From vineetdu at gmail.com Fri Jan 2 22:30:48 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 2 Jan 2009 22:30:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KSc4KS/4KSoIOCkpuClh+CkluCkleCksCDgpKzgpKjgpKTgpL4g?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkpuClh+Cktg==?= Message-ID: <829019b0901020900k518f4dd1m81aed3f145d841ef@mail.gmail.com> *टेलीवजिन देखकर बनता है देश* ** ** ** करीब डेढ़ साल तक भारी मशक्कत के बाद मैंने करीब ६०० घंटे की रिकार्डिंग पूरी कर ली। ये रिकार्डिंग मनोरंजन प्रधान चैनलों पर दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों की है। जिसमें टीवी सीरियलों से लेकर रियलिटी शो, विज्ञापन,स्टंट औऱ झगड़े-झंझट और स्ट्रैटजी शामिल हैं। इसकी रिकार्डिंग मैंने अपनी पीएच।डी की जरुरतों के हिसाब से की है। इसलिए पूरे टॉपिक के हिसाब से २००७-२००८ में मनोरंजन चैनलों पर प्राइम टाइम में प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों को शामिल किया है। मुझे विश्लेषण सिर्फ प्राइम टाइम के कार्यक्रमों की करनी है। लेकिन अब तक दूरदर्शन के हिसाब से प्राइम टाइम का जो समय रहा है उसे मैंने छोड़ा और आगे तक खींचा है। क्योंकि कई ऐसे कार्यक्रम हैं जो कि रात के दस बजे के बाद आते हैं लेकिन ऑडिएंस इफेक्ट के मामले में ये आठ बजे के कार्यक्रमों पर भारी पड़ते हैं। इस दौरान मैंने न्यूज चैनलो से ज्यादा मनोरंजन चैनलों को देखा है। न्यूज चैनलों को देखा भी तो ये जानने-समझने के लिए कि वो मनोरंजन से जुड़ी खबरों को किस रुप में प्रसारित करते हैं। आप में से कई लोग न्यूज चैनलों पर इस बात से नाराज हो सकते हैं कि वो प्राइम टाइम में हंसगुल्ले,कॉमेडी सर्कस का भौंडापन औऱ रियलिटी शो की चिक-चिक दिखाते हैं,सब वकवास है। लेकिन मैंने इस बात को समझने की कोशिश की है कि मनोरंजन चैनलों से जुड़ी खबरों को जब न्यूज चैनल प्रसारित करते हैं तो टेलीविजन का एक नया संस्करण उभरकर सामने आता है। दोनोंमें आपको एक हद तक समानता भी देखने को मिल जाएंगे। उसकी स्ट्रैटजी में एक हद तक समानता भी दिखेगी। इसलिए मेरी कोशिश है कि जब मैं मनोरंजन चैनलों की भाषिक एवं सांस्कृतिक निर्मितियों पर बात कर रहा हूं तो इसे टेलीविजन से ऑपरेशनलाइज करते हुए,सिर्फ मनोरंजन चैनलों पर बात करने के बजाए ओवर ऑल टेलीविजन संस्कृति पर बात करुं। टेलीविजन किस तरह से एक स्वतंत्र संस्कृति गढ़ रहा है जो कि आगे सजाकर समाज से पैदा न होते हुए भी सोशल प्रैक्टिस के रुप में स्वीकार कर लिया जाएगा, इसे समझना जरुरी है। हालांकि ये हमारे रिसर्च का एक छोटा-सा हिस्सा होगा लेकिन इसे ट्रेस करना जरुरी है कि अब जब लोग टेलीविजन पर अपनी राय देते और बनाते हैं तो उनके दिमाग में मनोरंजन चैनल और न्यूज चैनल को लेकर क्या तस्वीर बनती है। यही सबकुछ जानने की कोशिश में मैंने अपने ब्लॉग के कोने में टेलीविजन का देश भारत नाम से एक छोटी-सी नोट डाल रखी है। इस नोट का एक हिस्सा है- *गांवों का देश,गरीबों का देश,किसानों का देश,अंधविश्वास और पाखंडों का देश,भावनाओं का देश नाम से हिन्दुस्तान और यहां के लोगों बारे में काफी कुछ लिखा गया। मेरी कोशिश है कि अब इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में देखा जाए,ये जानने की कोशिश की जाए कि देश के लोग टेलीविजन को किस रुप में लेते हैं, किस रुप में प्रभावित होते हैं। 2009 में देश के अलग-अलग हिस्सों में करीब एक हजार लोगों से इस संबंध में बात करना चाहता हूं। आपके सहयोग से ये संख्या बढ़ सकती है। मेल के जरिए आप हमें जितनी अधिक राय देंगे,हमें उन लोगों से बात करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा जो नेट पर नहीं आते,टीवी देखते हैं और सीधे सो जाते हैं, टीवी पर बात भी की जा सकती है, ऐसा नहीं सोचते।* एक बड़ी सच्चाई के साथ मैं इस रिसर्च को आगे बढ़ना चाहता हूं कि आप चाहें या न चाहें, आप माने या न माने टेलीविजन का हमारी जिंदगी पर गहरा असर है। जब मैं तीन साल की किलकारी को कार्टून नेटवर्क के बजाय बिग बॉस के लिए मचलता देखता हूं, चार साल की खुशी के सवाल से टकराता हूं कि चाचू काकुल का अफेयर टूट जाएगा क्या, ७६ साल की अपने एक टीचर की अम्मा की बात सुनता हूं कि- बढ़िया है न बेटा, इधर-उधर की लाय-चुगली से तो अच्छा है कि आदमी अपने घर में बैठकर टीवी ही देख ले। कई घरों में गया हूं, बच्चों की मम्मियां बात को टालने के लिए, उसकी जिद से पिंड छुडाने के लिए टीवी के आगे पटक देती है। कई घरों में टीवी आया,चाइल्ड अटेंडर के तौर पर इस्तेमाल में लाए जाते हैं। ये देश की वो ऑडिएंस है जिनके आगे हमारी इन्टलेक्चुअलिटी मार खा जाती है। इसलिए अब जरुरी है कि टेलीविजन से बननेवाले इस समाज पर बहस की जाए, एक नया विमर्श शुरु हो और ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें शामिल हो। २००९ में मैं पूरे साल तक देश के अलग-अलग हिस्सों की ऑडिएंस से बात करना चाहता हूं, मिलना चाहता हूं। शहर से लेकर दूरदराज तक के लोगों से। उनके साथ बैठकर टीवी देखना चाहता हूं,बेतहाशा रिमोट पर दौड़ती उनकी उंगलियों का तर्क समझना चाहता हूं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090102/5984317a/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Jan 3 15:18:47 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 3 Jan 2009 15:18:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkleClhyDgpIbgpJfgpYcg4KSH4KSC4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClgeCkmyDgpK3gpYAg4KSo4KS54KWA4KSC?= Message-ID: <829019b0901030148y1768d3e8ufbfcf3446fa52db5@mail.gmail.com> *टेलीविजन के आगे इंसान कुछ भी नहीं* ** मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो गर्मी में पंखा चलाने के पहले टीवी ऑन करते हैं। घर का दरवाजा खोला और सीधे रिमोट हाथ में थाम लिया। अगर आप उनके साथ हैं, गर्मी से बेचैन हो रहे हों, तब आपका मन नहीं मानता औऱ कहते हैं- जरा पंखा चला दो। उनका जबाब होता है-थोड़ा दम मारो, पहले देख तो लो कि कहां क्या आ रहा है। उन्हें पूरे चैनलों की परिक्रमा करने में करीब ५-६ मिनट लग जाते हैं औऱ मजबूर होकर आप ही पहले बल्ब फिर ट्यूब लाइट औऱ अंत में पंखा चलाते हैं। आगे वो इस बात का खयाल कि हमने अपने घर किसी को साथ में लाया है, भूल जाते हैं, टीवी के नजदीक औऱ आपकी उपस्थिति से जुदा होते चले जाते हैं। आधे घंटे बाद आपको लगने लगता है कि बेकार ही यहां आए, जब टीवी ही देखनी थी तो बेहतर होता, अपने यहां होते, कम से कम मन-मुताबिक प्रोग्राम देखने को तो मिलता। आप आगे से कभी नहीं आने की प्रतिज्ञा के साथ जाने के लिए मचल उठते हैं। इसके ठीक उलट जब ऐसे लोग मेरे यहां आते हैं। अव्वल तो मैं चाहता ही नहीं कि ऐसे लोग मेरे यहां आएं। मैं खुद भी टेलीविजन का कट्टर दर्शक हूं, कुछ भी दिखाओगे, देखेंगे वाली जिद के साथ टीवी देखनेवाला। लेकिन लोगों के रहते मैं टीवी देखना पसंद नहीं करता। बल्कि इस बारे में सोचता भी नहीं कि कोई हमसे मिलने आए और हम टीवी के साथ लगे पड़े हैं। लेकिन ऐसे लोग न चाहते हुए भी आते हैं। उन्हें पता है कि लोगों के रहते मुझे टीवी देखना अच्छा नहीं लगता, इसलिए सीधे-सीधे न कहकर पहले सिर्फ इतना ही कहेंगे- बस, स्कोर पता करके बंद कर देंगे, जरा चालू कीजिए न। मैच के बीच विज्ञापन आ जाएगा, सो फिल्मी चैनलों पर स्विच कर जाएंगे, उसके बाद दस मिनट तक दोनों चैनलों के बीच कूद-फांद मचाते रहेंगे। आगे कुछ कहने की जरुरत नहीं, उनके ठीठपने को दोहराने की कोई जरुरत नहीं। अंत में स्कोर औऱ न्यूज अपडेट्स को भूलकर ये वो देखते हैं जो देखना चाहते हैं। वो एक अलग दौर था, जब हम भाग-भागकर दूसरों के यहां टीवी देखने जाते थे। इसके पीछे दो ही वजह होती, या तो अपने घर में टीवी नहीं होता,टीवी होते हुए भी लाइट जाने पर बैटरी नहीं होती या फिर घर में देखने ही नहीं मिलता। हिन्दूस्तान में टेलीविजन का जब शुरुआती दौर रहा तब लोगों ने इसे सामूहिक माध्यम के रुप में इस्तेमाल किया। एक ही टीवी से पचास-साठ जोड़ी आंखे चिपकी होती, सबके सब रामायण और महाभारत की ऑडिएंस, सबों को बीच में विज्ञापन आने पर खुन्नस होती लेकिन अब करें तो क्या करें, उसे भी देखते रहे। इस कॉमर्शियल गैप में लोग संवाद की स्थिति में आ जाते। औरतें आपस में बातें करने लग जाती- आपके यहां किस ग्वाले के यहां से दूध आता है, एक किलो दूध सुखाने से कितना खोआ बन जाता है, लंगटुआ के पापा बोले कि अबकि बार दू रजाई एक ही बार भरवा लेंगे। बच्चे इस बीच टीवी कार्यक्रमों की नकल करने लग जाते, विज्ञापन की लाइन आगे-आगे बोलते। बगल में बैठी कोई औरत बोल पड़ती- चारे साल में सबकुछ याद रखता है, बच्चा प्रशंसा पाकर फुलकर कुप्पा हो जाता। दस मिनट तक खिसके रहे पल्लू का ध्यान इसी बीच जाता, समीज के उपरी हिस्से पर पिन्टुआ कोढिया टकटकी लगाए हुए है, ध्यान आते ही लड़की दुपट्टे को इसी वक्त संभालती। विज्ञापन खत्म होता और बिना किसी को कुछ कहे लोग एकदम से चुप हो जाते। कई बार तो स्थिति ऐसी भी बनती कि जिस किसी का भई अधूरा गप्प रह जाता वो थोड़ी औऱ देर तक रुक जाती। तब तक उसका बच्चा शक्तिमान,टीपू सुल्तान या फिर चंन्द्रकांता देखता। औऱतों की भी भीड़ रामायण, महाभारत या फिर जय कृष्णा के बाद से छंट जाती। बाद में एक कल्चर-सा हो गया कि इतवार को या फिर शनिवार को सिनेमा देखने का इंतजार लोग इसलिए करते कि इसी बहाने आपस में बोलने-बतियाने का मौका मिल जाता। इसमें भी टीवी देखने से कम रस नहीं मिलता। अब स्थितियां बदली। लोगों के पास लिक्विड मनी बढ़ने के साथ इगो का भी सवाल उठा। अब जिसके पास थोड़ा भी पैसा है उसके लिए टीवी कोई बड़ी बात नहीं। ज्यादा नहीं तो हजार-पन्द्रह सौ में भी अपनी ये शौक पूरी कर लेते हैं। लोगों के पास टीवी खरीदने के बहाने भी अलग-अलग हैं, इसकी चर्चा फिर कभी। लेकिन अब लोगों को पसंद नहीं कि किसी के घर जाकर टीवी देखे औऱ झटाझट चैनल बदलने को टुकुर-टुकुर देखता रहे। टीवी देखने का तो मजा तभी हैजब रिमोट अपने हाथ में हो, एक ही घर में एक से ज्यादा टीवी होने की भी यही वजह है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090103/b7737084/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jan 3 23:29:07 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 3 Jan 2009 23:29:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSo4KWL?= =?utf-8?b?LOCkuOClgeCkqOCliyzgpLjgpYHgpKjgpYs=?= Message-ID: <829019b0901030959x42eb3534l89cd480afc0f7081@mail.gmail.com> दीवान के साथियों अब तक आप मुझे लगातार पढ़ते रहे हैं और मेरे लिखे पर सहमति, असहमति जताते रहे हैं। यही वजह है कि मेरा लिखने का हौसला पिछले डेढ़ सालों से बढ़ता जा है। इसी क्रम में मैंने एक दूसरा ब्लॉग भी शुरु किया है, अभी कुछ ही देर पहले। इस ब्लॉग को शुरु करने के पीछे मेरी नीयत है कि आप पाठकों की जो भी प्रतिक्रिया मिलेगी,वो मेरे रिसर्च के काम आएगी। ये पूरी तरह टेलीविजन पर आधारित ब्लॉग है औऱ खासतौर से मनोरंजन चैनलों औऱ टेलीविजन संस्कृति पर आधारित। फिलहाल तो ये निजी ब्लॉग ही होगा लेकिन कुछ दिनों के बाद इसे कम्युनिटी ब्लॉग के तौर पर डेवलप किया जाएगा। वैसे भी यहां जो भी सवाल उठाए जाएंगे, उसमें सामूहिक सक्रियता अनिवार्य है। ब्लॉग की पोस्ट दीवान पर डाल दी जाएगी लेकिन अगर आप सीधे ब्लॉग पर कमेंट करते हैं तो सुविधा होगी। संभव है आपको एक ही दिन में मेरी ओर से दो पोस्ट पढनी पड़ जाए। फिलहाल नीचे की लिंक पर क्लिक करें और सुझाव दें। विनीत http://teeveeplus.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090103/c4e7e7c8/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Jan 4 11:35:20 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 4 Jan 2009 11:35:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KS54KWH?= =?utf-8?b?LeCkrOCkl+CkvuCkueClhyDgpJXgpL4g4KSo4KSv4KS+IOCkrOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWJ4KSXLSDgpJ/gpYDgpLXgpYAgUExVUw==?= Message-ID: <829019b0901032205of90ccc7w33314f86300684a3@mail.gmail.com> साथियों, टेवीवजिन पर मुक्कमल बातचीत के लिए कल रात मैंने एख नया ब्लॉग शुरु किया है। आमतौर पर हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर स्टिरियो तरीके से कभी सास-बहू सीरियलों को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं तो कभी न्यूज चैनलों के स्वर्ग की सीढ़ी और क्या एलियन पीते हैं गाय का दूध दिखाए जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं। एक आम मुहावरा चल निकला है- इसलिए तो अब हम टीवी देखते ही नहीं है, बकवास है, सब कूड़ा है। लेकिन अव्वल तो टेलीविजन में सिर्फ सास-बहू के सीरियल ही नहीं आते औऱ न ही सिर्फ सांप-सपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी दिखाए जानेवाले चैनल हैं। इसके अलावे हैं भी है बहुत कुछ। टेलीविजन ऑडिएंस काएक हिस्सा वो भी है जो टेलीविजन के इस रुप की आलोचना करते हुए भी टेलीविजन देखना बंद नहीं करते। वो डिशक्वरी, एनीमल प्लैनेट, हिस्ट्री या फिर नेशनल जियोग्राफी जैसे चैनलों का रुख करते हैं। वहां भी वो सो कॉल्ड ग्रैंड नरेटिव के मजे लेते हैं, देश औऱ दुनिया को नेचुरल स्पेस के तौर पर समझने की कोशिश करते हैं। इसलिए मीडिया,जिसमें सूचना और मनोरंजन दोनों शामिल हैं, इऩके बीच टेलीविजन को सीधे-सीधे गरियाना किस हद तक जायज है, इस पर फिर से विचार किया जाना जरुरी है। दूसरी बात समाज का एक बड़ा तपका टेलीविजन को किसी भी तरह की इन्टलेक्चुअलिटी से प्रभावित होकर नहीं देखता। इसमें सिर्फ कम पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जो बौद्धिक स्तर पर समृद्ध होते हुए भी टेलीविजन के उन कार्यक्रमों को देखते हैं जिसे अगर लॉजिकली देखा जाए तो समय बर्बाद न भी कहें तो महज टाइम पास होता है। उन्हें पता होता है कि इसका कोई सिर-पैर नहीं है, वाबजूद इसके वो ऐसे कार्यक्रमों को देखते हैं। क्या कोई दावा कर सकता है कि पढ़े-लिखे लोग इंडिया टीवी के उन कार्यक्रमों को नहीं देखता जिसमें भूत-प्रेत खबर के तौर पर शामिल किए जाते हैं। संभव है ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक न हो लेकिन तय बात है कि टेलीविजन देखने में बौद्धिकता औऱ क्लास फैक्टर काम नहीं कर रहा होता है। किस ऑडिएंस को टेलीविजन में क्या अच्छा लग जाए, इसका कोई ठोस आधार नहीं है, इसलिए एकहरे स्तर पर इसका विश्लेषण भी संभव नहीं है। इससे बिल्कुल अलग वो ऑडिएंस जो अब भी टीवी की सारी बातों को तथ्य के रुप में लेती है। उनके बीच अभी भी ये भरोसा कायम है कि टेलीवजिन दिखा रहा है तो झूठ थोड़े ही दिखा रहा होगा। हॉ, थोड़ा-बहुत इधर-उधर करता है लेकिन असल बात तो सच ही होती है। ये नजरिया आमतौर पर न्यूज चैनलों को लेकर होता है जबकि मनोरंजन चैनलों को वो उम्मीदों की दुनिया के रुप में देखते हैं, रातोंरात हैसियत बदल देनेवाली ऑथिरिटी के रुप में देखते हैं। देश के पांच-छ बड़े शहरों में इसके कार्यक्रमों की ऑडिशन देने आए लोगों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि तकदीर बदल देने, बेहतर जिंदगी देने औऱ जिंदगी का सही अर्थ देने के दावों में टेलीविजन राजनीति से भी ज्यादा असर कर रहे हैं। फिलहाल इस बहस में न जाते हुए भी कि चंद लोगों की तकदीर बदल जाने से भी क्या पूरे देश की तस्वीर बदल जाती है, इतना ही कहना चाहूंगा कि देश की एक बड़ी आबादी इस मुगालते में आ चुकी है। वो टेलीविजन के जरिए विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहती है। बच्चों और टीनएजर्स की एक बड़ी जमात उन विधाओं में जी-जान से जुटी है जिसे की रियलिटी शो में स्पेस मिलता है। एक लड़की की यही तमन्ना है कि जितेन्द्र औऱ हेमा मालिनी जैसे जज उसके बाप के सामने हॉट और सेक्सी कहे। आप औऱ हम जिस टेलीविजन को बच्चों के करियर चौपट कर देने के कारण कोसते रहे, आझ वही टेलीविजन एक रेफरेंस के तौर पर उनके बीच अपनी जगह बना रहा है, उसे देखकर अपनी स्टेप दुरुस्त कर रहा है। पहले के मुकाबले सोशल इंटरेक्शन बहुत कमता जा रहा है। पड़ोस क्या घर के भी लोग टीवी देखते हुए बातचीत नहीं करते, मल्टी चैनलों ने विज्ञापन के बीच के लीजर को खत्म कर दिया है। एक हिन्दी दैनिक ने कुछ दिनों पहले लिखा कि ज्यादातर वो लोग टीवी देखते हैं जो आमतौर पर अकेल और फ्रशटेटेड होते हैं लेकिन इसी दैनिक ने बदलती सामाजिक संरचना औऱ घटते मनोरंजन स्पेस पर एक लाइन भी नहीं लिखा। इसलिए पहले के मुकाबले आज टेलीविजन के विरोध में दिए जाने वाले तर्कों का आधार कमजोर हुआ है औऱ ये हमारी जिंदगी में पहले से ज्यादा मजबूती से शामिल होता चला जा रहा है। कल की पोस्ट पर घुघूती बासुती ने लिखा कि ये अब घर का देवता होता जा रहा है, लेकिन कुछ घरों में ये जगह कम्प्यूटरों ने ले ली है। लेकिन कम्पयूटर पर शिफ्ट हो जानेवालों की संख्या टीवी के मुकाबले कुछ भी नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति ये है कि टेलीविजन एक स्वतंत्र संस्कृति रच रहा है जो कि इस दावे से अलग है कि अगर ये नहीं होता तो भी संस्कृति का यही रुप होता। हम जिसे संस्कृति का इंडीविजुअल फार्म कह रहे हैं, उसे रचने में टेलीविजन लगातार सक्रिय है। इसलिए मेरी कोशिश है कि टेलीविजन को लेकर लोग अपनी-अपनी राय जाहिर करें, इस पर एक नया विमर्श शुरु करें। नए ब्लॉग टीवी प्लस ( http://teeveeplus.blogspot.com/) शुरु करने के पीछे यही सारी बातें दिमाग में चल रही थी। पहले तो हमने सोचा कि इस पर गाहे-बगाहे पर ही लिखा जाए लेकिन बाद में लगा कि व्यक्तिगत स्तर पर शुरु किया गया ये ब्लॉग कुछ महीनों बाद एक साझा मंच बने। लोग बेबाक ढंग से टेलीविजन, मनोरंजन, संस्कृति और लीजर पीरियड पर अपनी बात औऱ अनुभव रख सकें। इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में विश्लेषित करने पर समाज का कौन-सा रुप उभरकर सामने आता है, इसे जान-समझ सकें। मेरी ये कोशिश आपके सामने है, आप बेहिचक अपने सुझाव दें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090104/59b67502/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jan 4 22:49:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 4 Jan 2009 22:49:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSv4KSV4KS+4KSwIOCkpOCliyDgpIXgpK7gpLAg4KS54KWL?= =?utf-8?b?IOCknOCkvuCkpOClhyDgpLLgpYfgpJXgpL/gpKgg4KSJ4KSo4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCkmuCksOCkv+CkpOCljeCksOCli+CkgiDgpJXgpL4g4KSV4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <829019b0901040919k17cd93f0h8ac89b44a1a942f0@mail.gmail.com> * साहित्यकार तो अमर हो जाते हैं लेकिन उनके चरित्रों का क्या* एनडीटीवी इंडिया पर पंकज पचौरी ने भावुक अंदाज में बताया कि कभी अमर चरित्र गढ़ने वाले तीसरी कसम के लेखक रेणुजी की पत्नी आज खुद एक चरित्र रह गयी है। रेणु की पत्नी लतिकाजी की स्थिति नाजुक है औऱ वो इन दिनों पटना के एक अस्पताल में पड़ी हैं। चैनल ने जो विजुअल्स दिखाए उससे लगा कि झरझरा चुके शरीर के भीतर भी व्यवस्था को लेकर कितना रोष है, वो बार-बार नहीं-नहीं कह रही थी। किस बात पर ऐसा कह रही थी, स्पष्ट नहीं हो पा रहा था लेकिन चेहरे पर बजबजायी हुई नाली और उसमें जमे कादो को देख लेने का जो भाव होता है, कुछ-कुछ वैसा ही भाव आ-जा रहे थे। संभव है ये भाव उन आलोचकों के लिए हों जो रेणु की रचनाओं पर आलोचना की किताबें लिखने के बाद बिसर गए, कहां से और कितनी रॉयल्टी मिल जाए, इस गणित में लग गए, अपने आलोचकीय कर्म की डंका पीटने में लग गए कि मैला आंचल, परती-परिकथा, पल्टू बाबू रोड, ठुमरी औऱ ऐसी दर्जनों रचनाएं इसलिए पॉपुलर हुई क्योंकि हमने पाठकों के बीच इसकी समझदारी पैदा की। नहीं तो यूनिवर्सिटी औऱ कॉलेजों में पढ़नेवाले लोगों को कहां मेरीगंज और पूर्णिया की भदेस बोली समझ आती। संभव है लतिकाजी उन प्रकाशकों को याद करके उबकाई आ रही हो जो रेणु की रचनाओं की रॉयल्टी की रकम को वृद्धा पेंशन में कन्वर्ट करते रहे हैं जबकि पीछे से उनकी रचनाओं को सहेजने और कालजयी कृतियां घोषित करने में व्यस्त हैं। पाठक उनकी किसी भी रचना से महरुम न हो जाए, उनके जीवन के किसी भी प्रसंग को जानने से जुदा न रह जाए इसके लिए रचनावली तैयार करने में लगे हैं। उनकी कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों को ही नहीं, घरेलू चिठ्ठियों को भी प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं ताकि पाठक रेणु के रेणु बनने के पीछे लगी खाद-मिट्टी की तासीर को समझ सके। प्रकाशक रेणु की एक-एक चीज को सहेजना चाहते हैं, संभव है लतिकाजी को उनके इसी रवैये पर घिना जा रही हों। एक वजह ये भी हो सकती है कि लतिकाजी हम जैसे पाठकों के होने के आभास की वजह से मिचला जाती है औऱ उल्टियों का चक्र शुरु हो जाता हो जो हाफिज मास्टर, लक्ष्मी दासिन, वामनदास जैसे चरित्रों से गुजरते हुए आंखों के कोर पोछने लग जाते हैं। हम एक स्वर में कहते हैं....सचमुच इस तरह के चरित्रों को गढ़कर रेणु ने अपना करेजा निकालकर बाहर रख दिया है, रेणु ने इन चरित्रों को जिया है। इन चरित्रों में लतिकाजी भी शामिल होती। रेणु ने अपनी रचनाओं में जहां-तहां अपनी पत्नी को एक चरित्र के रुप में देखा है। हम इन पर आंखों के कोर पोछते रहे हैं। बल्कि पाठकों के होने के आभास की वजह से तो लतिकाजी ज्यादा उबकाई महसूस करती होंगी क्योंकि आलोचक और प्रकाशकों की संख्या तो सीमित है और फिर उनकी पहचान भी निर्धारित है लेकिन पाठकों की तो कोई निश्चित पहचान तक नहीं। कौन-सा पाठक किस चरित्र को लेकर जार-जार हुआ है, इसका भला क्या हिसाब हो सकता है। औऱ कोई व्यक्ति रेणु को पढ़ा भी है या नहीं, लतिकाजी को भला इसकी जानकारी कैसे होगी। उन्हें तो बस इतना पता है कि उनके रेणुजी देश के महान साहित्यकार रहे हैं, दुनियाभर के लोग उन्हें जाननेवाले हैं। इसलिए किसी के भी आने पर लतिकाजी घृणा से मुंह फेर लेती है तो इसमें गलत क्या है। एम ए के दौरान रेणु को दो लोगों से पढ़ा। एक तो हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय से जिनकी एक लाइन अभी तक याद है कि- रेणु ने जिस गांव को अपने उपन्यासों में देखा है वो ट्रेन की सीट पर बाहर की ओर टकटकी लगाकर देखा गया गांव नहीं है और न ही हवाई दौर का सर्वेक्षण है। रेणु गांव की पगडंडियों से होकर गुजरते हैं, कीचड़-कादो में धंसकर आगे बढ़ते हैं.....स्वयं रेणु के शब्दों में कहें तो जिसमें धूल भी है और शूल भी। दूसरी किरोड़ीमल कॉलेज की विद्या सिन्हा मैम। उऩका रेणु के उपन्यासों पर पीएचडी थी। वो भदेस जीवन औऱ धूल-धूसर जमीन के बीच से विदूषक औऱ जीवट चरित्रों की खोज की वजह से रेणु की कायल थीं। हम उनके सुंदर और सचेत मुखड़े पर मेरीगंज के अंगूठा छाप लोगों के लिए दर्द औऱ अफसोस की रेखाएं देखते तो एक अलग ढंग का सुकून मिलता।एक भरोसा जमता कि रेणु ने अपनी रचनाओं के जरिए संभ्रांत लोगों के दिल में भी वंचित औऱ दाने-दाने को कलटने वाले लोगों के प्रति संवेदना पैदा करने का काम किया है। लतिकाजी आज मेरी इस समझ पर भी थूक रही होंगी और क्या पता पैंतालिस से पचास मिनट तक संवेदना की मूर्ति बने देश के हजारों टीचरों पर भी जो हर साल लाखों लोगों को ये पाठ पढ़ाने का काम करते हैं- डॉक्टर प्रशांत ने बीमारी की वजह ढूंढ ली है, इसकी एक ही वजह है गरीबी औऱ जहालत।( मैला आंचल की लाइन जिसके आगे टीचर अपनी तरफ से जोड़ देते हैं....और इसे दूर किए बिना देश का कुछ नहीं हो सकता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090104/a0fa2bbf/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Jan 6 14:48:41 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 6 Jan 2009 14:48:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSo4KWH?= =?utf-8?b?4KSu4KS+IOCkleClhyDgpK3gpYDgpKTgpLAg4KSV4KS+IOCkn+Clhw==?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KS14KS/4KSc4KSo4KSDIOCkuOCkguCkpuCksOCljeCkrSA=?= =?utf-8?b?4KSX4KSc4KSo4KWA?= Message-ID: <829019b0901060118s3504b699l57d2670330edb6ba@mail.gmail.com> *सिनेमा के भीतर का टेलीविजनः संदर्भ गजनी* गजनी फिल्म में मीडिया पार्टनर देश का एक बड़ा टेलीविजन चैनल समूह है, बल्कि देश का ही नहीं दुनिया के बड़े टेलीविजन समूह में इसका नाम है। फिल्म की मुख्य चरित्र कल्पना, पच्चीस लड़कियों के अपकरण किए जाने का विरोध करती है और किसी तरह उन्हें गुंड़ों औऱ दलालों से बचाकर वापस सुरक्षित मुंबई ले आती है। इस घटना को मीडिया पार्टनर होने के नाते चैनल अपनी धारदार शैली में दिखाता है कि बच्चियों का व्यापार शहर में तेजी से चल रहा है और इसके पीछे कुछ बड़े लोगों का हाथ है। फिर कल्पना ने उसे बचाया, उसकी बात की जाती है, कल्पना के बारे में बताया जाता है और उसकी तस्वीर मीडिया में छा जाती है। पच्चीस लड़कियों के एक ही साथ हाथ से निकल जाने और इससे भारी नुकसान होने वाले लोगों को अपने दुश्मन का पता लग जाता है और वो कल्पना की फ्लैट को चारों तरफ से घेर लेते हैं। बड़ी बेरहमी से कल्पना की हत्या कर दी जाती है . गजनी फिल्म को देखने के बाद बाहर मेरे साथ वो लोग भी हो लिए जो सत्तर रुपये की टिकटें लेकर उपर फिल्म देख रहे थे। मैं नीचे था। फिल्म कैसी थी, इस चर्चा होती, इसके पहले ही एक ने कहा- क्या विनीतजी आप मीडिया के लोगों ने मरवा दिया न कल्पना, कितना अच्छा काम करती थी, अंधों को रास्ता पार करवाती थी, विकलांग बच्चियों को म्यूजियम के अंदर तक छोड़ आती थी, पुरुषों के हवश की शिकार हुई लड़कियों को पनाह देती थी औऱ आप मीडियावाले उसे टीवी पर दिखा-दिखाकर मरवा दिए, हद आदमी हैं महाराज आपलोग, आपके भीतर कलेजा नहीं धड़कता है क्या। मैं उस समय सिर्फ इतना ही कह पाया कि भई जिस बात के लिए आप मुझे जिम्मेवार ठहरा रहे हैं, मैं तो उसमें शामिल भी नहीं हूं औऱ फिर टेलिविज़न में कल्पना को इसलिए दिखाया गया कि देश की और भी लड़कियां, स्त्रियां उसकी तरह बन सके, विरोध करने का साहस पैदा कर सके, समाज में ये मैसेज पहुंचे कि उनके विरोध करने से चीजें पॉजिटिव तरीके से बदल सकती है। उन्होंने कहा- खैर, छोडिए,मैं तो मजाक कर रहा था, आप बेकार में ही सेंटी हुए जा रहे हैं। लोकिन एक बात फिर कहता हूं कि आप ही बताइए कि देश की कितनी लड़कियों को ये सीख मिली होगी कि समाज सेवा का काम हमेशा अच्छा होता है, उसको ये समझ में नहीं आया होगा कि बीच में टांग फंसाएंगे तो कल्पना की तरह बेमौत मारे जाएंगे, वो कल्पना जो अभी नई जिंदगी शुरु करती कि उससे पुरानी जिंदगी भी छिन ली गई। मैं कुछ कहता, इसके पहले ही बाकी के सारे लोग उसकी हां में हां मिलाने लग गए और कहा- एकदम सही बात कह रहा है। टेलीविजन किसी के गुंडे से, दलाल से, साम्प्रदायिक ताकतों से और देश के दुश्मनों से घिर लोगों को बचानेवाले की बात करता है तो क्या वो स्टोरी को उस रुप में स्थापित कर पाता है जिससे ये लगे कि हमें भी हिम्मती होना चाहिए, हमें भी समाज के पक्ष के लिए काम करना चाहिए। ये सारी बातें मजाक में ही बड़े ही कैजुअल तरीके से होती रही लेकिन ये भी सच है कि सिर्फ एकलाइन कह देने के बाद कि अगर गजनी से आमिर खान को निकाल दो तो बाकी फिल्म में डब्बा है, सब चुप हो गए। सारी बहस इस बात पर आकर अटक गयी कि देश को दलालों से बचानेवाले लोगों की स्टोरी दिखानेवाले चैनल और टेलीविजन उनके लेकर कितने संजीदा होते हैं। क्या उस इंसान के प्रति उस अर्थ में संवेदनशील होते हैं कि उसे लगे कि भविष्य में भी हमें और भी बेहतर काम करने चाहिए। गजनी फिल्म के भीतर जो टेलीविजन है उसमें कल्पना की स्टोरी समाज से उटाकर पेश नहीं की गयी, इसलिए चाहें तो ऑडिएंस निश्तिंत हो सकते हैं कि ये कहानी कि डिमांड रही कि एक समय के बाद कल्पना की हत्या होते दिखाना है। चैनल को ये सबकुछ दिखाना है क्योंकि वो इस फिल्म का मीडिया पार्टनर है, इसलिए कोई उससे भी जबाब तलब नहीं कर सकता कि आपने स्टोरी को उस रुप में दिखाकर जान क्यों ले ली। सबकुछ प्रोड्यूसर की इच्छा पर है और ये सबकुछ फिल्म के भीतर हुआ है इसलिए आप किसी को कल्पना की मौत के लिए अकाउंटेबल नहीं ठहरा सकते। लेकिन क्या इस बात पर बहस की गुंजाइश है कि चैनल जिसे रातोंरात समाज को हीरो साबित करना चाहता है, जाहिर है ये काम टीआरपी बटोरने के लिए किए जाते हैं। इससे दोहरा लाभ होता है- एक तो ज्यादा से ज्यादा लोगों के ओसी स्टोरी देखने से चैनल की टीआरपी बढ़ती है औऱ दूसरा कि इससे चैनल की ब्रांड इमेज भी बनती है कि वो वो सोशली कितना कमिटेड है। किसी भी फिल्म में किसी भी चैनल के मीडिया पार्टनर या टीवी पार्टनर बनने के पीछे यही स्ट्रैटजी काम कर रही होती है कि फिल्म देखनेवाली ऑडिएंस इस सोशल कमिटमेंट वाले फंडे से जुडेगी और चैनल की व्यूअरशिप बढ़ेगी। लेकिन अगर कोई ऑडिएंस फिल्म की कहानी से चैनल को जोड़कर देखने लग जाए, जैसा कि कल मेरे साथ देखनेवाले लोगों ने देखकर किया और फिल्म के निष्कर्ष को रीयल लाइफ के निष्कर्ष के तौर पर देखने लगे तो चैनल के लिए बड़ा ही फजीहत वाला मामला है। फिल्म के निष्कर्ष को रियल लाइफ से जोड़कर देखना बहुत मुश्किल काम नहीं है। ये जानते हुए कि फिल्म फिल्म हौ औऱ जिंदगी जिंदगी, तोभी बस एक लाइन ही इस्तेमाल करना होता है- अजी, बिना समाज में कुछ घटित हुए थोड़े ही फिल्म बनती है। वो भी तब जब मधुर भंडारकर रीयल सिचुएशन पर पेथ थ्री, कॉरपोरेट, फैशन जैसी फिल्में बनाते हैं। राम गोपाल वर्मा होटल ताज औऱ नरीमन हाउस के परखच्चे उड़ी दीवारों और फर्नीचर को देखने जाते हैं। तो इसका मतलब क्या निकाला जाए कि सिनेमा के भीतर के टेलीविजन और चैनल को देखकर देश की ऑडिएंस ( भले ही ये संख्या बहुत छोटी हो) ये मानती है कि टेलीविजन और चैनल, समाज के विरोधी ताकतों से लड़नेवाले लोगों को मुसीबत में ड़ाल देती है, अपनी टीआरपी की खातिर, ब्रांड इमेज की खातिर। फिल्म में ही सही लेकिन ऐसे ही अपनी स्टोरी चमकाने के लिए रिपोर्टर ने कृष की जान मुसीबत में डाल दी थी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090106/64e5bccc/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Jan 7 12:04:08 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Wed, 7 Jan 2009 12:04:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkruClgOCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCcg4KSV4KS+IOCkrOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWJ4KSXIOCkheCkguCklQ==?= Message-ID: <196167b80901062234i10f9a784n2b5dce2663988158@mail.gmail.com> *'मीडिया स्कैन' का ब्लॉग अंक* 'मीडिया स्कैन' का जनवरी अंक 'ब्लॉग' स्पेशल होगा. साक्षात्कार : अविनाश, रविश कुमार आलेख: अनिल पुसदकर, संजय तिवारी, अविनाश वाचस्पति, संजीव कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, विनीत कुमार दस्तावेज: नारद कथा (लेखक - जीतेन्द्र जी) (इस अंक का संपादन गिरीन्द्र नाथ (०९८६८०८६१२६) ने किया है.) हिमांशु शेखर (संपादक - मीडिया स्कैन) ०९८९१३२३३८७ आप चाहें तो अंक के सम्बन्ध में इनसे बात भी कर सकते हैं. उम्मीद है ब्लॉग बंधू -बांधव इस अंक को सराहेंगे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090107/c3a362a7/attachment.html From rakesh at sarai.net Fri Jan 9 10:19:41 2009 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Fri, 09 Jan 2009 10:19:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSu4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSVIOCkuOCkguCkmOCksOCljeCkt+Cli+CkgiDgpJXgpYsg4KS4?= =?utf-8?b?4KSC4KSs4KSyIOCkquCljeCksOCkpuCkvuCkqCDgpJXgpLDgpKTgpYcg4KSs?= =?utf-8?b?4KWN4oCN4KSy4KWJ4KSX?= Message-ID: <4966D765.2040106@sarai.net> 'मीडियास्कैन' टीम के कहने पर अख़बार के जनवरी अंक के लिए ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों पर एक लेख मैंने लिखा था. संभवत: स्थानाभाव के चलते अख़बार में लेख अधूरा छप पाया. हां, ज़रा ध्यान से संपादकीय कैंची चली होती तो कम-से-कम लेख का मूल तर्क पाठकों तक जा पाता. बहरहाल, संपादन के सांस्थानिक महत्त्व का आदर करते हुए 'मीडियास्कैन' में छपे 'सामाजिक संघर्षों को सबलता' का असली प्रारूप दीवानों के लिए पेश कर रहा हूं. सामाजिक संघर्षों को संबल प्रदान करते ब्‍लॉग मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्‍लॉग की ने तमाम किस्‍मों की अभिव्‍यक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्‍यक्तिगत तौर पर लोग ब्‍लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्‍लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्‍लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्‍लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्‍लॉगिंग हिट है. सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्‍लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्‍वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असह‍मति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्‍लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्‍यक्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्‍लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है. उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्‍लॉगगिरी अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्‍थाओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्‍लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्‍कृति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्‍टाचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग. मिसाल के तौर पर /सफ़र/ (safarr.blogspot.com) की स्‍वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्‍कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्‍मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्‍वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्‍पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता /सूचना का अधिकार/ (rtihindi.blogspot.com) संबंधित क़ानून, इसके इस्‍तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्‍मरण, रपट, इत्‍यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्‍पलाइन नंबर *09718100180** *दर्ज है*. /जमघट/ (**jamghatfamily.blogspot.com **तथा **jamghat.blogspot.com**) सड़कों पर भटकते बच्‍चों के एक अनूठे समूह के रचनात्‍मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्‍यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्‍लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है. *** *वक़्त हो तो एक मर्तबा /यमुना जीए अभियान/ (**yamunajiyeabhiyan.blogspot.com**) पर हो आइए. यहां आपको दिल्‍ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्‍यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्‍यादि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन /दिल्‍ली ग्रीन/ (**delhigreens.com**) पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्‍दी में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्‍पी साध रखी हैं. *** */समता इंडिया/** (**samatha.in**) दलित प्रश्‍नों व ख़बरों से जुड़े ब्‍लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्‍या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. /स्‍वच्‍छकार डिग्निटी/ (**swachchakar.blogspot.com**) पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा सं‍कलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्‍मपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘*धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ...उडने लगे ..आँधी बन जाए ..तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्‍यल्‍प समय में चोखेर बाली (sandoftheeye.blogspot.com) स्‍त्री-साहित्‍य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्‍थापित हो चुकी है. ** *छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्‍तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है /कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़/ (**cpjc.wordpress.com**). इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्‍त जानकारी संग्रहित है. /आनि सिक्किम रंचा/ (**weepingsikkim.blogspot.com**) उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्‍़यादा दिनों से स्‍थानीय लोग तीस्‍ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्‍ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्‍तावेज़ है. /काफिला /(**kafila.org**) अंग्रेजी में सक्रिय एक विशिष्‍ट किस्‍म का ब्‍लॉग है. आज की दुनिया के ज्‍वलंत प्रश्‍नों, मसलों और विचारों पर चिंतन-मनन करने वालों की एक टीम विचारोत्तेजक लेख, विवरण, संस्‍मरण, इत्‍यादि के मार्फ़त नियमित रूप से इसे संवर्द्धित करती रहती है, और जमकर बहसें होती हैं. *** *सामाजिक सरोकारों को लेकर कई बार आनन-फ़ानन में भी कुछ ब्‍लॉग्स अस्तित्‍व में आते हैं और अपना छाप छोड़ जाते हैं. पिछले सालों में आए सुनामी, भूकंप और हालिया बाढ़ के बाद ऐसे कई ब्लॉगों का जन्‍म हुआ. इनमें से कुछ असरदार भी रहे. मिसाल के तौर पर दिल्‍ली स्‍कूल ऑफ़ सोशल वर्क द्वारा आरंभ किए गया /बिहार फ़्लड रिलीफ़/ (**dswdu.blogspot.com**) बाढ़ग्रस्‍त इलाक़ों में तबाही की मंज़रबयानी और वहां चलाए जा रहे राहत और पुनर्वास कार्यों का एक अक्षुण्‍ण दस्‍तावेज़ बन चुका है. /दास्‍तानगोई /(**dastangoi.blogspot.com**) किस्‍सागोई की लुप्‍तप्राय हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक अनूठा प्रयास है. * *खालिस विचार प्रचार और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की जमात में /जनवादी लेखक संघ/ (**jlsindore.blogspot.com**) और /हितचिंतक/ (**hitchintak.blogspot.com**) जैसे ब्लॉगों का नाम शामिल है. पहले वाला जनवादी लेखन का सायबरी अभिलेखागार तैयार कर रहा है और बाद वाला ख़ुद को कट्टर दक्षिणपंथी विचारों के मार्फ़त *राष्‍ट्रवाद एवं लोकतंत्र की रक्षा में समर्पित बताता है. यहां यह ग़ौरतलब है कि सामाजिक सरोकारों पर जितने ब्‍लॉग अंग्रेज़ी में दिखते हैं उतने हिन्‍दी में नहीं. सामाजिक संघर्षों, आंदोलनों या संस्‍थाओं के द्वारा चलाए जा रहे ब्‍लॉगों की कुछ सी‍माएं भी हैं. मसलन, कई तो महीनों बाद अपडेट होते हैं, कईयों की पक्षधरता इतनी कट्टर होती है कि वे विवेकशीलता और तर्कपरकता से कोसों दूर चलते नज़र आते हैं. मैं एक बार फिर अपने शुरुआती दलीलों की ओर लौटना चाहता हूं. वो ये कि ख़ुद को किसी मुद्दा विशेष पर समर्पित होने का दावा करने वाला ब्‍लॉग ही उस मसले को नहीं उठा रहा होता है, कभी-कभी व्‍यक्तिगत ब्‍लॉगों पर छप रहे लोगों के अनुभवों से भी उस मसले को बल मिल रहा होता है और संघर्ष की ज़मीन तैयार हो रही होती है. ऐसे तमाम ब्‍लॉग मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. ज़रूरी तकनीकि और शब्दावली की अनुपस्थिति में इंटरनेट पर हिंदी का आज भी सपना ही होता. और इस लिहाज़ से कुछ लोगों के काम संस्‍थाओं पर भी भारी पड़ते हैं. रविशंकर श्रीवास्‍व उर्फ़ रवि रतलामी और देवाशीष चक्रवर्ती उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिन्‍होंने इंटरनेट पर हिंदी के लिए के आवश्‍यक तकनीकि और भाषाई विकास में ऐतिहासित भूमिका अदा की और आज भी कर रहे हैं. हिन्‍दी के ब्‍लॉगल खिलाडि़यों को जब कोई परेशानी होती है तब /रवि रतलामी का हिन्‍दी ब्‍लॉग/ (raviratlami.blogspot.com) उनको राहत प्रदान करता है, जबकि देवाशीष के /नुक्‍ताचीनी /(nuktachini.debashish.com) पर नए-नए तकनीकि संबंधी पर्याप्‍त जानकारी होती है और निरंतर (nirantar.org) तो ठीक-ठाक ब्‍लॉगज़ीन बन चुका है. सा‍माजिक सरोकारों की रोशनी में ब्‍लॉग पर चर्चा करते पर /मोहल्‍ला/ (mohalla.blogspot.com) को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है और न ही /हिन्‍दयुग्‍म/ (hindyugm.com) को. वृहत्तर सामाजिक हित के मसलों पर चर्चा और उतनी ही तीखी टिप्‍पणियां मोहल्‍ला पर ही संभव है. जबकि हिन्‍दयुग्‍म ने ख़ुद को इंटरनेट पर हिन्‍दी की रफ़्तार बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण से लेकर साहित्‍य सृजन के अद्भुत मंच के रूप में स्‍थापित किया है. From vineetdu at gmail.com Fri Jan 9 12:45:57 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 9 Jan 2009 12:45:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSuIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkleCkriDgpLngpILgpJfgpL7gpK7gpL4g4KSk4KWLIOCklg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KS+IOCkueCliw==?= Message-ID: <829019b0901082315lb712e05ncedbae95d90dfafe@mail.gmail.com> गंभीर लेखन और साहत्य के बूते क्रांति की उम्मीद करनेवालों के लिए ब्लॉगिंग में कुछ नया नहीं है। बल्कि इसे तो वो क्रिएटिव एक्टिविटी मानने से भी इन्कार करते हैं। ऐसे लोगों में आपको नामवर सिंह से लेकर दर्जनों नामचीन साहित्यकार मिल जाएंगे। पढ़े-लिखे लोगों के बीच अब भी एक बड़ा समाज बचा हुआ है जो कि प्रिंट माध्यम को अभी भी सबसे ज्यादा प्रभावी और बेहतर मानता है। बाकी सबकुछ तकनीक के दम पर कूदनेवाली हरकत भर है। इसलिए कुछ लोगों के लिए, मुझे पता नहीं कि उन्होंने कभी ब्लॉगिंग और चैटिंग की है भी या नहीं लेकिन दोनों को एक ही तरह की चीज मान बैठते हैं। इनके हिसाब से जैसे चैटिंग एक लत है कुछ इसी तरह से ब्लॉगिंग भी। इसलिए किसी के ब्लॉग में सक्रिय होने को वो ब्लॉगिया जाना कहते हैं। अगर उन्हें बताया जाए कि फलां बुद्धिजीवी आदमी है, सामयिक चीजों पर उनकी अच्छी पकड़ है तो उनके नकार का एक ही आधार बनता है- अरे, वो तो ब्लॉगर है, इस तरह से लिखने का कोई अर्थ नहीं है। न कोई एवीडेंस, न अकाउन्टविलिटी और न ही किसी तरह का गंभीर अध्ययन है। लिखने दो, जिसको जो जी में आए, इससे कुछ नहीं होनवाला, कुछ भी नहीं बदलने वाला। लेकिन कंटेट के स्तर पर ब्लॉगिंग ने तेजी से अपने हाथ-पैर पसारने शुरु कर दिए हैं और मीडिया, साहित्य, देश और दुनिया की तमाम हलचलों से अपने को जोड़ा है, गाहे-बगाहे गंभीर औऱ प्रिंट लेखन के मोहताज रहनेवाले लोग भी उपरी तौर पर ब्लॉगिंग को नकारनेवाले लोग गुपचुप तरीके से इसके भीतर की चल रही हलचलों को जानने के लिए बेचैन जान पड़ते हैं। आए दिन फोन पर लोग मोहल्ला, चोखेरबाली,भड़ास, गॉशिप अड्डा सहित सैकड़ों ब्लॉगों की पोस्टिंग के बारे में चर्चा करते नजर आते हैं। मैंने यूनिवर्सिटी कैंपस में दर्जनों रिसर्चर को अपने गाइड और करियर गुरु के लिए इन ब्लॉगों की पोस्टिंग के प्रिंटआउट लेते देखे हैं। अपने बारे में कुछ भी पोस्ट होने पर उसकी प्रिंट प्रति के लिए छटपटाते हुए देखा है। आपलोग दिल्ली में बैठकर हम छोटे साहित्यकारों के बारे में क्या सब लिखते-रहते हैं, फोन पर अधीर होते हुए देखा है। इसलिए अब जब कोई ब्लॉगिंग की ताकत, उसके असर और उसके हस्तक्षेप के सवाल पर बात करता है तो मुस्कराना अच्छा लगता है. मेरे सहित देशभर में हजारों ऐसे हिन्दी ब्लॉगर हैं और आनेवाले समय में होंगे जो इस मुगालते से मुक्त हैं कि वो ब्लॉगिंग करके कोई क्रांति मचा देंगे। एस मामले में हम ब्लॉग विरोधियों के सुर के साथ हैं। हम रातोंरात सूरत बदल देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। देश की करोड़ों अधमरे, आधे पेट खाकर जीनेवालें लोगों के बीच कीबोर्ड के दम पर उनके बीच हौसला भर देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। ब्लॉग पर निजीपन और संवेदना की दुहाई देते हम एक संवेदनशील और मानवीय समाज बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं, इस बात पर भी शक है। तो फिर क्यों कर रहे हैं ये सब। ब्लॉगिंग के विरोधियों की छटपटाहट को देखते हुए, इससे चोट खाकर तिलमिलाए हुए लोगों को देखकर कहूं तो हंगामा खड़ा करने के लिए। सही कह रहा हूं, हंगामा खड़ा करने के लिए, क्योंकि उत्तर-आधुनिक परिवेश में कुछ भी बदलने के पहले विमर्श और क्रांति का आधार तय करने के पहले हंगामा खड़ा करना जरुरी है। अभी तक का अनुभव यही है कि ब्लॉगिंग ने अपने भीतर ये ताकत पैदा कर ली है कि वो मुद्दों को लेकर हंगामा खड़ी कर दे...आगे देखा जाएगा। *दोस्ती यारी में ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया मीडिया स्कैन,जनवरी के अतिथि संपादक गिरीन्द्र ने छापी है* साभारः मीडिया स्कैन -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090109/056ef6ca/attachment-0001.html From anna at sarai.net Fri Jan 9 12:49:41 2009 From: anna at sarai.net (Anna Jay) Date: Fri, 9 Jan 2009 12:49:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKzgpL8=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSwIOCkleClhyDgpLjgpK7gpL7gpJrgpL7gpLAg4KSq4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw?= References: Message-ID: यह pramodrnjn at gmail.com से भेजा गया था: Begin forwarded message: > From: deewan-bounces at mail.sarai.net > Date: January 9, 2009 12:50:11 PM GMT+05:30 > To: anna at sarai.net > Subject: Forward of moderated message > > > > बिहार से इस समय मुख्य > रूप से ६ हिंदी दैनिक > समाचार पत्र प्रकाशित > होते हैं. > इनमें से पांच के > संपादक ब्राह्‌मण हैं. इन > छह समाचार पत्रों में > ब्यूरो प्रमुख > के पदों पर काबिज लोगों > में ४ ब्राह्‌मण १ > भुमिहार व एक राजपूत हैं. > यही हाल > टीवी चैनलों का भी है. > बिहार में हिंदी, > अंग्रेजी समाचार पत्रों, > टीवी चैनलों > में शीर्ष पदों पर १०० > फीसदी हिंदुओं का कब्जा > है. इनमें ९९ प्रतिशत > द्विज हैं. > पिछड़ी जाति का कोई भी > पत्रकार फैसला लेने वाले > पद पर नहीं है. इन पदों पर > दलित, > मुसलमान व महिलाओं की > उपस्थिति शून्‍य है. अब > सवाल यह उठता है कि बिहार > की इस > द्विज पत्रकारिता ने > किसका हित साधा है? किसने > इसका उपयोग किया है? इसके > अपने > राग-द्वेष क्या हैं? > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090109/82c9aa3e/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Sat Jan 10 02:52:18 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 9 Jan 2009 15:22:18 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <21327860.1751861231536138858.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// सामाजिक संघर्षों को संबल प्रदान करते ब्लॉग Posted: 08 Jan 2009 11:36 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/506921253/blog-post.html 'मीडियास्कैन' टीम के कहने पर अख़बार के जनवरी अंक के लिए ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों पर एक लेख मैंने लिखा था. संभवत: स्थानाभाव के चलते अख़बार में लेख अधूरा छप पाया. हां, ज़रा ध्यान से संपादकीय कैंची चली होती तो कम-से-कम लेख का मूल तर्क पाठकों तक जा पाता. बहरहाल, संपादन के सांस्थानिक महत्त्व का आदर करते हुए 'मीडियास्कैन' में छपे 'सामाजिक संघर्षों को सबलता' का असली प्रारूप यहां पेश कर रहा हूं. मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्लॉग की ने तमाम किस्मों की अभिव्यलक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्लॉगिंग हिट है. सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असहमति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्य क्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है. उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्लॉगगिरी अभिव्यक्ति के माध्य म से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्थाहओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्कृगति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्टारचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग. मिसाल के तौर पर सफ़र की स्वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता सूचना का अधिकार संबंधित क़ानून, इसके इस्तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्मारण, रपट, इत्यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्पसलाइन नंबर 09718100180 दर्ज है. जमघट सड़कों पर भटकते बच्चों के एक अनूठे समूह के रचनात्मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है. वक़्त हो तो एक मर्तबा यमुना जीए अभियान पर हो आइए. यहां आपको दिल्ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्या़दि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन दिल्ली ग्रीन पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्दीं में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्पी साध रखी हैं. समता इंडिया दलित प्रश्नों व ख़बरों से जुड़े ब्लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. स्वरच्छकार डिग्निटी पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा सं‍कलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्मरपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ... उडने लगे ... आँधी बन जाए ... तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्यल्प समय में चोखेर बाली स्त्री-साहित्य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्थापित हो चुकी है. छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़. इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्त जानकारी संग्रहित है. आनि सिक्किम रंचा उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्यादा दिनों से स्थानीय लोग तीस्ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्तावेज़ है. काफिला अंग्रेजी में सक्रिय एक विशिष्ट किस्म का ब्लॉग है. आज की दुनिया के ज्वलंत प्रश्नों, मसलों और विचारों पर चिंतन-मनन करने वालों की एक टीम विचारोत्तेजक लेख, विवरण, संस्मरण, इत्यादि के मार्फ़त नियमित रूप से इसे संवर्द्धित करती रहती है, और जमकर बहसें होती हैं. सामाजिक सरोकारों को लेकर कई बार आनन-फ़ानन में भी कुछ ब्लॉंग्स अस्तित्व में आते हैं और अपना छाप छोड़ जाते हैं. पिछले सालों में आए सुनामी, भूकंप और हालिया बाढ़ के बाद ऐसे कई ब्लॉगों का जन्म हुआ. इनमें से कुछ असरदार भी रहे. मिसाल के तौर पर दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क द्वारा आरंभ किए गया बिहार फ़्लड रिलीफ़ बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में तबाही की मंज़रबयानी और वहां चलाए जा रहे राहत और पुनर्वास कार्यों का एक अक्षुण्ण दस्ता़वेज़ बन चुका है. दास्तानगोई किस्सागोई की लुप्तमप्राय हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक अनूठा प्रयास है. खालिस विचार प्रचार और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की जमात में जनवादी लेखक संघ और हितचिंतक जैसे ब्लॉगों का नाम शामिल है. पहले वाला जनवादी लेखन का सायबरी अभिलेखागार तैयार कर रहा है और बाद वाला ख़ुद को कट्टर दक्षिणपंथी विचारों के मार्फ़त राष्ट्रखवाद एवं लोकतंत्र की रक्षा में समर्पित बताता है. यहां यह ग़ौरतलब है कि सामाजिक सरोकारों पर जितने ब्लॉग अंग्रेज़ी में दिखते हैं उतने हिन्दी में नहीं. सामाजिक संघर्षों, आंदोलनों या संस्थाओं के द्वारा चलाए जा रहे ब्लॉगों की कुछ सी‍माएं भी हैं. मसलन, कई तो महीनों बाद अपडेट होते हैं, कईयों की पक्षधरता इतनी कट्टर होती है कि वे विवेकशीलता और तर्कपरकता से कोसों दूर चलते नज़र आते हैं. मैं एक बार फिर अपने शुरुआती दलीलों की ओर लौटना चाहता हूं. वो ये कि ख़ुद को किसी मुद्दा विशेष पर समर्पित होने का दावा करने वाला ब्लॉग ही उस मसले को नहीं उठा रहा होता है, कभी-कभी व्यक्तिगत ब्लॉगों पर छप रहे लोगों के अनुभवों से भी उस मसले को बल मिल रहा होता है और संघर्ष की ज़मीन तैयार हो रही होती है. ऐसे तमाम ब्लॉग मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. ज़रूरी तकनीकि और शब्दावली की अनुपस्थिति में इंटरनेट पर हिंदी आज भी सपना ही होता. और इस लिहाज़ से कुछ लोगों के काम संस्थाओं पर भी भारी पड़ते हैं. रविशंकर श्रीवास्वर उर्फ़ रवि रतलामी और देवाशीष चक्रवर्ती उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिन्होंने इंटरनेट पर हिंदी के लिए आवश्यक तकनीकि और भाषाई विकास में ऐतिहासित भूमिका अदा की और आज भी कर रहे हैं. हिन्दी के ब्लॉगल खिलाडि़यों को जब कोई परेशानी होती है तब रवि रतलामी का हिन्दी‍ ब्लॉग उनको राहत प्रदान करता है, जबकि देवाशीष के नुक्ताचीनी पर नए-नए तकनीकि संबंधी पर्याप्त जानकारी होती है और निरंतर तो ठीक-ठाक ब्लॉगज़ीन बन चुका है. सा‍माजिक सरोकारों की रोशनी में ब्लॉग पर चर्चा करते पर मोहल्ला को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है और न ही हिन्दयुग्म को. वृहत्तर सामाजिक हित के मसलों पर चर्चा और उतनी ही तीखी टिप्पणियां मोहल्ला पर ही संभव है. जबकि हिन्दमयुग्म ने ख़ुद को इंटरनेट पर हिन्दी की रफ़्तार बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण से लेकर साहित्य-सृजन के अद्भुत मंच के रूप में स्थापित किया है. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090109/a44e6e50/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Jan 10 16:38:50 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 10 Jan 2009 16:38:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJrgpLDgpY3gpJrgpL4g4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: <6a32f8f0901100308q769b0974x650bd602ce77541@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन चार पन्नों का मासिक अखबार है। यह छात्रों के बीच खूब चर्चा में है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाइये कि अभी इसकी पीडीएफ फाइल ही पाठकों तक पहुंची है और वे लोग इसपर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। अखबार को कुछ हदतोड़ी पत्रकार बड़ी मेहनत से निकाल रहे हैं। उनसे अपनी भी खूब बनती है। लेकिन वे लोग इस बिनाह पर अखबार में जगह नहीं देते। खैर! इस पर शिकायत फिर कभी। नया अंक ब्लाग के तानेबाने पर आया है। पर अखबार से संपादकीय गायब है। अखबार के संपादक महोदय ने बताया कि ब्लाग की दुनिया से उनका खास परिचय नहीं है। इसलिए वे इस बाबत कुछ वजनी बात करने में असमर्थ थे। इसलिए उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा। हालांकि उन्हें हिंदी-ब्लाग के वजन का अनुभव अखबार की पीडीएफ फाइल भेजने के चंद घंटों बाद ही हो गया, जब उन्हें यह तीखी प्रतिक्रिया सुनने को मिली की फलां व्यक्ति पहले पेज पर है.... तो फलां क्यों नहीं। इस पंक्ति के लेखक को भी कुछ लोगों ने फोन कर बताया कि मीडिया स्कैन का ब्लाग अंक आया है। इसे जरूर पढ़ें। यहां सहज ही महसूस होता है कि इसे लेकर कई लोग अपने-अपने तरीके से उत्साहित व नाराज हैं। हालांकि इससे हिंदी ब्लागरों के बीच स्थान को लेकर मची प्रतिस्पर्धा का खूब पता चलता है। वैसे तो हिन्दुस्तानी समाज आज भी प्रिंट का समाज है और यहां प्रकाशित शब्दों पर ज्यादा यकीन किया जाता है। यदि प्रकाशकों का अधिपत्य कम करना है तो ब्लागरों को अपने स्थान से ज्यादा विषय व उसकी प्रामाणिकता पर खासा ध्यान देना होगा। मीडिया स्कैन को पढ़कर लगा कि ब्लागर्स लुत्फ उठाते हुए ही सही पर गंभीर काम कर रहे हैं। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090110/47d5fbc9/attachment.html From pramodrnjn at gmail.com Sun Jan 11 14:29:50 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (pramodrnjn) Date: Sun, 11 Jan 2009 14:29:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuCljeCkteCkv+CknCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+IOCkquCksCDgpK3gpKHgpL7gpLgg4KSq4KSwIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWL4KS44KWN4oCN4KSf?= Message-ID: <9c56c5340901110059q30239b69tca520b29d9fb59ca@mail.gmail.com> भाई यशवंत जी, भडास पर पोस्‍टदेखी। धन्‍यवाद। दरअसल, पिछले मेल की सामग्री एक लेख का हिस्‍सा था, जो बिहार में राज्‍य सरकार के तीन साल पूरे होने पर जारी पुस्तिका 'तीन साल तेरह सवाल'में है। यह पूरी पुस्तिका मेरे ब्‍लॉग पर है। शायद पिछले मेल में मैं इसका लिंक http://sanshyatma.blogspot.com/ देना भूल गया था। इसलिए यह भ्रम हुआ कि यह महज एक सवाल है। हालांकि आपने इसे एक सवाल के रूप में लिया, यह भी अच्‍छा ही रहा। भाई, चाहता हूं कि आप इस पूरे लेख को लें ताकि मीडिया की मौजूदा सामाजिक संरचना पर स्‍वस्‍थ बहस हो सके। - प्रमोद रंजन पूरा लेख इस प्रकार है - मीडिया में महामारी ** अगर आप अमेरिकी मीडिया के इजरायल-प्रेम को समझना चाहते हैं तो मीडिया के शीर्ष पदों पर बैठे यहूदियों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं कर सकते. -योगेंद्र यादव यह बात बिहार के संदर्भ में भी लागू होती है. अगर आपको बिहारी मीडिया के राग-द्वेष को समझना है, तो यह भी जानना होगा कि स्थानीय समाचार पत्रों, टीवी चैनलों के शीर्ष पदों पर कौन लोग हैं.योगेंद्र यादव ने मीडिया के चरित्र को समझने के लिए वर्ष २००६ में दिल्ली के प्रमुख हिंदी व अंग्रेजी मीडिया हाउसों में शीर्ष पदों पर काम करने वाले लोगों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि का सर्वेक्षण किया था. सर्वेक्षण में यह तथ्य आया था कि दिल्ली के मीडिया हाउसों में ९० प्रतिशत शीर्ष पदों पर हिंदुओं का कब्जा है. इसमें से ४९ प्रतिशत (भूमिहार व त्यागी के साथ) ब्राहमण हैं. कायस्थ १४ प्रतिशत. राजपूत ७ प्रतिशत. वैश्‍य ७ प्रतिशत. गैर द्विज उच्च जाति २ प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ी जाति के लोग ४ प्रतिशत हैं. सर्वेक्षण में इन नतीजों के आने के बाद काफी हंगामा मचा था. सारा देश इस बात से चकित था कि राष्‍ट्रीय मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर दलित और आदिवासी एक भी नहीं है और लगभग ४५-६० फीसदी आबादी वाले अन्य पिछड़ा वर्ग का हिस्सेदारी महज चार प्रतिशत है. इस सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आयी थी कि देश की आबादी में १३.५ फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमानों की संख्या मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर महज तीन प्रतिशत है. अगर ऐसा ही एक सर्वेक्षण बिहार में किया जाए तो? बिहार से इस समय मुख्य रूप से ६ हिंदी दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं. इनमें से पांच के संपादक ब्राह्‌मण हैं. इन छह समाचार पत्रों में ब्यूरो प्रमुख के पदों पर काबिज लोगों में ४ ब्राह्‌मण १ भुमिहार व एक राजपूत हैं. यही हाल टीवी चैनलों का भी है. बिहार में हिंदी, अंग्रेजी समाचार पत्रों, टीवी चैनलों में शीर्ष पदों पर १०० फीसदी हिंदुओं का कब्जा है. इनमें ९९ प्रतिशत द्विज हैं. पिछड़ी जाति का कोई भी पत्रकार फैसला लेने वाले पद पर नहीं है. इन पदों पर दलित, मुसलमान व महिलाओं की उपस्थिति शून्‍य है. अब सवाल यह उठता है कि बिहार की इस द्विज पत्रकारिता ने किसका हित साधा है? किसने इसका उपयोग किया है? इसके अपने राग-द्वेष क्या हैं? लालू प्रसाद के १५ साल व नीतीश कुमार के तीन साल के दौरान मीडिया के रूख के तुलनात्मक अध्ययन से इन सवालों के जबाव मिलते हैं. पिछले तीन सालों से अखबार के पन्नों पर विकास की धारा बह रही है. छोटी से छोटी खबर में यह देखा जाता है कि कहीं यह नीतीश कुमार के खिलाफ तो नहीं जा रही है. लालू प्रसाद के शासनकाल में सिर्फ सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बनाकर सप्ताह में चार विशेष खबर (स्टोरी) छापने वाले अखबारों को अब ध्यान से देखें. आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि पिछले तीन सालों में इन समाचार पत्रों में एक भी ऐसी खबर नहीं छपी है, जिससे नीतीश कुमार को राजनैतिक रूप से नुकसान पहुंचने की आशंका हो. विपक्षी दलों के नेताओं के बयान तक सेंसर किये जा रहे हैं. वास्तव में राजद शासनकाल के अंतिम दिनों में जिस मिशनरी सक्रियता से खबरें 'गढ़ी' जा रही थीं, उससे कहीं अधिक तत्परता से नीतीश कुमार के इन तीन सालों में खबरें 'दबायी' जा रही हैं. कोसी में १८ अगस्त, २००८ को प्रलयंकारी बाढ़ आयी. हजारों लोग मारे गये. लोगों ने इसे बिहार में विगत एक सदी में आयी सबसे बड़ी आपदा कहा. मुख्यमंत्री तक ने इसे प्रलय कहा. यह भी साफ था कि कोसी तटबंध राज्य सरकार की लापरवाही के कारण टूटा था. लेकिन मीडिया ने चुप्पी साधे रखी. बिहार के अखबारों में इस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट नहीं छपी. इतना ही नहीं, बाढ़ की त्रासदी को कम से कम करके दिखाया गया. सरकारी दावे पहले पन्ने की खबर बनते रहे. खबरों के न छपने के कारण दोतरफा हैं. एक ओर द्विज मीडिया का अपना 'लालू फोबिया' तथा जातिगत हित है तो दूसरी ओर नीतीश कुमार की प्रच्छन्न तानाशाही. नीतीश कुमार व उनके सलाहकारों ने सुनियोजित तरीके से पत्रकारों को पालतू और भ्रष्‍ट बनाया है. खोजपरक रिपोर्ट की तो बात ही छोड़िए, अखबार को भेजे गये विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री के टेबल पर पहुंच जा रहे हैं. सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल तुरुप के पत्तों की तरह किया जा रहा है. नतीजा यह है कि बिहार से समाचार पत्र राज्य सरकार की योजनाओं, घोषणाओं की सूचना देने वाले बुलेटिन की भूमिका में पहुंच गये हैं. मूल पोस्‍ट यहां देखें - http://sanshyatma.blogspot.com/2009/01/blog-post_07.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090111/0da1fab6/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Sun Jan 11 14:29:50 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (pramodrnjn) Date: Sun, 11 Jan 2009 14:29:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuCljeCkteCkv+CknCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLA=?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+IOCkquCksCDgpK3gpKHgpL7gpLgg4KSq4KSwIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWL4KS44KWN4oCN4KSf?= Message-ID: <9c56c5340901110059q30239b69tca520b29d9fb59ca@mail.gmail.com> भाई यशवंत जी, भडास पर पोस्‍टदेखी। धन्‍यवाद। दरअसल, पिछले मेल की सामग्री एक लेख का हिस्‍सा था, जो बिहार में राज्‍य सरकार के तीन साल पूरे होने पर जारी पुस्तिका 'तीन साल तेरह सवाल'में है। यह पूरी पुस्तिका मेरे ब्‍लॉग पर है। शायद पिछले मेल में मैं इसका लिंक http://sanshyatma.blogspot.com/ देना भूल गया था। इसलिए यह भ्रम हुआ कि यह महज एक सवाल है। हालांकि आपने इसे एक सवाल के रूप में लिया, यह भी अच्‍छा ही रहा। भाई, चाहता हूं कि आप इस पूरे लेख को लें ताकि मीडिया की मौजूदा सामाजिक संरचना पर स्‍वस्‍थ बहस हो सके। - प्रमोद रंजन पूरा लेख इस प्रकार है - मीडिया में महामारी ** अगर आप अमेरिकी मीडिया के इजरायल-प्रेम को समझना चाहते हैं तो मीडिया के शीर्ष पदों पर बैठे यहूदियों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं कर सकते. -योगेंद्र यादव यह बात बिहार के संदर्भ में भी लागू होती है. अगर आपको बिहारी मीडिया के राग-द्वेष को समझना है, तो यह भी जानना होगा कि स्थानीय समाचार पत्रों, टीवी चैनलों के शीर्ष पदों पर कौन लोग हैं.योगेंद्र यादव ने मीडिया के चरित्र को समझने के लिए वर्ष २००६ में दिल्ली के प्रमुख हिंदी व अंग्रेजी मीडिया हाउसों में शीर्ष पदों पर काम करने वाले लोगों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि का सर्वेक्षण किया था. सर्वेक्षण में यह तथ्य आया था कि दिल्ली के मीडिया हाउसों में ९० प्रतिशत शीर्ष पदों पर हिंदुओं का कब्जा है. इसमें से ४९ प्रतिशत (भूमिहार व त्यागी के साथ) ब्राहमण हैं. कायस्थ १४ प्रतिशत. राजपूत ७ प्रतिशत. वैश्‍य ७ प्रतिशत. गैर द्विज उच्च जाति २ प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ी जाति के लोग ४ प्रतिशत हैं. सर्वेक्षण में इन नतीजों के आने के बाद काफी हंगामा मचा था. सारा देश इस बात से चकित था कि राष्‍ट्रीय मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर दलित और आदिवासी एक भी नहीं है और लगभग ४५-६० फीसदी आबादी वाले अन्य पिछड़ा वर्ग का हिस्सेदारी महज चार प्रतिशत है. इस सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आयी थी कि देश की आबादी में १३.५ फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमानों की संख्या मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर महज तीन प्रतिशत है. अगर ऐसा ही एक सर्वेक्षण बिहार में किया जाए तो? बिहार से इस समय मुख्य रूप से ६ हिंदी दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं. इनमें से पांच के संपादक ब्राह्‌मण हैं. इन छह समाचार पत्रों में ब्यूरो प्रमुख के पदों पर काबिज लोगों में ४ ब्राह्‌मण १ भुमिहार व एक राजपूत हैं. यही हाल टीवी चैनलों का भी है. बिहार में हिंदी, अंग्रेजी समाचार पत्रों, टीवी चैनलों में शीर्ष पदों पर १०० फीसदी हिंदुओं का कब्जा है. इनमें ९९ प्रतिशत द्विज हैं. पिछड़ी जाति का कोई भी पत्रकार फैसला लेने वाले पद पर नहीं है. इन पदों पर दलित, मुसलमान व महिलाओं की उपस्थिति शून्‍य है. अब सवाल यह उठता है कि बिहार की इस द्विज पत्रकारिता ने किसका हित साधा है? किसने इसका उपयोग किया है? इसके अपने राग-द्वेष क्या हैं? लालू प्रसाद के १५ साल व नीतीश कुमार के तीन साल के दौरान मीडिया के रूख के तुलनात्मक अध्ययन से इन सवालों के जबाव मिलते हैं. पिछले तीन सालों से अखबार के पन्नों पर विकास की धारा बह रही है. छोटी से छोटी खबर में यह देखा जाता है कि कहीं यह नीतीश कुमार के खिलाफ तो नहीं जा रही है. लालू प्रसाद के शासनकाल में सिर्फ सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बनाकर सप्ताह में चार विशेष खबर (स्टोरी) छापने वाले अखबारों को अब ध्यान से देखें. आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि पिछले तीन सालों में इन समाचार पत्रों में एक भी ऐसी खबर नहीं छपी है, जिससे नीतीश कुमार को राजनैतिक रूप से नुकसान पहुंचने की आशंका हो. विपक्षी दलों के नेताओं के बयान तक सेंसर किये जा रहे हैं. वास्तव में राजद शासनकाल के अंतिम दिनों में जिस मिशनरी सक्रियता से खबरें 'गढ़ी' जा रही थीं, उससे कहीं अधिक तत्परता से नीतीश कुमार के इन तीन सालों में खबरें 'दबायी' जा रही हैं. कोसी में १८ अगस्त, २००८ को प्रलयंकारी बाढ़ आयी. हजारों लोग मारे गये. लोगों ने इसे बिहार में विगत एक सदी में आयी सबसे बड़ी आपदा कहा. मुख्यमंत्री तक ने इसे प्रलय कहा. यह भी साफ था कि कोसी तटबंध राज्य सरकार की लापरवाही के कारण टूटा था. लेकिन मीडिया ने चुप्पी साधे रखी. बिहार के अखबारों में इस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट नहीं छपी. इतना ही नहीं, बाढ़ की त्रासदी को कम से कम करके दिखाया गया. सरकारी दावे पहले पन्ने की खबर बनते रहे. खबरों के न छपने के कारण दोतरफा हैं. एक ओर द्विज मीडिया का अपना 'लालू फोबिया' तथा जातिगत हित है तो दूसरी ओर नीतीश कुमार की प्रच्छन्न तानाशाही. नीतीश कुमार व उनके सलाहकारों ने सुनियोजित तरीके से पत्रकारों को पालतू और भ्रष्‍ट बनाया है. खोजपरक रिपोर्ट की तो बात ही छोड़िए, अखबार को भेजे गये विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री के टेबल पर पहुंच जा रहे हैं. सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल तुरुप के पत्तों की तरह किया जा रहा है. नतीजा यह है कि बिहार से समाचार पत्र राज्य सरकार की योजनाओं, घोषणाओं की सूचना देने वाले बुलेटिन की भूमिका में पहुंच गये हैं. मूल पोस्‍ट यहां देखें - http://sanshyatma.blogspot.com/2009/01/blog-post_07.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090111/0da1fab6/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Mon Jan 12 11:04:33 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 12 Jan 2009 11:04:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSk4KS/4KSl?= =?utf-8?b?4KS/IOCkuOCkguCkquCkvuCkpuCklSDgpK/gpL4g4KSr4KS/4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkheCkguCklSDgpJXgpL4g4KSd4KWB4KSo4KSd4KWB4KSo?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> फैशन के स्तर पर किसी पत्रिका या फिर अखबार का अतिथि संपादक बनाया जाना कोई नई और बड़ी बात नहीं है। देश और दुनिया के कई बड़े अखबार और पत्रिका समूह अपनी लोकप्रियता और ब्रांड इमेज के लिए आए दिन ऐसा करते हैं कि एक दिन के लिए या फिर एक अंक के लिए किसी सिलेब्रेटी को एडीटर बना देते हैं। ये मीडिया के लिए बड़ी खबर हुआ करती है। मीडिया हाउस को इससे फायदा इस बात का होता है कि वो ये बात बड़ी आसानी से स्टैब्लिश कर पाते हैं कि जितनी समझदारी से फलां फिल्म स्टार एक्टिंग कर सकता है, उतनी ही कुशलता से अखबार का संपादन भी कर सकता है, फलां क्रिकेट खिलाड़ी जितने अद्भुत तरीके से शॉट्स लगा सकता है, उतनी ही चतुराई से संपादन कर सकता है। आप जानते हैं कि विज्ञापन के वक्त किसी भी सिलेब्रेटी की प्रोफेशनल इमेज को सोशल इमेज और फिर विज्ञापित वस्तुओं के ब्रांड इमेज में तब्दील किए जाता है। पाठक को सिलेब्रेटी के संपादन में निकली पत्रिका या अखबार पढञने का सुख मिलता है। लेकिन मीडिया स्कैन(मासिक अखबार)जिस प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहा है उसे देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि उसने फैशन के फंडे या फिर बाजार के फार्मूले के झांसे में आकर अतिथि संपादक का कॉन्सेप्ट एडॉप्ट कर लिया है। मुझे लगता है कि ये देश के गिने-चुने अखबारों में से है,जिसकी इच्छा अखबार के जरिए मानवीय संबंधों की तलाश है। इसके जरिए न तो वो किसी तरह का वैचारिक गिरोह खड़ी करने के पक्ष में है और न ही विज्ञापन बटोरकर क्रांति की ढोल पीटने के लिए बेचैन है। बड़े ही सादे ढंग से,नरम मिजाज से, सहयोग और विनम्रता के भरोसे सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत ये अखबार अपने-आप में बेजोड़ है। उपर की सारी खूबियां अखबार में भी दिखाई देती है और जो लोग, जब कभी भी इसकी प्रति भेजते हैं, हैंड टू हैंड देते हैं, उनके व्यवहार में भी झलकती है। अतिथि संपादक बनाए जाने का एक दूसरा तरीका अपने हिन्दी समाज में है। देश की सैंकड़ों पत्रिकाएं विशेषांक निकाला करती है। ये विशेषांक कभी अवधारणा से संबंधित, कभी किसी हस्ती से संबंधित या फिर कभी किसी खास विधा से संबंधित हुआ करती है। ऐसे में पत्रिका का स्थायी संपादक, संपादन कार्य न करके ऐसे व्यक्ति की खोज करता है जो अमुक विषय पर ज्यादा समझ रखता हो, उस पर उसका विशेष काम हो, जिस विषय को विशेषांक के लिए चुना गया है उस पर लिखनेवाले लोग स्थायी संपादक से ज्यादा इस नए व्यक्ति के करीब हैं, वो संपादक के मुकाबले ज्यादा आासानी से इस नए व्यक्ति को लेख दे देंगे। अतिथि संपादक चुनने के ये कुछ मोटे आधार हैं। कई बार ऐसा होता है कि पत्रिका अपने को जिस रुप में पेश करती है उससे उसकी एक स्थायी छवि बन जाती है। विशेषांक निकालने पर इसकी छवि एक हद तक टूटती है। दूसरा कि लिखनेवालों के मन में जो इसके प्रति धारणा बनी रहती है, अतिथि संपादक आकर उस धारणा को तोड़ता है औऱ पत्रिका की ऑडियालॉजी से कभी भी सहमत न होते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर संबंध होने की वजह से अतिथि संपादक को अपनी रचनाएं देने के लिए राजी हो जाता है। लिखने-छपने के स्तर पर हिन्दी समाज में इतनी अधिक अंतर्कलह है कि जैसे ही कोई विशेषांक निकालने की सोचे, लिखनेवालों का एक धड़ सिरे से गायब हो जाता है। वो चाहता ही नहीं कि अपने जीते-जी, होश-हवाश में इन पत्रिकाओं में लिखे। इसके लिए एक आम मुहावरा भी प्रचलित है- हजारों रुपये दे दे तो भी नहीं लिखेंगे। दूसरी तरफ स्थायी संपादक को भी ऐसे लेखकों की विचारधारा से इतनी खुन्नस रहती है कि- अगर फ्री में भी लिख दे तो भी अपने संपादन में नहीं छापेंगे। ये अलग बात है कि अच्छे संबंध होने और एक ही ऑडियालॉजी होने पर भी लोग फ्री में ही छापते हैं और हजार रुपये नहीं देते। खैर, हिन्दी के इन टंटों के बीच अतिथि संपादक राहत का काम करता है और अपने दम पर पर्सनल रिलेशन के बूते उन लोगों से भी लेख लिखवा जाता है जो सिम्पल एप्रोच से दस बार टाल जाते हैं। अतिथि संपादक को इगो-विगो का चक्कर नहीं होता, उसे संपादक कुर्सी नहीं होती कि वो एक ही अंक में अकड़ जाए, इसलिए पत्रिका औऱ लेखक के परस्पर विरोधी वातावरण में बेहतर अंक का प्रकाशन कर जाता है। इसी क्रम में, मीडिया स्कैन ने बाजार औऱ मीडिया के बीच काम करते हुए भी बाजार के फार्मूले को दरकिनार करते हुए हिन्दी समाज के फार्मूले को अपनाया। जरुरी नहीं कि उपर जो भी बातें अतिथि संपादक के बारे में कही गयी, शत-प्रतिशत मीडिया स्कैन पर लागू ही हों, लेकिन चुनने का आधार इन्हीं में से कोई एक या दो रहे होंगे...ये पक्का है। लेकिन इस आधार पर छपने के वाबजूद भी हफ़्तावार के राकेश सिंह का मन आहत हुआ है औऱ अपने छपे लेख को लेकर असंतुष्ट हैं, क्यों....पढिए अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/f934df8a/attachment.html From pratilipi.in at gmail.com Sat Jan 10 12:19:07 2009 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Sat, 10 Jan 2009 12:19:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS/4KSq4KS/IOCkteCkvuCksOCljeCkt+Ckv+CkleCkvg==?= =?utf-8?b?4KSC4KSVIOCkhuCkruCkguCkpOCljeCksOCkow==?= In-Reply-To: <435290ba0901082335t4600caaaq411e5cec634d790d@mail.gmail.com> References: <1630108d0901060302r27d23262vc452a1aa9d20d3e3@mail.gmail.com> <1630108d0901061932k9f28da6t7ebb3054290014a3@mail.gmail.com> <435290ba0901082335t4600caaaq411e5cec634d790d@mail.gmail.com> Message-ID: <435290ba0901092249n4eb042c7u284339c33ba8f3f5@mail.gmail.com> प्रिय मित्रों, प्रतिलिपि का अगला अंक (फरवरी २००९) हमारा पहला वार्षिकांक होगा. इस अंक की मुख्य थीम 'आतंक: एक अनुभव" होगी. इसका तात्कालिक परिप्रेक्ष्य तो स्पष्ट ही है किंतु हमारा मंतव्य है कि तात्कालिक से परे जाकर इस अनुभव की खोजबीन की जाय. यह एक सामान्य तथ्य है कि एक मानवीय (और मानवेत्तर) अनुभव के रूप में आतंक के जितने उद्गम, जितने परिप्रेक्ष्य है उतनी ही घटित होने की कई विधियां भी हैं यद्यपि अपने बहुलार्थ से दूर बहुत यह निरंतर एक सीमित, संकुचित संकेतक बनता जा रहा है. हम आतंक विषयक विमर्श पर नहीं, उसके अनुभव पर फोकस करना चाहते हैं, उम्मीद है ऐसे अनुभवों पर भी जो अपने में विमर्श हो जाते हैं. हम सभी लेखकों/कलाकारों को वार्षिकांक में लिखने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं. आपका कांट्रिब्यूशन किसी भी मीडिया – कथा/कथेत्तर गद्य/कविता/चित्र/आडियो/वीडियो – में हो सकता है. हम आतंक के सभी रूपों पर लेखन/कला आमंत्रित कर रहे हैं – पिता, अध्यापक, बॉस, लोकल गुंडे/पंडे के रोजमर्रा, दैनिक, 'वैयक्तिक' आतंक से लेकर भारतीय इतिहास के कुछ बिन्दुओं जैसे कि 1947, आपातकाल, 1980 के दशक में पंजाब, पिछले कुछ दशकों से कश्मीर, दिल्ली 84, भोपाल 84, उत्तर –पूर्व, नक्सली आंदोलन, गुजरात, मुम्बई और अन्य शहर 2008 के 'सामूहिक' आतंक तक. इस थीम पर एक प्रश्नावली भी संलग्न है. आपसे अनुरोध है इन प्रश्नों पर प्रतिक्रिया करें. सादर सम्पादक -- प्रतिलिपि: द्विमासिक द्विभाषी पत्रिका Pratilipi: A Bilingual Bimonthly Magazine http://pratilipi.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090110/93255fb8/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Questionnaire.Hindi. Pratilipi.pdf Type: application/pdf Size: 33656 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090110/93255fb8/attachment-0001.pdf From v1clist at yahoo.co.uk Mon Jan 12 14:34:02 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Mon, 12 Jan 2009 09:04:02 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= paktranslations.com References: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> Message-ID: <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> उर्दू भाषा के लिए नया वेबसाइट शुरू हुआ हैं "paktranslations.com", जिसमें कोई भी ब्लॉग या वेबसाइट का ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन काफी अच्छी तरह से किया जाता हैं| क्या ऐसा कोई हिन्दुस्तानी भाषाएं के लिए भी तयार हैं? Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/7a9a7065/attachment.html From arshad.mcrc at gmail.com Mon Jan 12 14:48:48 2009 From: arshad.mcrc at gmail.com (arshad amanullah) Date: Mon, 12 Jan 2009 14:48:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?paktranslations=2E?= =?utf-8?q?com?= In-Reply-To: <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> References: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> Message-ID: <2076f31d0901120118n485fcddci9028559bf0428a5a@mail.gmail.com> जानकारी के लिए शुक्रिया. लेकिन उर्दू भी एक हिन्दुस्तानी भाषा ही है भाई साहिब. अरशद अमानुल्लाह 2009/1/12 Vickram Crishna > उर्दू भाषा के लिए नया वेबसाइट शुरू हुआ हैं "paktranslations.com", जिसमें > कोई भी ब्लॉग या वेबसाइट का ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन काफी अच्छी तरह से किया जाता > हैं| क्या ऐसा कोई हिन्दुस्तानी भाषाएं के लिए भी तयार हैं? > > Vickram > http://communicall.wordpress.com > http://vvcrishna.wordpress.com > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- arshad amanullah Ye Mera Kutch Na Hona Darj Kar Lo Agar Mardum-shumaari Ho Rahi Hai -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/85196b94/attachment.html From v1clist at yahoo.co.uk Mon Jan 12 15:16:32 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Mon, 12 Jan 2009 09:46:32 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?paktranslations=2E?= =?utf-8?q?com?= References: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> <2076f31d0901120118n485fcddci9028559bf0428a5a@mail.gmail.com> Message-ID: <352835.50005.qm@web26601.mail.ukl.yahoo.com> ग़लत न मानिये| क्षमा मांगता हूँ| मक़सद येही था की ऐसे सेवाएँ हिंदुस्तान के और भी भाषाएँ, हिन्दी, बंागला, तामिल वगरें भाषाएँ के लिए भी होने चाहिए| Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ________________________________ From: arshad amanullah To: deewan Sent: Monday, 12 January, 2009 14:48:48 Subject: Re: [दीवान]paktranslations.com जानकारी के लिए शुक्रिया. लेकिन उर्दू भी एक हिन्दुस्तानी भाषा ही है भाई साहिब. अरशद अमानुल्लाह 2009/1/12 Vickram Crishna उर्दू भाषा के लिए नया वेबसाइट शुरू हुआ हैं "paktranslations.com", जिसमें कोई भी ब्लॉग या वेबसाइट का ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन काफी अच्छी तरह से किया जाता हैं| क्या ऐसा कोई हिन्दुस्तानी भाषाएं के लिए भी तयार हैं? Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -- arshad amanullah Ye Mera Kutch Na Hona Darj Kar Lo Agar Mardum-shumaari Ho Rahi Hai -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/40e6a8eb/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Mon Jan 12 16:45:04 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Mon, 12 Jan 2009 16:45:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?paktranslations=2E?= =?utf-8?q?com?= In-Reply-To: <352835.50005.qm@web26601.mail.ukl.yahoo.com> References: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> <2076f31d0901120118n485fcddci9028559bf0428a5a@mail.gmail.com> <352835.50005.qm@web26601.mail.ukl.yahoo.com> Message-ID: <8bdde4540901120315q5fb39ef2rc61b01ef53d5babc@mail.gmail.com> ये गूगल ट्रांस्‍लेशन के औजार से किस तरह अलग है ? या केवल गूगल में उर्दू ट्रांस्‍लेशन न होने की वजह ये इसे विकसित किया गया है। हिन्‍दी में गूगल अनुवाद तो उपलब्‍ध है बाकी उर्दूदां लोग बताएं कि ये केवल अंगेजी से ही अनुवाद कर रहा है या हिन्‍दी से भी कर लेता है... मतलब कम से कम लिप्‍यांतरण उर्दू से हिन्‍दी तथा हिन्‍दी से उर्दू ? विजेंद्र On Mon, Jan 12, 2009 at 3:16 PM, Vickram Crishna wrote: > ग़लत न मानिये| क्षमा मांगता हूँ| > > मक़सद येही था की ऐसे सेवाएँ हिंदुस्तान के और भी भाषाएँ, हिन्दी, बंागला, > तामिल वगरें भाषाएँ के लिए भी होने चाहिए| > > Vickram > http://communicall.wordpress.com > http://vvcrishna.wordpress.com > > ------------------------------ > *From:* arshad amanullah > *To:* deewan > *Sent:* Monday, 12 January, 2009 14:48:48 > *Subject:* Re: [दीवान]paktranslations.com > > जानकारी के लिए शुक्रिया. लेकिन उर्दू भी एक हिन्दुस्तानी भाषा ही है भाई > साहिब. > > अरशद अमानुल्लाह > > 2009/1/12 Vickram Crishna > >> उर्दू भाषा के लिए नया वेबसाइट शुरू हुआ हैं "paktranslations.com", जिसमें >> कोई भी ब्लॉग या वेबसाइट का ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन काफी अच्छी तरह से किया जाता >> हैं| क्या ऐसा कोई हिन्दुस्तानी भाषाएं के लिए भी तयार हैं? >> >> Vickram >> http://communicall.wordpress.com >> http://vvcrishna.wordpress.com >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > arshad amanullah > > Ye Mera Kutch Na Hona Darj Kar Lo > Agar Mardum-shumaari Ho Rahi Hai > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/9373fe67/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Jan 12 17:37:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 12 Jan 2009 17:37:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpKzgpKbgpLLgpL4g4KS54KWIIOCkleCkquCkoeCkvA==?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLDgpILgpJfgpYvgpIIg4KSV4KS+IOCktQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSX4KWA4KSvIOCkmuCksOCkv+CkpOCljeCksA==?= Message-ID: <829019b0901120407r1e3cd2c9pe9f121c3476dd81@mail.gmail.com> कैसा देहाती-भुच्च जैसा रंग उठाकर आया है। लाल,पीला,हरा भला शोभा देता है। रंगों में भी क्लास देखने के हम अभ्यस्त हैं। अगर इसकी किसी लम्बी सूचि में न भी जाएं तो भी ये बहुत साफ है कि संभ्रांत लोगों के कपड़ों के रंग क्या-क्या होते हैं,इलीट लोगों के कपड़ों के रंग क्या होते हैं और निचले तबके और अनकल्चर्ड लोगों के कपड़ों का रंग क्या होता है। इसलिए हम लम्बे समय तक लाल,हरा, पीला या फिर इस तरह के चटक रंगों की शर्ट, फ्रॉक या ट्राउजर पहननेवालों को या तो टपोरी, लखैरा,बेउड़ा समझते आए हैं या फिर गांव-देहात का आदमी जिसको कि ड्रेसिंग सेंस है ही नहीं। खेतिहर-मजदूर किस्म के लोग आमतौर पर चटक रंगों के कपड़े खरीदते हैं। बुजुर्गों के मामले में ये बाती पूरू तरह लागू नहीं भी होती है तो भी बच्चों और नयी पीढ़ी के लोगों पर ये बात काफी हद तक लागू होती है। उनके इन रंगों के कपड़े खरीदने के पीछे का तर्क बहुत साफ है- कि कुछ दिनों के बाद इनके मैटमैले रंग हो जाने हैं, इसलिए शुरुआत के कुछ दिनों तक लगे कि कपड़े नए हैं। नहीं तो हल्के भूरे,क्रीम, ऑफव्हाइट या आसमानी रंग इन्हें पसंद नहीं है, ऐसा आप नहीं कह सकते। दूसरी बात कि इन कपड़ों के जल्द ही गंदे हो जाने का खतरा होता है जबकि इन लोगों का वैले रंगों पर जोर ज्यादा होता है जिसके गंदे हो जाने पर भी पता नहीं चले। कपड़े जल्दी गंदे हो जाने और मैल को पचा जाने के पीचे का अपना तर्क है और पूरा का पूरा एक समाजशास्त्र भी। जबकि समाज का वो तबका जो सम्पन्न है,जिसके लिए रंगों और कपड़ों का चुनाव जल्दी गंदे होने या नहीं होने के आधार पर न होकर उनकी पसंद औऱ अलग दिखने की स्ट्रैटजी के आधार पर होता है। इसलिए सफेद, स्काइ ब्लू या फिर दूसरे वो रंग जिस पर जरा-सा भी धूल या सिलवटें आ जाए तो भद्दा दिखने लगता है, इनकी सूची में पहले होता है। इस हिसाब से आप रंगों के साथ-साथ फैब्रिक को भी शामिल कर सकते हैं। हिन्दुस्तान जैसे देश में कपास की पैदावार औऱ सूती कपड़ों के पर्याप्त मात्रा में उत्पादन होने के वाबजूद भी सिंथेटिक कपड़ों की भारी खपत के बीच आप इस पूरे विमर्श को रख सकते हैं। एक लाइन में कहें तो लम्बे समय तक और एक हद तक अभी भी सामाजिक हैसियत और परिवेश के हिसाब से कपड़ों के रंगों का प्रयोग चला आ रहा है। लेकिन टेलीविजन की उपस्थिति ने रंग के इस समाजशास्त्र में भारी फेरबदल किया है,अगर इसे कहा जाए कि टेलीविजन ने रंगों के पीछे के तर्क को उलट-पलटकर रख दिया है तो बेमानी नहीं होगा। टेलीविजन का बहुत ही सिम्पल-सा तर्क है कि आप किन कपड़ों में, किन रंगों में कितना सुंदर दिखते हैं, इससे कोई मतलब नहीं है। मतलब इस बात से है कि कैमरे को आपके उपर कौन-सा रंग पसंद है। मामला यहीं से बदल जाता है। जिन रंगों को आप और हम देहाती भुच्च रंग कहकर रंगों का एक वर्गीय चरित्र गढ़ने में लगे रहे, टीवी उस चरित्र को तोड़ता है.कैमरे को वो रंग ज्यादा पसंद हैं, टीवी स्क्रीन पर उन रंगों की उपस्थिति ज्यादा बेहतर लगती है जिसे कि सेंसलेस फेसेज की पसंद बताया जाता रहा है। दूरदर्शन ने भी जब स्क्रीन पर रंगों का इस्तेमाल किया तो काफी हद तक उन्हीं रंगों का प्रयोग किया जो कि सामाजिक मान्यताओं से मेल खाते। उसने अपनी तरफ से बहुत अधिक प्रयोग नहीं किए। सीरियलों के मामले में तो फिर भी गुंजाइश रही लेकिन न्यूज रीडिंग में कुछ खास नहीं. निजी चैनलों ने कपड़ों के रंगों और उसके समाजशास्त्र को पूरी तरह बदल दिया है। अगले अंक में भी जारी.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090112/7e2884f3/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Jan 13 10:01:44 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 13 Jan 2009 10:01:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWI4KSC4KSa4KWAIOCkl+Ckv+CksOClgOCkqOCljeCkpuCljeCksCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpYA=?= Message-ID: <829019b0901122031i35f25864hbe62dac8ba8ceb91@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन ने मेरे लेख की एडिटिंग नहीं की है, एडीटिंग करता तो भी बात समझ में आ जाती, चोपिंग की है। एक बार तो देखकर यही लगता है कि बिना लेख के महत्वपूर्ण अंश को जाने-समझे स्पेस मैनेज करने के चक्कर में उसे कतर कर रख दिया। नतीजा ये हुआ है कि जो बात मैं कहना चाह रहा था वो बात इसमें आयी ही नहीं। मीडिया स्कैन की पीडीएफ देखकर राकेश सिंह बहुत ही विचलित हुए। एक नए लेखक को रचना नहीं छपने और वापस लौट आने की जो पीड़ा होती है, लगातार छपने या फिर पहले छप चुके लेखक की पीड़ा इस बात से रत्तीभर भी कम नहीं होती कि कोई उसके लेख के मर्म को समझे बिना काट-छांटकर छाप जाता हो। उन्होंने तत्काल इसका तोड़ निकाला और कैंची से कटे की मरम्मती कीबोर्ड के थ्रू करने लगे।रर ब्लॉग पर एक छोटी-सी टिप्पणी के साथ जैसे ही उन्होंने लेख का मूल पाठ डाला, गिरीन्द्र ने माफी मांग ली। चूंकि इस अंक के संपादन का दायित्व गिरीन्द्र पर रही इसलिए नैतिकता के आधार पर उसने इसके लिए अपने को दोषी मानकर ऐसा किया। इस बात से पहले तो गिरीन्द्र पर मुझे गर्व महसूस हुआ कि चलो, अपने बीच अभी भी ऐसे लोग हैं जो संपादक की कुर्सी पर बैठकर भी माफी शब्द को तबज्जो देते हैं लेकिन घंटे भर बाद जब पूरी बात समझ में आयी तो गिरीन्द्र की नैतिकता पर गुस्सा आया। अतिथि संपादक होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप से काम करनेवालों को सौंप दिया। चूंकि ये अंक ब्लॉक पर था, लोगों के अपने विचार थे इसलिए इसमें संपादन के नाम पर कतर-ब्योत का काम ही ज्यादा था। पत्रिका के संपादन से ये अलग काम था। गिरीन्द्र ने छपने के लिए उन सारी सामग्री को उसी रुप में( मामूली हेर-फेर के साथ)दे दिया जिस रुप में रचनाकारों ने उसके पास भेजी थी। लेकिन छपकर आने के बाद उसे भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा कि आज राकेश सिंह लेख के जिस रुप पर आपत्ति दर्ज कर रहे है ये उसके संपादन का हिस्सा है. उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं रही कि लेख का संपादन करने के बाद उसे काट-पीटकर पब्लिश किया गया है। इसलिए शुरुआत में माफी मांग लेने की बात जितनी अपीलिंग लगी, अब उस पर उतना ही गुस्सा भी आ रहा है। पत्रिका चाहे जो भी हो और चाहे जिस किसी को भी उसका अतिथि संपादक बनाया जाए, लेकिन किसी को भी इसका दायित्व देकर पत्रिका के पब्लिश होने के बीच में ही कोई अपनी तरफ से खेल करता है तो इससे शर्मनाक बात कुछ और नहीं हो सकती। संभव हो इस पूरे मामले में हुआ सिर्फ इतना होगा कि कम्पोजिंग करते समय स्पेस का चक्कर पड़ गया हो और लेख छोटी करनी पड़ गयी हो लेकिन इतनी समझदारी तो बरती ही जानी चाहिए थी कि उसके महत्वपूर्ण हिस्सों को शामिल किया जाता। दूसरा कि अतिथि संपादक होने की हैसियत से इस बात की जानकारी गिरीन्द्र को दी जाती। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090113/d001adb8/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Jan 13 12:53:31 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 13 Jan 2009 12:53:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAn4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KSu4KSh4KWJ4KSXIOCkruCkv+CksuCkv+CkqOClh+CkheCksCfgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkueCkv+CkuOCljeCkuOCkviDgpJbgpYvgpJzgpKTgpYcg4KSt?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSk4KWA4KSv?= Message-ID: <200901131253.32344.ravikant@sarai.net> ---------- Forwarded message ---------- From: anurag vats Date: Tue, Jan 13, 2009 at 12:27 PM Subject: 'स्लमडॉग मिलिनेअर'में हिस्सा खोजते भारतीय To: anurag vats http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3969480.cms From vineetdu at gmail.com Wed Jan 14 10:56:29 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 14 Jan 2009 10:56:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSoLeCkrg==?= =?utf-8?b?4KWL4KS54KSoIOCkluCkvOCkrOCksCDgpKzgpKjgpL7gpKjgpYcg4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkquCkueCksuClhywg4KSc4KS84KSw4KS+IOCkuOCli+Ckmg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSP?= Message-ID: <829019b0901132126n7cfd12das30a6349e1b81658b@mail.gmail.com> मन-मोहन ख़बर बनाने से पहले, ज़रा सोचिए सरकार इस बात को समझ ही नहीं पा रही या फिर समझना ही नहीं चाहती कि जिसे वो नागरिक कह रही है वो अब सिर्फ नागरिक न होकर ऑडिेएंस भी है। दूरदर्शन के जमाने से नागरिक और ऑडिएंस का जो घालमेल हुआ है उसे अभी तक बरकरार रखना चाहती है। इसलिए जब भी मीडिया के मामले में बात करना शुरु करती है तो तुरंत कूदकर जनहित, पब्लिक इन्टरेस्ट, सोशल वेलफेयर जैसे वैल्यू लोडेड, संवैधानिक शब्दों को भिड़ा देती है। जबकि देश में सैंकड़ों निजी चैनलों को लाइसेंस देते समय उसे समझ लेना चाहिए कि ये चैनल देश के नागरिक को ऑडिएंस मानती है और उसी केहिसाब से अपने कार्यक्रमों का प्रसारण करेगी। आज न्यूज चैनलों के लिए कंटेट कोड और दुनियाभर के कानूनी प्रावधान लाए जा रहे हैं, उसकी बड़ी वजह यही है कि सरकार अभी भी देश के तमाम लोगों को नागरिक मानकर चलती है या फिर दूरदर्शन के दर्शक जिसके हित की चिंता सिर्फ उन्हें ही करनी चाहिए। सरकार के लिए ये बात समझ के बाहर की है कि करीब पन्द्रह साल से निजी चैनल अपने तरीके से कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं, ये कहते हुए कि देश के लोग यही चाहते हैं तो चैनल और ऑडिएंस के बीच कुछ संबंध बने होंगे। अब देश की जो ऑडिएंस दूरदर्श की तरफ कभी ताकने नहीं जाती, वो हाइपरबॉलिक खबरें दिखाए जाने के वाबजूद भी निजी चैनलों को देखना पसंद करती है, मुझे समझ में नहीं आता कि सरकार उनके लिए किस तरह के हित की बात करना चाहती है। बाकी सेक्टर की बात न करते हुए फिलहाल की स्थिति को देखते हुए सरकार के लिए ये समझना जरुरी है कि नागरीक और ऑडिएंस दो अलग-अलग चीज है। जो देश का नागरिक है और उसके लिए जनहित का जो भी फार्मूला या प्रवधान है, वो ऑडिएंस के रुप में भी इसी तरह से होगा, जरुरी नहीं। सरकार को ऐसा कोई भी प्रावधान लाने के पहले जिसे कि मेनस्ट्रीम की आज लोकतंत्र का गला घोटना कह रही है, निजी चैनलों औऱ ऑडिएंस के बीच के संबंधों को समझना चाहिए। उसे इन दोनों के बीच सिर्फ इसलिए नहीं आना चाहिए कि वो सरकार है औऱ चाहे तो कुछ भी कर सकती है। उसे उन बारिकियों में जाना चाहिए कि तमाम आलोचना के वाबजूद भी निजी चैनल क्यों वूम पर हैं। ऑडिएंस जिसे कि वो नागरिक कह रहे हैं, क्यों तीन-साढ़े तीन सौ रुपये लगाकर निजी चैनलों की तरफ भाग रही है। निजी चैनलों के आने के पहले की बात छोड़ दे तो क्या सरकार के पास ऐसा कोई सर्वे है जिससे ये साफ होता हो उससे जिम्मे जो भी माध्यम रहे हों, उसने व्यापक स्तर पर जनहित के काम किए हों। ऑडिएंस की बात छोड़ भी दें तो भी नागरिक की जरुरतों को बेहतर तरीके से समझ पाए हों। नब्बे-इक्यानवे के बाद ऐसे बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जिसमें सरकारी मीडिया या फिर सरकार के सहयोग से चलनेवाली मीडिया ने नागरिकों के बीच एक समानांतर समझ पैदा करने की कोशिश की हो। जिसकी सरकार आयी, मीडिया पर उसके रंग चढ़ने लग गए। कुछ लोगों को अब भी कहते सुनता हूं कि निजी समाचार चैनलों के बाढ़ के बीच दूरदर्शन अभी भी तटस्थ रुप से खबरों का प्रसारण करता है। लेकिन हम जिसे तटस्थता कह रहे हैं, संभव है उसमें काफी हद तक आलोचनात्मक समझ की कमी हो। निजी चैनलों की जरुरत यहीं सबसे ज्यादा है। इसलिए जनहित के नाम पर सरकार निजी चैनलों को कसने की कवायद शुरु करने जा रही है इसके पहले दो-तीन सवालों औऱ अपनी समझ को साफ कर ले तो इससे बेहतर जनहित और कुछ नहीं हो सकता- १ सरकार के पास को ठोस आधार नहीं है जिससे जनहित को खतरा है। अगर ताजा उदाहरण मुंबई बम विस्फोट के लाइव कवरेज हैं तो सरकार को ऑपरेशन के तुरंत बाद एक-दो को छोड़कर सारे निजी न्यूज चैनलों का शुक्रिया अदा करने में जल्दीबाजी नहीं मचानी चाहिए थी। उस समय उन्होंने साफ कहा कि- इस ऑपरेशन ने मीडिया ने उनका भरपूर साथ दिया। २ देश के नागरिक औऱ देश की ऑडिएंस दो अलग-अलग चीजें हैं औऱ अब सरकार को इसमें घालमेल नहीं करना चाहिए। निजी चैनल और सरकार के बीच ऑडिएंस भी है जो कि इ दोनों से किसी भी मामले में कम महत्वपूर्ण नहीं है। संभव हो सरकार को इस बात की अच्छी समझ है कि किस लाइन में सड़क, बिजली औऱ पानी पहुंचाने से जनहित का काम होगा, कितने स्कूल औऱ कॉलेज खोले जाने से साक्षरता दर में इजाफा होगा लेकिन मीडिया के मामले में उसका दावा इतना ही पुख्ता नहीं है। ऑडिएंस को क्या चाहिए ये तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार के हाथ में नहीं जाने चाहिए। ३ राजदीप सरदेसाई की बात पर एक बार फिर विचार करे कि- सरकार को लगता है कि उनके कुछ मीडिया से भी ज्यादा काबिल लोग हैं। बिना रिसर्च के, बिना कोई सर्वे के जिसमें ऑडिएंस शामिल ही नहीं है, इस तरह के प्रावधान को लागू करने की कोशिश करना, मौजूदा हालात में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति ही समझी जाएगी। ये चैनल तब तक बहुत अच्छे रहे, जब तक इन्होंने ऑपरेशन खत्म होने तक सरकार का भरपूर साथ दिया, नेशनलिज्म को एक जज्बाती रंग देने का काम किया, लेकिन जैसे ही इसके लिए सरकार की नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था में कोताही आदि मसलों पर बात करने लगे तो इन चैनलों से जनहित को खतरा होने लगा। इस तरह के फैसले से न तो मीडिया को दुरुस्त किया जा सकेगा, न ही जनहित के एजेंडे पर बात हो सकेगी, उल्टे एक फ्रैक्चर्ड यूनिटी को बढ़ावा मिलेगा- जब सरकार के विरोध में होंगे तो सारी मीडिया एकजुट हो जाएगी औऱ जब मीडिया के विरोध में होगे तो देश के सारे नेता, चाहे वो किसी भी विचारधारा के क्यों न हों, एक हो जाएंगे। जबकि सच्चाई ये है कि देश इस तरह के सी-शॉ खेल की तरह नहीं चलता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090114/7a0e3996/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Wed Jan 14 12:27:05 2009 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Wed, 14 Jan 2009 12:27:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSoLeCkrg==?= =?utf-8?b?4KWL4KS54KSoIOCkluCkvOCkrOCksCDgpKzgpKjgpL7gpKjgpYcg4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkquCkueCksuClhywg4KSc4KS84KSw4KS+IOCkuOCli+CkmuCkv+Ckjw==?= In-Reply-To: <829019b0901132126n7cfd12das30a6349e1b81658b@mail.gmail.com> References: <829019b0901132126n7cfd12das30a6349e1b81658b@mail.gmail.com> Message-ID: <496D8CC1.8000201@sarai.net> विनीत बाबू बिल्‍कुल सही. सरकार हर उस पर लगाम लगा देना चाहती है जिससे उसे असहजता महसूस होती है. और ये होता रहा है. मैं नहीं मानता कि हिन्‍दुस्‍तानी मीडिया एकदम पाकसाफ़ है और इसकी हर गतिविधि जनहित में होती है. अव्‍वल तो इसका ज्‍़यादातर समय ख़बर पैदा करने और एक-दुसरे को पछाड़ने में जाता है. जनहित वाला काम बीच-बीच में कभी-कभार करना पड़ता है या यों कहें कि ऐसा न करने पर बिल्‍कुल ही बेपर्द हो जाने का ख़तरा बनता है. पर मेरा पक्ष यही है कि मीडिया को नियंत्रित करने के लिए कोई भी संहिता या क़ानून थोपने से पहले उस पर जमकर बहस होनी चाहिए. आनन-फ़ानन में लादा जाने वाला कोई भी क़ानून न केवल सरकार की हताशा का परिचायक है बल्कि भविष्‍य में राज्‍य के और अधिक निरंकुश तथा और ज्‍़यादा तानाशाह होने के अंदेशे की ओर इशारा करती है. ख़बरिया चैनलों को क़ाबू में करने की मौज़ूदा कोशिशों का न केवल विरोध होना चाहिए बल्कि देश और समाज के हित में मीडिया के रचनात्‍मक योगदान के तौर-‍तरिकों पर भी व्‍यापक विचार-विमर्श की दरकार है. vineet kumar wrote: > > > मन-मोहन ख़बर बनाने से पहले, ज़रा सोचिए > > > सरकार इस बात को समझ ही नहीं पा रही या फिर समझना ही नहीं चाहती कि जिसे वो > नागरिक कह रही है वो अब सिर्फ नागरिक न होकर ऑडिेएंस भी है। दूरदर्शन के जमाने से > नागरिक और ऑडिएंस का जो घालमेल हुआ है उसे अभी तक बरकरार रखना चाहती है। इसलिए > जब भी मीडिया के मामले में बात करना शुरु करती है तो तुरंत कूदकर जनहित, पब्लिक > इन्टरेस्ट, सोशल वेलफेयर जैसे वैल्यू लोडेड, संवैधानिक शब्दों को भिड़ा देती है। जबकि देश में > सैंकड़ों निजी चैनलों को लाइसेंस देते समय उसे समझ लेना चाहिए कि ये चैनल देश के नागरिक > को ऑडिएंस मानती है और उसी केहिसाब से अपने कार्यक्रमों का प्रसारण करेगी। आज न्यूज > चैनलों के लिए कंटेट कोड और दुनियाभर के कानूनी प्रावधान लाए जा रहे हैं, उसकी बड़ी > वजह यही है कि सरकार अभी भी देश के तमाम लोगों को नागरिक मानकर चलती है या फिर > दूरदर्शन के दर्शक जिसके हित की चिंता सिर्फ उन्हें ही करनी चाहिए। सरकार के लिए ये > बात समझ के बाहर की है कि करीब पन्द्रह साल से निजी चैनल अपने तरीके से कार्यक्रमों > का प्रसारण कर रहे हैं, ये कहते हुए कि देश के लोग यही चाहते हैं तो चैनल और ऑडिएंस के > बीच कुछ संबंध बने होंगे। अब देश की जो ऑडिएंस दूरदर्श की तरफ कभी ताकने नहीं जाती, > वो हाइपरबॉलिक खबरें दिखाए जाने के वाबजूद भी निजी चैनलों को देखना पसंद करती है, > मुझे समझ में नहीं आता कि सरकार उनके लिए किस तरह के हित की बात करना चाहती है। > बाकी सेक्टर की बात न करते हुए फिलहाल की स्थिति को देखते हुए > > सरकार के लिए ये समझना जरुरी है कि नागरीक और ऑडिएंस दो अलग-अलग चीज है। जो देश > का नागरिक है और उसके लिए जनहित का जो भी फार्मूला या प्रवधान है, वो ऑडिएंस के > रुप में भी इसी तरह से होगा, जरुरी नहीं। > > सरकार को ऐसा कोई भी प्रावधान लाने के पहले जिसे कि मेनस्ट्रीम की आज लोकतंत्र का > गला घोटना कह रही है, निजी चैनलों औऱ ऑडिएंस के बीच के संबंधों को समझना चाहिए। उसे > इन दोनों के बीच सिर्फ इसलिए नहीं आना चाहिए कि वो सरकार है औऱ चाहे तो कुछ भी > कर सकती है। उसे उन बारिकियों में जाना चाहिए कि तमाम आलोचना के वाबजूद भी निजी > चैनल क्यों वूम पर हैं। ऑडिएंस जिसे कि वो नागरिक कह रहे हैं, क्यों तीन-साढ़े तीन सौ > रुपये लगाकर निजी चैनलों की तरफ भाग रही है। निजी चैनलों के आने के पहले की बात छोड़ > दे तो क्या सरकार के पास ऐसा कोई सर्वे है जिससे ये साफ होता हो उससे जिम्मे जो भी > माध्यम रहे हों, उसने व्यापक स्तर पर जनहित के काम किए हों। ऑडिएंस की बात छोड़ भी > दें तो भी नागरिक की जरुरतों को बेहतर तरीके से समझ पाए हों। नब्बे-इक्यानवे के बाद ऐसे > बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जिसमें सरकारी मीडिया या फिर सरकार के सहयोग से > चलनेवाली मीडिया ने नागरिकों के बीच एक समानांतर समझ पैदा करने की कोशिश की हो। > जिसकी सरकार आयी, मीडिया पर उसके रंग चढ़ने लग गए। कुछ लोगों को अब भी कहते सुनता > हूं कि निजी समाचार चैनलों के बाढ़ के बीच दूरदर्शन अभी भी तटस्थ रुप से खबरों का > प्रसारण करता है। लेकिन हम जिसे तटस्थता कह रहे हैं, संभव है उसमें काफी हद तक > आलोचनात्मक समझ की कमी हो। निजी चैनलों की जरुरत यहीं सबसे ज्यादा है। > इसलिए जनहित के नाम पर सरकार निजी चैनलों को कसने की कवायद शुरु करने जा रही है > इसके पहले दो-तीन सवालों औऱ अपनी समझ को साफ कर ले तो इससे बेहतर जनहित और कुछ > नहीं हो सकता- > १ सरकार के पास को ठोस आधार नहीं है जिससे जनहित को खतरा है। अगर ताजा उदाहरण > मुंबई बम विस्फोट के लाइव कवरेज हैं तो सरकार को ऑपरेशन के तुरंत बाद एक-दो को छोड़कर > सारे निजी न्यूज चैनलों का शुक्रिया अदा करने में जल्दीबाजी नहीं मचानी चाहिए थी। उस > समय उन्होंने साफ कहा कि- इस ऑपरेशन ने मीडिया ने उनका भरपूर साथ दिया। > > २ देश के नागरिक औऱ देश की ऑडिएंस दो अलग-अलग चीजें हैं औऱ अब सरकार को इसमें घालमेल > नहीं करना चाहिए। निजी चैनल और सरकार के बीच ऑडिएंस भी है जो कि इ दोनों से किसी > भी मामले में कम महत्वपूर्ण नहीं है। संभव हो सरकार को इस बात की अच्छी समझ है कि > किस लाइन में सड़क, बिजली औऱ पानी पहुंचाने से जनहित का काम होगा, कितने स्कूल औऱ > कॉलेज खोले जाने से साक्षरता दर में इजाफा होगा लेकिन मीडिया के मामले में उसका दावा > इतना ही पुख्ता नहीं है। ऑडिएंस को क्या चाहिए ये तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार के > हाथ में नहीं जाने चाहिए। > ३ राजदीप सरदेसाई की बात पर एक बार फिर विचार करे कि- सरकार को लगता है कि > उनके कुछ मीडिया से भी ज्यादा काबिल लोग हैं। बिना रिसर्च के, बिना कोई सर्वे के > जिसमें ऑडिएंस शामिल ही नहीं है, इस तरह के प्रावधान को लागू करने की कोशिश करना, > मौजूदा हालात में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति ही समझी जाएगी। ये चैनल तब तक > बहुत अच्छे रहे, जब तक इन्होंने ऑपरेशन खत्म होने तक सरकार का भरपूर साथ दिया, > नेशनलिज्म को एक जज्बाती रंग देने का काम किया, लेकिन जैसे ही इसके लिए सरकार की > नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था में कोताही आदि मसलों पर बात करने लगे तो इन चैनलों से > जनहित को खतरा होने लगा। > इस तरह के फैसले से न तो मीडिया को दुरुस्त किया जा सकेगा, न ही जनहित के एजेंडे पर > बात हो सकेगी, उल्टे एक फ्रैक्चर्ड यूनिटी को बढ़ावा मिलेगा- जब सरकार के विरोध में > होंगे तो सारी मीडिया एकजुट हो जाएगी औऱ जब मीडिया के विरोध में होगे तो देश के > सारे नेता, चाहे वो किसी भी विचारधारा के क्यों न हों, एक हो जाएंगे। जबकि सच्चाई ये > है कि देश इस तरह के सी-शॉ खेल की तरह नहीं चलता। > >------------------------------------------------------------------------ > >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From ravikant at sarai.net Wed Jan 14 13:22:33 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 14 Jan 2009 13:22:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: old ghazals Message-ID: <200901141322.34452.ravikant@sarai.net> ग़ज़ल गायकी के लिए मशहूर जयपुर के अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन को आपने सुना होगा. यादें ताज़ा कीजिए, और करुणाकर का शुक्रिया अदा कीजिए. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: old ghazals Date: मंगलवार 13 जनवरी 2009 22:09 From: Guntupalli Karunakar To: Ravikant came across this - some old ghazals by hussein brothers http://in.youtube.com/watch?v=7S7-12LIPTs&feature=channel_page http://in.youtube.com/watch?v=Qur9ilP7948 http://in.youtube.com/watch?v=4x9twWForsk&feature=channel_page http://in.youtube.com/watch?v=fdudMgTCGX4&feature=channel_page -- ********************************** * कार्य: http://www.indlinux.org * * चिठ्ठा: http://cartoonsoft.com/blog * ********************************** ------------------------------------------------------- From v1clist at yahoo.co.uk Wed Jan 14 15:06:32 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Wed, 14 Jan 2009 09:36:32 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?paktranslations=2E?= =?utf-8?q?com?= References: <829019b0901112134x4b2155a1vb2cdccccf528e76d@mail.gmail.com> <855144.67628.qm@web26607.mail.ukl.yahoo.com> <2076f31d0901120118n485fcddci9028559bf0428a5a@mail.gmail.com> <352835.50005.qm@web26601.mail.ukl.yahoo.com> <8bdde4540901120315q5fb39ef2rc61b01ef53d5babc@mail.gmail.com> Message-ID: <149402.39294.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> "ये गूगल ट्रांस्‍लेशन के औजार से किस तरह अलग है ?" विजेंद्रभई, गूगल ट्रांस्‍लेशन और पाक ट्रांसलेशन में काफी फरक है| मैं इस ख़त लिखने के लिए गूगल ट्रांस्‍लेशन की इस्तमाल कर रहा हूँ| मगर पाक ट्रांसलेशन में अख्खा तयार वेब साईट की ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन किया जाता हैं, और वेब साईट चलाने वाले (owner) को भी यह सुविधा दिया जाता हैं की वह इसमे गलतिये पढ़ पढ़ के निकाल सकते हैं (editing)| ख़तम करने के बाद पूरा वेब साईट एक आद हफ्ते के लिए 'लाइव' भी रहता हैं| सुच में, मैंने पूरे तरह से नही पढ़ा हैं, फिर भी मुझे लगता हैं की ऐसे सुविधाएं हिन्दी वगैरें भाषाओँ के लिए अंग्रेज़ी (original) वेब साईट पब्लिशिंग में काम आएगा| Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ________________________________ From: Vijender chauhan To: Vickram Crishna Cc: deewan Sent: Monday, 12 January, 2009 16:45:04 Subject: Re: [दीवान]paktranslations.com ये गूगल ट्रांस्‍लेशन के औजार से किस तरह अलग है ? या केवल गूगल में उर्दू ट्रांस्‍लेशन न होने की वजह ये इसे विकसित किया गया है। हिन्‍दी में गूगल अनुवाद तो उपलब्‍ध है बाकी उर्दूदां लोग बताएं कि ये केवल अंगेजी से ही अनुवाद कर रहा है या हिन्‍दी से भी कर लेता है... मतलब कम से कम लिप्‍यांतरण उर्दू से हिन्‍दी तथा हिन्‍दी से उर्दू ? विजेंद्र On Mon, Jan 12, 2009 at 3:16 PM, Vickram Crishna wrote: ग़लत न मानिये| क्षमा मांगता हूँ| मक़सद येही था की ऐसे सेवाएँ हिंदुस्तान के और भी भाषाएँ, हिन्दी, बंागला, तामिल वगरें भाषाएँ के लिए भी होने चाहिए| Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ________________________________ From: arshad amanullah To: deewan Sent: Monday, 12 January, 2009 14:48:48 Subject: Re: [दीवान]paktranslations.com जानकारी के लिए शुक्रिया. लेकिन उर्दू भी एक हिन्दुस्तानी भाषा ही है भाई साहिब. अरशद अमानुल्लाह 2009/1/12 Vickram Crishna उर्दू भाषा के लिए नया वेबसाइट शुरू हुआ हैं "paktranslations.com", जिसमें कोई भी ब्लॉग या वेबसाइट का ऑटोमेटिक ट्रांसलेशन काफी अच्छी तरह से किया जाता हैं| क्या ऐसा कोई हिन्दुस्तानी भाषाएं के लिए भी तयार हैं? Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -- arshad amanullah Ye Mera Kutch Na Hona Darj Kar Lo Agar Mardum-shumaari Ho Rahi Hai _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090114/410728cb/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Jan 14 13:17:37 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 14 Jan 2009 13:17:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKjgpL8=?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KSjL+CkleCkpeCkvuCkquCkvuCkoC3gpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSu4KSw4KWN4KS2LzE1IOCknOCkqOCkteCksOClgCAyMDA5LyA=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSB4KSn4KWAIOCktuCkvuCkguCkpOCkvyDgpKrgpY3gpLDgpKQ=?= =?utf-8?b?4KS/4KS34KWN4KSg4KS+4KSo?= Message-ID: <200901141317.39242.ravikant@sarai.net> शैलेश जी, मैं मानकर चलता हूँ कि ये न्ञोता सिर्फ़ मेरे लिए नहीं है, दीवान के ख़ासो आम के लिए भी है. अस्तु! अपनी भी पूरी कोशिश होगी. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: निमंत्रण/कथापाठ-एक विमर्श/15 जनवरी 2009/ गाँधी शांति प्रतिष्ठान Date: मंगलवार 13 जनवरी 2009 23:20 From: "Shailesh Bharatwasi" To: ravikant at sarai.net रविकांत जी, हिन्द-युग्म लगातार इस कोशिश में लगा है कि ऑनलाइन दुनिया से ऑफलाइन दुनिया के बीच एक सेतु बने। इस कड़ी में पहला प्रयास कथापाठ और उसपर विमर्श आयोजित करके कर रहा है। जिसमें इंटरनेट की दुनिया से जुड़े दो कथाकारों तेजेन्द्र शर्मा और गौरव सोलंकी का कहानीपाठ १५ जनवरी २००९ को शाम ५:30 बजे से गाँधी शांति प्रतिष्ठान (२२१-२२३, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, आई टी ओ के पास, नई दिल्ली) में होगा। जिसपर हिन्दी कथा साहित्य के प्रमुख स्तम्भ असग़र वजाहत की समीक्षा होगी। साथ में युवा कथाकार अजय नावरिया और अभिषेक कश्यप की भी टिप्पणियाँ होंगी। ब्लॉग की भी बातें होंगी। पूरा विवरण यहाँ देखें- http://kavita.hindyugm.com/2009/01/kathapath-hindyugm-15-jan-2009.html कृपया कार्यक्रम में सम्मिलत होकर हमारा प्रोत्साहन करें। धन्यवाद। निवेदक--- शैलेश भारतवासी जिया सराय, नई दिल्ली हिन्द-युग्मः http://www.hindyugm.com/ ------------------------------------------------------- -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Kathapath_15_Jan_2009.jpg Type: image/jpeg Size: 125291 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090114/254b5582/attachment-0001.jpg From pramodrnjn at gmail.com Fri Jan 9 14:04:12 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (pramodrnjn) Date: Fri, 9 Jan 2009 14:04:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Nitish_Sarkar_=3A_?= =?utf-8?b?4KSk4KWA4KSoIOCkuOCkvuCksiwg4KSk4KWH4KSw4KS5IOCkuOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy?= Message-ID: <9c56c5340901090034y596aa27dy737d4e8d2b037397@mail.gmail.com> तीन साल, तेरह सवाल एक समाचार पत्रिका के शब्‍दों में 'तहलका' मचाने वाली यह पुस्तिका बिहार के प्रमुख नौकरशाहों, पत्रकारों और राजनेताओं के हाथों में 23 नवंबर,08 की शाम को अचानका पहुंची थी। 24 नवंबर को मौजूदा नीतीश सरकार का जन्‍म दिन है। बिहार सरकार के तीन साल पूरा करने पर जारी हुई यह पुस्तिका तब से लेकर आज तक बिहार के राजनीतिक हलकों में चर्चा में है। महज 22 पन्‍नों की इस पुस्तिका पर जारी करने वाली संस्‍था का नाम की जगह 'जनमत, महेंद्रु, पटना' छपा है। नीतीश सरकार के तानाशाहिक चरित्र का पता इस तथ्‍य से भी लगता है कि बिहार पुलिस की स्‍पेशल ब्रांच इस संस्‍था का पता लगाने के लिए दर्जनों प्रेसों पर दबिश बना चुकी है। यहां इस पुस्तिका की सभी सामग्री दे गयी है। 'लेबल' में 'तीन साल, तेरह सवाल'क्लिक कर आप पूरी पुस्तिका एक साथ देख सकते हैं। see blog here http://sanshyatma.blogspot.com/ -Pramod ranjan, Patna. mo. 9234382621 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090109/fb5dafae/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Jan 14 15:22:04 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 14 Jan 2009 15:22:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCklOCksSDgpLDgpYfgpKEg4KSV4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSX4KWL?= Message-ID: <829019b0901140152u22480d1eq79b423c069a7c44d@mail.gmail.com> तो जो रंग कभी देहाती और गंवई लोगों के बताए जाते रहे, टेलीविजन ने उन्हीं रंगों से स्क्रीन को पाट दिया। जिन चटक रंगों को दूरदर्शन ने नाट्य प्रस्तुति या खास मौके तौर पर इस्तेमाल किए, निजी चैनलों ने उसे रोजमर्रा के तौर पर इस्तेमाल करने शुरु कर दिए। हालांकि स्क्रीन को रंगीन बनाने की कहानी सिर्फ पोशाकों से शुरु नहीं होती। इलहू कर्टज ने इसे चैनलों के अपने खुद के गेटअप बदलने से शुरु कहानी मानते हैं। बीबीसी ने नीले, आसमानी के बजाय अपने को लाल कर लिया, कुछ काले रंग डाले और कहीं-कहीं सफेद। ये बहुत ही बेसिक रंग थे लेकिन इससे जो कॉन्ट्रास्ट पैदा हुआ वो अब तक के लिए एक नया प्रयोग रहा। अब तक बलू ग्रुप के रंगों को ही ऑफिशियल कलर माना जाता रहा, ये धारणा टूटती है। उसके बाद आप देखते हैं कि आजतक, आइबीएन सेवन से लेकर हाल ही में शुरु हुए चैनल लाइव इंडिया ने अपने रंग लाल, काला औऱ सफेद कर लिए। लाल औऱ काले का कॉविनेशन अभी भी जोर पर है। ये अलग बात है कि दूरदर्शन खबरों के मामले में चाहे जो भी हो, रंगों के मामले में निजी चैनलों से दो कदम आगे है। ब्लू, स्टील व्हाइट और आसमानी किए हुए दो साल से ज्यादा नहीं हुए कि उसने अपना रंग लाल-पीला कर लिया। स्क्रीन के बदलने और चैनल के गेटअप में रंगों के संयोजन का एक अलग किस्सा है, जिसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात पोशाक पर ही करें। एंकर ने शुरुआती दौर में सबसे ज्यादा काले रंग की कोट या ब्लेजर को अपनाया, इसमें ब्लू रंग भी शामिल किया। ये गेटअप कुछ इस तरह से स्टैब्लिश हुआ कि प्राइवेट चैनल के एंकरों का ड्रेस कोड सा हो गया। लेकिन बाद में ब्लेजर के रंग तेजी से बदलने लगे। मेल एंकर में ब्लेजर के रंगों को लेकर अभी भी एक हद तक स्टैब्लिटी है लेकिन फीमेल एंकर के ब्लेजर या कोट उन तमाम रंगों के हो गए हैं जो आपको गुलाल के रुप में, पेंट के रुप में या कम्प्यूटर के कलर बक्से में मौजूद होते हैं। यही बात टॉप के साथ भी लागू होती है। दुनियाभर के रंगों को शामिल करने के पीछे लॉजिक सिर्फ इतनी होती है कि स्क्रीन पर ऑडिएंस को फ्रेशनेस का एहसास हो। ये अलग बात है कि कई बार खबरों की प्रकृति और एंकर की पोशाक के रंगों से कोई मेल नहीं होता और आपको अटपटा भी लग सकता है। दूसरी तरफ आप मनोरंजन चैनलों पर पोशाक की रंगों की बात करें। यहां तो आप पोशाक को रंगों के अलावे उसकी वरायटी को लेकर अलग से चर्चा कर सकते हैं। कभी फैशन के मामले में चर्च गेट और खड़गपुर का जो नाम रहा है अब ये काम ये चैनल ही कर देते हैं। लेकिन रंगों के मामले में आपको स्पष्ट विभाजन समझ में आ जाएगा। जो जितनी बड़ी सिलेब्रेटी है उसकी पोशाक के रंगों को लेकर उतना ही चटकीलापन है। आप कह सकत हैं कि सिलेब्रेटी के बीच बोल्ड कलर ज्यादा खपत में है या फिर सिलेब्रेटी बनने के लिए या बन जाने के बाद या दिखने के लिए चटक और बोल्ड रंगों का इस्तेमाल करने लग जाते हैं। नतीजा आपके सामने है। केसरिया, गाढ़ा लाल, बिल्कुल काला, पैरॉट ग्रीन, पर्पल, जामुनी, गोल्डन, सिल्वर या मेटैलिक जैसे रंग जिसे फीमेल कलर माना जाता रहा, जिसे साडियों और दुपट्टे का रंग माना जाता रहा आज उसी रंग की शेरवानी, सूट या फिर सर्ट से स्क्रीन औंधा पड़ा है। स्क्रीन प ये काम फ्रेशनेस दिखने के लिए किया जाता है, उत्साह और स्पेशलियटी पैदा करने के लिए किया जाता है। लेकिन आझ यही रंग स्क्रीन से बाहर की दुनिया यानि रीयल लाइफ में भी घुसता चला जा रहा है। लड़कों के लिए लाल रंग तो दिन-चार साल पहले से ही कॉमन हो गए लेकिन पर्पल, पिंक, पैरॉट ग्रीन, मेटैलिक इधर एक-डेढ़ साल में पॉपुलर हुए हैं। इस फर्क को आप फैब्रिक के साथ जोड़कर देख सकते हैं। ये अलग बात है कि स्क्रीन पर बेहतर दिखनेवाले ये रंग जब रीयल लाइफ में पहनकर कोई चलते-फिरते दिख जाता है तो एक बार फिर से देहाती टर्म याद हो आता है। लेकिन देश और दुनिया की हजारों छोटी-बड़ी कम्पनियां पुराने रंगों को अपदस्थ करते हुए टेलीविजन के रंगों को प्रोमोट करने में लगी है। इसमें लिवाइस, लायकी, यूसीबी, स्पाइकर, यूनी स्टाइल, पेइपेइ जीन्स से लेकर कोलकाता के मंग्ला हाट औऱ दिल्ली के गांधीनगर की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कम्पनियां शामिल है। कोई लिवाइस की लाल कार्गो पहनता है तो लिवाइस होने की वजह से आप उसके रंग पर सवाल नहीं कर सकते क्योंकि लिवाइस को लेकर सवाल नहीं किए जा सकते। यूसीवी की पैरॉट ग्रीन पर आप नाक-भौं सिकोड़ नहीं सकते। ब्रांड की ताकत के आगे रंगों का चयन बहुत मायने नहीं रखता। हम मान कर चलते हैं कि ये कंपनियां हमसे ज्यादा दिमाग रखती है। दूसरी तरफ आप गांधीनगर में, मोनेस्ट्री में २५० रुपये की मिल रही लाल कार्गों पर सवाल नहीं कर सकते क्योंकि जब लिवाइस लाल रंग की बना सकता है तो फिर इसमें गलत क्या है। तब आप ब्रांड के फैशन से रंगों के फैशन पर चले जाते हैं और घूम-फिरकर टेलीविजन के रंगों को अपना लेते हैं। उम्रदराज लोगों के बीच भी रंगों की बढ़ती च्वाइस की वजह यही है कि टेलीविजन में भी पचास-पचपन साल का कैरेक्टर हल्दी पीला कुर्ता और आसमानी पायजामा पहनकर टहलते नजर आता है और फिर वही बात कि टेलीविजन में झूठ थोड़े ही दिखाता है।....अब कोई कहे तो कहे कि बाकी चीजों की तरह टेलीविजन ने गांव औऱ गरीब-गुरबा लोगों के रंगों को भी हथिया लिया है। लाल-पीला अब सिलेब्रेटी लोग पहनते हैं, आम आदमी नहीं -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090114/34a38070/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Jan 15 14:37:53 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 Jan 2009 14:37:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkheCkguCkpOCkpOCkgyDgpK7gpKjgpYvgpLA=?= =?utf-8?b?4KSC4KSc4KSoIOCkleCkviDgpK7gpL7gpKfgpY3gpK/gpK4g4KS54KWI?= Message-ID: <829019b0901150107h1bc75c15g1f0198c0f59f6c5c@mail.gmail.com> दोस्तों, इस सप्ताह से टीवी PLUS पर टेलीविजन को लेकर ब्लॉगर की व्यक्तिगत राय क्या है, प्रकाशित करने जा रहे हैं। प्रत्येक सप्ताह हम किसी एक ब्लॉगर से बातचीत करके ये जानने की कोशिश करेंगे कि टेलीविजन ने समाज, परिवेश और सोचने के तरीके को किस तरह बदला है, किस तरह से उसने एक अलग समाज रचने की कोशिश की है। बातचीत के दौरान ब्लॉगर टेलीविजन को लेकर अपने अनुभव, विचार और इस संबंध में जो भी उनकी प्रतिक्रिया है, हमसे साझा कर सकेंगे। इस कड़ी में आज हम बातचीत कर रहे हैं गिरीन्द्रसे। गिरीन्द्र आइएनएस न्यूज एजेंसी से जुड़े हैं। गिरीन्द्र शुरुआती दौर के ब्लॉगरों में से हैं। पिछले कुछ सालों से अनुभव www.anubhaw.blogspot.com नाम से चर्चित अपने ब्लॉग का संचालन भी करते आ रहे हैं। पूरी बातचीत पढ़ने के लिए क्लिक करें http://teeveeplus.blogspot.com विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090115/f4750a54/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Jan 15 23:26:53 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 Jan 2009 23:26:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSPIOCksA==?= =?utf-8?b?4KSa4KSo4KS+4KSV4KS+4KSw4KWL4KSCIOCkleCkviDgpKjgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSw?= Message-ID: <829019b0901150956m521f8514u94f423414338552@mail.gmail.com> हिन्द युग्म के कथा पाठ और विमर्श कार्यक्रम में जब अभिषेक कश्यप और अजय नावरिया ने अपनी बात रखी तो मुझे लघु मानव को कविता में शामिल करने औऱ उसके पक्ष में खड़े होनेवाले आलोचक याद आ गए। विजयदेवनारायण सहित कई दूसरे आलोचकों ने मिलकर नयी कविता में पूरी एक बहस ही शुरु ही दी औऱ देखते ही देखते हिन्दी कविता औऱ आलोचना में एक ऐसी बिरादरी पैदा हो गयी जो लघु मानव को लेकर पूरा का पूरा समाजशास्त्र गढ़ने में लग गए। अकादमिक स्तर पर इस बहस को कितनी जगह मिली, लोगों ने इसे कितना समझा इसमें न जाते हुए भी मैं रथ का टूटा पहिया, मुझे फेंको मत, न जाने इतिहास की गति कब अवरुद्ध हो जाए और इन टूटे पहिए का साथ हो जैसी कविता की पंक्तियां प्रस्तावना के तौर पर दोहरायी जाने लगी। इस संबंध में आज भी अगर आप हिन्दी के विद्यार्थियों से बात करें तो वो धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों को जरुर दोहराते मिल जाएंगे। लेकिन लघु मानव की पक्षधरता की बात करते हुए, इसके शुरुआती दौर के आलोचकों का कुर्ता थामे कुछ आलोचक कब महामानव बन गए और लघु मानव के लिए कविता औऱ रचना लिखनेवालों को ही लघु मानव साबित करने में जुट गए, इसका कोई भी इतिहास आपको हिंदी साहित्य में नहीं मिलेगा। वैसे भी हिन्दी साहित्य में योगदानों की ही चर्चा ज्यादा हुई है, लघु मानव की खोज एक योगदान है जबकि उस पर बात करनेवालों को लघुमानव घोषित कर देना योगदान नहीं, स्ट्रैटजी है। हिन्दी साहित्य स्ट्रैटजी की चर्चा से बचता रहा है इसलिए मार्केटिंग औऱ मैनेजमेंट से कभी इसकी पटती नहीं। आज जब अजय नावरिया ने एक बात कही कि अब की आलोचना महत्तम की आलोचना नहीं, लघुतम की आलोचना है औऱ होनी चाहिए। है इस दावे पर असहमति न भी बने तो भी होनी चाहिए पर समर्थन तो किया ही जा सकता है। महत्तम का आशय आलोचना की उस पद्धति से है जिसमें बड़े-बड़े आलोचक रचना पर बड़ी-बड़ी बातें कर जाते हैं और इस क्रम में रचना को बड़ी बनाकर ही दम लेते हैं। जबकि इसके बरक्श कई ऐसी रचनाएं ऐसी होती हैं जो आलोचकों के हाथ में पड़कर बड़ी होने से रह जाती है या फिर उनके हाथ में न पड़ने से ज्यादा बड़ी होती है। अजय नावरिया अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही लेकिन आलोचना, स्ट्रैटजी और इसके भीतर के खेल की तरफ इशारा करते नजर आए। जबकि अभिषेक कश्यप गौरव सोलंकी जैसे नए कथाकार पर टिप्पणी करने के बहाने नावरिया की बात को और भी साफ कर गए। उन्होंने गौरव सोलंकी सहित आधे दर्जन रचनाकारों का नाम लेते हुए कहा कि ये रचनाकार तथाकथित किसी बड़ी पत्रिका में, हालांकि इनकी संख्या आठ-दस से ज्यादा नहीं है, नहीं छपे। अगर बड़ी पत्रिकाओं में, बड़े संपादकों की छत्रछाया में छपने से ही कोई रचना बड़ी होती है तब आप ऐसे लोगों का कभी नाम भी नहीं सुन पाते। ये छोटी-मोटी पत्रिकाओं में छपते रहे हैं, इनकी रचनाओं को आप ब्लॉग या बेबसाइट के जरिए पढ़ सकते हैं। लेकिन ये दमदार रचनाकार तो हैं। क्योंकि ये ऐसे समय में लिख रहे हैं जबकि पत्रिकाओं ऱ महान आलोचना के अलावे भी दूसरे माध्यमों से पढ़े जा रहे हैं। पाठक और रचनाकार के बीच फिर से एक व्यक्तिगत, एक निजी संबंध पनप रहे हैं। इसलिए रचनाकार को भी चाहिए कि वो महान आलोचना की परवाह किए बिना अपनी रचनाशीलता पर ध्यान दे। एक स्तर पर देखें तो लघु मानव को रचना में शामिल करने से ज्यादा मुश्किल काम है मठाधीशी के माहौल में किसी रचनाकार को लघु साबित करने के खिलाफ आवाज उठाना। लेकिन सुखद है कि न तो अजय नावरिया ने और न ही अभिषेक कश्यप ने इस मामले में मर्सिया पढ़ने का काम किया है। बल्कि रचना की उपस्थिति के नए माध्यमों को लेकर उत्साहित हैं कि इस महान कही जानेवाली आलोचना की अट्टालिका के उस पार छोटे-छोटे द्वीपों के समूह बन रहे हैं औऱ उसमें दिनोंदिन रौनक बढ़ रही है, पाठकों के जुटने से चहल-पहल बरकरार है औऱ रचना संसार एक बार फिर से गुलजार होता जा रहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090115/4c5fe019/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Jan 15 14:29:48 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 Jan 2009 14:29:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkheCkguCkpOCkpOCkgyDgpK7gpKjgpYvgpLA=?= =?utf-8?b?4KSC4KSc4KSoIOCkleCkviDgpK7gpL7gpKfgpY3gpK/gpK4g4KS54KWI?= Message-ID: <829019b0901150059ue9b2548j50443f06c35138eb@mail.gmail.com> दोस्तों, इस सप्ताह से टीवी PLUS पर टेलीविजन को लेकर ब्लॉगर की व्यक्तिगत राय क्या है, प्रकाशित करने जा रहे हैं। प्रत्येक सप्ताह हम किसी एक ब्लॉगर से बातचीत करके ये जानने की कोशिश करेंगे कि टेलीविजन ने समाज, परिवेश और सोचने के तरीके को किस तरह बदला है, किस तरह से उसने एक अलग समाज रचने की कोशिश की है। बातचीत के दौरान ब्लॉगर टेलीविजन को लेकर अपने अनुभव, विचार और इस संबंध में जो भी उनकी प्रतिक्रिया है, हमसे साझा कर सकेंगे। इस कड़ी में आज हम बातचीत कर रहे हैं गिरीन्द्रसे। गिरीन्द्र आइएनएस न्यूज एजेंसी से जुड़े हैं। गिरीन्द्र शुरुआती दौर के ब्लॉगरों में से हैं। पिछले कुछ सालों से अनुभव www.anubhaw.blogspot.com नाम से चर्चित अपने ब्लॉग का संचालन भी करते आ रहे हैं। विनीत- गिरीन्द्र, बिना किसी औपचारिकता के, सबसे पहले हम चाहेंगे कि आप टेलीविजन से जुड़ी अपनी यादों के बारे में हमें कुछ बताएं। गिरीन्द्र- टेलीविजन पर जब भी सोचता हूं तो मुझे मेरा बचपन सबसे पहले याद आता है। कब टीवी देखना शुरु किया, ठीक-ठीक याद किया लेकिन इतना जरुर है कि चित्रहार और चंद्रकांता जैसे टीवी प्रोग्राम से पहली बार जुड़ा औऱ उसके बाद से टीवी देखने लगा। मुझे चंद्रकांता का यक्कू अभी भी याद है। उसके बाद हमने टीवी पर कई कार्यक्रम देखने शुरु किए,सिनेमा, संसद की बहसें औऱ भी बहुत कुछ। विनीत- गिरीन्द्र जिस समय आपने टेलीविजन देखना शुरु किया या यों कहें कि स्कूल के दिनों में जब आप टीवी देखा करते, लोगों की क्या राय बनती थी, वो टेलीविजन को किस रुप में लेते रहे। गिरीन्द्र- उस समय भी टेलीविजन को लेकर दो तरह के लोग या कहें कि दो तरह की राय रखनेवाले लोग रहे, एक के लिए तो टेलीविजन फालतू की चीज रही, जिससे कि समय बर्बाद होता है, इससे किसी भी तरह से भला नहीं हो सकता औऱ दूसरे वो लोग रहे जिनके हिसाब से टेलीविजन से समझ विकसित की जा सकती है। उनका विरोध टेवीविजन से न होकर उसके कुछेक कार्यक्रमों से होती। खुद मेरे पापा कहा करते- आओ भारत की खोज देखो, वो चाहते कि हम टीवी पर संसद की बहसें सुना करें। लेकिन मेरी अपनी राय है कि तब भी लोग टेलीविजन को सूचना या खबर के लिए कम और मनोरंजन के लिहाज से ज्यादा देखा करते। टीवी देखते हुए भी वो खबरों के लिए बीबीसी(रेडियो) से जुड़े रहते। मैं तो टीवी को मनोरंजन का ही माध्यम मानता हूं। विनीत- याद कीजिए, तब बहुत ही कम लोगों के घरों में टेलीविजन हुआ करते थे, ऐसे में लोग एक-दूसरे के यहां जाकर टीवी देखते। आप सामूहिक रुप से टेलीविजन देखने के बारे में कुछ बताएं। गिरीन्द्र- आमतौर पर लोग धार्मिक कार्यक्रमों को ही सामूहिक तौर पर देखते। धर्म के नाम पर टेलीविजन लोगों को जोड़ने का काम करता। किसी के घर में टीवी नहीं होती और किसी के घर में होती भी तो लाइट चली जाने से जिनके यहां बैटरी होती, उनके यहां देखने चले आते। लेकिन ऐसा रामायण और महाभारत के मामले में ही ज्यादा हुआ। बाद में भी धार्मिक सीरियल आए लेकिन तब लोग सामूहिक रुप से बहुत अधिक नहीं देखा करते। धीरे-धीरे टेलीविजन की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। विनीत- इसी क्रम में महिला दर्शकों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे। गिरीन्द्र- महिलाएं भी धार्मिक सीरियलों को ही साथ-साथ बैठकर देखा करती या फिर दूसरे के घरों में जाकर देखती। हां बाद में शांति नाम से एक सीरियल आया औऱ महिलाओं ने उसे साथ देखना शुरु किया, उस पर चर्चाएं करती। आप कह सकते हैं कि टीवी सीरियल देखने का चस्का लगाने में शांति का बड़ा हाथ है। विनीत- गिरीन्द्र ये तो बात हुई टेलीविजन के उस दौर की जब सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था, उस समय तक टेवीलिजन कहो या फिर दूरदर्शन, बात एक ही थी। अब कुछ निजी चैनलों के बारे में चर्चा की जाए। गिरीन्द्र- निजी चैनलों को मैंने १९९६-९७ से देखना शुरु किया। इन चैनलों का शुरु से ही हमलोगों के बीच क्रेज रहा। एक तो मैं खुद मीडिया की तरफ आना चाहता था, इसलिए इन चैनलों को देखा करता और दूसरा कि इसमें गाने आते, फिल्में आती। गानों और फिल्मों ने मुझे इन चैनलों की तरफ ज्यादा आकर्षित किया। विनीत- निजी चैनलों के आने पर आप टेलीविजन औऱ ऑडिएंस के बीच संबंधों के बदलाव को आप किस रुप में देखते हैं। एक बात तो साफ है कि शुरुआती दौर में इसकी भी ऑडिएंस वही रही जो एक समय दूरदर्शन की ऑडिएंस रही, बाद में इन चैनलों ने अपना एक ऑडिएंस वर्ग तैयार किया। गिरीन्द्र- बिल्कुल, निजी चैनलों के आने से, इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि छतरी के आ जाने से कई घरों के टेलीविजन ड्राइंग रुम से शिफ्ट होकर बेडरुम तक पहुंच गए। एक ही घर में एक से ज्यादा टेलीविजन इसी निजी चैनलों की देन है। घर का गार्जियन कुछ और देख रहा है तो उसके बच्चे कुछ अलग चीजें देख रहे हैं। विनीत- लेकिन इसी समय ये बात औऱ जोर पकड़ने लगी कि टेलीविजन लोगों को भ्रष्य करने का काम कर रहा है,ये आनेवाली पीढ़ी को बर्बाद करके रख देगा। इस पर कुछ टिप्पणी करना चाहेंगे। गिरीन्द्र- टेलीविजन लोगों को भ्रष्ट करने का काम करता है, इसे मैं लोगों की व्यक्तिगत राय मानता हूं। सच बात तो ये है कि इन चैनलों के आने से लोगों के भीतर कुत्सित भावना में कमी आयी है। अब कोई छुप-छुपकर टीवी नहीं देखता। टीवी देखते हुए अब कोई ये नहीं सोचता कि वो कोई अपराध कर रहा है। इसे मैं एक खुलेपन का महौल बनाने में मददगार माध्यम मानता हूं। अब घर के लोग कंडोम मतलब समझदारी के विज्ञापन को साथ बैठकर देखने लगे हैं। कोई हिचक नहीं, कोई असहज भाव नहीं। विनीत- गिरीन्द्र, आप जिसे खुलेपन का नाम दे रहे हैं, इसे क्या बाकी जगहों पर भी सोशल प्रैक्टिस के रुप में देखा जा सकता है। हम यों कहें कि क्या टेलीविजन एक ओपन सोसायटी गढ़ने में हमारी मदद कर रहा है। गिरीन्द्र- इसे सीधे-सीधे तो पूरी तरह नहीं मान सकते लेकिन हां एक समय ऐसा जरुर आएगा, जब लोग टेलीविजन देखकर असल जिंदगी में भी खुलने लगेंगे। शहरों का तो बहुत अनुभव नहीं रहा लेकिन अपने गांव और कस्बों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इसकी शुरुआत हो चुकी है, लोग अपने उन रिश्तेदारों से सहज होकर बात करने लगे हैं, जिनके आगे वो घूंघट तानकर आते रहे, सिर झुकाकर बात करके रहे। स्त्रियां पहले से फ्रैंक होने लगी है। विनीत- तो क्या आप ये कहना चाह रहे हैं कि टेलीविजन पर्सनालिटी परफेक्शन का माध्यम है। गिरीन्द्र- इस बात को मैं अपने गांव से जोड़कर देखना चाहूंगा। लोग अब ऐसे मसलों पर बात करते नजर आते हैं जिसे आप अर्वन इश्यू कहते रहे हैं, फैशन और रहन-सहन के स्तर पर तो टेलीविजन ने एक जबरदस्त नजरिया दिया है उन्हें। किस सीरियल में किसने कौन-सी ज्वेलरी पहनी और किस मौके पर क्या पहनना चाहिए, किन रंगों का चुनाव बेहतर होगा,इन सारी बातों का सीधा असर मैं अपने गांव के लोगों में देखता हूं। टीवी का असर या फिर टीवी से उनका किस हद तक जुड़ाव है, ये विश्वास कि टेलीविजन उन्हें बेहतर बनाता है, इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब वहां के लोग दिल्ली या हरियाणा जैसे शहरों में काम करने आते हैं तो वापस साथ में टीवी ले जाते हैं, गांव जाकर २००० रुपये में डिश लगाते हैं। वो अब टीवी को एक अनिवार्य चीज के तौर र लेने लगे हैं। और जो बात आप पर्सनालिटी परफेक्शन के तौर परकर रहे हैं, उसका एक उदाहरण आपके सामने देना चाहूंगा। मेरे गांव में मेरा एक दोस्त श और स को टेलीविजन देख-देखकर दुरुस्त किया। आप जानते हैं एक खास क्षेत्र के लोगों के बीच इस तरह के उच्चारण को लेकर समस्या है। दूसरी बात, टेलीविजन ने संस्कृति के स्तर पर, रहन-सहन और पहनावे-ओढ़ावे के स्तर पर शहर औऱ गांव के बीच फर्क को काफी हद तक कम किया है। अब गांव के लोगों के लिए भी कोई भी चीज अंजान नहीं है, अब आप नहीं कह सकते कि फलां चीजों का इस्तेमाल सिर्फ शहर के लोग ही करते हैं। टेलीविजन इस धारणा को खत्म करता है। विनीत- गिरीन्द्र, अभी तक जो भी बातें हम कर रहे हैं, वो ओवरऑल टेलीविजन पर कर रहे हैं, न्यूज चैनलों को लेकर भी कुछ बात कर लें। गिरीन्द्र- अब लोगों ने न्यूज चैनल देखने कम कर दिए हैं। अब पहले वाली बात नहीं रही कि आजतक के कुछ कार्यक्रमों और विनोद दुआ जैसे पत्रकारों की वजह से लोग न्यूज चैनलों को उतने ही चाव से देखते जितने चाव से किसी सिनेमा औऱ मनोरंजन के कार्यक्रमों को। अब एक न्यूज चैनलों में न्यूज नहीं रह गए हैं, सब मनोरंजन और खिलंदड़पन रह गया है और दूसरा कि लोग अब भी टेलीविजन को मनोरंजन के माध्यम के रुप में लेते हैं। विनीत- इस संबंध मे आपकी क्या प्रैक्टिस है। गिरीन्द्र- मैं भी न्यूज चैनल बहुत ही कम देखता हूं। देखता भी हूं तो या तो एनडीटीवी या फिर सीएनएन आइबीएन। बाकी टीवी को मैं फिल्मों और गानों के लिए ज्यादा देखता हूं और मेरे जसे दर्शकों की संख्या ज्यादा है औऱ तेजी से बढ़ रही है। लोग मनोरंजन की तरफ ज्यादा तेजी से भाग रहे हैं। विनीत- एक सवाल ये भी है कि टेलीविजन कन्ज्यूमर कल्चर को प्रोमोट करते हैं, खासकर उनके विज्ञापन। इस संबंध में कुछ कहना चाहेंगे। गिरीन्द्र- सच कहूं तो विज्ञापन को लेकर लोगों का आकर्षण पहले से कई हुना बढ़ा है। विज्ञापन पहले से ज्यादा टची होने लगे हैं। वो सीधे-सीधे नहीं कहते कि फलां सामान खरीदो। उसमें जबरदस्त क्रिएटिविटी है। मेरे कई दोस्त यूट्यूब से उठाकर एक ही विज्ञापन को कई-कई बार देखते हैं। औऱ जहां तक बात कन्ज्यूरिज्म की है तो इसका असर आपको कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र की ऑडिएंस में ज्यादा मिलेगा। शहर के लोगों ने एक हद तक टीवी देखना ही बंद कर दिया। विनीत- गिरीन्द्र, चलते-चलते आखिरी सवाल, आप इस पूरे बदलाव को किस रुप में देखते हैं। टेलीविजन से बनने वाले देश को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया है। गिरीन्द्र- देखिए, एक बात तो है कि टेलीविजन हमें मोनोटोनस बनाता है, देश-दुनिया छोड़कर चिपक जाने की लत पैदा करता है। एक हद तक नास्टॉलजिक भी कर देता है। लेकिन इन सबके वाबजूद मैं इसे साकारात्मक रुप में लेता हूं। इसका प्रसार आनेवाले समय में सही दिशा में होगा। इसे मैं कस्बाई जीवन के बीच क्रांति का माध्यम मानता हूं। उनके बीच टेलीविजन के कारण जो कुछ भी बदलाव आ रहे हैं, उसे काफी हद तक बेहतर मानता हूं। औऱ उम्मीद करता हूं कि आनेवाले समय में टीवी से लोगों का भला होगा। विनीत- टेलीविजन से बदलता है देश कॉन्सेप्ट पर बात करने के लिए शुक्रिया गिरीन्द्र- धन्यवाद -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090115/c3e2d2d0/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Jan 16 20:00:58 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 16 Jan 2009 20:00:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KSuIOCkueCliOCkpuCksCDgpLngpYvgpKTgpYcg4KSk4KWLIOCklw==?= =?utf-8?b?4KSm4KSX4KSmIOCkueCliyDgpJzgpL7gpKTgpYcgIQ==?= Message-ID: <6a32f8f0901160630l4fabb0cbl99cbd100ed7c7a10@mail.gmail.com> गुलाम हैदर होते तो गदगद हो जाते! यकीनन, संगीतकार ए आर रहमान तारीफ के हकदार हैं। वे जाने-अनजाने इसलिए भी तारीफ के काबिल हैं, क्योंकि उन्होंने गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जोतकर संगीतकार गुलाम हैदर को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। संभवतः कम लोगों को याद हो कि बीता साल यानी वर्ष 2008 हैदर के जन्म का सौवां साल था। वे पाकिस्तान (सिंध प्रांत) के हैदराबाद शहर में वर्ष 1908 में पैदा हुए थे। यह ताज्जुब की बात है कि एक ऐसे संगीतकार को लगभग भूला दिया गया है, जिन्होंने फिल्मी संगीत को उसके शुरुआती दिनों में बड़े यतन से तैयार किया था। कुछ फिल्मी पत्रकार बड़े सिनेड़ी बने फिरते हैं ! लेकिन, हैदर पर भी एक गंभीर रपट आती, तो बात बनती। हालांकि, इस गुनाह का भागी मैं खुद भी हूं। पर, अपराध-बोध कुछ कम है। क्योंकि, संपादक की आज्ञा और न्यूज रूम के कायदे ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया था। खैर !यह रोचक कहानी है। इसपर अगली दफा। फिल्म निर्माता कारदार ने हैदर को वर्ष 1932 में बन रही फिल्म- ´स्वर्ग की सीढ़ी´ में संगीत देने को कहा था। वैसे यह फिल्म ज्यादा चली नहीं थी। शायद याद हो कि इसी वर्ष हिन्दोस्तानी सिनेमा आवाज की दुनिया में दाखिल हुआ था। वर्ष 1941 में फिल्म-खजांची प्रदर्शित हुई। इससे हैदर का बड़ा नाम हुआ। फिल्मी संगीत को मजबूत आधार देने के लिए उन्होंने शुरुआती दिनों में कुछ अनुठे काम किए। पहला यह कि राजदरबार के कुशल साजिन्दों को इकट्ठा कर एक वादक समूह का निर्माण किया। इसमें पटियाला के उस्ताद फतेहअली खान व सोनीखान नाम के प्रख्यात क्लेरोनेट वादक भी शामिल थे। साथ ही गीतों में कई प्रयोग किए। मसलन उसमें आने वाले अंतरों का तरीका बदल डाला। पिछले दिनों जब मुंबई पर आतंकी हमले हुए तो कई लोगों को एक गीत खूब याद आया, ´´वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो....´´। पर इस गीत के संगीतकार को भी किसी ने याद किया हो यह नजर नहीं आया। फिल्म- शहीद (1948) के इस गीत को हैदर ने ही संगीतबद्ध किया था। जानकार कहते हैं कि हैदर ने बालीवुड में संगीतकारों का खूब मान बढ़ाया। संगीत की उसी निर्मल धारा में बहकर रहमान ने ठीक सौ साल बाद अपनी प्रयोगधर्मिता व हुनर के बूते दुनिया में बालीवुड के संगीतकारों का दर्जा ऊंचा उठा दिया। लोगों को यह मानने पर मजबूर कर दिया कि बालीवुड का संगीतकार भी सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में है। हालांकि, हैदर को गुजरे जमाना हो गया। लेकिन, आज यदि वे होते तो गदगद हो जाते। ब्रजेश झा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090116/4739f9d6/attachment.html From vijaykharsh at gmail.com Fri Jan 16 21:51:51 2009 From: vijaykharsh at gmail.com (Vijay Pandey) Date: Fri, 16 Jan 2009 16:21:51 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= New Birthday Calendar Message-ID: Hi Click on the link below and please enter your birthday for me. I am creating a birthday list of all my friends and family. http://www.birthdayalarm.com/bd2/84275795a425455048b1451170817c577319766d1386 Many Thanks, Vijay From vineetdu at gmail.com Sat Jan 17 14:50:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 17 Jan 2009 14:50:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWN4KSyIOCkleClgCDgpKjgpK/gpYAg4KSG4KSc4KS+4KSm?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0901170120o6413b977y106805afc7a1bfd2@mail.gmail.com> सविताभाभी.कॉम के फैन क्लब में एक लड़की ने स्क्रैप लिखा कि- मैं सविताभाभी को रेगुलर पढ़ती हूं, मैं लेसबियन हूं और चाहती हूं कि सविताभाभी को लेसबियन के साथ संबंध दिखाए जाएं। संभव है लड़की ने जो नाम फैन क्लब में दिए हों वो गलत हो और अपनी पहचान छुपाने की कोशिश की गयी हो लेकिन एक बात तो समझ में आती ही है कि सेक्स को लेकर लड़कियों ने भी अपनी पसंद औऱ नापसंद जाहिर करनी शुरु कर दी है। अपने यहां देखें तो स्त्री औऱ पुरुषों को लेकर सेक्स और शारीरिक संबंधों के मामले में अलग-अलग मानदंड रहे हैं। स्त्रियों के लिए सेक्स या सहवास वंशवृद्धि के लिए है, खानदान के चिराग को जलाए रखने के लिए है,बुढ़ापे के लिए लाठी की टेक के रुप में औलाद पैदा करने के लिए है। इसके आगे सहवास का उसके जीवन में कोई अर्थ नहीं है। इसमें न तो उसकी इच्छा, न खुशी औऱ न ही सैटिस्फेक्शन शामिल है। स्त्रियों के लिए सहवास धर्म की तरह है और जिस तरह धर्म का पालन इच्छा पूर्ति के बजाय साधना के लिए की जाती है, उसी तरह स्त्रियों के लिए सहवास साधना के तौर पर परिभाषित होकर रह जाती है जिसकी अंतिम परिणति है, मातृत्व को प्राप्त करना, बस। पुरुषों के लिए भी सहवास एक धर्म की तरह है जिसमें सिर्फ संतान पैदा करना औऱ वंशवद्धि करना तो होता ही है लेकिन उसके जरिए आनंद प्राप्त करने की छूट मिलती नजर आती है। नहीं तो तथाकथित माहन ग्रंथों में, एक पुरुष के लिए कई स्त्रियों के विधान को धार्मिक कलेवर न दिया जाता। खैर, सेक्स को लेकर किसी गंभीर अवधारणा में न भी जाएं औऱ फिलहाल इस बात को शामिल कर लें कि सेक्स शुरु से ही सिर्फ और सिर्फ संतान पैदा करने के लिए जरुरी विधान नहीं रहा है। पुरुषों के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं। दबे-छुपे ही सही लेकिन इसे आनंद के साथ स्वीकृति मिलती रही है। अब तो ये कॉन्सेप्ट के तौर पर है-कि सेक्स इज फॉर प्लेजर। सेक्स आनंद के लिए है। इस कान्सेप्ट का सबसे मजबूत उदाहरण आपको देशभर के पुरुष टॉयलेटों में चिपके सफेद-काले इश्तेहारों में मिल जाएगें जहां किसी क्रीम, तेल या कैप्शूल के बाकी गुणों को बताने के साथ-साथ मस्ती का पूरा एहसास जैसे पेट वर्ड शामिल किए होते हैं। देशभर में प्रकाशित होनेवाले दैनिक समाचार पत्रों में छपे विज्ञापनों में मिल जाएंगे। इस तरह की चीजों के विज्ञापन जहां कहीं भी आपको दिखेंगे उससे कभी भी आप एहसास कर पाएंगे कि तेल,कैप्सूल और क्रीम की जरुरत संतान पैदा करने के लिए सहवास के दौरान आएंगे। खोई हुई दुर्बलता, पौरुष ताकत हासिल करने का नुस्खा, आनंद और मस्ती का एहसास ऐसे शब्दों से भरे विज्ञापन ये आसानी से स्थापित कर देते हैं कि सेक्स सिर्फ संतान के लिए ही नहीं प्लजेर के लिए भी किए जाते हैं। इस संदर्भ में कंड़ोम को सेक्स एज ए प्लेजर की संस्कृति को बढ़ाने का सबसे मजबूत माध्यम मान सकते हैं। इन सबके वाबजूद भी अगर कोई अभी भी इसे धार्मिक कार्य औऱ साधना जैसे शब्दों से जोड़कर देखता है तो वो इसके बहाने दर्शन औऱ आध्यात्म पर बहस करना चाहता है या फिर पाखंड फैलाने का काम करना चाहता है। और मैं इन दोनों से बचना चाहता हूं। लेकिन प्लेजर का यही कॉन्सेप्ट जरा स्त्रियों के मामले में लागू करके देखिए। लागू तो दूर,समाज का एक बड़ा तबका कैसे आपको काट-खाने के लिए दौड़ता है। कृष्णा सोबती ने अपने उपन्यास मित्रो मरजानी में एक स्त्री को अपने पति से शारीरिक तौर पर असंतुषट होने औऱ उसे इसी आधार पर अस्वीकार कर देने की बात की तो पूरा हिन्दी समाज पिल पड़ा। स्त्री-विमर्श का एक सिरा जब ये कहता है कि देह के जरिए भी मुक्ति संभव है तो पितृसत्तात्मक समाज आग-बबूला हो उठता है। तमाम तरह की मुक्ति और बदलावों की बात कर लेने के बाद स्त्री-मुक्ति औऱ सेक्स के स्तर पर बात करने की कोशिश की जाए तो समाज उसे पचा ही नहीं पाता। वो इतना घबरा जाता है कि उसे लगता है कि स्त्रियों को आड़े हाथों लेने के लिए, उसे,यौन-शुचिता जैसे सवालों से घेरकर ही तो बेडियों को मजबूत बांधे रखा जा सकता है। अब जब वो सेक्स को भी रोजमर्रा की चर्चा में शामिल करने लग गयी, उसमें भी अपनी पसंद और नापसंद बताने लग गयी तो फिर ऐसा क्या बच जाएगा जिससे कि सामंती और गुलामी की संस्कृति को जिंदा रखा जा सकेगा। अब आप ही बताइए,ऐसे में, कोई लड़की नियमित अपडेट होनेवाले सविताभाभी.कॉम के पन्ने पढ़ती है, और तो और अपनी पसंद भी फैन क्लब में ठोंक जाती है तो ऐसी लड़कियों का क्या कर लेगें आप। सिवाय दिन-रात ये मनाने के कि हे भगवान ऐसी लड़कियों की संख्या न बढ़े। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090117/6b977e6e/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Sat Jan 17 16:16:22 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 17 Jan 2009 16:16:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS44KST4KSP?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpLDgpYfgpK7gpL/gpILgpJfgpY3igI3gpJ/gpKgg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCkpOClgCDgpK7gpYjgpJUg4KSq4KSwIOCkleCljeKAjeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCksOClh+Ckgg==?= Message-ID: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> एसओएस: रेमिंग्‍टन के लती मैक पर क्‍या करें कंप्‍यूटर से दोस्‍ती पुरानी है लेकिन मैक से पहचान भर भी नहीं रही। [image: apple-notebook-6]हाल में काम पड़ा तो खिलौने सा लगा, पर काम की चीज है और खास बात ये है कि काम न करने का विकल्‍प मौजूद नहीं है। गूगल व दोस्‍तों की सहायता से पता चला कि कैसे हिन्‍दी पढ़ी जा सकती है लेकिन लिखी कैसे जाए। इंटरनेशनल की सेटिंग में जाकर उसे लिखने लायक बनाया पर जिस कीबोर्ड के इस्तेमाल की उम्‍मीद करता है वो हमसे होगा नहीं। पंद्रह साल से रेमिंग्‍टन पर काम कर रहे हैं और अब इस उम्र में क्‍या राम राम पढेंगे। तो भइया ये डिस्‍ट्रेस काल है, किसी भले या कम भले मानस को पता हो कि इंडिक, बाराहा, कैफेहिन्‍दी जैसा कोई हिन्‍दी इन्‍पुट का औजार मैक पर काम करता हो जो रेमिंग्‍टन (साथ साथ ट्रांसलिटरेशन का भी आप्‍शन हो तो और भला) में काम करने की सुविधा देता हो जरूर बताएं। इतना सुंदर सा सेब लैपटाप है हम नहीं चाहते कि इसका इस्‍तेमाल सिर्फ बच्‍चों के गेम खेलने में हो। वैसे खूब सोचने पर भी आलोकजी को छोड़कर कोई हिंदीदॉं याद नहीं आ रहा जो मैक का शौकीन हो उनसे भी अनुरोध है कि आप कोई राह सुझा सकें तो जरूर बताएं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090117/87253e8d/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Sat Jan 17 16:42:16 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 17 Jan 2009 16:42:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWN4KSyIOCkleClgCDgpKjgpK/gpYAg4KSG4KSc4KS+4KSm?= =?utf-8?b?4KWA?= In-Reply-To: <829019b0901170120o6413b977y106805afc7a1bfd2@mail.gmail.com> References: <829019b0901170120o6413b977y106805afc7a1bfd2@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540901170312jf9c7edel6edc7e75a188e1a1@mail.gmail.com> विनीत, संभव है लड़की ने जो नाम फैन क्लब में दिए हों वो गलत हो और अपनी पहचान छुपाने की कोशिश की गयी हो लेकिन एक बात तो समझ में आती ही है कि सेक्स को लेकर लड़कियों ने भी अपनी पसंद औऱ नापसंद जाहिर करनी शुरु कर दी है। यदि पहचान गलत की संभावना पर विचार कर रहे हैं तो कतई समझ नहीं आता कि लड़कियों ने यौन अभिव्‍यक्तियॉं शुरू कर दी हैं। और अधिक संभवना है कि ऐसा ही है। पार्न कंटेंट की दुनिया में लेसिबयन संबंधों के चित्रण के ग्राहक (पाठक/व्‍यूअर) पुरुष समझे जाते हैं। यानि जिन सामग्री में समलैंकिग स्‍त्री संबंधों का चित्रण होता है उनके 'रसास्‍वादन' में पुरुष रुचि मानी जाती है। 'तो ऐसी लड़कियों का क्या कर लेगें आप। सिवाय दिन-रात ये मनाने के कि हे भगवान ऐसी लड़कियों की संख्या न बढ़े। ' हमारे मनाने से क्‍या होता है...हम तो ये भी मनाते हैं कि नया नया लैपटाप लिए पीएचडी के शोधार्थी सविताभाभी के द्वारे जाने के स्‍थान पर शोध पर घ्‍यान दें। ...कुछ होता हे हमारे मनाने से :)) विजेंद्र 2009/1/17 vineet kumar > सविताभाभी.कॉम के फैन क्लब में एक लड़की ने स्क्रैप लिखा कि- मैं सविताभाभी को > रेगुलर पढ़ती हूं, मैं लेसबियन हूं और चाहती हूं कि सविताभाभी को लेसबियन के > साथ संबंध दिखाए जाएं। संभव है लड़की ने जो नाम फैन क्लब में दिए हों वो गलत हो > और अपनी पहचान छुपाने की कोशिश की गयी हो लेकिन एक बात तो समझ में आती ही है कि > सेक्स को लेकर लड़कियों ने भी अपनी पसंद औऱ नापसंद जाहिर करनी शुरु कर दी है। > > अपने यहां देखें तो स्त्री औऱ पुरुषों को लेकर सेक्स और शारीरिक संबंधों के > मामले में अलग-अलग मानदंड रहे हैं। स्त्रियों के लिए सेक्स या सहवास वंशवृद्धि > के लिए है, खानदान के चिराग को जलाए रखने के लिए है,बुढ़ापे के लिए लाठी की टेक > के रुप में औलाद पैदा करने के लिए है। इसके आगे सहवास का उसके जीवन में कोई > अर्थ नहीं है। इसमें न तो उसकी इच्छा, न खुशी औऱ न ही सैटिस्फेक्शन शामिल है। > स्त्रियों के लिए सहवास धर्म की तरह है और जिस तरह धर्म का पालन इच्छा पूर्ति > के बजाय साधना के लिए की जाती है, उसी तरह स्त्रियों के लिए सहवास साधना के तौर > पर परिभाषित होकर रह जाती है जिसकी अंतिम परिणति है, मातृत्व को प्राप्त करना, > बस। > > पुरुषों के लिए भी सहवास एक धर्म की तरह है जिसमें सिर्फ संतान पैदा करना औऱ > वंशवद्धि करना तो होता ही है लेकिन उसके जरिए आनंद प्राप्त करने की छूट मिलती > नजर आती है। नहीं तो तथाकथित माहन ग्रंथों में, एक पुरुष के लिए कई स्त्रियों > के विधान को धार्मिक कलेवर न दिया जाता। खैर, > > सेक्स को लेकर किसी गंभीर अवधारणा में न भी जाएं औऱ फिलहाल इस बात को शामिल कर > लें कि सेक्स शुरु से ही सिर्फ और सिर्फ संतान पैदा करने के लिए जरुरी विधान > नहीं रहा है। पुरुषों के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं। दबे-छुपे ही सही लेकिन > इसे आनंद के साथ स्वीकृति मिलती रही है। अब तो ये कॉन्सेप्ट के तौर पर है-कि > सेक्स इज फॉर प्लेजर। सेक्स आनंद के लिए है। इस कान्सेप्ट का सबसे मजबूत उदाहरण > आपको देशभर के पुरुष टॉयलेटों में चिपके सफेद-काले इश्तेहारों में मिल जाएगें > जहां किसी क्रीम, तेल या कैप्शूल के बाकी गुणों को बताने के साथ-साथ मस्ती का > पूरा एहसास जैसे पेट वर्ड शामिल किए होते हैं। देशभर में प्रकाशित होनेवाले > दैनिक समाचार पत्रों में छपे विज्ञापनों में मिल जाएंगे। इस तरह की चीजों के > विज्ञापन जहां कहीं भी आपको दिखेंगे उससे कभी भी आप एहसास कर पाएंगे कि > तेल,कैप्सूल और क्रीम की जरुरत संतान पैदा करने के लिए सहवास के दौरान आएंगे। > खोई हुई दुर्बलता, पौरुष ताकत हासिल करने का नुस्खा, आनंद और मस्ती का एहसास > ऐसे शब्दों से भरे विज्ञापन ये आसानी से स्थापित कर देते हैं कि सेक्स सिर्फ > संतान के लिए ही नहीं प्लजेर के लिए भी किए जाते हैं। इस संदर्भ में कंड़ोम को > सेक्स एज ए प्लेजर की संस्कृति को बढ़ाने का सबसे मजबूत माध्यम मान सकते हैं। > इन सबके वाबजूद भी अगर कोई अभी भी इसे धार्मिक कार्य औऱ साधना जैसे शब्दों से > जोड़कर देखता है तो वो इसके बहाने दर्शन औऱ आध्यात्म पर बहस करना चाहता है या > फिर पाखंड फैलाने का काम करना चाहता है। और मैं इन दोनों से बचना चाहता हूं। > > लेकिन प्लेजर का यही कॉन्सेप्ट जरा स्त्रियों के मामले में लागू करके देखिए। > लागू तो दूर,समाज का एक बड़ा तबका कैसे आपको काट-खाने के लिए दौड़ता है। कृष्णा > सोबती ने अपने उपन्यास मित्रो मरजानी में एक स्त्री को अपने पति से शारीरिक तौर > पर असंतुषट होने औऱ उसे इसी आधार पर अस्वीकार कर देने की बात की तो पूरा हिन्दी > समाज पिल पड़ा। स्त्री-विमर्श का एक सिरा जब ये कहता है कि देह के जरिए भी > मुक्ति संभव है तो पितृसत्तात्मक समाज आग-बबूला हो उठता है। तमाम तरह की मुक्ति > और बदलावों की बात कर लेने के बाद स्त्री-मुक्ति औऱ सेक्स के स्तर पर बात करने > की कोशिश की जाए तो समाज उसे पचा ही नहीं पाता। वो इतना घबरा जाता है कि उसे > लगता है कि स्त्रियों को आड़े हाथों लेने के लिए, उसे,यौन-शुचिता जैसे सवालों > से घेरकर ही तो बेडियों को मजबूत बांधे रखा जा सकता है। अब जब वो सेक्स को भी > रोजमर्रा की चर्चा में शामिल करने लग गयी, उसमें भी अपनी पसंद और नापसंद बताने > लग गयी तो फिर ऐसा क्या बच जाएगा जिससे कि सामंती और गुलामी की संस्कृति को > जिंदा रखा जा सकेगा। > > अब आप ही बताइए,ऐसे में, कोई लड़की नियमित अपडेट होनेवाले सविताभाभी.कॉम के > पन्ने पढ़ती है, और तो और अपनी पसंद भी फैन क्लब में ठोंक जाती है तो ऐसी > लड़कियों का क्या कर लेगें आप। सिवाय दिन-रात ये मनाने के कि हे भगवान ऐसी > लड़कियों की संख्या न बढ़े। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090117/ae2cc0e8/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Jan 17 17:29:11 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 17 Jan 2009 17:29:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWN4KSyIOCkleClgCDgpKjgpK/gpYAg4KSG4KSc4KS+4KSm4KWA?= In-Reply-To: <8bdde4540901170312jf9c7edel6edc7e75a188e1a1@mail.gmail.com> References: <829019b0901170120o6413b977y106805afc7a1bfd2@mail.gmail.com> <8bdde4540901170312jf9c7edel6edc7e75a188e1a1@mail.gmail.com> Message-ID: <200901171729.12370.ravikant@sarai.net> पर विजेन्द्र जी, देखिए कि नया लैपटॉप लेने के बाद ये पीएचडी का शोधार्थी कितना ज़्यादा प्रोडक्टिव हो गया है. और सविता भाभी भी उसके शोध का हिस्सा माना जाए. क्या ख़याल है? रविकान्त शनिवार 17 जनवरी 2009 16:42 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > विनीत, > > हमारे मनाने से क्‍या होता है...हम तो ये भी मनाते हैं कि नया नया लैपटाप लिए > पीएचडी के शोधार्थी सविताभाभी के द्वारे जाने के स्‍थान पर शोध पर घ्‍यान दें। > ...कुछ होता हे हमारे मनाने से :)) > > विजेंद्र > > > > 2009/1/17 vineet kumar > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Sat Jan 17 17:37:06 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 17 Jan 2009 17:37:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS44KST4KSP?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpLDgpYfgpK7gpL/gpILgpJfgpY3igI3gpJ/gpKgg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KSk4KWAIOCkruCliOCklSDgpKrgpLAg4KSV4KWN4oCN4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWH4KSC?= In-Reply-To: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> References: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> Message-ID: <200901171737.07178.ravikant@sarai.net> तो साहब, आपकी समस्या का निदान ऐना से बात करके भी नहीं हुआ, लगता है. आलोक जी को अपनी समस्या तफ़सील में बताएँ, वो कोई राह सुझाएँगे, वरना किसी दिन अपने सुंदर सेव को लेकर सराय पधारिए, कुछ जुगाड़ लगाते हैं हम लोग. आप कीमैन डेवेलपर खोजकर देखिए गूगल पर. शायद उसमें कोई टाइपरा इटर बानाने की विधि हो मैक के लिए. नहीं तो मुझे लगता है आलोक, ऐना, और सराय के अमिताभ के साथ बैठकर एक लेआउट बनाते हैं. ये बहुत बड़ी तकनीक नहीं होनी चाहिए. लिनक्स और विन्डोज़ का हमारा तजुर्बा यही कहता है. रविकान्त शनिवार 17 जनवरी 2009 16:16 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > एसओएस: रेमिंग्‍टन के लती मैक पर क्‍या > करें > > कंप्‍यूटर से दोस्‍ती पुरानी है लेकिन मैक से पहचान भर भी नहीं रही। [image: > apple-notebook-6]/ucj-DPHh8S0/s1600-h/apple-notebook-6%5B5%5D.jpg>हाल में काम पड़ा तो खिलौने > सा लगा, पर काम की चीज है और खास बात ये है कि काम > न करने का विकल्‍प मौजूद नहीं है। गूगल व दोस्‍तों की सहायता से पता चला कि > कैसे हिन्‍दी पढ़ी जा सकती है लेकिन लिखी कैसे जाए। इंटरनेशनल की सेटिंग में > जाकर उसे लिखने लायक बनाया पर जिस कीबोर्ड के इस्तेमाल की उम्‍मीद करता है वो > हमसे होगा नहीं। पंद्रह साल से रेमिंग्‍टन पर काम कर रहे हैं और अब इस उम्र > में क्‍या राम राम पढेंगे। तो भइया ये डिस्‍ट्रेस काल है, किसी भले या कम भले > मानस को पता हो कि इंडिक, बाराहा, कैफेहिन्‍दी जैसा कोई हिन्‍दी इन्‍पुट का > औजार मैक पर काम करता हो जो रेमिंग्‍टन (साथ साथ ट्रांसलिटरेशन का भी आप्‍शन > हो तो और भला) में काम करने की सुविधा देता हो जरूर बताएं। इतना सुंदर सा सेब > लैपटाप है हम नहीं चाहते कि इसका इस्‍तेमाल सिर्फ बच्‍चों के गेम खेलने में > हो। > > वैसे खूब सोचने पर भी आलोकजी को छोड़कर कोई > हिंदीदॉं याद नहीं आ रहा जो मैक का शौकीन हो उनसे भी अनुरोध है कि आप कोई राह > सुझा सकें तो जरूर बताएं। From chauhan.vijender at gmail.com Sat Jan 17 17:45:38 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 17 Jan 2009 17:45:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS44KST4KSP?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpLDgpYfgpK7gpL/gpILgpJfgpY3igI3gpJ/gpKgg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCkpOClgCDgpK7gpYjgpJUg4KSq4KSwIOCkleCljeKAjeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCksOClh+Ckgg==?= In-Reply-To: <200901171737.07178.ravikant@sarai.net> References: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> <200901171737.07178.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540901170415i5040b69akfeb96c1e7dc39f6e@mail.gmail.com> जी रविकांत, ऐना के सुझाए जुगाड़ तो इस सेब में मौजूद हैं लेकिन ये देवनागरी तथा देवनागरी qwerty (जिसका मतलब है फोनेटिक जैसा तथा इंस्क्रिप्‍ट जैसा) लेआउट ही इस्‍तेमाल करने दे रहा है, वह भी ठीक आईएमई जैसे नहीं हैं। देखते हैं शायद कुछ हो, नहीं तो गेम तो खेले ही जा सकते हैं। विजेंद्र 2009/1/17 Ravikant > तो साहब, > > आपकी समस्या का निदान ऐना से बात करके भी नहीं हुआ, लगता है. आलोक जी को अपनी > समस्या > तफ़सील में बताएँ, वो कोई राह सुझाएँगे, वरना किसी दिन अपने सुंदर सेव को लेकर > सराय पधारिए, > कुछ जुगाड़ लगाते हैं हम लोग. आप कीमैन डेवेलपर खोजकर देखिए गूगल पर. शायद > उसमें कोई टाइपरा > इटर बानाने की विधि हो मैक के लिए. नहीं तो मुझे लगता है आलोक, ऐना, और सराय > के अमिताभ > के साथ बैठकर एक लेआउट बनाते हैं. ये बहुत बड़ी तकनीक नहीं होनी चाहिए. लिनक्स > और विन्डोज़ का > हमारा तजुर्बा यही कहता है. > > रविकान्त > > शनिवार 17 जनवरी 2009 16:16 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > > एसओएस: रेमिंग्‍टन के लती मैक पर क्‍या > > करें > > > > कंप्‍यूटर से दोस्‍ती पुरानी है लेकिन मैक से पहचान भर भी नहीं रही। [image: > > apple-notebook-6]< > http://lh6.ggpht.com/_jH1kuiAAnmo/SXGozfg3m8I/AAAAAAAADM8 > >/ucj-DPHh8S0/s1600-h/apple-notebook-6%5B5%5D.jpg>हाल में काम पड़ा तो > खिलौने > > सा लगा, पर काम की चीज है और खास बात ये है कि काम > > न करने का विकल्‍प मौजूद नहीं है। गूगल व दोस्‍तों की सहायता से पता चला कि > > कैसे हिन्‍दी पढ़ी जा सकती है लेकिन लिखी कैसे जाए। इंटरनेशनल की सेटिंग में > > जाकर उसे लिखने लायक बनाया पर जिस कीबोर्ड के इस्तेमाल की उम्‍मीद करता है > वो > > हमसे होगा नहीं। पंद्रह साल से रेमिंग्‍टन पर काम कर रहे हैं और अब इस उम्र > > में क्‍या राम राम पढेंगे। तो भइया ये डिस्‍ट्रेस काल है, किसी भले या कम > भले > > मानस को पता हो कि इंडिक, बाराहा, कैफेहिन्‍दी जैसा कोई हिन्‍दी इन्‍पुट का > > औजार मैक पर काम करता हो जो रेमिंग्‍टन (साथ साथ ट्रांसलिटरेशन का भी आप्‍शन > > हो तो और भला) में काम करने की सुविधा देता हो जरूर बताएं। इतना सुंदर सा > सेब > > लैपटाप है हम नहीं चाहते कि इसका इस्‍तेमाल सिर्फ बच्‍चों के गेम खेलने में > > हो। > > > > वैसे खूब सोचने पर भी आलोकजी को छोड़कर कोई > > हिंदीदॉं याद नहीं आ रहा जो मैक का शौकीन हो उनसे भी अनुरोध है कि आप कोई > राह > > सुझा सकें तो जरूर बताएं। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090117/be2cfd4e/attachment.html From alok at aadyakshar.co.in Sat Jan 17 19:20:00 2009 From: alok at aadyakshar.co.in (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Sat, 17 Jan 2009 19:20:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS44KST4KSP?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpLDgpYfgpK7gpL/gpILgpJfgpY3igI3gpJ/gpKgg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCkpOClgCDgpK7gpYjgpJUg4KSq4KSwIOCkleCljeKAjeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCksOClh+Ckgg==?= In-Reply-To: <8bdde4540901170415i5040b69akfeb96c1e7dc39f6e@mail.gmail.com> References: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> <200901171737.07178.ravikant@sarai.net> <8bdde4540901170415i5040b69akfeb96c1e7dc39f6e@mail.gmail.com> Message-ID: <4ae46ffe0901170550w1bb3829eiea93235f4383cbdb@mail.gmail.com> ऑन्लाइन रेमिंग्टन लिखने के लिए क्या तरीके हैं? १७ जनवरी २००९ १७:४५ को, Vijender chauhan ने लिखा: > जी रविकांत, > ऐना के सुझाए जुगाड़ तो इस सेब में मौजूद हैं लेकिन ये देवनागरी तथा देवनागरी > qwerty (जिसका मतलब है फोनेटिक जैसा तथा इंस्क्रिप्‍ट जैसा) लेआउट ही इस्‍तेमाल > करने दे रहा है, वह भी ठीक आईएमई जैसे नहीं हैं। > देखते हैं शायद कुछ हो, नहीं तो गेम तो खेले ही जा सकते हैं। > > विजेंद्र > 2009/1/17 Ravikant >> >> तो साहब, >> >> आपकी समस्या का निदान ऐना से बात करके भी नहीं हुआ, लगता है. आलोक जी को अपनी >> समस्या >> तफ़सील में बताएँ, वो कोई राह सुझाएँगे, वरना किसी दिन अपने सुंदर सेव को >> लेकर सराय पधारिए, >> कुछ जुगाड़ लगाते हैं हम लोग. आप कीमैन डेवेलपर खोजकर देखिए गूगल पर. शायद >> उसमें कोई टाइपरा >> इटर बानाने की विधि हो मैक के लिए. नहीं तो मुझे लगता है आलोक, ऐना, और सराय >> के अमिताभ >> के साथ बैठकर एक लेआउट बनाते हैं. ये बहुत बड़ी तकनीक नहीं होनी चाहिए. >> लिनक्स और विन्डोज़ का >> हमारा तजुर्बा यही कहता है. >> >> रविकान्त >> >> शनिवार 17 जनवरी 2009 16:16 को, Vijender chauhan ने लिखा था: >> > एसओएस: रेमिंग्‍टन के लती मैक पर क्‍या >> > करें >> > >> > कंप्‍यूटर से दोस्‍ती पुरानी है लेकिन मैक से पहचान भर भी नहीं रही। >> > [image: >> > >> > apple-notebook-6]> >/ucj-DPHh8S0/s1600-h/apple-notebook-6%5B5%5D.jpg>हाल में काम पड़ा तो >> > खिलौने >> > सा लगा, पर काम की चीज है और खास बात ये है कि काम >> > न करने का विकल्‍प मौजूद नहीं है। गूगल व दोस्‍तों की सहायता से पता चला कि >> > कैसे हिन्‍दी पढ़ी जा सकती है लेकिन लिखी कैसे जाए। इंटरनेशनल की सेटिंग >> > में >> > जाकर उसे लिखने लायक बनाया पर जिस कीबोर्ड के इस्तेमाल की उम्‍मीद करता है >> > वो >> > हमसे होगा नहीं। पंद्रह साल से रेमिंग्‍टन पर काम कर रहे हैं और अब इस उम्र >> > में क्‍या राम राम पढेंगे। तो भइया ये डिस्‍ट्रेस काल है, किसी भले या कम >> > भले >> > मानस को पता हो कि इंडिक, बाराहा, कैफेहिन्‍दी जैसा कोई हिन्‍दी इन्‍पुट का >> > औजार मैक पर काम करता हो जो रेमिंग्‍टन (साथ साथ ट्रांसलिटरेशन का भी >> > आप्‍शन >> > हो तो और भला) में काम करने की सुविधा देता हो जरूर बताएं। इतना सुंदर सा >> > सेब >> > लैपटाप है हम नहीं चाहते कि इसका इस्‍तेमाल सिर्फ बच्‍चों के गेम खेलने में >> > हो। >> > >> > वैसे खूब सोचने पर भी आलोकजी को छोड़कर कोई >> > हिंदीदॉं याद नहीं आ रहा जो मैक का शौकीन हो उनसे भी अनुरोध है कि आप कोई >> > राह >> > सुझा सकें तो जरूर बताएं। >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From alok at aadyakshar.co.in Sun Jan 18 11:26:10 2009 From: alok at aadyakshar.co.in (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Sun, 18 Jan 2009 11:26:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KS44KST4KSP?= =?utf-8?b?4KS4OiDgpLDgpYfgpK7gpL/gpILgpJfgpY3igI3gpJ/gpKgg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCkpOClgCDgpK7gpYjgpJUg4KSq4KSwIOCkleCljeKAjeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCksOClh+Ckgg==?= In-Reply-To: <4971E698.2050702@gmail.com> References: <8bdde4540901170246g32ad3105u7d93035e3101b817@mail.gmail.com> <200901171737.07178.ravikant@sarai.net> <8bdde4540901170415i5040b69akfeb96c1e7dc39f6e@mail.gmail.com> <4ae46ffe0901170550w1bb3829eiea93235f4383cbdb@mail.gmail.com> <4971E698.2050702@gmail.com> Message-ID: <4ae46ffe0901172156l5649c561jd45b7d4c52782733@mail.gmail.com> > http://raviratlami.googlepages.com/Remington-Krutidev-Online-Hindi-Easy-Editor.htm > 2- http://uninagari.com/remington बढ़िया। इनका इस्तेमाल मॅक पर भी किया जा सकता है। १७ जनवरी २००९ १९:३९ को, Ravishankar Shrivastava ने लिखा: > आलोक कुमार wrote: >> >> ऑन्लाइन रेमिंग्टन लिखने के लिए क्या तरीके हैं? >> >> > > ब्राउजर आधारित निम्न दो बढ़िया औजार हैं - > > 1- > http://raviratlami.googlepages.com/Remington-Krutidev-Online-Hindi-Easy-Editor.htm > 2- http://uninagari.com/remington > > रवि > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From rakesh at sarai.net Sun Jan 18 12:43:13 2009 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Sun, 18 Jan 2009 12:43:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWN4KSyIOCkleClgCDgpKjgpK/gpYAg4KSG4KSc4KS+4KSm4KWA?= In-Reply-To: <200901171729.12370.ravikant@sarai.net> References: <829019b0901170120o6413b977y106805afc7a1bfd2@mail.gmail.com> <8bdde4540901170312jf9c7edel6edc7e75a188e1a1@mail.gmail.com> <200901171729.12370.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4972D689.1000205@sarai.net> सविताभाभी.कॉम से मिलते-जुलते ऑफलाइन सामग्रियों पर एक शोध अभय कुमार दुबे जी ने किया था जो बाद में 'दीवान-ए-सराय' में भी छपा था. रविकान्त जी वाली सलाह को ही और आगे बढाते हुए मेरी ये गुजारिश है कि ऑनलाइन पॉर्न सामग्रियों पर किया जाने वाला कोई भी काम सेक्शुअल्टी के सवाल पर संभवत: कोई नया नज़रिया दे सकेगा. मेरे ख़याल से ऐसे अध्ययनों की सख़्त दरकार है. राकेश Ravikant wrote: >पर विजेन्द्र जी, > >देखिए कि नया लैपटॉप लेने के बाद ये पीएचडी का शोधार्थी कितना ज़्यादा प्रोडक्टिव हो गया है. >और सविता भाभी भी उसके शोध का हिस्सा माना जाए. क्या ख़याल है? > >रविकान्त > >शनिवार 17 जनवरी 2009 16:42 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > > >>विनीत, >> >>हमारे मनाने से क्‍या होता है...हम तो ये भी मनाते हैं कि नया नया लैपटाप लिए >>पीएचडी के शोधार्थी सविताभाभी के द्वारे जाने के स्‍थान पर शोध पर घ्‍यान दें। >>...कुछ होता हे हमारे मनाने से :)) >> >>विजेंद्र >> >> >> >>2009/1/17 vineet kumar >> >> >> >>>_______________________________________________ >>>Deewan mailing list >>>Deewan at mail.sarai.net >>>http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From rahul24pathak at gmail.com Sun Jan 18 15:52:26 2009 From: rahul24pathak at gmail.com (rahul pathak) Date: Sun, 18 Jan 2009 15:52:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Vacuum Message-ID: <61888cf20901180222u76a8ec37td004236821ef5825@mail.gmail.com> Are bhai koi 'Vacuum' ke liye Hindi ya Sanskrit shabd bata sakta hai.. -- Rahul Pathak -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090118/7d1354d5/attachment.html From rahul24pathak at gmail.com Sun Jan 18 16:01:34 2009 From: rahul24pathak at gmail.com (rahul pathak) Date: Sun, 18 Jan 2009 16:01:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Vacuum?= In-Reply-To: References: <61888cf20901180222u76a8ec37td004236821ef5825@mail.gmail.com> Message-ID: <61888cf20901180231t1e76049fj14cccd010ec6fac4@mail.gmail.com> Dhanyawad Anurag Ji, Aur kuch paryayvachi hon to vo bhi batane ka kasht karein.. Rahul Pathak -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090118/44e31af9/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Sun Jan 18 17:34:41 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Sun, 18 Jan 2009 17:34:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Vacuum?= In-Reply-To: <61888cf20901180231t1e76049fj14cccd010ec6fac4@mail.gmail.com> References: <61888cf20901180222u76a8ec37td004236821ef5825@mail.gmail.com> <61888cf20901180231t1e76049fj14cccd010ec6fac4@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0901180404i28297a6dh1514c627344b071c@mail.gmail.com> rahuljee anuragjee se jo jankari mili usko sarwajanik to kar dein bandhu. rakesh On Sun, Jan 18, 2009 at 4:01 PM, rahul pathak wrote: > Dhanyawad Anurag Ji, Aur kuch paryayvachi hon to vo bhi batane ka kasht > karein.. > > > Rahul Pathak > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From rahul24pathak at gmail.com Sun Jan 18 17:39:34 2009 From: rahul24pathak at gmail.com (rahul pathak) Date: Sun, 18 Jan 2009 17:39:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Vacuum?= In-Reply-To: <292550dd0901180404i28297a6dh1514c627344b071c@mail.gmail.com> References: <61888cf20901180222u76a8ec37td004236821ef5825@mail.gmail.com> <61888cf20901180231t1e76049fj14cccd010ec6fac4@mail.gmail.com> <292550dd0901180404i28297a6dh1514c627344b071c@mail.gmail.com> Message-ID: <61888cf20901180409n2d4c174eu6245bef7efe543dc@mail.gmail.com> Anurag Ji ne Kaha Vacuum- NIRWAT... -- Regards Rahul Pathak Centre for Development Studies Tata Institute of Social Sciences V N Purav Marg, Deonar Mumbai-400088 Cell:+91-9870646540 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090118/336670c1/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun Jan 18 20:50:34 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 18 Jan 2009 20:50:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSc4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCkpuClh+CkueCkvuCkpiDgpJXgpL4g4KSu4KS24KS54KWC4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWN4KS44KS+IOCktSDgpKvgpL/gpLLgpY3gpK7gpYAg?= =?utf-8?b?4KSX4KWA4KSk?= Message-ID: <6a32f8f0901180720r29f5fa07q1e0704a4d189e1e4@mail.gmail.com> देश की राजनीतिक पार्टियां आम चुनाव की तैयारी में जुटी हैं। रंग-ढंग वही पुराना है। सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादा समय गुजार रहे हैं। चुनाव प्रचार में तकनीक के इस्तेमाल को महत्व दिया जा रहा है। ऐसे में भागलपुर लोकसभा क्षेत्र में तफरीह करते समय एक किस्सा व कुछ गाने याद आ गए। जिले के बज्र देहाद में एक किस्सा बड़ा मशहूर है। वो यह कि कभी इस इलाके से कांग्रेस पार्टी के कद्दावर व प्रतिष्ठित नेता भागवत झा आजाद सांसद हुआ करते थे। एक मर्तबा वे क्षेत्र में चुनावी दौरा करते हुए चतरी गांव पहुंचे। उस वक्त गांव के एक चौपाल का नजारा विचित्र था। एक व्यक्ति एक आवारा कुत्ते को पट्टे के सहारे खंभे से बांध रखा था। साथ ही कुत्ते की हल्की पिटाई कर रहा था। इस दौरान उक्त व्यक्ति उस वफादार जानवर को विशेषणों से नवाजते हुए पांच साल बाद आने की वजह भी पूछ रहा था। हालांकि इलाके में आजाद का बड़ा मान था और अब भी है। लेकिन देहाती-दुनिया में फैले इस किस्से व गीतकार गुलजार द्वारा फिल्म आंधी के लिए लिखे कव्वाली - *(सलाम कीजिए**, **आलीजनाब आए हैं। यह पांच सालों का देने हिसाब आए हैं।) *को जोड़कर देखने पर ताज्जुब हुआ। फिलहाल मालूम नहीं कि ये कव्वाली इस देहात में पहले सुनाई दी या ये किस्से गुलजार तक पहले पहुंच गए। खैर! सही जो भी हो। मूल बात यह है कि देश में बढ़ती राजनीतिक चेतना कव्वाली की इस पंक्ति से साफ होती है। आप स्वयं देख लें- *(यह वोट देंगे**, **मगर अबके यूं नहीं देंगे। चुनाव आने दो हम आपसे निबट लेंगे।) *यह नराजगी अपने चरम पर पहुंच विद्रोह का शक्ल अख्तियार करने लगी है। इतने बरसों बाद जब कई जमाने पुराने हो गए, नमालूम कितनी चीजें पीछे छूट गईं, मगर गुलजार द्वारा लिखी कव्वाली नई ताजगी व तेवर के साथ सफेद पोशाकी पर फिट बैठती है। अलबत्ता मेरा ख्याल है कि थोड़ा वक्त और गुजरेगा तो यह कहीं सुबह का लिखा न मालूम पड़े। आखिरकार गीत अपना धर्म कुछ इसी अंदाज में निभाता है। वह अपनी संश्लिष्टता में सिर्फ संकेत देता है। क्रांति की फसल नहीं खड़ी करता, बल्कि बीज बोता है। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090118/d01bc4d7/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jan 18 22:12:13 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 18 Jan 2009 22:12:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSa4KWN4KSb?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCli+CkpOCkviwg4KSJ4KS4IOCkpuCkv+CkqCDgpJXgpL8=?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkl+ClgeCksOClgSDgpJXgpYcg4KS44KS+4KSlIOCkqCA=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSk4KWH?= Message-ID: <829019b0901180842x5a92943h7e21b53acee6cfd9@mail.gmail.com> तब तक हमलोगों के उपर किसी एक एक टीचर के लिए समझदार,बफादार औऱ बाकियों के लिए बेकार होने का ठप्पा नहीं लगा था। आमतौर सभी टीचरों से अपनी बात होती,सबों के छोटे-मोटे काम करने के लिए हमलोग मुंह बाये रहते। आज भले ही कोई भी कुछ करने को कह दे तो इगो, आइडेंटिटी,दूसरे टीचरों से उनके गणित, कहां तक पावरफुल है आदि सवालों पर विचार करने लग जाते हैं। नहीं तो एमए के दौरान हम उन टीचरों के लिए भी घंटेभर तक इंतजार कर ऑटो रुकवाते जो सालों भर कासिम की दवाई के भरोसे हमें पढ़ाने आते। क्लास में बार-बार कहते भी कि बेटा, क्लास लेने के अलावे कहीं भी बाहर नही जाते. सीनियर लोग इस कहीं नहीं जाने का अर्थ इंटरव्यू के लिहाज से फुके हुए पटाखे के तौर पर बताते. ये वहां भी नहीं जाते और अगर जाते भी हैं तो इनकी चलती नहीं है, कहकर हमलोगों के गुरु प्रेम पर तरस खाते। एक ही बात करते, अपनी तरफ से आनेवालों के साथ यही दिक्कत है कि वो प्रैक्टिकल नहीं होता। हमलोग इमोशनल के नाम पर इमोशनल फूल कह जाते। जिन लोगों ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई डीयू से की है, वो तो इस मामले में पहले से ही समझदार थे। लेकिन एमए करने आए हमलोगों में व्यक्तिगत स्तर पर लगभग सारे टीचरों से पहचान बनाने की ललक बनी रहती। वो हमें डराते भी, फलां मास्टर के साथ घूमते हो, एम.फिल् में बहुत दिक्कत होगी लेकिन हम इस बात पर अड़ जाते कि हमें एमए के आगे पढ़ना ही नहीं है- अब बोलो। वो चुप हो जाते। जब यही मन है तो फिर है उस तुलसीदास वाले मास्टर के लिए इतनी जहमत उठाने की क्या जरुरत है जो दो साल पहले ही रिटायर्ड हो गया है। पकड़ों जवान और पावरफुल को जो कहीं अखबार-उखबार में लगा दे। हम अपनी मर्जी की करते रहे और मास्टरों से अपनी बात होती रहती। इसी क्रम में आगे चलकर पुराने लोग धीरे-धीरे आने बंद हो गए और नए टीचर आने शुरु हो गए। हमने भी आगे की पढ़ाई जारी रखने का मन बनाया, बाकी मीडिया में जाने की कीड़ा को साइड से पोसते रहे। अपना फिर वही पुराना फार्मूला कि सबसे बात करेंगे, सबके साथ घूमेंगे। लेकिन एम.फिल् आते-आते इतना समझने लग गया था कि काम करने के लिए मुंह बाये रहना छोड़ना पड़ेगा। एम.फिल् के शुरुआती दौर तक सबके साथ वाला फार्मूला काम करता रहा औऱ होता ये कि बुक फेयर में प्रगति मैंदान के गेट नं 5 से एक टीचर के साथ घुसते तो 7 नंबर हॉल में किसी और के साथ घुमने लग जाते। हमे अच्छा लगता औऱ मन ही मन जमकर जेएनयू वाले को गरियाते कि- उनके यहां का खेल ही अलग है, एक से बात करो तो दूसरे मास्टर मुंह फुला लेते हैं, अपने यहां मामला सही है। हम अपने विभाग पर फुलकर कुप्पा रहते। हम मस्ती से तीन-चार लोगों औऱ एक सरजी के साथ घूम रहे थे। सामने से मनोहरश्याम जोशी जी गुजरे- मैं तेजी से लपका। सबों से कहा- मुझे एक मिनट पहले राजकमल जाने दो, जोशीजी के सारे उपन्यास खरीदने हैं, सब पर उनके ऑटोग्राफ लूंगा, मैं अधीर हो उठा था। कभी किसी के ऑटोग्राफ लेने के लिए मैं इतना बेचैन नहीं हुआ, न हिन्दू कॉलेज में आए नामचीन साहित्यकारों के औऱ न ही मीडिया में रहते हुए सिलेब्रेटी के। जोशीजी को लेकर पता नहीं क्या हो गया था। पीछे से एक बंदे ने जबरदस्ती मुझे खींचा- तुम्हें जिससे भी और जब भी साइन लोना हो, ले लेना लेकिन अभी चलो, जिस मास्टर के साथ तुम जा रहे हो, वो जोशीजी को एक रत्ती भी पसंद नहीं करते हैं, जानते ही भड़क जाएंगे। आअभी चल हमारे साथ। मैं उनलोगों के साथ चला गया लेकिन मुड़-मुड़कर जोशीजी को देखता रहा। बुकफेयर में दोबारा वो नहीं दिखे। करीब दस दिन बाद मैं हांफते हुए किसी तरह हिन्दी भवन में जाकर उनकी तस्वीर के आगे फूल चढ़ाने पहुंच गया। हिन्दी किताबों की सेल्फ से कामायनी खोजते हुए कसप हाथ लग जाने पर एक ही बात सोचने लगा- इस पर जोशीजी की साइन होती तो कितना अच्छा होता, कितना अच्छा होता उस दिन हम किसी मास्टर के साथ न होकर अकेले होते, उपन्यास के किसी चरित्र की तरह बिल्कुल अकेले। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090118/53b4eb3a/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Mon Jan 19 00:30:49 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Mon, 19 Jan 2009 00:30:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSy4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSh4KWJ4KSXIOCkruCkv+CksuClh+CkqOCkv+Ckr+CksDog4KSs4KWJ?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KS14KWB4KShIOCkruCkuOCkvuCksuClhyDgpJXgpL4g4KWe?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KSC4KSX4KWAIOCkpOClnOCkleCkvi4g4KSs4KWL4KSy4KWH?= =?utf-8?b?IOCkpOCliyDigJngpJzgpK8g4KS54KWLIeKAmQ==?= Message-ID: *I'm back! Now read from... www.mihirpandya.com ...miHir. स्ल्मडॉग मिलिनेयर * देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु मेहता का गल्पेतर गल्प 'मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड ' और दूसरा ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर 'शान्ताराम'. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक व्याख्या है जैसी अंग्रेज़ हमेशा से करते आए हैं, मैं इन उपन्यासों के ज़िक्र के माध्यम से यह देखना चाहता हूँ कि इस फ़िल्म की 'परम्परा' की रेखाएँ कहाँ जाती हैं. इन कहानियों में मुम्बई ऐसे धड़कते शहर के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मुख़्तलिफ़ चेहरे एक-दूसरे से उलट होते हुए भी मिलकर एक पहचान, एक व्यवस्था बनाते है. सुकेतु अलग-अलग अध्यायों में मुम्बई अन्डरवर्ल्ड, बार-डांसर्स की दुनिया, फ़िल्मी दुनिया की मायानगरी और मुम्बई पुलिस की कहानी बहुत ही व्यक्तिगत लहजे के साथ कहते हैं लेकिन साथ ही मैक्सिमम सिटी इन सब व्यवस्थाओं को आपस में उलझी हुई और जगह-जगह पर एक दूसरे को काटती हुई पहचानों का रूप देती है. उम्मीद है कि मीरा नायर जब जॉनी डेप के साथ शान्ताराम बनायेंगीं तो वो भी इसी परम्परा को समृद्ध करेंगी. *स्लमडॉग* देखने के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार जो आपको याद रह जाता है वो है *शहर मुम्बई*. एक परफ़ैक्ट नैरेटिव स्ट्रक्चर में जमाल के हर जवाब के साथ मुम्बई का एक चेहरा, एक पहचान सामने आती है. जगमगाते सिनेमाई दुनिया के सपने, धर्म के नाम पर हो रही हिंसा में बचकर भागते तीन बच्चे, झोपड़पट्टियों में चलते तमाम अवैध खेल और उनके बीच से ही पनपता जीवन. क्रिकेट और सट्टेबाज़ी, जीने की ज़द्दोजहद और प्यार… पिछले हफ़्ते सी.एन.एन. आई.बी.एन. को दिए साक्षात्कारमें डैनी बॉयल ने मुम्बई के लिए कहा है, *"और इस फ़िल्म में एक किरदार मुम्बई शहर भी है. ऐसा किरदार जिसके भीतर से अन्य सभी किरदार निकलते हैं. मैं इस शहर को इसकी सम्पूर्णता में पेश करना चाहता था, लेकिन वस्तविकता यह है कि आप इसका एक हिस्सा ही पकड़ पाते हैं. इसे पूरा पकड़ पाना असंभव है क्योंकि यह बहुत जटिल है और हर रोज़ बदलता है. ये समन्दर की तरह है, हमेशा अपना रूप बदलने वाला समन्दर. लेकिन इस समन्दर का स्वाद चख़ना भी स्लमडॉग की कहानी का एक हिस्सा था. यह वैश्विक अपील रखने वाली कहानी है."* *स्लमडॉग* में कोई स्टैन्डआउट एक्टिंग परफ़ॉरमेंस नहीं है. अगर याद रखे जायेंगे तो वो दो बच्चे जिन्होंने कहानी के पहले हिस्से में जमाल (आयुष महेश खेड़ेकर) और सलीम (अज़रुद्दीन मौहम्मद इस्माइल) की भूमिका निभाई है. स्लमडॉग को स्टैन्डआउट बनाती हैं उसकी तीन ख़ासियतें:- *1.पटकथा 2.सिनेमैटोग्राफ़ी 3.संगीत* साइमन बुफ़ॉय की पटकथा 'परफ़ैक्ट' पटकथा का उदाहरण है. एन्थोनी डॉड मेन्टल की सिनेमैटोग्राफ़ी ने मुम्बई में नए रँग भरे हैं. और साथ ही यह फ़िल्म की गतिशीलता के मुताबिक है. और रहमान का संगीत फ़िल्म की जान है. कहानी का मुख्य हिस्सा. रहमान का संगीत उस तनाव के निर्माण में सबसे ज़्यादा सहायक बनता है जिस तनाव की ऐसी थ्रिलर को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. *पटकथा-* क्योंकि मैंने विकास स्वरूपका उपन्यास Q&A नहीं पढ़ा है इसलिये मैं कह नहीं सकता कि इस नैरेटिव स्ट्रक्चर का क्या और कितना उपन्यास से लिया गया है लेकिन फ़िल्म में 'कौन बनेगा करोड़पति' के सवालों का यह सिलसिला मुम्बई की कहानी कहने के लिए 'परफ़ैक्ट' नैरेटिव स्ट्रक्चर बन जाता है. यह पटकथा अलग-अलग बिखरी मुम्बई की कहानी को एक सूत्र में पिरो देती है. आपको कहानी में एक पूर्णता का अहसास होता है और फ़िल्म भव्यता को प्राप्त होती है. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस तरह की 'संपूर्ण' कहानियाँ कम ही पसन्द आती हैं. मुझे अधूरी, बिखरी, खंडित कहानियाँ (और वैसा ही नैरेटिव स्ट्रक्चर उसे पूरी तरह संप्रेषित करने के लिए) ज़्यादा प्रतिनिधि लगती हैं इस अधूरे, बिखरे, खंडित जीवन की. लेकिन शायद मेनस्ट्रीम (उधर का भी और इधर का भी) पूर्णता ज़्यादा पसन्द करता है. और इस मामले में स्लमडॉग की पटकथा पूरी तरह 'मेनस्ट्रीम' की पटकथा है. सबकुछ एकदम अपनी जगह पर, सही-सही. विलेन वहीं जहाँ उसे होना चाहिए, नयिका वहीं जहाँ उसे मिलना चाहिए, मौत भी वहीं जहाँ उसे आना चाहिए. सभी कुछ एकदम परफ़ैक्ट टाइमिंग के साथ. इसपर बहस करने की बजाए कि यह फ़िल्म कितनी बॉलीवुड की है और कितनी हॉलीवुड की समझना यह चाहिए कि यह फ़िल्म अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद एक शुद्ध मुख्यधारा की फ़िल्म है. और मुझे लगता है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम में स्तर का अन्तर ज़रूर है, दिशा और ट्रीटमेंट के तरीके का नहीं. खुद डैनी बॉयल ने इस बात को माना है कि सिनेमा भारत और अमेरिका दोनों देशों में उनके सार्वजनिक जीवन के 'मेनस्ट्रीम' में शामिल है. वे कहते हैं,* "सौभाग्यवश हिन्दुस्तान में सिनेमा और उसमें काम करना लोगों की ज़िन्दगी का सामान्य हिस्सा है. यह बिलकुल अमेरिका की तरह है. लोग यहाँ सिनेमा को प्यार करते हैं."* तो यहाँ हम एक जैसे हैं. और स्लमडॉग इसी 'एक-जैसे' तार को आपस में जोड़ रही है. हमेशा सही जगह पर आने वाले 'कम शॉट' और एक बेहद तनावपूर्ण क्लाइमैक्स के साथ स्लमडॉग ईस्ट और वेस्ट दोनों में लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफ़ल फ़िल्म साबित हो रही है (और होगी). और इसलिए ही यह हिन्दुस्तान की जनता के लिए कोई नई कहानी नहीं लेकर आ रही है. हिन्दुस्तानी दर्शकों ने यह 'रैग्स-गो-रिच' वाली कहानी ही तो देखी है बार-बार. हर तीसरी बॉलीवुड फ़िल्म इसी ढर्रे की फ़िल्म है. बस इसबार उन्हें ये कहानी एक बेहतरीन पटकथा और उन्नत तकनीक के साथ देखने को मिलेगी. फ़िल्म की शुरुआत पुलिस स्टेशन से होती है. अपने हवालदार कल्लू मामा (सौरभ शुक्ला ) और इंसपेक्टर (इररफ़ान ख़ान) एक लड़के जमाल (देव पटेल ) को बिजली के शॉक दे रहे हैं. इस झोपड़पट्टी के लड़के ने गई रात गेम शो 'के.बी.सी.' में सारे सवालों के सही जवाब दिए हैं और अब वह दो करोड़ रुपयों से सिर्फ़ एक सवाल पीछे है. शक है कि उसने बेईमानी की है क्योंकि एक झोपड़पट्टी के लड़के को ये सारे जवाब मालूम हों इसका विश्वास किसी को नहीं है, खुद गेम शो के होस्ट (अनिल कपूर) को भी नहीं. पुलिस की पूछताछ में जमाल एक-एक कर हर जवाब से जुड़ा स्पष्टीकरण देता है. हर स्पष्टीकरण के साथ एक कहानी है. उसे जवाब मालूम होने की वजह. कहानी बार-बार फ़्लैशबैक में जाती है. जितनी विविधता सवालों में है उतनी ही मुम्बई की परतें खुलती हैं. आखिर में कहानी वर्तमान में आती है और जमाल आखिरी सवाल का जवाब देने वापिस लौटता है. वो कौन बनेगा करोड़पति में पैसा जीतने नहीं आया है, उसे अपनी खोयी प्रेमिका लतिका (फ़्राइडा पिन्टो) की तलाश है. उसे मालूम है कि लतिका ये शो देखती है. शायद वो उसे देख ले और उसे मिल जाये. आखिर में एक शुद्ध मुम्बईया क्लाईमैक्स है और एक ठेठ मुम्बईया आइटम नम्बर. फ़िल्म की पटकथा सवालों के क्रम में एक के बाद एक जमाल के जीवन के अलग-अलग एपीसोड्स पिरो देती है. इससे आप मुम्बई की बहुरँगी तसवीर भी देख पाते हैं और फ़िल्म की मुख्य कथा का तनाव भी बना रहता है. यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन जाती है और ठेठ मुम्बईया फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी प्यार ही कथा के 'होने की' मुख्य वजह बनकर सामने आता है. एक कहानी जो एलेक्ज़ेंडर ड्यूमा के 'तीन तिलंगों ' के ज़िक्र से शुरु होती है पूरा चक्र घूमकर वहीं आकर एक 'परफ़ैक्ट एंडिग' पाती है. फ़िल्म की टैगलाइन सही है शायद, "सब लिखा हुआ है". सल्मडॉग की सबसे बड़ी ताक़त उसका लेखन (कहानी, पटकथा, संवाद) ही है! *छायांकन- *फ़िल्म मुम्बई की झोपड़पट्टी को फ़िल्माती है लेकिन ये भी सच है कि फ़िल्म उसकी गरीबी से कोई करुणा नहीं पैदा करती है. शुरुआती सीन में जहाँ पहली बार मुम्बई के सल्म से आपका सामना होता है एक कमाल की सिहरन आपमें दौड़ जाती है. कैमरा जिस गति से भागते बच्चों की टोली का पीछा करता है वो पूरे सल्म को एक निहायत गतिशील पहचान देता है. यह फ़िल्म यथार्थवाद के पीछे नहीं, भव्यता और रोमांच के पीछे भागती है और इस मामले में ये हिन्दुस्तानी समांतर सिनेमा की नहीं, मुख्यधारा सिनेमा की बहन है. रेलगाड़ी के तमाम प्रसंग भी इसी भव्यता की बानगी हैं. रेगिस्तान हो या पहाड़, रेल हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोती है. वैसी ही सम्पूर्णता प्रदान करती है जो फ़िल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर कहानी के साथ कर रहा है. इसलिए रेलगाड़ी इस फ़िल्म के लिए एकदम ठीक प्रतीक है. *संगीत-* संगीत इस फ़िल्म की जान है. रहमान ने बैकग्राउंड स्कोर में रेलगाड़ी की धड़क-धड़क को कुछ ऐसे पिरो दिया है कि पूरी फ़िल्म में एक स्वाभाविक गति पैठ गई है. यह मुझे बार-बार 'छैयाँ छैयाँ' की याद दिलाता है. रहमान के पास हर मौके के लिए धुन है. नायक-नायिका के मिलन के अवसर पर वे ठेठ देसी 'चोली के पीछे क्या है' और 'मुझको राणा जी माफ़ करना' से प्रभावित गीत लेकर आते हैं. आवाज़ें भी वही दोनों इला अरुण और अलका याग्निक. शुरुआती धुन सिनेमा हॉल में डॉल्बी डिज़िटल में क्या समाँ बाँधेगी मुझे इसका इंतज़ार है. रहमान पहले भी इतना ही कमाल का संगीत देते रहे हैं लेकिन यहाँ फ़िल्म के उदेश्य में उनका संगीत जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है वो अद्भुत है. ऐसे में फ़िल्म में संगीत एक 'एडड एट्रेक्शन' ना होकर कहानी का हिस्सा, एक किरदार बन जाता है. ऐसा किरदार जिसके ना रहने पर कहानी ही अधूरी रह जाये. आख़िर में आया 'जय हो!' तो जैसे एक बड़ा समापन समारोह है जो इस उत्सवनुमा फ़िल्म को एक आश्वस्तिदायक अन्त देता है. वही अपने गुलज़ार, रहमान और सुखविन्दर की तिकड़ी. जादू है जादू.. हमने तो सालों से सुना है. अब दुनिया सुने! पेपर प्लेन उड़ाये और लिक्विड डांस करा करे! ख़ास प्रसंगों में अन्धे लड़के अरविन्द का वापिस मिलना याद रह जाता है, "तू बच गया यार, मैं नहीं बच सका. बस इतना ही फ़र्क है." और हमारा हीरो एक सच्चा हिन्दुस्तानी नायक है. एकदम उसके फ़ेवरिट अमिताभ बच्चनकी माफ़िक! बचपन के प्यार को वो भूलता नहीं और करोड़ों की भीड़ में भी आख़िर लतिका को तलाश कर ही लेता है (याद कीजिए बेताब ). नायिका भी हीरो की एक पुकार पर सातों ताले तोड़कर भागी आती है. (मुझे एक पुरानी फ़िल्म 'बरसात की रात ' की मशहूर कव्वाली 'ये इश्क इश्क है इश्क इश्क' याद आ गई. मधुबाला नायक भारत भूषण की एक पुकार पर यूँ ही भागी आई थी. बस फ़र्क इतना था कि वो रेडियो वाला दौर था.) और विलेन ऐसा कि उसके बारे में मशहूर है कि वो भूलता नहीं, ख़ासकर अपने दुश्मनों को. जिनका उसपर 'कर्ज़ है'. (मुझे बड़ी शिद्द्त से 'काइट रनर' का खलनायक आसिफ़ याद आ रहा है. वैसे आप 'शोले' से लेकर 'कर्मा ' तक के खलनायकों को याद कर सकते हैं. हिन्दुस्तानी विलेन लोगों की ये ख़ासियत रही है हमेशा से. वो भूलते नहीं. और इसलिए 'गज़नी ' का खलनायक एक पिद्दी विलेन ही रह जाता है, साले को कुछ याद ही नहीं रहता! क्या उसको भी 'शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस' की बीमारी थी!) अब इतनी सब बातों से ये तो साफ़ है कि इस फ़िल्म में किसी भी 'बॉलीवुड फ़िल्म' जैसा ख़ूब मसाला है. देखना है कि तेईस तारीख़ को हिन्दुस्तान में प्रदर्शन के साथ ही इस फ़िल्म की चर्चा कहाँ जाती है. उम्मीद है कि सल्मडॉग मुझसे अभी और कलम घिसवाएगी.. *आला रे आला ऑस्कर आला! जय हो!* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090119/1c77d516/attachment-0001.html From sadanjha at gmail.com Wed Jan 21 17:18:38 2009 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Wed, 21 Jan 2009 17:18:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSy4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSh4KWJ4KSXIOCkruCkv+CksuClh+CkqOCkv+Ckr+CksDog4KSs4KWJ?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KS14KWB4KShIOCkruCkuOCkvuCksuClhyDgpJXgpL4g4KWe?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KSC4KSX4KWAIOCkpOClnOCkleCkvi4g4KSs4KWL4KSy4KWH?= =?utf-8?b?IOCkpOCliyDigJngpJzgpK8g4KS54KWLIeKAmQ==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <1a9a8b710901210348w5c4a93e6q4744723015467559@mail.gmail.com> बहुत अच्‍छा लगा। आपके पहले के रिव्‍यू से अच्‍छा है यह। मैंने नही देखी है यह फिल्‍म लेकिन एक उमदा लेख की तरह यह भी अपने विषय से पूर्व-परिचय का मोहताज नही। 2009/1/19 mihir pandya : > I'm back! Now read from... > > www.mihirpandya.com > ...miHir. > > > स्ल्मडॉग मिलिनेयर देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु > मेहता का गल्पेतर गल्प 'मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड' और दूसरा > ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर 'शान्ताराम'. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना > पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक व्याख्या है जैसी अंग्रेज़ > हमेशा से करते आए हैं, मैं इन उपन्यासों के ज़िक्र के माध्यम से यह देखना चाहता > हूँ कि इस फ़िल्म की 'परम्परा' की रेखाएँ कहाँ जाती हैं. इन कहानियों में मुम्बई > ऐसे धड़कते शहर के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मुख़्तलिफ़ चेहरे एक-दूसरे से > उलट होते हुए भी मिलकर एक पहचान, एक व्यवस्था बनाते है. सुकेतु अलग-अलग > अध्यायों में मुम्बई अन्डरवर्ल्ड, बार-डांसर्स की दुनिया, फ़िल्मी दुनिया की > मायानगरी और मुम्बई पुलिस की कहानी बहुत ही व्यक्तिगत लहजे के साथ कहते हैं > लेकिन साथ ही मैक्सिमम सिटी इन सब व्यवस्थाओं को आपस में उलझी हुई और जगह-जगह > पर एक दूसरे को काटती हुई पहचानों का रूप देती है. उम्मीद है कि मीरा नायर जब > जॉनी डेप के साथ शान्ताराम बनायेंगीं तो वो भी इसी परम्परा को समृद्ध करेंगी. > > स्लमडॉग देखने के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार जो आपको याद रह जाता है वो है शहर > मुम्बई. एक परफ़ैक्ट नैरेटिव स्ट्रक्चर में जमाल के हर जवाब के साथ मुम्बई का एक > चेहरा, एक पहचान सामने आती है. जगमगाते सिनेमाई दुनिया के सपने, धर्म के नाम पर > हो रही हिंसा में बचकर भागते तीन बच्चे, झोपड़पट्टियों में चलते तमाम अवैध खेल > और उनके बीच से ही पनपता जीवन. क्रिकेट और सट्टेबाज़ी, जीने की ज़द्दोजहद और > प्यार… > > पिछले हफ़्ते सी.एन.एन. आई.बी.एन. को दिए साक्षात्कार में डैनी बॉयल ने मुम्बई > के लिए कहा है, "और इस फ़िल्म में एक किरदार मुम्बई शहर भी है. ऐसा किरदार जिसके > भीतर से अन्य सभी किरदार निकलते हैं. मैं इस शहर को इसकी सम्पूर्णता में पेश > करना चाहता था, लेकिन वस्तविकता यह है कि आप इसका एक हिस्सा ही पकड़ पाते हैं. > इसे पूरा पकड़ पाना असंभव है क्योंकि यह बहुत जटिल है और हर रोज़ बदलता है. ये > समन्दर की तरह है, हमेशा अपना रूप बदलने वाला समन्दर. लेकिन इस समन्दर का स्वाद > चख़ना भी स्लमडॉग की कहानी का एक हिस्सा था. यह वैश्विक अपील रखने वाली कहानी > है." > > स्लमडॉग में कोई स्टैन्डआउट एक्टिंग परफ़ॉरमेंस नहीं है. अगर याद रखे जायेंगे तो > वो दो बच्चे जिन्होंने कहानी के पहले हिस्से में जमाल (आयुष महेश खेड़ेकर) और > सलीम (अज़रुद्दीन मौहम्मद इस्माइल) की भूमिका निभाई है. स्लमडॉग को स्टैन्डआउट > बनाती हैं उसकी तीन ख़ासियतें:- > > 1.पटकथा 2.सिनेमैटोग्राफ़ी 3.संगीत > > साइमन बुफ़ॉय की पटकथा 'परफ़ैक्ट' पटकथा का उदाहरण है. एन्थोनी डॉड मेन्टल की > सिनेमैटोग्राफ़ी ने मुम्बई में नए रँग भरे हैं. और साथ ही यह फ़िल्म की गतिशीलता > के मुताबिक है. और रहमान का संगीत फ़िल्म की जान है. कहानी का मुख्य हिस्सा. > रहमान का संगीत उस तनाव के निर्माण में सबसे ज़्यादा सहायक बनता है जिस तनाव की > ऐसी थ्रिलर को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. > > पटकथा- क्योंकि मैंने विकास स्वरूप का उपन्यास Q&A नहीं पढ़ा है इसलिये मैं कह > नहीं सकता कि इस नैरेटिव स्ट्रक्चर का क्या और कितना उपन्यास से लिया गया है > लेकिन फ़िल्म में 'कौन बनेगा करोड़पति' के सवालों का यह सिलसिला मुम्बई की कहानी > कहने के लिए 'परफ़ैक्ट' नैरेटिव स्ट्रक्चर बन जाता है. यह पटकथा अलग-अलग बिखरी > मुम्बई की कहानी को एक सूत्र में पिरो देती है. आपको कहानी में एक पूर्णता का > अहसास होता है और फ़िल्म भव्यता को प्राप्त होती है. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस > तरह की 'संपूर्ण' कहानियाँ कम ही पसन्द आती हैं. मुझे अधूरी, बिखरी, खंडित > कहानियाँ (और वैसा ही नैरेटिव स्ट्रक्चर उसे पूरी तरह संप्रेषित करने के लिए) > ज़्यादा प्रतिनिधि लगती हैं इस अधूरे, बिखरे, खंडित जीवन की. लेकिन शायद > मेनस्ट्रीम (उधर का भी और इधर का भी) पूर्णता ज़्यादा पसन्द करता है. और इस > मामले में स्लमडॉग की पटकथा पूरी तरह 'मेनस्ट्रीम' की पटकथा है. सबकुछ एकदम > अपनी जगह पर, सही-सही. विलेन वहीं जहाँ उसे होना चाहिए, नयिका वहीं जहाँ उसे > मिलना चाहिए, मौत भी वहीं जहाँ उसे आना चाहिए. सभी कुछ एकदम परफ़ैक्ट टाइमिंग के > साथ. इसपर बहस करने की बजाए कि यह फ़िल्म कितनी बॉलीवुड की है और कितनी हॉलीवुड > की समझना यह चाहिए कि यह फ़िल्म अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद एक शुद्ध > मुख्यधारा की फ़िल्म है. और मुझे लगता है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम > में स्तर का अन्तर ज़रूर है, दिशा और ट्रीटमेंट के तरीके का नहीं. खुद डैनी बॉयल > ने इस बात को माना है कि सिनेमा भारत और अमेरिका दोनों देशों में उनके > सार्वजनिक जीवन के 'मेनस्ट्रीम' में शामिल है. वे कहते हैं, "सौभाग्यवश > हिन्दुस्तान में सिनेमा और उसमें काम करना लोगों की ज़िन्दगी का सामान्य हिस्सा > है. यह बिलकुल अमेरिका की तरह है. लोग यहाँ सिनेमा को प्यार करते हैं." तो यहाँ > हम एक जैसे हैं. और स्लमडॉग इसी 'एक-जैसे' तार को आपस में जोड़ रही है. > > हमेशा सही जगह पर आने वाले 'कम शॉट' और एक बेहद तनावपूर्ण क्लाइमैक्स के साथ > स्लमडॉग ईस्ट और वेस्ट दोनों में लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफ़ल फ़िल्म > साबित हो रही है (और होगी). और इसलिए ही यह हिन्दुस्तान की जनता के लिए कोई नई > कहानी नहीं लेकर आ रही है. हिन्दुस्तानी दर्शकों ने यह 'रैग्स-गो-रिच' वाली > कहानी ही तो देखी है बार-बार. हर तीसरी बॉलीवुड फ़िल्म इसी ढर्रे की फ़िल्म है. > बस इसबार उन्हें ये कहानी एक बेहतरीन पटकथा और उन्नत तकनीक के साथ देखने को > मिलेगी. > > फ़िल्म की शुरुआत पुलिस स्टेशन से होती है. अपने हवालदार कल्लू मामा (सौरभ > शुक्ला) और इंसपेक्टर (इररफ़ान ख़ान) एक लड़के जमाल (देव पटेल) को बिजली के शॉक दे > रहे हैं. इस झोपड़पट्टी के लड़के ने गई रात गेम शो 'के.बी.सी.' में सारे सवालों > के सही जवाब दिए हैं और अब वह दो करोड़ रुपयों से सिर्फ़ एक सवाल पीछे है. शक है > कि उसने बेईमानी की है क्योंकि एक झोपड़पट्टी के लड़के को ये सारे जवाब मालूम हों > इसका विश्वास किसी को नहीं है, खुद गेम शो के होस्ट (अनिल कपूर) को भी नहीं. > पुलिस की पूछताछ में जमाल एक-एक कर हर जवाब से जुड़ा स्पष्टीकरण देता है. हर > स्पष्टीकरण के साथ एक कहानी है. उसे जवाब मालूम होने की वजह. कहानी बार-बार > फ़्लैशबैक में जाती है. जितनी विविधता सवालों में है उतनी ही मुम्बई की परतें > खुलती हैं. आखिर में कहानी वर्तमान में आती है और जमाल आखिरी सवाल का जवाब देने > वापिस लौटता है. वो कौन बनेगा करोड़पति में पैसा जीतने नहीं आया है, उसे अपनी > खोयी प्रेमिका लतिका (फ़्राइडा पिन्टो) की तलाश है. उसे मालूम है कि लतिका ये शो > देखती है. शायद वो उसे देख ले और उसे मिल जाये. आखिर में एक शुद्ध मुम्बईया > क्लाईमैक्स है और एक ठेठ मुम्बईया आइटम नम्बर. > > फ़िल्म की पटकथा सवालों के क्रम में एक के बाद एक जमाल के जीवन के अलग-अलग > एपीसोड्स पिरो देती है. इससे आप मुम्बई की बहुरँगी तसवीर भी देख पाते हैं और > फ़िल्म की मुख्य कथा का तनाव भी बना रहता है. यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी > सार्वभौमिक बन जाती है और ठेठ मुम्बईया फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी प्यार > ही कथा के 'होने की' मुख्य वजह बनकर सामने आता है. एक कहानी जो एलेक्ज़ेंडर > ड्यूमा के 'तीन तिलंगों' के ज़िक्र से शुरु होती है पूरा चक्र घूमकर वहीं आकर एक > 'परफ़ैक्ट एंडिग' पाती है. फ़िल्म की टैगलाइन सही है शायद, "सब लिखा हुआ है". > सल्मडॉग की सबसे बड़ी ताक़त उसका लेखन (कहानी, पटकथा, संवाद) ही है! > > छायांकन- फ़िल्म मुम्बई की झोपड़पट्टी को फ़िल्माती है लेकिन ये भी सच है कि फ़िल्म > उसकी गरीबी से कोई करुणा नहीं पैदा करती है. शुरुआती सीन में जहाँ पहली बार > मुम्बई के सल्म से आपका सामना होता है एक कमाल की सिहरन आपमें दौड़ जाती है. > कैमरा जिस गति से भागते बच्चों की टोली का पीछा करता है वो पूरे सल्म को एक > निहायत गतिशील पहचान देता है. यह फ़िल्म यथार्थवाद के पीछे नहीं, भव्यता और > रोमांच के पीछे भागती है और इस मामले में ये हिन्दुस्तानी समांतर सिनेमा की > नहीं, मुख्यधारा सिनेमा की बहन है. रेलगाड़ी के तमाम प्रसंग भी इसी भव्यता की > बानगी हैं. रेगिस्तान हो या पहाड़, रेल हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोती है. > वैसी ही सम्पूर्णता प्रदान करती है जो फ़िल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर कहानी के साथ > कर रहा है. इसलिए रेलगाड़ी इस फ़िल्म के लिए एकदम ठीक प्रतीक है. > > संगीत- संगीत इस फ़िल्म की जान है. रहमान ने बैकग्राउंड स्कोर में रेलगाड़ी की > धड़क-धड़क को कुछ ऐसे पिरो दिया है कि पूरी फ़िल्म में एक स्वाभाविक गति पैठ गई > है. यह मुझे बार-बार 'छैयाँ छैयाँ' की याद दिलाता है. रहमान के पास हर मौके के > लिए धुन है. नायक-नायिका के मिलन के अवसर पर वे ठेठ देसी 'चोली के पीछे क्या > है' और 'मुझको राणा जी माफ़ करना' से प्रभावित गीत लेकर आते हैं. आवाज़ें भी वही > दोनों इला अरुण और अलका याग्निक. शुरुआती धुन सिनेमा हॉल में डॉल्बी डिज़िटल में > क्या समाँ बाँधेगी मुझे इसका इंतज़ार है. रहमान पहले भी इतना ही कमाल का संगीत > देते रहे हैं लेकिन यहाँ फ़िल्म के उदेश्य में उनका संगीत जिस तरह से इस्तेमाल > हुआ है वो अद्भुत है. ऐसे में फ़िल्म में संगीत एक 'एडड एट्रेक्शन' ना होकर > कहानी का हिस्सा, एक किरदार बन जाता है. ऐसा किरदार जिसके ना रहने पर कहानी ही > अधूरी रह जाये. आख़िर में आया 'जय हो!' तो जैसे एक बड़ा समापन समारोह है जो इस > उत्सवनुमा फ़िल्म को एक आश्वस्तिदायक अन्त देता है. वही अपने गुलज़ार, रहमान और > सुखविन्दर की तिकड़ी. जादू है जादू.. हमने तो सालों से सुना है. अब दुनिया सुने! > पेपर प्लेन उड़ाये और लिक्विड डांस करा करे! > > ख़ास प्रसंगों में अन्धे लड़के अरविन्द का वापिस मिलना याद रह जाता है, "तू बच > गया यार, मैं नहीं बच सका. बस इतना ही फ़र्क है." और हमारा हीरो एक सच्चा > हिन्दुस्तानी नायक है. एकदम उसके फ़ेवरिट अमिताभ बच्चन की माफ़िक! बचपन के प्यार > को वो भूलता नहीं और करोड़ों की भीड़ में भी आख़िर लतिका को तलाश कर ही लेता है > (याद कीजिए बेताब). नायिका भी हीरो की एक पुकार पर सातों ताले तोड़कर भागी आती > है. (मुझे एक पुरानी फ़िल्म 'बरसात की रात' की मशहूर कव्वाली 'ये इश्क इश्क है > इश्क इश्क' याद आ गई. मधुबाला नायक भारत भूषण की एक पुकार पर यूँ ही भागी आई > थी. बस फ़र्क इतना था कि वो रेडियो वाला दौर था.) और विलेन ऐसा कि उसके बारे में > मशहूर है कि वो भूलता नहीं, ख़ासकर अपने दुश्मनों को. जिनका उसपर 'कर्ज़ है'. > (मुझे बड़ी शिद्द्त से 'काइट रनर' का खलनायक आसिफ़ याद आ रहा है. वैसे आप 'शोले' > से लेकर 'कर्मा' तक के खलनायकों को याद कर सकते हैं. हिन्दुस्तानी विलेन लोगों > की ये ख़ासियत रही है हमेशा से. वो भूलते नहीं. और इसलिए 'गज़नी' का खलनायक एक > पिद्दी विलेन ही रह जाता है, साले को कुछ याद ही नहीं रहता! क्या उसको भी > 'शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस' की बीमारी थी!) अब इतनी सब बातों से ये तो साफ़ है कि > इस फ़िल्म में किसी भी 'बॉलीवुड फ़िल्म' जैसा ख़ूब मसाला है. देखना है कि तेईस > तारीख़ को हिन्दुस्तान में प्रदर्शन के साथ ही इस फ़िल्म की चर्चा कहाँ जाती है. > उम्मीद है कि सल्मडॉग मुझसे अभी और कलम घिसवाएगी.. आला रे आला ऑस्कर आला! जय > हो! > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From rajeshkajha at yahoo.com Wed Jan 21 17:43:49 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 21 Jan 2009 04:13:49 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSy4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSh4KWJ4KSXIOCkruCkv+CksuClh+CkqOCkv+Ckr+CksDog4KSs4KWJ4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KS14KWB4KShIOCkruCkuOCkvuCksuClhyDgpJXgpL4g4KWe4KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KWAIOCkpOClnOCkleCkvi4g4KSs4KWL4KSy4KWHIOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4oCZ4KSc4KSvIOCkueCliyHigJk=?= In-Reply-To: <1a9a8b710901210348w5c4a93e6q4744723015467559@mail.gmail.com> Message-ID: <425314.74192.qm@web52908.mail.re2.yahoo.com> सही कहा आपने सदनजी, काफी बढ़िया रिव्यू रही मिहिर जी की ये...फ़िल्म का तो जब देखूँगा तो देखूँगा...लेकिन रिव्यू पढ़ने में तो बहुत मजा आया. regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Wed, 1/21/09, Sadan Jha wrote: From: Sadan Jha Subject: Re: [दीवान]सल्मडॉग मिलेनियर: बॉलीवुड मसाले का फ़िरंगी तड़का. बोले तो ’जय हो!’ To: "mihir pandya" Cc: deewan at sarai.net Date: Wednesday, January 21, 2009, 5:18 PM बहुत अच्‍छा लगा। आपके पहले के रिव्‍यू से अच्‍छा है यह। मैंने नही देखी है यह फिल्‍म लेकिन एक उमदा लेख की तरह यह भी अपने विषय से पूर्व-परिचय का मोहताज नही। 2009/1/19 mihir pandya : > I'm back! Now read from... > > www.mihirpandya.com > ...miHir. > > > स्ल्मडॉग मिलिनेयर देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु > मेहता का गल्पेतर गल्प 'मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड' और दूसरा > ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर 'शान्ताराम'. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना > पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090121/ca11540e/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Wed Jan 21 17:42:22 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 21 Jan 2009 04:12:22 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSy4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KSh4KWJ4KSXIOCkruCkv+CksuClh+CkqOCkv+Ckr+CksDog4KSs4KWJ4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KS14KWB4KShIOCkruCkuOCkvuCksuClhyDgpJXgpL4g4KWe4KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KWAIOCkpOClnOCkleCkvi4g4KSs4KWL4KSy4KWHIOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4oCZ4KSc4KSvIOCkueCliyHigJk=?= In-Reply-To: <1a9a8b710901210348w5c4a93e6q4744723015467559@mail.gmail.com> Message-ID: <1014.68825.qm@web52910.mail.re2.yahoo.com> सही कहा आपने सदनजी, काफी बढ़िया रिव्यू रही मिहिर जी की ये...फ़िल्म का तो जब देखूँगा तो देखूँगा...लेकिन रिव्यू पढ़ने में तो बहुत मजा आया. regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Wed, 1/21/09, Sadan Jha wrote: From: Sadan Jha Subject: Re: [दीवान]सल्मडॉग मिलेनियर: बॉलीवुड मसाले का फ़िरंगी तड़का. बोले तो ’जय हो!’ To: "mihir pandya" Cc: deewan at sarai.net Date: Wednesday, January 21, 2009, 5:18 PM बहुत अच्‍छा लगा। आपके पहले के रिव्‍यू से अच्‍छा है यह। मैंने नही देखी है यह फिल्‍म लेकिन एक उमदा लेख की तरह यह भी अपने विषय से पूर्व-परिचय का मोहताज नही। 2009/1/19 mihir pandya : > I'm back! Now read from... > > www.mihirpandya.com > ...miHir. > > > स्ल्मडॉग मिलिनेयर देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु > मेहता का गल्पेतर गल्प 'मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड' और दूसरा > ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर 'शान्ताराम'. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना > पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक व्याख्या है जैसी अंग्रेज़ > हमेशा से करते आए हैं, मैं इन उपन्यासों के ज़िक्र के माध्यम से यह देखना चाहता > हूँ कि इस फ़िल्म की 'परम्परा' की रेखाएँ कहाँ जाती हैं. इन कहानियों में मुम्बई > ऐसे धड़कते शहर के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मुख़्तलिफ़ चेहरे एक-दूसरे से > उलट होते हुए भी मिलकर एक पहचान, एक व्यवस्था बनाते है. सुकेतु अलग-अलग > अध्यायों में मुम्बई अन्डरवर्ल्ड, बार-डांसर्स की दुनिया, फ़िल्मी दुनिया की > मायानगरी और मुम्बई पुलिस की कहानी बहुत ही व्यक्तिगत लहजे के साथ कहते हैं > लेकिन साथ ही मैक्सिमम सिटी इन सब व्यवस्थाओं को आपस में उलझी हुई और जगह-जगह > पर एक दूसरे को काटती हुई पहचानों का रूप देती है. उम्मीद है कि मीरा नायर जब > जॉनी डेप के साथ शान्ताराम बनायेंगीं तो वो भी इसी परम्परा को समृद्ध करेंगी. > > स्लमडॉग देखने के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार जो आपको याद रह जाता है वो है शहर > मुम्बई. एक परफ़ैक्ट नैरेटिव स्ट्रक्चर में जमाल के हर जवाब के साथ मुम्बई का एक > चेहरा, एक पहचान सामने आती है. जगमगाते सिनेमाई दुनिया के सपने, धर्म के नाम पर > हो रही हिंसा में बचकर भागते तीन बच्चे, झोपड़पट्टियों में चलते तमाम अवैध खेल > और उनके बीच से ही पनपता जीवन. क्रिकेट और सट्टेबाज़ी, जीने की ज़द्दोजहद और > प्यार… > > पिछले हफ़्ते सी.एन.एन. आई.बी.एन. को दिए साक्षात्कार में डैनी बॉयल ने मुम्बई > के लिए कहा है, "और इस फ़िल्म में एक किरदार मुम्बई शहर भी है. ऐसा किरदार जिसके > भीतर से अन्य सभी किरदार निकलते हैं. मैं इस शहर को इसकी सम्पूर्णता में पेश > करना चाहता था, लेकिन वस्तविकता यह है कि आप इसका एक हिस्सा ही पकड़ पाते हैं. > इसे पूरा पकड़ पाना असंभव है क्योंकि यह बहुत जटिल है और हर रोज़ बदलता है. ये > समन्दर की तरह है, हमेशा अपना रूप बदलने वाला समन्दर. लेकिन इस समन्दर का स्वाद > चख़ना भी स्लमडॉग की कहानी का एक हिस्सा था. यह वैश्विक अपील रखने वाली कहानी > है." > > स्लमडॉग में कोई स्टैन्डआउट एक्टिंग परफ़ॉरमेंस नहीं है. अगर याद रखे जायेंगे तो > वो दो बच्चे जिन्होंने कहानी के पहले हिस्से में जमाल (आयुष महेश खेड़ेकर) और > सलीम (अज़रुद्दीन मौहम्मद इस्माइल) की भूमिका निभाई है. स्लमडॉग को स्टैन्डआउट > बनाती हैं उसकी तीन ख़ासियतें:- > > 1.पटकथा 2.सिनेमैटोग्राफ़ी 3.संगीत > > साइमन बुफ़ॉय की पटकथा 'परफ़ैक्ट' पटकथा का उदाहरण है. एन्थोनी डॉड मेन्टल की > सिनेमैटोग्राफ़ी ने मुम्बई में नए रँग भरे हैं. और साथ ही यह फ़िल्म की गतिशीलता > के मुताबिक है. और रहमान का संगीत फ़िल्म की जान है. कहानी का मुख्य हिस्सा. > रहमान का संगीत उस तनाव के निर्माण में सबसे ज़्यादा सहायक बनता है जिस तनाव की > ऐसी थ्रिलर को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. > > पटकथा- क्योंकि मैंने विकास स्वरूप का उपन्यास Q&A नहीं पढ़ा है इसलिये मैं कह > नहीं सकता कि इस नैरेटिव स्ट्रक्चर का क्या और कितना उपन्यास से लिया गया है > लेकिन फ़िल्म में 'कौन बनेगा करोड़पति' के सवालों का यह सिलसिला मुम्बई की कहानी > कहने के लिए 'परफ़ैक्ट' नैरेटिव स्ट्रक्चर बन जाता है. यह पटकथा अलग-अलग बिखरी > मुम्बई की कहानी को एक सूत्र में पिरो देती है. आपको कहानी में एक पूर्णता का > अहसास होता है और फ़िल्म भव्यता को प्राप्त होती है. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस > तरह की 'संपूर्ण' कहानियाँ कम ही पसन्द आती हैं. मुझे अधूरी, बिखरी, खंडित > कहानियाँ (और वैसा ही नैरेटिव स्ट्रक्चर उसे पूरी तरह संप्रेषित करने के लिए) > ज़्यादा प्रतिनिधि लगती हैं इस अधूरे, बिखरे, खंडित जीवन की. लेकिन शायद > मेनस्ट्रीम (उधर का भी और इधर का भी) पूर्णता ज़्यादा पसन्द करता है. और इस > मामले में स्लमडॉग की पटकथा पूरी तरह 'मेनस्ट्रीम' की पटकथा है. सबकुछ एकदम > अपनी जगह पर, सही-सही. विलेन वहीं जहाँ उसे होना चाहिए, नयिका वहीं जहाँ उसे > मिलना चाहिए, मौत भी वहीं जहाँ उसे आना चाहिए. सभी कुछ एकदम परफ़ैक्ट टाइमिंग के > साथ. इसपर बहस करने की बजाए कि यह फ़िल्म कितनी बॉलीवुड की है और कितनी हॉलीवुड > की समझना यह चाहिए कि यह फ़िल्म अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद एक शुद्ध > मुख्यधारा की फ़िल्म है. और मुझे लगता है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम > में स्तर का अन्तर ज़रूर है, दिशा और ट्रीटमेंट के तरीके का नहीं. खुद डैनी बॉयल > ने इस बात को माना है कि सिनेमा भारत और अमेरिका दोनों देशों में उनके > सार्वजनिक जीवन के 'मेनस्ट्रीम' में शामिल है. वे कहते हैं, "सौभाग्यवश > हिन्दुस्तान में सिनेमा और उसमें काम करना लोगों की ज़िन्दगी का सामान्य हिस्सा > है. यह बिलकुल अमेरिका की तरह है. लोग यहाँ सिनेमा को प्यार करते हैं." तो यहाँ > हम एक जैसे हैं. और स्लमडॉग इसी 'एक-जैसे' तार को आपस में जोड़ रही है. > > हमेशा सही जगह पर आने वाले 'कम शॉट' और एक बेहद तनावपूर्ण क्लाइमैक्स के साथ > स्लमडॉग ईस्ट और वेस्ट दोनों में लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफ़ल फ़िल्म > साबित हो रही है (और होगी). और इसलिए ही यह हिन्दुस्तान की जनता के लिए कोई नई > कहानी नहीं लेकर आ रही है. हिन्दुस्तानी दर्शकों ने यह 'रैग्स-गो-रिच' वाली > कहानी ही तो देखी है बार-बार. हर तीसरी बॉलीवुड फ़िल्म इसी ढर्रे की फ़िल्म है. > बस इसबार उन्हें ये कहानी एक बेहतरीन पटकथा और उन्नत तकनीक के साथ देखने को > मिलेगी. > > फ़िल्म की शुरुआत पुलिस स्टेशन से होती है. अपने हवालदार कल्लू मामा (सौरभ > शुक्ला) और इंसपेक्टर (इररफ़ान ख़ान) एक लड़के जमाल (देव पटेल) को बिजली के शॉक दे > रहे हैं. इस झोपड़पट्टी के लड़के ने गई रात गेम शो 'के.बी.सी.' में सारे सवालों > के सही जवाब दिए हैं और अब वह दो करोड़ रुपयों से सिर्फ़ एक सवाल पीछे है. शक है > कि उसने बेईमानी की है क्योंकि एक झोपड़पट्टी के लड़के को ये सारे जवाब मालूम हों > इसका विश्वास किसी को नहीं है, खुद गेम शो के होस्ट (अनिल कपूर) को भी नहीं. > पुलिस की पूछताछ में जमाल एक-एक कर हर जवाब से जुड़ा स्पष्टीकरण देता है. हर > स्पष्टीकरण के साथ एक कहानी है. उसे जवाब मालूम होने की वजह. कहानी बार-बार > फ़्लैशबैक में जाती है. जितनी विविधता सवालों में है उतनी ही मुम्बई की परतें > खुलती हैं. आखिर में कहानी वर्तमान में आती है और जमाल आखिरी सवाल का जवाब देने > वापिस लौटता है. वो कौन बनेगा करोड़पति में पैसा जीतने नहीं आया है, उसे अपनी > खोयी प्रेमिका लतिका (फ़्राइडा पिन्टो) की तलाश है. उसे मालूम है कि लतिका ये शो > देखती है. शायद वो उसे देख ले और उसे मिल जाये. आखिर में एक शुद्ध मुम्बईया > क्लाईमैक्स है और एक ठेठ मुम्बईया आइटम नम्बर. > > फ़िल्म की पटकथा सवालों के क्रम में एक के बाद एक जमाल के जीवन के अलग-अलग > एपीसोड्स पिरो देती है. इससे आप मुम्बई की बहुरँगी तसवीर भी देख पाते हैं और > फ़िल्म की मुख्य कथा का तनाव भी बना रहता है. यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी > सार्वभौमिक बन जाती है और ठेठ मुम्बईया फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी प्यार > ही कथा के 'होने की' मुख्य वजह बनकर सामने आता है. एक कहानी जो एलेक्ज़ेंडर > ड्यूमा के 'तीन तिलंगों' के ज़िक्र से शुरु होती है पूरा चक्र घूमकर वहीं आकर एक > 'परफ़ैक्ट एंडिग' पाती है. फ़िल्म की टैगलाइन सही है शायद, "सब लिखा हुआ है". > सल्मडॉग की सबसे बड़ी ताक़त उसका लेखन (कहानी, पटकथा, संवाद) ही है! > > छायांकन- फ़िल्म मुम्बई की झोपड़पट्टी को फ़िल्माती है लेकिन ये भी सच है कि फ़िल्म > उसकी गरीबी से कोई करुणा नहीं पैदा करती है. शुरुआती सीन में जहाँ पहली बार > मुम्बई के सल्म से आपका सामना होता है एक कमाल की सिहरन आपमें दौड़ जाती है. > कैमरा जिस गति से भागते बच्चों की टोली का पीछा करता है वो पूरे सल्म को एक > निहायत गतिशील पहचान देता है. यह फ़िल्म यथार्थवाद के पीछे नहीं, भव्यता और > रोमांच के पीछे भागती है और इस मामले में ये हिन्दुस्तानी समांतर सिनेमा की > नहीं, मुख्यधारा सिनेमा की बहन है. रेलगाड़ी के तमाम प्रसंग भी इसी भव्यता की > बानगी हैं. रेगिस्तान हो या पहाड़, रेल हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोती है. > वैसी ही सम्पूर्णता प्रदान करती है जो फ़िल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर कहानी के साथ > कर रहा है. इसलिए रेलगाड़ी इस फ़िल्म के लिए एकदम ठीक प्रतीक है. > > संगीत- संगीत इस फ़िल्म की जान है. रहमान ने बैकग्राउंड स्कोर में रेलगाड़ी की > धड़क-धड़क को कुछ ऐसे पिरो दिया है कि पूरी फ़िल्म में एक स्वाभाविक गति पैठ गई > है. यह मुझे बार-बार 'छैयाँ छैयाँ' की याद दिलाता है. रहमान के पास हर मौके के > लिए धुन है. नायक-नायिका के मिलन के अवसर पर वे ठेठ देसी 'चोली के पीछे क्या > है' और 'मुझको राणा जी माफ़ करना' से प्रभावित गीत लेकर आते हैं. आवाज़ें भी वही > दोनों इला अरुण और अलका याग्निक. शुरुआती धुन सिनेमा हॉल में डॉल्बी डिज़िटल में > क्या समाँ बाँधेगी मुझे इसका इंतज़ार है. रहमान पहले भी इतना ही कमाल का संगीत > देते रहे हैं लेकिन यहाँ फ़िल्म के उदेश्य में उनका संगीत जिस तरह से इस्तेमाल > हुआ है वो अद्भुत है. ऐसे में फ़िल्म में संगीत एक 'एडड एट्रेक्शन' ना होकर > कहानी का हिस्सा, एक किरदार बन जाता है. ऐसा किरदार जिसके ना रहने पर कहानी ही > अधूरी रह जाये. आख़िर में आया 'जय हो!' तो जैसे एक बड़ा समापन समारोह है जो इस > उत्सवनुमा फ़िल्म को एक आश्वस्तिदायक अन्त देता है. वही अपने गुलज़ार, रहमान और > सुखविन्दर की तिकड़ी. जादू है जादू.. हमने तो सालों से सुना है. अब दुनिया सुने! > पेपर प्लेन उड़ाये और लिक्विड डांस करा करे! > > ख़ास प्रसंगों में अन्धे लड़के अरविन्द का वापिस मिलना याद रह जाता है, "तू बच > गया यार, मैं नहीं बच सका. बस इतना ही फ़र्क है." और हमारा हीरो एक सच्चा > हिन्दुस्तानी नायक है. एकदम उसके फ़ेवरिट अमिताभ बच्चन की माफ़िक! बचपन के प्यार > को वो भूलता नहीं और करोड़ों की भीड़ में भी आख़िर लतिका को तलाश कर ही लेता है > (याद कीजिए बेताब). नायिका भी हीरो की एक पुकार पर सातों ताले तोड़कर भागी आती > है. (मुझे एक पुरानी फ़िल्म 'बरसात की रात' की मशहूर कव्वाली 'ये इश्क इश्क है > इश्क इश्क' याद आ गई. मधुबाला नायक भारत भूषण की एक पुकार पर यूँ ही भागी आई > थी. बस फ़र्क इतना था कि वो रेडियो वाला दौर था.) और विलेन ऐसा कि उसके बारे में > मशहूर है कि वो भूलता नहीं, ख़ासकर अपने दुश्मनों को. जिनका उसपर 'कर्ज़ है'. > (मुझे बड़ी शिद्द्त से 'काइट रनर' का खलनायक आसिफ़ याद आ रहा है. वैसे आप 'शोले' > से लेकर 'कर्मा' तक के खलनायकों को याद कर सकते हैं. हिन्दुस्तानी विलेन लोगों > की ये ख़ासियत रही है हमेशा से. वो भूलते नहीं. और इसलिए 'गज़नी' का खलनायक एक > पिद्दी विलेन ही रह जाता है, साले को कुछ याद ही नहीं रहता! क्या उसको भी > 'शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस' की बीमारी थी!) अब इतनी सब बातों से ये तो साफ़ है कि > इस फ़िल्म में किसी भी 'बॉलीवुड फ़िल्म' जैसा ख़ूब मसाला है. देखना है कि तेईस > तारीख़ को हिन्दुस्तान में प्रदर्शन के साथ ही इस फ़िल्म की चर्चा कहाँ जाती है. > उम्मीद है कि सल्मडॉग मुझसे अभी और कलम घिसवाएगी.. आला रे आला ऑस्कर आला! जय > हो! > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090121/0de8c54e/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Thu Jan 22 15:14:18 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Thu, 22 Jan 2009 15:14:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= subsribe Message-ID: <190a2d470901220144n1b91058di91d971507f7e8366@mail.gmail.com> -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090122/786032b7/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Jan 22 18:40:16 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 22 Jan 2009 18:40:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWA4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkpuClh+CktuClgCDgpIXgpILgpKbgpL7gpJw=?= Message-ID: <6a32f8f0901220510u3102f073q3c81b9a4dd07b1b7@mail.gmail.com> देश की राजनीतिक पार्टियां आम चुनाव की तैयारी में जुटी हैं। रंग-ढंग वही पुराना है। सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादा समय गुजार रहे हैं। चुनाव प्रचार में तकनीक के इस्तेमाल को महत्व दिया जा रहा है। ऐसे में भागलपुर लोकसभा क्षेत्र में तफरीह करते समय एक किस्सा व कुछ गाने याद आ गए। जिले के बज्र देहाद में एक किस्सा बड़ा मशहूर है। वो यह कि कभी इस इलाके से कांग्रेस पार्टी के कद्दावर व प्रतिष्ठित नेता भागवत झा आजाद सांसद हुआ करते थे। एक मर्तबा वे क्षेत्र में चुनावी दौरा करते हुए चतरी गांव पहुंचे। उस वक्त गांव के एक चौपाल का नजारा विचित्र था। एक व्यक्ति एक आवारा कुत्ते को पट्टे के सहारे खंभे से बांध रखा था। साथ ही कुत्ते की हल्की पिटाई कर रहा था। इस दौरान उक्त व्यक्ति उस वफादार जानवर को विशेषणों से नवाजते हुए पांच साल बाद आने की वजह भी पूछ रहा था। हालांकि इलाके में आजाद का बड़ा मान था और अब भी है। लेकिन देहाती-दुनिया में फैले इस किस्से व गीतकार गुलजार द्वारा फिल्म आंधी के लिए लिखे कव्वाली - (सलाम कीजिए, आलीजनाब आए हैं। यह पांच सालों का देने हिसाब आए हैं।) को जोड़कर देखने पर ताज्जुब हुआ। फिलहाल मालूम नहीं कि ये कव्वाली इस देहात में पहले सुनाई दी या ये किस्से गुलजार तक पहले पहुंच गए। खैर! सही जो भी हो। मूल बात यह है कि देश में बढ़ती राजनीतिक चेतना कव्वाली की इस पंक्ति से साफ होती है। आप स्वयं देख लें- (यह वोट देंगे, मगर अबके यूं नहीं देंगे। चुनाव आने दो हम आपसे निबट लेंगे।) यह नराजगी अपने चरम पर पहुंच विद्रोह का शक्ल अख्तियार करने लगी है। इतने बरसों बाद जब कई जमाने पुराने हो गए, नमालूम कितनी चीजें पीछे छूट गईं, मगर गुलजार द्वारा लिखी कव्वाली नई ताजगी व तेवर के साथ सफेद पोशाकी पर फिट बैठती है। अलबत्ता मेरा ख्याल है कि थोड़ा वक्त और गुजरेगा तो यह कहीं सुबह का लिखा न मालूम पड़े। आखिरकार गीत अपना धर्म कुछ इसी अंदाज में निभाता है। वह अपनी संश्लिष्टता में सिर्फ संकेत देता है। क्रांति की फसल नहीं खड़ी करता, बल्कि बीज बोता है। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090122/8a78428a/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Fri Jan 23 01:32:11 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 22 Jan 2009 14:02:11 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <7729435.1654481232654531768.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// 'व' की जगह हम 'ब' या 'भ' से ही काम चला लेंगे .... Posted: 21 Jan 2009 11:28 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/519492892/blog-post_21.html हिन्‍दी ही चलती है हमारे प्रदेश में भी. घर में चाहे बज्जिका बोलते हों या भोजपुरी या मैथिली या फिर अंगिका; घर से निकलते ही सब हिन्‍दी में तब्‍दील हो जाती है. पर इस बदली हुई हिन्‍दी पर घर के अंदर बोली जाने वाली बोली का वर्चस्‍व होता ही है, स्‍थापित नहीं करना पड़ता है. फिलहाल मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि घर के अंदर बोली जाने वाली बोली भाषा विज्ञान की दृष्टि से ठीक होती है या बेठीक. इतना ज़रूर है कि उसे बोलने - बरतने में बड़ा मज़ा आता है. पर यही हिन्‍दी बनकर जब जबान से बाहर आती है कि उसमें एक अटपटापन होता है. दादी कहती थीं, 'चल रे लडिका सS, महाबीरी धजा पूजे; सब कोने के पेरा देबउ'. बालपन की बात को याद करके आज भी बड़ा सामान्‍य लगता है दादी का हम सब बच्‍चों को उस तरह कहना. पर वही बात जब छुट्टियों के बाद वापस हॉस्‍टल लौट कर दोस्‍तों से कुछ इस तरह कहते थे : 'एक दिन अपनी दादी के साथ महाबीरी धाजा के पूजा में गये थे हम' तो बिल्‍कुल ठीक-ठीक तो नहीं ही लगता था. एक बोली के तौर पर घरों के अंदर बोली जाने वाली और घर से बाहर इस्‍तेमाल की जाने वाली हिंदी में से किसी की महत्ता को कम करके नहीं आंक रहा हूं. दोनों की अपनी जगह है. कई मर्तबे दोनों एक-दूसरे को समृद्ध बनाते हैं. पर यही लगता है कि दोनों के अंदाज़ को अगर अक्षुण्‍ण रखा जा सके तो क्‍या ही बढिया होगा. ऐसा कहते वक्त मैं आम तौर पर बिहार में बरते जाने वाली हिन्‍दी को ज़रूर रेखांकित करना चाहूंगा. यह कहना कि हिंदी की वर्णमाला से बिहार में यदि 'व' निकाल भी लिया जाए तो वहां संप्रेषण की समस्‍या नहीं आएगी, ग़लत और अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. लोग इस 'व' की जगह कहीं 'ब' से तो कहीं 'भ' से काम चला लेते हैं. धड़ल्‍ले से चल रहा है. मजाल है कि स्‍कूल या कॉलेज में मास्‍साहब टोक दें कि पट्ठा ग़लत बोल रहा है. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090122/d89eb1b3/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Fri Jan 23 09:10:23 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 23 Jan 2009 09:10:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpKs=?= =?utf-8?b?4KS84KWN4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= In-Reply-To: <829019b0901221413p4687197fk1f927454595e2a97@mail.gmail.com> References: <7729435.1654481232654531768.JavaMail.rsspp@deepstorage1> <829019b0901221413p4687197fk1f927454595e2a97@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0901221940g33e4f733ja5bcd49ad7d79264@mail.gmail.com> विनीत की राय : ---------- Forwarded message ---------- From: vineet kumar Date: 2009/1/23 Subject: Re: [दीवान]हफ़्तावार To: हफ़्ताwar सरजी, लगे हाथ नेशनल म्यूजिम की जो बस स्टॉप है, वहां जो लिखा है उसकी भी बोर्ड लगा देते तो बात और साफ हो जाती कि सरकारी महकमे में घुसकर हिन्दी ऑफिसर कौन-सी हिन्दी पालते-पोसते हैं, अबकि वहां भी फोटू खीचेवाला मसीन लेके जाइएगा । बुरा मत मानिएगा तो हम चाहेंगे कि इ मसीन पैचा खातिर एक दिन के लिए हमको भी दे दीजिए। काहे कि हमलोग के हॉस्टल के आगे एक सैलून है, उसके बोड पर तीन लाइन लिखा है, तीनों लाइन उतना ही शुद्ध है जितना शुद्ध तरीके से हम टिप्पणी कर रहे हैं 1.सेलून 2. गवायर हाल 3.. युनिवसिटी विनीत 2009/1/23 हफ़्ताwar > > हफ़्तावार > > 'व' की जगह हम 'ब' या 'भ' से ही काम चला लेंगे .... > > Posted: 21 Jan 2009 11:28 PM CST > > हिन्‍दी ही चलती है हमारे प्रदेश में भी. घर में चाहे बज्जिका बोलते हों या भोजपुरी या मैथिली या फिर अंगिका; घर से निकलते ही सब हिन्‍दी में तब्‍दील हो जाती है. पर इस बदली हुई हिन्‍दी पर घर के अंदर बोली जाने वाली बोली का वर्चस्‍व होता ही है, स्‍थापित नहीं करना पड़ता है. फिलहाल मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि घर के अंदर बोली जाने वाली बोली भाषा विज्ञान की दृष्टि से ठीक होती है या बेठीक. इतना ज़रूर है कि उसे बोलने - बरतने में बड़ा मज़ा आता है. पर यही हिन्‍दी बनकर जब जबान से बाहर आती है कि उसमें एक अटपटापन होता है. > दादी कहती थीं, 'चल रे लडिका सS, महाबीरी धजा पूजे; सब कोने के पेरा देबउ'. बालपन की बात को याद करके आज भी बड़ा सामान्‍य लगता है दादी का हम सब बच्‍चों को उस तरह कहना. पर वही बात जब छुट्टियों के बाद वापस हॉस्‍टल लौट कर दोस्‍तों से कुछ इस तरह कहते थे : > 'एक दिन अपनी दादी के साथ महाबीरी धाजा के पूजा में गये थे हम' > तो बिल्‍कुल ठीक-ठीक तो नहीं ही लगता था. > एक बोली के तौर पर घरों के अंदर बोली जाने वाली और घर से बाहर इस्‍तेमाल की जाने वाली हिंदी में से किसी की महत्ता को कम करके नहीं आंक रहा हूं. दोनों की अपनी जगह है. कई मर्तबे दोनों एक-दूसरे को समृद्ध बनाते हैं. पर यही लगता है कि दोनों के अंदाज़ को अगर अक्षुण्‍ण रखा जा सके तो क्‍या ही बढिया होगा. > ऐसा कहते वक्त मैं आम तौर पर बिहार में बरते जाने वाली हिन्‍दी को ज़रूर रेखांकित करना चाहूंगा. यह कहना कि हिंदी की वर्णमाला से बिहार में यदि 'व' निकाल भी लिया जाए तो वहां संप्रेषण की समस्‍या नहीं आएगी, ग़लत और अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए. लोग इस 'व' की जगह कहीं 'ब' से तो कहीं 'भ' से काम चला लेते हैं. धड़ल्‍ले से चल रहा है. मजाल है कि स्‍कूल या कॉलेज में मास्‍साहब टोक दें कि पट्ठा ग़लत बोल रहा है. > You are subscribed to email updates from हफ़्ताwar > To stop receiving these emails, you may unsubscribe now. Email Delivery powered by FeedBurner > Inbox too full? Subscribe to the feed version of हफ़्ताwar in a feed reader. > If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 20 W Kinzie, 9th Floor, Chicago IL USA 60610 > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jan 23 12:54:45 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Fri, 23 Jan 2009 12:54:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWI4KSC4KSa4KWAIOCkl+Ckv+CksOClgOCkqOCljeCkpuCljeCksCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpYA=?= Message-ID: <196167b80901222324k6d80cffdpb9074c39798f7cf2@mail.gmail.com> *हमारा पक्ष भी तो पूछा होता* - विनीत भाई, आप उन सब लोगों से परिचित हैं जो मीडिया स्कैन टीम के साथ जुड़े हुए हैं. उसके बाद भी आप इस तरह का कोई लेख कैसे लिख सकते हैं? लिखने से पहले कम से कम एक बार बात तो करते. संपादन के मामले में उलट हुआ. यहाँ जो संपादन है वह पूरी तरह से गिरीन्द्र की देखरेख में हुआ है. वह क़यामत की रात (जिस रात को मीडिया स्कैन पूरा हुआ) , अंक के साथ थे. लेख जुटाने में उनके कहने पर जो मदद बन पाई हमने की. लेकिन वह लेख भी लाकर गिरीन्द्र के झोले में ही डाला गया. ( आपने लिखा है - अतिथि संपादक होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप से काम करनेवालों को सौंप दिया।) अपने मन की लिखने से पहले विनीत भाई आप एक बार बतिया लेते - मुझसे बतियाने में हर्ज था तो तनिक गिरिन्द्र (09868086126) का नंबर ही मिला लेते तो अच्छा होता. ---- आशीष कुमार 'अंशु' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090123/5ae06a63/attachment.html From girindranath at gmail.com Fri Jan 23 14:25:14 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 23 Jan 2009 14:25:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkpOCkn+CkrOCkguCkpywg4KSV4KSq4KWC4KSwIOCkleCkruClgA==?= =?utf-8?b?4KS24KSoIOCklOCksCDgpIbgpLDgpYvgpKrgpL/gpKQg4KSq4KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSV4KWD4KSkLSDgpLjgpYHgpLDgpYfgpKjgpY3gpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCkv+CktuCli+CksA==?= Message-ID: <63309c960901230055i2e33bc98y3425452592dd0676@mail.gmail.com> सुरेन्द्र किशोर के ब्लॉग http://surendrakishore.blogspot.com/2009/01/blog-post_3604.html से. गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com कोसी तटबंध, कपूर कमीशन और आरोपित पुरस्कृत- सुरेन्द्र किशोर सत्तर के दशक में कोसी सिंचाई योजना स्थल पर अररिया में तैनात एक सहायक अभियंता की शिक्षिका पत्नी के साथ एक ठेकेदार ने इसलिए बलात्कार किया क्योंकि उसके पति ने उसके बोगस बिल पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था। इस बलात्कार की घृणित घटना को अंजाम देने के लिए ठेकेदार ने इंजीनियर के हाथ -पैर बांध दिए थे। अपनी आंखों के सामने हुई इस घटना के सदमे से वह इंजीनियर विक्षिप्त हो गया।उसका प्रमोशन रुक गया।बाद के वर्षों के एक सिंचाई मंत्री को असलियत का जब पता चला तो उन्होंने 'अनुकम्पा' के तहत देर से ही सही, पर उसे प्रोन्नति दे दी । जाहिर है कि उस बलात्कारी ठेकेदार को मजबूत राजनीतिक संरक्षण हासिल था। यह घटना इस बात का सबूत है कि किस तरह कोसी सिंचाई योजना के भ्रष्ट ठेकेदारों का मनोबल बढ़ा हुआ था। मनोबल इसलिए भी बढ़ा क्योंकि कोसी तटबंध व बराज के निर्माण के शुरूआती दौर में ही राजनीतिक मदद से भ्रष्टों का मनोबल बढ़ा दिया गया था। इस काम में अपनी 'हिस्सेदारी' के लिए भ्रष्ट राजनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संबंध में हुई न्यायिक जांच आयोग की रपट भी यही कहती है। समय बीतने के साथ कोसी सिंचाई योजना में भ्रष्टाचार की समस्या इतनी विकराल होती गई कि संबंधित लोगों के भ्रष्टाचार और काहिली के कारण तटबंध का उचित रख- रखाव नहीं होता रहा और अंततः गत अगस्त में कुशहा में वह टूट गया । लाखों लोग तबाह हो गए। यह ह्रदय विदारक , दर्दनाक व शर्मनाक घटना वर्षों की लगातार उपेक्षा और भ्रष्टाचार के मिले -जुले असर के कारण हुई। हालांकि यह भी कहा जाना चाहिए कि इस बीच कोसी योजना से जुड़े सारे के सारे मंत्री, अफसर और ठेकेदार लोग भ्रष्ट ही नहीं थे।पर अच्छे और कर्मठ लोगों की संख्या इतनी कम रही कि वे भी लगातार होती बर्बादी को रोक नहीं पाए। इन दिनों बर्बाद कोसी क्षेत्र पर पूरी बिहार सरकार का ध्यान लगा हुआ है। उस क्षेत्र का पुनर्निर्माण जरूरी भी है।उस ओर ध्यान देने का नतीजा है कि बाकी बिहार के विकास की तेज गति अब प्रभावित हो रही है। इतनी बड़ी विपदा के लिए आखिर कौन- कौन लोग जिम्मेदार रहे हैं, उनकी खोज खबर जरा जरूरी है। हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि गत अगस्त में कुशहा में तटबंध की टूट के लिए जिम्मेदार मौजूदा सरकारी व गैर सरकारी लोगों का कसूर कुछ कम है। बात शुरू से ही प्रारंभ की जाए।कोसी तटबंध और बराज का निर्माण पचास के दशक में शुरू हुआ था।इसके निर्माण कार्य में सरकार को सहयोग करने के लिए भारत सेवक समाज ने भी गैर सरकारी संगठन के रूप में योगदान किया था।उसका काम कोसी तटबंध के निर्माण में श्रमदान व जन सहयोग की व्यवस्था करना था।इसके लिए भी उसे सरकार से पैसे मिले थे। पर आरोप लगा कि समाज ने उन पैसों का गोलमाल किया है। भारत सेवक समाज को उच्चस्तरीय राजनीतिक संरक्षण हासिल था। तकनीकी रूप से भले भारत सेवक समाज जिम्मेदार माना गया, पर नैतिक जिम्मेदारी तो तब के कुछ बड़े सत्ताधारी नेताओं की ही थी जिन्होंने इसमें तरह तरह के भ्रष्टाचार को संरक्षण दिया था। कोसी तटबंध निर्माण योजना में भ्रष्टाचार की शिकायतों की चर्चा जब तेज हुई तो केंद्र सरकार ने आरोपों की जांच सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे.एल.कपूर से कराई थी।कपूर आयोग ने सन् 1973 में ही अपनी रपट केंद्र सरकार को दे दी ।आयोग ने भारत सेवक समाज के खिलाफ आरोप को सही पाया। आयोग की रपट से यह साफ हो गया कि किस तरह योजना की शैशवास्था में ही उसमें किस तरह भ्रष्टाचार का बीज बो दिया गया। 27 जुलाई 1987 को बिहार विधान सभा में कपूर कमीशन की रपट पर जो चर्चा हुई थी, उसका विवरण यहां प्रस्तुत करना मौजू होगा। उमाधर प्रसाद सिंह -क्या मंत्री, मंत्रिमंडल (निगरानी) विभाग यह बताने की कृपा करेंगे कि (1) क्या यह बात सही है कि कोसी योजना के तहत भारत सेवक समाज, बिहार द्वारा की गई अनियमितता की जांच कपूर कमीशन द्वारा 1965 में की गई थी ,(2) क्या यह बात सही है कि उक्त कमीशन ने 1967 में ही सरकार को प्रतिवेदन दिया था जिसमें स्वामी हरिनारायणनंद, अध्यक्ष, भारत सेवक समाज, बिहार को उक्त अनियमितताओं के लिए प्रमुख दोषी करार दिया था, (3) क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखने का क्या औचित्य है ? रामाश्रय प्रसाद सिंह (मंत्री) -अध्यक्ष महोदय, माननीय सदस्य उमाधर सिंह का जो सवाल है, यह सवाल संबंधित है कपूर कमीशन से। कपूर कमीशन को भारत सरकार ने बनाया था। सारे कागजातों को देखने की कोशिश हमने की है। भारत सरकार से बिहार सरकार में कमीशन के संबंध में एक्शन के लिए कोई रिपोर्ट नहीं हुई है। इसलिए बिहार सरकार द्वारा इसमें उत्तर देना कठिन है।रघुनाथ झा-स्वामी हरिनारायणानंद का नाम है या नहीं ? उनके उपर दोष प्रमाणित हुए हैं या नहीं, कपूर कमीशन में ?रामाश्रय प्रसाद सिंह - हमारे पास कोई आधार नहीं है जिससे कि हम कह सकें कि स्वामी हरिनारायणानंद का नाम था और वे अभिुक्त थे। उमाधर सिंह - माननीय मंत्री जी ने बताया कि भारत सरकार का यह कपूर कमीशन था।पर, जांच हुई थी कोसी योजना में।उस समय भारत सेवक समाज के द्वारा जो काम किए गये थे, उसके बारे में और बिहार में भी जांच हुई थी कोसी योजना में जो घोटाले हुए थे, उस पर जांच हुई थी।और कपूर कमीशन ने सारी अनियमितताओं के लिए स्वामी हरिनारायणानंद को दोषी ठहराया था।आप कहते हैं कि सिंचाई विभाग में कोई रिपोर्ट नहीं है, यह आश्चर्य की बात है।रामाश्रय सिंह - सिंचाई विभाग की बात नहीं है। हमने यह कहा कि भारत सरकार के यहां से रपट हमलोगों के यहां नहीं आई है। राजो सिंह - अध्यक्ष महोदय, अभी माननीय मंत्री महोदय ने कहा कि यह कमीशन भारत सरकार ने बनाया है और कोई रेफेरेंस बिहार सरकार के साथ नहीं हुआ है।मैं आपके माध्यम से जानना चाहता हूं कि जो विषय था भारत सेवक समाज का,वह बिहार राज्य के क्षेत्र का था या बाहर का था ?रामाश्रय प्रसाद सिंह - इसमें बिहार राज्य के कोसी क्षेत्र में जो सोशल वर्क हो रहे थे, उससे संबंधित था और दूसरे राज्य से भी संबंधित जो भारत सेवक समाज के थे,से था। अध्यक्ष (शिव चंद्र झा) - मैं सोचता हूं कि आपके पास कागजात उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सरकार उस रिपोर्ट के संबंध में, केंद्र सरकार जहां जांच हुई है, से जानकारी ले ले और यदि ऐसी कोई बात हो, तो यह जनहित का प्रश्न है, आपको उस पर उचित कार्रवाई करनी चाहिए।रामाश्रय प्रसाद सिंह - अध्यक्ष महोदय, हमने रेजिडेंट कमीश्नर को टेलिपिं्रंटर संदेश दिया है कि भारत सरकार से पूरी रिपोर्ट लेकर दिया जाए। रघुनाथ झा - माननीय मंत्री ने दो खंडों में उत्तर दिया।अध्यक्ष महोदय,माननीय मंत्री ने हवाला दिया है कपूर कमीशन का और इसकी रिपोर्ट के बारे में जानकारी बिहार को नहीं है।तीसरा खंड देखा जाए।'क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखा गया है।इसके बारे में मंत्री जी ने कोई उत्तर नहीं दिया है। रामश्रय प्रसाद सिंह - इसलिए कि उस रिपोर्ट की कोई चीज हमारे पास नहीं है।कैसे जवाब देंगे ? जब रिपोर्ट है ही नहीं तो उस पर क्या जवाब देंगे ? (सदन में शोरगुल) (कई माननीय सदस्य खड़े हो गए।)अध्यक्ष - आप बैठ जाएं।उत्तर दिलवा देता हूं। (सदन में शोरगुल) अध्यक्ष - शंति शांति । राजो सिंह - अध्यक्ष महोदय, एक बात सुन लीजिए। माननीय सदस्य रघुनाथ झा ने आपका ध्यान आकृष्ट किया, सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। मूल प्रश्न जो माननीय सदस्य उमाधर सिंह ने किया है, उसका अंतिम निचोड़ है कि इन पर कपूर आयोग में आरोप भी है तो क्या सरकार उनको (स्वामी हरिनारायणानंद को) हटाएंगी या नहीं ? अध्यक्ष- माननीय सदस्य श्री रघुनाथ झा ने प्रश्न के खंड - 3 की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया है। इस ख्ंाड के अंदर है , क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक बिहार भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखा गया है, तो मैं सोचता हूं कि सरकार को उत्तर स्वीकारात्मक है, कहने में कहां आपत्ति है ? रामाश्रय प्रसाद सिंह-उत्तर स्वीकारात्मक है। (सदन में शोर गुल)अध्यक्ष -अब बात समाप्त है। (इस अवसर पर विरोधी पक्ष के कई सदस्य खड़े हो गए।)अध्यक्ष - शांति, शांति। आप कृपया बैठ जाएं। फिर पूछेंगे। नक्सली विधायक उमाधर प्रसाद सिंह ने यह मामला बिहार विधान सभा में फिर 12 जनवरी 1988 को उठाया। उन्होंने कहा कि मैंने कपूर कमीशन की रपट की कापी के साथ एक पत्र भेज दिया है। पर सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। हालांकि कपूर कमीशन की रपट की काॅपी उपलब्ध नहीं रहने का बिहार सरकार का बहाना भी समाप्त हो गया था। पर राज्य सरकार को न तो कोई कार्रवाई करनी थी और न ही उसने किया। यानी, ऐसे व्यक्ति को भी भ्रष्टाचार निरोधक संगठन का प्रधान बना दिया गया , खुद जिस पर गड़बडि़यों का आरोप कपूर आयोग ने लगाया। पर ऐसा यह इकलौता मामला नहीं है।जिस प्रतिपक्ष ने कपूर कमीशन की रपट के आधार पर कार्रवाई करने की मांग विधान सभा और लोक सभा में की,उसी प्रतिपक्ष ने अय्यर कमीशन द्वारा दोषी ठहराए गए एक संगठन कांग्रेसी नेता को उन्हीें दिनों बिहार वित्तीय निगम का अध्यक्ष बना दिया था। यह बात तब की है जब कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्य मंत्री (1970-71 ) थेे। याद रहे कि संगठन कांग्रेस और जनसंघ की मदद से संसोपा नेता कपूरी ठाकुर ने तब सरकार बनाई थी। उमाधर सिंह ने तो स्वामी हरिनारायणानंद को ध्यान में रख कर विधान सभा में यह मामला उठाया था। पर यह तो पूरे मामले का एक छोटा पहलू था। स्वामी हरिनारायणानंद के एक मददगार व तब के केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र को भी कोसी घोटाले को लेकर संसद में .सफाई देनी पड़ी थी। 2 जून 1971 को संसद में एल.एन.मिश्र ने कहा कि मैंने मई 1957 में ही भारत सेवक समाज की कोसी शाखा के संयोजक पद से इस्तीफा दे दिया था।उन्होंने यह भी कहा कि कोसी तटबंध के निर्माण के दौरान पैसे उन्हें ही दिए गए थे जिसे कमेटी ने देने के लिए कहा था।पैसे भी उसी काम में खर्च हुए थे जिस काम के लिए वे थे। पर, कपूर कमीशन ने अपनी विस्तृत रपट में यह बात लिखी है कि मिश्र द्वारा उठाए गए पैसों में से सबका हिसाब नहीं दिया गया। (कपूर आयोग रपट-पेज -104) एल.एन.मिश्र के अलावा भी कई सार्वजनिक नेताओं की चर्चा रपट में है। याद रहे कि सन् 1954 की प्रलंयकारी बाढ़ के बाद कोसी की धारा को नियंत्रित करने के लिए तटबंध और बराज बनाने का निर्णय हुआ।पर उच्च स्तर पर यह भी तय हुआ कि सरकार के पास चूंकि पैसों की कमी है, इसलिए स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दल के लोग जनता के सहयोग से श्रमदान के जरिए भी तटबंध निर्माण के काम में हाथ बंटाएं। कपूर आयोग की रपट कहती है कि एल.एन.मिश्र ने 16 नवंबर 1955 को यह सलाह दी कि भारत सेवक समाज से भी काम कराया जाए।पर भारत सेवक समाज से काम कराना कितना महंगा पड़ा ,उसका जिक्र रपट में किया गया है।रपट के अनुसार सरकार द्वारा तय ठेकेदारों से मिट्टी का जो काम कराया गया, उस पर सरकार को प्रति सी.एफ.टी. 34 रुपए खर्च हुए।पर जो काम श्रमदान से हुआ,उस पर सरकार का खर्च आया 59 रुपए प्रति सी.एफ.टी.। (कपूर आयोग रपट-पेज संख्या-82) इतना ही नहीं, तथाकथित स्वयंसेवकों को इस काम के लिए जितने पैसे दिए गए, उनमें से भारी धनराशि का कोई हिसाब ही उनलोगों ने नहीं दिया। बिहार प्रदेश भारत सेवक समाज के संयोजक स्वामी हरिनारायणानंद को 3 नवंबर 1961 को तत्कालीन मुख्य मंत्री विनोदानंद झा ने पत्र लिखा। पत्र में कहा गया कि 'कोसी योजना के कार्यान्वयन में कम्युनिटी सेविंग फंड के उपयोग को लेकर विवाद है। इसको लेकर विधायिका में राज्य सरकार को अनेक सवालों का सामना करना पड़ रहा है।प्रेस में यह विवाद छप रहा है।अच्छा होगा कि इस फंड का आॅडिट सरकारी ंएजेंसी से करा लिया जाए।' इसके जवाब में 6 नवंबर 1961 को स्वामी हरिनारायणानंद ने मुख्य मंत्री को लिखा कि किसी सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं, तत्कालीन केंद्रीय उप मं.त्री एल.एन.मिश्र ने भी इस संबंध में 9 नवंबर, 1961 को विनोदानंद झा को लिखा कि सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने की जरूरत नहीं है। याद रहे कि मुख्य मंत्री से प्राप्त पत्र की कापी स्वामी हरिनारायणानंद ने एल.एन.मिश्र को भेज दी थी।सवाल है कि स्वामी और मिश्र सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने से क्यों भाग रहे थे ?यदि हिसाब किताब ठीकठाक हो तो कोई किसी भी तरह की जांच से क्यों भागेगा ?पर यह तो कोसी योजना का दुर्भाग्य ही रहा कि 'प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः' हो गया।यानी भ्रष्टाचार का घुन इस योजना के शैशवावस्था में ही लग गया।बाद में भी जब- जब कोसी तटबंधों के मरम्मत कार्य या वहां किसी और तरह के विकास व निर्माण कार्य हुए तो आम तौर पर एक खास तरह के ठेकेदार, इंजीनियर व नेतागण गिद्ध की तरह उसमें लग गए। ईमानदार लोग वहां कम ही तैनात किए गए। आए दिन भ्रष्टाचार के आरोप विधायिका व मीडिया में उछलते रहे।तटबंधों की शायद ही कभी ठीकठाक मरम्मत व रख रखाव के काम हुए। बिहार का बच्चा- बच्चा जानता है कि कोसी योजना के लुटेरे कौन-कौन लोग रहे हंै। उन लुटेरों को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण देने वाले कौन- कौन लोग रहे हैं। किस तरह विभिन्न आयोग व समितियों की रपटों व वहां के ईमानदार अफसरों व अन्य लोगांे की सूचनाओंं केा दबाया जाता रहा। बिहार विधान सभा की प्राक्कलन समिति के तिरपनवें प्रतिवेदन में भी कोसी योजना में लूट का विवरण है। यह प्रतिवेदन सत्तर के दशक में बिहार विधान सभा में पेश हुआ था। एक मजबूत धारा कोसी की है और दूसरी मजबूत धारा कोसी तटबंधों व नहरों के निर्माण व उसके रख रखाव के लिए सरकारी पैसों की लूट की भी रही है।ये धाराएं समानांतर चल रही हैं।नब्बे के दशक के कुछ वर्षों को छोड़कर कोसी योजना में लूट न सिर्फ जारी रही, बल्कि बढ़ती ही रही। नतीजतन तटबंध के रख रखाव का काम उपेक्षित हुआ और आखिरकार इस साल अगस्त में कुशहा में तटबंध टूट गया।यह एक दिन के पाप का नतीजा नहीं है, बल्कि यह पाप कोसी तटबंध के निर्माण के शुरूआती दौर से ही शुरू हो गया। इन दिनों कोसी प्रलय को लेकर असली गुनाहगारों की तलाश चल रही है। पर कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि असली गुनहगार तो वही लोग हैं जिन्होंने कोसी निर्माण योजना की नींव में भ्रष्टाचार का बीज डाल दिया। संबंधित भ्रष्ट लोगों के मुंह में हिंसक पशु की तरह रिश्वत के पैसों के खून का चश्का बहुत पहले लग गया था।शायद ही कभी दोषी व्यक्तियों और उनके अफसर, नेता और मददगार मंत्रियों के खिलाफ कोई कारगर कार्रवाई हुई।इस संबंध में उत्तर बिहार के झंझारपुर से सन् 1980-84 में लोक सभा के कांग्रेसी सदस्य रहे डा.गौरी शंकर राजहंस ने हाल में लिखा कि 'बिहार की प्रलयंकारी बाढ़ का एक दूसरा वीभत्स रूप भी है। पिछले 30 वर्षों से यह देखा गया है कि जैसे ही बाढ़ आती है और उसकी खबर रेडियो,टीवी तथा समाचार पत्रों के द्वारा देश के विभिन्न भागों में पहुंचने लगती है स्वार्थी राजनेता, इंजीनियर और सरकारी अफसर एकजुट होकर जनता को लूटना शुरू कर देते हैं। ंं कई बार तो ऐसा देखा गया है कि बाढ़ से लोगों को बचाने के लिए जो बडे-़ बड़े तटबंध बनाए गए हैं,उन्हें राजनेताओं और इंजीनियरों के चमचे रातों रात काट देते हैं, ताकि बाढ़ का पानी रुकने के बजाए गांवों में चला जाए और लोग तबाह हो जाएं। हर वर्ष राहत कार्य में भयानक धांधली और भ्रष्टाचार होता है। सरकारी सहायता का सौंवा हिस्सा भी बाढ़पीडि़तों तक नहीं पहुच पाता।' जो बीज पचास के दशक में डाला गया,वह समय बीतने के साथ वृक्ष बन गया और उससे तटबंधों में दरार आनी ही थी जो इस साल कुशहा में आई और लाखों लोग तबाह हो गए। कोसी तटबंध की देखभाल के लिए जब तक ईमानदार व चुस्त अफसरों की तैनाती नहीं होगी तब तक विपदाएं आती ही रहेगी। क्योंकि अब तक तो वह तटबंध तरह तरह के भ्रष्ट तत्वों के लिए दुधारू गाय ही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090123/be9054fc/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Jan 23 15:58:42 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 23 Jan 2009 15:58:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSn4KWC4KSqIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkheCkguCkp+Clh+CksOClhyDgpK7gpYfgpIIg4KSu4KWL4KS5?= =?utf-8?b?4KSoIOCksOCkvuCko+Ckvg==?= Message-ID: <200901231558.43337.ravikant@sarai.net> http://anubhaw.blogspot.com/2009/01/blog-post_22.html Jan 22, 2009 धूप के अंधेरे में मोहन राणा कभी पहाड़ों में रहने वाले मोहन राणा की कविता संग्रह 'धूप के अंधेरे में' दिल के करीब कई कविताएं हैं। कवि का जन्म वैसे दिल्ली में हुआ है लेकिन कविताओं से लगता है कि उन्हें पहाड़ों से खास लगाव है। मोहन राणा इन दिनों ब्रिटेन के बाथ शहर में आशियाना बनाए हुए हैं और अपनी कविताओं के जरिए वहां हिन्दी भाषियों को नई कविता से रूबरू करा रहे हैं। 'धूप के अंधेरे' में कुल 83 कविताएं हैं, हर एक कविता पाठक को सच, अस्मिता और य़थार्थ के प्रश्नों की ओर बार-बार लौटाने का काम करती है। 'धूप के अंधेरे में' में कवि की पहली कविता 'चींटी' है। 'चींटी' को लेकर राणा पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करते है और बरबरस मन कह उठता है- मुझे नहीं मालूम नहीं मालूम कि तुम जानना क्या चाहते हो, .......' कई कविता तो बस दो-चार पंक्तियों में है। 'बारिश को देख'- एक ऐसी ही कविता है। यहां राणा ने लिखा है- 'जब मैं देखूंगी बारिश को, फिर से अपने देश में, कैसी लगेगी वह.. मुझे इतना गुस्सा आता है यहां, बारिश को देख।' इन कविताओं में पाठक इसलिए खुद को खोया पाता है, क्योंकि यहां उसकी अस्मिता को लेकर बातचीत होती है। संग्रह में एक कविता है- 'टेलिफोन'। मेरी प्रिय कविताओं में एक है। कविता यहां से प्रा रंभ होती है- 'कई दिन कि याद नहीं कितने बीते यही सोचते बीते कई दिन तुम्हें याद करते ...' और यह कविता कुछ यूं खत्म होती है- 'क्या तुम सड़क के उस पार हो, हैलो तुम्हारी आवाज सुनाई नहीं देती...क्या तुम मुझे सुन सकती हो....' टेलिफोन को लेकर ऐसी बातें कविता के अंदाज में कहना सचमुच कठिन काम है, लेकिन राणा यहीं अपनी भावनाओं के जरिए कविता को नई ऊंचाई दी है और यहां वे सफल भी रहे हैं। कविता संग्रह में कहीं-कहीं राणा टूटते भी नजर आए हैं। दरअसल, कई कविताओं में बैचेनी का जबरदस्त आभाश होता है, जहां पाठक खुद को दूर पाता है। इस श्रेणी में मैं 'रंग हरा..' कविता को शामिल करता हूं। कविता की पंक्तियां है- 'कोई और नहीं, बस हरा, हरापन की ध्यान नहीं आता कोई और रंग..।' यह कविता यहीं खत्म हो जाती है और पाठक के सामने ढेर सारे सवाल छोड़ देती है। मसलन यह कैसा हरापन, क्या प्रकृति की बात हो रही है या फिर मन की। ऐसी ही एक अन्य विचारोत्तोजक कवि ता 'दो खिड़कियों के बीच है' यहां कवि पूछता है- 'अगर तुम कभी झांको, उस जगह से स्वयं को दो खिड़कियों के बीच पाओगे।' राणा इन कविताओं में जीवन की पड़ताल करते नजर आते हैं। सभी 83 कविताओं में कवि के अनुभव और जिं दगी को देखने के नजरिए से कोई भी परिचित हो सकता है। From girindranath at gmail.com Fri Jan 23 15:59:11 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 23 Jan 2009 15:59:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWI4KSC4KSa4KWAIOCkl+Ckv+CksOClgOCkqOCljeCkpuCljeCksCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpYA=?= In-Reply-To: <196167b80901222324k6d80cffdpb9074c39798f7cf2@mail.gmail.com> References: <196167b80901222324k6d80cffdpb9074c39798f7cf2@mail.gmail.com> Message-ID: <63309c960901230229m27567d2m65ef37a3fd55f781@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन के संपादन को लेकर जो बातें सामने आई है, उसपर मैं अभी तक चुप था. हालाँकि हफ्तावार में एक पोस्ट पर मैंने अपनी गलती को स्वीकार किया था. अभी अंशु भाई का मेल आया दीवान पर की -वो कैंची गिरीन्द्र की नहीं थी, जिसे विनीत ने अपने ब्लॉग व् दीवान पर डाला था. अंशु ने उसी का उत्तर दिया, जो उनके विचार है. दरअसल दफ्तर के कामों में हम इतने रम जाते हैं कुछ काम में हमसे गलती हो जाती है. यही मीडिया स्कैन के संपादन में भी हुआ. जिस क़यामत की रात का जिक्र अंशु ने किया है, एक लेख को सुबह उसके जगह में लगाया गया, और वहीँ गलती हो गयी, जिसे हमे जिम्मेदारी से स्वीकार करना चाहिए और पुरे प्रकरण को समाप्त कर देना चाहिए. शुक्रिया गिरीन्द्र 2009/1/23 ashishkumar anshu > *हमारा पक्ष भी तो पूछा होता* - > > विनीत भाई, आप उन सब लोगों से परिचित हैं जो मीडिया स्कैन टीम के साथ जुड़े > हुए हैं. उसके बाद भी आप इस तरह का कोई लेख कैसे लिख सकते हैं? लिखने से पहले > कम से कम एक बार बात तो करते. > संपादन के मामले में उलट हुआ. यहाँ जो संपादन है वह पूरी तरह से गिरीन्द्र की > देखरेख में हुआ है. वह क़यामत की रात (जिस रात को मीडिया स्कैन पूरा हुआ) , अंक > के साथ थे. लेख जुटाने में उनके कहने पर जो मदद बन पाई हमने की. लेकिन वह लेख > भी लाकर गिरीन्द्र के झोले में ही डाला गया. ( आपने लिखा है - अतिथि संपादक > होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने > उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप > से काम करनेवालों को सौंप दिया।) अपने मन की लिखने से पहले विनीत भाई आप एक बार > बतिया लेते - मुझसे बतियाने में हर्ज था तो तनिक गिरिन्द्र (09868086126) का > नंबर ही मिला लेते तो अच्छा होता. > > ---- आशीष कुमार 'अंशु' > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090123/f0e36a2b/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Jan 25 01:07:51 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 25 Jan 2009 01:07:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYcg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSw4KSX4KSy4KSh4KWJ4KSXIOCkq+Clh+CkruCkvw==?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSv4KSw?= Message-ID: <829019b0901241137k5e152de3g5ff63baadf8f10a9@mail.gmail.com> मुंबई की पटरियों पर,15 रुपये में हरेक माल बेचकर,700 रुपये महीने पर सेल्समैन की नौकरी बजाकर और दिन-रात ऑटो चलाकर कोई हीरो बन जाए,ये कहानी स्लमडॉग फिल्म की कहानी से कम दिलचस्प,ऑरिजिनल और भावुक करनेवाली नहीं है। अगर कोई कहानी की सच्चाई साबित करने पर उतर जाए और स्लमडॉग मिलेनियर के लेखक से उस लड़के का पता मांगने लग जाए तो संभव है कि लेखक को भारी मशक्कत करनी पड़े। यह भी संभव है कि इस बात को फिल्मी-फिल्मी बोलकर रफा-दफा कर दिया जाए। लेकिन इकबाल परवेज(एनडीटीवी इंडिया) ने जिन स्ट्रगलडॉग्ज को लेकर अपनी स्टोरी बनायी है, उनसे कोई भी बड़ी आसानी से मिल सकता है। इकबाल खुद भी उनका पता बता सकते हैं। क्योंकि इनकी कहानी फिल्मायी नहीं गयी है,बल्कि सीधे जीवन से उठाकर ऑडिएंस के सामने रख दी गयी हैं। सात साल से कुछ ज्यादा ही वक्त हो गया, बकार खान मुंबई की सड़को पर ऑटो चलाते रहे। सिर्फ पेट पालने के लिए नहीं, अपने सपने को जिंदा रखने के लिए, हकीकत में बदलने के लिए।...और सपना भी तो फिल्म बनाने की, फिल्मी हीरो बनने की। औसत दर्जे का वो सपना जिसे कि देश के हर 10 यंगर्सं में कम से कम एक-दो तो देखते ही हैं। फिल्मों में काम करने का सपना देखना, इंसान को पागल घोषित करने के कारणों को मजबूती देता है। वो भी तब,जब इंसान के पास दूसरों की फिल्में देखकर कुछ सीखने-समझने की हैसियत तक न हो। राजीव दिनकर ने मुंबई में सात सौ रुपये की नौकरी से अपना करियर शुरु किया। इस नौकरी को करियर कहना थोड़ा अटपटा ही होगा, 700 रुपये में भला कौन-सी करियर बन सकती है वो आप और हम बेहतर तरीके से जानते हैं। लेकिन दिनकर के जज़्बाती अंदाज में कहें तो सपने तो तभी कैरी कर ही रहे थे, सपने तो उन पैसों में पल ही रहे थे,आगे जाकर औऱ कुछ बेहतर होने की उम्मीद तो बनी ही रही। मुंबई के सडांध इलाकों में काफी समय तक गुजारा किया, जैसे-तैसे जीवन जिया। लेकिन सपने को मरने नहीं दिया।...और सपना भी तो फिल्मी हीरो बनने की। औसत दर्जे का वो सपना जिसे कि देश के हर 10 यंगर्स में कम से कम एक-दो तो देखते ही हैं। फिर वही बात, फिल्मों में काम करने का सपना देखना, इंसान को पागल घोषित करने के कारणों को मजबूती देता है। वो भी तब,जब इंसान के पास दूसरों की फिल्में देखकर कुछ सीखने-समझने की हैसियत तक न हो। हरिकिशोर पनानिया, सिनेमा के बारे में जब भी सोचते हैं तो उन्हें फिल्मी हीरो से ज्यादा गुलजार,जावेद अख्तर और अब्बास टायरवाला का काम अपनी ओर खींचता है। इसलिए पन्नों पर अपनी कलम घिसते हुए,कभी भी हीरो बनने के बजाय फिल्मी लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। हरिकिशोर का सपना हिन्दी के उन लेखकों की हरकतों से ज्यादा ईमानदार है जिन्हें अगर हुलिया सुधारने के लिए मीडया या फिर फिल्म के लिए लिखने की सलाह दी जाए तो अपमानित महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि लोग किसी पॉलिटिक्स के तहत बाजारु लेखक साबित करना चाहते हैं। ये अलग बात है कि जिन लेखकों की रचनाओं पर फिल्में बनी है,उसे शोहरत में शुमार कर लिया जाता है, दो लाइन के संवाद भी कहीं फिल्म में इस्तेमाल होने पर अपनी रिज्यूमे में जिंदगी भर चेपता रहता है. हरिकिशोर खाटी फिल्मी लेखन करते हैं औऱ अब नाम की इच्छा रखने के बजाय इसके जरिए माली हालत दुरुस्त करने की हसरत रखते हैं। एनडीटीवी की खबर के ये स्ट्रगलडॉग्ज ने कैमरे के सामने जब अपनी बात रखनी शुरु की तो स्लमडॉग मिलेनियर से ज्यादा रोमांचकारी,ज्यादा सच्चे और ज्यादा विश्वसनीय लगने लगे। एक तो वो जो कुछ भी बता रहे थे, उसे हम खबर के तौर पर देख रहे थे,इसलिए पूरे आधे घंटे तक एक विश्वसनीयता के साथ सुनते-देखते रहे। दूसरी बात की वो खुद भी अपनी बात किसी एक्टिंग के स्तर पर नहीं बाइट्स के स्तर पर हमसे शेयर कर रहे थे। स्लमडॉग का स्लमडॉग अगर ऐसी बाइट दे तो वो प्रोमोशन होगा, आपबीती नहीं। उन्हें देखते हुए इस बात का भरोसा जम रहा था कि जीवन के अनुभवों को साझा करने के लिए न तो हाहकारी विज्ञापनों की जरुरत होती है और न ही समझाने के लिए ऑडिएंस के आगे ताम-झाम फैलाना होता है। पूरे पैकेज में कहीं कोई ऐसा हाथ निकलकर नहीं आया जो कि इनके मैले-कुचैले औऱ स्ट्रगलर होने की स्थिति में हाथ थामने लग गए। हां बीच-बीच में कुछ ऐसे फुटेज दिखाए गए जिसमें स्टैब्लिश औऱ नामचीन लोगों के साथ इनकी तस्वीरें थी। राजीव की एक बाइट थी जिसमें उन्होंने बताया कि एक फिल्म में वो नाना के साथ साइड डांसर के तौर पर डांस कर रहे थे, इसी बीच गुलजार की नजर उनके चेहरे पर गयी। उन्होंने कहा- नाना से ज्यादा गुस्सा तो इसके चेहरे पर है, कैमरा इसकी तरफ जूम इन करो,बस इतना ही। आज बकार खान फिल्म इंडस्ट्री में स्टैब्लिश होने के करीब हैं। खुद ही प्रोड्यूसर, खुद ही हीरो के रुप में पहचान बना चुके हैं। अब ऑटो उनकी रोजी-रोटी का जरिया नहीं रह गया है लेकिन पिछले धंधे से प्यार अब भी बना हुआ है। ऑटो अब भी चलाते हैं और पीछे बैठी सवारी उनके एक्टिंग की तारीफ करती है। राजीव दिनकर 300 से ज्यादा कोरियोग्राफी कर चुके हैं। भोजपुरी फिल्मों में बतौर हीरो एन्ट्री मिल चुकी है। सात-आट फिल्में हाथ में है और तीन-चार की शूटिंग अब भी चल रही है। महीने में तीन-चार कोरियोग्राफी भी कर लेते हैं। हरिकिशोर पनानिया सौ से ज्यादा फिल्में लिख चुके हैं। माली हालत में कोई बहुत अधिक सुधार तो नहीं हुआ लेकिन पूंजी के नाम पर जम्बो,काल और कृष जैसी फिल्मों की कहानियों को उनसे चुरा लेने का मजबूत दावा है। राइटर्स एशोसिएशन की नकेल कसने में लगे हैं। फिल्म इंडस्ट्री के भीतर के दोगलेपने से दुखी तो जरुर हैं लेकिन भरोसे के साथ तने हुए हैं कि आनेवाला कल उनका है। चलते-चलते अगर स्लमडॉग मिलेनियर के उस लड़के के सपने से जिसमें वो करोड़पति बनना चाहता है औऱ बनता भी है औऱ इन तीनों के सपनों की तुलना करें तो फासला बहुत अधिक का नहीं है। केबीसी के जरिए करोड़पति बनने का सपना उतना ही पुराना हो सकता है जितना पुराना केबीसी है। लेकिन फिल्मी हीरो बनने का सपना उसके मुकाबले यंगर्स के लिए आदिम सपना है। ये तीनों आदिम सपने को पूरा करते नजर आ रहे हैं औऱ वो भी सिर्फ रुपहले पर्दे पर नहीं, असल जिदगी में,ठेस-ठोकर खाते हुए,सलाम बाम्बे करते हुए....इन्हें स्लमडॉग मिलेनियर से ज्यादा पॉपुलर होने का हक थोड़े नहीं है? स्टोरी- फिल्मी भूत, एनडीटीवी इंडिया प्रसारण समय- रात 10.30,जनवरी 24,08 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090125/5c7f6d9a/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jan 25 12:28:25 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 25 Jan 2009 12:28:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSh4KS84KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+4KSCIOCkpOCliyDgpJrgpL7gpLngpL/gpI8g4KS44KSC?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSV4KS+4KSw4KWAIOCklOCksCDgpLLgpKHgpLzgpJXgpYcu?= =?utf-8?b?Li4uLi4/?= Message-ID: <829019b0901242258u42b38911u4f566054debd3849@mail.gmail.com> बहन-बेटियों के बिगड़ जाने का हवाला देते हुए, हजारों चीजों पर पाबंदी लगाने और फतवा जारी करनेवाले लोगों से अगर सीधा सवाल किए जाएं कि क्या समाज का काम सिर्फ संस्कारी लड़कियों के होने से चल जाएगा। ये सवाल मेरे दिमाग में फिलहाल क्यों आया, इसकी चर्चा बाद में करेंगे, पहले एक-दो अपनी उन आदतों पर गौर करें, जब हम छोटे बच्चों को सिखा रहे होते हैं। दर्जन भर से ज्यादा घरों में मैंने देखा है कि लोग अपने बच्चों को हाय, हैलो, नमस्ते के अलावे कुछ बातें इस तरह से भी सिखाते हैं- बेटा,आंख कैसे मारते हैं, चलो, चारु बुआ को आंख मारकर दिखा दो। किन्नी मौसी को एक फ्लाइंग किस दे दो। ये बातें जो भी सिखा रहे होते हैं और जिसके लिए ऐसा करने को कहते हैं, उससे उनका मजाक करने का रिश्ता होता है. बच्चा, बताए गए निर्देश के अनुसार ही काम करता है और वो उन्हें शाबाशी देते हैं। देखा,ये भी जानता है कि आप खूबसुरत हैं औऱ आपको फ्लाइंग किस देना चाहिए। मौसी, बुआ यानि एक लड़की या तो झेंप जाती है या फिर जीजाजी आप भी न...बोलकर बच्चे को पुचकारने लग जाती है। उन्हें अपने लौंडे पर गुमान होता है औऱ अभी से ही पुरुषत्व मिजाज के होने पर खुशी होती है। मैंने एक-दो बार उन्हें टोका भी है- ये क्या सीखा रहे हैं आपका रिश्ता किम्मी से मजाक का है तो उसमें अपने लौंडे को भी क्यों घसीट रहे हैं। भाई साहब का सीधा जबाब होता- क्या बैकवर्ड की तरह बात कर रहे हैं, बच्चा थोड़े ही समझता है इन सब चीजों का मतलब, हम तो बस टाइम पास के लिए कर रहे थे। लौंडे को एक लड़की के लिए भद्दे और बेहुदा हरकतें सीखाकर टाइम पास करना बहुत आसान है लेकिन लड़कियां ऐसे टाइम पास करने की कला नहीं सीखती,न सिखायी जाती है। इसके पीछे का तर्क है कि वो अभी से ही ये सब सिखेगी तो बर्बाद हो जाएगी। यानि समाज के लिए जो भी चीजें कथित रुप से बुरा है, अश्लील है, बेकार है, उसे लड़कियां जल्द ही समझ लेती है। उस उम्र में ही उसका मतलब समझ लेती है जबकि उसी उम्र के लड़के इन सब चीजों का कोई मतलब नहीं समझते। समाज की बुराइयों को, लड़कियों के जल्दी सीख जाने की मान्यता साबित करते हुए कहीं हम उस पर पाबंदी औऱ वहीं लड़कों को गुपचुप तरीके से ही सही पितृसत्तात्मक समाज को मजबूत करने की ट्रेनिंग तो नहीं दे रहे होते हैं। मैं नहीं कह रहा कि जब वो लड़कों को किस लेने या उड़ाने,तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त गाने के लिए, आंख मारकर बुआ या मौसी पर तिरछे ढंग से मुस्कराने की कला सिखा रहे होते हैं तो अपनी लड़कियों को भी वही सब सिखाएं। बात बस इतनी है कि लौंड़ों के लिए जो चीजे सहज,कैजुअल औऱ मजाक करने की है, लड़कियों के लिए वही चीजें संस्कार, मर्यादा, खानदान की इज्जत कैसे साबित हो जाती है। किसी के भी घर में लड़कियों के लिए जो मैं सबसे ज्यादा शब्द सुनता हूं वो ये कि- निम्मी,पीउ,जिया, अब बड़ी हो रही है, उसके सामने ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए, उसके सामने फलां चीजें नहीं रखनी चाहिए, आउटलुक का ये अंक आप बेड के नीचे ही रखिए, टेबुल पर रखने से वो पलटने लगेगी। कितना डर है हमें लड़कियों के समझदार हो जाने का, कितना भरोसा है हमें कि ये सब चीजें लड़कियां लड़कों से जल्दी समझ लेती है। लेकिन, लड़कियों को गैर समझदार औऱ बुराइयों से दूर रखने, उसकी इज्जत को लेकर लगातार चिंतित होने की विभाजन रेखा स्पष्ट नहीं होती। अपनी तरफ से लाख कोशिश करने के बाद हम उसे घालमेल कर देते हैं। हम जिस बहन-बेटी के इज्जत की बात करते हैं, उसकी रक्षा की बात करते हैं,ठीक उसी समय कैसे उसकी धज्जियां उड़ा रहे होते हैं,पोस्ट लिखने की तात्कालिक वजह के तौर पर इन्हें देखें- साभारः- मोहल्ला विनाश said... सही काम कर रहे हो आखिर तुम्हारी बिटिया भी बडी हो रही है उसे भी खुला समाज चाहियेगा . इसकी एक शाखा अंतर्वासना डाट काम का भी विज्ञापन कर डालो ना जहा बेटी और बाप आपस मे सेक्स कैसे करते है कि कहानिया छपती है January 24, 2009 6:56 PM Anonymous said... बहन बेटियाँ भी तो पढ़ रही थी तेरा ये ब्लॉग . मादरचोद तेरी वजह से अब नेट कनेक्शन ही हटवाना पड़ेगा. छि छि छि शर्म आनी चाहिए तू तोह एक पत्रकार (तथाकथित ही सही) है न. January 24, 2009 11:26 PM ("सविता भाभी डॉट कॉम पर आपका स्‍वागत है!" पोस्ट की प्रतिक्रया) ये वो लोग हैं जो बहन-बेटियों को बिगड़ने सबचाना चाहते हैं, इस बात से निश्चिंत होकर कि उनके द्वारा की गयी टिप्पणियों को पढ़कर बहन-बेटियों पर कोई असर नहीं होगा,मन एकदम से कसैला नहीं होगा कि देश के किसी बाप या भाई ने उसके संस्कारी बनाने की मांग को किस तरह लोगों के सामने रखा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090125/82300a8a/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Sun Jan 25 23:49:08 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Sun, 25 Jan 2009 12:19:08 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <490921.1296621232907548025.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// राशन + किराशन = सुशासन Posted: 24 Jan 2009 01:52 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/522138916/blog-post_24.html आजकल बिहार के मुख्‍यमंत्री माननीय नितीशजी 'विकास यात्रा' पर निकले हैं. काफ़ी समय बाद किसी राजनेता या कहें तो प्रदेश के मुख्‍यमंत्री की कोई यात्रा निकली है. यूं तो जो लाव-लश्‍कर इस यात्रा में नितीशजी के साथ है शायद उतने के साथ कितनी ही बार वे मुख्‍यमंत्री बनने के बाद बिहार के किसी न किसी हिस्‍से में जाते रहे हैं. पर यात्रा नामक संबोधन उन्‍होंने अपनी इस यात्रा को ही दी. ज़ाहिर है, ये यात्रा उनके लिए अन्‍य यात्राओं से अलग है. अलग है क्‍योंकि पहले वाली यात्राएं आम तौर पर 'दौरा' कहे गए. नितीशजी की इस विकास-यात्रा का पहला चरण कल समाप्‍त हुआ है. कल सीतामढ़ी के बखरी नामक किसी स्‍थान पर मीडियाकर्मियों (टेलीविज़न के रिपोर्टरों) को वे बता रहे थे कि इस बार बिहार की जनता को विकास का मतलब और रफ़्तार बताने निकले हैं. वे घूम-घूम कर जनता से सीधा संवाद स्‍थापित कर रहे हैं और उनके दु:ख-दर्द को सुन रहे हैं और बता रहे हैं कि सुशासन क्‍या है. उन्‍होंने बताया कि लोगों को राशन-किराशन मिलने लग जाए तो समझिए सुशासन आ गया. सुशासन सुनिश्चित करना उनका मुख्‍य ध्‍येय है. उनकी ये बात किसी शायरी से कम नहीं थी. इरशाद ही कहा जा सकता है ऐसा सुनने के बाद. कितना सुखद होता ये कहना! न कहा गया. सोचा भी न गया. थोड़ी देर के लिए सड़क-बिज़ली-पानी, जच्‍चा-बच्‍चा, दवा-दारू, शिक्षा-रोज़गार, क़ानून-व्‍यवस्‍था, मान-सम्‍मान भूल कर जनता ख़ुश हो जाती; पर वो स्थिति न बन पायी. चार साल गुज़र गए, अभी तो राशन-किराशन की व्‍यवस्‍था ही शेष रहती है. मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के गिने-चुने शहरों में शुमार किया जाता है. वहां पिछले पांच-छह सालों से एक फ़्लाईओवर बन रहा है. बन ही रहा है. स्‍थानीय लोग बस बन जाने की आस लगाए बैठे हैं. मोतीझील बाज़ार के एक दुकानदार के मुताबिक़ शुरू हुआ है तो काम समाप्‍त भी हो ही जाएगा. वैसे ही जैसे कोई जीव पैदा होता है और एक न एक दिन मर जाता है. यानी नियति तय है. कब और कैसे, न पूछें तो बेहतर. मुज़फ़्फ़रपुर शहर से शिवहर के रास्‍ते में क़रीब 20 किलोमीटर में छोटे-बड़े लगभग 18 पुल और पुलियों का काम तक़रीबन तीन साल पहले शुरू हुआ था. इलाक़े के लोगों ने तब बताया था कि बरसात के पहले सारा काम हो जाएगा, ऐसा सरकारी एलान हुआ है. दिन-रात काम चल रहा है. सच कहा था लोगों ने. काम 24 घंटे हो रहा था. कुछ पुल-पुलिए तैयार भी हो गए थे समय से. ताम-झाम, अगड़म-बगड़म हटाया भी नहीं गया था कि उनमें से कई बिखर गए. साल भर पहले तक कुछ पुलियों पर दोपहिया चालक भी वाहन चलना मुनासिब नहीं समझते थे. इस बीच कोई करिश्‍मा हुआ हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है. हां, नितीश की सवारी जिन-जिन इलाक़ों से गुज़रेगी; उम्‍मीद है वहां कुछ रंग-रोगन ज़रूर हुआ होगा और लाल टोपी वाले सलामी ठोकने के लिए धुले कपड़े पहने खड़े भी होंगे किनारे पर. सड़कों की हालत कमोबेश ऐसी है कि अस्‍पताल के लिए निकली गर्भवती महिला प्रसव-उसव के 'झंझट' से गाड़ी में ही मुक्‍त हो जाए. यही कारण है कि जो अस्‍पताल में बच्‍चा जनना चाहती हैं उनके परिवार वाले नियत समय से महीना-डेढ़ महीना पहले शहर में कमरा किराए पर ले लेते हैं या किसी रिश्‍तेदार के यहां डेरा डाल लेते हैं. सड़कें कितनी बेहाल है उसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि पिछले सालों में वहां की सड़कों पर छह चक्‍कों वाली गाडियों की जगह छोटी-छोटी बसों और ऑटो जैसी सवारी गाडियों ने ले ली है. अब वसूली, फिरौती, लूट-मार को नए ठिकाने मिल गए हैं गांवो में. अपराधशास्‍त्र में दिलचस्‍पी रखने वालों के लिए बस सूत्र छोड़ रहा हूं. लोगों के घरों पर चिट्ठियां पहुंच जाती हैं, रकम दर्ज होता है, पता बताया होता है; बस पहुंचा देने का आदेश होता है. न पहुंचाने और चालाकी करने की सूरत में ख़ामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहने का संदेश भी होता है. कभी चिट्ठी किसी गिरोह की बतायी जाती है तो कभी माओवादियों की. अफ़वाह है या हक़ीकत, न मालूम. गांव जाने पर ऐसा सुनने को मिल जाता है. कहीं बदला तो कहीं सबक, हत्‍याएं तो हो ही रही हैं. जातीय फ़साद नए क्षेत्र और नए परिवेश में फैले जा रहे हैं. जाति-आधारित हिंसा बढ़ी है. अब भी वो संस्‍कार और संस्‍कृति विकसित नहीं हुई कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को जुबान मिल सके. फिर भी अति की ख़बरें अकसर 'लीक' हो जाती है. सबसे भारी मार पड़ी है शिक्षा-व्‍यवस्‍था पर. पिछले सालों में स्‍कूलों में शिक्षकों की बहाली कुछ-कुछ 'राग-दरबारी' के अध्‍यापकों के तर्ज पर हुई है. जाने-अनजाने मुखियाजी और सरपंच साहब से लेकर ब्‍लॉक के अधिकारियों तक का कोटा तय हो गया है. अपना नाम ठीक-ठीक न लिख-बोल पाने नौजवान भी अध्‍यापक नियुक्‍त हो गए हैं. बड़ी संख्‍या में ऐसे अध्‍यापकों की जेबों में किसी भी समय दो-चार पुडिया 'शिखर' उपलब्‍ध रहता है. अध्‍यापकी पाने के बाद उनकी जेबें और ज्‍़यादा पुडियों को थामने के क़ाबिल हो गयी हैं. प्राथमिक विद्यालयों को किसी योजना के तहत ट्रांजिस्‍टर सेट प्राप्‍त हो गए है. सोने पर सुहागा साबित हो रहे हैं ये ट्रांजिस्‍टर सेट. जब मर्जी होती है कान ऐंठ देते हैं और किसी बच्‍चे को उठाकर नचाना शुरू कर देते हैं. महिला शिक्षक तो निरीह बनी पति, पिता, भाई या देवर की फटफटी पर बैठकर आती हैं और घंटे-दो घंटे में ही उनके साथ वालों को जल्‍दी हो जाती है लौटने की. क्‍या करें, मन मसोस कर फिर फटफटी पर बैठ जाना पड़ता है. कहीं हेडमास्‍साहब ऐसा न करने देते हैं तो 'खचड़ा' कहलाते हैं. दोपहर के भोजन के नाम पर भी बच्‍चों को कुछ दिया जाता है लेकिन उसमें से काफ़ी कुछ विद्यालय के परिचालन के बनी समिति के लोग अपने-अपने मन माफिक चीज़ निकाल लेते हैं. हाई स्‍कूलों का स्‍टैंडर्ड बेहद लो हो चला है. कहां अपने ज़माने में दस-दस, बारह-बारह अध्‍यापकों पर चलने वाला स्‍कूल अब गिने-गुथे पांच-छह मास्‍टरों से काम चला रहे हैं. एक-एक मास्‍साहब पर तीन-तीन विषयों का बोझ लदा है. कलर्की-सलर्की अतिरिक्‍त. इधर प्रयोगशाला और पुस्‍तकालय के नाम पर कुछ पक्‍के कमरे भी जोड़वा दिए हैं सरकार ने. न पुस्‍तक है और न प्रयोग की सामग्री. चमत्‍कार ये कि कोई बच्‍चा प्रायोगिक परीक्षा में फ़ेल नहीं होता है. बाकी सारे विषयों से अच्‍छे नम्‍बर आते हैं प्रेक्टिकल में. कई विद्यालय सालों से इंचार्जजी के भरोसे चल रहे हैं. इंचार्ज बने आचार्यजी इतने से ख़ुश रहते हैं कि इंचार्जी के नाम पर उनको ऑफिशियल काम से जिला मुख्‍यालय तक आने-जाने का मौक़ा मिलता रहता है. वे नहीं कहते, लोग बताते हैं कि इस काम में कुछ टीए-सीए बन ही जाता होगा. आजकल वैसे भी पंचायती राज व्‍यवस्‍था में मुखियाजी और दो-एक अन्‍य ओहदाधारी पॉवर सेंटर बन निकले हैं. सो इनके साथ सेटिंग-वेटिंग हो जाने के बाद हाजिरी-उजरी का झमेला थोड़ा आसान हो जाता है. अस्‍पतालों के रंगत में कुछ बदलाव दिखा है. पर शहरों तक ही. देहातों में न के बराबर. उपर वाली आखिरी दो-तीन पंक्तियां अस्‍पतालों के परिचालन और चाल-चलन पर भी लागू माना जा सकता है. कई अस्‍पताल खंडहर में तब्‍दील हो चुके हैं. भूतहा फिल्‍मों की शूटिंग के लिए मुकम्‍मल साईट. जहां रंगत बदली है वहां ग़ैर-सरकारी योगदान ज्‍़यादा दिखता है. बिज़ली अपनी मर्जी से आती है और जाती भी अपनी मर्जी से ही है. गांव-कस्‍बों के लोग अब भी डीलर साहब के दरवाज़े पर महीने-दो महीने पर बंटने वाले मिट्टी तेल को ही ज्‍़यादा भरोसेमंद मानते हैं. बिजली का इस्‍तेमाल टीवी देखने या टीवी की बैटरी चार्ज करने के लिए होती है. अब एक और नया सिस्‍टम चल निकला है. शहरों में पहले से ही था गांवों में अब तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है. 'जेनरेटर वाला विद्युत बोर्ड'. कुछ निश्चित रकम प्रति माह, प्रति प्‍वायंट (सीएफ़एल बल्‍व और गर्मियों में पंखा, पर पंखे के लिए ज्‍़यादा रकम). बेरोज़गार नौजवानों को एक रोज़गार मिल गया है. पर इस तरह के विद्युत बोर्ड के परिचालन का काम प्रोपर्टी डीलिंग से कम झंझटिया नहीं है. समझ सकते हैं, किस तरह के लोग ये धंधा करते होंगे और कौन इसके उपभोक्‍ता होंगे. दिल्‍ली और पटना वाली सरकारी योजनाएं ठिकाने तक आते-आते थक कर चूर हो जाती हैं. उन थकी हुई योजनाओं में से चुने और नियुक्‍त हुए जनप्रतिनिधि पहले अपना हिस्‍सा निकालते हैं या उसकी जुगत बिठा लेते हैं, उसके बाद जनता के लिए खोलते हैं. कई बेचारी तो टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं, खुल नहीं पाती हैं. जो खुल पाती हैं, भाई-भतीजो, यार-दोस्‍तों के कंधों पर सवारी करती जनता की ओर दो-चार क़दम चलती हैं और फिर दम तोड़ देती हैं. 'नरेगा' और 'सर्व शिक्षा अभियान' जैसी योजनाएं आईना की तरह साफ़ कर देती हैं हालात को. काम कोई कर रहा है भुगतान कोई और पा रहा है. जॉब-कार्ड उनके बने हैं जिन्‍हें जॉब से कोई लेना-देना नहीं है. नियम-क़ायदों को जिन ताक पर रखे जाने की बात होती रही है अब वो ताक भी नदारद है. नितीशजी राशन-किराशन की बात कर रहे हैं. सुशासन की बात कर रहे हैं. कोसी को उन्‍होंने बार-बार महाप्रलय कहा है, अब भी कह देते हैं. बहुत से लोगों ने, जल और बांध विशेषज्ञों ने, हालांकि इस महाप्रलय की असलियत को पिछले पांच महीनों में कई बार देश और दुनिया के सामने रखा है. इंटरनेट पर भी सामग्री भरी पड़ी है. बहरहाल, इस बहस में फिलहाल न पड़ते हुए ये कहा जाए कि हर साल आने वाली रुटीनी बाढ़ से जो तबाही होती है वहां क़ायदे से मुआवज़ा क्‍यों नहीं पहुंच पाता है. न जाने देश के किस हिस्‍से में वो अन्‍न पैदा होता है जो राहत के दौरान बांटा जाता है. भले दिनों में जिसे जानवर भी सूंघकर छोड़ दिया करते हैं उसे इंसानों की झोली में तौल दिया जाता है. न जाने राहत-जोखाई में इस्‍तेमाल होने वाला बटखरा बनता कहां है जो तौलता तो पचास किलो है लेकिन चालिस-पैंतालिस किलो से ज्‍़यादा नहीं हो पाता है. बातें बहुत है पर संकेत के लिए इतना काफ़ी है. इतनी दुर्दशा के बाद विकास यात्रा. जनता से सीधा संवाद बनाने के लिए यात्रा. सुशासन समझाने के लिए यात्रा. हम तो ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं नितीशजी. राशन-किराशन तो आप न भी आए थे सत्ता में तब भी मिल रही थी. हमें तो आपसे उम्‍मीद थी कि आप आगे की सुविधाएं उपलब्‍ध कराएंगे. शुरू-शुरू में आपने कुछ संकेत दिया भी था. पर जल्‍दी ही बिसर गए. बिसर गए कहना ठीक नहीं होगा, भटक गए. नहीं कहना चाह रहा था ल‍ेकिन रोक नहीं पा रहा हूं. आपकी ये यात्रा एक चुनावी स्‍टंट-सी लग रही है. आपने कहा भी है कि चरणबद्ध चलेगी आपकी ये विकास-यात्रा. आखिरी चरण आते-आते चुनाव के दिन भी गिने ही रह जाएंगे. आपका कैंपेन ख़ुद-ब-ख़ुद औरों से आगे रहेगा. ये भी मैं कैसे कह सकता हूं. रामविलासजी और लालूजी भी अपने-अपने दिल्‍ली वाले एसाइन्‍मेंट्स के बहाने 'असली' काम कर ही रहे हैं. आप भी साफ़-साफ़ कह देते अमर सिंह और संजय दत्त की तरह कि आपने बिगूल फूंक दिया है. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090125/20400eb5/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jan 26 00:51:46 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 26 Jan 2009 00:51:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkl+ClgOCkpCDgpJXgpL4g4KSw4KSC4KSXLQ==?= Message-ID: <6a32f8f0901251121m3d5e4c60u6136a842d2b6e57@mail.gmail.com> * जोश के गीत का रंग- * हिन्दी सिनेमा में शुरुआती दिनों से ही गीत लिखऩे के कुछ कहे व कई अनकहे नियम लागू थे। जो इस सांचे में ढल गया वह ठठ गया। *जोश मलीहाबादी* (शबीर हसन खां) को भी यह दुनिया छोड़नी पड़ी थी। हालांकि, वे एक कामयाब व मशहूर शायर थे। जानकार बताते हैं कि वे सही मायनों में शायराना दिलो-दिमाग लेकर पैदा हुए थे। खैर! किस्सा कुछ यूं है- जोश ने फिल्म- *मन की जीत*, के लिए एक गीत लिखा था। जिसके बोल थे- *मेरे जोबना का देखो उभार। *यह गीत उस समय की मशहूर गायिका शमशाद बेगम को गाना था। लेकिन, गीत में अश्लील बोल होने की वजह से बेगम ने गाने से माना कर दिया। हालांकि थोड़ी हुज्जत के बाद उन्होंने इस गीत को गा दिया, मगर फिर कभी जोश के सामने नहीं आईं। इस गीत को लेकर कई लोगों ने उनकी आलोचना भी की थी। जोश को अपने लिखे गीत पर कितना दुख हुआ, यह वही जानें। पर इस घटना के बाद उन्होंने कभी किसी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। जोश का लिखा यह गीत कहीं मिले तो जरूर पढ़ें। क्योंकि, तब आपको यकीन होगा कि फिल्म- *1942 ए लव स्टोर* का गीत- *एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। *कहां से प्रेरित है और अपने बालीवुड में कैसे-कैसे जाबांज लोग हैं। बहरहाल *जोश* की एक रचना का लुत्फ उठाएं- *हमारी सैर*--- लोग हंसते.. हैं चहचहाते.. हैं। शाम को सैर से जब आते हैं।। लैम्प की रोशनी में यारों को। दास्तानें......... नई सुनाते हैं।। हम पलटते हैं जब गुलिस्तां से। आह.... भरते हैं थरथराते.... हैं।। मेज पर सर से फेंककर टोपी। एक कुर्सी पर लेट... जाते हैं।। आप समझे यह माजरा क्या है? सुनिये, हम आपको सुनाते हैं।। वोह लगाते हैं सिर्फ चक्कर ही। हम मानाजिर से दिल लगाते हैं। वोह नजर डालते हैं लहरों पर। और हम तहमें डूब जाते हैं।। घर पलटने हैं वोह हवा खाकर। और हम जख्म खाके आते हैं।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/69306e81/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Jan 26 11:06:22 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 26 Jan 2009 11:06:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KWo4KWsIOCknA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KSw4KWA4KSDIOCknOClguCkpOClhyDgpJrgpK7gpJXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkleCkviDgpKbgpL/gpKgoIOCkleCkpeCkvuCkruCkvg==?= =?utf-8?b?4KSy4KS+LeClpyk=?= Message-ID: <829019b0901252136x3bfb1083jf9c56dc4c63d1ecc@mail.gmail.com> 26 जनवरी के करीब 15 दिन पहले से ही गुड ब्ऑय के बीच से बैड ब्ऑय की छंटनी शुरु हो जाती। सुबह की प्रार्थना के बाद उन्हें लाइन से अलग एक साइड खड़ा कर दिया जाता। वो गुड़ ब्ऑय को क्लास में जाते हुए हसरत भरी नजर से देखते रहते,ग्लानि से भरकर सोचते, वो क्यों बैड ब्ऑय है। सारे बच्चे क्लास में क्लास में चले जाते। पहली पीरियड शुरु हो जाती और खत्म भी हो जाती। बैड ब्ऑय को इस हिदायत के साथ कि जितनी जल्दी हो सके,गुड ब्ऑय बनो, दूसरी पीरियड तक छोड़ दिया जाता। गुड ब्ऑय और बैड ब्ऑय के विभाजन का आधार इतना भी मुश्किल नहीं होता कि कोई अपनी जमात न बदल सके। इसे एक दिन के भीतर बदला जा सकता था। इसका आधार सिर्फ इतनाभर था कि स्कूल की तरफ से जो भी ड्रेस कोड बनाए गए हैं, उसे पूरी तरह फॉलो करते हुए स्कूल में आना। आम दिनों में भी स्कूल ड्रेस में आना अनिवार्य होता लेकिन इतनी सख्ती नहीं होती। ज्यादातर बच्चों का कुछ न कुछ मिस होता। कोई सफेद शू के बजाय ग्रे पहलकर आ जाता तो कोई चप्पल पर ही नेवी ब्लू मोजे डाल लेता,ताकि झटके से आगे निकल जाए। कोई ब्लैक शू पहनकर आता तो पॉलिश करना भूल जाता। बाद में तो स्कूल ने बैज देने(बेचने) शुरु कर दिए। बीच रुपये का एक बैज जिसमें स्कूल के लोगो के साथ नाम लिखा होता। एडमीशन के वक्त ये बैज नहीं था, इसलिए पापा इसे लेकर सीरियस लेकर नहीं थे। नार्मल दिनों में तो काम चल जाता लेकिन 26 जनवरी के मौके पर भारी फजीहत होती। हमारे जैसे बच्चे,आगे गुजर गए बच्चों से सेटिंग करके लगा लेते और क्लास पहुंचते ही वापस कर देते। मैं क्लास में मॉनिटर रहा करता,हमें मॉनिटर लिखा, अलग से बैज दिया बाकी बच्चों का तो उतना पता नहीं चलता लेकिन मेरे मॉनिटर के बैज लगाने औऱ स्कूल बैज नहीं लगाने पर टीचर्स जमकर लताडते- शर्म नहीं आती, मॉनिटर होकर बैज नहीं लगाते, तुम्हारा यह हाल है तो बाकी बच्चों पर इसका क्या असर होगा। मॉनिटर को कुछ इस तरह बताया जाता जैसे स्कूल के कायदे-कानून की सुरक्षा का जिम्मा उसी के हाथों है। बैज लगाकर हम अपने को आइपीएस से कम नहीं समझते। ये अलग बात है कि स्कूल बैज न होने पर सरेआम क्लास रुम में हमारी इज्जत उतार ली जाती। कई बार खड़ा भी करा दिया जाता। इसलिए हम इग्जाम रिपोर्ट कार्ड पर गुड ब्ऑय होते हुए भी सामाजिक रुप से बैड ब्ऑय करार दिए जाते। ऐसे मौके पर वो बच्चे गुड ब्ऑय हो जाते जो सालों भर तक हमारे आगे-पीछे डोलते, अक्सर पनिश किए जाते लेकिन ड्रेस कोड पूरी होने की वजह अकड़ जाते। जिन बिना पर इन्हें सजा मिलनी होती, वो सारा काम तो दस दिन पहले से ही बंद हो जाता, उनके पनिश होने का मौका ही नहीं मिलता। सारे बच्चे कुछ न कुछ परफार्म करने की तैयारी में होते जिनमें ये रईस बच्चे फैन्सी ड्रेस कॉम्पटीशन में भाग लेते जिसके लिए तीन-चार सौ रुपये अलग से खर्च करने पड़ते। हमारे जैसे कुछ और भी बच्चे थे जो पढ़ने में बहुत ही होशियार लेकिन 26 जनवरी जैसे दिनों में मात खा जाते। बैड ब्ऑय कहलाते। एक-दो दोस्त ऐसा कि पढ़ने में तेज होने के साथ-साथ थोड़ा शोवी नेचर का था। भाषण देने और वाद-विवाद में भाग लेने का मन उसका नहीं होता, वो भी और बच्चों की तरह ऐसे इवेंट में भाग लेना चाहता, जिसे की स्टेज पर परफार्म किया जा सके, स्कूल की सारी लड़कियों के मां-बाप देखें। ये बात जैसे ही वो अपने क्लास टीचर के सामने करता, उनका जबाब होता- 20 रुपये का बैज औऱ 25 रुपये के मोजे तो तुम्हारे पापा खरीद नहीं पाते औऱ कहां से लाओगे, उस दिन परफार्म करने के अलग से ड्रेस। इस बार तो चीफ गेस्ट डीएम साहब आ रहे हैं,हमें पब्लिक स्कूल में कबीर और फकीर थोड़े ही दिखाना है। वो चुप हो जाता औऱ मन मारकर हमारे साथ भाषण की तैयारी में जु़ट जाता। भाषण प्रतियोगिता क्लास रुम में होती औऱ उसके प्राइज स्टेज पर मिलते। हम बस एक मिनट के लिए स्टेज पर जाने लायक होते औऱ वो भी डांस,फैशन शो आदि की तैयारियां पीछे से ऐसे चल रही होती कि उस चकाचौंध में हमारा चेहरा गुम हो जाता। प्राइज लेकर नीचे उतरता- लोग बधाई देते, कहते जरुर नेता बनेगा, पत्रकार बनेगा,लेक्चरर बनेगा। इसके अलावे ऐसा हम कुछ नहीं कर पाते कि कुछ औऱ बनने की गुंजाइश हो। हमलोग भाषण देने या फिर वाद-विवाद में भाग लेते। पूरे इवेंट में यही दो इवेंट थे जिसके लिए अपनी तरफ से चवन्नी नहीं लगानी होती। हिन्दी, अंग्रेजी या फिर संस्कृत के टीचर को पकड़ो औऱ एक भाषण तैयार करा लो। पब्लिक स्कूल में वैसे भी हिन्दी के टीचरों को कोई बहुत पूछता नहीं, सो वो भी हमसे खुश रहते। हम उनके पास इज्जत से जाते औऱ एक ही बात करते- सर किसी तरह इस साल हिन्दी में भाषण देने की परमीशन दिलवाइए। वो पूरा भाषण तैयार करवाते औऱ हौसला देते- हो जाएगा। लेकिन एक-दो दिन पहले धीरे से आकर कहते- नहीं हो पाएगा, बेटे। कोई नहीं, तुम अंग्रेजी में ही बोल दो। अंग्रेजी के भाषण पहले से तैयार होता, एक-दो दिन पहले हम दिन-रात एक करके उसे याद कर लेते। उस भाषण में क्या है, क्या उसके भाव हैं,इससे हमें कोई मतलब नहीं होता,बस बोल देते। मेरे मन में कसक बनी रह जाती कि-26 जनवरी के दिन अपने मन की बात कहूं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/08ae556a/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Jan 26 11:40:57 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 26 Jan 2009 11:40:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSy4KWA4KS54KS+4KSs4KS+4KSm4KWA?= Message-ID: <6a32f8f0901252210s4e2f79b2j11b524da7940ea18@mail.gmail.com> हिन्दी सिनेमा में शुरुआती दिनों से ही गीत लिखऩे के कुछ कहे व कई अनकहे नियम लागू थे। जो इस सांचे में ढल गया वह ठठ गया। जोश मलीहाबादी (शबीर हसन खां) को भी यह दुनिया छोड़नी पड़ी थी। हालांकि, वे एक कामयाब व मशहूर शायर थे। जानकार बताते हैं कि वे सही मायनों में शायराना दिलो-दिमाग लेकर पैदा हुए थे। खैर! किस्सा कुछ यूं है- जोश ने फिल्म- मन की जीत, के लिए एक गीत लिखा था। जिसके बोल थे- मेरे जोबना का देखो उभार। यह गीत उस समय की मशहूर गायिका शमशाद बेगम को गाना था। लेकिन, गीत में अश्लील बोल होने की वजह से बेगम ने गाने से माना कर दिया। हालांकि थोड़ी हुज्जत के बाद उन्होंने इस गीत को गा दिया, मगर फिर कभी जोश के सामने नहीं आईं। इस गीत को लेकर कई लोगों ने उनकी आलोचना भी की थी। जोश को अपने लिखे गीत पर कितना दुख हुआ, यह वही जानें। पर इस घटना के बाद उन्होंने कभी किसी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। जोश का लिखा यह गीत कहीं मिले तो जरूर पढ़ें। क्योंकि, तब आपको यकीन होगा कि फिल्म- 1942 ए लव स्टोर का गीत- एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। कहां से प्रेरित है और अपने बालीवुड में कैसे-कैसे जाबांज लोग हैं। बहरहाल जोश की एक रचना का लुत्फ उठाएं- हमारी सैर--- लोग हंसते.. हैं चहचहाते.. हैं। शाम को सैर से जब आते हैं।। लैम्प की रोशनी में यारों को। दास्तानें......... नई सुनाते हैं।। हम पलटते हैं जब गुलिस्तां से। आह.... भरते हैं थरथराते.... हैं।। मेज पर सर से फेंककर टोपी। एक कुर्सी पर लेट... जाते हैं।। आप समझे यह माजरा क्या है? सुनिये, हम आपको सुनाते हैं।। वोह लगाते हैं सिर्फ चक्कर ही। हम मानाजिर से दिल लगाते हैं। वोह नजर डालते हैं लहरों पर। और हम तहमें डूब जाते हैं।। घर पलटने हैं वोह हवा खाकर। और हम जख्म खाके आते हैं।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/619a529e/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Mon Jan 26 15:25:17 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 26 Jan 2009 15:25:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkleClgCDgpKjgpL7gpK/gpL7gpKwg4KSy4KWL4KSV4KS2?= =?utf-8?b?4KWI4KSy4KWAIDog4KSt4KSX4KWI4KSk?= In-Reply-To: <190a2d470901260135t6cef1281vf90b178a0c43784e@mail.gmail.com> References: <190a2d470901260135t6cef1281vf90b178a0c43784e@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470901260155n439ca4a6v817ac03051fb3714@mail.gmail.com> मिथिला जगत में कई ऐसे कलाकार हैं, कई ऐसी शैली है, कई ऐसे रीति- रिवाज हैं जिसे देख कर और महसूस कर न सिर्फ़ मिथिला के लोग बल्कि दूसरे इलाके के लोग दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर होते हैं। पूरी तरह खेती पर जीवन-यापन करने वाली यहाँ की विभिन्न बिरादरी की जिन्दगी खेत-खलियान और नदी-नाले से शुरू होकर यही ख़तम हो जाती है। जिसने बाहर की दुनिया देखी उल्टे मुहँ लौट कर अतीत को याद करना गवारा लगा। ऐसे में उनके पास पेट की भूख शांत करने के लिए गेहूं तो था लेकिन मन की भूख शांत करने के लिए सेक्स के अलावा शायद ही कुछ रहा होगा। यही वो हालात थे जब सेक्स से मन भर जाने पर लोगों ने जाने-अनजाने पाप और पुण्य जैसे दो शब्दों को इजाद दिया और इसी क्रम में मिथिला में भगैत (भगत) जैसे गायन और नाट्य शैली का विकास हुआ होगा। धीरे-धीरे लोग इससे जुड़ते गए और यह सिर्फ़ मिथिला में ही नही बल्कि नेपाल और पश्चिम बंगाल में भी अपनी पैठ बना ली। हालाँकि जानकारों का मानना है की १९वीं शताब्दी से पहले मिथिला में इस पारंपरिक लोक-शैली का विकास हुआ है, बावजूद इसके, इसे लेकर कहीं भी कोई लिखित विवरण नही मिलता है। वर्तमान दौर में भी मिथिला के गावों के लोगों का भगैत पर अटूट विश्वास है और माना जाता है की इसके आयोजन के मौके पर देवपुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं। ऐसे देवपुरुषों की संख्या करीब दो दर्जन है जिनमें धर्मराज, राजा चैयां, ज्योति, कारू महाराज, मीरा साहेब, बिसहैर, बेनी, अन्दू बाबा, गहील, हरिया डोम, बरहम, खिरहैर प्रमुख हैं। स्वच्छता और पवित्रता की इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वैसे तो नाटक का मतलब वास्तविकता के भ्रम को उत्पन्न करना होता है लेकिन भगैत में इससे जुड़े लोगों को वास्तविकता का अहसास होता है। उनकी मान्यता है कि इस पर अविश्वास करने पर महापाप लगता है। इस तरह की अटूट धारणा दुनिया की मुट्ठी भर शैली या विधा में ही देखने को मिलता है। जहाँ पर भगैत होता है, उस मंडली में जो आगे-आगे गाता है उसे पंजियार या मूलगैन कहा जाता है। बाकी गायक को भगैतिया कहा जाता है। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां bandh जाता है। भगैत के गीत, गायन और गति तेज और सुर ऊंचा होता है। हारमोनियम, ढ़ोलक, झालि, खंजरी, डुगडुगी वातावरण में रस का संचार करते हैं। भगैत के शुरू होने पर भगैतिया लोग बीच-बीच में अपने कान में उंगली डाल कर बहुत ऊंचे स्वर को साधते हैं। आयोजन के दौरान जिस व्यक्ति के शरीर में देवपुरूष का प्रवेश होता है उसे भगता कहा जाता है। गायन के क्रम में भगता के शरीर में जब देवपुरूष का प्रवेश होता है तो शरीर कंपाने लगता है और वह देवपुरूष जैसा व्यवहार करने लगता है। भगैत की यह शैली अदभुत रूप से जाति-वर्ण से ऊपर उठकर वर्तमान दौर में भी कायम है। भगैत मंडली में सभी वर्ग, सभी धर्म और सभी जातिके लोग शामिल होते हैं। यही कारण है कि देवपुरूषओं में डोम जाति के हरिया डोम तो मुस्लिम संप्रदाय के मीरा साहेब का नाम शामिल है। भगैत गायक में मुनेश्वर यादव, नटाय पंजियार, भोलन यादव, देखी यादव, रेवती भगता, अर्जुन यादव, बेनी साह, नागो भगता, तुलसी भगता प्रमुख हैं। सबसे अहम् बात यह है कि इस पूरे कार्यक्रम के लिए कोई भी भगैत किसी भी तरह का पारिश्रमिक नही लेता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/e16793cf/attachment-0001.html From rahul24pathak at gmail.com Mon Jan 26 17:55:35 2009 From: rahul24pathak at gmail.com (rahul pathak) Date: Mon, 26 Jan 2009 17:55:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= CHECK Message-ID: <61888cf20901260425k778a5637ne479792c8fbf7be@mail.gmail.com> http://www.tifr.res.in/careers/ http://www.tifr.res.in/careers/ TATA INSTITUTE OF FUNDAMENTAL RESEARCH National Centre of the Government of India for Nuclear Science & Mathematics Homi Bhabha Road, Colaba, Mumbai 400 005 *Advertisement No.1/2009* Applications are invited for the following post tenable at Mumbai. *HINDI OFFICER** *: One Post (Unreserved) ; Pay Band + Grade Pay (PB - 2 ; Rs.9300-34800 + 4800) ; TME : Rs.20,586/- ; HQ: Mumbai. *Qual.* : Masters Degree of a Recognised University in Hindi with English as a subject at the Degree level. OR Masters Degree of a Recognised University in English and with Hindi as a subject at the Degree level. OR Masters Degree of a Recognised University in any subject with Hindi and English as subject at the Degree level. OR Masters Degree of a Recognised University in any subject with Hindi medium and English as a subject at the Degree level. Diploma in translation is an added advantage. *Exp*. : Five years experience of terminological work in Hindi and/or Translation work from English to Hindi or vice versa. OR Five years experience of Hindi teaching/research, writing or journalism. Experience of translation work relating to scientific and technical literature is essential. *Desirable*: i) Knowledge of Sanskrit and modern Indian language. ii) Administrative experience. iii) Experience of organizing Hindi class or workshop for noting and drafting. iv) Working knowledge in computer with typing in Hindi/English. * * *Age*: Below 35 years. *TME* : Total Monthly Emoluments. In addition, Transport Allowance payable as per rules. Higher starting salary could be considered to deserving candidates. Candidates are liable to be transferred to other Centres/Field Stations of the Institute, if required. Selected candidates for the above post will be governed by the recently introduced New restructured defined contribution Pension system for new entrants to the Central Government service. Post reserved for general category (unreserved) – SC/ST/OBC/PWD candidates can also apply. Cont… 2 :: 2 :: Applications giving full details together with copies of relevant certificates/testimonials in the following format and superscribing the post applied for on the envelope should reach Establishment Officer (D) *within 15 days from the date of publication of this advertisement*.** *Application format* : (1) Advertisement Number. (2) Name, Serial Number of the post. (3) Name of the applicant. (4) Date of birth (attach certificate). (5) Nationality. (6) Whether belonging to SC/ST/OBC (attach certificate). (7) Disability (attach certificate). (8) Permanent address. (9) Address for correspondence. (10) Telephone numbers for contact (a) Landline (b) Mobile. (11) Email address. (12) Qualifications (attach certificates or mark lists). (13) Experience with details of organization, post held, scale of pay, basic pay (attach certificate). (14) Names & addresses of two referees (attach certificates). (15) Have you at any time been called for interview in the Institute? If so, give details. (16) Signature of the candidate. Submission of copies of all the certificates stated in the application are essential. Applicants in Government/Semi-Government/Public Sector Undertaking should apply through proper channel. Incomplete applications, applications without enclosing the copies of the certificates and applications received after the last date shall not be considered. Outstation candidates called for interview for the above post will be paid single second class return train fare for the journey by the shortest route from the nearest railway station of their place of residence to the place of interview on the production of original return journey ticket and xerox copy of onward journey ticket. The Institute reserves the right to restrict the number of candidates for interview to a reasonable limit on the basis of qualifications and experience higher than the minimum prescribed in the advertisement. Mere fulfilling the essential and desirable qualifications will not entitle an applicant to be called for test/interview. The Institute reserves the right not to fill any post herein advertised. Canvassing of any form will disqualify the candidate. Please refer TIFR website also * http://www.tifr.res.in/positions* * * -- Regards Rahul Pathak Centre for Development Studies Tata Institute of Social Sciences V N Purav Marg, Deonar Mumbai-400088 Cell:+91-9870646540 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/fd1796dc/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Tue Jan 27 12:17:34 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 27 Jan 2009 12:17:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkleClgCDgpKjgpL7gpK/gpL7gpKwg4KSy4KWL4KSV4KS2?= =?utf-8?b?4KWI4KSy4KWAIDog4KSt4KSX4KWI4KSk?= In-Reply-To: <190a2d470901260155n439ca4a6v817ac03051fb3714@mail.gmail.com> References: <190a2d470901260135t6cef1281vf90b178a0c43784e@mail.gmail.com> <190a2d470901260155n439ca4a6v817ac03051fb3714@mail.gmail.com> Message-ID: <63309c960901262247m79f9340fxfe1a7b4d312f3fac@mail.gmail.com> विनीत भाई, भगैत पर आपकी पोस्ट को पढ़ रहा था. आपने भगैत के बारे जो कुछ लिखा है, उससे मैं पूरी तरह सहमत नही हूँ. मसलन भगैत किसी भी तरह का पारिश्रमिक नही लेता है. जबकि मेरा जो अनुभव है उसके अनुसार भगैत की मंडळी पैसे लेते हैं. क्योंकि भगैत का आयोजन अक्सर गांव के बड़े भू-पति हीं करते हैं। इसके आयोजन में अच्छा-खासा खर्च होता है। अक्सर फसल कटने के बाद हीं ऐसे आयोजन होते हैं। क्योंकि उस वक्त किसान के पास अनाज और पैसे कुछ आ ही जाते हैं। मैं यह भी कहना चाहूँगा की पंचायात बदलने के साथ ही आप भगैत की शैली में भी अन्तर महसूस कर सकते हैं खासकर गीत और डॉयलॉग में.आप इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी देते तो अच्छा रहता. गिरीन्द्र अनुभव 2009/1/26 vinit utpal > मिथिला जगत में कई ऐसे कलाकार हैं, कई ऐसी शैली है, कई ऐसे रीति- रिवाज हैं > जिसे देख कर और महसूस कर न सिर्फ़ मिथिला के लोग बल्कि दूसरे इलाके के लोग > दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर होते हैं। पूरी तरह खेती पर जीवन-यापन > करने वाली यहाँ की विभिन्न बिरादरी की जिन्दगी खेत-खलियान और नदी-नाले से शुरू > होकर यही ख़तम हो जाती है। जिसने बाहर की दुनिया देखी उल्टे मुहँ लौट कर अतीत > को याद करना गवारा लगा। > > ऐसे में उनके पास पेट की भूख शांत करने के लिए गेहूं तो था लेकिन मन की भूख > शांत करने के लिए सेक्स के अलावा शायद ही कुछ रहा होगा। यही वो हालात थे जब > सेक्स से मन भर जाने पर लोगों ने जाने-अनजाने पाप और पुण्य जैसे दो शब्दों को > इजाद दिया और इसी क्रम में मिथिला में भगैत (भगत) जैसे गायन और नाट्य शैली का > विकास हुआ होगा। धीरे-धीरे लोग इससे जुड़ते गए और यह सिर्फ़ मिथिला में ही नही > बल्कि नेपाल और पश्चिम बंगाल में भी अपनी पैठ बना ली। हालाँकि जानकारों का > मानना है की १९वीं शताब्दी से पहले मिथिला में इस पारंपरिक लोक-शैली का विकास > हुआ है, बावजूद इसके, इसे लेकर कहीं भी कोई लिखित विवरण नही मिलता है। > > वर्तमान दौर में भी मिथिला के गावों के लोगों का भगैत पर अटूट विश्वास है और > माना जाता है की इसके आयोजन के मौके पर देवपुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित > होते हैं। ऐसे देवपुरुषों की संख्या करीब दो दर्जन है जिनमें धर्मराज, राजा > चैयां, ज्योति, कारू महाराज, मीरा साहेब, बिसहैर, बेनी, अन्दू बाबा, गहील, > हरिया डोम, बरहम, खिरहैर प्रमुख हैं। स्वच्छता और पवित्रता की इसके आयोजन में > महत्वपूर्ण भूमिका होती है। > > वैसे तो नाटक का मतलब वास्तविकता के भ्रम को उत्पन्न करना होता है लेकिन भगैत > में इससे जुड़े लोगों को वास्तविकता का अहसास होता है। उनकी मान्यता है कि इस > पर अविश्वास करने पर महापाप लगता है। इस तरह की अटूट धारणा दुनिया की मुट्ठी > भर शैली या विधा में ही देखने को मिलता है। जहाँ पर भगैत होता है, उस मंडली > में जो आगे-आगे गाता है उसे पंजियार या मूलगैन कहा जाता है। बाकी गायक को > भगैतिया कहा जाता है। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां bandh जाता > है। > > भगैत के गीत, गायन और गति तेज और सुर ऊंचा होता है। हारमोनियम, ढ़ोलक, झालि, > खंजरी, डुगडुगी वातावरण में रस का संचार करते हैं। भगैत के शुरू होने पर > भगैतिया लोग बीच-बीच में अपने कान में उंगली डाल कर बहुत ऊंचे स्वर को साधते > हैं। आयोजन के दौरान जिस व्यक्ति के शरीर में देवपुरूष का प्रवेश होता है उसे > भगता कहा जाता है। गायन के क्रम में भगता के शरीर में जब देवपुरूष का प्रवेश > होता है तो शरीर कंपाने लगता है और वह देवपुरूष जैसा व्यवहार करने लगता है। > > भगैत की यह शैली अदभुत रूप से जाति-वर्ण से ऊपर उठकर वर्तमान दौर में भी कायम > है। भगैत मंडली में सभी वर्ग, सभी धर्म और सभी जातिके लोग शामिल होते हैं। > यही कारण है कि देवपुरूषओं में डोम जाति के हरिया डोम तो मुस्लिम संप्रदाय के > मीरा साहेब का नाम शामिल है। भगैत गायक में मुनेश्वर यादव, नटाय पंजियार, > भोलन यादव, देखी यादव, रेवती भगता, अर्जुन यादव, बेनी साह, नागो भगता, तुलसी > भगता प्रमुख हैं। सबसे अहम् बात यह है कि इस पूरे कार्यक्रम के लिए कोई भी > भगैत किसी भी तरह का पारिश्रमिक नही लेता। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- regards Girindra Nath Jha www.anubhaw.blogspot.com 09868086126 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090127/9ddf16b4/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Tue Jan 27 13:12:35 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 27 Jan 2009 13:12:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkleClgCDgpKjgpL7gpK/gpL7gpKwg4KSy4KWL4KSV4KS2?= =?utf-8?b?4KWI4KSy4KWAIDog4KSt4KSX4KWI4KSk?= In-Reply-To: <190a2d470901260155n439ca4a6v817ac03051fb3714@mail.gmail.com> References: <190a2d470901260135t6cef1281vf90b178a0c43784e@mail.gmail.com> <190a2d470901260155n439ca4a6v817ac03051fb3714@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470901262342u7fe4eff6u28e41a1e3743bc42@mail.gmail.com> गिरीन्द्रजी, आपने जिन मुद्दों को उठाया है उसे लेकर मुझे इतना ही कहना है कि यदि भगैत और इससे जुड़े कार्यक्रम पर बारीक नजर डाली जाय तो आपकी बातों से सहमत हूँ की भगैत की मंडली पारिश्रमिक लेती है लेकिन साथ-साथ आपकी बातों को भी एक सिरे से खारिज भी करता हूँ। कारण कार्यक्रम के आयोजन में जो खर्च होता है मसलन पूजा का सामान, धूप-दीप, प्रसाद, पत्तल, बैठने के लिए दरी, कुर्सी, शामियाना, लाउडस्पीकर, लाइट के साथ-साथ जो मंडली आती है उनके खाने-पीने का भी इंतजाम जजमान को करना होता है। क्योंकि 'भूखे पेट होई न भजन-गोपाला' जीवन का सत्य है. साथ ही जहाँ तक मदिरा सेवन करने की बात है जैसे आपने अपने ब्लाग में भी लिखा था तो कुछ परिवारों में जब भगैत का आयोजन होता है तो ऐसा नही होता। मसलन जिनके कुलदेवता धर्मराज हैं। हाँ, गांजा, ताडी का जमकर सेवन होता है और फ़िर मस्त होकर पूरी रात वे गाते हैं. जहाँ तक पंचायत बदलने पर भगैत अन्तर की बात है, तो 'कोस-कोस पर बदले पानी दस कोष पर वाणी ' वाली कहावत यहाँ भी सही है। साथ ही इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि जजमान की स्थिति देखकर भगैत का कार्यक्रम होता है। इससे इस तरह समझा जा सकता है चाहे तिरुपति हो या वैष्णो देवी आम लोग और वीवीआईपी के लिए भगवान तक पहुँचने की बात तो छोडिये उनके दर्शन तक का रास्ता भी अलग होता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090127/7947f703/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Mon Jan 26 15:05:19 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Mon, 26 Jan 2009 15:05:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkleClgCDgpKjgpL7gpK/gpL7gpKwg4KSy4KWL4KSV4KS2?= =?utf-8?b?4KWI4KSy4KWAIDog4KSt4KSX4KWI4KSk?= Message-ID: <190a2d470901260135t6cef1281vf90b178a0c43784e@mail.gmail.com> मिथिला जगत में कई ऐसे कलाकार हैं, कई ऐसी शैली है, कई ऐसे रीति- रिवाज हैं जिसे देख कर और महसूस कर न सिर्फ़ मिथिला के लोग बल्कि दूसरे इलाके के लोग दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर होते हैं। पूरी तरह खेती पर जीवन-यापन करने वाली यहाँ की विभिन्न बिरादरी की जिन्दगी खेत-खलियान और नदी-नाले से शुरू होकर यही ख़तम हो जाती है। जिसने बाहर की दुनिया देखी उल्टे मुहँ लौट कर अतीत को याद करना गवारा लगा। ऐसे में उनके पास पेट की भूख शांत करने के लिए गेहूं तो था लेकिन मन की भूख शांत करने के लिए सेक्स के अलावा शायद ही कुछ रहा होगा। यही वो हालात थे जब सेक्स से मन भर जाने पर लोगों ने जाने-अनजाने पाप और पुण्य जैसे दो शब्दों को इजाद दिया और इसी क्रम में मिथिला में भगैत (भगत) जैसे गायन और नाट्य शैली का विकास हुआ होगा। धीरे-धीरे लोग इससे जुड़ते गए और यह सिर्फ़ मिथिला में ही नही बल्कि नेपाल और पश्चिम बंगाल में भी अपनी पैठ बना ली। हालाँकि जानकारों का मानना है की १९वीं शताब्दी से पहले मिथिला में इस पारंपरिक लोक-शैली का विकास हुआ है, बावजूद इसके, इसे लेकर कहीं भी कोई लिखित विवरण नही मिलता है। वर्तमान दौर में भी मिथिला के गावों के लोगों का भगैत पर अटूट विश्वास है और माना जाता है की इसके आयोजन के मौके पर देवपुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं। ऐसे देवपुरुषों की संख्या करीब दो दर्जन है जिनमें धर्मराज, राजा चैयां, ज्योति, कारू महाराज, मीरा साहेब, बिसहैर, बेनी, अन्दू बाबा, गहील, हरिया डोम, बरहम, खिरहैर प्रमुख हैं। स्वच्छता और पवित्रता की इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वैसे तो नाटक का मतलब वास्तविकता के भ्रम को उत्पन्न करना होता है लेकिन भगैत में इससे जुड़े लोगों को वास्तविकता का अहसास होता है। उनकी मान्यता है कि इस पर अविश्वास करने पर महापाप लगता है। इस तरह की अटूट धारणा दुनिया की मुट्ठी भर शैली या विधा में ही देखने को मिलता है। जहाँ पर भगैत होता है, उस मंडली में जो आगे-आगे गाता है उसे पंजियार या मूलगैन कहा जाता है। बाकी गायक को भगैतिया कहा जाता है। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां bandh जाता है। भगैत के गीत, गायन और गति तेज और सुर ऊंचा होता है। हारमोनियम, ढ़ोलक, झालि, खंजरी, डुगडुगी वातावरण में रस का संचार करते हैं। भगैत के शुरू होने पर भगैतिया लोग बीच-बीच में अपने कान में उंगली डाल कर बहुत ऊंचे स्वर को साधते हैं। आयोजन के दौरान जिस व्यक्ति के शरीर में देवपुरूष का प्रवेश होता है उसे भगता कहा जाता है। गायन के क्रम में भगता के शरीर में जब देवपुरूष का प्रवेश होता है तो शरीर कंपाने लगता है और वह देवपुरूष जैसा व्यवहार करने लगता है। भगैत की यह शैली अदभुत रूप से जाति-वर्ण से ऊपर उठकर वर्तमान दौर में भी कायम है। भगैत मंडली में सभी वर्ग, सभी धर्म और सभी जातिके लोग शामिल होते हैं। यही कारण है कि देवपुरूषओं में डोम जाति के हरिया डोम तो मुस्लिम संप्रदाय के मीरा साहेब का नाम शामिल है। भगैत गायक में मुनेश्वर यादव, नटाय पंजियार, भोलन यादव, देखी यादव, रेवती भगता, अर्जुन यादव, बेनी साह, नागो भगता, तुलसी भगता प्रमुख हैं। सबसे अहम् बात यह है कि इस पूरे कार्यक्रम के लिए कोई भी भगैत किसी भी तरह का पारिश्रमिक नही लेता। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090126/56f4fba3/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jan 27 12:46:55 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumaranshu) Date: Tue, 27 Jan 2009 12:46:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSf4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCkvuCkieCkuCDgpJXgpL4g4KSa4KS24KWN4KSu4KSm4KWA4KSm?= Message-ID: <196167b80901262316w3454433ax8d92bb36f0e46a7b@mail.gmail.com> आज घूमते हुए अफरोज के ओर्कूट प्रोफाइल http://www.orkut.co.in/Main#Scrapbook.aspx?uid=6046693440171440247) *पर चला गया. अफरोज लीक से हटकर नाम से एक पत्र भी निकलते हैं. जितना मैं उसे समझ पाया हूँ, उसके पास एक अच्छी समझ है और तमाम मुद्दों पर अपना एक स्पष्ट स्टैंड. जो मुझे अधिक पसंद है. ओर्कूट में जो पढने को मिला-मुझे लगता है -वह अधिक लोगों तक जाना चाहिए. आप इसे पढ़ने के बाद शायद स्पष्ट और निडर अफरोज की उलझन को समझने का प्रयास करेंगे। यही उम्मीद करता हूँ. * *सैकडो-हजारों* लोग सडको पर जगह-जगह तरह-तरह की बातें कर रहे हैं....पुलिस ने कुरान की बेहुरमती की है.... पुलिस ने जान बुझ कर ऐसा किया होगा........ मेरा ख्याल है की अनजाने में हो गया है ..... सब सरकार करा रही है...... हाँ! तुम सही कह रहे हो, इलेक्शन नजदीक आ रहे हैं.....ये लो नमक! हिम्मत हारने की ज़रूरत नहीं है......लोग पागल हो रहे हैं..... खामोशी के साथ मामले को हल कर लेना चाहिए...... तभी देखता हूँ कुछ लोग एक ज़ख्मी नौजवान को एक ठेले पर भीड़ की तरफ ला रहे हैं. इसे तुंरत नजदीक के एक डिस्पेंसरी में भारती कराया जाता है. लोगों की भीड़ उग्र हो चुकी थी. एक पुलिस वाले को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया. इलाके के तीनो थाने आग के हवाले थे. हालात इतने गंभीर हो चुके थे की कुछ कहा नहीं जा सकता. बी.बी.सी. के पत्रकार मित्र (जो उस समय मेरे साथ ही थे) ने कहा की- आप अपना हैंडीकैम ले आओ. फिर मई एक पत्रकार मित्र के साथ हैंडीकैम ले कर हाज़िर हो गया. तब तक खबर आई की तीन और लोगों को गोली लगी है, उन्हें पास के होली फैमली हॉस्पिटल में भारती कराया गया है. खैर मई रिकॉर्डिंग करने लगा. मेरे यहाँ का हर शॉट बहुत खास था. कैमरा देख कर लोगों में और जोश भर आया. एक बार फिर नारे लगने लगे थे. तभी अचानक सैकडो लोगों की भीड़ हमारे तरफ बढ़ने लगी. ..... इससे पहले मुझे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया जाता की कुछ लोग मेरी हिफाज़त में खड़े हो गए. दरअसल, ये मेरे अल्लाह के फ़रिश्ते थे. खुद पीटते रहे, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आने दिया. उधर लोग कुछ ज्यादा ही उग्र हो चुके थे. मारो...... मारो...... जासूस है...... मीडिया का आदमी है...... नहीं! नहीं! पुलिस का आदमी है....... अरे नहीं यार! ये अपना लड़का है..... अरे अपना भाई है.....अरे यहीं रहता है.......नहीं! मारो साले को..... कैमरा छीन लो...... तोड़ दो साले को.... अरे पागल हो गए हो क्या....... ये अपना बच्चा है..... जाओ अपना काम करो...अरे ऐसे कैसे छोड़ दे साले को..... हमारी तस्वीरें ले रहा था हरामी...... मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ.?मेरे पैरों टेल की ज़मीं खिसक चुकी थी. दिल की धड़कने अपने-आप रुकने लगी थी. मैं समझ चूका था की आज मई बचने वाला नहीं.... तरह-तरह के ख्याल दिमाग में आ रहे थे....... या तो मैं बचूंगा या अपने कैमरे की कुर्बानी देनी होगी. फिर अचानक मैं ने अंतिम हथकंडे के रूप अपने कैमरे से कैसेट निकाल कर उनके हवाले कर दिया. जिसका उन्होंने एक-एक एटम अलग कर दिया होगा. फिर सैकडो लोग अपनी सुरक्षा में मुझे मेरे घर सही-सलामत पहुंचा दिया. मैंने खुदा का शुक्रिया अदा किया. मेरे मोबाइल की घंटी के बजने का एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ,जो छोटे बच्चे की तरह चुप होने का नाम ही नहीं ले रही है. क्या हो रहा है....... हालात कैसे हैं...... ये सुनने में आ रहा है....... वो सुनने में आ रहा है..... अफवाहों का बाज़ार गरम है...... एक टेलीविजन चैनल वाले का कैमरा छीन लिया गया है......एक रिपोर्टर को लोगों ने मार दिया...... पुलिस ने मीडिया को भगा दिया....... तुम कैसे हो...... ज्यादा काबिल मत बनो....... चुपचाप कल की ट्रेन से वापस घर आ जाओ......ज्यादा हीरो बनने की ज़रूरत नहीं है....... बाहर अभी भी भागो.... भागो....ठहरो....ठहरो....., नारे-तकबीर की सदा बुलंद हो रही थी. पुलिस भीड़ पर काबू पाने में कामयाब हो गयी. सैकडों लोगों को गिरफ्तार किया जा चूका था. जिन में अभी कुछ की तादाद में लोग जेलों में सड़ रहे हैं. हो सकता है की शायद वो निर्दोष हो..... खैर, बतला हाउस का नया मामला अब सामने है. इसलिए पुराणी कहानी को भूल जाने में ही भलाई है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090127/5634a640/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Jan 28 22:42:55 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 28 Jan 2009 22:42:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClgCDgpJfgpJ/gpLAg4KSu4KWH4KSCIOCkueCkvuCkpSA=?= =?utf-8?b?4KSh4KS+4KSy4KWHIOCkueCliCDgpI/gpKjgpKHgpYDgpJ/gpYDgpLU=?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0901280912sb8017cbr5cf67cd61ea15869@mail.gmail.com> एनडीवी इंडिया ने कल जैसे ही खबरों के गटर बन चुके न्यूज चैनलों का ढक्कन उठाया कि मीडिया पुरोहित, अपनी-अपनी अटकलें और खुन्नस लेकर बैठ गए। अधिकांश लोगों को इसमें टीआरपी का खेल नजर आता है। कुछ के लिए ये एनडीटीवी की हताशा है जो अपने भाईयों को नीचा दिखाकर ऑडिएंस की नजरों में दूध का धुला साबित करके, हल्का होना चाह रहे हैं। इसे आप सिम्पेथी ट्रीटमेंट कह सकते हैं। दुख-दर्द के दिनों में लोग कंधा खोजते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही। इसलिए कुछ लोग इस खबर से इत्तफाक रखने के बजाय एनडीटीवी को ही नसीहतें देने की मुद्रा में हैं कि वो दूसरों को गरियाने के बजाय खुद ही सुधर जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। इन मीडिया पुरोहितों का ऐसा मानना स्वाभाविक भी है क्योंकि जब अपने ही घर का सगा भाई धोखा कर जाए तो दांत पीसना तो स्वाभाविक ही है। अब तक देश की एक आम ऑडिएंस को भला क्या पता कि खबर के नाम पर भीतर क्या-क्या किया जाता है, किन चीजों औऱ घटनाओं को ऐसे इन्जेक्शन दिए जाते हैं कि वो घंटा-आध घंटा लगते ही खबर की शक्ल में उफनने लग जाता है। स्टार न्यूज तो ट्रांसपरेंसी के नाम पर स्टूडियो के भीतर का नजारा तो दिखाता है लेकिन इतने से कहां काम चलता है। ऑडिएंस को तो सबकुछ चाहिए खुल्लम-खुल्ला। हम जैसे लोग मीडिया पुरोहितों की तरह बात नहीं कर सकते क्योंकि न तो हमारे लिए मीडिया विश्लेषण का मतलब सिर्फ टीआरपी के बक्से के आसपास चक्कर काटना है और अंत तक इसी में उलझकर रह जाना है और न ही हम इस बिजनेस में कूदे हुए लोग हैं। सच तो ये भी है कि इस कार्यक्रम से न ही हमारा इगो हर्ट हुआ है। बल्कि हमें तो खुशी इस बात की हो रही है कि न्यूज चैनलों के खबरों का गटर बन जाने से जो सड़ांध पैदा होता रहा है,जिसका भभका हम आए दिन झेलते रहे, प्राइम टाइम में खाना खाने के बाद उससे गुजरते हुए उबकायी को दबाते रहे, कोई चैनल भी इस भभके को महसूस कर सका है। हम तो फिलहाल उनका शुक्रिया ही अदा करना चाहेंगे। दूसरी बात, मीडिया पुरोहितों ने जो भी बातें की है, उसकी भाषा और कंटेट कचहरी की उस भाषा का हिस्सा है जिसे या तो न्यायाधीश समझ सकता है या फिर मुवक्किल की तरफ से लड़नेवाला वकील ही। संभव है इन दोनों में से कोई भी मुवक्किल को गुमराह कर दे। इसलिए ऑडिएंस की हैसियत से कोई भी नहीं चाहेगा कि बिना इस भाषा और कंटेट को समझे,इसे लेकर अपना सिर फोड़े। हम तो बस इतना समझ पा रहे हैं कि अब तक जो चैनल सरकार द्वारा लगाई जा रही पाबंदियों का विरोध करते रहे हैं, लोकतंत्र के नाम पर जब-तब ऑडिएंस की भावनाओं से खेलते रहे औऱ अपने को बचाए जाने की गुहार लगाते रहे हैं। आज वो इनकी नजर में बौने साबित हुए हैं। मीडिया के लोगों के भीतर एक स्ट्रैटजी सी बन गयी थी कि रेगुलेशन के नाम पर हम खुद को रेगुलेट करेंगे, हम सरकार या किसी बाहरी ताकतों से संचालित नहीं होगे, हमारा गला न घोंटा जाए। ये अलग बात है कि जब-जब सरकार की ओर से ऐसे प्रयास हुए, देश की ऑडिएंस ने उनका भरपूर साथ दिया। ये जानते हुए भी कल जब ये मुसीबत से उबरेंगे तो बिसर जाएंगे। हमारी बातों पर ध्यान नहीं देंगे, चैनलों के ऑफिस में, एसाइनमेंट डेस्क पर फोन करने से मां-बहन की गालियां देगें, कहेंगे कि देखना है तो देखो नहीं तो अपनी इलाज कराओं। ऑडिएंस ने ये अपमान झेलते हुए भी इनका साथ दिया है वो भी सिर्फ इसलिए कि गाली देते हैं तो देते हैं, कम से कम भ्रष्ट हो चुकी सिस्टम पर नकेल भी तो कसते हैं। ऐसी खबरों के दिखाए जाने के बाद ऑडिएंस शायद थोड़ी कम भावुक होने लगे। कुछ मीडिया पुरोहितों के लिहाज से ऑडिएंस को खबरों की समझ नहीं है इसलिए वो हो-हल्ला मचाती है। अब एनडी के इस कार्यक्रम को देखकर हम तो यही अंदाजा लगा रहे हैं कि या तो हम सही हैं या फिर एनडी को खबरों को लेकर नए सिरे से समझ विकसित करनी होगी। नए सिरे का मतलब है उसे भी रंगे सियार का रुप धारण करना होगा। इस खबर को लेकर जो ऑडिएंस प्रो होने की खुशफहमी या गलतफहमी पाल रही है, उसे चाहे जैसे भी हो बाकी चैनलों की तरह साबित भी करना होगा। अगर ऐसा नहीं करते तो संभव है कि बाकी के सारे चैनल लामबंद होकर इन्हें या तो जात-बिरादरी बाहर कर दे या फिर जबरदस्ती पकड़कर रंग दे। रंगना माने, इसके उन-उन खबरों को हमारे सामने रखे जिससे कि ये साबित हो सके कि जनाब ये भी दूध के धुले नहीं है। वाकई, चैनलों के बीच ये एक दिलचस्प खेल होगा, खासकर तब जबकि सारे चैनलों ने एकजुट होकर सरकार के फैसले को पटकनी देकर एकजुट होने का परिचय दिया है। अब चाहे कोई कुछ भी कर ले, कबड्डी के दो पाले तो तैयार हो ही गए। एक भारी रिस्क एनडीटीवी ने लिया है औऱ ऑडिएंस के लिए एक सुविधा भी मुहैया कराया है कि वो खबरों को फिर से परिभाषित कर सके। किताबी समझ औऱ निजी चैनलों के करतब-ताल के आधार पर जो कुछ भी खबर के नाम पर देखती आयी है, उसे रेक्टिफाई कर सके। और अंत में चैनल जो बार-बार और अभी भी दावे करती आयी है कि हम खुद सुधार जाएंगे, हमारे उपर किसी सुधार गृह की शर्तें मत लादो..उसका क्या होगा। एनडीटीवी के इस नजरिए को बाकी के चैनल सुधार का हिस्सा मानेंगे या फिर इसे टीआरपी के बक्से में बंद कर देंगे। तब फिर सरकार का मुंह भी तो खुलेगा- लो तुम्हारे भाई ने ही तो कहा कि तुम खबरों के नाम पर कचरा फैला रहे हो, अब बोलो क्या किया जाए तुम्हारे साथ.।.. -------------- next part -------------- An HTML 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090128/7b7cb3e3/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Jan 30 11:58:11 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 30 Jan 2009 11:58:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkleClhyDgpLLgpYvgpJcg4KSt4KWAIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSw4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiwg4KSf4KWH4KSy4KWA4KS14KS/4KSc?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClgCDgpIbgpLLgpYvgpJrgpKjgpL4=?= Message-ID: <829019b0901292228m17fa3eb9v65fb5b013b6cbd9c@mail.gmail.com> * दीवान के साथियों इस जुम्मे से हम आगे हर बार http://teeveeplus.blogspot.com पर किसी ऐसी किताब/पत्रिका/सामग्री की चर्चा करेंगे जो कि टेलीविजन को लेकर हमारी समझदारी को और दुरुस्त करें। टेलीविजन के विविध संदर्भों को हमारे सामने रखे। इस कड़ी में आज हम चर्चा करने जा रहे हैं, मीडिया मंत्र के संयुक्तांक(जनवरी-फरवरी 09) की जो आतंकवादी घटनाओं के सीधे प्रसारण का औचित्य पर केन्द्रित है। इसमें न्यूज चैनलों औऱ मीडिया से किसी न किसी रुप में जुड़े लोगों के इन्टव्यू, लेख और डायरी संकलित है। मीडिया जब अपनी आलोचना खुद करने लग जाता है तब का मंजर क्या होता है, इसे देखना दिलचस्प होगा। अगले जुम्मे हम बात करेंगे NALIN MEHTA की लिखी किताब INDIA ON TELEVISION की जो सेटेलाइट चैनलों के आने पर बनने औऱ बदलनेवाली संस्कृति पर केन्द्रित है।* फिलहाल मीडिया मंत्र पर एक चर्चा- टेलीविजन और न्यूज चैनलों के रवैये पर विरोध करने वाले क्या केवल वे लोग ही हैं जो या तो नेता होने के नाते इसके उपर नकेल कसना चाहते हैं,अफसर होने के नाते इस पर अपनी अकड़ जमाना चाहते हैं या फिर ऑडिएंस होने के नाते इसे भला-बुरा कहकर अपनी भड़ास निकालना चाहते हैं। आमतौर पर टेलीविजन और न्यूज चैनलों के बारे में जब बात करते हैं तो हम लगभग पहले से ही मान लेते हैं कि चैनल,मीडिया औऱ टेलीवजिन से जुड़े लोग इसके विरोध में नहीं बोल सकते। वो इस पेशे से जुड़े हैं इसलिए उन्हें इसमें किसी भी तरह की बुराई दिखाई नहीं देती है या फिर उनके उपर कुछ इस तरह का दबाब होता है कि वो आत्म-आलोचना नहीं कर सकते। लेकिन दिलचस्प है कि चैनल के लोगों के बीच अब भी इतना माद्दा है कि इसके लिए, इसके भीतर और दिन-रात इसके बारे में सोचते हुए भी इसकी कमजोर नसों पर उंगली रख सकते हैं। मीडिया मंत्र का ताजा अंक जो कि जनवरी-फरवरी संयुक्त्तांक है, उसे पढ़ते हुए अपनी समझ कुछ इसी तरह की बनती है। मीडिया मंत्र का ये अंक मुंबई आतंकवाद और न्यूज चैनलों की भूमिका पर केंद्रित है। कवर स्टोरी के तौर पर आतंकवादी घटनाओं के सीधे प्रसारण का औचित्य पर विस्तार से बात की गयी है। न्यूज चैनलों के रवैये और उससे असहमति रखनेवाले पत्रकारों की बात करें इससे पहले इतना मानना जरुरी है कि देश की किसी भी पत्रिका या अखबारों के विशेषांक ने आतंकवाद के खिलाफ मीडिया की भूमिका को लेकर एक पूरा अंक निकाला हो,कहीं नजर नहीं आया,उन विषयों को सामने लाने की कोशिश की हो जिसमें आतंकवादी घटनाओं को कवर करने के लिए अलग से ट्रेनिंग की जरुरत पर बात करते हों। मीडिया मंत्र के इस अंक में दीपक चौरसिया औऱ असगर वज़ाहत इन दोनों ने इस बात की चर्चा शिद्दत से की है कि इसके लिए अलग से ट्रेनिंग हो,लोगों की राय ली जाए मीडिया संस्थान औऱ चैनलों के सहयोग से सेमिनार और वर्कशॉप आयोजित किए जाएं। न्यूज चैनल अपने स्तर से जो भी स्ट्रैटजी बनाते हैं और उनके काम करने के जो भी तरीके हैं वो काफी नहीं है, उनके भीतर काम कर रहे लोगों को भी ट्रेंड होने की जरुरत है, इस अंक से ये बात खुलकर सामने आती है। अब बात करें न्यूज चैनलों से लोगों की असहमति औऱ उनके द्वारा होनेवाली गड़बड़ियों को सामने लाने की। इस अंक की सबसे दिलचस्प बात है कि न्यूज चैनलों के रवैये को लेकर दो ध्रुव में बंटे विचार सामने आते हैं। अब तक तो होता यही आया है कि चैनलों की आलोचना या तो मीडिया समीक्षक करते रहे हैं,इसे अपने तरीके से नियंत्रित करने की गरज से सरकार करती आयी है या फिर अपनी पसंद-नापसंद औऱ समझ के हिसाब से ऑडिएंस करती आयी है। लेकिन यहां मामला बिल्कुल है। इस अंक में चैनलों की आलोचना वो लोग भी कर रहे हैं जो सीधे-सीधे किसी न्यूज चैनल से जुड़े हैं और चैनल की तारीफ वो कर रहे हैं जो मीडिया आलोचक की हैसियत से अपनी बात करते आए हैं। इससे एक बात तो साफ है कि टीवी पत्रकारों में प्रोफेशन के अलावे भी अपनी बात रखने में रुचि है। कई लेखों और इंटरव्यू में इन लोगों ने खुलकर कहा है कि वो एक पत्रकार होने के पहले देश के एक नागरिक हैं। इसलिए आप उम्मीद कर सकते हैं कि वो नागरिकों के पक्ष में भी बात कर सकते हैं। मीडिया मंत्र के इस अंक में तो ये साफ तौर पर दिखाई देता है। विनोद कापडी(प्रबंध संपादक,इंडिया टीवी)सीधे-सीधे टेलीविजन की भाषा और उस पर दिखाई जानेवाली चीजों पर अपनी आपत्ति दर्ज करते हैं और स्पष्ट कर देते हैं कि ये किसी भी सभ्य समाज के लिए स्वीकार्य नहीं है। दिलीप मंडल(एडीटर, इटी हिन्दी.कॉम) ने संभावना जताते हुए कहा जो कि वाकई गंभीर है कि भारत में जिस तरह से ब्रेकिंग न्यूज स्क्रीन को वाइब्रेट और रोचक बनाने रखने के लिए टूल के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है, एक समय बाद ये शब्द स्क्रीन को रोचक बनाने की भूमिका खो देगा। मुंबई आतंकवाद को लेकर न्यूज चैनलों ने जो कुछ भी किया उसे लेकर संजय तिवारी(संपादक, विस्फोट.कॉम) का सीधा सवाल है कि अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता, चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता। अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्रांडों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती। चंदन प्रताप सिंह(टोटल टीवी) इस मंजर को शैशवकाल की टीवी पत्रकारिता के जिद्दी नौनिहाल की संज्ञा देते हैं। दूसरी तरफ मीडिया आलोचक हैं जो मीडिया की आलोचना करते हुए भी मुंबई आतंकवाद, चैनलों की आजादी औऱ प्रेस की अपनी स्वतंत्रता के समर्थन में बात करते हैं। आनंद प्रधान( मीडिया विश्लेषक और अध्यापक)स्पष्ट तौर पर आतंकवादी के लाइव फोनो का कोई जस्टिफिकेशन सही नहीं है मानते हैं,चैनल ने ऐसा करके गलत किया है। लेकिन चैनलों में कमियां होने और गलतियां करने के वाबजूद सरकार की ओर से अंकुश लगाए जाने के विरोध में हैं। आलोक पुराणिक( मीडिया विश्लेषक और व्यंग्यकार) के मुताबिक मुंबई जैसी घटना को लेकर जो चूक हुई हैं, वो स्वाभाविक है। इस बिना पर आप ये नहीं कह सकते कि इस घटना को दिखाने वाले पत्रकार कोई कमर्सियल खूंखार दरिंदे लोग थे जो किसी भी शर्त पर इस घटना को दिखाना चाहते थे। इसी अंक में दीपक चैरसिया ने बताया है कि साठ दिनों तक चैनल के बच्चे से लेकर टॉप लेवल के लोगों तक ने साठ दिनों तक एक बार भी टीआरपी शब्द जुबान पर नहीं लाया। इन दो अलग-अलग विचार समूहों के अवाले आशुतोष(मैनेजिंग एडीटर आइबीएन7), अजीत अंजुम( प्रबंध संपादक, बीएजी फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड के प्रबंध संपादक),सुप्रिया प्रसाद(डायरेक्टर न्यूज 24),विनोद मेहता(डायरेक्टर, टोटल टीवी) जैसे मीडिया की बड़ी हस्तियों ने न्यूज चैनलों के उपर लगे आरोपों का जबाब अपने-अपने तरीके से दिया है। मीडिया के परस्पर विरोधी विचारों को समझने और विश्लेषित करने के लिहाज से इन्हें पढ़ा जाना जरुरी है। दीपक चौरसिया की डायरी मुंबई आतंकवाद औऱ उसके बाद ताज के कमरा नंबर 1705 में जाकर रुकने का अनुभव दिलचस्प है। मीडिया खबर डॉट कॉम और मीडिया मंत्र के साझा सर्वे में मुंबई आतंकवाद और न्यूज चैनलों को लेकर लोगों के बीच जो भी प्रतिक्रिया रही है, वो सबकुछ काफी हद तक ऑकड़ों के रुप में सामने आया है। चैनल से जुड़े लोग अगर इन आंकड़ों पर गौर करते हैं तो काफी कुछ अलग समझ बनेगी जो कि उनके टैम की प्रोग्रेस रिपोर्ट में नहीं होते। मीडिया मंत्र संपादक- पुष्कर पुष्प -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090130/21c91ba5/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Jan 31 13:47:24 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 31 Jan 2009 13:47:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSC4KSX4KS+?= =?utf-8?b?4KSc4KSyIOCkhuCkquCksOClh+CktuCkqCDgpJXgpL4g4KS44KSa?= Message-ID: <6a32f8f0901310017j62628e11x9cd7f4879788dbed@mail.gmail.com> गंगाजल आपरेशन का सच- ब्रजेश झा डिब्रूगढ़ (असम) से हाल ही में दिल्ली आए एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे हिन्दी सिनेमा बड़े चाव से देखते हैं। उन्होंने कहा, डिब्रूगढ़ आते-जाते जब भी ट्रेन भागलपुर स्टेशन पहुंचती है तो फिल्म- 'गंगाजल-द हौली वैपन ' की खूब याद आती है। यह फिल्म शहर में हुई अंखफोड़वा कांड (गंगाजल आपरेशन) घटना पर आधारित है। आगे उन्होंने कहा, 'सोचता हूं कि इस घटना का सच क्या रहा होगा ?' इस फिल्म के निर्देशन प्रकाश झा हैं। वे यह मानने से इनकार करते रहे हैं कि फिल्म भागलपुर में हुई अंखफोड़वा कांड पर आधारित है। हालांकि वे फिल्म पर घटना के प्रभाव की बात स्वीकारते हैं। खैर! घटना को तीन दशक बीत गए। लेकिन तब जो सवाज उपजे थे, वे आज भी खड़े हैं। यह समझना जरूरी हो गया है कि आखिर क्यों लोगों को वह घटना यकायक याद आ जाती है। इन सवालों का जवाब सही-सही तलाशने के लिए उन परिस्थितियों को जानना जरूरी है, जिन स्थितियों में यह घटना घटी। शहर के कोतवाली थाने के एक तात्कालीन पुलिस अधिकारी ने बताया कि घटना की शुरुआत 1979 में भागलपुर जिले के नवगछिया थाने से हुई थी। यहां पुलिस ने गंभीर आरोपों में लिप्त कुछ अपराधियों की आंखों में तेजाब डालकर अंधा कर दिया था। इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं। ऐसी घटनाएं रह-रहकर अक्टूबर 1980 तक होती रहीं। घटना की जांच कर रही समिति के मुताबिक जिले में कुल 31 लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया गया। इनमें लक्खी महतो, अर्जुन गोस्वामी, अनिल यादव, भोला चौधरी, काशी मंडल, उमेश यादव, लखनलाल मंडल, चमनलाल राय, देवराज खत्री, शालिग्राम शाह, पटेल शाह, बलजीत सिंह जैसे लोग थे। बलजीत सिक्ख समुदाय का था। संभवतः इसलिए 6 अक्टूबर 1980 को उसके साथ ऐसी घटना होने पर मामला राजधानी दिल्ली में खूब उछला। हालांकि यह मामला उक्त समुदाय के किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होने मात्र का नहीं था। उस समय तक जनता सरकार चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। दुख की बात है कि इस मुल्क में कुछ चीजों को देखने का यही अनकहा चलन बन गया है। बहरहाल, बाद में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इन लोगों की आंखों की जांच हुई। इसके बाद डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनकी आंखों को भेदकर उसमें क्षयकारी पदार्थ डाल दिए गए हैं। इससे आंखों की पुतलियां जल गई हैं। नेत्र-गोल नष्ट हो गए हैं, जिससे इन लोगों की दृश्य-शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई है। जानकारी के मुताबिक आंखों को भेदने के लिए टकुआ (बड़ी सुई) नाई द्वारा नख काटने के औजार और साइकिल के स्कोप का इस्तेमाल किया जाता था। कई महीने तक जिला पुलिस ने यह कार्य जारी रखा। इससे मालूम पड़ता है कि राज्य प्रशासन ने अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के बीच पनप रही आपराधिक प्रवृत्तियों को खत्म करने का सरल व निहायत अमानवीय रास्ता अख्तियार कर रखा था। अपराधी प्रवृति के इन लोगों को दिन में शहर के विभिन्न थाना क्षेत्रों में पकड़ा जाता था और रात में उनकी आंखें फोड़ दी जाती थीं। यह जानकारी घटना की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर से भेजी गई आर. नरसिम्हन समिति को जेल में बंद कुछ अंधे कैदियों ने दी थी। इसकी चर्चा समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी की है। राज्य सरकार को इस बात की जानकारी थी। फिर भी वह चुप बैठी रही। 26 अक्टूबर 1979 को अर्जुन को सेंट्रल जेल लाया गया था। उसने 20 नवम्बर 1979 को सीजीएम भागलपुर के नाम आवेदन दिया। जिसमें उसने अपने अंधेपन की जांच कराने की मांग की थी। 30 जुलाई 1980 को अन्य 11 अंधे कैदियों ने भी जांच की मांग करते हुए कानुनी सहायता की याचना की थी। पर, शहर की अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचना को ठुकरा दिया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इनको कानुनी सहायता दी जाए। हालांकि, मार्च 1979 में उच्चतम न्यायालय ने हुसैनआरा खातून मामले में सभी कैदियों को कानुनी सहायता देने की बात कह चुका था। फिर भी जिला न्यायालय इस फैसले की अंदेखी कर गया, जो संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन था। राज्य सरकार से एक भारी भूल उस समय भी हुई जब 30 जुलाई 1980 को सेंट्रल जेल के अधीक्षक बच्चुलाल दास की ओर से अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को देने के पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह जानकर ताज्जुब होगा कि राज्य के जेल महानिरीक्षक ने भी अपने दौरे के समय बांका जेल में देखे गए तीन अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को दी थी। साथ ही इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया था। बिहार सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। और 6 अक्टूबर 1980 को बलजीत सिंह और पटेल शाह सहित अन्य आठ कथित अपराधियों को अंधा कर दिया गया। इस मामले को एस.एन.आबदी और अरुण सिन्हा जैसे पत्रकारों ने खूब उठाया। घटना के बाबत दो मामले उच्चतम न्यायालय में दर्ज किए गए। पहला- अनिल यादव और अन्य बनाम बिहार सरकार(रिट पटिसन संख्या- 5352 / 1980)। दूसरा- खत्री और अन्य बनाम बिहार सरकार (रिट पटिसन संख्या- 5760/ 1980)। न्यायालय में पीड़ितों की पैरवी अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी कर रही थीं। बाद में दोषी पाए गए कई पुलिस अधिकारी व कर्मियों को निलंबित कर दिए गए और कईयों का तबादला। शहर की आम जनता पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के सख्त खिलाफ थी। सन् 1980 के आम चुनाव में नव-निर्वाचित सांसद भागवत झा आजाद के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ खूब प्रदर्शन किया। वे लोग पुलिस की कार्रवाई को उचित करार दे रहे थे। लोगों का कहना था कि इन अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और परिस्थितियों के हिसाब से उनसे निपटने का यह रास्ता सही था। यकीनन ऐसी घटनाएं किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हैं। वह तो एक टीस छोड़ जाती है। लेकिन, आज जब देश की सबसे ऊंची पंचायत में कथित अपराधी भी पहुंच रहे हैं। समाज में भय पहले की अपेक्षा बढ़ा है तो जनता-जनार्दन क्या समाधान चुनती है ? यह बात देखऩे वाली होगी। * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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