From vineetdu at gmail.com Sun Feb 1 02:36:07 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 1 Feb 2009 02:36:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSo4KSV?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+Ckjywg4KS44KSq4KSo4KWHIOCkrOCkqCDgpJzgpL4=?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpKzgpKHgpLzgpYcg4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw?= Message-ID: <829019b0901311306pb2f6c2bka61ec0aea77d4840@mail.gmail.com> रवीश कुमार,पुण्य प्रसून वाजपेयी,आशुतोष औऱ सम्स ताहिर खान जैसे हिन्दी पत्रकारों की स्टोरी दिखाते हुए जब मैं मीडिया के बच्चों से पूछता जाता- पहचानते हैं न इन्हें आप। बच्चे बाकी जबाबों के मुकाबले कुछ ज्यादा उंची आवाज में जबाब देते- हां सर, पहचानते हैं। एक पल के लिए मुझे देखते, मानों हमसे ही सवाल करना चाह रहे हों-इन्हें कैसे नहीं पहचानेगें, इन्हें कौन नहीं पहचानेगा या फिर इनको नहीं पहचानेगा कोई तो किसे पहचानेगा। मैं ये सवाल करते हुए कोई सर्वे नहीं नहीं कर रहा था कि मीडिया पढ़नेवाले बच्चों के बीच हिन्दी का कौन-सा टेलीविजन पत्रकार सबसे ज्यादा पॉपुलर है। मैं तो सिर्फ इस बात का अनुमान लगाना चाह रहा था कि मीडिया के ये बच्चे रेगुलर टेलीविजन देखते हैं भी या नहीं। टेलीविजन देखते हैं तो किस बुलेटिन को देखते हैं, वगैरह,वगैरह......। बिना टेलीविजन देखे, टेलीविजन पर बात करना कुछ वैसा ही है जैसे पद्मावत पढ़कर सिंहलद्वीप के बारे में सोचना और कल्पना करना। जो टेलीविजन नहीं देखते उनके लिए सब हवा-हवा धुआं-धुआं-सा लगता है। खैर, डीयू के अंबेडकर कॉलेज के बुलाने पर,जिंदगी में पहली बार मैं लेक्चर देने गया था। विषय तय था- खबरों की बदलती दुनिया और नए पत्रकारों की चुनौतियां। खबरों की बदलती दुनिया को लेकर मेरी अपनी समझ है कि आज खबरों के बारे में लिखते हुए, चुनते हुए और प्रसारित करते हुए जो सबसे बड़ी समस्या है कि आपको यह यकीन कर पाना, बता पाना मुश्किल हो जाएगा कि किस खबर को किस खेमे में रखें। महज पॉलिटिक्स की खबर कब बॉलीवुड की खबर बन जाती है, स्पोर्ट्स की खबर कब पॉलिटिक्स की खबर बन जाएगी या फिर एक ही खबर में पॉलिटिक्स, इंटरटेन्मेंट, स्पोर्ट्स औऱ एस्ट्रलॉजी का सेंस होगा, इसे समझ पाना चुनौती का काम है। तेजी से बदलती खबरों की दुनिया में पहले के मुकाबले इसे बिल्कुल अलग-अलग कर पाना इतना सहज नहीं रह गया है। इसकी एक बड़ी वजह ज्यादा से ज्यादा खबरों का सॉफ्ट स्टोरी के तौर पर बदल जाना है या फिर इन्फोटेन्मेंट की शक्ल में तब्दील हो जाना है। सीएसडीएस-सराय के लिए रिसर्च करते हुए इसे मैंने पॉलिनेशन ऑफ न्यूज टर्म दिया था और अपने स्तर से विश्लेषित करने की कोशिश की थी कि किसी भी खबर को अगर हम स्पोर्टस के सिरे से पकड़ते हैं तो संभव है उसके अंत सिरे तक आते-आते वो पॉलिटिक्स में जाकर खत्म हो। इसलिए मीडिया पर बात करनेवालों के लिए ये मामला अब इतना आसान नहीं रह गया है कि वो खबरों को लेकर सीधे-सीधे स्पष्ट विभाजन कर दें। ये अच्छा है या फिर बुरा इस बहस में न जाते हुए हमनें सिर्फ इस बात पर चर्चा की कि ऐसे में एक नए पत्रकारों के लिए कितना मुश्किल हो जाता है कि वो स्क्रिप्ट लिखते हुए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करे, फ्लाईओवर टूटने पर उसके विजुअल्स को काटे औऱ स्क्रिप्ट लिखे या फिर पहले बोल हल्ला की सीडी जुटाए,चांद और फिजा पर बात करते हुए चंडीगढ़ की फीड पर गौर करे या फिर..ए रात जरा थम-थम के गुजर, मेरा चांद मुझे आया है नजर जैसे गानों को फिट करने की जुगत लगाए। इस तरह से मैं बात करता जाता औऱ बारी-बारी से न्यूज चैनलों की फुटेज दिखाता जाता। मैंने ये भी कहा कि-संभव है ये सारी खबरें, खबरों को परोसने का अंदाज आपको कूड़ा लगे लेकिन क्या ये आपके हाथ में है कि आप तय करें कि हम किस चैनल को देखें औऱ किस चैनल को नहीं देखें और कौन-सी स्टोरी बनाए औऱ कौन-सी नहीं बनाएं। इसी क्रम में मैं पुण्य प्रसून वाजपेयी की पोटा कानून को लेकर की गयी उस स्टोरी की चर्चा करने लगा, उसके पूरे विजुल्स दिखाए, जिसके लिए उन्हें सम्मान मिला, रवीश कुमार की उस स्टोरी को बच्चों के सामने रखा जिसमें वो गुरुदासपुर,पंजाब के एक ऐसे कॉलेज की चर्चा कर रहे हैं जिस इलाके की लड़कियों ने अपने दम पर खड़ा किया है जहां कोई टीचर नहीं है, क्लासरुम के नाम पर कोई फर्नीचर से लदे-फदे कमरे नहीं है। हमने रवीश की उस लाइन को दोहराया जहां वो कहते हैं कि हम बेहतर शिक्षा के नाम पर शिक्षा को औऱ मुश्किल बनाते जाते हैं..पब्लिक स्कूलों पर सीधा व्यंग्य कर रहे होते हैं। निठारी पर बनायी सम्स की उस स्टोरी की चर्चा कर रहे थे, जब विजुअल्स में एक-एक करके बच्चे गायब हो जाते हैं। सारे चैनलों के विजुअल्स दिखाने के बाद जैसे ही मैंने इस तरह की खबरों पर बात करनी शुरु की,मीडिया के बच्चों का मिजाज बदल गया। उन्हें लग रहा था कि ये खबरों का विकासक्रम नहीं,बल्कि बिल्कुल एक अलग दुनिया है। एक ही चैनल पर एक-दूसरे से अलग ऐसी दुनिया जिसका कि एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं। सच कहूं, मैं इन बच्चों को ऐसी खबरें बनाने औऱ इनके जैसा बनने की कोई जबरदस्ती की अपील नहीं कर रहा था,मैं इन्हें भारी-भरकम आदर्श से लदे-फदे एप्रोच के बजाय आम पत्रकार बनने की सलाह दे रहा था,ऐसा कहते हुए मैं इनके मिजाज को पढ़ना चाह रहा था। अंत में मैंने सिर्फ यही कहा कि- सारी बातों का निचोड़ सिर्फ इतना है कि आप ऐसे पत्रकार न बनें जो हर दो-दिन चार दिन पर फोन करके अपने दोस्तों से कहता-फिरता है- अच्छा होता,हम एक बार यूपीएसी के लिए चांस लेते, एक बार यूजूसी नेट निकालने की कोशिश करते या फिर चिढ़कर कि इससे बढिया होता कि हम भडुआगिरी करते, यही तो करते हैं हम रोज। बाहर निकलकर कुछ बच्चों ने फिर से कहा- आपने जो कुछ भी बताया, हमें व्यावहारिक लगा, सच लगा, हमें पता है कि कुत्तों की डाइट पर स्टोरी करनी पड़ सकती है, हमें रावण की ममी खोजने कहा जा सकता है, लेकिन सर पता नहीं क्यों जब भी मैं इन पत्रकारों को स्क्रीन पर देखता हूं तो जोश आ जाता है कि हमें ऐसा ही बनना है। अपने को इन्हीं के जैसा बनते देखना चाहता हूं...आपने कहा न कि ऐसा पत्रकार बनो जो दोस्तों को फोन करके फ्रसट्रेट करने के बजाय इर्ष्या पैदा करे कि- आदमी बने तो बने पत्रकार, नहीं तो कुछ भी बन जाए क्या फर्क पड़ता है।.कुछ-कुछ वैसा ही, कुछ-कुछ ऐसा ही। .... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090201/121aaba4/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Feb 2 23:00:23 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 2 Feb 2009 23:00:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkheCkoeCljeCkvOCkoeCkviDgpJzgpYjgpLjgpL4g4KSF4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KWAIOCkueCli+CkleCksCDgpJXgpYvgpIgg4KSt4KWAIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWLLeCkueCksuCljeCksuCkviDgpK7gpJrgpL4g4KS44KSV4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0902020930i66ddb4ccg824c0f432bb5e6bb@mail.gmail.com> दीवान के साथियों > ब्लॉग की दुनिया में उन अनामी बलॉगरों और टिप्पणीकारों की संख्या तेजी से बढ़ > रही है जो कहीं भी कुछ भी लिखते हैं। कोई अकाउंटविलिटी नहीं है। ऐसे ही एक > ब्लॉग है खबरी अड्डा। मीडिया की हलचलों को सामने रखकर क्रांति मचाने की खुशफहमी > का शिकार। आज की पोस्ट उसी पर, लिखने की वजह अगली पोस्ट में विनीत आपको क्या लगता है,लोगों के पास सुलगाने के लिए,चर्चा में बने रहने के लिए,उठा-पटक मचाने के लिए मुद्दों की कोई कमी है। अकेले मीडिया हाउस ही नहीं है जहां पद को लेकर, पैसे को लेकर, जाति को लेकर और राजनीति को लेकर खेल होते रहते हैं. देश में ऐसे हजारों प्रोफेशन,हजारों क्या जितने भी प्रोफेशन हैं, सबके भीतर खेल चलते रहते हैं। हर कोई किसी न किसी का गला दबाने के लिए तैयार है,दबोचने के लिए तैनात है और मौका मिलते ही पिल पड़ने के लिए उतारु है। अकेले मीडिया नहीं है जहां कि छंटनी होने पर लोगों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ रहा है,काम करनेवाले लोगों के साथ ज्यादती हो रही है,लोग असंतुष्ट हैं। ये हाल लगभग पूरे देश में है। हर आदमी अपने से नीचेवाले को कुचलने की कवायद में जुटा है। आपको क्या लगता है कि ब्लॉग की दुनिया में केवल वो ही लोग शामिल हैं जिन्हें या तो मीडिया की गतिविधियों में सबसे ज्यादा रुचि है या फिर मीडिया से सीधे-सीधे जुड़े हैं। शायद ही ऐसा कोई पेशा बचा हो(जिस पेशे में रहते हुए लिखने-पढ़ने की गुंजाइश हो)जहां के लोग ब्लॉगिंग नहीं करते हों। अब इस हिसाब से सोचिए तो कि अगर सारे ब्लॉगर अपने-अपने पेशे से जुड़ी खबरों को,अंदुरुनी बातों को ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर या खबरी अड्डा के तौर पर पेश करने लग जाएं तो कितनी बड़ी क्रांति आ जाएगी। सब अपने-अपने पेशे के सिस्टम की बखिया उधेड़ने लग जाएं तो सुराज आते कितने दिन लगेंगे। लेकिन नहीं, आप ये मत कहिए कि सारे ब्लॉगर बखिया नहीं उधेड़ना नहीं चाहते, वो चाहते हैं कि सिस्टम की पोल-पट्टी खोल दें लेकिन वो खबरी अड्डा नहीं होना चाहते। खबरी अड़्डा सहित दूसरे तमाम ब्लॉग के संचालकों को पता है कि सच बोलने की क्या सजा हो सकती है, कितनी फजीहत हो सकती है, घर उजड़ सकता है, रोजी-रोटी छिन सकती है। फ्लैट के लोन चुकाने में परेशानी हो सकती है, पार्किंग में गाड़ी रहते स के धक्के खाने पड़ सकते हैं, इसलिए बाकी लोग व्यावहारिक बन जाते हैं। बनना भी चाहिए,जज्बाती होकर किसी के विरोध में लिखने से बेहतर है और वो भी तब जबकि पता हो कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है( मुझे ऐसा मानने में अभी तक संदेह है, तब बेकार में हु्ज्जत मोल लेने से कोई फायदा नहीं है। ब्लॉगर वही लिखे, जो स्वांतः सुखाय होने के साथ-साथ दूसरों के कलेजे को भी राहत दे,थर्ड पर्सन में बातें करे, विरोध भी करे तो बड़ी-बड़ी चीजों का, बड़े-बड़े लोगों का जो कि अक्सर नजरअंदाज कर जाए, आस-पास की चीजों का विरोध करना रिस्की हो सरता है। ऐसा सॉफ्ट लिखे कि कुछ कमेंट भी आ जाए, न उधो से लेना, न माधो को देना वाली शैली में। लेकिन मन तो मन है। उसका मन कभी शिकायत करने का होता है, दूसरों को गरियाने का होता है, सुबह अगर किसी को पायजामा पहनाने का मन करता है तो शाम होते ही उसका नाड़ा खीचने का मन करता है। कभी मन करता है कि जहां काम कर रहे हैं, वहीं के लोगों को दमभर गरिआए, दमभर कोसें, जिस संस्थान में काम कर रहे हैं उसे ही भ्रष्ट साबित करें। भड़ासियों की तो अक्सर सलाह भी रही है कि मन में कुछ है तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। मन तो हल्का हो जाएगा लेकिन उगलते किसी ने देख लिया तो। लोक-लाज की चिंता तो लोगों को अक्सर सताती है। अब किया जाए तो क्या किया जाए। बंद कमरे में माथा नोचा जाए, मन मसोस कर छोड़ दिया जाए या फिर भीतर ही भीतर कुंठित होते रहे। असल जिंदगी में इंसान क्या करे, बहुत मुश्किल है ये सब तय कर पाना। लेकिन अंतर्जाल का यही तो मजा है जो मन में आए लिख दो, जिस पोस्ट पर मन करे, कुछ भी कमेंट ठेल दो। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे सरकारी ऑफिसों की सीढियों से गुजरते हुए जहां मन करता है वहां मनचला थूक जाता है। वहां तो फिर खतरा है कि जहां किसी ने कभी पकड़ लिया तो कुछ नहीं तो कम से कम तमाशा तो हो ही जाएगा. लेकिन यहां उसकी भी झंझट नहीं। अनामी होकर सब लीला करो, अक्खड़ टिप्पणीबाज बनो, जहां मन करे वहां टिप्पणी करके अपनी भड़ास निकालो। औऱ जब टिप्पणी से मन न भरे तो खबरी अड्ड़ा बन जाओ। प्रोफाइल में कुछ भी सही-सही मूर्त लिखने के बजाय, निरगुनिया बन जाओ। कोई जानने के लिए क्लिक करे कि आप कौन हैं, क्या करते हैं तो निरगुनिया बनकर जबाब दो, जहां-जहां खबर हैं, वहां-वहां हम है। इससे भारी सुविधा औऱ क्या होगी..पहचान भी बची रह गयी और देखते ही देखते दार्शनिक की पांत में भी शामिल हो गए। उन ब्लॉगरों से तो लाख दर्जो बेहतर ही हुए जो पहचान के साथ भले ही लिखते हैं लेकिन सब घास-फूस, किसी बात से कभी खलबली नहीं मचती, लोग सुस्त तरीके से पढ़कर सुस्त हो जाते हैं। ( ये पोस्ट किसी भी तरह की खुन्नस से नहीं लिखी गयी है, लिखने की वजह खुद खबरी अड्डा ने मुहैया करायी है। पूरी वजह अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090202/0360f054/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Tue Feb 3 02:13:43 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 3 Feb 2009 02:13:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSy4KSu?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg4KSw4KS+4KS5IOCkpOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSV4KSk4KWAIOCknOCkv+CkguCkpuCkl+ClgA==?= Message-ID: <190a2d470902021243n6432a7d4k92a6cab3ad0c8b58@mail.gmail.com> स्लम के बहाने राह ताकती जिंदगी निर्देशक डैनी बोयल की फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' का ऑस्कर की दस श्रेणियों में नामांकित होना और फिल्म के जरिए भारत की एक अलग छवि पेश करना एक विचारणीय मुद्दा है। मुद्दा सिर्फ उस नकारात्मक छवि को प्रदर्शित करने का नही हैं बल्कि उस सोच का भी है जिसने फिल्म को ऑस्कर की कई श्रेणियों में नामांकित कराया। यह फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों के लिए भी एक सबक है कि जिस देश में हर साल मनोरंजन के नाम पर सैकड़ों फिल्में बनती हों वहां मुंबई के स्लम इलाकों के बच्चों और उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म मुनाफा कमाने के साथ-साथ आम लोगों को बड़े पर्दे तक खींच सकती है। फिल्म एक सबक है कि सिर्फ ख्वाब ही नहीं बिकते, बल्कि हकीकत व जिंदगी की जद्दोजहद भी बिकती है। फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' की पटकथा सिर्फ और सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के धारावी स्लम इलाके की कहानी नहीं है बल्कि दुनिया के तमाम स्लम इलाकों की जीवंतता है। क्योंकि प्राय: सभी स्लम इलाकों की हालत एक जैसी ही है। हालांकि धारावी इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि यहां के लोगों द्वारा निर्मित सामानों की सप्लाई पूरे देश में होती है और इसका टर्न आ॓वर करीब तीस अरब रूपए है। भले ही फिल्म को लेकर लोग बवाल खड़ा करें कि इसके जरिए भारत की नकारात्मक छवि पश्चिमी देशों के सामने रखी गई है लेकिन दुनिया को सच्चाई मालूम है। दुनिया के समृद्धशाली देशों के अधिकतर शहरों की स्थिति इससे और भी भयावह है। चाहे वह ब्राजील का रिआ॓ डी जेनेरो हो या हांगकांग का ताईहांग जिला। कभी ब्रिटेन के वेस्ट यार्क शायर के बिशॉपगेट स्लम इलाके के लोगों का जीवन भी धारावी के लोगों से भिन्न नहीं था। दुनिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती नैरोबी के कीबेरा में करीब छह लाख लोग रहते हैं। कंबोडिया के स्लम इलाके फनोम पेंह की अधिकतर आबादी रेलवे लाइन व नहर के किनारे झुग्गियों में रहती है। यही हाल, श्रीलंका की राजधानी कोलंबो, मिस्र के शहर काहिरा और भारत के मुंबई, दिल्ली व कोलकाता की भी है। पाकिस्तान के कराची शहर के पास का इलाका आ॓रंगी हो या बांग्लादेश की राजधानी ढाका, हर स्लम बस्तियों की लगभग हालत एक जैसी ही है। संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट-2006 की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ कॉमनवेल्थ देशों में 32 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश हैं। अनुमान के मुताबिक, यदि यही हालत रही तो 2020 तक दुनिया में करीब और 10 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश होंगे। और तो और, 2030 तक यदि इस आ॓र ध्यान नहीं दिया गया तो दुनिया की आधी आबादी इन स्लम बस्तियों में मिलेगी। संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट के 21वें सम्मेलन में इस मामले में दुनिया के लोगों का ध्यान आकर्षित कराया गया था कि दुनिया के बड़े शहर मसलन बैंकाक, मुंबई व कोलकाता इससे अछूते नहीं हैं। अफ्रीका में 20 फीसद आबादी और लैटिन अमेरिका में 14 फीसद लोग स्लम इलाकों में रह रहे हैं। सिर्फ एशिया के विभिन्न हिस्सों की झुग्गियों में भी 55 करोड़ लोग रह रहे हैं। जहां तक भारत की राजधानी दिल्ली की बात है तो 2000 तक यहां करीब 1100 स्लम बस्तियां थीं, जिनमें रोजी-रोटी के लिए देश के विभिन्न इलाकों से आए करीब 30 लाख लोग रह रहे थे। दिल्ली को विश्वस्तरीय बनाने के लिए इन स्लम बस्तियों को हटाने का काम लगातार जारी है। संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों का ध्यान जिस आ॓र आकृष्ट कराया है उनमें पीने के पानी, शौचालय, आवास आदि की समस्या के अलावा रहने-खाने की उचित व्यवस्था करना शामिल है। अब सवाल यह है कि जब स्लम बस्तियां शहरीकरण के चेहरे पर भद्दा दाग है तो इनके पुनर्वास के लिए सरकार, स्वयंसेवी संस्थााओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां क्या कर रही हैं? यदि धारावी पर बनाई गई फिल्म के जरिए लोगों को लगता है कि इससे भारत की छवि विश्व पटल पर खराब होगी या हो रही है तो इसके निराकरण के क्या उपाय हैं? सरकार इन इलाकों के उत्थान और यहां रहने वाले लोगों के जीवनस्तर सुधारने के लिए क्या उपाय कर रही है? कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर राजधानी के यमुनापुस्ता इलाके से उजाड़े गए लोगों की स्थिति क्या है? ये तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब न तो सरकार के पास है और न ही आम लोगों के पास। फिर ऐसे मामलों पर बनने वाली फिल्मों का और भी स्वागत होना चाहिए जिससे समाज के इस चेहरे को अपने मौजूदा हालत से उबरने का मौका मिले, न कि ऐसे मुद्दों को सामने लाने का विरोध। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/47c387f1/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Tue Feb 3 12:57:23 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 3 Feb 2009 12:57:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSy4KSu?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg4KSw4KS+4KS5IOCkpOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSV4KSk4KWAIOCknOCkv+CkguCkpuCkl+ClgA==?= In-Reply-To: <190a2d470902021243n6432a7d4k92a6cab3ad0c8b58@mail.gmail.com> References: <190a2d470902021243n6432a7d4k92a6cab3ad0c8b58@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470902022327i104a2516s9f02614c3bc15251@mail.gmail.com> स्लम के बहाने राह ताकती जिंदगी निर्देशक डैनी बोयल की फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' का ऑस्कर की दस श्रेणियों में नामांकित होना और फिल्म के जरिए भारत की एक अलग छवि पेश करना एक विचारणीय मुद्दा है। मुद्दा सिर्फ उस नकारात्मक छवि को प्रदर्शित करने का नही हैं बल्कि उस सोच का भी है जिसने फिल्म को ऑस्कर की कई श्रेणियों में नामांकित कराया। यह फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों के लिए भी एक सबक है कि जिस देश में हर साल मनोरंजन के नाम पर सैकड़ों फिल्में बनती हों वहां मुंबई के स्लम इलाकों के बच्चों और उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म मुनाफा कमाने के साथ-साथ आम लोगों को बड़े पर्दे तक खींच सकती है। फिल्म एक सबक है कि सिर्फ ख्वाब ही नहीं बिकते, बल्कि हकीकत व जिंदगी की जद्दोजहद भी बिकती है। फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' की पटकथा सिर्फ और सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के धारावी स्लम इलाके की कहानी नहीं है बल्कि दुनिया के तमाम स्लम इलाकों की जीवंतता है। क्योंकि प्राय: सभी स्लम इलाकों की हालत एक जैसी ही है। हालांकि धारावी इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि यहां के लोगों द्वारा निर्मित सामानों की सप्लाई पूरे देश में होती है और इसका टर्न आ॓वर करीब तीस अरब रूपए है। भले ही फिल्म को लेकर लोग बवाल खड़ा करें कि इसके जरिए भारत की नकारात्मक छवि पश्चिमी देशों के सामने रखी गई है लेकिन दुनिया को सच्चाई मालूम है। दुनिया के समृद्धशाली देशों के अधिकतर शहरों की स्थिति इससे और भी भयावह है। चाहे वह ब्राजील का रिआ॓ डी जेनेरो हो या हांगकांग का ताईहांग जिला। कभी ब्रिटेन के वेस्ट यार्क शायर के बिशॉपगेट स्लम इलाके के लोगों का जीवन भी धारावी के लोगों से भिन्न नहीं था। दुनिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती नैरोबी के कीबेरा में करीब छह लाख लोग रहते हैं। कंबोडिया के स्लम इलाके फनोम पेंह की अधिकतर आबादी रेलवे लाइन व नहर के किनारे झुग्गियों में रहती है। यही हाल, श्रीलंका की राजधानी कोलंबो, मिस्र के शहर काहिरा और भारत के मुंबई, दिल्ली व कोलकाता की भी है। पाकिस्तान के कराची शहर के पास का इलाका आ॓रंगी हो या बांग्लादेश की राजधानी ढाका, हर स्लम बस्तियों की लगभग हालत एक जैसी ही है। संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट-2006 की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ कॉमनवेल्थ देशों में 32 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश हैं। अनुमान के मुताबिक, यदि यही हालत रही तो 2020 तक दुनिया में करीब और 10 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश होंगे। और तो और, 2030 तक यदि इस आ॓र ध्यान नहीं दिया गया तो दुनिया की आधी आबादी इन स्लम बस्तियों में मिलेगी। संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट के 21वें सम्मेलन में इस मामले में दुनिया के लोगों का ध्यान आकर्षित कराया गया था कि दुनिया के बड़े शहर मसलन बैंकाक, मुंबई व कोलकाता इससे अछूते नहीं हैं। अफ्रीका में 20 फीसद आबादी और लैटिन अमेरिका में 14 फीसद लोग स्लम इलाकों में रह रहे हैं। सिर्फ एशिया के विभिन्न हिस्सों की झुग्गियों में भी 55 करोड़ लोग रह रहे हैं। जहां तक भारत की राजधानी दिल्ली की बात है तो 2000 तक यहां करीब 1100 स्लम बस्तियां थीं, जिनमें रोजी-रोटी के लिए देश के विभिन्न इलाकों से आए करीब 30 लाख लोग रह रहे थे। दिल्ली को विश्वस्तरीय बनाने के लिए इन स्लम बस्तियों को हटाने का काम लगातार जारी है। संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों का ध्यान जिस आ॓र आकृष्ट कराया है उनमें पीने के पानी, शौचालय, आवास आदि की समस्या के अलावा रहने-खाने की उचित व्यवस्था करना शामिल है। अब सवाल यह है कि जब स्लम बस्तियां शहरीकरण के चेहरे पर भद्दा दाग है तो इनके पुनर्वास के लिए सरकार, स्वयंसेवी संस्थााओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां क्या कर रही हैं? यदि धारावी पर बनाई गई फिल्म के जरिए लोगों को लगता है कि इससे भारत की छवि विश्व पटल पर खराब होगी या हो रही है तो इसके निराकरण के क्या उपाय हैं? सरकार इन इलाकों के उत्थान और यहां रहने वाले लोगों के जीवनस्तर सुधारने के लिए क्या उपाय कर रही है? कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर राजधानी के यमुनापुस्ता इलाके से उजाड़े गए लोगों की स्थिति क्या है? ये तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब न तो सरकार के पास है और न ही आम लोगों के पास। फिर ऐसे मामलों पर बनने वाली फिल्मों का और भी स्वागत होना चाहिए जिससे समाज के इस चेहरे को अपने मौजूदा हालत से उबरने का मौका मिले, न कि ऐसे मुद्दों को सामने लाने का विरोध। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/a6321b87/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Tue Feb 3 15:30:54 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 3 Feb 2009 15:30:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruCljOCknOClguCkpiDgpLngpYgg4KS54KWA4KSw4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClgCDgpKzgpYjgpLLgpJfgpL7gpZzgpYA=?= Message-ID: <63309c960902030200t13d07afcvdfd057855cd660a1@mail.gmail.com> रिपोर्ट दैनिक जागरण से साभार (फोटो देखना हो तो attach file में है ) http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5207312.html गिरीन्द्र पूर्णिया [प्रकाश वत्स]। सन 1966 में बनी यादगार फिल्म तीसरी कसमकी चर्चा मात्र से कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की यादें स्वत: ताजा हो जाती है। कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एक *बैलगाड़ी* भी इसी की एक कड़ी है। यह वही *बैलगाड़ी* है जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी शोमैन राजकपूर ने सवारी की थी। गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आया-जाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने गाड़ी पर सफर किया था। इस अनूठी बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणु ने अपनी कुछ रचनाओं में भी इस बैलगाड़ी से अपने प्रेम का परोक्ष रुप से इजहार किया है। बहरहाल उस बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा व बरेटा गांव वासी तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह रखा है। साथ ही विश्वास द्वारा रेणु की जयंती व पुण्यतिथि पर रेणु के साथ उस गाड़ी की आरती जरूर उतारी जाती है। तीसरी कसम फिल्म रेणु के उपन्यास मारे गये गुलफाम पर ही आधारित थी। साथ ही फिल्म के कई अंशों की शूटिंग भी इसी इलाके में हुई थी। इसी क्रम में फिल्म के नायक राजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आते-जाते दिखायी पड़ते हैं, वह गाड़ी रेणु की बड़ी बहन लत्तिका देवी की ही थी। हालांकि आज उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रही लेकिन बहन की लालसा के मुताबिक उनके पुत्र आज भी उस गाड़ी में रेणु की छवि देखते हैं और उसी अंदाज में उसकी पूजा भी करते हैं। लत्तिका के पुत्र सह रेणु के भांजे तेजनारायण विश्वास की मानें तो रेणु जी जब भी उनके गांव आते थे गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी जाती थी। फिर इसी गाड़ी से उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था। खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे इस गाड़ी के ही फिल्म के उपयोग की बातें राजकपूर के समक्ष भी रखीं। विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। अलबत्ता रेणु की यादों को संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा कहना मुश्किल है क्योंकि न तो प्रशासन न ही किसी साहित्यिक संगठन द्वारा इस अनमोल धरोहर की खबर लेने की जरूरत समझी जा रही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/79a21573/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: harimancort-1_1233644413_m.jpg Type: image/jpeg Size: 27815 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/79a21573/attachment-0001.jpg From rakeshjee at gmail.com Tue Feb 3 15:56:00 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Tue, 3 Feb 2009 15:56:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruCljOCknOClguCkpiDgpLngpYgg4KS54KWA4KSw4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClgCDgpKzgpYjgpLLgpJfgpL7gpZzgpYA=?= In-Reply-To: <63309c960902030200t13d07afcvdfd057855cd660a1@mail.gmail.com> References: <63309c960902030200t13d07afcvdfd057855cd660a1@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0902030226q2ef537c8g9abb1f93ee8385ab@mail.gmail.com> बहुत ख़ूब! इतनी महत्त्वपूर्ण जानकारी साझा करने के लिए आपका शुक्रिया. भई, लाते हो ढूंढ कर माल. क्‍या बात है !! बैलगाड़ी के बारे में सरकार और साहित्‍यकर्मी क्‍यों सोचेंगे, ऐसी बहुतेरी चीज़ें और यादें नष्‍ट और लुप्‍त हो गयीं पर इनकी नींद न खुली. पर रेणुप्रेमियों के सहयोग से ज़रूर किया जा सकता है. एक बार फिर शुक्रिया. 2009/2/3 girindra nath : > रिपोर्ट दैनिक जागरण से साभार (फोटो देखना हो तो attach file में है ) > http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5207312.html > गिरीन्द्र > > पूर्णिया [प्रकाश वत्स]। सन 1966 में बनी यादगार फिल्म तीसरी कसम की चर्चा > मात्र से कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की यादें स्वत: ताजा हो जाती है। > > कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एक बैलगाड़ी भी इसी की एक कड़ी है। यह वही > बैलगाड़ी है जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी शोमैन राजकपूर ने सवारी की थी। > > गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर > गढ़बनैली स्टेशन आया-जाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी > हस्तियों ने गाड़ी पर सफर किया था। > > इस अनूठी बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। > रेणु ने अपनी कुछ रचनाओं में भी इस बैलगाड़ी से अपने प्रेम का परोक्ष रुप से > इजहार किया है। > > बहरहाल उस बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा व > बरेटा गांव वासी तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह रखा है। साथ ही > विश्वास द्वारा रेणु की जयंती व पुण्यतिथि पर रेणु के साथ उस गाड़ी की आरती जरूर > उतारी जाती है। > > तीसरी कसम फिल्म रेणु के उपन्यास मारे गये गुलफाम पर ही आधारित थी। साथ ही > फिल्म के कई अंशों की शूटिंग भी इसी इलाके में हुई थी। इसी क्रम में फिल्म के > नायक राजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आते-जाते दिखायी पड़ते > हैं, वह गाड़ी रेणु की बड़ी बहन लत्तिका देवी की ही थी। > > हालांकि आज उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रही लेकिन बहन की लालसा के मुताबिक > उनके पुत्र आज भी उस गाड़ी में रेणु की छवि देखते हैं और उसी अंदाज में उसकी > पूजा भी करते हैं। लत्तिका के पुत्र सह रेणु के भांजे तेजनारायण विश्वास की > मानें तो रेणु जी जब भी उनके गांव आते थे गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी > जाती थी। फिर इसी गाड़ी से उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था। > > खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म > निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे इस गाड़ी के ही फिल्म के उपयोग की > बातें राजकपूर के समक्ष भी रखीं। > > विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। अलबत्ता रेणु की यादों > को संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा कहना मुश्किल है क्योंकि न तो > प्रशासन न ही किसी साहित्यिक संगठन द्वारा इस अनमोल धरोहर की खबर लेने की जरूरत > समझी जा रही है। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Feb 3 19:53:50 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 3 Feb 2009 19:53:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksCDgpKvgpL/gpKbgpL4g4KSk4KS54KSc4KWA4KSs?= Message-ID: <6a32f8f0902030623n5ba6133dhc65b882e0aa7bbb8@mail.gmail.com> *सुरा पर फिदा तहजीब*** पब संस्कृति को खत्म करने के नाम पर श्रीराम सेना के लोगों ने बड़ा उत्पात मचाया। इस दौरान युवतियों के साथ जो बेअदबी हुई, उससे भारतीय संस्कृति से जुड़े कई गहरे सवाल खड़े हुए हैं। इसपर बहस जारी है और यह जरूरी है। दरअसल, खान-पान निहायत व्यक्तिगत पसंद की चीज है। किसी भी तरह के खाने-पीने की आदतों व शौकों से उस जगह की तहजीब खूब समझ में आती है। लेकिन, उदार बाजारवाद की बयार ने इस तहजीब को बदला है। जहां-जहां यह बयार पहुंची है, वहां ठेठ देशी संस्कृति आहत हुई है। आप खुद देख लें ! अब ज्यादातर समौसे की दुकान से सरसों की चटनी गायब है। बोतलबंद सॊस हावी है। दूसरी तरफ अब लोग लिट्टी खाकर उतना लुत्फ नहीं उठाते, जितना मोमोज खाकर उठाते हैं। हालांकि, इस देश में पब का विकल्प भी जमाने से मौजूद है। इस देश की देहाती-दुनिया में आबादी से दूर कलाल-खाना (मद्यशाला) सेवा चलती रही है। दारू व ताड़ी के मुरीद वहां मजे से अपना शौक पूरा करते हैं। पर, इस कलाल-खाने से निकलकर कोई रईसजादा राहगीरों को नहीं कुचलता है। वहां किसी युवती को भी गोली नहीं मारी जाती है और न ही कोई सेना धमाचौकड़ी मचाती है। लेकिन, जब बाजार उदार हुआ तो इस मामले को लेकर कुछ लोग ज्यादा ही उदार हो गए। बड़े शहरों में शराबनोशी का अंदाज इससे बड़ा प्रभावित व प्रोत्साहित हुआ। मजे की बात यह है कि पहले शराबखोरी छिपकर होती थी। अब यह पार्टियों के ठाठ की पहचान बन गई है। इसके बारी-बारी से कई रंग दिख रहे हैं आम जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है। सिनेमा व टेलीविजन भी इस मामले में समय के साथ कमदताल कर रहा है। पेज थ्री के नामवर बंदे यहां दर्शन देने लगे। इससे शहरी समाज में संदेश गया कि भई, शराब तो हमारी तहजीब का हिस्सा है। और पब उनमुक्तता का प्रतीक। कलाल-खाना की तरह पब शहर व आबादी से दूर नहीं खोला जाता, बल्कि प्रमुख चौराहे पर जगह तलाशी जाती है। एक और बात यह है कि शहरी समाज पर हावी हो रही इस नई तहजीब को बारीकी से समझने के लिए उन चेहरों की पहचान, उनके दैनिक जीवन की जरूरतों, उलझनों व जटिलताओं को समाजशास्त्रीय निगाह से जानना होगा। लेकिन, मालूम पड़ता है कि श्रीराम सेना को इतनी फुर्सत नहीं। वे लोग एक समस्या का दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर हल ढूंढ़ रहे हैं। दरअसल, नोट और वोट के इस दौड़ में सबों की अपनी डफली और अपना राग है। पर इसमें दोराय नहीं कि सुरा पर देशी तहजीब कुछ ज्यादा ही फिदा है। * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/36a1e348/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Feb 3 20:36:12 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 3 Feb 2009 20:36:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KWH4KSC?= =?utf-8?b?4KSfIOCkleClgOCknOCkv+CkjyDgpKzgpY3gpLLgpYngpJcg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?LCDgpIfgpILgpKTgpJzgpL7gpLAg4KSV4KWA4KSc4KS/4KSPIOCkqw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSoIOCkquCksA==?= Message-ID: <829019b0902030706r4d8c7826yd94a3a45c40977a1@mail.gmail.com> खबरी अड्डा जैसा अनामी होकर कोई भी हो-हल्ला मचा सकता है इस पोस्ट को लिखने की वजह बताता कि इसके पहले ही खबरी अड्डा सॉरी संजय कुमार सिंह ने मेरी टिप्पणी प्रकाशित कर वजह स्थापित करने की कोशिश की। वो टिप्पणी क्या थी, इसकी चर्चा बाद में पहले संजय कुमार सिंह की उस दलील पर गौर करें जिसमें उन्होंने टिप्पणी प्रकाशित नहीं करने की वजह बतायी है। उन्होंने लिखा- सोमवार की सुबह हमें एक ब्लॉगर विनीत कुमार की टिप्पणी मिली थी। विनीत कुमार की यह टिप्पणी ब्लॉग पर हमनें यह सोचकर नहीं डाली थी,कि इनकी आशंकाएं कभी फोन पर बातचीत करके दूर कर दूंगा। लेकिन उससे पहले विनीत कुमार ने अपने ब्लॉग पर खबरी अड्डा के पीछे अनाम ताकतों का आरोप लगाते हुए एक लेख लिख मारा है। खबरी अड्डा जिसे कि अब संजय कुमार सिंह नाम से ही संबोधित करना सही होगा क्योंकि ये सुविधा उन्होंने आज ही मुहैया कराया है,मुझे कब फोन करते, इसका न तो मैं उनसे कोई हिसाब मांग रहा हूं और न ही उन्होंने कोई तारीख या समय इसके लिए तय कर रखी होगी। हमें इस बात पर हंसी आ रही है और अफसोस भी हो रहा है कि किसी की टिप्पणी को इग्नोर करने का उन्होंने कितनी लचर तर्क जुटायी है। वो ब्लॉगिंग को मोहल्ले की चीज समझ रहे हैं कि एक रुपये का सिक्का डाला और टिप्पणी को लेकर जो भी विचार हैं, बता दिए। उन्हें ये तर्क शायद इसलिए पसंद आया होगा कि पूरे मामले को वो दिल्ली-दिल्ली यानि लोकल तक ही देख रहे हैं। मेरे ब्लॉग पर भी यहीं का नंबर है। मेरा सवाल सिर्फ इतना भर है कि क्या ब्लॉग के मसले को फोन तक ले जाना सही है। जिस माध्यम में बात हो रही है, उससे कूदकर किसी दूसरे माध्यम पर स्विच कर जाना सही है। फर्ज कीजिए अगर ब्लॉगर लोकल कॉल से न निबटे तो फिर क्या आइएसडी से जबाब देने का इरादा हो सकता है। दूसरा कि जिन भाईयों का नंबर मेरी तरह आसानी से नहीं मिल पाए, उन्हें इग्नोर करने के कौन से तर्क जुटाए जा सकते हैं। कोई जरुरी नहीं है कि ब्लॉगर किसी की टिप्पणी को छापे ही छापे,संभव है बहुत सारे ब्लॉगर पार्सियल डेमोक्रेट होना चाहते हों जो कि पोस्ट के जरिए कुछ भी कहने के अभ्यस्त हों जबकि उसके उपर आयी प्रतिक्रिया को सार्वजनिक होने देने से बचना जाते हों। अपने विपक्ष में या फिर टिप्पणीकार के पक्ष में आधार तैयार होने नहीं देना चाहते हों। इसमें नाराज होने की कोई बात ही नहीं है। खैर... अब बात करें पोस्ट लिखने की वजह पर। कुछ भी कहने से पहले ये साफ कर दूं कि संजय कुमार सिंह ने अपनी तरफ से जो भी वजह निकाली है उससे अलग कुछ वजह और भी है। अपनी एक पोस्ट एनडीटीवी को जबाब-बड़ी लकीर खींचकर दूसरे को छोटा करो पोस्ट के अंत में एक नोट लिखा- एनडीटीवी की स्पेशल रिपोर्ट में टीवी न्यूज चैनलों को निशाने पर लिए जाने के बाद कई चैनलों में खलबली मची है,हम इस विषय पर टीवी पत्रकारों की राय-लेख आमंत्रित करते हैं। साथ में अपनी तस्वीर भी भेज दें। बहुत से अनाम-गुमनाम लोग कमेंट कर रहे हैं, इस मुद्दे। ऐसे ज्यादातर लोग गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते हैं। ऐसे लोगों से अनुरोध है कि अपना वक्त बर्बाद न करें। मुझे इस बात से असहमति रही कि जो ब्लॉगर खुद अपनी तस्वीर पोस्ट नहीं लगाता, नाम तक नहीं प्रकाशित करता वो किस अधिकार से दूसरे पत्रकारों से फोटो भेजने की बात कर रहा है, क्या ऐसा कहने का उनके पास नैतिक आधार है। संजय कुमार सिंह ने अपने आज की पोस्ट में खुद भी लिखा कि- रोज पोस्ट पर अपना नाम औऱ फोटा डालकर खुद को चैंपियन बनाना अपना मकसद नहीं रहा। अब कोई इनसे सवाल करे कि बाकी के जो लोग भी अपनी पहचान औऱ तस्वीर डालकर पोस्टिंग कर रहे हैं, वो क्या चैंपियन बनने की फिराक में हैं। जिस तरह की खबरें खबरी अड्डा प्रकाशित करता रहा है, मैं समझ सकता हूं कि अगर उसका नाम सार्वजनिक हो जाए तो भारी फजीहत हो सकती है। उन्होंने लिखा है कि उन्होंने दिवाली के दिन वाली पोस्ट में अपना नाम डाल रखा है। लेकिन ये तो उनके लिए है न जो शुरुआती दौर से ही इस ब्लॉग को पढ़ते आ रहे हैं। हालिया पढ़नेवाले के लिए खबरी अड्डा अनामी ही है, नहीं तो चर्चा के क्रम में दर्जनों पत्रकार दोस्त क्यों पूछते कि ये खबरी अड्डा कौन है। संजय कुमार सिंह अपनी पहचान स्वाभाविक तरीके से प्रकाशित न करके जिस सुरक्षा कवच में रहकर पोस्टिंग करते आए हैं, मैं वाकई उनकी कद्र करता हूं। नियमित पोस्ट पढ़ते हुए कभी भी उनके बार में जानने की बेचैनी नहीं रही लेकिन अपनी इस नीति के आगे वाकियों के उपर फिकरे कसने के अंदाज में अपनी बात कहना, किसी भी लिहाज से मुझे उचित नहीं लगा। मुझे नहीं पता कि टेलीविजन के बाकी पत्रकारों के साथ इनकी पहचान किस हद तक है कि वो फोटो भी भेजते हैं। लेकिन एक आम पाठक के लिहाज से सोचिए तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि एक तो खुद को सेफ जोन में रखना चाह रहा है और बाकियों के लिए पहचान की बात कर रहा है। अनामी कमेंट करनेवालों का मैं शुरु से विरोधी रहा हूं, सचमुच ज्यादातर लोग गालियों का प्रयोग करने के लिए अनामी हो जाते हैं। लेकिन इन अनामियों में कुछ ऐसे भी हैं जो नए-नए बलॉग की दुनिया में आते हैं,पांच-दस को मैंने खुद नाम के साथ कमेंट करना बताया है। लेकिन कोई गाली लिख रहा है तो लिखने दें,कौन कहता है कि आप अविनाश बन जाएं और उसे भी छाप दें। आप जब नाम औऱ पूरे प्रोफाइल वालों की टिप्पणी नहीं छापने का हौसला रखते हैं तो फिर इन अनामियों से पस्त क्यों जाते हैं। वक्त बर्बाद कर रहे हैं तो करने दें, व्यंग्यात्मक लहजे में बात करने की क्या जरुरत पड़ गयी। ब्लॉगिंग संपादन कला-कौशल औऱ पेंचों से मुक्त माध्यम है, इसमें संपादक की हैसियत से बात करने पर लोग भड़क जाते हैं। आप बेहतर जानते हैं कि जो भी आपके ब्लॉग पर आता है, एक लगाव के साथ आता है। इस नीयत से शायद ही कोई ब्लॉग पर घूमता है कि दो-चार पोस्ट पर गाली देकर मन हल्का किया जाय। मैं गाली लिखनेवालों की कोई तरफदारी नहीं कर रहा बल्कि उस सामंती सोच पर अफसोस जाहिक कर रहा हूं जो निर्देश देने की संस्कृति को मजबूत करते हैं। कुछ कमेंट करनेवालों और फुटपाथ जैसे ब्लॉगर ने लिखा कि- ये सब बस हिटिंग बढ़ाने के लिए किया गया प्रयास है। आप अपनी इस समझ को औऱ मजबूत कीजिए, फीक्स डिपोजिट करके औऱ बढ़ने दीजिए, हमें कोई आपत्ति नही है। लेकिन जिस तरह से मीडिया को कोसनेवालों का सिर्फ एक ही आधार है कि टीआरपी के लिए करते हैं, टीआरपी के लिए करते हैं, ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसे कोई भी चालू मुहावरे इस्तेमाल करने के बजाय पोस्ट के पीछे विमर्श को पनपने दें््। हिटिंग किसे नहीं चाहिए, कमेंट से लदे ब्लॉग किसे नहीं पसंद हैं, लेकिन इसका क्या मतलब है कि हर बात को, हर पोस्ट को हिटिंग के मुहावरे के तहत बात करके चलता कर दिया जाए। मैं गंभीर होने का दावा नहीं करता लेकिन आपकी गंभीरता जब छिटकने लगती है तो मुझे आपकी पूंजी लुटते हुए देखकर अफसोस होता। एक ने हम जैसे गंदे बच्चे के अच्छे बच्चे में कन्वर्ट होने की कामना की है। हमने कभी भी अच्छा कहलाने की मुराद से ब्लॉगिंग करना शुरु नहीं किया, ये कॉन्फेशन बॉक्स है,झूठ-सच, समझी-नासमझी,खेल-तेल जो है सब इसमें डालो,यहां नहीं तो फिर कहीं नहीं। सोते हुए जब बड़बड़ाकर फिर भी बोल देगें लेकिन सुन तो नहीं सकते न। हमें नहीं बनना गुड ब्ऑय। एक ने कहा-पहचान का मारा है, सबको गरियाता रहता है। उनकी समझ उनके पास, भविष्य में कभीं जजी का काम न करें, बस यही कामना है, और क्या कहूं। कुल मिलाकर जिसे संजय कुमार सिंह जिसे मेरी मंशा कह रहे हैं वो कुछ इस रुप में पूरी हुई है कि शुरुआती दौर से ब्लॉगिंग करनेवाले भी जिस खबरी अड्डा के संचालक को नहीं जान पा रहे थे, अब जान गए हैं,इस आश्चर्य के साथ खुश हैं कि कोई ब्लॉगिंग करते हुए संतई का काम कैसे कर सकता है। मैं भी खुश हूं कि अब वो हमारे सामने एक अच्छे ब्लॉग को अनामी न कहकर उसके संचालक का नाम ले रहे हैं। अब कोई कहे कि ब्लॉग अड्डा अनामी ब्लॉग है तो देखिए कैसे मुंह नोच लेते हैं।...समाप्त -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/db6e44a3/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Wed Feb 4 01:25:37 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 3 Feb 2009 13:55:37 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <4259666.1688331233690937836.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// माघ मेले की झलकी Posted: 03 Feb 2009 03:32 AM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/530638012/blog-post.html केवल सुना ही था माघ मेला के बारे में, अब‍की देखने का मौक़ा मिला. आज सुबह ही लौटा हूं इलाहाबाद से. हालांकि बहुत कुछ नहीं जानता मेला के बारे में, बस इतना जान पाया कि गंगा-यमुना के मिलानस्‍थल का बड़ा धार्मिक महत्त्व है. माघ में मकर संक्रान्ति से लेकर वसंतपंचमी तक दो-चार 'संगम-स्‍नान' बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है. समूचे माघ भर 'संगम-सेवन' (संगम-प्रवास) का संबंध भी पुण्‍य-कर्मों से जोड़कर बताया जाता है. 'कल्‍पवास' के तौर पर जाने जाने वाले इस प्रवास के लिए हज़ारों की तादाद में लोग देश के विभिन्‍न हिस्‍सों से वहां पहुंचते हैं. अपने इलाहाबादी मित्र अंशु और उत्‍पला के कारण हमें भी ढलते मघ-मेला का सहभागी होने का मौक़ा मिला. 29 जनवरी को हम सपरिवार मेला पहुंचे. आगे बढ़ने से पहले ये बता देना अच्‍छा रहेगा कि मेला का अनुभव इतना व्‍यापक और सघन है कि एक-या दो पोस्‍ट में साझा करना मुश्किल होगा. कम-से-कम तीन किस्तें तो लिखनी ही पड़ेंगी. प्रस्तुत पोस्‍ट भूमिका भर बन जाए तो भला जानें. मेला-स्‍थल केवल गंगा-यमुना (संगम में चप्‍पू चलाने वाले केवट और गंगा यमुना सरस्‍वती फिल्‍म के हिसाब से सरस्‍वती का संगम ही नहीं है, यह अपने दमदार लोकतांत्रिक समाज और साझी विरात की एक जबरदस्‍त मिसाल भी है. माथे पर अपने वज़न के बराबर बोझा लादे चलते चले जाने वाले हों या लग्‍ज़री कार वाले: जब गंगा नहाने की बात होती है तो घाट एक ही होता है. एक ही पंडा एक ही पुजारी नाई और केवट भी एक ही. लाखों की भीड़, और एक भी लफ़ड़ा-रगड़ा नहीं. सीखने के लिए काफ़ी कुछ था मेले में. पर कुछ चीज़ें ऐसी भी दिखीं, मन खिन्‍न हो गया. धर्मान्‍धता और धरम की आड़ में फलने वाले व्‍यवसाय भी दिखे. कोशिश रहेगी तीन-चार दिनों के दौरान देखे-भोगे को आपसे जल्‍दी ही साझा करूं. तब तक कुछ प्रतिनिधि तस्‍वीरें. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090203/3c61b650/attachment.html From chandrika.media at gmail.com Wed Feb 4 12:49:08 2009 From: chandrika.media at gmail.com (chandrika media) Date: Wed, 4 Feb 2009 12:49:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dakhal hindi patrika ank 14, 15 from mahatma gandhi antarrashtriya hindi vishvavidyalay Message-ID: -- chandrika mahatma gandhi antarrashtriya hindi vishvavidyalay ramayan hostal vaid lay out civil line wardha , maharashtra. ph. 9890987458 www.dakhalkiduniya.blogspot.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: dakhal 15.....pdf Type: application/pdf Size: 152634 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090204/1d3f3ceb/attachment-0001.pdf -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: dakhal 14.doc Type: application/msword Size: 115200 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090204/1d3f3ceb/attachment-0001.doc From ravikant at sarai.net Wed Feb 4 17:23:19 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 4 Feb 2009 17:23:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] Panini keypad Message-ID: <200902041723.19458.ravikant@sarai.net> zara istemaal karke dekhein. main bhi mobile par lagata hun. shukriya ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Reader-list] Panini keypad Date: बुधवार 04 फरवरी 2009 16:57 From: V Ramaswamy To: "reader-list at sarai.net" Panini Keypad - the multilingual Indian keypad for all the languages of India. See: http://paninikeypad.com/ You can compose in 11 languages of India. You can automatically transliterate between any of the languages. Say write in Bengali and send in Malayalam. Receive in Gujarati and read in Punjabi and so on. Also it offers 350% compression. Normally an SMS can carry only 70 characters of regional language (unicode double bytes in a 140 byte total payload of SMS). This application uses proprietary SMS compression to increase that payload of a single SMS to around 240 characters. "This is possibly the worlds first on phone SMS compression application." No one has ever heard of such a thing or speculated about its possibility. _________________________________________ reader-list: an open discussion list on media and the city. Critiques & Collaborations To subscribe: send an email to reader-list-request at sarai.net with subscribe in the subject header. To unsubscribe: https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/reader-list List archive: <https://mail.sarai.net/pipermail/reader-list/> ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Thu Feb 5 12:46:41 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 5 Feb 2009 12:46:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS84KS+4KSV?= =?utf-8?b?IOCksOCkvuCkgeCkuOCkv+Ckj+CksCDgpLjgpLDgpL7gpK8t4KS44KWA4KSP?= =?utf-8?b?4KS44KSh4KWA4KSP4KS4IOCkruClh+CkgjogNiDgpKTgpL7gpLDgpYDgpJY=?= =?utf-8?b?4KS8ICwgNiDgpKzgpJzgpYcg4KS24KS+4KSu?= Message-ID: <200902051246.42672.ravikant@sarai.net> दोस्तो आप सभी फ़्रांस के चोटी के दार्शनिक ज़ाक राँसिएर की मशहूर किताब के हिन्दी अनुवाद *सर्वहारा रातें: उन्नीसवीं सदी के फ़ांस में मज़दूर स्वप्न* के लोकार्पण पर सादर निमंत्रित हैं. अभय कुमार दुबे द्वारा अनूदित और वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सराय अनुवाद शृंखला की पहली पेशकश इस किताब के लिए राँसिएर साहब ने ख़ास भूमिका भी लिखी है, जो फ़िलहाल यहाँ राना दासगुप्ता की अंग्रेज़ी में उपलब्ध है: http://hydrarchy.blogspot.com/2009/01/ranciere-2-new-preface-to-hindi.html इस मौक़े पर आप उनका एक सार्वजनिक भाषण भी सुन पाएँगे. कार्यक्रम: जगह व समय : सराय-सीएसडीएस वक़्त: 6 बजे शाम, 6 फ़रवरी, 2009. फिर 7 तारीख़ को 10-1.00 उनके साथ एक कार्यशाला भी तय है, जिसका संचालन प्रो. नीलाद्रि भट्टाचार्य करेंगे. राँसिएर के व्यक्तित्व व कृतित्व के बारे में और जानकारी के लिए आप विकिपीडिया पर जाकर अन्य कड़ियों को देखते हुए हासिल कर सकते हैँ: http://en.wikipedia.org/wiki/Jacques_Rancière आप सबका स्वागत है. शुक्रिया रविकान्त From girindranath at gmail.com Thu Feb 5 19:55:12 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Thu, 5 Feb 2009 19:55:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KWb?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkqOCkvuCkruCkviAtIOCkruClgeCkneCkleCliyDgpK0=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpOCksOCkleClgOCkrCDgpLjgpL/gpJbgpL4g4KSm4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSwIOCknOClgeCksuCkvuCkueClhy4u?= Message-ID: <63309c960902050625p7e0cee55mb70a3c06597959fa@mail.gmail.com> *गुलज़ार* के गीतों और उनके तमाम कृतियों से यदि आपको हमारी तरह मोहब्बत है.तो इस ब्लॉग पर आयें, नाम है *गुलजार नामा. * शायद आपको पता भी होगा, लेकिन मेरी नज़र ब्लॉगवाणी के जरिये इस पर आज ही गयी. इसमें गुलजार साहब के गीत पढ़े जा सकते हैं, सुने जा सकते हैं। गुलजार पर टिप्पणियाँ हैं। नज्में हैं और उनकी ईजाद की गई त्रिवेणियाँ भी हैं। इसमें उनके फिल्मी गीतों और नज्मों के साथ ही गैर फिल्मी नज्मों को पढ़ने का मजा लिया जा सकता है। रवींद्र व्यास ने वेबदुनिया पर इसके बारे लिखा है. वैसे direct ब्लॉग पर पहुँचने का पता है -*गुलजार नामा. * ** ब्लॉग पर गुलजार की किताबों पर बातें हैं और किताबों पर लिखी एक बहुत ही मार्मिक नज्म भी है जिसका शीर्षक है- *किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से।* आप भी आनंद लें गुलज़ार को *किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है* *कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे* *कभी गोदी में लेते थे* *कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर* *नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से* *वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी* *मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल* *और महके हुए रुक्के* *किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे* *उनका क्या होगा* *वो शायद अब नही होंगे !!* ** गिरीन्द्र** ** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090205/e36a6207/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Feb 6 09:11:45 2009 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 6 Feb 2009 09:11:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJrgpYs=?= =?utf-8?b?4KSW4KWH4KSw4KSs4KS+4KSy4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoA==?= =?utf-8?b?4KWALSDgpIbgpK7gpILgpKTgpY3gpLDgpKMgKOCkqOCkjyDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KWN4KS2IOCkruCkvuCkp+CljeCkr+CkriDgpJTgpLAg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkquCljeCksOCktuCljeCkqCAp?= In-Reply-To: <749797f90902051934t320377b9i7e88cb3f69c059ab@mail.gmail.com> References: <749797f90902051934t320377b9i7e88cb3f69c059ab@mail.gmail.com> Message-ID: <749797f90902051941n4af2d7c4k57147e1cd12ed4f7@mail.gmail.com> मित्रो स्त्री प्रश्नों पर केन्द्रित सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली की प्रथम वर्षगाँठ के अवसर पर आयोजन 6 फरवरी को किया जाना है - *विषय - नए विमर्श माध्यम और स्त्री प्रश्न दिन - शुक्रवार , 6 फरवरी 2009 स्थान - आर्टस फैकल्टी, एक्टीविटी सेंटर , दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली।* आपसे अनुरोध है कि यथासमय पहुँच कर आयोजन की सफलता को सम्भव बनाएँ । यह कार्यक्रम हम सभी का कार्यक्रम है सो अधिक से अधिक प्रतिभागिता हो तो बेहतर । अपने आने का कनफर्मेशन मेल करके या फोन करके अवश्य बता दें ताकि व्यवस्था मे आसनी हो। सादर , (डा.) नीलिमा चौहान -- चोखेरबाली chokherbali.in - -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090206/077f550b/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Fri Feb 6 09:16:32 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Fri, 6 Feb 2009 09:16:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJrgpYs=?= =?utf-8?b?4KSW4KWH4KSw4KSs4KS+4KSy4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoA==?= =?utf-8?b?4KWALSDgpIbgpK7gpILgpKTgpY3gpLDgpKMgKOCkqOCkjyDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KWN4KS2IOCkruCkvuCkp+CljeCkr+CkriDgpJTgpLAg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWN4KSw4KWAIOCkquCljeCksOCktuCljeCkqCAp?= In-Reply-To: <749797f90902051941n4af2d7c4k57147e1cd12ed4f7@mail.gmail.com> References: <749797f90902051934t320377b9i7e88cb3f69c059ab@mail.gmail.com> <749797f90902051941n4af2d7c4k57147e1cd12ed4f7@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540902051946q5b69a974y2fe6e5359bc5f39e@mail.gmail.com> दोस्‍तो, इच्‍छुक लोग इस कार्यक्रम की विस्‍तृत सूचना इस लिंक से प्राप्‍त कर सकते हैं- http://blog.chokherbali.in/2009/02/blog-post_4906.html शुक्रिया 2009/2/6 Neelima Chauhan > मित्रो > > > स्त्री प्रश्नों पर केन्द्रित सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली की प्रथम वर्षगाँठ > के अवसर पर आयोजन 6 फरवरी को किया जाना है - > > > *विषय - नए विमर्श माध्यम और स्त्री प्रश्न > दिन - शुक्रवार , 6 फरवरी 2009 > स्थान - आर्टस फैकल्टी, एक्टीविटी सेंटर , दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली।* > > > आपसे अनुरोध है कि यथासमय पहुँच कर आयोजन की सफलता को सम्भव बनाएँ । यह > कार्यक्रम हम सभी का कार्यक्रम है सो अधिक से अधिक प्रतिभागिता हो तो बेहतर । > अपने आने का कनफर्मेशन मेल करके या फोन करके अवश्य बता दें ताकि व्यवस्था मे > आसनी हो। > सादर , > > > (डा.) नीलिमा चौहान > > -- > चोखेरबाली > chokherbali.in > > - > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090206/ccdacefb/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Feb 6 11:17:17 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 6 Feb 2009 11:17:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSW4KS/?= =?utf-8?b?4KSP4KSX4KS+LCDgpIbgpJwg4KS44KSsIOCkq+Ckv+CksCDgpJfgpLA=?= =?utf-8?b?4KS/4KSG4KSP4KSX4KS+IOCksOCkvuCknOClh+CkqOCljeCkpuCljQ==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkr+CkvuCkpuCktSDgpJXgpYs=?= Message-ID: <829019b0902052147s1015c11fq6d9ba8d6b194a300@mail.gmail.com> उस दिन राजेन्द्र यादव ने जोर से ठहाके मारते हुए कहा- ये लीजिए, कॉलेज में आते ही इन्होंने मुझे डॉक्टरेट की डिग्री भी दे दी औऱ डॉक्टर भी बना दिया। अरे भईया, मैं डॉक्टर-वॉक्टर नहीं हूं। कहां हूं मैं डॉक्टर, बताओ। मैं आज से पांच साल पहले हिन्दू कॉलेज के सेमिनार रुम में राजेन्द्र यादव का परिचय दे रहा था और इसी क्रम में मैंने डॉक्टर राजेन्द्र यादव बोल दिया। हिन्दी पढ़ने और पढ़ानेवालों से खचाखच भरा था ये सेमिनार रुम। थोड़ी देर के लिए लोगों को समझ ही नहीं आया कि परिचय देने के क्रम में ऐसा क्या हो गया कि यादवजी पीएचडी और डॉक्टरेट की बात लेकर बैठ गए। बाद में मैंने माफी मांगते हुए कहा-सर मुझे पता नहीं था, गलती से आपको डॉ. बोल गया। बाद में जब टीचर ने कहा- तुमने मंच संचालन तो बहुत अच्छा किया विनीत लेकिन इतना तो पता रखना चाहिए न कि कौन-सा साहित्यकार क्या किया है। कभी साहित्य के परिवेश में रहा नहीं। कॉलेज में रहते भी स्कूल की तरह का अनुशासन। उन्हीं सब साहित्यकारों को पढ़ा जो कि सिलेबस में मौजूद रहे। एम ए में आने पर एक रणनीति के तहत छुट्टियों में उपन्यास पढ़ना शुरु किया। इसी क्रम में राजेन्द्र यादव को भी पढ़ा। अब कभी परीक्षा के लिहाज से पढ़ा नहीं था, सो बाकी चीजें जान न सका। लेकिन हां, ये जानकारी की कमी तो थी। फिर मेरे लिए ये मान लेना कि जो आदमी हिन्दी में एम ए किया है वो पीएचडी भी किया होगा, बिना इसके कोई भविष्य नहीं। औऱ राजेन्द्र यादवजी इतने बड़े साहित्यकार। लेकिन बाद में इस बात से जब यादवजी ने असहमति जतायी, तब मुझे एहसास हुआ कि जो आदमी जिंदगी भर विश्वविद्य़ालय की राजनीति से दूर रहा,उसकी पूरी प्रक्रिया से अपने को दूर रखा,चाहते तो वो सब कुछ कर सकते थे, पा सकते थे, जिसके लिए औसत दर्जे के हिन्दी प्राणी के कंधे की चमड़ी छिल जाती है,यादवजी के लिए डॉ शब्द सचमुच अपमानजनक है। ये तो उन्हें चोट पहुंचानेवाली बात है। मैं मन ही मन सोचने लगा-कितना बुरा लगा होगा,उन्हें। बाद में सारा आकाश औऱ दूसरी रचनाओं की कुछ पंक्तियां पढ़कर भरपाई करने की कोशिश की। कार्यक्रम खत्म होने के बाद सब लोग लॉन पहुचे। सब उनसे कुछ न कुछ लिखवाना चाहते थे। हम जैसे लोगों को पहले से पता था कि आज राजेन्द्र यादव आ रहे हैं तो उनकी रचना ले पहुंचे थे। मेरे पास मुड़-मुड़के देखता हूं की नयी प्रति थी। मैंने कहा-कुछ लिख दीजिए सर, यादवजी सिर्फ साइन कर रहे थे। वही साइन जो हंस के संपादकीय में किया करते हैं, अलग से एक शब्द भी नहीं। इसके पहले भी मैंने कई नामचीन साहित्यकारों से उनकी रचनाओं पर साइन लिए हैं, वो हमारा नाम पूछते और फिर लिख देते- प्रिय विनीत को सप्रेम भेंट। बाद में दोस्तों के बीच अकड़ दिखाने के लिए कहता- फलां साहित्यकार ने हमें भेट की है ये किताब, कहा है पढ़कर बताना। उस समय हम ये भूल जाते कि पहली बार ससुराल से मायके आयी सुलेखा दीदी से कहा था- कुछ नहीं तुम इस लिस्ट में से कोई भी पांच किताब दिला दो. हम भूल जाते कि रांची के गुदड़ी बाजार से तवरेज भाई से हुज्जत करके इसे कैसे खरीदा है। हम भूल जाते कि दरियागंज में इस किताब को लेकर जेएनयूवाले दोस्तों से कैसे मार कर लिए थे। कुछ लोगों को पता नहीं था कि आज यादवजी आ रहे हैं, बाद में पता चलने पर वो सीधे संदेश रासक की क्लास करके यहां पहुंचे थे। साइन लेने के लिए उनके पास या तो संदेश रासक थी या फिर नोटबुक। लड़कियों ने उसी पर यादवजी से साइन लेने शुरु कर दिए। इसी बीच एक लड़का आपका बंटी ले आया और कहा- सर, इस पर कुछ लिख दीजिए। यादवजी ने कहा- ये तो मेरी रचना नहीं है, इस पर कैसे कुछ लिख दूं। वो जिद करने लगा, और नहीं करने पर अंत में कहा- आपका मन्नू भंडारी से लड़ाय हो गया है इसलिए नहीं लिख रहे हैं। यादवजी मुस्कराए,केएमसी के लोगों ने कहा- हिन्दू कॉलेज में भी चिरकुट लोगों की कमी नहीं है। कल शाम जब मैंने राकेश सर के कहने पर बाकी लोगों को भी आज के राजेन्द्र यादवजी के कार्यक्रम में आने कहा तो एक बंदे का जबाब था- देखिएगा, कल फिर सब गरिआएगा यादवजी। हमको तो यही समझ में नहीं आता है कि यादवजी को गाली का असर काहे नहीं होता है। हम तो रहते तो कहीं नहीं जाते. लबादा ओढ़कर बोलनेवाले लोगों के बीच जिसके मन के भीतर कुछ कुलबुला रहा है और जुबान से महाशय, श्रीमान और बेटा का संबोधन किए जा रहा है, वहां यादवजी का खर्रा-खर्रा बोल देना तो खटकेगा ही न भाय। मैं बस इतना कह पाया कि, कोई तुमको क्यों गाली दे,गाली पाने के लिए उस लायक बनना होता है। पांच साल पहले राजेन्द्र यादव की साइन की हुई रचना- मुड़-मुड़के देखता हूं। कुछ पंक्तियां हरे रंग से रंगी है। उसे एक नजर में पढ़ना चाह रहा हूं। यादवजी की एक लाइन जिसे पढ़कर लगता है कि किसी भी बात में फंसने के पहले ही उन्होंने अग्रिम जमानत ले रखी है- कोई जरुरी नहीं है कि मंच पर जो कहें,वही करें भी....कलाकार औऱ व्यक्ति आपस में विरोधी भी हो सकते हैं....इलियट ने कहा ही है कि लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है-शायद विरोध का भी।( मुड़-मुड़के देखता हूं-पेज नं 39) या फिर जीवन का हर पल सलाखों के पीछे चले जाने के आभास से एक विदाई- मुझे हमेशा लगता है कि मेरा हर सम्पर्क,हर पल एक नई विदाई है....मेरी हर रचना एक ऐसी बच्ची है, जो टा-टा कहकर स्कूल बस में जा चढ़ती है,और जब आती है तो'वह' नहीं रह जाती....मिलना शायद गति है, औऱ विदाई नियति। यादवजी को पता है कि नियति पर किसका-कितना भरोसा है, लेकिन गति तो अपने हाथ की चीज है, संभवतः इसलिए बार-बार इसे साबित करने की एक होड़ इनके भीतर बनी रहती है। ( सफ़र द्वारा आयोजित कार्यक्रम आमने-सामने की श्रृखंला में आज पाठकों के आमने-सामने होगें, राजेन्द्र यादव।) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090206/538f4cde/attachment-0001.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Feb 6 09:04:49 2009 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 6 Feb 2009 09:04:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWL4KSW4KWH?= =?utf-8?b?4KSw4KSs4KS+4KSy4KWAIOCkl+Cli+Ckt+CljeKAjeCkoOClgC0g4KSG?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSk4KWN4KSw4KSjICjgpKjgpI8g4KS14KS/4KSu4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KS2IOCkruCkvuCkp+CljeCkr+CkriDgpJTgpLAg4KS44KWN4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkquCljeCksOCktuCljeCkqCAp?= Message-ID: <749797f90902051934t320377b9i7e88cb3f69c059ab@mail.gmail.com> मित्रो स्त्री प्रश्नों पर केन्द्रित सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली की प्रथम वर्षगाँठ के अवसर पर आयोजन 6 फरवरी को किया जाना है - *विषय - नए विमर्श माध्यम और स्त्री प्रश्न दिन - शुक्रवार , 6 फरवरी 2009 स्थान - आर्टस फैकल्टी, एक्टीविटी सेंटर , दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली।* आपसे अनुरोध है कि यथासमय पहुँच कर आयोजन की सफलता को सम्भव बनाएँ । यह कार्यक्रम हम सभी का कार्यक्रम है सो अधिक से अधिक प्रतिभागिता हो तो बेहतर । अपने आने का कनफर्मेशन मेल करके या फोन करके अवश्य बता दें ताकि व्यवस्था मे आसनी हो। सादर , (डा.) नीलिमा चौहान निमंत्रण पत्र इस मेल के साथ संलग्न है । -- चोखेरबाली chokherbali.in -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090206/14bca2fc/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: chokherbali Invitation.jpg Type: image/jpeg Size: 280416 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090206/14bca2fc/attachment-0001.jpg From vineetdu at gmail.com Sat Feb 7 00:16:13 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 7 Feb 2009 00:16:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KSo4KWAIOCkuOCljeCkpOCljeCksOCkv+Ckr+Cli+CkgiA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkuOClgeCkqOCkviDgpJTgpLAg4KSy4KSX4KSt4KSXIA==?= =?utf-8?b?4KSa4KWB4KSqIOCkueClgCDgpLDgpLngpL4=?= Message-ID: <829019b0902061046q4d27e3b7s263e339080de3b64@mail.gmail.com> अभी-अभी तस्लीमा नसरीन से मिलकर आ रहा हूं, उसकी बातों में हां में हां मिलाकर आ रहा हूं, इससे तीन घंटे पहले राजेन्द्र यादव से लघु कथा सुनकर आ रहा हूं। उन पर अर्चना वर्मा की टिप्पणी सुनकर आ रहा हूं। उससे भी तीन घंटे पहले चोखेरबाली की वर्षगांठ के मौके पर अनामिका को सुनकर आ रहा हूं। चोखेरबाली के बनाए जाने के पीछे आर.अनुराधा के तर्कों को सुनकर आ रहा हूं। नीलिमा चौहान से ब्लॉग पर पितृसत्ता के कब्जे की बात सुनकर आ रहा हूं। मधु किश्कर की झन्नाटेदार भाषा में स्त्री-विमर्थ के तर्कों को सुनकर आ रहा हूं। ब्लॉग का पक्ष लेते हुए सुकृता पाल कुमार को सुनकर आ रहा हूं। पिछले आठ-दस घंटों में आठ स्त्रियों को सुनकर आ रहा हूं। कई बातों से असहमति है, नए सिरे से बहस करना चाहता हूं, इन सब पर लेकिन बहुत थका हूं, कुछ सोचना नहीं चाहता अभी। सोना चाहता हूं फिलहाल। लेकिन इन सारी की बातें दिमाग में चक्कर काट रही है, सोने में परेशानी पैदा कर रही है। बातचीत में तसलीमी नसरीन ने कहा कि मैं होमलेस हूं,मेरा कहीं कोई घर नहीं है। राकेश सर से पूछा-आप दिल्ली में रहते हो( अंग्रेजी में पूछा), राकेश सर ने कहा-हां। फिर सवाल किया- आप दिल्ली में रहना चाहती हैं। तसलीमा का जबाब था- रहना तो चाहती हूं लेकिन रह नहीं सकती। मैं बस यही सोच रहा हूं, कोई लिखकर सरकार और देश की किरकिरी नहीं पत्थर बन जाता है कि उसका अपना कोई घर ही नहीं रह जाता। 2, अनामिका की बात याद आती है- आज स्त्रियां जो बिना दीवारों के घर बनाने का सपना देख रही है, वो स्त्री-भाषा से ही संभव है, एक ऐसी भाषा जो कॉन्टेक्ट्सलेस होकर भी एक-दूसरे से जोड़ती है। मर्द ने अभी वो भाषा सीखी ही नहीं है। 3, तो फिर मधु किश्कर की बात याद आ रही है- स्त्री-विमर्श को जनाना डब्बा नहीं बनने देना चाहिए, इससे स्त्री खुद को ही मार्जिनलाइज करेगी। स्त्री की कोई भी समस्या पुरुष से बाहर की नहीं है, इसलिए उसे साथ लेना अनिवार्य है। 4,नीलिमा ने तो जो बात कही, उस पर भोर में उठकर फिर से विचार करुंगा, कि क्या सचमुच बाकी स्पेस की तरह ही ब्लॉग पर भी पितृसत्ता का वर्चस्व है। 5, आर.अनुराधा का चोखेरबाली के उपर दिया गया पावर प्वाइंट प्रजेन्टेशन याद आ रहा है जहां स्त्री-पुरुष के हिसाब से ब्लू ब्लॉगिंग और पिंक ब्लॉगिंग का विभाजन बताया। 6, सुकृता पाल कुमार की बात पर सोच रहा हूं कि क्या ब्लॉगिंग ने सचमुच एक डिमोक्रेटिक स्पेस तैयार किया है, स्त्रियों के लिए एक ज्यादा मजबूत माध्यम उभरकर सामने आया है। 7, अर्चना वर्मा राजेनद्र यादव की कहानी लक्ष्मण-रेखा का संदर्भ देते हुए कह रही हैं- अब कोई सीता से ये कहलवा दे कि मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करुंगी,साधु कि तुमने मुझे इस सुख से इतने दिनों तक वंचित क्यों रखा तो गाली तो पड़ेगी ही। एक ही दिन में तीन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मसलों पर इन स्त्रियों की बात। सब जगह पुरुष या तो चुप है या फिर बस संदर्भ पैदा करने भर के लिए है। स्त्रियां ही बोले जा रही है एक-दूसरे की बात को काटते हुए। स्त्री-विमर्श करते हुए भी पुरुषों के प्रति सॉफ्ट होते हुए. पुरुष चुप है, इतनी देर चुप कैसे रह सकता है पुरुष भला। बाकी सवालों के साथ-साथ इस सवाल पर भी नए सिरे से विचार करना चाहता हूं। लेकिन फिलहाल नींद बहुत आ रही है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090207/53e6e505/attachment.html From pramodrnjn at gmail.com Sat Feb 7 17:50:41 2009 From: pramodrnjn at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Sat, 7 Feb 2009 17:50:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W+CkquCljeCksA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqF0g4KSw4KS+4KS54KWB4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KScIOCklOCksCDgpKzgpL/gpLngpL7gpLDgpYAg4KSF4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KS/4KSk4KS+IOCkleCkviDgpLLgpYHgpK3gpL7gpLXgpKg=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOCkvuCksOCkvg==?= In-Reply-To: <1233838592181.1b7f269b-094a-498a-a1b1-2935a2c7f50e@google.com> References: <1233838592181.1b7f269b-094a-498a-a1b1-2935a2c7f50e@google.com> Message-ID: <9c56c5340902070420p1ec2a4ffmeb623bcfc510e057@mail.gmail.com> राहुल राज और बिहारी अस्मिता का लुभावना नारा http://sanshyatma.blogspot.com/ *-प्रमोद रंजन* हर सनसनीखेज खबर की ही तरह इस खबर को याद रखे जाने की अवधि भी अंततः बहुत छोटी रही. अन्यथा महज तीन माह पहले महाराष्‍ट्र में बिहारियों की पिटाई की घटना के बाद जिस तरह राजनीति गरमायी थी, उससे शायद कुछ लोगों को ऐसा लगा था कि यह मामला लंबा चलेगा. कुछ यहां तक कह रहे थे कि यह घटना देश की राजनीति की दिशा ही बदल देगी. लेकिन न कुछ ऐसा होना था, न हुआ. अलबत्ता इस बार भी मीडियाई हुड़दंग ने इस मुद्दे से जुडे जेनुइन सवालों को सयास पीछे धकेल दिया. अब जब यह मामला शांत हो गया है, बिहार समेत अन्य बीमारू हिंदी प्रदेशों की मौजूद राजनीति व वास्तविक समस्याओं को उन जरूरी सवालों की ओर लौट कर समझा जा सकता है. अगर मुंबई की सड़क पर सरेआम पिस्तौल लहरा रहा युवक -'राहुल राज' की जगह कोई 'अनवर हुसैन' होता तो क्या स्थितियां बनतीं? यह एक ऐसा ही सवाल है, जिसका उत्तर सब जानते हैं. सो, राहुल राज इनकाउंटर की आवश्‍कता, नैतिकता पर बात करने से बेहतर है कि इस प्रकरण के कुछ दूसरे पहलुओं पर बात की जाए.मुंबई में बस अगवा करते राहुल राज की हत्या (२७ अक्टूबर) ने महाराष्‍ट्र मसले पर बिहार में चल रहे घटनाक्रम को नया मोड़ दे दिया था. इस घटना से पहले बिहार में जगह-जगह ट्रेनें जला रहे, तोड़फोड़, पथराव कर रहे छात्र राज ठाकरे से अधिक अपने नेताओं लालू-नीतीश के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर रहे थे. नारे लगा रहे थे. उनमें यह भाव था कि पलायन की विवशता के लिए जिम्मेवार अपने ही नेता हैं. राहुल राज के इनकाउंटर के बाद ही बिहार के राजनेताओं ने राहत की सांस ली. लालू, नीतीश व रामविलाजी ने उसे शहीद, शेरे बिहार, बिहार का सपूत और न जाने क्या-क्या कहा. इससे एक रोज पहले तक नीतीश महाराष्‍ट्र में बिहारी युवकों की पिटाई के बाद बिहार में घट रही तोड़फोड़ की घटनाओं से बेहद चिंतित थे. उन्होंने संचार माध्यमों को कहा था कि न कुछ ऐसा छापा जाए, न दिखाया जाए, जिससे बिहार की भावना भड़के. लेकिन इस युवक के मारे जाने के बाद परिदश्‍य बदल गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, रेलमंत्री लालू प्रसाद व रसायन मंत्री रामविलास पासवान अपने-अपने तरीके से राहुल राज के एनकाउंटर को को तूल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वास्तव में राहुल की हत्या ने ही बिहारी आक्रोश की धारा पूरी तरह राज ठाकरे और महाराष्‍ट्र सरकार की ओर मोड़ दी है. बिहार के राजनेताओं का अभिष्‍ट भी यही था. राजनताओं में राहुल की अंतयेष्टि में शामिल होने, उसके घर जाकर सांत्वना देने की होड़ लग गयी. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सुशील कुमार मोदी (उपमुख्यमंत्री), दीपंकार भट्टाचार्य (माले महासचिव), अनिल शर्मा (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष), समेत कई बडे-छोटे नेता उसके घर पहुंचे. बाहुबली सांसद सूरजभान सिंह, राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (प्रदेष अध्यक्ष, जदयू) गिरिराज सिंह (सहाकारिता राज्य मंत्री, बिहार), अखिलेश सिंह (केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री) समेत एक खास जाति के कई राजनेताओं ने राहुल के घर जाकर 'न्याय' दिलाने का वादा किया. परीक्षा केंद्र बदलने में रूचि न लेने वाले लालू प्रसाद ने राहुल राज की हत्या के बाद टीवी कैमरे के सामने बेतरह गुस्सा दिखाते हुए कहा कि महाराष्‍ट्र सरकार पगला गयी है. उन्होंने बताया कि राहुल एक 'संभ्रात' परिवार का लड़का था. हमेशा जाति के संदर्भ के साथ बात करने वाले लालू प्रसाद के इस संकेत का अर्थ बिहार के लोग समझते हैं. राहुल का जन्म एक उंची जाति के (भुमिहार) परिवार में हुआ था. लालू कहना चाह रहे थे कि उसे 'गरीब-गुरबा' न समझा जाए. संभ्रांत परिवार का था. लालू प्रसाद द्वारा किये गये इस संकेत के साथ ही मुंबई पुलिस की गोली से मारा गया राहुल राज एक साथ कई प्रतीकों का वाहक बनता है. ये प्रतीक हैं बिहार की कुंठा के. यहां की द्विज जातियों की प्रतिक्रिया के. बिहार में भीतर-भीतर पनप रही अलगाववादी मनोवृतियों के.राहुल की पारिवारिक पृष्‍ठभूमि जाने बिना आगे बढ़ने पर हम इन प्रतीकों को नहीं समझ पाएंगे. राहुल ने रेडियोलॉजी में डिप्लोमा किया था और २४ अक्टूबर को घर से मुंबई जाते हुए यह कह गया था कि वह नौकरी तलाशने जा रहा है. २५ या २६ अक्टूबर को वह मुंबई पहुंचा और दूसरे दिन ही यह कांड सामने आया. वह पटना के कदमकुआं मुहल्ले के एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का था. उसके पिता ने दो शादियां की हैं. दूसरी शादी राहुल की मां की छोटी बहन से है. टीवी पर राहुल के दोस्त यह कहते दिखे कि राहुल के पिता उसे असहनीय शारीरिक व मानसिक यातनाएं दिया करते थे. २४-२५ वर्षीय युवक राहुल की लोहे के रॉड से पिटाई की जाती थी. बात-बेबात अपमानित किया जाता था. बेरोजगारी और पिता की क्रूरता की दोहरी मार से बचने के लिए उसने आत्मघात का रास्ता चुना. खामोशी के हथियार से अपनी जलालत भरी जिंदगी का प्रतिरोध करने वाला यह युवक महाराष्‍ट्र की घटनाओं से व्यथित रहा होगा. राहुल की कुंठा का यह अंतिम चरण-आत्मघाती प्रवृति-कामोवेश बिहार की कुंठा को भी प्रतिबिंबित करती है. हिंदी समाचार पत्रों में बिहार व उत्तर प्रदेश्‍ा के द्विज पत्रकार भरे हैं. बिहार के राजनेताओं के साथ-साथ राहुल की कार्रवाई को महिमामंडित करने में इन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. स्थानीय टीवी चैनलों ने तो कोढ़ में खाज की ही भूमिका निभाई. इस सब के बावजूद, राहुल द्वारा किया गया काम, गरीबी और जहालत की मार झेल रहे विकास की दौड़ में पीछे छूट गये इस बीमारू राज्य से निकला, एक ऐसा संकेत तो है ही, जो बताता है कि पानी अब नाक के उपर से गुजरने वाला है. तो क्या अब तक हालत ठीक थे? बिहार से पलायन का सिलसिला तो वर्षों से जारी है. १९७५ के आसपास इसमें तेजी आयी. पंजाब-हरियाणा में बिहारी मजदूरों की चाय में अफीम मिलाकर उनसे बंधुआ की तरह काम लिया जाता रहा है. महानगरों में उनका जीवन सामाजिक तथा भौतिक रूप से नारकीय है. मारपीट तो छोटी बात है. कितने बिहारी मजदूर परदेश में काम के दौरान मर गये, इसका आंकड़ा न वहां की सरकारें रखती हैं न ही बिहार सरकार ने इससे कभी मतलब रखा है. सिर्फ पंजाब-हरियाणा जाने वाले सैकड़ों मजदूर हर साल ट्रेनों से कट कर मर जाते हैं. इनमें से अधिकांश की तो पहचान तक नहीं हो पाती है. (देखें, पत्रकार अरविंद मोहन का शोघ 'प्रवासी मजदूरों की पीड़ा', राधाकृष्‍ण प्रकाशन). बिहार से पलायन के दो मुख्य कारण हैं. कृषि की बदहाली व शहरीकरण की बेहद सुस्त प्रक्रिया. इन दोनों के पीछे प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से भूमि संबंध ही हैं, जिन्हें बदलने की हर कोशिश यहां के सामंतों ने नाकाम कर दी. नतीजा यह हुआ कि कृषि उत्पादन घटता गया, अंत में तो सिर्फ सामंती हेंठी ही शेष रह गयी; आर्थिक ठाठ लगभग जाता रहा. क्रांतिकारी आंदोलनों के प्रभाव में आयी निचली जातियों के युवकों में जागरूकता आयी कि स्थानीय सामंतों का बंधुआ होने से बेहतर है पूंजी की बड़ी मंडियों में अपना श्रम बेचना. इन सबने बिहार में पलायन के लिए एक आदर्श वातावरण तैयार किया. लालू प्रसाद के नेतृत्व में १५ वर्च्चों तक चली सरकार ने बची-खुची संस्थाओं को भी ध्वस्त कर, इसे और तेज कर दिया. राजद शासन काल में दलितों-पिछड़ों का पलायन तो बढा ही; 'संभ्रांत' जातियों के युवकों का भी बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ, जो उत्तरोत्तर तेज होता गया है.बिहार के गांवों में इन जातियों के पास भले ही पैसा न था, सामाजिक सम्मान तो था ही. परदेश में 'बिहारी', 'भैया' आदि संबोधन अब तक पिछड़े तबके से आने वाले मजदूरों की पहचान था. श्रम की मंडियों में संभ्रांत तबकों के लोग पहुंचे तो उनपर भी यही अपमानजनक संबोधन, व्यवहार लागू हुआ. जब तक बिहारी समाज का पिछड़ा तबका पलायन की पीड़ा झेलता रहा. परदेष में अफीम पीकर काम करता रहा. पिटता रहा. भैया एक्सप्रेसों से गिर कर मरता रहा. बात-बे-बात पर मारा जाता रहा, तब तक न बिहार के 'संभ्रांत' लोगों को कोई फिक्र हुई, न पत्रकारों को. अब जब अपनों पर बीत रही है तो छाती फटी जा रही है! यह महाराष्‍ट्र-असम में हिंदी भाषियों पर हमले से मचे बवाल का सामजिक परिप्रेक्ष्य है. जाहिर तौर पर इस प्रकरण के व्यापक आर्थिक पहलु भी हैं. लेकिन इनका संबंध महाराष्‍ट्र-असम में हो रहे बिहार-उत्तरप्रदेश के लोगों के विरोध से है, न कि इन विरोधों के बाद मचाये जा रहे बवाल से. इस फर्क पर गौर किया जाना बेहद जरूरी है. बेरोजगारी की मार से कराह रहे इन राज्यों की मांग है कि रेलवे समेत तीसरे और चौथे दर्जे की अन्य नौकरियों में भी स्थानीय लोगों को आरक्षण मिले. देश की अखंडता और रोजी-रोजगार के लिए कहीं भी जाने की स्वतंत्रता का समर्थन करने के बावजूद; इन राज्यों की मांगों को खारिज नहीं किया जा सकता. इन घटनाओं के बीच चल रहे लोकसभा सत्र में भी यह सवाल गूंजा था. शिवसेना व भारतीय जनता पार्टी के सांसदों का कहना था कि महाराष्‍ट्र में रेलवे की नौकरियों में बिहार के लोगों की संख्या ४८ से ६५ प्रतिशत तक हो गयी है. उड़ीसा के एक भाजपा सांसद रूद्र नारायण पाणि ने कहा कि रेलवे की जोनल कमिटियों में ८५ प्रतिशत लोग बिहार के हैं. राष्‍ट्रवादी कांग्रेस के शरद पवार व छगन भुजबल ने भी इसका समर्थन किया है तथा महाराष्‍ट्र कांग्रेस भी कमोवेश ऐसा ही सोचती है. किसी जेनुइन सवाल को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि वह दक्षिणपंथियों की ओर से आया है. बिहार में इन दिनों बड़े पैमाने पर (लगभग २.५० लाख) शिक्षकों की बहाली चल रही है. बिहार वासियों के लिए इसमें सौ फीसदी आरक्षण रखा गया है. जबकि इन शिक्षकों के वेतन का ७५ प्रतिशत भाग केंद्र सरकार वहन कर रही है. महाराष्‍ट्र जैसे गैर हिंदी भाषियों की तो छोड़िए, अगर आरक्षण न हो और इनमें से ४८-६५ फीसदी लोग उत्तरप्रदेश के ही चुन लिये जाएं तो बिहार के लिए भी इसे पचाना असंभव होगा. रेलमंत्री के पद पर बिहार का वर्चस्व पुराना है. यह सिर्फ चर्चा ही नहीं, बल्कि राजनीतिक अरोप-प्रत्यारोपों में उजागर हो चुका तथ्य है कि रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के कार्यकाल में रेलवे की नौकरियों की पैसे व जाति के आधार पर बंदरबांट की गयी. लालू प्रसाद इसमें भी पीछे नहीं रहे हैं. यह समझना भूल होगी कि वर्तमान व पूर्व रेलमंत्रियों की ओर से उठी 'कहीं भी रोजी-रोजगार करने की स्वतंत्रता' की आवाज देश की अखंडता और एकता की रक्षा के लिए है. इन धुर विरोधियों की एकता के पीछे कुछ और भी है. बहरहाल, बिहारी मान-सम्मान के लुभावने नारों के पीछे भागने वालों से सिर्फ एक सवाल पूछना पर्याप्त होगा कि बिहार की बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार हैं? *श्‍ाहीद बनाने का खेल* महाराष्‍ट्र में बिहारी युवकों की पिटाई के बाद बिहार की घटनाओं को तिथिवार देखा जाए तो कुछ तथ्य स्वतः खुलते हैं. १९ अक्टूबर को बिहारी छात्र महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के कार्यकर्ताओं से पिटे. वहां से २१ अक्टूबर को पटना लौटे विद्यार्थियों ने स्टेशन परिसर व द्याहर की सड़कों पर जम कर उत्पात मचाया. इस बीच नालंदा जिला के एक छात्र की मनसे कार्यकर्ताओं की पिटाई में हुई मौत की भी खबर आ गयी. आक्रोश और भड़का. पवन नालंदा जिला के बाराखुर्द गांव का एक पिछड़ी जाति में पैदा हुआ होनहार युवक था. रेलवे की परीक्षा देने से पहले एलआइसी में उसकी नौकरी हो चुकी थी. २१ अक्टूबर को ही उसका शव पटना एयर पोर्ट पहुंचा, उसी शाम पटना के पास ही फतुहा में उसकी अंतयेष्ठि की गयी. उसके लिए मुआवजे की घोषणा तो हुई लेकिन बिहार के किसी राजनेता ने मनसे कार्यकर्ताओं की हिंसक गुंडागर्दी में मारे गये इस बेकसूर की मातमफूर्सी में शामिल होन की जरूरत नहीं समझी... न ही मीडिया ने 'गरीब-गुरबा' के इस बेगुनाह युवक को 'संभ्रांत' परिवार के पिस्तौल लहारते युवक राहुल की तरह 'शहीद' कहा. जैसे-जैसे मुंबई से छात्र लौटते गये, हंगामा बढ़ता गया. २२ अक्टूबर को जहानाबाद, सासाराम, नवादा आदि स्टेशनों पर जम कर तोड़फोड़ हुई. बाढ़ में ट्रेन में आग लगा दी गयी. सासाराम में हंगामा करते छात्रों पर पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें एक की मौत हो गयी. (बिहार पुलिस की गोली से हुई इस मौत को भी राजनेताओं ने तवज्जो नहीं दी) पवन की मौत के विरोध में इस दिन मुख्यमंत्री का चुनावी गढ नालंदा जिला बंद रहा. जिला मुख्यालय बिहार शरीफ में छात्रों ने न सिर्फ मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के लिए बनाये गये मंच को तोड़ डाला बल्कि शहर भर में उनके नाम के जितने शिलापट्ट थे, सभी ध्वस्त कर दिये. इससे एक दिन पहले वहां मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के पूर्वाभ्यास के लिए पहुंचे हैलीकॉप्टर पर पथराव किया गया था. आक्रोश की दिशा देख घबराए मुख्यमंत्री ने पत्रकारों को पुचकारते हुए समझाया कि 'आप लोग सहयोग कीजिए. नहीं तो बिहार धू-धू कर जल जाएगा. एक बार आग लग गयी तो कोई नहीं रोक पाएगा. जो छवि बनी है वह मिनट भर में समाप्त हो जाएगी'. याद कीजिए, विपक्षी दल राष्‍ट्रीय जनता दल ने इससे पहले आरोप लगया था कि सत्ताधारी जदयू-भाजपा की द्याह पर रेल-संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है. तोड़फोड़ की कुछ घटनाओं में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की संलिप्तता भी सामने आयी थी. अगले तीन-चार दिनों में यह आक्रोश और भड़का तो मुख्यमंत्री ने अपनी चिरपरिचित कार्यशैली को अंजाम देते हुए अखबारों पर सेंसरषिप का उस्तरा चला दिया. २३ अक्टूबर को मोतीहारी, बक्सर, लखीसराय, भागलपुर, मुजफ्‌फरपुर में रेल व अन्य सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया. डालमिया नगर में रेलमंत्री लालू प्रसाद की जनसभा के लिए बनाये गये पंडाल में आग लगा दी गयी. २४ अक्टूबर को भी पटना, गया, बेतिया आदि में उग्र प्रदर्षन हुए लेकिन 'सेंसरषिप' ने असर दिखाया. तोड़फोड़ और 'बिहारी आक्रोष' से संबंधित खबरें अचानक बिहार के अखबारों के भीतरी पन्नों पर चली गयीं और 'अमन चैन बहाली' की खबरों को पहले पन्ने पर जगह मिलने लगी. *२७ अक्टूबर को राहुल राज की मौत ने इस अखबारी दृश्‍य को एक बार फिर उलट दिया. अब खुद नीतीश्‍ा भी ऐसा ही चाहते थे.* -- Posted By प्रमोद रंजन to प्रमोद रंजनat 2/05/2009 06:38:00 AM -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090207/8187b005/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Feb 9 10:46:01 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 9 Feb 2009 10:46:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkn+CkvuCkleClgOCknDrgpKTgpKwg4KSu4KS+4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSt4KWAIOCkuOCkvuCkpSDgpLngpYvgpKTgpYAg4KSU4KSwIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWH4KSu4KS+IOCkreClgC3gpLXgpL/gpKjgpYDgpKQg4KSV?= =?utf-8?b?4KWB4KSu4KS+4KSw?= Message-ID: <829019b0902082116k3b76c3b7mc1aa84d77d1af0f3@mail.gmail.com> अजय ब्रह्मात्मज का फिल्मों पर आधारित मशहूर ब्लॉग है- चवन्नी चैप। एक बार सिनेमाघरों को याद करते हुए गिरीन्द्र ने वहां कुछ लिखा और मैंने उस पर एक टिप्पणी दे मारी। अजय सर को मेरी भी लत की भनक लग गयी, सो उन्होंने मेल किया, तुम कैसे याद करते हो अपने सिनेमा देखने के अवुभव को। तीन दिन पहले मैंने लिखा- कुछ इस तरह से जो आज पेश है, आपके सामने। हिन्दी टाकीज:तब मां भी साथ होती और सिनेमा भी-विनीत कुमार हिन्दी टाकीज-२४ *विनीत कुमार मीडिया खासकर टीवी पर सम्यक और संयत भाव से लिख रहे हैं। समझने-समझाने के उद्देश्य से सकारात्मक सोच के साथ मीडिया के प्रभाव पर हिन्दी में कम लोग लिख रहे हैं.विनीत की यात्रा लम्बी है.चवन्नी की उम्मीद है कि वे भटकेंगे नहीं.विनीत के ब्लॉग का नाम **गाहे-बगाहे * *है,लेकिन वे नियमित पोस्ट करते हैं.उनके ब्लॉग पर जो परिचय लिखा है,वह महत्वपूर्ण है...टेलीविजन का एक कट्टर दर्शक, कुछ भी दिखाओगे जरुर देखेंगे। इस कट्टरता को मजबूत करने के लिए इसके उपर डीयू से पीएच।डी कर रहा हूं। एम.फिल् में एफएम चैनलों की भाषा पर काम करने पर लोगों ने मुझे ससुरा बाजेवाला कहना शुरु कर दिया था,इस प्रसंग की नोटिस इंडियन एक्सप्रेस ने ली और इसके पीछे का तर्क भी प्रकाशित किया। मुझे लगता है कि रेडियो हो या फिर टीवी सिर्फ सूचना,मनोरंजन औऱ टाइमपास की चीज नहीं है,ये हमारे फैसले को बार-बार बदलने की कोशिश करते हैं,हमारी-आपकी निजी जिंदगी में इसकी खास दख़ल है। एक नयी संस्कृति रचते हैं जो न तो परंपरा का हिस्सा है और न ही विरासत में हासिल नजरियों का। आए दिन बदल जानेवाली एक सोच। इस सोच को समझने के लिए जरुरी है लगातार टेलीविजन देखना। इसलिए अखबारों के एडीटोरियल पन्ने पर टीवी नहीं देखने वाले इंटल बाबाओं के टीवी औऱ मीडिया पर लेख पढ़ने के बजाय जमकर टीवी देखना ज्यादा जरुरी समझता हूं। फिर कच्चे-पक्के ही सही अपनी राय बनाता हूं। बाबाओं की तरह टीवी को संस्कृति का शाश्वत दुश्मन मानने के बजाय एक कल्चरल टेक्टस् के तौर पर समेटने,सहेजने और उस पर सोचने की कोशिश करता हूं।* तब आज के बच्चों की तरह हमारा बचपन इतना पर्सनल, डिफाइन्ड और वर्सटाइल नहीं था। सबों को डॉक्टर, इंजीनियर,आइएस में से कोई एक बनना था। ये नहीं कि एक घंटे के लिए सचिन,दूसरे घंटे के लिए शान, तीसरे घंटे के लिए प्रभु देवा और चौथे घंटे के लिए सतीश गुजराल। इसलिए पढ़ने के अलावे हमारे पास भसोड़ी करने का खूब वक्त होता। छोटी से छोटी चीजों पर घंटों भसोड़ी करते। शहर में कोई एक सिनेमा लग गया तो हरे,पीले पोस्टर लूटने से लेकर सिनेमा देखने के बाद कल्लू चचा के यहां घुघनी और कचड़ी खाने तक की चर्चा झाल-माल(जो नहीं घटित हुआ है, उसे भी अपनी तरफ से जोड़कर कहते) लगाकर करते। इसी क्रम में मोहल्ले का कोई लौंडा पूछ बैठता-तुमने ड्रिम गर्ल देख ली। मैं कहता- मां के साथ। सारे बच्चे एक साथ ठहाके लगाते- ये लो, मां के साथ देख आए। सिनेमा मां के साथ देखने की चीज है,हम तो अंकल के साथ गए थे, कोई बताता जूली बुआ के साथ गए थे। हैप किस्म के लौंड़ो के लिए मां के साथ सिनेमा देखना मजाक भर से ज्यादा कुछ नहीं था। उनके शब्दों में मां के साथ सिनेमा देखने का मतलब है, बोर होना, कुछ मत बोलो,चुपचाप देखते रहो,सीटी भी नहीं मार सकते। लगता है सिनेमा,सिनेमा हॉल में नहीं,क्लास रुम में देख रहे हैं। लड़की लोग जाए, मां के साथ कोई प्रॉब्लम नहीं,लेकिन हमलोग.......। मैं थोड़ा झेंप जाता औऱ किताबी लड़कों से पूछता, तुम भी नहीं जाते मां के साथ फिल्म देखने। वो कहता-शिव महिमा,सती अनसुईया जैसी फिल्में तो मां ले जाती है दिखाने,साथ में पापा भी जाते हैं लेकिन ड्रिम गर्ल...मां कुछ बोले, इसके पहले पापा ही कह देते हैं, रहने दो। पढाई करो, ये सब तुम बच्चों के लिए नहीं है। फिल्म सेंसर बोर्ड के बाद एक और डॉमेस्टिक लेबल पर सेंसर बोर्ड। मैं तो नहीं जाता मां के साथ। लेकिन इन सबके वाबजूद सिनेमा के मामले में मेरा अनुभव इन सबसे अलग है। मैंने मां के साथ पचास फिल्में तो जरुर देखी होगी। आज भी गर्लफ्रैंड ( अगर हो या बने तो) के साथ देखते हुए अनुशासन में रह जा।उं तो इसे भी मां के साथ सिनेमा देखने का ही पुण्य-प्रताप या फुद्दूपना समझिये। आदर्श सिनेमाघर किसे कहा जाए, मुझे नहीं पता। लेकिन हमारे शहर में चाहे वो बिहार शरीफ हो या फिर टाटानगर जिस सिनेमाघर में मां-बहन,बहू-बेटी सिनेमा देखने जा सके,लौटते समय मौके पर बाजिब दाम पर रिक्शा मिल जाए, इन्टर्वल में गरम पापड़ और ऑरिजिनल फंटा मिल जाए वो आदर्श सिनेमाघर की कैटेगरी में शामिल किया जाता। इस लिहाज से बिहार शरीफ का किसान सिनेमा एक मिसाल हुआ करता। मां अक्सर इसी सिनेमाघर में जाया करती। सिनेमा का मालिक शहर का नामी डॉक्टर था और बाकी के सिनेमाघरों के मुकाबले लेडिस की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देता। मनचले लौंडे इसे लेडिज सिनेमाघर भी कहते। लेकिन सच बात तो ये है कि वाकई परिवार के साथ सबसे ज्यादा सिनेमा लोग यहीं देखा करते। इस मामले में बाकी के सिनेमाघर बदनाम थे। मुझे नहीं पता कि इससे पहले मां सिनेमा जाती थी भी या नहीं,तब दादी भी जिंदा थी,मां बताती थी, सिनेमा और शौक-मौज को लेकर सख्त भी। लेकिन जब से मैंने होश संभाला,दादी नहीं थी,पापा अपनी दूकान में व्यस्त रहते। मां नाश्ते के समय बता देती कि आज सिनेमा जाएगी और दिनभर के किसी भी शो में पड़ोस की चाचियों और भाभियों के साथ चली जाती। मां को पता होता कि अगर मुझे घर में छोड़ देगी तो घरेलू दंगे में बड़े भाइयों और बहनों से सबसे ज्यादा तबाही इसी की होगी, इसलिए हमेशा अपने साथ ले जाती। सिनेमाघर में लेडिज और जेन्ट्स की सीट अलग होती। मैं मां के साथ लेडिज सीट पर बैठता। टार्चवाले अंकल जैसे ही पास आते, मां,मुझे पैर के नीचे करके आंचल में छिपा लेती। मैं बच जाता लेकिन कई बार एक सीट खाली देखकर अंकल किसी लेडिस को बिठा देते और तब मुझे भारी मुसीबत झेलनी पड़ती। मां की सीट पर एक साथ बैठने पर पीछे की औरतें भुनभुनाने लगती,बताओ तो जरा, घोड़ा भर के लड़का को लेडिज सीट में बैठा रही है उसकी माय। मां कुछ नहीं बोलती, मैं पीछे मुड़ता और वो जोर से हाथ से मेरा माथा पर्दे की तरफ घुमा देती। बीस-पच्चीस मिनट बाद मामला ठंड़ा पड़ जाता। लेडिज सीट पर फिल्म देखने का बिल्कुल अलग अनुभव होता। हीरोईन के सताए जाने पर औरतें पीछे से ची.ची.. करती, किसी बच्चे के पीटे जाने पर हाय रे बच्चा करती। हीरोईन के बाप से झूठ बोलकर इश्क लड़ाने पर छिनाल है,लड़की थोड़े है कहती, सन्नी देवल को देखकर महाभारत के भीम को याद करती, सचिन को देखकर श्रवण कुमार का ध्यान करती। सिनेमा में औरत की किरस्तानी को देखकर अचानक से चिल्लाती- बबलुआ के माय एकदम ऐसे ही चंडालिन है, पैसा के चक्कर में देवता जैसन पति को खा गयी। अब दिन में मिसरी कंद बेचती है और रात में घर से अलोप(गायब) रहती है। मेरे आगे पर्द पर एक सिनेमा चल रहा होता और पीछे से उस फिल्म के साथ कई घरों की कहानियां एक साथ चल रही होती। बैकग्राउंड में घरेलू कलहों और कथाओं का पैश्टिच प्रोजेक्टर चलता रहता। इसी महौल में मैंने फिल्म के शुरु होने पर मां के साथ हाथ जोड़कर कई फिल्में देखी। राम तेरी गंगा मैली देखकर मां बगल की चाची से धीरे से कहती है- इसमें हीरोईन का गंजी भी दिख रहा है। मां के गंजी बोलते ही मेरे दिमाग में टीनोपाल दी हुई पापा सहित मुझे अपनी रुपा जूनियर गंजी याद आ जाती। मैं पूछ बैठता- कहां दिख रहा है गंजी मां। मां नेरा मुंह दबा देती। बाहर निकलने पर पड़ोस की भाभा कहती- मांजी अब इनको मत लाया कीजिए साथ में, बड़े हो रहे हैं। ठीक नहीं लगता है जब इस तरह के जबाब-सवाल करने लग जाते हैं। लेकिन मेरे बिना मां सिनेमा देखना नहीं चाहती। इसलिए कई बार वो इन भाभियों को मना कर देती कि आप सब देख लीजिए, हम एक-दो दिन बाद जाएंगे। फिर बाद में मीरा दीदी की मां के साथ ले जाती जो अक्सर कहा करती-साथ में एक-दो लड़कन-बुतरु रहता है, तो कहीं आने-जाने में अच्छा लगता है। मैं बोर्ड तक यानि दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे तक शहर बदल जाने पर भी मां के साथ फिल्में देखता रहा। सब तरह की फिल्में। प्रेम,रोमांस,धार्मिक, सामाजिक,घरेलू या फिर देशभक्ति की फिल्में। बोर्ड के बाद मैं अपनी पढ़ाई करने घर से बाहर चला आया। सिनेमा का तो साथ रहा लेकिन मां का साथ छूट गया. इसे यों कहें सिनेमा और मां दो अलग-अलग संदर्भ हो गए। रांची आने पर भी फिल्में देखता रहा। उसकी अपनी यादें हैं,अपने अनुभव हैं। लेकिन बाद में जब तब छुट्टियों में घर जाता, पड़ोस की भाभियां मजे लेने के अंदाज में कहती- विनीत तो अब आ गए हैं मांजी,देख आइए दो-चार सिनेमा और तब की लगी फिल्मों के नाम लेने लग जाती। मैं भाभी से सिर्फ इतना कह पाता- मां अब फिल्में नहीं देखती है, अब की हीरोइनों के गंजी तक नहीं दिखते। भाभियां ठहाके लगातीं और मां कहती- माय,बाप का साथ छूटने से तू लखैरा हो गया है, बड़ा-छोटा का एकदम से लिहाज नहीं है। मां अब मेरे साथ फिल्में देखने नहीं जाती। एक तो अब बहुत रुचि भी नहीं रह गयी लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि उसे पता है कि अब मैं खालिस लव स्टोरी वाली फिल्मों में भी सिर्फ कबूतर,झील और फूल देखकर खुश नहीं हो जाउंगा। उसे पता है कि अब मैंने फिल्मों में कुछ भी देखने के बजाय निहारना शुरु कर दिया है। एक अनुभव के बाद मां को पता है कि अब ये धार्मिक फिल्मों में भी सीता,रुक्मिणी बनी स्त्रियों को एक रत्ती भी सीता औऱ रुक्मिणी के रुप में नहीं देखेगा। सबके सामने कुछ बक दिया तो....सबके सामने बेइज्जती। अब डरती है मां साथ सिनेमा जाने से।........... साभार- http://chavannichap.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090209/62270ab2/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Feb 10 11:05:25 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 10 Feb 2009 11:05:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkleClhyDgpJzgpLDgpL/gpI8g4KSs4KSoIOCkuOCkleCkpA==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCliCDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSo4KWH4KSf4KS14KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSV4KS/4KSC4KSX?= Message-ID: <829019b0902092135w4a4613f0t16bf26df9fb67346@mail.gmail.com> ब्लॉग को भले ही लोग अपनी मासूमियत बिखरेने और मन की बात कहने का माध्यम मानते आए हों लेकिन अब इसमें वैसा कुछ मामला बहुत अधिक रहा नहीं है। अधिकांश ब्लॉगर किसी न किसी एजेंडे के तहत ब्लॉगिंग कर रहे हैं। ब्लॉग के भीतर एक नए वर्ग का उदय तेजी से हो रहा है जो पहले के वर्ग से बिल्कुल अलग है। ये वर्ग ब्लॉग के जरिए पत्रकारिता का काम कर रहा है। इसे खराब कहें या फिर अच्छा । लेकिन सच बात तो यह है कि यहां तो फिलहाल नहीं अमेरिका जैसे देशों ने इसी वर्ग के दम पर न्यूज नेटवर्किंग खड़ी करने की रणनीति बनाने में जुट गया है। दुनिया की कई ऐसी बड़ी खबरें हैं जिसे कि ब्लॉगर ब्रेकिंग करने लगे हैं। यानि एक तरह से ब्रेकिंग न्यूज के मामले में न्यूज एजेंसी औऱ चैनलों के रिपोर्टर्स पीछे पड़ गए हैं। मीडिया का एक नया रुप है, नेटवर्किंग का नया तरीका है जो कि कन्वेंशनल मीडिया को सीधे-सीधे चुनौती दे रहा है। हिन्दी मीडिया में जिस तरह से न्यूज चैनलों को टीआरपी के नाम पर जमकर आलोचना करने की परंपरा सी बन गयी है, उसी की तर्ज पर अब ब्लॉग के बारे में लोगों ने कहना शुरु कर दिया है कि- ब्लॉगर अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए कुछ भी पोस्ट करते हैं। थोड़ी देर के लिए इस धारणा से अलग, हीटिंग पाने की बेचैनी को हम न्यू नेटवर्किंग संदर्भ में बात करें तो ऐसा करना मीडिया को एक नई दुनिया में ले जाने जैसा है। मीडिया संस्थानों के अब तक कन्वेंशनल नेटवर्किंग से बिल्कुल एक नयी नेटवर्किंग का उदय है। फर्ज कीजिए कोई भी अखबार या न्यूज एजेंसी देश के एक हजार ब्लॉगरों के बीच अपनी नेटवर्किंग खड़ी करता है। ये एक हजार वो ब्लॉगर हैं जो कि अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए रोज नए मुद्दे लेकर आते हैं, विभिन्न मसलों पर नए तरीके से बात करते हैं, अपने तर्क रखते हैं। पोस्टिंग के दौरान अपनी ओर से जुटायी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। स्थानीय घटनाओं को लेकर उनके अपने विजुअल्स होते हैं। ये सारी सामग्री संभव है कि किसी रिपोर्टर द्वारा जुटायी सामग्री से ज्यादा ऑथेंटिक हो। अभी तक ब्लॉग के जरिए पोस्ट की शक्ल में प्रस्तुत खबरों पर गौर करें तो एकाध मामले को छोड़कर कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है कि ब्लॉगर ने गलत खबर लिखी हो, खबर के नाम पर मनगढंत बातें की हो। ब्लॉगर जहां की बात कर रहा है, वहां तक पहुंचने में रिपोर्टर को वक्त लगे, तब तक कई चीजें बदल जाए। दूसरा कि मीडिया संस्थानों द्वारा खबरों को प्रस्तुत करने का जो तरीका है वो ब्लॉगिंग करने से ज्यादा पेचीदा है, टाइम टेकिंग है। इसलिए इनपुट के साथ- साथ आउटपुट में भी ब्लॉगर बाजी मार लेगा। स्थानीयता पर जितनी पकड़ एक ब्लॉगर की होगी, शायद रिपोर्टर की न हो। एक बड़ी बात ये भी है कि चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों के होने के वाबजूद,आए दिन थोक के भावों में अखबारों के संस्करण निकलने के वाबजूद खबरों का एक बड़ा कोना इन सबसे छूट जाता है। ब्लॉगिंग के जरिए इस कोने को छू पाना ज्यादा आसान है। एक बड़ा उदाहरण आपके सामने है। ब्लॉगिंग के पहले मीडिया संस्थानों के अंदर क्या कुछ हो रहा है, ये कितने लोगों तक पहुंच पाती थी। दुनिया की खबर लेने वाले मीडिया की खबर कौन जान पाता था। लेकिन अब देखिए, स्थिति बिल्कुल उलट है। मीडिया द्वारा तय की गयी रणनीति में कि कौन-सी बात खबर होगी, कौन-सी नही, ब्लॉगिंग ने अभिव्यक्ति के स्तर पर सेंधमारी तो शुरु कर ही दी है। अब ऐसे ब्लॉगरों के जरिए अखबारों या चैनलों के लिए न्यूज नेटवर्किंग खड़ी की जाए तो वो कॉन्वेंशनल नेटवर्किंग से कितना अलग होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।....आगे भी जारी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090210/11647b81/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Feb 10 10:48:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 10 Feb 2009 10:48:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkleClhyDgpJzgpLDgpL/gpI8g4KSs4KSoIOCkuOCkleCkpA==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCliCDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJwg4KSo4KWH4KSf4KS14KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSV4KS/4KSC4KSX?= Message-ID: <829019b0902092118v637768a1o5491a60a511b3161@mail.gmail.com> * ब्लॉग के जरिए बन सकती है न्यूज नेटवर्किंग* ब्लॉग को भले ही लोग अपनी मासूमियत बिखरेने और मन की बात कहने का माध्यम मानते आए हों लेकिन अब इसमें वैसा कुछ मामला बहुत अधिक रहा नहीं है। अधिकांश ब्लॉगर किसी न किसी एजेंडे के तहत ब्लॉगिंग कर रहे हैं। ब्लॉग के भीतर एक नए वर्ग का उदय तेजी से हो रहा है जो पहले के वर्ग से बिल्कुल अलग है। ये वर्ग ब्लॉग के जरिए पत्रकारिता का काम कर रहा है। इसे खराब कहें या फिर अच्छा । लेकिन सच बात तो यह है कि यहां तो फिलहाल नहीं अमेरिका जैसे देशों ने इसी वर्ग के दम पर न्यूज नेटवर्किंग खड़ी करने की रणनीति बनाने में जुट गया है। दुनिया की कई ऐसी बड़ी खबरें हैं जिसे कि ब्लॉगर ब्रेकिंग करने लगे हैं। यानि एक तरह से ब्रेकिंग न्यूज के मामले में न्यूज एजेंसी औऱ चैनलों के रिपोर्टर्स पीछे पड़ गए हैं। मीडिया का एक नया रुप है, नेटवर्किंग का नया तरीका है जो कि कन्वेंशनल मीडिया को सीधे-सीधे चुनौती दे रहा है। हिन्दी मीडिया में जिस तरह से न्यूज चैनलों को टीआरपी के नाम पर जमकर आलोचना करने की परंपरा सी बन गयी है, उसी की तर्ज पर अब ब्लॉग के बारे में लोगों ने कहना शुरु कर दिया है कि- ब्लॉगर अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए कुछ भी पोस्ट करते हैं। थोड़ी देर के लिए इस धारणा से अलग, हीटिंग पाने की बेचैनी को हम न्यू नेटवर्किंग संदर्भ में बात करें तो ऐसा करना मीडिया को एक नई दुनिया में ले जाने जैसा है। मीडिया संस्थानों के अब तक कन्वेंशनल नेटवर्किंग से बिल्कुल एक नयी नेटवर्किंग का उदय है। फर्ज कीजिए कोई भी अखबार या न्यूज एजेंसी देश के एक हजार ब्लॉगरों के बीच अपनी नेटवर्किंग खड़ी करता है। ये एक हजार वो ब्लॉगर हैं जो कि अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए रोज नए मुद्दे लेकर आते हैं, विभिन्न मसलों पर नए तरीके से बात करते हैं, अपने तर्क रखते हैं। पोस्टिंग के दौरान अपनी ओर से जुटायी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। स्थानीय घटनाओं को लेकर उनके अपने विजुअल्स होते हैं। ये सारी सामग्री संभव है कि किसी रिपोर्टर द्वारा जुटायी सामग्री से ज्यादा ऑथेंटिक हो। अभी तक ब्लॉग के जरिए पोस्ट की शक्ल में प्रस्तुत खबरों पर गौर करें तो एकाध मामले को छोड़कर कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है कि ब्लॉगर ने गलत खबर लिखी हो, खबर के नाम पर मनगढंत बातें की हो। ब्लॉगर जहां की बात कर रहा है, वहां तक पहुंचने में रिपोर्टर को वक्त लगे, तब तक कई चीजें बदल जाए। दूसरा कि मीडिया संस्थानों द्वारा खबरों को प्रस्तुत करने का जो तरीका है वो ब्लॉगिंग करने से ज्यादा पेचीदा है, टाइम टेकिंग है। इसलिए इनपुट के साथ- साथ आउटपुट में भी ब्लॉगर बाजी मार लेगा। स्थानीयता पर जितनी पकड़ एक ब्लॉगर की होगी, शायद रिपोर्टर की न हो। एक बड़ी बात ये भी है कि चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों के होने के वाबजूद,आए दिन थोक के भावों में अखबारों के संस्करण निकलने के वाबजूद खबरों का एक बड़ा कोना इन सबसे छूट जाता है। ब्लॉगिंग के जरिए इस कोने को छू पाना ज्यादा आसान है। एक बड़ा उदाहरण आपके सामने है। ब्लॉगिंग के पहले मीडिया संस्थानों के अंदर क्या कुछ हो रहा है, ये कितने लोगों तक पहुंच पाती थी। दुनिया की खबर लेने वाले मीडिया की खबर कौन जान पाता था। लेकिन अब देखिए, स्थिति बिल्कुल उलट है। मीडिया द्वारा तय की गयी रणनीति में कि कौन-सी बात खबर होगी, कौन-सी नही, ब्लॉगिंग ने अभिव्यक्ति के स्तर पर सेंधमारी तो शुरु कर ही दी है। अब ऐसे ब्लॉगरों के जरिए अखबारों या चैनलों के लिए न्यूज नेटवर्किंग खड़ी की जाए तो वो कॉन्वेंशनल नेटवर्किंग से कितना अलग होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।....आगे भी जारी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090210/fa156a39/attachment-0001.html From lakhmi at cm.sarai.net Tue Feb 10 15:43:54 2009 From: lakhmi at cm.sarai.net (Lakhmi) Date: Tue, 10 Feb 2009 15:43:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KSoIOCkoeCli+CklyDgpKzgpYfgpLjgpY3gpJ/gpI/gpJXgpY3gpJ8=?= =?utf-8?b?4KSw?= In-Reply-To: References: Message-ID: <49915362.9090301@cm.sarai.net> Hello Doston मैंने ये फिल्म देखी, इससे कुछ बीते जमाने की हिन्दी फिल्मों के कुछ क़िरदार उभरने लगे। जैसे- बस्ती यानि हिन्दी फिल्मों के वे हीरो जो किसी चॉल या बस्ती मे रहते थे वे तो कब के करोड़पती या कह सकते हैं की एक ऐसी शख़्सियत बन जाते जो बेहद अमीर है। अगर वो सारे Blank cheque रख लेते जो उन्हे हीरोइन के बाप ने, किसी अमीर ने बस्ती खरीदने के नाम पर, नौकरी से निकल जाने के लिए। दिए थे। इन सभी में क्या था? ये हीरो का Blank cheque न लेना । ये क्या बतलाता है? शायद वो जो हिन्दी फिल्मों का एक गरीब हीरो कहता था- "मुझमे एक खुद्दारी है।" , "मैं सब कुछ बैच सकता हूँ लेकिन अपना ज़मीर नहीं।" , "पैसे से तुम क्या-क्या खरीदोगे?......." लेकिन इस फिल्म मे आपको दिखता है कि जैसे वो खुद्दारी गायब हो गई है। वो अपनी ज़ुबान जो खुद से बनाई जाती है, खुद को दोहराने के लिए। अब गरीब हीरो बन गया है किसी और के नज़रिये से बनने वाले शक मे जीने वाला एक ऐसा क़िरदार जो एक दिन गायब भी हो जायेगा तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा। इंडियन डोग बेस्टएक्टर किसी जगह को देखने के नज़रिये क्या होते हैं और उसमे बसते जीवन को दोहराया कैसे जाये? ये सवाल अब सवाल नहीं, असल में बस फ्रेम और चश्मे बनकर रह गया है जिसमें हम अपनी ही तरह से शहर को, किसी भी जगह को और उसमे बसते हर पल, घटना, रोज़मर्रा, अतीत, भविष्य को देखते हैं। इसमे अपने आपसे कोई सवाल भी नहीं करते कि जो हम देख रहे हैं वो क्या है? और वो हमारे जीवन से क्या रिश्ता रखता है? किसी 'बस्ती' में बाहर से आने वाला शख़्स और वहीं पर रहने वाले शख़्स के नज़रिये में क्या अंतर होता है? ये अंतर खाली देखने से ताल्लुक ही नहीं रखता, इसमे कुछ और भी है। वो क्या है? क्या आप जानते हैं? जो वहाँ रहता है उसकी आँखों पर लगे फ्रेम में जगह के नज़रिये में, जीवन के हर बिन्दू, हर पल जिसमे घुलते रिश्ते, आशियाना बनाने की जिद्द, समाज के साथ संधि और शहर के हर बदलाव के साथ जुझना उसके साथ-साथ खुद की जगह को हर वक़्त बनाने की कोशिश शामिल होती है। जो उसने सोचा और वो हो गया, इतना आसान नहीं होता। उसके लिए उसे बहुत सारे कामों अथवा रिश्तों के साथ रोज़ाना बहस में रहना होता है। अपने आसपास होने वाले बदलाव मे रहने वाला शख़्स रोज़ाना सुबह निकलता और जब शाम में वापस लौटता है। वापस आने के बाद वो अपने लिए कुछ कोने बनाता है, जो उसके जीवन में दिल बहलाने के लिए होते हैं, नये रिश्ते बनाने के लिए होते हैं, नई घटनाओ को दोहराने के लिए होते हैं, लोगों के बीच मे घुलने के लिए और ना जाने कितने ऐसे किस्सो का हकदार, साथीदार बनने के लिए होते हैं, जो सुबह निकलते वक़्त उसके नहीं थे और ना ही उसके जीवन के लिए बने थे। ये अपने लिए कोने बनाने के सिलसिले क्या हैं? इनको देखने के नज़रिये क्या है?] "सन् 1996 मे मैं काम पर लग गया था। जिसके कारण मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ी। काम करते-करते मैं कई स्कूलों मे दाखिला लेने गया तो वहाँ के स्कूलों का जवाब था की दक्षिणपुरी के किसी भी बच्चे का हम दाखिल नहीं ले सकते।" ये एक गहरी छाप है। इससे कैसे जुझा जाये? मेरे एक साथी ने बहुत ही प्यार से मुझसे एक बार कुछ कहा था। वो बोल थे, “हमारे किसी नई जगह या किसी माहौल मे जाने के दो रूप होते हैं या तो हम अपना ही कोई रंग लेकर जाते हैं या फिर उस माहौल या जगह में दिखते रंगो से कोई रंग बनाते हैं। जो वहाँ के अलग-अलग रंगो मे से चुना हुआ रंग नहीं होता। बल्कि उन सभी रंगो को मिलाकर क्या रंग बनता है उसे उभारने की कोशिश करते हैं।" मगर अपनाया क्या जाता है?..... ये एक बहस है, जो कोई हमसे या हम किसी से नहीं कर सकते। ये बहस खाली हम अपने आपसे कर सकते हैं। जहाँ दोनों तरफ से लड़ने वाले हम अकेले होगें। ये सवाल किसी जगह को समझने, दोहराने, व्याख़ा करने अथवा उसको चित्रित करने के जैसा नहीं है। ये जगह जीवित है, सांस लेती है, मरती है, जागती है, रोती है, हँसती है और अपने जीने को रोज़ बनाती और टूटता हुआ भी देखती है। इसमे अनगिनत रंग है, माहौल है, रूप हैं। ये सब सोचकर हम किसी रूप को बनाने की कोशिश करते हैं। ये बहस कब शुरू हुई? ये बहस, सच और सच्चाई के बीच में नाचती है। ये खेल है, जिसको समझने की किसी ने चेष्ठा ही नहीं की। मैं स्लम डोग करोड़पती फ़िल्म की बुराई अथवा स्लम की तारीफ़ नहीं करूगाँ और न ही स्लम की बुराई और स्लम डोग करोड़पती की तारीफ़। ये फिल्म सच और सच्चाई के बीच नाचती है। जिसमे चित्र उस जीवन के आधार को और नाटकिये बना देते हैं। कहानी से चित्रों को देखना और चित्रों से कहानी को देखना। ये एक सवाल है। इसको कैसे सोचें? किसी के जीवन को लिखना और उसको बताने के लिए चित्रों को बनाना, इनके बीच क्या रिश्ता होता है? मगर सिर्फ़ इतना कहूँगा की स्लम को दिखाने अथवा उसके साथ रिश्ता बनाने के दौर में अभी बहुत कुछ सोचना पड़ेगा शहर को। ये तस्वीर कब की है? इसकी उम्र क्या है? और ये कहाँ से उपज़ती है? शहर में पिछले दिनों कई बस्तियाँ विस्थापित की गई और उन्हे कहीं पर जगह भी दी गई। हम विस्थापन को उसके टूटते चित्रों से भी देख सकते हैं और उसमे टूटती उन कल्पनाओ से भी जिन्हे शहर याद भी नहीं रखता। मान लेते हैं कि आपके हाथ मे कैमरा है और आप उस बस्ती मे तस्वीरें खींचने गए हैं जो विस्थापित की जा रही है। तो आपकी आँखों के सामने क्या होगा? और आपके जीवन मे क्या? इन दोनों के बीच में आप कहाँ होगें? एक चित्र मैं आपको बताता हूँ। चित्र है- एक औरत सड़क पर बैठी है। उसके घर को बुल्डोजर से तोड़ा जा रहा है। उस औरत की आँखों मे आँसू है। आज अपने घर से दस कदम की दूरी पर वो बैठी है। आप उसके सामने कैमरा लेकर खड़े हैं। तो उसके आँसूओं के सामने खड़े रहने का मतलब क्या है? दस मिनट आप उसके सामने खड़े हैं। आप उन दस मिनट को कैसे दोहरायेगें? समझ में नहीं आया तो एक चित्र और रख सकता हूँ चित्र है- बस्ती की एक गली, जिसमे 20 घर थे। मगर आज उनमे से दो-दो घर की दूरी पर कुछ घरों को तोड़ दिया गया है। उनका मलवा वहीं गली में बिखरा पड़ा है। उस गली में से कैमरा लेकर निकलने का मतलब क्या है? इन चित्रों को हम ये कहकर भी निकल सकते हैं की उनका स्लम डोग करोड़पती फिल्म से क्या लेना-देना। लेकिन इन चित्रों का लेना-देना आपके और मेरे जीवन से है। क्योंकि हम उस जगह के रहनवाज़ नहीं तो क्या हुआ लेकिन इस फिल्म के जरिये इन चित्रों से एक ख़ास रिश्ता बना लेते हैं। स्लम डोग करोड़पती फिल्म की बहस बहुत रोमांचक है। जिसकी तरफ रूची बड़ती है। सोच और जिद्द को लेकर। कह सकते हैं की एक करारे जवाब की भांति वो अपनी भाषा को रख पाती है। जब एक छोटी सी बस्ती में रहने वाला लड़का करोड़पती बन जाता है। बहुत बढ़िया। क्या बात हैं! जबरदस्त साहब। क्या सच में इसी फिल्म को देखने के बाद में पता चला है? ये फिल्म नहीं आती तो क्या पता नहीं चलता? यहाँ दक्षिणपुरी मे रहने वाले एक शख़्स जो कभी सिनेमा हॉल में काम किया करते थे। वे बोले, “1970 से 1986 तक की फिल्मों में बस्ती और उसमे रहने वाले जीवन को इस तरह बताया और दोहराया जाता था कि लगता था दरवाजे के बाहर निकल कर की ये दुनिया बहुत छोटी है। जिसकी निगाह खाली वो नहीं देखती जो आसानी से देखा जा सकता है। किसी के घर को बताने के लिए उसके घर मे रहना होता है। जैसे "कथा" फिल्म। नसीरूद्दीन शाह और फ़ारूख़ शेख ने क्या अदाकारी थी। जिसमे जगह खिल कर बाहर आती है। जिसमे एक बस्ती में रहने वाला शख़्स कैसे अपने पड़ोसियों से रिश्ता बनाता है और कैसे उनके साथ मे रहने को जीना कहता है। मगर 1990 से आज तक बस्ती को, कालोनी को और उसके जीवन को कुछ इस तरह से कर दिया गया है। जैसे- बस्ती के लड़के अंडरवल्ड के सरगना है, लड़कियाँ बेचारी हैं और बुर्ज़ुग बिखारी है या रो रहे हैं। रोने के अलावा उनके पास कुछ रहा ही नहीं है और देखो तो सही की बॉलीवुड इसे सच भी मानता है। क्या बात है! आज भईयों तस्वीर कुछ और है। इस फिल्म को बनाने से पहले एक बार घूमने ही चले आते। स्लम तो सभी को न्यौते में रखता है। यहाँ की तस्वीर शायद तब कुछ ज़्यादा उभरकर आये।” दक्षिणपुरी में इस हलचल मे एक ने कहा, “कल न्यूज़ मे शाहरूख ने कहा की इस फिल्म मे सच्चाई है इसे हम नकार नहीं सकते। शहर सड़क से गुजरते हुए इस तरह की लाइने अक्सर स्लम पर मार देता है और अपनी ही बात को सच्चाई मानकर जीता है। ये भ्रम अक्सर शहर लेकर जीता है। एक गाना याद आ रहा है, कभी हाँ, कभी ना- फिल्म का, "वो तो है अलबेला हजारों मे अकेला सदा तुमने ऐब देखा हुनर तो ना देखा।" शायद फिल्म वाले अपने रोल के साथ रिश्ता खाली फिल्म के पेमेन्ट तक ही रखते हैं। उसके बाद दिमाग खाली हो जाता है।" मैं फिल्म मे ये देखने की कोशिश कर रहा था कि किसी जगह को, जीवन को दोहराने के चित्र क्या होते हैं? शहर कि निगाह और इस फिल्म की निगाह क्या है? जैसे शहर देखता है वही है या कुछ और है? मगर मुझे थोड़ा अफ़सोस हुआ। इस फिल्म मे कहानी पर बेहद नये ठंग से नज़र रखी गई है। नई कहानी का जन्म हुआ है बॉलीवुड में लेकिन जगह, उसके रूप और रोज़मर्रा को देखने के नज़रिये नये नहीं है। ये फिल्म अभी बहुत गुलखिलायेगी। वैसे इस फिल्म का नाम बहुत अच्छा है, हाँ भले ही इस नाम के नीचे स्लम मे रहने वाली हजारों ज़िन्दगियाँ दब जाती है, मर जाती हैं। ज़िन्दगी की सारी उलझने, फैसले, जीने के तरीके और प्यार सब कुछ दब जाता है। जैसे कि लाश पर सफेद रंग की चादर डाल दी गई है। इसपर मेरे एक साथी ने कहा, “वैसे इस नाम के आते ही बहुत सारी आने वाली फिल्मो के नामों की लिस्ट भी खुल जाती है। जैसे अगली फिल्मों के नाम होगें- इंडियन डोग बेस्टएक्टर, इंडियन डोग बेस्ट डांसर, इंडियन डोग बेस्ट राइटर। शायद इससे हमारी फिल्मइंडस्ट्रीज़ खुश होकर ये अवॉड के नाम मे तब्दील करदे जैसे- इंडियन डोग बेस्टएक्टर का अवॉड जाता है इसको... अब इसके लिए भी बॉलीवुड मे क्या जबरदस्त नारे बाज़ियाँ होगी। समय ज़्यादा दूर नहीं है। देखते जाओ। Lakhmi chand http://ek-shehr-hai.blogspot.com From rakesh at cm.sarai.net Tue Feb 10 17:29:43 2009 From: rakesh at cm.sarai.net (rakesh at cm.sarai.net) Date: Tue, 10 Feb 2009 3:59:43 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkhw==?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KS+4KSo4KWLIOCkleClgCDgpKzgpLjgpY3gpKTgpL/gpK/gpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <0ac05298370a984b5496221a7825db20@mail.sarai.net> Hello Doston, हम इंसानो की बस्तियों में गली का कुत्ता करोड़पती बना, ये बोल मैंने जब पहली बार सुने तो बड़ा अजीब सा लगा। जिससे मेरे ख़्यालों में कोई बनावटी चेहरा मुझे मुँह चिढ़ाता हुआ नज़र आ रहा था। मैं जैसे अपने आप से ही दूर भाग रहा था। खुद को पास लाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थी। पर ज़मीन मेरे पैरों तले ही थी। बादलों की गर्जना से भयभीत मन कहीं आसरा पाने की चाह में भटक रहा था, तभी मेरे अन्दर कई सारी आवाज़ें घुस आई। जो मुझे खींच कर वहाँ ले आई जहाँ हक़ीकत के अलावा कुछ न दिखा। मेरे ख़्याल चट्टानों से टकरा कर वापस आने लगे। मैं जाग गया! क्या करूँ? कैसे करूँ? ये मुझे पता लगने लगा। अब मैं वापस उस जगह आ गया था जहाँ से मेरे विचारों ने करवट बदली थी। एक भद्दा प्रसंग सुनकर मुझे कतई भी वो नागवारा था जो जीवन की मार्मिकता को तेज़ाब बनाने की फिराक मे था, जो सच में मेरे ही आसपास से जन्म लेकर अब तक मेरी आस्तिनों में पला वो सर्प नामक शक मुझे डसने वाला था। अभी तक तो वो मेरे ही दिमाग मे बैठा मेरी सारी हरकतों को कंट्रोल कर रहा था। मेरी ज़ुबान के साथ वो अपनी लपलपाती जीभ से मेरे सम्मुख आने वालों पर विष अणु की वर्षा करता। जो मेरे शुभचिंतकों को मुझ से दूर कर रहा था। किसी के पास उस के नाजायज़ होने का सबूत नहीं था। वो दरिंदा कोई भी रूप बदलकर कुशल-मंगल को हिंसा और पाप में बदल कर रख देता। वो मानवता का दुश्मन सब के मन को भंग कर देता। तब सारा भू-मंडल दूषित हवाओं से भर जाता। चारों तरफ बस चीखती, रोती और बिलखती ज़िंदगानियाँ और विद्रोह कर रही आवाज़ों में तिलमिलाती परछाइयाँ ही नज़र आती। जानवर और मानव इन दोनों में ही एक दुनिया है जिसको सिर्फ भूख से देखा जाता है। स्वार्थ से देखा जाता है। ज़रूरत से देखा जाता है, लेकिन कोई करुणा से देखे। एक-दूजे का बन के देखें तो यकीनन सच के ऊपर पड़ा पर्दा उठ जायेगा। आज लोग जीवन में बने रिश्तों को लेकर कई बातें बनाते हैं और खुद ही किसी की नींव रख देते हैं और आप ही किसी को उखाड़ देते हैं। कुत्तों को कई तरह के अभिनय करते हुए सबने देखा पर जब कुत्तों को बहुचर्चित होते देखा तो रहा न गया। शायद इस से बेहतर मेरे पास उदाहरण नहीं हो। लेकिन आजकल इस नस्ल को विभिन्न वर्ग के नुमाइंदों ने अपने शहर से तड़िपार कर दिया है। इसके सिवा आसपास कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा था। जिससे यह साबित होता की करोड़पती का ताल्लुक गलियों में घूमते कुत्तों से नहीं है। इस तरह की पंक्तियाँ बहुत सुनाई पड़ रही है जो हमारी रोज़मर्रा में बेइंतिहाँ शामिल है। वरना जनाब आज के वक़्त में तो ये हालात है की गलियाँ जैसी जगह तरह-तरह के विभाजनों में अपने ही मंथन में फंसी भँवर बन गई है। जिसके शिकंजे में आने वाला शख़्स अपनी भव्यता को खो बैठता है और अपनी ही आलोचनाओं से अपनी मांसपेशियों को खरोचनें लगता है। हम अपने जीने लायक जगह बनाने में लीन रहते हैं, और कोई आता है तो एकदम से सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। जीवन में कई श्रृखलाएं हैं जिनके सहारे हम जीवन बनाते हैं और उसमे परवरिश करते हैं अपने विचारों की धारणाओं की। तब जाकर एक जगह में सैरगाह बनती है जिसमे हर कोई शामिल है।अपनी-अपनी मननशीलता के मुताबिक। मानव और जानवर का रिश्ता इतिहास से चला आ रहा है और इतिहास एक सच्चाई है जिसे नापा या तोला नहीं जा सकता न ही झुठलाया जा सकता है। लेकिन हम इंसानो की बस्तियों में कुत्तों की सैरगाह नहीं होती बस, उनपर अपनी ममता और प्यार लुटाने का बहाना चाहिए होता है। जो बात मैं आप को कहने जा रहा हूँ वो बात मुझे किसी ने कही कि "कुत्तो का जीवन वैश्याओं से कम नहीं हैं।" जब चाहा अपनी जांघ पर बैठा दिया और जब चाहा उसे थपथपा दिया। इंसान और जानवर के बीच बने फ़र्क में ही पूरा रहस्य छिपा है। जिस में मानव जीवन शैली की और जानवर के साथ बनी कहानियों की दुनिया दिखती है जो एक-दूसरे को ज़िंदा रखने के लिए जानी पहचानी जाती है। क्यों कि ज़िंदगी के पैचीदा हालातों को आसपास की संभावनाएँ बड़ी मासूमियत से उभारती है। जैसे एक कहावत को सुनकर मेरे आसपास कुछ अपने दार्शनिक संभावनाओं की घटनायें मंडराने लगती है। जिसके कारण हक़ीकत एक अलग ही ढंग से हमारी ओर बढ़ती हैं। वो कहावत है ,"धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" ये मुहावरा दो शख़्सियतों को आपस में टकराव में लाता है। जो दोनों ही के छोर से हटकर अपनी ही उधेड़बुन में जीना है। आजकल मौहल्लो में चर्चा हो रही है कि कुत्ता करोड़पती बन गया पर आम आदमी पीछे छूट गया। जिसने मौहल्ला रचा है। उसके परिकल्पना और अपने लिए जीने वाली शैलियों की तो जैसे दुनिया ही ओझल है। हाल ही में आई फिल्म के बारे मे लोगों के ख़्यालात कुछ इस तरह के हैं। सब के मुँह पर तरह-तरह के जुमलें हैं तो किसी का चिड़चिड़ा स्वभाव है। टीवी चैनलों और अखबारों में फिल्म के ऊपर अपने तेज दृष्टिकोण डाले हैं जो किसी शहर को छान कर भी पूरी तरह से एक तरह की जीवन शैलियों की आपस में टकराने की आवाज़ों से बना जाल है जिसे देखकर कोई भी सिनेमा मे दिलचस्पी रखने वाला शख़्स यह कह सकता है की फिल्म किसी वर्ग से और उसके इर्द-गिर्द भटकती कल्पनाओं को पूरे तौर से शहर की रोज़मर्रा की तय मे संवारा गया है पर कुछ सवाल और अपने सोच के मुताबिक जगह में संभावनाएँ न ला पाने का फिल्म के नाम को लेकर सीधा-सीधा लोगों को क्या ये मनवाना है की वो जिस रूप को देख रहे हैं या जो जंग हमने छेड़ी है जो आप के भीतर ज्वालामुखी की तरह समाज में नकारे गए और काटे गए कोनों की है। जिसे समाज की भाषा मे असामाजिक तत्व कह कर गुज़र जाने वाले पलट कर नहीं देखते। उस बनाई गई और कानून में गढ़ी गई हकीकत को मोटे पैमानों में कबूल किया जाये। बिना किसी विरोध के बिना बाघी हुए समाज के ही दिए गए अंत को स्वीकार कर के जिया जाए। क्योंकि हम पर सत्ता की आँख रहती है जो समय समय पर हमारे जीवन के नाप लेती रहती है। जिसको हम ये गवाही भी देते हैं की हम उसके आधीन ही जी रहे हैं। मगर जब कोई इंसान इस आँख से बचकर या ओवरटेक करके निकलता है तो उसकी अपनी ऊर्जा को कोई क्यों भूल जाता है। जिसमे तेरा मेरा या ख़ास का ही जीवन महत्व नहीं रखता बल्कि उस में अपने से बनाई गई कहानियों, कृतियों की रचनात्मकता होती है। उसमे सच्चाई कितनी ख़री है ये परखने की ज़रूरत नहीं है। बस, जो आप के अंदर आया आपने ले लिया। उसका एक करूणायी स्पष्टीकरण है जो समाज के गठनों में फूट-फूट कर भरा है। बस, जरूरत है तो इस संम्पूर्ण ज़मीन को छानने की। जिसमे इतिहास अपने किसी वक़्त को लेकर पाताल के धरातल में समाया हुआ है। जो वो है वो नहीं है असल में जो वो नज़र नहीं आता। जो एक रास्ता बन जाता है फिल्म की कहानी को पूर्णरूप में देखने का और जीवन की मार्मिकता को क्रूर से क्रूर रूप में दिखाने का पर आम तौर से देखा जाये तो इस फिल्म के आने से एक किस्म की लोगो मे निराशा सी आ गई है। शायद ये छवि को लेकर सवाल है जो अपने पर भी आक्रामक प्रश्नचिन्ह लगा देता है। पडोस मे जब किसी ने पहली बार सुना तो वो फिल्म के ट्रेलर को देख कर हंसे पर दूसरे क्षण गौर फरमाया तो उनके दिमाग पर जाने पहचाने चेहरे ने दस्तक दी जिसको सामने पा कर वो बौख़ला से गए। अभी तक लोगों के बीच में ये था कि आम ज़िंदगी को जितना भी सोचो उतना ही अपनी ज़िंदगी में इज़ाफा होगा। आपको जो पब्लिक नकारती है वही पब्लिक स्वीकार भी करती है। आखिर जीवन के सौन्दर्य को और भी नज़रियों से उभारा जा सकता है। हँस के दिखाने में करूणा से देखने में अदा को देखने मे उन तमाम संभावनाओं में जो जहाँ अपने जीवन में कल्पना करके जीने की जिद्द लाती है। सिनेमा ने ऐसी बहुता ज़िंदगानियों से आवाम को रू-ब-रू करवाया है जिसमें फिल्म के कैरेक्टर, सीन, कहानी वगैरह जीवन की भावनात्मकता और सकरात्मक सोच से सीधे संवाद बनाती है। ऐसा क्यों होता है कि किसी चीज़ को अद्भुत दिखाने में उसको पहले छीला जाता है, फिर छीलकर उसके रूप को मसालेदार बातों से और तरह-तरह की मिक्स सामग्रियों से बनाया जाता है। मैं इस नज़रिये से असहमत हूँ जिससे लोगो के संग जीने वाली परछाइयों को एनिमेटिड करने के साथ उनके जीवन के संविधानों को कोई बदल देता है, चाहें वो किसी भी तरह क्यों न हो? चाहें तकनीक या मीडिया का बौखलाता इरादा जो मौकों की ताक मे चौकन्ना रहता है और जरा सी आहट पाते ही तपाक से भीड़ में अपने शिकार को धर दबोचता है। फिर जंगल और शहर का फ़र्क हमें भले ही मालूम हो या न हो। शिकारी अपना काम कर ही देता है। केला खाने का भी एक तरीका है पर अगर उसे नंगा करके खाया जाये तो ये उस केले के साथ ज़्यादती होगी। उसका छिलका कैसे उतारना है ये तरीका बनाना होगा। वैसे उतारना है तो आँखों पर लगे उन चश्मों को भी उतारा जा सकता है जो भेदभाव, गरीबी, अमीरी, सही गलत के अलावा कुछ नहीं देख नही पाते हैं। जो शहर को किसी सत्ता की बिखरी विरासत का टुकड़ा बोलकर शहर के ही सम्मुख एक बिलबिलाती तस्वीर रखते हैं पर वो इस शहरनुमा दुनिया को अपने नयेपन में जीने वाली प्रतिभाओ से गहरे तौर से ताहरूफ़ नहीं है। हम कैसे भुला सकते हैं जीवन में कहीं से भी आने वाली एक नई ज़ुबान को जो हमें सोचने और अपनी चाहत से जीने के आयाम देती है। आज समाज में हर तरह की आँख है। ये पता है कि क्या देखना है? क्या नहीं देखना है? कैसे देखना है? किसी की दुखती रग पर हाथ रखोगें तो चितकारती भरी आवाज़ें तो आयेगी ही। कहते हैं कि अच्छाई और बुराई का तो चोली दामन का साथ है फिर सरेआम समाज में मानवता के कपड़े उतारने में क्या हर्ज़ है? जिसको देखना है देखो जिसको नहीं देखना वो मत देखो। गांधी जी ने तो बिना "सिर्फ" शब्द को सोकर तीन बंदरो के स्वभाव को जीवन मे उतारा था, "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो" ये जानवर के अस्तित्व को लेकर इंसान को पाठ पढ़ाने की कक्षा में दाखिला लेने जैसा ही है। जहाँ से हम कुछ तो सीख कर निकलते हैं और वापस समाज में उतरते हैं। ये अपेक्षा लेकर कि समाज हमें अपने मुताबिक बनें अधिकारों में जीने की अनुमति देता है। बतौर हम ये भी जानते हैं कि समाज के अपने नियम और कानून हैं जिस के बाहर आपको सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। क्योंकि ये असंभव है और जहाँ दोमूही तलवार भी है जो काटती है और उकसाती भी है। समाज खुद ही आपके लिए सार्वजनिक जैसी जगहें बना देता है जिसको हम सांझा मान कर जीते हैं। वो सब का ढाँचा होती है जिसमें सब दाखिला पा सकते हैं। हमें उनका पालनकर्ता बनना ही पढ़ता है। नहीं तो सत्ता का संविधान अपने दस्तावेजों से हमारा नाम ख़ारिज़ कर देगा। ये डर हमें अंदर ही अंदर गलाता चला जाता है। फिर माहौल मे अपने को बचाए या अपने अधिकारों की चिंता करें। क्या करें ये फैसला लेना पड़ता है? कभी-कभी हम इस का अंतर्विरोध कर के अपने कोने बना कर जीना शुरू कर देते हैं, और कहीं हम समाज के अधीन हो जाते हैं। ये दोनों तरीके अमेल हैं पर इसको लेकर सब जीते ज़रूर हैं। लेकिन सब जानते हुए भी हम नियमों में अपनी चाहत से जीने की वज़ह बना ही लेते हैं। जिसमें हमारी अपनी सौगातें होती हैं। इसी समाज मे बने नियम और कानूनो में कहीं न कहीं कोई कल्पना की जा रही होती है। जिससे अपने जीवन का फैलाव सत्ता के बने ढाँचे से अलग होता है। जिसमे खुद का सिद्धाँत बना कर जीवन यात्राओं को बेहद लाचिला और जीवनयापन की कालगुज़ारी के असीमित रास्तों के फाटक खुले तो कभी बंद भी होते हैं। आश्चर्य की बात तो ये है कि आम ज़िंदगी को तो जैसे गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ कर रखा है जिसमे श्रमिक वर्ग कहीं भटका सा लगता है। जो कि दुनिया के हर निर्माण की नींव में शामिल है। जिसे विकसित जीवन के लिए सोचा जाता है। उसका आधार ही श्रमिक वर्ग के ऊपर टिका है पर अब सवाल यह है कि शहर और बस्तियाँ कैसे अलग हैं? और क्या जो लोग यहाँ से जाकर शहर में शामिल होते हैं वो लोग कौन हैं? जिनसे सामाज काम लेता है या जो समाज की ऊर्जा है। जो अपने जीवन के साथ-साथ ये भी सोचते है कि दूसरों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ और फ़र्ज भी बनता है। समाज अपने इर्द-गिर्द भी किसी तरह की मलीन वस्तु को बर्दाश्त नहीं कर सकता। किसी भी तरह की वस्तु से 'बू' आने से पहले समाज अपने सिस्टमों को लागू करके अपने से दूरी में जीने वाले वर्ग को आदेशो में ले लेता है। जिससे वो वर्ग सांझी जगह मे फैले अवशेष को नष्ट करने का हुक्म बजाता है। लेकिन सवाल ये है की जब समाज कोई चीज़ अपनाता है तो उस को भोगने के बाद जो जीवन बचता है उसे कहाँ ले जाया जाये? या फिर दोबारा किसी प्रक्रिया को शुरू करने का तरीका निकाला जाये जिससे वापस शहर में चीज़ों को लाया जाये जिससे सीखने की बिल्डिंग तैयार हो सके। प्रयोग या क्रियाकलापों को सोचा जा सके। ये अनुमति सत्ता दे ही नहीं सकती क्योंकि वो अपने ऊपर किसी तरह का प्रभाव पड़ने ही नहीं देना चाहती। वो समझती है कि जो वो खुद चाहती है वो ही प्रयोग लोगों के बीच होना चाहिए जिसे किए गए प्रयोगों का अगर कुप्रभाव पड़े तो लोगों तक ही रहे उसकी सीमाओं में कोई महामारी या किसी तरह की नाकामयाबी का असर प्रवेश न कर पायें। उसके लिए तो आबादी बची हुई है जो हर तरह के प्रभावों को अपने में समा लेती है और दोबारा से वस्तुओं में जीवन फूंकती है। जीवन की जटिल से जटिल और ठोस सच्चाई को पिघलाने के बजाये उसे पथरीला और कांटेदार बनाने की कोशिश होती रहती है। आम ज़िंदगी को गुलाम बनाकर उसे कैद में क्यों रख दिया है। बहुत बड़े पैमाने पर शहर की आबो-हवा मे सांस लेता कोई शख़्स ज़िंदगी के सफ़र को दोहराने के बजाये वो उसमे किसी तरह सरहदों को लांघ कर सपनों को कल्पनाएँ लेकर के जीने की जिद रखता है। जो आम जीवन की ज़मीन पर जिज्ञासा भरे बीज बोना है। इस उम्मीद में के एक दिन उसी बीज से फूट कर नई प्रतिभाएँ अंकुरित होगीं। वो कहीं से भी कैसे भी हमारे समक्ष आ जायेगीं। बस, जरूरत है तो उन्हे समझाने की पर क्या करें समाज में ही मानवता के प्रति लगाव और जीवन को नंगा करके दिखाने की प्रथा पुरानी है जिसमें नई ज़ुबान है ही नहीं। मंच वही है। बस, अंदाज बदला है तेवर बदले हैं। शरीर उतना ही है, कपड़ा छोटा हो गया है। भूख वही है कुछ नये व्यंजन आ गए हैं। जो चखने मात्र ही हैं। उनसे पेट नहीं भरा जा सकता, मन नहीं भरता। समाज वही हैं, लोग भी वही हैं पर और भी कूटनीतियाँ आ गई हैं। कहीं से भी इंसानियत के शरीर पर बने जख़्मो को कुरेद कर उन्हे ताजा किया जाने की फिराक बनी रहती है। जिससे शरीर में दौड़ता खून जब बाहर निकले तो छीटें किसी के चेहरे पर जा गिरे। ज़िंदगी को इससे ज़्यादा क्लाइमेक्स मे और कैसे देख सकते हो? हमें ज़िंदगी में नई ज़ुबान बनाने की जरूरत है वरना इंसान के ख़त्म होने के डर है। शख़्सियतों को बोझ बना कर जीने से तो अच्छा है कि उनकी आँखों से देखा जाये उनके अहसासों से जिया जाये।तब पता लगेगा की जीवन क्या जैसे ओस की बूंद है जिसे छुने के बजाये उसे महसूस करके अपने में उतारना बेहतर है। Sochte huye Rakesh Khairaliya From rakesh at cm.sarai.net Tue Feb 10 17:29:56 2009 From: rakesh at cm.sarai.net (rakesh at cm.sarai.net) Date: Tue, 10 Feb 2009 3:59:56 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkhw==?= =?utf-8?b?4KSC4KS44KS+4KSo4KWLIOCkleClgCDgpKzgpLjgpY3gpKTgpL/gpK/gpYs=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: Hello Doston, हम इंसानो की बस्तियों में गली का कुत्ता करोड़पती बना, ये बोल मैंने जब पहली बार सुने तो बड़ा अजीब सा लगा। जिससे मेरे ख़्यालों में कोई बनावटी चेहरा मुझे मुँह चिढ़ाता हुआ नज़र आ रहा था। मैं जैसे अपने आप से ही दूर भाग रहा था। खुद को पास लाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थी। पर ज़मीन मेरे पैरों तले ही थी। बादलों की गर्जना से भयभीत मन कहीं आसरा पाने की चाह में भटक रहा था, तभी मेरे अन्दर कई सारी आवाज़ें घुस आई। जो मुझे खींच कर वहाँ ले आई जहाँ हक़ीकत के अलावा कुछ न दिखा। मेरे ख़्याल चट्टानों से टकरा कर वापस आने लगे। मैं जाग गया! क्या करूँ? कैसे करूँ? ये मुझे पता लगने लगा। अब मैं वापस उस जगह आ गया था जहाँ से मेरे विचारों ने करवट बदली थी। एक भद्दा प्रसंग सुनकर मुझे कतई भी वो नागवारा था जो जीवन की मार्मिकता को तेज़ाब बनाने की फिराक मे था, जो सच में मेरे ही आसपास से जन्म लेकर अब तक मेरी आस्तिनों में पला वो सर्प नामक शक मुझे डसने वाला था। अभी तक तो वो मेरे ही दिमाग मे बैठा मेरी सारी हरकतों को कंट्रोल कर रहा था। मेरी ज़ुबान के साथ वो अपनी लपलपाती जीभ से मेरे सम्मुख आने वालों पर विष अणु की वर्षा करता। जो मेरे शुभचिंतकों को मुझ से दूर कर रहा था। किसी के पास उस के नाजायज़ होने का सबूत नहीं था। वो दरिंदा कोई भी रूप बदलकर कुशल-मंगल को हिंसा और पाप में बदल कर रख देता। वो मानवता का दुश्मन सब के मन को भंग कर देता। तब सारा भू-मंडल दूषित हवाओं से भर जाता। चारों तरफ बस चीखती, रोती और बिलखती ज़िंदगानियाँ और विद्रोह कर रही आवाज़ों में तिलमिलाती परछाइयाँ ही नज़र आती। जानवर और मानव इन दोनों में ही एक दुनिया है जिसको सिर्फ भूख से देखा जाता है। स्वार्थ से देखा जाता है। ज़रूरत से देखा जाता है, लेकिन कोई करुणा से देखे। एक-दूजे का बन के देखें तो यकीनन सच के ऊपर पड़ा पर्दा उठ जायेगा। आज लोग जीवन में बने रिश्तों को लेकर कई बातें बनाते हैं और खुद ही किसी की नींव रख देते हैं और आप ही किसी को उखाड़ देते हैं। कुत्तों को कई तरह के अभिनय करते हुए सबने देखा पर जब कुत्तों को बहुचर्चित होते देखा तो रहा न गया। शायद इस से बेहतर मेरे पास उदाहरण नहीं हो। लेकिन आजकल इस नस्ल को विभिन्न वर्ग के नुमाइंदों ने अपने शहर से तड़िपार कर दिया है। इसके सिवा आसपास कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा था। जिससे यह साबित होता की करोड़पती का ताल्लुक गलियों में घूमते कुत्तों से नहीं है। इस तरह की पंक्तियाँ बहुत सुनाई पड़ रही है जो हमारी रोज़मर्रा में बेइंतिहाँ शामिल है। वरना जनाब आज के वक़्त में तो ये हालात है की गलियाँ जैसी जगह तरह-तरह के विभाजनों में अपने ही मंथन में फंसी भँवर बन गई है। जिसके शिकंजे में आने वाला शख़्स अपनी भव्यता को खो बैठता है और अपनी ही आलोचनाओं से अपनी मांसपेशियों को खरोचनें लगता है। हम अपने जीने लायक जगह बनाने में लीन रहते हैं, और कोई आता है तो एकदम से सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। जीवन में कई श्रृखलाएं हैं जिनके सहारे हम जीवन बनाते हैं और उसमे परवरिश करते हैं अपने विचारों की धारणाओं की। तब जाकर एक जगह में सैरगाह बनती है जिसमे हर कोई शामिल है।अपनी-अपनी मननशीलता के मुताबिक। मानव और जानवर का रिश्ता इतिहास से चला आ रहा है और इतिहास एक सच्चाई है जिसे नापा या तोला नहीं जा सकता न ही झुठलाया जा सकता है। लेकिन हम इंसानो की बस्तियों में कुत्तों की सैरगाह नहीं होती बस, उनपर अपनी ममता और प्यार लुटाने का बहाना चाहिए होता है। जो बात मैं आप को कहने जा रहा हूँ वो बात मुझे किसी ने कही कि "कुत्तो का जीवन वैश्याओं से कम नहीं हैं।" जब चाहा अपनी जांघ पर बैठा दिया और जब चाहा उसे थपथपा दिया। इंसान और जानवर के बीच बने फ़र्क में ही पूरा रहस्य छिपा है। जिस में मानव जीवन शैली की और जानवर के साथ बनी कहानियों की दुनिया दिखती है जो एक-दूसरे को ज़िंदा रखने के लिए जानी पहचानी जाती है। क्यों कि ज़िंदगी के पैचीदा हालातों को आसपास की संभावनाएँ बड़ी मासूमियत से उभारती है। जैसे एक कहावत को सुनकर मेरे आसपास कुछ अपने दार्शनिक संभावनाओं की घटनायें मंडराने लगती है। जिसके कारण हक़ीकत एक अलग ही ढंग से हमारी ओर बढ़ती हैं। वो कहावत है ,"धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" ये मुहावरा दो शख़्सियतों को आपस में टकराव में लाता है। जो दोनों ही के छोर से हटकर अपनी ही उधेड़बुन में जीना है। आजकल मौहल्लो में चर्चा हो रही है कि कुत्ता करोड़पती बन गया पर आम आदमी पीछे छूट गया। जिसने मौहल्ला रचा है। उसके परिकल्पना और अपने लिए जीने वाली शैलियों की तो जैसे दुनिया ही ओझल है। हाल ही में आई फिल्म के बारे मे लोगों के ख़्यालात कुछ इस तरह के हैं। सब के मुँह पर तरह-तरह के जुमलें हैं तो किसी का चिड़चिड़ा स्वभाव है। टीवी चैनलों और अखबारों में फिल्म के ऊपर अपने तेज दृष्टिकोण डाले हैं जो किसी शहर को छान कर भी पूरी तरह से एक तरह की जीवन शैलियों की आपस में टकराने की आवाज़ों से बना जाल है जिसे देखकर कोई भी सिनेमा मे दिलचस्पी रखने वाला शख़्स यह कह सकता है की फिल्म किसी वर्ग से और उसके इर्द-गिर्द भटकती कल्पनाओं को पूरे तौर से शहर की रोज़मर्रा की तय मे संवारा गया है पर कुछ सवाल और अपने सोच के मुताबिक जगह में संभावनाएँ न ला पाने का फिल्म के नाम को लेकर सीधा-सीधा लोगों को क्या ये मनवाना है की वो जिस रूप को देख रहे हैं या जो जंग हमने छेड़ी है जो आप के भीतर ज्वालामुखी की तरह समाज में नकारे गए और काटे गए कोनों की है। जिसे समाज की भाषा मे असामाजिक तत्व कह कर गुज़र जाने वाले पलट कर नहीं देखते। उस बनाई गई और कानून में गढ़ी गई हकीकत को मोटे पैमानों में कबूल किया जाये। बिना किसी विरोध के बिना बाघी हुए समाज के ही दिए गए अंत को स्वीकार कर के जिया जाए। क्योंकि हम पर सत्ता की आँख रहती है जो समय समय पर हमारे जीवन के नाप लेती रहती है। जिसको हम ये गवाही भी देते हैं की हम उसके आधीन ही जी रहे हैं। मगर जब कोई इंसान इस आँख से बचकर या ओवरटेक करके निकलता है तो उसकी अपनी ऊर्जा को कोई क्यों भूल जाता है। जिसमे तेरा मेरा या ख़ास का ही जीवन महत्व नहीं रखता बल्कि उस में अपने से बनाई गई कहानियों, कृतियों की रचनात्मकता होती है। उसमे सच्चाई कितनी ख़री है ये परखने की ज़रूरत नहीं है। बस, जो आप के अंदर आया आपने ले लिया। उसका एक करूणायी स्पष्टीकरण है जो समाज के गठनों में फूट-फूट कर भरा है। बस, जरूरत है तो इस संम्पूर्ण ज़मीन को छानने की। जिसमे इतिहास अपने किसी वक़्त को लेकर पाताल के धरातल में समाया हुआ है। जो वो है वो नहीं है असल में जो वो नज़र नहीं आता। जो एक रास्ता बन जाता है फिल्म की कहानी को पूर्णरूप में देखने का और जीवन की मार्मिकता को क्रूर से क्रूर रूप में दिखाने का पर आम तौर से देखा जाये तो इस फिल्म के आने से एक किस्म की लोगो मे निराशा सी आ गई है। शायद ये छवि को लेकर सवाल है जो अपने पर भी आक्रामक प्रश्नचिन्ह लगा देता है। पडोस मे जब किसी ने पहली बार सुना तो वो फिल्म के ट्रेलर को देख कर हंसे पर दूसरे क्षण गौर फरमाया तो उनके दिमाग पर जाने पहचाने चेहरे ने दस्तक दी जिसको सामने पा कर वो बौख़ला से गए। अभी तक लोगों के बीच में ये था कि आम ज़िंदगी को जितना भी सोचो उतना ही अपनी ज़िंदगी में इज़ाफा होगा। आपको जो पब्लिक नकारती है वही पब्लिक स्वीकार भी करती है। आखिर जीवन के सौन्दर्य को और भी नज़रियों से उभारा जा सकता है। हँस के दिखाने में करूणा से देखने में अदा को देखने मे उन तमाम संभावनाओं में जो जहाँ अपने जीवन में कल्पना करके जीने की जिद्द लाती है। सिनेमा ने ऐसी बहुता ज़िंदगानियों से आवाम को रू-ब-रू करवाया है जिसमें फिल्म के कैरेक्टर, सीन, कहानी वगैरह जीवन की भावनात्मकता और सकरात्मक सोच से सीधे संवाद बनाती है। ऐसा क्यों होता है कि किसी चीज़ को अद्भुत दिखाने में उसको पहले छीला जाता है, फिर छीलकर उसके रूप को मसालेदार बातों से और तरह-तरह की मिक्स सामग्रियों से बनाया जाता है। मैं इस नज़रिये से असहमत हूँ जिससे लोगो के संग जीने वाली परछाइयों को एनिमेटिड करने के साथ उनके जीवन के संविधानों को कोई बदल देता है, चाहें वो किसी भी तरह क्यों न हो? चाहें तकनीक या मीडिया का बौखलाता इरादा जो मौकों की ताक मे चौकन्ना रहता है और जरा सी आहट पाते ही तपाक से भीड़ में अपने शिकार को धर दबोचता है। फिर जंगल और शहर का फ़र्क हमें भले ही मालूम हो या न हो। शिकारी अपना काम कर ही देता है। केला खाने का भी एक तरीका है पर अगर उसे नंगा करके खाया जाये तो ये उस केले के साथ ज़्यादती होगी। उसका छिलका कैसे उतारना है ये तरीका बनाना होगा। वैसे उतारना है तो आँखों पर लगे उन चश्मों को भी उतारा जा सकता है जो भेदभाव, गरीबी, अमीरी, सही गलत के अलावा कुछ नहीं देख नही पाते हैं। जो शहर को किसी सत्ता की बिखरी विरासत का टुकड़ा बोलकर शहर के ही सम्मुख एक बिलबिलाती तस्वीर रखते हैं पर वो इस शहरनुमा दुनिया को अपने नयेपन में जीने वाली प्रतिभाओ से गहरे तौर से ताहरूफ़ नहीं है। हम कैसे भुला सकते हैं जीवन में कहीं से भी आने वाली एक नई ज़ुबान को जो हमें सोचने और अपनी चाहत से जीने के आयाम देती है। आज समाज में हर तरह की आँख है। ये पता है कि क्या देखना है? क्या नहीं देखना है? कैसे देखना है? किसी की दुखती रग पर हाथ रखोगें तो चितकारती भरी आवाज़ें तो आयेगी ही। कहते हैं कि अच्छाई और बुराई का तो चोली दामन का साथ है फिर सरेआम समाज में मानवता के कपड़े उतारने में क्या हर्ज़ है? जिसको देखना है देखो जिसको नहीं देखना वो मत देखो। गांधी जी ने तो बिना "सिर्फ" शब्द को सोकर तीन बंदरो के स्वभाव को जीवन मे उतारा था, "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो" ये जानवर के अस्तित्व को लेकर इंसान को पाठ पढ़ाने की कक्षा में दाखिला लेने जैसा ही है। जहाँ से हम कुछ तो सीख कर निकलते हैं और वापस समाज में उतरते हैं। ये अपेक्षा लेकर कि समाज हमें अपने मुताबिक बनें अधिकारों में जीने की अनुमति देता है। बतौर हम ये भी जानते हैं कि समाज के अपने नियम और कानून हैं जिस के बाहर आपको सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। क्योंकि ये असंभव है और जहाँ दोमूही तलवार भी है जो काटती है और उकसाती भी है। समाज खुद ही आपके लिए सार्वजनिक जैसी जगहें बना देता है जिसको हम सांझा मान कर जीते हैं। वो सब का ढाँचा होती है जिसमें सब दाखिला पा सकते हैं। हमें उनका पालनकर्ता बनना ही पढ़ता है। नहीं तो सत्ता का संविधान अपने दस्तावेजों से हमारा नाम ख़ारिज़ कर देगा। ये डर हमें अंदर ही अंदर गलाता चला जाता है। फिर माहौल मे अपने को बचाए या अपने अधिकारों की चिंता करें। क्या करें ये फैसला लेना पड़ता है? कभी-कभी हम इस का अंतर्विरोध कर के अपने कोने बना कर जीना शुरू कर देते हैं, और कहीं हम समाज के अधीन हो जाते हैं। ये दोनों तरीके अमेल हैं पर इसको लेकर सब जीते ज़रूर हैं। लेकिन सब जानते हुए भी हम नियमों में अपनी चाहत से जीने की वज़ह बना ही लेते हैं। जिसमें हमारी अपनी सौगातें होती हैं। इसी समाज मे बने नियम और कानूनो में कहीं न कहीं कोई कल्पना की जा रही होती है। जिससे अपने जीवन का फैलाव सत्ता के बने ढाँचे से अलग होता है। जिसमे खुद का सिद्धाँत बना कर जीवन यात्राओं को बेहद लाचिला और जीवनयापन की कालगुज़ारी के असीमित रास्तों के फाटक खुले तो कभी बंद भी होते हैं। आश्चर्य की बात तो ये है कि आम ज़िंदगी को तो जैसे गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ कर रखा है जिसमे श्रमिक वर्ग कहीं भटका सा लगता है। जो कि दुनिया के हर निर्माण की नींव में शामिल है। जिसे विकसित जीवन के लिए सोचा जाता है। उसका आधार ही श्रमिक वर्ग के ऊपर टिका है पर अब सवाल यह है कि शहर और बस्तियाँ कैसे अलग हैं? और क्या जो लोग यहाँ से जाकर शहर में शामिल होते हैं वो लोग कौन हैं? जिनसे सामाज काम लेता है या जो समाज की ऊर्जा है। जो अपने जीवन के साथ-साथ ये भी सोचते है कि दूसरों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ और फ़र्ज भी बनता है। समाज अपने इर्द-गिर्द भी किसी तरह की मलीन वस्तु को बर्दाश्त नहीं कर सकता। किसी भी तरह की वस्तु से 'बू' आने से पहले समाज अपने सिस्टमों को लागू करके अपने से दूरी में जीने वाले वर्ग को आदेशो में ले लेता है। जिससे वो वर्ग सांझी जगह मे फैले अवशेष को नष्ट करने का हुक्म बजाता है। लेकिन सवाल ये है की जब समाज कोई चीज़ अपनाता है तो उस को भोगने के बाद जो जीवन बचता है उसे कहाँ ले जाया जाये? या फिर दोबारा किसी प्रक्रिया को शुरू करने का तरीका निकाला जाये जिससे वापस शहर में चीज़ों को लाया जाये जिससे सीखने की बिल्डिंग तैयार हो सके। प्रयोग या क्रियाकलापों को सोचा जा सके। ये अनुमति सत्ता दे ही नहीं सकती क्योंकि वो अपने ऊपर किसी तरह का प्रभाव पड़ने ही नहीं देना चाहती। वो समझती है कि जो वो खुद चाहती है वो ही प्रयोग लोगों के बीच होना चाहिए जिसे किए गए प्रयोगों का अगर कुप्रभाव पड़े तो लोगों तक ही रहे उसकी सीमाओं में कोई महामारी या किसी तरह की नाकामयाबी का असर प्रवेश न कर पायें। उसके लिए तो आबादी बची हुई है जो हर तरह के प्रभावों को अपने में समा लेती है और दोबारा से वस्तुओं में जीवन फूंकती है। जीवन की जटिल से जटिल और ठोस सच्चाई को पिघलाने के बजाये उसे पथरीला और कांटेदार बनाने की कोशिश होती रहती है। आम ज़िंदगी को गुलाम बनाकर उसे कैद में क्यों रख दिया है। बहुत बड़े पैमाने पर शहर की आबो-हवा मे सांस लेता कोई शख़्स ज़िंदगी के सफ़र को दोहराने के बजाये वो उसमे किसी तरह सरहदों को लांघ कर सपनों को कल्पनाएँ लेकर के जीने की जिद रखता है। जो आम जीवन की ज़मीन पर जिज्ञासा भरे बीज बोना है। इस उम्मीद में के एक दिन उसी बीज से फूट कर नई प्रतिभाएँ अंकुरित होगीं। वो कहीं से भी कैसे भी हमारे समक्ष आ जायेगीं। बस, जरूरत है तो उन्हे समझाने की पर क्या करें समाज में ही मानवता के प्रति लगाव और जीवन को नंगा करके दिखाने की प्रथा पुरानी है जिसमें नई ज़ुबान है ही नहीं। मंच वही है। बस, अंदाज बदला है तेवर बदले हैं। शरीर उतना ही है, कपड़ा छोटा हो गया है। भूख वही है कुछ नये व्यंजन आ गए हैं। जो चखने मात्र ही हैं। उनसे पेट नहीं भरा जा सकता, मन नहीं भरता। समाज वही हैं, लोग भी वही हैं पर और भी कूटनीतियाँ आ गई हैं। कहीं से भी इंसानियत के शरीर पर बने जख़्मो को कुरेद कर उन्हे ताजा किया जाने की फिराक बनी रहती है। जिससे शरीर में दौड़ता खून जब बाहर निकले तो छीटें किसी के चेहरे पर जा गिरे। ज़िंदगी को इससे ज़्यादा क्लाइमेक्स मे और कैसे देख सकते हो? हमें ज़िंदगी में नई ज़ुबान बनाने की जरूरत है वरना इंसान के ख़त्म होने के डर है। शख़्सियतों को बोझ बना कर जीने से तो अच्छा है कि उनकी आँखों से देखा जाये उनके अहसासों से जिया जाये।तब पता लगेगा की जीवन क्या जैसे ओस की बूंद है जिसे छुने के बजाये उसे महसूस करके अपने में उतारना बेहतर है। Sochte huye Rakesh Khairaliya From rajeshkajha at yahoo.com Wed Feb 11 12:10:23 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 10 Feb 2009 22:40:23 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fuel Maithili Evaluation Meet Report Message-ID: <259555.18377.qm@web52906.mail.re2.yahoo.com> Hi, Fuel Maithili Evaluation Meet was organized on 05-06 Feb 2009 in A. N. Sinha Institute of Socail Studies, Patna. The whole program was a great success and participants came with a evaluated Fuel Maithili list of 578 entries. For two full days, several great linguists,  translators, and native users sat together to decide a standard replacement for entries that are coming on upto two-three level of menus of a desktop and applications used very frequently by computer users. In the meet great linguist like Pt. Govinda Jha, Registrar of A. N. Sinha Institute Dr. A. K. Jha, Director of Maithili Academy, Patna Dr. Raghubeer Mochi, reknowned Maithili writer Dr. Ramanand Jha Raman, Mr Mohan Bhardwaj, Prof. Nil Ratan, Prof. Sudhir Kumar and several native users and translators were present. The age range of attendees was from 90 yrs to 20 yrs. Around 25 people participated and the eagerness of people to find better replacement for English was great. By going through the list of words anybody can understand that our cultural and linguistic tradition is very much rich to contain even the computing terminological contexts. The FUEL project is thankful to the A. N. Sinha Institute of Socail Studies, Red Hat, and Maithili Academy. The support of these organization was very much instrumental in making this particular meet successful. We are very much thankful to all the participants also to whose contributions helped to come on the best solution. Please go here for the details: https://fedorahosted.org/fuel/ wiki/fuel-maithili regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090210/c92a3217/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Wed Feb 11 12:59:30 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Wed, 11 Feb 2009 12:59:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSVIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSvIOCkmuCkvuCkguCkuDog4KSJ4KWc4KWN4KSk4KWAIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KSy4KWAIOCkleCliyDgpKrgpJXgpZzgpKjgpYcg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCli+CktuCkv+Cktg==?= Message-ID: *मूलत: तहलका हिन्दी के फ़िल्म समीक्षा खंड 'पिक्चर हॉल' में प्रकाशित* ********** "यह बॉलीवुड का असल चेहरा है. *'लक बाय चांस' *हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए वही है जो *'सत्या' *मुम्बई अन्डरवर्ल्ड के लिए थी." - *'**पैशन फ़ॉर सिनेमा'* पर दर्जएक स्ट्रगलिंग एक्टर का नज़रिया. * * *लक बाय चांस* की शुरुआत ही इसे अन्य हिन्दी फ़िल्मों से अलग (और आगे) खड़ा कर देती है. परस्पर विरोधी छवियों को आमने-सामने खड़ा कर ज़ोया कमाल की विडम्बना रचती हैं. ('विडम्बना', कितने दिनों बाद मैं किसी हिन्दी फ़िल्म की समीक्षा में इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ!) परियों वाले पंख लगाकर सार्वजनिक शौचालय में जाती लड़की, कैंटीन में बैठकर चाय पीते अंतरिक्ष यात्री, सिनेमा हॉल के बूढ़े गेटकीपर से लेकर कोरस में गाती मोटी आन्टियों तक आती तमाम छवियाँ आपको उन लोगों की याद दिलाती हैं जिनके लिए यह सपनों से भरी दुनिया, यह चमक-दमक, यह ग्लैमर महज़ पेट भरने की ज़रूरत, एक नौकरी भर है. शुरुआत से ही इसमें किसी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म सी प्रामाणिकता दिखाई देती है. चाहे वो नायक के दोस्त के घर में बजता रब्बी शेरगिल का 'बुल्ला की जाणा मैं कौण' हो चाहे बकौल मदनगोपाल सिंह 'चड्ढा-चोपड़ा कैम्प' के सच्चे प्रतिनिधि रोमी रॉली (ऋषि कपूर) और मिंटी रॉली (जूही चावला) जैसे चरित्र, *'लक बाय चांस'* हर बारीक़ी का ख्याल रखती है. मैकमोहन जी को देखकर और उनके मुँह से 'पूरे पचास हज़ार' सुनकर तो मेरी आँखों में आँसू आ गए! सच में ज़ोया इस इंडस्ट्री की रग-रग से वाकिफ़ हैं. हर स्तर पर बारीक़ डीटेलिंग इसकी बड़ी खासियत है. इसे *'दिल चाहता है '* से जोड़ा जायेगा. सही भी है, यह फ़रहान की बड़ी बहन ज़ोया की पहली फ़िल्म है और 'दिल चाहता है' के निर्देशक ख़ुद इसमें नायक के रोल में हैं. जब हिन्दी सिनेमा में *'दिल चाहता है' * घटित हुई मैं उस वक़्त सोलह बरस का था. आज मैं चौबीस का होने को हूँ. माने ये कि अपने लड़कपन में *'दिल चाहता है'* देखने वाली मेरी पीढ़ी आज अपनी भरपूर जवानी के दौर से गुज़र रही है. *'लक बाय चांस'* इसी 'दिल चाहता है' पीढ़ी की बात करती है. वो इसी पीढ़ी के लिए है. नये जीवन-मूल्य, चरित्रों में नयापन, सिनेमा में जिन्दगी को देखने का ज़्यादा आम नज़रिया. *'रॉक ऑन' * के बाद आई फ़रहान की यह दूसरी फ़िल्म ज़िन्दगी में आती सफ़लता- असफ़लता और उससे जुड़ी जटिलताओं पर, दोस्ती और प्यार पर, ईमानदारी और रिश्तों में सच्चाई की भूमिका पर *'रॉक ऑन'* जितना इंटेस तो नहीं लेकिन उससे ज़्यादा मैच्योर टेक है. अपने स्वभाव से मुख़र और हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा मैलोड्रेमैटिक 'बॉलीवुड' पर आधारित होने के बावजूद *'लक बाय चांस'* कहीं भी लाउड नहीं है और प्रसंगों को ज़रा भी ओवरप्ले नहीं करती. मुख्य किरदारों में मौजूद सोना मिश्रा (कोंकणा) और विक्रम जयसिंह (फ़रहान) इस ख़ासियत को सबसे अच्छी तरह निभाते हैं. यही बात इसे विषय में अपनी पूर्ववर्ती *'ओम शान्ति ओम' * से एकदम जुदा बनाती है और इसके तार सीधे *'गुड्डी' * जैसी क्लासिक से जोड़ देती है. आप महानायक ज़फ़र खान (रितिक रौशन) को कार के बंद शीशे के पार खड़े झोपड़पट्टी के बच्चों को देखकर तरह-तरह के मुंह बनाते, उनसे खेलते देखिये और आप समझ जायेंगे कि बहुत बार ज़ोया को अपनी बात कहने के लिए संवादों की भी ज़रूरत नहीं होती. यह एक धोखेबाज़ महानायक के भीतर कहीं खो गए बच्चे की खोज है. आधे मिनट से भी कम का यह सीन इस फ़िल्म को कुछ और ऊंचा उठा देता है. यह *'ओम शान्ति ओम'* जैसी नायक-खलनायक वाली द्विआयामी फ़िल्म नहीं. इसमें तीसरा आयाम भी शामिल है जिसे स्याह-सफ़ेद के खांचों में बंटी दुनिया में धूसर या 'ग्रे' कहा जाता है. वो आलोचनात्मक नज़रिया जिसके बाद किरदार 'नायक-खलनायक' के दायरों से आज़ाद हो जाते हैं. लेकिन वो इसका अन्त है जो इसे *'दिल चाहता है'* और *'रॉक ऑन'* से ज़्यादा बड़ी फ़िल्म बनाता है. अन्त जो हमें याद दिलाता है कि बहुत बार हम एक परफ़ैक्ट एन्डिंग के फ़ेर में बाक़ी 'आधी दुनिया' को भूल जाते हैं. याद कीजिए *'दिल चाहता है'* का अन्त जहाँ दोनों नायिकायें अपनी दुनिया खुशी से छोड़ आई हैं और तीनों नायकों के साथ बैठकर उनकी (उनकी!) पुरानी यादें जी रही हैं. या *'रॉक ऑन'* का अन्त जहाँ चारों नायकों का मेल और उनके पूरे होते सपने ही परफ़ैक्ट एन्डिंग बन जाते हैं. अपनी तमाम खूबियों और मेरी व्यक्तिगत पसंद के बावजूद ये बहुत ही मेल-शॉवनिस्टिक अन्त हैं और यहीं *'लक बाय चांस'* ख़ुद को अपनी इन पूर्ववर्तियों से बहुत सोच-समझ कर अलग करती है. *'लक बाय चांस'* इस तरह के मेल-शॉवनिस्टिक अन्त को खारिज़ करती है. फ़िल्मी भाषा में कहूं तो यह एक पुरुष-प्रधान फ़िल्म का महिला-प्रधान अन्त है. ज़्यादा खुला और कुछ ज़्यादा संवेदनशील. एक नायिका की भूली कहानी, उसका छूटा घर, उसके सपने, उसका भविष्य. आखिर यह उसके बारे में भी तो है. यह अन्त हमें याद दिलाता है कि बहुत दिनों बाद इस पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री में एक लड़की निर्देशक के तौर पर आई है! www.mihirpandya.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090211/0411eb30/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Wed Feb 11 23:22:58 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Wed, 11 Feb 2009 11:52:58 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <14392367.1492441234374778365.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// माघ मेला: मालती के बच्चे को सर्दी लग गई Posted: 10 Feb 2009 11:46 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/537158854/blog-post_10.html जितने तंबु उतने मंत्र और उतने हज़ार, दस हज़ार गुना मंत्रोच्चार! आवाज़ों की मारकाट! मिसरी, बताशे की तरह चूसे और चाटे जा रहे मंत्र! किसी तंबु में पचास, किसी में सौ, किसी में दो सौ, किसी में चार सौ सिर. किसी-किसी में छह-सात बजे के आसपास भी चार-पांच भक्‍तजन इस उम्‍मीद से भजनरूप में निकल रहे बाबा उवाचों को गला फाड़-फाड़ कर दोहराते कि मजमा जमेगा क्‍यों नहीं! काश ऐसा हो पाता! सुना होगा आपने भी कि 'फलां ने घर में घुसकर चिलां को ठोक दिया'. लगभग ऐसा ही किया हमारे इलाहाबादी मित्रों ने इस माघ मेले में. और नहीं तो क्‍या! कहां तो तंबुओं और कनातों से अंटा मेला, भांति-भांति के अखाड़ों में अलग-अलग शेड्स के केसरिया में लिपटे साधुओं का जत्‍था, तंबुओं में अनवरत चलते प्रवचनों के दौर , तिथिवार बंटते ब्रह्मचर्य की धर्म-दीक्षाओं, रामलीलाओं, रासलीलाओं, शिवमहिमाओं ..., संगम में एक साथ लगती हज़ारों डुबकियों, धार्मिक भजनों और मुफ़्त बंटते प्रसादों के बीच ही शहरी ग़रीबी संघर्ष मोर्चा, इंसाफ़, विज्ञान फ़ाउंडेशन, इतिहासबोध मंच और मुहिम से जुड़े मित्रों ने मनाया साझी संस्‍कृति और साझी विरासत का महोत्‍सव सिरजन. मेला के बांध के अंदर वाले हिस्से में दाखिल होते ही मेला प्रशासन का बड़ा-सा पंडाल; 29 जनवरी को निराला, नज़ीर, कबीर, कैलाश गौतम, पाश, इत्‍यादि की कविताओं और गीतों से बने बड़े-बड़े पोस्‍टरों से सज़कर नितांत नया नज़ारा पेश कर रहा था. उस पंडाल के लिए उत्‍पला, अंशु, ज़फ़र, जितेन्‍द्र, राकेश, अवनीश तथा कुछ अन्‍य साथियों को बहुत दौड़-भाग करनी पड़ी थी. उसी पंडाल में कानपुर से आए एकलव्‍य के साथी अब्‍दुल ने जब इलाहाबाद शहर की झोपड़पट्टियों से आए सौ से भी ज्‍़यादा बच्‍चों के बीच 'मालती के बच्‍चे को सर्दी लग गयी, हम उसकी गर्म तेल से मालिश करेंगे ...' गा-गा कर सुनाना सुनाना शुरू किया तब अपने-आप वर्कशॉप जमने लगी. उसके बाद अब्‍दुल भाई ने खेल-खेल में रोज़मर्रा के बेहद महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विमर्श पेश किए. ऐं गजब! एक-एक बच्‍चा अब्‍दुल भाई के इशारे पर मस्‍त! एक खेल था 'बात का बतंगड़'. अब्‍दुल भाई ने बच्‍चों को एक बड़े से गोल दायरे में बिठाया और किसी एक की कान में कुछ कहा. और उससे कहा कि अब उसने जो सुना उसे अपनी दायीं ओर वाले बच्चे की कान में कह दे और यह प्रक्रिया अंतिम बच्‍चे के कान तक उस बात के पहुंचने तक चलती रहे. यही हुआ. अब अब्‍दुल भाई ने उस बच्‍ची को बुलाया जिसने सबसे आखिर में बात सुनी थी कि वो सबके सामने बताए कि उसने क्‍या सुना. उस बच्‍ची ने बताया 'मिरची'. अब्‍दुल भाई ने अब उस बच्‍चे को बुलाया जिसके कान में उन्‍होंने कुछ कहा था, और पूछा 'तुमने क्‍या सुना था?' बच्‍चे ने कहा, 'माघ मेला'. ज़ोरदार ठहाका पड़ा. लेकिन हम सब जानते हैं बातें जब इस प्रकार सफ़र तय करती है तो अकसर बदल जाती है. और भी कई रोचक खेल खेलाए अब्‍दुल भाई ने. उसके बाद सिरजन का औपचारिक उद्घाटन करते हुए इलाहाबाद के प्रख्‍यात सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता जिया भाई ने गंगा-जमुनी तहज़ीब के बारे में बताया‍ और इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध और वैमनस्‍य किसी भी दौर में लोकप्रिय नहीं रहे हैं. हमने हमेशा ही अपने सामने वाले का सम्‍मान किया है. जब तक हमारा व्‍यवहार ऐसा बना रहेगा हमारी एकता पर आंच नहीं आ सकता. प्रख्‍यात इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता श्री लालबहादुर वर्मा ने उस मौक़े पर नज़ीर और निराला को याद करते हुए कहा कि 'हमारे पास नज़ीर और निराला जैसी परंपरा है जिससे हम साझापन सीखते हैं'. उस मौक़े पर कुछ सांस्‍कृतिक पर्चे भी जारी किए गए. शाम ढलते ही इलाहाबाद के स्‍कूली बच्‍चों ने सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाइचारे पर नृत्य और गीत के कई कार्यक्रम पेश किए. और देर रात अनिल भौमिक के निर्देशन में 'असमंजस बाबू' नामक एक नाटक पेश किया गया. हज़ार-बारह सौ की क्षमता वाले उस पंडाल में आम मेलार्थियों का रेला लगा रहा. लोग आते रहे और कार्यक्रम में मग्‍न होते रहे. इस तरह सिरजन का पहला दिन समाप्‍त हुआ. (...जारी) -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090211/e14e7c3a/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Feb 12 13:52:15 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 12 Feb 2009 13:52:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpKjgpYfgpJ/gpLXgpLDgpY3gpJU=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkruClh+CkgiDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLAg?= =?utf-8?b?4KSt4KWAIOCkueCli+CkguCkl+ClhyDgpLbgpL7gpK7gpL/gpLI=?= Message-ID: <829019b0902120022i21822cd0ubad7f617f953cca3@mail.gmail.com> अभी थोड़ी देर पहले ही बैंग्लूर से सीमा सचदेवने मेल के साथ, दक्षिण भारत (दैनिक समाचार पत्र) बैंग्लूर संस्करण की कटिंग भेजी है। बधाई देते हुए लिखा है कि कल आपने अपने ब्लॉग पर जो लिखा है-"ब्लॉग के जरिए बन सकती है न्यूज नेटवर्किंग" उसकी चर्चा इस अखबार में है। मैंने सोचा आपको बता दूं। इस मसले पर बातचीत बढ़ाई जाए, इसके पहले सीमा का बहुत-बहुत धन्यवाद। इस अखबार ने ब्लॉग बाइट्स के तहत मेरी पोस्ट की चर्चा की है जिसमें मैंने आनेवाले समय में ब्लॉग के जरिए न्यूज नेटव्रकिंग खड़ी होने की बात की है। हलॉकि अखबार ने हूबहू मेरी पोस्ट नहीं छापी है,कुछ अपनी तरफ से भी फेरबदल किया है लेकिन दिलचस्प है कि जिस बात को मैं संभावना के तौर पर देख रहा हूं, उसे अखबार ने पुष्टि के तौर पर पेश किया है। अखबार की लाइन है- इस बात का प्रमाण भी काफी मिल रहा है कि मुख्यधारा की मीडिया ब्लॉगरों के पीछे चल रहा है। ब्लॉग के शुरुआती दौर को याद करें तो ब्लॉगिंग कर रहे लोगों की जब अखबारों और मेनस्ट्रीम की मीडिया ने सुध लेने शुरु की तो इस बात की संभावना बनी कि आने वाले समय में ब्लॉग मेनस्ट्रीम मीडिया की तुरही बनकर रह जाएगा। अखबार में कुछ लोगों को ब्लॉग के उपर बात करने का मौका मिला। चर्चाकार ब्लॉग में चल रहे सामयिक संदर्भों, प्रासंगिकता और पसंद के हिसाब से ब्लॉगों और पोस्टों की चर्चा करने लगे। जिस किसी की पोस्ट छपती वो इसे अपने ब्लॉग पर लगाने लगे ( जैसा कि आज मैं भले ही पहली बार हो, कर रहा हूं)। कई लोगों को ब्लॉग के जरिए पहचान मिली और प्रिंट माध्यम में भी इनकी दखल बढ़ी। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि जितनी आसानी से प्रिंट में ब्लॉग कर रहे लोगों को पहचान मिली, संभवतः सीधे एप्रोच करने पर वक्त लग जाता। मैंने महसूस किया कि ब्लॉग को लेकर जो ज्यादा सीरियस हैं, लगातार लिखना चाहते हैं वो धीरे-धीरे प्रिंट माध्यमों की तरफ स्विच करते चले जाएंगे। दूसरी स्थिति ये बनी कि लोगों ने अपने-अपने ब्लॉग को डॉट कॉम में बदल दिया और उसे उसी रुप में स्थापित करने में जुट गए। यहीं से ये साप होने लगा कि लोग ब्लॉगिंग सिर्फ और सिर्फ अपने अनुभव बांटने के लिए नहीं कर रहे हैं। इसके जरिए वो एक बड़ी उड़ान भरने की तैयारी में हैं। अभिव्यक्ति का नया आकाश, पहचान की एक नयी दुनिया और जाहिर है कुछ हद तक खर्चे पानी के लिए एक वैकल्पिक स्रोत। इन सबके लिए उन्होंने पूरी उर्जा के साथ काम करने शुरु कर दिए। मेनस्ट्रीम की मीडिया को नॉट एनफ बताने लगे और खबरों का विश्लेषण अपने तरीके से करने लगे। कुछ उन खबरों को भी जुटाने लगे जो कि अब तक खबर ही नहीं बन पाते। मीडिया संस्थानों के भीतर जो खबरों की भ्रूण हत्याएं होती रही, उसमें कमी आने लगी। अगर आप खबरों की हत्या औऱ उसके दबाए जाने के मसले पर बात करें तो मीडिया संस्थान भी एक जरुरी स्पॉट होगा। अब मीडिया के भीतर की खबरें तेजी से अंतर्जाल में आने लगे। खबरें बदलने लगी, खबरों का मिजाज बदलने लगा औऱ खबरों की वरीयता बदलने लगी। एकबारगी तो ऐसा लगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया और ब्लॉग आपस में लड़ पड़ेगे, इन दोनों के बीच जमकर मार-काट होगी। इसकी वजह भी साफ रही। ब्लॉग ने मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़े लोगों के रवैये के प्रति जिस स्तर पर असहमति जतायी, वही ब्लॉगर के कीबोर्ड उनकी आंखों में चुभने लगे। देश और दुनिया के मसले पर साझा-साजा करते लेकिन जैसे ही मामला मीडिया का आता, उदासीन बन जाते। तीसरी स्थिति ये भी बनी कि मीडिया के भीतर कई विभीषण पैदा हुए। संस्थानों के मेल इधर-उधर भेजने लग गए। उसे पब्लिक डोमेन में लाने की छटपटाहट बढ़ने लगी। इस मामले में उनकी सक्रियता इस हद तक बढ़ी कि पहचान की प्राथमिकता तक बदलती मालूम होने लगी- पहले वो ब्लॉगर हैं, तब पत्रकार। पेशे की शर्तों से मुक्त एक लिक्खाड़। ब्लॉग के भीतर ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसलिए यहां तक तो मामला साफ है कि आनेवाले समय में कुछ संस्थानों के भीतर पत्रकारिता कर रहे पत्रकार इस ब्लॉग के जरिए बननेवाले न्यूज नेटवर्क में खुलकर सामने आएंगे। संभव है इस नए मिजाज की नेटवर्किंग में भुला दिए गए पत्रकारों के तेवर फिर से प्रासंगिक हो उठे।... अखबार की कटिंग के लिए क्लिक करें- http://taanabaana.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090212/1dbec5be/attachment.html From vihaanshashvat647 at gmail.com Thu Feb 12 15:25:03 2009 From: vihaanshashvat647 at gmail.com (vihaan shashvat) Date: Thu, 12 Feb 2009 15:25:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: दोस्तों, बात कतई समझ नही आ रही है. आप फ़िल्म के बारे में लिख रहे हैं या मुक्त चिंतन कर रहे हैं. भाषा की यह कौन सी भंगिमा है? मुझे इतनी हिन्दी तो आती ही है कि फ़िल्म के बारे में कही गई बात समझ जाऊँ. पर आपने तो पूरा रायता ही बिखेर दिया है. मैं एक बार फ़िर पूछना चाहता हूँ कि आप कहना क्या चाहते हैं? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090212/269ac524/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu Feb 12 17:00:48 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 12 Feb 2009 17:00:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200902121700.48796.ravikant@sarai.net> विहान शाश्वत साहब, आपने ये सवाल किससे किया है, किस संदर्भ में किया है, अगर सब्जेक्ट लाइन या किसी और जगह इशारा कर देते तो हमें सहूलियत होती. शुक्रिया रविकान्त गुरुवार 12 फरवरी 2009 15:25 को, vihaan shashvat ने लिखा था: > दोस्तों, > बात कतई समझ नही आ रही है. आप फ़िल्म के बारे में लिख रहे हैं या मुक्त चिंतन > कर रहे हैं. भाषा की यह कौन सी भंगिमा है? मुझे इतनी हिन्दी तो आती ही है कि > फ़िल्म के बारे में कही गई बात समझ जाऊँ. पर आपने तो पूरा रायता ही बिखेर दिया > है. मैं एक बार फ़िर पूछना चाहता हूँ कि आप कहना क्या चाहते हैं? From rakeshjee at gmail.com Thu Feb 12 23:44:43 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 12 Feb 2009 12:14:43 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <12700159.1560761234462483831.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// क्यों ये साधु भिखारी नहीं हैं Posted: 11 Feb 2009 10:25 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/537907064/blog-post_11.html वही मेला प्रशासन वाला पंडाल जो हमारे साथियों ने बड़ी दौड़-धूप के बाद तीन दिनों के लिए हासिल किया था, पिछली रात 'असमंजस बाबू' की प्रस्‍तुति के वक्‍़त मेलार्थियों से ठसाठस भर गया था. धरती से जुड़े साधु-सन्‍यासियों की संख्‍या तुलनात्‍मक रूप से ज्‍़यादा थी. ये वो साधु होते हैं जिन्‍हें आप एक किस्‍म का भिखारी कह सकते हैं. हालांकि मेरे लिए भीख मांगने का धंधा कभी भी सकारात्‍मक नहीं रहा, पर न जाने क्‍यों इन साधुओं को मैं नकारात्‍मक श्रेणी में नहीं डाल पा रहा हूं. अगले दो दिनों के दिनों के दौरान मेला का अनुभव और फिर पंडाल में अपने कार्यक्रमों के ज़रिए और स्‍पष्‍ट हो गया क्‍यों ये साधु भिखारी नहीं हैं और एक ख़ास व्‍यवस्‍था के मारे हुए हैं. अपने पंडाल में लौटने से पहले मैं दो-चार बड़े बाबाओं के पंडालों की ओर आपको ले चलना चाहूंगा. फर्ज कीजिए अभी आप स्‍वामी राकेशदेवजी के पंडाल के मुख्‍य द्वार पर आ पहुंचे हैं. (स्‍पष्‍ट कर लें कि हर पंडाल एक अस्‍थायी घर ही होते हैं, कई तो इतने आलीशान होते हैं कि पांच सितारा भी पीछे रह जाएं) तो स्‍वामी राकेशदेवजी के पंडाल का मुख्‍यद्वार एक तोड़नद्वार-सा है जिस पर आप स्‍वामीजी की प्रवचन मुद्रा वाली तस्‍वीर और कुछ संदेश (मसलन, मानवजीवन अमूल्‍य है, नष्‍ट न होने दो इसे; प्रभुभक्ति ही जीवन का सत्‍य है, इत्‍यादि) युक्‍त फ़्लैक्‍स वाला वृहदाकार पोस्‍टर टंगा पाते हैं. यह सोचते हुए आप अंदर झांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि अंदर का नज़ारा क्‍या है. अंदर से एक आदमी आता है आपसे आपके बारे में पूछता है और ये जानने पर कि आप अंदर के बारे में कुछ जानना चाहते हैं आपसे कहता है, 'अभी विश्राम का समय है; शाम 4 बजे से प्रवचन होगा, तब आइएगा'. उस आदमी की कद-काठी और डील-डौल को देखकर आप वहां से चुपचाप आगे बढ़ जाना ही बेहतर समझते हैं. आगे वाला पंडाल किसी बाबा रमेशजी का पाते हैं. वहां आप कोई प्रवचन हो रहा पाते हैं. थोड़ा ठहर कर सुनते हैं आप, फिर पता चलता है इनकी भक्ति राम से नहीं है इनका इष्‍ट तो कोई मुरलीवाला है. उसकी कारस्‍तानियों को रासलीला कहकर पेश किया जा रहा है. जितनी बातें कही जा रही है उस मुरलीवाले के बारे में, कम से कम आज के 'श्रीराम सेना' वाले तो उसे कब का टांग चुके होते! आप कुछ मिनट बाद आगे बढ़ जाते हैं. एक घेरे में पहुंचते हैं. दिलचस्‍प नज़ारा दरपेश होता है आपके सामने. कुछ मंचासीन महिलाएं भजन गा रही होती हैं और नीचे बिछे पुआल पर कुछ लोग गर्दन हिला-हिला कर हल्‍की थपडियों के साथ उन साध्वियों के उत्‍साहवर्द्धन में लीन दिखने हैं. क्षण भर वहां विलमने के बाद आप जैसे बाहर निकलने के लिए यू-टर्न लेते हैं, कोने में उन साध्वियों की चेहरों वाली तस्‍वीरों के साथ भजनों की सीडियां बिक्री के लिए उपलब्ध पाते हैं. आपको अपने पंडाल की याद आने लगती है क्‍योंकि बाल-मज़दूरी पर पंजाब से आए साथीसुप्रीत और सैमुएल की नाट्य-प्रस्‍तुति का समय होने ही वाला है. मेला प्रशासन का पंडाल. दिल्‍ली से आए ख़ुर्शीद भाई इलाहाबाद के कुछ नौजवानों के साथ 'साझापन' पर बातचीत कर रहे हैं. बीच-बीच में उत्‍पला, अंशु तथा इंसाफ़ के दो अन्‍य साथी भी ख़ुर्शीद भाई की मदद कर रहे हैं. सुबह ग्‍यारह बजे जब वर्कशॉप आरंभ हुई थी उस वक्‍़त कम से कम पांच-छ सहभागियों ने किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के प्रति अपनी कट्टर आस्‍था व्‍यक्‍त की थी. उनकी तबीयत अज़ीब तरह के राष्‍ट्रवाद के बोझ तले दबी थी; दो बजते-बजते लगभग सब इस बात पर सहमत हो गए थे कि 'हम जितने लोग इस कार्यशाला में आए हैं उनमें काफ़ी हद तक समानता है और जो नहीं है वहां हम साझा करने को तैयार हैं'. है न मज़ेदार बात! यक़ीन मानिए हमेशा मुफ़्त में बंटती खिचड़ी खाकर पंडाल में पटाए रहने वाले साधुओं की एक भारी तादाद भी दूर से इस वर्कशॉप का हिस्‍सा बने रहे. पूरे कार्यशाला तक कुछ न बोले. पर 'सौ सोनार के और एक लोहार का' वाले तर्ज पर उनके छोटे-मोटे हस्‍तक्षेप ही यह साबित कर गए कि सधुअई के धंधे में भी सब हरा-हरा नहीं है. वंचनाओं, वर्जनाओं, और भेदभावों से लदी-फदी है सधुअई. प्‍लास्टिक शीट और कंबल को स्‍लीपिंग बैग की तरह चिपकाए टहलने वाली साधुओं की वह जमात कम-से-कम कट्टर नहीं दिखी. वह धर्म-कर्म के धंधे में फैले सोपान-व्‍यवस्‍‍था की मारी हुई लगी. किसी भी वृहदाकार पंडाल में ऐसे किसी धरतीपकड़ बाबा को गर्दन हिला-हिलाकर भक्तिरस में विभोर होते नहीं पाया. वहां तो बाबाजी के शरणागतों में ज्यादातर गृहस्‍थ जीवन से दिखे जिनका डील-डौल भारतीय मध्‍यवर्ग से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता लगा. शायद बातचीत के क्रम में कुछ कारण्‍ा उभर कर सामने आए. (जारी) -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=22243179&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090212/0305c2fb/attachment-0001.html From neelimasayshi at gmail.com Thu Feb 12 20:42:50 2009 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Thu, 12 Feb 2009 20:42:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: <200902121700.48796.ravikant@sarai.net> References: <200902121700.48796.ravikant@sarai.net> Message-ID: <749797f90902120712v6870282p9399598c4f4f0523@mail.gmail.com> रायता बिखेरना अच्‍छा मुहावरा है, इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए। शुक्रिया 2009/2/12 Ravikant > विहान शाश्वत साहब, > > आपने ये सवाल किससे किया है, किस संदर्भ में किया है, अगर सब्जेक्ट लाइन या > किसी और जगह इशारा > कर देते तो हमें सहूलियत होती. > > शुक्रिया > > रविकान्त > > गुरुवार 12 फरवरी 2009 15:25 को, vihaan shashvat ने लिखा था: > > दोस्तों, > > बात कतई समझ नही आ रही है. आप फ़िल्म के बारे में लिख रहे हैं या मुक्त > चिंतन > > कर रहे हैं. भाषा की यह कौन सी भंगिमा है? मुझे इतनी हिन्दी तो आती ही है कि > > फ़िल्म के बारे में कही गई बात समझ जाऊँ. पर आपने तो पूरा रायता ही बिखेर > दिया > > है. मैं एक बार फ़िर पूछना चाहता हूँ कि आप कहना क्या चाहते हैं? > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090212/04f3cc86/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Feb 13 18:54:39 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 13 Feb 2009 18:54:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: <749797f90902120712v6870282p9399598c4f4f0523@mail.gmail.com> References: <200902121700.48796.ravikant@sarai.net> <749797f90902120712v6870282p9399598c4f4f0523@mail.gmail.com> Message-ID: <200902131854.40563.ravikant@sarai.net> जी बिल्कुल,.. दिल्ली और इसके आसपास इस मुहावरे के और रूप मिलते हैँ: जैसे रायता फैलाना, रायता मचाना, आदि. रविकान्त गुरुवार 12 फरवरी 2009 20:42 को, आपने लिखा था: > रायता बिखेरना अच्‍छा मुहावरा है, इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए। शुक्रिया > > > 2009/2/12 Ravikant > > > विहान शाश्वत साहब, > > > > आपने ये सवाल किससे किया है, किस संदर्भ में किया है, अगर सब्जेक्ट लाइन या > > किसी और जगह इशारा > > कर देते तो हमें सहूलियत होती. > > > > शुक्रिया > > > > रविकान्त > > > > गुरुवार 12 फरवरी 2009 15:25 को, vihaan shashvat ने लिखा था: > > > दोस्तों, > > > बात कतई समझ नही आ रही है. आप फ़िल्म के बारे में लिख रहे हैं या मुक्त > > > > चिंतन > > > > > कर रहे हैं. भाषा की यह कौन सी भंगिमा है? मुझे इतनी हिन्दी तो आती ही है > > > कि फ़िल्म के बारे में कही गई बात समझ जाऊँ. पर आपने तो पूरा रायता ही > > > बिखेर > > > > दिया > > > > > है. मैं एक बार फ़िर पूछना चाहता हूँ कि आप कहना क्या चाहते हैं? > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Fri Feb 13 18:51:09 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 13 Feb 2009 18:51:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= chaddi campaign: ek khayal yeh bhi Message-ID: <200902131851.11052.ravikant@sarai.net>  posted by आशीष कुमार 'अंशु' प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women ) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि *'जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.'* तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की *वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं*. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता. इनकेप्सुलेटेड संदेश का अंत From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Feb 14 15:14:21 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 14 Feb 2009 15:14:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWI4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkleCkviDgpKjgpLbgpL4=?= Message-ID: <6a32f8f0902140144u4a1e459aj9c313d7f8727e1d7@mail.gmail.com> वैलेंटाइन का नशा हिन्दी सिनेमा में मजाज़ी इश्क़ (सांसारिक प्रेम) पर लिखे गीतों के रुतबे को तो सभी महसूस करते ही होंगे ! इधर मैं कुछ दिनों से इश्क़-विश्क के उन गीतों को ढूंढ रहा था जो खासकर वैलेंटाइन डे पर लिखे गए हैं। अभी सफर जारी है। इस दौरान तत्काल जो गीत मुझे याद आया वह फिल्म बागवान का है। बोल है- *चली इश्क की हवा चली*। यकीनन यह गीत मजेदार व ऒडीटोरियम-फोडू है। लेकिन बालीवुड में गीत का जो इतिहास है, उसमें बहुत बाद का है। थोड़ा पहले का मिले तो मजा आ जाए। और आप सब का सहयोग मिले तो फिर क्या कहने हैं ! खैर ! यह वैलेंटाइन डे जितना सिर चढ़कर बोल रहा है, गीत ढूंढते वक्त ऐसा लगता नहीं कि इसकी जड़ उतनी गहरी है। इसपर बातचीत पूरी खोज के बाद। लेकिन, इसमें शक नहीं कि यदि वैलेंटाइन डे से ज्यादा बिंदास डे कोई आ गया तो इस डे के मुरीद उधर ही सरक जाएंगे। ठीक है। इश्क के इजहार का वे जो भी तरीका अख्तियार करें यह तो उनका निजी मसला है। लेकिन कई बार यह भी सच मालूम पड़ता है कि इस कूचे की सैर करने वाले इश्क की नजाकत भूला बैठते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह बालीवुड- *चलो दिलदार चलो**, चांद के पार चलो, **हम हैं तैयार चलो...।* जैसे रूहानी गीत कम ही तैयार करने लगा है। अब के गीतों में तो केवल सुबह तक प्यार करने की बात होती है। याद करें- *सुबह तक मैं करुं प्यार...।* ये दोनों ही गीत अपने-अपने दौर में खूब सुने गए। कई लोग मानते हैं कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद अब इश्क कई जगह टाइम-पास यानी सफर में चिनियाबादाम जैसी चीज बनकर रह गया है। यहां रूहानियत गायब है और कल्पना का भी कोई मतलब नहीं रहा। संभवतः इसमें कुछ सच्चाई हो तभी तो कई लोग वैलेंटाइन डे को लेकर हवावाजी कर रहे हैं और ठाठ से अपनी दुकान चमका रहे हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090214/1c5f93ab/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sat Feb 14 16:27:33 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sat, 14 Feb 2009 16:27:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWI4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkleCkviDgpKjgpLbgpL4=?= Message-ID: <6a32f8f0902140257y29397aftcf1f91f2a875d733@mail.gmail.com> हिन्दी सिनेमा में मजाज़ी इश्क़ (सांसारिक प्रेम) पर लिखे गीतों के रुतबे को तो सभी महसूस करते ही होंगे ! इधर मैं कुछ दिनों से इश्क़-विश्क के उन गीतों को ढूंढ रहा था जो खासकर वैलेंटाइन डे पर लिखे गए हैं। अभी सफर जारी है। इस दौरान तत्काल जो गीत मुझे याद आया वह फिल्म बागवान का है। बोल है- चली इश्क की हवा चली। यकीनन यह गीत मजेदार व ऒडीटोरियम-फोडू है। लेकिन बालीवुड में गीत का जो इतिहास है, उसमें बहुत बाद का है। थोड़ा पहले का मिले तो मजा आ जाए। और आप सब का सहयोग मिले तो फिर क्या कहने हैं ! खैर ! यह वैलेंटाइन डे जितना सिर चढ़कर बोल रहा है, गीत ढूंढते वक्त ऐसा लगता नहीं कि इसकी जड़ उतनी गहरी है। इसपर बातचीत पूरी खोज के बाद। लेकिन, इसमें शक नहीं कि यदि वैलेंटाइन डे से ज्यादा बिंदास डे कोई आ गया तो इस डे के मुरीद उधर ही सरक जाएंगे। ठीक है। इश्क के इजहार का वे जो भी तरीका अख्तियार करें यह तो उनका निजी मसला है। लेकिन कई बार यह भी सच मालूम पड़ता है कि इस कूचे की सैर करने वाले इश्क की नजाकत भूला बैठते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह बालीवुड- चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो, हम हैं तैयार चलो...। जैसे रूहानी गीत कम ही तैयार करने लगा है। अब के गीतों में तो केवल सुबह तक प्यार करने की बात होती है। याद करें- सुबह तक मैं करुं प्यार...। ये दोनों ही गीत अपने-अपने दौर में खूब सुने गए। कई लोग मानते हैं कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद अब इश्क कई जगह टाइम-पास यानी सफर में चिनियाबादाम जैसी चीज बनकर रह गया है। यहां रूहानियत गायब है और कल्पना का भी कोई मतलब नहीं रहा। संभवतः इसमें कुछ सच्चाई हो तभी तो कई लोग वैलेंटाइन डे को लेकर हवावाजी कर रहे हैं और ठाठ से अपनी दुकान चमका रहे हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090214/4108b807/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Feb 14 17:20:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 14 Feb 2009 17:20:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KWHIOCkquCljeCksOCli+CkoeCljeCkr+ClguCkuOCksCDgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkheCkq+Clh+Ckr+CksCDgpKTgpJUg4KS54KWL4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSCIOCkpuCkv+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: <829019b0902140350h10c68971nea78fab21b7db8c3@mail.gmail.com> लो विनीत भइया, बहुत पैसे बर्बाद किए हो अब तक, फ्री में जाकर पिलाना कॉफी अबकि बार। बाबू( अब मेरा दोस्त, जब से मैंने लेख लिखना शुरु किया, लगभग तभी से उसने टाइपिंग औऱ फोटो कॉपी करनी सीखी)। बाबू मुझे कपल कॉफी कूपन पकड़ा रहा था। मैंने बस इतना कहा-बाबू एक ही दो, एक तुम रख लो। उसने कहा,नहीं मेरे पास एक औऱ कपल है। बाबू कपल का मतलब एक या एक साथ समझ रहा था, वो कंपनी की भाषा समझ रहा था जबकि मैं कपल का मतलब दो समझ रहा था। मैंने कहा- नहीं बाबू, एक तो मैं जाउंगा नहीं और दूसरा गया भी तो अकेले, तो एक कूपन तो बर्बाद ही हो जाएगा न। बाबू ने फिर अरे भइया- आप तो ऐसे बात कर रहे हो, कि जैसे नौ जानते हो, छह नहीं जानते। कपल टिकट में आपको अकेले कैसे जाने दे देगा। और फिर तुम अकेले काहे जाओगे, ऐसे दुकान पर हर बार किसी न किसी के साथ आते हो और मौके पर जाना होगा तो अकेले। हद हो आप भी। मैंने फिर कहा- अरे बाबू टाइपिंग कराने तो कोई भी किसी के साथ आ सकती है लेकिन कॉफी पीने और वो भी चौदह को। चलो रखो, अपना कूपन और मुझे चलता करो। बाबू ने कहा- अब काट लो मेरा चुतिया, पूरे पटेल चेस्ट में तुम मेरी ही काट सकते हो। तुम हनुमानजी के आगे जाकर भी कसम खाओगे न कि कोई नहीं है तो वो भी नहीं मानेगा औऱ मान भी गया तो कहेगा- तो पांच साल तक कैंपस में रहकर कटा रहे थे। कॉफी शब्द जैसे ही मेरे कानों में पड़ते हैं उसके स्वाद से पहले मैं एक पंचलाइन याद करता हूं- ए लॉट कैन हैपेन ओवर ए कॉफी। ए लॉट का मतलब क्या हो सकता है, कुछ भी हो सकता है लेकिन वो नहीं हुआ जिसके बारे में बाबू तकसीद कर रहा था। जल्दी में तो कई बार अधूरे कप को छोड़कर भागना पड़ा, कई बार ऑर्डर कैंसिल करानी पड़ी औऱ कई बार फिर कभी बोलकर मामले को टाल दिया गया। कंपनी ने जिस भरोसे के साथ ये पंचलाइन नत्थी की है, एक समय के बाद हम सबका भरोसा टूटने लगा था। हम सब एक साथ लेकिन अलग-अलग चैनल में काम करने आए थे। कुछ का मामला पहले से बना हुआ था, सो चैनल में आकर गहरा रहा था। अटकलें और विमर्श के दौरान लोग समझाते कि विनीत तुम्हें इन सबके बीच के मामले को अफेयर से आगे की चीज समझनी चाहिए। अफेयर तो सेंट्रल बैंक से डिमांड ड्राफ्ट बनवाते समय ही हो गया था। ये सारे आइएमसीसी से आगे लोगों की बात करते। कईयों का मामला गहरा रहा था यहां आकर। अपनी सर्किल में ज्यादातर आइएमसीसी के लोग ही थे। कई मौके पर आजमाए हुए, एक-दो बार यूपीएससी की पीटी देकर पिटे हुए। मैं उनसे पूछता- तुम तो आइएमसीसी में थे, कुछ नहीं किया। पीछे से राणा कहता- अरे नहीं,ये वहां बुलेटिन बनाता था औऱ कुछ नहीं करता था। लेकिन तुम बताओ, विद्या भवन में तुम क्या करते रहे और चार साल डीयू में। मैं अपने उपर ही ठहाके लगाता- अरे मेरा तो ज्यादा समय एक लड़की को एंकर बनाने में ही लग गया। फिर चारों तऱफ से ठहाके। आमतौर पर हुआ ये है कि जब कॉलेज में, इन्स्टीच्यूट में और यहां चैनल के भीतर जिस किसी का मामला नहीं जमा, उसने फटाक से नैतिकता का चोला ओढ़ लिया। तुमको क्या लगता है- वो जो जा रही है, नहीं मान जाएगी। हम ही घास नहीं देते हैं, हम जानते हैं, उसका भूगोल सही होते हुए भी इतिहास बहुत अच्छा नहीं है, एक साल पढ़े हैं बाबू, उसके साथ,खूब लीला-कीर्तन देख लिए हैं। अब कुछ नहीं। पीछे से मैथिल कहता- मां-बाप यही सब करने भेजा है, तुमको पता नहीं है,यहां कितने बड़े-बड़े तोप आए, आज उसका भी गोयनका एवार्ड के लिए नाम रहता लेकिन वही- लंगोट का कच्चा, गए तेल लेने। मैं तो साफ कहता हूं भाई, मीडिया लैन में लंगोट पर लगाम जरुरी है, नहीं तो तीन में न तेरह में, डोलते रहोगे डेरा में। स्साला एक बार ट्रेनी का लेबल हटा कि दस लाख से कम कौन नगदी देगा रे। मैं कहता मैथिल-गाड़ी लेना तो चैनल की स्टीकर ऑरिजनल लगाना, सब फोटो कॉपी करके चिपकाया रहता है। एंकर आइटम शब्द हमलोगों के बीच बहुत पॉपुलर था। इस शब्द का प्रयोग हम उन लड़कियों के लिए करते जो आयी तो हमारे साथ ही, पैसे भी उतने ही मिलते थे लेकिन वो प्रोड्यूसर लेबल से नीचे लोगों से बात ही नहीं करती। मुझे सीढ़ियों पर मिल जाती तो गाल छूते हुए कहती- और बच्चे,कभी-कभी हीरो, तेरा एफ-एम पर काम कैसा चल रहा है। वो आगे बढ़ जाती, मैं पुकारता- अरे सुनो तो सवाल किया तो जबाब भी तो सुन लो- बहुत बेकार चल रहा है, कुछ हेल्प कर दो। वो कहती- तुम मेरी काट रहे हो, मैं मान ही नहीं सकती कि अच्छा नहीं चल रहा होगा। अपने सर्किल के लोग कभी-कभी मुझे जात-बिरादरी से बाहर करने की बात करते। कहते-स्साला हट, तू मउगा है, लड़की से हंस-हंस के बतियाता है और हमारे सामने साध बनता है। मैं कहता मैं लड़कियों से कहा बतियाता हूं, वो तो एंकर आइटम है। अपने सर्किल में दो-तीन लड़कियां भी थी। एंकर आइटम की शिकायत वो भी जमकर करती, वो भी उसके साथ आयी थी लेकिन ऑफ स्क्रीन और मेहनतवाला काम, अनसंग हीरो वाला काम। इन लड़कियों को ग्लैमर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी या फिर वैसा कभी मौका नहीं मिला, इसलिए बॉस के बारे में वही राय रखती जो कि हम सब गुपचुप तरीके से रखते थे। हममें से ज्यादातर लोग चों-चों करनेवाले कपल को गरियाते। जाकर पूछते- चलोगी लंच करने और हममे से ही कोई लड़की,लड़के के आवाज में कहती- तुम जाओ, एक्स को आने दो, मैं आ जाउंगी। व्यंग्य से हम सब हंसते और फिर अपने भीतर महान होने के एहसास से भर जाते। जब त मे चारो तरफ इश्क और अफेयर की बयार हो औऱ आप कुछ कर नहीं पा रहे हो तो बिना कुछ किए ही चरित्रवान,महान,मासूम और समझदार महसूस करने लग जाते हो। कभी-कभी निरीह और बेचारा भी। लेकिन गाली देते हुए भी, एंकर आइटम बोलकर उन सबको सर्किल से बेदखल करते हुए हममें से ज्यादा भीतर ही भीतर इस बात से सहमत थे कि अगर अफेयर-इश्क मीडिया में रहकर नहीं किए तो समझे किसी भी फील्ड में नहीं कर सकते। इसलिए बिना किसी दिखावे और हो-हल्ला के सब अपने-अपने स्तर पर सक्रिय रहते। हम सब नए थे, चैनल भी रिलांच होना था। इसलिए किसी का काम निर्धारित नहीं था। आज एडिटिंग पर तो कल इन्जस्टिंग पर। जिसको दिन में श को स बोलने पर रिपोर्टिंग में भेजने से मना कर दिया, रात में किसी के न मिलने पर आग लगने पर रिपोर्टिंग के लिए भेज दिया। कभी किसी को दस बजे दिन में बुलाया तो अगले दिन रात के दस बजे। सबकी जिंदगी तंबू बन चुकी थी। जो तीन दिन से लगातार एक समय, एक डेस्क पर आता वो पास काम कर रही लड़की से मिक्स होने की कोशिश करता, बात होने भी लग जाती। हमलोगों के पास सकुचाते हुए आता औऱ कहता- आजभर माफ करना, लंच साथ नहीं कर पाएंगे। कोई कहता- चार साल बाद किसी औरत जात के हाथ का खाना नसीब हुआ है, डकार लेता और हमें जलाता। एक ने कहा- अबे, कुछ लड़कियों को मैंने देखा है कि उपर से एटीट्यूड होता है लेकिन घर का काम भी अच्छा जानती है। बेजोड़ कढ़ी बनाती है। मैं कहता- जैसे कौन। वो कहता- तुम बेटा, पॉलिटिक्स करते हो। हमलोगों ने भी जात-बिरादरी बाहर वाला फंड़ा छोड़ दिया था। सब इस संभावना से लवरेज हो गए थे कि कोई भी बंड़ा या बंड़ी नहीं रह पाते। जिसका काम मुश्किल नजर आता, उसके फेवर में माहौल बनाते, रिवायटल टॉक करते। लेकिन इन सबका, कोई फायदा नहीं होता, हममें से किसी न किसी की शिफ्ट या डेस्क बदल जाती औऱ दो भावी पत्रकारों के सपने उजड़ जाते। अब वो स्क्रीप्ट लेकर अपने पास नहीं आती, उसको फोनो पर लगा दिया गया था, दिखती ही नहीं। सब शिफ्ट खत्म होने पर बाहर आते। उदास औऱ उत्तेजित होकर। स्साला, भोंसड़ी के, प्रोड्यूसर ने अफेयर तक नहीं होने दिया। पैसा देते हो कम तो दो लेकिन इंसान के मन को तो भी समझो। स्साले सब न्यूज ब्रेक करेंगे। यहां सबकी शिफ्ट बदलकर चैनल को बूचड़खाना बना दिया है सो नहीं। लड़कियों की पेट गाली होती, वो आज का हरामी नहीं है, हमारे यहां गेस्ट क्लास लेने आता था चिरकुट। किसी का सुख इससे बर्दाश्त नहीं होता....ऐसे ही पत्नी से थोड़े ही तलाक हुआ है। आज भी मिलते हैं तो सब कहते हैं, स्साले ने अफेयर होने नहीं दिया। बाबू को कूपन लौटाते हुए मैंने फिर दोहराया- ए लॉट कैन हैपन ओवर ए कॉफी।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090214/28df2274/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Feb 15 15:33:57 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 15 Feb 2009 15:33:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KWAIOCkquCkguCkoeCkv+CkpOCli+CkgiDgpJXgpYsg4KS44KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSV4KWN4KS34KS+IOCkleClhyDgpIXgpILgpKbgpL7gpJwg4KSs?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KSo4KWHIOCkueCli+CkguCkl+Clhw==?= Message-ID: <829019b0902150203u5a05e285n90fac9742a0583ab@mail.gmail.com> फिल्मी पंडित( फिल्म क्रिटिक) या तो बॉक्स ऑफिस के हिसाब से फिल्मों की समीक्षा करते हैं या फिर इस हिसाब से कि फलां फिल्म पर ऑडिएंस रिएक्शन क्या होगा। नतीजा ये होता है कि पहले जिस फिल्म को बेकार कहा, बॉक्स ऑफिस के हिसाब से पिट जाने वाला बताया, वो फिल्म जब चल गयी तो अपनी बात बदल दी। रब ने बना दी जोड़ी के बेकार कहा और जब फिल्म चल गयी तो ऑडिएंस की समझ पर ही सवाल उठा दिए। फिल्मी पंडित फिलम की समीक्षा नहीं करते। फिल्म रीलिज होने के पहले हमसे दुनिया भर के सवाल पूछते हैं। वो सारे सवाल फिल्मों को बिना देखे करते हैं, उनमें एक तरह के एजेम्पशन होते हैं, पहले से बनी-बनायी धारणा होती है और उसी को सवाल के तौर पर रख देते हैं।( बीबीसी एक मुलाकात में संजीव श्रीवास्तव के साथ अनुराग कश्यप की बातचीत, रेडियो वन, १५ फरवरी २००९, १२.४८ बजे)। संजीव श्रीवास्तव के इस सवाल पर कि आप फिल्म क्रिटिक को किस रुप में लेते हैं, अनुराग कश्यप ने साफ कहा- ये अच्छी बात है कि फिल्म क्रिटिक होनी चाहिए। लेकिन फिल्म क्रिटिक के नाम पर जो हो रहा है, क्या उसे फिल्म क्रिटिक कहा जा सकता है। ये हमारे यहां ही होता है कि फिल्मों को बॉक्स ऑफिस या फिर ऑडिएंस की पसंद के साथ बांध देते हैं। बाहर ऐसा नहीं होता। अनुराग कश्यप फिल्मी समीक्षा को जिस तरह बॉक्स ऑफिस के साथ बांधने पर( ये मानते हुए कि इस लिहाज से फिल्मों पर बात होनी चाहिए लेकिन सिर्फ यही न हो) आपत्ति जताते हैं, कमोवेश यही हाल मीडिया की आलोचलना के संदर्भ में भी है। हम मीडिया की आलोचना टीआरपी जैसे चालू शब्दों को लेकर करते हैं। हमें पता ही नहीं चल पाता कि हम टीआरीपी जैसे सिस्टम की आलोचना कर रहे हैं या फिर मीडिया की। फर्ज कीजिए अगर टीआरपी जैसा भोकाल मीडिया से चला जाए तो आलोचना का आधार क्या होगा, क्या ये संभव है कि हम टीआरपी के बाहर जाकर भी मीडिया आलोचना के कुछ तर्क विकसित करें। समीक्षा के नाम पर सिर्फ बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर की गयी समीक्षा पर्याप्त नहीं है। ऐसे में तो बात सिर्फ मेनस्ट्रीम, फार्मूला बेस्ड और चालू मुहावरे से जड़ी फिल्मों की ही हो पाएगी, बाकी की फिल्मों का तो कोई सेंस ही नहीं रह जाएगा। दूसरी स्थिति है कि ऑडिएंस के लिहाज से इन फिल्मों की समीक्षा की जाए। ऑडिएंस किसी फिल्म को किस रुप में लेती है या ले रही है। इसमें इस बात की गुंजाइश बढ़ती है कि ऐसी फिल्मों पर भी विचार किया जा सकेगा और किया भी जाता है जो कि बॉक्स ऑफिस के खेल से बाहर है। बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छा नहीं करने पर भी माइल स्टोन के तौर पर जानी जा सकती है। कहीं और न जाकर हम अनुराग कश्यप की फिल्म को ले सकते हैं- सत्या, नो स्मोकिंग, ब्लैक फ्राइडे। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि ऑडिएस आधारित समीक्षा का मतलब है सिनेमा के साथ सोशल इफेक्ट को जोड़कर देखना। लेकिन सोशल इफेक्ट इतना लिनियर और सिंगुलर वर्ड है क्या। आप जैसे ही सोशल इफेक्ट पर आते हैं आपको बिना देखे-समझे दर्जनों फिल्मों के प्रति विरोध झेलने पड़ जाते हैं, संस्कृति, परंपरा, नैतिकता औऱ भी न जाने क्या-क्या। यह सब कुछ ऑडिएंस रिएक्शन के नाम पर, सोशल इफेक्ट के नाम पर।.......आखिर मामला क्या है। अनुराग कश्यप के शब्दों को ही लें तो इश्यू को लोग बहुत कन्जर्वेटिव तरीके से लेते हैं। एक ने कहा- यार तुमने देव डी बड़ील गर फिल्म बना दी है। मैंने कहा- उसमें तो कुछ दिखाया भी नहीं। उन्होंने कहा- तुम लड़की को रजाई लेकर खेत भेजते हो, यहां तक तो चलो फिर भी ठीक है लेकिन, ये क्यों कि तुम्हारे बाल बहुत हैं, सबकुछ ध्यान में आने लगता है। अनुराग का कहना है कि ये जो व्लगरिटी है वो किसमें है, कहां है। सप्रेस्ड सेक्सुअलिटी पर जब स्त्रियां बात करने लगे, सोचने लगे तो पुरुषों को भारी परेशानी होने लगती है औऱ खुद मस्ती जैसी फिल्में देखेंगे। दोहरे चरित्र के साथ जीनेवाले होते हैं ऐसे पुरुष। मामला क्या, अलग-अलग मसलों को लेकर नमूने पेश न भी करें तो एक बात साफ है कि सोशल इश्यू और कल्चर के नाम पर जो बातें की जाती है, चाहे वो सिनेमा के स्तर पर हो या फिर इवेंट के स्तर पर, बात करते वक्त सबों के दामन इतने छोटे कर लिए गए हैं कि जरा-सा कहीं कुछ धुआ नहीं कि हो गया दामन मैला। इस क्रम में यह भी देखना जरुरी नहीं समझा जाता कि जिस ऑडिएंस इफेक्ट की बात कर रहे हैं, वो किस हद तक बदल चुकी है या फिर वो ऑडिएंस औऱ सिटिजन अलग-अलग रुपों में अपनी पसंद-नापसंद रखती है। सिनेमा समीक्षा का एक बड़ा है हिस्सा इसी खांचे में कैद है। इसलिए फिल्म की नयी समीक्षा पद्धति में सोशल रिएक्शन और इम्पैक्ट से ज्यादा जेनरॉ पर बात किया जाना अनिवार्य समझा जाने लगा है। सिनेमा को इस लिहाज से देखने में टिमॉती सैरी(2002) की किताब जेनरेशन मल्टीप्लेक्सः दि इमेजेज ऑफ इन कॉन्टेम्पररी अमेरिकन सिनेमा नयी समझ देती है। कैसे हम जेनरॉ, सोशल इफेक्ट, सिनेमा और सोशल इश्यू के साथ घालमेल करते हैं और दूसरी तरफ बदलाव की सारी उम्मीद इसी सिनेमा से लगा बैठते हैं। सफाई- अनुराग कश्यप के बोल गए शब्द कुछ इधर-उधर हो गए हैं, लेकिन भाव वहीं है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090215/d63f6b3b/attachment-0001.html From rahul24pathak at gmail.com Mon Feb 16 13:27:31 2009 From: rahul24pathak at gmail.com (rahul pathak) Date: Mon, 16 Feb 2009 13:27:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Help Required Message-ID: <61888cf20902152357y725f49b4s40567e79544370b5@mail.gmail.com> Can anyone please tell detailed meaning of the word ATHARVA -- Regards Rahul Pathak -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090216/381fb927/attachment.html From shashikanthindi at gmail.com Mon Feb 16 16:43:11 2009 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 16 Feb 2009 03:13:11 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kyaa baat hai Message-ID: <2b1ae99f0902160313i7f942a0bk816f74d36d01476f@mail.gmail.com> दीवान के साथियों के लिए एक ख़ास ख़बर - शशिकांत ओबामा की नौकरी के लिए आनी चाहिए भोजपुरी या हरियाणवी वॉशिंगटन ।। भोजपुरी और हरियाणवी जैसी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं को संविधान में जगह भले ही नहीं मिली हो लेकिन अमेरिकी सरकार में राजनीतिक पदों के आवेदन करने के लिए इनकी जानकारी होनी चाहिए। बराक ओबामा के प्रशासन ने सरकार की इग्जेक्यूटिव ब्रांच में हजारों राजनीतिक पदों को भरने के लिए जो ऐप्लिकेशन फॉर्म तैयार किया है उसमें भारत की लगभग 20 क्षेत्रीय भाषाओं को जगह मिली है। इस फॉर्म में दुनियाभर की 101 भाषाओं को चुना गया है। आवेदन करने वाले को उन भाषाओं को चुनना होता है जिसकी उसे जानकारी हो। फॉर्म में अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, मगधी और मारवाड़ी भी है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में ये शामिल नहीं हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090216/102aff44/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Feb 17 13:41:02 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 17 Feb 2009 00:11:02 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWC4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g4KSr4KWB4KSyIOCkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSf4KWJ4KSq?= Message-ID: <67116.51746.qm@web52904.mail.re2.yahoo.com> हालांकि मैं अपने सारे काम में फुल स्टॉप लगाता हूँ लेकिन इसके बारे में बहुत स्पष्ट नहीं हूँ. बहुत सारे लोग पूर्ण विराम के समर्थक हैं और कहते हैं कि हिंदी के लिए इसे ही लगाया जाना उचित है. आलसी हूँ इसलिए फुल स्टॉप से काम चलाता हूँ. आपकी क्या राय है... regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090217/f71f6253/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Feb 13 15:55:16 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 13 Feb 2009 15:55:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSh4KWN4KSh?= =?utf-8?b?4KWAIOCkteCkvuCksuCkv+Ckr+CkvuCkgiDgpLXgpLDgpY3gpLjgpYc=?= =?utf-8?b?4KS4IOCkmuCkoeCljeCkoeClhyDgpLXgpL7gpLLgpYc=?= Message-ID: <196167b80902130225u3a20101ah1d86cc827a1ceb76@mail.gmail.com> प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women ) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि *'जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.'* तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की *वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं*. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090213/525a7cd1/attachment-0001.html From vihaanshashvat647 at gmail.com Sat Feb 14 17:07:41 2009 From: vihaanshashvat647 at gmail.com (vihaan shashvat) Date: Sat, 14 Feb 2009 17:07:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bhool-maafi Message-ID: दोस्तों, माफ़ी चाहता हूँ. गलती मेरी ही थी. असल में ये सवाल लखमी और राकेश को संबोधित थे पर पहुँच गए दीवान पर. अर्ज़ यह है कि 'स्लम डॉग' के बारे में लखमी और राकेश बारीक कातने के फेर में कहीं और भटक गए हैं. दोनों टिपण्णी स्लम की ज़मीनी हकीक़त और फ़िल्म में रचित सच्चाई के बारे में कुछ ऐसी कूट भाषा में बात करती हैं कि कथ्य स्पष्ट नहीं हो पाता. दोनों ही टिप्पणियां पहली नज़र में ललचाती हैं पर कुछ पंक्तियों के बाद ही मामला पोलम पोल हो जाता है. फ़िल्म स्लम के समाजशास्त्र को जिस कोण से दिखाना चाहती है उससे लखमी और राकेश को कोई दिक्कत है या नही? असल में इतने शब्द खर्च करने के बाद भी पढने वाले को यह समझ नही आता कि वे कहना क्या चाहते हैं. यहाँ अर्थ शब्दों में ही गुम होकर रह गए हैं. कुल मिला कर ऐसा लगता है जैसे कोई पानी के बुलबुले बना रहा हो. पूरी टेक्स्ट में जैसे ही कोई अर्थ बनना शुरू होता है वैसे ही एक नया बुलबुला नमूदार हो जाता है. साहब लेखन की यह शैली भयावह है और असहनीय रूप से फर्जी लगती है. मुझे तो यह कोरा बौद्धिक प्रपंच लगा. बाकी अगर स्यादवादी मुद्रा अपना ली जाए तो हर प्रत्यय में कोई न कोई अर्थ तो होता ही है. सो यहाँ भी होगा. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090214/0822814c/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Feb 17 15:22:00 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 17 Feb 2009 01:52:00 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWC4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g4KSr4KWB4KSyIOCkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSf4KWJ4KSq?= In-Reply-To: Message-ID: <508981.89162.qm@web52901.mail.re2.yahoo.com> चंदनजी आपके समर्थक भी काफी हैं और उन्होंने इसके लिए कई तर्क रखें हैं http://groups.google.com/group/hindi/browse_thread/thread/d5b85362aee0a43f/5fa8ba02f1794df1?# regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Tue, 2/17/09, chandma1987 at gmail.com wrote: From: chandma1987 at gmail.com Subject: Re: [दीवान]पूर्ण विराम या फुल स्टॉप To: rajeshkajha at yahoo.com Date: Tuesday, February 17, 2009, 3:04 PM फुलस्टॉप  से तो काफ़ी बेहतर पूर्ण विरामही है। क्योंकि मैंने अभी तक के जितने भी आर्टिकल टाइप किए हैं उन सब में पूर्ण विराम ही लगाया है। मेरी राय है कि पूर्ण विराम ही लगाना उचित है। और यह बिल्कुल सही है। Chandan Sharma Computer Operator & Hindi Typist Sarai CSDS 2009/2/17 Rajesh Ranjan हालांकि मैं अपने सारे काम में फुल स्टॉप लगाता हूँ लेकिन इसके बारे में बहुत स्पष्ट नहीं हूँ. बहुत सारे लोग पूर्ण विराम के समर्थक हैं और कहते हैं कि हिंदी के लिए इसे ही लगाया जाना उचित है. आलसी हूँ इसलिए फुल स्टॉप से काम चलाता हूँ. आपकी क्या राय है... regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090217/3d1146ae/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Feb 17 16:29:29 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 17 Feb 2009 16:29:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSq?= =?utf-8?b?4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g4KSr4KWB4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCljeCkn+ClieCkqg==?= Message-ID: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> rajesh, हमारे प्रकाशनोँ मेँ आम तौर पर पूर्ण विराम का ही प्रयोग होता है. लेकिन हम फँसते तब हैँ जब फ़ुटनोट देना होता है, क्योंकि तब आपको अंकोँ का प्रयोग करना होता है, जैसे प्रकाशन वर्ष आदि, और '।' से भ्रम फैलता है. इसलिए हम मूल पाठ में पूर्ण विराम का और फ़ुटनोट में फ़ुल स्टॉप का प्रयोग करते हैं. यानी पगड़ी और कोट का मिश्रण! वैसे हंस पत्रिका में फ़ुल स्टॉप का प्रयोग ही होता है. जहाँ तक आलस का सवाल है, तो राजेश आप तो टेकी भी हैँ - जुगाड़ लगाइए कि आपको पूर्ण विराम के लिए भी उतनी ही मेहनत करनी पड़े जितनी (.) के लिए करनी पड़ती है. एक कुंजी का ही तो हेर-फेर करना है. क्यों? रविकान्त मंगलवार 17 फरवरी 2009 13:41 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > हालांकि मैं अपने सारे काम में फुल स्टॉप लगाता हूँ लेकिन इसके बारे में बहुत > स्पष्ट नहीं हूँ. बहुत सारे लोग पूर्ण विराम के समर्थक हैं और कहते हैं कि > हिंदी के लिए इसे ही लगाया जाना उचित है. आलसी हूँ इसलिए फुल स्टॉप से काम > चलाता हूँ. > > आपकी क्या राय है... > > regards, > -------------- > Rajesh Ranjan    > Kramashah ------------------------------------------------------- From ved1964 at gmail.com Tue Feb 17 19:55:43 2009 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Tue, 17 Feb 2009 06:25:43 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSq?= =?utf-8?b?4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g4KSr4KWB?= =?utf-8?b?4KSyIOCkuOCljeCkn+ClieCkqg==?= In-Reply-To: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> Message-ID: <3452482c0902170625v621a1157uca5831343f3dad60@mail.gmail.com> प्रिय मित्र, विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. मित्रजनों ने तर्क दिए ही हैं. एक यह भी कि जब सारे विराम चिह्न अंग्रेजी के स्वीकार कर लिए तो फिर बेचारे फुलस्टाप से ही एलर्जी क्यों? यह ज्यादा स्पष्ट है, खासकर अंकों के मामले में, सुंदर दिखता है और जनसत्ता तो काफी पहले से फुलस्टाप का प्रयोग कर रहा है. और भी कई पत्रिकाएँ कर रही हैं. लेकिन क्या है कि पुरानी आदत जाते जाते जाती है. वेद प्रकाश On 2/17/09, Ravikant wrote: > > rajesh, > > हमारे प्रकाशनोँ मेँ आम तौर पर पूर्ण विराम का ही प्रयोग होता है. लेकिन हम > फँसते तब हैँ जब फ़ुटनोट देना होता है, क्योंकि तब आपको अंकोँ का प्रयोग करना > होता है, जैसे प्रकाशन वर्ष आदि, और '।' से भ्रम फैलता है. इसलिए हम मूल पाठ > में पूर्ण विराम का और फ़ुटनोट में फ़ुल स्टॉप का प्रयोग करते हैं. यानी पगड़ी > और कोट का मिश्रण! वैसे हंस पत्रिका में फ़ुल स्टॉप का प्रयोग ही होता है. > > जहाँ तक आलस का सवाल है, तो राजेश आप तो टेकी भी हैँ - जुगाड़ लगाइए कि आपको > पूर्ण विराम के लिए भी उतनी ही मेहनत करनी पड़े जितनी (.) के लिए करनी पड़ती > है. एक कुंजी का ही तो हेर-फेर करना है. क्यों? > > रविकान्त > > मंगलवार 17 फरवरी 2009 13:41 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > > हालांकि मैं अपने सारे काम में फुल स्टॉप लगाता हूँ लेकिन इसके बारे में > बहुत > > स्पष्ट नहीं हूँ. बहुत सारे लोग पूर्ण विराम के समर्थक हैं और कहते हैं कि > > हिंदी के लिए इसे ही लगाया जाना उचित है. आलसी हूँ इसलिए फुल स्टॉप से काम > > चलाता हूँ. > > > > आपकी क्या राय है... > > > > regards, > > -------------- > > Rajesh Ranjan > > Kramashah > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090217/f053d66b/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Wed Feb 18 16:44:49 2009 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 18 Feb 2009 03:14:49 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: [Indlinux-group] IRC Chaneel and bot for FUEL Message-ID: <465489.59749.qm@web52906.mail.re2.yahoo.com> regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Wed, 2/18/09, jaswinder Phulewala wrote: From: jaswinder Phulewala Subject: [Indlinux-group] IRC Chaneel and bot for FUEL To: indlinux-group at lists.sourceforge.net Date: Wednesday, February 18, 2009, 4:40 PM Hi We have registered a channel named #fuel-discuss on irc.freenode.net. Also we added one bot(fuelbot) there for helping people through chat if anybody want to know more about fuel. We are still working on fuelbot to make it more useful by adding more features. You all are invited to join #fuel-discuss Suggestions and Ideas are welcome for adding features in fuelbot. Thanks jsingh ------------------------------------------------------------------------------ Open Source Business Conference (OSBC), March 24-25, 2009, San Francisco, CA -OSBC tackles the biggest issue in open source: Open Sourcing the Enterprise -Strategies to boost innovation and cut costs with open source participation -Receive a $600 discount off the registration fee with the source code: SFAD http://p.sf.net/sfu/XcvMzF8H_______________________________________________ IndLinux-group mailing list IndLinux-group at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-group -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090218/21a195cb/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Wed Feb 18 20:04:20 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 18 Feb 2009 20:04:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkp+CkvuCksOCljeCkruCkv+CklSDgpLjgpY3igI3gpKrgpYc=?= =?utf-8?b?4KS4IOCkh+CkpOCkqOCkviDgpKDgpYfgpLgt4KSq4KWN4KSw4KWL4KSo?= =?utf-8?b?IOCkleCljeKAjeCkr+Cli+CkgiDgpJrgpYzgpLngpL7gpKg=?= Message-ID: <8bdde4540902180634p33e13019k47e20b2f050c19b8@mail.gmail.com> आहती जीवों की बन आई है एक समाचार होले से आया और चुपचाप निकल गया, ब्‍लॉगजगत ने नोटिस तो लियापर बस ...। समाचार का संबंध स्‍टेट्समैन के संपादकों की गिरफ्तारी से है। कोलकाता के इस अखबार के संपादकों रवीन्‍द्र कुमार तथा आनन्‍द सिन्‍हा को इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उन्‍होंने इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक लेख को अपने अखबार में पुनर्प्रकाशित किया था। जोहन हरी ने अपने लेख *'व्हाई शुड आई रिस्‍पेक्‍ट दीज आप्रेसिव रिलीजंस'* * में *सवाल उठाया है कि* *हाल के वर्षों में धार्मिक आस्‍थाओं का सम्‍मान करने के नाम पर धार्मिक कठमुल्‍लई पर सवाल उठाने के हक से महरूम करने की साजिश की जा रही है। एक भले लोकतांत्रिक समाज में हर किसी को अपने धर्म में आस्‍था रखने (या न रखने) की आजादी होनी चाहिए। इन समाजों को धार्मिक व्‍यवहारों की आलोचना की भी आजादी होनी चाहिए लेकिन अक्‍सर धार्मिक आस्‍थाओं को चोट न पहुँचाने के नाम पर हम ऊत-बाबली बात बिना आलोचना परीक्षण के फलती रहती है। हरी की मूल आपत्ति है कि भले ही हर इंसान सम्‍मान का हकदार है पर हर विचार का सम्‍मान करने पर विवश करना गैर लोकतांत्रिक है वे सवाल उठाते हैं कि *All people deserve respect, but not all ideas do. I don't respect the idea that a man was born of a virgin, walked on water and rose from the dead. I don't respect the idea that we should follow a "Prophet" who at the age of 53 had sex with a nine-year old girl, and ordered the murder of whole villages of Jews because they wouldn't follow him.* *I don't respect the idea that the West Bank was handed to Jews by God and the Palestinians should be bombed or bullied into surrendering it. I don't respect the idea that we may have lived before as goats, and could live again as woodlice* *(प्रत्‍येक इंसान सम्‍मान का हकदार हे लेकिन हर विचार नहीं। मेरे लिए इस विचार का सम्‍मान करना संभव नहीं कि एक कुंवारी ने आदमी को जन्‍म दिया, कोई पानी पर चला तथा मौत के बाद फिर जिंदा हो गया। मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि हम किसी ऐसे पैगंबर का अनुगमन करें जो 53 साल की उम्र में किसी नौ साल की बच्‍ची से संभोगरत हुआ हो तथा जिसने पूरे के पूरे यहूदी गांव को इसलिए कत्‍ल करने का हुक्‍म दिया हो क्‍योंकि वे उसके भक्‍त बनने को राजी नहीं थे।* *मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि वेस्‍ट बैंक भगवान ने यहूदियों को सौंपा है तथा फिलीस्‍तीनियों पर बमबारी कर उन्‍हें समर्पण करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। मैं इस बात का सममान करने पर राजी नहीं कि हम किसी जन्‍म में बकरी रहे होंगे तथा अगले जन्‍म में घुन बन सकते हैं। )* सेकुलरवाद का अतिवादी अर्थ लेने वाले भारत में इन मूर्खतापूर्ण आस्‍थाओं पर सवाल उठाना और कठिन है। जो लेख इंग्‍लैंड में छपा और अब भी मजे से उपलब्‍ध है उसे केवल पुनर्प्रस्‍ततु करने की सजा के रूप में इन्‍हें गिरफ्तारी सहनी पड़ी। हमेशा की तरह हमारा मानना है कि यदि आस्‍था या ठेस पहुँचाने से बचने की कोशिश में हम धर्म को आलोचना से परे कर देंगे तो स्‍वात घाटी की स्थितियॉं चॉंदनीचौक पर आ पसरेंगी। मजे की बात ये है कि धर्म का सहारा लेकर आप कितनी भी फूहड़ घोषणाएं करें आप पर सवाल नहीं उठाए जाएंगे नही तो स्‍यापा करेंगे कि हाय हाय हमारी आस्‍थाएं आहत हो गई हैं। फिर आप ग्रहों और नजर टोटकों की 'वैज्ञानिक' व्‍याख्‍याएं करें या खांसी चुकाम के लिए ग्रहो, रत्नों, देवों को जिम्‍मेदार ठहराएं... झट स्‍वीकार कर लिया विजेंद्र सिंह चौहान -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090218/e97a4497/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Wed Feb 18 20:11:49 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 18 Feb 2009 20:11:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkp+CkvuCksOCljeCkruCkv+CklSDgpLjgpY3igI3gpKrgpYc=?= =?utf-8?b?4KS4IOCkh+CkpOCkqOCkviDgpKDgpYfgpLgt4KSq4KWN4KSw4KWL4KSo?= =?utf-8?b?IOCkleCljeKAjeCkr+Cli+CkgiDgpJrgpYzgpLngpL7gpKg=?= In-Reply-To: <8bdde4540902180634p33e13019k47e20b2f050c19b8@mail.gmail.com> References: <8bdde4540902180634p33e13019k47e20b2f050c19b8@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540902180641l7133a3deld74b40cdda424e48@mail.gmail.com> कृपया शीर्षक में पुछल्‍ले के रूप में लगे चौहान को इग्‍नोर करें, आजकल ऐसा मेरे सिस्‍टम में बार बार हो रहा है, है।टाईप किया गया अंतिम शब्‍द कर्सर के साथ चिपका चला आता है और अपनी मर्जी से कहीं भी चिपक जाता है... असुविधा के लिए खेद है। विजेंद्र 2009/2/18 Vijender chauhan > आहती जीवों की बन आई है > > एक समाचार होले से आया और चुपचाप निकल गया, ब्‍लॉगजगत ने नोटिस तो लियापर > बस ...। समाचार का संबंध स्‍टेट्समैन के संपादकों की गिरफ्तारी से है। कोलकाता > के इस अखबार के संपादकों रवीन्‍द्र कुमार तथा आनन्‍द सिन्‍हा को इसलिए गिरफ्तार > किया गया कि उन्‍होंने इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक लेख को अपने अखबार में > पुनर्प्रकाशित किया था। जोहन हरी ने अपने लेख *'व्हाई शुड आई रिस्‍पेक्‍ट दीज > आप्रेसिव रिलीजंस'* > * में *सवाल उठाया है कि* *हाल के वर्षों में धार्मिक आस्‍थाओं का सम्‍मान > करने के नाम पर धार्मिक कठमुल्‍लई पर सवाल उठाने के हक से महरूम करने की साजिश > की जा रही है। एक भले लोकतांत्रिक समाज में हर किसी को अपने धर्म में आस्‍था > रखने (या न रखने) की आजादी होनी चाहिए। इन समाजों को धार्मिक व्‍यवहारों की > आलोचना की भी आजादी होनी चाहिए लेकिन अक्‍सर धार्मिक आस्‍थाओं को चोट न > पहुँचाने के नाम पर हम ऊत-बाबली बात बिना आलोचना परीक्षण के फलती रहती है। > > हरी की मूल आपत्ति है कि भले ही हर इंसान सम्‍मान का हकदार है पर हर विचार का > सम्‍मान करने पर विवश करना गैर लोकतांत्रिक है वे सवाल उठाते हैं कि > > *All people deserve respect, but not all ideas do. I don't respect the > idea that a man was born of a virgin, walked on water and rose from the > dead. I don't respect the idea that we should follow a "Prophet" who at the > age of 53 had sex with a nine-year old girl, and ordered the murder of whole > villages of Jews because they wouldn't follow him.* > > *I don't respect the idea that the West Bank was handed to Jews by God and > the Palestinians should be bombed or bullied into surrendering it. I don't > respect the idea that we may have lived before as goats, and could live > again as woodlice* > > *(प्रत्‍येक इंसान सम्‍मान का हकदार हे लेकिन हर विचार नहीं। मेरे लिए इस > विचार का सम्‍मान करना संभव नहीं कि एक कुंवारी ने आदमी को जन्‍म दिया, कोई > पानी पर चला तथा मौत के बाद फिर जिंदा हो गया। मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं > करता कि हम किसी ऐसे पैगंबर का अनुगमन करें जो 53 साल की उम्र में किसी नौ साल > की बच्‍ची से संभोगरत हुआ हो तथा जिसने पूरे के पूरे यहूदी गांव को इसलिए कत्‍ल > करने का हुक्‍म दिया हो क्‍योंकि वे उसके भक्‍त बनने को राजी नहीं थे।* > > *मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि वेस्‍ट बैंक भगवान ने यहूदियों को > सौंपा है तथा फिलीस्‍तीनियों पर बमबारी कर उन्‍हें समर्पण करने के लिए मजबूर > किया जाना चाहिए। मैं इस बात का सममान करने पर राजी नहीं कि हम किसी जन्‍म में > बकरी रहे होंगे तथा अगले जन्‍म में घुन बन सकते हैं। )* > > सेकुलरवाद का अतिवादी अर्थ लेने वाले भारत में इन मूर्खतापूर्ण आस्‍थाओं पर > सवाल उठाना और कठिन है। जो लेख इंग्‍लैंड में छपा और अब भी मजे से उपलब्‍ध है > उसे केवल पुनर्प्रस्‍ततु करने की सजा के रूप में इन्‍हें गिरफ्तारी सहनी पड़ी। > हमेशा की तरह हमारा मानना है कि यदि आस्‍था या ठेस पहुँचाने से बचने की कोशिश > में हम धर्म को आलोचना से परे कर देंगे तो स्‍वात घाटी की स्थितियॉं चॉंदनीचौक > पर आ पसरेंगी। > > मजे की बात ये है कि धर्म का सहारा लेकर आप कितनी भी फूहड़ घोषणाएं करें आप पर > सवाल नहीं उठाए जाएंगे नही तो स्‍यापा करेंगे कि हाय हाय हमारी आस्‍थाएं आहत हो > गई हैं। फिर आप ग्रहों और नजर टोटकों की 'वैज्ञानिक' व्‍याख्‍याएं करें > या खांसी चुकाम के लिए ग्रहो, रत्नों, देवों को जिम्‍मेदार ठहराएं... > झट स्‍वीकार कर लिया > > > विजेंद्र सिंह चौहान > > > > > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090218/0e431513/attachment-0001.html From v1clist at yahoo.co.uk Wed Feb 18 21:15:37 2009 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Wed, 18 Feb 2009 15:45:37 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W09UXSBSZTogRndk?= =?utf-8?b?OiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSr4KWB4KSyIOCkuOCljeCkn+ClieCkqg==?= References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> <3452482c0902170625v621a1157uca5831343f3dad60@mail.gmail.com> Message-ID: <920639.19523.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी शब्द 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| Vickram http://communicall.wordpress.com http://primevalues.wordpress.com ________________________________ From: ved prakash To: ravikant at sarai.net Cc: deewan at sarai.net Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप प्रिय मित्र, विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090218/1cf6a901/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Feb 19 18:25:03 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 19 Feb 2009 18:25:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W09UXSBSZTogRndk?= =?utf-8?b?OiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSr4KWB4KSyIOCkuOCljeCkn+ClieCkqg==?= In-Reply-To: <920639.19523.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> <3452482c0902170625v621a1157uca5831343f3dad60@mail.gmail.com> <920639.19523.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> Message-ID: <200902191825.04466.ravikant@sarai.net> विक्रम कृष्णा साहब, बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब के उर्दू-हिन्दी कोश में नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे हिन्दी-उर्दू दोनों में धड़ल्ले से चलता है। वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और बदतरीन भी। तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते हैँ: तरतमता - जो अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी फ़ारसी+संस्कृत परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों में ता लगाकर विशेषण बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता है, और इस ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात साफ़! रविकान्त पुनश्च: आपने ज़ाक़ राँसिएर पर और सामग्री माँगी थी, अगली डाक में भेज रहा हूँ. रविकान्त बुधवार 18 फरवरी 2009 21:15 को, Vickram Crishna ने लिखा था: > 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? > > मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी शब्द > 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले > अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| > > Vickram > http://communicall.wordpress.com > http://primevalues.wordpress.com > > > > > ________________________________ > From: ved prakash > To: ravikant at sarai.net > Cc: deewan at sarai.net > Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 > Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप > > > प्रिय मित्र, > > विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. From ravikant at sarai.net Fri Feb 20 16:35:08 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 20 Feb 2009 16:35:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Re: Ranciere on youtube Message-ID: <200902201635.10907.ravikant@sarai.net> आप सब के लिए, पर विक्रम कृष्ण साहब ने ख़ास तौर पर फ़रमाइश की थी. सराय मीडिया लैब ने प्रोफ़ेसर ज़ाक राँसिएर के सार्वजनिक व्याख्यान को कैमरे में क़ेद करके यूट्यूब पर डाला है. मज़े लीजिए. रविकान्त On 19-Feb-09, at 12:56 PM, Iram Ghufran wrote: > Dear all > The video recording of 'Revisiting "Nights of Labour"', talk by > Jacques Ranciere on the 6th of Feb at Sarai has been uploaded on > youtube in 6 parts. > The links can be accessed from the Sarai website - > http://www.sarai.net/resources/event-proceedings/events-2009/revisiting-nig >hts-of-labour/jacques-ranciere Warm regards > Iram From ravikant at sarai.net Fri Feb 20 17:47:59 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 20 Feb 2009 17:47:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KSn?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpLLgpYzgpJ8t4KSy4KWM4KSfIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueCliOCkgj8=?= Message-ID: <200902201747.59609.ravikant@sarai.net> नवभारत टाइम्स द्वारा साग्रह लिखवाए जाने के बाद काट-कूट करने का हिसाब चुकता करने के लिए मैं इसे यहाँ डाल रहा हूँ, ताकि सनद रहे, कि मैंने पूरा-पूरा यह लिखा था न कि वह जो 19 फ़रवरी को छपा था गिरिराज किशोर जी के वक्तव्य के साथ तथाकथित बहस करते हुए. पढ़ने का शुक्रिया रविकान्त गांधी क्यों लौट-लौट आते हैं? आशिस नंदी ने अपने एक मशहूर लेख में बताया था कि गांधी को मारनेवाला सिर्फ़ वही नहीँ था जिसकी पिस्तौल से गोली चली थी, बल्कि इस साज़िश को हिन्दुस्तानियोँ के एक बड़े तबक़े का मौन-मुखर समर्थन हासिल था। सत्ता की राजनैतिक मुख्यधारा के लिए वे काँटा बन चुके थे, और चालीस के दशक में उनके अपने चेलोँ ने ही उन्हें हाशिए पर सरका दिया था, क्योंकि बक़ौल पार्थ चटर्जी, राष्ट्र अपनी मंज़िल के क़रीब आ चुका था। पर हम सुमित सरकार के हवाले से यह भी जानते हैँ कि गांधी की जीवन-ज्योति बुझने से ठीक पहले अपनी दिव्य प्रदीप्ति भी छोड़ जाती है, जब बटवारे के दुर्दांत दृष्टांत में कोई और हिकमत काम नहीं आती तो गांधी का खटवास-पटवास ही काम आता है। कहा जा सकता है कि अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ हुई अपनी आख़िरी जंग में हिन्दुस्तानी रिवायतों की रचनात्मक पुनर्परिभाषा करनेवाले गांधी के अपने सांस्कृतिक स्रोत सूखते नज़र आते हैं - ख़ासकर तब जब हम उन्हें महिलाओं को बेइज़्ज़ती की आशंका पर प्राणोत्सर्ग की हिमायत करते देखते हैं। बहरहाल दिलचस्प है कि उनके अपने प्रणोत्सर्ग ने असंभव को संभव कर दिखाया और इस तरह गांधी ने बटवारे के समय मरकर एक ज़ोरदार कमबैक दिया, और यह सिलसिला थमा नहीं है। तो गांधी हमारे कमबैक किंग सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि उनके आचार-विचार और आदर्श-व्यवहार अपने रूपकार्थ में आज भी हमें रोशनी और हौसला देते हैं, बल्कि इसलिए भी हम उनके सुझाए विकल्पोँ से बेहतर विकल्प अपने लिए नहीं ढूँढ पाए हैं। मसलन जब पश्चिम की अपनी हिंसक मुठभेड़ के संदर्भ में जब देरिदा मिल-जुलकर जीने की कला और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं तो हमारे लिए गांधी का याद आना स्वाभाविक है, क्योंकि वे भी कुछ वैसा ही कह रहे थे। और हम इसमें न तो अकेले हैँ, न ही पहले। गांधी की वैश्विक पहुँच और स्वीकृति थी और रहेगी: गांधी-स्मृति जा‌इए, जनसत्ता में सुधीर चंद्र के कॉलम पढ़िए, या थोड़ा इंटरनेट पर घूमिए तो पाएँगे कि लोग आज उन्हें पर्यावरण से लेकर प्रौद्योगिकी तक के इलाक़ों में पुनर्मिश्रित और पुनर्व्याख्यायित कर रहे हैं, उनके जीवन-प्रसंगोँ की नई तर्जुमानी हो रही है, और उन औज़ारों के ज़रिए उनका पुनराविष्कार हो रहा है, जिनसे शायद उनको ख़ुद बहुत लगाव नहीं था। आप शायद कहें कि गांधीगिरी, गांधीवाद नहीं है। बेशक, पर शाहिद अमीन के चौरी-चौरा के किसानों से पूछिए कि क्या उन्होंने गांधी को उल्टा नहीं घिसा था? हम सबके अपने-अपने गांधी इसलिए हैं कि हमें उनसे जूझना ही पड़ता है, ऐसी उनकी अनुपस्थित उपस्थिति है, ऐसा महात्म्य है उनका। From vineetdu at gmail.com Sun Feb 22 03:45:12 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 22 Feb 2009 03:45:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWLIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSo4KSh4KWAIOCkruClh+CkgiDgpI/gpILgpJXgpLAg4KSw4KS54KWH?= =?utf-8?b?IOCkteCliyDgpLjgpYDgpI/gpKjgpI/gpKgg4KSu4KWH4KSCIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSV4KSwIOCksOCkv+CkquCli+CksOCljeCkn+CksCDgpLngpYsg4KSX?= =?utf-8?b?4KSP?= Message-ID: <829019b0902211415k1e6ce7c2jd55ce1fa94be4e2@mail.gmail.com> * जो एनडी में एंकर रहे वो सीएनएन में आकर रिपोर्टर हो गए* चैनल के कई एंकर मौजूद थे और तभी एनडीटीवी की मैनेजिंग डायरेक्टर बरखा दत्त ने कहा- लगता है हमारी नौकरी खतरे में है, क्या आप मेरी नौकरी लेने जा रहे हो या फिर मैं आपकी। न्यूज चैनल के इतिहास में 26 मई 2005 बड़ा ही दिलचस्प दिन रहा है और स्ट्रैटजी के लिहाज से एक प्रयोग भी। बाद में इसकी आलोचना भी हुई लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए अब ये ट्रेंड-सा बन गया है। 26 मई प्राइम टाइम 8 बजे,एनडीटीवी इंडिया पर अभिषेक और रानी मुखर्जी बतौर एंकर आते हैं औऱ एनडीटीवी की ऑडिएंस के सामने पूरे आधे घंटे तक न्यूज बुलेटिन पेश करते हैं। बाकायदा इस अभिवादन के साथ कि- आठ बजे की खबरों में आपका स्वागत है। मैं हूं बंटी और मैं हूं बबली। इन दोनों ने अपना नाम न तो अभिषेक बच्चन लिया औऱ न ही रानी मुखर्जी। दोनों फिल्मी कैरेक्टर के तौर पर अपने को इन्ट्रोड्यूस करते हैं। इन दोनों का इस न्यूज चैनल पर आना फिल्म प्रोमोशन का एक हिस्सा भर था। चैनल के लिए ब्रांड पोजिशनिंग की रणनीति लेकिन इन दोनों ने आधे घंटे की पूरी बुलेटिन पढ़ी जिनमें सामान्य दिनों की तरह ही वो सारी खबरें थी। मनमोहन सरकार से भेल में विनिवेश के मसले पर वामपंथी पार्टियों का विरोध, दिल्ली में जामा मस्जिद की ऐतिहासिकता पर विवाद औऱ इसी तरह से उत्तर प्रदेश में एक सती से जुड़ी खबर। चैनल पर बार-बार फ्लैश होता रहा ये बंटी-बबली स्पेशल हैं और ऑडिएंस एसएमएस के जरिए अपनी राय दे सकते हैं। बाद में इन दोनों को खबर के तौर पर प्रयोग किया गया और रिपोर्टर द्वारा सवाल किए गए कि आपने ताजमहल को बेच दिया( फिल्म का प्लॉट) औऱ अब एनडीटीवी में एंकर बन गए, ये पूरा सफर कैसा रहा, कैसा लग रहा है आपको। फिल्म की घटना और चैनल की खबर का कॉकटेल कुछ इस तरह से पेश किया गया कि ऑडिएंस को खबर के नाम पर डिफरेंट देखने का अहसास हुआ। इसमें कहीं भी अभिषेक औऱ रानी मुखर्जी का नाम नहीं लिया गया। रियलिटी औऱ फैंटेसी को पूरी तरह ब्लर्र किया गया। इस मामले में राज नायक( सीइओ, एनडीटीवी) का कहना था कि हम उम्मीद करते हैं कि सिलेब्रेटी वैल्यू की वजह से एनडीटीवी को वो लोग भी देखेंगे जो कि एनडीटीवी नहीं देखते। राज नायक की मानें तो देश की ऑडिएंस सिलेब्रेटी को चाहे किसी भी रुप में देखने को तैयार रहती है। सिलेब्रेटी कुछ भी करे, कहे देखने औऱ मानने को तैयार रहती है। ये बात आपको विज्ञापनों में तो साफ तौर पर दिखता ही है कि जहां सिलेब्रेटी इमेज ब्रांड इमेज में कन्वर्ट हो जाती है। पल्स पोलियो अभियान के लिए अमिताभ बच्चन औऱ टीवी की रोकथाम के विवेक ओबराय को शामिल किए जाने में भी दिखाई देता है। आप कह सकते हैं कि समाज में इन लोगों के कहने का असर होता है। असर होता है भी या नहीं लेकिन लोगों का अटेंशन तो बनता ही है, लोग गौरसे देखते हैं। इसलिए आप देखेंगे कि इन सिलेब्रेटी का प्रयोग न केबल चड्डी च्यवनप्राश, चॉकलेट औऱ पेनवॉम बेचने के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक संदेश देने के लिए किए जाते हैं। आप चाहे तो इनके प्रयोग की दो कैटेगरी बना सकते हैं- एक विज्ञापन के लिए औऱ दूसरा सामाजिक संदेश के लिए। लेकिन अब एक तीसरी कैटेगरी भी तेजी से विकसित हो रही है, खबर देने की, चैनल को स्टैब्लिश करने की। देश की ऑडिएंस को ये बताने की अगर शाहरुख न्यूज 24 देख सकते हैं तो फिर आप दूसरे चैनलों की खबर क्यों देखते हैं। अभिषेक बच्चन जो कि बंटी और बबली के लिए एनडीटीवी इंडिया पर एकरिंग करते नजर आए, कल सीएनएन आइबीएन के न्यूज रुम में माइक लिए रिपोर्टिंग करते दिख गए। वो उस फ्रीज को दिखा रहे थे जिसमें बहुत सारे चाकलेट रखे थे। अभिषेक बता रहे थे कि राजदीप क्यों इतना मीठा बोलते हैं, ये है चॉकलेट का राज। थोड़ी देर के लिए एडिटिंग मशीन पर भी बैठे और कीबोर्ड के साथ छेड़छाड़ की। बाद में सोनम कपूर ने माइक उसके हाथ से ले ली और फिर उसके द्वारा रिपोर्टिंग शुरु की। फिल्म दिल्ली-6 का मीडिया पार्टनर नेटवर्क 18 ग्रुप है और कल प्राइम टाइम की खबर में अभिषेक और सोनम द्वारा जो रिपोर्टिंग की गयी वो फिल्म प्रोमोशन और चैनल को पॉपुलर बनाने की सट्रैटजी थी। नलिन मेहता ने अपनी किताब इंडिया ऑन टेलीविजन में खबरों को इस रुप में पेश किए जाने और उनमें सिलेब्रेटी के शआमिल किए जाने के पीछे की रणनीति को एडवर्टिजमेंट और चैनल इकोनॉमी का हिस्सा बताया है। पूरा का पूरा एक चैप्टर ही है- CHAPTER-4 THE NEWS WITH BUNTY AND AND BABLI: ADVERTISING,RATINGS AND TELEVISION NEWS ECONOMY. इस पूरे चैप्टर में उन्होंने विस्तार से बताया है कि कैसे न्यूज इकोनॉमी के तहत चैनल आए दिन खबरों को नयी-नयी शक्ल में पेश करते हैं। हमारे लिए वो किसी भी फार्म में आए, खबर ही है लेकिन इसके बीच से हम विश्लेषण कर सकते हैं कि बाजार, रेटिंग औऱ मैनेजमेंट के बीच से होकर गुजरती खबरों का मिजाज कितनी तेजी से बदल रहा है। फिलहाल मैंने सीएनएन के किसी भी अधिकारी से इस स्ट्रैटजी को लेकर कोई बयान नहीं सुना है। लेकिन चैनलों के भीतर जिस तरह से सिलेब्रेटी घुसकर खबर बनते हैं जो कि वाकई फिल्मी शूटिंग का हिस्सा नहीं है बल्कि खबर है, लोग चैनल से ज्यादा फेमिलियर होते जाते हैं। बाकी प्रोफेशन की तरह सिनेमा औऱ ऐसी खबरों के जरिए लोगों के जीवन में ये शामिल होता जाता है। नहीं तो अभी तक किसे पता होता था कि न्यूज रुम की शक्ल कैसी होती है। मैं तो ये भी कहूंगा कि एडीटिंग मशीन पर दिनभर फुटेज कतरते मेरे दोस्त जब बाहर आकर कहते हैं कि- बस बिता दिए दस घंटे हमने चुतियापा करते हुए,चांद के दर्द को दिखाने के लिए सोयी हुई मुमताज का दरवाजा खटखटा आए, अब वो भी कह सकेगा- इतना रद्दी प्रोफेशन भी नहीं है,पैकेज बनाना, अभिषेक ने उसमें ग्लैमर भरने का काम किया है। दूसरी तरफ जो लोग अब तक इंडिया टीवी औऱ आजतक से काम चला रहे थे वो भी मशक्कत करके सीएनएन देखेंगे- क्योंकि इस पर हीरो-हीरोईन रिपोर्टिंग करता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090222/aecacfa3/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Feb 22 22:04:43 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 22 Feb 2009 22:04:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoIOCkleClgCDgpLDgpL/gpK/gpLLgpL/gpJ/gpYAg?= =?utf-8?b?4KSk4KSu4KS+4KS24KS+IOCkueCliC0g4KSu4KS+4KSw4KWN4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSf4KSy4KWA?= Message-ID: <829019b0902220834n729f08aw6bbaadbc1fcc9565@mail.gmail.com> पंकज पचौरी का ये सवाल अभी पूरा ही होता कि टेलीविजन रियलिटी और बनावटी, देश और दुनिया के जाने-माने पत्रकार मार्क टली ने जबाब दिया-टेलीविजन की रियलिटी तमाशा है। रियलिटी शो में जो कुछ भी दिखाया जाता है उसमें कुछ भी रियल नहीं होता, सिर्फ तमाशा होता है। मार्क टली के इस विचार से नलिनी सिंह भी सहमत नजर आई और साफ कहा कि हल्की-फुल्की चीजें दिखाकर टेलीविजन किसी हद तक हमारा भला नहीं कर रहा। पंकज पचौरी की इस टिप्पणी पर कि चैनलों का हमेशा ये दावा होता है कि वो वही दिखा रहे हैं, जिसे कि देश की ऑडिएंस देखना चाहती है। इस टिप्पणी के साथ नलिनी सिंह ने एक यूथ की बात को शामिल करते हुए कहा कि- सुनिए, ये क्या कह रहे हैं। ये कह रहे हैं कि रोडिज जैसे शो में लोग आपस में खूब गालियां देते हैं तो क्या आशुतोष और राहुल महाजन चाहेंगे कि उनके परिवार के ये लड़के भी गालियां दें, क्या ये उसके बेहतरी के लिए होगा। नलिनी सिंह ने कहा कि टेलीविजन का ये दावा झूठा है कि लोग देखना चाहते हैं इसलिए वो बिग बॉस औऱ दुनिया भर के रियलिटी शो दिखा रहे हैं। सच्चाई आपके सामने है कि युवा भी इस तरह के कार्यक्रम नहीं देखना चाहता है, कुछ और देखना चाहता है। बिग बॉस 1 औऱ शिल्पा को गाली दिए जाने की वजह से चर्चा में बनी रही और अब सिलेब्रेटी की हैसियत में शुमार हो चुकी जेड गुडी इन दिनों एक बार फिर से चर्चा में है। गुडी कैंसर से पीडित है औऱ बहुत ही कम दिनों की मेहमान है लेकिन इससे भी दिलचस्प बात है कि उसकी शादी लाइव दिखायी गयी। अब उसकी मौत को भी लाइव दिखाने की बात जोरों पर है। इन सारी बातों को समेटते हुए एनडीटीवी इंडिया को लगा कि टेलीविजन, रियलिटी शो और बनावटी का मुद्दा फिर से प्रासंगिक हो सकता है, इसलिए उसने आज हमलोग में इस पर चर्चा शुरु किया। चर्चा में भाग लेनेवालों में मार्क टली के अलावे नलिनी सिंह, संजय निरुपम और पीएन बासंती भी रहे। मुंबई से राहुल महाजन औऱ बिग बॉस विजेता आशुतोष लाइव चैट पर थे। चर्चा मे एक बार फिर से टेलीविजन को कोसने की कवायद शुरु हुई। मार्क टली ने तो आते ही इसे तमाशा करार दिया। नलिनी सिंह ने इसे व्यापक संदर्भ में उठाते हुए इसे हल्की-फुल्की फूहड़ चीजें परोसने का माध्यम बताया। निशाने पर मनोरंजन चैनल ज्यादा रहे। संजय निरुपम बिग बॉस का स्वाद चख चुके हैं और साथ में नेता भी हैं इसलिए उन्होंने तटस्थ होने का भरपूर प्रयास किया औऱ बताया कि एक हद रियलिटी शो में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन टेलीविजन को अधिकांश लोगों द्वारा कोसते रहने के वाबजूद भी पूरी बातचीत दो धड़ों में बंट गयी। पंकज पचौरी ने आशुतोष से सवाल किया- आप बताइए, आपके हिसाब से रियलिटी शो का आपकी जिंदगी में कितना महत्व है। आशुतोष ने अपनी बेबाकी को बरकरार रखते हुए कहा- आज आपने मुझे एनडीटी के स्टूडियों में बुलाया है। अगर मैं बिग बॉस नहीं जीता होता तो आप मुझे पूछते भी नहीं कि आशुतोष कौन है। इतना बोलने के साथ ही नीचे फ्लैश होता है, दुनिया भर के रियलिटी शो भारत में लोकप्रिय। यही सवाल राहुल महाजन से पूछा गया औऱ साथ में यह भी जोड़ दिया गया कि- पैसे कमाने के लिए आप बिग बॉस में आए। राहुल महाजन का जबाब था- आप रियलिटी शो को लेकर बार-बार पैसे की बात कर रहे हैं, आप भी पैसा कमाना चाहते हैं, मेरे कुछ पत्रकार दोस्त हैं, बिग बॉस के लिए मैं आपका नाम रिक्मेंड कर दूंगा। मैं पैसे के लिए नहीं, पैसे तो कई दूसरे बिजनेस से भी कमाए जा सकते हैं। मैं तो वहां इसलिए गया था कि हमें चौबीस घंटे लोग देखेगें, हमें समझेंगे। राहुल महाजन,आशुतोष और यहां तक कि संजय निरुपम किसी भी हद तक ये मानने के लिए तैयार ही नहीं नजर आए कि रियलिटी शो से कोई बहुत नुकसान है जबकि दर्शक सहित बाकी के स्पीकरों ने इसेम समाज को दिशाहीन और सिर्फ पैसा कमाने का माध्यम बनाया। एक ऑडिएंस ने तो रियलिटी शो की बॉल से तो खुद एनडीटीवी को हिट दे मारी। उनका कहना था कि- बिग फाइट, बी द पीपुल, हमलोग, मुकाबला जैसे जितने भी कार्यक्रम आते हैं इससे चैनल जितना बुस्ट हुआ है उतना समाज को कुछ भी नहीं मिला है। आप रियलिटी की बात करते हैं, सबसे ज्यादा किसान मरे और मर रहे हैं, उस पर कोई क्यों नहीं बात करता। आशुतोष ने भी टिप्पणी कि आप किसानों को स्टूडियो में लाकर क्यों नहीं बिठाते, उनसे क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारी ऐसी हालत क्यों हो गयी। राहुल महाजन का एक तर्क ये भी रहा कि राजू श्रीवास्तव को आतंकवादियों की ओर से धमकियां मिल रही है, वो आदमी लोगों को हंसा-हंसाकर समाज को कुछ देने का काम कर रहा है, आप उसे भी तो देखिए। विमर्श का एक मुद्दा ये भी रहा कि आज किसी को मौत को लाइव दिखाने की बात हो रही है, कल को कोई बेबकैम पर सुसाइड करते हुए अपने को दिखाएगा, कल किसी की स्ट्रीप्टीज दिखायी जाएगी। ये सिलसिला कहां तक आगे जाएगा। अब इसमें कानून,संवैधानिक प्रावधान और नैतिकता की बात होने लगी। मार्क टली का मानना रहा कि जैसे ही आप कानून की बात करते हैं, सेंसरशिप की बात आ जाती है और यही गड़बड़ी पैदा करता है। संजय निरुपम ने साफ कहा कि मैं किसी भी तरह की सेंसरशिप के खिलाफ हूं। ये हमारे, प्रोड्यूसरों और चैनल के बाकी लोगों की जिम्मेवारी है कि हम नैतिक तरीके से उस कार्यक्रम को दिखाएं जो कि समाज के हित में है। पंकज पचौरी की इस अपील के साथ ही हम चाहते हैं कि आप अच्छा टेलीविजन, अच्छे चैनल देखें ये कार्यक्रम समाप्त हो गया. टेलीविजन को लेकर आमतौर पर जब भी और जहां भी चर्चाएं होती है, हम उसे लेकर या तो बहुत ही नैतिक हो जाते हैं या फिर उसके समर्थन में आशुतोष की तरह बेबाकी से अपनी बात रखते हैं। इसे हम या तो समाजशास्त्र का विषय बनाने पर अड़ जाते हैं या फिर बाजारवाद का पहरुआ साबित करके कोड़े बरसाने लग जाते हैं। इस मनोविज्ञान को समझने में हम कम ही दिलचस्पी ले पाते हैं कि एक ही ऑडिएंस को अलग-अलग मौके पर अलग-अलग कार्यक्रम क्यों पसंद है। 25 करोड़ की बेरोजगार ऑडिएंस क्यों एक इंडियन ऑयडल बनने के पीछे अपना जान देने में लगी हुई है। आपको नहीं लगता कि सामाजिक विकास के बहुत सारे काम ठप्प हो जाने की स्थिति में टेलीविजन से हम इस बात की उम्मीद करने लग गए हैं कि हमारे संस्कार, वैचारिकी और हालात को एक अकेला टेलीविजन दुरुस्त कर देगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090222/bd6dec32/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Mon Feb 23 14:09:16 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Mon, 23 Feb 2009 14:09:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W09UXSBSZTogRndk?= =?utf-8?b?OiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK8=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkq+ClgeCksiDgpLjgpY3gpJ/gpYngpKo=?= In-Reply-To: <200902191825.04466.ravikant@sarai.net> References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> <3452482c0902170625v621a1157uca5831343f3dad60@mail.gmail.com> <920639.19523.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> <200902191825.04466.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540902230039r2b55bee7m7c7199ecc6a1bfea@mail.gmail.com> इस बेहतर व तरतमता को जब हम ब्‍लॉगजगत में ले गएतो अजीत साहब की शानदार पोस्‍ट आई हम वहॉं से जस का तस साभार पेश कर रहे हैं- *शुक्रवार को** मसिजीवी **ने** दीवान **पर एक चर्चासूत्र (थ्रेड) देखा तो उस पर सार्थक पोस्ट लिखी मगर साथ ही साथ चर्चासूत्र का एक सिरा हमारी और तैरा दिया जो देर शाम हमें अपनी नेटझोली में मिला और संदर्भित पोस्ट हम देर रात घर पहुंचने पर ही पढ़ पाए। भाषा पर ऐसे विमर्श चलते रहना चाहिए**, **इसीलिए विजेन्द्रभाई के आग्रह पर हम भी कुछ गप-शप कर लेते हैं।* निश्चित ही अच्छा की विशेषण अवस्थाओं को अगर देखें तो विशेषण की मूलावस्था, उत्तरावस्था और उत्तमावस्था के जो रूप बनेंगे वे अच्छा-बहुत अच्छा-सबसे अच्छा होंगे। श्रेष्ठ शब्द पर इसकी आजमाइश करें तो *श्रेष्ठ** **> **श्रेष्ठतर** **> ** श्रेष्ठतम* जैसे रूप बनेगे। इनकी तुलना में हिन्दी में अच्छाई के विशेषण रूपों में बेहतर और बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा होता है। सवाल है कि बेहतर और बेहतरीन तो दो ही रूप हुए। इसका पहला रूप क्या है ? अच्छा शब्द की विशेषण अवस्थाएं बताने के लिए उसके आगे बहुत (अच्छा) और सबसे (अच्छा) जैसे उपसर्ग-विशेषण लगाने पड़ते हैं जबकि व्याकरण सम्मत प्रत्ययों की सहायता से बनें विशेषणों का प्रयोग करने से न सिर्फ भाषा में लालित्य बढ़ता है बल्कि उसमें प्रवाह भी आता है। *बे*ह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और हिन्दी में इसकी आमद फारसी से हुई है। बेह का मतलब होता है बढ़िया, भला, अच्छा आदि। बेह की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द *भद्र* bhadra से मानी जाती है जिसका मतलब, शालीन, भला, मंगलकारी आदि होता है। फारसी में इसका रूप बेह हुआ। अंग्रेजी में गुड good के सुपरलेटिव ग्रेड(second) वाला *बेटर* better अक्सर हिन्दी-फारसी के *बेहतर* का ध्वन्यात्मक और अर्थात्मक प्रतिरूप लगता है। इसी तरह*बेस्ट* best को भी फारसी बेहस्त beh ast पर आधारित माना जाता है। अंग्रेज विद्वानों का मानना है कि ये अंग्रेजी पर फारसी, प्रकारांतर से इंडो-ईरानी प्रभाव की वजह से ही है। यूं बैटर-बेस्ट को प्राचीन जर्मन लोकशैली ट्यूटानिकका असर माना जाता है जिसमें इन शब्दों के क्रमशः बेट bat (better) और battist (best) रूप मिलते हैं।*ट्यू*टानिक में भद्र का रूप *भट* bhat होते हुए bat में बदला। यह प्रभाव कब अंग्रेजी में सर्वप्रिय हुआ, कहना मुश्किल है मगर यह इंडो-ईरानी असर ही है। किसी ज़माने में सुपरलेटिव ग्रेड के लिए अंग्रेजी में* गुड** **> **गुडर** **> **गुडेस्ट* (good, gooder, goodest) चलता होगा इसका प्रमाण अमेरिकी अंग्रेजी की लोक शैली में मिलता है जहां ये रूप इस्तेमाल होते हैं। जाहिर है कि मूल यूरोप से आई अंग्रेजी ने यह प्रभाव अमेरिकी धरती पर तो ग्रहण नहीं किया होगा क्योंकि अगर ऐसा होता, तो प्रचलित अंग्रेजी में ये प्रयोग आम होते। निश्चित ही ट्यूटानिक प्रभाव से अछूते रहे चंद यूरोपीय भाषाभाषियों के जत्थे भी अमेरिका पहुंचे होंगे जो गुड > गुडर > गुडेस्ट कहते होंगे। *बेह* से विशेषण की तीनों अवस्थाएं यूं बनती हैः *बेह** **> **बेहतर** **> **बेहतरीन।* *गौ*रतलब है कि विशेषण अपनी मूलावस्था में अपरिवर्तनीय होता है। उसकी शेष दो अवस्थाओं के लिए ही प्रत्ययों का प्रयोग होता है। बेहतर में जो *तर*प्रत्यय है उसे कई लोग फारसी का समझते हैं जो मूलतः संस्कृत का ही है, मगर उत्तमावस्था के लिए वहां एक अलग प्रत्यय *ईन* (तरीन) बना लिया गया। यह प्रक्रिया अन्य विशेषणों के साथ भी चलती है जैसे बद > बदतर > बदतरीन , खूब > खूबतर > खूबतरीन, बुजुर्ग > बुजुर्गतर > बुजुर्गतरीन वगैरह। तर और तम दोनो प्रत्यय संस्कृत के हैं और विशेषण के सुपरलेटिव ग्रेड superlative grade में इस्तेमाल होते हैं, जिन्हें हिन्दी में उत्तरअवस्था और उत्तमअवस्था कहा जाता है। गौर करें कि *उत्तर* से ही बना है *तर्* प्रत्यय और*उत्तम* से बना है *तम्* प्रत्यय। यह हिन्दी की वैज्ञानिकता है कि किसी भी विशेषण की उत्तरावस्था/उत्तमावस्था बनाने के लिए उसके साथ तर/तम लगाना इस तरह याद रहता है। ज़रा देखें- उच्च > उच्चतर > उच्चतम। गुरु > गुरुतर > गुरुतम। महान > महत्तर > महत्तम। लघु > लघुतर > लघुत्तम आदि। *र*विकांतजी द्वारा *तरतम* या *तरतमता* के संदर्भ में कही गई बात गले नहीं उतरती। स्वतंत्र रूप से *तर्* और *तम्*प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं है। यूं भी मूल शब्द में प्रत्यय लगने से नई शब्दावली बनती है, दो प्रत्ययों के मेल से कभी शब्द नहीं बनता। तब इनके मेल से बने तरतम और *ता* प्रत्यय लगने से इसके विशेषणरूप तरतमता का भी कोई अर्थ कैसे निकल सकता है, जबकि वे इसका अर्थ हायरार्की बता रहे हैं। जाहिर है गड़बड़ हो रही है। *तरतम* बेशक हिन्दी की मैथिली और मराठी भाषाओं में उपयोग होता है मगर यह तद्भव रूप में ही होता है जो कि लोकशैली का खास गुण है। सीधे-सीधे हिन्दी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को मैने विरले ही इस शब्द का प्रयोग करते सुना है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान में जहां मैं रहा हूं और इसका प्रयोग नहीं सुना। अलबत्ता इसके तत्सम रूप *तारतम्यम्* पर गौर करें तो पाएंगे कि इसका हिन्दी रूप *तारतम्य* खूब बोला जाता है और वहां इसका उच्चारण इंच मात्र भी *तरतम* की ओर खिसकता सुनाई नहीं पड़ता। आप्टेकोश के मुताबिक तारतम्यम् शब्द तरतम+ष्यञ्च के मेल से बना है। स्पष्ट है कि संस्कृत में *तरतम* धातुरूप में पहले से मौजूद है जिसमें क्रमांकन, अनुपात, सापेक्ष महत्व, अन्तर-भेद जैसे भाव हैं जो हिन्दी के पदानुक्रम जैसे सीमित भाव की तुलना में कहीं व्यापक अर्थवत्ता रखता है। अपन को व्याकरण का ज्यादा ज्ञान नहीं है। शायद अपनी बात कुछ कह पाया हूं, कुछ नहीं 2009/2/19 Ravikant > विक्रम कृष्णा साहब, > > बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब के > उर्दू-हिन्दी कोश में > नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे हिन्दी-उर्दू > दोनों में धड़ल्ले से चलता है। > वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और > बदतरीन भी। > > तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते हैँ: > तरतमता - जो > अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी > फ़ारसी+संस्कृत > परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों > में ता लगाकर विशेषण > बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से > श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम > आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता > है, और इस > ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात > साफ़! > > रविकान्त > > पुनश्च: आपने ज़ाक़ राँसिएर पर और सामग्री माँगी थी, अगली डाक में भेज रहा > हूँ. > > रविकान्त > > बुधवार 18 फरवरी 2009 21:15 को, Vickram Crishna ने लिखा था: > > 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? > > > > मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी शब्द > > 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले > > अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| > > > > Vickram > > http://communicall.wordpress.com > > http://primevalues.wordpress.com > > > > > > > > > > ________________________________ > > From: ved prakash > > To: ravikant at sarai.net > > Cc: deewan at sarai.net > > Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 > > Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप > > > > > > प्रिय मित्र, > > > > विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090223/3c5ece86/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Mon Feb 23 14:13:22 2009 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Mon, 23 Feb 2009 14:13:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W09UXSBSZTogRndk?= =?utf-8?b?OiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK8=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkq+ClgeCksiDgpLjgpY3gpJ/gpYngpKo=?= In-Reply-To: <8bdde4540902230039r2b55bee7m7c7199ecc6a1bfea@mail.gmail.com> References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> <3452482c0902170625v621a1157uca5831343f3dad60@mail.gmail.com> <920639.19523.qm@web26606.mail.ukl.yahoo.com> <200902191825.04466.ravikant@sarai.net> <8bdde4540902230039r2b55bee7m7c7199ecc6a1bfea@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540902230043s6ebf80afrd67943430a271cce@mail.gmail.com> मित्रगण, इसी संदर्भ में अभय तिवारी की टिप्‍पणी भी अहम है जो इस पोस्‍ट पर ब्‍लॉग पर आई। खेद है कि टिप्‍पणी अ्रगेजी में है तथा इसे अनुवाद नंही कर पाया हूँ.. one finds the word behtar in farsi-hindi dictionary published by iran culture house.. beh and tar both pretty well established prefix and suffix in farsi, behtar very well be a farsi word. but it does not establish that better is borrowed in english from persian word behter. here is the entry for better in online etymological dictionary. better O.E. betera (see best). Comparative adj. of good in the older Gmc. languages (cf. O.N. betr, Dan. bedre, Ger. besser, Goth. batiza). Superseded bet in the adv. sense by 1600. Better half "wife" is first attested 1580; to get the better of (someone) is from 1461. does it make any sense? after all both persian and english have common root in proto indo european language. still if one refuses to see reason, then what about best. does it sound like borrowed from behtarin? the entry for best in etymological dictionary: best O.E., reduced by assimilation of -t- from earlier O.E. betst, originally superlative of bot "remedy, reparation," the root word now only surviving in to boot, though its comparative, better, and superlative, best, transferred to good (and in some cases well). From P.Gmc. root *bat-, with comp. *batizon and superl. *batistaz. The verb "to get the better of" is from 1863. Best-seller is from 1889; best friend was in Chaucer (c.1374). Best girl is first attested 1887 in a Texas context; best man is 1814, originally Scottish, replacing groomsman. sorry for writing this comment in english. took the libery because the issue here concerns english too. and i seem to be making a point in favour of english, completely unintentional of course. the idea is to get the right picture. 2009/2/23 Vijender chauhan > इस बेहतर व तरतमता को जब हम ब्‍लॉगजगत में ले गएतो अजीत साहब की शानदार > पोस्‍ट आई हम > वहॉं से जस का तस साभार पेश कर रहे हैं- > > *शुक्रवार को** मसिजीवी > **ने** दीवान > **पर एक चर्चासूत्र (थ्रेड) देखा तो उस पर सार्थक पोस्ट लिखी मगर साथ ही साथ > चर्चासूत्र का एक सिरा हमारी और तैरा दिया जो देर शाम हमें अपनी नेटझोली में > मिला और संदर्भित पोस्ट हम देर रात घर पहुंचने पर ही पढ़ पाए। भाषा पर ऐसे > विमर्श चलते रहना चाहिए**, **इसीलिए विजेन्द्रभाई के आग्रह पर हम भी कुछ > गप-शप कर लेते हैं।* > > निश्चित ही अच्छा की विशेषण अवस्थाओं को अगर देखें तो विशेषण की मूलावस्था, उत्तरावस्था > और उत्तमावस्था के जो रूप बनेंगे वे अच्छा-बहुत अच्छा-सबसे अच्छा होंगे। > श्रेष्ठ शब्द पर इसकी आजमाइश करें तो *श्रेष्ठ** **> **श्रेष्ठतर** **> ** > श्रेष्ठतम* जैसे रूप बनेगे। इनकी तुलना में हिन्दी में अच्छाई के विशेषण > रूपों में बेहतर और बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा होता है। सवाल है कि > बेहतर और बेहतरीन तो दो ही रूप हुए। इसका पहला रूप क्या है ? अच्छा शब्द की > विशेषण अवस्थाएं बताने के लिए उसके आगे बहुत (अच्छा) और सबसे (अच्छा) जैसे > उपसर्ग-विशेषण लगाने पड़ते हैं जबकि व्याकरण सम्मत प्रत्ययों की सहायता से बनें > विशेषणों का प्रयोग करने से न सिर्फ भाषा में लालित्य बढ़ता है बल्कि उसमें > प्रवाह भी आता है। > > *बे*ह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और हिन्दी में इसकी आमद फारसी से > हुई है। बेह का मतलब होता है बढ़िया, भला, अच्छा आदि। बेह की व्युत्पत्ति > संस्कृत शब्द *भद्र* bhadra से मानी जाती है जिसका मतलब, शालीन, भला, मंगलकारी > आदि होता है। फारसी में इसका रूप बेह हुआ। अंग्रेजी में गुड good के > सुपरलेटिव ग्रेड(second) वाला *बेटर* better अक्सर हिन्दी-फारसी के *बेहतर* का > ध्वन्यात्मक और अर्थात्मक प्रतिरूप > लगता है। इसी तरह*बेस्ट* best को भी फारसी बेहस्त beh ast पर आधारित माना > जाता है। अंग्रेज विद्वानों का मानना है कि ये अंग्रेजी पर फारसी, प्रकारांतर > से इंडो-ईरानी प्रभाव > की वजह से ही है। यूं बैटर-बेस्ट को प्राचीन जर्मन लोकशैली ट्यूटानिकका > असर माना जाता है जिसमें इन शब्दों के क्रमशः बेट bat (better) और battist > (best) रूप मिलते हैं।*ट्यू*टानिक में भद्र का रूप *भट* bhat होते हुए bat में > बदला। यह प्रभाव कब अंग्रेजी में सर्वप्रिय हुआ, कहना मुश्किल है मगर यह > इंडो-ईरानी असर ही है। किसी ज़माने में सुपरलेटिव ग्रेड के लिए अंग्रेजी में* > गुड** **> **गुडर** **> **गुडेस्ट* (good, gooder, goodest) चलता होगा इसका > प्रमाण अमेरिकी अंग्रेजी की लोक शैली > में मिलता है जहां ये रूप इस्तेमाल होते हैं। जाहिर है कि मूल यूरोप से आई > अंग्रेजी ने यह प्रभाव अमेरिकी धरती पर तो ग्रहण नहीं किया होगा क्योंकि अगर > ऐसा होता, तो प्रचलित अंग्रेजी में ये प्रयोग आम होते। निश्चित ही ट्यूटानिक > प्रभाव से अछूते रहे चंद यूरोपीय भाषाभाषियों के जत्थे भी अमेरिका पहुंचे होंगे > जो गुड > गुडर > गुडेस्ट कहते होंगे। *बेह* से विशेषण की तीनों अवस्थाएं यूं > बनती हैः *बेह** **> **बेहतर** **> **बेहतरीन।* > > *गौ*रतलब है कि विशेषण अपनी मूलावस्था में अपरिवर्तनीय होता है। उसकी शेष दो > अवस्थाओं के लिए ही प्रत्ययों का प्रयोग होता है। बेहतर में जो *तर*प्रत्यय > है उसे कई लोग फारसी का समझते हैं जो मूलतः संस्कृत का ही है, मगर > उत्तमावस्था के लिए वहां एक अलग प्रत्यय *ईन* (तरीन) बना लिया गया। यह > प्रक्रिया अन्य विशेषणों के साथ भी चलती है जैसे बद > बदतर > बदतरीन , खूब > > खूबतर > खूबतरीन, बुजुर्ग > बुजुर्गतर > बुजुर्गतरीन वगैरह। तर और तम दोनो > प्रत्यय संस्कृत के हैं और विशेषण के सुपरलेटिव ग्रेड superlative grade में > इस्तेमाल होते हैं, जिन्हें हिन्दी में उत्तरअवस्था और उत्तमअवस्था कहा जाता > है। गौर करें कि *उत्तर* से ही बना है *तर्* प्रत्यय और*उत्तम* से बना है * > तम्* प्रत्यय। यह हिन्दी की वैज्ञानिकता है कि किसी भी विशेषण की > उत्तरावस्था/उत्तमावस्था बनाने के लिए उसके साथ तर/तम लगाना इस तरह याद रहता > है। ज़रा देखें- उच्च > उच्चतर > उच्चतम। गुरु > गुरुतर > गुरुतम। महान > > महत्तर > महत्तम। लघु > लघुतर > लघुत्तम आदि। > > *र*विकांतजी द्वारा *तरतम* या *तरतमता* के संदर्भ में कही गई बात गले नहीं > उतरती। स्वतंत्र रूप से *तर्* और *तम्*प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं है। यूं > भी मूल शब्द में प्रत्यय लगने से नई शब्दावली बनती है, दो प्रत्ययों के मेल > से कभी शब्द नहीं बनता। तब इनके मेल से बने तरतम और *ता* प्रत्यय लगने से > इसके विशेषणरूप तरतमता का भी कोई अर्थ कैसे निकल सकता है, जबकि वे इसका अर्थ > हायरार्की बता रहे हैं। जाहिर है गड़बड़ हो रही है। *तरतम* बेशक हिन्दी की > मैथिली और मराठी भाषाओं में उपयोग होता है मगर यह तद्भव रूप में ही होता है जो > कि लोकशैली का खास गुण है। सीधे-सीधे हिन्दी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को मैने > विरले ही इस शब्द का प्रयोग करते सुना है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, > मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान में जहां मैं रहा हूं और इसका > प्रयोग नहीं सुना। अलबत्ता इसके तत्सम रूप *तारतम्यम्* पर गौर करें तो पाएंगे > कि इसका हिन्दी रूप *तारतम्य* खूब बोला जाता है और वहां इसका उच्चारण इंच > मात्र भी *तरतम* की ओर खिसकता सुनाई नहीं पड़ता। आप्टेकोश के मुताबिक > तारतम्यम् शब्द तरतम+ष्यञ्च के मेल से बना है। स्पष्ट है कि संस्कृत में * > तरतम* धातुरूप में पहले से मौजूद है जिसमें क्रमांकन, अनुपात, सापेक्ष महत्व, > अन्तर-भेद जैसे भाव हैं जो हिन्दी के पदानुक्रम जैसे सीमित भाव की तुलना में > कहीं व्यापक अर्थवत्ता रखता है। अपन को व्याकरण का ज्यादा ज्ञान नहीं है। शायद > अपनी बात कुछ कह पाया हूं, कुछ नहीं > > > 2009/2/19 Ravikant > >> विक्रम कृष्णा साहब, >> >> बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब के >> उर्दू-हिन्दी कोश में >> नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे हिन्दी-उर्दू >> दोनों में धड़ल्ले से चलता है। >> वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और >> बदतरीन भी। >> >> तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते >> हैँ: तरतमता - जो >> अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी >> फ़ारसी+संस्कृत >> परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों >> में ता लगाकर विशेषण >> बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से >> श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम >> आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता >> है, और इस >> ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात >> साफ़! >> >> रविकान्त >> >> पुनश्च: आपने ज़ाक़ राँसिएर पर और सामग्री माँगी थी, अगली डाक में भेज रहा >> हूँ. >> >> रविकान्त >> >> बुधवार 18 फरवरी 2009 21:15 को, Vickram Crishna ने लिखा था: >> > 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? >> > >> > मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी >> शब्द >> > 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले >> > अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| >> > >> > Vickram >> > http://communicall.wordpress.com >> > http://primevalues.wordpress.com >> > >> > >> > >> > >> > ________________________________ >> > From: ved prakash >> > To: ravikant at sarai.net >> > Cc: deewan at sarai.net >> > Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 >> > Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप >> > >> > >> > प्रिय मित्र, >> > >> > विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090223/5c08ddab/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Feb 23 17:30:23 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 23 Feb 2009 17:30:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkm+Cli+Ckn+CkviDgpLjgpL4sIOCkm+Cli+Ckn+ClgCA=?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkhuCktuCkvi4uLg==?= Message-ID: <6a32f8f0902230400g21038f7bp79e5d36af65b5780@mail.gmail.com> *दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...* मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए एआर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते। बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही रहा, जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया मात्र वही बेहतरीन था। लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में इकबाल के लिए पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली बार बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म *रोजा* के – *दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...* *चांद तारों को छू लेने की आशा* *आसमानों में उड़ने की आशा।* जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत *जय हो*... से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का। फिल्म *रोजा* आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो *मदर इंडिया* को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था। रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ, जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें। खैर, इसपर विस्तार से बात होगी। शुक्रिया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090223/7dd3980d/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Feb 23 22:33:03 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 23 Feb 2009 22:33:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KS44KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCkquCkueCksuClhyDgpK3gpYAg4KSV4KSIIOCkmuCliOCkqOCksg==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSy4KWHIOCkhuCkjyDgpK/gpLngpL7gpII=?= Message-ID: <829019b0902230903r238b6eb8q38b93383cfa2be80@mail.gmail.com> जरा ड्राइंग रुम से बाहर तो झांकिए, पूरा भारत आपका इंतजार कर रहा है। ये रवीश कुमार का विश्लेषण है, एनडीटीवी इंडिया का विश्लेषण है उस फिल्म को लेकर जिसे मेरे साथी ब्लॉगर भारतीय औऱ विदेशी के साथ जोड़कर देख रहे हैं। पोस्ट को देखकर एकबारगी तो मन में आया कि एक कमेंट दे मारुं कि क्या भारतीयता का सवाल आज भी हमारे लिए उतना ही महत्वपूण है जितना कि आज से चालीस-पचास साल पहले रहा है। अगर तिरंगे का होना ही एक बड़ा सच और शाश्वच सच है तब तो भारतीयता का चिरकाल तक जिंदा रहना तय है। तब हमें भूमंडलीकरण, वैश्विक संकट आदि मसलों पर बात करनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मैं कोई कमेंट करता, इसके पहले ही एनडीटीवी इंडिया पर स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर एक दूसरा ही विश्लेषण चल रहा था जो कि चलते-चलते मेरी पकड़ में आ गया। रवीश कुमार ने कहा औऱ देश के उस घिसे इलाके की बाइट दिखायी जहां के लोगों की आंखे मनमोहन सिंह या फिर शीला दीक्षित के आने पर नहीं चमकती है, रानी मुखर्जी को देखकर चमकती है। इसे आप सिर्फ पसद-नापसंद का मामला समझकर नजरअंदाज नहीं कर सकते। आप ऐसा नहीं कह सकते कि लोगों की राजनीति समझ खत्म होती जा रही है, राजनेताओं के प्रति सम्मान घटता जा रहा है औऱ सारी की सारी श्रद्धा सिनेमा और टीवी पर मौजूद लोगों की भेंट चढ़ गयी है। यह मिजाज की शिफ्टिंग और उत्साह की वजहों के बदल जाने की भी खबर है। यह नाउम्मीदी औऱ हताशा को जाहिर करने की भी खबर है। यह माध्यमों में संभावना तलाशने की भी खबर है। लेकिन ये किसकी संभावना की खबर है। निजी चैनलों के शुरुआती दिनों में चैनल के रिपोर्टर्स जब दूरदराज गांव, कस्बों में जाकर लोगों से सवाल-जबाब करते, उनके दर्द के हमदर्द बनकर उनसे बातें करते तो एकबारगी लगा कि जिस दर्द औऱ तकलीफ को हमारे नेता नहीं सुन पाते, जिन पगडंडियों पर राजनेताओं की बड़ी गाडियां नहीं पहुंच पाती, वहां जैसे ही चैनल की गाडियां पहुचीं लोगों के बीच संभावना पैदा हुई कि जब इनकी गाडियां यहां तक पहुंच सकती है तो फिर हमारे नेताओं की क्यों नहीं। इसका सीधा मतलब है कि हमारे नेता हमें नजरअंदाज करती है। यहीं पर आकर लोगों ने न्यूज चैनलों पर भरोसा करना शुरु किया। देश की जनता या ऑडिएंस ने एक लम्बे अर्से तक चैनल के भरोसे हालात बदलने की उम्मीद में बिताए हैं। आज आप देश के किसी भी कोने में, इंटिरियर से इंटिरियर इलाके में चले जाइए, कैमरे और माइक लेकर, वहां के लोग आपको हैरत से नहीं देखेंगे, एक घड़ी बहुत उत्सुक होकर आपके कैमरे और माइक को देखे औऱ फिर आपको देखे। लेकिन पीछे से किसी न किसी अनुभवी का आवाज जरुर आ जाएगी, कई बार तो एक दो चैनल तक नाम ले लेंगे कि इसके पहले भी फलां चैनल के लोग आए थे और फोटो लेकर चले गए। रवीश ने इसी शब्द को दोहराया, कैमरा से तस्वीर लेनेवाले लोग आते हैं और तस्वीरें लेकर चले जाते हैं। इधर पिछले दस सालों से एनजीओ का जाल फैलने से एक बार फिर उम्मीद जगी कि चैनल वाले सीधे-सीधे कोई काम न भी करें लेकिन एनजीओ इनके द्वारा दिखायी गयी खबर के बाद कुछ तो हमारी सुध लेगी। देश की ये ऑडिएंस तब भी नहीं समझ पायी कि एनजीओ का काम करते हुए कैसे लोग मल्टीनेशनल कंपनियों के वाहक बन बैठे, उनके उत्पादों को बेचने में लग गए। साबुन से लेकर चिप्स तक। अब जब वो ये कहते हैं कि स्लमडॉग ने लोगों को बता दिया कि ड्राइंगरुम से बाहर निकलकर झांकिए, पूरा भारत आपका इंतजार कर रहा है,तब मेरे दिमाग में बस एक ही सवाल आ रहा है कि अब देश की ऑडिएंस किस हैसियत से ड्राइंग रुम से बाहर आनेवाले लोगों को देखेगी। अपनी कामना तो यही है कि ड्राइंगरुम से निकलकर झांकनेवाले लोग सिर्फ झांककर ही न रह जाएं बल्कि रचना के साथ सामाजिक सक्रियता के स्तर पर भी उनके बीच जाएं। ताजिल गोलमई के शब्दों में देश में कई ऐसे स्लमडॉग हैं, हमें उन्हें भी देखना चाहिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090223/4f6c7289/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Sat Feb 21 11:08:50 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Sat, 21 Feb 2009 11:08:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Invite to the screenings of INDIA UNTOUCHED Message-ID: <292550dd0902202138v1790dbeew694c6978e499b796@mail.gmail.com> Dear Friends, You are invited to the Screenings of INDIA UNTOUCHED organised by SAFAR Film Series in Delhi on 25-26 February 2009. Stalin K., the director of the film has kindly consented to be available for the discussion. Below are the details of screening schedule and a brief note about the film, director and organiser. I am attaching herewith a poster also. Please widely forward and circulate this piece of information. Looking forward to your participation. best regards rakesh Final Schedule 25 Feb. 10.00 am: Jamia 12.00 pm: Kamla Nehru College 3.30 pm: Delhi School of Social Work 26 Feb. 11.00 am: Dr. Bhim Rao Ambedkar College 2.30 pm: Aditi Mahavidyalaya 6.30 pm: Insaf office About the film and the director INDIA UNTOUCHED - Stories of a People Apart 108 minutes. Hindi, Bhojpuri, Gujarati, Punjabi, Tamil, Telugu, Malayalm with English sub-titles Directed by Stalin K. Produced by Drishti, Presented by Navsarjan "INDIA UNTOUCHED-Stories of a People Apart" is perhaps the most comprehensive look at Untouchability ever undertaken on film. Director Stalin K. spent four years traveling the length and breadth of the country to expose the continued oppression of 'Dalits,' the 'broken people' who suffer under a 4000 year-old religious system. The film introduces leading Benares scholars who interpret Hindu scriptures to mean that Dalits 'have no right' to education, and Rajput farmers who proudly proclaim that no Dalit may sit in their presence, and that the police must seek their permission before pursuing cases of atrocities. The film captures many 'firsts-on-film,' such as Dalits being forced to dismount from their cycles and remove their shoes when in the upper caste part of the village. It exposes the continuation of caste practices and Untouchability in Sikhism, Christianity and Islam, and even amongst the communists in Kerala. Dalits themselves are not let off the hook: within Dalits, sub-castes practice Untouchability on the 'lower' sub-castes, and a Harijan boy refuses to drink water from a Valmiki boy. The viewer hears that Untouchability is an urban phenomenon as well, inflicted upon a leading medical surgeon and in such hallowed institutions as JNU, where a Brahmin boy builds a partition so as not to look upon his Dalit roommate in the early morning. A section on how newspaper matrimonial columns are divided according to caste presents urban Indians with an uncomfortable truth: marriage is the leading perpetuator of caste in India. But the film highlights signs of hope, too: the powerful tradition of Dalit drumming is used to call people to the struggle, and a young Dalit girl holds her head high after pulling water from her village well for the first time in her life. Spanning eight states and four religions, this film will make it impossible for anyone to deny that Untouchability continues to be practiced in India. Director Stalin K Stalin K. is a human rights activist and award-winning documentary filmmaker. In recent years, he has become known for his pioneering 'participatory media' work with urban and rural communities, in which local people produce their own videos and radio programs as an empowerment tool. He is the Co-Founder of DRISHTI- Media, Arts and Human Rights, Convener of the Community Radio Forum-India, and the India Director of Video Volunteers. He is a renowned public speaker and has lectured or taught at over 20 institutions ranging from the National Institute of Design and the Tata Institute of Social Sciences in India, to New York University and Stanford and Berkeley in the US. 'INDIA UNTOUCHED' is Stalin's second film on the issue of caste—his earlier film 'Lesser Humans,' on manual scavenging, won the Silver Conch at the Mumbai International Film Festival and the Excellence Award at Earth Vision Film Festival, Tokyo, and helped to bring international attention to the issue of caste. About SAFAR SAFAR - Meaning journey: is a collective of researchers, journalists, students, lawyers, activists, cultural practitioners and performing artists with a deep commitment to the ideals of social and gender equality. We at SAFAR, however, do not collapse these objectives into water-tight compartments of zealously held opinions. We see it basically as an open space for the dialogue, betterment and empowerment of the marginalized. SAFAR does appreciate historically determined causes of deprivation; however we also realize that the phenomenon may also affect sections of people falling outside the structural categories. It is with this realization that SAFAR endeavors to reach out to the visible and not so visible sections of society. While working on the above mentioned themes SAFAR consistently use various media tools we use various media tools and techniques. Posters, pamphlets, stickers, wall magazines, calendars and films are some of the forms SAFAR use and experiment with. SAFAR see these media forms not merely as mediums of expression and art forms, but also effective tools to sensitize/mobilize/aware common mass on any particular issue. Keeping this into mind SAFAR has initiated a unique program called SAFAR Film Series last year. The main idea behind this program is to undertake issue based mobile film screenings series. Under this program we periodically organize a series of screenings of any particular film for two-three days at as many places as possible in a city. SAFAR ultimately aims to approach and sensitize those who generally do not get chance to acquaintance with the people/culture/tradition/idea/trend which affects the very social fabric of this country and therefore remain confused or mere play a role of mute spectator. The post screening discussion is equally important for us, and therefore we try to make the concerned film maker/director available for a fruitful discussion. -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: final_poster.png Type: image/png Size: 3387834 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090221/f336a9ed/attachment-0001.png From vineetdu at gmail.com Tue Feb 24 20:39:45 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 24 Feb 2009 20:39:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpuClh+CkluClh+Ckgi0g4KS44KS+4KS4IOCkrOCkueClgiDgpJQ=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkvuCknOCkv+CktiDgpK/gpL4g4KS44KS+4KS4IOCkrA==?= =?utf-8?b?4KS54KWCIOCklOCksSDgpKzgpYfgpJ/gpL/gpK/gpL7gpII=?= Message-ID: <829019b0902240709h749fc07fx74e9b0faea2fce18@mail.gmail.com> नया ज्ञानोदय(मार्च) के लिए लेख लिखने के क्रम में मुझे एक बार फिर न्यूज चैनलों के उन पुराने फुटेज औऱ खबरों को खंगालना पड़ गया जिसमें सीरियलों की नई खेप को सामाजिक विकास का माध्यम बतालाया गया था। स्टार न्यूज, इ 24 और आजतक ने सीरियलों की इस नयी खेप पर बहुत सारी स्टोरी की है। सबमें ये बताने की कोशिश की है कि अब टीवी सीरियल के जरिए सामाजिक विकास का काम किया जा रहा है। हेडलाइन्स टुडे 14 फरवरी बाल दिवस के दिन बालिका वधू का असर देखते हुए राजस्थान के उन इलाकों की कवरेज में जुटा रहा, जहां सरकारी प्रतिबंध के वाबजूद भी बाल-विवाह जारी है। कुल मिलाकर चैनलों द्वारा इस तरह के महौल बनाए गए कि एकबारगी हम भी सोचने लग गए कि क्या वाकई टीवी सीरियलों के जरिए सामाजिक विकास संभव है। जागरुकता को एक हद तक शामिल किया जा सकता है लेकिन ये भी है कि जहां बाल-विवाह नहीं होते, वहां के लोगों के बीच इसका सेंस है। वो भी इसे देख रहे हैं तो क्या इसमें सामाजिक विकास का मामला जानकर या फिर इसकी कोई और भी वजह है। क्या ये सिर्फ सीरियलों के पैटर्न बदलने का मामला है। सास-बहू से आजीज ऑडिएंस को कुछ राहत और नया देने के लिए सीरियलों का मिजाज बदला गया है। इस पूरी वहस को मैंने अपने लेख टीवी सीरियलों में बदलते जज़्बात के रंग में समेटने की कोशिश की है। कोशिश रहेगी कि उसे भी टीवी प्लस पर चढ़ा दूं। फिलहाल, सास बहू औऱ साजिश स्टार प्लस के कमाउ कार्यक्रमों में से एक है। पिछले चार महीने पहले ही उसने अपने तीन साल पूरे किए और आदर्श बहू तुलसी औऱ छोटी बहू आनंदी से एनिवर्सरी के केट कटवाए। इस कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए आजतक ने भी टेलीविजन खासकर सोप ओपेरा से जुड़ी खबरों को फोकस करते हुए 2007 एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी- धन्नो बोले तो। कुछ ही महीने बाद प्रसारण के विवाद को लेकर इसे बंद करना पड़ा। उसके बाद आजतक को पैकेज के भरोसे ही टेलीविजन की खबरों को चलाना पड़ा, कोई अलग से कार्यक्रम नहीं बनाए। अब इधर कुछ दिनों से देख रहा हूं कि उसने एक नया कार्यक्रम शुरु किया है- सास,बहू औऱ बेटियां। कार्यक्रम सास, बहू औऱ साजिश की ही तर्ज पर है लेकिन साजिश शब्द को हटा दिया गया है। ये सिर्फ अलग दिखने भर के लिए नहीं है। इस एक शब्द से ही आप टीवी सीरियल के एक नए दौर की शुरुआत के संकेत समझ सकते हैं। सास, बहू और साजिश से ये पहले ही साफ हो जाता है कि इसमें सास औऱ बहुओं के बीच सीरियलों में जो कुछ भी चलता रहता है, उसे दिखाया जाएगा। लेकिन आजतक ने साजिश की जगह बेटियां रखा है जो सीरियल के बदलते मिजाज को साफ करता है। नए सीरियलों की जो खेप आयी है वो पुराने सीरियलों की टीआरपी की मार खाते हुए देखकर आयी है। उसे पता है कि जिस के फैक्टर के सीरियलों को एक जमाने में देश की ऑडिएंस ने आंखों पर बिठाया, अब कैसे उससे छिटकती जा रही है। इसकी बड़ी वजह एक ये भी रही कि इसमें सिर्फ कलह दिखाया जाता रहा। इसलिए अब के अधिकांश सीरियलों ने चाहे वो बालिका वधू, उतरन, आठवां वचन, छोटी बहू, राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी हो या फिर हम चार लड़कियां ससुराल से लेकर मायके तक का सफर हो सबों ने सास को रिप्लेस करते हुए सबों में मां को स्टैब्लिश कर दिया। लम्बे अर्से से जिस टीवी सीरियल में स्त्री छवि सास के तौर पर स्टैब्लिश की जाती रही, अब उसकी जगह मां को स्टैब्लिश करने की कोशिशें जारी है। इसे आप मां प्रधान सीरियलों की भी दौर कह सकते हैं। इसमें इमोशनल टच ज्यादा है तो जाहिर है टीआरपी के लिहाज से भी ये दुधार साबित हो रहे हैं। इसलिए आजतक की बेटियां शब्द के प्रयोग में सीरियल के एक दौर के खत्म हो जाने और नए दौर के शुरु होने के संकेत मिलते हैं। लेकिन कंटेट के स्तर पर बहुत फर्क नहीं है। दोनों में एक ही बात है। दोनों चैनलों ने शिवरात्रि के दिन बेटी और बेटी सरीखी बहुओं को जुटाया और सीरियल के शॉट्स से अलग अपने-अपने चैनल के माइक थमाकर शिव के आगे दूध औऱ जल चढ़वाया, उनसे बाइट मांगी और हमारे बीच बांटा। तब आप कह सकते हैं कि सिर्फ नाम बदला है, अंदर का माल नहीं बदला है। अब आप हमें ये मत कहने लग जाइए कि आजतक से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकते। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090224/152087e6/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Feb 24 23:11:07 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 24 Feb 2009 23:11:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sorry Message-ID: <829019b0902240941r63ef258bmda186034d73e2419@mail.gmail.com> दीवान के साथियों मैंन अभी की गयी पोस्ट में बाल दिवस 14 फरवरी लिख दिया है। 14 नबम्बर बाल दिवस है। माफ करें विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090224/04aef83b/attachment.html From anna at sarai.net Wed Feb 25 12:54:16 2009 From: anna at sarai.net (Anna Jay) Date: Wed, 25 Feb 2009 12:54:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSf?= Message-ID: टेस्ट। From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Feb 25 16:32:03 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 25 Feb 2009 16:32:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkm+Cli+Ckn+CkviDgpLjgpL4sIOCkm+Cli+Ckn+ClgCA=?= =?utf-8?b?4KS44KWAIOCkhuCktuCkvi4uLg==?= Message-ID: <6a32f8f0902250302x5522a1d2x1a90b747e11758cb@mail.gmail.com> *दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...* मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए एआर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते। बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही ठहरा ! जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया, मात्र वही बेहतरीन रहा। लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में रणजी टीम में चुने जाने के लिए नायक इकबाल के लिए केवल पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली दफा बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म *रोजा* के – *दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...* *चांद तारों को छू लेने की आशा* *आसमानों में उड़ने की आशा।* जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत *जय हो*... से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का। फिल्म *रोजा* आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है। तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो *मदर इंडिया* को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था। रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ। जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें। खैर, इसपर विस्तार से बात होगी। शुक्रिया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090225/f5bae785/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Feb 25 18:28:38 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 25 Feb 2009 18:28:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWN4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS+IOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkviAo4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX?= =?utf-8?q?=29?= Message-ID: <196167b80902250458u19e04d70u78b8c656b71f52bf@mail.gmail.com> अपने एक मित्र की मदद से अपने ब्लॉग को थोडा सजाया संवारा है. आप सबके नजर कर रहा हूँ यह ब्लॉग - http://ashishanshu.blogspot.com ---- आशीष -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090225/ffb90bff/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Feb 26 14:49:37 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 26 Feb 2009 14:49:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W09UXSBSZTogRndk?= =?utf-8?b?OiBSZTog4KSq4KWC4KSw4KWN4KSjIOCkteCkv+CksOCkvuCkriDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSr4KWB4KSyIOCkuOCljeCkn+ClieCkqg==?= In-Reply-To: <8bdde4540902230043s6ebf80afrd67943430a271cce@mail.gmail.com> References: <200902171629.29797.ravikant@sarai.net> <8bdde4540902230039r2b55bee7m7c7199ecc6a1bfea@mail.gmail.com> <8bdde4540902230043s6ebf80afrd67943430a271cce@mail.gmail.com> Message-ID: <200902261449.39624.ravikant@sarai.net> मसिजीवी महोदय, बहुत बहुत शुक्रिया कि न केवल इस बात को आगे ले जाकर हमें शब्द के अन्य भाष्यों से मिलवाया, और कुछ सारगर्हित टिप्पणियों को दीवान तक खींच लाए. मैं पहले भी अजित साहब को पढ़कर लाभान्वित होता रहा हूँ. आपके मार्फ़त अभय तिवारी का भी शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ, कि उन्होंने कुछ और कोष खंगाले. रही बात तरतमता की तो दो-एक छोटी-छोटी बातें मुझे कहनी हैँ और जानना भी चाहता हूँ, कि बात अजित जी के गले क्यों नहीं उतरती. अगर व्याकरण-सम्मत न होना - कि दो प्रत्यय जोड़कर एक तीसरा विशेषण नहीं बनाया जा सकता - इसका एकमात्र कारण है तो मैं ज़्यादा परवाह नहीं करता, क्योंकि अपवाद के रूप में ही सही पर कोई भी ज़बान बदचलनी से ही पनपती है, भले ही उसकी रीढ़ एक ख़ास लीक पर क़ायम रहे. दूसरी बात ये व्याकरण अगर संस्कृत व्याकरण के चलते अगर ऐसा है, तो हमें किशोरीदास वाजपेयी आदि के साथ बैठकर सोचना पड़ेगा कि हिन्दी व्याकरण अलग कहाँ है. तीसरी बात, हम जानते हैं अजित साहब कि तारतम्य का उच्चारण ही नहीं वह अर्थ भी हिन्दी में कतई प्रचलित नहीं, जिसके लिए हम इसको ग्रहण करना चाहते हैं. इसलिए हम तारतम्य को बग़ैर पुनर्परिभाषित किए नहीं चला सकते, और इसके चलने में शायद मुश्किलें आएँ. इन सब कारणों से ही बेलीक चलते हुए तरतमता हम चलाना चाहते हैं, बग़ैर इस बात में गए हुए कि मराठी या हिन्दी में वैसे भी अल्प-प्रचलित तरतम के क्या मायने हैं. अगर अजित जी समझते हैं इसकी जड़ में कुछ-कुछ अर्थछटाओं का आभास है तो बल्ले-बल्ले! मुख़्तसर में, आप और मैं अपनी सहजबुद्धि औरर अजित जी अपने पांडित्यपूर्ण तर्कों के सहारे अगर इस लफ़्ज. के पक्ष में हैं तो बहुत बढ़िया बात है! अगर नहीं भी तो कोई प़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि भाषाओं में शब्दग्रहण की प्रक्रिया हमारे-आपके बस की बात नहीं, इसे चलना होगा तो अपने बल-बूते चलेगा नहीं तो हम सोपानुक्रम और न जाने क्या-क्या झेलते रहेंगे. हमारी भी कोशिश होगी कि ऐसी शब्द चर्चाएँ थोड़ी बेहतर बारंबारता और ऐसी ही बेहतरीन साफ़गोई से होती रहें, यहाँ भी. शुक्रिया रविकान्त सोमवार 23 फरवरी 2009 14:13 को, आपने लिखा था: > मित्रगण, > इसी संदर्भ में अभय तिवारी की टिप्‍पणी > भी अहम है जो इस पोस्‍ट पर ब्‍लॉग पर आई। खेद है कि टिप्‍पणी अ्रगेजी में है > तथा इसे अनुवाद नंही कर पाया हूँ.. > > one finds the word behtar in farsi-hindi dictionary published by iran > culture house.. beh and tar both pretty well established prefix and suffix > in farsi, behtar very well be a farsi word. but it does not establish that > better is borrowed in english from persian word behter. > here is the entry for better in online etymological dictionary. > > better > O.E. betera (see best). Comparative adj. of good in the older Gmc. > languages (cf. O.N. betr, Dan. bedre, Ger. besser, Goth. batiza). > Superseded bet in the adv. sense by 1600. Better half "wife" is first > attested 1580; to get the better of (someone) is from 1461. > > does it make any sense? > > after all both persian and english have common root in proto indo european > language. > still if one refuses to see reason, then what about best. does it sound > like borrowed from behtarin? > the entry for best in etymological dictionary: > > best > O.E., reduced by assimilation of -t- from earlier O.E. betst, originally > superlative of bot "remedy, reparation," the root word now only surviving > in to boot, though its comparative, better, and superlative, best, > transferred to good (and in some cases well). From P.Gmc. root *bat-, with > comp. *batizon and superl. *batistaz. The verb "to get the better of" is > from 1863. Best-seller is from 1889; best friend was in Chaucer (c.1374). > Best girl is first attested 1887 in a Texas context; best man is 1814, > originally Scottish, replacing groomsman. > > > sorry for writing this comment in english. took the libery because the > issue here concerns english too. and i seem to be making a point in favour > of english, completely unintentional of course. the idea is to get the > right picture. > > > > 2009/2/23 Vijender chauhan > > > इस बेहतर व तरतमता को जब हम ब्‍लॉगजगत में ले > > गएतो अजीत साहब > > की शानदार पोस्‍ट > > आई हम वहॉं से > > जस का तस साभार पेश कर रहे हैं- > > > > *शुक्रवार को** > > मसिजीवी **ने** > > दीवान > > **पर एक चर्चासूत्र (थ्रेड) देखा तो उस पर सार्थक पोस्ट लिखी मगर साथ ही साथ > > चर्चासूत्र का एक सिरा हमारी और तैरा दिया जो देर शाम हमें अपनी नेटझोली में > > मिला और संदर्भित पोस्ट हम देर रात घर पहुंचने पर ही पढ़ पाए। भाषा पर ऐसे > > विमर्श चलते रहना चाहिए**, **इसीलिए विजेन्द्रभाई के आग्रह पर हम भी कुछ > > गप-शप कर लेते हैं।* > > > > निश्चित ही अच्छा की विशेषण अवस्थाओं को अगर देखें तो विशेषण की मूलावस्था, > > उत्तरावस्था और उत्तमावस्था के जो रूप बनेंगे वे अच्छा-बहुत अच्छा-सबसे > > अच्छा होंगे। श्रेष्ठ शब्द पर इसकी आजमाइश करें तो *श्रेष्ठ** **> > > **श्रेष्ठतर** **> ** श्रेष्ठतम* जैसे रूप बनेगे। इनकी तुलना में हिन्दी में > > अच्छाई के विशेषण रूपों में बेहतर और बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा > > होता है। सवाल है कि बेहतर और बेहतरीन तो दो ही रूप हुए। इसका पहला रूप क्या > > है ? अच्छा शब्द की विशेषण अवस्थाएं बताने के लिए उसके आगे बहुत (अच्छा) और > > सबसे (अच्छा) जैसे उपसर्ग-विशेषण लगाने पड़ते हैं जबकि व्याकरण सम्मत > > प्रत्ययों की सहायता से बनें विशेषणों का प्रयोग करने से न सिर्फ भाषा में > > लालित्य बढ़ता है बल्कि उसमें प्रवाह भी आता है। > > > > *बे*ह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और हिन्दी में इसकी आमद फारसी से > > हुई है। बेह का मतलब होता है बढ़िया, भला, अच्छा आदि। बेह की व्युत्पत्ति > > संस्कृत शब्द *भद्र* bhadra से मानी जाती है जिसका मतलब, शालीन, भला, > > मंगलकारी आदि होता है। फारसी में इसका रूप बेह हुआ। अंग्रेजी में गुड good > > के सुपरलेटिव ग्रेड(second) वाला *बेटर* better अक्सर हिन्दी-फारसी के > > *बेहतर* का ध्वन्यात्मक और अर्थात्मक > > प्रतिरूप >44&dq=beh%2Btar+arabic&source=web&ots=6Icy0v0pLp&sig=MxbEba1bzwd0-YNDazFrg > >Y61nQg&hl=en&ei=vceeSZ3gCpHItQOv-qzdCQ&sa=X&oi=book_result&resnum=1&ct=res > >ult> लगता है। इसी तरह*बेस्ट* best को भी फारसी बेहस्त beh ast पर आधारित > > माना जाता है। अंग्रेज विद्वानों का मानना है कि ये अंग्रेजी पर फारसी, > > प्रकारांतर से इंडो-ईरानी > > प्रभाव >06-01/msg01079.html> की वजह से ही है। यूं बैटर-बेस्ट को प्राचीन जर्मन > > लोकशैली ट्यूटानिकका असर माना जाता > > है जिसमें इन शब्दों के क्रमशः बेट bat (better) और battist (best) रूप > > मिलते हैं।*ट्यू*टानिक में भद्र का रूप *भट* bhat होते हुए bat में बदला। यह > > प्रभाव कब अंग्रेजी में सर्वप्रिय हुआ, कहना मुश्किल है मगर यह इंडो-ईरानी > > असर ही है। किसी ज़माने में सुपरलेटिव ग्रेड के लिए अंग्रेजी में* गुड** **> > > **गुडर** **> **गुडेस्ट* (good, gooder, goodest) चलता होगा इसका प्रमाण > > अमेरिकी अंग्रेजी की लोक > > शैली >q=good+gooder+goodest+old+english&source=web&ots=yO7kaxY_wv&sig=xWZG9bZV_z > >gUbCrnHNp0EF2SED0&hl=en&ei=xuGeScqtLIKEsAONv_zGCQ&sa=X&oi=book_result&resn > >um=1&ct=result> में मिलता है जहां ये रूप इस्तेमाल होते हैं। जाहिर है कि > > मूल यूरोप से आई अंग्रेजी ने यह प्रभाव अमेरिकी धरती पर तो ग्रहण नहीं किया > > होगा क्योंकि अगर ऐसा होता, तो प्रचलित अंग्रेजी में ये प्रयोग आम होते। > > निश्चित ही ट्यूटानिक प्रभाव से अछूते रहे चंद यूरोपीय भाषाभाषियों के जत्थे > > भी अमेरिका पहुंचे होंगे जो गुड > गुडर > गुडेस्ट कहते होंगे। *बेह* से > > विशेषण की तीनों अवस्थाएं यूं बनती हैः *बेह** **> **बेहतर** **> > > **बेहतरीन।* > > > > *गौ*रतलब है कि विशेषण अपनी मूलावस्था में अपरिवर्तनीय होता है। उसकी शेष दो > > अवस्थाओं के लिए ही प्रत्ययों का प्रयोग होता है। बेहतर में जो *तर*प्रत्यय > > है उसे कई लोग फारसी का समझते हैं जो मूलतः संस्कृत का ही है, मगर > > उत्तमावस्था के लिए वहां एक अलग प्रत्यय *ईन* (तरीन) बना लिया गया। यह > > प्रक्रिया अन्य विशेषणों के साथ भी चलती है जैसे बद > बदतर > बदतरीन , खूब > > > खूबतर > खूबतरीन, बुजुर्ग > बुजुर्गतर > बुजुर्गतरीन वगैरह। तर और तम दोनो > > प्रत्यय संस्कृत के हैं और विशेषण के सुपरलेटिव ग्रेड superlative grade में > > इस्तेमाल होते हैं, जिन्हें हिन्दी में उत्तरअवस्था और उत्तमअवस्था कहा जाता > > है। गौर करें कि *उत्तर* से ही बना है *तर्* प्रत्यय और*उत्तम* से बना है * > > तम्* प्रत्यय। यह हिन्दी की वैज्ञानिकता है कि किसी भी विशेषण की > > उत्तरावस्था/उत्तमावस्था बनाने के लिए उसके साथ तर/तम लगाना इस तरह याद रहता > > है। ज़रा देखें- उच्च > उच्चतर > उच्चतम। गुरु > गुरुतर > गुरुतम। महान > > > महत्तर > महत्तम। लघु > लघुतर > लघुत्तम आदि। > > > > *र*विकांतजी द्वारा *तरतम* या *तरतमता* के संदर्भ में कही गई बात गले नहीं > > उतरती। स्वतंत्र रूप से *तर्* और *तम्*प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं है। यूं > > भी मूल शब्द में प्रत्यय लगने से नई शब्दावली बनती है, दो प्रत्ययों के मेल > > से कभी शब्द नहीं बनता। तब इनके मेल से बने तरतम और *ता* प्रत्यय लगने से > > इसके विशेषणरूप तरतमता का भी कोई अर्थ कैसे निकल सकता है, जबकि वे इसका अर्थ > > हायरार्की बता रहे हैं। जाहिर है गड़बड़ हो रही है। *तरतम* बेशक हिन्दी की > > मैथिली और मराठी भाषाओं में उपयोग होता है मगर यह तद्भव रूप में ही होता है > > जो कि लोकशैली का खास गुण है। सीधे-सीधे हिन्दी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को > > मैने विरले ही इस शब्द का प्रयोग करते सुना है। खासतौर पर पश्चिमी उत्तर > > प्रदेश, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान में जहां मैं रहा हूं और > > इसका प्रयोग नहीं सुना। अलबत्ता इसके तत्सम रूप *तारतम्यम्* पर गौर करें तो > > पाएंगे कि इसका हिन्दी रूप *तारतम्य* खूब बोला जाता है और वहां इसका उच्चारण > > इंच मात्र भी *तरतम* की ओर खिसकता सुनाई नहीं पड़ता। आप्टेकोश के मुताबिक > > तारतम्यम् शब्द तरतम+ष्यञ्च के मेल से बना है। स्पष्ट है कि संस्कृत में * > > तरतम* धातुरूप में पहले से मौजूद है जिसमें क्रमांकन, अनुपात, सापेक्ष > > महत्व, अन्तर-भेद जैसे भाव हैं जो हिन्दी के पदानुक्रम जैसे सीमित भाव की > > तुलना में कहीं व्यापक अर्थवत्ता रखता है। अपन को व्याकरण का ज्यादा ज्ञान > > नहीं है। शायद अपनी बात कुछ कह पाया हूं, कुछ नहीं > > > > > > 2009/2/19 Ravikant > > > >> विक्रम कृष्णा साहब, > >> > >> बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब > >> के उर्दू-हिन्दी कोश में > >> नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे > >> हिन्दी-उर्दू दोनों में धड़ल्ले से चलता है। > >> वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और > >> बदतरीन भी। > >> > >> तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते > >> हैँ: तरतमता - जो > >> अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर > >> इसी फ़ारसी+संस्कृत > >> परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों > >> में ता लगाकर विशेषण > >> बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से > >> श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम > >> आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से > >> चढ़ता है, और इस > >> ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और > >> बात साफ़! > >> > >> रविकान्त > >> > >> पुनश्च: आपने ज़ाक़ राँसिएर पर और सामग्री माँगी थी, अगली डाक में भेज रहा > >> हूँ. > >> > >> रविकान्त > >> > >> बुधवार 18 फरवरी 2009 21:15 को, Vickram Crishna ने लिखा था: > >> > 'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं? > >> > > >> > मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किस्सी एक दोस्त ने फरमाया हैं कि अंग्रेज़ी > >> > >> शब्द > >> > >> > 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले > >> > अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था| > >> > > >> > Vickram > >> > http://communicall.wordpress.com > >> > http://primevalues.wordpress.com > >> > > >> > > >> > > >> > > >> > ________________________________ > >> > From: ved prakash > >> > To: ravikant at sarai.net > >> > Cc: deewan at sarai.net > >> > Sent: Tuesday, 17 February, 2009 19:55:43 > >> > Subject: Re: [दीवान]Fwd: Re: पूर्ण विराम या फुल स्टॉप > >> > > >> > > >> > प्रिय मित्र, > >> > > >> > विभिन्न कारणों से फुलस्टाप पूर्ण विराम से ज्यादा बेहतर है. > >> > >> _______________________________________________ > >> Deewan mailing list > >> Deewan at mail.sarai.net > >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Fri Feb 27 15:39:39 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 27 Feb 2009 15:39:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSw4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWCIOCkleCkviDgpKrgpJXgpY3gpLc=?= Message-ID: <200902271539.40906.ravikant@sarai.net> नामवर जी ने द पब्लिक एजेण्डा(वार्षिक अंक, 4 मार्च 2009) नामक एक नई-सी पत्रिका में एक स्तंभ लिखना शुरू किया है, जो अपने आप में स्वागत योग्य है. लोगों की उनसे यही शिकायत रही है कि वे अब लिखते कम, बोलते ज़्यादा हैं. बहरहाल नीचे नक़लचेपी की गई शमसुर्रहमान फ़ारुक़ी साहब की किताब की समीक्षा की अहमियत कम से कम मेरे लिए यूँ भी बनती है कि 80 के दशक में नामवर जी ने उर्दू को लेकर कुछ ऐसी बातें कहीं थीँ, जो कई लोगों को नागवार गुज़री थी. मुझे भी. बाद में ज़ाकि र हुसैन कॉलेज में ज़बान के सवाल पर भाषण देते हुए अपनी स्थिति में संशोधन किया. यह टिप्पणी भी मैं आत्मालोचना के तौर पर लेता हूँ, वे भले ही इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद के नज़रिए से देखना पसंद करें! वैसे आपकी जानकारी के लिए ज़ाकिर हुसैन स्मृति में दिए गए सारे व्याख्यान पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैँ. तफ़सीलात चाहिएँ तो मैं संजय शर्मा से माँगकर आपको भेज सकता हूँ. नीचे के पाठ में नामादि में एकाध जो संशोधन है वह मेरा किया हुआ है, वरना जो चंदन जी ने टाइप किया हमने जस-का-तस रखा है. फ़ारूक़ी साहब की किताब तो पढ़ने लायक़ है ही, फ़िलहाल इस समीक्षा से हम शुरुआत कर सकते हैं. उर्दू का पक्ष नामवर सिंह यह पुस्तक मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गयी थी। शिकागो के प्रो. शेल्डन पोलॉक ने एक परियोजना के तहत ‘लिटरी कल्चर्स इन इंडियन हिस्ट्री’ पर शोध कराये थे। इस परियोजना के तहत विभिन्न भा रतीय भाषाओं के लिए अलग-अलग लेखकों का चयन किया गया था। उर्दू के लिए प्रो. शम्सुर्रहमान फ़ा रूक़ी को चुना गया था, जो बिलकुल सही चुनाव था। अब ‘उर्दू का आरंभिक युग’ नाम से उसका हिन्दी अनुवाद आया है। अनुवाद अच्छा किया गया है और कई दृष्टियों से यह किताब महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण इस अर्थ में कि एक ज़माने में, विशेष रूप से 1947 के पहले हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी को लेकर बहुत बहस हुई थी। आज़ादी के बाद कौन-सी भाषा देश की राजभाषा बनेगी, उसका स्वरूप कैसा होगा, इसको लेकर लगातार चर्चा होती रहती थी। दोनों भाषाओं के समर्थकों के बीच नोक-झों क भी चलती रहती थी। प्रेमचंद जैसे लेखक ने भी उन दिनों चल रही बहस में हिस्सा लिया था। अब जबकि यह मामला ठंडा पड़ चुका है और परिदृश्य भी बदल चुका है, इस मसले पर नए सिरे से विचार करना ज़रूरी है। इसमें हिन्दी का पक्ष तो व्यापक रूप से सामने आ चुका है। हिन्दी वालों ने काफ़ी कुछ लिखा है, अकेले चंद्रबली पाण्डे ने कई किताबें लिखी हैं। ऐसी दस-बारह किताबों की जानकारी हमें है। डॉ. रामविलास शर्मा ने भारतेंदु पर जो किताब लिखी, उसके दूसरे संस्करण में एक नया अध्या य जोड़ा जिसमें हिन्दी और उर्दू के रिश्तों पर तथा भारत की भाषा समस्या पर गंभीरता से विचार किया गया है। अब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उर्दू की ओर से पहल की है, जो स्वागत योग्य है और महत्त्वपूर्ण भी। उन्होंने कई नए तथ्य सामने रखे हैं। पुस्तक में कोई साथ अध्याय हैं और उन अध्यायों का निष्कर्ष उन्होंने एक छोटी-सी भूमिका में शुरू में ही दे दिया है। उसका एक अंश द्रष्टव्य हैः ‘उर्दू-हिन्दी के संबंधों को सुलझाए बिना “अर्ली उर्दू “ का पद अर्थहीन है। अतः मैंने अपनी बात आधुनिक हिन्दी के आरंभ और उसकी छुपी (और प्रत्यक्ष) राजनीति और उर्दू साहित्यिक संस्कृति पर उसके प्रभाव से शुरू की। इसके बाद मैं इस प्रश्न से उलझा कि उर्दू भाषा यद्यपि दिल्ली के आसपास पैदा हुई, लेकिन इसमें साहित्य की पैदावार आरंभ में गुजरात और दक्कन में क्यों हुई? ’ ‘फिर गुजरात और दक्कन में सैद्धांतिक आलोचना और काव्यशास्त्र का उदय तथा इस सिलसिले में अमीर खुसरो और संस्कृत के केंद्रीय रोल पर भी प्रकाश डाला गया। इसके बाद मैंने निम्नालिखित विषयों की छानबीन की-’ ‘दिल्ली का साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर देर से प्रकट होना। लेकिन दिल्ली के साहित्यिक साम्राज्यवादी स्वभाव के कारण ग़ैर दिल्ली के साहित्यकारों और ‘बाहरवालों’ का उर्दू की प्रामाणिक सूची से बाहर रहना और फिर अठारहवीं सदी की दिल्ली में नयी साहित्यिक संस्कृति और काव्यशास्त्र का उदय।’ एक मज़ेदार बात उन्होंने एक जगह कही है। जब हिन्दी वाले उर्दू को हिन्दी की शैली कहते हैं तो जवा ब में हिन्दी उर्दू वालों को करना चाहिए कि उर्दू हिन्दी की शैली नहीं, बल्कि हिन्दी उर्दू की शैली है क्योंकि एक ज़माने में उर्दू को ही हिन्दी कहते थे। इस तर्क में सफ़ाई तो है। हिन्दी का हिन्दवी उर्दू का ही नाम था। हमारे यहाँ भाषा शब्द का प्रचलन था। ब्रज भाषा, अवधी भाषा कहते थे। हिन्दी का प्रचलन बाद में हुआ। देश के लिए भी भारत शब्द का प्रचलन था। उर्दू वाले ही हिन्द कहते थे हिन्दी, हिन्दवी और हिन्दुस्तानी उसी भाषा के शब्द हैं। यह एक दिलचस्प बात उन्हो ने कही है, जो ठीक भी है। उर्दू हिन्दी की शैली नहीं है। इसी तरह उर्दू नाम को लेकर भी उन्होंने दिलचस्प टिप्पणी की है। उनके मुताबिक़ जब जुबान-ए-उर्दू कहते हैं, तो उसका मतलब देहली है। उर्दू में उर्दू शब्द का इस्तेमाल भाषा के रूप में कभी भी नहीं हुआ। लश्कर अथवा बाज़ार के लिए ही इसका प्रयोग हुआ है। अब भी दिल्ली मे उर्दू बाज़ार है। यानी एक ज़माने में उर्दू का मतलब था दिल्ली, शाहजहानाबाद, लश्कर आदि। उन्होंने और महत्त्वपूर्ण जानकारी यह दी है कि यह भाषा पहले दक्कन में बोली जाती थी और काव्य रचना भी वहीं शुरू हुई। उर्दू के प्रारंभिक कवियों में वली दक्कनी सबसे चर्चित हैं। पुस्तक में उन पर एक पूरा अध्ययाय है। वे औरंगाबाद के रहने वाले थे। उन्हें वली गुजराती के नाम से भी जाना जाता है। खड़ी बोली एक आधार है। उसकी दो शैलियाँ चलीं। एक शैली ने अरबी-फ़ारसी के शब्द लिए, दूसरी ने संस्कृत को आधार बनाया। दोनों ने कविता के लिए छंदों का चुनाव भी अलग-अलग किया। लेकिन ये दोनों शैलियाँ अमीर खुसरो के ज़माने में एक ही थीं, बल्कि, खुसरो के ज़माने में अवहट्ट और अपभ्रंश भी थीं, जिनमें विद्यापति ने लिखा है। अपभ्रंश, अवहट्ट से हो ते हुए अवधी, ब्रज आदि बोलियों में लेखन शुरू हुआ, हालाँकि इसको लेकर लेखन ने एक शायर को बिल्कुल छोड़ दिया है। वे हैं आगरे के नज़ीर अकबरावादी। वे ठेठ आगरे की भाषा में शायरी करते थे। उनकी शा यरी हिन्दी और उर्दू के बीच पुल का काम करती है, लेकिन उसकी चर्चा कम होती है। From mrinal.panjiyar at gmail.com Tue Feb 24 01:36:00 2009 From: mrinal.panjiyar at gmail.com (mrinal panjiyar) Date: Tue, 24 Feb 2009 01:36:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= read this one Message-ID: <32e492180902231206r594ee043r58cd4774212b0b22@mail.gmail.com> Dear friend, plz go through www.raviwar.com and read a good story by ajagar. plz go through www.mohalla.blogspot.com and 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Mrinal > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090224/caaead89/attachment.html