान का सपना साकार हो सके इस विचार को संजोए ही मैंने अपने विश्वविद्यालय के दिनों को बिताया। यद्यपि मैं अब विदेश में बस गया हूँ लेकिन मैं किसी भी रूप में आपके इस अभियान में शिरकत कर सकूँ तो अपने आपको सौभाग्यशाली समझूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनौतियाँ असीम हैं और शायद साधन सीमित। फिर भी मैं यह शिद्दत से मानता हूँ कि देसी भाषाओं में सामाजिक विज्ञान की धारणा को जब तक वैचारिक विमर्श के द्वारा प्रमुखता नहीं दी जाएगी तब तक किसी भी तरह का बौद्धिक विमर्श अधूरा ही माना जाएगा। मैं बौद्धिकता के इस अधूरेपन को बिताते हुए अपने जीवन के 40 वर्षों को काट चुका हूँ और नहीं चाहता कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ भी सिर्फ़ इसलिए अंग्रेज़ी को अपनाएं क्योंकि उनकी अपनी भाषाओं में सामग्री मौजूद नहीं है। यह एक बड़ा धोखा है जो भारतीय एक लंबे समय से झेल रहे हैं। लिहाज़ा, आपका अभियान सफल हो और सामाजिक विज्ञान भारतीय भाषाओं में पढ़ा और पढ़ाया जाए ऐसी मैं कामना करता हूं। ऐश्वर्ज, कैम्ब्रिज। On Oct 6 2009, Ravikant wrote: >जगदीप साहब, > > मैंने ये लिंक देखी थी. कविवर मोहन राणा ने इस ओर मेरा ध्यान खींचा था. जितनी > निंदा की जाए कम है. लोग संस्थाओं को अपनी जागीरदारियाँ समझते हैं और खुलेआम > ग़ुण्डागर्दी करते हैं. मैंने भोपाल में रह रहे अपने दोस्त रवि रतलामी से भी > पूछा था. आपसे यही कहूँगा कि ये बड़े छोटे लोग हैं, आप पुलिस में गए, बहुत > अच्छा किया. हमारी ज़रूरत हो तो ज़रूर याद कीजिए, हम आपके साथ हैं. > >रविकान्त > >मंगलवार 06 अक्टूबर 2009 17:48 को, आपने लिखा था: >> Please visit the link:- >> >> http://nukkadh.blogspot.com/2009/10/blog-post_04.html >> >> --- >> Jagdeep Dangi >> Ward No. 2, >> Behind Co-operative Bank, >> Station Area Ganj Basoda, >> Distt. Vidisha (M.P.) India. >> PIN- 464 221 >> Res. (07594) 222457 >> Mob. 09826343498 >> Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm > >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ------------------------------------------------------- From delhi.yunus at gmail.com Thu Oct 8 23:36:23 2009 From: delhi.yunus at gmail.com (Syed Yunus) Date: Thu, 8 Oct 2009 23:36:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSc4KSy?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOCkv+CksiDgpK7gpYjgpIIg4KSd4KWL4KSyIOCkneCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy?= Message-ID: खोजी मित्रो, इस महीने हमारा बिजली का बिल कुछ ज्यादा ही आया तो भय्या ने धक्के दे कर BSES के ऑफिस भेज दिया की जाओ बिल सही करवा कर लाओ | बिल जमा करने गया तो एक बड़े स्कैम की बू मिली, आप से निवेदन है की इस चिठ्ठी को को पढ़ कर जनता की सेवा में माकूल क़दम उठाएं | हो सके तो एक आध स्टिंग ऑपरेशन कर डालें| या कमसे कम कुछ जानकारी में ही इजाफा करें| दरअसल बिल ज्यादा आने के बाद हमने सर जोड़ कर पिछले सारे बिलों को गौर से देखा तो पाया की उसमें एक झोल हैं| बिजली के इस्तिमाल को तीन सिलैब मैं बांटा गया है मगर कभी तो बिल 51 दिनों में बनाया गया है और कभी 70 दिनों में जिसके कारण हर बार कुछ हिस्सा तीसरे सिलैब में जाता है और ग्राहक को ज्यादा पैसा देना पड़ता है | झोल देखने के बाद मैंने कस्टमर केयर में फ़ोन किया तो उसने पहले तो गोल माल करके समझाने की कोशिश की बिल एक दम सही है | हमने थोडा हुज्जत की और cunsumer कोर्ट की धमकी दी तो उसने हमारी शिकायत दर्ज करली| आज जब मैं बिल सही करवाने BSES ऑफिस गया तो देखता हूँ की कमज़कम चार दर्जन आदमी मेरी जैसी ही परेशानी लेकर कतार में लगे हैं | दो चार लोगो से बात की तो पता चला की सभी के बिल ही बहुत बढ़ कर आयें हैं | एक दो काउंटर पर चक्कर लगाने के बाद हम ने अफसर की कमरे का रुख किया तो वहा भी कुछ लोग मौजूद थे | अफसर ने भी पहले समझाया की बिल एक दम सही है मगर बाद में ग़लती मन कर सिलैब बेनेफिट लिख कर दे दिए और बोला की नीचे जा कर बिल सही करवालो ( इस बार हमने धमकी नहीं दी मगर समाज सेवक होने का परिचय दिया था) हमें यह भी मालूम चला की BSES ने हाल ही मैं बिलिंग का नया सॉफ्टवेर लगवाया है | लेकिन अफसर साहब ने उसमें कोई खोट नहीं माना | हमारी बहस के बाद ही अफसर साहब और लोगो में व्यस्त हो गए और किसी को फोन लगाया की भागीदारी वाले किसी आदमी से मीटिंग करवाओं लोगों की बहुत शिकायतें आरही हैं | हमारा बिल तो सही होगया मगर ये बात मन में चुभ रही है की लाखों दबे कुचले लोगो को कैसा चूना लगाया जा रहा | और भागीदारी के नाम पर किसकी तरफदारी की जाती है यह तो सभी को मालूम है | धन्यवाद, यूनुस -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091008/5accc831/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Sat Oct 10 19:06:09 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sat, 10 Oct 2009 19:06:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KSu?= =?utf-8?b?4KSoIDE1LCDgpIngpKbgpK/gpKrgpYHgpLA=?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, हिन्दी कथाकारों का संगमन 2-4 अक्टूबर को उदयपुर में सम्पन्न हुआ. इसकी कुछ झलकियाँ आप इन तस्वीरों में देख सकते हैं. तस्वीरें देखने के लिए नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें. http://www.flickr.com/photos/miyaamihir/sets/72157622423185553/ संगमन के बारे में और जानने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें. http://www.sangaman.com/ ...मिहिर. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091010/68bdeaca/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Oct 14 12:52:07 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 14 Oct 2009 12:52:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS84KS+4KSwLeCknOCkl+CknOClgOCkpCDgpJzgpYHgpJfgpLLgpKzgpII=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA?= Message-ID: <200910141252.07903.ravikant@sarai.net> ख़ुशबू-ए-गुलज़ार से साभार: http://gulzars.blogspot.com/2009/10/jugalbandi-gulzar-jagjit-singh-in.html Jugalbandi gulzar - jagjit singh in hyderabad [जुगलबन्दी - गुलज़ार-जगजीत सिंह, हैदराबाद में] अक्तूबर 11, 2009 (October 11, 2009) वो शाम बहुत हसीन थी! (report by K Venkat) हैदराबादी नवाबों के चौमोहोल्ला पैलेस में, खुले आसमां के नीछे, जहां जगजीत सिंह की आवाज़ हवा में सराबोर हुई, वहीं गुलज़ार साब ने अपनी चन्द नज़्मों से ज़िन्दगी के कुछ नये "इमजेस" बना दिये. यूं तो बहुत बार, कई शहरों में जगजीत जी को सुना, मगर कल महफ़िल कुछ और ही रंग में थी. रात तो हर रोज़ होती थी मगर, इस बार, चांद भी था. गुलज़ार साब और जगजीत जी एक बग्घी में बैठ कर मन्च के पास पधारे, और आते ही दोनों को गुल-पोशी की गयी. फिर जगजीत जी ने महफ़िल की शुरुआत अपनी ग़ज़लों से की. तकरीबन एक घन्टे बाद, जब तक हम बेसब्र हो चले थे, गुलज़ार साब को जगजीत जी ने मन्च पर बुलाया और उनका परिचय भी अपने ही अन्दाज़ में किया "गुलज़ार साब ’मल्टी फ़ेसेटेड पर्सनैलिटि हैं मगर इनके पास एक ही ड्रैस है... (गुलज़ार साब अपने ट्रेडमार्क सफ़ेद लिबास में थे) ...ये प्रोड्य़ुसर, डायरेक्टर, स्क्रिप्ट राईटर, डा यलोग राईटर, लिरिसिस्ट हैं और आज हमारी खुशकिस्मति हैं की वो हमारे बीच कुछ नज़्में लेकर आये हैं" फिर गुलज़ार साब ने शुरुआत की, के किस तरह ज़िंदगी एक ’हिरन’ की तरह है जिसके पीछे हम भाग रहें हैं और आखिर में ये समझ नहीं आता के कौन किसके पीछे भाग रहा है. फिर हैदराबाद को सलाम करते हुए उन्होने उर्दू ज़बान पे एक नज़्म कही जो मेरे खयाल से, हर उस शख़्स को सुननी चाहिये, जिसे ईश्वर ने बोलने की शक्ति दी हो. फिर बात चली आज के दौर की जहां सब कुछ कम्प्युटराईज़्ड हो गया है और हुम किताबों से किस तरह दूर हो चले हैं. उन्होने कई नज़्मों में अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल किया मगर जगजीत जी को एक तसल्ली भी दिलायी - "जगजीत मैं अंग्रेज़ी का इस्तेमाल गज़लों में नहीं करूंगा. मगर नज़्म में आज कल के इन नये लफ़्ज़ों का इस्तेमल जायज़ है. अब मैं ‘कम्प्यूटर’ को कुछ और तो नहीं कह सकता". ज़िंदगी के कुछ इमजेस की पोएटिक स्केचेस खींचे, एक नज़्म उम्र के नज़रिये पे पढ़ि (‘अब मैं मकान के ऊपरी मन्ज़िल पे रहता हूं’) और एक नज़्म पाकिस्तान और अपने बीच चल रहे उथल-पुथल के बारे में थी. आखिर में गुलज़ार साब ने जगजीत जी के बारे में कहा "जगजीत की आवाज़ में सुन कर मुझे मेरे ही लिखी हुई गज़लें, और बेहतर लगने लगती हैं. जगजीत जिस तरह गज़ल को समझ्ते हैं.. किस लफ़्ज़ पे कितना वज़न देना चाहिये और कैसे मनी को उभारना चाहिये, ये उनसे बेहतर कोई और नहीं जानता. ये मैनें पहले भी कहा था, और अब भी कह रहा हूं, "ग़ालिब की आवाज़ - जगजीत हैं" ये कहते हुए ग़ालिब का इन्ट्रो डक्शन "बल्लिमारा के मोहल्ले" नज़्म को पढ़ कर कराया. उन्होने साथ में जगजीत जी से ये इल्तेज़ा भी की "जगजीत जब मैन मन्च से उतरूं और दूसरे हाफ़ की जब शुरुआत करो तो ये मेरी गुज़ारिश है, की वो, ग़ालिब के ग़ज़ल से हो. ये कह कर जब गुलज़ार साब मन्च से उतरे तो जगजीत ने समा की कैफ़ियत को खूब समझ कर सुना दिया "हज़ारों ख्वाहिशैं ऐसीं" कैमरा नहीं लेकर गया था मगर सैल-फ़ोन से दो-तीन तस्वीरें ली हैं और गुलज़ार साब के सभी नज़्म रिका र्ड भी कर लिये हैं. मगर अभी तक मौका नहीं मिला की उन्हें लैप्टॉप में ट्रान्सफ़र करके आपतक भेज सकूं. अगर रिकार्डिंग क्वालिटी खराब रही तो ये कोशिश ज़रूर रहेगी की सारे नज़्म इन्ग्लिश स्क्रिप्ट लिख कर आपके साथ शेयर करूं. जय हो! -वैंकट (हैदराबाद से) From vineetdu at gmail.com Thu Oct 15 18:21:51 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 Oct 2009 18:21:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSh4KWA4KSv4KWC?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJXgpLIg4KSt4KWAIOCkhuCkj+CkguCkl+ClhyA=?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KSu4KWC4KSmIOCkq+CkvuCksOClgeCkleClgCDgpJTgpLAg?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSo4KS/4KS2?= Message-ID: <829019b0910150551s4df7a41avf07e2c50f1aa9a9d@mail.gmail.com> *दास्तानगोई पर कल महमूद फारुकी और दानिश का दूसरा दिन** * *दीवान के साथियों* *हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय की पहल पर दास्तानगोई के फनकार और जानकार* *महमूद फारुकी और दानिश को दो दिनों के लिए( अक्टू 15 और 16) को आमंत्रित किया गया है।* *आज पहले दिन उन्होंने दास्तानगोई की परंपरा,ऐतिहासिक संदर्भ,विकास और फिर धीरे-धीरे इसके गायब होते * *चले जाने की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बताया कि एक समय महीनों चलनेवाली इस दास्तानगोई को लोग बार-बार सुना* *करते,लोग इसे समझते थे और आनंद लिया करते लेकिन आज है कि इस ओर किसी का बहुत ध्यान नहीं जाता। लोग* *भूलते चले जा रहे हैं।..* *साथियों लगभग ढाई घंटे तक चलनेवाली इस चर्चा के दौरान हमने कच्चा-पक्का जो कुछ भी अपने लैपटॉप पर नोट किया उसे* *आपके सामने रख दे रहा हूं। इसमें संभव है कि वर्तनी संबंधी कई अशुद्धियां हों। इसकी बड़ी वजह है एक तो कि मुझे उर्दू की बिल्कुल * *भी जानकारी नहीं है और दूसरा कि जल्दी-जल्दी टाइप करने के चक्कर में कई शब्द गलत टाइप हो गए हैं। मैंने उन्हें बोलने के दौरान ही नोट किया है।* *आपको ज्यादा असुविधा न हो इसके लिए मैं इसका ऑडियो वर्जन भी डाल दे रहा हूं। आप सुनकर भी इसका आनंद ले सकते हैं। कल 11 बजे इस संबंध* *में आगे की बात होगी।.* स्थान- हिन्दी विभाग,कमरा सं- 15 फैकल्टी ऑफ आर्ट्स, दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क- 9811853307 *सेमिनार के दौरान महमूद फारुकी के कथन* * * * * * 15 अक्टूबर, हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली किसी ने सुना है दास्तानगोई के बारे में,इस कथन से अपनी बात की शुरुआत। दास्तान लंबी कहानियां होती हैं,ऐसी कहानियां जो महीनों चलती थी। जो इसे सुनाता साथ में अपनी दास्तान भी गढ़ता जाता था। वो जुबान पर ही दास्तान बनाता जाता था। ये उस समय की बात है जब हमारी संस्कृति मौखिक थी। हमारे शास्त्र जुबानी चलती थी,किताबें याद रखते थे। रज्म,बज्म,तिलिस्म,अय्यारी ये चार चीजें जरुरी होती हैं इसमें। नायक हमेशा तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश करता है अपने अय्यार के साथ। ये मोटी-मोटी बातें हैं। दास्तानगो बात से बात बनाता जाता था। राजस्थान में एक परंपरा है बातपोशी,बस बात से बात बनाने की परंपरा। कोई थीम नहीं बस,जुबान से बात बनती चली जाती है। तिलिस्म का बयान- अफराशियाब(जादूगर का बादशाह) का वर्णन,रायमिंग प्रोज का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कि याद करने में आसानी हो। 1880-90 में ये सबसे ज्यादा उठान पर थी।प्रिंट के आने पर इसे छापने की कोशिशें की गयी। 46 जिल्दों तक छपा,इतनी बड़ी कोई स्टोरीहिन्दुस्तान में नहीं लिखी गयी। लोगों ने इसे सिर्फ जादुई दास्तान के तौर पर आलोचना की गयी,उन्होंने फिक्शन के फार्म के तौर पर नॉवेल को अपनाने की बात की। यही कारण है कि ये फार्म 1930 तक आते-आते लुप्त होती चली गयी। फिल्मों के कारण लोग बताते हैं कि ये लुप्त हो गया लेकिन ये कोई मजबूत बहाना नहीं है। लोग सिर्फ भक्ति भावना से नहीं सुनता बल्कि उसके भीतर के आर्ट और शब्दों के इस्तेमाल की वजह से सुनता है। हमारे यहां ये माना गया कि चीजें बद से बदतर की ओर बढञती जा रही है लेकिन होता ये है कि हम बद से बेहतर की तफ बढ़ते हैं। नाकीश बनाता है दास्तानगो अपने आप को। एक बात ऑथऱशिप को लेकर,रचयिता को लेकर। रचना किसकी मिल्कियत है। हमारे यहां लिख दिया जाता और नीचे नाम लिख दिया जाता-कबीर।. दोनो परंपरा एक पुरानी चीजें खोजकर ये कहने की अब हम इसे समझ रहे हैं औऱ एक नाम डाल देने की। एक और उदाहरण अय्यार को लेकर - अय्यार जादूगर के खेमों में घुस जाते थे। कैसे? इतना बड़ा जादूगर है तो फिर अय्यार को आता देख नहीं पाता। हमारे देश की जनता को तमाशे में बहुत ही ज्यादा दलचस्पी है। तमाशा देखने का जो जौहर है वो हमें हर जगह दिखाई देता है। ये हमारा पॉलिटिकल कल्चर है,ये दंगों में भी होता है,वो दंगा करने नहीं जाते बल्कि वो देखने जाते हैं। ........ मुहावरे से ही बात बनती है। बातों-बातों में,बात बिगड़ना आदि। एक लब्ज जो है वो कई मुहावरे को नज्म देती है। 1शब्दों से बढ़कर अर्थ निकालने की कोशिश। गालियों और शायरियों में इसका बहुत ही अधिक प्रयोग होता है। 2. हर मुहावरा जो है एक एट्टीट्यूड है जीवन के प्रति भा षा के प्रति। हर मुहावरे का नुकसान एक वर्ल्ड व्यू का नु नुकसान है। मुहावरे को बरतना ही जुबान का खेल है। कहने को तो गप्प है ये दास्तानगोई है लेकिन इसमें सबकुछ आ जाता है। एक और अमर अय्यार का उदाहरण लेखक किसी के दिल के अंदर झांकता नहीं बल्कि उसके मन में ख्याल आया। यहां मन का भेद जानने वाली बात नहीं। उसके अंदर बैठकर सबकुछ जाने लें ऐसी बात नहीं। ये अब के लेखकोंवाली बात नहीं। दास्तानगोई को लेकर एक ब्रीफ दास्तान-ए-अमीर हमजा जो दास्तान हम सुनाते हैं। नवीं-दसवीं सदी तक आते-आते सुनाई जाने लगी अरबी फारसी में। 14-15 शताब्दी में भारत में भी शुरु हो गया। अकबर के जमाने में ये बहुत पॉपुलर हो गया। बादशाह ने तो इसे लेकर एक बड़ा प्रोजेक्ट लिया। तस्वीरें बनायी जाती और उस पर काहनियां लिखी जाती। उस समय भी फारसी में ही सुनाई जाती । 1200 में अब केवल 800 तस्वीरें मौजूद हैं। बाद में 18 वीं में उर्दू में सुनाई जाने लगी। जामा मस्जिद की सीढियों में,चौक पर,महलों में भी सुनाई जाने लगी कॉफी हाउसों में भी। दास्ताने लंबी होती है,किस्सा जल्दी खत्म होती है। प्रिंट में आने के बाद फोर्ट बिवियम से वही एक जिल्द में छपी। लखनउ में रामपुर में दिल्ली में इतनी फैली कि एक जिल्द की दास्तान 46 जिल्दों में बदल गयी। गालिब को बहतु पसंद थी ये दास्तानगोई। 1870-80 तक आते-आते..मुंशी नवलकिशोर की चर्चा की. ये नवलकिशोर प्रेस अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है जिसने एक ही चीजें उर्दू,फारसी,संस्कृत आदि में छापे । इसी ने 46 वॉल्यूम में छापे। इसी ने 18 वाल्यूम में चन्द्रकांता भी छापी। लेकिन इसे किस तरह से छापा बोला या लिखा ये मालूम नहीं। दास्तानगो के साथ कितने लोग होते थे,वो हाथ खड़ी करके सुनाता था,बैठकर सुनाता था ये हमें पता नहीं। इसका फार्म मर्सिया मुहर्रम की तरह रहा होगा। कुछ डांस के जरिए पता लगा सकते हैं। बहुत ज्यादा पता नहीं। जामा मस्जिद की सीढियों पर खड़े होकर कैसे सुनाता था क्योंकि इसमें तो औरतों और शराबों को लेकर खुलेआम जिक्र है। दास्तानगो की फैंटेसी लिमिटलेस हुआ करती थी,कितनी चीजें हम अल्फाज से खड़ी कर सकते हैं,जुबान पर कितनी कुदरत रखते। मीर आकर बली अंतिम दास्तानगो।..शहंनशाह बनते तो कमरा हिलने लगता। हमारी ऐसी आवाज नहीं है,हम मार्डन आवाज को लेकर जी रहे हैं। हमारी आवाजों में ऐसा नहीं है। कबाड़ीवालों की आवाज में जो खुश्की है वो हममें नहीं है। कई बार दास्तानगो एक्शन रुक जाता लेकिन बयान जारी रहता।.. एक उदाहरण देते हैं... एक और उदाहरण..एक दास्तान गो का दास्तान में कोई बूढ़ा नहीं होता,बीस-पच्चीस साल के बाद वैसा ही हो जाता है। वो फानूश,वो पर्दा...इसे कहते हैं कहानी को रोकना। जो कहानी को रोककर भी आपको बांधे रखे वही सबसे बड़ा दास्तानगो है। क्यों जिक्र खत्म हो गया दास्तानगोई का ? एक जमाने में हुआ करता था पारसी थिएटर।..इसके भीतर पैसे की चर्चा। लोग टिकट लगाकर क्यों जाते थे? शहरों में दस हजार लोग टिकट खरीदकर देखा करते। बहुत लंबा-चौड़ा कारोबार था। बहुत ही डेमोक्रेटिक किस्म का थिएटर हुआ करता था। कोई मुल्ला या पंडित ये नहीं कहता कि आप ये जुबान इस्तेमाल करो। दास्तान जुबानी फन था,जहां लगता कि ये अच्छी टेस्टवाले लोग हैं तो अच्छे-अच्छे अल्फाज लगाने लग जाता। जिस तरह के लोग होते उस हिसाब से भाषा का इस्तेमाल करने लग जाते।...निगाहें जादूगरों ने जहरीली बनायी थी।.. हमारे आज के तौर पर बहुत ठेठ उर्दू आती है दास्तानगोई में। बहुत कुछ ऐसा है कि हम आज भी सीख सकते हैं पहले की जो जुबान हुआ करती थी। उस जुबान में हमारे कल्चर का एक बड़ा हिस्सा हुआ करते थे। जैसे औरतों के हुस्न का बयान। उसके लिए सौ चीजें हुआ करती थी..उर्दू और संस्कृत में। अब बहुत सिम्पल हो गया है। अब हम नहीं कर सकते। एक-एक अंगों का बयान उस तरह से नहीं कर सकते। ये जो लिटररी टेस्ट बदला है उस पर अलग से चर्चा करेंगे। एक और उदाहरण औरत के हुस्न को लेकर- नख- शिख वर्णन,उर्दू में सरापा हिन्दी में उदाहरण- लाखों ने जान उस पर निसार किया.. हमारे सामने कोई कम्युनिटी नहीं है जिसे सुनाते हैं उन्हें उर्दू तक नहीं आती। ये हमारे लिए चैलेंज है। हम लतीफ नुख्ता नहीं समझ पाते हैं। जो संगीत नहीं जानते उनके बीच मो.रफी के गाए और राग दीपक में क्या फर्क आएगा। दास्तानगो पहले इस कॉन्फीडेंस से अपनी बातें कहा करते थे कि सामने वाला समझ रहा है। हम समझाने लगें तो शाम तक तो एक पेज भी नहीं पढ़ पाएंगे। इसलिए हम कुछ नहीं समझाते,पहले ही कह देते कि हम समझा नहीं सकते। आप हमारे हाव-भाव से जितना समझ सकते हैं समझिए। फिल्मों के जरिए जितना समझा है उसके जरिए समझने की कोशिश कीजिए। एक और उदाहरण जादूगर और सांप को लेकर तूल देना ही मजा है। तूल देना ही किस्सागो की खूबसूरती है। क्या मकान शब्द की सारी सच्चाई मकान में समा सकती है। क्या परिवार की सारी सच्चाई परिवार शब्द में सकती है। हम एक तरह की मान्यता में चलते हैं,ये रिप्रजेंटेशवन करने का दावा करता है। इसी तरह दास्तानगो पूरी जिंदगी को रिप्रजेंट करने की कोशिश करता है,दावा करता है। कला सिर्फ जीवन की सच्चाई को बताएं ये एक नजरिया है जो कि पिछले डेढ़ सालों से चला ए रहा है। हमारे यहां वर्णन करने की परंपरा है। हमारे यहां डिस्क्रीप्शन फार्मूलाइज्ड हुआ करते थे। स्पेसिफिक नहीं हुआ करते थे। एक पैटर्न बनकर हुआ करते। यहां वही है जो एतबार किया,सुननेवाले के एतबार के बाद कहानी की हकीकत बन जाती है। ये फर्क है लिखनेवाले और कहनेवालों के बीच।.. शफशिकन बटेर का एक उदाहरण एक और उदाहरण( दोनों उदाहरण ऑडियो के जरिए) * *ऑडियो वर्जन सुनने के लिए नीचे के लिंक पर चटकाएं*- http://www.esnips.com/doc/91236565-76e2-4f41-bee3-289feb7929ae/महमूद-फारुकी-और-दानिश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091015/b8ecc334/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Oct 16 01:33:32 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 16 Oct 2009 01:33:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy?= Message-ID: <6a32f8f0910151303u717fa6cax25fec8126bea7a6c@mail.gmail.com> देर रात इक साथी का फोन आया। उन्होंने कहा, “बधाई हो, आपने आईएएनएस (हिन्दी सर्विस) में दो साल पूरे किए।” मैंने उनसे कहा कि यदि आप मजाक कर रहे हैं तो आपकी समझ। वैसे मैंने इस साल की पहली तारीख से वहां से मुक्त हूं। उन्हें लगा कि मैं बहलाने की कोशिश में हूं। हालांकि, कुछ कहा नहीं। बस मिलने की इच्छा जताई। पर, मेरे मन में उनकी कुछ बातें रह गईं। दो साल पहले आज ही के दिन श्री अरुण आनंद (संपादक-आईएएनएस हिन्दी सर्विस) के दिए हुए संक्षिप्त भाषण याद आए। कुल मिलाकर उनके कहे को कार्यशैली के आधार पर देखें तो हिन्दी मीडिया के कुछ रंग दिखाई पड़ते हैं। इसपर कल। अभी तो इतना ही कि जनसत्ता पहली बार 1954 में आरएनजी (रामनाथ गोयनका) ने महज इसलिए बंद कर दिया था कि अखबार की भाषा उन्हें बड़ी कठिन मालूम पड़ती थी। वे चाहते थे कि भाषा ऐसी हो कि वह सहजता से पान वाले की भी समझ में आ जाए। जब ऐसा नहीं हुआ तो अखबार ही बंद कर दिया। दूसरी बार निकला तो हिन्दी का धाकड़ अखबार बना। वजह यह थी कि वह किसी अंग्रेजी अखबार का हिन्दी रूप नहीं था। उसने तब एक अगल व विशिष्ट शैली अपनाई। और खूब रंग जमा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091016/7f504b25/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Oct 16 16:41:30 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 16 Oct 2009 16:41:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KS+4KSo4KWHIOCkleClieCkruCksOClh+CkoSDgpJXgpYAg4KSF?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KS/4KSuIOCkr+CkvuCkpOCljeCksOCkvi/gpLjgpL7gpILgpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KSo4KS+IOCkqOCkv+Ckl+Ckrg==?= Message-ID: <200910161641.31835.ravikant@sarai.net> सामूहिक चिट्ठा काफ़िला से साभार. मुझे तो निहायत हृदय-छू लगा. http://kafila.org/2009/10/14/ek-purane-comrade-ki-antim-yatra/#comment-7535 Posted: 14 Oct 2009 02:53 AM PDT संस्मरण/ सांत्वना निगम एक पुराने कॉमरेड की अंतिम यात्रा “साला भैंचो गॉरबाचोव, कैपिटलिस्टों का एजेंट … सब तोड़-फोड़ कर चकनाचूर कर दिया। युगों की मेहनत के ऊपर खड़े महल को ताश के घर की तरह ढहा दिया। हरामी ने ग्लासनोस्त हूँ: चूतिया कहीं का” संझले भैया चोट खाए सांप की तरह फुंफकार रहे थे। हालाँकि मेरा मन भी उदासी की गहरी परतों के नीचे दब चुका था, फिर भी मैंने जैसे उन्हें दिलासा देने के लिए कहा “भैया याद है? स्टडी सर्कल में जब हम तुमसे प्रश्न पूछते थे तुम अकसर कहते थे – ‘इतिहास अपने रास्ते पर चलता है लेकिन बेतरतीबी से नहीं – कार्यकारण से जुड़ी होती है सारी घटनाए। सड़ी गली समाज व्यवस्था से ही उपजती है क्रांति वग़ैरह-वग़ैरह।’ शायद उस समाज में भी सड़न आ गई थी, नहीं तो भुरभुराकर ढह कैसे गया?” “अरे रखो तुम्हारी अधकचरी थ्योरीज़, ख़ाक समझाती हो, ख़ाक़ जानती हो।” भैया चिड़चिड़ा कर बोले। “मुझे तो लगता है साम्यवाद फिर से वापस आएगा, शायद किसी और शक़्ल में” मैंने कमज़ोर-सी आवाज़ में कहा। “खाक़ आएगा।” यह कैपिटलिस्ट सिस्टम, यह कंज़्यूमरिज़्म का दानव सब कुछ निगल जाएगा। संझले भैया दहाड़े। हरियाणा के एक छोटे-से क़स्बे के मकान के आँगन में यह वार्तालाप चल रहा था। मैं अपने “पुराने कॉमरेड” भाई से मिलने गई थी। महीने में एक बार जाती थी – पिछले तीस सालों से । हमारे परिवार में राजनीति का यह आलम कि जैसे तो अलग अस्तित्व साबित करने के लिए अलग राजनीतिक पहचान भी होनी चाहिए। बाबा (पिता) घोर गाँधीवादी। ताजिंदगी कांग्रेस का काम किया, जेल गए। आज़ादी के बाद जब पद और ज़िम्मेदारी दोनों में से एक को चुनने की बात होती तो बाबा हमेशा पद को ठुकरा देते और ज़िम्मेदारी ले लेते। हर जगह नाम के आगे लगा रहता “आनेररी”। ऑनररी प्रेसिडेन्ट ऑफ़ कॉपरेटिव सोसाईटी, ऑनरेरी फलांना, आनेररी ढिमाका। बाबा के राजनैतिक जीवन से एकदम उदासीन माँ घोर हिन्दूवादी – जातपात, छुआछात, व्रत, उपवास की हिमायती पर मूर्ति पूजा? कतई नहीं – रामकृष्ण परमहंस की भक्त। बड़े भैया रैडिकल ह्यूमैनिस्ट और हम बहने बाबा की पिछलग्गू। महिला कांग्रेस की सदस्याएँ। सन् 42 में बाबा तीसरी बार जेल गए। संझले भैया ने तभी इंटर पास किया था। बस आगे पढ़ने का इरादा छोड़ नेवी ज्वाइन कर ली। रेटिंग थे – बंबई के किसी जहाज़ में। हर महीने माँ के पास मनीऑर्डर आता था। दो ढाई साल यह सिलसिला चलता रहा। फिर मनीऑर्डर नदारद और कोई ख़बर भी नहीं। बहुत खोजख़बर के बाद यही पता चला कि बंबई मैं ही हैं और ठीक हैं। सन् 46 में बाबा लौट आए और बिखरा परिवार समेटने में लग गए। तभी एक दिन हमारे घर की कुंडी खड़की और खोला तो संझले भैया बाहर खड़े थे। सफ़ेद आधी बांह की कमीज़, सफ़ेद हाफ़ पैंट, काला, दुबला लंबा शरीर। सफ़ेद दाँतों की बत्तीसी दिखाते बोले ‘‘जेल से आ रहा हूँ।’’ जेल ? जेल क्यों? तुम भी बाबा की तरह … ? नहीं नहीं अंदर तो चलो बताता हूँ। सुबह की धूप में आँगन में हम बहनें और माँ बैठे हैं और संझले भैया बता रहे हैं – हमसे डैक पर झाडू लगवाते थे। पाखाना साफ़ करवाते थे, बात-बात पर गाली देते थे। सफ़ेद चमड़ी वाले अफ़सर। तो हम सबने स्ट्राइक कर दी और जो लोग हड़ताल में शरीक हुए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। तीन महीने जेल काटी। जेल में ही मन पक्का कर लिया था कि अब अंग्रेजों की गुलामी नहीं करनी है और बस घर आ गया। आज़ादी के कुछ ही पहले ‘‘नेवल म्यूटनी’’ में शरीक हुए थे संझले भैया, एक अदना से रेटिंग के रूप में। बाबा के जेल से लौटने के बाद हम तीनों बहनें फिर से स्कूल जाने लगीं। बाबा ने छोड़ी हुई वकालत फिर से शुरू की लेकिन संझले भैया के लिए बाबा का मन अपराध बोध की भावना से भरा रहता। ‘‘क्या करने को मन चाहता है ?’’ बाबा ने पूछा। ‘‘पता नहीं’’। ‘‘खेती करोगे’’ ? ‘‘देखता हूँ’’। पच्चीस बीघा ज़मीन ख़रीदी गई पास के गाँव में। एक छोटा-सा एक कमरे का मकान भी बनाया गया। भैया सुबह साइकिल उठाते और गाँव चले जाते। फिर कुछ दिन बाद वहीं रहने लगे। शनिवार इतवार को घर आते। दोस्तों से कहते ‘‘मन नहीं लग रहा। तभी माँ बहुत बीमार पड़ी और इलाज के लिए पानी के भाव ज़मीन बेच दी गई। कुछ पैसा इलाज में लगा और बाकी के बचाकर बाबा ने भैया से पूछा ‘‘पॉलट्री फॉर्म चलाओगे ?’’ भैया ने कहा ‘‘देखता हूँ।’’ फिर कुछ दिन मुर्गी पालन का शगल चला जो फेल हो गया। भैया फिर घर में। अब की बार बाबा ने पूछा ‘‘आगे पढ़ोगे ?’’ भैया ने कहा ‘‘हाँ, पर साइंस नहीं।’’ भैया पढ़ने लगे। प्राइवेट बी.ए. किया, फिर बी.टी., फिर मास्ट्री करते हुए अंग्रेज़ी में एम. ए. कर लिया। हमारे घर के सामने बड़ा-सा बरामदा था। उसके दोनों सिरे पर दो छोटी-छोटी कोंठरियाँ थीं। आठ बाई आठ की। एक में स्टोर था, दूसरी कोठरी संझले भैया को दी गई थी। चारपाई की जगह थी नहीं। सो ज़मीन पर ही बिस्तर लगा रहता था। ठंड के दिनों में  मोटा गद्दा बिछा दिया जाता था। भैया अपनी कोठरी का दरवाज़ा हमेशा बंद रखते थे। हमारे लिए वहाँ जाना वर्जित था। उन्हीं दिनों संझले भैया की गतिविधि कुछ अज़ीब-सी हो गई थी। रात के बारह बजे आते। रसोई में ढका हुआ ठंडा खाना खाते। देर से सोते और देर में उठते और अक्सर ही साइकिलों पर उनके दो तीन दोस्त आते। कोठरी में घुस जाते, धुंआधार बहसें होतीं। मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, बुर्जुआ, पैटीबुर्जुआ, कैपिटलिज़्म जैसे शब्द बंद किवाड़ों की दरार से छन कर आते। बाबा की भौंह सिकुड़ी रहती – यह जान कर कि बेटा साम्यवाद की दीक्षा ले रहा है – पर कहते कुछ नहीं। एक दिन भैया और उनके दोनों कॉमरेड दोस्त शाम को जाने कहाँ से आए और भैया आते ही गुसलखाने में चले गए, उबकाई रोकते हुए। जब मुँह धोकर अपनी कोठरी में घुसे। उन्हें बड़ी झिड़कियाँ पड़ रही थीं। ‘‘कुछ नहीं यार, तुम्हारे इन पैटी बुर्जुआ संस्कारों को मरने में बहुत समय लगेगा। तुम सर्वहाराओं के साथ घुलमिल कर काम करने लायक नहीं हों। ‘‘बाद में भैया ने बताया कि दोनों कॉमरेड जमादारों और क्लास फोर कर्मचारी यूनियन के नेता थे। भैया को एक जमादार के घर खाना खिलाने ले गए थे। तब फ्लश का जमाना नहीं था। जमादार की टूटी-फूटी झोंपड़ी में तीनों चटाई पर बैठ गए थे। मुड़ी-तुड़ी अल्यूमिनियम की थाली में दाल रोटी पर परोसी गई थी। जो उन दोनों पुराने कॉमरेडों ने मज़े से खाई, लेकिन संझले भैया खा न पाए, उबकाई दबाते बैठे रहे। और घर आकर यह था उनका दीक्षारंभ। तो संझले भैया की मिडल क्लास मानसिकता का ख़्याल कर पार्टी न उन्हें टीचर्स यूनियन सभालने का काम सौंप दिया। जिसे संझले भैया अध्यापन के पहले दिन से रिटायरमेंट की आख़िरी तारीख़ तक निभाते रहे। संझले भैया अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। हरियाणा का एक छोटा-सा क़स्बा सोनीपत – वहाँ छोटूराम आर्या कॉलेज़ में। कहते थे – ‘‘चैलेंज़ है यहाँ पढ़ाना।’’ शोक्सपीयर, मिल्टन, वर्डस्वर्थ शेली को हिन्दी में पढ़ाना पड़ता है। अंग्रेज़ी में बोलो तो स्टूडेंट्स पूछते हैं, ‘‘कै कै रैओ मास्साब, समझ नहीं आता, हिन्दी में समझाओ।’’ ‘‘इफ़ विंटर कम्स कैन स्प्रिंग बी फॉर बिहाइंड’’ यहाँ तक हिन्दी में समझाया जा सकता है पर “ट्रंपैट ऑफ़ प्रॉफेसी ओ विंड” (भविष्यवाणी के भोंपू ) को समझाना? पर गाड़ी चल ही रही है। पास हो जाते हैं तो घी का टीन, गुड़ की भेली लेकर आ धमकते हैं। साफ़दिल,  नेक जाट विद्यार्थी। भैया पूरी लगन से पढ़ाते और टीचर्स यूनियन और जाने कितने और यूनियनों का काम जोरोशोरों से चलता। धर्म, अंधविश्वास, रीति-रिवाज़ों को भैया ने जैसे अपने जीवन और परिवार से देश निकाला दे दिया था। पर कभी-कभी समझौते तो करने ही पड़ते हैं – भैया को भी एकबार करना पड़ा था बड़े हास्यकर ढंग से। बीस वर्ष पहले बाबा गुज़र गए थे। बाबा विश्वासी थे पर कर्मकांडी नहीं। पर माँ क्रिया-कर्म श्राद्ध शांति पर विश्वास करती थीं। वे ज़िद करने लगी कि तेरहवीं पर ब्राह्मण भोजन कराया जाए। संझले भैया भड़क उठे ‘‘ब्राह्मण भोजन।’’ मैं किसी साले ब्राह्मण को नहीं खिलाऊँगा। सालों ने देश और समाज का मटिया मेट करके रख दिया है हूँ: ब्राह्मण भोजन। माँ दुखी थीं – तेरे बाबा की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, भटकते रहेंगे। ‘‘गांधी जी के भजन गवा देंगे’’ भैया बोले। माँ ने फिर रट लगाई – सिर्फ़ पाँच ब्राह्मणों के खिलाने से ही चलेगा। बहस और गरमा गरमी बढ़ती गई तो मैंने सुझाया ‘‘भैया आपके दो सबसे करीबी दोस्त वशिष्ठ और शर्मा जी तो ब्राह्मण ही है न। ऐसा करो वशिष्ठ जी और उनका बेटा, शर्मा जी और उनका बेटा और हमारा भाँजा (छोटी बहन ब्राह्मणों के घर ब्याही थी) हो गए पाँच। और इन पाँचों को बुलाकर खिलाया गया। वे खाते समय हँसते रहे कि वाह कॉमरेड, तो ब्राह्मण भोजन हो ही गया। कोई बात नहीं, माताजी के दिल को शांति मिली और वैसे भी हम कम्युनिस्टों के लिए तो ‘‘एंड्स जस्टिफाइ द मीन्स’’। ‘‘हरि ओम’’ कहकर एक बड़ी-सी डकार ली। और डकार की भरपूर आवाज़ को डुबाते हुए भैया दहाड़े – अबे ब्राह्मण की औलादों को नहीं अपने कॉमरेड दोस्तों को खिला रहा हूँ और माँ का मन रख रहा हूँ। उन दिनों मैं महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘‘अग्निगर्भ’’ पढ़ रही थी। पूरी ज़िंदगी पार्टी के लिए काम करने के बाद किसी एक तथा कथित पार्टी विरोधी काम के कारण, पार्टी से निकाले हुए ‘‘काली सांतरा’’ का जीवन। मैंने भैया से पूछा ‘‘तुमने पढ़ा है यह उपन्यास ?’’ हूँ, पढ़ूँगा क्यों नहीं। मेरी ही ज़िंदगी पर तो लिखी हुई है। में ही हूँ काली सांतरा। मैंने हैरान होते हुए पूछा – मगर उसको तो पार्टी से निकाल दिया गया था ? तो मैं भी तो एक्सपेल्ड हूँ। ‘‘कब से’’ ? ‘‘सालों हो गए।’’ लेकिन तुम तो अब भी स्टडी सर्कल चलाते हो। कॉलेज़ के नए कॉमरेड के गुरू हो ‘‘तो क्या हुआ ?’’ “मार्क़्सवाद से मेरी क्या दुश्मनी है?” फिर उन्होंने मुझसे पूछा ‘‘तुझे मेलाराम की याद है?’’ हाँ हाँ, पहले सरदार थे लेकिन फिर दाढ़ी – बाल कटवा लिए गए। और पार्टी ऑफ़िस में ही रहते थे। चाय बगान के यूनियनों के नेता। भैया बोले, ‘‘हाँ, पैंतालीस साल बाद उसे पार्टी से निकाल दिया गया था। पार्टी विरोधी काम के लिए। पिछले साल आया था यहाँ मुझसे मिलने । मैंने पूछा था ‘‘क्या करोगे अब ?’’ वह रोने लगा फूट-फूट कर। कहा – कॉमरेड, जैसे बहुत बड़े मेले में कोई बच्चा खो जाए, मेरी हालत वैसी ही है। मुझे अपना गाँव, अपना परिवार, अपने रिश्तेदार कोई भी याद नहीं। मैंने तो सबको भुला दिया था और सब मुझे भूल गए हैं। मैंने पूछा ‘‘जाओगे कहाँ, सोचा है कुछ ?’’ आँखें पौंछकर बोला ‘‘फिर से प्राइमरी मेंबरशिप ले लूँगा। अब पहले की तरह सख़्ती नहीं होती न। मेरी दुनिया तो वही है – पार्टी ऑफ़िस के कोने में पड़ी चारपाई और पार्टी का काम, चाहे वह कुछ भी हो।” गहरी उदासी से हमने बातचीत का रूख मोड़ दिया था। और फिर एक दिन संझले भैया रिटायर हो गए। एक मकान उन्होंने भाभी के कहने पर बना लिया था लेकिन न कूलर, न टी.वी. और न कोई कनज़्यूमर कल्चर का सामान। ज़िंदगी भर साइकिल चलाते रहे। रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले एक सैंकेड हैन्ड फ्रिज़ ख़रीद लिया था। एक अख़बार लेते थे, वह भी बंद कर दिया। इसी समय उनकी शादीशुदा बेटियों ने मौक़ा देख टी.वी. कूलर आदि सामान लाना शुरू कर दिया कि माँ के लिए है। तुम्हारी कॉमरेडी के चलते तो बेचारी इन चीज़ों से वंचित ही रही। अब तो थोड़ा आराम से रहने दो। झखमार कर भैया भी टी.वी. देखते और धुंआधार गालियाँ बकते कि किस तरह यह सड़ा गला उपभोक्तावाद नई पीढ़ी को खोखला कर देगा, कि टी.वी. में कभी कोई ग़रीब दीखता ही नहीं। न्यूज़ को छोड़कर। जैसे तो इस देश में ग़रीब हैं ही नहीं। “और सीरियल ? उनमें कंपनी, शेयर ख़रीदना, बड़ी नौकरियाँ, आलीशान घर और एक्स्ट्रा मेरिटल संबंध” संझले भैया गुस्से से फनफनाते। कोई सालभर पहले संझले भैया को दिल का दौरा पड़ा। मिलने गई। अपने सोने के कमरे में खिड़की के पास पड़ी कुर्सी पर लुंगी बनियान पहने बीड़ी पीते हुए बैठे थे भैया। पास की मेज़ पर हृदय रोग की हिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला में ढेरों किताबें पड़ी थीं। मैंने कहा, ‘‘अब तो बीड़ी पीनी छोड़ दो भैया। ’’ भैया हंसे, कमज़ोर सी हंसी। बोले ‘‘हाँ डॉक्टर भी कह रहा था’’ “मास्साब, दिल और फेफड़े का बुरा हाल है। बीड़ी तो छोड़नी पड़ेगी और ड्रिंक भी एक दो पेग से ज़्यादा नहीं। मैंने डॉक्टर से कहा “भाई, यह बीड़ी तो मेरा चालीस साल का साथी है, इसे कैसे छोड़ दूँ। और उन्होंने आधी पी बीड़ी को एशट्रे में ठूंस दिया। निन्यानवे के चुनाव हो रहे थे। भैया का फ़ोन आया। बड़ी उदास आवाज़ में बोले ‘‘वोट देकर आ रहा हूँ।’’ पहली बार हम लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। कोई चारा नहीं था। हाथ या कमल। मैंने कहा मैंने कहा ‘‘मैंने भी पहली बार आँख बंद कर ‘हाथ’ पर ठप्पा लगाया। पर मुझे ज़्यादा बुरा नहीं लग रहा भैया, ‘‘यू हैव टू चूज़ द लेसर ईविल।’’ दिसम्बर के एक उजले इतवार को आख़िरी बार संझले भैया  से मिलने गई थी। उस छोटे से गंदे कस्बे में। इतनी गंद पचास सालों में। सड़कें ऊबड़-खाबड़, कूड़े के ढेर पर सूअर घूमते – लेकिन बड़ी-बड़ी कोठियाँ, सड़क के दोनों और कम्प्यूटर का साइबर कैफ़े, एस.टी.डी., आई.एस.डी. बूथों की दुकानों की भरमार। रिक्शा से उतरी तो भैया अपने घर के पास वाले पार्क में बिखरी पॉलीथीन की थैलियाँ उठा रहे थे। मैंने पूछा ‘‘यह क्या कर रहे हो ?’’ गंद साफ़ कर रहा हूँ। अमीर देशों का हम ग़रीब तीसरी दुनिया को वरदान के रूप में दिया हुआ अभिशाप’’ घर आकर उन्होंने मकान के पिछवाड़े लगी सब्जी की क्यारियाँ दिखाई। ‘‘आजकल यही करता हूँ’’ थोड़ी देर चुप रह कर बागवानी के सब नुस्खे बताने लगे। न पहले जैसा गुस्सा, न गालियाँ की बौछार। जैसे भैया ने हथियार डाल दिए थे। मैंने कहा ‘‘कुछ दिन बेटियों के घर रह आओ, चेन्ज हो जाएगा।’’ भैया ने तल्ख़ी से कहा, ‘‘कोई फ़ायदा नहीं, आइ ऐम डेस्टिंड टु डाई इन दिस डस्टी एण्ड डर्टी प्लेस’’। हैरानी हो रही थी मेरे कॉमरेड भैया ‘‘डेस्टिनि’’ की बात कर रहे हैं ? तब क्या …..? दिसम्बर का आख़िरी दिन। गहरी धुंध से पूरा क़स्बा ढ़का हुआ। अंतिम यात्रा की तैयारियाँ हो रही है। उपस्थित लोगों में हर चीज़ में मतभेद हो रहा है। मोहल्ले के बंगाली अपने, रीति-रिवाज़ों की हिमायत कर रहे हैं और सारी ज़िंदगी जिनके साथ बिताई वे हरियाणा के पड़ोसी दोस्त अपने। ऐसा करो, ऐसा न करो। यह रीत है – हमारे में ऐसा नहीं करते। अरे सूरज डूब गया तो … जल्दी करो। अरे अग्नि देकर चले आना …. नहीं चिता बुझाकर उसी दिन फूल लाना होता है बंगालियों में … घी का डब्बा कहाँ है ? और चंदन की लकड़ी ? मैंने मन ही मन कहा ‘‘यह भी कोई बात हुई भैया ? बोलते  क्यों नहीं कुछ ? गालियों की बौछार कहाँ गई अब? हम सब बैठे हैं सुनने और तुम हो कि सीने पर दोनों हाथ बाँध आँखें बंद किए चुपचाप लेटे हो ?’’ सोच रही थी जिस आदमी ने ज़िंदगी भर कुछ नहीं माना उसके लिए क्या करना चाहिए? क्या सही है? जो मर गया उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ सब हो या जो रह गए उनकी उनके मन की खुशी के मुताबिक़ सब किया जाए – चेहरा ढ़क दो ‘‘हरियाणवी पड़ोसियों ने कहा।’’ नहीं नहीं चेहरा खुला ही होना चाहिए, बंगाली पड़ोसी बोले। बहसें होती गई। फिर कुछ देर बात हरियाणवियों ने मैंदान छोड़ दिया और अपने प्रियजनों के कंधों पर सवार संझले भैया चल दिए। ‘‘बोलो हरि, हरि बोल – बोलो हरि हरि बोल’’शावयात्रा काफ़ी आगे बढ़ गई थी। बोलो हरि … मुझे लगा अभी संझले भैया सर उठाकर दहाड़ उठेगें – यह क्या हो रहा है? बंद करो यह बक़वास – भाड़ में गया हरि और हरि बोल – अरे कमबख़्तों, मर गया हूँ तो क्या … हूँ तो अब भी कॉमरेड ही … शवयात्रा गहरे धुंधभरी सड़क के मोड़ पर ओझल हो गई थी। लेखिका – सांत्वना निगम सी-5 प्रेस एन्कलेव नई दिल्ली 110017Posted in Culture, Excavation, Images Tagged: कम्युनिस्ट, कॉमरेड, सांत्वना निगम From ravikant at sarai.net Fri Oct 16 16:58:34 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 16 Oct 2009 16:58:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KSh4KS8?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCliCAsIOCkleCksOCli+CkoeCkvOCli+CkgiDgpJXgpYAg4KSc?= =?utf-8?b?4KS84KSw4KWC4KSw4KSkIOCkueCliA==?= Message-ID: <200910161658.35703.ravikant@sarai.net> nabhaTa blog se sabhar. vikas gautam ka shukriya, jinhone yeh link bheja. ravikant http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ कोड़ा है, करोड़ों की ज़रूरत है...आलोक सिंह भदौरिया Friday October 16, 2009 एक पूर्व सीएम हैं, 38 साल की कमसिन उमर है, नाम भी बड़ा तेजस्वी टाइप का है, आधा हनी, आधा कोड़ा मतलब कड़वा। लेकिन साब, बड़ी मेहनत की है जवान ने, सितंबर 2006 से अगस्त 2008 के बीच 4 हजार करोड़ रुपये की कमाई कर ली। और जब शुरुआत की थी तब जेब में महज 15 लाख रुपल्ली थे। लेकिन वो कहते हैं न कि हिम्मते मर्दां, मददे खुदा। पर इस पट्ठे ने खुदा का भी इंतजार नहीं किया, खुद ही लग गया, वो मेहनत की कि बस...। झारखंड से लाइबेरिया तक खानें खोदकर धर दीं। लो, जल गई दुनिया, लग गई आग। झरिया छोड़ लाइबेरिया चला गया न एक आदिवासी, खुद चाहें स्विस बैंक में तह बना बना कर जमाते रहें तो कुछ नहीं। लेकिन इस परोपकारी ने अकेले अपने लिए नहीं सोचा, तीन मंत्रियों का भी उद्धार कर दिया। वह बा त अलग है कि इनमें से कुछ रांची के बिरसा मुंडा सेंट्रल जेल में देश में मॉनसून की कमी पर अपना ज्ञान बढ़ा रहे हैं। असल में यह पूरा विवाद कुछ लोगों की साजिश भर है। ये लोग किसी स्लमडॉग को मिलि यनेयर बनते नहीं देख सकते। एक बात और, हमारा युवा नेता समाजवादी भी है। बताते हैं एक ट्रैक्टर मिकैनिक को भी फर्श से अर्श तक पहुंचा दिया। उसके नाम पर भारत में 14 और दुबई में दो कंपनियां खुलवा दीं और कहा, बेटा ऐश कर। आपने कभी अपने अखबार वाले या केबल वाले को दिया है 10 का नोट कि जा बेटा चाय-बि स्कुट खा ले? अरे साब जिगरा चाहिए, जिगरा। आज हम कुएं के मेंढक हो गए हैं, ये तेरा ये मेरा जैसी घटिया सोच पाल ली है। अरे! हर चीज को अपनी निगाह से देखो, हमारे युवा सीएम ने ऐसा ही किया। प्रदेश भर के बजट की आधी रकम को अपना समझा और किफायत और समझदारी से इस्तेमाल किया। विदेश में निवेश का रोना रोते हैं सब, लेकिन हमारे हनी ने बिना लालफीताशाही के झंझटों में फंसे यूएई, इंडोनेशिया, सिंगापुर, हांगकांग, थाइलैंड तक में पैसा लगाया। और सबसे बड़ी बात, इस महापुरुष को मीडिया की चकाचौंध का लालच नहीं। इतनी मेहनत की लेकिन कभी मीडिया को भनक तक नहीं होने दी। ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रों में लिखा है, दाएं हाथ को पता ही नहीं कि बाएं हाथ ने कहां हाथ मार दिया। आप क्या सोचते हैं इतनी कम उमर में आप महज 8 घंटे कमर तोड़कर, 4 घंटे जाम में फंसे रहकर, सूखे से बोनस के सहारे कोई खान खरीद पाएंगे। अरे आप एक पान की खोली तक नहीं खुलवा पाएंगे। कसम से जी जल रहा है। अंधेर है। खैर हनी तुम संघर्ष करो, मैं तुम्हारे साथ हूं। टैक्टर मिकैनिक के अलावा भी हमारे जैसे कलम घिस्सू पड़े हैं, बचने-बचाने, छिपने-छिपाने से समय मिले तो मेरा ब्लॉग जरूर पढ़ लेना। From vineetdu at gmail.com Fri Oct 16 17:07:09 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 16 Oct 2009 17:07:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWI4KSV4KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSq4KS/4KSVIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYcg4KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSPIOCkleClgeCkmyDgpLLgpL/gpJbgpYfgpII=?= Message-ID: <829019b0910160437w3aa6a401g25a2f0e762b6ce84@mail.gmail.com> दीवान के साथियोंसबकी खबर लेनेवाले मीडिया पर लगातार नजर बनाए रखने के उद्देश्य से पुष्कर पुष्प पिछले दो सालों से मीडिया मंत्र नाम की मासिक पत्रिका का संपादन करते आ रहे हैं। ये उनका व्यक्तिगत प्रयास है और जिसमें हम जैसे लोग लेखन के स्तर पर सहयोग करते आए हैं। मूल रुप से ये वैकल्पिक मीडिया का ही हिस्सा है। अबकी बार नबम्बर महीने के लिए वो *वैकल्पिक मीडिया की संभावनाओं और मेनस्ट्रीम मीडिया के बीच इसके * * प्रभावों *को लेकर अंक प्लान कर रहे हैं। आपसे अपील है कि वो उनके इस काम में अपने स्तर से सहयोग करें। वैकल्पिक मीडिया के विविध रुपों,जरुरतों और संरचना पर लेख भेजें। लेख न लिखने की स्थिति में दो सौ,चार सौ,पाच सौ में ही सही अपनी राय जाहिर करें ताकि व्यापक स्तर पर कुछ चीजें निकलकर सामने आ सके। *पुष्कर पुष्प की ओर से जारी किया गयी मेल*- *मीडिया मंत्र* (मीडिया पर केन्द्रित हिंदी की मासिक पत्रिका ) नवम्बर महीने का अपना अंक *'वैकल्पिक मीडिया की बढती ताकत और उसके बदलते स्वरुप पर'* निकालने जा रहा है. आप भी इस अंक में लिखने के लिए सादर आमंत्रित हैं. आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी. आप अपना लेख ५ नवम्बर तक दे सकते हैं. हमारी कोशिश है कि वैकल्पिक मीडिया और उसके सरोकारों से जुड़े ज्यादा-से-ज्यादा लोगों की बात इस अंक में जाए. यदि आपकी नज़र में ऐसा कोई वैकल्पिक मीडिया , संस्थान या व्यक्ति विशेष है जिसकी बात जाना जरूरी है तो कृपया हमें बताने का कष्ट करें. यदि इस अंक के लिए आपके पास कोई सुझाव हो तो उससे हमें अवगत कराएँ. सादर, पुष्कर पुष्प , संपादक, मीडिया मंत्र Thanks & Regards, Pushkar Pushp Editor - in - Chief, Media Mantra pushkar19 at gmail.com http://mediakhabar.com 09999177575. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091016/92fc040d/attachment.html From delhi.yunus at gmail.com Sat Oct 17 13:07:44 2009 From: delhi.yunus at gmail.com (Syed Yunus) Date: Sat, 17 Oct 2009 13:07:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= BSES CEO removed with out cause Message-ID: http://www.ptinews.com/news/331500_BSES-to-appoint-separate-CEOs-for-its-two-firms # मित्रो, शायद यह इत्तिफाक है की मेरे पत्र लिखने के बाद हाल ही में BSES के CEO को हटा दिया गया है | लेकिन जनता को मालूम नहीं की इसके पीछे क्या वजह है| जो वजह मीडिया में बताई जा रही है वो तो बहुत दिनों से कचरे में पड़ी थी | और फिर देखने की बात तो यह है कि CEO को हटा कर Director बना दिया गया है | हो सके तो इस मामले कि व्याख्या करें | धन्यवाद् यूनुस On 10/8/09, Syed Yunus wrote: > > खोजी मित्रो, > > इस महीने हमारा बिजली का बिल कुछ ज्यादा ही आया तो भय्या ने धक्के दे कर > BSES के ऑफिस भेज दिया की जाओ बिल सही करवा कर लाओ | बिल जमा करने गया तो एक > बड़े स्कैम की बू मिली, आप से निवेदन है की इस चिठ्ठी को को पढ़ कर जनता की > सेवा में माकूल क़दम उठाएं | हो सके तो एक आध स्टिंग ऑपरेशन कर डालें| या कमसे > कम कुछ जानकारी में ही इजाफा करें| > दरअसल बिल ज्यादा आने के बाद हमने सर जोड़ कर पिछले सारे बिलों को गौर से > देखा तो पाया की उसमें एक झोल हैं| बिजली के इस्तिमाल को तीन सिलैब मैं बांटा > गया है मगर कभी तो बिल 51 दिनों में बनाया गया है और कभी 70 दिनों में > जिसके कारण हर बार कुछ हिस्सा तीसरे सिलैब में जाता है और ग्राहक को ज्यादा > पैसा देना पड़ता है | झोल देखने के बाद मैंने कस्टमर केयर में फ़ोन किया तो > उसने पहले तो गोल माल करके समझाने की कोशिश की बिल एक दम सही है | हमने थोडा > हुज्जत की और cunsumer कोर्ट की धमकी दी तो उसने हमारी शिकायत दर्ज करली| > आज जब मैं बिल सही करवाने BSES ऑफिस गया तो देखता हूँ की कमज़कम चार दर्जन > आदमी मेरी जैसी ही परेशानी लेकर कतार में लगे हैं | दो चार लोगो से बात की तो > पता चला की सभी के बिल ही बहुत बढ़ कर आयें हैं | > > एक दो काउंटर पर चक्कर लगाने के बाद हम ने अफसर की कमरे का रुख किया तो वहा भी > कुछ लोग मौजूद थे | > अफसर ने भी पहले समझाया की बिल एक दम सही है मगर बाद में ग़लती मन कर सिलैब > बेनेफिट लिख कर दे दिए और बोला की नीचे जा कर बिल सही करवालो ( इस बार हमने > धमकी नहीं दी मगर समाज सेवक होने का परिचय दिया था) हमें यह भी मालूम चला की > BSES ने हाल ही मैं बिलिंग का नया सॉफ्टवेर लगवाया है | लेकिन अफसर साहब ने > उसमें कोई खोट नहीं माना | > हमारी बहस के बाद ही अफसर साहब और लोगो में व्यस्त हो गए और किसी को फोन > लगाया की भागीदारी वाले किसी आदमी से मीटिंग करवाओं लोगों की बहुत शिकायतें > आरही हैं | > हमारा बिल तो सही होगया मगर ये बात मन में चुभ रही है की लाखों दबे कुचले > लोगो को कैसा चूना लगाया जा रहा | और भागीदारी के नाम पर किसकी तरफदारी की > जाती है यह तो सभी को मालूम है | > > > धन्यवाद, > > > यूनुस > > > -- Change is the only constant in life ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091017/fb8f5a4c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Oct 17 13:25:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 17 Oct 2009 13:25:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSv4KS+4KS54KSw4KSo4KWAIOCkuOClhyDgpKrgpY3gpK/gpL4=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkueCliyDgpJzgpL7gpKTgpL4=?= Message-ID: <829019b0910170055k1807e7f4l3a7123ec005be327@mail.gmail.com> * ** दीवाली के मौके पर मां मेरे लिए खास तौर सेदीयाबरनी खरीदती। आपको शायद ये शब्द ही नया लगे लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। एक ऐसी लड़की जो दीया बारने यानी जलाने का काम करती है,जो पूरी दुनिया को रौशन करती है। प्रतीक के तौर पर उसके सिर पर तीन दीये होते और जिसे कि रात में रुई की बाती,तीसी का तेल डालकर हम जलाते। मां के शब्दों में कहें तो हमारी बहू भी बिल्कुल ऐसी ही होगी जो कि पूरी दुनिया को रौशन करेगी। आज मां दीयाबरनी खरीदे तो जरुर पूछूंगा कि कि क्या माथे पर दीया लादकर पूरी दुनिया को रौशन करने का ठेका तुम्हारी बहू ने ही ले रखी है? खैर, दीदी और मोहल्ले भर की लड़कियां जिसे कि मां के डर से बहन मानकर व्यवहार करता,इस दिन घरौंदे बनाती। ये घरौंदे अमूमन तीन तरीके के बनाए जाते। एक तो आंगन की दीवारों पर,दूसरा लकड़ी का बना बनाया और तीसरा अब के जमाने के घरौंदे थर्माकॉल और फेबीकॉल के दम पर चिपकाए गए। दीदी लोग सिर्फ दीवार पर ही घरौंदे बनाती। आंगन का एक हिस्सा अपने कब्जे में कर लेती और बड़ा-सा वर्ग घेरकर उसे अपने काम में लाती। दीवारों पर अलग-अलग किस्म की तस्वीरें बनाती। मोर,पेड़,मटके भरकर जाती हुई रतें,झोपड़ी औ नारियल के पेड बगैरह..बगैरह। कुल मिलाकर इस घरौंदे में खुशहाल गृहस्थ की कल्पना होती। इन चित्रों को रंगने के लिए बड़े ही प्राकृतिक तरीके से रंगों का इस्तेमाल किया जाता। पीले रंग के लिए हल्दी,ब्लू रंग के लिए कपड़े में डाला जानेवाला आरती मार्का नील,हरे रंग के लिए चूर-चूरकर पत्तियों से निकाला गया रस। सिर्फ गुलाबी रंग बना-बनाया बाजार से मंगवाती। मोहल्ले की कुछ लड़कियां इस दीवारवाले घरौंदे पर अपने-अपने पसंद के भगवान की तस्वीरें भी चिपकाने लगी। ऐसे घरौंदे मैंने चार साल पहले देखें हैं जिस पर लड़कियों ने ऐश्वर्या,माधुरी,सलमान खान की भी तस्वीरें चिपकानी शुरु कर दी है। इस घरौंदे के नीचे दीदी लोग मिट्टी के बर्तन जिसे कि वनचुकड़ी कहा करती,लाइन से सजाती। यही पर आकर मुझे उनकी चिरौरी करनी पड़ जाती। मैं कहता- ये मां ने अकेले हमें दीयाबरनी थमा दिया है,अब अपने घरौंदे में इसे भी जगह दे दो। वो कहती कि अभी रुको,पहले बर्तन सज जाने दो। फिर वो साइड में लगा देती,मैं कहता बीच में रखो,वो मना करती। फिर उलाहने देती,तुम एतना सेंटिया काहे जाते हो इसको लेकर,तुम तो ऐसा करने लगते हो कि ये सही मे तुम्हारी पत्नी है,एक बार मां ने कह क्या दिया कि एकदम से पगला जा रहे हो। मैं सचमुच इमोशनल हो जाता। मैं तब तक दीदियों के आगे-पीछे करता,जब तक वो उसे मेरे बन मुताबिक जगह न दे दे। लेकिन एक बात है कि रात में जब दीयाबरनी के सिर पर तीन रखे दीए को जलाते तो दीदी कहती- तुमरी दीयाबरनिया तो बड़ी फब रही है छोटे। देखो तो पीयर ब्लॉउज रोशनी में कैसे चमचमा रहा है,सच में बियाह कर लायो इसको क्या छोटू? दीदी के साथ उसकी सहेलियां होतीं औऱ साथ में उसकी छोटी बहन भी। मैं उसे देखता और फिर शर्माता,मुस्कराता। दीदी कहती-देखो तो कैसे लखैरा जैसा मुस्करा रहा है,भीतरिया खचड़ा है और फिर पुचकारने लग जाती। रक्षाबंधन से कहीं ज्यादा आज के दिन दीदी लोगों का प्यार मिलता। रात में सिर पर रखे दीया के जलने से सुबह तक तेल की धार और बाती की कालिख से दीयाबरनी की शक्ल बिगड़ जाती। वो एकदम से थकी-हारी सी विद्रूप लगने लग जाती। मैं तो अपनी दीयाबरनी की इस शक्ल को देखकर एक-दो बार रोया भी हूं,एक दो-बार इसे दीदी के घरौंदे में रखा भी नहीं है कि खराब न हो जाए। दीदी के घरौंदे में रखने की शर्त होती कि हम इसे मुंह देखने के लिए नहीं रखेंगे,अगर तुम इसे हमारे यहां रखना चाहते हो तो इसके सिर पर के रखे दीयों को जलाना ही होगा। दीयाबरनी को लेकर दीदी और मेरे बीच जो संवाद होते थे,आज वो मेरी शादी को लेकर लड़की चुनने के मामले में मजाक-मजाक में ही सही आ जाते हैं कि सिर्फ शक्ल पर मत चले जाना,थोड़ा घर का काम-काज भी करे। इतना रगड़कर घर से बाहर रहकर पढ़-लिख रहे हो तो कम से कम शादी के बाद तो सुख मिले। दीयाबरनी का दीया जलाएं तो ठीक नहीं तो वो दीदी के लिए सिर्फ डाह की चीज होती। कई घरों में ननद और भोजाई को लेकर ऐेसे ही संबंध हैं। दीवाली के बाद हम विद्रूप दीयाबरनी को मां के हवाले कर देते। मां उसे लक्ष्मी-गणेश की पुरानी मूर्ति के साथ नदी में प्रवाह कर आती। मैं स्कूल न खुलने के समय तक उदास रहता,प्रेम औऱ संवेदना को लेकर जितने भी भाव उठते वो इस दीयाबरनी के चारो और छल्ले बनकर घिर जाते। फिर निक्की,सुरेखा,साक्षी,प्रियंका की बातों में खो जाता औऱ दीयाबरनी की बात भूल जाता। दीयाबरनी के कोरी रह जाने पर भी पागलों-सा उसे अपने साथ लिए फिरता और दिनभर में दस बार हाथ से फिसलने से थोड़ी सी नाक-थोड़ा चेहरा टूट जाता। दीदी लोग मजे लेती- क्या छोटू,बहुरिया का नाक-मुंह काहे तोड़ दिए हो,एकदम से और साथ की सहेलियों के साथ जोर से ठहाके लगाती। मैं उससे बहुत छोटा होने की वजह से कुछ भी नहीं समझ पाता। शुरुआती दौर में मां जो दीयाबरनी लाती वो अब के मिलनेवाली दीयाबरनियों से अलग होता। उसकी चुनरी का रंग अलग होता,ब्लॉउज का अलग,चेहरा ऐसा कि एक बार देख लें तो किस करने का मन करे,बहुत छोटी-सी बिंदी,बहुत ही सलोना सा मुखड़ा। अब खुशी के लिए जो दीयाबरनी लाती है,वो उपर से लेकर नीचे तक एक ही रंग की होती है-पूरी गुलाबी,पूरी लाल,पूरी पीली या फिर पूरी स्लेटी रंग की। इक्का-दुक्का मिल जाए कई रंगों में तो अलग बात है। आज की दीयाबरनियों को देखकर लगता है कि बाजार के दबाब में,हड़बड़ी में,मिट्टी के लोंदे को उठाकर एक रंग में रंग दिया गया हो,कोई यूनिकनेस नहीं,आत्मिक रुप से कोई जुड़ाव नहीं बनता और जिसे देखकर अब के लौंडे बौराएंगे क्या सात साल के अंकुर ने कहा कि ये मेरी मौसी है। ये अलग बात है कि इसी दीयाबरनी को याद करते हुए आज मैंने फेसबुक पर लिखा- दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी।.* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091017/b4a5b047/attachment-0001.html From invite+mqknabaa at facebookmail.com Sun Oct 18 11:21:54 2009 From: invite+mqknabaa at facebookmail.com (Neelima Chauahn) Date: Sat, 17 Oct 2009 22:51:54 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Check out my photos on Facebook Message-ID: <994e86bdf0c69bbc67b8a467a2ab51ba@localhost.localdomain> Hi deewan at sarai.net, I set up a Facebook profile where I can post my pictures, videos and events and I want to add you as a friend so you can see it. First, you need to join Facebook! Once you join, you can also create your own profile. Thanks, Neelima To sign up for Facebook, follow the link below: http://www.facebook.com/p.php?i=100000401932547&k=Z6E3Y5S2TW4EZFCJVA6ZVQQ2Q6BAZXW1QUIX&r Already have an account? 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091017/c0116f66/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Oct 19 01:30:25 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 19 Oct 2009 01:30:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWH4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KS24KS+4KSv4KSw4KWA?= Message-ID: <6a32f8f0910181300y57b8ae0fh749920f6c8fba52e@mail.gmail.com> *शेरोशायरी का मजा ले, न मन करे तो छोड़ दें।* सुबह-सबेरे एक व्यक्ति को अलग-अलग समय इस पंक्ति को दोहराते-तिहराते सुना। कुछेक घंटे बाद अपन ने भी तोता पाठ जारी किया। शाम क्या, रात तक चला। नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती। मगर जब याद आते हैं तो अकसर याद आते हैं।। -हसरत मोहानी कितना अच्छा होता शहर में दिवाली (दीपावली) की शाम शेरोशायरी से होती। देर रात उसी में डूबी रहती। पर यहां तो धूम-धड़ाके से शाम बीती। फिर रात चढ़ी और उसी में डूबी। सबेरा धूएं में घिरा रहा। यानी पर्यावरण की ऐसी की तैसी। तब फिराक की यह पंक्ति याद आई। मजहब कोई लोटाले और उसकी जगह दे दे। तहजीब सलीक़े की, इन्सान क़रीने के।। - फिराक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091019/8c37a958/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Oct 19 10:22:03 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 19 Oct 2009 10:22:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSk4KWN4KS4?= =?utf-8?b?4KS1IOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg4KSG4KSH4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkneCkvuCkguCkleClhyDgpKbgpYLgpLDgpKbgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KS24KSo?= Message-ID: <829019b0910182152i30e9b747t9937819c37301b53@mail.gmail.com> *उत्सव के बहाने आइने में झांके दूरदर्शन* (*मूलतः समाचार-विचार पाक्षिक प्रथम प्रवक्ता 1 नवंबर में मामूली फेरबदल के साथ प्रकाशित*) सामाजिक प्रतिबद्धता के सवालों के साथ खड़े होने का दावा करनेवाले किसी भी देश के टेलीविजन के लिए पचास साल पूरे कर लेना कोई आसान काम नहीं है। आज अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत ने अपने टेलीविजन चैनल दूरदर्शन के पचास साल पूरे कर लिए हैं तो उसे इस बात का हक है कि वो इस मौके पर उत्सव मनाए,अपनी प्रासंगिकता को दोहराए और अपनी उपलब्धियों को देश और दुनिया के सामने रखे। वो इस बात का भी हकदार है कि देश की भाषा,संस्कृति,इतिहास-बोध,राजनीतिक समझ और आर्थिक पहलुओं के विस्तार में अपनी भूमिका को रेखांकित करे। लेकिन इन सबके साथ यह भी जरुरी है कि हम जैसे दर्शक जिसने कि दूरदर्शन के कार्यक्रमों के जरिए भाषाई-संस्कार,मानवीय संवेदना,बौद्धिक विकास और मनोरंजन की सहज और स्वस्थ दुनिया अपनाने और सहेजने की कोशिशें की वो किस हद तक हमें अपने से बांधे रख पाती है,इस पर भी नए सिरे से विमर्श शुरु हों। यह संभव है कि दर्शकों की ओर से किया जानेवाला यह विमर्श दूरदर्शन के उत्सवधर्मी महौल को खींचकर किसी दूसरे कोने में ले जाए लेकिन यही सबसे बेहतर समय है कि इसी बहाने हम पचास साल के टेलीविजन को अपने-अपने स्तर पर रिडिफाइन कर सकें। खबर के साथ खेल > शाहबानो कांड के 'तीन बार तलाक बोलने' का मामला हो या 'रूपकुंवर कांड',उस समय खबर पहुंचाने का दूरदर्शन एक मात्र दृश्य-श्रव्य माध्यम था। लेकिन दोनों खबर देर से आयी। शाहबानो पर 'न्यूज लाइन' जैसे निजी कार्यक्रम में सिर्फ दस मिनट का कार्यक्रम आया। जबकि यह महज सूचना का मसला नहीं रह गया था। अखबारों में इस पर ढ़ेरों सामग्री लिखी जा रही थी। रूपकुंवर का कथित 'सती कांड'भी इसी तरह निपटाया गया। 4 सितंबर 1987 को यह घटना हुई। लेकिन काफी दिनों तक दूरदर्शन ने इसे खबर के लायक नहीं समझा। जबकि इस कांड के बाद तत्कालीन गृह राज्यमंत्री पीं.चिदंबरम और महिला कल्याण मंत्री मार्गरेट अल्वा का जयपुर दौरा हुआ था। दर्शक की हैसियत से दूरदर्शन को रिडिफाइन करने की कोशिश में एक बड़ी परेशानी हो सकती है कि हम अपने-अपने समय के दूरदर्शन में खोते चले जाएं। हमलोग,बुनियाद,नीम का पेड़, चित्रहार, रंगोली, शनिवार और रविवार के हिन्दी फीचर फिल्मों को याद करें और इस मुकाबले आज के निजी टेलीविजन चैनलों को कोसने लग जाएं। मूंछ उगने के दौर में सबके सो जाने पर भी डीडी मेट्रो से चिपके रहने को याद करने लगें और ओह..क्या जमाना रहा था वो भी... कहते हुए नास्टॉलजिक होते चले जाएं। ऐसा करना जितना स्वाभाविक है उतना ही दूरदर्शन के नाम पर एक अंतहीन संस्मरणों की दुनिया में खोते जाने का खतरा भी। इसलिए फिलहाल इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हुए विमर्श की शुरुआत दूरदर्शन की उन घोषणाओं से की जा सकती है जहां वह अपने को सामाजिक विकास के माध्यम के तौर पर स्थापित करने की बात करता है। अपने शुरुआती दौर से ही दूरदर्शन ने सूचना,शिक्षा और मनोरंजन को बतौर प्रमुख एजेंड़े के तौर पर शामिल किया है। समय-समय पर प्रसार-भारती की ओर से जारी किए जानेवाले बुकलेट इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस लिहाज से बचपन से लेकर अब तक के दूरदर्शन के कार्यक्रमों और गतिविधियों को याद करें तो ज्ञानवाणी से लेकर पत्रिका तक ऐसे दर्जनों कार्यक्रम जान पड़ते हैं जिससे इस एजेंड़े के लागू होने की झलक मिलती नजर आती है। जहां तक मनोरंजन का सवाल है तो हम सबने रविवार की सुबह रामायण और बाद में महाभारत के प्रसारण के चलते शहर भर की सड़कों के सूने हो जाने का आलम अपनी आंखों से देखा है। चित्रहार,फीचर फील्म और नीम का पेड़ के हिसाब से घर की महिलाओं को काम करने के टाइम-टेबुल को बदलते देखा है। भारतीय दर्शक समाज का पूरा का पूरा एक वर्ग रहा है जिसकी दिनचर्या एक हद तक दूरदर्शन के कार्यक्रमों के हिसाब से तय होती रही। इस दूरदर्शन की वजह से देश के कई गुमशुदा रिश्तेदार मिल जाया करते तो कई प्रतिभाओं को नया नाम मिला। इस दूरदर्शन का असर इतना कि सीरियल की कहानियां,फिल्मी गाने और संवाद तो छोड़िए, विज्ञापन की एक-एक लाइन तक याद हो जाया करते। क्या कुछ नहीं रहा दूरदर्शन में और इसके साथ ही हममें से कोई सवाल भी कर सकता है कि तो फिर आज क्या वजह है कि कभी दर्शक मन पर छाया रहनेवाला यह दूरदर्शन आज हमारे मनोरंजन की प्राथमिकता से बाहर है,खबरें जानने के माध्यम से जुदा है,बौद्धिक विकास का माध्यम मानने से हमे इन्कार है और और सामाजिक प्रतिबद्धता के मसले पर हम सवाल खड़े करने को तैयार हैं। प्रसार भारती की ओर से जारी किए जानेवाले बुलेटिन बताते हैं कि दूरदर्शन की पहुंच देश की कुल आबादी क्षेत्र का नब्बे फीसदी से भी ज्यादा है। यानी कि निजी चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन आज भी सबसे ज्यादा देखा जानेवाला चैनल है। ऐसा बताते हुए प्रसार भारती को दूरदर्शन की पहुंच से हटकर इस बात पर एक सर्वे कराने चाहिए कि देशभर में कितने ऐसे लोग हैं जहां मुफ्त में दूरदर्शन की पहुंच होने के वाबजूद भी डेढ़ सौ से चार सौ रुपये तक प्रतिमाह खर्च करके निजी चैनल देखते हैं। एक व्यावहारिक समझ बनती है कि जहां कहीं भी निजी चैनलों की पहुंच है वहां के लोग दूरदर्शन न के बराबर देखते हैं। इसे आप इस तरह से भी देख सकते हैं कि सबसे अधिक पहुंच होने पर भी दूरदर्शन सबसे ज्यादा नकारा जानेवाला चैनल है और उसके अधिकांश दर्शक मजबूरी की स्थिति में उसे देख रहे हैं। फिलहाल टीआरपी को मानक के तौर पर लें(हालांकि इसमें भी कई स्तरों पर खोट है) तो साफ है कि इसकी रेटिंग सात- आठ से उपर नहीं होती। यह स्थिति तब की है जब यह फ्री टू एयर है,डीटीएच सुविधा है,कई मैचों को दिखाने के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं,केबल ऑपरेटर को दूरदर्शन दिखाने की लगातार हिदायतें दी जाती है। इन सबके साथ आर्थिक तौर पर सरकार की ओर से करोड़ों रुपये की वित्तीय सहायता और प्रसारण के सर्वाधिकार दिए जाते है,नहीं तो यह साफ है कि व्यावसायिक दृष्टि से यह सबसे पिछड़ा चैनल रहा है। दूरदर्शन का उद्देश्य सामाजिक विकास और खबरों की प्रामाणिकता रही है, मुनाफा कमाने के पीछे इसका कभी भी ध्यान नहीं रहा है,इस तर्क के साथ हम जैसे दर्शकों ने लंबे समय तक दूरदर्शन को देखने-समझने की कोशिश की है। लेकिन कई सारे संदर्भ यह साफ करते हैं कि दूरदर्शन ने सामाजिक विकास की लीक को छोड़कर जब-तब व्यावसायिक तौर पर अपने को आजमाने की कोशिशें की। नहीं तो हमलोग और बुनियाद जैसे सीरियलों के संस्कार को लेकर चलनेवाले दूरदर्शन के लिए शांति,स्वाभिमान,वक्त की रफ्तार जैसे सीरियलों में ऐसे कौन से सामाजिक विकास के मसले थे जिसे कि वो लगातार प्रसारित करता रहा? पीटीआई की रिपोर्ट बताती है कि दूरदर्शन ने महज घाटे की भरपाई के लिए इस तरह के कार्यक्रमों को जारी रखा। डीडी मेट्रो इसी व्यावसायि समझ के तौर पर आया। दूरदर्शन की व्यावसायिक समझ और सामाजिक विकास को एक दूसरे को परस्पर विरोधी रुप में रखकर देखा गया नतीजा यह हुआ कि यह व्यासायिकता और सामाजिक विकास,खबरों की तटस्थता और व्यूरोक्रेसी, लेटलतीफी कार्य-संस्कृति, घसीटेपन और दर्शकों की बदलती अभिरुचि के बीच यह बुरी तरह फंसकर रह गया है। ऐसा होने से दर्शकों के बीच एक स्वाभाविक अभिरुचि पैदा करने की नैतिक जिम्मेवारी दूरदर्शन के उपर बनती है,उससे वह धीरे-धीरे करके मुकरता चला गया। इसलिए सालों स्वाभिमान जैसे मेलोड्रामा देखने के बाद दर्शक गुलजार के बनाए गोदान के महत्व को समझ नहीं पाती,फिल्मी चालू गानों के बीच शास्त्रीय संगीत महज औपचारिकता बनके रह जाता। यह अभिरुचि के छिन्न-भिन्न कर दिए जाने का ही नतीजा है कि निजी चैनलों के चिल्लम-पों से उब जाने के वाबजूद भी हम दूरदर्शन की शरण में जाना पसंद नहीं करते जबकि कभी कुछ न आने पर भी स्क्रीन पर पड़ी रंगीन पट्टियों पर ही नजर टिकाए रखते। दूसरे चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन के पास सबसे पहले ओबी वैन आयी,संचार क्रांति के साधन आए लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं। बहुत कम ही ऐसे मौके रहे जब वो मौजूदा सरकार के प्रति क्रिटिक हो पाया हो। खबरों की तटस्थता के नाम पर कई मसलों पर चुप्पी,दूरदर्शन के प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता को कम करती गयी। नतीजा हमारे सामने है कि एक स्वायत्त इकाई के तहत संचालित होने पर भी इस दूरदर्शन को ‘सरकारी भोंपू’ के तौर पर देखा जाने लगा है। दूरदर्शन के साथ एक बड़ी सुविधा है कि इसके पास सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर रहा है,सबसे पुरानी अर्काइव और नेटवर्किंग,ऐसे में वो देश का सबसे आजाद माध्यम बन सकता था लेकिन जब-तब के प्रयासों के वाबजूद ऐसा नहीं हो पाया। इसलिए आज हम जब दूरदर्शन के पचास साल होने पर आनंदित हो रहे हैं,इसे एक विरासत के तौर पर देख रहे हैं,ऐसे मौके पर दूरदर्शन की ओर से रची जानेवाली टेलीविजन संस्कृति को बार-बार झांकने की जरुरत है। यह समझने की जरुरत है कि सामाजिक माध्यम के तौर पर उसने लोकतंत्र की आवाज को कितना बुलंद किया है,हाशिए पर के समाज को कितनी जगह दी है और सरकारी चेहरा बनने से अपने को किस हद तक बचा पाया है? दूसरी तरफ स्वयं दूरदर्शन को भी इस एहसास के साथ आगे बढ़ने की जरुरत है कि वह सैंकड़ों चैनलों के तैनात रहनेवाले मैंदान के बीच खड़ा है,जहां हरेक चैनल सेग्मेंटेड ऑडिएंस की इच्छाओं को पूरा करने के लिए तत्पर है और उसे इन सबके बीच अपनी साख जमानी है। उत्सव के बहाने अपने को स्वयं परिभाषित करने और आत्म आलोचना के दौर से अगर दूरदर्शन नहीं गुजरता है तब वह सरकारी सहानुभूति का हिस्सा बनने के अलावे कुछ और नहीं हो सकता -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091019/f9bf01e2/attachment-0001.html From samvad.in at gmail.com Wed Oct 14 18:01:53 2009 From: samvad.in at gmail.com (alok shrivastav) Date: Wed, 14 Oct 2009 05:31:53 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <2e09e36a0910140531g50062a8fjad4df553709ea1c5@mail.gmail.com> Dear Friend This is a poem for my Poetry Collection "Dikhna Tum Sanj Tare Ko". Collection will be release in Dec, 2009 Alok -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091014/77ceadc3/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Poetry-alok-14 oct-09.pdf Type: application/pdf Size: 30604 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091014/77ceadc3/attachment-0001.pdf -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Cover_067.jpg Type: image/jpeg Size: 203886 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091014/77ceadc3/attachment-0001.jpg From dangijs at gmail.com Tue Oct 6 17:48:11 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Tue, 6 Oct 2009 08:18:11 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KS4IOCkleCliyDgpLbgpL/gpJXgpL7gpK/gpKQg4KSoIOCkleCksA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkpOCliyDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSV4KSw4KSk4KS+Pw==?= In-Reply-To: <1662afad0910031239i4cfff470jaa124a46c72706bd@mail.gmail.com> References: <1662afad0910031239i4cfff470jaa124a46c72706bd@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0910060518h3a0a2920j65686015c08ca9d4@mail.gmail.com> Dear Sir, Please visit the link:- http://nukkadh.blogspot.com/2009/10/blog-post_04.html --- Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm From dangijs at gmail.com Tue Oct 13 16:46:24 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Tue, 13 Oct 2009 16:46:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KS1?= =?utf-8?b?IOCkuOCkguCkuOCkvuCkp+CkqCDgpK7gpILgpKTgpY3gpLDgpL7gpLI=?= =?utf-8?b?4KSvIOCkleClhyDgpLjgpJrgpL/gpLUg4KSV4KWHIOCksOCkv+Cktg==?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWH4KSm4KS+4KSwIOCkleCliyDgpKzgpJrgpL7gpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCknOClgeCkn+ClhyDgpI/gpK4u4KSP4KSoLuCkrA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSa?= In-Reply-To: <1662afad0910130100n23b6e1dci8b6466e0105b6b18@mail.gmail.com> References: <1662afad0910130037u56469379ic9380c3dae945b76@mail.gmail.com> <1662afad0910130100n23b6e1dci8b6466e0105b6b18@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0910130416j47b4499fy9d2b4b0959d57934@mail.gmail.com> Namaste Sir, Please visit the link:- http://nukkadh.blogspot.com/2009/10/blog-post_6218.html पुलिस को शिकायत न करता तो क्या करता? http://nukkadh.blogspot.com/2009/10/blog-post_04.html -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm From samvad.in at gmail.com Mon Oct 19 13:11:04 2009 From: samvad.in at gmail.com (alok shrivastav) Date: Mon, 19 Oct 2009 00:41:04 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <2e09e36a0910190041k259ae5c9s46c69d70158cd921@mail.gmail.com> Pls See the Link http://mohallalive.com/2009/10/18/letter-from-janvadi-lekhak-sangh-maharashtra-unit/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091019/5c1f119b/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Oct 19 16:28:15 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 19 Oct 2009 16:28:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWLIOCkruClh+CkgiDgpKzgpLjgpKTgpL4g4KSP4KSVIOCktuCkuQ==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <200910191628.16891.ravikant@sarai.net> bahut barhiya Raveesh, maza aa gaya. vaise jis dilchasp nazariye kii talash kar rahe ho, vo mujhe haal mein Siddharth Choudhary ke upanyas Patna Roughcut mein milee. shukriya ravikant वीडियो में बसता एक शहर रवीश कुमार यू-ट्यूब के वीडियोगाह में आना-जाना कई तरह की फंतासियों से गुज़रना होता है। दिवाली की रात सर्च खांचे में पटना टाइप कर दिया। कई वीडियो निकल आए। इन्हें देख कर लगा कि पटना को भी नए सिरे से खोजा जा सकता है। पुरानी स्मृतियों या इन तस्वीरों में पटना बिल्कुल एक अलग शहर दि ख रहा है। बदलाव का शहर नहीं। सिर्फ देखने वाले की बदली हुई नज़र का शहर। कुछ वीडियो में पटना के टॉप एंगल शॉट लिये गए हैं। उन्हीं इमारतों की तस्वीरें ली गईं हैं जिनसे लगे कि पटना में ऊंची इमारतें हैं। वीडियो बनाने वाला लगता है कि किसी बड़े अमरीकी शहर में रह कर लौटा है और उसी से मिलती जुलती तस्वीरें खोज रहा है। पटना सिटी नाम के एक वीडियो में पटना के विभिन्न रंग रूप का कोलाज बना था। तस्वीरों को स्टि ल कर एडिटिंग की गई थी। पटना का पुराना सचिवालय,हनुमान मंदिर, स्टेशन की मस्जिद की छत से लिया गया टॉप एंगल शॉट, गोलघर, हाईकोर्ट, फ्रेज़र रोड। हर भरी सब्ज़ियों के बीच बैठा सब्ज़ी वाला, एक लड़की भीगती चली जा रही है, बांकीपुर क्लब, पटना कॉलेज, कृष्ण मेमोरियल, गांधी मैदान के पास गांधी म्यूज़ियम के गेट पर लगने वाला बेंत बाज़ार, गंगा का किनारा, पुल, अशोक राजपथ, बिस्कोमान भवन से कोलाज बन रहा है। बैकग्राउंड में बंदे मातरम का धुन और सबसे आखिर में विमान से उतरते वक्त खिड़की से ली गई तस्वीर। ज़रूर ये इस वीडियो की पहली तस्वीर रही होगी। कहीं बाहर से अच्छी नौकरी कर पटना लौटा होगा। हवाई जहाज़ से। विक्रमशिला एक्सप्रेस के थ्री टीयर में लदा कर गए कई लोग अब पटना राजधानी एक्सप्रेस या हवाई जहाज़ से लौटते हैं। कुछ लोगों ने राजधानी एक्सप्रैस के भी वीडियो बनाए हैं। इस पटना को देखकर मैं भी रोमांटिक हो गया। हर तरह से समस्याग्रस्त इस शहर से कितना प्यार रहा होगा वीडियो बनाने वाले को। जैसे ही पटना की कई तस्वीरों में दुर्गा पूजा की तस्वीर आईं, कुछ कौंध गया। जो शहर कभी महानगरों की जमात में शामिल होने के लायक नहीं समझा गया, बिगड़ी कानून व्यवस्था का लावारिस औलाद कहा जाता रहा,उससे इतनी मोहब्बत। कोई वजह रही होगी जि सके कारण ये वीडियोग्राफर पटना को फिर से देख रहे हैं। मैं यू-ट्यूब के वीडियोगाह में पटना टाइप करने लगा। मेरे डेस्कटॉप पर पटना का चलचित्र शुरू हो गया। जिस शहर को मैं अपनी स्मृतियों में ढूंढ रहा था, उसे वीडियो में साक्षात देखकर कितना रोमांचित हुआ बता नहीं सकता। एक वीडियो पर क्लिक करता हूं। अंग्रेजी में टाइटल है। Guys this is Patna, No matter what u people think, we dnt care,becoz patna is the best, देखो, ये पटना है, आप चाहें कुछ भी सोचें, हमें परवाह नहीं क्योंकि पटना ही बेस्ट है। अपनी ज़िंदगी में कामयाब हुए लोगों के ज़हन में पटना एक नाकामी की तरह मौजूद होगा। जिससे लड़ने के लिए वो इस तरह के वाक्य विन्यास रचते होंगे। वीडिया का टाइटल है- Take a look at Patna. ब्लैक एंड व्हाईट इफैक्ट दिया गया है। शुरू में घिसी हुई रील की लकीर हिलती डुलती है। फिर एक धुन बजता है और तस्वीरें बदलने लगती हैं। अंग्रेजी गाने का इस्तमाल किया गया है। take a look at me बज रहा है। चंदन नाम के किसी शख्स ने इस वीडियो को २००६ में बनाया है। तीन हज़ार से ज़्यादा लोगों ने देखा है। पटना विश्वविद्यालय का मैदान से सटा गलियारा आता है, फिर गोलघर,फिर पटना साहिब, हवाई अड्डा...अंग्रेजी गाने के साथ पटना की ये तस्वीरें किसी अमरीकी शहर में होने के अहसास से भर देती हैं। पटना को लेकर ग़ज़ब का गर्व उभरता है। एक जनाब अपनी टिप्पणी से पूरा ख्वाब तोड़ देते हैं। कहते हैं आप किसी शहर की तुलना क्यों करते हैं। अगर बुराई है तो लोग बुराई की बात करेंगे ही। आलोक की टिप्पणी है कि कई राज्यों में रहने के तज़ुर्बे के बाद मैं कह सकता हूं कि बिहारी लोग काफी मददगार होते हैं। एक दर्शक मज़ाक उड़ाता है कि आप इतने बैकवर्ड हो कि कलर कैमरा भी इस्तमाल नहीं कर सके। ब्लैक एंड व्हाईट में वीडियो मोटांज बनाया। बहस छिड़ जाती है। इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रॉब्लम को छोड़ कर पटना इन वीडियो में एक बदलता हुआ शहर है। वीडियो बनाने वाला पटना को लेकर क्रिटिकल नहीं है। तभी मुझसे एक भोजपुरी गाना क्लिक हो जाता है। छोटू छलिया गा रहा है। वीडियो अल्बम की नायि का लाल टी-शर्ट और नीले स्कर्ट में है। गाने का नाम है-साइकिल वाली। साइकिल वाली की टक्कर दूध वाले से हो जाती है। धोती कुर्ते में दूधवाला उस पर कमेंट करते हुए गाता है। उसे एक बिगड़ैल घर की लड़की बताता है और फिर उसके करीब आकर गाना गाने लगता है। हई बड़ घर के बिगड़ल बुझाली, सइकिलिया वाली। सटा के देह में जाली सइकिलिया वाली। धोती कुर्ता बनाम टॉप-स्कर्ट के बीच एक उलाहना टाइप का सांस्कृतिक विमर्श चलता है। तीन चार लफंगे किस्म के पटनहिया नौजवान डांस कर रहे हैं। डांस शैली को कोई पुरातत्ववेत्ता इस रूप में देख सकता है कि बॉलीवुडिया डांस स्टाइल के कुछ अवशेष आज भी पटनहिया नौजवानों के स्टेप्स में बचे हुए हैं। ये और बा त है ये स्टाइल सत्तर के दशक की डांस शैली और इक्कीसवीं सदी के स्टेप्स का मिश्रण लगता है। पूरा वीडियो किसी सरकारी दफ्तर के गार्डन में फिल्माया गया है। शहर नए पुराने से जूझ रहा है। इस गाने को दो लाख से ज़्यादा हिट्स मिले हैं। भोजपुरी गाने को इतना हिट्स बता रहा है कि इंटरनेट पर हर भाषा बोली के लोग अपनी संस्कृति ढूंढ रहे हैं। एक वीडियो है, पटना के डॉनबॉस्को स्कूल के फेयरवेल पार्टी की। लड़का-लड़की काफी करीब आकर मंच पर फिल्मी धुन पर डांस कर रहे हैं। गाना है भूल भूलैया। डांस कर रहे हैं बिकेस और रश्मि। इस तरह के वीडियो अब सार्वजनिक हो रहे हैं। पटना में ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो अपनी फेयरवेल की तस्वीरों को घर तो दूर मोहल्ले के दोस्तों को नहीं दिखा सके, जिसमें उनके क्लास की लड़की साड़ी पहने स्नो पाउडर लगाये बगल में खड़ी थी। अब पटना के लोग इस तरह के वीडियो दुनिया के सामने ला रहे हैं। लड़की नाच रही है, वो भी लड़के के साथ। बीस साल पहले के पटना में संभव नहीं था । शादी में अड़चनें पैदा हो जातीं। अब पटना भी दिखाने लगा है। खुद को। एक वीडियो में संगीत का आइटम है। अर्धेन्धु की बहन की शादी के मौके पर मंच पर लड़का लड़की दिल्ली स्टाइल में संगीत पर डांस कर रहे हैं। पटना की शादियों के लिए संगीत नया आइटम है। दिल्ली की शादियों और सीरी यलों से आ गया है। स्टेप्स को लेकर कोई हिचक नहीं है। कमर और सीना बिंदास अंदाज़ में हिल-डुल रहा है। नाते-रिश्तेदार बैठ कर देख रहे हैं। पुष्पांजलि के वीडियो का कई तरह से पाठ किया जा सकता है। वो अपने घर के भीतर कॉरिडोर में शा स्त्रीय नृत्य कर रही हैं। टेप रिकार्डर पर मेरे ढोलना सुन, प्यार की धुन बज रहा है। वीडियो में नृत्यांगना की तरह सजी धजी ये महिला पूरी अदाओं के साथ डांस कर रही है। कोई दोस्त होगा, पति हो सकता है या भाई भी। कैमरा बता रहा है कि घर में सिर्फ दो ही लोग है। एक नाच रही है और दूसरा रिकार्ड कर रहा है। निजी क्षण सार्वजिनक क्षणों की तरह होने लगे हैं। शर्म की बंदि शें घर के भीतर टूटने का अभ्यास कर रही हैं। स्पेस कम है। डांस स्टेप के रास्ते में सामने मोड़कर रखी एक कुर्सी आ जाती है। एक पुराना सोफा कम बेड स्पेस को संकुचित कर देता है। फिर भी गलियारे में डांस चल रहा है। दिल्ली बांबे के ख्वाब जवान हो रहे हैं। मुझे एक और वीडियो मिलता है। Two circles.net की बनाई एक लघु फिल्म। पटना के रिक्शेवाले की कहानी है। रिक्शावाला मुदस्सिर रिज़वान का इंटरव्यू है। सवाल आता है कहां रहते हैं। रिक्शेवाला कहता है लोदीपुर। मुदस्सिर अपनी कहानी बता रहे हैं। सौ रुपये कमा लेते हैं। दो बच्चे हैं जो स्कूल नहीं गए। शादी ब्याह में काम कर कमाते हैं। बुढ़ा हो रहा हूं तो अब रिक्शा कम चलता है। इस तरह कुछ और रिक्शेवालों का इंटरव्यू हैं। अलग-अलग ज़िलों से आए लोगों रिक्शा चलाने की कहानी बताते हैं। बता रहे हैं कि कैसे रिक्शा चलाने के धंधे में आ गए। पटना में रिक्शा और रिक्शावाला, शहर की अर्थव्यवस्था मापने के मीटर हैं। एक और वीडियो है। एमआईजी कंकड़बाग नाम से। एक मंज़िला इमारत। लाल बार्डर और सफेद दीवारें। कैमरा गेट से चलता है और बारामदे तक पहुंचता है। जहां ग्रील लगे हैं। पटना के घरों में ग्रील गेट के बाद सुरक्षा का दूसरा घेरा है। गेट के सामने सुधा डेयरी की नकल पर एक बोर्ड दिखता है। दूधा लि खा हुआ है। घर में घुसते ही कैमरा किसी बुज़ुर्ग की तस्वीर से पैन होता हुआ कई तरह के मेडल और शील्ड पर जा टिकता है। कोई कामयाब शख्स अपनी इन बुनियाद को गर्व के साथ कैमरे में उतार रहा है। देख कर यही लगता है। उसके बाद कंप्यूटर आता है। सजा कर रखा गया बिस्तर और झूला भी। वो अपने घर और कमरे को ऐसे देख रहा है जैसे उसका अतीत भी कम शाही नहीं रहा है। इन वीडियो में आप पटना के नए मानस को देख सकते हैं। जिस शहर के लोग कभी अपने घर को बाहर से इस डर से नहीं रंगते थे कि कोई समझ न ले कि लूट का माल है और डाका न पड़ जाए, उस शहर के लो ग वीडियो बना कर अपने कमरों तक की तस्वीरें सार्वजनिक कर रहे हैं। इसी तरह शहर के कई हिस्सों पर आपको वीडियो मिल जायेंगे। कुम्हरार, क्राइस्ट चर्च, पटना म्यूज़ि यम, गांधी म्यूज़ियम, महात्मा गांधी सेतु, खुदा बख्श लाइब्रेरी, अगम कुआं,शीतला मंदिर। Patna Rockers नाम से एक वीडियो क्लिप निकलता है। चार दोस्त एसयूवी कार में मस्ती करते हुए कहीं जा रहे हैं। बंबईया गाने में मस्त। ड्राइविंग सीट पर हीरो टाइप एक लड़का ब्लैक चश्में झूम रहा है। पीछे की सीट पर चार दोस्त अक्षय कुमार स्टाइल में डांस कर रहे हैं। इस शहर में आज भी दोस्ती करने और निभाने के कई मौके मौजूद हैं। इन वीडियो में पटना की साझा संस्कृति खूब दिखती है। महावीर मंदिर, पटना साहिब से लेकर मो हर्रम तक की रिकार्ड की गईं तस्वीरें। बहत्तर ताबूत,गुलज़ार बाग पटना शिया अज़ादारी नाम का एक वीडियो क्लिप मिलता है। हज़ारों लोगों की भीड़ है। भीड़ में कई लोग अपने मोबाइल फोन में तस्वीरें उतार रहे हैं। पटना का यह वीडियो संस्करण दिलचस्प है। एक शहर इन तस्वीरों के माध्यम से अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। शहर की तस्वीरें कैमरे की मदद से जब मोंटाज में बदलती हैं तो अचानक मेरे भीतर पटना दौड़ने लगता है। यू-ट्यूब के वीडियोगाह में पटना इस तरह से मौजूद होगा इसका तो बि ल्कुल अनुमान नहीं था। इन वीडियों में फिल्मकार और शहर एक दूसरे से कोई रिश्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उस हीन भावना से भी निकलने की कोशिश लगती है जो उन्हें ऊंची महफिलों में पता चलते ही किनारे कर देती होगी। पिछले बीस सालों में बिहार बदहाल हुआ है तो यहां से निकले लोगों ने कई शहरों में अपनी कामयाब ज़िंदगी बनाई है। वो अब नई पहचान चाहते हैं। एक ऐसा शहर चाहते हैं जिसे वो दुनिया के सामने रख सकें। जिस पटना को खारिज कर दिल्ली से मैनहटन गए,उस पटना में मैनहटन को ढूंढ रहे हैं। उधर जो पटना में रह गए हैं वो चुपचाप अपने आप को फिल्मा रहे हैं। शायद इन तस्वीरों को अपलोड कर अपनी दुनिया को विस्तार दे रहे हैं। अपने घरों को फिल्मा कर बता रहे हैं कि कंप्यूटर उनके पास भी हैं। दिल्ली मुंबई में भले ही बेहद अमीर लोग कोठियों में रहते होंगे लेकिन पटना में उनकी एक कोठी है। जड़ से पेड़ निकलता है तो पेड़ उसी जड़ पर आ टिकता है। एक संतुलन तो चाहिए। लेकिन यह क्रांति सिर्फ पटना तक ही सीमित नहीं है। यू-ट्यूब के वीडियोगाह में मोतिहारी टाइप कर दिया। लो वोल्टेज का बल्ब जल रहा है। मच्छरदानी के नीचे मां बैठी है। बेटा मां का हाल चाल पूछ रहा है और मोबाइल कैमरे से रिकार्ड कर रहा है। ए माई, दवाई खईले ह। चप्पलवा पहिर न। मां शर्मा रही है। सामने कैमरे की मौजूदगी ने उसे कांशस कर दिया है। तभी फ्रेम में भौजी आ जाती हैं। जैसे ही कैमरा उनकी तरफ मुड़ता है वो आंचल से अपना मुंह ढंक लेती है। शर्म से दोहरी हो जाती हैं और खुद को सिकोड़ने लगती है। कैमरा बेईमान ज़रा भी मुरव्वत नहीं करता है। यू-ट्यूब में बिहार है तो वही लेकिन लगता मज़ेदार है। From avinashonly at gmail.com Tue Oct 20 10:44:21 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 20 Oct 2009 10:44:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWCLeCknw==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWC4KSsIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWIIOCkpOCliyDgpLXgpLngpYAsIOCksuClh+CkleCkv+CkqCDgpLI=?= =?utf-8?b?4KSX4KSk4KS+IOCkruCknOCkvOClh+CkpuCkvuCksCDgpLngpYg=?= Message-ID: <85de31b90910192214o6a984950tdf3368ad14c06a89@mail.gmail.com> plz read once again http://mohallalive.com/2009/10/20/ravish-writeup-on-youtube-and-patna/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091020/04e84b75/attachment.html From avinashonly at gmail.com Tue Oct 20 10:44:21 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 20 Oct 2009 10:44:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWCLeCknw==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWC4KSsIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWIIOCkpOCliyDgpLXgpLngpYAsIOCksuClh+CkleCkv+CkqCDgpLI=?= =?utf-8?b?4KSX4KSk4KS+IOCkruCknOCkvOClh+CkpuCkvuCksCDgpLngpYg=?= Message-ID: <85de31b90910192214o6a984950tdf3368ad14c06a89@mail.gmail.com> plz read once again http://mohallalive.com/2009/10/20/ravish-writeup-on-youtube-and-patna/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091020/04e84b75/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Oct 20 12:35:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 20 Oct 2009 12:35:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KWM4KSm4KS5IOCkleClgCDgpLngpYHgpIgg4KSm4KS/4KSy4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KWHIOCkpuClgeCksuCljeCkueCkqOCkv+Ckr+CkvuCkgg==?= Message-ID: <829019b0910200005k6ba6c9f3p593653d9dca0ab38@mail.gmail.com> डीडीडीएलएज यानी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे,मां के साथ देखी गयी मेरी आखिरी फिल्म। आज इस फिल्म के रिलीज हुए चौदह साल हो गए। इस फिल्म के बहाने अगर हम पिछले चौदह साल को देखना-समझना चाहें तो कितना कुछ बदल गया,कितनी यादें,कितनी बातें,बस यों समझिए कि अपने सीने में संस्मरणों का एक पूरा का पूरा पैकेज दबाए इस दिल्ली शहर में जद्दोजहद की जिंदगी खेप रहे हैं। पर्सनली इसे मैं अपनी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट मानता हूं। मां के साथ देखी गयी ये आखिरी फिल्म थी जिसे कि मैंने रत्तीभर भी इन्ज्वॉय नहीं किया। आमतौर पर जिस भी सिनेमा को मैंने मां के साथ देखा उसमें सिनेमा के कथानक से सटकर ही मां के साथ के संस्मरण एक-दूसरे के समानांतर याद आते हैं। कई बार तो मां के साथ की यादें इतनी हावी हो जाया करतीं हैं कि सिनेमा की कहानी धुंधली पड़ जाती है लेकिन डीडीएलजे के साथ मामला दूसरा ही बनता है। इतनी अच्छी फिल्म जिसे कि मैंने बाद में महसूस किया,मां के साथ देखने के दौरान मैंने तब तीन बार कहा था-चलो न मां,बुरी तरह चट रहे हैं। वो बार-बार कहती कि अब एतना तरद्दुत करके,पैसा लगाके आए हैं त बीच में कैसे उठ के चल जाएं और जब शंभूआ को पता चलेगा कि चाची के चक्कर में टिकट के लिए बुशट फडवा दिए और उ है कि बीचै में चल आई उठकर त क्या सोचेगा,बढ़िया नय लग रहा है त आंख मूंदकर सुस्ता लो हीये पर? सिनेमा में सिमरन और राज के बीच टूर के दौरान जो भी लीला-कीर्तन हो रहा था,ये सब मां को भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन उसके बाद वो ऐसे रम गयी कि एक बार मेरी तरफ ताकना भी जरुरी नहीं समझा। हम थे कि कूदकर सिनेमा हॉल से भागना चाह रहे थे। हमारे लिए ये सिनेमा जले पर नमक छिड़कने जैसा था जिसकी जलन को मां के शब्दों में परपराना कहते हैं। सिनेमा रिलीज होने के दो दिन पहले हमलोग सात दिनों की ट्रिप से झारखंड के अलग-अलग जगहों से घूमकर वापस लौटे थे। पूरे स्कूली जीवन में मेरी ये पहली और आखिरी ट्रिप थी। इसके पहले भी बाकी लोग गए थे लेकिन मैं नहीं गया था। सबने हमें मनाया कि तुम्हें चलना ही होगा,तुम रहोगे तो टीचर लोग भी मान जाएंगे। बोर्ड परीक्षा के पहले स्कूल में ही प्रीबोर्ड की परीक्षा खत्म हुई थी। उसके बाद हमलोगों ने टीचरों को ठेल-ठेलकर कहा था कि सर अब तो हमलोग हमेशा के लिए आपलोगों से अलग हो रहे हैं,हमारी क्यों न हमलोग कुछ दिनों के लिए साथ बाहर घूमने जाएं? लेकिन टीचरों के पहले हमें क्लास की लड़कियों को सेंटी करना था जो कि आसान काम नहीं था। शुरुआत मैंने ही की-अब कौन किससे मिलेगा वर्षा,मोनालिसा,शैली,मनीषा,कनिका,सुजाता..अपनी यादें बनी रहे,चलो न एक बार।.और वैसे भी तुमलोग साइंस पढोगी,संभव है एक ही जगह जाओ लेकिन मुझे तो आर्ट्स की पढ़ाई करनी है,लिटरेचर,समझ रही हो न। फिर हमलोगों ने एक-दूसरे की गर्लफ्रैंड को कन्विंस करना शुरु किया। देखो-राजकमल के साथ ये तुम्हारा आखिरी मौका है,चल लो न। फिर पता नहीं तुम पटना और वो कोटा। मामला जम गया। अब बारी टीचरों की थी जिसका जिम्मा कन्विंस हो चुकी लड़कियों पर था। चलिए न मैम,इतने सारे लड़कों के बीच हमलोग सेप फी नहीं करेंगे.. सर,प्लीज और अंत में चार मैम के मान जाने पर सात टीचर भी मान गए। सात दिनों तक हमलोग क्लास की 18 लड़कियों और 27 लड़कों एक साथ रहे। साथ में घूमना,एक-दूसरे पर कमेंट करना। पहली बार किसी लड़की का हाथ पकड़कर बनफुटकुन खोजने के बहाने झाडियों में घुसे,पहली बार चलते-चलते किसी के शू-शू आने पर कहां,हम यहां खड़े हैं कोई नहीं आएगा..जाओ कहा। पहली बार किसी लड़की के हाथ छू जाने से झुरझुरी होती है महसूस किया। पहली बार ये बयान सुना कि किस करते समय लड़कियां आंखें इसलिए बंद कर लेती है कि वो सुंदर चीजें देखना पसंद नहीं करती। टीनएज की कई बेतुकी बातें,लड़कियों से दूसरों के बहाने अपने मन की बातें धर देने की कला,सबकी आजमाइश इन सात दिनों में हमने की।जिस लड़की को हमारा दोस्त पसंद करता उसके सामने तारीफों के पुल बांध देना कि फलां तो जीनियस है,मैंने केमेस्ट्री तो श्रवण के नोट्स पढ़कर समझा है,अतुल की इंग्लिश है माइ गॉड। मामला एकतरफा ही था इसलिए हमें किसी भी लड़की की तारीफ करने की जरुरत महसूस नहीं हुई। हम जैसे कुछ लोग फ्लोटेड आशिक थे जो कि आजमा रहे थे कि कहां मामला सेट हो सकता है इसलिए औरों के मुकाबले ज्यादा चौकस रहते। कसप,बसंती,सूरज का सातवां घोड़ा,गुनाहो का देवता,पचपन खंभे लाल दीवारों के चरित्रों के टुकड़े को जहां से मन किया वहां उठाकर इन सात दिनों में जीना शुरु कर दिया लेकिन तब हमें कहां पता था कि हमारा ये जीना हिन्दी के महान उपन्यासों का क्रफ्ट का हिस्सा है। सात दिनों के बाद जब हम अपने शहर बिहारशरीफ लौटे तो ऐसा लग रहा था कि हम सबों के भीतर से कुछ निकालकर करुणाबाग वाले चौराहे पर लाकर पटक दिया हो। तीन बजे रात हम अपने एक दोस्त के घर रुक गए और फिर अगले दिन से लेकर चार दिनों तक बस ट्रिप की ही चर्चा करते रहे. किसी को भी पढञाई में मन नहीं लग रहा था,सब खोए-खोए से,न भूख लगती,न प्यास। मां कहती- हमको जैसे ही पता चला कि लड़की लोग भी जा रही है तबहीए समझ गए थे कि हुआं से जब लौटेगा तो सनककर लौटेगा। मेरे दोस्त दिनभर में चार बार मेरे घर का चक्कर लगाते- आंटी विनीत है,मां कहती-आजकल घर में रहता कहां है? कुछ काम था? वो कहता-नहीं बस मन नहीं लग रहा था सो चले आए? मां भड़क जाती,दू महीना बाद बोर्ड परीक्षा है औ तुम सबको नय मन लगने का बेमारी एके साथ लग गया है,उसका भी नय मन लग रहा था त सुजीत के यहां गया है? हम इन दिनों जब भी मिलते,कभी पढ़ाई की बातें नहीं करते। हम सारे सातों-आठों दोस्त जो कि जुबानी थ्योरम प्रूव करते,अब एक-दूसरे से सवाल करते- बता न विद्या-हम कैसे क्या करें,कैसे शिल्पी को बताएं कि तुम्हारे बिना मर जाएंगे। बोल न ज्ञान-उसके बाप को जब पता चलेगा कि राजपूत लड़का से हमरी बेटी का चक्कर है तो उसको हलाल नहीं कर देगा? बोलती है कि आइआइटी निकाल लोगे तो सोचेंगे तुम्हारे बारे-अब हम कैसे एश्योर करें। हमने तय किया था कि ट्रिप से लौटकर सेट्स बनाएंगे लेकिन छ दिन हो गए,हमने किताब को हाथ तक नहीं लगाया। सबों के घर के लोग परेशान थे कि इन पढ़ने-लिखनेवाले लड़के को क्या हो गया? सबसे ज्यादा हैरानी मुझे लेकर थी,घरवालों को और दोस्तों को भी। वो कहते कि स्साला तुझे तो किसी पर्टिकुलर लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है फिर हमलोगों के सात काहे सेंटिया रहे हो? घरवाले उस लड़की के बारे में जानना चाहते लेकिन अपना तो केस ही अलग था। मैं एक ही साथ पांच-छ लड़कियों के साथ बिताए गए अलग-अलग लम्हों को याद करता,झुमरी तिलैया के बस स्टॉप पर सबसे हटकर ऑमलेट खाना,सैनिक स्कूल में जब दुनिया अस्तबल देख रही थी तो हमने कहा कि सबके सब लड़बहेर हैं,आओ इधर बैठते हैं,मैम और टीचर के बीच का..स्टिंग ऑपरेशन सब याद आता। दीदी लोग कहती-चलो,तुम्हारी इस हालत पर पापा को कोई एतराज नहीं है,अच्छा है यही हाल रहा तो फेल तो हो ही जाओगे और पापा को समझाने की भी जरुरत नहीं रहेगी कि बाप के साथ दूकान में बैठने के अलावे जवान होते बेटे के लिए और दूसरा कोई पुण्य काम नहीं है। सच में नानीघर से लौटते हुए जब पापा बिचली अड़ान के पास मिले तो हुलसकर बोले,स्कूल में रिजल्ट टंग गया है-सुजीत बता रहा था कि तुम्हारा पास होनेवाले में कहीं नाम ही नहीं है,जाओ बेग रखो और दूकान पर आ जाना,कुछ जरुरी बात करनी है। मेरे बाकी के दोस्त कहते-तुम्हारा क्या आर्ट्स पढ़ोगे बेटे,केतना भी नंबर आए,काम बन जाएगा। उपर से लड़कियों की झुंड रहेगी,ट्रिप का रहा-सहा कसर वहां पूरा हो जाएगा,फटेगी तो हम सबकी,साइंस नहीं मिला तो फिर कहीं के नहीं रहेंगे। मेरी इसी हालत को देखकर मां हमें सिनेमा दिखाने ले गयी थी। उसे पता था कि सिनेमा का असर इस पर इतना ज्यादा होता है कि बाकी की चीजें अपने-आप भूल जाएगा। दिलचस्प है कि मां इस सिनेमा को ये समझकर देखने गयी थी कि इसमें अरेंज मैरिज को आदर्श बताया जाएगा। वो दुल्हनिया को समझ पायी लेकिन दिलवाले शब्द को इग्नोर कर गयी। मैं इस सिनेमा से अपने को जोड़ नहीं पाया। बस दो लाइन ही याद रह गयी- तूझे देखा तो ये जाना सनम,प्यार होता है दीवाना सनम। अब इधर से किधर जाएं हम,तेरी बांहों में मर जाएं हम।..मौके वे मौके हम इस लाइन को घर में दुहराते और दीदी लोग मजे लेती-दुलहन मांगे दहेज,अरे नहीं दुल्हा मांगे दुल्हनियां हा हा हा हा ... मूड बदलने के लिए मेरी मां ने जिस दिलवाले दुल्हनियां का सहारा लिया था,मेरे दोस्तों को भी एक घड़ी के लिए वही सहारा नजर आया। तय किया गया कि जब सब अधकपारी के शिकार हुए हैं तो काहे नहीं सब एक साथ ही इलाज कराएं। मां से सिनेमा जाने के पैसे मांगे तो बिना कुछ कहे पचास का नोट पकड़ा दिया,उसे अफसोस हो रहा था कि मेरे साथ देखते समय बाहर निकलना चाह रहा था लेकिन खुश भी थी कि चलो इसी बहाने कुछ सुमति जगे। अबकी बार हम सिनेमा से पूरी तरह बंध गए। एक-एक सीन जैसे फातमा डॉक्टर की दवाई की फक्की के तौर पर लगने लगा। संवाद,सिचुएशन,गानों से ऐसे जुड़े कि लगा कि हमारे सात दिनों की बितायी जिंदगी को किसी ने छुप-छुपकर देखा है और फिर उसे कैमरे में कैद कर लिया है। सिमरन की विदेश में ट्रेन छूटी थी और गुंजा की कोडरमा के दीपक होटल के पास छूटते-छूटते बची। एकदम डीटो सीन। हम सबों को लड़कियों का बाप अमरीश पुरी जैसा लगता जो कबूतरों को दाना तो खिलाता लेकिन हमें देखते ही भड़क जाता,इस गली में दुबारा न दिखने की सख्त हिदायत देता। आप ही सोचिए न किसी भी मोहल्ले में एक ही साथ आठ-दस लड़के साइकिल से चक्कर काटने लगें तो लड़की के बाप पर क्या गुजरेगी? हम उस कल्पना में खो गए कि काश गुंजा की बस मिस हो जाती और हम एक-दो दिन रुककर तिलैया पहुंचते,अपने मन की बात कहते। हम उस गाने को सीमा,शिप्रा से जोड़कर देखते- जरा-सा झूम लूं मैं,अरे न रे बाबा न,जरा सा घूम लूं मैं..अरे न रे बाबा न,आ तूझे चूम लूं मैं अरे न रे बाबा न। वो भी तो ऐसे ही मना करती थी और कहती-अभी हमारी ये सब करने की उम्र नहीं है। सिनेमा देखने के दौरान हमें अपने सात दिन की ट्रिप भूल जानी चाहिए थी लेकिन एक-एक सीन के साथ वो कुछ इस तरह से जुड़ गयी जैसे लड़कियों के झीने कपड़े से सब कुछ झांक न जाए तो उसी रंग के स्तर लगा दिए जाते हैं। डीडीएलजे हमारी मनःस्थिति के साथ उस स्तर की तरह काम किया। दूसरी बार इस फिल्म को देखने का असर हुआ कि हम ट्रिप के साथ सिनेमाई हो गए और जो पल हमने बिताए उसे सिनेमा से जोड़कर देखने लगे। जिन वास्तविक क्षणों को जीकर मरे जा रहे थे उस पर अब कल्पना की लेप चढ़ाने लग गए कि अगर सिमरन की तरह गुंजा भी वेलकम वाला घंटा खरीदती तो, अगर मेरे भी बाबूजी अनुपम खेर जैसा बड़ा दिल रखते तो,अगर सबकी मां सिमरन की मां जैसी होती तो...इस तो के असर में हम सिनेमाई तरीके से ज्यादा सोचने लग गए और अपने सात दिनों को धुंधला करते चले गए,इस उम्मीद में कि स्साला जब अमरीश पुरी जैसे आदमी का दिल पसीज जाता है तो फिर ये शिल्पी,शिप्रा,मोना,सीमा के बाप की क्या औकात है और फिर एक बार आइआइटी निकल जाए,प्रीमेडिकल में हो जाए तो घर आएगा गिड़गिड़ाने। इस स्तर पर मैं अब भी दीन-हीन था कि आर्ट्स पढ़कर क्या कर लेंगे? लेकिन यकीन मानिए कि सिमरन और राज की कहानी के बीच हमारी सात दिन की कहानी कुछ ऐसे गड्डमड्ड हो गयी कि हम इसे एक फैंटेसी का हिस्सा मानकर भूलने लग गए। वैसे भी सिनेमा देखने के तीन दिनों बाद जब हम नानीघर के लिए रवाना हुए तब हम उस महौल से लगभग बाहर हो गए। इधर बाजार में हर पांच में से तीन लड़की सिमरन सूट पहने घूम रही थी,जाड़े में भी भाई लोग धूप चश्मा लगाए फिर रहे थे,जो लौंडें भौजी बोलकर लड़कियों पर कमेंट पास करते रहे,अब हे सैनोरिटा बोलकर ठहाके लगाते। आती हुई लड़कियों को देखकर कहते,अरे तेरी कि देख..देख सिमरन आ रही है। चौडे मुंह और मोटे तलबे वाले जूते से बाजार पट गयी थी। बिसेसरा की दूकान पर अलग-अलग पोज में सिमरान और राज की प्रेम कहानी के पोस्टर अठ-अठ आना में धडल्ले से बिकने लग गए थे। इसी समय नानी ने लौटते समय मेरी बहन के लिए सिमरन सूट भिजवाए थे जिसे कि मां ने किसी को शादी में दौरा पर भेज दी थी। किसान सिनेमा के पर्दे पर तब ये फिल्म दोबारा लगी रही,जब हमने बोर्ड की परीक्षा दे दी,इंटरमीडिएट के लिए पटना कॉलेज का चक्कर लगाया और अंत में रांची जाने पर मुहर लग गयी। पैर छूते वक्त पापा ने मुंह फेर लिया था,मां ने बिलखकर कलेजे से लगाकर लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की प्रार्थना की थी। रिक्शा पर सामान लादे,सर्फ एक्सेल में फ्री में मिली बाल्टी को बिहारशरीफ से रांची ले जाते हुए जब मैं किसान सिनेमा की ओर से गुजर रहा था..तब ये मेरे बचपन का शहर हमेशा के लिए छूट रहा था,मां छूट रही थी,पापा तो एकदम से छूट रहे थे,दोस्तों का साथ छूट रहा था, शिप्रा ,मोना,शिल्पी,वर्षा,स्वीटी सब छूट रही थी,मैं रोने-रोने को हो रहा था जबकि पोस्टर का राज हमसे बार-बार कहता..हे हे हे हे..हमारी फिल्में देखनेवाले बच्चे कभी रोते नहीं,आगे बढ़ते हैं,पास होते हैं और डियर बुरा मत मानना लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की तुम्हारी मां ने बहुत गलत सलाह दी,मेरी खातिर उसे इग्नोर कर जाना,समझे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091020/8ff4a3f3/attachment-0001.html From abhaytri at gmail.com Tue Oct 20 14:00:10 2009 From: abhaytri at gmail.com (Abhay Tiwari) Date: Tue, 20 Oct 2009 14:00:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSm4KWN4KSt4KWB4KSkIOCksuClh+CkluCklSDgpLjgpYcg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?4KS/4KSa4KSv?= In-Reply-To: <829019b0910200005k6ba6c9f3p593653d9dca0ab38@mail.gmail.com> References: <829019b0910200005k6ba6c9f3p593653d9dca0ab38@mail.gmail.com> Message-ID: 20.10.09 एक अद्भुत लेखक से परिचय ऑरहे लुइस बोर्ग़्हेस* का रचना संसार एक ऐसा विद्वतापूर्ण जटिल और सघन दलदल जिसमें आप उतरने से क़तरा सकते हैं। पहले वाक्य से ही वो आप को डरा सकता हैं आतंकित कर सकता है अनजाने नामों, सन्दर्भों और लोकों से। लेकिन उस साहसी पाठक के लिए जो न घबराया- न डरा, ये कहानियां बौद्धिक आनन्द का उम्दा ईनाम है। बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं। आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है। बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया। बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय। उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है। मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं। बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे लेकिन चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही काम आप पांच मिनट में आप मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय। पेन्गिव ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे। *Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहे-बोरहे बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modgiliani को हम मोदहिलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091020/08ba2638/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Wed Oct 21 17:43:59 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 21 Oct 2009 17:43:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSw4KSq?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWH4KSfIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS54KS/4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkpuClh+CktiDgpJXgpYAg4KSG4KSuIOCknOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkleClhyDgpLjgpILgpLngpL7gpLAg4KSV4KWAIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSc4KSo4KS+IOCksOCli+CkleClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30910210513l5171aebfmf670ab918b4445a7@mail.gmail.com> हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों. *अरुंधति रॉय**, **लेखिका व अन्य पूरा पढिये. * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091021/f2759a88/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Oct 21 17:43:59 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 21 Oct 2009 17:43:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSw4KSq?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWH4KSfIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS54KS/4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkpuClh+CktiDgpJXgpYAg4KSG4KSuIOCknOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkleClhyDgpLjgpILgpLngpL7gpLAg4KSV4KWAIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSc4KSo4KS+IOCksOCli+CkleClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30910210513l5171aebfmf670ab918b4445a7@mail.gmail.com> हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों. *अरुंधति रॉय**, **लेखिका व अन्य पूरा पढिये. * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091021/f2759a88/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Oct 22 10:49:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 22 Oct 2009 10:49:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSyIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS24KSt4KSwIOCkleClhyDgpKzgpY3gpLLgpYngpJfgpLDgpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCkvizgpIfgpLLgpL7gpLngpL7gpKzgpL7gpKYg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkueCli+Ckl+CkviDgpLjgpILgpJfgpK4=?= Message-ID: <829019b0910212219uc68175dya310b08ed01de79a@mail.gmail.com> हम जैसे हजारों ब्लॉगर जो कि महीनों-सालों से कीबोर्ड पर किचिर-पिचिर करते आ रहे हैं, जो कि बौद्धिक समाज के लिए लेखन के नाम पर गंध फैलाने का काम है, आज उसे देश के एक अकादमिक संस्थान ने हिंदी की सेवा करने का नाम दिया है। कल से इलाहाबाद में महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय विश्वविद्यालय की ओर से हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया पर आयोजित दो दिनों की (23-24 अक्टूबर) होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी का मेल के जरिये जो हमें न्योता मिला है, उसमें लिखा एक वाक्य है कि – इस आयोजन की सफलता ब्‍लॉग लेखन के माध्यम से हिंदी की सेवा कर रहे आप जैसे सक्रिय चिट्ठाकारों की सहभागिता पर निर्भर करती है। इस एक लाइन को पढ़कर थोड़ा इमोशनल हो गया और कुछ लाइनें लिख मारी है। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें- वैसे तो मेरी तरह हिंदी ब्लॉग समाज का शायद ही कोई ब्लॉगर हो जो कि अपने ऊपर किसी भी तरह के धर्मार्थ का लेबल लगाये जाने का मोहताज रहा है, इस मुगालते में जी रहा हो कि दिनभर खटने के बाद घंटे-आध घंटे के लिए जो कीबोर्ड खटखटाने का काम कर रहा है, उसके बूते उसे हिंदीसेवी होने का तमगा मिल जाए लेकिन हमारे इस काम को अगर कोई सेवा का नाम दे रहा है तो इसे हम घलुए में मिली हुई चीज़ मानकर थोड़ी देर के लिए तो ज़रूर खुश हो सकते हैं। सच कहूं, हम अब भी यही मानते हैं कि हमने कभी भी इस एजेंडे के तहत नहीं लिखना शुरू किया कि हम कोई सेवा का काम करने जा रहे हैं। बल्कि हमने तो सिर्फ इसलिए लिखना शुरू किया कि लिखते नहीं तो और क्या करते? मूंछ उगने के बाद से सात-आठ साल तक साहित्य और मीडिया के जरिये जिन भावों, शब्दों, अनुभूतियों और स्थितियों को जाना-समझा, उसे कहां फेंक आते। जिस बात को कभी मजाक में कहता रहा कि कब तक हम दूसरों का लिखा पढ़ते रहेंगे, उसे आज शिद्दत से महसूस करता हूं। हिंदी में रहकर सिर्फ लिख कर तो लेखक होने से रहे। फिर हम जैसे लफुआ की बात को छापनेवाला कौन सा कोई प्रकाशक मिल जाएगा? न्यूज रूम में हमारे साथ जो भी हुआ, अभावग्रस्त बचपन, नकारे हुए टीन एज और पानी खाती जाती जवानी जो बाकी साथियों के साथ अब भी जारी है, उसकी भड़ास लिखकर नहीं निकालते तो और क्या करते। अपने को नैतिक न भी मानें तो हम उस हैसियत तक कब तक पहुंचते कि रंगीन पानी पीकर बकना शुरू कर देते और फिर उस पर बौद्धिकता का मुलम्‍मा चढ़ाने में कामायाब हो जाते, हम कब उतना बड़ा कद हासिल करते कि नामी बनिया का मैल भी बिकता है के तहत लिखे जानेवाले साहित्य को अनर्गल करार देते। यकीन मानिए, तब तक तो हम बुढ़ा जाते। इसलिए हमने कभी भी कागजों पर अपनी हिस्सेदारी की मांग नहीं की। अलाय-बलाय (उल्टी-सीधी) लिख-छापकर नामचीन लोग महान होने के दावे करते रहे, हमने कभी भी उसका प्रतिकार नहीं किया। हम उनके महान होने में कभी भी अड़चन बनकर सामने नहीं आये। हमने बस इतना किया कि किसी तरह से काट-कपटकर पैसे जमा किये, लिखने का औज़ार ख़रीदा और अब पान-बीड़ी की लत न पालकर, मुंह में लेई लगाकर महीने में सात सौ-आठ सौ रुपये इंटरनेट का बिल भर रहे हैं और अपने एक-एक एहसासों को कंप्‍यूटर की कुंजियों पर पटकते जा रहे हैं। इसे आप हमारी कुंठा कहिए, फ्रस्ट्रेशन कहिए, बौड़ाहापन कहिए… जो जी में आये कहिए, न जी में आये मत कहिए। ब्लॉगिंग करते हुए हमने कभी नहीं सोचा कि हम कोई गंभीर काम कर रहे हैं। वैसे भी अपने छुटपन को याद करना, मां की यादों में नास्टॉल्जिक हो जाना, हिंदी समाज पर लिखना और फिर जूते खाना, मीडिया संस्थानों की कमज़ोर नब्ज पर लिखकर धमकियां झेलना, ऑफिस में आप बलत्कार करते हैं या फिर सुहागरात मनाते हैं – पुरुष समाज से एक स्त्री का सवाल करना और प्राइम टाइम में आनेवाले एंकर का टेलीविजन को खुद ही गोबर का पहाड़ बताना… ये सब बौद्धिक समाज के लिए कब से गंभीर काम होने लगा? हमारे भाषाई स्तर के बेहयापन (जिसे कि अभी-अभी चैट बॉक्स पर अजय ब्रह्मात्मज ने कहा कि हम दो जुबान के लोग नहीं है, लिखने और बोलने के अलग-अलग) ने हमें बौद्धिक समाज के आगे और नीचा गिरा दिया। हमने चपर-चपर करना नहीं छोड़ा और सभ्य कहलाने से रह गये। हम भाषा के स्तर पर मोहल्लेपन के शिकार हो गये। हम चौराहे पर की जुबान में लिखने लग गये, इसलिए उनके बीच लील लिये गये। अब हवन जैसे पवित्र काम में जसधारी लोग एक-एक मुठ्ठी होम डालते हैं, वैसे ही सब कूड़ा है सब कूड़ा है कहते हुए इस समाज ने हमारे ऊपर लानते-मलानतें डाली। हम और कूड़ा लिखने लग गये। इस भाषाई कूड़ापन के बीच हमारे अनुभव, तेवर, समझ, खरा-खरा और सच्चापन दब गये। एक शब्द और वाक्य को पकड़कर ऐसे बैठ गये कि करतल ध्वनि से हमें वाहियात, बेकार, बकवास करार देने में बहुत अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी। लेकिन, जब आयोजकों की ओर से हमें प्रस्तावित विषय भेजे गये तो हमें ही नहीं शायद औरों को भी ताज्जुब हो रहा होगा कि क्या हमने रोज़मर्रा की किचिर-पिचिर के बीच सोचने और विचार करने के इतने संदर्भ बिंदु पैदा कर दिये? यक़ीन न हो तो आप ही देखिए न कि किस तरह से ये प्रस्तावित विषय सूची इस बात का इशारा करती है कि देश के औसत समझ के पढ़े-लिखे लोगों ने सिर्फ पांच-छह सालों में विमर्श के इतने आधार खड़े कर दिये कि इस पर महीनों बहस चल सकती है। 1. हिंदी चिट्ठाकारी : इतिहास, स्वरूप और तकनीक 2. अंतर्जाल पर हिंदी भाषा : कुशल प्रयोग के औजार, ब्‍लॉग बनाने की तकनीक और प्रबंधन 3. हिंदी चिट्ठाकारी पर बहस के मुद्दे 4. चिट्ठाकारी की भाषा बनाम संप्रेषणीयता 5. अंतर्जाल पर हिंदी साहित्य और पठनीयता 6. चिट्ठाकारी : समय प्रबंधन एवं उपादेयता 7. अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता एवं इसमें निहित खतरे 8. ब्‍लॉग जगत के कुंठासुर/बेनामी या छद्मनामी टिप्पणीकार। और अंत में, देर रात संतोष भदौरिया ने फोन करके बताया कि हमने टिकट मेल कर दी है, तो अपने उतावलेपन का शिकार होते हुए पूछ बैठा – और कौन-कौन आ रहे हैं सर? वो प्रदेश के क्रम से गिनाने लग गये। दिल्ली से अविनाश, मसिजीवी, यशवंत, समरेंद्र, रियाज़ुल हक़, इरफान, भोपाल से मनीषा पांडे, मुंबई से यूनुस खान, कानपुर से अनूप शुक्ल… तभी मैंने कहा – रुकिए सर मैं एक-एक करके नोट करता हूं। तब उन्होंने इस वायदे के साथ कि कल वो ऑफिस पहुंचते ही पूरी सूची मेल करेंगे, कहा कि हम चाहते हैं कि पूरी बातचीत बिना किसी औपचारिकता के हो। अभी-अभी पोस्ट लिखते समय जानकारी मिली है कि इस चिट्ठाकारी की दुनिया पर विमर्श के लिए नामवर सिंह स्टार एपियरेंस के तौर पर मौजूद होंगे। हम इस संकेत को किस रूप में लें कि अकादमिक संस्थान भी अगर ब्लॉग पर विमर्श के लिए अपने को तैयार कर रहा है और वो भी बिना औपचारिक हुए तो इसका मतलब ये है कि वो हिंदी में ज्ञान पैदा करने के लिए ब्लॉगिंग को अनिवार्य मानने लग गया है या फिर अब तक हमने जो कुछ लिखा उसे सामूहिक तौर पर मथकर वैचारिकी की एक नयी दुनिया की तलाश करना चाहता है… क्या ये इस बात का संकेत है कि आनेवाले समय में ज्ञान की खिड़कियां इनफॉर्मल राइटिंग और बौद्धिक चिंतन के बीच में जाकर खुलेगी और पढ़ने-पढ़ाने का एक नये किस्म का फ्यूजन वर्ल्ड पैदा होगा। आप क्या सोचते हैं, कुछ हमें भी तो बताएं। मूलतः प्रकाशित- मोहल्लालाइव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091022/5dfe11bf/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu Oct 22 12:08:30 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 22 Oct 2009 12:08:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSyIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS24KSt4KSwIOCkleClhyDgpKzgpY3gpLLgpYngpJfgpLDgpYvgpIIg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+ICwg4KSH4KSy4KS+4KS54KS+4KSs4KS+4KSmIOCkruClh+CkgiA=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSX4KS+IOCkuOCkguCkl+Ckrg==?= In-Reply-To: <829019b0910212219uc68175dya310b08ed01de79a@mail.gmail.com> References: <829019b0910212219uc68175dya310b08ed01de79a@mail.gmail.com> Message-ID: <200910221208.31143.ravikant@sarai.net> विनीत एवम अन्य साथियो, चिट्ठाकारी के कुंभ के सफल होने की शुभकामनाएँ, उम्मीद है कि आप हमेशा की तरह वहाँ की बातचीत का स्वाद हमें चखाते रहेंगे. विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि नामवर जी वहाँ पहले से मौजूद हैं, किसी और काम से, और आयोजक इसीलिए उनको भी बुला रहे हैं, वे ख़ुद इस बारे में बहुत संकोच कर रहे हैं, जो कि उन्हें करना चाहिए ही. लिहाज़ा इस मामले को न तो ज़्यादा तूल देने की ज़रूरत है, न ही चिट्ठा-जगत और हिन्दी साहित्य के बीच संबंधों के इतिहास में कोई क्रांतिकारी मोड़ देखने की आवश्यकता है. भई क्या चाहिए चिटठाकारों को अब? हिन्दी बौद्धिकता की दैनिक पाराकाष्ठा पर बैठा अख़बार जनसत्ता जब नियमित रूप से उन्हें छाप रहा है, तो अब किस पहचान की ज़रूरत बाक़ी बचती है. हाँ, दूसरे सवाल जो तुम्हारी पोस्ट में उठाए गए हैं, उनपर हम सबको सोचना चाहिए, और अपनी दुनकानदारियों से परे जाकर, तभी मज़ा आएगा. जो लोग वहाँ जुट रहे हैं, उनसे काफ़ी उम्मीद बँधती है, क्योंकि वे चिट्ठे की रोज़ाना रियाज़त से जुड़े लोग हैं. सो, मंगल कामनाओं के साथ रविकान्त गुरुवार 22 अक्टूबर 2009 10:49 को, vineet kumar ने लिखा था: > s1600-h/blogging.jpg> हम जैसे हजारों ब्लॉगर जो कि महीनों-सालों से कीबोर्ड पर > किचिर-पिचिर करते आ रहे हैं, जो कि बौद्धिक समाज के लिए लेखन के नाम पर गंध > फैलाने का काम है, आज उसे देश के एक अकादमिक संस्थान ने हिंदी की सेवा करने का > नाम दिया है। कल से इलाहाबाद में महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय विश्वविद्यालय > की ओर से हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया पर आयोजित दो दिनों की (23-24 अक्टूबर) > होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी का मेल के जरिये जो हमें न्योता मिला है, उसमें > लिखा एक वाक्य है कि – इस आयोजन की सफलता ब्‍लॉग लेखन के माध्यम से हिंदी की > सेवा कर रहे आप जैसे सक्रिय चिट्ठाकारों की सहभागिता पर निर्भर करती है। इस एक > लाइन को पढ़कर थोड़ा इमोशनल हो गया और कुछ लाइनें लिख मारी है। आप भी पढ़ें और > अपनी राय दें- > > वै From ravikant at sarai.net Thu Oct 22 12:59:44 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 22 Oct 2009 12:59:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS84KWI4KSX?= =?utf-8?b?4KS84KSuIOCkh+CkruCkvuCkriDgpJXgpYcg4KSm4KWL4KSc4KS84KSW4KS8?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpKrgpLngpLLgpYAg4KSq4KWN4KSw4KSk4KS/4KSV4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+4KSP4KSB?= Message-ID: <200910221259.46308.ravikant@sarai.net>  दोस्तो, ज़ैग़म इमाम का पहला उपन्यास दो साल से ऊपर के लंबे इतज़ार के बाद आख़िर छपके आ ही गया. वे जितने बेसब्र थे, राजकमल वाले उतने ही ढीले. पर कहावत दुहराने की इच्छा होती है, देर आयद दुरुस्त आयद! एक हिन्दुआए हुए क़स्बाई किशोर मुसलमान अल्लन के इर्द-गिर्द घूमती यह कहानी अपनी तर्ज़े-बयानी में काफ़ी रवाँ है, आप पढ़ना शुरू करते हैं तो एक साँस में ख़ुद को पूरा पढ़वा लेती है. इसके कच्चे-पक्के पर निहायत ईमानदार किरदार आपको बड़े विश्वसनीय और अपने लगते हैं. ज़बान में अविश्वसनीयता की हद को छूती, लगभग धोखेबाज़ी करती सहलता है. विन्यास में द्रश्यों का वर्णन नहीं, घटनाओं का आवेग है, अंदर और बाहर घटती घटनाएँ, जिनसे अपनी समझ व औक़ात के हिसाब से जूझते पात्र हैं. पर ये घटनाएँ किसी राष्ट्रीय या अंतार्राष्ट्रीय स्तर की नहीं है, इनमें से ज़्यादा तर रोज़मर्रा के जीवन की घटनाएँ हैं, कुछ तो पात्रों के हाथों ही सिरजी हुई. पर बहुत कुछ ऐसा है जो आपको बाँधे रखती है, और कभी-कभार चकित भी कर जाती है. बहरहाल इसे पढ.कर बहुत मुतास्सि र हुआ मैं ज़ैग़म की क़िस्सागोई से, और मैं मानकर चलता हूँ कि भविष्य में वे और बड़ी कलात्मक ऊँचाइयाँ छुएँगे. नीचे पेश है, मेरी ही तरह अभिभूत एक पाठिका, मोनिका, का पत्र, ज़ैग़म के नाम. रविकान्त कल एक ख्वाब था जैगम !    सच कहते हो. . पर दोज़ख केवल सच और सच ही है ..... " ए अल्लन ...." किताब का पहला शब्द मुझपे अपनी एक अलग ही छाप छोड़ जाता है .... अल्लन उर्फ़ अलीम अहमद नाम अपने आप में एक चरित्र है.. अल्लन का कस्बा , उसके अब्बा की छोटी सी दूकान.. उसके दोस्त मनोजवा, मुखुवा, उसका स्कूल... घर के सामने के मंदिर और उसके पुजारी से अल्लन का लगाव... सब कुछ अपने आप में इतना पूर्ण और सत्य लगता है की कहानी के बहाव की कल्पना भी इनके बिना नहीं की जा सकती... कट्टर मजहबी पिता का बेटा अल्लन जिसे काफिरों (हिंदुओं) के सारे मंत्र याद हैं ... पर एक सूरा भी पूरी तरह याद नहीं जिसके अब्बा को लगता है की उसे इस वजह से दोज़ख जरूर मिलेगा... अल्लन को बनारस से बेहद लागाव  है. और गंगा .. गंगा तो जैसे उसे अपनी और खींचती है हर पर.. राजघाट पुल से गुजरते हुए.. रामनगर में ननिहाल की गंगा .. वो अपने को रोक नहीं पाता ... उसकी अम्मा कहती है वो एक दिन जरूर डूब जायेगा ... अब्बा कहते हैं वो दोजख में जाएगा.. पर वो तो जैसे गंगा के लिए ही बना है... अल्लन की अम्मा पूरे कथानक का सशक्त चरित्र जिनको इतनी अच्छी तरह से लिखा गया है की अम्मा हर वक्त आंखों के सामने नज़र आती हैं ... अल्लन को खाना खिलाते हुए.. उसे मज़हबी बातें समझाते हुए.. उसके गीले हुए तोशक को धुप में सुखाते हुए... अल्लन के इम्तिहान होते हैं तो अम्मा को भी नींद नहीं आती... वो एक पर्दा नशीं आम औरत नज़र आती हैं शुरू में .. एक वफादार बीवी .. जिनके लिए उनका शौहर उनके बच्चे ही सब हैं.. ऐसी औरत जो मुझे अपने आस पास के हर परिवार में नज़र आती है.... यही आम औरत मुझे बेहद ख़ास लगाने लगती है जब वो घर के जीवन यापन के लिए कमर कस लेती है... जब झाडू लगाते वक्त परदा रखने वाली अम्मा दूकान का रूख करती हैं तो अपने आप में स्त्री शक्ति का एक उदाहारण लगती हैं मुझे.... अल्लन को अपनी अम्मा से बेहद लगाव है.. उसके जीवन के धुरी अम्मा ही हैं.. उनकी दुआ... उनकी बातें  ... अल्लन के चरित्र पर एक अलग  प्रभाव छोड़ती हैं... अल्लन का मनोविज्ञान बेहद सुलझे हुए सरल रूप में सामने आता है.... उसे क्रिकेट , पतंग उडाने , लट्टू नचाने का बेहद शौक है... वह अब्बा की दूकान से पैसे भी चुराता है... और सब्जी लाने के हिसाब में हेर फेर भी करता है.. और कम उम्र में उसे हर उस बात में दिलचस्पी है जो उसे उम्र के पहले ही काफी जानकारियां दे देती हैं औरत मर्द के सबंधों के बारे में.. हालांकि उसे कुछ  बातें अजीब और गंदी भी लगती हैं पर एक तरह का मनोरंजन भी शामिल है उसमे... इन सबके बीच उसे अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास है... अपनी पढाई में बिलकुल कोताहील  नहीं बरतता ... उसे भी अपने बड़े भाई आलम की तरह सफल होना है.. पर वो उनकी तरह अपने अम्मा अब्बू को छोड़ के नहीं जाएगा.. इसका यकीन वो अपनी अम्मा को बार बार दिलाता है और उनसे वादा भी करता है.. अब्बा की तबियत खराब होने पर वो दूकान पर भी बैठता है.... इन सबके बीच आती है नीलू ..अल्लन के बचपन की साथी.. बचपन और यौवन के बीच दोनों फिर टकराते हैं  .... नए एहसासों के साथ.. अल्लन को लगता है उसे प्रेम हो गया है फिल्मों जैसा.. नीलू उसे बेचैन करती है.. उसे मिलने.. उसे पाने की कशमकश में वो शंकर जी पूजा भी करने लग जाता है.. पर उसे कभी कुछ कह नहीं पाटा.. नीलू भी सब समझती है.. और नए यौवन के सारे रंग उसमे झलकते हैं.. पर इन सब के बीच नीलू की शादी तय हो जाती है.. और अल्लन यहीं से बड़ा होने लगता है... और उसकी बेचैनी उसका तनाव.. धीरे धीरे उसे बदल देता है... नीलू का प्रसंग मुझे लगता है हम सब में कहीं ना कहीं जरूर छुपा है.. रेगिस्तान के नीले फूल जैसी है नीलू.. अब अल्लन बड़ा हो रहा है    उसने दसंवी पास कर ली है.. उसे अब दूकान पे बैठने पे शर्म आती है.. उसे खेलने से ज्यादा दिलचस्पी स्टेशन पर गुजरती ट्रेनों को देखनें में हैं ... अब वो मठ वाले पुजारी के पास भी नहीं जाता .. बनारस से उसका मोह भी कम हो चुका है.. इस बीच उसके नाना की मौत हो जाती है और बेहद करीब से वो सब देखता है.. कब्र से उसे डर लगता है.. बेहद डर वो अपनी अम्मी को कई बार कह चुका है की मरने के बाद उसे कब्र में ना दफनाया जायए.. फिर एक दिन अम्मा चल बसती हैं... अल्लन की तो जैसे दुनिया ही उजड़ जाती है.. आलम भाई लौटते हैं कुछ दिनों बाद.. अब्बा को तसल्ली देने को.. पर अल्लन को उनका लौटना गवारा नहीं उसका विद्रोह देख.. आलम फिर चले जाते हैं .. और अब्बा पूरी तरह टूट जाते हैं .. इन सबके बीच भी वो अब्बा को एक बार फिर याद दिला देता है की वो अगर मर जाए तो उसे दफनाया ना जाए .. अब्बा की बेरुखी अल्लन से बर्दाशत नहीं होती उसे,,, अम्मा के पास जाना है.. और वो चला जाता है गंगा मैया की गोद में समाने.. अपनी अम्मा से मिलने,,.. अब्बा को अल्लन मिला है बी एच यू के मुर्दाघर में उसका सपना पूरा हो गया है.. वो बी एच यु पहुंच  गया है... कट्टर मौलवी साहब .. अल्लन के अब्बा .. आखिर बेटे की आख़िरी ख्वाहिश कैसे ना मानते.. अल्लन का डाह संस्कार बनारस के मनिकंका घाट पर... और उसकी भस्म गंगा की गोद में.. घर लौटते वक्त हाशिम साहब बची हुयी एक मुट्ठी राख अम्मा की कब्र में दफना देते हैं .." संभालो अपने अल्लन को.. हम नहीं संभाल पाए .." मेरे अंदर कहीं कुछ टूट जाता है.. मेरी आंखे गीली हैं .. हाशिम साहब अपनी ग्लानी से बाहर नहीं आ पाते.. उन्होंने अपने बेटे को दोज़ख के हवाले कर दिया.. वो चुपचाप मौत की और बढ़ रहे हैं.. और एक दिन वो भी चले जाते हैं अल्लन और उसकी अम्मा के पास,.. सब जैसे थम गया है.. पर अब भी कुछ अधूरा लगता है मुझे.. कुछ तो बाकी हैं कहीं.. लम्बी सांस ले के मैं फिर पढ़ना शुरू करती हैं.. आलम फिर लौटते हैं अपने बीवी बच्चे के साथ.. आलम खाली घर में पुरानी यादों में घिरे हैं .. मुझे लगता है आलम और अल्लन में कोई फर्क नहीं है.. आलम को अब्बा का ख़त मिलता है जो उसे ही लिखा गया है./.. अब्बा ने अपने आख़िरी दिनों में.. अल्लन पहले शख्श हैं जिसे पता चलता है की अल्लन अब नहीं रहा.. उसे जला कर गंगा को समर्पित कर दिया गया.. आलम यादों में घिरे हैं .. बेहोश और बीमार .. और बीवी वापस जाने को तत्पर.. अपना हिस्सा बेचकर जाना है.. पर आलम की गोद में उसका बेटा है.. और उसके शब्द हमारे बेटे के लिए अल्लन नाम कैसा रहेगा.. मेरा अल्लन अलीम अहमद .. और कहानी ख़तम.. नहीं फिर शुरू हो जाती है.. मैं पिछले कुछ मिनटों ए सिर्फ रो रही हूँ .. एक बार फिर पड़ती हूँ आखिर के कुछ पन्ने.. पूरे उपन्यास का हर एक पात्र .. गुडिया.. अल्लादीन... रसूल मियां.. मामू जान.. हाजी साहब .. जगहें राम नगर , बनारस.. सकलादीह ..    ठेठ भाषा .. खडी बोली .. सब कथानक को एक सम्पूर्णता प्रदान करते हैं .. शुक्रिया जैगम.. मुझे हर पल बस यही लगा मैं तुम्हें ही सुन रही हूँ .. जीवंत कथा .. मेरे आंखों में मेरे जेहन में चलती है.. एक शब्द भी ऐसा नहीं था जिस पर तुम्हारी छाप नहीं थी..     ऐसा तुम ही लिख सकते हो.. सरल पर.. शब्द बाण.. शुक्रिया.. From vineetdu at gmail.com Thu Oct 22 15:45:47 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 22 Oct 2009 15:45:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkuOClhyDgpK3gpYfgpJzgpYAg4KSX4KSv4KWA?= =?utf-8?b?IOCkrOCljeCksuCkvuCkl+CksOCljeCkuCDgpLjgpYLgpJrgpYA=?= Message-ID: <829019b0910220315j3cb3ba87v51c5ccd70941c753@mail.gmail.com> महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की ओर से हिन्दी चिठ्ठाकारी की दुनिया पर दो दिनों की आयोजित(अक्टू 23-24)की जानेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होनेवाले ब्लॉगरों की सूची इलाहाबाद के आयोजकों की ओर से भेजी गयी है। ये सूची फोटो फार्मेट में है जिसे कि समय की कमी की वजह से हम स्कैन करके लगा दे रहे हैं। मेरी इच्छा थी की सभी ब्लॉगरों के ब्लॉग लिंक भी साथ में डाल दें ताकि आप एक नजर में उनके ब्लॉग को भी देख सकें। लेकिन हमें खुद भी पैकिंग करनी है और समय भी कम है इसलिए माफ करेंगे,हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इंटरनेट ने साथ दिया तो हम इलाहाबाद से ही लाइव ब्लॉगिंग करते रहेंगे जिससे कि आपको वहां होनेवाले विमर्शों की खबर तत्काल मिलती रहे।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091022/f283ee4d/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Oct 22 16:09:11 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 22 Oct 2009 16:09:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS44KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClgeCkpuCljeCkpuCkviDgpLngpL/gpILgpLjgpL4g4KSV4KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgiwg4KSo4KWN4KSv4KS+4KSvIOCklOCksCDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSn4KS/4KSV4KS+4KSw4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLngpYggOiDgpKE=?= =?utf-8?b?4KWA4KSP4KS44KSv4KWC?= Message-ID: <363092e30910220339n7a90f98et8ebbcea9839792fd@mail.gmail.com> लगता है कि सत्ता जनता को रद्द करके उसके खिलाफ युद्ध की घोषणा कर रही है। कहने की ज़रूरत नहीं की यह युद्ध सिर्फ़ माओवादियों के खिलाफ ही नहींलड़ा जाएगा, बल्कि यह जनवाद, आज़ादी, आन्दोलन की स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, नारीवाद-हर तरह के विकारों और आन्दोलनों के खिलाफ बहरत की सेना उतारी जा रही है। यह युद्ध देश में ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता, तानाशाही को और मज़बूत करेगा और किसी भी तरह के प्रतिरोध के लिए स्पेस ख़त्म कर देगा. हाशिया इस मुद्दे पर विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों का नजरिया आमंत्रित करता है. इस सिलसिले में हमने कात्यायनी की अपील देखी, अब प्रस्तुत है जेएनयू में डीएसयू द्वारा वितरित पर्चे के कुछ अंश। असली मुद्दा हिंसा का नहीं, न्याय और अधिकारों का है -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091022/e9db76a4/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Thu Oct 22 16:17:24 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Thu, 22 Oct 2009 16:17:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkuOClhyDgpK3gpYfgpJzgpYAg4KSX4KSv4KWA?= =?utf-8?b?IOCkrOCljeCksuCkvuCkl+CksOCljeCkuCDgpLjgpYLgpJrgpYA=?= In-Reply-To: <829019b0910220315j3cb3ba87v51c5ccd70941c753@mail.gmail.com> References: <829019b0910220315j3cb3ba87v51c5ccd70941c753@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0910220347r144b56c4xe3628c638a8a908b@mail.gmail.com> शुक्रिया विनीत बिल्‍कुल इंतजार रहेगा लाइव रिपोर्टिंग का. लिस्‍ट देखकर तो गुदगुदी हो रही है. शुभकामनाएं राकेश 2009/10/22 vineet kumar > > > > > > > महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की ओर से हिन्दी चिठ्ठाकारी की > दुनिया पर दो दिनों की आयोजित(अक्टू 23-24)की जानेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी > में शामिल होनेवाले ब्लॉगरों की सूची इलाहाबाद के आयोजकों की ओर से भेजी गयी > है। ये सूची फोटो फार्मेट में है जिसे कि समय की कमी की वजह से हम स्कैन करके > लगा दे रहे हैं। मेरी इच्छा थी की सभी ब्लॉगरों के ब्लॉग लिंक भी साथ में डाल > दें ताकि आप एक नजर में उनके ब्लॉग को भी देख सकें। लेकिन हमें खुद भी पैकिंग > करनी है और समय भी कम है इसलिए माफ करेंगे,हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इंटरनेट > ने साथ दिया तो हम इलाहाबाद से ही लाइव ब्लॉगिंग करते रहेंगे जिससे कि आपको > वहां होनेवाले विमर्शों की खबर तत्काल मिलती रहे।. > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Media Researcher & Content Editor Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091022/d2b6a021/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Oct 24 03:20:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 24 Oct 2009 03:20:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkruClh+CkgiDgpKzgpY3gpLLgpYngpJcg4KSu?= =?utf-8?b?4KSC4KSl4KSoIOCktuClgeCksOClgQ==?= Message-ID: <829019b0910231450i15fc2891k57189bcac51fc360@mail.gmail.com> दीवान के साथियों देर रात मैंने कोशिश की है कि इलाहाबाद में चल रहे ब्लॉग मंथन की विस्तृत रिपोर्ट आप तक पहुंचायी जाए। लेकिन नेट की समस्या और रिपोर्ट की लंबाई के कारणा हम पूरी रिपोर्ट यहां टेक्ट्स फार्म में नहीं दे रहे हैं। एक हिस्सा यहा दे रहा हूं,बाकी के लिए आप नीचे दिए गए लिंक को चटकाएं- अचानक पाबंदियों के टूटने से भी दम घुटने लगता है,अनंत आजादी कई बार अराजक स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए चिट्ठाकारी पर जब भी हम बात करते हैं तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच के फर्क को समझना होगा। चिट्ठाकारी में जो कुछ भी कर रहे हैं उसके साथ हर हाल में जिम्मेदारी का एहसास भी होना चाहिए। आदमी जब बोलता है तो कुछ भी बक देता है लेकिन लिखते वक्त हम ऐसा नहीं कर सकते। बोलने से जीभ नहीं कटती लेकिन लिखने से हाथ कट जाता है। हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि आजाद अभिव्यक्ति के नाम पर जो कुछ भी चिट्ठाकारी की दुनिया में लिखा जा रहा है,इसके बीच एक स्टेट मशीनरी भी है। आनेवाले समय में ये राज्य लिखने के मामले में दखल करे इससे पहले ही चिठ्ठाकारों को चाहिए की वो अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए स्वयं अनुशासित हों। इलाहाबाद में चिठ्ठाकारी की दुनिया विषय पर आयोजित दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए नामवर सिंह ने ब्लॉगिंग को आजादी की अनंत दुनिया मानकर सिलेब्रेट करनेवाले ब्लॉगर समाज को इस पक्ष से भी सोचना जरुरी बताया। नामवर ने इस मौके पर इस शहर को ऐतिहासिक करार दिया कि कभी इसी शहर से हिन्दी के आंदोलन की शुरुआत हुई थी और आज फिर इसी शहर ने हिन्दी के नए रुप चिठ्ठाकारिता पर पहली बार राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी आयोजित की है। नामवर सिंह की ही बात को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि-हमें पता है कि जब स्टेट इस तरह के किसी भी मामले में दखल करती है तो उसका रवैया किस तरह का होता है? ऐसे मसले में ब्यूरोक्रेसी नियंत्रण के नाम पर किस तरह का व्यवहार करती है,ये सब हमें समझना होगा। उन्होंने इन्टरनेट के जरिए अपार सूचना प्रसारित किए जाने के सवाल पर कहा कि जो भी इन्फार्मेशन आ रहे हैं उनमें नॉलेज एलीमेंट कितना है,इस सिरे से भी सोचने की जरुरत है? शुरुआत में जिस तरह टेलीविजन के आने से लगा कि अखबार और पत्रिकाएं अपना महत्व खो देंगी वैसी ही चर्चा ब्लॉग के बारे में की जा रही है लेकिन ऐसा नहीं है। मंच पर आसीन लोग जब बारी-बारी से ब्लॉग के जरिए अराजक स्थिति पैदा करने की बात कर रहे थे,ऐसे में संतोष भदौरिया ने स्पष्ट किया कि इसके लिए ब्लॉगर या मॉडरेटर कम दोषी है। इसके लिए दोषी वो कुंठासुर बेनामी टिप्पणीकार जिम्मेदार हैं जो कि बेतुकी बातें करके निकल लेते हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर अराजकता और छिछोरेपन के सवाल को पूरे दिन तक ब्लॉगर और गैर-ब्लॉगर मौके-बेमौके प्रमुखता से उठाते रहे। प्रथम सत्र में आकादमिक मिजाज की औपचारिकता पूरे होने के बाद हिन्दी ब्लॉगिंग के गुरु कहे जानेवाले रवि रतलामी ने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए ब्लॉग से जुड़े विविध मसलों पर अपनी बात रखी। उन्होंने ग्राफिक्स के जरिए स्पष्ट किया कि आनेवाला समय इंटरनेट का है और ब्लॉगिंग में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि ब्लॉगिंग के कई तरह के नुकसान भी है और हमें इससे सतर्क रहने की जरुरत है। रवि रतलामी कल ब्लॉगिंग के तकनीकी पक्षों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रथम सत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि इसमें हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से प्रकाशित,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब ब्लॉग जगत का एक झरोखा सत्यार्थमित्र का लोकार्पण भी किया गया। इस किताब में उनके ब्लॉग की चुनी हुई पोस्टें शामिल हैं। इस किताब पर मशहूर ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय ने ब्राउसर के जरिए प्रेषित किया कि-अगर आपके पास पहले से उपलब्ध अनुभव,भाषा पर पकड़ और नैसर्गिक रुप में'कम से अधिक'अभिव्य्त करने की क्षमता नहीं है तो आप सफल ब्लॉगर नहीं हो सकते। सिद्धार्थ को हिन्दी ब्लॉगिंग में सफलता में सफलता,शंका की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। कुल मिलाकर ब्लॉगरों के बीच ये सत्र गैर-ब्लॉगरों की ओर से नैतिक निर्देश का एहसास कराने और सांकेतिक रुप से संस्कारित किए जाने की कोशिशों के तौर पर याद किया जाएगा। दूसरे सत्र में विचार अभिव्यक्ति का नया आयाम पर विमर्श करने के लिए हमहिन्दुस्तानी अकादमी की बिल्डिंग से दूरस्त महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयके इलाहाबाद सेंटर पर जमा हुए।। इस सत्र में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए करीब 35 ब्लॉगरों ने शिरकत की और इलाहाबाद के करीब 12 ब्लॉगर मौजूद थे। ब्लॉगरों के औपचारिक परिचय के दौर ने काफी समय ले लिया। शोर-शराबे के बीच इस परिचय का शायद ही बहुत लोगों को लाभ मिला होगा। खराब ऑडियो क्वालिटी, लोगों की आपसी कानाफूसी और लगातार आवाजाही के बीच विमर्श के लिए जो माहौल बनने चाहिए वो नहीं बन पाया। इसी माहौल में बारी-बारी से आज के ब्लॉगर-वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं। इस दूसरे सत्र का संचालन फुरसतिया नाम से मशहूर ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने किया। पहले वक्ता के तौर पर चर्चित पोर्टल भड़ास4मीडिया के मॉडरेटर यशवंत सिंह ने ब्लॉगिंग मेंअभिव्यक्ति के खतरे पर बातचीत करते हुए कहा कि शुरुआत में जब भड़ास को लेकर शिकायतें आनी शुरु हुई तब हमने व्यवस्थित तरीके से भड़ास4मीडिया शुरु किया और उसके बाद गाय समझी जानेवाली मीडिया के भीतर के सफेद-स्याह को सामने लाने की कोशिशें की। बड़ी मीडिया जिस तरह से बड़ी खबरों को दबाने का काम करती है,हमारी कोशिश होती है कि हम उन पक्षों को सामने लाएं। हमें कई तरह से लोग सलाह देने का काम करते हैं किसी की इच्छाएं भली होती है तो किसी का बहुत ही खतरनाक लेकिन मेरा मानना है कि हम अगर अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं तो किसी भी तरह का फर्क नहीं पड़ता।यशवंत ने ब्लॉग के मॉनिटरी पहलूओं को बहस के बीच शामिल किया जाना अनिवार्य बताया। उन्होंने कहा कि पैसे पर बात करने के मामले में हिन्दी समाज पिछड़ा रहा है औऱ इस पर गंभीरता से बीत होनी चाहिए। अभिव्यक्ति के नए माध्यम पर बात करने आयी मीनू खरे ने अपना पूरा समय ब्लॉग के इतिहास,अभिव्यक्ति के संवैधानिक प्रावधानों के वर्णन में खपा दिया। उनकी प्रस्तुति से ब्लॉग-इतिहास की एक अच्छी समझ बनने की संभावना हो सकती थी लेकिन एक तो विषय से भटक जाने औऱ दूसरा कि रवि रतलामी की ओर से पहले ही सत्र में इन सब बातों पर चर्चा कर दिए जाने की वजह से ऑडिएंस ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी और कुछ भी निकलकर सामने नहीं आने सका। जबकि मीनू ने आते ही घोषणा की थी कि बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी। बोधिसत्व ने ब्लॉग के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुई ये स्वीकार जरुर किया कि इसके जरिए हमारे परिचय का दायरा बढ़ा है लेकिन ब्लॉग में बहस की गुंजाइश है,इस बात से वो साफ इन्कार करते हैं। उनका मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है। आप कुछ भी लिख लो,बात करना चाहो लेकिन वो कमेंट के जरिए पर्सनल छींटाकशी में उलझकर रह जाता है। इसलिए मैं संस्मरण लिखता हूं,ब्लॉग बहुत ही अघाए हुए लोगों के हाथ में फंसा हुआ नजर आता रहा है जिनके हाथ में ब्लॉग के लिए हाथ में कम से कम 1000 रुपये हैं। खिले हुए चेहरे ही अधिक शामिल होता जा रहा है। इसे मैं अच्छे दिनों को याद करने का माध्यम मानता हूं और इसे अपनी निजी डायरी के तौर पर देखता हूं। मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश के ये कहने पर कि मैं अनामी टिप्पणीकारों का समर्थन करता हूं,एक तरह से पूरे सदन में हंगामा मच गया। आगे बैठे कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर बातें करनी शुरु कर दी। उन्होंने कहा कि महौल इतनी अनौपचारिक हो जाएगी इसी उम्मीद नहीं थी। इतने वेपरवाह हो जाएंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। यहां उद्घाटन सत्र से लेकर विषय से फोकस्ड सत्र में भी कक्षा की तरह से बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि बोधिसत्वने कहा कि खाए-पीए-अघाए लोगों के बीच फंसा हुआ है,वो फंसा हुआ है भले ही लेकिन पीपुल्स का मीडियम है। ये पूंजी का माध्यम नहीं है। हिन्दी में ब्लॉगिंग की कवायद पारिवारिक की तरह रही है। ये पीपुल्स मीडियम है,इसी हिसाब से उसे बात करनी चाहिए। सही नाम से बात करने से कई तरह की परेशानी हो सकती है। स्टेट से सुरक्षित रहते हुए अपनी बात करनी होती है। मैं बेनामी का समर्थक हूं। ट्रेडिशनल मीडिया के पास पूरे वाक्य है,उसके पास पूरा व्याकरण है। ये कानाफुसियों को दर्ज करने का माध्यम है। मैं इसमें डिक्टेट करने के पक्ष में नहीं हूं। मुद्दे की बात हो ही नहीं रही है। अविनाश ने पूरे सत्र को लेकर निराशा जाहिर करते हुए कहा कि मेरे सामने जनतंत्र डॉट कॉम के मॉडरेटर समरेन्द्र मौजूद हैं,मैं चाहता हूं वो ब्लॉगजगत के कुंठासुर पर मेरी तरफ से शुरु की गयी बातचीत को आगे बढाएं। समरेन्द्र ने अपनी बातचीत की शुरुआत प्रथम सत्र में विद्वानों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को शामिल करते हुए की। उन्होंने कहा कि- विभूति नारायण राय ने कहा कि जिम्मेदारी बहुत जरुरी है,राज्य जब दखल देगी तो आपलोग बहुत परेशान हो जाएंगे। सिस्टम हमेशा डराने-धमकाने का काम करते हैं। नामवर ने कहा कि आप जिम्मेदार बनिए। क्या कोई चैनल जिम्मेदार है,आम आदमी की बात करता है। दूरदर्शन के पचास साल हो गए वो भी जिम्मेदार भी नहीं बन पाया।..क्यों नहीं कहेंगे हम? क्या उंगलियां नहीं उठेगी? आम आदमी नाम के साथ नहीं आएगा। हमें जिम्मेदार बनने की हिदायतें दी जा रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे ये साफ होता है कि बेनामी ने अगर अपनी पहचान जारी कर दी तो स्टेट और मशीनरी शिकंजे कसना शुरु कर देती है। आम ब्लॉगर के लिए ये संभव ही नहीं है कि वो ये सबकुछ झेल पाए। *........................................................................* *अलग-अलग मौके पर उठापटक के बीच ये सत्र यहीं समाप्त होता है। रातभर की यात्रा की वजह से बुरी तरह थका हूं। कल ब्लॉगःभाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे अपनी बात रखनी है। आपसे माफी मांगते हुए कि मैंने कई जगह बिना बारीकी से पढ़ते हुए सत्र के दौरान टाइप की गई लाइनों को चस्पा दिया है। आप उन्हें सुधारकर पढ़ लेंगे। मैं और मेहनत करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हूं। इन सबके बीच दुखद पहलू है कि जिस डिजिटल रिकार्डर से मैं अब तक आपके लिए संगोष्ठियों के ऑडियो वर्जन उपलब्ध कराता रहा वो सभागार की डेस्क पर से सत्र खत्म होने के साथ ही गायब हो गया। एक भावनात्मक जुड़ाव और आर्थिक क्षति की वजह से परेशान हूं। मूड़ खराब है,खुश होने के लिए इतना है कि इलाहाबाद में खाने की व्यवस्था बड़ी दुरुस्त है,मेरे हॉस्टल मेस से कई गुना बेहतर।.* * * *पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए चटकाएं- http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_23.html* * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/25148f13/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Sun Oct 25 02:19:51 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 25 Oct 2009 02:19:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MTHgpLXgpL7gpIEg?= =?utf-8?b?4KST4KS24KS/4KSv4KSC4KS4IOCkuOCkv+CkqOClh+Ckq+CliOCkqCA6?= =?utf-8?b?IOCkh+CkuOClhyDgpJXgpLngpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIOCkp+Ckrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSV4KWH4KSm4KS+4KSwIOCktuClgeCksOClgeCkhuCkpC4uLg==?= Message-ID: from:- www.mihirpandya.com* * ***** इस बार के ओशियंस में लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित हुए गुलज़ार साहब समारोह के डायरेक्टर जनरल मणि कौल के हाथों तैयार किया प्रशस्ति पत्र ग्रहण कर बैठने को हुए ही थे कि अचानक मंच संचालक रमन पीछे से बोले, “गुलज़ार साहब, हमने आपके लिए कुछ सरप्राइज़ रखा है!” और फिर अचानक परदे के पीछे से आयीं रेखा भारद्वाज. उन्हें यूँ देखकर एक बार तो गुलज़ार साहब के साथ बैठे विशाल भारद्वाज भी ’चौंक गए’ से लगे. धूसर किरदारों वाला सिनेमा रचने वाले ये दोनों कलाकार आज भी हमेशा की तरह अपने पसन्दीदा ब्लैक एंड वाइट के विरोधाभासी परिधानों को धारण किए मंच पर उपस्थित थे. रेखा भी ख़ाली हाथ नहीं आई थीं. उनके हाथ में माइक था और उसके साथ ही शुरु हुआ गुलज़ार के कुछ अमर गीतों का उनकी जादुई उपस्थिति में पुनर्पाठ. तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी... दिल हूम हूम करे... गुलज़ार साहब ने कहा कि आते हुए जो सिनेमा कि गलियाँ मैंने इस समारोह स्थल के अहाते में देखीं उनसे गुज़रते हुए अहसास हुआ कि वक़्त कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है. उन्होंने बताया कि बाहर लगे बंदिनी के उस पोस्टर वाले सीन का क्लैप मैंने दिया था. जो कुछ पाया है अब तक, जो कुछ सहेजा है उसे आगे भी यूँ ही बाँटते रहने का वादा कर गुलज़ार साहब ने सबका धन्यवाद किया. सब जैसे सपनों की सी बातें थीं. संचालक रमन भी रह-रह कर समारोह का क्रम भूल-भूल जाते थे. समाँ कैसा मतवाला था इसका अन्दाज़ा आप इस बात से लगाइये कि गौरव ए. सी. की तेज़ी से परेशान हो टॉयलेट में घुसा तो उसने अपने एक ओर गुलज़ार को और दूसरी ओर विशाल भारद्वाज को हल्का होते पाया. तमाम कैमरे निरर्थक साबित हुए और माहौल को हमने अपने भीतर उतरते पाया. जैसे दो दुनियाओं के बीच का फ़र्क, लम्बा फ़ासला अचानक मिट गया हो. जादू हो जादू. ग्यारहवें ओशियंस की ओपनिंग फ़िल्म थी रोमानिया की ’हुक्ड’. एक प्रेमी जोड़े की कहानी किसका कालखंड कुल-जमा एक शाम भर का था. बदहवास कैमरा जैसे दोनों पात्र उसे बदल-बदल कर चला रहे हों. संवादों में बनता तनाव और पात्रों के बीच लगातार उस तनाव को उठाकर ख़ुद से दूर फैंक देने की असफल जद्दोजहद. और फिर एक अनचाहे एक्सीडेंट के साथ फ़िल्म में आगमन होता है तीसरी पात्र का, एक प्रॉस्टीट्यूड. फ़िल्म की कहानी इन्हीं तीन किरदारों के सहारे आगे बढ़ती है. ’हुक्ड’ रिश्तों में ईमानदारी और विश्वास की ज़रूरत को दर्शाती फ़िल्म है. यह उन तनावों की फ़िल्म है जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी में खुशी पाने की चाहत में छोटे-छोटे समझौते कर खुद अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं. जैसा फ़िल्म की नायिका ने फ़िल्म की शुरुआत से पहले अपने वक्तव्य में कहा था कि हो सकता है यह बहुत दूर देश की कहानी है लेकिन इसके पात्रों और उन पर तारी तनावों से आप ज़रूर रिलेट कर पायेंगे. इस बार ओशियंस के पिटारे में फ़िल्में कम चर्चाएं ज़्यादा हैं. आगे कतार में कुछ बेहतरीन सेशन विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, ज़ोया अख़्तर, इम्तियाज़ अली, राजकुमार गुप्ता और दिबाकर बैनर्जी के साथ प्रस्तावित हैं. इसके अलावा आप आने वाले दिनों में ’हरीशचन्द्र फ़ैक्ट्री’, ’ख़रगोश’, ’आदमी की औरत और अन्य कहानियाँ’ जैसी हिन्दुस्तानी और बहुत सी चर्चित विदेशी फ़िल्मों का हाल भी जान पायेंगे. तो खेल शुरु किया जाए! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091025/e7dae78f/attachment.html From umashankar19mishra at gmail.com Mon Oct 19 15:57:31 2009 From: umashankar19mishra at gmail.com (umashankar mishra) Date: Mon, 19 Oct 2009 15:57:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= UNFPA LAADLI MEDIA AWARDS 2009-10, entry form In-Reply-To: References: Message-ID: After a great journalistic career, now its time to be hounered. So pls. send your entries for UNFPA LAADLI MEDIA AWARDS. ------------------------ ------------------------ Umashanakr Mishra Sopan Step room no.406, 49-50, red rose building Nehru place, New Delhi-110019 Ph.9968425219 umashankar19mishra at gmail.com www.ujjas.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091019/59117bdd/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: laadli Entry Form.doc Type: application/msword Size: 227840 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091019/59117bdd/attachment-0001.doc From beingred at gmail.com Wed Oct 21 17:41:14 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 21 Oct 2009 17:41:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSn?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4g?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkluClgeCksuCkviDgpJbgpKQ=?= Message-ID: <363092e30910210511l9d7af6bh1152890b8a6eeb53@mail.gmail.com> कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य http://www.petitiononline.com/21102009/petition.html देश में जनवाद के लिए इस मुहिम में आप भी शामिल होइए -- El pueblo unido jamás será vencido (संगठित जनता हमेशा विजयी होती है) -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091021/3a4cf388/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Wed Oct 21 17:41:14 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 21 Oct 2009 17:41:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSn?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4g?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkluClgeCksuCkviDgpJbgpKQ=?= Message-ID: <363092e30910210511l9d7af6bh1152890b8a6eeb53@mail.gmail.com> कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य http://www.petitiononline.com/21102009/petition.html देश में जनवाद के लिए इस मुहिम में आप भी शामिल होइए -- El pueblo unido jamás será vencido (संगठित जनता हमेशा विजयी होती है) -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091021/3a4cf388/attachment-0003.html From rakeshjee at gmail.com Fri Oct 23 17:49:21 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 23 Oct 2009 12:19:21 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <00504502eccac69ec50476993866@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// हिन्दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग तीन Posted: 22 Oct 2009 06:02 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/SlNAS0YqZ8M/blog-post_2370.html ब्लॉदगिंग की सतरंगी भाषा ज़ाहिर है जहां इतने विविध पृष्ठoभूमियों वाले लोग ब्लॉ/गिंग कर रहे हैं वहां भाषाई विविधता तो होगी ही. मैं इस विविधता को हिंदी ब्लॉcगिंग की पूंजी मानता हूं. यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. दरअसल, भाषाई प्रयोग और इस्ते माल के मामले में अंतर्जाल पर मौज़ूद यह स्पेहस घरों की उन दीवारों की तरह है जहां बच्चों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चित्र उकेरने की आज़ादी होती है. दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि किस हद तक यहां भाषाई प्रयोग हो रहे हैं; हां, ये ज़रूर उल्लेखनीय है कि फ़ॉर्म और एक हद तक कंटेन्टर को लेकर जो आज़ादी है यहां, उससे भाषा के स्तीर पर प्रयोग करने में काफ़ी सहुलियत मिलती है. इस पर्चे में मैंने पहले कुछ चिट्ठों के नाम गिनाए थे, उन पर एक बार विचरण कर लें तो पता चल जाएगा कि सामग्री कैसे भाषा तय कर रही है या फिर क्याे लिखने के लिए कैसी भाषा का इस्तेकमाल किया जा रहा है. यह सच है कि अख़बारों के लिए रिपोर्टिंग या स्पेएशल एडिट लिखने अलावा ज़्यादातर ऑफ़लाइन लेखन (चाहे किसी भी तरह का हो) किस्तोंो में होता रहा है. जबकि ब्लॉ ग में ऐसा बहुत कम होता है. यहां तो कई बार बैठते हैं प्रतिक्रिया लिखने, बन जाता है लेख. ब्लॉेगिंग में अकसर एक ही बैठक में लोग हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्दे ठेल देते हैं. यह भी सच है कि कुछ बलॉगों, विशेषकर सामुदायिक ब्लॉशगों ने अपनी एक शैली विकसित कर ली है और भाषा को लेकर भी वे चौकन्नेर हैं. उनकी पोस्टोंक से गुज़रते हुए इस बात का अंदाज़ा लग जाता कि मॉडरेटर महोदय, क़ायदे से जिनका काम मॉडरेट करना भर होना चाहिए – चिट्ठों को अपनी स्टाैइल में फिट करने के लिए किसी तरह अच्छा -खासा समय लगा रहे हैं. यहां इस तथ्य की ओर भी इशारा करना चाहूंगा कि मीडिया, विशेषकर इलेक्टॉछनिक मीडिया वाली सनसनी और टीआरपी वाला गेम यहां भी ख़ूब प्लेभ किया जाता है. मूल पाठ से लेकर शीर्षक तक में यह ट्रेंड झलकता है. अकसर हम देखते आए हैं कि बोलचाल में धड़ल्लेड से प्रयोग होने वाले शब्दोंा का लेखन में बहुत कम इस्तेहमाल होता है. पर अंतर्जाल पर स्थिति काफ़ी बदली-बदली सी दिखती है. और-तो-और यहां, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का भी धड़ल्लेर से प्रयोग हो रहा है. हिंदी के कुछ ब्लॉदग अपनी विशिष्टऔ क्षेत्रीय शैली की वजह से पॉप्यु‍लर भी हुए हैं. मिसाल के तौर पर ज़रा ‘ताउ रामपुरिया’ की भाषा पर ग़ौर कीजिए: इब राज भाटिया जी और योगिन्द्र मोदगिल जी ने गांव के चोधरी को कहा कि इस बटेऊ से सवाल पूछने का मौका ताऊ को भी दिया जाना चाहिये ! आखिर गांव की इज्जत का सवाल है ! चोधरी ने उनका एतराज मंजूर कर लिया ! बटेऊ की तो कुछ समझ नही आया कि आखिर तमाशा क्या है ? बटेऊ को यही समझ मे नही आया कि वो कैसे हार गया और ये ५ वीं फ़ेल छोरा कैसे जीत गया ! ले बेटा..और उलझ ताऊओं से ! गाम आलों का चौधरी बोला- भाई बटेऊ, तन्नै तो आज सवाल पूछ लिया ! और म्हारै गाम के छोरे ताऊ नै बिल्कुल सही जवाब भी दे दिया ! इब उसको भी तेरे तैं सवाल बुझनै का मौका देणा पडैगा ! कल दोपहर म्ह इसी चौपाल म्ह म्हारा छोरा ( ताऊ ) तेरे तैं सवाल बुजैगा अंग्रेजी म्ह और तन्नै जवाब देना पडैगा! दरअसल, ‘ताउ रामपुरिया’ की लेखन शैली ने हरियाणवी हिंदी को एक तरह से अंतर्जाल पर इस्टैपब्लिश कर दिया है. उनके चिट्ठों पर मिलने वाली टिप्पलणियां इस बात का प्रमाण हैं. इधर संजीव तिवारी जब अपने ब्लॉिग पर अपनी भाषा के प्रति छत्तीसगढियों से अपील करते हैं तो उन्हेंि भी ठीक-ठाक समर्थन मिलता है. ज़रा देखिए उनके इस चिट्ठांश को: छत्तीइसगढ हा राज बनगे अउ हमर भाखा ला घलव मान मिलगे संगे संग हमर राज सरकार ह हमर भाखा के बढोतरी खातिर राज भाखा आयोग बना के बइठा दिस अउ हमर भाखा के उन्नेति बर नवां रद्दा खोल दिस । अब आघू हमर भाखा हा विकास करही, येखर खातिर हम सब मन ला जुर मिल के प्रयास करे ल परही । भाखा के विकास से हमर छत्तीरसगढी साहित्या, संस्कृ ति अउ लोककला के गियान ह बढही अउ सबे के मन म ‘अपन चेतना’ के जागरन होही । हमला ये बारे म गुने ला परही, काबर कि हम अपन भाखा के परयोग बर सुरू ले हीन भावना ला गठरी कस धरे हावन । कमोबेश यही स्थिति भोजपुरी और मैथिली के साथ भी है. प्रयोग और इस्तेमाल की आज़ादी का ही नतीज़ा है कि इंटरनेट पर मस्तइराम मार्का भाषा भी फल-फूल रही है. मिसाल के तौर पर किसी पोस्टा पर डॉ. सुभाष भदौरिया द्वारा की गयी इस प्रतिक्रिया पर ग़ौर करें: यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के. भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया. आम तौर पर हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रतिक्रिया देते हुए या किसी मसले पर चर्चा करते वक़्त शब्दयकोश सिकुड़ने लगते हैं और भाषा हांफने लगती है. हिंदी ब्लॉकगजगत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है. पिछली जुलाई में शीर्षस्थ साहित्यपकार उदयप्रकाश से जुड़े एक प्रकरण को लेकर उठे बवंडर, इसी साल जनवरी में नया ज्ञानोदय की संपादकीय पर मचे अंतर्जालीय घमासान, या मार्च-अप्रैल में रविवार डॉट कॉम पर राजेंद्र यादव के एक साक्षात्कारर, या फिर हाल ही में रविवार डॉट कॉम पर प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव के साक्षात्काकर से उपजे विवाद पर ग़ौर करें तो भाषा के इस पक्ष से रू-ब-रू हुआ जा सकता है. मिसाल के तौर पर, उदयप्रकाश प्रकरण पर रंगनाथ सिंह ने हिंदी साहित्यं में विष्ठातवाद : अप्पाा रे मुंह है कि जांघिया के मार्फ़त कुछ इस तरह अपनी राय ज़ाहिर की: एक कवि हैं। सुना है उनके दोस्त उनके बारे में एक ही सवाल बार-बार पूछते रहतें हैं कि वो नासपीटा तो जब भी मुंह खोलता है, मल, मूत्र या उनके निकास द्वारों के लोक-नामों से अपनी बात का श्री गणेश करता है। उनके मित्र आपस में अक्सर यही पूछते हैं कि अप्पा रे, उसका मुंह है कि जंघिया…?? हिंदी साहित्य के दिग्गजों (इसमें उदय प्रकाश भी शामिल हैं) ने और उनके चेलों ने उदय प्रकाश प्रकरण में हुए विवाद में बार-बार उस कवि की और उनके मित्रों को जंघिया वाले यक्ष प्रश्न की याद दिलायी। जिस किसी ने जिस किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लिखा, उसके खिलाफ़ दूसरे पक्ष के तीरंदाज-गोलंदाज आलोचना या भर्त्सना लिखने के बजाय गाली-गलौज पर उतर आये। या उस कवि के मित्रों की भाषा में कहें, तो इन सब के नाड़े ढीले थे। इन सभी स्वनामधन्य कवि-लेखकों-पत्रकारों को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने अपनी आस्तीन से अपना असल शब्दकोश निकाला और उसका खुल कर प्रयोग किया। निस्संदेह उन्होंने इंटरनेशनल लेवल का सुलभ भाषा-कौशल दिखाया है। मेरा ये मानना है कि किसी भी माध्ययम मे भाषा के विकास के लिए ज़रूरी है भरपूर लेखन और संवाद. जितना अधिक लेखन होगा उतने ही अधिक प्रयोग होंगे और भाषा में निखार आएगा. विगत पांच-छह सालों की हिंदी ब्लॉ गिंग में निश्चित रूप से लेखन में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हुआ है और ये इज़ाफ़ा क्वा-न्टिटी और क्वाालिटी दोनों ही स्तॉरों पर हुआ है. पर इतना नहीं कि उसके आधार पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जाए. संवाद भी हो रहे हैं, पर संवाद के स्तंर पर ज़्यादातर छींटाकसी या खींचातानी ही दिखती है. कुछ-कुछ प्रिंट जैसी. वैसे बेहतर होगा कि भाषाविज्ञानी इस बात की पड़ताल करें और रोशनी डालें कि हिंदी चिट्ठाकरी में बरती जाने वाली भाषा क्याक है. तब तक मैं यही कहूंगा कि काफ़ी कुछ नया है, पहले से अलग है, हट के है, सतरंगी है. कुछ फुटकर विचार अंत में अंतर्जाल पर हिंदी के वर्तमान और भविष्यह के बारे में अपनी कुछ राय साझा करना चाहूंगा. अब तक की चिट्ठाकारी को देखकर ये लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी बमबम कर रही है, हिंदी की तरक्की हो रही है. पर यहां मैं कुछ वैसे तथ्योंग की ओर इशारा करना चाहूंगा जो आम तौर पर सतह पर नहीं दिखते. ग़ौरतलब है कि अंतर्जाल पर हिंदी चाहे जितनी ज़्यादा बरती जा रही हो, पर उसके पीछे हैं कुछ गिने-चुने लोग ही. ज़रा और खुलकर कहा जाए तो ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो एक साथ कई ब्लॉ ग चला रहे हैं, वेबसाइट चला रहे हैं, डॉट कॉम चला रहे हैं. आप अगर सक्रिय ब्लॉगगरों की प्रोफ़ाइल पर क्लिक करेंगे तो इस बात का साक्ष्य आपको मिल जाएगा. दूसरी बात ये कि ब्लॉलग, डॉटकॉम, इत्या दि पर चाहे जितना कुछ लिखा जा रहा हो, पाठकों की संख्याच सीमित ही है. सीमित का मतलब ये कि वैसे लोग, आम तौर पर जिन्हें अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्हें अब तक पाठक नहीं बनाया जा सका है. मोटे तौर पर अंतर्जाल पर पाठक वे ही हैं जो लेखक भी हैं. यह साफ़ है कि बीते 5-6 सालों में अंतर्जाल पर, ख़ास तौर से चिट्ठाकारी के मार्फ़त हिंदी के प्रयोग और रफ़्तार में तेज़ी आयी है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि इसने साहित्य , संस्कृफति और पत्रकारिता के बहुत सारे अवयवों, मूल्य मान्यहताओं, परिपाटियों तथा मानकों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है जिन्हेंा आधुनिकता ने अपने लिए निर्धारित किए थे. सेंसरशिप, कॉपीराइट, नियंत्रण और निगरानी जैसी आधुनिक अवधारणाएं फिलहाल दरकिनार हैं. ब्लॉ.गर्स तो जैसे दायें-बाएं, आगे-पीछे देखे बिना सरपट दौड़े चले जा रहे हैं. देखें http://9211.blogspot.com देखें http://techtree/techtree/jsp देखें http://hindyugm.com देखें http://bhadas.blogspot.com देखें http://linkitman.blogspot.com http://naisadak.blogspot.com/2009/09/blog-post_12.html देखें http://9211.blogspot.com देखें http://nuktachini.blogspot.com देखें http://devnaagrii.net देखें 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सालों में ब्लॉ़ग ने तमाम किस्‍म की अभिव्य क्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यसक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉागबाज़ी कर रहे हैं, अपने ब्लॉअग पर लिख रहे हैं; मित्रों के ब्लॉंग के लिए लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉ गों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार भी साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि ब्लॉलग के अन्यि पहलुओं पर बातचीत की जाए थोड़ी चर्चा ब्लॉेग के स्व रूप पर. अंतर्जाल पर ज़्यादातर चिट्ठे साहित्यच-साधना में लीन नज़र आते हैं. उनमें भी भांति-भांति की कविताई करते ब्लॉ्गों की संख्या ख़ास तौर से ज़्यादा है. सामुदायिक ब्लॉंगों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले दो-ढ़ाई सालों से व्याक्तिगत ब्लॉ्गों पर भी सरोकार और चिंताएं दिख रही हैं. मिसाल के तौर पर गिरीन्द्र के ब्लॉग अनुभव पर 10 अप्रैल 2006 को प्रकाशित उनकी पहली पोस्टह के इस अंश पर ग़ौर करते हैं: ... दिल्ली से नज़दीकी रिस्ता रख्नने वाले प्रदेश इस बात को भली-भाती ज़ानते है. उतर प्रदेश, हरियाणा के ज़्यादातर ग्रामीण इलाके के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली से सम्बध बनाए रखे है. हरियाणा का होड्ल ग्राम आश्रय के इसी फार्मुले पर विश्वास रखता है... कृषि बहुल भुमि वाले इस गाव मे एक अज़ीब किस्म का व्यवसाय प्रचलन मे है,ज़िसे हम छोटे -बडे शहरो के सिनेमा हालो या फैक्ट्री आदि ज़गहो पर देखते है.वह है-साइकल्-मोटरसाइकल स्टैड्.दिल्ली मे काम करने वाले लोग रोज़ यहा आपना वाहन रख कर दिल्ली ट्रैन से ज़ाते है. एवज़ मे मासिक किराया देते है. ज़ब मै होड्ल के स्थानिय स्टेशन से पैदल गुजर रहा था तो मैने एक ८० साल की एक् औरत को एक विशाल परती ज़मीन पर साईकिलो के लम्बे कतारो के बीच बैठा पाया...उस इक पल तो मै उसकी उम्र और विरान जगह को देखकर चकित ही हो गया पर जब वस्तुस्थिती का पता चला तो होडल गाव के आश्रयवादी नज़रिया से वाकिफ हुआ.जब मैने उस औरत से बात करनी चाही तो वह तैयार हो गयी और अपने आचलिक भाषा मे बहुत कुछ बताने लगी.उसने कहा कि खेती से अच्छा कमाई इस धधा मे है ... इस अध्य यन के सिलसिले में उपर्युक्त पोस्ट के बरअक्सा 2006 के अप्रैल-मई महीने में कुछ और तलाशने के लिए मैंने तक़रीबन 80-90 ब्लॉतगों का भ्रमण किया. ज़्यादातर पर कविताएं मिलीं. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि तब या अब ही, जितनी प्रतिक्रियाएं कविताओं को मिलती हैं उतनी मुद्दे आधारित पोस्टों को नहीं. मिसाल के तौर पर उपर्युक्त पोस्टउ पर आज तक एक प्रतिक्रिया भी नही आयी है. यानी इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि मुद्दों पर लिखना कितना इकहरा काम होता है. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी चिट्ठाकारी से चारण-राग ख़त्म न होने की एक वजह ये भी है. वैसे भी कविताई या अन्यि विशुद्ध साहित्यिक विधाओं में चारण-राग चलता आया है. जहां तक सामुदायिक ब्लॉयगों का प्रश्नव है तो उनका उदय ही किसी न किसी मुद्दे, विषय या प्रसंग विशेष के कारण होता है. मिसाल के तौर पर अविनाश के ब्लॉहग ‘मोहल्लाक’, जो कि बाद में सामुदायिक घोषित कर दिया गया – के इस पहले पोस्ट पर ग़ौर करते हैं: साथियो, नेट पर बहुत सारे पन्ने हैं, फिर इस पन्ने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन हसरतों का क्या किया जाए? हम सब मोहल्ले-कस्बे के लोग हैं. पढ-लिख कर जीने-खाने की जरूरत भर शहर में रहने आते हैं और रहते चले जाते हैं. शायद हम उम्र भर शहरों में रहना सीखते हैं. हर ऊंची इमारत को फटी आंखों से देखते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि कब इसकी फर्श पर हमारे पांव जमेंगे. लेकिन जडों से उखडना क्या इतना आसान है? आइए, हम अपनी उन गलियों को याद करें, जहां हमारी शक्ल ढंग से उभर कर आयी थी... अविनाश अब ‘भड़ास’ पर उसके मॉडरेटर यशवंत सिंह ने लोगों को अपने ब्लॉ ग से जोड़ने के लिए जो न्यौढता प्रकाशित किया था, ज़रा उस पर ग़ौर फ़रमाते हैं: भई, जीना तो है ही, सो भड़ास जो भरी पड़ी है, उसे निकालना भी है। और, इसीलिए है यह ब्लाग भड़ास। जब दिल टूट जाए, दिमाग भन्ना जाए, आंखें शून्य में गड़ जाएं, हंसी खो जाए, सब व्यर्थ नज़र आए, दोस्त दगाबाज हो जाएं, बास शैतान समझ आए, शहर अजनबियों का मेला लगे .....तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए। अशोक पांडे ने जब ‘कबाड़खाना’ आरंभ किया तो लोगों को अपना हमसफ़र बनाने के लिए उन्होंेने विरेन डंगवाल की इन पंक्तियों का सहारा लिया: पेप्पोर रद्दी पेप्पोर पहर अभी बीता ही है पर चौंधा मार रही है धूप खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़ उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख सुन पड़ती है सड़क से किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी एक फ़रियाद है एक फ़रियाद कुछ थोड़ा और भरती मुझे अवसाद और अकेलेपन से सामुदायिक ब्लॉपग काफ़ी हद तक अपने मिशन में सफल भी रहे. अनेक सामाजिक सरोकार के मसलों पर वहां बहसें हुई. कुछ लोगों ने बहस में प्रत्येक्ष यानी लेखों या विचारों के ज़रिए शिरकत की और कुछ ने टिप्पवणी के मार्फ़त. आज इन सामुदायिक ब्लॉ गों में से कोई ख़बर छानने में व्य स्तक है तो कोई मीडिया की ख़बर ले रहा है, कुछ विचारधाराओं की रेहड़ी लगाए बैठे हैं तो कुछ पामिस्ट्री किए जा रहे हैं, कहीं बेटियों के बारे में आदान-प्रदान हो रहा है तो कहीं बेटों के बारे में. जिन सामुदायिक ब्लॉंगों का अभी हवाला दिया गया उनके अलावा दर्जनों अन्य सामुदायिक ब्लॉंग हैं. यह सच है कि सामुदायिक चिट्ठों से इस माध्याम को और ज़्यादा लोकप्रियता मिली. हालांकि, यह भी सच है कि साल 2009 के अपराह्न तक आते-आते सामुदायिक ब्लॉजगों की धार और रफ़्तार मंद पड़नी शुरू हो गयी है. कुछ चिट्ठे तो तक़रीबन बंद हो चुके हैं, बस औपचारिक घोषणा होना बाक़ी है. मॉडरेटरों की व्य क्तिगत प्राथमिकताओं में आया बदलाव इसकी सर्वप्रमुख वजह लगती है. कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ़ग चला रहे थे आज डॉटकॉम चलाने लगे हैं, या यूं कहें कि कल तक जो सामुदायिक ब्लॉ ग थे आज डॉटकॉम में तब्दीगल हो रहे हैं. बहरहाल, इतना तो तय है कि हिंदी में हर वैसे विषय, प्रश्न या मुद्दे पर ब्लॉुगिंग हो रही है जो इस वक़्त आपके कल्पानालोक में घुमड़ रहे हैं. ये ज़रूर है कि यहां साहित्यब का बोलबाला है. 12 हज़ार में से लगभग 10 हज़ार ब्लॉागों पर साहित्यघ साधना हो रही है, और उनमें भी कविताई करने वालों की तादाद ज़्यादा है. साहित्येकुंज, अनुभूति, बुनो कहानी, मातील्दाै, तोत्तोचान अंतर्मन, उनींदरा, अवनीश गौतम वग़ैरह हिंदी ब्लॉ गिंग में प्रमुख साहित्यॉ-साधना-स्थाली हैं. उदय प्रकाश, हिंदी ब्लॉगिंग में सक्रिय बड़े साहित्यावरों में से एक हैं. फिल्म और सिनेमा को समर्पित ब्लॉनगों में इंडियन बाइस्कोयप, आवारा हूं और चवन्नी चैप का स्थाोन अग्रणी है. गीतायन और रेडियोवाणी पर तमाम तरह के हिंदी गीतों का भंडारण हो रहा है. गाहे-बगाहे और टीवी प्ल स टेलीविज़न की दुनिया में हो रहे हलचलों पर निगाह टिकाए हुए है. ज्ञान-विज्ञान, रवि-रतलामी का हिंदी ब्लॉलग, प्रतिभास, मे आइ हेल्पे यू, क्रमश:, देवनागरी, इत्या-दि विज्ञान और तकनीकी से मुताल्लिक़ नए-नए अनुसंधानों की जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ ब्लॉशगरों को तकनीकी परेशानियों से निजात भी दिलाता है. अनुनाद सिंह इतिहास पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित कर रहे हैं. रिजेक्टन माल, अनुभव और हाशिया जनपक्षधर पत्रकारिता और वैचारिकी के विलक्षण उदाहरण हैं, कस्बाे, अनामदास का चिट्ठा, कानपुरनामा और फुरसतिया, उड़न-तश्तैरी, मसिजीवी संस्मेरणों और वैचारिकी के कुछ चुने हुए ठीहे हैं, खेती-बाड़ी अपने नाम को चरितार्थ करता इससे संबंधित जानकारियों का स्रोत है, दाल रोटी चावल पर लज़ीज़ व्यं जनों की जानकारी बनाने की विधि समेत एकत्रित की जा रही है, मस्त,राम मुसाफिर अंतर्जाल पर प्रिंट वाले ‘मस्त राम’ की नुमाइंदगी करता है, हालांकि, साल 2005 के बाद इस पर कुछ नया माल नहीं चढ़ाया गया है. अंग्रेज़ी ब्लॉीगिंग के विपरीत हिंदी ब्लॉगिंग में आंदोलनों, अभियानों, संघर्षों, संगठनों या मुद्दों पर आधारित ब्लॉीगों की संख्या नगण्यै है. अंग्रेज़ी में इराक़ तथा अफ़गानिस्ता न में अमरीकी गुण्डांगर्दी, पाकिस्तायन की आंतरिक हालत, जाति और जेंडर भेद, बचपन, वृद्धावस्थाक जैसे मसलों, पर्यावरण या ग्लो,बल वार्मिंग पर चलने वाले अभियानों, तथा मानवाधिकार और पशुअधिकार आंदोलनों के बारे में समर्पित ब्लॉगगिंग हो रही है. हिंदी में फिलहाल ये ट्रेंड नहीं बन पाया है. हालांकि, ये ज़रूर है कि अब इस माध्यगम के प्रति आंदोलनों और संगठनों में संजीदगी दिखने लगी है और कुछेक ब्लॉागों की शुरुआत हुई भी है. मिसाल के तौर पर सफ़र, जहां संगठन से जुड़े कार्यक्रमों और गतिविधियों पर यदा-कदा कुछ लिखा-पढ़ा जाता है या फिर सूचना का अधिकार, जहां नियमित रूप से इस मुद्दे और इससे संबधित अभियानों की ख़बरें शेयर की जाती हैं. इस कड़ी में स्त्री प्रश्नों पर फ़ोकस्डर हिन्दी के पहले सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली का काम सराहनीय रहा है. हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसकी तरक्क ती के लिए समर्पित हिंदयुग्म के अनूठे प्रयासों का यहां उल्लेहख किया जाना ज़रूरी है. हिंदयुग्म् पर तमाम विधाओं में साहित्यी रचना के अलावा कला, संस्कृ ति और आम जन-जीवन से जुड़े प्रश्नोंा पर भी संजीदगी से चर्चा होती है. चिट्ठाकारी को सरल और लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटरों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है. प्रकाशन के चंद मिनटों के अंदर चिट्ठों को व्याकपक चिट्ठाजगत तक पहुंचाने तथा चिट्ठा संबंधी आवश्य्क जानकारियां उपलब्धा कराने में एग्रीगेटरों का बड़ा योगदान है. साल 2005-06 में ही जीतू ने ‘अक्षरग्राम’ नामक हिंदी का पहला एग्रीगेटर आरंभ किया था. उसके बाद ‘नारद’ नामक एग्रीगेटर भी जीतू और उनके कुछ मित्रों के सामुहिक प्रयास से ही अस्तित्वा में आया. साल 2007 में ‘ब्लाटगवाणी’ और ‘चिट्ठाजगत’ नामक दो और एग्रीगेटर्स अस्तित्वप में आए और उन्हों ने हिंदी ब्लॉगिंग को काफ़ी सहूलियतें मुहैया कीं. कितनी सक्रिय है ये चिट्ठाकारी: 18 सितंबर 2009 को दोपहर साढे चार बजे के आसपास चिट्ठाजगत के मुताबिक़ कुल 10 हज़ार 259 चिट्ठों में से कुल सक्रिय चिट्ठों की संख्याढ 40 थी. निश्चित रूप से ऐसी कोई भी सूचि स्था्ई नहीं होती, क्यों कि रियल समय में सूचि में बदलाव होते रहते हैं. कभी कोई दसवें नंबर पर होता है तो चंद मिनटों या घंटे बाद वही 38वें नंबर पर या पहले नंबर पर हो सकता है या फिर सूचि में दिखे ही नहीं. बहरहाल, मैं उन ब्लॉगगों को सक्रिय मानता हूं जिन पर हफ़्ते में दो नहीं तो कम से कम एक पोस्ट ज़रूर प्रकाशित होते हैं, यानी पोस्टिंग की निरंतरता बनी रहती है, और उस लिहाज़ा से देखा जाए तो हिंदी में सक्रिय ब्लॉ गों की संख्या 200 के आसपास है. उड़न तश्त री, गाहे-बगाहे, हिंदयुग्म , रचनाकार, अगड़म-बगड़म, फुरसतिया, रेडियोवाणी, कसबा, महाजाल, निर्मल-आनंद, मसिजीवी, मोहल्लाद, कबाड़खाना, चोखेरबाली, इत्यागदि अग्रिम पंक्ति के सक्रिय चिट्ठे हैं. लगे हाथ हिंदी चिट्टाकारी में सक्रिय लोगों की पृष्ठहभूमि पर भी एक नज़र डाल ली जाए. दरअसल, हिन्दी् ब्लॉिगिंग में आए इस रेवल्यूाशन के पीछे तीन अलग-अलग पृष्ठएभूमि के लोगों का योगदान है: पेशेवर टेकीज़ (तकनीकीविशारद) जो हिंदी के प्रति कमिटेड हैं और प्रकारांतर में जिनमें लेखन एक ज़बर्दस्तर हॉबी की तरह विकसित हुआ, पत्रकार (नियमित या अनियमित दोनों तरह के) जिन्हेंक अपने माध्यरमों में स्वतयं को अभिव्यिक्तह करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिल पाता है, या जो यहां लिखकर लोगों का फ़ीडबैक हासिल करते हैं तथा उससे अपने पेशे में पैनापन लाने की कोशिश करते हैं (ऐसे लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों का भी फ़ायदा उठाते हैं) और वैसे लोग जिन्हेंक पत्रकारीय कर्म में दिलचस्पीस है; तथा अंतिम श्रेणी में वैसे साहित्यि-साधक शामिल हैं जिन्हेंव आम तौर पर छापे में मन माफिक मौक़ा नहीं मिल पाता है या फिर जो इस माध्य म की उपयोगिता देखते हुए यहां भी अपनी मौज़ूदगी बनाए रखना चाहते हैं या फिर वैसे लोग जिन्होंिने ये ठान लिया है कि वे ब्‍लॉग के ज़रिए ही साहित्य सृजन करेंगे. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ /////////////////////////////////////////// हिन्दी चिट्ठाकारी : एक और नई चाल? भाग एक Posted: 22 Oct 2009 08:32 AM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/IzQLDXEMNC4/blog-post.html हफ़्तावारी मित्रो, गयी दिवाली की अंग्रेज़ी तर्ज पर (विलेटेड) और छठ की ताज़ी शुभकामनाएं! दोस्‍तों, शिमला स्थित भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान द्वारा आयोजित हिंदी अध्‍ययन सप्‍ताह के दौरान आखिरी दिन यह पर्चा पेश किया गया था. फिर इसके सार्वजनिक इस्‍तेमाल के बारे में आयोजकों की और कुछ अपनी निजी समझ की वजह से साझा नहीं कर पाया था. पर लगा कि इस बड़े ब्‍लॉग समागम में दायरा-ए-चर्चा से ये महरूम रह जाए, दिनों तक कसक रह जाएगी. इसी बीच एक सिनीयर दोस्‍त ने कहा कि कुछ किस्‍तों में डाल दीजिए अपने बलॉग पर. लोगों को लगेगा तो चर्चा में शा‍मिल कर लिया जाएगा. बहरहाल, कोइ जबरदस्‍ती नहीं है लेकिन महाकुंभ नगरी में कोई समागम हो और अगर इसे बित्ता भर जगह मिल जाए तो क्‍या लूट जाएगा ! वैसे भी गांधी और नेहरू की प्रतीक स्‍थली और वो भी समागम, भइया, समय हो तो शामिल कर लीजिएगा. तीन-चार किस्तों में ठेल रहा हूं. जगेंगे आप तो आपको मिल जावेगी. शुक्रिया क्या है चिट्ठाकरी 21 अप्रैल 2003 हिंदी चिट्ठाकारी के लिए ऐतिहासिक दिन था. लगभग एक दर्जन से अधिक सक्रिय ब्लॉग्स और वेबसाइट्स इस बात की पुष्टि करते हैं और आलोक कुमार के 9-2-11 को हिंदी का सबसे पहला चिट्ठा का दर्जा देते हैं. 21 अप्रैल 2003 को अपने पहले ब्लॉ ग-पोस्ट में आलोक लिखते हैं: चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा ... आलोक के इस पोस्ट पर ग़ौर करें तो ब्लॉग के नामकरण और फॉण्ट को लेकर उनकी परेशानी साफ़ झलकती है. आज छह साल बाद न केवल आलोक की दोनों परेशानियों का हल ढूंढ लिया गया है बल्कि हिंदी ब्लॉलग अन्य भारतीय भाषाओं, और कहें तो अंग्रेज़ी को भी पछाड़ने की स्थिति में आ चुका है. भारत में इंटरनेट उपयोक्ता‍ओं पर ‘जक्ट्आलो कंसल्टभ’ नामक एक कंपनी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कुल इंटरनेट इस्तेामालकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिंदी वेवसाइटों के प्रति उत्सााह जताया जबकि 25 प्रतिशत उपयोक्तान अन्यत भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर काम-काज़ के प्रति उत्सुाक दिखे. अंग्रेज़ी को विश्वरव्याापीजाल का पर्याय मान चुके लोगों के लिए सचमुच यह आंख खोलने वाला अध्यपयन है ... वाकई आज क़रीब साढ़े छह साल बाद हिंदी में लगभग 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉसग्सि, 1 हज़ार से ज़्यादा वेबसाइटें तथा 50 हज़ार से ज़्यादा वि‍किपृष्ठव हैं, और 12 लाख से ज़्यादा पन्नेा इंटरनेट पर लिखे जा चुके हैं. हो सकता है कि इन आंकड़ों में सौ, दो सौ का अंतर आ जाए पर ये हक़ीक़त है कि आज अंतर्जाल पर हिन्दीा फ़र्राटे से दौड़ रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इंटरनेट पर हिंदी के इस्ते़माल, उसके स्व रूप और अन्तफर्वस्तुे पर थोड़ा विचार किया जाए. निश्चित तौर पर चिट्ठा इसके लिए एक मुकम्मील ज़रिया है क्योंसकि यह इंटरनेट पर हिंदी बरतने का एक वृहद मंच बन चुका है. यूं देखा जाए तो अब तक ब्लॉ ग की कोई औपचारिक परिभाषा गढ़ी नहीं गयी है. हालांकि हर ब्लॉजगर के पास ब्लॉदगिंग की कोई न कोई परिभाषा ज़रूर है. किसी के लिए यह एक ऐसी डायरी है जिसका पन्ना् कोई फ़ाड़ नहीं सकता और इस प्रकार इसमें एक ऑनलाइन अभिलेखागार बनने की पर्याप्त. संभावना दिखती है. कुछ के लिए यह पत्रकारिता का अद्भुद माध्य म है: एक ऐसा माध्य म जो अब तक उपलब्धभ तमाम माध्यलमों से ज़्यादा अवसरयुक्त् है, जहां अब तक की तमाम मानक लेखन शैलियों और भाषा से इतर मनचाहा ईज़ाद और इस्तेुमाल करने की बेइंतहां आज़ादी है: लेखक, रिपोर्टर और संपादक सब ब्लॉागर ख़ुद होता है. कुछ लोगों के हिसाब से यह स्वां त: सुखाय लिखा जाता है, और ऐसा लिखकर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हैं. ‘भड़ास’ का तो टैगलाइन ही है: अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा... हालांकि अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के बरअक्से ब्लॉलग के बारे में जो छिटपुट लिखा गया है उनमें सुश्री नीलिमा चौहान का शोधपत्र ‘अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल: चन्दट सिरफिरों के खतूत’ प्रमुख है. ब्लॉंग को परिभाषित करते हुए नीलिमा लिखती हैं : ... चिट्ठे या ब्लॉमग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्पेबस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है. इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्टं कहते हैं एक स्वपतंत्र वेब – पता होता है. सामान्य्त: पाठकों को इन पोस्टों पर टिप्पुणी करने की सुविधा होती है! यदि चिट्ठाकार स्वतयं इस पते को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा – सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है. अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक – जोन से परे व्यजक्तिगत स्पेहस में व्य क्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्यसक्ति को ब्लॉटगिंग कहा जा सकता है. तमाम मौखिक और लिखित परिभाषाओं के मद्देनज़र मेरा ये मानना है कि ब्लॉजग स्वांयत: सुखाय कदापि नहीं हो सकता. ब्लॉपग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. मेरा यह मानना है कि किसी भी प्रकार की अभिव्यखक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक असर होता है. हर ब्लॉागलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, कुछ उकेर रही होती है, कहीं उकसा रही होती है, या फिर कुछ उलझा या सुलझा रही होती है. मिसाल के तौर पर 12 सितंबर 09 को कसबा पर रवीश कुमार की इस अभिव्यिक्ति पर ग़ौर कीजिए: आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कह गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है। रवीश की इस अभिव्यटक्ति को आप ये कहेंगे कि उन्होंलने उपर्युक्तग बातें यूं ही ख़ुद को ख़ुश करने के लिए लिखा है? मुझे तो इसमें साल में एक दिन हिंदी को धो-पोछ कर सजाने की दृष्टि से फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टांगने जैसी औपचारिकता का प्रतिरोध झलकता है. ज़रा रवीश की पोस्टक पर सतीश पंचम की टिप्पेणी पर ग़ौर करते हैं: वैसे ये बात तो सच है कि हाशिये, चिंतन, संगोष्ठी जैसे शब्द सुनते ही जहन में बूढे पोपले चेहरे, श्वेत बालों वाले लोगों की तस्वीर उभरती है। एक गीत सुना था जिसमें 'दिल' शब्द की जगह 'हृदय' शब्द का इस्तेमाल हुआ था - वह गाना था... कोई जब तुम्हारा 'हृदय' तोड दे....।खोज बीन करने पर एक औऱ गीत का पता चला - अनामिका फिल्म का जिसमें पूरा तो याद नहीं पर कहीं अंतरे में शब्द है कि ...तुझे 'हृदय' से लगाया...जले मन तेरा भी...तू भी तडपे..... इन दो गीतों के बाद मैंने थोडा सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों फिल्म लाईन में 'दिल' शब्द को 'हृदय' शब्द के मुकाबले तरजीह दी जाती है। जो जबान पर चढे है....वही भाषा बढे है...कम से कम फिल्म लाईन में तो यही चलन है। ... उपर्युक्तर दोनों उद्धरणों से ये स्प.ष्टे हो जाता है कि ब्लॉलग महज़ दिल को ख़ुश रखने के लिए तो नहीं लिखा जाता है, और यह भी कि कि पोस्ट के साथ-साथ टिप्पजणी/प्रतिक्रिया भी ब्लॉलगिंग का एक अहम पहलु है. यह ब्‍लॉ‍गिंग को इंटरैक्टिव बनाती है और ये इसकी बहुत बड़ी ताक़त है. अख़बारों की तरह नहीं कि संपादकीय पृष्टह पर कोई लेख छप गया और फिर ख़ुद उसका कतरन लिए यार-दोस्तों् के सामने लहराते फिर रहे हैं (माफ़ कीजिएगा, मेरे साथ ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है), किसी ने अपनी राय दे दी तो ठीक वर्ना ... आप समझ ही सकते हैं कि लेखक की क्याब हालत होती है! और अगर किसी संवेदनशील पाठक की राय छपी भी तो कौन-से संपादक महोदय फ़ोन करके बताते हैं कि ‘बंधुवर, आपके लेख पर किसी पाठक ने सज्जेनपुर से चिट्ठी भेजी है, देख लीजिएगा’. इधर ब्लॉ‘गिंग में माल प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी हाजिर. मन माफिक प्रतिक्रिया मिल गयी तो बल्लेद-बल्ले वर्ना बहस खड़ा करने वाली मुद्रा में आने से कौन रोक लेगा. यानी यहां एक तो टिप्प णी झट से मिल जाती है, और ऐसी मिलती है कि पट आने पर भी जी खट्टा नहीं होता. रिश्ते गढ़े पहचान दिलाए मुझे ब्लॉ़ग के बारे में एक बात और लगती है, वो ये कि किसी मसले को एक व्या्पक ऑडिएंस तक ले जाने और एक नये दायरे से रू-ब-रू होने व रिश्ताक बनाने का यह एक ज़बर्दस्तप ज़रिया है. यहां अकसर ऐसा होता है कि कोई शख़्ेस आपसे कभी साक्षात न मिला हो पर आभासी दुनिया में आपकी उपस्थिति से वो वाकिफ़ हो, और अपने मन में उसने आपकी कोई छवि तैयार कर ली हो. यानी आप व्यादपक ऑडिएंस तक तो जाते ही हैं पर उससे भी आगे बढ़कर लोग आपसे जुड़ते हैं और आपकी एक पहचान गढ़ते है. यानी यहां ब्लॉ गबाज़ों को एक पहचान मिलती है जो नितांत उनकी आभासी उपस्थिति के आधार पर निर्मित होती है. मिसाल के तौर पर, आपसी बातचीत में साथी ब्लॉ गर विनीत कुमार अकसर बताते हैं कि जब तक वे मीडिया की नौकरी करते थे तो सहकर्मी भी भाव नहीं देते थे. और अब उनके पोस्ट पढ़-पढ़ कर मीडिया से बाबाओं के फ़ोन उनके पास आते हैं और घर आने का न्यौ़ता भी. कहां तक पहुंचा ब्लॉघग अप्रैल 2004 में जब आलोक ने 9-2-11 की शुरुआत की थी, तब महत्त्वपूर्ण सवाल ये था कि पाठक कौन होगा. हालांकि आलोक और उनके टेकमित्रों ने मिलकर उस समस्याि को एक हद तक सुलझा लिया. कुछ ग़ैर-तकनीकी पृष्ठ2भूमि के लोगों को भी ऑनलाइन और फ़ोन प्रशिक्षण के मार्फ़त इस बात के लिए राज़ी किया कि वे भी ब्लॉिगिंग में आएं. लोग आए भी. अगर साल 2004-2005 में आरंभ हुए ब्लॉ गों पर विचरण करें तो आपको दो बातों का अहसास होगा: पहला ज़्यादातर आरंभिक ब्लॉीगर टेकविशारद थे और दूसरा सब एक-दूसरे से जुड़े थे. यानी उन ब्लॉयगरों का एक समुदाय था. वे आपस में पढ़ते-पढ़ाते थे और विशेषकर तकनीकी पक्ष को लेकर अनुसंधान किया करते थे. नुक्तामचीनी , देवनागरी , रचनाकार , ई स्वाीमी , फुरसतिया तथा प्रतिभास जैसे चिट्ठे और आलोक कुमार, देवाशीष चक्रवर्ती, रवि रतलामी, अनुनाद सिंह, जीतू , जैसे चिट्ठाकारों ने ब्लॉेग को लोकप्रिय बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की. मज़ेदार बात ये है कि इनमें से कोई भी खांटी हिंदीवाला नहीं है या यों कहें कि वे हिंदी कर-धर कर नहीं कमाते-खाते हैं. हां, वे हिन्दीो-प्रेमी और हिंदी के प्रति समर्पित हैं, और प्रकारांतर में उनमें से ज़्यादातर ने शुरू-शुरू में शौकिया लिखना शुरू किया और आज कुछेक को छोड़कर सारे धांसू लिखाड़ बन चुके हैं. 2007 के शुरुआती महीनों में हिंदी चिट्ठों की संख्या तक़रीबन 700 थी और नीलिमा के मुताबिक़ उसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी . पाठकों की संख्या में भी थोड़ा-‍बहुत इज़ाफ़ा होने लगा था और लोग टेक्नॉसल्जीश में दिलचस्पीो भी लेने लगे थे. 2007 तक आते-आते कुछ मुद्दे आधारित ब्लॉलग भी अस्तित्वट में आने लगे थे. कविताओं, कहानियों, संस्म0रणों से आगे बढ़ कर ताज़ा ज्वललंत मुद्दों पर चर्चाएं होने लगी थीं. उसी साल शुरू हुए मोहल्लाी , कबाड़खाना और भड़ास जैसे सामुदायिक ब्लॉलगों की मौज़ूदगी से बहस-मुबाहिसों को सह मिलने लगा था. तभी दिसंबर 2007 की 13 तारीख को अगले साल, 2008 की ब्लॉगकारिता कैसी हो – के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और संवेदनशील ब्लॉीगर श्री दिलीप मंडल ने अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की: एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं. और फिर उन्होंेने निम्नकलिखित बिंदुओं को रेखांकित किया: हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो ... हिंदी ब्लॉबग के पाठकों की संख्या लाखों में हो ... विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए ... ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो ... टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो ... ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो ... ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो ... नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु ... हैपी ब्लॉगिंग! जिस ऑर्डर में दिलीपजी ने शुभकामनाएं व्यऔक्ति की थी, थोड़े-बहुत उलट-फेर के साथ भी यदि उनकी पूर्ति हो जाती तो हिंदी ब्लॉ,गिंग की सेहत में सुधार आता. बेशक 12 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉोग बन गए हों, मुद्दा आधालरित ब्लॉऑगों के पैर जमने लगे हों, असहमतियों और झगड़ों से गली-नुक्कखड़ भी झेंपने लगे हों किंतु मठाधीशी, चारण-वंदन, मिलन समारोहों और वार्षिकियों जैसे छापे की दुनिया के रोगों से चिट्ठाकारी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पायी है. इंटरनेट के व्या्पकीकरण तथा कंप्युनटर की उपलब्ध ता में अवरोध से तो हम वाकिफ़ हैं ही. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now: http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s Email delivery powered by Google. Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091023/43aaf60c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Oct 24 03:02:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 24 Oct 2009 03:02:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkruClh+CkgiDgpKzgpY3gpLLgpYngpJcg4KSu?= =?utf-8?b?4KSC4KSl4KSoIOCktuClgeCksOClgQ==?= Message-ID: <829019b0910231432h663de808n94fb314d5dc136cc@mail.gmail.com> अचानक पाबंदियों के टूटने से भी दम घुटने लगता है,अनंत आजादी कई बार अराजक स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए चिट्ठाकारी पर जब भी हम बात करते हैं तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच के फर्क को समझना होगा। चिट्ठाकारी में जो कुछ भी कर रहे हैं उसके साथ हर हाल में जिम्मेदारी का एहसास भी होना चाहिए। आदमी जब बोलता है तो कुछ भी बक देता है लेकिन लिखते वक्त हम ऐसा नहीं कर सकते। बोलने से जीभ नहीं कटती लेकिन लिखने से हाथ कट जाता है। हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि आजाद अभिव्यक्ति के नाम पर जो कुछ भी चिट्ठाकारी की दुनिया में लिखा जा रहा है,इसके बीच एक स्टेट मशीनरी भी है। आनेवाले समय में ये राज्य लिखने के मामले में दखल करे इससे पहले ही चिठ्ठाकारों को चाहिए की वो अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए स्वयं अनुशासित हों। इलाहाबाद में चिठ्ठाकारी की दुनिया विषय पर आयोजित दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए नामवर सिंह ने ब्लॉगिंग को आजादी की अनंत दुनिया मानकर सिलेब्रेट करनेवाले ब्लॉगर समाज को इस पक्ष से भी सोचना जरुरी बताया। नामवर ने इस मौके पर इस शहर को ऐतिहासिक करार दिया कि कभी इसी शहर से हिन्दी के आंदोलन की शुरुआत हुई थी और आज फिर इसी शहर ने हिन्दी के नए रुप चिठ्ठाकारिता पर पहली बार राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी आयोजित की है। नामवर सिंह की ही बात को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि-हमें पता है कि जब स्टेट इस तरह के किसी भी मामले में दखल करती है तो उसका रवैया किस तरह का होता है? ऐसे मसले में ब्यूरोक्रेसी नियंत्रण के नाम पर किस तरह का व्यवहार करती है,ये सब हमें समझना होगा। उन्होंने इन्टरनेट के जरिए अपार सूचना प्रसारित किए जाने के सवाल पर कहा कि जो भी इन्फार्मेशन आ रहे हैं उनमें नॉलेज एलीमेंट कितना है,इस सिरे से भी सोचने की जरुरत है? शुरुआत में जिस तरह टेलीविजन के आने से लगा कि अखबार और पत्रिकाएं अपना महत्व खो देंगी वैसी ही चर्चा ब्लॉग के बारे में की जा रही है लेकिन ऐसा नहीं है। मंच पर आसीन लोग जब बारी-बारी से ब्लॉग के जरिए अराजक स्थिति पैदा करने की बात कर रहे थे,ऐसे में संतोष भदौरिया ने स्पष्ट किया कि इसके लिए ब्लॉगर या मॉडरेटर कम दोषी है। इसके लिए दोषी वो कुंठासुर बेनामी टिप्पणीकार जिम्मेदार हैं जो कि बेतुकी बातें करके निकल लेते हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर अराजकता और छिछोरेपन के सवाल को पूरे दिन तक ब्लॉगर और गैर-ब्लॉगर मौके-बेमौके प्रमुखता से उठाते रहे। प्रथम सत्र में आकादमिक मिजाज की औपचारिकता पूरे होने के बाद हिन्दी ब्लॉगिंग के गुरु कहे जानेवाले रवि रतलामी ने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए ब्लॉग से जुड़े विविध मसलों पर अपनी बात रखी। उन्होंने ग्राफिक्स के जरिए स्पष्ट किया कि आनेवाला समय इंटरनेट का है और ब्लॉगिंग में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि ब्लॉगिंग के कई तरह के नुकसान भी है और हमें इससे सतर्क रहने की जरुरत है। रवि रतलामी कल ब्लॉगिंग के तकनीकी पक्षों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रथम सत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि इसमें हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से प्रकाशित,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब ब्लॉग जगत का एक झरोखा सत्यार्थमित्र का लोकार्पण भी किया गया। इस किताब में उनके ब्लॉग की चुनी हुई पोस्टें शामिल हैं। इस किताब पर मशहूर ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय ने ब्राउसर के जरिए प्रेषित किया कि-अगर आपके पास पहले से उपलब्ध अनुभव,भाषा पर पकड़ और नैसर्गिक रुप में'कम से अधिक'अभिव्य्त करने की क्षमता नहीं है तो आप सफल ब्लॉगर नहीं हो सकते। सिद्धार्थ को हिन्दी ब्लॉगिंग में सफलता में सफलता,शंका की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। कुल मिलाकर ब्लॉगरों के बीच ये सत्र गैर-ब्लॉगरों की ओर से नैतिक निर्देश का एहसास कराने और सांकेतिक रुप से संस्कारित किए जाने की कोशिशों के तौर पर याद किया जाएगा। दूसरे सत्र में विचार अभिव्यक्ति का नया आयाम पर विमर्श करने के लिए हमहिन्दुस्तानी अकादमी की बिल्डिंग से दूरस्त महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयके इलाहाबाद सेंटर पर जमा हुए।। इस सत्र में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए करीब 35 ब्लॉगरों ने शिरकत की और इलाहाबाद के करीब 12 ब्लॉगर मौजूद थे। ब्लॉगरों के औपचारिक परिचय के दौर ने काफी समय ले लिया। शोर-शराबे के बीच इस परिचय का शायद ही बहुत लोगों को लाभ मिला होगा। खराब ऑडियो क्वालिटी, लोगों की आपसी कानाफूसी और लगातार आवाजाही के बीच विमर्श के लिए जो माहौल बनने चाहिए वो नहीं बन पाया। इसी माहौल में बारी-बारी से आज के ब्लॉगर-वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं। इस दूसरे सत्र का संचालन फुरसतिया नाम से मशहूर ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने किया। पहले वक्ता के तौर पर चर्चित पोर्टल भड़ास4मीडिया के मॉडरेटर यशवंत सिंह ने ब्लॉगिंग मेंअभिव्यक्ति के खतरे पर बातचीत करते हुए कहा कि शुरुआत में जब भड़ास को लेकर शिकायतें आनी शुरु हुई तब हमने व्यवस्थित तरीके से भड़ास4मीडिया शुरु किया और उसके बाद गाय समझी जानेवाली मीडिया के भीतर के सफेद-स्याह को सामने लाने की कोशिशें की। बड़ी मीडिया जिस तरह से बड़ी खबरों को दबाने का काम करती है,हमारी कोशिश होती है कि हम उन पक्षों को सामने लाएं। हमें कई तरह से लोग सलाह देने का काम करते हैं किसी की इच्छाएं भली होती है तो किसी का बहुत ही खतरनाक लेकिन मेरा मानना है कि हम अगर अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं तो किसी भी तरह का फर्क नहीं पड़ता।यशवंत ने ब्लॉग के मॉनिटरी पहलूओं को बहस के बीच शामिल किया जाना अनिवार्य बताया। उन्होंने कहा कि पैसे पर बात करने के मामले में हिन्दी समाज पिछड़ा रहा है औऱ इस पर गंभीरता से बीत होनी चाहिए। अभिव्यक्ति के नए माध्यम पर बात करने आयी मीनू खरे ने अपना पूरा समय ब्लॉग के इतिहास,अभिव्यक्ति के संवैधानिक प्रावधानों के वर्णन में खपा दिया। उनकी प्रस्तुति से ब्लॉग-इतिहास की एक अच्छी समझ बनने की संभावना हो सकती थी लेकिन एक तो विषय से भटक जाने औऱ दूसरा कि रवि रतलामी की ओर से पहले ही सत्र में इन सब बातों पर चर्चा कर दिए जाने की वजह से ऑडिएंस ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी और कुछ भी निकलकर सामने नहीं आने सका। जबकि मीनू ने आते ही घोषणा की थी कि बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी। बोधिसत्व ने ब्लॉग के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुई ये स्वीकार जरुर किया कि इसके जरिए हमारे परिचय का दायरा बढ़ा है लेकिन ब्लॉग में बहस की गुंजाइश है,इस बात से वो साफ इन्कार करते हैं। उनका मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है। आप कुछ भी लिख लो,बात करना चाहो लेकिन वो कमेंट के जरिए पर्सनल छींटाकशी में उलझकर रह जाता है। इसलिए मैं संस्मरण लिखता हूं,ब्लॉग बहुत ही अघाए हुए लोगों के हाथ में फंसा हुआ नजर आता रहा है जिनके हाथ में ब्लॉग के लिए हाथ में कम से कम 1000 रुपये हैं। खिले हुए चेहरे ही अधिक शामिल होता जा रहा है। इसे मैं अच्छे दिनों को याद करने का माध्यम मानता हूं और इसे अपनी निजी डायरी के तौर पर देखता हूं। मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश के ये कहने पर कि मैं अनामी टिप्पणीकारों का समर्थन करता हूं,एक तरह से पूरे सदन में हंगामा मच गया। आगे बैठे कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर बातें करनी शुरु कर दी। उन्होंने कहा कि महौल इतनी अनौपचारिक हो जाएगी इसी उम्मीद नहीं थी। इतने वेपरवाह हो जाएंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। यहां उद्घाटन सत्र से लेकर विषय से फोकस्ड सत्र में भी कक्षा की तरह से बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि बोधिसत्वने कहा कि खाए-पीए-अघाए लोगों के बीच फंसा हुआ है,वो फंसा हुआ है भले ही लेकिन पीपुल्स का मीडियम है। ये पूंजी का माध्यम नहीं है। हिन्दी में ब्लॉगिंग की कवायद पारिवारिक की तरह रही है। ये पीपुल्स मीडियम है,इसी हिसाब से उसे बात करनी चाहिए। सही नाम से बात करने से कई तरह की परेशानी हो सकती है। स्टेट से सुरक्षित रहते हुए अपनी बात करनी होती है। मैं बेनामी का समर्थक हूं। ट्रेडिशनल मीडिया के पास पूरे वाक्य है,उसके पास पूरा व्याकरण है। ये कानाफुसियों को दर्ज करने का माध्यम है। मैं इसमें डिक्टेट करने के पक्ष में नहीं हूं। मुद्दे की बात हो ही नहीं रही है। अविनाश ने पूरे सत्र को लेकर निराशा जाहिर करते हुए कहा कि मेरे सामने जनतंत्र डॉट कॉम के मॉडरेटर समरेन्द्र मौजूद हैं,मैं चाहता हूं वो ब्लॉगजगत के कुंठासुर पर मेरी तरफ से शुरु की गयी बातचीत को आगे बढाएं। समरेन्द्र ने अपनी बातचीत की शुरुआत प्रथम सत्र में विद्वानों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को शामिल करते हुए की। उन्होंने कहा कि- विभूति नारायण राय ने कहा कि जिम्मेदारी बहुत जरुरी है,राज्य जब दखल देगी तो आपलोग बहुत परेशान हो जाएंगे। सिस्टम हमेशा डराने-धमकाने का काम करते हैं। नामवर ने कहा कि आप जिम्मेदार बनिए। क्या कोई चैनल जिम्मेदार है,आम आदमी की बात करता है। दूरदर्शन के पचास साल हो गए वो भी जिम्मेदार भी नहीं बन पाया।..क्यों नहीं कहेंगे हम? क्या उंगलियां नहीं उठेगी? आम आदमी नाम के साथ नहीं आएगा। हमें जिम्मेदार बनने की हिदायतें दी जा रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे ये साफ होता है कि बेनामी ने अगर अपनी पहचान जारी कर दी तो स्टेट और मशीनरी शिकंजे कसना शुरु कर देती है। आम ब्लॉगर के लिए ये संभव ही नहीं है कि वो ये सबकुछ झेल पाए। समरेन्द्र की बात से असहमति जताते हुए हर्षवर्धन ने कहा कि- मैं ब्लॉगिंग को वैकल्पिक मीडिया के तरह से देख रहा हूं। अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। अगर ब्लॉग व्यक्तिगत होने लग जा रहा है तो माफ कीजिए इसका मुझे कोई बहुत बड़ा भविष्य नहीं दिखता है। हम मीडिया के बीच से एक रास्ता निकालने का काम कर रहे हैं। अगर हम इस ब्लॉग को सरोकार की मीडिया बनाना चाहते हैं तो हम उसके मददगार बने। एक बड़ा माध्यम बनने वाला है और मैं इस मुहिम के साथ हूं। कॉफी हाउस नाम से ब्लॉग चलानेवाले भूपेन ने अब तक की हुई बातचीत पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए ब्लॉगिंग को थ्योराइज करने की जरुरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि-किस दिशा में ब्लॉग जाए इस पर बात करनी चाहिए। अविनाश ने मॉडरेटर की जरुरत को नकारा। ब्लॉग न्यू मीडिया का हिस्सा है। मेनस्ट्रीम मीडिया का क्या हाल है ये हमसे छिपा नहीं है। इसका मालिक कौन है इस पर भी हमें सोचना होगा। इसके रिच पर हमें बाक सोचनी होगी। अगर आप आजादी की बात कर रहे हैं तो आप गलतफहमी के शिकार हैं। किसने आपको स्पेस दिया,उसके पीछे की इकॉनमी को समझना पड़ेगा। किस क्लास की ऑडिएंस है इसे भी हमें समझना है। झारखंड के लोगों के लिए डेमोक्रेसी का मतलब अलग है और दिल्ली के लोगों के लिए डेमोक्रसी का अलग मतलब है। पीपुल्स मीडिया अभी नहीं हुआ है। समरेन्द्र ने कहा कि चाइल्डहुड में है लेकिन ये तर्क सही नहीं है। ये झूठ ठूंसा हुआ है। क्या वो वाकई चाइल्डहुड में है। उन्होंने इस संदर्भ में नोम चॉमस्की का भी रेफरेंस दिया और बताया कि किस तरह से पूंजीवाद माध्यम अपने पक्ष में माहौल बनाने का काम करते हैं,हमें इस बात को हमें समझना होगा। नए मीडिया को लेकर हमेशा शक रहा है। क्या ये राष्ट्रीय ब्लॉगिंग है,इन्टरनेशनल है,इस पर समझने की जरुरत है,ट्रांसनेशनल हैं,ये समझना है। हमे इसकी ऑनरशिप पर भी बात करनी होगी। ये मीडिया के कैरेक्टर को डिफाइन करता है। हमारे राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र क्या होगा,इस पर बात करनी चाहिए। अंत में...मॉडरेटर पूरी आजादी नहीं देनी होगी,मॉडरेटर को अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी। अपना घर की आभा मिश्रा ने पहले तो हताशा मगर बाद में उम्मीद जताते हुए कहा कि-लोग बहस नहीं करते,फैसले सुनाते हैं। मैं सही और तू गलत। बहस एकतरफा हो रही है.. लोग अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं। सामनेवाले ब्लॉग की हत्या की कोशिश में लगे हैं लेकिन हमें उम्मीद है कि आनेवाला समय ऐसा नहीं होगा। बेदखल की डायरी नाम से मशहूर ब्लॉग की संचालक मनीषा पाण्डेय ने कहा कि-खास बात कहने को बची नहीं है। भूपेन की ही बात से कई गुत्थियां सुलझ गयी। एक हिन्दी समाज का प्रॉब्लम है। ब्लॉग में वही हो रहा है जो कि समाज में हो रहा है। जैसे घरों में बात हो रही है वैसी ही बात हो रही है। हमारी लड़ाई रचनात्मक होनी चाहिए। अच्छे इरादे होनी चाहिए. अभिव्कयक्ति के स्तर पर कई तरह की गहराई होनी चाहिए। सही इरादों से विरोध होने चाहिए जिससे कि कुछ लोगों की जुबान चुप हो सकें।.. अनामी को लेकर मसीजीवी नाम से मशहूर ब्लॉगर विजेन्द्र सिंह चौहान ने अपना खुला समर्थन दिया। उन्होंने कहा कि-भूपेन ने जो सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की बात की है उस पर बात करना जरुरी है। सैद्धांतिक आधार का होना अनिवार्य है। इससे पहले कि हमारे लिए कोई और सिद्धांत गढ़ने लगे इससे पहले जरुरी है कि हम खुद ही सिद्धांत गढ़ लें। बेनामी से बाहर जाकर सिद्धांत नहीं गढ़े जा सकते। मैंने भी इन गालियों को झेला है लेकिन फिर भी ब्लॉगिंग की परिभाषा में ये निहित है कि हम उसे शामिल है। बेनामी को जब हम बहिष्कृत कर देगें तो शिकंजा हमारा गले में हैं। कौन होता है बेनामी- सबसे बड़ा कारण स्वयं से डर। हम लगातार पॉलिटिकली करेक्ट होने का दावा झूठा करते हैं। एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। दूसरी बात,हम मानें या न माने लेकिन ये अर्थतंत्र हैं,हम इससे कमाएं या नहीं लेकिन हम कंटेट को कॉमोडिटी बनाते हैं। वो खरीदा जा रहा है बेचा जा रहा है। इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। तीसरा,हमने अब तक की सारी लड़ाइयां इकठ्ठे होकर लड़ी हैं। इस नयी व्यवस्था में इन्डीविजुअलिटी को सिलेब्रेट किया जा रहा है। जैसे ही हम ब्लॉगिंग को ब्लॉगिंग के नहीं रहने देने के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं,तभी तक हम राज्य की कठपुतलियों के शिकार हो जाते हैं। मशहूर ब्लॉगर इरफान का मानना रहा कि- ब्लॉग समाज का आइना है। कोई एक स्टिकयार्ड नहीं हो सकता है,हर को अपनी बात कहने की आजादी है।. आखिरकार एक रचना एक प्रयास की मांग करता है। सिर्फ वर्णमाला औऱ वाक्य रचना को जानकर आप लेखक नहीं बन सकते। बहुत दिलचस्प माध्यम है जिसमें मल्टीमीडिया का इस्तेमाल होता । ये अद्भुत माध्यम है। सवाल बहुत है लेकिन हम बद्ध होकर,व्यवस्थित तरीके से बात नहीं कर रहे हैं।सहारा चैनल के मालिक को सारा जगत सहारा लगने लगा है। छूकर मेरे दिल को किया तूने क्या इशारा, बदला ये मौसम लगे सहारा जग सारा,ये गीत गाते हैं। क्यों बंद किया गाने को अपलोड़ करने का काम टूटी हुई बिखरी हुई पर?मैं दूसरे के मजे के लिए अपने अर्काइव नहीं उपलब्ध करा सकता। लोग टीप करके अपनी बात कर देते। मेरे एक लोड़ किए गए गाने को 16 हजार लोगों ने डाउनलोड किया। सस्ता शेर की शायरी को उठा-उठाकर मोबाईल कंपनियां एसएमएस जोक बनाकर बाजार में बेच रही है। हम इस तरह अपने ह्यूमन पॉवर को क्यों जाया होने दें? मेरे पास एक रफ आइडिया है चेक करने के,आत्म नियंत्रण के समय मिला तो कल इसकी विस्तार से चर्चा करुंगा। अफलातून ने खुले अंदाज में अपनी बात रखते हुए कहा कि- खुले विश्व के बंद होत दरवाजे- हिन्दुस्तान में मैंने एक लेख लिखा। कल हमसे सवाल-जबाब किए जाएंगे कि कहां से पैसा आ रहा है। विदेशों में ये काम शुरु हो गयी है। एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। मसिजीवी ने जो पर्सनल होने की बात कही है,ये बहुत खतरनाक बात है। इमरजेंस एक ग्रंथ है इंटरनेट और चीतों को लेकर अध्ययन पक्षियों को लेकर जो व्यवहार है,वही व्यवहार है इंटरनेट की दुनिया में। हमें सही दिशा में बातों को ले जाएं ये बहुत जरुरी है। इ-स्वामी, इ-पंडित की चर्चा इन्होंने भी अनामी थे...हमें इनके योगदान को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बेनामी टिप्पणियां अगर सकारात्मक तौर पर हो तो फिर उसमें क्या आपत्ति हो सकती है। अभी ब्लॉगिंग हम कोई क्रांतिकारी नजरिया नहीं आ रहा है। टेक्नीकली सीख लिए और निपट दिए। जरुरी है कि एक सामूहिक घोषणा जारी हो..इलाहाबाद से एक घोषणा जारी हो। वीकीपीडिया में योगदान करने की जरुरत है। इसे हिन्दू वीकीपिडिया या मुस्लिम वीकिपीडिया नहीं बनने दें। हमें जिम्मेदारी तो हर हाल में निभानी होगी। अब ब्लॉग पर कायदें की बहसें नहीं होती। जब तक पहुंचता हूं तब तक धूल उड़ती नजर आती है। मेरे ब्लॉग पर ऐसा कुछ नहीं होता कि बेनामी कमेंट किए जाएं लेकिन करते हैं और भद्दे तरीके से करते हैं। ब्लॉगिंग ने भाषा का कोई नया मुहावरा नहीं रचा है। अजीत वडनेरकर को आज ही गाड़ी से दिल्ली जाना था इसलिए उन्होंने बहुत ही संक्षेप में अपनी बात रखते हुए संभावनाओं की तरह बढ़ने पर जोर दिया। कलकत्ता से आए प्रियंकर ने कहा कि- मैं बेनामी पर कहना चाहूंगा। किसी से हर समय नाम की उम्मीद करना सही नहीं है। ये अतिरिक्त मांग है। पचास जन्म लेना पड़ेगा घुघूती बासुती,अनामदास जैसा लिखने के लिए। ये अपनी पहचान नहीं बताना चाहते तो क्या दिक्कत है? इन्होंने बहुत ही बेहतर तरीके से लिखा है। बेनामी कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। असल चीज है कि कंटेंट पर बात होनी चाहिए। अगर वो छद्म नाम से लिखते हों तो क्या दिक्कत है। ब्लॉगरों के अतिरिक्त इस सत्र में इसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से एम.फिल कर रही एक स्टूडेंट उमा साह ने बताया कि उसने ब्लॉग की भाषा पर रिसर्च किया है और वो इस नाते अपनी बात रखना चाहती है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग में अभी भी किसी भी तरह की सेंसरशिप नहीं है इसलिए इसमें मुख्यधारा की मीडिया से बहुत आगे जाने की गुंजाइश है और इसे भी हमें चौथे खंभे के तौर पर विकसित किए जाने चाहिए। अलग-अलग मौके पर उठापटक के बीच ये सत्र यहीं समाप्त होता है। रातभर की यात्रा की वजह से बुरी तरह थका हूं। कल ब्लॉगःभाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे अपनी बात रखनी है। आपसे माफी मांगते हुए कि मैंने कई जगह बिना बारीकी से पढ़ते हुए सत्र के दौरान टाइप की गई लाइनों को चस्पा दिया है। आप उन्हें सुधारकर पढ़ लेंगे। मैं और मेहनत करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हूं। इन सबके बीच दुखद पहलू है कि जिस डिजिटल रिकार्डर से मैं अब तक आपके लिए संगोष्ठियों के ऑडियो वर्जन उपलब्ध कराता रहा वो सभागार की डेस्क पर से सत्र खत्म होने के साथ ही गायब हो गया। एक भावनात्मक जुड़ाव और आर्थिक क्षति की वजह से परेशान हूं। मूड़ खराब है,खुश होने के लिए इतना है कि इलाहाबाद में खाने की व्यवस्था बड़ी दुरुस्त है,मेरे हॉस्टल मेस से कई गुना बेहतर।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/6a88703e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Oct 24 03:11:57 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 24 Oct 2009 03:11:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KS+4KSmIOCkruClh+CkgiDgpKzgpY3gpLLgpYngpJcg4KSu?= =?utf-8?b?4KSC4KSl4KSoIOCktuClgeCksOClgQ==?= Message-ID: <829019b0910231441i8238c4fg2c7d24d5c0994eed@mail.gmail.com> अचानक पाबंदियों के टूटने से भी दम घुटने लगता है,अनंत आजादी कई बार अराजक स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए चिट्ठाकारी पर जब भी हम बात करते हैं तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच के फर्क को समझना होगा। चिट्ठाकारी में जो कुछ भी कर रहे हैं उसके साथ हर हाल में जिम्मेदारी का एहसास भी होना चाहिए। आदमी जब बोलता है तो कुछ भी बक देता है लेकिन लिखते वक्त हम ऐसा नहीं कर सकते। बोलने से जीभ नहीं कटती लेकिन लिखने से हाथ कट जाता है। हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि आजाद अभिव्यक्ति के नाम पर जो कुछ भी चिट्ठाकारी की दुनिया में लिखा जा रहा है,इसके बीच एक स्टेट मशीनरी भी है। आनेवाले समय में ये राज्य लिखने के मामले में दखल करे इससे पहले ही चिठ्ठाकारों को चाहिए की वो अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए स्वयं अनुशासित हों। इलाहाबाद में चिठ्ठाकारी की दुनिया विषय पर आयोजित दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए नामवर सिंह ने ब्लॉगिंग को आजादी की अनंत दुनिया मानकर सिलेब्रेट करनेवाले ब्लॉगर समाज को इस पक्ष से भी सोचना जरुरी बताया। नामवर ने इस मौके पर इस शहर को ऐतिहासिक करार दिया कि कभी इसी शहर से हिन्दी के आंदोलन की शुरुआत हुई थी और आज फिर इसी शहर ने हिन्दी के नए रुप चिठ्ठाकारिता पर पहली बार राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी आयोजित की है। नामवर सिंह की ही बात को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि-हमें पता है कि जब स्टेट इस तरह के किसी भी मामले में दखल करती है तो उसका रवैया किस तरह का होता है? ऐसे मसले में ब्यूरोक्रेसी नियंत्रण के नाम पर किस तरह का व्यवहार करती है,ये सब हमें समझना होगा। उन्होंने इन्टरनेट के जरिए अपार सूचना प्रसारित किए जाने के सवाल पर कहा कि जो भी इन्फार्मेशन आ रहे हैं उनमें नॉलेज एलीमेंट कितना है,इस सिरे से भी सोचने की जरुरत है? शुरुआत में जिस तरह टेलीविजन के आने से लगा कि अखबार और पत्रिकाएं अपना महत्व खो देंगी वैसी ही चर्चा ब्लॉग के बारे में की जा रही है लेकिन ऐसा नहीं है। मंच पर आसीन लोग जब बारी-बारी से ब्लॉग के जरिए अराजक स्थिति पैदा करने की बात कर रहे थे,ऐसे में संतोष भदौरिया ने स्पष्ट किया कि इसके लिए ब्लॉगर या मॉडरेटर कम दोषी है। इसके लिए दोषी वो कुंठासुर बेनामी टिप्पणीकार जिम्मेदार हैं जो कि बेतुकी बातें करके निकल लेते हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर अराजकता और छिछोरेपन के सवाल को पूरे दिन तक ब्लॉगर और गैर-ब्लॉगर मौके-बेमौके प्रमुखता से उठाते रहे। प्रथम सत्र में आकादमिक मिजाज की औपचारिकता पूरे होने के बाद हिन्दी ब्लॉगिंग के गुरु कहे जानेवाले रवि रतलामी ने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए ब्लॉग से जुड़े विविध मसलों पर अपनी बात रखी। उन्होंने ग्राफिक्स के जरिए स्पष्ट किया कि आनेवाला समय इंटरनेट का है और ब्लॉगिंग में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि ब्लॉगिंग के कई तरह के नुकसान भी है और हमें इससे सतर्क रहने की जरुरत है। रवि रतलामी कल ब्लॉगिंग के तकनीकी पक्षों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रथम सत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि इसमें हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से प्रकाशित,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब ब्लॉग जगत का एक झरोखा सत्यार्थमित्र का लोकार्पण भी किया गया। इस किताब में उनके ब्लॉग की चुनी हुई पोस्टें शामिल हैं। इस किताब पर मशहूर ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय ने ब्राउसर के जरिए प्रेषित किया कि-अगर आपके पास पहले से उपलब्ध अनुभव,भाषा पर पकड़ और नैसर्गिक रुप में'कम से अधिक'अभिव्य्त करने की क्षमता नहीं है तो आप सफल ब्लॉगर नहीं हो सकते। सिद्धार्थ को हिन्दी ब्लॉगिंग में सफलता में सफलता,शंका की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। कुल मिलाकर ब्लॉगरों के बीच ये सत्र गैर-ब्लॉगरों की ओर से नैतिक निर्देश का एहसास कराने और सांकेतिक रुप से संस्कारित किए जाने की कोशिशों के तौर पर याद किया जाएगा। दूसरे सत्र में विचार अभिव्यक्ति का नया आयाम पर विमर्श करने के लिए हमहिन्दुस्तानी अकादमी की बिल्डिंग से दूरस्त महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयके इलाहाबाद सेंटर पर जमा हुए।। इस सत्र में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए करीब 35 ब्लॉगरों ने शिरकत की और इलाहाबाद के करीब 12 ब्लॉगर मौजूद थे। ब्लॉगरों के औपचारिक परिचय के दौर ने काफी समय ले लिया। शोर-शराबे के बीच इस परिचय का शायद ही बहुत लोगों को लाभ मिला होगा। खराब ऑडियो क्वालिटी, लोगों की आपसी कानाफूसी और लगातार आवाजाही के बीच विमर्श के लिए जो माहौल बनने चाहिए वो नहीं बन पाया। इसी माहौल में बारी-बारी से आज के ब्लॉगर-वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं। इस दूसरे सत्र का संचालन फुरसतिया नाम से मशहूर ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने किया। पहले वक्ता के तौर पर चर्चित पोर्टल भड़ास4मीडिया के मॉडरेटर यशवंत सिंह ने ब्लॉगिंग मेंअभिव्यक्ति के खतरे पर बातचीत करते हुए कहा कि शुरुआत में जब भड़ास को लेकर शिकायतें आनी शुरु हुई तब हमने व्यवस्थित तरीके से भड़ास4मीडिया शुरु किया और उसके बाद गाय समझी जानेवाली मीडिया के भीतर के सफेद-स्याह को सामने लाने की कोशिशें की। बड़ी मीडिया जिस तरह से बड़ी खबरों को दबाने का काम करती है,हमारी कोशिश होती है कि हम उन पक्षों को सामने लाएं। हमें कई तरह से लोग सलाह देने का काम करते हैं किसी की इच्छाएं भली होती है तो किसी का बहुत ही खतरनाक लेकिन मेरा मानना है कि हम अगर अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं तो किसी भी तरह का फर्क नहीं पड़ता।यशवंत ने ब्लॉग के मॉनिटरी पहलूओं को बहस के बीच शामिल किया जाना अनिवार्य बताया। उन्होंने कहा कि पैसे पर बात करने के मामले में हिन्दी समाज पिछड़ा रहा है औऱ इस पर गंभीरता से बीत होनी चाहिए। अभिव्यक्ति के नए माध्यम पर बात करने आयी मीनू खरे ने अपना पूरा समय ब्लॉग के इतिहास,अभिव्यक्ति के संवैधानिक प्रावधानों के वर्णन में खपा दिया। उनकी प्रस्तुति से ब्लॉग-इतिहास की एक अच्छी समझ बनने की संभावना हो सकती थी लेकिन एक तो विषय से भटक जाने औऱ दूसरा कि रवि रतलामी की ओर से पहले ही सत्र में इन सब बातों पर चर्चा कर दिए जाने की वजह से ऑडिएंस ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी और कुछ भी निकलकर सामने नहीं आने सका। जबकि मीनू ने आते ही घोषणा की थी कि बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी। बोधिसत्व ने ब्लॉग के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुई ये स्वीकार जरुर किया कि इसके जरिए हमारे परिचय का दायरा बढ़ा है लेकिन ब्लॉग में बहस की गुंजाइश है,इस बात से वो साफ इन्कार करते हैं। उनका मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है। आप कुछ भी लिख लो,बात करना चाहो लेकिन वो कमेंट के जरिए पर्सनल छींटाकशी में उलझकर रह जाता है। इसलिए मैं संस्मरण लिखता हूं,ब्लॉग बहुत ही अघाए हुए लोगों के हाथ में फंसा हुआ नजर आता रहा है जिनके हाथ में ब्लॉग के लिए हाथ में कम से कम 1000 रुपये हैं। खिले हुए चेहरे ही अधिक शामिल होता जा रहा है। इसे मैं अच्छे दिनों को याद करने का माध्यम मानता हूं और इसे अपनी निजी डायरी के तौर पर देखता हूं। मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश के ये कहने पर कि मैं अनामी टिप्पणीकारों का समर्थन करता हूं,एक तरह से पूरे सदन में हंगामा मच गया। आगे बैठे कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर बातें करनी शुरु कर दी। उन्होंने कहा कि महौल इतनी अनौपचारिक हो जाएगी इसी उम्मीद नहीं थी। इतने वेपरवाह हो जाएंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। यहां उद्घाटन सत्र से लेकर विषय से फोकस्ड सत्र में भी कक्षा की तरह से बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि बोधिसत्वने कहा कि खाए-पीए-अघाए लोगों के बीच फंसा हुआ है,वो फंसा हुआ है भले ही लेकिन पीपुल्स का मीडियम है। ये पूंजी का माध्यम नहीं है। हिन्दी में ब्लॉगिंग की कवायद पारिवारिक की तरह रही है। ये पीपुल्स मीडियम है,इसी हिसाब से उसे बात करनी चाहिए। सही नाम से बात करने से कई तरह की परेशानी हो सकती है। स्टेट से सुरक्षित रहते हुए अपनी बात करनी होती है। मैं बेनामी का समर्थक हूं। ट्रेडिशनल मीडिया के पास पूरे वाक्य है,उसके पास पूरा व्याकरण है। ये कानाफुसियों को दर्ज करने का माध्यम है। मैं इसमें डिक्टेट करने के पक्ष में नहीं हूं। मुद्दे की बात हो ही नहीं रही है। अविनाश ने पूरे सत्र को लेकर निराशा जाहिर करते हुए कहा कि मेरे सामने जनतंत्र डॉट कॉम के मॉडरेटर समरेन्द्र मौजूद हैं,मैं चाहता हूं वो ब्लॉगजगत के कुंठासुर पर मेरी तरफ से शुरु की गयी बातचीत को आगे बढाएं। समरेन्द्र ने अपनी बातचीत की शुरुआत प्रथम सत्र में विद्वानों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को शामिल करते हुए की। उन्होंने कहा कि- विभूति नारायण राय ने कहा कि जिम्मेदारी बहुत जरुरी है,राज्य जब दखल देगी तो आपलोग बहुत परेशान हो जाएंगे। सिस्टम हमेशा डराने-धमकाने का काम करते हैं। नामवर ने कहा कि आप जिम्मेदार बनिए। क्या कोई चैनल जिम्मेदार है,आम आदमी की बात करता है। दूरदर्शन के पचास साल हो गए वो भी जिम्मेदार भी नहीं बन पाया।..क्यों नहीं कहेंगे हम? क्या उंगलियां नहीं उठेगी? आम आदमी नाम के साथ नहीं आएगा। हमें जिम्मेदार बनने की हिदायतें दी जा रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे ये साफ होता है कि बेनामी ने अगर अपनी पहचान जारी कर दी तो स्टेट और मशीनरी शिकंजे कसना शुरु कर देती है। आम ब्लॉगर के लिए ये संभव ही नहीं है कि वो ये सबकुछ झेल पाए। समरेन्द्र की बात से असहमति जताते हुए हर्षवर्धन ने कहा कि- मैं ब्लॉगिंग को वैकल्पिक मीडिया के तरह से देख रहा हूं। अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। अगर ब्लॉग व्यक्तिगत होने लग जा रहा है तो माफ कीजिए इसका मुझे कोई बहुत बड़ा भविष्य नहीं दिखता है। हम मीडिया के बीच से एक रास्ता निकालने का काम कर रहे हैं। अगर हम इस ब्लॉग को सरोकार की मीडिया बनाना चाहते हैं तो हम उसके मददगार बने। एक बड़ा माध्यम बनने वाला है और मैं इस मुहिम के साथ हूं। कॉफी हाउस नाम से ब्लॉग चलानेवाले भूपेन ने अब तक की हुई बातचीत पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए ब्लॉगिंग को थ्योराइज करने की जरुरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि-किस दिशा में ब्लॉग जाए इस पर बात करनी चाहिए। अविनाश ने मॉडरेटर की जरुरत को नकारा। ब्लॉग न्यू मीडिया का हिस्सा है। मेनस्ट्रीम मीडिया का क्या हाल है ये हमसे छिपा नहीं है। इसका मालिक कौन है इस पर भी हमें सोचना होगा। इसके रिच पर हमें बाक सोचनी होगी। अगर आप आजादी की बात कर रहे हैं तो आप गलतफहमी के शिकार हैं। किसने आपको स्पेस दिया,उसके पीछे की इकॉनमी को समझना पड़ेगा। किस क्लास की ऑडिएंस है इसे भी हमें समझना है। झारखंड के लोगों के लिए डेमोक्रेसी का मतलब अलग है और दिल्ली के लोगों के लिए डेमोक्रसी का अलग मतलब है। पीपुल्स मीडिया अभी नहीं हुआ है। समरेन्द्र ने कहा कि चाइल्डहुड में है लेकिन ये तर्क सही नहीं है। ये झूठ ठूंसा हुआ है। क्या वो वाकई चाइल्डहुड में है। उन्होंने इस संदर्भ में नोम चॉमस्की का भी रेफरेंस दिया और बताया कि किस तरह से पूंजीवाद माध्यम अपने पक्ष में माहौल बनाने का काम करते हैं,हमें इस बात को हमें समझना होगा। नए मीडिया को लेकर हमेशा शक रहा है। क्या ये राष्ट्रीय ब्लॉगिंग है,इन्टरनेशनल है,इस पर समझने की जरुरत है,ट्रांसनेशनल हैं,ये समझना है। हमे इसकी ऑनरशिप पर भी बात करनी होगी। ये मीडिया के कैरेक्टर को डिफाइन करता है। हमारे राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र क्या होगा,इस पर बात करनी चाहिए। अंत में...मॉडरेटर पूरी आजादी नहीं देनी होगी,मॉडरेटर को अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी। अपना घर की आभा मिश्रा ने पहले तो हताशा मगर बाद में उम्मीद जताते हुए कहा कि-लोग बहस नहीं करते,फैसले सुनाते हैं। मैं सही और तू गलत। बहस एकतरफा हो रही है.. लोग अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं। सामनेवाले ब्लॉग की हत्या की कोशिश में लगे हैं लेकिन हमें उम्मीद है कि आनेवाला समय ऐसा नहीं होगा। बेदखल की डायरी नाम से मशहूर ब्लॉग की संचालक मनीषा पाण्डेय ने कहा कि-खास बात कहने को बची नहीं है। भूपेन की ही बात से कई गुत्थियां सुलझ गयी। एक हिन्दी समाज का प्रॉब्लम है। ब्लॉग में वही हो रहा है जो कि समाज में हो रहा है। जैसे घरों में बात हो रही है वैसी ही बात हो रही है। हमारी लड़ाई रचनात्मक होनी चाहिए। अच्छे इरादे होनी चाहिए. अभिव्कयक्ति के स्तर पर कई तरह की गहराई होनी चाहिए। सही इरादों से विरोध होने चाहिए जिससे कि कुछ लोगों की जुबान चुप हो सकें।.. अनामी को लेकर मसीजीवी नाम से मशहूर ब्लॉगर विजेन्द्र सिंह चौहान ने अपना खुला समर्थन दिया। उन्होंने कहा कि-भूपेन ने जो सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की बात की है उस पर बात करना जरुरी है। सैद्धांतिक आधार का होना अनिवार्य है। इससे पहले कि हमारे लिए कोई और सिद्धांत गढ़ने लगे इससे पहले जरुरी है कि हम खुद ही सिद्धांत गढ़ लें। बेनामी से बाहर जाकर सिद्धांत नहीं गढ़े जा सकते। मैंने भी इन गालियों को झेला है लेकिन फिर भी ब्लॉगिंग की परिभाषा में ये निहित है कि हम उसे शामिल है। बेनामी को जब हम बहिष्कृत कर देगें तो शिकंजा हमारा गले में हैं। कौन होता है बेनामी- सबसे बड़ा कारण स्वयं से डर। हम लगातार पॉलिटिकली करेक्ट होने का दावा झूठा करते हैं। एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। दूसरी बात,हम मानें या न माने लेकिन ये अर्थतंत्र हैं,हम इससे कमाएं या नहीं लेकिन हम कंटेट को कॉमोडिटी बनाते हैं। वो खरीदा जा रहा है बेचा जा रहा है। इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। तीसरा,हमने अब तक की सारी लड़ाइयां इकठ्ठे होकर लड़ी हैं। इस नयी व्यवस्था में इन्डीविजुअलिटी को सिलेब्रेट किया जा रहा है। जैसे ही हम ब्लॉगिंग को ब्लॉगिंग के नहीं रहने देने के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं,तभी तक हम राज्य की कठपुतलियों के शिकार हो जाते हैं। मशहूर ब्लॉगर इरफान का मानना रहा कि- ब्लॉग समाज का आइना है। कोई एक स्टिकयार्ड नहीं हो सकता है,हर को अपनी बात कहने की आजादी है।. आखिरकार एक रचना एक प्रयास की मांग करता है। सिर्फ वर्णमाला औऱ वाक्य रचना को जानकर आप लेखक नहीं बन सकते। बहुत दिलचस्प माध्यम है जिसमें मल्टीमीडिया का इस्तेमाल होता । ये अद्भुत माध्यम है। सवाल बहुत है लेकिन हम बद्ध होकर,व्यवस्थित तरीके से बात नहीं कर रहे हैं।सहारा चैनल के मालिक को सारा जगत सहारा लगने लगा है। छूकर मेरे दिल को किया तूने क्या इशारा, बदला ये मौसम लगे सहारा जग सारा,ये गीत गाते हैं। क्यों बंद किया गाने को अपलोड़ करने का काम टूटी हुई बिखरी हुई पर?मैं दूसरे के मजे के लिए अपने अर्काइव नहीं उपलब्ध करा सकता। लोग टीप करके अपनी बात कर देते। मेरे एक लोड़ किए गए गाने को 16 हजार लोगों ने डाउनलोड किया। सस्ता शेर की शायरी को उठा-उठाकर मोबाईल कंपनियां एसएमएस जोक बनाकर बाजार में बेच रही है। हम इस तरह अपने ह्यूमन पॉवर को क्यों जाया होने दें? मेरे पास एक रफ आइडिया है चेक करने के,आत्म नियंत्रण के समय मिला तो कल इसकी विस्तार से चर्चा करुंगा। अफलातून ने खुले अंदाज में अपनी बात रखते हुए कहा कि- खुले विश्व के बंद होत दरवाजे- हिन्दुस्तान में मैंने एक लेख लिखा। कल हमसे सवाल-जबाब किए जाएंगे कि कहां से पैसा आ रहा है। विदेशों में ये काम शुरु हो गयी है। एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। मसिजीवी ने जो पर्सनल होने की बात कही है,ये बहुत खतरनाक बात है। इमरजेंस एक ग्रंथ है इंटरनेट और चीतों को लेकर अध्ययन पक्षियों को लेकर जो व्यवहार है,वही व्यवहार है इंटरनेट की दुनिया में। हमें सही दिशा में बातों को ले जाएं ये बहुत जरुरी है। इ-स्वामी, इ-पंडित की चर्चा इन्होंने भी अनामी थे...हमें इनके योगदान को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बेनामी टिप्पणियां अगर सकारात्मक तौर पर हो तो फिर उसमें क्या आपत्ति हो सकती है। अभी ब्लॉगिंग हम कोई क्रांतिकारी नजरिया नहीं आ रहा है। टेक्नीकली सीख लिए और निपट दिए। जरुरी है कि एक सामूहिक घोषणा जारी हो..इलाहाबाद से एक घोषणा जारी हो। वीकीपीडिया में योगदान करने की जरुरत है। इसे हिन्दू वीकीपिडिया या मुस्लिम वीकिपीडिया नहीं बनने दें। हमें जिम्मेदारी तो हर हाल में निभानी होगी। अब ब्लॉग पर कायदें की बहसें नहीं होती। जब तक पहुंचता हूं तब तक धूल उड़ती नजर आती है। मेरे ब्लॉग पर ऐसा कुछ नहीं होता कि बेनामी कमेंट किए जाएं लेकिन करते हैं और भद्दे तरीके से करते हैं। ब्लॉगिंग ने भाषा का कोई नया मुहावरा नहीं रचा है। अजीत वडनेरकर को आज ही गाड़ी से दिल्ली जाना था इसलिए उन्होंने बहुत ही संक्षेप में अपनी बात रखते हुए संभावनाओं की तरह बढ़ने पर जोर दिया। कलकत्ता से आए प्रियंकर ने कहा कि- मैं बेनामी पर कहना चाहूंगा। किसी से हर समय नाम की उम्मीद करना सही नहीं है। ये अतिरिक्त मांग है। पचास जन्म लेना पड़ेगा घुघूती बासुती,अनामदास जैसा लिखने के लिए। ये अपनी पहचान नहीं बताना चाहते तो क्या दिक्कत है? इन्होंने बहुत ही बेहतर तरीके से लिखा है। बेनामी कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। असल चीज है कि कंटेंट पर बात होनी चाहिए। अगर वो छद्म नाम से लिखते हों तो क्या दिक्कत है। ब्लॉगरों के अतिरिक्त इस सत्र में इसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से एम.फिल कर रही एक स्टूडेंट उमा साह ने बताया कि उसने ब्लॉग की भाषा पर रिसर्च किया है और वो इस नाते अपनी बात रखना चाहती है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग में अभी भी किसी भी तरह की सेंसरशिप नहीं है इसलिए इसमें मुख्यधारा की मीडिया से बहुत आगे जाने की गुंजाइश है और इसे भी हमें चौथे खंभे के तौर पर विकसित किए जाने चाहिए। अलग-अलग मौके पर उठापटक के बीच ये सत्र यहीं समाप्त होता है। रातभर की यात्रा की वजह से बुरी तरह थका हूं। कल ब्लॉगःभाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे अपनी बात रखनी है। आपसे माफी मांगते हुए कि मैंने कई जगह बिना बारीकी से पढ़ते हुए सत्र के दौरान टाइप की गई लाइनों को चस्पा दिया है। आप उन्हें सुधारकर पढ़ लेंगे। मैं और मेहनत करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हूं। इन सबके बीच दुखद पहलू है कि जिस डिजिटल रिकार्डर से मैं अब तक आपके लिए संगोष्ठियों के ऑडियो वर्जन उपलब्ध कराता रहा वो सभागार की डेस्क पर से सत्र खत्म होने के साथ ही गायब हो गया। एक भावनात्मक जुड़ाव और आर्थिक क्षति की वजह से परेशान हूं। मूड़ खराब है,खुश होने के लिए इतना है कि इलाहाबाद में खाने की व्यवस्था बड़ी दुरुस्त है,मेरे हॉस्टल मेस से कई गुना बेहतर।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/72bd09d5/attachment-0001.html From uchaturvedi at gmail.com Sat Oct 24 08:54:28 2009 From: uchaturvedi at gmail.com (umesh chaturvedi) Date: Sat, 24 Oct 2009 08:54:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= article Message-ID: <8a9e78f0910232024m163e880ah393b0122803b5e42@mail.gmail.com> *अंधेरे खोह में भटकती पत्रकारिता शिक्षा*** *उमेश चतुर्वेदी *** तकनीकी शिक्षण का अपना एक अनुशासन होता है, उसकी अपनी जरूरतें होती हैं। यही कारण है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल की ना सिर्फ शिक्षा हासिल करना, बल्कि उनकी शिक्षा देना बेहद चुनौतीभरा काम माना जाता रहा है। अब प्रबंधन की शिक्षा के साथ भी वैसा ही हो रहा है। क्योंकि प्रबंधन भी एक तरह से तकनीक ही है, सिर्फ अकादमिक शिक्षण या पढ़ाई भर नहीं है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई और उसका शिक्षण तकनीकी शिक्षण-प्रशिक्षण के दायरे में आता है या नहीं। जाहिर है ज्यादातर लोग इसका जवाब हां में ही देंगे। पत्रकारिता की पढ़ाई करने आ रहे छात्र और उनके अभिभावक कम से कम इसे तकनीकी शिक्षण और प्रशिक्षण के दायरे में मान रहे हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया विस्फोट के इस दौर में हजारों-लाखों रूपए की मोटी फीस देकर छात्रों की भारी भीड़ पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का रूख कर रही है। लेकिन डीम्ड विश्वविद्यालयों के साथ ही स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में जिस तरह पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, उससे साफ है कि अपनी तरह से खास इस अनुशासन की पढ़ाई को लेकर छात्रों और उनके अभिभावकों में ठगे जाने का भाव बढ़ा है। इसका असर भावी पत्रकारों की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। वैचारिक बहसों में जिस तरह पत्रकारिता इन दिनों निशाने पर है, उसके पीछे पत्रकारिता शिक्षण के मौजूदा ढर्रे की कितनी भूमिका है, इसे लेकर सवाल नहीं उठ रहे हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि पत्रकारिता शिक्षण को प्रोफेशनल जरूरतों के निकष की बजाय तकनीकी अनुशासन के साथ ही वैचारिक धरातल पर भी परखा जाय। उदारीकरण के बाद आए मीडिया विस्फोट के इस दौर में जिस तरह तकनीक पर पत्रकारिता अवलंबित होती गई है, इससे साफ है कि बाजार में तकनीकी कसौटी पर खरे उतरने वाले भावी पत्रकारों की मांग बढ़ गई है। सिर्फ इसी एक आधार के चलते खबरनवीसी के शिक्षण को इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह तकनीकी अनुशासन का शिक्षण और प्रशिक्षण माना जा सकता है। चूंकि पत्रकारिता इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह कोरा तकनीक ही नहीं है, बल्कि यहां वैचारिकता ना सिर्फ पूंजी है, बल्कि एक बड़ा औजार भी है। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष राजेंद्र माथुर भले ही कहते रहें कि पत्रकार इतिहास निर्माता नहीं, बल्कि उसके ऐसे दर्शक होते हैं, जो अपनी पैनी निगाह के जरिए आम लोगों को इन घटनाओं से परिचित कराते हैं। लेकिन ये भी सच है कि अपनी वैचारिकता की पूंजी के जरिए हासिल नजरिए के चलते वे मौजूदा घटनाओं के प्रति लोगों को सचेत या फिर उत्साहित भी करते हैं। ताकि आने वाला कल जब विगत के कल का इतिहास के तौर पर मूल्यांकन करे तो उसे कोई पछतावा ना रहे। जाहिर है ये दृष्टि किसी विश्वविद्यालय या पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान के क्लासरूम से हासिल नहीं किए जा सकते। अगर ऐसा होता तो भारतीय पत्रकारिता के शुरूआती पुरूष चाहे जेम्स ऑगस्टस हिक्की हों या अंबिका प्रसाद वाजपेयी या फिर बाबू राव विष्णुराव पराड़कर, उन्हें पत्रकारिता की दुनिया में याद भी नहीं किया जाता। क्योंकि उन्होंने किसी संस्थान से खबरनवीसी या वैचारिकता की ट्रेनिंग हासिल नहीं की थी। आज के दौर में भी प्रभाष जोशी, अच्युतानंद मिश्र, प्रणय रॉय या विनोद दुआ जैसे कई चमकते नाम हैं, जिनकी पत्रकारिता का प्रशिक्षण किसी विश्वविद्यालय या संस्थान में मिला हो। बहरहाल आज के दौर में बिना खास शिक्षण या प्रशिक्षण के किसी पत्रकार की उम्मीद नहीं की जाती, जैसे बिना किसी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के इंजीनियर या मेडिकल की पढ़ाई के डॉक्टर की उम्मीद की जाती है। अगर ऐसा होगा तो उस पर सवाल उठने लाजिमी हैं। हकीकत में आज का पत्रकारिता शिक्षण अपने उहापोह से मुक्त नहीं हो पाया है। उसकी कोशिश या खुला ध्येय है प्रणय रॉय और प्रभाष जोशी जैसा पारंपरिक और श्रेष्ठ वैचारिक पत्रकार बनाना है, जो आज की तकनीक पर भी खरा उतरे। लेकिन उसका सबसे बड़ा संकट ये है कि वह अब तक ये तय नहीं कर पाया है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण तकनीकी है या वैचारिक। इसके लिए जितना पत्रकारिता के संस्थान जिम्मेदार हैं, उतना ही दोषी सरकार भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज तक पत्रकारिता का एकनिष्ठ पाठ्यक्रम तैयार हो चुका होता। इंजीनियरिंग और दूसरे तकनीकी संस्थानों की मान्यता के लिए बाकायदा तकनीकी शिक्षा परिषद है, मेडिकल की पढ़ाई पर निगाह रखने के लिए मेडिकल कौंसिल है। लेकिन इतिहास पर निगाह रखने वाली पढ़ाई के लिए ऐसी कोई रेग्युलेटरी संस्था नहीं है। यही वजह है कि कुकुरमुत्तों की तरह उगे डीम्ड विश्वविद्यालयों और कथित तकनीकी संस्थानों के साथ पत्रकारिता पढ़ाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं। इस कड़ी में स्ववित्त पोषित योजना के तहत जाने-माने विश्वविद्यालय भी शामिल हो चुके हैं। इसका असर है कि अधिकांश संस्थानों के पास किताबों और लैब का जबर्दस्त टोटा है। लेकिन पढ़ाई चालू है। निजी संस्थान मोटी फीस के बदले ढेरों सब्जबाग दिखा रहे हैं। वहीं स्ववित्तपोषित विभागों के नाम पर विश्वविद्यालयों या पुराने कॉलेजों में पत्रकारिता विभाग कम फीस ले रहे हैं। लेकिन सुविधाओं के मामले में उनकी भी वही हालत है, जो चमकती बिल्डिंग वाले निजी संस्थानों की है। अव्वल तो अधिकांश संस्थानों या विश्वविद्यालयों में कोई मानक पाठ्यक्रम ही नहीं है। रही बात उन्हें पढ़ाने वालों की तो योग्यता की कसौटी पर खरे उतरने वाले कम ही लोग भावी पत्रकारों को पढ़ाने में जुटे हैं। स्ववित्तपोषित संस्थानों के तौर पर जिन विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, वहां पत्रकारिता विभाग या तो हिंदी विभाग की दासी है या फिर अंग्रेजी विभाग का दोयम दर्जे का साथी। हिंदी या अंग्रेजी विभाग के ठस्स विद्वान अपने को पत्रकारिता का पुरोधा भी मान बैठे हैं। उन्हें बाजार और तकनीक से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके लिए पत्रकारिता का शिक्षण शेक्सपीयर के नाटकों या प्रेमचंद की कहानियों की पढ़ाई जैसा ही है। उन्हें ये भी पता नहीं है कि पत्रकारिता शिक्षण की दुनिया में क्रॉफ्ट और अकादमिक नजरिए को लेकर कोई बहस भी चल रही है। भारतीय पत्रकारिता खास तौर पर तकनीक और कंटेंट के साथ पहुंच के स्तर पर किस पायदान पर जा पहुंची है, इसका साफ अंदाजा अधिकांश पत्रकारिता संस्थानों और वहां पढ़ा रहे लोगों को नहीं है। जाहिर है इसका खामियाजा वह पीढ़ी भुगत रही है, जो जेम्स हिक्की या अंबिका प्रसाद वाजपेयी ना सही, प्रभाष जोशी और प्रणय रॉय बनने के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई के समंदर में कूद पड़ी है। जहां ठीक-ठाक पत्रकारिता शिक्षण हो रहा है, वहां क्रॉफ्ट और अकादमिक जोर को लेकर रस्साकशी जारी है। जिन अध्यापकों का प्रोफेशनल पत्रकारिता से साबका नहीं पड़ा है, वे संचार के सिद्धांतों के पारायण और पाठ से छात्रों को जोड़ना अच्छा लगता है। लेकिन विजिटिंग फैकल्टी के नाम पर प्रोफेशनल जब क्लास रूम में आते हैं तो वे तकनीक पर ही जोर देते हैं। जाहिर है उनके शिक्षण का मुख्य फोकस तकनीकी जानकारी और तकनीक के आधार पर कंटेंट को कसना सिखाना होता है। अगर वे अखबार से हुए तो उनकी दुनिया जनसत्ता और टाइम्स ऑफ इंडिया के न्यूज रूम के इर्द-गिर्द ही घूमती है। अगर टेलीविजन की दुनिया से हुए तो जी न्यूज, एनडीटीवी या आजतक का न्यूजरूम ही उनका आदर्श होता है। इस असर से पत्रकारिता प्रशिक्षण पाने के बाद प्रोफेशनल संस्थानों में ट्रेनिंग के लिए जाने वाले छात्र बच नहीं पाते। उन्हें मुंह बिचकाकर उनकी सैद्धांतिक पढ़ाई का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। क्रॉफ्ट और अकादमिक को लेकर अतिवादी जोर दरअसल एक तरह का अतिवाद ही है। हर तकनीक और क्रॉफ्ट का अपना एक सिद्धांत भी होता है। अकादमिक दुनिया को इस सैद्धांतिकता के आधार को खोजना और उसकी कसौटी पर क्रॉफ्ट को विश्लेषित करना होता है। इस तरह से पढ़े और गुने छात्रों में जो दृष्टि विकसित होती है, उसमें मौलिकता की गुंजाइश ज्यादा होती है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। जिसका असर आज पत्रकारिता की प्रोफेशनल जिंदगी में खूब दिख रहा है। सवालों के घेरे में पत्रकारिता रोज आ रही है। नई पीढ़ी के पत्रकारों में मौलिक दृष्टि का अभाव साफ नजर आता है। अगर मौलिकता दिखती भी है तो उन्हें प्रयोग करने के लिए जरूरी समर्थन देने वाले साहसी सीनियर की भी कमी साफ नजर आती है। साफ है तकनीक और अकादमिक के झंझट से मुक्त हुए बिना पत्रकारिता की अपनी वैचारिक जरूरत पर आधारित पत्रकारिता शिक्षण के इंतजाम नहीं किए जाएंगे, सवाल तो उठते ही रहेंगे। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने पत्रकारिता शिक्षण की इसी कमी को ध्यान में रखते हुए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से पत्रकारिता पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने और संस्थानों के साथ ही पढ़ाने वाले लोगों और संस्थानों के मानकीकरण की दिशा में कदम उठाया है। जरूरत इस बात की है कि प्रोफेशनल दुनिया की जरूरतों के मुताबिक पत्रकारिता शिक्षा ढले, लेकिन अकादमिकता को भी नजरंदाज ना किया जाए। जड़ नजरिए वाली अकादमिकता के बोझ तले दबा पत्रकारिता शिक्षण ना तो अकादमिक दुनिया के लिए मुफीद होगा ना ही अखबारी और टीवी संस्थान को ही फायदा पहुंचा पाएगा। और पत्रकारिता की मेधा का जो नुकसान होगा, उसका आकलन तो आने वाली पत्रकारीय पीढ़ियां ही कर पाएंगी। *लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।*** *फोन - 09899870697* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/8917f031/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: __________ ______.doc Type: application/msword Size: 36352 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/8917f031/attachment-0001.doc From janvikalp at gmail.com Sat Oct 24 15:47:30 2009 From: janvikalp at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Sat, 24 Oct 2009 05:17:30 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWA4KSk4KWA?= =?utf-8?b?4KS2IOCkleClgeCkruCkvuCksCDgpJXgpL4g4KSG4KSk4KWN4oCN4KSu?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSw4KWN4KSq4KSj?= Message-ID: <49ac8550910240317v41a85525wf27bb078711e3c87@mail.gmail.com> नीतीश कुमार का आत्मसमर्पण नीतीश योग्य लोगों से सलाह-मशविरा पसंद करते हैं लेकिन साहसिक फैसला ले सकने का इतिहास उनका नहीं रहा है. निर्णायक मौंकों पर उन्हें सामंतों और विभिन्न प्रकार के धंधेबाजों की अपनी स्थायी टोली की ही बात माननी पड़ती है. भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को सिरे खारिज कर देना भी इसी की एक कड़ी है. साफ तौर पर कहा जाए तो एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे जाने की इस राजनीतिक कवायद से नीतीश कुमार का दब्बूपन पूरी तरह उजागर हो गया है. - *22 अक्‍टूबर, 2009 के जनसत्‍ता में छपा यह पूरा लेख यहां क्लिक कर पढें-* *संशयात्‍मा * - मोहल्‍ला लाइव पर भी यह छपा है, वहां इस पर कई *टिप्‍पणियां* * *भी हैं। -- http://janvikalp.blogspot.com/ http://sanshyatma.blogspot.com/ Pramod Ranjan Patna. Mo : 9234382621 -- http://janvikalp.blogspot.com/ http://sanshyatma.blogspot.com/ Pramod Ranjan Patna. Mo : 9234382621 -- http://janvikalp.blogspot.com/ http://sanshyatma.blogspot.com/ Pramod Ranjan Patna. Mo : 9234382621 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091024/62125447/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Sun Oct 25 14:22:48 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 25 Oct 2009 14:22:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSB?= =?utf-8?b?IOCkpOCklSDgpKrgpLngpYHgpIHgpJrgpYAg4KS54KWIIOCkueCkvw==?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWALeCkrOCljeCksuClieCkl+Ckv+CkguCklw==?= Message-ID: <63309c960910250152q745e9b66oebd3e246083d4ffc@mail.gmail.com> इलाहाबाद में चिठ्ठाकारी की दुनिया विषय पर आयोजित दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी समाप्त हो चुकी है। *विनीत कुमार *ने वहां से अपने अंदाज में लाइव रिपोर्टिंग की (जैसा वे अक्सर करते हैं)। इसी बीच हिंद-युग्म पर ब्लॉग की दुनिया पर भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान द्वारा आयोजित हिंदी अध्‍ययन सप्‍ताह के दौरान राकेश कुमार सिंह द्वारा पढे पर्चे की जानकारी मिली। हिंदी में ब्लॉगबाजी करने वाले हम जैसे लोगों को खुशी इस बात की है कि शिमला से लेकर इलाहाबाद तक ब्लॉग विषय पर चर्चाएं हो रही है। शिमला में हिंदी अध्‍ययन सप्‍ताह के आखिरी दिन के सत्र में *राकेश कुमार सिंह*ने 'हिन्दी ब्लॉगिंग की दशा-दिशा' पर पर्चा पेश किया था, जिसमें उन्होंने ब्लॉग से जुड़ी तमाम बातों पर प्रकाश डाला है। आप भी इसे पढ़िए। आप इसे यहांभी पढ़ सकते हैं शुक्रिया गिरीन्द्र शोधपत्र- कहाँ तक पहुँची है हिन्दी-ब्लॉगिंग 21 अप्रैल 2003 हिंदी चिट्ठाकारी के लिए ऐतिहासिक दिन था. लगभग एक दर्जन से अधिक सक्रिय ब्लॉग्स और वेबसाइट्स इस बात की पुष्टि करते हैं और आलोक कुमार के 9-2-11 को हिंदी का सबसे पहला चिट्ठा का दर्जा देते हैं. 21 अप्रैल 2003 को अपने पहले ब्‍लॉग-पोस्ट में आलोक लिखते हैं: चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा...1 आलोक के इस पोस्‍ट पर ग़ौर करें तो ब्लॉग के नामकरण और फॉण्‍ट को लेकर उनकी परेशानी साफ़ झलकती है. आज छह साल बाद न केवल आलोक की दोनों परेशानियों का हल ढूंढ लिया गया है बल्कि हिंदी ब्‍लॉग अन्‍य भारतीय भाषाओं, और कहें तो अंग्रेज़ी को भी पछाड़ने की स्थिति में आ चुका है. भारत में इंटरनेट उपयोक्‍ताओं पर ‘जक्‍स्‍ट कंसल्‍ट’ नामक एक कंपनी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षणके अनुसार कुल इंटरनेट इस्‍तेमालकर्ताओं में से 44 प्रतिशत ने हिंदी वेवसाइटों के प्रति उत्‍साह जताया जबकि 25 प्रतिशत उपयोक्‍ता अन्‍य भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर काम-काज़ के प्रति उत्‍सुक दिखे. अंग्रेज़ी को विश्‍वव्‍यापीजाल का पर्याय मान चुके लोगों के लिए सचमुच यह आंख खोलने वाला अध्‍ययन है ...2 वाकई आज क़रीब साढ़े छह साल बाद हिंदी में लगभग 12 हज़ार से ज़्यादा ब्‍लॉग्‍स, 1 हज़ार से ज़्यादा वेबसाइटें तथा 50 हज़ार से ज़्यादा वि‍किपृष्‍ठ3 हैं, और 12 लाख से ज़्यादा पन्‍ने इंटरनेट पर लिखे जा चुके हैं. हो सकता है कि इन आंकड़ों में सौ, दो सौ का अंतर आ जाए पर ये हक़ीक़त है कि आज अंतर्जाल पर हिन्‍दी फ़र्राटे से दौड़ रही है. ऐसे में ज़रूरी है कि इंटरनेट पर हिंदी के इस्‍तेमाल, उसके स्‍वरूप और अन्‍तर्वस्‍तु पर थोड़ा विचार किया जाए. निश्चित तौर पर चिट्ठा इसके लिए एक मुकम्‍मल ज़रिया है क्‍योंकि यह इंटरनेट पर हिंदी बरतने का एक वृहद मंच बन चुका है. यूं देखा जाए तो अब तक ब्‍लॉग की कोई औपचारिक परिभाषा गढ़ी नहीं गयी है. हालांकि हर ब्‍लॉगर के पास ब्‍लॉगिंग की कोई न कोई परिभाषा ज़रूर है. किसी के लिए यह एक ऐसी डायरी है जिसका पन्‍ना कोई फ़ाड़ नहीं सकता और इस प्रकार इसमें एक ऑनलाइन अभिलेखागार बनने की पर्याप्‍त संभावना दिखती है. कुछ के लिए यह पत्रकारिता का अद्भुद माध्‍यम है: एक ऐसा माध्‍यम जो अब तक उपलब्‍ध तमाम माध्‍यमों से ज़्यादा अवसरयुक्‍त है, जहां अब तक की तमाम मानक लेखन शैलियों और भाषा से इतर मनचाहा ईज़ाद और इस्‍तेमाल करने की बेइंतहां आज़ादी है: लेखक, रिपोर्टर और संपादक सब ब्‍लॉगर ख़ुद होता है. कुछ लोगों के हिसाब से यह स्‍वांत: सुखाय लिखा जाता है, और ऐसा लिखकर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हैं. ‘भड़ास’का तो टैगलाइन ही है : अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...4 हालांकि अपनी समृद्ध मौखिक परंपरा के बरअक्‍स ब्‍लॉग के बारे में जो छिटपुट लिखा गया है उनमें सुश्री नीलिमा चौहान का शोधपत्र ‘अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल: चन्‍द सिरफिरों के खतूत’ प्रमुख है. ब्‍लॉग को परिभाषित करते हुए नीलिमा लिखती हैं : ... चिट्ठे या ब्‍लॉग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्‍पेस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है. इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्‍ट कहते हैं एक स्‍वतंत्र वेब – पता होता है. सामान्‍यत: पाठकों को इन पोस्‍टों पर टिप्‍पणी करने की सुविधा होती है! यदि चिट्ठाकार स्‍वयं इस पते को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा – सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है. अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक – जोन से परे व्‍यक्तिगत स्‍पेस में व्‍यक्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्‍यक्ति को ब्‍लॉगिंग कहा जा सकता है.5 तमाम मौखिक और लिखित परिभाषाओं के मद्देनज़र मेरा ये मानना है कि ब्‍लॉग स्‍वांत: सुखाय कदापि नहीं हो सकता. ब्‍लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. मेरा यह मानना है कि किसी भी प्रकार की अभिव्‍यक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक असर होता है. हर ब्‍लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, कुछ उकेर रही होती है, कहीं उकसा रही होती है, या फिर कुछ उलझा या सुलझा रही होती है. मिसाल के तौर पर 12 सितंबर 09 को कसबा पर रवीश कुमारकी इस अभिव्‍यक्ति पर ग़ौर कीजिए : आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कह गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है।6 रवीश की इस अभिव्‍यक्ति को आप ये कहेंगे कि उन्‍होंने उपर्युक्‍त बातें यूं ही ख़ुद को ख़ुश करने के लिए लिखा है? मुझे तो इसमें साल में एक दिन हिंदी को धो-पोछ कर सजाने की दृष्टि से फ्रेम में जड़ कर दीवार पर टांगने जैसी औपचारिकता का प्रतिरोध झलकता है. ज़रा रवीश की पोस्‍ट पर सतीश पंचम की टिप्‍पणी पर ग़ौर करते हैं: वैसे ये बात तो सच है कि हाशिये, चिंतन, संगोष्ठी जैसे शब्द सुनते ही जहन में बूढे पोपले चेहरे, श्वेत बालों वाले लोगों की तस्वीर उभरती है। एक गीत सुना था जिसमें 'दिल' शब्द की जगह 'हृदय' शब्द का इस्तेमाल हुआ था - वह गाना था... कोई जब तुम्हारा 'हृदय' तोड दे....। खोज बीन करने पर एक औऱ गीत का पता चला - अनामिका फिल्म का जिसमें पूरा तो याद नहीं पर कहीं अंतरे में शब्द है कि ...तुझे 'हृदय' से लगाया...जले मन तेरा भी...तू भी तडपे..... इन दो गीतों के बाद मैंने थोडा सोचना शुरू किया कि आखिर क्यों फिल्म लाईन में ' दिल' शब्द को 'हृदय' शब्द के मुकाबले तरजीह दी जाती है। जो जबान पर चढे है....वही भाषा बढे है...कम से कम फिल्म लाईन में तो यही चलन है। ... उपर्युक्‍त दोनों उद्धरणों से ये स्‍पष्‍ट हो जाता है कि ब्‍लॉग महज़ दिल को ख़ुश रखने के लिए तो नहीं लिखा जाता है, और यह भी कि कि पोस्‍ट के साथ-साथ टिप्‍पणी/प्रतिक्रिया भी ब्‍लॉगिंग का एक अहम पहलु है. यह ब्‍लॉ‍गिंग को इंटरैक्टिव बनाती है और ये इसकी बहुत बड़ी ताक़त है. अख़बारों की तरह नहीं कि संपादकीय पृष्‍ट पर कोई लेख छप गया और फिर ख़ुद उसका कतरन लिए यार-दोस्‍तों के सामने लहराते फिर रहे हैं (माफ़ कीजिएगा, मेरे साथ ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है), किसी ने अपनी राय दे दी तो ठीक वर्ना ... आप समझ ही सकते हैं कि लेखक की क्‍या हालत होती है! और अगर किसी संवेदनशील पाठक की राय छपी भी तो कौन-से संपादक महोदय फ़ोन करके बताते हैं कि ‘बंधुवर, आपके लेख पर किसी पाठक ने सज्‍जनपुर से चिट्ठी भेजी है, देख लीजिएगा’. इधर ब्‍लॉगिंग में माल प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी हाजिर. मन माफिक प्रतिक्रिया मिल गयी तो बल्‍ले-बल्ले वर्ना बहस खड़ा करने वाली मुद्रा में आने से कौन रोक लेगा. यानी यहां एक तो टिप्‍पणी झट से मिल जाती है, और ऐसी मिलती है कि पट आने पर भी जी खट्टा नहीं होता. *रिश्ते गढ़े पहचान दिलाए* मुझे ब्‍लॉग के बारे में एक बात और लगती है, वो ये कि किसी मसले को एक व्‍यापक ऑडिएंस तक ले जाने और एक नये दायरे से रू-ब-रू होने व रिश्‍ता बनाने का यह एक ज़बर्दस्‍त ज़रिया है. यहां अकसर ऐसा होता है कि कोई शख्‍़स आपसे कभी साक्षात न मिला हो पर आभासी दुनिया में आपकी उपस्थिति से वो वाकिफ़ हो, और अपने मन में उसने आपकी कोई छवि तैयार कर ली हो. यानी आप व्‍यापक ऑडिएंस तक तो जाते ही हैं पर उससे भी आगे बढ़कर लोग आपसे जुड़ते हैं और आपकी एक पहचान गढ़ते है. यानी यहां ब्‍लॉगबाज़ों को एक पहचान मिलती है जो नितांत उनकी आभासी उपस्थिति के आधार पर निर्मित होती है. मिसाल के तौर पर, आपसी बातचीत में साथी ब्‍लॉगर विनीत कुमार अकसर बताते हैं कि जब तक वे मीडिया की नौकरी करते थे तो सहकर्मी भी भाव नहीं देते थे. और अब उनके पोस्‍ट पढ़-पढ़ कर मीडिया से बाबाओं के फ़ोन उनके पास आते हैं और घर आने का न्‍यौता भी. कहां तक पहुंचा ब्‍लॉग अप्रैल 2004 में जब आलोक ने 9-2-11 7 की शुरुआत की थी, तब महत्त्वपूर्ण सवाल ये था कि पाठक कौन होगा. हालांकि आलोक और उनके टेकमित्रों ने मिलकर उस समस्‍या को एक हद तक सुलझा लिया. कुछ ग़ैर-तकनीकी पृष्‍ठभूमि के लोगों को भी ऑनलाइन और फ़ोन प्रशिक्षण के मार्फ़त इस बात के लिए राज़ी किया कि वे भी ब्‍लॉगिंग में आएं. लोग आए भी. अगर साल 2004-2005 में आरंभ हुए ब्‍लॉगों पर विचरण करें तो आपको दो बातों का अहसास होगा: पहला ज़्यादातर आरंभिक ब्‍लॉगर टेकविशारद थे और दूसरा सब एक-दूसरे से जुड़े थे. यानी उन ब्‍लॉगरों का एक समुदाय था. वे आपस में पढ़ते-पढ़ाते थे और विशेषकर तकनीकी पक्ष को लेकर अनुसंधान किया करते थे. नुक्‍ताचीनी 8, देवनागरी 9, रचनाकार 10, ई स्‍वामी 11, फुरसतिया 12 तथा प्रतिभास 13 जैसे चिट्ठे और आलोक कुमार , देवाशीष चक्रवर्ती, रवि रतलामी , अनुनाद सिंह, जीतू 14, जैसे चिट्ठाकारों ने ब्‍लॉग को लोकप्रिय बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की. मज़ेदार बात ये है कि इनमें से कोई भी खांटी हिंदीवाला नहीं है या यों कहें कि वे हिंदी कर-धर कर नहीं कमाते-खाते हैं. हां, वे हिन्‍दी-प्रेमी और हिंदी के प्रति समर्पित हैं, और प्रकारांतर में उनमें से ज़्यादातर ने शुरू-शुरू में शौकिया लिखना शुरू किया और आज कुछेक को छोड़कर सारे धांसू लिखाड़ बन चुके हैं. 2007 के शुरुआती महीनों में हिंदी चिट्ठों की संख्‍या तक़रीबन 700 थी और नीलिमा के मुताबिक़ उसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी15. पाठकों की संख्या में भी थोड़ा -‍बहुत इज़ाफ़ा होने लगा था और लोग टेक्‍नॉल्‍जी में दिलचस्‍पी भी लेने लगे थे. 2007 तक आते-आते कुछ मुद्दे आधारित ब्‍लॉग भी अस्तित्‍व में आने लगे थे. कविताओं, कहानियों, संस्‍मरणों से आगे बढ़ कर ताज़ा ज्‍वलंत मुद्दों पर चर्चाएं होने लगी थीं. उसी साल शुरू हुए मोहल्‍ला 16, कबाड़खाना 17 और भड़ासजैसे सामुदायिक ब्‍लॉगों की मौज़ूदगी से बहस -मुबाहिसों को सह मिलने लगा था. तभी दिसंबर 2007 की 13 तारीख को अगले साल, 2008 की ब्लॉगकारिता कैसी हो – के बारे में वरिष्‍ठ पत्रकार और संवेदनशील ब्‍लॉगर श्री दिलीप मंडल ने अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की: एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं.18 और फिर उन्‍होंने निम्‍नलिखित बिंदुओं को रेखांकित किया: हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो ... हिंदी ब्‍लॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो ... विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए ... ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो ... टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो ... ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो ... ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो ... नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु ... हैपी ब्लॉगिंग!19 जिस ऑर्डर में दिलीपजी ने शुभकामनाएं व्‍यक्‍त की थी, थोड़े-बहुत उलट-फेर के साथ भी यदि उनकी पूर्ति हो जाती तो हिंदी ब्‍लॉगिंग की सेहत में सुधार आता. बेशक 12 हज़ार से ज़्यादा ब्‍लॉग बन गए हों, मुद्दा आ‍धारित ब्‍लॉगों के पैर जमने लगे हों, असहमतियों और झगड़ों से गली-नुक्‍कड़ भी झेंपने लगे हों किंतु मठाधीशी, चारण-वंदन, मिलन समारोहों और वार्षिकियों जैसे छापे की दुनिया के रोगों से चिट्ठाकारी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पायी है. इंटरनेट के व्‍यापकीकरण तथा कंप्‍युटर की उपलब्‍धता में अवरोध से तो हम वाकिफ़ हैं ही. *ब्लॉग कैसे–कैसे* पिछले पांच-छह सालों में ब्‍लॉग ने तमाम किस्‍म की अभिव्‍यक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्‍यक्तिगत तौर पर लोग ब्‍लॉगबाज़ी कर रहे हैं, अपने ब्‍लॉग पर लिख रहे हैं; मित्रों के ब्‍लॉग के लिए लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्‍लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार भी साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि ब्‍लॉग के अन्‍य पहलुओं पर बातचीत की जाए थोड़ी चर्चा ब्‍लॉग के स्‍वरूप पर. अंतर्जाल पर ज़्यादातर चिट्ठे साहित्‍य-साधना में लीन नज़र आते हैं. उनमें भी भांति-भांति की कविताई करते ब्‍लॉगों की संख्‍या ख़ास तौर से ज़्यादा है. सामुदायिक ब्‍लॉगों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले दो-ढ़ाई सालों से व्‍यक्तिगत ब्‍लॉगों पर भी सरोकार और चिंताएं दिख रही हैं. मिसाल के तौर पर गिरीन्‍द्रके ब्लॉग अनुभव पर 10 अप्रैल 2006 को प्रकाशित उनकी पहली पोस्‍ट के इस अंश पर ग़ौर करते हैं: ... दिल्ली से नज़दीकी रिस्ता रख्नने वाले प्रदेश इस बात को भली-भाती ज़ानते है. उतर प्रदेश, हरियाणा के ज़्यादातर ग्रामीण इलाके के लोग रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली से सम्बध बनाए रखे है. हरियाणा का होड्ल ग्राम आश्रय के इसी फार्मुले पर विश्वास रखता है... कृषि बहुल भुमि वाले इस गाव मे एक अज़ीब किस्म का व्यवसाय प्रचलन मे है,ज़िसे हम छोटे -बडे शहरो के सिनेमा हालो या फैक्ट्री आदि ज़गहो पर देखते है.वह है-साइकल्-मोटरसाइकल स्टैड्.दिल्ली मे काम करने वाले लोग रोज़ यहा आपना वाहन रख कर दिल्ली ट्रैन से ज़ाते है. एवज़ मे मासिक किराया देते है. ज़ब मै होड्ल के स्थानिय स्टेशन से पैदल गुजर रहा था तो मैने एक ८० साल की एक् औरत को एक विशाल परती ज़मीन पर साईकिलो के लम्बे कतारो के बीच बैठा पाया...उस इक पल तो मै उसकी उम्र और विरान जगह को देखकर चकित ही हो गया पर जब वस्तुस्थिती का पता चला तो होडल गाव के आश्रयवादी नज़रिया से वाकिफ हुआ.जब मैने उस औरत से बात करनी चाही तो वह तैयार हो गयी और अपने आचलिक भाषा मे बहुत कुछ बताने लगी.उसने कहा कि खेती से अच्छा कमाई इस धधा मे है ...20 इस अध्‍ययन के सिलसिले में उपर्युक्‍त पोस्‍ट के बरअक्‍स 2006 के अप्रैल-मई महीने में कुछ और तलाशने के लिए मैंने तक़रीबन 80-90 ब्‍लॉगों का भ्रमण किया. ज़्यादातर पर कविताएं मिलीं. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि तब या अब ही, जितनी प्रतिक्रियाएं कविताओं को मिलती हैं उतनी मुद्दे आधारित पोस्टों को नहीं. मिसाल के तौर पर उपर्युक्‍त पोस्‍ट पर आज तक एक प्रतिक्रिया भी नही आयी है. यानी इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि मुद्दों पर लिखना कितना इकहरा काम होता है. मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी चिट्ठाकारी से चारण-राग ख़त्‍म न होने की एक वजह ये भी है. वैसे भी कविताई या अन्‍य विशुद्ध साहित्यिक विधाओं में चारण-राग चलता आया है. जहां तक सामुदायिक ब्‍लॉगों का प्रश्‍न है तो उनका उदय ही किसी न किसी मुद्दे, विषय या प्रसंग विशेष के कारण होता है. मिसाल के तौर पर अविनाश के ब्‍लॉग ‘मोहल्‍ला’, जो कि बाद में सामुदायिक घोषित कर दिया गया – के इस पहले पोस्‍ट पर ग़ौर करते हैं: साथियो, नेट पर बहुत सारे पन्ने हैं, फिर इस पन्ने की कोई जरूरत नहीं थी. लेकिन हसरतों का क्या किया जाए? हम सब मोहल्ले-कस्बे के लोग हैं. पढ-लिख कर जीने-खाने की जरूरत भर शहर में रहने आते हैं और रहते चले जाते हैं. शायद हम उम्र भर शहरों में रहना सीखते हैं. हर ऊंची इमारत को फटी आंखों से देखते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि कब इसकी फर्श पर हमारे पांव जमेंगे. लेकिन जडों से उखडना क्या इतना आसान है? आइए, हम अपनी उन गलियों को याद करें, जहां हमारी शक्ल ढंग से उभर कर आयी थी... अविनाश21 अब ‘भड़ास’ पर उसके मॉडरेटर यशवंत सिंह ने लोगों को अपने ब्‍लॉग से जोड़ने के लिए जो न्‍यौता प्रकाशित किया था, ज़रा उस पर ग़ौर फ़रमाते हैं: भई, जीना तो है ही, सो भड़ास जो भरी पड़ी है, उसे निकालना भी है। और, इसीलिए है यह ब्लाग भड़ास। जब दिल टूट जाए, दिमाग भन्ना जाए, आंखें शून्य में गड़ जाएं, हंसी खो जाए, सब व्यर्थ नज़र आए, दोस्त दगाबाज हो जाएं, बास शैतान समझ आए, शहर अजनबियों का मेला लगे .....तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए।22 अशोक पांडे ने जब ‘कबाड़खाना’ आरंभ किया तो लोगों को अपना हमसफ़र बनाने के लिए उन्‍होंने विरेन डंगवाल की इन पंक्तियों का सहारा लिया: पेप्पोर रद्दी पेप्पोर पहर अभी बीता ही है पर चौंधा मार रही है धूप खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़ उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख सुन पड़ती है सड़क से किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी एक फ़रियाद है एक फ़रियाद कुछ थोड़ा और भरती मुझे अवसाद और अकेलेपन से सामुदायिक ब्‍लॉग काफ़ी हद तक अपने मिशन में सफल भी रहे. अनेक सामाजिक सरोकार के मसलों पर वहां बहसें हुई. कुछ लोगों ने बहस में प्रत्‍यक्ष यानी लेखों या विचारों के ज़रिए शिरकत की और कुछ ने टिप्‍पणी के मार्फ़त. आज इन सामुदायिक ब्‍लॉगों में से कोई ख़बर छानने में व्‍यस्‍त है तो कोई मीडिया की ख़बर ले रहा है, कुछ विचारधाराओं की रेहड़ी लगाए बैठे हैं तो कुछ पामिस्‍ट्री किए जा रहे हैं, कहीं बेटियों के बारे में आदान-प्रदान हो रहा है तो कहीं बेटों के बारे में. जिन सामुदायिक ब्‍लॉगों का अभी हवाला दिया गया उनके अलावा दर्जनों अन्‍य सामुदायिक ब्‍लॉग हैं. यह सच है कि सामुदायिक चिट्ठों से इस माध्‍यम को और ज़्यादा लोकप्रियता मिली. हालांकि, यह भी सच है कि साल 2009 के अपराह्न तक आते-आते सामुदायिक ब्‍लॉगों की धार और रफ़्तार मंद पड़नी शुरू हो गयी है. कुछ चिट्ठे तो तक़रीबन बंद हो चुके हैं, बस औपचारिक घोषणा होना बाक़ी है. मॉडरेटरों की व्‍यक्तिगत प्राथमिकताओं में आया बदलाव इसकी सर्वप्रमुख वजह लगती है. कल तक जो सामुदायिक ब्‍लॉग चला रहे थे आज डॉटकॉम चलाने लगे हैं, या यूं कहें कि कल तक जो सामुदायिक ब्‍लॉग थे आज डॉटकॉम में तब्‍दील हो रहे हैं. बहरहाल, इतना तो तय है कि हिंदी में हर वैसे विषय, प्रश्‍न या मुद्दे पर ब्‍लॉगिंग हो रही है जो इस वक़्त आपके कल्‍पनालोक में घुमड़ रहे हैं. ये ज़रूर है कि यहां साहित्‍य का बोलबाला है. 12 हज़ार में से लगभग 10 हज़ार ब्‍लॉगों पर साहित्‍य साधना हो रही है, और उनमें भी कविताई करने वालों की तादाद ज़्यादा है. साहित्‍यकुंज , अनुभूति, बुनो कहानी , मातील्‍दा, तोत्तोचान , अंतर्मन, उनींदरा , अवनीश गौतमवग़ैरह हिंदी ब्‍लॉगिंग में प्रमुख साहित्‍य -साधना-स्‍थली हैं. उदय प्रकाश , हिंदी ब्लॉगिंग में सक्रिय बड़े साहित्‍यारों में से एक हैं. फिल्‍म और सिनेमा को समर्पित ब्‍लॉगों में इंडियन बाइस्‍कोप, आवारा हूं और चवन्‍नी चैपका स्‍थान अग्रणी है. गीतायन और रेडियोवाणीपर तमाम तरह के हिंदी गीतों का भंडारण हो रहा है. गाहे -बगाहेऔर टीवी प्‍लस टेलीविज़न की दुनिया में हो रहे हलचलों पर निगाह टिकाए हुए है. ज्ञान -विज्ञान, रवि -रतलामी का हिंदी ब्‍लॉग, प्रतिभास , मे आइ हेल्‍प यू, क्रमश : , देवनागरी , इत्‍यादि विज्ञान और तकनीकी से मुताल्लिक़ नए-नए अनुसंधानों की जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ ब्‍लॉगरों को तकनीकी परेशानियों से निजात भी दिलाता है. अनुनाद सिंह इतिहास पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित कर रहे हैं. रिजेक्‍ट माल, अनुभव और हाशियाजनपक्षधर पत्रकारिता और वैचारिकी के विलक्षण उदाहरण हैं, कस्‍बा , अनामदास का चिट्ठा, कानपुरनामा और फुरसतिया, उड़न -तश्‍तरी, मसिजीवी संस्‍मरणों और वैचारिकी के कुछ चुने हुए ठीहे हैं, खेती -बाड़ीअपने नाम को चरितार्थ करता इससे संबंधित जानकारियों का स्रोत है, दाल रोटी चावल पर लज़ीज़ व्‍यंजनों की जानकारी बनाने की विधि समेत एकत्रित की जा रही है, मस्‍तराम मुसाफिरअंतर्जाल पर प्रिंट वाले ‘मस्‍तराम’ की नुमाइंदगी करता है, हालांकि, साल 2005 के बाद इस पर कुछ नया माल नहीं चढ़ाया गया है. अंग्रेज़ी ब्‍लॉगिंग के विपरीत हिंदी ब्लॉगिंग में आंदोलनों, अभियानों, संघर्षों, संगठनों या मुद्दों पर आधारित ब्‍लॉगों की संख्‍या नगण्‍य है. अंग्रेज़ी में इराक़ तथा अफ़गानिस्‍तान में अमरीकी गुण्‍डागर्दी, पाकिस्‍तान की आंतरिक हालत, जाति और जेंडर भेद, बचपन, वृद्धावस्‍था जैसे मसलों, पर्यावरण या ग्‍लोबल वार्मिंग पर चलने वाले अभियानों, तथा मानवाधिकार और पशुअधिकार आंदोलनों के बारे में समर्पित ब्‍लॉगिंग हो रही है. हिंदी में फिलहाल ये ट्रेंड नहीं बन पाया है. हालांकि, ये ज़रूर है कि अब इस माध्‍यम के प्रति आंदोलनों और संगठनों में संजीदगी दिखने लगी है और कुछेक ब्‍लॉगों की शुरुआत हुई भी है. मिसाल के तौर पर सफ़र , जहां संगठन से जुड़े कार्यक्रमों और गतिविधियों पर यदा-कदा कुछ लिखा-पढ़ा जाता है या फिर सूचना का अधिकार, जहां नियमित रूप से इस मुद्दे और इससे संबधित अभियानों की ख़बरें शेयर की जाती हैं. इस कड़ी में स्त्री प्रश्नों पर फ़ोकस्‍ड हिन्दी के पहले सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली का काम सराहनीय रहा है. हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसकी तरक्‍कती के लिए समर्पित हिंदयुग्‍मके अनूठे प्रयासों का यहां उल्‍लेख किया जाना ज़रूरी है. हिंदयुग्‍म पर तमाम विधाओं में साहित्‍य रचना के अलावा कला, संस्‍कृति और आम जन -जीवन से जुड़े प्रश्‍नों पर भी संजीदगी से चर्चा होती है. चिट्ठाकारी को सरल और लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटरों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है. प्रकाशन के चंद मिनटों के अंदर चिट्ठों को व्‍यापक चिट्ठाजगत तक पहुंचाने तथा चिट्ठा संबंधी आवश्‍यक जानकारियां उपलब्‍ध कराने में एग्रीगेटरों का बड़ा योगदान है. साल 2005-06 में ही जीतू ने ‘अक्षरग्राम’ नामक हिंदी का पहला एग्रीगेटर आरंभ किया था. उसके बाद ‘नारद’ नामक एग्रीगेटर भी जीतू और उनके कुछ मित्रों के सामुहिक प्रयास से ही अस्तित्‍व में आया. साल 2007 में ‘ब्‍लागवाणी’ और ‘चिट्ठाजगत’ नामक दो और एग्रीगेटर्स अस्तित्‍व में आए और उन्‍होंने हिंदी ब्लॉगिंग को काफ़ी सहूलियतें मुहैया कीं. *कितनी सक्रिय है ये चिट्ठाकारी* 18 सितंबर 2009 को दोपहर साढे चार बजे के आसपास चिट्ठाजगत के मुताबिक़ कुल 10 हज़ार 259 चिट्ठों में से कुल सक्रिय चिट्ठों की संख्‍या 40 थी. निश्चित रूप से ऐसी कोई भी सूचि स्‍थाई नहीं होती, क्‍योंकि रियल समय में सूचि में बदलाव होते रहते हैं. कभी कोई दसवें नंबर पर होता है तो चंद मिनटों या घंटे बाद वही 38वें नंबर पर या पहले नंबर पर हो सकता है या फिर सूचि में दिखे ही नहीं. बहरहाल, मैं उन ब्‍लॉगों को सक्रिय मानता हूं जिन पर हफ़्ते में दो नहीं तो कम से कम एक पोस्‍ट ज़रूर प्रकाशित होते हैं, यानी पोस्टिंग की निरंतरता बनी रहती है, और उस लिहाज़ा से देखा जाए तो हिंदी में सक्रिय ब्‍लॉगों की संख्‍या 200 के आसपास है. उड़न तश्‍तरी, गाहे-बगाहे, हिंदयुग्‍म, रचनाकार, अगड़म-बगड़म, फुरसतिया, रेडियोवाणी, कसबा, महाजाल, निर्मल-आनंद, मसिजीवी, मोहल्‍ला, कबाड़खाना, चोखेरबाली, इत्‍यादि अग्रिम पंक्ति के सक्रिय चिट्ठे हैं. लगे हाथ हिंदी चिट्टाकारी में सक्रिय लोगों की पृष्‍ठभूमि पर भी एक नज़र डाल ली जाए. दरअसल, हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग में आए इस रेवल्‍यूशन के पीछे तीन अलग-अलग पृष्‍ठभूमि के लोगों का योगदान है: पेशेवर टेकीज़ (तकनीकीविशारद) जो हिंदी के प्रति कमिटेड हैं और प्रकारांतर में जिनमें लेखन एक ज़बर्दस्‍त हॉबी की तरह विकसित हुआ, पत्रकार (नियमित या अनियमित दोनों तरह के) जिन्‍हें अपने माध्‍यमों में स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिल पाता है, या जो यहां लिखकर लोगों का फ़ीडबैक हासिल करते हैं तथा उससे अपने पेशे में पैनापन लाने की कोशिश करते हैं (ऐसे लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों का भी फ़ायदा उठाते हैं) और वैसे लोग जिन्‍हें पत्रकारीय कर्म में दिलचस्‍पी है; तथा अंतिम श्रेणी में वैसे साहित्‍य-साधक शामिल हैं जिन्‍हें आम तौर पर छापे में मन माफिक मौक़ा नहीं मिल पाता है या फिर जो इस माध्‍यम की उपयोगिता देखते हुए यहां भी अपनी मौज़ूदगी बनाए रखना चाहते हैं या फिर वैसे लोग जिन्‍होंने ये ठान लिया है कि वे ब्‍लॉग के ज़रिए ही साहित्‍य सृजन करेंगे. *ब्‍लॉगिंग की सतरंगी भाषा* ज़ाहिर है जहां इतने विविध पृष्‍ठभूमियों वाले लोग ब्‍लॉगिंग कर रहे हैं वहां भाषाई विविधता तो होगी ही. मैं इस विविधता को हिंदी ब्‍लॉगिंग की पूंजी मानता हूं. यही इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. दरअसल, भाषाई प्रयोग और इस्‍तेमाल के मामले में अंतर्जाल पर मौज़ूद यह स्‍पेस घरों की उन दीवारों की तरह है जहां बच्‍चों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चित्र उकेरने की आज़ादी होती है. दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि किस हद तक यहां भाषाई प्रयोग हो रहे हैं; हां, ये ज़रूर उल्लेखनीय है कि फ़ॉर्म और एक हद तक कंटेन्‍ट को लेकर जो आज़ादी है यहां, उससे भाषा के स्‍तर पर प्रयोग करने में काफ़ी सहुलियत मिलती है. इस पर्चे में मैंने पहले कुछ चिट्ठों के नाम गिनाए थे, उन पर एक बार विचरण कर लें तो पता चल जाएगा कि सामग्री कैसे भाषा तय कर रही है या फिर क्‍या लिखने के लिए कैसी भाषा का इस्‍तेमाल किया जा रहा है. यह सच है कि अख़बारों के लिए रिपोर्टिंग या स्‍पेशल एडिट लिखने अलावा ज़्यादातर ऑफ़लाइन लेखन (चाहे किसी भी तरह का हो) किस्‍तों में होता रहा है. जबकि ब्‍लॉग में ऐसा बहुत कम होता है. यहां तो कई बार बैठते हैं प्रतिक्रिया लिखने, बन जाता है लेख. ब्‍लॉगिंग में अकसर एक ही बैठक में लोग हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्‍द ठेल देते हैं. यह भी सच है कि कुछ बलॉगों, विशेषकर सामुदायिक ब्‍लॉगों ने अपनी एक शैली विकसित कर ली है और भाषा को लेकर भी वे चौकन्‍ने हैं. उनकी पोस्‍टों से गुज़रते हुए इस बात का अंदाज़ा लग जाता कि मॉडरेटर महोदय, क़ायदे से जिनका काम मॉडरेट करना भर होना चाहिए – चिट्ठों को अपनी स्‍टाइल में फिट करने के लिए किसी तरह अच्‍छा-खासा समय लगा रहे हैं. यहां इस तथ्‍य की ओर भी इशारा करना चाहूंगा कि मीडिया, विशेषकर इलेक्‍टॉनिक मीडिया वाली सनसनी और टीआरपी वाला गेम यहां भी ख़ूब प्‍ले किया जाता है. मूल पाठ से लेकर शीर्षक तक में यह ट्रेंड झलकता है. अकसर हम देखते आए हैं कि बोलचाल में धड़ल्‍ले से प्रयोग होने वाले शब्‍दों का लेखन में बहुत कम इस्‍तेमाल होता है. पर अंतर्जाल पर स्थिति काफ़ी बदली-बदली सी दिखती है. और-तो-और यहां, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्‍दों का भी धड़ल्‍ले से प्रयोग हो रहा है. हिंदी के कुछ ब्‍लॉग अपनी विशिष्‍ट क्षेत्रीय शैली की वजह से पॉप्‍युलर भी हुए हैं. मिसाल के तौर पर ज़रा ‘ताउ रामपुरिया’ की भाषा पर ग़ौर कीजिए: इब राज भाटिया जी और योगिन्द्र मोदगिल जी ने गांव के चोधरी को कहा कि इस बटेऊ से सवाल पूछने का मौका ताऊ को भी दिया जाना चाहिये ! आखिर गांव की इज्जत का सवाल है ! चोधरी ने उनका एतराज मंजूर कर लिया ! बटेऊ की तो कुछ समझ नही आया कि आखिर तमाशा क्या है ? बटेऊ को यही समझ मे नही आया कि वो कैसे हार गया और ये ५ वीं फ़ेल छोरा कैसे जीत गया ! ले बेटा..और उलझ ताऊओं से ! गाम आलों का चौधरी बोला- भाई बटेऊ, तन्नै तो आज सवाल पूछ लिया ! और म्हारै गाम के छोरे ताऊ नै बिल्कुल सही जवाब भी दे दिया ! इब उसको भी तेरे तैं सवाल बुझनै का मौका देणा पडैगा ! कल दोपहर म्ह इसी चौपाल म्ह म्हारा छोरा ( ताऊ ) तेरे तैं सवाल बुजैगा अंग्रेजी म्ह और तन्नै जवाब देना पडैगा!23 दरअसल, ‘ताउ रामपुरिया’ की लेखन शैली ने हरियाणवी हिंदी को एक तरह से अंतर्जाल पर इस्‍टैब्लिश कर दिया है. उनके चिट्ठों पर मिलने वाली टिप्‍पणियां इस बात का प्रमाण हैं. इधर संजीव तिवारी जब अपने ब्‍लॉग पर अपनी भाषा के प्रति छत्तीसगढियों से अपील करते हैं तो उन्‍हें भी ठीक-ठाक समर्थन मिलता है. ज़रा देखिए उनके इस चिट्ठांश को: छत्‍तीसगढ हा राज बनगे अउ हमर भाखा ला घलव मान मिलगे संगे संग हमर राज सरकार ह हमर भाखा के बढोतरी खातिर राज भाखा आयोग बना के बइठा दिस अउ हमर भाखा के उन्‍नति बर नवां रद्दा खोल दिस । अब आघू हमर भाखा हा विकास करही, येखर खातिर हम सब मन ला जुर मिल के प्रयास करे ल परही । भाखा के विकास से हमर छत्‍तीसगढी साहित्‍य, संस्‍कृति अउ लोककला के गियान ह बढही अउ सबे के मन म ‘अपन चेतना’ के जागरन होही । हमला ये बारे म गुने ला परही, काबर कि हम अपन भाखा के परयोग बर सुरू ले हीन भावना ला गठरी कस धरे हावन।24 कमोबेश यही स्थिति भोजपुरी और मैथिली के साथ भी है. प्रयोग और इस्तेमाल की आज़ादी का ही नतीज़ा है कि इंटरनेट पर मस्‍तराम मार्का भाषा भी फल-फूल रही है. मिसाल के तौर पर किसी पोस्‍ट पर डॉ. सुभाष भदौरिया द्वारा की गयी इस प्रतिक्रिया पर ग़ौर करें: यार यशवंतजी एक जमाना हो गया, न हमने किसी को गाली दी, न किसी ने हमें दी, पर इस डिंडोरची ने वही मिसाल कर दी गांड में गू नहीं नौ सौ सुअर नौत दिये. यार हम तो आप सब में शामिल सुअर राज हैं.गू क्या गांड भी खा जायेंगे साले की, तब पता पता चलेगा. नेट पर बेनामी छिनरे कई हैं, अदब साहित्य से इन्हें कोई लेना देना नहीं हैं, सबसे बड़ा सवाल इनकी नस्ल का है, न इधर के न उधर के. भाई हम सीधा कहते हैं, भड़ासी पहुँचे हुए संत है, शिगरेट शराब जुआ और तमाम फैले के बावजूद उन पर भरोसा किया जा सकता है. इन तिलकधारियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.कुल्हड़ी में गुड़ फोड़ते हैं चुपके चुपके.इन का नाम लेकर इन्हें क्यों महान बना रहे हैं आप. देखो हम ने कैसे इस कमजर्फ को अमर कर दिया.25 आम तौर पर हिंदी ब्‍लॉगिंग में प्रतिक्रिया देते हुए या किसी मसले पर चर्चा करते वक़्त शब्‍दकोश सिकुड़ने लगते हैं और भाषा हांफने लगती है. हिंदी ब्‍लॉगजगत ऐसी मिसालों से भरी पड़ी है. पिछली जुलाई में शीर्षस्‍थ साहित्‍यकार उदयप्रकाश से जुड़े एक प्रकरण को लेकर उठे बवंडर, इसी साल जनवरी में नया ज्ञानोदय की संपादकीय पर मचे अंतर्जालीय घमासान, या मार्च-अप्रैल में रविवार डॉट कॉम पर राजेंद्र यादव के एक साक्षात्‍कार, या फिर हाल ही में रविवार डॉट कॉम पर प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव के साक्षात्‍कार से उपजे विवाद पर ग़ौर करें तो भाषा के इस पक्ष से रू-ब-रू हुआ जा सकता है. मिसाल के तौर पर, उदयप्रकाश प्रकरण पर रंगनाथ सिंह ने हिंदी साहित्‍य में विष्‍ठावाद : अप्‍पा रे मुंह है कि जांघियाके मार्फ़त कुछ इस तरह अपनी राय ज़ाहिर की : एक कवि हैं। सुना है उनके दोस्त उनके बारे में एक ही सवाल बार-बार पूछते रहतें हैं कि वो नासपीटा तो जब भी मुंह खोलता है, मल, मूत्र या उनके निकास द्वारों के लोक-नामों से अपनी बात का श्री गणेश करता है। उनके मित्र आपस में अक्सर यही पूछते हैं कि अप्पा रे, उसका मुंह है कि जंघिया… ?? हिंदी साहित्य के दिग्गजों (इसमें उदय प्रकाश भी शामिल हैं) ने और उनके चेलों ने उदय प्रकाश प्रकरण में हुए विवाद में बार-बार उस कवि की और उनके मित्रों को जंघिया वाले यक्ष प्रश्न की याद दिलायी। जिस किसी ने जिस किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लिखा, उसके खिलाफ़ दूसरे पक्ष के तीरंदाज-गोलंदाज आलोचना या भर्त्सना लिखने के बजाय गाली-गलौज पर उतर आये। या उस कवि के मित्रों की भाषा में कहें, तो इन सब के नाड़े ढीले थे। इन सभी स्वनामधन्य कवि-लेखकों-पत्रकारों को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने अपनी आस्तीन से अपना असल शब्दकोश निकाला और उसका खुल कर प्रयोग किया। निस्संदेह उन्होंने इंटरनेशनल लेवल का सुलभ भाषा-कौशल दिखाया है।26 मेरा ये मानना है कि किसी भी माध्‍यम मे भाषा के विकास के लिए ज़रूरी है भरपूर लेखन और संवाद. जितना अधिक लेखन होगा उतने ही अधिक प्रयोग होंगे और भाषा में निखार आएगा. विगत पांच-छह सालों की हिंदी ब्‍लॉगिंग में निश्चित रूप से लेखन में उत्तरोत्तर इज़ाफ़ा हुआ है और ये इज़ाफ़ा क्‍वान्टिटी और क्‍वालिटी दोनों ही स्‍तरों पर हुआ है. पर इतना नहीं कि उसके आधार पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जाए. संवाद भी हो रहे हैं, पर संवाद के स्‍तर पर ज़्यादातर छींटाकसी या खींचातानी ही दिखती है. कुछ-कुछ प्रिंट जैसी. वैसे बेहतर होगा कि भाषाविज्ञानी इस बात की पड़ताल करें और रोशनी डालें कि हिंदी चिट्ठाकरी में बरती जाने वाली भाषा क्‍या है. तब तक मैं यही कहूंगा कि काफ़ी कुछ नया है, पहले से अलग है, हट के है, सतरंगी है. कुछ फुटकर विचार अंत में अंतर्जाल पर हिंदी के वर्तमान और भविष्‍य के बारे में अपनी कुछ राय साझा करना चाहूंगा. अब तक की चिट्ठाकारी को देखकर ये लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी बमबम कर रही है, हिंदी की तरक्‍की हो रही है. पर यहां मैं कुछ वैसे तथ्‍यों की ओर इशारा करना चाहूंगा जो आम तौर पर सतह पर नहीं दिखते. ग़ौरतलब है कि अंतर्जाल पर हिंदी चाहे जितनी ज़्यादा बरती जा रही हो, पर उसके पीछे हैं कुछ गिने-चुने लोग ही. ज़रा और खुलकर कहा जाए तो ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो एक साथ कई ब्‍लॉग चला रहे हैं, वेबसाइट चला रहे हैं, डॉट कॉम चला रहे हैं. आप अगर सक्रिय ब्‍लॉगरों की प्रोफ़ाइल पर क्लिक करेंगे तो इस बात का साक्ष्‍य आपको मिल जाएगा. दूसरी बात ये कि ब्‍लॉग, डॉटकॉम, इत्‍यादि पर चाहे जितना कुछ लिखा जा रहा हो, पाठकों की संख्‍या सीमित ही है. सीमित का मतलब ये कि वैसे लोग, आम तौर पर जिन्‍हें अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्‍हें अब तक पाठक नहीं बनाया जा सका है. मोटे तौर पर अंतर्जाल पर पाठक वे ही हैं जो लेखक भी हैं. यह साफ़ है कि बीते 5-6 सालों में अंतर्जाल पर, ख़ास तौर से चिट्ठाकारी के मार्फ़त हिंदी के प्रयोग और रफ़्तार में तेज़ी आयी है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि इसने साहित्‍य, संस्‍कृति और पत्रकारिता के बहुत सारे अवयवों, मूल्‍य मान्‍यताओं, परिपाटियों तथा मानकों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है जिन्‍हें आधुनिकता ने अपने लिए निर्धारित किए थे. सेंसरशिप, कॉपीराइट, नियंत्रण और निगरानी जैसी आधुनिक अवधारणाएं फिलहाल दरकिनार हैं. ब्‍लॉगर्स तो जैसे दायें- बाएं, आगे-पीछे देखे बिना सरपट दौड़े चले जा रहे हैं. ------------------------------ *संदर्भ**-* 1. http://9211.blogspot.com 2. http://techtree/techtee/jsp 3. http://hindyugm.com 4. http://bhadas.blogspot.com 5. http://linkitman.blogspot.com 6. http://naisadak.blogspot.com/2009/09/blog-post_12.html 7. http://9211.blogspot.com 8. http://nuktachini.blogspot.com 9. http://devnaagrii.net 10. http://rachnakar.blogspot.com 11. http://hindini.com/eswami 12. http://hindini.com/fursatiya 13. http://pratibhaas.blogspot.com 14. http://www.jitu.info 15. http://linkitman.blogspot.com 16. http://mohalla.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091025/f34bcd31/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Oct 25 15:19:51 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 25 Oct 2009 15:19:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkhw==?= =?utf-8?b?4KS4IOCkpOCksOCkuSDgpJbgpKTgpY3gpK4g4KS54KWB4KSGIOCkhw==?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KS54KS+4KSs4KS+4KSmIOCkrOCljeCksuClieCkly3gpK4=?= =?utf-8?b?4KSC4KSl4KSo?= Message-ID: <829019b0910250249y470a77feo2055f6d7b915b649@mail.gmail.com> ब्लॉग-विमर्श के लिहाज से पहले दिन के मुकाबले दूसरे दिन के सत्र ज्यादा कारगार साबित हुए। इसकी एक वजह तो समय से सत्र का शुरु होना रहा,अधिक वक्ताओं के विचार आए। इसके साथ ही तकनीकी सत्र में जिस बारीकी सेरविरतलामी,मसिजीवी, ज्ञानदत्त पांडेय और संजय तिवारी ने सूचना,तकनीक औऱ अभिव्यक्ति के बीच के अन्तर्संबंधों को बताया वो नॉन-ब्लॉगरों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण रहे। लेकिन पहले दिन वक्ताओं को बोलने देने में जितनी दरियादिली दिखायी गयी अगले दिन उसकी गाज भाषा,साहित्य और संप्रेषणियता के सवाल पर बोलने आए वक्ताओं पर गिरी। जाहिर तौर पर उसका शिकार मैं भी हुआ। विश्वविद्यालय की ओर से जो न्योता हमें भेजा गया था उसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि आप जो भी बातचीत करेंगे उसे प्रकाशित किया जाएगा इसलिए हमनें अपने स्तर से बीस मिनट बोलने के लिहाज से तैयारी की थी जबकि हमें पांच मिनट,सात मिनट के भीतर,गहरे दबाबों के बीच अपनी बात खत्म करनी पड़ी। मैंने तो फिर भी पांच मिनट के निर्धारित समय होने पर भी हील-हुज्जत करके ढाई मिनट आगे तक जार रहा लेकिन बाद के वक्ताओं से कहा गया कि आप एक-एक मिनट में अपनी बात रखें। दिल्ली से चलते हुए सोचकर ही कितना अच्छा लग रहा था कि हम देश में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली चिट्ठाकारी संगोष्ठी में विमर्श करने जा रहे हैं जिसे कि पाठ के रुप में तैयार किया जाएगा लेकिन आप समझ सकते हैं कि बोलते वक्त हमने ऐसा महसूस किया कि खून,पेशाब,थूक और खखार की तरह यहां अपने विचारों की सैम्पलिंग भर देने आए हैं। वहां मौजूद कुछ लोगों ने ये तर्क दिया कि जब आप पांच मिनट में पढ़नेवाली पोस्ट लिख सकते हैं तो फिर अपनी बात क्यों नहीं रख सकते। पांच मिनट ही क्यों भई,टेलीविजन के हिसाब से सोचें तो 25-30 सेकेंड काफी हैं,इससे ज्यादा की बाइट तो चलती भी नहीं। लेकिन क्या चिट्ठाकारी को जब हम विमर्श और अकादमिक दुनिया में शामिल कर रहे हैं तो उसे निपटाने के अंदाज में ही बात करनी होगी। अब बिडंबना देखिए कि रियाजउल हक जैसा गंभीर ब्लॉगर वक्ता जब ये कह रहा है कि आप हिन्दी ब्लॉग्स पर नजर डालें तो कहीं से इस बात का अंदाजा नहीं लगेगा कि ये उसी देश की अभिव्यक्ति है जहां हजारों किसानों ने कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर ली,दलित समाज का एक तबका आज भी पचास साल पहले के भारत में जीने के लिए अभिशप्त है। हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए जो खतरे हमें उठाने चाहिए,अभी तक हम नहीं उठा रहे हैं और उसके बाद वो पूरी बातचीत को सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्ध लेखन की ओर मोड़ना चाह रहे थे,महज दो मिनट के भीतर उन्हे दबाब में आकर बात खत्म करनी पड़ गयी लेकिन वही दूसरे सत्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार इस बात की घोषणा करते हुए भी कि उन्हें ब्लॉग के बारे में कुछ भी नहीं पता है,करीब पच्चीस मिनट तक बोल गए। इस पच्चीस मिनट में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कि ब्लॉग को लेकर चलनेवाली बहस को आगे ले जाता हो,विमर्श के दायरे का विस्तार करता हो,वही सब जिम्मेदारी का एहसास,लेखन में विवेक का प्रयोग और दुनियाभर के नैतिक आग्रह जिसकी चर्चा पहले दिन ही विस्तार से की गयी। ब्लॉगरों की भाषा में इसे नामवर सिंह की पायरेसी करार दिया गया। औपचारिकता,हिन्दी साहित्य-समाज से आक्रांत दोनों दिनों की इस संगोष्ठी ने ब्लॉग विमर्श के स्पेस को बहुत ही संकुचित कर दिया। हमें बार-बार इस बात का एहसास कराया गया कि हम हिन्दी साहित्य-समाज के लोगों के बीच रहकर अपनी बात कर रहे हैं तभी तो कुलपति,विभागाध्यक्ष से लेकर एमए तक के स्टूडेंट ने हमें आगाह किया कि आप अनुशासित बनिए। संतोष नाम के एक स्टूडेंट ने जब मुझे मंच से अनुशासित होने और धैर्य से दस मिनट नहीं बैठने लायक करार दिया तो हमें इस बात का यकीन हो गया कि आनेवाले समय में हिन्दी साहित्य से जुड़ी संस्थाएं और विभाग अगर चिट्ठाकारी पर किसी भी तरह का आयोजन करती है तो इसका बंटाधार कर देगी। मैंने उन्हें बस इतना ही कि हम यहां योग और साधना शिविर में नहीं आएं हैं कि हिलना-डुलना बंद कर दें,हम विचलन की स्थिति में जी रहे हैं और उन्हीं सबके बीच अपनी बात रखनी है। हिन्दी समाज में चिट्ठाकारी को साहित्यिक मापदंड़ों के खांचे में फिट करने की इतनी अधिक छटपटाहट है कि वो ब्लॉग की तकनीकी, सुविधाओं, शर्तों और शैलियों को उसी रुप में अपनाए जाने के वाबजूद जिस रुप में दुनिया अपना रही है महज ब्लॉग की जगह चिट्ठाकारी शब्द प्रयोग कर थै-थै नाच रहे हैं। नामवर सिंह इस शब्द के प्रयोग को एतिहासिक करार देते हुए इसका श्रेयम.गां.अं.विश्वविद्यालय को देते हैं। हमें तो ब्लॉग के बजाए चिट्ठाकारी टाइप करने में असुविधा हो रही है। आते समय डेस्क पर पड़ी एक रिपोर्ट पर नजर गयी,शीर्षक था-चिट्ठाकारी से साहित्य को कोई खतरा नहीं। अब बताइए चिट्ठाकारी को साहित्य के बरक्स खड़ी करने की क्यों जरुरत पड़ गयी? इस पर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए। बहरहाल... *पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए चटकाएं-*http://taanabaana.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091025/406f43a1/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Oct 27 15:41:47 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 27 Oct 2009 15:41:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSPIOCknw==?= =?utf-8?b?4KWA4KS14KWAIOCkuOClgOCksOCkv+Ckr+CksuCkg+CkuOCljeCkpA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWAIOCkmuCkv+CkguCkpOCkviDgpK/gpL4g4KSb4KSy4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpKrgpYHgpKjgpLDgpY3gpKrgpL7gpKA=?= Message-ID: <829019b0910270311i24aa0279o7f80e8e0c78b95d7@mail.gmail.com> मूलतः प्रकाशितः हंस,स्त्री विमर्शः अगला दौर स्मृति प्रभा खेतान संपादकः राजेन्द्र यादव,अतिथि संपादकः अर्चना वर्मा,बलवंत कौर मूल्यः35 रुपये/ भारतीय टेलीविजन में पिक्चर ट्यूब के दम पर पैदा की जानेवाली उत्सवधर्मिता के बीच पहले बालिका वधू और फिर उसका अनुसरण करते हुए उतरन,लाडो न आना इस देश में और अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ जैसे दर्जनों समस्यामूलक सीरियलों के प्रसारण ने मौजूदा टेलीविजन विश्लेषण के लिए एक नया संदर्भ पैदा किया है। हालांकि समाज विज्ञान के लिहाज से इन संदर्भों में नया कुछ भी नहीं है लेकिन पिछले सात-आठ सालों में टीवी सीरियलों में सास-बहू चरित्रों की अतिशयता ने जहां इसे सास-बहू के प्रतिशोध,घरेलू झगड़ों औऱ विवाहेतर संबधों का पर्याय बना दिया,उच्च मध्यवर्ग के चरित्रों के बीच आए दिन की बदलती जीवन शैली ,जूलरी और पोशाकों ने इसे स्त्री-फैशन का संदर्भ कोश भर बनाकर छोड़ दिया,ऐसे में ये संदर्भ अपने आप ही अप्रासंगिक होते चले गए। इन सीरियलों से गुजरते हुए आप कभी भी स्त्री के वर्गीय चरित्र,घरेलू हिंसा एवं श्रम और बदलती सामाजिक संरचना के बीच स्त्री जैसे सवालों पर सोच नहीं सकते। सास-बहू सीरियलों ने स्त्री की छवि और उसकी उपस्थिति के दायरे को जितना सीमित किया है उसी अनुपात में विश्लेषण के दरवाजे भी छोटे होते चले गए। लेकिन पिछले एक साल में सास-बहू सीरियलों से अलग स्त्री-चिंता पर आधारित सीरियलों की जो नयी खेप आयी है,उसे देखते हुए इन सारे सवालों से गुजरना अनिवार्य लगता है। यहां से टेलीविजन के नए संदर्भ पैदा होते हैं। मुख्यधारा की मीडिया का अनुसरण करते हुए अगर समस्यामूलक इन सीरियलों को सामाजिक विकास का माध्यम मान लिया जाए तो टेलीविजन फिर से उन एजेंडे की तरफ लौटता नजर आता है जिसे कि दूरदर्शन ने शुरु से अपनी प्रसारण नीति के लिए तय कर रखा है। स्त्री और सामाजिक समस्याओं को लेकर सीरियल प्रसारित करनेवाले निजी चैनल बिल्बर श्रैम के उन निर्देशों को पालन करते नजर आते हैं जिनके अनुसार विकासशील देशों में टेलीविजन का अर्थ अनिवार्य रुप से सामाजिक विकास करना है। लेकिन इतना तो हम भी जानते हैं कि निम्नवर्गीय स्त्रियों पर फीचर दिखाते हुए भी दूरदर्शन ने भी अपने घाटे की भरपाई के लिए शांति ,स्वाभिमान और वक्त की रफ्तार जैसे सीरियलों का प्रसारण किया और दूसरी तरफ उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवाद के बीच करीब आठ-नौ सालों से टीवी सीरियल को ‘वूमेन स्पेस’ बनानेवाले चैनल इसे सामाजिक विकास का माध्यम के तौर पर क्यों प्रसारित करना चाहते हैं? फिर इन दोनों स्थितियों को जानते-समझते हुए भी मौजूदा टीवी सीरियलों में ऐसा क्या है जो कि इसे सामाजिक विकास का माध्यम और स्त्री दुनिया को समस्यामूलक विमर्शों के तहत विश्लेषित करने की ओर से जाते हैं? पहली बात तो यह कि पिछले सात-आठ सालों में सास-बहू सीरियलों के जरिए टेलीविजन ने स्त्री की जिस छवि को स्थापित करने की कोशिश की है,जिन घटनाओं को समस्या के तौर पर उठाने का प्रयास किया है,समस्यामूलक सीरियलों ने उनके बरक्स कहीं बड़ी समस्याओं को लेकर दर्शकों को बांधने की कोशिश की है। उतरन के भरोसे पल रही इच्छा,शादी के झूठे दिलासे में ठाकुर के हाथों चंद रुपयों में बेच दी जानेवाली अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौकी ललिया, लड़का-बच्चा नहीं जनने की वजह से अम्मां के घर बहू बनकर रहने का सपना लिए और अब नौकरानी बनकर रहनेवाली न आना लाडो इस देश में की चंदा(चंदा-इस घर में बहू बनकर आना एक धोखा था और आज इस घर में नौकरानी बनकर रहना सच है) और बिरजू के नीची जाति की होने की वजह से प्रेम से बेदखल कर दी जानेवाली मितवा दो फूल कमल के की बेला,ऐसे दर्जनों चरित्र हैं जो कि दर्शकों की ओर से संवेदना बटोरने के स्तर पर सास के षड्यंत्रों की शिकार पार्वती, रानी , वैदेही, काकुल और आंचल को बहुत पीछे धकेल देती है। ललिया के मां-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों सहित पूरे-पूरे दिन भूखे पेट काटने के आगे,अदना दो ठेकुए के लिए ‘हमहुं तो छोट जात हैं,हम कहां बामन-पंडित है’ बोलकर अपनी जाति बताने के आगे,पन्द्रह साल में ही सुगना के विधवा हो जाने के आगे, भरी महफिल में सात साल की हिचकी और बाद में अठारह साल की हो जानेवाली इच्छा के जलील किए जाने के आगे और हरियाणा के बीरपुर में अभी-अभी जन्मी बच्ची को जहरीले दूध के हवाले करनेवाली हजारों मांओं के आगे इन सारी सास-बहू सीरियलों के चरित्रों की तकलीफ दर्शकों के लिए बहुत स्वाभाविक नहीं रह जाते। जाति,वर्गीय-चरित्र,सामाजिक हैसियत,लिंग-भेद और सामाजिक कुप्रथा की शिकार इन स्त्री-चरित्रों के आगे, सात-सात,आठ-आठ सालों से आदर्श बहू,परिवार और विवाह संस्था को बचानेवाली स्त्री-चरित्र दर्शकों के भीतर संवेदना पैदा करने की ताकत खो देते हैं। अब की ये स्त्री चरित्र टेलीविजन दर्शकों के लिए ज्यादा स्वाभाविक लगते हैं। सास-बहू सीरियलों को ये चरित्र मेलोड्रामा करार देते हैं। यहां पर आकर टेलीविजन अपनी आलोचना स्वयं करता नजर आता है। ऐसे में उत्सवधर्मी सास-बहू सीरियलों और समस्यामूलक सीरियलों के बीच एक तुलनात्मक स्थिति बनती है जो यह बताती है कि स्त्रियों की समस्याओं का वर्गीय चरित्र होता है,देश की सारी स्त्रियों को देखने-समझने के एक ही आधार बिंदु तय नहीं किए जा सकते,स्त्री की पहले बुनियादी चिंता पेट,लिंग-भेद और जातिगत स्तर पर किए जानेवाले भेदभाव को लेकर है। पहले इसे समझना जरुरी है। कुछेक हजार में ठाकुर के हाथों बेच दी गयी ललिया अब दक्खिन टोला के बजाय महल में रहती है लेकिन लाखों रुपये दहेज में देने के वाबजूद सास लीलावती के कुचक्र की शिकार हुई वो रहनेवाली महलों की की रानी के झोपड़पट्टी में रहने के दर्द पर ललिया के महल में रहने का दर्द कितना गुना भारी पड़ता है,यहां स्त्री के वर्गीय चरित्र और जातिगत समस्याओं को देखने का एक नया संदर्भ बनता है। स्त्री-छवि के सवाल पर यहां दोनों तरह के सीरियलों को शामिल करें तो वायनरी ऑपोजिशन का फार्मूला चरित्रों के बजाय परिस्थितियों पर आकर लागू होता है और समस्या का दायरा परिवार से बढ़कर समाज तक जाता है। सास-बहू सीरियलों के लगभग सारे स्त्री-चरित्र घरेलू कुचक्र की शिकार होती हैं। ये सारे चरित्र उच्च मध्यवर्ग से आते हैं,खाने-पीने और पहनने के स्तर पर कहीं कोई परेशानी नहीं है। भौतिक स्तर का अभाव नहीं है। आंसुओं को ढोती हुई भी वो गहनों और कीमती पोशाकों से लदी-फदी स्त्रियां है जो बौद्धिक क्षमता और शिक्षा के स्तर पर यह देश की औसत स्त्रियों से कई गुना आगे है लेकिन सास की कारवाईयों के आगे घुटने टेक देती हैं। पति के विवाहेतर संबंधों को चुपचाप बर्दाश्त करती है और कई जगहों पर उसके प्रति सहानुभूति भी व्यक्त करती है लेकिन कहीं भी किसी भी बात के लिए प्रतिरोध जाहिर नहीं करती और दिलचस्प है कि करीब सात-आठ सालों तक इन चरित्रों पर आदर्श बहू का लेबल चस्पाया जाता रहा। मीहान इस तरह की स्त्रियों का विस्तार से चर्चा करती हैं और स्पष्ट करती हैं कि सीरियल ऐसे चरित्रों को अच्छी स्त्री का दर्जा देता है। दूसरी तरफ ललिया सास-बहू सीरियलों की चरित्रों-काकुल(जिया जले),रानी(वो रहनेवाली महलों की) और वैष्णवी(माता की चौकी सजा के रखना) जैसी चरित्रों की हैसियत के आगे कुछ भी नहीं है। उसके गले में पीतल की ताबीज से लटकी लाल सूत भर है, निपट है,समाज जिसे सामाजिक तौर पर साक्षर मानता है वो नहीं है लेकिन सामाजिक तौर पर पितृसत्ता से लगातार टकराती है। उतरन की हिचकी, अम्मो के दर्द को समझते हुए चमकी के साथ काम करती है,बड़ी होकर स्कूल में पढ़ाती है। पन्द्रह साल में ही वैधव्य धारण करनेवाली सुगना(बालिका वधू), श्याम से पहले प्रेम और फिर पुर्नविवाह करने का साहस जुटाती है। बसंत की तीसरी पत्नी बनकर आयी गहना(बालिका वधू) बसंत की इच्छाओं का प्रतिरोध करती है। ये चरित्र स्त्री-मुक्ति की संभावनाओं का विस्तार करती नजर आती है जिसे कि स्त्री-विमर्श की मान्यताओं को भी समर्थन प्राप्त है। समस्यामूलक सीरियलों के ये वो संदर्भ हैं जो कि भारत सरकार की ओर से सामाजिक न्याय,पुनर्विवाह,स्त्री अधिकार और साक्षरता मिशन के अधिनियमों को मजबूती प्रदान करते हैं। सास-बहू सीरियलों के चरित्र जहां परंपरा और संस्कार के नाम पर विवाह और परिवार संस्था को बचाने की कोशिश में लगे रहे,स्त्री-मुक्ति के नाम पर अपने को मन का पहनने और शॉपिंग करने तक सीमित कर दिया वहीं समस्यामूलक सीरियलों के चरित्र जमीनी स्तर पर बदलाव करते नजर आते हैं। टेलीविजन की स्त्री-दर्शक मूलतः नागरिक हैं और उनके लिए इसी हैसियत से कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिए,इस भरोसे के साथ प्रसारित किए जानेवाले इन नए सीरियलों ने अपने को सामाजिक विकास के साथ जोड़कर देखने की गुंजिश पैदा की है। इन सीरियलों ने स्त्री के स्टेटस के सवाल को स्त्री अधिकारों पर लाकर खड़ा किया है। लेकिन सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं को आधार बनाकर दिखाए जानेवाले सीरियलों पर दूसरे पक्ष से विचार करें तो कुछ अलग ही समझ बनती है। पहली बात तो यह कि हमें यह ठीक से समझ लेना होगा सास-बहू सीरियलों के एक-एक करके बंद होते जाने के पीछे टीवी समीक्षकों के प्रयासों के बजाय स्वयं टेलीविजन का अर्थशास्त्र है जिसने उसे आगे चलने की स्थिति में नहीं रहने दिया और दूसरा समस्यामूलक सीरियलों के लगातार लोकप्रिय होते रहने की बड़ी वजह टेलीविजन की स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु बदल जाने की घटना है। जब हम इन दोनों बातों पर गौर करते हैं तो समस्यामूलक सीरियलों को सामाजिक विकास का पर्याय मानने में थोड़ी परेशानी जरुर होती है। टेलीविजन का एक सर्वभौम फार्मूला है कि वह संदर्भों और घटनाओं को स्वाभाविक बनाने का काम करे। सास-बहू की लोकप्रियता के जो भी आधार बने और जिसने सीरियल देखने की संस्कृति को स्थापित किया उसके पीछे भी टेलीविजन का यही फार्मूला काम करता रहा। करवाचौथ में सारी स्त्रियां उसी तरह से व्रत रखती हैं,उसी तरह से सजती-संवरती हैं,परिवार को बचाए रखने के लिए उसी रानी की तरह घुट-घुटकर जीती है जैसा कि क्योंकि सास भी कभी बहू थी,कहानी घर-घर की और वो रहनेवाली महलों की जैसे सीरियलों में दिखाया जाता है। नतीजा यह होता है कि इसके जरिए एक नए ढंग की टेलीविजन की प्रस्तावित संस्कृति तो जरुर पनपने लग जाती है जो कि हमें बदलते फैशन और व्यवहार के तौर पर दिखाई देते हैं लेकिन इससे समाजे के भीतर के अन्तर्विरोध कम नहीं होते और संभावनाओं के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। ऐसे में टेलीविजन समाज की अच्छाई और बुराईयों का विभाजन करने और उसे रेखांकित करने के बजाय उसे स्वाभाविक करार देता नजर आता है। सास-बहू सीरियलों की अधिकांश स्थापनाएं स्त्री के विरोध में है लेकिन वो इतनी स्वाभाविक है कि दर्शकों की ओर से इसे लंबे समय तक स्वीकृति मिल जाती है। इसके ठीक बाद समस्यामूलक सीरियलों की प्रासंगिकता बढ़ती है तो उसके पीछे भी टेलीविजन द्वारा स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु तलाशने का ही फार्मूला काम आता है। बालिका वधू एक सामाजिक और स्वाभाविक सच है,उतरन के भरोसे सपने बुननेवाले बच्चों की दुनिया एक स्वाभाविक सच है,शादी-ब्याह में छोटी जाति की स्त्रियों की जरुरत एक स्वाभाविक सच है(ठकुराइन-धनिया,लड़की को नहाने का पानी डालने के लिए किसी छोट जात की औरत को लेकर आ..अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ) और स्त्री के बच्चा नहीं जनने पर उसे छोड़कर बच्चा पैदा करनेवाली स्त्री के तौर पर दूसरे खिलौने को लाना स्वाभाविक सच है,( अम्मां- तू बस पुराने खिलौने की जिद पकड़कर बैठ गया। म तो तनै नया खिलौना दे रही थी।..लाडो न आना इस देश में) समस्यामूलक सीरियलों में ये सारी स्वाभाविकता शामिल हैं और शुरुआत के एपिसोड को देखकर इसके प्रतिरोध में कारवाई होने की गुंजाईश बनती नजर आती है। लेकिन तीस-पैंतीस एपिसोड तक समस्याओं के स्वाभाविक तौर पर उठाए जाने के बाद अतिरेकीपन-आनंदी,ललिया,अम्मो की व्यथा और दादी सा,अम्माजी और ठकुराइन जैसे चरित्रों के अतिशय क्रूरता के बीच उलझकर रह जाते हैं। किसी भी स्तर पर प्रतिरोध के बजाय उस संरचना के भीतर जीने की स्वाभाविकता ज्यादा प्रभावी हो जाती है। ऐसे में स्त्रियों की ये छवि वास्तविकता को खत्म कर देती हैं और औसत यथार्थ में बदल जाती है। सूसन सौंटगै छवियों के जरिए व्यक्त वास्तविकता को इसी रुप में विश्लेषित करती हैं। इसके साथ ही यहां आकर ये सीरियल सास-बहू सीरियलों की स्वाभाकिता की राह पकड़ लेते हैं जहां आकर दर्शक इन सीरियलों को सिर्फ परिधान,परिवेश और संदर्भों के स्तर पर इसे अलग पाता है नहीं तो यहां भी उत्सवधर्मिता है, हरेक मौके पर ईश्वर के आगे जाने का रिवाज यहां भी कायम है, मुसीबत में भगवान भरोसे छोड़ देने की आदतें है और अपनी बेहतरी का अंतिम विकल्प पुरुषों की छत्रछाया ही साबित होती है। टश्मान के शब्दों में इस तरह घिसी-पिटी छवियों को स्थापित करके उसके सांकेतिक विनाश(symbolic annihilation of women) का काम किया जाता है। यहां भी स्त्री की कोई स्वतंत्र छवि नहीं बनने पाती है और पुनर्विवाह के लिए हिम्मत जुटानेवाली बालिका वधू कीसुगना भी ‘मेरी वजह से मायकेवालों का सिर कभी नीचा न होगा’ के संकल्प के साथ घर से विदा लेती है। यही पर आकर इन नए समस्यामूलक सीरियलों के लिए जज्बात के बदलते रंग,टीआरपी का नया फार्मूला और स्त्री समस्याओं को ‘प्लेजर मोड’ में बदल देने जैसे पदबंधों के इस्तेमाल शुरु हो जाते हैं। शुरुआती एपीसोड में सीरियलों के लैंडस्केप बदलने के साथ ही इसके कस्बाई,झुग्गियों और टोलों में स्त्री चरित्र को समझने की जो उम्मीद बंधती है वो पन्द्रह से बीस एपीसोड तक आते-आते शहर और महलों के सेंट्रिक होकर रह जाते हैं। यहीं पर आकर सामाजिक विकास के फार्मूले पर सीरियलों की बात करना बेमानी लगने लग जाते हैं। हां इन सबके वाबजूद इतना जरुर होता है कि स्त्री-दर्शकों का दायरा बढ़ता है,पुरुष दर्शकों की सीरियल देखने के प्रति मरी इच्छाएं फिर से जन्म लेने लग जाती है और छद्म ही सही, व्यापक स्तर पर टेलीविजन मनोरंजन के जरिए जागरुकता पैदा करने का काम करता है,यह भ्रम व्यापक स्तर पर प्रसारित होता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091027/fa4b39cf/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Fri Oct 30 02:23:40 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 30 Oct 2009 02:23:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCc4KS24KSC4KSV?= =?utf-8?b?4KSwIOCktuCliOCksuClh+CkqOCljeCkpuCljeCksCDgpJXgpYsg4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkuOCkv+CkqOClh+CkruCkviDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KS44KWHIOCkrOClnOCkviDgpJfgpYDgpKTgpJXgpL7gpLAg?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+IOCknOCkviDgpLjgpJXgpKTgpL4g4KS54KWILuKAnSAt?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KWb4KS+4KSwLg==?= Message-ID: www.mihirpandya.com * * * * * इस बार के ओशियंस में प्रस्तुत गुलज़ार साहब का पर्चा “हिन्दी सिनेमा में गीत लेखन (1930-1960)” बहुत ही डीटेल्ड था और उसमें तीस और चालीस के दशक में सिनेमा के गीतों से जुड़े एक-एक व्यक्ति का उल्लेख था. वे बार-बार गीतों की पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में पेश करते थे और जैसे उस दौर का चमत्कार फिर से जीवित कर देते थे. पेश हैं गुलज़ार साहब के व्यख्यान की कुछ झलकियाँ :- - एक पुराना किस्सा है. एक बार ओम शिवपुरी साहब ने अपने साहबज़ादे को एक चपत रसीद कर दी. अब कर दी तो कर दी. साहबज़ादे ने जवाब में अपने पिता से पूछा कि क्या आपके वालिद ने भी आपको बचपन में चपत रसीद की थी? तो उन्होंने जवाब में बताया हाँ. और उनके पिता ने भी.. फिर जवाब मिला हाँ. और उनके पिता ने भी? शिवपुरी साहब ने झल्लाकर पूछा आखिर तुम जानना क्या चाहते हो? तो जवाब में उनके साहबज़ादे ने कहा, “मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर यह गुंडागर्दी शुरु कहाँ से हुई!” तो इसी तरह मैं भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए जो काम आजकल करता हूँ इसकी असल शुरुआत कहाँ से हुई इसे जानने के लिए मैं सिनेमा के सबसे शुरुआती दौर की यात्रा पर निकल पड़ा… - आप शायद विश्वास न करें लेकिन सच यह है कि हिन्दी सिनेमा में गीतों की शुरुआत और उनका गीतों से अटूट रिश्ता बोलती फ़िल्मों के आने से बहुत पहले ही शुरु हो गया था. साइलेंट सिनेमा के ज़माने में ही सिनेमा के पर्दे के आगे एक बॉक्स में एक उस्ताद साहब अपने शागिर्दों के साथ बैठे रहते थे और पूरे सिनेमा के दौरान मूड के मुताबिक अलग-अलग धुनें और गीत-भजन बजाया-गाया करते थे. इसकी दो ख़ास वजहें भी थीं. एक तो पीछे चलते प्रोजैक्टर का शोर और दूसरा सिनेमा के आगे दर्शकों में ’पान-बीड़ी-सिगरेट’ बेचने वालों की ऊँची हाँक. लाज़मी था कि गीत-संगीत इतने ऊँचे स्वर का हो कि ये ’डिस्टरबिंग एलीमेंट’ उसके पीछे दब जाएं. इतनी सारी अलग-अलग आवाज़ें सिनेमा हाल में एक साथ, वास्तव में यह साइलेंट सिनेमा ही असल में सबसे ज़्यादा शोरोगुल वाला सिनेमा रहा है. - इन्हीं साज़ बजाने वालों में एक हुआ करते थे मि. ए.आर. कुरैशी जिन्हें आज आप और हम उस्ताद अल्लाह रक्खा के नाम से और ज़ाकिर हुसैन के पिता की हैसियत से जानते हैं. उन्होंने मुझे कहा था कि मैंने तो कलकत्ता में सिनेमा के आगे चवन्नी में तबला बजाया है. यूँ ही जब ये सिनेमा के आगे बजने वाले गीत लोकप्रिय होने लगे तो आगे से आगे और गीतों की फरमाइश आने लगीं. सिनेमा दिखाने वालों को भी समझ आने लगा कि भई उस सिचुएशन में वहाँ पर तो ये गीत बहुत जमता है. इस तरह गीत सिचुएशन के साथ सैट होने लगे. इसी बीच किसी फरमाइश के वशीभूत मुंशी जी को किसी लोकप्रिय मुखड़े का सिचुएशन के मुताबिक आगे अंतरा लिख देने को कहा गया होगा, बस वहीं से मेरी इस रोज़ी-रोटी की शुरुआत होती है. - साल उन्नीस सौ सैंतालीस वो सुनहरा साल था जिस साल आधा दर्जन से ज़्यादा सिनेमा के गीतकार खुद निर्देशक के रूप में सामने आए. इनमें केदार शर्मा और मि. मधोक जैसे बड़े नाम शामिल थे. - केदार शर्मा जितने बेहतरीन निर्देशक थे उतने ही बेहतरीन शायर-गीतकार भी थे. अफ़सोस है कि उनके इस रूप की चर्चा बहुत ही कम हुई है. उनकी इन पंक्तियों, “सुन सुन नीलकमल मुसकाए, भँवरा झूठी कसमें खाए.” जैसा भाव मुझे आज तक कहीं और ढूँढने से भी नहीं मिला. उस कवि में एक तेवर था जो उनके लिखे तमाम गीतों में नज़र आता है. - कवि प्रदीप चालीस के दशक का मील स्तंभ हैं. उनके गीतों में हमेशा नेशनलिज़्म का अंडरटोन घुला देखा जा सकता है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है आज़ादी से पहले आया उनका गीत “दूर हटो ए दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है.” और इसके अलावा उनके लिखे गीत “ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी” से जुड़ा किस्सा तो सभी को याद ही होगा. जिस गीत को सुनकर पंडित जी की आँखों में आँसू आ गए हों उसके बारे में और क्या कहा जाये. - ग़ालिब के कलाम का हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम आगमन होता है सन 1940 में और नज़्म थी, “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक”. चालीस के दशक में ही हिन्दी सिनेमा फ़ैज़ की नज़्म को और टैगोर की कविता को गीत के रूप में इस्तेमाल कर चुका था. - बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है. उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे. - जैसे सलीम-जावेद को इस बात का श्रेय जाता है कि वो कहानी लेखक का नाम सिनेमा के मुख्य पोस्टर पर लेकर आये वैसे ही गीत लेखन के लिए यह श्रेय साहिर लुधियानवी को दिया जाएगा. - साहिर भी अपने विचार को लेकर बड़े कमिटेड थे. वो विचार से वामपंथी थे और वो उनके गीतों में झलकता है. गुरुदत्त की “प्यासा” उनके लेखन का शिखर थी. - एक गीत प्रदीप ने लिखा था “देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान” और इसके बाद इसी गाने की पैरोडी साहिर ने लिखी जो थी, “देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान”! - इस पूरे दौर में राजेन्द्र कृष्ण को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. तक़रीबन तीन दशक तक दक्षिण भारत के स्टूडियोज़ से आने वाली हर दूसरी फ़िल्म में उनके गीत होते थे. उनके गीत सीधा अर्थ देने वाले होते थे, जैसे संवादों को ही गीतों में ढाल दिया हो. - मेरा प्रस्ताव यह है कि जहाँ हम पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा के गीतों का सुनहरा समय मानते हैं तो वहाँ हमें इस सुनहरे दौर में तीस के दशक और चालीस के दशक को भी शामिल करना चाहिए. यही वह दौर है जब इस सुनहरे दौर की नींव रखी जा रही थी. तेज़ी से नए-नए बदलाव गीत-संगीत में हो रहे थे और तमाम नए उभरते गीतकार-संगीतकार-गायक अपने पाँव जमा रहे थे. लता आ रहीं थीं, बर्मन आ रहे थे, साहिर आ रहे थे. यह पूरा चालीस का दशक एक बहुत ही समृद्ध परम्परा है जिसे हमारे हाथ से छूटना नहीं चाहिए. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091030/2f9095f4/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Oct 30 10:14:57 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 30 Oct 2009 10:14:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruCkv+CksuCkqOClhyDgpJXgpYAg4KSw4KS+4KS5IOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkueCliOCkgiDgpLDgpYvgpZzgpYcg4KSs4KWc4KWH?= Message-ID: <196167b80910292144i351f978s1f0970568c17fa10@mail.gmail.com> *यह सूचना का अधिकार नहीं चमत्कार है। अब बीडीओ साहब देखकर बैठने के लिए पूछते हैं। इज्जत से बात करते हैं। गांव के आदमी को और क्या चाहिए? कमलेश कामत मैनही पंचायत अमही प्रखंड मधुबनी के रहने वाले हैं। सूचना के अधिकार से उनका परिचय अभी नया-नया है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हाल में जब प्रखंड कार्यालय से उन्होंने अपने पंचायत में होने वाले विकास संबंधी कार्यों में हो रहे व्यय का ब्यौरा मांग तो क्यों पंचायत से लेकर ब्लॉक तक में उनकी इज्जत पहले से कई गुना बढ़ गई है। * पहले जो बीडीओ साहब उन्हें अपने आस-पास भी फटकने नहीं देते थे, आजकल कमलेश को अपने दफ्तर में ना सिर्फ बिठाते हैं बल्कि चाय भी पूछते हैं। कमलेश के घर से ब्लॉक ऑफीस की दूरी तीन घंटे की है। जिसमें लगभग डेढ़ घंटा-दो घंटे पैदल चलना पड़ता है क्योंकि उस रास्ते में पानी लगने की वजह से सवारी नहीं मिलती। इतनी दूर से ब्लॉक आने के बाद बाबू से लेकर साहब तक उसे दुत्कार देते थे तो आप समझ सकते हैं, उसपर क्या बीतती होगी? कमलेश को कोई बड़ी जीत हासिल हुई है ऐसा नहीं है लेकिन ब्लॉक के बाबू और अफसर से मिले प्यार के दो बोल ही उसके लिए अमृत के बराबर है। वह इसी से खुश है। दूसरी कहानी है, बिहार के दरभंगा के एक सज्जन की। जो एक प्रखंड विकास पदाधिकारी के खिलाफ सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत कुछ ऐसी जानकारी पा गए, जिससे प्रखंड में पैसों की गड़बड़ी का खुलासा हो रहा था। उस व्यक्ति ने बातचीत में कहा कि- `बीडीओ साहब अपन गाड़ी लक हमर दुआर पर आइब गेला। की कहू? फेर हम अपील में नई गेलऊ। अब अतेक बड अधिकारी घर आईब गेल त ओकर खिलाफ की जाऊ?´ इन दो कहानियों में जो एक बात समान थी, वह यह कि इन दो कहानियों के मुख्य पात्र इस बात से ही खुश हो गए कि सरकारी अधिकारी ने उन्हें थोड़ी तवज्जो दे दी। अब इससे एक कदम आगे बढ़ते हैं, मतलब जिन्होंने इतने पर राजी होना स्वीकार नहीं किया। अपनी कार्यवाही को अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया, उनका अंजाम अच्छा नहीं हुआ। अब सारण के रहने वाले विरेन्द्र कुमार को देख लीजिए। वे पांव से विकलांग हैं। उनपर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने पंचायत शिक्षकों की नियुक्ति में हुई अनियमितता पर सूचना मांगी थी। पुनपुन के कुणाल मोची और पिंकी देवी ने अपने-अपने पंचायत में हो रही गड़बड़ियों के खिलाफ आवाज बुलन्द की तो उनपर अशांति फैलाने का मुकदमा बहाल है। यह सूची बहुत लंबी है। रामबालक शर्मा पर एसपी लखीसराय ने धारा 302 का मुकदमा लगाया है, युगलकिशोर प्रसाद को सूचना मांगने पर सूचना के बदले बीडीओ नालंदा की प्रताड़ना मिली। इन कहानियों को बताने के पिछे सीधी सी बात यह थी कि भले ही सूचना के अधिकार को आम आदमी के लिए बना कानून कह कर प्रचारित किया जाए लेकिन यह कानून उन लोगों के लिए है जो प्रशासन की प्रताड़ना सहने और उससे लड़ने का कुव्वत रखते हों। इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानों जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग हाल में बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय हाल में ही जीतकर आए हैं। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया है। श्री राय कहते हैं, `सूचना आयोग से मिले न्याय की वजह से मेरा हौंसला बढ़ गया है और मैं आगे भी समाजहित में सूचना के अधिकार को एक अहिंसक हथियार बनाकर लड़ता रहूंगा।´ हो सकता है, सूचना का अधिकार को लेकर काम कर रहे कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय की जीत को आम आदमी की जीत कहकर प्रचारित करें लेकिन राय आम आदमी नहीं है। इस देश का आम आदमी कमलेश कामत जैसा है, जो भावुक है। वह लड़ना-भिड़ना नहीं जानता। हर चुनाव में राजनीतिक नेता उन्हें प्यार के दो बोल बोलकर, झूठे वादों के सहारे सुनहरे सपने दिखाकर, जीतने के बाद पांच साल के लिए नर्क में छोड़ जाते हैं। ऐसा आम आदमी शिवप्रकाश राय नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में सूचना का अधिकार आम आदमी का कानून बने, आम आदमी के लिए इसे अपनाना सहज हो, इसकी राह अभी मुश्किल जान पड़ती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091030/5e5057af/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Oct 30 10:14:57 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 30 Oct 2009 10:14:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruCkv+CksuCkqOClhyDgpJXgpYAg4KSw4KS+4KS5IOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkueCliOCkgiDgpLDgpYvgpZzgpYcg4KSs4KWc4KWH?= Message-ID: <196167b80910292144i351f978s1f0970568c17fa10@mail.gmail.com> *यह सूचना का अधिकार नहीं चमत्कार है। अब बीडीओ साहब देखकर बैठने के लिए पूछते हैं। इज्जत से बात करते हैं। गांव के आदमी को और क्या चाहिए? कमलेश कामत मैनही पंचायत अमही प्रखंड मधुबनी के रहने वाले हैं। सूचना के अधिकार से उनका परिचय अभी नया-नया है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हाल में जब प्रखंड कार्यालय से उन्होंने अपने पंचायत में होने वाले विकास संबंधी कार्यों में हो रहे व्यय का ब्यौरा मांग तो क्यों पंचायत से लेकर ब्लॉक तक में उनकी इज्जत पहले से कई गुना बढ़ गई है। * पहले जो बीडीओ साहब उन्हें अपने आस-पास भी फटकने नहीं देते थे, आजकल कमलेश को अपने दफ्तर में ना सिर्फ बिठाते हैं बल्कि चाय भी पूछते हैं। कमलेश के घर से ब्लॉक ऑफीस की दूरी तीन घंटे की है। जिसमें लगभग डेढ़ घंटा-दो घंटे पैदल चलना पड़ता है क्योंकि उस रास्ते में पानी लगने की वजह से सवारी नहीं मिलती। इतनी दूर से ब्लॉक आने के बाद बाबू से लेकर साहब तक उसे दुत्कार देते थे तो आप समझ सकते हैं, उसपर क्या बीतती होगी? कमलेश को कोई बड़ी जीत हासिल हुई है ऐसा नहीं है लेकिन ब्लॉक के बाबू और अफसर से मिले प्यार के दो बोल ही उसके लिए अमृत के बराबर है। वह इसी से खुश है। दूसरी कहानी है, बिहार के दरभंगा के एक सज्जन की। जो एक प्रखंड विकास पदाधिकारी के खिलाफ सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत कुछ ऐसी जानकारी पा गए, जिससे प्रखंड में पैसों की गड़बड़ी का खुलासा हो रहा था। उस व्यक्ति ने बातचीत में कहा कि- `बीडीओ साहब अपन गाड़ी लक हमर दुआर पर आइब गेला। की कहू? फेर हम अपील में नई गेलऊ। अब अतेक बड अधिकारी घर आईब गेल त ओकर खिलाफ की जाऊ?´ इन दो कहानियों में जो एक बात समान थी, वह यह कि इन दो कहानियों के मुख्य पात्र इस बात से ही खुश हो गए कि सरकारी अधिकारी ने उन्हें थोड़ी तवज्जो दे दी। अब इससे एक कदम आगे बढ़ते हैं, मतलब जिन्होंने इतने पर राजी होना स्वीकार नहीं किया। अपनी कार्यवाही को अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया, उनका अंजाम अच्छा नहीं हुआ। अब सारण के रहने वाले विरेन्द्र कुमार को देख लीजिए। वे पांव से विकलांग हैं। उनपर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने पंचायत शिक्षकों की नियुक्ति में हुई अनियमितता पर सूचना मांगी थी। पुनपुन के कुणाल मोची और पिंकी देवी ने अपने-अपने पंचायत में हो रही गड़बड़ियों के खिलाफ आवाज बुलन्द की तो उनपर अशांति फैलाने का मुकदमा बहाल है। यह सूची बहुत लंबी है। रामबालक शर्मा पर एसपी लखीसराय ने धारा 302 का मुकदमा लगाया है, युगलकिशोर प्रसाद को सूचना मांगने पर सूचना के बदले बीडीओ नालंदा की प्रताड़ना मिली। इन कहानियों को बताने के पिछे सीधी सी बात यह थी कि भले ही सूचना के अधिकार को आम आदमी के लिए बना कानून कह कर प्रचारित किया जाए लेकिन यह कानून उन लोगों के लिए है जो प्रशासन की प्रताड़ना सहने और उससे लड़ने का कुव्वत रखते हों। इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानों जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग हाल में बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय हाल में ही जीतकर आए हैं। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया है। श्री राय कहते हैं, `सूचना आयोग से मिले न्याय की वजह से मेरा हौंसला बढ़ गया है और मैं आगे भी समाजहित में सूचना के अधिकार को एक अहिंसक हथियार बनाकर लड़ता रहूंगा।´ हो सकता है, सूचना का अधिकार को लेकर काम कर रहे कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय की जीत को आम आदमी की जीत कहकर प्रचारित करें लेकिन राय आम आदमी नहीं है। इस देश का आम आदमी कमलेश कामत जैसा है, जो भावुक है। वह लड़ना-भिड़ना नहीं जानता। हर चुनाव में राजनीतिक नेता उन्हें प्यार के दो बोल बोलकर, झूठे वादों के सहारे सुनहरे सपने दिखाकर, जीतने के बाद पांच साल के लिए नर्क में छोड़ जाते हैं। ऐसा आम आदमी शिवप्रकाश राय नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में सूचना का अधिकार आम आदमी का कानून बने, आम आदमी के लिए इसे अपनाना सहज हो, इसकी राह अभी मुश्किल जान पड़ती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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