From ravikant at sarai.net Mon Mar 2 14:23:05 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Mar 2009 14:23:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSJ?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSm4KWCIOCkleCkviDgpKrgpJXgpY3gpLc=?= Message-ID: <200903021423.06068.ravikant@sarai.net> Date: शनिवार 28 फरवरी 2009 15:04 From: brajesh kumar jha *इस लेख को पढ़ नजीर अकबराबादी* तत्काल याद आ गए। *कलियुग* पर लिखी उनकी चार पंक्तियां यूं हैं- अपने नफ़ेके वास्ते मत और का नुक़सान कर। तेरा भी नुक़सां होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर। खाना जो खा तो देखकर, पानी जो पी तो छानकर। यां पांव को रख फूंककर और खौफ़ से गुज़रान कर। कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले। क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।। On 2/27/09, Ravikant wrote: > नामवर जी ने द पब्लिक एजेण्डा(वार्षिक अंक, 4 मार्च 2009) नामक एक नई-सी > प From vineetdu at gmail.com Mon Mar 2 16:15:03 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 2 Mar 2009 16:15:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS+4KS54KSw?= =?utf-8?b?4KWB4KSWIOCkleClgCDgpI/gpILgpJzgpL/gpLLgpY3gpLgg4KSV4KS+?= =?utf-8?b?IOCkteCliyDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KSV4KSwIOCksuClh+CkguCklw==?= =?utf-8?b?4KWH?= Message-ID: <829019b0903020245l78479321sa79c90d5091888e5@mail.gmail.com> टेलीविजन पर होनेवाले लटके-झटके को देखकर और अक्सर बिना देखे ही कोसनेवालों की कमी नहीं है। लेकिन उस लड़की ने अपने नाचने के पीछे के मकसद को बताया तो इस लटके-झटके का एक नया अर्थ निकलकर सामने आया। उसका कहना था कि हमारे नाचने से खिलाडियों में जोश आता है, हम उनमें उत्साह भरना चाहते हैं। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक दूसरी लड़की ने कहा- हमारे नाचने से कई बार खिलाड़ी चौके,छक्के भी मारते हैं। खिलाड़ियों को हमारी जरुरत तब सबसे ज्यादा होती है जब वो थोड़े परेशान होते हैं, चीयर लीडर्स के रुप में ये लड़कियां इससे उबारने का काम करती हैं। इस नाचने में नए अर्थ के खुलने से विनोज दुआ की उस बात में बहुत दम नहीं रह जाता जो कि उन्होंने मुहावरे के तौर पर स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर हिन्दुस्तानी जश्न के बारे में कहा था कि- आखिर हम भारतीय नाच-नाचकर इतना परेशान क्यों हैं। इसका जबाब मुझे कामेडी सर्कस में एक प्रतिभागी के मसखरई में मिलता है जिस पर चंकी पांडे ठहाके लगाते हुए उलटने-पलटने लग जाते हैं। एक गुजराती के घर क सांप निकला और वो पार्टी मनाने लगा। मतलब ये कि गुजराती को पार्टी मनाने के लिए बहानों की कमी नहीं है। इसे आप ये भी समझ सकते हैं कि गुजराती इतने सम्पन्न होते हैं कि बात-बेबात पार्टी मनने के लिए तैयार होते हैं। तो क्या हम ये मानकर चलें कि हिन्दुस्तान इतना सम्पन्न होते जा रहा है कि वो बात-बेबात पार्टी मनाने और नाच-नाचकर थक जाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यहां हम हिन्दुस्तानियों की समझ के बारे में कोई बात नहीं कर रहे। टेलीविजन में अभी ये दौर तेजी से पनप रहा है जिसके तहत जो चीजें बकवास,फालतू,टाइमपास और लीजर पीरियड के लिए मानी जाती रही है, उसे एक शेप दिया जाए, उसे स्क्रीन पर उतारा जाए। इससे होता ये है कि ऑफिस में कीपैड घिसते हुए, बच्चों औऱ पतियों के बीच जीवन हलाल करती हुई फीमेल ऑडिएंस इससे तेजी से जुड़े। इसलिए आप देखेंगे कि टेलीविजन में लगी पूंजी का एक बड़ा हिस्सा डोमेस्टिक इवेंट या फिर टाइमपास कारनामों को बतौर प्रोग्राम की शक्ल देकर तैयार करने में लगाया जा रहा है। इस लिहाज से जो चीजें डोमेस्टिक नहीं है, उसे सबसे पहले डोमेस्टिक टच दिया जाना जरुरी समझा जाता है। आइपीएल की शुरुआत के साथ ही हिन्दुस्तान में चीयर लीडर्स का कॉन्सेप्ट शुरु हुआ। इसके पहले भी किसी इवेंट के शुरु होने के पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता रहा है। लेकिन कॉन्सेप्ट वेस्ड होकर डांस कराने का रिवाज भारत के लि नई चीज रही। छोटी-छोटी स्कर्ट पहने, हाथ में रंग-बिरंगे प्लासटिक की रिबनों के झूमर लिए जब चैन्नई, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में लड़कियों ने परफार्म( नाचना) शुरु किया तो एकबारगी ऐसा लगा कि क्या हिन्दुस्तान में भी आम दर्शकों के लिए ये सबकुछ मयस्सर है। ऐसे मौके पर दिल्ली या मुंबई मेट्रो न होकर एक खिचड़ी प्रदेश हो जाता है क्योंकि इसमें सिर्फ मेट्रों की शर्तों की भीड़ नहीं होती। अंधेरे में लाल-पीली रोशनियों के बीच इस तरह से लड़कियों का नाचना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन यही सब कुछ आम दर्शकों के लिए भी मुहैया हो गया औऱ एक्सक्लुसिवनेस टूटा तो जमकर विरोध शुरु होने लगे। लोगों ने हमेशा की तरह इसे संस्कृति का खतरा बताया, अपसंस्कृति का हिस्सा बताया, देश को नष्ट होने औऱ भ्रष्ट होने की बात की। इसमें मजेदार बात हुई कि जो क्रिकेट प्रेमी भी रहे वो भी चीयर लीडर्स के विरोध में अपने बयान देने लगे। जिस क्रिकेट में इंडियननेस पैदा करने औऱ दिखाने की मुहिम चली उसी के बीच से पाश्चात्य संस्कृति का लगाकर फिर से विरोध शुरु होने लगे। आइपीएल की सफलता शाहरुख की एंजिल्स का वो क्या कर लेंगे औऱ इसकी राजनीति में न भी जाएं तो इतना साफ है कि देश की ऑडिएंस ने चीयर लीडर्स कॉन्सेप्ट को नहीं सराहा। इस चीयर लीडर्स विरोधी ऑडिएंस के बीच में एनडीटीवी इमैजिन ने पिछले शनिवार( रात दस बजे) से नाइट्स एंड एंजिल्सनाम से रियलिटी शो की शुरुआत की है। इसमें शाहरुख की टीम नाइट राइडर्स के लिए चीयर लीडर्स की तलाश होगी, उसे चुना जाएगा। देशभर से चौबीस लड़कियों को चुना गया है। सबों को छह-छह की ग्रुप में लाल, हरा, नीला और पीला रंग टीम के रुप में अलग किया गया है। जज के तौर पर सौरभ गांगुली, अनुष्का शर्मा( जिससे होता है हौले-हौले प्यार) और थर्ड एम्पायर जज के तौर पर मुरली कार्तिक की बहाली हुई है। ये जज कई तरह के सवाल करते हैं, कमेंट देते हैं। सवाल पूछते हैं कि- आप जब चीयर लीडर्स के लिए आ रही थीं तो आपके फादर ने आपको कुछ नहीं कहा। मध्य वर्ग से आई लड़की ने जबाब दिया नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मैं अपने ममा-पापा की शुरु से चीयर लीडर्स रही हूं, अब वो चाहते हैं कि मैं देश की चीयर लीडर बनूं। गजब का कॉन्फीडेंस, गजब का खुलापन दिखा। उन अंध संस्कृतिवादियों पर झन्नाटेदार तमाचा कि लो देखो। न देश की स्त्रियों के सम्मान में कुछ बट्टा लग रहा है औऱ न ही उनके गार्जियनों की नाक कट रही है। एकदम मुहावरा फिट है- जब मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। इसे आप टेलीविजन का असर है कहें, ये शाहरुख खान का असर है कहें, जो मन में आए कहें. लेकिन टेलीविजन किसी भी चीज को कैसे डोमेस्टिक बनाता है, उसे तो आप बेहतर महसूस कर ही रहे हैं। इसे कहते हैं हो-हंगामें का टेलीविजन वर्जन जहां आते ही सबकुछ मनोरंजन का हिस्सा बन जाता है। आखिर हम और आप जैसे संस्कृति विमर्श करनेवाले लोग भी तो देख ही रहे हैं न सबकुछ। अभी तो वोटिंग लाइन भी खुलनी बाकी है, तब और साफ हो जाएगा कि संस्कृति बचानेवाले जो लोग उपद्रव कर रहे हैं वो किससे के लिए कर रहे हैं, उन्हें खुद ही पता नहीं है। इसे बेमतलब की हुज्जत और बदलाव जल्द ही करार दिया जाएगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090302/18e65169/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Mar 2 16:22:41 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 2 Mar 2009 16:22:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 132, Issue 1 In-Reply-To: References: Message-ID: <196167b80903020252t3f9b16bag65c5c36bcd08f588@mail.gmail.com> पेट की आग को आंसू से बुझाया न करो ये कतरे खून के हैं इनको यूं जाया न करो अगर होता है ज़ुल्म-ओ-ज़ोर तो लड़ना सीखो सिर कटाया न करो गरचे झुकाया न करो फिजा यहाँ की सुना है बड़ी बारुदी है बातों बातों में अग्निबान चलाया न करो गिरे आंसू तो कई राज़ छलक जायेंगे अपनी आंखों को सरे आम भिगाया न करो लोग कहने लगें कि "आप तो गऊ हैं मियां" करो वादे मगर इतने भी निभाया न करो एक बस्ती है जहाँ पर सभी फ़रिश्ते हैं तुम हो इंसान देखो उस तरफ़ जाया न करो ----- नीलाम्बुज (http://ashishanshu.blogspot.com) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090302/42aef3e6/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Mar 4 18:21:13 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 4 Mar 2009 18:21:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTogW09U?= =?utf-8?b?XSBSZTogRndkOiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSuIOCkr+CkviDgpKvgpYHgpLIg4KS44KWN4KSf4KWJ4KSq?= Message-ID: <200903041821.14229.ravikant@sarai.net> Subject: Re: [दीवान][OT] Re: Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप Date: मंगलवार 03 मार्च 2009 13:47 From: vibhas verma To: ravikant at sarai.net is bahas me kuchh jodne ki koshish nahi kar raha. bas ek baat ki or dhyan dila raha hun ki 'shreshth'  ke sath 'tar '  to laga karta hai.hindi ke kuchh bade vidwan 'tam' lagane se parhej karte hain kyonki shreshth swyam superlative hai. Dr. Nagendra ne shreshthatam ki jagah 'sarvshreshth ' likhne ki wakaalat kee hai. unhone waise kisi ko ashuddh nahi mana hai. Vibhas 2009/2/26 Ravikant > मसिजीवी महोदय, > > बहुत बहुत शुक्रिया कि न केवल इस बात को आगे ले जाकर हमें शब्द के अन्य > भाष्यों से मिलवाया, और कुछ सारगर्हित टिप्पणियों को दीवान तक खींच लाए. मैं > पहले भी अजित साहब को पढ़कर लाभान्वित होता रहा हूँ. आपके मार्फ़त अभय तिवारी > का भी शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ, कि उन्होंने कुछ और कोष खंगाले. > > रही बात तरतमता की तो दो-एक छोटी-छोटी बातें मुझे कहनी हैँ और जानना भी चाहता > हूँ, कि बात अजित जी के गले क्यों नहीं उतरती. अगर व्याकरण-सम्मत न होना - कि > दो प्रत्यय जोड़कर एक तीसरा विशेषण नहीं बनाया जा सकता - इसका एकमात्र कारण है > तो मैं  ज़्यादा परवाह नहीं करता, क्योंकि अपवाद के रूप में ही सही पर कोई भी > ज़बान बदचलनी से ही पनपती है, भले ही उसकी रीढ़ एक ख़ास लीक पर क़ायम रहे. > दूसरी बात ये व्याकरण अगर संस्कृत व्याकरण के चलते अगर ऐसा है, तो हमें > किशोरीदास वाजपेयी आदि के साथ बैठकर सोचना पड़ेगा कि हिन्दी व्याकरण अलग कहाँ > है. तीसरी बात, हम  जानते हैं अजित साहब कि तारतम्य का उच्चारण ही नहीं वह > अर्थ भी हिन्दी में कतई प्रचलित नहीं, जिसके लिए हम इसको ग्रहण करना चाहते > हैं. इसलिए हम तारतम्य को बग़ैर पुनर्परिभाषित किए नहीं चला सकते, और इसके > चलने में शायद मुश्किलें आएँ. इन सब कारणों से ही बेलीक चलते हुए तरतमता हम > चलाना चाहते हैं, बग़ैर इस बात में गए हुए कि मराठी या हिन्दी में वैसे भी > अल्प-प्रचलित तरतम के क्या मायने हैं. अगर अजित जी समझते हैं  इसकी जड़ में > कुछ-कुछ अर्थछटाओं का आभास है तो बल्ले-बल्ले! मुख़्तसर में, आप और मैं अपनी > सहजबुद्धि औरर अजित जी अपने पांडित्यपूर्ण तर्कों के सहारे अगर इस >  लफ़्ज. के पक्ष में हैं तो बहुत बढ़िया बात है! अगर नहीं भी तो कोई प़र्क़ > नहीं पड़ता क्योंकि भाषाओं में शब्दग्रहण की प्रक्रिया हमारे-आपके बस की बात > नहीं, इसे चलना होगा तो अपने बल-बूते चलेगा नहीं तो हम सोपानुक्रम और न जाने > क्या-क्या झेलते रहेंगे. > > हमारी भी कोशिश होगी कि ऐसी शब्द चर्चाएँ थोड़ी बेहतर बारंबारता और ऐसी ही > बेहतरीन साफ़गोई से होती रहें, यहाँ भी. > > शुक्रिया > रविकान्त > > सोमवार 23 फरवरी 2009 14:13 को, आपने लिखा था: > > मित्रगण, > > इसी संदर्भ में अभय तिवारी की टिप्‍पणी > > भी अहम है जो इस पोस्‍ट पर ब्‍लॉग पर आई। खेद है कि टिप्‍पणी अ्रगेजी में है > > तथा इसे अनुवाद नंही कर पाया हूँ.. > > > > one finds the word behtar in farsi-hindi dictionary published by iran > > culture house.. beh and tar both pretty well established prefix and > > suffix in farsi, behtar very well be a farsi word. but it does not > > establish that better is borrowed in english from persian word behter. > > here is the entry for better in online etymological dictionary. > > > > better > > O.E. betera (see best). Comparative adj. of good in the older Gmc. > > languages (cf. O.N. betr, Dan. bedre, Ger. besser, Goth. batiza). > > Superseded bet in the adv. sense by 1600. Better half "wife" is first > > attested 1580; to get the better of (someone) is from 1461. > > > > does it make any sense? > > > > after all both persian and english have common root in proto indo > > european language. > > still if one refuses to see reason, then what about best. does it sound > > like borrowed from behtarin? > > the entry for best in etymological dictionary: > > > > best > > O.E., reduced by assimilation of -t- from earlier O.E. betst, originally > > superlative of bot "remedy, reparation," the root word now only surviving > > in to boot, though its comparative, better, and superlative, best, > > transferred to good (and in some cases well). From P.Gmc. root *bat-, > > with comp. *batizon and superl. *batistaz. The verb "to get the better > > of" is from 1863. Best-seller is from 1889; best friend was in Chaucer > > (c.1374). Best girl is first attested 1887 in a Texas context; best man > > is 1814, originally Scottish, replacing groomsman. > > > > > > sorry for writing this comment in english. took the libery because the > > issue here concerns english too. and i seem to be making a point in > > favour of english, completely unintentional of course. the idea is to get > > the right picture. > > > > > > > > 2009/2/23 Vijender chauhan > > > > > इस बेहतर व तरतमता को जब हम  ब्‍लॉगजगत में ले > > > गएतो अजीत साहब > > > की शानदार पोस्‍ट > > > आई हम वहॉं > > > से जस का तस साभार पेश कर रहे हैं- > > > > > > *शुक्रवार को** > > > मसिजीवी **ने** > > > दीवान > > > **पर एक चर्चासूत्र (थ्रेड) देखा तो उस पर सार्थक पोस्ट लिखी मगर साथ ही > > > साथ चर्चासूत्र का एक सिरा हमारी और तैरा दिया जो देर शाम हमें अपनी > > > नेटझोली में मिला और संदर्भित पोस्ट हम देर रात घर पहुंचने पर ही पढ़ पाए। > > > भाषा पर ऐसे विमर्श चलते रहना चाहिए**, **इसीलिए विजेन्द्रभाई के आग्रह पर > > > हम भी कुछ गप-शप कर लेते हैं।* > > > > > >  निश्चित ही अच्छा की विशेषण अवस्थाओं को अगर देखें तो विशेषण की > > > मूलावस्था, उत्तरावस्था और उत्तमावस्था के जो रूप बनेंगे वे अच्छा-बहुत > > > अच्छा-सबसे अच्छा होंगे। श्रेष्ठ शब्द पर इसकी आजमाइश करें तो *श्रेष्ठ** > > > **> **श्रेष्ठतर** **> ** श्रेष्ठतम* जैसे रूप बनेगे। इनकी तुलना में > > > हिन्दी में अच्छाई के विशेषण रूपों में बेहतर और बेहतरीन शब्दों का > > > इस्तेमाल ज्यादा होता है। सवाल है कि बेहतर और बेहतरीन तो दो ही रूप हुए। > > > इसका पहला रूप क्या है ? अच्छा शब्द की विशेषण अवस्थाएं बताने के लिए उसके > > > आगे बहुत (अच्छा) और सबसे (अच्छा) जैसे उपसर्ग-विशेषण लगाने पड़ते हैं > > > जबकि व्याकरण सम्मत प्रत्ययों की सहायता से बनें विशेषणों का प्रयोग करने > > > से न सिर्फ भाषा में लालित्य बढ़ता है बल्कि उसमें प्रवाह भी आता है। > > > > > > *बे*ह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और हिन्दी में इसकी आमद फारसी से > > > हुई है। बेह का मतलब होता है बढ़िया, भला, अच्छा आदि। बेह की व्युत्पत्ति > > > संस्कृत शब्द *भद्र* bhadra से मानी जाती है जिसका मतलब, शालीन, भला, > > > मंगलकारी आदि होता है। फारसी में इसका रूप बेह हुआ। अंग्रेजी में गुड good > > > के सुपरलेटिव ग्रेड(second) वाला *बेटर* better अक्सर हिन्दी-फारसी के > > > *बेहतर* का ध्वन्यात्मक और अर्थात्मक > > > प्रतिरूप > >A1 > > > 44&dq=beh%2Btar+arabic&source=web&ots=6Icy0v0pLp&sig=MxbEba1bzwd0-YNDaz > > >Frg > > > Y61nQg&hl=en&ei=vceeSZ3gCpHItQOv-qzdCQ&sa=X&oi=book_result&resnum=1&ct= > > >res ult> लगता है। इसी तरह*बेस्ट* best को भी फारसी बेहस्त beh ast पर > > > आधारित माना जाता है। अंग्रेज विद्वानों का मानना है कि ये अंग्रेजी पर > > > फारसी, प्रकारांतर से इंडो-ईरानी > > > प्रभाव > >20 06-01/msg01079.html> की वजह से ही है। यूं बैटर-बेस्ट को प्राचीन जर्मन > > > लोकशैली ट्यूटानिकका असर माना जाता > > > है जिसमें इन शब्दों के क्रमशः बेट bat (better) और battist (best) रूप > > > मिलते हैं।*ट्यू*टानिक में भद्र का रूप *भट* bhat होते हुए bat में बदला। > > > यह प्रभाव कब अंग्रेजी में सर्वप्रिय हुआ, कहना मुश्किल है मगर यह > > > इंडो-ईरानी असर ही है। किसी ज़माने में सुपरलेटिव ग्रेड के लिए अंग्रेजी > > > में* गुड** **> **गुडर** **> **गुडेस्ट* (good, gooder, goodest) चलता > > > होगा इसका प्रमाण अमेरिकी अंग्रेजी की लोक > > > शैली > >&d > > > q=good+gooder+goodest+old+english&source=web&ots=yO7kaxY_wv&sig=xWZG9bZ > > >V_z > > > gUbCrnHNp0EF2SED0&hl=en&ei=xuGeScqtLIKEsAONv_zGCQ&sa=X&oi=book_result&r > > >esn um=1&ct=result> में मिलता है जहां ये रूप इस्तेमाल होते हैं। जाहिर है > > > कि मूल यूरोप से आई अंग्रेजी ने यह प्रभाव अमेरिकी धरती पर तो ग्रहण नहीं > > > किया होगा क्योंकि अगर ऐसा होता, तो प्रचलित अंग्रेजी में ये प्रयोग आम > > > होते। निश्चित ही ट्यूटानिक प्रभाव से अछूते रहे चंद यूरोपीय भाषाभाषियों > > > के जत्थे भी अमेरिका पहुंचे होंगे जो गुड > गुडर > गुडेस्ट कहते होंगे। > > > *बेह* से विशेषण की तीनों अवस्थाएं यूं बनती हैः *बेह** **> **बेहतर** **> > > > **बेहतरीन।* > > > > > > *गौ*रतलब है कि विशेषण अपनी मूलावस्था में अपरिवर्तनीय होता है। उसकी शेष > > > दो अवस्थाओं के लिए ही प्रत्ययों का प्रयोग होता है। बेहतर में जो > > > *तर*प्रत्यय है उसे कई लोग फारसी का समझते हैं जो मूलतः संस्कृत का ही है, > > > मगर उत्तमावस्था के लिए वहां एक अलग प्रत्यय *ईन* (तरीन) बना लिया गया। यह > > > प्रक्रिया अन्य विशेषणों के साथ भी चलती है जैसे बद > बदतर > बदतरीन , खूब > > > > खूबतर > खूबतरीन, बुजुर्ग > बुजुर्गतर > बुजुर्गतरीन वगैरह। तर और तम > > > दोनो प्रत्यय संस्कृत के हैं और विशेषण के सुपरलेटिव ग्रेड superlative > > > grade में इस्तेमाल होते हैं, जिन्हें हिन्दी में उत्तरअवस्था और > > > उत्तमअवस्था कहा जाता है। गौर करें कि *उत्तर* से ही बना है *तर्* प्रत्यय > > > और*उत्तम* से बना है * तम्* प्रत्यय। यह हिन्दी की वैज्ञानिकता है कि किसी > > > भी विशेषण की उत्तरावस्था/उत्तमावस्था बनाने के लिए उसके साथ तर/तम लगाना > > > इस तरह याद रहता है। ज़रा देखें- उच्च > उच्चतर > उच्चतम। गुरु > गुरुतर > > > > गुरुतम। महान > महत्तर > महत्तम। लघु > लघुतर > लघुत्तम आदि। > > > > > > *र*विकांतजी द्वारा *तरतम* या *तरतमता* के संदर्भ में कही गई बात गले नहीं > > > उतरती।  स्वतंत्र रूप से *तर्* और *तम्*प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं है। > > > यूं भी मूल शब्द में प्रत्यय लगने से नई शब्दावली बनती है, दो प्रत्ययों > > > के मेल से कभी शब्द नहीं बनता। तब इनके मेल से बने तरतम और *ता* प्रत्यय > > > लगने से इसके विशेषणरूप तरतमता का भी कोई अर्थ कैसे निकल सकता है, जबकि वे > > > इसका अर्थ हायरार्की बता रहे हैं। जाहिर है गड़बड़ हो रही है। *तरतम* बेशक > > > हिन्दी की मैथिली और मराठी भाषाओं में उपयोग होता है मगर यह तद्भव रूप में > > > ही होता है जो कि लोकशैली का खास गुण है। सीधे-सीधे हिन्दी क्षेत्रों से > > > जुड़े लोगों को मैने विरले ही इस शब्द का प्रयोग करते सुना है। खासतौर पर > > > पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान में > > > जहां मैं रहा हूं और इसका प्रयोग नहीं सुना। अलबत्ता इसके तत्सम रूप > > > *तारतम्यम्* पर गौर करें तो पाएंगे कि इसका हिन्दी रूप *तारतम्य* खूब बोला > > > जाता है और वहां इसका उच्चारण इंच मात्र भी *तरतम* की ओर खिसकता सुनाई > > > नहीं पड़ता। आप्टेकोश के मुताबिक तारतम्यम् शब्द तरतम+ष्यञ्च के मेल से > > > बना है। स्पष्ट है कि संस्कृत में * तरतम* धातुरूप में पहले से मौजूद है > > > जिसमें क्रमांकन, अनुपात, सापेक्ष महत्व, अन्तर-भेद जैसे भाव हैं जो > > > हिन्दी के पदानुक्रम जैसे सीमित भाव की तुलना में कहीं व्यापक अर्थवत्ता > > > रखता है। अपन को व्याकरण का ज्यादा ज्ञान नहीं है। शायद अपनी बात कुछ कह > > >  पाया हूं, कुछ नहीं > > > > > > > > > 2009/2/19 Ravikant > > > > > >> विक्रम कृष्णा साहब, > > >> > > >> बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब > > >> के उर्दू-हिन्दी कोश में > > >> नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे > > >> हिन्दी-उर्दू दोनों में धड़ल्ले से चलता है। > > >> वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, > > >> और बदतरीन भी। > > >> > > >> तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते > > >> हैँ: तरतमता - जो > > >> अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर > > >> इसी फ़ारसी+संस्कृत > > >> परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही > > >> दोनों में ता लगाकर विशेषण > > >>  बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से > > >> श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम > > >> आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से > > >> चढ़ता है, और इस > > >> ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और > > >> बात साफ़! > > >> > > >> रविकान्त > > >> > > >> पुनश्च: आपने ज़ाक़ राँसिएर पर और सामग्री माँगी थी, अगली डाक में भेज > > >> रहा हूँ. > > >> > > >> रविकान्त > > >> > > >> बुधवार 18 फरवरी 2009 21:15 को, Vickram Crishna ने लिखा था: > > >> > 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? > > >> > > > >> > मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी > > >> > > >> शब्द > > >> > > >> > 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले > > >> > अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| > > >> > > > >> >  Vickram > > >> > http://communicall.wordpress.com > > >> > http://primevalues.wordpress.com > > >> > > > >> > > > >> > > > >> > > > >> > ________________________________ > > >> > From: ved prakash > > >> > To: ravikant at sarai.net > > >> > Cc: deewan at sarai.net > > >> > Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 > > >> > Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप > > >> > > > >> > > > >> > प्रिय मित्र, > > >> > > > >> > विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. > > >> > > >> _______________________________________________ > > >> Deewan mailing list > > >> Deewan at mail.sarai.net > > >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ------------------------------------------------------- From farzana.sultana12 at gmail.com Wed Mar 4 18:39:38 2009 From: farzana.sultana12 at gmail.com (farzana sultana) Date: Wed, 4 Mar 2009 18:39:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSq4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClieCksuCli+CkqOClgCwg4KSo4KSIIOCkpuCkv+CksuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWALTI=?= Message-ID: <720673f0903040509tf1a300bh9ea9d4713add6929@mail.gmail.com> साथी, http://j-p-colony.blogspot.com/ नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच में बसी है एलएनजेपी कॉलोनी। यह कॉलोनी सन 1975 से आज तक अपना वज़ूद शहर के बीचों-बीच अपना वज़ूद मे बनाये हुए है। शहर मे एक और श्रमिक बसेरे को उजाड़े जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। आजकल यहाँ एमसीडी का सर्वे चल रहा है। ये ब्लॉग एक तमाशबीन की नज़र से नहीं बल्कि पिछले 25 साल में बने उन रिश्तों की बुनियाद पर उभरता है। इसमे अपनेपन के अनगिनत अहसास जुड़े हैं। हम सभी जेपी कॉलोनी, नई दिल्ली-2 से जुड़े हैं और आपको भी इसमें शामिल होने की जगह देते हैं। फरज़ाना -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090304/d29e947f/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Mar 4 22:30:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 4 Mar 2009 22:30:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOClgOCksOCkv+Ckr+CksuCli+CkgiDgpK7gpYfgpIIg4KSc4KSc?= =?utf-8?b?4KWN4KS84KSs4KS+4KSkIOCkleClhyDgpKzgpKbgpLLgpKTgpYcg4KSw?= =?utf-8?b?4KSC4KSX?= Message-ID: <829019b0903040900u3949cfd7h3df0c62d02a1d49d@mail.gmail.com> मूलतः नया ज्ञानोदय,मार्च में प्रकाशित लम्बे समय से टेलीविजन को इडियट बॉक्स या फिर बुद्धू बक्सा के रुप में बदनाम कर रहे टीवी सीरियल्स अब इसकी छवि को सुधारने में जुटे हैं। पिछले सात-आठ महीनों में नए सीरियलों की खेप पर गौर करें तो ऑडिएंस के प्रति जिम्मेवारी औऱ सामाजिक संदर्भ के मामले में निजी मनोरंजन चैनल्स दूरदर्शन से भी कहीं आगे निकलते नजर आ रहे हैं। इस बीच कुछ पुराने अखबारों की कतरने हाथ लग जाए जिसमें दूरदर्शन से जुड़ी खबरें प्रकाशित की गयी हैं तो आपका भरोसा और मजबूत हो जाएगा। आपको अंदाजा लग जाएगा कि स्वस्थ मनोरंजन औऱ सामाजिक जागरुकता के नाम पर दूरदर्शन ने भी कभी काफी कुछ वो कार्यक्रम दिखाए,जो किसी भी लिहाज से ऑडिएंस के लिए जरुरी नहीं थे। यह जानते हुए कि यह अंतहीन और अतार्किक कहानी है औऱ इसका कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है। महज अपने घाटे की भारपाई के लिए शांति और स्वाभिमान जैसे सीरियल्स लंबे समय तक प्रसारित किए.( शांति से प्रतिदिन पचास हजार से एक लाख और स्वाभिमान से तीन लाख रुपये मिलते रहे और दूरदर्शन ने इसे जारी रखा।Lengthy DD soaps shouldn't bore viewers'PRESS TRUST OF INDIA, Saturday, February 27, 1999)। सामाजिक सरोकार तो दूर इसने ऑडिएंस की अभिरुचि को भी ताक पर रखकर इसे प्रसारित किया। इस बीच ऑडिएंस मनोरंजन के नाम पर या तो बोर होती रही या फिर वो सब कुछ भी देखती रही जिसे दिखाने के खिलाफ स्वयं दूरदर्शन रहा है। दूरदर्शन के मुकाबले निजी मनोरंजन चैनल्स के सीरियल ज्यादा रोचक और अर्थपूर्ण जान पड़ते हैं। पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- नया ज्ञानोदय मार्च 08.पेज न. 56-59 तक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090304/d360fd24/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Mar 5 01:15:10 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 5 Mar 2009 01:15:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSr4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkuOCkq+CksOClgCDgpLjgpYLgpJ/gpJXgpYfgpLg=?= Message-ID: <6a32f8f0903041145g30fbdf93n34eab8986bbcdadf@mail.gmail.com> *सफर का सफरी सूटकेस* * * हाल ही में सफर (गैरसरकारी संस्था) ने राजधानी के दो-तीन जगहों पर *इंडिया अनट्च्ड* (लघु फिल्म) का पुनः प्रदर्शन किया। इसकी जानकारी मेरे पास थी। हालांकि स्टालिन की करीब दो घंटे की इस फिल्म को मैं कई बार देख चुका हूं। यह देश में व्याप्त छुआछूत और जाति प्रथा पर बनी है। इसे स्टालिन अपनी नजर से देखते हैं। हालांकि, बार-बार देखने के बावजूद यकीन नहीं होता कि अब भी यही पूरा सच है। इसे लेकर एक झीन सा परदा अब भी मेरे मन में है। खैर, यह अलग मसला है। सफर बहस-मुबाहिसों को आगे बढ़ाने के लिए जो काम कर रहा है, वह मेरे निजी ख्याल से ज्यादा अहमियत रखता है। जामिया मिलिया में फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान कई छात्र मौजूद थे। इससे पहले यह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में भी दिखाई गई थी। फिल्म पर छात्रों ने जमकर बातचीत की। यहां सफर ने विचार पैदा करने व बहस करने की संभ्रांतों की जागीर अब छात्रों व बज्र देहात में जीवन काट रहे लोगों में फैलाने का सिलसिला शुरू किया है, वह काबिलेगौर है। इससे पहले भी सफर रविन्द्र भवन में होने वाली घिसीपिटी साहित्यिक गोष्ठियों से अलग एक नई तान दे चुका है। इसका एक मंजर तब दिखा जब, वजीराबाद गांव के सफर के दफ्तर में राजेंद्र यादव अपनी लघु कहानी का पाठ कर रहे थे। इसी तरह की हलचल पैदा करने वाली कुछ-एक बातें सफर के नाम नत्थी हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090305/be48515f/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Thu Mar 5 15:44:36 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 5 Mar 2009 02:14:36 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWC4KSi4KS8?= =?utf-8?b?4KSV4KWA4KSyIOCkr+CkviDgpJfgpYHgpKHgpLzgpJXgpL/gpLLgpY3gpLI=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOCkqOCkvuCkriDgpKrgpL7gpLjgpLXgpLDgpY3gpKE=?= Message-ID: <13603.76039.qm@web52908.mail.re2.yahoo.com> गूढ़कील या गुड़किल्ली बनाम पासवर्ड मैथिली फ़्यूल में कुछ बातें काफी खास रही थी.... वहाँ उपस्थित भाषाविदों व लेखकों, जिसमें गोविंद झा, अजय कु. झा, रामानंद झा रमण, मोहन भारद्वाज और रधुवीर मोची जैसे कई जाने-माने लोग उपस्थित थे - लगभग पूरे दो दिनों तक चले कार्यक्रम में - ने फ़ॉन्ट के लिए काँटा शब्द चुना...उनका कहना था कि यह शब्द काफी आम है और हम जब कंप्यूटर के जरिए प्रिंटिंग नहीं होती थी तब जब हरेक अक्षर को खुद बारी-बारी से खाँचे में बैठाना पड़ता था तो उस अक्षर को काँटा कहा जाता था. और उस समय लोग यह बोलते थे कि फलाँ काँटा काफी बढ़िया है तो फलाँ काफी खराब. उसी तरह उनलोगों ने कूटशब्द के लिए मैथिली में गुड़किल्ली शब्द चुना. यह गूढ़कील से बना है. उन्होंने बताया कि कुम्हार के चाक में एक ऐसी गूढ़ कील होती थी जिसकी जानकारी सिर्फ उसी को रहती थी और बिना उसके चाक चलती नहीं थी. उनका तर्क दमदार था क्योंकि कमोवेश वही स्थिति कंप्यूटर के संदर्भ में भी होती है. और उन लोगों ने माना कि ऐसे शब्दों के लिप्यंतरण व शब्दानुवाद इसलिए भारतीय संदर्भ निरर्थक हैं और उसकी जड़ें जमीन में नहीं हैं. सवाल रोचक हैं...और हमारी हिंदी के लिए भी उठते हैं. आप भी सोचें और बताएँ. http://kramashah.blogspot.com/2009/03/blog-post.html regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090305/e837a851/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Mar 5 15:51:45 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 5 Mar 2009 15:51:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSq4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClieCksuCli+CkqOClgCAsIOCkqOCkiCDgpKbgpL/gpLLgpY3gpLI=?= =?utf-8?b?4KWALTI=?= In-Reply-To: <720673f0903040509tf1a300bh9ea9d4713add6929@mail.gmail.com> References: <720673f0903040509tf1a300bh9ea9d4713add6929@mail.gmail.com> Message-ID: <200903051551.46267.ravikant@sarai.net> शुक्रिया फ़रज़ाना बाजी, अंकुर और सराय के लोगों के लिए सरकारी गहमागहमी के साये में फैलती अफ़रा-तफ़री का यह आलम पहले से देखा-सुना है. जैसा कि ब्रजेश ने आपके चिट्ठे पर की गई अपनी टिप्पणी में बताया, जिन लोगों ने सायबर मोहल्ला की किताब बहुरूपिया शहर देखी है, उन्होंने नांग्ला माची रेशा-दर-रेशा उजड़ना भी देखा, पढ़ा और महसूसा होगा. इस किताब में उन्हें जेपी कॉलनी की ज़िन्दगी के धूप-छाँव भी दिखे हों गे, चंद मानवीय अफ़साने जो इंसान की निगाहों अमूमन ओझल रहते हैं. मज़े की बात कि जब इन तथाकथित मलिन बस्तियों का क़त्ल भी होता है तो चर्चा नहीं होती. पर कोई नहीं हमारा अपना समाज है, हमने बसी-बसायी कच्ची-पक्की ज़िन्दगियों के बारे में आपस में पहले भी चर्चाएँ की हैं, और अब भी करेंगे - दुख बाँटने से आदमी कुछ और हो हो, हल्का तो होता ही है. पर आप यह भी पा एँगे कि यह सब सिर्फ़ सियापा-भर नहीं है - यह बस्ती का आत्मचरित जैसा है - इसमें सब कुछ मि लेगा. पर इस आत्मचरित में वक़्त चाहे तो अपनी क्रूरता के अक्स भी देख सकता है. क्रूरता जो सभ्यता की कहानी सी अपरिहार्य तौर पर हमारे साथ-साथ चलती है. बहरहाल मैं यहाँ जेपी के चिट्ठे चल रहे दैनंदिन रिपोर्ताज को नक़ल-चेपी लगाकर डाल रहा हूँ ताकि जो लोग वहाँ नहीं गए हैं, वे दीवान सूची पर ही उसे पढ़ लें. और जेपी के साथियों से अपील करूँगा कि वे आगे से ख़ुद हर पोस्टिंग की एक नक़ल यहाँ डाल दें. वैसे हम इस सूची पर सिर्फ़ पाठ या टेक्स्ट ही देख पाएँगे, तस्वीरों केर लिए तो हमें गाहे-बगाहे फिर वहीं जाना होगा. रविकान्त पहले जेपी कॉलोनी का छोटा सा परिचय: जे.पी. कॉलोनी - दिल्ली के नक़्शे में नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच में बसी एक बस्ती है. सन 1975 से आज तक यह बस्ती शहर के बीचोंबीच (यानी दिल्ली - 1 और दिल्ली - 6 के बीच में) अपना वजूद बनाये हुए है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बसी या बसाई गई इस जगह को लोग एल.एन.जे.पी. कॉलोनी के नाम से जानते हैं। इसके एक तरफ़ कनॉट प्लेस है तो दूसरी तरफ़ पुरानी दिल्ली। दिल्ली गेट, तुर्कमान गेट और अजमेरी गेट - तीनों तरफ़ से पहुँचा जा सकता है यहाँ, और पिछवाड़े कनॉट प्लेस की तरफ़ से भी। अगर किसी को यहां का पता बताना होता है तो यहाँ के लोग यह बी जोड़ देते हैं: यह लकड़ी के टाल के पास है. आँखों के अस्पताल (गुरू नानक आई हॉस्पिटल) के पास है, T-HUTS के पास है - तुर्कमान गेट अस्तबल के पास है तुर्कमान गेट झुग्गी के पास है, रामलीला मैदान और ज़ाकिर हुसैन कॉलेज के पास है जे.पी. कॉलोनी - वग़ैरह वग़ैरह. बुधवार 04 मार्च 2009 18:39 को, farzana sultana ने लिखा था: > साथी, > http://j-p-colony.blogspot.com/ > > नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच में बसी है एलएनजेपी कॉलोनी। यह कॉलोनी सन > 1975 से आज तक अपना वज़ूद शहर के बीचों-बीच अपना वज़ूद मे बनाये हुए है। शहर > मे एक और श्रमिक बसेरे को उजाड़े जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। आजकल > यहाँ एमसीडी का सर्वे चल रहा है। > > ये ब्लॉग एक तमाशबीन की नज़र से नहीं बल्कि पिछले 25 साल में बने उन रिश्तों > की बुनियाद पर उभरता है। इसमे अपनेपन के अनगिनत अहसास जुड़े हैं। > > हम सभी जेपी कॉलोनी, नई दिल्ली-2 से जुड़े हैं और आपको भी इसमें शामिल होने की > जगह देते हैं। > > फरज़ाना From ravikant at sarai.net Thu Mar 5 17:01:48 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 5 Mar 2009 17:01:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ummeed hogi koi ka lokarpaN Message-ID: <200903051701.49044.ravikant@sarai.net> दोस्तो, ये बहुत जल्दबाज़ी का न्यौता है. बहुत दिनों से एक किताब पड़ी थी मेरे पल्ले - जिसका कल लोकार्पण होना तय हुआ है. अगर आप वक़्त निकाल कर आ पाएँ, तो अच्छा लगेगा. ऑक्सफ़ैम के अविनाश कुमार के तसव्वुर को साकार करते हुए गुजरात की लेखिका, संस्कृतिकर्मी सरूप बेन ने एक प्रॉजेक्ट किया था उम्मीद के नाम से - गुजरात के नरसंहार पर. उसके तहत उन्होंने क़रीब 200 लोगों/परिवारों से पूरे गुजरात में घूम-घूमकर बातचीत की, और उन्हीं मुलाक़ातों को कहानियों की किताब का शक्ल दिया: हमने प्रॉजेक्ट के अपने नाम से वफ़ादारी करते हुए और गुलज़ार के एक गाने को याद करते हुए इसका नाम दिया 'उम्मीद होगी कोई'. मशहूर चित्रकार ग़ुलाम मोहम्मद शेख़ ने इसके आवरण को अपनी तस्वीर से नवाज़ा है, इतिहासकार सुधीर चंद्र, जिनका गहरा ताल्लुक़ सुरत और गुजरात से रहा है, ने इसकी भूमिका लिखी है. जॉय चैटर्जी ने इसको डिज़ाइन किया, और राजकमल ने इसे छापा है. हम उम्मीद करते हैं कि बोलने वालों में ऊपर आए नामों के अलावा श्री अशोक वाजपेयी, प्रो. शैल मायाराम व प्रो. धीरूभाई शेठ भी होंगे - हालाँकि हमने इन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया है, पर ये तो चर्चा की शुरुआत भर है, बातें यहाँ भी होंगी, और अहमदाबाद में भी. कृपया आ सकते हैं, तो ज़रूर आएँ: वायएमसीए हॉल, कल 3.30 बजे,. यह एनडीएमसी भवन, कनॉट प्लेस, जंतर मंतर के पास है, संसद मार्ग थाना के पीछे. अभिषेक, मोहिंदर, राकेश, भगवती और लोकेश तथा दूसरे दोस्तों का बहुत बहुत शुक्रिया जिन्होंने समय-समय पर मदद देकर इसे अपनी मंज़िल पर पहुंचाने में मेरी मदद की है. रविकान्त From lakhmi at cm.sarai.net Thu Mar 5 17:29:33 2009 From: lakhmi at cm.sarai.net (Lakhmi) Date: Thu, 05 Mar 2009 17:29:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSk4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpKfgpYLgpILgpKfgpLLgpL7gpKrgpKg=?= Message-ID: <49AFBEA5.3030506@cm.sarai.net> इस दौरान एलएनजेपी बस्ती को लेकर बहुत गर्मागर्मी हो रही है। मैं अंकुर के 'जेपी कॉलोनी नई दिली-2' ब्लॉग की कोशिश को उम्दा मानता हूँ। बनने के वक़्त को सब बोलते हैं लेकिन टूटने के समय को नहीं। कई सारे जीवन, शहर इसके साथ अपने रॉल और एक्शन में फ कोई जगह अपनी चरमसीमा पर है, ख़ैर ये भी कहना बेहद अटपटा होगा, लेकिन कोई जगह जिसमे कई सांसे मौज़ूद है, अपने मौज़ूद होने की गवाही देती हैं। वे रहने व न रहने के, छौर पर आ गई है जिसमें कई सारी चीज़ें ऐसी होगीं जो उठ भी सकती हैं और गिर भी सकती हैं। इसको कैसे याद रखा जाये? देखा जाए तो सवाल खाली ये ही नहीं है कि कोई जगह कुछ दिनों के बाद में गायब हो जायेगी। सवाल है कि कोई यहाँ पर क्या छोड़कर जायेगा? वे क्या होगा जो यहाँ पर रह जायेगा? और लोग अपने साथ क्या लेकर जायेगें? कुछ दिनों पहले शुरू हुए सर्वे ने सब कुछ आँखों के आगे पसार कर रख दिया। हमारे सामने एक सवाल रहा, 'सत्ता अपने को धूंधला रखकर क्या-क्या उभार सकती है?' बस्ती में जब इस सवाल को लेकर घूसे तो कुछ समझ के तार छिड़े जैसे- धूंधलापन यानि पीछे का कुछ न दिखना, धूंधलापन यानि सिर्फ सामने का ही दिखना धूंधलापन यानि इन दोनों के बीच के अंदेखे वाक्यों का अनुमान भरना। कोई भी चीज ऐसी नहीं थी जो इस धूधंलेपन की साख़ पर न टीकी हो। धूंधलापन चीजों के पीछे छुपे वो तमाम छेदों को कुरेदने की ताकत रखता है जिन्हे कभी छुआ भी नहीं जा सकता। वे सभी दर्रारों को हरा करने मे सहायक बन जाता है जिनपर अनुमान की तलवार चलती है। चीजों के बनने से उनके बने रहने तक के वे सभी पन्ने बन्द दस्तावेज़ों की तरह से बन जाते हैं जैसे उनपर अतीत की मिट्टी से कुछ नक्काशी की गई हो। ये वे परत हैं जिनको अंदेशो और आवरणों का पहला पृष्ठ बना दिया जाता है। धूंधलापन शायद, किसी भी चीज का वे रूप नहीं दिखाना जिसे आसानी से देखा जा सकता है या वे नहीं दिखाना जिसे स्वभाविक मानकर जीते हैं। इसमे वक़्त, एक झिल्ली की तरह से बना रहता है जिसमे बातों और ज़ज़्बातों को छुपाये रखने की ताकत नहीं होती। आज इस ठिकाने में इस शब्द कि कीमत कुछ और ही है। इसे समीकरणों में तोला नहीं जा सकता और न ही इसे खुद के खेलों मे खेला जा सकता। ये दौर बिना कुछ दिखाये आपको आपसे छीनकर ले जाने की करार पर पनपता है। ये सिलसिला है, असल में धूंधलापन एक ट्रिक यानि पैंतरे की भांति अपनाया गया है। इस दौरान हो रहे इस सर्वे में धूंधलेपन को बेहद नज़दीक से महसूस किया। जिसके जरिये इतने जीवन, फैसले, गैरकानूनी इंतजामात और कुछ ऐसे दबे रिश्ते खुलकर सामने आये जो अभी तक बन्द दस्तावेज़ों और कहानियों मे बसे थे। इस सर्वे ने वे सब बस्ती के बीचों-बीच खोलकर रख दिये। सत्ता का धूंधला होना इन सभी चीजों को बाहर आने पर मजबूर कर देता है। जिसमे आपको ये तक पता नहीं होता कि आप जो भी कहने वालों हो उसका इस प्रक्रिया से क्या लेना-देना? बस, खुद को मौज़ूद रखने के लिए कुछ गढ़ते हो। वही गढ़ना ऐसी बातों का जन्म होती है जिससे आधार को आँकने की एक और राह खुलती है। ये गढ़ना क्या है? वे सभी कहानियाँ क्या है जिसे रचा गया है? या वो असली कहानियाँ क्या है जिससे किसी जगह का जन्म हुआ है? वे लोग कौन हैं और कहाँ है जो इन कहानियों मे मौज़ूद हैं? सत्ता जिसके पास ये आज़ादी होती है कि वे अपने को और अपने पैंतरों को धूंधलेपन मे रखकर किसी जगह मे दाखिल हो सकती है। उसी मे से एक पैंतरा है सर्वे। जिसे वो आज के वक़्त मे एलएनजेपी बस्ती मे आज़ामा रही है। सर्वे का आधार क्या है वे धूंधला‌ है, सर्वे का निर्णय क्या है वे धूंधला है और सर्वे में सवाल अथ‌वा माँग क्या है वे धूंधला है। इन चीजों को धूंधला रखने का मतलब क्या है? उस सभी दबी बातों, कारीगरी और चालाकियों को खींचकर निकाल लेना जो आम बातों मे कभी अपनी जगह नहीं बनाती। एक बार कूद जाओ बस, फिर तो जैसे घर, परिवार, रिश्ते, बीता हुआ वक़्त, क्या बचत है?, अस्त्विव सब कुछ बिखर कर बाहर आने लगता है। खुद को जाहिर करने की मुहीम मे वे सब निकलकर आ जाता है। अपने मालिकाना दावेदारी दिखाने के लिए सम्मिट किया दस्तावेज़ों मे वे तमाम चीजें उभर जाती है जो बीते हुए कल, आज और इस वक़्त की हैसियत को भी जाहिर कर देता है। एलएनजेपी बस्ती मे भी कुछ ऐसा ही हुआ। दस्तावेज़ों के दुनिया में कई ऐसी कहानियाँ और दिक्कतें उभरी जो बिना इस धूंधलेपन के कभी ज़ुबान पर भी नहीं आ सकती थी। लोगों के मुँह से सुने कई ऐसे वाक़्या जो बस्ती को कोई और ही रूप दे देते हैं। ऐसा लगा जैसे बस्ती की कहानियों मे इन लोगों की कोई जरूरत नहीं है जो अपने हाथों मे आज अपने दस्तावेज लिए खड़े हैं। एक ही घर का एक से दूसरे तक जाना, दूसरे से तीसरे तक पहुँचना। बेटो मे खटास होना और कागज़ातों मे हेरा-फेरी होना। पति का बीवी के नाम कुछ न करना। सर्वे अधिकारी की एक शख़्स से बातचीत, सर्वे अधिकारी, "मकान नम्बर क्या है?" दावेदार, "सी 4ए / 232" सर्वे अधिकारी, "किस के नाम पर है ये झुग्गी? लाओ कागज़ात दिखाओ।" दावेदार, "जी ये नूरमोहम्मद के नाम पर है। वो हमारे चचा हैं। ये है उनका राशन कार्ड।" सर्वे अधिकारी, "नूर मोहम्मद कहाँ है उसे बुलाओ और बी.पी सिंह का कार्ड है तो वो लाओ।" दावेदार, "जी वो तो अभी हैं नहीं, कार्ड ये रिया।" सर्वे अधिकारी, "क्यों वो क्यों नहीं है? राशनकार्ड को किसी रसीफ के नाम पर है।" दावेदार, "हाँन, जी ये मैं ही हूँ, हमारे चचा हमें ये बैच गए हैं। हमारा निकाह हो जाने के बाद में। वे तो अब रहवे न हैं यहाँ हमी रह रहे हैं बाहर सालों से।" सर्वे अधिकारी, "खरीदी है, कोई खरीदी पेपर तो होगें दिखाओ।" दावेदार, "हाँन जी, ये रिये।" सर्वे अधिकारी, "ये सन 1998 के हैं मगर ये तो किसी इस्माइल के नाम के हैं 80.000 मे खरीदी है। ये इस्माइल कौन हैं?" दावेदार, "ये हमारे अब्बू हैं।" सर्वे अधिकारी, "तो भाई अपना राशनकार्ड क्यों दिखा रहे हो, उनका दिखाओ।" दावेदार, "वो त मर गए।" सर्वे अधिकारी, "तो मरने के कागज़ात तो होगे।" दावेदार, "हाँन जी हैं ये रिये।" सर्वे अधिकारी, "ये सन 2002 मे मरे हैं, ठीक है।" सत्ता का ये धूंधलापन जगह के बनने की कहानी-बनते रहने की कहानी, जीने के तरीके- जीने की जिद्द, कानून मानने और न मानने के सारे चित्रों को एक ही सूची मे पिरो देता है। ये जैसे खुद-ब-खुद होने लगता है। बिता हुआ समय, आज और इसी वक़्त, सभी की बुनाई एक ही तार से कर देता है। वे सभी किस्से इसमे उभरने लगते हैं जिसका आधार बना नहीं होता। वे आज के वक़्त मे अपने आधार को खोजते हुए निकलत आते हैं। इन सभी चित्रों मे मौज़ूदा हालात, रहन-सहन, जगह बनाने और समान जोड़ने, बचत और करोबारी, दरवाजें और आँगन, दस्तावेज़ मे मेम्बर और मुखिया। ये सब उस वक़्त मे पसरे होते हैं। वे बातें और बुनकर रखे रिश्ते सभी उनके पन्नों मे दर्ज हो जाते हैं। ये खेल धूंधलेपन का नहीं बल्कि खुद को साबित करने के चक्कर मे लोग खेलने लगते हैं। खुद को बतलाने के तरीके, वज़ूद दिखाने के सबूत, समय दिखाने के कागज़ात और रिश्तों को बताने की कहानियाँ जो कभी सुनाई नहीं जाती वे इस वक़्त की सबसे बड़ी शिकार होती है। धूंधला होना, चीजों को स्पष्ट रूप मे देखने की चाह मे पनपता है। स्पष्ट हो जाना चीजों के पीछे छुपी कहानियों को पी जाता है। उन्हे गोल कर जाता है। ये वे नहीं होने देता। सब कुछ धूंधला होने उन छुपी बातों को स्पेस मिल जाता है। तीन चीजों मे इस आधार का संदेह होता है। पहला- अनुमान और हकीकत के बीच का दौर। दुसरा- रहन-सहन करना और खुद को बताना तीसरा- आर्थिक व्यवस्था दिखाना और बचत को दोहराना। इसके पीछे छुपा है सब कुछ, इसी को आज़ाद कर देता है ये दौर। मगर, इस संवाद और माहौल के ऊपर मेरी ख़ुद की एक नज़र रही। क्या मैं सत्ता की नज़र मे फँस गया हूँ? क्या मैं अपनी ख़ुद की नज़र से कोसो दूर हूँ? या फिर इस दौरान कोई ऐसी नज़र है जो हर नज़रिये पर हावी है? मैं सत्ता की नज़र और अपनी नज़र में कोई विभाजन नहीं बना पाया हूँ? इसके लिए मेरे पास क्या होना चाहिये क्या कोई सवाल?, नये तरह से बस्ती के लोगों के बीच में दाखिल होना? वे क्या हो? लख्मी http://ek-shehr-hai.blogspot.com/ From lakhmi at cm.sarai.net Thu Mar 5 17:34:42 2009 From: lakhmi at cm.sarai.net (Lakhmi) Date: Thu, 05 Mar 2009 17:34:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSk4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpKfgpYLgpILgpKfgpLLgpL7gpKrgpKgt4KSu4KS+4KSr?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClg+CkquCljeCkr+CkviDgpIfgpLjgpYcg4KSh4KS/4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSfIOCkleCksCDgpKbgpL/gpJzgpL/gpK/gpYc=?= In-Reply-To: <49AFBEA5.3030506@cm.sarai.net> References: <49AFBEA5.3030506@cm.sarai.net> Message-ID: <49AFBFDA.3090700@cm.sarai.net> दोस्तों ये वाला कृप्या करके डिलिट कर दिजियेगा। ये ना जाने किस कारणवश गलत आप तक पहुँच गया। माफी चाहता हूँ। Lakhmi wrote: > इस दौरान एलएनजेपी बस्ती को लेकर बहुत गर्मागर्मी हो रही है। मैं अंकुर के 'जेपी कॉलोनी > नई दिली-2' ब्लॉग की कोशिश को उम्दा मानता हूँ। बनने के वक़्त को सब बोलते हैं लेकिन > टूटने के समय को नहीं। कई सारे जीवन, शहर इसके साथ अपने रॉल और एक्शन में फ > > कोई जगह अपनी चरमसीमा पर है, ख़ैर ये भी कहना बेहद अटपटा होगा, लेकिन कोई जगह > जिसमे कई सांसे मौज़ूद है, अपने मौज़ूद होने की गवाही देती हैं। वे रहने व न रहने के, छौर पर > आ गई है जिसमें कई सारी चीज़ें ऐसी होगीं जो उठ भी सकती हैं और गिर भी सकती हैं। इसको > कैसे याद रखा जाये? देखा जाए तो सवाल खाली ये ही नहीं है कि कोई जगह कुछ दिनों के बाद > में गायब हो जायेगी। सवाल है कि कोई यहाँ पर क्या छोड़कर जायेगा? वे क्या होगा जो यहाँ > पर रह जायेगा? और लोग अपने साथ क्या लेकर जायेगें? > > > कुछ दिनों पहले शुरू हुए सर्वे ने सब कुछ आँखों के आगे पसार कर रख दिया। हमारे सामने एक > सवाल रहा, 'सत्ता अपने को धूंधला रखकर क्या-क्या उभार सकती है?' बस्ती में जब इस सवाल > को लेकर घूसे तो कुछ समझ के तार छिड़े जैसे- > > > धूंधलापन यानि पीछे का कुछ न दिखना, > > धूंधलापन यानि सिर्फ सामने का ही दिखना > > धूंधलापन यानि इन दोनों के बीच के अंदेखे वाक्यों का अनुमान भरना। > > > कोई भी चीज ऐसी नहीं थी जो इस धूधंलेपन की साख़ पर न टीकी हो। धूंधलापन चीजों के पीछे > छुपे वो तमाम छेदों को कुरेदने की ताकत रखता है जिन्हे कभी छुआ भी नहीं जा सकता। वे सभी > दर्रारों को हरा करने मे सहायक बन जाता है जिनपर अनुमान की तलवार चलती है। > > > चीजों के बनने से उनके बने रहने तक के वे सभी पन्ने बन्द दस्तावेज़ों की तरह से बन जाते हैं जैसे > उनपर अतीत की मिट्टी से कुछ नक्काशी की गई हो। ये वे परत हैं जिनको अंदेशो और आवरणों > का पहला पृष्ठ बना दिया जाता है। > > > धूंधलापन शायद, किसी भी चीज का वे रूप नहीं दिखाना जिसे आसानी से देखा जा सकता है या > वे नहीं दिखाना जिसे स्वभाविक मानकर जीते हैं। इसमे वक़्त, एक झिल्ली की तरह से बना > रहता है जिसमे बातों और ज़ज़्बातों को छुपाये रखने की ताकत नहीं होती। > > > आज इस ठिकाने में इस शब्द कि कीमत कुछ और ही है। इसे समीकरणों में तोला नहीं जा सकता > और न ही इसे खुद के खेलों मे खेला जा सकता। ये दौर बिना कुछ दिखाये आपको आपसे छीनकर ले > जाने की करार पर पनपता है। ये सिलसिला है, असल में धूंधलापन एक ट्रिक यानि पैंतरे की > भांति अपनाया गया है। > > > इस दौरान हो रहे इस सर्वे में धूंधलेपन को बेहद नज़दीक से महसूस किया। जिसके जरिये इतने > जीवन, फैसले, गैरकानूनी इंतजामात और कुछ ऐसे दबे रिश्ते खुलकर सामने आये जो अभी तक बन्द > दस्तावेज़ों और कहानियों मे बसे थे। इस सर्वे ने वे सब बस्ती के बीचों-बीच खोलकर रख दिये। > सत्ता का धूंधला होना इन सभी चीजों को बाहर आने पर मजबूर कर देता है। जिसमे आपको ये > तक पता नहीं होता कि आप जो भी कहने वालों हो उसका इस प्रक्रिया से क्या लेना-देना? > बस, खुद को मौज़ूद रखने के लिए कुछ गढ़ते हो। वही गढ़ना ऐसी बातों का जन्म होती है जिससे > आधार को आँकने की एक और राह खुलती है। > > > ये गढ़ना क्या है? वे सभी कहानियाँ क्या है जिसे रचा गया है? या वो असली कहानियाँ क्या > है जिससे किसी जगह का जन्म हुआ है? वे लोग कौन हैं और कहाँ है जो इन कहानियों मे मौज़ूद हैं? > > > सत्ता जिसके पास ये आज़ादी होती है कि वे अपने को और अपने पैंतरों को धूंधलेपन मे रखकर > किसी जगह मे दाखिल हो सकती है। उसी मे से एक पैंतरा है सर्वे। जिसे वो आज के वक़्त मे > एलएनजेपी बस्ती मे आज़ामा रही है। सर्वे का आधार क्या है वे धूंधला‌ है, सर्वे का निर्णय > क्या है वे धूंधला है और सर्वे में सवाल अथ‌वा माँग क्या है वे धूंधला है। इन चीजों को धूंधला > रखने का मतलब क्या है? > > > उस सभी दबी बातों, कारीगरी और चालाकियों को खींचकर निकाल लेना जो आम बातों मे कभी > अपनी जगह नहीं बनाती। एक बार कूद जाओ बस, फिर तो जैसे घर, परिवार, रिश्ते, बीता > हुआ वक़्त, क्या बचत है?, अस्त्विव सब कुछ बिखर कर बाहर आने लगता है। खुद को जाहिर करने > की मुहीम मे वे सब निकलकर आ जाता है। अपने मालिकाना दावेदारी दिखाने के लिए सम्मिट > किया दस्तावेज़ों मे वे तमाम चीजें उभर जाती है जो बीते हुए कल, आज और इस वक़्त की हैसियत > को भी जाहिर कर देता है। > > > एलएनजेपी बस्ती मे भी कुछ ऐसा ही हुआ। दस्तावेज़ों के दुनिया में कई ऐसी कहानियाँ और > दिक्कतें उभरी जो बिना इस धूंधलेपन के कभी ज़ुबान पर भी नहीं आ सकती थी। लोगों के मुँह से > सुने कई ऐसे वाक़्या जो बस्ती को कोई और ही रूप दे देते हैं। ऐसा लगा जैसे बस्ती की > कहानियों मे इन लोगों की कोई जरूरत नहीं है जो अपने हाथों मे आज अपने दस्तावेज लिए खड़े हैं। > > > एक ही घर का एक से दूसरे तक जाना, दूसरे से तीसरे तक पहुँचना। बेटो मे खटास होना और > कागज़ातों मे हेरा-फेरी होना। पति का बीवी के नाम कुछ न करना। > > > सर्वे अधिकारी की एक शख़्स से बातचीत, > > सर्वे अधिकारी, "मकान नम्बर क्या है?" > > दावेदार, "सी 4ए / 232" > > सर्वे अधिकारी, "किस के नाम पर है ये झुग्गी? लाओ कागज़ात दिखाओ।" > > दावेदार, "जी ये नूरमोहम्मद के नाम पर है। वो हमारे चचा हैं। ये है उनका राशन कार्ड।" > > सर्वे अधिकारी, "नूर मोहम्मद कहाँ है उसे बुलाओ और बी.पी सिंह का कार्ड है तो वो लाओ।" > > दावेदार, "जी वो तो अभी हैं नहीं, कार्ड ये रिया।" > > सर्वे अधिकारी, "क्यों वो क्यों नहीं है? राशनकार्ड को किसी रसीफ के नाम पर है।" > > दावेदार, "हाँन, जी ये मैं ही हूँ, हमारे चचा हमें ये बैच गए हैं। हमारा निकाह हो जाने के > बाद में। वे तो अब रहवे न हैं यहाँ हमी रह रहे हैं बाहर सालों से।" > > सर्वे अधिकारी, "खरीदी है, कोई खरीदी पेपर तो होगें दिखाओ।" > > दावेदार, "हाँन जी, ये रिये।" > > सर्वे अधिकारी, "ये सन 1998 के हैं मगर ये तो किसी इस्माइल के नाम के हैं 80.000 मे > खरीदी है। ये इस्माइल कौन हैं?" > > दावेदार, "ये हमारे अब्बू हैं।" > > सर्वे अधिकारी, "तो भाई अपना राशनकार्ड क्यों दिखा रहे हो, उनका दिखाओ।" > > दावेदार, "वो त मर गए।" > > सर्वे अधिकारी, "तो मरने के कागज़ात तो होगे।" > > दावेदार, "हाँन जी हैं ये रिये।" > > सर्वे अधिकारी, "ये सन 2002 मे मरे हैं, ठीक है।" > > > सत्ता का ये धूंधलापन जगह के बनने की कहानी-बनते रहने की कहानी, जीने के तरीके- जीने की > जिद्द, कानून मानने और न मानने के सारे चित्रों को एक ही सूची मे पिरो देता है। ये जैसे > खुद-ब-खुद होने लगता है। बिता हुआ समय, आज और इसी वक़्त, सभी की बुनाई एक ही तार से > कर देता है। वे सभी किस्से इसमे उभरने लगते हैं जिसका आधार बना नहीं होता। वे आज के वक़्त > मे अपने आधार को खोजते हुए निकलत आते हैं। > > > इन सभी चित्रों मे मौज़ूदा हालात, रहन-सहन, जगह बनाने और समान जोड़ने, बचत और > करोबारी, दरवाजें और आँगन, दस्तावेज़ मे मेम्बर और मुखिया। ये सब उस वक़्त मे पसरे होते हैं। > वे बातें और बुनकर रखे रिश्ते सभी उनके पन्नों मे दर्ज हो जाते हैं। > > > ये खेल धूंधलेपन का नहीं बल्कि खुद को साबित करने के चक्कर मे लोग खेलने लगते हैं। खुद को > बतलाने के तरीके, वज़ूद दिखाने के सबूत, समय दिखाने के कागज़ात और रिश्तों को बताने की > कहानियाँ जो कभी सुनाई नहीं जाती वे इस वक़्त की सबसे बड़ी शिकार होती है। > > > धूंधला होना, चीजों को स्पष्ट रूप मे देखने की चाह मे पनपता है। स्पष्ट हो जाना चीजों के > पीछे छुपी कहानियों को पी जाता है। उन्हे गोल कर जाता है। ये वे नहीं होने देता। सब कुछ > धूंधला होने उन छुपी बातों को स्पेस मिल जाता है। > > > तीन चीजों मे इस आधार का संदेह होता है। > > पहला- अनुमान और हकीकत के बीच का दौर। > > दुसरा- रहन-सहन करना और खुद को बताना > > तीसरा- आर्थिक व्यवस्था दिखाना और बचत को दोहराना। > > > इसके पीछे छुपा है सब कुछ, इसी को आज़ाद कर देता है ये दौर। > > > मगर, इस संवाद और माहौल के ऊपर मेरी ख़ुद की एक नज़र रही। क्या मैं सत्ता की नज़र मे फँस > गया हूँ? क्या मैं अपनी ख़ुद की नज़र से कोसो दूर हूँ? या फिर इस दौरान कोई ऐसी नज़र है > जो हर नज़रिये पर हावी है? > > मैं सत्ता की नज़र और अपनी नज़र में कोई विभाजन नहीं बना पाया हूँ? इसके लिए मेरे पास > क्या होना चाहिये क्या कोई सवाल?, नये तरह से बस्ती के लोगों के बीच में दाखिल होना? वे > क्या हो? > > > लख्मी > > http://ek-shehr-hai.blogspot.com/ > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From rakeshjee at gmail.com Thu Mar 5 18:40:08 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 05 Mar 2009 13:10:08 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <000e0cd6abb235c99804645ee3f4@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// तू गलियों का राजा मैं महलों की रानी उर्फ़ रमोला की प्रेम कहानी Posted: 04 Mar 2009 02:00 AM PST http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/iqJnGf9TTrM/blog-post.html राहुल पंडिता हमारी पीढ़ी के जाने-माने लेखक और पत्रकार हैं. आजतक, ज़ी न्यूज़, इंडियन एक्सप्रेस, द संडे इंडियन समूह के साथ काम करते हुए इन्होंने हमेशा बेलौस और संजीदगी के साथ लिखा है. राहुल के बारे में और ज़्यादा जानने के लिए टहलें सैनिटीसक्स पर. टेलीविज़न माध्‍यम द्वारा ख़बर निर्माण पर मीडियानगर 03 के लिए उन्‍होंने ख़ास तौर से लिखा था तू गलियों का राजा मैं महलों की रानी उर्फ़ रमोला की प्रेम कहानी. लीजिए आप भी लुत्‍फ़ और बढाइए चर्चा को आगे. रिंग रोड पर ट्रैफिक पिछले चार घंटो से जाम था। ऊपर से सूरज आग उगल रहा था और नीचे काली, पीली, नीली और लाल गाड़ियों में बंद लोग पिघल रहे थे। हॉर्न बजाते-बजाते लोगो के अँगूठे सुन्‍न हो गए, लेकिन ट्रैफिक एक इंच भी आगे नही बढ़ पाया। हाहाकार मच गया था। कई लोगो ने फ़ोन करके पुलिस की सहायता माँगी। कार चला रहे एक नौजवान ने गाड़ी मे बैठे बाक़ी लोगों से कहा, लगता है उन्हें फोन करना ही पड़ेगा। गाड़ी में बैठे कम से कम दो लोगों ने एक साथ पूछा - किन्हें? नौजवान ने अपने माथे से पसीने की बूँदों को तितर-बितर किया और बोल पड़ा, पुलिस कमिश्नर को। वो मेरी चाची के भाई की पत्नी की ननद के ममेरे भाई लगते हैं। उन्हें फोन करूँगा तभी पुलिस आएगी और ट्रैफिक जाम से छुटकारा मिलेगा। लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि आखि़र ये ट्रैफिक जाम लगा कैसे। थोड़ी देर में सायरन की आवाज़ सुनायी दी। लगता है पुलिस ख़ुद ही आ गयी, नौजवान ने सायरन की आवाज़ सुनकर कहा, बेकार में उन्हें फोन करना पडता, अच्छा हुआ पुलिस ख़ुद ही आ गयी। ये कहकर उसने शीशे में अपने बाल ठीक किए और कार को स्टार्ट की मुद्रा में ढालकर, एसी चालू कर दिया। उधर इंस्पेक्टर सत्यवीर ने अपना काला चश्मा दुरुस्त किया और मोबाइल फोन को पिस्तौल की तरह अपनी बेल्ट में खोंसा। उनके पीछे-पीछे दो कॉन्स्टेबल थे, जिनके हाथ में बेंत के लम्बे डंडे थे। कंट्रोल रूम से कॉल आने के बाद वो स्पॉट के लिए निकल पड़े थे। गाड़ियों के सैलाब में सत्यवीर को कुछ नहीं सूझ रहा था। शोर-शराबे से वैसे भी डॉक्‍टर ने दूर रहने की सलाह दी थी। लेकिन कमबख़्त ड्यूटी डॉक्टरी सलाह को कहाँ मानती है! भीड़ को चीरते-चीरते पसीने की बूँदें इंस्पेक्टर की ख़ाकी क़मीज़ को तर कर गयी थी। काफी मशक्क़त के बाद वो आख़िरकार सामने पहुँचे। उनकी ज़बान से दो-चार गालियाँ बाहर निकलने के लिए हिलोरें मार रही थीं। लेकिन जब इंस्पेक्टर सत्यवीर सामने पहुँचे तो देखते क्या हैं कि कई रंग-बिरंगी ओबी वैन पूरा रास्ता रोके खड़ी हैं। जेनरेटर धुंआ उगल रहे हैं और क़रीब एक दर्जन कैमरा बीच सड़क पर पैनदाबाद हैं। कैमरों के सामने उतने ही रिपोर्टर कोने में पड़ी किसी चीज़ की तरफ़ इशारा करते हुए शब्द उगल रहे हैं। इंस्पेक्टर ने उस चीज़ की तरफ़ ग़ौर से देखा तो पाया कि वो एक कुतिया है जिसने अभी-अभी पाँच बच्चों को जन्म दिया है। तो ये थी ट्रैफिक जाम की वजह! फटफट चैनल का रिपोर्टर कैमरा के सामने लाइव ज्ञान बाँट रहा थाः ''जी नेहा, मैं आपको बता दूँ कि सभी पिल्ले पूरी तरह से स्वस्थ हैं और रिंग रोड पर किसी कुतिया के पाँच बच्चों को जन्म देने की ये पहली घटना है ...'' उसी सुबह ... फटफट चैनल के एक्जे़क्यूटिव प्रोड्यूसर (इनपुट) का फोन बजा। देखा, फोन पर ब्यूरो चीफ उनसे बात करना चाह रहा है। ''हाँ बोलो।'' ''सर वो नंबर 12 का फोन आया था अभी। उसकी रिपोर्ट के मुताबि़क एरिया नंबर 52 में एक गर्भवती कुतिया अपने पिल्लों को जन्म देने ही वाली है। मेरे ख़याल से ये आज एक बढिया लाइव इवेंट साबित हो सकता है।'' ''अरे हाँ, सही कह रहे हो। एकदम ओबी वैन भेज दो वहाँ।'' ''सर लेकिन एक दिक्क़त है। हमारी दो ओबी वैन तो आउट ऑफ़ स्टेशन है। एक तो उस आदमी के घर पर डिप्‍लॉयड है जिसने भविष्यवाणी की है कि वो परसों चार बजे मरेगा और दूसरी वहाँ जहाँ मल्लिका सहरावत एक दुकान पर अपनी रेसिपी पर आधरित लड्डू बनाएगी।'' ''और तीसरी कहाँ है?'' ''सर वो अभी सफदरजंग हॉस्पिटल रवाना कर दी है। डाक्टरों की हड़ताल के चलते दो लोगों की मौत हो गयी है।'' ''अरे यार अस्पताल में तो कल भी लोग मरेंगे। वहाँ कल लाइव करेंगे। इस ओबी को तुरंत डाइवर्ट कर दो'' लाइव न्यूज़ का दौर था। एक चैनल की लाइव कवरेज प्लान को कोई प्रतिद्वंद्वी चैनल हाइजैक करने के लिए तैयार रहता था। हर चैनल में प्रतिद्वंद्वी चैनल के जासूस बैठे थे। सूचना को गुप्त रखने के लिए रिपोर्टरों को नाम की जगह नंबर से पहचाना जाने लगा था और कवरेज के एरिया को भी नंबर दे दिए गए थे। फटफट चैनल में झटपट चैनल का एक जासूस एक्जे़क्यूटिव प्रोड्यूसर और ब्यूरॉ चीफ के बीच हुई बातचीत को सुन चुका था। उसने बाहर जाकर चुपचाप झटपट चैनल में अपने ‘गाडॅफादर’ को फोन कर सारी जानकारी दी। झटपट चैनल ने तुरंत एरिया की पहचान करवाकर अपने दो रिपोर्टर ओबी वैन के साथ स्पॉट पर भेज दिए। आध घंटा देर से लाइव जाने का ग़म, ख़बरी चैनल के इनपुट एडिटर को सता रहा था। उसने आनन-फानन एक मीटिंग बुलायी जिसमें ये तय हुआ कि फटफट और झटपट चैनल को बीट करने के लिए स्टूडियो में कुछ खेल किया जाए। दो रिपोर्टर तो स्पॉट पर थे। इसके अलावा तय हुआ कि स्टूडियो डिस्कशन के लिए विशेषज्ञों को बुलाया जाए। गेस्ट कॉर्डिनेटर को तलब किया गया। उसने डिस्कशन के लिए एक ऐनिमल राइट्स ऐक्टिविस्ट और एक वेटेरिनरी डॉक्टर को स्टूडियो बुलाया। उधर इंस्पेक्टर सत्यवीर ने एक रिपोर्टर का हाथ पकड़कर उससे कहा, ''अरे भैया ये तामझाम यहाँ से हटा दो, देख नहीं रहे लोगों को कितनी असुविध हो रही है।'' रिपोर्टर ने एक नज़र इस्पेक्टर की तरफ देखा और कहा, ''लोग, कहाँ हैं लोग! ये तो हमारे लिए सिर्फ़ साउंड बाइट बटोरने का ज़रिया है। अब आप जाइए, मुझे बाइट लेनी है।'' ये कहकर वो अपनी माइक लेकर आगे बढ़ा और एक कार में बैठी महिला के सामने माइक लगा कर उससे पूछा, ''कुतिया ने पाँच बच्चों को जन्म दिया, कैसा महसूस हो रहा है आपको?'' दूसरी तरफ, ख़बरी चैनल का स्पेशल प्रोग्राम शुरू हो गया। ऐंकर ने पहले स्पॉट पर रिपोर्टर के साथ चैट कर, स्टूडियो में बैठी वेटेरिनरी डॉक्टर को संबोधित किया, ''डॉक्टर साहब आपसे जानना चाहेंगे कि रिंग रोड जैसी भीड़-भाड़ वाली सड़क पर एक कुतिया के लिए पिल्लों को जन्म देना कितना मुश्किल है? क्या मनोस्थिति होती है ऐसे में एक कुतिया की?'' इतनी देर में फटफट चैनल ने ब्रेकिंग न्यूज़ का पट्टा लगाकर सनसनी फैला दी। चैनल की ऐंकर बोली, ''अब ताज़ा जानकारी के लिए चलते हैं सीध रिंग रोड जहाँ पर हमारे संवाददाता नंबर 12 हैं: जी बताइए क्या जानकारी है आपके पास?'' रिपोर्टर के एक हाथ में माइक था और दूसरे से वो अपना ‘इयरपीस’ ऐडजस्ट कर रहा था। क्यू मिलते ही वो फौरन बोल पड़ा, ''जी मैं आपको बता दूँ कि हमें जानकारी मिली है कि इस कुतिया का नाम रमोला है। कुछ महीने पहले तक ये पास की एक पॉश कॉलोनी के एक बँगले में रहती थी। लेकिन इसका प्यार गली के एक कुत्ते से हो गया जिसका नाम हमें अभी तक पता नहीं चला है। इसी प्यार के चलते वो महलों से गलियों में आ गयी।'' ये जानकारी मिलने के बाद चैनल की ग्राफिक्‍स टीम को हिदायत दी गयी कि वो स्पेशल प्रोग्राम के लिए एक स्टिंग बनाए। स्टिंग पर कुतिया की तस्वीर लगाकर, बग़ल में लिखा गया: रमोला का प्यार। उसके बाद, एक एसएमएस प्रतियोगिता भी शुरू की गयी, ‘क्या रमोला को उसका हक़ मिलना चाहिए?’ ख़बरी चैनल भला कहाँ पीछे रहने वाला था। वहाँ एक एडीटर ने सोच लिया था कि स्टूडियो डिस्कशन के ज़रिए ही दूसरी चैनलों को पीछे किया जा सकता है। इसलिए उसने गेस्ट कॉर्डिनेशन को आनन-फानन फोन लेने की हिदायात दी। स्टूडियो के बाहर से पहला फोन मशहूर फिल्‍म निर्देशक रमेश भट्ट का आया। परमाणु निरीक्षण से लेकर नर्मदा आंदोलन तक - सभी मुद्दों पर भट्ट साहब की राय जानना चैनलों के लिए एकदम ज़रूरी हो गया था। और हमेशा की तरह उन्होंने चैनलों को निराश नहीं किया। बोले, ''पाकिस्तान के साथ दोस्ती बढाने का इससे अच्छा मौक़ा कोई हो ही नहीं सकता। प्रधनमंत्री कार्यालय को तुरन्त एलान कर देना चाहिए कि कुत्तों के बीच क्रॉस बॉर्डर शादियों को बढ़ावा दिया जाएगा और ऐसे प्रयासों का सारा ख़र्चा सरकार वहन करेगी।'' इसके बाद भट्ट साहब ने जो कहा, उसकी प्रतिक्रिया के लिए पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को फोन लगाया गया। वहाँ की प्रवक्ता को तो इसी मौक़े का इंतज़ार था। वो बोलीं, ''कुत्तों की क्रॉस-बॉर्डर शादी तब तक मुमकिन नहीं हो सकती है जब तक हिन्दुस्तान कश्मीर वादी में अपनी फौज कम नहीं करता।'' पाकिस्तान की इस प्रतिक्रिया का असर मुंबई में तुरन्त देखा गया। वहाँ पर शिव सैनिकों ने रमोला के पुतले जलाए और कहा कि ऐसी घटनाओं से देश की संस्कृति भ्रष्ट हो रही है। उग्र भीड़ ने ‘डॉग फूड’ बेचने वाली कई दुकानों को भी तोड़-फोड़ डाला। दूसरी तरफ़ जावेद अख़्तर और राहुल बोस ने शिव सैनिकों के इस प्रदर्शन के ख़िलाफ़ टीवी कैमरों के सामने आवारा कुत्तों को बिस्कुट खिलाए। शाम को एसएमएस प्रतियोगिता के नतीजे भी आ गए। अस्सी प्रतिशत देशवासियों ने कहा कि रमोला को उसका ‘हक़ मिलना चाहिए’। दस प्रतिशत ने कहा ‘नहीं’ और दस प्रतिशत की इस पर ‘कोई राय नहीं थी’। पहले पाँच एसएमएस करने वालों को चैनल ने ‘विपुल साड़ीज़’ और ‘रूपा अंडरवीयर’ की तरफ से पाँच हज़ार रुपए के गिफ्ट वाउचर भेंट किए। लाइव कवरेज का ज़माना था, इसलिए गिफ्ट भी उनके विजेताओं तक उसी दिन पहुँचाए गए। उसी शाम मल्लिका सहरावत ने अपनी रेसिपी पर आधरित लड्डू बनाए। इलाज के अभाव में सफदरजंग हॉस्पिटल में तीन मरीज़ों की मौत हो गयी। आंध्रप्रदेश के एक गाँव में तीन किसानों ने क़र्ज़ से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या की। अगली सुबह मल्लिका सहरावत की स्टोरी टेलीविज़न पर देखते हुए इंस्पेक्टर सत्यवीर नाश्ता कर रहे थे। उनकी पत्नी ने नाश्ता उसी दिन के अख़बार पर रखा हुआ था। पराँठे का एक टुकड़ा तोड़ते हुए इंस्पेक्टर की नज़र किसानों की आत्महत्या की ख़बर पर पड़ी और उनके ज़हन में कल के रिपोर्टर की छवि उभर आयी। इतने में उनकी पत्नी मुस्कराते हुए बेडरूम से निकलीं और उनके सामने एक पैकेट रख दिया। ''क्या है इसमें?'' इंस्पेक्टर ने पूछा। ''मुझे कल एक एसएमएस प्रतियोगिता में इनाम मिला। वो तो साड़ी दे रहे थे पर मुझे तुम्हारा ख़याल आया। सो, तुम्हारे लिए जाँघिए लिए हैं।'' उसकी मुस्कुराहट और गहरी हो गयी। न जाने इंस्पेक्टर सत्यवीर को क्या हुआ, उन्होंने नाश्ते की थाली एक तरफ सरकाई, टीवी बंद किया और बुदबुदाए - मादर... ! -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090305/9b09b304/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Fri Mar 6 00:06:20 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 6 Mar 2009 00:06:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSn4KS+4KSw4KWN4KSlLSDgpKYg4KSq4KWN4KSw4KS/4KSc4KSo4KSw?= =?utf-8?b?IDog4KSu4KS54KS+4KSo4KSX4KSw4KWA4KSvIOCkuOCkvuCkguCkmg==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruClh+CkgiDgpKLgpLLgpYAg4KSo4KWA4KSk4KS/4KSV4KSl?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: From www.mihirpandya.com Originally published in Tehelka . ********** बचपन में पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ सुनकर बड़ी हुई हिन्दुस्तान की जनता के लिए *’सिद्दार्थ, द प्रिज़नर’*की कहानी अपरिचित नहीं है. सोने का अंडा देने वाली मुर्गी और व्यापारी की कहानी के ज़रिये ’लालच बुरी बला है’ का पाठ बचपन में हम सबने सीखा है. इस तरह की कहानियों को हम नीति कथायें (मोरल टेल) कहते हैं. सिद्दार्थ और मोहन की कहानी एक ऐसी ही नीति कथा का मल्टीप्लैक्सीय संस्करण है जो अपना रिश्ता ऋग्वेद और बुद्धनीति से जोड़ती है. फ़िल्म के मुख्य किरदार *रजत कपूर*के नाम ’सिद्दार्थ’ में भी यही अर्थ-ध्वनि व्यंजित होती है. कहानी की सीख है, “इच्छाएं ही इंसान के लिए सबसे बड़ा बंधन हैं. इच्छाओं से मुक्ति पाकर ही इंसान सच्ची आज़ादी पाता है.” मैंने यह फ़िल्म पिछले साल *’ओशियंस’ *में देखी थी जहाँ रजत कपूर को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था. ’ओशियंस’ में यह उन हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में से एक थी जिसका टिकट मैंने समारोह शुरु होते ही सबसे पहले खरीदा था. वजह? ऑन पेपर, इस फ़िल्म का मूल प्लॉट हिन्दी सिनेमा इतिहास में आई थ्रिलर फ़िल्मों में अबतक के सबसे आकर्षक प्लॉट्स में से एक है. कुछ ही समय पहले जेल से रिहा हुए और अब अपनी ज़िन्दगी नए सिरे से शुरु करने की कोशिश में लगे लेखक सिद्दार्थ रॉय की नई किताब की इकलौती पांडुलिपि सायबर कैफ़े चलानेवाले मोहन (सचिन नायक) के रुपयों से भरे ब्रीफ़केस से बदल जाती है. सिद्दार्थ अपनी किताब को लेकर बैचैन है वहीं मोहन की जान उस पैसों से भरे ब्रीफ़केस में अटकी है जो अब सिद्दार्थ के पास है. इंसान की इच्छाएं उसे क्या-क्या नाच नचाती हैं. आगे इस कहानी में प्यार, रोमांच, धोखा, लालच, झूठ और मौत सभी कुछ है. लेकिन इस चमत्कारिक प्लॉट के बाद भी कुछ है जो अटका रह जाता है. थ्रिलर होते हुए भी यह फ़िल्म रजत कपूर की ही पिछली फ़िल्म *मिथ्या*की तरह अंत में आपके ऊपर एक उदासी का साया छोड़ जाती है. शुरुआत में आपको यह फ़िल्म एक थ्रिलर होने के नाते रफ़्तार में धीमी लग सकती है लेकिन इच्छाओं के पीछे भागती जिस जिन्दगी की व्यर्थता को दर्शाने की कोशिश फ़िल्म कर रही है उस तक पहुँचने के लिए यह कारगर हथियार है. जेल से छूटने के बाद सिद्दार्थ की रिहाइशगाह के शुरुआती सीन मेरे मन में फ़िर कभी न उगने के लिए डूबते सूरज का सा प्रभाव छोड़ते हैं. मेरे लिए यह फ़िल्म औसत से एक पायदान ऊपर खड़ी है. छोटी सी कहानी जिसकी चाहत एक बड़ा कैनवास रचकर कुछ बड़ा कहना नहीं. *ओ. हेनरी*और *मोपांसा* की लघु कथाओं की याद दिलाती यह फ़िल्म सिनेमा हाल से चाहे अनपहचानी ही निकल जाये लेकिन लेकिन आनेवाले वक़्तों में हमारे घरों में मौजूद और धीरे-धीरे बड़े हो रहे डी.वी.डी. संग्रह का हिस्सा ज़रूर बनेगी ऐसी मुझे उम्मीद है. विज्ञापन जगत से सिनेमा में आये प्रयास गुप्ता के लिये सबसे बड़ी तारीफ़ है ’बैंग-ऑन’ कास्टिंग. रजत कपूर को देखकर तो मुझे शुरु से ही लगता रहा है कि वे तो बने ही लेखक का रोल करने के लिए हैं! वो इस रोल में इतने फ़िट हैं कि आप उनकी बेहतरीन अदाकारी को नोटिस तक नहीं करते. लेकिन अदाकारी में कमाल किया है अपने दांतों से पूरे महल को रौशन करते रहे *’हैप्पीडेंट वाइट फ़ेम’*सचिन नायक ने. सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता और भौतिक सुख के बीच छिड़ी जंग के निशान आप उसके चेहरे पर पढ़ सकते हैं. फ़िल्म की उदासी और निस्सहायता उनके किरदार से ही सबसे बेहतर तरीके से व्यंजित होती है. प्रदीप सागर के रूप में एक बार फिर हम ’भाई’ का ’दूसरा’ चेहरा देखते हैं और मुझे *’सत्या’*याद आती है. लेकिन ‘सिद्दार्थ’ रामू की ’सत्या’ की तरह बड़े कैनवास वाली ’मैग्नमओपस’ नहीं है. यह ज़िन्दगी की कतरन है, ’स्लाइस ऑफ़ लाइफ़’ जो बात तो छोटी कहती है लेकिन पूरी साफ़गोई से कहती है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090306/f090237a/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 6 11:12:34 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 6 Mar 2009 11:12:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: invitation for Bihar Utsav Message-ID: <200903061112.36223.ravikant@sarai.net> पुनीता जी, आपने देखा होगा कि हमने संदेश में लगे अटैचमेंट अर्थात संलग्नक को हटा दिया है. आगे से दीवान पर संदेश भेजने से पहले देख लें कि अटैचमेंट तो नहीं है, और ये भी कि बहुत ज़्यादा तादाद में पाने वाले तो नहीं हैं. और हाँ, अगर हिन्दी में सूचना हो तो और बेहतर! रविकान्त Subject: invitation for Bihar Utsav Date: शुक्रवार 06 मार्च 2009 04:30 From: punita sharma Dear friends, This is to inform you that Rag Virag Cultural and Educational Society, New Delhi is organizing "BIHAR UTSAV". program is as follows: Host : Bihar Utsav organised by Rag Virag Educational and Cultural Society Date : Monday,  9th March, 2009 Time : 6 P.M. Location : Shri Ram Centre Street : 4, Safdar Hashmi Marg, New Delhi Description :                           Traditional Kathak dance with contemprory and fusion of Punita Sharma and group.Atrist are Punita Sharma, Tripti Sanwal, Savita Adhikari, Shilpa Verma, Preeti etc. Folk song by Eminent artists of Maithili and Bhojpuri with eminent vocalist.   Phone : 9818188965 Website: http://www.biharutsav.blogspot.com 1) Dance: YATRA Subject: This is based on journey of life. In every life there are many colors as sorry and joy, love and hatred etc. In this ballet, the different colors of childhood, young life and old age will be presented. Traditional Kathak dance with contemprory and fusion in this presentation will be main attraction. Choreography: Punita Sharma Dancers: Punita Sharma, Savita Aühakari, Preeti, Subhra, Sakshee. Music: Tabla : Amjad Chaudhary Vocal: Amjad Ali Khan keybord/Sarod : Kasif Khan Octopad : Moti Sitar: salim and Fateh Khan   2) Folk songs Singer: Anshumala Subject: Traditional folk on Bhojpuri, Maithili and Angika of Bihar as Jat-Jatin, Chaiti, Kajari etc. 3) Folk Dances Artists: Jayshankar and his group. Subject:  Jat-Jatin, Chaiti, Kajari etc.We take this opportunity to invite you to join the programme. We hope you shall very kindly accept our invitation and hope to see you there with friends and family. Thanking you and with warm regards, Yours sincerely, Punita Sharma Secretary 9818188965 http://www.punitaragvirag.comN.B. Please do come with your family and friends. Kindly treat this letter of mine as the invitation card. From ravikant at sarai.net Fri Mar 6 11:24:16 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 6 Mar 2009 11:24:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BIndlinux?= =?utf-8?b?LWhpbmRpXSDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KS14KS/4KSw4KS+4KSuIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KWN4KSoIOCklOCksCDgpJfgpKLgpLzgpJXgpY3gpLLgpL/gpLI=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLDgpYcg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <200903061124.18522.ravikant@sarai.net> X-पोस्टिंग के लिए माफ़ी चाहूँगा. पर चूंकि ये बहस यहाँ भी चल रही थी, इसलिए लगा कि दीवान के पाठकों को स्थानीयकरण की समस्याओं के तकनीकी पक्ष की जानकारी भी ज़रूर होनी चाहिए. इस पर मैँ कुछ कहूँगा, लेकिन बाक़ी लोग अपनी राय दें तो बेहतर. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Indlinux-hindi] हिंदी विराम चिह्न और गढ़क्लिली के बारे में Date: गुरुवार 05 मार्च 2009 17:45 From: "Balasubramaniam L." To: indlinux-hindi at lists.sourceforge.net प्रिय राजेश जी, विराम चिह्न के लिए फुल स्टोप के प्रयोग को लेकर मेरी आपसे असहमति है। यह देवनागरी लिपि की एस्थेटिक्स से छेड़-छाड़ करने के बराबर है। यदि आप देवनागरी लिपि में लिखे पाठ को देखें, तो आप पाएंगे, उसमें सर्वत्र खड़ी पाई का ही बोलबाला है। लगभग हर वर्ण में खड़ी पाई या तो पूर्ण रूप से विद्यमान है अथवा आंशिक रूप से। विद्वानों का यहां तक मत है कि हिंदी का एक नाम खड़ी बोली इसलिए है क्योंकि इसमें खड़ी पाई सभी जगह पाई जाती है। इसलिए खड़ी पाई देवनागरी लिपि की प्रकृति के अनुकूल है। इसे ही विराम चिह्न के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए। खड़ी पाई के पक्ष में एक अन्य बात भी है। केवल यही एक हिंदी का अपना विराम चिह्न है, बाकी सब अंग्रेजी के हैं। तब फिर उसे क्यों छोड़ा जाए। एक अन्य वजनदार तर्क भी है, खड़ी पाई के पक्ष में। हिंदी में बिंदी का बहुत अधिक उपयोग होता है - नुक्ता के रूप में, बहुवचन सूचित करने के लिए, दशमलव चिह्न के रूप में, और ङ जैसे कुछ अक्षरों में तो वह पहले से ही विद्यमान है। इस तरह हिंदी में बिंदी शब्द के आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, सभी जगह लगाई जाती है। अब विराम चिह्न के लिए भी उसका उपयोग करने से भारी गड़बड़ी फैल जाएगी। दूसरी बात कंप्यूटर स्क्रीन पर उसके ठीक से दिखने से संबंधित है। बहुत कम पिक्सेल साइसों में बिंदी ठीक से नहीं दिखाई देती है अथवा उसके आजू-बाजू के पिक्सलों में वह विलीन हो जाती है। इसलिए बहुत छोटे टाइप साइसों में 'हिंदी', 'पढ़', आदि की बिंदी दिखाई ही नहीं देती। यदि हम विराम चिह्न के लिए भी बिंदी का प्रयोग करने लगें, तो बहुत छोटे टाइपसाइसों में यह पता ही नहीं चल पाएगा कि वाक्य कहां समाप्त हो रहा है। इसलिए हमें चाहिए कि हम लोगों को समझाएं कि हिंदी में विराम चिह्न के लिए खड़ी पाई ही क्यों उपयुक्त है, और उसे ही अपनाना चाहिए। मैथली शब्दावली के विषय में मुझे यह कहना है कि गढ़किल्ली जैसे शब्द चुनकर आपने शब्दावली निर्माण के कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा है और मैं कहूंगा कि आप इस पर फिर से विचार करें। मैथिली शब्दावली को जहां तक हो सके हिंदी के लिए तय की गई शब्दावली के निकट रखना दूरदृष्टि की बात होगी। कंप्यूटर क्षेत्र में नए-नए शब्द इतनी तेजी से बनते जा रहे हैं, कि हर शब्द के लिए विद्वानों से पूछकर तुल्य शब्द निश्चित करना संभव नहीं होगा। हिंदी में जो शब्द चल निकल चुके हैं, उनसे फायदा उठाकर मैथिली को अपना काम बचाना चाहिए। इससे मैथिली रीइन्वेन्टिंग द व्हील में जो श्रम का अपव्यय होगा, उससे बच सकेगी और अपनी सीमित ऊर्जा को अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में लगा सकेगी। हिंदी-मैथली इतनी निकट की भाषाएं हैं कि हिंदी की शब्दावली को मैथली भाषी लोग आसानी से समझ जाएंगे। गढ़किल्ली जैसे ठेठ शब्द इसीलिए अनुपयुक्त हैं क्योंकि लोग उनसे किसी दूसरे अर्थ के लिए इतने परिचित हैं कि उनके दिमाग में पहले यह मूल अर्थ ही आएगा, न कि वह नया अर्थ जो उनमें भरा गया है। इस नए अर्थ को सभी मैथिली भाषी लोगों तक पहुंचाने में सालों लग जाएंगे, और काफी परिश्रम भी करना पड़ेगा, जैसे इन्हें शब्दकोषों में शामिल कराना, इन जैसे शब्दों की शब्दसूचियां प्रकाशित करना, कार्यशालाएं आदि आयोजित करके इन शब्दों को प्रचारित करना, अखबारों में इन शब्दों का उपयोग करके लेख लिखना, आदि। यह सब गढ़े गए हर नए शब्द के लिए करना होगा। इसीलिए आसान रास्ता यह है कि हिंदी के शब्दों को ही जहां तक हो सके चलाया जाए, क्योंकि ये सब शब्द अब लगभग 30-40 सालों से कंप्यूटर क्षेत्र में चलते आ रहे हैं और लोग एक तरह से इनसे परिचित हो गए हैं। जब हिंदी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के लिए पारिभाषिक शब्दावली गढ़ी जा रही थी, तो एक मूलभूत सिद्धांत यह रखा गया था कि जहां तक हो सके, सभी भाषाओं के लिए मिलते-जुलते शब्द ही चुने जाएं, ताकि एक भाषा में लिखी गई पारिभाषिक सामग्री दूसरी भाषा बोलनेवाले को सरलता से समझ में आएं। यदि आप मैथिली में पासवर्ड जैसे आमतौर पर समझे जानेवाले शब्द की जगह गढ़किल्ली जैसे शब्द रखेंगे, तो वह इस सिद्धांत के विरुद्ध होगा और इससे कंप्यूटर को मैथिली में लाने के लक्ष्य से आप दूर चले जाएंगे। असल में विद्वानों की जगह आपको मैथिली बोली जानेवाले कस्बों गांवों के वीडियो गेम पार्लरों और इंटरनेट कफे में जो किशोर-किशोरियां आती हैं, उनसे पूछना चाहिए था कि वे कंप्यूटर से जुड़ी आम अवधारणाओं के लिए कौन से शब्द इस्तेमाल करती हैं, और उन्हें ही चुनना चाहिए था। विद्वानों के संबंध में यह है कि कि यदि वे बहुत बड़े विद्वान हुए, तो वे मैथिली की जगह अंग्रेजी से अधिक परिचित होंगे अन्यथा कंप्यूटर के मामले में बिलकुल अनाड़ी होंगे। ऐसा विद्वान जो कंप्यूटर की भी जानकारी रखता हो, मैथिली भी समझता हो, कम ही मिलेंगे। और यह मानी हुई बात है कि विद्वानों का रुझान चीजों को क्लिष्ट करने की ओर होता है। हमें कंप्यूटर के प्रयोक्ताओं की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, उन किशोर-किशोरियों से जो कंप्यूटर गेम आदि के दीवाने हैं, प्रकाशन गृहों के जो कर्मी जो कंप्यूटर पर डीटीपी आदि करते हैं, कंप्यूटर शास्त्र के विद्यार्थी, आदि। हमें इनसे पता करना चाहिए कि ये कंप्यूटर के आम-फहम शब्दों के लिए क्या कहते हैं। स्वयं हिंदी को ही लीजिए, यदि हिंदी में इतने सारे कंप्यूटर सोफ्टवेयरों का स्थानीयकरण हो सका है, तो इसलिए कि उसने अनायास ही कंप्यूटर से जुड़े अनेक अंग्रेजी शब्दों को अपना लिया है। हिंदी में डाउनलोड, अपलोड, इंटरनेट, सर्फिंग, ईमेल, सर्वर, मोडम आदि हजारों शब्द यों ही अपना लिए गए हैं। यदि इन सबके लिए हम देशी कारीगरों की बोलचाल से शब्द ढूंढ़ने निकले होते, तो हिंदी में कंप्यूटर सोफ्टवेयर उतने भी नहीं बन पाते, जितने आज बने हैं, और वे अभी से कहीं अधिक क्लिष्ट होते। कहने का मतलब यह नहीं है कि बोलचाल की भाषा से शब्द नहीं ग्रहण करना है, बल्कि यह कि जो शब्द पहले से प्रचलित हैं, चाहे वे हिंदी के हों या अंग्रेजी के, उनसे परहेज न किया जाए। कहीं हम मैथली के लिए शब्द गढ़ते गढ़ते डा. रघुबीर का सा कोई कोष न निर्मित कर बैठें! इसलिए मेरा सुझाव है कि संज्ञा पदों के लिए मैथिली निम्नलिखित नीति अपनाएं - 1. जहां तक हो सके हिंदी के ही शब्द चलाएं। 2. यदि हिंदी उच्चारण और मैथली उच्चारण में भेद हो, तो हिंदी के शब्दों को मैथिली फोनेटिक्स के अनुसार ध्वनि-परिवर्तन किया जाए। उदाहरण के लिए अवधी, ब्रज, मैथिली आदि में श और ष का उच्चारण स के जैसा होता है। इसलिए निर्देश, सदिश, परिवेश, शब्द आदि के स्थान पर निर्देस, परिवेस, सबद, आदि रखा जा सकता है। 3. मैथिली-हिंदी में परसर्ग-उपसर्ग में भेद हो सकता है। इन मामलों में हिंदी संस्कृत के अधिक निकट है, जबकि मैथिली आदि का रुझान देशीपन की ओर अधिक है। उदाहरण के लिए कनेक्ट के लिए हिंदी में संबंधन भी है जुड़ना भी है। जुड़ना मैथिली के अधिक अनुकूल लगता है। इसी तरह जहां हिंदी में संस्कृत निष्ट कठिन शब्द आ गए हों, उनके लिए सरल शब्द रखे जा सकते हैं, जैसे रैंडमाइस के लिए यादृच्छिक न रखकर, मैथिली मे बेतरतीब रखा जा सकता है, या और कोई मैथिली का शब्द। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के शब्दों से मिलते-जुलते शब्द रहें, हिंदी से बिलकुल अलग शब्द जहां तक हो सके न रहे। 3. यदि हिंदी के शब्द न हों, तो अंग्रेजी के शब्दों को ध्वनि-परिवर्तन करके चलाएं। 3. यदि मैथिली का कोई शब्द किसी कंप्यूटर अवधारणा या वस्तु के लिए इतना चल निकला हो कि इन भाषाओं में छपने वाले अखबारों में उनका उपयोग होता हो, तथा हाट-बाजारों में लोगों की जुबान से वह सुनाई देता हो, तो उसका उपयोग करें, अन्यथा 1. और 2. की नीतयां अपनाएं। दुनिया भर में सभी भाषाओं में कंप्यूटर शब्दावली निर्माण के लिए यही रणनीति अपनाई जा रही है। यह आज की दुनिया का सच है कि अधिकांश सोफ्टवेयर पहले अंग्रेजी में बनते हैं और फिर अन्य भाषाओं में उनका स्थानीयकरण होता है। यह हिंदी ही नहीं, बल्कि जर्मन, जापानी, फ्रांसीसी, चीनी आदि समृद्ध समझी जानेवाली भाषाओं के लिए भी सच है। इसलिए सभी भाषाओं में कंप्यूटर शब्दावली अंग्रेजी शब्दावली के निकट ही रहती है। मैथली के लिए सही रणनीति यही होगी कि शब्दावली हिंदी के निकट रहे, क्योंकि अधिकांश मैथिली भाषी अंग्रेजी नहीं समझते हैं। इस तरह हिंदी में कंप्यूटर अवधारणाओं के लिए विशाल भंडार होना एक ऐसी सुविधा है जिसे मैथिली शब्द निर्माताओं को तुच्छ नहीं समझना चाहिए, और उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए। संज्ञा पदों से अधिक कंप्यूटर से संबंधित क्रिया पदों के मैथिली रूपों की ओर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है। हिंदी और मैथली यदि भिन्न हैं तो संज्ञा के स्तर पर नहीं, बल्कि क्रिया पदों, सर्वनामों, क्रियाविशेषणों, संबंधसूचकों आदि के स्तर पर हैं। इसलिए हिंदी के संज्ञापद मैथिली में चल सकते हैं, पर क्रियापद नहीं। सभी भाषाएं आसानी से दूसरी भाषाओं से संज्ञा पद ग्रहण कर लेती हैं, पर क्रिया, सर्वनाम, विशेषण आदि नहीं ग्रहण करतीं। इसलिए क्रिया पदों के ठीक अनुवाद पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। दूसरे, किसी भी भाषा में क्रिया पद सीमित संख्या में ही होते हैं, जबकि संज्ञा शब्द लाखों में होते हैं और रोज नए-नए बनते जाते हैं। तीसरे, क्रिया पद आदि बदलते नहीं हैं, जबकि एक ही अवधारणा के लिए संज्ञा शब्द बदलते रहते हैं, उदाहरण के लिए हमारे देश के नाम को ही लीजिए - मुसलमानों के यहां आने से पहले कोई इसे हिंदुस्तान नहीं कहता था, पर उनके आने पर यह हिंदुस्तान हो गया, अंग्रेजों ने इंडिशा शब्द को प्रचारित किया, आजादी के बाद भारत शब्द प्रचलन में आ गया है। इसलिए यदि मैथिली विद्वान कंप्यूटर के लिए क्रिया पदों को पहले निश्चित करें, तो स्थानीयकरण की गति तेज हो सकती है। सादर, ल. बालसुब्रमण्यम -- L. Balasubramaniam C-105, Premier Apartments Sandesh Press Road Bodakdev Ahmedabad Gujarat-380 054 INDIA Phone (Res) 91 79 2685 2086 Phone (Mobile) +919879002506 Emails: l.balasubramaniam at gmail.com balasubramaniaml at hotmail.com Web Site: http://balasubramaniam.my.proz.com/ ------------------------------------------------------- From rajeshkajha at yahoo.com Fri Mar 6 11:52:02 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 5 Mar 2009 22:22:02 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BIndlinux?= =?utf-8?b?LWhpbmRpXSDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KS14KS/4KSw4KS+4KSuIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KWN4KSoIOCklOCksCDgpJfgpKLgpLzgpJXgpY3gpLLgpL/gpLI=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLDgpYcg4KSu4KWH4KSC?= In-Reply-To: <200903061124.18522.ravikant@sarai.net> Message-ID: <478448.34370.qm@web52910.mail.re2.yahoo.com> प्रिय बालाजी, बहुत बहुत शुक्रिया इतने विस्तार से लिखने के लिए. बढ़िया तर्क हैं खड़ी पाई के पक्ष में. इस बहस को बढ़ाते हुए हम इसे दीवान डाक सूची पर भी भेजते हैं... मैथिली शब्दावली के संबंध में हमें कुछ कहना है...हालांकि आप फ़्यूल मैथिली की सूची देखेंगे तो पाएंगे कि हिन्दी में प्रयुक्त शब्दों की बहुतायत है और तकनीकी रूप के कारण ही ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गई है. वहाँ बैठे भाषाविद ने शब्दों की अखिल भारतीयता को हमेशा ध्यान में रखने की कोशिश की परंतु उनका यह भी मत रहा कि कुछ शब्द हमारी ठेठ मैथिली से भी जाएँ तो आपत्ति नहीं होनी चाहिए.  फिर भी कुछ शब्द ऐसे आए हैं और उसे क्यों वहाँ बहुमत से चुना गया, इसके लिए हमें उन किशोर किशोरियों से पूछना पड़ेगा जो वहाँ मौजूद थे लेकिन मैथिली भाषा ज्ञान तो छोड़ दें कंप्यूटर के ज्ञान में भी नब्बे साल के एक बूढ़े से नहीं ठठ पा रहे थे. शायद आपको ताज्जुब हो रहा हो...लेकिन यह सच है. वहाँ बैठे तीन चार और वरिष्ठ नागरिक थे यानी 65-70 साले के, मैथिली के लेखक ही थी...आश्चर्यजनक रूप से वे न केवल पच्चीस तीस साल के लोगों से कंप्यूटर के बारे में भी अधिक जान रहे थे बल्कि उनकी विश्लेषण के तरीके भी इतने अनोखे थे कि हमलोग हैरान थे. मुझे आश्चर्य हुआ था यह देखकर कि 85 साल में कंप्यूटर सीखना शुरू करने वाला और आज 90 साल के वे गोविंद झा शायद हमलोगों से अधिक जवान थे...8-9 घंटे की दो दिनों तक थका देने वाली चली वह बहस मुझे याद रहेगी...क्योंकि वे वरिष्ठ लोग वहाँ उपस्थित युवाओं की बनिस्पत कंप्यूटर व भाषा दोनों के स्तर पर ऊपर ही रहेंगे. इसलिए शायद अगर आप उम्र से कंप्यूटर ज्ञान के स्तर को आंकते हैं तो संभवतः मैथिली के ये विद्वान उसके अपवाद ही कहलाएंगे. गोविंद झा जिन्होंने मैथिली फ़्यूल में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ने करीब 20 से ऊपर शब्दकोशों का निर्माण किया है और हाल में अपने 90 वें वर्ष में मैथिली बंगाली शब्दकोश तैयार किया है. फिर ऐसा नहीं कि उनकी जानकारी और भाषाई ज्ञान को वरीयता देकर मैं कहीं से भी आपकी बात से बाहर हूँ लेकिन जरा सोचिए पासवर्ड को पहली बार जान रहे लोगों को भी वही दिक्कतें आई होंगी. कल ही मैं हिंदी के कथाकार सूरज प्रकाश से मिला हूँ ...वे कह रहे थे कि पहला पासवर्ड तो सिम सिम था...रविकांत जी भी इस शब्द की पैरवी पाँच वर्ष पहले से किए हैं. मैथिली में भी यही शब्द पहली बार आया था कि सिम सिम ही रखा जाए...लेकिन लोग 'अजीब' समझ कर इस शब्द को छोड़ रहे हैं. कभी कभी लगता है कि हम अपने से जुड़े चीजों को अजीब समझने के लिए अभिशप्त तो नहीं हैं.  रतलामी जी ने मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी देते हुए लिखा कि जमीन से जुड़े शब्द ही प्रचलन में आने पर कालांतर में अच्छे लगेंगे, भले ही अभी पासवर्ड की जगह गुड़किल्ली अजीब लगे. लंबे समय से भाषाई कंप्यूटिंग से जुड़े रहने के कारण वे शायद समझ रहे हैं कि यह शब्द लोगों को अजीब व हास्यास्पद लग सकता है.  और यदि गूढ़किल्ली जैसे शब्द से पहले यह मूल अर्थ ही सामने आता है तो भी कम से कम यह बात तो स्पष्ट होगी ऐसा कूछ है जो गूढ़ है और हमें यहाँ उसे रखना है. सादर राजेश --- On Fri, 3/6/09, Ravikant wrote: From: Ravikant Subject: [दीवान]Fwd: [Indlinux-hindi] हिंदी विराम चिह्न और गढ़क्लिली के बारे में To: deewan at sarai.net Cc: "Balasubramaniam L." Date: Friday, March 6, 2009, 11:24 AM X-पोस्टिंग के लिए माफ़ी चाहूँगा. पर चूंकि ये बहस यहाँ भी चल रही थी, इसलिए लगा कि दीवान के पाठकों को स्थानीयकरण की समस्याओं के तकनीकी पक्ष की जानकारी भी ज़रूर होनी चाहिए. इस पर मैँ कुछ कहूँगा, लेकिन बाक़ी लोग अपनी राय दें तो बेहतर. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Indlinux-hindi] हिंदी विराम चिह्न और गढ़क्लिली के बारे में Date: गुरुवार 05 मार्च 2009 17:45 From: "Balasubramaniam L." To: indlinux-hindi at lists.sourceforge.net प्रिय राजेश जी, विराम चिह्न के लिए फुल स्टोप के प्रयोग को लेकर मेरी आपसे असहमति है। यह देवनागरी लिपि की एस्थेटिक्स से छेड़-छाड़ करने के बराबर है। From ravikant at sarai.net Fri Mar 6 11:55:35 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 6 Mar 2009 11:55:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTogW0lu?= =?utf-8?b?ZGxpbnV4LWhpbmRpXSDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KS14KS/4KSw4KS+4KSu?= =?utf-8?b?IOCkmuCkv+CkueCljeCkqCDgpJTgpLAg4KSX4KSi4KS84KSV4KWN4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLDgpYcg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <200903061155.36499.ravikant@sarai.net> achha ja raha hai. main bhi koodunga. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [Indlinux-hindi] हिंदी विराम चिह्न और गढ़क्लिली के बारे में Date: शुक्रवार 06 मार्च 2009 11:42 From: Rajesh Ranjan To: List for Hindi Localization प्रिय बालाजी, बहुत बहुत शुक्रिया इतने विस्तार से लिखने के लिए. बढ़िया तर्क हैं खड़ी पाई के पक्ष में. इस बहस को बढ़ाते हुए हम इसे दीवान डाक सूची पर भी भेजते हैं...आप भी हो सके तो दीवान डाक सूची में शामिल हो लें. मैथिली शब्दावली के संबंध में हमें कुछ कहना है...हालांकि आप फ़्यूल मैथिली की सूची देखेंगे तो पाएंगे कि हिन्दी में प्रयुक्त शब्दों की बहुतायत है और तकनीकी रूप के कारण ही ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गई है. वहाँ बैठे भाषाविद ने शब्दों की अखिल भारतीयता को हमेशा ध्यान में रखने की कोशिश की परंतु उनका यह भी मत रहा कि कुछ शब्द हमारी ठेठ मैथिली से भी जाएँ तो आपत्ति नहीं होनी चाहिए.  फिर भी कुछ शब्द ऐसे आए हैं और उसे क्यों वहाँ बहुमत से चुना गया, इसके लिए हमें उन किशोर किशोरियों से पूछना पड़ेगा जो वहाँ मौजूद थे लेकिन मैथिली भाषा ज्ञान तो छोड़ दें कंप्यूटर के ज्ञान में भी नब्बे साल के एक बूढ़े से नहीं ठठ पा रहे थे. शायद आपको ताज्जुब हो रहा हो...लेकिन यह सच है. वहाँ बैठे तीन चार और वरिष्ठ नागरिक थे यानी 65-70 साले के, मैथिली के लेखक ही थी...आश्चर्यजनक रूप से वे न केवल पच्चीस तीस साल के लोगों से कंप्यूटर के बारे में भी अधिक जान रहे थे बल्कि उनकी विश्लेषण के तरीके भी इतने अनोखे थे कि हमलोग हैरान थे. मुझे आश्चर्य हुआ था यह देखकर कि 85 साल में कंप्यूटर सीखना शुरू करने वाला और आज 90 साल के वे गोविंद झा शायद हमलोगों से अधिक जवान थे...8-9 घंटे की दो दिनों तक थका देने वाली चली वह बहस मुझे याद रहेगी...क्योंकि वे वरिष्ठ लोग वहाँ उपस्थित युवाओं की बनिस्पत कंप्यूटर व भाषा दोनों के स्तर पर ऊपर ही रहेंगे. इसलिए शायद अगर आप उम्र से कंप्यूटर ज्ञान के स्तर को आंकते हैं तो संभवतः मैथिली के ये विद्वान उसके अपवाद ही कहलाएंगे. गोविंद झा जिन्होंने मैथिली फ़्यूल में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ने करीब 20 से ऊपर शब्दकोशों का निर्माण किया है और हाल में अपने 90 वें वर्ष में मैथिली बंगाली शब्दकोश तैयार किया है. फिर ऐसा नहीं कि उनकी जानकारी और भाषाई ज्ञान को वरीयता देकर मैं कहीं से भी आपकी बात से बाहर हूँ लेकिन जरा सोचिए पासवर्ड को पहली बार जान रहे लोगों को भी वही दिक्कतें आई होंगी. कल ही मैं हिंदी के कथाकार सूरज प्रकाश से मिला हूँ ...वे कह रहे थे कि पहला पासवर्ड तो सिम सिम था...रविकांत जी भी इस शब्द की पैरवी पाँच वर्ष पहले से किए हैं. मैथिली में भी यही शब्द पहली बार आया था कि सिम सिम ही रखा जाए...लेकिन लोग 'अजीब' समझ कर इस शब्द को छोड़ रहे हैं. कभी कभी लगता है कि हम अपने से जुड़े चीजों को अजीब समझने के लिए अभिशप्त तो नहीं हैं.  रतलामी जी ने मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी देते हुए लिखा कि जमीन से जुड़े शब्द ही प्रचलन में आने पर कालांतर में अच्छे लगेंगे, भले ही अभी पासवर्ड की जगह गुड़किल्ली अजीब लगे. लंबे समय से भाषाई कंप्यूटिंग से जुड़े रहने के कारण वे शायद समझ रहे हैं कि यह शब्द लोगों को अजीब व हास्यास्पद लग सकता है.  और यदि गूढ़किल्ली जैसे शब्द से पहले यह मूल अर्थ ही सामने आता है तो भी कम से कम यह बात तो स्पष्ट होगी ऐसा कूछ है जो गूढ़ है और हमें यहाँ उसे रखना है. regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Thu, 3/5/09, Balasubramaniam L. wrote: From: Balasubramaniam L. Subject: [Indlinux-hindi] हिंदी विराम चिह्न और गढ़क्लिली के बारे में To: indlinux-hindi at lists.sourceforge.net Date: Thursday, March 5, 2009, 5:45 PM प्रिय राजेश जी,   विराम चिह्न के लिए फुल स्टोप के प्रयोग को लेकर मेरी आपसे असहमति है। यह देवनागरी लिपि की एस्थेटिक्स से छेड़-छाड़ करने के बराबर है। यदि आप देवनागरी लिपि में लिखे पाठ को देखें, तो आप पाएंगे, उसमें सर्वत्र खड़ी पाई का ही बोलबाला है। लगभग हर वर्ण में खड़ी पाई या तो पूर्ण रूप से विद्यमान ------------------------------------------------------- From invite+mqknabaa at facebookmail.com Fri Mar 6 19:06:55 2009 From: invite+mqknabaa at facebookmail.com (Vijay Kumar Pandey) Date: Fri, 6 Mar 2009 05:36:55 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Join Facebook Message-ID: <3fa71b3d2a46ad41cd45f65d22c09871@localhost.localdomain> Hi Deewan, I set up a Facebook profile where I can post my pictures, videos and events and I want to add you as a friend so you can see it. First, you need to join Facebook! Once you join, you can also create your own profile. Thanks, Vijay To sign up for Facebook, follow the link below: http://www.facebook.com/p.php?i=1604747268&k=Z3CUXZW3PZ2GUEG1WEZ3YV&r This e-mail may contain promotional materials. If you do not wish to receive future commercial mailings from Facebook, please click on the link below. Facebook's offices are located at 156 University Ave., Palo Alto, CA 94301. http://www.facebook.com/o.php?k=f8d7eb&u=730675082 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090306/66db107c/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Mar 8 00:05:54 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Mar 2009 00:05:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSn4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpKzgpL7gpKYg4KSt4KWAICLgpIngpK7gpY3gpK4=?= =?utf-8?b?4KWA4KSmIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpJXgpYvgpIgi?= Message-ID: <829019b0903071035j26f20df3scd312bd18909e92f@mail.gmail.com> गुजरात में इतना अधिक पोलराइजेशन है, चाहे वो ज्यूडिसरी को लेकर हो, रिसर्च को लेकर हो, राजनीति या फिर किसी और चीज को लेकर कि चीजों को सीधे या तो ब्लैक या फिर व्हाइट साबित कर दिया जाता है, बीच में कोई धरातल बचता ही नहीं है। यहां के लिए बीच की चीजों को समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। सरुप बेन की किताब उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006 इसके बीच की धरातल मुहैया कराती है। गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं लेकिन सरुप बेन इसके बीच समझ और संवेदना की धरातल की खोज करती हुई रचना के तौर पर उम्मीद होगी कोई हमारे सामने पेश करती है। गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों या फिर समाज विज्ञान के आधार पर लिखी गयी किसी दूसरी किताबों की तरह ये किताब हमारे सामने समाज विज्ञान के शोध का खांचा नहीं खींचती। इसे आप रिपोर्टिंग भी नहीं कह सकते। इतिहास लिखने के जो प्रचलित रुप हमारे सामने हैं, उस लिहाज से ये किताब इतिहास भी नहीं है। लेकिन इन सबके वाबजूद इसमें न तो समाज विज्ञान की ही कोई कमी है और न ही इतिहास की समझ की। दरअसल सरुप बेन ने गोधरा के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने के लिए जिसे मेथड का इस्तेमाल किया है वो मेथड ही इसकी खासियत है। गुजरात की लेखिका औऱ संस्कृतिकर्मी सरुप बेन की किताब पर बात करते हुए प्रो.धीरुभाई सेठ ने जब गुजरात से बीच की जमीन के गायब हो जाने की बात की तो ये सवाल फिर से ताजा हो गया कि क्या किसी प्रदेश या राज्य का लोकतंत्र भी इतना खतरनाक हो सकता है कि उसके खरोच के निशान घाटियों की तरह इतने गहरे हो सकते हैं कि उसे पाट पाने की कहीं कोई उम्मीद नहीं झलकती। धीरुभाई इस निशान के बीच उम्मीद को किसी सरकारी योजना और राहत कार्य से पाटे जाने के बजाय उस दर्द को बार-बार याद किए जाने और संजोने के रुप में देखते हैं। संभव है गुजरात में टाटा नैनो की तरह और भी कई दर्जनों धकियायी और ठुकराई गयी कम्पनियां आ जाए लेकिन कहां है उम्मीद, ये उम्मीद क्या उन लोगों की झोली में गिरेंगे और अगर गिर भी गए तो क्या वो उम्मीद की ही शक्ल में होगी जिनकी नजरों के सामने अपनी बेटी का बलत्कार हुआ है, तुतलाती जुबान को साफ करने की कोशिश में लगा बच्चा खोया है। धीरुभाई के मुताबिक सरुप बेन उम्मीद की तलाश दर्द के बीच ही करती है,उसे कहीं और किसी रुप में विस्थापित करके नहीं। किताब के संपादक रविकांत ने कहा- जब भी हिन्दुस्तान में गोधरा या फिर इस तरह के किसी औऱ दंगे की चर्चा होती है उस पर अधिकांश विद्वानों द्वारा पार्टिशन जारी है जैसा लेबल चस्पा दिया जाता है। इसे देखकर हम जैसे लोग कुनमुनाते हैं, बार-बार ये ख्याल आता है कि क्या गोधरा के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना सही तरीका है। रविकांत की बातों को समझें तो ये विभाजन के दर्द के मार्फत गोधरा और बाकी कांडो़ं के दर्द को समझने की सहुलियत देता है या फिर विश्लेषण का सरलीकरण करता है। क्या तात्कालिक दर्द औऱ टीस को स्मृति के दर्द के साथ जोड़कर महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने से विश्लेषण में सुविधा होते हुए भी कहीं अनुभूति की गहराई को कमतर औऱ फार्मूलाबद्ध करने की कोशिश तो नहीं की जाती। किताब का संपादन करते हुए बकौल रविकांत कई बार रोए। क्या ये पार्टिशन के दर्द को याद करते हुए, उस स्मृति के बूते अभ्यस्त होते हुए, इसका भी जबाब वो स्वयं देते हैं। पहले तो मैंने सोचा कि बहुत हो गया रोना-धोना, अब नहीं रोना है मुझे इस तरह की बातों पर।....लेकिन फिर इस किताब से गुजरते हुए,कई बार रोया। बाद में दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका। कौन मजबूर कर देता है रोने के लिए, सरुप बेन की प्रस्तुति, दो सौ परिवारों का दर्द जिसकी बातचीत को सरुप बेन ने संवेदनशील तरीके से किताब में टांका है या फिर पूरी किताब में उम्मीदी के मुकाबले नाउम्मीदी के मैजॉरिटी में होने की स्थिति या फिर लोकतंत्र के उपर भी वर्चस्ववादी कवर के चढ़ा दिए जाने की पीड़ा। इस पर विचार करना जरुरी है। फिलहाल, इसी कवर को हटाने की जद्दोजहद की स्थिति में अभिषेक कश्यप( संपादन सहयोग) तमाम खामियों के वाबजूद भी लोकतंत्र को बेहतर मानते हैं, जिसके तहत सरुप बेन किताब लिख सकीं। किताब के भीतर दर्द, अथाह दर्द व्यक्ति स्तर का भी दर्द औऱ समाज के स्तर का भी दर्द, इस दर्द के कई रुप, कई परतें लेकिन ये दर्द हमारे बीच निराश का साम्राज्य फैलाने के बजाय उम्मीद पैदा करती है,उम्मीद की संभावना पैदा करती है। खत्म होती हुई उम्मीद के बीच उम्मीद के खत्म न होने की गुंजाइश की तलाश करती ये किताब उस जिद का एक बार फिर से दुहराती है- जीवन हर हाल में जिया जा सकता है। सबकुछ लूटने के वाबजूद भी, समेटने की साहस को संजोते हुए.... कल पढ़िए स्वयं रचनाकार क्या कहती है उम्मीद होगी कोई के बारे में, इतिहासकार अविनाश कुमार और समाजशास्त्री प्रो. शैल मायाराम के विचार। उसके बाद किताबों पर चर्चा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090308/fdd8572b/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Mar 8 00:13:50 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Mar 2009 00:13:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSu4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSmIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpJXgpYvgpIjgpIMg4KSF4KSq4KWA?= =?utf-8?b?4KSy?= Message-ID: <829019b0903071043v63d85364t9d0278632a3796e1@mail.gmail.com> दीवान के साथियों आज मैंने ब्लॉग http://taanabaana.blogspot.com पर सरुप ध्रुव की लिखी किताब उम्मीद होगी कोई पर चर्चा शुरु की है। आपसे अपील है कि कमेंट या स्वतंत्र लेख, आप चाहे जिस रुप में इस किताब की चर्चा करते हैं, हमसे साझा करें, हमें भी बताएं कि कहां प्रकाशित हुई है या हो रही है ताकि इसे हम अपने ब्लॉगर साथियों को भी मुहैया करा सकें। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090308/a18c1063/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Mar 8 10:49:34 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 8 Mar 2009 10:49:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSc4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkleClhyDgpKzgpL7gpKYg4KSt4KWAICLgpIngpK7gpY0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSmIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpJXgpYvgpIgi?= Message-ID: <829019b0903072119r27e9a275h3fb42e5500ef9ea3@mail.gmail.com> गुजरात में इतना अधिक पोलराइजेशन है, चाहे वो ज्यूडिसरी को लेकर हो, रिसर्च को लेकर हो, राजनीति या फिर किसी और चीज को लेकर कि चीजों को सीधे या तो ब्लैक या फिर व्हाइट साबित कर दिया जाता है, बीच में कोई धरातल बचता ही नहीं है। यहां के लिए बीच की चीजों को समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। सरुप बेन की किताब उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006 इसके बीच की धरातल मुहैया कराती है। गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं लेकिन सरुप बेन इसके बीच समझ और संवेदना की धरातल की खोज करती हुई रचना के तौर पर उम्मीद होगी कोई हमारे सामने पेश करती है। गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों या फिर समाज विज्ञान के आधार पर लिखी गयी किसी दूसरी किताबों की तरह ये किताब हमारे सामने समाज विज्ञान के शोध का खांचा नहीं खींचती। इसे आप रिपोर्टिंग भी नहीं कह सकते। इतिहास लिखने के जो प्रचलित रुप हमारे सामने हैं, उस लिहाज से ये किताब इतिहास भी नहीं है। लेकिन इन सबके वाबजूद इसमें न तो समाज विज्ञान की ही कोई कमी है और न ही इतिहास की समझ की। दरअसल सरुप बेन ने गुजरात के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने के लिए जिसे मेथड का इस्तेमाल किया है वो मेथड ही इसकी खासियत है। गुजरात की लेखिका औऱ संस्कृतिकर्मी सरुप बेन की किताब पर बात करते हुए प्रो.धीरुभाई सेठ ने जब गुजरात से बीच की जमीन के गायब हो जाने की बात की तो ये सवाल फिर से ताजा हो गया कि क्या किसी प्रदेश या राज्य का लोकतंत्र भी इतना खतरनाक हो सकता है कि उसके खरोच के निशान घाटियों की तरह इतने गहरे हो सकते हैं कि उसे पाट पाने की कहीं कोई उम्मीद नहीं झलकती। धीरुभाई इस निशान के बीच उम्मीद को किसी सरकारी योजना और राहत कार्य से पाटे जाने के बजाय उस दर्द को बार-बार याद किए जाने और संजोने के रुप में देखते हैं। संभव है गुजरात में टाटा नैनो की तरह और भी कई दर्जनों धकियायी और ठुकराई गयी कम्पनियां आ जाए लेकिन कहां है उम्मीद, ये उम्मीद क्या उन लोगों की झोली में गिरेंगे और अगर गिर भी गए तो क्या वो उम्मीद की ही शक्ल में होगी जिनकी नजरों के सामने अपनी बेटी का बलत्कार हुआ है, तुतलाती जुबान को साफ करने की कोशिश में लगा बच्चा खोया है। धीरुभाई के मुताबिक सरुप बेन उम्मीद की तलाश दर्द के बीच ही करती है,उसे कहीं और किसी रुप में विस्थापित करके नहीं। किताब के संपादक रविकांत ने कहा- जब भी हिन्दुस्तान में गुजरात या फिर इस तरह के किसी औऱ घटना की चर्चा होती है उस पर अधिकांश विद्वानों द्वारा पार्टिशन जारी है जैसा लेबल चस्पा दिया जाता है। इसे देखकर हम जैसे लोग कुनमुनाते हैं, बार-बार ये ख्याल आता है कि क्या गुजरात के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना सही तरीका है। रविकांत की बातों को समझें तो ये विभाजन के दर्द के मार्फत गुजरात और बाकी कांडो़ं के दर्द को समझने की सहुलियत देता है या फिर विश्लेषण का सरलीकरण करता है। क्या तात्कालिक दर्द औऱ टीस को स्मृति के दर्द के साथ जोड़कर महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने से विश्लेषण में सुविधा होते हुए भी कहीं अनुभूति की गहराई को कमतर औऱ फार्मूलाबद्ध करने की कोशिश तो नहीं की जाती। किताब का संपादन करते हुए बकौल रविकांत कई बार रोए। क्या ये पार्टिशन के दर्द को याद करते हुए, उस स्मृति के बूते अभ्यस्त होते हुए, इसका भी जबाब वो स्वयं देते हैं। पहले तो मैंने सोचा कि बहुत हो गया रोना-धोना, अब नहीं रोना है मुझे इस तरह की बातों पर।....लेकिन फिर इस किताब से गुजरते हुए,कई बार रोया। बाद में दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका। कौन मजबूर कर देता है रोने के लिए, सरुप बेन की प्रस्तुति, दो सौ परिवारों का दर्द जिसकी बातचीत को सरुप बेन ने संवेदनशील तरीके से किताब में टांका है या फिर पूरी किताब में उम्मीदी के मुकाबले नाउम्मीदी के मैजॉरिटी में होने की स्थिति या फिर लोकतंत्र के उपर भी वर्चस्ववादी कवर के चढ़ा दिए जाने की पीड़ा। इस पर विचार करना जरुरी है। फिलहाल, इसी कवर को हटाने की जद्दोजहद की स्थिति में अभिषेक कश्यप( संपादन सहयोग) तमाम खामियों के वाबजूद भी लोकतंत्र को बेहतर मानते हैं, जिसके तहत सरुप बेन किताब लिख सकीं। किताब के भीतर दर्द, अथाह दर्द व्यक्ति स्तर का भी दर्द औऱ समाज के स्तर का भी दर्द, इस दर्द के कई रुप, कई परतें लेकिन ये दर्द हमारे बीच निराश का साम्राज्य फैलाने के बजाय उम्मीद पैदा करती है,उम्मीद की संभावना पैदा करती है। खत्म होती हुई उम्मीद के बीच उम्मीद के खत्म न होने की गुंजाइश की तलाश करती ये किताब उस जिद का एक बार फिर से दुहराती है- जीवन हर हाल में जिया जा सकता है। सबकुछ लूटने के वाबजूद भी, समेटने की साहस को संजोते हुए.... कल पढ़िए स्वयं रचनाकार क्या कहती है उम्मीद होगी कोई के बारे में, इतिहासकार अविनाश कुमार और समाजशास्त्री प्रो. शैल मायाराम के विचार। उसके बाद किताबों पर चर्चा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090308/2dd9e490/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Sun Mar 8 14:11:37 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 8 Mar 2009 14:11:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSC4KSX4KS+?= =?utf-8?b?IOCklOCksCDgpK7gpLngpL7gpKbgpYfgpLUg4KSV4KWHIOCkuOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSlICLgpIngpK7gpY3gpK7gpYDgpKYg4KS54KWL4KSX4KWAIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWL4KSIICI=?= Message-ID: <63309c960903080041q7e51e088ne511377f401b518c@mail.gmail.com> इन दिनों सरुप बेन की किताब *"उम्मीद होगी कोई* " पढ़ रहा हूं। पढ़ते-पढ़ते मन "उचट" (आखिर कहर बरपाने वाले लोग कैसे होंगे यार..आदमी ही होंगे न....या ..) जाता है. पुस्तक का संपादन करने वाले रविकांत के शब्दों में *'' दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका''.* गोधरा के बाद का गुजरात, २००२-२००६ के बीच का गुजरात. इसी बीच *राही मासूम रजा * की कविता *गंगा और महादेव* पढने को मिली. आप *"उम्मीद होगी कोई "* पढ़ रहे हैं या नहीं, पर इस कविता को फिलहाल पढिये. गिरीन्द्र मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ मेरा भी एक संदेश है। मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको और उस योगी से कह दो-महादेव अब इस गंगा को वापस ले लो यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया लहू बनकर दौड़ रही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090308/62035bd7/attachment.html From delhi.yunus at gmail.com Sun Mar 8 21:36:19 2009 From: delhi.yunus at gmail.com (Syed Yunus) Date: Sun, 8 Mar 2009 21:36:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSC4KSV4KSw?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpLjgpYDgpLDgpKQ=?= Message-ID: पिछली बार की तरह इस बार भी होली और ईद मिलादुन नबी साथ ही पड़ रहे हैं | तकरीबन पूरा हिंदुस्तान रंगों और मिठाइयों की चाशनी में डूबा रहेगा | हज़रात मोहम्मद (सल्) की सीरत पर तकरीरें और नात ख्वानी का सिलसिला आम होगा | मस्जिदों में सजदे और मजारों में उर्स की भरमार होगी| गुलाल और गुजिया के भोग से तबियत भर जायेगी| लेकिन अबकी होली जब रंग उठाना, तो सोचना उन बच्चो के बारें में , जो स्टेशन पर रहते हैं, प्लास्टिक की खाली बोतलों के भरोसे | जो शायद दिन भर भूके रहेगें क्योंकि उस दिन सारी ट्रेने खाली ही चलेंगी, बोतलों के बिना| कुछ तो परिवार के साथ त्यौहार मनाने कि ख़ुशी की वजह से और कुछ गोबर और कीचड वाली देसी होली के कारण| और अबकी बार जब सीरते रसूल को सुनना तो सोचना उस आठ साल के, एक हाथ वाले शंकर के बारे में जो पूछने पर कहता हैं " भय्या पच्चीस रुपए काफी हैं , दस दस मेरे और दानिश के लिए और पांच हमारे कुत्ते के लिए"| यूनुस पिछले साल मेरे द्वारा शूट किया गया विडियो यहाँ देखें | http://www.youtube.com/watch?v=Og5ouusK7ow -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090308/8b1835c6/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Mon Mar 9 01:15:42 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 9 Mar 2009 01:15:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAg4KSJ4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KS44KS1LCDgpK7gpL/gpLLgpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIOCktuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSw4KS+4KSuIOCkuOClh+CkguCkn+CksCwg4KSu4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueClieCkieCkuCDgpK7gpYfgpII=?= Message-ID: <190a2d470903081245y61eabf72v90222427d19d146e@mail.gmail.com> दिल्ली में बिहार उत्सव, मिलते हैं श्रीराम सेंटर, मंडी हॉउस में बिहार की संस्कृति और लोकाचार की झलक सोमवार को दिल्ली में झलकेगी। इस मौके पर जहाँ बिहार के लोकगीतों और लोक नाटकों का मंच न किया जाएगा वहीं कत्थक नृत्य के जरिये जीवन की यात्रा और इसका मर्म लोग जान सकेंगे। दिल्ली की सामाजिक संस्था राग विराग एजुकेशनल एंड कल्चरल सोसाइटी द्वारा महिला दिवस और होली के मौके पर आयोजित बिहार उत्सव के मौके पर लोग बिहार के संस्कृति से रूबरू होंगे। इस मौके पर कत्थक नृत्यांगना पुनीता शर्मा अपने साथियों साक्षी कुमार, सविता अधिकारी, सुलगना राय और मीनल के साथ 'यात्रा' नामक कत्थक नृत्य पेश करेंगी। यात्रा का विषयवस्तु मनुष्य की जीवन यात्रा है, जिसमें राग-द्वेष, सुख-दुःख, प्रेम-नफरत के समागम के साथ बचपन, युवा और बुढापा जैसे पड़ाव भी हैं। मंडी हॉउस के श्रीराम सेंटर सभागार में आठ मार्च शाम छह बजे आयोजित उत्सव में मैथिली और भोजपुरी गायिका अंशुमाला विभिन्न मौके पर बिहार में गाये जाने वाले लोक गीतों को पेश करेंगी। इसमे कजरी, जाट-जाटिन सहित विवाह और होली पर गाये जाने वाले गीत होंगे। लोक नाटक के भाग में जयशंकर अपने साथियों के साथ बिहार के प्रसिद्ध नाटक 'जाट-जाटिन' लोगों के सामने पेश करेंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090309/4b8a1a0e/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Mon Mar 9 12:38:46 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 9 Mar 2009 12:38:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAg4KSJ4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KS44KS1LCDgpK7gpL/gpLLgpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIOCktuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSw4KS+4KSuIOCkuOClh+CkguCkn+CksCwg4KSu4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueClieCkieCkuCDgpK7gpYfgpII=?= In-Reply-To: <190a2d470903081245y61eabf72v90222427d19d146e@mail.gmail.com> References: <190a2d470903081245y61eabf72v90222427d19d146e@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470903090008x47131bebga606892cfd86b21b@mail.gmail.com> सथियों, माफ़ करेंगे, बिहार उत्सव नौ मार्च यानी सोमवार यानी आज शाम छह बजे श्रीराम सेंटर, मंडी हाउस में आयोजित किया जा रहा है. विनीत उत्पल 2009/3/9 vinit utpal > दिल्ली में बिहार उत्सव, मिलते हैं श्रीराम सेंटर, मंडी हॉउस में > बिहार की संस्कृति और लोकाचार की झलक सोमवार को दिल्ली में झलकेगी। इस मौके पर > जहाँ बिहार के लोकगीतों और लोक नाटकों का मंच > न किया जाएगा वहीं कत्थक नृत्य के जरिये जीवन की यात्रा और इसका मर्म लोग जान > सकेंगे। > दिल्ली की सामाजिक संस्था राग विराग एजुकेशनल एंड कल्चरल सोसाइटी द्वारा > महिला दिवस और होली के मौके पर आयोजित बिहार उत्सव के मौके पर लोग बिहार के > संस्कृति से रूबरू होंगे। इस मौके पर कत्थक नृत्यांगना पुनीता शर्मा अपने > साथियों साक्षी कुमार, सविता अधिकारी, सुलगना राय और मीनल के साथ 'यात्रा' नामक > कत्थक नृत्य पेश करेंगी। यात्रा का विषयवस्तु मनुष्य की जीवन यात्रा है, जिसमें > राग-द्वेष, सुख-दुःख, प्रेम-नफरत के समागम के साथ बचपन, युवा और बुढापा जैसे > पड़ाव भी हैं। > मंडी हॉउस के श्रीराम सेंटर सभागार में आठ मार्च शाम छह बजे आयोजित उत्सव में > मैथिली और भोजपुरी गायिका अंशुमाला विभिन्न मौके पर बिहार में गाये जाने वाले > लोक गीतों को पेश करेंगी। इसमे कजरी, जाट-जाटिन सहित विवाह और होली पर गाये > जाने वाले गीत होंगे। लोक नाटक के भाग में जयशंकर अपने साथियों के साथ बिहार > के प्रसिद्ध नाटक 'जाट-जाटिन' लोगों के सामने पेश करेंगे। > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090309/390031a9/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Mar 9 12:50:33 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 9 Mar 2009 12:50:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSW4KSC?= =?utf-8?b?4KSh4KWAIOCkqOCliOCkpOCkv+CkleCkpOCkviDgpJXgpL4g4KSF4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KS14KSu4KWH4KSnIOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYggLSDgpIbgpLLgpYs=?= =?utf-8?b?4KSVIOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSAtIDE=?= Message-ID: <200903091250.34069.ravikant@sarai.net> संवाद प्रकाशन के कर्ता धर्ता, कवि और कथादेश में अख़बारनामा के स्तंभकार आलोक श्रीवास्तव ने दो-एक दिन पहले यह लंबा सा आलेख भेजा, जो पहल के बंद होने के संदर्भ में उपजे विवाद के बहाने हिन्दी की लघुपत्रिकाओं की संस्कृति पर कुछ तल्ख़ टिप्पणियाँ करता है. मैंने इसे रजनीश मंगला के कामयाब फ़ॉन्ट परिवर्तक से युनिकोड में तब्दील कर दिया है. मैंने अभी तक इन टिप्पणियों को देखा नहीं है जिनके जवाब में आलोक ने लिखा है. लेकिन मैं कई मुद्दों पर अपने आपको उनसे सहमत पाता हूँ. और अगर इसे नहीं छापा गया है तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि इसे कम से कम विश्वव्यापी वेब पर घुमाएँ, और बहस करें. मैं इसे दो खंडों में भेज पा रहा हूँ, क्योंकि 14 पृष्ठों का माल है. मैं पहल को गाहे बगाहे पढ़ता रहा हूँ, और मुझे लगता है कि पिछले चार-पाँच सालों में यह अपने ही बनाए स्तर को लाँघने की लगातार कोशिश करती हुई बेहद पठनीय और ज़रूरी पत्रिका बन गई थी. इसका जाना अफ़सोस की बात तो है, पर सारी नैतिक ज़ीम्मेदारी ज्ञानरंजन पर डालकर नैतिकता के उच्च शिखर पर जा बैठना निश्चय ही श्लाघ्य नहीं है. आलोक ने साँचा को भी याद किया है जिसका जाना हम सबको खला था. रविकान्त **** 10 जनवरी, 2009 माननीय हरिनारायण जी आशा है आप मजे में होंगे. जैसा कि फोन पर बात हुई थी, कथादेश के लिए लेख भेज रहा हूं. यह लेख कुछ बेहद महत्वपूर्ण मसलों से वाबस्ता है, यद्यपि इसमें हिंदी साहित्य के कुछ स्वनामधन्यों के लिए कुछ कड़ी बातें कही गई हैं, परंतु उन बातों की सच्चाई के बारे में आप मुझसे अधिक और सप्रमाण जानते हैं. बल्कि सत्य की रोशनी में देखा जाए तो ये कड़ी बातें बहुत अपर्याप्त साबित होंगी. हिंदी में आपसी ले-दे के तहत तो अपशब्दों तक के इस्तेमाल से गुरेज नहीं है, परंतु किसी गहरे मुददे पर तथाकथित वर्चस्वियों के बारे में एक आम सहमति का माहौल है. आशा है यह लेख, हमेशा की तरह अविकल छापेंगे. नवंबर के प्रथम सप्ताह में अपनी कविता कथादेश के लिए भेजी थी. अगर किसी कारण से न छाप सकें तो, सूचित अवश्य कर दीजिएगा, ताकि अन्यत्र भेज सकूं. आशा है स्वस्थ और प्रसन्न होंगे. सादर आपका आलोक श्रीवास्तव 07 मार्च, 2009 यह लेख कथादेश में छपा नहीं. पहले संपादक महोदय लेख न मिलने की बात करते रहे, जब लेख ई.मेल, कूरियर, सीडी, पीडी एफ फाइल साथ ही प्रिंट आउट के हर संभव तरीके से भेज दिए गए, तो वे मौन साध गए दो माह बाद फोन करने पर कहा कि लेख जमा नहीं, किस कारण, इसके जवाब में फिर मौन था. तो मित्रों यह हाल है हमारी भाषा के साहित्य-समाज का. कायरता, चुप्पी, निहित स्वार्थ, डर..... यह कहानी है हिंदी के मौजूदा दौर के साहित्य उसके रखवालों और उसके मठाधीशों की.... इसी कथादेश में मैंने बिना पारिश्रमिक लिए, संपादक के निरंतर दबाव भरे आग्रह के कारण बरसों एक स्तंभ लिखा -- `अखबारनामा´. वह भी तब लिखा, जबकि लिखने का समय निकाल पाना मुश्किल था, सिर्फ मीडिया से जुड़े मुददों के प्रति प्रतिबद्धता और साथ ही संपादक का अत्यधिक विनम्रतापूर्ण और निरंतर दबाव. जिन पाठकों ने इस लेखमाला को पसंद किया, कभी न लिख पाने की स्थिति में नि रंतर फोन कर आग्रह किया, उनसे विनयपूर्वक क्षमायाचना के साथ कहना पड़ रहा है कि अब यह स्तंभ उन तक न पहुंच सकेगा -- क्योंकि मेरा जमीर गवारा नहीं करेगा कि ऐसी पत्रिका में लिखने के लिए जहां हिंदी साहित्य के एक अत्यधिक संवेदनशील मुददे के साथ ऐसी कुटिलता बरती जाए और वह भी इस शिल्प में कि आप नौ साल से अपने लिए नियमित लिख रहे लेखक को सूचित करने का साहस, सौजन्य और औपचारिकता बरतना भी जरूरी न समझें.... बहरहाल अब यह लेख ई-मेल, ब्लॉग आदि के जरिए हिंदी के पाठकों तक प्रेषित है और अतिशीघ्र इसकी बीस हजार प्रतियां पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर वितरित की जाएंगी. पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है - आलोक श्रीवास्तव यह लेख पहल के बंद होने पर की गई प्रतिक्रियाओं पर लिखा गया है. पर यह इसका मूल विषय नहीं है. हिंदी का संसार साम्राज्यवाद द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों के कारण जैसे जैसे तिरोहित होता जा रहा है -- अथाZत हिंदी में पाठक लगभग खत्म हो गए हैं, लेखन दोयम दर्जे का हो चुका है, उत्सव, पुरस्कार, जनसंपक्र आदि-आदि बढ़ते गए हैं, बौद्धिक परंपरा अस्तप्राय है -- ऐसे में कुछ लोग नैतिकता का रोजगार कर रहे हैं. इन स्थितियों की जड़ों तक पहुंचने और हिंदी भाषा, उसके साहित्य और उसकी वैचारिकता को सुरक्षित रखने, पल्लवित करने के आधारभूत संघर्ष न कर अवसरवादी तरीके से और जड़ता के भरपूर आत्मविश्वास के साथ कुछ चुनी हुई चीजों को निशाना बनाते हैं और उसे इस तरह ध्वस्त कर देते हैं, जैसे उसका कुछ अर्थ ही न था. यह राजनीति कुछ के पक्ष में चुनी हुई चुिप्पयों और कुछ के खिलाफ सोटा लेकर भागने वाले गुरू जी या गांव के थानेदार की राजनीति है. यहां चीजों के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य और संस्कृति की वास्तविक चिंताएं नदारत हैं, है तो सिर्फ एक बहुत चालाक आत्मविश्वास जो चीजों का मूल्यांकन नहीं, अवमूल्यन करता है. यह लेख इस प्रवृत्ति के विरुद्ध है, पहल इसका एक तात्कालिक कारण मात्र है. ज्ञानरंजन ने एक अपराध कर दिया है. उन्हें मृत्यु जब तक विवश न कर दे, तब तक पहल निकालते रहना चाहिए था ताकि हिंदी का साहित्यिक समुदाय यह कह सके कि जब वे दिवंगत हुए तो, वे पहल के आगामी अंक का प्रूफ मृत्युशैया पर भी देख रहे थे, वे अपने हाथों से लिफाफों पर पते लिख कर डाकखाने में डालने खुद जा रहे थे, वे हिंदी की एक महान आत्मा थे. अब चूंकि उन्होंने पहल को बंद करने का अपराध कर दिया है, तो हिंदी के बौद्धिक गण उन्हें सजा देना चाह रहे हैं. यह सजा कैसी हो, इस पर फिलहाल हिंदी के सार्वजनिक साहित्य क्षेत्र में बौद्धिकों का विमर्श जारी है.... मैंने उपरोक्त पंक्तियां लिखीं और सोचा कि इस पूरे मसले पर व्यंग्य की भाषा में पूरा लेख लिख दिया जाए. पर यह संभव नहीं हो पा रहा है. क्योंकि कुछ बहुत ठोस तथ्य सामने रखने पड़ेंगे. कुछ मुददे उठा ने पड़ेंगे, कुछ टिप्पणियां देनी पड़ेंगी. कुछ प्रतिरोध करना पड़ेगा, और संभवत: हिंदी के आत्ममुग्ध बौद्धिकों के लिए कुछ ऐसी संज्ञाओं का सृजन करना पड़ेगा, जिसके वे उपयुक्त पात्र हैं. यह पूरा मसला इतना अश्लील, इतना कृतघ्नता से पूर्ण और इतना गर्हित है कि इसे नोटिस ही नहीं लिया जाना चाहिए था, पर चूंकि हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादकों ने अपनी भरपूर मूढ़ता और अहंमन्यता जाहिर की है, अत: इसकी उपेक्षा संभव नहीं. मसला ज्ञानरंजन का नहीं है, मसला पहल का भी नहीं है. मसला हिंदी के उन बचे रह गए पाठकों का है, जो अब भी अपने कस्बों शहरों में हिंदी की इन पत्रिकाओं में छपने वाली चीजों से प्रभावित होते हैं. मैं इन पत्रिकाओं के संपा दकों से सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि इन पाठकों को आप बताना क्या चाह रहे हैं? ज्ञानरंजन और पहल पर आपकी टिप्पणियों का क्या अर्थ है? क्या आप सचमुच में हिंदी के पाठकों को इस योग्य समझते हैं, कि अपनी कोई भी लीद पूरे आत्मविश्वास के साथ उन पर कर ही देंगे, और सोचेंगे कि आपने एक बौ द्धिक कर्म किया है. विचार किया है, िंचंतन किया है और विमर्श में कुछ जोड़ा है. राजेंद्र यादव लिखते हैं -- 1.मैं भी सोचता हूं दो साल बाद क्या मैं भी ऐसी ही घोषणा हंस को लेकर कर दूं? आखिर पचीस वर्ष तक मैंने इसे अपनी सांस-सांस में जिया ही है. (महोदय, चूंकि यहां आप ज्ञानरंजन से अपनी तुलना कर रहे हैं तो आपको यह भी बताना चाहिए कि हंस आपने तब निकाली जब 55 की उम्र पार कर चुके थे, लेखक के रूप में आपका कुछ बन न पाया था और आपकी पत्नी मन्नू भंडारी कॉलेज में प्राध्यापक थीं, और अनेक मित्रों संस्थाओं का आपने भरपूर आर्थिक सहयोग प्राप्त किया था, जबकि पहल के साथ और ज्ञा नरंजन के साथ ऐसी कोई परिस्थिति न थी. इस संदर्भ में तुलना के अनेक गंभीर बिंदु भी हैं, जिन्हें लि खना फिलहाल आपकी शान में गुस्ताखी होगा.) 2.एक पत्रिका सिर्फ व्यक्तिगत प्रयास नहीं होती. 3.`पहल´ को बंद करना शायद पाठकों को ज्ञानरंजन का वैसा ही दंभ लगता है, जैसे आप राजधानी एक्सप्रेस में कलकत्ता जाने के लिए स्टेशन पर जाएं तो पता लगे कि राजधानी हमेशा के लिए बंद हो गई है. 4.कोई पत्रिका मरती तब है जब न नई स्थितियों की समझ हो, न नई रचनाशीलता के लिए सहा नुभूति. यहां सबसे बड़ी बाधा बनती है अपनी पुरानी महानता और सिर्फ अपने को ही सही मानने की कुंठा. जब हर चीज पहले ही तय हो चुकी हो तो कहीं भी नया क्या होगा? (यहां फिर तुलना की गई है, तो आपको लगे हाथ यह भी बता देना चाहिए कि नई रचनाशीलता का अर्थ भी आप समझते हैं क्या? इसका अर्थ कुछ युवा लेखक-लेखिकाओं से तथाकथित दोस्ताना संबंध बनाना और उनकी रचनाओं को प्रमुखता से जगह देना ही नहीं है. आज के दौर में नई रचनाशीलता एक गहरे संकट से गुजर रही है, उसके रचनागत ही नहीं, सभ्यता और संस्कृतिगत गंभीर आयाम हैं, इसकी चिंता करना एक बात है और नए रचनाकारों को मंच मुहैया करना एक अलग बात. दोनों में घालमेल न करें. फिर आपको यह भी बता ना चाहिए कि साठ वर्ष की उम्र तक आपके लेखन में जाति-चेतना और स्त्री-विमर्श का कतरा भी नजर नहीं आता, जबकि ज्योतिबा फुले, आंबेडकर आदि जाति-चेतना के लिए सैद्धांतिक कार्य कर चुके थे, इन दो बातों के लिए आपको यह इंतजार करना पड़ा कि जाति और पिछड़ों के नाम पर सत्ता और वर्चस्व की राजनीति का परिदृश्य बने और इसी प्रकार स्त्री-विमर्श के लिए ग्लोबलाइजेशन के तहत एक उठाईगीर संस्कृति स्त्री की छदम लिबरेटेड छवि उत्पन्न करे. महोदय आपकी रचनात्मक, वैचारिक और नैतिक बुनियादें बहुत कमजोर हैं, अत: दूसरों पर झूठे आरोप लगाने से बचें. आप ठीक से आत्मरक्षा तक नहीं कर पाएंगे. हंस आपने निकाला हिंदी संसार पर बहुत एहसान किया, परंतु इसके जरिए जो बड़े दावे आपने किए हैं, उनके परीक्षण का अधिकार भावी पीढ़ी के पास सुरक्षित है.) समायांतर में नवीन पाठक के नाम से पंकज बिष्ट लिखते हैं -- 1.अपनी सारी लोकप्रियता के बावजूद कोई नहीं जानता कि पहल वास्तव में कितनी छपती थी. 2.अपने उच्च-भ्रू अंदाज और मंहगे दाम के कारण यह कभी भी आम हिंदी पाठक की पत्रिका नहीं बन पा ई. 3.पहल की सफलता का एक बड़ा कारण उसके लेखक थे, जो जाने-अनजाने प्रभावशाली वर्ग से आते थे, खा सकर नौकरशाही से. इन कल्टीवेटेड `लेखकों´ ने पहल को जिलाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 4.राजनीतिक संबंधों का भी इस सफलता में योगदान रहा है. 5.पहल सदा से ही साफ्ट वाम की ओर झुकी पत्रिका रही है, पर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उनका संस्थानों से सीधा टकराव हुआ हो, या उन्होंने सरकारों का या सत्ता का सीधे और मुखर विरो ध किया हो. (मान्यवर यहां आप साफट वाम और हार्ड वाम का जो विभाजन कर रहे हैं, उसके बारे में थोड़़ा विस्तार से आपको लिखना चाहिए था. आप किस हार्डवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या हार्ड वाम की पत्रिका निकालने के लिए ही आपने एक महत्वपूर्ण सरकारी विभाग में जिंदगी भर बड़े पद पर नौकरी की और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर बाद के रिटायर्ड वर्षों में हार्ड वाम की सेवा को अपना मिशन बनाया? आपके आरोप ऊपर से सैद्धांतिक लगते हैं, पर अपनी अंतर्वस्तु में छिछोरे हैं) 6.मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के होने के बावजूद कभी ऐसा नहीं हुआ कि उन्हें विज्ञापन लेने में किसी तरह की दिक्कत हुई हो. 7.असल में पहल की बुनियाद में ही उसे सामान्य हिंदी पाठकों के लिए नहीं बनाया गया था 8.पहल ने पत्रिका को चलाने के जो तरीके अपनाए, उन्हें उनकी नकल करने वालों ने लगभग विकृति की हद तक पहुंचा दिया. 9.पहल जैसी पत्रिकाओं से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे ऐसी व्यवस्था बनाएं कि उनके संस्थापक संपादकों के बाद भी पत्रिका चलती रहे. 10.असल में किसी भी संस्थान या सामाजिक प्रयत्न को बचाने के लिए ऐसी उदारता की जरूरत है, जो अपने परिवार जाति और संपद्राय से आगे बढ़ कर सोचने में समर्थ हो रवींद्र कालिया लिखते हैं -- हिंदी में लघुपत्रिकाओं की स्थिति विचित्र है. अनेक पत्रिकाएं ऐसी हैं, जिन्हें कुछ साहित्यानुरागी अथवा यश:प्रार्थी संपादक अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकाशित करते हैं. ऐसी पत्रिकाएं भी बरसों बरस प्रकाशित होती रहती हैं और जब संपादक की इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं, तो पत्रिका एक दिन अचानक आंख मूंद लेती है. उपरोक्त सारे कथन जो इन तीन विद्वानों ने लिखे हैं, न सिर्फ तर्क और तथ्य की कसौटी पर मिथ्या हैं, अपितु वैयक्तिक पूर्वग्रह और जबर्दस्त रूप से कमजहनी से उत्पादित हैं. पहल के बंद होने को ये विद्वान+एिक्टविस्ट संपादक गण कुछ दूर की कौड़ियों से जोड़ रहे हैं. पहल किसी संस्थान से नहीं निकलती थी, वह वैयक्तिक प्रयास थी. हिंदी में बहुत सी पत्रिकाएं वैयक्तिक प्रयासों से निकली हैं और उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी भूमिका निभाई है. पहल चूंकि हिं दी की लघुपत्रिकाओं में काफी पुरानी और सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका रही, अत: उसका बंद होना पा ठक, लेखक, शुभचिंतक किसी भी रूप में उससे जुड़े व्यक्तियों को निराशा और दुख से भर देने वाला है. इस दुख में हिंदी समाज की साझी अभिव्यक्ति होनी चाहिए. परंतु उपरोक्त कथनों से यह संकेत मिल रहा कि किन्हीं पुराने हिसाबों को चुकाने और किन्हीं कुंठाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर पहल ने कुछ लोगों को दे दिया है, जो हिंदी के साहित्य समाज की ओर से स्वयंभुओं की तरह आप्त वाक्य बोल रहे हैं. पहले के बंद होने का इन्हें कोई रंज नहीं है. वे उपरोक्त कथनों में दो तरह की आपित्तयां हैं -- 1.पहल जब निकलती थी, तब उसके स्वरूप, उसके संचालन और उसके संपादक के पत्रिका को चलाने के तौर तरीके सही न थे. 2.फिर भी पहल को बंद नहीं होना चाहिए था, उसके अनंत काल तक चलने का इंतजाम संपादक को कर देना चाहिए था, ऐसा न कर उसने घनघोर अनैतिकता, बेईमानी और दुष्टता का परिचय दिया है. सबसे पहले तो ये दोनों बातें उपरोक्त विद्वान गण एक साथ कह रहे हैं, जो अपने में एक बड़ा अंतर्विरो ध है, और इस प्रकरण को इस तरह प्रस्तुत करने की उनकी मंशा को एकबारगी ही बहुत अच्छी तरह से उजागर कर देता है. परंतु फिर भी आइए मामले को थोड़ा तफसील में देखते हैं. 1.पहल के चलने के दौरान विद्वान लोग उसके साफट वाम, आम पाठकों की पत्रिका न होने और संपादक के तौर-तरीकों को लेकर खामोश रहे और 35 साल तक खामोश रहे, और अब उसके बंद होने पर वे इसे एक मुददे की तरह पेश कर रहे हैं. यह अवसरवाद नही ंतो, और क्या है? 2.पहल मंहगी थी, इसलिए कभी आम पाठकों की पत्रिका नहीं रही. क्या हंस, ज्ञानोदय, समयांतर, वसुधा, वागर्थ, कथादेश आम पाठकों की पत्रिकाएं हैं? आम पाठकों से आपका अभिप्राय क्या है? यह सभी जानते हैं कि ये सभी पत्रिकाएं सीमित प्रसार वाली साहित्यिक वैचारिक पत्रिकाएं हैं, जो दस प्रांतों के हिंदी क्षेत्र की 50 करोड़ की आबादी के बीच जो 5-7 हजार का साहित्य समाज बनता है, उसके बीच बिकती और पढ़ी जाती हैं. हम जिस समाज में रहते हैं, उसका ढांचा, सांस्कृतिक स्थिति और बहुत से कारणों के चलते हिंदी की गंभीर पत्रिकाओं को आम पाठक या विशाल पाठक नहीं खरीद पाते, पढ़ पाते. यह एक समस्या है, और समूचे युग की समस्या है, इसका निदान ढूंढने की बजाय, इससे चिंतित होने की बजाय इस तरह का गैरजिम्मेदारी पूर्ण निष्कर्ष पाठकों पर थोप देना इस किस्म की ओझागिरी ही है कि रोग इसलिए हुआ कि दक्षिण में हवा से पेड़ की एक टहनी टूटी. 3.पहल मंहगी नहीं थी. बंद होने के समय लगभग 300 पृष्ठों की सामग्री, बेहतर कागज पर सुरुचिपूर्ण ढंग से छपकर हिंदी पाठकों तक 50 रुपए में पहुंचती थी. उन्हें यह कभी मंहगी न लगी, शायद समयांतर के संपादक न्यूजप्रिंट पर छपने वाली अपनी कम पेजी बुकलेटी पत्रिका के साथ पहल की तुलना कर रहे हैं., `समयांतर´ न्यूजप्रिंट पर छपती है. इसके पृष्ठ अत्यंत कम हैं, कवर सादा होता है. यदि उत्पा दन लागत और बिक्री मूल्य की तुलना की जाएगी तो संभव है, समयांतर अधिक महंगी ठहरे. 4.पहल ही क्यों हिंदी की कौन सी पत्रिका कितनी छपती है, यह कोई नहीं जानता, मुझे याद है कि 1988 में हंस कार्यालय में राजेंद्र यादव ने कहा था कि हंस 20 हजार छपता है, दो-एक साल पहले उन्होंने ही कहीं कहा कि 8 हजार. समयांतर जब शुरू हुआ तो उसके दो हजार छपने की बात संपादक ने स्वयं कही थी, अभी वह कितना छपता है, इसका ब्यौरा उन्हें हर अंक में छापना चाहिए, साथ ही समयांतर को मिलने वाले विज्ञापनों से आने वाली राशि का ब्योरा भी हर अंक में साथ ही प्रकाशित करना चाहिए, ताकि पहल की तरह की गलतफहमी समायांतर के पाठकों को न हो और जिस तरह की छिद्रान्वेषी नैतिकता के पैमाने पर वे दूसरों को कसते हैं, वे पैमाने उन पर भी लागू हों. 5.यह कॉमनसेंस की बात है कि हिंदी में इस तरह की साहित्यिक / वैचारिक पत्रिकाएं एक हजार से 2-3 हजार प्रकाशित होती हैं, हंस, कथादेश जैसे स्वरूप की हुईं तो शायद 7-8 हजार. देखिए तो सही इस साधारण सी बात को कैसा सनसनी का आशय देने वाले वाक्य के रूप में लिखा गया है -- अपनी सारी लोकप्रियता के बावजूद कोई नहीं जानता कि पहल वास्तव में कितनी छपती थी. यानी पाठक खुद निष्कर्ष निकाल लें कि या तो पहल नाम मात्र को 200-300 प्रति छपती थी, ताकि वि ज्ञापनों की कमाई होती रहे. या फिर पचीसों-पचासों हजार छपती थी, और संपादक भरपूर कमाई करता था. हिंदी के परिदृश्य को जो भी व्यक्ति जानता है, और उपरोक्त कथन के निहितार्थ पर जो भी विचार करेगा, उसे यह तुरंत ही पता चल जाएगा कि यह बात किस कोटि की दुर्भावना और मैले मन से जन्मी है. 6.पत्रिका अपने उच्च-भ्रू अंदाज के कारण हिंदी के आम पाठक की पत्रिका नहीं बन पाई. भाई साहब, लगे हाथ यह भी कह डालिए न कि दास कैपिटल अपने उच्च भू्र अंदाज के कारण मजूदर वर्ग में लोकप्रि य नहीं हो पाया, उसे दार्शनिक, क्रांतिकारी, विद्वान लोग ही पढ़ते रहे. यह सच है कि समाज वर्गों से मिल कर बना है, और एक बहुत बड़ी आबादी ज्ञान से वंचित है, उसके समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक कारण हैं. इतना मूर्खतापूर्ण सरलीकरण, फिर बताता है कि टिप्पणीकार की कुछ प्रच्छन्न मंशाएं हैं. पहल और समयांतर के हंस और कथादेश के पाठकवर्ग में बहुत फर्क नहीं है, आरा-छपरा से लेकर, इंदौर-भोपाल और दिल्ली-लखनऊ तक कमोबेश इन सभी पत्रिकाओं का एक कॉमन पाठक वर्ग ही है, जो बहुत हुआ तो 10-12 हजार का होगा. लोकप्रियता की यह गाज गिराएंगे तो सभी पत्रिकाएं किसी न किसी तरह से उच्च-भू्र ही ठहरेंगी. यदि आप स्तरीय सामग्री देने, गंभीर आलेख देने, दुर्लभ दस्तावेज प्रकाशित करने और दर्जनों महत्वपूर्ण विशेषांकों के प्रकाशन को उच्च-भ्रू अंदाज ठहराना चा हते हैं, तो यह दयनीय तो है ही, दुखद भी है. आप चाह रहे हैं, हिंदी में कोई गंभीर, कोई सुरुचिपूर्ण काम हो ही न. सिर्फ साहित्य अकादमी, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी, गिरिराज किशोर, गोपीचंद नारंग और जनसत्ता से हिसाब चुकता किया जाए? (मान्यवर, राजेंद्र यादव, राजकमल-राधा कृष्ण प्रकाशन आदि पर गुजरे दस सालों में आपने कृपा क्यों नहीं की?) 7.यदि आपका कहना यह है कि पहल के लेखक प्रभावशाली वर्ग से आते थे, और ये कल्टीवेटेड लेखक थे, तो महोदय 35 वर्षों में पहल में छपे लेखकों की एक संक्षिप्त सूची ही `समयांतर´ के भावी अंक में प्रकाशि त कर दें, ताकि हिंदी के लोग जानें कि ये प्रभावशाली वर्ग के लेखक कौन हैं, जो कल्टीवेट किए गए. पहल में 35 वर्ष तक सैकड़ों लेखक छपे हैं. पाश, आलोकधन्वा, लीलाधर जगूड़़ी, हृदयेश, सव्यसाची, विष्णुचंद्र शर्मा,, राजेश जोशी, विजेंद्र, मधुरेश, वेणुगोपाल, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, मनमो हन, नरेंद्र जैन, देवीप्रसाद मिश्र, प्रदीप सक्सेना, भीष्म साहनी.... सूची लंबी है, मान्यवर, बेशक पहल में प्रभावशाली वर्ग के और कुछ अधिकारी वर्ग के लेखक भी छपे हैं. और क्या यह बात मुझे आपको बतानी चाहिए कि इनमें से अधिकांश साहित्य, लेखन और विचार के प्रति अपने समर्पण के कारण जाने जाते हैं, और जिन्हें आप प्रभावशाली वर्ग का कह रहे हैं, उनमें से अधिकांश अपने लेखन की गुणवत्ता के कारण ही पहल में छपे हैं, मैं इन लेखकों से तुलना नहीं कर रहा हूं, परंतु आप का वश चले तो आप विश्व साहित्य से नेरुदा, ऑक्तावियो पाज जैसे लेखकों का नामोनिशान मिटा देंगे क्योंकि ये तो सुपरअधिकारी थे, अपने देशों के राजदूत. आप यहीं नहीं रुकते आप वस्तुत: कहना यह चाह रहे हैं, पहल के पाठकों और हिंदी के बौद्धिक समाज ने नहीं, इन कल्टीवेटेड नकली लेखकों ने अपनी रचनाएं छपवाई और एवज में पहल को विज्ञापन आदि दिलवाकर उसे जिलाए रखा. मान्यवर यहां अश्लीलता और कुतकोZं की हद है. क्या आप विभिन्न सरकारों से समयांतर, हंस, आदि-आदि पत्रिकाओं को मिले विज्ञापनों का हिसाब और ब्यौरा देना चाहेंगे? आप कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता से पाए हुए विज्ञापनों को भाजपा की सांप्रदायिकता से पाए जाने वाले विज्ञापनों से श्रेष्ठ होने का तर्क देना चाहते हैं? भारतीय राजनीति की महोदय, यह सबसे दुखती रग है, इस पाखंड की जनता के बीच तो खपिच्चयां उड़ चुकी हैं, बौद्धिक वर्ग जनता से इतर अपने को द्वीप समझता हुए अपने ही कुतकोZं को इतिहास का और समय का सच समझे तो समझ ही सकता है. 8.पहल की सफलता के पीछे राजनीतिक संबंधों का भी योगदान रहा है. यह सर्वाधिक गंभीर आरोप है. निश्चित रूप से जुमला बोल कर पाठकों को बरगलाना अनुचित है. आपको यहां तर्क, प्रमाण, कारण, संदर्भ सब कुछ देने ही चाहिए. कोैन से राजनीतिक संबंध? किसके राजनीतिक संबंध? और क्या योगदान? 9.पहल का सरकार से सत्ता से कभी सीधा टकराव नहीं हुआ. वाह जेहादी, वाह! आप कौन सी सरकार से और कौन सी सत्ता से टकरा रहे हैं? यह आप कह ही चुके हैं कि पहल आम पाठक की पत्रिका नहीं थी. और यह बात मैं कह रहा हूं कि हिंदी की कोई भी साहित्यिक पत्रिका या लघु पत्रिका आम पा ठक की पत्रिका नहीं है. ये सभी पत्रिकाएं एक सीमित बौद्धिक पाठकों के बीच संचरित होती और पढ़ी जाती हैं, इन पत्रिकाओं का सत्ता नोटिस तक नहीं लेती. कभी-कभी हंस और समयांतर में आप कतिपय अग्निमय लेख -- सत्ता से टकराने वाले लेख लिख देते हैं, महोदय तो -- इस पूरी आश्वस्ति के साथ की हिंदी की पत्रिका का एक क्लोज्ड सिर्कल के बाहर नोटिस तक नहीं लिया जाता. यह क्लो ज्ड सिर्कल आपको बहुत बड़ा क्रांतिकारी एिक्टविस्ट मान लेगा, और आप गांव-कस्बों के पाठकों के बी च सत्ता से टकराव का भ्रम पैदा कर अपनी छवि चमका लेंगे. बातें इतनी सीधी-सरल टू + टू नहीं, जैसा आप कह रहे हैं. 10.छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार होने से कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहल को विज्ञापन लेने में दिक्कत हुई हो. यह दुखद स्थिति है कि हिंदी की सारी पत्रिकाएं सरकारी विज्ञापनों पर आधारित हैं. समयांतर भी इसका अपवाद नहीं है और हंस तो बिल्कुल भी नहीं. यदि आप यह कहते हैं कि भाजपा सरकार होने से कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहल को विज्ञापन लेने में दिक्कत नहीं हुई तो यह क्यों नहीं बताते कि यह कैसे हुआ कि हिंदी की बहुत सारी पत्रिकाओं की तुलना में बिल्कुल नई पत्रिका होने और कम प्रसार संख्या के बावजूद कांग्रेस सरकार के भरपूर विज्ञापन समयांतर को आरंभ से ही मिलते रहे? साम्राज्यवादी अर्थनीति द्वारा पैदा धर्मनिरपेक्षता की चाकरी को आप भाजपा की सांप्रदायिकता से श्रेष्ठ भले समझते हों, पर ये दोनों भुलभुलैयाएं हैं, इन दोनों से न निकल पाना इस राष्ट्र का एक गंभीर और करुण प्रसंग है. आप इसे सतही प्रगतिशील लफ्फाजी से निपटा कर अधिक से अधिक अपनी नकली छवि निर्मित कर सकते हैं. 11.आप कह रहे हैं कि पहल को बुनियाद से ही आम पाठक के लिए नहीं बनाया गया था. आपकी `आम पाठक´ ग्रंथि का जवाब पहले दिया जा चुका है, पर यह काम आपकी पत्रिका ने क्यों नहीं कि या? समयांतर कितनी छपती और बिकती है? फिर एक दूसरा संजीदा प्रश्न भी इससे जुड़ता है, कि न्यूजपिं्रट पर छपने और कम पृष्ठ होने के कारण समयांतर की लागत अत्यल्प है, पहल की तुलना में कई गुना कम. क्या यह नैतिकता का तकाजा नहीं है कि आप समयांतर को निरंतर मिलने वाले सरकारी वि ज्ञापनों का उपयोग समयांतर को कम से 10-20 हजार छाप कर आम पाठक के साथ न्याय करें. यहां यह यह कह देना समीचीन होगा कि समयांतर पर आने वाली लागत और विज्ञापनों से होने वाली आय के बीच के अनुपात की गणना करना बहुत मुश्किल काम नहीं है. 12.आपको यह बताना चाहिए कि पहल ने पत्रिका को चलाने के लिए वे कौन से अनैतिक, गैरकानूनी, या गलत तरीके अपनाए. यह पूरा हिंदी बौद्धिक संसार जानता है कि पहल का प्रकाशन और उसका हिंदी की रचनात्मकता पर प्रभाव, पिछले पचास वर्षों के हिंदी साहित्य की सबसे ठोस, सबसे सम्मा ननीय घटनाओं में से है. आप इतना गंभीर आरोप किस जमीन पर खड़े हो कर लगा रहे हैं? 13.इतनी सारी मिथ्या और अनर्गल बातों के बाद आप अंत में यह नसीहत देने से भी नहीं चूक रहे हैं : ``पहल जैसी पत्रिकाओं से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे ऐसी व्यवस्था बनाएं कि उनके संस्थापक संपादकों के बाद भी पत्रिका चलती रहे.´´ आप क्यों ऐसा चाहते हैं? एक पत्रिका जो आम पाठक के लिए नही है, जिसको निकालने के लिए गैरवाजिब तरीके अपनाए गए और यही नहीं जिसका लेखक वर्ग भी नकली है. उसके बंद होने पर तो आपको प्रसन्न होना चाहिए. यह दोहरापन क्यों? क्यों यह पाखंड? दरअसल आप निंदा का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते. आप चित भी मेरा पट भी मेरा वाली भाषा बोल रहे हैं. किसी पत्रिका को चलाए रखने की आपकी नेक मंशा को मान भी लि या जाए तो कई व्यावहारिक सवाल उठते हैं, आप बताएं कि आप एक लेखक हैं, और आपकी संतानें हिंदी पढ़़ने-लिखने में कितनी रुचि लेती हैं? उनका साहित्य और विचारों से कितना जुड़ाव है? हिंदी के पाखंडी लेखको! आपने अपने परिवारों में आगामी पीढ़ी को साम्राज्यवाद की चाकरी के लिए बड़े कौशल के साथ तैयार किया है, आप किस पाठक वर्ग के लिए हिंदी की पत्रिकाओं की अमरता चा हते हैं? दूर-दराज के कस्बो के गरीबों के बच्चों के लिए ताकि वे आपकी आदर्शवादी बातें पढ़ें और आपको अपना रहनुमा मानें? ये सारे जीवन के वे गंभीरतम सवाल हैं, जिनके बारे में हिंदी का अधिकांश लेखक समुदाय सोचना तक नहीं चाहता और आसमान पर बैठकर हवाई बातें करता है. 14.आपने बड़ी आप्त शैली और वाक्य विन्यास में लिखा है, ``असल में किसी भी संस्थान या सामाजिक प्रयत्न को बचाने के लिए ऐसी उदारता की जरूरत है, जो अपने परिवार जाति और संप्रदाय से आगे बढ़ कर सोचने में समर्थ हो.`` शायद आपके इस समूचे विरोध की सबसे महत्वपूर्ण, सार्थक बात यही है. अब पहल तो बंद हो गई. और वह आम पाठकों की पत्रिका भी न थी. क्यों नहीं समयांतर के लिए ऐसा प्रबंध करते? ऐसी उदारता के साथ, जो अपने परिवार जाति और संप्रदाय से ऊपर उठी हुई हो! निजी बातें कहना शोभा नहीं दे रहा है. पर कुछ मसले ऐसी जगहों पर आकर अटक जाते हैं कि नि जी का हवाला सत्य की एकमात्र कसौटी बन जाता है. बेचारे ज्ञानरंजन तो मध्यप्रदेश के कस्बाई शहर जबलपुर के एक मामूली से घर में रहते हैं. रुपया-पैसा भी उन्होंने नहीं जोड़ा, पहल को विज्ञापन जरूर मिलते रहे, पर ज्ञानरंजन की मूर्खता यह कि उत्तरोत्तर पहल को अधिक बेहतर कागज पर छा पने, पृष्ठ बढ़ाने, सज्जित करने, फिर अलग से पुस्तिकाएं छापने में इस सारे पैसे को जाया कर देते रहे. समयांतर के संपादक महोदय के दिल्ली में दो फलैट हैं. दोनों की कुल कीमत सवा करोड़ रुपए से अधिक है. इसके अलावा आपने सरकार के एक महत्वपूर्ण पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति भी ली है. बाकी संसाधन भी कम नहीं हैं. इस सपंत्ति में से कम से कम आधे या फिर पूरे का भी उपयोग आप समयांतर के लिए एक ट्रस्ट बनाने में कर सकते हैं. और हिंदी को सचमुच एक ऐसी पत्रिका दे सकते हैं, जो कम से कम एक-दो करोड़ रुपए की मजबूत आर्थिक नींव पर खड़़ी हो, जो जनता के मुददे उठाए, जो लाखों आम पाठकों तक पहुंचे, जिसका प्रसार कम से 2-3 लाख हो और जिसकी कही बातों का सामाजिक मूल्य बने और यह मूल्य उसे सत्ता और सरकार को सचमुच चुनौती देने की स्थिति में भी लाकर खड़ा कर दे. ...अगली डाक देखें... From ravikant at sarai.net Mon Mar 9 12:52:48 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 9 Mar 2009 12:52:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSW4KSC?= =?utf-8?b?4KSh4KWAIOCkqOCliOCkpOCkv+CkleCkpOCkviDgpJXgpL4g4KSF4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KS14KSu4KWH4KSnIOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYggLSDgpIbgpLLgpYs=?= =?utf-8?b?4KSVIOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSAtIDI=?= Message-ID: <200903091252.49906.ravikant@sarai.net> गतांक से आगे... पहल जबलपुर जैसे छोटे कस्बाई शहर से एक ऐसे समय निकली जब उसकी सख्त जरूरत थी. जरूरत इसलिए थी कि माक्र्सवादी साहित्यिक मूल्यों पर आधारित समकालीन रचनाधर्मिता के लिए एक रचनात्मक केंद्र बन सके. पहल ने अपनी यह भूमिका पूरी गरिमा के साथ निभाई. मैं जानता हूं कि हिं दी का हर संवेदनशील पाठक जो पहल की भूमिका को जानता है और ज्ञानरंजन को जानता है, वह भले पहल से असहमत हो, ज्ञानरंजन से उसकी असहमतियां हों, इस पूरे प्रकरण से आहत हुआ है -- देश भर में. क्या पहल की विदाई पर इस तरह की टुच्ची राजनीति शोभनीय लग रही है? क्या यह सचमुच को ई वैचारिक मसला है? पहल का बंद होना हिंदी के साहित्य समाज के लिए कितना बड़ी क्षति है, वह यह जानता है, पर क्या सचमुच इस प्रकरण का इस्तेमाल दमित कुठाओं को निकालने के लिए किया जाना चाहिए. मैं जानता हूं इन प्रतिक्रियाओं के मनोवैज्ञानिक कारण क्या हैं. एक सुरक्षित जीवन जी ते हुए, व्यवस्था से चौतरफा लाभ लेते हुए, संपत्ति और परिवार के ढांचे में तयशुदा व्यक्तित्व जीते हुए खुद की छवि रूसो, वाल्तेयर या प्रबोधन काल के बौद्धिकों जैसी कस्बाई पाठकों पर प्रक्षेपित करने की दयनीय चेष्टा ही इसका मनोवैज्ञानिक कारण है. हिंदी के ये पिददी बौद्धिक नहीं जानते कि वि चारों और सिद्धांतों के लिए जीना एक दूसरी बात होती है और उन्हें इस्तेमाल करते हुए जीना एक दूसरी बात. इन टिप्पणियों की सबसे बड़ी खामी यह है कि ये टिप्पणियां व्यक्तिवादी किस्म की हैं और चरि त्र-हनन के प्रच्छन्न उददेश्य से लिखी गई हैं. इन टिप्पणियों में इस बात की कोई चिंता नहीं है कि साम्राज्यवाद ने राष्ट्रों की संस्कृति के साथ, भाषा के साथ और मानवीय सर्जनात्मकता के साथ क्या कर दिया है. यानी यह कि आज हिंदी साहित्य, समाज और संस्कृति किस हाल में है. क्या पहल एक अकेले ज्ञानरंजन की जिम्मेदारी है? क्या हिंदी में बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक और किताबी बातें बघारने वाले लोग वास्तव में इस बात से चिंतित हैं, कि इस भाषा और इसके साहित्य के साथ प्रकारांतर से इसकी वैचारिकता और सर्जनात्मकता के साथ क्या हो गया है? क्या इस गहरे सांस्कृतिक संकट को लेकर वे कर्म के स्तर पर कहीं सचमुच चिंतित हैं, संबद्ध हैं? क्या ये लोग कभी इस बात को सोचना भी चाहेंगे कि क्यों 35 वर्षों तक निकलने के बाद 50 करोड़ के हिंदी समाज में वह इतना क्यों नहीं बिक सकी कि एक बड़े संस्थान का रूप ले पाती और जिसकी अनंतजीविता एक व्यक्ति ज्ञानरंजन पर नहीं बल्कि उसके समाज की होती. क्यों हंस को एक संस्थान का रूप ग्रहण करने के लिए, प्रभा खेतान, गौतम नवलखा, आदि न जाने कितनों के पैसे पर अवलंबित रहना पड़़ा. इस समाज में इतनी शक्ति क्यों नहीं है? यह कैसा हिंदी समाज है? हिंदी की कोसों फैली उजाड़ भूमि के बीच यह कौन पंकज बिष्ट, कौन राजेंद्र यादव कौन रवींद्र कालिया हैं, जो ध्वंस के इतने महानाटय के बीच इतने आत्मविश्वास से इतनी कुतर्कपूर्ण बातें लिख देते हैं, और इस बात के लिए निश्चिंत हो जाते हैं, कि वे हिंदी के कमजहन पाठकों का प्रबोधन कर रहे हैं. हम क्यों नहीं संस्थाएं पैदा कर पाते, हम क्यों नहीं उन्हें मजबूत आर्थिक आधार दे पाते, क्योंकि हम सब उन सेठों की तरह हैं, जिनकी जिंदगी के मूल कार्यस्थल और प्रेरणाएं कहीं और हैं, कुछ और हैं, और जो धर्मशालाए और प्याउ खुलवाकर अमरत्व पाना चाहते हैं, हमारे बुद्धिजीवीगणों का जीवन के प्रति ठीक यही नजरिया है, साहित्य और संस्कृति, विचार और प्रतिबद्धता उनके संपूर्ण जीवन का एक छोटा-सा कोना भर हैं, उसके बल पर वे काल से अमरत्व का सौदा करने चले हैं. आज जो संकट या संकट न कहें स्थिति कह लें, पहल के साथ हुई, वही कल हंस के सा थ, समयांतर के साथ होगी ही. इसी भाषा में सांचा जैसी बेमिसाल पत्रिका हिंदी के साहित्यवादियों की जिन बेहूदगियों से बंद हुई उसकी स्मृतियां और प्रमाण बहुतों के पास अब भी होंगे. राजेंद्र यादव आज भी इस मसले पर पूरे आत्मविश्वास से झूठ का उत्पादन करते हैं. मेरा मानना है कि हिंदी के लिए पहल से ज्यादा जरूरी सांचा थी, छाती पीटने वाली इन विभूतियों ने सांचा को क्यों नहीं बचाया? जिन दिनों सांचा बंद हुई, उन दिनों उसके किन्हीं आखिरी अंकों में छपी एक अपील आज भी मेरे पास सुरक्षित रखी है. इस अपील में हिंदी के पाठकों से सांचा को बचाने के लिए पुरजोर आहवान किया गया था और इस बात की पुकार की गई थी, कि पाठक चंदा भेज कर ट्रस्ट निर्माण में सहयोग दें, जो सांचा को जारी रख सके. मुझे उस समय भी इस अपील पर हैरत हुई थी, और आज इस तरह के तमाम पांखडों के एक-एक रेशे को म्ौं जानता हूं. उस अपील पर हिंदी की बड़ी-बड़ी विभूतियों के हस्ताक्षर थे -- पचासों के. वे किन अनाम पाठकों से गुहार कर रहे थे? किनका वे आहवान कर रहे थे? अगर उन आहवानकर्ताओं ने, जिनमें से अधिकांशत: तब भी बहुत पुख्ता माली हालत में थे, अपनी गांठ से 10-20 हजार भी निकाले होते तो एक मजबूत ट्रस्ट का निर्माण संभव था, और निश्चित रूप से दूर-दराज के पाठक भी धीमे-धीमें इसमें अपना योगदान देते. परंतु ऐसे प्रयासों की विश्वसनीयता ही स्थापित नहीं हो पाती. क्योंकि ये प्रयास नहीं पाखंड मात्र होते हैं. हंस की महानता का अनवरत िढंढोरा पीटने वाले राजेंद्र यादव यह कभी नहीं बताएंगे कि क्यों हंस हिंदी पाठकों के लिए इतनी अनिवार्य थी, कि उसके लिए युवा छात्र नेता चंद्रशेखर के हत्यारों के संरक्षक मुख्यमंत्री के हाथों लिए गए गर्हित पुरस्कार से लेकर तमाम तरह के स्रोतों से धन लेने को वे बड़ी वीतरागिता से हंस के जीवन के के लिए जरूरी मानते हैं, उनके अक्षर प्रकाशन से ही निकली सांचा किस तक्र से हिंदी पाठकों के लिए कम जरूरी थी? सांचा के प्रकाशन को हिंदी के समस्त साहित्य समाज ने, समूचे बौद्धिक जगत ने एक ऐसी परिघटना के रूप में लिया था, जो हिंदी में एक ठोस क्रांतिकारी बौद्धिकता के निर्माण के लिए अनिवार्य स्रोत और प्रेरणा का काम करेगी. कुछ माह पूर्व ही, सांचा के बारे में वे हंस के संपादकीय में लिखते हैं कि वह गौतम नवलखा की किन्हीं वैयक्तिक महत्वाकांक्षा से जुड़ी चीज थी, फरवरी 1989 में हौजखास में मन्नू भंडारी के घर पर उन्होंने मुझसे और मेरे एक मित्र से कहा था कि हंस से जुड़े होने के बावजूद गौतम की अकादमिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाने के कारण उन्होंने सांचा निकाली. देखि ए तो झूठ और पाखंड की कैसी छटा है! हिंदी का संपूर्ण बौद्धिक समाज एक विराट पाखंड को जी रहा है. ऐसी स्थिति में पहल के बारे में कहे गए सारे आप्तवचन असत्य ही नहीं, अश्लील, गैरजिम्मेदारी से भरे और विद्वेषपूर्ण हैं. और ये सारे कथन आत्मश्लाघा की मानसिकता से उपजे हैं, न कि सचमुच किसी सर्जनात्मक चिंता से. राजेंद्र यादव किस मुह से पहल जैसी तीन-चार हजार छपने वाली पत्रिका का स्यापा विधवाओं की शैली में कर रहे हैं. क्या मैं इस बात को किसी भी दिन भूल पाउंगा कि धर्मयुग के बंद होने पर किस तरह की अमानवीय चुप्पी उन्होंने ओढ़ी थी और अपने कार्यालय में कथाकार अखिलेश से मुझे बेइज्जत करवाया था, क्योंकि मैं उनसे एक मामूली से विरोध-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध करने के लिए मुंबई से हंस-कार्यालय गया था. जबकि धर्मयुग के बंद होने से वहां के कर्मचारी बेरोजगार हुए थे, और पूरे देश में यह मैसेज गया था कि हिंदी की पत्रिकाएं चल ही नहीं सकतीं. कहां था तब राजेंद्र यादव का वह पत्रिका-प्रेम, जो पहल के बंद होने पर इस कदर बिलख उठा है! मेरा मसला इन तथाकथित बौद्धिकों की आलोचना करना नहीं है, क्योंकि समय हर छदम को एक दिन उधेड़ ही देता है, सुरक्षित संबंधों, सुरक्षित जिंदगियों वाली क्रांतिकारिता की पोल खुलती ही है. लोगों की वास्तविक मंशाएं उजागर होती ही हैं. मैं सिर्फ इस बात को रेखांकित करना चाह रहा हूं, कि हमारी भाषा के लिए यह संकट काल है, किसी भी पत्रिका का बंद होना, न चलना, कुछ बड़े सवालों से जुड़ता है, क्या हमें इस बात के बारे में नहीं सोचना चाहिए? कृष्णा सोबती ने अहा जिंदगी में लिखा है कि लेखकों को पांच पांच हजार जमा कर एक ट्रस्ट जैसा बना कर पत्रिका निकालनी चाहिए. मैं हिंदी के बौद्धिक क्षेत्र में पिछले 20 सालों से वाकिफ रहा हूं. मैं ऐसे सैकड़ों लेखकों को जानता हूं, जो साहित्य के चेग्वेरा हैं, इतनी बड़ी बड़ी बातें, इतने गहन लेख, इतने विराट सेमिनार, चिंता का इतना बड़ा कारोबार! क्यों 5-5 हजार रुपए भाई? हिंदी के वरिष्ठ लेखकों, आपमें से कम से कम दस दर्जन लोगों को मैं जानता हूं, जो राजधानियों में 50 लाख से एक करोड़ के फलैट में रहते हैं, जिनकी पूरी माली हालत का आकलन 2 से 3 करोड़ के बीच बैठेगा, जि नकी अगली पीढ़ी अमरीका में मोटा पैसा काट रही है, या काटने के लिए तैयार हो रही है, तो भा ई साहित्य के नाम पर चिंता का कारोबार न कर क्यों नहीं 4-5 लाख प्रति लेखक चंदा किया जाए? हिंदी समाज में एक 3-4 हजार की बिक्री वाली पहल नहीं, बल्कि एकाध लाख के प्रसार वाली पत्रिका क्यों नहीं निकाली जा सकती? यह बात बहुतों को मजाक और अतिरेकी लगेगी. इतनी मोटी रकम भी भला गांठ से कोई निकालता है? तो फिर बड़ी-बड़ी चिंताएं मत करिए. सच की चाशनी में इतना झूठ मत परोसिए और चरित्र हनन को सैद्धांतिक भाषा में मत सजाइए. अंत में यह कहना आवश्यक है कि पहल के बंद होने को जो रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह जनता से कटे हिंदी के बौद्धिक वर्ग की उस प्रकृति को ही उजागर करती है, जो आत्मनिष्ठ है, और जिसके लिए विचारधारा और सृजन एक साफ्ट किस्म के वैयक्तिक रोजगार से ज्यादा महत्व नहीं रखते. यह लेख हिंदी साहित्य की दो परंपराओं -- कर्मठता, श्रम, और निवैयक्तिक प्रयत्न तथा दर्प, और छिछो रेपन के फर्क को रेखांकित करने और उसमें से एक धारा को अपने और अपनी पीढ़ी के लिए चुनने के लिए लिखा गया है, अन्यथा किसी ज्ञानरंजन या पहल को न तो ऐसे बचावों की जरूरत है, न अपने पक्ष में किन्हीं बयानों, तकों, दस्तावेजों की और न ही आत्ममुग्ध कुतिर्कयों को अपने पराभव के लिए समय और काल के प्रहार के इतर किसी प्रहार की. From naisehar at gmail.com Mon Mar 9 14:15:32 2009 From: naisehar at gmail.com (Mrityunjay Prabhakar) Date: Mon, 9 Mar 2009 14:15:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKrgpL4=?= =?utf-8?b?4KSW4KSC4KSh4KWAIOCkqOCliOCkpOCkv+CkleCkpOCkviDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSF4KS24KWN4KS14KSu4KWH4KSnIOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYgg?= =?utf-8?b?LSDgpIbgpLLgpYvgpJUg4KS24KWN4KSw4KWA4KS14KS+4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS1IC0gMg==?= In-Reply-To: References: <200903091252.49906.ravikant@sarai.net> Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- From: Mrityunjay Prabhakar Date: 2009/3/9 Subject: Re: [दीवान]पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है - आलोक श्रीवास्तव - 2 To: ravikant at sarai.net Alok jee, main apki kai baton se sahmat hun. hindii aur iske lekhon ka aisa hi nakali aur mithya sansar maine bhi dekha bhoga hai jahan sahitya, samaj aur rajniti sambandhi unki sari chintayen vayviya hoti hain aur sirf isliye ki yah bolkar wo hindii samaj me apni pakad banayen rakhenge aise mathadheeson se bhara hai hamara hindi sahiytya ka samaj dukh is baat par jyada hota hai ki aise log apne aap ko vampanthi kahne wale logon me jyada hi hain wo apni baudhik jugali ko apne ghar parivar se dur rakhte hain unke bachhon ke liye yahi vichar thik nahin par hamen aag men jhonkkar hamara jeevan barbad kane men koi kasar nahin chodte main puchta hun agar samrajayabad aur sampradayikta itna hi bura hai jiske liye ham jaise pathakon ko sab kuch tyag dena chahiye aur ham sab kuch chod bhi dete hain to unke parivar ke log is ladai men kyun nahin dikhte Shayad yahi karan hai ki is pakhand lurn samaj se maine apni duri bana li hai aur pata nahin mere jaise kitne log aisa kar rahe hon apki baton ne phir se purani pida jaga di varna main to inke liye exist hi nahi karta hun aur na hi chahta hun Mrityunjay Prabhakar apka 2009/3/9 Ravikant गतांक से आगे... > > पहल जबलपुर जैसे छोटे कस्बाई शहर से एक ऐसे समय निकली जब उसकी सख्त जरूरत थी. > जरूरत इसलिए थी कि माक्र्सवादी साहित्यिक मूल्यों पर आधारित समकालीन > रचनाधर्मिता के लिए एक > रचनात्मक केंद्र बन सके. पहल ने अपनी यह भूमिका पूरी गरिमा के साथ निभाई. मैं > जानता हूं कि हिं > दी का हर संवेदनशील पाठक जो पहल की भूमिका को जानता है और ज्ञानरंजन को जानता > है, वह भले > पहल से असहमत हो, ज्ञानरंजन से उसकी असहमतियां हों, इस पूरे प्रकरण से आहत हुआ > है -- देश भर > में. क्या पहल की विदाई पर इस तरह की टुच्ची राजनीति शोभनीय लग रही है? क्या > यह सचमुच को > ई वैचारिक मसला है? पहल का बंद होना हिंदी के साहित्य समाज के लिए कितना बड़ी > क्षति है, वह > यह जानता है, पर क्या सचमुच इस प्रकरण का इस्तेमाल दमित कुठाओं को निकालने के > लिए किया > जाना चाहिए. मैं जानता हूं इन प्रतिक्रियाओं के मनोवैज्ञानिक कारण क्या हैं. > एक सुरक्षित जीवन जी > ते हुए, व्यवस्था से चौतरफा लाभ लेते हुए, संपत्ति और परिवार के ढांचे में > तयशुदा व्यक्तित्व जीते हुए > खुद की छवि रूसो, वाल्तेयर या प्रबोधन काल के बौद्धिकों जैसी कस्बाई पाठकों पर > प्रक्षेपित करने > की दयनीय चेष्टा ही इसका मनोवैज्ञानिक कारण है. हिंदी के ये पिददी बौद्धिक > नहीं जानते कि वि > चारों और सिद्धांतों के लिए जीना एक दूसरी बात होती है और उन्हें इस्तेमाल > करते हुए जीना एक > दूसरी बात. > > इन टिप्पणियों की सबसे बड़ी खामी यह है कि ये टिप्पणियां व्यक्तिवादी किस्म की > हैं और चरि > त्र-हनन के प्रच्छन्न उददेश्य से लिखी गई हैं. इन टिप्पणियों में इस बात की > कोई चिंता नहीं है कि > साम्राज्यवाद ने राष्ट्रों की संस्कृति के साथ, भाषा के साथ और मानवीय > सर्जनात्मकता के साथ क्या > कर दिया है. यानी यह कि आज हिंदी साहित्य, समाज और संस्कृति किस हाल में है. > क्या पहल एक > अकेले ज्ञानरंजन की जिम्मेदारी है? क्या हिंदी में बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक और > किताबी बातें बघारने वाले > लोग वास्तव में इस बात से चिंतित हैं, कि इस भाषा और इसके साहित्य के साथ > प्रकारांतर से इसकी > वैचारिकता और सर्जनात्मकता के साथ क्या हो गया है? क्या इस गहरे सांस्कृतिक > संकट को लेकर वे > कर्म के स्तर पर कहीं सचमुच चिंतित हैं, संबद्ध हैं? क्या ये लोग कभी इस बात > को सोचना भी चाहेंगे > कि क्यों 35 वर्षों तक निकलने के बाद 50 करोड़ के हिंदी समाज में वह इतना क्यों > नहीं बिक सकी > कि एक बड़े संस्थान का रूप ले पाती और जिसकी अनंतजीविता एक व्यक्ति ज्ञानरंजन > पर नहीं बल्कि > उसके समाज की होती. क्यों हंस को एक संस्थान का रूप ग्रहण करने के लिए, प्रभा > खेतान, गौतम > नवलखा, आदि न जाने कितनों के पैसे पर अवलंबित रहना पड़़ा. इस समाज में इतनी > शक्ति क्यों नहीं > है? यह कैसा हिंदी समाज है? हिंदी की कोसों फैली उजाड़ भूमि के बीच यह कौन पंकज > बिष्ट, कौन > राजेंद्र यादव कौन रवींद्र कालिया हैं, जो ध्वंस के इतने महानाटय के बीच इतने > आत्मविश्वास से > इतनी कुतर्कपूर्ण बातें लिख देते हैं, और इस बात के लिए निश्चिंत हो जाते > हैं, कि वे हिंदी के कमजहन > पाठकों का प्रबोधन कर रहे हैं. हम क्यों नहीं संस्थाएं पैदा कर पाते, हम क्यों > नहीं उन्हें मजबूत > आर्थिक आधार दे पाते, क्योंकि हम सब उन सेठों की तरह हैं, जिनकी जिंदगी के > मूल कार्यस्थल और > प्रेरणाएं कहीं और हैं, कुछ और हैं, और जो धर्मशालाए और प्याउ खुलवाकर अमरत्व > पाना चाहते हैं, > हमारे बुद्धिजीवीगणों का जीवन के प्रति ठीक यही नजरिया है, साहित्य और > संस्कृति, विचार और > प्रतिबद्धता उनके संपूर्ण जीवन का एक छोटा-सा कोना भर हैं, उसके बल पर वे काल > से अमरत्व का > सौदा करने चले हैं. आज जो संकट या संकट न कहें स्थिति कह लें, पहल के साथ > हुई, वही कल हंस के सा > थ, समयांतर के साथ होगी ही. इसी भाषा में सांचा जैसी बेमिसाल पत्रिका हिंदी के > साहित्यवादियों की जिन बेहूदगियों से बंद हुई उसकी स्मृतियां और प्रमाण बहुतों > के पास अब भी होंगे. > राजेंद्र यादव आज भी इस मसले पर पूरे आत्मविश्वास से झूठ का उत्पादन करते हैं. > मेरा मानना है कि > हिंदी के लिए पहल से ज्यादा जरूरी सांचा थी, छाती पीटने वाली इन विभूतियों ने > सांचा को क्यों > नहीं बचाया? > > जिन दिनों सांचा बंद हुई, उन दिनों उसके किन्हीं आखिरी अंकों में छपी एक अपील > आज भी मेरे पास > सुरक्षित रखी है. इस अपील में हिंदी के पाठकों से सांचा को बचाने के लिए > पुरजोर आहवान किया > गया था और इस बात की पुकार की गई थी, कि पाठक चंदा भेज कर ट्रस्ट निर्माण में > सहयोग दें, > जो सांचा को जारी रख सके. मुझे उस समय भी इस अपील पर हैरत हुई थी, और आज इस > तरह के तमाम > पांखडों के एक-एक रेशे को म्ौं जानता हूं. उस अपील पर हिंदी की बड़ी-बड़ी > विभूतियों के हस्ताक्षर > थे -- पचासों के. वे किन अनाम पाठकों से गुहार कर रहे थे? किनका वे आहवान कर > रहे थे? अगर उन > आहवानकर्ताओं ने, जिनमें से अधिकांशत: तब भी बहुत पुख्ता माली हालत में थे, > अपनी गांठ से 10-20 > हजार भी निकाले होते तो एक मजबूत ट्रस्ट का निर्माण संभव था, और निश्चित रूप > से दूर-दराज के > पाठक भी धीमे-धीमें इसमें अपना योगदान देते. परंतु ऐसे प्रयासों की > विश्वसनीयता ही स्थापित नहीं > हो पाती. क्योंकि ये प्रयास नहीं पाखंड मात्र होते हैं. हंस की महानता का > अनवरत िढंढोरा पीटने > वाले राजेंद्र यादव यह कभी नहीं बताएंगे कि क्यों हंस हिंदी पाठकों के लिए > इतनी अनिवार्य थी, > कि उसके लिए युवा छात्र नेता चंद्रशेखर के हत्यारों के संरक्षक मुख्यमंत्री > के हाथों लिए गए गर्हित > पुरस्कार से लेकर तमाम तरह के स्रोतों से धन लेने को वे बड़ी वीतरागिता से हंस > के जीवन के के लिए > जरूरी मानते हैं, उनके अक्षर प्रकाशन से ही निकली सांचा किस तक्र से हिंदी > पाठकों के लिए कम > जरूरी थी? सांचा के प्रकाशन को हिंदी के समस्त साहित्य समाज ने, समूचे बौद्धिक > जगत ने एक ऐसी > परिघटना के रूप में लिया था, जो हिंदी में एक ठोस क्रांतिकारी बौद्धिकता के > निर्माण के लिए > अनिवार्य स्रोत और प्रेरणा का काम करेगी. कुछ माह पूर्व ही, सांचा के बारे > में वे हंस के संपादकीय > में लिखते हैं कि वह गौतम नवलखा की किन्हीं वैयक्तिक महत्वाकांक्षा से जुड़ी > चीज थी, फरवरी 1989 > में हौजखास में मन्नू भंडारी के घर पर उन्होंने मुझसे और मेरे एक मित्र से कहा > था कि हंस से जुड़े होने > के बावजूद गौतम की अकादमिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाने के कारण उन्होंने > सांचा निकाली. देखि > ए तो झूठ और पाखंड की कैसी छटा है! हिंदी का संपूर्ण बौद्धिक समाज एक विराट > पाखंड को जी > रहा है. ऐसी स्थिति में पहल के बारे में कहे गए सारे आप्तवचन असत्य ही नहीं, > अश्लील, > गैरजिम्मेदारी से भरे और विद्वेषपूर्ण हैं. और ये सारे कथन आत्मश्लाघा की > मानसिकता से उपजे हैं, न कि > सचमुच किसी सर्जनात्मक चिंता से. > > राजेंद्र यादव किस मुह से पहल जैसी तीन-चार हजार छपने वाली पत्रिका का स्यापा > विधवाओं की > शैली में कर रहे हैं. क्या मैं इस बात को किसी भी दिन भूल पाउंगा कि धर्मयुग > के बंद होने पर किस > तरह की अमानवीय चुप्पी उन्होंने ओढ़ी थी और अपने कार्यालय में कथाकार अखिलेश से > मुझे > बेइज्जत करवाया था, क्योंकि मैं उनसे एक मामूली से विरोध-पत्र पर हस्ताक्षर > करने का अनुरोध करने > के लिए मुंबई से हंस-कार्यालय गया था. जबकि धर्मयुग के बंद होने से वहां के > कर्मचारी बेरोजगार हुए > थे, और पूरे देश में यह मैसेज गया था कि हिंदी की पत्रिकाएं चल ही नहीं सकतीं. > कहां था तब > राजेंद्र यादव का वह पत्रिका-प्रेम, जो पहल के बंद होने पर इस कदर बिलख उठा > है! > > मेरा मसला इन तथाकथित बौद्धिकों की आलोचना करना नहीं है, क्योंकि समय हर छदम > को एक दिन > उधेड़ ही देता है, सुरक्षित संबंधों, सुरक्षित जिंदगियों वाली क्रांतिकारिता की > पोल खुलती ही है. > लोगों की वास्तविक मंशाएं उजागर होती ही हैं. मैं सिर्फ इस बात को रेखांकित > करना चाह रहा हूं, > कि हमारी भाषा के लिए यह संकट काल है, किसी भी पत्रिका का बंद होना, न चलना, > कुछ बड़े > सवालों से जुड़ता है, क्या हमें इस बात के बारे में नहीं सोचना चाहिए? > > कृष्णा सोबती ने अहा जिंदगी में लिखा है कि लेखकों को पांच पांच हजार जमा कर > एक ट्रस्ट जैसा बना > कर पत्रिका निकालनी चाहिए. मैं हिंदी के बौद्धिक क्षेत्र में पिछले 20 सालों > से वाकिफ रहा हूं. > मैं ऐसे सैकड़ों लेखकों को जानता हूं, जो साहित्य के चेग्वेरा हैं, इतनी बड़ी > बड़ी बातें, इतने गहन लेख, > इतने विराट सेमिनार, चिंता का इतना बड़ा कारोबार! क्यों 5-5 हजार रुपए भाई? > हिंदी के > वरिष्ठ लेखकों, आपमें से कम से कम दस दर्जन लोगों को मैं जानता हूं, जो > राजधानियों में 50 लाख से > एक करोड़ के फलैट में रहते हैं, जिनकी पूरी माली हालत का आकलन 2 से 3 करोड़ के > बीच बैठेगा, जि > नकी अगली पीढ़ी अमरीका में मोटा पैसा काट रही है, या काटने के लिए तैयार हो रही > है, तो भा > ई साहित्य के नाम पर चिंता का कारोबार न कर क्यों नहीं 4-5 लाख प्रति लेखक > चंदा किया जाए? > हिंदी समाज में एक 3-4 हजार की बिक्री वाली पहल नहीं, बल्कि एकाध लाख के > प्रसार वाली > पत्रिका क्यों नहीं निकाली जा सकती? यह बात बहुतों को मजाक और अतिरेकी लगेगी. > इतनी मोटी > रकम भी भला गांठ से कोई निकालता है? तो फिर बड़ी-बड़ी चिंताएं मत करिए. सच की > चाशनी में > इतना झूठ मत परोसिए और चरित्र हनन को सैद्धांतिक भाषा में मत सजाइए. > > > अंत में यह कहना आवश्यक है कि पहल के बंद होने को जो रूप देने की कोशिश की जा > रही है, वह जनता > से कटे हिंदी के बौद्धिक वर्ग की उस प्रकृति को ही उजागर करती है, जो > आत्मनिष्ठ है, और जिसके > लिए विचारधारा और सृजन एक साफ्ट किस्म के वैयक्तिक रोजगार से ज्यादा महत्व > नहीं रखते. यह लेख > हिंदी साहित्य की दो परंपराओं -- कर्मठता, श्रम, और निवैयक्तिक प्रयत्न तथा > दर्प, और छिछो > रेपन के फर्क को रेखांकित करने और उसमें से एक धारा को अपने और अपनी पीढ़ी के > लिए चुनने के लिए > लिखा गया है, अन्यथा किसी ज्ञानरंजन या पहल को न तो ऐसे बचावों की जरूरत है, न > अपने पक्ष में > किन्हीं बयानों, तकों, दस्तावेजों की और न ही आत्ममुग्ध कुतिर्कयों को अपने > पराभव के लिए समय और > काल के प्रहार के इतर किसी प्रहार की. > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090309/758ff676/attachment-0001.html From shantanu at sarai.net Mon Mar 9 17:43:27 2009 From: shantanu at sarai.net (shantanu choudhary) Date: Mon, 9 Mar 2009 17:43:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSX4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJPgpJzgpLzgpL7gpLA=?= Message-ID: <2e07a27c0903090513k2db82f65w20ccb4c5dbc3038@mail.gmail.com> नमस्कार, पेश है यह लिन्क, जिसकी मदद से आप पुराने (non standard)फौंट को युनिकोड में बदल सकते हैं। (please do convert all your older content to Unicode standard, as it is followed, used and accepted every-where) http://groups.google.com/group/technical-hindi/files?pli=1 Courtesy Bhagwati ji from sarai, who traced and tested it, and as far as his feed back goes, it is working prety nice. आशा है आप के काम आऐगा। I am not that efficient and accurate with hindi typing, i am trying to improve, so please dont mind my mistakes in above content. धन्यवाद शान्तनु -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090309/4278295c/attachment.html From lakhmi at cm.sarai.net Tue Mar 10 11:10:24 2009 From: lakhmi at cm.sarai.net (Lakhmi) Date: Tue, 10 Mar 2009 11:10:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSo4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkquClh+Ckn+ClgCDgpK7gpYfgpIIg4KS54KWIIOCkpuClgeCkqOCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+?= Message-ID: <49B5FD48.9000904@cm.sarai.net> एक ऐसा रिश्ता जिसमें भले ही कुछ रौब या औदा भरा हो पर वो किसी न किसी समय में अपने आपको कुछ नये ही रूपों से हमारी भेंट करवाता है। तो इन रिश्तो को कैसे हम अपनी ज़िन्दगी मे सोचते है? और अपने रोज़ाना के चलते अनुभव में देखते है? अपने ऐसे ही नये रूप के साथ वे मेरे पास में आये लम्बी-लम्बी सासें भरते हुए, ये यहाँ दक्षिणपुरी के उन लोगों में से हैं जो अपने बिताये समय मे किसी जगह को बहुत संभालकर रखते हैं। ताकि उसके हर बदलाव पर ये हक से कुछ बोल सकें। उन्होनें मुझे कुछ पेपर पकडाए जिनमें उनके बारे में कुछ लिखा था। ये लिखा हुआ उस समय का था जिससे महज़ वे अक्सर अपने घर के ही कुछ हिस्सो में सुनाया कर दिया करते थे और उसे सुनाते समय में अपने पूरे परिवार को समेट लेते। उन्हीं पलों को सोचते हुए उनकी एक ऐसी छवि उभरती की उनसे मिलने के अहसास में लगता जैसे मैं अकेला उनसे ही नहीं बल्कि कई अनेकों लोगों से मिला हूँ जिनमें कुछ अपना सा समाया हुआ वे अहसास है जो कभी किसी उन रास्ते पर भी नहीं दिखता जो लोग मन्जिल पाने अथवा बनाने के लिए चुनते हैं। यहाँ पर मुझे उन्ही की कही कुछ लाइने याद आती हैं जिनको शायद मैं नहीं कई और जनों ने सुना है पर शायद किसी को याद न हो। "अपने हिस्से की ज़िन्दगी को बसाके। अपने मन मुताबिक सपनों को सजाके। अपनी हिम्मत और ताकत को जीने की ज़िद में अड़ाके। कुछ अन्दर भड़कती जद्दोजहद से शहर की घटनाओं को डराके। अपने लिए कल की कुछ तरकीबें और मनसूबें बनाके। बिना चाहत के कामों में अपनी ज़िन्दगी को थोड़ा अलसाते। किसी अटकती जिज्ञासू नज़र को शहर में दौड़ाते। अपने अन्दर हर समय किसी न किसी रहती, इच्छा को अन्दर-बाहर के मनसूबों में अटकाके। हर वक़्त किसी न किसी नज़र के घेरे में ताड़ते हुए अपने को फँसाके।" रहते, चलते कुछ बनाते, मनभावूक नज़रें, इच्छा और चाहत को पालते जीने की चाह में, चाव में, कल की तैयारी में लग जाते हैं कई हाथ-पाँव, जिनमें हर वक़्त पूरे दिन का तौड़ और हाज़िर जवाब होता है। तभी वो अपने ख़ुद के वक़्त को जीत पाते हैं। मगर, किसके लिए कुछ साधन इख़्तयार करते हैं? जबकि मौज़ूदा समय, दिन के सोलह घन्टे, रहते-चलते अपने वज़न की मार हर समय ज़िन्दगी कि तस्वीर पर जा गिरती है। कहीं आने वाला समय अपना पूरा वज़न न डालदे? यही सोच है वो वज़न जो रोज़ गिरता है। वैसे देखा जाए तो कई अगल-अलग तरह की ज़िन्दगियाँ हैं और उनके रूप हैं। काफी कठोर, काफी तेज और काफी वज़नदार पर इसका कोई एक हिस्सा है जिसे बेहद हँसकर बिताना मुनासिब समझा जाता है। भले ही कितनी भारी लगे ज़िन्दगी लेकिन इस भटकती दुनिया पर यहाँ हर कोई जैसे कुछ सपने और खुशियों को पालता है और कुछ शौक भी रखता है। कहते हैं, "इतना कमाना भी किस काम का जब कोई शौक ही न हो तो?” तभी एक-एक दिन को सजाकर बड़े पैमाने को छलकाने की ताकत रखता है और 'ज़िन्दगी चार दिन की ही तो है हँसकर जी लो' बस, इसी पर पूरी दुनिया बिताने की हिम्मत बटोरता रहता है। अब बात आती है इन चार दिनों के अन्दर चलती रोज़ाना की मार-धाड़ और हर समय बनते नये प्लान। इसमें क्या-क्या सोचता चलता है हर शख़्स? इसके लिए वो कई ऐसे माहौल तैयार करता है। जो इन सभी शौक, चाहत, पाने की कशिश को उपजाऊ बना सकें और अपने घर या ज़िन्दगी, इन पलों को सजाने और हमेशा बनाये रखने के वास्ते वे कोने तलाशता है। यहाँ पर राधे श्याम जी ने अपना वो पेपर और उसमें अपने उस समय को दुहराना शुरू किया की कान उनके साथ में रवाना हो चले। ये उनकी ज़िन्दगी वो पहले शब्द थे जो वो शायद पहली बार लिखकर सुना रहे थे। आज उनके आगे उनका बेटा नहीं था बस, उनका वो हिस्सा था जो उनके पिछले समय के अहसास को बाँटने वाला हमनामा बना था। जो आज उनके उस दौर को जी रहा था। उन्होने अपने खुद के शब्दों मे अपनी उस पेटी के बारे में बोलना शुरु किया। जो उनके लिए वे जमापूजीं थी जिसकी जगह उनके पूरे घर में उनके हर रिश्ते से भी ज़्यादा मायने रखती थी। ये पेटी और उसके अन्दर के हर टुकड़े में उनका वे मान जुड़ा था जिसे वे कभी खुद से अलग सोच ही नहीं सकते थे। किसी माहौल, कार्यक्रम या ज़्ज़बात ही नहीं थे उसके अलावा ये एक ऐसी जिम्मेदारी थी जिससे कटा नहीं जा सकता था और न ही उसे अपने अल्लड़ शब्दों में रखा जा सकता था। आज भी ‌वे उसे, उसमें कैद समय को खुद में समाये हुए है? उनमें लिखे हर ख़त की बुनियाद में ऐसे चित्र थे जिनको जरूरत की भाषा में तोला नहीं जा सकता था। ऐसा लगता था जैसे ख़तों मे उनके वे पल शामिल हैं जिनको खाली वही जी सकते हैं। हम तो केवल अंदाज़ा भर सकते हैं उन पलों के अहसास का। ख़त जो सिमटे नहीं थे, ख़त जो उदास नहीं थे, ख़त जो हताश नहीं थे और ख़त जो भार नहीं थे। ये ख़त उनके जीवन में चाहतों के समंदर बनकर उनके बीच मे जी लेते थे। जिनमे कभी कहीं जाने का आसरा रहता तो कभी एक कहानी के साथ कुछ माँग होती। हर ख़त में जैसे कोई कहानी लिखकर इनको दे देता। तभी इनके ज़हन में उनकी अहमियत और गहरी रहती। वे कहते, “मेरे लिए ये बक्सा, बक्सा नहीं है। मानलो उस समय तो मेरी ऐसी जिम्मेदारी थी की जैसे मैं इसे सम्भाल नहीं बल्कि इसमें कई लोगों के महिने, साल के कामों और सपनों को सम्भालकर रख रखा हूँ। इसमें लिखा एक-एक नाम, पैसा और शब्द किमती है, मायने रखता है आज भी। इसका एक-एक पन्ना मेरे लिए कई पन्नों की कहानी की तरह है जिसे मुझे याद रखनी हैं उम्र भर, जीवन भर। लोग चले गए तो क्या हुआ उनके सपनों के बनने के शुरूआती दिन आज भी इसमे दर्ज़ है और कमाई का एक-एक हिसाब भी। आप जानते नहीं हैं श्री मान कि इसके मायने क्या हैं? कैसे मीलों पैदल चलकर, काम करते थे और परिवार पालने के लिए पैसा कमाकर इसे रोज़ बनाते थे। हर रोज कोई न कोई छोटी से छोटी बात को एक अपने दिमाग में बड़ा करके उसे परेशानी बनाते थे और सभी के सामने रखते थे। हर रोज आती थी और लोग इसी के लिए पैसा ब्याज पर उठा लेते थे। बस, वही समय है इसमें। उनकी बहुत सारी दिक्कते हैं और बहुत सारे सपने हैं। जानते हो जब कोई ब्याज पर पैसा उठाने आता था। तो पहले दो-ढाई दिन तो ऐसे ही बातों में अपनी परेशानी को जाहिर करता था। इस तरीके से की किसी को ख़ास पता न चले बस, इतमा गुमा हो जाए कि इस बार इसे ब्याज पर पैसा चाहिये। यह है उस बक्से में। एक बात और लोग मुझे "खजानची" कहते थे। कहते क्या थे मुझे उसका पद दिया था उन्होनें। तो सभी के परिवारों की कल कि इच्छाएँ सहेजकर रखना मेरा काम भी था और जिम्मेदारी भी। अब पता नहीं वो सभी लोग कहाँ होगें? मगर आज भी तो इस बक्से में कहीं होगें जरूर। बाइचाँस कोई अगर आ जाए तो मैं उन्हे ये दिखा तो सकता हूँ। हमारी गली के लोग या हम चाहे उन्हे भूल गए हो पर ये बक्सा तो कभी नहीं उन्हे भूलेगा। क्योंकि पैसा लेते समय और वापस देते समय इसमे लिखी अर्ज़ियों मे वो सारी दिक्कतें और वज़हें, सपनें, इच्छाएँ खुद से लिखे शब्दों में बसी हैं। जो इसके अन्दर कहीं तो है और वो क्या कहते है गूँजती है।" समय जैसे चमक रहा था उसके ढकने में। समय ज़ंग खाया था ऊपर-नीचे के तलवे में। समय सूखा था मोहर की पड़ी महरूम सी डब्बी में। समय उछल रहा था छोटे काग़जो के टुकड़ो में। समय चिपका था तले से लगे पेपरों में। समय अकड़ा था फाइलों में अड़े काग़जो में। समय अटका था गुड़मुड़ी पड़े काले कार्बन पेपरों में। समय रंगा था स्टेम्प की ख़ुरदरी लाइनों में। समय टिका था टिकट पर पड़े अँगूठाई निशानों में। समय ठुसा था नीली सी पन्नी में भरी बिलबुको में। समय छन गया था चूहों की कुतरी पनशनी, कागज़ों के छेदो में। समय सम्भाला था रजिस्टरों और फाइलों के ऊपर बधीं छोटी-छोटी डोरियों में। समय गूँज रहा था फाइलों और रजिस्टरों में लिखे अलग-अलग नामों में। समय धूँधलाया था गत्तों के कवरपेज पर लिखे नामों से उड़ती गाढ़ेपन कि चकम में। समय फैला था बिलबुक से काटी गई पर्चियों में। समय ख़ुद को दोहराया सा था कुछ सरकारी महकमों के दस्तावेजों में। समय बेबसा सा था रजिस्टरों से आज़ाद होती बाईडिगों में। समय जिज्ञासू था अलग-अलग पन्नों पर लिखी अर्जियों में। समय मान था उधार चुकाते शब्दों में। समय पाबंद था उनमें पड़ी तारीखों में। समय भीड़ था कई अलग-अलग पन्नों में छपे हस्ताक्षरों के प्रतिबिम्बों में। समय ताकत था अन्दर कई नामों के अन्तराल बने रिश्ते में। समय ज़िद था कई जाने-पहचाने नियमों में। समय जिम्मेदारी था इसमे समय को महफूज़ रखने में। समय कल्पना से भरा था उन ख़तों मे लिखी कहानियों में। उनकी ज़ुबाँ से निकलने वाले लोग अब कई कहानियों मे शामिल उनके बोलो में अटक गए हैं। वे लोग तो हैं नहीं मगर, उनकी छाप मौज़ूद है। अभी कई कहानियाँ बाकी हैं उनके अन्दर। लख्मी http://ek-shehr-hai.blogspot.com From miyaa_mihir at yahoo.com Sun Mar 8 02:26:44 2009 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Sat, 7 Mar 2009 12:56:44 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSn4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpKzgpL7gpKYg4KSt4KWAICLgpIngpK7gpY3gpK7gpYA=?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueCli+Ckl+ClgCDgpJXgpYvgpIgi?= In-Reply-To: <829019b0903071035j26f20df3scd312bd18909e92f@mail.gmail.com> Message-ID: <979603.30640.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> विनीत, शायद यह तुम्हारे लिखे के जवाब में नहीं है लेकिन तुम्हारे लिखे में देखते ही एक चीज़ खटकी इसलिए लिख रहा हूँ. हो सकता है यह सिर्फ़ भूलवश हो और इससे तुम्हारा कोई भी मतलब न हो लेकिन स्पष्टीकरण की ज़रूरत लगती है. हो सकता है यह सही बात कहने के लिए गलत शब्द चुन लिए जाने का मामला हो लेकिन फिर इसपर बात करनी होगी कि कहीं इन गलत शब्दों के माध्यम से हमारा अवचेतन तो नहीं बोल रहा? तुम्हारे लिखे में बार-बार गोधरा कांड का ज़िक्र आता है. गिनती से शायद छ: बार. जैसे "गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं", "गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों", "गोधरा के दर्द को समझने", "गोधरा या फिर इस तरह के किसी औऱ दंगे की चर्चा", "क्या गोधरा के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना", "गोधरा और बाकी कांडो़ं के दर्द को". क्योंकि मैं इस किताब के लोकार्पण में मौजूद नहीं था इसलिए सबसे पहले तो यही जानना चाहूँगा कि क्य यह किताब गोधरा कांड और उससे जुड़े दर्द के बारे में है? क्या इस किताब में कुछ या सिर्फ़ गोधरा कांड के पीड़ित परिवारों के दर्द की चर्चा है? वैसे किताब के शीर्षक से तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है.. "उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006" लेकिन यहाँ भी तुमने इस पुस्तक शीर्षक के साथ (पोस्ट में) अपना शीर्षक दिया है.. "गोधरा के बाद भी "उम्मीद होगी कोई". किताब बनने के दौरान समय-समय पर रविकांत और अभिषेक से इस बारे में बात होती रही है इसलिए अभी तक किताब न देख पाने के बावजूद कुछ आइडिया तो है ही किताब की विषयवस्तु के बारे में. फिर भी पहले सिर्फ़ पूछ रहा हूँ जिससे गलती कहाँ हो रही है यह साफ़ हो जाये. जितना मैंने पढ़ा और देखा है, और गुजरात से एकदम सटे हिस्से में तीन साल बिताने की वजह से जितना मैं जान पाया हूँ, गुजरात 2002 के बारे में मेरी बहुत साफ़ समझ है कि यह एक दंगा नहीं राज्य द्वारा प्रायोजित जनसंहार था. सत्ताईस फ़रवरी को गोधरा में हुई दुर्घटना भले ही आज तक एक रहस्य हो (हालाँकि उसकी फॉरेंसिक रिपोर्ट को किस तरह छुपाया गया ये सबके सामने है) लेकिन उसके बाद अगले तीन दिन तक राज्य भर में चले प्रायोजित जनसंहार के ज़िम्मेदार और आरोपी साफ़ सबके सामने हैं. यह न सिर्फ़ प्रायोजित था बल्कि पूरी तरह योजनाबद्ध भी था. इतना योजनाबद्ध कि सिर्फ़ ’प्रतिक्रिया’ नहीं हो सकता. और ’दंगा’ दो समुदायों के बीच मार-काट को कहते हैं, सत्ता पर काबिज वर्ग द्वारा दूसरे अल्पसंख्यक वर्ग के व्यापक स्तर पर हुए हत्याकांड को नहीं. इसीलिए अगर रविकांत ने इसे ’दंगा’ कहकर संबोधित किया है (जैसा पोस्ट पढ़ने से लगता है) तो इसका स्पष्टीकरण उन्हें भी देना चाहिए. स्प्ष्टीकरणों से इतर, मैं रविकांत की इस बात से पूरा इत्तेफ़ाक रखता हूँ कि हिन्दुस्तान में होने वाले हर हिन्दू-मुस्लिम दंगे को ’पार्टीशन जारी है’ बताना चीज़ों का सरलीकरण है. ख़ासकर गुजरात के जनसंहार के बाद तो साम्प्रदायिकता और दंगों से जुड़ी हमारी बेसिक समझ ही बदल गई है. पिछले दिनों फिर से तमस पढ़ते हुए मैंने पाया कि ’दंगों में आखिर तो गरीब ही मारा जाता है’ का तर्क गुजरात 2002 के बाद कितना बेमानी लगता है. जब हज़ारों की भीड़ एक पूर्व मंत्री को सिर्फ़ उसके धर्म का हवाला देकर सरेआम बड़े वीभत्स तरीके से ज़िन्दा जला दे तो हमें अपनी समझ के औज़ारों पर फिर से गौर करने की ज़रूरत पड़ती ही है. किताब का इंतज़ार है. उम्मीद है कि ऐसे प्रयास गुजरात में टूट चुके आपसी संवाद में सहायक बनेंगे. --- On Sun, 3/8/09, vineet kumar wrote: From: vineet kumar Subject: [दीवान]गोधरा के बाद भी "उम्मीद होगी कोई" To: "deewan" Date: Sunday, March 8, 2009, 12:05 AM गुजरात में इतना अधिक पोलराइजेशन है, चाहे वो ज्यूडिसरी को लेकर हो, रिसर्च को लेकर हो, राजनीति या फिर किसी और चीज को लेकर कि चीजों को सीधे या तो ब्लैक या फिर व्हाइट साबित कर दिया जाता है, बीच में कोई धरातल बचता ही नहीं है। यहां के लिए बीच की चीजों को समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। सरुप बेन की किताब उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006 इसके बीच की धरातल मुहैया कराती है। गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं लेकिन सरुप बेन इसके बीच समझ और संवेदना की धरातल की खोज करती हुई रचना के तौर पर उम्मीद होगी कोई हमारे सामने पेश करती है। गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों या फिर समाज विज्ञान के आधार पर लिखी गयी किसी दूसरी किताबों की तरह ये किताब हमारे सामने समाज विज्ञान के शोध का खांचा नहीं खींचती। इसे आप रिपोर्टिंग भी नहीं कह सकते। इतिहास लिखने के जो प्रचलित रुप हमारे सामने हैं, उस लिहाज से ये किताब इतिहास भी नहीं है। लेकिन इन सबके वाबजूद इसमें न तो समाज विज्ञान की ही कोई कमी है और न ही इतिहास की समझ की। दरअसल सरुप बेन ने गोधरा के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने के लिए जिसे मेथड का इस्तेमाल किया है वो मेथड ही इसकी खासियत है। गुजरात की लेखिका औऱ संस्कृतिकर्मी सरुप बेन की किताब पर बात करते हुए प्रो.धीरुभाई सेठ ने जब गुजरात से बीच की जमीन के गायब हो जाने की बात की तो ये सवाल फिर से ताजा हो गया कि क्या किसी प्रदेश या राज्य का लोकतंत्र भी इतना खतरनाक हो सकता है कि उसके खरोच के निशान घाटियों की तरह इतने गहरे हो सकते हैं कि उसे पाट पाने की कहीं कोई उम्मीद नहीं झलकती। धीरुभाई इस निशान के बीच उम्मीद को किसी सरकारी योजना और राहत कार्य से पाटे जाने के बजाय उस दर्द को बार-बार याद किए जाने और संजोने के रुप में देखते हैं। संभव है गुजरात में टाटा नैनो की तरह और भी कई दर्जनों धकियायी और ठुकराई गयी कम्पनियां आ जाए लेकिन कहां है उम्मीद, ये उम्मीद क्या उन लोगों की झोली में गिरेंगे और अगर गिर भी गए तो क्या वो उम्मीद की ही शक्ल में होगी जिनकी नजरों के सामने अपनी बेटी का बलत्कार हुआ है, तुतलाती जुबान को साफ करने की कोशिश में लगा बच्चा खोया है। धीरुभाई के मुताबिक सरुप बेन उम्मीद की तलाश दर्द के बीच ही करती है,उसे कहीं और किसी रुप में विस्थापित करके नहीं। किताब के संपादक रविकांत ने कहा- जब भी हिन्दुस्तान में गोधरा या फिर इस तरह के किसी औऱ दंगे की चर्चा होती है उस पर अधिकांश विद्वानों द्वारा पार्टिशन जारी है जैसा लेबल चस्पा दिया जाता है। इसे देखकर हम जैसे लोग कुनमुनाते हैं, बार-बार ये ख्याल आता है कि क्या गोधरा के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना सही तरीका है। रविकांत की बातों को समझें तो ये विभाजन के दर्द के मार्फत गोधरा और बाकी कांडो़ं के दर्द को समझने की सहुलियत देता है या फिर विश्लेषण का सरलीकरण करता है। क्या तात्कालिक दर्द औऱ टीस को स्मृति के दर्द के साथ जोड़कर महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने से विश्लेषण में सुविधा होते हुए भी कहीं अनुभूति की गहराई को कमतर औऱ फार्मूलाबद्ध करने की कोशिश तो नहीं की जाती। किताब का संपादन करते हुए बकौल रविकांत कई बार रोए। क्या ये पार्टिशन के दर्द को याद करते हुए, उस स्मृति के बूते अभ्यस्त होते हुए, इसका भी जबाब वो स्वयं देते हैं। पहले तो मैंने सोचा कि बहुत हो गया रोना-धोना, अब नहीं रोना है मुझे इस तरह की बातों पर।....लेकिन फिर इस किताब से गुजरते हुए,कई बार रोया। बाद में दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका। कौन मजबूर कर देता है रोने के लिए, सरुप बेन की प्रस्तुति, दो सौ परिवारों का दर्द जिसकी बातचीत को सरुप बेन ने संवेदनशील तरीके से किताब में टांका है या फिर पूरी किताब में उम्मीदी के मुकाबले नाउम्मीदी के मैजॉरिटी में होने की स्थिति या फिर लोकतंत्र के उपर भी वर्चस्ववादी कवर के चढ़ा दिए जाने की पीड़ा। इस पर विचार करना जरुरी है। फिलहाल, इसी कवर को हटाने की जद्दोजहद की स्थिति में अभिषेक कश्यप( संपादन सहयोग) तमाम खामियों के वाबजूद भी लोकतंत्र को बेहतर मानते हैं, जिसके तहत सरुप बेन किताब लिख सकीं। किताब के भीतर दर्द, अथाह दर्द व्यक्ति स्तर का भी दर्द औऱ समाज के स्तर का भी दर्द, इस दर्द के कई रुप, कई परतें लेकिन ये दर्द हमारे बीच निराश का साम्राज्य फैलाने के बजाय उम्मीद पैदा करती है,उम्मीद की संभावना पैदा करती है। खत्म होती हुई उम्मीद के बीच उम्मीद के खत्म न होने की गुंजाइश की तलाश करती ये किताब उस जिद का एक बार फिर से दुहराती है- जीवन हर हाल में जिया जा सकता है। सबकुछ लूटने के वाबजूद भी, समेटने की साहस को संजोते हुए.... कल पढ़िए स्वयं रचनाकार क्या कहती है उम्मीद होगी कोई के बारे में, इतिहासकार अविनाश कुमार और समाजशास्त्री प्रो. शैल मायाराम के विचार। उसके बाद किताबों पर चर्चा _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090307/2b523264/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Mar 10 13:29:29 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 10 Mar 2009 13:29:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <6a32f8f0903100059w61a51fbcu4da7f918f8bdfaa9@mail.gmail.com> अब जब हमारा वक्त कंप्यूटर पर ही टिप-टिपाते निकल जाता है। स्याही से हाथ नहीं रंगते, तो कई लोग इसे पूरा सही नहीं मानते। यकीनन, हाथ से लिखे को पढ़ने का अपना आनंद है। यह तब पूरा समझ में आता है, जब मोबाइल फोन से बतियाने के बाद किसी पुराने खत को पढ़ा जाए। हिन्दू कॉलेज से निकलने वाली हस्तलिखित अर्द्धवार्षिक पत्रिका (हस्ताक्षर) की नई प्रति मिली तो मन गदगद हो गया। पत्रिका की एक कविता आपके नजर- (अच्छा लगता यदि आपको भी हाथ की लिखी पढ़ा पाता ) *शब्द* * * सीखो शब्दों को सही-सही शब्द जो बोलते हैं और शब्द जो चुप होते हैं अक्सर प्यार और नफरत बिना कहे ही कहे जाते हैं इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है बहुत घनी गूंज जो सुनाई पड़ती है धरती के इस पार से उस पार तक व्यर्थ ही लोग चिंतित हैं कि नुक्ता सही लगा या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है देस देश को फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती जब किसी से बस इतना कहना हो कि तुम्हारी आंखों में जादू है फर्क पड़ता है जब सही न कही गयी हो एक सहज सी बात कि ब्रह्मांड के दूसरे कोने से आया हूं जानेमन तुम्हें छूने के लिए। *- लाल्टू* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090310/aadcbfdd/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Mar 10 16:07:54 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 10 Mar 2009 16:07:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] Invitation for the Inaugural Screening of -- The Other Song by Saba Dewan Message-ID: <200903101607.56831.ravikant@sarai.net> दि अदर सॉन्ग - सबा दीवान की नई फ़िल्म वाराणसी की मशहूर गायिका रसूलन बाई ने 1935 में ग्रामोफोन के लिए जो ठुमरी - लगत जोवनवाँ मा चोट फूल गेंदवा ना मार - रिकॉर्ड की, उसे वह दोबारा नहीं गा पाईँ। इसी का एक और रूप - लगत करेजवा में चोट, फूल गेंदवा न मार - ज़्यादा मशहूर हो गया और 1935 की रिकॉर्डिंग जनता के स्मृति पटल से ओझल होती होती अंत में ग़ायब हो गई। इसी भुला दी गई ठुमरी की तलाश करती यह फ़िल्म अमूमन 70 साल बाद हमें वाराणसी, लखनऊ और बिहार ले जाती है। इस सफ़र के दौरान जैसे यादों का एक सैलाब उमड़ पड़ा जिसमें कई लोगों के जीवन-चरित, कई गीतों के टुकड़े, और सालों से विस्मृत अदायगी के अंदाज़ सतह पर उपला आए। ज़ाहिर है कि इन अफ़सानों के केन्द्र में ख़ुद तवायफ़ अदाकारा बाई जी का अपना दिलचस्प जीवन व कर्म है। तो यह फ़िल्म पिछली सदी की शुरुआत और उसके पहली के आख़िरी हिस्सों के हिन्दुस्तानी समाज में प्रचलित सामाजिक आचारों - ख़ासकर नैतिकता की ठेकेदारी और सेंसरशिप तथा महिला यौनिकता के नियंत्रण के तौर तरीक़ों का जायज़ा लेकर हमें रसूलन बाई की ज़िन्दगी, उनकी रचनात्मकता और उनके संघर्षों के बारे में हमें क्या बताती है? जानने के लिए देखने आएँ। पूरी सूचना नीचे है। ravikant +++ India Foundation for The Arts invites you to the the Inaugural Screening of The Other Song a film by Saba Dewan Date: Thursday 12 March 2009 Time: 6:45 PM Venue: Stein Auditorium, India Habitat Centre, New Delhi In 1935 Rasoolan Bai the well known singer from Varanasi recorded for the gramaphone a thumri that she would never sing again - Lagat jobanwa ma chot, phool gendwa na maar (My breasts are wounded, don't throw flowers at me).A variation of her more famous bhairavi thumri - Lagat karejwa ma chot, phool gendwa na maar (My heart is wounded, don't throw flowers at me), the 1935 recording, never to be repeated, faded from public memory and eventually got lost. More than seventy years later the film travels through Varanasi, Lucknow and Muzzafarpur in Bihar to search for the forgotten thumri.This journey opens a Pandora's box of life stories, memories, half remembered songs and histories that for long have been banished into oblivion. It brings the film face to face with the enigmatic figure of the tawaif, courtesan, bai ji and the contested terrain of her art practise and lifestyle. To understand the past and present of the tawaif the film must unravel the significant transitions that took place in late 19th and early 20th century around the control, censorship and moral policing of female sexualities and cultural expression. Duration: 120 minutes Language: Hindi / Urdu / English / English subtitles Directed by: Saba Dewan Camera: Rahul Roy Editing: Reena Mohan / Khushboo Agarwal / Mahadeb Shi / Anupama Chandra Sound: Asheesh Pandya / Gissy Michael / Vipin Bhati For more information: sabadewan at gmail.com Supported by: India Foundation of the Arts and Hivos _________________________________________ reader-list: an open discussion list on media and the city. Critiques & Collaborations To subscribe: send an email to reader-list-request at sarai.net with subscribe in the subject header. To unsubscribe: https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/reader-list List archive: <https://mail.sarai.net/pipermail/reader-list/> ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Mar 10 16:15:04 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 10 Mar 2009 16:15:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSX4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJPgpJzgpLzgpL7gpLA=?= Message-ID: <200903101615.04989.ravikant@sarai.net> शुक्रिया शांतनु बाबू। इसको आहिस्ता आहिस्ता जाँचा जाए और अगर कोई कमी है तो दुरुस्त करने की कोशिश की जाए। लेकिन ये गूगल का औज़ार तो नहीं है न? रवि रतलामी आप तो उस समूह के सदस्य हैं, ऐसा लगता है. कृपया बताएँ कि स्थिति क्या है? रविकान्त सोमवार 09 मार्च 2009 17:43 को, shantanu choudhary ने लिखा था: > नमस्कार, > पेश है यह लिन्क, जिसकी मदद से आप पुराने (non standard)फौंट को युनिकोड में > बदल सकते हैं। > (please do convert all your older content to Unicode standard, as it is > followed, used and accepted every-where) > http://groups.google.com/group/technical-hindi/files?pli=1 > Courtesy Bhagwati ji from sarai, who traced and tested it, and as far as > his feed back goes, it is working prety nice. > आशा है आप के काम आऐगा। > > I am not that efficient and accurate with hindi typing, i am trying to > improve, so please dont mind my mistakes in above content. > > धन्यवाद > शान्तनु ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Tue Mar 10 16:27:52 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 10 Mar 2009 16:27:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkrOClh+Ckn+ClgCDgpJzgpKjgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCkheCkpw==?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KS+4KSwIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: <829019b0903100357s2969b741v2f52d5aa79eefdf1@mail.gmail.com> जा लल्ली भगवान के घर और साथ में हमारी फरियाद भी लेती जा कि हमें लल्ली नहीं, लल्ला चाहिए। इतना कहते ही अभी-अभी जन्मी अपनी बेटी को प्रताप मां का दूध मिलने के पहले ही जहरीले दूध के हवाले कर देता है, हाथ जोड़ता, मानो ऐसा करने के लिए वो उस अबोध बच्ची से माफी मांग रहा हो। पीछे से रोती-पिटती उसकी मां आती है लेकिन इसका कोई भी असर नहीं होता। ऐसा नहीं है प्रताप ही अकेला है जो ऐसा करता है। उसके पहले भी गांव के सारे लोग ऐसा ही करते आए हैं, बेटी के जन्म लेते ही वो मां के दूध मिलने के पहले ही उसकी जान ले लेते हैं। ऑडिएंस को पूरी तरह भावुक कर देनेवाले अंदाज में कलर्सके नए सीरियल न आना इस देश लाडो की शुरुआत होती है। अपने प्रोमो में चैनल करीब दस दिनों से चलाता आ रहा है- कलर्स पर होंगे जज्बात के दो नए रंग, एक में जहां बेटी के पैदा होते ही मनायी जाती है खुशियां और दूसरे में बेटी पैदा होते ही पसर जाता है मातम। ये दोनों सीरियल क्रमशः मेरे घर आयी एक नन्ही परीऔर न आना इस देश लाडो है। मेरे घर आयी एक नन्हीं पर की कहानी विभाजन की मार झेल चुके रोशन लाल से जुड़ी है। रौशन लाल जिसे कि लाला कहते हैं, विभाजन के दौरान गुनीता कौर से मिलते हैं और चांदनी चौक में रहना तय करते हैं। रौशन लाल इमरती की दूकान चलाता है और विभाजन की दर्द को अपने घर एक बेटी पैदा होने की एवज में भूलने की कोशिश करता है। सीरियल में लालाजी की फैमिली को देखते हुए उस पर खुशहाल परिवार का ठप्पा लगाने पर ऑडिएंस को कोई परेशानी नहीं होती। लालाजी के यहां एक बेटी का जन्म होता है जिसका कि चांदनी नाम रखा जाता है। बाद में पूरी कहानी चांदनी के आसपास ही घूमनी है। वो कैसे हंसती है, कैसे तुतलाकर बोलती है, पहली बार दांत आने पर डेंसिट के यहां जाना सबों के लिए कैसे उत्सव हो जाता है. पहली बार स्कूल जाते हुए कितनी प्यारी लगती है और....इसी क्रम में आगे भी। इस सीरियल को वालिका-वधू या फिर उतरन की तरह समस्यामूलक सीरियल नहीं कहा जा सकता। हां इतना जरुर है कि जिस तरह से एक लड़की के पैदा होने पर देश के अधिकांश हिस्से में अभी भी लोग उदासीन हो जाते हैं, संभव है एक हद तक ये सीरियल एक हद तक ऑडिएंस को लड़कियों से भी प्यार करना सिखाएगा। लड़की होते ही दुत्कारे जाने के बजाय, उसकी एक-एक अदा पर नोटिस लेने और मोहित होने शुरु कर दें। लेकिन न आना इस देश लाडो की कहानी पूरी तरह समस्यामूलक है। सीरियल के मुताबिक हरियाणा के करनाल से दस किलोमीटर आगे एक गांव है वीरपुर। वीरपुर में लड़की के पैदा होते ही मार दिया जाता है। उस गांव की परंपरा है कि यहां के लोग बारात लेकर जाते हैं, यहां कोई बारात आता नहीं है. अगर ऐसा होता है तो पूरे गांव की नाक कट जाती है। सीरियल के दो मिनट शुरु हुए भी नहीं हुए कि इस परंपरा का निर्वाह प्रताप के अपनी बेटी को मार दिए जाने से शुरु हो जाती है। वीरपुर में अम्माजी का वर्चस्व है। अम्माजी,वो चरित्र जिसके आगे पुलिस-प्रशासन सब पांव की जूतियों के बराबर है। ये सब उनके आगे-पीछे चिरौरी करते नजर आते हैं। बेटी के पैदा होते ही मार दिए जाने का रिवाज अम्माजी की सख्ती के कारण ही लागू है। बालिका-वधू सीरियल में जिस तरह दादीसा की मर्जी के बिना घर का एक पत्ता-बर्तन भी नहीं हिल सकता है, उसी तरह इस सीरियल में अम्माजी की मर्जी के बिना वीरपुर के किसी भी घर में बच्चा नहीं जना जा सकता। न आना इस देश लाडो में लड़की-स्त्री के उपर होनेवाले भेदभाव को सांकेतिक तौर पर जगह-जगह दिखाने की सफल कोशिश है। अम्माजी का जन्मदिन है और इस मौके पर वो खैरात( मुफ्त में चीजें बांटना) बांटती है। बांटने के पहले ही अछूत का व्यवहार करती हुई लुगाई सब को पीछे हो जाने का आदेश देती है। हवेली पहुंचने पर अम्माजी के स्वागत में सारी बहुएं बारी-बारी से आतीं हैं। वो बहुएं जो पहले लड़की जन चुकीं हैं, अम्माजी उसे दुत्कारते हुए पीछे हटने को कहती है। बहुएं कोने में जाकर लड़की पैदा करने की वजह से बिसूरती हैं। लेकिन चंदा को अम्माजी गले से लगाती है, उसे ढंग से खाने-पीने की सलाह देती है। चंदा बच्चा जननेवाली है और पहले से ही अल्ट्रासाउंड के जरिए ये पता करा लिया है कि इसे लड़का होनेवाला है। पोते की उम्मीद में अम्माजी पर खुमारी-सी चढ़ जाती है। यहां आकर कहानी बालिका-वधू से मेल खाती है जहां दादीसा पोते का मुंह देखने के लिए अपने बेटे बसंत की बार-बार शादी कराती है और देश की एक बालिका फिर वधू वधू बनने के लिए मजबूर होती है। अम्माजी का बेटी के प्रति घृणा और आतंक इस हद तक है कि चंदा डॉक्टर को पैसे देकर रिपोर्ट बदलवाती है और पेट में बेटी के पलने के वाबजूद भी रिपोर्ट में बेटा होने की घोषणा लिखवा आती है। सीरियल यहां साफ कर देता है कि सरकारी पाबंदी के वाबजूद भी देश के कई इलाकों में जन्म से पहले लिंग जांच का काम पैसे ले-देकर धडल्ले से चल रहा है। वो बेटी जनना चाहती है, वो मां कहलाना चाहती है।.. अब तक के एक ही एपिसोड में सीरियल की शुरुआत मार्मिक तरीके से होती है। इस घोषणा के साथ कि वो देश से बेटी के साथ हुए दुर्व्यवहार को खत्म करने की छोटी-सी कोशिश कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि कलर्स ने जिस तरह से सीरियलों का रुख बदला है,उसे सोप ओपेरा के इतिहास में एक नया फेज ही कहा जाएगा। सीरियल का मतलब सास-बहू की चिकचिक और वूमेन स्पेस से अलग इसने सीरियल फॉर ऑल का कान्सेप्ट दिया। अब तक के इस तरह के सीरियलों की पॉपुलरिटी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऑडिएंस इन दोनों सीरियलों को हाथों-हाथ लेगी। लेकिन फिर वही दावा कि टेलीविजन इसके जरिए सामाजिक विकास कर रहे हैं, इसे मानना ज्यादती हो जाएगी। टेलीविजन के ट्रीटमेंट से सामाजिक विकास संभव नहीं है, एक हद तक जागरुकता आ सकती है लेकिन बिना स्टेट मशीनरी के सक्रिय हुए इन मसलों पर बात करना जज्बातों को जिंदा रखने की कोशिश भर ही है।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090310/16bb720f/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Mar 11 17:31:48 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 11 Mar 2009 17:31:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSc4KWA4KSw?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpLngpYvgpLLgpYAg4KSq4KSwIOCkleClgeCkmyDgpK8=?= =?utf-8?b?4KWC4KSCIOCkleCkueCkvi0=?= Message-ID: <6a32f8f0903110501i33d37b33p47c64c1b002ca463@mail.gmail.com> *नजीर* की होली पर लिखी पंक्तियां- *मियां!** तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में।* *कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में।।* * * *मची है रंग की कैसी बहार होली में।* *हुआ है जोर चमन आश्कार होली में।।* * * *अजब यह हिन्द की देखी बहार होली में।।* सचमुच यूं मनाएं होली। मुबारक हो। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090311/3761c62d/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Mar 11 20:46:13 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 11 Mar 2009 20:46:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkleClgCDgpLngpYvgpLLgpYAs4KSw4KS/4KSq?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWN4KSf4KSwIOCkqOClhyDgpJXgpLngpL4tIOCknOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkn+Ckv+CkjyDgpKg=?= Message-ID: <829019b0903110816n7cb8c6e5k974af5e90d6b60b5@mail.gmail.com> क्या गुरु, तुम तो कहते हो कि बीएचयू (बनारस) में हमलोग लेडिस लोग से बोलने-बतियाने के लिए तरस जाते थे और यहां देख रहे हैं कि न्यूज 24 पर मार लौंडे लोगों के साथ लेडिस लोग झूम रही है। मेरे फोन करते ही वो हड़बड़ा गया- अरे, ऐसे कैसे हो सकता है, हमरे टाइम में तो ऐसा नहीं हुआ। अभी पता करते हैं, अगर ऐसा है तो भाड़ में जाए मई का अश्वमेघ यज्ञ( यूपीएसी पीटी), वहीं जाकर पीएचडी में इनरॉल होते हैं। दो साल तो नेट के नाम पर ही डोरा डालनेवाला काम होगा। करीब दस मिनट बाद फोन आया- अरे भाई, उ सब म्यूजिक और फाइन आर्ट के लौंडे थे, अब उनकी बात कौन करे, उऩलोगों के बीच ऐसा कुछ नहीं होता है. वो तो तालिबानी शासन में भी लेडिस लोग के साथ नाचे तो कोई कुछ नहीं कहेगा। मैंने कहा- लेकिन गुरु नैचुरल नहीं लग रहा था, लग रहा था कि संकोच से गड़े जा रहे हैं दोनो। उसने फिर कहा- तब हिन्दीवाला लोग मिला हुआ होगा, उस टोली में। वही लोग विद्यापति पढ़कर अजमाना भी चाहता है और समाज से डरता भी है। मैंने जोड़ते हुए कहा- अगर घर में कोई पूछे भी तो कह देगी,कैमरेवाले भइया ने कहा था, थोड़ा नजदीक हो जाओ, फ्रेम में तभी आएगा। उसे ये तर्क एदम से पसंद आया, कहा- और क्या, वही कहें, यहां वसंत महिला महाविद्यालय के गेट पर घंटों अगोरे( इंतजार) किए तो कुछ नहीं हुआ और अब कामराज कैसे आ गया। टेलीविजन की स्क्रीन पर आने की तड़प देश के कई हिस्से के लोगों में साफ दिखी। कहीं एक बार दिख जाए तो कहीं होली खेलते हुए दिख जाए। पटना कॉलेज की लड़कियां बोल्ड होकर कह रही थीं- होली है, अच्छा लगा देखकर। न्यूज 24 की संवाददाता रुबिका लियाकत रंगों से बचने की बात करती कि इसके पहले ही स्कूली लौंडे पिल पड़े और उसे भी रंग डाला। खबर कुछ भी नहीं थी, सिवाय ये बताने की रिपोर्टर भी दिल रखते हैं। जी न्यूज को सुबह तक चिंता बनी रही कि राधा की चोली कौन रंगेगा, साढ़े नौ बज गए हैं। इंडिया टीवी होली में कैसे मनाए दिवाली को लगातर फ्लैश करता रहा। कब जलाएं होलिका,शुभ मुहुर्त निकालकर बैठा रहा। इंडिया टीवी ने ज्योतिष नाम की खबर की अच्छी प्रजाति ढूंढ ली है। जैसे घरों में कुछ नहीं हो तो आलू, कहीं भी आलू, कभी भी आलू। अभी हाल ही में एनडीटीवी इंडिया ने दर्द जताया था कि एक समय ऐसा आएगा कि देश के सारे रिपोर्टर यूट्यूब की खानों में खो जाएंगे, फील्ड की रिपोर्टिंग घट रही है। लेकिन विदेशों में कैसे मनायी गयी देशी होली के लिए यूट्यूब का सहारा लेना पड़ गया। अब ये क्रिकेट थोड़े ही है कि कवर करने कोई रिपोर्टर जाए। एनडी भी यूट्यूब की खाक छानता है। लेकिन ईमानदारी रही कि लिख दिया, सौजन्य से- यूट्यब। आजतक, स्टार सहित दूसरे चैनलों पर होली और राजनीति का कॉम्बी पैक बनाकर चलाया जाता रहा। चुनाव के लिहाज से होली को देखने-समझने की कोशिशें की गयी। इसी क्रम में बिग बी ने मुंबई आतंकवादी घटना को लेकर नहीं मनायी होली, कोशी से आहत हुए लालू ने कुर्ता-फाड़ होली को स्थगित किया और नीतिश बाबू भी इसी कदमताल में रहे, चैनलों ने इसे प्रमुखता से दिखाया। इस खबर से सबकी महानता में इजाफा हुआ। इन सबके बीच न्यज 24 ने एक नया प्रयोग किया। एक स्पेशल पैकेज तैयार किया। ब्लॉग औऱ डॉट कॉम के भाईयों नें प्रोमो भी किया- न्यूज रुम का रहस्य। प्लॉट है कि रामू यानि रामगोपाल वर्मा एक फिल्म बनाने जा रहे हैं और किस एंकर को क्या रोल मिलने जा रहा है। इसमें देश के प्रमुख टीवी पत्रकारों को लेकर एक प्रहसन तैयार किया गया। सबकी स्क्रीन के जरिए जो एक पॉपुलर छवि बन चुकी है, कुछ की ऑफिस में जो छवि बनी है, उसे भी समेटते हुए, चुटकी लेने की कोशिश की गयी। ऑडिएंस जो महसूस करती है कि सम्मीर अब्बास में बहुत दम नहीं है उसे चैनल ने मजे में कह दिया- चाहते हैं कि लोग इन्हें सीरियसली लें लेकिन लेते नहीं। दिवांग नयी-नयी लड़कियों संत बनकर मीडिया ज्ञान देते नजर आते हैं। चैनल के लोगों के बीच टीआरपी औऱ स्टोरी को लेकर पहले हम, पहले हम की जोर मारकाट मची रहती है, ऐसे में गंगा जमुना संस्कृति की तहजीब बताने की लचर कोशिश की गयी। इस स्पेशल स्टोरी को अगर किसी ने गौर से देखा होगा तो मजाक में ही सही लेकिन सीरियसली समझ सकेगा कि मीडिया के भीतर किस-किस मानसिकता के लोग काम करते हैं, उनमें से कुछ आइटम भी हैं। इस स्पेशल का महत्व ऑडिएंस के लिए इसी रुप में है नहीं तो बाकी सबकुछ बोरिंग है, कुछ मजा नहीं आया देखकर, बिल्कुल भी ह्यूमरस नहीं था। लेकिन एक बात है कि इसमें शामिल पत्रकार अपनी हैसियत समझ रहे होंगे, इस संकेत को समझ रहे होंगे कि अगर देश के प्रमुख एंकर-पत्रकारों की सूचि बनेगी तो उनमे ये शामिल होंगे। क्योंकि शामिल करनेवाले चैनल के बाबा ही रहे होंगे। जो नहीं शामिल किए गए, वो अपने को छुच्छा समझ रहे होंगे। वाकई मीडिया के लोगों के लिए ये हैसियत समझनेवाली स्टोरी रही। मनोरंजन चैनलों में लॉफ्टर चैलेंज पर आधारित शो को आज के दिन कूदने-फांदने का कुछ ज्यादा ही मौका मिल जाता है। ऐसा लगता है कि आज के दिन पर सबसे ज्यादा अधिकार इन्हीं का है. सोनी के कॉमेडी सर्कस औ स्टाऱ वन के लॉफ्टर चैलेंज में ये साबित हो गया। लेकिन कोई गुस्सा नहीं होता, ये सुनकर कि सुहागरात के दिन पत्नी के पास मैं स्क्रू ड्राइवर,हथौड़े और बाकी चीजें लेकर चला गया, जैसे मैं कोई इंजन खोलने जा रहा हूं। लल्ली अपने परवान पर नजर आयी। छोटे मियां की गंगूबाई सिलेब्रेटी के तौर पर स्टैब्लिश हो गयी है। रियलिटी शो के जरिए नाम कमा चुके सारे वडिंग्स और सिलेब्रिटी की महफिल इ-24 पर जमी, तरीके से गाना-बजाना हुआ। टीवी सीरियलों में ये पूरी तरह से स्टैब्लिश हो गया है कि जिस दिन जो त्योहार हो, उस दिन के एपिसोड में भी वही दिखाओ। जस्सू बेन जयंतीलाल जोशी की ज्वाइंट फैमिली( एनडी इमैजिन) में जस्सू बेन के यहां जमकर हई होली। पिछली बार एनडी इमैजिन ने नया प्रयोग किया था। अपने सारे कार्यक्रमों राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी से लेकर नच ले वे विद सरोज खान तक के सारे कलाकारों को जस्सूबेन के घर जुटाया था और एक की कहानी दूसरे में नत्थी करके दिखाने की सफल कोशिश की थी। वाकई अलग लगा था ऐसा देखना कि राधा की बेटी रुचि, मैं तेरी परछाई हूं के सचिन को जस्सूबेन के घर जाकर पुचकारती है। इस बार सीरियल का नजारा कुछ अलग रहा। सीरियल होली को लेकर दो खेमे में बंट गए। एक में होली मनायी गयी, इसे धूमधाम से दिखाया गया। वंदिनी से लेकर जाने क्या बात हुई तक। लेकिन दूसरी तरफ कहानी उस मोड़ पर आकर अटक गयी है कि ऐसे में होली नहीं मनायी जा सकती। बालिका वधू की आनंदी के घर मातम है। सुगना के घर बारात आनेवाली है लेकिन रास्ते में ही उसके होनेवाले पति प्रताप को डाकुओं ने मार डाला। सुगना की जिंदगी उजड़ गयी। अब कैसे मनाए होली। होली के दिन मंदिर के लिए निकलती है, गांव भर के लोग दूर भागते हैं उससे। जीवनसाथी की मिराज सदमे से पागल हो गयी है, वो अपने गूंगे पति के साथ इधर-उधर भटकती है। उसकी मां को इन सब बातों की याद आती है और गुलाल से भरी थाल रख देती है। खुशी में भी गम को शामिल करना नया ट्रेंड है। के फैक्टर के सीरियलों में ऐसा नहीं था। इस दिन अब सीरियल वोलोग भी देख सकेंगे जिनके घर कभी आज के दिन कुछ................अप्रिय घटना हुयी है, टीवी उनके लिए भी है, फिर से याद करने के लिए, पब्लिक प्लेस में नहीं, फिर भी टेलीविजन के साथ शामिल होने के लिए. इन सबके साथ धार्मिक सीरियलों नें भी सीरियल के इस पैटर्न को फॉलो किया है और पौराणिक कथाओं की पैश्चिच बनाते हुए वहां भी होली, दिवाली औऱ दूसरे त्योहारों के प्रसंग पैदा कर लिए हैं। कलर्स पर जय श्री कृष्णा को इसी रुप में देखा,चाची( राकेश सरजी की मां) से राधा-कृष्ण के भजन सुनते हुए। बमुश्किल तीन साल के कृष्ण, राधा की उंगली पकड़कर चल देते हैं, ब्रज की होली खेलने। ये हैं जज्बात के नए रंग........।।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090311/89653ff7/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Mar 12 11:40:15 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 12 Mar 2009 11:40:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSB4KSn?= =?utf-8?b?4KWALCDgpJXgpL/gpILgpJfgpKvgpL/gpLbgpLAg4KSU4KSwIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <196167b80903112310m5f887a83ya075fe98cbf66fa@mail.gmail.com> अंततः किंग फिशर वाले भाई साहब विजय जी माल्या गांधी जी के चश्मे को फिरंगियों के हाथों से बचा लाए. चीयर्स...सोचा था इसकी वापसी की खुशी में भारत में जश्न होगा. शेम्पेन की एक-आध बोतलें खुलेंगी. और चीयर लीडर्स टी वी स्क्रीन पर दे दी हमें आज़ादी बिना खडग, बिना ढाल के बोल पर थिरकेंगी. और इनका नेत्रित्व कर रही राखी सावंत 'आज के समय में गांधी कितने प्रासंगिक' विषय पर तमाम खबरिया चैनलों पर बौधिक झाड़ रही होंगी. सो सेड -वेरी बैड. ऐसा नहीं हुआ. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090312/41769afc/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Mar 12 11:40:15 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 12 Mar 2009 11:40:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSB4KSn?= =?utf-8?b?4KWALCDgpJXgpL/gpILgpJfgpKvgpL/gpLbgpLAg4KSU4KSwIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <196167b80903112310m5f887a83ya075fe98cbf66fa@mail.gmail.com> अंततः किंग फिशर वाले भाई साहब विजय जी माल्या गांधी जी के चश्मे को फिरंगियों के हाथों से बचा लाए. चीयर्स...सोचा था इसकी वापसी की खुशी में भारत में जश्न होगा. शेम्पेन की एक-आध बोतलें खुलेंगी. और चीयर लीडर्स टी वी स्क्रीन पर दे दी हमें आज़ादी बिना खडग, बिना ढाल के बोल पर थिरकेंगी. और इनका नेत्रित्व कर रही राखी सावंत 'आज के समय में गांधी कितने प्रासंगिक' विषय पर तमाम खबरिया चैनलों पर बौधिक झाड़ रही होंगी. सो सेड -वेरी बैड. ऐसा नहीं हुआ. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090312/41769afc/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu Mar 12 16:47:15 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 12 Mar 2009 16:47:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkpQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkuOCli+CkqOCkvuCksuClgCDgpKbgpL7gpLgg4KSX4KWB4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS+IOCklOCksCDgpI/gpJUg4KSl4KWHLi4u?= Message-ID: <200903121647.17538.ravikant@sarai.net> अनुराग वत्स का चिट्ठा सबद बहुत सही जा रहा है. लेकिन मैं उसमें से सब चीज़े न पढ़ पाता हूँ, न ही नक़लचेपी कर पाता हूँ. और वे मैस मेलर भेजते हैं. जिसे सीधे दीवान पर भेजा नहीँ जा सकता. बहरहाल जो कर पाया हूँ, वह बेहद दिलचस्प है. पेश है रॉसेलिनी और सोनाली दास गुप्ता का प्रसंग एम एफ़ हुसैन की क़लम से. http://vatsanurag.blogspot.com रविकान्त ++ सबद... Wednesday, March 11, 2009 एक थीं सोनाली दास गुप्ता और एक थे... वह साल १९५६ था। प्रधानमंत्री नेहरू के बुलावे पर प्रसिद्द इटालियन फ़िल्मकार रोबर्टो रोज़ीलिनी भारत आए थे। तब एक नए प्रजातंत्र के रूप में उभरते भारत पर फ़िल्म बनाने। इस आगमन के पीछे जितनी रोज़ीलिनी की भारत में दिलचस्पी थी, उतनी ही इटालियन नियो रियलिस्म के इस पुरोधा की तत्कालीन असफलता और निजी तौर पर अपनी दूसरी पत्नी और हॉलीवुड सुपरस्टार इंग्रिड बर्गमैन से रिश्तों में आई खटास भी थी। जिन्होंने उनकी रोम ओपन सिटी या इअर जीरो सरीखी फिल्में देखी थी और जो उनके नाजीवाद की नाक के नीचे साहसिक फिल्में बनाने के कारण मुरीद बने थे वे रोज़ीलिनी की इस नियति की कल्पना तक नहीं कर सकते थे। स्वयं रोज़ीलिनी के लिए यह स्थिति अकल्पनीय और अंततः दुखद और त्रासद बन गई थी। ऐसे में भारतीय प्रधानमंत्री से हुई एक मुलाकात के बाद मिले न्योते को उन्होंने तुंरत स्वीकार कर लिया और कुछ अलग करने की मंशा लिए भारत आए। इससे पहले अपने फ़िल्ममेकर मित्र जॉन रेनुआ की कोलकाता की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म रिवर से भी रोज़ीलिनी गहरे मुत्तासिर थे। लेकिन रोज़ीलिनी के लिए भारत में कुछ ऐसा घटित होनेवाला था, जिससे उनकी ही नहीं कम से कम ती न लोगों की ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल जानेवाली थी। आपको मैं यह सब अगर रोज़ीलिनी की भारत यात्रा पर दिलीप पडगांवकर की हालिया लिखी पुस्तक ( अंडर हर स्पेल ) के हवाले से सुनाऊंगा तो उसमें जो कबीलेलुत्फ़ है वह शर्तिया मेरे लेखन की रुखाई में गुम जाएगा। इसलिए फिलहाल दिलीप पडगां वकर के अपने मित्र और प्रिय फिल्मकार पर लिखी विद्वतापूर्ण पुस्तक के हवाले और अपनी सूत कताई बंद कर मैं आपको उस मकबूल फनकार के साथ छोड़ जाता हूँ जिसके हाथ में कूची और कलम एक जैसी असरदार है। आप उन्हें हुसेन के नाम से जानते हैं। इससे ज़्यादा उनका परिचय देने की काबिलियत मुझमें नहीं। आप तो बस उनकी ज़बानी आगे की कहानी सुनिए, क्योंकि ये हजरत भी पूरे फसाने में एक अहम् किरदार निभा रहे हैं। :: इंडिया ५६ की फिल्मिंग शुरू। उनके ( रोज़ीलिनी के ) कैमरामैन मशहूर फ़िल्म वार एंड पीस के टोंटी। उनकी स्क्रिप्ट गर्ल कलकत्ता की सोनाली जो हरीदास गुप्ता फ़िल्ममेकर की बीवी थी। रोज़ी लिनी हिन्दुस्तान आते ही यह दावा कर बैठे कि उन्हें दो इंसानों से इश्क हो गया। औरत सोनाली दा स गुप्ता और मर्द एम.एफ़.हुसेन। पहली बार हुसेन की पेंटिंग भोलाभाई देसाई स्टूडियो में देखी और पन्द्रह कैनवस का रोल रोम रवाना किया। फिर हुसेन को साथ ले गए मैसूर के जंगल, हाथी पर सवार फ़िल्म की शूटिंग करते रहे। सोनाली से इश्क का बुखार भी तेज़ हो चला। पहले 'बाम्बे फ़िल्म इंडस्ट्री' में हलचल मची, फिर अंतरराष्ट्रीय स्कैंडल बना। सोनाली ने बम्बई ताज होटल में अपने पाँच साल के बच्चे को लेकर रोज़ीलि नी के कमरे में पनाह ली। हुसेन की दोस्ती के लंबे हाथ बावजूद 'धमाकाखेज़ हालत' के छोटे नहीं हो पाए। रोज़ीलिनी के प्लान के मुताबिक सोनाली को बुरका पहनाकर रात के अंधेरे में ताज होटल से हुसेन बम्बई सेंट्रल रेलवे स्टेशन ले गए। दो टिकट मिस्टर और मिसेज़ हुसेन के नाम से कूपे बुक किया गया, लेकिन कूपे के साथ ही लगे डिब्बे में नामालूम कैसे 'टाइम' और 'लाइफ' के लंबे-लंबे 'ज़ूम लैंस' पहुँच गए। पर मीडि या की क्या मजाल, जबकि सोनाली का बुरका उठाने की जुर्रत हवा का झोंका भी नहीं कर सका। सियाह बुर्के की बगल में सफ़ेद दाढी जो रोशन थी। 'टाइम' और 'लाइफ' ने लाख कोशिश की, कि सोनाली और रोज़ीलिनी का साथ फोटो हाथ आ जाए, इसके लिए पाँच हज़ार का चेक भी दूर से दि खाया। फ्रंटियर मेल तूफ़ान की तरह चली मगर बजाए दिल्ली रेलवे स्टेशन के निज़ामुद्दीन प्लैटफॉर्म पर चुपके से दोनों उतर पड़े। स्टेशन के बाहर प्लान के मुताबिक एक इमली के पेड़ तले काली अम्बेसडर गाड़ी इगनेशन ऑन किए खड़ी थी। लोगों की नज़रें सिर्फ़ दाढ़ी और बुर्के पर रही, कार की नंबर प्लेट पर नहीं। का र वहां से यह जा वह जा और पालम एयरपोर्ट पर 'अलितालिया' का हवाई जहाज ऐसे खड़ा दिखाई दिया जैसे उस पर बंगाली हुस्न का जादू चल गया है और वह सोनाली को अगवा करने पर तुला है। :: तो ये थे हुसेन। यारों के यार। आगे का किस्सा यह है कि इंग्रिड बर्गमैन से तलाक़ के बाद सोनाली से रोज़ीलिनी ने विवाह कर लिया और सोनाली को इस तरह बाकायदा इटालियन नागरिकता भी प्राप्त हो गई। रोज़ीलिनी ने अपने ढलान के वर्षों में जिस तरह इंग्रिड बर्गमैन के साथ अपने ढंग की फिल्में बनाई और फ्लॉप रहे उसी तरह की फेलियर सोनाली के साथ भी जारी रही। पर सोनाली ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाने की अपनी महत्वाकांक्षा पर काबू पा लिया था, जिसमें ग्लैमरस बर्गमैन नाकाम रही थीं। बर्गमैन ने इसी कारण रोज़ीलिनी से अलग होकर हॉलीवुड का फिर से रुख कर लि या, जबकि सोनाली उनके साथ अंत तक रहीं। यह विडंबना ही है कि इटली से बहू बन कर आईं सोनिया गाँधी को भारत की जनता ने प्यार और सम्मान दिया, उन्हें प्रधानमंत्री के पद के योग्य भी माना, जबकि रोज़ीलिनी के निधन के बाद जब सोनाली ने इटली में स्थानीय स्तर के चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त की तो उन्हें बाय बर्थ इटालि यन न होने के कारण इसकी इजाज़त नहीं दी गई। रोज़ीलिनी के बीस वर्षों के साथ के अलावा वहां सोनाली के लिए कुछ भी न था। **** ( हुसेन का अंश वाणी प्रकाशन से छपी उनकी आत्मकथा से साभार।) From vineetdu at gmail.com Fri Mar 13 14:28:13 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 13 Mar 2009 14:28:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWB4KS14KS+?= =?utf-8?b?IOCksOCkmuCkqOCkvuCkleCkvuCksOCli+CkgizgpKrgpL7gpKDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KWn4KWqIOCkruCkvuCksA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSaIOCkueCli+Ckl+CkviDgpLXgpL/gpLbgpYfgpLcg4KSm4KS/?= =?utf-8?b?4KSo?= Message-ID: <829019b0903130158j17fec970p9665820d2c85da16@mail.gmail.com> कल यानी14 मार्च हिन्दी के युवा रचनाकारों के लिए खास दिन होगा। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित युवा रचनाकारों की कुल 13 रचनाओं जिनमें 6 कहानी संग्रह और 7 कविता संग्रह हैं का लोकार्पण एक ही साथ किया जाएगा। एक तो एक ही साथ 13 पुस्तकों का लोकार्पण औऱ दूसरा कि युवा रचनाकारों औऱ पाठकों का जमघट, इस नजरिए से ये लोकार्पण वाकई उत्साह पैदा करनेवाला होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिन्दी समाज में युवा रचनाकारों की जो नयी खेप आयी है वो साहित्य के नाम पर कोसने और बदलाव के लिए कलम चलाने के बजाय कोड़े बरसाने की संस्कृति से अपने को अलग रखेंगे। फिलहाल रचनाओं के शीर्षक से साफ झलकता है कि आनेवाली पीढ़ी हिन्दी का मतलब सिर्फ कविता औऱ कहानी से नहीं, कविता और कहानी का मतलब कोरे कल्पना और भाषिक लफ्फबाजी से नहीं ले रही है बल्कि रचनाओं के भीतर समाज और निजी अनुभव को सामाजिक आलेख के रुप में ले रहे हैं। आदर्श को जबरन थोपने के बजाय सामयिक यथार्थ को निपट रुप में रख देने के साहस के साथ इनकी रचनाएं सोशल डॉक्यूमेंट के तौर पर सामने आ रही हैं। संभव है इससे एक हद तक जड़ हो चुकी साहित्य की वर्जनाएं भी टूटे लेकिन हिन्दी और हिन्दी से इतर साहित्य में प्रैक्टिकल एप्रोच की तलाश कर रहे पाठकों के बीच एक नयी उम्मीद जगेगी। जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा और कहते हैं शहंशाह सो रहे थे जैसी रचनाओं को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है। हिन्दी साहित्य की दुनिया में इन रचनाओं का लोकार्पण महज साहित्यिक जलसा न होकर ऐतिहासिक बदलाव का संकेत भी है। एक हद तक आनेवाले समय में युवा संस्कृति के कई संदर्भ इन रचनाओं और रचनाकारों के बीच से खोजे जा सकेंगे। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित युवा रचनाकारों की पुस्तकें कविता- कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे- उमाशंकर चौधरी(पुरस्कृत) यात्रा- रविकांत (पुरस्कृत) खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं- - हरेप्रकाश उपाध्याय अनाज पकने का समय- नीलोत्पल जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा- निशांत जिस तरह घुलती है काया- वाज़दा ख़ान पहली बार- संतोष कुमार चतुर्वेदी कहानी डर- विमल चंद्र(पुरस्कृत) शहतूत- मनोज कुमार पांडेय अकथ- रणविजय सिंह सत्यकेतु कैरियर गर्लफ्रैंड और विद्रोह- अनुज सौरी की कहानियां- नवीन कुमार नैथानी ईस्ट इंडिया कम्पनी- पंकज सुबीर आगामी 14 मार्च, 11 बजे सुबह को हिन्दी भवन, नई दिल्ली में इन पुस्तकों का लोकार्पण श्रीमती शीला दीक्षित, मुख्यमंत्री, दिल्ली के द्वारा होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुँवर नारायण करेंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090313/6d8b0ed0/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Mar 14 19:23:43 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 14 Mar 2009 19:23:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSC4KSV4KS/IOCkpOClgeCkriDgpLLgpKHgpLzgpJXgpYAg4KS54KWL?= =?utf-8?b?IOCkqCzgpazgpabgpaYg4KSw4KWB4KSq4KSv4KWHIOCkruCkv+Cksg==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpeClhyDgpIfgpLgg4KSV4KS14KS/4KSk4KS+IOCkleClhw==?= Message-ID: <829019b0903140653s58ed47f8jcb2a2ceec8ccf01@mail.gmail.com> मैंने तुम्हें देखते ही अंदाजा लगा लिया था कि हो न हो तुम निभाकर आयी हो एक प्रमिका की किरदार एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो कहता है अपने को तुम्हार प्रमी नहीं,नहीं तुम्हारा पहला प्रेमी लेकिन है वो हवशी, धरती का सबसे बड़ा हवशी। जिसकी कठोर हाथें गयी होंगी तुम्हारे कोमल होठों के उपर और फिर उसने वही सब कुछ किया होगा जैसे एक बच्चा मचल उठता है रंगीन कागज में लिपटे खिलौने को देखकर टुकड़े-टुकड़े कर डालता है थर्मकॉल के पीस को जिसके भीतर खिलौने के, लम्बे समय तक सेफ रहने की गारंटी थी। चिथड़े-चिथड़े कर डालता है उस रंगीन कागज को जिसमें लिपटकर खिलौना खिलौने से भी बहुत कुछ कीमती चीज जान पड़ता था। लेकिन बच्चे ने थर्मकॉल को टुकड़े-टुकड़े क्यों कर डाला चिथड़े-चिथड़े क्यों कर डाले उस रंगीन कागज को।। बच्चा भी समझता है,समाज की भाषा कल को उसे भी स्पेल करना है टेक इट इजी,टेक इट इजी सब चलता है, क्योंकि क्योंकि तुम लड़की हो न।।.. ( आज एमए के पुराने नोट्स खोजते हुए ये कविता मुझे अपनी एक नोटबुक से मिली। एमए प्रीवियस के दौरान लिखी गयी कविता। तब मैं हिन्दू कॉलेज,दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एमए कर रहा था। पैसे की तंगी होती थी जो कि स्वाभाविक से ज्यादा मेरी खुद की बनायी थी। घरवाले कहते-यूपीएससी करो,मीडिया में चले जाओ,फैशन डिजाइनिंग करो, जितने पैसे लगेगें मैं दूंगा लेकिन ये साहित्य छोड़ दो। साहित्य नाम से मेरे पापा को हिन्दी के वो सारे मास्टर और लेक्चरर ध्यान में आ जाते जो होली में कपड़े लेते तो उसके पैसे दिवाली में चुकाते। पान की पिक मारते वो तिवारीजी, मिश्राजी न जाने कितने लोगों का बतौर रेफरेंस देते कि- पढ़े तो वो भी थे साहित्य क्या कर लिए। पापा को कभी भी मोटी तनख्वाह लेनेवाले और समारोहों में आलोचना कर्म में रत हिन्दीवालों का ध्यान नहीं आता। मैं बस साहित्य के तर्क में सिर्फ इतना ही कह पाता- कमाई इस फील्ड में भी है पापा, लेक्चरर बनने पर फिजिक्सवाले से कम सैलरी थोड़े ही मिलेगी। खैर, हिल-हुज्जत करके दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरे सहित दो-तीन लोगों ने वो सबकुछ किया जिसे कि स्थापित साहित्यकार हो जाने पर मंच से याद करते हुए अपने को जमीन से जुड़ा हुआ साहित्यकार साबित करने में सहुलियत हो। हम डिबेट में जाते, क्लास छोड़कर एक्सटेम्पोर बोलने चले जाते, दो-तीन कविताएं साथ लेकर घूमते और महौल के हिसाब से उसका पाठ करते। मेरे बाकी दोस्तों से मेरी समझ बिल्कुल अलग थी। मेरे हिसाब से कविता, कहानी, डिबेट करने में कोई अंतर नहीं था। असल बात थी कि माल कहां से मिलता है। इसलिए हमलोग मौका देखते ही सब कुछ करते। कविता भी वरायटी, रेंज और खपत के हिसाब से ही लिखते। महान विचार तब सिर्फ कोर्स की किताबों और हमारे नोट्स में ही कैद होते। उस दिन पता चला, जानकीदेवी कॉलेज में कविता पाठ प्रतियोगिता है। हिन्दू कॉलेज में कुछ सीनियर अपने को तोप कवि मानते, हमें फुद्दू समझते। रास्ता पता नहीं था, इसलिए मेंटली टार्चर होने की बात जानकर भी उन्हीं के साथ हो लिए। सबों ने बड़ी-बड़ी बातें की। मार, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, अपसंस्कृति और कुछ तो अज्ञेय के डमी ही हो गए। मैंने देखा, चार में से दिन जज महिला टीचर है। बस, इतना ही कहा- आज तक विकास के नाम पर स्त्री को बाजार मिला है, समाज नहीं, इसके लिए उसे लड़ना होगा औऱ पढ़ दी वो कविता जिसे आप उपर पढ़ चुके हैं। मैंने जितनी भी कविताएं लिखी हैं, वो सब प्रतियोगिता औऱ पैसे लेने के लिए । एमए के बाद प्रतियोगिता में जाने योग्य नहीं रहे सो लिखना छोड़ दिया, हंसराज के बंदों ने तो डायरी भी मार ली। खैर, जानकीदेवी में मुझे इस कविता के लिए छह सौ रुपये मिले और सीनियर्स को सिर्फ शाबासी। एक जज ने कहा कि बाकी की भी कविताएं अच्छी थी लेकिन विनीत ने पूरे सिचुएशन को समझते हुए कविता पढ़ी और हमलोगों को अच्छी लगी। वीमेंस डे में सात-आठ दिनों का ही फासला था। उस छह सौ रुपये में सबसे पहले मैंने घंटाघर से दो सौ रुपये में एक कूकर खरीदा, यूनाइटेड ऑरिजनल लिखा हुआ। आज वो मेरा पुराना कूकर दीपा की नयी गृहस्थी बसाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। फिर दो सौ पच्चीस रुपये में सेकण्ड हैंड गैस चूल्हा विद तीन किलो के सिलेंडर। जिससे खरीदा,उसकी गर्लफ्रैंड ने अपने यहां से इंडेन का बड़ा वाला गैसे दे दिया था। चूल्हा तो रामलखन पहले नेहरु विहार,फिर पुणे ले गया लेकिन सिलेंडर हॉस्टल के कमरे में छापा पड़ने से एक दोस्त के यहां रखवा दिया है। बाकी पैसे से वेद ढाबा,कमलानगर में मैं और मेरे स्वनामधन्य सीनियर कवियों ने जमकर खाना खाया था। कविता ने मेरे दोस्तों को अक्सर महान होने का एहसास कराया, ये एहसास उनके बीच आज भी जिंदा है और मुझे एक समय के लिए भौतिक रुप से समृद्ध जिसकी प्रासंगिकता जरुरत के हिसाब से अब खत्म हो गयी है।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090314/26ae2268/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun Mar 15 23:51:20 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 15 Mar 2009 23:51:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSy4KWA4KS54KS+4KSs4KS+4KSm4KWAIOCkrOCkqOCkvuCkriA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KS14KWH4KSmIOCkheCkluCljeCkpOCksA==?= Message-ID: <6a32f8f0903151121y43be415at2007d97873842f37@mail.gmail.com> जोश मलीहाबादी के लिखे इस गीत को कुछ लोग पूरा पढ़ना चाहते थे। सन 50 के कुछ साल आगे या पीछे जोश ने फिल्म *मन की जीत* के लिए एक गीत लिखा था, जो इस प्रकार है। मोरे जोबना का देखो उभार, पापी, जोबना का देखो उभार ।। जैसे नदियों की मौज, जैसे तुर्कों की फौज, जैसे सुलगे से बम, जैसे बालक उधम , जैसे कोयल पुकार। जैसे हिरणी कुलेल, जैसे तूफान मेल, जैसे भंवरे की गूंज, जैसे सावन की धूम, जैसे गाती फुहार। जैसे सागर पे भोर, जैसे उड़ता चकोर, जैसे गेंदा खिले, जैसे लट्टू हिले, जैसे गद्दार अनार। मोरे जोबना का देखो उभार। पापी, जोबना का देखो उभार।। इस गीत को लिखने के बाद उस समय जोश की खूब किरकिरी हुई थी। उसके बाद से जोश ने किसी भी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। लेकिन, इसके ठीक 40-45 साल बाद जावेद अख्तर ने फिल्म *1942-ए लव स्टोरी *के वास्ते यह गीत लिखा था। इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख्वाब, जैसे उजली किरण, जैसे बन में हिरण, जैसे चांदनी रात, जैसे नरमी की बात, जैसे मंदिर में हो...एक जलता दीया। इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। जैसे सुबह की रूप, जैसे सर्दी की धूप, जैसे बीणा की तान, जैसे रंगों की जान, जैसे बलखाए बाल, जैसे लहरों का खेल जैसे खुशबू लिए आई ठंडी हवा…। इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। जैसे नाचती मोर जैसे रेशम की डोर, जैसे परियों के रंग, जैसे चंदन की आग, जैसे सोलह श्रृंगार, जैसे रस की फुहार, जैसे आहिस्ता-आहिस्ता बहता नशा...। इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। तो आप समझ गए होंगे कि बॉलीवुड में कैसे बन जाता है कोई बेहतरीन गाना ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090315/a5b74454/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Mon Mar 16 08:33:18 2009 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 16 Mar 2009 08:33:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSy4KWA4KS54KS+4KSs4KS+4KSm4KWAIOCkrOCkqOCkvuCkriA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KS14KWH4KSmIOCkheCkluCljeCkpOCksA==?= In-Reply-To: <6a32f8f0903151121y43be415at2007d97873842f37@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0903151121y43be415at2007d97873842f37@mail.gmail.com> Message-ID: <85de31b90903152003i1729afcbie8f400e92b8240d0@mail.gmail.com> डियर ब्रजेश जी, दीवान पर आज आपकी पोस्‍ट देख कर दो-तीन महीने पहले का कथादेश में लिखा अपना कॉलम याद आ गया। असद उर रहमान किदवाई के ब्‍लॉग http://hamkalaam.blogspot.com पर लिखा था। पुराने फिल्‍मी गीतों और पुरानी शाइरी की छाया में लिखे फिल्‍मी गीतों पर केंद्रित है ये ब्‍लॉग। आपने जिस गीत का ज़‍िक्र किया है - वो इस पोस्‍ट में है - http://hamkalaam.blogspot.com/2008/06/jaise-shayar-ka-khwab-similear-ideas-of.html आपका आभार, *अविनाश* इंटरनेट का मोहल्ला वो शायरी, ये गीत और हम हिंदी के लोग हकीम मोमिन खां मोमिन का एक मशहूर शेर है, ‘तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता!’ ग़ालिब कहते थे कि मोमिन साहब ये एक शेर उन्हें दे दें और उनका पूरा दीवान उनसे ले लें। ये शेर और ग़ालिब का ये बयान कोई नयी जानकारी नहीं है - सब जानते हैं। ग़ालिब की इस क़ुर्बानी की ख़्वाहिश के बाद भी मोमिन का शेर मोमिन का शेर ही रहा। बरसों तक किसी ने भी इसे हाथ नहीं लगाया, लेकिन सन 66में ‘लव इन टोक्यो’ के गीतकार से रहा नहीं गया। आपमें से बहुतों ने फिल्म का ये गीत सुना होगा, ‘ओ मेरे शाह-ए-खुबां, ओ मेरी जान-ए-जानां-ना/ तुम मेरे पास होते हो, कोई दूसरा नहीं होता’। गीत हसरत जयपुरी का है, संगीत दिया है शंकर-जयकिशन ने और इसे लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी ने फिल्म में अलग-अलग गाया है। हम जिन्हें प्यार करते हैं, वे अक्सर हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी होते हैं, कैफी आज़मी होते हैं, मजरूह सुल्तानपुरी होते हैं और कई बार जावेद अख़्तर भी होते हैं। इनकी शायरी जो सिनेमा के सादा/रंगीन पर्दों से होती हुई हमारे जिस्म में लहू बन कर दौड़ने लगती है - उन तमाम शायरी में पूरी शख्सियत को बदल डालने वाली ताक़त होती है। हम हिंदी के भोले लोगों की निर्दोष मोहब्बत ने कभी इनकी मौलिकता पर सवाल खड़ा नहीं होने दिया - लेकिन हिंदी ब्‍लॉग का क्या करें? वहां पता नहीं, कहां कहां की प्रतिभाएं पाये के कवियों से किस-किस जनम का बदला लेने उतर आयी हैं। अक्सर मैं एक ब्लाग पर चुपके से गया और वहां मौजूद पाठ से रूबरू होकर खामोश क़दमों से लौट आया। आज सोचता हूं, सबके सामने ज़ाहिर कर ही दूं। असद-उर-रहमान-क़िदवाई का ब्लाग है, *हमकलाम*। असद एनडीटीवी के सीनियर पत्रकार हैं - भाषा के कारीगर हैं और शौक़िया लेकिन शानदार फोटोग्राफर हैं। हमकलाम में वे यही ज़िक्र करते पाये जाते हैं कि हिंदी फिल्मों के शायरों ने पर्दा के ईजाद से पहले के पुराने शायरों से क्या क्या लिया। इतना ही नहीं, पुराने पर्दे पर गाये गये गीत को ज़रा से रंग-रोगन के बाद नये पर्दे पर फिल्माये गये गीत का ज़िक्र भी हमकलाम में मिलता है। सब इत्मीनान थे कि तुलसी की चैपाइयों की तरह शायरी गांवों तक नहीं पहुंची है। लेकिन शायद उन्हें इलहाम नहीं था कि तीस-चालीस बरस बाद कोई राज़ खोल ही देगा। इसी साल जनवरी में शुरू हुए इस ब्लाग में 19गीतों का राज़ फाश किया गया है। 1945में एक फिल्म आयी थी, ‘मन की जीत’। जोश मलीहाबाद का लिखा एक गीत है उसमें, ‘मोरे जोबना का देखो उधार पापी, मोरे जोबना का देखो उधार’। इसी में आगे की पंक्तियां हैं, ‘जैसे नद्दी की मौज, जैसे तुर्कों की फौज, जैसे सुलगे से बम, जैसे बालक उधम... जैसे कोयल पुकार, जैसे हिरनी कुलेल, जैसे तूफान मेल... जैसे भंवरे की झूम, जैसे सावन की धूम, जैसे गाती फुहार’। 48 साल बाद सन 93 में ‘1942 ए लव स्टोरी’ का एक गीत आपके ज़ेहन में अभी ताज़ा ही होगा, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा... जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख़्वाब, जैसे उजली किरन, जैसे बन में हिरन, जैसे चांदनी रात, जैसे नरमी की बात, जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया।’ तर्ज की भी तर्जुमानी होती है और इतनी सफाई से कि वह मौलिक लगे, आप इस गीत में देख सकते हैं। दाग़ देहलवी का शेर है, ‘तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और सही और नहीं और सही!’ मजरूह सुल्तानपुरी ने इसी शेर की तर्ज पर 1960में बनी फिल्म ‘तू नहीं और सही’ का टाइटल सांग लिखा था। इसी तरह मोइन अहसन जज़्बी की एक नज़्म है, ‘अपनी सोयी हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं’... राजा मेंहदी अली ख़ान ने 1965में बनी फिल्म ‘नीला आकाश’ के लिए लगभग ऐसा ही एक गीत लिखा, ‘आखि़री गीत मोहब्बत का सुना लूं तो चलूं’! मीर वज़ीर अली सबा (1793.1855) ने लिखा, ‘तिरछी नज़रों से न देखो आशिक़-ए-दिलगीर को, कैसे तीरंदाज़ हो सीधा तो कर लो तीर को’। 1964में ‘शबनम’ फिल्म के लिए जावेद अनवर ने लिखा, ‘ये तेरी सादगी ये तेरा बांकपन’। इसी गीत में एक मुखड़ा हूबहू सबा साहब की यही पंक्तियां हैं, ‘तिरछी नज़रों से न देखो आशिक़-ए-दिलगीर को, कैसे तीरंदाज़ हो सीधा तो कर लो तीर को... वो गया दिल मेरा... अलविदा-अलविदा।’ मज़ा आ रहा है, इसलिए हमकलाम से एक और उदाहरण देता हूं। मीर तक़ी मीर का एक शेर है, ‘इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या, आगे आगे देखिए होता है क्या!’ हसरत जयपुरी ने इसी शेर में थोड़ी हेर-फेर की 1962में बनी फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ के लिए, ‘इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम सारी रात जागे, अल्ला जाने क्या होगा आगे... ओ मौला जाने क्या होगा आगे!’ लोग अपने अपने हिसाब से हिंदी फिल्मों के गीतकारों के ऐसे कारनामों की व्याख्या करते हुए मिलेंगे। कोई इन्हें साफ तौर पर नक़ल कहेगा, तो कोई इसे प्रेरणा लेकर लिखे गये गीतों की श्रेणी में रखेगा। कोई यह भी कहेगा कि अवचेतन में बैठे हुए शब्द-समूह कभी कभी खुद को मौलिक मानते हुए बाहर निकलते हैं - जबकि वे पहले से मौजूद होते हैं। हमारी कोई समझदारी बन नहीं पायी है कि हम कैसे इन गीतों को देखें, जो पुरानी शायरी के कोटरों से कातर निगाहों से झांक रहे हैं। मैं आप सबसे मदद मांग रहा हूं, और असद-उर-रहमान क़िदवाई से भी, जो ऐसे गीतों के दस्तावेजीकरण में लगे हुए हैं। On 15/03/2009, brajesh kumar jha wrote: > > जोश मलीहाबादी के लिखे इस गीत को कुछ लोग पूरा पढ़ना चाहते थे। > > सन 50 के कुछ साल आगे या पीछे जोश ने फिल्म *मन की जीत* के लिए एक गीत लिखा > था, जो इस प्रकार है। > > > > मोरे जोबना का देखो उभार, > > पापी, जोबना का देखो उभार ।। > > > > जैसे नदियों की मौज, > > जैसे तुर्कों की फौज, > > जैसे सुलगे से बम, > > जैसे बालक उधम , > > जैसे कोयल पुकार। > > > जैसे हिरणी कुलेल, > > जैसे तूफान मेल, > > जैसे भंवरे की गूंज, > > जैसे सावन की धूम, > > जैसे गाती फुहार। > > > > जैसे सागर पे भोर, > > जैसे उड़ता चकोर, > > जैसे गेंदा खिले, > > जैसे लट्टू हिले, > > जैसे गद्दार अनार। > > > > मोरे जोबना का देखो उभार। > > पापी, जोबना का देखो उभार।। > > > > > > इस गीत को लिखने के बाद उस समय जोश की खूब किरकिरी हुई थी। उसके बाद से जोश ने > किसी भी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। लेकिन, इसके ठीक 40-45 साल बाद जावेद > अख्तर ने फिल्म *1942-ए लव स्टोरी *के वास्ते यह गीत लिखा था। > > इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। > > इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। > > > > > > जैसे खिलता गुलाब, > > जैसे शायर का ख्वाब, > > जैसे उजली किरण, > > जैसे बन में हिरण, > > जैसे चांदनी रात, > > जैसे नरमी की बात, > > जैसे मंदिर में हो...एक जलता दीया। > > इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। > > > > जैसे सुबह की रूप, > > जैसे सर्दी की धूप, > > जैसे बीणा की तान, > > जैसे रंगों की जान, > > जैसे बलखाए बाल, > > जैसे लहरों का खेल > > जैसे खुशबू लिए आई ठंडी हवा…। > इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। > > > जैसे नाचती मोर > > जैसे रेशम की डोर, > > जैसे परियों के रंग, > > जैसे चंदन की आग, > > जैसे सोलह श्रृंगार, > > जैसे रस की फुहार, > > जैसे आहिस्ता-आहिस्ता बहता नशा...। > > इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।। > > > > > > तो आप समझ गए होंगे कि बॉलीवुड में कैसे बन जाता है कोई बेहतरीन गाना ! > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090316/be80dbb6/attachment-0001.html From karmendushishir at yahoo.co.in Mon Mar 16 16:08:20 2009 From: karmendushishir at yahoo.co.in (Karmendu Shishir) Date: Mon, 16 Mar 2009 16:08:20 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= aapka mail patna Message-ID: <38380.84611.qm@web95103.mail.in2.yahoo.com> priya bhai bahut hi gambhirta se aapne bat aage brai hai mera abhivadan  Regards, Karmendu Shishir, 38/9, 2nd Floor, New Punaichak, Shashtri Nagar, Patna - 800023. 0612-2284107 09431221073 karmendushishir at yahoo.co.in Download prohibited? No problem. CHAT from any browser, without download. Go to http://in.webmessenger.yahoo..com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090316/6b35a713/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Mon Mar 16 23:23:23 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Mon, 16 Mar 2009 23:23:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSn4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSo4KS/4KSv4KS+IOCkleCkviDgpJXgpJrgpY3gpJrgpL4t?= =?utf-8?b?4oCZ4KSa4KS/4KSf4KWN4KSg4KS+4oCZ?= Message-ID: *इस बार के महिला दिवस पर महिलाओं की ब्लॉग लेखनी को खँगालते हुए.* *www.mihirpandya.com से. * *********** * * * *“मैं दरवाज़ा थी, मुझे जितना पीटा गया, मैं उतना ही खुलती गई.” -अनामिका. * मरजेन सतरापी की *’परसेपोलीस’* देखते हुए मुझे कहीं गहरे ये अहसास हुआ था, ईरान की स्त्री के लिए शायद वो सिनेमा था. चारों तरफ़ से बंद दरवाज़ों वाले समाज की स्त्रियाँ इन चौहद्दियों से बाहर निकलने के लिए हमेशा नए-नए और रचनात्मक माध्यमों की तलाश करती रही हैं. हिन्दुस्तान की स्त्री जो संसद के गलियारों से सिनेमा परदे तक अभी भी हाशिए पर ही खड़ी है उसके लिए वो कौनसे रास्ते हैं जिनपर चलकर वो अपनी बात कह सकती है? गौर से देखने पर पता चलता है कि पिछले कुछ सालों में अंतर्जाल की आभासी दुनिया एक ऐसा ही माध्यम बनकर उभरी है. और इसीलिए यह आश्चर्य नहीं था जब मंगलोर में ’संस्कृति के रक्षकों’ द्वारा लड़कियों पर अमानवीय कृत्य किये गये तो उनके खिलाफ़ सबसे मुखर आवाज़ इसी अंतर्जाल की आभासी दुनिया से उठाई गई. तहलका की पत्रकार निशा सुसेन और उनकी कुछ बहादुर साथियों द्वारा शुरु किया गया *’पिंक चड्डी कैम्पैन’*हो सकता है आपमें से बहुत को विरोध का अश्लील तरीका लगे लेकिन एक ऐसे समाज में जहाँ स्त्री का अपने शरीर पर हक़ जताना भी ’संस्कृति का अपमान’ मान लिया जाता हो, विरोध के तरीकों की बात करना क्या बेमानी नहीं. हिंदी का ब्लॉगिंग जगत भी इस *’पिंक चड्डी कैम्पेन’*की बयार से अछूता नहीं रहा है. इस अभियान में हिंदी ब्लॉगिंग जगत की महिलाओं का हस्तक्षेप क्या और कितना है यह देखना हमें ब्लॉगिंग की इस अराजक लेकिन मारक तीखी दुनिया में प्रवेश का रास्ता भी देता है और आगे बढ़ने की दिशा भी. हिंदी जगत की जानी-मानी ब्लॉगर *घुघुतीबसूती* इस प्रसंग पर अपनी धारधार लेकिन संतुलित टिप्पणी में *लिखती हैं* , “चलिए हम पिंक चड्ढी वालों के विरोध के तरीके का विरोध करें। क्योंकि उनका तरीका संस्कृति के रक्षकों से अधिक खतरनाक है। हम यह ना देखें कि वे अपने वस्त्र उतारकर देने को नहीं कह रहीं, बाजार से नई या फिर अपनी अलमारी से पुरानी भेजने को कह रही हैं।(अब यदि उस ही ब्लॉग में कोई कुछ अधिक कह रहा है तो क्या किया जा सकता है? यदि वे ऐसी टिप्पणियों को नहीं छापती तो कहा जाएगा कि विरोध के स्वर वे सह नहीं सकतीं।) हमें बाध्य भी नहीं कर रहीं ऐसा करने को। वे जो कर रही हैं उसका अर्थ हम नहीं समझेंगे। वे इसे क्यों कर रही हैं यह समझने में सोचना पड़ता है, उन्हें समझना पड़ता है, उनके स्थान पर स्वयं को रखकर देखना पड़ता है। यह सोचना पड़ता है कि यदि मैं युवा होती, स्त्री होती तो ये सब परिस्थितियाँ मुझे कैसी लगतीं। वे केवल और केवल एक काम कर रही हैं, इस हास्यास्पद तरीके से कट्टरपंथियों को हास्यास्पद बना रही हैं। हाँ, शायद उन्होंने जानबूझकर इसे ऐसा बनाया ताकि लोगों का ध्यान आकर्शित कर सकें। (बहुत से लोगों ने कट्टरता के विरोध में लिखा, शायद शालीनता से ही लिखा था, मैंने भी लिखा था, परन्तु उसका कितना प्रभाव पड़ा। यह तरीका जैसा भी था ना हिंसक था ना जबर्दस्ती थी। हमें सही लगे तो ठीक न लगे तो ठीक। ) परन्तु नहीं, वे अधिक खतरनाक हैं। आओ, अपनी बेटियों की उनसे रक्षा करें, न कि उनसे जो उन्हें किसी भी क्षण पकड़कर पीट सकते हैं, चोटी से पकड़कर घुमा सकते हैं। वह तो एक बहुत ही मामूली सा अपराध होगा। पब में जाना आवश्यक तो नहीं है, किसी विशेषकर अन्य जाति धर्म के पुरुष से प्रेम करना आवश्यक तो नहीं है, किसी सहपाठी से पुस्तक लेने (या हो सकता है कि वह बतियाने गई हो या प्रेम की पींग चढ़ाने)आवश्यक तो नहीं है। शराब पीने को कोई भी बहुत अच्छा तो नहीं कहेगा, बहुत सी अन्य वस्तुएँ, काम, व्यवहार, यहाँ तक कि परम्पराएँ भी गलत होती हैं। हमें ना भी लगें तो किसी अन्य को लग सकती हैं। हमें जो गलत लगता है वह अपने बच्चों को बाल्यावस्था में ठीक से समझा सकते हैं। अपने मूल्य उन्हें सिखा सकते हैं। जब वे वयस्क हो जाएँगे तो वे इतने समझदार हो चुके होंगे कि अपने निर्णय स्वयं ले सकेंगे। या हम यह मानकर चल रहे हैं कि भारतीय युवा कभी वयस्क माने जाने लायक बुद्धि विकसित नहीं कर पाते? देखते जाइए कल कोई बहुत से अन्य कामों को गलत करार कर देगा। किसी को लड़कियों का लड़कों के साथ चाय पीना भी गलत लग सकता है किसी को लड़कियों का लड़कियों के साथ या अकेले भी चाय पीना गलत लग सकता है। शायद बोतल बंद पानी पीना गलत लग सकता है। शायद उनका पैदा होना ही गलत लग सकता है। हम कहाँ सीमा रेखा खींचेंगे और हम होते कौन हैं किसी का जीवन नियन्त्रित करने वाले? देखते जाइए कल आपको अपने टखने भी दिखाने होंगे जबर्दस्ती दिखाने होंगे।” -*घुघुतीबासुती के ब्लॉग से. * घुघुतीबासूती के शब्दों में एक करारा व्यंग्य है. शायद यह बहस मंगलोर में हुई एक घटना से शुरु हुई है लेकिन हिंदी की ’चोखेरबालियाँ’ इसमें मौजूद सदियों की बेड़ियों की जकड़न महसूस कर पाती हैं. यही चर्चा *सुजाता*अपने ब्लॉग *नोटपैड* में *इन शब्दों के साथ*आगे बढ़ाती हैं, “जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।” -*सुजाता के ब्लॉग ’नोटपैड’ से. * ऊपर उद्धृत अंश में सुजाता ने निशा सुसन की बनाई फ़ेसबुक कम्यूनिटी पर आ रही अश्लील टिप्पणियों का ज़िक्र किया. जिस तरह कुछ ही दिनों में चालीस हज़ार से ऊपर पहुँची सदस्य संख्या इस अभियान का एक चेहरा है उसी तरह ’भद्र पुरुषों’ द्वारा लगातार की गईं अभद्र टिप्प्णियाँ भी इसका एक विकृत लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण दूसरा चेहरा हैं. स्त्रियों का आभासी अंतर्जाल में कोई भी अभियान या गतिविधि इसी तरह कुछ ’भद्र पुरुषों’ की अभद्र प्रतिक्रियाओं का शिकार बनती रही है और इससे निरंतर संघर्ष और विरोध से ही हिंदी ब्लॉगिंग में महिलाओं के लेखन ने अपना अपना स्वरूप ग्रहण किया है. क्योंकि ब्लॉगिंग में हिंसा भी भाषा का चोला ओढ़कर ही आती है इसलिए भाषा, उससे जुड़ी संवेदनशीलता और उससे संबंधित तमाम बहसें महिलाओं के ब्लॉग्स पर हमेशा से एक प्रमुख चर्चा का मुद्दा रही हैं. हिंदी जगत के जाने-माने ब्लॉगर *रवीश कुमार* जब अपने ब्लॉग *’कस्बा’* में मीडिया में प्रयोग में आती भाषा में बढ़ती हिंसक शैली का रिश्ता स्त्री के निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में न होने से जोड़ते हैं तो यह तुरंत ही *’चोखेर बाली’* जैसे महिलाओं के सामुदायिक ब्लॉग में *चर्चा का मुख्य मुद्दा* बन जाता है. महिला ब्लॉगर इसपर सीधी प्रतिक्रिया देती हैं. और हमेशा की तरह इन ब्लॉगरों की टिप्पणियों में व्यक्तिगत अनुभव मिले हुए हैं. *दिप्ति*टिप्प्णी करती हैं, “ये तो नहीं कहा जा सकता है कि महिलाओं की लेखनी उग्र नहीं होती है या नहीं हो सकती है। लेकिन, ये सच है कि महिलाओं को लिखने लायक बहुत कम लोग मानते हैं। मेरी पहली नौकरी में ही मुझे इस बात का सामना करना पड़ था। मुझे न तो राजनीति की ख़बर लिखने दी जाता थी और न ही क्राइम की। हां कही कोई भजन कीर्तन हुआ तो वो मेरी झोली में ज़रूर गिर जाता था।” और *नीलिमा सुखेजा अरोड़ा*का कहना है, “एंकर तो आपको बड़ी संख्या में महिलाएं या लड़कियां मिल जाएंगी लेकिन जब बात का‍पी लिखने की आती है या रिपोर्टिंग की आती है तब लड़कियां कहां खो जाती हैं। बात बहुत सही भी है, ज्यादातर एंकर लड़कियां होंगी, इस बात पर हम सब का बस चलता भी तो कितना है, यह तो मालिक या मैनेजमेंट तय कर देता है कि एंकरों में कितनी स्त्रियां रहेंगी और कितने पुरुष। रही कापी लिखने की बात,शायद लड़कियां कापी लिखतीं तो वो अलग ही तरह की होती। मेरा ख्याल है कि यह भाषा किसी सभ्य आदमी की हो ही नहीं सकती है कि घर में घुसकर मारो पाकिस्तान को। जब कोई सभ्य लड़का ही ऐसा भाषा को प्रयोग नहीं करता है तो लड़कियां से ऐसी आशा करना ही बेमानी है। मैं भी प्रिंटर डेस्क पर ही काम करती हूं, वो भी अखबार में । जहां मैं लगभग हर रोज पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तालिबान, ओसामा बिन लादेन और अमेरिका पर स्टोरीज लिखती या रीराइट करती हूं। पर मुझे याद नहीं आता कि मैंने या मेरे साथियों ने कभी भी इतनी ओछी भाषा का प्रयोग किया हो। मेरा मानना है टीवी में भी यदि ज्यादातर लड़कियां स्क्रिप्ट्स लिखने लगें तो इतनी हल्की भाषा का प्रयोग तो नहीं ही होगा।” इस भाषाई हिंसा के अनेक रूप हैं. भाषा की इस बहस को चोखेरबाली की पहली वर्षगाँठ पर आयोजित परिचर्चा में हिंदी की कवि *अनामिका*इस विश्लेषण द्वारा आगे बढ़ाती हैं. “अभिव्यक्ति के गर्भ में ही व्यक्ति है। जहां अभिव्यक्ति नहीं है, वहां व्यक्ति औऱ व्यक्तित्व का होना संभव नहीं है। पुरुष ने वो भाषा ही नहीं सीखी कि किसी के कंधे पर हाथ रखकर बात कर सके। उसकी भाषा मुच्छड़ भाषा है, किसी मैजेस्ट्रेट की तरह की रैबदार। जबकि स्त्रियों की भाषा बतरस में प्राण पाती है। आप बसों में जाइए- देखिए कि एक स्त्री की आंख से अभी पहली ही बूंद टपकी है कि दूसरी स्त्री उसके कंधे पर हाथ रखकर कारण जानने के लिए बेचैन हो उठती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो मजदूरिन है और पूछनेवाली टीचर या और कुछ। बिना किसी कॉन्टक्सटुलाइजेशन के बात शुरु हो जाती है। ब्यूटी पार्लर औऱ दुनिया भर के इसी तरह के जो नए स्पेस बन रहे हैं, वहां ये सवाल नहीं किए जाते कि तुम्हारी पीठ पर ये नीले निशान क्यों है, उसे बर्फ से सेंक भर देते हैं। लेकिन भाषा एक उष्मा देती है, जीने का एक नया अर्थ देती है।” -*अनामिका ’चोखेरबाली’ पर.* यूँ भी ब्लॉग जगत का लेखन हमेशा से ही बहुत व्यक्तिगत संदर्भों से युक्त रहा है. और स्त्रियों के ब्लॉग भी इस ख़ासियत से भरे हुए हैं. स्त्री के लिए समाज बदलने की लड़ाई दरअसल स्वयं के हक़ के लिए लड़ाई से शुरु होती है. उनका व्यक्तिगत लेखन कहीं न कहीं उस वृहत्तर समाज में अपनी उपस्थिति के लिए जगह बनाने की लड़ाई है जो उनकी आवाज़ को हर गैर-आभासी मंच पर कुचलता रहा है. आबादी के हर दबाए गए हिस्से की पहली अभिव्यक्ति आपबीती ही होती है. मराठी और हिंदी में दलित आत्मकथाओं की बड़ी गिनती इसका सबसे हालिया उदाहरण है. ये आत्मकथाएँ कोई व्यक्तिगत कहानियाँ नहीं, सदियों से होते अत्याचार के दस्तावेज हैं. ठीक इसी तरह स्त्रियों के ब्लॉग्स पर मिलती व्यक्तिगत कहानियों के अर्थ भी सिर्फ़ व्यक्तिगत संदर्भों तक सीमित नहीं. *चोखेरबाली* जैसे ब्लॉग पर सपना चमड़िया की लिखी *’सपना की डायरी’*सिर्फ़ एक महिला की डायरी भर नहीं, पूरी ’आधी दुनिया’ की आपबीती का बयान हैं. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090316/2033223e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Mar 17 21:48:55 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 17 Mar 2009 21:48:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCknOCkvuCkqOCkpOClhyDgpJzgpYAsIOCkleCkvw==?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkleCkteCkvy3gpLXgpLXgpL8g4KSU4KSwIOCkueCkvw==?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkhuCksuCli+CkmuCklSDgpJXgpYs=?= Message-ID: <829019b0903170918g207fe8bav3723242773f241f5@mail.gmail.com> मोहल्ला की ताजा पोस्ट "‘आइए, दिल्‍ली चलकर मंगलेश डबराल राज्‍याभिषेक करें’" पर ब्लॉगर और पत्रकार जयंती कुमारीने लिखा कि- स‌ाधुवाद प्रकांड विद्वान अविनाश जी को। भई आप लोगों ने मोहल्ले के पाठकों को क्या स‌मझ रखा है कि वे भी स‌भी आपकी ही तरह विद्वान ही होंगे। अरे पोस्ट करने स‌े पहले ये तो बता दिया होता कि आखिर इस गाली-गलौज की वजह क्या है। और, स‌ंक्षिप्त में इन गाली-गलौज करनेवालों का ब्यौरा भी देना चाहिए था। कौन हैं विजय कुमार, कौन हैं मंगलेश डबराल, कौन हैं कर्मेदु शिशिर, अनूप स‌ेठी। आप क्या स‌मझते हैं कि इन लोगों को पूरी दुनिया जानती है और ये लोग इतने मशहूर हैं कि इनके बारे में कुछ भी लिखा-पढ़ा जाने लगे, तो लोग शाहरुख-अमिताभ विवाद की तरह इन्हें भी चटखारे लेकर पढ़ेंगे। असलियत तो यह है कि मैं भी इनमें स‌े कुछ लोगों को बहुत ही कम जानती हूं। चूंकि मेरा ब्लॉग और मीडिया स‌े ताल्लुक रहा है, इसलिए कुछ लोगों के नाम जानना कोई बड़ी बात नहीं। मोहल्ला पर जिस मसले को लेकर पोस्ट लेकर लिखी गयी है फिलहाल उस बहस में न जाते हुए हम दूसरी बात कर रहे हैं। अविनाश ने क्रम से चार साहित्यकारों का जिक्र इस पोस्ट में की है। विजय कुमार,अगर मैं गलत नहीं हूं तो अंधेरे समय में विचार,किताब के लेखक,मंगलेश डबराल हिन्दी के जाने-माने कवि और अखबार की दुनिया के एक बेहतर संपादक, कर्मेंन्दु शिशिर साहित्यकार-आलोचक। कर्मेन्दु शिशिर को रचना के स्तर पर बीए के दौरान मैंने दो किताब खरीदी थी, मतवाले की चक्की और मतलावे की बहक उन किताबों पर संपादक के रुप में इन्हीं का नाम था,सो बुकफेयर में मिलने पर फैमिलियर लगा। इसमें शिवपूजन सहाय और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रयास से छपनेवाली पत्रिका मतवाला के हिस्से संपादित हैं। बाकी अधिक इनकों भी नहीं पढ़ा है। अनुप सेठी के बारे में सुना है कि साहित्यकार हैं लेकिन न तो कभी मिला हूं औऱ न ही इनकी कोई रचना ही पढ़ी है। अगर रचना और आलोचना सिलेबस में नहीं हो तो साहित्य पढ़ने की खदबदाहट मेरे भीतर कम ही उठती है, इसे आप मेरा कोढ़पना समझ कर फिलहाल वख्श दीजिए,प्लीज। खैर, जयंती कुमारी ने अविनाश पर आरोप लगाते हुए जो जबाब तलब किया है उसे समझना जरुरी है। अब मुझे नहीं पता कि जयंती कुमारी किस तरह के विद्वानों की बात कर रही हैं क्योंकि एक विद्वान हिन्दी के प्रख्यात और स्वनामधन्य दोनों स्तर के साहित्यकारों को जाने ही, ऐसा जरुरी नहीं है। कई बार हम बहुत ही प्रभावी व्यक्तित्व को नहीं जानते क्योंकि हमारा उससे कोई सीधा कन्सर्न नहीं होता। मसलन कोई शेयर मार्केट के दिग्गजों का नाम लेने लग जाए तो उसे हम अपनी नोटबुक पर टांकने और नाम लेनेवाले का टुकुर-टुकुर मुंह ताकने के अलावे कुछ नहीं कर सकते। लेकिन अविनाश की तरफ से कोई भी सफाई न देते हुए भी यहां मामला शेयर मार्केट का नहीं है। जो भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं उन्हें कुछ रचनाकारों के नाम आसपास तैरते रहते हैं और साहित्य की दुनिया से सीधे न जुड़ने की स्थिति में भी वो इन्हें पहचानते हैं। अब देखना ये है कि जिन रचनाकारों के नाम लिए गए वो ब्लॉग की दुनिया में कीतनी फ्रीक्वेंसी के साथ तैर रहे हैं। यानी किसी व्यक्तित्व के साथ फैमिलियर होने(पहचान के स्तर पर)के लिए एक तो उसके फील्ड से कन्सर्न होने और दूसरा ब्लॉग की दुनिया में उसका नाम लेनेवाले का होना जरुरी है। तीसरा कोई आधार नहीं है कि कोई ब्लॉगर या कमेंट करनेवाले उसे जाने ही जाने। जयंती कुमारी ने जो सवाल उठाया है वो मैथ्स के सेट थ्योरी के जरिए समझना आसान होगा। कुछ इस तरह से कि कुछ लोग साहित्य से जुड़े है, कुछ लोग ब्लॉग से जुड़े हैं, कुछ लोग दोनों से जुड़े हैं,लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल ब्लॉग से जुड़े हैं तो बताइए कि कुल कितने लोग साहित्य के लोगों को जानते हैं। अविनाश ने अगर इन लोगों का परिचय नहीं लिखा है तो संभव है कि वो मानकर चल रहे हैं कि ये इतने बड़े नाम हैं कि इनका अलग से कोई परिचय देने की जरुरत नहीं है। यह साहित्यकारों के सम्मान में है। ऐसा करके अविनाश ने डेस्कटॉप पर बैठे-बैठे पाठक की समझदारी और जानकारी का जायजा लेने का काम कर रहे हों,ऐसा है या नहीं, इसके सहित जयंती कुमारी के सवाल का जबाब अविनाश ही दें तो बेहतर होगा। मैं बस इतना समझ पा रहा हूं कि अविनाश जिस उम्मीद से कि जो साहित्य औऱ ब्लॉग पढ़ते है वो इन रचनाकारों को जानते होगें उसमें जयंती कुमारी जैसी ब्लॉगर-पत्रकार सवाल उठाती है। इसके जरिए मैं दूसरे सवाल उठाना चाहता हूं। एनडीटीवी इमैजिन पर एक प्रोग्राम आता है-ओय इट्स फ्राइडे। फरहान अख्तर इसमें हॉस्ट के तौर पर आते हैं। एक बार फरहान अपने स्पेशल गेस्ट रितिक रौशन को लेकर आते हैं, स्टूडियो के बाहर गेटकीपर उन्हें रोक लेता है। उसका कहना था कि बिना पास के आप अंदर नहीं जा सकते। रितिक को गुस्सा आया, उसके कहा- तुम जानते हो मैं कौन हूं.गेटकीपर ने कहा-नहीं। रितिक ने गॉगल्स उतारी- मैं रितिक हूं। गेटकीपर ने कहो न प्यार है का गाना ऐ मेरे दिल तू गाए जा के स्टेप किए और कहा,लो मैं भी हो गया रितिक, यहां सब ऐसे ही आते हैं। फरहान ने कहा,अरे ये आज के हमारे स्पेशल गेस्ट हैं। गेटकीपर ने फरहान से पूछा-तब तुम कौन हो. बाद में राजू लाइटवाले ने कहा-आने दे अपना दोस्त है। गेटकीपर ने कहा- तो ऐसा बोल न कि राजू के दोस्त हैं,तब से कहे जा रहा है रितिक हैं। ये सब सच नहीं चुटकुला था, महज ऑडिएंस को हंसाने के लिए। लेकिन जयंती कुमारी ने जो सवाल खड़े किए हैं,अगर साहित्यकार इस बात को समझें तो उन पर ये जबरदस्त चुटकुला है। तीन-चार लेख लिखकर,दो-तीन कविताएं लिखकर और एकाध कहानियां लिखकर( जरुरी नहीं कि वो छपी भी हो)हम जैसे जो तुर्रम खां बने फिरते हैं,यह चुटकुला नहीं,आंख खोल देनेवाली घटना है। भईया,जो आदमी जिंदगी भर कविता,आलोचना,साहित्य और हिन्दी के पीछे अपने को झोंक दिया,पाठक उसे भी नहीं जान रही है तो हमारी तो बत्ती लगी समझो। पांच-पांच सौ रुपये के दो मनीऑर्डर लेते ही,पोस्ट ऑफिस के कागजों पर साइन करते ही अपने को जब प्रेमचंद की औलाद समझने लगते हैं,जयंती का ये सवाल उस खुशफहमी को चकनाचूर कर देता है। हमारी औकात बताने के लिए उसने बहुत बेहतर काम किया है। हम बाकियों की तरह ये नहीं कह सकते कि जिसे कुछ भी आता-जाता नहीं वो ही ऐसे सवाल करेगा कि कर्मेन्दु शिशिर कौन है। बाकियों की तरह मैं ये भी नहीं कह सकता कि साहित्य के लोग, नाम हो जाए की लालसा से दूर हैं,वो स्वांतःसुखाय के लिए लिखते हैं, ये फालतू बात है। हर रचनाकार नाम और उसके जरिए सत्ता कायम करने के लिए लिखता है, लिखना अपने आप में सत्ता कायम करने की प्रक्रिया है जिसमें पैसे-कौड़ी से लेकर राज्य सभा तक की उम्मीदें शामिल हैं। मैं भी मम्मट का काव्य उद्देश्य पढ़कर आया हूं,मुझे भी कुछ-कुछ पता है। अब जयंती मुझसे सवाल करे कि ये मम्मट कौन है,बताए देता हूं- काव्यशास्त्र सिद्धान्त के बहुत बड़े विद्वान जिनके सिद्धान्त आज भी काफी हद तक प्रासंगिक हैं। सच बात तो ये है कि ब्लॉग में नामचीन लोगों को रिडिफाइन करने की जरुरत है जो कि जयंती जैसे पाठकों के सवालों को देखते हुए जरुरी जान पड़ता है। यहां तक कि प्रिंट,ओरल कम्युनिकेशन और मठवाद के जरिे स्थापित हो गए हैं,किए गए हैं, ब्लॉग की दुनिया में उन्हें ने सिरे से परिचित कराने की जरुरत हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090317/47b33eb5/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Thu Mar 19 16:46:37 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Thu, 19 Mar 2009 16:46:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpLngpL7gpLAg4KSJ4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KS44KS1LCDgpK7gpL/gpLLgpKTgpYcg4KS54KWI4KSCIOCktuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSw4KS+4KSuIOCkuOClh+CkguCkn+CksCwg4KSu4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueClieCkieCkuCDgpK7gpYfgpII=?= In-Reply-To: <190a2d470903081245y61eabf72v90222427d19d146e@mail.gmail.com> References: <190a2d470903081245y61eabf72v90222427d19d146e@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470903190416r7d73c7d3va74dbb235c486e69@mail.gmail.com> *सवाल सिर्फ़ पुरस्कार के ठुकराने भर का नही है अविनाश* किसी भी पुरस्कार को लेकर विवाद खड़ा करना एक अलग मामला है और यथार्थ को सामने लाना एक अलग मामला। पुरस्कार को ठुकराना भी इससे मामले के तहत है। मंगलेश डबराल का राजेन्द्र माथुर स्मृति पत्रकारिकता सम्मान को ठुकराना भले ही व्यक्तिगत मामले का नाम देकर चुप बैठ लिया जाय लेकिन मामला गंभीर है। गाहे-बगाहे इसके जरिये मंगलेश डबराल ने न सिर्फ़ अपनी बौद्धिक सोच पर सवाल खड़ा किया है बल्कि भारत की मानसिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगाने की कोशिश की है। इस मामले में सवाल सैकडों है जिसका जबाब भलें ही मंगलेश डबराल आज ना दें लेकिन आने वाली पीढियों इस मकड़ जाल में उलझेंगी। क्या मंगलेश डबराल इस का जबाव दे सकते हैं कि किसी भी सिद्धांत को नकारने का एक मात्र विकल्प उनके द्वारा दिए गए सम्मान को ठुकराना है। यदि सभी राज्‍य रेवड़‍ियां बांटते हैं और बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों को लाभान्वित करते हैं तो देश या किसी भी राज्य में मंगलेश डबराल की सोच या उनके सिद्धांत के समीप सोच वाली पार्टी सरकार में आयी, तो क्या उस सरकार ने रेवड़‍ियां नहीं बांटी और यदि बांटी तो उस वक्त मंगलेश डबराल क्या कर रहे थे। उन्होंने सरकार को क्या सलाह दी। और यदि उनके अनुसार, 'राजेन्द्र माथुर निश्चय ही आधुनिक हिंदी के उन बड़े पत्रकारों में थे जो ऊंचे लोकतांत्रिक मूल्यों, सम्पादकीय स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अगाध विश्वास करते थे और उनके लिए संघर्ष भी करते रहे' तो क्या राजेंद्र माथुर ने अपने से अलग सोच या सिद्धांत वाले लोगों की खबर सम्पादक रहते हुए हुए अपने अख़बार में छपने नही दी थी। सवाल यह भी है कि क्या समाज का दयारा इतना सीमित है कि कोई भी व्यक्ति या संगठन जब चाहे जहाँ चाहे अपने मनमर्जी के मुताबिक ख़राब कर दे और देश या प्रशाशन मूकदर्शक होकर शिखंडी बनकर ख़ुद को महान घोषित करने से बाज नही आए। मंगलेशजी का मानना है कि "हमारे समाज के अनेक संकटों के लिए मुख्यत: यही विचारधारा जिम्मेदार है।" तो जब ये तत्व समाज में संकट फैला रहे थे तो आप शिखंडी बनकर चुपचाप कविता क्यों लिख रहे थे, सड़क पर कितनी बार आए। उनकी निजी राय है कि राज्य सरकारों को ऐसे एकमुश्त पुरस्कार देने के बजाए कुछ ठोस और सार्थक रचनात्मक कामों या परियोजनाओं के लिए आर्थिक सहयोग के रूप में ये राशियां देनी चाहिए। लेकिन सवाल है कि जिसे मंगलेशजी यह सलाह दे रहे हैं, उनके सोच इस हद तक होती तो क्या वे समाज को तोड़ने का कम करते और उन्हें पुरस्कार को ठुकराने की नौबत आती। भैंस के आगे बीन बजाने से मंगलेशजी को कभी फायदा दिखा है क्या। बहरहाल, मामला पुरस्कार को ठुकराने भर का नहीं है, मामला उस मानसिकता का है जो किसी सम्मान को ठुकरा कर अपनी छवि चमकाने की है। मामला पुरस्कारों के निर्णायक मंडल की योग्यता और इन इनामों के लिये पात्र लोगों को चुनने की कसौटी पर सवाल खड़े करने का भी है कि जो अलग मानसिकता या सिद्धांत के लोगों को भी इज्जत करते हुए उन्हें सम्मानित करने का साहस करती है। यह उस सरकार का भी साहस की बात है जो गुणों का सम्मान करना जानती है भले ही वह उसका दुश्मन हो। *नोट :इस पत्र को व्यक्तिगत न लेते हुए सवाल का जबाव खोजने की कोशिश की जाए तो साहित्य और पत्रकारिता जगत के लिए बेहतर विकल्प होगा। लेकिन इस बात से इंकार नही किया जा सकता की समकालीन दौर में मंगलेश डबराल की साहित्य साधना पर सवाल नही उठाया जा सकता और व्यक्तिगत तौर पर उनका सम्मान करना मेरा फर्ज है...विनीत उत्पल* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090319/6b16c102/attachment.html From girindranath at gmail.com Thu Mar 19 17:07:01 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Thu, 19 Mar 2009 17:07:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS44KWN4KSs?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOClhyDgpLLgpL7gpK/gpL4g4KSc4KWA4KSo4KWN4KS4?= Message-ID: <63309c960903190437u159c7c77ocacb5957f2687912@mail.gmail.com> रवीश के कस्बा से साभार- जीन्स.....। पढ़िए। शुक्रिया गिरीन्द्र जीन्स। पहनी जाती है। विरासत में भी मिलती है। मैं इस दूसरी वाली जीन्स की बात करूंगा। वो जीन्स जो वरूण को अपने पिता संजय से मिली। वो जीन्स जिसमें एक दिन में आसमान छूने का दिल करता है। वो जीन्स जिसमें एक पल में ही दुनिया बदल देने का मन करता है। वो जीन्स जिसमें सब कुछ मटियामेट करने का जी करता है। वो जीन्स जो बुरा ठानता है तो बुरा ही करता है। वो जीन्स जो अच्छे और बुरे में फर्क नहीं करता। वो जीन्स जिसमें पेशन्स नहीं है। वो जीन्स जिसके छोटेपन की कोई इन्तेहा नही। वो जीन्स जिसे दुनिया को जूती की नोक पर रखने की कामुकता है। वो जीन्स जिसे छोटे बड़े का लिहाज नहीं। वो जीन्स जिसमें कुतर्क ही सबसे बड़ा तर्क है। वही जीन्स जिसने वरूण को वरूण बनाया। वही जीन्स जिसके बीज की पौध 28 साल होते होते कुतर्क करने लगी। वो कह रहा हाथ काट डालेगा। ये कैसी संडासी भाषा है तुम्हारी। बू आती है। तुम्हारी दादी कह के मरी की उसकी बूंद का एक एक कतरा देश की तरक्की के लिये बहेगा। तुम्हारे परदादा ने सेक्यूलरिज्म के मंदिर बनवाये। तुम हाथ काटोगे। अरे किसके हाथ काटोगे। तरक्की के। अमन के। चैन के। शराफत के। रिश्तों के हाथ काटोगे जिनमें सदियों से एक ही खून बहता रहा है। जिसका रंग सुर्ख लाल है। क्या सहिषुणता के हाथ काटोगे। जिसने इस देश को आदि काल से वाइब्रेंट रखा। उस देश के हाथ काटोगे जिसके लोगों ने तुम्हारे पिता की अकास्मिक मौत के बाद तुम्हे जीने की हिम्मत दी। जिस देश नें तुम्हारी मां और तुम्हे अपनो से अलग होने के बाद भी जीने का मकसद दिया। तुम किसके हाथ काटोगे। लेकिन तुम्हारा क्या दोष। जीन्स तो तुम्हे अपने पिता के ही मिले हैं। वो भी अपने को सबसे बड़े फन्ने खां समझते थे। किसी की कब सुनी उन्होने। तुम्हारी उम्र में तो तुम्हारे पिता की इमेज बैड मैन की थी। ऐंग्री बैड मैन। खुशवंत सिंह टाइप इक्का दुक्का डाइनेस्टी भक्तो को छोड़ दे तो तुम्हारे पिता के कारनामों से समाज में बड़ी दहशत फैली। दिल्ली का तुर्कमान गेट हो या यूपी और बिहार के वो गांव कस्बे जहां तुम्हारे पिता की कुराफाती टोली नसबन्दी के हथियार लेकर गली मौहल्लो में नंगा नाच कर रही थी। समाज को डरा कर उसे अपने वश में करने की कोशिश की उन्होने। तुम्हे उन्ही से तो अपने जीन्स मिले हैं। और तुम उस जीन्स की मर्यादा भी तो रख रहे। बापू सोच रहे होंगे बड़ी गल्ती की की तुम्हारे दादा को अपना नाम देकर। पता रहता की संजय और फिर उसके बाद उसका बेटा मेरे नाम पर बदनुमा दाग लगायेगा तो फिरोज को कभी ये नाम नहीं देता। लेकिन फिरोज तो ऐसा नहीं था। फिर उसके वंश में ये कैसे चिराग पैदा हुये। जिस करीमउल्ला, मजहरउल्ला का सर काटने की बात कर रहे उन्ही जैसे सैकड़ो करीमउल्ला और मजहरउल्ला की सुरक्षा के लिये बापू नोआखाली में भूख हड़ताल पर बैठे। ताकि तुम्हारे जैसे उन्मादी हिंदु उस इलाके में न फटके। ये उस समय जब देश बंट चुका था। और लोग रिश्तों को भी बांट रहे थे। मजहबी उन्माद चरम पर था। हिंदुस्तान में फिरंगियों का बहाया खून नहीं अपने अपने का खून बहा रहे थे। बापू डटे रहे। उस उन्मादी माहौल से जो कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में आग लगी हुयी थी वो उसमे एक "घड़ा पानी डालने" नोआखाली में थे। लंदन से डिग्री ले ली लेकिन तुमने ये नहीं पढ़ा की नोआखाली में में फिर दंगे नहीं हुये। क्योंकि उस गांधी ने कहा जान चली जाये पर मैं यहां से नहीं हिलूंगा। नेहरू और पटेल ने बुलाया भी कि दिल्ली आइये और आजादी के जश्न में हमें आशीर्वाद दीजिये। गांधी ने कहा जब बंगाल और पंजाब जल रहे हों तो आजादी का जश्न मैं नहीं मना सकता। ऐसे थे मोहनदास करमचंद गांधी जिन्होने दुम्हारे दादा को अपना बेटा मान कर अपना नाम दिया ताकि तुम्हारे परदादा उनकी शादी तुम्हारी दादी से करवाने के लिये राजी हो जायें। तुम कहते हो तुम्हे हिन्दु होने पर गर्व है। महात्मा गांधी भी हिन्दु थे। लेकिन उन्हे गीता का ग्यान भी था और कुरान शरीफ भी रटा था। याद कराना चाहूंगा तुम्हे नोआखली का वो वाक्या जब एक मुस्लिम गांधी पर टूट पड़ा। गांधी जब गिरे तो उन्होने कुरान शरीफ की एक आयत पढ़ कर सुनायी। इस पर वो उन्मादी मुसलमान शांत हो गया और बापू के पैरों पर गिर कर माफी मांगी। कहा आप जो कहेंगे करूंगा। ऐसे जीता बापू ने मुसलमानों का दिल क्योंकि उनके मन में हिन्दु और मुसलमान अलग नहीं थे। सब उसी खुदा के बनाये बन्दे थे। लेकिन तुम कहते हो करीमउल्ला और मजहरउल्ला का तुम सर कलम कर दोगे। क्योंकि तुम्हे अपने "हिन्दु होने पर गर्व है"। तुम कहते हो तुम उन हिन्दुओं की वकालत कर रहे थे जिन्हे उत्तर प्रदेश में सताया जा रहा। लेकिन तुम्हारी जबां में तो किसी एक समुदाय के लिये नफरत और हिकारत भरी थी। मोहनदास कर्मचंद गांधी वोट मांगने के लिये सेक्यूलर नहीं बने। वो सेक्यूलर थे इसलिये वो कलकत्ता और नोआखली गये। तुम समाज को कम्यूनल चश्मे से देखते हो इसलिये तुमने वो कहा जो तुमने कहा। तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। तुम गांधी नहीं। आज से तुम अपना नाम बदल लो। तुम अपना नाम वरूण संजय रख लो। ताकि जब भी तुम्हारी बात हो लोगों को पता लग जाये तुम्हारी संडासी सोच में किसके जीन्स तैर रहे हैं। प्रभात शुंगलू IBN7 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090319/324f9dae/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 20 12:17:18 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 20 Mar 2009 12:17:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSW4KSC?= =?utf-8?b?4KSh4KWAIOCkqOCliOCkpOCkv+CkleCkpOCkviDgpJXgpL4g4KSF4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KS14KSu4KWH4KSnIOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYggLSDgpIbgpLLgpYs=?= =?utf-8?b?4KSVIOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSAtIDI=?= In-Reply-To: <200903091252.49906.ravikant@sarai.net> References: <200903091252.49906.ravikant@sarai.net> Message-ID: <200903201217.18750.ravikant@sarai.net> pankaj ji ka jawab. aage barha raha hun main sirf font conversion karke. ravikant प्रिय भाई रविकांत जी मैंने सुना है कि आपने अपनी साइट पर आलोक जी का लेख दिया है। मुझे आपकी साइट नहीं मिल पाई। यह लेख मेरे पास भी एक मित्र के मार्फत आया है। मुझे लेख के बारे में कुछ नहीं कहना है क्योंकि हम समयांतर के दिसंबर और जनवरी अंक में विस्तार से लिख चुके हैं। मुझे आशा है आपने वे टिप्पणियां देखी होंगी। पर आलोक जी के लेख में एक संदर्भ मेरी वित्तीय स्थिति को लेकर है जो मुझे थोड़ा गैरजिम्मेदा राना लगा है। मैंने इस पर जो पत्र आलोक श्रीवास्तव जी को भेजा है उसकी प्रति आपको भी देखने को भेज रहा हूं। आपका पंकज बिष्ट प्रिय आलोक जी, आपका लेख `पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है´ एक मित्र के मार्फत मिला। गो कि समझ में आ जाता है कि कथादेश ने इसे क्यों नहीं छापा होगा, पर लेख है मनोरंजक। लगता है आप अपनी नौकरी और पुस्तक व्यवसाय की व्यस्तता के कारण तथ्यों की जांच ठीक से नहीं कर पाये, पर इससे लेख की रंजकता बढ़ी ही है। इसलिए आपने ``अतिशीघ्र इसकी बीस हजार प्रतियां पुस्तिका के रूप में प्रकाशि त कर वितरित´´ करने का जो निर्णय लिया है वह स्तुत्य है। पर क्या यह संख्या, जैसा कि आपने लि खा है, 50 करोड़ के हिंदी समाज के लिए पर्याप्त है? मुझे तो लगता है यह संख्या कम से कम दो लाख तो होनी ही चाहिए। यह पत्र मैंविशेष उद्देश्य से लिख रहा हूं। आपने वित्तीय आकलन के लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं। गो कि आप को निजी और सामाजिक की चिंता नहीं करनी चाहिए, मैं भी दोनों में कोई बहुत फर्क नहीं मानता हूं, पर फिर भी आपने ``निजी बातें कहना शोभा नहीं दे रहा है।´´ कह कर जो शालीनता बरती है वह निश्चय ही अनुकणीणीय है। इस आकलन से प्रफुल्लित हो मैं एक प्रस्ताव रख रहा हूं। दिल्ली में या दुनिया में कहीं भी जहां भी मेरे जो ``सवा करोड़ से अधिक´´ मूल्य के दो फ़्लैट हैं उन्हें मैं आप को सिर्फ एक करोड़ में देने के लिए तैया र हूं। (इस में आप मेरी पत्नी और बच्चों को भी शामिल मानिये। यानी अगर उनमें से भी किसी के ना म कोई फ़्लैट हुआ तो वह भी इसी शर्त के अंतर्गत आयेगा।) अगर आप खरीदने की स्थिति में न हों तो कृपया उन्हें बिकवा दें उसके लिए मैं अपने एक करोड़ में से 10 लाख रुपये नज़राने के तौर पर आपको देने का वायदा करता हूं। मैं यह भी वायदा करता हूं कि जो 90 लाख मुझे मिलेंगे, आपकी सलाह अनुसार, उसके आधे को मैं समयांतर का ट्रस्ट बना कर उस में लगा दूंगा। इसके अलावा पांच लाख रुपये उस ट्रस्ट के लिए भी दूंगा जिसका प्रस्ताव आपने अपने पत्र में किया है। मुझे पूरा विश्वास है इस अनुरोध को आप स्वीकार करेंगे। सादर, आपका पंकज बिष्ट प्रति: श्री आलोक श्रीवास्तव वसई रोड, ठाणे सोमवार 09 मार्च 2009 12:52 को, Ravikant ने लिखा था: > गतांक से आगे... > > पहल जबलपुर जैसे छोटे कस्बाई शहर से एक ऐसे समय निकली जब उसकी सख्त जरूरत थी. > जरूरत इसलिए थी कि माक्र्सवादी साहित्यिक मूल्यों पर आधारित समकालीन > रचनाधर्मिता के लिए एक रचनात्मक केंद्र बन सके. पहल ने अपनी यह भूमिका पूरी > गरिमा के साथ निभाई. > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From vineetdu at gmail.com Fri Mar 20 12:53:23 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 20 Mar 2009 12:53:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KWH4KS44KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KS14KS+IOCksOCli+CknCDgpKrgpYLgpJvgpKTgpL4g4KS5?= =?utf-8?b?4KWIIOCkuOCljeCkuOCkvuCksuCkvizgpKbgpL/gpK7gpL7gpJcg4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkleCljeCkr+CkviDgpJrgpLIg4KSw4KS54KS+IOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWI?= Message-ID: <829019b0903200023l4abb0feaw96802967d417a619@mail.gmail.com> तुम,रवीश और युनूस इ सब फेसबुक पर आकर सेंटिया क्यों जाते हो। कोई मजहब को गैरजरुरी बताने लग जाते हो और कोई लिखते हो-हर आदमी एक उड़ाता हुआ बगूला था तुम्हारे शहर में हम किससे गुफ्तगू करते। मौज में होता हूं तो ऑनलाइन रहे दोस्तों,सरजी और मैडमजी लोगों को छेड़ देता हूं। अभी गिरि(गिरीन्द्रनाथ झा)मिल गया। पूछा,फेसबुक पर रोज इस तरह से क्या सब लिखते हो। अब मेरे उपर इनलोगों का असर देखिए कि मैं भी लिख आया-आजकल देख रहा हूं कि सब सेंटी हो जा रहे हैं, इन्फैक्ट मैं भी,पता नहीं मौसम का असर है क्या। गिरि ने चैटबॉक्स पर ही जबाब दिया- क्या करें भइया, इ स्साला फेसबुकवा रोज पूछता है कि तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है। दिल्ली जैसे शहर में घर से दूर,कोई बूढ़ा-बुजुर्ग पूछता नहीं कि कहां जा रहे हो, क्या सब चल रहा है तुम्हारें मन में,आगे का क्या प्लान है तो सोचते हैं इसी पर लिख दें। कम से कम तसल्ली तो रहे कि सोचने-समझने की कैपसिटी अभी खत्म नहीं हुई है। गिरि की बात समझ में आ गयी औऱ कुछ पुरानी यादें भी पाइपलाइन में लगकर खड़ी हो गयी कि इस पोस्ट में हमें भी शामिल करो। इधर पेसबुक पर ही अविनाश ने लिखा-हमारे इलाके में थोड़ा अश्लील संदर्भ में ही सही, एक शब्द है - घंटा। कभी कभी किसी के सवाल पर जी चाहता है, कहें - घंटा, माइंड में क्या चलेगा? । अब गिरि अविनाश की दीवार पर लिख आया-घंटा बजाया भी जा सकता है.......घंटा..। फेसबुक पर जाते ही अक्सर एक लाइन याद आती है- बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। कई बार तो एक बात को लेकर,एक ही साथ कई लोग अपनी-अपनी राय सूत्रधार की दीवार पर जाकर खोंसने लग जाते हैं तो लगता है कि किसी के अपने घर से बाहर खटिया,चौकी औऱ अब फोल्डिंग बेड निकालने भर की देरी नहीं होती कि लोग आकर बैठ जाते हैं। ये संचार की सबसे मजबूत मानसिकता है. आप गांव या कस्बों में जाइए और घर से फोल्डिग निकालिए औऱ फिर भी लोग नहीं बैठ रहे हैं, दो-चार मिनट रुककर नहीं बोल-बतिया ले रहे हैं तो समझिए की वो इलाका शहर होने की कगार पर है। जिस तरह गांव में कोई भी खटिया-मचिया घर से बाहर निकालता है तो निकालनेवाले को भी एग्जेक्ट पता नहीं होता कि कौन आएगा,कौन आकर बैठेगा, लेकिन कोई तो आएगा, ये उम्मीद बनी रहती है। यही हाल फेसबुक की दीवारों का है। जिसको जैसा लगा, जिस भी काम में व्यस्त है,दीवार पर लिख दिया कि भइया इन दिनों मैं तिमारपुर के बुधवार बाजार से पाइरेटेड सीडी लाने में व्यस्त हूं। अब कोई आकर दीवार पर जानकारी ठोक जाए कि लाल किला के पास ऐसी सीडी मिलनी बंद हो गयी है। कोई कहे,हम तो पायरेसी कल्चर को सपोर्ट करते हैं, इससे आर्ट औऱ सिनेमा को लेकर एक डेमोक्रेटिक स्पेस बनता है। अजय ब्रह्मात्मज के शब्दों में कहें तो ये तब तक नहीं रुकेगा जब तक देश की हर ऑडिएंस बिना कोई क्लास डिफरेंस के अपने मामूली सिनेमाघरों में रिलीज हुए दिन ही सिनेमा देखने का अधिकार नहीं पा लेती। कोई इसके विरोध में मोर्चा खोल जाए। इस लिहाज से फेसबुक वर्चुअल स्पेस का बतकुच्चन और खिस्सा-गलबात करने की जगह के रुप में आकार ले रहा है। अभी तो ये डेलीलाइफ की शेयरिंग है लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया इसे ब्लॉग के मिजाज की चीज बनाने जा रही है। मजे की बात है कि इसमें तीन-चार लाइन से ज्यादा लिखना चाहें तो टाइप ही नहीं होता। मतलब साफ है- उतना ही कहो,जितना तुम्हारा सच है। मेनस्ट्रीम की मीडिया में एक शब्द इस्तेमाल होता है, स्टोरी आइडिया क्या, ट्रीटमेंट की बात बाद में। कॉन्सेप्ट पर बात करो। यहां फेसबुक में एक-दो लाइन में कॉन्सेप्ट बता दें,आपके मन में जो चल रहा है,बस वही बता दें,हो गया आपका काम। अब इसके पीछे पूरी रामकहानी न सुनाने लगें। फेसबुक पर लिखी लोगों की रोज की लाइनों पर गौर करें, फिलहाल तो साइज के ही हिसाब से। मुझे अपने स्कूल की डायरी याद आती है जिसमे रोज पापा से साइन कराने होते थे कि सारा काम दुरुस्त किया है कि नहीं मैंने। उस डायरी पर पापा को साइन करना होता था और मां को पढ़ना होता था कि कहीं सिस्टर ने ये तो नहीं लिखा है कि फटे मोजे पहनाकर क्यों भेज दिया, लंच में रोज ग्लैक्सो बिस्कुट क्यों भेजती हैं, आदि-आदि। इन सब बातों के साथ-साथ मुझे उपर लिखी लाइनें भी ध्यान में आ रही है-साइज के हिसाब से। साइज में ये फेसबुक की ही साइज की हुआ करती थी. कंटेंट में उन लोगों की लाइनें लिखी होती जिन्हें पढ़कर,जीवन में उतारकर महान बना जा सकता है। अगर कोई बच्चा इन लाइनों पर गौर करे या फिर किसी के मां-बाप इन लाइनों को उन बच्चों के भीतर आचरण के तौर पर ठूंसना चाहे तो रोज दूध पीने के लिए चिक-चिक करनेवाला बच्चा दूध पीना शुरु कर दे और कहे- एक-नहीं, दो नहीं तीन गिलास दूध पिला दो लेकिन इन लाइनों को आचरण में मत ठूंसों- ऑनेस्टी इन दि बेस्ट पॉलिसी। जिन लोगों ने सरस्वती शिशु मंदिर से पढ़ाई की है उऩकी डायरी में कुछ औऱ ही लिखा होता। उनकी डायरी के आस-पास गीता प्रेस की डायरी भी फटकती रहती जो अक्सर उनके गुरुजी इस्तेमाल किया करते । हर पन्ने पर गीता की एक श्लोक। मुझे नहीं पता कि डायरी पर लिखे इन आदर्श वाक्यों में असल जिंदगी में कितना असर होता है लेकिन मैं ये सोचता हूं कि अगर कोई स्कूल ऐसी डायरी बनाए जिसमें जीवन के सूत्र वाक्य फेसबुक से उठाकर छाप दे तो कितना नैचुरल होगा और अपीलिंग भी,लगेगा ही नहीं कि कोई पाखंड है, लाइक, रवीश कुमार की ये लाइन- आदर्श सब टूट गया, संघर्ष सब छूट गया।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090320/954afaaa/attachment-0001.html From raviratlami at gmail.com Fri Mar 20 13:04:54 2009 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Fri, 20 Mar 2009 13:04:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSn4KWB4KSo?= =?utf-8?b?4KS/4KSVIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpJXgpYAg4KS14KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWN4KSwIOCkleCkteCkv+CkpOCkvuCkj+CkgS4uLg==?= Message-ID: शिवानन्द कामड़े का व्यंग्य : आधुनिक हिन्दी की विवस्त्र कविताएँ "... और भी बहुत सी रचनाएँ हैं - एक से एक, किन्तु मैंने उन्हें जानबूझ कर छोड़ दिया है, चूंकि इससे मेरी पुस्तक का ब्रह्मचर्य खंडित होने की सम्भावना है...." -इसी व्यंग्य आलेख से. प्रस्तुत है एक धारदार व्यंग्य रचना. बरास्ता हिन्दी के नामचीन कवियों और सौजन्यवश व्यंग्यकार शिवानन्द कामड़े के. व्यंग्य कामड़े के 35 व्यंग्यों के संग्रह विधवा सहानुभूति में पूर्व प्रकाशित है, जिसका स्कैन किया हिस्सा रचनाकार पर प्रकाशित किया है. कवि गण हर संभव मौकों और मंचों पर आमतौर पर एक दूसरे को विवस्त्र तो करते ही हैं, परंतु उनकी रचनाएँ यदा कदा उन्हें स्वयं विवस्त्र करती हैं. ऊपर दी गई कड़ी पर चटका लगाएँ या इस पते पर जा पढ़ें- http://rachanakar.blogspot.com/2009/03/blog-post_2558.html रवि -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090320/867499ee/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Mar 22 09:51:29 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 22 Mar 2009 09:51:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkmuCkvuCkueCkpOCkviDgpLngpYgg4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkhuCkqiDgpLjgpL/gpLDgpY3gpKsg4KSc4KS+4KSm4KWCIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkneCkquCljeCkquClgCDgpLLgpYfgpKTgpYcg4KSw4KS54KWH?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: <829019b0903212121r5c47f297w3d96a9d3c29efd03@mail.gmail.com> आपकी अदालत( रात दस बजे 21 मार्च,इंडिया टीवी) में रजत शर्मा ने संजय दत्त से सवाल किया कि क्या आपने भाषण तैयार कर लिया है। लखनउ के लोगों से आप क्या बोलेंगे। संजय दत्त का सीधा-सा जबाब था- बोलूंगा एक जादू की झप्पी दे दो। आठ-नौ साल की एक लड़की ने(अपने मां-बाप के उकसाने और ब्रीफ किए जाने पर)ने अपनी इच्छा जाहिर की- जिस तरह से आपने लगे रहो मुन्नाभाई में कहा- गुडमार्निंग मुंबई,उसी तरह से एक बार गुडमार्निग लखनऊ बोलिए न। संजय दत्त ने कहा- अभी बोलूं। लड़की ने कहा हां- लखनऊ के जो लोग आपको देख रहे हैं वो ऐसा करने से आपको ही वोट देंगे। संयय दत्त ने ऐसा ही किया। पूरे शो में रजत शर्मा ये दुहराते नजर आए- मुन्नाभाई पर आरोप है कि,मुन्नाभाई के बारे में कहा जाता है कि...। कल के शो में इंडिया टीवी ने संजय दत्त की जो इमेज बनायी उसमें मुन्नाभाई फैक्टर हावी रहा। मुन्नाभाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्नाभाई, इन दो फिल्मों के बनाए जाने के बाद संजय दत्त की पर्सनल इमेज मुन्नाभाई के आगे सप्रेस होती नजर आती है. टेलीविजन पर जैसे ही संजय दत्त से जुड़ी खबर आती है कि एंकर,प्रोड्यूसर द्वारा उस पर मुन्नाभाई की लेप चढ़ानी शुरु हो जाती है। इस लेप से संजय दत्त को काफी हद तक राहत ही मिलती है। ऑडिएंस उन मामलों की तरफ फोकस नहीं हो पाता जिसकी वजह से वो कचहरी औऱ जेल आने-जाने के झमेले में पड़ते रहे हैं। टेलीविजन पर कोई भी खबर हो अगर उसमें संजय दत्त कॉन्टेक्सट्स है तो वहां मुन्नाभाई है। संजय दत्त की जगह का अधिक से अधिक स्पेस मुन्नाभाई घेर लेता है। वो चाहे गाने के तौर पर हो, संबोधन के तौर पर हो, स्क्रिप्ट के तौर पर हो या फिर जबाब-सवाल के तौर पर हो। लेकिन सच ये है कि संजय दत्त से जुड़े सवाल, उसके पर्सनल एफर्ट और एप्रोच ऑडिएंस के सामने नहीं आने पाते। टेलीविजन पर संजय दत्त से जुड़ी खबरों को देखकर आप ये सवाल कर सकते हैं कि क्या मुन्नाभाई से पहले संजय दत्त का कोई इतिहास नहीं है,कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिसकी चर्चा की जाए, कोई ऐसे गाने नहीं है जिसे बैग्ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। सबकुछ मु्न्नाभाई से ही क्यों शुरु होता है। चाहे वो संजय दत्त के जेल जाने का मामला हो या फिर समाजवादी पार्टी में शामिल होने का। ये एक जरुरी सवाल है कि अगर संजय दत्त को मुन्नाभाई से अलग करके दिखाना हो ते टेलीविजन के पास उसे दिखाने के लिए क्या कुछ है। ऐसा दिखाया जाना मुन्नाभआई की पॉपुलरिटी को भुनाना है,ये बात कोई भी आम ऑडिएंस समझ सकती है लेकिन कल को अगर बात-बात में मुन्नाभाई देख-सुनकर बोर होने लगे तब ये मामला सिर्फ टेस्ट का नहीं रह जाएगा। अभी तो बड़ी आसानी से टेलीविजन,रजत शर्मा और खुद सजय दत्त बात-बात में जादू की झप्पी लेते-देते नजर आते हैं,देखे और दिखाए जाते हैं क्योंकि मौजूदा हालात में तीनों को इससे फायदा है। चुनाव को देखते हुए टेलीविजन को अपने रंग,तेवर और अंदाज बदलने हैं। सालों भर सॉफ्ट स्टोरी में तर रहे टेलीविजन पर जब ज्यादा से ज्यादा पॉलिटिकल न्यूज आने लग जाएं तो टेलीविजन की सेल्फ क्रिएटिविटी भंग होने लगती है। ऐसे में उसके लिए जरुरी होता है कि वो नेताओं के उटपटांग बयानों को,रैलियों में नेताओं के करतबों को,नेताओं के झमेलों और जूते फेंकनेवाले,चेहरे पोतनेवाले जज्बाती ऑडिएंस की तलाश जारी रखे। वो टेलीविजन में मसखरईपने को बचाए रखने की कोशिश करे। इस लिहाज से बात-बात में जादू की झप्पी, जय हो जैसे कूट शब्दों का प्रयोग करनेवाले को अपने भीतर शामिल करे, जिन शब्दों का कोई निश्चित अर्थ न हो लेकिन झमेला पैदा करने की भी स्थिति न बने, ऑडिएंस को मजा आए। रजत शर्मा को तत्काल फायदा है कि वो लम्बे समय बाद नए एपिसोड लेकर उतरे हैं, कल ही ब्लॉग पर एक टिप्पणीकार ने लिखा कि आपकी अदालत के पुराने एपिसोड देखकर उबकाई आती है, वो अब नए सिरे से जुड़ें. मुन्नाभाई की ऑडिएंस आपकी अदालत की तरफ शिफ्ट हो औऱ दुकान फिर से जम जाए। संजय दत्त को सीधा फायदा है कि वो ऐसे कार्यक्रमों के जरिए अखबार,मैगजीन,रिपोर्टों और सरकारी फैसले के असर को कम करते हुए ऑडिएंस के बीच जो कि अब एक हद तक वोटर भी होने जा रहे हैं,इमोशनल सपोर्ट हासिल कर सके। उससे सारे सवाल अगर मुन्नाभाई की हैसियत से न कि संजय दत्त की हैसियत से पूछे जाते हैं तो इसमें उसका फायदा ही फायदा है, वो जिस रुप में चाहे जबाब दे सकता है, कैजुअली। लेकिन लम्बे समय में अगर ऑडिएंस औऱ संजय दत्त के रिश्ते को समझें तो भारी नुकसान है। संजय दत्त की पहचान मुन्नाभाई से शुरु होने और उसी के कलेवर में आगे बनते जाने से संजय दत्त का इतिहास, उसके संघर्ष, उसकी वास्तविकता, ऑडिएंस की नजरों से धीरे-धीरे ओझल होते जाने की बड़ी संभावना है। एक अभिनेता की हैसियत से देखें तो संजय दत्त की पहचान सिर्फ मुन्नाभाई नहीं है, उसे एक बेहतर एक्टर सिर्फ इसी ने नहीं बनाया है, उसके पीछे की खलनायक जैसी दर्जनों फिल्में हैं जिसके किसी भी स्क्रिप्ट की चर्चा और इस्तेमाल खबरों के पैकेज में नहीं होते। ये संजय दत्त के अभिनेता कद को कितना बौना बना देता है, ये बात फिलहाल नेता बनने की छटपटाहट में संजय दत्त को शायद समझ नहीं आ रहा। लेकिन टेलीविजन की ताकत के आगे संजय दत्त माने मुन्नाभाई,उसे संजय दत्त का पासंग भर बनाकर रख देता है। संभवतः इसलिए सवाल जबाब के क्रम में एनडीटीवी पर उमाशंकर सिंह जब क्रिकेटर मदनलाल को कांग्रेस में आने को बार-बार पॉलिटिक्स में आना शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो वो झल्ला जाते हैं। मदनलाल साफ कहते हैं- आप इसे पॉलिटिक्स में आना क्यों कहते हैं,ये समाज सेवा है। मैं देश के लिए भले ही क्रिकेट खेलता रहा लेकिन मेरे भीतर समाज सेवा की इच्छा बनी रही.मदनलाल अपने को समाज सेवी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में लगे रहे जबकि उमाशंकर ने पीटीसी और सवालों में राजनीति के पिच और क्रिकेट के पिच के बीच ही मदनलाल को रखा। ये बताने के लिए मदनलाल या तो खिलाड़ी हैं या तो पॉलिटिसियन हो सकते हैं, समाजसेवी.......। आप लाख कोशिशें कर लीजिए, आप लाख हाथ-पैर मार लीजिए, टेलीविजन आपकी एक छवि तैयार करता है, ये छवि आपके मुताबिक होने के बजाय टेलीविजन के मुताबिक होता है जिसे ऑडिएंस को नए सिरे से समझना होता है, बनाए गए लोगों की छवि को तोड़ना या फिर जस्टिफाई करना होता है, ओवरटेक करना होता है। लेकिन कोई ये कह दे कि हमारी छवि को समझना टेलीविजन के बूते की बात नहीं है तो वो पाखंड रच रहा है,वह अपनी ताकत टेलीविजन के इस खेल को समझने में ही लगाए तो बेहतर है।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090322/fbf8aeb1/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Mar 23 10:38:38 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 23 Mar 2009 10:38:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSoIOCkquCksCDgpLjgpY3gpKTgpY3gpLDgpYDgpIMg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWN4KSw4KWALeCkuOCkpOCljeCkpOCkviDgpK/gpL4g4KSf?= =?utf-8?b?4KWA4KSG4KSw4KSq4KWAIOCkleClgCDgpJXgpKDgpKrgpYHgpKTgpLI=?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+4KSC?= Message-ID: <829019b0903222208x8800a9y4db8ca6d89d5a049@mail.gmail.com> मूलतः मीडिया मंत्र,मार्च 2009 में प्रकाशित स्क्रीन पर की स्त्री, पुरुष पत्रकारों-प्रोड्यूसरों के लिखे-कहे शब्दों के आगे गुलामबंद होती हैं, ये विमर्श उन लड़कियों के लिए चौंकानेवाली हो सकती है जो कि मीडिया कोर्स के दौरान अपने को पर स्क्रीन पर देखना चाह रहीं हैं। स्क्रीन के जरिए मुक्ति की तलाश में है। इस लिहाज से नाइट्स एंड एंजिल्स (शाहरुख खान की क्रिकेट टीम के लिए चीयर लीडर्स के चुनाव के पर आधारित रियलिटी शो) की एक प्रतिभागी नताशा ने जब कहा कि वो या तो मॉडल बनना चाहती है फिर जर्नलिस्ट तो हमें बिल्कुल भी अटपटा नहीं लगा।( एनडीटीवी इमैजिन,नाइट्स एंड एंजिल्स 10.17 बजे रात,28.02.08) मेरे मन में ये सवाल एकदम से नहीं आया कि मॉडल और जर्मलिस्ट का एक-दूसरे से क्या संबंध है। हमें इन दोनों प्रोफेशन के बीच के अंतर्विरोध से ज्यादा उनके बीच की समानता का ध्यान आया। जाहिर है इस वक्त हमें स्त्री पत्रकार के तौर पर कलम घिसती हुई, खट-खट कीबोर्ड पर स्क्रिप्ट लिखती हुई, अखबार के एडिटोरियल पन्नों से जूझती हुई किसी लड़की या स्त्री की छवि ध्यान में नहीं आया। स्त्री-पत्रकार की जो छवि हमारे सामने बनी वो मॉडल से बहुत आस-पास की छवि थी। स्त्री पत्रकार की इस छवि को देखने,सुनने और इन्ज्वॉय करने के हम धीरे-धीरे अभ्यस्त हो चले हैं। रवीश कुमार ने खबर,एंकर और भाषा पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि- कहना यह चाह रहा हूं कि महिला एंकरों की भाषा भी उनकी नहीं है। कोई लिख देता है और उन्हें बोलना पड़ता होगा। चीख चीख कर। घुस कर मारो पाकिस्तान को,क्या कोई लड़की लिखती? ( क्या ये जेंडर का प्रॉब्लम है ? )... एक दिन हिंदी न्यूज़ चैनलों में काम कर रहीं लड़कियों को आगे आना ही होगा। दावा करना ही होगा। उन्हें लिखने के लिए कीबोर्ड पर जगह बनानी होगी। (फरवरी 14,08 http://naisadak.blogspot.com)। रवीश कुमार के इस सवाल के बहाने चोखेरबाली ने स्क्रीन पर मौजूद स्त्री-पत्रकारों के उपर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा -कंटेंट पर स्त्री का नियंत्रण नही है, डिसीज़न मेकिंग की बात तो दूर वह अपनी बात अपने शब्दों मे भी नहीं कह पा रही है ,एंकरिंग फिर भी सुलभ है जो किसी रैम्प पर किसी और के बनाए परिधानो की प्रदर्शनी के लिए किए जाने वाले कैट वॉक जैसा है। झलकती है तो केवल स्त्री की दर्शनीयता,कमनीयता ....उसकी योग्यता नहीं ...(सुजाता, स्त्री का कंटेंट पर कोई नियंत्रण नही है, फरवरी 20, 08, http://blog.chokherbali.in)।) इस लिहाज से हम बात करें तो टेलीविजन पत्रकारिता की दुनिया में ये स्त्री-पत्रकारों की अधूरी उपस्थिति है। स्क्रीन पर सबसे ज्यादा स्त्री पत्रकार होने के वाबजूद भी पत्रकारिता के बाकी हिस्सों से वो बेदखल है। स्त्री-विमर्श के चश्मे से ये फ्रैक्चरड जर्नलिज्म का हिस्सा है। स्त्री-पत्रकार से अलग, स्क्रीन पर स्त्री की एक दूसरी छवि है। ये स्त्री, पुरुष पत्रकारों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने और उसके कहने पर सवाल पूछने से अलग काम करती है। ये डांसिग क्वीन बनकर नाचती है, वर्चुअली बिग बॉस बनने की कवायद में जुटी है ,इंडियन ऑयडल में पुरुष पार्टिसिपेंट को धक्के देकर आगे आती है। पितृसत्ता में रचे-पगे समाज और लगातार तीन बार पुरुषों को ही इंडियन ऑयडल के तौर पर चुननेवाली ऑडिएंस को झुठलाती हुई सवाल करती है- मुझे अभी भी भरोसा नहीं हो रहा कि मैं देश की इंडियन ऑयडल हूं।( सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल-4, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। संभव है ये टेलीविजन के चोचले से ज्यादा कुछ नहीं। यह भी संभव है कि तीन बार तक पुरुषों को इंडियन ऑयडल का खिताब देने के बाद जजेज के बीच एक लड़की के इंडियन ऑयडल होने की तमान्ना का जागना, रियलिटी शो को बेवजह महान साबित करने जैसा हो।( सोनाली बेन्द्रेः मैंने पहले से ही कहा था कि इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बने तो बहुत खुश होउंगी और तभी मैंने सोचा था कि अगर इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बनती है तो मेरा फेवरिट ब्रैंड बॉच है, गिफ्ट करुंगी। एंड दिस इज द टाइम टू लव यू, टू हैव ओमेगा। सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। ये सब ढोंग है, सब बरगलाने की कोशिशें हैं, सब पाखंड है, सब टीआरपी के लिए है, सब बाजारवादी ताकतों का खेल है, मान लिया। स्क्रीन पर स्त्री की एक तीसरी छवि है। यह छवि है टेलीविजन सीरियलों में जज़्बातों और कहानी के प्लॉट के हिसाब से चरित्र निबाहती हुई स्त्रियों की। यहां वो ऑडिएंस के सामने कोई गाने नहीं गाती,एकाध बार की बात को छोड़ दें तो नाचती भी नहीं है। वो सिर्फ प्रोड्यूसर के इशारे पर दहाड़ मारकर रोती है,अपनी चूडियां फोड़ती है, घोषित करती है कि उसका सबकुछ लूट गया, अब उसकी जिंदगी का कोई मतलब नहीं रहा है। ( खबर- न्यूज 24,आनंदी के घर मातम,1 मार्च 09,11.27 बजे ) पुरुष प्रोड्यूसरों के इशारे पर एक स्त्री, दूसरी स्त्री को जीना हराम कर देती है, औऱत ही औऱत की दुश्मन है के मुहावरे को मजबूत करती है।( इन्दु, पति को बचाती,अपनी जेठानी द्वारा सतायी गयी पात्र. देहलीज,एनडीटी इमैजिनः9.11 बजे रात, 4 मार्च 08)। इसलिए चलिए टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहने के वाबजूद भी स्त्री का इससे कुछ भला न होने की बात को भी मान लिया। न्यूज चैनलों में, संभव है वो पुरुषों की तरह ललकारनेवाली भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। ये भी संभव है कि वो कमजोर कंटेंट के वाबजूद स्क्रिप्ट के दम पर उसे देश और दुनिया की सबसे बड़ी खबर बनाने के काबिल न हों। लेकिन क्या दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट को पढ़नेवाली एंकर पर, प्रोड्यूसर के मुताबिक सवाल करनेवाली एंकर पर, स्टूडियों में बैठे पुरुष एंकर औऱ फील्ड में मौजूद स्त्री-संवाददाता पर पत्रकारिता के नाम पर पुरुषों के विचार, विश्लेषण, भाषा औऱ प्रस्तुति के स्तर पर गुलाम होने का तोहमत लगाया जा सकता है। नाचती हुई स्त्री, पुरुषों के विरोध में संवाद बोलती हुई स्त्री को, सीरियलों में प्रोड्यूसर के कहने पर मर जानेवाली स्त्री को टीआरपी की कठपुलियां भर ही समझा जा सकता है। एंकर बनने की चाहत रखनेवाली मीडिया कोर्स की लड़कियों को गुलाम मानसिकता का शिकार बताया जा सकता है। इन सब पर नए सिरे से सोचना जरुरी है। यहां ये बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि जो लोग स्त्री के पक्ष में बहस चला रहे हैं, उन्हें स्त्रियों की स्थिति के बदलाव की समझ नहीं है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई है कि स्त्रियों की स्थिति में बदलाव और मुक्ति की बात सिर्फ लोकसभा टीवी पर होनेवाले जेंडर डिस्कोर्स की तर्ज नहीं किए जा सकते। दिक्कत ये है कि, बात स्क्रीन पर स्त्री की हो या फिर किसी दूसरे प्रोफेशन में मौजूद स्त्रियों की। स्त्रियों के संदर्भ में जब भी हम बात करते हैं तो उसकी प्रजेंस के बजाय उसकी भूमिका पर पूरी तरह फोकस हो जाते हैं। लेकिन वर्चुअल स्पेस में आते ही विश्लेषण का ये आधार बहुत पर्याप्त साबित नहीं होता। वर्चुअल स्पेस की सबसे बड़ी शर्त है प्रजेंस और उससे जुड़ी ऑडिएंस की मानसिकता की समझ। हम जैसे माथापच्ची करनेवाली जमात के अलावा भी देश में तीन-चार जेनरेशन हमेशा से मौजूद है जो कि टेलीविजन स्क्रीन पर स्त्री किस रुप में मौजूद है, इस बहस में न जाकर उसकी मौजूदगी को ही सबसे बड़ी ताकत मानती है। ये हमारे-आपके और उन तमाम लोगों के लिए खोखली बात है औऱ हो सकती है जो ये मानते हैं कि केवल स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों के आ जाने से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विकास औऱ स्त्री-समाज के हौसले में इससे कोई इजाफा नहीं होने जा रहा। हमें ये भी देखना होगा कि वो किस रुप में आ रही है। लेकिन, ऑडिएंस के लिए इसका बहुत अधिक मतलब नहीं है। देश की एक बड़ी ऑडिएंस आज भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं हैं जिनके लिए स्क्रीन पर स्त्रियों का ही बड़ी है। टेलीविजन, ऑडिएंस की इसी मानसिकता की समझ के आधार पर काम करता है। स्क्रीन पर स्त्री की उपस्थिति( प्रजेंस/होने) से सत्ता की ताकत हासिल होती महसूस की जाती है। थोड़ी देर के लिए आप इस बहस से बाहर निकलिए कि स्त्री-पत्रकार दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ती है, एकरिंग के नाम पर कैटवॉक जैसा कुछ करती है, वो नए स्पेस में भी पितृसत्ता के कब्जे में है, आपको एक नया मंजर दिखाई देगा। आप पाएंगे कि निजी टेलीविजन चैनलों के आने के बाद से स्त्री-पत्रकारों की स्क्रीन पर मौजूदगी औऱ उसकी फ्रिक्वेंसी पहले से बहुत अधिक बढ़ी है। सात से आठ घंटे तक चलनेवाले सीरियलों में स्त्री का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक है। उसकी इस उपस्थिति के पीछे विरोध में कई तर्क जुटाए जाते सकते हैं। लेकिन बाकी बातों के साथ-साथ इतना तो मानना ही होगा कि टेलीविजन स्क्रीन तेजी से वूमेन स्पेस के रुप में बदल रहा है। एक सौरभी डेब्बरमा के इंडियन ऑयडल बनने से,एक सपना अवस्थी पर जुनून चढ़ने से औऱ एक किरण के कचहरी चलाने से दबायी जाती रही स्त्री-समाज के बीच पनपने वाले आत्मविश्वास को नजरअंदाज तो नहीं ही किया जा सकता। दूसरी बात, जब हम टेलीविजन के संदर्भ में बात कर रहे होते हैं तो क्या सिर्फ इस बात पर टिक कर रह जाना कि जो कुछ बोला जा रहा है सिर्फ उसका ही असर होता है, बाकी चीजों का कोई खास मतलब नहीं होता। अगर ऐसा होता तो फिर आए दिन खबरों को प्रस्तुत किए जाने के पीछे की तिगड़मों का कोई सेंस ही नहीं होता। टेलीविजन में स्क्रिप्ट एक जरुरी मसला है,इसके साथ ही स्क्रीन पर स्त्री की मौजूदगी भी उसी समाचार का हिस्सा है। दूरदराज के किसी इलाके में जहां पढ़ाई के बजाय पर्दे की पहुंच है, स्कूल पहुंचने से पहले केबल नेटवर्क और डिश पहुंच रहे हैं वहां का असर मौजूदगी के स्तर पर है, स्त्री के पीछे लगे इशारों का नहीं। अधिकांश घरों के अंदर जो कि देश के पुरुषों के लिए लीजर प्लेस हैं और स्त्रियों के लिए वर्किंग प्लेस, क्या वहां मसाला कूटती हुई स्त्री, बच्चों की टिफिन औऱ पति की शर्ट प्रेस करती स्त्री, हलाल होती स्त्री टीवी देखने पर स्त्री-पत्रकारों को,प्रोड्यूसर के इशारे पर बिलखती स्त्री को शब्दों की गुलाम स्त्री मानकर देखती है या फिर स्क्रीन पर पहुंच जाने से ताकतवर मानकर हसरत भरी नजरों से देखती है ? सब जानते हैं कि टेलीविजन का सच, असल जिंदगी के सच से अलग है लेकिन उसका असर सच है। इसलिए, बलिया, सिवान,दरभंगा और जबलपुर जैसे देश के इलाकों से आनेवाली लड़कियां ये जानते हुए भी कि उसे एंकर के नाम पर महज आठ हजार-दस हजार रुपयों पर दस-दस बारह-बारह घंटे तक काम करना पड़ सकता है, जी-जान से मीडिया के लिए लगती है। क्यों। क्या, आप इन पर किसी भी हालत में गुलामपसंद होने की तोहमत लगा सकते हैं? वो समझ रही है कि चैनल के भीतर स्त्री-पत्रकारों की स्थिति बहुत बेहतर न होने की स्थिति में भी, स्त्री-भाषा के सीमित हो जाने पर भी बाहर की दुनिया में उसका स्पेस बढ़ता है। स्क्रीन के स्पेस के जरिए समाजिक हैसियत बढ़ती है। आप इसे गलत कहें या सही लेकिन स्क्रीन पर की स्त्रियों के भले के लिए जैसे आप और हम सोचते हैं, वो नहीं सोचती इसलिए उसके लिए हमारा विमर्श जरुरी भी नहीं है। रवीश कुमार की इस इच्छा के साथ कि खबरों की स्क्रिप्ट पर स्त्री-पत्रकारों की दखल बढ़े,मेरे जैसे बाकी लोग भी यहीं चाहते हैं, बल्कि हम तो ये भी चाहते है कि फोकस टीवी जैसे चैनलों की संख्या और बढ़े लेकिन ये मानने को तैयार नहीं हैं कि स्क्रीन पर की स्त्री पत्रकार कैटवॉक के अंदाज की स्त्रियां हैं, प्रोड्यूसर के निर्देश पर एक्ट करनेवाली स्त्रियां अंततः गुलाम होती स्त्रियां हैं। ये अलग बात है कि इस तरह के काम भी आसान नहीं है, मुहावरे से भले ही हम इसे फूहड़ और हल्का साबित करने की लाख कोशिशें कर लें। सारी स्त्रियों के बूते है भी या नहीं, बेहतर हो वो खुद तय करें। सच्चाई ये है कि स्क्रीन पर मौजूद स्त्री, स्क्रीन के जरिए ही सत्ता, शोहरत और सामाजिक हैसियत हासिल करने की राह पर डटीं हैं। इसके जरिए ही वो पितृसत्ता द्वारा बनाए गए सींकचों को ध्वस्त करने की कोशिशों में जुटी हैं जो कि मुक्ति की राह में आर्थिक स्वतंत्रता से भी आगे की चीज जान पड़ती है।...... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090323/8463f879/attachment-0001.html From ahmed.hilal at googlemail.com Thu Mar 19 23:17:21 2009 From: ahmed.hilal at googlemail.com (Hilal Ahmed) Date: Thu, 19 Mar 2009 23:17:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS44KWN4KSs?= =?utf-8?b?4KWHIOCkuOClhyDgpLLgpL7gpK/gpL4g4KSc4KWA4KSo4KWN4KS4?= In-Reply-To: <63309c960903190437u159c7c77ocacb5957f2687912@mail.gmail.com> References: <63309c960903190437u159c7c77ocacb5957f2687912@mail.gmail.com> Message-ID: <723dc4960903191047p654ebd23j507ee6a5ddd83caa@mail.gmail.com> Gandhi se Aage... Lekh *Varun* aur *Gandhi* ki virasat ke bich ke dwand ko bakhubi darshata hai. Par swal yeh bhai hai ki kya Gandhi surname koi trademark hai? Chahe woh BJP ho ya Congress; Varun ho ya Rahun; Sonia ho ya Menka, aisa lagta hai ki Gandhi keh kar aap apne ko ek aisi rajshashi se jor rahe hai jiske Mohandas Gandhi sabse bare vorodhi the. Par *sache Gandhi* aur in *tathakathith Gandhyon* me antar hi hamare vimarsh ka aadhar nahi hona chahiye. Hame Gandhi se aage jana chahiye chaye- Yeh rasta nisandheh Gandhi ke vicharo se shuru karna hoga par uski shesh manzile hame apni rajnitik sranjantmakta se hi hasil karni hogi. Hilal On 3/19/09, girindra nath wrote: > > रवीश के कस्बा से साभार- जीन्स.....। > पढ़िए। > शुक्रिया > गिरीन्द्र > > जीन्स। पहनी जाती है। विरासत में भी मिलती है। मैं इस दूसरी वाली जीन्स की बात > करूंगा। वो जीन्स जो वरूण को अपने पिता संजय से मिली। वो जीन्स जिसमें एक दिन > में आसमान छूने का दिल करता है। वो जीन्स जिसमें एक पल में ही दुनिया बदल देने > का मन करता है। वो जीन्स जिसमें सब कुछ मटियामेट करने का जी करता है। वो जीन्स > जो बुरा ठानता है तो बुरा ही करता है। वो जीन्स जो अच्छे और बुरे में फर्क नहीं > करता। वो जीन्स जिसमें पेशन्स नहीं है। वो जीन्स जिसके छोटेपन की कोई इन्तेहा > नही। वो जीन्स जिसे दुनिया को जूती की नोक पर रखने की कामुकता है। वो जीन्स > जिसे छोटे बड़े का लिहाज नहीं। वो जीन्स जिसमें कुतर्क ही सबसे बड़ा तर्क है। > > वही जीन्स जिसने वरूण को वरूण बनाया। वही जीन्स जिसके बीज की पौध 28 साल होते > होते कुतर्क करने लगी। वो कह रहा हाथ काट डालेगा। ये कैसी संडासी भाषा है > तुम्हारी। बू आती है। तुम्हारी दादी कह के मरी की उसकी बूंद का एक एक कतरा देश > की तरक्की के लिये बहेगा। तुम्हारे परदादा ने सेक्यूलरिज्म के मंदिर बनवाये। > तुम हाथ काटोगे। अरे किसके हाथ काटोगे। तरक्की के। अमन के। चैन के। शराफत के। > रिश्तों के हाथ काटोगे जिनमें सदियों से एक ही खून बहता रहा है। जिसका रंग > सुर्ख लाल है। क्या सहिषुणता के हाथ काटोगे। जिसने इस देश को आदि काल से > वाइब्रेंट रखा। उस देश के हाथ काटोगे जिसके लोगों ने तुम्हारे पिता की अकास्मिक > मौत के बाद तुम्हे जीने की हिम्मत दी। जिस देश नें तुम्हारी मां और तुम्हे अपनो > से अलग होने के बाद भी जीने का मकसद दिया। तुम किसके हाथ काटोगे। > > लेकिन तुम्हारा क्या दोष। जीन्स तो तुम्हे अपने पिता के ही मिले हैं। वो भी > अपने को सबसे बड़े फन्ने खां समझते थे। किसी की कब सुनी उन्होने। तुम्हारी उम्र > में तो तुम्हारे पिता की इमेज बैड मैन की थी। ऐंग्री बैड मैन। खुशवंत सिंह टाइप > इक्का दुक्का डाइनेस्टी भक्तो को छोड़ दे तो तुम्हारे पिता के कारनामों से समाज > में बड़ी दहशत फैली। दिल्ली का तुर्कमान गेट हो या यूपी और बिहार के वो गांव > कस्बे जहां तुम्हारे पिता की कुराफाती टोली नसबन्दी के हथियार लेकर गली मौहल्लो > में नंगा नाच कर रही थी। समाज को डरा कर उसे अपने वश में करने की कोशिश की > उन्होने। तुम्हे उन्ही से तो अपने जीन्स मिले हैं। > > और तुम उस जीन्स की मर्यादा भी तो रख रहे। बापू सोच रहे होंगे बड़ी गल्ती की > की तुम्हारे दादा को अपना नाम देकर। पता रहता की संजय और फिर उसके बाद उसका > बेटा मेरे नाम पर बदनुमा दाग लगायेगा तो फिरोज को कभी ये नाम नहीं देता। लेकिन > फिरोज तो ऐसा नहीं था। फिर उसके वंश में ये कैसे चिराग पैदा हुये। जिस > करीमउल्ला, मजहरउल्ला का सर काटने की बात कर रहे उन्ही जैसे सैकड़ो करीमउल्ला > और मजहरउल्ला की सुरक्षा के लिये बापू नोआखाली में भूख हड़ताल पर बैठे। ताकि > तुम्हारे जैसे उन्मादी हिंदु उस इलाके में न फटके। ये उस समय जब देश बंट चुका > था। और लोग रिश्तों को भी बांट रहे थे। मजहबी उन्माद चरम पर था। हिंदुस्तान में > फिरंगियों का बहाया खून नहीं अपने अपने का खून बहा रहे थे। बापू डटे रहे। उस > उन्मादी माहौल से जो कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में आग लगी हुयी थी वो उसमे एक > "घड़ा पानी डालने" नोआखाली में थे। लंदन से डिग्री ले ली लेकिन तुमने ये नहीं > पढ़ा की नोआखाली में में फिर दंगे नहीं हुये। क्योंकि उस गांधी ने कहा जान चली > जाये पर मैं यहां से नहीं हिलूंगा। नेहरू और पटेल ने बुलाया भी कि दिल्ली आइये > और आजादी के जश्न में हमें आशीर्वाद दीजिये। गांधी ने कहा जब बंगाल और पंजाब जल > रहे हों तो आजादी का जश्न मैं नहीं मना सकता। ऐसे थे मोहनदास करमचंद गांधी > जिन्होने दुम्हारे दादा को अपना बेटा मान कर अपना नाम दिया ताकि तुम्हारे > परदादा उनकी शादी तुम्हारी दादी से करवाने के लिये राजी हो जायें। > > तुम कहते हो तुम्हे हिन्दु होने पर गर्व है। महात्मा गांधी भी हिन्दु थे। > लेकिन उन्हे गीता का ग्यान भी था और कुरान शरीफ भी रटा था। याद कराना चाहूंगा > तुम्हे नोआखली का वो वाक्या जब एक मुस्लिम गांधी पर टूट पड़ा। गांधी जब गिरे तो > उन्होने कुरान शरीफ की एक आयत पढ़ कर सुनायी। इस पर वो उन्मादी मुसलमान शांत हो > गया और बापू के पैरों पर गिर कर माफी मांगी। कहा आप जो कहेंगे करूंगा। ऐसे जीता > बापू ने मुसलमानों का दिल क्योंकि उनके मन में हिन्दु और मुसलमान अलग नहीं थे। > सब उसी खुदा के बनाये बन्दे थे। > > लेकिन तुम कहते हो करीमउल्ला और मजहरउल्ला का तुम सर कलम कर दोगे। क्योंकि > तुम्हे अपने "हिन्दु होने पर गर्व है"। तुम कहते हो तुम उन हिन्दुओं की वकालत > कर रहे थे जिन्हे उत्तर प्रदेश में सताया जा रहा। लेकिन तुम्हारी जबां में तो > किसी एक समुदाय के लिये नफरत और हिकारत भरी थी। > > मोहनदास कर्मचंद गांधी वोट मांगने के लिये सेक्यूलर नहीं बने। वो सेक्यूलर थे > इसलिये वो कलकत्ता और नोआखली गये। तुम समाज को कम्यूनल चश्मे से देखते हो > इसलिये तुमने वो कहा जो तुमने कहा। तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। तुम गांधी नहीं। > आज से तुम अपना नाम बदल लो। तुम अपना नाम वरूण संजय रख लो। ताकि जब भी तुम्हारी > बात हो लोगों को पता लग जाये तुम्हारी संडासी सोच में किसके जीन्स तैर रहे हैं। > > > प्रभात शुंगलू > IBN7 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Dr. Hilal Ahmed Associate Fellow Centre for the Study of Developing Societies (CSDS) 29, Rajpur Road Delhi - 110054 India Phone: 91-11-23942199 Fax: 91-11-23943450 Webpage: http://www.csds.in/faculty_hilal_ahmed.htm website : http://www.csds.in/ Emails: ahmed.hilal at gmail.com ahmed.hilal at csds.in _________________________________ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090319/3ce7fdb7/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Mar 23 13:22:27 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Mar 2009 13:22:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSy4KSu?= =?utf-8?b?IOCkoeClieCklyDgpJXgpLXgpL/gpKTgpL46IOCkquCkguCkleCknCDgpJo=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSw4KWN4KS14KWH4KSm4KWA?= Message-ID: <200903231322.28622.ravikant@sarai.net> हम चाहे जो कहें छापने वाले वही छापते हैं जो वे चाहते हैं. एक और मिसाल जो कविता बन कर फूटी. सबद से साभार: रविकान्त http://vatsanurag.blogspot.com/ पंकज चतुर्वेदी की नई कविता आखिरी बात अल्लाह रक्खा रहमान को संगीत-रचना के लिए ऑस्कर मिला तो देश के दो बड़े हिन्दी अख़बारों के स्थानीय संवाददाताओं ने फ़ोन पर मुझसे सवाल किया : क्या आपको लगता है कि "स्लमडॉग मिलियनेयर" के निर्माता-निर्देशक ब्रिटिश थे इसलिए यह ऑस्कर मिल गया ? मैंने कहा : मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि पहले सत्यजीत राय को सिनेमा की दुनिया में उनके जीवन-भर के अवदान के लिए ऑस्कर मिल चुका है दूसरे, आप इस पर विचार कीजिए कि गाँधी पर सबसे अच्छी फ़िल्म रिचर्ड एटनबरो बनाते हैं शंकर-पार्वती पर सबसे अच्छी कविता आक्तोवियो पाज़ लिखते हैं तो क्या हम अपने इतिहास संस्कृति और मिथकों के प्रति उतने संजीदा, समर्पित और निष्ठावान हैं जितने कि जिन्हें आप विदेशी कह रहे हैं ? आखिरी बात यह कि रहमान की यह महान उपलब्धि है देश के लिए गौरव की बात है वे गैर-हिंदू हैं इसलिए यह भी एक मौका है जब हिंदुत्ववादियों को भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का सम्मान करना उस पर नाज़ करना सीखना चाहिए अलग-अलग बातचीत में दोनों ही पत्रकारों ने कहा : ठीक है, ठीक है, आपने हमारे मतलब का काफी कुछ कह दिया अगले दिन दोनों अख़बारों में छपा कि मैं भी इस बात से सहमत हूँ कि फिल्मकार विदेशी थे इसलिए ऑस्कर मिल गया क्योंकि एटनबरो और पाज़ भी विदेशी थे अगर्चे सत्यजीत राय का नाम भी छपा लेकिन आखिरी बात नहीं छपी जैसे मैंने वह कही ही नहीं थी **** ( पंकज चतुर्वेदी कविता और आलोचना में सामान रूप से सक्रिय हैं। इनके आलोचनात्मक लेखन के बाद सबद पर प्रकाशित होने वाली यह पहली कविता। ) From ravikant at sarai.net Tue Mar 24 13:58:34 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 24 Mar 2009 13:58:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKTgpYIg?= =?utf-8?b?4KSh4KS+4KSyLeCkoeCkvuCksiDgpK7gpYjgpIIg4KSq4KS+4KSkLeCkqg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSk?= Message-ID: <200903241358.34281.ravikant@sarai.net> शुक्रिया प्रभात. एलएनजेपी कॉलोनी के मंच पर चल रहे सर्वे के सरकारी नाटक के कुछ और मानवीय अंक. निहायत पठनीय: http://j-p-colony.blogspot.com कृपया इसे दूर-दूर तक फैलाएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: jp blog Date: मंगलवार 24 मार्च 2009 13:47 From: farzana sultana To: ravikant at sarai.net Cc: altcyber at gmail.com 01.* तू डाल-डाल मैं पात-पात* कई लोगों के छोटे-छोटे घर थे। बढ़ते समय के साथ परिवार भी बढ़ा है और शरीर भी। तब रिश्तेदारों ने, भाईयों ने अपनी ज़रूरत को बांटा है और दो छोटे मकानों को एक साथ पक्का बनाया है। छोटी जगह में अपनी सहुलियतें तालाशी हैं जिसमें उन्होंने दोनों घरों को साथ जोड़कर जगह को बड़ा कर लिया है। बड़ी जगह होने के साथ एक मंज़िल ऊपर भी बना लिया है। ये तरीके हैं खुद को थोड़ी ज़्यादा जगह पाने की। तब एक परिवार ऊपर और एक परिवार नीचे रहने लगता है। लेकिन सर्वे वाले जब घरों को देखते हैं तो ऊपर नीचे देखकर सिर्फ नीचे के घर को नंबर देते हैं और ऊपर के फ्लोर को उसी नंबर के साथ FF(First Floor) लिख देते हैं। अब तक सभी यही समझते थे कि हमारे ऊपर का सर्वे हो गया लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि ऊपर के फ्लोर का सर्वे उनके साथ एक धोखा था, क्योंकि सर्वे अधिकारी का ही कहना है, "झुग्गी जड़ से होती है यानी कि ज़मीन से। झुग्गी पर फ्लोर मान्य नहीं है।" जब से यह बात बस्ती के लोगों को पता चली है तब से लोग ऊपर के फ्लोर का सर्वे नहीं करवा के नीचे के कमरे के बीच में लकड़ी की दीवार बनाकर दो घर के सर्वे कराने का जुगाड़ कर रहे हैं। लेकिन सर्वे वाले उनके इस फौरी पार्टीशन को भांप जाते हैं। पक्के घर में लकड़ी और प्लाईउड से किया गया पार्टीशन अटपटा लगता है। इस तरह के पार्टीशन वाले मकान को सर्वे आधिकारी पास नहीं कर रहे हैं। तब वह अपने कागज़ पर उस मकान के ब्यौरे में "पार्टीशन" लिख देते हैं। अब मकान में रह रहे लोगों को डर लग रहा है कि सर्वे वाले उनके पार्टीशन वाले घर को एक घर मान कर सर्वे न कर लें । कुछ लोग अब अपने घर का प्लाईउड के पार्टीशन के बदले पक्के ईंटों का पार्टीशन कर रहे हैं ताकि वो सर्वे के गिनती में आ सके । अभी भी लोग ये सोच रहे हैं कि वे यहाँ भी साथ-साथ रहते आ रहे हैं और जहाँ जगह मिलेगी वहाँ भी साथ-साथ रह लेंगे। सरिता 02. *दायरों को लाँघना* ठौर-ठिकाने लोगों की ज़िन्दगी भर की दौड़धूप के बाद ही बनते हैं। किसी जगह को बनाने में कितनी ही ज़िन्दगियाँ और कितनी ही मौतें शामिल होती हैं, कितने ही मरहलों से गुज़रकर लोग अपने लिये एक मुकाम, एक घर हासिल कर पाते हैं। कितने ही पसीने की बूँदें उस मिट्टी में समाकर नई जगह का रूप देती हैं। बड़ी जतन से अपनी उस जगह को सींचते है। आदमी तो सुबह का गया शाम को घर लौटकर आता है पर औरत को तो घर से लेकर बाहर तक सभी रहगुज़र को पार करना पड़ता है। शौहर की पाबंदी, समाज का ख्याल, तो कहीं मज़हब की दीवार आड़े आती है। लेकिन सर्वे के दौरान कई ऐसे मौके सामने आये हैं जिसने मज़हब की दीवार को भी दरकिनार कर दिया है। मुस्लिम समाज में जब किसी औरत का शौहर गुज़र जाता है तब से लेकर साढ़े चार महीने तक औरत को पर्दे में रहकर इद् दत करनी होती है जिसमें किसी गैर मर्द (यहाँ तक कि अपने घर के मर्दो से भी) से पर्दे में रहना होता है। इस दौरान औरत को अपने घर के आँगन या खुले आसमान तक के नीचे आने की भी इज़ाजत नहीं होती। अगर किसी मज़बूरी के तहत घर के बाहर जाना हो तो चाँदनी रात में नकाबपोश होकर निकलना पड़ता है। लेकिन आज सर्वे के दौरान मजहबी पाबंदी होने के बावजूद उनको बाहर आना पड़ा। जब सर्वे अधिकारी ने काग़ज मांगे तो वो खुद आगे आई। आसपास खड़ी भीड़ भी उन्हें खामोशी से देख रही थी। किसी ने कहा : “इनके शौहर नहीं रहे। अभी ये इद् दत में हैं।" इस बात को सर्वे अधिकारी भी समझते थे। उन्होंने कहा : “आप अंदर जाइये हम सर्वे कर देगें।" वो अपने काले नकाब में ख़ुद को छुपाती हुई अंदर घर में ओझल हो गईं। फरज़ाना 03.* 10 साल पहले का घर चाहिये* बाहर से देखने में कभी भी अन्दर के दृश्य का पता नहीं चल पाता है। गली में से गुज़रते हुए हर शख्स को यही लगता होगा कि इस दीवार के पास-पास में लगे यह दो दरवाज़े दो अलग घर के हैं। और पड़ोसी तो यह भी जानते हैं कि इन दोनों घर में रहने वाले चेहरे एक ही परिवार के दो हिस्से हैं। मां अलग रहती हैं और बेटी अलग। पतली गली से गुज़रते हुए जब सर्वे वालो ने उसके घर में झांका तो देखा दो दरवाज़े है पर अंदर से आंगन या बरामदा एक ही है। सर्वे वालो के पूछने पर बबली ने बताया, "पहले घर में एक पक्की दीवार थी जो दोनों मकानों को अलग बांटती थी पर ज़रुरत के अनुसार हमने दीवार को तोड़कर एक तरफ गुसलखाना बना लिया।" आज वो सर्वे वालो को अपने दोनों घरों के नक्शे समझा रही थी और चाहती थी कि उनके दो घरों के सर्वे हों। दीवार चीज़ों को बांटने में बहुत सहायक होती है। बबली को अंदेशा हो गया था कि पक्की दीवार का बहुत वजूद होता है, एक को दो और दो को एक कर सकता है। लेकिन अपने दीवार को टूटा देख कर उन्हें एक दस्तावेज़ को ख़त्म कर देने वाली अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने सर्वे अधिकारी से पूछा, "यदि मैं घर की दीवार को जैसे दस साल पहले था वैसा ही पक्का कर लेती हूँ तो क्या आप इस बात को मान लेंगे?" सर्वे अधिकारी इसमें ना-नुकूर करने लगे। अपनी बात समझाते-समझाते बबली का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। उसकी सच्चाई और उसके जज़्बात को देखकर सर्वे अधिकारी थोड़ा नरम हुए। फिर आस-पास के लोगों ने भी जब कहा कि बबली सच कह रही है, इसके माँ-बाप भी नहीं हैं और वह अपनी माँ के घर में छोटे भाई-बहनों की देखभाल के लिये रहती है तो सर्वे अधिकारी इस बात के लिये मान गए कि सर्वे हो जाएगा। फरज़ाना http://j-p-colony.blogspot.com ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Wed Mar 25 01:04:15 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 25 Mar 2009 01:04:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+CkviDgpKjgpYcg4KSW?= =?utf-8?b?4KWL4KSc4KWHIOCkheCkquCkqOClhyDgpK3gpJfgpKQg4KS44KS/4KSC?= =?utf-8?b?4KS5?= Message-ID: <829019b0903241234g62656395u3edc8f86547a6cb2@mail.gmail.com> एनडीटीवी के स्पेशल रिपोर्ट में रवीश कुमार ने देश के युवाओं को दो पाटों के बीच रखकर देखने की कोशिश की। ये युवा, वो युवा। स्क्रीन पर बार-बार फ्लैश होता रहा- ऑरकुट और चिरकुट। लेकिन रवीश कुमार जिन युवाओं पर लट्टू होते नजर आए वो न तो ऑरकुटिए हैं और न ही चिरकुट। अगर पिंक चड्डी के जरिए सोच में बदलाव की बात करनेवाली युवा को ऑरकुटिए के तहत शामिल करने की बात की जाए तब ऑरकुट की इमेज सुधरती नजर आती है लेकिन इसका दूसरा पक्ष ये भी है कि ऑरकुटिए ज्यादातर वो युवा है जो खाया-पिया अघाया हुआ है। रघुवीर सहाय के शब्दों में- बड़े बाप के बेटे हैं, जब से पैदा हुए लेटे हैं। जाहिर है रवीश कुमार भी ऐसी स्थिति में नहीं चाहेंगे कि एक अकेले पिंक चड्डी कैम्पेन का हवाला देकर ऑरकुटिए जेनरेशन पर बदलाव करनेवाली पीढ़ी की मुहर लग जाए। सोशल कम्युनिटी साइट और टाइम पास साइट का घालमेल कर दें।..तो फिर स्क्रीन पर बार-बार ऑरकुट और चिरकुट लिखने का क्या सेंस है,ये समझ नहीं आता। फिर इसका भी जबाब नहीं मिल पाता कि रवीश युवा के किस पाट पर लहोलोट हुए जा रहे थे। आलोक पुराणिक के हिसाब से युवाओं की बस दो ही कैटेगरी है या तो ऑरकुट या फिर चिरकुट। तीसरी कोई कैटेगरी नहीं है। लेकिन स्पेशल रिपोर्ट में आलोक की तरह मजाक की गुंजाइश नहीं है और वो भी तब जब देश के युवाओं यानि देश के भविष्य की बात की जा रही हो। जाहिर है रवीश इन दोनों किस्म से अलग एक तीसरे किस्म के युवाओं की बात कर रहे हैं। विभाजन का स्तर पोस्ट की लंबाई बढ़ने के साथ और न बढ़ जाए इसलिए बेहतर होगा कि ऑरकुट,चिरकुट,यहां से फुट,वहां से फुट इन तमाम तरह के युवाओं की कैटेगरी को वो युवा में शामिल कर लें और जिस पर रवीश कुमार लाहोलोट होते नजर आए उन्हें ये युवा में शामिल करके बातचीत को ज्यादा सरल कर लें। इस लिहाज से युवाओं के दो पाट बन गए, अब बारी-बारी से आएं। मो.नासिर अपने वक्त को तो सही नहीं कर सका लेकिन घड़ी की मरम्मत करना वखूबी जानता है। वो भी देश का युवा है इसलिए सामाजिक बदलाव के लिए युनिवर्सिटी के ये युवा जब तिलक ब्रिज के पास हाथ में गिटार लिए आजाद देश में गुलामी की सांस लेने के दर्द को गाते हैं,किसानों के देश को टाटा-बिरला का देश बन जाने की बात करते हैं तो उसकी जुबान से भी निकल पड़ता है- दिल दिया है जान भी देंगे,ये वतन तेरे लिए। रवीश फिर सवाल करते हैं, आप ये गाना क्यों गाते हैं। मो.नासिर का जबाब होता है- इन लोगों को गाते देखते हैं तो मेरा मन भी गाने को होता है। ये अलग बात है कि इनके जाने के बाद नासिर फिर घड़ी की सुईयों और चाबियों को दुरुस्त करने में खो जाए। ये युवा किसी पार्टी से नहीं है,किसी के कहने पर ये सब नहीं कर रहे हैं। गिटार बजाते अभिनव की बाइट है कि कार्पोरेट मीडिया में युवाओं की जो छवि दिखायी जाती है, जो छवि बनती है, वो देश के युवाओं की असली छवि नहीं है। जाहिर है अभिनव अपने प्रयास से देश के युवाओं की असली छवि शामिल करने की कोशिश में लगे हैं। इधर एनडीटीवी लिखता जाता हूं और लिख- लिखकर झूठ करता जाता हूं की तर्ज पर अपने को रेक्टिफाई करने के प्रयास में लगा हुआ है। इन युवाओं को गाते देख, देश की स्थिति पर बोलते देख, धीरे-धीरे लोग जुटने लगते हैं, स्क्रीन पर अच्छी-खासी भीड़ जम जाती है। रवीश इन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो लोगों को देश का असली चेहरा दिखाने का माद्दा रखते हैं, उन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो मो.नासिर जैसे करोड़ों युवाओं को भूल चुकी देश-रागिनी को फिर से याद करा सकते हैं। रवीश उन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो चाहते तो अच्छी नौकरी करके नाम कमा सकते थे, ऐश की जिंदगी जी सकते थे लेकिन उनके बीच इस बात की समझ है कि आज वो जो कुछ भी हैं उसमें सिर्फ मां-बाप का योगदान नहीं है,समाज का भी है इसलिए उन्हें समाज के बारे में पहले सोचना चाहिए। दिल्ली के साउथ एक्स में कुछ युवाओं ने लाखों रुपये की नौकरी छोड़कर पर्यावरण के लिए काम करनेवाली संस्था को कुछेक हजार रुपये पर ज्वायन किया। इन युवाओं के लिए लंचटाइम का मतलब है पहले संगीत और फिर बातें। गिटार के साथ जो संगीत हमें स्क्रीन पर दिखा उसे देखकर न चाहते हुए भी मन में सवाल उठा- क्या ये गीत गाने के साथ-साथ बातें भी अंग्रेजी में ही किया करते हैं। करते हैं तो इसमें परेशानी क्या है,बदलाव के लिए भाषाई स्तर पर इतना बदलाव तो हम अपने भीतर कर ही सकते हैं। देश के ये युवा पर्यावरण जागरुकता अभियान के जरिए देश को बदलने की कोशिश में जुटे हैं। फेसबुक के जरिए कट्टर हिन्दूवादी संगठनों को लाइन पर लाने की कोशिश में जुटे युवाओं पर रवीश लट्टू होते नजर आए। रवीश का निर्वाचन आयोग से सवाल है कि तो क्या देश के युवाओं को सिर्फ वोट देने या न देने की स्थिति में पप्पू कहना सही होगा। मेरे मन में भी यही सवाल है कि हां पप्पू और न पप्पू के अलावा कोई तीसरी कैटेगरी नहीं बनायी जा सकती है क्या। देश के वो युवा यानि चिरकुट युवा, ऑरकुट युवा जो मोबाइल फोन पर पब्लिक प्लेस में बातें करते नजर आते हैं, गुड ब्ऑय बनकर सारी बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने करियर बनाते हैं। जिसने करियर को जीवन का अंतिम सच मानकर अपने को इतना संकुचित कर लिया है कि वो किसी भी तरह के बदलाव क्या बदलाव की सोच भी पैदा नहीं कर सकता। साहित्य में जिसे साहित्य,संगीत,कलाविहीना जीव कहा जाता है, वो कुछ-कुछ उसी तरह का क्रांतिविहीन जीव है। मध्यवर्ग के इन युवाओं पर मुझे भी गुस्सा आता है। उन्हें दमभर लताड़ने का मन करता है जब चंदे मांगने जाओ तो कुछ देने के बजाय दुनिया भर की नसीहतें देने लग जाते हैं। मुझे भी उन युवाओं पर तरस आता है जो किसी तरह चंदा तो दे देते हैं लेकिन अपना नाम लिखवाने से मना करते हैं,आपका काम हो गया न, अब मेरा नाम लिखने की जरुरत है,बोलकर निरीह से बन जाते हैं। कैंपस में मजदूरों के लिए चंदा इकट्ठा करने के दौरान मैं भी देश के ऐसे युवाओं को देखकर सिरे से भन्ना जाता- यार, ये अपने मां-बाप के सपनों से उपर उठकर नहीं सोच सकते क्या। करोड़ों की भीड़ में टाइप बनते ये युवा,मुझे भी गुस्सा आता। लेकिन रवीश को मेरी तरह इन पर गुस्सा करने के बजाय व्यंग्य करना ज्यादा सुरक्षित और सहज लगा। युवाओं की इस कैटेगरी को समझने के लिए कैंपस के फुटेज,मोटी तन्ख्वाह के भरोसे एमबीए का कोर्स करनेवाले लोगों को दिखाने के बजाय फिल्मी चरित्रों के माध्यम से अपनी बात रखना ज्यादा मुफीद लगा। रंग दे बसंती,लगान और लेटेस्ट गुलाल की एक लंबी फेहरिस्त है जिसके जरिए देश के वो युवा पर व्यंग्य किए जा सकते हैं और किया भी गया। कल कैंपस से गुजरते हुए भगतसिंह की बहुत सारी टंगी तस्वीरों पर नजर पड़ गयी। जल्दी में था,फिर भी रुकने-रुकने के अंदाज में चलता रहा। एक कॉमरेड ने हाथ में एक बुकमार्क थमाया। लिखा था- by revolution we mean that the present order of things,which is based on manifest,injustice,must change. मैं इस बुकमार्क के बदले कुछ देना चाहता था,श्रद्धा से ज्यादा आदतवश। साथी ने कहा-तीन रुपये। मेरे पास सिर्फ एक पचास के नोट थे। न तो इससे कुछ कम और न ज्यादा। मैंने कहा, क्या करुं। पीछे से एक कॉमरेड ने कहा- विनीत सिर्फ तीन रुपये थोड़े ही देगा, उससे ज्यादा देगा। पता नहीं, मेरे भीतर ऐसा क्या हो गया,मैंने कहा रख लो। आप कह सकते हैं, जल्दी निबटना चाहता था। फिर ध्यान आया- अब पटेल चेस्ट से बारह पेज प्रिंट आउट लेने हैं, कैसे लूंगा। मन किया, कहूं बीस रुपये दे दो साथी, कुछ काम है। लेकिन फिर दे दिया तो दे दिया, अब लेना कैसा। आगे बढ़ गया औऱ ख्याल आया, एक बीस का नोट होता तो ज्यादा सही होता,चलो कोई बात नहीं दोबारा आना पड़ेगा। एनडीटीवी पर स्पेशल रिपोर्ट देखकर लगा कल के पचास रुपये वसूल हो गए। एक भरोसा जगा कि- अगर अच्छे काम किए जाएं तो उसकी नोटिस ली जाती है। मेनस्ट्रीम मीडिया में अभी भी माद्दा है कि वो बदलाव के चिन्हों को खोज ले। मैं खुश था, गदगद होकर एक सीनियर को फोन किया। सर- देखिए न एनडीटीवी पर स्पेशल रिपोर्ट, क्या आ रहा है। पूरी स्टोरी बतायी और साथ में ये भी कहा कि अगर मिस कर जाते हैं तो भी कोई बात नहीं, मेरे पास इसकी रिकार्डिंग है। उधर से आवाज आयी- क्रांति करनेवालों का भी खानदानी सफाखाना होता है भईया,खैर जरुर देखेंगे। अब मेरे मन में फिर से तूफान मचा हुआ है कि क्या बाकी चीजों के साथ-साथ क्रांति भी सब नहीं कर सकते औऱ सारी आवाजों पर बदलाव की आवाज की मुहर नहीं लगायी जा सकती। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090325/16d5142c/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu Mar 26 17:59:10 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 26 Mar 2009 17:59:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?KuCkleCkv+CkuCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KS14KSfIOCkrOCliOCkoOClh+Ckl+ClgCDgpKzgpY3gpLLgpYk=?= =?utf-8?b?4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKbgpYHgpKjgpL/gpK/gpL4gKiohKg==?= In-Reply-To: <8a9e78f0903260514h27190f04i4075c283d57ff393@mail.gmail.com> References: <200903261501.22378.ravikant@sarai.net> <8a9e78f0903260514h27190f04i4075c283d57ff393@mail.gmail.com> Message-ID: <200903261759.11333.ravikant@sarai.net> > *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **!* > > *उमेश चतुर्वेदी*** > > ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे शिशु > माध्यम और उसके कर्ताधर्ताओं के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। अपनी भड़ास > निकालने का अब तक अहम जरिया माने जाते रहे ब्लॉगिंग की दुनिया सुप्रीम कोर्ट > के इस फैसले से कितना मर्यादित होगी या उस पर बंदिशों का दौर शुरू हो सकता है > - सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की ओर से > आया है, लिहाजा इस पर सवाल नहीं उठ रहे हैं। > > इस लेख का मकसद इस फैसले की मीमांसा करना नहीं है - लेकिन इसके बहाने उठ रहे > कुछ सवालों से दो-चार होना जरूर है। इन सवालों से रूबरू होने से पहले हमें आज > के दौर के मीडिया की कार्यशैली और उन पर निगाह डाल लेनी चाहिए। उदारीकरण की > भले ही हवा निकलती नजर आ रही है – लेकिन ये भी सच है कि आज मीडिया के सभी > प्रमुख माध्यम – अखबार, टीवी और रेडियो बाजार की संस्कृति में पूरी तरह ढल > चुके हैं। बाजार के दबाव में रणनीति के तहत सिर्फ आर्थिक मुनाफे के लिए > पत्रकारिता को आज सुसभ्य और सुसंस्कृत भाषा में कारपोरेटीकरण कहा जा रहा है। > यानी कारपोरेट शब्द ने बाजारीकरण के दबावों के बीच किए जा रहे कामों को एक > वैधानिक दर्जा दे दिया है। जाहिर है – इस संस्कृति में उतना ही सच, आम लोगों > के उतने ही दर्द और परेशानियां सामने आ पाती हैं, जितना बाजार चाहता है। भारत > में दो घटनाओं को इससे बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के > निठारी से लगातार बच्चे गायब होते रहे – लेकिन कारपोरेट मीडिया के लिए ये बड़ी > खबर नहीं बने। लेकिन उसी नोएडा के एक पॉश इलाके से नवंबर 2006 में एक बड़ी > सॉफ्टवेयर कंपनी एडॉबी इंडिया के सीईओ नरेश गुप्ता के बच्चे अंकित का अपहरण कर > लिया गया तो ये मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर बन गई। इसके ठीक दो साल बाद मुंबई > में ताज होटल पर जब आतंकियों ने हमला कर दिया तो उस घटना के साथ भी मीडिया ने > कुछ वैसा ही सलूक किया – जैसा अंकित गुप्ता अपहरण के साथ हुआ। जबकि ऐसी आतंकी > घटनाएं उत्तर पूर्व और कश्मीर घाटी में रोज घट रही हैं। नक्सलियों के हाथों > बीसियों लोग रोजाना मारे जा रहे हैं। लेकिन इन घटनाओं के साथ मीडिया उतना > उतावलापन नहीं > दिखाता –जितना अंकित अपहरण या ताज हमला जैसी घटनाओं को लेकर दिखाता रहा > है। > > मीडिया के ऐसे कारपोरेटाइजेशन के दौर में कुछ अरसा पहले ब्लॉगिंग नई हवा के > झोंके के साथ आया और वर्चुअल दुनिया में छा गया। ब्लॉगिंग पर दरअसल वह दबाव > नहीं रहा – जो कारपोरेट मीडिया पर बना रहता है। इसलिए ब्लॉगरों के लिए सच्चाई > को सामने लाना आसान रहा। इसके चलते ब्लॉगिंग कितनी ताकतवर हो सकती है – इसका > अंदाजा तकनीक और आधुनिकता की दुनिया के बादशाह अमेरिका में हाल के राष्ट्रपति > चुनावों में देखा गया। ये सच है कि अमेरिकी लोगों को बराक हुसैन ओबामा का > बदलावभरा नेतृत्व पसंद तो आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हें लेकर > लोगों का मानस सुदृढ़ बनाने में ब्लॉगरों की भूमिका बेहद अहम रही। अमेरिकी > राष्ट्रपति चुनावों के बाद एक सर्वे एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इस > रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन साठ फीसदी अमेरिकी वोटरों को ओबामा के प्रति राय > बनाने में ब्लॉगिंग ने अहम भूमिका निभाई। इस सर्वे एजेंसी के मुताबिक वोटरों > का कहना था कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों पर उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि उन > दिनों ये सारे प्रमुख माध्यम वही बोल रहे थे, जो ह्वाइट हाउस कह रहा था। > > ब्लॉगरों की ताकत इराक और अफगानिस्तान में बुश के हमले की हकीकत दुनिया के > सामने लाने में दिखी। आप याद कीजिए उस दौर को – तब इंबेडेड पत्रकारिता की बात > जोरशोर से उछाली जा रही थी। क्या अमेरिकी – क्या भारतीय – दोनों मीडिया के > दिग्गज इसकी वकालत कर रहे थे। जिन भारतीय अखबारों और चैनलों को अमेरिकी सेनाओं > के साथ इंबेडेड होने का मौका मिल गया था – वे अपने को धन्य और इस व्यवस्था को > बेहतर बताते नहीं थक रहे थे। सारा लब्बोलुआब ये कि इन हमलों को जायज ठहराने के > लिए बुश प्रशासन और अमेरिकी सेना जो भी तर्क दे रही थी – दुनियाभर का कारपोरेट > मीडिया इसे हाथोंहाथ ले रहा था। लेकिन अमेरिकी ब्लॉगरों ने हकीकत को बयान करके > भूचाल ला दिया। ये ब्लॉगरों की ही देन थी कि बुश कटघरे में खड़े नजर आने लगे। > उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता गया। और हालत ये हो गई कि 2008 आते > –आते जार्ज बुश जूनियर अपने प्रत्याशी को जिताने के भी काबिल नहीं रहे। > > भारत में ब्लॉगिंग की शुरूआत भले ही बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर ही > हुई – लेकिन उतना ही सच ये भी है कि बाद में ये भड़ास निकालने का माध्यम बन > गया। पिछले साल यानी 2008 की शुरुआत और 2007 के आखिरी दिनों में तो आपसी > गालीगलौज का भी माध्यम बन गया। हिंदी के दो मशहूर ब्लॉगरों के बीच गालीगलौज आज > तक लोगों को याद है। दो हजार छह के शुरूआती दिनों में तो दो-तीन ब्लॉग > ऐसे थे –जिन पर पत्रकारिता जगत के बेडरूम की घटनाओं और रिश्तों को > आंखोंदेखा हाल की तरह > बताया जा रहा था। किस पत्रकार का किस महिला रिपोर्टर से संबंध है – ब्लॉगिंग > का ये भी विषय था। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो ये ब्लॉग ही खत्म कर दिए गए। > > दरअसल कोई भी माध्यम जब शुरू होता है तो इसे लेकर पहले कौतूहल होता है। फिर > उसके बेसिर-पैर वाले इस्तेमाल भी शुरू होते हैं। इस बीच गंभीर प्रयास भी जारी > रहते हैं। नदी की धार की तरह माध्यम के विकास की धारा भी चलती रहती है और इसी > धारा से तिनके वक्त के साथ दूर होते जाते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के साथ भी यही > हो रहा है। आज भाषाओं को बचाने, देशज रूपों के बनाए रखने, स्थानीय संस्कृति की > धार को बनाए रखने को लेकर ना जाने कितने ब्लॉग काम कर रहे हैं। तमाम ब्लॉग > एग्रीगेटरों के मुताबिक हिंदी में ब्लॉगों की संख्या 10 हजार के आंकड़े को पार > कर गई है। इनमें ऐसे भी ढेरों ब्लॉग हैं – जो राजनीतिक से लेकर सामाजिक > रूढ़ियों पर चुभती हुई टिप्पणियां करते हैं। > > जिस ब्लॉग पर टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है – वह केरल > के एक साइंस ग्रेजुएट अजीत का ब्लॉग है। उसने अपनी सोशल साइट पर शिवसेना के > खिलाफ एक कम्युनिटी शुरू की थी। इसमें कई लोगों की पोस्ट, चर्चाएं और > टिप्पणियां शामिल थीं। इसमें शिवसेना को धर्म के आधार पर देश बांटने वाला > बताया गया था। जिसकी शिवसेना ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट में शिकायत की थी। जिसके > बाद हाईकोर्ट ने अजीत के खिलाफ नोटिस जारी किया था। अजीत ने सुप्रीम कोर्ट से > शिकायत की कि ब्लॉग और सोशल साइट पर की गई टिप्पणी के लिए उसे जिम्मेदार > ठहराया नहीं जा सकता। लेकिन चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी सतशिवम > की पीठ ने कहा कि ब्लाग पर कमेंट भेजने वाला जिम्मेदार है,यह कहकर ब्लागर बच > नहीं सकता है। यानी किसी मुद्दे पर ब्लाग शुरू करके दूसरों को उस पर मनचाहे और > अनाप-शनाप कमेंट पोस्ट करने के लिए बुलाना अब खतरनाक है। > > सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनापशनाप लेखन पर रोक तो लगेगी। लेकिन असल सवाल > दूसरा है। राजनीति विज्ञान और कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए > गए हैं। पहला – संसद या विधानमंडल, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीसरा > परंपरा। ये सच है कि जिस तरह ब्लॉगिंग की दुनिया में सरकारी और सियासी > उलटबांसियों के परखच्चे उड़ाए जा रहे हैं। उससे सरकार खुश नहीं है। वह > ब्लॉगिंग को मर्यादित करने के नाम पर इस पर रोक लगाने का मन काफी पहले से बना > चुकी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गलियारों से रह-रहकर छन-छन कर आ रही > जानकारियों से साफ है कि सरकार की मंशा क्या है। कहना ना होगा कि सुप्रीम > कोर्ट के इस फैसले से सरकार को अपनी मुखालफत कर रही वर्चुअल दुनिया की इन > आवाजों को बंद करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा। जिसका इस्तेमाल वह देर-सवेर > करेगी ही। > > मुंबई हमले के दौरान टेलीविजन पर आतंकवादी के फोनो ने पहले से खार खाए बैठी > सरकार को अच्छा मौका दे दिया। टेलीविजन चैनलों पर लगाम लगाने के लिए उसने केबल > और टेलीविजन नेटवर्क कानून 1995 में नौ संशोधन करने का मन बना चुकी थी। लेकिन > टेलीविजन की दुनिया इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई तो सरकार को बदलना पड़ा। लेकिन > हैरत ये है कि ब्लॉगरों के लिए अभी तक कोई ऐसा प्रयास होता नहीं दिख रहा। > > *लेखक टेलीविजन पत्रकार और मीडिया ब्लॉगर हैं।*** > > *द्वारा जयप्रकाश*** > > *एफ -23 ए कटवारिया सराय*** > > *दूसरा तल, निकट शिवमंदिर*** > > *कटवारिया सराय, नई दिल्ली -110016*** > *फोन - 9891108295 > > * From ravikant at sarai.net Thu Mar 26 18:12:32 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 26 Mar 2009 18:12:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= film movement guru dutt Message-ID: <200903261812.32936.ravikant@sarai.net> cinema par ek naya dubhashiya blog. maze lein aur shirkat karein. Ashish ka shukriya jinhone isase milawaya. Aur Mahmood ka bhi jinhone Ashish se milawaya: http://newdelhifilmsociety.blogspot.com/ cheers ravikant अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे गुरु दत्त आलोक नंदन गुरुदत्त के बिना वर्ल्ड सिनेमा की बात करना बेमानी है। जिस वक्त फ्रांस में न्यू वेव मूवमेंट शुरु भी नहीं हुआ था, उस वक्त गुरुदत्त इस जॉनरा में बहुत काम कर चुके थे। फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के जन्मदा ताओं ने उस समय दुनिया की तमाम फिल्मों को उलट-पलट कर खूब नाप-जोख किया, लेकिन भारतीय फिल्मों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुरदत्त की फिल्मों का प्रदर्शन उस समय जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी किया जा रहा था और सभी शो फुल जा रहे थे। गुरुदत्त हर स्तर पर वर्ल्ड सिनेमा को लीड कर रहे थे। 1950-60 के दशक में गुरुदत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई थीं, जिनमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिकल पो यटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुये रियलिज्म का भरपूर इस्तेमाल किया था, जो फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट की खास विशेषता थी। वर्ल्ड सिनेमा के परिदृश्य में गुरुदत और उनकी फिल्मों को समझने के लिए फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के थ्योरिटकल फॉर्मूलों का सहारा लिया जा सकता है, हालांकि गुरुदत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। सो किसी और फिल्म मूवमेंट के ग्रामर पर उन्हें नही कसा जा सकता। फ्रेंच न्यू वेव की बात फ्रांस की फिल्मी पत्रिका कैहियर डू सिनेमा से शुरु होती है। इस पत्रिका के सह-संस्थापक और संपादक आंद्रे बाजिन ने अपने अगल-बगल ऐसे लोगों की मंडली बना रखी थी, जो दुनि याभर की फिल्मों के पीछे खूब मगजमारी करते थे। फ्रान्कोई ट्रूफॉ, ज्यां-लुक गोदार, एरिक रोहमर, क्लाउड चाब्रोल और जैकस रिवेटी जैसे लोग इस इस मूवमेंट के खेवैया थे और थ्योरेटिकल लेवल पर फिल्म और उसकी तकनीक के पीछे हाथ धोकर पड़े हुये थे। ऑटर थ्योरी बाजिन के खोपड़ी की उपज थी, जिसे ट्रूफॉ ने सींच कर बड़ा किया। गुरु दत्त को इस फिल्म थ्योरी की कसौटी पर कसने से पहले, इस थ्यो री के विषय में कुछ जान लेना बेहतर होगा। ऑटर थ्योरी के मुताबिक एक फिल्मकार एक लेखक है और फिल्म उसकी कलम। यानि एक फिल्म का रूप और स्वरुप पूरी तरह से एक फिल्म बनाने वाले की सोच पर निर्भर करता है। इस थ्योरी को आगे बढ़ाने में अलेक्जेंडर अस्ट्रक ने कैमरा पेन जैसे तकनीकी शब्द का इस्तेमाल किया था। ट्रूफॉ ने अपने आलेख -फ्रांसीसी फिल्म में एक निश्चित चलन-में इस थ्योरी को मजबूती से स्थापित किया था। उसने लिखा था कि फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती है, बल्कि फिल्मकार अच्छे और बुरे होते हैं। फिल्मों में गुरुदत्त के बहुआयामी कामों को समेटने के लिए यह थ्योरी बहुत ही छोटी है, लेकिन इस थ्योरी के नजरिये से यदि हम गुरुदत्त को एक फिल्मकार के तौर पर देखते हैं, तो उनकी प्रत्येक फिल्म बड़ी मजबूती से उनके व्यक्तित्व को बयां करती है। फ्रेंच न्यू वेव के संचालकों की तरह ही गुरुदत्त ने भी सेकेंड वर्ल्ड वॉर के प्रभाव को करीब से देखा था। अलमोड़ा का उदय शंकर इंडियन कल्चरल सेंटर 1944 में गुरुदत्त के सामने ही सेकेंड वर्ल्ड वॉर के चलते बंद हुआ था। गुरुदत्त यहां पर 1941 से स्कॉलरशिप पर एक छात्र के रूप में रहे थे। बाद में मुंबई में बेरोजगारी के दौरान उन्होंने आत्मकथात्मक फिल्म प्यासा लिखी। इस फिल्म का वास्तविक नाम कशमकश था। फिल्मों की समीक्षा के लिए कुख्यात ट्रूफॉ को 1958 में जब कान फिल्म फेस्टिवल में घुसने नहीं दिया गया था, तो उसने 1959 में फोर हंड्रेड ब्लोज़ नाम की फिल्म बनाई था और कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म डायरेक्टर का अवॉर्ड झटक ले गया था। फोर हंड्रेड ब्लोज़ भी आत्मकथात्मक फिल्म थी, गुरुदत्त की प्यासा की तरह। फोर हंड्रेड ब्लोज़ में एक अटपटे किशोर की कहा नी बयां की गई थी, जो उस समय की परिस्थियों में फिट नहीं बैठ रहा था, जबकि प्सासा में शायर युवक की कहानी थी,जिसे दुनिया ने नकार दिया था। अपनी फिल्मों पर पारंपरिक सौंदर्य के साथ ज़मीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुये गुरुदत्त फ्रेंच न्यू वेव मूवमेंट से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म बाजी बनाई थी। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अतिरिक्त पहली बार कंटेट के लेवल पर गा नों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की प्रमुख देन हैं। बाज़ी के बाद गुरुदत्त ने जाल और बाज बनाई। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आरपार (1954), मि. और मिसेज 55, सीआईडी, सैलाब के बाद उन्होंने 1957 में प्यासा बनाई थी। उस वक्त फ्रांस में की ट्रूफॉ ट फोर हंड्रेड ब्लोज़ नहीं आई थी। प्यासा के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरुदत्त तेजी से डिप्रेशन की ओर भी बढ़ रहे थे। 1950 में बनी कागज के फूल गुरुदत्त की इस मनोवृति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमि का गुरुदत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी, और इस फिल्म में गुरुदत्त की एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति है। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वह एक युवा व्यक्ति था, उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिय थीं। फ्रेच वेव के अन्य फि ल्मकारों की तरह गुरुदत्त सिफ फिल्म के लिए फिल्म नहीं बना रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदा र उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वह अपनी खास शैली में फिल्म बना रहे थे, और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। साहब बीवी और गुलाम का निर्देशन लेखक अबरार अल्वी ने किया था। इस फिल्म पर भी गुरुदत्त के व्यक्तित्व के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरुदत्त रुकते नहीं थे, बल्कि दूसरी फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, लाइफ में यार क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। फ्रेंच वेव मूवमेंट के दौरान ऑटर थ्योरी को स्थापित करने के लिए बाजिन और उसकी मंडली ने ज्यां रेनॉय, ज्या विगो,जॉन फॉड, अल्फ्रेड हिचकॉक और निकोलस रे की फिल्मों को आधार बनाया था, उनकी नजर उस समय भारतीय फिल्म के इस रियलिस्टिक फिल्मकार पर नहीं पड़ी थी। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है। From nisha.nigam1 at gmail.com Fri Mar 27 00:27:22 2009 From: nisha.nigam1 at gmail.com (nisha nigam) Date: Fri, 27 Mar 2009 00:27:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCliyDgpKrgpLngpLLgpL4g4KSq4KWL4KS44KWN4KSf?= Message-ID: <141845e70903261157i71d707fkc901eb2668218d7c@mail.gmail.com> पुणा से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाली गार्गि सिंह इन दिनों एक शोध कार्य से जुड़ी हैं। उनके काम का एक छोटा भाग यहां प्रस्तुत कर रही हूं। *अब हिन्दी न्यूज एजेंसी भी अनुवाद और गुगल के बल पर* * * मुझे हिन्दी मीडिया पर कुछ विशेष जानकारी चाहिए थी, इसीलिए देश की एक न्यूज एजेंसी और एक अखबार की खबरों पर लगातार आठ महिने मेरी नजर टिकी रही। इस दौरान मुझे समझ में आया कि हिन्दी पत्रकारिता का एक पक्ष गुगल सर्च इंजन के बल पर चल रहा है। इसके बाद कई दूसरे महत्वपूर्ण पक्ष अनुवाद के बल पर हैं। न्यूज एजेंसी को खबर का महत्वपूर्ण साधन यानी Mother source माना जाता है, किन्तु रिपोर्ट लाने के मामले में भी उसकी हालत पतली हो गई है। देश की एक प्राइवेट न्यूज एजेंसी है, जो अपना यूएसपी *बिजनेस, स्पोट्स, इंटरटेनमेंट* मानती है। जहां तक पता चला है, उसके हिसाब से उस न्यूज एजेंसी की हिन्दी इकाई 17 महिने पहले शुरू हुई थी। एजेंसी की हिन्दी इकाई से आने वाली बिजनस न्यूज से साफ पता चलता है कि वह अनुवादित है या फिर सर्च इंजन से खोजी गई है। मेरे कहने का मतलब है कि मंदी के इस दौर में भी संपादक ए.सी. कमरे में बैठकर न्यूज तैयार कराते हैं। स्पोट्स की खबरें भी इससे बाहर नहीं हैं। इंटरटेनमेंट का तो और भी बुरा हाल है। क्या होगा ? जब हिन्दी खबर के Mother source की यह हालत यह होगी। एजेंसी छोड़ चुकी एक पत्रकार ने कहीं बताया कि उन्हें इंटरटेनमेंट कवर करने के लिए रखा गया था। बाद में अपने वादे मुकरते हुए हिन्दी विभाग के उस्ताद ने अनुवाद के लिए डेस्क पर बैठा दिया। और अंततः संस्थान छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। खबर की भाषा से जुड़ी भी कई बातें है, उदाहरण के अनुसार- एजेंसी में * लेकिन* से पहले या बाद कॉमा नहीं लागाया जाना चाहिए। सम्पादक का मानना है कि लेकिन अपने-आप में कॉमा है। भाषा शास्त्रियों को इस पर अपने विचार देने चाहिए। शोध का अगला भाग अगले सप्ताह। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090327/d4f64237/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 27 17:01:52 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 27 Mar 2009 17:01:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Re=3A__*?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS4IOCkleCksOCkteCknyDgpKzgpYjgpKDgpYfgpJfgpYAg4KSs?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KWJ4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKbgpYHgpKjgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KS+ICoqISo=?= Message-ID: <200903271701.52959.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान] *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **!* Date: गुरुवार 26 मार्च 2009 18:50 From: vineet kumar To: ravikant at sarai.net उमेशजी औऱ दीवान के साथियों सरकार औऱ सुप्रीम कोर्ट क्या, रोजमर्रा की जिंदगी में टकराने वाले लोग भी ब्लॉगिंग की आलोचना इसलिए करते हैं कि उसमें गाली-गलौज औऱ अपशब्दों के प्रयोग होने लगे हैं। कई बार शुरु किए मुद्दे से हटकर पोस्ट को इतना पर्सनली लेने लग जाते हैं कि विमर्श के बजाय अपने-अपने घर की बॉलकनी में आकर एक-दूसरे को कोसने, गरियाने औऱ ललकारने का नजारा बन जाता है। कई लोगों ने ब्लॉग में रुचि लेना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया है कि इसमें विचारों की शेयरिंग के बजाय झौं-झौं शुरु हो गया है। ब्लॉग की इस स्तर पर समीक्षा करनेवाले लोगों की बौद्धिक क्षमता पर मैं यहां कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहा। लेकिन, आज ब्लॉगिंग की जो भी आलोचना की जा रही है और जिसकी आड़ में सरकार इसके उपर नकेल कसने का मन बना रही है वो बहाने का बहुत ही छोटा हिस्सा है। जो लोग इस काम से लगातार जुड़े हैं उन्हें पता है कि ब्लॉगिंग में सिर्फ लोगों को कोसने औऱ गरियाने के काम नहीं होते। इसने अभी तक तो इतने आधार जरुर पैदा कर दिए हैं जिसके बूते इसे सामाजिक जागरुकता, तात्कालिकता औऱ खबरों की ऑथेंटिसिटी के का माध्यम बड़ी आसानी से साबित किए जा सकते हैं। यही काम अगर सरकार प्रोत्साहन देने की नियत से एक बार ब्लॉग की दुनिया की छानबीन करती तो नतीजे कुछ और ही सामने आते लेकिन पहलेही इसे नकेल कसने के लिहाज से देखने-समझने की कोशिशें की जा रही है तब तो नतीजे भी सरकार की मर्जी के हिसाब से ही आएंगे। दूसरी बात, जहां तक इसे अनर्गल और फालतू के बकवास से बचाने के लिए ऐसा किए जाने की पहल है जैसा कि वो चैनलों के संदर्भ में तर्क देती आयी है तो एक बार न्यूज चैनलों औऱ सरकारी फैसलों पर नजर डालना अनिवार्य होगा। तब निजी समाचार चैनलों ने अपने आंख खोले ही थे, वो ब्लॉग से भी ज्यादा शुरु था, ब्लॉग तो कम से कम नर्सरी क्लास में जाने लायक हो भी गया है, न्यूज चैनल तो हाथ-पैर फेंककर खेलना सीख ही रहे थे कि सरकार किसी भी हालत में इसे प्रसारण को लेकर अनुमति देने के पक्ष में नहीं थी। रेगुलेट करने के मामले में आज के मुकाबले उसका पक्ष बहुत ही कमजोर रहा। मैं एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि कंटेट को लेकर सरकार अगर इतनी ही चिंतित और पारदर्शी है और रहती आयी है तो निजी चैनलों के लाख कोशिशों के बावजूद दूरदर्शन की साख बनी रहती। लेकिन इतना आप भी जानते हैं कि पारदर्शी और लोककल्याणकारी प्रसारण सामग्री का मतलब माध्यम के सरकारी भोंपू बन जाना नहीं है। हमलोग और बुनियाद जैसे टीवी सीरियलों को लेकर हम एक घड़ी के लिए नास्टॉलजिक हो जाते हैं औऱ दूरदर्शन को एक साफ-सुथरा और निजी चैनलों के मुकाबले बेहतर माध्यम मानने लग जाते हैं लेकिन शांति, स्वाभिमान, वक्त रफ्तार से लेकर अभी तक चलनेवाले सीरियलों पर हमारा ध्यान कभी भी नहीं जाता। अक्सर मौजूदा सरकार से जुड़ी खबरों के साथ खुलनेवाले बुलेटिनों पर हम सीरियसली गौर नहीं कर पाते। ऐसा कहकर मैं किसी भी रुप में सरकारी माध्यम जिसे कि जनहित के माध्यम कहे जाते हैं औऱ निजी प्रयासों को एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी करने की कोशिश नहीं कर रहा, बल्कि उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहा हूं जिसके आधार पर अक्सर सरकार एक हाथ से नकेल और दूसरे हाथ से ढोल पीटने का काम करती आयी है। ब्लॉग के साथ कुछ ऐसा ही करने की योजना है। जहां तक ब्लॉग पर होनेवाली कारवाइयों जो कि अभी संभावना के तौर पर ही है, फिर भी इसके विरोध में खड़े होने का सवाल है, ये निजी चैनलों की तरह इतना आसान नहीं है। ब्लॉग से सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि काफी हद तक मेनस्ट्रीम की मीडिया भी परेशान है, इसलिए वो इसके बचाव में खुलकर सामने आएंगे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। बलॉग के आने के बाद मेनस्ट्रीम की मीडिया के बारे में जितना कुछ लिखा गया है, जितनी आलोचना हुई है औऱ हो रही है, शायद पहले कभी नहीं हुआ। ब्लॉग के पक्ष में ब्लॉगरों को अपनी लड़ाई अपने स्तर पर ही लड़नी होगी, हां डॉट कॉम( कई जो ब्लॉग की ही पैदाइश हैं) साथ होंगे। वैसे एक अच्छी बात है कि इस माध्यम से देश और दुनिया के जितने अधिक प्रोफेशन के लोग जुड़े हैं( काम करने के स्तर पर), दूसरे प्रोफेशन और स्वयं मेनस्ट्रीम मीडिया में भी नहीं है, जाहिर है वकील भी। इसलिे दावे और चुनौतियों का आधार तैयार होने में बहुत मुश्किलें नहीं आएगी। बाकी हम जैसे ब्लॉगर जंतर-मंतर पर, शास्त्री भवन के आगे पक्ष में नारे लगाने औऱ महौल बनाने के लिए हमेशा से तैयार हैं। विनीत http://teeveeplus.blogspot.com 2009/3/26 Ravikant > > *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **!* > > > > *उमेश चतुर्वेदी*** > > > > ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे > > शि > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Fri Mar 27 17:17:50 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 27 Mar 2009 17:17:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSC4KSc?= =?utf-8?b?4KSX4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpJfgpLzgpJzgpLzgpLLgpYfgpII=?= Message-ID: <200903271717.52613.ravikant@sarai.net> एक कवि मित्र यानि मोहन राणा ने इस शायर से कल रात हमें चैटियाते हुए मिलवाया नव्‍यवेश नवरा ही के चिट्ठे के मार्फ़त. परिचय उन्हीं के शब्दों में है: http://navrahi.blogspot.com/2009/03/blog-post.html सुखवंत पंजाब के चित्रकार कवि हैं। कागज़ पर शब्‍दों के रंग उकेरते हैं। ज्‍यादा छपने में उनका विश्‍वा स नहीं। लिखते हैं और अपनी डायरी में नोट करके संतुष्‍ट रहते हैं। पंजाबी की कई पत्र्िकाओं में उनकी पंजाबी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. अपनी पंजाबी ग़ज़लों की पुस्‍तक की तैयारी में भी लगे हुए हैं. कुछ दिन पहले उनकी डायरी से मुझे हिंदी की कुछ ग़ज़लें मिलीं, तो मैंने उन्‍हें आपके लिए चुरा लिया. उनकी रचनाओं के बारे में उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो जल रंगों से आग बनाया करता हूं ओर फिर उसमें जलने से भी डरता हू आप भी उनके अनुभवों से गुज़रें: गज़लें/सुखवंत जम चुकी बर्फ से पानी को उछालूं कैसे। अपने चेहरे को मैं दर्पण से निकालूं कैसे। हवा तो रोज़, कभी आंधियां भी चलती हैं, बदन है रेत की दीवार संभालूं कैसे। मेरे रंगों में तेरे नक्श उतर सकते हैं, तेरी आवाज़ को तस्वीर में ढालूं कैसे। शहर के बारे में अब सोच के चुप रहता हूं, आग जंगल की है, सीने में लगा लूं कैसे। मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब, अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे। 2 होश में हूं पर कुछ कुछ आंखें मीचे हूं। मस्ती में हंू ना आगे ना पीछे हूं। मेरा हर इल्ज़ाम मेरे सिर है फिर भी, जो कुछ हंू मैं कब अपनी मर्ज़ी से हूं। तेरी ही तस्वीर उभरती है अक्सर, कागज़ पे इक खाका जब भी खींचे हूं। इनमें तब तक फूल व$फा के खिलते हैं, आंसू से मैं जब-जब आंखें सीचे हूं। पेड़ तो शायद इस धरती का आंचल हैं, धूप कड़ी है मैं आंचल के नीचे हूं। ------ 3 रोशनी के लिए दीवार में झरोखा है। यह बात और है इसमें भी कोई धोखा है। इस चकाचौंध से उभरें तो ज़रा $गौर करें, इन उजालों ने कहां चांदनी को रोका है। शो$ख रंगों के तिलिस्म को अंधेरा ना लिखूं, आज फिर सर्द हवाओं ने मुझे टोका है। हकीकतों की धूप से बचाकर रखता है, मन की परछाइयों का दर्द भी अनोखा है। मैंने दीवार गिराई है चलो मान लिया, मेरे माथे पे मगर कील किसने ठोका है। ----- 4 मन के मौसम को बदल दें सुबह को शाम करें। अपने साए में कहीं बैठ कर आराम करें। गुनगुनी धूप के मासूम से उजाले को, नज़र में ऊंघती अंधी गुफा के नाम करें। चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं, बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें। अब उनके वासते आबो-हवा ही काफी है, क्या ज़रूरी है कि नस्लों का कत्ले-आम करें। अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा, अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें। यह मानते हैं कि रूहें सदा सलामत हैं, वो इनमें रहती हैं, जिस्मों को भी सलाम करें। आज की रात चलो मखमली अंधेरों में, घरों को छोड़कर सड़कों को बेआराम करें। -------- 5 रास्तों में या अपने घर होगा। इन अंधेरों में वो किधर होगा। इस समागम के बाद लगता है, आग में जल रहा शहर होगा। चंद लोगों की साजिशों का असर, क्या खबर थी कि इस कदर होगा। मैं किसी बात से ना डर जाऊं, उसको इस बात का भी डर होगा। हादसा फिर भी हादसा है जनाब, लाख बचिएगा वो मगर होगा। From rakeshjee at gmail.com Fri Mar 27 18:14:35 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 27 Mar 2009 12:44:35 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016361e896054da4f04661918fb@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// अपनी फिल्म रिलीज़ होने वाली है Posted: 25 Mar 2009 11:38 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/UQOgyygKWno/blog-post_25.html जब से अपनी दोस्‍त अनुषा रिज़वी के निर्देशन में निर्मानाधीन फिल्‍म के एक दृष्‍य का हिस्‍सा बनने का मौक़ा मिला है, बड़ी ख़ुशी हो रही है. ये भी नहीं कह सकता कि उसमें अपनी कोई उल्‍लेखनीय भूमिका है पर इतनी साधारण भूमिका भी नहीं है. जी हां, फिल्‍म के जिस दृष्‍य में शामिल होने गर्म कपड़े के साथ मैं गया था दरअसल उसकी शूटिंग जंतर-मंतर पर हुई. और हम सब जानते हैं जंतर-मंतर का महत्त्व. जंतर-मंतर हमारे लोकतांत्रिक प्रतिरोध की आवाज़ को स्‍थान देता है. किसी भी वक्त, किसी भी मौसम में जंतर-मंतर कम-से-कम दर्जन भर धरने-प्रदर्शनों को स्‍थान दे रहा होता है. कोई चार साल से बैठा है तो कोई चार महीने से, कहीं चार दर्जन लोग बैठे हैं तो कहीं सिर्फ़ मियां और बीवी ही. प्रतिरोध के इस स्‍वर को कहीं तंबू-कनाट का सहारा है तो कहीं खुला आसमान ही किसी का आसरा है. कोई अपनी नौकरी बहाली की मांग लिए बैठा है तो किसी तंबू के बाहर अलग कूचबिहार स्‍वायत्त क्षेत्र की मांग टंगी है. तो दलितों के मसीहा कांशीराम के 'हत्‍यारे' को सज़ा की मांग कर रहा है तो कोई 'जूता मारो आंदोलन' से ही संतुष्‍ट है .... कहने का मलतब ये कि हम भी परसो इसी तरह के एक प्रदर्शन में भाग लेने पहुंचे थे जंतर-मंतर. अपने मित्र और पुराने सहकर्मी महमूद फ़ारूकी साहब जो कि इस फिल्‍म-निर्माण में न केवल अनुषा की मदद कर रहे हैं बल्कि तमाम तरह की सहुलियतों का इंतजाम भी उन्‍होंने ही किया है, ने पहले ही अपने क्रिउ मेंबर राहुल से फोन पर कहलवा दिया था कि मैं नियत समय पर यानी शाम चार बजे जंतर-मंतर पहुंच जाउं और साथ में गर्म कपड़े ज़रूर लेता आउं. क़रीब-क़रीब उसी अंदाज़ में उन्‍होंने हमसे अपने साथ पांच और लोगों को लाने की छूट दे दी थी जिस अंदाज़ में अब तक हम कहते रहे हैं. जंतर-मंतर पहुंचने से पहले तक अपन को ये नहीं पता था कि करना क्‍या होगा. सबसे पहले अनुषा मिलीं और फिर बग़ल में सिगरेट फूंकते महमूद मिले. दुआ-सलाम और जफ़्फ़ी-वफ़्फ़ी के बाद महमूद ने बताया कि बस अभी थोड़ी में देर में एक 'कैंडल लाइट मार्च' होने वाला है. हमारे पास कैंडल्स के अलावा बैनर और प्‍लेकार्ड्स भी होंगे. फिर कैसे-कैसे क्‍या होने वाला है ये सब बताया उन्‍होंने. इस पहले एक छोटा सा सीन और शूट किया जाना था जिसमें मौजूदा राजनीतिक हालत पर किसी राजनीतिक पार्टी के नेता की भूमिका अदा कर रहे महमूद फ़ारूकी साहब को दस-बारह सेकेंड की एक बाइट देनी थी. चूंकि मैं पहली बार किसी फिल्‍म की शूटिंग देख रहा था, इसलिए मेरी निगाहें वॉकी-टॉकी खोंसे क्रिउ मेंबर्स और उनके इक्‍वीपमेंट्स पर ही टिकी थी. इधर से कोई आवाज़ लगाता टेप, अगले पल टेप हाजिर; छतरी ... बड़ी छतरी ...., हाजिर बड़ी छतरी भी. कोई चाय लेकर आता, मेरे अलावा अगल-बग़ल बैठे 'सह-अभिनेता' पी लेते और उन्‍हीं में से कोई ब्‍लौक-टी की डिमांड ठोक देता; तीन मिनट के अंदर मांगने वाले के हाथ में कोई ब्‍लैक टी थमा जाता. कुर्सी, कितनी चाहिए? दस, बीस या तीस ... आदमी को बिठा ही दीजिए. एक-से-एक यंत्र, भांति-भांति के माइक्‍स, ट्रॉलियां ... और वो क्‍या कहते हैं आर्मी की तरह का 'वर्ड और कमांड' और उसका अनुपालन! तो मित्रों, हमने जिस दृष्‍य में हिस्‍सेदारी की वो एक जुलूस थी. अपने नेता को खोजते हुए हम जंतर-मंतर पहुंचे थे मोमबत्ती लेकर. मेरे जैसे दिल्‍ली के इक्‍के-दुक्‍के और पेशेवर जुलूसबाज़ आपको इस सीन में नज़र आएंगे. 'आमीर ख़ान प्रॉडक्‍शन' तले बन रही इस फिल्‍म में अपने कुछ मित्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. निर्देशक तो हैं ही अपनी मित्र. किसानों की समस्‍याओं पर आधारित इस निर्माणाधीन फिल्‍म में जुलूस के दौरान अगर कैमरे के लेंस में अपन आ गए हों और संपादन के दौरान कट-छट जाने से रह गए तो अपने दोस्‍तों को दिख भी जाएंगे. तब तक तो कह ही सकता हूं कि अपनी फिल्‍म रिलीज़ होने वाली है. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090327/c7057411/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Mar 28 14:13:05 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 28 Mar 2009 14:13:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkiuCksOCljeCknOCkviDgpJXgpYjgpLjgpYcg4KSG?= =?utf-8?b?4KSk4KWAIOCkueCliA==?= Message-ID: <6a32f8f0903280143o73a4db68g330e718a9194314@mail.gmail.com> हिन्दी में खबर का रंग-ढंग बदला है। जबकि, अंग्रेजी में कई प्रयोग हो रहे हैं। हिन्दी के संपादक को रिपोर्ताज की जरूरत नहीं है। अब आप *अनाथ* की जगह *यतीम*का भी प्रयोग नहीं कर सकते हैं। खैर! *जनवरी 1976* में छपी एक खबर की कुछ पंक्तियां आपके नजर। पढ़कर मालूम होता है कि खबर में ऊर्जा कैसे आती है – *दुष्यन्तकुमार अब नहीं रहे* * * गत 30 दिसम्बर को हिन्दी ने दुष्यन्तकुमार के रूप में एक बहुत ही पैनी लेखनी का धनी रचनाकार खो दिया। चुके हुए, वयोवृद्ध रचनाकारों के निधन पर भी यह कहने की परंपरा है कि उनके चले जाने से साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई, तब दुष्यन्तकुमार के निधन पर क्या कहा जाये ! अभी उनकी उम्र ही क्या थी- सिर्फ 42 वर्ष ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090328/f0bf1be8/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Mar 29 10:07:43 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 29 Mar 2009 10:07:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkrOCljeCksuClieCklyDgpIXgpKrgpKjgpYAg4KSn4KS+4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSW4KWLIOCkqCDgpKbgpYc=?= Message-ID: <829019b0903282137u57607a77k5bd67abfb176d145@mail.gmail.com> उमेश चतुर्वेदी ने अपनी पोस्ट *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **!के जरिए ब्लॉग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रति आशंका जतायी है। उमेश चतुर्वेदी का साफ मानना है कि वे ऐसा करके सु्प्रीम कोर्ट के फैसले पर किसी भी प्रकार के सवाल खड़े नहीं कर रहे लेकिन एक मौजू सवाल है कि अगर सरकार और स्टेट मशीनरी द्वारा ब्लॉग को रेगुलेट किया जाता है, ब्लॉग जो कि दूसरी अभिव्यक्ति की खोज के तौर पर तेजी से उभरा है तो क्या लोकतांत्रिक मान्यताओं को गारंटी देनेवाली अवधारणा खंडित नहीं होती। मेनस्ट्रीम की मीडिया को किसी भी तरह से रेगुलेट किए जाने की स्थिति में इसे लोकतंत्र की आवाज को दबाने और कुचलने की सरकार की कोशिश के तौर पर बताया जाता है तो ब्लॉग में जब सीधे-सीधे देश की आम जनता शामिल है और आज उसे भी रेगुलेट कर,दुनियाभर की शर्तें लादने की कोशिशें की जा रही है तो इसे क्या कहा जाए। क्या स्टेट मशीनरी वर्चुअल स्पेस की इस आजादी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। पेश है उमेश चतुर्वेदी की चिंता और सवालों के जबाब में मेरी अपनी समझ- सरकार औऱ सुप्रीम कोर्ट क्या, रोजमर्रा की जिंदगी में टकराने वाले लोग भी ब्लॉगिंग की आलोचना इसलिए करते हैं कि उसमें गाली-गलौज औऱ अपशब्दों के प्रयोग होने लगे हैं। कई बार शुरु किए मुद्दे से हटकर पोस्ट को इतना पर्सनली लेने लग जाते हैं कि विमर्श के बजाय अपने-अपने घर की बॉलकनी में आकर एक-दूसरे को कोसने, गरियाने औऱ ललकारने का नजारा बन जाता है। कई लोगों ने ब्लॉग में रुचि लेना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया है कि इसमें विचारों की शेयरिंग के बजाय झौं-झौं शुरु हो गया है। ब्लॉग की इस स्तर पर समीक्षा करनेवाले लोगों की बौद्धिक क्षमता पर मैं यहां कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहा। लेकिन, आज ब्लॉगिंग की जो भी आलोचना की जा रही है और जिसकी आड़ में सरकार इसके उपर नकेल कसने का मन बना रही है वो बहाने का बहुत ही छोटा हिस्सा है। जो लोग इस काम से लगातार जुड़े हैं उन्हें पता है कि ब्लॉगिंग में सिर्फ लोगों को कोसने औऱ गरियाने के काम नहीं होते। इसने अभी तक तो इतने आधार जरुर पैदा कर दिए हैं जिसके बूते इसे सामाजिक जागरुकता, तात्कालिकता औऱ खबरों की ऑथेंटिसिटी के का माध्यम बड़ी आसानी से साबित किए जा सकते हैं। यही काम अगर सरकार प्रोत्साहन देने की नियत से एक बार ब्लॉग की दुनिया की छानबीन करती तो नतीजे कुछ और ही सामने आते लेकिन पहलेही इसे नकेल कसने के लिहाज से देखने-समझने की कोशिशें की जा रही है तब तो नतीजे भी सरकार की मर्जी के हिसाब से ही आएंगे। दूसरी बात, जहां तक इसे अनर्गल और फालतू के बकवास से बचाने के लिए ऐसा किए जाने की पहल है जैसा कि वो चैनलों के संदर्भ में तर्क देती आयी है तो एक बार न्यूज चैनलों औऱ सरकारी फैसलों पर नजर डालना अनिवार्य होगा। तब निजी समाचार चैनलों ने अपने आंख खोले ही थे, वो ब्लॉग से भी ज्यादा शुरु था, ब्लॉग तो कम से कम नर्सरी क्लास में जाने लायक हो भी गया है, न्यूज चैनल तो हाथ-पैर फेंककर खेलना सीख ही रहे थे कि सरकार किसी भी हालत में इसे प्रसारण को लेकर अनुमति देने के पक्ष में नहीं थी। रेगुलेट करने के मामले में आज के मुकाबले उसका पक्ष बहुत ही कमजोर रहा। मैं एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि कंटेट को लेकर सरकार अगर इतनी ही चिंतित और पारदर्शी है और रहती आयी है तो निजी चैनलों के लाख कोशिशों के बावजूद दूरदर्शन की साख बनी रहती। लेकिन इतना आप भी जानते हैं कि पारदर्शी और लोककल्याणकारी प्रसारण सामग्री का मतलब माध्यम के सरकारी भोंपू बन जाना नहीं है। हमलोग और बुनियाद जैसे टीवी सीरियलों को लेकर हम एक घड़ी के लिए नास्टॉलजिक हो जाते हैं औऱ दूरदर्शन को एक साफ-सुथरा और निजी चैनलों के मुकाबले बेहतर माध्यम मानने लग जाते हैं लेकिन शांति, स्वाभिमान, वक्त रफ्तार से लेकर अभी तक चलनेवाले सीरियलों पर हमारा ध्यान कभी भी नहीं जाता। अक्सर मौजूदा सरकार से जुड़ी खबरों के साथ खुलनेवाले बुलेटिनों पर हम सीरियसली गौर नहीं कर पाते। ऐसा कहकर मैं किसी भी रुप में सरकारी माध्यम जिसे कि जनहित के माध्यम कहे जाते हैं औऱ निजी प्रयासों को एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी करने की कोशिश नहीं कर रहा, बल्कि उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहा हूं जिसके आधार पर अक्सर सरकार एक हाथ से नकेल और दूसरे हाथ से ढोल पीटने का काम करती आयी है। ब्लॉग के साथ कुछ ऐसा ही करने की योजना है। जहां तक ब्लॉग पर होनेवाली कारवाइयों जो कि अभी संभावना के तौर पर ही है, फिर भी इसके विरोध में खड़े होने का सवाल है,ये निजी चैनलों की तरह इतना आसान नहीं है। ब्लॉग से सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि काफी हद तक मेनस्ट्रीम की मीडिया भी परेशान है, इसलिए वो इसके बचाव में खुलकर सामने आएंगे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। बलॉग के आने के बाद मेनस्ट्रीम की मीडिया के बारे में जितना कुछ लिखा गया है, जितनी आलोचना हुई है औऱ हो रही है, शायद पहले कभी नहीं हुआ। ब्लॉग के पक्ष में ब्लॉगरों को अपनी लड़ाई अपने स्तर पर ही लड़नी होगी, हां डॉट कॉम( कई जो ब्लॉग की ही पैदाइश हैं) साथ होंगे। वैसे एक अच्छी बात है कि इस माध्यम से देश और दुनिया के जितने अधिक प्रोफेशन के लोग जुड़े हैं( काम करने के स्तर पर), दूसरे प्रोफेशन और स्वयं मेनस्ट्रीम मीडिया में भी नहीं है, जाहिर है वकील भी। इसलिे दावे और चुनौतियों का आधार तैयार होने में बहुत मुश्किलें नहीं आएगी। बाकी हम जैसे ब्लॉगर जंतर-मंतर पर, शास्त्री भवन के आगे पक्ष में नारे लगाने औऱ महौल बनाने के लिए हमेशा से तैयार हैं। विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090329/5ddbd479/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Mar 31 09:59:16 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 31 Mar 2009 09:59:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KS54KSc?= =?utf-8?b?4KWAIOCkteCkvuCkuSwg4KSJ4KSo4KSV4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KS24KSoIOCklOCksCDgpLngpK7gpL7gpLDgpYcg4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSPIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK7gpL/gpLbgpKg=?= Message-ID: <829019b0903302129p1784902dl10dd3cfa86dfa2c5@mail.gmail.com> मूलतः मोहल्ला पर प्रकाशितः *विनीत कुमार* *कहने को तो विनीत कुमार दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के शोध छात्र हैं, लेकिन अपनी ब्‍लॉगर जमात का सबसे मेधावी शख्‍स मैं उन्‍हें मानता हूं। विनीत देश की बहुत सारी नामी पत्रिकाओं में मीडिया पर कॉलम लिखने में भी जुटे हैं। फिलहाल जो बहस मोहल्‍ले में चल रही है, उसमें वे अपनी ओर से अक्षत छींट रहे हैं। जो कह रहे हैं - वो सही कह रहे हैं या सतही - इस निष्‍कर्षी इंट्रो से बचते हुए मैं आप सबसे गुज़ारिश करता हूं कि उनके इस लिखे को पढ़ें और अपनी राय दें : अविनाश* *इधर* कुछ दिनों से देख रहा हूं कि देश के नामचीन पत्रकार (चैनल में दोबारा नए तेवर में अवतार लेने के रूप में, दुनिया बसाने की जुगत में और संपादकीय के जरिए ब्लॉग को खोटा साबित करके) मीडिया को *‘संतई कर्म’* साबित करने में जी-जान से जुटे हैं। हिंदी साहित्य पढ़ने-पढ़ानेवाला आदमी ऐसा सोचता-लिखता है, तब तो बात समझ में आती है कि एक तो इसी बहाने उन्हें मौजूदा पत्रकारों को कोसने-गरियाने का भरपूर मौका मिलता है और दूसरा कि समाज में ये संदेश भी जाता है कि बंदे की कविता-उपन्यास और समीक्षा के अलावा मीडिया पर भी नज़र है। ये अलग बात है कि आज की पत्रकारिता को जिस रूप में वो गरियाते हैं, उससे ये साफ हो जाता है कि भारतेंदु युग की पत्रकारिता के बाद उन्होंने कहीं कुछ पढ़ा ही नहीं है। और अगर पढ़ा भी है, तो जान-बूझ कर पत्रकारिता को महान से महान कार्य साबित करने में इसलिए जुटा है ताकि हिंदी साहित्य की संवेदना, मानवीय मूल्य और आम आदमी जैसे फार्मूले को पत्रकारिता में आसानी से फिट कर सके। बिना तकनीक की समझ और बाज़ार की शर्तों को जाने-समझे पत्रकारिता के नाम पर एक वायवीय स्थिति पैदा कर सके। और, अंत में किसी भी तरह, दायें-बायें से ये साबित कर सके कि बिना साहित्य पढ़े, पत्रकारिता की ही नहीं जा सकती और बिना साहित्य पढ़े-पढ़ाए सार्थक पत्रकार गढ़े ही नहीं जा सकते। देशभर में पत्रकारिता कोर्स का पैटर्न इसी तर्ज पर बना है और इसलिए उसे अधिक से अधिक साहित्य पढ़ कर आए लोग पढ़ाते वक्त कभी भी हकलाते नहीं हैं। उन्हें कहीं से नहीं लगता कि ये साहित्य से कोई अलग विधा है। इस समझ, सोच और नीयत के साथ, पत्रकार के नाम पर वो कुछ ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जिसे कि मीडिया संस्थान खर-पतवार मानती है। खैर, पत्रकारिता को ‘संतई कर्म’ साबित करने के पीछे हिंदी समाज का लोभ साफ तौर पर दिखाई देता है, लेकिन नामचीन पत्रकारों को अचानक से हो क्या गया है? क्यों उन्हें फिर से *एसपी सिंह की पत्रकारिता* याद आने लग लगी है? क्यों वो पत्रकारिता के भीतर मूल्यों की खोज में छटपटाते नज़र आ रहे हैं? मीडिया की गतिविधियों पर जो लोग लगातार नज़र बनाये हुए हैं, उनके भीतर इस सवाल का उठना स्वाभाविक है। पत्रकारिता को ‘संतई कर्म’ साबित करने के पीछे की सबसे बड़ी छटपटाहट है कि लोग इससे जुड़े प्रोफेशन के लोगों को बाकी के प्रोफेशन से अलग देखें-समझें। अलग देखने-समझने का मतलब है कि उन्हें समाज में विशिष्ट नागरिक के तौर पर लिया जाए। प्रेस कार्ड के जरिए ये काम काफी हद तक हो जाता है, लेकिन एलीट क्लास आज मीडिया प्रोफेशन को लेकर जिस तरह का रवैया रखता है, उससे साफ जाहिर हो जाता है कि आज मीडिया के लोगों को भी सामान्य लोगों की तरह और कभी-कभी तो उनसे भी बदतर मान लिया जाता है। बौद्धिक होने (होने से ज़्यादा कहलाने) की बेचैनी नामचीन पत्रकारों को बार-बार सच्ची पत्रकारिता, मिशन से जुड़ी पत्रकारिता जैसे जुमले (हमारे लिए अभी भी ये मूल्य हैं, जुमले नहीं) की ओर खींच लाते हैं। क्योंकि बात चाहे मीडिया की हो या फिर साहित्य की, एक आम धारणा है कि जब तक आप अपने से ऊपर उठ कर बात नहीं करेंगे, औरों की तरफ़दारी नहीं करेंगे, आम आदमी को ध्यान में रखकर तर्क नहीं गढ़ेंगे, बौद्धिक करार नहीं दिये जाएंगे। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि आप रोज़मर्रा की ज़‍िंदगी से अलग सोच के दायरे का विस्तार करेंगे। आप वो सब नहीं लिखें, बोलें, जो आप आये दिन करते हैं। संभव है, ऐसा करने से लिखने और जीने के बीच का फर्क कम जाए। जो लिखा जा रहा है और जो जिया जा रहा है, उसके बीच कोई संबंध न हो, लेकिन एक बौद्धिक को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। उसे अधिक से अधिक आदर्श के सांचे गढ़ने के फार्मूले तैयार करने चाहिए क्योंकि उन सांचे पर उन्हें तो ढलना है नहीं। वो तो सांचे इसलिए बना रहे हैं कि उन्हें छोड़ बाकी लोग उस पर ढल जाएं। यानी आज पत्रकारिता में जो अच्छी-अच्छी बातें और मूल्यों से जुड़ी बातें की जा रही हैं, ये उन पर भी लागू हो, ये ज़रूरी नहीं है। सांचे में ढलने के लिए तैयार लोगों को इसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन ऐसा करने में एक दिक्क़त है। इन नामचीन पत्रकारों ने आदर्श के सांचे में ढालने का जो कर्मकांड शुरू किया, उससे कुछ ही दिनों पहले एक दूसरे पत्रकार इससे बिल्कुल अलग सांचे लेकर आम आदमी के बीच आए। एनडीटीवी इंडिया के मुक़ाबला में * आशुतोष* ने साफ कहा कि*मैं (यानी) देश का कोई भी पत्रकार मनुष्य ही है, आम आदमी है, अब लोग हमें भगवान मान ले रहे हैं, तो इसमें हम क्या कर सकते हैं।* आशुतोष का ये सांचा देश के नौजवान पत्रकारों को संभवतः ज़्यादा अपील करती है। आज किसी भी मीडिया संस्थान का पत्रकार, जो अपनी तमाम कमज़ोरियों के साथ पत्रकारिता करना चाहता है, वो इस मुगालते से बाहर आ चुका है कि पत्रकारिता करते हुए कोई महान काम कर रहा है। रोज़ी, रोज़गार, फ्लैट और लंबी गाड़‍ियों के लिए वो भी वैसा ही कुछ कर रहा है, जैसा कि देश के दूसरे प्रोफेशन से जुड़े लोग कर रहे हैं। इन पत्रकारों में न तो महान कहलाने और होने की कोई छटपटाहट है और न ही विशिष्ट होने के नाम पर किसी ऑयवरी टावर में जाकर बैठ जाने की तड़प। इनकी कहीं से इच्छा नहीं है कि समाज में इनके लिए कोई अलग से पांत लगे। मेरी अपनी समझ है कि देश के ऐसे पत्रकार प्रोफेशन के तौर पर महान कहलाये जाने की बेचैनी से ग्रस्त पत्रकारों से ज़्यादा बेहतर काम कर रहे हैं। ब्लॉगिंग करते हुए हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि हमें हिंदी लेखकों की तरह कभी इस मुहावरे का इस्तेमाल करना पड़ जाएगा कि -*अजी, छाप तो देते हैं लेकिन चरन्नी भी नहीं देते।* हमें तो एक लाइन और जोड़ कर कहना पड़ता है - *मत दें चरन्नी, कम से कम बता तो दें कि किस हालत में छाप रहे हैं।* मेनस्ट्रीम मीडिया को लगातार देख रहा हूं कि जहां भी मौका मिलता है, ब्लॉग को गरियाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। ऐसा करते हुए, ब्लॉग को कितनी गंभीरता से पढ़ते और समझते हैं, नहीं कह सकता (हिंदुस्तान के ताज़ा संपादकीय, 29 मार्च को पढ़ कर तो ऐसा ही लगा कि नहीं पढ़ते), लेकिन प्रिंट मीडिया के पाठकों के बीच ब्लॉग की गंदी छवि बनाने में खूब सक्रिय हैं। लेकिन दूसरी तरफ ये भी देख रहा हूं कि अपने अख़बार का कुछ न कुछ स्पेस ब्लॉग और उन पर छपी ख़बरों से भर रहे हैं। पैसे के लिहाज से समझें, तो हर अखबार का पांच से छह हज़ार रुपये हम जैसे ब्लॉगर बचा रहे हैं। इतनी सामग्री किसी फ्रीलांसर की छपती, तो उसे मेहताना देना पड़ता, लेकिन यहां तो बस *तुम हमें पोस्ट दो, हम तुम्हें नाम देंगे* के लोभ पर काम हो जाता है। हम भी हुमक-हुमक कर अख़बार की कटिंग यारों-दोस्तों के बीच घुमाये फिरते हैं। इन्‍हीं सब मसलों पर *अजय ब्रह्मात्मज* सर से मेरी बात हो रही थी... *me: वैसे इस्तेमाल तो हो ही जाते हैं, सही कह रहे हैं आप। ajay: chhapega to achchha hi hai, zyada pathkon tak pahunchenge... hota hai kya, unka to business ho raha hai aur hamara? me: हां ajay: ganesh mantri, dharmyug ke sampadak kahte the - unka commission aur hamara mission... kab tak chalegi patrkarita?* इस बातचीत के दौरान मेरे दिमाग़ में ये सवाल बार-बार घूमता रहा कि आज ये जो नामचीन लोग सच्ची पत्रकारिता औऱ पत्रकारिता को मिशन के तौर पर बताने और स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, कहीं ये पाखंड तो नहीं है। लोगों से इंटरव्यू में बारह सवाल पूछे जा रहे हैं ताकि उनका डीएनए टेस्ट हो सके कि उसमें पत्रकार के जीन हैं भी या नहीं - ये सब तमाशा तो नहीं। बहुत सोच-विचार के बाद अपनी ये समझ बनी कि ये पाखंड नहीं भी है, तो इसके सारे संदर्भ ग़लत हैं। किसी दुकान की ऊंची चौकी पर बैठ कर किसी दुकानदार के लिए ये कहना आसान है कि सामान को हाथ नहीं लगाना। जो लेना है, मुंह से बोलो और संभव है, बेहतर दुकानदारी भी कर जाए। किसी आसन पर बैठे महंत के लिए दर्शन और प्रसाद के लिए मारामारी करते भक्तों को ये कहना आसान है कि एक-एक करके लाइन में आओ और तब भी उसकी तूती बनी रह सकती है। लेकिन महान औऱ सच्ची पत्रकारिता बाज़ार के ऊंचे आसन पर बैठकर करना संभव नहीं है। आज जो संपादक को मैनेजर के दर्जे में ला पटका गया है, उसे दर्जा पाने के लिए फिर आसन से उतरना होगा। इन सब बातों का लब्बोलुआब सिर्फ इतना है कि मोटी पूंजी के दम पर सच्ची पत्रकारिता का दावा करनेवाले नामचीन पत्रकारों को सबसे पहले पूंजी के मिथक को तोड़ना होगा। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि पत्रकार पूंजी का सुख छोड़ कर सड़क पर आ जाए, लेकिन 35 नहीं, 45 करोड़ का बजट (एक पत्रिका का) बताते समय उसे नौसिखुए पत्रकारों के बीच, अपने स्तर पर पत्रकारिता करनेवाले लोगों के बीच ये विश्वास पैदा करने होंगे कि कम या छोटी पूंजी में भी पत्रकारिता की जा सकती है, आज ऐसी कितनी मिसालें हमारे सामने हैं। बिना कहीं से एक रुपये की उम्मीद किये, ख़बरों की ऑथेंटिसिटी के साथ देश के हज़ारों ब्लॉगर अपनी जुबान में जो कुछ लिख-बोल रहे हैं, उन्हें गंभीरता से समझना होगा। सच्ची पत्रकारिता की शुरुआत यहां से शुरू होती है न कि पैदा होने के साथ ही कोई चैनल एडिटिंग मशीन की गोद में जा गिरे। उसके दम पर दिन-रात भूत-प्रेत दिखाए। पाखंड फैलाये और एक दिन चैनल का मालिक घोषणा करे कि हम देशभर से घूमकर आ रहे हैं। अब हम सच्ची पत्रकारिता करने जा रहे हैं। गंगासागर का तीर्थ करके लौटने और ऑडिएंस की नब्ज़ और ज़रूरत को पहचान कर काम करने के बीच फर्क होता है। सच्ची पत्रकारिता परिभाषाओं से नहीं, उसके प्रयोग से विकास पाती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090331/e4eb5b23/attachment-0001.html From indlinux at gmail.com Tue Mar 31 12:54:30 2009 From: indlinux at gmail.com (G Karunakar) Date: Tue, 31 Mar 2009 12:54:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KWN4KS3?= =?utf-8?b?4KSw4KSv4KWL4KSX4KS/4KSo4KWAIOCkq+ClieCkqOCljeCknw==?= Message-ID: <773e2c260903310024h3fe3e077v11f1003a404711ee@mail.gmail.com> दीवान के दिवानों, अक्षरयोगिनी देवनागरी फॉन्ट का नवीन संसकरण, साधारण के अलावा, गाढा(बोल्ड) , तिर्छा (इटैलिक), गाढा+तिर्छा शैली में उपलब्ध है. डाउनलोड यहाँ से करें http://aksharyogini.sudhanwa.com/aksharyogini.html फॉन्ट साभार: सुधनवा जोगलेकर, रवि पांडे यहाँ पे फॉन्ट पर अपना विचार भी लिखते जाएँ http://aksharyogini.sudhanwa.com/guestbook/ करुणाकर From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Mar 31 13:25:00 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 31 Mar 2009 13:25:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJjgpLA=?= Message-ID: <196167b80903310055x3fb7cb67ue9129fe15d5a8c74@mail.gmail.com> दो लफ्ज क्या कभी बिछडे हैं आपके अपने आपसे, क्या कभी टूटा है आपका घर? फिर क्या ख़ाक समझेंगे आप, हमारी तकलीफ, हमारा दर्द. भैया कोसी का घर बारहों मास होत है कांधे पर. -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090331/91b2e076/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Mar 31 13:25:00 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 31 Mar 2009 13:25:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJjgpLA=?= Message-ID: <196167b80903310055x3fb7cb67ue9129fe15d5a8c74@mail.gmail.com> दो लफ्ज क्या कभी बिछडे हैं आपके अपने आपसे, क्या कभी टूटा है आपका घर? फिर क्या ख़ाक समझेंगे आप, हमारी तकलीफ, हमारा दर्द. भैया कोसी का घर बारहों मास होत है कांधे पर. -- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090331/91b2e076/attachment-0001.html From uchaturvedi at gmail.com Wed Mar 25 17:58:06 2009 From: uchaturvedi at gmail.com (umesh chaturvedi) Date: Wed, 25 Mar 2009 17:58:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: article In-Reply-To: <8a9e78f0903180315h2d4466e1sefd8ae436ee8cf55@mail.gmail.com> References: <8a9e78f0903180315h2d4466e1sefd8ae436ee8cf55@mail.gmail.com> Message-ID: <8a9e78f0903250528t7c7b0526ld7204ad300f44966@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: umesh chaturvedi Date: 2009/3/18 Subject: article To: editor.pratham at gmail.com आदरणीय, ब्लॉगिंग पर एक लेख भेज रहा हूं. उम्मीद है पसंद आएगा। -- उमेश चतुर्वेदी -- उमेश चतुर्वेदी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090325/db0c0d56/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: ब्लॉगिंग.doc Type: application/msword Size: 38400 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090325/db0c0d56/attachment-0001.doc