From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Jul 1 14:39:37 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 1 Jul 2009 14:39:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkleClgeCkmyA=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwJw==?= Message-ID: <196167b80907010209h27071b77rc260260c7b34f25c@mail.gmail.com> कल अपनी पुरानी फाइलों से गुजरते हुए, ६ मार्च ०८ (महाशिवरात्रि) को लिखी अपनी एक कविता पर नजर पडी.. (पता नहीं यह कविता है- भी या नहीं) 'कुछ और' तुम हर बार 'कुछ और' बन मुझसे मिली और मैं हर बार मिला सिर्फ़ तुमसे, तुमने हर बार खुद को 'कुछ और' समझा मैंने हर बार तुम्हे जहीन देखा। ’धर्म’ के नाम पर तुमने कि मेरी हत्या, और मैं चश्मदीद बना अपनी ही मौत का। तुम 'स्त्री विमर्श' से मुक्त हो 'देह विमर्श' में उलझी थी, मैं भूल गया था शायद तुम सीमोन द बोउआर नहीं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090701/141be170/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Jul 1 15:56:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 1 Jul 2009 15:56:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWI4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkquCkpOCkviDgpJXgpLDgpYfgpIIg4KSV4KS/IOCkleCljOCkqCA=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWCIOCkueCli+Ckn+CksiDgpLngpYgg4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCljOCkqCDgpK7gpYHgpLjgpLLgpK7gpL7gpKjgpYvgpIIg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkueCli+Ckn+CksiA/?= Message-ID: <829019b0907010326h5bb2b58cmbf5617c3a1663e63@mail.gmail.com> हम तो बाहर जाने पर कहीं भी खाने से पहले देख लेते हैं कि होटल में किसका फोटो या मूर्ति लगाए हुए है। गणेश,लक्ष्मी या शिवजी का फोटो रहता है तो मन में तसल्ली हो जाती है कि-भले चाहें गंदा-संदा खाना दे लेकिन धरम तो बचा रह जाता है। नहीं तो गलती से खा लिए चांद-सितारा वाला लोगों के यहां तो सब दिन का किया कराया हो गया गुड़-गोबर। नवादा(बिहार) के सड़ियल औऱ धूल-धक्कड़ वाले बस स्टैंड में प्यास लगने की स्थिति में भी सामने वाली दूकान पर जूस न पीने की स्थिति में भैय्या की परेशानी को देखते हुए हमारे साथ के एक रिश्तेदार ने ये बात कही। भैय्या जूस का आर्डर लगभग देने ही वाले थे,दाम पूछने के बाद पॉच ग्लास तैयार करने कहते कि इसके पहले उन्हें मस्जिद के पीछे चांद-सितारा वाली तस्वीर पर नजर पड़ गयी और रहने दो बोलकर बाहर निकल लिए। मेरी बड़ी इच्छा हुई कि जाकर एक नहीं दो गिलास उस दूकान से जूस पिउं लेकिन कई बार आप दुनिया के लिए क्रांति मचाते हुए भी घरेलू स्तर पर कितने निरीह हो जाते हैं,ये मुझे ऐसे ही मौके पर समझ में आता है। भैय्या को पता था कि यहां ये कुछ न कुछ जरुर तमाशा करेगा औऱ अपने को मानवीय और हमें सांप्रदायिक साबित करने में दिमाग लगाएगा,मैं थोड़ी ही देर बैठा था कि उन्होंने कहा- ओटो वाला बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है, अब चलो जल्दी। रास्ते में कुछ वैष्णवी ज्ञान देने लगे। जीजाजी के एक ही साथ चार बोतल किनले खरीद लेने से सबों की प्यास तो बुझ गयी थी,ओटो पर बात करने के अलावे कुछ किया ही नहीं जा सकता था इसलिए सारी बातें हिन्दू-मुस्लिम के होटलों औऱ खाने पीने की जगह पर आकर अटक गयी औऱ तब सब अपने-अपने हिसाब रहस्यों का उदघाटन करने लगे। कौन कितना समझदार( आप इसे कट्टर हिन्दू ही समझिए) है,साबित करने में जुट गए। मैं उन्हें नही जानता था कि वो हमारे कौन लगेंगे इसलिए कभी भैय्या तो कभी सर बोलता रहा। उन्होंने मुंह को थोड़ा ज्यादा बड़ा करते हुए(जब आप गूगल अर्थ पर क्लिक करते हैं तो लगेगा कि धरती खुलती चली जा रही है,वैसे ही) कहा- आपलोग जो फोटू देखकर हिन्दू-मुस्लमान होटलों की पहचान करते हैं न,कभी-कभी गच्चा खा जाइएगा। गए थे हम अबकी बार जम्मू। वहां क्या देखते हैं कि सब होटल में डेढ़-डेढ़,दो-दो फीट की काली, हनुमान, वैष्णो देवी का फोटो लगा हुआ है। घुस गए अंदर,अभी खाने का आर्डर देते कि देखे कि कोने में एक टुइंया( लोटे जैसा जिसमें पानी के लिए अलग से टोटी लगी रहती है) रखा हुआ है। हमको समझने में एक भी मिनट देर नहीं लगा कि गलत जगह आ गए हैं। तुरंत पत्नी को कोहनी से इशारा किए और बाहर हो लिए औऱ फिर तेजी से आगे बढ़ गए। अब जमाना गया कि आप फोटू से जान जाइएगा कि ये हिन्दू होटल है या मुस्लिम होटल। सब जान गया है कि लोग यही देखकर घुसता है। इसलिए बिजनेस के लिए भगवान बदल देने में उसको दू मिनट भी नहीं लगता है। घर के लोगों या बाकी रिश्तेदारों के साथ बहुत की कम कहीं जाना होता है लेकिन जब कभी भी जाना होता है तो खाने को लेकर दोहरे स्तर की समस्या होती है। दिल्ली में रहते हुए,बाकी दोस्तों के साथ हम सिर्फ खाने-पीने की जगह खोजा करते हैं लेकिन रिश्तेदारों के साथ जाने पर पहले होटल नहीं हिन्दू होटल खोजना होता है। नॉनवेज मैं भई नहीं खाता लेकिन चाहे किसी भी होटल में वेज की व्यवस्था हो जाए तो खाने में दिक्कत नहीं होती। इसलिए दो-तीन बार करीम में जाकर मिक्स वेज खाया तो दोस्तों ने इसे गोयठा में घी सुखाना कहा। मेरे क्या किसी भी रुढ़ि और परंपरागत परिवारों के बीच रहनेवाले लोगों के लिए ये अनुभव नया नहीं है। खाने को लेकर धार्मिक कट्टरता अपने चरम पर होती है। लेकिन मैं इसकी ब्रांडिंग पर सोच रहा हूं। अपनी सर्किल कुछ इस तरह की है कि मैं अकेला हूं जो नॉनवेज नहीं खाता। जो लोग खाते हैं उनके बीच नॉनवेज को लेकर एक समझ है कि ये मुस्लिम रेस्तरां में ज्यादा बेहतर मिलता है। इसलिए वो उन्हीं दुकानों से लेना पसंद करते हैं। उनके लिए मुस्लिम रेस्तरां एक ब्रांड है लेकिन परिवारवालों के बीच घृणा,परहेज और नाम ले लेने पर उबकाई आ जाने की मजबूरी। मैं तो सोच-सोचकर परेशान हो गया कि इस जूसवाले को अगर दिनभर में अगर पचास गिलास जूस बेचने होंगे तो पचास मुसलमान ग्राहक ही आए,तभी बात बनेगी। अब इसके लिए बाजार में चहल-पहल और तेजी का क्या मतलब है। अपनी तरफ तो अभी भी कई चीजों की दुकानें खोलने की हिम्मत मुस्लिम समाज के लोग जुटा नहीं पाते। कई दुकानें तो मैंने बंद होते देखी है। फिलहाल गंतव्य तक पहुंचने पर जो भायजी हमलोगों को लेने आए,उनसे भी इस बात की चर्चा की गयी। कहा कि आज तो बाल-बाल बचे। भैय्यी की तरफ इशारा करते हुए कि अगर ऐन मौके पर फोटू नहीं देख लेते तो सब गड़बड़ा जाता। भायजी थोड़े गंभीर हुए और सत्य का ज्ञान कराते हुए कहा- अब तो फोटू-फाटू बहुत पुरानी बात हो गयी है। आपलोग ऐसा किया कीजिए कि कहीं भी खाने जाइए औऱ आपको शक हो कि अपने समाज का होटल नहीं है तो फट से दुकानदार को बोलिए- हरि ओम। उसके बाद देखिए कि चेहरे पर क्या रिएक्शन होता है, उसी से ताड़ जाइए। एक-दो बार तो हरि ओम बोलते ही अस्सलाम बालेकुम बोल पड़ा औऱ हम खिसक गए। मेरे मन में एक सवाल आया कि पूछूं,अगर उसने राधे-राधे कह दिया तो फिर कैसे पहचानेंगे,कृष्ण भक्त को मुस्लिम प्रूफ करने का कोई लॉजिक बताइए भायजी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090701/33b9fcbe/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Jul 2 16:40:08 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 2 Jul 2009 16:40:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWH4KSk4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+OiDgpKTgpLDgpYLgpKMg4KSk4KWH4KSc4KSq4KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkueCkpOCljeCkr+CkviDgpLngpYsg4KSX4KSv4KWA?= Message-ID: <196167b80907020410x2efc2891v3fc02cfa02f6ba03@mail.gmail.com> बिहार के बेतिया जिला स्थित एसपी कार्यालय द्वारा जारी एक प्रेस बयान के मुताबिक तहलका डाट काम, नोएडा वाले तरूण तेजपाल की हत्या कर दी गयी है और हत्या को अंजाम देने वाले को पुलिस ने दबोच लिया है। बयान के अनुसार बुधवार को खुफिया सूचना मिली की कुख्यात राजेश यादव उर्फ मुलायम, पिता बिगन यादव मांझीविशुनपुरा थाना कोतवाली पडरौना जिला कुशीनगर, (यूपी) बिहार के बेतिया शहर में घटना को अंजाम देने के लिए आया है। पुलिस ने छापेमारी कर इसे गिरफ्तार भी कर लिया है। जारी प्रेस बयान में पकड़े गये आरोपी का जो आपराधिक रिकार्ड बताया गया है उसमें सातवें नंबर पर कुछ यूं लिखा गया है- तहलका डाट काम, नोएडा के संपादक तरूण तेजपाल की हत्या में अवधेश त्यागी के साथ संलिप्त था। बहरहाल, जब पुलिस का यह प्रेस बयान मिला तो सभी अचंभित हो गये। कुछ मीडिया वालों ने एसपी कार्यालय को फोन कर इस बाबत पूछताछ की। मीडिया वालों ने बताया कि तरूण तेजपाल जिंदा हैं। वह देश के प्रतिष्ठित पत्रकार हैं। इसके बाद एसपी कार्यालय ने मीडिया वालों से कहा कि गलती हो गयी है। कृपया इस बात का उल्लेख खबरों में नहीं करें। खैर, इस प्रेस बयान ने बिहार की पुलिस की कार्यशैली को उजागर तो कर ही दिया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090702/1e2c1bb2/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Jul 3 14:21:53 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 3 Jul 2009 14:21:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWL4KSc4KSq?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KWALeCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgC3gpIXgpILgpJfgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KWH4KSc4KS84KWAIOCkleCli+Cktg==?= Message-ID: <200907031421.55489.ravikant@sarai.net> अभिषेक अवतंस को जानकारी के लिए शुक्रिया. वे हिन्दी संस्थान की पत्रिका *गवेषणा* की संपादकीय मंडली में भी हैँ, जिसका आनेवाला अंक बहुभाषिकता पर केंद्रित है, और आपमें से जो साथी लिखना चाहते हैं, बशौक़ लिख सकते हैं. रविकान्त भोजपुरी का पहला त्रिभाषी शब्दकोश केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा प्रकाशित केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, की महत्त्वाकांक्षी हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना की पहली प्रस्तुति है: भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोक शब्दकोश वर्ष- 2009, मूल्य – 275/- रुपए मात्र परियोजना का उद्देश्य है सुसंगिठत संस्थागत स्तर पर हिंदी परिवार की 48 भाषाओं की शब्द संपदा को सुरक्षित करना और भावी विकास के लिए आधुनिक आधार उपकरण तैयार करना। इतने विशद स्तर पर ऐसा कोई प्रयास देश में पहली बार हो रहा है। ये सभी भाषाएँ1 भारतीय जनगणना 1991 की रिपोर्ट भाषाएँ: भारत और राज्य 1997 (Language: India and States, 1997) में परि गणित हैं। इस परियोजना के अंतर्गत हिंदी परिवार की 48 बोलियों/भाषाओं/उपभाषाओं के (भारतीय जनगणना 1991 की रिपोर्ट: भाषाएँ: भारत और राज्य 1997 के आधार पर) लोक शब्दकोशों का निर्माण 48 खंडो में करने की योजना है। हिंदी की कई बोलियाँ/भाषाएं/उपभाषाएं संकटग्रस्त और विलुप्त-सी हो रही हैं और इनके साथ अद्भुत नाद और अर्थ सौंदर्य वाले शब्द भी खो रहे हैं। यदि आगामी 10-15 वर्षों में सुधि नहीं ली गई तो हम उन्हें पूर्णत: खो देंगे। लोकभाषाओं की इस महत्ता को ध्यान में रखते हुए हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना के अंतर्गत कतिपय बोलियों/भाषाओं/उपभाषाओं के लोक शब्दकोशों के प्रकाशन, डिजिटलीकरण एवं इंटरनेट पर उपलब्ध करवाने की योजना है जिससे न केवल एक विशाल शब्द भंडार का संरक्षण होगा, बल्कि हिंदी की सांस्कृतिक जड़ों में भी पुष्टता आएगी और देश-विदेश के हिंदी पाठक लाभान्वित होंगे। परियोजना के प्रथम चरण में कुल सात बोलियों/भाषा ओं/उपभाषाओं (भोजपुरी,ब्रजभाषा, राजस्थानी, बुन्देली, अवधी, छ्त्तीसगढ़ी और मालवी) पर कार्य चल रहा है। भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोक शब्दकोश की विशिष्टताएँ – भोजपुरी की कुल 4221 प्रविष्टियाँ भोजपुरी शब्दो का हारवर्ड-क्योटो प्रोटोकॉल के तहत रोमनीकरण सभी भोजपुरी प्रविष्टियों का हिंदी एवं अंग्रेजी में अर्थ अथवा व्याख्या सभी भोजपुरी शब्दों के अर्थपूर्ण प्रयोग-उदाहरण भोजपुरी व्याकरण और शब्दावली पर परिशिष्ट खंड के अंतर्गत बहुउपयोगी सामग्री पूर्णत: वैज्ञानिक और नवीनतम भाषावैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा शब्दकोश हेतु शब्दावली संकलन भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोक शब्दकोश की निर्माण समिति के सदस्य निम्नलिखित हैं: दिशा-निर्देश एवं परामर्श रामवीर सिंह शंभुनाथ प्रधान संपादक अरविंद कुमार समन्वयक मीरा सरीन परमलाल अहिरवाल भाषा संपादक राजेंद्र प्रसाद सिंह संयोजक संपादक व परियोजना प्रभारी अभिषेक अवतंस कोशकर्मी जितेंद्र वर्मा, दिग्विजय शर्मा सुरेशचंद मीणा, शैलेंद्र कुमार सिंह तकनीकी सहयोग राहुल देवरानी, गिरधर सिंह शब्दकोश खरीदने के लिए संपर्क करें: प्रकाशन विभाग केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा -282005 दूरभाष : 0562-2530683 निदेशक सचिवालय : 0562-2530684 वेबसाईट – www.hindisansthan.org → वी.पी.पी. द्वारा पुस्तकें नहीं भेजी जाती। पुस्तकें मँगाने के लिए अग्रिम धनराशि डाक खर्च सहि त 'सचिव, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा' के नाम ड्राफ्ट द्वारा भेंजें। डाक खर्च के लिए पुस्तक के मूल्य के साथ 100/- रुपए अलग से जोड़ें। From vineetdu at gmail.com Sun Jul 5 11:21:37 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 5 Jul 2009 11:21:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KSV4KWA4KSo?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCkqOCkv+CkjyzgpLXgpYsg4KSX4KWHIOCkqOCkueClgA==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0907042251j56cc63e3xfe85427816525e68@mail.gmail.com> रात के खाने के बाद अक्सर वो किसी न किसी बहाने मेरे पास रुकने की कोशिश किया करता। कभी कहता-भैय्या,अब रात में कार्यालय कौन जाए तो कभी कहता- इकॉनमिक्स में कुछ समझना है तो कभी कहता-नीचे ही बिछाकर सो जाएंगे,आप अपने बेड पर ही सोइएगा। दिनभर की पढ़ाई और कॉलेज की थकान के बाद उसका आना मुझे अच्छा ही लगता कि चलो कोई तो बोलने बतियाने के लिए मिल जाता है। लेकिन पता नहीं क्यों,दिनभर कोई मुझसे कितनी भी बातें क्यों न कर ले, देर रात तक कितनी गप्पें न लडा ले,अपने यहां किसी का रातभर के लिए रुकना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। मैं नहीं चाहता कि कोई रात में मेरे यहां रुके। लेकिन वो रात में मेरे यहां रुकना चाहता औऱ मैं उसे किसी न किसी तरह वापस कार्यालय भेजना चाहता। उसने मैट्रिक की पढ़ाई अपने घर पर ही रहकर की औऱ आगे वो बिगड़ न जाए इसकी चिंता से उसके मां-बाप ने उसे कार्यालय में भेज दिया। वैसे कार्यालय में रहने का नियम होता है कि आपके उपर जब तक किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं है,आप लंबे समय तक वहां रुक नहीं सकते। वो जिस समय कार्यालय में रहने आया उसके पास कोई जिम्मेदारी नहीं थी। वैसे भी वो विचारधारा के प्रसार के लिए नहीं बल्कि पढ़ने आया था। लेकिन धीरे-धीरे उसे किसी न किसी काम में लगाया जाने लगा। महीना दो महीना होते-होते वो कार्यालय के काम में इतनी बुरी तरह फंस गया कि कोई भी देखता तो कहता कि ये भी औरों की तरह सबकुछ छोड़-छाड़कर सपनों का भारत बनाने की तैयारी में है। वैसे देखा जाए तो ऑफिसीयली अभी भी उसे कुछ भी नहीं करना होता। सब काम के लिए लोग लगे होते लेकिन उसके शब्दों में कहें तो- भइया इससे लाख गुणा अच्छा होता कि हम कॉलोनी जाकर दो-चार बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेते या फिर फोटो मशीन की दुकान में पांच-छह घंटे काम कर लेते। दिनभर किसी न किसी के आगे-पीछे डोलते ही रहना पड़ता है। एक रात मैंने लगभग झिड़कते हुए कहा- वो सब तो ठीक है कि तुम दिनभर की परेशानी मुझे बता जाते हो,वो भी ऐसी जगह की परेशानी जिसे कि मैं अपने स्तर से दूर नहीं कर सकता लेकिन ये रात में आकर क्यों रुकने की बात करते हो। सच कहूं दोस्त, बुरा मत मानना, तू दिनभर मेरे कमरे में रह ले लेकिन रात में मुझे किसी का रुकना जरा भी अच्छा नहीं लगता। मैं देर रात तक जागता हूं और अपने उपर समय देता हूं। रात में किसी के रुकने से खलल पड़ जाती है। इसके पहले भी मैं उसे कुछ न कुछ कह दिया करता औऱ वो डर लगता है जाने में...और भी कुछ न कुछ कहकर बात टाल जाता। आज वो फफक-फफककर रोने लग गया। आपको क्या लगता है भइया कि हम शौक से रुकते हैं,अब हम क्या बताएं आपको। कार्यालय में विचारधारा को मजबूत करनेवाले एक महाशय हैं। लोग उनका सम्मान करते हैं। रोज रात उनके सिर में दर्द होता है। सिरदर्द न भी हो तो प्यास लग जाती है। हमें बुलाते हैं और कभी शीशी और कभी पानी लेकर उनके पास जाता हूं। कुछ देर इधर-उधर की बातें करते हैं और फिर कहते हैं- यहीं बिछाकर सो जाओ। मैं कहता हूं-नहीं,बाहर बरामदे में सोता हूं मैं। कभी आदेश के लहजे में,कभी थोड़ा डांटते हुए और कभी-कभी घिघिआने के अंदाज में ऐसा कहते हैं। शुरु-शुरु में तो मैं एक-दो बार सो गया। अभी सोए थोड़ी ही देर हुए कि देखा कि हमें सहला रहे हैं। पहले तो अच्छा लगा कि इस अंजान शहर में कोई हमें पिता का प्यार दे रहा है,मुझे लगा कि उस अंधेरे में ही उठकर उनका पैर छू लूं। लेकिन फिर वो मुझे अपनी तरफ खींचने लगे। उसके बाद...छी..रहने दीजिए भइया। हांफती हुई सांसों में मुझे पिता के स्नेह से ज्यादा सालों से गंधा रहे किसी हवशी का सडांध महसूस हुआ,मैं बाहर आ गया। मैं दिन में भी उनकी नजरों से बचने लग गया। उनके सामने पड़ना ही नहीं चाहता। कभी रोते हुए,कभी सिसकियां लेके हुए वो सबकुछ एक सांस में बोल गया। अब लोग मुझे देखकर फुसफुसाते हैं। मेरी उम्र के लोग मुझे देखकर मुस्कराते हैं। कोई कहता है- उसे जानते हो,बहुत अच्छा मालिश करता है और फिर ठहाके लगाने लग जाता है। कहते हैं अब मुझे कोई बसंती और बिजुरिया की जरुरत नहीं है,मेरा काम ऐसे ही चल जाएगा।.... ऐसे समय में मुझे मैंला आंचल की लक्ष्मी दासी याद आती है। धीरज धरो सेवादास,बोलती हुई लक्ष्मी। कभी कठोर,कभी लाचार होकर रोती हुई लक्ष्मी। रात के सन्नाटे में रोज अपने को बचाने की जद्दोजहद से लड़ती हुई लक्ष्मी। चित्रलेखा याद आती है। दुनियाभर की बदनामी से मुक्त होने के लिए आश्रम का शरण लेनेवाली चित्रलेखा। उपन्यास और सिनेमा के चरित्रों के बीच जब-तब वो भी याद आता है लेकिन अफसोस कि वो कभी अकेले याद नहीं आता। लगता है कतार के कतार चले आ रहे है उसी की शक्ल में,उसी की तरह मासूमियत लिए...और भी कई,सैंकड़ों,हजारों। अच्छा बनने,सामाजिक बनने,बिगड़ जाने के डर से बुजुर्गों के बीच रहने। इस बात से अंजान की सेवादास की तरह लाखों लोगों के सिर पर हवश सवार है जो लक्ष्मी से दूर रहकर और भी ज्यादा खूंखार होते चले जाते हैं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090705/5ca9c763/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Sun Jul 5 16:43:42 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 5 Jul 2009 16:43:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOClmw==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSoIOCkquCklSDgpLDgpLngpYAg4KSl4KWAIDog4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KSX4KSi4KS8IOCkuOClhyDgpLLgpYzgpJ/gpJXgpLAg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCksOCkv+CkquCli+CksOCljeCknw==?= Message-ID: <363092e30907050413t3855a855w890522967f1231e@mail.gmail.com> जब ज़मीन पक रही थी : लालगढ़ से लौटकर एक रिपोर्ट लालगढ़ से लौट कर रेयाज़ उल हक अब कादोशोल के गोपाल धवड़ा को शाम ढ़लने के बाद अपने मवेशियों को जंगल में खोजने जाने से पहले सौ बार सोचना पडेगा. सिजुआ की पांचू मुर्मू को सुबह शौच के लिए जाना पहले जितना ही आतंक से भर देने वाला काम होगा. मोलतोला के दिलीप को फिर से स्कूल जाने में डर लगेगा. 17 जून के बाद लालगढ़ में सीआरपीएफ़, पुलिस और हरमादवाहिनी के घुसने के साथ ही सात महीने से चला आ रहा पुलिस बायकाट खत्म हो गया. और इसी के साथ लालगढ़ के लोगों के शब्दों में उनके पुराने दिन शायद फिर से लौट आये हैं, पुलिसिया जोर-ज़ुल्म के, गिरफ़्तारियों के, यातना भरे वे दिन, जब… लालगढ़ के रास्तों पर फिर से पुलिस और अर्धसैनिक बलों की गाडि़यां दौड़ने लगी हैं. थाने फिर से आबाद हो गये हैं. स्कूलों, पंचायत भवनों और अस्पतालों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के डेरे लग गये हैं. लालगढ़ में पहले भी बाहरी लोगों के जाने पर रोक थी, लेकिन तब भी पत्रकार और बुद्धिजीवी, छात्र आदि जा सकते थे, राज्य के शब्दों में ‘आतंकवादी’ माओवादियों के नियंत्रणवाले लालगढ़ में क्या हो रहा है, यह जो देखना चाहे उसकी आंखों के सामने था. लेकिन अब सरकार के नियंत्रण में आने के बाद लालगढ़ में क्या हो रहा है, किसी को नहीं पता. वहां जाने पर अब पूरी पाबंदी है. लालगढ़ में ‘लोकतंत्र’ को बहाल किये जाने की प्रक्रिया के बारे में हम अब भी कम ही जान पाये हैं. कभी-कभा आ रही खबरें बताती हैं कि किस तरह लोग अभी चल रही कार्रवाई से आतंकित होकर भाग रहे हैं. लोगों के घर, स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल जलाये जा रहे हैं. उपयोग में लाये जानेवाले पानी के स्रोत गंदे किये जा रहे हैं. और अनगिनत संख्या में लोगों को माओवादी कह कर प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ हफ़्ते पहले के लालगढ़ में ऐसा कुछ भी नहीं था. माओवादियों से ‘आतंकित’ और उनकी ‘यातनाएं सह रहे’ लालगढ़ के लोग निर्भीक होकर कहीं भी आ जा रहे थे. बच्चे स्कूल जा रहे थे. महिलाएं अपने जीवन में पहली बार बिना किसी डर के जंगलों में जा रही थीं. गांवों में शाम ढले घर से निकलने पर किसी को कोई डर नहीं था. अब ‘मुक्त’ लालगढ़ में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. लेकिन लालगढ़ में ‘मुक्ति’ से पहले की, लालगढ़ के लोगों के शब्दों में ‘आज़ादी’ हमेशा से नहीं रही. कुल सात महीने थे, जिनमें पुलिस और अर्धसैनिक बलों को लोगों ने बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इलाके से बाहर कर दिया था. यह हुआ था इलाके में पुलिस के आम बायकाट से, जो शुरू हुआ था छोटोपेलिया की चिंतामणि मुर्मु की आंख पुलिस द्वारा फोड़ देने की घटना के बाद. पूरी रिपोर्ट पढ़िए रविवार पर। यहां क्लिक करिए. या फिर मेरे ब्लाग हाशियापर आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090705/ac771e0b/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Jul 5 16:43:42 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 5 Jul 2009 16:43:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOClmw==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSoIOCkquCklSDgpLDgpLngpYAg4KSl4KWAIDog4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KSX4KSi4KS8IOCkuOClhyDgpLLgpYzgpJ/gpJXgpLAg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCksOCkv+CkquCli+CksOCljeCknw==?= Message-ID: <363092e30907050413t3855a855w890522967f1231e@mail.gmail.com> जब ज़मीन पक रही थी : लालगढ़ से लौटकर एक रिपोर्ट लालगढ़ से लौट कर रेयाज़ उल हक अब कादोशोल के गोपाल धवड़ा को शाम ढ़लने के बाद अपने मवेशियों को जंगल में खोजने जाने से पहले सौ बार सोचना पडेगा. सिजुआ की पांचू मुर्मू को सुबह शौच के लिए जाना पहले जितना ही आतंक से भर देने वाला काम होगा. मोलतोला के दिलीप को फिर से स्कूल जाने में डर लगेगा. 17 जून के बाद लालगढ़ में सीआरपीएफ़, पुलिस और हरमादवाहिनी के घुसने के साथ ही सात महीने से चला आ रहा पुलिस बायकाट खत्म हो गया. और इसी के साथ लालगढ़ के लोगों के शब्दों में उनके पुराने दिन शायद फिर से लौट आये हैं, पुलिसिया जोर-ज़ुल्म के, गिरफ़्तारियों के, यातना भरे वे दिन, जब… लालगढ़ के रास्तों पर फिर से पुलिस और अर्धसैनिक बलों की गाडि़यां दौड़ने लगी हैं. थाने फिर से आबाद हो गये हैं. स्कूलों, पंचायत भवनों और अस्पतालों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के डेरे लग गये हैं. लालगढ़ में पहले भी बाहरी लोगों के जाने पर रोक थी, लेकिन तब भी पत्रकार और बुद्धिजीवी, छात्र आदि जा सकते थे, राज्य के शब्दों में ‘आतंकवादी’ माओवादियों के नियंत्रणवाले लालगढ़ में क्या हो रहा है, यह जो देखना चाहे उसकी आंखों के सामने था. लेकिन अब सरकार के नियंत्रण में आने के बाद लालगढ़ में क्या हो रहा है, किसी को नहीं पता. वहां जाने पर अब पूरी पाबंदी है. लालगढ़ में ‘लोकतंत्र’ को बहाल किये जाने की प्रक्रिया के बारे में हम अब भी कम ही जान पाये हैं. कभी-कभा आ रही खबरें बताती हैं कि किस तरह लोग अभी चल रही कार्रवाई से आतंकित होकर भाग रहे हैं. लोगों के घर, स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल जलाये जा रहे हैं. उपयोग में लाये जानेवाले पानी के स्रोत गंदे किये जा रहे हैं. और अनगिनत संख्या में लोगों को माओवादी कह कर प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ हफ़्ते पहले के लालगढ़ में ऐसा कुछ भी नहीं था. माओवादियों से ‘आतंकित’ और उनकी ‘यातनाएं सह रहे’ लालगढ़ के लोग निर्भीक होकर कहीं भी आ जा रहे थे. बच्चे स्कूल जा रहे थे. महिलाएं अपने जीवन में पहली बार बिना किसी डर के जंगलों में जा रही थीं. गांवों में शाम ढले घर से निकलने पर किसी को कोई डर नहीं था. अब ‘मुक्त’ लालगढ़ में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. लेकिन लालगढ़ में ‘मुक्ति’ से पहले की, लालगढ़ के लोगों के शब्दों में ‘आज़ादी’ हमेशा से नहीं रही. कुल सात महीने थे, जिनमें पुलिस और अर्धसैनिक बलों को लोगों ने बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इलाके से बाहर कर दिया था. यह हुआ था इलाके में पुलिस के आम बायकाट से, जो शुरू हुआ था छोटोपेलिया की चिंतामणि मुर्मु की आंख पुलिस द्वारा फोड़ देने की घटना के बाद. पूरी रिपोर्ट पढ़िए रविवार पर। यहां क्लिक करिए. या फिर मेरे ब्लाग हाशियापर आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090705/ac771e0b/attachment-0003.html From rakesh at sarai.net Mon Jul 6 11:27:26 2009 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Mon, 6 Jul 2009 11:27:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KS+4KSH4KSu?= =?utf-8?b?IOCkruCktuClgOCkqCDgpK7gpYfgpIIg4KSy4KS+4KSy4KSX4KSi4KS8?= =?utf-8?b?IOCklOCksCDgpI/gpLjgpKrgpYAg4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: दोस्‍तों दिलीप मंडल का समकालीन पत्रकारिता में एक विशिष्‍ ट स्‍थान है. पत्रकारिता की हर विधा में धंस कर काम चुके दिलीपजी आजकल ईटी डॉट कॉम को जमाने में लगे हैं. सुबह-सुबह उनके ब्‍लॉग http://rejectmaal.blogspot.com पर जो कुछ मैंने पढ़ा, आभार समेत आपसे साझा कर रहा हूं: टाइम मशीन में लालगढ़ और एसपी सिंह लालगढ़ ने मीडिया के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस बारे में hoot में सेवंती नैनन ने लिखा है। पक्ष और पक्षपात की सवाल मीडिया को लेकर न पहली बार उठे हैं न आखिरी बार। हाल ही में हमने पत्रकार एसपी सिंह की 12वीं बरसी मनाई है। एसपी सिंह की स्मृति में दिल्ली में हुई एक सभा में पत्रकार रामबहादुर राय ने ये सवाल उठाया कि एसपी सिंह अगर आज जिंदा होते तो लालगढ़ को लेकर क्या उस धारा में वो बह रहे होते, जिस धारा में मीडिया बह रहा है। उनके मुताबिक एसपी सिंह इस समय लालगढ़ में संघर्ष कर रहे लोगों का अभिनंदन करते और उनके दमन में जुटी सरकार के विरोध में खड़े होते। यहां हम एक ऐसे न्यूजरूम की कल्पना करते हैं जहां टाइम मशीन में डालकर लालगढ़ के संघर्ष और एसपी सिंह को एक साथ इकट्ठा कर दिया गया हो। इस घटना के पात्र वास्तविक हो सकते हैं, सिर्फ नाम बदल दिए हैं क्योंकि इससे पूरी बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। जून 2009 के आखिरी हफ्ते का कोई दिन स्थान-एक न्यूज चैनल का दफ्तर "लालगढ़ में पुलिस के खिलाफ सभा कर रहे 10,000 लोगों को कल आतंकवादी किसने लिखा था?" एसपी की संयत लेकिन थोड़ी तीखी आवाज के साथ ही न्यूजरूम में सन्नाटा छा गया। सुबह साढ़े 9 बजे का समय था। कनॉट प्लेस में टीवी चैनल के एक दफ्तर में रात की शिफ्ट वाले जा रहे थे और अगली शिफ्ट वाले आ रहे थे। हर ओर हलचल मची थी। एसपी सिंह 3 दिन शहर से बाहर रहकर लौटे थे। ज्यादातर लोगों को तो पहली बार में समझ में ही नहीं आया कि लालगढ़ में पुलिस से लड़ रहे लोगों को आतंकवादी नहीं तो और क्या लिखा जाएगा। पूरा मीडिया तो लालगढ़ में जो हो रहा है उसे माओवादी आतंकवादी बनाम सुरक्षा बलों के संघर्ष के तौर पर देख रहा है। ऐसे में एसपी आखिर कहना क्या चाहते हैं। "भाई ऐसा है कि 10,000 लोग अगर आतंकवादी हो गए हैं और 140 गांवों की पूरी जनता आतंकवादी हो गई है तब तो उन्हें गिरफ्तार करना होगा या मारना होगा", एसपी बोले, " आप सब लोग पत्रकार हैं और इस नाते समझदार भी, क्या ये संभव है।" न्यूजरूम का सन्नाटा और गहरा हो गया क्योंकि बुलेटिन में आतंकवादी शब्द कई बार आया था और ये खबर कई हाथों से गुजरी थी, जिसमें सीनियर लोग भी शामिल थे। न्यूजरूम की सबसे युवा सदस्य सुनयना ने पूछा, "सर, आतंकवादी नहीं तो क्या लिखें? बंदूक तो उनके पास होती है। हमारे पास जो फुटेज आ रहे हैं उनमें आदिवासियों के हाथों में कुल्हाड़ी, लाठी और दो-चार बंदूकें भी दिखती हैं। उन्होंने लैंडमाइन ब्लास्ट भी तो किए हैं।" "देखिए अगर हथियार होने से कोई आतंकवादी होता है तो देश में सबसे ज्यादा हथियार तो पुलिस और सेना के पास हैं। उनके काम करने का तरीका भी हिंसक ही होता है। आपकी परिभाषा से तो देश में आतंकवादियों का सबसे बड़ा गिरोह सेना और पुलिस हो गई। मेरे ख्याल से लालगढ़ में जो हो रहा है वो एक पॉपुलर आंदोलन हैं, जिसमें कुछ माओवादी भी घुसे हुए हैं। आप हद से हद इन्हें माओवादी या उग्रवादी या अतिवादी कहें। हिंसक तौर तरीके अपनाने वाले भगत सिंह को ब्रिटेन का इतिहास आतंकवादी कहता है और हम क्रांतिकारी कहते हैं। यानी भाषा के ऐसे सवाल इस बात से तय होते हैं कि आप किस पक्ष में खड़े हैं। मेरी राय है कि पत्रकारों में इस लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। देखिए आप जैसे ही अपना पक्ष तय करेंगे आपकी भाषा और आपके शब्दों का संस्कार तय हो जाएगा, " एसपी की बात अब कुछ लोगों को समझ में आने लगी थी। लेकिन सुनयना के जेहन में अभी भी कई सवाल आ रहे थे। वो बोली, "सर, ये लोग सरकार को नहीं मानते, पुलिस को इलाके में घुसने नहीं देते, ऐसे लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही क्यों नहीं माना जाए। एसपी अब गहरी सोच में डूब गए। सुनयना को बाकी सीनियर्स समझाने में जूट गए। कई तरह के तर्क वितर्क होते रहे। अचानक एसपी बोले, सुनयना आपकी राय में लालगढ़ में हंगामा कब शुरू हुआ है। सुनयना के साथ ही कई और लोग बोले लगभग 15-20 दिनों से। एसपी ने कहा, यही तो हमारे पेशे के लोगों की मुश्किल है। सब कुछ इंस्टेंट होता है आप लोगों के लिए। देखिए अगर पश्चिम बंगाल और देश की बड़ी खबरों पर आपकी नजर होगी तो आपको याद होगा कि पिछले साल नवंबर महीने में इसी इलाके में एक माइन ब्लास्ट हुआ था, जिसमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उस समय के केंद्रीय स्टील मंत्री रामविलास पासवान बाल बाल बचे थे। वो इलाके में एक स्टील प्लांट के निर्माण का उद्घाटन करने जा रहे थे। इस प्लान्ट के लिए बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण होना है और पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के अनुभव के बाद कोई भी किसान सरकार को निजी प्रोजेक्ट के लिए सरकारी कीमत पर जमीन बेचने के तैयार नहीं है। खैर आप सबने भी अपने ही चैनल पर खबर चलाई थी ब्लास्ट के बाद बड़े पैमाने पर लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। इस घटना को जाने बगैर आप लालगढ़ के बारे में अगर लिखेंगे या बोलेंगे तो खबर के साथ और साथ ही उस इलाके की जनता के साथ अन्याय करेंगे। लालगढ़ माओवाद का नहीं जमीन अधिग्रहण और विरोध का मुद्दा है। इस चर्चा के दौरान दिन की शिफ्ट के ज्यादातर लोग ऑफिस पहुंच चुके थे। कॉन्फ्रेंस रूम में न्यूजमीटिंग के लिए लोग जुटने लगे। चाय के साथ खबरें तय करने का सिलसिला शुरू हुआ... ..न्यूजरूम में लालगढ़ और एसपी सिंह न्यूज मीटिंग में सभी ब्यूरो से आए आइडिया की लिस्ट और एएनआई और दूसरी समाचार एजेंसियों के दिन के एजेंडे की सूची बांट दी गई। चूंकि लालगढ़ से बेहद एक्साइटिंग विजुअल आ रहे थे। इसलिए ये सब समझ रहे थे कि ये खबर ही आज बिकेगी। लेकिन एसपी ने आतंकवाद और उग्रवाद के बीच फर्क को लेकर जिस तरह अपनी बातें रखीं थी, उससे साफ जाहिर था कि लालगढ़ अब वैसे कवर नहीं होगा, जिस तरह से उसे पिछले तीन-चार दिनों से कवर किया जा रहा था। एसपी ने बांग्ला के एक अखबार में छपी एक फोटो लोगों को दिखाई। "देखिए ये चार फोटो हैं हमारी आज की सबसे बड़ी स्टोरी।" इसके साथ छपी खबर को पढ़ने के लिए उन्होंने अखबार छवि विश्वास की ओर बढ़ाया। छवि ने जो खबर पढ़ी उसके मुताबिक चूंकि सुरक्षा बलों के पास लैंडमाइन डिटेक्टर सिर्फ दो ही हैं, इसलिए वो आदिवासियों को लोहे की छड़े पकड़ा देते हैं और सुरक्षा बलों के आगे आगे चलने को मजबूर करते हैं। उन्हें कहा जाता है कि वो जमीन को बीच बीच में कोंचकर देखते रहें कि कोई बारूदी सुरंग तो नहीं है। एसपी ने कहा मुझे कोलकाता से किसी ने बताया है कि वहां के लोकल चैनल के पास इसकी फुटेज है। चैनल के संपादक से मेरी बात हो गई है। कोलकाता की रिपोर्टर से कहिए कि वहां से फुटेज ले आए। इस फुटेज पर बांग्ला चैनल का एक्सक्लूसिव जरूर चलाएं। साथ ही एक रिपोर्टर को फुटेज के साथ मानवाधिकार आयोग भेजिए और वहां से रिएक्शन लाइए। बंगाल के मुख्यमंत्री या चीफ या होम सेक्रेटरी जहां भी मिले उन्हें पकड़िए और सवाल के जवाब में जो भी कहें या चुप रहें, उसे दिखाइए। कोई बात न करे तो रिपोर्टर को राइटर्स बिल्डिंग के बाहर खड़ा कीजिए और उसके रिएक्शन लेने के प्रयासों के बारे में पीटीसी करवाइए। मानवाधिकार आयोग और मुख्यमंत्री कार्यालय में अगले एक घंटे में फैक्स भेजकर रिएक्शन मांगिए। पिछले तीन दिनों से होम मिनिस्ट्री से आ रहे बयानों और बाइट के आधार पर लालगढ़ की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर प्रकाश चंद्रा को समझ में आ रहा था कि अब उसके आराम के दिन गए। एसपी ने प्रकाश की ओर मुड़कर कहा, "मंत्री और सेक्रेटरी तो बहुत बयान दे रहे हैं। इस बारे में उनसे सवाल पूछिए। जो भी वो कहते हैं उसे स्टोरी के हिस्से के तौर पर डालिए। सरकार असहज सवाल पूछने वालों को ही पूछती है। इसलिए जरा डटकर पूछिए। भरोसा रखिए आपका सोर्स खराब नहीं होगा" एसपी ने एसाइनमेंट हेड नवीन कुमार से पूछा-लालगढ़ कौन कवर कर रहा है। जवाब मिला कोलकाता की रिपोर्टर श्रुति वहां गई है। वो सुरक्षा बलों के साथ लगातार लगी हुई है और हर पल की खबर चैनल को मिल रही है। इस मामले में हमारा चैनल किसी भी चैनल से पीछे नहीं है। एसपी ने कहा- अगर सभी चैनलों के रिपोर्टर सुरक्षा बलों के साथ लगे हैं और सारी सूचनाएं सुरक्षा बलों से ही मिल रही है तो कोई भी चैनल पीछे कैसे हो सकता है। लेकिन मुश्किल ये है कि कोई भी चैनल आगे भी नहीं हो सकता। वहां हमारे कम से कम तीन रिपोर्टर और कैमरा टीम होनी चाहिए। एक श्रुति को सुरक्षा बलों से साथ रहने दीजिए। पटना से आशीष और दिल्ली से छवि विश्वास को लालगढ़ भेजिए। दोनों को बांग्ला आती है। ये दोनो रिपोर्टर गांववालों के साथ रहकर उनके नजरिए को सामने लाएंगे। इस तरह हम न सिर्फ बैलेंस रिपोर्टिंग कर रहे होंगे बल्कि बाकी चैनलों को जब तक ये बात समझ में आएगी तब तक हम लीड ले चुके होंगे। हमारे पास अलग तरह के फुटेज होंगे अलग तरह की साउंड बाइट होगी। एसपी सिंह इस पूरी बातचीत के दौरान बांग्ला और कोलकाता से छपने वाले बाकी अखबारों को पढ़ते भी जा रहे थे। उन्होंने कहा- ये जो खबर इस बांग्ला अखबार में छपी है, इसे देखिए। गांव वाले सुरक्षा बलों को खाने पीने का सामान नहीं बेच रहे हैं। सुरक्षा बलों को उनके साथ जबर्दस्ती करनी पड़ रही है। ये स्टोरी बताती है कि लोगों को सुरक्षा बलों को लेकर कितनी नाराजगी है और दिल्ली के अखबारों में जो छप रहा है कि गांव वालों ने सुरक्षा बलों का स्वागत किया, उसकी हकीकत क्या है। इसके बाद एसपी डेस्क के लोगों की ओर मुड़े और कहा- देखिए लालगढ़ को पूरे कॉन्टेस्ट में देखिए। ये सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। जमीन अधिग्रहण को लेकर देश भर में जो गुस्सा है, उसके हिस्से के तौर पर भी लालगढ़ को देखा जाना चाहिए। आप लोग कोलकाता के अखबारों को जरूर देखें। उससे आपको ज्यादा पक्षों को समझने में आसानी होगी। दिल्ली में बैठकर आपको ये कैसे अंदाजा लग पाएगा कि वहां के ज्यादातर स्कूलों में फौज भरी है। जीवन अस्तव्यस्त है। वहां लगभग युद्ध जैसे हालात हैं। अपने ही देश की सबसे गरीब जनता के विरुद्ध युद्ध। मैं निजी तौर पर हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन हर तरह की हिंसा का। सरकारी हिंसा का समर्थन मैं नहीं कर सकता। किसान की जमीन मनमानी कीमत पर लेकर उसे उद्योगपतियों को जबरन सौंप देना हिंसा है। दुनिया भर में उद्योगपति खुद जमीन खरीदते हैं। जबरन जमीन ले लेने का ये कानून अंग्रेजों के समय बना। लेकिन आजाद भारत की सरकारें इसका इस्तेमाल करती रहती हैं। ये कानून जनता और किसानों के खिलाफ हिंसा है। हिंसा का विरोध करना है तो इस सरकारी हिंसा का भी विरोध करना चाहिए। ये आश्चर्यजनक है कि सरकार की बंदूकें ऐसे मामलों में हमेशा किसानों के खिलाफ ही चलती हैं। यूरोप या अमेरिका जैसे विकसित लोकतंत्र में इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। ये हमारे जैसे अविकसित देशों में ही हो सकता है। इस बातचीत को बहुत देर से खामोशी से सुन रहा अभिषेक थोड़ा बेचैन दिख रहा था। अभिषेक ने कहा, "लेकिन सर, माओवादियों को सरकार बैन कर चुकी है। बाजार की ताकतें उनके खिलाफ हैं ही। ऐसे में क्या आपको लगता है कि हमारे जैसा मीडिया इस मुद्दे पर जनता के पक्ष में स्टैंड ले सकता है।" एसपी के माथे पर चिंता की लकीरें नजर आने लगीं। वो चुप रहे। ऐसा लगा कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहते। वो धीरे से बोले, "अभिषेक दरअसल आप वो सवाल उठा रहे हैं जो मैं अपने आप से अक्सर पूछता हूं। देखिए आप यहां इतने महीनों से काम कर रहे हैं। चैनल के जनता के या कमजोरों के पक्ष में खड़े होने से आपको शायद ही कभी रोका गया होगा। लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि जिसने इस चैनल के चलाने के लिए पैसे खर्च किए हैं वो धर्मार्थ चैनल नहीं चला रहा है। उसे अपने निवेश पर मुनाफा चाहिए। हमें उसने काम पर इसलिए रखा है कि हम उसके लिए मुनाफा कमाएं। इसके लिए जरूरी है कि ढेर सारे लोग हमारा चैनल देखें। अगर आप जनपक्षीय होकर भी दर्शक जुटा पा रहे हैं तो शायद ही आपको कभी टोका जाएगा। बिजनेसमैन की पहली और आखिरी प्राथमिकता पैसे कमाना है। इस गणित को हमें समझना होगा। बिजनेस मैन के पैसे से चल रहे चैनल को हम माओवादियों का मुखपत्र या लघुपत्रिका बनाना चाहेंगे तो वो ऐसा नहीं करने देगा। वो इस चैनल को सरकार का भोंपू भी नहीं बनने देगा अगर ऐसा करने पर दर्शक हमें छोड़ जाएं। इस समय की असली चुनौती है कि कैसे जनपक्षीय होते हुए भी पॉपुलर बने रहा जाए। ये काम कठिन है। लेकिन मुमकिन है। गणेश जी को दूध पिलाने वाली घटना को अंधविश्वास के तौर पर दिखाकर भी दर्शक जुटाए जा सकते थे और अंधविश्वास का खंडन करके भी। हमने मोची के औजार को दूध पिलाकर अंधविश्वास का खंडन किया और पॉपुलर भी बने रहे। ये पत्रकारों के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है। अभिषेक बीच में ही बोल पड़ा, " लेकिन सर, अगर हमारी रिपोर्टिंग ज्यादा ही जनपक्षीय हो गई तो क्या सरकार और देश के सत्ता इसकी इजाजत देगी। एसपी अब और परेशान नजर आ रहे थे। उन्होंने कहा- "मैं जानता हूं कि इसकी इजाजत संस्थागत मीडिया में नहीं है। मैं संस्थानों के अंदर लोकतांत्रिक और जनपक्षीय स्पेस के लिए गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहा हूं। लेकिन ये भी सच है कि महीने के आखिर में मिलने वाली तनख्वाह और संस्थान में होने से आने वाला रुतबा और दबदबा भी शायद मुझे प्रिय है। ये मेरे अंदर का अंतर्विरोध है। कभी कभी मन करता है कि सब छोड़कर चल दूं और अपने मन का काम करूं। लेकिन जो कुछ भी हासिल हो रहा है वो मुझे पीछे खींचता है। इसलिए कई बार मैं समझौते करता हूं। कई बार नहीं करता। कई बार जनता के लिए लड़ रहे संगठनों को पैसे देकर अपना अपराधबोध मिटाता हूं। लेकिन आखिरकार मैं इसी व्यवस्था के अंदर का एक पत्रकार हूं। अपना सच और अपनी सीमाएं मैं जानता हूं। अपनी सीमाएं मैं बढ़ाने की कोशिश में लगा रहता हूं। लेकिन एक लिमिट है, जिसे मैं पार नहीं करता। मुझे कृपया आप लोग इस कमजोरी या सीमा के साथ ही स्वीकार करें। सुबह की चमक अब एसपी के चेहरे से पूरी तरह गायब हो गई थी। वो थके हुए दिख रहे थे। न्यूजरूम में अब अफरातफरी शुरू हो चुकी थी। इस भाषणबाजी के चक्कर में लगभग डेढ़ घंटे "खराब" हो चुके थे। From vineetdu at gmail.com Mon Jul 6 15:47:08 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 6 Jul 2009 15:47:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSuIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIOCkleClgCDgpJrgpL/gpILgpKTgpL4g4KSu4KWH4KSC?= =?utf-8?b?IOCkrOCknOCknyDgpJXgpYsg4KSG4KSuIOCkrOCkqOCkvuCkpOClhyA=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KWC4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCljeCkuA==?= Message-ID: <829019b0907060317l5e7b02e3u39f07007b2c5045a@mail.gmail.com> केन्द्र में आम आदमी की चिंता करनेवाली सरकार बनने के साथ ही न्यूज चैनलों की जुबान पर आम आदमी मुहावरे की तरह चढ़ गया है। ग्लैमर,फैशन और मनोरंजन से जुड़ी खबरों को छोड़ दें तो बाकी ऐसी कोई खबर नहीं होती जिसमें कि हिन्दी के चैनल्स आम आदमी शब्द का प्रयोग नहीं करते। न्यूज चैनलों की ओर से अगर ये कहा जाए कि-हम आम आदमी ओढ़ते और बिछाते हैं,ख़बरें हम आम आदमी के लिए दिखाते हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। सरकार को आम आदमी के प्रति इतनी चिंता इससे पहले कभी दिखी हो या नहीं,ये राजनीतिक विश्लेषक बेहतर तरीके से बता सकते हैं लेकिन न्यूज चैनलों के मामले में ये बात दावे के साथ की जा सकती है कि पिछले छह महीने में न्यूज चैनलों में आम आदमी,आम आदमी की चिंता जितनी बार रिपीट होते आ रहे हैं,उससे पहले कभी नहीं हुआ। मीडिया विश्लेषक जो कि टेलीविजन से लगातार सामाजिक सरोकार की मांग करते आए हैं,उन्हें इस बात से खुश होना चाहिए कि खबरों में अब आम आदमी(शब्द या फिर संदर्भ इस बहस में न जाएं तो) को ठीक-ठाक स्पेस मिल रहा है। इसलिए न्यूज चैनलों को इस शिकायत से बरी कर देना चाहिए कि वो आम आदमी की बात नहीं करते,आम आदमी के लिए बात नहीं करते। ये काम उन्होंने चुनाव से दो महीने पहले ही शुरु कर दिया था। लेकिन बजट के मामले में आम आदमी का मुद्दा उठाने का मकसद सिर्फ इतने भर से है कि अब न्यूज चैनल न सिर्फ आम आदमी की बात करने लग गए हैं बल्कि आम आदमी की तरह बात करने लग गए हैं। स्टूडियों में बैठकर वो अपने को खास मानने के बजाय आम बताने लगे हैं...इतना आम कि आपको उनकी बातों को सुनकर लगे कि-ये तो हमारे बीच का, हमारी ही लाइफ स्टाइल में जीनेवाला बंदा है। चैनलों की ओर से खबरों की प्रस्तुति को लेकर इससे ज्यादा लोकतांत्रिक रवैया शायद ही कभी दिखा हो। यहां पर मुझे लोकतंत्र को लेकर लिंकन की ओर से दी गयी परिभाषा याद आ रही है- लोकतंत्र जनता द्वारा,जनता के लिए,जनता का शासन है। इसमें अगर आप लोकतंत्र की जगह न्यूज चैनल और जनता की जगह आम आदमी या आम दर्शक कर दें तो एक आदर्श स्थिति आपके सामने है। बजट 2009 को आम आदमी के देखने लायक कैसे बनाया गया। इसे आप भाषा से लेकर प्रस्तुति,मुद्दे और विमर्शों को लेकर समझ सकते हैं। IBN7 पर आशुतोष और संदीप चौधरी बजट से पहले की अटकलों से जूझ रहे हैं। टैक्स और सरकारी सुविधाओं को लेकर जो भी गड़बड़ झाला है उसकी गुत्थियों को बिजनेस और इकॉनमी स्पर्ट के सहयोग से सुलझाने की कोशिश में हैं। संदीप चौधरी का कहना है कि हमारे ऑफिस के सामने जो करोड़ों रुपये की लागत से जो अंबेडकर पार्क बन रहा है, उसे क्यों बनाया जा रहा है, करोड़ों रुपये के बुत क्यों बनाए जा रहे हैं, उसकी जगह स्कूल,अस्पताल,आवास और जनता के लिए बाकी चीजें क्यों नहीं बनवाए जा रहे,मुहैया कराए जा रहे। इस पर आशुतोष की टिप्पणी है- क्योंकि हम स्टूडियों में ही बैठे रह जाते,वहां जाकर हम इसका विरोध नहीं करते। इस बातचीत से ये मुद्दा सामने आया कि हम जो टैक्स देते हैं,हमें चाहिए कि सरकार से उसका हिसाब मांगे। सिविल सोसायटी जब तक सक्रिय नहीं होगी,तब तक विकास का काम नहीं होगा। मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी ने विदेशों के हवाले से कहा कि वहां तो लोग इस मामले में काफी सक्रिय हैं। संदीप चौधरी के मन में दूसरा सवाल कुलबुलाता है- अब देखिए, अगर हम अपनी पत्नी को गिफ्ट दें तो टैक्स लगेगा जबकि दूसरी की पत्नी को दें तो कोई टैक्स नहीं,ये क्या है। इस पर मुंबई में बैठे एक्सपर्ट के साथ-साथ आशुतोष ने भी चुटकी ली कि सरकार भी चाहती है कि आप अपनी पत्नी को गिफ्ट न दें। आपकी पत्नी भई अभी टेलीविजन देख रही होगी। कहानी ये है कि बजट को कुछ इस तरह से पेश किए जाएं कि एक आम दर्शक को भी इसमें अपने मतलब की बात समझ में आए। शायद इसी एजेंडे को ध्यान में रखकर IBN7 ने बालिका वधू की आनंदी को स्क्रीन पर उतारा और दर्शकों को बताने की कोशिश की कि आनंदी प्रणव अंकल से क्या-क्या मांगेगे। आनंदी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा मैच्योरिटी दिखाने की कोशिश में पढ़ाई,शिक्षा के साथ-साथ स्पोर्टस की सुविधाओं की भी मांग की औऱ लॉजिक दिया कि तभी तो यहां के लोग भी ओलंपिक में ट्राफियां ला सकेंगे। टेलीविजन के औऱ पत्रकारों के मुकाबले पुण्य प्रसून वाजपेयी की जुबान पर आम आदमी,बुनायादी ढांचा,सामाजिक सरोकार और गरीब तबका जैसे साहित्य औऱ प्रिंट मीडिया के बीच के मिले-जुले शब्द ज्यादा रहते हैं। एक तरह से उनकी ब्रांडिंग भी इन्हीं सारे शब्दों के प्रयोग को लेकर हुई है इसलिए अब सुनना एक आदत सी हो गयी है। सुनकर कहीं से अटपटा नहीं लगता कि टेलीविजन का पत्रकार ऐसा बोलकर पाखंड क्यों रच रहा है औऱ न ही वरिष्ठ पत्रकारों की तरह सवाल करने का मन होता है कि क्या टेलीविजन के पत्रकारों को गरीबों,वंचितों औऱ शोषित लोगों पर बात करने का अधिकार है। पुण्य प्रसून के मामले में हम अभ्यस्त हो चले हैं कि वो चाहे जिस भी चैनल में हो सरोकार शब्द का प्रयोग करेंगे,ये अलग बात है कि वो संदर्भ के कितने माकूल होते हैं। लेकिन न्यूज24 पर जब इसी आम आदमी की स्टोरीलाइन पकड़कर बात शुरु होती है तोअंजना कश्यप और सईद अंसारी के भाषा प्रयोग से ये आम आदमी गांव में खाद औऱ बीज के लिए जुगत भिड़ाता आम आदमी न होकर शहर का वो आम आदमी हो जाता है जिसे कि कार औऱ फ्लैट के लिए लोन चुकाने हैं। वो आम आदमी है जो विदर्भ के किसानों की तरह आत्म हत्या तो नहीं करता लेकिन शहर में रहकर इन्सटॉलमेंट में मरता रहता है। यहां पर आपको आम आदमी को नए सिरे से डिफाइन करने की जरुरत पड़ जाती है। आपको फिर से समझना होता है कि आखिर आम आदमी में शामिल कौन-कौन से और किस वर्ग के लोग शामिल हैं। दरअसल कांग्रेस गठबंधन ने आम आदमी का प्रयोग करके इन न्यूज चैनलों के लिए आम आदमी नाम से एक ऐसा पिपरमिंट दे दिया जो कि हर समस्याग्रस्त नागरिक के साथ जोड़ा जा सकता है। देश का चाहे जो भी नागिरक हो अगर परेशानी में है तो चैनल उसके लिए आम आदमी का प्रयोग कर सकता है। लेकिन इसमें भारी गड़बड़ी हुई है कि हैसियत और सुविधा के स्तर पर जो वर्ग बंटे हैं और अब तक उसीक के अनुरुप लोगों को समझने की कोशिशें होती रही है,वो धारणा खत्म हो जाती है। क्या आम आदमी के बीच क्लासलेस सोसायटी इतनी आसानी से बननी है और संभव है। सच्चाई ये है कि इन चैनलों की ओर से आम आदमी शब्द के प्रयोग और फिर दिखायी जानवाली स्टोरी औऱ फुटेज पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि छोटे से छोटे और बड़े से बड़े वर्ग के बीच एक आम आदमी कम्युनिटी है। विश्लेषण की सुविधा के लिए चैनलों ने आम आदमी जैसे मुहावरे को तो हाथों-हाथ ले लिया,उसके कुछ नार्म्स पहचानकर छुट्टी पा ली लेकिन उसके सामने भी समवेत रुप से साफ नहीं है कि आम आदमी में आखिर किस-किस को शामिल किया जाए। इसकी बड़ी वजह है कि उनके विश्लेषण का आधार देश की सामाजिक संरचना न होकर सत्ता और राजनीति के गलियारों से निकलनेवालो जुमले और शब्द हैं। जिसे कि कई मीडिया विश्लेषक फील्ड की पत्रकारिता के खत्म होने के रुप में देखते हैं। यही हाल ग्रामीण लोगों के लिए खबर दिखाते,बताते और बनाने के संदर्भ में है। औऱ चैनलों की अपेक्षा जी न्यूज बजट को लेकर ग्रामीण लोगों के सरोकार की चर्चा ज्यादा होती रही। लेकिन कृषि प्रधान देश की पाठ आधारित समीक्षा अभी तक इस बात को समझने की क्षमता नहीं पैदा कर सकी है कि ग्रामीण का मतलब सिर्फ किसान नहीं होता। क्या गांव में बाजार नहीं होते, क्या गांव में निवेश नहीं होता, क्या गांव की सामाजिक संरचाना में तेजी से बदलाव नहीं आ रहे। सरकार जब खाद,बीज और कर्ज पर सब्सिडी और माफी की बात करती है,तब बात समझ में आती है कि उसे आगे के पांच साल का भविष्य पक्की करनी है लेकिन न्यूज चैनलों के लिए ये समझदारी कितनी खतरनाक है, इसे शायद ही समझने की कोशिशें की जा रही हो। ये सही है कि समय के अभाव में चीजों का बारीब विश्लेषण संभव नहीं है लेकिन एक ही चीज को लेकर रंटत न्यूज कल्चर के बीच थोड़ी गुंजाइश तो बनती है कि खबरों के साथ-साथ बदलती सामाजिक संरचना को तफसील से समझा जाए। आम आदमी की चिंता में स्टार न्यूज इस बात को सामने लाने की कोशिश करता है कि टैक्स पे करने की प्रणाली को इतना कॉम्प्लीकेटेड क्यों बनाया गया है। चालीस-चालीस पेज के रिटर्न पेपर क्यों भरने पड़ते हैं। दीपक चौरसिया के पास करीब डेढ़ हजार पेज की एक किताब है जो कि टैक्स से संबंधित है। उनका एक्सपर्ट से सीधा सवाल है कि ये कब कम होगा। एक्सपर्ट का जबाब है कि ये सब व्यूरोक्रेसी को बनाए रखने के लिए हैं, आम आदमी को परेशान करने के लिए है औऱ कुछ नहीं है। दिन के ग्यारह बजे प्रणव मुखर्जी को बजट पेश करनी है। इससे एक घंटे और शायद उससे भी पहले आजतक और स्टार न्यूज पर फ्लैश होता है- पूरी बजट देखिए हिन्दी में। हिन्दी में सुनिए बजट। ये भी आम आदमी या आम दर्शक के लिए है। चैनल्स को पहले से पता है कि बजट अग्रेजी में पेश किया जाना है। अब जो लोग रोज आजतक औऱ स्टार न्यूज जैसे हिन्दी चैनल देखते हैं,लाइव देखते हैं,आज लाइव लेकिन अंग्रेजी में आने पर कहां जाएंगे। इसलिए आम आदमी की सुविधा के लिए प्रणव मुखर्जी जो कुछ बी अंग्रेजी में बोलेंगे उसे चैनल हिन्दी में प्रसारित करेगा। अंग्रेजी में जिन आम दर्शकों के हाथ तंग हैं उनके लिए इससे ज्यादा औऱ क्या चाहिए। लेकिन जब स्टार,आजतक सहित जी न्यूज और इंडिया टीवी के इस प्रयोग को देखा तो लगा कि प्रणव मुखर्जी के भाषण के बीच चैनल के लोगों द्वारा हिन्दी किया जाना एक अनावश्यक आवाज है जिसकी कोई जरुरत नहीं। ये बजट देखने औऱ सुनने में खलल पैदा कर रहा है। एक तो घटिया अनुवाद औऱ दूसरा कि प्रणव के बीच-बीच में कूद जाना एक ऐसा महौल पैदा करने लगा जैसे कोई मेले का अनाउंनसमेंट हो। मेरी तरह कई लोग अंग्रेजी चैनलों या फिर IBN7 या न्यूज24 की तरफ स्विच कर गए होंगे। इससे बेहतर सीएनबीसी आवाज का मामला रहा जिससे प्रणव मुखर्जी की आवाज को म्यूट करके सिर्फ हिन्दी में बजट को पेश किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिन्दी न्यूज चैनलों ने अंग्रेजी की सामग्री को हिन्दी में इन्टरप्रेट करने का जो ट्रैंड शुरु किया है आगे ऑडियो क्वालिटी के साथ भाषा-समझ के स्तर पर अपने को सुधारेंगे। इन सबों बातों के साथ हिन्दी न्यूज चैनलों को इस बात की क्रेडिट मिलनी चाहिए कि वो बजट जैसे गरिष्ठ मसले को सामान्य बनाने की कोशिश में लगे होते हैं। वो उन प्रसंगों को उठाते हैं जिसे कि देख-सुनकर एक सामान्य नागरिक उसमें अपने संदर्भों को खोज सके। आर्थिक मसलों के प्रति रुचि पैदा करने में इन चैनलों के योगदान को नजरअंदाज नहीं कर सकते। नहीं तो अब तक होता यही आया है कि इसे केवल वही देखे और समझे जो सीधे-सीधे तौर पर इससे जुड़ा है औऱ इसे समझने के लिए या तो एनडीटीवी प्रॉफिट देखे या फिर सीएनबीसी आवाज। लेकिन अगर किसी को टेक्निकल टर्म की समझ नहीं है तो गाल पर हाथ धरकर चुपचाप सुनता रहे। भाषाई खिलंदड़ेपन के साथ इन न्यूज चैनलों ने एक हद तक बजट को इन्टरेस्टिंग औऱ बजट के प्रति इन्टरेस्ट तो जरुर पैदा किया है।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090706/621b3f35/attachment-0001.html From invite+mqknabaa at facebookmail.com Tue Jul 7 11:14:03 2009 From: invite+mqknabaa at facebookmail.com (Reyazul Haque) Date: Mon, 6 Jul 2009 22:44:03 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Take a look at my photos on Facebook Message-ID: <3371bf2d2a054907695fd96e4d1837c4@localhost.localdomain> Hi deewan at sarai.net, I set up a Facebook Profile where I can post my pictures, videos and events and I want to add you as a friend so you can see it. First, you need to join Facebook! Once you join, you can also create your own profile. Thanks, Reyazul To join Facebook, please follow the link below: http://www.facebook.com/p.php?i=681735923&k=Z51666W3S55OUEG1WEZ3YV&r deewan at sarai.net was invited to join Facebook by Reyazul Haque. 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090706/0e4575ff/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Jul 8 12:57:42 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 8 Jul 2009 12:57:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWH4KSy4KSX?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCkueClgeCkjyDgpIbgpLjgpL7gpLDgpL7gpK4s4KSu4KWA?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleCliyDgpJXgpLngpL4g4KSV4KWB4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+?= Message-ID: <829019b0907080027l78a0e5c0kec699f8b9a4337fb@mail.gmail.com> अब तक जिस मीडिया ने आसाराम को अपने जरिए लोगों के घर-घर तक पहुंचाने का काम किया,उनके संयम और प्रवचन की मार्केटिंग करते हुए,उनके नाम पर एक बड़ा बाजार पैदा करने में उनकी मदद की,आज वही मीडिया आसाराम की नजर में कुत्ता है। गुरु पूर्णिमा के मौके पर जब कि उनके हजारों भक्त गुरु वचन सुनने के लिए बेचैन होते रहे,संयमित जीवन औऱ जुबान रखने का पाठ सीखने आए,ऐसे मौके पर दुनियाभर के लोगों को संयम और संतुलन का पाठ पढ़ानेवाले आसाराम ने उनके सामने मीडिया को कुत्ता कहा। शायद वो समझ नहीं पा रहे हैं कि मीडिया के लिए वो जिस तरह की भाषा और जुबान का प्रयोग कर रहे हैं उसकी तासीर कैसी होगी और ये लोगों के बीच किस तरह का असर पैदा करेगा? उनके संयम औऱ संतई का जो लबादा जगह-जगह मसक रहा है उसके भीतर झांककर देखने की कोशिश में,मीडिया देश की ऑडिएंस के सामने किस एप्रोच के साथ पेश करेगा और ऑडिएंस उस पर किस तरह रिएक्ट करेगी,इसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं है। फेसबुक पर लिखी मेरी बात पर हरि जोशी ने कमेंट किया है कि -ऐसे बाबाओं को मालूम है कि उनके भक्त देख, सुन और समझ नहीं सकते। इस आधार पर मान लिया जा सकता है कि उनके खिलाफ जो भी चीजें निकलकर सामने आ रही है और आगे भी आने की संभावना बनी है और जो कुछ भी मीडिया के जरिए प्रसारित किया जा रहा है,उसका असर उनके भक्तों पर नहीं होगा। जैसा कि उनके भक्त लगातार कहते आ रहे हैं कि उनके पीछे मीडिया के लोग पड़ गए हैं और उन्हें फंसाने की जबरदस्ती कोशिश में लगे हैं। लेकिन अस्सी करोड़ से ज्यादा हिन्दू आबादी वाले इस देश में हर इंसान आसाराम का भक्त ही होगा,क्या ऐसी गारंटी कार्ड लेकर आसाराम की जुबान इतनी गैरजिम्मेदार होती चली जा रही है। क्या ऐसा वो उन शिष्यों के बूते कह रहे हैं जो कि अपनी दबंगई से न्यायिक फैसले को बाधित करने की कोशिश करेंगे,उन शिष्यों के भरोसे जहर उगल रहे हैं जो अपने हाथों से माला और छोला झटककर,अपनी सारी ताकत कैमरे को तोड़ने और चैनल के रिपोर्टरों को लहुलूहान करने में लगाते हैं,उनकी जुबान को बंद करने का कुचक्र रचते हैं। अगर वो ऐसा सोचते हैं जो कि व्यवहार के स्तर पर दिखता है तो संयम और दैवी आचरण का पाठ पढ़ते और पढ़ाते हुए देश के भीतर जो नस्ल तैयार हो रहा है,वो आसाराम की साधना पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करता है औऱ इसकी सफाई में बोलने के लिए कहीं कुछ नहीं बचता। दूसरी बात, अगर इस गारंटी कार्ड को ध्यान में रखते हुए भी ये मान लें कि सब उनके भक्त और शिष्य ही हैं(जो कि नहीं होनेवाले लोगों पर तोहमत लगाना होगा)तो क्या लाइ डिटेक्टर में जिस तरह से तीन शिष्यों ने आश्रम में काला जादू होने की बात कही है,उन शिष्यों की संख्या में इजाफा होने में बहुत वक्त लगेगा। इस बात की संभावना कोई जादुई यथार्थ के तहत नहीं की जा रही है,हम किसी भी तरह से उस दिशा में नहीं जा रहे हैं कि आसाराम के शिष्यों को सद् बुद्धि मिलेगी और वो मानवीयता का पक्ष लेते हुए आश्राम के भीतर अगर कुछ गड़बड़ हो रहा है तो उसे हमारे सामने रखने का काम करेंगे। हम आसाराम सहित देश के दूसरे किसी भी तथाकथित संतों का विरोध इस स्तर पर नहीं कर रहे हैं कि उनका नैतिक रुप से पतन होता जा रहा है, वो जिस मानवीयता और संयम का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं,जिस सादगी की शिक्षा देश औऱ दुनिया के लोगों को देते आ रहे हैं,व्यक्तिगत स्तर पर वो खुद बुरी तरह पिट चुके हैं। हम किसी तरह का कोई आरोप नहीं लगा रहे हैं कि बिना वातानुकूलित आसन के इऩसे सादगी का प्रवचन नहीं दिया जाता। ऐसा कहना किसी भी इंसान के लिए मानसिक रुप से कमजोर होने की स्थिति में कोसने भर का काम होगा औऱ फिलहाल देश की एक बड़ी आबादी इस स्थिति में नहीं आयी है। हम इन सबसे बिल्कुल अलग बात कर रहे हैं। आसाराम औऱ देश के बाकी दर्जनों तथाकथित संतों और महामानवों को लेकर श्रद्धा,भक्ति,विरोध या हिकारत पैदा करने के पहले इस बात को समझ लेना जरुरी है कि इनकी जो कुछ भी छवि हमारे सामने है वो पूरी तरह स्वयं उनके द्वारा निर्मित छवि नहीं है। इसे आप ये भी कह लीजिए कि साधना,आध्यात्म और ज्ञान के स्तर पर प्रसारित और विकसित छवि नहीं है। ये शुद्ध रुप से बाजार द्वारा पैदा की गयी छवि है,धार्मिक कर्मकांडों को रिवाइव करने की कोशिशों में इन महामानवों को स्टैब्लिश किया गया है। इस क्रम में मीडिया की भूमिका इस अर्थ में है कि ये महामानव क्या बोलते हैं औऱ वो कितना व्यावहारिक है जानने से ज्यादा जरुरी होता है कि कौन किस चैनल पर आ रहे हैं। चैनल पर देख-देखकर लोगों ने इन्हें बहुत बड़ा संत मानना शुरु किया है। क्योंकि टेलीविजन देखते वक्त ऑडिएंस के सामने एक आम धारणा बनती है कि किसी भी इंसान को अगर चैनल आधे घंटे या एक घंटे के प्रवचन के लिए बुलाता है तो जाहिर है उसमें कुछ न कुछ खास बात होगी। ये टेलीविजन की ताकत ही है जो कि आम को खास में कन्वर्ट करने का माद्दा रखता है। इसके साथ ही होता ये है कि जैसे-जैसे चैनल पर इन तथाकथित महानुभावों के आने की फ्रीक्वेंसी बढ़ती है,यानी रोज आने लगते हैं,एक निश्चित दर्शक वर्ग तैयार होने लग जाता है। ये दर्शक वर्ग इन महामानवों और संतों को न केवल उनकी बोली गयी बातों के आधार पर उन्हें पसंद करता है बल्कि उनके बोलने के अंदाज,बॉडी लैंग्वेज,एसेंट और स्क्रीन पर देखते हुए हुए आंखों को जो चीजें सुहाती है,उस आधार पर उसे पसंद करना शुरु करती है। चैनल पर आना किसी भी संत के लिए ब्रांडिंग का काम करता है। धीरे-धीरे ये दर्शक उनके भक्तों में कन्वर्ट होना शुरु करते हैं,लोगों के बीच उनकी साख जमती है और उनका नेटवर्क फैलता चला जाता है। अपनी साख के दम पर संत लाइव प्रवचन करने का काम शुरु करते हैं,जगह-जगह जाकर प्रवचन करना शुरु करते हैं। देश के हर शहर में दो-चार धन्ना सेठ मिल ही जाता है जो उनके लिए तमाम तरह की सुविधाओं का प्रबंध करता है। उसके बीच भी भाव यही होता है कि वो टीवी में आनेवाले संत के लिए इंतजाम कर रहा है। टीवी पर आने की ताकत संतों के साथ हमेशा जुड़ी रहती है। ये टीवी पर आने की ताकत ही है कि किसी संत या बाबा को सोशल कमंटेटर के तौर पर जाना-समझा जाने लगता है,हर मसले पर उनकी बाइट ली जाती है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि संतों के साथ मीडिया कर्म कितना बड़े स्तर पर जुड़ता है। प्रवचन एक मैनेजमेंट का हिस्सा बनता है और मीडिया मैनेजमेंट उसकी एक जरुरी कड़ी। यहां तक आते-आते संत की छवि,उनकी प्रसिद्धि और सामाजिक दबदबा काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वो मीडिया के साथ अपने को किस हद तक फ्रैंडली कर पाते हैं। आज आसाराम को लेकर टीवी चैनल्स और मीडिया ने जो भी रवैया अपनाया है,उसका आधार सिर्फ इतना नहीं है कि उनके आश्रम से बच्चे गायब हुए,वो लगातार जमीन विवादों में फंसते गए हैं,उनके नाम पर कई तरह की अनियमितताएं पायी गयी है। बल्कि इस सबके पीछे ठोस आधार है कि आसाराम मीडिया मैनेजमेंट के स्तर पर लगातार विफल होते जा रहे हैं। मीडिया ने जितनी विशाल छवि निर्मित की है,उसे वो संभाल नहीं पा रहे हैं। इसलिए आज फजीहत में पड़े आसाराम के लिए कोई जनशैलाव उमड़ पड़ता है तो इसे इस रुप में भी समझा जा सकता है कि आसाराम ने अपना मीडिया मैंनेजमेंट दुरुस्त कर लिया है। अगर उनके विरोध में देश की जनता खड़ी होती है तो इसका एक अर्थ ये भी है कि मीडिया के स्तर पर वो लगातार पिछड़ रहे हैं,यहां श्रद्धा के उपर छवि हावी हो रही है और कोई भी नहीं चाहेगा कि अपनी श्रद्धा टेलीविजन के हिसाब से बताए गए दागदार संत के आगे उड़ेल दे -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090708/ec646be7/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jul 9 17:31:16 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 9 Jul 2009 17:31:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOCkl+CksCDgpK7gpL7gpLDgpY3gpJXgpYfgpJ8g4KS1IOKAmA==?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSa4KWHLeCkpuClgC3gpLngpJ/gpY3gpJ/gpYDigJk=?= Message-ID: <6a32f8f0907090501j4221c925gca59ef3a03909204@mail.gmail.com> कमला नगर मार्केट व ‘चाचे-दी-हट्टी’ मुंबई में ‘बड़ा-पाव’ जितना लोकप्रिय व्यंजन है। दिल्ली में उतना ही छोला-भटूरा। बड़ी सहजता से हर चौराहे पर मिल जाता है। पर इसकी कुछ खास दुकानें भी हैं। जैसे- कमला नगर मार्केट में स्थित ‘चाचे-दी-हट्टी’ । छोला-भटूरा की ये दुकान जमाने से खूब लोकप्रिय है। सुबह नौ बजे के आसपास खुलती है और दोपहर दो बजे तक तुफानी अंदाज में चलती है। दुकान का पूरा नाम है, रावल पिण्डी वाले चाचे दी हट्टी। हालांकि, यह चाचे दी हट्टी के नाम से मशहूर है। इन दिनों दुकान की कमान कंवल किशोर संभाल रहे हैं। वे बताते हैं, “पाकिस्तान के रावल पिण्डी से यहां आने के बाद मेरे पिता प्राणनाथ ने इस दुकान की नींव रखी थी।” इस दुकान की रौनक दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैंपस से भी है। तमाम कोशिशों के बावजूद कंवल किशोर अपनी लोकप्रियता के बारे में कुछ कहने से बचना चाहते हैं। बस तारीफ सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देते है। विश्विद्यालय के एक प्राध्यापक ने बताया कि खाने-पीने के कई बेहतरीन साधन कैंपस में सुलभ हैं। फिर भी चाचे दी हट्टी के देशी ठाठ का अपना रूआब है। लड़के-लड़कियां वहां खाना पसंद करते हैं। मैं जब छात्र था तब जाता था, आज भी जाता हूं। हाल ही में वहां गया तो पुराने दिन याद आ गए। तब मामला पांच रुपये में निपट जाता था। अब तो 18 रुपये प्लेट छोले-भटुरे हैं। चलो अच्छा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090709/dbdf14ea/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Thu Jul 9 20:20:21 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 9 Jul 2009 20:20:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOCkl+CksCDgpK7gpL7gpLDgpY3gpJXgpYfgpJ8g4KS1IOKAmA==?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSa4KWHLeCkpuClgC3gpLngpJ/gpY3gpJ/gpYDigJk=?= In-Reply-To: <6a32f8f0907090501j4221c925gca59ef3a03909204@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0907090501j4221c925gca59ef3a03909204@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540907090750w33832feeg1e51e5e3be5de14b@mail.gmail.com> जी ब्रजेशजी, खानपान की इन अनेकानेक हट्टियॉं स्‍थानीय इतिहास में अपनी अलग भूमिका रखती हैं। चाचे दी हट्टी पर एक पोस्‍ट लिखी थी चाहें तो इधर नजर डालें http://masijeevi.blogspot.com/2009/01/blog-post_07.html विजेंद्र 2009/7/9 brajesh kumar jha > कमला नगर मार्केट व ‘चाचे-दी-हट्टी’ > > > > मुंबई में ‘बड़ा-पाव’ जितना लोकप्रिय व्यंजन है। दिल्ली में उतना ही > छोला-भटूरा। बड़ी सहजता से हर चौराहे पर मिल जाता है। पर इसकी कुछ खास दुकानें > भी हैं। जैसे- कमला नगर मार्केट में स्थित ‘चाचे-दी-हट्टी’ । > > > > छोला-भटूरा की ये दुकान जमाने से खूब लोकप्रिय है। सुबह नौ बजे के आसपास खुलती > है और दोपहर दो बजे तक तुफानी अंदाज में चलती है। दुकान का पूरा नाम है, रावल > पिण्डी वाले चाचे दी हट्टी। हालांकि, यह चाचे दी हट्टी के नाम से मशहूर है। इन > दिनों दुकान की कमान कंवल किशोर संभाल रहे हैं। वे बताते हैं, “पाकिस्तान के > रावल पिण्डी से यहां आने के बाद मेरे पिता प्राणनाथ ने इस दुकान की नींव रखी > थी।” > > > > इस दुकान की रौनक दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैंपस से भी है। तमाम कोशिशों > के बावजूद कंवल किशोर अपनी लोकप्रियता के बारे में कुछ कहने से बचना चाहते हैं। > बस तारीफ सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देते है। विश्विद्यालय के एक प्राध्यापक ने > बताया कि खाने-पीने के कई बेहतरीन साधन कैंपस में सुलभ हैं। फिर भी चाचे दी > हट्टी के देशी ठाठ का अपना रूआब है। लड़के-लड़कियां वहां खाना पसंद करते हैं। > मैं जब छात्र था तब जाता था, आज भी जाता हूं। > > > > हाल ही में वहां गया तो पुराने दिन याद आ गए। तब मामला पांच रुपये में निपट > जाता था। अब तो 18 रुपये प्लेट छोले-भटुरे हैं। चलो अच्छा है। > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090709/0869f79a/attachment.html From water.community at gmail.com Fri Jul 10 10:23:43 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 10 Jul 2009 10:23:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSh4KWJLiDgpJzgpYDgpKHgpYAg4KSF4KSX4KWN4KSw4KS14KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleCkviA1IOCkheCkl+CkuOCljeCkpCAyMDA5IOCkuOClhyDgpIY=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KSjIOCkheCkqOCktuCkqA==?= Message-ID: <8b2ca7430907092153u338f4e00x83584aded4b90427@mail.gmail.com> *खास खबर* *डॉ. जीडी अग्रवाल 5 अगस्त 2009 से फिर आमरण अनशन पर * मुज़फ्फरनगर 7 जुलाई, 09। *उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने अपने **19 **जून**, 2008 **के आदेश में अपनी भैरों घाटी तथा पाला-मनेरी जल-ऊर्जा परियोजनाओं पर तात्कालिक प्रभाव से कार्य रोक देने की और गंगोत्री से उत्तरकाशी तक भागीरथी गंगा जी के संरक्षण के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता की बात कही थी पर योजनाओं पर (विशेषतया पाला-मनेरी परियोजना पर) विनाशकारी कार्य भयावह गति पकड़ रहे हैं और उक्त आदेश कोरी धोखाधडी का रुप ले माँ गंगा जी की और हमारी खिल्ली उड़ा रहे हैं।** * * Read More * Field Story- Water war Read how social initiative paves the way for development Dry Water Bodies in Aligarh Reports- Water For People on Aila Status of water in Jaipur Global warming affecting oceans Hyper temperature, sinking Islands NREGS Updates- Guideline What is NREGS Field stories on NREGS Upcoming Events Course on Water & Environment for Media & NGOs- NWA Malwa Jal Samvardhan Yatra Job/Vacancy- Water & Environment Specialist(Emergency)- UNICEF Interviews- Director of IWMI Bindeshwar Pathak You need water advice- click here NREGS Partner organization share their info & experience To contribute your articles contact us- hindi at indiawaterportal.org water.community at gmail.com -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090710/398da0ba/attachment-0001.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Fri Jul 10 10:23:43 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 10 Jul 2009 10:23:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSh4KWJLiDgpJzgpYDgpKHgpYAg4KSF4KSX4KWN4KSw4KS14KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleCkviA1IOCkheCkl+CkuOCljeCkpCAyMDA5IOCkuOClhyDgpIY=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KSjIOCkheCkqOCktuCkqA==?= Message-ID: <8b2ca7430907092153u338f4e00x83584aded4b90427@mail.gmail.com> *खास खबर* *डॉ. जीडी अग्रवाल 5 अगस्त 2009 से फिर आमरण अनशन पर * मुज़फ्फरनगर 7 जुलाई, 09। *उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने अपने **19 **जून**, 2008 **के आदेश में अपनी भैरों घाटी तथा पाला-मनेरी जल-ऊर्जा परियोजनाओं पर तात्कालिक प्रभाव से कार्य रोक देने की और गंगोत्री से उत्तरकाशी तक भागीरथी गंगा जी के संरक्षण के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता की बात कही थी पर योजनाओं पर (विशेषतया पाला-मनेरी परियोजना पर) विनाशकारी कार्य भयावह गति पकड़ रहे हैं और उक्त आदेश कोरी धोखाधडी का रुप ले माँ गंगा जी की और हमारी खिल्ली उड़ा रहे हैं।** * * Read More * Field Story- Water war Read how social initiative paves the way for development Dry Water Bodies in Aligarh Reports- Water For People on Aila Status of water in Jaipur Global warming affecting oceans Hyper temperature, sinking Islands NREGS Updates- Guideline What is NREGS Field stories on NREGS Upcoming Events Course on Water & Environment for Media & NGOs- NWA Malwa Jal Samvardhan Yatra Job/Vacancy- Water & Environment Specialist(Emergency)- UNICEF Interviews- Director of IWMI Bindeshwar Pathak You need water advice- click here NREGS Partner organization share their info & experience To contribute your articles contact us- hindi at indiawaterportal.org water.community at gmail.com -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090710/398da0ba/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From vineetdu at gmail.com Sat Jul 11 12:26:09 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 11 Jul 2009 12:26:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KWH4KS44KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSVIOCkleClgCDgpKbgpYvgpLjgpY3gpKTgpYAg4KSu4KWH4KSC?= =?utf-8?b?IOCkhuCkluCkv+CksCDgpLDgpJbgpL4g4KSV4KWN4KSv4KS+IOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIID8=?= Message-ID: <829019b0907102356s1458286bx40d6ba934c857957@mail.gmail.com> फेसबुक के मामले में बात करते हुए देश के एक मशहूर टेलीविजन पत्रकार ने मुझसे कहा-मेरे ट्रेनी और इन्टर्न माइ फ्रैंड में करन जोहर को दोस्त बनाए हुए हैं। अब मैं ही उनसे महीने-दो महीने में बात करता हूं तो तुम सोचो कि करन जोहर से उसकी कितनी बात होती होगी..सब ऐसे ही हैं। होता ये है कि इंसान में इतनी सॉफ्टनेस तो होती ही है कि जब आप फ्रैंड रिक्वेस्ट भेजो तो वो एक्सेप्ट कर लेता है,उसका जाता ही क्या है,बस कन्फर्म पर क्लिक ही तो करनी होती है। नहीं तो फेसबुक की इस दोस्ती में रखा क्या है? फेसबुक में नामचीन हस्तियों की ओर से अपनी फ्रैंड रिक्वेस्ट स्वीकार लिए जाने पर जो लोग इधर-उधर इतराते फिरते हैं, फुलकर कुप्पा हो जाते हैं,उनके उपर इससे शायद ही कोई बड़ा व्यंग्य हो। दोस्ती-यारी में यही बात हम अपने बीच इतराने वाले लोगों को कहते तो या तो मुंह फुला लेता,हमें दुनियाभर की दलीलें देता,खुन्नस खा जाता या फिर ये भी दावा करता कि ऐसे थोड़े ही देस्ती कर लिए हैं,पर्सनली जानते हैं हमको। फेसबुक क्या, जीके उऩके घर जाकर खाना भी खाए हैं हम। गोरगांव से जब भी यहां आते हैं तो हमको जरुर फोन करते हैं। इस मामले में आप कह सकते हैं कि नामचीन हस्तियों के साथ अपने नाम जुड़ने की छटपटाहट और उस दम पर अपनी औकात बताने की बेचैनी हमें फेसबुक पर उन लोगों से जुड़ने के लिए उकसाती है जो कि एक बार रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लेने के बाद आपकी तरफ ताकते तक नहीं हैं। आप उन्हें ऑनलाइन देखते हैं,आपका मन करता है कि उन्हें छेड़ें,उनसे पूछे कि सर आप कैसे हैं। अभी दो शब्द टाइप करते हैं कि आपकी उंगलियां रुक जाती है-कहीं वो बुरा न मान जाएं,कहीं हमें हटा न दें,हमें चेप न समझ लें। फेसबुक की दोस्ती को लेकर टेलीविजन पत्रकार ने जो कुछ भी कहा उस संबंध मैंने सिर्फ इतना ही कहा- इसलिए सर,मैं अपने फेसबुक पर केवल उन्हीं लोगों को शामिल करता हूं जिनको या तो मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं,जिनसे मेरी पहले कई बार बात हो चुकी है,जो किसी मोड़ पर आकर भूल गए औऱ अब फिर से यहां मिल गए,ऐसे लोगों को रिक्वेस्ट भेजता हूं जो मेरी पहुंच के हैं और जिनसे मंडी हाउस,मीरी रोड या मुंबई चौपाटी पर बात हो सकती है। ऐसे किसी लोगों से फेसबुक पर नहीं जुड़ता जो नाम को लेकर बहुत बड़े हैं लेकिन जिनसे मेरा कोई सरोकार नहीं रहा है या फिर लिखने-पढ़ने और शेयरिंग के स्तर पर कोई कोई साबका नहीं पड़ सकता है। सच पूछिए तो व्यक्तिगत स्तर पर फेसबुक मेरे लिए नए-नए दोस्त बनाने से कहीं ज्यादा पुराने दोस्तों को खोजने की जगह ज्यादा है। वो दोस्त जो एम.ए के दौरान हमेशा हमारे संभावित अफेयर के बीच मठ्ठा डालने का काम करता रहा, वो दोस्त जो डिवेट जीतने पर बीस प्रतिशत की कमीशन के लिए सिर पर सवार हो जाता,वो दोस्त जो कभी भी मेरे बारे में पूछनेवाली लड़कियों को सही-सही नहीं बताता कि मैं कहां हूं। ये अलग बात है कि मेरे पूछने पर कि वो कहां गयी,कहता पहले प्रॉमिस करो कि हंसराज वाली से मेरे बारे में बात करोगे। उन दोस्तों को खोजने के लिए फेसबुक का इस्तेमाल करता हूं जो चैनल की नौकरी करने के दौरान बॉस औऱ प्रोड्यूसरों की मां-बहन एक साथ सुनी। पैसे और लड़कियों के बीच इज्जत बचाने के लिए शाम के चार बजे(जबकि लंचटाइम खत्म हो जाता,वीडियोकॉन टॉवर के ठीक नीचे के ढाबे में साथ खाते। उन दोस्तों को याद करने के लिए जिनके साथ तीन स्क्रिप्ट लिखने के बाद पंडीजी की दूकान पर सुनियोजित तरीके से गरियाने पहुंचते। इस बीच साथ काम करनेवाली लड़की पूछती-कोई पूछेगा कि कहां गए हो तुम औऱ राणा तो क्या कहूंगी तो क्या कहूंगी। मैं कहता- कह देना भड़ास निकालने गया है। शुरुआती दौर में चैनलों में नौकरी करते हुए खाने-पीने और छुट्टी से भी सबसे ज्यादा किसी चीज की जरुरत होती है तो वो है भड़ास निकालने की। मैं तो दो-तीन स्टोरी के बाद पन्द्रह मिनट के लिए ही सही भड़ास न निकाल लूं तो आगे का काम ही नहीं होता। कई लोगों की जरुरत एक लत बन जाती है जिसे कि फ्रस्टू समझा जाने लग जाते है। आज मैं उस राणा और उस लड़की को खोजने के लिए फेसबुक पर आता हूं। वो लड़की जो वैसे दिनभर में तीन-चार बार बैग लेकर उठती तो मैं हर बार पूछता-घर जा रही हो क्या औऱ वो झल्ला जाती- नहीं,घर नहीं जा रही,यार तुम बहुत ही कमीने हो,जब जानते हो फिर भी पूछते हो,बड़े बेशर्म हो। आज फेसबुक पर उस लड़की को खोजता हूं जो खुद होटल अशोका से मैंगो फेस्ट में आम खाकर आती और उसकी स्क्रिप्ट लिखते हुए,स्वाद को बताने के लिए हिन्दी में शब्द खोजने पड़ते,वो लड़की जो सेटिंग से बाय-बाय करती हुई अपने ब्ऑयफ्रैंड के साथ हाथ हिलाती हुई निकल जाती और कहती- विनीत जरा देख लियो। इस छोटी-सी जिंदगी में इतने सारे लोग,इतनी सारी यादें हैं कि उन सबको याद करने लग जाओ,उन्हें खोजने लग जाओ तो लगेगा कि फेसबुक तो बड़ी कमतर चीज है। काश कोई ऐसी चीज होती जिसके सर्च बॉक्स में जाते और नाम के साथ संदर्भ और यादों को लिखते,कुछ इस तरह- हिन्दू कॉलेज कैंटीन की याद,झंडेवालान में समोसे का खोंमचा औऱ तभी धड़धड़ाकर रिम्मी, जसलीन, प्रियंका, दीपा, राणा,शंभू,रंजन,नागिन,विजयालक्ष्मी,रावण, अबू सलेम सबों के लिंक,स्टेटस औऱ मेल आइडी निकल आते। लेकिन फेसबुक पर ऐसा कुछ नहीं होता। अब बताइए,अगर इस तरह की कल्पना करें तो फेसबुक है कोई बड़ी चीजे,नहीं न। फिर भी फेसबुक पर लोग-बाग मार किए जा रहे हैं। जीमेल खोलो तो टोकरी के भाव मेल पड़े होते हैं। फलां हैज ऑलसो कमेंटेड ऑन फलां,एक्स हैज कमेंटेड ऑन योर स्टेटस। शुरु-शुरु में तो मैं खोलकर पढ़ता था कि देखें किस पर किसने क्या कमेंट किया है। लेकिन अब स्थिति दूसरी है। जिस फलां पर कमेंट किया है चलो उसे तो मैं जानता हूं लेकिन जिसने किया है,उससे मेरा कोई मतलब नहीं है। अब क्यों पढूं,ऐसे दर्जनों कमेंट को जिससे ये पता करना मुश्किल हो जाए कि अपनी किस पुरानी दोस्ती औऱ संदर्भ को याद करके दोनों कमेंट-कमेंट खेल रहे हैं। आपको बहुत बेकार लगेगा ऐसे में। कई बार होता है कि आप किसी से मिलने जाते हैं। आप आपका दोस्त औऱ एक औऱ आपका दोस्त। अब स्थिति ये बनती है कि वो दोनों आपस में हांके जा रहे हैं औऱ आपको है कि बातचीत का सिर-पैर ही समझ नहीं आ रहा। ऐसी स्थिति में लगेगा कि आसपास से सांस लेने के लिए हवा गुजरनी बंद हो गयी है। मेरी मां इसके लिए उठल्लू शब्द का प्रयोग करती है। इसे आप उल्लू भी समझ सकते हैं। आप सोचिए,ऐसे कमेंट औऱ मेल को पढ़-पढ़कर क्यों उल्लू या उठल्लू बनने जाए। इन दिनों फेसबुक को जिस रुप में लिया जा रहा है वो तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है बताने से ज्यादा,दोस्ती के नाम पर किसी के वॉल पर कुछ लिख आने से ज्यादा ब्लॉग के विकल्प के रुप में इसे पॉपुलर करने में है। समय की कमी,पोस्ट न लिखने का आलस फेसबुक को अधिक पॉपुलर बना रहे हैं। जिस किसी को भी चर्चा में बने रहने की,अपना नाम लोगों के दिमाग में डाले रखने की आदत बन गयी है वो इन दोनों वजहों के होने के बावजूद नाम को लेकर कॉन्शस तो रहेगा ही। फेसबुक से बेहतर और अब ट्विटर से आसान कोई दूसरा माध्यम नहीं है। पूरी पोस्ट नहीं लिखना चाहते,कोई बात नहीं जो क्रक्स है उसे ही दो लाइन में लिख दो। बाकी उस पर चर्चा शुरु हो जाएगी। किसी भी मसले को लेकर यहां महौल बनाए जा सकते हैं औऱ उसका बतौर रेफरेंस इस्तेमाल किया जा सकता है जैसा कि रवीश कुमार ने एनडीटीवी इंडिया की स्टोरी के लिए किया भी और फेसबुक के लोगों का शुक्रिया भी अदा किया। फेसबुक की इस दो लाइन में भी आपको ब्लॉग करने का सुख मिलेगा। टीवी पत्रकार से बातचीत करने के बाद मैंने अपने फेसबुक दोस्तों की लिस्ट पर एक बार फिर से गौर किया। लगभग सबों को किसी न किसी रुप में बातचीत की। कुछ के लिए स्क्रैप भेजे। चार-पांच दिन तक इंतजार किया औऱ उधर से किसी तरह का कोई जबाब न मिलने की स्थिति में उन्हें डिलीट करता गया। आंकड़े कमजोर तो होते चले गए लेकिन भीतर से भरा-भरा महसूस कर रहा हूं कि अब फेसबुक पर जो भी लोग हैं,उन्हें मैं कह सकता हूं कि मैं उन्हें जानता हूं,मेरी उनसे बात होती रहती है और वो मेरे ऐसे दोस्त हैं जिनसे मैं अपने मन की बात कर सकता हूं। अक्लमंद आदमी कह सकता है कि- क्यों डिलीट कर दिया तुमने बहुत सारे लोगों के नाम को,कुछ नहीं तो तुम्हारे स्टेटस पर कमेंट करने के काम आते। देखकर अच्छा लगता कि इतने सारे लोगों ने कमेंट किए हैं। नहीं भई,मेरे पास अभी समय की कमी नहीं पड़ी है,मैं ब्लॉग लिखकर ही खुश हूं और मुझमे इतनी ताकत कहां है कि दोस्ती करने आए लोगों से कहूं- ले लीजिए न आप मेरी एक पॉलिसी,उसके लिए कलेजा चाहिए।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090711/76860bac/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jul 11 15:49:53 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 11 Jul 2009 15:49:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS/4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWA4KSo4KWAIOCknOCkqC3gpLjgpILgpJjgpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KS34KWL4KSCIOCkleClhyDgpJXgpLXgpL8g4KSu4KS54KSu4KWC4KSm?= =?utf-8?b?IOCkpuCksOCkteClgOCkuCDgpJXgpYAg4KSV4KS14KS/4KSk4KS+Oi0=?= Message-ID: <196167b80907110319v15841152lb913013a9a067336@mail.gmail.com> फिलिस्तीनी जन-संघर्षों के कवि महमूद दरवीस की कविता:- लिखो कि मैं एक अरब हूँ मेरा कार्ड न. ५०,००० है मेरे आठ बच्चे हैं नौवा अगली गर्मी में होने जा रहा है नाराज तो नहीं हो? लिखो कि मैं एक अरब हूँ अपने साथियों के साथ पत्थर तोड़ता हूँ पत्थर को निचोड़ देता हूँ रोटी के एक टुकडे़ के लिये एक किताब के लिये अपने आठ बच्चों के खातिर पर मैं भीख नहीं माँगता और नाक नहीं रगड़ता तुम्हारी ताबेदारी में नाराज तो नहीं हो? लिखो कि मैं एक अरब हूँ सिर्फ एक नाम, बगैर किसी अधिकार के इस उन्माद धरती पर अटल मेरी जडें गहरी गई हैं युगों तक समयातीत हैं वे मैं हल चलाने वाले किसान का बेटा हूँ घास-फूस की झोपडी़ में रहता हूँ मेरे बाल गहरे काले हैं आँखें भूरी माथे पर अरबी पगडी़ पहनता हूँ हथेकियाँ फटी-फटी है तेल और अजवाइन से नहाना पसंद करता हूँ मेहरबानी कर के सबसे ऊपर लिखो कि मुझे किसी से नफरत नहीं है मैं किसी को लूटता नहीं हूँ लेकिन जब भूखा होता हूँ अपने लूटने वालों को नोचकर खा जाता हूँ खबरदार मेरी भूख से खबरदार मेरे क्रोध से खबरदार॥ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090711/2953a5f5/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Jul 12 01:09:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 12 Jul 2009 01:09:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSq4KS/4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCkv+CkrOCljeCkrOCksiDgpJXgpYAg4KSs4KS+4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwLOCkrOCkv+Ckq+CksOCkv+CkjyDgpK7gpKQg4KSV4KWB4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSoIOCkheCksuClgA==?= Message-ID: <829019b0907111239w457d024ev9486df01cfa613e9@mail.gmail.com> आज शाम,पत्रकार स्व.उदयन शर्मा की याद में हुए कार्यक्रम में कपिल सिब्बल की ओर से दिए गए बयान के बाद से पत्रकारों के बीच जबरदस्त बौखलाहट औऱ मलाल है। *कुर्बान अली* के शब्दों में - आज हमारी हालत ये हो गयी है कपिल सिब्बल आता है और हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए ये कहकर निकल जाता है कि आप कुछ भी छापते रहिए हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम शर्मिंदा होने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। आज की संगोष्ठी में *कपिल सिब्बल* और *आशुतोष,IBN7*की ओर से अपनी बात रखने के बाद जिस तरह का बवाल मचा उसे देखते,पढ़ते हुए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज की मीडिया को लेकर लोगों के बीच किस हद तक की झल्लाहट है। लिहाजा *आशुतोष* को अपनी बात अधूरी छोड़कर ही वापस बैठ जाना पड़ा। सोचिए ये स्थिति तब है जबकि दर्शक दीर्घा में किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े लोग मौजूद रहे। यही बात अगर आम टेलीविजन दर्शकों और अखबार के पाठकों के बीच होती तो क्या नौबत होती। यहां आकर नामचीन पत्रकारों को ये खुशफहमी छोड़नी होगी कि वो जहां भी जाएंगें लोग उनसे एक नजर देख लेने भर के लिए आएंगे। मीडिया के स्टूडेंट ऑटोग्राफ के लिए मिलने आएंगे,उनसे उनका इमेल आइडी मांगेगें। सच्चाई ये है कि समाज के बीच तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो मीडिया से जुड़े लोगों से हिसाब मांगने के मूड में है,आमने-सामने टकराने की तैयारी में है। सुनिए सुनिए,मेरी बात भी सुनिए कहता रहा दो-तीन चैनलों का नाम लेते वक्त लोग जिस तरह से दांत पीसते हैं,यकीन मानिए अगर उनसे जुड़े लोग मिल जाएं तो पता नहीं उनके साथ क्या करेंगे। मुझे याद है पिछले साल जब हमने सफर के साथ तीन दिनों का मीडिया वर्कशॉप कराया और टेलीविजन रिपोर्टिंग की वर्कशॉप के लिए सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल के पत्रकार को बुलाया तो दिल्ली के अलग-अलग संस्थानों से आए बच्चों ने उनकी बात सुनने के बजाय एक-एक करके इतने सवाल दाग दिए कि वो सिर्फ सुनिए,सुनिए मेरी बात भी तो सुनिए। इसे एक हद तक की बदतमीजी भी कह सकते हैं औऱ बच्चे जो कुछ भी पूछ रहे थे उसे सवाल न कहकर आप भड़ास निकालना कह सकते हैं। अंत में बीच-बचाव करते हुए मुझे कहना पड़ा कि-आपलोगों को इनके साथ इस तरह की बदतमीजी करने का अधिकार नहीं है,ये तो बस चैनल के लिए काम करते हैं, अगर आपको वाकई इन सवालों के जबाब चाहिए तो आप चैनल हेड से समय लीजिए औऱ उनके सामने अपनी बात रखिए. लेकिन इन सब बातों के वाबजूद पल्ला झाड़ते हुए खम ठोककर मीडिया को गरियाने के साथ ही आउटपुट के स्तर पर क्या निकलकर आता है? विश्वविद्यालय और मीडिया संस्थानों में जो लोग भी मीडिया पढ़ा रहे हैं उन्हें बच्चों की ओर से सवाल दागने का ये अंदाज शायद बहुत पसंद आए। अपनी पढ़ायी गयी चीजों को लेकर सुकून हो कि जो और जिस एप्रोच से उन्होंने बच्चों को पत्रकारिता पढ़ाया,वो ठीक उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। वो इत्मिनान कर सकते हैं कि आनेवाले समय में ये बच्चे संतई पत्रकारिता करेंगे औऱ फिर से पत्रकारिता का स्वर्णिम युग आएगा। वर्कशॉप खत्म होने के बाद कुछ टीचरों ने कहा भी कि इन बच्चों के सामने क्या टिकेगें टीवीवाले? आज सही धोया इनको बच्चों ने। सच मानिए इस सीन को देखते हुए मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल आया-तो फिर क्यों साल -दो- साल बाद ये बच्चे अपने मीडिया गुरुओं के बारे में कहते फिरते हैं-जिंदगी बर्बाद करते है भइया, मीडिया के नाम पर ऐसा पढ़ाया कि जिसकी इन्डस्ट्री में कोई जरुरत ही नहीं है। सब फालतू औऱ कोरे आदर्श से लदी-फदी बातें। हर साल देशभर में करीब दो हजार भारतेन्दु औऱ गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोगों लोगों की पत्रकारिता से प्रभावित होकर पत्रकारिता करने निकले बच्चे क्यों नहीं कुछ बदलाव कर पाते हैं। जाहिर है,संस्थान से बाहर आकर जिन परिस्थितियों औऱ शर्तों पर उन्हें काम करना पड़ता है,वो मीडिया गुरुओं की बातों से मेल नहीं खाती। वो न तो व्यावहारिक ही हुआ करती है औऱ न ही उनमें एप्रोच के स्तर पर समय के साथ-साथ बदलाव आने की गुंजाइश। नतीजा ये होता है कि संस्थान की पत्रकारिता औऱ गुरुओं के पत्रकारिता पाठ उसके लिए दो पाट बनते हैं जिनके बीच की स्थितियों के बीच वो लगातार डूबता-उतरता रहता है। मीडिया कोर्स के दौरान गुरु किसी भी रुप में बाजार, आर्थिक नीतियां औऱ दबाव औऱ विज्ञापन जैसे शब्द को स्टूडेंट के आसपास फटकने ही नहीं देते। अगर आ भी जाए तो उसके लिए पहले से ही बाजारवाद, अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद जैसे शब्द पहले से तैयार रखते हैं जो कि उनके हिसाब से पत्रकारिता के अंदर जहर घोलने का काम करते हैं। दूसरी तरफ पुराने पत्रकार जिन्होंने कि कभी बड़े घरानों से निकलनेवाले अखबारों औऱ पत्र-पत्रिकाओं के लिए कम पैसे में ही सही (उनके हिसाब से) लेकिन इत्मिनान की पत्रकारिता की है,सेमिनारों में उनका सारा जोर सिर्फ इस बात पर होता है कि वो आज के पत्रकारों खासकर टेलीविजन पत्रकारों को फूहड़,गैर-जिम्मेदार और पैसे के पीछे भागनेवाले पत्रकार साबित करने में होता है। अभी करीब पन्द्रह दिन पहले एस.पी.सिंह की याद में हुई संगोष्ठी में बुजुर्ग पत्रकार *उमेश जोशी* ने कहा कि - "उन्हें आज के पत्रकारों कहने में को पत्रकार कहने में शर्म शर्म आती है । एक-एक पत्रकार पचास लाख औऱ करोड़ रुपये की कोठी खरीद रहा है।" वो पानी पी-पीकर आज के पत्रकारों को गाली देते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह से गरियाने का आधार सिर्फ इसलिए बनता है कि आज का पत्रकार सम्पन्न हो रहा है। हमारे भीतर ऐसा कौन-सा माइंड सेट बन गया है कि हम पत्रकार औऱ साहित्यकार को सम्पन्न होना बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरी बात कि अगर बुजुर्ग पत्रकारों से मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता का नेतृत्व छिनता चला जा रहा है तो इसकी वजह उनका बुजुर्ग होना भर है या फिर बाजार की ताकतों को नहीं समझ पाने की उनकी कमजोरी है। मीडिया संस्थान अगर ये समझ पा रही है कि अगर मीडिया को चलाने के लिए बाजार को शामिल करना अनिवार्य है और उसके मिजाज से यंग जेनरेशन के ही पत्रकार काम लायक हो सकते हैं तो फिर बुजुर्ग पत्रकारों को लेकर कोई क्यों रिस्क उठाए। दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों। दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों। बिकी हुई पत्रकारिता के बीच क्या बुजुर्ग पत्रकार कोई ऐसी मिसाल हमारे सामने रखते हों जिससे कि भारतेन्दु युग की पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर निकला यूथ सीधे उनसे जुड़े। सिर्फ संपादकीय पन्नों पर लिखते रहने से बदलाव की गुंजाइश नहीं बन पाती। किसी ने किसी जमाने में रिस्क लेकर पत्रकारिता की लेकिन वर्तमान में प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें नए-नए मिसाल बनाते रहने की जरुरत होती है। आज जरुरत इस बात की है कि बुजुर्ग पत्रकारों की ओऱ से वो सारे मंच तैयार किए जाएं जो बाजार की कठपुतली हुए बगैर पत्रकारिता कर सकें। तब देखिए कितने नए पत्रकार उनके साथ-साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई तो ये है कि सादगी के नाम पर पत्रिका का एक अंक निकाला नहीं कि मध्यप्रदेश और शास्त्री भवन के चक्कर लगाने लग गए। अब बात रही कपिल सिब्बल के बयान और उस पर कुर्बान अली के बेचैन होने की तो मैं नहीं जानता कि कपिल सिब्बल ने इतना गैरजिम्मेदाराना बयान क्यों दिया? लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे कपिल सिब्बल हों या फिर देश के कोई भी दूसरे नेता,उन्हें हमारे लिखे एक-एक शब्द का,बोली गयी एक-एक बात का फर्क पड़ता है। नहीं तो मामूली अखबारों और पत्रिकाओं जिसे कि आम बोलचाल की भाषा में अंडू-झंडू कहते हैं,उनके लोग उनकी कतरनें जुटाते फिरते। लाख कह लीजिए कि बाजार के हाथों मीडिया बिक चुकी है लेकिन लोग उसकी ताकत को अब भी समझते हैं। कपिल सिब्बल अभी हौसले में हैं,कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन आप औऱ हम सच को समझते हैं। इसलिए कुर्बान अली जिस अंदाज में इस पर रिएक्ट कर रहे हैं उससे साफ जाहिर होता है कि वो नए जेनरेशन के पत्रकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि आपने हमारा नाम डुबा दिया। उन्हें चाहिए कि कपिल सिब्बल की बात पर स्यापा करने के बजाय उनकी पॉलिटिक्स को समझें,ऐसा कहकर पत्रकारों का मनोबल तोड़ने का जो काम उन्होंने किया है,उसे मजबूत करें -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090712/2de9be04/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Sun Jul 12 11:25:11 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 12 Jul 2009 11:25:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Mzgg4KSy4KS+4KSW?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkqOCljeKAjeCkpuClgCDgpKrgpYPgpLfgpY3igI3gpKAg?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSf4KSw4KSo4KWH4KSfIOCkquCksA==?= Message-ID: <8bdde4540907112255v575ebb72o563a8319848b937b@mail.gmail.com> 38 लाख हिन्‍दी पृष्‍ठ इंटरनेट पर हाल में मेरे हाथ एक खजाना लगा है जिसे मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ। चौदह हजार एक सौ बाइस पुस्‍तकों के अड़तीस लाख छत्‍तीस हजार पॉंच सौ बत्‍तीस पृष्‍ठ..... हिन्‍दी के पृष्‍ठ । बेशक ये एक खजाना है जो हम सभी को उपलब्‍ध है एकदम मुफ्त। बस क्लिक भर की दूरी पर। और ये किताबें सब कूड़ा नहीं है वरन खूब काम की दर्लभ किताबें तक इसमें शामिल हैं मसलन 1935 की श्री गणेश प्रसाद द्विवेदी की इस किताब को देखें- [image: image] या चोखेरबालियों को उमंग से भर देने के लिए 1921 की इस किताब को देखें-[image: image] पुरानी किताबों में से फिलहाल मुझे 'टू ईयर्स बिफोर द मास्‍ट' का हिंदी अनुवाद काफी रुचिकर लग रही है, पुस्‍तक 1840 की है पर अनुवाद कब का हे ये पता नहीं चल पा रहा [image: image] केवल पुरानी ही नही नई पुस्‍तकें भी यहॉं उपलब्‍ध है मसलन हिन्‍दी में पहली कक्षा की गणित की इस पाठ्यपुस्‍तक को देखें [image: image] ये सब ओर भी बहुत सी किताबें मुझे मिली हैं भारतीय डिजीटल पुस्‍तकालय पर। भारत तथा विदेश के बहुत से सहयोगियों के साथ चल रहे इस कार्यक्रम के विषय में आप इनकी वेबसाइट से जान ही सकते हैं। किताबें पूरी मूल रूप में उपलब्‍ध हैं तथा TIFF फार्मेट में हैं। आल्‍टरनेटिफ नाम का रीडर वहॉं डाउनलोड के लिए उपलष्‍ण है तथा एक्‍सप्‍लोरर में अच्‍छा काम करता है पर क्रोम पर नहीं चलता । फिर देर किस बात की है जाएं देखें हो सकता है जो किताब आप बरसो से खोज रहे थे पर मिल नही पा रही थी, हो सकता है यहॉं उपलब्‍ध हो फोकट में -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090712/460949ee/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun Jul 12 12:10:24 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 12 Jul 2009 12:10:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSq4KS/4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCkv+CkrOCljeCkrOCksiDgpJXgpYAg4KSs4KS+4KSkIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwLOCkrOCkv+Ckq+CksOCkv+CkjyDgpK7gpKQg4KSV4KWB4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSoIOCkheCksuClgA==?= In-Reply-To: <829019b0907111239w457d024ev9486df01cfa613e9@mail.gmail.com> References: <829019b0907111239w457d024ev9486df01cfa613e9@mail.gmail.com> Message-ID: <6a32f8f0907112340v1d2dae1dr5b7fb58de6dd3b89@mail.gmail.com> विनीत जी ने कुछ ज्ञान दिया है। बतौर पत्रकार मैं उसे ग्रहण करता हूं। पर, गोष्ठी में जो कुछ हुआ उस बाबत थोड़ी और जानकारी होती तो बात बनती। खैर ! नए-पुराने पत्रकारों के बीच फर्क साफ करते हुए तारीख व रिपोर्ट के साथ बात हो कुछ बात बने। तब आगे भी बात हो। अपना राग दूसरा है। सिब्बल महोदय ने जो कहा, उसमें क्या गलत था ? अपने चुनावी अभियान के दौरान उन्होंने या उनकी पार्टी ने जो चाहा वही लोगों ने छपा। ऐसे में उनपर क्या फर्क पड़ने वाला है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। भैया फर्क तो तब पड़ेगा, जब उनके रंग में भंग डालेंगे। यहां तो ज्यादातर बंधु गुलाल पोते हुए हैं और छोड़ते लंबा हैं। ऐसे में सिब्बल बोलेंगे ही। बाकी बात होगी तारीख के साथ। शुक्रिया On 7/12/09, vineet kumar wrote: > > आज शाम,पत्रकार स्व.उदयन शर्मा की याद में हुए कार्यक्रम में कपिल सिब्बल की > ओर से दिए गए बयान के बाद से पत्रकारों के बीच जबरदस्त बौखलाहट औऱ मलाल है। *कुर्बान > अली* के शब्दों में - आज हमारी हालत ये हो गयी है कपिल सिब्बल आता है और > हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए ये कहकर निकल जाता है कि आप कुछ भी छापते रहिए > हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम शर्मिंदा होने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। > > आज की संगोष्ठी में *कपिल सिब्बल* और *आशुतोष,IBN7*की ओर से अपनी बात रखने के > बाद जिस तरह का बवाल मचा उसे देखते,पढ़ते हुए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज की > मीडिया को लेकर लोगों के बीच किस हद तक की झल्लाहट है। लिहाजा *आशुतोष* को > अपनी बात अधूरी छोड़कर ही वापस बैठ जाना पड़ा। सोचिए ये स्थिति तब है जबकि > दर्शक दीर्घा में किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े लोग मौजूद रहे। यही बात > अगर आम टेलीविजन दर्शकों और अखबार के पाठकों के बीच होती तो क्या नौबत होती। > यहां आकर नामचीन पत्रकारों को ये खुशफहमी छोड़नी होगी कि वो जहां भी जाएंगें > लोग उनसे एक नजर देख लेने भर के लिए आएंगे। मीडिया के स्टूडेंट ऑटोग्राफ के > लिए मिलने आएंगे,उनसे उनका इमेल आइडी मांगेगें। सच्चाई ये है कि समाज के बीच > तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो मीडिया से जुड़े लोगों से हिसाब मांगने के > मूड में है,आमने-सामने टकराने की तैयारी में है। > > सुनिए सुनिए,मेरी बात भी सुनिए कहता रहा दो-तीन चैनलों का नाम लेते वक्त लोग > जिस तरह से दांत पीसते हैं,यकीन मानिए अगर उनसे जुड़े लोग मिल जाएं तो पता नहीं > उनके साथ क्या करेंगे। मुझे याद है पिछले साल जब हमने सफर के साथ तीन दिनों का > मीडिया वर्कशॉप कराया और टेलीविजन रिपोर्टिंग की वर्कशॉप के लिए सबसे तेज कहे > जानेवाले चैनल के पत्रकार को बुलाया तो दिल्ली के अलग-अलग संस्थानों से आए > बच्चों ने उनकी बात सुनने के बजाय एक-एक करके इतने सवाल दाग दिए कि वो सिर्फ > सुनिए,सुनिए मेरी बात भी तो सुनिए। इसे एक हद तक की बदतमीजी भी कह सकते हैं औऱ > बच्चे जो कुछ भी पूछ रहे थे उसे सवाल न कहकर आप भड़ास निकालना कह सकते हैं। अंत > में बीच-बचाव करते हुए मुझे कहना पड़ा कि-आपलोगों को इनके साथ इस तरह की > बदतमीजी करने का अधिकार नहीं है,ये तो बस चैनल के लिए काम करते हैं, अगर आपको > वाकई इन सवालों के जबाब चाहिए तो आप चैनल हेड से समय लीजिए औऱ उनके सामने अपनी > बात रखिए. लेकिन इन सब बातों के वाबजूद पल्ला झाड़ते हुए खम ठोककर मीडिया को > गरियाने के साथ ही आउटपुट के स्तर पर क्या निकलकर आता है? > > विश्वविद्यालय और मीडिया संस्थानों में जो लोग भी मीडिया पढ़ा रहे हैं उन्हें > बच्चों की ओर से सवाल दागने का ये अंदाज शायद बहुत पसंद आए। अपनी पढ़ायी गयी > चीजों को लेकर सुकून हो कि जो और जिस एप्रोच से उन्होंने बच्चों को पत्रकारिता > पढ़ाया,वो ठीक उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। वो इत्मिनान कर सकते हैं कि आनेवाले > समय में ये बच्चे संतई पत्रकारिता करेंगे औऱ फिर से पत्रकारिता का स्वर्णिम युग > आएगा। वर्कशॉप खत्म होने के बाद कुछ टीचरों ने कहा भी कि इन बच्चों के सामने > क्या टिकेगें टीवीवाले? आज सही धोया इनको बच्चों ने। सच मानिए इस सीन को देखते > हुए मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल आया-तो फिर क्यों साल -दो- साल बाद ये > बच्चे अपने मीडिया गुरुओं के बारे में कहते फिरते हैं-जिंदगी बर्बाद करते है > भइया, मीडिया के नाम पर ऐसा पढ़ाया कि जिसकी इन्डस्ट्री में कोई जरुरत ही नहीं > है। सब फालतू औऱ कोरे आदर्श से लदी-फदी बातें। > > हर साल देशभर में करीब दो हजार भारतेन्दु औऱ गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोगों > लोगों की पत्रकारिता से प्रभावित होकर पत्रकारिता करने निकले बच्चे क्यों नहीं > कुछ बदलाव कर पाते हैं। जाहिर है,संस्थान से बाहर आकर जिन परिस्थितियों औऱ > शर्तों पर उन्हें काम करना पड़ता है,वो मीडिया गुरुओं की बातों से मेल नहीं > खाती। वो न तो व्यावहारिक ही हुआ करती है औऱ न ही उनमें एप्रोच के स्तर पर समय > के साथ-साथ बदलाव आने की गुंजाइश। नतीजा ये होता है कि संस्थान की पत्रकारिता > औऱ गुरुओं के पत्रकारिता पाठ उसके लिए दो पाट बनते हैं जिनके बीच की स्थितियों > के बीच वो लगातार डूबता-उतरता रहता है। मीडिया कोर्स के दौरान गुरु किसी भी रुप > में बाजार, आर्थिक नीतियां औऱ दबाव औऱ विज्ञापन जैसे शब्द को स्टूडेंट के आसपास > फटकने ही नहीं देते। अगर आ भी जाए तो उसके लिए पहले से ही बाजारवाद, अपसंस्कृति > और उपभोक्तावाद जैसे शब्द पहले से तैयार रखते हैं जो कि उनके हिसाब से > पत्रकारिता के अंदर जहर घोलने का काम करते हैं। > > दूसरी तरफ पुराने पत्रकार जिन्होंने कि कभी बड़े घरानों से निकलनेवाले अखबारों > औऱ पत्र-पत्रिकाओं के लिए कम पैसे में ही सही (उनके हिसाब से) लेकिन इत्मिनान > की पत्रकारिता की है,सेमिनारों में उनका सारा जोर सिर्फ इस बात पर होता है कि > वो आज के पत्रकारों खासकर टेलीविजन पत्रकारों को फूहड़,गैर-जिम्मेदार और पैसे > के पीछे भागनेवाले पत्रकार साबित करने में होता है। अभी करीब पन्द्रह दिन पहले > एस.पी.सिंह की याद में हुई संगोष्ठी में बुजुर्ग पत्रकार *उमेश जोशी* ने कहा > कि - "उन्हें आज के पत्रकारों कहने में को पत्रकार कहने में शर्म शर्म आती है > । एक-एक पत्रकार पचास लाख औऱ करोड़ रुपये की कोठी खरीद रहा है।" वो पानी > पी-पीकर आज के पत्रकारों को गाली देते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह से > गरियाने का आधार सिर्फ इसलिए बनता है कि आज का पत्रकार सम्पन्न हो रहा है। > हमारे भीतर ऐसा कौन-सा माइंड सेट बन गया है कि हम पत्रकार औऱ साहित्यकार को > सम्पन्न होना बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरी बात कि अगर बुजुर्ग पत्रकारों से > मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता का नेतृत्व छिनता चला जा रहा है तो इसकी वजह उनका > बुजुर्ग होना भर है या फिर बाजार की ताकतों को नहीं समझ पाने की उनकी कमजोरी > है। मीडिया संस्थान अगर ये समझ पा रही है कि अगर मीडिया को चलाने के लिए बाजार > को शामिल करना अनिवार्य है और उसके मिजाज से यंग जेनरेशन के ही पत्रकार काम > लायक हो सकते हैं तो फिर बुजुर्ग पत्रकारों को लेकर कोई क्यों रिस्क उठाए। > दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन > पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के > पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की > रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित > दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न > होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय > करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के > हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न > किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से > पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर > कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में > बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों। > > दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन > पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के > पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की > रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित > दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न > होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय > करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के > हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न > किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से > पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर > कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में > बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों। > > बिकी हुई पत्रकारिता के बीच क्या बुजुर्ग पत्रकार कोई ऐसी मिसाल हमारे सामने > रखते हों जिससे कि भारतेन्दु युग की पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर निकला यूथ > सीधे उनसे जुड़े। सिर्फ संपादकीय पन्नों पर लिखते रहने से बदलाव की गुंजाइश > नहीं बन पाती। किसी ने किसी जमाने में रिस्क लेकर पत्रकारिता की लेकिन वर्तमान > में प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें नए-नए मिसाल बनाते रहने की जरुरत होती > है। आज जरुरत इस बात की है कि बुजुर्ग पत्रकारों की ओऱ से वो सारे मंच तैयार > किए जाएं जो बाजार की कठपुतली हुए बगैर पत्रकारिता कर सकें। तब देखिए कितने नए > पत्रकार उनके साथ-साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई तो ये है कि सादगी के नाम > पर पत्रिका का एक अंक निकाला नहीं कि मध्यप्रदेश और शास्त्री भवन के चक्कर > लगाने लग गए। > > अब बात रही कपिल सिब्बल के बयान और उस पर कुर्बान अली के बेचैन होने की तो मैं > नहीं जानता कि कपिल सिब्बल ने इतना गैरजिम्मेदाराना बयान क्यों दिया? लेकिन > दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे कपिल सिब्बल हों या फिर देश के कोई भी दूसरे > नेता,उन्हें हमारे लिखे एक-एक शब्द का,बोली गयी एक-एक बात का फर्क पड़ता है। > नहीं तो मामूली अखबारों और पत्रिकाओं जिसे कि आम बोलचाल की भाषा में अंडू-झंडू > कहते हैं,उनके लोग उनकी कतरनें जुटाते फिरते। लाख कह लीजिए कि बाजार के हाथों > मीडिया बिक चुकी है लेकिन लोग उसकी ताकत को अब भी समझते हैं। कपिल सिब्बल अभी > हौसले में हैं,कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन आप औऱ हम सच को समझते हैं। इसलिए > कुर्बान अली जिस अंदाज में इस पर रिएक्ट कर रहे हैं उससे साफ जाहिर होता है कि > वो नए जेनरेशन के पत्रकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि आपने हमारा नाम डुबा दिया। > उन्हें चाहिए कि कपिल सिब्बल की बात पर स्यापा करने के बजाय उनकी पॉलिटिक्स को > समझें,ऐसा कहकर पत्रकारों का मनोबल तोड़ने का जो काम उन्होंने किया है,उसे > मजबूत करें > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090712/fa8e2bed/attachment-0001.html From RAVISH at NDTV.COM Sun Jul 12 13:42:40 2009 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sun, 12 Jul 2009 13:42:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= chaaleesaa paath...shani Message-ID: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A100F504D@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> ?? ????? ????? ????? ?: ???? ??: ?? ??? ?? ?????? ?? ????? ??? ??? ?????? ?? ????? ???? ??? ??? ?? ????? ???????? ??? ???????? ?? ?? ??? ????? ??? ??? ?????? ?? ???????? ???? ?????? ?? ???? ?? ?????? ????? ??? ??? ???? ???? ?????? ?? ??????? ???? ??? ???? ??????????? ?? ?? ???????? ???? ???? ???? ????? ?? ??????? ?? ??? ?? ???? ?? ?? ?? ?? ???-??????? ?? ???? ??? ????? ???? ??? ??????? ??? ?????,????? ?? ????? ?? ????????? ???? ????? ?????? ???? ?? ?? ?? ??? ???? ?? ????? ?? ????? ?? ???? ?? ?? ?? ???? ?? ????? ?? ????? ????? ????? ????? ?? ??? ???? ???? ?? ????? ????? ?? ???????? ?? ??? ???? ???? ?????,????????? ?? ??? 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090712/e0a0da3a/attachment-0001.html From RAVISH at NDTV.COM Sun Jul 12 13:43:44 2009 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sun, 12 Jul 2009 13:43:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Vaibhav lakshmi vrat katha ka paath.. Message-ID: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A100F504E@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> ???? ???? ????? ?? ?? ?? ???? ??????? ???? ??? ???????? ??? ?? ????? ?? ???? ??? ?? ??? ???? ???? ?? ?????? ???????? ??? ?? ??? ?? ??? ??? ?????? ????? ?? ???? ???? ??? ???? ??? ???? ?? ??? ???-??? ???? ???? ?? ????? ?????? ?? ?? ???? ???? ??????? ???? ??? ?? ????? ?????? ?? ??? ??? ???? ?? ??? ? ??? ?? ??? ??? ??? ???????? ???? ???? ????? ?????????? ?? ??? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ?? ?????? ?? ?????? ???? ?????? ??? ????? ????? ??? ???? ??? ?? ????? ???? ???? ????? ???? ???? ???? ??? ??? ???? ??? ??? ?? ?? ??? ?? ?????? ?? ???? ??? ???? ?? ???? ????? ???? ??? ?? ????? ?????? ?? ??? ??? ???? ??????? ???? ???? ?? ???? ???? ??? ?? ??? ????? ?? ???? ??? ???? ???? ?? ????? ?????? ?? ? ???? ??? ?? ???? ??? ?? ?????? ????? ?? ????? ?? ???? ???? ?? ??? ?? ?????? ???? ????? ?? ???? ??? ???? ?? ????? ???? ?????? ????? ?? ???? ?????????? ??????? ?????? ??? ???? ?? ???? ?? ????? ???? ???? ??? ?? ??? ??? ??????? ?? ??? ???? ??? ?????? ???????? ?? ???? ???? ?? ??? ?? ??????? ?? ???? ??? ?? ???? ?? ??? ???? ?? ??? ??? ???????? ??? ?? ?????? ????? ?? ??? ?????? ?? ??? ?????? ???? ???? ??? ????? ????? ???? ??????? ?? ??? ?? ????????? ??? ???? ????? ?? ???? ??? ????????????( ??????????? ????) ???? ??? ??. ? ?? ?????? ????? ?????? ??? ??? ???? ?? ?????? ?????? ???? ??????? ?? ???? ????? ???? ??? ???? ?? ???? ?????? ???? ??? ???? ??? ???? ??????? ?? ???? ???? ?? ?? ????? ??? ???? ??? ???? ?????? ???????? ???? ???? ??? ????? ??? ?? ???? ?? ???????,???????,???? ??????? ?? ????????? ????? ???? ?? ????? ? ?????? ?? ?? ?? ?? ??? ?? ???? ???? ????? ???? ?? ????? ??? ?? ???? ??,??????? ???? ?? ????? ?? ????? ?? ???? ?? ???? ?? ????? ??? ?? ???? ???? ?????? ?? ????? ???? ?? ???? ??? ???? ??? ????? ????? ?? ?? ??? ?? ???? ??? ??? ??? ??? ???? ???? ????????? ???????? ???? ??????? ?? ???? ?????? ???? ???? ?? ?????? ??? ?? ???? ???? ???? ????? ??? ?? ??? ?? ??? ???? ???????? ?? ??? ??? ??? ?????? ??? ?? ???? ?? ?? ????? ???? ???? ?????? ???????? ?? ??? ??????? ????? ???? ?? ??? ??? ???? ??????? ?? ???? ???? ???? ?? ????? ?? ??? ?? ???? ?? ???????? ??? ?? ??? ?? ??? ???? ?? ????? ???? ???? ?????? ????????? ?? ???? ??? ???? ??? ???? ??? ??? ???? ?? ?? ?? ?????? ?? ???? ???? ???? ??? ??? ?? ?????? ?? ??? ?????? ???? ????? ??? ???????? ????? ?????? ???? ??? ?? ?????? ?? ???? ???? ?? ????????? ???? ??? ???? ??? ?? ??? ??? ?????????? ???? ????? ???? ???? ?? ??? ?? ????? ?????? ?????? ?????????(??? ??? ??)??? ???????? ??? ?? ?? ?? ???? ??? ?? ?? ????,???????,?????? ??? ? ??????? ?? ????? ??? ???? ??? ?????- ??????? ?????? ?? ???? ???? ???? ??? ??? ????? ???- ?????? ?????? ?? ???? ?????? ?? ??? ?????? ????????? ?? ??? ????? ??? ???? ??????? ?????- ?? ?????? ?? ????? ?????? ??????????? ??? ??? ?? ????? ???? ??? ?? ??? ??? ?? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ?????? ? ????? ?????? ????? ?????? ????? ? ?????? ????????? ?? ??? ?????????? ?? ????? ?????? ?? ???? ??? ?? ?????? ??? ???? ?????? ???? ?? ???? ?????? ???? ?? ????? ?????? ?? ???????? ???? ??????? ??? ?? ??? ?? ???????? ??? ???? ?? ???? ??? ???? ??????? ?? ????? ???? ????? ?? ??? ?? ?? ???? ??? ??? ??? ???? ?????? ?? ???? ?? ?? ???? ??????? ??? ?? ???? ??? ??? ?? ?? ?? ??????? ???? ? ??? ??? ???? ??? ?? ????? ?? ?????? ??? ??? ??? ????? ?????? ???? ??? ??? ???? ??? ?? ????? ?? ???? ??? ????? ??? ??????? ?? ???????? ?????? ?? ??? ???? ???????? ????? ???? ????????? ?? ?????? ???? ?? ??? ???? ???? ??? ????? ?????? ??? ??? ??? ??? ????? ???????? ??? ???? ?????,?????,???????,??? ?? ?????? ????? ???? ?? ?? ??????? ?? ????? ?? ???? ??? ???? ??? ??? ??? ???? ????? ??? ???? ??? ????? ?? ??? ?? ??? ???? ?????? ?? ??? ?? ????? ????? ???? ??? ?? ??? ?? ??? ?? ?? ?? ??? ?? ???? ?? ???? ?? ?? ?? ???? ??? ??????? ???? ??? ???? ?????? ?? ?? ??? ???? ???????? ?? ????? ??? ???? ?????? ?? ????? ??? ??? ?? ????? ?? ?? ???????? ??? ?? ??? ?? ??? ????? ???? ???????? ?? ???? ?? ?????? ??????? ?? ?? ??? ??????? ??? ??? ?????? ??? ????? ??? ??? ??? ???? ?? ???? ???? ?? ?? ????? ?? ??? ??? ?? ???? ???? ??????? ????? ?? ?? ????? ?????????? ??????? ??? ??? ???? ??? ?? ?????? ???? ???? ???? ????? ????? ?? ?? ??? ???? ??? ???????? ??? ??? ????? ???? ???? ?? ????? ????? ??? ???? ?????? ???????? ????? ??????? ?? ??? ???? ??? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090712/4ec5af1b/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Jul 14 15:52:44 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 14 Jul 2009 15:52:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCksOCljOCkrCDgpKXgpL4g4KSJ4KS4IOCktuCkluCljeCkuCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS+ICE=?= Message-ID: <6a32f8f0907140322y19864a9fydb3fe70b545d154@mail.gmail.com> क्या रौब था उस शख्स का ! मौलाना सैयद अब्दुल्लाह बुखारी के इंतकाल से जामा मस्जिद की राजनीति का वह दौर खत्म हो गया जो इमरजंसी से शुरू हुआ था। उस दौर में जामा मस्जिद मुस्लिम समुदाय की राजनीति का केंद्र बनकर उभरा था। जानकार के मुताबिक इसके कई प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण थे। इमरजंसी से दो साल पहले मौलाना बुखारी शाही इमाम बने थे। वैसे इमाम तो वे पहले से ही थे। उन्होंने करीब 55 साल तक इमामत संभाली। जब वे शाही इमाम बने उसके कुछ ही दिनों बाद दिल्ली के किशनगंज इलाके में भयानक दंगा भड़का। लोग बताते हैं कि वह तकलीफ का वक्त था। जिसमें मुसलमानों को शाही इमाम ने मदद पहुंचाई। इससे जहां उनकी शोहरत फैली, जिससे वे सत्ता पक्ष की आंख की किरकिरी बन गए। वही समय था, जब संजय गांधी कांग्रेस में मायने रखने लगे थे। उनके इशारे से सत्ता के गलियारे में पत्ते खड़कते थे। इमरजंसी लगने पर मौलाना बुखारी ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इससे वे सत्ता के मुकाबिल चुनौती बनकर उभरे। उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन सरकार लंबे समय तक उन्हें जेल में नहीं रख पाई। लोगों का दबाव पड़ा। टकराव भयानक हो सकता था, इसलिए तानाशाही के माथे पर सोच की लकीरें उभरी। उनका विवेक जगा। मौलाना बुखारी को रिहा करना ही मुनासिब समझा गया। वे चार दिवारी से बाहर आए। उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ। वे दूसरे स्वाधीनता संग्राम के नायक माने जाने लगे। राजनीति की बारीक समझ रखने वाले बताते हैं कि उन्होंने सन् 77 के लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका अदा की। वे मंच पर बड़े नेताओं की शोभा बन गए थे। इसमें हेमवती नंदन बहुगुणा की शह भी थी। जनता पार्टी से मोह भंग होने के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा की कांग्रेस वापसी के समय मौलाना बुखारी की अहमियत देखने लायक थी। उनके दरबाजे पर कांग्रेस के बड़े नेता दस्तक देते थे। मौलाना बुखारी ने उस वक्त छह सूत्री मांग रखी, जिसे इंदिरा गांधी ने मंजूर किया। वह कांग्रेस के एलान का हिस्सा बना। उस समय मौलाना बुखारी मुस्लिम समुदाय के अकेले रहनुमा माने जाते थे। राजस्थान के सांभार जिले में जन्मे बुखारी ने लंबी उम्र पाई। वे जिस तारीख को जामा मस्जिद के बारहवें शाही इमाम बने उसी तारीख में आखिरी सांस ली। उन्हें जामा मस्जिद अहाते में सुपुर्दे खाक किया गया। उनके बड़े बेटे मौलाना सैयद अहमद बुखारी शाही इमामत संभाल रहे हैं। पर जो रुतबा मौलान बुखारी के साथ था वह कम हुआ है। अब इस तख्त पैठ हल्की हुई है। *प्रथम प्रवक्ता* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090714/d0eb2b14/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Jul 15 16:56:39 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 15 Jul 2009 16:56:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleClgOCkruCkpCDgpLLgpYfgpJXgpLAg4KS54KWAIOCkhuCkqiA=?= =?utf-8?b?4KS44KSaIOCkleCkviDgpLjgpL7gpK7gpKjgpL4g4KSV4KSw4KWH4KSC?= =?utf-8?b?4KSX4KWHID8=?= Message-ID: <829019b0907150426q77cdd583h34d3e5d2bb7a2eb7@mail.gmail.com> रोजमर्रा की जिंदगी में ये मुहावरा आम हो चला है कि सच बोलना आसान काम नहीं है,इसकी हमें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। ये कीमत किस तरह की हो सकती है,ये किसी को पहले से पता नहीं होता। संभव है सच बोलते हुए किसी को अपनी नौकरी से हाथ धोनी पड़ जाए,किसी से आपसी रिश्ते खराब हो जाए,पत्नी या गर्लफ्रैंड से रगड़ा हो जाए.वो कुछ हो जाए जिसके बारे में सोचते हुए आप और हम अंदर से हिल तक जाते हैं। शायद यही वजह है कि एक समझौता परस्त जीवनशैली हमारे बीच बड़ी तेजी से पनप रही है। चीजों को देखते-समझते हुए हम अपनी जुबान बंद कर लेते हैं,देखकर भी अनदेखा कर जाने की आदत विकसित करते हैं और गलत-सलत सुनकर भी गम खाकर रह जाने की कोशिश करते हैं। अब इस बात पर फिलहाल विवाद मत करने लग जाइए कि ऐसे में हम लिजलिजेपन को बढ़ावा देते हैं,रेंगनेवाले जंतु की तरह बनते चले जाते हैं,चाटुकार और हां जी सर,हां जी सर संस्कृति को बढ़ावा देते हैं लेकिन हममें से जो लोग भी सच बोलने,सुनने औऱ कहने से बचते आ रहे हैं,उन्हें पता है कि ऐसा करते हुए हमें तात्कालिक रुप से कितनी राहत मिल जाती है। हम कई तरह के झमेले में पड़ने से बच जाते हैं। दूसरी स्थिति ये भी बनती है कि मानवीयता,संवेदनशीलता,विवेक और आदमी होने की सबूत को जिंदा रखने के लिए वक्त-वेवक्त हम सच बोल भी देते हैं तो उसके बाद जो स्थिति बनती है,दिमाग में एक ही सवाल उठता है कि हमने सच बोल भी दिया तो बदले में हमें मिलता क्या है? फ्रस्ट्रेशन,थाना-पुलिस का चक्कर,कूलीग से हिकारत कि बड़ा आया हरिश्चन्द्र बनने। बॉस की आंखों में खटकने लग जाते हैं। इसे सिस्टम से दूर करों,ये अगर रह गया तो सारा खेल बिगाड़ देगा। गर्लफ्रैंड को कह दिया-सच कहूं तुमसे बस इसलिए जुड़ा हूं कि अपनी शाम अकेले कटती नहीं,सच्चाई ये है कि शादी के स्तर पर तुम्हारे बारे में सोच ही नहीं सकता,हमें अपने बाबूजी को हर्ट करना नहीं है। जाहिर है ऐसा करते हुए आपका महीना,दो महीने शाम क्या चौबीसों घंटे खराब हो जाए। आज जिन लोगों ने भी दि टाइम्स ऑफ इंडिया से गुजरे हों,उन्हें मेरी लिखी सारी बात अनुवाद लगे। ऐसा कुछ भी नहीं लगेगा कि मैं अपनी तरफ से कुछ कह रहा हूं। फ्रंट पेज के पहले आधे पन्ने में जो कुछ भी लिखा है-उस पर इन्हीं सारी स्थितियों की चर्चा है। आप जैसे ही उस पन्ने को पलटते हैं,इन सबकी कीमत मिलने की बात करता है। हम और आप सच बोलने की स्थिति में जो फ्रस्ट्रेट होते रहे हैं,उसकी सही कीमत,संबंधों के बिगड़ने और नौकरी के जाने का उचित मुआवजा देने की गारंटी की बात की जाती है। जिन लोगों ने मिशनरी कॉन्वेंट स्कूल या कॉलेज में पढ़ाई की है,उन्हें पता है कि फादर के आगे सच बोलने पर एक घड़ी के लिए मन तो हल्का हो जाता है लेकिन उसके आगे क्या? लेकिन अब टेलीविजन पर,राजीव खांडेलवाल के सामने सच कबूल करने पर एक करोड़ रुपये मिलेंगे,आप फिर से सच बोलने के लिए मचल पड़ते हैं। इंटरटेन्मेंट चैनल स्टार प्लस की ओर से घोषणा की जा रही है कि वक्त आ गया है सच्चाई की अग्निपरीक्षा देने का। चैनल हमें इस बात का आश्वासन देता है कि सच का सामना की कीजिए,आपको फ्रशस्ट्रेट नहीं होना पड़ेगा। जाहिर है चैनल सच बोलने की जो कीमत हमें अदा करेगा उसके सामने किसी भी संबंध के बिगड़ने,किसी भी तरह की नौकरी के खोने और किसी भी शख्स से मतभेद होना कोई बड़ी बात नहीं है। चैनल की ओर से पूरे के पूरे एक करोड़ रुपये दिए जाएंगे। भावना और मानवीय संवेदना को आधार बनाकर टेलीविजन समीक्षा करनेवाले लोगों के लिए ये बात खटक सकती है कि टेलीविजन संबंधों,संवेदना,व्यक्तिगत अनुभवों और विचारों की भी कीमत लगाने में जुटा है। अभी तक तो टीआरपी के आंसू ही बनते रहे टेलीविजन पर लेकिन अब तो सब बेपर्दा हो जाएगा। इसे रोकिए,इसे आगे चलने मत दीजिए। शायद इसी सिरे से विचार करते हुए जैकी श्राफ, महेश भट्ट, शेखर सुमन, गुलशन ग्रोवर और रणजीत जैसी शख्सियत ने लेकिन दूसरी तरफ ये स्थिति भी बनती है। ये समाज के वो लोग हैं जिनके लिए अपनी सिक्रेसी,संबंध,भावुक पलों को बचाए रखने के आगे एक करोड़ की रकम कुछ भी नहीं है। लेकिन दूसरी स्थिति ये भी है कि एक करोड़ के आगे हममे से कितने ऐसे लोग हैं जो रिश्तों,संबंधों,सच और संवेदना आधारित सच को बाहर आने नहीं देना चाहेंगे। इसे एक आम बोलचाल की भाषा में भावुकता से भरा लिया गया निर्णय ही कहा जाएगा। न्यूज चैनल आज के शो में दिखाए जानेवाले कांबली के सच के प्रोमो को जिस रुप में प्रोजेक्ट कर रहे हैं,उससे तो यही झलकता है कि एक करोड़ के लिए वो कितना गिर गया है कि सचिन तेंदुलकर और अपने बीच के बहुत ही घरेलू औऱ व्यक्तिगत संबंध को दुनिया के सामने रखकर बेपर्दा कर दिया। एक निजी चैनल ने तो यहा तक कहा कि कांबली को ऐसा करने का अफसोस भी है। यकीन मानिए,न्यूज चैनल इस शो में सच बोलने की स्थिति को जिस रुप में ले रहे हैं,प्रोजेक्ट कर रहे हैं,उस पर गौर करते हुए सच बोलने आया पार्टिसिपेंट सदमे से मर जाए। सच बोलकर जो मानसिक तौर पर मजबूती मिलती है कि हमने प्रतिरोध के स्वर को मजबूत किया है,संबंधों को बीच अपने हिस्से की इमानदारी निभायी है,वो सब कुछ भी दिमाग में नहीं आएगा। एक नए किस्म का ग्लानि बोध पैदा होगा कि मैं क्या इतना गिर गया हूं कि एक करोड़ की खातिर वो सबकुछ भी देश के लोगों के सामने बेपर्द कर सकता हूं जो सच होने से पहले बहुत ही निजी अनुभव रहे हैं। छीः मैं इतना घटिया इंसान हूं। ऐसे में आम लोगों के बीच शेखर सुमन और जैकी श्राफ जैसे लोगों का कद पहले से और उंचा होगा जो कि एक करोड़ की चिंता किए बगैर सच बोलने से साफ मुकर जाते हैं। यहीं पर एक बार फिर से स्थापित होता है कि झूठे बने रहकर ही ज्यादा शान और आराम की जिंदगी संभव है। झूठ औऱ सच बोलने की स्थिति के बीच जो करोड़ रुपये को बीच में शामिल किया गया है वो सच को फिर से बौना करने की कोशिश है। न्यूज चैनल इसे और मजबूत करने में जुटे हैं। ये कार्यक्रम अभी शुरु नहीं हुए हैं। आज रात से 10:30 बजे से शुरु होंगे लेकिन एक तो विज्ञापन स्ट्रैटजी औऱ दूसरा कि न्यूज चैनलों के बीच की खदबदाहट इस कार्यक्रम के लिए महौल बनाने में जुटे हैं। कल शाम से ही कांबली की बाइट सहित सचिन के साथ जोड़कर पैकेज पर पैकेज चलाए जा रहे हैं। ऐसे में शो का एक एंगिल जो बनने चाहिए कि 21 सवालों के जरिए एक इंसान के मनोविज्ञान को समझने की जो कोशिशें होगी,लाइ डिटेक्टर के जरिए इसे बाकी की रियलिटी शो से ज्यादा विश्वसनीय बनाने की कोशिशें होगी,वो सारा पक्ष दबता नजर आ रहा है। विदेशों में मोमेंट ऑफ ट्रूथ के नाम से प्रसारित इस शो को लेकर ये बताया जा रहा है कि इस शो ने कई घरों को बर्बाद किया है लेकिन स्टार प्लस की ऑफिसियल वेबसाइट ने इसे इंसानी जिंदगी की वो खिड़की कहा है जिससे अपने भीतर के मन को झांका जा सकता है,अपने को बेहतर और सुंदर बनाया जा सकता है। ये एक किस्म की साइकोथेरेपी है। इसके अलावे अगर सच बोलने पर कुछ सच सामने आते हैं तो उन चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन से ज्यादा दिलचस्प और मतलब के होंगे जो कि चैनलों की कैंटीन को खाली करवाकर किए जाते हैं,उससे ज्यादा मजबूत होगा जो स्टिंग हो करके उसकी टेप चैनल की अर्काइव में खो जाते हैं,ऑन एयर नहीं होते। ये राजनीति,समाज,मनोविज्ञान,देश और दुनिया को समझने का एक बेहतर संदर्भ पैदा कर सकता है। समय-समय पर जब एक सामान्य व्यक्ति आकर 21 सवालों से गुजरेगा तो आप इसके जरिए एक औसत आदमी की मनःस्थिति को समझ सकेंगे। लेकिन जैसा कि अभी से ही जो लक्षण दिखायी दे रहे हैं,उसमें इस शो के सकारात्मक दिशा में बढ़ने की गुंजाइश बहुत ही कम दिखती है। ये थोक के भाव में विवादों को जन्म देगा जिससे कि चैनलों को भरपूर मसाला मिलेगा। हर डेस्क के हाथ कुछ न कुछ लगेगा जिसे खींचकर दो-तीन तक तावत कर सकेंगे। आप देखिए न कि बालिका-वधू जैसे संभावना से लैस सीरियल संसद के गलियारों में जाकर इस आरोप से घिर जाता है कि इसने बाल-विवाह को बढ़ावा देने का काम किया है। पता नहीं,सच को सामने लाने की कोशिश में(जाहिर है टीआरपी और बिजनेस के लिए ही सही)इस शो से खुन्नस खाए कुछ लोग दंगा-फसाद करानेवाला कार्यक्रम न करार दे दें -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090715/ec2d0ac5/attachment-0001.html From jal-jamat at waterforum.org.in Sat Jul 11 10:28:45 2009 From: jal-jamat at waterforum.org.in (Jal Jamat Means Water Community) Date: Sat, 11 Jul 2009 10:28:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BJal-jamat=5D_?= =?utf-8?b?4KSh4KWJLiDgpJzgpYDgpKHgpYAg4KSF4KSX4KWN4KSw4KS14KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleCkviA1IOCkheCkl+CkuOCljeCkpCAyMDA5IOCkuOClhyDgpIY=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KSjIOCkheCkqOCktuCkqA==?= In-Reply-To: <8b2ca7430907092153u338f4e00x83584aded4b90427@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430907092153u338f4e00x83584aded4b90427@mail.gmail.com> Message-ID: *खास खबर* *डॉ. जीडी अग्रवाल 5 अगस्त 2009 से फिर आमरण अनशन पर * मुज़फ्फरनगर 7 जुलाई, 09। *उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने अपने **19 **जून**, 2008 **के आदेश में अपनी भैरों घाटी तथा पाला-मनेरी जल-ऊर्जा परियोजनाओं पर तात्कालिक प्रभाव से कार्य रोक देने की और गंगोत्री से उत्तरकाशी तक भागीरथी गंगा जी के संरक्षण के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता की बात कही थी पर योजनाओं पर (विशेषतया पाला-मनेरी परियोजना पर) विनाशकारी कार्य भयावह गति पकड़ रहे हैं और उक्त आदेश कोरी धोखाधडी का रुप ले माँ गंगा जी की और हमारी खिल्ली उड़ा रहे हैं।** * * Read More * Field Story- Water war Read how social initiative paves the way for development Dry Water Bodies in Aligarh Reports- Water For People on Aila Status of water in Jaipur Global warming affecting oceans Hyper temperature, sinking Islands NREGS Updates- Guideline What is NREGS Field stories on NREGS Upcoming Events Course on Water & Environment for Media & NGOs- NWA Malwa Jal Samvardhan Yatra Job/Vacancy- Water & Environment Specialist(Emergency)- UNICEF Interviews- Director of IWMI Bindeshwar Pathak You need water advice- click here NREGS Partner organization share their info & experience To contribute your articles contact us- hindi at indiawaterportal.org water.community at gmail.com -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090711/26878f5d/attachment.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Jal-jamat mailing list Jal-jamat at waterforum.org.in http://waterforum.org.in/mailman/listinfo/jal-jamat_waterforum.org.in From vineetdu at gmail.com Thu Jul 16 10:24:35 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 16 Jul 2009 10:24:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClh+CkgiDgpK7gpL/gpLLgpL7gpLXgpJ8g4KSq4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS4IOCknOCkvuCksOClgCDgpLngpYg=?= Message-ID: <829019b0907152154v4d87a8d3n956e66d8619541dd@mail.gmail.com> इन दिनों मोहल्लाlive पर खबरों की मिलावट पर बहस जारी है। खबरों में मिलावट इस साइट का गढ़ा हुआ शब्द नहीं है बल्कि मौजूदा मीडिया को विश्लेषित करने के लिए आउटलुक के संपादक नीलाभ मिश्र ने इसका प्रयोग 12 जुलाई को पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित संगोष्ठी में किया। संगोष्ठी के बाद ये शब्द और नजरिया भीड़ में गुम न हो जाए जैसा कि आमतौर पर होता आया है,इसलिए मोहल्लाlive इसके अन्तर्गत मीडिया के अलग-अलग संस्थानों और माध्यमों से जुड़े लोगों की राय को लगातार प्रकाशित करने का काम कर रहा है। इस कड़ी में मैंने भी अपने विचार दिए हैं। आप भी एक नजर डालें और इस बहस को आगे बढ़ाएं- 12 जुलाई की शाम देश के मशहूर पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित मीडिया संगोष्ठी में आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने जो बात कही है, वो हममें से कई लोगों को एकदम से नयी और बाकी पत्रकारों की समझ से बिल्कुल अलग लग रही है। ऐसा इसलिए भी है कि सोचने और करने के स्तर पर चाहे अधिकांश पत्रकार वही कर रहे हों, जिसे नीलाभ ने मीडिया के लिए अब तक प्रचलित शब्दों से अलग टर्मनलॉजी का इस्तेमाल करते हुए कहा है, लेकिन विचारने के स्तर पर नीलाभ जैसा क्लियर स्टैंड नहीं बना पाये हैं। पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग है, जो अभी तक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि पत्रकारिता के नाम पर वो जो कुछ भी कर रहा है, दरअसल बाजार के बीच की बाकी गतिविधियों की तरह ही एक किस्म की गतिविधि है। वो दिन-रात पाठक और ऑडिएंस की चिंता शामिल करते हुए उसके नाम पर वो सब कुछ लिख रहा है, दिखा रहा है, जिससे कि आम पाठक और ऑडिएंस की समझ में इज़ाफा होने के बजाय बाज़ार, पूंजी और दमन करनेवाली मशीनरी के हाथ मज़बूत होते हैं, लेकिन अपने को इस तरह की गतिविधि में शामिल होने से साफ बचाना चाहता है। इसलिए वो अपनी जुबान से ये बात मानने को तैयार है कि मीडिया के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वो सब बकवास है, कूड़ा है, इसमें अधकचरापन है – खुद ऑफिस से निकलते हुए ये कहता है कि बंडलबाजी करते हुए एक दिन और बीत गया, लेकिन ये बात सुनने के लिए तैयार नहीं है कि वो ये सब कुछ मीडिया संस्थान के मालिकों की इच्छा और इशारे से कर रहा है… बाज़ार की शर्तों के आगे गुलाम होकर कर रहा है। इसलिए नीलाभ जब ये कहते हैं कि जिस तरह से दूध सहित बाकी उपभोक्ता वस्तुओं में मिलावट होने की स्थिति में उसके उत्पादकों के खिलाफ शिकायत की जाती है, तो ख़बरों के मामले में ऐसा क्यों नहीं – तो लगता है कि मीडिया को दुरुस्त करने की दिशा में एक नये पहलू को समझने की चिंता सामने आ रही है। ख़बरों को उत्पाद और पाठक को खालिस उपभोक्ता समझने से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि मीडिया विमर्श का एक नया सिरा हाथ लग गया है और इसके जरिए मीडिया और दर्शकों-पाठकों के बीच अमन का राग गाया-बजाया जा सकता है। लेकिन, ठहर कर सोचिए तो नीलाभ जो बात कह रहे हैं, वो मीडिया में फैले कचरे को दूर करने से कहीं ज्यादा इस बात को घोषित करने की मुहिम ज्यादा है कि कुछ भी करने से पहले आप ये मानिए कि आप लोगों के बीच हाथ में कलम, की-बोर्ड और बाइक लिये जहां खड़े हैं, वो समाज सुधारकों की पवित्र भूमि होने के बजाय बाज़ार है, जहां कि मानवीय संवेदना, भावना और बड़े-बड़े मूल्यों के लागू होने के बजाय बाज़ार की शर्तें लागू होंगी। नीलाभ ने मीडिया के कचरे को दूर करने के लिए, उसके अंदर घुल चुके मिलावटीपन को फिल्टर करने के लिए जो उपाय बताये हैं, ज़रूरी नहीं कि व्यवहार के स्तर पर वो उसी रूप में काम करेंगे, जैसा कि हर उपाय को सोचने के दौरान किये जाते हैं। हर कानून को बनाने के पहले शैतान से साधु बनने की प्रक्रिया एकदम से दिमाग़ में घूमने लग जाती है। मुझे लगता है कि नीलाभ के इन नये शब्दों के छिलके को अगर उतार दें, तो पूरी बहस एक बार फिर मीडिया मिशन या प्रोफेशन है, के दायरे में चक्कर काटने लगती है। हां, यहां हम उनकी बातों के मुरीद इसलिए बन गये हैं कि उन्होंने साहस के साथ ये मान लिया है कि पत्रकारिता मिशन के बजाय बाज़ार का हिस्सा है और हमें इसके बारे में उसी तरीके से सोचने चाहिए जिस तरह से बाज़ार को रेगुलेट करने की दिशा में सोचते हैं। हमें पाठकों पर नैतिकता, मानव मूल्य जैसे भारी-भरकम एहसान करने के बजाय एक उपभोक्ता के तौर पर न्याय करने की दिशा में सोचना होगा। ऐसा करते हुए नीलाभ मीडिया विमर्श करने आये बुद्धिजीवियों के दरवाजे़ को बदल देते हैं। अब तक दिन-रात बाजार के भीतर रह कर खाने-कमाने वाले लोग जैसे ही विमर्श के लिए आते हैं, तो वो उसी दरवाजे़ से न आकर साहित्य, नैतिक शिक्षा, समाजशास्त्र के दरवाजे़ से घुस कर आ जाते हैं। सब कुछ अच्छा-अच्छा बोल कर निकल जाते हैं। नीलाभ इन दरवाजों से आने के बजाय उसी दरवाजे़ से आने की बात करते हैं, जिससे कि उनका रोज़ का आना-जाना होता है। मीडिया विमर्श के लिए अलग से पूजाघर बनाने की ज़रूरत को सिरे से नकार देते हैं। मुझे लगता है कि मौजूदा मीडिया, चाहे वो प्रिंट हो, इलेक्ट्रॉनिक हो और अब वेब, इन सबके ऊपर कानून और आयोग जैसे मसले के साथ जोड़कर देखने से पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत ज्यादा है कि बुनियादी तौर पर इसकी प्रकृति क्या है, ख़बरों को जुटाने से लेकर पेश किये जाने तक का तरीका कैसा है, उसके पीछे की शर्तें किस रूप में काम करती हैं। इसे जाने-समझे औऱ विश्लेषित किये बिना आप चाहे जितने भी कानून बना दें, वो पेनकीलर (pain killer) का काम करेगा, कोई ठोस निदान संभव न हो सकेगा। अब देखिए न, अभी तक प्रिंट मीडिया ने देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों से संपादकीय पन्नों पर टेलीविजन और न्यूज़ चैनलों के विरोध में जम कर लिखवाया। भला हो लिखनेवाले का कि बिना वस्तुस्थिति को समझे ही टीवी और न्यूज़ चैनलों के खिलाफ़ लिखते रहे। कभी इसे सामाजिक संदर्भ से जोड़ कर ग़लत साबित किया, कभी इसके प्रभाव को लेकर नकारात्मक लिखा और रही-सही कसर ये कह कर निकालते रहे कि ये पूंजी के हाथों बिका हुआ माध्यम है, उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देता है। नतीजा ये हुआ कि इनके लिखने का टेलीविजन देखनेवाले लोगों पर कितना असर हुआ, इसे तो छोड़ दीजिए लेकिन प्रिंट मीडिया को दूध का धुला साबित करने का एक महौल बनाया। ऐसा महौल कि टेलीविजन में काम करनेवाले सारे लोग अनपढ़ हैं, कम जानकार लोग हैं जबकि प्रिंट के लोग विश्लेषण की ताक़त रखतें हैं, भले ही वो दिनभर साइट से उठा-उठाकर जर्जर अनुवाद हमारे सामने ख़बर की शक्ल में रखते हों। ये तो 2009 के लोकसभा चुनाव का शुक्रिया अदा कीजिए, जिसने कि मज़बूत सरकार देने से ज़्यादा ये साबित कर दिया कि प्रिंट मीडिया बाज़ार के हाथों ज़्यादा बुरी तरह बिके हैं, ख़बरों के नाम पर मिलावटी का काम न्यूज़ चैनलों से ज्यादा यहां हुआ है। इसलिए पहला काम जो कि मुझे लगता है, माध्यमों के स्तर पर साधु और शैतान साबित करने का, जेनरेशन के आधार पर मसीहा और हैवान साबित करने का और प्रस्तुति के स्तर पर अवतार रूप और भांड रूप देने का जो काम चल रहा है, वो बंद होने चाहिए। पहले आप इसे समझिए कि आप जो कर रहे हैं वो कर क्या रहे हैं, किसके लिए कर रहे हैं, इसका असर क्या हो सकता है, आपके लिए कितना टिकाऊ है ऐसा करना। उसके बाद कानून और आयोग को लेकर बात कीजिए। इसे आप मैनेजमैंट का आरवाइ यानी रिस्पॉन्सीविलिटी योरसेल्फ कह सकते हैं। अंतिम बात कि अगर आपको पूरे मीडिया में बाज़ार ही इतना ज़रूरी लगता है तो उसे ईमानदारीपूर्वक, स्थिर होकर सोचने की कोशिश कीजिए। आपको बाज़ार की वास्तविकता को समझने के नाम पर न तो उसका ग़ुलाम बनने की ज़रूरत है और न ही उसका भोंपा बनने की अनिवार्यता। ऐसा होने से एक धारणा पनपती है कि बिना मोटी पूंजी के मीडिया का चलना संभव ही नहीं है। अब देखिए कि जिन अख़बारों ने पैसे लेकर चुनावी ख़बरें छापी, उन्होंने कितने सस्ते में मीडिया का बट्टा लगा दिया। बाज़ार का एक शब्द है, ब्रांड इमेज। उसे समझ ही नहीं पाये। अब है कि मीडिया की ऐसी हर ख़बर झूठी मानी जाने लग जाएगी, जिनको लेकर परेशानी पैदा हो सकती है। वो तमाम लोग इसकी जम कर आलोचना करेंगे, मीडिया की उस आवाज़ को दबाने की कोशिश करेंगे जिसमें सच भी शामिल है। जाहिर हममें से कोई नहीं चाहते कि स्वार्थवश, क्षुद्रताओं की आड़ में जिस तरह की हरकतें जारी हैं उसे मीडिया आलोचना की कैटेगरी में शामिल कर लें और हम भी उसमें शामिल हो जाएं। मेरे साथ ही की खेप में पूजा प्रसाद,विपिन चौधरी औऱ मृणाल वल्लरी के विचार को जानने के लिए क्लिक करें- बिकाउ मीडिया से पर्दा उठाने के लिए थैंक यू आम चुनाव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090716/bb06108d/attachment-0001.html From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Thu Jul 16 16:35:22 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Thu, 16 Jul 2009 04:05:22 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= STRI MUKTI::YATHARTH AUR UTOPIA Message-ID: <5df7208d0907160405ie1153f6t31131b8842b59cf@mail.gmail.com> ‘वह बार-बार भागती रही बार बार हर रात एक ही सपना देखती ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न’ कवि अरुण कमल की एक कविता है – स्वप्न। इस कविता में एक औरत बार-बार ससुराल से भागती है। मार खाकर। कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर घंटों बिताती है। फिर अंधेरा होने पर उसी जगह लौट आती है। कभी किसी दूर के सम्बन्धी या परिचित के घर दो चार दिन काटती है। कभी अपने नैहर चली जाती है। पर हफ़्ता या महीना भर बाद थक कर उसी जगह लौटती है। बेहतर होगा यह कहना कि उसे हर बार लौटना पड़ता है। यह उसकी विवशता है। यह भी याद रखने की बात है कि वह हर बार मार खाकर ही भागती है और लौटने पर भी मार खाती है। तो क्या इस स्त्री को अपनी ट्रैजिक नियति का पता नहीं है? कविता बताती है कि उसे बखूबी पता है कि मार खाने के बाद जहाँ से भागती है, बार-बार उसे वहीं लौटना है। साथ ही लौट कर फिर मार खाना है। जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है / कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है / जानती थी वो लौटना ही होगा इस बार भी। फिर भी भागती है। उसके यहाँ से गंगा भी ज्यादा दूर नहीं थी। रेल की पटरियाँ भी पास थीं। पर वह अपनी ट्रैजिक नियति को जानते हुए भी कि उसे फिर लौटना पड़ेगा, और मार खाना पड़ेगा; भागती है। कुछ दिन के लिए ही सही। वह मरण का वरण नहीं करती। आत्महत्या का रास्ता नहीं अख्तियार करती है। लिहाजा गंगा नदी का ज्यादा दूर न होना या रेल की पटरियाँ पास होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं रचता। मार खाने से बचने के लिए जीवन को समाप्त करना उसे गवारा नहीं है। क्योंकि वह बार-बार जीवन से मृत्यु नहीं, मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी। भागती भी है तो खूँटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती / गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती। आखिरकार वह औरत किस खूँटे से बंधी है, जिसे उखाड़ने की बार-बार असफल कोशिश करती है। गौर करें गर्दन ऐंठने तक कोशिश करती है और उखाड़ भले न पाये पर डिगा देती है। गर्दन ऐंठने तक कोशिश करना मानीखेज है। धीरे-धीरे यह खूँटा जड़ से उखड़ भले न पाये, टूटेगा जरूर। क्योंकि वह औरत बार-बार हर रात एक ही सपना देखती है। ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा। सपना है- मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न और बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न। इस कविता में, जहाँ से वह औरत मार खाकर भागती है, वहीं उसे बार-बार लौटना तथा मार खाना पड़ता है। जाहिर यह उसका ससुराल है। इसके लिए अरुण कमल ने ‘घर’ या ‘परिवार’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। क्या यह अनायास है? जबकि शादी के बाद, इस सामाजिक संरचना में, यही उसका ‘घर’ है या ‘परिवार’ भी। इस कविता में ‘घर’ शब्द एक बार आया है। जहाँ वह दो-चार दिन काटती है। कभी किसी दूर के संबंधी या किसी परिचित के घर जाहिर है यहाँ भी वह अपनी जिन्दगी का दो-चार दिन ही सही जीती नहीं, काटती है। कभी भागकर नैहर जाती है। पर यहाँ भी कितने दिन के लिए? हफ़्ता या महीना। वहाँ से भी थककर लौटती है। आशय यह कि पीहर में भी जिन्दगी का कुछ दिन ही काट पाती है। भले ही परिचित या किसी दूर के रिश्तेदार के घर के तुलना में कुछ ज्यादा दिन। थक कर लौटना दो बातों की तरफ इशारा करता है। एक, जिन्दगी जिया नहीं गया है, काटा गया है। दो, जो संरचना मौजूद है उसमें उसके लिए नैहर अब विकल्प नहीं रह गया है। चाहे जो हो उसे ससुराल में ही ‘निबाहना’ है। इस सामाजिक ढाँचे में माना यह जाता है कि डोली नैहर से उठी है तो अर्थी ससुराल से उठेगी। ऐसे में, वह ससुराल जहाँ बार-बार पीटी जाती है, शब्द के सच्चे मायने में ‘घर’ या ‘परिवार’ हो सकता है? हरगिज नहीं। वह उस स्त्री के लिए ‘जगह’ भर ही है। न तो ‘घर’ महज छत के नीचे का बसेरा है और न ही ‘परिवार’ कुछ लोगों के साथ भर रह लेने वाली व्यवस्था। जब तक आपसी संवेदनात्मक रिश्ता और उससे पैदा होनेवाली उष्मा मौजूद नहीं हो, उसे ‘घर’ या ‘परिवार’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। आखिरकार, जब वह जगह ‘घर’ और वहाँ के लोग ‘परिवार’ नहीं है तब वह वहाँ क्यों है? वह किस ‘खूँटा’ के मजबूत रस्सी से बंधी है जिसे गर्दन ऐंठने तक उखाड़ने या तोड़ने की हर बार कोशिश करती है। यह खूँटा पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। याद रखें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मायने परिवार में पुरूष का सिर्फ मुखिया होना नहीं है। यह महज इतना ही होता तो इसका ‘खूँटा’ कब का उखड़ चुका होता या इसकी ‘रस्सी’ टूट गयी होती। क्या यह कहने की जरूरत है कि इस ढाँचे की रचना धूर्तता और चालाकी के साथ की गयी है और आज भी हो रही है। आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैधानिक, सांस्कृतिक व्यवस्था और मूल्यों-मर्यादाओं, संस्कारों, आदर्शों तथा चिंतन के विभिन्न रूपों, विचारधाराओं, निर्मितियों, गतिविध्यिों के जरिये बड़े महीन ढंग से इसे रचा-बुना गया है। इन सबके जरिये पितृसत्ता पुरूष को औरत की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने का पाखंड रचती और फैलाती है। इस कविता में स्त्री के पास कहीं कोई रास्ता नहीं है और कहीं कोई अंतिम आसरा भी नहीं। जाहिर है उसे अपना रास्ता खुद बनाना है और अपना आसरा भी खुद ही बनना है। इस स्त्री को इसका बोध् है। इस बोध और गहरी जिजीविषा ने इसे रेल की पटरी पर या गंगा में जाने से रोका है। लिहाजा, ससुराल से मार खाकर बार-बार भागना महज पलायन नहीं है बल्कि विकल्प रचने के लिए रास्ता बनाने की प्रक्रिया की एक कड़ी है। इसके साथ ही पीटने की पीड़ा का अहसास होते रहने के लिए जरूरी कदम भी है। इस पीड़ा का अहसास होना बेहद जरूरी है। बगैर इस अहसास के न तो मुक्ति का स्वप्न याद रहेगा और न ही जीवन को बदलने के लिए यत्न करने की अभीप्सा बचेगी। इस अभीप्सा के बगैर वह गर्दन ऐंठने तक बार-बार खूँटे को डिगाने की असफल ही सही, कोशिश नहीं कर पायेगी। पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को घर के अंदर कैद किया है और उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन किया है। दूसरी तरफ विभिन्न मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों के जरिये शोषण को सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की है। इस कविता की स्त्री का आर्थिक तौर पर स्वावलंबी नहीं होना और विभिन्न संस्कारों का मकड़जाल अपना आशियाना अलग बनाने से रोकता है। इन वैचारिक जकड़बंदियों का दबाव ऐसा मजबूत है कि जहाँ तक रस्सी जाती है (यानी मंदिर की सीढ़ी, नैहर या किसी रिश्तेदार के घर) वहीं तक भाग पाती है। फिर ससुराल में लौटकर आना इसकी ट्रैजिक नियति है। लेकिन बार-बार, हर रात जो मुक्ति का स्वप्न देखती है उसके जरिये रास्ता जरूर बनेगा, मुक्ति जरूर मिलेगी, जीवन जरूर बदलेगा। इस कविता पर किंचित विस्तार के साथ विचार करने की वजह यह है कि इसमें एक आम स्त्री के जीवन का यथार्थ है और साधरण स्त्री की मुक्ति-कामना के साथ, खतरा मोलकर अपनी गर्दन ऐंठने तक कोशिश कर यूटोपिया रचने का साहस भी। स्वप्न शीर्षक कविता के मार्फ़त स्त्री मुक्तिः यथार्थ और यूटोपिया पर विचार करने की एक वजह यह है कि यह कविता जिस स्त्री के जीवन पर हो रहे पारिवारिक अत्याचार को अपना विषय बनाती है, वह ‘स्त्रीवाद’ का सिद्धांत पढ़कर अपनी मुक्ति-कामना से लबरेज नहीं है, बल्कि जीवन-जगत के यथार्थ से उसमें यह मुक्ति-कामना पैदा हुई है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अगर कोई स्त्री ‘स्त्रीवाद’ या स्त्री-मुक्ति से सम्बन्धित धरणाओं को पढ़-सुन या समझकर अपनी मुक्ति की कामना करती है या इसके लिए अग्रसर होती है तो यह अपराध नहीं बल्कि अच्छी बात है। इसी में मुक्तिकारी अवधरणाओं की सफलता भी है। यह उन लोगों के लिए कहा गया है जो ‘स्त्रीवाद’ और उससे जुड़ी धरणाओं को बदनाम करने के मकसद से अनर्गल प्रलाप करते हैं और मानते हैं कि आम औरतों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कविता पढ़कर समझा जा सकता है कि इस औरत पर पितृसत्तात्मक ढाँचे का भी असर है। इस संरचना के दायरे में जन्म लेने और उसके परवरिश होने की वजह से यह स्वाभाविक भी है। काबिलेगौर बात है – इस ढाँचे के भीतर रहते हुए उसका ‘स्वप्न’ देखना और उस स्वप्न के लिए ‘यत्न’ करना। यही स्वप्न और यत्न उसे मुक्ति भी दिलाएगी। बहरहाल, दुनिया के सभी समुदाय, सभ्यता, धर्म और मुल्क में पितृसत्ता मौजूद है। नतीजतन स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कमतर मानने की रवायत है। अपवादस्वरूप भले ही कुछ इससे मुक्त हों। यह दीगर बात है कि इन सबमें पितृसत्ता का एक समान या सर्वमान्य रूप नहीं है। अपने अलग-अलग गुण, धर्म के साथ इसकी मौजूदगी बरकरार है। समय-समय पर इसने विभिन्न शक्तियों से नापाक गठजोड़ करके अपना रूप भी बदला है। इसीलिए अलग-अलग देश-काल में यह एक जैसा नहीं दिखता। कुछ लोगों को लगता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामंतवादी संरचना की उपज है और सिर्फ इसी सामाजिक ढाँचे में मौजूद रहती है। जाहिर है ऐसा मानने वालों की समझ है कि पूँजीवाद के साथ यह खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी। ऐसा सोचने वाले लोगों में वे भी शामिल है जो पितृसत्ता को दरकते देख दुखी होते हैं और वे भी हैं जो पितृसत्ता की शोषणकारी, अमानवीय रूप से दुखी होकर इसे बदलना चाहते हैं। इसके पक्ष में दुखी होने वाले लोग पितृसत्ता को मजबूत बनाने की कामना करते हुए पुराने दिनों को याद करते हैं तथा पूँजीवाद और इसके साथ आए बदलाव को कोसते हैं। जबकि पितृसत्ता के चालाक समर्थक नित्य हो रहे बदलाव से किसी भी तरह गठजोड़ करके इसे बरकरार रखने का प्रयास करते हैं। पितृसत्ता की मौजूदगी से आहत उपरोक्त श्रेणी के लोग पूँजीवाद की भूमिका से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा पालते प्रतीत होते हैं। इतना तय है कि पितृसत्ता सिर्फ सामंतवादी व्यवस्था में ही मौजूद नहीं होती। अगर ऐसा होता तो विकसित पूँजीवादी मुल्क में इसे पूरी तौर पर समाप्त हो जाना चाहिए था। तथ्य तो यह बताता है कि ऐसी संरचना में भी पितृसत्ता की मौजूदगी बनी हुई है, भले ही बदले रंग-ढंग में। इसका आशय यह नहीं है कि सामंतवाद और पूँजीवाद औरतों के मामले में, पितृसत्ता की मौजूदगी को लेकर, एक समान हैं। निश्चित तौर पर पूँजीवाद की भूमिका इस लिहाज से कई कदम आगे की है। इसने पितृसत्ता को एक हद तक चोट पहुँचाया है, बदला है, औरतों को आजादी मुहैया कराई है। पर पितृसत्ता में अपना हित दिखते ही पूँजीवाद ने इसके साथ गठजोड़ कर लिया। पितृसत्ता के सहयोग से औरतों के श्रम को कम करके आँका गया। इससे पूँजीवाद का हित सधता है। इसी तरह स्त्री-देह का मसला है। पूँजीवाद और इसके कई उत्पादों ने स्त्री-देह को एक स्तर पर आजाद करने में भूमिका अदा की। लेकिन दूसरे स्तर पर अपने हित के लिए पितृसत्ता से गलबहियाँ कर स्त्री-देह को महज पण्य में भी बदलने की कोशिश की। स्त्री-देह की मुक्ति जरूरी है। स्त्रियों को अपने देह पर पूरा-पूरा अधिकार होना चाहिए। लेकिन इस देह-मुक्ति का नारा देकर स्त्री-देह को अपने लिए, सबके लिए, उपलब्ध करने की चालाकी भी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो देह की आजादी पितृसत्तात्मक बंधनों, मूल्यों, मान्यताओं से होनी चाहिए। पूँजीवाद के जरिए कई कदम आगे तक स्त्रियों को देह पर आजादी मिली है। स्त्रियों में यह चेतना भी विकसित हुई है कि उनके देह पर उनका हक है। पर आजाद देह को पुरुष-भोग के लिए ‘उपलब्ध देह’ बनाने की कोशिश अंततः पितृसत्ता को चोर दरवाजे से लागू करने का ही प्रयास है। यहीं एक बात और। पूँजीवाद के विभिन्न उपकरण, मीडिया आदि ने स्त्री-देह को खूब दिखाया और घुमाया है। घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जगहों पर जाना, अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है। पर यह भी गौर करना होगा कि इस बाहर आने में क्या सिर्फ स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया को यथार्थ बनाया जा रहा है ? अथवा पितृसत्तात्मक संरचना अपने को नए रूप में ढालकर स्त्री-देह का वस्तुकरण कर रही है। संभव है इसके पक्ष में ऊपरी तौर पर स्त्री की मर्जी भी दिखे। पर सोचने की बात है कि इस ‘मर्जी’ को कौन-सी सत्ता परिचालित कर रही है, नियंत्रित कर रही है? लिहाजा पितृसत्ता की कुछ की दहलीज लाँघने के बावजूद स्त्री-देह किसके नियंत्रण में है, कौन-सी ताकत इस दिशा में ठेल रही है। इस पहलू को नजरअंदाज करके स्त्री-मुक्ति का न तो यथार्थ समझा जा सकता है और न ही यूटोपिया की रचना हो सकती है। दरअसल, ये सारी परिस्थितियाँ इतनी जटिलताओं से युक्त हैं कि इसका एक पक्ष देखकर न तो इसे सीधे खारिज किया जा सकता है और न ही इसका पुरजोर समर्थन। लिहाजा, पूँजीवाद या इसके विभिन्न उपकरणों को उनकी प्रगतिशीलता का वाजिब श्रेय भी देना होगा। साथ ही इसके ‘मुनाफे’ के लिए बने शोषणमूलक तंत्रा की जटिलता और पितृसत्ता के साथ रिश्ते को समझते हुए मुखालफत भी करना होगा। इन दो व्यवस्थाओं के अलावा समाजवादी/साम्यवादी मुल्कों में पितृसत्ता की क्या स्थिति रही? क्या यह बिल्कुल समाप्त हो गई? ;पिफलहाल यहाँ इस पर बहस किए बगैर कि वे मुल्क कितने समाजवादी या साम्यवादी थे?द्ध यह सवाल इसलिए पूछा जाना जरूरी है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है, समाजवाद आते स्त्री-मुक्ति का मकसद आप पूरा हो जाएगा। असल में, ‘आधार’ और अधिरचना की यांत्रिाक समझ के कारण ही कुछ लोग ऐसा समझते हैं। स्त्री-मुक्ति का सवाल ही नहीं बल्कि जाति के सवाल को भी कापफी समय तक ऐसे ही देखा जाता रहा है। कुछ लोग स्त्री-मुक्ति ;जेंडर के संदर्भ मेंद्ध के सवाल को सिपर्फ ‘अधिरचना’ से सम्ब( मानते हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि क्रांति के बाद जब ‘आधार’ ही बदल जाएगा तो अधिरचना का बदलना अवश्यम्भावी है। लिहाजा स्त्री-मुक्ति का प्रश्न ही नहीं बचेगा। पितृसत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाएगी। ऐसे लोग ‘आधार’ के साथ पितृसत्ता के जटिल रिश्तों को नजरअंदाज करते हैं। जबकि कुछ लोगों को पितृसत्ता का भौतिक आधार ही ज्यादा दिखता है। लिहाजा, ऐसे लोग इसे सिपर्फ ‘आधार’ से जुड़ा मानते हैं। इस समझ का प्रतिफलन इस रूप में विकसित होता है कि जब उत्पादन का सम्बन्ध बदल जाएगा, उत्पादन प्रक्रिया बदल जाएगी तो फिर स्त्री-मुक्ति तो अपने आप हो जाएगी। ऐसे में यह कहना जरूरी है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का भौतिक आधार और सांस्कृतिक अधिरचना दोनों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। एक को दूसरे पर तवज्जो देना इसके जटिल अंतर्संबन्धें को नजरअंदाज करना होगा। यह भी याद करने की जरूरत है कि ‘आधार’ के बदलने मात्रा से ‘अधिचना’ भी पूरी तरह नहीं बदलती। आधार और अधिरचना के बीच इस तरह का सरल सम्बन्ध होता तो कई समस्याएँ खुद-ब-खुद मिट गयी होती। आधार और अधिरचना के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को नजरअंदाज करके इसकी परस्परता को नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, समाजवादी मुल्कों में गोकि पूर्णतः स्त्री-मुक्ति न हुई, पर स्त्रियों के हालात बेहतर हो गए थे। पूँजीवाद की तुलना में स्त्री-मुक्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था ज्यादा माकूल है। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की रचना इसलिए भी ज्यादा जटिल है कि स्त्री की पहचान सिर्फ और सिर्फ स्त्री के तौर पर नहीं है। हो भी नहीं सकती। लिहाजा स्त्री की समस्याएँ भी कई स्तर भेदों से जुड़ी हुई हैं। स्त्री अपने आप में कोई ‘वर्ग’ नहीं है। स्त्री होने मात्र से सारी स्त्रियों की न तो सभी समस्याएँ हो सकती हैं और न सबका हित एक हो सकता है। हाँ, किसी-न-किसी रूप में सभी स्त्रियाँ शोषण की शिकार होती हैं। मसलन, अमीर स्त्री और गरीब स्त्री दोनों का शोषण होता है। पर एक वर्ग का न होने के कारण इनका साझा वर्गीय हित-अहित नहीं हो सकता। संभव है, अमीर स्त्री अपने परिवार, समुदाय में पितृसत्ता की शिकार हो और अपने वर्गीय हित में गरीब स्त्री का शोषण कर रही हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जाति-धर्म, वर्ग के साथ स्त्री अपनी अलग ‘कैटेगरी’ भी बनाती है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि सेक्स और जेण्डर के हिसाब से ऊपरी तौर पर समान होने के बावजूद ये स्तर-भेद ‘सार्वभौम बहनापा’ के मार्ग में अवरोध हैं? क्या इन स्तर भेदों को बिल्कुल नकारा जा सकता है? प्रसंगवश, स्त्री-मुक्ति विमर्शकारों के यहाँ ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ एक नहीं है। अब हिन्दी में इसके अनुवाद की समस्या हो सकती है। इन दोनों का अनुवाद ‘लिंग’ करने से उनके साथ का अर्थवृत्त नहीं आ सकता और अवधरणा भी स्पष्ट नहीं हो सकती। लिहाजा जब तक उस अवधरणा को स्पष्ट करने वाला शब्द नहीं मिलता, तब तक सेक्स के लिए लिंग और जेण्डर के लिए जेण्डर का उपयोग करने में क्या दिक्कत है? कुछ अन्ध हिन्दी-प्रेमी दूसरी भाषा के शब्दों को बिल्कुल लेना नहीं चाहते। नतीजतन ऐसा शब्द बना देते हैं जो उस अवधरणा को स्पष्ट करने में कहीं से कारगर नहीं होता। गौरतलब है कि लिंग (सेक्स के अर्थ में) एक बायोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट है और जेण्डर एक सोशियोलॉजिकल कस्ट्रक्ट। यानी सेक्स जैविक या प्राकृतिक होता है। जबकि जेण्डर जैविक या प्राकृतिक नहीं होता। जेण्डर की रचना विभिन्न सत्ताओं ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं के तौर पर किया है। मतलब कि स्त्री- ‘सेक्स’ के लिहाज से पुरुष से भिन्न है। इन्हें ‘जेण्डर’ की भिन्नता पितृसत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए स्त्रियों को विभिन्न ‘भूमिका’ देने के मकसद से और कमतर ठहराने के लिए किया है। इस लिहाज से देखें तो ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ में बड़ा फर्क नजर आएगा। पितृसत्ता ने ‘जेण्डर’ को भी प्राकृतिक, स्वाभाविक गुण के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया है। स्त्री-मुक्ति इसी ‘जेण्डर’ से मुक्ति में है। बहरहाल, स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया रचने वालों को स्त्री के स्तरभेदों को ध्यान में रखना होगा। स्त्रियों के भीतर मौजूद परस्पर विरोधी पहचान के कई रूप हो सकते हैं। इन पहचानों को रेखांकित करने से स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया कमजोर नहीं बल्कि ज्यादा सार्थक, विश्वसनीय और कारगर होगा। अलबत्ता यह स्तर भेद चुनौती जरूर पेश करेगा पर मुक्ति का मजबूत और चौड़ा रास्ता इसी से निकलेगा। जाति और वर्ग दोनों से निरपेक्ष जेण्डर की समझ मुक्तिकारी यूटोपिया की पुख्ता जमीन तैयार नहीं कर सकती। साथ ही इस यूटोपिया की संरचना तब तक पूर्णतया सफल नहीं हो सकती जब तक तमाम स्त्रियों के लिए इसमें जगह न हो। कहने का आशय यह है कि स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की बाबत यह नहीं कहना होगा कि फिलहाल इस श्रेणी की स्त्री मुक्त होगी और उस श्रेणी की स्त्री बाद मुक्त होगी। आपसी परस्पर विरोधी भेदों के बावजूद सारी स्त्रिायाँ पितृसत्ता की शिकार हैं। और सबके लिए मुक्तिकामी यूटोपिया की दरकार है। जब भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा होती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अलमबरदार इसे खतरे के तौर पर प्रचारित करते हैं। ऐसे लोग यह फैलाते हैं कि मुक्ति की आवाज उठाने वाली ये औरतें पुरुषों से नफरत करने वाली, परिवार तोड़ने वाली, ब्रा जलाने वाली, परकटी समुदाय की हैं। इनकी कोई देशी जमीन नहीं है। अव्वल तो यह है कि स्त्री-मुक्ति का सपना देखने वाली या इस दिशा में चिंतन-मन्थन करने वाली औरतों की कोई एक धारा नहीं है न ही स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी कोई एक अवधारणा। हर बड़े मकसद की तरह इसमें भी तरह-तरह की वैचारिक सरणियों में यकीन रखने वाले लोग सक्रिय हैं। किसी भी अस्मितावादी, मुक्तिकामी समूह का अपने ऊपर अत्याचार करने वाले लोगों के प्रति नफरत पैदा कर अपनी अस्मिता की तरफ ध्यान खींचने और इस ‘अन्य’ के बरअक्स ‘अपने’ लोगों को एकजुट करना आसान होता है। नोट करने की बात है कि अगर यह नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती गई तो कोई भी मुक्तिकामी परियोजना सफल होने के बजाय एक-दूसरी वर्चस्वकारी शक्ति में तब्दील हो जाएगी। फिर यह एक लोकतांत्रिाक व्यवस्था बनाने की बजाय, इन मूल्यों के लिए खुद भी चुनौती बन जाएगी। इसलिए किसी भी मुक्तिकारी समूह के यूटोपिया में उसके ‘अन्य’ के लिए क्या भाव-स्थान है, इसके जरिए उस यूटोपिया की जाँच बिल्कुल जरूरी होती है। यह अच्छी बात है कि स्त्री-समूहों में अपने ‘अन्य’ (पुरुष) के लिए नफरत का भाव नहीं है। इनकी स्पष्ट समझ है कि हमारा संघर्ष पितृसत्ता के विविध आयामों से है, न कि पुरुष-व्यक्ति-सत्ता से। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया में पुरुषों के लिए भी बराबर अधिकार और जगह होगी। अलबत्ता ये औरतें नफरत पफैलाने वाली नहीं हैं बल्कि समाज में बराबरी, प्रेम और सौहार्द को स्थापित करना चाहती हैं। हाँ, अगर परिवार का ढाँचा अपने को बदलकर लोकतांत्रिक नहीं बनाता, पितृसत्ता से चिपका रहना चाहता है, तो इसका बना रहना क्यों जरूरी है ? पितृसत्ता पर आधरित मौजूदा ‘परिवार’ में लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया के दौरान दरार आएगी और एक बेहतर परिवार की रचना होगी। इस नए बने ‘परिवार’ (या इसका कुछ नया नाम पड़ जाए) में स्त्री-पुरुष समानता होगी। दोनों को बराबर हक होगा। क्या यह कहने की जरूरत है कि ऐसा होना सिर्फ स्त्री के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के हित के लिए भी आवश्यक है। जिस ‘ब्रा- बर्निंग’ की चर्चा बार-बार होती हैं, उसे भी समझने की जरूरत है। असल में, मुक्तिकामी स्त्रियों ने ब्रा को ‘जेण्डर’ के साथ जोड़कर देखा था। अमेरिका में सम्पन्न एक विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के दौरान स्त्रीवादियों ने एक कूड़ेदान में अपना-अपना ब्रा उतारकर फेंक दिया। इन लोगों ने स्त्रियों से यह अपील भी की ब्रा गुलामी का प्रतीक है अतः इसे फेंक दें। इन स्त्रियों का मानना था कि स्तन बच्चे के दूध पीने के लिए है, न कि पुरुष के उपभोग की खातिर। पुरुष-सत्ता ने इसे भोग की वस्तु बनाकर खास ‘आकार’ में रखने के मकसद से ब्रा का ईजाद किया है। आशय यह कि स्त्री ‘सेक्स’ के इस अंग को ‘ब्रा’ ने ‘जेण्डर’ में तब्दील कर दिया है। लिहाजा, गुलामी के इस निशानी को पफेंककर जला देना आवश्यक है। गौर करने लायक बात यह है कि आज का स्त्रीवाद इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। दूसरा, ‘ब्रा-बर्निंग’ के मुद्दे पर इतनी हाय-तौबा की दरकार भी नहीं है। यह भी ऐसी ही घटना है जैसा कि गर्भपात के अधिकार के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान सीमोन सहित फ्रांस की अनेक स्त्रीवादी महिलाओं ने अपना दस्तख्त कर सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने अपने जीवन में गर्भपात कराया है। गर्भपात कराना उनका हक है और यह अधिकार कानूनी तौर पर उन्हें मिलना चाहिए। कानूनी हक मिलने के साथ समाज में गर्भपात को लेकर मौजूद ‘टैबू’ भी इससे दूर हुआ। अतः इतिहास की इन घटनाओं को उसके संदर्भ में ही देखने से, इन्हें ठीक से समझा जा सकता है। बहरहाल ऐसी अपेक्षा तो स्त्री-पुरुष समता में भरोसा रखने वालों से की जा सकती है, पितृसत्ता के अलमबरदारों से नहीं। स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया के समर्थकों पर आरोप लगाया जाता है कि इनकी देशी जड़ें नहीं हैं। ऐसा कहकर इस विचार को फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है कि ये विदेशी धरणाएँ हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से कोई सरोकार नहीं है। अव्वल तो यह कि कोई भी विचारधारा, वैचारिक सरणी अपने मुल्क में नहीं जन्मी तो क्या इसे नहीं अपनाना चाहिए ? क्या लोकतंत्रा, आधुनिकता सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन धरणाओं को त्याग देना चाहिए ? ऐसी कूपमंडूकता के खरतनाक मंसूबों को हमेशा याद रखना होगा। दूसरी बात यह कि स्त्री-मुक्ति की देशी जड़ें यहाँ मौजूद रही हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने इसकी गहरी पड़ताल कर हमारी इस महत्त्वपूर्ण विरासत का विवेचन-विश्लेषण किया है। जबसे पितृसत्ता का अंकुश कायम हुआ है, इसके प्रतिरोध में स्त्री-आवाजें भी आई हैं। क्या इन आवाजों में मुक्ति-कामना नहीं झलकती ? अपनी पीड़ा का अहसास कराती इन आवाजों में मुक्ति की गहरी लालसा का म(मिराग भी लबरेज़ है। गार्गी, थेरी गाथा की स्त्रियाँ, आंडाल, अक्का महादेवी, मीराबाई, सहजोबाई से लेकर रमाबाई, ताराबाई शिंदे, महादेवी वर्मा सरीखी अनेक स्त्रियों की आवाज़ में अपनी पीड़ा और पितृसत्ता की मुखालफत शामिल है। पितृसत्ता ने कई स्तरों पर काम किया है। इनकी आवाज को दबाने से लेकर इनके विचारों को नष्ट करने तक पितृसत्ता की प्रत्यक्ष हिंसा तो दिखती है, पर चुप कराने वाली परोक्ष हिंसा जल्द दिख नहीं पाती। आलम यह रहा है कि निकट अतीत में सीमंतनी उपदेश की महान रचनाकार ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ ही बनी रही। आज तक उस साहसी स्त्री का नाम पता नहीं चल पाया है। क्या यह उस परोक्ष हिंसा का एक बुरा नतीजा नहीं है ? ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता की मुखालफत करने वाली ये स्त्रियाँ सिर्फ भारत या यूरोप में हुई हैं। जिस तरह हर मुल्क में पितृसत्ता थी, उसी तरह इसकी विरोधी भी थीं। मसलन, काफी पहले न जाकर निकट अतीत, उन्नीसवीं सदी में गौर करें तो चीन में जिउ जिन, श्रीलंका में सुगला तथा गजमन नोना, इण्डोनेशिया में कार्तिनी, ईरान में कुर्रत उल ऐन सहित अनेक महिलाएँ हर मुल्क में मिल जाएंगी। यह अलग बात है कि पितृसत्ता का विरोध करने के साथ-साथ, मौजूदा दौर के हिसाब से देखने पर, इनकी सीमाएं भी सामने आती हैं। अपनी इस विरासत को न तो नकार कर और न ही बढ़-चढ़कर तारीफ करके इसे समझा जा सकता है। विरासत के सर्जनात्मक विकास के लिए खूबियों-सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ जिरह जरूरी होता है और कारगर भी। अपने देश में स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को घर की दहलीज से बाहर निकाला। इसी दौरान बड़ी तादाद में स्त्रियों ने सामाजिक-राजनीतिक कार्य में हिस्सा लिया। राजनीतिक प्रश्न के तौर पर स्त्रियों का सवाल इसी दौर में उभरा। स्त्रियों का घर की चारदीवारी से बाहर आकर सामाजिक-राजनीतिक कामों में हिस्सा लेना, सभा-संगोष्ठी में जाना अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ी हुई घटना थी। इसके लिए स्वाधीनता-आंदोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं को इसका श्रेय देना चाहिए। पर यह भी याद रखना चाहिए कि दलित मजदूरों और किसानों के सवाल की तरह स्त्रियों का प्रश्न भी उनके लिए स्वाधीनता-आंदोलन का ही मसला था, अलग से स्त्री-मुक्ति का सवाल नहीं। आशय यह कि उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने स्त्रियों के मसले को अपने नजरिये से स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत के नजरिये से उठाया। स्त्रियों को घर से बाहर लाकर आंदोलन से जोड़ना उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। यही वजह है कि १९१७ में सरोजनी नायडू की अगुवाई में स्त्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल को मांटेस्क्यू से मिलकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और काउंसिल के उन्नीस गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाए गए स्वराज्य की मांग को अपना समर्थन देते हुए स्त्रियों के सवाल को अलग से उठाना पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ खुद ‘जेण्डर’ की धरणा से ग्रसित थे। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता आंदोलन में जो काम पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं कर सकतीं। इसे समझने के लिए महात्मा गांधी द्वारा आहूत नमक सत्याग्रह को याद किया जा सकता है। गांधी जी स्वाधीननता आंदोलन में स्त्रियों को भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे परंतु नमक सत्याग्रह के लिए हुए दांडी मार्च में हिस्सा लेने से रोक रहे थे। इन्हें लगता था कि इतना दूर चलने से स्त्रियां थक जाएंगी। गांधी जी की इस मनाही का सरोजनी नायडू सहित कुछ स्त्रियों ने विरोध किया और दांडी-मार्च में शामिल होने हेतु जिद की। इनकी जिद के सामने झुककर गांधी जी ने बाद में अपनी हामी भरी। दांडी-मार्च और इसकी परिणति नमक सत्याग्रह में शामिल स्त्रियों ने गांधी जी की पूर्व मान्यता को गलत साबित करते हुए पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम किया। इस तरह की कई घटनाएँ बताती हैं कि स्वाधीनता-आंदोलन के नेताओं की मानसिक बनावट में ‘जेण्डर’ की पितृसत्तात्मक मान्यताओं का कितना असर था। इसी के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनमें भारत की स्त्रियों को, अपने हक के लिए यूरोप की महिलाओं की तुलना में काफी कम संघर्ष करना पड़ा। यूरोपीय महिलाओं को अपने राजनीतिक हक, ‘वोट देने का अधिकार’ पाने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। १९२८ ई में हुए मुंबई (तब बम्बई) कांग्रेस में सरोजिनी नायडू ने काउंसिलों के चुनाव में स्त्रियों के मताध्किार का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का मदन मोहन मालवीय ने मुखर विरोध किया था। हालांकि मालवीय के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया। आशय यह है कि स्त्रियों के पक्ष में, भले ही कुछ कदम आगे बढ़कर साथ देने के लिए, स्वाधीनता-आंदोलन में शामिल शिक्षित मध्य वर्ग सामने आता था। भारत में स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के हिमायतियों ने सिर्फ स्त्रियों का सवाल उठाकर, उसके लिए जोखिम भरा संघर्ष नहीं किया है। बोधगया मुक्ति आंदोलन, चिपको आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब के खिलाफ हुए आंदोलन जिसकी वजह से सरकार गिर गई थी, स्त्रियों द्वारा किए गए आंदोलन हैं जिसमें अपनी-अपनी तरह की स्त्रीवादी महिलाएं शामिल रही हैं। इन सारे संघर्षों में स्त्रियों को काफी सफलता भी मिली है। इस लिहाज से गौर फरमाएं तो भारत के स्त्री-मुक्ति आंदोलन की यह निजी खासियत है और इसके विस्तार तथा व्याप्ति का सूचक भी। स्त्री-मुक्ति का एक यूटोपिया एक सदी पहले रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी कहानी सुल्ताना का सपना में रचा था। इसके हिसाब से पुरुष घरों में सारा काम कर रहे हैं और औरतें बाहर के सारे काम को कर रही हैं। इस यूटोपिया को लागू करने की प्रक्रिया नफरत पर आधरित तो नहीं थी, परंतु इसमें सारा क्रम सिर्फ उल्ट दिया गया था। मौजूदा स्त्री-मुक्ति-विमर्श इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। अब क्रम को सिर्फ उल्टा नहीं जाता बल्कि सहभागिता, स्वतंत्रता और समता को सुनिश्चित किया जाता है। नोट करने लायक बात यह है कि यथार्थ और यूटोपिया एक-दूसरे से बिल्कुल अलहदा नहीं होते। दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है। यथार्थ के घात-संघात और समझ से यूटोपिया आकार ग्रहण करता है तो यूटोपिया हमें यथार्थ को जाँचने-समझने की समझ भी देता है, जिससे उस यथार्थ की जटिल संरचना में निहित वर्चस्वकारी रूप को जानकर उसे दूर करने की दिशा में बढ़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ के विभिन्न आयामों को समझे बगैर नहीं रचा जा सकता। व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के साथ पितृसत्ता ने अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बना रखा है। इसलिए इन सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर ही स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया का खाका निर्मित हो सकता है। पितृसत्ता के इस मकड़जाल को देखते हुए ऐसा लगता है कि बगैर पूरी व्यवस्था बदले पूर्णतः स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। एक न एक दिन स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ जरूर बनेगा। मुक्ति का स्वप्न इसे हकीकत तक जरूर पहुँचायेगा। कवि वेणु गोपाल की कविता का सहारा लेकर कहें तो … ना हो कुछ भी सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत और यह एक शुरुआत ही तो है कि वहाँ एक सपना है। From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Thu Jul 16 20:05:01 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Thu, 16 Jul 2009 07:35:01 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: STRI MUKTI::YATHARTH AUR UTOPIA In-Reply-To: <5df7208d0907160405ie1153f6t31131b8842b59cf@mail.gmail.com> References: <5df7208d0907160405ie1153f6t31131b8842b59cf@mail.gmail.com> Message-ID: <5df7208d0907160735s628c1e76r94ecf8c53963191e@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Rajeev Ranjan Giri Date: Thu, 16 Jul 2009 04:05:22 -0700 Subject: STRI MUKTI::YATHARTH AUR UTOPIA To: deewan at sarai.net yh lekh traimasik web ptrika pratilipi me chhap chuka hai.. www.pratilipi.in se lekr ise dala ja rha hai... ‘वह बार-बार भागती रही बार बार हर रात एक ही सपना देखती ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न’ कवि अरुण कमल की एक कविता है – स्वप्न। इस कविता में एक औरत बार-बार ससुराल से भागती है। मार खाकर। कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर घंटों बिताती है। फिर अंधेरा होने पर उसी जगह लौट आती है। कभी किसी दूर के सम्बन्धी या परिचित के घर दो चार दिन काटती है। कभी अपने नैहर चली जाती है। पर हफ़्ता या महीना भर बाद थक कर उसी जगह लौटती है। बेहतर होगा यह कहना कि उसे हर बार लौटना पड़ता है। यह उसकी विवशता है। यह भी याद रखने की बात है कि वह हर बार मार खाकर ही भागती है और लौटने पर भी मार खाती है। तो क्या इस स्त्री को अपनी ट्रैजिक नियति का पता नहीं है? कविता बताती है कि उसे बखूबी पता है कि मार खाने के बाद जहाँ से भागती है, बार-बार उसे वहीं लौटना है। साथ ही लौट कर फिर मार खाना है। जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है / कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है / जानती थी वो लौटना ही होगा इस बार भी। फिर भी भागती है। उसके यहाँ से गंगा भी ज्यादा दूर नहीं थी। रेल की पटरियाँ भी पास थीं। पर वह अपनी ट्रैजिक नियति को जानते हुए भी कि उसे फिर लौटना पड़ेगा, और मार खाना पड़ेगा; भागती है। कुछ दिन के लिए ही सही। वह मरण का वरण नहीं करती। आत्महत्या का रास्ता नहीं अख्तियार करती है। लिहाजा गंगा नदी का ज्यादा दूर न होना या रेल की पटरियाँ पास होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं रचता। मार खाने से बचने के लिए जीवन को समाप्त करना उसे गवारा नहीं है। क्योंकि वह बार-बार जीवन से मृत्यु नहीं, मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी। भागती भी है तो खूँटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती / गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती। आखिरकार वह औरत किस खूँटे से बंधी है, जिसे उखाड़ने की बार-बार असफल कोशिश करती है। गौर करें गर्दन ऐंठने तक कोशिश करती है और उखाड़ भले न पाये पर डिगा देती है। गर्दन ऐंठने तक कोशिश करना मानीखेज है। धीरे-धीरे यह खूँटा जड़ से उखड़ भले न पाये, टूटेगा जरूर। क्योंकि वह औरत बार-बार हर रात एक ही सपना देखती है। ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा। सपना है- मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न और बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न। इस कविता में, जहाँ से वह औरत मार खाकर भागती है, वहीं उसे बार-बार लौटना तथा मार खाना पड़ता है। जाहिर यह उसका ससुराल है। इसके लिए अरुण कमल ने ‘घर’ या ‘परिवार’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। क्या यह अनायास है? जबकि शादी के बाद, इस सामाजिक संरचना में, यही उसका ‘घर’ है या ‘परिवार’ भी। इस कविता में ‘घर’ शब्द एक बार आया है। जहाँ वह दो-चार दिन काटती है। कभी किसी दूर के संबंधी या किसी परिचित के घर जाहिर है यहाँ भी वह अपनी जिन्दगी का दो-चार दिन ही सही जीती नहीं, काटती है। कभी भागकर नैहर जाती है। पर यहाँ भी कितने दिन के लिए? हफ़्ता या महीना। वहाँ से भी थककर लौटती है। आशय यह कि पीहर में भी जिन्दगी का कुछ दिन ही काट पाती है। भले ही परिचित या किसी दूर के रिश्तेदार के घर के तुलना में कुछ ज्यादा दिन। थक कर लौटना दो बातों की तरफ इशारा करता है। एक, जिन्दगी जिया नहीं गया है, काटा गया है। दो, जो संरचना मौजूद है उसमें उसके लिए नैहर अब विकल्प नहीं रह गया है। चाहे जो हो उसे ससुराल में ही ‘निबाहना’ है। इस सामाजिक ढाँचे में माना यह जाता है कि डोली नैहर से उठी है तो अर्थी ससुराल से उठेगी। ऐसे में, वह ससुराल जहाँ बार-बार पीटी जाती है, शब्द के सच्चे मायने में ‘घर’ या ‘परिवार’ हो सकता है? हरगिज नहीं। वह उस स्त्री के लिए ‘जगह’ भर ही है। न तो ‘घर’ महज छत के नीचे का बसेरा है और न ही ‘परिवार’ कुछ लोगों के साथ भर रह लेने वाली व्यवस्था। जब तक आपसी संवेदनात्मक रिश्ता और उससे पैदा होनेवाली उष्मा मौजूद नहीं हो, उसे ‘घर’ या ‘परिवार’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। आखिरकार, जब वह जगह ‘घर’ और वहाँ के लोग ‘परिवार’ नहीं है तब वह वहाँ क्यों है? वह किस ‘खूँटा’ के मजबूत रस्सी से बंधी है जिसे गर्दन ऐंठने तक उखाड़ने या तोड़ने की हर बार कोशिश करती है। यह खूँटा पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। याद रखें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मायने परिवार में पुरूष का सिर्फ मुखिया होना नहीं है। यह महज इतना ही होता तो इसका ‘खूँटा’ कब का उखड़ चुका होता या इसकी ‘रस्सी’ टूट गयी होती। क्या यह कहने की जरूरत है कि इस ढाँचे की रचना धूर्तता और चालाकी के साथ की गयी है और आज भी हो रही है। आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैधानिक, सांस्कृतिक व्यवस्था और मूल्यों-मर्यादाओं, संस्कारों, आदर्शों तथा चिंतन के विभिन्न रूपों, विचारधाराओं, निर्मितियों, गतिविध्यिों के जरिये बड़े महीन ढंग से इसे रचा-बुना गया है। इन सबके जरिये पितृसत्ता पुरूष को औरत की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने का पाखंड रचती और फैलाती है। इस कविता में स्त्री के पास कहीं कोई रास्ता नहीं है और कहीं कोई अंतिम आसरा भी नहीं। जाहिर है उसे अपना रास्ता खुद बनाना है और अपना आसरा भी खुद ही बनना है। इस स्त्री को इसका बोध् है। इस बोध और गहरी जिजीविषा ने इसे रेल की पटरी पर या गंगा में जाने से रोका है। लिहाजा, ससुराल से मार खाकर बार-बार भागना महज पलायन नहीं है बल्कि विकल्प रचने के लिए रास्ता बनाने की प्रक्रिया की एक कड़ी है। इसके साथ ही पीटने की पीड़ा का अहसास होते रहने के लिए जरूरी कदम भी है। इस पीड़ा का अहसास होना बेहद जरूरी है। बगैर इस अहसास के न तो मुक्ति का स्वप्न याद रहेगा और न ही जीवन को बदलने के लिए यत्न करने की अभीप्सा बचेगी। इस अभीप्सा के बगैर वह गर्दन ऐंठने तक बार-बार खूँटे को डिगाने की असफल ही सही, कोशिश नहीं कर पायेगी। पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को घर के अंदर कैद किया है और उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन किया है। दूसरी तरफ विभिन्न मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों के जरिये शोषण को सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की है। इस कविता की स्त्री का आर्थिक तौर पर स्वावलंबी नहीं होना और विभिन्न संस्कारों का मकड़जाल अपना आशियाना अलग बनाने से रोकता है। इन वैचारिक जकड़बंदियों का दबाव ऐसा मजबूत है कि जहाँ तक रस्सी जाती है (यानी मंदिर की सीढ़ी, नैहर या किसी रिश्तेदार के घर) वहीं तक भाग पाती है। फिर ससुराल में लौटकर आना इसकी ट्रैजिक नियति है। लेकिन बार-बार, हर रात जो मुक्ति का स्वप्न देखती है उसके जरिये रास्ता जरूर बनेगा, मुक्ति जरूर मिलेगी, जीवन जरूर बदलेगा। इस कविता पर किंचित विस्तार के साथ विचार करने की वजह यह है कि इसमें एक आम स्त्री के जीवन का यथार्थ है और साधरण स्त्री की मुक्ति-कामना के साथ, खतरा मोलकर अपनी गर्दन ऐंठने तक कोशिश कर यूटोपिया रचने का साहस भी। स्वप्न शीर्षक कविता के मार्फ़त स्त्री मुक्तिः यथार्थ और यूटोपिया पर विचार करने की एक वजह यह है कि यह कविता जिस स्त्री के जीवन पर हो रहे पारिवारिक अत्याचार को अपना विषय बनाती है, वह ‘स्त्रीवाद’ का सिद्धांत पढ़कर अपनी मुक्ति-कामना से लबरेज नहीं है, बल्कि जीवन-जगत के यथार्थ से उसमें यह मुक्ति-कामना पैदा हुई है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अगर कोई स्त्री ‘स्त्रीवाद’ या स्त्री-मुक्ति से सम्बन्धित धरणाओं को पढ़-सुन या समझकर अपनी मुक्ति की कामना करती है या इसके लिए अग्रसर होती है तो यह अपराध नहीं बल्कि अच्छी बात है। इसी में मुक्तिकारी अवधरणाओं की सफलता भी है। यह उन लोगों के लिए कहा गया है जो ‘स्त्रीवाद’ और उससे जुड़ी धरणाओं को बदनाम करने के मकसद से अनर्गल प्रलाप करते हैं और मानते हैं कि आम औरतों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कविता पढ़कर समझा जा सकता है कि इस औरत पर पितृसत्तात्मक ढाँचे का भी असर है। इस संरचना के दायरे में जन्म लेने और उसके परवरिश होने की वजह से यह स्वाभाविक भी है। काबिलेगौर बात है – इस ढाँचे के भीतर रहते हुए उसका ‘स्वप्न’ देखना और उस स्वप्न के लिए ‘यत्न’ करना। यही स्वप्न और यत्न उसे मुक्ति भी दिलाएगी। बहरहाल, दुनिया के सभी समुदाय, सभ्यता, धर्म और मुल्क में पितृसत्ता मौजूद है। नतीजतन स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कमतर मानने की रवायत है। अपवादस्वरूप भले ही कुछ इससे मुक्त हों। यह दीगर बात है कि इन सबमें पितृसत्ता का एक समान या सर्वमान्य रूप नहीं है। अपने अलग-अलग गुण, धर्म के साथ इसकी मौजूदगी बरकरार है। समय-समय पर इसने विभिन्न शक्तियों से नापाक गठजोड़ करके अपना रूप भी बदला है। इसीलिए अलग-अलग देश-काल में यह एक जैसा नहीं दिखता। कुछ लोगों को लगता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामंतवादी संरचना की उपज है और सिर्फ इसी सामाजिक ढाँचे में मौजूद रहती है। जाहिर है ऐसा मानने वालों की समझ है कि पूँजीवाद के साथ यह खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी। ऐसा सोचने वाले लोगों में वे भी शामिल है जो पितृसत्ता को दरकते देख दुखी होते हैं और वे भी हैं जो पितृसत्ता की शोषणकारी, अमानवीय रूप से दुखी होकर इसे बदलना चाहते हैं। इसके पक्ष में दुखी होने वाले लोग पितृसत्ता को मजबूत बनाने की कामना करते हुए पुराने दिनों को याद करते हैं तथा पूँजीवाद और इसके साथ आए बदलाव को कोसते हैं। जबकि पितृसत्ता के चालाक समर्थक नित्य हो रहे बदलाव से किसी भी तरह गठजोड़ करके इसे बरकरार रखने का प्रयास करते हैं। पितृसत्ता की मौजूदगी से आहत उपरोक्त श्रेणी के लोग पूँजीवाद की भूमिका से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा पालते प्रतीत होते हैं। इतना तय है कि पितृसत्ता सिर्फ सामंतवादी व्यवस्था में ही मौजूद नहीं होती। अगर ऐसा होता तो विकसित पूँजीवादी मुल्क में इसे पूरी तौर पर समाप्त हो जाना चाहिए था। तथ्य तो यह बताता है कि ऐसी संरचना में भी पितृसत्ता की मौजूदगी बनी हुई है, भले ही बदले रंग-ढंग में। इसका आशय यह नहीं है कि सामंतवाद और पूँजीवाद औरतों के मामले में, पितृसत्ता की मौजूदगी को लेकर, एक समान हैं। निश्चित तौर पर पूँजीवाद की भूमिका इस लिहाज से कई कदम आगे की है। इसने पितृसत्ता को एक हद तक चोट पहुँचाया है, बदला है, औरतों को आजादी मुहैया कराई है। पर पितृसत्ता में अपना हित दिखते ही पूँजीवाद ने इसके साथ गठजोड़ कर लिया। पितृसत्ता के सहयोग से औरतों के श्रम को कम करके आँका गया। इससे पूँजीवाद का हित सधता है। इसी तरह स्त्री-देह का मसला है। पूँजीवाद और इसके कई उत्पादों ने स्त्री-देह को एक स्तर पर आजाद करने में भूमिका अदा की। लेकिन दूसरे स्तर पर अपने हित के लिए पितृसत्ता से गलबहियाँ कर स्त्री-देह को महज पण्य में भी बदलने की कोशिश की। स्त्री-देह की मुक्ति जरूरी है। स्त्रियों को अपने देह पर पूरा-पूरा अधिकार होना चाहिए। लेकिन इस देह-मुक्ति का नारा देकर स्त्री-देह को अपने लिए, सबके लिए, उपलब्ध करने की चालाकी भी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो देह की आजादी पितृसत्तात्मक बंधनों, मूल्यों, मान्यताओं से होनी चाहिए। पूँजीवाद के जरिए कई कदम आगे तक स्त्रियों को देह पर आजादी मिली है। स्त्रियों में यह चेतना भी विकसित हुई है कि उनके देह पर उनका हक है। पर आजाद देह को पुरुष-भोग के लिए ‘उपलब्ध देह’ बनाने की कोशिश अंततः पितृसत्ता को चोर दरवाजे से लागू करने का ही प्रयास है। यहीं एक बात और। पूँजीवाद के विभिन्न उपकरण, मीडिया आदि ने स्त्री-देह को खूब दिखाया और घुमाया है। घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जगहों पर जाना, अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है। पर यह भी गौर करना होगा कि इस बाहर आने में क्या सिर्फ स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया को यथार्थ बनाया जा रहा है ? अथवा पितृसत्तात्मक संरचना अपने को नए रूप में ढालकर स्त्री-देह का वस्तुकरण कर रही है। संभव है इसके पक्ष में ऊपरी तौर पर स्त्री की मर्जी भी दिखे। पर सोचने की बात है कि इस ‘मर्जी’ को कौन-सी सत्ता परिचालित कर रही है, नियंत्रित कर रही है? लिहाजा पितृसत्ता की कुछ की दहलीज लाँघने के बावजूद स्त्री-देह किसके नियंत्रण में है, कौन-सी ताकत इस दिशा में ठेल रही है। इस पहलू को नजरअंदाज करके स्त्री-मुक्ति का न तो यथार्थ समझा जा सकता है और न ही यूटोपिया की रचना हो सकती है। दरअसल, ये सारी परिस्थितियाँ इतनी जटिलताओं से युक्त हैं कि इसका एक पक्ष देखकर न तो इसे सीधे खारिज किया जा सकता है और न ही इसका पुरजोर समर्थन। लिहाजा, पूँजीवाद या इसके विभिन्न उपकरणों को उनकी प्रगतिशीलता का वाजिब श्रेय भी देना होगा। साथ ही इसके ‘मुनाफे’ के लिए बने शोषणमूलक तंत्रा की जटिलता और पितृसत्ता के साथ रिश्ते को समझते हुए मुखालफत भी करना होगा। इन दो व्यवस्थाओं के अलावा समाजवादी/साम्यवादी मुल्कों में पितृसत्ता की क्या स्थिति रही? क्या यह बिल्कुल समाप्त हो गई? ;पिफलहाल यहाँ इस पर बहस किए बगैर कि वे मुल्क कितने समाजवादी या साम्यवादी थे?द्ध यह सवाल इसलिए पूछा जाना जरूरी है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है, समाजवाद आते स्त्री-मुक्ति का मकसद आप पूरा हो जाएगा। असल में, ‘आधार’ और अधिरचना की यांत्रिाक समझ के कारण ही कुछ लोग ऐसा समझते हैं। स्त्री-मुक्ति का सवाल ही नहीं बल्कि जाति के सवाल को भी कापफी समय तक ऐसे ही देखा जाता रहा है। कुछ लोग स्त्री-मुक्ति ;जेंडर के संदर्भ मेंद्ध के सवाल को सिपर्फ ‘अधिरचना’ से सम्ब( मानते हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि क्रांति के बाद जब ‘आधार’ ही बदल जाएगा तो अधिरचना का बदलना अवश्यम्भावी है। लिहाजा स्त्री-मुक्ति का प्रश्न ही नहीं बचेगा। पितृसत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाएगी। ऐसे लोग ‘आधार’ के साथ पितृसत्ता के जटिल रिश्तों को नजरअंदाज करते हैं। जबकि कुछ लोगों को पितृसत्ता का भौतिक आधार ही ज्यादा दिखता है। लिहाजा, ऐसे लोग इसे सिपर्फ ‘आधार’ से जुड़ा मानते हैं। इस समझ का प्रतिफलन इस रूप में विकसित होता है कि जब उत्पादन का सम्बन्ध बदल जाएगा, उत्पादन प्रक्रिया बदल जाएगी तो फिर स्त्री-मुक्ति तो अपने आप हो जाएगी। ऐसे में यह कहना जरूरी है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का भौतिक आधार और सांस्कृतिक अधिरचना दोनों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। एक को दूसरे पर तवज्जो देना इसके जटिल अंतर्संबन्धें को नजरअंदाज करना होगा। यह भी याद करने की जरूरत है कि ‘आधार’ के बदलने मात्रा से ‘अधिचना’ भी पूरी तरह नहीं बदलती। आधार और अधिरचना के बीच इस तरह का सरल सम्बन्ध होता तो कई समस्याएँ खुद-ब-खुद मिट गयी होती। आधार और अधिरचना के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को नजरअंदाज करके इसकी परस्परता को नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, समाजवादी मुल्कों में गोकि पूर्णतः स्त्री-मुक्ति न हुई, पर स्त्रियों के हालात बेहतर हो गए थे। पूँजीवाद की तुलना में स्त्री-मुक्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था ज्यादा माकूल है। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की रचना इसलिए भी ज्यादा जटिल है कि स्त्री की पहचान सिर्फ और सिर्फ स्त्री के तौर पर नहीं है। हो भी नहीं सकती। लिहाजा स्त्री की समस्याएँ भी कई स्तर भेदों से जुड़ी हुई हैं। स्त्री अपने आप में कोई ‘वर्ग’ नहीं है। स्त्री होने मात्र से सारी स्त्रियों की न तो सभी समस्याएँ हो सकती हैं और न सबका हित एक हो सकता है। हाँ, किसी-न-किसी रूप में सभी स्त्रियाँ शोषण की शिकार होती हैं। मसलन, अमीर स्त्री और गरीब स्त्री दोनों का शोषण होता है। पर एक वर्ग का न होने के कारण इनका साझा वर्गीय हित-अहित नहीं हो सकता। संभव है, अमीर स्त्री अपने परिवार, समुदाय में पितृसत्ता की शिकार हो और अपने वर्गीय हित में गरीब स्त्री का शोषण कर रही हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जाति-धर्म, वर्ग के साथ स्त्री अपनी अलग ‘कैटेगरी’ भी बनाती है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि सेक्स और जेण्डर के हिसाब से ऊपरी तौर पर समान होने के बावजूद ये स्तर-भेद ‘सार्वभौम बहनापा’ के मार्ग में अवरोध हैं? क्या इन स्तर भेदों को बिल्कुल नकारा जा सकता है? प्रसंगवश, स्त्री-मुक्ति विमर्शकारों के यहाँ ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ एक नहीं है। अब हिन्दी में इसके अनुवाद की समस्या हो सकती है। इन दोनों का अनुवाद ‘लिंग’ करने से उनके साथ का अर्थवृत्त नहीं आ सकता और अवधरणा भी स्पष्ट नहीं हो सकती। लिहाजा जब तक उस अवधरणा को स्पष्ट करने वाला शब्द नहीं मिलता, तब तक सेक्स के लिए लिंग और जेण्डर के लिए जेण्डर का उपयोग करने में क्या दिक्कत है? कुछ अन्ध हिन्दी-प्रेमी दूसरी भाषा के शब्दों को बिल्कुल लेना नहीं चाहते। नतीजतन ऐसा शब्द बना देते हैं जो उस अवधरणा को स्पष्ट करने में कहीं से कारगर नहीं होता। गौरतलब है कि लिंग (सेक्स के अर्थ में) एक बायोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट है और जेण्डर एक सोशियोलॉजिकल कस्ट्रक्ट। यानी सेक्स जैविक या प्राकृतिक होता है। जबकि जेण्डर जैविक या प्राकृतिक नहीं होता। जेण्डर की रचना विभिन्न सत्ताओं ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं के तौर पर किया है। मतलब कि स्त्री- ‘सेक्स’ के लिहाज से पुरुष से भिन्न है। इन्हें ‘जेण्डर’ की भिन्नता पितृसत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए स्त्रियों को विभिन्न ‘भूमिका’ देने के मकसद से और कमतर ठहराने के लिए किया है। इस लिहाज से देखें तो ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ में बड़ा फर्क नजर आएगा। पितृसत्ता ने ‘जेण्डर’ को भी प्राकृतिक, स्वाभाविक गुण के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया है। स्त्री-मुक्ति इसी ‘जेण्डर’ से मुक्ति में है। बहरहाल, स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया रचने वालों को स्त्री के स्तरभेदों को ध्यान में रखना होगा। स्त्रियों के भीतर मौजूद परस्पर विरोधी पहचान के कई रूप हो सकते हैं। इन पहचानों को रेखांकित करने से स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया कमजोर नहीं बल्कि ज्यादा सार्थक, विश्वसनीय और कारगर होगा। अलबत्ता यह स्तर भेद चुनौती जरूर पेश करेगा पर मुक्ति का मजबूत और चौड़ा रास्ता इसी से निकलेगा। जाति और वर्ग दोनों से निरपेक्ष जेण्डर की समझ मुक्तिकारी यूटोपिया की पुख्ता जमीन तैयार नहीं कर सकती। साथ ही इस यूटोपिया की संरचना तब तक पूर्णतया सफल नहीं हो सकती जब तक तमाम स्त्रियों के लिए इसमें जगह न हो। कहने का आशय यह है कि स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की बाबत यह नहीं कहना होगा कि फिलहाल इस श्रेणी की स्त्री मुक्त होगी और उस श्रेणी की स्त्री बाद मुक्त होगी। आपसी परस्पर विरोधी भेदों के बावजूद सारी स्त्रिायाँ पितृसत्ता की शिकार हैं। और सबके लिए मुक्तिकामी यूटोपिया की दरकार है। जब भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा होती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अलमबरदार इसे खतरे के तौर पर प्रचारित करते हैं। ऐसे लोग यह फैलाते हैं कि मुक्ति की आवाज उठाने वाली ये औरतें पुरुषों से नफरत करने वाली, परिवार तोड़ने वाली, ब्रा जलाने वाली, परकटी समुदाय की हैं। इनकी कोई देशी जमीन नहीं है। अव्वल तो यह है कि स्त्री-मुक्ति का सपना देखने वाली या इस दिशा में चिंतन-मन्थन करने वाली औरतों की कोई एक धारा नहीं है न ही स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी कोई एक अवधारणा। हर बड़े मकसद की तरह इसमें भी तरह-तरह की वैचारिक सरणियों में यकीन रखने वाले लोग सक्रिय हैं। किसी भी अस्मितावादी, मुक्तिकामी समूह का अपने ऊपर अत्याचार करने वाले लोगों के प्रति नफरत पैदा कर अपनी अस्मिता की तरफ ध्यान खींचने और इस ‘अन्य’ के बरअक्स ‘अपने’ लोगों को एकजुट करना आसान होता है। नोट करने की बात है कि अगर यह नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती गई तो कोई भी मुक्तिकामी परियोजना सफल होने के बजाय एक-दूसरी वर्चस्वकारी शक्ति में तब्दील हो जाएगी। फिर यह एक लोकतांत्रिाक व्यवस्था बनाने की बजाय, इन मूल्यों के लिए खुद भी चुनौती बन जाएगी। इसलिए किसी भी मुक्तिकारी समूह के यूटोपिया में उसके ‘अन्य’ के लिए क्या भाव-स्थान है, इसके जरिए उस यूटोपिया की जाँच बिल्कुल जरूरी होती है। यह अच्छी बात है कि स्त्री-समूहों में अपने ‘अन्य’ (पुरुष) के लिए नफरत का भाव नहीं है। इनकी स्पष्ट समझ है कि हमारा संघर्ष पितृसत्ता के विविध आयामों से है, न कि पुरुष-व्यक्ति-सत्ता से। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया में पुरुषों के लिए भी बराबर अधिकार और जगह होगी। अलबत्ता ये औरतें नफरत पफैलाने वाली नहीं हैं बल्कि समाज में बराबरी, प्रेम और सौहार्द को स्थापित करना चाहती हैं। हाँ, अगर परिवार का ढाँचा अपने को बदलकर लोकतांत्रिक नहीं बनाता, पितृसत्ता से चिपका रहना चाहता है, तो इसका बना रहना क्यों जरूरी है ? पितृसत्ता पर आधरित मौजूदा ‘परिवार’ में लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया के दौरान दरार आएगी और एक बेहतर परिवार की रचना होगी। इस नए बने ‘परिवार’ (या इसका कुछ नया नाम पड़ जाए) में स्त्री-पुरुष समानता होगी। दोनों को बराबर हक होगा। क्या यह कहने की जरूरत है कि ऐसा होना सिर्फ स्त्री के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के हित के लिए भी आवश्यक है। जिस ‘ब्रा- बर्निंग’ की चर्चा बार-बार होती हैं, उसे भी समझने की जरूरत है। असल में, मुक्तिकामी स्त्रियों ने ब्रा को ‘जेण्डर’ के साथ जोड़कर देखा था। अमेरिका में सम्पन्न एक विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के दौरान स्त्रीवादियों ने एक कूड़ेदान में अपना-अपना ब्रा उतारकर फेंक दिया। इन लोगों ने स्त्रियों से यह अपील भी की ब्रा गुलामी का प्रतीक है अतः इसे फेंक दें। इन स्त्रियों का मानना था कि स्तन बच्चे के दूध पीने के लिए है, न कि पुरुष के उपभोग की खातिर। पुरुष-सत्ता ने इसे भोग की वस्तु बनाकर खास ‘आकार’ में रखने के मकसद से ब्रा का ईजाद किया है। आशय यह कि स्त्री ‘सेक्स’ के इस अंग को ‘ब्रा’ ने ‘जेण्डर’ में तब्दील कर दिया है। लिहाजा, गुलामी के इस निशानी को पफेंककर जला देना आवश्यक है। गौर करने लायक बात यह है कि आज का स्त्रीवाद इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। दूसरा, ‘ब्रा-बर्निंग’ के मुद्दे पर इतनी हाय-तौबा की दरकार भी नहीं है। यह भी ऐसी ही घटना है जैसा कि गर्भपात के अधिकार के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान सीमोन सहित फ्रांस की अनेक स्त्रीवादी महिलाओं ने अपना दस्तख्त कर सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने अपने जीवन में गर्भपात कराया है। गर्भपात कराना उनका हक है और यह अधिकार कानूनी तौर पर उन्हें मिलना चाहिए। कानूनी हक मिलने के साथ समाज में गर्भपात को लेकर मौजूद ‘टैबू’ भी इससे दूर हुआ। अतः इतिहास की इन घटनाओं को उसके संदर्भ में ही देखने से, इन्हें ठीक से समझा जा सकता है। बहरहाल ऐसी अपेक्षा तो स्त्री-पुरुष समता में भरोसा रखने वालों से की जा सकती है, पितृसत्ता के अलमबरदारों से नहीं। स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया के समर्थकों पर आरोप लगाया जाता है कि इनकी देशी जड़ें नहीं हैं। ऐसा कहकर इस विचार को फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है कि ये विदेशी धरणाएँ हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से कोई सरोकार नहीं है। अव्वल तो यह कि कोई भी विचारधारा, वैचारिक सरणी अपने मुल्क में नहीं जन्मी तो क्या इसे नहीं अपनाना चाहिए ? क्या लोकतंत्रा, आधुनिकता सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन धरणाओं को त्याग देना चाहिए ? ऐसी कूपमंडूकता के खरतनाक मंसूबों को हमेशा याद रखना होगा। दूसरी बात यह कि स्त्री-मुक्ति की देशी जड़ें यहाँ मौजूद रही हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने इसकी गहरी पड़ताल कर हमारी इस महत्त्वपूर्ण विरासत का विवेचन-विश्लेषण किया है। जबसे पितृसत्ता का अंकुश कायम हुआ है, इसके प्रतिरोध में स्त्री-आवाजें भी आई हैं। क्या इन आवाजों में मुक्ति-कामना नहीं झलकती ? अपनी पीड़ा का अहसास कराती इन आवाजों में मुक्ति की गहरी लालसा का म(मिराग भी लबरेज़ है। गार्गी, थेरी गाथा की स्त्रियाँ, आंडाल, अक्का महादेवी, मीराबाई, सहजोबाई से लेकर रमाबाई, ताराबाई शिंदे, महादेवी वर्मा सरीखी अनेक स्त्रियों की आवाज़ में अपनी पीड़ा और पितृसत्ता की मुखालफत शामिल है। पितृसत्ता ने कई स्तरों पर काम किया है। इनकी आवाज को दबाने से लेकर इनके विचारों को नष्ट करने तक पितृसत्ता की प्रत्यक्ष हिंसा तो दिखती है, पर चुप कराने वाली परोक्ष हिंसा जल्द दिख नहीं पाती। आलम यह रहा है कि निकट अतीत में सीमंतनी उपदेश की महान रचनाकार ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ ही बनी रही। आज तक उस साहसी स्त्री का नाम पता नहीं चल पाया है। क्या यह उस परोक्ष हिंसा का एक बुरा नतीजा नहीं है ? ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता की मुखालफत करने वाली ये स्त्रियाँ सिर्फ भारत या यूरोप में हुई हैं। जिस तरह हर मुल्क में पितृसत्ता थी, उसी तरह इसकी विरोधी भी थीं। मसलन, काफी पहले न जाकर निकट अतीत, उन्नीसवीं सदी में गौर करें तो चीन में जिउ जिन, श्रीलंका में सुगला तथा गजमन नोना, इण्डोनेशिया में कार्तिनी, ईरान में कुर्रत उल ऐन सहित अनेक महिलाएँ हर मुल्क में मिल जाएंगी। यह अलग बात है कि पितृसत्ता का विरोध करने के साथ-साथ, मौजूदा दौर के हिसाब से देखने पर, इनकी सीमाएं भी सामने आती हैं। अपनी इस विरासत को न तो नकार कर और न ही बढ़-चढ़कर तारीफ करके इसे समझा जा सकता है। विरासत के सर्जनात्मक विकास के लिए खूबियों-सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ जिरह जरूरी होता है और कारगर भी। अपने देश में स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को घर की दहलीज से बाहर निकाला। इसी दौरान बड़ी तादाद में स्त्रियों ने सामाजिक-राजनीतिक कार्य में हिस्सा लिया। राजनीतिक प्रश्न के तौर पर स्त्रियों का सवाल इसी दौर में उभरा। स्त्रियों का घर की चारदीवारी से बाहर आकर सामाजिक-राजनीतिक कामों में हिस्सा लेना, सभा-संगोष्ठी में जाना अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ी हुई घटना थी। इसके लिए स्वाधीनता-आंदोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं को इसका श्रेय देना चाहिए। पर यह भी याद रखना चाहिए कि दलित मजदूरों और किसानों के सवाल की तरह स्त्रियों का प्रश्न भी उनके लिए स्वाधीनता-आंदोलन का ही मसला था, अलग से स्त्री-मुक्ति का सवाल नहीं। आशय यह कि उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने स्त्रियों के मसले को अपने नजरिये से स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत के नजरिये से उठाया। स्त्रियों को घर से बाहर लाकर आंदोलन से जोड़ना उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। यही वजह है कि १९१७ में सरोजनी नायडू की अगुवाई में स्त्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल को मांटेस्क्यू से मिलकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और काउंसिल के उन्नीस गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाए गए स्वराज्य की मांग को अपना समर्थन देते हुए स्त्रियों के सवाल को अलग से उठाना पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ खुद ‘जेण्डर’ की धरणा से ग्रसित थे। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता आंदोलन में जो काम पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं कर सकतीं। इसे समझने के लिए महात्मा गांधी द्वारा आहूत नमक सत्याग्रह को याद किया जा सकता है। गांधी जी स्वाधीननता आंदोलन में स्त्रियों को भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे परंतु नमक सत्याग्रह के लिए हुए दांडी मार्च में हिस्सा लेने से रोक रहे थे। इन्हें लगता था कि इतना दूर चलने से स्त्रियां थक जाएंगी। गांधी जी की इस मनाही का सरोजनी नायडू सहित कुछ स्त्रियों ने विरोध किया और दांडी-मार्च में शामिल होने हेतु जिद की। इनकी जिद के सामने झुककर गांधी जी ने बाद में अपनी हामी भरी। दांडी-मार्च और इसकी परिणति नमक सत्याग्रह में शामिल स्त्रियों ने गांधी जी की पूर्व मान्यता को गलत साबित करते हुए पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम किया। इस तरह की कई घटनाएँ बताती हैं कि स्वाधीनता-आंदोलन के नेताओं की मानसिक बनावट में ‘जेण्डर’ की पितृसत्तात्मक मान्यताओं का कितना असर था। इसी के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनमें भारत की स्त्रियों को, अपने हक के लिए यूरोप की महिलाओं की तुलना में काफी कम संघर्ष करना पड़ा। यूरोपीय महिलाओं को अपने राजनीतिक हक, ‘वोट देने का अधिकार’ पाने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। १९२८ ई में हुए मुंबई (तब बम्बई) कांग्रेस में सरोजिनी नायडू ने काउंसिलों के चुनाव में स्त्रियों के मताध्किार का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का मदन मोहन मालवीय ने मुखर विरोध किया था। हालांकि मालवीय के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया। आशय यह है कि स्त्रियों के पक्ष में, भले ही कुछ कदम आगे बढ़कर साथ देने के लिए, स्वाधीनता-आंदोलन में शामिल शिक्षित मध्य वर्ग सामने आता था। भारत में स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के हिमायतियों ने सिर्फ स्त्रियों का सवाल उठाकर, उसके लिए जोखिम भरा संघर्ष नहीं किया है। बोधगया मुक्ति आंदोलन, चिपको आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब के खिलाफ हुए आंदोलन जिसकी वजह से सरकार गिर गई थी, स्त्रियों द्वारा किए गए आंदोलन हैं जिसमें अपनी-अपनी तरह की स्त्रीवादी महिलाएं शामिल रही हैं। इन सारे संघर्षों में स्त्रियों को काफी सफलता भी मिली है। इस लिहाज से गौर फरमाएं तो भारत के स्त्री-मुक्ति आंदोलन की यह निजी खासियत है और इसके विस्तार तथा व्याप्ति का सूचक भी। स्त्री-मुक्ति का एक यूटोपिया एक सदी पहले रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी कहानी सुल्ताना का सपना में रचा था। इसके हिसाब से पुरुष घरों में सारा काम कर रहे हैं और औरतें बाहर के सारे काम को कर रही हैं। इस यूटोपिया को लागू करने की प्रक्रिया नफरत पर आधरित तो नहीं थी, परंतु इसमें सारा क्रम सिर्फ उल्ट दिया गया था। मौजूदा स्त्री-मुक्ति-विमर्श इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। अब क्रम को सिर्फ उल्टा नहीं जाता बल्कि सहभागिता, स्वतंत्रता और समता को सुनिश्चित किया जाता है। नोट करने लायक बात यह है कि यथार्थ और यूटोपिया एक-दूसरे से बिल्कुल अलहदा नहीं होते। दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है। यथार्थ के घात-संघात और समझ से यूटोपिया आकार ग्रहण करता है तो यूटोपिया हमें यथार्थ को जाँचने-समझने की समझ भी देता है, जिससे उस यथार्थ की जटिल संरचना में निहित वर्चस्वकारी रूप को जानकर उसे दूर करने की दिशा में बढ़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ के विभिन्न आयामों को समझे बगैर नहीं रचा जा सकता। व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के साथ पितृसत्ता ने अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बना रखा है। इसलिए इन सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर ही स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया का खाका निर्मित हो सकता है। पितृसत्ता के इस मकड़जाल को देखते हुए ऐसा लगता है कि बगैर पूरी व्यवस्था बदले पूर्णतः स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। एक न एक दिन स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ जरूर बनेगा। मुक्ति का स्वप्न इसे हकीकत तक जरूर पहुँचायेगा। कवि वेणु गोपाल की कविता का सहारा लेकर कहें तो … ना हो कुछ भी सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत और यह एक शुरुआत ही तो है कि वहाँ एक सपना है। From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Thu Jul 16 20:13:22 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Thu, 16 Jul 2009 07:43:22 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: STRI MUKTI::YATHARTH AUR UTOPIA In-Reply-To: <5df7208d0907160405ie1153f6t31131b8842b59cf@mail.gmail.com> References: <5df7208d0907160405ie1153f6t31131b8842b59cf@mail.gmail.com> Message-ID: <5df7208d0907160743l36b821b8g8c005a538bfa654c@mail.gmail.com> yh lekh timahi web ptrika PRATILIPI me chhap chuka hai.. www.pratilipi.in se lekr ise yha diya ja rha hai... ---------- Forwarded message ---------- From: Rajeev Ranjan Giri Date: Thu, 16 Jul 2009 04:05:22 -0700 Subject: STRI MUKTI::YATHARTH AUR UTOPIA To: deewan at sarai.net ‘वह बार-बार भागती रही बार बार हर रात एक ही सपना देखती ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न’ कवि अरुण कमल की एक कविता है – स्वप्न। इस कविता में एक औरत बार-बार ससुराल से भागती है। मार खाकर। कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर घंटों बिताती है। फिर अंधेरा होने पर उसी जगह लौट आती है। कभी किसी दूर के सम्बन्धी या परिचित के घर दो चार दिन काटती है। कभी अपने नैहर चली जाती है। पर हफ़्ता या महीना भर बाद थक कर उसी जगह लौटती है। बेहतर होगा यह कहना कि उसे हर बार लौटना पड़ता है। यह उसकी विवशता है। यह भी याद रखने की बात है कि वह हर बार मार खाकर ही भागती है और लौटने पर भी मार खाती है। तो क्या इस स्त्री को अपनी ट्रैजिक नियति का पता नहीं है? कविता बताती है कि उसे बखूबी पता है कि मार खाने के बाद जहाँ से भागती है, बार-बार उसे वहीं लौटना है। साथ ही लौट कर फिर मार खाना है। जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है / कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है / जानती थी वो लौटना ही होगा इस बार भी। फिर भी भागती है। उसके यहाँ से गंगा भी ज्यादा दूर नहीं थी। रेल की पटरियाँ भी पास थीं। पर वह अपनी ट्रैजिक नियति को जानते हुए भी कि उसे फिर लौटना पड़ेगा, और मार खाना पड़ेगा; भागती है। कुछ दिन के लिए ही सही। वह मरण का वरण नहीं करती। आत्महत्या का रास्ता नहीं अख्तियार करती है। लिहाजा गंगा नदी का ज्यादा दूर न होना या रेल की पटरियाँ पास होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं रचता। मार खाने से बचने के लिए जीवन को समाप्त करना उसे गवारा नहीं है। क्योंकि वह बार-बार जीवन से मृत्यु नहीं, मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी। भागती भी है तो खूँटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती / गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती। आखिरकार वह औरत किस खूँटे से बंधी है, जिसे उखाड़ने की बार-बार असफल कोशिश करती है। गौर करें गर्दन ऐंठने तक कोशिश करती है और उखाड़ भले न पाये पर डिगा देती है। गर्दन ऐंठने तक कोशिश करना मानीखेज है। धीरे-धीरे यह खूँटा जड़ से उखड़ भले न पाये, टूटेगा जरूर। क्योंकि वह औरत बार-बार हर रात एक ही सपना देखती है। ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा। सपना है- मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न और बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न। इस कविता में, जहाँ से वह औरत मार खाकर भागती है, वहीं उसे बार-बार लौटना तथा मार खाना पड़ता है। जाहिर यह उसका ससुराल है। इसके लिए अरुण कमल ने ‘घर’ या ‘परिवार’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। क्या यह अनायास है? जबकि शादी के बाद, इस सामाजिक संरचना में, यही उसका ‘घर’ है या ‘परिवार’ भी। इस कविता में ‘घर’ शब्द एक बार आया है। जहाँ वह दो-चार दिन काटती है। कभी किसी दूर के संबंधी या किसी परिचित के घर जाहिर है यहाँ भी वह अपनी जिन्दगी का दो-चार दिन ही सही जीती नहीं, काटती है। कभी भागकर नैहर जाती है। पर यहाँ भी कितने दिन के लिए? हफ़्ता या महीना। वहाँ से भी थककर लौटती है। आशय यह कि पीहर में भी जिन्दगी का कुछ दिन ही काट पाती है। भले ही परिचित या किसी दूर के रिश्तेदार के घर के तुलना में कुछ ज्यादा दिन। थक कर लौटना दो बातों की तरफ इशारा करता है। एक, जिन्दगी जिया नहीं गया है, काटा गया है। दो, जो संरचना मौजूद है उसमें उसके लिए नैहर अब विकल्प नहीं रह गया है। चाहे जो हो उसे ससुराल में ही ‘निबाहना’ है। इस सामाजिक ढाँचे में माना यह जाता है कि डोली नैहर से उठी है तो अर्थी ससुराल से उठेगी। ऐसे में, वह ससुराल जहाँ बार-बार पीटी जाती है, शब्द के सच्चे मायने में ‘घर’ या ‘परिवार’ हो सकता है? हरगिज नहीं। वह उस स्त्री के लिए ‘जगह’ भर ही है। न तो ‘घर’ महज छत के नीचे का बसेरा है और न ही ‘परिवार’ कुछ लोगों के साथ भर रह लेने वाली व्यवस्था। जब तक आपसी संवेदनात्मक रिश्ता और उससे पैदा होनेवाली उष्मा मौजूद नहीं हो, उसे ‘घर’ या ‘परिवार’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। आखिरकार, जब वह जगह ‘घर’ और वहाँ के लोग ‘परिवार’ नहीं है तब वह वहाँ क्यों है? वह किस ‘खूँटा’ के मजबूत रस्सी से बंधी है जिसे गर्दन ऐंठने तक उखाड़ने या तोड़ने की हर बार कोशिश करती है। यह खूँटा पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। याद रखें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मायने परिवार में पुरूष का सिर्फ मुखिया होना नहीं है। यह महज इतना ही होता तो इसका ‘खूँटा’ कब का उखड़ चुका होता या इसकी ‘रस्सी’ टूट गयी होती। क्या यह कहने की जरूरत है कि इस ढाँचे की रचना धूर्तता और चालाकी के साथ की गयी है और आज भी हो रही है। आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैधानिक, सांस्कृतिक व्यवस्था और मूल्यों-मर्यादाओं, संस्कारों, आदर्शों तथा चिंतन के विभिन्न रूपों, विचारधाराओं, निर्मितियों, गतिविध्यिों के जरिये बड़े महीन ढंग से इसे रचा-बुना गया है। इन सबके जरिये पितृसत्ता पुरूष को औरत की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने का पाखंड रचती और फैलाती है। इस कविता में स्त्री के पास कहीं कोई रास्ता नहीं है और कहीं कोई अंतिम आसरा भी नहीं। जाहिर है उसे अपना रास्ता खुद बनाना है और अपना आसरा भी खुद ही बनना है। इस स्त्री को इसका बोध् है। इस बोध और गहरी जिजीविषा ने इसे रेल की पटरी पर या गंगा में जाने से रोका है। लिहाजा, ससुराल से मार खाकर बार-बार भागना महज पलायन नहीं है बल्कि विकल्प रचने के लिए रास्ता बनाने की प्रक्रिया की एक कड़ी है। इसके साथ ही पीटने की पीड़ा का अहसास होते रहने के लिए जरूरी कदम भी है। इस पीड़ा का अहसास होना बेहद जरूरी है। बगैर इस अहसास के न तो मुक्ति का स्वप्न याद रहेगा और न ही जीवन को बदलने के लिए यत्न करने की अभीप्सा बचेगी। इस अभीप्सा के बगैर वह गर्दन ऐंठने तक बार-बार खूँटे को डिगाने की असफल ही सही, कोशिश नहीं कर पायेगी। पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को घर के अंदर कैद किया है और उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन किया है। दूसरी तरफ विभिन्न मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों के जरिये शोषण को सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की है। इस कविता की स्त्री का आर्थिक तौर पर स्वावलंबी नहीं होना और विभिन्न संस्कारों का मकड़जाल अपना आशियाना अलग बनाने से रोकता है। इन वैचारिक जकड़बंदियों का दबाव ऐसा मजबूत है कि जहाँ तक रस्सी जाती है (यानी मंदिर की सीढ़ी, नैहर या किसी रिश्तेदार के घर) वहीं तक भाग पाती है। फिर ससुराल में लौटकर आना इसकी ट्रैजिक नियति है। लेकिन बार-बार, हर रात जो मुक्ति का स्वप्न देखती है उसके जरिये रास्ता जरूर बनेगा, मुक्ति जरूर मिलेगी, जीवन जरूर बदलेगा। इस कविता पर किंचित विस्तार के साथ विचार करने की वजह यह है कि इसमें एक आम स्त्री के जीवन का यथार्थ है और साधरण स्त्री की मुक्ति-कामना के साथ, खतरा मोलकर अपनी गर्दन ऐंठने तक कोशिश कर यूटोपिया रचने का साहस भी। स्वप्न शीर्षक कविता के मार्फ़त स्त्री मुक्तिः यथार्थ और यूटोपिया पर विचार करने की एक वजह यह है कि यह कविता जिस स्त्री के जीवन पर हो रहे पारिवारिक अत्याचार को अपना विषय बनाती है, वह ‘स्त्रीवाद’ का सिद्धांत पढ़कर अपनी मुक्ति-कामना से लबरेज नहीं है, बल्कि जीवन-जगत के यथार्थ से उसमें यह मुक्ति-कामना पैदा हुई है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अगर कोई स्त्री ‘स्त्रीवाद’ या स्त्री-मुक्ति से सम्बन्धित धरणाओं को पढ़-सुन या समझकर अपनी मुक्ति की कामना करती है या इसके लिए अग्रसर होती है तो यह अपराध नहीं बल्कि अच्छी बात है। इसी में मुक्तिकारी अवधरणाओं की सफलता भी है। यह उन लोगों के लिए कहा गया है जो ‘स्त्रीवाद’ और उससे जुड़ी धरणाओं को बदनाम करने के मकसद से अनर्गल प्रलाप करते हैं और मानते हैं कि आम औरतों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कविता पढ़कर समझा जा सकता है कि इस औरत पर पितृसत्तात्मक ढाँचे का भी असर है। इस संरचना के दायरे में जन्म लेने और उसके परवरिश होने की वजह से यह स्वाभाविक भी है। काबिलेगौर बात है – इस ढाँचे के भीतर रहते हुए उसका ‘स्वप्न’ देखना और उस स्वप्न के लिए ‘यत्न’ करना। यही स्वप्न और यत्न उसे मुक्ति भी दिलाएगी। बहरहाल, दुनिया के सभी समुदाय, सभ्यता, धर्म और मुल्क में पितृसत्ता मौजूद है। नतीजतन स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कमतर मानने की रवायत है। अपवादस्वरूप भले ही कुछ इससे मुक्त हों। यह दीगर बात है कि इन सबमें पितृसत्ता का एक समान या सर्वमान्य रूप नहीं है। अपने अलग-अलग गुण, धर्म के साथ इसकी मौजूदगी बरकरार है। समय-समय पर इसने विभिन्न शक्तियों से नापाक गठजोड़ करके अपना रूप भी बदला है। इसीलिए अलग-अलग देश-काल में यह एक जैसा नहीं दिखता। कुछ लोगों को लगता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामंतवादी संरचना की उपज है और सिर्फ इसी सामाजिक ढाँचे में मौजूद रहती है। जाहिर है ऐसा मानने वालों की समझ है कि पूँजीवाद के साथ यह खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी। ऐसा सोचने वाले लोगों में वे भी शामिल है जो पितृसत्ता को दरकते देख दुखी होते हैं और वे भी हैं जो पितृसत्ता की शोषणकारी, अमानवीय रूप से दुखी होकर इसे बदलना चाहते हैं। इसके पक्ष में दुखी होने वाले लोग पितृसत्ता को मजबूत बनाने की कामना करते हुए पुराने दिनों को याद करते हैं तथा पूँजीवाद और इसके साथ आए बदलाव को कोसते हैं। जबकि पितृसत्ता के चालाक समर्थक नित्य हो रहे बदलाव से किसी भी तरह गठजोड़ करके इसे बरकरार रखने का प्रयास करते हैं। पितृसत्ता की मौजूदगी से आहत उपरोक्त श्रेणी के लोग पूँजीवाद की भूमिका से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा पालते प्रतीत होते हैं। इतना तय है कि पितृसत्ता सिर्फ सामंतवादी व्यवस्था में ही मौजूद नहीं होती। अगर ऐसा होता तो विकसित पूँजीवादी मुल्क में इसे पूरी तौर पर समाप्त हो जाना चाहिए था। तथ्य तो यह बताता है कि ऐसी संरचना में भी पितृसत्ता की मौजूदगी बनी हुई है, भले ही बदले रंग-ढंग में। इसका आशय यह नहीं है कि सामंतवाद और पूँजीवाद औरतों के मामले में, पितृसत्ता की मौजूदगी को लेकर, एक समान हैं। निश्चित तौर पर पूँजीवाद की भूमिका इस लिहाज से कई कदम आगे की है। इसने पितृसत्ता को एक हद तक चोट पहुँचाया है, बदला है, औरतों को आजादी मुहैया कराई है। पर पितृसत्ता में अपना हित दिखते ही पूँजीवाद ने इसके साथ गठजोड़ कर लिया। पितृसत्ता के सहयोग से औरतों के श्रम को कम करके आँका गया। इससे पूँजीवाद का हित सधता है। इसी तरह स्त्री-देह का मसला है। पूँजीवाद और इसके कई उत्पादों ने स्त्री-देह को एक स्तर पर आजाद करने में भूमिका अदा की। लेकिन दूसरे स्तर पर अपने हित के लिए पितृसत्ता से गलबहियाँ कर स्त्री-देह को महज पण्य में भी बदलने की कोशिश की। स्त्री-देह की मुक्ति जरूरी है। स्त्रियों को अपने देह पर पूरा-पूरा अधिकार होना चाहिए। लेकिन इस देह-मुक्ति का नारा देकर स्त्री-देह को अपने लिए, सबके लिए, उपलब्ध करने की चालाकी भी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो देह की आजादी पितृसत्तात्मक बंधनों, मूल्यों, मान्यताओं से होनी चाहिए। पूँजीवाद के जरिए कई कदम आगे तक स्त्रियों को देह पर आजादी मिली है। स्त्रियों में यह चेतना भी विकसित हुई है कि उनके देह पर उनका हक है। पर आजाद देह को पुरुष-भोग के लिए ‘उपलब्ध देह’ बनाने की कोशिश अंततः पितृसत्ता को चोर दरवाजे से लागू करने का ही प्रयास है। यहीं एक बात और। पूँजीवाद के विभिन्न उपकरण, मीडिया आदि ने स्त्री-देह को खूब दिखाया और घुमाया है। घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जगहों पर जाना, अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है। पर यह भी गौर करना होगा कि इस बाहर आने में क्या सिर्फ स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया को यथार्थ बनाया जा रहा है ? अथवा पितृसत्तात्मक संरचना अपने को नए रूप में ढालकर स्त्री-देह का वस्तुकरण कर रही है। संभव है इसके पक्ष में ऊपरी तौर पर स्त्री की मर्जी भी दिखे। पर सोचने की बात है कि इस ‘मर्जी’ को कौन-सी सत्ता परिचालित कर रही है, नियंत्रित कर रही है? लिहाजा पितृसत्ता की कुछ की दहलीज लाँघने के बावजूद स्त्री-देह किसके नियंत्रण में है, कौन-सी ताकत इस दिशा में ठेल रही है। इस पहलू को नजरअंदाज करके स्त्री-मुक्ति का न तो यथार्थ समझा जा सकता है और न ही यूटोपिया की रचना हो सकती है। दरअसल, ये सारी परिस्थितियाँ इतनी जटिलताओं से युक्त हैं कि इसका एक पक्ष देखकर न तो इसे सीधे खारिज किया जा सकता है और न ही इसका पुरजोर समर्थन। लिहाजा, पूँजीवाद या इसके विभिन्न उपकरणों को उनकी प्रगतिशीलता का वाजिब श्रेय भी देना होगा। साथ ही इसके ‘मुनाफे’ के लिए बने शोषणमूलक तंत्रा की जटिलता और पितृसत्ता के साथ रिश्ते को समझते हुए मुखालफत भी करना होगा। इन दो व्यवस्थाओं के अलावा समाजवादी/साम्यवादी मुल्कों में पितृसत्ता की क्या स्थिति रही? क्या यह बिल्कुल समाप्त हो गई? ;पिफलहाल यहाँ इस पर बहस किए बगैर कि वे मुल्क कितने समाजवादी या साम्यवादी थे?द्ध यह सवाल इसलिए पूछा जाना जरूरी है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है, समाजवाद आते स्त्री-मुक्ति का मकसद आप पूरा हो जाएगा। असल में, ‘आधार’ और अधिरचना की यांत्रिाक समझ के कारण ही कुछ लोग ऐसा समझते हैं। स्त्री-मुक्ति का सवाल ही नहीं बल्कि जाति के सवाल को भी कापफी समय तक ऐसे ही देखा जाता रहा है। कुछ लोग स्त्री-मुक्ति ;जेंडर के संदर्भ मेंद्ध के सवाल को सिपर्फ ‘अधिरचना’ से सम्ब( मानते हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि क्रांति के बाद जब ‘आधार’ ही बदल जाएगा तो अधिरचना का बदलना अवश्यम्भावी है। लिहाजा स्त्री-मुक्ति का प्रश्न ही नहीं बचेगा। पितृसत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाएगी। ऐसे लोग ‘आधार’ के साथ पितृसत्ता के जटिल रिश्तों को नजरअंदाज करते हैं। जबकि कुछ लोगों को पितृसत्ता का भौतिक आधार ही ज्यादा दिखता है। लिहाजा, ऐसे लोग इसे सिपर्फ ‘आधार’ से जुड़ा मानते हैं। इस समझ का प्रतिफलन इस रूप में विकसित होता है कि जब उत्पादन का सम्बन्ध बदल जाएगा, उत्पादन प्रक्रिया बदल जाएगी तो फिर स्त्री-मुक्ति तो अपने आप हो जाएगी। ऐसे में यह कहना जरूरी है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का भौतिक आधार और सांस्कृतिक अधिरचना दोनों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। एक को दूसरे पर तवज्जो देना इसके जटिल अंतर्संबन्धें को नजरअंदाज करना होगा। यह भी याद करने की जरूरत है कि ‘आधार’ के बदलने मात्रा से ‘अधिचना’ भी पूरी तरह नहीं बदलती। आधार और अधिरचना के बीच इस तरह का सरल सम्बन्ध होता तो कई समस्याएँ खुद-ब-खुद मिट गयी होती। आधार और अधिरचना के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को नजरअंदाज करके इसकी परस्परता को नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, समाजवादी मुल्कों में गोकि पूर्णतः स्त्री-मुक्ति न हुई, पर स्त्रियों के हालात बेहतर हो गए थे। पूँजीवाद की तुलना में स्त्री-मुक्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था ज्यादा माकूल है। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की रचना इसलिए भी ज्यादा जटिल है कि स्त्री की पहचान सिर्फ और सिर्फ स्त्री के तौर पर नहीं है। हो भी नहीं सकती। लिहाजा स्त्री की समस्याएँ भी कई स्तर भेदों से जुड़ी हुई हैं। स्त्री अपने आप में कोई ‘वर्ग’ नहीं है। स्त्री होने मात्र से सारी स्त्रियों की न तो सभी समस्याएँ हो सकती हैं और न सबका हित एक हो सकता है। हाँ, किसी-न-किसी रूप में सभी स्त्रियाँ शोषण की शिकार होती हैं। मसलन, अमीर स्त्री और गरीब स्त्री दोनों का शोषण होता है। पर एक वर्ग का न होने के कारण इनका साझा वर्गीय हित-अहित नहीं हो सकता। संभव है, अमीर स्त्री अपने परिवार, समुदाय में पितृसत्ता की शिकार हो और अपने वर्गीय हित में गरीब स्त्री का शोषण कर रही हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जाति-धर्म, वर्ग के साथ स्त्री अपनी अलग ‘कैटेगरी’ भी बनाती है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि सेक्स और जेण्डर के हिसाब से ऊपरी तौर पर समान होने के बावजूद ये स्तर-भेद ‘सार्वभौम बहनापा’ के मार्ग में अवरोध हैं? क्या इन स्तर भेदों को बिल्कुल नकारा जा सकता है? प्रसंगवश, स्त्री-मुक्ति विमर्शकारों के यहाँ ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ एक नहीं है। अब हिन्दी में इसके अनुवाद की समस्या हो सकती है। इन दोनों का अनुवाद ‘लिंग’ करने से उनके साथ का अर्थवृत्त नहीं आ सकता और अवधरणा भी स्पष्ट नहीं हो सकती। लिहाजा जब तक उस अवधरणा को स्पष्ट करने वाला शब्द नहीं मिलता, तब तक सेक्स के लिए लिंग और जेण्डर के लिए जेण्डर का उपयोग करने में क्या दिक्कत है? कुछ अन्ध हिन्दी-प्रेमी दूसरी भाषा के शब्दों को बिल्कुल लेना नहीं चाहते। नतीजतन ऐसा शब्द बना देते हैं जो उस अवधरणा को स्पष्ट करने में कहीं से कारगर नहीं होता। गौरतलब है कि लिंग (सेक्स के अर्थ में) एक बायोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट है और जेण्डर एक सोशियोलॉजिकल कस्ट्रक्ट। यानी सेक्स जैविक या प्राकृतिक होता है। जबकि जेण्डर जैविक या प्राकृतिक नहीं होता। जेण्डर की रचना विभिन्न सत्ताओं ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं के तौर पर किया है। मतलब कि स्त्री- ‘सेक्स’ के लिहाज से पुरुष से भिन्न है। इन्हें ‘जेण्डर’ की भिन्नता पितृसत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए स्त्रियों को विभिन्न ‘भूमिका’ देने के मकसद से और कमतर ठहराने के लिए किया है। इस लिहाज से देखें तो ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ में बड़ा फर्क नजर आएगा। पितृसत्ता ने ‘जेण्डर’ को भी प्राकृतिक, स्वाभाविक गुण के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया है। स्त्री-मुक्ति इसी ‘जेण्डर’ से मुक्ति में है। बहरहाल, स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया रचने वालों को स्त्री के स्तरभेदों को ध्यान में रखना होगा। स्त्रियों के भीतर मौजूद परस्पर विरोधी पहचान के कई रूप हो सकते हैं। इन पहचानों को रेखांकित करने से स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया कमजोर नहीं बल्कि ज्यादा सार्थक, विश्वसनीय और कारगर होगा। अलबत्ता यह स्तर भेद चुनौती जरूर पेश करेगा पर मुक्ति का मजबूत और चौड़ा रास्ता इसी से निकलेगा। जाति और वर्ग दोनों से निरपेक्ष जेण्डर की समझ मुक्तिकारी यूटोपिया की पुख्ता जमीन तैयार नहीं कर सकती। साथ ही इस यूटोपिया की संरचना तब तक पूर्णतया सफल नहीं हो सकती जब तक तमाम स्त्रियों के लिए इसमें जगह न हो। कहने का आशय यह है कि स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की बाबत यह नहीं कहना होगा कि फिलहाल इस श्रेणी की स्त्री मुक्त होगी और उस श्रेणी की स्त्री बाद मुक्त होगी। आपसी परस्पर विरोधी भेदों के बावजूद सारी स्त्रिायाँ पितृसत्ता की शिकार हैं। और सबके लिए मुक्तिकामी यूटोपिया की दरकार है। जब भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा होती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अलमबरदार इसे खतरे के तौर पर प्रचारित करते हैं। ऐसे लोग यह फैलाते हैं कि मुक्ति की आवाज उठाने वाली ये औरतें पुरुषों से नफरत करने वाली, परिवार तोड़ने वाली, ब्रा जलाने वाली, परकटी समुदाय की हैं। इनकी कोई देशी जमीन नहीं है। अव्वल तो यह है कि स्त्री-मुक्ति का सपना देखने वाली या इस दिशा में चिंतन-मन्थन करने वाली औरतों की कोई एक धारा नहीं है न ही स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी कोई एक अवधारणा। हर बड़े मकसद की तरह इसमें भी तरह-तरह की वैचारिक सरणियों में यकीन रखने वाले लोग सक्रिय हैं। किसी भी अस्मितावादी, मुक्तिकामी समूह का अपने ऊपर अत्याचार करने वाले लोगों के प्रति नफरत पैदा कर अपनी अस्मिता की तरफ ध्यान खींचने और इस ‘अन्य’ के बरअक्स ‘अपने’ लोगों को एकजुट करना आसान होता है। नोट करने की बात है कि अगर यह नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती गई तो कोई भी मुक्तिकामी परियोजना सफल होने के बजाय एक-दूसरी वर्चस्वकारी शक्ति में तब्दील हो जाएगी। फिर यह एक लोकतांत्रिाक व्यवस्था बनाने की बजाय, इन मूल्यों के लिए खुद भी चुनौती बन जाएगी। इसलिए किसी भी मुक्तिकारी समूह के यूटोपिया में उसके ‘अन्य’ के लिए क्या भाव-स्थान है, इसके जरिए उस यूटोपिया की जाँच बिल्कुल जरूरी होती है। यह अच्छी बात है कि स्त्री-समूहों में अपने ‘अन्य’ (पुरुष) के लिए नफरत का भाव नहीं है। इनकी स्पष्ट समझ है कि हमारा संघर्ष पितृसत्ता के विविध आयामों से है, न कि पुरुष-व्यक्ति-सत्ता से। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया में पुरुषों के लिए भी बराबर अधिकार और जगह होगी। अलबत्ता ये औरतें नफरत पफैलाने वाली नहीं हैं बल्कि समाज में बराबरी, प्रेम और सौहार्द को स्थापित करना चाहती हैं। हाँ, अगर परिवार का ढाँचा अपने को बदलकर लोकतांत्रिक नहीं बनाता, पितृसत्ता से चिपका रहना चाहता है, तो इसका बना रहना क्यों जरूरी है ? पितृसत्ता पर आधरित मौजूदा ‘परिवार’ में लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया के दौरान दरार आएगी और एक बेहतर परिवार की रचना होगी। इस नए बने ‘परिवार’ (या इसका कुछ नया नाम पड़ जाए) में स्त्री-पुरुष समानता होगी। दोनों को बराबर हक होगा। क्या यह कहने की जरूरत है कि ऐसा होना सिर्फ स्त्री के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के हित के लिए भी आवश्यक है। जिस ‘ब्रा- बर्निंग’ की चर्चा बार-बार होती हैं, उसे भी समझने की जरूरत है। असल में, मुक्तिकामी स्त्रियों ने ब्रा को ‘जेण्डर’ के साथ जोड़कर देखा था। अमेरिका में सम्पन्न एक विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के दौरान स्त्रीवादियों ने एक कूड़ेदान में अपना-अपना ब्रा उतारकर फेंक दिया। इन लोगों ने स्त्रियों से यह अपील भी की ब्रा गुलामी का प्रतीक है अतः इसे फेंक दें। इन स्त्रियों का मानना था कि स्तन बच्चे के दूध पीने के लिए है, न कि पुरुष के उपभोग की खातिर। पुरुष-सत्ता ने इसे भोग की वस्तु बनाकर खास ‘आकार’ में रखने के मकसद से ब्रा का ईजाद किया है। आशय यह कि स्त्री ‘सेक्स’ के इस अंग को ‘ब्रा’ ने ‘जेण्डर’ में तब्दील कर दिया है। लिहाजा, गुलामी के इस निशानी को पफेंककर जला देना आवश्यक है। गौर करने लायक बात यह है कि आज का स्त्रीवाद इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। दूसरा, ‘ब्रा-बर्निंग’ के मुद्दे पर इतनी हाय-तौबा की दरकार भी नहीं है। यह भी ऐसी ही घटना है जैसा कि गर्भपात के अधिकार के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान सीमोन सहित फ्रांस की अनेक स्त्रीवादी महिलाओं ने अपना दस्तख्त कर सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने अपने जीवन में गर्भपात कराया है। गर्भपात कराना उनका हक है और यह अधिकार कानूनी तौर पर उन्हें मिलना चाहिए। कानूनी हक मिलने के साथ समाज में गर्भपात को लेकर मौजूद ‘टैबू’ भी इससे दूर हुआ। अतः इतिहास की इन घटनाओं को उसके संदर्भ में ही देखने से, इन्हें ठीक से समझा जा सकता है। बहरहाल ऐसी अपेक्षा तो स्त्री-पुरुष समता में भरोसा रखने वालों से की जा सकती है, पितृसत्ता के अलमबरदारों से नहीं। स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया के समर्थकों पर आरोप लगाया जाता है कि इनकी देशी जड़ें नहीं हैं। ऐसा कहकर इस विचार को फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है कि ये विदेशी धरणाएँ हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से कोई सरोकार नहीं है। अव्वल तो यह कि कोई भी विचारधारा, वैचारिक सरणी अपने मुल्क में नहीं जन्मी तो क्या इसे नहीं अपनाना चाहिए ? क्या लोकतंत्रा, आधुनिकता सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन धरणाओं को त्याग देना चाहिए ? ऐसी कूपमंडूकता के खरतनाक मंसूबों को हमेशा याद रखना होगा। दूसरी बात यह कि स्त्री-मुक्ति की देशी जड़ें यहाँ मौजूद रही हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने इसकी गहरी पड़ताल कर हमारी इस महत्त्वपूर्ण विरासत का विवेचन-विश्लेषण किया है। जबसे पितृसत्ता का अंकुश कायम हुआ है, इसके प्रतिरोध में स्त्री-आवाजें भी आई हैं। क्या इन आवाजों में मुक्ति-कामना नहीं झलकती ? अपनी पीड़ा का अहसास कराती इन आवाजों में मुक्ति की गहरी लालसा का म(मिराग भी लबरेज़ है। गार्गी, थेरी गाथा की स्त्रियाँ, आंडाल, अक्का महादेवी, मीराबाई, सहजोबाई से लेकर रमाबाई, ताराबाई शिंदे, महादेवी वर्मा सरीखी अनेक स्त्रियों की आवाज़ में अपनी पीड़ा और पितृसत्ता की मुखालफत शामिल है। पितृसत्ता ने कई स्तरों पर काम किया है। इनकी आवाज को दबाने से लेकर इनके विचारों को नष्ट करने तक पितृसत्ता की प्रत्यक्ष हिंसा तो दिखती है, पर चुप कराने वाली परोक्ष हिंसा जल्द दिख नहीं पाती। आलम यह रहा है कि निकट अतीत में सीमंतनी उपदेश की महान रचनाकार ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ ही बनी रही। आज तक उस साहसी स्त्री का नाम पता नहीं चल पाया है। क्या यह उस परोक्ष हिंसा का एक बुरा नतीजा नहीं है ? ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता की मुखालफत करने वाली ये स्त्रियाँ सिर्फ भारत या यूरोप में हुई हैं। जिस तरह हर मुल्क में पितृसत्ता थी, उसी तरह इसकी विरोधी भी थीं। मसलन, काफी पहले न जाकर निकट अतीत, उन्नीसवीं सदी में गौर करें तो चीन में जिउ जिन, श्रीलंका में सुगला तथा गजमन नोना, इण्डोनेशिया में कार्तिनी, ईरान में कुर्रत उल ऐन सहित अनेक महिलाएँ हर मुल्क में मिल जाएंगी। यह अलग बात है कि पितृसत्ता का विरोध करने के साथ-साथ, मौजूदा दौर के हिसाब से देखने पर, इनकी सीमाएं भी सामने आती हैं। अपनी इस विरासत को न तो नकार कर और न ही बढ़-चढ़कर तारीफ करके इसे समझा जा सकता है। विरासत के सर्जनात्मक विकास के लिए खूबियों-सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ जिरह जरूरी होता है और कारगर भी। अपने देश में स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को घर की दहलीज से बाहर निकाला। इसी दौरान बड़ी तादाद में स्त्रियों ने सामाजिक-राजनीतिक कार्य में हिस्सा लिया। राजनीतिक प्रश्न के तौर पर स्त्रियों का सवाल इसी दौर में उभरा। स्त्रियों का घर की चारदीवारी से बाहर आकर सामाजिक-राजनीतिक कामों में हिस्सा लेना, सभा-संगोष्ठी में जाना अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ी हुई घटना थी। इसके लिए स्वाधीनता-आंदोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं को इसका श्रेय देना चाहिए। पर यह भी याद रखना चाहिए कि दलित मजदूरों और किसानों के सवाल की तरह स्त्रियों का प्रश्न भी उनके लिए स्वाधीनता-आंदोलन का ही मसला था, अलग से स्त्री-मुक्ति का सवाल नहीं। आशय यह कि उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने स्त्रियों के मसले को अपने नजरिये से स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत के नजरिये से उठाया। स्त्रियों को घर से बाहर लाकर आंदोलन से जोड़ना उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। यही वजह है कि १९१७ में सरोजनी नायडू की अगुवाई में स्त्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल को मांटेस्क्यू से मिलकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और काउंसिल के उन्नीस गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाए गए स्वराज्य की मांग को अपना समर्थन देते हुए स्त्रियों के सवाल को अलग से उठाना पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ खुद ‘जेण्डर’ की धरणा से ग्रसित थे। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता आंदोलन में जो काम पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं कर सकतीं। इसे समझने के लिए महात्मा गांधी द्वारा आहूत नमक सत्याग्रह को याद किया जा सकता है। गांधी जी स्वाधीननता आंदोलन में स्त्रियों को भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे परंतु नमक सत्याग्रह के लिए हुए दांडी मार्च में हिस्सा लेने से रोक रहे थे। इन्हें लगता था कि इतना दूर चलने से स्त्रियां थक जाएंगी। गांधी जी की इस मनाही का सरोजनी नायडू सहित कुछ स्त्रियों ने विरोध किया और दांडी-मार्च में शामिल होने हेतु जिद की। इनकी जिद के सामने झुककर गांधी जी ने बाद में अपनी हामी भरी। दांडी-मार्च और इसकी परिणति नमक सत्याग्रह में शामिल स्त्रियों ने गांधी जी की पूर्व मान्यता को गलत साबित करते हुए पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम किया। इस तरह की कई घटनाएँ बताती हैं कि स्वाधीनता-आंदोलन के नेताओं की मानसिक बनावट में ‘जेण्डर’ की पितृसत्तात्मक मान्यताओं का कितना असर था। इसी के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनमें भारत की स्त्रियों को, अपने हक के लिए यूरोप की महिलाओं की तुलना में काफी कम संघर्ष करना पड़ा। यूरोपीय महिलाओं को अपने राजनीतिक हक, ‘वोट देने का अधिकार’ पाने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। १९२८ ई में हुए मुंबई (तब बम्बई) कांग्रेस में सरोजिनी नायडू ने काउंसिलों के चुनाव में स्त्रियों के मताध्किार का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का मदन मोहन मालवीय ने मुखर विरोध किया था। हालांकि मालवीय के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया। आशय यह है कि स्त्रियों के पक्ष में, भले ही कुछ कदम आगे बढ़कर साथ देने के लिए, स्वाधीनता-आंदोलन में शामिल शिक्षित मध्य वर्ग सामने आता था। भारत में स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के हिमायतियों ने सिर्फ स्त्रियों का सवाल उठाकर, उसके लिए जोखिम भरा संघर्ष नहीं किया है। बोधगया मुक्ति आंदोलन, चिपको आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब के खिलाफ हुए आंदोलन जिसकी वजह से सरकार गिर गई थी, स्त्रियों द्वारा किए गए आंदोलन हैं जिसमें अपनी-अपनी तरह की स्त्रीवादी महिलाएं शामिल रही हैं। इन सारे संघर्षों में स्त्रियों को काफी सफलता भी मिली है। इस लिहाज से गौर फरमाएं तो भारत के स्त्री-मुक्ति आंदोलन की यह निजी खासियत है और इसके विस्तार तथा व्याप्ति का सूचक भी। स्त्री-मुक्ति का एक यूटोपिया एक सदी पहले रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी कहानी सुल्ताना का सपना में रचा था। इसके हिसाब से पुरुष घरों में सारा काम कर रहे हैं और औरतें बाहर के सारे काम को कर रही हैं। इस यूटोपिया को लागू करने की प्रक्रिया नफरत पर आधरित तो नहीं थी, परंतु इसमें सारा क्रम सिर्फ उल्ट दिया गया था। मौजूदा स्त्री-मुक्ति-विमर्श इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। अब क्रम को सिर्फ उल्टा नहीं जाता बल्कि सहभागिता, स्वतंत्रता और समता को सुनिश्चित किया जाता है। नोट करने लायक बात यह है कि यथार्थ और यूटोपिया एक-दूसरे से बिल्कुल अलहदा नहीं होते। दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है। यथार्थ के घात-संघात और समझ से यूटोपिया आकार ग्रहण करता है तो यूटोपिया हमें यथार्थ को जाँचने-समझने की समझ भी देता है, जिससे उस यथार्थ की जटिल संरचना में निहित वर्चस्वकारी रूप को जानकर उसे दूर करने की दिशा में बढ़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ के विभिन्न आयामों को समझे बगैर नहीं रचा जा सकता। व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के साथ पितृसत्ता ने अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बना रखा है। इसलिए इन सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर ही स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया का खाका निर्मित हो सकता है। पितृसत्ता के इस मकड़जाल को देखते हुए ऐसा लगता है कि बगैर पूरी व्यवस्था बदले पूर्णतः स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। एक न एक दिन स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ जरूर बनेगा। मुक्ति का स्वप्न इसे हकीकत तक जरूर पहुँचायेगा। कवि वेणु गोपाल की कविता का सहारा लेकर कहें तो … ना हो कुछ भी सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत और यह एक शुरुआत ही तो है कि वहाँ एक सपना है। From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Thu Jul 16 21:32:46 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Thu, 16 Jul 2009 09:02:46 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWALeCkruClgeCkleCljeCkpOCkvyDgpJXgpL4g4KSv4KSl4KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSlIOCklOCksCDgpK/gpYLgpJ/gpYvgpKrgpL/gpK/gpL46?= 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नहीं है? कविता बताती है कि उसे बखूबी पता है कि मार खाने के बाद जहाँ से भागती है, बार-बार उसे वहीं लौटना है। साथ ही लौट कर फिर मार खाना है। जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है / कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है / जानती थी वो लौटना ही होगा इस बार भी। फिर भी भागती है। उसके यहाँ से गंगा भी ज्यादा दूर नहीं थी। रेल की पटरियाँ भी पास थीं। पर वह अपनी ट्रैजिक नियति को जानते हुए भी कि उसे फिर लौटना पड़ेगा, और मार खाना पड़ेगा; भागती है। कुछ दिन के लिए ही सही। वह मरण का वरण नहीं करती। आत्महत्या का रास्ता नहीं अख्तियार करती है। लिहाजा गंगा नदी का ज्यादा दूर न होना या रेल की पटरियाँ पास होना उसके लिए कोई विकल्प नहीं रचता। मार खाने से बचने के लिए जीवन को समाप्त करना उसे गवारा नहीं है। क्योंकि वह बार-बार जीवन से मृत्यु नहीं, मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी। भागती भी है तो खूँटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती / गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती। आखिरकार वह औरत किस खूँटे से बंधी है, जिसे उखाड़ने की बार-बार असफल कोशिश करती है। गौर करें गर्दन ऐंठने तक कोशिश करती है और उखाड़ भले न पाये पर डिगा देती है। गर्दन ऐंठने तक कोशिश करना मानीखेज है। धीरे-धीरे यह खूँटा जड़ से उखड़ भले न पाये, टूटेगा जरूर। क्योंकि वह औरत बार-बार हर रात एक ही सपना देखती है। ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा। सपना है- मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न और बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न। इस कविता में, जहाँ से वह औरत मार खाकर भागती है, वहीं उसे बार-बार लौटना तथा मार खाना पड़ता है। जाहिर यह उसका ससुराल है। इसके लिए अरुण कमल ने ‘घर’ या ‘परिवार’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। क्या यह अनायास है? जबकि शादी के बाद, इस सामाजिक संरचना में, यही उसका ‘घर’ है या ‘परिवार’ भी। इस कविता में ‘घर’ शब्द एक बार आया है। जहाँ वह दो-चार दिन काटती है। कभी किसी दूर के संबंधी या किसी परिचित के घर जाहिर है यहाँ भी वह अपनी जिन्दगी का दो-चार दिन ही सही जीती नहीं, काटती है। कभी भागकर नैहर जाती है। पर यहाँ भी कितने दिन के लिए? हफ़्ता या महीना। वहाँ से भी थककर लौटती है। आशय यह कि पीहर में भी जिन्दगी का कुछ दिन ही काट पाती है। भले ही परिचित या किसी दूर के रिश्तेदार के घर के तुलना में कुछ ज्यादा दिन। थक कर लौटना दो बातों की तरफ इशारा करता है। एक, जिन्दगी जिया नहीं गया है, काटा गया है। दो, जो संरचना मौजूद है उसमें उसके लिए नैहर अब विकल्प नहीं रह गया है। चाहे जो हो उसे ससुराल में ही ‘निबाहना’ है। इस सामाजिक ढाँचे में माना यह जाता है कि डोली नैहर से उठी है तो अर्थी ससुराल से उठेगी। ऐसे में, वह ससुराल जहाँ बार-बार पीटी जाती है, शब्द के सच्चे मायने में ‘घर’ या ‘परिवार’ हो सकता है? हरगिज नहीं। वह उस स्त्री के लिए ‘जगह’ भर ही है। न तो ‘घर’ महज छत के नीचे का बसेरा है और न ही ‘परिवार’ कुछ लोगों के साथ भर रह लेने वाली व्यवस्था। जब तक आपसी संवेदनात्मक रिश्ता और उससे पैदा होनेवाली उष्मा मौजूद नहीं हो, उसे ‘घर’ या ‘परिवार’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। आखिरकार, जब वह जगह ‘घर’ और वहाँ के लोग ‘परिवार’ नहीं है तब वह वहाँ क्यों है? वह किस ‘खूँटा’ के मजबूत रस्सी से बंधी है जिसे गर्दन ऐंठने तक उखाड़ने या तोड़ने की हर बार कोशिश करती है। यह खूँटा पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। याद रखें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मायने परिवार में पुरूष का सिर्फ मुखिया होना नहीं है। यह महज इतना ही होता तो इसका ‘खूँटा’ कब का उखड़ चुका होता या इसकी ‘रस्सी’ टूट गयी होती। क्या यह कहने की जरूरत है कि इस ढाँचे की रचना धूर्तता और चालाकी के साथ की गयी है और आज भी हो रही है। आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैधानिक, सांस्कृतिक व्यवस्था और मूल्यों-मर्यादाओं, संस्कारों, आदर्शों तथा चिंतन के विभिन्न रूपों, विचारधाराओं, निर्मितियों, गतिविध्यिों के जरिये बड़े महीन ढंग से इसे रचा-बुना गया है। इन सबके जरिये पितृसत्ता पुरूष को औरत की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने का पाखंड रचती और फैलाती है। इस कविता में स्त्री के पास कहीं कोई रास्ता नहीं है और कहीं कोई अंतिम आसरा भी नहीं। जाहिर है उसे अपना रास्ता खुद बनाना है और अपना आसरा भी खुद ही बनना है। इस स्त्री को इसका बोध् है। इस बोध और गहरी जिजीविषा ने इसे रेल की पटरी पर या गंगा में जाने से रोका है। लिहाजा, ससुराल से मार खाकर बार-बार भागना महज पलायन नहीं है बल्कि विकल्प रचने के लिए रास्ता बनाने की प्रक्रिया की एक कड़ी है। इसके साथ ही पीटने की पीड़ा का अहसास होते रहने के लिए जरूरी कदम भी है। इस पीड़ा का अहसास होना बेहद जरूरी है। बगैर इस अहसास के न तो मुक्ति का स्वप्न याद रहेगा और न ही जीवन को बदलने के लिए यत्न करने की अभीप्सा बचेगी। इस अभीप्सा के बगैर वह गर्दन ऐंठने तक बार-बार खूँटे को डिगाने की असफल ही सही, कोशिश नहीं कर पायेगी। पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को घर के अंदर कैद किया है और उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन किया है। दूसरी तरफ विभिन्न मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों के जरिये शोषण को सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की है। इस कविता की स्त्री का आर्थिक तौर पर स्वावलंबी नहीं होना और विभिन्न संस्कारों का मकड़जाल अपना आशियाना अलग बनाने से रोकता है। इन वैचारिक जकड़बंदियों का दबाव ऐसा मजबूत है कि जहाँ तक रस्सी जाती है (यानी मंदिर की सीढ़ी, नैहर या किसी रिश्तेदार के घर) वहीं तक भाग पाती है। फिर ससुराल में लौटकर आना इसकी ट्रैजिक नियति है। लेकिन बार-बार, हर रात जो मुक्ति का स्वप्न देखती है उसके जरिये रास्ता जरूर बनेगा, मुक्ति जरूर मिलेगी, जीवन जरूर बदलेगा। इस कविता पर किंचित विस्तार के साथ विचार करने की वजह यह है कि इसमें एक आम स्त्री के जीवन का यथार्थ है और साधरण स्त्री की मुक्ति-कामना के साथ, खतरा मोलकर अपनी गर्दन ऐंठने तक कोशिश कर यूटोपिया रचने का साहस भी। स्वप्न शीर्षक कविता के मार्फ़त स्त्री मुक्तिः यथार्थ और यूटोपिया पर विचार करने की एक वजह यह है कि यह कविता जिस स्त्री के जीवन पर हो रहे पारिवारिक अत्याचार को अपना विषय बनाती है, वह ‘स्त्रीवाद’ का सिद्धांत पढ़कर अपनी मुक्ति-कामना से लबरेज नहीं है, बल्कि जीवन-जगत के यथार्थ से उसमें यह मुक्ति-कामना पैदा हुई है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अगर कोई स्त्री ‘स्त्रीवाद’ या स्त्री-मुक्ति से सम्बन्धित धरणाओं को पढ़-सुन या समझकर अपनी मुक्ति की कामना करती है या इसके लिए अग्रसर होती है तो यह अपराध नहीं बल्कि अच्छी बात है। इसी में मुक्तिकारी अवधरणाओं की सफलता भी है। यह उन लोगों के लिए कहा गया है जो ‘स्त्रीवाद’ और उससे जुड़ी धरणाओं को बदनाम करने के मकसद से अनर्गल प्रलाप करते हैं और मानते हैं कि आम औरतों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कविता पढ़कर समझा जा सकता है कि इस औरत पर पितृसत्तात्मक ढाँचे का भी असर है। इस संरचना के दायरे में जन्म लेने और उसके परवरिश होने की वजह से यह स्वाभाविक भी है। काबिलेगौर बात है – इस ढाँचे के भीतर रहते हुए उसका ‘स्वप्न’ देखना और उस स्वप्न के लिए ‘यत्न’ करना। यही स्वप्न और यत्न उसे मुक्ति भी दिलाएगी। बहरहाल, दुनिया के सभी समुदाय, सभ्यता, धर्म और मुल्क में पितृसत्ता मौजूद है। नतीजतन स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कमतर मानने की रवायत है। अपवादस्वरूप भले ही कुछ इससे मुक्त हों। यह दीगर बात है कि इन सबमें पितृसत्ता का एक समान या सर्वमान्य रूप नहीं है। अपने अलग-अलग गुण, धर्म के साथ इसकी मौजूदगी बरकरार है। समय-समय पर इसने विभिन्न शक्तियों से नापाक गठजोड़ करके अपना रूप भी बदला है। इसीलिए अलग-अलग देश-काल में यह एक जैसा नहीं दिखता। कुछ लोगों को लगता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामंतवादी संरचना की उपज है और सिर्फ इसी सामाजिक ढाँचे में मौजूद रहती है। जाहिर है ऐसा मानने वालों की समझ है कि पूँजीवाद के साथ यह खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी। ऐसा सोचने वाले लोगों में वे भी शामिल है जो पितृसत्ता को दरकते देख दुखी होते हैं और वे भी हैं जो पितृसत्ता की शोषणकारी, अमानवीय रूप से दुखी होकर इसे बदलना चाहते हैं। इसके पक्ष में दुखी होने वाले लोग पितृसत्ता को मजबूत बनाने की कामना करते हुए पुराने दिनों को याद करते हैं तथा पूँजीवाद और इसके साथ आए बदलाव को कोसते हैं। जबकि पितृसत्ता के चालाक समर्थक नित्य हो रहे बदलाव से किसी भी तरह गठजोड़ करके इसे बरकरार रखने का प्रयास करते हैं। पितृसत्ता की मौजूदगी से आहत उपरोक्त श्रेणी के लोग पूँजीवाद की भूमिका से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा पालते प्रतीत होते हैं। इतना तय है कि पितृसत्ता सिर्फ सामंतवादी व्यवस्था में ही मौजूद नहीं होती। अगर ऐसा होता तो विकसित पूँजीवादी मुल्क में इसे पूरी तौर पर समाप्त हो जाना चाहिए था। तथ्य तो यह बताता है कि ऐसी संरचना में भी पितृसत्ता की मौजूदगी बनी हुई है, भले ही बदले रंग-ढंग में। इसका आशय यह नहीं है कि सामंतवाद और पूँजीवाद औरतों के मामले में, पितृसत्ता की मौजूदगी को लेकर, एक समान हैं। निश्चित तौर पर पूँजीवाद की भूमिका इस लिहाज से कई कदम आगे की है। इसने पितृसत्ता को एक हद तक चोट पहुँचाया है, बदला है, औरतों को आजादी मुहैया कराई है। पर पितृसत्ता में अपना हित दिखते ही पूँजीवाद ने इसके साथ गठजोड़ कर लिया। पितृसत्ता के सहयोग से औरतों के श्रम को कम करके आँका गया। इससे पूँजीवाद का हित सधता है। इसी तरह स्त्री-देह का मसला है। पूँजीवाद और इसके कई उत्पादों ने स्त्री-देह को एक स्तर पर आजाद करने में भूमिका अदा की। लेकिन दूसरे स्तर पर अपने हित के लिए पितृसत्ता से गलबहियाँ कर स्त्री-देह को महज पण्य में भी बदलने की कोशिश की। स्त्री-देह की मुक्ति जरूरी है। स्त्रियों को अपने देह पर पूरा-पूरा अधिकार होना चाहिए। लेकिन इस देह-मुक्ति का नारा देकर स्त्री-देह को अपने लिए, सबके लिए, उपलब्ध करने की चालाकी भी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो देह की आजादी पितृसत्तात्मक बंधनों, मूल्यों, मान्यताओं से होनी चाहिए। पूँजीवाद के जरिए कई कदम आगे तक स्त्रियों को देह पर आजादी मिली है। स्त्रियों में यह चेतना भी विकसित हुई है कि उनके देह पर उनका हक है। पर आजाद देह को पुरुष-भोग के लिए ‘उपलब्ध देह’ बनाने की कोशिश अंततः पितृसत्ता को चोर दरवाजे से लागू करने का ही प्रयास है। यहीं एक बात और। पूँजीवाद के विभिन्न उपकरण, मीडिया आदि ने स्त्री-देह को खूब दिखाया और घुमाया है। घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जगहों पर जाना, अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है। पर यह भी गौर करना होगा कि इस बाहर आने में क्या सिर्फ स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया को यथार्थ बनाया जा रहा है ? अथवा पितृसत्तात्मक संरचना अपने को नए रूप में ढालकर स्त्री-देह का वस्तुकरण कर रही है। संभव है इसके पक्ष में ऊपरी तौर पर स्त्री की मर्जी भी दिखे। पर सोचने की बात है कि इस ‘मर्जी’ को कौन-सी सत्ता परिचालित कर रही है, नियंत्रित कर रही है? लिहाजा पितृसत्ता की कुछ की दहलीज लाँघने के बावजूद स्त्री-देह किसके नियंत्रण में है, कौन-सी ताकत इस दिशा में ठेल रही है। इस पहलू को नजरअंदाज करके स्त्री-मुक्ति का न तो यथार्थ समझा जा सकता है और न ही यूटोपिया की रचना हो सकती है। दरअसल, ये सारी परिस्थितियाँ इतनी जटिलताओं से युक्त हैं कि इसका एक पक्ष देखकर न तो इसे सीधे खारिज किया जा सकता है और न ही इसका पुरजोर समर्थन। लिहाजा, पूँजीवाद या इसके विभिन्न उपकरणों को उनकी प्रगतिशीलता का वाजिब श्रेय भी देना होगा। साथ ही इसके ‘मुनाफे’ के लिए बने शोषणमूलक तंत्रा की जटिलता और पितृसत्ता के साथ रिश्ते को समझते हुए मुखालफत भी करना होगा। इन दो व्यवस्थाओं के अलावा समाजवादी/साम्यवादी मुल्कों में पितृसत्ता की क्या स्थिति रही? क्या यह बिल्कुल समाप्त हो गई? ;पिफलहाल यहाँ इस पर बहस किए बगैर कि वे मुल्क कितने समाजवादी या साम्यवादी थे?द्ध यह सवाल इसलिए पूछा जाना जरूरी है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है, समाजवाद आते स्त्री-मुक्ति का मकसद आप पूरा हो जाएगा। असल में, ‘आधार’ और अधिरचना की यांत्रिाक समझ के कारण ही कुछ लोग ऐसा समझते हैं। स्त्री-मुक्ति का सवाल ही नहीं बल्कि जाति के सवाल को भी कापफी समय तक ऐसे ही देखा जाता रहा है। कुछ लोग स्त्री-मुक्ति ;जेंडर के संदर्भ मेंद्ध के सवाल को सिपर्फ ‘अधिरचना’ से सम्ब( मानते हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि क्रांति के बाद जब ‘आधार’ ही बदल जाएगा तो अधिरचना का बदलना अवश्यम्भावी है। लिहाजा स्त्री-मुक्ति का प्रश्न ही नहीं बचेगा। पितृसत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाएगी। ऐसे लोग ‘आधार’ के साथ पितृसत्ता के जटिल रिश्तों को नजरअंदाज करते हैं। जबकि कुछ लोगों को पितृसत्ता का भौतिक आधार ही ज्यादा दिखता है। लिहाजा, ऐसे लोग इसे सिपर्फ ‘आधार’ से जुड़ा मानते हैं। इस समझ का प्रतिफलन इस रूप में विकसित होता है कि जब उत्पादन का सम्बन्ध बदल जाएगा, उत्पादन प्रक्रिया बदल जाएगी तो फिर स्त्री-मुक्ति तो अपने आप हो जाएगी। ऐसे में यह कहना जरूरी है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का भौतिक आधार और सांस्कृतिक अधिरचना दोनों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। एक को दूसरे पर तवज्जो देना इसके जटिल अंतर्संबन्धें को नजरअंदाज करना होगा। यह भी याद करने की जरूरत है कि ‘आधार’ के बदलने मात्रा से ‘अधिचना’ भी पूरी तरह नहीं बदलती। आधार और अधिरचना के बीच इस तरह का सरल सम्बन्ध होता तो कई समस्याएँ खुद-ब-खुद मिट गयी होती। आधार और अधिरचना के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को नजरअंदाज करके इसकी परस्परता को नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, समाजवादी मुल्कों में गोकि पूर्णतः स्त्री-मुक्ति न हुई, पर स्त्रियों के हालात बेहतर हो गए थे। पूँजीवाद की तुलना में स्त्री-मुक्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था ज्यादा माकूल है। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की रचना इसलिए भी ज्यादा जटिल है कि स्त्री की पहचान सिर्फ और सिर्फ स्त्री के तौर पर नहीं है। हो भी नहीं सकती। लिहाजा स्त्री की समस्याएँ भी कई स्तर भेदों से जुड़ी हुई हैं। स्त्री अपने आप में कोई ‘वर्ग’ नहीं है। स्त्री होने मात्र से सारी स्त्रियों की न तो सभी समस्याएँ हो सकती हैं और न सबका हित एक हो सकता है। हाँ, किसी-न-किसी रूप में सभी स्त्रियाँ शोषण की शिकार होती हैं। मसलन, अमीर स्त्री और गरीब स्त्री दोनों का शोषण होता है। पर एक वर्ग का न होने के कारण इनका साझा वर्गीय हित-अहित नहीं हो सकता। संभव है, अमीर स्त्री अपने परिवार, समुदाय में पितृसत्ता की शिकार हो और अपने वर्गीय हित में गरीब स्त्री का शोषण कर रही हो। दूसरे शब्दों में कहें तो जाति-धर्म, वर्ग के साथ स्त्री अपनी अलग ‘कैटेगरी’ भी बनाती है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि सेक्स और जेण्डर के हिसाब से ऊपरी तौर पर समान होने के बावजूद ये स्तर-भेद ‘सार्वभौम बहनापा’ के मार्ग में अवरोध हैं? क्या इन स्तर भेदों को बिल्कुल नकारा जा सकता है? प्रसंगवश, स्त्री-मुक्ति विमर्शकारों के यहाँ ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ एक नहीं है। अब हिन्दी में इसके अनुवाद की समस्या हो सकती है। इन दोनों का अनुवाद ‘लिंग’ करने से उनके साथ का अर्थवृत्त नहीं आ सकता और अवधरणा भी स्पष्ट नहीं हो सकती। लिहाजा जब तक उस अवधरणा को स्पष्ट करने वाला शब्द नहीं मिलता, तब तक सेक्स के लिए लिंग और जेण्डर के लिए जेण्डर का उपयोग करने में क्या दिक्कत है? कुछ अन्ध हिन्दी-प्रेमी दूसरी भाषा के शब्दों को बिल्कुल लेना नहीं चाहते। नतीजतन ऐसा शब्द बना देते हैं जो उस अवधरणा को स्पष्ट करने में कहीं से कारगर नहीं होता। गौरतलब है कि लिंग (सेक्स के अर्थ में) एक बायोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट है और जेण्डर एक सोशियोलॉजिकल कस्ट्रक्ट। यानी सेक्स जैविक या प्राकृतिक होता है। जबकि जेण्डर जैविक या प्राकृतिक नहीं होता। जेण्डर की रचना विभिन्न सत्ताओं ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं के तौर पर किया है। मतलब कि स्त्री- ‘सेक्स’ के लिहाज से पुरुष से भिन्न है। इन्हें ‘जेण्डर’ की भिन्नता पितृसत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए स्त्रियों को विभिन्न ‘भूमिका’ देने के मकसद से और कमतर ठहराने के लिए किया है। इस लिहाज से देखें तो ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ में बड़ा फर्क नजर आएगा। पितृसत्ता ने ‘जेण्डर’ को भी प्राकृतिक, स्वाभाविक गुण के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया है। स्त्री-मुक्ति इसी ‘जेण्डर’ से मुक्ति में है। बहरहाल, स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया रचने वालों को स्त्री के स्तरभेदों को ध्यान में रखना होगा। स्त्रियों के भीतर मौजूद परस्पर विरोधी पहचान के कई रूप हो सकते हैं। इन पहचानों को रेखांकित करने से स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया कमजोर नहीं बल्कि ज्यादा सार्थक, विश्वसनीय और कारगर होगा। अलबत्ता यह स्तर भेद चुनौती जरूर पेश करेगा पर मुक्ति का मजबूत और चौड़ा रास्ता इसी से निकलेगा। जाति और वर्ग दोनों से निरपेक्ष जेण्डर की समझ मुक्तिकारी यूटोपिया की पुख्ता जमीन तैयार नहीं कर सकती। साथ ही इस यूटोपिया की संरचना तब तक पूर्णतया सफल नहीं हो सकती जब तक तमाम स्त्रियों के लिए इसमें जगह न हो। कहने का आशय यह है कि स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया की बाबत यह नहीं कहना होगा कि फिलहाल इस श्रेणी की स्त्री मुक्त होगी और उस श्रेणी की स्त्री बाद मुक्त होगी। आपसी परस्पर विरोधी भेदों के बावजूद सारी स्त्रिायाँ पितृसत्ता की शिकार हैं। और सबके लिए मुक्तिकामी यूटोपिया की दरकार है। जब भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा होती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अलमबरदार इसे खतरे के तौर पर प्रचारित करते हैं। ऐसे लोग यह फैलाते हैं कि मुक्ति की आवाज उठाने वाली ये औरतें पुरुषों से नफरत करने वाली, परिवार तोड़ने वाली, ब्रा जलाने वाली, परकटी समुदाय की हैं। इनकी कोई देशी जमीन नहीं है। अव्वल तो यह है कि स्त्री-मुक्ति का सपना देखने वाली या इस दिशा में चिंतन-मन्थन करने वाली औरतों की कोई एक धारा नहीं है न ही स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी कोई एक अवधारणा। हर बड़े मकसद की तरह इसमें भी तरह-तरह की वैचारिक सरणियों में यकीन रखने वाले लोग सक्रिय हैं। किसी भी अस्मितावादी, मुक्तिकामी समूह का अपने ऊपर अत्याचार करने वाले लोगों के प्रति नफरत पैदा कर अपनी अस्मिता की तरफ ध्यान खींचने और इस ‘अन्य’ के बरअक्स ‘अपने’ लोगों को एकजुट करना आसान होता है। नोट करने की बात है कि अगर यह नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती गई तो कोई भी मुक्तिकामी परियोजना सफल होने के बजाय एक-दूसरी वर्चस्वकारी शक्ति में तब्दील हो जाएगी। फिर यह एक लोकतांत्रिाक व्यवस्था बनाने की बजाय, इन मूल्यों के लिए खुद भी चुनौती बन जाएगी। इसलिए किसी भी मुक्तिकारी समूह के यूटोपिया में उसके ‘अन्य’ के लिए क्या भाव-स्थान है, इसके जरिए उस यूटोपिया की जाँच बिल्कुल जरूरी होती है। यह अच्छी बात है कि स्त्री-समूहों में अपने ‘अन्य’ (पुरुष) के लिए नफरत का भाव नहीं है। इनकी स्पष्ट समझ है कि हमारा संघर्ष पितृसत्ता के विविध आयामों से है, न कि पुरुष-व्यक्ति-सत्ता से। स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया में पुरुषों के लिए भी बराबर अधिकार और जगह होगी। अलबत्ता ये औरतें नफरत पफैलाने वाली नहीं हैं बल्कि समाज में बराबरी, प्रेम और सौहार्द को स्थापित करना चाहती हैं। हाँ, अगर परिवार का ढाँचा अपने को बदलकर लोकतांत्रिक नहीं बनाता, पितृसत्ता से चिपका रहना चाहता है, तो इसका बना रहना क्यों जरूरी है ? पितृसत्ता पर आधरित मौजूदा ‘परिवार’ में लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया के दौरान दरार आएगी और एक बेहतर परिवार की रचना होगी। इस नए बने ‘परिवार’ (या इसका कुछ नया नाम पड़ जाए) में स्त्री-पुरुष समानता होगी। दोनों को बराबर हक होगा। क्या यह कहने की जरूरत है कि ऐसा होना सिर्फ स्त्री के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के हित के लिए भी आवश्यक है। जिस ‘ब्रा- बर्निंग’ की चर्चा बार-बार होती हैं, उसे भी समझने की जरूरत है। असल में, मुक्तिकामी स्त्रियों ने ब्रा को ‘जेण्डर’ के साथ जोड़कर देखा था। अमेरिका में सम्पन्न एक विश्व सुंदरी प्रतियोगिता के दौरान स्त्रीवादियों ने एक कूड़ेदान में अपना-अपना ब्रा उतारकर फेंक दिया। इन लोगों ने स्त्रियों से यह अपील भी की ब्रा गुलामी का प्रतीक है अतः इसे फेंक दें। इन स्त्रियों का मानना था कि स्तन बच्चे के दूध पीने के लिए है, न कि पुरुष के उपभोग की खातिर। पुरुष-सत्ता ने इसे भोग की वस्तु बनाकर खास ‘आकार’ में रखने के मकसद से ब्रा का ईजाद किया है। आशय यह कि स्त्री ‘सेक्स’ के इस अंग को ‘ब्रा’ ने ‘जेण्डर’ में तब्दील कर दिया है। लिहाजा, गुलामी के इस निशानी को पफेंककर जला देना आवश्यक है। गौर करने लायक बात यह है कि आज का स्त्रीवाद इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। दूसरा, ‘ब्रा-बर्निंग’ के मुद्दे पर इतनी हाय-तौबा की दरकार भी नहीं है। यह भी ऐसी ही घटना है जैसा कि गर्भपात के अधिकार के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान सीमोन सहित फ्रांस की अनेक स्त्रीवादी महिलाओं ने अपना दस्तख्त कर सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने अपने जीवन में गर्भपात कराया है। गर्भपात कराना उनका हक है और यह अधिकार कानूनी तौर पर उन्हें मिलना चाहिए। कानूनी हक मिलने के साथ समाज में गर्भपात को लेकर मौजूद ‘टैबू’ भी इससे दूर हुआ। अतः इतिहास की इन घटनाओं को उसके संदर्भ में ही देखने से, इन्हें ठीक से समझा जा सकता है। बहरहाल ऐसी अपेक्षा तो स्त्री-पुरुष समता में भरोसा रखने वालों से की जा सकती है, पितृसत्ता के अलमबरदारों से नहीं। स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया के समर्थकों पर आरोप लगाया जाता है कि इनकी देशी जड़ें नहीं हैं। ऐसा कहकर इस विचार को फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है कि ये विदेशी धरणाएँ हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से कोई सरोकार नहीं है। अव्वल तो यह कि कोई भी विचारधारा, वैचारिक सरणी अपने मुल्क में नहीं जन्मी तो क्या इसे नहीं अपनाना चाहिए ? क्या लोकतंत्रा, आधुनिकता सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन धरणाओं को त्याग देना चाहिए ? ऐसी कूपमंडूकता के खरतनाक मंसूबों को हमेशा याद रखना होगा। दूसरी बात यह कि स्त्री-मुक्ति की देशी जड़ें यहाँ मौजूद रही हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने इसकी गहरी पड़ताल कर हमारी इस महत्त्वपूर्ण विरासत का विवेचन-विश्लेषण किया है। जबसे पितृसत्ता का अंकुश कायम हुआ है, इसके प्रतिरोध में स्त्री-आवाजें भी आई हैं। क्या इन आवाजों में मुक्ति-कामना नहीं झलकती ? अपनी पीड़ा का अहसास कराती इन आवाजों में मुक्ति की गहरी लालसा का म(मिराग भी लबरेज़ है। गार्गी, थेरी गाथा की स्त्रियाँ, आंडाल, अक्का महादेवी, मीराबाई, सहजोबाई से लेकर रमाबाई, ताराबाई शिंदे, महादेवी वर्मा सरीखी अनेक स्त्रियों की आवाज़ में अपनी पीड़ा और पितृसत्ता की मुखालफत शामिल है। पितृसत्ता ने कई स्तरों पर काम किया है। इनकी आवाज को दबाने से लेकर इनके विचारों को नष्ट करने तक पितृसत्ता की प्रत्यक्ष हिंसा तो दिखती है, पर चुप कराने वाली परोक्ष हिंसा जल्द दिख नहीं पाती। आलम यह रहा है कि निकट अतीत में सीमंतनी उपदेश की महान रचनाकार ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ ही बनी रही। आज तक उस साहसी स्त्री का नाम पता नहीं चल पाया है। क्या यह उस परोक्ष हिंसा का एक बुरा नतीजा नहीं है ? ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता की मुखालफत करने वाली ये स्त्रियाँ सिर्फ भारत या यूरोप में हुई हैं। जिस तरह हर मुल्क में पितृसत्ता थी, उसी तरह इसकी विरोधी भी थीं। मसलन, काफी पहले न जाकर निकट अतीत, उन्नीसवीं सदी में गौर करें तो चीन में जिउ जिन, श्रीलंका में सुगला तथा गजमन नोना, इण्डोनेशिया में कार्तिनी, ईरान में कुर्रत उल ऐन सहित अनेक महिलाएँ हर मुल्क में मिल जाएंगी। यह अलग बात है कि पितृसत्ता का विरोध करने के साथ-साथ, मौजूदा दौर के हिसाब से देखने पर, इनकी सीमाएं भी सामने आती हैं। अपनी इस विरासत को न तो नकार कर और न ही बढ़-चढ़कर तारीफ करके इसे समझा जा सकता है। विरासत के सर्जनात्मक विकास के लिए खूबियों-सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ जिरह जरूरी होता है और कारगर भी। अपने देश में स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को घर की दहलीज से बाहर निकाला। इसी दौरान बड़ी तादाद में स्त्रियों ने सामाजिक-राजनीतिक कार्य में हिस्सा लिया। राजनीतिक प्रश्न के तौर पर स्त्रियों का सवाल इसी दौर में उभरा। स्त्रियों का घर की चारदीवारी से बाहर आकर सामाजिक-राजनीतिक कामों में हिस्सा लेना, सभा-संगोष्ठी में जाना अपने आप में स्त्री-मुक्ति की दिशा में बढ़ी हुई घटना थी। इसके लिए स्वाधीनता-आंदोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं को इसका श्रेय देना चाहिए। पर यह भी याद रखना चाहिए कि दलित मजदूरों और किसानों के सवाल की तरह स्त्रियों का प्रश्न भी उनके लिए स्वाधीनता-आंदोलन का ही मसला था, अलग से स्त्री-मुक्ति का सवाल नहीं। आशय यह कि उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने स्त्रियों के मसले को अपने नजरिये से स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत के नजरिये से उठाया। स्त्रियों को घर से बाहर लाकर आंदोलन से जोड़ना उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। यही वजह है कि १९१७ में सरोजनी नायडू की अगुवाई में स्त्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल को मांटेस्क्यू से मिलकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और काउंसिल के उन्नीस गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाए गए स्वराज्य की मांग को अपना समर्थन देते हुए स्त्रियों के सवाल को अलग से उठाना पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ खुद ‘जेण्डर’ की धरणा से ग्रसित थे। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता आंदोलन में जो काम पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं कर सकतीं। इसे समझने के लिए महात्मा गांधी द्वारा आहूत नमक सत्याग्रह को याद किया जा सकता है। गांधी जी स्वाधीननता आंदोलन में स्त्रियों को भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे परंतु नमक सत्याग्रह के लिए हुए दांडी मार्च में हिस्सा लेने से रोक रहे थे। इन्हें लगता था कि इतना दूर चलने से स्त्रियां थक जाएंगी। गांधी जी की इस मनाही का सरोजनी नायडू सहित कुछ स्त्रियों ने विरोध किया और दांडी-मार्च में शामिल होने हेतु जिद की। इनकी जिद के सामने झुककर गांधी जी ने बाद में अपनी हामी भरी। दांडी-मार्च और इसकी परिणति नमक सत्याग्रह में शामिल स्त्रियों ने गांधी जी की पूर्व मान्यता को गलत साबित करते हुए पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम किया। इस तरह की कई घटनाएँ बताती हैं कि स्वाधीनता-आंदोलन के नेताओं की मानसिक बनावट में ‘जेण्डर’ की पितृसत्तात्मक मान्यताओं का कितना असर था। इसी के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनमें भारत की स्त्रियों को, अपने हक के लिए यूरोप की महिलाओं की तुलना में काफी कम संघर्ष करना पड़ा। यूरोपीय महिलाओं को अपने राजनीतिक हक, ‘वोट देने का अधिकार’ पाने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। १९२८ ई में हुए मुंबई (तब बम्बई) कांग्रेस में सरोजिनी नायडू ने काउंसिलों के चुनाव में स्त्रियों के मताध्किार का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव का मदन मोहन मालवीय ने मुखर विरोध किया था। हालांकि मालवीय के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया। आशय यह है कि स्त्रियों के पक्ष में, भले ही कुछ कदम आगे बढ़कर साथ देने के लिए, स्वाधीनता-आंदोलन में शामिल शिक्षित मध्य वर्ग सामने आता था। भारत में स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के हिमायतियों ने सिर्फ स्त्रियों का सवाल उठाकर, उसके लिए जोखिम भरा संघर्ष नहीं किया है। बोधगया मुक्ति आंदोलन, चिपको आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब के खिलाफ हुए आंदोलन जिसकी वजह से सरकार गिर गई थी, स्त्रियों द्वारा किए गए आंदोलन हैं जिसमें अपनी-अपनी तरह की स्त्रीवादी महिलाएं शामिल रही हैं। इन सारे संघर्षों में स्त्रियों को काफी सफलता भी मिली है। इस लिहाज से गौर फरमाएं तो भारत के स्त्री-मुक्ति आंदोलन की यह निजी खासियत है और इसके विस्तार तथा व्याप्ति का सूचक भी। स्त्री-मुक्ति का एक यूटोपिया एक सदी पहले रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी कहानी सुल्ताना का सपना में रचा था। इसके हिसाब से पुरुष घरों में सारा काम कर रहे हैं और औरतें बाहर के सारे काम को कर रही हैं। इस यूटोपिया को लागू करने की प्रक्रिया नफरत पर आधरित तो नहीं थी, परंतु इसमें सारा क्रम सिर्फ उल्ट दिया गया था। मौजूदा स्त्री-मुक्ति-विमर्श इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। अब क्रम को सिर्फ उल्टा नहीं जाता बल्कि सहभागिता, स्वतंत्रता और समता को सुनिश्चित किया जाता है। नोट करने लायक बात यह है कि यथार्थ और यूटोपिया एक-दूसरे से बिल्कुल अलहदा नहीं होते। दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है। यथार्थ के घात-संघात और समझ से यूटोपिया आकार ग्रहण करता है तो यूटोपिया हमें यथार्थ को जाँचने-समझने की समझ भी देता है, जिससे उस यथार्थ की जटिल संरचना में निहित वर्चस्वकारी रूप को जानकर उसे दूर करने की दिशा में बढ़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ के विभिन्न आयामों को समझे बगैर नहीं रचा जा सकता। व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के साथ पितृसत्ता ने अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बना रखा है। इसलिए इन सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर ही स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया का खाका निर्मित हो सकता है। पितृसत्ता के इस मकड़जाल को देखते हुए ऐसा लगता है कि बगैर पूरी व्यवस्था बदले पूर्णतः स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। एक न एक दिन स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ जरूर बनेगा। मुक्ति का स्वप्न इसे हकीकत तक जरूर पहुँचायेगा। कवि वेणु गोपाल की कविता का सहारा लेकर कहें तो … ना हो कुछ भी सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत और यह एक शुरुआत ही तो है कि वहाँ एक सपना है। From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Sat Jul 18 07:59:45 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Fri, 17 Jul 2009 19:29:45 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= manoj kumar jha ki kavitaye Message-ID: <5df7208d0907171929s43172614ga41642bd7b84492@mail.gmail.com> कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा: मनोज कुमार झा hindi ke yuwa kavi manoj kumar jha ki kavitaye www.pratilipi.in se sabhaar di ja rhi hai..... औसत अंधेरे से सुलह पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह सभय झाँकती बच्ची नहानघर में कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश - कहते उतर गई उस धुँवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे का सारा परिमल शेष पंखड़ियाँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर । बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष नृत्यलीन बली देह सधन तम को मथ रही थी व्योम शिल्पित, धरा शब्दित । मैंने आँखें मूँद ली लथित पतित औसत अंधेरे के कुँए में नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूंढ़नी थी। यात्रा मैं कहीं और जाना चाहता था मगर मेरे होने के कपास में साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल । इतनी लपट तो हो साँस में कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ । पुर्नजन्म के पार कट कट जुड़ता रहा नेहनाल अकेला न होने दिया कभी बारिश तो कभी धूप । धरती देती रही छाया उगने भर भूमि तुम्हारे पंख खोलने का स्वर बादलों में अब भी बजता है धूप में अब भी दिपता है बसंत को दिया तुम्हारा कंगन । कभी बादल हो रहा समुद्र हुआ तो कभी समुद्र हो रहा बादल समय के हिलते हाथ में दिखते रहे सूख गई नदियों के शंख-पद्म। पीयरा रहे पत्तों के धीरज से भी हरा हमारा धीरज मगर कब तक ढ़ोते रहें पिछले जन्मों के मुकुट आओ गल जाएं इस हिमालय में। तटभ्रंश आँगन में हरसिंगार मह मह नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर पिता निकल गए रात धाँगते नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप पानी ढ़हा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाये आया मइटुअर सरंगी लिए माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का और ताकने लगी मेरा मुँह ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा होगा साँसों का जाल उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर सजल कहा माँ ने – यों निष्कम्प न कहो रणछोड़ उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से । स्वदेश टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढहे स्कूल से लाई गई मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा, पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ, कुछ भी नहीं उठाने के काबिल कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित घर ढूँढ़ता है थोड़ी सी ललाई अभी तक खाली रही रात, सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिन्ती मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी मगर भीतर भी तो वही आधा सेर चूड़ा दो कौर गुड़ कुछ गुठलियाँ इमली की सबको पता ही तो है कि किसके चूल्हे में कितनी राख एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की दीवार की नोनी एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी-उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे, उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे जिसने भगाया मटर से साँड़, वहीं तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा माटी के ढ़ूंह से उठते रंग बदल के सिर- कभी घरढ़ुक्का, कभी धरैत चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी,दो जने नोत दिया हो गया भोजैत जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू वो सूँघ रहा है बरातियों के जूठे पत्तल एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी फिर लौटना होगा खाली हाथ- भीगी साड़ी से पोछता है माथा सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा मुनिया की माई का भी था उपास, रखी होगी अमरूद की एक फाँक या उसी का है घर जिसे डँसा विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी किसी सिनूरिया की आखिरी पहिरन, पहली उतरन किसी मसोमात की इतना गफ सनाटा — धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़, चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोवन कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ तो क्या यही अब प्रेतों का चरोखर लौट जाता हूँ घर, लौट जाता हूँ मगर किस रस्ते – ये पगडंडियाँ प्रेतो की छायाएँ तो नहीं। ShareThis Leave Comment From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Sat Jul 18 08:04:31 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Fri, 17 Jul 2009 19:34:31 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: manoj kumar jha ki kavitaye In-Reply-To: <5df7208d0907171929s43172614ga41642bd7b84492@mail.gmail.com> References: <5df7208d0907171929s43172614ga41642bd7b84492@mail.gmail.com> Message-ID: <5df7208d0907171934o9de4e4dl1b05863809b60583@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Rajeev Ranjan Giri Date: 2009/7/17 Subject: manoj kumar jha ki kavitaye To: deewan कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा: मनोज कुमार झा hindi ke yuwa kavi manoj kumar jha ki kavitaye www.pratilipi.in se sabhaar di ja rhi hai..... औसत अंधेरे से सुलह पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक   सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह   सभय झाँकती बच्ची नहानघर में      कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश - कहते उतर गई उस धुँवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे का सारा परिमल शेष पंखड़ियाँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर । बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष      नृत्यलीन बली देह      सधन तम को मथ रही थी      व्योम शिल्पित, धरा शब्दित । मैंने आँखें मूँद ली लथित पतित औसत अंधेरे के कुँए में   नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूंढ़नी थी। यात्रा मैं कहीं और जाना चाहता था   मगर मेरे होने के कपास में   साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल । इतनी लपट तो हो साँस में कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था   नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना   बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ । पुर्नजन्म के पार कट कट जुड़ता रहा नेहनाल अकेला न होने दिया   कभी बारिश तो कभी धूप । धरती देती रही छाया उगने भर भूमि तुम्हारे पंख खोलने का स्वर बादलों में अब भी बजता है धूप में अब भी दिपता है बसंत को दिया तुम्हारा कंगन । कभी बादल हो रहा समुद्र हुआ   तो कभी समुद्र हो रहा बादल समय के हिलते हाथ में दिखते रहे सूख गई नदियों के शंख-पद्म। पीयरा रहे पत्तों के धीरज से भी हरा हमारा धीरज   मगर कब तक ढ़ोते रहें पिछले जन्मों के मुकुट         आओ गल जाएं इस हिमालय में। तटभ्रंश आँगन में हरसिंगार मह मह      नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर पिता निकल गए रात धाँगते      नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप पानी ढ़हा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाये आया मइटुअर सरंगी लिए माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का और ताकने लगी मेरा मुँह ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का   पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा होगा साँसों का जाल उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह      जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर सजल कहा माँ ने – यों निष्कम्प न कहो रणछोड़ उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से । स्वदेश टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढहे स्कूल से लाई गई मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा, पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ, कुछ भी नहीं उठाने के काबिल   कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित घर ढूँढ़ता है थोड़ी सी ललाई अभी तक खाली रही रात, सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिन्ती मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी मगर भीतर भी तो वही आधा सेर चूड़ा दो कौर गुड़ कुछ गुठलियाँ इमली की सबको पता ही तो है कि किसके चूल्हे में कितनी राख एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की दीवार की नोनी एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी-उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे, उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे जिसने भगाया मटर से साँड़, वहीं तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा माटी के ढ़ूंह से उठते रंग बदल के सिर- कभी घरढ़ुक्का, कभी धरैत चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी,दो जने नोत दिया हो गया भोजैत जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू वो सूँघ रहा है बरातियों के जूठे पत्तल एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी फिर लौटना होगा खाली हाथ- भीगी साड़ी से पोछता है माथा सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा मुनिया की माई का भी था उपास, रखी होगी अमरूद की एक फाँक या उसी का है घर जिसे डँसा विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी किसी सिनूरिया की आखिरी पहिरन, पहली उतरन किसी मसोमात की   इतना गफ सनाटा — धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़, चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोवन कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ तो क्या यही अब प्रेतों का चरोखर लौट जाता हूँ घर, लौट जाता हूँ मगर किस रस्ते – ये पगडंडियाँ प्रेतो की छायाएँ तो नहीं। ShareThis Leave Comment From v1clist at yahoo.co.uk Sat Jul 18 09:58:28 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Sat, 18 Jul 2009 04:28:28 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [bytesforall_readers] Looking for help re problem with Hindi in a yahoogroup In-Reply-To: References: Message-ID: <274460.91806.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> Shu The best source I think for help here is the Deewan list supported by Sarai, to which I have copied this mail. However, you must be clear about your listmembers: are they typically running Windows, Linux, Mac OS? Normally all should support Unicode, but it may be a version-centric problem. Deewaners, please reply directly to Shubranshu. Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ________________________________ From: Shubhranshu Choudhary To: bytesforall_readers at yahoogroups.com Sent: Friday, 17 July, 2009 19:17:44 Subject: [bytesforall_readers] Looking for help re problem with Hindi in a yahoogroup Dear friends, CGnet ( www.cgnet.in) is Peoples website in Indian state of Chhattisgarh. It also runs a discussion forum on yahoo (http://groups. yahoo.com/ group/chhattisga rh-net/ ) Earlier when Hindi did not have a Unicode font and we were not able to use Hindi in e mails, the discussion in CGnet was started in English. But since now many Hindi Unicode fonts are available we are very keen to shift to Hindi as language of discussion which is the main language of the state and we hope will increase participation in the discussions. But our experience with the use of Hindi Unicode font has been mixed. Sometimes we have been very successful in writing e mails in Hindi but sometimes we are not and we are unable to understand this inconsistency. Yahoogroups gives us few delivery choices. To individual mail subscribers (where a person receives a mail as soon as the mail is released by the moderator) most of the Hindi mails written in Unicode Hindi font reaches in proper shape. But majority of subscribers like Daily Digest, in which yahoo collects mails exchanged during the day and sends it to the subscriber once a day. Most of the time mails sent in Hindi are garbled in Daily Digest. Sometimes mails sent by the same person are visible both in Individual mail category and Daily Digest and the next day mails from the same person are garbled. This makes us quite confused. We need to go to View>Encoding> Unicode( UTF-8) to read the Hindi mails but when it is in garbled form in the Daily digest, choosing Unicode does not help. But most of the time the mail is visible in Hindi at http://groups. yahoo.com/ group/chhattisga rh-net/ after choosing View>Encoding> Unicode( UTF-8) Any help to sort this problem will be highly appreciated. Thanking you in advance Regards Shubhranshu Choudhary shu at cgnet.in 00919811066749 __._,_.___ Messages in this topic (1) Reply (via web post) | Start a new topic Messages MARKETPLACE Mom Power: Discover the community of moms doing more for their families, for the world and for each other Change settings via the Web (Yahoo! ID required) Change settings via email: Switch delivery to Daily Digest | Switch format to Traditional Visit Your Group | Yahoo! Groups Terms of Use | Unsubscribe Recent Activity * 5 New MembersVisit Your Group Yahoo! Finance It's Now Personal Guides, news, advice & more. New business? Get new customers. List your web site in Yahoo! Search. Yahoo! Groups Do More For Dogs Group Connect and share with dog owners like you . __,_._,___ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090718/64c934a6/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jul 18 13:14:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 18 Jul 2009 13:14:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSaIOCkleCkviDgpLjgpL7gpK7gpKjgpL4g4KSq4KSwIOCksuCknw==?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWCIOCkueCliOCkgiDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSa4KWI?= =?utf-8?b?4KSo4KSy4KWN4KS4?= Message-ID: <829019b0907180044m62bd1e50sb5ce45356f0ccd0@mail.gmail.com> *क्या इंसान की जिंदगी में सेक्स,शारीरिक संबंध और स्त्री-पुरुष के बीच होनेवाली गतिविधियां और उस बीच महसूस की जानेवाली भावनाएं ही जीवन के सबसे बड़े सच हैं। क्या जिंदगी का सच यही जाकर खत्म हो जाता है? न्यूज24 के एंकर अखिलेश आनंद ने चैनल के विशेष कार्यक्रम ये सच नहीं आसान में पिछले सप्ताह स्टार प्लस पर शुरु हुई रियलिटी शो के एंकरराजीव खंडलवाल से जो सवाल किए उसके मिलते जुलते भाव यही है कि क्या ये शो सच के सवाल को उसकी सीमा को बहुत ही सीमित करके नहीं देख रहा? क्या जीवन में इन सबके अलावे कोई दूसरा बड़ा सच नहीं हो सकता। हालांकि इस मामले में राजीव खंडलेवाल की अपनी समझ है कि इंसान के जीवन में यही वो जरुरी पहलू हैं जो कि उसके लिए सबसे ज्यादा मायने रखते हैं। जाहिर तौर पर वो पहलू जिसे कि वो आसानी से सार्वजनिक नहीं करता लेकिन दूसरी तरफ जब वो इन रिश्तों के बीच घुलता रहता है,कैंसर की तरह उसके बीच फैलने लगता है तो वो उसे लोगों के बीच बांटना चाहता है,शेयर करना चाहता है। न्यूज24 पर आकर राजीव खंडेलवाल ने ये स्वीकार किया है कि आगे भी जाकर कार्यक्रम में इसी तरह के सवाल पूछे जाएंगे। सवलों के मिजाज को लेकर बहुत ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं है। मोटे तौर पर सच का सामना के जरिए हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि निजी जीवन और बहुत ही पर्सनल फीलिंग के मौके ही इंसानी जीवन का सबसे बड़ा सच होता है। अब हम इस बात पर बहस कर सकते हैं कि क्या ऐसा मानना या होना सही है और अगर है तो इसके पहले और बाद के,आजू-बाजू के जो सच हैं उसका क्या होगा?* स्टार प्लस पर शुरु होनेवाले कार्यक्रम सच का सामना के जब सिर्फ प्रोमो ही दिखाए गए तभी से न्यूज चैनलों ने अटकलें लगानी शुरु कर दी कि ये शो जबरदस्त तरीके से कई विवादों को जन्म देगा। इसके ठीकपहली वाली पोस्ट में हमने लिखा भी कि इन विवादों को लेकर चैनल के अलग-अलग डेस्क को कई मसाले मिलेंगे। कार्यक्रम के उस प्रोमो से जिसमें कि कांबली की ओर से सचिन तेंदुलकर पर कुछ कमेंट किए गए,जिसमें ये लगातार दिखाया जाता रहा( जो कि अब भी जारी है)कांबली का मानना है कि अगर तेंदुलकर ने मेरा साथ दिया होता तो करियर लाइफ लंबी होती,उसके बाद से ही न्यूज चैनलों ने कांबली और तेंदुलकर पर स्पेशल स्टोरी बनानी शुरु कर दी। कुल मिलाकर कार्यक्रम शुरु होने से पहले से ही उसकी प्रकृति और तासीर को न्यूज चैनलों ने फिक्स कर दिया। इस आधार पर कुछेक चैनलों ने इस बात की आलोचना भी कि ये शो लोगों के बीच के आपसी रिश्तों में खटास पैदा करने का काम करेगा। कांबली जैसे लोगों पर कमेंट करने शुरु किए कि एक करोड़ के चक्कर में दोस्ती जैसे रिश्ते को ताक पर रख आए। यहां तक चैनलों ने सच का सामना के लिए राजी नहीं होनेवाले जैकी श्राफ और शेखर सुमन जैसे शख्सियतों को ज्यादा महान और बेहतर बताने की कोशिशें करते रहे। लेकिन ऑडिएंस के बीच सच का सामना के जबरदस्त ढंग से सराहे जाने के बाद न्यूज चैनलों ने दो-तीन दिन के भीतर अपने पैंतरे बदल लिए। उन्हें अब ये समझ आने लगा है कि इस शो का एकमात्र एंगिल विवाद नहीं हो सकता है,इसके भीतर से कई चीजें निकलकर आने की भरपूर संभावना है.इस लिहाज से ये मनोरंजन चैनलों पर जारी मौजूदा किसी भी सीरियल और रियलिटी शो से ज्यादा दुधारु शो है जिस पर कई तरीके से कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं,इसे कई स्टोरी आइडिया में फिट करके आधे घंटे का कार्यक्रम बहुत ही मजे से बनाया जा सकता है। शायद यही वजह है कि कल *एनडीटीवी इंडिया *से लेकर *इंडिया टीवी*तक ने इस शो के बहाने सच के फ्लेवर को अपने-अपने ढंग से खोजने की कोशिश की बल्कि*न्यूज24* के *अखिलेश आनंद *ने तो यहां तक कहा कि जिस समाज में झूठ का बोलबाला है,ऐसे में इस शो ने काफी हद तक हलचल तो जरुर मचा दी है। लंबे समय तक इसके विरोध में कुछ न दिखाने और कहने की स्थिति में न्यूज चैनल अब इस कार्यक्रम की चिरौरी करने में जुट गए हैं। संभव है हर ब्रेक के बाद इस शो का विज्ञापन भी एंकर को ऐसा करने के लिए प्रेरित करता हो। बहरहाल, *न्यूज24* ने *ये सच नहीं आसान *नाम से जो स्पेशल प्रोग्राम दिखाया उसमें बाकी बातों की तफसील में न जाएं तो शो में भाग लेने आयी *मनीषा,सीनियर जर्नलिस्ट *की बात सबसे ज्यादा दमदार और ठहरकर सोचनेवाली लगी। मनीषा का साफ मानना है कि स्त्री का सच पुरुषों के सच से अलग होता है। द्रौपदी ने भी सच कहा था कि अंधे के बच्चे तो अंधे ही होते हैं,सीता ने भी कहा था कि रावण के साथ उसके कोई संबंध नहीं है लेकिन आप समझ सकते हैं कि उसे किस रुप में लिया गया। वही कृष्ण ने भी दुर्योधन से झूठ बोला,राम ने भी झूठ बोला और उसे अलग तरीके से लिया गया। इसलिए हमें इस शो में भी एक स्त्री के बोले गए सच और पुरुष के बोले गए सच में फर्क करना होगा। जाहिर है स्त्री अपने सच को उतनी सहजता से बोलने की स्थिति में नहीं होती। सच का सामना का पक्ष लेते हुए एंकर*अखिलेश आनंद *ने गांधीजी के सात सत्य के प्रयोग की चर्चा की जो कि संदर्भ के अभाव में बेतुका ही लगा। सच का सामना के बहाने सच पर बात करते हुए अधिकांश चैनल के एंकर ये समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जिस सच को सामने लाने की बात ये शो कर रहा है वो जीवन के बाकी के सच से अलग है। इसलिए सच के जो अलग-अलग एडीशन(संस्करण) है उसके साथ इस शो में जबाब के तौर पर पेश किए गए सच से घालमेल करना स्थितियों का सरलीकरण भर है। राजीव खंडलेवाल की हां में हां मिलाते हुए औऱ शो से अतिरिक्त रुप से प्रभावित होते हुए *अंजना कश्यप *ने इस विशेष कार्यक्रम के खत्म होने की घोषणा करते हुए स्पष्ट किया कि इस कार्यक्रम के माध्यम से वो इस शो के तमाम पहलुओं पर सोचने और सवाल पैदा करने के मौके को पेश करना चाह रही थी। सच का सामना के आने के बाद से लाइ डिटेक्टिव औऱ पॉलीग्राफी ये दो शब्द बहुत ही तेजी से पॉपुलर हुए हैं। अब तक अपराधियों के लिए प्रयोग में लायी जानेवाले इस प्रोसेस से एक आम ऑडिएंस का सरोकार न के बराबर रहा है। न्यूज चैनलों ने इसे जिस रुप में दिखाया है उसके हिसाब से आम लोगों के बीच इसे लेकर डर भी पैदा हुआ है। इस शो ने पॉलीग्राफी को फैमिलियर बनाने का काम किया है। संभवतः इसलिए *स्टार न्यूज *सच का सामना स्पेशल स्टोरी में पॉलीग्राफी मशीन के काम करने के तरीके से लेकर इसके प्रभाव और इससे मिलनेवाली फाइंडिंग के बारे में तफसील से जानकारी देने की कोशिश की। कार्यक्रम का एक बड़ा हिस्सा इस मशीन की कार्यप्रणाली को समझाने और सच का सामना में इसके प्रयोग को सामने में लगा रहा। अपनी आदत के मुताबिक *इंडिया टीवी *ने सच का सामना में भी दावे पेश करता नजर आया। उसने कार्यक्रम के शुरु होते ही दावा किया कि वो स्टार प्लस पर आज सच का सामना शुरु होने से आधे घंटे पहले ही इसे इंडिया टीवी पर दिखाएगा। एंकर ने अपनी तरफ से ही संभावित सवाल तैयार किए औऱ दर्शनशास्त्री सुजाता मीरी की मदद से इस पर अटकलें लगानी शुरु कर दी कि अगर आज *युसुफ हुसैन *से शारीरिक संबंध,रिश्तों और तीन पत्नियों के बारे में पूछा जाएगा तो उनका क्या जबाब होगा? इस मामले में *सुजाता मीरी *बार-बार इस बात पर जोर देती रही कि युसुफ साहब एक्टर हैं,वो कैमरे को फेस करते रहे हैं,इसलिए उन्हें इन सब सवालों के जबाब देने में कोई परेशानी नहीं होगी,और रसिक तो हैं ही। लेकिन इससे अलग साइकियाट्रिस्ट *सुरभि सोनी* की समझ रही कि कोई भी इंसान भले ही कैमरे के आगे कुछ बी बोल देता हो लेकिन अपनी बेटी के सामने सबकुछ सच कहने में थोड़ी तो परेशानी जरुर होगी। वैसे *इंडिया टीवी* पर सच बोलने और उसके बाद इंसान और उसके रिश्तों पर पड़नेवाले असर को लेकर चल रही बहस भी दिलचस्प रही। सच दिखाने की दौड़ में*एनडीटीवी इंडिया *का अंदाज बाकी के चैनलों से अलग रहा। स्पेशल रिपोर्ट में *रवीश कुमार*ने ये कहीं भी पकड़ में आने नहीं दिया कि वो भी बाकी चैनलों की भेड़चाल में शआमिल हैं और इसलिए सच को लेकर स्पेशल रिपोर्ट बना रहे हैं लेकिन लगातार टेलीविजन देखनेवाले लोग आसानी से समझ सकते हैं कि सच को लेकर आधे घंटे की स्टोरी का दिखाया जाना इतना जरुरी क्यों हो गया है? *रवीश* सच का सामना शो के बहाने आदत से ज्यादा फैशन के तौर पर सच की चर्चा किए जाने की स्थिति को अपने से अलग करते हैं और शो के बारे में बिना कुछ कहे,उधार में बिना कोई फुटेज लिए पंजाब के गुरुदासपुर की ओर रुख करते हैं। *गुरुदासपुर* का वही स्कूल-कॉलेज जिस पर *रवीश कुमार *ने पहले भी एक स्पेशल स्टोरी की है। जिसकी अपनी कोई बिल्डिंग नहीं है,जहां लड़कियां पढ़ते हुए अपने से नीचे क्लासवाली लड़कियों को पढ़ाती भी है। अबकी बार *रवीश *ने सच के प्रयोग को दिखाने के लिए इस स्कूल को दोबारा चुना। एक लड़की से रवीश का सवाल है- तुम्हें शर्म नहीं आती कि इतने सारे लोगों के बीच अपनी गलती(परीक्षा में चोरी) को मान रही हो। लड़की का जबाब है- जब गलती करने पर शर्म नहीं आयी तो फिर अब मानने में क्या शर्म? धारदार अंदाज में बोलते हुए एक तरह से वादा भी करती है कि अबकी वो इमानदारी से फर्स्ट क्लास लाएगी। इस प्रोग्रा में एक-दूसरे की गलती को,झूठ को पकड़ने और सुधारे के तरीके को व्यवस्थित तरीके से दिखाया गया। इस स्कूल में ईमानदारी इस हद तक है कि चोरी पकड़े जाने पर 21,000 रुपये का इनाम है लेकिन कभी किसी को ये इनाम मिला नहीं। अब देखिए तो कार्यक्रम सच का सामना का अर्थ सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के रिश्तों और उलझनों से भले ले रहा हो,शुरुआती दौर में न्यूज चैनलों ने सच का मतलब विवादों को पैदा करना समझा हो लेकिन कार्यक्रम की पॉपुलरिटी ने कोने-कोने में सच के प्रयोग को खोजने की जिम्मेवारी न्यूज के लिए जरुर बढ़ा दी है। ठीक उसी तरह जैसे *बालिका वधू*,*लाडो *और*उतरन* को देखते हुए सामाजिक कुरीतियों पर थोक के भाव में मुद्दे दिखाए जाने लगे। अब देखना ये होगा कि ये सच,बस एक मुहावरा बनकर रह जाता है,भावुकता और अतिरेक में खो जाता है या फिर इस शो के बहाने सार्वजिनक स्तर के सच खुलकर सामने आते हैं?**** Posted by विनीत कुमार at 20:44 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090718/c3e4e34e/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Sun Jul 19 14:59:57 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Sun, 19 Jul 2009 02:29:57 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: FUEL Marathi Evaluation Meet Message-ID: <805484.96498.qm@web52912.mail.re2.yahoo.com> FYI. Anybody who want to be the part of FUEL Marathi meet, please contact us. /rajesh From: Rajesh Ranjan Subject: FUEL Marathi Evaluation Meet To: fuel-discuss at lists.fedorahosted.org Date: Friday, July 17, 2009, 4:13 PM Hi All, A workshop on standardizing frequently used terminology for Marathi computing is being organized on 31st July - 1st August 2009. This meet is being hosted by C-DAC, Pune. In this meet, people from different field will discuss and evaluate FUEL entries for Marathi language available in the applications that are being used frequently by normal users. The final evaluated list of FUEL Marathi will be available on line post workshop on FUEL website. FUEL (Frequently Used Entries for Localization) aims at solving the Problem of Inconsistency and standardization across the platform. It will try to provide a standardized and consistent look of computer for a language computer users. FUEL Marathi Evaluation Meet is a move to discuss the problem and come with the evaluated translation of the FUEL entries list created by choosing frequently used entries from important applications. For more info on FUEL Marathi effort please visit: https://fedorahosted.org/fuel/wiki/fuel-marathi Date: 31st July - 1st August 2009 Venue: Centre for Development of Advanced Computing (C-DAC) NSG IT Park, Aundh, Pune - 411007, Maharashtra (India) Friday, 31st July 2009 Day I: 10:15 -10:30 FUEL Introduction – Mr. Rajesh Ranjan 10:30 -11:00 Inauguration and Address by Mr. Mahesh Kulkarni 11:00 -11:15 FUEL Marathi – Mr. Sandeep S. 11:15 -11:30 TEABREAK 11:30 -13:00 FUEL Marathi : Discussions 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:30 FUEL Marathi : Discussions (continued) 15:30 -15:45 TEABREAK 15:45 -17:30 FUEL Marathi : Discussions (continued) Saturday, 01st August 2009 Day II: 10:00 -11:30 FUEL Marathi : Discussions (continued) 11:30 -11:45 TEABREAK 11:45 -13:00 FUEL Marathi : Discussions (continued) 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:45 FUEL Marathi : Final List Preparation 15:45 -16:00 TEABREAK 16:00 -17:00 FUEL Marathi : Final list Preparation 17:00 -17:20 Release of FUEL Marathi 17:20 -17:30 Workshop Ends – Thanksgiving. You can download the full schedule from here:  https://fedorahosted.org/fuel/attachment/wiki/fuel-marathi/Fuel_Marathi_Evaluation_Meet_Schedule.pdf?format=raw Want to participate, please feel free to contact anytime: Rajesh Ranjan , mob: 9423202430; Sandeep Shedmake mob: 9833076117; Chandrakant D , mob. 9823050212. -- Regards, Rajesh Ranjan Coordinator, FUEL https://fedorahosted.org/FUEL -----Inline Attachment Follows----- _______________________________________________ fuel-discuss mailing list fuel-discuss at lists.fedorahosted.org https://fedorahosted.org/mailman/listinfo/fuel-discuss -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090719/52cadb7c/attachment.html From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Mon Jul 20 11:09:31 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Sun, 19 Jul 2009 22:39:31 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= LAGHUPATRIKAYE:: BDE SAWAAL Message-ID: <5df7208d0907192239i2308151bmfd955fcee43459ea@mail.gmail.com> yh kekh dainik AAJ SAMAAJ me 6 july ko '' laghupatrikayen; bde swal'' title se chhapa tha..... wha se sabhaar lekr diya ja rha hai... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Laghu Patrika.pdf Type: application/pdf Size: 27562 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090719/990e6485/attachment-0001.pdf From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jul 20 13:12:25 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 20 Jul 2009 13:12:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWA4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCksuCli+CkleCkquCljeCksOCkv+CkryDgpLngpYHgpI8g?= =?utf-8?b?4KSV4KSg4KS/4KSoIOCktuCkrOCljeCkpg==?= Message-ID: <6a32f8f0907200042q2d4fe386w9b3864aec36464a8@mail.gmail.com> * गीत से लोकप्रिय हुए कठिन शब्द * *ब्रजेश झा* हिन्दी सिनेमाई गीत ने विशुद्ध हिन्दी व अरबी-फारसी के कठिन शब्दों को बेहद सरल बनाने का काम किया है। ब्रज देहाद में भी ठेठ आंचलिक बोली में बतियाने वाले लोग इन शब्दों को प्रेम से इस्तेमान करते हैं। यकीनन, यह यहां गीतों को तवज्जो मिलने के कारण ही हुआ। सिनेमा के शुरुआती दिनों में बतौर गीतकार जुड़े आरजू लखनवी, पं. सुदर्शन, गोपाल सिंह नेपाली, मजाज लखनवी, जोश मलीहाबादी, प्रदीप, शैलेंद्र, साहिर, मजरूह आदि ने खूब प्रयोग किए। हालांकि, उन्हीं दिनों से ही गीत लिखने के कुछ कहे और कई अनकहे नियम लागू रहे। अब भी हैं। इसकी वजह से कई लोगों को ये नगरी रास आई और कईयों को नहीं। पर, गीतों क ी भाषाई निर्माण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई और निरंतर चलती रही। उस समय गीत लिखते समय दूरस्थ अंचलों में रहने वाले लोगों को ध्यान में रखा जाता था। तभी अरबी-फारसी के *दिलकशी**, **पुरपेच**, **उलफत**, **बदहवासी**, ** मुरदा-परस्त** *जैसे भारी-भरकम शब्दों के साथ *हमरी**, **तुमरी** **, **बतियां* *, **छतियां**, **नजरिया** *जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन गीतकारों ने बेजोड़ त रीके से किया। इससे आंचलिकता की खूब गंध आती रही। यहां सन 1931 में ही लिखे गए दो गीतों पर गौर करें- *मत बोल बहार की बतियां** *(प्रेमनगर), *सांची कहो मोसे बतियां**, **कहां रहे सारी रतियां** *(ट्रैप्ड-1931)। आगे चलकर साहिर ने अरबी-फारसी भारी-भरकम शब्दों का यूं इस्तेमाल किया- *ये कूचे ये नीलाम-घर** **दिलकशी के**, **ये लूटते हुए कारवां जिन्दगी के।** *(प्यासा)। गीतों की भाषा को समृद्ध करने में मजरुह सुल्तानपुरी ने बड़ा योगदान दिया है। इन्होंने कई फारसी शब्दों से फिल्मी गीतों को परिचित कराया। जैसे- *बंदा-नवाज**, **वल्लाह**, **खादिम**, **आफताब**, **दिलरूबा**, **दिलबर**, **सनम**, ** वादे-सदा** *आदि। जैसे- *माना जनाब ने** **पुकारा नहीं**, **वल्लाह जवाब तुम्हारा नहीं** *(पेइंग-गेस्ट)। *आंखों-ही-आंखों में**...**, **किसी दिलरूबा का नजारा हो गया* (सीआईडी)। अब ये शब्द आम नागरिकों की जुबान पर चढ़ चुके हैं। दूसरी तरफ शकील बदायूंनी ने गीत लिखते समय उलफत (अरबी) शब्द का खूब इस्तेमाल किया। जैसे- *उलफत की जिन्दगी** **को मिटाया न जाएगा** *(दिल्लगी)। इस तरह हिन्दी सिनेमा से जुड़े उर्दू साहित्यकार कई अरबी-फारसी के कठिन शब्दों का गीतों में सरलता से इस्तेमाल किया। यह एक बड़ी वजह है कि आज अरबी-फारसी के कठिन से कठिनतम शब्द आम लोगों की जुबान पर हैं। हालांकि, इसके साथ यह धारणा भी बनी कि उर्दू अल्फाल व शायरी के बगैर फिल्मी गीत का लिखा जाना संभव नहीं है। प्रेम, प्यार के स्थान पर मुहब्बत, इश्क का इस्तेमाल जरूरी है। इस धारणा के प्रबल होने के बावजूद *धनवान**, **निर्धन**, ** ह्रदय**, **प्रिये**, **दर्पण**, **दीपक** *जैसे विशुद्ध हिन्दी शब्द प्रयोग में लाए गए। भरत व्यास, प्रदीप, इंदीवर, नीरज ने इन शब्दों का खूब प्रयोग किया। जैसे- *तुम गगन के चंद्रमा हो**, **मैं धरा की धूल हूं। तुम प्रणय के देवता हो* *, **मैं** **समर्पित फूल हूं।* (सती सावित्री)। इंदीवर ने भी लिखा- *चंदन सा** **बदन**, **चंचल चितवन या कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे।* इन गीतों कीजबर्दस्त कामयाबी ने फिल्म जगत में बन रही उस धारणा को झुठला दिया कि सफल गीतों में उर्दू के शब्दों की बहुलता जरूरी है। अब तो ये सारे शब्द आम-ईमली हो गए हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090720/42181f61/attachment-0001.html From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Tue Jul 21 07:49:38 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Mon, 20 Jul 2009 19:19:38 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: LAGHUPATRIKAYE:: BDE SAWAAL In-Reply-To: <5df7208d0907192239i2308151bmfd955fcee43459ea@mail.gmail.com> References: <5df7208d0907192239i2308151bmfd955fcee43459ea@mail.gmail.com> Message-ID: <5df7208d0907201919g78d6abc3vd6ce0e8f781d50e0@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Rajeev Ranjan Giri Date: Sun, 19 Jul 2009 22:39:31 -0700 Subject: LAGHUPATRIKAYE:: BDE SAWAAL To: deewan yh kekh dainik AAJ SAMAAJ me 6 july ko '' laghupatrikayen; bde swal'' title se chhapa tha..... wha se sabhaar lekr diya ja rha hai... Page 1 1 y?kqif=kdk vrhr vkSj oÙkZeku & jktho jatu fxfj fiNys fnuksa Hkkjr Hkou] Hkksiky us y?kqif=kdkvksa ij fopkj&foe'kZ ds fy, rhu fnolh; lsfeukj vk;ksftr fd;k FkkA ^y?kqif=kdk vkanksyu vkSj lkfgfR;d i=kdkfjrk* fo"k; ij vk;ksftr bl lsfeukj esa mupkfyl lEikndksa us Hkkxhnkjh dhA Hkkjr Hkou ds eqrkfcd] mlus lÙkkou yksxksa dks vkeaf=kr fd;k FkkA ;gk¡ bl eqís ij ckr ugha dh tk,xh fd vkf[kjdkj vBkjg vkeaf=kr yksx D;ksa ugha vk,A laHko gS] blds ihNs mudh futh ;k oSpkfjd ekU;rk,¡ gksA cgjgky] egÙoiw.kZ ckr ;g gS fd ljdkjh laLFkkuksa ds tfj, vc bl fo"k; dk egÙkk eglwl dj bl ij ppkZ&ifjppkZ 'kq: gks xbZ gSA djhc rhu lky igys] vDVwcj 2006 esa dsfUæ; fgUnh laLFkku] vkxjk us Hkh y?kqif=kdkvksa ij nks fnolh; laxks"Bh dk vk;kstu fd;k FkkA bl vk;kstu esa dbZ Hkk"kkvksa dh y?kqif=kdkvksa ds lEikndksa] cqf¼thfo;ksa us f'kjdr dh FkhA oÙkZeku esa y?kqif=kdk vkanksyu dk dksbZ laxfBr :i ugha jg x;k gSA og vkanksyu vc bfrgkl curk tk jgk gSA bl elys ij ppkZ&ifjppkZ dk vk;kstu Hkh y?kqif=kdkvksa ds lEikndksa] izdk'kdksa dh rjiQ ls ugha gks jgk gSA ,slk rks ugha dgk tk ldrk gS fd ;g eqík vc mudh fpark ds nk;js ls ckgj gSA fiQj Hkh oÙkZeku esa mudh fpark dks veyh tkek igukus dk dksbZ iz;kl ugha fn[krkA ckotwn blds y?kqif=kdkvksa dk ,d lqugjk bfrgkl jgk gS] blls badkj ugha fd;k tk ldrkA bu if=kdkvksa us lkfgR;] laLÑfr] yksdrkaf=kd fetkt vkSj izfrjks/h&psruk ds fodkl esa egÙoiw.kZ Hkwfedk vnk dh gSA vusd jpukdkjksa dks lkeus ykus dk dke fd;k gSA ,slh vusd jpuk,¡ gSa] ftls ml nkSj dh y?kqif=kdkvksa us izdkf'kr dh Fkh vkSj ckn esa og ;knxkj cu xbZA iznÙk ekU;rkvksa vkSj izpfyr /kjk ds cjvDl u;h jpuk'khyrk] u, fopkjksa dks txg nsdj lkeus ykus dk dke Hkh y?kqif=kdkvksa us fd;k gSA O;fDrxr ;k NksVs lewgksa }kjk NksVs dLcksa] 'kgjksa ls izdkf'kr y?kqif=kdk,¡ dbZ ckj vius dqNsd vadksa ds ckn ,dk,d can gks tkrh gSA dbZ y?kqif=kdkvksa ds izdk'ku dh Page 2 2 vof/ Hkh fuf'pr ugha gksrhA dbZ if=kdk,a ,slh Hkh gSa tks lky] nks lky esa ,d vad izdkf'kr djrh gSaA lkexzh tqVh] izdk'ku ds [kpsZ dk bartke gqvk rc vad vk;kA ysfdu blls budk egRo de ugha gks tkrkA egÙoiw.kZ ckr ;g gS fd buesa izdkf'kr jpukvksa dk Lrj dSlk gS\ ,slh dbZ y?kqif=kdk,¡ jgh gSa] ftuds dqNsd vad Ni ik, ijarq muesa Nih egÙoiw.kZ jpukvksa dh otg ls mUgas vkt Hkh ;kn fd;k tkrk gSA blfy, dksbZ y?kqif=kdk fdruh fu;fer gS vkSj blds fdrus vf/d vad Ni ik,_ bl dlkSVh ij buds egÙo dks ugha vkadk tk ldrk gSA vxj fu;fer Hkh gks vkSj gjckj blesa ewY;oku jpuk,¡ Nis rks ;g vPNh ckr gksxhA euq"; 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Name: Laghu Patrika.pdf Type: application/pdf Size: 27562 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090720/bfec46c7/attachment-0001.pdf From rajeev.ranjan.giri at gmail.com Tue Jul 21 07:50:27 2009 From: rajeev.ranjan.giri at gmail.com (Rajeev Ranjan Giri) Date: Mon, 20 Jul 2009 19:20:27 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: LAGHUPATRIKAYE:: BDE SAWAAL In-Reply-To: <5df7208d0907192239i2308151bmfd955fcee43459ea@mail.gmail.com> References: <5df7208d0907192239i2308151bmfd955fcee43459ea@mail.gmail.com> Message-ID: <5df7208d0907201920s35128e3ayd24670c1f8d1df91@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: Rajeev Ranjan Giri Date: Sun, 19 Jul 2009 22:39:31 -0700 Subject: LAGHUPATRIKAYE:: BDE SAWAAL To: deewan yh kekh dainik AAJ SAMAAJ me 6 july ko '' laghupatrikayen; bde swal'' title se chhapa tha..... wha se sabhaar lekr diya ja rha hai... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Laghu Patrika.pdf Type: application/pdf Size: 27562 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090720/8f3ef642/attachment-0001.pdf From vineetdu at gmail.com Tue Jul 21 14:29:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 21 Jul 2009 14:29:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSW4KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkvuCkteCkguCkpCDgpKzgpLLgpL4g4KSv4KS+IOCkheCkrA==?= =?utf-8?b?4KSy4KS+?= Message-ID: <829019b0907210159w6759c43i54767843b82f1aa6@mail.gmail.com> सौरभ द्विवेदी ने ये लेख नवभारत टाइम्स के लिए लिखा है जो कि वहां प्रकाशित है। देर रात टेलीविजन और रियलिटी शो को लेकर बातचीत के क्रम में उसने बताया कि उसने भी कुछ लिखा है और वो चाहता है कि मैं उसे पढ़ूं। टेलीविजन और मीडिया पर लगातार पढ़ते रहने के बीच मेरी कोशिश रहती है कि उसे अधिक से अधिक लोगों के साथ साझा करुं जिससे कि असहमति और कमेंट के तौर पर आपकी ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं सामने आ सके,टेलीविजन पर जो कुछ भी मैं रिसर्च कर रहा हूं,उसकी समझ में इजाफा हो। सौरभ द्विवेदी की कीबोर्ड की सबसे बड़ी खासियत है कि वो चाहे जिस किसी भी मसले पर लिख रहे हों,आर्डर और सप्लाय के फार्मूले पर लिखते रहने के वाबजूद भी भाषा,बहस और विमर्श की गुंजाइश को हद तक बचाने की जद्दोजहद बनी रहती है। शायद यही वजह है कि उन्हें राखी सावंत पर लिखते हुए भी नोम चॉमस्की याद आते हैं। आप खुद भी पढ़िए- साभारः- नवभारत टाइम्स डॉट कॉम आखिर क्या हैं राखी सावंत, आइटम गर्ल या मीडिया के जरिए भारतीयों के टीवी रूम का हिस्सा बन चुकी एक हकीकत। कुछ भी बोल कर मनोरंजन करने वाली एक भदेस एक्ट्रिस या हमारे सौंदर्यशास्त्र का व्याकरण बिगाड़ने वाली एक बाला राखी का स्वयंवर नाम के रिऐलिटी टीवी शो के चलते चर्चा में छाई राखी सावंत एक ऐसी थिअरी हैं, जिन पर शो बिजनस के मौजूदा टूल्स काम नहीं करते। राखी नाम की इस थ्योरी की पड़ताल : अमेरिका के मशहूर चिंतक नॉम चॉम्स्की और भारत की आइटम गर्ल राखी सावंत, इन दोनों में क्या रिश्ता हो सकता है। सावंत चॉम्स्की की एक थिअरी का विस्तार हैं, ऐसा विस्तार जिसके बारे में शायद खुद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा। चॉम्स्की मैनूफैक्चरिंग कंसेंट नाम की किताब में कॉर्रपरट सेक्टर और स्टेट नाम की संस्थाओं के मीडिया पर नियंत्रण और असर की बात करते हैं। मगर राखी सावंत किसी संस्था का नाम नहीं। उनके चाहने वाले भी और आलोचक भी उन्हें प्रवृत्ति का दर्जा जरूर देते हैं। और राखी को बखूबी मालूम है कि मीडिया का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। कब कैमरे के सामने बॉयफ्रेंड को थप्पड़ मारना है और कब टीवी स्टूडियो में खुद इन्हें भी पढ़ें राखी ने 5 लोगों के लिए 'करवा चौथ' का व्रत रखा राखी के लिए रवि लाए ज्योतिषी 'स्वयंवर' में 30 लाख का हार पहनेगी राखी राखी सावंत के किस लपको और स्वयंवर जीतो... मैं चाहती हूं कि हर हिंदुस्तानी लड़की मेरे जैसी बनेः राखी और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंको भारतीय नारी साबित करने के लिए पूरे कपड़े पहनकर आना है। राखी का नाम टीआरपी का पर्याय है, लेकिन इलीट भारतीय तबका हो या ग्रेट इंडियन मिडल क्लास, उनके लिए राखी बकवास करने और बदन दिखाने वाली एक लड़की है, जिसे मीडिया ने सिर चढ़ा रखा है। कुल मिलाकर इतना साफ है कि राखी सावंत को आज पूरा देश न सिर्फ जानता है, बल्कि बजट और लालगढ़ जैसे तमाम जरूरी मुद्दों के बजाय देश उनके स्वयंवर पर चर्चा भी कर रहा है। थिअरी को बनाने वाले कंपोनेंट राखी सावंत की कारगुजारियों और रणनीतियों पर बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि उनको बनाने वाले तत्व क्या हैं। मराठी पिता और गुजराती मां की सबसे बड़ी बेटी राखी सत्तर के दशक में बनने वाली मनमोहन देसाई मार्का पारिवारिक मूल्यों वाले ड्रामे की स्क्रिप्ट की मेन लीड की तरह हैं। पिता पुलिस में एसीपी थे, लेकिन जब राखी 11 साल की थीं, तब उन्होंने अपनी पत्नी और तीनों बच्चों को छोड़ दिया। इसके बाद राखी ने भाई-बहन की परवरिश का जिम्मा संभाला और डांस को अपना पेशा बनाया। जागरण, पार्टियों आदि में डांस कर उन्होंने धीमे-धीमे अपनी पहचान बनाई। 2003 में सुनील दर्शन की फिल्म 'जोरू का गुलाम' में उन्हें पहला ब्रेक मिला। फिर आया रीमिक्स एलबम 'परदेसिया' जिसमें साइड कट वाली स्कर्ट पहने राखी कॉन्फ्रंस रूम की टेबल पर चढ़कर अपने बॉस को रिझाती नजर आईं। यहीं से उनके करियर का ग्राफ ऊपर चढ़ने लगा। पॉप सिंगर मीका ने अपनी बर्थडे पार्टी पर जब जबरन राखी को किस किया, तो जैसे मीडिया में हंगामा मच गया। सेक्सी टॉप में संवरी राखी ने आंसू ढलकाते हुए खुद के भारतीय नारी होने की दुहाई दी और मीका को कसूरवार ठहराया। फिर आया रिऐलिटी टीवी शो 'बिग बॉस', जिसमें बिना मेकअप किए नजर आने वाली राखी ने अटेंशन पाने के लिए अपने कोरियोग्राफर अभिषेक अवस्थी के लिए प्यार का खुला इजहार किया और शो से बाहर होने के बाद एक बार फिर वाइल्ड कार्ड के जरिए एंट्री भी पाई। इस शो के जरिए राखी घर-घर में जाना-पहचाना नाम बन गईं। फिर तो मीडिया और राखी के बीच की यारी चल निकली। कभी अपार्टमंट के बाहर कूड़े के सवाल पर हल्ला मचाती, तो कभी ब्रेस्ट इम्प्लांट सर्जरी की बात कबूलते हुए इसके पक्ष में दलील देती राखी जब-तब टीवी पर नजर आने लगीं। चेहरे पर ओढ़ी गई मासूमियत और मुंहफट अंदाज ने उन्हें टीआरपी दिलाने वाला सॉलिड मसाला बना दिया। इस दौरान राखी ने कुछ बातों का खास तौर पर ध्यान रखा। मसलन, स्वयंवर से लेकर पिछले तमाम इंटरव्यूज में खुद को भारतीय लड़की, मिडल क्लास फैमिली वाला और भगवान से डरने वाला बताना। अपने अंग्रेजी न जानने को कमजोरी की तरह बताकर मोरल एडवांटेज हासिल करना। अपनी फिगर का जलवा लगातार कायम रखना और सही समय पर बिंदास बोलकर सुर्खियां बटोरना। मीडिया : कभी सौतन-कभी सहेली राखी सावंत को एक फिनॉमिना बनाने में मीडिया का ही रोल है, यह कहने वाले तमाम लोग हैं। 24 घंटे की गलाकाट स्पर्धा में टीवी को चाहिए कुछ चेहरे, जिन्हें देखने और जानने में पब्लिक को इंटरेस्ट हो। इसके लिए मीडिया कभी टैलंट हंट करता है, तो कभी रिऐलिटी शो। इसी कतार में आते हैं विजुअल के मारे न्यूज चैनल। राखी ने इन मीडियम्स की जरूरत को भरपूर समझा और यह सुनिश्चित किया कि उनके हर बयान और कदम को कवरेज मिले। जूम टीवी के लिए तुषार कपूर जब राखी के शो में आए, तो उन्होंने शुरुआत में ही पूछ लिया कि राखी जी प्लीज मुझे कंट्रोवर्सी क्रिएट करने का हुनर सिखा दीजिए। इस पर राखी ने थोड़ा लजाते हुए जवाब दिया कि कोई भी काम करने से पहले देख लो कि कैमरे की निगाह कहां है। जाहिर है कि राखी को पब्लिकली यह कबूल करने में कोई दिक्कत नहीं कि वह कंट्रोवर्सी खड़ी करके लाइम लाइट में रहती हैं। मगर यहीं कहानी या कहें कि थिअरी में ट्विस्ट आ जाता है। ट्विस्ट अपने कहे को बदलने का। मसलन, कॉफी विद करण नाम के शो में राखी ने बार-बार कहा कि मैंने अपने परिवार को देखा है और इसीलिए मैं शादी नहीं करना चाहती। मैं अभिषेक से प्यार करती हूं, लेकिन उसके साथ शादी नहीं कर सकती। बच्चे नहीं पैदा कर सकती। और अब वही राखी बाकायदा टीवी पर अपना स्वयंवर रचने में व्यस्त हैं। एक पल को राखी कहती हैं कि मीडिया में मेरे बारे में सच्चा-झूठा छपता रहता है, फिर अगले ही पल कहती हैं कि मैं बडे़ दिल वाली हूं, छोटी सी जिंदगी है, सबको माफ कर देती हूं। जाहिर है कि राखी भी जानती हैं कि उनकी कामयाबी का आधार भी मीडिया ही है और जिस दिन इसने उनमें रुचि लेनी बंद कर दी, उनका करियर खत्म हो जाएगा। मीडिया जानता है कि राखी का भदेस लहजा, कुछ भी बोल देने वाला मिजाज और एक्सपोजर लोगों में खीझ पैदा करे या प्यार, उनका हाथ चैनल बदलने के लिए रिमोट पर नहीं जाएगा और यह बिजनस का अल्टिमेट फंडा है। ऐसा नहीं है कि मीडिया हमेशा राखी को हाथों-हाथ ही लेता है। तमाम चैनलों पर राखी को लेकर कार्टून स्ट्रिप आते हैं, तमाम कॉमेडियंस के लिए वह मजाक की विषयवस्तु हैं। लेकिन ये सारी कवायदें अंतत: राखी को एक ऐसी शख्सियत में तब्दील कर देती हैं, जो चाहे-अनचाहे हमारी बातचीत का हिस्सा बन चुकी है, हमारे कमनीय काया और परिष्कृत अंग्रेजी बोलने वाली ऐक्ट्रिसेस से निर्मित होते कामना संसार में जबरन घुस आई है। और यही जबरन घुसने का हठ राखी को हिट बना देता है। ब्रैंड राखी कितना मजबूत अगर राखी का नाम बिकने की गारंटी है, तो आखिरकार ऐड वर्ल्ड उनसे परहेज क्यों करता है। दरअसल राखी नाम के ब्रैंड की अपनी लिमिट भी हैं। उनकी इमिज के साथ एक किस्म की अनिश्चितता जुड़ी हुई है। इस वजह से कोई भी प्रॉडक्ट खुद को उनसे जोड़ने के पहले 10 बार सोचेगा। राखी की एक खास छवि है और आज के कंस्यूमर प्रॉडक्ट लॉन्च करने वाले उस छवि को अपने मुफीद नहीं पाते। मगर यही राखी अपने आप में एक ब्रैंड हैं और यह ब्रैंड एक दिन में नहीं बल्कि लगातार बना है। बिग बॉस के दौरान राखी ने ऐसी घरेलू लड़की की तरह खुद को पेश किया, जिसे पूरी दुनिया गलत समझती है। लड़कों के अंडरवियर धोए, उन्हें खाना खिलाया और दूसरों के फटे में टांग भी अड़ाई। शो के फौरन बाद राखी को मशहूर प्रड्यूसर-डाइरेक्टर करण जौहर का अपने शो 'कॉफी विद करण' के लिए बुलावा आ गया। पहली बार इस शो में बातचीत हिंदी में की गई। राखी को पता था कि ये उनके लिए वाकई बड़ा इवेंट है और इसे कैश कराने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। करण के सामने लजाई बैठी राखी ने कहा कि आज मैं खुद को प्रीटी, रानी और काजोल के बराबर मान रही हूं। अपनी हिंदी की दुहाई देते हुए करण से कहलवाया कि कोई बात नहीं राखी आखिर हम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ही काम करते हैं। और फिर आया हाई पॉइंट जब अपने परिवार की बेरुखी का जिक्र करते हुए राखी शो में ही रो पड़ीं। हॉल्टर नेक वाले लो कट ब्लाउज और शिफॉन की साड़ी में सजी राखी एक ऐसी बेचारी लड़की का प्रतीक बन गईं, जिसे जब हंसी का पात्र समझते हैं मगर कोई नहीं सोचता कि बिना गॉडफादर के अपनी जगह बनाती इस लड़की ने कितनी तकलीफ सही। अब गौर करें इस तथ्य पर कि राखी को सबसे ज्यादा लंबी अवधि की चर्चा दिलाने वाले राखी का स्वयंवर नाम के प्रोग्राम को एनडीटीवी इमेजिन नाम का टीवी चैनल प्रोड्यूस कर रहा है। करण जौहर इस चैनल के ब्रैंड एबैंसडर और सलाहकार हैं। जाहिर है कि राखी के आंसू बेकार नहीं गए। राखी जानती हैं कि तमाम कलाबाजियों के बावजूद अभी वह औसत भारतीय के लिए एक एम्पावर्ड आइकन नहीं मनोरंजन मुहैया कराने वाली शख्सियत ही हैं। इसीलिए स्वयंवर में वह इसकी भरपाई करने की कोशिशों में लगी हैं। यह ब्रैंड राखी का अगला चरण है। स्वयंवर के कॉन्सेप्ट पर बात करते हुए माता सीता को याद करती राखी, द्रौपदी को याद कर 16 के 16 लड़कों से शादी करने की बात करती राखी और एक प्रतिभागी द्वारा खुद को लक्ष्मी बाई और इंदिरा गांधी की अगली कड़ी बताए जाने पर नम्रता से आंखें नीचे किए राखी। यह ब्रैंड खुद को गर्ल नेक्स्ट डोर साबित करने पर तुला है, जिसे अपने होने का एहसास भी है और उसके मायनों का अंदाज भी। फिर भले ही मनोरंजन की क्वॉलिटी गिरने का रोना रोते लोग उन्हें सेक्स और गॉसिप के ब्यौरों से बरे अंग्रेजी नॉवेल लिखने वाली शोभा डे का भदेस संस्करण मानें। टीआरपी के खेल की समझ राखी सावंत को पता है कि जब तक वह बिकाऊ हैं, तभी तक बेरहम टीवी की दुनिया में उनकी पूछ है। तो जाहिर है कि इस पूछ को बनाए रखने के लिए राखी अपनी संभावनाओं को भी तौलती रहती होंगी। इसी समझ के तहत एक ऐसे शो को चुना गया जिसके बारे में टीवी चैनल कहता है कि वास्तविकता इससे ज्यादा वास्तविक कभी नहीं रही। उदयपुर के फतेहगढ़ साहब नाम के महल में राखी का स्वयंवर के लिए सेट लगे हैं, जहां देश भर से आई लाखों एंट्री में से चुने गए 16 प्रतिभागी खुद को राखी के लिए सबसे योग्य वर बताने में लगे हुए हैं। राखी को पता है कि कैमरे का फोकस वही हैं, इसलिए वह शो के दौरान नाटकीय क्षणों का सृजन करती रहती हैं। जब कोई ज्यादा करीब आए तो उसे झिड़क देना, जब कोई मायूस हो जाए, तो उसके साफ दिल की तारीफ कर देना और जब कुछ भी न करने को रह जाए, तो एंकर और दोस्त राम कपूर की तरफ कभी कातरता और कभी लाज के साथ निहारना। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या राखी शो के अंत में धूमधाम से अपने चुने हुए वर के साथ शादी करेंगी। अगर ऐसा हुआ तो शादी कब तक चलेगी। तलाक होगा तो कब और उस वक्त मीडिया को इसका कितना हिस्सा बनाया जाएगा। राखी के रुख को देखते हुए बहुत संभव है कि अंत में राखी चीखकर और आंसुओं से लबरेज होकर कहें कि ये सब लोग टीवी पर फेम पाने के लिए मेरे प्रति प्यार का झूठा दिखावा कर रहे हैं। कोई मुझसे प्यार नहीं करता। मैं अभागी प्यार के लिए जिंदगी भर तरसती रहूंगी और इसके साथ ही शो खत्म हो जाए। ऐसा होने पर आगे का सफर जारी रहेगा, टीवी और जनता के साथ, राखी नाम की मिथकीय हकीकत का। आखिर शादीशुदा राखी उतनी टीआरपी नहीं दे सकती, जितना दूल्हे की तलाश करती राखी। मिडल क्लास का इगो फैक्टर राखी को खारिज करने वालों की भी कमी नहीं। मगर फिर भी उन्होंने एक-एक करके जूम टीवी और एनडीटीवी इमैजिन जैसे इलीट चैनलों पर अपनी जगह बना ली। करण जौहर को इंटरव्यू दिया और आमिर खान का इंटरव्यू लिया। अगर सिर्फ डांस को पैमाना माना जाए, तो राखी के हुनर की उनके क्रिटीक भी तारीफ करते हैं। फिर भी राखी को खारिज क्यों किया जाता है, जबकि वह हमारे सामने अपनी सारी कमियों के साथ पेश आती हैं। दरअसल राखी का बोलना मिडल क्लास की दमित आकांक्षाओं की आवाज है। साधारण रंगत वाली लड़की मगर लोग कितना हाथों-हाथ लेते हैं। ठीक से बोलना भी नहीं आता, मगर जब बोलती है, तो सब सुनते हैं। मिडल क्लास अपनी मर्यादा और स्टेटस बनाने के फेर में जिन चीजों से बचता है, राखी ऐन उन्हीं चीजों के बलबूते खुद की शख्सियत को संवारने में लगी हैं। इस क्लास को पता है कि राखी कतई भारतीय नारी नहीं हैं, उसकी शर्म, उसका गुस्सा, सब कुछ नाटकीय है, मगर इन क्षणों से पार जाने को भी मिडल क्लास तैयार नहीं। बल्कि टीवी के सामने बैठकर वह अपने आहत इगो को सहलाता है, राखी को कोसता है, उसके फूहड़पने की नकल उतारता है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090721/edebb33d/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Jul 22 12:48:08 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 22 Jul 2009 12:48:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSV4KWB4KSG?= =?utf-8?b?4KSPIOCkn+ClgOCkteClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLAg4KSG?= =?utf-8?b?4KScIOCkhuCkqiDgpLngpK7gpYfgpIIg4KSX4KSw4KS/4KSG4KSH4KSP?= Message-ID: <829019b0907220018h1049620ehb8360b1ca985f1cc@mail.gmail.com> ये अपने रवीश ने सूर्यग्रहण के चक्कर में अपना क्या हाल बना रखा है? बिखरे हुए बाल,चेहरा उड़ा हुआ,आंखें ऐसी कि बेमन से खोल-बंद कर रहे हों,पलकों के उठने-गिरने में जबरदस्ती करनी पड़ रही हो,ताकत लगानी पड़ रही हो। बोलने का उनका मन ही नहीं हो रहा। कभी हंसते हैं,कभी टेलीविजन प्रोफेसर बनकर ग्रहण के नाम पर पाखंड फैलानेवालों को रगेदते हैं। कभी अपने संवाददाता मनीष को गर्माते हैं। मेरी मां इसे हुरकुच्चा(जबरदस्ती)मारकर बोलना कहती है। यही हाल उधर इलाहाबाद की तट पर खड़ेआजतक के एंकर और संवाददाता प्रतीक त्रिवेदी का है। बता रहे हैं कि अब अभी यहां स्वर्ग महसूस कर रहा हूं। जी न्यूज का संवाददाता प्रमोद बौला-सा इधर-उधर ताकते हुए बोले जा रहा है। वो समझ ही नहीं पा रहा कि नींद पर लगाम लगाए कि जुबान पर। न्यूज24 का संवाददाता कुरुक्षेत्र की भीड में घुसे जा रहा है,निकलने के लिए नहीं बल्कि लोगों के बीच औऱ गहरे धंसने के लिए। स्टूडियों से एंकर अखिलेश आनंद ने बोल दिया है कि कुरुक्षेत्र में हजारों की संख्या में लोग इस नजारे को देखने के लिए जुटे हैं,सरोवर में स्नान करने आए हैं,अब संवाददाता इस जुबान को सच करने में जुटा है। आजतक पर सोनिया सिंह औरश्वेता सिंह की जोड़ी लगातार हमें बताए जा रही है कि हम आपके लिए जमीन से 41हजार फीट की उंचाई से तस्वीरें लाकर दिखा रहे हैं,हम वहां विमान से गए। एनडीटीवी लगातार दो मिनट तक नीतिश कुमार को नताश कुमार फ्लैश चलाता रहा। IBN7 ने अपने एक संवाददाता के आगे डॉक्टर लगा दिया। सब चैनल अफरा-तफरी में। रात से ही कैमरा सेट लगा रहे हैं,सरोवर,छत,नदी और अटारी वहीं से वो लाइव कवरेज देंगे,रिपोर्टर पीटीसी देगा। सब परेशान,सब रात-रातभर के जगे हुए। आंखों के नीचे डार्कनेस लिए हुए। सूर्यग्रहण के चक्कर में न तो दिनभर ठीक से खाया-पिया और न ही पूरी नींद ली, बदहजमी और गैस से परेशान होने पर भी दिन-रात काम में लगे रहे। इस रतजग्गा के बीच जो कुछ भी दिखाए जा रहे हैं,दोस्तों उसे टीआरपी के लिए,सब बाजार के लिए जैसे फार्मूलाबद्ध जुमलों का इस्तेमाल करने से पहले जरा सोचिए। आलोचना के दायरे को बढ़ाइए,भाषाई स्तर पर कुछ नए प्रयोग कीजिए औऱ अपने पत्रकारों से पूछिए किसके लिए करते हैं,आप ये सब। मत कीजिए,हम बिना ये सब देखें ही जी लेंगे,आप हलकान मत होइए प्लीज। हम देर रात खस का शर्बत औऱ मैगी ले रहे होते हैं औऱ आप ट्राइपॉड पर सिर रखकर सुस्ताते हैं,हमे जरा भी अच्छा नहीं लगता। किसके लिए करते हैं ये सब,हमारे जैसे देश के उन हजारों दर्शकों के लिए जो आपके हर काम को बस टीआरपी-टीआरपी का खेल कहकर दिन-रात कोसते रहते हैं। उन लाखों दर्शकों के लिए जिनके यहां टेलीविजन नहीं है और आपके डर को मारो गोली देखने से पहले ही ज्योतिषियों की दुकान जा पहुंचा है,पंडितों को लार टपकाने की खुराक दे आया है। हां,किसके लिए सूर्य ग्रहण देखने के स्पेशल चश्मा के बारे में बता रहे हो,जिसकी आंखों की रोशनी चली गयी उसके लिए या फिर उसके लिए जो नजर का चश्मा बनाने के लिए तीन पाव की जगह आधा किलो दूध घर में मंगाना शुरु कर दिया है। उस बूढ़े दर्शक के लिए जिसका बेटा पांच महीने पहले बल्लीमारान से सस्ता फ्रेम लाने का वादा करके गया सो अभी लौटा ही नहीं। यकीन मानिए,देश का कोई भी संवेदनशील ऑडिएंस टेलीविजन पर अपने इन पत्रकारों की ये दशा देखकर गिल्टी फील किए बिना नहीं रह सकेगा। वो इनसे एक ही सवाल करेगा कि हमें लाइव कवरेज दिखाने के लिए आपको इतनी मशक्कत करने की क्या जरुरत पड़ गयी? हम आपकी नींद और चैन हराम हो जाने की शर्तों पर सबसे तेज नहीं होना चाहते। भाड़ में जाए सूर्य ग्रहण के वक्त हीरे-सा दिखनेवाला छल्ला। जाने दीजिए 123 साल बाद दिखे तो दिखे ये अजूबा दृश्य। इसके पहले भी कई अजूबा हुए,हम नहीं देख पाए तो क्या जिंदा नहीं है,क्या कोई असर पड़ रहा है हमारी सेहत को। हम नहीं चाहते कि खबरों की आपाधापी में दिल के साफ टीवी पत्रकार अब दिमाग से भी साफ हो जाएं। आपलोग खाइए,पीजिए,कोशिश कीजिए की ऑफिस ऑवर की ही खबरें हमें दिखाएं। ये रतजग्गा करके खबर दिखाने की कोई जरुरत नहीं है। हमें आपके बच्चों की पापा,चाचा और भइया का इंतजार करते हुए नींदाई आंखें देखी नहीं जाती। एक किस्स पर दुनिया लुटा देनेवाली आपकी पत्नी का रात-रातभर तक टीवी रुम और संकरी बालकनी के बीच का चक्कर लगाते रहना देखा नहीं जाता। आपको शायद पता नहीं कि आपके परिवार वालों की कितनी आह हमें लगती है। हमें जबरदस्ती बददुआ मत दिलवाइए। मेरे घर में पापा-भइया अक्सर दूकान से बहुत लेट आते हैं। मां कई बार थक-थककर सो जाती है। नींद में बड़बड़ाती है- चमोकन जैसन सट जाता है गाहक सब,तब इ लोग भी क्या करे,छोड़कर कैसे आ जाए। न जाने कितने मासूम ग्राहकों को,जिनके होने से हमारी रोजी-रोटी है,मां की बददुआएं मिलती है। क्या पता,आपकी पत्नी और मां भी कुछ ऐसा ही कहती हो कि जब देखनेवाले का मन ही नहीं उबता है तो आदमी को बाल-बच्चा,घर-परिवार तो सब झोंकना ही पड़ेगा न उसके आगे। आप हमारे लिए मत अपना परिवार झोंकिए। आपको सच बताउं,रात-रातभर जागकर जो आप बनारस,तारेगना,गया,लखनउ और दुनिया जहान की तस्वीरें दिखा रहे हैं न उसको एक-दो दिन में ही हम बिसर जाएंगे। जब तक आपकी उबासी भी खत्म नहीं होगी कि गरियाने के मुहावरे इजाद कर लिए जाएंगे। अच्छी बात है कि आप हमें सतर्क कर रहे हैं कि इससे डरिए मत,मुकाबला कीजिए या फलां-फलां दान कीजिए। हर ब्राह्मण को महर्षि व्यास मानिए लेकिन 52 घंटे तक टीवी देखने के बाद भी पता नहीं क्यों मैं भीतर से उस तरह से भरा-भरा महसूस नहीं कर रहा जो कभी साइंस की एक पीरियड में या उपाध्यायजी के श्लोकों की व्याख्या में किया करता रहा। हम जानना चाहते हैं। दूसरी बात जब आप कोसी बाढ़ को लेकर कवरेज करते रहे तो कई बार मुझे कुछ रिपोर्टरों को देखते हुए लगा कि मैं उन्हें ब्रेक के वक्त पानी पिलाउं जैसा कि हमने मीडिया करियर के दौरान जिनके लिए लगा,किया,जब आप मुंबई बम विस्फोट जैसी घटना के लिए कवरेज कर रहे होते हैं तो नास्तिक होने के वाबजूद भी लगातार आपकी हिफाजत के लिए कविता,संदेश और एसएमएस के तौर पर कुछ शब्द व्यक्त होते रहे। लेकिन आज आप जिस तरह से हलकान हो रहे हैं,मेरे मन में एक ही सवाल उठ रहा है,अपने उपर ही शक हो रहा है कि ऐसे मौके पर हम संवेदना क्यों नहीं रख पा रहे,सिर्फ ग्लानि-बोध पैदा हो रहा है भीतर से जो कि हमने आपको इस हालत में लाकर छोड़ दिया। हम नंदीग्राम और लालगढ़ के बनते छोटे-छोटे संस्करण के आगे आपकी इस मेहनत को क्यों नहीं पचा पा रहे हैं? ये ग्लानि कुछ उसी तरह की है जैसे कोई मां सुहाग की निशानी बेचकर बेटे की जिद में साइकिल खरीदती है। ये वैसा ही अपराध बोध है जब हम अपने पिता के खाली जेब का हाल जाने बिना स्कूल की फीस मांग बैठते हैं। हम लाइव होने के चक्कर में,पसंद-नापसंद के फंदे में जकड़कर आपको बहाए लिए जा रहे हैं,आप बहे जा रहे हैं। आप हमारे भीतर न्यूज सेंस पैदा कीजिए ताकि आपको एक घटना को लेकर पॉलिएशन न करना पड़ जाए। एक ही स्टूडियों में पंडित, वैज्ञानिक,ज्योतिषाचार्य औऱ धर्मगुरुओं को बिठाने की नौबत न पड़ जाए। कल तक हमने आपको कोसा है कि आप बकवास दिखाते हैं,कूड़ा दिखाते हैं,आज आप हमें कोसिए,ऑफिस से फारिग होते ही घर जाकर पत्नी और बच्चों को भी साथ कर लीजिए और हम जैसी ऑडिएंस को समवेत कोसिए,गरिआइए कि हमने आपका जीना हराम कर दिया है,हम सुविधाभोगी हो गए हैं जो कमरे में बैठकर,बटरस्कॉच खाते हुए एक ही साथ भारत,जापान और प्रशांत महासागर पर सूर्यग्रहण को लेकर पड़नेवाले असर के बारे में जानना चाहते हैं। आप हमें गरिआइए तो सही,देखिए कि हम कैसे नहीं सुधरते हैंभ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090722/172cba42/attachment-0001.html From pkray11 at gmail.com Wed Jul 22 18:50:34 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Wed, 22 Jul 2009 18:50:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSV4KWB4KSG?= =?utf-8?b?4KSPIOCkn+ClgOCkteClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLAg4KSG?= =?utf-8?b?4KScIOCkhuCkqiDgpLngpK7gpYfgpIIg4KSX4KSw4KS/4KSG4KSH4KSP?= Message-ID: <98f331e00907220620w36d1639al7974472776bd1aef@mail.gmail.com> विनीत जी, आपको हलकान देखकर यारों का दिल फटा जाता है. यार समझ सकते हैं कि आप भी रात भर जगे होंगे कि कहीं सूर्यग्रहण का टेलीकास्ट मिस ना कर दें. आखिर चैनलों को कोसने का आईडिया तो कुछ दिन पहले ही सोच ही लिया होगा? उसपर यह कि ताबड़तोड़ रिमोट पेरना पड़ा होगा ताकि इतने सारे चैनेलों को लाइव देख पायें. देखने और रिमोट का बैलेंस बनाने के साथ सोचना भी पड़ा होगा. अंतर्मन, एंकरों और रिपोर्टरों से WWF भी कर रहा होगा. चाय की बेतहाशा तलब ने भी परेशां किया होगा. ग्रहण समाप्त होने के बाद हुरकुच्चिया के लिखना भी पड़ा होगा ताकि ब्लॉग और दीवान पे जल्दी ठेल दिया जाये. आपने लिखा कि 52 घंटे टीवी देखकर भी भरा-भरा महसूस नहीं कर रहे हैं. दोस्त, इतना लम्बा टीवी देखने के बाद भरा-भरा तो सब महसूस करेंगे -चाहे गरिष्ठ भोजन लिया हो या कब्ज़ का मरीज़ हो या मजबूत पाचन का स्वामी हो. आपके खालीपन का कारण महज़ इतना है कि आप ज्यादा मेहनत कर रहे थे और ज़बरदस्ती टीवी सेट के साथ संवाद में थे. उधर आपका टीवी और उसके गण अपना 'काम' कर रहे थे. मत भूलिए कि आपका देश और आपकी दुनिया (कोई कन्फियुजन ना हो इसलिए बता दें कि यारों का देश और दुनिया भी) चमत्कार और जिज्ञासा की कायल रही है और आज भी है. कौतुहल और मेलोड्रामा परंपरागत विशिष्टताएं हैं. बतकही संस्कृति का मूलभाव है जो कभी-कभी बकचो.. भी हो जाती है. जैसे 'देख कबीरा रोये' की मुद्रा में हैं, वैसे कभी-कभी टीवी वाले भी दुखी और चिंतित होते हैं. उदहारण के तौर पर- 'नव माओवादी' पुण्य प्रसून जी. यारों ने तो सीधे सूर्यग्रहण देखा, खुश हुए. नहाने के बाद नाश्ता किया. नाश्ता करते हुए टीवी देखा. दुनियादारी में जुट गए. प्रकाश कुमार राय Plz visit Cinemela's web page: www.cinemela.youthv.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090722/b26007fd/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Jul 24 13:46:32 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 24 Jul 2009 13:46:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Lecture: SR Faruqi on the Dastan tradition Message-ID: <200907241346.32497.ravikant@sarai.net> आज साहित्य अकादमी में, 5 बजे शाम में. ज़रूर पधारें. ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Lecture by SR Faruqi on the Dastan tradition Date: गुरुवार 23 जुलाई 2009 20:04 From: mahmood farooqui To: Legendary Urdu critic and the inspiration behind the recent performances of Dastangoi, Shamsur Rahman Faruqi, will speak on Dastans. Topic of discussion will be - * Dastan-i- Amir Hamza: The superiority of orality over the written word At Sahitya Academy, on Friday the 24th of July, 5 pm. * SR Faruqi, apart from pioneering works of scholarship and classical urdu poetics, early urdu literary culture and the urdu modernist movement, is one of the few people in the world to possess the entire 46 volume Hamza cycle and is the author of a three volume study on the Dastan tradition in Urdu. ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Mon Jul 27 15:34:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 27 Jul 2009 15:34:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSw4KSW4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpuCkpOCljeCkpCDgpJXgpYAg4KSr4KS/4KSy4KWN4KSuIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkueCkvuCkqOClhyDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSq?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCknOCksOCkviDgpLjgpYvgpJrgpL8=?= =?utf-8?b?4KSP?= Message-ID: <829019b0907270304g4e6746c1pf89a9324bb73283@mail.gmail.com> विजय दिवस के नाम पर पर देश के अधिकांश हिन्दी चैनल भले ही लोगों को शर्तिया तौर पर भावुक करने में जुटे हों,हम तुम्हें आज रुला कर ही छोड़ेगे के अंदाज में भाषा और शब्दों का जबरन इस्तेमाल कर रहे हों लेकिन इन सबसे अलग NDTV24*7 पर बरखा दत्त की ओर से पेश की गयी,लगभग चालीस मिनट की फिल्म REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER ये साबित कर देती है कि कम शब्दों के जरिए भी हम संवेदना के स्तर पर मजबूती से बात कर सकते हैं। ऐसे मौके पर हिन्दी के तमाम न्यूज चैनल्स जहां टेलीविजन को टेलीविजन रहने ही नहीं देना चाहते,वो उसे रेडियो में कन्वर्ट करने पर आमादा हो जाते हैं वहीं बरखा दत्त इस फिल्म के जरिए टेलीविजन की ताकत को रिडिफाइन करती नजर आती है। अभिव्यक्ति के स्तर पर ये पूरी फिल्म इस थ्योरी पर बनी है कि-SOME MOMENTS ARE WORDLESS. कुछ ऐसे ही मौके होते हैं जहां कि कुछ भी कहना नहीं होता,उसके लिए कुछ शब्द भी नहीं होते, गहराई तक जाने के लिए बस हमें उससे होकर गुजर जाना भर होता है। टेलीविजन की जरुरत औऱ ताकत यहीं समझ में आती है। फिल्म की शुरुआत बहुत ही सादे और स्वाभाविक तरीके से होती है। बरखा दत्त करगिल के उन इलाकों में पहुंचती है जहां से कि आज से ठीक दस साल पहले 26 साल की उम्र में होकर गुजरीं,करगिल युद्ध को कवर किया और देशभर में इतनी पॉपुलर जर्नलिस्ट बनी कि बॉलीवुड ने इसकी छवि का इस्तेमाल करते हुए लक्ष्य जैसी फिल्म बनायी। REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER में बरखा दत्त की उस टीम की फुटेज को भी शामिल किया गया है जिसमें उनके साथ तीन और पत्रकार अजमल ज़दी(बतौर कैमरामैन),गौरव सावंत और शशि शामिल रहे थे। इसके अलावे सेना के तीन लोगों के साथ बराबर उनका सम्पर्क रहा-कैप्टन बत्रा,विशाल थापा औऱ कमांडर बाइ.के.जोशी। दस साल बाद अब जब वो दोबारा वहां पहुंचती हैं तो कैमरामैन के अलावे बाकी की टीम नहीं रह जाती,मीडिया शर्तों औऱ प्रायरिटी को लेकर काफी कुछ बदल गया है लेकिन कवर करते हुए वो सारी यादें अब भी बरकरार है। खुद बरखा दत्त के शब्दों में-memory comes in waves. इधर कैप्टन बत्रा के शहीद हो जाने के बाद उनका भाई विशाल बत्रा बरखा दत्त के साथ है। विशाल थापा( माउंनटेन ट्रेनी ऑफिसर) औऱ बाइ.के.जोशी जो कैप्टन बत्रा के साथ साये की तरह खड़े रहे, फिल्म बनाने के दौरान अब भी बरखा दत्त का साथ दे रहे हैं। इस हिसाब से देखे तो इस फिल्म में करगिल दो हिस्सों में बार-बार सामने आता है। एक इतिहास का जिसमें कि युद्ध है,बम के धमाके हैं,उन धमाकों के बीच कैप्टन बत्रा का हिन्दी सिनेमा के प्रति का प्यार है,बाहर हो रहे गोलाबारी को डेलीरुटिन का हिस्सा मानते हुए,टेंशन रिलीज करने के लिए कॉस्मोपॉलिटन पत्रिका के पुराने पड़ चुके पन्नों को पलटते जवान हैं। टाइगर हिल के बहुत ही नजदीक बने बंकर में चौबीस घंटे तक लगातार अंजान लोगों के बीच बैठी खुद बरखा दत्त है,उसके सवाल हैं और उन सवालों का बड़े ही फिलॉस्फीकल अंदाज में जबाब देते विशाल थापा हैं। बरखा सवाल करती है कि क्या उन्हें घर परिवार की याद नहीं आती। इस पर विशाल थापा का जबाब है कि उन्हें ये याद एक छोटी फिल्म की तरह लगती है। बचपन,प्यार,घर,रिश्ते और बाकी चीजें भी याद आती है,लेकिन बहुत तेजी से रील की तरह घूमकर खत्म हो जाती है औऱ हम उससे बाहर निकल आते हैं। इसी दौरान एक जवान का उल्टे बरखा से सवाल है- आप भी हमलोगों की तरह जिंदगी जीती हुई रिपोर्टिंग कर रही हैं कि ये खबर हमारे घर में सबसे पहले आप पहुंचाएं...आपको याद नहीं आती। यहां पत्रकारिता परिभाषित होती है जिसे कि आगे जाकर बरखा दत्त एक सवाल के तौर पर हम ऑडिएंस के सामने रखती है कि-ये वो दौर था जबकि हमारे पास सेलफोन नहीं हुआ करते थे,कंटेट को दिल्ली तक पहुंचाना आसान नहीं था,अपलिंकिंग का काम इस तरह संभव नहीं था,ये देश का पहला टेलीविजन बार था,जिसमें कई चीजें आ पायीं,कई छूट गयी लेकिन आज जब हमारे पास ये सारी सुविधाएं हैं,क्या हम ऐसा कर पाते हैं,कर पा रहे हैं? इस पहले हिस्से में कैप्टन विक्रम बत्रा है जो कि एक कॉमर्शियल-ये दिल मांगे मोर को अपनी जिंदगी की पंचलाइन बनाते हुए जीते हैं। फिल्म के दूसरे हिस्से में करगिल का दूसरा संस्करण है। कैप्टन बत्रा का भाई विशाल बत्रा है जो कि एक-एक घास,पत्थरों और पेड़ों की तस्वीर कैद करना चाहते हैं जिसे देखकर लगता है कि उसके भाई का संबंध उससे है। वो बत्रा हिल पर बैठकर अपने भाई को अंतिम चिठ्ठी लिखते हैं। विशाल थापा है जो इस सच को बयान करता है कि किसी भी देश का सैनिक अपने पक्ष में किसी भी तरह का युद्ध नहीं चाहता लेकिन देश की आर्थिक,सामाजिक औऱ राजनीतिक परिस्थितियां ऐसा करके लिए मजबूर करती है। कमांडिंग ऑफिसर बाइ.के.जोशी हैं जो कि मानते हैं कि सब शांति चाहते हैं लेकिन बिडंबना है कि इसके लिए युद्ध भी होते रहने हैं। इस दूसरे हिस्से में जोशी की बेटी इशिता है जो युद्ध के समय मात्र सात साल की थी और उसे उस युद्ध के बारे में सिर्फ इतना भर याद है कि वो अपनी मम्मी के बताने पर टेलीविजन स्क्रीन पर बोल रहे अपने पापा को पहचान पायी। इन सबके बीच फिर बरखा दत्त है जो विशाल थापा से सवाल करती है कि-आपको नहीं लगता कि आपलोगों ने जो कुछ भी किया-देस के लोग उसे भूलते जा रहे हैं,लोग इसे इजली और लूजली लेते हैं। थापा इसे व्यक्ति की पर्सनल फीलिंग मानते हैं। बंकर को देखते हुए बरखा कहती है- ये अपना बंकर था। थापा उसे गन पाउडर की याद दिलाते हैं। बरखा उनसे डेथ स्मेल के बारे में सवाल करती है। थापा का जबाब होता है-death has no smell,death has its effect.. बरखा इस युद्ध को केलकर विशाल को किसी एक तस्वीर याद करने को कहती है। विशाल थापा किसी एक तस्वीर को याद नहीं कर सकते,वो सब एक-दूसरे से मिलकर क्लस्टर हो गए हैं। यही समस्या अजमल जदी के सामने आयी। कोई एक स्थिर चेहरा नहीं,कोई-कुछ भी तय नहीं,सब कुछ उजड़ता हुआ,खत्म होता हुआ। ऐसे में कुछ भी दिखा पाना बता पाना,सबसे ज्यादा मुश्किल होता है। लेकिन इन्हीं मुश्किलों के बीच से फिल्म में संवेदना,जेनुइननेस,स्वाभाविकता औऱ परफेक्टनेस आ पायी है। जबकि संभवतः इसी मुश्किल से बचने की तमन्ना अधिकांश हिन्दी चैनलों को खबर के बजाय मेलोड्रामा की तरफ धकेलती है। सच तो ये है कि कई बार टेलीविजन में कुछ भी बोलने की जरुरत ही नहीं होती,केवल फुटेज का ही हमारे उपर इतना असर होता है कि हमारी आंखों से अपने-आप ही आंसू निकल जाते हैं,अपने-आप ही चश्मे की फ्रेम पोछने लग जाते हैं,टेबुल पर रखी कॉफी ठंडी हो जाती है,हम बिल्कुल चुप हो जाते हैं। REMEMBERANCE KARGIL AFTER TEN YEARS में ऐसे मौके बार-बार आते हैं जब हम अज्ञेय की पंक्तियों को मन ही मन बार-बार दोहरते हैं- मौन भी अभिव्यंजना है/उतना ही कहो/जितना तुम्हारा सच है। बरखा दत्त इस फिल्म के जरिए इसका खास ध्यान रख पाती है। करगिलःविजय दिवस संवेदना और अनुभव के वो क्षण रहे हैं जहां अगर तथ्यों के अलावे कुछ भी बोला जाए तो लगता है कि टेलीविजन और ऑडिएंस के बीच एंकर जबरदस्ती शोर पैदा करने के काम किए जा रहे हैं। पिछले तीन दिनों से आपमें सो जो भी इससे जुड़ी कवरेज को देख रहे होंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि हिन्दी न्यूज चैनल किस तरह से बड़बोलेपन के शिकार होते चले जा रहे हैं,लगातार बोलते रहने की आदत उनके उपर इस कदर हावी है कि वो तय ही नहीं कर पाते कि उन्हें कितना बोलना है,किस बात से कहां तक के अर्थ पैदा हो सकते हैं,शब्दों की तासीर का क्या मतलब है?उनके लिए शब्दों की ताकत का मतलब अर्थ पैदा करने से नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा हमारे बीच ठेलने से है। नतीजा ये होता है कि शब्दों के साथ-साथ विजुअल्स की ताकत भी खत्म होती चली जाती है। जब हम टेलीविजन देख रहे होते हैं तो एंकर के अनावश्क विश्लेषण से लगातार जूझ रहे होते हैं,जो चीजें हमें दिखाई दे रही होती है और उसकी गहराई तक हम घुसना चाहते कि इसके पहले ही एंकर इसे देखिए,गौर से देखिए के प्रयोग से हम बुरी तरह डिस्टर्ब होते हैं। हम विजुअल्स में समाए अर्थ की परतों को खोलना चाहते हैं लेकिन एंकर और व्आइस ओवर एकहरे अर्थ को एस्टैब्लिश करने को इतने उतावले हैं कि आप ऐसा कर नहीं पाते। इस तरह स्क्रीन पर के विजुअल्स को समझने की जद्दोजहद और चैनलों के लोगों की ओर से नहीं समझने देने की छीनाझपटी के बीच हम लगातार एक ऐसे दौर से गुजरते हैं जहां हम देखकर समझने का सुख और चैनल हमें बांधे रखने की ताकत खोते चले जाते हैं। तब झल्लाहट में हमें सारे चैनल एक से और झौं-झौं करते नजर आते हैं। REMEMBERANCE KARGIL AFTER TEN YEARS में कई ऐसे विजुअल्स हैं जिसका कि न्यूज चैनलों के हिसाब से कोई अर्थ नहीं है। पूरी स्क्रीन पर पेड़ से लगा हुआ एक अकेला हिलता पत्ता,पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों के बीच फंसा एक कौआ,हाहाकार मचानेवाली झील औऱ सरोवर की लहरों के बजाय टप-टप गिरती उससे पानी की बूंदे,सिर्फ पहाड़ औऱ कुछ भी नहीं। आप ही बताइए इसका क्या अर्थ है,अगर आप बीच-बीच में स्क्रीन पर NDTV24*7 का लोगो नहीं देखें तो आपको लगेगा ही नहीं कि आप न्यूज चैनल पर ये सब देख रहे हैं। तभी बम धमाके के कई फुटेज एक साथ,ये किसी भी चैनल के काम के हैं।। इस वक्त भी लगेगा कि आप एचबीओ या वर्ल्ड मूवी पर कोई क्लासिकल फिल्म देख रहे हैं। इन दोनों फुटेज के बीच बरखा दत्त की इतनी-सी बात कि BUT MOUNTAINS ARE PURE,MOUNTAINS ARE BEAUTIFUL,चैनल के लिए गैरजरुरी पत्तों और कौओं के फुटेज और केवल धमाके की जरुरी फुटेज मिलकर एक नया अर्थ पैदा करता है। तब आप एक-एक फुटेज में छिपके कई अर्थ के छिलके उतारने की कोशिश करते हैं। इसी समय आप कैमरामैन का नाम जानना चाहते हैं। कम शब्दों के बीच बाकी के लोगों को जानने की गुंजाइश बनती है। लगातार विजुअल्स के दिखाए जाने के बीच बहुत ज्यादा बोलने की जरुरत न दिखलाते हुए बस इतना भर कहना है कि-memory comes in waves, ये एक्सप्रेस हाइवे है,वट नाउ वी कॉल इट हाइवे ऑफ डेथ,सब कुछ बता देता है कि पिछले दस साल के भीतर कितने शब्द बदल गए,नाम बदल गए,हमारे सोचने का तरीका बदल गया। फिल्म में वो बार-बार दोहराती है कि इस करगिल वार ने उसे सोचने का नजरिया बदल दिया,मिलेटरी के बारे में सोचने का तरीका बदल दिया। वो भी हाड़-मांस के होते हैं और उनके भीतर भी दिल धड़कता है,उन्हें भी घर की याद आती है इससे ज्यादा और इमोशनल क्या हुआ और किया जा सकता है कि बरखा दत्त करगिल की यादों को एक कोल्डस्टोरेज में रखती चली जाती है कि कभी मौके पड़ने पर उसे फ्रीज से बाहर निकालेगी और फिर से उसे याद करेगी। कितनी तेजी से ये यादें फ्रीज होती चली जा रही है,हम इसे अपने-अपने स्तर पर महसूस कर सकते हैं। इधर आप हिन्दी चैनलों को बदलते चले जाइए। शब्दों का प्रयोग थोक के भाव में हो रहे हैं,एक से एक कसीदे पढ़े जा रहे हैं,कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी,देश को उस पर अभिमान है...वगैरह-वगैरह। इन शब्दों पर गौर करें तो आपको 1947 की आजादी और उनसे जुड़े शहीदों के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल दूरदर्शन लंबे समय से करते आ रहे हैं,सबों का रिवीजन हो जाता है। हिन्दी चैनल इस करगिल विजय पर इतिहास की इतनी गहरी लेप चढ़ाने की जुगत में नजर आते हैं कि लगता नहीं कि ये महज पिछले दस साल पहले की घटना है। मैं ये बिल्कुल भी कहना नहीं चाहता कि पुराने शब्दों के प्रयोग से तात्कालिकता खत्म होती है और न ही शब्दों की कोई वैलिडिटी पीरियड होती है लेकिन इतना तो जरुर है कि हजार-बारह सौ शब्दों से काम चलानेवाले हिन्दी चैनलों की लाचारी ऐसे मौके पर साफ झलक जाती है। क्या ऐसा स्टूडियो या फिर शहीद कैप्टन कुलदीप नय्यर पेट्रोल पंप के आगे से पीटीसी देने का असर है कि हम करगिल विजय को बहुत ज्यादा ऐतिहासिक मानने लगते हैं जबकि बरखा को करगिल के मास्को वैली से गुजरते हुए 1997 की घटना,ऐसा लगता कि मानो कल की घटना है। क्या सुविधाजनक स्थिति और फास्ट फूड कल्चर की पत्रकारिता हमें चीजों को सही संदर्भ में पेश करने की काबिलियत पैदा नहीं कर पाती। फिल्म देखते हुए हमें इस सिरे से भी सोचना की जरुरत महसूस होती है कि तकनीकी स्तर पर हम पहले से मजबूत होने के वाबजूद भाषायी स्तर पर हम हम इतने लचर क्यों होते जा रहे हैं कि टेलीविजन का कुछ भी बोलना हमें बकवास लगता है,बनावटी लगता है,जिंदगी लाइव नहीं लगती। हम कभी-कभी क्यों दूरदर्शन की थकाउ भाषा का रुख कर लेते हैं, जिसमें अभिव्यक्ति के शब्द नहीं औपचारिकता के टेक्कनीकल वर्ड भर होते हैं। सोचना जरुरी है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090727/e5051319/attachment-0001.html From pkray11 at gmail.com Tue Jul 28 05:38:04 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Tue, 28 Jul 2009 05:38:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJXgpL7gpLDgpJfgpL/gpLIg4KSa4KWI4KSo4KSy?= Message-ID: <98f331e00907271708m10ab8b79h46a7c50eabf26a49@mail.gmail.com> कारगिल का युद्ध दो परम्परागत दुश्मन देशों के बीच इक युद्ध भर नहीं था. जैसा कि हर युद्ध के साथ होता है, इस युद्ध के पीछे भी दोनों देशों के रहनुमाओं के क्षुद्र स्वार्थ सक्रिय थे. अटल जी और उनके कुनबे को अपनी राष्ट्रभक्ति साबित करने का मौका मिला और चुनावी जीत भी हासिल हुई. उसपार जनाब मुशर्रफ़ को सत्ता हथियाने के लिए ज़रूरी माहौल और मौका हासिल हुआ. भारतीय टेलिविज़न के आंगन में किलकारियां मार रहे गिने-चुने समाचार चैनलों और प्रोडक्शन कम्पनिओं के लिए तो यह युद्ध ऐसी संजीवनी था जिसने अचानक उन्हें जवान बना दिया. तब रजत 'इंडिया टीवी' शर्मा और प्रणब 'एनडीटीवी' रॉय की बटालियन मर्डोक के स्टार टीवी की ओर से अरुण पुरी-प्रभु चावला के आजतक और सुभाष चंद्रा के ज़ी टीवी के साथ मीडिया-मीडिया खेल रहे थे. दूरदर्शन वही था जो था और है. भारत में CNN और BBC के केबल न्यूज़ प्रसारण द्वारा दिखाए गए पहले खाड़ी युद्ध ने सनसनी मचा दी थी. कारगिल देशी ख़बरफरोशों के लिए ऐसा ही मौका था. इसकी ऐसी लत लगी कि पिछले साल नवम्बर में इन चैनलों ने पाकिस्तान से युद्ध कर भी लिया और जीत भी लिया. ख़ैर, इस मसाले की बाबत बाद में विस्तार से. जहाँ तक दस बरस बाद के प्रसारण की बात है तो यारों का मानना है कि चैनल वही कर रहे थे जो वे कर सकते हैं. विनीत भाई ने जो हिंदी चैनलों के बारे में कहा है उससे यारों की थोडी असहमति है. भाई विनीत जो हिंदी वालों के लिए कहा है, वह अंग्रेजी ख़बरबाज़ों पर भी एप्प्लाई होती है. बरखा जो काम बड़े सोफिस्टीकेशन से कर रही थीं, वही काम अन्य लोग तमाशे के साथ कर रहे थे. इस हम्माम में सबको राष्ट्रभक्ति का बुख़ार चढ़ा है. रही बात बरखा जी के टेलीफिल्म की तो यार भी मानते हैं कि वह प्रभाव छोड़ती है. मेलोड्रामा, क्रिस्प एडिटिंग, स्पेशल एफ्फेक्ट्स और थ्रिल से लबरेज़ ये फिल्म दिलचस्प है. पर यारों को यह मानने में हिचक है कि इससे किसी चैनल को सीख लेने की ज़रूरत है. अगर किसी के लिए इसमें कुछ सीखने के लिए है तो वो विडियो एडिटरों, कैमरा पर्सनों के लिए है. इसमें पत्रकारिता के लिहाज़ से बहुत कुछ नहीं है. अच्छा होता अगर सभी चैनल इस अवसर पर किसी भी युद्ध के बेमानी और विध्वंसक होने और शांति की ज़रूरत पर जोर देते. कारगिल युद्ध से जुड़े सवालों की पड़ताल करते. खोजते उस गड़ेरिये को जिसने पाकिस्तानी हरकत की सूचना महीनों पहले दे दी थी. बताते उस सैन्य अधिकारी के बाबत जिसने सवाल उठाये थे कि सेना और रक्षा मंत्रायल के आला अधिकारियों को इस बारे में जानकारी के बाद भी पाकिस्तानी सेना को कारगिल में घुसपैठ करने दिया गया और यह सब महीनों चला. उक्त अधिकारी के साथ सेना और सरकार के रवैये की परत उधेड़ते. उन परिवारों की बेबसी से दो-चार होते जिनके बेटों ने शहादत दी लेकिन सरकारी-तंत्र की उपेक्षा ने उन्हें अपमानित किया. कोशिश होती उन पाकिस्तानी सैनिकों के परिवार से मिलने की जिन्होंने युद्ध में अपनों को खोया. प्रकाश कुमार राय www.cinemela.youthv.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090728/ae004cbe/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Jul 29 00:10:49 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 29 Jul 2009 00:10:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KSo?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS24KWL4KSCIOCkleClgCDgpJbgpKzgpLDgpKjgpKzgpYA=?= =?utf-8?b?4KS24KWAIOCklOCksCDgpLjgpL/gpKjgpK7gpL4=?= Message-ID: <6a32f8f0907281140m6b95d50cj59e90982299d001d@mail.gmail.com> खबरनबिशों की खबरनबीशी और सिनमा खबरनबीसी की दुनिया को हिंदी सिनेमा ने खूब खंगाला है। इसके कई रंगों से दर्शकों को वाकिफ कराया है। कुंदन शाह ने एक फिल्म बनाई थी। नाम था 'जाने भी दो यारो'। तब इसकी जमकर तारीफ की गई थी। आज भी सिने प्रेमी इस फिल्म को याद करते हैं। जब यह फिल्म आई तो आम लोगों ने जाना कि अखबार मालिक या संपादक पत्रकारों से निजी फायदे के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज या तस्वीर कैसे हासिल करना चाहता है। छह साल बाद एक और फिल्म आई "मैं आजाद हूं"। टीनू आनंद की इस फिल्म ने दर्शकों को पत्रकारिता के दूसरे सच से परिचित कराया। दर्शकों ने जाना कि पत्रकार जरूरत पड़ने पर झूठे पात्र भी गढ़ता है। हालांकि इस फिल्म में महिला पत्रकार (शबाना आजमी) अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसा करती है। लेकिन पत्रकारिता के मूल्य पर ऐसा करना उसे गंवारा नहीं था। यहां अखबार के व्यापार को बढ़ाने के लिए व्यवस्था की पोल खोली जाने लगी। गांव से शहर आए एक आम आदमी को अखबार ने हीरो बनाकर पेश किया था। जब यह फिल्म आई थी तब बोफोर्स घोटाला सुर्खियों में था। आगे भी ऐसी फिल्में आई- 'न्यू देहली टाइम्स ', 'पेजथ्री' वगैरह। सिनेमाघऱ इसे दिखाकर पत्रकारिता के ताने-बाने को जानने-समझने का अवसर देता रहा है। अब जब बीते लोकसभा चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर बमचक मचा है तो ये फिल्में एकबारगी याद आती हैं। इसे पुनः देखने की जरूरत महसूस होती है। तब मालूम पड़ता है कि सिनेमा जगत ने यानी बॉलीवुड ने कई बार खबरनबिशों की दुनिया की ही खबनबीशी की है। इसकी सूची लंबी है। यहां नैतिकता का भी पाठ पढ़ाया गया है। वर्ष 1984 में प्रदर्शित हुई फिल्म मशाल को कौन भूल सकता है! दिलीप कुमार और अनिल कपूर को लेकर बनाई गई इस फिल्म में पत्रकारिता को अपनी राख से पैदा लेते दिखाया गया है। अब सवाल उठता है कि खबर की जगह को बेचने से जो आग लगी है, उसकी राख से क्या सार्थक पत्रकारिता जिंदा हो सकेगी ? या फिर जो कुछ हुआ, वह यहां रिवाज बन जाएगा। क्या है न कि सिनेमा को कभी गंभीरता से नहीं लेने का चलन भारी पड़ा है। इससे कई जरूरी भविष्यवाणियां लोगों की समझ में नहीं आईं। इसलिए गत चुनाव में खबरनबिशों की दुनिया आम लोगों को चकमा दे गई। *नोट*- पूरा लेख प्रथम प्रवक्ता के आगामी अंक में पढ़ सकते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090729/70733002/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Jul 29 11:10:48 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 29 Jul 2009 11:10:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KSG4KSw?= =?utf-8?b?4KSq4KWAIOCkleCkviDgpJXgpILgpJ/gpYfgpJ8g4KS44KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWL4KSIIOCkuOCkguCkrOCkguCkpyDgpKjgpLngpYDgpIIt4KSF4KSC?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSV4KS+IOCkuOCli+CkqOClgA==?= Message-ID: <829019b0907282240s2d23abaak58638c3f9005f189@mail.gmail.com> टेलीविजन औऱ मीडिया में दिलचस्पी रखनेवाले लोगों के लिए 27 जुलाई को राज्य सभा में "देश के सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विभिन्न चैनलों पर दिखाए जा रहे टीवी कार्यक्रमों में बढ़ती अश्लीलता और अशिष्टता" को लेकर होनेवाली चर्चा पर विचार करने की जरुरत है। भाजपा नेता औऱ टेलीविजन स्क्रीन पर अक्सर दिखनेवाले रविशंकर प्रसाद की ओर से टीआरपी के खेल को संसद के सामने रखने के बाद टेलीविजन,मनोरंजन,न्यूज चैनलों औऱ इन सबके बीच संस्कृति औऱ पारिवारिक मूल्यों के बचाए जाने की बात दूसरे सांसदों द्वारा जिस तरह से की गयी उससे साफ है कि वो टेलीविजन के मौजूदा रवैये से नाखुश हैं और आनेवाले समय में सरकार इसे गंभीरता से लेने जा रही है। हालांकि पूरी चर्चा में अधिकांश लोगों ने चैनलों पर नकेल कसने की बात से साफ इन्कार किया है वाबजूद इसके वो एक ऐसी मशीनरी डेवलप करना चाहते हैं जिससे कि टेलीविजन को बेलगाम होने से बचाया जा सके। इस पूरी चर्चा के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने अपनी तरफ से जो बात रखी है उससे इस बात का अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि वो टेलीविजन को पूरी तरह सेल्फ रेगुलेशन के आधार पर चलने देने के पक्ष में नहीं है। लेकिन ये भी है कि अंबिका सोनी अपनी बात रखने के क्रम में जिस हमारी संस्कृति,हमारी परंपरा और पारिवारिक मूल्यों की बात करती है उसे फिर से देखना-समझना होगा औऱ इन सबके साथ अभिरुचि को भी शामिल करते हुए बातचीत को आगे बढ़ानी होगी। टेलीविजन को रेगुलेट करने के पहले संस्कृति औऱ परंपरा को लेकर जो भी आधार बने हैं,उससे हटकर हमें इनकी प्रैक्टिस को लेकर बात की जानी चाहिए और जरुरी है कि हम किताबी समझ से परे सीधे लोगों के बीच घुसकर संस्कृति,परंपरा और मूल्यों के बनने-बिगड़ने की बात पर अंतिम निर्णय के लिए तैयार हों। फिलहाल यहां अंबिका सोनी की बात को पेश कर रहा हूं। मकसद सिर्फ इतना भर है कि टेलीविजन को रेगुलेट करने के संबध में आपकी समझ क्या है प्रतिक्रिया के जरिए हमसे साझा करें- * * *आगे पढ़ने के लिए चटकाएं- **http://teeveeplus.blogspot.com* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090729/cb783b77/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jul 31 12:27:51 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 31 Jul 2009 12:27:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSw4KSW?= =?utf-8?b?IOCkquCkvuCkguCkoeClh+CkryDgpJXgpYAg4KSV4KS14KS/4KSk4KS+?= =?utf-8?b?4KSv4KWH4KSC?= Message-ID: <196167b80907302357oe2f60a4h257072ddd3959edc@mail.gmail.com> *१.आशा का गीत* आयेंगे ,अच्छे दिन आयेंगे गर्दिश के दिन कट जायेंगे सूरज झोपड़ियों में चमकेगा बच्चे सब दूध में नहायेंगे सपनों की सतरंगी डोरी पर मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे। *२. तुम्हें डर है* हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत मैं तो सिर्फ़ उनके बिखरे हुये शब्दों को लय और तुक के साथ लौटा रहा हूं तुम्हें डर है कि मैं आग़ भड़का रहा हूं। *३. आंखें देखकर* ये आंखें तुम्हारी तक़लीफ का उमड़ता हुआ समंदर इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये। *४.बंद खिड़कियों से टकराकर* घर-घर दीवारे हैं दीवारों में बंद खिड़कियां हैं बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सिर लहूलुहान गिर पड़ी वह नई बहू है, घर की लक्ष्मी है इनके सपनों की रानी है कुल की इज्ज़त है आधी दुनिया है जहां अर्चना होती उसकी वहां देवता रमते हैं वह सीता है सावित्री है वह जननी है स्वर्गादपि गरीयसी है लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सिर लहूलुहान गिर पड़ी वह। क़ानून समान है वह स्वतंत्र भी है बड़े बड़ों की नज़रों में तो धन का एक यंत्र भी है वह भूल रहे वे सबके ऊपर वह मनुष्य है उसे चाहिये प्यार चाहिये खुली हवा लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सिर लहूलुहान गिर पड़ी वह। चाह रही है वह जीना लेकिन घुट-घुटकर मरना भी क्या जीना? घर-घर में श्मशान घाट हैं घर-घर में फांसी- घर हैं घर-घर में दीवारें हैं दीवारों से टकराकर गिरती है वह गिरती है आधी दुनिया सारी मनुष्यता गिरती है हम जो ज़िंदा हैं हम सब अपराधी हैं हम दंडित हैं। *५.सच्चाई* मेहनत से मिलती है छिपाई जाती है स्वार्थ से फिर,मेहनत से मिलती है। *६.समकालीन* कहीं चीख़ उठी है अभी कहीं नाच शुरु हुआ है अभी कहीं बच्चा पैदा हुआ है अभी कहीं फौजें चल पड़ीं हैं अभी। *७ .भेड़िया* i)पानी पिये नदी के उस पार या इस पार आगे-नीचे की ओर या पीछे और ऊपर पिये या न पिये जूठा हो ही जाता है पानी भेड़ गुनहगार ठहरती है यकीनन भेड़िया होता है ख़ून के स्वाद का तर्क। ii)शेर जंगल का राजा है भेड़िया क़ानून -मंत्री ताक़तवर और कमज़ोर के बीच दंगल है जगह-जगह बिखरे पड़े हैं खून के छींटे और हड्डियां जंगल में मंगल है। iii)भेड़िया गुर्राता है ध्यान से सुनकर आत्मा की आवाज़ भेड़ को खा जाता है। iv)शिकार पर निकला है भेड़िया भूगोल के अंधेरे हिस्सों में भेड़ की खाल ओढ़े जागते रहो, सोने वालों भेड़िये से बच्चों को बचाओ। *८.समाजवाद* समाजवाद बबुआ,धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई हाथी से आई घोड़ा से आई अगरेजी बाजा बजाई समाजवाद… नोटवा से आई वोटवा से आई बिड़ला के घर में समाई,समाजवाद… गांधी से आई आंधी से आई टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद… कांग्रेस से आई जनता से आई झंडा के बदली हो जाई, समाजवाद… डालर से आई रूबल से आई देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद… वादा से आई लबादा से आई जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद… लाठी से आई गोली से आई लेकिन अहिंसा कहाई, समाजवाद… महंगी ले आई ग़रीबी ले आई केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद… छोटका के छोटहन बड़का के बड़हन बखरा बराबर लगाई, समाजवाद… परसों ले आई बरसों ले आई हरदम अकासे तकाई, समाजवाद… धीरे -धीरे आई चुपे-चुपे आई अंखियन पर परदा लगाई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई। *९.मेहनतकशों का गीत* किसकी मेहनत और मशक्कत किसके मीठे-मीठे फल हैं? अपनी मेहनत और मशक्कत उनके मीठे-मीठ फल हैं। किसने ईंट-ईंट जोड़ी है किसके आलीशान महल हैं? हमने ईंट-ईंट जोड़ी है उनके आलीशान महल हैं। आज़ादी हमने पैदा की क्यों गुलाम हैं ,क्यों निर्बल हैं? धन-दौलत का मालिक कैसे हुआ निकम्मों का दल है? कैसी है यह दुनिया उनकी कैसा यह उनका विधान है? उलटी है यह दुनिया उनकी उलटा ही उनका विधान है। हम मेहनत करने वालों के ही ये सारे मीठे फल हैं ले लेंगे हम दुनिया सारी जान गये एका में बल है। *१०.समझदारों का गीत* हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं हम समझते हैं ख़ून का मतलब पैसे की कीमत हम समझते हैं क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं हम इतना समझते हैं कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं। चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम हम बोलने की आजादी का मतलब समझते हैं टुटपुंजिया नौकरी के लिये आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं मगर हम क्या कर सकते हैं अगर बेरोज़गारी अन्याय से तेज़ दर से बढ़ रही है हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के ख़तरे समझते हैं हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं हम समझते हैं हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं। हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है हम सरकार से दुखी रहते हैं कि समझती क्यों नहीं हम जनता से दुखी रहते हैं कि भेड़ियाधसान होती है। हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं हम समझते हैं मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी हम समझते हैं यहां विरोध ही बाजिब क़दम है हम समझते हैं हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं हम समझते हैं हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं हर तर्क गोल-मटोल भाषा में पेश करते हैं,हम समझते हैं हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी समझते हैं। वैसे हम अपने को किसी से कम नहीं समझते हैं हर स्याह को सफे़द और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार लेकिन हम समझते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं यह भी हम समझते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090731/2e6a1395/attachment-0001.html From shu at cgnet.in Sat Jul 18 11:24:34 2009 From: shu at cgnet.in (Shubhranshu Choudhary) Date: Sat, 18 Jul 2009 11:24:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [bytesforall_readers] Looking for help re problem with Hindi in a yahoogroup In-Reply-To: <274460.91806.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> References: <274460.91806.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> Message-ID: Dear Vickram Ji Thanks very much. My mail to Deewan list may not go to them as I am not subscribed to them Can I request you/them to talk to Anoop Saha ( anoopsaha at gmail.com ) as he is a techie and will be able to answer your questions. Anoop can you pls reply to Vickram Ji Thanks very much once again regards Shu shu at cgnet.in 9811066749 On Sat, Jul 18, 2009 at 9:58 AM, Vickram Crishna wrote: > Shu > > The best source I think for help here is the Deewan list supported by > Sarai, to which I have copied this mail. However, you must be clear about > your listmembers: are they typically running Windows, Linux, Mac OS? > Normally all should support Unicode, but it may be a version-centric > problem. > > Deewaners, please reply directly to Shubranshu. > > Vickram > http://communicall.wordpress.com > http://vvcrishna.wordpress.com > > ------------------------------ > *From:* Shubhranshu Choudhary > *To:* bytesforall_readers at yahoogroups.com > *Sent:* Friday, 17 July, 2009 19:17:44 > *Subject:* [bytesforall_readers] Looking for help re problem with Hindi in > a yahoogroup > > > > Dear friends, > > > CGnet ( www.cgnet.in) is Peoples website in Indian state of Chhattisgarh. > It also runs a discussion forum on yahoo (http://groups. yahoo.com/ > group/chhattisga rh-net/ ) > > > > Earlier when Hindi did not have a Unicode font and we were not able to use > Hindi in e mails, the discussion in CGnet was started in English. But since > now many Hindi Unicode fonts are available we are very keen to shift to > Hindi as language of discussion which is the main language of the state and > we hope will increase participation in the discussions. > > > > But our experience with the use of Hindi Unicode font has been mixed. > Sometimes we have been very successful in writing e mails in Hindi but > sometimes we are not and we are unable to understand this inconsistency. > > > > Yahoogroups gives us few delivery choices. To individual mail subscribers > (where a person receives a mail as soon as the mail is released by the > moderator) most of the Hindi mails written in Unicode Hindi font reaches in > proper shape. > > > > But majority of subscribers like Daily Digest, in which yahoo collects > mails exchanged during the day and sends it to the subscriber once a day. > > > > Most of the time mails sent in Hindi are garbled in Daily Digest. > > > > Sometimes mails sent by the same person are visible both in Individual mail > category and Daily Digest and the next day mails from the same person are > garbled. This makes us quite confused. > > > > We need to go to View>Encoding> Unicode( UTF-8) to read the Hindi mails but > when it is in garbled form in the Daily digest, choosing Unicode does not > help. But most of the time the mail is visible in Hindi at http://groups. > yahoo.com/ group/chhattisga rh-net/after choosing View>Encoding> Unicode( UTF-8) > > > Any help to sort this problem will be highly appreciated. > > Thanking you in advance > > Regards > > Shubhranshu Choudhary > > shu at cgnet.in > > 00919811066749 > > > __._,_.___ > Messages in this topic > ( > 1) Reply (via web post) > | Start > a new topic > > Messages > MARKETPLACE > Mom Power: Discover the community of moms doing more for their families, > for the world and for each other > [image: Yahoo! Groups] > Change settings via the Web(Yahoo! ID required) > Change settings via email: Switch delivery to Daily Digest| Switch > format to Traditional > Visit Your Group > | Yahoo! > Groups Terms of Use | Unsubscribe > > Recent Activity > > - 5 > New Members > > Visit Your Group > > Yahoo! Finance > > It's Now Personal > > Guides, news, > > advice & more. > New business? > > Get new customers. > > List your web site > > in Yahoo! Search. > Yahoo! Groups > > Do More For Dogs Group > > Connect and share with > > dog owners like you > . > > __,_._,___ > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090718/36dbf1cc/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon Jul 20 15:14:54 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 20 Jul 2009 15:14:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSm?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpKrgpLngpYHgpILgpJrgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCknQ==?= =?utf-8?b?4KWC4KSgIOCklOCksCDgpJrgpL7gpLLgpYDgpLgg4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWHIOCkleCkviDgpLjgpJo=?= Message-ID: <363092e30907200244u7340ab14y4eead4aa0261f10@mail.gmail.com> चांद पर पहुंचने का झूठ और चालीस साल पहले का सच पढ़ने के लिए यहाँ आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090720/e25ca8e0/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Mon Jul 20 15:14:54 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 20 Jul 2009 15:14:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSm?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpKrgpLngpYHgpILgpJrgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCknQ==?= =?utf-8?b?4KWC4KSgIOCklOCksCDgpJrgpL7gpLLgpYDgpLgg4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWHIOCkleCkviDgpLjgpJo=?= Message-ID: <363092e30907200244u7340ab14y4eead4aa0261f10@mail.gmail.com> चांद पर पहुंचने का झूठ और चालीस साल पहले का सच पढ़ने के लिए यहाँ आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090720/e25ca8e0/attachment-0003.html From water.community at gmail.com Fri Jul 31 22:35:04 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 31 Jul 2009 22:35:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] Yamuna Satyagraha programme postponed Message-ID: <8b2ca7430907311005y6343b9e0l47c9dbe8bc46de5a@mail.gmail.com> यमुना सत्याग्रह कार्यक्रम स्थगित *दीवान सिंह की प्राप्त एक मेल का मजमून* सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और 1 अगस्त को होने वाले कार्यक्रम को स्थगित करने संबंधी एक ई-मेल किए जाने के कारण उत्पन्न अप्रत्याशित परिस्थितियों से कुछ भ्रम हो गया है। इसी के मद्देनजर और भ्रम से बचने के लिए, कल के कार्यक्रम को भविष्य के लिए स्थगित कर दिया गया है ताकि सभी की उपस्थिति प्राप्त हो सके। हम उन सभी से क्षमा प्रार्थी हैं जिंहोंने अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराई थी विशेषरूप से कुलदीप नायर, राजेन्द्र सिंह, हैजार्ड सेंटर, राकेश अग्रवाल, डा. दत्ता, डॉ. शशांक, अरविंद, अतुल गोयल, अमित अग्रवाल व अन्य। सम्पर्क करें - दीवान सिंह - 9212061046 मास्टर बलजीत सिंह - 09971888185 For English news Read more -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090731/b6393927/attachment.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Fri Jul 31 22:35:04 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 31 Jul 2009 22:35:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Hindimedia] Yamuna Satyagraha programme postponed Message-ID: <8b2ca7430907311005y6343b9e0l47c9dbe8bc46de5a@mail.gmail.com> यमुना सत्याग्रह कार्यक्रम स्थगित *दीवान सिंह की प्राप्त एक मेल का मजमून* सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और 1 अगस्त को होने वाले कार्यक्रम को स्थगित करने संबंधी एक ई-मेल किए जाने के कारण उत्पन्न अप्रत्याशित परिस्थितियों से कुछ भ्रम हो गया है। इसी के मद्देनजर और भ्रम से बचने के लिए, कल के कार्यक्रम को भविष्य के लिए स्थगित कर दिया गया है ताकि सभी की उपस्थिति प्राप्त हो सके। हम उन सभी से क्षमा प्रार्थी हैं जिंहोंने अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराई थी विशेषरूप से कुलदीप नायर, राजेन्द्र सिंह, हैजार्ड सेंटर, राकेश अग्रवाल, डा. दत्ता, डॉ. शशांक, अरविंद, अतुल गोयल, अमित अग्रवाल व अन्य। सम्पर्क करें - दीवान सिंह - 9212061046 मास्टर बलजीत सिंह - 09971888185 For English news Read more -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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