From vineetdu at gmail.com Tue Nov 3 11:01:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 3 Nov 2009 11:01:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MiDgpKjgpLXgpKw=?= =?utf-8?b?4KSC4KSwIDA5OiDgpJ/gpYfgpLLgpYDgpLXgpL/gpJzgpKgg4KSH4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KS+4KS4IOCkleCkviDgpI/gpJUg4KSF4KS24KWN4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KSyIOCkpuCkv+CkqA==?= Message-ID: <829019b0911022131u596f60e1i6733e9e4ccd309d@mail.gmail.com> मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive हमें स्क्रीन पर तीन-चार बुज़ुर्ग टकले, सिर्फ सिर दिखाई देते हैं। एक के ऊपर एक आपाधापी करते हुए मीडियाकर्मी आगे बढ़ते हैं। बादशाह उन्हें बार-बार बैठने की सलाह देता है। कभी मुस्कराते हुए,कभी आवाज़ में थोड़ी तल्खी बरतते हुए लेकिन इन पर कोई असर नहीं होता। उसी धकमपेल में बादशाह की ओर से घोषणा की जाती है – आपलोग परेशान मत होइए, केक काटे जाने के फोटोग्राफ्स आपलोगों के बीच बांट दिये जाएंगे… यू ऑल आर माइ फ्रैंड्स… तू आ न इधर से… तेरे को तो मैंने पहले भी दिया था… हैव कोल्डड्रिंक प्लीज़। बादशाह इन अनुभवी मीडियाकर्मियों को अपना दोस्त बताते हुए शुक्रिया अदा करते हैं। स्क्रीन पर लगातार फ्लैश होता है – शाहरुख़ लाइव। सिलेब्रेटी को कवर करने का दौरा इस तरह से पड़ता है कि हम ऑडिएंस को सिर्फ टकले सिर दिखते हैं। टेलीविज़न ये एथिक्स भी भूल जाता है कि ऑडिएंस के साथ किस हद तक ईमानदारी बरतनी है। क्या आज हम अपने हिस्से आयी इन तस्वीरों के जरिये टेलीविज़न के हीस्टीरिया फेज का अंदाजा लगा सकते हैं? थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ ये नज़ारा लगभग सभी चैनलों पर था। पांच-दस-पंद्रह साल, बीस साल से जर्नलिज्म करनेवाले देश के मीडियाकर्मी किंग खान कहे जानेवाले शख्स की केक काटने की तस्वीर लेने के लिए पूरी ताक़त झोंक देते हैं। आपाधापी के बीच वो किसी भी तरह से उस तस्वीर को हम तक लाइव पहुंचाना चाहते हैं। टेलीविज़न ने लाइव देखने का जो रोमांच और दिखाने का जो आंतक हमारे बीच पैदा किया है, उसके पीछे किसी भी तरह के इथिक्स काम नहीं करते। हम सिर्फ टकले सिर और पिछाड़ी देखकर किस प्लेज़र मोड में अपने को पाते हैं, चैनल को इस पर एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। बाज़ार की गोद में बैठकर भी पसीना बहानेवाले और उसका पक्ष लेनेवाले मीडियाकर्मियों से एक बार सवाल तो ज़रूर किये जाने चाहिए कि हम अगर आपके चाल-चरित्र को समझते हुए ये समझ रहे हैं कि आपके एजेंडे में सामाजिक विकास और दायित्व का मामला कहीं नहीं है तो फिर क्या देश के ये अनुभवी पत्रकार सिर्फ इस काम के लिए रह गये हैं कि वो हांफते हुए, अपनी हड्डियां चटकाते हुए केक काटने का लाइव शॉट तैयार करें? यहीं से उनकी एक्टिविटी के दो चरित्र हमें साफ तौर पर दिखाई देते हैं। एक चरित्र जहां कि वह लगातार “आइस संस्कृति” ( इनफॉर्मेशन, इंटरटेनमेंट और कनज्‍यूमरिज्म से पैदा की जानेवाली संस्किकृति) को मज़बूत करता नज़र आता है और दूसरा कि ख़बर हर कीमत पर या जहां हम हैं वहां ख़बर है के दावे के साथ अपने को समाज का पहरुआ साबित करने की कोशिश में लगे रहने की घोषणा करता है। मीडिया के ये दोनों चरित्र ऊपरी तौर पर एक दूसरे के वायनरी नज़र आते हैं लेकिन गंभीरता से देखें तो ये पहले के चरित्र को ही सपोर्ट करता नज़र आता है। ऐसे में सामाजिक मसले के सारे सवाल पहले के चरित्र में इमर्ज कर जाते हैं और एक नये किस्म की ख़तरनाक स्थिति पैदा होती है। पिछले तीन दिनों से देश के लगभग सारे हिंदी चैनलों ने अपनी-अपनी इंदिरा खोजने और गढ़ने में अपनी ताक़त झोंक दी। इस इंदिरा यात्रा के जरिये उन सवालों से ऊपरी स्तर पर ही सही, लोकतंत्र के मिज़ाज और ज़रूरतों को समझने की कोशिश की गयी जो कि किसी भी देश के लिए खाद-पानी का काम करते हैं। इन तीन दिनों में फ्रैक्चर्ड डेमोक्रेसी का भी मसला जहां-तहां उठाया गया। अगर चैनलों की इस कोशिश में मौजूदा समय के सवाल जुड़ते तो उन्हें आज दस साल से लगातार अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला का ध्यान आता। उन्हें ये चेहरा उस प्रतिरूप के तौर पर याद आना चाहिए था जो कि प्रशासन के बर्बर हो जाने पर उसके प्रतिरोध में खड़े होनेवाले चेहरे को याद करने के तौर पर याद आते हैं। लेकिन भाव, आस्था और फिर अंधश्रद्धा की गोद में जाकर गिरनेवाले इस देश की ऑडिएंस के लिए चैनलों ने इस प्रतिरूप की सुध लेने के बजाय इंदिरा की स्टोरी करके बाद की थकान मिटाने के लिए शाहरुख़ की तरफ मुड़ना ज़रूरी समझा। वो अब चौबीसों घंटे देश के इस शख्स को दिखा-दिखाकर अवतार की इमेज बनाने में थक कर चूर हो जाएगा लेकिन वो कभी भी इस बात को सामने लाने की कोशिश नहीं करेगा कि मौजूदा हालात में मणिपुर का प्रशासन इरोम के साथ किस तरह की ज़्यादतियां कर रहा है? उसके लाख प्रतिकार के जाने के बावजूद भी किस तरह से नली के जरिये उन्हें खाना खिलाये जाने की जबरन कोशिशें की जा रही है, कैसे उन पर आइपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया? टेलीविज़न में सरोकार की ख़बरों की हिस्सेदारी की मांग करते हुए हमें देश के उन तमाम मीडियाकर्मियों तर्क बेहतर ढंग से याद हैं, जो ये मानते हैं कि जो दिखता है वही तो दिखाया जाएगा? इस मार-काट के धंधे में हम उन ख़बरों को लेकर रिस्क तो नहीं ले सकते जो कि टीआरपी पैद करने की कूव्‍वत नहीं रखते? तर्क और बहस का फिर उन तालठोंक चैलेंजों की तरफ मुड़ जाना कि तो आप ही सामाजिक सरोकार की ख़बरें दिखाते हुए चैनल चलाकर दिखा दीजिए, हम फिलहाल इस चैलेंज से तौबा करते हुए सिर्फ एक ही सवाल करना चाहते हैं? क्या हम चैनल सिर्फ केक के टुकड़े देखने के लिए देखते रहें, आपाधापी करते मीडियाकर्मियों के टकले सिर और पिछाड़ी देखने के लिए चैनल देखते रहें, सास की आस में दिल में सच और ज़ुबां पर इंडिया का लेबल लगा कर देखते रहें? ये आपका चैनल है, आपको जो जी में आए कीजिए, मन करे तो कैटरीना को रिपोर्टर बना दीजिए जो कि आपने बना ही दिया है लेकिन रह-रहकर सामाजिक विकास औऱ सरोकार का जो दौरा आप पर आता है, उसका हम क्या करें? आप जब ये दिखाते हैं कि इस देश में नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है, इसे किसी भी रूप में कुचलनेवाले पी चिदंबरम का हीरोइक इमेज बनाते हैं, इस मसले पर राष्ट्र की चिंता का लेबल चस्पाते हैं, तब इन सारी बातों को हम किस रुप में लें? अगर आपके तर्क पर ये समझा जाए कि आप अपने को बचाये रखने के लिए इसे ज़रूरी मानते हैं कि टीआरपी ऑरिएंटेड होकर काम किया जाए तो फिर ये राष्ट्र, विकास, सरोकार ब्ला, ब्ला सब टीआरपी का ही हिस्सा हुआ न? तो फिर आप अपने भीतर वो ताकत क्यों नहीं पैदा कर पाते कि नक्सलवादियों द्वारा घरों के जलाए जाने,लोगों के मारे जाने की खबर टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हजारों बेकसूर लोगों के जान लिए जाने की घटना टीआरपी का हिस्सा नहीं बनने पाती। पुलिस ने नक्सलियों को किस तरह से मार गिराया,टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन पुलिस मशीनरी किससे किससे किसको बचाने का तुक्का प्रयास कर रही है ये हिस्सा नहीं बन पाता। गांधी के नाम पर कहां-कहां मूर्तियां लगायी गयी,समारोहों का आयोजन हुआ ये तो हिस्सा बन जाती है लेकिन उसी गांधी की अहिंसा का रास्ता अपनानेवाली इरोम शर्मिला कभी भी हिस्सा नहीं बन पाती। कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया का पूरा चरित्र जहां उत्सवधर्मिता पैदा करने के मामले में बहुत चटकीला दिखायी देता है वहीं सरोकारों के सवाल पर ग्रे बनकर रह जाता है। इस देश की तो फितरत ही रही है कि गांधी, भगत सिंह और शास्त्री जैसे लोगों को आदमी से बढ़कर अवतार की तरह पूजा जाता है लेकिन न तो इस बात की कामना होती है कि हमारे घर गांधी और भगत पैदा हो और अगर इसके चिन्ह कहीं दिखाई देते हैं तो उसे कुचल डालो। इसमें आपकी और टीआरपी की काबिलियत कहां तक है? इस देश में इंडियन ऑयडल खोजना आसान हो गया है, वॉइस ऑफ इंडिया खोजना आसान हो गया है, किंग खान की खोज एक दिन के भीतर हो सकती है लेकिन बदलाव के लिए उभरते चेहरों की या तो पहचान ध्वस्त की जाती है या फिर अपनी पूरी ताक़त इसे मिटा देने में लगा दी जाती है। अब जब आजादी, बदलाव, हैप्पीनेस और मैराथन टीआरपी के खांचे में ही रहकर आनी और होनी है, ऐसे में ज़रूरी है कि टीआरपी के खेल का विस्तार हो। ख़बरों के चरित्र को लेकर जब भी टेलीविज़न की आलोचना की जाती है तो प्रिंट मीडिया का सिर अपने आप ही उचक जाता है। बरी कर दिये जाने के दर्प से उसकी अकड़ छिपाये नहीं छिपती। लेकिन इस क्रम में आइस यानी सूचना (मीनिंगलेस), मनोरंजन और उपभोक्तावाद के जरिये पैदा की जानेवाली ठंडी संस्कृति को मज़बूत करने में जुटा है, इस पर भी बात करना ज़रूरी है। आधे-आधे पन्ने में नंबर वन हरियाणा का राग अलापनेवाले अख़बारों से ये सवाल होने चाहिए कि तुरही बजाने की कला में लगातार निष्णात होनेवाले महानुभावो, क्या आपके पास एक कॉलम भी नहीं बचा रह जाता कि सरोकारों से जुड़ी ख़बरें उनमें छापी जा सके। क्या सामाजिक गतिविधियों की सूचना जानने के नाम पर हम अख़बार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं कि उससे हम जान सकें कि गांधी जयंती के मौके पर खादी पर कितने प्रतिशत की छूट मिली है। ऐतिहासिकता और संदर्भों को इस आइस संस्कृति में लपेट मारने के पहले आपको कई सवालों के जबाब देने होंगे। ख़बरों को धकेलकर आप आंकड़ों की बदौलत राज करने की खुशफहमी में ज़्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकते। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091103/f55bbf7f/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Tue Nov 3 12:53:50 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Tue, 3 Nov 2009 12:53:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MiDgpKjgpLXgpKw=?= =?utf-8?b?4KSC4KSwIDA5OiDgpJ/gpYfgpLLgpYDgpLXgpL/gpJzgpKgg4KSH4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KS+4KS4IOCkleCkviDgpI/gpJUg4KSF4KS24KWN4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KSyIOCkpuCkv+CkqA==?= In-Reply-To: <829019b0911022131u596f60e1i6733e9e4ccd309d@mail.gmail.com> References: <829019b0911022131u596f60e1i6733e9e4ccd309d@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0911022323s6fe6ec9el59a2a955be71ac01@mail.gmail.com> बिल्‍कुल दुरुस्‍त फरमाया है विनीत आपने. मजाक बनाकर छोड दिया है इन कर्णधारों ने. 2009/11/3 vineet kumar > > > > > मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive > हमें स्क्रीन पर तीन-चार बुज़ुर्ग टकले, सिर्फ सिर दिखाई देते हैं। एक के ऊपर > एक आपाधापी करते हुए मीडियाकर्मी आगे बढ़ते हैं। बादशाह उन्हें बार-बार बैठने > की सलाह देता है। कभी मुस्कराते हुए,कभी आवाज़ में थोड़ी तल्खी बरतते हुए लेकिन > इन पर कोई असर नहीं होता। उसी धकमपेल में बादशाह की ओर से घोषणा की जाती है – > आपलोग परेशान मत होइए, केक काटे जाने के फोटोग्राफ्स आपलोगों के बीच बांट दिये > जाएंगे… यू ऑल आर माइ फ्रैंड्स… तू आ न इधर से… तेरे को तो मैंने पहले भी दिया > था… हैव कोल्डड्रिंक प्लीज़। बादशाह इन अनुभवी मीडियाकर्मियों को अपना दोस्त > बताते हुए शुक्रिया अदा करते हैं। स्क्रीन पर लगातार फ्लैश होता है – शाहरुख़ > लाइव। सिलेब्रेटी को कवर करने का दौरा इस तरह से पड़ता है कि हम ऑडिएंस को > सिर्फ टकले सिर दिखते हैं। टेलीविज़न ये एथिक्स भी भूल जाता है कि ऑडिएंस के > साथ किस हद तक ईमानदारी बरतनी है। क्या आज हम अपने हिस्से आयी इन तस्वीरों के > जरिये टेलीविज़न के हीस्टीरिया फेज का अंदाजा लगा सकते हैं? थोड़े-बहुत हेर-फेर > के साथ ये नज़ारा लगभग सभी चैनलों पर था। > > पांच-दस-पंद्रह साल, बीस साल से जर्नलिज्म करनेवाले देश के मीडियाकर्मी किंग > खान कहे जानेवाले शख्स की केक काटने की तस्वीर लेने के लिए पूरी ताक़त झोंक > देते हैं। आपाधापी के बीच वो किसी भी तरह से उस तस्वीर को हम तक लाइव पहुंचाना > चाहते हैं। टेलीविज़न ने लाइव देखने का जो रोमांच और दिखाने का जो आंतक हमारे > बीच पैदा किया है, उसके पीछे किसी भी तरह के इथिक्स काम नहीं करते। हम सिर्फ > टकले सिर और पिछाड़ी देखकर किस प्लेज़र मोड में अपने को पाते हैं, चैनल को इस > पर एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। बाज़ार की गोद में बैठकर भी पसीना बहानेवाले और > उसका पक्ष लेनेवाले मीडियाकर्मियों से एक बार सवाल तो ज़रूर किये जाने चाहिए कि > हम अगर आपके चाल-चरित्र को समझते हुए ये समझ रहे हैं कि आपके एजेंडे में > सामाजिक विकास और दायित्व का मामला कहीं नहीं है तो फिर क्या देश के ये अनुभवी > पत्रकार सिर्फ इस काम के लिए रह गये हैं कि वो हांफते हुए, अपनी हड्डियां > चटकाते हुए केक काटने का लाइव शॉट तैयार करें? यहीं से उनकी एक्टिविटी के दो > चरित्र हमें साफ तौर पर दिखाई देते हैं। एक चरित्र जहां कि वह लगातार “आइस > संस्कृति” ( इनफॉर्मेशन, इंटरटेनमेंट और कनज्‍यूमरिज्म से पैदा की जानेवाली > संस्किकृति) को मज़बूत करता नज़र आता है और दूसरा कि ख़बर हर कीमत पर या जहां > हम हैं वहां ख़बर है के दावे के साथ अपने को समाज का पहरुआ साबित करने की कोशिश > में लगे रहने की घोषणा करता है। मीडिया के ये दोनों चरित्र ऊपरी तौर पर एक > दूसरे के वायनरी नज़र आते हैं लेकिन गंभीरता से देखें तो ये पहले के चरित्र को > ही सपोर्ट करता नज़र आता है। ऐसे में सामाजिक मसले के सारे सवाल पहले के चरित्र > में इमर्ज कर जाते हैं और एक नये किस्म की ख़तरनाक स्थिति पैदा होती है। > > पिछले तीन दिनों से देश के लगभग सारे हिंदी चैनलों ने अपनी-अपनी इंदिरा खोजने > और गढ़ने में अपनी ताक़त झोंक दी। इस इंदिरा यात्रा के जरिये उन सवालों से ऊपरी > स्तर पर ही सही, लोकतंत्र के मिज़ाज और ज़रूरतों को समझने की कोशिश की गयी जो > कि किसी भी देश के लिए खाद-पानी का काम करते हैं। इन तीन दिनों में फ्रैक्चर्ड > डेमोक्रेसी का भी मसला जहां-तहां उठाया गया। अगर चैनलों की इस कोशिश में मौजूदा > समय के सवाल जुड़ते तो उन्हें आज दस साल से लगातार अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला > का ध्यान आता। उन्हें ये चेहरा उस प्रतिरूप के तौर पर याद आना चाहिए था जो कि > प्रशासन के बर्बर हो जाने पर उसके प्रतिरोध में खड़े होनेवाले चेहरे को याद > करने के तौर पर याद आते हैं। लेकिन भाव, आस्था और फिर अंधश्रद्धा की गोद में > जाकर गिरनेवाले इस देश की ऑडिएंस के लिए चैनलों ने इस प्रतिरूप की सुध लेने के > बजाय इंदिरा की स्टोरी करके बाद की थकान मिटाने के लिए शाहरुख़ की तरफ मुड़ना > ज़रूरी समझा। वो अब चौबीसों घंटे देश के इस शख्स को दिखा-दिखाकर अवतार की इमेज > बनाने में थक कर चूर हो जाएगा लेकिन वो कभी भी इस बात को सामने लाने की कोशिश > नहीं करेगा कि मौजूदा हालात में मणिपुर का प्रशासन इरोम के साथ किस तरह की > ज़्यादतियां कर रहा है? उसके लाख प्रतिकार के जाने के बावजूद भी किस तरह से नली > के जरिये उन्हें खाना खिलाये जाने की जबरन कोशिशें की जा रही है, कैसे उन पर > आइपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को > गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया? > > टेलीविज़न में सरोकार की ख़बरों की हिस्सेदारी की मांग करते हुए हमें देश के > उन तमाम मीडियाकर्मियों तर्क बेहतर ढंग से याद हैं, जो ये मानते हैं कि जो > दिखता है वही तो दिखाया जाएगा? इस मार-काट के धंधे में हम उन ख़बरों को लेकर > रिस्क तो नहीं ले सकते जो कि टीआरपी पैद करने की कूव्‍वत नहीं रखते? तर्क और > बहस का फिर उन तालठोंक चैलेंजों की तरफ मुड़ जाना कि तो आप ही सामाजिक सरोकार > की ख़बरें दिखाते हुए चैनल चलाकर दिखा दीजिए, हम फिलहाल इस चैलेंज से तौबा करते > हुए सिर्फ एक ही सवाल करना चाहते हैं? क्या हम चैनल सिर्फ केक के टुकड़े देखने > के लिए देखते रहें, आपाधापी करते मीडियाकर्मियों के टकले सिर और पिछाड़ी देखने > के लिए चैनल देखते रहें, सास की आस में दिल में सच और ज़ुबां पर इंडिया का लेबल > लगा कर देखते रहें? ये आपका चैनल है, आपको जो जी में आए कीजिए, मन करे तो > कैटरीना को रिपोर्टर बना दीजिए जो कि आपने बना ही दिया है लेकिन रह-रहकर > सामाजिक विकास औऱ सरोकार का जो दौरा आप पर आता है, उसका हम क्या करें? आप जब ये > दिखाते हैं कि इस देश में नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है, इसे किसी भी रूप में > कुचलनेवाले पी चिदंबरम का हीरोइक इमेज बनाते हैं, इस मसले पर राष्ट्र की चिंता > का लेबल चस्पाते हैं, तब इन सारी बातों को हम किस रुप में लें? अगर आपके तर्क > पर ये समझा जाए कि आप अपने को बचाये रखने के लिए इसे ज़रूरी मानते हैं कि > टीआरपी ऑरिएंटेड होकर काम किया जाए तो फिर ये राष्ट्र, विकास, सरोकार ब्ला, > ब्ला सब टीआरपी का ही हिस्सा हुआ न? तो फिर आप अपने भीतर वो ताकत क्यों नहीं > पैदा कर पाते कि नक्सलवादियों द्वारा घरों के जलाए जाने,लोगों के मारे जाने की > खबर टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हजारों > बेकसूर लोगों के जान लिए जाने की घटना टीआरपी का हिस्सा नहीं बनने पाती। पुलिस > ने नक्सलियों को किस तरह से मार गिराया,टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन > पुलिस मशीनरी किससे किससे किसको बचाने का तुक्का प्रयास कर रही है ये हिस्सा > नहीं बन पाता। गांधी के नाम पर कहां-कहां मूर्तियां लगायी गयी,समारोहों का > आयोजन हुआ ये तो हिस्सा बन जाती है लेकिन उसी गांधी की अहिंसा का रास्ता > अपनानेवाली इरोम शर्मिला कभी भी हिस्सा नहीं बन पाती। कहीं ऐसा तो नहीं कि > मीडिया का पूरा चरित्र जहां उत्सवधर्मिता पैदा करने के मामले में बहुत चटकीला > दिखायी देता है वहीं सरोकारों के सवाल पर ग्रे बनकर रह जाता है। > इस देश की तो फितरत ही रही है कि गांधी, भगत सिंह और शास्त्री जैसे लोगों को > आदमी से बढ़कर अवतार की तरह पूजा जाता है लेकिन न तो इस बात की कामना होती है > कि हमारे घर गांधी और भगत पैदा हो और अगर इसके चिन्ह कहीं दिखाई देते हैं तो > उसे कुचल डालो। इसमें आपकी और टीआरपी की काबिलियत कहां तक है? इस देश में > इंडियन ऑयडल खोजना आसान हो गया है, वॉइस ऑफ इंडिया खोजना आसान हो गया है, किंग > खान की खोज एक दिन के भीतर हो सकती है लेकिन बदलाव के लिए उभरते चेहरों की या > तो पहचान ध्वस्त की जाती है या फिर अपनी पूरी ताक़त इसे मिटा देने में लगा दी > जाती है। अब जब आजादी, बदलाव, हैप्पीनेस और मैराथन टीआरपी के खांचे में ही रहकर > आनी और होनी है, ऐसे में ज़रूरी है कि टीआरपी के खेल का विस्तार हो। > > ख़बरों के चरित्र को लेकर जब भी टेलीविज़न की आलोचना की जाती है तो प्रिंट > मीडिया का सिर अपने आप ही उचक जाता है। बरी कर दिये जाने के दर्प से उसकी अकड़ > छिपाये नहीं छिपती। लेकिन इस क्रम में आइस यानी सूचना (मीनिंगलेस), मनोरंजन और > उपभोक्तावाद के जरिये पैदा की जानेवाली ठंडी संस्कृति को मज़बूत करने में जुटा > है, इस पर भी बात करना ज़रूरी है। आधे-आधे पन्ने में नंबर वन हरियाणा का राग > अलापनेवाले अख़बारों से ये सवाल होने चाहिए कि तुरही बजाने की कला में लगातार > निष्णात होनेवाले महानुभावो, क्या आपके पास एक कॉलम भी नहीं बचा रह जाता कि > सरोकारों से जुड़ी ख़बरें उनमें छापी जा सके। क्या सामाजिक गतिविधियों की सूचना > जानने के नाम पर हम अख़बार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं कि उससे हम जान सकें कि > गांधी जयंती के मौके पर खादी पर कितने प्रतिशत की छूट मिली है। ऐतिहासिकता और > संदर्भों को इस आइस संस्कृति में लपेट मारने के पहले आपको कई सवालों के जबाब > देने होंगे। ख़बरों को धकेलकर आप आंकड़ों की बदौलत राज करने की खुशफहमी में > ज़्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकते। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Media Researcher & Content Editor Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091103/f16a9508/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Nov 3 15:14:40 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 3 Nov 2009 15:14:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KS+4KSV?= =?utf-8?b?IOCkk+CkrOCkvuCkruCkviDgpJXgpYsg4KS44KSu4KSw4KWN4KSq4KS/?= =?utf-8?b?4KSkIOCkmuCkguCkpiDgpJXgpL7gpLDgpY3gpJ/gpYLgpKg=?= Message-ID: <196167b80911030144o5fe840f7h93be1cf0ee0b5243@mail.gmail.com> बराक ओबामा को समर्पित चंद कार्टून http://ashishanshu.blogspot.com/2009/11/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091103/bb27eac7/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Tue Nov 3 19:04:37 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 03 Nov 2009 13:34:37 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <001636c5bd1235a4780477778eab@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// लोकतंत्र की लाज ... Posted: 02 Nov 2009 10:58 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/OWnB_jzUFwQ/blog-post.html मोहल्ला लाइव पर टीवी पत्रकार आशुतोष का एक लेख सर कलम करने की विचारधारा शीर्षक से छपा है, जिस पर अभी-अभी मैंने अपनी प्रतिक्रिया वहां छोड़ी है. उसी प्रतिक्रिया को मैं अपने पाठक मित्रों के लिए यहां पुनर्पेश कर रहा हूं.‍ विश्‍वसतसूत्र और क्‍या कहते हैं पता नहीं. पर आशुतोष जैसे लोगों की पत्रकारिता को कम से कम लोकतंत्र की रक्षा में ज़रूर खड़ा होना चाहिए. सारे के सारे लोकतंत्र के ‘वकील’ दो दिन पहले बता रहे थे कि इंदिरा को उनके दो सुरक्षाकर्मियों ने किस किस तरह से गोली मारी और किस तरह सोनिया गाउन में ही दौड़ी, फोतेदार दौड़े, धवन दौरे … एंबुलेंस की गैरमौजुदगी में … कार से तमाम लालबत्तियों को पार करके एम्‍स ले जाया गया गोलियों से छलनी मैडम गांधी को जो बाद में शहीद के शव में तब्‍दील हो गया…. भाई-बहनजी लोग उस दिन सुबह से ही चालू हो गए थे. दिन भर इनका तांडव चलता रहा. मेरे जैसा बकलोल नागरीक देश-दुनिया की खबर देखना चाह रहा था, जानना चाह रहा था कि दो शाम पहले जयपुर के तेल डिपो में लगी आग की क्‍या हालत है, 6 साल की वो जो लड़की अपने मां-बाप से बिछुड़ गयी थी और मां-बाप दहाड़ मार कर जो रहे थे उनकी स्थिति में क्‍या कुछ बदलाव हुआ है या कुछ हुआ ही नहीं, इस अग्निकांड के पीछे तेल माफिया तो नहीं है, या फिर चटकारे लेकर मुनिरका में पूर्वोत्तर की एक लड़की की बलात्‍कार-हत्‍या को जो ख़बर चंद रोज़ पहले दिखाई थी उस केस में कितनी प्रगति हुई है, और नहीं तो कम से कम आज कल वे सरदार परिवार कैसे जी रहे हैं जिनके घर के बुजुर्गों और जवानों को दिल्ली की सड़कों पर जिंदा आग के हवाले कर दिया गया था या जिनकी पेट से होकर कृपाण गुज़ार दिया गया था. रातोंरात विधवा और अनाथ बना दी गयी उन औरतों और बच्‍चों का जीवन कैसे चल रहा है … आंध्र के उस आकाश के नीचे जहां मुख्‍यमंत्री रेड्डी का हवाई जहाज लापता बताया गया उसके जमीनी इलाके के बारे में सारे लोकतंत्ररक्षी पत्रकारों ने गला फाड़-फाड़ कर बताया और ग्राफिक्‍स के ज़रिए बताया कि कैसे वहां कभी सरकारी अमला पहुंचा ही नहीं और कैसे वो नक्‍सलाइट एरिया है; भइया कभी गए हो नहीं, तुमने पहले कभी उस एरिया का नाम लिया नहीं और अचानक तुम्‍हें वो पूरा का पूरा इलाक़ा नक्‍सलाइट दिखने लगता है! जियो उस्‍ताद! है नहीं वर्ना तत्‍काद दो-चार कट्ठा ज़मीन तुम्‍हारे नाम कर देते. पत्रकारिता देखिए, नेता के मुंह में अपनी बात ठूंस को बोकरने के लिए फोर्स करते थकते नहीं हैं, पिछले दिनो ऐसे ही एक पत्रकार अरुणाचल प्रदेश पहुंच गए और वहां के किसी लोकल नेता से हालिया चीनी अग्रेशन पर उनकी राय खुद बताने लगे जिससे अंत तक नेताजी अपनी असहमति जाहिर करते रहे. देखिए ज़ीरो से राज ठाकरे को हीरो बना दिया, चटक-मकट ऐसे पेश करते हैं मानो सचमूच की ख़बर दिखा रहे हों. ‘कॉमेडी सर्कस’ के डायलॉग और ‘बिग-बॉस’ की बत्तीसियों पर बुलेटिन तैयार कर देते हैं जबकि राखी के स्‍वयंवर को प्राइम टाइम का हेडलाइन. एक ‘स्‍पेशल’ बना देते विदर्भ, पंजाब या आंध्र के ही किसानों की आत्‍महत्‍या पर! चाहे नितीश बाबु के राज में क्राइम, करप्‍शन, कमिशनख़ोरी और कनबतियों की क्‍या स्थिति रही; इसी पर स्‍पेशल रिपोर्ट बना देते. बताते कि मोदीजी के यहां जो मुसलमान काटे, भोंके, जलाए, उजाड़े गए थे उनके सर्वाइवरों का क्‍या हुआ! एक दिन थोड़ा दिखा देते कि बाहरी दिल्‍ली की जिन दो-चार पुनर्वास बस्तियों में कुछ दिन पहले चिकनगुनिया फैली थी, वहां इलाज-बात की क्या व्‍यवस्‍था हो पाई है. या ये बताते कि कैसे आनन-फानन में कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स की तैयारी के बहाने ग़रीब-गुर्बा को शहर के फुटपाथों, गलियों और सार्वजनिक पार्कों से खदेड़ा जा रहा है, कैसे मिठाई पुल के नीचे एक औरत खुले आसमान में बच्चा जनती है! कैसे यहां का कोई पुलिसकर्मी बावर्दी बिना हेल्मेट के मोटरसाइकिल की सवारी करता है और कैसे साहब के सामने हवलदार रिक्‍शा पलटकर उसकी रिम पर हुमचता है और रिक्‍शा वाले के मां-बहन के साथ सरेआम संबंध स्‍थापित करता है या कर लेने की धमकी देता है! क्‍यों जाएगा इन बातों पर ध्‍यान, ये सब तो लोकतांत्रिक आदर्श हैं! होते रहना चाहिए चहल-पहल बना रहता है! वैसे भी ग़रीबों का काम तो टहल-उहल करते रहना होता है क्‍या करेगा वो गरिमा और आत्‍मसम्‍मान जैसी सभ्‍यता के प्रतीकों का! वो तो मेट्रो और फ़्लायओवरों के निर्माण के दौरान हादसों का शिकार होकर बुनियाद मजबूत करने के लिए होते हैं, खुले आसमान में सोने के लिए होते हैं, सोते हुए सड़क पर कुचल दिए जाने के लिए होते हैं. कभी नर्मदा घाटी से, कभी नेतरहाट से, कभी गुमला और खूंटी से जबरन खदेड़ने के लिए होते हैं. उनकी ज़मीन पर उनका हक़ क्‍यों हो! ज़मीन रख कर ही क्‍या कर लिया सालों से! बना दो बांध, दे दो इत्तल-मित्तल, जिंदल-उंदल को. कुछ में फैक्‍ट्री लगा देंगे और कुछ लोहा-उहा निकालने की जगह हो जाएगी. क्‍या कहे , आदिवासियों की ज़मीन उनसे पूछे बिना नहीं ले सकते ? बड़ा उलझाउ काम है? होगा उलझाउ, पर पूछना क्‍यों है. क़ानून? धत्त तेरे की, उसकी धज्‍जी न उड़ेगी तो संविधान की इज्‍जत कितने पैसे की रह जाएगी! चूं-चपड़ होने पर देखे नहीं कैसे-कैसे सलटा दिए जाते हैं. देखे नहीं कैसे बस्‍तर में कैसे-कैसे सिखाए जाते हैं पाठ ऐसे लोगों को. कमल पासवान एक साधारण जेपीआइट थे, कैसे सन् 1989 में अपने भाषण में कहते थे कि 80 साल के बुधन महतो के गुप्‍तांग में दबंगों ने लाठी घुसेड़ दी थी … तात्‍पर्य ये कि ग़रीबों के साथ होने वाली हिंसा की गिनती कुछ और में होनी चाहिए पर पुलिस कमिश्‍नर साहब के कुत्ते का डाक्‍टरी ज़रूर होना चाहिए क्‍योंकि कुछ घंटों के लिए बेचारा घर से बाहर था! लाज देखिए लोकतंत्र के प्रहरियों का, हर ख़बर के साथ ब्रेकिंग न्‍यूज़ का पट्टा टांगे रहते हैं. और तो और पीआईबी में हो रही किसी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस का लाइव प्रसारण भी इनके हिसाब से ब्रेकिंग न्‍यूज़ होता है. रही बात भैया लेनिन की चिट्ठी और माओ की हिंसा की, तो मैं भी इस पर और खुलासा के पक्ष में हूं. कुछेक और प्रमाण हो तो सबको साथ लेकर एक लंबा आलेख पेश किया जाए और बाक़ायदा संदर्भ दिया जाए ताकि ज़रूरत पड़ने पर इस्‍तेमाल किया जा सके! -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091103/d353a11d/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Nov 4 11:46:18 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 4 Nov 2009 11:46:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSY4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KS3IOCkleClhyDgpKbgpYsg4KS44KS+4KSyIOCkquCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KSC4KSq4KS+4KSm4KSV4KWA4KSv?= Message-ID: <829019b0911032216h748ba6e9x4c91c6aee2e9ed92@mail.gmail.com> जामिया मीलिया इस्लामिया से मीडिया की पढ़ाई,जी न्यूज से इन्टर्नशिप,दूरदर्शन के लिए रिपोर्टिंग और TV9 के मुंबई ब्यूरों के लिए सर्वेसर्वा के तौर पर काम करनेवाले तेजतर्रार युवा मीडियाकर्मी पुष्कर पुष्पचाहते तो आज अपने दौर के बाकी मीडियाकर्मियों की तरह एक फार्मूला लाइफ जी सकते थे। उनकी गर्दन पर भी आज किसी चैनल के प्रोड्यूसर का पट्टा टंगा होता,एक गाड़ी होती जिसके लोन अब तक चुक गए होते और दिल्ली एनसीआर में एक फ्लैट होता। लेकिन पुष्कर पुष्प ने एक मीडियाकर्मी की उलब्धियों और विकासक्रम को इस रुप में देखने के बजाय कुछ अलग,मौलिक और रचनात्मक काम की ओर अपने को लगाया। सबकुछ छोड़कर नौकरी करते हुए जो भी थोड़े पैसे जोड़े उसे लेकर एक दिन सबकी खबर लेनेवाले मीडिया की ही खबर लेने के इरादे से मीडिया मंत्र नाम से पत्रिका शुरु कर दी। साधनों की सहजता और खबरों के इस बाढ़ में आज चाहे तो कोई भी ऐसा कर सकता है लेकिन आज से दो साल पहले की बात सोचिए जब ये बात कॉन्सेप्ट के तौर पर बाकी पत्रिकाओं से बिल्कुल जुदा रहा है कि मीडिया की खबरों को लेकर भी पत्रकारिता की जा सकती है? मीडिया मंत्र की निगाह में इडियट बॉक्स के ताजा अंक के साथ मीडिया मंत्र पत्रिका ने दो साल पूरे कर लिए। इस पत्रिका को जिंदा रखने के लिए पुष्कर पुष्प को किस-किस स्तर की परेशानियों को झेलना पड़ा है,इसके कुछ हिस्से को मैंने भी बहुत ही नजदीक से महसूस किया है। पत्रकारिता के तोड़-जोड़ का संड़ाध धंधा बन जाने के बीच विज्ञापन मिलने से कहीं ज्यादा मिले हुए विज्ञापनों पर की जानेवाली ओछी राजनीति का शिकार मीडिया मंत्र अचानक से कैसे लड़खड़ा जाता है,ये सबकुछ एक झटके में हमारे सामने घूम जाता है जिसकी विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने संघर्ष के दो साल नाम से संपादकीय में लिखा है। संपादकीय का एक हिस्सा भावुक अभिव्यक्तियों से भरा है,संभवतः इसलिए हम जैसे लोगों के मामूली सहयोग को उन्होंने अपनी नजर से बहुत बड़ा करके पेश कर दिया है। वाबजूद इसके इस संपादकीय को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि पत्रकारिता के जिस क्लासरुम में पत्रकार के तौर पर समाज प्रहरी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है,जोश में ही सही ये पत्रिका कैसे उसे व्यवहार के तौर पर अपनाने की कोशिश करती है,परेशान होती है,कई बार लगता है कि ये सब छायावादी नजरिए को ढोते हुए जीने औऱ पत्रकारिता करने की कोशिश भर है लेकिन फिर से अपने को रिवाइव करती है। सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों और समीक्षकों की निगाह में ये वावलापन है क्योंकि बिना बाजार की गोद में बैठकर,छोटे-मोटे समझौते करने की चिंता किए बगैर ये संभव नहीं है,कार्पोरेट मीडिया के आगे जबरदस्ती पीपीहीआ बाजा बजाने जैसा काम है। उनके ऐसा कहने से संपादक का मनोबल टूटता है,वो घबराता है लेकिन फिर सवाल करता है कि आपको तो विरासत में एक बेहतरीन पत्रकारिता पूर्वज मिल गए लेकिन आप आनेवाली पीढ़ी को क्या देने जा रहे है? संपादकीय में उठाया गया यही सवाल सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों की बौद्धिकता पर कई गुना भारी पड़ता है और यहीं पर आकर पुष्कर पुष्प तमाम तरह की मानिसक और साधनगत परेशानियों के वाबजूद मन का रेडियो बजने देने पर खुश नजर आते हैं। उन्हे मीडिया मंत्र को लेकर इस बात का गुमान है कि उन्होंने बाकी मंचों की तरह दबाब बनाकर विज्ञापन नहीं जुटाए,धमिकयां देने और फिर मांग न पूरे किए जाने पर निगेटिव खबरें का खेल नहीं किया. पांच हजार-दस हजार के विज्ञापन के लिए अपनी पहचान और आत्म सम्मान को गिरवी नहीं रख दिया। हम चाहेंगे कि इस संपादकीय पर एक नजर आप भी दें और विरासत में मिलनेवाली मीडिया की समीक्षा की नाप-तौल शुरु करें- मीडिया मंत्र ने अपने दो साल पूरे कर लिए. पिछले अंक में ही इसके दो साल पूरे हो गए. लेकिन समय पर पत्रिका नहीं निकल पाने की वजह से पाठकों तक नहीं पहुँच पायी. इसलिए मीडिया मंत्र से जुड़े अपने अनुभवों और उससे जुडी कई बातों को हम पाठकों से नहीं बाँट सकें. इस कमी को इस अंक में पूरा करने की हम कोशिश कर रहे हैं. आगे हमारी कोशिश रहेगी कि तमाम मुश्किलों के बावजूद दुबारा ऐसा नहीं हो और समय पर पत्रिका पाठकों तक पहुंचे.यह अंक निकालने की स्थिति में हम नहीं थे. लेकिन ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल, न्यूज़ 24 के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम और दिल्ली विश्विद्यालय से मनोरंजन चैनलों की भाषिक संस्कृति पर पीएचडी कर रहे विनीत कुमार के नैतिक समर्थन, उत्साहवर्धन और सहयोग की वजह से पत्रिका को जारी रखने में सक्षम हो सके. यह दो साल बेहद संघर्षपूर्ण रहे. हर महीने पत्रिका के लिए कंटेंट से लेकर उसके लिए पैसे जुटाने का काम बदस्तूर जारी रहा. पत्रिका के बंद होने की तलवार हमेशा लटकी रही. कई बार ऐसी नौबत भी आई कि लगा पत्रिका बंद हो जायेगी. लेकिन हर बार कोई-न-कोई रास्ता निकल आया. शायद यह मीडिया मंत्र के पाठकों और शुभचिंतकों की दुआओं का असर था. सच मानिये तो इतनी दूर निकल आयेंगे, ऐसा कभी सोंचा नहीं था. साल 2007 में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रिका का विमोचन प्रभाष जोशी, मार्क टली, अजित भट्टाचार्य, अशोक वाजपेयी और आनंद प्रधान जैसे अपने - अपने क्षेत्र के दिग्गजों के हाथों हुआ. प्रेस क्लब खचाखच भरा हुआ था. एक ऐसी पत्रिका का विमोचन हो रहा था, जिसके पीछे कोई कारपोरेट नहीं था. शुद्ध रूप से कुछ जोशीले नौजवान पत्रकारों द्वारा एक नया जोखिम भरा वैकल्पिक मीडिया का प्रयोग होने जा रहा था. एक ऐसा प्रयोग जिसके शुरुआत से ही इसके बंद होने के कयास लगाये जा रहे थे. ज्यादातर लोगों को उम्मीद नहीं थी कि पत्रिका लम्बे समय तक चल पाएगी, . दो साल की बात दूर दो महीने भी चल पाएगी कि नहीं, इसपर लोगों को शक था. यह सोंच गलत भी नहीं थी. सुना था कठिन काम है. बिना कारपोरेट के मदद के या बिना जुगाड़ फिट किये मामला आगे चल नहीं सकता. इन दोनों में से कुछ भी हमारे पास नहीं था. यदि कुछ था तो बस ढेर सारा उत्साह, थोडी सी जिद्द और थोडी सी हिम्मत. यही हमारी वास्तविक पूंजी थी. दो-ढाई साल तक टेलीविजन की नौकरी करने के बाद जो थोडी बहुत बचत हुई थी, उस पूरी बचत को पत्रिका को शुरू करने में इस अतिशय उम्मीद के साथ लगा दिया कि आगे बढ़ते हैं कोई-न-कोई रास्ता जरूर निकेलगा. पत्रिका तो निकल गयी लेकिन दो अंक बाद ही इसके बंद होने का संकट सामने आ गया. पत्रिका के साथ जुड़े कई दोस्त किसी-न-किसी कारणवश दूर होते चले गए. अब सवाल सामने था कि पत्रिका को आगे चलाया जाए या नहीं. यदि चलाया जाए तो कैसे ? संसाधनों के नाम पर बहुत सीमित चीजें थी. आखिरकार निश्चय किया कि अंतिम दम तक पत्रिका को चलाने की कोशिश की जाए. ताकि जिंदगी में कभी इस बात का मलाल न रहे कि हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश नहीं की और संघर्ष किये बिना ही मैदान छोड़कर चले गए. फिर एक नए संघर्ष की शुरुआत हुई. पत्रिका को बचाने और उसे चलाने की जद्दोजहद. पत्रिका की कीमत को कम करने के लिए खुद ही सारे काम करना शुरू किया. संपादक, रिपोर्टर, टाइपिस्ट, कुरियर वाला, प्रूफ़ रीडर, आर्ट डिजाइनर, डिस्ट्रीब्यूटर सबकी भूमिका एक ही व्यक्ति निभा रहा था. चिलचिलाती धूप में फिल्म सिटी और न्यूज़ चैनलों के सामने स्टाल लगाकर पत्रिका को बेचना शुरू किया.वह अपने आप में एक बेहद अच्छा और सिखाने वाला अनुभव था. पत्रिका के संपादक को खुद स्टाल लगाकर अपनी पत्रिका को बेचते देखना कई पत्रकारों के लिए आश्चर्य की बात थी. स्टाल पर आकर कई पत्रकार मुझसे लगातार बात कर रहे थे. ऐसे प्रयास की दाद दे रहे थे. मुझे बिना किसी झिझक के ऐसा करते देखना उनके लिए आश्चर्य की बात थी. ऐसा आज भी भी कोई कर सकता है सहसा इसपर कई पत्रकार विश्वास नहीं कर पा रहे थे. रवींद्र, हरिश्चंद्र बर्णवाल, राजीव रंजन, निमिष कुमार, राजकमल चौधरी, राजेश राय, ओम प्रकाश, मुकेश चौरसिया, आशुतोष चौधरी जैसे कई ऐसे पत्रकार मित्र थे जो लगातार मेरे इस काम में मदद कर रहे थे. यह ऐसे मित्र हैं जिन्हें मेरी चिंता हैं और जो मीडिया मंत्र के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए हैं. यह ऐसे मित्र हैं जिनका शुक्रिया भी अदा नहीं किया जा सकता. लेकिन यह सब करने के बावजूद पत्रिका को आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा था. यह ऐसा समाज है जहाँ हौसला बढ़ाने वाले से ज्यादा हौसला तोड़ने वाले लोग मौजूद हैं. आपके कदम जरा डगमगाए नहीं कि ऐसे लोग आपको लताड़ना शुरू कर देते हैं. बिना पल गवाएं ये आपको निकम्मा, नाकाबिल और असफल करार देते हैं. ऐसा ही कुछ उस वक़्त मेरे साथ हो रहा था. ऐसे मोड़ पर दो ऐसे लोग आये जिन्होंने पत्रिका को फिर से खडा करने में अहम भूमिका निभाई. इनमें से एक ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल और दूसरे टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता. दिलीप मंडल ने उस वक्त न मेरा केवल हौसला बढाया, बल्कि आर्थिक मदद करने की भी पेशकश की. उनका सम्मान करते हुए मैंने मीडिया मंत्र के लिए 500 रुपये की राशि स्वीकार कर ली. वे हर महीने मीडिया मंत्र के लिए कुछ आर्थिक मदद देना चाहते थे. लेकिन मैंने उसे अस्वीकार करते हुए कहा कि अनुदान के आधार पर मीडिया मंत्र को मैं नहीं चलाना चाहता. कोशिश करते हैं, असफल रहे तो आपसे मदद जरूर मांगेंगे. उस वक़्त वह 500 रुपये का नोट मेरे लिए बेहद अहम था. हालाँकि आर्थिक रूप से वह कोई बड़ी मदद नहीं थी और न ही उससे पत्रिका को फिर से पटरी पर लाया जा सकता था. लेकिन नैतिक तौर पर बड़ा संबल था. एक संघर्षरत पत्रकार अपने से वरिष्ठ पत्रकार से इससे ज्यादा और क्या चाहेगा. ऐसे ही कठिन परिस्थितियों में टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता मदद करने के लिए सामने आये, जो शायद नहीं आते तो मीडिया मंत्र का सफर आगे नहीं बढ़ पाता. उस वक़्त उनसे कोई गहरी जान-पहचान नहीं थी. तीसरी ही मुलाकात थी. उस मुलाकात में जैसे ही वे परिस्थितियों से वाकिफ हुए तो उसी वक़्त उन्होंने एक चेक काटकर और साथ में टोटल टीवी का विज्ञापन देकर कहा कि यह एक बेहतर प्रयास है और इसे आगे जारी रखना जरूरी है. आप ईमानदारी से अपना काम करते रहिए और कभी ऐसा लगे कि अब कोई रास्ता नहीं बचा है तो मुझसे मदद मांगने में हिचकिचाना नहीं. आगे अपने इस वादे को उन्होंने निभाया भी. मीडिया मंत्र का आगे का सफर शायद और भी कठिन था. सवाल अब अपनी साख और ईमानदारी को बचाए रखते हुए आगे बढ़ने का था. कई ऐसे प्रस्ताव मिले जिन्हें स्वीकार कर आसानी से तमाम आर्थिक समस्याओं से छूटकारा पाया जा सकता था. लेकिन इन प्रस्तावों को स्वीकार करने का मतलब था, अपनी साख और ईमानदारी को गवां देना. इस दौरान कई लोगों के दोहरे चेहरे देखने का मौका भी मिला. ये वो लोग थे जो हरेक दूसरे मंच पर सच्ची पत्रकारिता और उससे जुडी बड़ी - बड़ी बातें करते नहीं थकते. लेकिन शायद यही लोग सबसे ज्यादा पत्रकारिता का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. पत्रकारिता का एक तरह से गला घोंट रहे हैं. ऐसे लोगों की कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर है. ये लोग बेहद ताक़तवर हैं. लेकिन अपनी ताकत का इस्तेमाल अपनी स्वार्थसिद्धि में कर रहे हैं. इन्हें नए पत्रकारों से चरणवंदना की अपेक्षा है और जो यह नहीं करता उनकी नजर में वे पत्रकार बनने के लायक नहीं. यही लोग सबसे ज्यादा नयी पीढी के पत्रकारों को पानी पी-पी कर कोसते हैं. लेकिन यदि नयी पीढी के पत्रकार इस पीढी के पत्रकारों से सवाल पूछे कि आपने हमें क्या दिया है? आपको पत्रकारिता की एक शानदार विरासत मिली थी. लेकिन नयी पीढी के लिए आप कैसी विरासत छोड़कर जा रहे हैं. पत्रकारीय विचार - विमर्श की दृष्टि से इस साल जून-जुलाई का महीना काफी गहमागहमी भरा रहा। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब एक ही समयावधि में कई जगहों पर पत्रकारिता से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर लगातार चर्चा हो रही हो. जून - जुलाई महीने में तीन महत्वपूर्ण संगोष्ठियाँ हुई. पहली संगोष्ठी टेलीविजन पत्रकार स्व.शैलेन्द्र सिंह की स्मृति में हुई. हालाँकि यह एक शोकसभा थी, लेकिन न्यूज रूम के टेंशन को लेकर भी ऐसी बातें उठी, जो बेहद गंभीर है. बकौल आईबीएन-7 के एडिटर (स्पेशल एसाइनमेंट) प्रभात शुंगलू - 'हमलोग जिस न्यूज रूम में काम करते हैं वह नर्क बन चुका है'. प्रभात शुंगलू का यह बयान अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. इस मुद्दे पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में इतना खुलकर बोलने की हिम्मत जुटा लेना अपने आप में बड़ी बात थी. दूसरे टेलीविजन पत्रकार इतनी खुलकर बोलने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाए, लेकिन इशारा जरूर कर गए. दूसरी संगोष्ठी स्व.एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर हुई. इसमें भी एस.पी.सिंह की पत्रकारिता और अब हो रही पत्रकारिता के संदर्भ में बात हुई. लेकिन 11 जुलाई को हुई तीसरी संगोष्ठी सर्वाधिक चर्चा और विवादों में रही. यह संगोष्ठी स्व.उदयन शर्मा के स्मृति में हुई. हरेक साल उदयन शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट उनके जन्मदिन वाले दिन यानि 11 जुलाई को एक स्मृति सभा का आयोजन करती है. इस मौके पर रफी मार्ग स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों और पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था. संगोष्ठी में 'लोकसभा चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर परिचर्चा हुई और इस दौरान काफी गरमा - गर्मी भी हुई. अपनी - अपनी बारी आने पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी बात रखी. ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने वर्तमान में हो रही पत्रकारिता पर चिंता व्यक्त की और वर्तमान पत्रकारिता को जी भर कर के कोसा. हम जैसे युवा पत्रकारों के लिए बड़े आर्श्चय की बात थी कि आखिर इस सभागार में पत्रकारिता के नाम पर जो आलाप किया जा रहा है, उसके लिए दोषी कौन है. पिछले 10-15 साल से यही लोग भारतीय पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे हैं. फिर दोष किसे दिया जा रहा है. चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने इसी सभा में एक बड़ी मार्के की बात कही - 'आज के कई संपादक एडिट पेज पर लिखकर नैतिकता की दुहाई देते हैं. लेकिन क्या अपने संस्थान में फैले अनैतिकता के खिलाफ आवाज उठाते हैं. हमको खुद को गालियाँ देनी चाहिए. अपने अंदर झाँकने की जरूरत है.' यह बात जितनी शिद्दत से कही गयी, काश उसको व्यवहार में भी लाया जा सकता तो पत्रकारिता के नाम पर आलाप करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. उसी संगोष्ठी में एक दोहरा मापदंड भी देखने को मिला. संगोष्ठी के दौरान दो ऐसे बयान आये जिसपर वहां मौजूद कई पत्रकारों को कड़ी आपत्ति थी. एक बयान आईबीएन-7 के मैंनेजिंग एडिटर आशुतोष और दूसरा बयान केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल की तरफ से आया. आशुतोष ने आज के हालात में हो रही पत्रकारिता को कुछ जस्टिफाय करने की कोशिश करते हुए कहा कि क्या 1977 में ऐसा नहीं होता था. क्या उस समय प्रायोजित खबरें नहीं छपते थे. क्या उस समय ऐसे भ्रष्ट पत्रकार नहीं थे. यह बात वहां बैठे कुछ पत्रकारों को इतनी नागवार गुजरी और इतना शोर मचाया गया कि आशुतोष को अपनी बात अधूरी ही छोड़कर मंच से उतरना पड़ा. दूसरा बयान कपिल सिब्बल की तरफ से आया. कपिल सिब्बल पत्रकारों को ठेंगा दिखाते हुए कहते हैं कि आप क्या लिखते हैं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. इसपर भी वहां बैठे पत्रकारों को आपत्ति होती है. लेकिन विरोध कपिल सिब्बल के सभागार से चले जाने के बाद दर्ज कराया जाता है. यह वही पत्रकार थे जो आशुतोष की आवाज को शोर में दबा चुके थे. ऐसा नहीं है कि आशुतोष की बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ. लेकिन यहाँ सवाल दोहरे मापदंड का है. ऐसे सभागार में जहाँ पत्रकारिता और नैतिकता की बड़ी - बड़ी बातें की जा रही थी वहीँ पर एक सी परिस्थिति में दो तरह के मापदंड अपनाएं जा रहे थे. ऐसे में पत्रकारिता में सुधार की गुंजाईश की आप परिकल्पना भी आप कैसे कर सकते हैं. वैसे मेरा अपना मानना है कि बाहर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे आप पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत मान सकते है. अच्छे और सच्चे पत्रकारों की कमी नहीं है. यदि जरूरत है तो सिर्फ इनको बढ़ावा देने की. पत्रकारिता की दुनिया अपने आप ही बदल जायेगी।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091104/166d79f7/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Nov 5 14:14:44 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 5 Nov 2009 14:14:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KSo4KWI?= =?utf-8?b?4KSyIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJXgpYAg4KSV4KS/4KSk4KS+4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkleCksiDgpLngpYvgpJfgpL4g4KSy4KWL4KSV4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSq4KSj?= Message-ID: <829019b0911050044i935ad14y305722e7daf84fe4@mail.gmail.com> एक पत्रकार की हैसियत से अपने लंबे मीडिया करियर के दौरानजरनैल सिंह ने क्या किया,किन-किन मसलों और मुद्दों को रिपोर्टिंग के दौरान लोगों के सामने लाने की कोशिश की,ये बताने की जरुरत शायद ही किसी न्यूज चैनल या अखबारों ने की हो। हमें सिर्फ इतना भर बताया गया कि जरनैल सिंहने मौजूदा गृहमंत्री पर जूते फेंकने का काम किया और रातोंरात वो इसी काम को लेकर चर्चित कर दिए गए। इस हिसाब से पेंगुइन से प्रकाशित होनेवाली उनकी किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच जिसका कि कल लोकार्पण होना है,जरनैल सिंह की कोशिश से ये दोतरफी कारवायी है। सिंह इस किताब के जरिए अपनी उस छवि को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें कि उनके लंबे समय का लेखन और रिपोर्टिंग के अनुभव शामिल हैं,एक पत्रकार की हैसियत से राजनीतिक संदर्भों को विश्लेषित करने की कोशिश है और दूसरा अपनी उस छवि को ध्वस्त करना चाहते है जिसमें कि एक बेकाबू हो गए एक नागरिक/पत्रकार का सत्ता में बैठे लोगों के सामने गलत ही सही लेकिन अपने स्तर से विरोध दर्ज करना है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शुरु से उस फार्मूले पर काम करता आया है कि जो व्यक्ति जिस काम के लिए चर्चित हुआ है उसे उसी रुप में हायपरवॉलिक तरीके से ऑडिएंस/दर्शक के सामने पेश करे लेकिन ये फार्मूला कितना वाजिब है,इत्मिनान होकर सोचने की मांग करता है। बहरहाल,जरनैल सिंह की बनी नयी पहचान उन्हें किस हद तक परेशान करती है और अब तक के किए गए सारे काम,हालिया के एक काम के आगे कैसे फीका पड़ जाता है, ये सबकुछ शिद्दत से महसूस करने और उसे पाटने की कोशिश में ये किताब हमारे सामने है। ऐसे में अपनी रचनाधर्मिता और तार्किक समझ को इस जद्दोजहद के बीच बचाए रखना,जरनैल सिंह की उपलब्धि ही समझी जाएगी। पेंग्विन से प्रकाशित,जरनैल सिंह की किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच मूलतः हिन्दी में लिखी गयी है। इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद वैशाली माथुर ने I Accuse : The anti sikh voilence 0f 1984 नाम से किया है. लेखक/प्रकाशक के हिसाब से यह किताब 1984 के सिख क़त्लेआम से जुड़ी सच्चाईयों और सरकार की संवेदनशून्यता का एक सशक्त दस्तावेज़ है। क्योंकि 1884 का हुआ दंगा सिर्फ सिखों पर हुआ हमला नहीं था,बल्कि यह लोकतंत्र और इंसानियत पर हुआ हमला था। इस किताब के बारे में लिखते हुए मशहर कॉलमिस्ट और ट्रेन टू पाकिस्तान के लेखक खुशवंत सिंह का मानना है कि-'कब कटेगी चौरासी ऐसे घावों को हरा करती है जो आज तक नहीं भरे हैं। यह किताब उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हो। । जाहिर है किताब जिस सबूतों और संदर्भों को हमारे सामने पेश करती है और स्वयं लेखक जिस रुप में उसका विश्लेषण करता है उसके सामने इस दंगे में हताहत लोगों को दिया गया मुआवजा तुष्टिकरण की नीति का हिस्साभर है। ऐसा करके सरकार ने अपने विद्रूप चेहरे को ढंकने का भरसक प्रयास किया है। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि यह किताब महज विवाद का हिस्सा बनने के बजाय उन कारवाईयों पर फिर से विचार करने का स्पेस पैदा करेगी जो कि लोकतंत्र की बहाली के नाम पर अंदुरुनी तौर पर उसका गला रेतने का काम करती है। जूता प्रकरण के हो-हंगामे के बीच जरनैल के जो सवाल दब गए वो सवाल उस किताब में फिर से सरकार के लिए एक चुनौती पैदा करते हैं- अब तक दोषियों का सजा क्या नहीं मिली? क्या प्रशासन तंत्र न्याय होने देगा? कब मिलेगा पीड़ितों को न्याय और कब कटेगी चौरासी? सरकार को इन सवालों को गंभीरता से लेने होंगे और इस किताब के जरिए 84 पर नए सिरे से बात होने की गुंजाइश पैदा हो सकेगी। इसके साथ ही हम उम्मीद करते है कि आनेवाले समय में जरनैल सिंह की पहचान केवल और केवल पी.चिदमबरम पर जूता फेंकनेवाले पत्रकार के तौर पर न होकर एक संवेदनशील और रिस्क कवर करते हुए तल्खी से अपनी बात रखनेवाले लेखक के तौर पर चिन्हित किया जा सकेगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091105/a14fed8a/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Nov 6 10:05:11 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 6 Nov 2009 10:05:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpKrgpY3gpLDgpK3gpL7gpLcg4KSc4KWL4KS24KWA?= =?utf-8?b?LOCkr+CkvuCkpiDgpIbgpI/gpJfgpL4g4KSV4KS+4KSX4KSmLeCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWH?= Message-ID: <829019b0911052035u63393bf6l9a7d99375465155c@mail.gmail.com> देश के जाने-माने और हिन्दी के बुजुर्ग पत्रकारप्रभाष जोशी नहीं रहे। गुरुवार रात,भारत-आस्ट्रेलिया मैच देखने के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। अफसोसनाक है कि जिस मैच को लेकर देर रात तक हॉस्टल में हो-हुडदंग होता रहा,उसी मैच के दौरान देश का एक बुद्धिजीवी पत्रकार हमेशा के लिए खामोश हो गया। पटना से जसवंत सिंह की लिखी विवादित किताब के लोकार्पण कार्यक्रम से करीब 11 बजे रात लौटने के बाद जोशी थकान महसूस कर रहे थे। घर के लोगों ने भी सलाह दी कि डॉ. से सम्पर्क करना चाहिए लेकिन मैच देखकर उस पर कुछ लिखने का लोभ वो रोक नहीं पाए।.. लेकिन दोनों में से कोई भी काम पूरा किए बगैर हमसे विदा हो लिए। जोशी ने जिस कागद-कारे स्तंभ से अपनी अलग पहचान बनायी उसका पहला लेख क्रिकेट पर ही था। अंत-अंत तक क्रिकेट उऩके जीवन के साथ जुड़ा रहा और एक हद तक क्रिकेट ही उनके मौत का कारण भी बना। कहना न होगा कि प्रभाष जोशी उन गिने-चुने पत्रकारों में से रहे हैं जिनकी लोकप्रियता सिर्फ पठन-लेखन के स्तर पर नहीं रही है,उन्हें चाहने और माननेवालों की एक लंबी फेहरिस्त है। मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर सैकड़ों मीडियाकर्मी और पत्रकार ये कहते हुए आसानी से मिल जाएंगे कि आज वो जो कुछ भी है प्रभाषजी की बदौलत हैं। 12 सालों तक जनसत्ता अखबार का संपादन करते हुए उन्होंने एक खास तरह की पत्रकारिता का विस्तार किया। शिमला में उनसे जुड़े प्रसंगों को याद करते हुए अभय कुमार दुबे,संपादक सीएसडीएस ने हमें तब बताया था कि वो अकेले ऐसे संपादक थे जो किसी भी खबर के छप जाने के बाद माफी मांगने में यकीन नहीं रखते,छप गया सो छप गया। इसके साथ ही वो एक ऐसे संपादक थे जिन्होंने मालिक के आगे संपादक की कुर्सी को कभी भी छोटा नहीं होने दिया। बतौर बरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय, प्रभाष जोशी एक ऐसे पत्रकार रहे हैं जिनका भरोसा था कि पत्रकारिता के जरिए राजनीतिक स्थिति को भी बदला जा सकता है। वो पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते थे। इसलिए उन्होंने जितना लिखा उतना ही सामाजिक मसलों पर जाकर लोगों के सामने अपनी बात भी रखी। लोग उन्हें सुनने के लिए बुलाते थे।(एनडीटीवी इंडिया 9.20 बजे 6 नवम्बर 09)। आज से करीब एक साल पहले जब राजकमल की ओर से एक ही साथ पांच किताबों का लोकार्पण किया जा रहा था उस समय दिल्ली के त्रिवेणी सभाकार को मैंने इस तरह के कार्रयम में पहली बार खचाखाच भरा हुआ देखा था। इतना खचाखच कि देश के नामचीन पत्रकार से लेकर साहित्यकार सीढ़ियों पर बैठे नजर आए। स्वयं प्रभाष जोशी के शब्दों में आज चार पीढ़ी के लोग मौजूद हैं। कुछेक पत्रकारों को छोड़ दे तो सभागार में जनसत्ता-परंपरा के अधिकांश पत्रकार पहली बार वहां मौजूद नजर आए। सत्ता में गहरी पैठ रखनेवाले पत्रकार प्रभाष जोशी जितने लोकप्रिय रहे हैं,अपने जीवनकाल उतने ही विवादों में बने रहनेवाले पत्रकार भी। बाबरी मस्जिद के दौरान जनसत्ता में छपनेवाली खबरों,उसकी प्रस्तुति को लेकर वो विवादों में आए,सती-प्रथा को लेकर छपे संपादकीय का लेकर वबेला मचा और हाल ही में एक साइट को दिए गए इंटरव्यू में आलोचना के शिकार हुए। प्रभाष जोशी की ऑइडियोलॉजी को लेकर भी काफी विवाद रहा है।अकादमिक क्षेत्र में राजकमल से प्रकाशित हिन्दू होने का धर्म उनकी लोकप्रिय किताबों में से है। लेकिन इधर पिछले दो सालों से हिन्दी स्वराज के पुर्नपाठ और विमर्श को लेकर काफी सक्रिय नजर आए। वो हिन्द स्वराज और गांधी के मार्ग के महत्वों की चर्चा करते हुए उनकी विचारधारा का विस्तार करने की बात करते रहे। बीते लोकसभा चुनावों में पैसे देकर पेड खबरें छापने और राजनीति का पिछलग्गू बन जानेवाले अखबारों को लेकर प्रभाष जोशी ने विरोध में एक मोर्चा खोल रखा था और उसे वो राष्ट्रीय स्तर पर एक अभियान का रुप देने जा रहे थे जिसके चिन्ह हमें हाल के लिखे गए उनके लेखों में साफ तौर पर दिखाई देने लगे थे। उनके इस अभियान में कुलदीप नैय्यर और हरिवंश जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल रहे हैं। इन सबके वाबजूद प्रभाष जोशी को एक ऐसे कर्मठ पत्रकार के तौर पर जाना जाएगा जो कि अपनी जिदों को व्यावहारिक रुप देता है,नई पीढ़ी के लोगों को गलत या असहमत होने पर खुल्लम-खुल्ला चैलेंज करता है,अपनी बात ठसक के साथ रखता है और सक्रियता को पूजा और अराधना को पर्याय मानता है। आज प्रभाष जोशी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि अगर हम उनके लेखन का पुनर्विश्लेषण करते हैं,पठन-पाठन के दौरान असहमति का स्वर जाहिर करते हैं,सहमति को व्यवहार के तौर पर अपनाते हैं और पैर पसारती कार्पोरेट मीडिया का प्रतिरोध करते हुए हिन्दी पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन के माध्यम के तौर पर आगे ले जाते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनका खास अंदाज में क्रिकेट पर लिखना,इनने,उनने और अपन जैसे शब्दों का प्रयोग अब तक एक खास किस्म की इन्डीविजुअलिटी को बनाए रखने के तौर पर लगा,कई बार इससे असहमत भी रहा लेकिन आगे से जनसत्ता में इन शब्दों के नहीं होने की कमी जरुर खलेगी। गरम खून के पत्रकारों के बीच कोई तो था जिसे बार-बार पटकनी देने की मंशा से लड़ते-भिड़ते और अपना कद बड़ा होने की खुशफहमी से फैल जाते। आज हमसे लड़ने-भिड़ने वाला नहीं रहा,फच्चर मत डालो को लिखकर चैलेंज करनेवाला नहीं रहा। अब बार-बार याद आएगा कागद-कारे. -------------- next part -------------- An HTML 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091106/47ca7d5f/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Nov 6 11:00:37 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 6 Nov 2009 11:00:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KS3IOCknOCli+CktuClgCDgpJXgpL4g4KSc4KS+4KSo4KS+LCA=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KWHIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksOCkv+CkpA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpI/gpJUg4KSv4KWB4KSXIOCkleCkviDgpJbgpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KSuIOCkueCli+CkqOCkvg==?= Message-ID: <196167b80911052130i4ac32184uaed4c5d25f5b04d3@mail.gmail.com> प्रभाष जोशी का जाना, माने पत्रकारिता के एक युग का खत्म होना हिन्दी पत्रकारिता के शिखर कहे जाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा । खबर लिखे जाने वक्त एम्स में उनका पार्थिव शरीर रखा है और उनके अंतिम दर्शन के लिए पत्रकारों का वहां पहुंचना जारी है । कुछ घंटे बाद उनके पार्थिव शरीर को जनसत्ता सोसाईटी स्थित उनके घर लाया जाएगा और शाम को इंदौर ले जाया जाएगा । 73 वर्षीय प्रभाष जोशी इस उम्र में भी लेखन और पत्रकारीय कार्यों के अलावा बहुत सक्रिय थे । अचानक उनका यूं चले जाने से सभी हतप्रभ हैं । किसी को यकींन नहीं हो रहा है कि कल रात तक लोगों से बात करने वाले प्रभाष जोशी नहीं रहे । प्रभाष जोशी दैनिक जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे। मूल रूप से इंदौर निवासी प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की दिशा और दशा ही बदल दी। 1995 में इस दैनिक के संपादक पद से रिटायर्ड होने के बावजूद वे एक दशक से ज्यादा समय तक बतौर संपादकीय सलाहकार इस पत्र से जुड़े रहे। प्रभाष जोशी हर रविवार को जनसत्ता में कागद कारे नाम से एक स्तंभ लिखते हैं । बहुत से लोग इसी स्तंभ को पढ़ने के लिए रविवार को जनसत्ता लेते हैं । लेखन के मामले में प्रभाष जोशी का कोई सानी नहीं था । ताउम्र वो लिखते रहे । हिन्दी का शायद ही कोई ऐसा संपादक हो , जिसने प्रभाष जोशी की तरह लगातार लिखा हो । 73 साल की उम्र में भी वो खूब भ्रमण करते थे । देश भर के कार्यक्रमों - सेमिनारों में उन्हें आमंत्रित किया जाता था । जेपी आंदोलन के दिनों में प्रभाष जोशी की सक्रियता विल्कुल अलग किस्म की थी । वो जेपी के बेहद करीब माने जाते थे । अपने पत्रकारीय जीवन में प्रभाष जोशी पत्रकारिता में शुचित बनाए रखने के लिए संघर्षरत रहे । अखबारों में पेड कंटेंट को लेकर उन्होंने विरोध किया और अपने स्तंभ में लिखकर इस प्रवृति को पत्रकारिता के लिए खतरनाक बताया । हिन्दी पत्रकारिता में हजारो ऐसे पत्रकार हैं , जो उन्हें अपना आदर्श मानते हैं । सैकड़ों ऐसे हैं , जिन्हें प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता का पाठ पढ़ाया है । दर्जनों ऐसे हैं , जो उनकी पाठशाला से निकलकर संपादक बने हैं लेकिन एक भी ऐसा नहीं , जो प्रभाष जोशी की जगह ले सके । प्रभाष जोशी के निधन के साथ पत्रकारिता की वो पीढ़ी खत्म हो गई , जिसपर पत्रकारिता को नाज था। राजेन्द्र माथुर के बाद प्रभाष जोशी ही थे , जिन्हें शिखर पुरुष कहा जाता था । क्रिकेट से उन्हें बेहद लगाव था । इतना लगाव कि को वो कोई मैच बिना देखे नहीं छोड़ते थे और मैच के एक - एक बॉल की बारीकी पर लिखते भी थे । सचिन के तो वो जबरदस्त फैन थे और देखिए मैच देखते हुए ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । हार की तरफ बढ़ती भारतीय टीम को देखकर उन्हें बेचैनी हो रही थी । सचिन के शतक बनाने पर वो बहुत खुश हुए थे लेकिन उनके आउट होने पर खुशी मिश्रित दुख भी उनके चेहरे पर आया । फिर टीम हार की तरफ बढ़ने लगी । मैच देखते देखते प्रभाष जोशी को दिल का दौरा पड़ गया । जिस क्रिकेट को वो बेहद प्यार करते थे , उसी क्रिकेट के दौरान उनकी जान चली गई । (हिन्दी भारत से साभार ) ------आज 12:30 बजे उनका पार्थिव शरीर गान्धी शान्ति प्रतिष्ठान लाया जाएगा..---- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091106/53742878/attachment.html From aboutsandeep123 at gmail.com Fri Nov 6 11:22:58 2009 From: aboutsandeep123 at gmail.com (sandeep pandey) Date: Fri, 6 Nov 2009 11:22:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KS3IOCknOClgCDgpIbgpKrgpKjgpYcg4KSV4KWN4KSw4KWA4KSc?= =?utf-8?b?4KS8IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpJvgpYvgpZwg4KSm4KWA4KWk?= Message-ID: तुमने सुना! प्रभाष जोशी नहीं रहे। यह स्तब्ध कर देने वाली खबर आज तड़के एक मित्र से फोन पर मिली। नींद अभी टूटी नहीं थी लेकिन इस खबर से चेतना ऐसी जागी मानो हजारों हजार कांच की बारीक किरचें एक साथ दिमाग में पैबस्त हो गई हों। प्रभाष जी बड़े पत्रकार थे उन्होंने जनसत्ता जैसा अखबार हमें दिया जिससे पढ़ने के संस्कार मिले। मैं उनकी पेशेवर खूबियों पर नहीं जाना चाहता। मुझे बस उन्हें पढ़ना अच्छा लगता था। उनकी कलम की ईमानदारी। इस कठिन समय में सच को लेकर जिद और वो सारी बातें जो मुझे किसी और में नहीं दिखती थीं, मुझे उनकी ओर खींचती थी। कुछ एक अंतरालों को छोड़ दिया जाए तो कमोबेश 20 वर्षों तक कागद कारे पढ़ता रहा उसी ललक के साथ की आज प्रभाष जी ने क्या लिखा होगा। क्रिकेट और टेनिस पर लिखे उनके आलेख। खासकर सचिन के खेल पर उसी की तरह बेमिसाल कलम का ही जादू था कि सचिन की उम्दा पारियों के बाद हम ये सोचकर सोते थे कि कल प्रभाष जी क्या लिखेंगे! खबरों के मुताबिक कल रात ११.३० के आस पास उनका निधन हुआ जबकि भारत -ऑस्ट्रेलिया मैच करीब ११ बजे ख़त्म हुआ था।लगता है कहीं सचिन की कल रात की बेमिसाल पारी की खुशी और टीम की नाजुक हार का घालमेल तो उनके लिए जानलेवा नहीं बन गया। अगर ऐसा हुआ है तो तमाम रंज के बावजूद मुझे इस बात की खुशी ताउम्र रहेगी कि एक अद्भुत खेलप्रेमी अपने प्रिय खिलाड़ी को सर्वश्रेष्ठ खेलते देखकर गुजरा और एक शानदार खिलाडी ने अपने ऐसे चहेते को अनोखी भेंट दी मरने से पहले। कुछ अरसा हुआ प्रभाष जी ने कहा थाअब उम्र हो गयी घर वाले चिंता करते हैं। कहते हैं क्रिकेट देखना छोड़ दो लेकिन अपन तो तब तक ऐसा नही कर सकते जब तक अपना सचिन क्रीज़ पर है, फ़िर चाहे जो भी हो। सचिन तो क्रीज़ पर है प्रभाष जी लेकिन आपने क्रीज़ क्यों छोड़ दी। आगे आगे कोई मशाल सी लिए चलता था हाय क्या नाम था उस शख्स का पूछा भी नही उन्होंने हमेशा वोही किया जो उन्हें सही लगा । एक नयी राह पर चलते हुए उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के उस दौर से इस दौर तक का सफर तय किया एक मसीहा की तरह । हो सकता है कुछ ऐसे भी मोडों से वो गुजरे हों जो जो दूसरों की नजर में ग़लत रहे हों। प्रभाष जी ने सती अथवा ब्राह्मणों को लेकर हाल के समय में जो भी बयान दिए। उन्हें संदर्भ से काट कर उनका पाठ करने वालों ने ब्लाग जगत में जिस भाषा में उनका विरोध किया वो बेहद शर्मनाक था। बात केवल विरोध की नहीं विरोध के स्तर की थी। प्रभाष जी का विरोध करते हुए बातचीत का भाषा एक बेहतर स्तर हो सकता था। ब्लाॅगियों ने तो उन्हें गली के छोकरे की तरह रगेद ही लिया। लेकिन वो प्रभाष जी थे जिन्होंने सबकुछ सहन कर लिया बिना कोई जवाब दिए । वैसे भी जब आपने किसी को अपराधी ठहरा ही दिया हो तो उसके जवाब देने न देने से होता ही क्या है. क्या कभी उन्हें एहसास होगा की प्रभाष जोशी क्या थे। हिन्दी पत्रकारिता को सरोकारों से जोड़ कर मौजूदा स्वरुप देने वाले अगुआ थे वो, पेस मेकर लगा होने और दिल के मरीज होने के बाद भी जिस तेवर की पत्रकारिता उन्होंने की और लगातार कर रहे थे वो किस से छिपा है? खैर जो भी हो मेरे लिए तो आज से जनसत्ता पढने की एक बड़ी वजह कम हो गयी। मैं उनसे कभी मिला नही, उन्हें कभी देखा नही लेकिन उनका जाना बड़ी गहरी चोट दे गया। पुनश्च : अभी अभी भोपाल में माखनलाल पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष और है हमारे गुरु पीपी सिंह से बात हुई। उन्होंने प्रभाष जी से जूडा एक संस्मरण सुनाया । २ साल पहले ग्वालियर में किसी समारोह में वो और प्रभाष जी आजू बाजू के कमरों में रुके थे। रात के खाने पर जहाँ सअब लोग परहेज कर रहे थे वहीँ प्रभाष जी हर व्यंजन का स्वाद ले रहे थे। सर ने जब उन्हें मुस्करा के कनखियों से देखा तो प्रभाष जी ने कहा क्या करूँ यार पेस मेकर पर चल रहा हूँ बीमार रहता हूँ, घर वाले कहते हैं यहाँ मत जाओ वहां मत जाओ ये मत करो वो मत करो। अरे जब कुछ करना ही नही होगा तो आदमी जियेगा काहे? -- Sandeep -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091106/20ab2822/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Nov 7 11:32:34 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 7 Nov 2009 11:32:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCliyDgpKbgpYfgpKjgpL4g4KS54KWL4KSX4KS+LSDgpJU=?= =?utf-8?b?4KSsIOCkleCkn+Clh+Ckl+ClgCDgpJrgpYzgpLDgpL7gpLjgpYAg4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCknOCkteCkvuCkrA==?= Message-ID: <829019b0911062202u5279d4f0o64c9d65d0a0b3884@mail.gmail.com> मूलत: प्रकाशित-मोहल्लाlive 1984 के सिख दंगे के बारे में जिसे कि मैं दंगा नहीं नरसंहार मानता हूं, देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहीं कहा है कि हमें इसे भूल जाना चाहिए। मैं मानता हूं कि इतिहास भूलने की चीज़ नहीं होती। आज से पता नहीं कितने हज़ार साल पहले रावण ने ग़लती की और हम आज तक उसे जलाते हैं। बाबर ने कई सालों पहले जो किया, वो आज भी संदर्भ के तौर पर हम याद करते हैं। भारतीय कभी इतिहास को भूलते नहीं है। वो किसी न किसी रूप में दूसरे जेनरेशन और उसके बाद अगले से अगले जेनरेशन में जाता ही है। 1984 में सिक्खों के साथ जो कुछ भी हुआ, वो आगे के जेनरेशन में भी जाएगा और ये शायद ज़्यादा ख़तरनाक रूप में जाए। इसलिए इसे करेक्ट करने की ज़रूरत है। सिर्फ जस्टिस के जरिये ही इतिहास की इस भूल को करेक्ट किया जा सकता है। जरनैल सिंह ने ये बातें अपने किताब के लोकार्पण के मौके पर ज़ुबान की प्रकाशक और चर्चित लेखिका उर्वशी बुटालिया से पूछे गये सवालों का जबाब देते हुए कहीं। पेंग्विन ने 84 के दंगे को लेकर जरनैल सिंह की लिखी किताब को कब कटेगी चौरासी : सिख क़त्लेआम नाम से प्रकाशित किया है। मूलतः हिंदी में लिखी गयी इसी किताब को उसने अंग्रेजी अनुवाद I ACCUSE… The Anti-Sikh Violence Of 1984 से प्रकाशित किया गया है। 6 नवंबर को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में इस किताब का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के पहले जरनैल सिंह ने अपनी किताब, 84 के दंगे और पी चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले प्रकरण को लेकर वक्तव्य दिया। किताब का लोकार्पण हो जाने के बाद जरनैल सिंह और उर्वशी बुटालिया के बीच एक संवाद सत्र रखा गया, जिसमें उर्वशी बुटालिया की ओर से किताब और 84 के दंगे से जुड़े कई सवाल किये गये। बाद में ऑडिएंस के तौर पर मौजूद लोगों ने भी कई सवाल किये। इस तरह स्वतंत्र वक्तव्य और लोगों के सवाल-जबाब को मिला कर जरनैल सिंह ने किताब के लिखे जाने की वजह से लेकर न्याय, सरकार के रवैये, प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक ज़‍िम्‍मेदारी जैसे मसलों पर विस्तारपूर्वक अपना पक्ष रखा। अपने शुरुआती वक्तव्य में जरनैल सिंह ने कहा कि इस किताब में उन लोगों की दिल दहला देनेवाली कहानियां हैं, जिन्हें कि 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। यह किताब उन सबों को पढ़ने के लिए है, जो कि इंसानियत के साथ खड़े होने में यक़ीन रखते हैं। हम अपने को दुनिया के सबसे सभ्य और संस्कृति वाले देश के लोग के तौर पर मानते हैं लेकिन ये कितनी बड़ी बिडंबना है, कितना बड़ा मजाक है कि इसी देश में 3000 लोगों को सरेआम कत्ल कर दिया गया लेकिन आज पच्चीस साल बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला है। कहीं न कहीं हमारे देश की आत्मा मर गयी है, जो दोषी लोगों को सज़ा देने के बजाय उन्‍हें संसद में भेज देती है। किताब की प्रस्तावना में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि जिन लोगों ने दंगाइयों की भीड़ का सक्रिय संचालन किया और गुरुद्वारों और सिख मोहल्लों पर हमला करवाया, उनकी करतूतों के लिए सज़ा देना तो दूर, उन्हें प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इनाम के तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल होने का अवसर मिला। (पेज नं-XIII) जरनैल सिंह ने स्वीकार किया कि मेरे विरोध करने का जो तरीक़ा था वो ग़लत था लेकिन जिस बात के विरोध में मैं खड़ा हूं, उस पर मुझे आज भी गर्व है। विरोध का तरीक़ा ग़लत होने क बावजूद विरोध का कारण महत्वपूर्ण है। आखिर क्या वजह है कि 11 साल बाद इस घटना का एफआईआर दर्ज हुआ? इस घटना के 25 साल हो गये, न्याय मिलने की बात तो दूर देश का कोई भी प्रधानमंत्री एक बार भी उस विडोज़ कॉलोनी में क्यों नहीं गया? दर्शन कौर जो इस किताब का लोकार्पण कर रही हैं, उन्‍हें बार-बार क्यों धमकाया गया? उनके सामने क्यों 25 लाख रुपये का ऑफर दिया गया और बयान बदलने की बात कही गयी? (दर्शन कौर, 1984 के दंगों से प्रभावित और जीवित बच पायीं एक पीड़िता हैं।) ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस समय मीडिया ने अपनी ज़‍िम्मेदारी नहीं निभायी। उसे सही तरीके से कवर नहीं किया गया। इस घटना में पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से नहीं रखा गया। इस मामले में दूरदर्शन का रवैया संदिग्ध रहा है। दूरदर्शन के चरित्र की चर्चा जरनैल ने किताब में भी की है। उन्होंने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में अपनी भूमिका पूरी शिद्दत से निभा रहा था। लगातार इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को प्रसारित किया जा रहा था। नानवटी आयोग को दिये गये अपने हलफ़नामे में अवतार सिंह बीर ने इस बात का जिक्र किया है। दूरदर्शन बार-बार सिख सुरक्षाकर्मियों’ द्वारा हत्या की बात दोहरा रहा था, जबकि आमतौर पर दंगों में भी दो वर्गों की बात कही जाती है, किसी वर्ग का नाम नहीं लिया जाता। दूरदर्शन पर सिख क़त्लेआम की एक भी खबर नहीं दिखायी गयी। अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। जरनैल सिंह का मानना है कि ये दंगा न होकर सुनियोजित तरीके से सरकारी कत्लेआम था। खुलेआम सिखों की हत्या की जा रही थी। इसे रोकना क्या प्रशासन की ज़‍िम्मेदारी नहीं थी? इस किताब ने कत्लेआम के दौरान खाकी वर्दी, प्रशासन, सरकार और राजनीति से जुड़े लोगों के रवैयों की विस्तार से चर्चा की गयी है। 31 अक्टूबर की रात बाकायदा कांग्रेस नेताओं की बैठक कांग्रेसी विधायक रामपाल सरोज के घर पर हुई, जहां ये निर्देश जारी हुए कि अब पूरी सिख कौम को सबक सिखाना है। सिखों और उनके घरों को जलाने के लिएरसायनिक कारखानों से सफेद पाउडर की बोरियां मंगवा पूरी दिल्ली में बंटवायी गयीं। (पेज नं 103) अन्यायकर्ता और न्यायकर्ता नाम से एक शीर्षक है, जिसके भीतर सिरों की कीमत, भगत से बदला, कत्लेआम और सत्ता की सीढ़ी, सदियों के भाईचारे पर दाग़, दंगाई खाकी, देखती रही फौज, वर्दी ही कफन बन गयी, असहाय राष्ट्रपति, मौन गृहमंत्री और दंगे नहीं उपसंहार नाम से उपशीर्षक हैं। इन उपशीर्षकों के भीतर दिल दहला देनेवाली घटनाओं की चर्चा है। नानावटी आयोग की रिपोर्ट में पेज नंबर 87 पर सुल्तानपुरी के बयान दर्ज है, जिसमें कहा गया है, “सज्जन कुमार ने वहां एकत्रित भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि जिसने भी रोशन सिंह और भाग सिंह की हत्या की है, उन्हें 5000 रूपये इनाम दिया जाएगा। जो बाकी सिखों को मारेंगे, उन्हें प्रति व्यक्ति 1000 रुपये का इनाम दिया जाएगा” (पेज नं-61)। दंगे के सामाजिक स्तर की सक्रियता के सवाल पर जरनैल सिंह ने स्पष्ट किया कि आमतौर पर भारतीय तेवर इस तरह की गतिविधियों में सक्रिय होने का पक्षधर नहीं है। लेकिन इस घटना के विरोध में लोग खुलकर सामने नहीं आये, उसे रोका नहीं। आखिर क्या कारण है कि इस घटना को अपनी आंखों से देखनेवाले कई गैर-सिखों में से एक भी गवाह के तौर पर सामने नहीं आया? यह पूरी तरह पॉलिटिकल कॉन्‍सपीरेसी रही है। उर्वशी के पूछे गये इस सवाल पर कि आप हिंदू-सिख को घुले-मिले रूप में देखते हैं। ऐसे में आप सोचते हैं कि एक संवाद की गुंजाइश है? जरनैल सिंह का सीधा जबाब रहा कि भाईचारे को सिर्फ और सिर्फ जस्टिस के जरिये ही कायम किया जा सकता है। किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों की दास्तान को दर्ज करता है, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने पति और बच्चे खो दिये, जिनके परिवार उजड़ गये। जो किसी भी हालत में इस सदमे से उबर नहीं पाये हैं। जज जब दर्शन कौर से भगत को पहचानने की बात करता है, तब भगत का एक-एक लफ्ज उसे याद आ रहा था। भगत कह रहा था, “किसी सरदार को मत छोड़ो। ये गद्दार हैं। मिट्टी का तेल, हथियार सब कुछ है, पुलिस तुम्हारे साथ है। सरदारों को कुचल डालो।” (पेज नं-68) अपने परिवार के लोगों को कत्लेआम में गंवाने वाले सुरजीत सिंह का कहना है कि जिलाधिकारी ब्रजेंद्र पूरी तरह से दंगाइयों के साथ मिले हुए थे। (पेज नं-94) 1984 में दिल्ली के मशहूर वेंकेटेश्वर कॉलेज में बीएससी (द्वितीय वर्ष) में पढ़ते हुए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली भोली-भाली निरप्रीत को नहीं मालूम था कि एक दिन वो इस तरह अपनी मां से तिहाड़ के अंदर मिलेगी। लेकिन 1984 के सिख कत्लेआम में पिता को दंगाइयों के हाथों तड़पते हुए मरता देख वह बागी हो चुकी थी। (पेज नं-51) लोगों के सवालों का जवाब देते हुए जरनैल सिंह ने एक बार फिर कहा कि उनके विरोध करने का तरीक़ा ग़लत था लेकिन यह सच है कि उस प्रकरण के बाद ही ये मुद्दा फिर से हाइलाइट हुआ। जब सबने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, तो हमें भी करना पड़ा। आखिर इस घटना के बाद ही सरकार को ये क्यों याद आया? हमारा कोई राजनीतिक मक़सद नहीं है, मैं किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ नहीं हूं। हम गृहमंत्री के विरोध में नहीं हैं। मैं इसके जरिये ऐसा दबाव बनाना चाहता हूं कि लोगों की सोयी हुई आत्मा जागे। दोषियों को सज़ा मिले, जिससे कि आनेवाले समय में दोबारा ऐसी हिम्मत नहीं करे। इस मामले में वो ये भी मानते हैं कि अगर 1984 के दोषियों को सज़ा मिल गयी होती तो संभव है गुजरात में जो कुछ भी हुआ, वो करने की हिम्मत लोग नहीं जुटा पाते। हम इसके जरिये नागरिक अधिकारों को सामने लाने की बात कर रहे हैं। एक महिला श्रोता की ओर से उठाये गये इस सवाल पर कि इससे पंजाबियों को क्यों अलग-थलग रखा जाता है? जरनैल सिंह ने जबाब दिया कि ये मसला सिर्फ सिखों से जुड़ा हुआ नहीं है। ये देश के उन तमाम लोगों से जुड़ा है, जिनके साथ इस तरह की घटनाएं हुई हैं और होती है। उर्वशी बुटालिया ने जरनैल सिंह के इस काम को एक बड़ा कमिटमेंट करार दिया और इस दिशा में लगातार आगे बढ़ते रहने की शुभकामनाएं दी। इस प्रयास का असर बताते हुए सभागार में मौजूद एक पत्रकार ने सूचना दी कि आज हम जिस जगदीश टाइटलर के विरोध में बात कर रहे हैं, ये जानकर खुशी हो रही है कि यूके ने 84 के दंगे में शामिल होने के आरोप में उन्‍हें वीज़ा देने से इनक़ार कर दिया है। सवालों के दौर ख़त्‍म होने के साथ ही लोगों ने इच्‍छा जतायी कि जरनैल सिंह ने किताब के जरिये जिस मुद्दे को उठाया है, वो एक सही दिशा में जाकर विस्तार पाये। ये किसी भी रूप में न तो महज विवाद का हिस्सा बन कर रह जाए और न ही एक कौम की प्रतिक्रिया के तौर पर लोगों के सामने आये। ये व्यवस्था के आगे दबाव बनाने के माध्यम के तौर पर काम करे जिससे कि न्याय की प्रक्रिया तेज़ और सही दिशा में हो सके। इस मौके पर यात्रा प्रकाशन की संपादक नीता गुप्ता ने कहा कि जरनैल सिंह ने जो काम किया है, उसके लिए उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। हमें उम्मीद है कि किताब के प्रकाशन से आपके प्रयासों को मज़बूती मिलेगी। पूरे कार्यक्रम के दौरान रंजना(सीनियर कमिशनिंग एडिटर,पेंग्विन) वैशाली माथुर (सीनियर कमिशनिंग एडिटर, पेंग्विन), एसएस निरुपम (हिंदी एडीटर,पेंग्विन)के सक्रिय रहने के लिए धन्‍यवाद दिया। सभागार में मौजूद श्रोताओं और विशेष रूप से उर्वशी बुटालिया का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि हम सबकी की ये नैतिक ज़‍िम्मेदारी है कि अपने-अपने स्तर से इस काम को आगे बढ़ाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जरनैल सिंह की ये किताब 1984 में सिख कत्लेआम के प्रति संवेदनशील होने और इसकी आड़ में होनेवाली राजनीति को समझने में एक नयी खिड़की का काम करेगी। कार्यक्रम के दौरान जितनी तेज़ी से इस किताब की बिक्री शुरू हुई, उससे ये साफ झलकता है कि लोग इस घटना के प्रति संवेदनशील हैं। बकौल जरनैल सिंह पंजाबी में छपी इसी किताब की अब तक 3000 प्रति निकल चुकी है। लोगों के बीच किताबों की पहुंच के साथ अन्याय के खिलाफ, न्याय के पक्ष में लोगों के स्वर मज़बूत होंगे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091107/4d5774c3/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Sat Nov 7 18:49:59 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Sat, 07 Nov 2009 13:19:59 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <000e0cd6ef3e3be23d0477c7d1f3@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// जीत गइल भोजपुरिया Posted: 06 Nov 2009 10:51 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/W21VpxDO8O0/blog-post_06.html भाई मोहन राठौर आ आलोक कुमार के ढेर सारा बधाई! आज भोजपुरिया समाज आपन दू गो सितारन पर ठप्‍पा लगा देहलस. उत्तर प्रदेश के भाई मोहन राठौर आउर बिहार के आलोक कुमार संयुक्‍त रूप से विजेता घोषित कइल गइलन महुआ चैनल के सुर सग्राम कार्यक्रम में. हम त भोजपुरी आउर मैथिली के बीच बज्जिका नामक बोली में पैदा भइल बानि लेकिन अड़ोसी पड़ोसी आ संगी साथी के जौरे रह के भोजपुरी से हमार परिचय भइल. जब से महुआ चैनल शुरू भइल तबे से हमार इ कोशिश रहे कि कम से कम सुर संग्राम जरूर देखिं. आउर आज गांधी मैदान पटना से जब लाइव टे‍लीकास्‍ट भइल सुर सग्राम के फिनाले के, त दारू पिनाई बीचे में छोड़ के टीवी के आगे आ गइनि. हमरा नइखे मालूम के जे हम लिख S तानि उ भोजपुरी ह कि ना, बाकी एतना जरूर कहेब कि महुआ के इ प्रोग्राम अपना किसिम के अलग कार्यक्रम रहे आउर बहुत मजेदार रहे. हां, इ जरूर कहेब कि आज ग्रेंड फिनाले के नाम पर बंबइयो लटका झटका जरूर भइल., मजेदार बात इ कि अंतिम दुनो विजेता में से कौनो नामचीन ना रहस आज से पहिए. दिलदारनगर, यू पी के निवासी मोहन के बाबूजी कपड़ा के फेरी लगावलन जबकि लक्‍खीसराय, बिहार के रहे वाला आलोक कुमार के परिवारो के आज से पहिले कोई खास ररूख ना रहे. पर आज से इ दुनु जना और इनकर परिवार के समाज में एगो स्‍थान तय हो गइल. हमरा पूरा विश्‍वास बाटे कि दुनो जना भोजपुरी समाज के काफी आगे ले जइहन, विशेष करके भोजपुरी संगीत के. हमार खयाल बा कि भारतीय रियल्‍टी शो के इतिहास में शायदे कबहुं अइसन होइल होखे कि एक के जगह दू जना के विजेता घोषित कइल गइल हो. कार्यक्रम के संचालक रवि किशन कार्यक्रम के समापन वेला में कहलन कि दुनो कंटेस्‍टेंट के पक्ष में आइल वोट में ढाई प्रतिशत के मार्जिन रह गइल, आउर एह बात के ध्‍यान में रख के महुआ चैनल के मालिक श्री तिवारीजी इ तय कइलन कि दुनो जना के विजेता वाला रकम मिली, माने दुनो जना के पचीस- पचीस लाख. केतना सुंदर विचार, केतना सुंदर प्रस्‍थापना. आज एह बजार के जमाना में जहां चवन्‍नी खातिर मार हो जाला, लूट मचल बा चारो तरफ; मनोरंजन त छोडिं, खबर देखावे-सुनावे के नाम पर धंधा करे वाला चैनल आधा घंटा के पैकेज में से लगभग आधा समय विज्ञापन पर खर्च करके माल कमावे के 'धर्मसूत्र' में लागल बाड़न, इ महुआ चैनल एगो मिशाल कायम कर दिहलस. पचीस लाख कौनो छोट रकम नइखे. आज तक के इतिहास में अइसन ना भइल. सुर संग्राम के आपन अनुभव के आधार पर कहे के चाह S तानि कि मनोज तिवारी भोजपुरिए के ना बल्कि समस्‍त कला विरादरी में अद्भूद हवन. तत्‍काल, तत्‍क्षण कौनो विषय पर गीत बना के सुनावे के अद्भूद क्षमता के मालिक हवन मनोज. उन कर विचार, उन कर रहन-सहन से हो सकेला कि हम सहमत ना होखिं, बाकी उनकर इ गुण्‍ा के हम कायल हो गइनि. आज के प्रोग्राम पटना के गांधी मैदान में भइल. उहे गांधी मैदान जहां जेपी के लोकनायक के उपाधि से नवाजल गइल, जेकरा बड़का बड़का आंदोलन के आरंभ के गौरव हासिल बा; आज ओह मैदान पर लालू प्रसाद यादव आउर रामविलास पासवान जैसन विभूतियन के सामने इ कार्यक्रम भइल. फेर कहेब कि इ पोलिटिशियन के काम-धंधा आउर आचरण से बहुत लोगन के दिक्‍कत होई बाकी इ हो सांच बा कि इ लोग के हिंदुस्‍तान के राजनीति में आउर समाज में एगो हैसियत बा. लोग एक आवाज पर आजो ओहिं गई दौड़ जाला जइसे गांधी और जेपी के आवाहन पर कबहूं दउड़ जात रहे. दुनो जना बैठल रहलें कार्यक्रम के समापन तक. बहुत शा‍लीनता से, कौने हबड़-दबड़ के बिना. ओ‍हु से ज़्यादा ध्‍यान देवे वाला बात इ कि कउनो तरह के अगधड़-भगदड़ ना भइल. सब शांति से निबट गइल. आउर देस-दुनिया के सामने अब इ एगो मिशाल बन गइल. बाकी मुखिया नितीशोजी के आबे के घोषणा भइल रहे मंच से, बाकी अंतिम समय में पता चलल कि तबियत ढीला होए के वजह से उ ना पहुंच सकलन. हो सकता कि तबीयत साचो में ठीक ना रहल होई, लेकिन लालूजी और रामविलासजी के उपस्थिति के वजह से अगर उ ना आइल होखस त हमरा विचार से आपन मा‍टी के साथ इ उनकर न्‍याय ना कहल जा सकेला. उनकरो मालूम होई कि पटना कौनो बंबई चाहे दिल्‍ली नइखे जहां रोजे अइसन कार्यक्रम होला. ओहू में कौनो बोली, कौनो संस्‍कृति (मनसे आउर ठाकरे वाला ना) के लेके अगर कुछ सुगबुहाट हो रहल बा त ओमे जरूर साथ रहे के चाहिं, इ हमार विचार बा. हमार विचार से इ बहुत निमन शुरुआत कहल जा सकेला जहवां आपन माटी, आपन समाज से लोगन के इ मौका मिलल और कोई सितारा निकल के देस-दुनिया के सामने आ सकल. टीवी पर देखाए जाए वाला कार्यक्रम, विशेषकर हिंदी मनोरंजन आउर समाचार चैनल के रंग ढंग के लेके हमरा मन में कोई विशेष श्रद्धा नइखे. जहां, नाग-नागिन, सांप-संपेरा, भू‍त-प्रेत से लेके यू ट्यूब तक से उधार लेहल प्रोग्राम आउर रियलिटी शो से पूरा के पूरा पैकेज देखावल जाला, उहां महुआ चैनल में काफी कुछ ओरिजन माल मिलेला देखे के. सुर संग्राम के अलावा 'भौजी नं. 1' जइसन कार्यक्रम शुरू कर के महुआ भोजपुरी समाजे में ना बल्कि बिहार-यूपी आउर ओकर प्रभाव वाला क्षेत्रन में आपन एगो विशेष जगह बना लेले बा. आउर इ प्रयास के जेतना सराहना आउर प्रशंसा कइल जाव, कमे होई. अंत में फेर एतने कहे चाह S तानि कि सुर संग्राम के मार्फत महुआ चैनल बिहार-यूपी के देहात के लडिकन-लइकिन में आपन हुनर के लेके एगो आत्‍मविश्‍वास जगावे के काम कइलस ह. तारीफ होए के चाहिं. हर रियलिटी शो बहुत सुंदर और रियल ना होखेला. तनि उ 'लिटिल चैंप्स' के याद करिं, आउर याद करिं के जे दुनो बच्‍चा-बच्‍ची ओहमें एंकरिंग करत रहें उनकर बचपनाकहां हेरा गइल रहे. हम एहूं भ्रम में नइखिं कि महुआ में सब ठीके होई. काहे भइया, बजार के नियम त S सब पर बराबरे नूं लागू होई! हां, इ जरूर सवाल बाटे कि बजार के एहिं गई छूट्टा सांढ नियर हरहराए दिहल जाई कि ओके काबू में लावे के उपायो पर विचार होए के चाहिं. इ हमार जमाना के एगो बड़ा सवाल ह, आउर एकरा पर विचार होखे के चाहिं. लेकिन एह बजार में रह के भी अगर कहीं इंसानी मूल्‍य दिखाता, तS ओकर सराहना करे में कौनो हरज बाटे!! मोहन आउर आलोक भाई के बहुत बहुत मुबारकबाद आउर जीवन में सफलता खातिर हमार शुभकामना. सुर संग्राम कार्यक्रम से जुड़ल तमाम कलाकर, टेक्निशियन, सहयोगी, आयोजक, प्रायोजक आउर महुआ चैनल के तमाम स्‍टाफ के धन्‍यवाद. भोजपुरी में लिखे के पहिला प्रयास बा, गलती-सलती क्षमा करेब. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091107/b81ca804/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Nov 8 10:16:53 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Nov 2009 10:16:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KS3IOCknOCli+CktuClgCDgpJXgpL4g4KSc4KS+4KSo4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KS4IOCkheCkluCkrOCkvuCksCDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSP?= =?utf-8?b?IOCkluCkrOCksCDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0911072046t3f1f995fk72a4e2d2371f1cb5@mail.gmail.com> प्रभाष जोशी का जाना जिस अखबार के लिए खबर नहीं 7 नवम्बर के नवभारत टाइम्सने प्रभाष जोशी के निधन पर एक लाइन की भी खबर छापना जरुरी नहीं समझा। इसी प्रकाशन समूह का अखबार The Times Of Indiaने action on pitch cut short his acerbic penशीर्षक से तस्वीर सहित करीब 600 शब्दों में खबर छापा है। नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के ब्लॉग कोना मेंपूजा प्रसाद ने कितने सीधे थे प्रभाष जोशी शीर्षक से पोस्ट लिखी है। दैनिक जागरण ने उनके लिए साइड में वमुश्किल से सौ शब्द छापे। ये दोनों देश के प्रमुख अखबारों में से है। रीडरशिप की दौड़ में रेस लगानेवाले हैं। अपनी ब्रांडिंग के लिए लाखों रुपये खर्च करते आए हैं। लेकिन आज ऐसा करते हुए जरा भी अपनी ब्रांड इमेज की चिंता नहीं की। कहने को कहा जा सकता है कि नहीं छापा तो नहीं छापा इसमें कौन-सा पहाड़ टूट गया? लेकिन सवाल है कि क्या देश की पत्रकारिता इसी तरह की किसी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के बूते चलती रहेगी ? हिन्दी पत्रकारिता में इसी तरह की बर्बरता बनी रहेगी? यहां सवाल सिर्फ प्रभाष जोशी की खबर छापने या नहीं छापने भर से नहीं है। ये तो फिर भी मीडिया,पाठकों और प्रभाष जोशी को जानने-समझनेवाले लोगों के लिए बड़ी खबर है। हम जैसे देश के हजारों पाठक रोज कमरे तक न्यूजपेपर पहुंचाने वाले भैय्या के आने का इंतजार बर्दाश्त नहीं कर पाने की स्थिति में संभवतः खुद ही नजदीकी स्टॉल से चले गए होंगे। रोज एक या दो अखबार पढ़ने के अभ्यस्त आज सारे अखबारों को देखना-खरीदना चाह रहे होगें और पन्ने पलटते गए होंगे गए। तब जाकर पता चला होगा कि इन दोनों अखबारों ने इस तरह का खेल किया है। नहीं तो कहां पता चलनेवाला था कि कोई अखबार ऐसा भी कर सकता है? प्रभाष जोशी की खबर की तरह ही बाकी की कितनी खबरों के प्रति इतने संवेदनशील होते हैं,जानने-समझने के उत्सुक होते हैं। कितनी घटनाओं के प्रति हमारा सरोकार होता है? कितनी खबरों को लेकर हम एक ही दिन कई-कई अखबार पलटते हैं? मुझे नहीं लगता कि एक औसत पाठक दो-तीन अखबार से ज्यादा देख पाता होगा। तो क्या ऐसे में अखबार में काम करनेवाले मीडियाकर्मियों के पसंद-नापसंद के फार्मूले पर कई खबरें न छपने की बलि चढ़ जाती होगी? क्या यहां से हमें अखबारों के चरित्र को समझने के कोई सूत्र मिलते हैं? मास की बात करनेवाला अखबार,व्यावहारिक स्तर पर इतना इन्डीविजुअल हो सकता है? खबरों को दबाए औऱ कुचले जाने का काम व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा की चीज बनती आयी है? मीडिया के अलग-अलग मसलों पर लिखते हुए इधऱ कुछ दिनों से मैंने तय किया है कि इसकी समीक्षा इन्हीं की शर्तों पर की जाए। हमें मीडिया में सरोकारों के सवाल पर न तो हाथ में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लेकर बात करनी है। न ही अपनी तरफ से कोई फार्मूला फिट करके मीडिया को देखने-परखने की जुगत भिड़ानी है। हमें मौजूदा मीडिया को उसी नजरिए से देख-समझकर बात करनी है,जिस नजरिए से मीडिया से जुड़े लोग हमें समझने का तर्क देते हैं। देखते हैं,इससे किस तरह के निष्कर्ष निकलकर सामने आते हैं? अभी चार दिन पहले ही देखिए, शाहरुख के केक काटने की लाइव कवरेज के नाम पर चैनलों ने बुजुर्ग पत्रकारों के टकले सिर दिखाए,पत्रकारों की पिछाड़ी दिखाए। ये अपने ही फार्मूल पर नहीं टिके रह सके। इधर अखबारों से जब आप खबरों की हिस्सेदारी की बात करेंगे,सामाजिक सरोकारों की बात करेंगे तो आपसे सीधा सवाल करेंगे कि जो चीजें पढ़ी ही नहीं जाती,उस पर लिखने-छापने से क्या फायदा? साहित्य,संस्कृति और कला से जुड़ी खबरें इसी तर्क के आधार पर अब प्रमुखता से खबर का हिस्सा नहीं रहा। हमें तो बाजार देखना होता है,हम क्या कर सकते हैं? मतलब साफ है कि वो उन्हीं खबरों को छापेंगे जो उन्हें रिटर्न देने की ताकत रखते हों। अब इसी फार्मूले से आप नवभारत टाइम्स और दैनिक जागरण से सवाल करें कि क्या प्रभाष जोशी की खबर बिकाउ नहीं है, मीडिया,खासकर अखबारों के लिए सेलेबुल आइटम नहीं रहा।(प्रभाष जोशी के निधन की खबर के लिए इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करने के लिए माफ करेंगे,लेकिन अखबार शायद इस तरह की भाषा ज्यादा आसानी से समझते हैं,बस इसलिए)। सुबह उठकर पुष्कर जब समाचार अपार्टमेंट के पास के स्टॉल वाले से जनसत्ता की मांग करता है तो उसका जबाब होता है-नहीं है। आप से पहले पचासों लोग जनसत्ता खोजने आ चुके हैं। पता नहीं आज लोग क्यों इस अखबार को ज्यादा खोज रहे हैं? वैसे तो ये इतवार को ज्यादा बिकता है। देर रात जागने के बाद सुबह उठते ही सारे अखबार खरीदने के लिए पटेल चेस्ट की तरफ भागता हूं तो देखता हूं छात्रों की एक बड़ी जमात वहां पहले से मौजूद है जो कि फ्रंट पर खोजते हुए अंदर तक अखबारों में घुसती है,सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की खबर को पढ़ने के लिए।..और दिनों के मुकाबले कल लोगों ने एक से ज्यादा अखबार पढ़े होंगे,खरीदे होंगे। मेरा ऐसा अनुमान है। ऐसे में अखबारों का सेलेबुल होने के आधार पर खबर को छापने वाला फार्मूला प्रभाष जोशी की खबर के साथ क्यों नहीं लागू किया गया? दिन-रात बाजार के दबाब का रोना रोनेवाले ये अखबार हमेशा बाजार को ध्यान में रखकर खबरें नहीं छापते हैं। इस घटना के आधार पर तो यही समझ बनती है कि अखबार संभवतः कई मौके पर व्यक्तिगत खुन्नस,जातीय,क्षेत्रीय और भाषाई स्तर के दुराग्रह की वजह से भी कई खबरों को नहीं छापता होगा। प्रभाष जोशी ने जीते-जी पैसे लेकर खबरें छापने और नहीं देने पर नहीं छापने की बात कही थी। उसे अपनी लेखनी से लगातार अभियान का रुप देने जा रहे थे। इस घटना में पैसे के फार्मूले के आगे व्यक्तिगत स्तर का पसंद-नापसंद वाला फार्मूला ज्यादा हावी नजर आया। प्रभाष जोशी की खबर को नहीं छापने की घटना से हमारे सामने एक ही साथ कई सवाल खड़े हो जाते हैं? क्या अखबारों में खबरों को छापने और न छापने का आधार जाति,समुदाय,क्षेत्र,संप्रदाय और धर्म को लेकर पसंद और नापसंद भी होता है? अखबार में बहुसंख्यक समुदाय,जाति और विचारधारा के पसंद-नापसंद से खबरें प्रमुखता पाती है? क्या गुजरात का नरसंहार, 1984 के सिख विरोधी दंगे,बाबरी मस्जिद जैसे दर्जनों मनहूस घटनाएं होंगी जिसमें इसी पैटर्न को फॉलो करते हुए खबरें छापीं गयी होगीं,खारिज की गयी होगी? ऐसा सोचते ही सिहरन सी होने लग जा रही है? मुझे नहीं पता कि प्रभाष जोशी को लेकर दैनिक जागरण औऱ नवभारत टाइम्स के शीर्ष पर बैठे लोगों के साथ क्या असहमति और रंजिशें रही होंगी। लेकिन तीन-साढ़े तीन रुपये देकर अखबार खरीदनेवाले ग्राहक के साथ न्याय तो कर देते। आप मीडिया एथिक्स तो दूर सही तरीके से प्रोफेशनल एथिक्स को भी फॉलो करने में यकीन नहीं रखते। प्रभाष जोशी का इससे तो कुछ हुआ नहीं,कम से कम अपनी साख में बट्टा लगने से तो अपने को बचा लिया होता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/43d36936/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Nov 8 10:55:26 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Nov 2009 10:55:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KS3IOCknOCli+CktuClgCDgpJXgpL4g4KSc4KS+4KSo4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KS4IOCkheCkluCkrOCkvuCksCDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSP?= =?utf-8?b?IOCkluCkrOCksCDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0911072125n11bee136i6f797b89909807df@mail.gmail.com> नोटः- 7 नवम्बर के नवभारत टाइम्स ने प्रभाष जोशी को याद करते हुआ अभय कुमार दुबे का संस्मरण छापा है- वह खनक अभी भी बजती है। अब सवाल है कि क्या इसे ही खबर के तौर पर पढ़ा-समझा जाना चाहिए और इस बात का संतोष कर लिया जाना चाहिए कि,कोई बात नहीं चाहे किसी भी रुप में हो,याद तो किया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/ec12915a/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Nov 8 11:07:11 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Nov 2009 11:07:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKrgpY0=?= =?utf-8?b?4KSw4KSt4KS+4KS3IOCknOCli+CktuClgCDgpJXgpL4g4KSc4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCknOCkv+CkuCDgpIXgpJbgpKzgpL7gpLAg4KSV4KWHIOCksg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSPIOCkluCkrOCksCDgpKjgpLngpYDgpII=?= In-Reply-To: <829019b0911072134lefb66a6o47e918fddf2637bc@mail.gmail.com> References: <829019b0911072125n11bee136i6f797b89909807df@mail.gmail.com> <85de31b90911072127y12330e4elc76f159d35f3c90e@mail.gmail.com> <829019b0911072134lefb66a6o47e918fddf2637bc@mail.gmail.com> Message-ID: <829019b0911072137h6277d1afg896b2393115363c2@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2009/11/8 Subject: Re: [दीवान]प्रभाष जोशी का जाना जिस अखबार के लिए खबर नहीं To: avinash das दीवान के साथियो पोस्ट लिखे जाने के तुरंत बाद ही गिरि की तरफ उसका लिंक बढ़ाया। गिरि ने कुछ ही लाइन पढ़ने के बाद एकदम से चैटबॉक्स पर लिखा- भइया। नवभारत ने अभय कुमार दुबे का संस्मरण तो छापा ही है। इसलिए यह कहना कि प्रभाष जोशी पर एक लाइन की भी खबर नहीं है,गलत होगा। उसके बाद उसने अखबार में छपी वो पूरी लाइन फोन पर ही सुना डाला। मैं इस बात से परेशान था कि कहीं कुछ गलत तो नहीं लिख गया। मैंने भी कल के नवभारत टाइम्स को अपने स्तर से खंगाला था लेकिन मुझे कहीं भी खबर नहीं दिखी। इस मसले पर पोस्ट लिखे जाने के बाद गिरीन्द्र और अविनाश से मेरी लगातार बात होती रही। चैटबॉक्स पर अविनाश ने अभय कुमार दुबे के संस्मरण का लिंक भेजा जिसे कि मैंने शीर्षक के साथ एचटीएम करके लगा दिया है। माफी के साथ इऩ दोनों का बहुत-बहुत शुक्रिया। लेकिन अभी भी आपसे अनुरोध है कि आप इस संस्मरण को पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें कि क्या इसके जरिए पूरे अखबार में प्रभाष जोशी के निधन की खबर नहीं छापे जाने के विकल्प के तौर पर पढ़ा-समझा जा सकता है? क्या ऐसा करना अखबार की चूक भर है? एक बार फिर माफी के साथ विनीत 2009/11/8 avinash das > किसके सौजन्‍य से ये जानकारी मिली, मुझे लगता है ये बताना आपकी विनम्रता को > अधिक रेखांकित करेगा। > > > 2009/11/8 vineet kumar > >> नोटः- 7 नवम्बर के नवभारत टाइम्स ने प्रभाष जोशी को याद करते हुआ अभय कुमार >> दुबे का संस्मरण छापा है- वह खनक अभी भी बजती है। >> अब सवाल है कि क्या इसे ही खबर के तौर पर पढ़ा-समझा जाना चाहिए और इस बात का >> संतोष कर लिया जाना चाहिए कि,कोई बात नहीं चाहे किसी भी रुप में हो,याद तो किया >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/759c6736/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Sun Nov 8 21:39:00 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Sun, 8 Nov 2009 21:39:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSC4KSV4KSc?= =?utf-8?b?IOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJXgpYAg4KSV4KS14KS/4KSk4KS+IOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KWN4KSw4KS5ICfgpKjgpLngpYDgpIInIOCkleClgCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= Message-ID: <190a2d470911080809pb7a28a0xc98a1284ff6bf4a@mail.gmail.com> पंकज सिंह की कविता संग्रह 'नहीं' की समीक्षा *नहीं से हां तक की संभावना* वर्तमान दौर की जद्दोजहद और भविष्य को एक नए आयाम देने या पहुंचाने के दिवास्वप्न के इर्द-गिर्द के शब्द ही पंकज सिंह की कविताओं का यथार्थ है। यथार्थ की द्वन्द्वात्मकता को कविता के रूप में ढाल कर व्यापक अनुभव के दायरे और मनुष्य की आकांक्षा और संभावना को सामने लाने का काम कविता संग्रह ‘नहीं’ के जरिए किया गया है। तभी तो कविता ‘वहीं से’ में वह कहते हैं, ‘कौन विश्वासघात करता है/ कौन चुप रह गया था पेशेवर जल्लाद की तरह सर्द/सीधी आंखों घूरता हुआ/कौन था पाश्चाताप को जाहिर न करता।’ पंकज सिंह की इन 61 कविताओं की दृष्टि संपन्नता और आशय इन्हें कोरे नकार की निष्फलता से बचाकर संवेदना की उस मनभूमि में ले जाते हैं जो ‘नहीं’ की पवित्र दृढ़ता से अनंत संभावनाओं की प्रक्रिया और उसकी सहज-अबाध परिणतियों के प्रकट होते जाने की आश्वस्ति देती है। ‘उन्हीं पुराने शब्दों को’ कविता की पंक्तियां हैं, ‘आखेटक की हिंसा में सिर्फ आखेट नहीं करता/समयता के बियाबान में आखेटक को भी/राख करती जाती है उसी हिंसा/कोई नहीं बताता कब तक/मुक्ति के विज्ञान में रक्ताभ/अकेले उपकरण सी निनाद करेगी/प्रतिहिंसा।’ अनुभव-अनुकूलित शिल्प का सुघड़पन से सुसज्जित कवितायें बेबाक होकर वर्तमान समय से साक्षात्कार कराने का माद्दा रखती हैं। छल-प्रपंचों और दुनियादारी की वस्तुस्थिति को पाठकों के सामने रखती हुई कविता ‘देखते हुए छिली त्वचा को’ में बखूबी वे कहते हैं, ‘हम वापस लौटते हैं जाने कहां से कहां/एक फरेब की चोट खाये दूसरे फरेब में/ठहरे काले पानी वाली दु:स्वप्न में/हम कहते हैं खुद में हमें पुरानी वेबकूफियों से बचना/आ गये हैं इसी तरह किस्त-दर-किस्त/खुद को निपटाकर।’ और जब वे टीवी चैनलों के पत्रकारों को आत्मविहीन होकर खबरें परोसते देखते हैं तो कुछ यूं काव्य की पंक्तियां सामने आती हैं, ‘कालाहांडी अगरतला तरन-तारन मंचरियाल गये/हिंदी-अंग्रेजी के पत्रकार दनदनाते/खूब हुई लिखी-पढ़ी आवाजाही/राष्ट्रीय पुरस्कार सनसनीखेज समाचार तेज टीवी चैनल/तेज तेज हुआ हुआ हुआ/हुआं हुआं।’ पंकज सिंह बखूबी जानते हैं कि जिस लोकतंत्र में भिखमंगों का राजसी गीत गाया जाता है, वहां कपास और गेहूं उपजाने वाले किसान आत्महत्या करते हैं। वे जानते हैं कि यहां की स्त्रियां और बच्चे जमकर भूधराकार चक्की में पिस रहे हैं। वह यह भी जानते हैं कि किनके हाथ उस निर्मम चक्की को चलाते हैं। कविता संग्रह ‘नहीं’ की सभी कवितायें जीवंत अनुभव-राशि के अंतर्विरोधों और द्वन्द्वों में शासित विडम्बनाओं और कई प्रकार के सामूहिक बोध के समुच्चय हैं जो निजी आवेग-संवेग, प्रेम और आसक्ति, आघात-संघात और अवसाद-विषाद के व्यापक फलक के तौर पर सामने आए हैं। अधिकतर कवितायें अतीत की स्मृतियों और भविष्य की व्यापक संभावनाओं को बेहद सुंदर कोलाज है जिनके अनेक रंग इस तरह घुले-मिले हैं कि तर्क और विवेक की शक्लें अख्तियार कर सार्वजनिक संलाप का हिस्सा मालूम होती है। नहीं (कविता संग्रह) पंकज सिंह मूल्य : 175 रूपए प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि। ए -बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-2,3,4 NOIDA (UP) 09911364316 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/b780f309/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Sun Nov 8 21:41:35 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Sun, 8 Nov 2009 21:41:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWD4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSj4KSm4KSk4KWN4KSkIOCkquCkvuCksuClgOCkteCkvuCksiDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkv+CkpOCkvuCkrCDigJjgpIngpKTgpY3gpKTgpLAg4KSG?= =?utf-8?b?4KSn4KWB4KSo4KS/4KSV4KSk4KS+4KS14KS+4KSmIOCklOCksCDgpKY=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSkIOCkteCkv+CkruCksOCljeCktuKAmSDgpJXgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= Message-ID: <190a2d470911080811xe15eaf4se3e5c5cac7482d21@mail.gmail.com> उत्तर आधुनिकता और जातीय अस्मिता उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक है। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था का रामायण है। मीडिया माध्यमों ने ‘यथार्थ’ के साथ हमारे रिश्ते को इस कदर बदल दिया है कि हमारी इंद्रियां अब यथार्थ को सीधे-सीधे ग्रहण नहीं करतीं। सूचना क्रांति ने हमारे ‘बोध’ में ऐसा उलट-पलट किया है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कब स्थानीय है, कब भूमंडलीय। हम एक ऐसी चुनौतीभरी विचारधारा की दुनिया में जी रहे हैं जिसमें समस्त मानवीय चिंतन, साहित्य, व्यवस्था, विचारधारा, धर्म, दर्शन, इतिहास, आंदोलन, प्रवृत्तिवाद, सभ्यता, संस्कृति, मूल्य व्यवस्था सभी को ‘उत्तर’, ‘पोस्ट’ व्यतीत घोषित कर दिया है। कृष्णदत्त पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकतावाद और दलित विमर्श’ के जरिए विमर्श, दलित चिंतन और प्रगति के फल पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर-आधुनिकतावादी नव चिंतन का जो पूरा बिंब उभरता है, उसमें वैचारिक कलह बहुत है। उत्तर-आधुनिकतावाद के मूल तत्व में बहुलतावाद तथा बहु-संस्कृतिवाद, विकेंद्रीयता, क्षेत्रीयता, लोकप्रिय संस्कृति, परा-भौतिकवाद पर अविश्वास, नारीवाद, दलित आंदोलन, महान आख्यानों का अंत, विचारधाराओं का अंत, शाश्वत साहित्य सिद्धांतों का पतन, विरचनावाद कर्त्ता का अंत समाहित है। बहुराष्ट्रीय निगमों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग के अनुकूल पूरी शिक्षा व्यवस्था को ढाला जा रहा है, बदला जा रहा है। पालीवाल वर्तमान परिदृश्य पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि यह ‘मैनेजमेंट युग’ का ही प्रभाव है कि साहित्य-कला, दर्शन, इतिहास और समाजशास्त्र की कद एकदम कम हो गई है। ‘लेखक’ का अंत हो गया है। ‘विचार’ का अंत हो गया है। ‘मूल्यों’ पर आधारित पूरी समाज-व्यवस्था का अंत हो गया है। पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नया आधुनिकीकरण है, जिसमें तकनीकी क्रांति की विजय यात्रा है। आलोचना का दायित्व है कि देश और काल में निरंतर बदलते हुए मनुष्य और संदर्भ को परिभाषित करे। नया दलित-विमर्श समतामूलक, शोषण मुक्त, आत्मसम्मानपूर्ण और छुआछूत रहित समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है। लोक जागरण के नाम पर नए किस्म के अंधकार युग को लेकर उनका मानना है कि इसमें न तुलसी के लिए स्थान है, न कबीर के लिए , न गांधी-अंबेडकर के लिए । दलित-साहित्य-विमर्श आज के साहित्य की यह राजनीति है, जिसमें धर्मवीरों की गुर्राहट है और नामवरों की लिए मुश्किल। पालीवाल पुस्तक के जरिए सवाल करते हैं कि दलित साहित्य और गैर दलित साहित्य, अगड़ी जातियों द्वारा रचा गया वर्चस्ववादी साहित्य और पिछड़ी जातियों द्वारा सृजित पीड़ा-यातना का साहित्य जैसे विभाजन को मानने और मनवाने के प्रयास के पीछे दलित साहित्य की राजनीति का ‘हिडन एजेंडा’ क्या है? दलित साहित्य की राजनीति करने वालों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कई मुद्राओं में यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं-अन्य गैर दलित क्यों नहीं? यहां ‘केवल’ पर विवाद है, भोगे हुए यथार्थ की प्रामाणिक अनुभूति और अनुभूति की ईमानदारी पर नहीं। पुस्तक की भूमिका ‘विखंडन का विखंडन’ में कृष्णदत्त पालीवाल अपनी बात रखते हैं। उनका मानना काफी हद तक सही है कि हम एक ऐसा चुनौती भरे समय में जीवित हैं, जिसमें सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, जातीय अस्मिता की तलाश जैसी जटिल अवधारणाओं का प्रयोग जरूरत से ज्यादा हो रहा है। बहरहाल, उत्तर आधुनिक परिदृश्य में दलित साहित्य एक तरह से क्रांतिकारी विचार-प्रवाह की निष्पत्ति की है। पिछड़े, अति पिछड़े, वंचितों, उपेक्षितों और परिधि पर यातना भोगते विशाल जन-समाज को इस साहित्य ने शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की आ॓र प्रवृत्त किया है। -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-2,3,4 NOIDA (UP) 09911364316 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/af374271/attachment-0002.html From vinitutpal at gmail.com Sun Nov 8 21:41:35 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Sun, 8 Nov 2009 21:41:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWD4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSj4KSm4KSk4KWN4KSkIOCkquCkvuCksuClgOCkteCkvuCksiDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkv+CkpOCkvuCkrCDigJjgpIngpKTgpY3gpKTgpLAg4KSG?= =?utf-8?b?4KSn4KWB4KSo4KS/4KSV4KSk4KS+4KS14KS+4KSmIOCklOCksCDgpKY=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSkIOCkteCkv+CkruCksOCljeCktuKAmSDgpJXgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= Message-ID: <190a2d470911080811xe15eaf4se3e5c5cac7482d21@mail.gmail.com> उत्तर आधुनिकता और जातीय अस्मिता उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक है। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था का रामायण है। मीडिया माध्यमों ने ‘यथार्थ’ के साथ हमारे रिश्ते को इस कदर बदल दिया है कि हमारी इंद्रियां अब यथार्थ को सीधे-सीधे ग्रहण नहीं करतीं। सूचना क्रांति ने हमारे ‘बोध’ में ऐसा उलट-पलट किया है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कब स्थानीय है, कब भूमंडलीय। हम एक ऐसी चुनौतीभरी विचारधारा की दुनिया में जी रहे हैं जिसमें समस्त मानवीय चिंतन, साहित्य, व्यवस्था, विचारधारा, धर्म, दर्शन, इतिहास, आंदोलन, प्रवृत्तिवाद, सभ्यता, संस्कृति, मूल्य व्यवस्था सभी को ‘उत्तर’, ‘पोस्ट’ व्यतीत घोषित कर दिया है। कृष्णदत्त पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकतावाद और दलित विमर्श’ के जरिए विमर्श, दलित चिंतन और प्रगति के फल पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर-आधुनिकतावादी नव चिंतन का जो पूरा बिंब उभरता है, उसमें वैचारिक कलह बहुत है। उत्तर-आधुनिकतावाद के मूल तत्व में बहुलतावाद तथा बहु-संस्कृतिवाद, विकेंद्रीयता, क्षेत्रीयता, लोकप्रिय संस्कृति, परा-भौतिकवाद पर अविश्वास, नारीवाद, दलित आंदोलन, महान आख्यानों का अंत, विचारधाराओं का अंत, शाश्वत साहित्य सिद्धांतों का पतन, विरचनावाद कर्त्ता का अंत समाहित है। बहुराष्ट्रीय निगमों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग के अनुकूल पूरी शिक्षा व्यवस्था को ढाला जा रहा है, बदला जा रहा है। पालीवाल वर्तमान परिदृश्य पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि यह ‘मैनेजमेंट युग’ का ही प्रभाव है कि साहित्य-कला, दर्शन, इतिहास और समाजशास्त्र की कद एकदम कम हो गई है। ‘लेखक’ का अंत हो गया है। ‘विचार’ का अंत हो गया है। ‘मूल्यों’ पर आधारित पूरी समाज-व्यवस्था का अंत हो गया है। पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नया आधुनिकीकरण है, जिसमें तकनीकी क्रांति की विजय यात्रा है। आलोचना का दायित्व है कि देश और काल में निरंतर बदलते हुए मनुष्य और संदर्भ को परिभाषित करे। नया दलित-विमर्श समतामूलक, शोषण मुक्त, आत्मसम्मानपूर्ण और छुआछूत रहित समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है। लोक जागरण के नाम पर नए किस्म के अंधकार युग को लेकर उनका मानना है कि इसमें न तुलसी के लिए स्थान है, न कबीर के लिए , न गांधी-अंबेडकर के लिए । दलित-साहित्य-विमर्श आज के साहित्य की यह राजनीति है, जिसमें धर्मवीरों की गुर्राहट है और नामवरों की लिए मुश्किल। पालीवाल पुस्तक के जरिए सवाल करते हैं कि दलित साहित्य और गैर दलित साहित्य, अगड़ी जातियों द्वारा रचा गया वर्चस्ववादी साहित्य और पिछड़ी जातियों द्वारा सृजित पीड़ा-यातना का साहित्य जैसे विभाजन को मानने और मनवाने के प्रयास के पीछे दलित साहित्य की राजनीति का ‘हिडन एजेंडा’ क्या है? दलित साहित्य की राजनीति करने वालों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कई मुद्राओं में यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं-अन्य गैर दलित क्यों नहीं? यहां ‘केवल’ पर विवाद है, भोगे हुए यथार्थ की प्रामाणिक अनुभूति और अनुभूति की ईमानदारी पर नहीं। पुस्तक की भूमिका ‘विखंडन का विखंडन’ में कृष्णदत्त पालीवाल अपनी बात रखते हैं। उनका मानना काफी हद तक सही है कि हम एक ऐसा चुनौती भरे समय में जीवित हैं, जिसमें सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, जातीय अस्मिता की तलाश जैसी जटिल अवधारणाओं का प्रयोग जरूरत से ज्यादा हो रहा है। बहरहाल, उत्तर आधुनिक परिदृश्य में दलित साहित्य एक तरह से क्रांतिकारी विचार-प्रवाह की निष्पत्ति की है। पिछड़े, अति पिछड़े, वंचितों, उपेक्षितों और परिधि पर यातना भोगते विशाल जन-समाज को इस साहित्य ने शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की आ॓र प्रवृत्त किया है। -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-2,3,4 NOIDA (UP) 09911364316 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091108/af374271/attachment-0003.html From vinitutpal at gmail.com Mon Nov 9 01:12:02 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 9 Nov 2009 01:12:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCkviDgpKrgpLngpLLgpL4g4KSILeCkquClh+Ckqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkruCkvuCkpiAo4KSG4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KSjKQ==?= In-Reply-To: <190a2d470911081141k17bc4b2fv3b721fc6b3a3c730@mail.gmail.com> References: <190a2d470911081141k17bc4b2fv3b721fc6b3a3c730@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470911081142m75019776k4e12261abeecf192@mail.gmail.com> महोदय, आपको सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है कि मैथिली का पहला ई-पेपर समाद के समाचार पोर्टल ई-समाद डाट (http://www.esamaad.com/) काम के रूप में आपके सामने लाया जा रहा है. बिहार के सकारात्मक ख़बरों को सामने लाने के लिए कुछ गृहिणी द्वारा शुरू किया गया समाद पिछले दो सालों में देश ओर दुनिया से लाखों लोगों के सामने अपनी पहुँच बनाने में कामयाबी हासिल कि है.साप्ताहिक रूप से निकल रहे ई-पेपर समाद अब पोर्टल के रूप में बिहार के विकास के खबर को अब हर दिन आप तक पहुँचने का काम करेगा. दिनांक 9 नवम्बर, 2009 को दोपहर २.०० बजे प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली में इस पोर्टल का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री सह संसद शाहनवाज हुसैन इस पोर्टल को लोकार्पित करेंगे.सांसद प्रभात झा मुख्या अतिथि के तौर पर उपस्थित रहेंगे जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार अजय झा और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.ए. फातमी होंगे. आपसे आग्रह है कि समाद परिवार के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए इस अवसर पर उपस्थित होकर समारोह को सफल बनायें. इसके लिए समाद परिवार आपका आभारी रहेगा. भवदीय आशीष झा, 09250281098 http://www.esamaad.com/ -- Vinit Utpal Senior Sub Editor Rashtriya Sahara C-2,3,4 NOIDA (UP) 09911364316 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091109/7ecb9530/attachment.html From avinashonly at gmail.com Mon Nov 9 01:19:44 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 9 Nov 2009 01:19:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCkviDgpKrgpLngpLLgpL4g4KSILeCkquClh+Ckqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkruCkvuCkpiAo4KSG4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KSjKQ==?= In-Reply-To: <190a2d470911081142m75019776k4e12261abeecf192@mail.gmail.com> References: <190a2d470911081141k17bc4b2fv3b721fc6b3a3c730@mail.gmail.com> <190a2d470911081142m75019776k4e12261abeecf192@mail.gmail.com> Message-ID: <85de31b90911081149t43789d54td2f20f56ebf0de99@mail.gmail.com> *दोस्‍तो*, मैथिली की पहली ईपत्रिका आ रही है। अच्‍छी बात है। लेकिन गौर करने का मामला ये है कि इसके उदघाटन समारोह में आने वाले दोनों अतिथि बीजेपी के हैं। यानी पत्रिका का एजेंडा घोषित तौर पर संघ-प्रेरित है। इसलिए सावधान हो जाएं। एक और बात ध्‍यान देने योग्‍य है। चार अतिथियों में से दो झाजी हैं, दो मुसलिम भाई हैं। ब्राह्मण-मु‍सलिम गंठजोड़ का यह आयोजन मायावती की तरह वर्चुअल स्‍पेस पर गुल खिलाएगा - इसकी पूरी संभावना। इसलिए एक बार फिर आप सबको सावधान कर रहा हूं। सादर, *अविनाश* 2009/11/9 vinit utpal > महोदय, > > आपको सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है कि मैथिली का पहला ई-पेपर समाद > के समाचार पोर्टल ई-समाद डाट (http://www.esamaad.com/) काम के रूप में आपके > सामने लाया जा रहा है. बिहार के सकारात्मक ख़बरों को सामने लाने के लिए कुछ > गृहिणी द्वारा शुरू किया गया समाद पिछले दो सालों में देश ओर दुनिया से लाखों > लोगों के सामने अपनी पहुँच बनाने में कामयाबी हासिल कि है.साप्ताहिक रूप से > निकल रहे ई-पेपर समाद अब पोर्टल के रूप में बिहार के विकास के खबर को अब हर > दिन आप तक पहुँचने का काम करेगा. > > दिनांक 9 नवम्बर, 2009 को दोपहर २.०० बजे प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली > में इस पोर्टल का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री > सह संसद शाहनवाज हुसैन इस पोर्टल को लोकार्पित करेंगे.सांसद प्रभात झा मुख्या > अतिथि के तौर पर उपस्थित रहेंगे जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार > अजय झा और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.ए. फातमी होंगे. > > आपसे आग्रह है कि समाद परिवार के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए इस अवसर पर > उपस्थित होकर समारोह को सफल बनायें. इसके लिए समाद परिवार आपका आभारी रहेगा. > > भवदीय > > आशीष झा, 09250281098 > > http://www.esamaad.com/ > > > -- > Vinit Utpal > Senior Sub Editor > Rashtriya Sahara > C-2,3,4 > NOIDA (UP) > 09911364316 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091109/5f9a93da/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Mon Nov 9 18:43:37 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Mon, 09 Nov 2009 13:13:37 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016e6d26d7220038f0477eff637@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// हिंदी और क्षेत्रीय चैनलों के संबंधों की पड़ताल हो Posted: 09 Nov 2009 12:14 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/4IUWp6eBfYQ/blog-post_09.html महुआ पर भोजपुरी के पहले रियल्‍टी शो 'सुरसंग्राम' के फिनाले के बाद मैंने अपनी राय भोजपुरी में लिखने की कोशिश की थी. उस पर ब्‍लॉगर मित्र विनीत ने फेसबुक पर लगाए हमारे लिंक पर अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर की है. उनकी राय पर गंभीरतापूर्वक विचार होना चाहिए. क्‍योंकि टेलीविज़न, भाषा और उससे उपजती संस्‍कृति पर विनीत लगातार लिख पढ़ रहे हैं. हाल के दिनों में विभिन्‍न मंचों से भी उन्‍होंने यह प्रश्‍न उठाना शुरू किया है. भारत में टीवी को लेकर गंभीर लिखापढ़ी इतनी कम हुई है कि अकसर लोग उनकी बात सुन कर भौंचक रह जाते हैं या फिर 'टीवी ने सर्वस्‍व लूट लिया है'वाले अंदाज में खीस निकालते हुए आपे से बाहर हो जाते हैं. और तो और बुद्धिजीवियों की एक जमात भी इसमें शामिल है. मैं विनीत की उस टिप्‍पणी को यहां आपसे साझा करते हुए यह उम्‍मीद करता हूं कि इस सवाल पर चर्चा आगे बढ़ाने में आपका योगदान मिलेगा. माफ कीजिएगा,भोजपुरी में लिखी पोस्ट का जबाब हिन्दी में दे रहा हूं। मैं नहीं जानता इसमें लिखना। अच्छी लगा कि आपने महुआ चैनल के जरिए एक बनती संभावना को पहचानने की कोशिश की है। मैंने नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में इसी मिजाज को लेकर एक लेख लिखा- टेलीविजन विरोधी आलोचना और रियलिटी शो। आपकी महुआ की इस संभावना को हिन्दी के तमाम रियलियी शो में देखने की कोशिश की थी और कई लोगों के बहुत ही उत्तेजित फोन आए। जाहिर सी बात है आप जिस रुप में महुआ को देख रहे हैं,इसी तरह से वो हिन्दी के रियलिटी शो देखने-समझने के पक्ष में नहीं थे। एक सवाल आपसे भी पूछना चाहता हूं कि क्या जिस नजरिए से आपने महुआ के इस रियलिटी शो को देखा और विश्लेषित किया है क्या हिन्दी रियलिटी शो को भी इसी रुप में भी विश्लेषित किया जा सकता है? क्योंकि सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर वहां भी कई ऐसे ही रेफरेंस मिल जाएंगे। पोस्ट पढ़ते हुए लगा कि आप चैनल के एफर्ट को शायद इसलिए सपोर्ट कर रहे हैं कि वो भोजपुरी में है। कहीं-कहीं आपके बचपन का लगाव और नास्टॉल्जिक एटीट्यूड। नहीं तो हिन्दी चैनलों की तरह इसमें भी फूहड़ता,एक किस्म का सस्तापन है। मैं इसे किसी भी रुप में गलत या वकवास नहीं मानता लेकिन इस पर बात किया जाना इसलिए जरुरी है क्योंकि यही हिन्दी रियलिटी शो के आलोचना का आधार बनता है। इसलिए मुझे लगता है कि इस पोस्ट के जरिए क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों और चैनलों और हिन्दी चैनलों के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन की गुंजाइश बनती है. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091109/d5a45596/attachment.html From water.community at gmail.com Wed Nov 4 14:10:42 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 4 Nov 2009 14:10:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_H?= =?utf-8?b?aW5kaSBXYXRlciBVcGRhdGVzLSDgpJzgpKwg4KS24KWM4KSaIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkieCkquCknOClhyDgpLjgpYvgpKjgpL4=?= Message-ID: <8b2ca7430911040040j393106bi387dfb0697efcfaa@mail.gmail.com> *Field Story* *ग्रामीण युवक की नई सोच की कहानी-* *जब शौच से उपजे सोना *** जब कोई युवा पढ़ाई- लिखाई करके शहरों की ओर भागने की बजाय अपनी शिक्षा और नई सोच का उपयोग अपने गाँव, ज़मीन, अपने खेतों में करने लगे तो बदलाव की एक नई कहानी लिखने लगता है, ऐसे युवा यदि सरकार और संस्थाओं से सहयोग पा जाएं तो निश्चित ही क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देते हैं। ऐसी ही एक कहानी है ‘जब शौच से उपजे सोना’ की और कहानी के नायक हैं युवा किसान श्याम मोहन त्यागी...Read More.... ** *जल और पर्यावरण पुरस्कार * ** *जल की कमी से कई क्षेत्रों से तो बड़े पैमाने पर लोगों और पशुओं का पलायन हो चुका है। हमें जल के संरक्षण के महत्व को अच्छी तरह जानना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके लिये कुछ भी नहीं हो रहा। कई जागरूक नागरिक, कृषक, ग्रामीण समुदाय और संस्थायें जल संरक्षण के प्रयास अपने स्तर पर कर रहे हैं। श्री रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान भी शेखावाटी अंचल में जल और पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आया है। ग्रामीण समुदाय की भागीदारी सेवा संस्थान के कार्यों से सामने आये परिणामों की कुंजी है। **Read More * ** *उद्योग और पर्यावरण* *भारत के सिर, एक बार फिर जहरभरा जहाज * *पानी- पर्यावरण का नाश करता शिपब्रेकिंग उद्योग*** जेसिका! ना ना नहीं, दिल्ली की मशहूर मॉडल जेसिका नहीं, यह एमएस जेसिका गुजरात के अलंग समुद्र तट पर खड़े एक जहाज का नाम है जिसने 4 अगस्त 2009 की सुबह छह मजदूरों की जान ले ली लेकिन दिल्ली के किसी अखबार में इस जेसिका के कारनामे की खबर नहीं छपी ..Read More.... . * ** * * **विचारपक्ष-* *कचरे से बने समुद्री डाकू * *समुद्री डाकू* अफ्रीका के ऊपरी छोर पर बसा सोमालिया देश पिछले दो वर्षों से लगातार खबरों में है। पुरानी कहानियों के साथ डूब गए समुद्री डाकू यहां अपने नए रूप में फिर से तैरने लगे हैं। हम सब जानते हैं कि कचरे से खाद बनती है पर यदि कचरा बहुत अधिक जहरीला हो तो उससे क्या बनेगा? .........Read More *कहां से आते हैं जूते? * सबके नहीं। हम आप सबके नहीं। पर और बहुत से लोगों के जूते कहां से आते हैं? शायद यह पूछना ज्यादा ठीक होगा कि कहां-कहां से आते हैं? पहले हम सब ही नहीं, वे भी जो 'सीकरी' जाते-आते थे, उनकी पन्हैयां टूटती थीं तो वे भी अपने आसपास के चमड़े, आसपास के हाथों से नई पन्हैयां बनवा लेते थे। आज नहीं। अमेरिका की एक संस्था नार्थवेस्ट वाच ने सामान्य अमेरिकी परिवारों में इस्तेमाल होने वाले जूतों पर कुछ काम दिया है उनके पैर में यह जूता कहां से आता है इसे जानने की छोटी-सी जिज्ञासा ने उस संस्था को लगभग पूरी दुनिया का चक्कर लगवा दिया है। तो चलो शुरु करें इस जूते की यात्रा। Read More *हिंदी पोर्टल के प्रयासों का प्रभाव* *जहर के कारखाने पर जागी सरकार * कनोरिया इंडस्ट्रीजदेश में दूसरा यूनियन कार्बाइड बनते जा रहे सोनभद्र स्थित कनोरिया केमिकल इंडस्ट्रीज को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बंदी की नोटिस जारी कर दी है। 'इंडिया वाटर पोर्टल' ने लगातार इस मुद्दे के छापा, खबरों को संज्ञान में लेकर बोर्ड द्वारा की गयी जांच में कम्पनी को पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन और अपशिष्टों के उचित निस्तारण न किया जाने का दोषी पाया गया है, नोटिस में कहा गया है कि अगर १५ दिन की के अन्दर प्रदूषण नियंत्रण के उचित उपाय नहीं किये गए तो उद्योग के विरुद्व बंदी की कार्यवाही की जायेगी। Read More ___________________________________________ *Upcoming Events/ आगामी कार्यक्रम* *जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए निमंत्रण * हिमालय पर वैश्विक जलवायु परिवर्तन का कैसा असर पड़ेगा इस विषय पर रिसर्च फ़ाउण्डेशन फ़ॉर साइंस, टेक्नॉलॉजी एंड ईकॉलॉजी / नवदन्या के सौजन्य इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की साझेदारी में एक राष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस का आयोजन 17 नवम्बर 2009 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, लोधी रोड, नई दिल्ली स्थित सभागृह में रखा गया है। Read more *अन्तर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव "२०१० * International River festival 2010(निमंत्रण) प्रकृति ने मानव के अस्तित्व को सतत् बनाये रखने के लिये नाना प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों को जन्म दिया। इनमें प्रमुख हैं नदियाँ। नदियाँ सदियों से मानव सभ्यता और संस्कृति की साक्षी हैं तथा इनके किनारों पर भारत के ऋषि मुनियों ने कई धर्मग्रन्थों की रचना की जिनमें नदियों के संरक्षण ओर प्रबंधन के संबंध में वर्तमान स्थिति का सामना करने के लिये अपना दूरदर्शिता के आधार पर संकेत दिये। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सदियों प्राचीन इतिहास की साक्षी नदियों ने कई सभ्यता और संस्कृति के सृजन और विध्वंस की अत्यंत करीब से देखा, जिसे मानव ने माँ, माई, मैया के रूप में पूजा, Plz see http://hindi.indiawaterportal.org/content/अन्तर्राष्ट्रीय-नदी-महोत्सव-२०१० _______________________________________________ *हलचल* स्वामी दयानंद को जेल *स्वामी दयानन्द को जेल * **** सैकड़ों ट्रैक्टर, ट्रक, जेसीबी मशीन के भयंकर खनन से गंगा भयानक रूप से प्रदूषित हो रही है। गंगा के सुन्दर तटों एवं द्वीपों का विनाश हो रहा है। और यह खनन लगातार जारी है। 15 अक्टूबर से हरिद्वार में शुरू हुआ ब्रह्मचारी स्वामी दयानन्द जी द्वारा सत्याग्रह आंदोलन का आज सतरहवां दिन है, 26 अक्टूबर की रात को जबरन उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर घारा 309 का केस दर्ज करने की कोशिश की गयी। Read More _______________________________________________ *Power of Community /लोक शक्ति का नमूनाः* *सूझबूझ का पानी* _______________________________________________ इंटरव्यूः *वंदना शिवा: लौटें मिट्टी की ओर* _______________________________________________ *मरूभूमि का भाग्यवान समाज* लेखक: अनुपम मिश्र समाज कैसे चलता है, वह अपने सारे सदस्यों को कैसे संगठित करता है, कैसे उनका शिक्षण प्रशिक्षण करता है, उन सबका प्रयोग वह कैसी कुशलता से करता है, उस समाज के एक सदस्य के रूप में मैं भी पिछले तीस साल से देख समझ रहा हूं. वह कितनी लंबी योजना बनाकर काम करता है उसे भी देखने समझने का मौका मिला है. समाज का भूतकाल, वर्तमान और भविष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ता रहे, सधता रहे, संभला रहे और छीजने के बदले संवरता रहे इस सब का विराट दर्शन मुझे विशाल पसरे रेगिस्तान में, मरूप्रदेश में मिला और आज भी मिलता चला जा रहा है. Read More ______________________________________________ *Ask a water question * जल शब्दकोश जल समाचार हमसे जुड़ें हमें लिखें हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- water.community at gmail.com -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091104/c3f2a75a/attachment-0001.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Wed Nov 4 14:10:42 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Wed, 4 Nov 2009 14:10:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_H?= =?utf-8?b?aW5kaSBXYXRlciBVcGRhdGVzLSDgpJzgpKwg4KS24KWM4KSaIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkieCkquCknOClhyDgpLjgpYvgpKjgpL4=?= Message-ID: <8b2ca7430911040040j393106bi387dfb0697efcfaa@mail.gmail.com> *Field Story* *ग्रामीण युवक की नई सोच की कहानी-* *जब शौच से उपजे सोना *** जब कोई युवा पढ़ाई- लिखाई करके शहरों की ओर भागने की बजाय अपनी शिक्षा और नई सोच का उपयोग अपने गाँव, ज़मीन, अपने खेतों में करने लगे तो बदलाव की एक नई कहानी लिखने लगता है, ऐसे युवा यदि सरकार और संस्थाओं से सहयोग पा जाएं तो निश्चित ही क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देते हैं। ऐसी ही एक कहानी है ‘जब शौच से उपजे सोना’ की और कहानी के नायक हैं युवा किसान श्याम मोहन त्यागी...Read More.... ** *जल और पर्यावरण पुरस्कार * ** *जल की कमी से कई क्षेत्रों से तो बड़े पैमाने पर लोगों और पशुओं का पलायन हो चुका है। हमें जल के संरक्षण के महत्व को अच्छी तरह जानना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके लिये कुछ भी नहीं हो रहा। कई जागरूक नागरिक, कृषक, ग्रामीण समुदाय और संस्थायें जल संरक्षण के प्रयास अपने स्तर पर कर रहे हैं। श्री रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान भी शेखावाटी अंचल में जल और पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आया है। ग्रामीण समुदाय की भागीदारी सेवा संस्थान के कार्यों से सामने आये परिणामों की कुंजी है। **Read More * ** *उद्योग और पर्यावरण* *भारत के सिर, एक बार फिर जहरभरा जहाज * *पानी- पर्यावरण का नाश करता शिपब्रेकिंग उद्योग*** जेसिका! ना ना नहीं, दिल्ली की मशहूर मॉडल जेसिका नहीं, यह एमएस जेसिका गुजरात के अलंग समुद्र तट पर खड़े एक जहाज का नाम है जिसने 4 अगस्त 2009 की सुबह छह मजदूरों की जान ले ली लेकिन दिल्ली के किसी अखबार में इस जेसिका के कारनामे की खबर नहीं छपी ..Read More.... . * ** * * **विचारपक्ष-* *कचरे से बने समुद्री डाकू * *समुद्री डाकू* अफ्रीका के ऊपरी छोर पर बसा सोमालिया देश पिछले दो वर्षों से लगातार खबरों में है। पुरानी कहानियों के साथ डूब गए समुद्री डाकू यहां अपने नए रूप में फिर से तैरने लगे हैं। हम सब जानते हैं कि कचरे से खाद बनती है पर यदि कचरा बहुत अधिक जहरीला हो तो उससे क्या बनेगा? .........Read More *कहां से आते हैं जूते? * सबके नहीं। हम आप सबके नहीं। पर और बहुत से लोगों के जूते कहां से आते हैं? शायद यह पूछना ज्यादा ठीक होगा कि कहां-कहां से आते हैं? पहले हम सब ही नहीं, वे भी जो 'सीकरी' जाते-आते थे, उनकी पन्हैयां टूटती थीं तो वे भी अपने आसपास के चमड़े, आसपास के हाथों से नई पन्हैयां बनवा लेते थे। आज नहीं। अमेरिका की एक संस्था नार्थवेस्ट वाच ने सामान्य अमेरिकी परिवारों में इस्तेमाल होने वाले जूतों पर कुछ काम दिया है उनके पैर में यह जूता कहां से आता है इसे जानने की छोटी-सी जिज्ञासा ने उस संस्था को लगभग पूरी दुनिया का चक्कर लगवा दिया है। तो चलो शुरु करें इस जूते की यात्रा। Read More *हिंदी पोर्टल के प्रयासों का प्रभाव* *जहर के कारखाने पर जागी सरकार * कनोरिया इंडस्ट्रीजदेश में दूसरा यूनियन कार्बाइड बनते जा रहे सोनभद्र स्थित कनोरिया केमिकल इंडस्ट्रीज को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बंदी की नोटिस जारी कर दी है। 'इंडिया वाटर पोर्टल' ने लगातार इस मुद्दे के छापा, खबरों को संज्ञान में लेकर बोर्ड द्वारा की गयी जांच में कम्पनी को पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन और अपशिष्टों के उचित निस्तारण न किया जाने का दोषी पाया गया है, नोटिस में कहा गया है कि अगर १५ दिन की के अन्दर प्रदूषण नियंत्रण के उचित उपाय नहीं किये गए तो उद्योग के विरुद्व बंदी की कार्यवाही की जायेगी। Read More ___________________________________________ *Upcoming Events/ आगामी कार्यक्रम* *जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए निमंत्रण * हिमालय पर वैश्विक जलवायु परिवर्तन का कैसा असर पड़ेगा इस विषय पर रिसर्च फ़ाउण्डेशन फ़ॉर साइंस, टेक्नॉलॉजी एंड ईकॉलॉजी / नवदन्या के सौजन्य इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की साझेदारी में एक राष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस का आयोजन 17 नवम्बर 2009 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, लोधी रोड, नई दिल्ली स्थित सभागृह में रखा गया है। Read more *अन्तर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव "२०१० * International River festival 2010(निमंत्रण) प्रकृति ने मानव के अस्तित्व को सतत् बनाये रखने के लिये नाना प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों को जन्म दिया। इनमें प्रमुख हैं नदियाँ। नदियाँ सदियों से मानव सभ्यता और संस्कृति की साक्षी हैं तथा इनके किनारों पर भारत के ऋषि मुनियों ने कई धर्मग्रन्थों की रचना की जिनमें नदियों के संरक्षण ओर प्रबंधन के संबंध में वर्तमान स्थिति का सामना करने के लिये अपना दूरदर्शिता के आधार पर संकेत दिये। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सदियों प्राचीन इतिहास की साक्षी नदियों ने कई सभ्यता और संस्कृति के सृजन और विध्वंस की अत्यंत करीब से देखा, जिसे मानव ने माँ, माई, मैया के रूप में पूजा, Plz see http://hindi.indiawaterportal.org/content/अन्तर्राष्ट्रीय-नदी-महोत्सव-२०१० _______________________________________________ *हलचल* स्वामी दयानंद को जेल *स्वामी दयानन्द को जेल * **** सैकड़ों ट्रैक्टर, ट्रक, जेसीबी मशीन के भयंकर खनन से गंगा भयानक रूप से प्रदूषित हो रही है। गंगा के सुन्दर तटों एवं द्वीपों का विनाश हो रहा है। और यह खनन लगातार जारी है। 15 अक्टूबर से हरिद्वार में शुरू हुआ ब्रह्मचारी स्वामी दयानन्द जी द्वारा सत्याग्रह आंदोलन का आज सतरहवां दिन है, 26 अक्टूबर की रात को जबरन उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर घारा 309 का केस दर्ज करने की कोशिश की गयी। Read More _______________________________________________ *Power of Community /लोक शक्ति का नमूनाः* *सूझबूझ का पानी* _______________________________________________ इंटरव्यूः *वंदना शिवा: लौटें मिट्टी की ओर* _______________________________________________ *मरूभूमि का भाग्यवान समाज* लेखक: अनुपम मिश्र समाज कैसे चलता है, वह अपने सारे सदस्यों को कैसे संगठित करता है, कैसे उनका शिक्षण प्रशिक्षण करता है, उन सबका प्रयोग वह कैसी कुशलता से करता है, उस समाज के एक सदस्य के रूप में मैं भी पिछले तीस साल से देख समझ रहा हूं. वह कितनी लंबी योजना बनाकर काम करता है उसे भी देखने समझने का मौका मिला है. समाज का भूतकाल, वर्तमान और भविष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ता रहे, सधता रहे, संभला रहे और छीजने के बदले संवरता रहे इस सब का विराट दर्शन मुझे विशाल पसरे रेगिस्तान में, मरूप्रदेश में मिला और आज भी मिलता चला जा रहा है. Read More ______________________________________________ *Ask a water question * जल शब्दकोश जल समाचार हमसे जुड़ें हमें लिखें हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- water.community at gmail.com -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091104/c3f2a75a/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From beingred at gmail.com Tue Nov 10 14:42:58 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 10 Nov 2009 14:42:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CktuCkv+Ckr+CkvuCksCA6IOCkueCkruCkvuCksOClhyA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KSm4KWA4KSvIOCksOCkvuCknOCkviDgpIbgpJbgpYc=?= =?utf-8?b?4KSfIOCkquCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYcg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं सुष्मिता सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए. चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा? ‘*आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध* आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती? पूरा पढिए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_10.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091110/97ec6a65/attachment.html From beingred at gmail.com Tue Nov 10 14:42:58 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 10 Nov 2009 14:42:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CktuCkv+Ckr+CkvuCksCA6IOCkueCkruCkvuCksOClhyA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KSm4KWA4KSvIOCksOCkvuCknOCkviDgpIbgpJbgpYc=?= =?utf-8?b?4KSfIOCkquCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYcg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं सुष्मिता सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए. चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा? ‘*आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध* आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती? पूरा पढिए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_10.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091110/97ec6a65/attachment-0003.html From ravikant at sarai.net Tue Nov 10 15:43:46 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Tue, 10 Nov 2009 15:43:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= zaigham ke upanyas dozakh par ek aur raay Message-ID: <4AF93CDA.4090201@sarai.net> //इस राय को देने वाले मिहिर कुमार 'आज तक' में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर हैं; उनके ब्लॉग से ही. ravikant ख्वाबों के जंगल में भटकते हुए पीली धूप के किसी पेड़ तले उकताए, हारे, हांफते एक दूसरे को निहारते.../ कुछ महीने पहले सैय्यद जैगम इमाम की कविता पर लिखते वक्त अहसास नहीं था कि पीली धूप के पेड़ों तले एक दोजख भी है...लेकिन नहीं वो भूल थी जिसका अहसास मुझे अब हो रहा है..सबके अपने अपने दोजख हैं....और जैगम इमाम का भी..टीवी की व्यस्त दुनिया के बावजूद जैगम का पहला उपन्यास हाथों में देखकर यकीन नहीं हुआ...उपन्यास पहला जरूर है लेकिन मैच्योरिटी के लिहाज से जैगम पहली नजर में बड़े बड़ों की कन्नी काटते नजर आते हैं... कहानी सीधी सी है...चंदौली जैसे छोटे से कस्बे का छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों औऱ कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा औऱ मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं.... उपन्यास की पूरी कथा मुख्य किरदार अल्लन के इर्द गिर्द घूमती है...अल्लन को भी पीली धूप के पेड़ों की तलाश है...अपनी छोटी सी दुनिया को देखकर अल्लन दिन-रात हैरान होता है...खुद से सवाल करता है...लेकिन ट्रैजिडी यही है कि उसे जवाब नहीं मिलते...ये ट्रैजिडी मन को बेहद छूती है...सच कहें तो कई बार आंखों को गीली कर देती है... समाजशास्त्रीय खांचे के उत्तर आधुनिक विमर्श में उपन्यास कई बार सरहदों को तोड़ता दिखता है...कई बार ये सवाल उठते हैं कि क्या वाकई ऐसा मुमकिन है...क्या कस्बे के मामूली से लड़के का द्वंद्व ऐसा भी हो सकता है...लेकिन कहानी में अल्लन ही सबकुछ हो ऐसा भी नहीं है...क्योंकि आखिर में अल्लन के अब्बा की जो तस्वीर उकेरी गई है...वो औऱ भी झिंझोड़ने वाली है...वो पाठकों को औऱ भी भावुक करने वाली है.... खैर कहानी का खुलासा औऱ करना मुनासिब नहीं होगा...लेकिन जैगम को इस बात के लिए जरूर बधाई मिलनी चाहिए कि उन्होंने चंदौली के मिजाज को जिस भाषा में बयान किया है वो वाकई दिल के करीब है...कई जगह भदेस है...लेकिन ये भदेसपन भाता है...अल्लन की गालियां दिल को छूती हैं...कई पुराने शब्द जेहन में ताजा हो जाते हैं... फेरन लवली (फेयर एंड लवली)..ये भी ऐसा ही एक लफ्ज है... उपन्यास वक्त के खांचे में कितना फिट बैठता है इसका इंसाफ तो आने वाले साल करेंगे...पर ठोकबजाकर अभी ये राय जरूर बनाई जा सकती है कि जैगम का ये उपन्यास एक मजबूत आगाज है...हवा के ताज़ा झोंके की तरह है...ठीक उसी तरह जैसे आप किसी महानगर की सीलन भरी हवा से खुले जंगल-गांव में पहुंचते हैं औऱ ठंडी हवा के झोंके से अजीब सी झुरझरी देह को पल भर के लिए थरथरा देती है... अल्लन भी आपको ऐसे ही सिहरने के लिए मजबूर कर देगा... From miyaamihir at gmail.com Tue Nov 10 23:20:19 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Tue, 10 Nov 2009 23:20:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWL4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSq4KSoIOCkleClhyDgpKzgpL/gpK/gpL7gpKzgpL7gpKgg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkreCkn+CkleClhzog4KSF4KSc4KSsIOCkquCljeCksOClhw==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkleClgCDgpJfgpJzgpKwg4KSV4KS54KS+4KSo4KWA?= Message-ID: www.mihirpandya.com ********** स्याह व्यंग्य वाली समझदार फ़िल्मों के दौर में (पढ़ें ’डार्क कॉमेडी’ जैसे संकट सिटी, ओये लक्की लक्की ओये) ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ एक पुराने ज़माने की भोली और भली कॉमेडी है. इतनी भली कि कई बार आपको उसका नायक मंदबुद्धि लगने लगता है. माना रणवीर कपूर में एक चार्म है और वो ’मेरा नाम जोकर’ में आये अपने पिता के भोलेपन की याद दिलाते हैं लेकिन यहाँ तो नायक के साथ समस्त समाज और वातावरण ही एक अजब/गजब के भोलेपन से ग्रस्त है. और अगर आप उसे एक कॉमेडी न मानकर प्रेम कहानी मानकर भी पढ़ें तो भी समस्या हल नहीं होती क्योंकि ’लव आजकल’ जैसी स्मार्ट प्रेम कहानियों के दौर में ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ एक अजायबघर से आयी चीज़ ही ज़्यादा नज़र आती है. गौर करें, नायक का जब दिल भर आता है तो वो हकलाने लगता है. और नायिका का जब दिल भर आता है तो वो भी हकलाने लगती है! ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ देख कर एक बार फिर यह समझ आता है कि राजकुमार संतोषी, सुभाष घई, एन चन्द्रा जैसे लेट एट्टीज़ और अर्ली नाइंटीज़ के धुरंधर अभी तक अपने पुराने चोले से बाहर नहीं निकल पाये हैं. शायद इसकी वजह यह है कि दुनिया इन्हें अपने फॉर्मूलों और बड़े स्टार पुत्रों के साथ पीछे छोड़कर कहाँ आगे निकल गई है इन्होंने कभी आँख खोलकर देखना ज़रूरी ही नहीं समझा. कुल कहानी का लब्बोलुबाब यह है कि प्रेम (रणवीर कपूर) पिता की नज़रों में बेकार, आवारा लेकिन दिल का हीरा और बहुत ही अच्छा लड़का है. और अगर आपको नायक की अच्छाई में कोई शक हो तो निर्देशक संतोषी शुरुआत के आधे घंटे नायक की इस अच्छाई को स्थापित करने में पूरा ज़ोर लगाते हैं. शुद्ध हिन्दी फ़िल्मों में पाई जाने वाली टिपिकल ’धर्मनिरपेक्षता’ की स्थापना के तहत हमारा उच्च कुल का हिन्दू नायक नायक अपने मुस्लिम दोस्त को अपने प्यार से मिलवाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाता है. इसी बीच नायक टकराता है नायिका (कैटरीना कैफ़) से और उसे पहली नज़र में ही प्यार हो जाता है. इंटरवेल के ठीक पहले ट्विस्ट आता है और इंटरवेल के ठीक बाद एक नयनाभिराम लोकेशन पर फ़िल्माया दुख भरा गीत. लेकिन हमारा नायक इतना अच्छा है कि वो अपनी प्रेमिका को भी उसके प्यार से मिलवाने के लिए जान की बाज़ी लगा देता है. और आप दुखी भी नहीं होते क्योंकि ’कहानी में ट्विस्ट’ के रूप में आये ’ऑल बॉडी, नो ब्रेन’ उपेन पटेल को देखते ही आप समझ जाते हैं कि अन्तत: इस फ़िल्म की हैप्पी एंडिंग होनी है. पिछले दिनों अनुराग कश्यप ने ओशियंस में कहा कि मेरे लिए आधी फ़िल्म तब पूरी हो जाती है जब मैं अपनी कहानी के लिए सही लोकेशन ढ़ूँढ़ लेता हूँ. लोकेशन मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण किरदार है. ’देव डी’ और ’आमिर’ के इस दौर में आई ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ में आरे कॉलानी के किसी कोने में बने कार्डबोर्ड के गिरजे के आस-पास बसे इस नकली कस्बे को देख कर गुस्सा नहीं आता बल्कि तरस आता है. एक अदद प्यार करने वाली माँ, एक अदद मुस्लिम दोस्त, एक अदद अनाथ क्रिश्चियन नायिका, एक अदद मिमिक्री करने वाला गरीब डॉन और अंत में सब अच्छा. तरस इसलिए क्योंकि इस तरह की फ़िल्मों को तो अब लुप्तप्राय: की प्रजाति में डाल देना चाहिए. हमारे यहाँ इस तरह की फ़िल्मों के लिए एक ख़ास शब्द प्रचलित है, ’फर्जी’. आप असहमत हो सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि आने वाले कुछ सालों में हम इस तरह के सिनेमा को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे. आपका पता नहीं, लेकिन मैं गिलास को हमेशा आधा भरा देखना पसन्द करता हूँ. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091110/9a7320af/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Wed Nov 11 14:15:59 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 11 Nov 2009 14:15:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CktuCkv+Ckr+CkvuCksCA6IOCkueCkruCkvuCksOClhyA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KSm4KWA4KSvIOCksOCkvuCknOCkviDgpIbgpJbgpYc=?= =?utf-8?b?4KSfIOCkquCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYcg4KS54KWI4KSC?= In-Reply-To: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> References: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> Message-ID: <363092e30911110045l220e3c68ve70b240150da8397@mail.gmail.com> जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं सुष्मिता सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए. चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा? ‘*आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध* आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती? पूरा पढिए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_10.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091111/d609092f/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Nov 11 14:15:59 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 11 Nov 2009 14:15:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSo4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CktuCkv+Ckr+CkvuCksCA6IOCkueCkruCkvuCksOClhyA=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KSm4KWA4KSvIOCksOCkvuCknOCkviDgpIbgpJbgpYc=?= =?utf-8?b?4KSfIOCkquCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYcg4KS54KWI4KSC?= In-Reply-To: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> References: <363092e30911100112p32858e5al4a03d49b3f223a29@mail.gmail.com> Message-ID: <363092e30911110045l220e3c68ve70b240150da8397@mail.gmail.com> जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं सुष्मिता सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए. चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा? ‘*आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध* आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती? पूरा पढिए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_10.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091111/d609092f/attachment-0003.html From rakeshjee at gmail.com Tue Nov 10 15:56:49 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Tue, 10 Nov 2009 15:56:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [HUMSAFAR] 2nd Media Workshop on 1-3 December 09 Message-ID: <292550dd0911100226l3c4481a1le7b853f398888364@mail.gmail.com> Dear Friends Below is a forwarded E mail regarding a media workshop in Delhi. Hope some of us find this information useful. Best wishes r Dear Friends Greetings From Safar! Safar is going to organise a 3 day media workshop in Delhi for students, development professional and other media enthusiasts. For detailed information click the link given below. http://docs.google.com/View?id=dddnkgvk_6ckjwqfcf Best Wishes Bhawna & David Workshop Coordinator -- SAFAR a collective journey of researchers, journalists, students, lawyers, activists, cultural practitioners and performing artists with a deep commitment to the ideals of social and gender equality. This is an open space for the dialogue, betterment and empowerment of the marginalized. http://www.safarindia.org http://safarr.blogspot.com --~--~---------~--~----~------ ------~-------~--~----~ You received this message because you are subscribed to the Google Groups "humsafar" group. 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091110/3ad5c2b8/attachment.html From gshree31 at gmail.com Tue Nov 10 17:28:11 2009 From: gshree31 at gmail.com (geetashree) Date: Tue, 10 Nov 2009 17:28:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: <2e09e36a0911100316j2d5b725ende17540bf326130a@mail.gmail.com> References: <2e09e36a0911100254s36a81594k474d2315bb5d202c@mail.gmail.com> <2e09e36a0911100316j2d5b725ende17540bf326130a@mail.gmail.com> Message-ID: Thanks for mail. plz read this one- http://raviwar.com/news/242_prabhash-joshi-tribute-rajkishor.shtml On 11/10/09, alok shrivastav wrote: > On 11/10/09, alok shrivastav wrote: >> >> >> > -- Geetashree Feature Editor Outlook (Hindi) mobile> 9818246059 Email> geetashree at outlookindia.com Office-AB-6, Safdarjung enclave new delhi, 110029 From ravikant at sarai.net Wed Nov 11 14:55:19 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 11 Nov 2009 14:55:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSt4KS+LyDgpJzgpKjgpLXgpL7gpKbgpYAg4KS44KS+4KSC4KS44KWN4KSV?= =?utf-8?b?4KWD4KSk4KS/4KSVIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljeCksOCkrg==?= Message-ID: <4AFA82FF.8010404@sarai.net> *Public Meeting** **/ *आम सभा *Date: 13th November 2009, 12.00 pm onward* *Vivekananda Statue, Delhi University* विवेकानंद प्रतिमा*, *दिल्ली विश्वविद्यालय *Cultural events and Talk / *जनवादी सांस्कृतिक कार्यक्रम Tens of thousands soldiers of paramilitary and special police forces are directed towards central and eastern parts of India, including Chattisgarh, Orissa, Jharkand, areas of Maharastra and West Bengal. Previously too, the state has deployed armed forces against civilians and within civilian areas with disastrous consequences. Kashmir and North-Eastern states have been facing this onslaught for decades now. The Campaign against War on People is organizing a Public Meeting on Friday 13th November on this issue. The meeting will address the current state offensive against citizens in Eastern and Central India, and the larger issue of the use of armed forces in civilian areas. We invite all organisations and individuals who are concerned about the use of armed forces in civilian areas to attend and participate in this Meeting. माओवादियों के खिलाफ लडाई के नाम पर आदिवासियों के हक हकूक की लडाई को बर्बरतापूर्वक दमन करने के लिए सरकार ब्यापक पैमाने पर जनता के खिलाफ युद्घ छेड़ने जा रही है. देश के मध्य और पूर्वी भागो में लाखो की संख्या में सैन्य और अर्ध सैन्य बलो का जमावडा किया जा रहा है. सरकार यह सारा काम विकाश के नाम पर कर रही है. पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में भारतीय राज्य सत्ता के द्वरा दशकों से आम नागरिको के जनतांत्रिक मांगो के खिलाफ सैन्य बल का प्रयोग होता आ रहा है. पिछले पांच वर्षों से इसी तरह की बर्बरता पूर्वक सैन्य कार्यवाही सरकार सलवा जुडूम के नाम पर करती रही है. कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के बाद राज्य सत्ता मध्य भारत को युद्घ की विभीषिका में धकेल रही है. अपने देश के अंदरूनी इलाको में सैन्य बल के प्रयोग के खिलाफ और आदिवासियों के जनतांत्रिक मांगो के समर्थन में आयोजित्त आम सभा में सामिल होकर सरकार के इस कदम का विरोध करे. Speakers: Madan Kashyap, Journalist Prashant Bhushan, Civil liberties lawyer Saroj Giri, Dept. of Political Science, DU Gautam Navlakha, Civil liberties activist Harish Dhawan, PUDR Dr. N. Bhattacharya, Jan Hastakshep Poonam, Pragatisheel Mahila Sangathan Sanjay Kumar, NSI Sandeep Singh, AISA Banjyotsna, DSU Abhinav, Disha Mayur Chetia, PSU Representative of Peoples organisations form North Eastern states Representative of JNU Forum Against War on People *Campaign Against War on People* _*opposethehunters at gmail.com* _*, *_*stopwaroncitizens at gmail.com* _ From bhawnaghughtyal at gmail.com Thu Nov 12 11:49:30 2009 From: bhawnaghughtyal at gmail.com (bhawna ghughtyal) Date: Thu, 12 Nov 2009 11:49:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: You are cordially invited on Making the face (Documentary Screening) In-Reply-To: <11d654270911112218s2e974660jaf92d0a051f8f50b@mail.gmail.com> References: <11d654270911112218s2e974660jaf92d0a051f8f50b@mail.gmail.com> Message-ID: <11d654270911112219u553cef9du652cb45cb02da95e@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: bhawna ghughtyal Date: Nov 12, 2009 11:48 AM Subject: Fwd: You are cordially invited on Making the face (Documentary Screening) To: deewan at mail.sarail.net Some of us may be interested in documentry showcasing turmoil of manipur due to insurgency. * The Public Service Broadcasting Trust* * Invites you to the screening of* * * *Making the Face* By *Suvendu** Chatterjee* *12th November 2009, at 6:30pm* *Venue: Gulmohar Hall, India Habitat Centre* *Lodi Road**, New Delhi** 110003*** * * *Making the Face * *Based in Manipur, the film deals with identity in general and the personal story of Tom Sharma, a transgendered make-up artist. Tom feels he possesses a woman’s soul in a man’s body. The story is centered around Tom Sharma’s life in the backdrop of the turmoil in Manipuri society owing to the long drawn problems of insurgency leading to state sponsored violence on the citizens in the name of counter insurgency.* * * - *Best Film on Family Welfare, 55th National Film Awards, 2007* * * * * *Free Entry*** *For further details please contact:* (*011)24355941/ visit www.psbt.org* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091112/a9c1ac93/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Nov 12 12:22:16 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Thu, 12 Nov 2009 12:22:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KS3IOCknOCli+CktuClgDog4KS24KWN4KSw4KSm4KWN4KSn4KS+4KSC?= =?utf-8?b?4KSc4KSy4KS/?= Message-ID: <4AFBB0A0.90508@sarai.net> साथियो, मेरे ख़याल से कई लोगों को दीवान पर भेजे विनीत के समाद से ही प्रभाष जोशी के औचक गुज़र जाने की ख़बर मिली होगी. उसके बाद कई लोगों ने उन पर लिखा है, छपी-अनछपी सामग्री दीवान के दरवाज़े भी दस्तक दे रही है, धीरे-धीरे आप तक पहुँचेगी. मैं पहली बार प्रभाष जी से उनके ही शहर इंदौर में मिला था. मौक़ा था हिन्दी साहित्य सम्मेलन का. ये संस्था वैसे तो आजकल ज़्यादा नहीं दिखाई पड़ती लेकिन इतिहास में और इसलिए इतिहासकारों के बीच इसकी नेकनामी और बदनामी के काफ़ी चर्चे रहे हैं. प्रोफ़ेसर आलोक राय को बीज वक्तव्य के लिए उन्होंने बुलाया था, और वे थोड़े हैरत में थे, और व्यस्त भी, तो उन्होंने मुझे जाने का आदेश दे दिया. मैंने बोलना शुरू ही किया था कि प्रभाष जी भी पधार गए और मंचासीन हुए. फिर वे भी बोले. अपने भाषण में मेरे भाषण को बार-बार संदर्भित करके उन्होंने न केवल मेरा हौसला बढ़ाया, बल्कि मुझे इस बात का भी सुकून मिला कि इस ताईद के बाद मुझे लोग शायद उस गंभीरता से लेंगे जिसका हक़दार मैं तो शायद ही था, पर जो मेरे साथ 'बीज-वक्तव्य' जैसे लफ़्ज़ के कारण बरबस लिपटी चली आयी थी. उनको पढ़ना एक ज़मीनी आनंद देता था. मुकम्मल इंसान शायद ही कोई होता है, लेकिन उन्होंने बाबरी मस्जिद के ढाहे जाने के बाद जो वैचारिक मोड़ लिया अपनी ज़िन्दगी में, उससे मेरी नज़र में थोड़ा और ऊपर चढ़ गए थे. आख़िरी बार मैंने उनको हाल ही में गुणाकर मुले की स्मृति में आयोजित शोक सभा में देखा और सुना था हिन्दी भवन में, साथ में चाय पी थी. रवीश ने उन पर अपने लिखे पर सही कहा था: 'ख़ुद पर भी लागू होती हैं, सारी बातें'. पर शुरुआत अभय जी के फूलों से. याद ही होगा कि अभय जी ने दीवान-ए-सराय 1 में उनके क्रिकेट लेखन पर एक दिलचस्प आलोचनात्मक लेख लिया था. अफ़सोस कि क्रिकेट, राष्ट्र और तेंदुलकर का रसायन उनके दिल पर भारी ही पड़ा आख़िर. रविकान्त http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5204172.cms?prtpage=1 वह खनक अभी भी बजती है 7 Nov 2009, 0047 hrs IST,नवभारत टाइम्स अभय कुमार दुबे यह बात उस समय की है जब पंजाब में भिंडरावाले के हथियारबंद मरजीवड़ों के सामने संविधान और कानून बेबस हो चुका था। हवा में अंदेशे थे कि गैर-सिख पंजाब छोड़ कर भागना शुरू कर देंगे। प्रभाष जोशी 'जनसत्ता' के कॉलमों में सिख उग्रवाद के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चला रहे थे। मैं अपना लेख 'पंजाब में लोग अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे' लेकर मंगलेश डबराल के पास गया। मंगलेशजी ने मुझे बताया कि पंजाब पर सम्पादकजी से पास कराए बिना कुछ भी छापा जाना मुश्किल है। दिल बैठ गया। बहरहाल, लेख प्रभाषजी के सामने पेश किया गया जिसे उन्होंने फौरन पढ़ा और बिना एक क्षण गंवाए कहा कि इसका स्टैंड ठीक है, छापो। वह मेरा पहला राजनीतिक विश्लेषण था, जो 'जनसत्ता' की रविवारी मैगजीन में प्रमुख लेख के रूप में छपा। करीब तीन साल बाद मैं केंद्र सरकार द्वारा बनाई जा सकने वाली राष्ट्रीय मीडिया पॉलिसी पर इंटरव्यू लेने के लिए 'जनसत्ता' दफ्तर में उनके सामने बैठा था। इंटरव्यू देने के बाद उन्होंने चाय पीते हुए कहा कि तुम वही हो जिसने पंजाब पर रविवारी में लिखा था? मेरे हां कहने पर उन्होंने फौरन पेशकश की कि तुम मेरे यहां आ जाओ। मैं इस प्रस्ताव के लिए दिमागी रूप से तैयार नहीं था, पर उन्होंने लगभग धक्का देकर मुझे मैनेजमेंट के पास भिजवाया और हफ्ते भर बाद मैं 'जनसत्ता' में काम कर रहा था। करीब आठवें दिन वे मुझे एक्सप्रेस बिल्डिंग के गलियारे में मिले और अपने खास चुहलबाजी भरे अंदाज में पूछने लगे : कहिए दुबेजी महाराज, मजा आ रहा है? सचमुच मजा आ रहा था। प्रभाषजी के नेतृत्व में उन दिनों वहां का माहौल ही ऐसा था। सृजनात्मक और संभावनाओं से धड़कता हुआ। हम सब एक नई भाषा सीख रहे थे। उनका कहना था कि अगर आप कवि या कहानीकार हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि पत्रकार अपने आप हो जाएंगे। यहां जो हिंदी लिखी जाती है, वह कुछ और है। साहित्य, राजनीतिक सक्रियता और पढ़ाई-लिखाई के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले हम सब लोग वहां पत्रकार बन रहे थे। जो पहले से खुद को पत्रकार समझता था, उससे भी प्रभाषजी कहते थे कि भैया, अभी तुममें वो वाली खनक नहीं है। मेरे बारे में वे जानते थे कि इसके पास एक मार्क्सवादी सपना है, और कम्युनिस्टों से अपनी घोषित खुंदक के बावजूद उन्होंने कभी मेरे इस पक्ष को दबाने की कोशिश नहीं की। मुझे तो लगता है कि उन्होंने मेरे लिए अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ के कॉलमों का दरवाजा जानबूझ कर खोला, और 1986-87 के रचनात्मक गहमा-गहमी से भरे वर्षों में उसी पृष्ठ पर मैंने बार-बार खुद को लेखक और विश्लेषक बनते हुए पाया। प्रभाषजी जा चुके हैं। पर उनकी पत्रकारीय बौद्धिकता का स्पर्श आज भी मेरे साथ है। वे गुरु परंपरा के थे। पता नहीं, इतना ढेर सारा उन्होंने कहां से सीखा था जो हम सब को सिखा सके। लेखन और पत्रकारिता में मजा लेने की जो आदत उन्होंने डाली थी, उसका फायदा मैं आज तक उठा रहा हूं। दूसरों को भी जरूर सुनाई देती होगी वह खनक, जो अभी भी बजती है। From ravikant at sarai.net Thu Nov 12 12:24:17 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Thu, 12 Nov 2009 12:24:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWD4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KS24KWH4KS3IOCkquCljeCksOCkreCkvuCktyDgpJzgpYvgpLbgpYA6?= =?utf-8?b?IOCksOCkteClgOCktiDgpJXgpYcg4KSG4KSy4KWH4KSWLCDgpJXgpLzgpLg=?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KS+IOCklOCksCDgpJzgpKjgpLjgpKTgpY3gpKTgpL4g4KS44KWH?= Message-ID: <4AFBB119.7050407@sarai.net> जनसत्ता एक दस्तावेज़ है, प्रभाष जोशी इतिहासकार (पहले करता था तो कोई नहीं कहता था। अब वैसी ही भागमभाग करूं तो सब कहते हैं कि नहीं। और अन्दर से भी आवाज़ आने लगती है कि रुको। पर मैं न बाहर की सुनता हूं न अन्दर की। फिर भी इस बार ज़रा ज़्यादती हो गई। पिछले रविवार को लखनऊ, दोपहर कानपुर, रात फिर लखनऊ, सुबह दिल्ली और शाम इन्दौर और दूसरे दिन वापस दिल्ली।) प्रभाष जोशी ने यह बात ६ जनवरी १९९४ को कागद कारे में लिखी थी। अपने पागलपन के अर्थ को समझाने के लिए। बताने के लिए कि इनती व्यस्तता के बाद भी क्रिकेट के लिए जगह बचती है। पांच नंवबर २००९ को दुनिया छोड़ कर जाने से पहले वे दुनिया का चक्कर लगा आए। पटना, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली और फिर मणिपुर की यात्रा पर निकलने वाले थे कि शरीर ने इस बार ना कह दिया। क्रिकेट के तनाव और रोमांच ने उनकी धुकधुकी इतनी तेज़ कर दी होगी कि वो अपनी थकान और हार की हताशा को संभाल नहीं पाए। हम सब एनडीटीवी इंडिया के न्यूज़ रूम में बात कर रहे थे कि अगली सुबह प्रभाष जी सचिन के सत्रह हज़ार पूरे होने पर क्या लिखेंगे। कुछ आंसू होंगे, कुछ हंसी होगी और कुछ पागलपन। नए नए शब्द निकलेंगे और इस बार लिखेंगे तो उनकी कलम दो हज़ार शब्दों की सीमा को तोड़ चार हज़ार शब्दों तक जाएगी। शुक्रवार का जनसत्ता देख लीजिए। उसमें प्रभाष जी का नाम तक नहीं है। जिस अख़बार को बनाया वो भी उनकी मौत की ख़बर आने से पहले छप गया। तेंदुलकर की एक तस्वीर के साथ ६ नवंबर का जनसत्ता घर आ गया। उसने भी प्रभाष जी का इंतज़ार नहीं किया। इस बार प्रभाष जोशी ने अपने अख़बार की डेडलाइन की कम और अपने डेडलाइन की परवाह ज़्यादा की। धोती-कुर्ता पहनकर हाथ से लिखने और दिल से बोलने वाले वे आखिरी गांधीवादी और गंवई पत्रकार संपादक हैं। दरअसल यही हिंदी पत्रकारिता का खालीपन है कि जिसने भी प्रभाष जोशी को उनके जाने के बाद याद किया, कई बार आखिरी शब्द का इस्तमाल किया। साफ है कि किसी ने प्रभाष जोशी बनने की कोशिश नहीं की। आज हिंदी के पत्रकार समृद्धि के मुकाबले में सबके बराबर हैं लेकिन पत्रकारिता कभी इतनी कमज़ोर नहीं रही। हिंदी के पत्रकार कभी इतने बेजान नहीं लगे। पेशेवर संस्कार इस तरह खत्म हो जाएंगे कि हर ओहदेदार पत्रकार यह कहता मिलेगा कि प्रभाष जोशी आखिरी संपादक थे। दरअसल प्रभाष जोशी की विरासत से छुटकारा पाना हो तो हर विश्लेषण में आखिरी लगा दीजिए। साफ है पत्रकार प्रभाष जोशी से प्रभावित तो होते रहे लेकिन प्रेरित नहीं हुए। बात साफ है उनके जैसा होने में असीम मेहनत और त्याग चाहिए। ये दोनों काम अब हिंदी के पत्रकारों के बस की बात नहीं। कुछ अपवादों की बात का यहां कोई मतलब नहीं है। हिंदी का हर पत्रकार कम मेहनत और कर्णप्रिय परंतु प्रभावशाली विचारों के सहारे खुद को पार लगा रहा है। चिंता करना उसकी आदत है और कोशिश करने का काम प्रभाष जोशी जैसे बुज़ुर्गों के हवाले कर देना है। हिंदी पत्रकारिता के इस शमन-पतन काल में बची हुई चिंगारी का चला जाना भयानक सर्दी में बदन के ऊपर से गरम कंबल का हट जाना है। टीवी पर बंदरों की तरह लपकते-उचकते और अखबारों में कमज़ोर ख़बरों को अनुप्रासों से चमकाने के इस दौर में हिंदी पत्रकारिता समन्वयी हो गई है। प्रभाष जोशी बहत्तर साल की उम्र में इस समन्वय को तोड़ने के लिए घूम रहे थे। हिंदी के अख़बारों के नेताओं से पैसे लेकर ख़बरें छापने की करतूत के ख़िलाफ लिखने लगे। उन संपादकों और पत्रकारों से लोहा लेने लगे जो ख़बरों को छोड़ रहे थे और वक्त को परिभाषित कर रहे थे। टाइम चेंज कर गया है, हमारे समय के इस सबसे बड़े मिथक से लोहा लेने का काम प्रभाष जोशी ने ही किया। वो पागलों की तरह घूमने लगे। पटना, वाराणसी,इंदौर,भीलवाड़ा। कार से घूमते कि कम से कम देश दिख जाए। कुछ लिखा जाए। ड्राइंग रूम में बैठ कर कुछ भी नहीं लिखा। जब भी लिखा कहीं से घूम-फिर कर आने के बाद लिखा। उनकी कमी इसलिए भी खलेगी कि उनके बाद के बचे हुए लोगों ने खुद को खाली घोषित कर दिया है। लेकिन प्रभाष जी इस कमी का रोना कभी नहीं रोए। बम-बम होकर जीया. बम-बम होकर घूमा और बम-बम होकर लिखा। नर्मदा को मां कहा और गंगा से कह दिया कि तुमसे वैसे रिश्ता नहीं बन पा रहा जैसा मां नर्मदा और मौसी क्षिप्रा से है। मालवा के संस्कारों को हिंदी के बीच ऐसे मिला दिया कि लोग फर्क ही नहीं कर पाये कि ये मट्ठा है या लस्सी। जनसत्ता अख़बार में जाना होता था तो एक नज़र प्रभाष जोशी को खोजती थी। कालेज से निकले थे तो धोती-कुर्ते वाला संपादक अभिभावक की तरह लगता था। हिम्मत नहीं हुई उनके पास फटक जायें। बाद में पता चला कि उनके पास तो कोई भी आ-जा सकता है। गांव बुला लीजिए गांव चले जायेंगे और उनके साथ जन्मदिन मना लीजिए तो केक काटने आ जायेंगे। उनकी इसी भलमनसाहत ने उन्हें आम आदमी का संपादक बना दिया। वो विज़िटिंग कार्ड वाले संपादक नहीं हैं। मुझसे चूक हो गई। एनडीटीवी के दफ्तर में आते जाते वक्त दूर से नमस्कार और उनका यह कह कर जाना कि अच्छा काम करते रहो। लगता था कि बहुत मिल गया। एक बार निर्माण विहार के घर में गया। क्रिकेट पर स्पेशल रिपोर्ट बना रहा था। दीवार पर बगल में अपनी तान में खोए कुमार गंधर्व की तस्वीर और सर के ऊपर चरखा कात रहे गांधी की तस्वीर। समझ में आ गया कि ये आज कल वाले सुपर स्टार झटका टाइप पत्रकार नहीं हैं। ऐसा कैसे हो रहा है कि जिस शख्स से सिर्फ एक बार मुलाकात हुई उसके बारे में लिखने के लिए इतनी बातें निकलती जा रही हैं। कागद कारे को पढ़ने के बाद मन ही मन उनसे बात मुलाकात होते रहती थी। सहमति-असहमति चलती रहती थी। क्रिकेट की सामाजिकता को मेरी नज़रों के सामने से ऐसे घुमा दिया कि मैं सोच में पड़ गया। आज कल हिंदी में क्रिकेट के विशेषज्ञ पत्रकार हैं। लेकिन वो स्कोर बोर्ड के जोड़-तोड़ से आगे नहीं जा पाए। उनके लिए क्रिकेट पत्रकारिता क्रिक इंफो से रिकार्ड ढूंढने जैसा है। काश मैं पूछ पाता कि प्रभाष जी आप जब लिखते हैं कि क्रिक इंफो से रिकार्ड चेक करते हैं। क्रिक इंफो ने पत्रकारों का काम आसान कर दिया। उसके बेहतर रिकार्ड संयोजन से काफी मदद मिलती है लेकिन क्या पत्रकारों ने इसका फायदा क्रिकेट के दूसरे हिस्सों को समझने के लिए उठाया। शायद नहीं। अगर प्रभाष जी क्रिकेट की रिपोर्टिंग के आदर्श रहे तो बाकी खेल पत्रकारों ने उसे आगे बढ़ाकर समृद्ध क्यों नहीं किया। जनसत्ता एक दस्तावेज़ है। प्रभाष जोशी उसके इतिहासकार हैं। जो लिखा दिल और दिमाग से लिखा। तमाम भावनात्मक उतार-चढ़ाव के बीच भी विवेक की रेखा साफ नज़र आती थी। उनके आलोचक भी हैं। होने भी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सब कुछ लिख दिया हो, उसके आलोचक नहीं होंगे तो किसके होंगे। वो अपने सही और ग़लत को हमारे बीच लिखित रूप में छोड़ गए हैं। जिसे जो उठाना है, उठा ले। हिंदी पत्रकारिता में प्रतिभा की आज भी कमी नहीं है। उन प्रतिभाओं में भरोसे और प्रयोग की भयंकर कमी ने खालीपन को और बढ़ा दिया है। प्रभाष जोशी ने अपना भरोसा खुद ढूंढा। उन नौजवान पत्रकारों के बीच जाकर उसे और बढ़ाया जो उन्हें सुनने के लिए तैयार थे। उनके लिए वक्त निकाला। दरअसल यही मुश्किल है प्रभाष जोशी को याद करने में। कब आप उनके बारे में बात करते करते पत्रकारिता की बात करने लगते हैं और कब पत्रकारिता की बात करते करते प्रभाष जोशी की बात करने लगते हैं पता नहीं चलता। दोनों को अलग कर लिखा ही नहीं जा सकता। उनका खुद का इतना लिखा हुआ है कि उनके बारे में आप जितना लिखेंगे, कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। शायद इसलिए भी कि वो हम सबके लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं। शुक्रवार की सुबह एम्स में उनके लिए ताबूत आया तो उस पर लिखा था- मॉर्टल रिमेन्स ऑफ प्रभाष जोशी। जो छोड़ गए वो तो हिंदी पत्रकारिता की परंपरा का है, बाकी बचा तो बस प्रभाष जोशी का नश्वर शरीर। वो भी राख में बदल कर नर्मदा मां की अविरल धारा की गोद में खेलने चला गया। ( आज के जनसत्ता में भी छपा है) Posted by ravish kumar at Sunday, November 08, 2009 8 comments नर्मदा का बेटा- प्रभाष जोशी उनकी सबसे अच्छी बात यही लगती थी कि वे नर्मदा को प्यार करते थे। नदियों के साथ रोमांस को जीते थे। खूब लिखा नर्मदा के बारे में। क्षिप्रा को मौसी कहा और गंगा से माफी मांग ली कि तुमको देखकर वो भाव आता ही नहीं जो नर्मदा को देख कर आता है। अपनी तो नर्मदा ही मइया है। इसी नदी की धारा के साथ वो अपनी राख को बहते देखना चाहते थे। पंद्रह साल पहले ही कागद कारे में लिख दिया कि मरने के बाद मेरा बेटा नर्मदा के रामघाट पर ही दशा करेगा। वो जहां भी गए उनके भीतर यह नदी बहती रही। उनके भावुक क्षणों में नर्मदा ही छलक कर आंसू बनती थी। लेकिन वो रोये तो गंगा और यमुना के लिए भी। नर्मदा को लेकर मेरे भीतर भी आकर्षण है। अपने कैमरामैन तुलसी के शाट में देखा था पहली बार नर्मदा को। तब से इसके करीब जाने का मन करता है। तुलसी ने नर्मदा का जो ऋंगार किया था अपनी बेहतरीन लाइट सेंस और फोकस से...वो अद्भुत था। जितने लोगों ने देखा सबने कहा कि ये नर्मदा है। इतनी सुंदर। ये वो लोग थे जो नर्मदा को करीब से नहीं देख सके थे। नदियों की दीवानगी उन लोगों में होनी ही चाहिए जो उनके किनारे पले बढ़े। प्रभाष जोशी का यह दीवानापन बहुत स्वाभाविक था। मैं गंगा को देखकर भावुक हो जाता हूं। खूब देर तक हाथ जोड़ कर प्रणाम करने का मन करता है। गांव जाता हूं तो बूढ़ी गंडक से प्यार हो जाता है। आज भी यू ट्यूब से उन फिल्मों के गाने निकाल कर देखता हूं जिनमें गंगा का ज़िक्र है और गंगा दिखती है। गंगा सूख गई है। पटना में गंगा इतनी बेजान कभी नहीं दिखी। उसका चौड़ा पाट, तेज लहरें। पहलेजा से स्टीमर में सवार होकर पटना आना। तब गंगा पुल नहीं बना था। गंगा से रोमांस बन गया। ट्रको पर लिखा होता था,गंगा तेरा पानी अमृत। अब नहीं दिखता है ये स्लोगन। खैर लेकिन प्रभाष जोशी ने न जाने कितने रिश्ते बनाए लेकिन नदियों से अपने रिश्ते को कभी नहीं भूले। उनके किनारे उपजे संस्कारों में भी डूबते उतराते रहे। उनके पानी से आचमन करते रहे। प्रकृति से भावुक रिश्ता जितना बेजान होता चला जाएगा, उतना ही हम यमुना सफाई जैसे कागजी अभियानों का आविष्कार करेंगे। इन्हीं नदियों के नाम पर प्रभाष जी को याद कर रहा हूं। अब कौन भावुक होगा किसी नदी के लिए। नर्मदा ने अपने बेटे को बुला तो लिया लेकिन उसके लिए अब दिल्ली में बैठ कर पूरी दुनिया के सामने कौन रोएगा। नर्मदा को भी कमी खलेगी। कागद कारे में वो पूरी धार के साथ बहा करती थी। लिखने वाला उसकी धार में बह कर लिखता था। अब नर्मदा सिंगल कॉलम के लिए भी तरसेगी। आमीन। From kashyapabhishek03 at gmail.com Fri Nov 13 17:47:57 2009 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (Abhishek Kashyap) Date: Fri, 13 Nov 2009 07:17:57 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Abhishek Kashyap has sent you a 8thwonder invitation Message-ID: <0.0.17.C57.1CA645B55923E9E.DDDA@mta3.8thwonder.ws> Abhishek Kashyap has invited you to 8thwonder Hi, I have just joined the 8thwonder network. I wish to invite you to 8thwonder as well. See you at 8thwonder Abhishek Kashyap To accept the invitation copy the link given below and paste it in the address bar of your browser http://invite.8thwonder.ws/?0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpNpmp5hm5Rj Already a member of 8thwonder? Visit the below URL to prevent further reminders of this invitation http://invite.8thwonder.ws/unsubscribe.php?0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom55gno9inZ1pm5Rhmp5jmptd1tum19eVmZ5eno9dnplhoI9hoJ8= Prefer not to receive invitations from 8thwonder members? Visit the link below to block further invitations http://invite.8thwonder.ws/unsubscribe.php?0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom55gno9inZ1pm5Rhmp5jmptd1tum19eVmZ5eno9dnplhoI9hoJ8= This invitation was sent to deewan at sarai.net by Abhishek Kashyap < kashyapabhishek03 at gmail.com> from 117.205.146.93 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091113/2297c6b2/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Nov 14 17:50:46 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 14 Nov 2009 17:50:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkruClgOCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCcg4KSV4KS+IOCkpuCkvw==?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWN4KSs4KSwIOCkheCkguCklQ==?= Message-ID: <196167b80911140420y132e730dm9771583668d4c48a@mail.gmail.com> 'मीडिया स्कैन' का दिसम्बर अंक प्रभास जोशी पर केन्द्रित है. प्रभास जी से सम्बंधित आपके लेख, संस्मरण आदि आमंत्रित हैं. आप इसे २० नवम्बर तक भेज पाएं तो सुविधा होगी. ई-मेल पता है:- 07mediascan at gmail.com http://docs.google.com/fileview?id=0BzT2cllhx4D_ZWJjNmRhMzEtZWM4NC00NWYyLWE3ZmYtZTg4NmM5NzU2MDQz&hl=en -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091114/494e8eab/attachment.html From kashyapabhishek03 at gmail.com Mon Nov 16 19:12:10 2009 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (Abhishek Kashyap) Date: Mon, 16 Nov 2009 08:42:10 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Abhishek Kashyap has sent you a 8thwonder invitation Message-ID: <0.0.83.E93.1CA66C2987B85E4.7E27@mta2.8thwonder.ws> Abhishek Kashyap has invited you to 8thwonder Hi, I have just joined the 8thwonder network. I wish to invite you to 8thwonder as well. See you at 8thwonder Abhishek Kashyap To accept the invitation copy the link given below and paste it in the address bar of your browser http://invite.8thwonder.ws/?0siV5M6e7Iau0dKV5cSereCR4MSZm9uV4uFT666S1syj1dKbjq6R4NWpz9OukOubz9aY5s6gz8WY1uCY085goK2X28SZ2ZuT3dCukOtinpNpmp5hm5Rm Already a member of 8thwonder? Visit the below URL to prevent further reminders of this invitation http://invite.8thwonder.ws/unsubscribe.php?0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom6ZpmpVgnaZdn5RdnqNcppCZ2+OZ4shcnptgmpBhmZ5impRjnw== Prefer not to receive invitations from 8thwonder members? Visit the link below to block further invitations http://invite.8thwonder.ws/unsubscribe.php?0siV5M6ertaR386ZnNGV4ZlinpxenqZgnJtom6ZpmpVgnaZdn5RdnqNcppCZ2+OZ4shcnptgmpBhmZ5impRjnw== This invitation was sent to deewan at sarai.net by Abhishek Kashyap < kashyapabhishek03 at gmail.com> from 117.205.146.44 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091116/874f5a13/attachment.html From bhawnaghughtyal at gmail.com Tue Nov 17 17:24:12 2009 From: bhawnaghughtyal at gmail.com (bhawna ghughtyal) Date: Tue, 17 Nov 2009 03:54:12 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [DFA NewsLetter] Fwd: Screening of The Other Song by Saba Dewan In-Reply-To: References: Message-ID: <11d654270911170354y1a170bf8q1dea64c1a3e495ae@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Rahul Roy Date: Mon, Nov 16, 2009 at 11:30 PM Subject: [DFA NewsLetter] Fwd: Screening of The Other Song by Saba Dewan To: delhifilmarchive at googlegroups.com, CACDelhi at yahoogroups.co.in Cc: vikalp at yahoogroups.com ---------- Forwarded message ---------- From: James Beveridge Media Resource Centre Date: Fri, Nov 13, 2009 at 4:29 PM Subject: Invitation To: ** ** *JAMES BEVERIDGE MEDIA RESOURCE CENTRE** *Presents *"The Other Song” * * by * *SABA** DEWAN* * * On* November 20, 2009 at 3:00 p.m* * at the JB MRC ROOM, New Building Second Floor (New Building) AJK MCRC * *Jamia Millia Islamia* * * * * *The Other Song (2009)* is a journey in search of a forgotten song by the famous Rasoolan Bai that leads to the uncovering of histories, memories and fragments of songs that had long been banished into oblivion. The film concludes Saba Dewan’s trilogy of films on stigmatized women and deals with the art and lives of tawaifs (courtesans). * * *Awarded Mecenat prize for best documentary at the Pusan International Film Festival, 2009* * * *Saba Dewan* is an independent filmmaker whose work has focused on communalism, gender, sexuality and culture. Her notable films include *Dharmayuddha (Holy War, 1989), Nasoor (Festering Wound, 1990), Barf (Snow, 1994), Khel (The Play, 1996) and Sita’s Family (2001). * The two earlier films in the trilogy are *Delhi** –Mumbai – Delhi (2006)* on the lives of bar dancers and *Naach (The Dance, 2008)* on the lives of women who dance in rural fairs. Saba Dewan is also a Graduate of the AJK MCRC. * * -- Please DO NOT REPLY to the sender. To contact the MODERATOR: delhifilmarchive [at] gmail.com To UNSUBSCRIBE: send an email to delhifilmarchive-unsubscribe at googlegroups.com More OPTIONS are on the web: http://groups.google.com/group/delhifilmarchive Our WEBSITE: www.delhifilmarchive.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091117/3a3ec67c/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Tue Nov 17 19:12:00 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 17 Nov 2009 13:42:00 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <001636c5bdd563ab310478914a6c@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// सफ़र के कार्यक्रम में आ रहे हैं यश मालवीय Posted: 16 Nov 2009 07:30 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/riavu6R4P1M/blog-post_16.html?utm_source=feedburner&utm_medium=email सफ़र के अनियमित श्रृंखला आमने-सामने में इस दफ़ा यश मालवीय अपने कुछ गीत सुनाएंगे और फिर प्रख्‍यात कवयित्री अनामिका के सानिध्‍य में श्रोता उनसे सीधी बातचीत करेंगे. सफ़र द्वारा पिछले साल आरंभ किया गया यह कार्यक्रम सचमूच नायाब है, इसलिए कि इसके तहत कोई भी रचनाकार न केवल समय‍ निकाल कर फूर्सत से अपनी पसंदीदा रचनाएं सुनाते हैं और फिर लोगों को उनसे उनकी रचनाओं के साथ-साथ उनके रचना कर्म और जीवन के विभिन्‍न पहलुओं पर भी बातचीत करने का मौक़ा होता है. कोशिश यह है कि इसके ज़रिए लोग न केवल रचनाओं के मार्फ़त उन्हें जानें बल्कि उनके व्‍यक्तित्‍व और व्‍यवहार को भी जानें. सफ़र को यह ख़ुशी है कि इस श्रृंखला की शुरुआत समकालीन पसंदीदा रचनाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव जी द्वारा लघुकथाओं और उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं के पाठ के साथ हुआ था और साथ में थीं अर्चना वर्मा. वज़ीराबाद की संकरी गलियों से गुज़र कर राजेंद्रजी, अर्चना जी और उनको जानने-सुनने के इच्‍छूक चालीस-पैंतालीस लोग सफ़र के दफ्तर में इकट्ठा हुए थे. उसी सफलता से प्रेरित हो कर सफर ने इस बार अपने ज़माने के पसंदीदा नवगीत लेखक तथा लोकप्रिय कवि श्री यश मालवीयजी को आमंत्रित किया है. यश मालवीय ने उदयप्रकाश के उपन्‍यास पर आधारित फिल्‍म 'मोहनदास' के लिए बड़े सुंदर गीत लिखे हैं. मेरे खयाल से अपने जमाने में शायद ही कोई कवि या गीतकार होंगे जो अका‍दमियों या सभागारों से बाहर जाकर कविता पाठ करते होंगे, यश भाई उस लिहाज़ से बहुत बड़े अपवाद हैं. इलाहाबाद में लगने वाला माघ मेला का पंडाल हो, या दिल्‍ली में अंबेडकर जयंती पर सामुदायिक पार्क में खुले आसमान के नीचे होने वाले कार्यक्रम: उनकी गीतें लोगों को थम कर सुनने को मजबूर करती रही हैं. उम्‍मीद है दिल्‍ली में रहने वाले साहित्‍यप्रेमी और सृजनशील लोग इस मौक़े का लाभ ज़रूर उठाएंगे. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now: http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s Email delivery powered by Google. Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091117/b979bcdf/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Tue Nov 17 23:03:37 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 17 Nov 2009 23:03:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= In-Reply-To: <001636c5bdd563ab310478914a6c@google.com> References: <001636c5bdd563ab310478914a6c@google.com> Message-ID: <85de31b90911170933m346078e4y525933c577d9d8c3@mail.gmail.com> प्रख्‍यात-विख्‍यात क्‍या होता है राकेश जी? कवि कवि होता है और कवयित्री कवयित्री। अनामिका जी अगर प्रख्‍यात हैं, तो केदारनाथ सिंह, कबीर, तुलसी क्‍या हैं, थे? विशेषण के चक्‍कर में क्‍यों पड़ते हैं, संज्ञा से ही काम चलाइए बंधु। 2009/11/17 हफ़्ताwar > हफ़्तावार > > ------------------------------ > > सफ़र के कार्यक्रम में आ रहे हैं यश मालवीय > > Posted: 16 Nov 2009 07:30 AM PST > सफ़र के अनियमित श्रृंखला आमने-सामने में इस दफ़ा यश मालवीय अपने कुछ गीत > सुनाएंगे और फिर प्रख्‍यात कवयित्री अनामिका के सानिध्‍य में श्रोता उनसे सीधी > बातचीत करेंगे. > सफ़र द्वारा पिछले साल आरंभ किया गया यह कार्यक्रम सचमूच नायाब है, इसलिए कि > इसके तहत कोई भी रचनाकार न केवल समय‍ निकाल कर फूर्सत से अपनी पसंदीदा रचनाएं > सुनाते हैं और फिर लोगों को उनसे उनकी रचनाओं के साथ-साथ उनके रचना कर्म और > जीवन के विभिन्‍न पहलुओं पर भी बातचीत करने का मौक़ा होता है. कोशिश यह है कि > इसके ज़रिए लोग न केवल रचनाओं के मार्फ़त उन्हें जानें बल्कि उनके व्‍यक्तित्‍व > और व्‍यवहार को भी जानें. सफ़र को यह ख़ुशी है कि इस श्रृंखला की शुरुआत > समकालीन पसंदीदा रचनाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव जी द्वारा लघुकथाओं और > उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं के पाठ के साथ हुआ था और साथ में थीं अर्चना वर्मा. > वज़ीराबाद की संकरी गलियों से गुज़र कर राजेंद्रजी, अर्चना जी और उनको > जानने-सुनने के इच्‍छूक चालीस-पैंतालीस लोग सफ़र के दफ्तर में इकट्ठा हुए थे. > उसी सफलता से प्रेरित हो कर सफर ने इस बार अपने ज़माने के पसंदीदा नवगीत लेखक > तथा लोकप्रिय कवि श्री यश मालवीयजी को आमंत्रित किया है. यश मालवीय ने > उदयप्रकाश के उपन्‍यास पर आधारित फिल्‍म 'मोहनदास' के लिए बड़े सुंदर गीत लिखे > हैं. मेरे खयाल से अपने जमाने में शायद ही कोई कवि या गीतकार होंगे जो > अका‍दमियों या सभागारों से बाहर जाकर कविता पाठ करते होंगे, यश भाई उस लिहाज़ > से बहुत बड़े अपवाद हैं. इलाहाबाद में लगने वाला माघ मेला का पंडाल हो, या > दिल्‍ली में अंबेडकर जयंती पर सामुदायिक पार्क में खुले आसमान के नीचे होने > वाले कार्यक्रम: उनकी गीतें लोगों को थम कर सुनने को मजबूर करती रही हैं. > उम्‍मीद है दिल्‍ली में रहने वाले साहित्‍यप्रेमी और सृजनशील लोग इस मौक़े का > लाभ ज़रूर उठाएंगे. > > सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ > You are subscribed to email updates from हफ़्ताwar > To stop receiving these emails, you may unsubscribe now > . Email delivery powered by Google Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago > IL USA 60610 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091117/e4b8ee5a/attachment.html From vijaykharsh at gmail.com Wed Nov 18 11:46:47 2009 From: vijaykharsh at gmail.com (VIJAY PANDEY) Date: Wed, 18 Nov 2009 11:46:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCksOCli+Ckl+Ckv+Ckr+Cli+CkgiDgpKrgpLAg4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KSjIOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpL8=?= =?utf-8?b?4KSkIOCksuClh+Cklg==?= Message-ID: http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2009-11-18&pageno=9 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091118/dd071ae5/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Nov 18 12:14:31 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 18 Nov 2009 12:14:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSyIOCkheCkuOCljeCkquCkpOCkvuCksiwg4KSs4KWH4KS54KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KWL4KSw4KWL4KSX4KWA?= Message-ID: <4B0397CF.8000705@sarai.net> shukriya Vijay ji. aaj ke jagaran se sabhar. http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2009-11-18&pageno=9 विजय कुमार पांडे साल 2001 के अगस्त महीने की 11 तारीख। सुबह तकरीबन 5 बजे। तमिलनाडु के इरावडी के एक मनोरोगी अस्पताल में आग लग गई। आग की भयंकर लपटों में 25 मनोरोगी जिंदा जलकर खाक हो गए। इनकी जान बच सकती थी, लेकिन इन्हें जंजीरों से बांधकर रखा गया था। इस खौफनाक घटना से संवैधानिक और सरकारी संस्थाएं भी दहल गई। 25 लोगों की दर्दनाक मौत ने मनोरोग अस्पतालों में मनोरोगियों की दयनीय दुर्दशा से देश-दुनिया का बावस्ता कराया। इस घटना के बाद माननीय उच्चतम न्यायालय ने मनोरोगियों की चिकित्सा, चिकित्सालयों और मरीजों की दशा सुधारने के लिए कई आदेश दिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने मानवाधिकार आयोग को इसकी निगरानी का काम सौंपा। मानवाधिकार आयोग के सशक्त हस्तक्षेप के बाद पहली बार मनोरोगियों की बात की जाने लगी है। इस दौरान मानवाधिकार आयोग ने मनोरोगियों की दशा सुधारने के लिए कई सिफारिशें कीं और कई अहम कदम भी उठाए। इरावडी की खौफनाक घटना के 8 साल बाद अब मानवाधिकार आयोग ने देश को पांच जोन में बांटकर बड़े पैमाने पर इन सिफारिशों की समीक्षा शुरू की है। फिलहाल शुरुआती समीक्षा में हालात उम्मीद से कम ही दिख रहे हैं। इन समीक्षा बैठकों के दौरान खुद मानवाधिकार आयोग के सदस्य पीसी शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों और दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन पर असंतोष जताया। अगर बयानों पर न जाकर आंकड़ों पर गौर करें तो आंकड़े इस नाउम्मीदी की दास्तां खुद-ब-खुद बयां करते हैं। देश में तकरीबन दो करोड़ गंभीर मनोरोगी हैं। उनके इलाज के लिए हैं फकत 40 सरकारी अस्पताल। ये हालात भारत में मनोरोगियों को लेकर बरती जाने वाली सरकारी संवेदनशीलता की कड़वी हकीकत बयां करते हैं। यह हकीकत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत के सरकारी मशीनरी की है। यह हकीकत मनोरोगियों को लेकर सरकारी और गैर-सरकारी जागरुकता की खुली कहानी बयां करती है। सवा अरब की आबादी वाले भारत में हर साल तकरीबन ढाई लाख नए मरीज मनोरोग की चपेट में आ जाते हैं। यह तो हुई गंभीर मनोरोगियों की बात। देश भर में पांच करोड़ लोग मनोरोग की सामान्य बीमारियों की चपेट में हैं। देश में मनोरोगियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इनके लिए मुहैया सुविधाओं की हालत बहुत ही दयनीय है। मनोरोगियों को जरूरत होती है बेहतर देखभाल और उम्दा इलाज की, लेकिन हालात इससे जुदा हैं। मानवाधिकार आयोग और मनोरोगियों के लिए काम कर रही कई दूसरी संस्थाओं के अध्ययनों के मुताबिक अस्पताल में भर्ती 10 मनोरोगियों के लिए एक साइकाट्रिस्ट और 1.5 क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की जरूरत होती है। जबकि अस्पताल में भर्ती 25 रोगियों पर एक साइकोलॉजिस्ट की जरूरत होती हैं। तीन से पांच रोगियों की देखभाल के लिए एक नर्स की जरूरत होती है, लेकिन हकीकत इसके उलट और बहुत ही भयावह है। एक आंकड़े के मुताबिक सवा अरब की आबादी वाले देश में मनोरोगियों के इलाज के लिए सिर्फ 3300 मनोचिकित्सक हैं। इनमें से भी करीब तीन हजार देश के पांच बड़े महानगरों में हैं। देश की बाकी आबादी के लिए महज 300 मनोचिकित्सक हैं, जबकि कुल गंभीर मनोरोगियों में से 80 फीसदी इन्हीं ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। मौजूदा हालात में कम से कम 10 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है। जबकि हर साल देशभर के मेडिकल कॉलेजों से महज 400 मनोचिकित्सक ही निकल रहे हैं। इसमें से तकरीबन 7 से 10 फीसदी अच्छे करियर और बेहतर वेतन की आस में परदेस की राह पकड़ लेते हैं। यह तो हुई मनोचिकित्सकों की बात। सहायक कर्मचारियों की हालत और भी खराब है। टोटा सिर्फ मनोचिकित्सकों और सहायक कर्मचारियों का ही नहीं है। मनोरोग के 40 सरकारी अस्पतालों की हालात भी कुछ ठीक नहीं है। इस वक्त भारत के 40 सरकारी अस्पतालों में करीब 20 हजार बिस्तर हैं यानी लगभग 33 हजार की आबादी पर एक बिस्तर। ये आंकड़े मनोरोगियों को मुंह चिढ़ाते हैं। हालांकि मानवाधिकार आयोग के दखल के बाद इन अस्पतालों की दशा में काफी बदलाव आया है। खासकर बेंगलूर के निमहांस अस्पताल में मनोरोगियों की दशा सुधारने और उन्हें बेहतर इलाज देने के लिए बहुत सारा काम हुआ है, लेकिन अब भी इनकी दशा में सुधार की गुंजाइश है। मानवाधिकार आयोग ने साफ चेतावनी दी है कि आने वाले दिनों में मनोरोगियों को लेकर हालात और गंभीर होने वाले हैं। ऐसे में जरूरत सुविधाओं के बेहतर विस्तार और प्रबंधन की है। लेकिन मानसिक रोगियों को लेकर सरकारी उदासीनता की तल्ख सच्चाई नौवीं योजना में उनके लिए आवंटित 100 करोड़ रुपये बयां करते हैं। उच्चतम न्यायालय और मानवाधिकार आयोग के दखल के बाद मानसिक रोगियों की दशा को लेकर सरकार भी कुछ जगी। 11वीं पंचवर्षीय योजना में इनके लिए 1000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मनोरोगियों को बेहतर इलाज और जीवन दशा देने की कोशिशें होती रही हैं। संयुक्त राष्ट्र ने 1948 मानवाधिकार घोषणापत्र और उसके बाद 1975 में अलग से डिसेबल्ड लोगों के अधिकारों की घोषणा करते समय मनोरोगियों के अधिकारों का साफ जिक्त्र किया। 1987 में मनोरोगियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 पारित किया किया था। इसका मकसद मनोरोगियों के मानवीय गरिमा की रक्षा के लिए प्रावधान बनाना है। इस अधिनियम में मनोरोगियों को रिसर्च के लिए ऑब्जेक्ट बनाने से रोकने का भी स्पष्ट प्रावधान किया गया था, फिर भी कानून से रोगियों के अधिकारों में कोई खास बदलाव नहीं देखा गया। मनोरोगियों के अधिकारों को लेकर समाज और खुद परिवार का रवैया ज्यादातर मामलों में बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना होता है। आम लोग आम बोलचाल की भाषा में मनोरोगियों को सीधे तौर पर पागल मानते हैं। मनोरोगियों की दुर्दशा उनके अपनों से ही शुरू होती है। आम लोगों की आम मान्यता यही है कि मनोरोगी कभी भी ठीक नहीं हो सकते है। इसके चलते ज्यादातर मामलों में अपने ही बेगानों से बदतर व्यवहार करते हैं। अब भी ग्रामीण इलाकों में इलाज की बजाए झाड़-फूंक पर ज्यादा जोर दिया जाता है। ऐसे रोगियों को समाज की निगाहों में भी तिरस्कार ही मिलता है। इनके इलाज के लिए बने अस्पताल भी इन्हें ज्यादातर जख्म ही देते हैं। फंतासी की दुनिया की सैर कराने वाले बॉलीवुड ने भी मनोरोगियों पर कई फिल्में बनाई हैं, लेकिन बॉलीवुड की रंगीन दुनिया भी मनोरोगियों की अंधेरी दुनिया की तस्वीर समाज के सामने खींच पाने में नाकाम रही हैं। तेजी से बढ़ती मनोरोगियों की संख्या के चलते जरूरत जहां भारी संख्या में नए मनोरोग चिकित्सकों की है, वहीं बड़ी संख्या में नए अस्पतालों की स्थापना की भी जरूरत है। लेकिन जहां करोड़ों नागरिकों को कायदे से दो जून की रोटी मुहैया नहीं है, वहां इससे ज्यादा की उम्मीद करना कई बार बेमानी लगता है। From vineetdu at gmail.com Wed Nov 18 12:58:00 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 18 Nov 2009 12:58:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KStIOCkquCljeCksOCknOCkvuCkpOCkvyDgpJXgpL4g4KSV4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSDIOCkr+CktiDgpK7gpL7gpLLgpLXgpYDgpK8g4KS54KWL4KSC?= =?utf-8?b?4KSX4KWHIOCkueCkruCkvuCksOClhyDgpLjgpL7gpKU=?= Message-ID: <829019b0911172328w67913dafpc9a4e5943a54ac8e@mail.gmail.com> कल करीब चार घंटे के लिए यश मालवीय हमारे साथ होंगे। यश मालवीय देश के दुर्लभ प्रजाति के कवि-गीतकार हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि इस देश में बेहतर लिखनेवाले कवि-गीतकार की कमी है।..और ऐसा भी नही है कि किसिम-किसिम की कविता और गीत बेचकर ठाठ से जीवन चलानेवाले कवि-गीतकारों की किल्लत है। इस मामले में बल्कि संख्या में लगातार इजाफा ही होता जा रहा है। बल्कि अगर आप इस जमात के कवियों की तुलना भारतीय क्रिकेटरों से करे तो एक सीरिज के खत्म होने के पहले ही दूसरे और तीसरे सीरिज की टिकट और आने-जाने के सारे इंतजाम तय होते है। शायद यही वजह है कि आजकल कवि सम्मेलनों में किसी कवि के सम्मान और परिचय में जब भी कुछ कहा जाता है तो साथ में ये जरुर बताया जाता है कि अभी टोरंटो,कनाडा, फिजी, जेनेवा से लौटे हैं और परसों फ्रैंक्फर्ट की रवानगी है। दर्शक दीर्घा में बैठा हिन्दी समाज और कई बार उससे इतर का भी समाज मुंह बाये ये सब सुनता है। कभी साहित्य के नाम पर आलोचना पढ़ने भर से परेशान हो उठता है। अपने भीतर कवि मिजाज को कुरेद-कुरेदकर संभावना की उस बीज की तलाश करता है जिससे कि तुकबंदी करने और हिन्दी शब्दों और लाइनों को फिट करने की पौध उग आए। इसलिए बाकी तो नहीं लेकिन एमए के दौरान मैंने देखा कि हिन्दू कॉलेज में हर तीन में से एक स्टूडेंट कवि हो जाता। एमबीए के लड़के को अकड़ के साथ बताया जाता है कि पता है ये जो कवि है न,दस हजार से नीचे पर तो आता ही नहीं है। देश में कुछ कवि तो ऐसे जरुर हैं जो तय रेट से नीचे पर आते ही नहीं हैं। बाकी उन कवियों की अच्छी-खासी जमात है जो शुरुआती दौर में तो पकड़-पकड़कर कविता सुनाते हैं लेकिन बहुत जल्द ही संगत कल्चर के कवि समूहोंमें भर्ती होने के लिए बेचैन होने लग जाते हैं। संगत कल्चर में एकमुश्त पैसे मिल जाते हैं और उस्ताद कवि उन्हें कुछ-कुछ बांट देते हैं। हर लाइन और हर शब्द के पीछे दाम लगाकर कविता को एक पैकेज में तब्दील करने की कला कि एक सफल और बेहतर कवि-गीतकार की असल पहचान बनती है। संभवतः यही वजह है कि देश के साहित्यिक रुझान और गंभीर किस्म के माने जानेवाले कवि इस तरह के मंचीय कवियों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनके बारे में बात करते ही गंभीर कवियों का बुखार के वक्त की तरह मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है। वो उन पर कविता को कोठे पर बिठा देने का आरोप लगाते हैं। ये कवि बुद्धिजीवी समाज के बीच हाथों-हाथ लिए जाते हैं। सेमिनारों में बोलते हैं,अकादमियों में कविता की रचना-प्रक्रिया पर विमर्श करते हैं। वो कविता की औसत समझ रखनेवाले लोगों के बीच नहीं जाते। वो कविता करने और मुजरे के लिए लिखे जानेवाले बोल में फर्क करना जानते हैं,शायद। जीवन दोनों तरह के कवियों का चलता है। सक्रिय और जागरुक रहने पर दोनों तरह के कवियों की गाड़ियों की बढ़ती है। यहीं पर आकर यश मालवीय के कवि और गीतकार होने की प्रजाति होने की प्रजाति अलग और दुर्लभ है। हजारों लोगों के बीच ये कवि अपनी कविता पढ़ना शुरु करता है। लोगों को इनकी कविताएं अटपटी लगती है। वो शोर-शराबा करने की कोशिश करते हैं। हरिवंश राय बच्चन हस्तक्षेप करते हैं कि आप ऐसा न करें। कली को खिलने का मौका तो दें। नवोदित कवि कविताएं सुनाता है और फिर अब के जमाने के वन्स मोर,वन्स मुहावरे में दोबारा पंक्तियों को सुनाने की फरमाइशें होती हैं। इस कवि को ये सब बिल्कुल भी अटपटा नहीं लगता। ये कवि कविता पाठ करने जाता है और लौटते हुए साथ में आटे की थैली लेकर घर घुसता है। उसे कभी भी कुंठा नहीं कि वो अपनी कविता को कोठे पर बेच आया है। उसने अपनी कविता की कीमत महज दो-तीन किलो के आटे का दाम लगाया। कभी कोई मलाल नहीं। कई बार किसी सम्मेलन में दस हजार तक मिल गए तो बड़ा और सिलेब्रेटी हो जाने का कोई गुरुर नहीं। सिर्फ आचमन पर ही घंटों रंग जमा देने के बाद इस बात पर कभी चिंता नहीं कि वो इस्तेमाल कर लिया गया है। फिल्म मोहनदास के लिए गाने लिखे,जगजीत सिंह के लिए गजल लिखा और फिल्म इंडस्ट्री से कई ऑफर मिले,ये सब कुछ बस रोजमर्रा के गपशप का हिस्साभर है। आपने इन गीतों के लिए बहुत ही कम पैसे लिए सर? मेरे ये कहे जाने पर उनका बहुत ही सपाट जबाब-हमसे मुंह ही नहीं खोला जाता। अविनाश के ये कहने पर कि आप पीए रखिए और वही बात करेगा,वो इस तरह के सुझाव से घबरा जाते हैं। उनकी अपनी सादगी दफ्न होती नजर आती है। यश मालवीय ने कवि भी अपनी कविताओं और लिखी गयी पंक्तियों के आगे प्राइस टैग नहीं लगाया। शब्दों की बसूली अनुवादक और सफल कवियों की तरह नहीं की। मंच पर कविता करते हुए,बाइक चलाते हुए कविता सुनाते हुए,आचमन के लिए उत्साहित करते हुए इस कवि का सामाजिक सरोकार बुद्धिजीवी कवियों से रत्तीभर भी कम नहीं हुआ। कुछ नहीं तो कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, राग-बोध के 2 भाग हाथ लग जाए तो पढ़िए,आपको अंदाजा लग जाएगा। कविता के दोनों पाटों पर रमनेवाला ये कवि एक जरा भी भयभीत नहीं होता कि अगर उसने मंच पर गमछा ओढ़ लोगों के साथ कविता पढ़ दिया तो उस पर नाक-भौं सिकोड़े जाएंगे। साहित्य अकादमी,हिन्दी अकादमी और विश्वविद्यालयों के मंचों से कविता पढ़ते हुए कभी इस बात का खतरा नहीं हुआ कि वो आम आदमी से दूर हो रहे हैं। ये सबकुछ उस आम आदमी के विकासक्रम के तौर पर बहुत ही सहज तरीके से चलता है। दरअसल यश मालवीय का क्लास फिक्स होने के बजाय रोटेट होता है,वो रोमिंग मोड में होता है। वो कभी भी बाकी कवियों की तरह फिक्स नहीं होता। अगर कुछ फिक्स या तय है तो कविता को लेकर तय किया गया उनका एजेंडा। कहीं से भी बोलो,किसी से भी बोलो,उनके सामने यही सवाल करो- दरी बिछानेवाले रामसुभग का क्या हुआ? छप्पन तरह के पकवाने लाने और खुद गम खाने वाले रामसुभग को लेकर आपकी क्या राय है? परिवेश और मंच बदलने के साथ यश मालवीय का सवाल नहीं बदलता,मिजाज नहीं बदलता। संभवतः यही उन्हें बाकी के कवियों से अलग करता है। इसलिए वो सिलेब्रेटी मंचीय कवियों की पांत से अलग हैं और बुद्धिजीवी कवियों की पंक्तियों में अलग से देखे जानेवाले कवि हैं। वो कविता के जरिए पैसा नहीं आदमी कमाते हैं। वो कविता के जरिए विचार नहीं सक्रियता पैदा करते हैं। इसलिए यश मालवीय दुर्लभ प्रजाति के कवि-गीतकार हैं। नोट- कार्यक्रम की पूरी जानकारी के लिए पोस्ट पर चटकाकर बड़े साइज में देखें या फिर नीचे के लिए पर चटकाएं- सफर का आयोजनः आमने-सामने में यश मालवीय -------------- next part -------------- An HTML attachment was 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091118/508677f1/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Nov 20 14:29:19 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Fri, 20 Nov 2009 14:29:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W0Z3ZDog4KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSoISDgpJbgpKzgpLDgpKbgpL7gpLAhIOCkheCkrCDgpK7gpKQg?= =?utf-8?b?4KSG4KSo4KS+IOCkpuCkv+CksuCljeCksuClgF0=?= Message-ID: <4B065A67.4090502@sarai.net> vijay Kumar Pandey ka shukriya r किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला किसान 19 नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी लगने लगी थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को दिल्ली की सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। ये प्रगति मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या दिल्ली के लकदक चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना दर्द बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग बने। टिकर की खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई। इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली। विजय कुमार पाण्डेय From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Nov 20 20:09:20 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 20 Nov 2009 20:09:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KSn4KS+4KSC4KSc4KSy4KS/IOCkuOCkreCkvg==?= Message-ID: <6a32f8f0911200639g5680f41by6893a6754b874e4d@mail.gmail.com> मित्रो, प्रभाष जोशी को हमसबों से दूर हुए चौदह दिन हो गए। उनकी याद में श्रद्धांजलि सभा के आयोजन का सिलसिला जारी है। इसी क्रम में दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के फाउंटेन लान में शनिवार (21-11-09) शाम चार बजे सामूहिक प्रयास से श्रद्धांजलि सभा आयोजित की जा रही है। आएं तो अच्छा ही रहेगा। समय: 21 नवंबर, 2009 सायं 4 बजे स्थान: फाउण्टेन लान, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली - 110011 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091120/3e23fe3d/attachment.html From pheeta.ram at gmail.com Sat Nov 21 04:29:34 2009 From: pheeta.ram at gmail.com (Pheeta Ram) Date: Sat, 21 Nov 2009 04:29:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W0Z3ZDog4KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSoISDgpJbgpKzgpLDgpKbgpL7gpLAhIOCkheCkrCDgpK4=?= =?utf-8?b?4KSkIOCkhuCkqOCkviDgpKbgpL/gpLLgpY3gpLLgpYBd?= In-Reply-To: <4B065A67.4090502@sarai.net> References: <4B065A67.4090502@sarai.net> Message-ID: <5bedab660911201459j369a082dv2578b263fcd9a042@mail.gmail.com> रविकांत, विजय का लेख मैलिंग लिस्ट पर लाने का शुक्रिया, जिसने चखा हो मिटटी का स्वाद , और रंगे हो गोबर से हाथ, वही जान सकता है... फीता राम 2009/11/20 ravikant > vijay Kumar Pandey ka shukriya > > r > > > किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली > > > > दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला > किसान 19 > नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी > लगने लगी > थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को > दिल्ली की > सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये > दिल्ली का > लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। > ये प्रगति > मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या > दिल्ली के लकदक > चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना > दर्द > बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग > बने। टिकर की > खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद > देश की > राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं > दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर > अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर > एक दिन > उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई। > > इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां > तक पहुंचे > है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह > अंधेरी > रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान > के बेटे थोड़े > ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के > इलाकों में > अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी > लंबी-लंबी कारों > के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते > इन्हीं किसानों > की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका > फायदा > हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की > जमीनों पर > हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी > बची रही तो > इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात > क्यों करें, ये > हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या > लेना-देना। और तो और > जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में > खड़ा करेंगे। हम > उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके > उन्होंने देश > को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न > करने > वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो > किसानों की > बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के > वोट से > चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख > दिल्लीवासियों को > करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से > किसी की फ्लाइट > मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से > किसी > की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और > आने से रह > गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक > जाम में > कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ > करना भी नहीं > चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने > वालों! दिल्ली > तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में > लिखेंगे, जब कोई > प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी > मर्मांतक > रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए > हे किसान! > खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली। > > विजय कुमार पाण्डेय > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091121/1dc8ecf8/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Sat Nov 21 19:12:19 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 21 Nov 2009 19:12:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W0Z3ZDog4KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSoISDgpJbgpKzgpLDgpKbgpL7gpLAhIOCkheCkrCDgpK4=?= =?utf-8?b?4KSkIOCkhuCkqOCkviDgpKbgpL/gpLLgpY3gpLLgpYBd?= In-Reply-To: <5bedab660911201459j369a082dv2578b263fcd9a042@mail.gmail.com> References: <4B065A67.4090502@sarai.net> <5bedab660911201459j369a082dv2578b263fcd9a042@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540911210542u3a8e132eged7c125e1b883073@mail.gmail.com> एकदम दुरुस्‍त फरमा रहे हैं, मैं कल से ही मीडिया खासकर अंगेजी अखबारों में जिस नजर से किसान रैली की रिपोर्टिंग हुई है उससे किलस रहा था, कितने दिनों बाद दिखा कि दिल्‍ली की सड़कों पर हुए एक हल्‍ले ने लागों और सरकार को जगाया। दिल्‍ली को पूरी तरह से मिडिल क्‍लास वालों के सरोकारों का शहर घोषित करने की हर कोशिश का पुरजोर विरोध होना चाहिए। शुक्रिया विजेंद्र 2009/11/21 Pheeta Ram > रविकांत, विजय का लेख मैलिंग लिस्ट पर लाने का शुक्रिया, > जिसने चखा हो मिटटी का स्वाद , > और रंगे हो गोबर से हाथ, > वही जान सकता है... > > फीता राम > > 2009/11/20 ravikant > > vijay Kumar Pandey ka shukriya >> >> r >> >> >> किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली >> >> >> >> दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला >> किसान 19 >> नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी >> सी लगने लगी >> थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को >> दिल्ली की >> सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये >> दिल्ली का >> लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। >> ये प्रगति >> मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या >> दिल्ली के लकदक >> चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना >> दर्द >> बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग >> बने। टिकर की >> खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद >> देश की >> राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं >> दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या >> फिर >> अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। >> आखिर एक दिन >> उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई। >> >> इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां >> तक पहुंचे >> है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह >> अंधेरी >> रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान >> के बेटे थोड़े >> ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के >> इलाकों में >> अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी >> लंबी-लंबी कारों >> के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते >> इन्हीं किसानों >> की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका >> फायदा >> हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती >> की जमीनों पर >> हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी >> बची रही तो >> इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात >> क्यों करें, ये >> हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या >> लेना-देना। और तो और >> जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में >> खड़ा करेंगे। हम >> उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप >> करके उन्होंने देश >> को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह >> न करने >> वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो >> किसानों की >> बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के >> वोट से >> चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख >> दिल्लीवासियों को >> करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से >> किसी की फ्लाइट >> मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से >> किसी >> की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ >> और आने से रह >> गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए >> ट्रैफिक जाम में >> कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ >> करना भी नहीं >> चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने >> वालों! दिल्ली >> तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में >> लिखेंगे, जब कोई >> प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम >> उनकी मर्मांतक >> रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। >> इसलिए हे किसान! >> खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली। >> >> विजय कुमार पाण्डेय >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091121/357e0f2f/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon Nov 23 12:02:27 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 23 Nov 2009 12:02:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVLeCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSj4KWHIOCkruCkvuCksOCljeCklyDgpK7gpYfgpIIg4KSo4KWA4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KS2IOCklOCksCDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAgOiDgpKrgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSk4KS/4KSV4KWN4KSw4KS+4KSC4KSk4KS/IOCkleClhyDgpLjgpL4=?= =?utf-8?b?4KSy?= Message-ID: <363092e30911222232r4351a674t8d9f64acfa81c029@mail.gmail.com> एक-अणे मार्ग में नीतीश और बिहार : प्रतिक्रांति के साल *नीतीश सरकार के चार साल 24 नवम्बर को पूरे हो रहे हैं और मीडिया की मानें तो बिहार में पिछले चार सालों में स्वर्ग उतर आया है. हर जगह चाटुकारों के चारणगीत सुने जा सकते हैं-जिसमें सरकारी प्रचार तंत्र से आगे-आगे है वहां का मीडिया (बल्कि प्रेमचंद के शब्दों को इस सन्दर्भ में कहें तो बिहार का मीडिया सरकारी प्रचारतंत्र के आगे चलनेवाली मशाल बन गया है). उसकी नज़र से देखें तो यहाँ सब तरफ फीलगुड है. पिछले कुछ सालों कि तरह इस साल भी नीतीश सरकार की तारीफ़ के पुल बंधे जायेंगे और विशेषांकों के ज़रिये जनता को बताया जायेगा कि उसे भले ही पता नहीं, सरकार उसके ऊपर कितनी मेहरबान है. मीडिया भले न करे (और हम उम्मीद भी नहीं करते), लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सरकार पर किसी की आलोचनात्मक नज़र नहीं है. पिछले साल एक पुस्तिका आयी थी-तीन साल तेरह सवाल. हालाँकि इस पर किसी का नाम नहीं था, लेकिन पढनेवाले जानते हैं कि यह किसने लिखी-प्रकाशित की थी. इस पुस्तिका का असर यह रहा था कि खुद नीतीश कुमार तक ने इस पर नाराज़गी जताई थी. * * * *इस 24 तारीख को सरकार के चार साल पूरे हो रहे हैं और हम हाशिया पर इन चार सालों में बिहार की दशा-दिशा पर लेखों की शृंखलाप्रस्तुत करेंगे. हालांकि इसकी शुरुआत हाशिया पर कुछ दिन पहले की पोस्टसे ही हो गयी थी, लेकिन आज से ये विशेष पोस्टें प्रस्तुत की जा रही हैं. पहली पोस्ट के रूप में तीन साल तेरह सवाल से विनोद कुंतल का एक एक प्रासंगिक लेख, साभार. कल हम एक और लेख पोस्ट करेंगे. * अगर आपके विरोधी आपकी तारीफ करते हैं तो समझिए कि आप गलत रास्ते पर हैं. *लेनिन * चारों ओर से वाह, वाह का शोर है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाहवाही के समंदर में उब-डूब कर रहे हैं. कोई विकास पुरुष कह रहा है, कोई सर्वश्रेष्‍ठ मुख्यमंत्री तो कोई भावी प्रधानमंत्री. इन प्रशंसकों ने उनके आसपास भव्य और गुरुगंभीर महौल सृजित करने की भी भरपूर कोशिश की है. कोसी की बाढ़ ने रंग में भंग जरूर डाला है लेकिन राग मल्हार अब भी जारी है. कौन हैं ये प्रशंसक? क्या ये समाजवाद के समर्थक हैं? सामाजिक न्याय के हिमायती हैं? अगर नहीं, तो ये समाजवादी नेता नीतीश कुमार की प्रशंसा में कसीदे क्यों काढ़ रहे हैं? जाहिर है, नीतीश के आसपास आरक्षण विरोधियों का जमावड़ा अनायास तो नहीं ही है. इसे समझने के लिए राजग के वोट समीकरण व नीतीशकुमार की मानसिक बुनावट को समझना होगा. राजग 'नया बिहार-नीतीश कुमार' के नारे के साथ सत्ता में आया है. अगर नीतीश कुमार का नाम न होता तो राजग को अति पिछड़ी जातियों, पसमांदा मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलता. मार्च, 2005 में हुए विधान सभा चुनाव में भी माना जा रहा था कि राजग सत्ता में आया तो नीतीश मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन गठबंधन के स्तर पर इसकी साफ तौर पर घोषणा नहीं की गयी थी. उस चुनाव में अपेक्षा से कम वोट मिलने के बाद राजग (भाजपा) को महसूस हुआ कि किसी पिछड़े नेता के नाम के बिना उसकी नैया पार नहीं हो सकती. इसलिए राष्‍ट्रपि‍त शासन के बाद फिर चुनाव हुआ तो भाजपा ने नीतीश को बतौर मुख्यमंत्री घोषित करते हुए- 'नया बिहार-नीतीश कुमार' का स्लोगन बनाया. इस स्लोगन के अपेक्षित परिणाम आये. नीतीश कुमार को फेन्स पर खड़े पिछड़े तबके ने दिल खोलकर वोट दिया. दरअसल, वे लालू को किसी अपर कास्ट नेता से पदच्यूत कराना नहीं चाहते थे. इस तरह नीतीश कुमार ने बाजी जीती. लेकिन नीतीश कुमार को हमेशा यही विश्‍वास रहा कि उनकी जीत उंची जातियों के सहयोग के कारण हुई है. पिछड़ी जातियों के सहयोग को उन्होंने नजरअंदाज किया. पूरा पढ़िए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_6032.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091123/56daf163/attachment.html From beingred at gmail.com Mon Nov 23 12:02:27 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 23 Nov 2009 12:02:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVLeCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSj4KWHIOCkruCkvuCksOCljeCklyDgpK7gpYfgpIIg4KSo4KWA4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KS2IOCklOCksCDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAgOiDgpKrgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSk4KS/4KSV4KWN4KSw4KS+4KSC4KSk4KS/IOCkleClhyDgpLjgpL4=?= =?utf-8?b?4KSy?= Message-ID: <363092e30911222232r4351a674t8d9f64acfa81c029@mail.gmail.com> एक-अणे मार्ग में नीतीश और बिहार : प्रतिक्रांति के साल *नीतीश सरकार के चार साल 24 नवम्बर को पूरे हो रहे हैं और मीडिया की मानें तो बिहार में पिछले चार सालों में स्वर्ग उतर आया है. हर जगह चाटुकारों के चारणगीत सुने जा सकते हैं-जिसमें सरकारी प्रचार तंत्र से आगे-आगे है वहां का मीडिया (बल्कि प्रेमचंद के शब्दों को इस सन्दर्भ में कहें तो बिहार का मीडिया सरकारी प्रचारतंत्र के आगे चलनेवाली मशाल बन गया है). उसकी नज़र से देखें तो यहाँ सब तरफ फीलगुड है. पिछले कुछ सालों कि तरह इस साल भी नीतीश सरकार की तारीफ़ के पुल बंधे जायेंगे और विशेषांकों के ज़रिये जनता को बताया जायेगा कि उसे भले ही पता नहीं, सरकार उसके ऊपर कितनी मेहरबान है. मीडिया भले न करे (और हम उम्मीद भी नहीं करते), लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सरकार पर किसी की आलोचनात्मक नज़र नहीं है. पिछले साल एक पुस्तिका आयी थी-तीन साल तेरह सवाल. हालाँकि इस पर किसी का नाम नहीं था, लेकिन पढनेवाले जानते हैं कि यह किसने लिखी-प्रकाशित की थी. इस पुस्तिका का असर यह रहा था कि खुद नीतीश कुमार तक ने इस पर नाराज़गी जताई थी. * * * *इस 24 तारीख को सरकार के चार साल पूरे हो रहे हैं और हम हाशिया पर इन चार सालों में बिहार की दशा-दिशा पर लेखों की शृंखलाप्रस्तुत करेंगे. हालांकि इसकी शुरुआत हाशिया पर कुछ दिन पहले की पोस्टसे ही हो गयी थी, लेकिन आज से ये विशेष पोस्टें प्रस्तुत की जा रही हैं. पहली पोस्ट के रूप में तीन साल तेरह सवाल से विनोद कुंतल का एक एक प्रासंगिक लेख, साभार. कल हम एक और लेख पोस्ट करेंगे. * अगर आपके विरोधी आपकी तारीफ करते हैं तो समझिए कि आप गलत रास्ते पर हैं. *लेनिन * चारों ओर से वाह, वाह का शोर है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाहवाही के समंदर में उब-डूब कर रहे हैं. कोई विकास पुरुष कह रहा है, कोई सर्वश्रेष्‍ठ मुख्यमंत्री तो कोई भावी प्रधानमंत्री. इन प्रशंसकों ने उनके आसपास भव्य और गुरुगंभीर महौल सृजित करने की भी भरपूर कोशिश की है. कोसी की बाढ़ ने रंग में भंग जरूर डाला है लेकिन राग मल्हार अब भी जारी है. कौन हैं ये प्रशंसक? क्या ये समाजवाद के समर्थक हैं? सामाजिक न्याय के हिमायती हैं? अगर नहीं, तो ये समाजवादी नेता नीतीश कुमार की प्रशंसा में कसीदे क्यों काढ़ रहे हैं? जाहिर है, नीतीश के आसपास आरक्षण विरोधियों का जमावड़ा अनायास तो नहीं ही है. इसे समझने के लिए राजग के वोट समीकरण व नीतीशकुमार की मानसिक बुनावट को समझना होगा. राजग 'नया बिहार-नीतीश कुमार' के नारे के साथ सत्ता में आया है. अगर नीतीश कुमार का नाम न होता तो राजग को अति पिछड़ी जातियों, पसमांदा मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलता. मार्च, 2005 में हुए विधान सभा चुनाव में भी माना जा रहा था कि राजग सत्ता में आया तो नीतीश मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन गठबंधन के स्तर पर इसकी साफ तौर पर घोषणा नहीं की गयी थी. उस चुनाव में अपेक्षा से कम वोट मिलने के बाद राजग (भाजपा) को महसूस हुआ कि किसी पिछड़े नेता के नाम के बिना उसकी नैया पार नहीं हो सकती. इसलिए राष्‍ट्रपि‍त शासन के बाद फिर चुनाव हुआ तो भाजपा ने नीतीश को बतौर मुख्यमंत्री घोषित करते हुए- 'नया बिहार-नीतीश कुमार' का स्लोगन बनाया. इस स्लोगन के अपेक्षित परिणाम आये. नीतीश कुमार को फेन्स पर खड़े पिछड़े तबके ने दिल खोलकर वोट दिया. दरअसल, वे लालू को किसी अपर कास्ट नेता से पदच्यूत कराना नहीं चाहते थे. इस तरह नीतीश कुमार ने बाजी जीती. लेकिन नीतीश कुमार को हमेशा यही विश्‍वास रहा कि उनकी जीत उंची जातियों के सहयोग के कारण हुई है. पिछड़ी जातियों के सहयोग को उन्होंने नजरअंदाज किया. पूरा पढ़िए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_6032.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091123/56daf163/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Wed Nov 25 13:03:22 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 25 Nov 2009 13:03:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KWA4KSm?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4g4KSq4KSwIOCkrOClgOCkrw==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruCklyzgpI/gpKjgpKHgpYDgpJ/gpYDgpLXgpYAg4KSH4KSC?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleCkviDgpK7gpL/gpLLgpL4g4KS44KSu4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSl4KSo?= Message-ID: <829019b0911242333y705f044bp262e860163ea719b@mail.gmail.com> 26/11 के जिन शहीदों की तस्वीरों को देखकर उनके बच्चे,पाल-पोसकर बढ़ा करनेवाली माएं और उनकी विधवा हो चुकी पत्नी अब भी बिलख रही हैं,देश का तथाकथित संभ्रांत समाज उन तस्वीरों के शराब के मग पर छापे जाने से खुश है। वो उस मग में में बीयर और शराब पीकर उन्हें याद कर रहा है। ये अलग और नए किस्म से शहीदों को याद करना है। इसके लिए उन्हें तीन सौ रुपये देने पड़ रहे हैं। एनडीटीवी इंडिया ने मुंबई के लियोपोल्ड कैफे की इस पहल का विरोध करने के बजाय सराहा है। शिव सेना के खिलाफ स्टोरी एंगिल लेने के चक्कर में इसके खिलाफ एक लाइन भी बोलना-बताना जरुरी नहीं समझा।..और तो और उसके पक्ष में कसीदे पढ़ने का काम किया। शराब के लिए ड्रिंक मग पर 26/11 के चिन्हों और शहीदों की फोटो छापे जाने और तीन सौ रुपये पैग बेचे जाने पर शिव सैनिकों ने एक बार फिर हंगामा किया। मुंबई के 26/11 आतंकवादी हमले में मुंबई का लियोपाल्ड कैफे भी हमले का शिकार रहा है। उसकी दीवारों पर आज भी आतंकवादियों की गोलियों के निशान मौजूद है। मैनेजमेंट उसे याद के तौर पर बचाकर रखना चाहता है। इसी क्रम में उसने ड्रिंक मग के पर इस घटना के कुछ चिन्ह प्रिंट करवाकर ग्राहकों के लिए उपलब्ध करवाए। टेलीविजन फुटेज पर कोका कोला के डिश पेपर के उपर रखे ये मग धमाके और खून के धब्बे के तौर पर दिखाई दे रहे थे। शिव सैनिकों ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि रेस्तरां याद के नाम पर शहीदों की शहादत को भुनाना चाह रहा है। उसका भी बाजारीकरण किया जा रहा है। जाहिर है ये देश की संस्कृति के खिलाफ है। ये संभव था कि अगर शिव सेना इस पर विरोध नहीं जताती और मीडिया से जुड़े लोगों ने इसकी नोटिस ली होती तो वो भी इससे असहमति जताते हुए इसके खिलाफ स्टोरी बनाते,दिखाते। लेकिन एनडीटीवी इंडिया में सात बजे के शो में पहले एंकर रुचि डोंगरे ने इसे चुनावी हार की बौखलाहट से जोड़कर दिखाया,बताया उसी बात को विनोद दुआ ने अपने खास कार्यक्रमविनोद दुआ लाइव में भी इसी अंदाज में पेश किया। उन्होंने तो इस हमले का ऐतिहासिक विकासक्रम बताते हुए विधान सभा हंगामा,एक निजी चैनल पर हमला तक ले गए। स्थिति साफ है कि शिव सेना अब चाहे जो कुछ भी कर ले,जिस भी मुद्दे की बात कर लें,मीडिया उसके खिलाफ आग उगलने का फार्मूला गढ़ लिया है। मीडिया का ऐसा करना जरुरी भी है क्योंकि जब तो वो विरोध के तरीकों में बदलाव नहीं लाती है,उसका विरोध करना अनिवार्य है। शिव सेना ने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा। मीडिया और कांसीराम के प्रकरण को कभी याद नहीं किया कि मीडिया से पंगा लेने का क्या अंजाम होता है? लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि क्या एनडीटीवी इंडिया जैसा चैनल लियोपोर्ड के इस तीन सौ रुपये के पैग और मग का विरोध इसलिए नहीं करता कि वो शिव सेना को उत्पाती दिखाना चाहता है? अगर उसने भी इसके विरोध में एक लाइन भी कहा होता तो शिव सेना के समर्थन में खड़ा नजर आता? मामला चाहे जो भी हो लेकिन लियोपोर्ड का समर्थन इसलिए ज्यादा जरुरी और बाजिब है क्योंकि वो भी वही कर रहा है जो कि चैनल के लोग कर रहे हैं। अपने-अपने स्तर से भुनाने की कोशिश। ऐसे में निष्पक्ष होकर बात करने की गुंजाइश ही कहां बच जाती है? स्टिल फोटो- पुष्कर पुष्प के सौजन्य से मूलतः प्रकाशित- मीडिया मंत्र -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091125/85019133/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Wed Nov 25 18:50:28 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Wed, 25 Nov 2009 13:20:28 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016e68dec1621705b047931ec2d@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// चैनलों की फुसफास Posted: 25 Nov 2009 01:34 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/RLeFVVwgJpI/blog-post_25.html?utm_source=feedburner&utm_medium=email Normal 0 false false false EN-US X-NONE HI /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-priority:99; mso-style-qformat:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin-top:0in; mso-para-margin-right:0in; mso-para-margin-bottom:10.0pt; mso-para-margin-left:0in; line-height:115%; mso-pagination:widow-orphan; font-size:11.0pt; mso-bidi-font-size:10.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif"; mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-fareast-font-family:"Times New Roman"; mso-fareast-theme-font:minor-fareast; mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;} बंबई में लियोपोल्‍ड कैफे में शिवसेना की हुड़दंग पर विनीत ने आज एक पोस्‍ट लिखा है. कुछ तकनीकी दिक्‍कत की वजह से मेरी राय वहां पोस्‍ट नहीं हो पा रही है, लिहाज़ा यहां आपके साथ साझा कर रहा हूं: क्‍या कहते हो भैया इसी एनडीटीवी को किसानों का प्रदर्शन शहर में अव्‍यवस्‍था फैलाता दिखता है! भाई शिवसेना या किसी भी सेना द्वारा भड़काए जाने वाले दंगे-फसादों का मैं भी घोरविरोधी हूं. पर कम से कम अपने विवेक को खुला रखता हूं कि अंध शिवसेना विरोध या अंध मनसे विरोध के चक्‍कर में बेहद महत्तवपूर्ण मसलों पर निगाह डालने से मेरी आंखें इनकार न दे. किसानों के प्रदर्शन से शहर में अव्‍यवस्‍था फैलने के पीछे तर्क ये दिया गया कि प्रदर्शनकारियों ने जमकर शहर में उत्‍पात मचाया, सरकारी और निजी संपत्तियों को नुक्‍शान पहुंचाया, आदि-आदि. मैं उनकी बातों से इस बात से सहमत हूं कि हां, प्रदर्शनकारियों ने वैसा किया. पर सवाल ये है कि क्‍या सारे प्रदर्शनकारी हुड़दंग में शामिल थे? चलिए, इससे भी क्‍या हो जाएगा ... पर क्‍या उनकी मांग नाजायज़ थी, क्या देश के दूर-दराज़ से लोग बड़ा खुश होकर आते हैं दिल्‍ली में प्रदर्शन करने, जब प्रदर्शनकारी लाठी खाकर दर्द सहलाते जाते हैं तब कौन अव्‍यवस्‍था फैला रहा होता है और कौन निरंकुश? पंकज पचौरी और उनके सानिध्‍य में पत्रकारिता करने वालों को ज़रा इन बातों पर भी विचार करना होगा. 'हमलोग' वाले शीर्षस्‍थ पत्रकार साहब ये बता पाएंगे कि अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान जिस जंतर-मंतर पर 'उत्‍पात' मचा रहे थे वहीं देश भर के ग़रीब-गुर्बा और आदिवासी जमा होकर अपने ज़मीन पर अपने हक़ के लिए प्रतिरोध सभा कर रहे थे, उनकी नेता मेधा पाटकर भी कम कद्दावर नहीं थी, क्यों नहीं उस पर अपना कैमरा घुमवा लिए? 'आइबीएन लोकमत' के दफ़्तर में जब लंपटों ने हमला किया था तब कैसे छाती पीट-पीट कर लोकतंत्र को बचाने की गुहार कर रहे थे, पंकज बाबु ने कहा था कि ब्रॉडकास्‍ट एडिटर्स गिल्‍ड (या एसोशिएशन ने मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा इस वक्‍त) ने यह तय किया था कि मीडिया वालों को बुला कर की जाने वाली कार्रवाई को कवर नहीं किया जाएगा. बड़ी अच्‍छी बात है, कितनी बार पालन किया आपने! भैया, यही लोग हैं जो 'राष्‍ट्रीय महत्त्‍व' की शिल्‍पा-कुंदरा की शादी को हेडलाइन बताते हैं और उस पर स्‍पेशल पैकेज लेकर आते हैं. भैया, काहे भोलेपन से भारी सवाल की ओर इशारा करते हो. ये चैनल-वैनल एक बड़ी साजीश का हिस्‍सा हैं. वैसे किसी मसले या वैसी किसी नीति की तरफ़ ये इशारा नहीं करेंगे जिससे लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है. पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसान या हों या विदर्भ के या फिर बलिया या सीतामढ़ी के, या देश भर के आदिवासी: उनके सवालों में किसी भी मीडिया की दिलचस्‍पी नहीं है. प्रतीक के तौर पर महंगाई का जिक्र करते कभी इनके लोग ओखला या आज़ादपुर मंडी से आलू-प्‍याज़ के भाव बताते दिख जाएंगे, कभी-कभार किसी मध्‍यवर्गीय कॉलोनी की इटालियन मार्वल ठुके किचेन से किसी महिला का बिगड़ता मासिक बजट सुना देंगे. बस. खुर्जा, सोनीपत, धुल्‍लै, सहारनपुर, शाहजहांपुर, पासीघाट, डिमापुर, कोकराझार या डेहरी ऑन सॉन में इस महंगाई से पहले भी कैसे लोगों की कमर टेढी हो रही थी - कभी न बताया न बताएंगे. चाहिए मसाला, चटपटा मसाला. ऐसा कि डालें तो चना जोर गरम बन जाए. ग़रीब, ग़रीबों की समस्‍याएं और उनकी जद्दोजहद को आज का मीडिया और खासकर कोई चैनलवाला कभी स्‍टोरी का प्‍लॉट नहीं बनाता. अपवाद और मिसाल भले गिना दें, गिना ही सकते हैं. बस. आतंकवाद, शिवसेना, ठाकरे फैमिली, फिल्‍म, फैशन, लाइफ़-स्‍टाइल, बाज़ार, राहुल बाबा, यु-ट्यूब, चमत्‍कार, बाबा-ओझा से इतर सोचना भी इन्‍हें पहाड़ लगता है. आतंकवाद और पाकिस्‍तान न होता तो 24 घंटे वाले चैनलों की कैसी दुगर्ति होती, कल्‍पना की जा सकती है. ऐसे में भावनाओं, संवेदनाओं, हत्‍याओं, कुर्बानियों और संबंधों का बाज़ारीकरण बड़ा सहारा देता है. मैं तो अब भी इस 'भ्रम' में रहूंगा कि नागरिक हूं, और स्‍कूलिया ज्ञान पर भी अभी भरोसा क़ायम है. इसलिए उम्‍मीद है कि शायद कभी अंगूलीमाल से इनकी भेंट होगी और ये मरा-मरा से राम-राम में बदलेंगे. गलत कहा? सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now: http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s Email delivery powered by Google. Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091125/33c78b4c/attachment-0001.html From umashankar19mishra at gmail.com Thu Nov 26 10:54:06 2009 From: umashankar19mishra at gmail.com (umashankar mishra) Date: Thu, 26 Nov 2009 10:54:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWI4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSVIOCkl+CljeCksOCkvuCkriwg4KSo4KS/4KSw4KWN4KSu4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4KSw4KS+4KSuIOCkruCkvuCksuCkl+CkvuCkguCktQ==?= Message-ID: जैविक ग्राम, निर्मल ग्राम मालगांव कुछ समय पहले तक भारतीय गांवों के अथाह महासागर में मलगांव भी एक गुमनाम एवं आम गांव हुआ करता था, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी। सूखे की मार ने मलगांव के लोगों को ऐसा सबक सिखाया कि उन्हें दीर्घकालीन एवं जैविक खेती को अपनाना जरूरी लगने लगा। आज मलगांव को जैविक एवं निर्मल ग्राम के तौर पर पहचाना जाता है। पूरी रिपोर्ट पढने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें... http://www.ujjas.blogspot.com/ -: उमाशंकर मिश्र :- -- Umashanakr Mishra india foundation for rural development studies room no.406, 49-50, red rose building Nehru place, New Delhi-110019 Ph.9968425219 umashankar19mishra at gmail.com www.ujjas.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091126/56b5fb70/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Nov 26 16:59:23 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Thu, 26 Nov 2009 16:59:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Znc6IOCkpuCliw==?= =?utf-8?b?4KSc4KS84KSW4KS8IOCkleCkviDgpLLgpYvgpJXgpL7gpLDgpY3gpKrgpKM6?= =?utf-8?b?IOCkqOCljeCkr+CljOCkpOCkvg==?= Message-ID: <4B0E6693.604@sarai.net> राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 सैयद ज़ैग़म इमाम के उपन्यास दोज़ख़ का लोकार्पण लोकार्पण-राजेंद्र यादव अध्यक्षता-नामवर सिंह वक्ता-अनामिका (प्रसिद्ध साहित्यकार) आशुतोष (मैनेजिंग एडीटर, आईबीएन 7) शीबा असलम फहमी (मुस्लिम मामलों से जुड़ी शोधकर्ता) संचालन-रविकांत स्थान: त्रिवेणी कला संगम, सभागार तानसेन मार्ग, मंडी हाउस नई दिल्ली दिनांक 30 नवंबर समय 5.30 बजे सायं आपकी गरिमामयी उपस्थिति प्रार्थनीय है अशोक महेश्वरी प्रबंध निदेशक 23274463, 23288769 From gshree31 at gmail.com Mon Nov 16 13:34:45 2009 From: gshree31 at gmail.com (geetashree) Date: Mon, 16 Nov 2009 13:34:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= must read Message-ID: http://raviwar.com/news/246_love-sex-truth-krishna-bihari.shtml -- Geetashree Feature Editor Outlook (Hindi) mobile> 9818246059 Email> geetashree at outlookindia.com Office-AB-6, Safdarjung enclave new delhi, 110029 From vineetdu at gmail.com Fri Nov 27 12:29:51 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 27 Nov 2009 12:29:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KWA4KSm?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClgCDgpLbgpLngpL7gpKbgpKQg4KSu4KS54KScIA==?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpIfgpLXgpYfgpILgpJ8g?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSCIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0911262259s4a6094bbne361656648ed5972@mail.gmail.com> आठ-आठ रुपये लेकर स्कूली बच्चों को सदभावना अभिव्यक्ति के स्टीकर बांटे जा रहे हैं।रूपनगर (दिल्ली) के सरकारी स्कूल से निकलनेवाली लड़कियों से रुक कर जब हमने पूछा कि इसे अपनी आइडी पर क्यों चिपकाया है – उसका जवाब था, टीचर ने कहा है लगाने के लिए।स्टीकर की कीमत भी उसी ने बतायी। कैंपस में कुछ लड़के हमें इसे दस रुपये में ले लेने का अनुरोध कर रहे थे। डीयू कैंपस की आर्ट्स फैकल्टी के मेन गेट के आगे बहुत भीड़ है। किसी छात्र राजनीतिक पार्टी के लोग जमा होकर वहां मोमबत्तियां जलाने का काम करने जा रहे हैं। हवन की तरह लकड़ियां पहले से जल रही है। देश के कई मीडिया चैनल पहले से तैनात हैं। पीछे से एक बंदा दूसरे बंदे को धक्का देता है – भैनचो… बार-बार आगे आ जा रहा है,टीवीवाले क्या तुम्हारे… की फोटो खींचेंगे… अबे सुन, ये ले, इतने में जितनी कैंडिल आ जाए, ले लियो। चैनल की माइक लिये लोगों के पास ही बंदे मंडरा रहे हैं। कुछ को इसका फल भी मिला है और उसकी बाइट ली जा रही है। चारों तरफ दैनिक जागरण के बैनर पाट दिये गये हैं। बैनर टांगता हुआ एक बंदा कहता है- अबे भोसड़ी के हंसा मत, ठीक से बंध नहीं रहा। ये सब कुछ देश के उन शहीदों को याद करने के लिए किया जा रहा है, जिन्होंने शायद ही कभी सोचा होगा कि मेरे शहीद होने के साथ ही किसी खास पार्टी के खांचे और रंगों की लकीरों से बने बैनरों के बीच फिट कर दिया जाएगा? दो दिन पहले मुंबई के लियोपोल्ड कैफे ने 26/11 के चिन्हों और शहीदों की याद में 300 रुपये के पैग की सेवा शुरू की। पैग मग पर शहीदों की तस्वीरें और धमाके और खून के धब्बों को प्रतीक के तौर पर मग पर छपवाया। अफ़सोस कि एनडीटीवी इंडिया ने कैफे की समझ को पहल बताया। कल रात एनडीटीवी के फुटेज में 26/11 के शहीदों को याद करने के लिए क्या तैयारियां चल रही हैं, इसके बारे में विस्तार से बताया गया। एंकर रुचि डोंगरे ने बताया कि शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए कॉलेजों के स्टूडेंट सड़कों पर उतर आये हैं। कुछएमटीवी टच के स्टूडेंट्स अंग्रेज़ी में स्लोगन लिख रहे थे, एंकर हम हिंदी समझनेवाली ऑडिएंस को उसका हिंदी तर्जुमा करके बता रही थी। इस फुटेज को देखते हुए मुझे रंग दे बसंती का पूरा का पूरा डीजे ग्रुप याद आ जा रहा था। वो भी ऐसे ही स्प्रे पेंट करते हैं। गृहमंत्री की लापरवाही और दलाली के चलते फ्लाइट लेफ्टीनेंट अजय राठौर की मौत पर इंडिया गेट पर कैंडल जलाते हैं। मैं ये बिल्कुल भी नहीं कहता कि इस दिन ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस फिल्म का मीडिया पार्टनर एनडीटीवी इंडिया, 26/11 के मौके को सिनेमाई अंदाज़ में पेश करता है। सवाल है कि हम इस रवैये को मीडिया मैटर मानकर चलता कर जाएं या फिर इससे आगे भी सोचने की ज़रूरत है? 26/11 को लेकर टेलीविजन चैनलों ने लाइव कवरेज के नाम पर जो कुछ भी दिखाया, उसकी कई स्तरों पर समीक्षा हुई है। इस बार के इंडिया टुडे ने इस पर विशेषांक निकाला है। पिछले साल मीडिया मंत्र ने कैमरे में 26/11 पर विशेषांक निकाले हैं। टेलीविजन चैनलों ने जिस तरह इसके कवरेज दिखाये, उसकी जमकर आलोचना हुई। एक साल होने पर सप्ताह भर पहले से ही टीवी चैनलों ने जिस तरह के महौल बनाने शुरू किये, उसे देखते हुए संयमित होकर प्रसारण का (23 नवंबर) सरकारी फरमान जारी किया गया। ये सारी बातें ठीक है कि मीडिया किसी भी घटना को एक कन्जप्शन मोड तक ले जाता है। वो उसे सिर्फ सूचना और देखे जाने तक का हिस्सा बनने नहीं रहने देना चाहता। वो एक दर्शक को बाज़ार के दरवाजे तक लाकर पटक देना चाहता है। इस पूरी अवधारणा को समझने के लिए ऑर्थर असा बर्जर की किताब मैनुफैक्चरिंग डिजायर पढ़ना दिलचस्प होगा। यहां आकर देश के चैनलों से हम ये सवाल कर सकते हैं कि क्या 26/11 का आतंकवादी हमला मीडिया इवेंट भर है? ऐसा पूछा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि जिस तरह के मैलोड्रामा और मैनुपुलेशन जारी हैं, उसमें मानवीय संवेदना की सही समझ ग़ायब हो जाती है। छवि के जरिये यथार्थ के दावे को लेकर सूसन सौंटगै की पूरी अवधारणा है, इस पर बात होनी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही कुछ सवाल और हैं कि ♦ 26/11 को लेकर बच्चों के बीच आठ रुपये के सदभावना टिकट बेचा जाना क्यों ज़रूरी है? ♦ इसके पीछे के सांकेतिक अर्थे क्या हैं? ♦ क्या ये आतंकवादी घटनाएं दो कौमों के बीच की पैदाइश है? ♦ ये किसने शुरू किया कि आज के दिन इस तरह के टिकट जारी किए जाएं और बच्चों के बीच सद्भावना बनाये रखने के पाठ पढ़ाये जाएं। ये समाज में किस तरह के असर पैदा करेंगे, इस पर चर्चा ज़रूरी है। ♦ दूसरी बात कि आठ रुपये के इस टिकट से जो पैसे आएंगे, उसके पीछे का क्या हिसाब है? ये काम तो आइडिया मोबाइल फोन भी करने जा रहा है। हम आतंकवाद से बचने के लिए कोई और पाठ और महौल तो तैयार नहीं कर रहे? जगह-जगह संगठनों और पार्टियों की ओर से कैंडिल जलाये जा रहे हैं। चैनलों ने एक लौ जलाने का कॉन्सेप्ट ईजाद किया है। क्या ये देश के किसी भी शहीद को याद करने का सही तरीका है, जब इसमें ताम-झाम पैदा करके शहर के हर चौक को जाम कर दें। लौ जल जाने के बाद भी कैमरे के चूक जाने पर दोबारा जलाएं… हम चाहते क्या हैं? दरअसल हमारा देश कर्मकांडों को इतनी तवज्‍जो देता आया है कि हर घटना को एक कर्मकांड में बदल देने के लिए हम बेचैन हो उठते हैं। हम अपनी भावनाओं का, संवेदना और अनुभूतियों का एक मूर्त रूप (physical form) चाहते हैं। हम इन अनुभूतियों को निराकार रूप में संजोने के अभ्यस्त नहीं हैं। हमारी इसी मानसिक कमज़ोरी से कर्मकांड के विस्तार की गुंजाइश बढ़ जाती है। समाज की हर घटना कर्मकांडों का हिस्सा बन जाती है। उसके बाद एक पैटर्न हमारे सामने तैयार होता है कि हमें किसी के शहीद होने पर या मर जाने पर क्या करना है। यहां पर आकर कर्मकांड और बाज़ार के बीच एकरूपता कायम होती है। कर्मकांड का काम है हमारी हर भावनाओं और अनुभूतियों को एक जड़ रूप देना और बाज़ार का काम है हमारी इन अनुभूतियों को वस्तु (comodity) के आगे रिप्लेस करके कर्मकांड के साथ गंठजोड़ कर लेना। शायद यही वजह है कि इस देश में कभी और आज भी हर मुसीबत को लेकर एक नया देवता पैदा होता जाता है और उसे खुश करने की पूजन विधि, तो दूसरी तरह हर घटना के पीछे सैकड़ों सिंबॉलिक प्रोडक्टस और बाज़ार की हरकतें। उसके बाद हमारी भावनाएं हवा हो जाती हैं, सब कुछ इस कर्मकांड और वस्तुओं में रिप्लेस हो जाता है। दुर्भाग्य से देश का टेलीविजन इसी के बीच अपनी भूमिका खोजता नज़र आता है। इससे आगे वो कभी नहीं जाता। ये सच है कि टेलीविजन अपने मतलब की बात करता है, लेकिन आखिर क्यों शहीदों को याद किये जाने की घटना, समाज को मदद करने के तरीके, हाशिये पर के समाज की सुध लेने के अंदाज़ मीडिया स्ट्रक्चर में रह कर ही किये जाते हैं। हम ये सब कुछ इसी अंदाज़ में फॉर्मेट करते हैं, जिससे कि मीडिया कवरेज में आसानी हो। इस नज़रिये से अगर आप सोचें तो दिन-रात मीडिया को कोसने, गरियाने और कोसनेवाली संस्थाएं, विचार और लोग काम करने के तरीके में उसी के स्ट्रक्चर को फॉलो करते हैं। इसलिए सवाल सिर्फ इस बात का नहीं है कि मीडिया किसी भी बात को हायपरबॉलिक बना देता है, सवाल इस बात का भी है कि हम मीडिया के फॉर्मेट में रह कर क्यों एक्ट करना शुरू कर देते हैं, सोचना शुरू करते हैं? सिविल सोसायटी में शहीदों के नाम पर एक मोमबत्ती जला देने और टीवी के फ्रेम के आ जाने से उन माओं की आंखों के आंसू थम जाते हैं, उन विधवाओं के दर्द ख़त्म हो जाते हैं, जिसके जवान बेटे और पति ने अपनी जान गंवायी? सवाल इस बात का है कि संवेदना के स्तर पर समाज इस दर्द को किस हद तक महसूस करता है? क्या कोई भी इसलिए शहीद होता है कि उसके नाम पर कर्मकांडों के जाल बिछाये जाएं और शहादत को एक ब्रैंड में तब्दील करके बाज़ार पैदा किये जाएं।.. मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091127/ad92594c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Nov 30 11:57:49 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 30 Nov 2009 11:57:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KSc4KS8?= =?utf-8?b?4KSW4KS8IOCkleCkviDgpLLgpYvgpJXgpL7gpLDgpY3gpKrgpKMg4KSG?= =?utf-8?b?4KScLA==?= Message-ID: <829019b0911292227g6e13daafyf7a1e9f79890cf9f@mail.gmail.com> सैयद ज़ैग़म इमाम मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर उन-गिने चुने लोगों में से हैं जो न्यूज रुम के तनावों और हील-हुज्जतों के बीच भी अपनी रचनाधर्मिता को बचाए हुए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया के फार्मूलाबद्ध पैकजों से बाहर जाकर समाज,सरोकार और पक्षधरता के सवालों पर लगातार सोचने-जाननेवाले लोगों में से हैं। राजकमल से प्रकाशित उनका पहला उपन्यास दोज़ख़ उनकी इस रचनाधर्मिता और लेखन के बीच की संभावना को स्थापित करती है। वैसे तो दोज़ख़ की कहानी चंदौली जैसे छोटे से कस्बे के छोटे से अल्लन के पास घूमती है। लेकिन उसकी मासूम ख्वाहिशों और सपनों के बीच दोज़ख़ की जो शृंखला बनती है वो मासूम अल्लन की अकेली श्रृंखला न होकर उन तमाम लोगों की श्रृंखला बन जाती है जिनके लिए मजहबों और मान्यतों के बीच से गुजरकर अपने पक्ष में इंसानियत को चुनकर जीना आसान नहीं रह जाता। इंसानियत का दामन थामकर न तो अल्लन जैसे मासूम के लिए जीना संभव है और न ही इंसानियत का पक्ष लेते हुए आम लोगों के लिए। यह उपन्यास मज़हब और इंसानियत के बीच चलने वाली एक अजीबो गरीब कशमकश की कहानी है। एक ऐसे लड़के कि दास्तान जिसके हिंदू या फिर मुसलमान होने का मतलब ठीक से नहीं पता। मालूम है तो सिर्फ इतना कि वो एक इंसान है जिसकी सोच और समझ किसी मजहबी गाइडलाइन की मोहताज नहीं है। असल में इस उपन्यास की कहानी के बहाने भारतीय समाज के उस धार्मिक ताने बाने को उकेरने की कोशिश की गई है जो मजहब और नफरत की राजनीति से उभरने से पहले देश के शहरों और कस्बों की विरासत था, जहां मुसलमान अपने धर्म के प्रति सजग रहते हुए भी इस तरह के बचाव की मुद्रा में नहीं होते थे जैसे आज हैं। उपन्यास का नायक अलीम अहमद उर्फ अल्लन उसी माहौल का रुपक रचता है और अपनी सहज और स्वत स्फूर्त धार्मिकता के साथ हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों की सीमाओं से परे चला जाता है। उपन्यास में कम उम्र में होने वाले प्रेम की तीव्रता, एक मुस्लिम परिवार की आर्थिक तंगी, पीढ़ियों के टकराव और एक बच्चे के मनोविज्ञान का भी बखूबी अंकन हुआ है।(फ्लैप से) खाने की चीजें तो फिर भला लोगों की क्या बात करें? अल्लन के सपनों पर सामाजिक बंदिशों और रंजिशों की जो परतें चढ़ती है वो आगे चलकर दोज़ख़ में पड़े इंसान के संस्करण बनने की प्रक्रिया का उदाहरण पेश करती है। मिहिर कुमार जो कि आजतक में एसोसिएट प्रोड्यूसर हैं,उन्होंने भी इसी सवाल को उठाया है कि- छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों औऱ कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा औऱ मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं.... कई सवालों के बीच आज इस उपन्यास का लोकार्पण है जिस पर कि आइबीएन7 के आशुतोष,शीबा असलम फहमी और अनामिका विस्तार से चर्चा करेगी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091130/fd54caba/attachment.html From ashokk34 at gmail.com Wed Nov 11 21:01:24 2009 From: ashokk34 at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSF4KS24KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksCDgpKrgpL7gpKPgpY3gpKHgpYfgpK8=?=) Date: Wed, 11 Nov 2009 15:31:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: <85de31b90911102239o2d2fafc1v81dbce8337e52aa7@mail.gmail.com> References: <2e09e36a0911100254s36a81594k474d2315bb5d202c@mail.gmail.com> <2e09e36a0911100316j2d5b725ende17540bf326130a@mail.gmail.com> <85de31b90911102239o2d2fafc1v81dbce8337e52aa7@mail.gmail.com> Message-ID: इसे यहां भी देखें प्रभाष जी हिंदी के सबसे बड़े विचारहीन, कुतर्की, और रूढ़िग्रस्त लेखक थे http://hamkalam1.blogspot.com/2009/11/blog-post_11.html अशोक 2009/11/10 avinash das > http://mohallalive.com/2009/11/11/alok-srivastav-on-prabhash-joshi/ > > 2009/11/10 geetashree > > Thanks for mail. plz read this one- >> http://raviwar.com/news/242_prabhash-joshi-tribute-rajkishor.shtml >> >> >> >> On 11/10/09, alok shrivastav wrote: >> > On 11/10/09, alok shrivastav wrote: >> >> >> >> >> >> >> > >> >> >> -- >> Geetashree >> Feature Editor >> Outlook (Hindi) >> mobile> 9818246059 >> >> Email> geetashree at outlookindia.com >> Office-AB-6, Safdarjung enclave >> new delhi, 110029 >> > > -- अशोक कुमार पाण्डेय http://naidakhal.blogspot.com http://asuvidha.blogspot.com http://economyinmyview.blogspot.com http://hamkalam1.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091111/c4dde02f/attachment-0001.html From csp at arghyam.org Fri Nov 13 12:16:28 2009 From: csp at arghyam.org (Sharada Prasad CS) Date: Fri, 13 Nov 2009 06:46:28 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] We have a new Water Portal! Tell us if you like it? In-Reply-To: <370588890909241029m5441d42fv13201f5ba63e2e9e@mail.gmail.com> References: <370588890909241029m5441d42fv13201f5ba63e2e9e@mail.gmail.com> Message-ID: <370588890911122243p68da8947wc9a7914e5186fd1d@mail.gmail.com> [image: iwp3_logo1.gif] India Water Portal is a knowledge and social portal for exchanging knowledge, experiences and ideas on the water situation in India. Over the past few months, we have been working to transform the website into a much more user-friendly, participative and fun resource. The new website is now released and we encourage you to visit it now! So, what's new? 1. Personalized space for you to : * Upload your case studies, and best practices * Share your photographs and videos * Write about water issues * Participate in discussions * Post events and announcements 2. 13 new microsites on varied water domains( Rainwater Harvesting, Water for Industry, Water for Agriculture, Urban Water, etc) 3. Simple content for beginners and non-experts 4. Faster, more accurate search results 5. Daily News consolidated from newspapers, journals, and internet sources 6. Directory of water experts by geography and expertise We thank all the friends of the portal, who have guided us with suggestions and critiques over the past year. The collective wisdom of all our readers is what makes India Water Portal vibrant, informative, topical and relevant. Call or email us , and tell us what you think! Click this link to visit the portal. Thanking you, Sincerely, Vijay Krishna, Director, India Water Portal Website: http://indiawaterportal.org email: portal at arghyam.org Phone: 91-80-4169894142 Mob:9880137097 P.S. Your feedback would become part of the plans for the next release of the portal, in around 3 months time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091113/979f0397/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From csp at arghyam.org Fri Nov 13 12:16:29 2009 From: csp at arghyam.org (Sharada Prasad CS) Date: Fri, 13 Nov 2009 06:46:29 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] We have a new Water Portal! Tell us if you like it? In-Reply-To: <370588890909241029m5441d42fv13201f5ba63e2e9e@mail.gmail.com> References: <370588890909241029m5441d42fv13201f5ba63e2e9e@mail.gmail.com> Message-ID: <370588890911122243p68da8947wc9a7914e5186fd1d@mail.gmail.com> [image: iwp3_logo1.gif] India Water Portal is a knowledge and social portal for exchanging knowledge, experiences and ideas on the water situation in India. Over the past few months, we have been working to transform the website into a much more user-friendly, participative and fun resource. The new website is now released and we encourage you to visit it now! So, what's new? 1. Personalized space for you to : * Upload your case studies, and best practices * Share your photographs and videos * Write about water issues * Participate in discussions * Post events and announcements 2. 13 new microsites on varied water domains( Rainwater Harvesting, Water for Industry, Water for Agriculture, Urban Water, etc) 3. Simple content for beginners and non-experts 4. Faster, more accurate search results 5. Daily News consolidated from newspapers, journals, and internet sources 6. Directory of water experts by geography and expertise We thank all the friends of the portal, who have guided us with suggestions and critiques over the past year. The collective wisdom of all our readers is what makes India Water Portal vibrant, informative, topical and relevant. Call or email us , and tell us what you think! Click this link to visit the portal. Thanking you, Sincerely, Vijay Krishna, Director, India Water Portal Website: http://indiawaterportal.org email: portal at arghyam.org Phone: 91-80-4169894142 Mob:9880137097 P.S. Your feedback would become part of the plans for the next release of the portal, in around 3 months time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091113/979f0397/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Tue Nov 17 09:58:26 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 17 Nov 2009 04:28:26 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] Invitation for Enjoy the Water in India International Trade Fare Message-ID: <8b2ca7430911162025i4096410dqf85e682823e09e67@mail.gmail.com> Dear All, You all are invited to the stall of India Water Portalin *India International Trade Fare in Hall-7 E, Pragati Maidan, **New Delhi**. * Here we are in the pavilion of the Ministry of Water Resources. Here you can enjoy the water. Become a *Water Hero by playing the Quiz* and win the award and be *honored with a certificate*. Get online registration on *Hindi Water Portal *. Enjoy the Rivers of the world in a cartoon form. Know how you can use schools water portal for you projects and win awards. Get multimedia in the voice of Mr. Anupam Mishra and so many projects ideas in power point format for students and teachers. Know about the features of all water portals, e.g. www.indiawaterportal.org hindi.indiawaterportal.org schools.indiawaterportal.org Minakshi Arora 9250725116 hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091117/1c997272/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Tue Nov 17 09:58:28 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 17 Nov 2009 04:28:28 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] Invitation for Enjoy the Water in India International Trade Fare Message-ID: <8b2ca7430911162025i4096410dqf85e682823e09e67@mail.gmail.com> Dear All, You all are invited to the stall of India Water Portalin *India International Trade Fare in Hall-7 E, Pragati Maidan, **New Delhi**. * Here we are in the pavilion of the Ministry of Water Resources. Here you can enjoy the water. Become a *Water Hero by playing the Quiz* and win the award and be *honored with a certificate*. Get online registration on *Hindi Water Portal *. Enjoy the Rivers of the world in a cartoon form. Know how you can use schools water portal for you projects and win awards. Get multimedia in the voice of Mr. Anupam Mishra and so many projects ideas in power point format for students and teachers. Know about the features of all water portals, e.g. www.indiawaterportal.org hindi.indiawaterportal.org schools.indiawaterportal.org Minakshi Arora 9250725116 hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091117/1c997272/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From vijaykharsh at gmail.com Fri Nov 20 11:05:04 2009 From: vijaykharsh at gmail.com (VIJAY PANDEY) Date: Fri, 20 Nov 2009 05:35:04 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoISDgpJbgpKzgpLDgpKbgpL7gpLAhIOCkheCkrCDgpK7gpKQg4KSG?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkpuCkv+CksuCljeCksuClgA==?= Message-ID: किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला किसान 19 नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी लगने लगी थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को दिल्ली की सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। ये प्रगति मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या दिल्ली के लकदक चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना दर्द बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग बने। टिकर की खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई। इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली। विजय कुमार पाण्डेय -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091120/a29afb17/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon Nov 23 20:06:42 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 23 Nov 2009 14:36:42 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkr+CkviDgpKzgpJXgpLXgpL7gpLg=?= In-Reply-To: <85de31b90803291422u20733114w99264110ad1ca9a1@mail.gmail.com> References: <85de31b90803291422u20733114w99264110ad1ca9a1@mail.gmail.com> Message-ID: <363092e30911222227t41cbc61bj7fdbed401732d066@mail.gmail.com> एक-अणे मार्ग में नीतीश और बिहार : प्रतिक्रांति के साल *नीतीश सरकार के चार साल 24 नवम्बर को पूरे हो रहे हैं और मीडिया की मानें तो बिहार में पिछले चार सालों में स्वर्ग उतर आया है. हर जगह चाटुकारों के चारणगीत सुने जा सकते हैं-जिसमें सरकारी प्रचार तंत्र से आगे-आगे है वहां का मीडिया (बल्कि प्रेमचंद के शब्दों को इस सन्दर्भ में कहें तो बिहार का मीडिया सरकारी प्रचारतंत्र के आगे चलनेवाली मशाल बन गया है). उसकी नज़र से देखें तो यहाँ सब तरफ फीलगुड है. पिछले कुछ सालों कि तरह इस साल भी नीतीश सरकार की तारीफ़ के पुल बंधे जायेंगे और विशेषांकों के ज़रिये जनता को बताया जायेगा कि उसे भले ही पता नहीं, सरकार उसके ऊपर कितनी मेहरबान है. मीडिया भले न करे (और हम उम्मीद भी नहीं करते), लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सरकार पर किसी की आलोचनात्मक नज़र नहीं है. पिछले साल एक पुस्तिका आयी थी-तीन साल तेरह सवाल. हालाँकि इस पर किसी का नाम नहीं था, लेकिन पढनेवाले जानते हैं कि यह किसने लिखी-प्रकाशित की थी. इस पुस्तिका का असर यह रहा था कि खुद नीतीश कुमार तक ने इस पर नाराज़गी जताई थी. * * * *इस 24 तारीख को सरकार के चार साल पूरे हो रहे हैं और हम हाशिया पर इन चार सालों में बिहार की दशा-दिशा पर लेखों की शृंखलाप्रस्तुत करेंगे. हालांकि इसकी शुरुआत हाशिया पर कुछ दिन पहले की पोस्टसे ही हो गयी थी, लेकिन आज से ये विशेष पोस्टें प्रस्तुत की जा रही हैं. पहली पोस्ट के रूप में तीन साल तेरह सवाल से विनोद कुंतल का एक एक प्रासंगिक लेख, साभार. कल हम एक और लेख पोस्ट करेंगे. * अगर आपके विरोधी आपकी तारीफ करते हैं तो समझिए कि आप गलत रास्ते पर हैं. *लेनिन * चारों ओर से वाह, वाह का शोर है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाहवाही के समंदर में उब-डूब कर रहे हैं. कोई विकास पुरुष कह रहा है, कोई सर्वश्रेष्‍ठ मुख्यमंत्री तो कोई भावी प्रधानमंत्री. इन प्रशंसकों ने उनके आसपास भव्य और गुरुगंभीर महौल सृजित करने की भी भरपूर कोशिश की है. कोसी की बाढ़ ने रंग में भंग जरूर डाला है लेकिन राग मल्हार अब भी जारी है. कौन हैं ये प्रशंसक? क्या ये समाजवाद के समर्थक हैं? सामाजिक न्याय के हिमायती हैं? अगर नहीं, तो ये समाजवादी नेता नीतीश कुमार की प्रशंसा में कसीदे क्यों काढ़ रहे हैं? जाहिर है, नीतीश के आसपास आरक्षण विरोधियों का जमावड़ा अनायास तो नहीं ही है. इसे समझने के लिए राजग के वोट समीकरण व नीतीशकुमार की मानसिक बुनावट को समझना होगा. राजग 'नया बिहार-नीतीश कुमार' के नारे के साथ सत्ता में आया है. अगर नीतीश कुमार का नाम न होता तो राजग को अति पिछड़ी जातियों, पसमांदा मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलता. मार्च, 2005 में हुए विधान सभा चुनाव में भी माना जा रहा था कि राजग सत्ता में आया तो नीतीश मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन गठबंधन के स्तर पर इसकी साफ तौर पर घोषणा नहीं की गयी थी. उस चुनाव में अपेक्षा से कम वोट मिलने के बाद राजग (भाजपा) को महसूस हुआ कि किसी पिछड़े नेता के नाम के बिना उसकी नैया पार नहीं हो सकती. इसलिए राष्‍ट्रपि‍त शासन के बाद फिर चुनाव हुआ तो भाजपा ने नीतीश को बतौर मुख्यमंत्री घोषित करते हुए- 'नया बिहार-नीतीश कुमार' का स्लोगन बनाया. इस स्लोगन के अपेक्षित परिणाम आये. नीतीश कुमार को फेन्स पर खड़े पिछड़े तबके ने दिल खोलकर वोट दिया. दरअसल, वे लालू को किसी अपर कास्ट नेता से पदच्यूत कराना नहीं चाहते थे. इस तरह नीतीश कुमार ने बाजी जीती. लेकिन नीतीश कुमार को हमेशा यही विश्‍वास रहा कि उनकी जीत उंची जातियों के सहयोग के कारण हुई है. पिछड़ी जातियों के सहयोग को उन्होंने नजरअंदाज किया. पूरा पढ़िए : http://hashiya.blogspot.com/2009/11/blog-post_6032.html -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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