From ravikant at sarai.net Mon Jun 1 13:13:41 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 1 Jun 2009 13:13:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Hindi E-Magazine 31 Issue from BHOPAL Message-ID: <200906011313.43357.ravikant@sarai.net> हिन्दी ई-पत्रिका गर्भनाल के नए-पुराने अंक अब नेट पर. संपादक आत्माराम शर्मा को बधाई. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Hindi E-Magazine 31 Issue from BHOPAL Date: रविवार 31 मई 2009 18:47 From: Atmaram Sharma Dear Friends This is the First Complete Hindi E-Magazine 31 Issue in PDF Format. Link is : http://hinditoolbar.googlepages.com/garbhanal ------------------------------------------------------- From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jun 1 17:34:28 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 1 Jun 2009 17:34:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KSo?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS24KWAIOCkueCliCDgpK/gpL4g4KSu4KSW4KWN4KSW4KSo?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KWA?= Message-ID: <6a32f8f0906010504o4d99e556j341b9d6bb28f2bc7@mail.gmail.com> डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण को लेकर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई निहायत गलत स्टोरी को कई लोग पढ़ना चाह रहे थे। दीवान पर इसे डालना संभव नहीं है। आप khambaa.blogspot.com पर इसे पढ़ सकते हैं। औऱ हां, आपने पिछले पोस्ट में दूसरी जिस स्टोरी की चर्चा पढ़ी थी उसे अगले दिन देख पाएंगे। धन्यवाद -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090601/d5d7e05e/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Jun 2 12:16:08 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 2 Jun 2009 12:16:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSX?= =?utf-8?b?4KWB4KSX4KSyIOCkleCkviDgpJPgpJzgpLzgpL7gpLA=?= Message-ID: <200906021216.10257.ravikant@sarai.net> सौरभ जी, आपको और पंकज बिष्ट को बधाइयाँ. अच्छी शुरुआत है. मैं ये दीवान के और समयांतर के बाक़ी पाठकों तक पहुँचा रहा हूँ. ताकि आपको ज़्यादा फ़ीडबैक मिल सके. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान]गुगल का ओज़ार Date: मंगलवार 02 जून 2009 11:24 From: Saurabh Tripathi To: ravikant at sarai.net प्रिय रवि जी , समयांतर मई का संस्करण नीचे दिए लिंक के द्वारा देखा जा सकता है http://www.samayantar.com/May2009/ समयांतर के नै वेब साईट इस तरह से बनायीं जा रही है शीघ्र ही बाकी संस्करण भी उपलब्ध होंगे ... यह प्रयास कैसा है कृपया सुझाव दें आपका सौरभ 2009/3/21 Ravikant > yahan par kai sare converters ke links hain inko bhi aazma ke dekhein. > > ravikant > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: [दीवान]गुगल का ओज़ार > Date: सोमवार 09 मार्च 2009 17:43 > From: shantanu choudhary > To: deewan at sarai.net > > नमस्कार, > पेश है यह लिन्क, जिसकी मदद से आप पुराने (non standard)फौंट को युनिकोड में > बदल सकते हैं। > (please do convert all your older content to Unicode standard, as it is > followed, used and accepted every-where) > http://groups.google.com/group/technical-hindi/files?pli=1 > Courtesy Bhagwati ji from sarai, who traced and tested it, and as far as > his > feed back goes, it is working prety nice. > आशा है आप के काम आऐगा। > > I am not that efficient and accurate with hindi typing, i am trying to > improve, so please dont mind my mistakes in above content. > > धन्यवाद > शान्तनु > > ------------------------------------------------------- -- Thanks & Regards Saurabh Tripathi ViShESh Technologies 101 A, Pratap Nagar Mayur Vihar Phase1 New Delhi-110 091 Mob No. : +91-9958322588 Ph No. : + 91-11- 22757588 www.vishesh.in ------------------------------------------------------- From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jun 3 03:28:39 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 3 Jun 2009 03:28:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSV4KSk?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkruClh+CkgiDgpJbgpL7gpKjgpKbgpL7gpKg=?= =?utf-8?b?4KWAIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpOCkvyDgpJXgpL4g4KSw4KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KS+4KSc?= Message-ID: <6a32f8f0906021458g3b6d0f9bobf29e0edf62e8686@mail.gmail.com> *लोकतंत्र में खानदानी राजनीति का रिवाज* * * नए जनादेश से जो संप्रग सरकार बनी है उसके चेहरे पर खानदान का अटपटा टीका लगा हुआ है। लोकतंत्र में यह तो नहीं कहा जा सकता कि किसी खानदान को अपनी जगह बनाने का अधिकार नहीं है, लेकिन जिस सरकार के आधे से ज्यादा मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हों उसे खानदानी मंत्रिमंडल ही माना जाएगा। दूसरे शब्दों में ऐसा मंत्रिमंडल सामंती लोकतंत्र की मिशाल कहा जाएगा। जिस नए-पुराने चेहरों ने सरकार में जगह पाई है उनका एक ही सदगुण पहचाना जा सकता है कि वे किसी बड़े बाप के बेटे या बेटी हैं। जिन्हें जन्मजात राजनीति घुट्टी मिली हुई है, उन्हें लोकतंत्र का पोलियो बूंद नहीं चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का उपहास है या उसकी ताकत ? इसका जवाब वे भी देने में असमर्थ हो जाएंगे और उनकी बोलती बंद हो जाएगी जो खानदान की डोर पकड़कर पहले संसद में पहुंचे और अब सरकार में जम गए हैं। जाने-माने पत्रकार *सुरेंद्र किशोर* ने आजादी के बाद की राजनीति के अज्ञात पन्नों से खोज कर अपने विश्लेषण में बताया है कि खानदानी राजनीति का रिवाज कब और कैसे शुरू हुआ। उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं कि एक बार ढलान पर कदम रखने के बाद निरंतर फिसलते जाने की कहानी कौन-कौन सी है। संभवतः वे अपने किसी दूसरे लेख में यह भी बताएंगे कि जो शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा के लिए की थी उसका सिलसिला तब से है जब ऐसी ही कोशिश आजादी की लड़ाई के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू ने की थी। पर तब बात कुछ और ही थी। *सुरेंद्र किशोर* के लेख का पहला पारा कुछ इस प्रकार है। *“*ताजा करुणानिधि प्रकरण राजनीति में परिवारवाद की बुराइयों की पराकाष्ठा है। अब किसी नेता के किचेन से भी यह तय हो रहा है कि केंद्र में किसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। मध्य युग के राजतंत्र में भी ऐसा कम ही होता था। इससे पहले लालू प्रसाद ने जब अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था तो अनेक लोग सन्न रह गए थे। पता नहीं इस डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी के युग में इस देश को आगे और क्या-क्या देखना पड़ेगा।*”* ** *पूरा लेख जल्द ही आपके नजर होगा।* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090603/dc7a932f/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jun 3 03:35:51 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 3 Jun 2009 03:35:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSf4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KS+LeCkteCkv+Ckn+CkvuCkqCDgpKbgpLDgpY3gpKYg4KSm4KWH?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkteCkvuCksuClgCDgpKrgpY3gpLDgpJXgpY3gpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: <6a32f8f0906021505l411a9434y61482f8a75c7e58e@mail.gmail.com> आगे आकर कुछ ऐसा लिखने की आदत नहीं जिसे आखिरकार मिटाना पड़े। क्योंकि सीखा यही है कि मिटाना-विटान दरअसल, इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है। वह भी किसी पत्रकार के लिए। यह बड़े शिद्दत से महसूस करता हूं। ऐसे में जब किसी पत्रकार की पूरी खबर ही मिटा दी जाए तो कैसा लगे ! अंदाजा लगाइये। जिस खबर को अरुण आनंद जी के कहने पर मिटाया गया था उसे आप khambaa.blogspot.com पर पढ़ सकते हैं। कहानी भी साथ है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090603/a487d3b4/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Jun 3 14:41:10 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 3 Jun 2009 14:41:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkluCkv+CksuCkvuCkqyDgpIXgpLXgpL7gpK46IOCkiOCktg==?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KSwIOCkpuCli+CkuOCljeCkpA==?= Message-ID: <200906031441.11403.ravikant@sarai.net> शायद आपने इसे जनसत्ता में पढ़ा हो. पर लेख वाक़ई अच्छा है, लिहाज़ा दीवान के अभिलेखागार में भी रहे तो बेहतर. लेख पर टिप्पणियाँ देखने के लिए कड़ी देखें. क़ाफ़िला से साभार: http://kafila.org/2009/05/27/%e0%a4%b5% वाम के खिलाफ अवाम: ईश्वर सिंह दोस्त एक वक़्त था जब नंदीग्राम माकपा के बर्ताव से अचंभे और सदमे में था। आज पूरे बंगाल में बुरी तरह खारिज कर दिए जाने पर माकपा की यही स्थिति है। कभी नंदीग्राम पीड़ित के रूप में उभरा था, आज माकपा और उसके साथ और पीछे खड़ी पार्टियों की पीड़ा समझी जा सकती है। नंदीग्राम और सिंगूर के एक स्थानीय घटना बन कर रह जाने की माकपाई उम्मीद अचानक खत्म हो गई। नतीजे बताते हैं कि नंदीग्राम की पीड़ा के साथ बंगाल के देहात ने ही नहीं, शहर कोलकाता ने भी साझा किया है। किसानों के साथ हुए हिंसक सलूक से कोलकाता के बुद्धिजीवी ही नहीं, आम लोग भी हिल गए थे। नंदीग्राम अब माकपा की पीड़ा और छटपटाहट को समझ सके, इसमें शायद काफी देर हो गई है। ऐसा कभी हो सके, इसके लिए माकपा और उसके पीछे चलने वाली पार्टियों को सारे अहंकार छोड़ कर एक पुरानी पीढ़ी के किसी कम्युनिस्ट की तरह नंदीग्राम तक सिर झुकाए आना होगा। सत्ता और सफलता का अहंकार पीड़ा को समझने और उससे जुड़ने की क्षमता नष्ट कर देता है। इस अहंकार ने कम्युनिस्टों की एक वक्त की नैतिक, ईमानदार और जज्बाती होने की पहचान को कमजोर कर दिया है। इस लोकसभा चुनाव में बंगाल के भीतर वामपंथी पार्टियां हारी हैं, लेकिन वाम रुझान नहीं हारा है। यह विचारधारा की नहीं, माकपा की हार है। विचारधारा को वह कहीं पीछे छोड़ कर बहुत आगे नि कल आई है। नवउदारवादी भूमि अधिग्रहण का विरोध कर, किसानों के हितों की चैंपियन बन और रा जकीय हिंसा के खिलाफ खड़ी होकर ममता बनर्जी ने बंगाल में वही भूमिका ले ली, जो कभी वाम मोर्चे की थी। वाम मोर्चे के लिए ज्योति बसु के मुख्यमंत्री रहने तक सामाजिक न्याय का सवाल औद्यो गीकरण से ज्यादा अहम रहा। इसीलिए मोर्चा पूरी कोशिश के बावजूद बंगाल में उद्योगों के न पनपने का ठीकरा ममता के नेनो विरोध के ऊपर नहीं फोड़ सका। 1977 में बंगाल की जनता ने वाम मोर्चे को सत्ता में पहुंचाया था तो कम्युनिस्ट क्रांति के लिए नहीं, बल्कि भूमि सुधार, सामाजिक न्याय और मजदूर-किसान के जीवन की बेहतरी के सामाजिक-जनवादी एजेंडे के लिए। माकपा और सहयोगी पार्टियों के नाम में भले कम्युनिस्ट जुड़ा हुआ हो, लेकिन वे बंगाल में जिस वाम जगह को घेरती हैं, उसकी अंतर्वस्तु कम्युनिस्ट नहीं है। यह अंतर्वस्तु पूंजीवादी या सामा जिक जनवादी ही है। यही माकपा का पार्टी कार्यक्रम कहता है। यही तर्क माकपा के एक पैरवीकार प्रभात पटनायक ने ‘इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली’ में बुद्धदेव का बचाव करते हुए दि या था। वाम ने नवउदारवाद की तरफ छलांग लगाते हुए सामाजिक जनवादी अंतर्वस्तु वाली जिस वाम जगह को खाली किया, धीरे-धीरे वह जगह ममता ने भर दी। माकपा ने अपने ग्रासरूट या तृणमूल को छोड़ कांग्रेस की भूमिका में आना चाहा तो तृणमूल कांग्रेस वाम भूमिका में चली गई। सभाओं में ममता ने कहा भी कि हम असली वाम हैं, और माकपा नकली। वहीं रतन टाटा के प्रमाणपत्र और नेनो की छवि को लेकर घूम रहा वाम मोर्चा मतदाता को तृणमूल के असली पूंजीवादी होने और अपने नकली या रणनीतिक रूप से पूंजीवादी होने के भेद का कायल नहीं कर सका। वह नहीं समझा पाया कि वाम मोर्चे का नवउदारवादी पूंजीवाद ममता या मनमोहन के नवउदारवादी पूंजीवाद से कैसे बेहतर है। मतदाता नवउदारवाद को लेकर माकपा के दिल्ली में अलग और कोलकाता में अलग सुर को नहीं बूझ सका। सिंगूर और नंदीग्राम के स्थानीय मुद्दे बने रहने का मोर्चे को भरोसा था। सोचा था कि आग पीड़ित किसानों और गांवों तक ही फैलेगी, और बाकी जगहों का किसान बुद्धदेव के चेहरे के आर-पार ज्योति बसु के चेहरे का दर्शन करता रहेगा और आज के वाम में आपरेशन बर्गा के वाम को पाता रहेगा। भूमि सुधार की जिस जमीन पर वाम मोर्चा खड़ा था, वह स्थानीय मुद्दा नहीं, पूरे बंगाल के लिए भावना त्मक मुद्दा साबित हुई। शहर की जनता तीस साल बाद हिंसा और दर्प के प्रदर्शन से हिल गई। कामरेड द्वंद्ववाद को भूल गए, मगर जनता नहीं भूली। उसने देख लिया कि न तो वाम वह पुराना वाम है और न ममता पुरानी ममता हैं। कभी हेगेल ने इसी द्वंद्ववादी प्रक्रिया को ‘विरोधियों के अंतर्वेधन’ का नाम दिया था। अगर आने वाले दिनों में बंगाल की यह वाम जगह नहीं बदली तो ममता तब तक ही टिक पाएंगी, जब तक वे वाम मुद्दों को उठाती और आगे बढ़ाती रहें। लगता नहीं कि वा मपंथ के लिए पिछले तीस सालों से मतदान करते आ रहे लोगों को तृणमूल कांग्रेस को लेकर कोई भ्रम है। वे जानते हैं कि ममता वामपंथी नहीं हैं, महज वाम भूमिका में हैं, जिस तरह वाम मोर्चा कम से कम बंगाल के भीतर वाम भूमिका छोड़ चुका है। वाम मोर्चे की हार का संकेत तभी मिल गया था जब सस्ते राशन की दुकानों पर काबिज वाम काडरों के खिलाफ बंगाल भर में प्रदर्शन हुए। नंदीग्राम के बाद हुए पंचायत चुनाव में वाम मोर्चे के हाथ से करीब तीस फीसद पंचायतें निकल गई थीं। फिर भी मोर्चे को बंगाल के लाल दुर्ग के बरकरार रहने का यकीन था तो इसकी वजह यह थी कि राज्य में ममता की छवि ऐसे लड़ाकू लेकिन अपरिपक्व नेता की थी जिसके पास कोई वैकल्पिक कार्यक्रम न हो। ममता कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा से समझौता कर अपनी जगहंसाई करा चुकी थीं। बंगाली समाज में बुद्धिजीवियों की विशेष जगह है और इनमें से ज्यादा तर या तो वाम मोर्चे के साथ थे या उनके मानस को वामपक्षी कहा जा सकता था। नंदीग्राम की घटनाओं के निरंतर विरोध के बाद और वाम मोर्चे के वज्र अहंकार के चलते धीरे-धीरे कलाकारों, साहित्यकारों और अन्य बुद्धिधर्मियों की एक नई गोलबंदी उभरने लगी। वाम मोर्चा नैतिक और बौद्धिक दोनों धरातलों पर कमजोर पड़ता गया और ममता की नई छवि बनने लगी। वाम मोर्चा ग्रामीण गरीबों के वोट से ही नहीं, 1977 के बाद से अपने साथ रहे मुसलिम समुदाय के वोटों से भी हाथ धो बैठा। मुसलिम किसी मजहबी वजह से नहीं, बल्कि खालिस सेकुलर वजहों से वा म मोर्चे से दूर गए। ग्रामीण मुसलिमों की नाराजगी का एक कारण नंदीग्राम था। इसी बीच आई सच्चर समिति की रिपोर्ट से सामने आया कि बंगाल की पच्चीस फीसद आबादी होते हुए भी सरकारी नौकरियों में वे करीब चार फीसद ही हैं। दलित और पिछड़े मुसलमानों की गुजरात और कर्नाटक तक से खराब हालत एक बड़ा मुद्दा बन गई। वाम मोर्चा तब भी अमेरिका विरोध और तसलीमा को बंगाल में रहने की इजाजत नहीं देने जैसे जज्बाती मुद्दों के भरोसे रहा। रिजवानुर की हत्या के मामले को राज्य सरकार ने जिस तरह लिया, उसने सभी समुदायों के लोगों को नाराज कर दिया। एक बार विभिनन तबकों के नाराज होने का सिलसिला शुरू हुआ तो यह संथाल परगना के आदिवासियों तक गया। माकपा के सहयोगी दलों ने उसकी आलोचना की भी तो आधे-अधूरे रूप से ही। ये दल सत्ता के व्यवहारवादी तकाजे के चलते माकपा के तर्कों को भुनभुनाते हुए मानते रहे। माकपा के भीतर हार के जिन कारणों पर चर्चा हो रही है, जरा उन पर गौर करें। जो करात के प्रति मुलायम हैं, वे राज्य संगठन की नाकामी और दबी जुबान में नंदीग्राम और सिंगूर को हार का बड़ा कारण मान रहे हैं। जो बुद्धदेव के साथ हैं वे करात के कांग्रेस से समर्थन वापस लेने को सबसे बड़ी वजह बता रहे हैं। यह सही है कि समर्थन वापसी ने कांग्रेस और तृणमूल के गठबंधन का रास्ता साफ कर दिया था, जो पहले से कमजोर हाल वाम मोर्चे पर भारी पड़ा। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि देश भर में कांग्रेस के पक्ष में लहर बनने की वजह से ही वाम मोर्चे को बंगाल में नुकसान हुआ। आखिर ऐसा नुकसान जद (एकी) को बिहार में और बीजू जनता दल को ओडीशा में क्यों नहीं हुआ? वाम मोर्चे का केंद्र में यूपीए सरकार की साढ़े चार साल तक की स्थिरता और रोजगार गारंटी यो जना, सूचना के अधिकार और वनाधिकार अधिनियम जैसे प्रगतिशील कदमों में योगदान था, लेकिन वह समर्थन वापसी के बाद इनका श्रेय लेने की हालत में नहीं रह गया। वाम मोर्चे ने कांग्रेस की सामाजिक जनवादी छवि को बनाने में तो योगदान किया, मगर खुद नवीन पटनायक और चंद्रबाबू नायडू जैसे पक्के नवउदारवादी चेहरों के साथ खड़े होकर अपनी साख खराब कर ली। यह वाम राजनीति के भा जपा-विरोध और अमेरिका-विरोध तक सिमट जाने का नतीजा है। महामंदी के चलते कई राष्ट्रों में वा मपंथी उभार आया है, मगर भारत में वाम को 2004 की ऊंचाई से 2009 के पराभव का सामना करना पड़ा है तो इसकी एक वजह नवउदारवाद की बाबत उसका अंतर्विरोधी रवैया ही है। अवाम और वाम के बीच दूरी बढ़ती जा रही है, यह तो पता था, मगर इतनी बढ़ जाएगी, यह ज्यादा तर वामपंथी नेताओं ने नहीं सोचा होगा। इसलिए वे निराश हैं, अचंभे में हैं। अचंभे का यह भाव बताता है कि ये नेता जनता से ही नहीं, व्यापक वामपंथ के भीतर ही मौजूद स्थितियों के वैकल्पिक विश्लेषण तक से कट गए थे। अपनी आलोचनाओं को गंभीरता से लेने का माद्दा खो बैठे थे। किसी के वाहन के पहिए बाहर निकलने को हों और उसे राह चलते लोग चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे हों कि भाई तुम्हारी गाड़ी में फलानी गड़बड़ है। तब गाड़ी के चालक और उसमें बैठे लोग ऐसे हमदर्दों को धन्यवाद देने के बजाय गाली-गलौज करने लगें तो उस गाड़ी का देर-सबेर हादसे का शिकार होना तय है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथ के साथ ऐसा ही हुआ है। पिछले तीन सालों में अनेक वाम बुद्धिजीवियों ने वामपंथी पार्टियों के भटकाव की विशद आलोचना पेश की। इससे कुछ सबक लेने और विनम्रता के साथ आत्मालोचन करने के बजाय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इन बुद्धिजीवियों के चरित्र हनन की कोशिश की। उन्हें बुर्जुआ या साम्राज्यवादी एजेंट तक कहा गया। जबकि इन बुद्धिजीवियों में से ज्यादातर माकपा से इसलिए खफा थे कि वह सामा जिक न्याय और किसान-मजदूर हितों को छोड़ कर उद्योगीकरण के नवउदारवादी रास्ते पर चलने लगी थी और जनता पर राजकीय हिंसा न करने के वाम नैतिक धरातल को उसने छोड़ दिया था। इनमें से कई माकपा में कभी नहीं रहे, लेकिन कुछ ऐसे थे जो नंदीग्राम के पहले तक माकपा के साथ रहे। माकपा ने अपने अनगिनत समर्थकों को महज अहंकार के चलते गंवाया। जो माकपा की हर नीति से सहमत नहीं था, वह वर्ग शत्रु, गद्दार या प्रतिक्रियावादी एजेंट हो गया। आज वाम नेता जिस नतीजे पर चौंक रहे हैं, उसकी चेतावनी पिछले तीन सालों से अ नगिनत लेखों में मिलती है। अब अगर पोलिट ब्यूरोक्रेट हार के कारणों को वास्तव में समझना चाहते हैं तो वे ईपीडब्ल्यू, मेनस्ट्रीम जैसी पत्रिकाओं और सन्हति व काफिला जैसै ब्लागों के सैंकड़ों पन्नों में मौ जूद वामपंथ के जनता से कटने के कारणों का विशद विश्लेषण पढ़ सकते हैं। माकपा के नेता दीवार पर साफ-साफ लिखी इबारत को पढ़ने में चूक गए, तो उसकी वजह उनमें पनप आया ऐतिहासिक अहंकारवाद है, जो अपने हर आलोचक को षड्यंत्रकारी की तरह देखता है। उसे खारिज करता है। उसका मजाक उड़ाता है। आलोचक होते हुए माकपा का हमदर्द नहीं रहा जा सकता। कोई रहने को आमादा ही हो तो उसे माकपा का तिरस्कार झेलते हुए उसका हमदर्द बने रहना होगा। जो माकपा ब्रांड वामपंथ से सहमत नहीं है, वह बुर्जुआ एजेंट है। पर वह माकपा में या उसके साथ है तो पूंजीवाद की वकालत और पूंजीवादी पार्टियों से गलबहियां करते हुए भी चौबीस करात (कैरेट) का कम्युनिस्ट है। ऐतिहासिक अहंकारवाद की बीमारी के शिकार लोगों को अवाम से ज्यादा समझदार होने के बारे में और अवाम से ज्यादा उसके हित समझने को लेकर आत्मविश्वास होता है। इसलिए हो सकता है कि वाम इसे अवाम के भटकने की एक और मिसाल मान ले और उम्मीद करे कि जनता कभी न कभी सत्य को प्राप्त कर उसके पाले में लौट आएगी। [ यह लेख पहले जनसत्ता में छपा था। ] Posted in Bad ideas, Debates, Left watch, Politics | Tags: ईश्वर दोस्त, द्वन्द्ववा द, नन्दीग्राम, नवउदारवाद, माकपा « From dangijs at gmail.com Thu Jun 4 12:33:28 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Thu, 4 Jun 2009 03:03:28 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Remington Based Unicode Typing Tool--- Message-ID: <1662afad0906040003tbf66af8o43cfca986ef0400c@mail.gmail.com> Jai Hind Sir, I feel very glad to bring your kind notice that I have developed a unique Hindi software under the title "Prakhar Devanagari Lipik" for the typing in Unicode based Hindi/Sanskrit/Marathi (Devanagari Script) languages in Remington keyboard layout. Yesterday the same software is launched in public domain for demonstration, which is coveraged by Hindi media from Mumbai. For News coverage please visit the link below:- http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=6602&Itemid=139 For demonstration of the new software please visit the link below:- http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html Importance of this software:- Earlier for typing Unicode based Devanagari matters there are only two methods available. First is In-Script and Second is Phonetic English. Most of the Hindi typist in our country used Remington keyboard for typing Hindi, but for Unicode based typing there was no Remington keyboard available. So they had to learn new typing method such as In-Script or Phonetic, but both of them are very difficult to learn specially for Remington keyboard users. Special features of the new software:- Ø This new software is very useful for those users who are habitual in Remington keyboard using ASCII/ISCII Fonts for typing in Devanagari Script (Hindi, Marathi, Sanskrit etc.). Ø Also the matters written using this software can be searched on net using any search engine which was not possible earlier in case of ASCII/ISCII font based matters. Ø This new software also reduces typing complexity and increases accuracy. http://www.4shared.com/get/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html http://www.4shared.com/get/107234603/1eb7eb59/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html Thanking You With Warm Regards Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm From dangijs at gmail.com Thu Jun 4 13:10:02 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Thu, 4 Jun 2009 03:40:02 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Remington Based Unicode Typing Tool... In-Reply-To: <1662afad0906040016u3ebcc7a2wa1797c4d804b9a91@mail.gmail.com> References: <1662afad0906040016u3ebcc7a2wa1797c4d804b9a91@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0906040040t25880d9fs945bb03b2c616c36@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Jagdeep Dangi Date: Thu, 4 Jun 2009 03:16:46 -0400 Subject: Remington Based Unicode Typing Tool... To: ravikant at sarai.net Jai Hind Sir, I feel very glad to bring your kind notice that I have developed a unique Hindi software under the title "Prakhar Devanagari Lipik" for the typing in Unicode based Hindi/Sanskrit/Marathi (Devanagari Script) languages in Remington keyboard layout. Yesterday the same software is launched in public domain for demonstration, which is coveraged by Hindi media from Mumbai. For News coverage please visit the link below:- http://nukkadh.blogspot.com/2009/05/blog-post_28.html http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=6602&Itemid=139 For demonstration of the new software please visit the link below:- http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html Importance of this software:- Earlier for typing Unicode based Devanagari matters there are only two methods available. First is In-Script and Second is Phonetic English. Most of the Hindi typist in our country used Remington keyboard for typing Hindi, but for Unicode based typing there was no Remington keyboard available. So they had to learn new typing method such as In-Script or Phonetic, but both of them are very difficult to learn specially for Remington keyboard users. Special features of the new software:- Ø This new software is very useful for those users who are habitual in Remington keyboard using ASCII/ISCII Fonts for typing in Devanagari Script (Hindi, Marathi, Sanskrit etc.). Ø Also the matters written using this software can be searched on net using any search engine which was not possible earlier in case of ASCII/ISCII font based matters. Ø This new software also reduces typing complexity and increases accuracy. http://www.4shared.com/get/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html http://www.4shared.com/get/107234603/1eb7eb59/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html Thanking You With Warm Regards -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm From miyaamihir at gmail.com Sat Jun 6 14:27:40 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sat, 6 Jun 2009 14:27:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCc4KSu4KWI4KSC?= =?utf-8?b?IOCkluCkvuCkruCli+CktuClgCDgpJXgpYAg4KSu4KWM4KSkIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkruCksOCkqOCkviDgpJrgpL7gpLngpKTgpL4h4oCd?= =?utf-8?b?IH7gpKrgpYDgpK/gpYLgpLcg4KSu4KS/4KS24KWN4KSw4KS+Lg==?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, आप पीयूष मिश्रा के साथ इस पूरी बातचीत को वीडियो फ़ॉरमैट में www.mihirpandya.com पर देख सकते हैं. लिखा हुआ माल मैं साक्षात्कारकर्ता वरुण की भूमिका के साथ यहाँ नकलचेपी कर रहा हूँ. ...मिहिर. “मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता!” ~पीयूष मिश्रा. *पीयूष मिश्रा* से मेरी मुलाकात भी अनुराग कश्यप की वजह से हुई. पृथ्वी थियेटर पर अनुराग निर्मित पहला नाटक ‘स्केलेटन वुमन’ था और पीयूष वहीं बाहर दिख गए. मैंने थोड़ा जोश में आकर पूछ लिया कि आपका इंटरव्यू कर सकता हूँ एक हिंदी ब्लॉग के लिए - साहित्य, राजनीति और संगीत पर बातें होंगी. उन्होंने ज़्यादा सोचे बिना कहा - परसों आ जाओ, यहीं, मानव (कौल) का प्ले है, उससे पहले मिल लो. बातचीत बहुत लंबी नहीं हुई पर पीयूष जितना तेज़ बोलते हैं, उस हिसाब से बहुत छोटी भी नहीं रही. उनके गीतों का रेस्टलेसनेस उनके लहज़े में भी दिखा और उनके लफ्ज़ों में भी. ये तो नहीं कहा जा सकता कि वो पूरे इंटरव्यू में ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहे पर कुछ जगहों पर कोशिश ज़रूर नज़र आई. पर बातचीत का अंतिम चरण आते आते उन्होंने खुद को बह जाने दिया और थियेटर-वाले पाले से भी बात की, जबकि बाकी के ज़्यादातर सवालों में वो यही यकीन दिलाते दिखे कि अब पाला बदल चुका है. लिखित इंटरव्यू में वीडियो रिकार्डेड बातचीत के ज़रूरी सवालों का जोड़ है, पर पूरा सुनना हो तो वीडियो ही देखें. पृथ्वी थियेटर की बाकी टेबलों पर चल रही बहस और बगल में पाव-भाजी बनाते भाई साब की बदौलत कुछ जगहों पर आवाज़ साफ नहीं है. ऐसे ‘गुम’ हो गए शब्दों का अंदाज़न एवज दे दिया है, या खाली डॉट्स लगा दिए हैं. मैं थोड़ा नरवस था, और कुछ जगहों पर शायद सवालों को सही माप में पूछ भी नहीं पाया, पर शुक्रिया पीयूष भाई का कि उन्होंने भाव भी समझा और विस्तार में जवाब भी दिया. समाँ बहुत बाँध लिया, अब लीजिए इंटरव्यू:- ~*वरुण ग्रोवर * *वरुण~* आपका अब भी लेफ्ट विचारधारा से जुड़ाव है? *पीयूष~* (लेफ्टिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि) परिवार के लिए कम्प्लीटली गैर-ज़िम्मेदार हो जाओ. लेफ्ट बहुत अच्छा है एक उमर तक… उसके बाद में लेफ्ट आपको… या तो आप लेफ्टिस्ट हो जाओ… लेफ्टिस्ट वाली पार्टी में मिल जाओ… तब आप बहुत सुखी… (तब) लेफ्ट आपके जीवन का ज़रिया बन सकता है. और अगर आप लेफ्ट आइडियॉलजी के मारे हो… तो प्रॉब्लम यह है कि आप देखिए कि आप किसका भला कर रहे हो? सोसाइटी का भला नहीं कर सकते, एक हद से आगे. सोसाइटी को हमारी ज़रूरत नहीं है. कभी भी नहीं थी. आज मैं पीछे मुड़ के देखता हूँ तो लगता है कि (लेफ्ट के शुरुआती दिनों में भी) ज़िंदा रहने के लिए, फ्रेश बने रहने के लिए, एक्टिव रहने के लिए (ही) किया था तब… बोलते तब भी थे की ज़माने के लिए सोसाइटी के लिए किया है. *वरुण*~ तो अब पॉलिटिक्स से आपका उतना लेना देना नहीं है? *पीयूष~* पॉलिटिक्स से लेना देना मेरा… तब भी अंडरस्टैंडिंग इतनी ही थी. मैं एक आम आदमी हूँ, एक पॉलिटिकल कॉमेंटेटर नहीं हूँ कि आज (…..) आई विल बी ए फूल टू से दैट आई नो सम थिंग! पहले भी यही था… हाँ लेकिन यह था कि जागरूक थे. एज़ पीयूष मिश्रा, एज़ अन आर्टिस्ट उतना ही कल था जितना कि आज हूँ. (अचानक से जोड़ते हैं) पॉलिटिक्स है तो गुलाल में! *वरुण*~ हाँ लेकिन जो लोग ‘एक्ट वन’ को जानते हैं, उनका भी यह कहना है कि ‘एक्ट वन’ में जितना उग्र-वामपंथ निकल के सामने आता था, ‘एक्ट वन’ की एक फिलॉसफी रहती थी कि थियेटर और पॉलिटिक्स अलग नहीं हैं, दोनों एक ही चीज़ का ज़रिया हैं. *पीयूष~* ठीक है, वो ‘एक्ट वन’ हो गया. ‘एक्ट वन’ ने बहुत कुछ सिखाया. ‘एक्ट वन’ (की) ‘सो कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिसी ने बहुत कुछ दिया है मुझको. (लेकिन) उससे मन का चैन चला गया. ‘एक्ट वन’ ने (जीना) सिखाया… ‘एक्ट वन’ की जो ‘सो-कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिटिक्स है, यह, मेरा ऐसा मानना है की इनमें से अधिकतर लोग जो हैं तले के नीचे मखमल के गद्दे लगाकर पैदा होते हैं. वही लोग जो हैं वामपंथ में बहुत आगे बढ़ते हैं. अदरवाइज़ कोई, कभी कभार, कुछ नशे के दौर में आ गया. (कोई) मारा गया सिवान में! अब सिवान कहाँ पर है, लोगों से पूछ रहे हैं…सफ़दर हाशमी मारा जाता है, तहलका मच जाता है, ट्रस्ट बन जाते हैं, ना मालूम कौन कौन, (जो) जानता नहीं है सफ़दर को, वो जुड़ जाता है और वहाँ पर मंडी हाउस में… फोटो छप रहे हैं, यह है, वो है… सहमत! चंद्रशेखर को याद करने के लिए पहले तो नक़्शे में सिवान को देखना पड़ेगा, है कहाँ सिवान? कौन सा सिवान? कैसा सिवान? कौन सा चंद्रशेखर? सफ़दर के नाम से जुड़ने के लिए ऐसे लोग आ जाते हैं जो जानते नहीं थे सफ़दर को… सफ़दर का काम, सफ़दर का काम… क्या है सफदर का काम? मैं उनकी (सफ़दर की) इन्सल्ट नहीं कर रहा… ऐसे ऐसे काम कर के गए हैं की कुछ कहने की… खामोशी की मौत मरे हैं. मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता! थियेटर वाले की जवानी बहुत खूबसूरत हो सकती है, थियेटर वाले का बुढ़ापा, हिन्दुस्तान में कम से कम, मैं नहीं समझता कि कोई अच्छी संभावना है. अधिकतर लोग सीनाइल (सठिया) हो जाते हैं. अचीवमेंट के तौर पर क्या? कुछ तारीखें, कुछ बहुत बढ़िया इश्यूस भी आ गये… कर तो लिया यार… अब कब तक जाओगे चाटोगे उसको? चार साल पहले जब मैं दिल्ली जाया करता था तो मेरा मोह छूटता नहीं था, मैं जाया करता था वहाँ पर जहाँ मैं रिहर्सल करता था… शक्ति स्कूल या विवेकानंद. ज़िंदगी बदल गई यार, दैट टाइम इज़ गॉन! अच्छा टाइम था, बहुत कुछ सिखाया है, बहुत कुछ दिया है, इस तरह मोह नहीं पालना चाहिए. *वरुण*~ एन. के. शर्मा जी अभी भी वहीं हैं, उनके साथ के लोग एक-एक कर के यहाँ आते रहे, मनोज बाजपाई, दीपक डोबरियाल… उनका क्या व्यू है, थियेटर से निकलकर आप लोग सिनिमा में आ रहे हैं? *पीयूष~* एन. के. शर्मा जी का व्यू अब आप एन. के. शर्मा से ही पूछो. उनका ना तो मैं स्पोक्स मैन हूँ… उनसे ही पूछो! *वरुण*~ बॉम्बे में एक ऑरा है उनको लेकर… वो लोगों (एक्टर्स) को बनाते हैं. *पीयूष~* टॉक टू हिम… टॉक टू हिम! *वरुण*~ आप खुद को पहले कवि मानते हैं या एक्टर? *पीयूष~* ऐसा कुछ नहीं है. *वरुण*~ बॉम्बे में आप खुद को आउट-साइडर मानते हैं? *पीयूष~* कैसे मानूँगा? मेरी जगह है यह. मेरा बच्चा यहाँ पैदा हुआ है. कैसे मानूँगा मैं? (इसके अलावा भी काफी कुछ कहा था इस बारे में, वीडियो में सुन सकते हैं.) *वरुण*~ लेकिन आउटसाइडर इन द सेन्स, मैं प्रोफेशनली आउटसाइडर की बात कर रहा हूँ. जिसमें थियेटर वालों को हमेशा थोड़ा सा सौतेला व्यवहार दिया जाता है यहाँ पर. *पीयूष~* नहीं नहीं. उल्टा है भाई! थियेटर वालों को बल्कि… *वरुण*~ स्टार सिस्टम ने कभी थियेटर वालों को वो इज़्ज़त नहीं दी… *पीयूष~* हाँ… स्टार सिस्टम अलग बात है. स्टार सिस्टम की जो ज़रूरत है वो… थियेटर वालों को मालूम ही नहीं कि बुनियादी ढाँचा कैसे होता है. मैं तो बड़ा सोचता था कि खूबसूरत बंदे थियेटर पैदा क्यूँ नहीं कर पाया. मैं समझ ही नहीं पाया आज तक! थियेटर वाले होते हैं, मेरे जैसी शकल सूरत होती है उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं है… आज… नसीर हैं, ओम पुरी हैं… पंकज कपूर… दे आर रेकग्नाइज़्ड, अनुपम खेर हैं… *वरुण*~ नहीं वह बात है कि उनको इज़्ज़त ज़रूर मिलती है लेकिन उनको इज़्ज़त दे कर पेडेस्टल पे रख दिया जाता है लेकिन उससे आगे बढ़ने की कभी भी शायद… *पीयूष~* आगे बढ़ने की सबकी अपनी अपनी क़ाबिलियत है. और जितना आगे बढ़ना था, जितना सोच के नहीं आए थे उससे आगे बढ़े ये लोग. पैसे से लेकर नाम तक. इससे बेहतर क्या लोगे आप. *वरुण*~ पुराने दिनों के बारे में, ख़ास कर के ‘एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा’ होता था… *पीयूष~* तीन प्लेज़ थे एक-एक घंटे के. पहला ’दूसरी दुनिया’ था निर्मल वर्मा साब का, दूसरा ’वॉटेवर हैपंड टू बेट्टी लेमन’ (अरनॉल्ड वास्कर का), तीसरा विजयदान देथा का ‘दुविधा’. तब पैसे नहीं थे, प्लेटफॉर्म था नहीं… आउट ऑफ रेस्टलेसनेस किया था. वह फॉर्म बन गया भई की नया फॉर्म बनाया है. फॉर्म-वार्म कुछ नहीं था. ‘एक्ट वन’ मैंने जब छोड़ा था ‘95 में, ऑलमोस्ट मुझे लगा था की मैं ख़तम हो गया. ‘एक्ट वन’ वाज़ मोर लाइक ए फैमिली. और वहाँ से निकलने के बाद यह नई चीज़ आई. *व**रुण*~ (असली सवाल पर आते हुए) मेरे लिए ज़्यादा फैसिनेटिंग यह था कि उसकी ब्रान्डिंग, सेलिंग पॉइंट था आपका नाम. 1996 में दिल्ली में आपके नाम से प्ले चल रहा था, कहानियों के नाम से या लेखक के नाम से या नाटक के नाम से नहीं, आपके नाम से परफॉर्मेन्स हो रही थी. बॉम्बे ने अब जा कर रेकग्नाइज़ किया है… *पीयूष~* ‘झूम बराबर झूम’ में काम किया, वो चल नहीं पाई. ‘मक़बूल’ में काम किया, उसका ज़्यादा श्रेय पंकज कपूर और इरफ़ान को मिला… वो भी अच्छे एक्टर हैं… पर पता नहीं कुछ कारणों से, ‘मक़बूल’ में बहुत तारीफ़ के बावजूद रेकग्निशन नहीं मिला. ‘आजा नच ले’ में काम किया, उसका लास्ट का ओपेरा लिखा… ऐसा हुआ कि बस यह फिल्म (गुलाल) बड़ी ब्लेसिंग बन कर आई मुझ पर. जितना काम था, सब एक साथ निकालो. लोग रेस्पेक्ट करते थे… जानते थे भाई यह हैं पीयूष मिश्रा. लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा, यह नहीं सोचा था. *वरुण*~ गुलाल की बात करें तो… उसमें यह दुनिया अगर मिल भी जाए है, बिस्मिल की नज़्म है, कुछ पुराने गानों में भी री-इंटरप्रेटेशन किया है. इस सब के बीच आप मौलिकता किसे मानते हैं? *पीयूष~ *एक लाइन ली है… एक लाइन के बाद तो हमने सारा का सारा री-क्रियेट किया है. जितनी यह बातें हैं… वो आज की जेनरेशन की ज़ुबान बदल चुकी है. और आप उन्हें दोष भी नहीं दे सकते. अब नहीं है तो नहीं है, क्या करें. लेकिन उसी का सब-टेक्स्ट आज की जेनरेशन को आप कम्यूनिकेट करना चाहें, कि कहा बिस्मिल ने था… ऐसा कुछ कहा था – कम्यूनिकेशन के लिए फिर प्यूरिस्ट होने की ज़रूरत नहीं है आपको कि बहुत ऐसी बात करें कि नहीं यार जैसा लिखा गया है वैसा. और ऐसा नहीं है की उनको मीनिंग दिया गया है. नहीं – यह नई ही पोयट्री है. *वरुण*~ फिर भी, मौलिकता का जो सवाल है, फिल्म इंडस्ट्री में बार बार उठता है. संगीत को लेकर, कहानियों को लेकर, उसपर आपका क्या टेक है? *पीयूष~* मालूम नहीं… इंस्पिरेशन के नाम पर यहाँ पूरा टीप देते हैं. सारा का सारा, पूरा मार लेते हैं. *वरुण*~ आपके ही नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ को ‘लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ बनाया गया. वहाँ मौलिकता को लेकर दूसरी तरह का डिबेट था. *पीयूष~* वहाँ पर जो है की फिर यू हैव टू बी रियल प्रोफेशनल. बॉम्बे का प्रोफेशनल! कैसे एग्रीमेंट होता है… मुझे उस वक़्त कुछ नहीं मालूम था. उस वक़्त मैं कर लिया करता था. हाँ भाई, चलो, आपके लिए कर रहे हैं मतलब आपके लिए कर रहे हैं. वहाँ फिर धंधे का सवाल है. *वरुण*~ ‘ब्लैक फ्राइडे’ के गाने भी आपके ही थे. उनको उतना रेकग्निशन नहीं मिला जितना गुलाल को मिला. *पीयूष~* हूँ… हूँ… नहीं इंडियन ओशियन का वह गाना तो बहुत हिट है. उनका करियर बेस्ट है अभी तक का गाना. (’अरे रुक जा रे बँदे’)… लाइव कॉन्सर्ट करते हैं… उन्हीं के हिसाब से, दैट्स देयर ग्रेटेस्ट हिट! लेकिन अगर ‘ब्लैक फ्राइडे’ सुपरहिट हो जाती, मालूम पड़ता पीयूष मिश्रा ने लिखा है गाना तो… सिनेमा के चलने से बहुत बहुत फ़र्क पड़ता है. हम थियेटर वालों को थोड़ी हार मान लेनी चाहिए की सिनेमा का मुक़ाबला नहीं कर सकते. वो तब तक नहीं होगा जब तक कि यहाँ (थियेटर की) इंडस्ट्री नहीं होगी. और इंडस्ट्री यहाँ पर होने का बहुत… यह देश इतना ज़्यादा हिन्दीवादी है ना… गतिशील ही नहीं है. यहाँ पर ट्रेडीशन ने सारी गति को रोक कर रख दिया है. हिन्दी-प्रयोग! पता नहीं क्या होता है हिन्दी प्रयोग? जो पसंद आ रहा है वो करो ना. हिन्दी नाटक… भाष्य हिन्दी का होना चाहिए, अरे हिन्दी भाष्य में कोई नहीं लिख रहा है नाटक यार. कोई ले दे के एक हिन्दी का नाटक आ जाता है तो लोग-बाग पागल हो जाता है की हिन्दी का नाटक आ गया! अब उन्हें नाटक से अधिक हिन्दी का नाटक चाहिए. लैंग्वेज के प्रति इतने ज़्यादा मुग्ध हैं… मैने जितने प्लेज़ लिखे उनमें से एक हिन्दी का नहीं था, सब हिन्दुस्तानी प्लेज़ थे. एकेडमीशियन और थियेटर करने वालों में कोई फ़र्क नहीं (रह गया) है. जितने बड़े बड़े थियेटर के नाम हैं, सब एकेडमीशियन हैं. करने वाले बंदे ही अलग हैं. करने वाले बंदों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है. “यह नाटक कर रहा है… लेकिन वी नो ऑल अबाउट नाट्य-शास्त्र!” अरे जाओ, पढ़ाओ बच्चों को… *वरुण*~ लेकिन आपका मानना है कि बॉम्बे में थियेटर चल रहा है… दिल्ली के मुक़ाबले. *पीयूष~ *दिल्ली में लुप्त हो गया है. दिल्ली में बाबू-शाही की क्रांति के तहत आया था थियेटर. (नकल उतारते हुए) “नाटक में क्या होना चाहिए – जज़्बा होना चाहिए! जज़्बा कैसा? लेफ्ट का होना चाहिए.” एक्सपेरिमेंटेशन भी पता नहीं कैसा! यहाँ पर देखो, यह अभी भी चल रहा है – मानव (कौल) ने लिखा है यह प्ले (पार्क)… प्लेराइटिंग कर रहे हैं हिन्दी में और अच्छी-खासी हिन्दी है. कितना सारा नया काम हो रहा है यहाँ पर. और कमर्शियल थियेटर क्या है? ये कमर्शियल थियेटर नहीं है क्या… डेढ़ सौ रु. का टिकट ख़रीद रहा हूँ मैं यहाँ पर, कल मेरी बीवी देख रही है दो सौ रु. के टिकट में… दो सौ में तो मैं मल्टीप्लैक्स में नहीं देखूँ… सौ से आगे की वहाँ टिकट होती है तो मैं हार मान लेता हूँ कि नहीं जाऊँगा मैं लेकिन मैं देख रहा हूँ यहाँ. और इट्स ए वंडरफुल प्ले. हिन्दी का प्ले हैं, हिन्दी भाष्य का प्ले है, और क्या चाहिये आपको? वहाँ पर होते (दिल्ली में) तो वो हिन्दी नाट्य.. हिन्दी नाट्य… क्या होता है ये हिन्दी नाट्य? भगवान जाने… ये बुढ़ापा चरमरा गया हिन्दुस्तान का… गाली देने की इच्छा होती है. *वरुण~ *फिर क्या इसमें एन.एस.डी. का दोष है? *पीयूष~* एन.एस.डी. का दोष (क्यों?)… एन.एन.डी. में तो अधिकतर बाहर के प्ले होते हैं. *वरुण~* लेकिन भारत में ऐसे दो-तीन ही तो इंस्टीट्यूट हैं जहाँ थियेटर पढ़ाया जाता है, सिखाया जाता है. *पीयूष~* वो एक अलग से लॉबी है जिनको लगता है कि हिन्दी प्लेज़ होने चाहिए. हिन्दी प्लेज़ से रेवोल्यूशन आयेगा. ये एक बहुत बड़ी एंटी-अलकाजी लॉबी है.. अलकाजी अगर नहीं होते और इसके बजाय कोई हिन्दी वाला होता वहाँ पर तो बात कुछ और ही होती (कहने वाले). उस बन्दे ने सम्भाला इतने दिनों तक, उस बन्दे ने हिन्दुस्तान के थियेटर को दिशा दी. अगर वो नहीं होता तो शांति से बैठकर प्ले कैसे लिखते हैं हमें नहीं मालूम पड़ता. हम तो चटाइयों वाले बन्दे थे. हमारी औकात वही थी और हम वही रहते… उस बन्दे ने हमें सिखाया कि खांसी आ जाए तो एक्सक्यूज़ मी कह देना चाहिये, माफ़ कीजियेगा, या बाहर चले जाओ. इतने बेवकूफ़ हैं हिन्दी भाषी और विशेषकर जो हमसे ऊपरवाली जनरेशन के हैं वो सिफ़र हैं यहाँ से (दिमाग़ की ओर इशारा). ख़ाली व्यंग्य करना आता है, टीका-टिप्पणी करना आता है… अगर ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… जो हुआ है उस व्यक्ति को उसका श्रेय नहीं दे रहे हैं. अलकाजी साहब अगर नहीं होते तो नुकसान में थियेटर ही होता. अभी तक पारसी थियेटर ही होता रहता. सूखे-बासे नाटक होते रहते. वो नाटक के नाम पे हमको करना पड़ता. ही वाज़ दि पर्सन हू इंट्रोड्यूस्ड थियेटर इन इंडिया. *वरुण~ *आजकल मीडिया की जो भाषा है, न्यूज़ में भी हिन्दी और इंग्लिश मिक्स होता है. *पीयूष~* कहाँ तक बचाओगे यार? शास्त्रीय संगीत बचा क्या आज की तारीख़ में? कहाँ तक बचाओगे आप? कब तक? शुभा मुदगल को इल्ज़ाम दे दिया कि आप कुमार गंधर्व से पढ़ी और उसके बाद आप दूसरा किस्म का म्यूज़िक… कहाँ तक बचाओगे आप? ज़माना बदल रहा है, बदलेगा. ये परिवर्तन सब बहुत ही ज़रूरी अंग हैं दुनिया का. इसको बदलने दो. ज़्यादा गाँठ बाँधकर बैठोगे तो फिर वही गाँव के गाँव-देहात में बँधकर बैठना पड़ेगा कि चौपाल के आस-पास आपके किस्से सुनते रहेंगे लोग-बाग. उसके आगे कोई आपकी बात नहीं सुनेगा. आज का संप्रेषण अलग है, आज की भाषा अलग है. बॉम्बे को देखकर लगता है कि भाषा… बॉम्बे के, साउथ बॉम्बे के किसी लौंडे से अब आप अपेक्षा करें कि वो उर्दू समझता हो या हिन्दी समझता हो… ’यो’ वाला लौंडा है वो, ऐसे ही बड़ा हुआ है तो आप उसको इल्ज़ाम क्यों देते हैं? आप सम्भाल कर रखिये. यहाँ पर बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपनी भाषा सम्भालकर रखी है… मानव कौल अभी तक हिन्दी में लिख रहा है और क्या हिन्दी है उसकी… कोई टूटी-फूटी हिन्दी नहीं है. तो किसने कहा. आप बिगड़ने देना चाहते हैं तो आपकी भाषा बिगड़ जाएगी, जिस चीज़ से आपको मोह है उसे आप सम्भालकर रखेंगे. लेकिन उसमें झंडा उठाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं वो हूँ… कि सबको ये करना चाहिए. जिसकी जो मर्ज़ी है वो करने दो ना यार. क्यों डेविड धवन को कोसो कि आप ऐसी फ़िल्म क्यों बनाते हैं, क्यों अनुराग को… अनुराग कश्यप की पिक्चरें भी लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. ऐसा नहीं है कि हर बन्दा ऐसी पिक्चर को पसन्द ही करेगा. लेकिन ठीक है, हर बन्दे को अपनी-अपनी गलतियों के हिसाब से जीने का हक़ है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090606/c5d6300e/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jun 6 16:14:39 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 6 Jun 2009 16:14:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS24KS/4KSv?= =?utf-8?b?4KS+IOCknOCkvuCklyDgpIngpKDgpL5f4KSF4KSy4KWAIOCkuOCksA==?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSwIOCknOCkvuCkq+CksOClgA==?= Message-ID: <196167b80906060344l5aea1f8bpcd19f57de07b430f@mail.gmail.com> एशिया जाग उठा ========= यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है यहीं पे सूरज ने आँख खोली यहीं पे इन्सानियत की पहली सहर ने रूख़ से नका़ब उलटा यहीं से अगले युगों की शम्‌ओं ने इल्म-ओ-हिकमत का नूर पाया इसी बलन्दी से वेद ने ज़मज़मे सुनाये यहीं से गौतम ने आदमी की समानता का सबक़ पढा़या हमारी तारीख़ की हवाएँ मसीह के बोल सुन चुकी है हमारा सूरज मुहम्मदे-मुस्तफ़ा के सर पर चमक चुका है और अब हमारे क़दीम आकाश के सितारे क़दीम आँखों से एशिया की नयी जवानी को देखते हैं यह खा़क वह खा़क है कि जिसने सुनहरे गेहूँ के मोतियों को जनम दिया है यह खा़क इतनी क़दीम जितनी क़दीम इन्साँ की दास्तानें अज़ीम इतनी अज़ीम जितनी हिमालया की बलन्दियाँ हैं हसीन इतनी हसीन जितनी हसीं अजन्ता की अप्सराएँ यह अपनी फ़ैयाज़ियों१ में दरयाए-नील-ओ-गंगा से कम नहीं है यह गोद बच्चों से और फूलों से और फलों से भरी हुई है। हमारा विरसा मोहनजोदाडो़ से लेके दीवारे-चीन तक है हमारी तारीख़ ताज और सीकरी से अहरामे-मिस्र तक है हमें रिवायात के ख़्ज़ानों से बाविलो-नीनवा मिले हैं फ़साहतों२ ने हमारे बचपन के होंट चूमे बलाग़तों३ ने बडी़ हसीं लोरियाँ सुनायीं ज़बान खोली तो वेद, इंजील और क़ुर्‌आन बन के बोले हमारी तख़ईल४ आसमानों की उस बलन्दी को छू चुकी है जहाँ से फ़िरदौसी और सा’दी निज़ामी, ख़ैयाम और हाफ़िज़ के चाँद सूरज चमक रहे हैं बलन्दियाँ जिन पे वाल्मीक और पाक तुलसी कबीर और सूर हुक्मराँ हैं उन्हीं फ़ज़ाओं की बिजलियाँ हैं जो साज़े-इक़बाल और टैगोर के तरानों में गूँजती हैं २ गुज़र चुके हैं हमारे सर से हज़ारों सालों के तुन्द५ तूफ़ां मुसीबतों की हवाएँ, जुल्मो-सितम की आँधी मगर यह अनमोल खा़क फिर भी हसीन फिर भी जवाँ रही है हमारे रुस्तुम हमारे अर्जुन मरे नहीं हैं वह जंगलों और पहाड़ियों में ज़मीन पर काश्त कर रहे हैं हमारे फ़रहाद भी तीशे चला रहे हैं जवान लैला, हसीन शीरीं, कुँवारी हीर अब भी गा रही हैं शकुंतलाएँ घनेरे पेड़ों के सब्ज़ साये में नाचती हैं हम एशिया के अवाम सूरज की तरह डूबे हैं और उभरे दुखों की अग्नि में तप के निखरे हमारी आँखों के आगे कितनी सियाह सदियों की साँस टूटी न जाने कितने बलन्द परचम हमारी नज़रों के सामने सरनिगूँ६ हुए हैं उलटते देखे हैं ताज हमने हमारे सीने से जाने कितने रथों के पहिये गुज़र चुके हैं मगर हम इस भूक, क़त्ल, इफ़लास७ के अंधेरे हवादिसे-रोज़गार८ के तुन्दो-तेज़९ शो’लों में अनगिनत जन्म ले चुके हैं हम अपनी धरती की कोख में बीज की तरह दफ़्न हो गये थे मगर नयी सुबह की हवा में बहार की कोंपलों में तब्दील होके बाहर निकल पडे़ यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है जबीं पे तारों का ताज, पैरों में झाग की झाँझनों का नग़मा ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले गरीब मज़दूर, जलती आँखें उचाट नींदों की तल्ख़१० रातें थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ कुम्हार, लोहार, चाक, बरतन ग्वालनें दूध में नहायी अलावों के गिर्द बूढ़े अफ़साना-गो, कहानी जवान माँओं की गोद में नन्हे-नन्हे बच्चों के भोले चेहरे लहकते मैदान, गायें, भैंसें फ़ज़ाओं में बाँसुरी का लहरा हरी-भरी खेतियों में शीशे की चूड़ियाँ खनखना रही हैं उदास सहरा पयम्बरों की तरह से खा़मोश और गम्भीर खजूर के पेड़ बाल खोले दफ़ों की आवाज़ ढोलकों की गमक समन्दर के क़हक़हे नारियल के पेड़ों की सर्द आहें सितार के तार से बरसते हुए सितारे अनार के फूल, आम का बौर, सेबो-बादाम के शुगूफ़े कोठार, खलियान, खाद के ढेर, कुँवारी पगडण्डियों की गर्दिश बलन्द बाँसों के झुण्ड हँसती धनक के नीचे घनेरे जंगल पठार, मैदान, रेगज़ारों११ के गर्म सीने गुफ़ाएँ जन्नत की तरह ठण्डी समन्दरों में कँवल के फूलों की तरह रखे हुए जज़ीरे चमकते मूँगों की मुस्कराहट वो सीपियों की हँसी, वह सन्थाल लड़कियों के चमकते दाँतों की तरह मोती वो मछलियाँ गोश्त से भरी कश्तियाँ जो पिघली सफ़ेद चाँदनी में तैरती हैं वो लम्बी-लम्बी हसीन नदियाँ जो अपनी मौजों से साहिलों के लरज़ते होंटों को चूमती हैं दुल्हन बनी वादियों की नाज़ुक कमर में झरनों के नर्म हल्के़ पहाडि़यों की हथेलियों पर धरे हुए नीलगूँ कटोरे सितारे मुँह देखते हैं झीलों के आईने में हिमालया के गले में गंगा की और जमुना की शोख़ बाँहें पहाड़ की आँधियों के माथों पे बर्फ़ के नीलगूँ दुपट्टे बलन्दियों पर ख़फ़ीफ़१२-सा इर्तिआ़श१३ हलकी-सी रागिनी का यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है कि जिसके निर्धन ग़रीब बच्चों को भूक के नाग डस रहे हैं वो होंट जो माँ के दूध के बाद फिर न वाकि़फ़ हुए कभी दूध के मज़े से ज़बानें ऐसी जिन्होंने चक्खा नहीं है, गेहूँ की रोटियों को वह पीठ जिसने सफ़ेद कपडा़ छुआ नहीं है वो उँगलियाँ जो किताब से मस नहीं हुई हैं वो पैर जो बूट और स्लीपर की शक्ल पहचानते नहीं हैं वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं ये नादिरे-रोज़गार१४ इंसाँ तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं कहाँ हो ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की रौशनी लेके आनेवालो तुम्हारी ‘तहज़ीब’ की नुमाइश है एशिया में कहीं ज़माने में इस क़दर दर्दनाक चेहरे नहीं मिलेंगे तुम्हारी शाहाना यादगारों से एशिया का हर-एक कोना भरा हुआ है कहीं पे मेहराबे-फ़त्‌ह बाँधी कहीं रुऊ़नत१५ की लाट उठायी कहीं पे काँसे के घोडे़ ढाले कहीं पे पत्थर के बुत बनाये मगर यह ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की य़ादगारें कहीं नहीं हैं बुलाओ अपने मुसव्विरों१६ और बुतगरों को कहो कि इन दर्दनाक चेहरों से एक-इक म्यूज़ियम सजा दें तुम्हारे कारे-अज़ीम को जाविदाँ१७ बना दें अब एशिया की ज़मीं पे हाथों का एक जंगल उगा हुआ है यह संगे-मरमर की, संगे-अस्वद की मुट्ठियाँ हैं कँवल की कलियाँ, कपास के फूल, बम के और नारियल के गोले कहाँ है ऐ नौ-अरूसे-सुब्‌हे-बहार१८ आजा हमारी बेताब मुट्ठियों में शफ़क़ का सिन्दूर चाँद तारों के फूल सिरनों की सुर्ख़ अफ़साँ भरी हुई है। १.दानशीलता २.औचित्य ३.प्रसंगानुकूल बात ४.कल्पनाशक्ति ५.प्रचण्ड ६.सर झुकाए हुए ७.कंगाली ८.रोज़गार की समस्याएँ ९.तेज़ लपकते हुए और भड़कते हुए १०.कड़वी, नागवार ११.मरुस्थल १२थोडा १३.कम्पन १४.दुनिया भर में सब से श्रेष्ठ १५.स्वच्छंदता, उद्दण्डता १६.चित्रकारों १७.हमेशा रहनेवाला, शाश्वत १८.वसन्त की सुबह रूपी नयी दुल्हन। अली सरदार जाफरी पानी कर सकते हैं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090606/86b83134/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Jun 6 17:29:09 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 6 Jun 2009 17:29:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCc4KSu4KWI4KSC?= =?utf-8?b?IOCkluCkvuCkruCli+CktuClgCDgpJXgpYAg4KSu4KWM4KSkIOCkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkruCksOCkqOCkviDgpJrgpL7gpLngpKTgpL4h4oCdIH7gpKo=?= =?utf-8?b?4KWA4KSv4KWC4KS3IOCkruCkv+CktuCljeCksOCkvi4=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200906061729.10113.ravikant@sarai.net> शुक्रिया मिहिर, बहुत अच्छा लगा पढ़कर. पीयूष मिश्रा को सुनते हुए किसी ज़माने के नसीर की याद ‌‌‌आती है, उनके इंटरव्यूज़ की. मेरे लिए तो बहुत काम का है. वरुण तक बधा‌ई पहुँचा देना. बाक़ी वीडियो देखके बताता हूँ. गुलज़ार साहब को भी जल्द ही निपटाया जाए. दीवान पर से किसी और ने लिखने की इच्छा जताई है क्या? रविकान्त शनिवार 06 जून 2009 14:27 को, आपने लिखा था: > दीवान के दोस्तों, > > आप पीयूष मिश्रा के साथ इस पूरी बातचीत को वीडियो फ़ॉरमैट में > www.mihirpandya.com पर देख सकते हैं. लिखा हुआ माल मैं साक्षात्कारकर्ता वरुण > की भूमिका के साथ यहाँ नकलचेपी कर रहा हूँ. > > ...मिहिर. > > “मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता!” ~पीयूष मिश्रा. > > * From ravikant at sarai.net Sat Jun 6 17:44:28 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 6 Jun 2009 17:44:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSs4KWN4KSm?= =?utf-8?b?LeCkuOClguCkmuClgCDgpJXgpYsg4KSm4KWB4KSw4KWB4KS44KWN4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KSo4KS+?= Message-ID: <200906061744.29239.ravikant@sarai.net> दोस्तो, ये चिट्टी मैं कुछ लोगों को पहले दिखा चुका हूँ, बल;कि रवि रतलामी, जैसा कि उनका स्वभाव है, भोपाल में डिक्शनरी ख़रीद भी लाए, और काम से लग गए हैं. ननदीप ने भी रज़ामंदी दे दी है. मैंने ‌'आ' से शुरू होनेवाले शब्दों को आधा देख लिया है. सोमवार तक ख़त्म हो जाएगा. अब ये गुहार मुक्त जनपद में है: कुछ दिन पहले पुणे में स्थानीयकरण की एक कार्यशाला में हमने तय किया था कि जो काम काफ़ी दिनों से बक़ाया ख़ाते में पड़े हैं, उनको निबटाया जाए, और इनमें सबसे ऊपर है एक संशोधित शब्द-सूची बनाने का काम. आपमें से कुछ लोगों से इस मसले पर बातचीत होती रही है। हमने सोचा भी था कि सराय में एक कार्यशाला आयोजित करेंगे ताकि जो शब्द हमने कई स्रोतों से इकट्ठे किए हैं उनकी स्पेलचेकिंग की जा सके, और उसके बाद हमारे अपने मुक्त स्पेलचेकिंग औज़ार में उसको समाहित किया जा सके। अब चूँकि मुझे कार्यशाला की संभावना जुलाई से पहले दिखाई नहीं दे रही है, और स्पेलचेकर रोज़ाना की ज़रूरतों के लिए अनिवार्य है, लिहाज़ा अब देर न करते हुए हमें ये काम शुरू कर देना चाहिए। तो आइए हाथ उठाएँ: अगर 20 लोग भी सहमत हो जाते हैं तो हम ये काम दो-चार दिनों के भीतर कर सकते हैं। शर्त ये है कि उनके पास मैक्ग्रगर का (या उससे बेहतर) कोश हो, ओयूपी से छपा हुआ, अगर आपके पास जीमेल अकाउंट है तो हम गूगलडॉक्स पर जाकर भी हिज्जे ठीक कर सकते हैं, उनके औज़ार का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन वहाँ उल्टे-सीधे सुझाव भी आते हैं, ग़लत-सलत भी, और आधे समय तो मैं उसको ठीक करता रहता हूँ, जब भी अपना कोई दस्तावेज़ स्पेलचेक करता करता हूँ तो। इस संशोधित शब्‍द-सूची को हम फ़ायरफ़ॉक्स और ओपनऑफ़िस में डाल देंगे, या चाहे जहाँ भी लेकि ये काम अगले हफ़्ते कर देते हैं। अगर दो दिनों में किसी जवाब नहीं आता है तो मैं लोगों को नाम से बुलाउँगा। पर उम्मीद है वे इसकी नौबत नहीं आने देंगे। हाथ उठानेवाले मुझे लिखें या दीवान पर लिखें, अपना जीमेल आयडी देते हुए. शुक्रिया रविकान्‍त ------------------------------------------------------- From sangeeta09 at gmail.com Sat Jun 6 22:45:17 2009 From: sangeeta09 at gmail.com (Sangeeta Kumari) Date: Sat, 6 Jun 2009 22:45:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSs4KWN4KSm?= =?utf-8?b?LeCkuOClguCkmuClgCDgpJXgpYsg4KSm4KWB4KSw4KWB4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleCksOCkqOCkvg==?= In-Reply-To: <200906061744.29239.ravikant@sarai.net> References: <200906061744.29239.ravikant@sarai.net> Message-ID: <61fd96ce0906061015h2296f391t3c56010536e434cf@mail.gmail.com> मैं भी यहाँ कुछ करना चाहूँगी. शुक्रिया संगीता On 6/6/09, Ravikant wrote: > > दोस्तो, > > ये चिट्टी मैं कुछ लोगों को पहले दिखा चुका हूँ, बल;कि रवि रतलामी, जैसा कि > उनका स्वभाव है, > भोपाल में डिक्शनरी ख़रीद भी लाए, और काम से लग गए हैं. ननदीप ने भी रज़ामंदी > दे दी है. > मैंने ‌'आ' से शुरू होनेवाले शब्दों को आधा देख लिया है. सोमवार तक ख़त्म हो > जाएगा. > > अब ये गुहार मुक्त जनपद में है: > > कुछ दिन पहले पुणे में स्थानीयकरण की एक कार्यशाला में हमने तय किया था कि जो > काम काफ़ी दिनों > से बक़ाया ख़ाते में पड़े हैं, उनको निबटाया जाए, और इनमें सबसे ऊपर है एक > संशोधित शब्द-सूची बनाने > का काम. आपमें से कुछ लोगों से इस मसले पर बातचीत होती रही है। हमने सोचा भी > था कि सराय > में एक कार्यशाला आयोजित करेंगे ताकि जो शब्द हमने कई स्रोतों से इकट्ठे किए > हैं उनकी स्पेलचेकिंग की जा सके, और उसके बाद हमारे अपने मुक्त स्पेलचेकिंग > औज़ार में > उसको समाहित किया जा सके। अब चूँकि मुझे कार्यशाला की संभावना जुलाई से पहले > दिखाई नहीं दे रही है, और स्पेलचेकर रोज़ाना की ज़रूरतों के लिए अनिवार्य है, > लिहाज़ा अब देर न करते हुए हमें ये काम शुरू कर देना चाहिए। > > तो आइए हाथ उठाएँ: अगर 20 लोग भी सहमत हो जाते हैं तो हम ये काम दो-चार दिनों > के भीतर कर सकते हैं। शर्त ये है कि उनके पास मैक्ग्रगर का (या उससे बेहतर) > कोश हो, ओयूपी से छपा > हुआ, अगर आपके पास जीमेल अकाउंट है तो हम गूगलडॉक्स पर जाकर भी हिज्जे ठीक कर > सकते हैं, उनके > औज़ार का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन वहाँ उल्टे-सीधे सुझाव भी आते हैं, > ग़लत-सलत भी, > और आधे समय तो मैं उसको ठीक करता रहता हूँ, जब भी अपना कोई दस्तावेज़ स्पेलचेक > करता करता हूँ तो। > > इस संशोधित शब्‍द-सूची को हम फ़ायरफ़ॉक्स और ओपनऑफ़िस में डाल देंगे, या चाहे > जहाँ > भी लेकि ये काम अगले हफ़्ते कर देते हैं। > अगर दो दिनों में किसी जवाब नहीं आता है तो मैं लोगों को नाम से बुलाउँगा। पर > उम्मीद है वे इसकी नौबत नहीं आने देंगे। > > हाथ उठानेवाले मुझे लिखें या दीवान पर लिखें, अपना जीमेल आयडी देते हुए. > > शुक्रिया > > रविकान्‍त > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Regards, Sangeeta Kumari www.literatureindia.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090606/5a1ce371/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun Jun 7 02:23:33 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 7 Jun 2009 02:23:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KS54KS/4KS1?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkrOCkvuCknOCkvuCksOKAmSDgpIfgpJUg4KSX4KS+4KSC?= =?utf-8?b?4KS1IOCkkOCkuOCkviDgpK3gpYA=?= Message-ID: <6a32f8f0906061353g26a119ay4fdf7ae3f036895a@mail.gmail.com> ‘हिवरे बाजार’ इक गांव ऐसा भी हिवरे बाजार यानी गांधी के सपनों का गांव। इक ऐसा गांव, जहां खुशहाल हिन्दुस्तान की आत्मा निवास करती है। बाजारवाद के अंधे युग में लौ का काम कर रही है। क्या वैसे दिन की कल्पना की जा सकती हैं, जब देश का सात लाख गांव हिवरे बाजार की तरह होगा। उसका अपना ग्राम स्वराज होगा ? आर्थिक मंदी से इन दिनों दुनिया परेशान हैं। भारत सरकार भी चिंतित है। पर देश का इक गांव मजे में है। वहां के लोगों का इससे कोई सरोकार नहीं। वे रोजगार के लिए पलायन नहीं करते। गांव में रोजना स्कूल की कक्षा लगती है। आंगनवाड़ी रोज खुलती है। राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है। सड़कें इतनी साफ कि आप वहां कुछ फेंकने से शर्मा जाएंगे। एक ऐसा गांव जिसे जल संरक्षण के लिए 2007 का राष्ट्रीय पुरस्कार भी चुका है। इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं। इकबारगी यह यूटोपिया लगता होगा। पर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बाजार गांव जाएंगे तो आप इस सच से रूबरू हो जाएंगे। और गांधी के सपनों के भारत को जान और समझ पाएंगे। इक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाजार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधि करता है। आज से 20 वर्ष पहले यानी सन 1989 में इस उजाड़ से गांव को 30-40 पढ़े-लिखे नौजवानों ने संवारने का बीड़ा उठाया। गांव वालों ने उन नौजवानों को पूरा सहयोग दिया। अब देखिए साहब, गांव के नजारे ही बदल गए हैं। बंजर जमीन उपजाऊ हो गई है। एक फसल की जगह दो-दो फसल उगा रहे हैं। गांव के लोगों ने अपने प्रयास से गांव के आसपास 10 लाख पेड़ लगाए। इससे भू-जल स्तर ऊपर आया है और माटी में नमी बढ़ने लगी है। अब यहां फसल क्या, लोग सब्जियां तक उगाते हैं। पहले यहां लोगों की औसत आमदनी प्रतिवर्ष 800 रुपये थी। अब 28000 रुपये हो गई है। पहले जो दूसरे गांव में जाकर मजूदरी करते अब रोजाना 250-300 लीटर दूध का व्यापार करते हैं। हिवरे बाजार गांव में राशन ग्रामसभा के निर्देशानुसार सबसे पहले प्रत्येक कार्डधारी को दिया जाता है। यदि उसके बाद भी राशन बच जाता है तो ग्रामसभा तय करती है कि इसका क्या होगा। राशन की दुकान के संचालक आबादास थांगे बेबाकी से कहते हैं कि उन्हें फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देनी होती है। यह है भई, जलवा। गांव के पोपट राव कहते हैं, बाहरी लोगों की नजर हमारे गांव के जमीन पर है। अतः हमलोगों ने नियम बना रखा है कि जमीन गांव से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेची जाएगी। गांधी के गांव का जरा रंग देखिए! यहां एकमात्र मुसलिम परिवार के लिए भी मसजिद है, जिसे ग्रामसभा ने ही बनवाया है। यहां सारे फैसले ग्राम संसद लेती है। यकीनन, दिल्ली की संसद में बैठे लोग इससे बहुत सीख सकते हैं। खैर, एक वक्त था जब इस गांव के युवक यह बताने से कतरते थे कि वे हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज बाला साहेब रमेश ने अपने नाम के आगे ही 'हिवरे बाजार' लगा रखा है। इसमें दो राय नहीं कि हिवरे बाजार गांधी के सपने को साकार करने के साथ-साथ घने अंधेरे में लौ जलाए हुए है। From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jun 8 03:02:30 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 8 Jun 2009 03:02:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSy4KSk?= =?utf-8?b?IOCkl+CkiCwg4KSm4KS+4KSo4KSkIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: <6a32f8f0906071432m3ec47a8ev29c961e5e6993a0b@mail.gmail.com> दौलत गई, दानत नहीं जो लोग हिन्दी सिनेमा के बारे में थोड़ा-बहुत भी जानते हैं वे चंद्रमोहन को जानते होंगे। वे ऐसे अभिनेता थे जिनके अभिनय का प्रमुख अस्त्र उनकी आंखें थीं। इसी अस्त्र से वे सबों के दिल पर राज करते थे। उनका जलवा था। मोतीलाल की चंद्रमोहन से खूब छनती थी। पर दिन बदल गए। चंद्रमोहन की माली हालत खराब हो गई। तभी एक दिन मोतीलाल उनसे मिलने गए। चंद्रमोहन के हाथ में गिलास था और सामने स्कॉच व्हिस्की की बोतल खुली थी। वे अकेले ही पीते रहे। उन्होंने मोतीलाल को ऑफर नहीं किया। जब मोतीलाल जाने लगे तब चंद्रमोहन ने कहा, “देखो मोती, मुझे मालूम है, मेरे ऑफऱ नहीं करने पर तुम्हें पीड़ा हुई है। पर सुनो, मेरी दौलत गई है, दानत नहीं। मेरे सामने जो बोतल पड़ी है वह जरूर स्कॉच व्हिस्की की है, पर अंदर उसके हाथभट्टी की शराब है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हें हाथभट्टी की पीने दूं।” ऐसे थे, चंद्रमोहन। आज भी यकीनन कई चंद्रमोहन होंगे। पर ऐसे बहुत ज्यादा हैं जो इतनी साफगोई से पेश न आएं। From ravikant at sarai.net Mon Jun 8 12:16:20 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 8 Jun 2009 12:16:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSs4KWA4KSs?= =?utf-8?b?IOCkpOCkqOCkteClgOCksCDgpLjgpL7gpLngpKwg4KSV4KWLIOCkuOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSmIOCkleClgCDgpLbgpY3gpLDgpKbgpY3gpKfgpL7gpILgpJzgpLLgpL8=?= Message-ID: <200906081216.21416.ravikant@sarai.net> http://vatsanurag.blogspot.com/ निधन : हबीब तनवीर हबीब तनवीर का आज लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। हबीब साहब ने अपने कला-माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और इन मायनों में वे जितना कला की दुनिया के लिए ज़रूरी थे उतना ही समाज के लिए अनिवार्य। उनका रंग-कर्म जागृति का एक अलख था, जिसे उनके बाद जगाने की तवक्को कम दिखती है। कुछ वक़्त पहले सुलभजी ने सबद पर अपने स्तंभ रंगायन में हबीब साहब पर तफसी ल से लिखा था, आगे वही श्रद्धांजलिस्वरुप दिया जा रहा है। '' आओ, देखो सत्य क्या है '' हबीब तनवीर को याद करना सिर्फ रंगकर्म से जुड़े एक व्यक्ति को याद करने की तरह नहीं है। दसों दिशाओं से टकराते उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जिसके सिर पर टूटने को आसमान आमादा हो, धरती पाँव खींचने को तैयार बैठी हो और कुहनियाँ अन्य दिशाओं से टकराकर छिल रही हों; और वह व्यक्ति सहज भाव से सजगता तथा बेफ़िक्री दोनों को एक साथ साधकर चला जा रहा हो। अब तक कुछ ऐसा ही जीवन रहा है हबीब तनवीर का। भारतेन्दु के बाद भारतीय समाज के सांस्कृतिक संघर्ष को नेतृत्व देनेवाले कुछ गिने-चुने व्यक्तित्वों में हबीब तनवीर भी शामिल हैं। भारतेन्दु का एक भी ना टक अब तक मंचित न करने के बावजूद वे भारतेन्दु के सर्वाधिक निकट हैं। उन्होंने लोक की व्यापक अवधारणा को अपने रंगकर्म का आधार बनाते हुए अभिव्यक्ति के नये कौशल से दर्शकों को विस्मित कि या है। विस्मय अक्सर हमारी चेतना को जड़ बनाता है, पर हबीब तनवीर के रंग कौशल का जादू हमें इसलिए विस्मित करता है कि उनकी प्रस्तुतियों में सहजता के साथ वे सारे प्रपंच हमारे सामने खुलने लगते हैं, जो सदियों से मनुष्य को गुलाम बनाए रखने के लिए मनुष्य द्वारा ही रचे जा रहे हैं। इन प्रपंचों के तहख़ानों में निर्भय होकर उतरना और सारे गवाक्षों को खोलकर आवाज़ लगाना कि आओ, देखो सत्य क्या है; आज सरल काम नहीं है। रचनाकर्म में इसके दोहरे ख़तरे होते हैं। एक तो कलात्मकता के ह्रास का ख़तरा हमेशा बना रहता है और दूसरी ओर प्रपंच रचनेवालों की हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। हबीब तनवीर इन दोनों ख़तरों से जूझते हैं। कलात्मकता के स्तर पर वह निरंतर उन रूढ़ियों को तो ड़ते हैं, जिन्होंने आज़ादी के बाद के हिन्दी रंगमंच का नैसर्गिक विकास नहीं होने दिया। तथाकथित बौद्धिकता और आभिजात्यपन की लालसा में इन रूढ़ियों के आधार पर हिन्दी रंगमंच का ऐसा स्वरूप उभरा, जो आज सामान्य जनता की सांस्कृतिक भूख मिटाने में सक्षम नहीं है। हबीब तनवीर ने इन रूढ़ियों को तोड़ते हुए नये प्रयोग किए और प्रयोगों की सफलताओं- असफलताओं के बीच से अपनी प्रस्तुतियों के लिए नयी रंगभाषा और नयी रंगयुक्तियों की खोज की। उन्होंने अपने ना टकों की केन्द्रीय चेतना से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपने हर नाटक को अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायी बनाए रखा। समाज के सारे प्रपंचों और अंतर्द्वंद्वों को उजागर करते हुए वे उस शक्ति से न कभी भयभीत हुए न ही समझौता किया, जो मनुष्यता के विरोध में संगठित होकर हिंसा करती है। हबीब साझा संस्कृति की वकालत करते रहे हैं। धार्मिक आडम्बरों-बाह्याचारों-कट्टरताओं के ध्वजवाहकों की क्रूरताएँ हों या पूँजी के मद में बौरायी शक्तियों की हिंसा - सबका उन्होंने सामना किया। पुनरुत्थानवाद और शुचितावाद को उन्होंने एक सिरे से नकारा। अपने रंगकर्म के आरम्भिक काल से ही हबीब तनवीर इस बात बल देते रहे हैं कि रंगमंच को आलोचनात्मक होना चाहिए। रजनीतिक दलों की नकेल पहने बिना राजनीतिक विचारों से लैस रंगमंच की उनकी कल्पना को आरम्भिक दौर में संदेह की नज़र से देखा गया। पर जैसे-जैसे उन्होंने अपने नाटकों के लिए नयी युक्तियों की खोज की और नाटकों में विचार के स्तर पर मनुष्य की पक्षधरता का संघर्ष तेज़ किया, फलस्वरूप रंगकर्मियों-दर्शकों का एक बड़ा तबका उनकी तरफ आकर्षित हुआ। जिस इप्टा आन्दोलन ने अपनी सक्रियता से देखते-देखते समग्र भारत को एक सूत्र में बाँध दिया था, रा जनीतिक बँटवारे के बाद उसका बिखरना एक सदमे की तरह था। इस सांस्कृतिक सदमे से उबरने के लिए अधिकांश कलाकारों ने सृजन का ही रास्ता अपनाया। इप्टा के साथ जुड़े रहने का रंगमंचीय अनुभव हबी ब तनवीर के काम आया और साथ ही राजनीतिक अंतर्द्वंद्वों से उपजे संकटों और निराशा ने नये रास्तों की खोज के लिए विवश किया। मानवतावादी विचारों तथा जीवन की संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र राहों की निर्मिति के संघर्ष ने हबीब तनवीर को इस सदमे से मुक्ति दी। रॉयल एकेडमी ऑफ़ ड्रामेटिक आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण के दौरान अपनी भाषा में रंगकर्म करने की उनकी आस्था ने प्रशिक्षण के उत्तरार्द्ध के प्रति उनके मन में अनास्था जगा दी। उन्होंने राडा छोड़ने का निर्णय लि या, जो असामान्य और जोखिम भरा था। यह जोखिम सब नहीं उठा सकते। अपनी रंग परम्परा और भा षा के भीतर बहुत गहरे उतरकर उसकी शक्ति की पहचान किए बगैर यह जोखिम नहीं उठाया जा सकता । हबीब तनवीर को अपनी रंग परम्पराओं तथा अपनी भाषा की पहचान थी और इनकी शक्ति पर विश्वास था। उन्होंने यह जोखिम उठाया और राडा छोड़कर ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर में प्रशिक्षण लेने लगे। यहाँ उन्हें डंकन रास मिले, जिन्हें वह आज भी अपना गुरु मानते हैं। डंकन रास ने उन्हें नाटक के पहले पाठ के दरम्यान प्राप्त नाटक की चेतना और मूल प्रयोजन से जुड़े रहने का हुनर सिखाया। हबीब तनवीर ने ब्रिस्टल ओल्ड विक के बाद ब्रिटिश ड्रामा लीग में प्रशिक्षण प्राप्त किया। फिर यूरोप की यात्रा पर निकले। एक ऐसी यात्रा, जिसे संचालित कर रही थी दुनिया की विविध रंग छवियों को देखने-समझने की बेचैनी। इस यात्रा ने उनकी इस धारणा को ताक़तवर बनाया कि शब्द और संस्कृति की रचनात्मक दुनिया में उस स्थान और पर्यावरण का बहुत महत्त्व होता है, जहाँ आप जनमते और पालित-पोषित होते हैं। सृजना त्मकता के लिए तमाम उर्वरा शक्तियाँ आपकी अपनी ज़मीन में ही छिपी होती हैं। आज़ादी के बाद रंगमंच के संदर्भ में परम्परा के उपयोग को लेकर चलनेवाली बहस को हबीब तनवीर ने अपने रंगकर्म से तीव्र किया और धुँधलके को छाँटने के लिए सूत्र दिए। परम्परा के बीच से जीवन को गतिशील बनानेवाली आधुनिकता के तत्त्वों को चुनकर हबीब तनवीर ने एक नये रंग परिदृश्य की रचना की। हबीब तनवीर कला को जीवन का अंग मानते हैं। एक ओर शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण के सम्पूर्णता में देशज बने रहने पर बल देते हैं, तो साथ-साथ इस बात पर भी बल देते हैं कि इसे कथ्यात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक तथा समसामयिक होना चाहिए। वह महानगरों में मंचित होनेवाले आँचलिक मुहावरों वाले अपने नाटकों के पक्ष में आक्रामकता के साथ यह तर्क रखते हैं कि, '' मैं इस तथाकथित सभ्य समा ज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूँ। '' हबीब तनवीर को न तो परम्परा का दास बनना स्वीकार्य है और न ही परम्परा से मनमानी करना। वह सृजनशीलता और मानवीय मूल्यों के मूल सरोकारों से जुड़ी परम्परा के उन जीवित अंशों के उपयोग की वकालत करते हैं, जो कलात्मकता को भ्रष्ट न करें। मृच्छकटिक पहला नाटक था, जिसे प्रस्तुत करते हुए हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के पारम्परिक रंगकर्म की युक्तियों, बोली, शैली और कलाकारों का प्रयोगधर्मी उपयोग किया। हबीब तनवीर ने आगा हश्र कश्मीरी, विशाखदत्त के अलावा मौलियर, ब्रेख्त , लोर्का, ऑस्कर वाइल्ड, शेक्सपीयर, गोल्डनी आदि के नाटकों को मंचित किया। उन्होंने ग़ालिब के जीवन पर भी नाटक किया। इस कालावधि में उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी आगरा बाज़ार के मंचन से मिली थी। पर उनकी प्रयोगधर्मिता बहस के केन्द्र में रही। गाँव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद ने उन्हें एक बार फिर सफल निर्देशक के रूप में स्थापित किया । यहीं से उन्होंने अपने रंगकर्म के लिए एक ऐसे रास्ते को पकड़ा या ऐसी दिशा की खोज की, जिसके कारण उन्हें बाद के दिनों में अपार सफलता और महत्त्व प्राप्त हुआ। चरनदास चोर ने उनको विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किया। अपने नाटकों की प्रस्तुतियों से हबीब तनवीर बार-बार अपनी सृजना त्मकता का अतिक्रमण करते हैं। यह एक दुस्साहस भरा काम है। अक्सर बड़े नाम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अपने ही रचे को फिर से रचकर आगे निकल जाना बहुत कठिन होता है। असफलता का भय ऐसा करने से रोकता है। पर हबीब तनवीर की प्रयोगधर्मिता असफलताओं से जूझती रही है। From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jun 10 04:52:58 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 10 Jun 2009 04:52:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSd4KWB4KSu4KSw?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpOCkv+CksuCliOCkr+CkviDgpJTgpLAg4KSo4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?4KScIOCksOClguCkrg==?= Message-ID: <6a32f8f0906091622u7922a7caya441d5f84a07a6df@mail.gmail.com> झुमरी तिलैया और न्यूज रूम जब कभी फिल्म पर कुछ लिखता या नकलचेपी करता हूं तो एक बात खूब याद आती है। और हंसी भी। तब मैं एक निजी समाचार एजेंसी में था। मैनें झुमरी तिलैया में रहने वाले फिल्मी गीतों के कदरदानों पर एक स्टोरी बनाई। स्टोरी को कायदे से सुबह चलाया जाना था। दोपहर को जब मैं दफ्तर पहुंचा तो किसी ने बताया स्टोरी नहीं चलाई गई है। डेस्क इंचार्ज के आदेश पर उसे एक सहयोगी एडिट कर रहे हैं। मेरा मानना है कि स्टोरी हमेशा बेहतर बनाने के लिए ही एडिट होती है। खैर! एडिट हुई। चली। इसके बाद शिफ्ट संभाल रहीं महिला डेस्क इंचार्ज ने न्यूज रूम में बैठे सभी साथियों को सुनाते हुए कहा, “कॉपी काफी अच्छे तरीके से एडिट की गई है। अब इस कॉपी में जान सी आ गई है।” यह सुनने के बाद मुझे अपनी स्टोरी को पढ़ने की इच्छा हुई। मैंने अक्षर-सह मिलान किया। पाया कि साढ़े तीन सौ शब्द की स्टोरी में केवल एक *‘झारखंड’* शब्द जोड़ा गया है। तब समझ में आया कि यही जान है। थोड़ी देर बाद उक्त सहयोगी मेरे पास आए। कहा कि मैडम ने स्टोरी ठीक करने को कहा था, जब मुझे लगा कि इसमें कुछ नहीं किया जाना चाहिए तो मुझे बात रखने के इरादे से एक शब्द जोड़ना पड़ा। मैंने महसूस किया कि वे शिफ्ट इंचार्ज की ओर से की गई खुली तारीफ से बड़े शर्मिदा थे। बाद में मालूम पड़ा कि शिफ्ट इंचार्ज को इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि झुमरी तिलैया कोई जगह है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090610/7c32aa60/attachment.html From anant7akash at gmail.com Wed Jun 10 19:41:33 2009 From: anant7akash at gmail.com (anand tripathi) Date: Wed, 10 Jun 2009 07:11:33 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hi Message-ID: <33752e800906100711u185f72dcr571186b8173ade4a@mail.gmail.com> hame samil karne ke liye dhanyabad -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090610/bfa9106a/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Jun 14 23:10:38 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 14 Jun 2009 23:10:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KS4IOCkl+CkvuCkoeCkvOClgCDgpK/gpL4g4KSP4KSVIOCkqOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSv4KScIOCkn+CljeCksOCkvuCkguCkuOCkquCli+CksA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSfIOCkuOCkvuCkp+CkqA==?= Message-ID: <829019b0906141040v11640970y5191be0cd6f3c72b@mail.gmail.com> झुमरी तिलैया रेलवे स्टेशन को लांघकर जैसे ही हम बस्से अड्डे की तरफ बढ़े,एकदम से कोने में एक गाड़ी लगी थी और दबी जुबान में एक बंदा लोगों को बुला रहा था-आइए हजारीबाग..हजारीबाग..हजारीबाग,प्रेस की गाड़ी में,प्रेस की गाड़ी में।हम उस बंदे के पास गए। उसे हमारे परेशान हाव-भाव को देखकर अंदाजा लग गया था कि हमें किसी भी हाल में हजारीबाग जाना है। उसने बाकी गाडियों से प्रेस की गाड़ियों की तुलना करते हुए जो कुछ भी बताया उसमें सुरक्षा और जल्दी पहुंचाने की गारंटी शामिल थी। गाड़ी चाहे कोई भी हो कमांडर,मिनीडोर या फिर महिन्द्रा...प्रेस की गाड़ी बोलकर यहां अलग से ब्रांडिंग की जा रही थी। एक- दो और भी गाड़ियां थी जिसके संबंध में यही सारी बातें की जा रही थी जो कि डोभी,चट्टी की ओर जाने वाली थी। बंदे की बात पर भरोसा करके हम गाड़ी की तरफ बढ़े और अंदर का नजारा देखा तो लगा कि ये प्रेस की गाड़ी कम पौल्ट्री फार्म की मुर्गिंयां ढोनेवाली गाड़ी ज्यादा है। एक के उपर एक चढ़े लोग,किसी का भी पूरा शरीर नहीं देखा जा सकता था। किसी ने एक की जांघ दबा ली है तो किसी की बांह में किसी का सिर डूबा है। आप इस नजारे को देखकर अंदाजा ही नहीं लगा सकते कि कुल कितने आदमी बैठे हैं। मैंने बस इतना भर पूछा- इसमें जगह कहां है जो हम चार आदमियों को बैठा पाओगे। बंदे ने गाड़ी की छत की तरफ इशारा करते हुए कहा- अभी उपरे पूरा खाली है और आपको जगहे नहीं दिख रहा है। मैंने फिर सवाल किया- भाईजी,प्रेस की गाड़ी का हवाला देकर सुरक्षा की बात करते हो और यहां छत पर बैठने को कहते हो। उस बंदे को मेरे जाने की नीयत पर शक हुआ इसलिए पल्ला झाड़ते हुआ कहा- आप जैसन कानून छांटनेवाले बीसियो लोग रोज आते हैं,जाना है तो चढ़िए नहीं तो साइड हो लीजिए,पसींजर मत भड़काइए। आपलोग पराइवेट गाडिए पर जाने लायक हैं जहां के खलासी को डेगे-डेग मूतवास लगता है। हम अपना सा मुंह लेकर दूसरे साधन के इंतजार में झुमरी तिलैया बस अड्डे पर अटक गए। डेढ़ घंटे तक बस दस मिनट में चलने की बात करनेवाली बस से जब हम रांची तक जानेवाली बस पर बैठे तो उसने हमलोगों को रांची बोलकर हजारीबाग तक ही लाकर पटक दिया। वहां से फिर दूसरी बस में टाटानगर तक जानेवाली बस में बैठे। रांची पहुंचते-पहुंचते रात के करीब साढ़े ग्यारह बज गए। पहुंचने के आधे घंटे पहले आकर कंडक्टर ने कहा-देखिए हम बाकी बस वालों की तरह आपसे झूठ बोलकर पैसा नहीं लेगें। हम आपको रांची कांटा टोली तक छोड़ देगें और वहां से किसी गाड़ी में बिठा देंगे।कांटा टोली में आते ही उसने कहा कि हम किस-किसका ठेका लें,यहीं खड़े रहिए आधे घंटे में प्रेस की गाड़ी आएगी,उसी में बैठ जाइएगा। हम प्रेस की गाड़ी का इंतजार करते रहे। प्रेस की गाड़ी आयी और ठीक हमारे सामने आकर रुक गयी। हम चारों लोग उसमें बैठते ही इत्मिनान हो लिए कि-चलो,आधी रात भी घर पहुंच लिए तो सोकर अगले दिन से अपने-अपने काम में लग जाएंगे। मैंने खुशी से अगले दिन रिलांयस फ्रेश जाने का वायदा किया था। अभी दो मिनट भी नहीं हुए थे कि एक खुस्सट किस्म का बंदा आया और चिल्लाने के अंदाज में कहा- उठिए आपलोग,आपलोग का रिजरवेसन है,जिसका रिजरवेसन है,पहले वोलोग बैठेंगे। हमें कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन उसका कहना था कि प्रेस की गाडियों में जाने की बुकिंग रात के दस बजे ही हो जाती है। ऐसा नहीं है कि आप बैठिए और तब टिकट लीजिए। हमलोगों ने जब बहुत जबरदस्ती की तो किसी तरह पीछे बिठाने के लिए तैयार हुआ। ड्राइवर हमारे उपर बहुत ही तेजी से धमाधम प्रभात खबर और दैनिक हिन्दुस्तान के बंडल डाले जा रहा था। मैं दर्द से कराह उठा। मैंने कहा- आपको शर्म नहीं आती,प्रेस की गाड़ी के नाम पर इस तरह की कमीशनखोरी करते हो। आपको पता है कि इस तरह से प्रेस की गाड़ी में रेगुलर वेसिस पर पैसेंजर को बैठाना जुर्म है। भैय्या ने कहा-जाने दो,इनको क्या समझ आएगा। ड्राइवर का सीधा जबाब था- आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। आप उन भोसड़ी अखबार मालिकों से काहे नहीं कम्प्लेन करते हैं जिसको लगता है कि अखबार बटाई का काम पानीवाली गाड़ी से होता है,बड़ा चले हैं हमको समझानेवाले। रांची से टाटानगर का किराया 70 रुपये हैं,कभी-कभी 75 रुपये। बुकिंग करनेवाले ने हमसे 80 रुपये के हिसाब से किराया लिया। एक जो अंतिम में आया उससे 100 रुपये में चलने की बात कही-चलना है तो चलो नहीं तो फूटो यहां से। रास्ते में ड्राइवर ने आज अखबार के कार्यालय(रांची) के पास गाड़ी रोकी। टाटानगर में दैनिक हिन्दुस्तान के आगे। लेकिन जिन-जिन अखबारों के कार्यालय के आगे गाड़ी रोकता उससे कुछ दूरी पर हमलोगों को उतार देता। ऑफिस के कुछ आगे तक हमें पैदल चलना होता और फिर हमें बिठाता। कोई साधन नहीं होने की मजबूरी में हम प्रेस की गाड़ी में बैठ तो गए लेकिन रास्ते भर तक अपने को मथते रहे- जो अखबार,जो प्रेस दुनिया भर के निकायों की गड़बड़ियों को लेकर विरोध करता हुआ जान पड़ता है,कानून की बात करता है,वो खुद भीतर से कितना खोखला है,इसका अंदाजा वाकई उसे है। एक पैसेंजर ने मुझे उस प्रेस गाड़ी पर चढ़ने की रसीद दिखायी। उसमें न तो किराये की राशि लिखी थी,न तो गाड़ी का नंबर और न ही कोई मुहर या साइन। बस घसीटकर एक लाइन। उस लाइन से कोई क्या समझ सकता है और क्या दावा कर सकता है। ये धंधा इतने रेगुलर तरीके से चल रहा है कि अब बिहार-झारखंड का कोई भी बंदा प्रेस की गाड़ी का सही मतलब समझता है। लेकिन हैरत है इस नाजायज तरीके से चलनेवाले ट्रांसपोर्ट के धंधे पर किसी अखबार की अब तक नजर नहीं गयी। गाड़ी के आगे-पीछे प्रेस का स्टीकर ठोककर औऱ गाड़ी के भीतर मनमानी पैसिंजर ठूंसकर सुरक्षा और कानून का दावा करनेवाले प्रेस का एक नया रुप सामने आता है। क्या इन गाडियों की लाइसेंस पर,सुरक्षा के सवाल पर,इन गाडियों में मनमानी भाड़ा वसूलने और दलाली को बढ़ावा देनेवाले जैसे मुद्दों को लेकर प्रेस संस्थानों पर सवाल नहीं खड़े किए जाने चाहिए? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090614/a7d7e0ce/attachment-0001.html From dangijs at gmail.com Sun Jun 14 12:27:18 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Sun, 14 Jun 2009 02:57:18 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSD4oCUIOCkqOCkteClgOCkqCDgpLjgpILgpLjgpY3gpJXgpLA=?= =?utf-8?b?4KSjLi4u?= Message-ID: <1662afad0906132357u7ae6b1c2u72dcf10bb1d4d9a3@mail.gmail.com> जय हिन्द Sir, प्रखर देवनागरी फ़ॉट परिवर्तक एवम् प्रखर देवनागरी लिपिक के नवीन संस्करण हेतु लिंकः— http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html?s=1 http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html?s=1 लगभग 100 तरह के प्रचलित विभिन्न हिन्दी, संस्कृत और मराठी के फ़ॉण्ट को 100% शुद्धता के साथ यूनिकोड में परिवर्तन हेतु— फ़ॉण्ट सूची 1.) Agra {आगरा} 2.) Agra Thin {आगरा थिन} 3.) AkrutiDevWeb {अक्रुतिदेववेब} 4.) AkrutiOfficePriya {अक्रुतिऑफिसप्रिया} 5.) APS-DV-Priyanka {एपीएस-डीवी-प्रियंका} 6.) Arjun {अर्जुन} 7.) AU {अमर उजाला} 8.) Bhaskar {भास्कर} 9.) BRH Devanagari {बराहा देवनागरी} 10.) Chanakya {चाणक्य} 11.) Chanakya {चाणक्य} : (Type1 Font) 12.) Devanagari New {देवनागरी न्यू} 13.) DevLys 010 {देवलिस ०१०} 14.) DevLys 020 {देवलिस ०२०} 15.) DevLys 020 Thin {देवलिस ०२० थिन} 16.) DV-TTAakash {डीवी-टीटी आकाश} 17.) DV-TTBhima {डीवी-टीटी भीमा} 18.) DV-TTGanesh {डीवी-टीटी गणेश} 19.) DV-TTGaneshEN {डीवी-टीटी गणेश इएन} 20.) DV-TTManohar {डीवी-टीटी मनोहर} 21.) DV-TTMayur {डीवी-टीटी मयूर} 22.) DV-TTNatraj {डीवी-टीटी नटराज} 23.) DV-TTRadhika {डीवी-टीटी राधिका} 24.) DV-TTSurekh {डीवी-टीटी सुरेख} 25.) DV-TTSurekhEN {डीवी-टीटी सुरेख इएन} 26.) DV-TTVasundhara {डीवी-टीटी वसुन्धरा} 27.) DV-TTYogesh {डीवी-टीटी योगेश} 28.) DV-TTYogeshEN {डीवी-टीटी योगेश इएन} 29.) DV_ME_Shree.... {डीवी_एमइ_श्री....} 30.) DVB-TTSurekh {डीवीबी-टीटी सुरेख} 31.) DVB-TTSurekhEN {डीवीबी-टीटी सुरेख इएन} 32.) DVB-TTYogesh {डीवीबी-टीटी योगेश} 33.) DVB-TTYogeshEN {डीवीबी-टीटी योगेश इएन} 34.) DVBW-TTSurekh {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 35.) DVBW-TTYogeshEN {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 36.) DVW-TTSurekh {डीवीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 37.) DVW-TTYogeshEN {डीवीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 38.) GIST-DVTTAjay {जिस्ट-डीवीटीटी अजय} 39.) GIST-DVTTAniket {जिस्ट-डीवीटीटी अनिकेत} 40.) GIST-DVTTAnjali {जिस्ट-डीवीटीटी अंजली} 41.) GIST-DVTTBrinda {जिस्ट-डीवीटीटी ब्रिंदा} 42.) GIST-DVTTDhruv {जिस्ट-डीवीटीटी ध्रुव} 43.) GIST-DVTTDiwakar {जिस्ट-डीवीटीटी दिवाकर} 44.) GIST-DVTTJamuna {जिस्ट-डीवीटीटी जमुना} 45.) GIST-DVTTJanaki {जिस्ट-डीवीटीटी जानकी} 46.) GIST-DVTTKishor {जिस्ट-डीवीटीटी किशोर} 47.) GIST-DVTTKundan {जिस्ट-डीवीटीटी कुंदन} 48.) GIST-DVTTMadhu {जिस्ट-डीवीटीटी मधु} 49.) GIST-DVTTMalini {जिस्ट-डीवीटीटी मालिनी} 50.) GIST-DVTTManohar {जिस्ट-डीवीटीटी मनोहर} 51.) GIST-DVTTMayur {जिस्ट-डीवीटीटी मयूर} 52.) GIST-DVTTMegha {जिस्ट-डीवीटीटी मेघा} 53.) GIST-DVTTMohini {जिस्ट-डीवीटीटी मोहिनी} 54.) GIST-DVTTNayan {जिस्ट-डीवीटीटी नयन} 55.) GIST-DVTTNeha {जिस्ट-डीवीटीटी नेहा} 56.) GIST-DVTTNinad {जिस्ट-डीवीटीटी निनाद} 57.) GIST-DVTTPrakash {जिस्ट-डीवीटीटी प्रकाश} 58.) GIST-DVTTPreetam {जिस्ट-डीवीटीटी प्रीतम} 59.) GIST-DVTTRajashri {जिस्ट-डीवीटीटी राजश्री} 60.) GIST-DVTTRanjita {जिस्ट-डीवीटीटी रंजीता} 61.) GIST-DVTTSagar {जिस्ट-डीवीटीटी सागर} 62.) GIST-DVTTSamata {जिस्ट-डीवीटीटी समता} 63.) GIST-DVTTSamir {जिस्ट-डीवीटीटी समीर} 64.) GIST-DVTTShital {जिस्ट-डीवीटीटी शीतल} 65.) GIST-DVTTShweta {जिस्ट-डीवीटीटी श्वेता} 66.) GIST-DVTTSumeet {जिस्ट-डीवीटीटी सुमीत} 67.) GIST-DVTTSwapnil {जिस्ट-डीवीटीटी स्वपनिल} 68.) GIST-DVTTVasundhara {जिस्ट-डीवीटीटी वसुन्धरा} 69.) GIST-DVTTVijay {जिस्ट-डीवीटीटी विजय} 70.) Hinmith... {हिंमिथ...} 71.) HINmith018 {हिंमिथ०१८} 72.) HINmith033 {हिंमिथ०३३} 73.) HTChanakya {एचटी-चाणक्य} 74.) Krishna {कृष्णा} 75.) Kruti Dev 010 {क्रुतिदेव ०१०} 76.) Kruti Dev 016 {क्रुतिदेव ०१६} 77.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२० } 78.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२०} 79.) Kruti Dev 180 {क्रुतिदेव १८०} 80.) LangscapeDevPriya {लैंगस्केपदेवप्रिया} 81.) Naidunia {नईदुनिया} 82.) Narad {नारद} 83.) NewDelhi {न्यूदेल्ही} 84.) Patrika {पत्रिका} 85.) Sanskrit 1.2 {संस्कृत १.२} 86.) Sanskrit 98 {संस्कृत ९८} 87.) Sanskrit 99 {संस्कृत ९९} 88.) Sanskrit New {संस्कृत न्यू} 89.) Shivaji01 {शिवाजी ०१} 90.) Shusha {शुषा} 91.) Shusha02 {शुषा ०२} 92.) Shusha05 {शुषा ०५} 93.) W-C-905 {डब्ल्यू-सी-९०५} 94.) Walkman-Chanakya-901 {वॉकमैन-चाणक्य-९०१} 95.) Walkman-Chanakya-905 {वॉकमैन-चाणक्य-९०५} 96.) Walkman-Yogesh-Outline-1003 {वॉकमैन-योगेश-आउटलाइन-१००३} 97.) Webdunia {वेबदुनिया} 98.) Yogeshweb {योगेशवेब} 99.) Yuvraj {युवराज} सादर जगदीप सिंह दांगी -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090614/05a5fe55/attachment-0002.html From dangijs at gmail.com Sun Jun 14 12:27:18 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Sun, 14 Jun 2009 02:57:18 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWC4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSD4oCUIOCkqOCkteClgOCkqCDgpLjgpILgpLjgpY3gpJXgpLA=?= =?utf-8?b?4KSjLi4u?= Message-ID: <1662afad0906132357u7ae6b1c2u72dcf10bb1d4d9a3@mail.gmail.com> जय हिन्द Sir, प्रखर देवनागरी फ़ॉट परिवर्तक एवम् प्रखर देवनागरी लिपिक के नवीन संस्करण हेतु लिंकः— http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html?s=1 http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html?s=1 लगभग 100 तरह के प्रचलित विभिन्न हिन्दी, संस्कृत और मराठी के फ़ॉण्ट को 100% शुद्धता के साथ यूनिकोड में परिवर्तन हेतु— फ़ॉण्ट सूची 1.) Agra {आगरा} 2.) Agra Thin {आगरा थिन} 3.) AkrutiDevWeb {अक्रुतिदेववेब} 4.) AkrutiOfficePriya {अक्रुतिऑफिसप्रिया} 5.) APS-DV-Priyanka {एपीएस-डीवी-प्रियंका} 6.) Arjun {अर्जुन} 7.) AU {अमर उजाला} 8.) Bhaskar {भास्कर} 9.) BRH Devanagari {बराहा देवनागरी} 10.) Chanakya {चाणक्य} 11.) Chanakya {चाणक्य} : (Type1 Font) 12.) Devanagari New {देवनागरी न्यू} 13.) DevLys 010 {देवलिस ०१०} 14.) DevLys 020 {देवलिस ०२०} 15.) DevLys 020 Thin {देवलिस ०२० थिन} 16.) DV-TTAakash {डीवी-टीटी आकाश} 17.) DV-TTBhima {डीवी-टीटी भीमा} 18.) DV-TTGanesh {डीवी-टीटी गणेश} 19.) DV-TTGaneshEN {डीवी-टीटी गणेश इएन} 20.) DV-TTManohar {डीवी-टीटी मनोहर} 21.) DV-TTMayur {डीवी-टीटी मयूर} 22.) DV-TTNatraj {डीवी-टीटी नटराज} 23.) DV-TTRadhika {डीवी-टीटी राधिका} 24.) DV-TTSurekh {डीवी-टीटी सुरेख} 25.) DV-TTSurekhEN {डीवी-टीटी सुरेख इएन} 26.) DV-TTVasundhara {डीवी-टीटी वसुन्धरा} 27.) DV-TTYogesh {डीवी-टीटी योगेश} 28.) DV-TTYogeshEN {डीवी-टीटी योगेश इएन} 29.) DV_ME_Shree.... {डीवी_एमइ_श्री....} 30.) DVB-TTSurekh {डीवीबी-टीटी सुरेख} 31.) DVB-TTSurekhEN {डीवीबी-टीटी सुरेख इएन} 32.) DVB-TTYogesh {डीवीबी-टीटी योगेश} 33.) DVB-TTYogeshEN {डीवीबी-टीटी योगेश इएन} 34.) DVBW-TTSurekh {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 35.) DVBW-TTYogeshEN {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 36.) DVW-TTSurekh {डीवीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 37.) DVW-TTYogeshEN {डीवीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 38.) GIST-DVTTAjay {जिस्ट-डीवीटीटी अजय} 39.) GIST-DVTTAniket {जिस्ट-डीवीटीटी अनिकेत} 40.) GIST-DVTTAnjali {जिस्ट-डीवीटीटी अंजली} 41.) GIST-DVTTBrinda {जिस्ट-डीवीटीटी ब्रिंदा} 42.) GIST-DVTTDhruv {जिस्ट-डीवीटीटी ध्रुव} 43.) GIST-DVTTDiwakar {जिस्ट-डीवीटीटी दिवाकर} 44.) GIST-DVTTJamuna {जिस्ट-डीवीटीटी जमुना} 45.) GIST-DVTTJanaki {जिस्ट-डीवीटीटी जानकी} 46.) GIST-DVTTKishor {जिस्ट-डीवीटीटी किशोर} 47.) GIST-DVTTKundan {जिस्ट-डीवीटीटी कुंदन} 48.) GIST-DVTTMadhu {जिस्ट-डीवीटीटी मधु} 49.) GIST-DVTTMalini {जिस्ट-डीवीटीटी मालिनी} 50.) GIST-DVTTManohar {जिस्ट-डीवीटीटी मनोहर} 51.) GIST-DVTTMayur {जिस्ट-डीवीटीटी मयूर} 52.) GIST-DVTTMegha {जिस्ट-डीवीटीटी मेघा} 53.) GIST-DVTTMohini {जिस्ट-डीवीटीटी मोहिनी} 54.) GIST-DVTTNayan {जिस्ट-डीवीटीटी नयन} 55.) GIST-DVTTNeha {जिस्ट-डीवीटीटी नेहा} 56.) GIST-DVTTNinad {जिस्ट-डीवीटीटी निनाद} 57.) GIST-DVTTPrakash {जिस्ट-डीवीटीटी प्रकाश} 58.) GIST-DVTTPreetam {जिस्ट-डीवीटीटी प्रीतम} 59.) GIST-DVTTRajashri {जिस्ट-डीवीटीटी राजश्री} 60.) GIST-DVTTRanjita {जिस्ट-डीवीटीटी रंजीता} 61.) GIST-DVTTSagar {जिस्ट-डीवीटीटी सागर} 62.) GIST-DVTTSamata {जिस्ट-डीवीटीटी समता} 63.) GIST-DVTTSamir {जिस्ट-डीवीटीटी समीर} 64.) GIST-DVTTShital {जिस्ट-डीवीटीटी शीतल} 65.) GIST-DVTTShweta {जिस्ट-डीवीटीटी श्वेता} 66.) GIST-DVTTSumeet {जिस्ट-डीवीटीटी सुमीत} 67.) GIST-DVTTSwapnil {जिस्ट-डीवीटीटी स्वपनिल} 68.) GIST-DVTTVasundhara {जिस्ट-डीवीटीटी वसुन्धरा} 69.) GIST-DVTTVijay {जिस्ट-डीवीटीटी विजय} 70.) Hinmith... {हिंमिथ...} 71.) HINmith018 {हिंमिथ०१८} 72.) HINmith033 {हिंमिथ०३३} 73.) HTChanakya {एचटी-चाणक्य} 74.) Krishna {कृष्णा} 75.) Kruti Dev 010 {क्रुतिदेव ०१०} 76.) Kruti Dev 016 {क्रुतिदेव ०१६} 77.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२० } 78.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२०} 79.) Kruti Dev 180 {क्रुतिदेव १८०} 80.) LangscapeDevPriya {लैंगस्केपदेवप्रिया} 81.) Naidunia {नईदुनिया} 82.) Narad {नारद} 83.) NewDelhi {न्यूदेल्ही} 84.) Patrika {पत्रिका} 85.) Sanskrit 1.2 {संस्कृत १.२} 86.) Sanskrit 98 {संस्कृत ९८} 87.) Sanskrit 99 {संस्कृत ९९} 88.) Sanskrit New {संस्कृत न्यू} 89.) Shivaji01 {शिवाजी ०१} 90.) Shusha {शुषा} 91.) Shusha02 {शुषा ०२} 92.) Shusha05 {शुषा ०५} 93.) W-C-905 {डब्ल्यू-सी-९०५} 94.) Walkman-Chanakya-901 {वॉकमैन-चाणक्य-९०१} 95.) Walkman-Chanakya-905 {वॉकमैन-चाणक्य-९०५} 96.) Walkman-Yogesh-Outline-1003 {वॉकमैन-योगेश-आउटलाइन-१००३} 97.) Webdunia {वेबदुनिया} 98.) Yogeshweb {योगेशवेब} 99.) Yuvraj {युवराज} सादर जगदीप सिंह दांगी -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090614/05a5fe55/attachment-0003.html From ravikant at sarai.net Mon Jun 15 14:28:01 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 15 Jun 2009 14:28:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Khali jagah Message-ID: <200906151428.01193.ravikant@sarai.net> एक हृदयछू कहानी. जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ से साभार. लाल बहादुर जी, दिन कौन सा था? कृपया जवाबी डाक में लिख दें ताकि सनद रहे. रविकान्त Date: सोमवार 15 जून 2009 13:14 From: Lalbahadur Ojha खाली जगह लाल बहादुर ओझा जब तक बच्चे बोेलते नहीं बड़ों की सांस टंगी रहती है और जब वे बोलना शुरू करते हैं तब भी मुश्किल हो ती है कि जो बोल रहे हैं ठीक-ठीक वहीं बात है न! दरअसल उनके हकलाने, तुतलाने, खीझने या चुप हो जाने - सबमें कोई संदेश होता है। हम कितना कुछ समझ पाते हैं यह हमारी संवेदनशीलता पर नि र्भर है। हर नया बच्चा एक रहस्य की तरह ही खुलता हैं, हमारे सबकुछ जानने के दावे को धरासायी करता हुआ। आशीष साढ़े तीन साल का है। उसे पता है दीदा, उसके मां की मां हैं। घर में तो उनकी तसवीर है और वह कहीं सितारों मेंं। हालांकि, दिल्ली के आसमान में दूषित आसमान में तारे कभी-कभार ही दिखते हैं, लेकिन उनमें वह दीदा को दिखाता है। अब बहुत दिनों तक दादू नहीं दिखे तो उसने पूछा -दादू गए कहां, कब आएंगे? जान लेना ठीक रहेगा कि बांग्ला में नाना और नानी को दादू और दीदा कहते हैं। दादू पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में थे। उन दिनों घर का कोई न कोई उनके साथ वहां रहता था। सभी लोगों को घर पर देख कर उसका यह सवाल जन्मा होगा। उसे बताया गया कि दादू, दीदा के यहां गये हैं। इसके आगे की कहानी उसके पास थी यानी दीदा आकाश में हैं, वहां तो उड़कर ही जाते हैं न.... दादू भी तो एक तारा बन जाएंगे, वहां जाकर....। इस कहानी से मामला कुछ दिन शांत रहा। पिछले तीन सालों में अपनी मां के बाद उसका सबसे अधिक संवाद और साथ दादू का ही रहा था। घूमना, खेलना, झगड़ना, एक दूसरे को छकाना और मदद करना। एक दिन हमने नोटिस किया कि उसे दादू की सारी दवाओं के नाम याद हैं। वह दवाओं के नाम बोल रहे थे और वह पत्ते निकाल कर उन्हें पकड़ाता जा रहा था। दादू को अस्पताल से हम घर लेकर नहीं आए कि पता नहीं उन्हें इस हालत में देखकर कैसा लगेगा। कुछ दिन घर में लोगों की अचानक आवाजाही बढ़ गयी। लोगों के आने-जाने में मामला दबा रहा। ऐसा नहीं कि उसे उनकी याद नहीं आई। परंतु, भीड़-भाड़ में उसका सवाल चिड़चिड़ेपन, जिद और खीझ में अभिव्यक्त होता रहा। क्योंकि ऐसे में बहुत सारे सवाल थे जो सिर्फ दादू से ही पूछे जा सकते थे। वही उनको सुन भी सकते थे। हमलोग बच्चों को कितना सुन पाते हैं। और कितने धैर्य से सुन पाते हैं दरअसल, सबकुछ सुनने और झेलने का यह असीम धैर्य ही दादा-दादू या दीदा-दादी के साथ नातियों, पोतों के संबंध को आत्मीय बनाते हैं। लोग चले गये। घर में खालीपन बढ़ा। पलंग पर लेटकर या सोफे पर बैठ कर टीवी के चैनल बदलते हुए या अखबार, किताबों के पन्ने पलटते हुए दादू की घर में एक स्थाई उपस्थिति थी। उनकी एक स्थाई जगह थी। वह जगह अचानक खाली दिखने लगी। दीदा के बगल में दादू की तसवीर भी फ्रेम होकर आ गई। इससे पक्का हुआ कि सचमुच दादू, दीदा के पास ही गये हैं। अब दोनों की तसवीरें यहां रह गयी थीं। उसकी दिनचर्या में हमारी उपस्थिति बढ़ गयी थी। इस दौरान वह हमें अक्सर याद दिलाता- पार्क में दादू कहां बैठते थे। मदर डेयरी जाते समय और घर लौटते उनका कौन-सा रास्ता था। इस स्मृति में को ई निरंतरता नहीं होती थी, कौंधकर गायब हो जाती। लेकिन घर का वह कोना खाली था। वह अना यास उस जगह पर जाता और थोड़ा रूक कर, ठिठक कर वापस खेलने में लग जाता, जैसे खुद को समझा रहा हो दादू यहां नहीं हैं। जिससे बात कहनी थी, वह वहां नहीं है। एक दिन सोने से ठीक पहले वह दादू के बेड की ओर गया, शायद गुडनाइट बोलने। बेड खाली ही था। वह पूछने लगा कौन कहां सोयेगा। सबकी जगहें तय थी। आज दादू की खाट पर कौन सोयेगा? हमारे पा स कोई ठोस जवाब नहीं था, बहाना भी नहीं था। उसका चेहरा लाल हुआ और आंखें भर आईं। उसने कहा कि मामा को कहो वह दादू की खाट पर सो जाये नहीं तो खाट को अच्छा नहीं लगेगा। वह रोयेगी। खाट रोयी या नहीं ...लेकिन वह रोया..पहली बार। बच्चों की स्मृति लंबी नहीं होतीं। उन्हें बहलाया जा सकता है। बहलाया गया। एक दिन उसने स्कूल से घर फोन करवाया। घर में काम की सहायता के लिए आने वाली लड़की- नीरज से उसकी अच्छी दोस्ती है। उसने उसको फोन देने को कहा। फिर पूछा, ‘दादू आ गए हैं’। याद आया आम तौर पर अस्पताल से दादू के आने का यही समय होता है। घर में अक्सर यही तीन लोग होते दादू, नी रज और आशीष। अभी भी खेलते हुए वह नीरज से ही पूछता है दादू तो ठीक हो गये हैं न नीरज। उसे हमसे कहीं ज्यादा नीरज पर भरोसा है- वह सच बोलेगी। लेकिन नीरज को हमारी बतायी कहानी ही दोहराने की हिदायत थी। अचानक ही एक दिन वह बोल उठा मुझे गुटे कहकर कौन बुलाता है? सिर्फ दादू और उनकी तास चौकड़ी ही उसे इस नाम से संबोधित करती थी। हमारे कुछ देर चुप रहने पर वह ईशारा करता हुआ दादू की तसवीर के पास चला गया। मैंने उसको जोर से भींच लिया। उसने मुझे सावधान किया - ऐसे नहीं करो, अंदर मशीन है।’’ पेशे से डॉक्टर दादू हृदयरोगी थे, छाती पर एक ओर पेसमेकर और दूसरी ओर डीफी बुलेटर लगा हुआ था। कभी-कभार वह उन्हें ठोककर खिझाने की कोशिश करता। तब दादू कहते- ऐसे नहीं...।’’ आज उसे कुछ ज्यादा ही याद आ रही थी। शाम को सोफे के सहारे कैसेट रैक के माथे पर जा पहुंचा जहां दादू की तसवीर रखी है। वहां लगभग उसी तरह लोट गया जैसे दादू की गोदी में लो टता था। संबोधन के बाद अब शायद स्पर्श की याद आ रही थी उसे। दादू की हथेलियों का स्पर्श....। थोड़ी देर यूंही लेटा रहा। हमारी आंखें भर आईं। क्या उसकी अनुभूतियों को हम समझ पा रहे हैं? क्या हमारी गढ़ी हुई कहानी उसकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पा रही हैं? खाली जगह को वह कैसे जूझ रहा होगा? डर लगा कि कि कहीं वह रैक से नीचे न टपक पड़े। हमारे सावधान करने पर वह नीचे उतरा और खेल में लग गया। जैसे कुछ हुआ ही न हो। लालबहादुर ओझा 66एफ, सेक्टर 8 जसोला विहार नयी दिल्ली 110025 फोन 998078218 From rakeshjee at gmail.com Mon Jun 15 14:58:54 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Mon, 15 Jun 2009 14:58:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Khali_jagah?= In-Reply-To: <200906151428.01193.ravikant@sarai.net> References: <200906151428.01193.ravikant@sarai.net> Message-ID: <292550dd0906150228i58ad1ef5kffdc5f9535e8b521@mail.gmail.com> बेहद मार्मिक कहानी. राकेश 2009/6/15 Ravikant : > एक हृदयछू कहानी. जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ से साभार. लाल बहादुर जी, दिन कौन सा था? > कृपया जवाबी डाक में लिख दें ताकि सनद रहे. > > रविकान्त > > Date: सोमवार 15 जून 2009 13:14 > From: Lalbahadur Ojha > > खाली जगह > > लाल बहादुर ओझा > > जब तक बच्चे बोेलते नहीं बड़ों की सांस टंगी रहती है और जब वे बोलना शुरू करते हैं तब भी मुश्किल हो > ती है कि जो बोल रहे हैं ठीक-ठीक वहीं बात है न! दरअसल उनके हकलाने, तुतलाने, खीझने या चुप >  हो जाने - सबमें कोई संदेश होता है। हम कितना कुछ समझ पाते हैं यह हमारी संवेदनशीलता पर नि > र्भर है। हर नया बच्चा एक रहस्य की तरह ही खुलता हैं, हमारे सबकुछ जानने के दावे को धरासायी > करता हुआ। > > आशीष साढ़े तीन साल का है। उसे पता है दीदा, उसके मां की मां हैं। घर में तो उनकी तसवीर है और > वह कहीं सितारों मेंं। हालांकि, दिल्ली के आसमान में दूषित आसमान में तारे कभी-कभार ही दिखते हैं, > लेकिन उनमें वह दीदा को दिखाता है। अब बहुत दिनों तक दादू नहीं दिखे तो उसने पूछा -दादू गए > कहां, कब आएंगे? > जान लेना ठीक रहेगा कि बांग्ला में नाना और नानी को दादू और दीदा कहते हैं। > दादू पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में थे। उन दिनों घर का कोई न कोई उनके साथ वहां रहता था। >  सभी लोगों को घर पर देख कर उसका यह सवाल जन्मा होगा। उसे बताया गया कि दादू, दीदा के > यहां गये हैं। इसके आगे की कहानी उसके पास थी यानी दीदा आकाश में हैं, वहां तो उड़कर ही जाते हैं > न.... दादू भी तो एक तारा बन जाएंगे, वहां जाकर....। इस कहानी से मामला कुछ दिन शांत > रहा। > पिछले तीन सालों में अपनी मां के बाद उसका सबसे अधिक संवाद और साथ दादू का ही रहा था। > घूमना, खेलना, झगड़ना, एक दूसरे को छकाना और मदद करना। एक दिन हमने नोटिस किया कि > उसे दादू की सारी दवाओं के नाम याद हैं। वह दवाओं के नाम बोल रहे थे और वह पत्ते निकाल कर उन्हें > पकड़ाता जा रहा था। > > दादू को अस्पताल से हम घर लेकर नहीं आए कि पता नहीं उन्हें इस हालत में देखकर कैसा लगेगा। >  कुछ दिन घर में लोगों की अचानक आवाजाही बढ़ गयी। लोगों के आने-जाने में मामला दबा रहा। ऐसा > नहीं कि उसे उनकी याद नहीं आई। परंतु, भीड़-भाड़ में उसका सवाल चिड़चिड़ेपन, जिद और खीझ में >  अभिव्यक्त होता रहा। क्योंकि ऐसे में बहुत सारे सवाल थे जो सिर्फ दादू से ही पूछे जा सकते थे। वही > उनको सुन भी सकते थे। हमलोग बच्चों को कितना सुन पाते हैं। और कितने धैर्य से सुन पाते हैं दरअसल, > सबकुछ सुनने और झेलने का यह असीम धैर्य ही दादा-दादू या दीदा-दादी के साथ नातियों, पोतों के > संबंध को आत्मीय बनाते हैं। > > लोग चले गये। घर में खालीपन बढ़ा। पलंग पर लेटकर या सोफे पर बैठ कर टीवी के चैनल बदलते हुए या > अखबार, किताबों के पन्ने पलटते हुए दादू की घर में एक स्थाई उपस्थिति थी। उनकी एक स्थाई जगह > थी। वह जगह अचानक खाली दिखने लगी। दीदा के बगल में दादू की तसवीर भी फ्रेम होकर आ गई। > इससे पक्का हुआ कि सचमुच दादू, दीदा के पास ही गये हैं। अब दोनों की तसवीरें यहां रह गयी थीं। > उसकी दिनचर्या में हमारी उपस्थिति बढ़ गयी थी। इस दौरान वह हमें अक्सर याद दिलाता- पार्क में > दादू कहां बैठते थे। मदर डेयरी जाते समय और घर लौटते उनका कौन-सा रास्ता था। इस स्मृति में को > ई निरंतरता नहीं होती थी, कौंधकर गायब हो जाती। लेकिन घर का वह कोना खाली था। वह अना > यास उस जगह पर जाता और थोड़ा रूक कर, ठिठक कर वापस खेलने में लग जाता, जैसे खुद को समझा > रहा हो दादू यहां नहीं हैं। जिससे बात कहनी थी, वह वहां नहीं है। > एक दिन सोने से ठीक पहले वह दादू के बेड की ओर गया, शायद गुडनाइट बोलने। बेड खाली ही था। > वह पूछने लगा कौन कहां सोयेगा। सबकी जगहें तय थी। आज दादू की खाट पर कौन सोयेगा? हमारे पा > स कोई ठोस जवाब नहीं था, बहाना भी नहीं था। उसका चेहरा लाल हुआ और आंखें भर आईं। उसने कहा > कि मामा को कहो वह दादू की खाट पर सो जाये नहीं तो खाट को अच्छा नहीं लगेगा। वह रोयेगी। > खाट रोयी या नहीं ...लेकिन वह रोया..पहली बार। बच्चों की स्मृति लंबी नहीं होतीं। उन्हें >  बहलाया जा सकता है। बहलाया गया। > > एक दिन उसने स्कूल से घर फोन करवाया। घर में काम की सहायता के लिए आने वाली लड़की- नीरज से > उसकी अच्छी दोस्ती है। उसने उसको फोन देने को कहा। फिर पूछा, ‘दादू आ गए हैं’। याद आया आम > तौर पर अस्पताल से दादू के आने का यही समय होता है। घर में अक्सर यही तीन लोग होते दादू, नी > रज और आशीष। अभी भी खेलते हुए वह नीरज से ही पूछता है दादू तो ठीक हो गये हैं न नीरज। उसे > हमसे कहीं ज्यादा नीरज पर भरोसा है- वह सच बोलेगी। लेकिन नीरज को हमारी बतायी कहानी ही > दोहराने की हिदायत थी। > अचानक ही एक दिन वह बोल उठा मुझे गुटे कहकर कौन बुलाता है? सिर्फ दादू और उनकी तास चौकड़ी > ही उसे इस नाम से संबोधित करती थी। हमारे कुछ देर चुप रहने पर वह ईशारा करता हुआ दादू की > तसवीर के पास चला गया। मैंने उसको जोर से भींच लिया। उसने मुझे सावधान किया - ऐसे नहीं करो, > अंदर मशीन है।’’ पेशे से डॉक्टर दादू हृदयरोगी थे, छाती पर एक ओर पेसमेकर और दूसरी ओर डीफी > बुलेटर लगा हुआ था। कभी-कभार वह उन्हें ठोककर खिझाने की कोशिश करता। तब दादू कहते- ऐसे > नहीं...।’’ आज उसे कुछ ज्यादा ही याद आ रही थी। शाम को सोफे के सहारे कैसेट रैक के माथे पर >  जा पहुंचा जहां दादू की तसवीर रखी है। वहां लगभग उसी तरह लोट गया जैसे दादू की गोदी में लो > टता था। संबोधन के बाद अब शायद स्पर्श की याद आ रही थी उसे। दादू की हथेलियों का > स्पर्श....। थोड़ी देर यूंही लेटा रहा। हमारी आंखें भर आईं। क्या उसकी अनुभूतियों को हम समझ पा > रहे हैं? क्या हमारी गढ़ी हुई कहानी उसकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पा रही हैं? खाली जगह को वह > कैसे जूझ रहा होगा? > > डर लगा कि कि कहीं वह रैक से नीचे न टपक पड़े। हमारे सावधान करने पर वह नीचे उतरा और खेल में > लग गया। जैसे कुछ हुआ ही न हो। > > लालबहादुर ओझा > 66एफ, सेक्टर 8 > जसोला विहार > नयी दिल्ली 110025 > फोन 998078218 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jun 17 13:18:11 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 17 Jun 2009 13:18:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkmuCksuClhyDgpJfgpI8g4KS54KSs4KWA4KSsID8=?= Message-ID: <6a32f8f0906170048r22aefb74j14122b7d57b6416e@mail.gmail.com> *क्यों चले गए हबीब** ?* हबीब तनवीर रंगमंच की दुनिया का वह चेहरा था, जिससे आंदोलन की ताप अंत समय तक महसूस होती रही। अब वे नहीं रहे। हालांकि, वे अभी जीना चाहते थे। अपने संघर्ष के दिनों को किताब की शक्ल देने में जुटे थे। सुना है इक भाग लिखा भी है, पर किताब पूरी न हो सकी। आखिर कहां हो पाती हैं लोगों की सभी इच्छाएं पूरी। लोग कहते हैं कि 85 वर्षीय हबीब का जाना एक अध्याय का समाप्त हो जाना है। लेकिन, इस पंक्ति का लेखक मानता है कि इस अध्याय में जो दर्ज हुआ, आने वाली पीढ़ी उसके रंग में गहरे डूबी रहेगी। उनका जन्म सन् 1923 में सितंबर की पहली तारीख को रायपुर में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली और कालेज की पढ़ाई तो गृह राज्य में ही ली, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यानी एमए की पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। बाद में रंगमंच का प्रशिक्षण विदेश जाकर लिया। पर वापस लौटे तो ठेठ भारतीय नाट्य शैली को एक न्या स्वरूप दिया। लोक तहजीब व कलाओं को लोक भाषा के माध्यम से ही दुनिया के सानने प्रस्तुत किया। तब जब हिन्दी की उप बोलियों का दायरा सिमटता जा रहा था, तब हबीब ने इसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। लोक कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच दिया। तब दुनिया छत्तीसगढ़ के बज्र देहात में फलने-फुलने वाली कलाओं से दुनिया रूबरू हो सकी। अपने रंगमंचीय सफर के दौरान हबीब ने रंगमंच को आंदोलन पैदा करने वाली कार्यशाला में तब्दील कर दिया। उनके नाटक थिएटर से निकलकर सामाजिक आंदोलन का विस्तार देते मालूम पड़ते हैं। सन् 1954 में जब उनका नाटक आगरा बाजार मंचित हुआ तो इसकी खूब चर्चा हुई थी। आज पचपन साल बाद भी उसकी ताप बरकरार है। नाटक की प्रासंगिकता बनी हुई है। इस नाटक के माध्यम से उठाए गए मुद्दे बाजारवाद के इस दौर में एक तल्ख सच्चाई बयान करते हैं। पोंगा पंडित नाटक जब मंचित हुआ तो हबीब एक राजनीतिक पार्टी और अतिवादी धार्मिक संगठन के निशाने पर आ गए। इन पर हमले भी हुए। लंबे समय तक उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। पर एक कलाकार के कर्म को उन्होंने धर्म की तरह निभाया। अंत तक आंदोलन का तेवर रंगमंच के इस शख्स में बना रहा। प्रयोगधर्मिता उनके कोमल स्वाभाव का सबल पक्ष था, जो अंत तक बरकरार रहा। वैसे हबीब के करीबी लोग के अनुसार उनका घर धर्मनिरपेक्षता की एक मिसाल है। वे जरूर एक मुस्लिम परिवार से थे। पर उनके घर भगवान की पूजा होती थी। शंख फूंके जाते थे। आरती होती थी। दरअसल उनकी पत्नी गैर मुस्लिम परिवार से थीं। लेकिन,उन्होंने कभी अपनी पत्नी को धर्म बदलने को नहीं कहा। उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरुआत की थी। बाद में रंगकर्मी हो गए। कुछ फिल्मों में भी काम किया। जैसे- सन् 1982 में प्रदर्शित हुई रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में इक छोटी से भूमिका निभाई थी। फिल्म प्रहार में भी उन्होंने काम किया था। और भी कई हैं। खैर, जब 97 वर्षीय जोहार सहगल ने कहा, “हबीब जैसा इंसान नहीं देखा। उसकी कला की रूहकभी मिट नहीं सकती।” तब एहसास होता है कि हमने क्या खोया है ? रंगमंच से जुड़े युवा मानते हैं कि हबीब तो पितामह थे। उनकी मौजूदगी हिम्मत बढ़ाती थी। अब उनकी यादें ऐसा काम करेंगी। मालूम पड़ता है कि आज से सौ साल बाद भी यानी 185 वर्ष की उम्र में वे इस दुनिया से जाते तो लोग जरूर कहते इतनी जल्दी क्यों चले गए हबीब ? *इस लेख को **‘**प्रथम प्रवक्ता**’** में छपना था। इसलिए दीवान के साथियों को पहले पढ़ा नहीं पाया।* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090617/1df249ee/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Jun 17 14:10:22 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 17 Jun 2009 14:10:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSsIOCkpw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSs4KWAIOCkleClhyDgpJXgpYHgpKTgpY3gpKTgpYcg4KSo4KS/?= =?utf-8?b?4KSV4KSy4KWH?= Message-ID: <196167b80906170140p24e2a0bcq1004bd99be05ab53@mail.gmail.com> यह कविता यूथ फॉर जस्टिस के विक्रम शील के जानिब से आई है...बात में वजन गहरा था तो आप बंधुओ की नजर कर रहा हूँ... सिर पर आग पीठ पर पर्वत पाँव में जूते काठ के क्या कहने इस ठाठ के।। यह तस्वीर नयी है भाई आज़ादी के बाद की जितनी कीमत खेत की कल थी उतनी कीमत खाद की सब धोबी के कुत्ते निकले घर के हुए न घाट के क्या कहने इस ठाठ के।। बिना रीढ़ के लोग हैं शामिल झूठी जै-जैकार में गूँगों की फरियाद खड़ी है बहरों के दरबार में खड़े-खड़े हम रात काटते खटमल मालिक खाट के क्या कहने इस ठाठ के।। मुखिया महतो और चौधरी सब मौसमी दलाल हैं आज गाँव के यही महाजन यही आज खुशहाल हैं रोज़ भात का रोना रोते टुकड़े साले टाट के क्या कहने इस ठाठ के।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090617/9c10e469/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Jun 17 15:01:10 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Jun 2009 15:01:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjHgpLXgpYDgpIIg?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KWAIOCkleClgCDgpJvgpLLgpJvgpLIg4KSJ4KSa4KWN4KSb4KSy?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkguCkpuClgCAtIDE=?= Message-ID: <200906171501.11913.ravikant@sarai.net> दोस्तो, दीवान पर भाषा के सवाल पर इस तरह की बातें होती रही हैं. लेकिन अगर यही बात अरविँद कुमार जैसे वरिष्ठ भाषाकर्मी करें तो ज़ाहिर है, ज़्यादा सुनी जाएगी, सुनी जानी चाहिए. लिहाज़ा मैं इसे शेष-52(अप्रैल-जून, 2009; संपादक: हसन जमाल) से साभार पेश कर रहा हूँ. अरविंद कुमार को आप जानते होंगे. वही पहले समांतर कोश(नैशनल बुक ट्रस्ट), फिर सहज समांतर कोश(राजकमल), और आख़िर में पेगुइन द्वारा तीन खंडों में प्रकाशित दि इंग्लिश हिन्दी डिक्शनरी व इंडेक्स के संकलक व संपादक. लेकिन जैसा कि वे अपने इस लेख में बताते हैं, वे भाषा की दुनिया में दिल्ली प्रेस की कैरेवैन व सरिता जैसी पत्रिकाओं से दाख़िल होते हैं. उसके बाद तो उन्होंने माधुरी नामक फ़िल्मी पत्रिका का संस्थापक-संपादक बनकर जो यश कमाया वह अपनी मिसाल आप है. इधर अपने शोध के सिलसिले में माधुरी की पुरानी फ़ाइलें देखते हुए जो बात मुझे सबसे दिलचस्प लगी वह यह कि उन्होंने किस लगन से धुर फ़िल्म-विरोधी हिन्दी के बुद्धिजीवियों व आम पाठकों के ड्रॉइंग रूम तक फ़िल्मों के मुहावरे को पहुँचाने का काम किया. वह भी उस समय जब सिनेमा को समझने की कोशिश कम-से-कम उत्तर भारत में तो कुछ इदारों या अवाँगार्द सिनेप्रेमियों तक महदूद थी. साठ के दशक में बन रहे इस महासेतु के कई खंड थे: जैसे साहित्य और सिनेमा के बीच का पुल, शब्द और चल व अचल-चित्र के बीच का पुल, उच्च साहित्य और पटरी साहित्य का पुल(जो वाक़ई सिनेमा के समंदर में एकमेक होता नज़र आता है), सार्थक व व्यावसायिक सिनेमा का पुल, हिन्दी व उर्दू के बीच का पुल, सिनेमा और राजनीति का पुल, सिने-निर्माताओं, वितरकों, प्रदर्शकों व दर्शकों के बीच का पुल और शास्त्रीय संगीत, गीत और उसकी लोकप्रिय पैरॉडी के बीच का पुल. इतने खंडोँ मेँ बने इस महापुल के हर हिस्से पर मैं उनसे एक लंबी बातचीत कर रहा हूँ. उनसे मिलने की हसरत समांतर कोश के दिनों से ही रही है, लेकिन शुक्रिया आलोक पुराणिक का जिन्होंने चुटकी बजाते हुए मुझे उनसे न सिर्फ़ वक़्त मुक़र्रर किया बल्कि मुझे लेकर उनके घर तक समारोहपूर्वक लेकर भी गए. ये बातचीत दीवान-3 में किसी न किसी रूप में छपेगी, पहले ख़त्म तो हो, क्योंकि अभी तो शुरू ही हुई है! एक बात और: माधुरी न सिर्फ़ एक अच्छी फ़िल्मी पत्रिका थी, बल्कि ये एक सुंदर, स्वस्थ और सुसंपादित पत्रिका भी थी, जो अस्सी के दशक में जाकर बंद हुई. और क्या मजाल कि आप पेज-दर-पेज पढ़ते हुए कोई भाषा या व्याकरण की ग़लती निकाल लें! और *शेष* अगर आपने नहीं देखा है तो ज़रूर देखें. हसन जमाल साहब काफ़ी मेहनत से दो ज़बानों(लिपियों नहीं) की ये पत्रिका निकालते आ रहे हैं, और हम तक भेजने की इनायत भी करते रहे हैं. हर शुमारे में कुछ-न-कुछ पढ़ने लायक़ अवश्य होता है. बस, फ़िलहाल तो अरविंद कुमार को पढ़ें, जो इस उम्र में भी बच्चों का-सा उत्साह लिए अब एक बड़ी सी डिजिटल डिक्शनरी बनाने में लगे हुए हैँ, जो अंग्रेज़ी-हिन्दी समांतर कोश का परिवर्धित रूप होगी, और एक साथ कई खिड़कियों और अर्थछटाओं को हायपरलिंकित करके आपकी ज़िन्दगी आसान कर देगी. शुक्रिया रविकान्त 21वीं सदी की छलछल उच्छल हिंदी --अरविंद कुमार 24 अप्रैल 2007 के हिंदुस्तान (दिल्ली) के मुखपृष्ठ पर छपे एक चित्र का कैप्शन था-- "पीऐसऐलवी सी-8 से इटली के उपग्रह एजाइल को कक्षा में स्थापित कर भारत ने ग्लोबल स्पेस मार्केट में प्रवेश किया. इसरो की यह उड़ान पहली व्यावसायिक उडान थी. इसरो दुनिया की अग्रणी एजेसि यों की श्रेणी में आया. (श्रीहरिकोटा से) लांचिंग के दौरान सतीश धवन केंद्र के इसरो प्रमुख जी. माधवन व वरिष्ठ वैज्ञानिक मौजूद थे." यह है आज़ादी के साठवें दशक में नौजवान हिंदुस्तान और नौजवान हिंदी -- संसार से बराबरी के स्तर पर होड़ करने के लिए उतावला हिंदुस्तान. और पूर्वग्रहों से मुक्त हर भाषा से आवश्यक शब्द समो कर अपने को समृद्ध करने को तैयार हिंदी, जिस ने उसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय नगर न्यू यार्क में सफल विश्व सम्मेलन किया, और अपने लिए अधिकारपूर्वक जगह माँगी. आज के हिंदुस्तान और आज की हिंदी के जो उदाहरण मैं ने दिए, वैसे आप को आज हर हिंदी अख़बार में हर दिन मिल जाएँगे... कहाँ 1947 का वह देश जहाँ एक सूई भी नहीं बनती थी, जहाँ चमड़ा कमा कर बाहर भेजा जाता था, और जूते इंपोर्ट किए जाते थे. जहाँ साल दो साल बाद भारी अकाल पड़ते थे. बंगाल के अकाल के बारे में आजकल के लोग नहीं जानते, पर अँगरेजी राज के हिंदुस्तान की वही सच्ची तसवीर है--भूखा नंगा कि सान, बेरोज़गार नौजवान. कहाँ आज अपनी धरती से देशी राकेट में अंतरिक्ष की व्यवासायिक उड़ान भरने वाला, चाँद तक अपने राकेट भेजने वाला देश! आज़ादी में हिंदी का पहला मतलब... ऐसे में मेरा मन छह दशक पीछे चला जाता है. होश सँभालने पर मैं ने आज़ादी की लड़ाई के अंतिम दो ती न वर्ष ही देखे--1945 से 1947 तक. 15 अगस्त की झूमती गाती मस्ती और उत्साह से रात भर सो न सकने वाली दिल्ली मुझे याद है. मुझे यह भी याद है कि किस प्रकार सितंबर से सांप्रदायिक दंगों से घिरी दिल्ली में हमारा स्वयंसेवकों का दस्ता दिन भर करौल बाग़ के आसपास के उन मकानों का जायजा लेता था जिन के निवासी पाकिस्तान जाने वाले शिविरों में चले गए थे (ऐसे ही एक घर में मैं ने तवे पर अधपकी रोटी देखी थी, और किसी कमरे में किताबों से भरे आले अल्मारियाँ देखे थे, जिन में से मैं प्रसिद्ध अँगरेजी उपन्यास वैस्टवर्ड हो उठा लाया था), और रात को रेलवे स्टोशन पर उतरने वाले रोते बिलखते या सहमे बच्चों वाले परिवारों को ट्रकों में लाद कर उन घरों में छोड़ आता था. आज़ादी के पहले दिनों की याद आए और वे दिन याद न आएँ ऐसा हो नहीं सकता. मुझे याद है आम आदमी की तरह हमारे मनों में भाषा को ले कर कोई एक बात थी तो थी अँगरेजी से मुक्त होने की ललक. (मैं मैट्रिक पास कर चुका था, कोई भाषाविद नहीं था, पर भाषा प्रेम तो कूट कूट कर भरा था.) चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अँगरेजी की सफ़ाई बिदाई के बाद हिंदी की ता जपोशी हो, सत्ताभिषेक--जल्दी से जल्दी, तत्काल, फौरन. उन दिनों जनता के स्तर पर ब्रिटिश इंडिया में हिंदी कहीं नहीं थी. कोर्ट कचहरी थाने तहसील में काररवाई अँगरेजी के बाद उर्दू में होती थी. कारण ऐतिहासिक थे. लेकिन हिंदी वालों के मन में उर्दू का विरोध भी गहरे बसा था. उसे सांप्रदायिक रंग भी दिया जाता था, जिस के पीछे एक भ्रामक नारा था -- हिंदी, हिंदु, हिंदुस्ता न. जैसे देश मलयालम, तमिल, गुजराती, बांग्ला आदि भाषाएँ हों ही नहीं! उत्तर भारत के बहुत सारे लोगों को वह नारा मोहक लगता था. आज़ाद होते ही हर क्षेत्र की तरह भाषा के क्षेत्र में भी देश ने दूरगामी क़दम उठाने शुरू कर दिए. तरह तरह के वैज्ञानिक संस्थान और शिक्षा के लिए अच्छे से अच्छे तकनीकी विद्यालयों की योजनाएं बनाई जाने लगीं. छलाँग लगा कर पचास सालों में तेज दौड़ती दुनिया के निकट पहुँचने के पंचवर्षीय यो जनाएँ बनीं. आकलन किया गया था कि 1984 के आसपास हम लक्ष्य के कहीं क़रीब होंगे. 84 तक हिंदुस्तान की उन्नति का लांचिंग पैड तैयार हो चुका था, अब उडानें नज़र आ रही हैं. इसी प्रकार हिंदी की उन्नति के लिए आयोग बने, नई शब्दावली का निर्माण आरंभ हुआ. तरह तरह के कोशों के लिए अनुदान दिए गए. डाक्टर रघुवीर की कंप्रीहैंसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी और पंडित सुंदर लाल का विवादित हिंदुस्तानी कोश उन्हीं अनुदानों का परिणाम थे. हिंदी के सामने चुनौती थी उस अँगरेजी तक पहुँचने की जो औद्योगिक क्रांति के समय से ही तकनीकी शब्द बनाती आगे बढ़ रही थी. वहाँ शब्दों का बनना और प्रचिलत होना एक ऐसी प्रक्रिया थी, जैसे सही जलवायु में किसी बी ज का विशाल पेड़ बन जाना. हिंदी के पास यह सुविधा नहीं थी, या कहें कि इस का समय नहीं था. रास्ते में उसे ग़लतियाँ करनी ही थीं. ऊपर वाले दोनों कोश वैसी ही ग़लतियाँ कहे जा सकते हैं. (रघुवीरी कोश को भी ग़लती मान कर मैं ने कोई कुफ़्र तो नहीं कर दिया? लेकिन मैदाने जंग में शहसवार ही गिरते हैं, घुटनों के बल चलने वाले बच्चे नहीं. डाक्टर रघुवीर हमारे कुशलतम घुड़सवार थे, इस में कोई शक नहीं.) आज़ादी के बाद हिंदी का मतलब पंडिताऊ हिंदी से बचती लेकिन संस्कृत शब्दों से प्रेरित नवसंस्कृत शब्दों वाली भाषा हो गया था. अचानक राष्ट्रभाषा और राज्यभाषा पद पर बैठने वाली भाषा को अँगरेजी की सदियों में बनी वौकेबुलैरी के नज़दीक पहुँचना था. हिंदी के लिए तकनीकी शब्दावली बनाने का महाभियान या आपरेशन शुरू किया गया. यह ज़रूरी भी था. नई स्वतंत्र राष्ट्रीयता के जोश में वैज्ञा निकों के साथ बैठ कर हिंदी विद्वान शब्द बनाने बैठे. जैसा चीन में हुआ वैसा ही भारत में भी. तकनी की शब्दों के अनुवाद, कई जगहों पर अनगढ़ अप्रिय अनुवाद, किए जाने लगे. जो भाषा बनी वह रेडियो समाचारों और हिंदी दैनिकों पर कई दशक छाई रही. लेकिन लोकप्रिय न हो पाई. कारण: यह फ़ैक्ट ओवरलुक कर दिया गया कि तकनीकी शब्द वे लोग बनाते हैं जो कोई उपकरण यूज़ करते हैं या इनवैंट करते हैं. यह भी नज़रंदाज कर दिया गया कि उन्नीसवीं सदी वाली आधी-ऊँघती आधी-जागती दुनिया इक्कीसवीं सदी की तरफ़ दौड़ रही है. अब इनफ़ौर्मेशन क्रांति के युग में हर रोज़ इतनी सारी नई चीज़ें बन रही हैं कि उन के नामों का अनुवाद करते करते और अनुवाद को लोकप्रिय करते करते संसा र हमें पीछे छोड़ जाएगा. जो भी हो पिछले सौ सालों में हिंदी में जो तीव्र विकास हुआ है, एक आधुनिक संपन्न भाषा उभर कर आई है, वह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है. लैटिन से आक्रांत इंग्लैंड में अँगरेजी को जहाँ तक पहुँचने में पाँच सौ से ऊपर साल लगे, वहाँ तक पहुँचने में हिंदी को मेरी राय में कुल मिला कर डेढ़ सौ साल लगेंगे--2050 तक वह संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी-- सिवाए एक बात के. वह यह कि आज अँगरेजी संसार में संपर्क की प्रमुख भाषा है. इस स्थान तक हिंदी शायद कभी न पहुँचे, या पहुँचे तो तब जब भारत दुनिया का सर्वप्रमुख देश बन पाएगा. दुरदिल्ली! संख्या की दृष्टि से हिंदी बोलने वाले आज दुनिया में चौथे स्थान पर हैं. वे धरती के हर कोने में मिलते हैं. कई देशों में वे इनफ़ौर्मेशन तकनीक में मार्गदर्शक ही नहीं नेता का काम कर रहे हैं, जब कि भारत में यह तकनीक काफ़ी बाद में पहुँची. इस सब के पीछे है वह आंतरिक ऊर्जा जो हर भारतवासी के मन में है. वह ललक जो हमें किसी से पीछे न रहने के लिए उकसाती है. अँगरेजी राज के दौरान भी यह भावना हम में सजग थी. कुछ सत्ता सुख भोगी या सत्ताश्रित वर्गों के अलावा आम आदमी ने विदेशी राज को कभी स्वीकार नहीं किया. इतिहास गवाह है... इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रकार और स्तर पर अंतरसांस्कृतिक संपर्क परिवर्तन और विकास का प्रेरक रहा है. भारत के आधुनिकीककरण के पीछे अँगरेजी शासन और यूरोपीय संस्कृतियों से संपर्क के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. राजा राम मोहन राय के ज़माने से ही समाज को बदलने की मुहिम भीतर तक व्यापने को उतावली हो गई थी. सुधारों के सतही विरोध के बावजूद ऊपरी तौर पर दक़ियानूसी दिखाई देने वाले लोग भी एक अनदेखी सांस्कृतिक प्रणाली से साबक़ा पड़ने पर मन ही मन अपने को बदलाव के लिए तैयार कर रहे थे. ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे आंदोलन यूरोप, सत्ता द्वारा प्रचारित ईसाइयत और विदेशी शासन कं ख़िलाफ़ और अपने आप को उस से बेहतर साबित करने के तेजी से लोकप्रिय होते तरीक़े थे. इंग्लिश थोप कर भारतीयों को देसी अँगरेज बनाने की मैकाले की नीति उलटी पड़ चुकी थी. वह केवल कुछ काले साहब बना पाई, आम जनता जिन का मज़ाक़ उड़ाती रही. मैकाल की मनोकल्पना के विपरीत अँगरेजी शिक्षा ने विरोधी विचारकों और नेताओं की एक पूरी फ़ौज ज़रूर तैयार कर दी जो यूरोप में प्रचलित नवीनतम बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को समझ कर अँगेरजी शासन के ख़िलाफ़ जन जागरण का बिगुल फूँकने लगे. इस परिप्रेक्ष्य में कई बार विचार जागता है कि अगर मैकाले न होता, उस ने अँगरेजी न थोपी होती, तो क्या हमारा देश आज भी अफ़गानिस्तान ईरान और अनेक अरब देशों जैसा मध्यकाल में रहने वाला देश न रह जाता! आज जापान दुनिया में हम से भी बहुत आगे है. जापान में सम्राट मेजी का जो सुधार अभियान (चुने नौ जवानों को अमेरिका भेज कर अँगरेजी सिखाना, नवीनतम तकनीक सीख कर देश को आधुनिक बनाना, और कुरीतियों को मिटा कर समाज सुधार करना) 19वी सदी के अंतिम दो दशकों में आरंभ हुआ, भारत में उस की नीवं मैकाले ने अँगरेजी शिक्षा का माध्यम बना कर अनजाने ही लगभग पचास साल पहले रख दी थी. तकनीकी विकास पर ज़ोर हमारे यहाँ नदारद था, क्यों कि वह शासकों के हित में नहीं था. लेकिन तकनीकी विकास और भारत की पुरानी तकनीकी अग्रस्थिति को फिर से पाने की तमन्ना भारत में आज़ादी की पहली लड़ाई से पहले ही जाग उठी थी. अँगरेजो से लड़ाई के लिए टीपू सुल्तान ने फ़्रांस से संपर्क किया था, कई नौजवान वहाँ भेजे थे, नवीनतम तकनीक सीखने. टीपू की हार ने वह सब समाप्त कर दिया. ढाके की मलमल का और किस प्रकार उसे बनाने वाले कारीगरों के अँगूठे कटवाए गए--इस बात का जिक्र बीसवीं सदी के स्वतंत्रता आंदोलनों पर लगातार छाया रहा. 1857 से कुछ वर्ष पहले ही सेठ रणछोड़ ने अहमदाबाद में पहली सूती मिल खोल दी थी. जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने इस्पात संयंत्र की स्थापना बीसवीं सदी के मुख पर 1907 में कर दी थी. स्वदेशी आंदोलन इस से पहले शुरू हो चुके थे. समाज सुधार और आज़ादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था. हिंदी राजनीतिक संवाद की भाषा और जनता की पुकार बनी. पत्रकारों ने इसे माँ जा, साहित्यकारों ने सँवारा. उन दिनों सभी भाषाओं के अख़बारों में तार द्वारा और टैलिप्रिंटर पर दुनिया भर के समाचार अँगरेजी में आते थे. इन में होती थी एक नए, और कई बार अपरिचित, विश्व की अनजान अनोखी तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक शब्दावली जिस का अनुवाद तत्काल किया जाना होता था ताकि सुबह सबेरे पाठकों तक पहुँच सके. कई दशक तक हज़ारों अनाम पत्रकारों ने इस चुनौती को झेला और हिंदी की शब्द संपदा को नया रंगरूप देने का महान काम कर दिखाया. पत्रकारों ने ही हिंदी की वर्तनी को एकरूप करने के प्रयास किए. वाराणसी का ज्ञान मंडल का कोश दैनिक आज के संपादन विभागाों से उपजे विचारों और उसके प्रकाशकों की ही देन है. मुझ जैसे हिंदी प्रेमियों के लिए यह वर्तनी का वेद है. तीसादि दशक में फ़िल्मों को आवाज़ मिली. बोलपट या टाकी मूवी का युग शुरू हुआ. अब फ़िल्मों ने हिंदी को देश के कोने कोने में और देश के बाहर भी फैलाया. संसार भर में भारतीयों को जोड़े रखने का काम बीसवीं सदी में सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, पत्रकारों, साहि त्यकारों और फ़िल्मकारों ने बड़ी ख़ूबी से किया... ...क्रमश: From ravikant at sarai.net Wed Jun 17 15:02:27 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Jun 2009 15:02:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjHgpLXgpYDgpIIg?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KWAIOCkleClgCDgpJvgpLLgpJvgpLIg4KSJ4KSa4KWN4KSb4KSy?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkguCkpuClgCAtIDI=?= Message-ID: <200906171502.28636.ravikant@sarai.net> आज कुछ वर्गों में ग्लोबलाइज़ेशन का विरोध फ़ैशन बन गया है. ग्लोबलाइज़ेशन या ग्लोबलन या फिर सुधी श पचौरी के बनाए शब्द ग्लोकुल के आधार पर ग्लोकुलन है क्या? व्यापारिक, सांस्कृतिक और संप्रेषण के स्तर पर दुनिया का एक गाँव भर बना जाना, या ऐसा परस्पर-संपृक्त कुल बन जाना जो परस्पर तत्काल व्यवहार कर रहा हो, एक दूसरे से आदान प्रदान कर रहा हो. आज आज़ाद हिंदुस्तान इस दुनि या में अपनी जगह सुदृढ़ करने के लिए उतावला है. हिंदी का विकास और प्रसार इस में सबल भूमिका निभा रहा है. परिणामस्वरूप भाषाई स्तर पर जो उलटफेर हो रहा है, उस से कुछ हिंदी वाले कई तरह की आशंकाओं, दुश्चिंताओं और भयों से त्रस्त हैं. कई प्रतिक्रियाएँ तो ऐसी हैं जो इस वैश्विक परि वर्तन के युग में, अंतरराष्ट्रीय (विशेषकर इंग्लिश) शब्दावली की तीखी भरमार के कारण देखने को मि लती हैं. ग्लोकुलन कोई नई प्रक्रिया नहीं है. बड़ी संख्या में मानविकी, नृवंशिकी, भाषाविज्ञानी मानते हैं कि कोई दो हज़ार संख्या वाले एक मानव वंश ने पेचीदा भाषा रचना का गुर पा लिया. भाषा के हथिया र के सहारे यह वंश सुनियंत्रित सुगठित दलों की रचना कर के वे भयानक जीवों पर विजय पा सकने में सफल हो गया. उस का वंश तेजी से बढ़ने फैलने लगा. तकरीबन 50 हज़ार साल पहले इस के वंशजों को नौपरिवहन के गुर पता चल गए तो अरब सागर (पुरानी शब्दावली में वरुण सागर) पार कर के वे भारत भूखंड के उत्तर पश्चिम तट पर कहीं गुजरात के आसपास भी पहुँचे थे. यहाँ से वे कई दिशाओं में बढ़ते चले गए. यह था पहला ग्लोकुलन अभियान. अफ़्रीका में टिके रहे साथी पूरे महाद्वीप में फैलते रहे. जो लोग भारत आ गए थे, वे देश में तो फैले ही, साथ साथ अफ़ग़ानिस्तान-इराक़-ईरान के रास्ते एक तरफ़ यूरोप, दूसरी तरफ़ चीन, मंगोलिया, जापान और एशिया के उत्तर पूर्वी छोर से अलास्का के रास्ते अमरीकी महाद्वीपों तक छा गए. मानव वंश बढ़ता बँटता रहा, बदलते देश, भूगोल और आवश्यकताओं के अनुसार भाषाएँ बनती बदलती रहीं. अब दुनिया विविध जातियों और 5,000 से अधिक भाषाओं में बँटी है. उन की मूल भाषा का कोई रूप अब नहीं मिलता. इसी ग्लोकुलन के सहारे मानव सभ्यता आगे बढ़ी है. पिछली तीन चार सदियों में विज्ञान और औद्योगिक क्रांति ने बिखरी जातियों और भाषाओं को बड़े पैमाने पर नजदीक लाना शुरू कर दिया था. कभी साम्राज्यों के द्वारा, कभी विचारों के द्वारा. आज हम लोग ग्लोकुलन की नवीनतम और सबलतम धारा के बीच है. दुनिया तेजी से छोटी हो रही है. ग्लोब का कोई कोना आवागमन की तेज धारा से बचा नहीं है. स्वयं हिंदुस्तान के लोग किस कोने में नहीं हैं? उन पर सूरज कभी नहीं डूबता. पिछले दशकों में सूचना तकनीक में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई है. इस में हम भारतीयों का योगदान कम नहीं है, तो इस लिए भी कि हम अँगरेजी भाषा में पारंगत हैं. संप्रेषण के क्षेत्र में व्यापकता और तात्कालिकता आई है. सारी दुनिया हर ख़बर साथ साथ अपनी आँखों देखती है. लिखित समाचार के ऊपर बोला गया वाचिक रिपोर्ताज हावी होता जा रहा है. मुम्ाकिन नहीं था कि इस सब का असर समाज और भाषा पर न पड़े. सारी भाषाएँ बदला व की तेज रौ में बह रही हैं. नई तकनीकें नए विचार, नए शब्द, ला रही हैं. विश्व के परस्पर संलग्नन का सब से ज़्यादा असर जीवन स्तर और शैली पर और भी ज़्यादा हुआ है. हर साल नए से नया परिवर्तन. नई समृद्धि का संदेश, नई आशा! नए से नया बेहतरीन माल! हिंदुस्तान अब वह नहीं है जो 1907 में था, या 1947 में या 1957 में था. आज का नौजवान हिंदुस्तान वह नहीं है जो 1991 में था. 2001 से 2007 तक भी इंडिया बदल गया है. 1947 में बीए ऐमए पढ़े लिखे युवक के सामने रोज़गार के गिने चुने पेशे थे. पहला क्लर्की, टाइपिंग, शार्टहैंड, अध्यापकी. वह भी सिफ़ारिश हो तो. कोई कोई प्रबंधन में भी पहुँच जाता था. मैनेजमैंट के स्कूल नहीं थे. कामर्स वाले अकाउंटैंट बन सकते थे. साइंस पढ़ने पर भी कुछ ख़ास अवसर नहीं थे. हाँ, इंजीनियरिंग वालों के लिए संभावनाएँ थीं. पर कितनी? इंजीनियरिंग सिखाने के संस्थान ही कितने थे! आज हर तरफ़ उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए मारामारी हो रही है! नए से नए कालिज खुल रहे हैं. मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर छात्रों को अंतिम वर्ष पार करने से पहले ही दुनिया के इंडस्ट्रियलिस्ट मुँहमाँगे इनकम पैकेज पर रखने को मुँह फाड़े खड़े रहते हैं. इस के पीछे देश में अँगरेजी जानने पढ़ने और लिखने वालों की बेहद बड़ी संख्या होना है. मध्य वर्ग की संख्या और ख़रीद शक्ति का विस्तार हुआ है. सब से पहले मोबाइल उस के पास आए, एक से एक बढ़िया माल उसे मिल सकता है. कंप्यूटर, इंटरनैट जीवन का आवश्यक अंग है. बहुत सारी ख़रीद फ़रोख्त वह आनलाइन करता है. हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदता, न्यू यार्क में होटल बुक करता है. नई से नई कारों के माडल उस के पास हैं. क्रैडिट कार्ड, एटीऐम. सब का असर भाषा पर न पड़े यह संभव नहीं था. आज़ादी के बाद हिंदुस्तान ने और हिंदी ने कट्टर अंगरेजी विरोध का युग देखा. हम चाहते थे अँगरेजी का कोई शब्द हमारी भाषा में न हो. ऐसी हिंदी बने जिस में किसी और बोली का पुट न हो. लेकिन दुनिया में ऐसा कभी होता नहीं है कि कोई भाषा दूसरी भाषाओं से अछूती रहे. अँगरेजी का पहला आधुनिक कोश बनाने वाले जानसन का सपना था कि अपनी भाषा को इतना शुद्ध और सुस्थिर कर दें कि उस में कोई विकार न हो. यही सपना अमेरिका में कोशकार वैब्स्टर ने भी देखा था. उन की अँगरेजी आज हर साल लाखों नए शब्द दुनिया भर से लेती है! यहाँ तक कि वह जय हो को भी लेना चाहती है. आज हिंदी रघुवीरी युग से निकल कर नए आयाम तलाश रही है. अँगरेजी शब्दों का होलसेल आयात कर रही है, बस यही परेशानी है जो शुद्धतावादियों की पेशानी को परेशान कर रही है. कहा जा रहा है, हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट रही है. टीवी चैनलों ने तो हद कर दी है! कुछ का कहना है कि यह विकृत भाषा मानवीय संवेदनाओं को छिछले रूप में ही प्रकट कर सकने की क्षमता रखती है, इस से अधिक नहीं. उन्हें डर है हिंदी घोर पतन के कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली... और... उन्हें लगता है कि वह दिन जल्दी आएगा, जब कह सकेंगे-- लो फिसल ही गई! वे लोग भूल जाते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ती रही है तो इस लिए कि वह पिछली दस सदियों से अपने आप को हर बदलते समय के साँचे में ढालती रही, नए समाज की नई ज़रूरतों के अनुसार नई शब्दावली बना कर या उधार ले कर समृद्ध होती रही है. आज़ादी के बाद नए से नए सृजन आंदोलनों से यह समृद्ध हुई, सजीव बहसों से गुज़री. इन बहसों में जो गरिष्ठ हिंदी तथाकथित विद्वान लिखते थे, वह कठि नतम भाषाओं के उदाहरण के रूप में पेश की जा सकती है. इसी रुझान में रेडियो के समाचारों में जो हिं दी सुनने को वह सब के सिर से उतर जाती थी. भाषाई आयोगों और रघुबीरी कोशों को आर्थिक सहा यता देने वाले पंडित नेहरु शिकायत करते सुने जाते थे कि यह हिंदी वह नहीं समझ पा रहे. पर विद्वज्जन (!) यह कह कर टाल देते कि परिवर्तन के दौर में ऐसा तो होता ही है. एक दिन आम आदमी यही भाषा बोलने लिखने लगेगा. ऐसा हुआ नहीं. हिंदी को विश्वनाथ जी का योगदान... मेरा सौभाग्य है कि चौँसठ सालों से (1945 से) मैं मुद्रण, पत्रकारिता (सरिता, कैरेवान, मुक्ता, मा धुरी, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजैस्ट) से जुड़ा रहा हूँ. पत्रकार, लेखक, अनुवादक, कला-नाटक-फ़िल्म समीक्षक होने के नाते अनेक क्षेत्रों से मेरा साबक़ा पड़ा. दिल्ली में रंगमंच से सक्रिय संपर्क रहा, और मुंबई में फ़िल्मों की दुनिया को निकट से देखने का मौक़ा मिला. इस का लाभ हुआ भिन्न विधाओं की भाषा समस्याओं को नज़दीक से देखना समझना. चाहे तो कोई भाषा को कितना ही गरिष्ठ बना सकता है. लेकिन पाठक को दिमाग़ी बदहज़मी करा के न लेखक का कोई लाभ होता है, न लेखक की बा त पाठक पचा पाता है--यह पाठ मुझे पत्रकारिता और लेखन में मेरे गुरु सरिता-कैरेवान संपादक विश्वनाथ जी ने शुरू में ही अच्छी तरह समझा दी थी. हिंदी साहित्यिक दुनिया में विश्वनाथ जी का नाम कभी कोई नहीं लेता. सच यह है कि 1945 में सरि ता का पहला अंक छपने से ले कर अपने अंतिम समय तक उन्हों ने हिंदी को, समाज को, देश को जो कुछ दिया वह अप्रशंसित भले ही रह जाए, नकारा नहीं जा सकता. उन्हों ने भाषा का जो गुर मुझे सिखा या, वह अनायास मिला वरदान था. सरिता के संपादन विभाग तक मैं 1950 के आसपास पहुँचा. उपसंपादक के रूप में मैं हर अंक में बहुत कुछ लि खता था. विश्वनाथ जी मेरे लिखे से ख़ुश रहते थे. मेरे सीधे सादे वाक्य उन्हें बहुत अच्छे लगते थै. लेकिन कई शब्द? एक दिन उन्हों ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, पूछा, "क्या तेली, मोची, पनवाड़ी, ये ही क्यों क्या आम आदमी, विद्वानों की भाषा समझ पाएगा? क्या यह विद्यादंभी विद्वान तेली आदि की भाषा समझ लेगा?" स्पष्ट है मेरे पास एक ही उत्तर हो सकता था: विद्वान की भाषा तो केवल विद्वान ही समझेंगे, आम आदमी की भाषा समझने में विद्वानों को कोई कठिनाई नही होगी. थोड़े से शब्दों में विश्वनाथ जी ने मुझे संप्रेषण का मूल मंत्र सिखा दिया था. जिस से हम मुख़ातिब हैं, जो हमारा पाठक श्रोता दर्शक आडिएंस है, हमें उस की भाषा में बात करनी होगी. मुझ से उस संवाद का परिणाम था कि विश्वनाथ जी ने सरिता में नया स्थायी स्तंभ जोड़ दिया: यह किस देश प्रदेश की भाषा है? इस में तथाकथित महापंडितों की गरिष्ठ, दुर्बोध और दुरूह वाक्यों से भरपूर हिंदी के चुने उद्धरण छापे जाते थे. उन पर कोई कमैंट नहीं किया जाता था. इस शीर्षक के नी चे उन का छपना ही मारक कमैंट था. जीवंत समाज और भाषा बदलते रहते हैं. हिंदुस्तान बहुत बदला है, बदल रहा है. हिंदी बदली है, बदल रही है, बदलेगी. मैं समझता हूँ न बदलना संभव नहीं है. न बदलेगी तो इस की गिनती संस्कृत जैसी मृत भाषाओं में होगी, जिस से विद्रोह कर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना 'भाषा' में की. मैं संस्कृत भाषा की समृद्धता के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहा हूँ. संस्कृत न होती तो हमारी हिंदी भी न होती. हमारे अधिकतर शब्द वहीं से आए हैं, कभी तत्सम रूप में, तो कभी तद्भव रूप में. संस्कृत जैसे शब्दों की हमारी एक बिल्कुल नई कोटि भी है. वे अनगिनत शब्द जो हम ने बनाए हैं, लेकिन जो प्राचीन संस्कृत भाषा और साहित्य में नहीं हैं. यदि हैं तो भिन्न अर्थों में हैं. इन नए शब्दों का आधा र तो संस्कृत है पर इन की रचना बिल्कुल नए भावों को प्रकट करने के लिए की गई है. इन्हें संस्कृत शब्द कहना ग़लत होगा. ये आज की हिंदी की पहचान बन गए हैं. उदाहरण के लिए अंगरेजी के कोऐग्ज़ि टैंस का हिंदी अनुवाद सहअस्तित्व . यह किसी भी प्रकार संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत में इसे सहास्ति त्व लिखा जाता. इस शब्द के पीछे जो भाव है वह भी संस्कृत में इस विशिष्ट संदर्भ में नहीं मिलेगा. इन शब्दों को हम नवसंस्कृत कह सकते हैं. समाचरण तो संस्कृत में है, लेकिन समाचार—ख़बर? मुझे पता नहीं. संस्कृत विशेषज्ञ ही बताएँगे कि समाचार का प्रयोग संस्कृत में ख़बर का उपयोग कितनी बार हुआ है... ...क्रमश: From ravikant at sarai.net Wed Jun 17 15:04:06 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Jun 2009 15:04:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjHgpLXgpYDgpIIg?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KWAIOCkleClgCDgpJvgpLLgpJvgpLIg4KSJ4KSa4KWN4KSb4KSy?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkguCkpuClgCAtIDM=?= Message-ID: <200906171504.07530.ravikant@sarai.net> इंडिया में न्यू हिंदी: रघुबीरी को ढूँढ़ते रह जाओगे! ख़ुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है, और रघुबीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. पत्रकार अब हर अँगरेजी शब्द का अनुवाद करने की मुसीबत से छूट चुके हैं. वे एक जीवंत हिंदी की रचना में लगे हैं. आतंकवादी के स्थान पर अब वे आतंकी जैसे छोटे और सार्थक शब्द बनाने लगे हैं. उन्हों ने बिल्कुल व्याकरण असंगत शब्द चयनित गढ़ा है, लेकिन वह पूरी तरह काम दे रहा है. आरोप लगाने वाले आरोपी का प्रयोग वे आरोपित व्यक्ति के लिए कर रहे हैं. अगर पाठक उन का मतलब सही समझ लेता है, यह भी क्षम्य माना जा सकता है. तकनीकी शब्दों या चीज़ों या नई प्रवृत्तियों के नामों के अनुवाद में सब से बड़ी समस्या एकरूपता की होती है. कोई रेडियो को दूरवाणी लिखेगा, कोई आकाश वाणी, कोई नभवाणी, तो कोई विकीर्ण ध्वनि... मेरी राय में नए अन्वेषणों का अनुवाद अनुपयुक्त प्रथा है. स्पूतनिक का अनुवाद नहीं किया जा सकता. गाँधी चरखे या अंबर चरख़े को अँगरेजी में इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. इंग्लैंड में आविष्कृत कताई मशीन स्पि निंग जैनी को हिंदी में कतनी छोकरी नहीं कहा जा सकता. ख़ुशी है कि रेलगाड़ी को लौहपथगामिनी लिखने वाले अब नहीं बचे. दैनिक पत्रों के मुक़ाबले टीवी की तात्कालिकता निपट तात्कालिक होती है, विशेषकर समाचार टीवी में. यह तात्कालिकता ही हमारी भाषा के नए सबल साँचे में ढलने की गारंटी है. नई भाषा की एक ख़ूबी है कि वह नई जीवन शैली जीने को उत्सुक नवयुवा पीढ़ी की भाषा है. यह पीढ़ी 1947 के भारत की हमारी जैसी पीढ़ी नहीं है. पर मुझ जैसे अनेक लोग हैं जो इस बदलाव के साथ बदलते आए हैं और बदलते ज़माने के साथ बदलते रहे हैं औ अपने आप को उस के निकट पाते हैं. मैं नहीं समझता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है. मैं तो कहूँगा कि वह हर दिन समृद्ध हो रही है. नए समाज में नौजवानों की अपनी भाषा बदल गई है. एक ज़माना था जब हिंदी समाचार पत्र दुकानदारों, नौकरों और कम पढ़ेलिखे लोगों के अख़बार माने जाते थे. आज हिंदी पत्रकार नई नौजवान पीढ़ी के लिए अख़बार निकाल रहे हैं. उन में शिक्षा के, रोज़गार के नए अवसरों की जा नकारी होती है. नई बाइकों कारों की जानकारी होती है. कभी देखा था इन्हें हिंदी दैनिकों में. नए ज़माने के नए शब्द बेहिचक, बेखटके, बेधड़क, निश्शंक, पूरे साहस के साथ ला रही है. दो तीन दिन के हिंदुस्तान और दैनिक जागरण से कुछ शब्द देता हूँ: हॉट शॉट, बॉलीवुड, ट्रेलर, चैनल, किरदार, समलैंगिक..., एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति), दिल्ली विवि (विश्वविद्यालय), रजिस्ट्रार, फ़्लाईओवर, स्टेडियम, पासवर्ड, इनफ़ोटेनमैंट, सब्स्क्राइबर, नैटवर्किंग, डायरैक्ट टु होम (डीटीएच). सेंट्रल लाइब्रेरी, ओपन स्कूल, हाईवे, इन्वेस्टमैंट मूड, प्रॉपर्टी, लिविंग स्टाइल, लो केशन, शॉपिंग सेंटर... 21वीं सदी के हिंदुस्तान ने ग़ुलामी के दिनों के अंधे अँगरेजी विरोध वाली मैंटलिटी से छुट्टी पा ली. नई सोसाइटी में रीडर बदल रहे हैं, भाषा बदल रही है. परिवर्तन को सब से पहले पहचाना मीडिया ने. उस की शैली बदल गई, भाषा बदल गई, नीति बदल गई. टीवी वाले तात्कालिकता के साथ नई सरपट ज़बान में भड़भड़ गाड़ी दौड़ाते हैं. पेश हैं हिंदी न्यूज़पेपर अब जो छाप रहें हैं, उस के कुछ नमूने-- हाई कोर्ट का आयोग से जवाबतलब (कहाँ गया उच्च न्यायालय?). कोर्ट ने औबीसी की पहचान का आधार पूछा... जस्टिस अरिजीत पसायत... आंबेडकर यूनिवर्सिटी के वीसी हटाए गए गुजरात के दंगों में बीजेपी के दो पार्षदों को सज़ा (भाजपा नहीं) पेट्रोल में सॉल्वेंट की मात्रा इतनी अधिक मिला देते हैं कि हाईटेक कार भी... हॉबवुड सर्फ़िंग सेशन के विनर रहे (विजेता नहीं) वज़ीराबाद वाटर ट्रीटमैंट प्लांट... 2 पीपीएम बढ़ जाएगी. एडमिशन शुरू होने से पहले (प्रवेश या दाखिला नहीं)... डीयू (दिल्ली विश्वविद्यालय) के अंडरग्रेजुएट कोर्सों में ... प्री-एडमिशन फ़ॉर्म व इनर्फ़मेशन बुलेटिन... स्टूडैंट्स को... (छात्र अब कितने लोग बोलते हैं?) लेटेस्ट इंस्ट्रूमेंट रोकेगा पानी की बरबादी एमसीडी व मेट्रो में विवाद इन्फ़्रास्ट्रकचर तैयार करने में जुटा, 1 सबस्टेशन अगले महीने शुरू रणपाल के एनकाउंटर से उठे कई सवाल ऑटो पेंट की फ़ैक्ट्री में आग इंटैग्रेेटिड टाउनशिप प्रोजेक्ट इंटरनेट सर्फ़िंग आसान होगी पाकिट सर्फ़र से... पाकिट सर्फ़र लॉन्च किया... कस्टमर बिना किसी सेल्यूलर या लैंडलाइन मोडेम से जोड़े ... इंटरनेट सर्फ़िग कर सकता है... चेन्नै में मैन्यूफ़ैक्चरिंग यूनिट लगा सकती है मोटोरोला... SBI को कलाम ने दिया 7 सूत्रीय मिशन बेहतर ट्रेनिग के लिए NIIT से हाथ मिलाया अक्रॉस दे बॉर्डर विंडो शॉपिंग रीडर्स मेल (पाठकों के पत्र नहीं) फ़ुटबॉल पॉपुलर खेल ही नही रहा, यह ग्लोबल रिलीजन बन गया है... मेरा कर्मा तू मेरा धर्मा तू... POLIO रविवार सर्विकल कैंसर वैक्सीन बुक ऑफ़ लाइफ़ में जुड़ा बड़ा अध्याय... वर्णावली सीक्वेंसिंग का काम पूरा कर लिया है. युवाओं का आइकॉन (आदर्श पुरुष नहीं, युवा हृदय सम्राट नहीं) आरक्षित आग्रहों का कवरेज (मीडिया में रिपोर्ट) अवार्ड की लाइन में बात थोड़ी सीरियस हुई ... मेरी हैक्टिक लाइफ़...तबीयत ख़राब होने के बाद रिकवरी... कैसे ऑर्गनाइज़ करें परफ़ेक्ट पार्टी ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ -- डबल ऑफ़र बीएसए ने किया इनकार, डीएम ने माँगा जवाब... वीआईपी का इंतज़ार बच्चों पर मार मोबाइल क्लोनिंग में चार दबोचे Jodee No* 1 copy -- Rs* 144 per month ताश के पत्तों की तरह गिरे पोल (खंभे नहीं) लाइफ़ में लाओ चेंज पुराना टीवी करो एक्सचेंज मास्को में दिल्ली फ़ेस्टिवल शुरू (समारोह या उत्सव नहीं) स्टूडेंट्स फ़ंडिग के लिए कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप एनबीटी कमबोला के लिए... बहुमूल्य वस्तु... डायमंड हो या प्लाज़्मा कलर टीवी... 108 लकी प्रतियोगियों के लिए art d' enox के फ़्री गिफ़्ट मिलते हैं... पिछले 3 कॉन्टेस्ट ... के टोटल... डियर रीडर्स...* सर्च इंजन (वर्गीकृत विज्ञापन नहीं.) - डाक्टर लड़का अवधिया कुर्मी (MBBS) 33/5'6'' (सरकारी सेवारत झारखंड सरकार) हेतु डा. वधु (MBBS/BDS) चाहिए... पिता सरकारी सेवारत (MS OBST & GYNAE) अपना नर्सिंग होम. - अंबष्ठ गोरी लंबी ख़ूबसूरत MBA, MCA, BE प्रतिष्ठित परिवार की लड़की मांगलिक 29/5'6" Sr* Software Engineer, Satyam Computer, Pune में कार्यरत लड़की के लिए कुछ इसे महापतन मानते हैं. लेकिन नई पीढ़ी को इस की ज़रा भी चिंता नहीं है. वे लोग भाषा कोश देख कर नहीं बोलते, न उन्हें अपने आप को विद्वानी हिंदी का दिग्गज साहबित करना है. ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में अपने नए शब्द नहीं बन रहे. सच यह है कि भाषा विद्वान नहीं बनाते, भाषा बनाते हैं भाषा का उपयोग करने वाले... आम आदमी, मिस्तरी, करख़नदार या फिर लिखने वा ले. घुड़चढ़ी शब्द डाक्टर रघुवीर नहीं बना सकते थे, न ही वे मुँहनोंचवा बना सकते हैं. कार मेकेनिकों ने अपने शब्द बनाए हैं, पहलवानों ने कुश्ती की जो शब्दावली बनाई है (कुछ उदाहरण: मरोड़ी कुंदा, मलाई घिस्सा, भीतरली टाँग, बैठी जनेऊ) वह कोई भी भाषा आयोग नहीं बना सकता था. विद्वानों का काम होता है भाषा का अध्ययन, विश्लेषण... अख़बारों में नई देशज हिंदी शब्दावली भी बन रही है. नए ठेठ हिंदी शब्द विद्वान नहीं बना रहे. हिंदी लिखने वाले बना रहे हैं--जैसे कबूतरबाजी. अँगरेजी ह्यूमैन ट्रैफ़िकिंग के लिए पूरी तरह देशी शब्द. ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से, पासपोर्ट वीजा नियमों को तोड़ते हुए हिंदुस्तानियों को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने का धंधा. या फिर ब्लौगिया या चिट्ठाकार, और चिट्ठाकारिता. इंटरनेट की दुनिया से आम आदमी द्वारा उपजे शब्द. अँगरेजी में इंटरनेट पर लिखने और परस्पर विचारविमर्श बहसाबहसी की प्रथा को पहले वैबलौगिंग कहा गया, बा द में उस से बना ब्लौगिंग. उसी से दुनिया भर में फैले आम हिंदी प्रेमी ने य शब्द बनाए हैं, ब्लौगिंग करने वाला ब्लौगिया, ब्लौग (यानी लिखा गया कोई विचार) चिट्ठा, पुराने चिट्ठा और चिट्ठी को दिया गया बिल्कुल नया अर्थ. क्या कोई विद्वान ये शब्द बना पाता? इंग्लिश में कहीं हिंग्लिश, कहीं पूरी हिंदी अगर हिंदी वाले अँगरेजी शब्द भारी मात्रा में आयातित कर रहे हैं, तो अँगरेजी तो बहुत पहले से ही हिंदी शब्द खुले दिल से लेती रही है...pucca kutcha (पक्का कच्चा) आदि शब्द पुराने उदाहरण हैं. आजकल भारतीय अँगरेजी में स्थानीय शब्दों और मुहावरों का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है. जो नई भाषा बन रही है, उसे लोग हिंग्लिश कहने लगे हैं. हिंग्लिश तब होती है जब कहीं कोई एक शब्द लिखा जाए जैसें fake gajra, desi chick. अब पूरे के पूरे हिंदी वाक्य आप को रोमन लिपि में लिखे मिल जाएँगे, और कहीं कहीं तो सीधे देवनागरी में. दोनों भाषाओं में यह सब बाज़ार और आडिएँस करवा रही है. पेश हैं कुछ नमूने-- India ka naya TASHAN... Ab jeeyo poore tashan se! Presenting the Samsung C130... masaala maar ke... रविवार को फ़िल्मो की जानकारी के साथ... dil se... Mujhe hai apni har khata manzoor, bhool ho jati hai insano se* I'm really sorry* Please forgive me... Boss ko patana...Mummy ko samjhana...Girlfriend ko manana...*AB SAB 50 PAISE mein* (Tata Indicom) PHIR LOOT HI LOOT...*Buyanu Microtek Inverter... 2 ka mazaa 1 mein... Buy one and get one free... सब कुछ सब के लिए... salasar mega store Ab Dilli Dur Nahin... Parklands Faridabad... Kal kare so aaj kar...ICICI Prudential Exchange Dhamaka... एक्सचेंज बोनस Rs* 15,000/- तक...Maruti Suzuki Property Maha saver package...* HT Classifieds शब्दावली से जुड़ा एक और पहलू है बोलने की हिंदी और लिखित हिंदी में बढते जाते भेद का. हमारी बो ली में ऐसे स्थानों पर अकार को लोप होता जा रहा है जहाँ उच्चारण में यति आती है या अंतिम अक्षर अकारांत अक्षर होता है. हम लिखते हैं कृपया . यह सही भी है. लेकिन बोलते हैं कृप्या . अनेक स्थानों पर आप को यह लिखा मिलेगा. समाचार पत्रों की कृपा है कि वे कृप्या नहीं लिखते... कृपया ही लिख रहे हैं. उत्तराखंड के एक सरकारी विज्ञापन में किसी भ्रमित कापीराइटर ने लिखा-- शहीदों को शत् शत् प्रणाम. अगर यह दावा मान लिया जाए कि हिंदी में हमें वैसा ही लिखते हैं, जैसा बोलते हैं, तो शत् प्रतिशत् सही! और अंत में... तो आइए चेंजिंग भारत की लाइवली वाइब्रैंट बोली और भाषा का हार्टी वैलकम करें, सैलिब्रेट करें, जश्न मनाएँ. उन जर्नलिस्टों पत्रकारों विज्ञापकों के गुण गाएँ जिन्होंने दुनिया में अपनी जगह तलाशते हिंदुस्तान को पहचाना, नई रीडरशिप को टटोला, नब्ज़ को पकड़ा, जो अख़बार कभी दुकानदारों, नौकरों और हिंदी-प्रमियों के ही लिए थे, उन्हें नई जनरेशन के नौजवानों तक पहुँचा या. नारों को भूल कर यथार्थ को समझा. और अंत में... दुनिया मेँ हिंदी के नाम क्या हैं ये शब्द? आंद्या, इंदिज्स्की, ऐंत्क्सग, खिंदी, चिंदी, चिंद्ज़ी, खिंदी, तिएंग हिन-दी, यिन दी यू, हिंदिह्श्चि ना, ह्योनद्विसफ़्... जी हाँ हिंदी! हिंदू शब्द की ही तरह हिंदी शब्द भारत में नहीं बना. यह ईरान से आया है. यूँ कभी ईरान भी भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र का अभिन्न अंग था. कहने को हिंदी मुख्यतः उत्तर भारत के भारी पा पुलेशन वाले राज्यों में बोली जाती है, कई राज्यों और पूरे देश की राज्यभाषा है, लेकिन उसे लिखने पढ़ने और बोलने वाले पूरे देश में मिलते हैं. विदेशों में हिंदी बोलने वाले लोग गायना, सुरिनाम, त्रिनिदाद और टबैगो, फीजी, मारीशस, क़तार, कुवैत, बह्रीन, संयुक्त अरब अमीरात, कना डा, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, रूस, सिंगापुर, दक्षिण अफ़्रीका आदि में पाए जाते हैं. आज जो हिंदी हम जानते हैं, वह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों की भाषा हुआ करती थी, जिसे खड़ी बोली कहते हैं. संभवतः खड़ी बोली शब्द कौरवी बोली का बदला रूप है यानी वह भाषा जो कुरु (कौरव और पांडव) क्षेत्र में बोली जाती थी. सदियों से हिंदी के नाम बदलते रहे हैं. कुछ नाम रहे हैं-- भाखा, भाषा, रेख़ता, हिंदवी, हिंदी, हिंदुस्तानी. जिसे आज हम उर्दू कहते हैं वह वास्तव में हिंदी ही है. पिछली दो सदी में अनेक राजनीतिक कारणों से वह अरबी-फ़ारसी मिश्रित शब्दों वाली अलग शैली और फिर अलग भाषा बन गई. खड़ी बोली के अतिरिक्त ब्रजभाषा, भोजपुरी, राजस्थानी, हरियाणवी आदि हिंदी की अनेक उपभाषाएँ मानी जाती हैं, जो धीरे धीरे शायद स्वतंत्र आधुनिक भाषाएँ बन जाएँ. दुनिया भर में लोग विदेशी शब्दों का उच्चारण अपनी जीभ के अनुसार करते हैं, और कई बार उन के लिए अलग नाम भी देते हैं. कुछ विदेशी भाषाओं में लोग हिंदी को इन नामों से जा नते हैं: अफ़्रीकांस: हिंदी; अम्हारी: आंद्या; अरबी: हिंदीया; आइसलैंडी: हिंदी; आजेरी: हिंद; आयरलैंडी: ह्योनद्विसफ़्; आरमीनियाई: हिंदी; इंदोनेशियाई: हिंदी; उत्तरी सामी: खिंदी; ऐस्तोनि याई: हिंदी; ऐस्पेरांतो: हिंद; औकितान: इंदी; कातलान: हिंदी; कोरियाई: हिंदी'इयो; क्रोशियाई: इंदिज्स्की; क्षोसा: इसिहिंदी; ग्रीक (आधुनिक): चिंदी; चीनी: यिन दी यू; चैक: हिंदिस्की; जरमन: हिंदी'न; जापानी: हिंदीई-गो; जुलू: इसिहिंदी; ज्योर्जियाई: हिंदी; डच: हिंदी'न; डेनिश: हिंदी; तातारी: खिंदी; तुर्की: हिंत्सी/हिंदू; थाई: फाशा-हिंदू; नार्वेजियाई: हिंदी; पुर्तगाली: हिंदी; पोलैंडी: हिंदी; फ़ारसी: हेंदी; फिनिश: हिंदी; फ़्रांसीसी: हिंदी; बल्गेरियाई: खिंदी; बास्क: हिंदी; बेलोरूसियाई: चिंद्ज़ी; मलय: हिंदी; मालटाई: हिंदी; मोक्सा: हिंदी; मंगोलियाई: ऐंत्क्सग; यूक्रेनियाई: खिंदी; रूसी: खिंदी; रोमानियाई: हिंदुसा; लिथुआनिया ई: हिंदी; लैटवियाई: हिंदी; लोहबान: क्षिंदो; वालून: हिंदी; वियतनामी: तिएंग हिन-दी; वैल्श: हिंदी; सोर्बियाई: हिंदिह्श्चिना; स्पेनी: हिंदी'म; स्लोवीन: हिंदिह्श्चिना; स्वाहिली: किहिंदी; स्वीडिश: हिंदी; हंगेरियाई: हिंदी; हिब्रू: हिंदिथ. ...ख़त्म. From vineetdu at gmail.com Thu Jun 18 21:31:29 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 18 Jun 2009 21:31:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWI4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCkuOCkv+CkguCkueCkgyDgpI/gpJUg4KS4?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSc4KSVIOCkn+Clh+CksuClgOCkteCkv+CknOCkqCDgpKo=?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkleCkviDgpJfgpYHgpJzgpLAg4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KS+?= Message-ID: <829019b0906180901w247ae15fj445308e8f4552572@mail.gmail.com> आज करीब सात-आठ मीडियाकर्मियों से बात करते हुए मैंने महसूस किया कि वो टेलीविजन के वरिष्ठ पत्रकार शैलेंन्द्र सिंह की अचानक मौत की खबर सुनकर रोजमर्रा अंदाज से बिल्कुल अलग ढंग से बात कर रहे हैं। वो उन मसलों औऱ मिजाजों पर बात कर रहे हैं जिनसे व्यक्तिगत तौर पर हमें बचने की अक्सर सलाह देते रहे हैं,भावुक होने से रोकते रहे हैं। लेकिन आज वो खुद उदास हुए बिना,भावुक हुए बिना,लीक से हटकर सोचे बिना अपने को रोक नहीं पा रहे हैं। उनकी बातों को सुनकर एकबारगी तो ऐसा लगा कि सब बेतरतीब किस्म की बातें करने लगे हैं लेकिन नहीं,एक-एक करके सब अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब पलटने में लग गए हैं। दिलीप मंडल के शब्दों को लें तो- ये जानकर आश्चर्य होता है कि नून-तेल के चक्कर में एक भावुक कलाकार ने अपने 15 से ज्यादा साल बेमन से बिता दिए (क्या ये हममें में कई लोगों की अपनी कहानी नहीं है)। शैलेन्द्र सिंह से मेरा सरोकार सिर्फ देश के एक बेहतरीन टीवी पत्रकार के रुप को लेकर नहीं है। उससे भी बड़ी बात है बाजार के दबाब और आउटपुट की आपाधापी के बीच अपने भीतर एक साहित्यकार मन को जिंदा रख पाने की जद्दोजहद,लगातार संवेदनशील बने रहने की जी-तोड़ कोशिशें और सर्जना की पीड़ा को झेलते हुए,डूबते-उतरते हुए जिंदगी से लगातार मुठभेड़ करते रहने का जज्बा। ऐसे शख्स के जाने पर कौन नहीं भावुक हो जाएगा ऐसे में जबकि ये मान लिया जाता है कि टीवी में काम करते हुए कोई भी इंसान सर्जक नहीं रह जाता,एक हद तक संवेदनशील भी नहीं। दोपहर दोबारा दिलीप मंडल की पोस्ट पढ़ने के क्रम में जब किताबों और गजलों की बात आयी तो मुझे अचानक अपने क्लासमेट विनीत सिंह की याद आ गयी जो अक्सर मुझे कहा करता- एक दिन मैं तुम्हें अपने शैलेन्द्र चाचा से मिलवाउंगा,तुम जैसों से मिलकर बहुत खुश होंगे,तुम्हारी तरह उन्हें भी अलग हटकर सोचने,लिखने औऱ करने में बहुत दिलचस्पी है। मुझे तब ध्यान आया कितनी बातें की है उसने शैलेन्द्र सिंह के बारे में। अब सारी बातें एक-एक करके याद आ रही है। फिलहाल अपनी बात न करते हुए उनके अंतरंग साथी दिलीप मंडल की एक संवेदनशील पोस्ट जो शैलेन्द्र सिंह को याद करते हुए टेलीविजन पत्रकार की जिंदगी को रिडिफाइन करती है। शैलेन्द्र सिंह मौजूदा समय के लिए मिसफिट थे शैलेंद्र सिंह का जाना ऐसे समय में एक भावुक इंसान का गुजर जाना है जब आपाधापी बहुत ज्यादा है। ठहरकर सोचने वाले इंसानों की जब दुनिया में और खासकर हमारे पेशे में कमी हो, तो शैलेंद्र का गुजर जाना ज्यादा ही तकलीफदेह है क्योंकि वो ठहरकर सोचना चाहते थे। सभी कहते हैं कि शैलेंद्र सिंह हमेशा खोए-खोए से रहते थे। उनकी उपस्थिति इतनी कम इंपोजिंग और कम इंटिमिडेटिंग होती थी, कि कई बार पता भी नहीं चलता था कि वो आसपास हैं। आज तक और स्टार न्यूज के दफ्तर में मैने कई बार उन्हें किसी कोने में बैठे काम करते या यूं ही बैठे देखा। जिसे चैनल की मुख्यधारा कहते हैं वो उन्हें रास नहीं आती थी। वो इसमें रमना चाहते भी नहीं थे। भाई शैलेंद्र के साथ अपनी तीन संस्थानों में नौकरियां रहीं। इन तीन नौकरियों के बीच बहुत कुछ बदल गया। बदलाव का शिकार मैं खुद भी बना। लेकिन इस बीच शैंलेंद्र उन चंद इंसानों में रहे, जिनमें न्यूनतम बदलाव आए। शैलेंद्र को जानने वाले जानते हैं कि वो कभी भी पत्रकारिता नहीं करना चाहते थे। वो पत्रकारिता की दुनिया में एक भावुक इंसान, एक कलाकर्मी थे, एक शायर और एक मिसफिट पत्रकार थे। आजतक में पहली कुछ मुलाकातों में ही उन्होंने अपना इरादा साफ बता दिया था- मैं तो मुंबई का होना चाहता हूं। मुंबई में स्टार न्यूज के दिनों में भी वो बॉलीवुड में अपने लिए संभावनाएं तलाशते दिखे। महेश भट्ट समेत कई लोगों से वो मिलते भी रहते थे। इससे पहले वो कौन बनेगा करोड़पति के लिए काम कर चुके थे। लेकिन वो प्रोफेशन के मामले में वो अपने मन की जिंदगी भर कर नहीं पाए। नौकरियां बदलकर वो अपने लिए सुकून तलाशने की कोशिश करते रहे। लेकिन ये दुष्चक्र से निकलने का नहीं, उसमें और गहरे धंसने का रास्ता साबित हुआ। भाई शैलेंद्र के साथ अपनी तीन संस्थानों में नौकरियां रहीं। इन तीन नौकरियों के बीच बहुत कुछ बदल गया। बदलाव का शिकार मैं खुद भी बना। लेकिन इस बीच शैंलेंद्र उन चंद इंसानों में रहे, जिनमें न्यूनतम बदलाव आए। शैलेंद्र को जानने वाले जानते हैं कि वो कभी भी पत्रकारिता नहीं करना चाहते थे। वो पत्रकारिता की दुनिया में एक भावुक इंसान, एक कलाकर्मी थे, एक शायर और एक मिसफिट पत्रकार थे। आजतक में पहली कुछ मुलाकातों में ही उन्होंने अपना इरादा साफ बता दिया था- मैं तो मुंबई का होना चाहता हूं। मुंबई में स्टार न्यूज के दिनों में भी वो बॉलीवुड में अपने लिए संभावनाएं तलाशते दिखे। महेश भट्ट समेत कई लोगों से वो मिलते भी रहते थे। इससे पहले वो कौन बनेगा करोड़पति के लिए काम कर चुके थे। लेकिन वो प्रोफेशन के मामले में वो अपने मन की जिंदगी भर कर नहीं पाए। नौकरियां बदलकर वो अपने लिए सुकून तलाशने की कोशिश करते रहे। लेकिन ये दुष्चक्र से निकलने का नहीं, उसमें और गहरे धंसने का रास्ता साबित हुआ। टीवी न्यूज चैनलों की तेज बनने की होड़ और टीआरपी की खून पीने वाली जानलेवा दौड़ शैलेंद्र के मिजाज से मेल नहीं खाती थी। ये बात और है कि वो आखिर तक न्यूज चैनलों के ही बने रहे और इस विधा को भी ढंग से साधकर आगे बढ़ते रहे। हालांकि जब भी उनपर बेचैनी हावी होती थी, तो वो चैनल के दफ्तर से बाहर सड़क पर निकल आते थे। मेरे मन में उनकी जो छवि ज्यादा प्रमुखता से बसी है, वो काम में जुटे सिर झुकाए पत्रकार की नहीं, बल्कि सड़क पर चहलकदमी करते एक बेचैन इंसान की छवि है। एक ऐसे इंसान की छवि जो लगभग एक दशक ये सोचता रहा कि जो कर रहा हूं, वो निरर्थक है और यहां से आगे बढ़ जाना है। ये एक बड़ा सवाल है कि किसी और ही धुन में रमने वाला ये भावुक इंसान न्यूज चैनलों के मारक वातावरण में क्यों बना रहा। डांट-डपट, तीखी तकरार, चैनलों के बीच और उससे कहीं ज्यादा चैनल में काम करने वालों के बीच निर्मम और गला काट होड़ में आप क्यों टिके रहे शैलेंद्र। आप तो खुद को कभी भी खिलाड़ी टाइप नहीं मानते थे। आप खिलाड़ी थे भी नहीं। आप तो लगभग 10 साल पहले ही ये जान चुके थे कि ये आपकी दुनिया नहीं है। हालांकि इस आपाधापी के बीच समय चुराकर शैलेंद्र अपने रचनाकर्म को भी अंजाम देते रहे। उनकी किताब कुछ छूट गया है और जानता हूं जिंदगी से शैलेंद्र को बेहतर तरीके से जाना जा सकता है। शैलेंद्र जानते थे कि वो दरअसल इसी तरह के काम के लिए बने हैं। लेकिन जिंदगी भर ज्यादातर समय वो ऐसा काम करते रहे, जो वो एक पल भी नहीं करना चाहते थे। ये अंतर्विरोध उन्हें परेशान करता था। इसे वो अपने मित्रों से शेयर भी करते थे। ये जानकर आश्चर्य होता है कि नून-तेल के चक्कर में एक भावुक कलाकार ने अपने 15 से ज्यादा साल बेमन से बिता दिए (क्या ये हममें में कई लोगों की अपनी कहानी नहीं है)। ये दरअसल हमारे मीडियम में काम करने वाले हजारों लोगों की कहानी है, जिनमें शैलेंद्र जैसा एक भावुक इंसान या उसका कुछ हिस्सा बसता है। इसलिए शैलेंद्र की मौत एक सामूहिक दुख का कारण है। इस दुख में हम सब अपना दुख तलाश सकते हैं। शैलेंद्र के साथ दरअसल उनके जानने वाले मुझ जैसे लोगों के जीवन का एक टुकड़ा मर गया है। मेरे लिए ये निजी दुख का क्षण है। शैलेंद्र भाई, आपकी स्मृति आपकी रचनाओं की शक्ल में हमारे बीच रहेगी। - दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम साभारः मीडिया खबर डॉट कॉम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090618/5bfda607/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Jun 19 10:06:33 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 19 Jun 2009 10:06:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSo4KWH4KSu4KS+4KSY4KSw4KWL4KSCIOCkleCliyDgpK8=?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIOCkleCksCDgpLngpK4g4KSo4KS+4KS44KWN4KSf4KWJ4KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSc4KS/4KSVIOCkueCli+CkpOClhyDgpLDgpLngpYc=?= Message-ID: <829019b0906182136s5f8311c8vf07b8c8d00dd5e59@mail.gmail.com> अजय ब्रह्मात्मज के कहने पर(मेरे लिए आदेश)हममें से कई लोगों ने सिनेमाघरों को लेकर अपने-अपने संस्मरण लिखे। इस संस्मरण को लिखते हुए हमने सिनेमाघरों के बहाने अपने बचपन को याद किया,छुटपन की शरारतों को याद किया,संबंधों को याद किया। गीता श्री मुज्जफरपुर के सिनेमाघरों पर लिखते हुए अपने बाबूजी को याद करती है तो मुझे बिहारशरीफ और टाटानगर के सिनेमाघरों को याद करते हुए मेरे औऱ मां के बीच के उस संबंध की याद आ गयी जो कि आमतौर पर बहुत ही कम लोगों के साथ हुआ करते हैं। हममें से कितने लोग मां के साथ सिनेमा देखते हुए जवान होते हैं? अगर हम ये कहें कि चवन्नी चैप के लिए हिन्दी टॉकिज पर लिखते हुए हम सिनेमा से कहीं ज्यादा सिनेमाघरों में और हीरो-हीरोईन के बीच के उमां-उमां से ज्यादा पड़ोस की बॉबी और अपने बीच पलनेवाले अधपके प्रेम में डूबते चले गए तो गलत नहीं होगा। उस दौर के एक-एक सीन में अपना बचपन धंसा हुआ नजर आने लगता है। संजय दत्त की बॉडी से ज्यादा अपनी वो बांह ज्यादा याद आती है जो हाथ को मोड़ लेने पर बॉडी लगती जबकि अब सोचता हूं तो सूखे और बासी दिखनेवाले पूरे शरीर के हिसाब से वो बलतोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं दिखती होगी। खैर,इतना तो जरुर है कि सिनेमा को याद करने के क्रम में सिनेमाघरों के प्रति जो दिलचस्पी पैद हुई है चाहे वो याद करने के तौर पर या फिर जिस शहर में भी जाओ,एक घड़ी के लिए ही सही वहां के सिनेमाघरों को घूमने की,इसकी क्रेडिट मैं चवन्नी चैप को देने में मैं किसी भी तरह की कोताही नहीं कर सकता। पिछले दिनों अपने कुछ व्यक्तिगत और एक हद तक रिसर्च के सिलसिले में(टेलीविजन पर लोगों की राय जानने के लिए)बिहार और झारखंड के करीब 11 छोटे-बड़े शहरों में भटकता रहा। कहीं सात घंटे बिताने होते,कहीं पूरा का पूरा दिन और कहीं-कहीं तो कुछ भी नहीं सिर्फ बस या ट्रेन पकड़नी होती और तीन-चार घंटे खाली-पीली करके बिताने होते। ऐसे समय लगता है कि कहां जाएं। इससे पहले भी मैं कई बार इस तरह के सिचुएशन में पड़ा हूं जहां होटल न होने की स्थिति में इन घंटों को काटना भारी पड़ जाता। लेकिन चवन्नी चैप ने सिनेमाघरों को लेकर जिस तरह की दिलचस्पी पैदा की है,उससे अबकी बार मेरी झंझट ही खत्म हो गयी। जहां भी गया,सिनेमाघरों के आस-पास ये घंटे कैसे बीत गए,पता ही नहीं चला। ये अलग बात है कि इन शहरों के तमाम सिनेमाघरों में ऐसी कोई भी फिल्म नहीं लगी थी कि जिसे चलकर देखी जाए लेकिन बाहर जो कुछ भी और जितनी तेजी से बदला है उससे जानने-समझने के लिए ये तीन-चार घंटे वाकई कम पड़ गए। कई सिनेमाघरों के मेन गेट बंद और आसपास फुक-फुक करके जीता हुआ उसका इतिहास। एक-दो ऐसी टॉकिज जो अब सिनेमा से ज्यादा उसके सामने मिलनेवाले मसालेदार चखने के लिए फेमस हुआ जा रहा है और एक-दो टॉकिज जो अपने जमाने की रौनक को याद करते हुए इसे उजाड़ देनेवालों को भूखी आंखों से देख रहा है। इसी क्रम में हम पहुंचें- झुमरी तिलैया की पूर्णिमा टॉकिज, टाटानगर की बसंत टॉकिज औऱ बिहार शरीफ का किसान सिनेमा। पूर्णिमा टॉकिज जिसमें पहली बार बड़ी दीदी की शादी होने पर दीदी,जीजाजी औऱ उनकी बहन के साथ फिल्म देखी थी औऱ बाद में लोगों ने दुनियाभर के मजे लिए,बसंत टॉकिज जहां हाल-हाल तक मां और भाभी धक्के दे-देकर भेजती कि दिनभर में घर में घुसा रहता है,जाओ देख आओ कोई सिनेमा और किसान सिनेमा जिस पर मैंने लिखा- तब मां भी होती थी और सिनेमा भी। इन तीनों सिनेमाघरों का क्या है मौजूदा हाल,पढ़िए अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090619/9b3837be/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Jun 19 18:43:17 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 19 Jun 2009 18:43:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCliyDgpK7gpYHgpLngpL7gpLXgpLDgpL4g4KSu4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KS+4KSH4KSPIOCkluCkvuCkguCkoeClh+CkleCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KSs?= Message-ID: <829019b0906190613w371cdcfbsb270925916c3138d@mail.gmail.com> अभिलाष खांडेकर(एमपी स्टेट हेड,दैनिक भास्कर) जब भोपाल को बिहार होने से बचाइए जैसी लाइन लिख रहे होंगे तो यही समझ रहे होंगे कि वो पत्रकारिता की दुनिया में एक नया मुहावरा, एक नया मेटाफर गढ़ने जा रहे हैं। उन्हें अपराध औऱ व्यवस्था के लिजलिजेपन की अभिव्यक्ति देने के लिए अब तक के मौजूदा सारे शब्द पुराने और असमर्थ जान पड़ रहे होंगे। लेकिन सवाल है कि क्या खांडेकर ये शब्द सिर्फ औऱ सिर्फ अपराध और अव्यवस्था को व्यक्त करने के लिहाज से प्रयोग कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो हम इस बात पर सिर्फ अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि खांडेकर जैसे पत्रकार की शब्द सम्पदा कितनी सीमित हैं और भाषा के मामले में कितने लाचार पत्रकार हैं। लेकिन नहीं,दूसरी स्थिति ये भी है कि ये भाषाई प्रयोग और मेटाफर गढ़ने की आपाधापी नहीं है। निजी समाचार चैनलों की तर्ज पर खांडेकर ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वो उनकी बिहार को लेकर व्यक्तिगत मानसिकता को स्पष्ट करता है। ये बताने के लिए कि वो एक खास तरह के क्षेत्रवादी मानसिकता से लैस पत्रकार हैं,ये लाइन पर्याप्त है। अपने पत्रकारीय जीवन में चाहे वो लाख बौद्धिकता का लबादा ओढ़े फिरते रहें लेकिन इस लाइन के प्रयोग से ये लबादा भी अब जगह-जगह से मसक गया है। अब उसके भीतर से जो कुछ भी झांक रहा है वो इतना खतरनाक,घृणित औऱ परेशान करनेवाला है कि इसे जगह-जगह से ढंकने के बजाय पूरे लबादे को चीरकर खांडेकर के असली चेहरे को पाठक को सामने लाकर पटक देना ही बेहतर होगा। पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे कामों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर माफी मांगने और नैतिकता के आधार पर क्षमा करने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। जो पत्रकार भोपाल में बैठकर ये मानकर चल रहा हो कि बिहार को लेकर अनर्गल लिखने से भोपाल के पाठक खुश होंगे,उनके उपर नैतिकता आधारित बातें करने के बजाय कानूनी स्तर की कार्यवाही अनिवार्य है। ये सिर्फ अभिव्यक्ति के स्तर पर हेरा-फेरी का मामला नहीं है बल्कि पत्रकारिता के नाम पर जान-बूझकर पक्षपात करने और घृणा फैलाने का दुष्चक्र है। खांडेकर को कानूनी धाराओं के अन्तर्गत सजा मिलनी चाहिए। पत्रकारों को जितना हो सके,इसके लिए प्रयासरत हों।मोहल्लाlive से साभारः आइए, खांडेकर की बिहार विरोधी मुहिम का विरोध करें [19 Jun 2009 | -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090619/35cdbef3/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jun 20 21:44:02 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 20 Jun 2009 21:44:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS+4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KWH4KSV4KSwIOCknOCliOCkuOClhyDgpLjgpILgpKrgpL7gpKbgpJUg?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KSV4KWAIOCknOCkvOClgeCkrOCkvuCkqCDgpKzgpYs=?= =?utf-8?b?4KSyIOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <829019b0906200914rec6ce28gebf5062d4b552eb4@mail.gmail.com> *भोपाल* में जर्जर सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासन के लिजलिजेपन को बताने के लिए दैनिक भास्कर, भोपाल के एडिटर अभिलाष खांडेकर ने *भोपाल को बिहार होने से बचाएं *जैसे वाक्य का प्रयोग किया। लिजलिजे प्रशासन औऱ गुंडागर्दी जैसे शब्दों के प्रयोग के बदले खांडेकर साहब ने बिहार को एक मुहावरा या फिर मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया। देश के किसी भी हिस्से को लेकर इस तरह की क्षेत्रवादी मानसिकता, व्यवहार के स्तर पर कोई नयी बात नहीं है, खासकर राजनीति में इसे रुटीन लाइफ की तरह शामिल कर लिया गया है। लेकिन लिखने-पढ़ने के स्तर पर इस तरह का प्रयोग वाकई भीतर से हिला देनेवाला है। खांडेकर साहब जैसे पत्रकार की मानसिकता का कोई विशेषज्ञ जब पुणे में बिहार के किसी छात्र से सवाल करता है कि अपराध की राजधानी किसे कहा जाता है और उसके जवाब नहीं दिए जाने पर सवाल करनेवाला विशेषज्ञ खुद ही जवाब देता है – बिहार तो अब तक की समझ से ठीक उलट समझदारी की एक बिल्कुल अलग परत दिमाग में जमती है कि – कहीं पढ़-लिखकर व्यक्ति पहले से कहीं ज्यादा धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रवादी दुराग्रहों और घृणा फैलानेवाले एजेंट के तौर पर काम करने नहीं लग जाता। ये सवाल इसलिए भी दिमाग़ में आते हैं कि खांडेकर मामले में *मोहल्ला live* पर की गयी मेरी टिप्पणी पढ़ने के बाद, देर रात दैनिक भास्कर, भोपाल के एक पत्रकार ने बातचीत के क्रम में बताया कि इस तरह से क्षेत्र और जाति को लेकर भेदभाव की बड़ी साफ तस्वीर आप मेरे ऑफिस में आकर देख सकते हैं। इस तरह का भाषा-प्रयोग पाठक वर्ग के साथ-साथ स्वयं मीडिया हाउस के भीतर किस तरह का गंदला महौल पैदा करेगा, इसका अंदाजा शायद खांडेकर जैसे संपादक को अभी नहीं है। क्षेत्र, भाषा, जाति और धर्म को लेकर मीडिया हाउस के बीच होनेवाली लामबंदी के बीच से किस तरह की पत्रकारिता निकलकर सामने आएगी, इसे समझने में शायद उन्हें अभी वक्त लगे। इधर इंटरनेट की दुनिया में मौजूद पत्रकारों और ब्लॉगरों ने खांडेकर की इस क्षेत्रीयता के स्तर पर नफरता फैलानेवाली भाषा का प्रतिरोध शुरू किया, तभी से भास्कर डॉट कॉम पर सांप-सीढ़ी का खेल शुरू हो गया। पहले तो बिहार की जगह जंगलराज शब्द का प्रयोग किया गया। तब तक भास्कर की ही साइट पर खांडेकर के विरोध में कई कमेंट आ चुके थे। सबों ने जमकर इसकी भर्त्सना की थी। साइट के एडिटर राजेन्द्र तिवारी ने अपनी ओर से माफी मांगी और लिखा, *हम हर क्षेत्र और वहां के निवासियों का आदर करते हैं। हमारा उद्देश्य किसी क्षेत्र विशेष या वहां के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। हमें खेद है कि त्रुटिवश इस पोस्ट में क्षेत्र विशेष का उल्लेख हो गया था, जानकारी में आते इस पोस्ट से उन वाक्यों को हटा दिया गया है। हम अपने सभी सुधी पाठकों का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने तुरंत हमारा ध्यान इस त्रुटि की ओर आकर्षित किया। राजेंद्र तिवारी एडिटर‍, भास्कर वेबसाइट्स* हममें से कई लोग इस बीच साइट पर क्लिक करते रहे और कई बार वेब पेज उपलब्ध नहीं है, पढ़ कर झल्लाते रहे। लेकिन इस बीच अभिलाष खांडेकर की ओर से कहीं कोई माफीनामा नहीं आया। राजेन्द्र तिवारी ने चार लाइन का कमेंट देकर मामले को रफा-दफा मान लिया, ये अलग बात है कि दैनिक भास्कर और अभिलाष खांडेकर के इस रवैये का विरोध जारी है। हिन्दी की अलग-अलग साइटों और ब्लॉग ने इसे पत्रकारिता के नाम पर कलंक और अभिलाष खांडेकर को एक दाग़दार पत्रकार बताया है। दैनिक भास्‍कर के आज के राष्ट्रीय संस्करण में भी हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर पेज नंबर सात पर बिहार के नाम पर नफरत फैलानेवाली अभिलाष खांडेकर की उक्‍त संपादकीय टिप्‍पणी को उसी ज़हर भरे शीर्षक के साथ हूबहू प्रकाशित किया गया है। यहां राजेन्द्र तिवारी की ये बात समझ से परे हैं कि ये महज छपाई की त्रुटि है। अफ़सोस है कि सब कुछ जानने के बाद भी भास्कर ने अभिलाष खांडेकर के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की। अभिलाष साहब को अभी तक इस बात का अफ़सोस नहीं है, इसलिए जो कुछ साइट भी इनसे माफी मांगने की बात कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि उनसे अपील या आग्रह करने के बजाय कानून का दरवाजा खटखटाने में अपनी ऊर्जा लगाएं। वैसे भी अभिलाष खांडेकर ने जो कुछ भी किया है, उसका संबंध सिर्फ लिखने भर से नहीं है, समाज में घृणा और वैमनस्य पैदा करना है। राष्ट्रीय संस्करण में दोबारा छपने से ये स्थिति साफ हो जाती है। अब सवाल है कि अभिलाष खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं। अब तक इस बात का विरोध होता रहा कि अब संपादक मैनेजर की भूमिका में आ गए हैं क्योंकि उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता को एक मानक रुप देने के बजाय मीडिया हाउस के मालिकों के टारगेट पूरा करने में ज्यादा है। अब वो प्रो मार्केट होता जा रहा है। मीडिया आलोचकों को एक नया मुहावरा उसकी इसी हरकत को लेकर मिल गया है। लेकिन दूसरी स्थिति की आलोचना ये भी है कि अगर संपादक बाजार को ध्यान में रखकर काम नहीं करेगा तो फिर मीडिया हाउस चलेगा कैसे। नतीजा ये हुआ है कि हममें से कई, मीडिया पर लिखने-पढ़नेवाले लोग इस बात के समर्थन में हैं कि मीडिया को बाजार से अलग करके नहीं देखा जा सकता और इस तरह आलोचना का एक सिरा उस तरह से बाजार विरोधी नहीं रह गया है कि बाजार शब्द देखते ही भड़क जाए। बाजार और संपादक के संबंधों की स्वीकृति मीडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखते हुए मिलने लगी है। इसलिए बाजार को लेकर अब मीडिया और संपादक के ऊपर कोड़े बरसाने का उपक्रम बहुत दिनों तक चल नहीं सकता। यहां आकर ये ज़रुर हुआ है कि मीडिया से कई ऐसे मुद्दे धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, जिसका संबंध आम आदमी से रहा हो। इसने लूट-खसोट की स्थिति पहले से कई गुना ज्यादा पैदा की है, तो भी संभावना के तौर पर अभी भी कुछ न कुछ बरकरार है। अभिलाष खांडेकर साहब बाजार और मारकाट के बीच जो कुछ भी थोड़ी संभावना बची है, उसे ध्वस्त करने में जुटे हैं। बाजार से सांठ-गांठ के बाद बहुत ऐसे मसले हैं, जिस पर कि अखबारों ने कलम चलाना बंद कर दिया हैं। एक व्यापक संदर्भ में वो जनहित में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन जनहित न भी करें तो उसके बीच हिकारत की संस्कृति पैदा करने का क्या हक़ बनता है। अभिलाष खांडेकर पत्रकार हैं, संपादक हैं, उन्हें तो इस बात की तमीज होनी चाहिए कि किस बात को लेकर लोगों के बीच क्या प्रतिक्रिया हो सकती है। भाषा के मामले में प्रिंट मीडिया के संपादक और संपादकीय पेजों पर लिफाफे के दम पर विरोध जतानेवाले उनके बुद्धिजीवी बटालियन जो अब तक न्यूज चैनलों की आलोचना करते आए हैं, उनके भीतर अगर अब भी थोड़ी ऊर्जा बची है, तो वो इस बात को समझने में लगाएं कि आखिर संपादक की ऐसी कौन सी नीयत है जो कि आंकड़ों को धता बताते हुए मनमाने ढंग से भाषा-प्रयोग करने लग गया है। संपादक की कुर्सी पर बैठकर किसी क्षेत्र को नीचा दिखाने के पीछे वो किस-किस तरह के दुष्कर्म में शामिल है, राष्ट्रीयता का logo चिपकाकर बंटवारे की लिखावट सीख रहा है। अगर थोड़ी भी ऊर्जा बची है, तो पता लगाएं कि अभिलाष खांडेकर जैसा संपादक किसकी जुबान बोलने लग गया है और उसकी जुबान बंद करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं। समय है कि टेलीविजन को पानी पी-पीकर गरियाने के बजाय थोड़ा वक्त अखबारों में फैले जंगलराज की तरफ भी लगाए जाएं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090620/8113ebd4/attachment-0001.html From vkt.vijay at gmail.com Sun Jun 21 00:46:42 2009 From: vkt.vijay at gmail.com (vijay thakur) Date: Sun, 21 Jun 2009 00:46:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCliyDgpK7gpYHgpLngpL7gpLXgpLDgpL4g4KSu4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KS+4KSH4KSPIOCkluCkvuCkguCkoeClh+CkleCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KSs?= In-Reply-To: <829019b0906190613w371cdcfbsb270925916c3138d@mail.gmail.com> References: <829019b0906190613w371cdcfbsb270925916c3138d@mail.gmail.com> Message-ID: सच में यह एक अति घृणित एवं ओछ कार्य है जो कम से कम पत्रकारों के लिए तो कहीं से किसी दृष्टिकोण से शोभनीय नहीं है। यह काम तो राज ठाकरे सरीखे नेताओं के लिए ही है जो क्षेत्रवाद के जहर का इस्तेमाल वोट बैंक बनाने के लिए करता है जिन्हें भारत व भारतीय के भविष्य से कोई लेना देना नहीं, बस तत्काल राजनीतिक रोटी सेंक ली जाय। कुछ वैसा ही दृश्य यहां दिख रहा है कि पेपर को कुछ खास लोगों में बिकने या विवादित होकर प्रख्यात होने या कुछ ऐसे ही निर्घृण इरादे को लेकर भाषायी स्टंट का नमूना पेश कर रहे हैं ये खांडेकर जिससे यही लग रहा है कि शायद निकट भविष्य में वो भोपाल से कोई चुनाव लड़ने वाले हैं। कुछ भी हो, उनका कार्य अतिशर्मनाक है। On 6/19/09, vineet kumar wrote: > > > अभिलाष खांडेकर(एमपी स्टेट हेड,दैनिक भास्कर) जब भोपाल को बिहार होने से बचाइए > जैसी लाइन लिख रहे होंगे तो यही समझ रहे होंगे कि वो पत्रकारिता की दुनिया में > एक नया मुहावरा, एक नया मेटाफर गढ़ने जा रहे हैं। उन्हें अपराध औऱ व्यवस्था के > लिजलिजेपन की अभिव्यक्ति देने के लिए अब तक के मौजूदा सारे शब्द पुराने और > असमर्थ जान पड़ रहे होंगे। लेकिन सवाल है कि क्या खांडेकर ये शब्द सिर्फ औऱ > सिर्फ अपराध और अव्यवस्था को व्यक्त करने के लिहाज से प्रयोग कर रहे हैं। अगर > ऐसा है तो हम इस बात पर सिर्फ अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि खांडेकर जैसे पत्रकार > की शब्द सम्पदा कितनी सीमित हैं और भाषा के मामले में कितने लाचार पत्रकार हैं। > लेकिन नहीं,दूसरी स्थिति ये भी है कि ये भाषाई प्रयोग और मेटाफर गढ़ने की > आपाधापी नहीं है। निजी समाचार चैनलों की तर्ज पर खांडेकर ने जिस तरह की भाषा का > प्रयोग किया है वो उनकी बिहार को लेकर व्यक्तिगत मानसिकता को स्पष्ट करता है। > ये बताने के लिए कि वो एक खास तरह के क्षेत्रवादी मानसिकता से लैस पत्रकार > हैं,ये लाइन पर्याप्त है। अपने पत्रकारीय जीवन में चाहे वो लाख बौद्धिकता का > लबादा ओढ़े फिरते रहें लेकिन इस लाइन के प्रयोग से ये लबादा भी अब जगह-जगह से > मसक गया है। अब उसके भीतर से जो कुछ भी झांक रहा है वो इतना खतरनाक,घृणित औऱ > परेशान करनेवाला है कि इसे जगह-जगह से ढंकने के बजाय पूरे लबादे को चीरकर > खांडेकर के असली चेहरे को पाठक को सामने लाकर पटक देना ही बेहतर होगा। > पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे कामों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर माफी मांगने और > नैतिकता के आधार पर क्षमा करने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। जो पत्रकार भोपाल > में बैठकर ये मानकर चल रहा हो कि बिहार को लेकर अनर्गल लिखने से भोपाल के पाठक > खुश होंगे,उनके उपर नैतिकता आधारित बातें करने के बजाय कानूनी स्तर की > कार्यवाही अनिवार्य है। ये सिर्फ अभिव्यक्ति के स्तर पर हेरा-फेरी का मामला > नहीं है बल्कि पत्रकारिता के नाम पर जान-बूझकर पक्षपात करने और घृणा फैलाने का > दुष्चक्र है। खांडेकर को कानूनी धाराओं के अन्तर्गत सजा मिलनी चाहिए। पत्रकारों > को जितना हो सके,इसके लिए प्रयासरत हों। मोहल्लाlive से साभारः > > आइए, खांडेकर की बिहार विरोधी मुहिम का विरोध करें > [19 Jun 2009 | > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090621/748b25c4/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Jun 22 11:11:53 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 22 Jun 2009 11:11:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYAg4KSo4KWM4KSV?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSs4KS/4KS54KS+4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CkqOCkviDgpLngpYAg4KSV4KS+4KSr4KWAIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0906212241i4e4a66bcg29222fcbba066600@mail.gmail.com> बीस हजार से लेकर दो लाख तक की फीस देकर कोर्स करनेवाले औऱ अब नौकरी के लिए दर-दर भटकनेवाले बिहार के मीडिया स्टूडेंट शायद पोस्ट की शीर्षक देखकर ही भड़क जाएं। उन्हें इस पर भारी आपत्ति और असहमति हो सकती है। संभव है हममे से कई लोग इसे आरोप के तौर पर लें, मीडिया हाउस के अंदर काम कर रहे लोगों को बदनाम करने की साजिश समझें लेकिन ऐसा क्या है कि हमने बिहारी हो न, तब चिंता काहे करते हो,तुम्हारी नौकरी तो रखी हुई है मीडिया में सुन-सुनकर कोर्स पूरा किया। कोर्स करने के दौरान जब भी हम चिंता जताने की कोशिश करते कि किसी तरह कोर्स तो कर ले रहे हैं लेकिन नौकरी कैसे मिलेगी,तभी साथ के कुछ लोग हमारे उपर पिल पड़ते- ज्यादा बनो मत,स्साले बिहारी,तुमलोगों को तो बुलाकर नौकरी दी जाएगी। इसी एक लाइन को सुन-सुनकर कुछेक साउथ इंडियन क्लासमेट में स्साले बिहारी बोलना सीख गयी थी और हम उन पर फिदा हो जाते जबकि किसी लौंडे के बोलने पर मार करने तक की नौबत आ जाती। नौकरी की बात चलते ही हमलोगों को ठीक उसी तरह ट्रीट किया जाता जैसे जेनरल से आनेवाले लोग कैटेगरी से आनेवाले लोगों के बारे में कहा करते हैं- उसका क्या, उसका तो कोटा है,नौकरी तो धरी हुई है उसकी,पढ़े चाहे नहीं पढ़े। ऐसी स्थिति में जाति और क्षेत्र पर भरोसा न होते हुए भी भीतर ही भीतर एक निश्चिंतता बोध पैदा होता कि चलो,नौकरी तो मिलनी ही है। वो नौकरी जिसमें कोर्स अच्छी तरह करने से ज्यादा बिहारी होने की क्रेडिट पर मिलनी है। कोर्स में तो फिर भी किसी तरह की झंझट और प्रोजेक्ट में हमसे ज्यादा लड़कियों को नंबर देकर आगे-पीछे किया जा सकता है लेकिन हमसे,हमारे बिहारी होने की क्रेडिट कोई छिन नहीं सकता। लेकिन इससे अलग एक दूसरी स्थिति ये भी बनती कि साथ के लोगों को जिनमें से ज्यादा बिहार के नहीं होते,नौकरी के मामले में हमलोगों से बराबर इर्ष्या का भाव बना रहता। जब वो कहते,हिन्दी मीडिया में नौकरी करनी है तो बिहार से पैदा होकर आओ तो कभी तो अच्छा लगता कि चलो इन्हें कहीं न कहीं बिहार की औकात का अंदाजा तो लेकिन बाद में जिस रुप में हमने चीजों को समझा,व्यवहार को जानने की कोशिश की,उससे साफ अंदाजा लग गया कि ये हमारे लिए कितनी खतरनाक स्थिति है। हमारी नौकरी मिलने से पहले ही हमें कैसे नौकरी मिली है का लेबल चस्पा दिया गया है। अफसोस कि ऐसी मानसिकता पैदा करने के हम ही जिम्मेदार रहे हैं। हमें ही चैनल का नाम लेते ही उसमें अपनी बिरादरी का कोई भाई,चचा या फूफा याद आ जाता है। हम जाति और क्षेत्र आधारित पीआर बनाने में फंसे रह जाते हैं, प्रोफेशन के स्तर पर अपने को कम ही चमकाते हैं। जिस किसी में कम योग्यता है,वो इसे रिप्लेस करते हुए संबंध,जाति और क्षेत्र की प्लेसिंग करने लग जाता है। ऐसा करके वो जुनइन बिहार के लोगों ( मीडिया के लिए) की जड़ो में मठ्ठा घोलने का काम करते हैं,इसका अंदाजा नहीं लगा पाते। जो जब-तब नफरत और उपेक्षा के तौर पर सामने आता है। ऐसे में अब आप लाख कहते रह जाइए कि हमने इंटरव्यू में ये कर दिया,वो कर दिया फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली के भारतीय विद्या भवन में हमने इसी महौल में रखकर कोर्स पूरा किया। लेकिन इससे ठीक पहले की पोस्ट खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं पढ़कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल से मीडिया कोर्स करने अब भोपाल में ही अखबार में काम करनेवाले एक साथी ने फोन करके बताया- आप खांडेकर का विरोध कर रहे हैं, हमें अच्छा लग रहा है, इस तरह की क्षेत्रवाद से प्रभावित राइटिंग को हमें किसी भी हद तक विरोध करना चाहिए लेकिन एक बात आपको बताउं। माखनलाल में जब लोग मीडिया का कोर्स करने आते हैं तो बिहार के लोगों का दबदबा इतना अधिक होता है कि भोपाल और एमपी के दूसरे हिस्से से आए लोग अपने को बहुत ही नेग्लेक्टेड फील करते हैं। नतीजा ये होता है कि पूरी क्लास या बैच दो खेमें में बंट जाती है- बिहार से आए लोग एक तरफ और देश के बाकी हिस्सों से आए लोग एक तरफ। आपको लगेगा ही नहीं कि वो मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं,लगेगा कि अखाड़े में लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं। बात अगर व्यक्तिगत स्तर पर करुं तो बिहारी औऱ नॉनबिहारी को लेकर खेमेबाजी मैंने देश के तीन-चार संस्थानों में स्पष्ट तौर पर देखा है, पता नहीं बाकी संस्थानों की क्या स्थिति है ? जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करने के वाबजूद भी अगर आपकी नौकरी का संबंध जाति और क्षेत्र से हैं-मतलब कि अगर आपको ये लगे कि सामने बैठा बंदा जिसके हाथ में नौकरी देने की ताकत है वो हमारी जाति या क्षेत्र का है तो इंटरव्यू के दौरान आप ज्यादा कॉन्फीडेंस फील करते हैं। अपने एक क्लासमेट की भाषा में कहूं तो- अरे इसको इंटरव्यू नहींए कहो तो सही रहेगा, जात-बिरादरी का मामला था,हो गया।। नौकरी के लिए जिन्होंने इंटरव्यू लिया उन्होंने मेरा प्रोफाइल देखते ही कहा- मैंने भी हिन्दी से ही एमए किया है। इतना सुनते ही मेरे भीतर जाति और क्षेत्रवाला आत्मविश्वास पहले खत्म हो गया था क्योंकि बातचीत के दौरान पहले राउंड में उंटरव्यू देकर आए लोगों ने बता दिया था कि वो बिहार से नहीं हैं और मेरी जानकारी के लिए ये भी बता दिया कि वो तुम्हारे बिरादरी से नहीं है। हिन्दी सुनकर खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया- मन ही मन सोचा,एक हिन्दीवाला, हिन्दीवाले की प्रतिभा और दर्द को नहीं समझेगा तो कौन समझेगा और वो भी ऐसे महौल में जहां ऑडिएंस के सामने आउटपुट के तौर पर हिन्दी में चीजें लानी होती है लेकिन अंदर का महौल अंग्रेजीदां होता है। ऐसे में हम जाति और क्षेत्र से उपर उठकर विषय पर आकर स्थिर हो गए। मौके के हिसाब से हमारा आत्मविश्वास क्षेत्र के बजाय सब्जेक्ट पर आकर शिफ्ट हो गया। लेकिन इतना तय था कि जिंदगी में हर जगह इंटरव्यू लेनेवाला हिन्दी का नहीं होगा। खैर, चैनल के भीतर काम करते हुए हमने देश के तमाम मीडिया हाउस को उसके नाम के अलावा अलग ढंग से जाना। ये जानना किस हद तक सही था, बता नहीं सकता लेकिन इतना जरुर था कि कोर्स के दौरान पूरी हिन्दी मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के मामले में हम जो समझते आए कि बिहार का होने से मामला आसानी से बन जाता है, धीरे-धीरे भरभराकर टूट जाता है। हममें से कोई भी जो कि क्षेत्रवाद पर भरोसा नहीं करता है, उसे लगता है कि उसे उसकी योग्यता के हिसाब से जाना-पहचाना जाना चाहिए, उसे ऐसी स्थिति में खुश होना चाहिए। लेकिन चैनलों की जो समझ हमें आसपास के लोगों से मिल रही थी उसके हिसाब से कोई चैनल झा तक है, कोई भूमियार 24 इनटू 7, कोई राजपूत न्यूज तो को बाबाजी कम्युनिकेशन। हैरत तो तब हुई जब हममे से कई लोग अपनी जाति औऱ बिरादरी के हिसाब से उन चैनलों में जाने के लिए छटपटाते नजर आए। वो ऐसा करके अपने को सेफ जोन में मानते। उनके हिसाब से नौकरी मिल जाना ही काफी नहीं है, उसे बनाए,बचाए और उसकी जड़ों को मजबूत करते रहना ज्यादा जरुरी है। लोग जब हमसे पूछते हैं कि ये बड़े-बड़े पत्रकार जो देश बदल देने का दावा करते हैं, इधर-उधर कूंद-फांद क्यों मचाए रहते हैं। इसके जबाब में मैं सैलरी पैकेज और इगो प्रॉब्लम के अलावे कोई और कारण नहीं बता पाता। लेकिन जो नए पत्रकार हैं,बीच की स्थिति में हैं, उनके इधर से उधर जाने की वजह हैरान करनेवाली लगी। अपनी बिरादरी का बॉस खोजने में हमारे साथियों ने जो उर्जा लगाया उसे देखकर हैरानी होती है। इन सबके वाबजूद हम खांडेकर के भोपाल के जंगलराज के लिए बिहार शब्द का प्रयोग किए जाने पर प्रतिरोध में खड़े हैं। हम इसका विश्लेषण महाराष्ट्र,बिहार और पूर्वांचल की राजनीति को लेकर विश्लेषण करने में जुटे हैं। लेकिन अगर कोई मीडिया हाउस की अंदरुनी स्थिति के लिहाज से इस शब्द प्रयोग पर विचार करना शुरु करे तो एक नए किस्म की स्थिति सामने आएगी। लगेगा कि क्षेत्र और जाति को लेकर सिर्फ देशभर के लोग ही एक-दूसरे पर नहीं उबल रहे हैं, मीडिया हाउस के भीतर भी खदबदाहट जारी है और इस मामले में पत्रकार कभी-कभी इतना पर्सनली लेने शुरु करते हैं कि वो एक मुहावरा बनकर सामने आता है। ऐसे में अगर हम ये कहें कि देश से जातिवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद जब खत्म होंगे तब होंगे लेकिन फिलहाल अगर मीडिया हाउस से ये खत्म हो जाएं तो यकीन मानिए ऐसे शब्दों और वाक्यों के प्रयोग होने एक हद तक बंद हो जाएंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090622/2b2f77fb/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Jun 22 12:07:20 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 22 Jun 2009 12:07:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BHindi_IW?= =?utf-8?b?UF0g4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLDgpLY=?= =?utf-8?b?4KWN4KSoIOCkquClguCkm+Clh+CkgiDgpLjgpYfgpLXgpL4g4KS24KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWC?= Message-ID: <200906221207.20097.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Hindi IWP] हिन्दी में प्रश्न पूछें सेवा शुरू Date: सोमवार 22 जून 2009 09:16 From: Hindi Water Portal To: hindi at lists.indiawaterportal.org हम जानते हैं कि पानी का मुद्दा बहुत जटिल है और आम नागरिकों को अक्सर यह समझ नहीं आता कि पानी संबंधी शंकाओं और सवालों के जवाब जानने के लिए किसके पास जाएं और किससे पूछें। अपनी ‘प्रश्न पूछें’ पहल के माध्यम से, हम पानी संबंधी किसी भी समस्या का हल खोजने का प्रयास कर रहे हैं, यह प्रयास आप सबकी सक्रिय भागीदारी से ही संभव हो सकता है। हमें उम्मीद है कि समुदाय और विशेषज्ञों की भागीदारी और अनुभवों से पानी संबंधी समस्याओं का संतोषजनक हल खोजना संभव हो पाएगा। यदि आप भी हमारी प्रश्न पूछें सेवा में वाटर एक्सपर्ट में शामिल होना चाहते हैं तो पोर्टल पर आपका स्वागत है http://hindi.indiawaterportal.org/waterexpert यदि आपकी भी पानी संबंधी कोई समस्या है और समाधान के लिए विशेषज्ञों की राय लेना चाहते हैं तो कृपया क्लिकिएः http://hindi.indiawaterportal.org/node/ask_an_expert *पाठकों द्वारा कुछ सवाल पूछे गए हैं यदि आप उनका उत्तर देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है-* • नोएडा के पानी मे फ्लोराइड • पानी से कौन सी बिमारी होती है और कौन सी बिमारी ठीक हो जाती है? • भूजल स्रोतों का संरक्षण और योजना • भारत में कृषि के लिए कितने भूजल की आवश्यकता होती है? To contribute your Water and sanitation articles contact at- hindi at indiawaterportal.org or water.community at gmail.com Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org ------------------------------------------------------- From ved1964 at gmail.com Mon Jun 22 20:12:17 2009 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Mon, 22 Jun 2009 20:12:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= unicode support in pagemaker Message-ID: <3452482c0906220742m631c8708r2b4f8becc0c31568@mail.gmail.com> प्रिय साथियो, जैसाकि आप जानते हैं पेजमेकर, क्वार्कएक्सप्रैस या इसी तरह के सॉफ्टवेयर यूनिकोड का समर्थन तो करते हैं पर हिंदी के डिसप्ले में मात्राएँ और अक्षर यही रूप में दिखाई नहीं देते. काफी समय से उम्मीद थी कि स्क्राइबस, जो कि ओपनसोर्स सॉफ्टवेयर भी है, इस सुविधा को उपलब्ध कराएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अभी हाल ही में पता चला है कि inkscape नामक सॉफ्टवेयर फ्रेम में भी हिंदी अक्षरों को सही रूप में दिखाता है. इसमें पेजमेकर के मुकाबले काफी कम सुविधाएँ प्रतीत होती हैं, पर फिर भी एक अच्छी शुरुआत तो है. इसके अलावा indica फॉन्ट वालों का दावा है कि उनके प्लगइन का प्रयोग कर क्वार्कएक्सप्रैस में एकदम सही रूप में हिंदी टाइप की जा सकती है. जरा आजमा कर देखें. और यदि कोई और हल मौजूद हो तो उससे अवगत कराएँ. सादर, आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090622/591f4ce3/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Jun 23 11:31:26 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 23 Jun 2009 11:31:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkquCksCDgpIbgpKjgpYfgpLXgpL7gpLLgpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkruCliOCkn+CljeCksOClgOCkruCli+CkqOCljeCkrw==?= =?utf-8?b?4KSyIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljeCksOCkruCli+CkgiDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOCkvuCkouCkvA==?= Message-ID: <829019b0906222301u3bd153a9y50f8c403d4c14e3f@mail.gmail.com> पीटीसी देते हुए स्टार न्यूज के संवाददाताब्रजेश राजपूत ने कहा कि- कहते हैं जोड़ियां उपर से बनकर आती हैं लेकिन अब टेलीविजन शादी का सेहरा बांधने का काम कर रहा है। ब्रजेश राजपूत की बात करें तो साफ संकेत है कि टेलीविजन अब वो भी काम करने लग गया है जो कि अब तक उपरवाले के हाथ में था। रब ने बना दी जोड़ी की समझ रखनेवालों को बेहतर ढंग से पता है कि जब तक उपरवाले की मर्जी न हो जाए किसी की किसी से बंधन की गांठ नहीं लग सकती। अब आप चाहे किसी लड़की के साथ या फिर लड़के साथ सालों से टिम लकलक ते टिम लकलक करते रह जाइए,कुछ भी हाथ लगनेवाला नहीं। लेकिन स्टार प्लस जिस तरह से अपने कार्यक्रम वीवेल विवाह के जरिए खुदा की मर्जी औऱ उपरवाले की कृपा जैसी मान्यताओं को ध्वस्त करने में जुटा है उससे साफ अंदाजा लग जा रहा है कि आनेवाले समय में देश की एक बड़ी आबादी की सोच को बनाने और बदलने की तरह शादी को लेकर भी टेलीविजन अपनी दखल कायम करने जा रहा है। अगर आप 29 जून से एनडीटीवी इमैजिन पर शुरु होनेवाले कार्यक्रम राखी का स्वयंवर के प्रोमो पर गौर करें तो ये समझ बनाने की कोशिशें जारी है। राखी का कहना है- अब तक जिंदगी में हमें जो कुछ भी मिला,वो टेलीविजन ने दिया तो फिर जीवनसाथी क्यों नहीं। मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों और फार्मेट पर गौर करें तो अब तक तीन या चार से ज्यादा कैटेगरी बनाने की स्थिति में हम नहीं है। रियलिटी शो,सोप ओपेरा यानी सीरियल्स और लाफ्टर शो या ऐसे ही इन्टरटेनिंग शो। लेकिन आनेवाले समय में जल्द ही मैट्रीमोन्यल शो भी इसमें अलग से शामिल हो जाएगा। टेलीविजन के जरिए शादी की पहल फिलहाल स्टार प्लस ने शुरु की है और 29 जून से इमैजिन राखी का स्वयंवर रचाने जा रहा है, एक हद तक आप इसे भी मैट्रीमोन्यल के खाते में रख सकते हैं लेकिन ये एकतरफा मामला है। वर के तौर पर 16 प्रतिभागी तो इसमें आपको दिख जाएंगे लेकिन वधू को लेकर शार्टेज पड़ जाएगा। इन दोनों की पॉपुलिरिटी आनेवाले समय में टेलीविजन की पॉपुलरिटी तय करने जा रही है। उन लोगों के बीच टेलीविजन एक बार फिर से पॉपुलर होने जा रहा है जो अब तक इसे बकवास और डिब्बा मानकर छोड़ चुक हैं जिसमें यूथ जेनरेशन विशेष तौर पर शामिल है। जब बात एक अविवाहित लड़का या लड़की और उसे लेकर परेशान होनेवाले घऱ के सदस्यों की होती है तो उन तरीकों को सीरियसली लेने में कोई परेशानी नहीं होती जिससे लगता है कि मन-मुताबिक वर या वधू मिल जाएंगे। आनेवाले समय में टेलीविजन यही भरोसा पैदा करने की कोशिश करेगा। संभव है कि दो-चार महीने के अंदर ही सारे चैनलों के अपने-अपने मैट्रीरमोन्यल शो शुरु हो जाएंगे। मेट्रीमोन्यल शो की सफलता की गारंटी लगभग पहले से तय है। इसकी बड़ी वजह है कि देश में तेजी से एक ऐसा समाज पनप रहा है जिसके लिए शादी एक ऐसा सिरदर्द है जो ले-देकर वो मैट्रीमोन्यल एजेंसियों के भरोसे दूर करना चाहते हैं। पंडितजी औऱ मौलवियों के भरोसे सुयोग्य वर और वधू खोजे जानेवाले इस देश में कभी किसी ने शायद ही ऐसा सोचा होगा कि शादी से जुड़ी एजेंसियों की इतनी मांग बढ़ जाएगी और रिश्ते तय करने में वो इस तरह की भूमिका तय करने लग जाएंगे। टेलीविजन का ये मैट्रीरमोन्यल शो इसलिए भी मार नहीं खाएगा कि इसकी टेस्टिंग एक तरह से पहले ही हो चुकी है। शादी डॉट कॉम और जीवनसाथी डॉट कॉम की लोकप्रियता ने उन्हें एक तरह से फीडबैक दिया है कि इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की अपार संभावना है। इतना ही नहीं टेलीविजन के ये शो इन एजेंसियों से कुछ ज्यादा ही सुविधा देने लगे हैं जिसकी समझ ऑडिएंस औऱ इसमें शामिल होनेवाले लोगों को भी होने लगी है। स्टार प्लस के वीवेल विवाह की पहली जोड़ी जो कि अब शादी कर चुके हैं नीरज औऱ स्वेच्छा उनकी बातों पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि टेलीविजन औऱ चैनल्स कैसे अपने को विशिष्ट बनाने की कोशिश में लगे हैं। नीरज पराशर का कहना है- देश में कितने ऐसे परिवार और लड़कियां हैं जो कि उसकी जहां शादी हो रही है वहां जाकर देख सके कि उसके होनेवाले ससुराल में कितने कमरे हैं। ये शो ये संभव कराता है। टेलीविजन के जरिए खोजी गयी पहली बहू स्वेच्छा का मानना है कि इस शो का कॉन्सेप्ट बहुत ही प्रैक्टिकल है,कॉन्सेप्ट इज वेरी गुड। वैसे भी अगर आप शादी डॉट कॉम या जीवनसाथी डॉट कॉम को एक्सेस करते हैं तो आपको लड़की या लड़के की दो या तीन स्टिल फोटो ही देखने को मिलती है। संभव है इस फोटो से आपको बहुत सारी बातें समझ नहीं आती। बायोडाटा से मोटे तौर पर एक अंदाज मिल जाता है। लेकिन जो लोग आवाज,बॉडी लैंग्वेज,एटीट्यूड जैसी बातों पर विशेष ध्यान देते हैं उनके लिए ये शो बहुत मायने रखते हैं। इसके जरिए आप अपने होनेवाले जीवनसाथी को एक लाइवली पोजिशन में देख पाते हैं। शादी को लेकर एक दूसरी बड़ी समस्या है कि लोगों के पास इसके लिए बहुत अधिक समय नहीं है। वो चाहते है कि कोई एक लंबी 15 से 20 दिनों की छुट्टी लें और लड़की या लड़का देखने से लेकर विदाई करने औऱ बहू हो तो घर लाने तक की रश्म पूरी हो जाए। बिहार में इसे चट मंगनी पट बिआह कहते हैं। अदिति जो कि इस शो को होस्ट कर रही है ने बाइट देते हुए कहा कि- मुझे इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि नीरज और स्वेच्छा की शादी मात्र 20 दिनों के भीतर ही हो जाएगी। चैनल अब यही से अपनी ब्रांडिंग करनी शुरु करेगा औऱ ऑडिएंस को भरोसे में लेने की कोशिश की आप यहां आकर फंसेंगे नहीं बल्कि एक ही लंबी छुट्टी में अपने मन-मुताबिक वर या वधू पा लेंगे। दिनभर मेटरीमोनियल से जुड़े मेल का जबाब देते और मेल चेक करते रहनेवाले कुंवारे लड़के और लड़कियों के बीच टेलीविजन एक नयी उम्मीद के साथ आया है। अब तक टेलीविजन सीरियलों में किसी लड़की या चरित्र को देखकर घर की महिलाएं कहा करती रहीं है कि हम अपने घर में तुलसी या पार्वती जैसी ही बहू लाएंगे,उऩके बीच एक उत्साह बन रहा है कि अपनी बहू टेलीविजन की बहू होगी,देखा-जांचा और परखा हुआ। और इधर जब वर के तौर पर लड़का टेलीविजन पर आ चुका है तो आउटडेटेड तो होगा ही नहीं। विवाह का समय है दोपहर दो बजे। रुटीन के तौर पर देखें तो आमतौर पर अल्सा जानेवाला समय,झपकी और नींद के बीच डूबते-उतरते रहने का समय। लेकिन चैनल ने इसे चुना है जो कि ऑडिएंस को सबसे ज्यादा एलर्ट कर देता है। एक बात ये भी है कि मेटरीमोनियल साइटों ने पहले से ही एक लॉट ऐसी तैयार किया है जो संभव है कि टेलीविजन के इस कार्यक्रम की तरफ शिफ्ट होते चले जाएं। बाकी कार्यक्रमों के मुकाबले चैनल को इस कार्यक्रम के लिए कम बिजनेस रिस्क उठाने पडेंगे। आनेवाले समय में समाज के बीच एक नया मुहावरा बनेगा। देश के कई हिस्सों में बहुओं के नाम नहीं लिए जाते। परमेसर की घरवाली या बॉबी की मम्मी कहा जाता है। कहीं-कहीं जहां उसका मायका होता है,वहां का नाम लिया जाता है- कानपुरवाली। अब ये भी होगा- जी टीवी वाली बहुरिया,स्टार प्लस वाली भाभी। जो जिस चैनल के जरिए शादी रचा कर आयी है, उस हिसाब से उसकी पहचान बनेगी। इन सबके बीच बच्चे ऑडिएंस की दिलचस्पी भी इस शो के प्रति बढ़ेगी। शादी के मामले में घर के बच्चे टपर-टपर नहीं बोलते, ये धारणा टूटेगी क्योंकि जिस माध्यम से बहू और दामाद चुने जाने हैं उसकी बेहतर समझ उन बच्चों के ज्यादा है। इसलिए ये मुहावरा भी पॉपुलर होगा- देखना, आच्छथा,मेली चाची जलुल बनेगी।. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090623/d5154416/attachment-0001.html From skoost at skoost.com Tue Jun 23 15:01:54 2009 From: skoost at skoost.com (Ajeet Deebedi) Date: 23 Jun 2009 09:31:54 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= A little gift - Ajeet Message-ID: <20090623093038.BC052ADDA3@skoismta07.skoost.com> Ajeet Deebedi belongs to Skoost and sent you a little gift. Click below to collect your gift: http://uk.skoost.com/fun?deewan%40sarai%2Enet/20413916/5 P.S. This is a safe and innocent gift that Ajeet Deebedi sent from Skoost, the free goodies website. This e-mail was sent to deewan at sarai.net on 6/23/2009 10:30:14 AM on behalf of Ajeet Deebedi (dajeet at gmail.com) From skoost at skoost.com Tue Jun 23 15:01:54 2009 From: skoost at skoost.com (Ajeet Deebedi) Date: 23 Jun 2009 09:31:54 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= A little gift - Ajeet Message-ID: <20090623093038.DB066ADD54@skoismta07.skoost.com> Ajeet Deebedi belongs to Skoost and sent you a little gift. Click below to collect your gift: http://uk.skoost.com/fun?Deewan%40mail%2Esarai%2Enet/20413916/5 P.S. This is a safe and innocent gift that Ajeet Deebedi sent from Skoost, the free goodies website. This e-mail was sent to deewan at mail.sarai.net on 6/23/2009 10:30:14 AM on behalf of Ajeet Deebedi (dajeet at gmail.com) From ravikant at sarai.net Tue Jun 23 15:36:13 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 23 Jun 2009 15:36:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkquCksCDgpIbgpKjgpYfgpLXgpL7gpLLgpYAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWIIOCkruCliOCkn+CljeCksOClgOCkruCli+CkqOCljeCkr+CksiDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWN4KSv4KSV4KWN4KSw4KSu4KWL4KSCIOCkleClgCDgpKzgpL4=?= =?utf-8?b?4KSi4KS8?= In-Reply-To: <829019b0906222301u3bd153a9y50f8c403d4c14e3f@mail.gmail.com> References: <829019b0906222301u3bd153a9y50f8c403d4c14e3f@mail.gmail.com> Message-ID: <200906231536.14159.ravikant@sarai.net> विनीत, वाक़ई बहुत मज़ा आएगा, और धीरे-धीरे हिम्म्त करके शायद टीवीवाले अंतर्जातीय, जो ज़्यादा आसान है और अंतर्धार्मिक - थोड़ा मुश्किल -विवाह डंके की चोट पर करवाना शुरू करेंगे. वो भी खुले आम ग़ैर-आर्य समाजी तरीक़े से! रविकान्त मंगलवार 23 जून 2009 11:31 को, vineet kumar ने लिखा था: > पीटीसी देते हुए स्टार न्यूज के संवाददाताब्रजेश राजपूत ने कहा कि- कहते हैं > जोड़ियां उपर से बनकर आती हैं लेकिन अब टेलीविजन शादी का सेहरा बांधने का काम > कर रहा है। ब्रजेश राजपूत की बात करें तो साफ संकेत है कि टेलीविजन अब वो भी > काम करने लग गया है जो कि अब तक उपरवाले के हाथ में था। रब ने बना दी जोड़ी की > समझ रखनेवालों को बेहतर ढंग से पता है कि जब तक उपरवाले की मर्जी न हो जाए > किसी की किसी से बंधन की गांठ नहीं लग सकती। अब आप चाहे किसी लड़की के साथ या > फिर लड़के साथ सालों से टिम लकलक ते टिम लकलक करते रह जाइए,कुछ भी हाथ > लगनेवाला नहीं। लेकिन स्टार प्लस जिस तरह से अपने कार्यक्रम वीवेल > विवाह के > जरिए खुदा की मर्जी औऱ उपरवाले की कृपा जैसी मान्यताओं को ध्वस्त करने में > जुटा है उससे साफ अंदाजा लग जा रहा है कि आनेवाले समय में देश की एक बड़ी > आबादी की सोच को बनाने और बदलने की तरह शादी को लेकर भी टेलीविजन अपनी दखल > कायम करने जा रहा है। अगर आप 29 जून से एनडीटीवी इमैजिन पर शुरु होनेवाले > कार्यक्रम राखी का स्वयंवर के > प्रोमो पर गौर करें तो ये समझ बनाने की कोशिशें जारी है। राखी का कहना है- अब > तक जिंदगी में हमें जो कुछ भी मिला,वो टेलीविजन ने दिया तो फिर जीवनसाथी क्यों > नहीं। > > From ravikant at sarai.net Wed Jun 24 17:21:59 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Jun 2009 17:21:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSl4KS+IOCkruClh+CkgiDgpK7gpYPgpKTgpY3gpK/gpYE=?= Message-ID: <200906241721.59171.ravikant@sarai.net> तद्भव, अंक/19 जनवरी 2009 से साभार: http://www.tadbhav.com/is_katha_manoj.html#s इस कथा में मृत्यु मनोज कुमार झा इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है यह इधर की कथा है। जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता हाथों के स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता ठाकुरबाड़ी से ताम्रपात्रा द्र इधर यह एक दुर्लभ दृश्य है कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़ और फूट जाता है कुएं पर रखा घड़ा। गले में सफेद मफलर बांधे क्यारियों के बीच हौले हौले चलते वृद्ध कितने सुंदर लगते हैं मगर इधर के वृद्ध इतना खांसते क्यों हैं एक ही खेत के ढेले सा सबका चेहरा जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखा कागज जवानी का ही था मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अंगूठा वक्त ने मल दिया बहुत ज्यादा परथन। तलवे के नीचे कुछ हिलता है और जब तक खोल पाये पंख लुढ़क जाता है शरीर। उस बुढ़िया को ही देखिये जो दिन भर खखोरती रही चौर में घोंघे सुबह उसके आंचल में पांच के नोट बंधे थे सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे बहुत दिनों के बाद शायद पांच रुपये का तेल लाती आज वो छक कर खाती मगर ठंड लग गयी शायद अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है कि उसने रांध कर खा लिया मरनी वाले घर का घोंघा। वह बच्चा आधी रात उठा और चांद की तरफ दूध कटोरा के लिये बढ़ा रास्ते में था कुआं और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे एक बुजुर्ग ने बस इतना कहा: गया टोले का एकमात्रा कुआं। वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती एक दिन पीट कर मार डाली गयी डायन बता कर। उस दिन घर में सब्जी भी बनी थी फिर भी बहू ने थोड़ा अचार ले लिया सास ने पेटही कह कर नैहर की बात चला दी बहू सुबह पायी गयी विवाह वाली साड़ी में झूलती तड़फड़ जला दी गयी चीनी और किरासन डाल कर जो सस्ते में दिया राशन वाले ने पुलिस आती तो दस हजार टानती ही चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब वह सारंगी लिए घूमता रहता है बम बनाते एक का हाथ उड़ गया था दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह परीछन की बेटी पार साल बह गयी बाढ़ में छोटकी को भी बियाहा है उसी गांव उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है। मैं जहां रहता हूं वह महामसान है चौदह लड़कियां मारी गयीं गर्भ में फोटो खिंचा कर और तीन महिलाएं मरीं गर्भाशय के घाव से। 2. कौन यहां है और कौन नहीं है, वह क्यों है और क्यों नहीं यह बस रहस्य है। हममें से बहुतों ने इसलिए लिया जन्म कि कोई मर जाये तो उसकी जगह पर रहे दूसरा। हममें से बहुतों का जीवन मृत सहोदरों की छायाप्रति है। हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होउं। कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं। मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती हैं तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोइछे में। कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान वर्ना कैसे काट लेता है इतनी तेजी से। वह बच्चा मां की कब्र की मिट्टी से हर शाम पुतली बनाता है रात को पुतली उसे दूध पिलाती है और अब उसके पिता निश्चिंत हो गये हैं। इधर सुना है कि वो स्त्राी जो मर गयी थी सौरी में वो अब रात को फोटो खिंचवा कर मारने वालों को डराती है, इसको लेकर इलाके में दहशत है और पढ़े लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी एकमत हैं जो अमूमन पढ़े लिखों के खिलाफ होते हैं। इस इलाके का सबसे बड़ा गुंडा मात्रा मृतात्माओं से डरता है। एक बार उसकी दारू की बोतल में जिन्न घुस गया था फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी मीटिंग में भी मंत्राी जी ले गये हवाई जहाज में बिठा ओझाई करवाने। इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें दिवंगतों का भी हिस्सा रखता है। एक स्त्राी देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े में पति गये पंजाब फिर लौट कर नहीं आये भुना चना फांकते बहुत अच्छा गाते थे चैतावर। 3. संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है किसी भी खरका से उलझ कर टूट सकता है सूता। यह इधर की कथा है इसमें मृत्यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है। From ravikant at sarai.net Wed Jun 24 18:18:05 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Jun 2009 18:18:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSH?= =?utf-8?b?4KS4IOCkleCkpeCkviDgpK7gpYfgpIIg4KSu4KWD4KSk4KWN4KSv4KWB?= Message-ID: <200906241818.06354.ravikant@sarai.net> वाह, चंदन जी, ये तो बैतबाज़ी शुरू हो ग‌ई. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान]इस कथा में मृत्यु Date: बुधवार 24 जून 2009 18:04 From: Chandan Srivastawa To: ravikant at sarai.net अच्छे रविकांत जी, उसी जमीन की एक कविता भेज रहा हूं- ये गोधूलि का समय है, गायें होतीं तो अबतक लौट आतीं, बछड़े राह देख रहे होते। ये गोधूलि का समय है. अंधेरों के जागने का समय स्याह मुंडेरों पर प्रेतों के टहलने का समय घर के कोने-कोने में सन्नाटों के बोलने का समय और ऐसे समय में दादी नहीं है। दादी-दीया-बाती-संझवत दादी होती तो, इस अंधेरे में कुछ फटक-बीन रही होती। गांव के पार नदी, नदी के पार पहाड़ और पहाड़ के उस पार परदेस. दादा के देस बस इतना भर था। और उस देस में. आम एक घड़ी की तरह लटका रहता था इसके महकने से फागुन इसके पकने से जेठ और इसके टपकने से सावन आता था। अब परदेस बहुत दूर छिटक गया है किनारे रह गए हैं, नदी बहुत दूर फिसल गई है पहाड़ के कंधे झुकने लगे हैं, गांव के नीचे की जमीन खिसक रही है और देस बड़ा हो रहा है। अब समय पेड़ों पर नहीं है। आम के भीतर की घड़ी बंद हो गई है। बच्चे कहते हैं- आम उतना ही है,जितना की वह है- गुदगुदा-पिलपिला-बिना छिलके का मांसपिण्ड। ये गोधूलि का समय है- और दादा नहीं हैं- कहीं कोई बच्चों का शोर नहीं है समय धीरे-धीरे सयाना हो गया है। चंदन On 6/24/09, Ravikant wrote: > तद्भव, अंक/19 जनवरी 2009 से साभार: > > http://www.tadbhav.com/is_katha_manoj.html#s > > इस कथा में मृत्यु > > मनोज कुमार झा > > इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है > यह इधर की कथा है। > जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता > हाथों के स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता ठाकुरबाड़ी से > ताम्रपात्रा > द्र इधर यह एक दुर्लभ दृश्य है > कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़ > और फूट जाता है कुएं पर रखा घड़ा। > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -- Inclusive Media for Change, CSDS, 29 Rajpur Road, Delhi,110054 011-23981012 (for message and fax) ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Thu Jun 25 12:38:14 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 25 Jun 2009 12:38:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KSn4KSw4KWN4KSu4KWAIOCkn+Clh+CksuClgOCkteCkv+CknA==?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClhyDgpJzgpKjgpJXgpIMg4KSP4KS4LuCkquClgC7gpLg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KS5IOCkleClgCDgpK/gpL7gpKYg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <829019b0906250008q61df4d5au7f2a91556e55da94@mail.gmail.com> *एस.पी.पर संगोष्ठी : आमंत्रण* *एस.पी.पर संगोष्ठी : * * *भारत में आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. इस अवसर पर मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका "मीडिया मंत्र" के जुलाई अंक का विमोचन भी किया जायेगा, जो कि एस.पी.सिंह पर केंद्रित है. संगोष्ठी में मीडिया जगत के जाने - माने लोग शामिल होंगे जो एस.पी से संबंधित अपने संस्मरणों को साझा करेंगे. इस अवसर पर आप सभी सादर आमंत्रित हैं. *स्थान *: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, रायसीना रोड, नई दिल्ली *तिथि* : 27 जून, 2009 *दिन* : शनिवार *समय* : 3 बजे *संपर्क* : 9999177575 *एस. पी. सिंह जैसे लोग किसी सरजमीन पर कभी-कभी ही पैदा होते हैं - संजय पुगलिया, संपादक, आवाज* *एस. पी. की हिंदी पत्रकारिता में जो देन है उसे शब्दों में नहीं बयां नहीं किया जा सकता. - कमर वहीद नकवी, न्यूज़ डायरेक्टर, आजतक* *मैं एस.पी.की जिंदगी का अर्जुन कभी नहीं बन पाया - आशुतोष, मैंनेजिंग एडिटर, आईबीएन-७* *एसपी निष्पक्ष पत्रकार नहीं थे, इसलिए महत्वपूर्ण हैं *- *दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम* *एसपी जितने बड़े पत्रकार थे, उससे ज्यादा बड़े इंसान थे। - सुप्रिय प्रसाद, न्यूज़ डायरेक्टर, न्यूज़ 24* *एस.पी बहुत जीवंत और सहज व्यक्ति थे - दीपक चौरसिया, संपादक (राष्ट्रीय समाचार), स्टार न्यूज़* *एस.पी एक ऐसे पत्रकार थे जो पहाड़ से संजीवनी बूटी निकाल लेते थे - अलका सक्सेना, कंसल्टिंग एडिटर, जी न्यूज़* *बड़ी मुश्किल होती है जब किसी बेइंतहा करीबी के बारे में लिखना पड़े* *- चंदन प्रताप सिंह, राजनीतिक संपादक, टोटल टीवी* *एस.पी ने जो काम किया वह एक पूरी पीढी के लिए आदर्श और प्रेरणा का स्रोत है.* *- परंजय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार* *एस.पी. जर्नलिज्म में मेरे पितातुल्य* - *- अंजू पंकज, एंकर, समय* *एस.पी.की याद में (मीडिया मंत्र)........* ** *- संजय पुगलिया, संपादक, आवाज* *- कमर वहीद नकवी, न्यूज़ डायरेक्टर, आजतक* - दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम *- चंदन प्रताप सिंह, राजनीतिक संपादक, टोटल टीवी* *- राजेश त्रिपाठी, सन्मार्ग* *- परंजय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार* *- दीपक चौरसिया, संपादक (राष्ट्रीय समाचार), स्टार न्यूज़* *- सुप्रिय प्रसाद, न्यूज़ डायरेक्टर, न्यूज़ 24* *- आशुतोष, मैंनेजिंग एडिटर, आईबीएन-7* *- अंजू पंकज, एंकर, समय* *- अलका सक्सेना, कंसल्टिंग एडिटर, जी न्यूज़* ** * * ** किसी भी तरह की जानकारी के लिए आप 9999177575 पर संपर्क कर सकते हैं.* ** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090625/4f48c0ef/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Jun 25 12:54:00 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 25 Jun 2009 12:54:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KSn4KSw4KWN4KSu4KWAIOCkn+Clh+CksuClgOCkteCkv+CknOCkqCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCknOCkqOCkleCkgyDgpI/gpLgu4KSq4KWALuCkuOCkv+Ckgg==?= =?utf-8?b?4KS5IOCkleClgCDgpK/gpL7gpKYg4KSu4KWH4KSC?= In-Reply-To: <829019b0906250008q61df4d5au7f2a91556e55da94@mail.gmail.com> References: <829019b0906250008q61df4d5au7f2a91556e55da94@mail.gmail.com> Message-ID: <200906251254.01921.ravikant@sarai.net> सूचना के लिए शुक्रिया विनीत. मैंने एसपी को टीवी पर काफ़ी देखा था. गोकि आवाज़ दमदार नहीं थी पर अच्छे लगते थे. हाल में आलोक श्रीवास्तव की किताब अख़बारनामा में उनके साथ हुई एक बातचीत पढ़ने को मिली जो शायद हर मीडियाकर्मी या विद्यार्थी को पढ़नी चाहिए. रविकान्त गुरुवार 25 जून 2009 12:38 को, vineet kumar ने लिखा था: > *एस.पी.पर संगोष्ठी : आमंत्रण* > *एस.पी.पर संगोष्ठी : * > * > *भारत में आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले एस.पी.सिंह की 12 > वीं पुण्यतिथि के मौके पर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में एक संगोष्ठी का आयोजन > किया जा रहा है. इस अवसर पर मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका > "मीडिया मंत्र" के जुलाई अंक का विमोचन भी किया जायेगा, जो कि एस.पी.सिंह पर > केंद्रित है. संगोष्ठी में मीडिया जगत के जाने - माने लोग शामिल होंगे जो > एस.पी से संबंधित अपने संस्मरणों को साझा करेंगे. इस अवसर पर आप सभी सादर > आमंत्रित हैं. *स्थान *: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, रायसीना रोड, नई दिल्ली > *तिथि* : 27 जून, 2009 > *दिन* : शनिवार > *समय* : 3 बजे > *संपर्क* : 9999177575 > From rakeshjee at gmail.com Thu Jun 25 18:02:21 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 25 Jun 2009 12:32:21 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016361e88905083f8046d2b6a7d@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// नेशनल फेडरेशन ऑफ़ दलितवुमेन का आठवाँ सम्मेलन Posted: 24 Jun 2009 10:32 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/B9xjlGCvqDk/blog-post.html कल दिनांक २६ जून २००९ को विश्व युवक केन्द्र, चाणक्यपुरी नई दिल्ली में नेशनल फेडरेशन ऑफ़ दलितवुमेन का आठवाँ सम्मेलन होने जा रहा है। संबन्धित जानकारी के लिए साथ की तस्वीरों को क्लिक करें। -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090625/ec63083b/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jun 27 12:23:14 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 27 Jun 2009 12:23:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSc4KSk4KSV?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksiDgpI/gpLgu4KSq4KWALuCkuOCkv+CkguCkuSA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkueClgCDgpJrgpK7gpKTgpY3gpJXgpL7gpLAg4KSl4KS+?= Message-ID: <829019b0906262353k1989e7cawd16a4b61f0496d60@mail.gmail.com> कमर वहीद नकवी,न्यूज डायरेक्टर- आजतक शुरुआत में सुरेन्द्र प्रताप सिंह से परिचय 'रविवार' पत्रिका के माध्यम से हुआ. उन दिनों मैं बनारस में था. बनारस के अखबारों में छपे विज्ञापनों से यह पता चला कि हिन्दी की एक नई पत्रिका 'रविवार' नाम से छपने वाली है. उस समय की बड़ी पत्रिका 'दिनमान' थी और प्रायः सभी बुद्धिजीवी और पत्रकार दिनमान को ही पढ़ते थे. रविवार के बारे में जानने के बाद मैंने यह देखने के लिए पहला अंक ख़रीदा कि देखें कौन सी और कैसी पत्रिका है. रविवार के पहले अंक में बतौर संपादक एम.जे.अकबर का नाम था. लेकिन उसके बाद के अंकों में सुरेन्द्र प्रताप सिंह का नाम आया और फिर वह पत्रिका अच्छी लगने लगी. अच्छी लगने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उस समय हिन्दी में ऐसी कोई पत्रिका नही थी. जैसा कि मैंने पहले भी जिक्र किया कि उस समय की सबसे स्थापित पत्रिका दिनमान थी लेकिन वह बहुत ही अधिक गंभीर और विश्लेषण पर आधारित पत्रिका थी. उसके किसी भी लेख को समझने के लिए कम - से - कम तीन बार पढ़ना पड़ता था. नही तो यह समझ में ही नही आता था कि आख़िर लिखा क्या है. फिर भी यह एक बहुत ही अच्छी पत्रिका थी और इससे काफी कुछ सिखने को मिला. यह हमलोगों का सौभाग्य था कि जब हम कुछ करने के लिए तैयार हो रहे थे उस समय दिनमान जैसी पत्रिका मौजूद थी. दूसरा जो बड़ा सौभाग्य था वह रविवार जैसी पत्रिका की मौजूदगी. रविवार के माध्यम से जैसी पत्रकारिता की शुरुआत हुई वह अपने आप में बेमिसाल थी. मेरी राय में आधुनिक पत्रकारिता का बीज कही था तो वह रविवार था. आज जो कुछ भी हिन्दी पत्रकारिता का स्वरुप है वह रविवार की ही देन है. उन दिनों हिन्दी के अखबार अनुवाद के अखबार हुआ करते थे उस समय के बड़े पत्र - पत्रिकाओं में भी साहित्य को छोड़कर बाकी सबकुछ अनुवादित सामग्री ही हुआ करता थी हिन्दी के अखबारों के लिए अलग से रिपोर्टर नही रखे जाते थे और न ही फील्ड रिपोर्टिंग जैसी कोई परंपरा थी. पीआईबी और हिन्दी के समाचार एजेंसियों के भरोसे हिन्दी के अखबार और पत्र - पत्रिकाएं चलते थे. लेकिन रविवार ने नई शुरुआत की और हिन्दी के पत्रकार रिपोर्टिंग के लिए फील्ड में जाने लगे और इस तरह एक नई शुरुआत हुई. वह दौर ऐसा था जब दंगे बहुत हुआ करते थे. रविवार में उदयन शर्मा और संतोष भारतीय की ऐसी - ऐसी ज़बरदस्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसे पढ़कर रोमांचित हुए बिना नही रह सकते. इन रिपोर्ट्स को पढ़कर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता था कि रिपोर्टर ने अपनी जान को कितने बड़े खतरे में डालकर इस रिपोर्ट को तैयार किया है. हिन्दी पत्रकारिता के लिहाज़ से यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था और हिन्दी के जो भी पत्रकार है उनको इस बात के लिए एस.पी.सिंह का ऋणी होना ही चाहिए. पत्रकारिता को एक नया स्वरुप देने का श्रेय उन्ही को जाता है. एस.पी.सिंह ने पत्रकारिता को न केवल नई दिशा दी बल्कि हिन्दी के पत्रकारों में इस आत्मबल को जगाया कि हिन्दी के पत्रकार भी अच्छी रिपोर्टिंग कर सकते हैं. उदयन शर्मा की रिपोर्ट का जब अंग्रेज़ी में अनुवाद करके संडे मैगजीन में छापा जाने लगा तो हिन्दी के पत्रकारों को पहली बार एहसास हुआ कि हिन्दी की अच्छी रिपोर्ट का भी अंग्रेज़ी में अनुवाद हो सकता है और यह अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन था. मेरी एस.पी.सिंह से औपचारिक मुलाकात संतोष भारतीय के माध्यम से हुई. संतोष भारतीय ने ही उनसे मेरा परिचय करवाया इसके बाद जब वे नवभारत टाईम्स में संपादक बन कर आए तब मैं नवभारत टाईम्स , लखनऊ में न्यूज़ एडिटर हुआ करता था वहां पर सीधे तौर पर तो उनके साथ काम करने का मौका नही मिला उनके साथ काम करने का मौका तब मिला जब वे आजतक में संपादक बन कर आए. हिन्दी प्रिंट मीडिया में जो परिवर्तन उन्होंने किया था वही कहानी टेलीविजन में दुहरायी गई ऐसा बहुत कम होता है कि एक व्यक्ति जिसने एक बहुत बड़ा काम किसी एक क्षेत्र में कर दिया हो , वही व्यक्ति उतना ही बड़ा काम उतनी ही सफलता से दुबारा दुहराए . आज अंग्रेज़ी और हिन्दी टेलीविजन न्यूज़ का जो बूम है उसके पीछे आजतक की लोकप्रियता एक बहुत बड़ा कारण है क्योंकि आजतक ख़बरों का एक ऐसा कार्यक्रम बन गया कि जिंदगी उसके आगे - पीछे होने लगी पहले आजतक 9.30 बजे आता था. तब लोग आजतक देखकर 10.00 बजे सो जाते थे बाद में दूरदर्शन ने कहा कि 9.30 बजे प्राईम टाईम स्लाट है और इसमें हमलोग धारावाहिकों का प्रसारण करेंगे. आपलोग 10.00 बजे का टाईम ले लें. इस बात पर हम सब लोग बड़े चिंतित हुए और हमलोगों ने सोंचा कि यह कार्यक्रम अब बैठ जाएगा. यह चल नही पायेगा और इसकी लोकप्रियता ख़त्म हो जाएगी. 10 बजे तक तो सारे लोग सो जाते हैं इस कार्यक्रम को कौन देखेगा. लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जब 10 बजे कार्यक्रम की शुरुआत हुई तब लोगों ने अपने सोने के समय की आदत को बदल दिया और आजतक की लोकप्रियता बरक़रार रही. यह एक अनोखा परिवर्तन था. समय के साथ आजतक की लोकप्रियता और बढ़ी और बाद में यह 24 घंटे के न्यूज़ चैनल में तब्दील हो गया. आजतक की इसी लोकप्रियता की वजह से कई और चैनल आए और धीरे - धीरे यह क्रम बढ़ता गया. आजतक ने देश में एक नए तरह के न्यूज़ टेलीविजन की शुरुआत की जिसने देखते - देखते पुरी दुनिया बदल दी. एस .पी. सिंह का ही यह चमत्कार था. एस.पी सिंह जनमानस के बीच बेहद लोकप्रिय थे. एस पी सिंह ने लोगों के दिलों को प्रभावित किया. उनके निधन के बाद हमलोगों ने आजतक पर इस समाचार को प्रसारित किया और जगह - जगह पर अपने कैमरे भेजे और लोगों को उनके लिए फूट - फूटकर रोते हुए देखा . आज भी जब कई लोगों को हम अपना परिचय देते है तो सामने वाला के जुबां पर एस.पी.सिंह का नाम आ जाता है वैसे उनकी कामयाबी की दो प्रमुख वजह उनकी ईमानदारी और न्यूज़ के लिए न्यूज़ रूम में वातावरण तैयार करने की उनकी अदम्य क्षमता थी. सुबह 10 बजे के न्यूज़ मीटिंग से लेकर ,रिपोर्टर को निर्देश देने और छोटी -से- छोटी खबर पर भी उनकी नज़र रहती थी. किसी ख़बर की सूक्ष्म - से - सूक्ष्म जानकारी भी वे रखते थे. कई बार हमलोगों से चूक हो जाती थी पर उनकी नज़र हर ख़बर पर रहती थी . पीटीआई मॉनिटर करना मेरा काम था लेकिन कई बार एस.पी.सिंह आकर बताते थे कि पीटीआई पर यह ख़बर आ गई है और आपलोगों को इसे करना चाहिए. ऐसा एक दो बार नही कई बार हुआ . यह इस बात को दर्शाता है कि ख़बरों को लेकर वे कितने सचेत (एलर्ट) रहते थे. दिनभर में वह 18 - 20 अखबार पढ़ लेते थे. उन्हें कई भाषाओँ की जानकारी थी . हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा वह बांग्ला , मराठी और गुजराती के अखबार भी पढ़ते थे. यही कारण था कि उनकी जानकारी व्यापक थी और दूर - दराज़ के किसी इलाके की सूक्ष्म -से- सूक्ष्म जानकारी भी वह रखते थे. वे हर चीज़ की गहराई में जाकर उसे समझने की कोशिश करते थे जो उनकी सबसे बड़ी खासियत थी. देखा जाय तो एस.पी.सिंह की हिन्दी पत्रकारिता में जो देन है उसे शब्दों में बयान नही किया जा सकता। (फरवरी 08 महीने में भारत में आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह की याद में एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसमे एस. पी.सिंह को नजदीक से जानने वाले कई लोगों ने शिरकत की और अपने विचार और संस्मरणों को सामने रखा. आजतक के न्यूज़ डायरेक्टर कमर वहीद नकवी भी इस संगोष्ठी में आए और अपने संस्मरणों को सबके साथ बांटा. एस.पी.सिंह से मिलने से लेकर उनके साथ काम करने के अनुभव और उनके व्यक्तित्व , सबका जिक्र उन्होंने अपने इस संस्मरण में किया. मीडिया मंत्र के संपादक पुष्कर ने इस संस्मरण का लिखित रुप देते हुए यादों के झरोखे से कॉलम के अन्तर्गत मीडिया मंत्र नवम्बर 08 के अंक में प्रकाशित किया। आज एस.पी.सिंह की पुण्यतिथि के मौके पर इस संस्मरण को याद करना हमने जरुरी समझा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090627/187d7aba/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jun 28 13:50:34 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 28 Jun 2009 13:50:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS4LuCkqg==?= =?utf-8?b?4KWALuCkuOCkv+CkguCkuSDgpKjgpYcg4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSk4KS+IOCkruClh+CkgiDgpKjgpLjgpY3gpLLgpK3gpYc=?= =?utf-8?b?4KSmIOCkleCliyDgpJbgpKTgpY3gpK4g4KSV4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: <829019b0906280120q6c40fe62x85d1ccbd4ad2da0d@mail.gmail.com> कल यानी 27 जून को संवादधर्मी टेलीविजन के जनक एस.पी.सिंह की बारहवीं पुण्यतिथि का आयोजन प्रेस क्लब में किया गया। एस.पी.सिंह की याद में मीडिया मंत्र ने उन पर एक विशेषांक निकाला जिसका लोकार्पण भी किया गया। इस मौके पर एक तरफ टेलीविजन पत्रकारिता से जुड़े पुण्य प्रसून वाजपेयी,अजीत अंजुम,आशुतोष और सुमित अवस्थी जैसे चर्चित चेहरों की मौजूदगी ने महौल में गर्माहट पैदा की, एस.पी.सिंह के दौर के बुजुर्ग पत्रकारों के वक्तव्यों ने आज की पत्रकारिता पर सवाल खड़े करने का जिम्मा उठाया तो दूसरी तरफ इन सबों को सुनने के लिए नए पत्रकारों औऱ मीडिया छात्रों की मौजूदगी ने, दीवारों पर नोटबुक रखकर वक्ताओं की बातों को नोट करते रहने की दीवनगी ने ये साफ कर दिया कि कायदे की बात की जाए तो उसे सुनने-समझने और इसके जरिए अपने को बेहतर करने की ललक नए लोगों के बीच से अभी खत्म नहीं हुई है। पत्रकारिता करते और सीखते हुए अभी भी एक तबका बचा है जो वाकई बदलाव की छटपटाहट के लिए इस प्रोफेशन से जुड़ा है। एस.पी.सिंह जैसे पायनियर पत्रकारों की जब कभी भी चर्चा होती है तो मौजूदा पत्रकारिता के मूल्यांकन करने का भी काम साथ-साथ चलता है। कल भी ऐसा ही हुआ। एस.पी.सिंह की यादों में डूबते-उतरते जितने भी वक्ताओं ने अपनी बात कही,उनमें कहीं न कहीं आज की पत्रकारिता को विश्लेषित करने की योजना साफ तौर पर नजर आयी। ये अलग बात है कि कुछ लोग कोरी नैतिकता से लदी-फदी भाषा और विचार के साथ हमारे सामने आए तो कुछ वक्ताओं ने व्यावहारिक तौर पर मीडिया आलोचना की हमारी समझ को दुरुस्त किया। हम जैसे मीडिया रिसर्चर औऱ स्टूडेंट के लिए मौके-मौके पर इन लोगों के विचारों को जानते रहना अनिवार्य है। मीडिया के जो भी स्टूडेंट अपने निजी कारणों से कल नहीं पहुंच पाए,उनके लिए सीरिज में मैं महत्वपूर्ण वक्ताओं के वक्तव्य को अविकल प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे मैंने पहले टेप किया है और फिर धीरे-धीरे ट्रांसक्राइव कर रहा हूं इसलिए साथियों से अनुरोध है कि इसका किसी भी रुप में व्यावसायिक प्रयोग करने के पहले हमें जरुर खबर करें। इस कड़ी में पेश है,आशुतोष,मैनेजिंग एडीटर IBN7 के संस्मरण और टीवी पत्रकारिता को लेकर उनके व्यक्तिगत अनुभव एस.पी. के साथ मैंने बहुत ज्यादा काम नहीं किया है,डेढ़ साल मैंने काम किया है और ये डेढ़ साल मैंने आजतक में काम किया है। बहुत सारी चीजें हैं जिनके बारे में बात तो होती है। किसी भी चीज के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है और कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हमारे समाज के साथ दिक्कत ये है कि खासकर हिन्दी पत्रकारों की की दिक्कत ये है कि बिना सेंट्रिक हुए,बिना सिनिक हुए किसी का मूल्यांकन करना नहीं चाहते। हम बनाएंगे तो किसी को खुदा बना देंगे,भगवान बना देंगे,नहीं तो ऐसा पीटेंगे...। या तो पत्रकारिता है या पत्रकारिता नहीं है। या तो पत्रकारिता में इतना कूड़ा भर गया कि जो पिछले दो साल में भी नहीं भरा था। या एस.पी.सिंह इतने बड़े भगवान हैं कि उनके सामने कुछ भी आलोचना कर दीजिए,उनका मूल्यांकन कर दीजिए तो आप असली पत्रकार नहीं हैं। शायद हम अंदर के आक्रोश को कम करते हुए विशुद्ध रुप से भरतीय परंपरा में जो वाद-विवाद संवाद की जो स्थिति है जिस पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचे,बिना किसी निर्णय के पहुंचे अगर अपनी बात को ठीक से रख सकें तब मूल्यांकन हो सकेगा। ऐसा नहीं है कि एस.पी.सिंह के अंदर कमियां नहीं थी। ऐसा नहीं है कि किसी ने कह दिया कि एस.पी.सिंह मनोरंजन के साथ खबरों को पेश करना चाहते थे तो कुछ गलत कह रहा है। लेकिन हमारी सत्यता में,हमारी परंपरा में अतिरेक के लिए जगह नहीं है,सरेंडर के लिए जगह है। शंकराचार्य के बाद जो पूरा भक्ति आंदोलन है उसमें व्यक्ति के गुणों से खुश होकर और उसकी ईमानदारी के प्रति अपने आप को सरेंडर कर सकते हैं। लेकिन उस सरेंडर में ये अधिकार है, पूरी दुनिया में भारत में अकेली ऐसी परंपरा है जहां ईश्वर के सामने भी खड़े होकर वाद-विवाद संवाद कर सकते हैं,उनके सामने खुलकर आलोचना कर सकते हैं। लेकिन मुझे यहां बैठे-बैठ अचानक ये ध्यान आ रहा था कि हमारे अंदर लोकतंत्र का उतना भाव नहीं है। एस.पी.को समझने के लिए तीन चीजें समझनी पड़ेंगी। पहली बात मैंने उनके साथ डेढ़ साल तक काम किया। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में कहीं क्रांति की शुरुआत हुई तो वो आजतक के साथ हुई। हिन्दी पत्रकारिता अगर आधुनिक हुई तो एस.पी.के साथ शुरु हुई,हिन्दी पत्रकारिता अगर प्रोफेशन हुई तो वो एस.पी.के साथ हुई और पत्रकारिता के अंदर नस्ल भेद खत्म हुआ तो वो एस.पी. सिंह के साथ खत्म हुआ। चार मेरी अवधारणाएं हैं,बहुत लोगों को इससे आपत्ति हो सकती है,होनी चाहिए। लेकिन उसको अगर हम संवेदना के धरातल पर विवेक का इस्तेमाल करते हुए,अगर वाद-विवाद करना चाहते हैं तो संभव है। लेकिन कोई आक्रोश के साथ हमले और आक्रमक होना चाहे तो संभव नहीं है,कम से मैं तो नहीं करना चाहूंगा। एस.पी का जो सबसे बड़ा कन्ट्रीव्यूशन था कि नब्बे के दशक में जो हिन्दी पत्रकारिता की जो स्थिति थी वो इतनी दैन्य स्थिति थी कभी-कभी लगता है,जब मैं पत्रकारिता में आया तो डेढ़ साल तक मेरे पिताजी ने बात तक नहीं की। उनके सामने पत्रकार की इमेज ऐसी थी कि वो अपने बेटे को पत्रकार बनते हुए देखना नहीं चाहते थे,ठीक से बात तक नहीं करते थे। सपनों में,ख्बाबों में अपने बेटे को एक आइएस के रुप में देखा था। इसमें पावर था,शहर में कुछ भी कर सकता था। 1500 रुपये तनख्वाह थी,जोला छाप,टुटहा चप्पल औऱ मुंह में पान और कहीं भी पीक करने की हमारी जो परंपरा थी, हम किसी भी नेता के पीछे भाग लिया करते थे। एस.पी.के साथ जब मैं पहली बार मिला,आजतक के दफ्तर तो उन्होंने मुझसे कहा कि- देखो,मैं यहां आ तो गया हूं लेकिन मुझे यह रेलवे स्टेशन नजर आता है,कुलियों के बीच आ गया हूं। मुझे इसको बदलना है। क्योंकि अंग्रेजी पत्रकार हिन्दी के पत्रकार के प्रति हेय दृष्टि रखेगा, अंग्रेजी न बोल पाने के कारण कुंठित रहेगा,तो इससे हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य नहीं बन सकता। मुझे लगता है कि इसे बदलना चाहिए और ये बदलेगा। ये हालत ये थी कि मैं भी अंग्रेजी ठीक से बोल नहीं पाता था और मेरे अंदर भी ये कुंठा भाव थी कि अगर अंग्रेजी नहीं बोल पाउंगा तो देश का लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार नहीं बन पाउंगा,लोग मेरी इज्जत नहीं करेंगे। एस.पी. का कहना था कि हिन्दी के पत्रकारों में सब संभव है,जितना वो जड़ से जुड़ा है,जितना उसको अपने समाज की समझ है और जितना वो संघर्ष के साथ खबरों को निकालकर ले आता है,जितना वो शब्दों की लड़ाई लड़त सकता है, वो अंग्रेजी का पत्रकार कभी नहीं करता। उन्होंने ये भी कहा कि जितनी भी बड़ी खबरें होती हैं वो किसी न किसी छोटे पत्रकार या अखबार की चुराई खबरें होती हैं। उसको किसी बड़े अखबार में छाप देने पर वो खबर राष्ट्रीय हो जाती है और अचानक उसको पूरा समाज नोटिस लेने लग जाता है। ये है पॉवर ऑफ लैंग्वेज और हमें भाषा की इस ताकत को तोड़ना है। भाषा वो नहीं होनी चाहिए जिसको चंद लुटियन जोन्स के लोग बोलते हों और वो राष्ट्रीय भाषा कहलाए। भाषा वो होनी चाहिए जिसको कि आम आदमी भी समझ सके,जिसको मिर्जापुर में रहनेवाला भी आसानी से समझ जाता हो औऱ जिसको लुटियन जोन्स में रहनेवाले मंत्री महोदय को भी समझ में आती हो। तो भाषा की ताकत उसके रंग से तय नहीं होनी चाहिए बल्कि उसके साथ कितने अधिक से अधिक लोग जुड़े हैं,उनमें कितनी संवेदनाएं हैं उससे तय होनी चाहिए। और आनेवाले डेढ़ साल के अंदर उन्होंने इस बात को साबित कर दिया कि अगर आप किसी कमिटमेंट के चीजों साथ आगे बढ़ाते हैं तो वो असर करेगा। वो नस्लवाद था। अंग्रेजी बनाम हिन्दी का नस्लवाद था जिसको कि एस.पी. ने डेढ़ साल के अंदर तोड़ दिया। मैं इस बात को फक्र के साथ इसलिए भी कह सकता हूं कि जब मैंने ज्वायन किया था आजतक तो मैं उस दीवार को शिद्दत के साथ महसूस करता था कि अंग्रेजीदां पत्रकारों की किस तरह की हैसियत हुआ करती थी और हिन्दी के पत्रकार किस तरह की कुंठा में जीया करते थे जो महज चार-पांच महीने के अंदर वो दीवार टूटने लगी और टूटने के बाद हमने अचानक देखा कि आजतक खबरों का इतना बड़ा सिंबल हो गया कि जैसे वनस्पति घी में डालडा हो गया कि जैसे एक जमाने में लाइफब्ऑय हो गया था जैसे पानी में विसलरी हो जाया करता है,खबर और आजतक बिल्कुल एक हो गए. और वो इसलिए नहीं हुआ कि उसके साथ भाषा जुड़ गयी बल्कि इसलिए हुआ कि उसके साथ आधुनिकता जुड़ गयी। उस प्रोफेशनलिज्म के साथ एक कमिटमेंट जुड़ गया। वो एक कमिटमेंट की भाषा बन गयी। उस भाषा के साथ ऐसे लोग जुड़ गए जो बहुत कमिटेड थे। जब आइने में ढाला गया उस भाषा को,जब उसको टीवी के सामने रखा गया तो शब्दों का एक नया संसार आया,शब्दों की एक नयी दुनिया सामने आयी और वो शब्दों की दुनिया खबरों का एक बहुत बड़ा ब्रांड बन गया। तो उन्होंने इस भाषा को खबरों का इतना बड़ा ब्रांड कर दिया कि उसके समकक्ष अंग्रेजी का ब्रांड था वो पीछे हो गया और अचानक आजतक का जो पत्रकार था वो उसी बिल्डिंग के अंदर अपने आप को इतना ताकतवर महसूस करने लगा कि जिसको डेढ़ साल पहले देखकर डरता था,भयभीत हुआ करता था,अचानक उसी दफ्तर के अंदर मुझको देखने का नजरिया,सम्मान का नजरिया बदल गया और मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि मैं हिन्दी में हूं या अंग्रेजी में हूं। अंग्रेजी के लोगों के बारे में लगता था कि ये तो ऐसे ही हैं,फालतू हैं,इनको कुछ आता-जाता नहीं है। और भी लोगों का नजरिया बदला कि ये तो हवाबाज हैं,इनको कुछ नहीं आता-जाता। ये बदलाव था और मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि एस.पी. ने हिन्दी में टेलीविजन पत्रकारिता को रिडिफाइन किया। उससे प्रतिष्ठित बनाया,प्रोफेशनल बनया,भाषा को इज्जत दी जो कभी नहीं हुआ करती थी। मुझे याद है कि अंग्रेजी के बड़े-बड़े पत्रकार शाम के वक्त फोन करके और हिन्दी के बड़े पत्रकार फोन करके पूछते थे कि आज की हेडलाइन क्या है और बताया करते थे। आफ देख सकते थे कि अंग्रेजी की जो बुलेटिन हुआ करती थी वो हिन्दी के समकक्ष हुआ करती और उसकी भाषा में हिन्दी की संस्कार मिलने लगा था और कुछ लोगों के मन में हसरत रह गयी,किसी का नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन कि जब भी कोई कैमरा बाहर निकले तो लोग कहें कि ये फलां का कैमरा है। लेकिन लोग हमेशा कहते-आजतक वाले हैं,आजतक वाले हैं। आजतक की लोकप्रियता इस मुकाम पर पहुंच गयी थी कि मैं बता सकता हूं,जम्मू कश्मीर में विधान सभा चुनाव होनेवाले थे और मैं वहां गया हुआ था। फारुक अबदुल्ला की कन्सटीचुएंसी में पीटीसी कर रहा था,एक साल काम करते हुए थे मुझे आजतक में औऱ जब मैं वहां खड़ा हुआ तो एक बिल्कुल ही छोटा बच्चा,आप सोचिए- जम्मू कश्मीर में दांदरवल,दांदरवल में एक छोटा सा बच्चा,वो अचानक कैमरे के सामने आया औऱ बोला- आजतक,आशुतोष दिल्ली आजतक और मैं बिल्कुल चमत्कृत था तो ये उस भाषा की ताकत थी। वो खबर की ताकत थी और वो इसलिए नहीं हो पायी कि एस.पी.सिंह ने उसको प्रोफेशनलाइज किया,मॉर्डनलाइज किया। बल्कि उन्होंने उस दीवार को तोड़ा..... आशुतोष का एस.पी.सिंह से जुड़े संस्मरण और हिन्दी टेलीविजन पत्रकारिता की बदलती शक्ल पर उनके व्यक्तिगत विचार औऱ अनुभव आगे भी जारी।..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090628/8e59c0d9/attachment-0001.html From dangijs at gmail.com Thu Jun 18 12:48:00 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Thu, 18 Jun 2009 03:18:00 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Hindi_Software_Inf?= =?utf-8?b?bzog4KS44KWC4KSa4KSo4KS+4KSD4oCUIOCkqOCkteClgOCkqCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KWN4KSV4KSw4KSjLi4u?= In-Reply-To: <1662afad0906172116h5598ffebyefbe84d503a05a57@mail.gmail.com> References: <1662afad0906172116h5598ffebyefbe84d503a05a57@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0906180018u3c3d4ea5sf6424b83e66c68c8@mail.gmail.com> जय हिन्द, प्रखर देवनागरी फ़ॉट परिवर्तक एवम् प्रखर देवनागरी लिपिक के नवीन संस्करण हेतु लिंकः— http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html?s=1 http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html?s=1 लगभग 100 तरह के प्रचलित विभिन्न हिन्दी, संस्कृत और मराठी के फ़ॉण्ट को 100% शुद्धता के साथ यूनिकोड में परिवर्तन हेतु— फ़ॉण्ट सूची 1.) Agra {आगरा} 2.) Agra Thin {आगरा थिन} 3.) AkrutiDevWeb {अक्रुतिदेववेब} 4.) AkrutiOfficePriya {अक्रुतिऑफिसप्रिया} 5.) APS-DV-Priyanka {एपीएस-डीवी-प्रियंका} 6.) Arjun {अर्जुन} 7.) AU {अमर उजाला} 8.) Bhaskar {भास्कर} 9.) BRH Devanagari {बराहा देवनागरी} 10.) Chanakya {चाणक्य} 11.) Chanakya {चाणक्य} : (Type1 Font) 12.) Devanagari New {देवनागरी न्यू} 13.) DevLys 010 {देवलिस ०१०} 14.) DevLys 020 {देवलिस ०२०} 15.) DevLys 020 Thin {देवलिस ०२० थिन} 16.) DV-TTAakash {डीवी-टीटी आकाश} 17.) DV-TTBhima {डीवी-टीटी भीमा} 18.) DV-TTGanesh {डीवी-टीटी गणेश} 19.) DV-TTGaneshEN {डीवी-टीटी गणेश इएन} 20.) DV-TTManohar {डीवी-टीटी मनोहर} 21.) DV-TTMayur {डीवी-टीटी मयूर} 22.) DV-TTNatraj {डीवी-टीटी नटराज} 23.) DV-TTRadhika {डीवी-टीटी राधिका} 24.) DV-TTSurekh {डीवी-टीटी सुरेख} 25.) DV-TTSurekhEN {डीवी-टीटी सुरेख इएन} 26.) DV-TTVasundhara {डीवी-टीटी वसुन्धरा} 27.) DV-TTYogesh {डीवी-टीटी योगेश} 28.) DV-TTYogeshEN {डीवी-टीटी योगेश इएन} 29.) DV_ME_Shree.... {डीवी_एमइ_श्री....} 30.) DVB-TTSurekh {डीवीबी-टीटी सुरेख} 31.) DVB-TTSurekhEN {डीवीबी-टीटी सुरेख इएन} 32.) DVB-TTYogesh {डीवीबी-टीटी योगेश} 33.) DVB-TTYogeshEN {डीवीबी-टीटी योगेश इएन} 34.) DVBW-TTSurekh {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 35.) DVBW-TTYogeshEN {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 36.) DVW-TTSurekh {डीवीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 37.) DVW-TTYogeshEN {डीवीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 38.) GIST-DVTTAjay {जिस्ट-डीवीटीटी अजय} 39.) GIST-DVTTAniket {जिस्ट-डीवीटीटी अनिकेत} 40.) GIST-DVTTAnjali {जिस्ट-डीवीटीटी अंजली} 41.) GIST-DVTTBrinda {जिस्ट-डीवीटीटी ब्रिंदा} 42.) GIST-DVTTDhruv {जिस्ट-डीवीटीटी ध्रुव} 43.) GIST-DVTTDiwakar {जिस्ट-डीवीटीटी दिवाकर} 44.) GIST-DVTTJamuna {जिस्ट-डीवीटीटी जमुना} 45.) GIST-DVTTJanaki {जिस्ट-डीवीटीटी जानकी} 46.) GIST-DVTTKishor {जिस्ट-डीवीटीटी किशोर} 47.) GIST-DVTTKundan {जिस्ट-डीवीटीटी कुंदन} 48.) GIST-DVTTMadhu {जिस्ट-डीवीटीटी मधु} 49.) GIST-DVTTMalini {जिस्ट-डीवीटीटी मालिनी} 50.) GIST-DVTTManohar {जिस्ट-डीवीटीटी मनोहर} 51.) GIST-DVTTMayur {जिस्ट-डीवीटीटी मयूर} 52.) GIST-DVTTMegha {जिस्ट-डीवीटीटी मेघा} 53.) GIST-DVTTMohini {जिस्ट-डीवीटीटी मोहिनी} 54.) GIST-DVTTNayan {जिस्ट-डीवीटीटी नयन} 55.) GIST-DVTTNeha {जिस्ट-डीवीटीटी नेहा} 56.) GIST-DVTTNinad {जिस्ट-डीवीटीटी निनाद} 57.) GIST-DVTTPrakash {जिस्ट-डीवीटीटी प्रकाश} 58.) GIST-DVTTPreetam {जिस्ट-डीवीटीटी प्रीतम} 59.) GIST-DVTTRajashri {जिस्ट-डीवीटीटी राजश्री} 60.) GIST-DVTTRanjita {जिस्ट-डीवीटीटी रंजीता} 61.) GIST-DVTTSagar {जिस्ट-डीवीटीटी सागर} 62.) GIST-DVTTSamata {जिस्ट-डीवीटीटी समता} 63.) GIST-DVTTSamir {जिस्ट-डीवीटीटी समीर} 64.) GIST-DVTTShital {जिस्ट-डीवीटीटी शीतल} 65.) GIST-DVTTShweta {जिस्ट-डीवीटीटी श्वेता} 66.) GIST-DVTTSumeet {जिस्ट-डीवीटीटी सुमीत} 67.) GIST-DVTTSwapnil {जिस्ट-डीवीटीटी स्वपनिल} 68.) GIST-DVTTVasundhara {जिस्ट-डीवीटीटी वसुन्धरा} 69.) GIST-DVTTVijay {जिस्ट-डीवीटीटी विजय} 70.) Hinmith... {हिंमिथ...} 71.) HINmith018 {हिंमिथ०१८} 72.) HINmith033 {हिंमिथ०३३} 73.) HTChanakya {एचटी-चाणक्य} 74.) Krishna {कृष्णा} 75.) Kruti Dev 010 {क्रुतिदेव ०१०} 76.) Kruti Dev 016 {क्रुतिदेव ०१६} 77.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२० } 78.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२०} 79.) Kruti Dev 180 {क्रुतिदेव १८०} 80.) LangscapeDevPriya {लैंगस्केपदेवप्रिया} 81.) Naidunia {नईदुनिया} 82.) Narad {नारद} 83.) NewDelhi {न्यूदेल्ही} 84.) Patrika {पत्रिका} 85.) Sanskrit 1.2 {संस्कृत १.२} 86.) Sanskrit 98 {संस्कृत ९८} 87.) Sanskrit 99 {संस्कृत ९९} 88.) Sanskrit New {संस्कृत न्यू} 89.) Shivaji01 {शिवाजी ०१} 90.) Shusha {शुषा} 91.) Shusha02 {शुषा ०२} 92.) Shusha05 {शुषा ०५} 93.) W-C-905 {डब्ल्यू-सी-९०५} 94.) Walkman-Chanakya-901 {वॉकमैन-चाणक्य-९०१} 95.) Walkman-Chanakya-905 {वॉकमैन-चाणक्य-९०५} 96.) Walkman-Yogesh-Outline-1003 {वॉकमैन-योगेश-आउटलाइन-१००३} 97.) Webdunia {वेबदुनिया} 98.) Yogeshweb {योगेशवेब} 99.) Yuvraj {युवराज} सादर जगदीप सिंह दांगी -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090618/e2399c4b/attachment-0002.html From dangijs at gmail.com Thu Jun 18 12:48:00 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Thu, 18 Jun 2009 03:18:00 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Hindi_Software_Inf?= =?utf-8?b?bzog4KS44KWC4KSa4KSo4KS+4KSD4oCUIOCkqOCkteClgOCkqCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KWN4KSV4KSw4KSjLi4u?= In-Reply-To: <1662afad0906172116h5598ffebyefbe84d503a05a57@mail.gmail.com> References: <1662afad0906172116h5598ffebyefbe84d503a05a57@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0906180018u3c3d4ea5sf6424b83e66c68c8@mail.gmail.com> जय हिन्द, प्रखर देवनागरी फ़ॉट परिवर्तक एवम् प्रखर देवनागरी लिपिक के नवीन संस्करण हेतु लिंकः— http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html?s=1 http://www.4shared.com/file/106890584/8872ed8f/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Lipik.html?s=1 लगभग 100 तरह के प्रचलित विभिन्न हिन्दी, संस्कृत और मराठी के फ़ॉण्ट को 100% शुद्धता के साथ यूनिकोड में परिवर्तन हेतु— फ़ॉण्ट सूची 1.) Agra {आगरा} 2.) Agra Thin {आगरा थिन} 3.) AkrutiDevWeb {अक्रुतिदेववेब} 4.) AkrutiOfficePriya {अक्रुतिऑफिसप्रिया} 5.) APS-DV-Priyanka {एपीएस-डीवी-प्रियंका} 6.) Arjun {अर्जुन} 7.) AU {अमर उजाला} 8.) Bhaskar {भास्कर} 9.) BRH Devanagari {बराहा देवनागरी} 10.) Chanakya {चाणक्य} 11.) Chanakya {चाणक्य} : (Type1 Font) 12.) Devanagari New {देवनागरी न्यू} 13.) DevLys 010 {देवलिस ०१०} 14.) DevLys 020 {देवलिस ०२०} 15.) DevLys 020 Thin {देवलिस ०२० थिन} 16.) DV-TTAakash {डीवी-टीटी आकाश} 17.) DV-TTBhima {डीवी-टीटी भीमा} 18.) DV-TTGanesh {डीवी-टीटी गणेश} 19.) DV-TTGaneshEN {डीवी-टीटी गणेश इएन} 20.) DV-TTManohar {डीवी-टीटी मनोहर} 21.) DV-TTMayur {डीवी-टीटी मयूर} 22.) DV-TTNatraj {डीवी-टीटी नटराज} 23.) DV-TTRadhika {डीवी-टीटी राधिका} 24.) DV-TTSurekh {डीवी-टीटी सुरेख} 25.) DV-TTSurekhEN {डीवी-टीटी सुरेख इएन} 26.) DV-TTVasundhara {डीवी-टीटी वसुन्धरा} 27.) DV-TTYogesh {डीवी-टीटी योगेश} 28.) DV-TTYogeshEN {डीवी-टीटी योगेश इएन} 29.) DV_ME_Shree.... {डीवी_एमइ_श्री....} 30.) DVB-TTSurekh {डीवीबी-टीटी सुरेख} 31.) DVB-TTSurekhEN {डीवीबी-टीटी सुरेख इएन} 32.) DVB-TTYogesh {डीवीबी-टीटी योगेश} 33.) DVB-TTYogeshEN {डीवीबी-टीटी योगेश इएन} 34.) DVBW-TTSurekh {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 35.) DVBW-TTYogeshEN {डीवीबीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 36.) DVW-TTSurekh {डीवीडब्ल्यू-टीटी सुरेख} 37.) DVW-TTYogeshEN {डीवीडब्ल्यू-टीटी योगेश इएन} 38.) GIST-DVTTAjay {जिस्ट-डीवीटीटी अजय} 39.) GIST-DVTTAniket {जिस्ट-डीवीटीटी अनिकेत} 40.) GIST-DVTTAnjali {जिस्ट-डीवीटीटी अंजली} 41.) GIST-DVTTBrinda {जिस्ट-डीवीटीटी ब्रिंदा} 42.) GIST-DVTTDhruv {जिस्ट-डीवीटीटी ध्रुव} 43.) GIST-DVTTDiwakar {जिस्ट-डीवीटीटी दिवाकर} 44.) GIST-DVTTJamuna {जिस्ट-डीवीटीटी जमुना} 45.) GIST-DVTTJanaki {जिस्ट-डीवीटीटी जानकी} 46.) GIST-DVTTKishor {जिस्ट-डीवीटीटी किशोर} 47.) GIST-DVTTKundan {जिस्ट-डीवीटीटी कुंदन} 48.) GIST-DVTTMadhu {जिस्ट-डीवीटीटी मधु} 49.) GIST-DVTTMalini {जिस्ट-डीवीटीटी मालिनी} 50.) GIST-DVTTManohar {जिस्ट-डीवीटीटी मनोहर} 51.) GIST-DVTTMayur {जिस्ट-डीवीटीटी मयूर} 52.) GIST-DVTTMegha {जिस्ट-डीवीटीटी मेघा} 53.) GIST-DVTTMohini {जिस्ट-डीवीटीटी मोहिनी} 54.) GIST-DVTTNayan {जिस्ट-डीवीटीटी नयन} 55.) GIST-DVTTNeha {जिस्ट-डीवीटीटी नेहा} 56.) GIST-DVTTNinad {जिस्ट-डीवीटीटी निनाद} 57.) GIST-DVTTPrakash {जिस्ट-डीवीटीटी प्रकाश} 58.) GIST-DVTTPreetam {जिस्ट-डीवीटीटी प्रीतम} 59.) GIST-DVTTRajashri {जिस्ट-डीवीटीटी राजश्री} 60.) GIST-DVTTRanjita {जिस्ट-डीवीटीटी रंजीता} 61.) GIST-DVTTSagar {जिस्ट-डीवीटीटी सागर} 62.) GIST-DVTTSamata {जिस्ट-डीवीटीटी समता} 63.) GIST-DVTTSamir {जिस्ट-डीवीटीटी समीर} 64.) GIST-DVTTShital {जिस्ट-डीवीटीटी शीतल} 65.) GIST-DVTTShweta {जिस्ट-डीवीटीटी श्वेता} 66.) GIST-DVTTSumeet {जिस्ट-डीवीटीटी सुमीत} 67.) GIST-DVTTSwapnil {जिस्ट-डीवीटीटी स्वपनिल} 68.) GIST-DVTTVasundhara {जिस्ट-डीवीटीटी वसुन्धरा} 69.) GIST-DVTTVijay {जिस्ट-डीवीटीटी विजय} 70.) Hinmith... {हिंमिथ...} 71.) HINmith018 {हिंमिथ०१८} 72.) HINmith033 {हिंमिथ०३३} 73.) HTChanakya {एचटी-चाणक्य} 74.) Krishna {कृष्णा} 75.) Kruti Dev 010 {क्रुतिदेव ०१०} 76.) Kruti Dev 016 {क्रुतिदेव ०१६} 77.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२० } 78.) Kruti Dev 020 {क्रुतिदेव ०२०} 79.) Kruti Dev 180 {क्रुतिदेव १८०} 80.) LangscapeDevPriya {लैंगस्केपदेवप्रिया} 81.) Naidunia {नईदुनिया} 82.) Narad {नारद} 83.) NewDelhi {न्यूदेल्ही} 84.) Patrika {पत्रिका} 85.) Sanskrit 1.2 {संस्कृत १.२} 86.) Sanskrit 98 {संस्कृत ९८} 87.) Sanskrit 99 {संस्कृत ९९} 88.) Sanskrit New {संस्कृत न्यू} 89.) Shivaji01 {शिवाजी ०१} 90.) Shusha {शुषा} 91.) Shusha02 {शुषा ०२} 92.) Shusha05 {शुषा ०५} 93.) W-C-905 {डब्ल्यू-सी-९०५} 94.) Walkman-Chanakya-901 {वॉकमैन-चाणक्य-९०१} 95.) Walkman-Chanakya-905 {वॉकमैन-चाणक्य-९०५} 96.) Walkman-Yogesh-Outline-1003 {वॉकमैन-योगेश-आउटलाइन-१००३} 97.) Webdunia {वेबदुनिया} 98.) Yogeshweb {योगेशवेब} 99.) Yuvraj {युवराज} सादर जगदीप सिंह दांगी -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090618/e2399c4b/attachment-0003.html From beingred at gmail.com Fri Jun 19 23:04:49 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 19 Jun 2009 23:04:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Report of fact-finding team from JNU on Lalgarh violence Message-ID: <363092e30906191034u6b3c2dfalb62a23e77256be54@mail.gmail.com> Report of fact-finding team from JNU on the eve of Lalgarh violence *June 17, 2009. By a fact finding team of students from Jawaharlal Nehru University, New Delhi * A fact finding team of nine students from Jawaharlal Nehru University (JNU) recently visited Lalgarh, to probe into the reality of the ongoing movement of the people in the area. Here we are enclosing the preliminary details of what we saw. We would like to appeal to your daily/ news channel to also highlight on certain issues of the movement, which we feel are not coming to the forefront, as much as it should have. We heard through various media and other sources that there had been massive state repression in Lalgrah and other adjacent areas in November 2008, after the attempted mine blast on the convoy of Buddhadeb Bhattacharya. We heard of incidents of rampant police atrocity especially on women and school children in Chhotopelia and Katapahari. We also heard that post that rampage the people there have formed the *Pulishi Santrash Birodhi Janasadharoner Committee* (PSBJC) and have blockaded Lalgarh and other areas out of police and other administration. With these preliminary facts we had been inside to Lalgarh. We stayed there from 7th of June to the 10th of June, 2009. We visited the Chhotapelia, Katapahari, Bohardanga, Sijua, Dain Tikri, Sindurpur, Madhupur, Babui Basha, Shaluka, Moltola Kadoshol, Basban, Papuria, Komladanga, pukhria, Korengapara, gopalnagar, Khash jongol, Shaalboni, Shaal danga, Andharmari, Darigera, Bhuladanga, Chitaram Dahi, Teshabandh, Bhuladanga villages and talked extensively to people. We attended one big meeting in Lodhashuli called by the Committee and witnessed other small meetings which were held inside the villages. The current firing and frontal battle between the people and the state and CPI(Marxist) (*henceforth CPM - ed.*) in Dharampura and Madhupur/Shijua had started while we were there. So we believe we have observed many facets of this movement pretty closely. The visit to Lalgrah and talking closely to people broke many of the myths which we still held before going there. After listening to the chronological narrative of the history of police atrocities in the area, we realized that *the November incident was not unique.* It was just the continuation of extreme state terror and police atrocities that the people of the regions have tolerated since 2000. *What is unique this time is the resistance. * The people in all the villages virtually demonstrated how police had tortured them, entered houses at the wee hours of night to break everything and beat up people in the name of ‘raids’, how any movement of the people at night even to look for their cattles were banned, how almost in every family there is some one or the other who had been booked for being a ‘Maoist’, how 90 year old Maiku Murmu of Teshabandh was beaten to death by the police way back in 2006. Young school girls were regularly molested by the police in the pretext of ‘body check’, women were forced to show their genitals at night during ‘raids’ to confirm their gender. Before every election 30-40 people from every village were picked up as ‘Maoists’ in order to debilitate the opposition. The incident of Chhotopelia, where a number of women were ruthlessly beaten up and one of them Chhitamoni lost her eye, virtually broke the limit of patience of the people. They have now risen up against this long drawn police atrocity. Coupled with Police terror they talked of CPM terror too. CPM cadres and leaders have only acted as informers to police they said. Today when we saw the jubilation among people after demolishing Anuj Pandey’s house, we can understand the emotions of the people. Because what we saw among the people was utter hatred for CPM. They showed us around in Madhupur how the local panchayat office was turned into a camp of the harmad vahini. They told us how the ‘motor cycle army’ of the harmads zoomed around the villages, terrorizing people, breaking their houses brutally, firing in the air, and beating people up. We talked to one villager whose house was being demolished by the harmad , he helplessly kept calling the police to no vein. It was only after an armed resistance was put up, that the harmads were forced to retreat to Memul and further to Shijua. Similarly, they narrated the incident of Khash Jongol, where because of the lack of armed preparedness from the committee, the harmads abruptly entered with the help of the police and open fired and killed three people, injuring three others and fled. Police and CPM are not just in alliance, they are the same thing. They told us how the police stood as mute spectator whenever the harmads went on a rampage. The harmads have even used police jeeps to move around. The local CPM cadres provide information about the people within the villages to the police. >From our team, therefore when we see the current violence, which many media houses are branding as ‘anarchy’, we have a different opinion. We have seen the genuine anger of the people, their tolerance, their suffering. And we have no hesitation at all in holding the police, administration and CPM responsible for the current precipitation of the situation. The committee was formed against police atrocity. But what impressed us most was the alternative developmental work that the Committee and the people have been doing inside Lalgarh in the past seven months. These areas are marked by extreme poverty and backwardness. Rainfall is scanty and the people are dependent only on rainfall for agriculture. We saw the dysfunctional government canal, which is lying dry. They described the faulty nature of governmental dams which ultimately dry up the natural falls. The showed us the pathetic condition of roads which becomes completely inaccessible during the monsoons. The Committee on its own has made 20 km of roads with red stone chips (‘morrum’). The people have volunteered labour to make these roads. The total cost to make this 20 km of road, they showed were Rs. 47,000, while the panchayat always shows atleast Rs. 15,000 for 1 km of road. They have repaired quite a few tube wells, and have installed new ones at half the price than the panchayat. They have started to make a check dam in Bohardanga to fight the water crisis. The two best things that have been done by the Committee is to start land distribution and run a health center in Katapahari. The vested forest lands are supposed to be distributed to the landless tribals according to a bill passed by the West Bengal government. But it never happened. Now the committee is taking initiative in Banshberi and other villages to distribute the vested empty lands adjacent to the forests to the people who have no land. We saw the distribution of the patta in one village. The condition of health facilities was also in a pathetic state in the villages, as there was not a single functional health center. The nearest ones are in Lalgarh and Ramgarh town. Patients often died the way to the hospital, often there had been cases of snake bite of the people who were carrying the patients to the hospital in the monsoon. There was a dysfunctional building in Katapahari which was supposed to be a health center. The administration decided to turn it into a police camp. After police boycott, the committee turned it into a health center. Doctors from Kolkata and other regions visit there thrice a week. It is flocked by more than 150 patients every day. We had also attended a huge meeting called by the Committee in Lodhashuli against a sponge iron factory located in the region. We visited the factory site and saw the adverse effect of pollution on the trees and regions. The people informed that even the paddy grown in the region have turned black, so much so that even the panchayat has refused to accept the paddy. There are hospitals and schools in the vicinity of such polluting factory. The meeting despite a bus strike called by CPM was attended by huge masses of people (around 12000), coming from different parts of the district. It was a vibrant meeting, where the committee resolves among other things to boycott the factory and build a resistance to stop the factory for good. The presence of the Maoists within Lalgarh is one of the most contended issues right now. We saw the open presence of Maoists and their mass acceptance. They paste posters and have also held meetings where about ten thousand people have participated. And unlike the popular myth that Maoists are outsiders from Jharkhand etc. we saw the Maoist brigade to be flocked by locals. The people are pretty clear about the need for an armed resistance in the face of the regular joint attacks by the CPM and the state. The restriction of carrying traditional arms by them is a clear signal by the state to debilitate this movement. By the time we left Lalgarh, the struggle has intensified. By now the people have been successful in making their immediate enemy CPM to escape along with the police. The enthusiasm we saw in the people was exuberant. For the first time they are being part of not some vote minting political party but a committee which is their own organization. They are living a life free of state terror and building their own developmental projects. In different villages many residents held one opinion in common, ‘we have got independence for the first time’. Their fight is against age old exploitation, deprivation, torture and terror. In this way this is a historic fight. And we strongly feel that what is deemed ‘anarchy’ by many is real struggle for independence. We urge the media houses to revisit Lalgarh. The movement has its roots in the extreme impoverished socio economic conditions of the people because of the inaction of the state. The state is bound to strike back to this fight of the people. The CRPF will soon come back with the orders to open fire on the resilient masses. The state government is also shamelessly asking the notorious and infamous Grey hounds and Cobra to come and crush the people’s movement. And that will be the most unfortunate and condemnable thing. The anger of the masses against massive state terror, underdevelopment and corruption is valid. And so is the long awaited fight against it. We are going to publish a detailed report back in Delhi about this movement of the people. We remember that the media especially the regional media in Bengal had played a pretty progressive role during the Nandigram movement and would appeal to you to also stand by the people of Lalgrah and their genuine fight before the state carries out yet another genocide. Priya Ranjan, Banojyotsna, Anirban, Gogol, Kusum, Reyaz, Yadvinder, Veer Singh, Sumati. Contact : 09711826861 -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090619/a7a0672e/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Fri Jun 19 23:04:49 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 19 Jun 2009 23:04:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Report of fact-finding team from JNU on Lalgarh violence Message-ID: <363092e30906191034u6b3c2dfalb62a23e77256be54@mail.gmail.com> Report of fact-finding team from JNU on the eve of Lalgarh violence *June 17, 2009. By a fact finding team of students from Jawaharlal Nehru University, New Delhi * A fact finding team of nine students from Jawaharlal Nehru University (JNU) recently visited Lalgarh, to probe into the reality of the ongoing movement of the people in the area. Here we are enclosing the preliminary details of what we saw. We would like to appeal to your daily/ news channel to also highlight on certain issues of the movement, which we feel are not coming to the forefront, as much as it should have. We heard through various media and other sources that there had been massive state repression in Lalgrah and other adjacent areas in November 2008, after the attempted mine blast on the convoy of Buddhadeb Bhattacharya. We heard of incidents of rampant police atrocity especially on women and school children in Chhotopelia and Katapahari. We also heard that post that rampage the people there have formed the *Pulishi Santrash Birodhi Janasadharoner Committee* (PSBJC) and have blockaded Lalgarh and other areas out of police and other administration. With these preliminary facts we had been inside to Lalgarh. We stayed there from 7th of June to the 10th of June, 2009. We visited the Chhotapelia, Katapahari, Bohardanga, Sijua, Dain Tikri, Sindurpur, Madhupur, Babui Basha, Shaluka, Moltola Kadoshol, Basban, Papuria, Komladanga, pukhria, Korengapara, gopalnagar, Khash jongol, Shaalboni, Shaal danga, Andharmari, Darigera, Bhuladanga, Chitaram Dahi, Teshabandh, Bhuladanga villages and talked extensively to people. We attended one big meeting in Lodhashuli called by the Committee and witnessed other small meetings which were held inside the villages. The current firing and frontal battle between the people and the state and CPI(Marxist) (*henceforth CPM - ed.*) in Dharampura and Madhupur/Shijua had started while we were there. So we believe we have observed many facets of this movement pretty closely. The visit to Lalgrah and talking closely to people broke many of the myths which we still held before going there. After listening to the chronological narrative of the history of police atrocities in the area, we realized that *the November incident was not unique.* It was just the continuation of extreme state terror and police atrocities that the people of the regions have tolerated since 2000. *What is unique this time is the resistance. * The people in all the villages virtually demonstrated how police had tortured them, entered houses at the wee hours of night to break everything and beat up people in the name of ‘raids’, how any movement of the people at night even to look for their cattles were banned, how almost in every family there is some one or the other who had been booked for being a ‘Maoist’, how 90 year old Maiku Murmu of Teshabandh was beaten to death by the police way back in 2006. Young school girls were regularly molested by the police in the pretext of ‘body check’, women were forced to show their genitals at night during ‘raids’ to confirm their gender. Before every election 30-40 people from every village were picked up as ‘Maoists’ in order to debilitate the opposition. The incident of Chhotopelia, where a number of women were ruthlessly beaten up and one of them Chhitamoni lost her eye, virtually broke the limit of patience of the people. They have now risen up against this long drawn police atrocity. Coupled with Police terror they talked of CPM terror too. CPM cadres and leaders have only acted as informers to police they said. Today when we saw the jubilation among people after demolishing Anuj Pandey’s house, we can understand the emotions of the people. Because what we saw among the people was utter hatred for CPM. They showed us around in Madhupur how the local panchayat office was turned into a camp of the harmad vahini. They told us how the ‘motor cycle army’ of the harmads zoomed around the villages, terrorizing people, breaking their houses brutally, firing in the air, and beating people up. We talked to one villager whose house was being demolished by the harmad , he helplessly kept calling the police to no vein. It was only after an armed resistance was put up, that the harmads were forced to retreat to Memul and further to Shijua. Similarly, they narrated the incident of Khash Jongol, where because of the lack of armed preparedness from the committee, the harmads abruptly entered with the help of the police and open fired and killed three people, injuring three others and fled. Police and CPM are not just in alliance, they are the same thing. They told us how the police stood as mute spectator whenever the harmads went on a rampage. The harmads have even used police jeeps to move around. The local CPM cadres provide information about the people within the villages to the police. >From our team, therefore when we see the current violence, which many media houses are branding as ‘anarchy’, we have a different opinion. We have seen the genuine anger of the people, their tolerance, their suffering. And we have no hesitation at all in holding the police, administration and CPM responsible for the current precipitation of the situation. The committee was formed against police atrocity. But what impressed us most was the alternative developmental work that the Committee and the people have been doing inside Lalgarh in the past seven months. These areas are marked by extreme poverty and backwardness. Rainfall is scanty and the people are dependent only on rainfall for agriculture. We saw the dysfunctional government canal, which is lying dry. They described the faulty nature of governmental dams which ultimately dry up the natural falls. The showed us the pathetic condition of roads which becomes completely inaccessible during the monsoons. The Committee on its own has made 20 km of roads with red stone chips (‘morrum’). The people have volunteered labour to make these roads. The total cost to make this 20 km of road, they showed were Rs. 47,000, while the panchayat always shows atleast Rs. 15,000 for 1 km of road. They have repaired quite a few tube wells, and have installed new ones at half the price than the panchayat. They have started to make a check dam in Bohardanga to fight the water crisis. The two best things that have been done by the Committee is to start land distribution and run a health center in Katapahari. The vested forest lands are supposed to be distributed to the landless tribals according to a bill passed by the West Bengal government. But it never happened. Now the committee is taking initiative in Banshberi and other villages to distribute the vested empty lands adjacent to the forests to the people who have no land. We saw the distribution of the patta in one village. The condition of health facilities was also in a pathetic state in the villages, as there was not a single functional health center. The nearest ones are in Lalgarh and Ramgarh town. Patients often died the way to the hospital, often there had been cases of snake bite of the people who were carrying the patients to the hospital in the monsoon. There was a dysfunctional building in Katapahari which was supposed to be a health center. The administration decided to turn it into a police camp. After police boycott, the committee turned it into a health center. Doctors from Kolkata and other regions visit there thrice a week. It is flocked by more than 150 patients every day. We had also attended a huge meeting called by the Committee in Lodhashuli against a sponge iron factory located in the region. We visited the factory site and saw the adverse effect of pollution on the trees and regions. The people informed that even the paddy grown in the region have turned black, so much so that even the panchayat has refused to accept the paddy. There are hospitals and schools in the vicinity of such polluting factory. The meeting despite a bus strike called by CPM was attended by huge masses of people (around 12000), coming from different parts of the district. It was a vibrant meeting, where the committee resolves among other things to boycott the factory and build a resistance to stop the factory for good. The presence of the Maoists within Lalgarh is one of the most contended issues right now. We saw the open presence of Maoists and their mass acceptance. They paste posters and have also held meetings where about ten thousand people have participated. And unlike the popular myth that Maoists are outsiders from Jharkhand etc. we saw the Maoist brigade to be flocked by locals. The people are pretty clear about the need for an armed resistance in the face of the regular joint attacks by the CPM and the state. The restriction of carrying traditional arms by them is a clear signal by the state to debilitate this movement. By the time we left Lalgarh, the struggle has intensified. By now the people have been successful in making their immediate enemy CPM to escape along with the police. The enthusiasm we saw in the people was exuberant. For the first time they are being part of not some vote minting political party but a committee which is their own organization. They are living a life free of state terror and building their own developmental projects. In different villages many residents held one opinion in common, ‘we have got independence for the first time’. Their fight is against age old exploitation, deprivation, torture and terror. In this way this is a historic fight. And we strongly feel that what is deemed ‘anarchy’ by many is real struggle for independence. We urge the media houses to revisit Lalgarh. The movement has its roots in the extreme impoverished socio economic conditions of the people because of the inaction of the state. The state is bound to strike back to this fight of the people. The CRPF will soon come back with the orders to open fire on the resilient masses. The state government is also shamelessly asking the notorious and infamous Grey hounds and Cobra to come and crush the people’s movement. And that will be the most unfortunate and condemnable thing. The anger of the masses against massive state terror, underdevelopment and corruption is valid. And so is the long awaited fight against it. We are going to publish a detailed report back in Delhi about this movement of the people. We remember that the media especially the regional media in Bengal had played a pretty progressive role during the Nandigram movement and would appeal to you to also stand by the people of Lalgrah and their genuine fight before the state carries out yet another genocide. Priya Ranjan, Banojyotsna, Anirban, Gogol, Kusum, Reyaz, Yadvinder, Veer Singh, Sumati. Contact : 09711826861 -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090619/a7a0672e/attachment-0003.html From chandrika.media2 at gmail.com Tue Jun 30 18:00:13 2009 From: chandrika.media2 at gmail.com (chandrika media) Date: Tue, 30 Jun 2009 18:00:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KSX?= =?utf-8?b?4KSi4KS8OiDgpIbgpKTgpILgpJXgpL/gpKQg4KS54KWL4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSk4KSC4KSV4KS14KS+4KSmIOCkleCkviDgpKDgpKrgpY3gpKo=?= =?utf-8?b?4KS+?= In-Reply-To: <278e0f2e0906300519s64093262y53b617595dc3ae37@mail.gmail.com> References: <278e0f2e0906300516y3cb073ccg17077d18ef7f87d7@mail.gmail.com> <278e0f2e0906300519s64093262y53b617595dc3ae37@mail.gmail.com> Message-ID: <278e0f2e0906300530nba2fe29uba5e40d0251d84cd@mail.gmail.com> 1- लालगढ़ आरपेशन या आदिवासी आपरेशन 2- लालगढ़: एक छोटे लोकतंत्र का बडे़ लोकतंत्र के लिये खतरा 3-आतंकित होकर आतंकवाद का ठप्पा हम देशद्रोही हैं और अब आतंकवादी भी, ऎसा कुछ देशप्रेमियों का कहना है. लालगढ़ पर लिखे पिछले दो टिप्पणियों पर कई लोगों की प्रतिक्रियायें मेल व फोन पर आयी, जिनमे कुछ लोगों ने अभद्र शब्दों के साथ हमे यह सर्टिफिकेट दे डाला। इन देश प्रेमियों के देश प्रेम के बारे में हमे नहीं पता कि इनका देश प्रेम क्या है और देश का ये क्या मायने लगाते हैं, जिससे उन्हें प्रेम है और जिसके हम खिलाफ हैं। मसलन देश का अर्थ क्या देश की वह पुलिस है जो लालगढ़ के गाँवों बेलासोल, कुलदहा, कोरमा, अमचोर, महतोपुर, बिमटोला, जम्बोनी आदि में लूट रही है, वहाँ के बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं पर अत्याचार कर रही है या देश वह जमीन का टुकडा़ है जिसे जिंदल को दिया जा रहा है या देश वहाँ के राज्य सरकार की इच्छा है या देश चिदम्बरम मनमोहन के हाँथ का डंडा है या फिर देश वहाँ के वे आदिवासी लोग जिन्हें बेदख़ल किया जा रहा है. देश के इतने सारे खाँचों में हम उस देश के साथ हैं जो वहाँ के लोगों की इच्छा से निर्मित हो शायद एक लोकतांत्रिक देश के मायने यही होंगे. ऎसे में इनकी स्थितियों को लिखना यदि देशद्रोही होना है तो जनलोकतंत्र की व्यवस्था ही देशद्रोही हो जायेगी. इस आधार पर किसी को देशद्रोही या आतंकी साबित करना महज़ चिदम्बरम व मनमोहन सिंह की जुबान होना भर है. दरअसल मीडिया उद्योग ने हमारी मानसिकता का ऎसा निर्माण कर दिया है कि हम सरकारी सोच के हो गये हैं, मसलन सरकार की सभी क्रियायें हमारे लिये लोकतांत्रिक हो गयी हैं. सरकार जिसे आतंकवादी कहती है वह आतंकवादी है, और जिसे देशद्रोही, वह देशद्रोही. हम लोकतंत्र की अवधारणा में रखकर घटनाओं को देखना भी भूल चुके हैं. क्योंकि लोकतंत्र के चौथे खंभे का ढोल पीटती मीडिया सत्ता का चौथा खम्भा बन चुकी है जिस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है कारण कि देश दुनिया की घटनाओं पर हमारी राय मीडिया से ही निर्मित होती है और हम घटनाओं को प्रत्यक्ष तौर पर न देख पाने में मजबूर हैं. पर हमें मीडिया को समझने के तरीके इज़ाद करने होंगे. जय हो के नारे के साथ केन्द्र में आयी सरकार ने २२ जून को भारतीय राज्य में माओवादी संगठन को आतंकवादी घोषित कर उन पर प्रतिबंध लगा दिया और लालगढ़ में पुलिस ने कब्जा कर लिया. इस पुलिस कब्ज़ेदारी के साथ गाँवों की तलाशी जारी है. सुरक्षाबल अपने कैम्प जमाकर देश की सुरक्षा में तैनात हैं, यानि देश के एक छोटे से हिस्से की सुरक्षा. जहाँ के अधिकांश लोग असुरक्षित होकर गाँवों से भाग गये हैं पर सुरक्षा जारी है, जंगलों के उन पेडो़ की जो भाग नहीं सकते, जमीन की जो खिसक नहीं सकती, बाकी जितने लोग बचे हैं उनके लिये उतनी बंदूकें सरकार ने भेज दी हैं, पर वे या तो बूढे़ हैं या बच्चे इनके लिये लात, घूंसे और डंडे ही काफी हैं. अब ऎसे में लोकतंत्र की परिभाषा जिसे हम रटा करते हैं वह बदल चुकी है. जिसे हम सबको वर्तमान लोकतंत्र के लिये सुधार लेना चाहिये. यानि जनता पर, पुलिस द्वारा, बंदूकों का शासन लोकतंत्र है. यह महज़ पश्चिम बंगाल की स्थिति नहीं है बल्कि कश्मीर, मणिपुर, अरूणाचल, नागालैंड, आंध्र, छत्तीसगढ़......बाकी के नाम आप खुद याद करें. क्या देश में फासीवाद तभी आता है जब मुसोलिनी नाम का कोई व्यक्ति पैदा हो या फिर यह बुद्धदेव, मनमोहन, रमन, चिदम्बरम नाम के साथ भी आ सकता है. २२ जून को लालगढ़ की स्थिति जानने के लिये कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों की एक टीम जिसमें अभिनेत्री अपर्णा सेन, सोनाली मित्रा, कौशिक सेन, कवि जय गोस्वामी, बोलन गंगोपाद्याय गये. उन लोगों ने वहाँ की स्थितियों को देखा और वहाँ के लोगों से बातचीत की, लौटने के बाद सरकार द्वारा जारी प्रताड़ना की निंदा करते हुए इसे रोकने की मांग की तो उन पर केस लगा दिये गये. मेल्दा गाँव में संवाद प्रतिदिन पत्र के फोटोग्राफर ने पुलिस द्वारा पीटे जा रहे महिलाओं, बच्चों के फोटो लेने का प्रयास किया तो पुलिस द्वारा उन्हें पीटा गया. २७ जून को 'नेशनल फैक्ट फाइंडिंग' टीम जिसमे फिल्मकार के.एन.पंडित, पद्मा, दामोदर, टिंकू, एम. श्रीनिवास, राजकोशोर व सुसन्तो जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं व लेखकों को जाने से पहले मिदिनापुर पुलिस स्टेशन में गिरफ्तार कर लिया गया. यानि अब खबर वही मिलेगी जो पुलिस बतायेगी. बाकी सब पर प्रतिबंध, इसे हम क्या कहें? महाश्वेता देवी ने कहा है कि यदि ग्राम रक्षा समिति के मुखिया चक्रधर महतो को गिरफ्तार किया गया तो वे मुख्यमंत्री आवास के सामने घरना देंगी. निश्चित तौर पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लालगढ़ के आंदोलन में माओवादी पार्टी भी सम्मलित थी. जिसे माओवादी नेता ''विकास'' ने स्वीकार भी किया, पर वे किस भूमिका में काम कर रहे थे इसे हमे देखने की जरूरत है. जब आदिवासियों से जमीने छीनी जाने लगी, उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा और सालबोनी प्रोजेक्ट को एक नये आधुनिक राष्ट्र की संज्ञा दी जाने लगी. यानि लालगढ़ में एक ऎसा वाशिंगटन उन आदिवासियों की जमीन पर बन रहा था (ये सारी संज्ञायें मीडिया व नेताओं की हैं ) जिन्हें दो जून की रोटी तक नहीं मिलती. ऎसे में देश की एक मात्र पार्टी चाहे उसे आतंकवादी कहा जायें या कुछ और ने वहाँ के लोगों को संगठित करने का कार्य किया. आधुनिक विकास के ढांचे को नकारते हुए लोगों की मूलभूत जरूरतों को मुखरित किया और उन्हें सम्बल पहुचाया. क्या यह उनका देशद्रोह था? माओवादी पार्टी को लेकर तमाम तरह के भ्रामक प्रचार किये गये मसलन विकास विरोधी होना. वे निजीकरण से चल रहे विकास के खिलाफ़ जरूर हैं पर शिक्षा, स्वास्थ, जैसी सुविधाओं के खिलाफ़ नहीं. भले ही शिक्षा प्रणालियां व नीतियाँ अपने आप में समाज विरोधी हों. ऎसा माओवादी नेताओं से रूचिर गर्ग की हुई बातचीत से पता चलता है. माओवादीयों ने आदिवासियों की मूलभूत जरूरतों को लेकर लड़ने में उन्हें सम्बल दिया है व शिक्षा, स्वास्थ को लेकर अपने आधार इलाकों में जमीनी स्तर से विकास का एक ढांचा भी निर्मित किया है. जिससे उनकी पैठ वाकई सागर में मछली की तरह है. ऎसी स्थितियों में महेन्द्र कर्मा के बयान को सभी राज्य अमल करने पर तुले हैं कि वे सागर को ही सोख जायेंगे. ज़ाहिर है सागर को सोखने के बाद मछलियाँ वहाँ नहीं रह सकती तो क्या हम एक ऎसे आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में जुटे हैं जहाँ आदिवासियों की प्रजाति को खत्म कर दिया जाय. माओवादियों ने अपने कई वक्तव्यों में इस बात को दोहराया है कि आइ.एस.आई., सिमी, जैसे संगठनों के साथ उनके रिश्ते नहीं हैं और वैचारिक आधार पर होना सम्भव भी नहीं है व सरकार का भी कोई बयान इस बात को लेकर नहीं आया है. इसके बावजूद मीडिया समय-समय पर यह प्रोपोगेंडा चलाती रहती है तो क्या सरकार को मीडिया संस्थानों में रा की जिम्मेदारी दे देनी चाहिये? क्योंकि सरकारी इंटेलीजेंस इसे साबित करने में विफल रहा है. दूसरी बात यह कि सरकार की तरफ से माओवाद को एक आर्थिक, सामाजिक समस्या के रूप में चिन्हित किया जाता रहा है पर आज जब इसे आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है तो इसके क्या मायने लगाये जाने चाहिये? कि आतंकवाद सामाजिक, आर्थिक कारणों की उपज है. फिर देश में उपजे सामाजिक आर्थिक कारणों के आंदोलन यदि आतंकवादी हैं तो असहमति के लिये वह कौन सी जगह है जहाँ हम आप बोल सकते हैं? अब हमें छोड़ना होगामरने के बाद मौन की परम्पराबटोरनी होगी मरने वाले की आख़िरी चीख़इतने सारे लोगों के रोज़ मरने का मौनहमारी उम्र भर की चुप्पी के लिये काफ़ी हैअपने मरने के पहले की आवाज़हमें अभी से ही निकालनी होगी॥ -- chandrika mahatma gandhi antarrashtriya hindi vishvavidyalay ramayan hostal vaid lay out civil line wardha maharashtra. ph. 9890987458 www.dakhalkiduniya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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