From kesaraba at gmail.com Fri May 1 07:53:03 2009 From: kesaraba at gmail.com (siraj kesar) Date: Fri, 1 May 2009 07:53:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Radioactivity_in_W?= =?utf-8?b?YXRlciA6IFB1bmphYi8g4KSq4KSC4KSc4KS+4KSsIOCkleClhyDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWAIOCkruClh+CkgiDgpK/gpYLgpLDgpYfgpKjgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KSu?= In-Reply-To: <66f0fe470904212201q5fb4482er750a0181dfc4e342@mail.gmail.com> References: <66f0fe470904212201q5fb4482er750a0181dfc4e342@mail.gmail.com> Message-ID: <66f0fe470904301923t50f7a24dq64b5cd7f03753396@mail.gmail.com> Field Reports- Radioactivity in Water : Bhatinda, Punjab/ पंजाब के पानी में यूरेनियम Read More Arsenic in Punjab Water Read More _________________________________________________ RWH- Sri Padre finds-how District Panchayat Office Fulfills it's need without supply water or Borewell Read More Jaya Farm- an example of RWH- Read More __________________________________________ Jobs/ Vacancies Consultant- Social Development with Arghyam Read More National Co ordinator(Water & Sanitation) with World Vision India Read More __________________________________________ Upcoming Events- Wash Media Award Contest Read More Training-Development Alternatives Read More Workshop- Indo-German Water Network Read More __________________________________________ See how Judiciary is taking initiative to protect water bodies Decision of Delhi High Court Read More Decision of Allahabad High Court (Luchnow Bench) Read More __________________________________________ Book Shelf Aaj Bhi Khare Hain Talab Read here- http://hindi.indiawaterportal.org/?q=Anupamajbhikharehaintalab To Read much more http://hindi.indiawaterportal.org/ Ask a Water Question: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=content/contact-us Write to us: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=content/contact-us Add your Organization: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=org Join Us Minakshi Arora 9250725116 hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090501/a6974987/attachment-0002.html From kesaraba at gmail.com Fri May 1 07:53:03 2009 From: kesaraba at gmail.com (siraj kesar) Date: Fri, 1 May 2009 07:53:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Radioactivity_in_W?= =?utf-8?b?YXRlciA6IFB1bmphYi8g4KSq4KSC4KSc4KS+4KSsIOCkleClhyDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWAIOCkruClh+CkgiDgpK/gpYLgpLDgpYfgpKjgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KSu?= In-Reply-To: <66f0fe470904212201q5fb4482er750a0181dfc4e342@mail.gmail.com> References: <66f0fe470904212201q5fb4482er750a0181dfc4e342@mail.gmail.com> Message-ID: <66f0fe470904301923t50f7a24dq64b5cd7f03753396@mail.gmail.com> Field Reports- Radioactivity in Water : Bhatinda, Punjab/ पंजाब के पानी में यूरेनियम Read More Arsenic in Punjab Water Read More _________________________________________________ RWH- Sri Padre finds-how District Panchayat Office Fulfills it's need without supply water or Borewell Read More Jaya Farm- an example of RWH- Read More __________________________________________ Jobs/ Vacancies Consultant- Social Development with Arghyam Read More National Co ordinator(Water & Sanitation) with World Vision India Read More __________________________________________ Upcoming Events- Wash Media Award Contest Read More Training-Development Alternatives Read More Workshop- Indo-German Water Network Read More __________________________________________ See how Judiciary is taking initiative to protect water bodies Decision of Delhi High Court Read More Decision of Allahabad High Court (Luchnow Bench) Read More __________________________________________ Book Shelf Aaj Bhi Khare Hain Talab Read here- http://hindi.indiawaterportal.org/?q=Anupamajbhikharehaintalab To Read much more http://hindi.indiawaterportal.org/ Ask a Water Question: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=content/contact-us Write to us: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=content/contact-us Add your Organization: http://hindi.indiawaterportal.org/?q=org Join Us Minakshi Arora 9250725116 hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090501/a6974987/attachment-0003.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri May 1 18:30:26 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 1 May 2009 18:30:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWL4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSf4KWI4KSV4KWN4KS4IOCkleCkviDgpIfgpJUg4KSk4KSu4KS+4KS2?= =?utf-8?b?4KS+IOCkr+CkuSDgpK3gpYA=?= Message-ID: <6a32f8f0905010600q442a2079u61cd14a46599f9ac@mail.gmail.com> टोल टैक्स का इक तमाशा यह भी परिवहन मंत्रालय टोल टैक्स (चुंगी वसुली) के माध्यम से निजी क्षेत्र की निर्माण कंपनियों को बेहिसाब फायदा पहुंचाने में जुटी है। दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे पर रोजाना टोल टैक्स के रूप में होने वाली लाखों रुपए की उगाही की जानकारी मिलने पर यह खुलासा हुआ। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने निजी क्षेत्र की भागीदारी से बीओटी यानी निर्माण, संचालन और स्थानांतरण के तहत दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे का निर्माण किया है। इस परियोजना को पूरा होने में 702 करोड़ रुपए की लागत आई थी। इन रुपए की उगाही के लिए उक्त परियोजना से जुड़ी निजी कंपनी को सन्2022 तक चुंगी उगाही का अधिकार दिया गया है। प्रतिवर्ष गाड़ियों की बढ़ती संख्या और वहां से गुरजने वाली प्रत्येक गाड़ी पर टोल टैक्स में वृद्धि होने से सन् 2022 तक 24,000 करोड़ रुपये की उगाही का अनुमान है। इससे साफ मालूम पड़ता है कि यहां जनता की जरूरतों को नजरअंदाज कर परियोजना से जुड़ी निर्माण कंपनी को 702 करोड़ रुपए के बदले अरबों रुपए का फायदा पहुंचाने की जुगत लगाई गई है। इस बाबत अधिवक्ता विवेक गर्ग ने एनएचएआई के भ्रष्ट अधिकारियों और परिवहन मंत्रालय व इससे जुड़े अन्य संबंधित विभाग के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) के निदेशक अश्वनि कुमार के समक्ष शिकायत दर्ज की है। शिकायत में कहा गया है कि दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे पर इंदिरा गांधी एयर पोर्ट (14 किमी), गुड़गांव दिल्ली बोर्डर (24 किमी) और खिड़कीदौला (42 किमी) के निकट राहगीरों से चुंगी वसूली जाती है। एनएचएआई की ओर से मुहैया कराए गए आंकड़ों के अनुसार इंदिरा गांधी एयर पोर्ट और खिड़कीदौला के निकट चुंगी के रूप में प्रत्येक महिने 10 करोड़ यानी वर्ष में करीब 130 करोड़ रुपए तक की उगाही होती है। जबकि, गुड़गांव दिल्ली बोर्डर पर होने वाली उगाही की कोई जानकारी नहीं दी गई है। अनुमान है कि यहां से होने वाली उगाही उक्त दोनों स्थानों से दोगुनी है। ऐसी स्थिति में इस एक्सप्रेस हाईवे पर प्रतिवर्ष 260 करोड़ रुपए की उगाही का अनुमान है। गर्ग ने बताया कि सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमान करने पर एनएचएआई ने इस बात की जानकारी दी कि प्रत्येक वर्ष पहली अप्रैल को चुंगी की दर में संशोधन करने का प्रावधान है। अप्रैल 2008 में इस राशि में कुल 13 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। इससे गत वर्ष 293.8 करोड़ रुपये की वसूली का अनुमान है। शिकायक पत्र में इस बात की ओर भी इशारा किया गया है कि प्रतिवर्ष गाड़ियों की बढ़ती संख्या की वजह से चुंगी की उगाही में और भी इजाफा होगा। ऐसे में इस परियोजना में लगी राशि की उगाही वर्ष 2010 तक ब्याज सहित कर ली जाएगी। साथ ही मूलधन के रूप में कम से कम 116.55 करोड़ रुपये का फायदा होगा। इसके बावजूद वर्ष2022 तक चुंगी वसूलने का अधिकार दिए जाने का औचित्य समझ से परे है। गर्ग ने बताया कि आरटीआई कानून के तहत देश भर में बीओटी के माध्यम से तैयार हुई परियोजनाओं से टोल टैक्स संबंधित जानकारी मागने पर संबंधित विभाग टालमटोल कर रहा है। इससे पता चलता है कि इसमें बड़े पैमाने पर हेराफेरी हो रही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090501/1016b67c/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat May 2 01:28:51 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 2 May 2009 01:28:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSlIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJXgpYcg4KSo4KS+4KSuIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSw4KWH4KSC4KSm4KWN4KSwIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= Message-ID: <6a32f8f0905011258p1218459er786d6b70cfe5bb7@mail.gmail.com> *हाल ही में भाजपा के पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ गाजियाबाद से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतर गए थे। हालांकि, आडवाणी से मुलाकात करने के बाद उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया है। यहां प्रस्तुत है उनकी ओर से राजनाथ सिंह को लिखा गया पत्र-* माननीय अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी श्री राजनाथ सिंह सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र प्रकरण से मेरी आशंका की पुष्टि हुई है। आपसे मैंने बातचीत में कहा था कि आप अगर नहीं चाहेंगे तो मैं चुनाव नहीं लड़ सकूंगा। इसपर आपका अंदाज हमेशा की तरह बुझौवल वाला बना रहा। मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं। विचारों से प्रेरित और निष्ठा से अडिग। एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए चुनाव का अवसर चुनौती बनकर आता है। इसे आप भी समझते हैं। लोगों की ही इच्छा थी कि मुझे सलेमपुर में तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि परिसीमन से जो बदलाव आया है, वह भाजपा के लिए नई राजनीतिक जमीन मुहैया कराता है। यह सोचकर मैं सक्रिय हुआ। हर मतदान केंद्र पर एक मजबूत टीम खड़ी हुई। ऐसे करीब पांच हजार कार्यकर्ताओं को गहरी निराशा हुई है। उनमें बेचौनी बड़ रही थी। उनके ही आग्रह पर मैं दिल्ली पहुंचा। ताकि अपने सहयोगियों की भावनाओं से पार्टी नेतृत्व को अवगत करा सकूं। मैं नहीं जानता कि इससे पहले कभी भाजपा में ऐसा हुआ है या नहीं कि पार्टी कार्यकर्ता और नीचे से उपर तक नेतृत्व चाहता हो कि पार्टी लड़े। लेकिन जिसे पार्टी ने कुंजी दे रखी है वह तिजोरी भरने के फिराक में पड़ गया। वह व्यक्ति का लठैत बन गया। मेरा मतलब आपसे है। कौन नहीं जानता कि मार्च के मध्य में बलिया के तमाम कोयला डिपो से रुपए की वसूली कर उसे गाड़ियों में भरकर जब दिल्ली भेजा जा रहा था तो जैसे ही इसकी भनक लगी कि कार्यकर्ता बेचैन होने लगे। उन्होंने मुझे दिल्ली में ही बने कहने के लिए कहा ताकि साजिश सफल न हो जब भाजपा के अध्यक्ष पद पर बैठाया गया व्यक्ति जोड़तोड़ और तिकड़म की अपनी आदत पर पहले की ही तरह अमल करता रहे तो उम्मीद बचेगी कैसे? यही आपने मेरे साथ किया। आपकी अध्यक्षता में उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया अगस्त, 2008 में शुरू होनी थी। तबसे मेरे जैसा कार्यकर्ता रोज इम्तीहान में बैठता था और इम्तीहान टलता रहा। सौदेबाजी होती रही। आखिरकार 23 मार्च, 2009 का वह दिन भी आया जब पूरी चुनाव समिति चाहती थी कि सलेमपुर से भाजपा लड़े। वहां जद (यू) का न अंडा है न बच्चा। आप हैं जिन्होंने चमत्कार दिखाया और सजपा के विधान परिषद सदस्य को रातों-रात जद (यू) का उम्मीदवार बनवा दिया। मरे पास अगर पांच करोड़ रुपया होता तो वह सीट पा लेता। जिसे आपने उम्मीदवार बनवाया है, क्या उसके बारे में यह मालूम है कि हत्या के अभियोग में नाम आने पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उससे किसी तरह का संबंध होने से इनकार किया था? क्या आप यह भी जानते हैं कि सन 2006 में जब उसी चंद्रशेखर ने उसे जेपी स्मारक ट्रस्ट का सचिव बनवाया तो मैंने उनसे लोहा लिया। आप यह भी जानते ही होंगे कि चंद्रशेखऱ से मेरे नजदीकी संबंध रहे हैं। फिर भी उसकी परवाह नहीं की। क्योंकि सवाल जेपी से जुड़ी एक सार्वजनिक संस्था का था, जो ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होकर बनाई गई थी। जेपी स्मारक ट्रस्ट को एक पारिवारिक जागीर बनाने की लड़ाई मैंने सार्वजनिक जीवन में सीखे पाठ से लडी। यही अभियान पूरे बलिया में राजनीतिक संधर्ष का जनप्रिय मुद्दा बन गया था। जिसमें माफियाकरण के विनाश के बीज थे । क्या आप यह नहीं महसूस करते कि उस अभियान की आपने और जद यू ने हत्या कर दी है। यह राजनीतिक हत्या है। इसका मुकदमा जनता की अदालत में पहुंचना ही चाहिए। मुझे मालूम है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राज्य सभा सदस्य शिवानंद तिवारी ने जद यू के अध्यक्ष शरद यादव से कहा कि वहां भाजपा के वीरेंद्र सिंह काम कर रहे हैं। उन्हें ही लड़ने का हक मिलना चाहिए। मुझे यह भी मालूम है कि लालकृष्ण आडवाणी ने जब जरूरत पड़ी तब साफ-साफ कहा कि सलेमपुर से वीरेंद्र सिंह का अलावा किसी दूसरे को लड़ाने का कोई तुक नहीं है। और आप हैं जो किसी गहरे द्वेषवश कुछ और ही मन में ठाने हुए थे। उसी तरह जैसे आपके मुख्यमंत्रित्व काल में भदोही-मिर्जापुर उपचुनाव में हुआ। आपकी अध्यक्षता में भाजपा ने उम्मीदवार चयन का अजीब ढंग अपनाया। सलेमपुर का फैसला अप्रैल में सार्वजनिक किया गया, जब सबकुछ हो गया था। मैंने इसी उम्मीद पर सलेमपुर में नामांकन भरा कि निर्णय मेरे पक्ष में होगा। आपने वैसा होने नहीं दिया। जिसका पूरा विवरण मैं बता सकता हूं। जिसकी जानकारी बलिया और दिल्ली में हर उस व्यक्ति को है जो सलेमपुर में दिलचस्पी रखता है। अध्यक्ष जी, मैं आपके द्वेष का शिकार हो गया हूं। जहां आप कभी चुनाव नहीं जीत सके, वहीं से मैंने दो बार लोकसभा का चुनाव लोगों की मदद से जीता तो इसमें मेरा क्या कसूर है। यह मैं बता दूं कि सलेमपुर से मुझे लोग जिताकर भेजना चाहते थे। आपने भाजपा की एक सीट गंवा दी। आपकी राजनीतिक पसंद से मुझे कोई हैरानी-परेशानी नहीं है। लोगों को है। जौनपुर में कौन राजनीतिक कार्यकर्ता है जो न जानता होगा कि आपने वहां एक दूसरे दल के उम्मीदवार की मदद में करतब दिखाया। भाजपा और देश का जाग्रत समाज जहां लालकृष्ण आडवाणी में अपना खेवनहार देखता है वहीं उसे यह भी पता हो गया कि उस नाव को डुबोने के लिए आप एक चुहे की भूमिका में उतर आए हैं। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि भाजपा की नाव पार पा जाएगी। सतत् जागरूकता हमारा स्वभाव जो है। जहां तक मेरा सवाल है, भाजपा में मेरी नियति है। इससे कोई भी हो, खिलवाड़ नहीं कर सकता। चाहे अध्यक्ष पद पर बैठे आप ही क्यों न हों। मैं समझता हूं कि मेरे साथ घोर अन्याय राजनाथ सिंह ने किया है, भाजपा ने नहीं। .. *कई लोग मानते हैं कि हिन्दुस्तान में पार्टी तंत्र अब व्यक्तितंत्र में बनकर रह चुका है। इसके कई साक्ष्य हैं। नजर दौड़ाएं तो इक-बारगी दिख जाएंगे। ऐसे में भाजपा थोड़ी अलग दिखती है। यहां पार्टी अध्यक्ष के किसी गलत फैसले पर कार्यकर्ता बगावत करते है। इसके बावजूद उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता। पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह का विरोध इसका प्रमाण है।* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090502/a7bcd887/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat May 2 09:08:48 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 2 May 2009 09:08:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSo?= =?utf-8?b?4KWA4KSk4KS/IOCkruClh+CkgiDgpJ/gpYfgpLLgpYDgpLXgpL/gpJw=?= =?utf-8?b?4KSoLOCkuOCksOCli+Ckl+Clh+CknyDgpKrgpL7gpLDgpY3gpJ/gpYAg?= =?utf-8?b?4KS14KSw4KWN4KSV4KSwIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0905012038t48cf0ca5n36155443e700eaba@mail.gmail.com> विज्ञापनों के माध्यम से छवि निर्मिति में सबसे बड़ी सहूलियत है कि इसे जरुरत के अनुरुप बदले जा सकते हैं, इसमें कुछ जोड़े-घटाए जा सकते हैं, नयी छवि पुनःस्थापित की जा सकती है।( डेनिअल बोअर्सटिनः1962,दि इमेज,पेज नं-186-87,न्यूयार्क,एथेनम)। 2004 में आडवाणी की छवि लौह पुरुष के रुप में बनायी गयी,2009 में आते ही वे युवा चेतना से लैश भाजपा के लिए मजबूत नेता यानी पीएम फॉर वेटिंग हो गए।( एनडीटीवी इंडियाः 8.06 बजे,8 अप्रैल,अखबार की कतरन पर लिखा-लौह पुरुषःआडवाणी) यह व्यक्ति के बजाय विज्ञापन के स्तर का बदलाव है। पार्टी कार्यकर्ता द्वारा किसी प्रत्याशी की छवि इतनी जल्दी नहीं बदली जा सकती लेकिन राजनीतिक विज्ञापन इसे संभव कर देता है। छवि आधारित राजनीति का सबसे जरुरी पहलू है कि मतदाता अपने प्रत्याशी को किस रुप में देखना चाहता है। एक मतदाता टेलीविजन के माध्यम से भी अपने प्रत्याशी को देख रहा होता है तो उस पर दृश्य माध्यम का असर ज्यादा होता है। इसलिए पार्टी या उसकी स्वयं की विचारधारा, पारिवारिक या सामजिक पृष्ठभूमि,नेतृत्व क्षमता और यहां तक कि उसके अन्तर्वैयक्तिक संचार के तरीके को विजुअल्स रुप में दिखाने की कोशिशें होती हैं।( डैन एफ हॉनः1972,पॉलिटिकल मिथः दि इमेज एंड दि इश्यू. पेज न-57 टूडेज स्पीच 20,समर)। कांग्रेस अपने दोनों विज्ञापनों ( “तिनक तिनक तिन हाथ” और “जय हो”) में इसे विस्तार से स्थापित करती है। दोनों विज्ञापन मुख्य रुप से मनमोहन सिंह और राहुल गांधी को आदर्श प्रत्याशी के तौर पर स्थापित करना चाहता है. यह अलग बात है कि भाजपा की तरह कांग्रेस का कोई भी विज्ञापन प्रत्याशी केंद्रित न होकर पार्टी केंद्रित है। विज्ञापन राहुल गांधी को भाषण देते हुए,लोगों से मिलते-जुलते और बात करते हुए दिखाता है,मनमोहन सिंह भाषण देने की मुद्रा में मंच की ओर बढ़ते हैं, सक्रिय दिखाई देते हैं। दोनों प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि को स्थापित करने के क्रम में कस्तूरबा गांधी, नेहरु,लालबहादुर शास्त्री,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे राजनीतिक व्यक्तित्व के विजुअल्स शामिल किए गए हैं,प्रत्येक के साथ जुड़ी गतिविधियों को गाने के रुप में प्रस्तुत किया जाता है जिससे मतदाता-दर्शक को हिन्दुस्तान की तस्वीर बदल देनेवाले लोगों की परंपरा से जुड़ने का बोध पैदा हो। कांग्रेस इन विज्ञापनों के माध्यम से अपनी ऐतिहासिकता( जो उसके पक्ष में है) को विज्ञापित करती है। राजनीतिक विज्ञापनों में मतदाता-दर्शक के महत्व को स्पष्ट करते हुए फिलिप कोटलर का मानना है कि पॉलिटिकल मार्केटिंग में प्रत्याशी को इस बात पर विशेष ध्यान देना होता है कि मतदाता क्या चाहता है बजाए इसके कि वो अनुमान लगाते रहे कि मतदाता क्या सोचता और चाहती है। (माउसरः1988,मार्केटिंग एंड पॉलिटिकल कैम्पेनिंगःस्ट्रैटजी एंड लिमिट्स,पेज नं-vii बेलमांट,बॉड्सवार्थ)। हमारे देश का मतदाता क्या चाहता है,इसकी अभिव्यक्ति मोबाइल फोन के एक विज्ञापन से बेहतर तरीके से हो जाती है। मंत्रीजी हमसे पूछ रही है कि खेतों में शॉपिंग मॉल बनना चाहिए कि नहीं,जनता ने कहा- न तो न। स्पष्ट है कि लोकतंत्र की राजनीति में मतदाता को प्राथमिकता के स्तर पर लिए जाने चाहिए । मतदाता चाहता कि देश के भीतर जो भी छोटे-बड़े फैसले हों,उनमें उनकी राय शामिल की जाए। इसलिए राजनीतिक विज्ञापन समाज के अलग-अलग हिस्सों और तबके के लोगों को शामिल करती है। विज्ञापन चाहे जिस भी पार्टी के क्यों न हो अधिक से अधिक लोगों के विजुअल्स को दिखाया जाना अनिवार्य समझा जाता है। इसे आप मायावती के पक्ष में जारी विज्ञापन में देख सकते हैं। बहुजन का हित जानते हैं/सर्वजन को मानते हैं/कौन की बात पुरानी/इंसानियत पहचानते हैं/जाति धर्म को भूल चुके हैं/मेरे पास उनका साथ है/( स्टार न्यूजः23 फरवरी,9.29 बजे रात)। कांग्रेस इसे और अधिक रचनात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है. एक युवा दीवार पर कई रंगों को मिलाता है और फिर दूसरे से सवाल करता है, बताओ इसमें कितने रंग हैं। इससे कांग्रेस की छवि सांप्रदायिक सद्भावना और मिली-जुली संस्कृति को प्रोत्साहित करनेवाली पार्टी के रुप में बनाने की कोशिश है।(एनडीटीवी इंडियाः8.46 बजे 9 अप्रैल) देशभर की राजनीतिक पार्टियों के साथ एक आम समस्या है कि वह अपने प्रत्याशी को दूसरे प्रत्याशी से बेहतर बताए इसके पहले राजनीतिक व्यक्ति होने की छवि को(चाहे जिस किसी भी पार्टी का क्यों न हो) साकारात्मक रुप में कैसे स्थापित की जाए। बैटरी के एक विज्ञापन में यहां के राजनीतिक व्यक्ति की छवि इस प्रकार है- हमरा वादा रहा,चौबीस घंटे बिजली....बस पांच साल और। जनता- इलेक्सन तो आता जाता रहता है लेकिन बिजली तो जाती ही है।(जी न्यूजः 10.15बजे रात,10 अप्रैल,एक्साइड इन्वर्टिकुलर का विज्ञापन ) । राजनीतिक विज्ञापन इस छवि को तीन कारकों के माध्यम से बेहतर करने की कोशिश करता है। 1.उच्च योग्यता सच्चरित्र और उर्जावान 2. अन्तर्वैयक्तिक आकर्षण या प्रभावी व्यक्तित्व और 3. सहजता( ट्रेंट जूडिथ,रॉबर्ट फ्रेडेनवर्गः1983, पॉलिटिकल कैम्पेन कम्युनिकेशनः प्रिंसिपल एंड प्रैक्टिसेज, पेज न-75 न्यूयार्क प्रेइगर)। इसलिए टेलीविजन के विज्ञापनों में दिखाए जानेवाले राजनीतिक व्यक्तित्व को पोशाक, हाव-भाव,प्रस्तुति और अंतर्वैयक्तिक व्यवहार के स्तर पर विशिष्ट दिखाने की कोशिशें की जाती है। यह न सिर्फ एक प्रत्याशी को बेहतर रुप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती है बल्कि राजनीतिक व्यक्ति की छवि को मरम्मत करने का भी काम होता है। इस दृष्टि से राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता बढ़ जाती है। मौजूदा चुनाव में राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता के संदर्भ में मैक् कैबी का मानना है कि मुझे तो इस बात पर हैरानी होती है कि जो इंसान अपने पक्ष में जोरदार विज्ञापन नहीं कर सकता,वह किसी देश को कैसे नियंत्रित कर सकता है।( सं. मैक् कैबीः1988,दि कैम्पेन यू नेवर शॉ,पेज 48,न्यूयार्क 12 दिसंबर)। मैक् कैबी की इस मान्यता से स्पष्ट है कि चुनाव अब सिर्फ जनसम्पर्क,मुद्दे और राजनीति के आधार पर लड़े औऱ जीते नहीं जा सकते। छवियों की इस लड़ाई में, राजनीतिक विज्ञापनों का प्रयोग अब नैतिकता के सवाल और बहस से बाहर, व्यावहारिक दृष्टिकोण का मामला बनता जा रहा है। सारा जोर इस बात पर है कि कौन कितने बेहतर तरीके से अपनी छवि प्रस्तुत कर सकता है। राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों के बीच का सारा तनाव इस बात को लेकर है कि वे किस रुप में दिखें( क्या हैं इसकी चिंता किए बगैर) जिससे कि चुनाव में उनके पक्ष में आधार बने। (डेनिअल बोअर्सटिनः1962,दि इमेज,पेज नं-186-87,न्यूयार्क,एथेनम). छवियों की इस लड़ाई का एक उदाहरण कांग्रेस के “जय हो” और बीजेपी द्वारा इसके विरोध में बनाए गए “भय हो” के विज्ञापन में आसानी से मिल जाते हैं। कांग्रेस के इस विज्ञापन में विकास कार्य की एक लंबी फेहरिस्त है- देख लो/कर दिखाया/नयी सड़को से ये विकास/देख लो,अरे कर लो,तुम भरोसा/रोजगार का हक है तुम्हारे पास/उंची शिक्षा,स्वास्थय का धन है/( यूट्यूब)। इसके जबाबी कार्यवाई के रुप में भाजपा की ओर से प्रसारित विज्ञापन है- रत्ती रत्ती सच्ची हमने जान गंवाई है/भूखे पेट जाग-जाग रात बिताई है/मंदी की मार में,नौकरी गंवा दी/मंदी हो/आतंक हो/मंहगाई हो/फिर भी जय हो/ इसके साथ ही बीजेपी ने इसे ट्रेन एक डिब्बे में फिल्माकर यह स्थापित करने की कोशिश की है कि देश के आम आदमी की क्या स्थिति है। भय हो गानेवाले बच्चे को देखकर आपको पुरुलिया और मिर्जापुर के रास्ते खाली बोतलें बटोरनेवाले बच्चों का ध्यान आ जाएगा। इस मुकाबले कांग्रेस का जय हो विज्ञापन प्रायोजित जान पड़ता है जबकि बीजेपी का विज्ञापन प्रायोजित होने के वाबजूद भी स्वाभाविक नजर आता है। मूलतः नया ज्ञानोदय मई 09 में प्रकाशित टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि निर्माण का लोकतंत्र आगे भी जारी... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090502/f9176d18/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 2 10:22:50 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 2 May 2009 10:22:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSX?= Message-ID: <196167b80905012152n5fdd9ef5xcffc11bc2ea4673f@mail.gmail.com> *चिराग के लिए और उसकी रचनाओं के लिए क्या कहूं, बस इतना ही की .'चिराग का परिचय उसकी रचना दे तो ज्यादा बेहतर हो.' अब चिराग का परिचय भी उसकी रचना दे तो ज्यादा बेहतर हो. इस बार चिराग की एक ताजा गजल. जो दो दिन पहले अजमेर यात्रा के दौरान हुई है.* *-----* उनको लगता है ये चांदी और ये सोना अच्छा, मैं समझता हूँ कि एहसास का होना अच्छा. मैंने ये देख के मेले में लूटा दी दौलत, मुर्दा दौलत से तो बच्चों का खिलौना अच्छा. जिसके आगोश में घुट-घुट के मर गए रिश्ते, ऐसी चुप्पी है बुरी, टूट के रोना अच्छा. जिसके खो जाने से रिश्ते की उम्र बढ़ जाए, जीतनी जल्दी हो उस अभिमान का खोना अच्छा. अश्क तेजाब हुआ करता है दिल में घुटकर, दिल गलाने से पलकों का भिगोना अच्छा. मेरे होते हुए भी कोई मेरा घर लुटे, फिर तो मुझसे मेरे खेतों का ड़रोना अच्छा. जबकि हर पेड़ फकत बीच में उगना चाहे, ऐसे माहौल में इस बाग़ का कोना अच्छा. राम खुद से भी पराए हुए राजा बनाकर, ऐसे महलों से वो जंगल का बिछौना अच्छा. उसके लगने से मेरा मन भी संवर जाता था, अब के श्रृंगार से अम्मा का डिठौना अच्छा. http://ashishanshu.blogspot.com/2009/05/blog-post.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090502/9e556e64/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 2 11:29:54 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 2 May 2009 11:29:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSw4KSW?= =?utf-8?b?IOCkquCkvuCko+CljeCkoeClh+Ckrw==?= Message-ID: <196167b80905012259y13f2d3dbpdb6cb5b8dfd48787@mail.gmail.com> सोचो तो मामूली तौर पर जो अनाज उगाते हैं उन्हें दो जून अन्न ज़रूर मिलना चाहिए उनके पास कपडे ज़रूर होने चाहिए जो उन्हें बुनते हैं और उन्हें प्यार मिलना ही चाहिए जो प्यार करते हैं मगर सोचो तो यह भी कितना अजीब है कि उगाने वाले भूखें रहते हैं और उन्हें पचा जाते हैं, चूहे और बिस्तरों पर पड़े रहने वाले लोग बुनकर फटे चीथडों में रहते हैं, और अच्छे से अच्छे कपडे प्लास्टिक की मूर्तियाँ पहने होती हैं गरीबी में प्यार भी नफरत करता हैं और पैसा नफरत को भी प्यार में बदल देता है- गोरख पाण्डेय -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090502/9fe40e57/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun May 3 09:48:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 3 May 2009 09:48:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSk4KSm4KS+?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkleCliyDgpLjgpL/gpLDgpY3gpKsg4KSR4KSh4KS/4KSP?= =?utf-8?b?4KSC4KS4IOCkruCkpCDgpLjgpK7gpJ3gpL/gpI8=?= Message-ID: <829019b0905022118t771e9db8h71a25c8b8af06ddd@mail.gmail.com> नया ज्ञानोदय में प्रकाशित लेख-टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि-निर्माण का लोकतंत्र की अंतिम किस्त आर्मन्ड ने राजनीतिक विज्ञापनों की चर्चा करते हुए इसे “टोटल कम्युनिकेशन” यानी सम्पूर्ण संचार कहा है।( आर्मन्ड मैटेलार्टः1991,पेज न-187,एडवर्टाइजिंग इंटरनेशनलः दि प्राइवेटाइजेशन ऑफ पब्लिक स्पेस,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। सम्पूर्ण संचार का अर्थ किसी प्रत्याशी या पार्टी की तमाम गतिविधियों औऱ छवियों को मतदाता के सामने लाने से नहीं है। यह काम तो समाचार चैनल कर ही देते हैं, फिर राजनीतिक विज्ञापनों की क्या अनिवार्यता रह जाती है। संपूर्ण संचार का आशय पार्टी या प्रत्याशी की उस छवि से है जिसे कि वह स्थापित करना चाहते हैं। राजनीतिक विज्ञापनों का प्रयोग इसी छवि को स्थापित करने के लिए किया जाता है जिसे कि “इमेज प्रोजेक्शन” कहा जाता है।( डैन निम्मोः1970,दि पॉलिटिकल पर्सुएडर्स,पेज न-129 एंगलवुड्स क्लिफ्स,एन.जे. प्रिंटिस हॉल)। संपूर्ण संचार के अन्तर्गत किसी प्रत्याशी या पार्टी के बारे में वही सब कुछ प्रसारित किया जाता है जिसे कि मार्केटिंग या विज्ञापन एजेंसी तय करती है। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की अलग-अलग छवियां रही है। ये छवियां मतदाता के दिमाग में एक हद तक स्थिर हो चुकी है. पार्टी कार्यकर्ता के स्तर पर यह आसान काम नहीं है कि मतदाता के बीच अब तक बनी उन छवियों में से अपनी नकारात्मक छवि को ध्वस्त कर दे लेकिन सम्पूर्ण संचार के फार्मूले पर काम करते हुए राजनीतिक विज्ञापनों की जिम्मेवारी है कि वे इस चुनाव के लिए उसे ध्वस्त कर एक निश्चित छवि स्थापित करें। कांग्रेस के विज्ञापनों में बार-बार मिसाइल,मेट्रो ट्रेन,फ्लाइओवर,खेतों में ट्रैक्टर, तकनीकी क्रांति, निर्माण, आविष्कार, गांव में लैबटॉप पर काम करती लड़की, टेलीफोन से बात करते हुए लिए ग्रामीणों की तस्वीरें और विजुअल्स दिखाई देते हैं। ये विजुअल्स “तिनक-तिनक तिन हाथ” और “कांग्रेस की जय हो” वाले विज्ञापनों में समान रुप से दिखाई देते हैं। इन दोनों विज्ञापनों में कांग्रेस की छवि एक ऐसी पार्टी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की गयी है जिसके यहां विकास की एक पूरी परम्परा रही है। तस्वीरों में कस्तूरबा गांधी, नेहरु,लालबहादुर शास्त्री,राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक मौजूद हैं और इनके बीच से लगातार विकसित होते हुए भारत की तस्वीर गुजरती चली जाती है। देश की आजादी को जब मतदाता याद करे तो उसे कांग्रेस का योगदान साफ दिखाई दे। विज्ञापन की शब्दावली में यह “इमोशल अपील” पर आधारित विज्ञापन है। आर्थिक, तकनीकी और संसाधन आधारित विकास और बदलते भारत की तस्वीर दो ऐसे संदर्भ हैं जिसके जरिए कांग्रेस देश के युवाओं को जोड़ना चाहता है। वैसे भी 25 करोड़ की आबादी का यह युवा देश की सभी पार्टियों के लिए टारगेट-वोटर हैं। यही कारण है कि कभी युवाओं के प्रतीक बने राजीव गांधी और अब राहुल गांधी ब्रांड-इमेज या ब्रांड चिन्ह के तौर पर दिखाये जाते हैं। दोनों विज्ञापनों में विजुअल्स के अलावे शब्द-रुप में भी इन दोनों के नाम शामिल हैं। तस्वीर नए भारत की बनी थी/राजीवजी के हाथ/टेलीफोन का जाल बिछाया/हुई दिल से दिल की बात/कम्प्यूटर की क्रांति लाए/लिखा नया इतिहास/धिनक धिक हाथ/( न्यूज 24: मार्च 21,8:41 बजे रात)। जय हो,विजय हो/आओ नौजवानों आज राहुलजी के संग/ आओ जीत के दिखाएं, बोलो कांग्रेस की जय।( स्टार न्यूजः मार्च 04,8:21 बजे रात)। राजनीतिक विज्ञापनों के जरिए सम्पूर्ण संचार के इसी फार्मूले को बीजेपी ने थोड़ा अलग तरीके से इस्तेमाल किया है। कांग्रेस की तरह इसे भी विज्ञापन के माध्यम से देश के युवाओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत करनी है इसलिए ये एक शंखनाद है/पुकारता प्रभात है/ये देश तेरा स्वप्न है/पहचान है अभिमान है/ जैसी पंक्तियों का प्रयोग करते हुए अपनी छवि एक ऐसी पार्टी के रुप में बनाना चाहती है जो कि जोश और कुछ नया करने की इच्छा से लवरेज है। इस क्रम में जिन विजुअल्स का इस्तेमाल किया गया है वह कांग्रेस की एप्रोच से बिल्कुल अलग है। कांग्रेस के विज्ञापन में जो पंक्तियों के शब्द हैं,उसी के अनुरुप विजुअल्स दिखाए गए हैं जबकि भाजपा विजुअल्स का प्रयोग,पंक्तियों से अलग अर्थ पैदा करने के लिए करती है। स्वाभिमान औऱ जोश भरी पंक्तियों को दोहराते हुए एक युवा है जिसके पार्श्व में विजुअल्स चल रहे हैं- सेंसेक्स गिर रहा है, होटल ताज के आगे लोग लाचार दिखाई दे रहे हैं,शेयर मार्केट की बिल्डिंग के आगे लोग कटोरा लेकर खड़े हैं।(इंडिया टीवीः 30 मार्च, 8:14 बजे रात)। इसमें इमोशनल के बजाए “लॉजिकल अपील” का इस्तेमाल किया गया है। इस विज्ञापन में टेलीविजन का ज्यादा बेहतर तरीके से प्रयोग हुआ है और बीजेपी का एक ही विज्ञापन के माध्यम से अपने पक्ष में साकारात्मक और कांग्रेस के विरोध में नाकारात्मक विज्ञापन कर पाने में सफल हो जाता है। यहां सकारात्मक विज्ञापन की तुलना में नाकारात्मक विज्ञापन ज्यादा बेहतर ढंग से संप्रेषित हो पाया है। उत्पाद आधारित विज्ञापन की तुलना में राजनीतिक विज्ञापनों पर विचार करें तो यह चुनाव के लिए ज्यादा असरदार साबित होते हैं। यहां पर रॉबर्ट्स की मान्यता काफी हद तक सही जान पड़ती है कि नकारात्मक विज्ञापन, साकारात्मक विज्ञापन की तुलना में ज्यादा सूचनात्मक होते हैं। रॉबर्ट्स का तो यहां तक मानना है कि नकारात्मक विज्ञापन मतदान को सफल बनाने में भी योगदान करते हैं।( रॉबर्ट्स एम.:1992 दि फ्ल्युडिटी ऑफ एटीट्यूड्स टूवर्ड्स पॉलिटिकल एडविर्टाइजिंग, पेज न- 134-35,जीए,यूनिवर्सिटी ऑफ गार्जिया, ग्रैडी कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन)। मौजूदा चुनाव एवं लोकतंत्र की राजनीति में राजनीति विज्ञापनों और टेलीविजन की अनिवार्यता को कई स्तरों पर साबित किया जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों एवं प्रत्याशियों के लिए यह मन-मुताबिक छवि प्रसारित करने का आसान माध्यम है तो वही मतदाता के पक्ष में इस बात की सुविधा मिल जाती है कि वह घर बैठे राजनीतिक पार्टियों की रणनीति को समझ पाता है। इन सबके वाबजूद विज्ञापन समीक्षकों ने इस पर सवाल उठाते हुए इसे नागरिकों के लिए फैंटेसिया मात्र कहा है।( विलियम लीज, क्लीन, जैलीः 1990,सोशल कम्युनिकेशन इन एडवर्टाइजिंगः पर्सन,प्रोडक्ट्स एंड इमेज ऑफ वेल विइंग, पेज नं-309,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। नागरिकों के लिए फैंटेसिया इस अर्थ में है कि रंगों,ध्वनियों,संगीत और तस्वीरों के दम पर जिस लोकतंत्र को टेलीविजन स्क्रीन पर रचने की कोशिश की जाती है वह वस्तुस्थिति से बिल्कुल अलग होती है। इस बात की समझ के लिए हमें कोई सामाजिक सर्वे की जरुरत नहीं होती,सुविधा के लिए इसे भी टेलीविजन के माध्यम से समझा जा सकता है। हम विज्ञापनों से हटकर जैसे ही राजनीतिक-सामाजिक खबरों की तरफ बढ़ते हैं जो हमें बिल्कुल ही अलग तस्वीर दिखाई देती है। ये तस्वीरें विज्ञापन में बनी राजनीतिक पार्टी की छवियों को झुठला जाती है। विज्ञापन विशेषज्ञों ने राजनीतिक विज्ञापन की कमजोरियों को जिस रुप में रेखांकित किया है,यह मतदाता के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों के लिए भी फैंटेसिया है। उनका सवाल है कि क्या पैसा मतदान को खरीद सकता है, इसे और स्पष्ट करते हुए कहें तो क्या पैसे के माध्यम से वैसे विशेषज्ञ जुटाए जा सकते हैं जो कि प्रत्याशी के लिए अपने पक्ष में मतदान की गारंटी दे सके।( डायमंड,एडविन,स्टीफनः1984,दि स्पॉटः दि राइज ऑफ पॉलिटिकल एडवर्टाइजिंग ऑन टेलीविजन, पेज नं- 78 कैम्ब्रिज,मासःएमआइटी प्रेस)। इससे ठीक पहले वाले लोकसभा चुनाव के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि इंडिया शाइनिंग के लाख जोर होने के वाबजूद भी मतदाताओं के चेहरे पर की झुर्रियां कम नहीं हो पायी । दूसरी तरफ मशरुम की तर्ज पर करोड़ों रुपये खर्च करके बनाए और प्रसारित किए जानेवाले विज्ञापन इस विज्ञापन के बावजूद परिणाम के स्तर पर बीजेपी बुरी तरह पिट गयी। सच्चाई इस बात में है कि राजनीतिक विज्ञापनों और टेलीविजन द्वारा मनोरंजन,संगीत और विजुअल्स के दम पर प्रत्याशी की छवि तो गढ़ी जा सकती है,इससे दर्शक के स्तर पर मतदाता को रिझाया जा सकता है लेकिन इससे दर्शकों का मनोरंजन भले ही हो जाए लेकिन जब तक उसकी डिकोडिंग मतदाता के स्तर पर नहीं हो जाती,तब तक विज्ञापन औऱ टेलीविजन के बूते चुनाव जीतने की कोई भी गारंटी नहीं दे सकता। टेलीविजन के जरिए छवि निर्माण करके पॉलिटिकल मार्केटिंग की जा सकती है किन्तु यह राजनीति की अधूरी प्रक्रिया है। छवि निर्माण के लोकतंत्र का विस्तार जब तक लोकतंत्र की राजनीति के स्तर पर नहीं हो जाता,तब तक राजनीतिक विज्ञापन रचनात्मकता औऱ मनोरंजन के स्तर पर बेहतर होते हुए भी एक दर्शक को मतदाता में नहीं बदल सकता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090503/cf3db769/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon May 4 14:33:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 4 May 2009 14:33:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSoIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWM4KSC4KSh4KWL4KSCIOCkleCliyDgpJXgpY3gpK/gpYvgpIIg4KSs?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSs4KS+4KSmIOCkleCksCDgpLDgpLngpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KWA4KS2?= Message-ID: <829019b0905040203w4989a388v64075cbb8b6eb9b7@mail.gmail.com> हमारे और रवीश कुमार के बीच आज अगर कोई बूढ़ा-बुजुर्ग आ जाए तो एक बार तो जरुर कहेगा-ये लौंडे तो पहले से ही खत्तम हैं,तुम इन्हें और क्यों बर्बाद कर रहे हो,रवीश? फेसबुक पर रवीश कुमार से जो भी जुड़े हैं,उन्हें पता है कि वो वहां क्या खेल करते हैं। पांच-छः घंटे पर कोई छोटा-सा संदेश चस्पा जाते हैं। इस संदेश की लिपि अंग्रेजी में होती है जबकि बातें खाटी हिन्दी या कभी-कभी उर्दू टच लिए। शायद इसलिए कि ज्यादातक संदेश मोबाइल से भेजी होती है। उसके बाद इस पर कमेंट करनेवाले लोगों के बीच आपाधापी मच जाती है। इसकी बोहनी(शुरुआत)ज्यादातर गिरीन्द्र से होती है। उसके बाद चंडीदत्त शुक्ल,इरशाद अली, सुशील कुमार छौक्कर,साजिद खान और भी दुनियाभर के लोग। पहले मैं फेसबुक को रोजाना नहीं देखता था लेकिन जिस तरह से लोगों ने इसे गर्माना शुरु कर दिया है कि दिनभर में एक-दो बार देखे बिना चैन नहीं पड़ता। रवीश अक्सर दो लाइन लिखकर ब्राइकेट में सस्ता शेर या चीप शायरी लगाकर कंटेट को क्लियर कर देते हैं। बाकी बातों पर तो नहीं लेकिन सस्ता शेर पर मैं कमेंट करने से अपने को रोक नहीं पाता। यहां मैं अक्सर स्त्रीलिंग भाषा का प्रयोग करते हुए कमेंट करता हूं,कुछ-कुछ हिन्दी के आदि कवियों की नकल करते हुए। क्योंकि रवीश सस्ता शेर के नाम पर जो कुछ भी लिखते हैं, उसे पढ़ते हुए पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि लड़कियों को इसका जबाब देना चाहिए। मैं उनके वीहॉफ पर जबाब देता हूं। जिस दिन से लड़कियां जबाब देना शुरु कर देगी, मैं स्त्रीलिंग-भाषा का प्रयोग बंद कर दूंगा। फिलहाल सस्ता शेर और जबाबी कारवाई से गुजरते हुए मजे लें- 1. is shehar me hur baat achhi hoti hai, sachhi mulaaqaaten bhi jhoothi lagteen hain,khat parhne ke baad vo hanstee rahtee hai,jhoothe alfaazo ko sachha samajhtee hai(cheap shayri) जबाब- पढ़ती हूं अल्फ़ाजों को और हंसती हूं तुम्हारी कोशिशों पर कि झूठ लिखकर भी तुम सच के एहसास को जिंदा रखना चाहते हो.. 2.is shehar me hur baat achhi hoti hai,vo nahee aateen to mulaqaat kisi aur se ho jaatee hai. (Cheap shayari) जबाब- शहर में आकर तुम मर्द कितने सतर्क हो जाते हो मोहब्बत में भी बेकअप रखते हो 3.Qatal bhi hum hue aur qaatil bhi kehlaaye,muqadma chalne se pehle, faislaa ho gaya जबाब- कि जिसने कातिल किया है जिसको और जो कातिल हुआ है जिससे वो जमाने को न बताए कभी कि कातिल होने और करने की सजा क्या होती है।. 4.Is july me sanam, hum baadal ban jaayegaa, barsenge august bhar,phir ghum ho jaayenge. जबाब- तुमने बहुत देर कर दी मेरे हमदम हम तो मार्च से ही पसीना बनकर रिक्शेवालों की पीठ पर बहते रहे वो हीरामन बन गया और हम गमछा थमाने लगे 5.Humne dil kisi ka na torha mohabbat me, hur toote dilwaalo ka thikana hai meraa dil जबाब- hasrat thi ki kabhi mohabbat me na tute kisi ka dil tute to jud jaayae fir,kabhi kabaadkhana na bane mera dil 6.दुनिया की सारी बेवफाओं से आबाद है मेरी शायरी। रोते हुए आशिकों ने सींचा है मेरी नज़्मों का बागीचा।। cheap shaayri is back जबाब- दर्द के खाद पड़ते रहे इन नज़्म की जड़ों में बिना जमाने की खौफ़ के,बेख़ौफ बढ़ता रहा बगीचा 7.Cheap shayari- sitaaro ki tarah jhilmilaane ki zarurat nahee, mere chaand ko itraane ki zarurat nahee, door se hi achhi lagtee ho tum, ghar aane ki zarurat nahee जबाब- तो फिर तुम भी खिड़की पर ही नजर बनाए रखना दरवाजे पर की दस्तक सुनने की कोई जरुरत नहीं 8. Ek sms se hee baat ban gayee,baarish se pehle vo aa gayee,mulaqaat ka vaqt kum milaa,jo bhi milaa, kaafi lagaa जबाब- जिंदगी भर तक मथ्था टेका,मिला नहीं मुझे ईश बस एक एसएमएस जो किया,डेट पर मिले रवीश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090504/cf2e3e88/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue May 5 00:49:42 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 5 May 2009 00:49:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MTXgpLXgpYDgpIIg?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSV4KS44KSt4KS+?= Message-ID: <6a32f8f0905041219q1f26ded0i91b1b12c570f3b4@mail.gmail.com> 15वीं लोकसभा चुनाव में जगी बनारस की आत्मा बनारस का न्यारापन जितना उसके नाम में है, उससे अधिक उसकी विभूति में है। जिसका जैसा नजरिया हो वह वैसा माने। यह आजादी यही शहर देता है। याद में यह काशी है। सरकारी कागजों में वाराणसी है। चुनाव आयोग ने इसे वाराणसी संसदीय क्षेत्र नाम दिया है और न. 77. पंद्रहवीं लोकसभा के लिए डा. मुरली मनोहर जोशी ने काशी को चुना। इस पर खूब बमचख मचा, भाजपा में और बाहर भी। पहले चरण के चुनाव के दौरान इसके संकेत साफ मिल रहे थे कि डा. जोशी यहां से चुनाव जीत रहे हैं। हालांकि, इसकी घोषणा सोलह मई को होनी है। यहां जो दिखा वह काशी की भावना थी। जो जीतती नजर आई। दागी और दोषी यहां क्यों पिछड़ते नजर आए? वे तो बाहुबली भी हैं। बहुत दिनों तक इसे बनारस गहरे डूबकर खोजेगा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? यहां लोगों ने जनता की राजनीति और धंधे की राजनीति का फर्क समझा और समझाया। साथ ही धंधे की राजनीति के खतरे को ठीक-ठीक आंका। बनारस अपनी परंपरा में जीता है। उससे रस ग्रहण करता है। लोकतांत्रिक राजनीति में जो खतरे उभर आए हैं उन्हें बनारस ने अपने अनुभवों से पहचाना कि वे उसी तरह के हैं जैसे कभी महामारी हुआ करती थी। उसका नाम चेचक, हैजा, प्लेग कुछ भी हो सकता है। नई महामारी आतंकवाद है। जिस तरह पहले बनारस वाले गली के नुक्कड़, तिराहे और चौराहे पर टोटका कर महामारी रोकते थे और उसके लिए अनुष्ठान करते थे वही तरीका इस बार चुनावी समर में बनारस ने अपनाया। यह चुनाव बनारस की अपनी इज्जत से जुड़ गया था। इसलिए सामाजिक सहिष्णुता की धारा के मौजूदा प्रतिनिधि सक्रिय हुए। इससे बनारस के बदले मिजाज को समझा जा सकता है। यही वह खुला रहस्य है जो मतदान के दिन उजागर हुआ। मतदान के नतीजे की जब विधिवत घोषणा होगी तो साफ हो जाएगा कि देश की सांस्कृतिक राजधानी में लोकतांत्रिक आकांक्षा को राह दिखाने का सामर्थ्य है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090505/6df72dc0/attachment-0001.html From shantanu at sarai.net Tue May 5 16:37:18 2009 From: shantanu at sarai.net (shantanu choudhary) Date: Tue, 5 May 2009 16:37:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWI4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkuOCkguCkl+CkoOCkqOCliyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyBGT1NTIOCklOCksCDgpLjgpY3gpKXgpL7gpKg=?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkreCkvuCkt+CkviDgpJXgpILgpKrgpY3gpK/gpYLgpJ8=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkquCksCDgpJXgpL7gpLDgpY3gpK/gpLbgpL7gpLI=?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <2e07a27c0905050407s4dd79268y3e7f1b283a1bb0ab@mail.gmail.com> नमस्कार, 5-6 June को सराय(www.sarai.net) और माहेति (http://www.mahiti.org/) गैर सरकारी संगठनों के लिए FOSS tools और स्थानीय भाषा कंप्यूटिंग पर कार्यशाला आयोजित कर रहे हैं। घोषणा और पंजीकरण के लिए यह लिंक देखें http://ngoinabox.mahiti.org/niab-8-coming-soon । -- सादर शांतनु -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090505/b81a2bd4/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed May 6 10:57:13 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 6 May 2009 10:57:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSh4KS84KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+4KSCIOCkleCljeCksOClh+CkoeCkv+CknyDgpLLgpYc=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KSk4KWA?= Message-ID: <829019b0905052227g8ba96b6jdd162e91d434ccc8@mail.gmail.com> एनडीटीवी इंडिया पर बरखा दत्त और विनोद दुआ से अपनी सफलता की बात करते हुए शुभ्रा सक्सेना( सिविल सेवा परीक्षा 08 की टॉपर)बार-बार भगवान की कृपा रही और आगे देखिए किस्मत कहां ले जाती है जैसी भाषा का प्रयोग करती रही। अपनी सफलता की क्रेडिट वो भगवान को देती रही और अपनी जिंदगी में किस्मत को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बताती रही। बरखा दत्त को देश के सबसे कठिन और ताकतवर परीक्षा( सवा तीन लाथ में मात्र 791 चयनि) में सफल होनेवाली एक स्त्री/लड़की के मुंह से इस तरह की भाषा सुनना अच्छा नहीं लगा। बरखा ने टिप्पणी करते हुए लगभग समझाने के अंदाज में कहा- आप लड़कियां क्रेडिट क्यों नहीं लेना चाहती। औरतें किसी भी काम की क्रेडिट लेने में शर्माती है जबकि इस मेल डॉमिनेंट सोसायटी में पुरुष कभी भी क्रेडिट लेने से नहीं शर्माता। बातचीत खत्म होती इसके पहले शुभ्रा ने एक बार फिर इसी भाषा को दोहराया और कहा कि अगर किस्मात ने मौका दिया तो आगे भी काम करते रहेंगे। इस पर विनोद दुआ कि टिप्पणी रही कि- अभी भी भगवान, किस्मत जैसे शब्दों को प्रयोग कर रही है,ये अलग बात है कि इस सफलता में इनकी अपनी मेहनत रही है। शुभ्रा की यह भाषा एक पूरी मानसिकता को हमारे सामने लाकर रखती है। तकलीफ के क्षणों में सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ने और उल्लास के मौके पर सबकुछ भगवान के आगे अर्पित कर देने,उसे ही क्रेडिट देने का रिवाज हिन्दुस्तान में न जाने कितने सालों से चला आ रहा है। भगवान के आगे अपनी एफर्ट को तुच्छा मानने की मानसिकता इतनी मजबूत है कि शायद इसलिए खेत के पहले बैंगन और धान के पहले दाने पर हड्डी तोड़कर उपजाने वाले किसान का हक न होकर ठाकुरजी का हक बताया जाता रहा।(रेणु की कहानियों में ऐसे प्रसंग बार-बार आते हैं।) विज्ञान और तकनीक के दम पर देश में उत्पादन के तरीके से लेकर जीवनशैली में परिवर्तन आया लेकिन भगवान को क्रेडिट देने का रिवाज लगभग ज्यों का त्यों बना हुआ है। देश औऱ दुनिया को जागरुक करने के इरादे से खोला जानेवाला न्यूज चैनल भी शुभ मुहूर्त और भगवान की तरफ से अनुमति न मिलने की स्थिति में ढ़ाई घंटे देर से शुरु होता है। सारी बातों के लिए भगवान को आगे कर देने(पहले तो यही साफ नहीं है कि भगवान बोलकर भी कोई चीज होती है) से एक ऐसी छवि स्थापित करने की कोशिश होती है कि अब जो भी काम होगा वो गलत नहीं होगा और अगर गलत हो भी गया तो इसमें भी कहीं न कहीं शुभ और कल्याण का मर्म छिपा रहा होगा। अभी तक शुभ्रा इस सोच से अलग नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह की सोच रखना उसका अपना फैसला और समझ हो सकती है लेकिन सिविल सेवा में आने के बाद अगर ये व्यक्तिगत सोच,उसके निर्णयों पर हावी होने लग जाए तो क्या किया जाएगा? हिन्दी की दुनिया में इससे अलग एक दूसरी स्थिति है। यहां दुनियाभर को मानवतावाद औऱ सामाजिक चेतना का पाठ पढ़ानेवाले तुलसी ने लिखा- हम चाकर रघुवीर के। मौजूदा सामाजिक विसंगतियों से सीधे टकरानेवाले कबीर ने लिखा- कबीरा कुता राम का,मुतिया मेरा नाम। इसके पहले के रचनाकारों ने तो कभी रचनाकार के तौर पर अपना नाम भी नहीं लिखा। इसे आप अनप्रोफेशनल एप्रोच कह सकते हैं लेकिन तब साहित्य औऱ रचना को इस लिहाज से सोचा-समझा नहीं जाता रहा। अब देखिए,इसी तुलसी औऱ कबीर पर चुटका टाइप की आलोचना पुस्तक लिखकर स्वनामधन्य लोग हाफ-डीप करते नजर आते हैं। क्रेडिट लेने की छटपटाहट इतनी अधिक है कि बिना लिखे ही कुछ बड़े रचनाकारों के लेखों को बटोरकर संपादक होना चाहते हैं। सेमिनार की रिपोर्टों में शामिल होने के वाबजूद भी अपना नाम न होने पर संपादक को कोसते हैं,संवाददाताओं को जाहिल करार देते हैं। अलग-अलग क्षेत्र में क्रेडिट को लेकर जबरदस्त मार-काट मची रहती है. जाहिर शुभ्रा सक्सेना जैसी शख्सियत हिन्दी साहित्य की दुनिया में नहीं है जहां तर्क को धकेलते हुए रचनाशीलता के नाम पर हर बात को पचा लिए जाएं। वो ब्यूरोक्रेसी में शामिल होने जा रही हैं जहां कि हर फैसले के पीछे एक तर्क होता है। यह तर्क पूरी तरह मनुष्य केंद्रित है। ऐसे में हम जैसे लोग बरखा दत्त की तरह कोई नसीहत दिेए बगैर भी यह तो जरुर चाहेंगे कि शुभ्रा की सोच व्यूरोक्रेसी के तर्क से बार-बार टकराए। दोनों एकमएक न हो जाए। उसे इस बात का एहसास हो कि हमारी तमाम गतिविधियों में मनुष्य शामिल है, हम खुद की प्रेरणा से काम कर रहे हैं। न्यूज चैनलों द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार औऱ आत्मविश्वास से लवरेज होने की बात की जा रही है,उसका सही अर्थ तर्क से टकराकर ही खुल पाएगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090506/572e907d/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed May 6 15:33:50 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 6 May 2009 15:33:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSV4KSm4KSu?= =?utf-8?b?IOCkq+CljeCksOClh+CktiAo4KSk4KSf4KSV4KS+KSDgpK7gpL7gpLIg?= =?utf-8?b?4KS54KWIXyDgpKjgpL7gpLDgpYvgpIIg4KSV4KS+?= Message-ID: <196167b80905060303lad4db6aoc26709be0e54218e@mail.gmail.com> *अब चुनाव का मौसम ख़त्म होने वाला है. कल दिल्ली में चुनाव है... जब तक सरकार नहीं बन जाती आप इन नारों की जुगाली कर सकते हैं.. एकदम फ्रेश (तटका) माल है. * केंद्र की लेने चले कमान, लालू, मुलायम, पासवान. भाजपा की गोटी लाल, मायावती ने चल दी चाल. हाथी चल दी दिल्ली चाल, मायावती भी हैं तैयार. नीतिश जी नीतिश जी क्या हुआ आपको बाढ़ के चक्कर में क्यों भूल गए बाढ़ को. आँखों में सपने दिल्ली में सरकार, शरद पवार भाई, शरद पवार. पहले खुद ही थे टाडा जी संजय दत, ऊपर से चढ़ गया पर टाडा अमर सिंह का रंग. भाजपा भाई बकवास है, राम (राम विलास) लालू के पास है. पप्पी-झप्पी का कनेक्शन क्या, कोई ना बोले लल्ल लल्ल ला. *स्पेशल नारा* आई बी एन सेवेन चला इन्डिया टी वी की चाल , और अपनी चाल भी भूल गया. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090506/2a10b4a5/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu May 7 23:57:04 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 7 May 2009 23:57:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjAwIOCksOClgQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSv4KS+IOCkuOClh+CksCDgpJzgpLLgpYfgpKzgpYA=?= Message-ID: <6a32f8f0905071127i77d8aa23we8e7ecc828957dda@mail.gmail.com> *दरीबा कलां और 200 रुपया सेर जलेबी* * * *ब्रजेश झा* * * चांदनी चौक इलाके में दरीबा कलां के नुक्कड़ पर है, पुरानी जलेबी वाले की दुकान। साहब, यह दुकान 138 वर्ष पुरानी है! और इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी भर है कि यहां बा-मुश्किल से दो लोग बैठते हैं। जिनमें एक जलेबी तलने का काम करता रहता है। दूसरा दुकान की गद्दी संभाले रहता है। यहां गर्म-गर्म जलेबी का लुत्फ उठाने वालों को दुकान के बाहर ही खड़ा होना पड़ेगा। इसके बावजूद दरीबा कलां डाकघर के निकट स्थित इस दुकान की खूब ख्याति है। चांदनी चौक से लौटने पर यार-दोस्त जरूर पूछते हैं- भई, वहां जलेबी खाया या नहीं! इन दिनों दुकान कैलाश चंद्र जैन की देख-रेख में रफ्तार पकड़े हुए है। घंटा भर वहां खड़ा रहा। कैलाश साहब बड़े व्यस्त दिखे। वक्त देखकर तपाक से मेरे पूछने पर उन्होंने बताया, “हमारे पुरखे यानी नेम चंद्र जैन ने इस दुकान को खोला था। वह सन् 1870-71 का जमाना था । तब से अब तक इस इलाके में कई जरूरी बदलाव हुए। लेकिन, यह दुकान अपनी रफ्तार पकड़े हुए है।” दुकान की पूरी काया देखने पर मालूम पड़ता है कि यहां भी वक्त के साथ जरूरी बदलाव किए गए हैं। रंग-रौगन होते रहे हैं। पर, तंग जगह होने के बावजूद कैलाश जी ने कायदे से जगह का इस्तेमान किया है। आस-पास कूड़ा न फैले इसका भी खूब इंतजाम है। वैसे, यहां की जलेबी थोड़ी महंगी तो है। लेकिन, जिसने भी इसका स्वाद लिया, वह इसका मुरीद बन गया। दोबारा अपनी जेब ढ़ीली करने से नहीं हिचकिचाता है। कैलाश चंद्र ने बताया, “हमारे यहां दो सौ रुपये प्रति किलोग्राम की दर से जलेबी मिलती है। लोग बड़े चाव से जलेबी खाते हैं और अपने परिजनों के लिए भी लेकर जाते हैं। ” महांगाई के बाबत वे कहते हैं, “ भई महांगी तो है। पर, आज सस्ता ही क्या रह गया है जनाब।” कैलाश जी की बातें तब सच मालूम पड़ती हैं, जब डाकघर के नीचे खड़े होकर देर तक उनकी दुकान में आने-जाने वालों को गौर से देखाता रहता हूं। चांदनी चौके के कई छोटे-बड़े बदलाव की गवाह यह दुकान रोजना सुबह साढ़े आठ बजे मेहमानवाजी के लिए तैयार हो जाती है। और रात के साढ़े नौ बजे तक अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090507/6d52abeb/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Fri May 8 13:29:12 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 8 May 2009 13:29:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjAwIOCksOClgQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSv4KS+IOCkuOClh+CksCDgpJzgpLLgpYfgpKzgpYA=?= In-Reply-To: <6a32f8f0905071127i77d8aa23we8e7ecc828957dda@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0905071127i77d8aa23we8e7ecc828957dda@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0905080059h52d566ddhe3a230ba225d6f55@mail.gmail.com> बिल्‍कुल दुरुस्‍त फरमाया ब्रजेश बाबू आपने. एक बार जी पर चढ़ जाने के बाद मजाल है कि कोई चांदनी चौक जाए और इस भारी-भरकम जलेबी का आस्‍वादन न करे! लार टपकाउ लिखा है आपने. बधाई स्‍वीकार करें. शुक्रिया राकेश 2009/5/7 brajesh kumar jha : > दरीबा कलां और 200 रुपया सेर जलेबी > > > > ब्रजेश झा > > > > चांदनी चौक इलाके में दरीबा कलां के नुक्कड़ पर है, पुरानी जलेबी वाले की > दुकान। साहब, यह दुकान 138 वर्ष पुरानी है! और इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी भर है कि > यहां बा-मुश्किल से दो लोग बैठते हैं। जिनमें एक जलेबी तलने का काम करता रहता > है। दूसरा दुकान की गद्दी संभाले रहता है। > > > > यहां गर्म-गर्म जलेबी का लुत्फ उठाने वालों को दुकान के बाहर ही खड़ा होना > पड़ेगा। इसके बावजूद दरीबा कलां डाकघर के निकट स्थित इस दुकान की खूब ख्याति > है। चांदनी चौक से लौटने पर यार-दोस्त जरूर पूछते हैं- भई, वहां जलेबी खाया या > नहीं! > > > > इन दिनों दुकान कैलाश चंद्र जैन की देख-रेख में रफ्तार पकड़े हुए है। घंटा भर > वहां खड़ा रहा। कैलाश साहब बड़े व्यस्त दिखे। वक्त देखकर तपाक से मेरे पूछने पर > उन्होंने बताया, “हमारे पुरखे यानी नेम चंद्र जैन ने इस दुकान को खोला था। वह > सन् 1870-71 का जमाना था । तब से अब तक इस इलाके में कई जरूरी बदलाव हुए। > लेकिन, यह दुकान अपनी रफ्तार पकड़े हुए है।” > > > > दुकान की पूरी काया देखने पर मालूम पड़ता है कि यहां भी वक्त के साथ जरूरी > बदलाव किए गए हैं। रंग-रौगन होते रहे हैं। पर, तंग जगह होने के बावजूद कैलाश जी > ने कायदे से जगह का इस्तेमान किया है। आस-पास कूड़ा न फैले इसका भी खूब इंतजाम > है। > > > > वैसे, यहां की जलेबी थोड़ी महंगी तो है। लेकिन, जिसने भी इसका स्वाद लिया, वह > इसका मुरीद बन गया। दोबारा अपनी जेब ढ़ीली करने से नहीं हिचकिचाता है। कैलाश > चंद्र ने बताया, “हमारे यहां दो सौ रुपये प्रति किलोग्राम की दर से जलेबी मिलती > है। लोग बड़े चाव से जलेबी खाते हैं और अपने परिजनों  के लिए भी लेकर जाते > हैं।” > > > > महांगाई के बाबत वे कहते हैं, “ भई महांगी तो है। पर, आज सस्ता ही क्या रह गया > है जनाब।” कैलाश जी की बातें तब सच मालूम पड़ती हैं, जब डाकघर के नीचे खड़े > होकर देर तक उनकी दुकान में आने-जाने वालों को गौर से देखाता रहता हूं। चांदनी > चौके के कई छोटे-बड़े बदलाव की गवाह यह दुकान रोजना सुबह साढ़े आठ बजे > मेहमानवाजी के लिए तैयार हो जाती है। और रात के साढ़े नौ बजे तक अपनी ही रफ्तार > से चलती रहती है। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 9 13:08:29 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 9 May 2009 13:08:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSF4KSk4KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KWN4KSkIOCkheCkguCklQ==?= Message-ID: <196167b80905090038j44417c05rdfd987b286cfdd86@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन का हरियाणा अतिरिक्त अंक दोस्तों, मीडिया स्कैन का इसी महीने एक अतिरिक्त (विशेष) अंक आने वाला है. जो हरियाणा पर विशेष होगा. यदि आपके पास हरियाणा के कला-संस्कृति-मीडिया से जुडी कोई विशेष जानकारी है, जो आप मीडिया स्कैन के पाठकों के साथ बांटना चाहते हैं तो अपनी रचना हमें मेल कीजिए- o8mediascan at gmail.कॉम कोशिश कीजिए आपके द्वारा भेजी गई सामग्री हमतक ११ मई की रात १२ बजे तक पहुँच जाए. आप चाहे तो सामग्री हरियाणवी में भी भेज सकते हैं... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090509/b28e58bc/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat May 9 13:46:28 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 9 May 2009 13:46:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS14KS+IA==?= =?utf-8?b?4KS54KWLIOCknOCkvuCkj+Ckl+CkviDgpI/gpKjgpKHgpYDgpJ/gpYA=?= =?utf-8?b?4KS14KWAID8=?= Message-ID: <829019b0905090116h233211f1i52bac6544fb6421e@mail.gmail.com> एनडीटीवी इंडिया आजकल बहुत परेशान है। एनडीटीवी इंडिया के लोग बहुत परेशान हैं। एनडीटीवी इंडिया रेगुलर देखनेवाली ऑडिएंस परेशान है। उपरी तौर पर देखने से ऐसा लगता है कि इन तीनों की परेशानियों की अपनी-अपनी वजह है और इसलिए इसका विश्लेषण भी अलग-अलग स्तर पर की जानी चाहिए लेकिन ऑडिएंस के लिहाज से सिर्फ कंटेंट और काम करनेवाले लोगों के पक्ष से नौकरी के मामले को लेकर में असुरक्षित होने के मुद्दे में फंसने के बजाए चैनल की सेहत(इकोनॉमिकल कंडीशन) पर गौर करें तो मामला साफ हो जाता है कि चैनल के भीतर क्यों इतनी अधिक उठापटक मची हुई है। अब तक एनडीटीवी ने अपनी पहचान जिस-जिस स्तर पर बनायी है,वो उन सबको धीरे-धीरे छोड़ने की स्थिति में आ चुका है। ऑडिएंस के बीच इसकी पहचान औऱ साख इस बात को लेकर बनी है कि ये भाषा और कंटेंट को लेकर बाकी के चैनलों से ज्यादा संवेदनशील रहा है। मीडिया में काम करनेवाले लोगों के बीच इसकी साख इस बात को लेकर रही है कि इसने अपने इम्प्लॉय को बतौर ह्यूमन रिसोर्स के तौर पर देखा-समझा है, उन्हें नए-नए प्रयोग करने से लेकर खुद को समृद्ध करने का भरपूर मौका दिया है। नौकरी के स्थायीपन को लेकर इस चैनल के बारे मेंर यहां तक बात की जाती रही कि इसमें सरकारी नौकरी जैसी निश्चिंतता है। एक आम ऑडिएंस की हैसियत से बहुत अंदुरुनी मामलों में न भी जाएं तो भी सिर्फ स्क्रीन पर आनेवाले एंकरों और रिपोर्टरों को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां काम करनेवाले बहुत कम ही पत्रकार दूसरे चैनलों में जाते हैं। मीडिया इंडस्ट्री में अब तक यही होता आया है कि जहां जिसे अच्छी और दुगुनी सैलरी मिली वो वहां चले गए। इसे लेकर न तो कोई एथिक्स है और न ही कोई पाबंदी। तर्क बहुत साफ है कि हर इंसान को बेहतर होने के मौके मिलने चाहिए। इसलिए आप देखते होंगे कि बड़े से बड़ा टीवी पत्रकार इधर-उधर कूद-फांद मचाते फिरते हैं। एनडीटीवी में ये स्थिति कल तक न के बराबर ही रही है। पैसे के साथ-साथ एक खास तरह का इलीटिसिज्म पत्रकारों को इस चैनल से बांधे रखा। आप ये भी कह सकते हैं कि एनडीटीवी अकेला ऐसा चैनल रहा है जहां टीवी पत्रकारिता करते हुए भी पत्रकार होने की दावेदारी बनी रहती है। चैनल ने अपनी ब्रांडिंग इसी स्तर पर की है। लेकिन आज ऑडिएंस से लेकर यहां काम करनेवाले लोगों के बीच भी इस ब्रांड का मिथक टूट रहा है। बेतहाशा छंटनी और स्क्रीन पर बदलती जुबान ये साफ करती है कि अब एनडीटीवी,एनडीटीवी नहीं रहना चाहता है। वो अपने को बदलना चाहता है। उसका ये बदलना किसी पत्रकारिता की शर्तों पर का बदलाव नहीं है बल्कि वो बदलना चाहता है क्योंकि वो अपने को बचाना चाहता है। मौजूदा हालात में उसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि वो अपने को इंडस्ट्री में बचाए रखे। वो लगातार आर्थिक रुप से लड़खड़ा रहा है। चैनल की इकोनॉमिक रिपोर्ट कार्ड पर गौर करें तो मौजूदा स्थिति में चैनल के पास कुल 241 करोड़ रुपये नकद रुप में है जबकि इसकी मार्केट वैल्यू कुल 708 करोड़ रुपये है। इसकी तिमाही रिपोर्ट पर गौर करें तो दिसंबर 08 से मार्च 09 तक इसे कुल 160.30 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इसके ठीक पहले दिसंबर 08 की तिमाही रिपोर्ट में कुल 125.34 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इससे भी पहले की सितंबर 08 तिमाही रिपोर्ट पर ध्यान दें तो कुल 119.32 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। अब इन तीनों तिमाही के घाटे को जोड़ दें तो कुल घाटा करीब 404.94 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। लेकिन मजे की बात ये है कि अगर आप इसकी वार्षिक रिपोर्ट और मुनाफे से संबंधित आंकड़े पर गौर करें तो इसे 365 दिन के भीतर 119.80 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ है। इस नफा- नुकासान के आंकड़ों में उलझने से पहले ये जानना जरुरी है कि ये मुनाफा चैनल के टर्नओवर से होने के बजाय अपनी हिस्सेदारी बेचने से हुई है। चैनल ने इस साल में अब तक 642 करोड़ की अपनी हिस्सेदारी बेची है। इसलिए इस स्थिति को मुनाफे की कैटेगरी में रखना सही नहीं होगा। चैनल के तीनों तिमाही रिपोर्टों के आधार पर अगर बात करें तो अगर इसकी आर्थिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आए तो आनेवाले तीन-चार तिमाही रिपोर्टों तक ये चैनल हवा हो जाएंगे. एक हद तक इसके संकेत भी मिलने शुरु हो गए हैं। दिल्ली-एनसीआर में ब्रॉडकॉस्ट होनेवाले चैनल मेट्रोनेशन पर ताला लग चुका है। एनडीटीवी इमैजिन जिसने कि लक्स जुनून कुछ कर दिखाने का और रामायण एक अच्छी आदत से अपनी पहचान बनायी, उसके भी जल्द ही बंद हो जाने की खबर जोरों पर है। इस चैनल ने वो दिन भी देखें हैं जबकि इसके शेयरों की कीमत 482 रुपये तक गयी और उस दिन को भी झेला है जब मात्र 69 रुपये में मामला सिमट गया। कल तक के स्टॉक एक्सचेंज की रिपोर्ट के मुताबिक यह 119.85 रुपये पर जाकर दम बोल गया। चैनल के मामले में जब हम इसके आर्थिक पहलुओं पर बात कर रहे हैं तो ऐसा लग रहा है हम मीडिया विश्लेषण से काफी दूर चले गए। हम पत्रकारिता के बजाए अर्थशास्त्र और मार्केटिंग की दुनिया में खो गए। ऐसा महसूस होना स्वाभाविक ही है क्योंकि अब तक मीडिया समीक्षा के नाम पर हम इसे पूंजीवाद का पहरुआ,बाजारवाद का एजेंट, साम्राज्यावाद का नया चेहरा और भी इसी तरह के भारी-भरकम वैल्यू लोडेड शब्दों का सहारा लेते हुए विश्लेषण करने और पढ़ने के अभ्यस्त रहे हैं जबकि अगर हम मीडिया के भीतर आर्थिक मामलों के तार को समझने की कोशिश करें तो हमारी सारी बहस एक गप्प साबित होकर रह जाती है। इसलिए क्या जरुरी नहीं है कि हम गप्पबाजी छोड़कर उन मसलों को समझें और विचार करें जिसके कारण आज एनडीटीवी जैसा चैनल अब एनडीवी नहीं होना चाहता। वो अपने को बदलना चाहता है इसलिए नहीं कि कोई पत्रकारिता को लेकर नई ट्रेंड शुरु करने की छटपटाहट है बल्कि इसलिए कि वो बदलने के बहाने अपने को बचाना चाहता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090509/58022b77/attachment-0001.html From lakhmi at cm.sarai.net Sat May 9 14:30:51 2009 From: lakhmi at cm.sarai.net (Lakhmi) Date: Sat, 09 May 2009 14:30:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KWL4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCkviDgpLngpYgg4KS44KSsIOCkleClgeCkmyDgpJjgpLAg4KSs4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <4A054643.3080609@cm.sarai.net> खोया सा है सब कुछ घर बाजार में एक आदमी सड़क के किनारे बसी एक बस्ती में रहता था। सड़क के दूसरी ओर वो काम भी करता था। हर रोज सुबह जल्दी-जल्दी में ही मगर नवाबों की तरह तैयार होता और पैरों मे चप्पल ठूसकर वो सड़क के किनारे खड़ा हो जाता। सड़क पार करने की चाह में वे हमेशा किनारे पर ही खड़ा होकर सड़क के दूसरी ओर देखता रहता। अपने पजामे मे अपने तलवे से उठाकर बस, कभी आगे तो कभी पीछे होता रहता था। सड़क की दूसरी ओर कहो या सड़क को पार करना उसे दस मिनट तो हमेशा लगते थे। वो आदमी इस दस मिनट के अन्तराल मे काफी शौर भी सुनता था। सड़क की दूसरी ओर पँहुचकर वो अपने हिस्से की जगह को साफ भी करता था और वहीं पर अपनी दुकानदारी चलता था। कभी-कभी वो आदमी जल्दी घर चला आता तो बीवी के लिए कुछ न कुछ जरूर लाता था। कभी अगर दिन अच्छा निकल जाता तो बीवी के साथ घंटों बैठकर बातें भी करता था और रात में बिस्तर पर दुलार भी करता था। उसी पल मे वो आदमी दिनभर के बारे मे बड़े प्यार से बतलाता भी था और अगर दिन कभी अच्छा न गुजर पाता था तो वो आदमी शाम मे चुपचाप बैठ जाया करता था। रात के खाने मे कोई न कोई नुक्स निकालकर खाना आधे मे ही छोड़ दिया करता था। खाना अधभर खाकर कुछ ऐसे खामोश हो जाया करता कि जैसे आज अपने घर मे नहीं किसी किराये के मकान मे सो रहा है और साथ मे सोने वाली उसकी बीवी नहीं बल्की सरकारी अस्पताल में बिस्टर बाँटने वाला कोई दूसरा मरीज है। मगर वो आदमी छुट्टी के दिन को बड़ी ताज़गी से बिताता था। जब भी कोई छुट्टी घोषित होती तो वो सबसे पहले अपना काम बन्ध करकर घर में ही बैठ जाया करता। बिना नहाये-धोये वो आदमी दरवाजे पर बैठकर आसपास की जगहें मे नज़रे घुमाता रहता, थोड़ी देर तक उसका यहीं काम लगातार चलता रहता था। चारों ओर नज़रों मे घुमाता और बस, बैठा रहता था। उसके बाद बाँध कमर मे स्वापी काँधे पर डाल तोलिया वो बाहर की तरफ चला जाता। जहाँ पर लोग खड़े या बैठे दिखते कुछ देर वहीं पर खड़ा होकर वो उनमे शामिल होता। नहीं तो रिक्सेवालों के यहाँ जाकर उनके खेलो में घुस जाया करता था। बाद में जब मन भर जाया करता था तो उठाये थैला वो कभी-कभी बाजार सब्जी लेने भी चला जाया करता था। हाथ मे पाँच किलो का थैला उठाये वे पचास ग्राहकों को मन मे रखकर बाजार में घुस जाया करता था। बाजार से उसका रिश्ता पाँच किलो या ज़्यादा से ज़्यादा दस किलो तक की सब्जी लाने ले जाने से ही हुआ करता था। ऐसा नहीं था की वो आदमी खरीदारी के बारे मे कुछ जानता नहीं था, बाजार में घूमने के मज़े वो पहचानता नहीं था। हफ़्ते मे वो एक बार ही सही मगर बाजार से उसका रिश्ता काफी पुराना था। सवेरे - सवेरे ही वो बाजार चला जाया करता था। पहले दो घण्टे वो सिर्फ वहाँ पर दुकान-दुकान देखता फिरता, सब्जियों के रेट पुछता फिरता। कुछ को अपने हाथों से दबाता, कुछ को नौंचता और जब चीज़ भा जाती तब वहाँ पर बैठ जाया करता था। आज भी छट्टी का ही दिन है। वो आदमी अब सड़क के दूसरी ओर को भूल गया है। सड़क के दोनों किनारे एक-दूसरे से मिल गए हैं मगर सड़क और भी चौड़ी हो गई है। भीड़ भी बड़ गई है। दस मिनट मे सड़क पार करना अब आधे घण्टे मे तब्दील हो गया है। काँधों से काँधे भी टकराने लगे हैं। वो आदमी मे थैला उठाये बाजार की तरफ चल दिया। बाजार अब बड़ा हो गया था। बाजार मे दुकाने भी बड़ गई थी। आधी खुली और आधी बन्द। अब बाजार उनके पैरों तले से ही शुरू हो गया था। हाथ में थैला मगर पाँच किलो का ही था। लेकिन उस थैले की कल्पना मे अब ग्राहको की तदात अब अनगिनत थी। वो आदमी सोचकर निकला था की इस थैले मे अपने हिस्से का बाजार भर लायेगा। कुछ दूर चलने के बाद वहाँ बिछड़े पुराने यार मिले। जो अब पूरी तरह से बाजार के हो चुके थे। उनकी बोली मे भी बाजार की ही बातें थी। चीज़ों को देखने की नज़र भी उनको आँकने के समान थी। हाल-चाल पूछने वाली ज़ुबान मे भी वही नौंचने वाले शब्द थे। कैसा ही हिसाब-किताब कहते फिर माल के बारे पूछते। वो आदमी जानता था कि ये माल किसे कह रहे हैं। वो आदमी कुछ कह नहीं पाता। वो आदमी वहाँ पर खड़ा रहता। वो आदमी अगर कुछ कह पाता था तो बस, “हाँ-हूँ" की ही ज़ुबान बोल पाता। अब तक तो वो आदमी उन यारों को बस, खामोशी से देखता रहा। बाजार में नज़रे घुमाने लगा। कभी अपने यारों को देखता तो कभी महज़ उनके चेहरे पर ही अटक जाता। पुराने यार मिलने के इस अचम्भित दौर मे वो आदमी सकबका सा रहता। सोच-विचार में पड़ जाता। क्या कहे, क्या कहे के घेरे मे फँस जाता। वो आदमी अब धीरे-धीरे उनकी बातों को नज़रअंदाज़ करने लगता। वो आदमी वहाँ से निकल जाने की सोचने लगता। यारों के साथ में खड़ा होना आज मन को कसोट रहा था। खुद को भूल जाने पर जोर कर रहा था। मगर वो आदमी खुद को याद रखना चाहता था। सड़क के दूसरी ओर का ठिकाना याद रखने से अब कोई फायदा भी नहीं था। इस ओर से उस आदमी का लगाव गहरा हो गया था। पाँच किलो के थैले में अनगिनत लोगों की कल्पना उसके घर से ही शुरू हो जाती थी। यारों को अलविदा करके वो आदमी अपने घर की तरफ चल दिया था। इस पाँच मिनट के रास्ते मे वो आदमी अपने घर को भूला चुका था। याद रहता तो बस, घर का दरवाजा, वहाँ जाने का रास्ता और पाँच किलो का थैला। उसके साथ-साथ सड़क की दोनों ओर। घर तो कहीं खो गया था। सड़क के दोनों किनारे एक हो जाने से लोग बहुत नज़र आते थे। कौन कहाँ जा रहा है? कहाँ से आया है? ये कोई नहीं जान सकता था। कभी-कभी तो लगता जैसे सभी एक-दूसरे के साथ हैं। ‌वो आदमी रास्ते मे यारों की बातें याद करता हुआ घर की तरफ मे बड़ता जाता। यादों मे दोस्त की बातें और बीते समय के दृश्य घूमते चलते। वो आदमी उनको याद करके मुस्कुराता चलता। कभी-कभी पीछ मुड़कर भी देख लिया करता था। एक यार अपने यहाँ खाने पर बुला रहा था, “कभी तो आ जाया करों मौत या ज़िन्दगी की पूछने" कहकर जलील कर रहा था। वो आदमी यार की बात सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देता। "जरूर आयेगें" कहकर उसे शांत करता। पुराने दिन वापस आयेगे सोचकर मन ही मन उसका शुक्रियाअदा भी करता। दिमाग मे कोई न कोई दिन पहले से ही तय कर लिया करता। सारे काम उस दिन से पहले या उस दिन के बाद कर लेगा ये भी सोच लिया करता था। चलते-चलते वो यारों से दूर हो जाने का वो अफसोस भी करता था। पाँच मिनट का रास्ता ख़त्म भी हो गया था। वो आदमी अपने घर के दरवाजे पर आते-आते बाजार की सारी बातें वो भूल जाया करता था। बस, कभी-कभी जब कोई बात नहीं होती थी करने को तो वो यारों की बातें छेड़कर अपनी बीवी को पुराने दिनो के बारे में बड़ा-चड़ाकर बताया करता था और मज़े लूटता था। बीवी के आगे यारों का यार साबित करके वो मन ही मन मुस्कुराता भी था। सड़क के किनारे भले ही मिल गए थे। लोग भी घने गुज़रने लगे थे। वो आदमी उन सभी लोगों को अपने पाँच किलो के थैले से ही देखता था। बस, बातों ही बातों मे यार बनाता और रोटियाँ बेलता था। सबको खाना खिलाता था। घर पँहुचकर वो आदमी अपना घर हमेशा खोजता था मगर कभी घर मिलता नहीं था। ---------------------------------------------------------------------------- लख्मी http://ek-shehr-hai.blogspot.com/ From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun May 10 01:26:18 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 10 May 2009 01:26:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSV4KSs4KS+?= =?utf-8?b?4KS1IOCkrOCkvuCkqOCliw==?= Message-ID: <6a32f8f0905091256n3296bfdao319577dd8feb3a73@mail.gmail.com> *लाजिम है कि हम भी देखेंगे...* *इकबाव बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को *जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था। यह बात अस्सी के दशक की है। इकबाल बानो ने लाहौर के स्टेडियम में पचास हजार श्रोताओं के सामने फैज के निषिद्ध नज्म खूब गाये थे। वह भी काली साड़ी पहनकर। तब वहां की सरकार ने फैज की शायरी पर ही नहीं बल्कि साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। पर बानो ने इसकी परवाह नहीं की। वह नज्म इस प्रकार हैं- *हम देखेंगे** **लाज़िम है कि हम भी देखेंगे** ** **वो दिन कि** **जिसका वादा है** **जो लौह-ए-अजल में लिखा है** **हम देखेंगे ...** **जब जुल्म ए** **सितम के कोह-ए-गरां** **रुई की तरह उड़ जाएँगे** **हम महकूमों के पाँव तले** **जब** **धरती धड़ धड़ धड़केगी** **और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर** **जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी** **हम** **देखेंगे ...** **जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से** **सब बुत उठवाये जायेंगे** **हम** **अहल-ए-सफा**, **मरदूद-ए-हरम** **मसनद पे बिठाए जाएंगे** **सब ताज उछाले जाएंगे** **सब** **तख्त गिराए जाएंगे** **हम देखेंगे ...** **बस नाम रहेगा अल्लाह का** **जो गायब** **भी है हाजिर भी** **जो नाजिर भी है मंज़र भी** **उठेगा अनलहक का नारा** **जो मैं भी** **हूँ और तुम भी हो** **और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा** **जो मैं भी हूँ और तुम भी हो** **हम देखेंगे ...* *इ*स पाकिस्तानी गायिका का तीन सप्ताह पूर्व निधन हो गया। उनका जन्म दिल्ली में ही सन् 1935 में हुआ था और वे उस्ताद चांद खां की शागिर्द थीं। लेकिन, सन् 1952 में निकाह के बाद वह शौहर के पास पाकिस्तान चली गई थीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090510/1856acb1/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon May 11 12:34:08 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 11 May 2009 00:04:08 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KS24KWA?= =?utf-8?b?IOCknOClgCDgpIfgpLgg4KSV4KS84KSm4KSwIOCkluCkvuCkruCliw==?= =?utf-8?b?4KS2IOCkleCljeKAjeCkr+Cli+CkgiDgpLngpYjgpII/?= Message-ID: <196167b80905110004n9421e61x155be444ce2d016d@mail.gmail.com> *केंद्रीय हिंदी संस्‍थान दुधारू गाय है। इसके पद पैसा-प्रतिष्‍ठा वाले हैं। अभी जब शंभुनाथ इसके डायरेक्‍टर बने, तो कई सारी सृजनात्‍मक गतिविधियों के चलते ये संस्‍थान सुर्खियों में आया। वे ईमानदार माने जाते रहे हैं। उनके समय में ही प्रसिद्ध मगर अब सरकारी हो चले पत्रकार रामशरण जोशी संस्‍थान के उपाध्‍यक्ष बने। अंदरखाने के सूत्र बताते हैं कि जोशी जी के लोभ-लालच की तीव्रता से खिन्‍न होकर शंभुनाथ ने समय से तीन महीने पहले ही पद छोड़ दिया। जोशी अर्जुन सिंह के क़रीबी हैं। तय है कि 16 मई को जब चुनाव के परिणाम देश के सामने होंगे, अर्जुन सिंह के पास कोई कुर्सी नहीं होगी। लिहाजा अपने पद को लेकर जोशी जी आजकल बेहद परेशान परेशान हैं।* ** *वह तीसरा आदमी कौन है? * *भारत में राष्ट्रीय महत्व की संस्था केंद्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक पद की बहाली के लिए इन दिनों दिल्ली से लेकर आगरा तक में अफरा-तफरी का माहौल है। बस नयी सरकार आने से पहले किसी तरह नये निदेशक की नियुक्ति हो जाए, ऐसा संस्थान से जुड़े कुछ बड़े नाम चाहते हैं। संस्थान का साढ़े चार करोड़ का सालाना बजट और 32 लाख रुपए के तीन पुरस्कार किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं। हाल में संस्थान से 31 अतिथि प्राध्यापकों को बाहर का रास्ता आचार संहिता के नाम पर दिखा दिया गया। ऐसे समय में अर्जुन सिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते अगले तीन दिनों में केंद्रीय हिन्दी संस्थान का निदेशक चयनित कर लिये जाने की कवायद दाल में काले की तरफ नहीं बल्कि पूरी की पूरी दाल के काले होने की तरफ संकेत है। प्राप्त जानकारी के अनुसार आज सोमवार की शाम तीन बजे शास्त्री भवन में सर्च कमिटी की मीटिंग है। इस मीटिंग के लिए कमिटी के सदस्य प्रो दिलीप कुमार हैदराबाद से, प्रो विजय बहादुर सिंह कोलकाता से निकल चुके हैं। तीसरे सदस्य प्रो तुलसीराम जेएनयू विवि, दिल्ली से ही हैं। सर्च कमिटी द्वारा निकाले गए नामों पर कल शासी कमिटी की बैठक में चर्चा होगी और अगले दिन प्रस्तावित नाम मंत्री अर्जुन सिंह जी के पास हस्ताक्षर के लिए भेज दिये जाने की संभावना है। केंद्रीय हिन्दी संस्थान हिन्दी को लेकर काम करने वाली एक राष्ट्रीय महत्व की संस्था है, जिसके देशभर में आगरा मुख्यालय को छोड़कर दिल्ली, गुवाहाटी, दीमापुर मिलाकर कुल आठ केंद्र हैं। इस संस्थान के पूर्व निदेशक शंभुनाथ पिछले साल नवंबर में निदेशक पद से मुक्त हुए। उनके संस्थान छोड़ने से पूर्व ही नए निदेशक पद के लिए प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। समाचार पत्रों में इस संबंध में विज्ञापन भी निकल चुके थे। लेकिन नये निदेशक का चुनाव नहीं हो पाया। इस समय आगरा संस्थान के वरिष्ठ प्रोफेसर रामवीर सिंह संस्थान के कार्यकारी निदेशक हैं। पूर्व निदेशक द्वारा भाषा एवं साहित्य से संबंधित शुरू की गयी कई महत्वपूर्ण परियोजनाएं उनके जाने के बाद से ही ठप हैं। जैसा कि आप सब जानते हैं, 16 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद नयी सरकार बनाने की कवायद शुरू हो जाएगी। सरकार किसी की बने, यह तय हो चुका है कि मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह नहीं रहेंगे। चूंकि इसके लिए वे स्वयं अनिच्छा जाहिर कर चुके हैं। लेकिन उनके मानव संसाधन मंत्री रहते-रहते नये निदेशक का चुनाव हो जाए, इसके लिए उनके करीबी माने जाने वाले कुछ साहित्यकारों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। नए निदेशक के चयन के लिए केंद्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रामशरण जोशी की सिफारिश पर एक समिति का गठन किया गया, जिसके सदस्य बने प्रोफेसर दिलीप सिंह, प्रोफेसर तुलसी राम और प्रोफेसर विजय बहादुर सिंह। संस्थान के सूत्रों के मुताबिक, समिति की पहली बैठक 28 अप्रैल को हुई थी, जिसमें तीन व्यक्तियों का एक पैनल बनाया गया। इस पैनल में संस्थान के दो वरिष्ठ प्रोफेसर (प्रो रामवीर सिंह और प्रो भरत सिंह) थे और एक व्यक्ति बाहर से थे। वास्तव में सारी कहानी इसी तीसरे व्यक्ति को लेकर है, जिसे निदेशक पद पर बिठाने की कवायद चल रही है। इन्हें 16 मई से पहले-पहले अर्जुन सिंह से अंतिम स्वीकृति लेकर संस्थान का निदेशक बनाने की योजना है। कुछ कमी की वजह से 06 मई को बुलायी गयी बैठक में इस पैनल को रद्द कर दिया गया। रद्द की वजह शासी समिति के सामने रखे गये सिर्फ तीन नाम बताये जाते हैं। बाक़ी आवेदनकर्ताओं के नाम को समिति के सामने भी नहीं रखा गया। पाठकों की जानकारी के लिए निदेशक पद के उम्मीदवार कई बड़े जाने-माने साहित्यकार हैं, लेकिन उनके नामों को ताक पर रख दिया गया। 06 मई की अस्वीकृति के प्रथम ग्रासे मच्छिकापातम के बाद भी 16 मई से पहले अपने उम्मीदवार को निदेशक पद पर बहाल कराने का संकल्प लेने वाले हारे नहीं है। वे चुनाव से ऐन पहले जल्दबाज़ी में नये निदेशक का चुनाव कर लेना चाहते है। द्रष्टव्य है कि निदेशक ही इस राष्ट्रीय महत्व की संस्था का सर्वेसर्वा होता है। केंद्रीय हिन्दी संस्थान से जुड़े एक प्राध्यापक की मानें तो नए निदेशक का चयन 16 मई से पहले हो, यह चाहने वाले अभी भी सक्रिय है, क्योंकि यदि 16 तारीख के बाद नयी सरकार आयी, तब भी वे संस्थान में अपनी दावेदारी मज़बूत रखना चाहते हैं। इसलिए वे केंद्रीय हिन्दी संस्थान में निदेशक पद पर एक रबड़ स्टैम्प को बिठाना चाहते हैं, जो समय-समय पर उनकी सेवा में हाज़‍िर रहे और उनके मन मुताबिक काम करे। उम्मीद जतायी जा रही है, नया मंत्रिमंडल बनने से पहले यह लॉबी अपने मनपसंद नाम को अनुमोदित कर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की सहमति की मुहर लगाने के लिए भेज देगी। इस संबंध में संस्थान के उपाध्यक्ष राम शरण जोशी से बात करने की कोशिश की गयी, तो उन्होंने इस संबंध में कुछ भी बोलने से इंकार कर दिया। अलबत्ता नये निदेशक के चुनाव में चल रही उठा-पटक को लेकर केंद्रीय हिन्दी संस्थान के लोगों में गहरा रोष है।* http://mohalla.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090511/6cd7ab8d/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Mon May 11 13:17:48 2009 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 11 May 2009 00:47:48 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= betee kee nigaah men manto Message-ID: <2b1ae99f0905110047w677b78d6ub0f0aad1898235bf@mail.gmail.com> बी बी सी हिंदी डॉट कॉम ने उर्दू के मशहूर अफसानानिगार सादत हसन मंटो की बेटी निखत पटेल का इंटरव्यू लिया है. मंटो के मुरीदों को इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए. शुक्रिया (शशिकांत) *मज़हबी बिल्कुल नहीं थे मंटो'* सूफिया शानी बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए [image: सआदत हसन मंटो (फ़ाइल फ़ोटो)] मंटो की बेटी का कहना है कि वो बहुत प्यार करने वाले खुशमिजा़ज इंसान थे *सआदत हसन का जन्म 11 मई, 1912 को अमृतसर के ख़ानदानी बैरिस्टर परिवार में हुआ था. * लेकिन उनकी क्रांतिकारी सोच और अतिसंवेदनशील लेखनी से 'मंटो' के रूप में उन्हें पूरी दुनिया में शोहरत मिली. पैदाइशी अफसानानिगार मंटो अगर आज जीवित होते तो उनकी उम्र 97 साल होती. पेश है उनकी बड़ी बेटी निकहत पटेल से हुई बातचीत के अंशः *किस तरह की यादें जुड़ी हैं अब्बा जान मंटो की आपके साथ?* बेहद अच्छी यादें हैं उनकी, हालांकि उनके साथ हमारा बहुत कम वक़्त गुज़रा. लेकिन मुझे याद है, वो बहुत प्यार करने वाले खुशमिजा़ज इंसान थे. वो हमें ही नहीं हमारे रिश्तेदारों के बच्चों को भी लाड़-दुलार किया करते थे. धुंधली सी याद है मुझे, बावर्चीखाने में खड़े हुए अपनी पसंद की डिश या पकोड़े अक्सर बनाया करते थे. तो इस तरह उनके साथ जो भी वक्त गुजरा ज़हन में आज भी है. *उनकी ऐसी कोई बात जो आपको दिलचस्प लगती हो, जिसे आप भूल नही़ पाती हों?* मैंने उन्हें कभी नमाज़ पढते नहीं देखा था. क्योंकि वह उस मायने में मज़हबी बिल्कुल नहीं थे. लेकिन उनका हर कहानी या मज़मून शुरू करने से पहले सफेह पर 786 लिखना दिलचस्प लगता था. *मंटो साहब की कौन सी कहानियां आपको ज़्यादा अच्छी लगती हैं ?* यूँ तो उनकी सभी कहानियां अच्छी हैं लेकिन खासतौर से 'काली शलवार', 'हादसे का खात्मा' और 'बू' कहानियां अच्छी लगती हैं. 'बू' मेरी पसंदीदा कहानी है. *मंटो का व्यक्तित्व और कहानियाँ दोनों ही विवादों में रहे हैं, लोगों की प्रतिक्रियाओं का आप पर कितना असर हुआ?* देखिए जिस वक़्त कहानी ‘बू’ पर मुकदमा चल रहा था उस वक्त मैं बहुत छोटी थी. रही बात लोगों की प्रतिक्रियाओं का हम पर असर होने की तो मैंने देखा कि उनके विरोधी कम और चाहने वाले ज़्यादा थे. इसलिए विरेधियों की बातों पर कभी गौ़र ही नहीं किया. [image: बच्चों के साथ मंटो] मंटो की कई कहानियां बहुत लोकप्रिय हुईं *विवादों को आपकी अम्मी जान ने किस तरह लिया?* बहुत सहजता से. क्योंकि घर में मामू और फूफियों के अलावा पूरी साहित्यिक बिरादारी उनके साथ थी. इसलिए विरोध से वह कभी परेशान नहीं हुईं. *मंटो साहब के लेखन के बारे में वह क्या सोचती थीं ?* अम्मी बताती थीं कि अब्बाजान अपनी हर कहानी और मजमून सबसे पहले उन्हें ही सुनाया करते थे. और बताते थे कि इस कहानी या मजमून का मक़सद क्या है. *अम्मी से किस तरह का रिश्ता था मंटो साहब का?* होश आने पर जो घर के लोगों से जाना, वह यह कि रिश्तेदारों से उनका रिश्ता मोहब्बत और दोस्ती का था. बस अम्मी से उनकी झड़प शराबनोशी को लेकर हुआ करती थी. और उस वक्त भी वह अपनी कमज़ोरी और गलतियों को मान लेते थे. *'मनो मिट्टी के नीचे दफन सआदत हसन मंटो आज भी यह सोचता है कि सबसे बड़ा अफसाना निगार वह है या ख़ुदा.' मंटो की इस इबारत में आपको आत्मविश्वास और चुनौती नज़र आती है या ग़ुरूर?* मुझे तो सौ फीसदी आत्मविश्वास और साथ में चुनौती भी नज़र आती है..... गुरूर तो उनमें था ही नहीं . *अगर अब्बा जान मंटो से कोई एक बात कहनी हो, तो वो क्या होगी?* यही कि... ‘काश आपने शराबनोशी न की होती तो....हमें आपके साथ ज़्यादा रहने का मौका मिला होता....’ बस इतना ही. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090511/c8acb88c/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon May 11 13:51:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 11 May 2009 13:51:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCklOCksCDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KSaIOCkleCliyDgpKbgpL/gpJbgpL7gpK/gpL4g4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkqOClhw==?= Message-ID: <829019b0905110121i4c09c08cj5349d5c6db4db4c9@mail.gmail.com> आर्थिक मंदी की मार से हांफ रहे न्यूज चैनलों को जिन राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने चुनावी विज्ञापन देकर उसे मीडिया इंडस्ट्री में दौड़ लगाते रहने लायक बनाए रखा,आज वही न्यूज चैनल उनकी इस स्ट्रैटजी की धज्जियां उड़ाने में जुट गए हैं। आप चाहें तो न्यूज चैनलों की इस अदा पर फिदा हो सकते हैं,इसे चैनल की कलाबाजी कह सकते हैं या फिर तटस्थता का एक प्रायोजित नमूना जो कि विज्ञापन के असर लगभग खत्म हो जाने की स्थिति में इन मुद्दों को सामने ला रहे है। हर कॉमर्शियल ब्रेक पर बीजेपी के अभिमान और कांग्रेस के जय हो का डंका पिटनेवाले चैनलों ने देश के आम दर्शकों को ये कभी नहीं बताया कि आपके प्रत्याशी और राजनीतिक पार्टियां चुनावी विज्ञापन और मीडिया प्रचार की सवारी करके चुनाव जितने के लिए परेशान है उसमें न केवल आपके विकास का पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है बल्कि इससे किसी भी स्तर पर लोकतंत्र के मजबूत होने की कोई संभावना भी नहीं है। आज जबकि चुनावी महौल लगभग खत्म होने को है, न्यूज चैनल देश के आम दर्शकों को ये बता रहे हैं कि मीडिया ने चुनावी विज्ञापन के जरिए लोकतंत्र और विकास की जो तस्वीर बनाए औऱ दिखाए वो सब झूठ है। अब तो आप-हम वोट दे चुके हैं,राजनीतिक सक्रियता के स्तर पर फिलहाल कुछ खास नहीं कर सकते लेकिन राजनीतिक पार्टियों की धज्जियां उड़ाने के क्रम में चैनल ने जो आंकड़े पेश किए हैं उससे हम मीडिया,चुनाव और देश की वस्तुस्थिति को लेकर अपनी समझदारी दुरुस्त कर सकते हैं। सीधी बात में आए लालकृष्ण आडवाणी से प्रभु चावला ने जब ये सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि बीजेपी का पूरा प्रचार पर्सनालिटी कल्ट रहा। इस सवाल के जबाब में आडवाणी का साफ जबाब रहा कि अगर किसी व्यक्ति आधारित प्रचार होता है तो वो भी कहीं न कहीं पार्टी की विचारधारा का ही प्रसार होता है। फिलहाल हम इस तरह की मान्यता के समर्थन में न भी जाएं कि जो मैं हूं वही जगत है तो भी इतना तो समझ ही सकते हैं कि चाहे वो प्रत्याशी हो या फिर पार्टी उसने लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में अपनी पहुंच एक राजनीतिक व्यक्ति या विचारधारा के बजाए ब्रांड के रुप में बनाने की पुरजोर कोशिश की है और इसलिए पूरी तरह मार्केटिंग की स्ट्रैटजी में कूद गए। एनडीटीवी इंडिया ने अपने खास कार्यक्रम हमलोग में ये सवाल उठाया कि आखिर क्यों राजनीतिक पार्टियों की विज्ञापनों और मीडिया पर निर्भरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है? इसके साथ ही इस बहस को भी जारी रखा कि आखिर क्या वजह है कि चुनाव के बाद अक्सर मीडिया की ओर से निकाले गए नतीजे झूठे साबित होते हैं और असली चुनावी नतीजे को देखकर ऐसा लगता है कि चुनावी विज्ञापनों और मीडिया की ओर से किए गए प्रसार का मतदाता के उपर कोई खास असर नहीं हुआ है? पिछले तीन-चार महीने से एनडीटीवी इंडिया में खुद को कोड़े मारने की शैली का तेजी से विकास हुआ है जो दरअसल उत्तर-आधुनिक मीडिया का एक लक्षण भर है,उसमें बतौर पंकज पचौरी ने इस शब्द का इस्तेमाल किया कि- चैनलों पर घंटों-घंटो तक विश्लेषक बैठे रहते हैं, अपनी बात करते हैं लेकिन दर्जनों एक्सपर्ट के एक्सपीरिएंस फेल हो जाते हैं। जाहिर है इसमें खुद एनडीटीवी भी शामिल हैं। इन दोनों सवालों के जबाब में एक्सपर्ट और आंकड़ों से जो बातें सामने निकलकर आयीं उस पर गौर करना जरुरी होगा। राजनीतिक पार्टियों औऱ प्रत्याशियों की मीडिया और विज्ञापनों पर निर्भरता बढ़ते जाने की सबसे बड़ी वजह है कि लोगों के बीच माध्यमों का प्रसार तेजी से बढ़ रहा है। अगर हम इसके ठीक पहले के लोकसभा चुनाव की बात करें तो उस वक्त 2004 में हिन्दी न्यूज चैनल देखनेवाले दर्शकों की संख्या 3.27 करोड़ थी जबकि 2009 तक आते-आते ये संख्या 7.78 करोड़ तक हो गयी। इसी तरह अंग्रेजी चैनलों को लेकर बात करें तो 2004 में 2.56 करोड़ लोग अंग्रेजी न्यूज चैनल देखा करते थे जबकि 2009 तक आते-आते ये 6.83 करोड़ हो गयी। अनुराग बत्रा( एडीटर इन चीज,एक्सचेंज फॉर मीडिया) का साफ मानना है कि आप कुछ भी कह लीजिए लेकिन आनेवाले समय में चुनाव को लेकर विज्ञापन और मीडिया का प्रसार औऱ असर बढ़ता जाएगा। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि आनेवाले समय में क्षेत्रीय स्तर की मीडिया औऱ चैनलों का तेजी से विकास होगा,इंटरनेट जो कि अभी छोटे माध्यम हैं,वो भी तेजी से फैलेगा। इस मामले में पी.एन.बासंती( डायरेक्टर,सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज) की बात पर गौर करें तो पहले के मुकाबले चैनलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। आप देखिए कि इसके पहले केवल 20 के आसपास न्यूज चैनल थे जबकि अभी सौ से भी ज्यादा चैनल हैं। इसमें पैसा बढ़ रहा है इसलिए जाहिर है कि इसका असर भी बढ़ेगा।इस हिसाब से बात करें तो साफ है कि न्यूज चैनलों और मीडिया द्वारा चुनाव और राजनीतिक पार्टियों को लेकर जो कुछ भी दिखाया जाता है, उसका लोगों पर असर होता है। शायद राजनीतिक पार्टियां भी इस असर को बखूबी समझती है इसलिए हर चुनाव में विज्ञापन की राशि बढ़ती चली जाती है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साठ दिनों में राजनीतिक पार्टियों ने 600-800 करोड़ रुपये विज्ञापन के उपर खर्च किए। आंकड़े बताते हैं कि विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च बीजेपी(41 फीसदी) ने किए। उसके बाद कांग्रेस(27%),बीएसपी(5%),शिरोमणि अकाली दल(4%),प्रजा राज्यं पार्टी(3%) और अन्य(5%).2004 के लोकसभा चुनाव के विज्ञापन खर्चे से इसकी तुलना करें तो ये 15 गुना ज्यादा है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये बढ़ोतरी देश के विकास दर से कितनी गुनी ज्यादा है। लेकिन दूसरे सवाल के जबाब में कि ऐसा क्यों होता है कि चुनाव के बाद चैनलों के सारे विश्लेषण झूठे साबित हो जाते हैं, ऐसा लगता है कि मतदाता के उपर न तो इन विज्ञापनों का कोई असर हुआ है और न ही प्रचार-प्रसार का। इस सवाल के जबाब में शशि शेखर( ग्रुप एडीटर,अमर उजाला)का स्पष्ट मानना है कि चुनाव को लेकर सारे विश्लेषण शहरी लोगों के चंगुल में फंसकर रह जाते हैं। वो आंकड़ो को देखते हुए विश्लेषण कर जाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति कुछ और ही होती है। मैंने देखा है कि उत्तराचंल में कोई एक आदमी अमर उजाला की दो-तीन प्रति लेकर ऐसे प्रांत में जाता है जहां से कि बीस-बीस दिन तक लोग नीचे जमीन पर नहीं उतरते हैं। शशि शेखर की बात को समझें तो मामला ये है कि जितनी रकम न्यूज चैनलों के विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं उसके मुकाबले जनता तक उसकी पहुंच ही नहीं होती है। इस संदर्भ में अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो- देश के सिर्फ चौथाई घरों तक टेलीविजन की पहुंच है जिसमें भी कि केवल सात करोड़ घरों में केबल टेलीविजन हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि साठ दिन के भीतर लगभग 800 करोड़ रुपये उन दर्शकों पर खर्च किए जाते हैं जो कि कुल मतदाता संख्या के बमुश्किल 14 से 15 फीसदी है। जाहिर है बाकी के लोगों के लिए इन विज्ञापनों का न तो कोई मतलब है, न इन तक इसकी पहुंच है और न ही इससे इन्हें कोई लेना-देना है। स्पष्ट तौर पर मतदाता कि संख्या दर्शकों की तुलना में कई गुना ज्यादा है और उन मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है जो कि दर्शक के स्तर पर पिछड़े(टेलीविजन से न प्रभावित होनेवाले)होने के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक रुप से पिछड़े हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में अभी भी 77 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनकी रोज की आमदनी 20 रुपये के आसपास है। दर्शक और मतदाता के बीच का एक बड़ा विभाजन हमें साफ तौर पर दिखाई देता है औऱ यही वजह है कि हमें विज्ञापनों और मीडिया प्रचार का कोई खास असर नहीं दिखता। इस बात को स्पष्ट करने के क्रम में पंकज पचौरी ने यूपीए सरकार की दो योजनाओं को सामने रखा और तब विज्ञापन के बेअसर होने की बात की। यूपीए सरकार की दो योजनाएं बड़ी महत्वपूरण रही। एक तो रोजगार गारंटी योजना जिसमें कि 52,2777 करोड़ रुपये खर्च की योजना है और जिसका संबंध देश के 4.46 करोड़ परिवार से है और दूसरा किसान की कर्ज माफी की योजना जिसमें कुल 65,000 करोड़ रुपये खर्च की योजना है और इससे 3 करोड़ परिवार जुड़े हैं। दोनों परिवारों की संख्या जोड़ते हुए औसत संख्या निकालें तो करीब 15 से 20 करोड़ की आबादी इस हालत में है जो कि टेलीविजन नहीं देख सकती लेकिन पंकज पचौरी के हिसाब से यही आबादी सबसे ज्यादा वोट करती है। यानी देश की वस्तुस्थिति स्टूडियों में बैठकर आंकड़ों के साथ गुणा-भाग करनेवाले पंड़ितों की समझ से बिल्कुल अलग है। इन दोनों के बीच कोई संबंध ही नहीं है। इसलिए अभिषेक मनु सिंघवी( कांग्रेस प्रवक्ता) ने साफ तौर पर कहा कि देशभर में दो स्तर पर चुनाव लड़े जाते हैं, एक मीडिया के स्तर पर और दूसरा जमीनी स्तर पर। ऐसा इसलिए किया जाता है कि इसमें मीडिया की दिलचस्पी होती है, इसमें पैसे का खेल है। बतौर चंदन मित्रा (एडीटर,पायनियर)कवरेज को लेकर मीडिया के भीतर साफ-साफ तौर पर सौदा होता है। पैसे के आधार मीडिया के लोग स्पेशल कवरेज, कांफ्रेस और पक्ष में महौल बनाने की बात करते हैं। खबरों में पैसे लेकर लिखने का चलन बढ़ा है। इस पूरी स्थिति को देखते हुए आप चाहें तो कह सकते हैं कि लोकतंत्र के नाम पर देशभर में एक बड़े स्तर पर धंधेबाजी चल रही है जिसमें कि खुद न्यूज चैनल शामिल हैं,मीडिया शामिल है। आज अगर कोई चैनल इस पर स्टोरी करके इस समझ को हमारे सामने रखता है तो हमें उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो इस धंधे और खेल से बाहर है औऱ दूसरे चैनलों के मुकाबले उसे हमारे सीना तानकर खड़े होने का कुछ ज्यादा ही हक है क्योंकि वहां भी इस सचेत कार्यक्रम के ठीक तुरंत बाद जारी है- शिरोमणि अकाली दल को सहयोग कीजिए-भाजपा को वोट दीजिए।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090511/d0ee78d4/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon May 11 13:52:03 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 11 May 2009 13:52:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCklOCksCDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYAg4KS4?= =?utf-8?b?4KSaIOCkleCliyDgpKbgpL/gpJbgpL7gpK/gpL4g4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkqOClhw==?= In-Reply-To: <829019b0905110121i4c09c08cj5349d5c6db4db4c9@mail.gmail.com> References: <829019b0905110121i4c09c08cj5349d5c6db4db4c9@mail.gmail.com> Message-ID: <829019b0905110122v21b62692ia916a0d70e3ade6e@mail.gmail.com> 1.एनडीटीवी इंडिया की ओर से पेश किए गए सारे आंकड़े exchange4media के हैं 2009/5/11 vineet kumar > आर्थिक मंदी की मार से हांफ रहे न्यूज चैनलों को जिन राजनीतिक पार्टियों ने > अपने-अपने चुनावी विज्ञापन देकर उसे मीडिया इंडस्ट्री में दौड़ लगाते रहने लायक > बनाए रखा,आज वही न्यूज चैनल उनकी इस स्ट्रैटजी की धज्जियां उड़ाने में जुट गए > हैं। आप चाहें तो न्यूज चैनलों की इस अदा पर फिदा हो सकते हैं,इसे चैनल की > कलाबाजी कह सकते हैं या फिर तटस्थता का एक प्रायोजित नमूना जो कि विज्ञापन के > असर लगभग खत्म हो जाने की स्थिति में इन मुद्दों को सामने ला रहे है। हर > कॉमर्शियल ब्रेक पर बीजेपी के अभिमान और कांग्रेस के जय हो का डंका पिटनेवाले > चैनलों ने देश के आम दर्शकों को ये कभी नहीं बताया कि आपके प्रत्याशी और > राजनीतिक पार्टियां चुनावी विज्ञापन और मीडिया प्रचार की सवारी करके चुनाव > जितने के लिए परेशान है उसमें न केवल आपके विकास का पैसा पानी की तरह बहाया जा > रहा है बल्कि इससे किसी भी स्तर पर लोकतंत्र के मजबूत होने की कोई संभावना भी > नहीं है। आज जबकि चुनावी महौल लगभग खत्म होने को है, न्यूज चैनल देश के आम > दर्शकों को ये बता रहे हैं कि मीडिया ने चुनावी विज्ञापन के जरिए लोकतंत्र और > विकास की जो तस्वीर बनाए औऱ दिखाए वो सब झूठ है। अब तो आप-हम वोट दे चुके > हैं,राजनीतिक सक्रियता के स्तर पर फिलहाल कुछ खास नहीं कर सकते लेकिन राजनीतिक > पार्टियों की धज्जियां उड़ाने के क्रम में चैनल ने जो आंकड़े पेश किए हैं उससे > हम मीडिया,चुनाव और देश की वस्तुस्थिति को लेकर अपनी समझदारी दुरुस्त कर सकते > हैं। > > सीधी बात में > आए लालकृष्ण आडवाणी से प्रभु चावला ने जब ये सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि > बीजेपी का पूरा प्रचार पर्सनालिटी कल्ट रहा। इस सवाल के जबाब में आडवाणी का साफ > जबाब रहा कि अगर किसी व्यक्ति आधारित प्रचार होता है तो वो भी कहीं न कहीं > पार्टी की विचारधारा का ही प्रसार होता है। फिलहाल हम इस तरह की मान्यता के > समर्थन में न भी जाएं कि जो मैं हूं वही जगत है तो भी इतना तो समझ ही सकते हैं > कि चाहे वो प्रत्याशी हो या फिर पार्टी उसने लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में > अपनी पहुंच एक राजनीतिक व्यक्ति या विचारधारा के बजाए ब्रांड के रुप में बनाने > की पुरजोर कोशिश की है और इसलिए पूरी तरह मार्केटिंग की स्ट्रैटजी में कूद गए। > > एनडीटीवी इंडिया ने अपने खास कार्यक्रम हमलोग में ये सवाल उठाया कि आखिर > क्यों राजनीतिक पार्टियों की विज्ञापनों और मीडिया पर निर्भरता दिनोंदिन बढ़ती > जा रही है? इसके साथ ही इस बहस को भी जारी रखा कि आखिर क्या वजह है कि चुनाव > के बाद अक्सर मीडिया की ओर से निकाले गए नतीजे झूठे साबित होते हैं और असली > चुनावी नतीजे को देखकर ऐसा लगता है कि चुनावी विज्ञापनों और मीडिया की ओर से > किए गए प्रसार का मतदाता के उपर कोई खास असर नहीं हुआ है? पिछले तीन-चार > महीने से एनडीटीवी इंडिया में खुद को कोड़े मारने की शैली का तेजी से विकास हुआ > है जो दरअसल उत्तर-आधुनिक मीडिया का एक लक्षण भर है,उसमें बतौर पंकज पचौरी ने > इस शब्द का इस्तेमाल किया कि- चैनलों पर घंटों-घंटो तक विश्लेषक बैठे रहते > हैं, अपनी बात करते हैं लेकिन दर्जनों एक्सपर्ट के एक्सपीरिएंस फेल हो जाते > हैं। जाहिर है इसमें खुद एनडीटीवी भी शामिल हैं। इन दोनों सवालों के जबाब में > एक्सपर्ट और आंकड़ों से जो बातें सामने निकलकर आयीं उस पर गौर करना जरुरी होगा। > > राजनीतिक पार्टियों औऱ प्रत्याशियों की मीडिया और विज्ञापनों पर निर्भरता > बढ़ते जाने की सबसे बड़ी वजह है कि लोगों के बीच माध्यमों का प्रसार तेजी से > बढ़ रहा है। अगर हम इसके ठीक पहले के लोकसभा चुनाव की बात करें तो उस वक्त 2004 > में हिन्दी न्यूज चैनल देखनेवाले दर्शकों की संख्या 3.27 करोड़ थी जबकि 2009 तक > आते-आते ये संख्या 7.78 करोड़ तक हो गयी। इसी तरह अंग्रेजी चैनलों को लेकर बात > करें तो 2004 में 2.56 करोड़ लोग अंग्रेजी न्यूज चैनल देखा करते थे जबकि 2009 > तक आते-आते ये 6.83 करोड़ हो गयी। अनुराग बत्रा( एडीटर इन चीज,एक्सचेंज फॉर > मीडिया) का साफ मानना है कि आप कुछ भी कह लीजिए लेकिन आनेवाले समय में चुनाव > को लेकर विज्ञापन और मीडिया का प्रसार औऱ असर बढ़ता जाएगा। इसकी एक बड़ी वजह ये > भी है कि आनेवाले समय में क्षेत्रीय स्तर की मीडिया औऱ चैनलों का तेजी से विकास > होगा,इंटरनेट जो कि अभी छोटे माध्यम हैं,वो भी तेजी से फैलेगा। इस मामले में > पी.एन.बासंती( डायरेक्टर,सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज) की बात पर गौर करें तो पहले > के मुकाबले चैनलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। आप देखिए कि इसके > पहले केवल 20 के आसपास न्यूज चैनल थे जबकि अभी सौ से भी ज्यादा चैनल हैं। इसमें > पैसा बढ़ रहा है इसलिए जाहिर है कि इसका असर भी बढ़ेगा।इस हिसाब से बात करें > तो साफ है कि न्यूज चैनलों और मीडिया द्वारा चुनाव और राजनीतिक पार्टियों को > लेकर जो कुछ भी दिखाया जाता है, उसका लोगों पर असर होता है। शायद राजनीतिक > पार्टियां भी इस असर को बखूबी समझती है इसलिए हर चुनाव में विज्ञापन की राशि > बढ़ती चली जाती है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साठ दिनों में राजनीतिक > पार्टियों ने 600-800 करोड़ रुपये विज्ञापन के उपर खर्च किए। आंकड़े बताते हैं > कि विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च बीजेपी(41 फीसदी) ने किए। उसके बाद > कांग्रेस(27%),बीएसपी(5%),शिरोमणि अकाली दल(4%),प्रजा राज्यं पार्टी(3%) और > अन्य(5%).2004 के लोकसभा चुनाव के विज्ञापन खर्चे से इसकी तुलना करें तो ये 15 > गुना ज्यादा है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये बढ़ोतरी देश के विकास दर से > कितनी गुनी ज्यादा है। > > लेकिन दूसरे सवाल के जबाब में कि ऐसा क्यों होता है कि चुनाव के बाद चैनलों के > सारे विश्लेषण झूठे साबित हो जाते हैं, ऐसा लगता है कि मतदाता के उपर न तो इन > विज्ञापनों का कोई असर हुआ है और न ही प्रचार-प्रसार का। इस सवाल के जबाब में शशि > शेखर( ग्रुप एडीटर,अमर उजाला)का स्पष्ट मानना है कि चुनाव को लेकर सारे > विश्लेषण शहरी लोगों के चंगुल में फंसकर रह जाते हैं। वो आंकड़ो को देखते हुए > विश्लेषण कर जाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति कुछ और ही होती है। मैंने देखा है > कि उत्तराचंल में कोई एक आदमी अमर उजाला की दो-तीन प्रति लेकर ऐसे प्रांत में > जाता है जहां से कि बीस-बीस दिन तक लोग नीचे जमीन पर नहीं उतरते हैं। शशि > शेखर की बात को समझें तो मामला ये है कि जितनी रकम न्यूज चैनलों के विज्ञापन पर > खर्च किए जाते हैं उसके मुकाबले जनता तक उसकी पहुंच ही नहीं होती है। इस संदर्भ > में अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो- > > देश के सिर्फ चौथाई घरों तक टेलीविजन की पहुंच है जिसमें भी कि केवल सात करोड़ > घरों में केबल टेलीविजन हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि साठ दिन के भीतर लगभग > 800 करोड़ रुपये उन दर्शकों पर खर्च किए जाते हैं जो कि कुल मतदाता संख्या के > बमुश्किल 14 से 15 फीसदी है। जाहिर है बाकी के लोगों के लिए इन विज्ञापनों का न > तो कोई मतलब है, न इन तक इसकी पहुंच है और न ही इससे इन्हें कोई लेना-देना है। > स्पष्ट तौर पर मतदाता कि संख्या दर्शकों की तुलना में कई गुना ज्यादा है और उन > मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है जो कि दर्शक के स्तर पर पिछड़े(टेलीविजन से न > प्रभावित होनेवाले)होने के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक रुप से पिछड़े हुए हैं। > आंकड़े बताते हैं कि देश में अभी भी 77 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनकी रोज की आमदनी > 20 रुपये के आसपास है। दर्शक और मतदाता के बीच का एक बड़ा विभाजन हमें साफ तौर > पर दिखाई देता है औऱ यही वजह है कि हमें विज्ञापनों और मीडिया प्रचार का कोई > खास असर नहीं दिखता। > > इस बात को स्पष्ट करने के क्रम में पंकज पचौरी ने यूपीए सरकार की दो योजनाओं > को सामने रखा और तब विज्ञापन के बेअसर होने की बात की। यूपीए सरकार की दो > योजनाएं बड़ी महत्वपूरण रही। एक तो रोजगार गारंटी योजना जिसमें कि 52,2777 > करोड़ रुपये खर्च की योजना है और जिसका संबंध देश के 4.46 करोड़ परिवार से है > और दूसरा किसान की कर्ज माफी की योजना जिसमें कुल 65,000 करोड़ रुपये खर्च की > योजना है और इससे 3 करोड़ परिवार जुड़े हैं। दोनों परिवारों की संख्या जोड़ते > हुए औसत संख्या निकालें तो करीब 15 से 20 करोड़ की आबादी इस हालत में है जो कि > टेलीविजन नहीं देख सकती लेकिन पंकज पचौरी के हिसाब से यही आबादी सबसे ज्यादा > वोट करती है। यानी देश की वस्तुस्थिति स्टूडियों में बैठकर आंकड़ों के साथ > गुणा-भाग करनेवाले पंड़ितों की समझ से बिल्कुल अलग है। इन दोनों के बीच कोई > संबंध ही नहीं है। इसलिए अभिषेक मनु सिंघवी( कांग्रेस प्रवक्ता) ने साफ तौर > पर कहा कि देशभर में दो स्तर पर चुनाव लड़े जाते हैं, एक मीडिया के स्तर पर > और दूसरा जमीनी स्तर पर। ऐसा इसलिए किया जाता है कि इसमें मीडिया की दिलचस्पी > होती है, इसमें पैसे का खेल है। बतौर चंदन मित्रा (एडीटर,पायनियर)कवरेज को लेकर > मीडिया के भीतर साफ-साफ तौर पर सौदा होता है। पैसे के आधार मीडिया के लोग > स्पेशल कवरेज, कांफ्रेस और पक्ष में महौल बनाने की बात करते हैं। खबरों में > पैसे लेकर लिखने का चलन बढ़ा है। > > इस पूरी स्थिति को देखते हुए आप चाहें तो कह सकते हैं कि लोकतंत्र के नाम पर > देशभर में एक बड़े स्तर पर धंधेबाजी चल रही है जिसमें कि खुद न्यूज चैनल शामिल > हैं,मीडिया शामिल है। आज अगर कोई चैनल इस पर स्टोरी करके इस समझ को हमारे सामने > रखता है तो हमें उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि > वो इस धंधे और खेल से बाहर है औऱ दूसरे चैनलों के मुकाबले उसे हमारे सीना तानकर > खड़े होने का कुछ ज्यादा ही हक है क्योंकि वहां भी इस सचेत कार्यक्रम के ठीक > तुरंत बाद जारी है- शिरोमणि अकाली दल को सहयोग कीजिए-भाजपा को वोट दीजिए।.. > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090511/3941d47f/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Mon May 11 18:15:47 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Mon, 11 May 2009 12:45:47 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016361645a5848c9e0469a25b44@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// धरती पर गोड़ रोपने को तैयारे नहीं है भाई लोग Posted: 10 May 2009 11:55 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/SN8FdF96BMA/blog-post.html एक-आध हफ़्ते से राजनीति के बज़ार में कुछ लीडर लोग का भाव भारी उछाल पर है. इ उछाल देखके उनमें से दु-एक गो एतना फुदक रहा है कि जेकर कौनो हिसाबे नहीं है. धरती पर गोड़ रोपने को तैयारे नहीं है भाई लोग. टीवी वाला पत्रकार भाई के हाथ में माइक देखने पर भाई लोग लजाते हैं, छाव धरते हैं; देख के लगता है कि भाई लोग एकदमे बोलना नहीं चाहते हैं लेकिन अगले क्षण जे चहकन भरल बाइट बोकरना शुरू करते हैं कि पत्रकार बंधुओं का रोम-रोम गदगद हो जाता है. चहुं ओर नौटंकी हो रही है. जबरदस्‍त नौटंकी. अगर नेता (पु.) के लिए भाई इस्‍तेमाल करने पर मित्र लोग एतराज न मान रहे हों त नेता (स्‍त्री.) के लिए बहिनी कहने का भी इजाजत ले लेते हैं. काहे कि एक-आध बहिनियों के गोड़ धरती पर ठहरे के लेल तैयार नहीं बुझाता है. अब कौन तो जगह था उप्र में ... पीलीभीत के लगे ... टेल‍ीविज़न समाचारों के मुताबिक कल यानी इतवार को इंदिरा गांधी के छोटे पोता और उनके माताजी को भाषण नहीं देने दिया उप्र सरकार ने. काहे कि उप्र सरकार ने अपने तीसरे आंख से देख लिया था कि मां-बेटा के बोलते ही उस हिस्‍से में शांति भंग हो जाएगी. मतलब तनाव-सा वातावरण था और शांति भंग होने की आशंका थी. उधर इंदिराजी का उत्तराधिकारी न बन पाने का मलाल छोटे सरकार को इतना सता रहा है कि बेचारे लाल-पीयर कुर्ता पहिन-पहिन के भाषण दे रहे हैं. कभी सिख जैसन पग बांध के त कभी खदान के मजदूर अस मुरेठा बांध के माइक के आगे चिघ्‍घाड़ रहे हैं. कह रहे हैं कि बीते बीस बरिस में भारत को मजबूत नेता नहीं मिला. कह इ भी रहे हैं कि अपने बाबूजी की तरह ही वे एक दिन मजबूत नेता बनेंगे और उनके बताए रस्‍ते पर चलके देश की रक्षा करेंगे और इसको प्रगतिपथ पर आगे बढ़ाएंगे. हे आम भारतीय जनमानस एगो आउर करिया वानर आवे के संकेत बुझा रहा है हमको. अप्रत्‍यक्ष रूप से इनकर बाबूजी के सशक्‍त नेतृत्‍व के दौरान जेलभोग चुके अडवाणी त ओ मजबूत नेतृत्‍व के कारस्‍तानी को कोसते-कोसते खोंख जाते थे, का पता कैसे मति मारी गयी अब त एकदमे धृतराष्‍ट्र बन गए हैं. जेटली-उटली जैसे विदुर और संजय दबी जुबान में कुछ समझाने की कोशिशो करता है त अडवाणीजी बिदक जाते हैं, कहते हैं मेनका के लाडले पर बड़ा जुल्‍म ढाया है हाथी वाली ने, ओह! इ लडिका के साथ डांट फटकार एकदम बर्दाश्‍त नहीं करेंगे. नतीजा देखिए कि मां लाडला के पंजरा में खड़ी रहती है अंचरा तान के आउर लाडला हर दोसर लाइन के बाद मां कसम खाता है. हमर एगो सलाह है बउआ के महतारी से, घर से चले से पहिए लडिका के कुछ खिया-पिया के निकलिए. केतना दिन कसम पर जियाना चाहते हैं. कमज़ोर पड़ जाएगा. अभी तो इ अंगड़ाइए है, सउंसे लड़ाई त बांकिए है. मोदीजी जइसन खाएल-पीएल पकठाएल हिन्‍दु का इ लडिका एको खुराक नहीं होगा. लेकिन हे मेनका हमर सलाह मानना-न मानना ऑप्‍शनल है. लोकतंत्र आखिर है काहे. आउर हे मेनकापुत्र आपका उत्‍साह सचमुच रोमांच पैदा करता है. का कहते हैं, हं स्‍पीरिट. इ स्‍पीरिट बनाए रखिए. फुदकते हुए अच्‍छे दिखते हैं आप. ओने नीतीशजी को देखिए. स्‍वयंभू विकासपुरुष हैं. गजब का विकास किए हैं. सरकारी तंत्र में नीचे से उपर ले अपने जाति-बिरादरी वालों को ऐसा ठूंसे हैं कि पूछिए मत. बिहार में ऐसा जाति-निरपेक्ष शासन मिश्राजी के जमाने से पहिले या बाद में कभी आया हो तो हे पाठकवृंद ज़रा मेरा सूचना-ज्ञान अवश्‍य बढा दें. बड़े इमानदार हैं. लालू राज के प्रणेता रहे नीतीशजी धर्मनिरपेक्षो हैं. आउर नहीं तो क्‍या! जब ले बिहार में सभी चालीस सीटों के लिए मतदान का काम निबट नहीं गया, बिहार के बाहर नहीं गए. गुजरात वाले मोदी के साथ मंच पर बोलने की बात तो दूर उनके जौरे खड़ा होने से भी साफ़ इनकार कर दिए थे. आप सुधी जन ही बता दीजिए कि बीते 31 दिनों में आपमें से किसी ने उनको आडवाणी के बैकअप के तौर पर ग्रुम किए जा रहे मोदी के साथ कहीं तस्‍वीर में भी देखी है. कइसे देख लीजिएगा? खिंचवइवे नहीं किए फोटू, त देख कहां से लीजिएगा? चुनाव-प्रचार के दौरान नी‍तीशजी ने मोदी महाराज को बिहार आने का 'वीजा' तक नहीं दिया, कहे बिहार वाला एनडीए नेतृत्‍व सफीशिएंट है वोट जुटाने के लिए. काहे ? काहे कि मुस्लिम वोट की चिंता थी. साल भर चेक वाले गमछा को तिकोना मोड़ के गर्दन पर लटकाए थे और जो जाली वाल नन्‍हकी टोपी माथ पर पहिने थे : फोकटे में ? इमेज बनता है उससे. सब नेता करता है अइसे. लेकिन नी‍तीश जबसे एनडीए के नाम पर भाजपा के जौरे गलबहियां कर रहे हैं तब से मुसलमानों में त उनके सेकुलर छवि को लेकर सवाल खड़ा तो हुआ ही है. बाकी नेता हैं, उपर से आडवाणीजी को प्रधानमंत्री बनाने के कैंपेन में शामिल भी हैं. उधर राहुल बाबा ने तारीफ़ करते हुए विकास की ओर अग्रसर क्‍या बता दिया, आडवाणीजी ऐंड कंपनी की बेचैनी बढ़ गयी. नवीन बाबू साथ छोडिए गए कहीं नी‍तीशजी छोड़ दिए तब त बुढौती का सपना सपने न रह जाएगा. न जाने कइसे-कइसे क्‍या हुआ. साहब का सेकुलरिज्‍़म देखिए, कल खुर्राट केसरियों के जौरे मंच पर विराजमान थे पंजाब में. जाने से पहले पटना में टीवी वालों को बताया कि अकाली दल ने बुलाया है, इसीलिए जा रहे हैं. गए ही नहीं, भाईजी अपील कर आए पंजाब में भइयों (बिहारी प्रवासी मज़दूरों) से कि उ उहां अका-भाजपा गठबंधन अर्थात् एनडीए के पक्ष में मतदान करें. ऐसा करते हुए विकासपुरुष एकदम लजइबो नहीं किए. चंद महीनों में कार्यकाल पूरा होने वाला है लेकिन जनाब के राज में मज़दूरों के पलायन पर रोक लगाने का कोई उल्‍लेखनीय प्रयास नहीं हुआ. देखिए, दिन भर के किए-कराए को रात को एके बार कैसे दोदने लगे. पटना लौटते ही पत्रकारों से बताया कि हाथ पकड़ कर मोदी उठाया त का मना कर देते. माने अब भी उनकरा को सेकुरले मानिए हे भारतीय जनमानस. उधर दक्षिण में टीआरएस है. जितने चुनाव नहीं लड़े उससे ज्‍़यादा पार्टनर बदल लिए. एक-आध चुनाव तक लोग भेद कर पाएंगा उसके बाद फेर वही बात: जब तेलुगू देशम हइए है त आपकी क्‍या ज़रूरत. जेतना हेराफेरी तेलुगूदेशम वाले कर पा रहे हैं उतना त आपसे होइबो नहीं करेगा. अइसे में आपको वोट काहे दिया जाए. माने कुछ समय बाद आप ही महत्त्वहीन हो जाएंगे. हं, खां-म-खां तमाशा बनते रहते हैं. तेलंगाना चाहिए, अलग चाहिए. ठीक है. सिद्धांतत: बात से कौन सहमत नहीं होगा. पर कुछ दिन टिको त सही. थोड़ा संघर्ष तो करो. गद्दर तो दिल्‍ली में आकर धरना-प्रदर्शन भी करते रहे. आपने क्‍या कर लिया. पार्टी बना ली, झंडा बदल लिया, गमछा बदल लिया, दो चार नारे गढ लिए. यही न? अब भी समय है. जहां सटे हो, कम से कम कुछ समय उनके साथ ठहरो, अपनी बात उनको समझाओ. ख़ैर पार्टी के नेता चंद्रशेखर आडवाणी के आभामंडल से इतने चमत्‍कृत थे कि अपनी पार्टी के अलावा इधर-उधर से कुछ और समर्थन जुटाने का वायदा करने से ख़ुद को न रोक पाए. वैसे त कुछ आउर नेताओं के भाव में उछाल आया है, पर उपर वर्णित तीनों पर इसका यकसां असर हुआ है, पर अलग-अलग. तीनों के अपने एजेंडे हैं और रास्‍ते भी अलग-अलग. देखते रहिएगा अगले एक-आध हफ़्ते में क्‍या गुल खिलाते हैं ये लोग. इसी क्रम में कल पढिए चुनावों के दौरान चहकते जर्नलिस्ट: कवरेज नौटंकी से कम नहीं. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090511/24d1d63d/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu May 14 15:23:23 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 14 May 2009 15:23:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KS+IDog4KS14KS/4KSV4KSy4KS+4KSC4KSX4KWL4KSCIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpJXgpK4g4KS54KWL4KSk4KWHIOCksOCliw==?= =?utf-8?b?4KSc4KSX4KS+4KSwIOCkleClhyDgpIXgpLXgpLjgpLA=?= Message-ID: <196167b80905140253h7eaa8459tf2aa10fbf793b7f8@mail.gmail.com> भारत में विकलांगता: प्रतिबद्धता से परिणाम तक- नामक शीर्र्षक के तहत विश्व बैंक एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। भारत सरकार द्वारा गठित आयोग की निगरानी में हुए इस अध्ययन में पाया गया है कि भारत में विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसर कम हैं। उनके बीच बेरोजगारी पहले की अपेक्षा बढ़ी है। भारत में विकलांगों पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार– पिछले एक दशक में भारत में शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों की संख्या बहुत अधिक बढ़ी है। उनको पढ़ाने-लिखाने की न तो समुचित व्यवस्था है और न ही हम उन्हें सही माहौल दे पा रहे हैं। देश में शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों के पास रोजगार भी कम हंै। इन लोगों के साथ इस तरह का जो सौतेला व्यवहार होता है, इसके पीछे हमारे समाज की मानसिकता भी जिम्मेवार है जो विकलांगता को एक सामाजिक कलंक की तरह देखती है। ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं हो जाता कि कुछ इस तरह के प्रयास सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर हों, जिससे समाज की सोच बदली जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि शारीरिक तौर विकलांग लोगों को अच्छी शिक्षा और रोजगार मुहैया कराने के लिए कोई ठोस नीति बनाई जाए। यदि यह संभव हो पाता है तो वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश के लगभग 02 करोड़ विकलांग लोग देश की तरक्की में सहभागी हो सकते हैं। विश्व बैंक के अध्ययन के अनुसार विकलांगता से ग्रस्त लोगों के बीच रोजगार का अनुपात जो 1991 में 42.7 फीसद था, वर्ष 2002 में गिरकर 37.6 पर पहुंच गया। यदि मानसिक तौर पर विकलांग अथवा बीमार बच्चों को कम करके भी चलते हैं तो जो आंकड़े सामने आते हैं वे अधिक उत्सहित नहीं करते। उन्हें कम करने के बाद भी वर्ष 2002 में रोजगार का आंकडा़ 39.6 फीसद आता है। यदि राज्यवार स्थिति का मुआयना करें तो शारीरिक तौर पर असक्षम और सक्षम लोगों के बीच रोजगार को लेकर गुजरात और महाराष्ट्र में फासला कम है। यह भेदभाव जम्मू–कश्मीर, बिहार और असम में अधिक देखने को मिलता है। सामान्य अशिक्षित लोगों की तुलना में शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों की रोजगार में भागीदारी वर्ष 1990 में 64 फीसद थी जो अनुपात वर्ष 2000 में गिरकर 47 फीसद पर पहुंच गया। दुर्भाग्य की बात यह कि इस तरफ जितना लोगों का ध्यान जाना चाहिए था, जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाई और विकलांग लोगों के लिए धीरे–धीरे रोजगार के अवसर दिन–प्रतिदिन कम होते गए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारतीय विकलांगों की विभिन्न गरीबी उन्मूलन संबंधी एवं कल्याणकारी योजनाओं के अन्तर्गत लाभ लेने में सहभागिता सिर्फ 1.5 प्रतिशत है। जबकि उन्हें इसका अधिक लाभ मिलना चाहिए। यह आंकड़ा विकलांगों के प्रति सरकारी उपेक्षा को ही दर्शाता है जिससे यह बात साबित होती है कि आज बहुत सारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ विकलांगों तक पहुंच नहीं रहा है। विकलांगता अधिनियम 1995 के अनुसार किसी भी गरीबी उन्मूलन योजना के तीन प्रतिशत भाग पर विकलांग समाज का हक है। लेकिन इसका पालन होता नजर नहीं आता। एनसीपीईडीपी (नेशनल सेन्टर फॉर प्रमोशन ऑफ इम्प्लाइमेन्ट फॉर डिसेबल्ड पीपुल) के अनुसार 70 फीसद विकलांग लोग गांवों में निवास करते हैं जिनमें 50 फीसद अत्यन्त गरीब हैं। वर्ष 2006–07 में 895236 जरूरतमंद विकलांग लोगों में 8374 लोगों को इंदिरा आवास योजना का लाभ मिल सका। एक अध्ययन के अनुसार इस देश में पोलियो और अन्य बीमारियों की वजह से सामने आने वाले विकलांगता के मामले बेशक पहले से कम हुए हैं लेकिन उम्र और जीवनशैली से संबंधित बीमारियों और इसकी वजह से सड़क दुर्घटनाओं के कारण से होने वाली विकलांगता में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। ऐसे समय में आवश्यक है कि समाज में विकलांग लोगों की मानव संसाधन की शक्ति को समझा जाए। उस ताकत को समझने के साथ ही उन्हें भी इस बात का एहसास दिलाया जाए कि वे सब लोग भी आर्थिक शक्ति बनने की राह पर चल रहे देश के विकास में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों से और विभिन्न प्रकार की योजनाओं के माध्यम से कुछ इस प्रकार की रणनीति तैयार की जाए जिससे विकलांगता का दंश झेल रही देश की बड़ी आबादी को रोजगार के पर्याप्त अवसर मिल सकें और समाज के विकास में उनका योगदान सामने आये। http://www.rashtriyasahara.com/NewsDetailFrame.aspx?newsid=86985&catid=5&vcatname =???????? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090514/a3eeb94c/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri May 15 13:26:45 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 15 May 2009 13:26:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSc4KSv?= =?utf-8?b?IOCkpOCkv+CkteCkvuCksOClgCDgpJXgpYAg4KSs4KS+4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreCkvuCkteClgeCklSDgpLngpYvgpKjgpL4g4KSc4KSw4KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkueCliCA/?= Message-ID: <829019b0905150056s41973840y6e1663d3631a9ac4@mail.gmail.com> विस्फोट.कॉम के मामले में संजय तिवारी के इकरारनामा की शुरुआती पंक्तियों को पढ़कर मेरी तरह कोई भी पाठक भावुक हो जाएगा। उसका भी मन करेगा कि वो उनके पक्ष में संवेदना जाहिर करे,सहानुभूति के कुछ ऐसे शब्द सामने रखे जिससे उन्हें लगे कि वो संजयजी के साथ है। ये शब्द गहरे तौर पर साबित करे कि फिलहाल विस्फोट.कॉम के काम को रोक देने के फैसले से न सिर्फ संजयजी का नुकसान हुआ है बल्कि एक पाठक की हैसियत से उनका भी भारी नुकसान हुआ है,पूरी पत्रकारिता को एक गहरा झटका लगा है। इसलिए नीचे मिली टिप्पणियों में आप ऐसे शब्दों के प्रयोग को देख रहे हैं तो इसमें कहीं कोई अचरच ही बात नहीं है। वैसे भी हिन्दी समाज इस स्तर पर अभी तक संवेदनशील बना हुआ है कि जब कोई इंसान यहां आकर अपना कलेजा निकालकर सामने रख दे तो सामनेवाले की आंखों के कोर अपने आप भींग जाते हैं। ऐसी स्थिति में दोस्त-दुश्मन से उपर उठकर भावना के स्तर पर एक हो जाना बुहत ही कॉमन बात है। यह बहुत ही स्वाभाविक स्थिति है। संजयजी के प्रति लोगों के संवेदना के स्वर इसी भावना के स्तर पर एक हो जाने का नतीजा है। लेकिन इस संवेदना के शब्द से भला उनका क्या होना है। स्वयं संजय तिवारी के शब्दों में बात करें तो- विस्फोट के कारण बहुत सारे ऐसे लोगों से मिलना हुआ जो मानते हैं कि यह अच्छा और निष्पक्ष प्रयोग है और किसी भी कीमत पर यह बंद नहीं होना चाहिए. उनकी इच्छा और सद्भावना भी सिर आखों पर. लेकिन केवल सद्भावना से अच्छे काम चल जाते तो आज देश समाज की हालत ऐसी नहीं होती. यह सहानुभूति बटोरने के लिए नहीं बल्कि अपने समर्पित पाठकों के सामने अपनी वास्तविक स्थिित बयान कर रहा हूं. मैं थक चुका हूं. इसलिए इस काम को फिलहाल अस्थाई तौर पर रोक रहा हूं.। जाहिर है खुद संजय तिवारी भी ये नहीं पसंद करते कि कोई खालिस संवेदना जाहिर करे। ये उन्हें मानसिक स्तर पर लगातार काम करने के लिए उर्जा तो दे सकता है लेकिन साधन के स्तर पर इससे कोई इजाफा नहीं होनेवाला है।......अच्छे कामों को चलने के लिए भी धन की जरूरत होती है. साधन की जरूरत होती है. आज विस्फोट जितना काम कर रहा है यह हमारे पास मौजूद साधन का अधिकतम उपयोग है. लेकिन अब मैं भी छीज गया हूं. कुछ बचा नहीं है. महीने दर महीने का संघर्ष अब रोज-ब-रोज के संघर्ष में बदल गया है. हालांकि चतुर खिलाड़ी की तरह इतना खोलकर हमें बात नहीं करनी चाहिए लेकिन आप हकीकत को कब तक छिपा सकते हैं? किसी न किसी दिन सच्चाई को स्वीकार करना ही होता है. और हमारी सच्चाई यह है कि अब हम इस काम को स्तरीय और सम्मानजनक तरीके से चलाये रखने में असमर्थ हैं. लेकिन इंटरनेट और डॉट कॉम के जरिए पत्रकारिता में एक बड़ी संभावना देख रहे लोगों के लिए संजय तिवारी का ये इकरारनामा भावुक होने से ज्यादा चिंता पैदा करनेवाला है। पूरी पोस्ट को पढ़ने के बाद गश खाकर गिर जानेवाला है। जुम्मा-जुम्मा अभी दो-तीन साल ही हुए है जब हिन्दी डॉट कॉम चलानेवाले लोग मैंदान में उतरे हैं और अगर इंटरनेट हिन्दी पत्रकारिता की बात करें तो ये दुधमंहा बच्चा ही है। ऐसे में अभी ये पांव पसारने की गुंजाइश पैदा कर ही पाता कि ये खबर मिल रही है कि विस्फोट.कॉम जैसी चर्चित साइट को फिलहाल के लिए रोका जा रहा है लोगों के बीच क्या संदेश पैदा करता है,इस बात पर विचार किया जाना जरुरी है। इस सवाल पर विचार करने के क्रम में जाहिर है कि न तोसंजय तिवारी की समझ को और न ही भड़ास4मीडिया के यशवंत सिंह के समर्थन को कि-आज के दौर में 100 फीसदी इमानदारी से जीना बहुत मुश्किल है, वो भी दिल्ली में खासकर को एक मानक स्थिति मानकर सोचा जा सकता है। इन लोगों के अनुभव,तर्क और नजरिए पर जरुर विचार किए जाने चाहिए लेकिन बार-बार ईमानदारी का झंड़ा लहराने से पहले इस बात पर जरुर समझ विकसित करनी होगी कि क्या अगर कोई डॉट कॉम,साइट या पत्रकारिता का कोई भी रुप व्यावसायिक और प्रसार के स्तर पर सफल होता है तो उस पर बेइमान हो जाने का लेबल चस्पा देने चाहिए। क्या ऐसा करना जायज होगा? सफल होने का उदाहरण पेश करनेवाले यशवंत भी मेरी इस बात के पक्ष में होगें। हिन्दी की ये वही मानसिकता है जहां पर आकर हम हर सफल पुरुष को बेइमान,दो नंबर का आदमी और हर स्त्री को किसी न किसी के साथ समझौता करनेवाली मान लेते हैं। संभव है कि एक हद तक इसमें सच्चाई भी हो लेकिन इसे पर्याय या मानक के तौर पर स्थापित तो नहीं ही किया जा सकता है कि हर सफलता का मतलब है बेइमान हो जाना, झूठा और मक्कार हो जाना। इसका तो यही मतलब होगा कि जो असफल है वो सबसे बड़ा इमानदार है और जब तक उसने जो भी कुछ किया, सौ फीसदी ईमानदारी के स्तर पर किया। क्या पत्रकारिता करते हुए या फिर जीवन जीते हुए इस तरह की फिलटरेशन हो पाता और ऐसा होना संभव भी है? चुनाव शुरु होने के पहले विस्फोट.कॉम की तरफ से ये घोषणा की गयी कि उन्हें इसकी कवरेज के लिए पत्रकारों की जरुरत है। खबर लाने,खोजने,लिखने और विश्लेषण करने के स्तर पर इस काम के लिए उन्हें मानदेय दिए जाएंगे। कुछ उत्सुक और जरुरतमंद लोगों ने एप्रोच भी किया। विस्फोट.कॉम ने इस बीच विज्ञापन जुटाने की भी कोशिशें की। जाहिर है ये सब कुछ व्यावसायिक शर्तों के आधार पर ही होता रहा। बाद में पैसे के अभाव में मानदेय देने की बात टाल दी गयी। विज्ञापन को लेकर भी विस्फोट.कॉम को कोई खास सफलता नहीं मिल पायी,ये तो इकरारनामा से ही साफ हो जाता है। आज विस्फोट व्यावसायिक तौर पर असफल हो गया लेकिन संजयजी इस असफलता को सिर्फ अच्छा काम के बंद हो जाने का मलाल के रुप में जाहिर कर रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि हिन्दी पत्रकारिता में ऐसा करते हुए व्यवसाय और पत्रकारिता को एक-दूसरे से घालमेल करते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती है कि अंत आते-आते एक महान कार्य के अंत होने की घोषणा करने में सुविधा हो। क्या ये सही तरीका है कि कोई इंसान भगवान की मूर्तियों की दूकान खोले और जब मूर्तियां नहीं बिके तो हर सामने गुजरनेवाले बंदे से इस बात की उम्मीद करे कि वो भगवान के दर्शन के नाम पर कुछ चढ़ावा चढ़ाता चला जाए ? विस्फोट पत्रकारिता के स्तर पर एक बेहतर काम करता आया है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन इसकी व्यावसायिक असफलता को अच्छी पत्रकारिता के असफल हो जाने का करार देना ज्यादती होगी। हम ये मानकर क्यों नहीं चल पाते कि हम पत्रकारिता के नाम पर जो भी कुछ कर रहे हैं वो बाजार की बाकी गतिविधियों की तरह ही एक हिस्सा भर है और हमें उसे व्यावसायिक शर्तों के आधार पर ही चलाए रखना होगा। ये बातें सभी क्षेत्रों में समान रुप से लागू होती हैं। साधना,संस्कार और दूसरे धार्मिक, आध्यात्मिक कंटेट को लेकर चलनेवाले चैनल भी बाजर की शर्तों को फॉलो करते हैं न कि आध्यात्म और प्रवचन के शब्दों को। पत्रकारिता करते हुए ये साफ करना देना होगा कि ये न्यूज प्रोडक्शन और डिस्ट्रीव्यूशन से जुड़ा व्यवसाय है। एक पत्रकार के तौर पर महान होने और बदलाव की आवाज बुलंद करनेवाले मसीहा के रुप में अपने को प्रोजेक्ट करने का मोह हर हाल में छोड़ना ही होगा। सच्चाई ये है कि बेबसाइट की संभावना और पत्रकारिता के लंबे अनुभव को साथ लेकर जिस उत्साह से कुछ नया और बेहतर करने की उम्मीद से हमारे पत्रकार मैंदान में उतरते हैं,बाजार,विज्ञापन,मार्केटिंग और रीडर रिस्पांस को लेकर उतना होमवर्क नहीं करते। यही वजह है कि अच्छा काम करते हुए भी मार खा जाते हैं। अचनाक से या तो कर्मचारियों की छंटनी या फिर उस काम को बंद करने की ही नौबत आ जाती है। हम इस उम्मीद में क्यों रहें कि किसी को सपना आएगा कि फलां पत्रकार बहुत बेहतर काम कर रहा है तो चलो उसकी मदद की जाए. ऐसा सोचनेवाले लोग तो अपने हिसाब से कमेंट और सामग्री के स्तर पर सहयोग तो करते ही हैं लेकिन जिनके पास साधन है उन्हें ये सपने न के बराबर आते हैं। उन्हें सपने आते भी हैं तो कुछ इस तरह से कि अगर हमने फलां डॉट कॉम की मदद की तो उसकी सीधा लाभ हमें क्या मिलनेवाला है? पत्रकारिता करते हुए हमें ऐसे लोगों को साधने की जरुरत है। आज संजय तिवारी ने विस्फोट.कॉम का काम कुछ दिनों के लिए रोक देने की बात की. ये उनका व्यक्तिगत फैसला है। लेकिन फर्ज कीजिए कि उनके इस काम से दस-बारह नौजवान पत्रकार जुड़े होते तो उनके भरोसे का क्या होता? वो अभी कहां जाते, उनके पास तो कोई खास अनुभव भी नहीं होता कि यहां छूटते ही कहीं और लग जाते। एक बेहतर पत्रकार होने के नाते हममें से किसी की भी जिम्मेवारी सिर्फ खबर जुटाने, बेहतर लिखने और बोलने भर तक नहीं है। हमारी जिम्मेवारी इस बात की भी है कि इस प्रोफेशन में आनेवाले उन तमाम लोगों के बीच ये भरोसा कायम रखने की भी है कि पत्रकारिता से अच्छा कोई दूसरा प्रोफेशन नहीं है और तुम्हें इसे औऱ आगे ले जाने के लिए जी-जान से जुटे रहना होगा। अब इस लिहाज से आप वेब पत्रकारिता की संभावना पर बात करते हुए सिर्फ भावुक होना चाहेंगे या फिर इसे पत्रकारिता की असफलता मानने के बजाय मार्केटिंग के स्तर पर दुरुस्त होना चाहेगें।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090515/178bbaca/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed May 6 16:03:38 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 6 May 2009 16:03:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSV4KSm4KSu?= =?utf-8?b?IOCkq+CljeCksOClh+CktiAo4KSk4KSf4KSV4KS+KSDgpK7gpL7gpLIg?= =?utf-8?b?4KS54KWIXyDgpKjgpL7gpLDgpYvgpIIg4KSV4KS+?= In-Reply-To: <829019b0905060320l145b5177uf2592af4e92450b4@mail.gmail.com> References: <196167b80905060303lad4db6aoc26709be0e54218e@mail.gmail.com> <829019b0905060320l145b5177uf2592af4e92450b4@mail.gmail.com> Message-ID: <196167b80905060333x5f9c9ad9la8312fdb201c0599@mail.gmail.com> नीतिश जी नीतिश जी क्या हुआ आपको बाढ़ के चक्कर में क्यों भूल गए 'बाढ़' को. धन्यवाद विनीत भाई.. ध्यान दिलाने के लिए.... 2009/5/6 vineet kumar > कुछ नारों को पढ़ते हुए लगा कि जैसे कोई पीछे से रैली में दोहराने के क्रम > में लसफसा गया हो, देखिए > > नीतिश जी नीतिश जी क्या हुआ आपको > बाढ़ के चक्कर में क्यों भूल गए बाढ़ को. > > अब एक में सिंगल इन्वर्टेड कौमा लगा होता तो > समझते एक बाढ़ माने जो नीतिशजी का इलाका है > और एक बाढ़ जिससे आम आदमी अभी उबरा नहीं है। > हियां तो बिहार के बाहर का आम आदमी बूझिए नहीं पाएगा > कि इ बाढ़ में भी यमक अलंकार है। > > 2009/5/6 आशीष कुमार 'अंशु' > >> *अब चुनाव का मौसम ख़त्म होने वाला है. कल दिल्ली में चुनाव है... जब तक >> सरकार नहीं बन जाती आप इन नारों की जुगाली कर सकते हैं.. एकदम फ्रेश (तटका) माल >> है. >> * >> केंद्र की लेने चले कमान, >> लालू, मुलायम, पासवान. >> >> भाजपा की गोटी लाल, >> मायावती ने चल दी चाल. >> >> हाथी चल दी दिल्ली चाल, >> मायावती भी हैं तैयार. >> >> नीतिश जी नीतिश जी क्या हुआ आपको >> बाढ़ के चक्कर में क्यों भूल गए बाढ़ को. >> >> आँखों में सपने दिल्ली में सरकार, >> शरद पवार भाई, शरद पवार. >> >> पहले खुद ही थे टाडा जी संजय दत, >> ऊपर से चढ़ गया पर टाडा अमर सिंह का रंग. >> >> भाजपा भाई बकवास है, >> राम (राम विलास) लालू के पास है. >> >> पप्पी-झप्पी का कनेक्शन क्या, >> कोई ना बोले लल्ल लल्ल ला. >> >> *स्पेशल नारा* >> आई बी एन सेवेन चला इन्डिया टी वी की चाल , >> और अपनी चाल भी भूल गया. >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090506/fd7db3d3/attachment-0001.html From water.community at gmail.com Thu May 14 08:38:13 2009 From: water.community at gmail.com (water comnunity) Date: Thu, 14 May 2009 08:38:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkheCkqOCli+CkluCkviDgpJfgpL7gpILgpLUg4KSc4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSCIOCksOCkueCkpOClhyDgpLngpYjgpIIgNTQg4KSV4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSq4KSk4KS/?= In-Reply-To: <8b2ca7430905102148i4992c1b1m88cccf83c907af56@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430905102148i4992c1b1m88cccf83c907af56@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430905132008h7dcd7d27hb206cd545e9ce112@mail.gmail.com> *रिपोर्ट-*** यूपी के महाराजगंज में आर्सेनिक की स्थिति-पूरा पढ़ें मेरठ में जल संकट पर एक अध्ययन- पढ़ें ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते क्यों मानसून में भी प्यासी है धरतीः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ मेरठ का गांधारी तालाब कैसे तब्दील हुआ डम्पिंग साइट में- जानने के लिए पढ़ें ______________________________________________________ *हिवरे बाजारः*** एक अनोखा गांव जहां रहते हैं 54 करोड़पतिः पूरा पढ़ें गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करता गांवः पूरा पढ़ें कैसे करते हैं लोग यहां अपना वाटर ऑडिटः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *विचार-*** चुनाव के समय में वोट देने से पहले सोचिए कहां है हमारी ग्रीन पार्टीः पूरा पढ़ें मौसम के लिए भी खतरनाक है मोटापाः पूरा पढ़ें एक नई हरित क्रांतिः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *सलाह*** अपार्टमेंट खरीद रहे हैं तो जरा इन बातों पर भी गौर फरमाएं-पूरा पढ़ें जल संरक्षण के सरल उपायः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *करियर/ कोर्स *** *रिक्तियां *** *आगामी कार्यक्रम *** ______________________________________________________ नरेगा(राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) अमृतसर को नरेगा का राष्ट्रीय पुरस्कारः पूरा पढ़ें बिलासपुर में नरेगा का उत्कृष्ट क्रियांवयन ______________________________________________________ *आश्चर्य-*** कैंसर वैली प्यास बिकती है रायपुर में टैप वाटर से 42सौ गुना महंगा है बोतलबंद पानी ______________________________________________________ *जल शब्दकोश *** *जल समाचार *** *हमसे जुड़ें *** *हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें*** अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- hindi at indiawaterportal.org, Water.community at gmail.com if Unsubscribe- hindi-leave at lists.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090514/8b897952/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Thu May 14 08:38:13 2009 From: water.community at gmail.com (water comnunity) Date: Thu, 14 May 2009 08:38:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkheCkqOCli+CkluCkviDgpJfgpL7gpILgpLUg4KSc4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSCIOCksOCkueCkpOClhyDgpLngpYjgpIIgNTQg4KSV4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSq4KSk4KS/?= In-Reply-To: <8b2ca7430905102148i4992c1b1m88cccf83c907af56@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430905102148i4992c1b1m88cccf83c907af56@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430905132008h7dcd7d27hb206cd545e9ce112@mail.gmail.com> *रिपोर्ट-*** यूपी के महाराजगंज में आर्सेनिक की स्थिति-पूरा पढ़ें मेरठ में जल संकट पर एक अध्ययन- पढ़ें ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते क्यों मानसून में भी प्यासी है धरतीः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ मेरठ का गांधारी तालाब कैसे तब्दील हुआ डम्पिंग साइट में- जानने के लिए पढ़ें ______________________________________________________ *हिवरे बाजारः*** एक अनोखा गांव जहां रहते हैं 54 करोड़पतिः पूरा पढ़ें गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करता गांवः पूरा पढ़ें कैसे करते हैं लोग यहां अपना वाटर ऑडिटः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *विचार-*** चुनाव के समय में वोट देने से पहले सोचिए कहां है हमारी ग्रीन पार्टीः पूरा पढ़ें मौसम के लिए भी खतरनाक है मोटापाः पूरा पढ़ें एक नई हरित क्रांतिः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *सलाह*** अपार्टमेंट खरीद रहे हैं तो जरा इन बातों पर भी गौर फरमाएं-पूरा पढ़ें जल संरक्षण के सरल उपायः पूरा पढ़ें ______________________________________________________ *करियर/ कोर्स *** *रिक्तियां *** *आगामी कार्यक्रम *** ______________________________________________________ नरेगा(राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) अमृतसर को नरेगा का राष्ट्रीय पुरस्कारः पूरा पढ़ें बिलासपुर में नरेगा का उत्कृष्ट क्रियांवयन ______________________________________________________ *आश्चर्य-*** कैंसर वैली प्यास बिकती है रायपुर में टैप वाटर से 42सौ गुना महंगा है बोतलबंद पानी ______________________________________________________ *जल शब्दकोश *** *जल समाचार *** *हमसे जुड़ें *** *हिंदी न्यूजलैटर सब्सक्राइब करें*** अपने आलेख पोर्टल पर प्रकाशित कराने के लिए संपर्क करें- hindi at indiawaterportal.org, Water.community at gmail.com if Unsubscribe- hindi-leave at lists.indiawaterportal.org -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090514/8b897952/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From ravikant at sarai.net Sun May 17 14:57:47 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 17 May 2009 14:57:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Poetry XVII: may 2009 Message-ID: <3225ff866e48096f9952e5110265d661@sarai.net> दिल्ली विवि के अंग्रेज़ी विभाग में 20 तारीख़ को उदय प्रकाश से कविताएँ सुन सकते हैं। काश मैं शहर में होता। रविकान्त ------ Original Message ------ Subject: Poetry XVII: may 2009 To: najmar at yahoo.com From: Poetry DU Date: Sun, 17 May 2009 13:21:21 +0530 *Poetry XVI* In association with Kayva Sandhi, Sahitya Akademi and University of Delhi ~~~~~~~~~~ *Uday Prakash* shall read from his work at *3.00 pm**, **Wednesday 20 April 2009* Conference Centre, University of Delhi (opposite Botany Department) * * *Uday Prakash* was born in 1952 in the Shahdol district of Madhya Pradesh. Among the most well-known and controversial Hindi authors today, Uday Prakash has worked for many years as a journalist and newspaper editor, and is also a filmmaker. His major works include,* Peeli Chhatri Wali Ladki, Raat mein Harmonium, Dariyai Ghoda, Paul Gomra ka Scooter, Aur Ant mein Prarthana, Suno Karigar, Tirich, Ishwar ki Aankh, Areba Pareba, Mangosil, Ek bhasha Hua Karti hai, Mohan Das. *English translations of his works include *The Girl with the Golden Parasol, Rage, Revelry and Romance*, and Short Shorts and Long Shots. He has received the Bharat Bhusan Aggarwal Puraskar, the Shrikant Verma Award, the Pahal Samman and the Sahityakaar Samman. See http://uday-prakash.blogspot.com, for more. For an interview with the author by Arnab Chakladar, see: http://www.anothersubcontinent.com/up1 html. * * *All are welcome* * * http://delhiuniversitypoetrygroup.wordpress.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090517/bf86dcae/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Mon May 18 18:13:32 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Mon, 18 May 2009 12:43:32 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016e64135de53d49c046a2f24a8@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// अगर बिनायक नक्सलाइट है तो मैं भी नक्सलाइट हूं : जस्टीस सच्चर Posted: 18 May 2009 03:25 AM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/UkRQkcZhNos/blog-post_18.html 14 मई को जाने-माने बाल चिकित्‍सक, पीपुल्‍स युनियन फॉर सिविल लिवर्टिज़ के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. बिनायक सेन के जेल जीवन के दो साल पूरे हो गए. डॉ. सेन को माओवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने, राजद्रोह व राज्‍य के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने का आरोपी मानते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने उन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्‍न धाराओं के अलावा 'छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून 2005' और 'ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निवारक क़ानून (UAPA) 2004 (संशोधित)' जैसे कठोर क़ानून थोपकर रायपुर की जेल में क़ैद कर रखा है. ग़रीब आदिवासियों का इलाज करने वाले इस डॉक्‍टर का दुनिया सम्‍मान करती है, पर छत्तीसगढ़ सरकार के लिए ये एक खुंखार नक्‍सलवादी हैं. इतना ही नहीं रायपुर से लेकर दिल्ली तक की अदालतें उन्‍हें जमानत पर बाहर आने लायक़ नहीं मानती है. तभी तो विभिन्‍न न्‍यायालयों द्वारा पिछले दो सालों में जमानत की उनकी अर्जियां एक-के-बाद-एक खारीज की जाती रही हैं. इधर दुनिया भर में डॉ सेन के प्रशंसकों, मित्रों, शुभचिंतकों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उनके स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता लगी हुई है और उन्‍हें ऐसा लग रहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार उनके खिलाफ़ किसी बड़ी साजिश गढ़ने में जुटी है. डॉ विनायक सेन और उन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ होने वाले सरकारी जुल्‍म व हिंसा के खिलाफ़ दुनिया भर से आवाज़ उठ रही है. नोबेल विजेताओं, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, छात्रों, कामगारों समेत स्‍वैच्छिक संगठनों व उनसे संबद्ध लोगों ने वि‍नायक की रिहाई के लिए आवाज़ बुलंद की है. कैसी विडंबना है, बड़े से बड़े अपराधी न केवल जमानत पर बाहर आते हैं बल्कि चुनाव लड़-जीत कर जनता के लिए क़ानून भी बनाते हैं, और एक डॉ बिनायक हैं जिनके खिलाफ़ न कोई सबूत, न गवाह: फिर भी दो सालों से जेल की चारदिवारी में क़ैद हैं. बिनायक सेन के साथ हो रहे इस अत्‍याचार के खिलाफ़ बीते 14 मई की शाम को नयी दिल्‍ली में एक 'प्रतिरोध कार्यक्रम' का आयोजन किया गया. रबिन्‍द्र भवन के लॉन्‍स में हुए उस प्रतिरोध कार्यक्रम में स्‍वामी अग्निवेश, नंदिता दास, अरुणधत्ती रॉय, संजय काक समेत आंदोलनों, सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं, संस्‍कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों एवं बड़ी संख्‍या में बिनायक सेन के मित्रों, शुभचिंतकों, प्रशंसकों ने भाग लिया. लगभग ढाई तक चले उस कार्यक्रम में स्‍कूली बच्‍चों के अलावा दीप्ति एवं रब्‍बी शेरगिल जैसे ख्‍यातिप्राप्‍त कलाकारों ने गीत गाए तथा मंगलेश डबराल, के सच्चिदानंदन और गौहर रजा ने काव्‍य-पाठ किया. डॉ बिनायक सेन पर हो रहे जुल्‍म पर बोलते हुए दिल्‍ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्‍य न्यायाधीश जस्‍टीस राजेन्‍द्र सच्‍चर ने कहा कि बिनायक सेन जैसे सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में फंसाया जाना मानवाधिकार आंदोलनों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डिमोरलाइज़ करने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है. पर न्‍यायपालिका द्वारा बिनायक को किसी प्रकार की राहत न मिलने पर क्षोभ प्रकट करते हुए जस्‍टीट सच्‍चर ने अदालत के रुख को आड़ो हाथों लिया और कहा, 'यदि बिनायक नक्‍सलाइट है तो मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं भी नक्‍सलाइट हूं'. कार्यक्रम के अंत में ख्‍यातिप्राप्‍त लेखिका व मानवाधिकार कार्यकर्ता सुश्री अरुणधत्ति रॉय ने कहा कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दिनोंदिन बढ़ते सरकारी ज़ोर-जुल्‍म से यह साबित होता है कि सरकारें न केवलनिरंकुश होती जा रही हैं बल्कि बग़रीबों और मेहनकशों से उनके़ जीने का हक़ भी छीन लेना चाहती हैं. हालिया दौर में मानवाधिकार कार्यकताओं पर बढ़ते सरकारी जुल्‍म को उन्‍होंने उद्योगपतियों के पक्ष में ग़रीब-गुर्बों की हक़मारी बताया. कार्यक्रम का संचालन पत्रकार व जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल शर्मा ने किया. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है कार्यक्रम की चंद झलकियां: फेमिनिस्‍ट कार्यकर्ता दीप्‍ता और सहेलियों ने गाया संत गुलाबीदास का भजन ... राजेन्‍द्र सच्‍चर का संबोधन ... के सच्चिदानंदन का काव्‍यपाठ ... बिनायक सेन के पक्ष में मंगलेश डबराल ... गौहर रजा ने पढ़ी चंद नज्‍़में ... रब्‍बी का 'बुल्‍ले की जाना' ... अरुणधत्ति रॉय का समापन संबोधन ... -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090518/1740dde6/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed May 20 13:35:04 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 20 May 2009 13:35:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpYsg4KSv4KS+4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSk4KS+IOCkueCliCDgpIbgpK4g4KSG4KSm4KSu4KWA?= Message-ID: <829019b0905200105r1b25e344pf366a6b97ae28502@mail.gmail.com> मूलतः मीडिया मंत्र मई अंक में प्रकाशित: धारावी(मुंबई) की सीढ़ियों से उतरते हुए एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ ने गुनगुनाना शुरु किया-आ जा,आ जा जिंद शामयाने के तले,आ जा जरीवाले नीले आसमां के तले, जय हो....। इस दो लाइन को गाने के क्रम में वे आसमान की ओर देखते हैं,उस जमीन की ओर देखते हैं जहां कचरे के ढेर के बीच खड़े धारावी के बच्चे रो रहे हैं, बिलख रहे हैं, चार-पांच साल की छोटी बच्ची बर्तन मांजने और पानी ढोने का काम कर रही है और कुछ बच्चे अवाक् होकर इधर-उधर ताक रहे हैं। स्त्रियां सपनों का घर दिखानेवाले न्यूकोलेक पेंट के खाली डिब्बों में पानी भरकर ऐसे चली आ रही है कि आपको देखकर ही अंदाजा लग जाएगा कि पानी भरने के लिए इन्हें रोज अपने इलाके से बाहर से बाहर जाना पड़ता है। विनोद दुआ को आगे जय हो का गीत नहीं गाना है बल्कि मुद्दे की बात करनी है औऱ मुद्दे की बात है कि- जय हो के राइट्स कांग्रेस ने ले लिए लेकिन कांग्रेस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ये मेरी आवाज है,ये मेरा दिल है,मेरा मुल्क है,मेरा शहर है और ये है धारावी। जैसे कमल के खिलने के लिए कीचड़ का होना जरुरी है, वैसे ही कांग्रेस को जिंदा रहने के लिए स्लम का होना जरुरी है।....जय हो।( एनडीटीवी इंडियाः 9.31 बजे रात, 21 मार्च 09 )। इस रिपोर्ट के जरिए विनोद दुआ बताना चाहते हैं कि धारावी से कांग्रेस के एमपी( वर्षा गायकवाड़) रहे हैं और वहां विकास का कुछ भी काम नहीं हुआ है। इसके वाबजूद भी कांग्रेस जय हो का नारा लगाने से बाज नहीं आ रही है.स्लमडॉग पर फिल्म बनानेवाले लोग भी आए और अपना काम करके चले गए लेकिन यहां कुछ भी नहीं बदला है। इसलिए यहां आकर फिल्म को याद करने पर कोई भाव नहीं जगता। वस्तुस्थिति से रु-ब-रु करानेवाले और कांग्रेस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती... बोलकर अपने साहस और बेखौफ अंदाज का परिचय देनेवाले इस पत्रकार को देखकर,मेरा क्या देश के किसी भी कोने की जनता का मन उसके जज्बे को सलाम करने का कर जाएगा। और फिर सिर्फ विनोद दुआ ही क्यों,ऐसे मौके पर तो दूसरे पत्रकारों को टेलीविजन स्क्रीन पर देखकर एक आम ऑडिएंस की भी यही समझ बनेगी- जिसका कोई नहीं है उसका टेलीविजन है, चारो ओर से हताश-परेशान हो जाने पर, उसके लिए न्यूज चैनल अधिकार की लड़ाई लड़ेगें। एक उदाहरण और देखिए। एक तरफ कांग्रेस अपनी उपलब्धियों की चाशनी परोस रही है,दूसरी तरफ मोहिनी रो रही है। मोहिनी का दर्द यह है कि इसकी मां इसे अपनी बांहों में भरके दूध नहीं पिला सकती क्योंकि उसके दोनों हाथ कटे हुए हैं।...कांग्रेस आम आदमी के हाथ की मजबूती की बात करती है,यहां पूरा परिवार हाथ के लिए कांग्रेस दफ्तर के कई दिनों से चक्कर लगा रहे हैं। लेकिन इनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। ( उमाशंकर सिंह की रिपोर्टः एनडीटीवी इंडियाः 9.01 बजे रात, 21 मार्च 09)। इन दोनों रिपोर्टों के दौरान आदमी की तस्वीर दो स्तरों पर उभरकर सामने आती है। एक जो न्यूज चैनल के कैमरामैन मुहैया कराते हैं और दूसरी तस्वीर जो कि वीडियो एडिटर ने कांग्रेस के राजनीतिक विज्ञापनों से काटकर लगाए हैं। दोनों रिपोर्टों में विज्ञापनों की तस्वीरें इसलिए चस्पाए गए हैं ताकि न्यूज चैनल सीधे-सीधे व्यंग्य कर सके,कटाक्ष कर सके। एक तरह से कहें तो विज्ञापन की तस्वीरों को झुठला सके। धारावी की बच्चियां मैली-कुचैली है,बिलख रही है और कूड़े की ढेर में कुछ चुन रही है. विज्ञापन की बच्चियां कूदते हुए, खुशी से स्कूल जा रही है,गांव में रहकर भी लैपटॉप पर काम कर रही है। धारावी का बुजुर्ग पुराने टिन के डब्बे पीट रहा है और विज्ञापन का बुजुर्ग नोट गिन रहा है। सुनीता आसरे का पति हाथ के पीछे दौड़ने के दर्द को विस्तार से बता रहा है और विज्ञापन का पति अपनी पत्नी के पेट में पल रहे बच्चे की धड़कन को सुनकर खुश हो रहा है। हाथ के लिए पूरा परिवार भटक रहा है और विज्ञापन में राजू बेटे को इस हाथ के जरिए ने देश की तकदीर बदल जाने की कहानी समझाया जा रहा है। इन दोनों जोन के आम आदमी को देखें तो आपको लगेगा कि ये दो अलग-अलग हिन्दुस्तान है। एक चमकीला हिन्दुस्तान औऱ दूसरा चरमराया हुआ हिन्दुस्तान। पत्रकार इसे चरमराए हुए हिन्दुस्तान के प्रति अपनी संवेदना रखता है और चमकीले हिन्दुस्तान को लेकर अविश्वास जाहिर करता है। उसकी नजर में आम आदमी की यह तस्वीर मैनिपुलेटेड है, झूठ है,लोगों को धोखे में रखने की कोशिश भर है। कमजोर और लाचार होने और दिखाए जाने के अलावे आम आदमी की एक दूसरी तस्वीर न्यूज चैनलों की पकड़ में आती है। यह वह आम आदमी है जो अपने हालातों को लेकर हताश नहीं होता, उसे मतदान की ताकत पर भरोसा बरकार है। राजनीति पार्टियों और न्यूज चैनलों को इनकी ताकत का एहसास ऐसे ही चुनावी महौल में होता है। इसी वक्त उन्हें एहसास कराया जाता है कि उनका एक वोट पूरे हिन्दुस्तान के नक्शे को बदल सकता है। सालों से टेलीविजन स्क्रीन पर चिपकी रहनेवाली जनता को चैनल अब देश की तकदीर बनाने और बदलनेवाले राजनीतिक पुरुषों से सवाल-जबाब करने का मौका देते हैं। एक आम आदमी का सवाल है- माननीय नितीशजी से एक सवाल पूछना चाहूंगा कि उन्होंने कई बार कहा है कि बिहार बदल रहा है लेकिन अबर लोकसभा में जिस तरह दलबदलुओं को टिकट दिया गया है कि कल वे किसी दूसरे दल में थे, आज बुलाए, ज्वायन कराए, कल टिकट दे दिए, इससे बिहार का किस तरह का माखौल पूरे राष्ट्र में फैलाना चाहते हैं।( स्टार न्यूज-कहिए नेताजीः 8.15 बजे, 26 मार्च 09)। जिस धारावी की दास्तान को विनोद दुआ स्लमडॉग मिलेनियर से पैच अप करके दिखाते हैं वहां से एक आम महिला सवाल करती है-यहां पर जब आप धारावी की बात कर रहे हैं, धारावी की रिडेवलपमेंट की बात कर रहे हैं लेकिन मेरा दोनों नेताजी से सवाल है कि रोजमर्रा की जिंदगी में हमलोग जो एक्सपीरियेंस करते हैं, क्या आपलोगों ने उसे कभी नजदीकी से देखा भी है। जैसा कि अभी वर्षाजी ने कहा कि धारावी बदल गयी है लेकिन आज भी धारावी की गलियों में जाकर देखें तो कई लोग अपना चूल्हा वहीं जलाते हैं जहां कुत्तियां औऱ बिल्लियां वहीं बैठकर रहती है। ( स्टार न्यूज-कहिए नेताजीः 8.07 बजे,23 अप्रैल 09)। आगे भी जारी... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090520/1ea4f0cc/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat May 23 01:14:34 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 23 May 2009 01:14:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCklg==?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KSo4KS14KS/4KS24KWAIOCkueCliCDgpK/gpL4g4KSu4KSW?= =?utf-8?b?4KWN4KSW4KSo4KSs4KS+4KSc4KWA?= Message-ID: <6a32f8f0905221244o677a9fb7xf4e80fc43e253b0d@mail.gmail.com> *यह खबरनविशी है या मख्खनबाजी* डा. मनमोहन सिंह ने जब देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो खबर आई कि उन्होंने अंग्रेजी में शपथ ग्रहण किया। न्यूज चैनल देखने वाले कई लोग भी इसका सीधा प्रसारण देख रहे होंगे। लेकिन, देश की एक निजी समाचार एजेंसी की हिंदी इकाई की तरफ से खबर कुछ यूं जारी हुई- * > > “ डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में > शुक्रवार को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। > राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। > उन्होंने पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।” * * * इंट्रो की अंतिम पंक्ति काबिलेगौर है। सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी। इस पंक्ति के लेखक को खूब याद है कि उक्त एजेंसी में ही एक सही और पुख्ता खबर देने पर उसे क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा था। हिन्दी सर्विस के कर्ताधर्ता ने वेबसाइट से खबर तक हटवा दी थी। जबकि वह निर्देशानुसार था। आखिरकार मैंने संस्थान को छोड़ना ही बेहतर समझा था या यूं कहें की हटा दिया गया था। आज भी उस खबर की एक कॉपी मेरे पास है। दोनों खबरों को एक साथ आपके नजर डालूंगा। क्योंकि, सही फैसला तो जनता जनार्दन के हाथों ही होगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/be185c49/attachment.html From beingred at gmail.com Sat May 23 01:42:39 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 23 May 2009 01:42:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCknOClgeCksOCljeCkriDgpJTgpLAg4KSk4KWB4KSu4KWN4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkteClgOCksOCkpOCkvg==?= Message-ID: <363092e30905221312r1d2afbc0re2d813e5a7219601@mail.gmail.com> मेरा जुर्म और तुम्हारी वीरता कुलदीप प्रकाश की कविताएँ मेल खोला तो एक मित्र की चिट्ठी पर नज़र गयी...कुछ कविताएँ किसी भूमिका-परिचय के बिना। शुरुआती पंक्तियाँ ही खरोच छोड़ती हैं...बिना एक मिनट का समय गंवाए उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ...कवि का परिचय आपमे से किसी के पास हो तो बताएं, आगे शामिल कर लेंगे. कुछ कविताओं में शीर्षक नहीं दिए गए हैं। पहले तुम्हारे हाथ में थी बन्दूक तो यह तुम्हारी वीरता थी अब मेरे हाथ में है बन्दूक तो यह मेरा जुर्म है. -- वे शांति स्थापना के लिए निकले हैं ज़ाहिर है कब्रिस्तान में शोर नहीं होता पूरी पोस्ट पढिये यहाँ -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/91c43dce/attachment.html From beingred at gmail.com Sat May 23 01:42:39 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 23 May 2009 01:42:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCknOClgeCksOCljeCkriDgpJTgpLAg4KSk4KWB4KSu4KWN4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkteClgOCksOCkpOCkvg==?= Message-ID: <363092e30905221312r1d2afbc0re2d813e5a7219601@mail.gmail.com> मेरा जुर्म और तुम्हारी वीरता कुलदीप प्रकाश की कविताएँ मेल खोला तो एक मित्र की चिट्ठी पर नज़र गयी...कुछ कविताएँ किसी भूमिका-परिचय के बिना। शुरुआती पंक्तियाँ ही खरोच छोड़ती हैं...बिना एक मिनट का समय गंवाए उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ...कवि का परिचय आपमे से किसी के पास हो तो बताएं, आगे शामिल कर लेंगे. कुछ कविताओं में शीर्षक नहीं दिए गए हैं। पहले तुम्हारे हाथ में थी बन्दूक तो यह तुम्हारी वीरता थी अब मेरे हाथ में है बन्दूक तो यह मेरा जुर्म है. -- वे शांति स्थापना के लिए निकले हैं ज़ाहिर है कब्रिस्तान में शोर नहीं होता पूरी पोस्ट पढिये यहाँ -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/91c43dce/attachment-0003.html From nisha.nigam1 at gmail.com Sat May 23 09:06:22 2009 From: nisha.nigam1 at gmail.com (nisha nigam) Date: Sat, 23 May 2009 09:06:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCklg==?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KSo4KS14KS/4KS24KWAIOCkueCliCDgpK/gpL4g4KSu4KSW?= =?utf-8?b?4KWN4KSW4KSo4KSs4KS+4KSc4KWA?= In-Reply-To: <6a32f8f0905221244o677a9fb7xf4e80fc43e253b0d@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0905221244o677a9fb7xf4e80fc43e253b0d@mail.gmail.com> Message-ID: <141845e70905222036v7835e8a8q8a6980a4148ba557@mail.gmail.com> लंबे इंतजार के बाद हमलोगों के लिए बड़े काम की बातें आपने लिखी है। उम्मीद है दोनों खबर जल्द ही पढ़ने को मिल जाएगा। On 5/23/09, brajesh kumar jha wrote: > > *यह खबरनविशी है या मख्खनबाजी* > > > > डा. मनमोहन सिंह ने जब देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो खबर आई कि > उन्होंने अंग्रेजी में शपथ ग्रहण किया। न्यूज चैनल देखने वाले कई लोग भी इसका > सीधा प्रसारण देख रहे होंगे। लेकिन, देश की एक निजी समाचार एजेंसी की हिंदी > इकाई की तरफ से खबर कुछ यूं जारी हुई- > > > * >> >> “ > > डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शुक्रवार > को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। राष्ट्रपति > प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। उन्होंने पहले > हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।”* > > * * > > इंट्रो की अंतिम पंक्ति काबिलेगौर है। सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के > लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने > इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी > प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह > खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी। > > > > इस पंक्ति के लेखक को खूब याद है कि उक्त एजेंसी में ही एक सही और पुख्ता खबर > देने पर उसे क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा था। हिन्दी सर्विस के कर्ताधर्ता ने > वेबसाइट से खबर तक हटवा दी थी। जबकि वह निर्देशानुसार था। आखिरकार मैंने > संस्थान को छोड़ना ही बेहतर समझा था या यूं कहें की हटा दिया गया था। आज भी उस > खबर की एक कॉपी मेरे पास है। > > > > दोनों खबरों को एक साथ आपके नजर डालूंगा। क्योंकि, सही फैसला तो जनता जनार्दन > के हाथों ही होगा। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/7dd67cf5/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat May 23 11:29:49 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 May 2009 11:29:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWI4KS44KWHLeCkleCliOCkuOClhyDgpIbgpK4g4KSG4KSm4KSu?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0905222259h229f7828s45afaa8ed6be119d@mail.gmail.com> न्यूज चैनलों को याद आता है आम आदमी का अगला और अंतिम हिस्सा इन सबसे अलग देश के आम आदमी की एक तीसरी तस्वीर भी है जिसे कि चैनल अक्सर प्रमुखता से दिखाते हैं वह है भावावेश में आकर अपनी ही प्रत्याशी को पीटनेवाली जनता। चैनल यहां आकर हाइपर डेमोक्रेसी पैदा करने की कोशिश करते हैं.( कांग्रेस प्रत्याशी और मंत्री कल्याण काले की पिटाई,एनडीटीवी इंडियाः 9.01 बजे, 3 मई 09)। तकदीर बदलनेवाले नेताओं के समर्थन में कार्यकर्ता बनकर सड़क जाम करनेवाली आम जनता है।( जय श्रीराम के नारे लगा रहे वरुण के समर्थकों ने सड़कों को जाम करने की कोशिश की ताकि पुलिस को आने से रोका जा सके। न्यूज 24: 8.04 बजे,28 मार्च 09). 30 रुपये में कांग्रेस और बीजेपी नाम से सियासी पान खाने और बेचनेवाली जनता है।( पांच कांग्रेस का पान देना भाई. पान चबाओ,बटन दबाओ, अजमेरः आजतक,12.55 बजे रात,26 अप्रैल 09)। और सलमान खान जैसे सिलेब्रेटी को चुनाव मैंदान में देखने के लिए संकरे मुंडेर पर चढ़ जानेवाली जनता है। ये सब देश की उसी आम जनता की तस्वीर है जिससे चुनाव आयोग लगातार अपील करती आ रही है कि इस बार पप् मत बनिए,वोट कीजिए। राजदीप सरदेसाई के शब्दों में कहें तो – मीडिया केवल लोगों के सामने आईना में आपका चेहरा दिखा रही है। अगर वो चेहरा आपको अच्छा नहीं लगे तो ये आपकी बात है।( IBN7: 8.08 बजे,28 मार्च 09)। मौके पर तो यह बात राजदीप ने राजनीतिक व्यक्तियों के लिए कही लेकिन यह बात क्या आम जनता की तस्वीर के मामले में भी उसी रुप में लागू होती है ? कांग्रेस के राजनीतिक विज्ञापनों द्वारा आम जनता की जो तस्वीर दिखाई जा रही है उससे न्यूज चैनलों को असहमति है। उनके लिए यह पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं है,इसलिए तमाम न्यूज चैनलों की कोशिश है कि आम आदमी के उन घिसे-पिटे चेहरे को सामने लाएं जो चमकदार छवि के बरक्स सच की छवि स्थापित कर सके, वो ऑडिएंस को बता सके कि ये है देश के आम आदमी की तस्वीर। अपने इस प्रयास में न्यूज चैनल लगातार धारावी के चक्कर लगा रहे हैं, बिहार के इलाकों में कहिए नेताजी के तहत साहस से राजनीति का सच सामने ला रहे हैं। आप कह सकते हैं कि ये सारे चैनल उन विज्ञापनों से होड़ कर रहे हैं, उन्हें पटकनी देने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं जहां सब कुछ जय हो के रुप में दिखाया जा रहा है। ये विज्ञापन और चैनलों, सॉरी पत्रकारों के बीच की सीधी लड़ाई है। लेकिन एक स्थिति यह भी है कि चैनल जब बता रहे होते हैं कि बिहार में पिछले पन्द्रह सालों में कोई भी विकास का काम नहीं हुआ, आजादी के साठ साल बाद भी धारावी पहले की तरह ही बेहाल है, ऐन वक्त पर कॉमर्शियल ब्रेक हो जाता है और फिर से विज्ञापन शुरु हो जाते हैं- आम आदमी के बढ़ते कदम,हर कदम पर भारत बुलंद। ऐसे ही मौके पर अभी तक देखी जानेवाली आम आदमी की सारी खबरें झूठ जान पड़ती है। ऐसा लगता है कि चैनल ने एक खास मौके को ध्यान में रखकर देश के घिसे-पिटे चेहरे और हालातों को बटोरने की कोशिश की है। पिछले दो महीने से विज्ञापन और न्यूज चैनलों के आम आदमी के बीच सांप-सीढ़ी का खेल जारी है। अब तो खुद न्यूज चैनल भी अपने इस आम आदमी को ढ़ोते-ढ़ोते उब गए हैं। स्टार न्यूज के सिद्धार्थ को लगने लगता है कि इस खबर के बीच आइपीएल ज्यादा हावी होने लग गया है। जी न्यूज उबकर नैनो युग में पहुंचने का एलान कर देता है। चैनलों की ओर से एक गुपचुप घोषणा कर दी जाती है कि तरक्की आम आदमी के वोट से नहीं,नैनो और आइपीएल से है। अब स्क्रीन पर से आम आदमी छंटने लग जाते हैं. यहां आकर आपको सहज ही अंदाजा लग जाएगा कि जिन खबरों को वो दिखा रहे हैं, खुद उनका मन भी इसमें ज्यादा देर तक नहीं लगता। इसलिए खबर दो पाटों के बीच बंट जाती है- आइपीएल( इंडियन प्रीमियर लीग) वर्सेज आइपीएल( इंडियन पॉलिटिकल लीग)। इस पूरे मामले में देश के किसी भी टेलीविजन पत्रकार से आप सवाल करने की स्थिति में नहीं हैं कि अगर ये सारे विज्ञापन झूठे हैं तो आप इसे क्यों दिखा रहे हैं? मौजूदा मीडिया की संरचना को देखते हुए, सवाल करने के पहले आप को खुद ही समझना चाहिए कि विज्ञापनों का दिखाया जाना पत्रकारिता का हिस्सा नहीं, यह तो मैंनेजमेंट और मार्केटिंग का हिस्सा है,इसमें पत्रकारों की कहीं कोई दखल नहीं है। ऐसे में देश के पत्रकार किसी भी तरह के आरोप से बरी हैं। लेकिन इनके हिला देनेवाले अंदाज में खबर देखने के तुरंत बाद विज्ञापन में आम आदमी को देखकर एक सवाल तो मन में आता ही आता है कि कहीं हमें एक ही चैनल पर आम आदमी की दो तस्वीरें क्यों दिखाई जा रही है। क्यों हर पांच-सात मिनट के बाद अड़ा,तना और डटा पत्रकार कांग्रेस,बीजेपी और बसपा को अपना-अपना राग अलापने के लिए ब्रेक पर चला जाता है ? एक डर भी बनता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आनेवाले समय में आम आदमी पर “आम आदमी” हावी तो नहीं हो जाएगा? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/4bfd0df5/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat May 23 12:58:09 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 May 2009 12:58:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkr+CkviDgpKTgpYsg4KSo4KSX4KS+4KSh?= =?utf-8?b?4KS84KWHIOCkrOCknOCkvuCkjyDgpK/gpL4g4KSa4KSu4KSa4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWLIOCknOCkvuCkjw==?= Message-ID: <829019b0905230028s64c1531cs8fddc86d9b56a2d@mail.gmail.com> खबर के नाम पर देश की न्यूज एजेंसी आइएनएसने आम लोगों के साथ कितना बड़ा घपला किया है इसकी जानकारी दीवानकी मेलिंग लिस्ट के जरिए अभी थोड़ी देर पहले ही मिली। प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने अंग्रेजी में शपथ ली जिसे कि हम सबों ने टेलीविजन में देखा लेकिन एजेंसी ने इसे पहले हिन्दी में और फिर अंग्रेजी में शपथ लिया जाना बताया। इस मामले पर ब्रजेश कुमार झा ने दीवान पर लिखा- सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी। एजेंसी की तरफ से जारी की गयी लाइन है- "डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शुक्रवार को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। उन्होंने पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।” कांग्रेस के देश की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरकर सामने आने पर एनडीटीवी इंडिया की ओर से बड़े ही इत्मीनान अंदाज में घोषणा की गयी कि अब देश के पत्रकारों को बहुत सारे नेताओं के पीछे भागने से छुट्टी मिल जाएगी। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर या फिर क्षेत्रीय पार्टियों की ओर से जीतकर आनेवाले एमपी सरकार बनाने के मामले में जितनी ड्रामेबाजी किया करते हैं,वो सब खत्म हो जाएगा। एनडीटीवी की बात एक हद तक सही है। अब तक होता यही रहा है कि चुनाव होने से लेकर सरकार बनने की प्रक्रिया तक इतनी छोटी-छोटी पार्टियां औऱ निर्दलीय उम्मीदवार हो जाते कि उनके पीछे भागते रहने से चैनलों के पसीने छूट जाते। साधन और समय के मामले में मीडिया के लोग पस्त हो जाते। इन्हें इग्नोर भी नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार बनाने में इनकी भूमिका सबसे बड़ी पार्टियों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती। ये टोमैटो-ऑनियन टाइप के एमपी होते जो अपनी शर्तों के साथ किसी भी पार्टी में खपने को तैयार होते। बहरहाल एनडीटीवी इंडिया ने ये नहीं बताया कि रात-दिन ऐसे नेताओं के पीछे भागनेवाले मीडियाकर्मी अब नहीं भागने की जरुरत की स्थिति में क्या करेंगे। क्या अब या तो बहुमत हासिल करनेवाली कांग्रेस के नगाड़े बजाएंगे,उनके चमचे हो जाएंगे या फिर आइएनएस के पत्रकारों की तरह गलती पर पर्दा डालने का काम करेंगे। चुनावी परिणाम के बाद समाचार चैनलों सहित मीडिया के दूसरे माध्यमों को लगातार देख-सुन रहा हूं। मुझे इस बात पर हैरानी हो रही है कि राजनीतिक स्तर पर विपक्ष की झार-झार हो जाने की स्थिति में मीडिया भी शामिल होता चला जा रहा है। चुनाव के पहले जिस कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों में कदम दर कदम ऐब नजर आते रहे अब उनके पक्ष में तुरही बजाने में जुटा है। ये सिर्फ खबरों को लेकर नहीं उसकी प्रस्तुति को लेकर भी साफ झलक जाता है। लगभग सारे चैनलों का एक ही सुपर या स्लग है- सिंह इज किंग। क्या साबित करना चाहते हैं आप ? हार औऱ जीत,पक्ष औऱ विपक्ष राजनीतिक पार्टियों के लिए है मीडिया के लिए तो विपक्ष की भूमिका तब तक स्थायी तौर पर है जब तक कि राजनीति में आम आदमी की आवाज नहीं सुनी जाती चाहे सरकार किसी की भी हो। आइएनएस जैसी न्यूज एजेंसी को कांग्रेसी उत्सव और रफ्फूगिरी करने की क्या जरुरत है। चुनाव के पहले तो पैसे ले-लेकर खबरें छापी-दिखायी ही गयी,अब तो कम से कम आम आदमी को बख्श तो या फिर पांच साल तक के लिए दाम लेकर बैठ गए हो? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090523/b930e6c7/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat May 23 16:15:25 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 23 May 2009 16:15:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSk4KSwIOCkteCkvuCksOCljeCkpOCkviDgpLjgpYcg4KSq?= =?utf-8?b?4KS+4KSgIOCkquCljeCksOCli+Ckl+CljeCksOCkvuCkriDgpJXgpYcg4KSs?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWHIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <200905231615.26545.ravikant@sarai.net> ख़बर पुरानी है लेकिन रवि रतलामी के ज़रिए अभी मिली है. हमें ऐसे किसी मुक्त सॉफ़्टवेयर का भी इंतज़ार रहेगा. http://kathaakar.blogspot.com/2008/11/blog-post.html से नक़ल चेपी करके डाल रहा हूँ. रविकान्त आप बोलेंगे हिन्‍दी में और कम्‍प्‍यूटर टाइप करेगा जी हां, अब बाजार में एक ऐसा औजार आ गया है कि आप बोलेंगे हिन्दी में और कम्‍प्‍यूटर टाइप करेगा. आपसे बोलने में गलती होगी तो उसे दोबारा बोलने पर ठीक भी कर देगा. इतना ही नहीं, आपके प्री रिकार्डेड संदेश, भाषण या बोले गये टैक्‍स्‍ट को भी उसी बहादुरी के साथ टाइप करके आपको थमा देगा. ये पैकेज आपके लिए एडिटिंग करेगा, अलाइनमेंट करेगा, आउटपुट में मूल डॉक्यूमेंट का फार्मेट बनाये रखेगा शब्‍द जोड़ने, हटाने देगा, अपडेट करने देगा, और आपको शब्देकोश की सुविधा के अलावा पर्यायवाची शब्द भी देगा. है ना मजेदार ख्याल कि आप चांदनी रात में अपनी बाल्‍कनी में अकेले बैठे बीयर के घूंट ले रहे हैं और हैड फोन लगाये अपनी कहानी, ग़ज़ल, उपन्यास या कुछ भी अपने पीसी को डिक्टेशन दे रहे हैं. एक नज़ारा और भी हो सकता है कि जो कुछ कहना है हमें हैड फोन लगा कर पीसी के सामने कह दें. एडि‍टिंग बा द में होती रहेगी. और भी कई नज़ारे हो सकते हैं, सारे प्रेम वार्तालाप, मंत्री जी के भाषण, संतों की वाणी, बीवी या हस्‍बैंड के गुस्से भरे अलफाज़ जस के तस बोलते हुए टाइप होते चलें. न मुकरने की आशंका न भूलने का डर. कितना अच्छा कि हिन्दी टाइप करने के लिए लिखना पढ़़ना आना जरूरी नहीं. कोई भी अपने पीसी से ये काम ले सकता है. सेक्रेटरी नहीं आयी तो परवाह नहीं, वाचांतर पैकेज है ना.... ये वाचांतर पैकेज आपके लिए कई बरस की रिसर्च के बाद ले कर आये हैं पुणे की सीडैक के वैज्ञानिक. की मत पूरे सेट की सिर्फ 5900 रुपये. मंगाने या ज्यादा जानकारी के लिए देखें www.cdac.in या सम्पर्क करें अजय जी से ajai at cdac.in पर या उनसे फोन 9371034560 पर बात करें सूरज प्रकाश प्रस्तुतकर्ता कथाकार पर 12:51 AM लेबल: प्रसंगवश 11 टिप्पणियाँ: Raviratlami November 4, 2008 1:24 AM क्या किसी ने वाचांतर का प्रयोग किया है? यदि हाँ तो उसकी एक्सूरेसी कितनी है? क्या वह दक्षि णभाषी या गुजराती टोन लिए हिन्दी को भी उसी दक्षता से टाइप कर सकता है या फिर सिर्फ उत्तर भारत भाषी? क्या उसे ट्रेन करने के पश्चात् उसकी दक्षता में पर्याप्त वृद्धि होती है कि हम सामग्री का वाकई उपयोग कर सकें? यदि हाँ, तो इस उत्पाद को तो हम हाथों हाथ लेना चाहेंगे. इसका डेमो वर्जन भी कहीं है? दीपक कुमार भानरे November 4, 2008 1:29 AM महोदय , बहुत अच्छी जानकारी दी है . सीडेक की यह उपलब्धि इलेक्ट्रॉनिक सूचना के युग मैं हिन्दी भाषा की सम्रद्धि और सशक्त अभिव्यक्ति मैं एक और नए आयाम को जोडेगा . SHUAIB November 4, 2008 1:43 AM आप तो जैसे मार्केटिंग कर रहे हैं। भाई, ऐसा कोई टूल बताओ जो इंटरनेट पर मुफ़्त हो। खैर, ये जानकारी देने के लिए आपका बहुत शुक्रिया। कीमत ज्यादा नहीं खरीदा जासकता है ये सॉ फ़्टवेयर। अनुनाद सिंह November 4, 2008 2:56 AM यदि वाचान्तर की शुद्धता ९०% तक भी है तो हिन्दी के लिये सी-डैक की यह एक क्रान्तिकारी उपलब्धि है. सी-डैक और आप, दोनो को साधुवाद! संजय बेंगाणी November 4, 2008 4:27 AM चीज उपयोगी है, मगर शौकिया लोगों के लिए महंगा भी है. सुखद सुचना. masijeevi November 4, 2008 4:34 AM रविजी की तरह हम भी इस औजार की तकनीकी समीक्षा पढ़ने के लिए आतुर हैं। खासतौर पर ये कि क्‍या ख्‍ह इस्‍तेमाल के साथ साथ खुद को बेहतर बनाता हे या नहीं। कथाकार November 4, 2008 4:51 AM एक किस्‍सा यूं है कि भारत में कम्‍प्‍यूटर जितने बिकते हैं उनकी तुलना में साफ्टवेयर दस प्रतिशत भी बिकते क्‍योंकि हम साफ्टवेयर की कापी करने में माहिर हैं. सेंत मेंत में इंतजाम कर लेते हैं.ये देख कर अपने बिल गेटसाहब ने विंडो बिस्‍ता बनाया जो कोई भी पाइरेटैड साफ्टवेयर नहीं लेता. गेट भाई खुश कि अब देखें कैसे नहीं खरीदते पैकेज. लेकिन अपने भाई लोग बिल से भी आगे हैं. बंदों ने विस्‍ता को ही पाइरेट कर दिया और ओपन कर दिया उसे कि जो मर्जी डालो . इसलिए हमें हर साफटवेयर की कीमत ज्‍यादा ही लगती है. यही अंग्रेजी स्‍पीचवाला ड्रैग्‍न 12000 का है. जहां तक देखने की बात है मैंने इसका डेमो 3 बरस पहले भी कराया था और कई बार देखने के बाद अभी पिछले सप्‍ताह कराया है. किसी ट्रेनिंग की जरूरत नहीं. साफ बोलें तो 70 से 95 प्रतिशत तक समझ लेता है. अब नयी टैक्‍नालाजी है इतना टाइप कर दे तो भी क्‍या कम है. जहां तक काम का है तो सो तो है ही. हां जांचने परखने के लिए तो खुद आगे आना पड़ेगा खुद संवाद कर के देखें सीडैक से.आखिर सरकारी मामला है ‍ PN Subramanian November 4, 2008 5:38 AM यह तो एक बड़ी उपलब्धि है. बड़ी अच्छी खबर लाए हैं. आभार. Gyan Dutt Pandey November 4, 2008 5:55 AM अच्छा बताया आपने। ड्रैगन का प्रयोग कर छोड़ दिया था। इस का जुगाड़ कर देखेंगे। जितेन्द़ भगत November 4, 2008 9:20 AM काफी महत्‍वपूर्ण सूचना प्राप्‍त हुई। ‍दृष्‍टि‍हीन छात्रों के लि‍ए यह जादुई चि‍राग से कम नहीं होगा।‍ bahadur patel November 19, 2008 10:39 AM kaphi achchha hai. maza ayega. ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: वाचांतर वार्ता से पाठ प्रोग्राम के बारे में Date: मंगलवार 19 मई 2009 22:10 From: Ravishankar Shrivastava To: ravikant at sarai.net ये वाचांतर पैकेज आपके लिए कई बरस की रिसर्च के बाद ले कर आये हैं पुणे की सीडैक के वैज्ञानिक. कीमत पूरे सेट की सिर्फ 5900 रुपये. मंगाने या ज्यादा जानकारी के लिए देखें www.cdac.in या सम्पर्क करें अजय जी से ajai at cdac.in पर या उनसे फोन 9371034560 पर बात करें पूरा विवरण यहाँ दर्ज है - http://kathaakar.blogspot.com/2008/11/blog-post.html सादर, रवि ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Mon May 25 15:25:04 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 25 May 2009 15:25:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkruClh+CkgiDgpKrgpKjgpKog4KSw4KS54KS+IOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIIOCkleCkvuCksuCkviDgpKfgpKggPw==?= Message-ID: <829019b0905250255k192776eav8c7be4898374d6ee@mail.gmail.com> मूलतः दस्तक टाइम्स, 15 मई अंक में लखनउ से प्रकाशित। किसी खबर के निर्माण से लेकर प्रकाशन,प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है,उसके मद्देनजर हम बिनी विज्ञापन औऱ बाजार के सहयोग के पाठक,दर्शक तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावा भी खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका हिसाब-किताब है। इन पैसों को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनिया भर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउसों के भीतर तेजी से काला धन बढ़ रहा है। वह धन जिसे कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आये हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़ने वाले काले धन का क्या होगा,इसकी धरपकड़ कौन करेग,ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं। उस समय हमलोग अपने-अपने स्तर पर मीडिया औऱ चुनाव के बीच के अंतर्संबंधों को समझने में लगे हुए थे। 24 अप्रैल की दोपहर आनंद प्रधान सर से इस मसले में पर चैट करते हुए बातचीत हुई कि आखिर मीडिया पैसे लेकर जिस तरह से खबरों को छाप औऱ दिखा रहा है,उससे जो पैसे मिल रहे हैं, उसका क्या हिसाब-किताब है, क्या इसे हम काला धन कह सकते हैं? आनंद प्रधान से साफ कहा कि आप ये जो सारी बातें हमसे कह रहे हैं आप ऐसा कीजिए कि आप इसे एक हजार शब्दों में लिखकर शाम तक मुझे भेज दीजिए। एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि भरी दुपहरी में जबकि सोने का मन कर रहा हो,कहां फंस गया। लेकिन लिखना तो था ही सो चार बजे तक मामला फिट हो गया और ठीक एक हजार से चार शब्द ज्यादा लिखकर मेल कर दिया। आमतौर पर अपने रेगुलर पढ़नेवाले लोगों के बीच लंबे-लंबे लेख लिखने के लिए बदनाम हूं। जो मेरे दोस्त हैं वो मुझे लगातार छोटा लिखने की नसीहतें देते हैं और जो खुलेआम रुप से अपने को दोस्त साबित नहीं करते वो इसी आधार पर आलोचना भी करते हैं। यहां मैं पहली बार मांग और आपूर्ति पर खरा उतरा, क्योंकि मामला गुरु का रहा। लेख छपकर आ गया और फोन पर ही आनंद प्रधान सर ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि उनलोगों ने अपनी तरह से कांट-छांट कर दी है। लेख देखकर तो अफसोस मुझे भी हुआ। लेख के ढांचे को देखकर ऐसा लगा कि दिल्ली से भेजे गए इस लेख के हाथ-पैर,बाल,आंख,नाक,कान लखनउ तक पहुंचते-पहुंचते लोगों ने रास्ते में कतर दिए हों। नया-नया लिखनेवालों में होने पर भी मेरे लेखों के साथ ऐसा न के बराबर हुआ है। खैर, मैं लेख की मूल प्रति भी साथ में लगा रहा हूं ताकि आप मीडिया और उसके भीतर पनपनेवाले काले धन के पूरे संदर्भ को ज्यादा बेहतर तरीके से देख सकें। लेख की मूल प्रति- अखबार के पहले पन्ने पर अक्सर कोई खबर न देखकर किसी बड़ी कम्पनी या संस्थान का विज्ञापन देखकर मुंह से एक ही शब्द निकलता है- विज्ञापनों के आगे पत्रकारिता ने घुटने टेक दिए हैं। पाठक खबर पढ़ने के लिए अखबार खरीदता है लेकिन पहले पन्ने पर ही खबर नदारद होती है। अखबार के मालिक को इस बात का अंदाजा है भी या नहीं कि उसका पाठक सुबह-सुबह झल्ला जाता है लेकिन विज्ञापन आसानी से साबित कर देता है कि हम अखबार से भी बड़े हैं,अखबार की खबरें हमारे आगे कुछ भी नहीं है,हममें वह ताकत है कि देश के किसी भी बड़े अखबार का नक्शा बदल दें। यही हाल समाचार चैनलों के कार्यक्रमों को लेकर है. आप देश और दुनिया की हलचल जानने के लिए टीवी के आगे बैठे हैं लेकिन आलम ये है कि टेलीविजन स्क्रीन का आधा से ज्यादा हिस्सा विज्ञापनों से भरा है। स्क्रीन को देखकर ऐसा लगेगा कि किसी महानगर के मेला-पूजा पंडाल की तरह टेलीविजन के लोग स्क्रीन के एक-एक इंच को विज्ञापन के लिए इस्तेमाल करने के लिए परेशान हैं। बात यहीं तक खत्म नहीं होती, किसी भी कार्यक्रम के पहले आपको कंपनियों का नाम लेना होता है। कार्यक्रम के नाम की शुरुआत ही कंपनी के नाम के साथ शुरु होती है- बजाज एलयांस वोट इंडिया वोट, हीरो होंडा हमलोग या फिर आइडिया हेडलाइंस। कोई चैनल देश का पीएम खोजने निकला है तो देश की जनता से ज्यादा हीरो होंडा और बनियान के फुटेज प्रसारित होते हैं। अब तो चैनलों ने प्रजेन्टस औऱ प्रस्तुत करता है जैसे योजक शब्द भी लगाने छोड़ दिए हैं, सीधे विज्ञापन कंपनी और कार्यक्रम का एक-दूसरे से मिलाकर नाम होता है। मीडिया,बाजार औऱ विज्ञापन के आपसी गठजोड़ औऱ एक-दूसरे की अनिवार्यता को समझने के लिए पाठकों औऱ दर्शकों के सामने मौजूदा स्थिति में यह मजबूत उदाहरण है। सच पूछिए तो अब ये मुहावरा से ज्यादा कुछ भी नहीं है कि विज्ञापन के आगे मीडिया लाचार है। इस लिहाज से मीडिया की आलोचना करने में कुछ नयापन भी नहीं है. लेकिन इधर चुनावी महौल और आइपीएल सीजन में कुछ नए तरह की बहस मीडिया के भीतर चलनी शुरु हो गयी है। कल रात हिन्दी के एक समाचार चैनल पर पैनल डिशकशन के लिए आए राजनीतिक पुरुष ने कहा कि-आप सिर्फ नेताओं पर आरोप लगाने पर क्यों तुले हुए हैं,अखबार का एक-एक कॉलम बिका हुआ है, सब पैसों के हाथ बिक गए हैं। प्रश्न पूछनेवाले पत्रकार ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की और कहा कि आपके पास ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है। अगर ऐसा है तो आप प्रेस कांफ्रेस कराइए लेकिन यहां आकर आप इस तरह की बातें नहीं कर सकते। साथ में बैठे राष्ट्रीय दैनिक के संपादक महोदय ने पक्ष लेते हुए कहा- आपलोगों ने खुद पैसे दे-देकर लोगों को भ्रष्ट किया है औऱ आप जबरदस्ती हम पर आरोप लगा रहे हैं. खैर, उस परिचर्चा में इस बात को बहुत अधिक तूल नहीं दी गयी कि मीडिया और पैसे के बीच का आपसी रिश्ता क्या है लेकिन राजनीतिक पुरुष का संकेत विज्ञापन के आधार पर मीडिया के बिकने की ओर नहीं था। उनका साफ मानना था कि बिकने का यह मामला, खबरों औऱ कॉलम तक को लेकर भी है। इस बाबत रांची से प्रकाशित प्रभात खबर अखबार के संपादक हरिवंश ने अपने एक लेख के जरिए करीब डेढ़ महीने पहले ही खुलासा कर चुके हैं कि राजनीतिक पार्टियों की ओर से खबर,इंटरव्यू,फीचर और कवरेज को लेकर रेट तय कर दिए गए हैं। इस बात की खबर आने पर इस बात की भी चर्चा होनी शुरु हो गयी कि अंग्रेजी के कुछेक बड़े अखबार अपने यहां इंटरव्यू छापने की मोटी रकम लेते हैं। इन सब बातों की चर्चा मैंने ब्लॉग के जरिए शुरु ही की थी कि एक पत्रकार ने कमेंट के जरिए यह साफ किया किया कि आइपीएल की कवरेज को लेकर मुंबई के कुछ चैनलों ने पैसे लिए हैं और जिस भी टीम से पैसे लिए हैं,उनके पक्ष में खबरें दिखा रहे हैं। यहां सवाल इस बात का नहीं है कि मीडिया जिसने अपने उपर सामाजिक जागरुकता और सच को सामने लाने की जिम्मेवारी ली है,वह स्वयं ही पूंजी के खेल में बुरी तरह फंस गया है। खबर निर्माण से लेकर प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है, हम बिना विज्ञापन और बाजार के सहयोग के बड़े स्तर पर मीडिया के पहुंच की उम्मीद नहीं कर सकते,इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावे वाकई खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका कोई हिसाब-किताब है। इन पैसे को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनियाभर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है,अब कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउस के भीतर तेजी से काला-धन बढ़ रहा है। वह धन जिसका कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है, उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आए हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़नेवाले काले धन का क्या होगा,यह हमारी वित्तीय व्यवस्था को कैसे खोखला कर देगा और फिर इसकी धर-पकड़ कौन करेगा, ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं. दूसरी बात कि देश के दूरदराज इलाके में बैठे पाठक और दर्शक, अखबार और टेलीविजन की जिन सामग्री से गुजरकर अपनी राय बना रहे हैं,उनकी विश्वसनीयता का आधार क्या होगा। उन्हें इस बात का अंदाजा कहां है कि वह जिस इंटरव्यू,फीचर या रिपोर्ट को खबर के स्तर पर पढ़ रहा है,वह पैसे के दम पर छापा और प्रसारित किया गया है। कंपनियां या फिर राजनीतिक पार्टियां मार्केटिंग स्ट्रैटजी के तहत लाख विज्ञापन कर लें लेकिन एक स्तर पर आकर उसके प्रभाव के सीमित हो जाने की चिंता को वे समझते हैं. शायद इसलिए उन्होंने एडविटोरियल औऱ लिटरेचर के रुप में अपना विज्ञापन करवाना शुरु किया। सरस सलिल से लेकर दैनिकपत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित इस विज्ञापन को लोग शुरुआती दौर में खबर की तरह पढ़ते रहे,एक हद तक छले भी जाते रहे लेकिन यह जानने पर कि वह वाकई कोई खबर नहीं,विज्ञापन है,छिटकते चले गए। अब पाठकों के लिए यह जानना मुश्किल होता जाएगा कि वे खबर नहीं पेडस्टोरी (paid story)पढ़ रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति में रेडियो औऱ टीवी की तरह खबरें भी”बिग खबरें ” नहीं हो जाएगी जिस पर कि देश के गिने-चुने लोगों का कब्जा होगा। अब तक कि स्थिति यही रही कि माध्यम औऱ संचार के तमाम संसाधन पूंजीपतियों के हाथ होते चले गए लेकिन एक हद तक खबरें अभी भी आम लोगों के बीच रही। लेकिन जो स्थिति तेजी से बन रही है उसमें खबरें भी बिकती चली जाएगी। माध्यमों पर बाजार और विज्ञापन का कब्जा होने पर ही हम मीडिया के जरिए बड़े स्तर पर सामाजिक सरोकर की बात नहीं सोच सकते,अब जबकि खबरें ही बिकने लगें तो फिर सामाजिक जागरुकता औऱ लोकतंत्र की अभिव्यक्ति आदि की बातें कैसे सोच सकते हैं। यह पूरी तरह एक छलना है जिसे कि अब तक हमारी आंख खोलते रहनेवाला मीडिया के हाथों होने की आशंका जाहिर की जा रही है, अब इससे बचने का विकल्प क्या हो, सोचना जरुरी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090525/a4d9e03f/attachment-0001.html From uma.mghv at gmail.com Tue May 26 06:57:17 2009 From: uma.mghv at gmail.com (uma sah) Date: Tue, 26 May 2009 06:57:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= cyber media Message-ID: <69a4bfde0905251827m70daea2dx91ac34aad15ab3fb@mail.gmail.com> -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090526/ce9ef2d0/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: ram.doc Type: application/msword Size: 27136 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090526/ce9ef2d0/attachment-0001.doc From vineetdu at gmail.com Tue May 26 10:37:44 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 26 May 2009 10:37:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSqIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSC4KSt4KS+4KSy4KS/4KSPIOCkpuCkv+CksuCljeCksuClgCzgpK4=?= =?utf-8?b?4KWI4KSCIOCkpOCliyDgpJrgpLLgpL4g4KSw4KS+4KSC4KSa4KWA?= Message-ID: <829019b0905252207v299b3c42ocbd9f18988e0199@mail.gmail.com> तुम दिल्ली में बैठकर मेरे बारे में कोढ़ा-कपार( मां फालतू चीजों को कोढ़ा-कपार कहती है) लिखते रहते हो लेकिन आओगे तभी जब हम मरेंगे।..फोन पर उसके ऐसा कहने पर मेरे पास अब कुछ कहने लायक नहीं रह गया था। चैनल की नौकरी बजाते समय घर नहीं जा पाने की अपने पास एक ठोस वजह होती कि बॉस छुट्टी देने से मन कर रहा है। नौकरी छोड़ने के बाद रिसर्च के काम में जुटने पर आजादी का जो पहला एहसास होता है वो ये कि हम अपने मन के मालिक हो जाते हैं। कोई बॉस-बुश नहीं होता। अब जिस बंदे को बिटिया की रेलवे टिकट कटवाने से लेकर चांदनी चौक से लंहगे में गोटा लगवाने के लिए कहने वाला सुपरवाइजर मिल जाए तब उसका क्या कहा जाए। वो तो नौकरी बजाने से भी बदतर स्थिति में है। मैंने जब अपने सुपरवाइजर से कहा- घर जाना चाहता हूं सर,कुछ दिनों के लिए तो खुश होकर बोले- अरे,जरुर जाओ। शुभकामनाएं दी और तब हमने बाय-बाय सर कहते हुए पैकिंग करने के इरादे से झूमते हुए हॉस्टल लौट आया। कहीं कोई लोचा नहीं लगाया मेरे घर जाने की बात पर। पिछली बार जब मैं घर गया था तब मैं चैनल की नौकरी बजाता था। मेरे घर पहुंचने पर मां ने कहा-जाओ,जाके गैसवाला को हड़काकर आओ। हमेशा मेरे नाम से सिलेंडर उठाता है बीच रास्ते में ब्लैकमेल कर देता है। मां का मानना था कि मीडिया में है बोलने से वो सुधर जाएगा। वैसे भी अपने यहां मीडिया में काम करनेवाले लोगों का इससे ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कुछ हो भी नहीं सकता है। मां के साथ दो दिन दूध लाने चला गया तो अब फोन पर बताती है कि दूधवाला अभी तक निठुर( प्योर,बिना पानी मिलाए) दूध दे रहा है। हम जैसे मीडिया से जुड़े लोगों के लिए एक मुहावरा ही फिक्स हो गया है- ज्यादा झोल-झाल करोगे तो भइयाजी टीविए में देखा देंगे सब कारनामा। नानीघर जाता हूं तो हिन्दुस्तान का संवाददाता जिसको-तिसको हड़काए फिरता है- जहां उल्टा-सीधा सामान दिए तो कल्हीं के अखबार में छापेंगे,तुमरे बारे में। वो लाल बोलकर दिए जानेवाले तरबूज के गुलाबी निकल जाने पर किसी सब्जीवाले को हड़का रहा होता है। मुझे लगता है पुलिस के बाद पत्रकार ही है जो अपने इलाके में इस ठसक के साथ( दबंगई कहें) जीता है। बहरहाल,इस बार नौकरी छोड़कर एक स्टूडेंट की हैसयत से घर जा रहा हूं। रांची मेरा अपना घर नहीं है लेकिन जिस उम्र में हमें एहसास होता है कि हम चीजों और लोगों से जुड़ने लगे हैं,वो दौर हमने इस शहर में खपाया है। शहर की एक-एक सड़कें पत्रकारिता के नाम पर, एक-एक गलियां ट्यूशन पढ़ाने और किराए पर घर खोजने के नाम पर जानता हूं। रांची छोड़ने बाद जमाना हो गया वहां गए। अबकी बार टाटानगर की टिकट मिलने में परेशानी रही तो सोचा रांची ही चला जाए। 28 की शाम रांची पहुंच जाउंगा। 29 तक वहीं रहने का इरादा है। फिर 30 मई को टाटानगर। 2 जून तक टाटानगर में फिर 3 जून को अपनी छोटी दीदी के यहां बोकारो। 5 जून को नानीघर शेखपुरा जो कि कुछ साल पहले मुंगेर का ही हिस्सा रहा। 7 तारीख को मेरे एक दोस्त की शादी है बेगुसराय,वहीं जाने की इच्छा है। 8 को टाटानगर लौटकर 9 जून को दिल्ली के लिए प्रस्थान। 10 जून को दिल्ली। आते ही कमरे की तलाश,हॉस्टल मे रहते-रहते अब मन उब गया है। रोज रात के खाने के लिए किसी न किसी के फोन का इंतजार करता हूं और किसी के फोन न आने पर चंद्रा दीदी को फोन करता हूं, इधर कुछ सामान खरीदने आया था दीदी,किलकारी से मिलने आ जाउं। अब ये बताने की जरुरत ही नहीं होती कि खाना भी खाउंगा। अब बाहर की दुनिया के साथ जीना चाहता हूं। ... इसलिए हे दिल्ली के ब्लॉगर्स अब तो मनमोहनजी की स्थायी सरकार भी बन गयी है,मौसम भी ठीक-ठीक सा ही है। आप संभालिए तब तक दिल्ली..मैं चला अपने घर,मैं चला रांची। इस दौरान मेरी इच्छा है कि मैं ब्लॉगर दोस्तों से मिलूं,उनसे टेलीविजन पर,मीडिया के बदलते चेहरे पर बात करूं। अलग-अलग जगहों पर किसी न किसी का मोबाइल मेरे हाथ होगा। मैं नंबर लिख दे रहा हूं,आप मिस्ड कॉल देंगे तो मैं कॉल बैक कर लूंगा। रांची- 9931696011 टाटानगर-06576454670,9204494661 बेगुसराय- 9868074669 ये सारे लोकल नबंर होंगे और इसमें अगर गलती से कॉल रिसीव हो गए तो 50 पैसे से लेकर एक रुपये कटेंगे। जोहार... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090526/d6582561/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue May 26 12:04:23 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 26 May 2009 12:04:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?cyber_media?= In-Reply-To: <69a4bfde0905251827m70daea2dx91ac34aad15ab3fb@mail.gmail.com> References: <69a4bfde0905251827m70daea2dx91ac34aad15ab3fb@mail.gmail.com> Message-ID: <200905261204.24050.ravikant@sarai.net> उमा जी, दीवान डाक सूची के साथ इस चीज़ को बांटने का शुक्रिया. पर याद रहे कि यह युनिकोड फ़ॉन्ट समर्थित सूची है, और एक डाक सूची है, इसलिए आगे से कोई अटैचमेंन्ट इस पर न भेजें, उसे युनिकोड फ़ॉन्ट में बदलकर सीधी चिट्ठी बनाकर भेजा करें. वैसे ये फ़ॉन्ट कौन सा है? बताएँ ताकि हम इसे पढ़ने में लोगों की मदद कर सकें. रविकान्त मंगलवार 26 मई 2009 06:57 को, uma sah ने लिखा था: From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed May 27 02:14:58 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 27 May 2009 02:14:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KSo4KSX4KSwLCDgpKLgpLLgpL7gpKgg4KS44KWHIOCkieCkpOCksA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueClgeCkjw==?= Message-ID: <6a32f8f0905261344i1ffd551ds54f16a3dd1cfc38f@mail.gmail.com> * * *श्रीनगर, ढलान से उतरते हुए* * * * * मौसम के लिहाज से यह समय श्रीनगर जाने और ठाठ से बीसेक दिन रहने का है। पर भारी मन से ही सही, मुझे वहां से लौटे कुछ दिन बीत गए। दौरा चुनावी था और उसके अपने कायदे थे। खैर! कश्मीर वादी से लौटने के बाद अब कुछ रीता सा अनुभव हो रहा है। सोचता हूं- घूमना भी कायदे से पड़े, तो फिर घूमना क्या ? वहां से लाई गई चीजें अब भी एक दूरी का भास कराती हैं। वे चेहरे अब भी खूब याद आते हैं जो तफरीह के दौरान वादी में मिले थे। वैसे तो पांच-छह दिनों की मुहलत किसी स्थान के बारे में पक्की राय कामय करने के लिए काफी नहीं है। लेकिन, इन चार-पांच दिनों में वहां की फिजा आपको स्थानीय गाढ़े रंग से हल्का परिचय जरूर करा देगी। इससे पहले कश्मीर जाने को लेकर एक ना-मालूम सा भय उत्पन्न होता था। अजीब सी झिझक पैदा होती थी। इस यात्रा ने इन दोनों चीजों को अब खत्म कर दिया है। श्रीनगर से बडगाम करीब 35 से 40 किलोमीटर आगे है। इस दूरी को तय करते समय जो कुछ दिखा उससे साफ हो गया कि कश्मीर में हालात बदलें हैं। वादी की जनता अमन और सुकून के साथ अपना पूरा जीवन जीना चाहती है। यहां सुबह-सबेरे स्कूल जाती छात्राओं को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। इक-बारगी यह सपना सा मालूम पड़ता है। लेकिन, बडगाम जिले के बीरु तहसील में स्कूल जा रही आठवीं कक्षा की एक छात्रा ने पूछने पर ढलान से उतरते हुए बताया, “मैं रोजाना अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती हूं।” बच्ची के इस जवाब पर गाड़ी चला रहे व्यक्ति ने कहा, *“इंसा-अल्लाह हम चाहते हैं कि दुनिया जाने की वादी में हालात अब बदले हैं।”* खैर, जम्मू से रवाना हुई हमारी गाड़ी जब श्रीनगर पहुंची तो रात काफी हो चुकी थी। अप्रैल की यह एक बेहद शांत, सूनी रात थी। ठंडी हवा शरीर में अजीब सिहरन पैदा कर रही थी। दरअसल, जवाहर टनल पार करने के बाद जब गाड़ी ढलान से उतर रही थी, तभी से ठंड का आभास हो चला था। ऐसी ठंड दिल्ली में रहते हुए हमलोग नवंबर के आखिरी दिनों में महसूस करते हैं। अंततः हाउस बोट का एक कमरा किराए पर लिया। लेकिन, पूरी रात बारामुला, पुलवामा, श्रीनगर आदि में हुई आतंकवादी घटनाओं से जुड़ी वे खबरें याद आती रहीं, जिसे मैंने कभी अखबारों में पढ़ा था। खैर, दूसरे दिन शहर घूमते समय मुझे तनिक भी महसूस नहीं हुआ कि मैं वहां एक आउटसाइडर हूं। इस शहर में दो शाम गुजारने के बाद ऐसा लगा कि आप कितने भी गैर-रोमैण्टिक हों, वादी की फिजा आपको जरूर रोमैण्टिक बना देगी। हालांकि, वादी में टूरिस्ट युगल का तांता आना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर ऐसा लगता है कि उन दिनों यह शहर सचमुच अभी की अपेक्षा और भी नया व जवान दिखता होगा। यह पहला अवसर था जब इस यात्रा के दौरान मुझे सूबे की राजनीति के भीतर झांकने का मौका मिला। लेकिन, मुझे लगात है कि इस सफर के दौरान जुटाई गई बहुत-सी यादें व सामान पीछे छोड़ने होंगे। हालांकि, मन इसकी गवाही नहीं देता। ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की एक कविता खूब याद आती है- *अंगड़-खंगड़ सब अपना ही, क्या जोडूं क्या छोडूं रे।।* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090527/ab90c285/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed May 27 14:58:56 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 27 May 2009 14:58:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KSo4KSX4KSwICwg4KSi4KSy4KS+4KSoIOCkuOClhyDgpIngpKTgpLA=?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueClgeCkjw==?= In-Reply-To: <6a32f8f0905261344i1ffd551ds54f16a3dd1cfc38f@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0905261344i1ffd551ds54f16a3dd1cfc38f@mail.gmail.com> Message-ID: <200905271458.58237.ravikant@sarai.net> वाह ब्रजेश, बहुत अच्छा लिख रहे हो. लेकिन ये एक लुभावनी शुरुआत जैसी है - हम और की अपेक्षा में रहेंगे. तब तक के लिए चाहो तो हमारे अपने दौरे के फोटोग्राफ़ देखो, पिछले साल के. जब अमरनाथ हंगामा शुरू हुआ था, उसके ऐन पहले: http://picasaweb.google.co.in/ibnesayeed इंडलिनक्स का एक दल गया था कश्मीर विश्विद्यालय में कंप्यूटरी वर्कशॉप करने, तब की बात है. जब हमने थोड़ा काम किया, और बहुत घूमे, और फ़राग़दिल मेज़बानी का लुत्फ़ उठाया. लगता था कि सब कुछ बेहतर हो रहा है, पर थोड़ा खरोंचने पर घाव दिखने लगता था. नहीं इतनी जल्दी नहीं. इतना जल्दी सब कुछ सहज कैसे हो सकता है. ख़ास तौर पर अगर कुछ लोगों की रोटियाँ ही ऐसी आँच से सिंकती हों. तीन छवियाँ अभी भी मेरे ज़ेहन में कौंधती रहती हैँ: एक बूढ़ा आदमी अपने कंधे पर टेप लेकर किसी बाग़ में घूमता हुआ फ़िल्म बेमिसाल का ये गाना बजाता रहता था: ये कश्मीर है, कितनी ख़ूबसूरत ये तस्वी र है. और साथ में गाता भी जाता था, दुनिया से बेख़बर, अपनी रूमानी धुन में डूबा. तो ये सैलानियों को गुदगुदाने वाली छवि है. दूसरी, सड़क के किनारे चीड़-देवदार के पेड़ों की तादाद से अमूमन स्पर्धा करते सुरक्षाकर्मी - जहाँ आप उम्मीद भी न करें वहीं पर उगे हुए. किसी भी 'सामान्य' जगह से गए हुए इंसान को सहमाने के लिए पर्याप्त मुस्तैदी और हरवे-हथियार से लैस! ये दीगर बात है कि बक़ौल मुज़म्मिल जलील, स्थानीय लोगों ने ऐसे तजुर्बों के इर्द-गिर्द चुटकुले बना लिए हैं! और तीसरा हमारा ऑटोवाला दोस्त जो धीरे-धीरे शिकारावाला, गाइड, और मेज़बान तक बन गया. रविकान्त रविकान्त बुधवार 27 मई 2009 02:14 को, brajesh kumar jha ने लिखा था: > * * > > *श्रीनगर, ढलान से उतरते हुए* > > * * > > * * > > मौसम के लिहाज से यह समय श्रीनगर जाने और ठाठ से बीसेक दिन रहने का है। पर > भारी मन से ही सही, मुझे वहां से लौटे कुछ दिन बीत गए। दौरा चुनावी था और उसके > अपने कायदे थे। खैर! कश्मीर वादी से लौटने के बाद अब कुछ रीता सा अनुभव हो रहा > है। सोचता हूं- घूमना भी कायदे से पड़े, तो फिर घूमना क्या ? > > > > वहां से लाई गई चीजें अब भी एक दूरी का भास कराती हैं। वे चेहरे अब भी खूब याद > आते हैं जो तफरीह के दौरान वादी में मिले थे। वैसे तो पांच-छह दिनों की मुहलत > किसी स्थान के बारे में पक्की राय कामय करने के लिए काफी नहीं है। लेकिन, इन > चार-पांच दिनों में वहां की फिजा आपको स्थानीय गाढ़े रंग से हल्का परिचय जरूर > करा देगी। इससे पहले कश्मीर जाने को लेकर एक ना-मालूम सा भय उत्पन्न होता था। > अजीब सी झिझक पैदा होती थी। इस यात्रा ने इन दोनों चीजों को अब खत्म कर दिया > है। > > > > श्रीनगर से बडगाम करीब 35 से 40 किलोमीटर आगे है। इस दूरी को तय करते समय जो > कुछ दिखा उससे साफ हो गया कि कश्मीर में हालात बदलें हैं। वादी की जनता अमन और > सुकून के साथ अपना पूरा जीवन जीना चाहती है। यहां सुबह-सबेरे स्कूल जाती > छात्राओं को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। इक-बारगी यह सपना सा मालूम पड़ता है। > लेकिन, बडगाम जिले के बीरु तहसील में स्कूल जा रही आठवीं कक्षा की एक छात्रा > ने पूछने पर ढलान से उतरते हुए बताया, “मैं रोजाना अपनी सहेलियों के साथ स्कूल > जाती हूं।” बच्ची के इस जवाब पर गाड़ी चला रहे व्यक्ति ने कहा, *“इंसा-अल्लाह > हम चाहते हैं कि दुनिया जाने की वादी में हालात अब बदले हैं।”* > > > > खैर, जम्मू से रवाना हुई हमारी गाड़ी जब श्रीनगर पहुंची तो रात काफी हो चुकी > थी। अप्रैल की यह एक बेहद शांत, सूनी रात थी। ठंडी हवा शरीर में अजीब सिहरन > पैदा कर रही थी। दरअसल, जवाहर टनल पार करने के बाद जब गाड़ी ढलान से उतर रही > थी, तभी से ठंड का आभास हो चला था। ऐसी ठंड दिल्ली में रहते हुए हमलोग नवंबर > के आखिरी दिनों में महसूस करते हैं। अंततः हाउस बोट का एक कमरा किराए पर लिया। > लेकिन, पूरी रात बारामुला, पुलवामा, श्रीनगर आदि में हुई आतंकवादी घटनाओं से > जुड़ी वे खबरें याद आती रहीं, जिसे मैंने कभी अखबारों में पढ़ा था। > > > > खैर, दूसरे दिन शहर घूमते समय मुझे तनिक भी महसूस नहीं हुआ कि मैं वहां एक > आउटसाइडर हूं। इस शहर में दो शाम गुजारने के बाद ऐसा लगा कि आप कितने भी > गैर-रोमैण्टिक हों, वादी की फिजा आपको जरूर रोमैण्टिक बना देगी। हालांकि, वादी > में टूरिस्ट युगल का तांता आना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर ऐसा लगता है कि उन > दिनों यह शहर सचमुच अभी की अपेक्षा और भी नया व जवान दिखता होगा। > > > > यह पहला अवसर था जब इस यात्रा के दौरान मुझे सूबे की राजनीति के भीतर झांकने > का मौका मिला। लेकिन, मुझे लगात है कि इस सफर के दौरान जुटाई गई बहुत-सी यादें > व सामान पीछे छोड़ने होंगे। हालांकि, मन इसकी गवाही नहीं देता। ऐसे में हरिवंश > राय बच्चन की एक कविता खूब याद आती है- *अंगड़-खंगड़ सब अपना ही, क्या जोडूं > क्या छोडूं रे।।* From vineetdu at gmail.com Wed May 27 17:09:46 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 27 May 2009 17:09:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSk4KS/?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSmIOCkquCksCDgpKzgpYfgpLLgpL4g4KSU4KSwIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KSc4KWCIOCkleClgCDgpJXgpLngpL7gpKjgpYAg4KSG4KSc?= =?utf-8?b?IOCkuOClhw==?= Message-ID: <829019b0905270439xb694d6enbffe630598ccc501@mail.gmail.com> बिरजू,रुक काहे गए। तुम भी अंदर आओ न,भगवानजी जांत-पांत थोड़े न मानते हैं।बेला के कहने पर बिरजू मंदिर की सीढियों पर चढ़ना शुरु करता है तभी बेला के दद्दाजी का चिल्लाना शुरु हो जाता है- तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मंदिर में घुसने की।उसके बाद वीओ शुरु होता है- क्या बेला और बिरजू का मासूम प्रेम कर पाया जातिवाद पर प्रहार? इन दिनों अगर आप एफ.एम चैनल सुन रहे हैं तो इस तरह के प्रोमो लगातार आपको सुनाई दे रहे होंगे। दिल्ली मेट्रो पर के किऑस्क को स्टार प्लस पर शुरु होनेवाले नए सीरियल मितवा फूल कमल के से पाट दिया गया है। प्रेम पर जातिवाद का प्रहार को बड़ी मजबूती से स्टैब्लिश करने की कोशिश है। स्टार प्लस पर आज यानी 27 मई से शुरु होने वाले इसी नए सीरियल मितवा फूल कमल के का प्रोमो अगर आप यूट्यूब पर देखें तो कुछ इस प्रकार के विजुअल्स दिखाई देंगे। मेले में बेला को बिरजू के साथ घूमते हुए उसकी मां देख लेती है और अफसोस जाहिर करते हुए कहती है- हमारी बेला इस नीच के साथ। हमरे खानदान की की इज्जत का कोई ख्याल नहीं इस छोरी को। इसी बीच बिरजू मेले से काला-खट्टी खरीदता है और उसके एक बार चूसते ही बेला भी मचल उठती है-मुझे नहीं देगा। तभी काले-खट्टे के खोमचे को तहस-नहस कर दिया जाता है। बेला देखती है कि पीछे उसके दद्दाजी समाज में जाति प्रथा को कायम रखने की भगीरथ कोशिश में लगे लोग बिरजू के आगे बंदूक ताने खड़े हैं। सीरियल की ओर से सवाल है- जातिवाद के दलदल में क्या खिलेंगे दो फूल कमल के? यही वही टेलीविजन चैनल है जिसे सीरियल के मामले में सास-बहू सीरियल वाला चैनल,के फैक्टर वाला चैनल और घर फोड़ने वाला चैनल कहा जाता रहा है। जिसने सीरियल में मनोरंजन के नाम पर एक ऐसा उत्सवधर्मी महौल पैदा किया कि आए दिन करवाचौथ,घरेली,सगाई और शादी के बहाने साढ़े दिन करोड़ दर्शकों के बीच भरी दुपहरी में चहल-पहल हो जाया करता। जूलरी से लेकर साड़ी,चूड़ी,बिंदी और सैंडिल तक के जिसने बाजार पैदा किए। एक समय ऐसा आया कि लोग साड़ी का नाम कसौटी,तुलसी,कुंडली,कहानी घर-घर की बहू आदि के नाम से बेचने और खरीदने लगे। कस्बों में जिस साड़ी को देखकर औऱतें नाक-भौं सिकोड़ती,दूकानदार लगभग डपटने के अंदाज में कहता- बहनी आपको साड़ी के बारे में अंदाजा ही नहीं है, पिछले सप्ताह पार्वती ने यही साड़ी पहनी थी,देख रहे हैं न मयूर प्रिंट,ये हमने नहीं पार्वती भाभी ने पसंद किए। अब बताइए टीवी के आगे हमारी और आपकी पसंद के क्या मायने रह जाते हैं। आप कह सकते हैं कि स्टार प्लस ने सीरियल के जरिए जो तिलिस्म सात-आठ सालों तक दर्शकों के बीच फैलाए रखा उसकी चाहे जितनी भी आलोचना की जाए लेकिन सच्चाई है कि उसने मार्केट और कन्ज्यूमर विहेवियर को पूरी तरह बदलकर रख दिया। मॉल जाइए तो आपको तुलसी,पार्वती से लेकर बा तक के नाम से सेल्समैन के एप्रोच का अंदाजा लग जाएगा। इन सबके वाबजूद स्टार प्लस का तिलिस्म बहुत लंब समय तक चला नहीं। कलर्स के आने के बाद उसका असर घटने लग गया औऱ धीरे-धीरे करके ये सारे उत्सवधर्मी महौल पैदा करनेवाले सीरियल बंद होते चले गए। भारतीय टेलीविजन के इतिहास में अगर कलर्स की चर्चा होती है तो उसे इस बात की क्रेडिट देनी होगी कि उसने टेलीविजन सीरियलों के रुख को उत्सवधर्मिता से हटाकर समस्यामूलक विमर्श की ओर ले जाने की कोशिश की है। ऐसा नहीं है कि इससे रातोंरात बदलाव आने शुरु हो गए हैं, उसमें भी एक हद तक स्टंट हैं। लेकिन इतना जरुर हुआ है कि सीरियलों का पैटर्न तेजी से बदलने लगा है। आज जितने भी चैनलों पर नए सीरियल आ रहे हैं वो किसी न किसी रुप में सामाजिक समस्याओं से जुड़े हैं और ऑडिएंस की ओर से उसे अच्छा रिस्पांस मिल रहा है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण इन्डस्ट्री में पिट रहे जीवी टीवी का है। उसने मजबूरी और लड़की को लेकर नॉनसीरियसनेस एप्रोच के चलते बेटी बेचने की प्रथा को आधार बनाकर अगले जनम मुझे बिटिया ही कीजो सीरियल शुरु किया और टीआरपी की दौड़ में वो एक से पांच के पायदान पर काबिज है। उसे जीटीवी को एक हद तक ऑक्सीजन मिला है। सोनी भी इसी तरह की खेप जल्द ही उतारने वाला है। पिछले कुछ सप्ताह से स्टार प्लस की स्थिति बेहतर हुई है जिसकी बड़ी वजह इस तरह के समस्यामूलक सीरियलों का शुरु किया जाना रहा है। आज अगर आप गौर करें तो दहेज,भ्रूण हत्या,बाल विवाह से लेकर उन तमाम सामाजिक समस्याओं पर टीवी सीरियल मौजूद हैं जिसे कि हम औऱ आप नहीं भोगने की स्थिति में सिर्फ किताबों में पढ़ते आए हैं। इन सीरियलों का महत्व इस स्तर पर भी है कि टेलीविजन जेनरेशन जिनका कि इन सबों से सीधा सरोकार नहीं रहा है,वो भी एक हद तक प्रॉब्लमैंटिक स्पेस को समझ सकते हैं। दूसरी बात की लोकेशन का फर्क इतना अधिक है कि सीरियल अब सिर्फ एनआरआइ को ही नॉस्टॉलजिक नहीं करता बल्कि दिल्ली,मुंबई में बैठे हम जैसे लोगों को भी भावुक कर देता है। इस तरह के सीरियलों को देखकर सबों को अपने-अपने कस्बे का भुतहा इमली का पेड़,बरगद पर लदी चुड़ैल याद आ जाएगी। मितवा ने ग्रामीण समाज में जिस जातिवाद की समस्या को उठाया है उसके संकेत सोनी इंटरटेन्मेंट के हम चार लड़कियां ससुराल से मायके तक में मिलती है लेकिन बाद में उसकी कहानी जातिवाद की बिडंबनाओं की तरफ न मुड़कर अहं और पारिवारिक पचड़ों में उलझने लग जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मितवा में जातिवाद की समस्या के नाम पर हायपरबॉलिक करने का अंदाज नहीं होगा जो कि अब बालिका वधू औऱ उतरन में शुरु हो गया है। सीरियल आज शाम 7ः30 से शुरु होने जा रहा है। ठीक उसी वक्त रांची के लिए मेरी ट्रेन है। आप इसे देखें और कमेंट के तौर पर टीवी प्लस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090527/c4765303/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu May 28 02:48:25 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 28 May 2009 02:48:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSP4KSu?= =?utf-8?b?4KSTIOCkleCkviDgpKrgpYDgpIbgpLDgpJM=?= Message-ID: <6a32f8f0905271418x10aa5872lac45696913dfafd8@mail.gmail.com> दीवान व खंभा ब्लाग पर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई एक महत्वपूर्ण स्टोरी (डा. मनमोहन सिहं के शपथ को लेकर) के बाबत कुछ बातें हुई थीं। अनुमान के विपरीत लोगों की प्रतिक्रियाएं आईं। ज्यादा फोन ही आए। अब भी आ जाते हैं। जो मुझे पसंद नहीं। बहरहाल, एक साथी ने उक्त खबर की मूल कॉपी यानी पूरी खबर से परिचय कराया तो पूरा पढ़कर बड़ा दुख हुआ। खबर दो पारा में है, यानी सौ शब्द होंगे। सरसरी निगाह भी डालें तो हजार के बराबर गलती दिख जाएगी। खबर में यह बताया गया है कि *नेहरू के बाद डा. मनमोहन सिंह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए हैं।*** * * यह बात बारह आनें सही है। पर सोलह आना सही यह है कि डा. सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बन गए हैं। इस बात का जिक्र खबर में नहीं है। क्या हिन्दी सर्विस को पीएमओ के पीआर का टेंडर मिला है ? यदि मिला है तो मजे लें। अन्यथा न्यूज धर्म निभाएं। दोनों बातों की जानकारी साथ-साथ दें। यहां एक गंभीर और मोटी बात यह है कि डा. सिंह की तुलना नेहरू से करना पत्रकारिता के दृष्टिकोण से बड़ी भूल है। नेहरू तीन बार चुनाव जीतकर आए और प्रधानमंत्री बने। डा. सिंह के साथ ऐसी बात नहीं है। नेहरू दशरथ पुत्र भरत की भूमिका में नहीं थे। वर्तमान समय में राजनीति करवट ले रही है। इसका सही विश्लेषण होना चाहिए। सुना है कि खबर हिन्दी के प्रमुख अरुण आनंद की ओर से संपादित है। बतलाइये संपादक के ऐसे रंग हैं। कुछ अन्य व्यस्तता की वजह से दोनों खबर आपतक नहीं पहुंचा पाया हूं। वह अगली दफा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090528/a41bf6a3/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat May 30 15:09:19 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 30 May 2009 15:09:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KSc4KS8?= =?utf-8?b?4KSyOiDgpKTgpYHgpK4g4KSV4KSt4KWAIOCkpeClhyDgpLjgpYLgpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSv?= Message-ID: <200905301509.19538.ravikant@sarai.net> कविताकोश के याहू-समूह से साभार. अनूप भार्गव का शुक्रिया. चन्द्रसेन विराट की इस खूबसूरत गज़ल का चयन शास्त्री नित्यगोपाल कटारे ने किया है । http://groups.yahoo.com/group/kavitakosh/ रविकान्त तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये। थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये ॥ यवनिका बदली कि सारा दृश्य बदला मंच का । थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये ।। वक्त का पहिया किसे कब कहां कुचले क्या पता । थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये ।। देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं । जो कि अध्यादेश थे खुद अर्ज़ियों तक आ गये ।। देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो । बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये ।। प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले । घूम फिर कर देह की गोलाइयों तक आ गये ॥ कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को । तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये ॥ सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा । देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये ॥ चन्द्रसेन विराट From ashishkumaranshu at gmail.com Sat May 30 15:35:51 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 30 May 2009 15:35:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJjgpLAg4KSV4KS+4KSC4KSn4KWHIOCkquCksCDgpJQ=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkruClgeCkuOClgOCkrOCkpCDgpLjgpL/gpLAg4KSq4KSw?= Message-ID: <196167b80905300305w727b0741s23c7a8a23ca9f5bb@mail.gmail.com> *दो महीने से भी कम में मानसून पुन: आ जाएगा। बिहार में पिछले मानसून में कोसी नदी में आई बाढ़ की क्षतिपूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है। आज भी बाढ़ पीड़ितों को एक वर्ग राहत शिविरों एवं खुले आसमान के नीचे रहने को अभिशप्त है। कोसी क्षेत्र में एक कहावत प्रसिध्द है- 'कोसी का घर कांधे पर।' अर्थात् बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले यायावरों सी जिन्दगी जीने को विवश हैं। इस साल वे जहां रह रहे हैं, जरूरी नहीं कि अगले साल भी वे उसी जगह मिले। * ** कोसी की धार के साथ-साथ इनके घर भी बदलते हैं। बाढ़ का आकर इन लोगों का घर तोड़ती है और ये लोग पानी उतरने के बाद अपने घरों को फिर जोड़ लेते हैं। इस जोड़-तोड़ के खेल में जो नहीं टूटा है, वह है इस क्षेत्र में रहने वालों का हौसला। सुपौल जिले के डूमरिया गांव के मोहम्मद मोहिनुद्दीन को 60 सालों की अपनी जिंदगी में 28 बार घर बदलना पड़ा है। जब-जब कोसी ने अपनी जगह बदली तब-तब मोहिनुद्दीन का कोसी के साथ इस तरह की आंख-मिचौली का खेल हुआ। जहां कल तक कोसी थी आज वहीं मोहिनुद्दीन का घर है। यह अकेली मोहिनुद्दीन की कहानी नहीं है। उन जैसे सैकड़ों हजारों लोगों का यह दर्द है। इस क्षेत्र में आपसी सहयोग की भावना ऐसी है कि कोई किसी की जमीन पर अपना घर बना ले तो जिसकी जमीन है उसे आपत्ति नहीं होती। लोग एक की जमीन से दूसरे की जमीन पर यायावरों की तरह इस उम्मीद में सफर कर रहे हैं, कि उनकी जो जमीन कोसी के गर्भ में है वह एक दिन बाहर आएगी। इतना कुछ गुजरने के बाद भी लोगों की नाराजगी कोसी से तनिक भी नहीं है। कोसी तो इस क्षेत्र की बेटी है और यहां रहने वालों के मन में उसके लिए 'मां' सा सम्मान है। लोगों की नाराजगी, उन लोगों से है जो प्राकृतिक नहीं 'सरकारी बाढ़' के लिए जिम्मेवार हैं। सबकी शिकायत सरकार, प्रशासन और व्यवस्था से है। जिनके लिए 'कोसी की बाढ़' रिलीफ फंड की गंगा है। यात्रा के दौरान एक भी ऐसा नहीं मिला जो कोसी को बिहार का शोक मानता हो। हाल में ही (20 मार्च से 27 मार्च 2009) बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र के सान्निध्य में उन क्षेत्रों में जाने का मौका मिला जहां बरसात के मौसम में जाया नहीं जा सकता। बाढ़ वास्तव में बिहार के लिए एक बार की समस्या नहीं है। यह हर साल आती है। उसके बावजूद अब तक इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकाला जा सका। इसकी वजह है, बाढ़ के नाम पर आने वाला रिलीफ फंड। बाबू से लेकर अधिकारी तक ऐसा कौन है जिसने 'बाढ़ रिलीफ फंड' की गंगा से दो-चार बाल्टी पानी न निकाला हो? बाढ़ आने के साथ-साथ कुकुरमुत्ते की तरह एनजीओ उग आते हैं और बाढ़ खत्म होने के साथ-साथ खत्म भी हो जाते हैं। पता नहीं सरकार बाढ़ का स्थायी उपाय क्यों नहीं ढूंढती? बाढ़ प्रभावित जिलों में पंचायत स्तर पर नाव की व्यवस्था करवाना बहुत अधिक खर्चीला काम नहीं है। यात्रा के दौरान कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के दौरान पता चला कि सरकार ने कुशहा में मरम्मत के समय कुछ लाख रुपया बचाने के लिए लाखों लोगों की जान दांव पर लगा दी और अरबों रुपयों का नुकसान उठाया। हमारी यात्रा जारी थी। यात्रा के क्रम में जब हम लोग नेपाल के सुनसरी जिले में आने वाले कुशहा तटबंध पर पहुंचे तो वहां काम जोरों पर था। यह वही कुशहा थी, जहां 18 अगस्त 08 को तटबंध टूटने की वजह से बिहार को भीषण बाढ़ से जूझना पड़ा था। जिसकी वजह से बिहार के पांच जिलों के 35 प्रखंडों के 993 गांवों के 33.29 लाख लोग प्रभावित हुए थे। इससे 3.68 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ की चपेट में आई और 2.37 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए। लगभग 600 लोगों के शव बरामद कर लिए गए हैं और उनकी पहचान हो गई है। उसके बाद भी अभी तक हजारों लोग लापता हैं। कुशहा में मौजूद इंजीनियरों ने आश्वस्त किया कि 20 अप्रैल 09 तक तटबंध की मरम्मत का काम पूरा हो जाएगा। परंतु इस बार फिर पानी का दबाव बढ़ने पर तटबंध नहीं टूटेगा इस बात की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है। यह विश्वास जरूर दिलाया गया कि तटबंध उस जगह से नहीं टूटेगा, जहां पिछली दफा टूटा था। कुशहा के बाद हम लोग पहुंचे सुनसरी जिले के ही प्रकाशपुर के अंतर्गत राजाबास गांव में बने तटबंध पर। यहां कोसी तटबंध के बिल्कुल पास पहुंच चुकी है और तटबंध की हालत खस्ता है। यदि केन्द्र और राज्य सरकारें नहीं जागीं तो कुशहा साबित न हो जाए। नेपाल में कुशहा और प्रकाशपुर तटबंधों की देखभाल का काम भारत के पास ही है। कुशहा का क्षेत्र नेपाल में सुरक्षित क्षेत्र घोषित होने की वजह से आम नेपाली व्यक्ति तटबंध तक नहीं जा सकता। पिछले साल जिन लोगों ने टूटने से पहले कुशहा तटबंध को देखा था, उनमें एक माओवादी नेता देवनाथ यादव भी थे। यादव के अनुसार उस वक्त तटबंध पर बिछाए गए पत्थर बालू में तब्दील हो गए थे। वहां इस्तेमाल की गई जाली भी सड़ गई थी। कमाल की बात तो यह है कि तटबंध टूटने से पहले वहां से जाली और बोल्डर हटा लिए गए थे। इसलिए इतना नुकसान हुआ। कुछ-कुछ ऐसे ही हालात इस वक्त प्रकाशपुर में हैं। आने वाले समय में कोसी की धार किस रास्ते मुड़ेगी कोई नहीं जानता। इसलिए हमें सतर्क हो जाना चाहिए। जानकारों के अनुसार इस बार प्रकाशपुर का बांध टूटा तो पूर्णिया को बचा पाना भी मुश्किल होगा। http://www.visfot.com/index.php/jan_jeevan/883.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090530/21ea2871/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Sun May 31 19:06:05 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 31 May 2009 19:06:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KWA4KSy?= =?utf-8?b?LiDgpJXgpL/gpLjgpYAg4KSP4KSVIOCkq+ClguCksiDgpJXgpL4g4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCksuCliy4g4KSs4KS+4KSk4KWH4KSCIOCkl+ClgeCksg==?= =?utf-8?b?4KWb4KS+4KSwIOCkleClgC4=?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, मैं पिछले कुछ दिनों से गुलज़ार पर लिखने का तय करके बैठा हूँ. और जूझ रहा हूँ. अपने दोस्तों में इसपर लम्बी बातें हुईं कि आखिर गुलज़ार पर लिखना इतना मुश्किल क्यों है? मेरी परेशानी देखकर रविकांत का कहना है कि उनका फ़लक इतना बड़ा है कि उन्हें किसी खांचे में फ़िट करना (कॉन्सेप्च्यूलाइज़ करना) बहुत मुश्किल हो जाता है. और क्योंकि हमारी आलोचना पद्धति इसी पैटर्न पर चलती है इसलिए मेरे जैसे आलोचक गुलज़ार के लिखे के आगे छोटे पड़ जाते हैं. मैं इस बात से काफ़ी हद तक सहमत भी हूँ. और शायद गुलज़ार के अथाह प्रेमियों के मौजूद होने के बावजूद उनपर एक अच्छी आलोचना पुस्तक का अभाव भी इसी ओर इशारा करता है. लेकिन इतने से बात नहीं बनती. कहीं कुछ और भी है जो मेरी आलोचना की सीधी पद्धति को चुनौती देता है. आप भी जानते हैं कि जब चीज़ें व्यक्तिगत होने लगती हैं तो आलोचनात्मक नज़रिया और ऑब्जेक्टिविटी जवाब देने लगते हैं. गुलज़ार मेरे जीवन में (शायद हम सब के जीवन में) एक बहुत व्यक्तिगत जगह रखते हैं. उनके कुछ गीत मेरे बचपन का हिस्सा हैं, कुछ लड़कपन का, कुछ जवानी का. और मैं ये मानता हूँ कि ये मेरी व्यक्तिगत सच्चाई भर नहीं, मेरे दौर में बड़े होते एक समूह की हकीक़त है. हमने कुछ खुशनुमा शामें बिताई हैं गुलज़ार के गीतों में डूबे हुए किसी दोस्त के साथ और उन फिर अकेली रातों में भी तो गुलज़ार का लिखा ही आ जाता था साथ देने हमेशा. मैं मानता हूँ कि गुलज़ार को जानने का रास्ता केवल उनकी अकादमिक आलोचना से नहीं, उनके चाहनेवालों से होकर जाता है. और जब आलोचना के आज़माये हुए टूल मुझे पूरे ना जान पड़ें तो मुझे उन चाहनेवालों से कुछ मदद चाहिये जिनके लिए गुलज़ार कुछ ख़ास हैं. मुझे आपके अनुभव चाहियें. कुछ नितान्त निजी टिप्पणियाँ, कुछ सार्वजनिक बयान. मैं अपने लेख को कुछ अलग शक्ल देना चाहता हूँ. शायद आपका लिखा मेरे काम आए. शायद यहीँ से गुलज़ार का पता मिल पाए. प्लान कुछ यूँ है... आप गुलज़ार का कोई एक गीत छाँट लें. उनका लिखा कोई भी एक गीत जिसके बारे में आपके पास कहने को कुछ हो. कुछ ख़ास हो तो और बेहतर. और वो ’ख़ास’ कुछ भी हो सकता है. आपका उस गीत से रिश्ता कैसे बना या क्यों वो गीत आपको सबसे ज़्यादा पसन्द है? क्या उस गीत में आप कोई ऐसी बात देख पाते हैं जिसे आप औरों को बताना चाह्ते हैं. आप सिर्फ़ 250 शब्द लिख दें सीधा उस गीत के बारे में. ये 250 शब्द की टिप्पणी घोर सामाजिक टिप्पणी हो सकती है या आपका नितान्त व्यक्तिगत बयान. सिर्फ़ दो पैरा की एक सघन/गरिष्ठ टिप्पणी यह कहते हुए कि वो गीत आपको क्यों पसन्द है? आखिर उस गीत में ऐसा क्या है. कुछ दोस्त जिनसे मैंने इस बारे में बात की है उन्हें विचार पसन्द आया और वो अपनी पसन्द के गीत पर लिखने भी लगे हैं. हो सकता है एक गीत पर बहुत से लोगों को कुछ कहना हो. ऐसे में भी बातें आने दें. दो से भले चार होते हैं. विचार पसन्द आये तो एक से ज़्यादा गीतों पर भी अलग-अलग लिख सकते हैं. याद रखें हमें गुलज़ार पर नहीं सीधे गीत पर बात करनी है. गुलज़ार पर अपने आप बात हो जाएगी. गुलज़ार ही हमारे बीच का एक-तार हैं. मैं उसे ही छेड़ने की कोशिश कर रहा हूँ. चाहता हूँ ये अनुभव/विचार बाँटने का सिलसिला यहाँ से शुरु हो तो चाँद के पार तक जाए... इस बातचीत को दीवान पर ही आगे बढ़ने दें. आदान-प्रदान का ये खुला मंच एकदम गुलज़ाराना है. गीत के लिए मुझे नाम लेने की ज़रूरत तो नहीं है फिर भी... मेरा कुछ सामान... बीड़ी जलाइले जिगर से पिया... खाली हाथ शाम आई है... मोरा गोरा अंग लेई ले... तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं... तुम आ गये हो नूर आ गया है... ऎ ज़िन्दगी गले लगा ले... कज़रारे... नमक इश्क का... चप्पा चप्पा चरखा चले... एक अकेला इस शहर में... आजा गुफाओं में आ... आनेवाला पल जानेवाला है... बोल ना हल्के ह्ल्के... झिन मिन झिनी... मैं इन टिप्पणियों को पिरोते हुए एक रास्ता बनाने की कोशिश करूँगा जिससे गुलज़ार तक पहुँचा जा सके. शायद कई बार बहुत पास होना भी समझने के लिहाज से बाधा बन जाता है. ...मिहिर. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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