From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Dec 1 19:11:57 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 1 Dec 2009 19:11:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWA4KSh4KS8?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpI/gpJXgpL7gpJXgpILgpKQg4KS44KWN4KSl4KSy?= =?utf-8?b?IOCkr+CkvuCkqOClgCDgpLDgpYDgpJfgpLI=?= Message-ID: <6a32f8f0912010541l65ab09b8t6730ad972ca59719@mail.gmail.com> भीड़ में एकाकंत स्थल यानी *रीगल* ** फिजूल की बात लग सकती है ! पर ताज्जुब न हो, कई बार ऐसा होता है कि सिनेमाघर आपको उस शहर की ठीक-ठीक उम्र बतला दे। अब दिल्ली के कनॉट प्लेस में आबाद रीगल सिनेमाघर को ही लें। यह इमारत सन् 1920 में तैयार हुई थी। इसकी काया वास्तुकार वाल्टर जॉर्ज की दिमागी उपज है। पुराने लोग बताते हैं कि कनॉट प्लेस के आबाद होने की कहानी रीगल सिनेमाघर की ईंट बयां कर सकती है। खैर, जो भी हो, शुरुआती दिनों में रीगल की पहचान थिएटर के रूप में थी। यहां नगर की संभ्रांत आबादी नाटक का लुत्फ उठाने आती थी। कभी-कभार फिल्म-शो हो जाया करता था। पृथ्वीराज कपूर जैसे अभिनेता यहां नाटक का मंचन करते थे। यह बात बीसवीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक के शुरू के वर्षों की है। लेकिन, जब नाटक की जगह सिनेमा धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा तो रीगल भी रफ्ता-रफ्ता एक सिनेमाघर के रूप में आबाद हुआ। जवाहरलाल नेहरू समेत कई बड़े लोग यहां फिल्म देखने आते। मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक राजकपूर को अपनी फिल्मों का प्रीमीयर करना यहां खूब भाता। क्या है कि साठ और सत्तर के दशक में तो यह सिनेमाघर अपनी लोकप्रियता के चरम पर था। इसका खूब नाम-वाम था। वैसे, नाम अब भी है। पर थोड़ा रंग हल्का हुआ है। यहां कुल 694 लोगों के बैठने की जगह है। रीगल जाएंगे तो पाएंगे कि उसकी ऊंची छत, अंदर लकड़ी का बना आलीशान बॉक्स, मेहराब, दीवारों पर टंगी पुराने फिल्मी सितारों की करीने की लगी तस्वीरें आदि-आदि। यह सब उसकी भव्यता की कहानी ही तो बयां करता है। रीगल के अंदर दाखिल होते ही एकबारगी ऐसा लगेगा कि कहीं किसी ऑपेरा हाउस में तो नहीं पहुंच गए। हल्ला-गुल्ला व चमक-दमक के बीच यह सिनेमाघर बहुत शांत और अपने में ही सिमटा मालूम पड़ता है। उसके टिकटघऱ पर खड़े होकर ही आप यह महसूस कर सकते हैं। यह सिनेमाघर नए दौर में पुराने ढंग की भव्यता लिए सामने खड़ा है। तमाम बदलाव के बावजूद अब भी जिंदा है। और यकीन मानिए, उसकी मौजूदगी कनॉट प्लेस को ऐतिहासिक बनाती है। भटके राहगीर के लिए निशानदेही का काम करता है। राजधानी के सबसे महंगे स्थान पर होने के बावजूद आप यहां अधिकतम सौ और न्यूनतम 30 रुपए में नई फिल्मों का लुत्फ उठा सकते हैं। जबकि बगल में नए रूप में आया ‘रिवोली’ नई महानगरीय संस्कृति का खूब इतराता है। पुराने कॉफी हाउस के बगल में खड़े रिवोली के अंदर चमक के साथ इक नई दुनिया आबाद है। यहां न्यूनतम टिकट ही सौ टका का है। फास्ट-फूड वगैरह पर जी आ गया तो भई, सौ और गला जाएगा। पर, उसका भी अपना स्वाद है। ** नोट- कई सिनेमाघरों के पास जगह जाना हुआ, रीगल से शुरू कर रहा हूं। धन्यवाद ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091201/c967a9f6/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Dec 1 19:41:08 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 1 Dec 2009 19:41:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSy4KSk4KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpLjgpYHgpKfgpL7gpLA=?= Message-ID: <6a32f8f0912010611v69c2a0bdq4dd71a0adff92882@mail.gmail.com> दोस्तो कृपया रीगल सिनेमाघर आलेख में शीर्षक के एकाकंत शब्द को *एकांत* पढ़ा जाए। धन्यवाद ब्रजेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091201/ad2f4443/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Dec 5 14:22:52 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 5 Dec 2009 14:22:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkuOCkguCkuOCljeCkleClg+CkpOCkvyDgpJXgpYcg4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KSv4KSC4KSt4KWCIOCkoOClh+CkleClh+CkpuCkvuCksCA=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSyIOCkoOCkvuCkleCksOClhw==?= Message-ID: <196167b80912050052k25c19869we3e58b51677a0bd8@mail.gmail.com> पिछले दिनों महाराष्‍ट्र में बाल ठाकरे के संपादन में निकलने वाले मराठी अखबार ‘सामना’, पुणे संस्करण देखने का मौका मिला। बाल ठाकरे को तो आपलोग जानते होंगे। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे। जिनके सैनिक महाराष्‍ट्र में भारतीय संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदार हैं। ये सैनिक हर साल 14 फरवरी (वेलेंटाइन डे) के आस-पास अतिरिक्त सक्रिय हो जाते हैं। चूंकि उस दौरान भारतीय संस्कृति को पतन से बचाने की बड़ी जिम्मेवारी इनके सिर होती है। इनके अखबार की पंचलाइन है, ‘ज्वलंत हिन्दुत्वाचा पुरस्कार करणारे एकमेव मराठी दैनिक’, और अगले ही पृष्‍ठ पर मिलता है, फिल्म ‘सात कच्ची कलियां’ (23 नवंबर 09, पृष्‍ठ 02) का विज्ञापन। इतना ही नहीं ‘कामग्रंथ’, ‘हॉट मलाईका’, ‘मैं हूं मल्लिका’, ‘मिस भारती इन गरम बाजार’ (26 नवंबर 2009, पृष्‍ठ-02), बदनाम रिश्‍ते (26 नवंबर 09, पृष्‍ठ 06), ‘जवानी का मजा’, ‘शादी के पहले तबाही’ (27 नवंबर, पृष्‍ठ 06) जैसी दर्जनों फिल्मों का विज्ञापन आपको इस अखबार में मिल जाएगा। जिस ‘कुरबान’ को लेकर बाल ठाकरे की तरह सोचने वाले संगठन डंडा लेकर महाराष्‍ट्र में खड़े हुए थे, उस फिल्म के विज्ञापन भी इस अखबार में लगातार एक सप्ताह से अधिक समय तक छपे हैं। खुद को हिंदू हृदय सम्राट कहलाना (यह दूसरी बात है कि वे हिंदी क्षेत्र में रहने वालों को हिंदुओं में नहीं गिनते) पसंद करने वाले बाल ठाकरे ऐसी फिल्मों का विज्ञापन करके कौन से हिंदू समाज का निर्माण करना चाहते हैं? यह व्यक्तित्व का दोहरापन नहीं तो और क्या है? एक तरफ आप ‘वेलेन्टाइन डे’ का संस्कृति के नाम पर विरोध करते हैं, आप नाइट क्लब संस्कृति के खिलाफ लिखते-दिखते रहे हैं, दूसरी तरफ आप ‘मिस भारती इन गरम बाजार’ जैसी फिल्मों का विज्ञापन करके न जाने किस संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं? (http://mohallalive.com/2009/12/05/bal-thackerays-duplicity/) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091205/6cdc5d9c/attachment.html From baliwrites at gmail.com Mon Dec 7 13:13:13 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Mon, 7 Dec 2009 13:13:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= vidyalaya diary Message-ID: शोक सभाएं १९ जनवरी एवं १९ फरवरी २००७ *विधालय में होने वाली शोक सभाओ के पीछे आमतौर पर फोन द्वारा प्राप्त सूचना होती है किसी भी स्टाफ सदस्य के निकट सम्बन्धी की मृत्यु का समाचार शोक सभा का कारण होता है । मृत्यु का समाचार मिलने पर शाम ५ बजे यह सभा आयोजित होती है .एसा समाचार मिलने पर कुछ अध्यापको को अपने कुछ सामजिके कार्य याद आ जाते है और तुरंत वे स्कूल छोड़ देते है । एसा शायद इसलिए होता है क्योकि शोक सभा के ठीक बाद छात्रों की छुट्टी कर दी जाती है। छात्रों से सभी दुखद सूचनाये छिपाने की कोशिश की जाती है । किन्तु कभी- कभी उन्हें इस बारे में भनक लग जाती है । * *उपरोक्त दो दिनों में दो अध्यापकों के बड़े भाई का निधन हुआ था । एक अस्सी वर्षीय तथा दूसरे अपने विभाग में ही कार्यरत अठावन वर्षीय व्यक्ति थे। दोनों ही स्थितियों में शाम पाँच बजे छात्रों को प्रार्थना मैदान में अध्यापकों द्वारा इकठ्ठा किया गया। असमय प्रार्थना सभा बुलाने से ही बहुत से छात्रों को छुट्टी होने का अंदाजा हो जाता है। छात्रों में फैली छुट्टी की अफवाह भी कुछ कार्य करती है। छात्रों को प्राथना सभा की भांति पंक्तिबद्ध एकत्र करके एक अध्यापक बोलना आरंभ करता है। * *"आदरणीय प्राचार्य महोदय, विद्वान साथियो एवं प्यारे बच्चो, बेहद दुःख के साथ हमें आपको सूचित करना पड़ रहा है की पी ई टी सर के बड़े भाई साहब जो हमारे ही विभाग में पी ई टी के पड़ पर कार्य कर रहे थे उनका आज सुबह निधन हो गया है। हम सभी परमपिता परमात्मा से विनती करेंगे की भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे और उनके परिवार वालों को इस संकट की घड़ी में होसला दे। ऐसी सूचना सुनकर छात्रों में खुशी की लहर दोड़ जाती है। क्योंकि अब उनके संदेह का निवारण हो जाता है। साथ ही यह पक्का हो जाता है की अब छुट्टी हो जायेगी। "अब हम दो मिनट का मौन रखेंगे। इसके बाद सभी बच्चे चुपचाप अपने घर की और चले जायेंगे। " इसके आगे का स्वर आदेशात्मक हो जाता है,"कोई भी बच्चा बैग नहीं झाडेगा, शोर नहीं करेगा और लाइन तोड़कर नहीं भागेगा। जो ऐसा करेगा उसकी पिटाई होगी। जब मैं कहूँगा तब सभी आँखे बंद करेंगे तथा दो मिनट का मौन धारण करेंगे।" ऊँची आवाज़ में, "सावधान होंगे .... सावधान! आँखें बंद करें ...! शुरू कर .... ।"* *सभी अध्यापक हाथ बांधकर तथा सर झुकाकर मौन खड़े हो गए। यूँ तो अब तक भी मौन ही खड़े थे। उनके मुखमंडल पर गंभीरता फैली हुई थी। इसे देखकर पंक्तियों में सामने खड़े छात्र नतमस्तक होकर मौन खड़े रहे। दो मिनट का मौन खांसी व खिच-खिच के अतिरिक्त शांतिपूर्ण रहा। पत्तों की सरसराहट तथा दूर किसी बच्चे की किलकारी ने मौन में संगीत भर दिया। छात्रों की गंभीरता मौन की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गई। संचालक अध्यापक ने लयबद्ध ॐ द्वारा मौन को समाप्त किया। यूँ लगा जैसे आँखे खोलने के साथ ही बच्चों ने साँस ली हो तथा वे अब तक साँस रोककर ही खड़े हों। छात्र पंक्तिबद्ध विद्यालय प्रांगन से निकलने लगे। कुछ छात्र उन पंक्तियों से निकलकर साईकिल अथवा बैग लेने दूसरी दिशा में जाने लगे। अध्यापकों ने पूछने के बाद उन्हें जाने दिया। सभी छात्रों के चले जाने पर अध्यापक भी कई समूहों में बंटकर बातचीत करने लगे। यहाँ उनका भी गाम्भीर्य समाप्त हो चुका था। * ** vidyalayadiary.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091207/3c6a8b44/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Dec 11 18:05:48 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Fri, 11 Dec 2009 18:05:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSv4KS5IOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSC4KSVIOCkquCljeCksOCkreCkvuCktyDgpJzgpYvgpLbgpYAg4KSc?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCksCDgpJXgpYfgpKjgpY3gpKbgpY3gpLDgpL/gpKQg4KS5?= =?utf-8?b?4KWILi4=?= Message-ID: <196167b80912110435k424c54bbh9ad8bffe82c1feec@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन का यह अंक प्रभाष जोशी जी पर केन्द्रित है.. आपलोगों की प्रतिक्रया से हमारा उत्साह बढेगा. आप अपनी रचनाएं और प्रतिक्रिया 07mediascan at gmail.com पर भेज सकते हैं. आप चाहें तो बात भी कर सकते हैं- ०९८९९५८८०३३ http://docs.google.com/fileview?id=0B3e81qjrYjLXN2FhOTUyNjMtYzhhMy00N2JjLWJlNTgtMTgzZTZlNTQ1MDU3&hl=en -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091211/10b1d7f7/attachment.html From aboutsandeep123 at gmail.com Sat Dec 12 14:44:16 2009 From: aboutsandeep123 at gmail.com (sandeep pandey) Date: Sat, 12 Dec 2009 01:14:16 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSI4KSG4KSI?= =?utf-8?b?4KSP4KSu4KWNIOCkh+CkguCkpuCljOCksCDgpK7gpYfgpIIg4KSV4KSy?= =?utf-8?b?4KS+4KSu?= Message-ID: आईआईएम् इंदौर में कलाम शुक्रवार को डाक्टर एपीजे अब्दुल कलाम से मुलाकात करने का अवसर मिला अपने अखबार की ओर से। वे आईआईएम इंदौर के दो दिन के दौरे पर यहां आए हुए हैं। हालांकि पहले दिन मीडिया को औपचारिक निमंत्रण नहीं था लेकिन हम घुसपैठ करने में कामयाब रहे। डाक्टर कलाम ने बच्चों से आग्रह किया कि देश के ग्रामीण इलाकों के विकास में सक्रिय योगदान दें। जब हम पहुंचे डाक्टर कलाम बच्चों को पुरा प्रोजेक्ट के बारे में अपनी सोच बता रहे थे। इससे पहले मैंने इस प्रोजेक्ट के बारे में सुना नहीं था। इसका पूरा रूप है- प्रोवीजन आफ अर्बन अमिनिटीज इन रूरल एरियाज। अर्थात ग्रामीण इलाकों में शहरी सुविधाएं। उन्होंने बताया कि निजी सार्वजनिक भागीदारी पर आयोजित यह योजना कुछ स्थानों पर सफलतापूर्वक चल रही है। जिसमें 20-30 गांवों के एक समूह को चिह्नित कर उसे एक स्वावलंबी टाउनशिप के रूप में विकसित किया जाता है। इस पुरा में नालेज सेंटर, एग्री क्लीनिक्स, टेली एजुकेशन , टेली मेडिसिन, वाटर प्लांट कोल्ड स्टोर आदि की समुचित व्यवस्था के साथ साथ लोगों को स्किल्ड वर्कर के रूप में ट्रेंड भी किया जाता है। उन्होंने आईआईएम इंदौर से आग्रह किया कि पुरा को वह पाठ्यक्रम में शामिल करे। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि देवास और झाबुआ जैसे नजदीकी इलाकों में ऐसे पुरा स्थापित कर उनका प्रबंधन आईआईएम के बच्चों को सौंपा जाना चाहिए; *डाक्टर कलाम ने हालांकि पुरा परियोजना को पॉवर प्वाइंट की मदद से काफी बेहतर ढंग से समझाया लेकिन फिर भी कुछ सवाल अनुत्तरित रह गए। मसलन,* *यदि पुरा में पंचायती संस्थाओं की क्या भूमिका होगी ? * *क्या वे निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी ? * *उनके अधिकारों का बंटवारा किस तरह होगा ? आदि आदि। * *इसके अलावा मेरे मन में यह सवाल भी उठा कि आखिर निजी क्षेत्र को सुदूर ग्रामीण इलाकों में ऐसे धर्माथ दिख रहे काम में क्या रुचि होगी? अगर वह इसमें रुचि लेता है तो क्या यह भू माफिया को परोक्ष समर्थन और बढ़ावा नहीं होगा?* डाक्टर कलाम के साथ पुरा परियोजना पर काम कर रहे आईआईएम अहमदाबाद के पासआउट सृजन पाल सिंह भी थे। ये वही सृजन हैं जो कुछ अरसा पहले सक्रिय राजनीति में आने की इच्छा जता कर सुर्खियों में आए थे। उन्होंने लंबे चैड़े पैकेज के बजाय कलाम के साथ कुछ सार्थक काम करने को तरजीह दी है। रोचक - चाय के दौरान मुझे कलाम साहब से बातचीत का मौका मिला। मैंने उनसे पूछा कि आमतौर पर उनके लेक्चर आईआईएम और आईआईटी जैसे बड़े संस्थानों में ही क्यों होते हैं क्यों नहीं वे छोटी जगहों के सरकारी स्कूल कालेजों में जाते? इसपर कलाम साहब का जवाब काफी मजेदार था। उन्होंने जोर देकर कहा कि वे छोटे कालेजों में भी जाते हैं। उन्होंने कुछ छोटे कालेजों के नाम गिनाए जिनमें मैं सिर्फ सेंट जेवियर कालेज का नाम ही ध्यान रख पाया। बाकी नाम चूंकि मैंने सुने नहीं थे कभी इसलिए वे मेरी स्मृति से निकल गए। -- संदीप पाण्डेय 09993811736 www.dilenadan.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091212/e849c921/attachment-0001.html From aboutsandeep123 at gmail.com Mon Dec 14 10:53:14 2009 From: aboutsandeep123 at gmail.com (sandeep pandey) Date: Sun, 13 Dec 2009 21:23:14 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSc4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkneClguCkoCDgpK7gpKQg4KSs4KWL4KSy4KWL4KS8Li4u?= Message-ID: सजन रे झूठ मत बोलो़... नोट- इस साफगोई के साथ कि यह सूचना प्रधान आलेख अखबार के लिए निहायत जल्दबाजी में लिखा गया। मैं सोचता हूं कि हिंदी सिनेमा से जुड़े लोगों की कभी चर्चा की जाएगी तो क्या वह शैलेन्द्र और राज कपूर का जिक्र किए बिना पूरी होगी? शायद नहीं। उन्हें तो नियति ने भी एक अनूठे बंधन में बांध दिया था। 14 दिसम्बर को जहां राज कपूर इस दुनिया में आए थे वहीं शैलेन्द्र ने इसी तारीख को इस दुनिया को अलविदा कहा। एक का जन्म पेशावर में हुआ तो दूसरा रावलपिंडी में पैदा हुआ। एक ने पिता से रंगमंच व अभिनय का ककहरा सीखा तो दूसरा शुरू से है इप्टा से जुड़ गया. इसमें कोई शक नहीं कि राज कपूर ही वह फिल्मकार थे जिसके साथ शैलेन्द्र ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। राज कपूर ने पहली बार शैलेन्द्र को एक कवि सम्मेलन में सुना था। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए उनके गीत मांगे, जाहिर है मस्त तबीयत शैलेन्द्र ने साफ इंकार कर दिया। दिन बीते जीवन की कड़वी हकीकतों से रूबरू होने के बाद शैलेन्द्र को जरूरत आन पड़ी वे बंबई पहुंचे राज कपूर के पास। उन्होंने उनकी फिल्म बरसात के लिए पहला गाना लिखा- बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम...। एक और समानता जो दोनों में मिलती है वह थी जन सरोकारों की चिंता को अपनी रचनात्मकता के जरिए अभिव्यक्ति देने की। राज कपूर जहां उस समय आवारा, आग, बूट पोलिश, जागते रहो जैसे सिनेमा बना रहे थे वहीं शैलेन्द्र रमैया वस्ता वैया..., सब कुछ सीखा हमने ..., जिस देश में गंगा बहती है... जैसे गीत लिखकर निहायत ही आदर्श आम आदमी की कल्पना में जुटे हुए थे। शैलेन्द्र का सपना तीसरी कसम प्रख्यात लोकधर्मी कथाकार फणीष्वरनाथ रेणू की कहानी मारे गए गुलफाम पर एक फिल्म बनाना शैलेन्द्र का सपना था। राज कपूर को नायक लेकर उन्होंने इस पर फिल्म बनाई तीसरी कसम। कपूर ने दोस्ती निभाते हुए इसके लिए पारिश्रमिक लिया महज एक रुपया। विभिन्न कारणों से फिल्म का बजट बढ़ता गया और शैलेन्द्र कर्ज में डूबते गए। इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक राज कपूर पर भी डाली जाती है। फिल्म के फ्लाप होने के सदमे ने सिनेमा के अब तक के शायद सबसे सशक्त गीतकार को हमसे छीन लिया। हालांकि उनकी मौत के बाद फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। पुनश्च-तीसरी कसम फिल्म में हीरामन की बैलगाड़ी को क्या मुख्य पात्रों से अलग करके देखा जा सकता है? अभी ब्रजेश भाई का एक लेख नेट पर देखा जिसके मुताबिक वह गाड़ी अब भी पूर्णिया जिले के बरेटा गांव में रेणू की बहन के घर पर रखी हुई है। -- संदीप पाण्डेय www.dilenadan.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091213/049de5ce/attachment.html From girindranath at gmail.com Tue Dec 15 16:31:12 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 15 Dec 2009 16:31:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSc4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkneClguCkoCDgpK7gpKQg4KSs4KWL4KSy4KWL4KS8Li4u?= In-Reply-To: References: Message-ID: <63309c960912150301j654ee789ta66d8e4d4a1c721b@mail.gmail.com> हां, संदीप पूर्णिया जिले के कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में आज भी हीरामन की बैलगाड़ी मौजूद है। इसपर अक्सर रेणु सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आया-जाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने भी गाड़ी पर सफर किया था। मजेदार बात यह है कि इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणु ने अपनी कुछ रचनाओं में भी इस बैलगाड़ी से अपने प्रेम का परोक्ष रुप से इजहार किया है। बहरहाल उस बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह रखा है। यह बैलगाड़ी रेणु की बड़ी बहन लत्तिका देवी की थी। हालांकि आज उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रही लेकिन बहन की लालसा के मुताबिक उनके पुत्र आज भी उस गाड़ी में रेणु की छवि देखते हैं। खास आकार के चलते इस गाड़ी से रेणु को बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे इस गाड़ी के ही फिल्म के उपयोग की बातें राजकपूर के समक्ष भी रखीं। संदीप. मैं उस बैलगाड़ी की तस्वीर भी भेज रहा हूं। जरूर देखना। 2009/12/14 sandeep pandey > सजन रे झूठ मत बोलो़... > नोट- इस साफगोई के साथ कि यह सूचना प्रधान आलेख अखबार के लिए निहायत जल्दबाजी > में लिखा गया। > > मैं सोचता हूं कि हिंदी सिनेमा से जुड़े लोगों की कभी चर्चा की जाएगी तो क्या > वह शैलेन्द्र और राज कपूर का जिक्र किए बिना पूरी होगी? शायद नहीं। उन्हें तो > नियति ने भी एक अनूठे बंधन में बांध दिया था। 14 दिसम्बर को जहां राज कपूर इस > दुनिया में आए थे वहीं शैलेन्द्र ने इसी तारीख को इस दुनिया को अलविदा कहा। एक > का जन्म पेशावर में हुआ तो दूसरा रावलपिंडी में पैदा हुआ। एक ने पिता से रंगमंच > व अभिनय का ककहरा सीखा तो दूसरा शुरू से है इप्टा से जुड़ गया. इसमें > कोई शक नहीं कि राज कपूर ही वह फिल्मकार थे जिसके साथ शैलेन्द्र ने अपना > सर्वश्रेष्ठ दिया। > > राज कपूर ने पहली बार शैलेन्द्र को एक कवि सम्मेलन में सुना था। उन्होंने > अपनी फिल्मों के लिए उनके गीत मांगे, जाहिर है मस्त तबीयत शैलेन्द्र ने साफ > इंकार कर दिया। दिन बीते जीवन की कड़वी हकीकतों से रूबरू होने के बाद शैलेन्द्र > को जरूरत आन पड़ी वे बंबई पहुंचे राज कपूर के पास। उन्होंने उनकी फिल्म बरसात के > लिए पहला गाना लिखा- बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम...। > > एक और समानता जो दोनों में मिलती है वह थी जन सरोकारों की चिंता को अपनी > रचनात्मकता के जरिए अभिव्यक्ति देने की। राज कपूर जहां उस समय आवारा, आग, बूट > पोलिश, जागते रहो जैसे सिनेमा बना रहे थे वहीं शैलेन्द्र रमैया वस्ता वैया..., > सब कुछ सीखा हमने ..., जिस देश में गंगा बहती है... जैसे गीत लिखकर निहायत ही > आदर्श आम आदमी की कल्पना में जुटे हुए थे। > > शैलेन्द्र का सपना तीसरी कसम > प्रख्यात लोकधर्मी कथाकार फणीष्वरनाथ रेणू की कहानी मारे गए गुलफाम पर एक > फिल्म बनाना शैलेन्द्र का सपना था। राज कपूर को नायक लेकर उन्होंने इस पर फिल्म > बनाई तीसरी कसम। कपूर ने दोस्ती निभाते हुए इसके लिए पारिश्रमिक लिया महज एक > रुपया। विभिन्न कारणों से फिल्म का बजट बढ़ता गया और शैलेन्द्र कर्ज में डूबते > गए। इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक राज कपूर पर भी डाली जाती है। फिल्म के फ्लाप > होने के सदमे ने सिनेमा के अब तक के शायद सबसे सशक्त गीतकार को हमसे छीन लिया। > हालांकि उनकी मौत के बाद फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक > प्राप्त हुआ। > > पुनश्च-तीसरी कसम फिल्म में हीरामन की बैलगाड़ी को क्या मुख्य पात्रों से अलग > करके देखा जा सकता है? अभी ब्रजेश भाई का एक लेख नेट पर देखा जिसके मुताबिक वह > गाड़ी अब भी पूर्णिया जिले के बरेटा गांव में रेणू की बहन के घर पर रखी हुई है। > > > -- > संदीप पाण्डेय > www.dilenadan.blogspot.com > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- regards Girindra Nath Jha www.anubhaw.blogspot.com 09868086126 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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Name: cleardot.gif Type: image/gif Size: 43 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091215/4943bd9c/attachment-0001.gif From rakeshjee at gmail.com Tue Dec 15 17:04:21 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Tue, 15 Dec 2009 17:04:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSc4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkneClguCkoCDgpK7gpKQg4KSs4KWL4KSy4KWL4KS8Li4u?= In-Reply-To: <63309c960912150301j654ee789ta66d8e4d4a1c721b@mail.gmail.com> References: <63309c960912150301j654ee789ta66d8e4d4a1c721b@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0912150334m1208beebi1c76c888c93d8973@mail.gmail.com> संदीप और गिरिन्‍द्र बाबू, रोजक जानकारी मुहैया कराने के लिए आप दोनों का शुक्रिया. पर गिरिन्‍द्र, तस्‍वीर तो है ही नहीं. दोबारा भेजो दोस्‍त. राकेश 2009/12/15 girindra nath > हां, संदीप पूर्णिया जिले के कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में आज भी हीरामन की > बैलगाड़ी मौजूद है। इसपर अक्सर रेणु सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आया-जाया > करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने भी गाड़ी पर सफर किया > था। > > मजेदार बात यह है कि इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल > किया गया था। रेणु ने अपनी कुछ रचनाओं में भी इस बैलगाड़ी से अपने प्रेम का > परोक्ष रुप से इजहार किया है। > बहरहाल उस बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा > तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह रखा है। > > यह बैलगाड़ी रेणु की बड़ी बहन लत्तिका देवी की थी। हालांकि आज उनकी बहन इस > दुनिया में नहीं रही लेकिन बहन की लालसा के मुताबिक उनके पुत्र आज भी उस गाड़ी > में रेणु की छवि देखते हैं। > > > खास आकार के चलते इस गाड़ी से रेणु को बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम > फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे इस गाड़ी के ही फिल्म के > उपयोग की बातें राजकपूर के समक्ष भी रखीं। > > संदीप. मैं उस बैलगाड़ी की तस्वीर भी भेज रहा हूं। जरूर देखना। > > 2009/12/14 sandeep pandey > >> सजन रे झूठ मत बोलो़... >> नोट- इस साफगोई के साथ कि यह सूचना प्रधान आलेख अखबार के लिए निहायत जल्दबाजी >> में लिखा गया। >> >> मैं सोचता हूं कि हिंदी सिनेमा से जुड़े लोगों की कभी चर्चा की जाएगी तो क्या >> वह शैलेन्द्र और राज कपूर का जिक्र किए बिना पूरी होगी? शायद नहीं। उन्हें तो >> नियति ने भी एक अनूठे बंधन में बांध दिया था। 14 दिसम्बर को जहां राज कपूर इस >> दुनिया में आए थे वहीं शैलेन्द्र ने इसी तारीख को इस दुनिया को अलविदा कहा। एक >> का जन्म पेशावर में हुआ तो दूसरा रावलपिंडी में पैदा हुआ। एक ने पिता से रंगमंच >> व अभिनय का ककहरा सीखा तो दूसरा शुरू से है इप्टा से जुड़ गया. इसमें >> कोई शक नहीं कि राज कपूर ही वह फिल्मकार थे जिसके साथ शैलेन्द्र ने अपना >> सर्वश्रेष्ठ दिया। >> >> राज कपूर ने पहली बार शैलेन्द्र को एक कवि सम्मेलन में सुना था। उन्होंने >> अपनी फिल्मों के लिए उनके गीत मांगे, जाहिर है मस्त तबीयत शैलेन्द्र ने साफ >> इंकार कर दिया। दिन बीते जीवन की कड़वी हकीकतों से रूबरू होने के बाद शैलेन्द्र >> को जरूरत आन पड़ी वे बंबई पहुंचे राज कपूर के पास। उन्होंने उनकी फिल्म बरसात के >> लिए पहला गाना लिखा- बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम...। >> >> एक और समानता जो दोनों में मिलती है वह थी जन सरोकारों की चिंता को अपनी >> रचनात्मकता के जरिए अभिव्यक्ति देने की। राज कपूर जहां उस समय आवारा, आग, बूट >> पोलिश, जागते रहो जैसे सिनेमा बना रहे थे वहीं शैलेन्द्र रमैया वस्ता वैया..., >> सब कुछ सीखा हमने ..., जिस देश में गंगा बहती है... जैसे गीत लिखकर निहायत ही >> आदर्श आम आदमी की कल्पना में जुटे हुए थे। >> >> शैलेन्द्र का सपना तीसरी कसम >> प्रख्यात लोकधर्मी कथाकार फणीष्वरनाथ रेणू की कहानी मारे गए गुलफाम पर एक >> फिल्म बनाना शैलेन्द्र का सपना था। राज कपूर को नायक लेकर उन्होंने इस पर फिल्म >> बनाई तीसरी कसम। कपूर ने दोस्ती निभाते हुए इसके लिए पारिश्रमिक लिया महज एक >> रुपया। विभिन्न कारणों से फिल्म का बजट बढ़ता गया और शैलेन्द्र कर्ज में डूबते >> गए। इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक राज कपूर पर भी डाली जाती है। फिल्म के फ्लाप >> होने के सदमे ने सिनेमा के अब तक के शायद सबसे सशक्त गीतकार को हमसे छीन लिया। >> हालांकि उनकी मौत के बाद फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक >> प्राप्त हुआ। >> >> पुनश्च-तीसरी कसम फिल्म में हीरामन की बैलगाड़ी को क्या मुख्य पात्रों से अलग >> करके देखा जा सकता है? अभी ब्रजेश भाई का एक लेख नेट पर देखा जिसके मुताबिक वह >> गाड़ी अब भी पूर्णिया जिले के बरेटा गांव में रेणू की बहन के घर पर रखी हुई है। >> >> >> -- >> संदीप पाण्डेय >> www.dilenadan.blogspot.com >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > > > -- > regards > Girindra Nath Jha > www.anubhaw.blogspot.com > 09868086126 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Media Researcher & Content Editor Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://safarr.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091215/39d43404/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Dec 16 12:18:44 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 16 Dec 2009 12:18:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS44KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+IOCkleCliyDgpJrgpL7gpLngpL/gpI8g4KSv4KWL4KSX?= =?utf-8?b?4KWN4KSvIOCkteCksCwg4KSJ4KSw4KWN4KSrIOCkrOCkguCkpiDgpKY=?= =?utf-8?b?4KS/4KSu4KS+4KSXIOCkquCksCDgpI/gpJUg4KSa4KWL4KSf?= Message-ID: <829019b0912152248y570c9b39vaa1fcf983b679a49@mail.gmail.com> चैटबॉक्स में नीलिमा ने मुझसे कहा कि राजकिशोर ने अपनी बेटी अस्मिता का बायोडाटा मेरे पास भेजा तो मुझे आपका ध्यान आ गया। मैंने पूछा- क्यों? नीलिमा ने कहा-योग्य वर के लिए। मैंने फिर कहा-आप मजाक क्यों करती हैं? उसने कहा- सच्ची। फिर एक मिनट बाद ही उसने वायोडाटा फार्वर्ड कर दिया। मैंने बहुत ही जल्दी में अस्मिता राज का बायोडाटा देखा.फिर जब अपने शहर टाटानगर पहुंचा तो देखा कि मोहल्लालाइव पर ये वायोडाटा सार्वजनिक कर दी गयी है। इस पर रवीश कुमार से लेकर बाकी लोगों के भी कमेंट हैं। अस्मिता ने अपने बायोडाटा में कई ऐसी बातें लिखी है जिससे साफ हो जाता है कि विवाह संस्था के भीतर रहकर भी नए जमाने की लड़कियां किस तरह इसके ढांचे को ध्वस्त करने में जुटी है। लकीर का फकीर और कठमुल्लेपन की धज्जियां उड़ाने में जुटी हैं। मैंने भी कमेंट किया और अस्मिता को इस काम के लिए शुभकामनाएं दी। फिर घर में अवसाद के क्षणों में भी अपने भैय्या की शादी में कुछ रंगत पैदा करने में जुट गया। बात आयी गयी हो गयी। लेकिन जिस टिपिकल तरीके से हिन्दू रीति-रिवाज के तहत शादी की तैयारियां और नेम धर्म शुरु हुआ,मुझे अस्मिता का बायोडाटा बार-बार ध्यान आने आने लगा। मैंने कुछ लोगों को इसे पढ़वाया,इस बारे में चर्चा की। मेरे दिमाग में बस एक ही चीज बार-बार घूमने लगी। इस देश में हजारों लड़कियां ऐश्वर्या राय बनने की होड़ में है,हजार के करीब रानी मुखर्जी भी बनना चाहती है,सानिया मिर्जा और सुनिधि चौहान भी इसके आस-पास ही बनना चाहती है। लेकिन इस बीच अस्मिता राज कहां से आ गयी? ये उन लड़कियों के खांचे में नहीं है जो बचपन के राजकुमार को अब घोड़ी पर चढ़ना देखना चाहती है। ये उन लड़कियों से अलग है जो कि अफेयर को संबंध का नाम देने के लिए जी-जान लगाती है। हर औसत दर्जे के समाज के बीच खत्तम लड़की होने की बदनामी झेलती है। ये इतनी माइक्रो समझ है कि न तो वो विवाह संस्था का खुल्लम-खुल्ला चैलेंज करती है और न ही उसके बाहर जाकर कोई क्रांति की बात करती है। अगर कुछ नया और अलग है तो वो ये कि इसके भीतर ही रहकर उसके ढांचे को ध्वस्त करती है। मुझे लगता है कि अगर इस देश की तमाम लड़कियों ने गाय पर लेख लिखने के लिए अपने सीनियर की कॉपी देखी हैं,शादी के पहले मोहल्ले की लड़कियों से स्वेटर,टेबुल क्लाथ,कुशन के पैटर्न उधार लिए हैं तो अब उसे बायोडाटा बनाते समय एक बार अस्मिता के बायोडाटा से जरुर गुजरना चाहिए। कहने को बायोडाटा के जरिए शादी एक प्रोग्रेसिव नजरिया का हिस्सा लगता है लेकिन अगर आप इनके एक-एक शब्दों पर गौर करें तो आपको इसके कई हिस्से मानव-विरोधी लगेंगे। ये सबकुछ स्त्री के विरोध में जाता है। रंगों का वर्णन,जाति का बारीकी से वर्णन,खानदाननामा और ऐसी ही कई सूचनाएं जो एक ही झटके में एहसास कराती है कि शादी के नाम पर हम कितना बड़ा गैरमानवीय समाज रचते हैं? बंद दिमाग को संभव है कि अस्मिता का बायोडाटा परेशान करे,जबरदस्ती की चोचलेबाजी लगे लेकिन इसे चालू पैटर्न के लड़कियों के बायोडाटा से मिलान करके देखें तो एक घड़ी को इससे असहमत होते हुए भी अपनी बेटियों,अपनी बहनों,भतिजियों के लिए बनाए गए बायोडाटा पर नफरत होगी।..होनी भी चाहिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091216/54c7c116/attachment.html From dangijs at gmail.com Tue Dec 8 14:34:31 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Tue, 8 Dec 2009 14:34:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= New Version 1.0.9.0 In-Reply-To: <1662afad0912080024g470191fftad800a909fc77021@mail.gmail.com> References: <1662afad0912072341v7759e387jaa695ca66daed8e5@mail.gmail.com> <1662afad0912080022i3ef61284y9f135fedb46f81e3@mail.gmail.com> <1662afad0912080024g470191fftad800a909fc77021@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0912080104o28b47242y65b85ba775315303@mail.gmail.com> Dear Sir/Ma'am, Namaskar!! New Demo Version 1.0.9.0 of "Prakhar Devanagari Font Parivartak" along with it's 189 fonts list. The Link:- http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_F.html?s=1 Thanking You!! With Best Regards Er. Jagdeep S. Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091208/e0180d35/attachment-0002.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Font List.doc Type: application/msword Size: 50176 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091208/e0180d35/attachment-0002.doc From dangijs at gmail.com Tue Dec 8 14:34:31 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Tue, 8 Dec 2009 14:34:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= New Version 1.0.9.0 In-Reply-To: <1662afad0912080024g470191fftad800a909fc77021@mail.gmail.com> References: <1662afad0912072341v7759e387jaa695ca66daed8e5@mail.gmail.com> <1662afad0912080022i3ef61284y9f135fedb46f81e3@mail.gmail.com> <1662afad0912080024g470191fftad800a909fc77021@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0912080104o28b47242y65b85ba775315303@mail.gmail.com> Dear Sir/Ma'am, Namaskar!! New Demo Version 1.0.9.0 of "Prakhar Devanagari Font Parivartak" along with it's 189 fonts list. The Link:- http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_F.html?s=1 Thanking You!! With Best Regards Er. Jagdeep S. Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091208/e0180d35/attachment-0003.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Font List.doc Type: application/msword Size: 50176 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091208/e0180d35/attachment-0003.doc From water.community at gmail.com Sat Dec 5 08:06:28 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Sat, 05 Dec 2009 02:36:28 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_D?= =?utf-8?q?eveloping_a_Communication_Strategy_for_Water_-_UNICEF/_?= =?utf-8?b?4KSq4KWH4KSv4KSc4KSyIOCkleCljeCkt+Clh+CkpOCljeCksCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpLjgpILgpJrgpL7gpLAg4KSw4KSj4KSo4KWA?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IOCkteCkv+CkleCkuOCkv+CkpCDgpJXgpLDgpKjgpL4=?= In-Reply-To: <8b2ca7430911302114l5c43a7d0m5ddcb3d52235bdeb@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430911302114l5c43a7d0m5ddcb3d52235bdeb@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430912041824h52062538qc2547107f59f4e0d@mail.gmail.com> पेयजल क्षेत्र के लिए संचार रणनीति विकसित करना उदाहरण, प्रसंग, जवाब देने की तिथि 9 दिसम्बर 09 प्रिय सदस्यों, मैं "चाइल्ड एन्वायरनमेंट प्रोग्राम" (बाल पर्यावरण कार्यक्रम) के तहत यूनिसेफ़ के भारतीय कार्यालय में कार्यरत हूं। हम घरेलू पेयजल संबंधी आदतों में बदलाव लाने के लिए संचार रणनीति विकसित करने के लिए भारत सरकार की मदद कर रहे हैं। मुद्दों को देखते हुए अधिकतर संस्थान समस्या के असली कारणों को जाने बिना विभिन्न उत्पाद बना रहे हैं। नतीजा अधिकांश धन विभिन्न उत्पादों और उनके प्रचार में ही खर्च हो रहा है, लेकिन उनके प्रभाव को समझने और विश्लेषण करने की कोई प्रणाली उनके पास नहीं है। मैं यह जानने को उत्सुक हूं कि क्या कोई ऐसी एजेंसी है, जो इस मुद्दे पर व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए संचार प्रणाली और रणनीति विकसित करने में मददगार साबित हो सकती है। इस संचार और सम्पर्क रणनीति की शुरुआत इस मुद्दे पर एक बेसलाइन का निर्माण करने से होगी, जिसमें संचार-सम्पर्क की परिभाषा, विभिन्न तरीकों में से एक का चुनाव, रचनात्मक संदेशों को बनाने तथा प्रसार करने, मीडिया के परीक्षण, सामग्री के निर्माण उसकी समीक्षा, निगरानी तथा मूल्यांकन से करना होगा। "वाटर कम्युनिटी" के सभी सदस्यों के साथ मैं यह सूचना साझा करना चाहता हूं… कृपया इस पर विचार करें और अपना मत व्यक्त करें। *अ) पेयजल के सम्बन्ध में और किस-किस एजेंसी ने संचार-सम्पर्क प्रणाली पर काम किया है इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई है और क्या परिणाम रहे हैं? ब) क्या सभी सदस्य इस सम्बन्ध में बनी रणनीतियों और सामग्री को साझा करने के लिये तैयार हैं? स) ऊपर बताये गये तरीकों के अलावा इस संचार प्रक्रिया को और मजबूत तथा प्रभावी बनाने के लिये सदस्य अपने बहुमूल्य सुझाव भी भेज सकते हैं। * कृपया आपके जवाब सवालों पर ही विशेषरूप से केंद्रित होने चाहिए, इससे हमें पेयजल के सम्बन्ध में रणनीति और सम्पर्क-संचार प्रणाली को व्यवस्थित और सुचारु बनाने में मदद मिलेगी। (यूनिसेफ़, नई दिल्ली) आप अपने उत्तर यहां दें - Developing a Communication Strategy for Water - UNICEF I work with UNICEF’s India Country Office as Water Specialist in the Child’s Environment Programme. We are assisting the government to develop a communications strategy for behaviour change regarding household drinking water. Most institutions seem to produce products to address what are the perceived issues, and do not research in-depth the real reasons for the problem. The end result is that funds are utilised on products and promotion, but there is no rigorous method of analysing effectiveness. I am interested to know if any agency has taken the broader approach of developing a communications strategy for water, which the above studies form a part. A communications strategy would begin with development of a baseline in the field, definition of communication objectives, selection of mode(s) of communication, development of creative messages, testing of media, develop materials, implementation and then review, monitor and evaluate. I would like the Water Community members to share the following information: a. What other agencies have developed communications strategies for drinking water, what has been the process they followed and the results? b. Can members share the strategies and material already developed? c. Please provide inputs on the process proposed above and ways to make it more effective. Kindly provide your responses specifically to the three questions posed. They will help us in streamlining a communications strategy for the drinking water sector. Dara Johnston, UNICEF, New Delhi आप अपने उत्तर यहां दें - -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091205/ec02d12f/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Sat Dec 5 08:06:30 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Sat, 05 Dec 2009 02:36:30 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_D?= =?utf-8?q?eveloping_a_Communication_Strategy_for_Water_-_UNICEF/_?= =?utf-8?b?4KSq4KWH4KSv4KSc4KSyIOCkleCljeCkt+Clh+CkpOCljeCksCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCkv+CkjyDgpLjgpILgpJrgpL7gpLAg4KSw4KSj4KSo4KWA?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IOCkteCkv+CkleCkuOCkv+CkpCDgpJXgpLDgpKjgpL4=?= In-Reply-To: <8b2ca7430911302114l5c43a7d0m5ddcb3d52235bdeb@mail.gmail.com> References: <8b2ca7430911302114l5c43a7d0m5ddcb3d52235bdeb@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430912041824h52062538qc2547107f59f4e0d@mail.gmail.com> पेयजल क्षेत्र के लिए संचार रणनीति विकसित करना उदाहरण, प्रसंग, जवाब देने की तिथि 9 दिसम्बर 09 प्रिय सदस्यों, मैं "चाइल्ड एन्वायरनमेंट प्रोग्राम" (बाल पर्यावरण कार्यक्रम) के तहत यूनिसेफ़ के भारतीय कार्यालय में कार्यरत हूं। हम घरेलू पेयजल संबंधी आदतों में बदलाव लाने के लिए संचार रणनीति विकसित करने के लिए भारत सरकार की मदद कर रहे हैं। मुद्दों को देखते हुए अधिकतर संस्थान समस्या के असली कारणों को जाने बिना विभिन्न उत्पाद बना रहे हैं। नतीजा अधिकांश धन विभिन्न उत्पादों और उनके प्रचार में ही खर्च हो रहा है, लेकिन उनके प्रभाव को समझने और विश्लेषण करने की कोई प्रणाली उनके पास नहीं है। मैं यह जानने को उत्सुक हूं कि क्या कोई ऐसी एजेंसी है, जो इस मुद्दे पर व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए संचार प्रणाली और रणनीति विकसित करने में मददगार साबित हो सकती है। इस संचार और सम्पर्क रणनीति की शुरुआत इस मुद्दे पर एक बेसलाइन का निर्माण करने से होगी, जिसमें संचार-सम्पर्क की परिभाषा, विभिन्न तरीकों में से एक का चुनाव, रचनात्मक संदेशों को बनाने तथा प्रसार करने, मीडिया के परीक्षण, सामग्री के निर्माण उसकी समीक्षा, निगरानी तथा मूल्यांकन से करना होगा। "वाटर कम्युनिटी" के सभी सदस्यों के साथ मैं यह सूचना साझा करना चाहता हूं… कृपया इस पर विचार करें और अपना मत व्यक्त करें। *अ) पेयजल के सम्बन्ध में और किस-किस एजेंसी ने संचार-सम्पर्क प्रणाली पर काम किया है इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई है और क्या परिणाम रहे हैं? ब) क्या सभी सदस्य इस सम्बन्ध में बनी रणनीतियों और सामग्री को साझा करने के लिये तैयार हैं? स) ऊपर बताये गये तरीकों के अलावा इस संचार प्रक्रिया को और मजबूत तथा प्रभावी बनाने के लिये सदस्य अपने बहुमूल्य सुझाव भी भेज सकते हैं। * कृपया आपके जवाब सवालों पर ही विशेषरूप से केंद्रित होने चाहिए, इससे हमें पेयजल के सम्बन्ध में रणनीति और सम्पर्क-संचार प्रणाली को व्यवस्थित और सुचारु बनाने में मदद मिलेगी। (यूनिसेफ़, नई दिल्ली) आप अपने उत्तर यहां दें - Developing a Communication Strategy for Water - UNICEF I work with UNICEF’s India Country Office as Water Specialist in the Child’s Environment Programme. We are assisting the government to develop a communications strategy for behaviour change regarding household drinking water. Most institutions seem to produce products to address what are the perceived issues, and do not research in-depth the real reasons for the problem. The end result is that funds are utilised on products and promotion, but there is no rigorous method of analysing effectiveness. I am interested to know if any agency has taken the broader approach of developing a communications strategy for water, which the above studies form a part. A communications strategy would begin with development of a baseline in the field, definition of communication objectives, selection of mode(s) of communication, development of creative messages, testing of media, develop materials, implementation and then review, monitor and evaluate. I would like the Water Community members to share the following information: a. What other agencies have developed communications strategies for drinking water, what has been the process they followed and the results? b. Can members share the strategies and material already developed? c. Please provide inputs on the process proposed above and ways to make it more effective. Kindly provide your responses specifically to the three questions posed. They will help us in streamlining a communications strategy for the drinking water sector. Dara Johnston, UNICEF, New Delhi आप अपने उत्तर यहां दें - -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091205/ec02d12f/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From 07mediascan at gmail.com Sat Dec 5 11:48:09 2009 From: 07mediascan at gmail.com (MEDIA SCAN) Date: Sat, 05 Dec 2009 06:18:09 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSo4KS14KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KSs4KSwIOCkheCkguCklQ==?= In-Reply-To: References: <196167b80911140404p562bcc75wb6946bcd9b841df6@mail.gmail.com> <196167b80911140411s357812fhceea185f644b9217@mail.gmail.com> Message-ID: मीडिया स्कैन का नवम्बर अंक आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा --------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091205/ef7f576d/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: media scan nov09.pdf Type: application/pdf Size: 146746 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091205/ef7f576d/attachment-0001.pdf From pankaj.pushkar at gmail.com Sun Dec 13 23:00:44 2009 From: pankaj.pushkar at gmail.com (Pankaj Pushkar) Date: Sun, 13 Dec 2009 23:00:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?An_article_in_Jans?= =?utf-8?b?YXR0YSAo4KSG4KSw4KWN4KSl4KS/4KSVIOCkqOCljeCkr+CkvuCkryA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCktuClh+CktyDgpKrgpY3gpLDgpLbgpY3gpKgpIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWdIOCkleCksCDgpJ/gpL/gpKrgpY3gpKrgpKPgpYAg4KSV4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KWH4KSCIOCkpOCliyDgpIXgpLjgpYDgpK4g4KSV4KWD4KSq?= =?utf-8?b?4KS+Lg==?= Message-ID: आदरणीय सहमना साथी, जनसत्ता में छपे एक लेख (आर्थिक न्याय के शेष प्रश्न) की पीडीऍफ़ प्रति भेज रहा हूँ. अगर समय निकाल पढ़ सके तो बढ़िया और अगर टिप्पणी भी कर सकें तो असीम कृपा. वैसे इस मेल को आपको भेजने की प्रेरणा यह जानने के बाद मिली कि जनसत्ता (रायपुर संस्करण) इन्टरनेट पर भी उपलब्ध है. जरा लिंक www.jansattaraipur.com को टिक टिका कर तो देखिएगा. यह सूचना देने के लिए भाई ईश्वर दोस्त को शुक्रिया. पंकज पुष्कर प्रिय पंकजजी, आपका लेख बहुत अच्छा लगा. आपका यह तर्क मजबूत है की उपनिवेशवाद के ज्ञानशास्त्रीय आधार को लोकतान्त्रिक चेतना ne प्रश्नांकित नहीं किया है. जो काम हुआ भी है वह इतना कम है की इस आधार की निरंतरता में कोई खलल नहीं डाल पा रहा है. लेख चुस्त है और सोचने के लिए विवश करता है. उम्मीद है कि आगे भी आप के लेखों को में गोवा में पढ़ता रहूँगा. शायद आपको पता ही होगा कि जनसत्ता के लेख www.jansattaraipur.com में मिल जाते हैं. वही से ली हुई आपके लेख की pdf फाइल भेज रहा हूँ. आपका ईश्वर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091213/7745a0f8/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: pankajji ka lekh JS.pdf Type: application/pdf Size: 72048 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091213/7745a0f8/attachment-0001.pdf From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Dec 14 10:41:57 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 14 Dec 2009 10:41:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KWN4KS1?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KS+IOCkleClgCDgpJzgpYDgpKQ=?= Message-ID: <196167b80912132111m14d79e03jc2c3eb17ed2d1e3b@mail.gmail.com> पूँजी और सर्वहारा की लड़ाई में सर्वहारा के जीत की खबर आज के अखबारों की सुर्खियाँ हैं चैनलों पर यह एक्सक्लुसिव न्यूज़ ब्रेकिंग है. सर्वहारा नहीं जानता यह पूँजी की खबर, पूँजी की मीडिया में, पैसे वालों ने उड़ाई है. आम आदमी का देश, आम आदमी की सरकार, सच-सच बताओ, पिछले ६३ सालों से देशभर में यह अफवाह किसने फैलाई है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091214/5997d358/attachment-0001.html From dreampalacebd at gmail.com Thu Dec 17 18:14:58 2009 From: dreampalacebd at gmail.com (NARESH CHOWDHRY) Date: Thu, 17 Dec 2009 18:14:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= PARVAT RAAG MAGAZINE KI PDF FILE FROM GURMIT BEDI In-Reply-To: References: Message-ID: <3e04eefe0912170444u6caf4022h67b4afc3d2feb7dd@mail.gmail.com> Thanks for sending your book PARVAT RAAG. Very nice. Keep it up. -- WITH BEST REGARDS NARESH CHOWDHRY DREAM PALACE (BOOK DISTRIBUTORS) 484, DOUBLE STOREY, NEW RAJINDER NAGAR NEW DELHI - 110 060 (INDIA) TEL. : 91-11-6416 3037 (M) 0-9212 41 3637 On Thu, Dec 17, 2009 at 3:12 PM, gurmit bedi wrote: > KRIPAYA PARVAT RAAG KE ESS ANK PAR APNI PRATIKRIYAA JAROOR DEIN. > > Entzaar rahega. > > Sanand Honge. > > Regards > > GURMIT BEDI, > > Set No- 8, Type-4, > DC Colony, > UNA-174303 > HIMACHAL PRADESH > > 094180-33344 > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091217/1395b845/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: CATALOGUE FINAL . O.K..xls Type: application/vnd.ms-excel Size: 670720 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091217/1395b845/attachment-0001.xls From miyaamihir at gmail.com Sun Dec 20 03:46:33 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 20 Dec 2009 03:46:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS84KS+4KSwIOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYc=?= Message-ID: दीवान के दोस्तों, मेरा यह निबंध वाणी प्रकाशन की साहित्यिक पत्रिका ’वाक’ के अंक छ: में प्रकाशित हुआ है. इसे आप ऑनलाइन संस्करण के रूप में मोहल्ला लाइव पर यहाँ भी देख सकते हैं... http://mohallalive.com/2009/12/08/mihir-pandya-article-on-gulzar-in-waak/ ...miHir. ********** वो मेरी जवानी का पहला प्रेम था. मैं उसे आज भी मेरी ज़िन्दगी की ’हेट्टी केली’ 1 कहकर याद करता हूँ. उस रोज़ उसका जन्मदिन था. मैं उसे कुछ ख़ास देना चाहता था. लेकिन अभी कहानी अपनी शुरुआती अवस्था में थी और मेरे भीतर भी ’पहली बार’ वाली हिचक थी इसलिए कुछ समझ न आता था. आख़िर कई दिनों की गहरी उधेड़बुन के बाद मैं तोहफ़ा ख़रीद पाया. लेकिन अब एक और बड़ा सवाल सामने था. तोहफ़ा तो मेरे मन की बात कहेगा नहीं, तो उसके लिए कोई अलग जुगत भिड़ानी होगी. बस यही वो निर्णायक क्षण है जहाँ मेरी इस नितान्त व्यक्तिगत कहानी का ’साधारणीकरण’ हो जाता है और मैं अलग-थलग, इतिहास के किसी कोने में पड़े और अपने में ही खोये एक लड़के मिहिर से अचानक नब्बे के दशक के प्रतिनिधि युवा चरित्र में बदल जाता हूँ. अब मैं श्रीलाल शुक्ल से विक्रम सेठ तक लेखकों के उपन्यासों का विषय हूँ और आशीष नंदी से सुकेतू मेहता तक विचारकों के अध्ययन का कच्चा माल. उस निर्णायक क्षण में अपने एक फैसले के साथ मैं अपना ’ख़ास’ का बाना छोड़ता हूँ और अपनी हमउमर पीढ़ी की नियति के साथ एकाकार हो जाता हूँ. एक शुद्ध साहित्य का विद्यार्थी अपनी अभिव्यक्ति की तलाश में उसके दौर के सबसे लोकप्रिय और जनसुलभ माध्यम की ओर मुड़ता है. वही करता है जो उसके दौर में जवान हो रहे किसी भी लड़के या लड़की को करना चाहिए. मैं ख़ाली काग़ज़ पर मेरे दौर का एक फ़िल्मी गीत उकेरता हूँ और तोहफ़े को उसमें लपेटकर दूर देस की यात्रा पर भेज देता हूँ. ***** जैसा हरीश त्रिवेदी हिन्दी फ़िल्मी गीतों के सार्वजनिक महत्व पर बात करते हुए लिखते हैं, "पश्चिम में मौजूद लोकप्रिय संगीत की किसी भी धारा से ज़्यादा व्यापक और असरदार तरीके से, हिन्दी फ़िल्मी गीत मुख्यधारा के भारतीय जनमानस का भावनात्मक कल्पनालोक गढ़ते हैं. और यह प्रभाव वर्ग तथा बौद्धिक भद्रलोक के दायरे के पार जाता है." 2 त्रिवेदी विक्रम सेठ के ’ए सूटेबल बॉय’ का ज़िक्र करते हैं जहाँ ब्रह्मपुर में एक शाम एक सुनसान सड़क पर सवारियाँ ले जाते हुए ताँगेवाला एक फ़िल्मी गीत गाने लगता है, "दिल के टुकड़े हज़ार हुए..." और अचानक अपनी ’वर्ग-चेतना’ भूलकर सवारियों में से भी एक व्यक्ति उस गुनगुनाहट में शामिल हो जाता है. 3 मज़ेदार बात है कि जहाँ उपन्यास के अंग्रेज़ी संस्करण में इस गीत के गीतकार-गायक का कोई उल्लेख नहीं मिलता वहीं वाणी से प्रकाशित इसके हिन्दी अनुवाद ’कोई अच्छा सा लड़का’ में अनुवादक गोपाल गांधी हिन्दी पाठक समाज से उसकी साझा स्मृतियाँ बांटते हुए फ़िल्म के नाम के साथ-साथ उसके गायक और गीतकार का उल्लेख भी करते हैं. फ़िल्म - प्यार की जीत, गीतकार - क़मर जलालाबादी, गायक - मोहम्मद रफ़ी. 4 खुद हमारे समय के स्थापित गीतकार जावेद अख़्तर नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत में अपने लड़कपन के दौर के गीतों पर बात करते हुए नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं और उन्हें अपनी निजी ज़िन्दगी का हिस्सा बताते हैं, "पचास और साठ के दशक के गीत मेरे लिए सिर्फ़ गीत भर नहीं - उससे बहुत बढ़कर हैं. ये गीत न जाने कितनी यादें जगाते हैं. ’मुनीमजी’ का गीत ’जीवन के सफर में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को’ सुनता हूँ तो ये मेरे लिए सिर्फ़ एक गीत भर नहीं है - ये किसी बचपन के दोस्त से मुलाकात जैसा है. जब भी मैं ये गाना सुनता हूँ मुझे मेरे स्कूल के दिन याद आते हैं, मेरे पुराने दोस्त याद आते हैं, मेरी पहली प्रेमिका याद आती है. यह गीत मुझे यादों से भर देता है." 5 अचानक मेरे मन में ख़्याल आता है कि क्या आज भी कहीं कोई ’जान तेरे नाम’ का ’ये आक्खा इंडिया जानता है’ सुनकर अपना नटखट बचपन याद करता होगा? श्रीलाल शुक्ल के क्लासिक उपन्यास ’राग-दरबारी’ में एक लड़की फ़िल्मी गीतों को जोड़-जोड़कर ही पूरा प्रेम-पत्र लिखती है. हिन्दी सिनेमा के गीतों के आम भारतीय जनमानस पर पड़े गहरे प्रभाव का यह प्रेम-पत्र एक ऐसा अमर दस्तावेज है जिसका उल्लेख न सिर्फ़ हरीश त्रिवेदी ने किया है 6 बल्कि फ़्रैंचेस्का ऑरसीनी ने भी अपने बहुत ही रोचक लेख ’लव लैटर्स’ की शुरुआत इसी ख़त के उल्लेख से की है. 7 और देखें तो वहीं शिवपालगंज में अड़तालीस घंटे के नान-स्टॉप जागरण में सबसे लोकप्रिय भजनों के प्रेरणा स्रोत भी फ़िल्मी गीत ही हैं, "बाबाजी के दरबार में अड़तालीस घंटे तक अखंड कीर्तन चलता रहा. जो गाँजा नहीं पीते थे उनके लिए बराबर भंग का इंतज़ाम हुआ और जब तक कीर्तन चला तब तक सिल पर लोढ़ा भी चलता रहा. हारमोनियम बजता रहा और राधाकृष्ण और सीताराम की खुशामद में ऐसी-ऐसी धुनें गायी गईं जिनके सामने सिनेमा के बड़े-बड़े गाने पस्त हो गए, जैसे : लेके पहला-पहला प्यार, भरके आँखों में ख़ुमार जादू नगरी से आया है कोई जादूगर. के मुकाबले लेके पहला-पहला प्यार, तजके ग्वालों का संसार मथुरा नगरी से आया है कोई वंशीधर. ने मैदान मार लिया." 8 यह साठ के दशक का हिन्दुस्तानी देहात है. लेकिन जैसा त्रिवेदी लिखते हैं, हिन्दी सिनेमा के गीतों से भारतीय जनमानस का यह अंतरंग जुड़ाव वर्ग, काल और क्षेत्र की सीमाओं के पार जाता है. अपनी गैर-कथात्मक पुस्तक ’मैक्सिमम सिटी : बाँबे लॉस्ट एंड फाउन्ड’ के आत्मकथात्मक अंश में सुकेतू मेहता उनके लड़कपन के उस दौर का ज़िक्र करते हैं जब वे और उनके दोस्त मिलकर जैक्सन हाइट्स (न्यू यॉर्क) की सड़कों सत्तर के दशक की हिन्दी फ़िल्मों के गीत गाते हुए घूमते थे और अपनी ’अन्य’ पहचान स्थापित करते थे. 9 दो बिलकुल उलट परिवेश में हिन्दी सिनेमा के गीत आते हैं और उस निर्णायक क्षण को पूरा करते हैं. यही गीत हैं जो कई बार हमारे सिनेमा को ’विश्व सिनेमा’ के मंच पर एक अजायबघर से आयी चीज़ बना डालते हैं. 10 हमारे सिनेमा पर यथार्थवाद से दूर जाने का आरोप लगता है. लेकिन यही गीत हैं जो मेरी तमाम अधूरी कहानियों में आते हैं और उन्हें पूरा करते हैं. ***** मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे ! अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते जब कोई धागा टूट गया या ख़त्म हुआ फ़िर से बाँध के और सिरा कोई जोड़ के उसमें आगे बुनने लगते हो तेरे इस ताने में लेकिन इक भी गाँठ गिरह बुनतर की देख नहीं सकता है कोई. मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं, मेरे यार जुलाहे ! मैंने झूठ कहा कि तोहफा मेरी बात नहीं कहेगा. उस काग़ज़ के भीतर एक ऑडियो कैसेट थी. मैंने जगजीत सिंह की आवाज़ में गुलज़ार को लपेटकर भेजा था उस चिठ्ठी के साथ. मरासिम! उन दिनों मैं इसे रोज़ सुना करता था. चाहता था कि वो भी इसे सुना करे. हम दोनों एक ही वक़्त अलग-अलग जगहों में रहकर भी एक ही गाना सुन रहे हों, शाम से आँख में नमी सी है आज फिर आपकी कमी सी है. क्या यही वजह है कि गुलज़ार पर लिखने की मेरी कोई भी शुरुआती कोशिश सिरे से ख़ारिज हो जाती है? थोड़े से गुलज़ार मैंने अपनी ज़िन्दगी के लिए रख छोड़े हैं. ग़म में या खुशी में मैं उन्हें ही निकालता हूँ और पहन लेता हूँ. मेरे लिए गुलज़ार पर कुछ भी लिखना दरअसल अपनी ज़िन्दगी पर टिप्पणी करना है. और अपनी ज़िन्दगी पर निरपेक्ष भाव से लिखना क्या संभव है? जैसे ही आप कोई विमर्श पकड़ने के लिए ’प्राथमिक स्रोत’ की तरफ़ जाते हैं वो ’प्राथमिक स्रोत’ आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेता है. इन गीतों से निरपेक्ष रह पाना असंभव है. मैं अपने अकादमिक काम को इन ’एब्सर्ड’ यादों से बचाना चाहता हूँ और हर बार खुद को इस प्रयास में असफ़ल पाता हूँ. इन गीतों को सुनते हुए मुझे अपनी ज़िन्दगी के कुछ नितान्त निजी पल फिर से जीने पड़ते हैं. ये इतना आसान नहीं. कभी वो खुशी के पल हैं और कई बार उनमें कुछ बेहद उदास शामें शामिल हैं. अमलतास के फूलों का पीलापन है और मोगरे के गुच्छे की खुशबू. गुलज़ार पर लिखना डायरी लिखने जैसा है. दुनिया का सबसे ईमानदार काम. और मैं इतना ईमानदार नहीं होना चाहता. सुधीश सर मुझसे लेख चाहते हैं. मैं उन्हें निराश करता हूँ. क्या मैं उन्हें कभी बता पाऊँगा कि गुलज़ार की ही लिखी चार अशर्फ़ियों के साथ मैंने अपना आख़िरी प्रेम-पत्र ख़त्म किया था और उसके बाद मैं आज तक उस जैसा कुछ नहीं लिख पाया : तेरे ग़म की डली उठाकर ज़बाँ पे रख ली है मैंने देखो ये क़तरा-क़तरा पिघल रही है मैं क़तरा-क़तरा ही जी रहा हूँ. ***** लोकप्रिय सिनेमा के बारे में एक स्थापित विचार यह है कि मूलत: सताशील पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की परियोजना होने के कारण लोकप्रिय सिनेमा यथास्थितिवाद का पोषक रहा है. उदाहरण के लिए महानायक अमिताभ की फ़िल्मों पर गौर करें तो आमतौर पर इनका अंत या तो सामाजिक समस्या के महानायक द्वारा नाटकीय समाधान द्वारा (देखें - ज़ंजीर, कुली, अमर-अकबर-एंथॉनी) या नैतिकता और आदर्श की पुन: स्थापना द्वारा (देखें - दीवार, शक्ति, त्रिशूल) होता है. लेकिन यहाँ एक पेंच है. क्योंकि सिनेमा एक मास मीडियम है इसलिए इसके लोकप्रिय होने के लिए ज़रूरी है कि जन-आकांक्षाओं को वह अपने भीतर शामिल करे. और जन-आकांक्षाएं स्वभाव से ही सत्ता-विरोधी होती हैं. अमिताभ की यही नाटकीय समाधान और आदर्श की पुन:स्थापना वाली फ़िल्में सत्तर के दशक के असंतोष की एक प्रामाणिक तस्वीर भी अपने भीतर समेटे हैं. जैसा मैथिली राव लिखती है, "सलीम जावेद की पटकथाओं में उन गुमसुम उलझनों के गुस्से की झलक होती थी जो नेहरूवादी सपनों के छले जाने और गरीबी हटाओ के खोखले नारे से पैदा हुई थी." 11 चाहे फ़िल्म अपने ’आदर्श अंत’ में शशि कपूर के नैतिक चरित्र की जीत द्वारा व्यवस्था की पुन:स्थापना करे लेकिन यह साफ़ है कि उन तमाम फ़िल्मों का नायक हमेशा ’विजय’ ही था. यही वह मूल द्वैध है जिनसे मिलकर लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा का ताना-बाना रचा गया है. व्यवस्था का तरफ़दार होने के बावजूद इसे आम आदमी की बोली बोलनी पड़ती है, "लोकप्रिय सिनेमा दो विरुद्धों के साथ सफ़र करता है. उसकी दिलचस्पी यथास्थिति को बनाए रखने में होती है, और इस क्रम में वह बहुसंख्य नैतिकता की व्यवस्था को भी नहीं छेड़ना चाहता है. लोकप्रिय सिनेमा अपनी युग चेतना के अनुरूप होता है, वह सामुहिक इच्छा को इस प्रकार अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करता है कि उसके माध्यम से वह अधिक से अधिक लाभ कमा सके." 12 व्यवस्था बनाए भी रखनी है लेकिन जनता की बानी भी बोलनी है क्योंकि वही अपील करती है. मैथिली राव की इस स्थापना में इस द्वैध के दोनों सिरे शामिल हैं. इस द्वैध की आलोचकों ने अलग-अलग वजहें देखीं हैं. एम. माधव प्रसाद इसकी वजह का विश्लेषण कुछ यूं करते हैं, "लोकप्रिय सिनेमा परंपरा और आधुनिकता के मध्य परंपरागत मूल्यों का पक्ष नहीं लेता. इसका एक प्रमुख उद्देश्य परंपरा निर्धारित सामाजिक बंधनों के मध्य एक उपभोक्ता संस्कृति को खपाना है. इस प्रक्रिया में यह कई बार सामाजिक संरचना को बदलने के उस यूटोपियाई विचार का प्रतिनिधित्व करने लगता है जिसका वादा एक आधुनिक- पूँजीवादी राज्य ने किया था." 13 मैं अगर शुद्ध फ़िल्मी फॉर्मूले में बात करूं तो इस द्वैध के एक सिरे का सच्चा प्रतिनिधि है लोकप्रिय सिनेमा का क्लाईमैक्स वहीं दूसरे सिरे के सच्चे प्रतिनिधि हैं हिन्दी सिनेमा के गीत. आदर्श की पुन:स्थापना करने वाला क्लाईमैक्स यथास्थिति का पोषक बनकर उभरता है वहीं हिन्दी सिनेमा के गीत आम जनमानस की उन आकांक्षाओं के सच्चे प्रतिनिधि हैं जिन्हें इस अर्ध सामंती - अर्ध पूँजीवादी समाज व्यवस्था में हमेशा दबाकर रखा गया. प्रतीक रूप में लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के इन दो सबसे महत्वपूर्ण अंगों में ही सिनेमा के दो भिन्न विचार जगह पाते हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो गीतों में आगे बढ़ता प्रगतिशील और जनतांत्रिक विचार अक्सर क्लाईमैक्स की भूल-भुलैया में जाकर दम तोड़ता नज़र आता है. याद कीजिए हिन्दी सिनेमा की ऑल टाइम क्लासिक ’मुग़ल-ए-आज़म’ को. अंत में शहंशाह अनारकली को कहता है कि हिन्दुस्तान की तकदीर के लिए तुझे मरना होगा और व्यवस्था की पुन:स्थापना होती है. अकबर का मानवीय चेहरा दिखाते हुए उसे एक प्रजापालक राजा के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन क्या यही तसवीर है जिसे हिन्दुस्तानी जनमानस ’मुग़ल-ए-आज़म’ की पहचान के तौर पर याद रखता है? सच यह है कि हिन्दुस्तान का जनमानस आज भी ’मुग़ल-ए-आज़म’ का ज़िक्र आने पर सामंती सत्ता के सामने तनकर खड़ी और ’प्यार किया तो डरना क्या’ गाती अनारकली को ही याद करता है. सर्वशक्तिशाली राजा को अचानक अपने चारों ओर एक ही छवि नज़र आने लगती है. शकील बदांयुनी का यह अमर गीत सामान्य से तत्व ’प्रेम’ के भीतर छिपी क्रांतिकारिता को सामने ले आता है. एक सामंती समाज में शुद्ध प्रेम कभी भी सामान्य तत्व नहीं हो सकता. इसमें हमेशा सत्ता द्वारा निर्धारित ढांचों को हिलाने की क्षमता होती है, हमेशा. सिनेमा या साहित्य के बारे में हमेशा इस प्रश्न पर बात की जाती है कि आख़िर कृति का वो कौन सा मूलभाव है जिससे जनता अपना जुड़ाव महसूस करती है? जनता वहाँ जुड़ती है जहाँ मौहम्मद रफ़ी के साथ मिलकर सौ गायक कोरस में गाते हैं, "ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद, ऎ मौहब्बत ज़िन्दाबाद." 14 आरोप लगाया जाता है कि हिन्दी सिनेमा का यही अनोखा पहलू इसे हॉलीवुड के यथार्थ चित्रण के समक्ष गैर-यथार्थवादी बनाता है. 15 बेशक लगाया जाए. क्या अपनी अभिव्यक्ति की तलाश में एक कवि ’यथार्थ’ के ढांचे को नहीं तोड़ता? जिस तरह हमारा समाज सामाजिक मान्यताओं और चले आ रहे रीति-रिवाजों में जकड़ा है उसी तरह फ़िल्म भी व्यवस्था की स्थापना अर्थात यथास्थितिवाद की जकड़न में बंधी होती है. उसे कैसे भी कोशिश करके उस ’सुविधाजनक अन्त’ तक पहुँचना है. हिन्दी सिनेमा का गीत उसी जकड़बंदी से मुक्ति पाने की कोशिश है. यह ऐसी अभिव्यक्ति है जो व्यवस्था पर आधारित फ़िल्मी ढाँचे के मध्य वायवीय लगती है. उतनी ही वायवीय जितनी मुझे राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में अपने साथ आठवें दर्जे में पढ़ने वाली उस लड़की की मौत लगी थी जिसके बारे में कहा गया कि वो हमारे मौहल्ले के नाई के लड़के के साथ प्रेम करती थी और उसके ही साथ ज़हर खाकर मर गई. (या मार दी गई.) कुछ रुक कर जावेद अख़्तर को सुनते हैं, "मुझे लगता है कि गीत एक तरह की जकड़न से मुक्ति हैं. जब आप गीत गाते हैं तो अपने भीतर किसी दबाए गए भाव, चाहत या विचार को मुक्त करते हैं. गद्य में आप उत्तरदायी होते हैं लेकिन गीत में आप बिना परवाह खुद को अभिव्यक्त कर सकते हैं. अगर आप पूछें, "कौन जाने ये लोग प्यार क्यों करते हैं?" तो ज़रूर कोई जवाब में पूछेगा, "आप प्यार के इतना खिलाफ़ क्यों हैं?" लेकिन अगर आप यूं एक गाना गाएं, "जाने क्यों लोग प्यार करते हैं?" तो कोई भी आपसे इसका स्पष्टीकरण नहीं माँगेगा. लोग गीत मे अपनी इच्छाओं को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होते हैं. मुझे लगता है कि जो जितना ज़्यादा दमित होगा वो उतना ही ज़्यादा गीतों में अपनी अभिव्यक्ति पाएगा. किसी भी समाज में जितना ज़्यादा दमन होगा वहाँ उतने ही ज़्यादा गीत मिलेंगे. यह आश्चर्य नहीं है कि हिन्दुस्तानी समाज में जहाँ औरतों पर दमन ज़्यादा है वहाँ उनके हिस्से गीत भी पुरुषों से ज़्यादा हैं. गरीब के हिस्से अमीर से ज़्यादा गीत है. लोक संगीत आख़िर निर्माण से लेकर संरक्षण तक आम आदमी का ही तो है. अगर गीत सिर्फ़ आनंद और आराम के प्रतीक भर हैं तो फिर इन्हें समृद्ध समाजों में अधिक मात्रा में मिलना चाहिए था लेकिन इनकी बहुतायत मिलती है श्रमिक और वंचित वर्ग के बीच. मुझे लगता है कि गाना एक तरह से आपकी सेक्सुअलिटी का प्रतीक है और अगर यह माना जाए तो समाज में जितना इंसान की सेक्सुअलिटी को दबाया जाएगा, दमित किया जाएगा वहाँ उतने ही ज़्यादा गीत और उन्हें गानेवाले मिलेंगे." 16 दमित इच्छाएं. यहीं से गीतकार गुलज़ार की कहानी शुरु होती है. कल्याणी के मन की उलझन, मोह बाँह पकड़कर खींच रहा है और लाज पाँव पकड़कर रोक रही है. एक निहायत ही दिलचस्प प्रसंग में गुलज़ार हमें उस पहले गीत की कहानी सुनाते हैं : मोरा गोरा अंग लेई ले मोहे श्याम रंग देई दे यह एक बंद दरवाज़ों वाले समाज का गीत है. चौखट के उस पार का गीत. सामाजिक रूढ़ियों में जकड़े समाज से निकला गीत. और इस समाज की जकड़न सबसे अधिक तथा सबसे दूर तक स्त्री ही महसूस करती है. ऐसा बंधन जिसमें चाँद भी बैरी लगने लगता है. बदरी हटा के चंदा चुपके से झांके चंदा तोहे राहू लागे बैरी मुसकाए जी जलाई के यही गुलज़ार ’मेरा कुछ सामान’ लिखते हुए ’अक्स’ के इस गीत तक पहुँचते हैं : रात आती है चली जाती है हरजाई है फिर मेरे घर में दबे पाँव चली आई है शाम होते ही जला देती है पलकों के दिये रात से पूछे कोई किसके लिए किसके लिए कोई आहट भी नहीं और कोई आता भी नहीं रक़्स करती है जो शब-भर मेरी तनहाई है रात से पूछे कोई इसकी भी कहानी होगी ज़्ख़्म भरते ही नहीं चोट पुरानी होगी दर्द सीने में छिपा रखा है शायद कोई कोई ज़ेवर है किसी ग़म का चुरा लाई है एक ही दौर के गीतकार अक्सर आपस में पूरक का काम करते हैं. और गुलज़ार तो समकालीनता के कई दौर पार करते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं. आपको आद होगा कि जिस चाँद से ’पल भर उधर मुँह फेरने’ की गुज़ारिश शैलेन्द्र की नायिका ने की थी उसी चाँद से चिढ़कर गुलज़ार की कल्याणी ने उसे ’राहू लग जाने’ का ताना दिया. और इन्हीं गुलज़ार की नायिका जब ’अक़्स’ में रात से उसकी कहानी पूछती है तो कोई और गीतकार इस सवाल के आगे की बात कहीं और लिख रहा होता है. स्वानंद किरकिरे ’परिणिता’ में लिखते हैं : रात हमारी तो चाँद की सहेली है कितने दिनों के बाद आई अकेली है संझा की बाती भी कोई बुझा दे आज अंधेरे से जी भर के करनी हैं बातें आज अंधेरा पागल है, कितना घनेरा है चुभता है, डसता है, फिर भी वो मेरा है उसकी ही गोदी में सर रखके सोना है उसकी ही बाँहों में चुपके से रोना है आँखों से काजल बन, बहता अंधेरा ये स्त्री के अकेलेपन के गीत नहीं, स्त्री के ’स्व’ की पहचान के गीत हैं. उमंग या अंधेरा तो सिर्फ़ सिक्के के दो पहलू हैं. आख़िर पहचान तो खुद से ही होती है. ’आत्म’ की पहचान के गीत. मेरे लिए इसी क्रम में यह उमंग से भरा गीत भी आता है क्योंकि यहाँ भी स्त्री का साक्षात्कार ’आत्म’ से है : हम तो चले सर पे लिए अम्बर की ठंडी फुलकारियाँ हम ही ज़मी, हम आसमाँ खसमाणूं खाए बाकी ज़हाँ यहाँ हिन्दी सिनेमा के गीतों के एक और पहलू पर गौर करना मज़ेदार होगा. अगर आप उस दौर में चल रही हिन्दी भाषा से जुड़ी बहसों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें जिस दौर में हिन्दुस्तान में सिनेमा बोलना सीख रहा था तो एक और मज़ेदार चीज़ उभरकर हमारे सामने आती है. भाषा की बहसों में यह वही दौर है जब हिन्दी को अकादमिक हलकों में और ज़्यादा ’शुद्धतावाद’ की ओर ढकेला जा रहा था. ऐसे में आम बोलचाल की हिन्दी (या जिसे उस वक़्त हिन्दुस्तानी कहा करते थे) को नए ठिकाने तलाशने की ज़रूरत आन पड़ी थी. उस दौर पर लिखने वाले आलोचकों में से बहुत ने इस बात की ओर इशारा किया है कि यह नए ठिकाने आमतौर पर लोकप्रिय माध्यम थे जिनमें सिनेमा सबसे प्रमुख माध्यम था. शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार लिखते हैं, "पुरानी हिन्दी जिसमें उर्दू की शब्दावली तथा मुहावरेदानी मौजूद थी, शैक्षिक उपयोग में लाने योग्य नहीं समझी गई पर वह नष्ट नहीं हुई. उसे एक नए प्रसार माध्यम में जगह मिली. यह माध्यम था सिनेमा, जिसका विकास तीस के दशक में आरंभ हो चुका था. सिनेमा का दर्शक वर्ग हिन्दी क्षेत्र तक सीमित नहीं था और फ़िल्म उद्योग का केन्द्र मुम्बई हिन्दी क्षेत्र का नहीं. यह माध्यम साक्षरता पर भी निर्भर नहीं था, इसलिए शिक्षित समूह उसके दर्शक वर्ग में विशेष महत्व नहीं रखते थे. भाषा के संदर्भ में इस नए माध्यम ने हिन्दी-उर्दू की संयुक्त परंपरा को अक्षुण्ण रखने का मौका दिया. फ़िल्म ने लोकसंवाद की भाषा का अधिग्रहण कर लिया" 17 दरअसल भाषा को लेकर यह लचीलापन भी लोकप्रियता के दबाव के चलते ही आता है. वही इसे और ज़्यादा लोकतांत्रिक बनाता है शायद. जैसा जवरीमल्ल पारख लिखते हैं, "ख़ास बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि समय, स्थान और पात्र के अनुसार संवादों की भाषा में परिवर्तन किया गया है लेकिन इसके बावजूद सभी की भाषा को हिन्दी या हिन्दुस्तानी के दायरे से बाहर नहीं जाने दिया गया. ज़हिर है कि यथार्थवाद के नाम पर फ़िल्मकार ऐसा कोई प्रयोग नहीं करना चाहता जिससे उसके दर्शकों का दायरा सीमित हो जाए." 18 यही वो लचीलापन है जो गुलज़ार को लोकप्रियता के इस शिखर तक पहुँचाता है. और मैं यहाँ सिर्फ़ यह जोड़ना चाहता हूँ कि भाषा में यह लचीलापन गुलज़ार को पीछे से चली आती गीत लेखन की परंपरा से विरासत में मिलता है. यतीन्द्र मिश्र गुलज़ार पर संपादित पुस्तक ’यार जुलाहे’ की भूमिका में गुलज़ार की कविता में पाए जाने वाले प्रेम के स्वरूप को कुछ यूँ विश्लेषित करते हैं, "गुलज़ार के रचना कर्म में, विशेषकर उनकी कविता और गज़लों के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रतीति यह भी है कि उनके यहाँ ’प्रेम’ बहुत गरिमा के साथ प्रतिष्ठित हुआ है. यह जानना दिलचस्प है कि सूफ़ी कविता और सूफ़ी संगीत में भी प्रेम की उपस्थिति लगभग एक अनिवर्चनीय सत्य के रूप में उजागर होती रही है. फिर बात जब गुलज़ार की हो रही हो, जो स्वयं अपनी अभिव्यक्ति की सहज छायाएं बुल्लेशाह, बाबा फ़रीद, कुली कुतुबशाह, शम्स तबरेज़ी और नानक में ढूंढते हों, तब यह बात आसानी से स्थापित हो जाती है कि प्रेम में इतनी उदात्त भावना की प्रतिष्ठा किस तरह उनके शायर को उपलब्ध हो सकी है." 19 लेकिन यह अनिवर्चनीय प्रेम कोई अलौकिक प्रेम नहीं. यह पूर्णत: लौकिक प्रेम है, माँसल प्रेम. दरअसल यह हिन्दी की आलोचना की दिक्कत है. हिन्दी आलोचना एक ऐसे ’शुद्धतावादी’ दौर में अपना आकार ग्रहण करती है कि इसे जायसी के अवध की मिट्टी से उपजे और उसमें ही गहरे रचे-बसे काव्य में ’इश्क़-हक़ीक़ी’ नज़र आता है और वह कभी यह नहीं समझ पाती कि क्यों मीरा निर्गुण काव्य से सीधे जुड़े होने के बावजूद साकार कृष्ण की भक्ति करती हैं? गुलज़ार के यहाँ ’प्रेम’ कोई ’अशरीरी प्रेम’ नहीं है. (और उसे होना भी क्यों चाहिए?) यहाँ ’पड़ोसी के चूल्हे से आग लेने’ और ’जिगर से बीड़ी जलाने’ की चाहत भी है तो ’यहीं कहीं शब काटेंगे / चिलम-चटाई बाँटेंगे’ की ऎन्द्रिक ख्वाहिश भी. गुलज़ार की कविता ’पवित्रताबोध’ के बोझ से दबी और कुंठाग्रस्त कविता नहीं है. वह हर नए दौर की कविता है. वह मेरे दौर की कविता है, हमारा पाठ. गुलज़ार की यह कविता ’अलाव’ मुझे ख़ास पसन्द है : रात भर सर्द हवा चलती रही रात भर हमने अलाव तापा मैंने माज़ी से कई ख़ुश्क-सी शाख़ें काटीं तुमने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखी नज़्में तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले अपनी इन आँखों से मैंने कई माँजे तोड़े और हाथों से कई बासी लकीरें फैंकीं तुमने पलकों पे नमी सूख गई थी सो गिरा दी रात भर जो मिला उगते बदन पर हमको काट के डाल दिया जलते अलाव में उसे रात भर फूँकों से हर लौ को जगाए रखा और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने यह इच्छाओं का स्वीकार है. जिसे द्विवेदी जी कहते हैं, ’प्रवृतियों का स्वीकार’. द्विवेदी जी की सुचरिता बाणभट्ट से कहती है, "मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य. यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मन्दिर है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?" 20 यह एक ही तार है जो सूर, मीरा और जायसी की प्रेम की पीर से होता हिन्दी सिनेमा के गीतों तक आता है, गुलज़ार के काव्य तक आता है. एम. माधव प्रसाद इस बारे में लिखते हैं, "हिन्दुस्तान में यह मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन ही था जिसने आध्यात्मिक प्रेम में रोमांटिक शैली को शामिल किया. मीराबाई, स्वयं को श्रीकृष्ण की दुल्हन मानने वाली सोलहवीं सदी की भक्त कवियित्री, ने अपने आध्यात्मिक प्रेम का प्रगटीकरण सेक्सुअलिटी की भाषा : कोर्टशिप औए विवाह जैसी संस्थाओं के माध्यम से किया. लेकिन एक सामाजिक चलन के रूप में रोमांटिक शैली का काव्य सीधा इन आन्दोलनों से नहीं पैदा हुआ. हिन्दुस्तान के मुस्लिम समाज में पाई जाने वाली पर्शियन और उर्दू शायरी ने प्रेम का वो विमर्श पैदा किया जिसे हिन्दी सिनेमा ने पूरा का पूरा अपना लिया. इस असीम प्रेम की भाषा और बिम्ब भी आम बोलचाल के न होकर कविता के ज़्यादा थे और ज़्यादातर इन्होंने सिनेमा के गीतों में स्थान पाया." 21 यही वो तार है जो एक ओर गुलज़ार को कबीर से जोड़ता है तो दूसरी ओर ग़ालिब से. कभी वो यार जुलाहे से कोई तरकीब सुझाने की बात करते हैं तो कभी बल्लीमारान के मौहल्ले में ग़ालिब का पता खोजते हैं : बल्लीमाराँ के मोहल्लों की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ सामने टाल के नुक्कड़ पे, बटेरों के क़सीदे गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वह दाद, वह वाह-वा चन्द दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ और धुँधलायी हुई शाम के बेनूर अँधेरे ऎसे दीवारों से मुँह जोड़कर चलते हैं यहाँ चूड़ीवालान के कटरे की ’बड़ी बी’ जैसे अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से एक तरतीब चरागों की शुरु होती है एक क़ुरान-ए-सुख़न का सफ़ा खुलता है ’असद उल्लाह ख़ाँ ग़ालिब’ का पता मिलता है मुझ से बहुत जो वो ’एच.एम.वी.’ की गुलज़ार के दस्तख़त वाली ’मिर्ज़ा ग़ालिब’ की दो हिस्सों में बंटी ऑडियो कैसेट अपने बचपन से सुनते बड़े हुए हैं उन्हें गुलज़ार की आवाज़ आज भी इसी कविता की शक्ल में याद है. मैं अभिशप्त हूँ अपने हर लिखे में खु़द को पाने के लिए, अपने बचपन को पाने के लिए. गुलज़ार पर निरपेक्ष भाव से कुछ भी लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं, अपने बचपन पर निरपेक्ष भाव से कुछ भी लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं. गुलज़ार मेरे बचपन का हिस्सा हैं, गुलज़ार मेरी जवानी का हिस्सा हैं. और यहाँ फिर एक बार मेरा ’साधारणीकरण’ होता है और मैं प्रतीक हूँ एक पूरी पीढ़ी का, मेरी हमउमर पीढ़ी. गुलज़ार हमारे प्रेम के राज़दार हैं, हमारे ग़म के साथी हैं. जब हम किसी रात अकेले में ’पिछला बीता’ याद करते हैं तो हमारे कमरे में रखे एफएम प्लेयर पर धीमी आवाज़ में गुलज़ार आते हैं, और हमारा अकेलापन तोड़े बिना उसे बाँट लेते हैं. मैं अभिशप्त हूँ अपने हर लिखे में खुद को पाने के लिए. गुलज़ार आते हैं और रास्ता सुझाते हैं : आओ सारे पहन लें आइने सारे देखेंगे अपना ही चेहरा गुलज़ार के गीत मेरा आईना हैं जिनमें मैं खुद को देखता हूँ और पहचान पाता हूँ. ********** संदर्भ:- 1. हेट्टी केली चार्ली चैप्लिन के जीवन में आयी पहली प्रेमिका थीं, उस वक़्त वे केवल सोलह-सत्रह साल के थे. बेशक उनका साथ दो-तीन मुलाकातों का ही था लेकिन चार्ली की आत्मकथा में हेट्टी का उल्लेख सबसे ज़्यादा रोमांस और प्रेम के साथ आता है. देखें, चार्ली चैप्लिन, मेरा जीवन (आत्मकथा), अनुवाद - सूरज प्रकाश, आधार प्रकाशन, पंचकुला (हरियाणा), पृष्ठ - 131 2. हरीश त्रिवेदी, ’आल काइंड्स ऑफ़ हिन्दी : दि इवॉल्विंग लैंग्वेज ऑफ़ हिन्दी सिनेमा’ (लेख), फ़िंगरप्रिंटिग पॉपुलर कल्चर : दि मिथिक एंड दि आइकॉनिक इन इन्डियन सिनेमा, संपादक - विनय लाल एवं आशीष नंदी, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 62 3. विक्रम सेठ, ए सूटेबल बॉय, हरीश त्रिवेदी द्वारा उद्धत, वही, पृष्ठ - 62 4. विक्रम सेठ, कोई अच्छा सा लड़का, अनुवाद गोपाल गांधी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 45-46, हरीश त्रिवेदी द्वारा उद्धत, वही, पृष्ठ - 84 5. जावेद अख़्तर, टाकिंग साँग्स : जावेद अख़्तर इन कनवरसेशन विथ नसरीन मुन्नी कबीर, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 21 6. हरीश त्रिवेदी, वही, पृष्ठ - 62 7. फ़्रैंचेस्का ऑरसीनी, ’लव लैटर्स’ (लेख), लव इन साउथ एशिया : ए कल्चरल स्टडी, संपादक - फ़्रैंचेस्का ऑरसीनी, कैम्ब्रिज युनिवरसिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 228 8. श्रीलाल शुक्ल, राग-दरबारी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 206 9. सुकेतू मेहता, मैक्सिमम सिटी : बाँबे लॉस्ट एंड फाउन्ड, पेंग्विन बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ - 9 10. स्टीफ़न ऑल्टर, फ़ैन्टेसीस ऑफ़ ए बॉलीवुड लव थीफ़ : इनसाइड दि वर्ल्ड ऑफ़ इन्डियन मूवीमेकिंग, हरपर कॉलिंस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 10 11. मैथिली राव, ’संघ परिवार को यश चोपड़ा की फ़िल्में क्यों सुहाती हैं?’ (लेख), हॉलीवुड-बॉलीवुड, संपादक -अनवर जमाल और सैबल चटर्जी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 81 12. वही, पृष्ठ - 77 13. एम. माधव प्रसाद, आइडिओलाजी ऑफ़ दि हिन्दी फ़िल्म : ए हिस्टोरिकल कंस्ट्रक्शन, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ - 113 14. http://en.wikipedia.org/wiki/mughal-e-azam (25/06/09) 15. हरीश त्रिवेदी, ’आल काइंड्स ऑफ़ हिन्दी : दि इवॉल्विंग लैंग्वेज ऑफ़ हिन्दी सिनेमा’ (लेख), फ़िंगरप्रिंटिग पॉपुलर कल्चर : दि मिथिक एंड दि आइकॉनिक इन इन्डियन सिनेमा, संपादक - विनय लाल एवं आशीष नंदी, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 61 16. जावेद अख़्तर, टाकिंग साँग्स : जावेद अख़्तर इन कनवरसेशन विथ नसरीन मुन्नी कबीर, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ - 21-22 17. कृष्ण कुमार, ’हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तान, विंध्य-गांगेय क्षेत्र में शिक्षा, भाषा और पुनरुत्थानवाद’, साम्प्रदायिकता के स्रोत, संपादक - अभय कुमार दुबे, विनय प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-44 18. जवरीमल्ल पारख, हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र, ग्रंथशिल्पी, नई दिल्ली, पृष्ठ - 83 19. यतीन्द्र मिश्र, ’यार जुलाहे : गुलज़ार’ की भूमिका से, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 31 20. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, बाणभट्ट की आत्मकथा, नामवर सिंह द्वारा ’दूसरी परंपरा की खोज’ में उद्धत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली - 59 21. एम. माधव प्रसाद, आइडिओलाजी ऑफ़ दि हिन्दी फ़िल्म : ए हिस्टोरिकल कंस्ट्रक्शन, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ - 111 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091220/c1e7371f/attachment-0001.html From ramjas11 at yahoo.co.in Mon Dec 21 04:17:22 2009 From: ramjas11 at yahoo.co.in (shambhu nath mahto) Date: Mon, 21 Dec 2009 04:17:22 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?to_ravikaant=3A_?= =?utf-8?b?IuCkpuCkv+CksuCljeCksuClgCDgpK/gpYLgpKjgpL/gpLXgpLDgpY3gpLg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSf4KWAIOCkleClhyDgpLjgpYHgpKrgpLDgpLngpYDgpLDgpYsiICA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSu4KS/4KSV4KWN4KS4ICBMQVVOQ0ggT0YgICcnREVMSEkgVU5J?= =?utf-8?q?VERSITY=27S_SUPERHEROES=27=27?= Message-ID: <955597.21478.qm@web94806.mail.in2.yahoo.com>  "दिल्ली यूनिवर्सिटी के सुपरहीरो" कामिक्स   नववर्ष 1 जनवरी, 2010 को "दिल्ली यूनिवर्सिटी के सुपरहीरो" कामिक्स को आर्कुट , फ़ेसबुक , व माईस्पेस के द्वारा प्रकाशित किया जायेगा व हार्डकापी कामिक्स भी वितरीत की जायेगी, ई-मेल द्वारा भी इसे अपने ई-मेल पर प्राप्त करने के ईच्छुक लोगों को वितरीत किया जा रहा है .यह दिल्ली यूनिवर्सिटी के चाहने वाले छात्रों द्वारा किया गया इस कामिक्स के स्व-प्रकाशन का एक प्रयास है व सभी से इसमें सहयोग आमंत्रित है.   DELHI UNIVERSITY'S SUPERHEROES को ’कम्युनिटी ’ ,आर्कुट , फ़ेसबुक , व माईस्पेस में सर्च करके आप इस तक पहुंच सकते हैं.LAUNCH OF ''DELHI UNIVERSITY'S SUPERHEROES'' FIRST COMICS. -शम्भु The INTERNET now has a personality. YOURS! See your Yahoo! Homepage. http://in.yahoo.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091221/fb5bb9e2/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: du's.jpg Type: image/jpeg Size: 80730 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091221/fb5bb9e2/attachment-0001.jpg From samvad.in at gmail.com Thu Dec 17 13:47:31 2009 From: samvad.in at gmail.com (alok shrivastav) Date: Thu, 17 Dec 2009 13:47:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= from Samwad Prakashan Message-ID: <2e09e36a0912170017k4419cd75ge83b6ef7d296aca1@mail.gmail.com> Pls see the link of our new release-- http://naidakhal.blogspot.com/2009/12/blog-post_16.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091217/e295116c/attachment.html From beingred at gmail.com Mon Dec 21 18:24:05 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 21 Dec 2009 18:24:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSq4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KS4IOCkheCkguCktiA6IOCkl+CljeCksuCli+CkrOCksiA=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KS1IOCkleClhyDgpKbgpYfgpLXgpKTgpL4=?= Message-ID: <363092e30912210454n2725bb78t6ad2a6ccb6a5981c@mail.gmail.com> उपन्यास अंश : ग्लोबल गांव के देवता Posted by Reyaz-ul-haque on 12/21/2009 06:14:00 PM *साथी रणेंद्र से इस उपन्यास के बारे में लम्बे समय से चर्चा होती रही है. जिस मोड़ से हमारा देश गुजर रहा है-अगले पांच वर्षों में बहुत कुछ हो जाने की संभावनाएं-आशंकाएं सामने आ रही हैं. जिस तरह से कारपोरेट जगत भारत की दलाल सत्ता व्यवस्था की मदद से हमारा सब कुछ छीन कर मुनाफे के आपने तंदूर को गर्म रखना चाहता है-उसमें हम सब भुन कर कोयला हो जायेंगे या पकी मिटटी की तरह झनझनाते हुए बाहर निकलेंगे-यह अभी तय नहीं है. उम्मीद की किरण वे लोग हैं-वह जनता है- जो इस प्रक्रिया के खिलाफ अपना सब कुछ गँवा कर भी लड़ने को तैयार हैं. हम उम्मीद करते हैं कि वे विजयी रहें. हमारा भविष्य भी उन के विजय पर निर्भर करता है. पढ़िए इस पुस्तक का एक अंश, जिसे लेखक की अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है. * *ग्लोबल गांव के देवता * *इक्कीसवाँ अध्याय* *पाथरपाट* पुलिस चैकी में भी फोर्स भर गया था । सशस्त्र बल के जवान इलाके में हर कहीं दिख रहे थे । लेकिन इस बार लालचन दा, डाॅक्टर रामकुमार और उनके साथियों की गिरफ्तारी नहीं हो पा रही थी । विधायक जी और शिवदास बाबा के दबाव से जिला प्रशासन थोड़ी दुविधा में था । पाट पर लालचन दा की ‘संघर्ष समिति’ ने जनता कफ्र्यू लगा दिया । अन्दर गाँवों में पुलिस-प्रशासन का आना जाना बन्द । गिरफ्तारी के बहाने घरों में घुसते हैं और बेटी-बहुओं का दुरगिंजन करते हैं । सखुआ के पेड़ों को काट कर हर गाँव के मुहाने पर चेकनाका बना दिया गया था । पूरी सड़क को घेरे हुए मोटे तने का एक अवरोधक । एक छोर पर पत्थरों के भार से बँधा हुआ दूसरी छोर पर मजबूत रस्सियों से झुका कर छोटे खम्भों के सहारे बँधा हुआ । गाड़ी के तो आने-जाने का सवाल ही नहीं । साइकिल, आदमी, गाय-गरू किनारे से पार करने भर रास्ता छोड़ा हुआ । ये चेकनाका ‘संघर्ष समिति’ के कार्यकत्र्ताओं के घर के सामने ही बने थे । जैसे ही रात-बिरात कोई पुलिस जीप आती, रूक कर वे चेकनाका खोलने लगते । सामने घर मंे नगाड़ा बजने लगता और दस मिनट में गाँव के सभी मर्द-औरत इकट्ठे हो जाते । जीप के सामने यहाँ से वहाँ तक चुपचाप बैठ जाते । कोई-कोई हवलदार-दरोगा माई-बहन की गाली-वाली देकर या बेंतों से खोंच -खाँच कर उत्तेजित करने की कोशिश करता, किन्तु चुप और शान्त भीड़ के प्रतिरोध से लाचार होकर पुलिस को लौटना पड़ता । लालचन दा के भरोसे ही लड़ाई चल रही थी । किन्तु लालचन दा खुद पहले जैसे नहीं रह गए थे । बदले-बदले से थे । चाचा के हत्यारे की गिरफ्तारी अब तक नहीं होना, पुश्तैनी धनहर खेत का खानदान के हाथ से निकल जाना , बालचन के दवा-दारू में हाथ का खाली होना, बेटियों का आश्रम स्कूल में बेइज्जत होना । इन सारी घटनाओं ने उनकी निश्छल हँसी उनसे छीन ली थी । उनके ललाट की चमक मटमैली पड़ गई । कपड़े-लत्ते की साफ-सफाई पर भी उतना ध्यान नही रहता । पाट के सबसे सम्मानित परिवार के सदस्य होने, प्रभावी होने का आत्मविश्वास कहीं टूटा था । ललिता से सहिया जोड़ने के कारण अम्बाटोली मेरा आना-जाना घटा तो नहीं था, थोड़ा बढ़ ही गया था, किन्तु लालचन भौजी का देवर वाला गीत अब सुनने को नहीं मिलता । हाँ, हमारी सहिया फूल फूलझर झरना वाला गीत अक्सर सुनाया करती थी । लेकिन भौजी तो भौजी थी, उनकी जगह फूल कैसे ले सकता था । रूमझुम भाई की नशाखोरी से भी हो सकता है लालचन दा थोड़ा अकेलापन महसूस करते हों । डाॅक्टर साहब की अपनी व्यस्तताएँ थीं । इधर-उधर ही रहते हों किन्तु पाट के रोगी उन्हें खोज ही लेते थे । माँ-बहनों की चिन्ता भी उन्हें करनी ही पड़ती थी । सोमा-भीखा जैसे लड़के रूमझुम की जगह नहीं ले सकते थे । एक ही शख्स उस कमी को पूरा कर सकता था, वही थी मेरी फूल । किन्तु काका-भतीजी एक-दूसरे से खुले ही नहीं थे । बचपन से कभी साथ बैठ कर बातचीत की आदत ही नहीं थी । सारी बात काकी के माध्यम से कहती आई थी । अब एकाएक मुँह लगा कर कैसे बोल सकती थी ? इतनी भी बड़ी नहीं हो गई थी । मीटिंग-उटिंग में भी पीछे ही बैठती । बुधनी दी बहुत कोशिश करती, उनके साथ आगे की पाँत में बैठे, लेकिन ललिता सुनती कहाँ थी ? उस दिन मेरे स्कूल जाने के पहले रूमझुम-ललिता मेरे कमरे में आए । साल भर में पूरे अल्कोहालिक हो गए थे रूमझुम । आँख के पपोटे और चेहरा सूजा हुआ । सुना था, अब तो सबेरे जागते हैं तो कुल्ला भी महुआ की पहली धार से करते हैं । उनके बाबा (पिता) तो कन्दापाट में रहते नहीं हैं । बीस मील दूर जिस स्कूल में पोस्टिंग है, वहीं रहते हैं । सुनील यूनिवर्सिटी हाॅस्टल से आता ही नहीं है । आयो (माँ) डाँट ही नहीं पाती है, केवल बेहाथ होते बेटे और सोने जैसी उसकी देह को गलता देख रोती रहती है । एतवार को जब बाबा आते हैं तो रूमझुम गायब रहते हैं । आज शायद ललिता साथ में थी, इसीलिए नहीं पिए थे । चुपचाप थोड़ी देर बैठे । फूल ने चाय बनाई । नींबू वाली लाल चाय । भर गिलास चाय पी लिए, तब बात शुरू की । उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय का फैक्स नम्बर चाहिए था । संदेश देकर ललिता को खूब सबेरे बुलवाया था और प्रधानमंत्री के नाम एक चिट्ठी लिखवाई थी । चिट्ठी पढ़कर आँखें डबडबा गईं । छाती में एक हूक सी उठी । इसे सचमुच पी.एम.ओ. भेजना चाहिए । लेकिन फैक्स नम्बर एक बड़ी समस्या थी । हालाँकि बन्दी के एक सप्ताह से ज्यादा दिन बीत गये थे । हाकिम-हुक्काम का पाट पर आना-जाना बढ़ गया था । शिन्डाल्को मैनेजर पाण्डे जी, ‘वेदांग’ कम्पनी की गाड़ियाँ खूब सक्रिय थीं । लेकिन यह नम्बर कौन देगा ? यह समझ में नहीं आ रहा था । रूमझुम भाई ने ही इशारा किया कि एम.पी. साहब बता सकते हैं । उनके पास पहले के पाँच-सात पेज ऐसे ही सारे टेलीफोन-फैक्स नम्बर लिखे हुए हैं। ठीक बात है । एकदम सही बात । कौन कहता है कि खिसक गए हैं रूमझुम भाई । चिट्ठी में भी जितनी बातेें थीं, हम जैसे रोज अखबार पढ़ने वाले को भी उतनी जानकारियाँ नहीं थीं । चिट्ठी की लिखावट बहुत ही सुन्दर थी । एकदम गोल-गोल । मोतियों जैसी । मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरी सहिया जितनी सुन्दर है, उसके अक्षर भी उतने ही सुन्दर हैं । लेकिन खत का मजमून बहुत ही उदास करने वाला, भयावह हकीकतों से भरा था । मजमून कुछ ऐसा था - *पूरा पढ़िए : उपन्यास अंश : ग्लोबल गांव के देवता * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091221/d668e7a8/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Mon Dec 21 18:24:05 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 21 Dec 2009 18:24:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSq4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KS4IOCkheCkguCktiA6IOCkl+CljeCksuCli+CkrOCksiA=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KS1IOCkleClhyDgpKbgpYfgpLXgpKTgpL4=?= Message-ID: <363092e30912210454n2725bb78t6ad2a6ccb6a5981c@mail.gmail.com> उपन्यास अंश : ग्लोबल गांव के देवता Posted by Reyaz-ul-haque on 12/21/2009 06:14:00 PM *साथी रणेंद्र से इस उपन्यास के बारे में लम्बे समय से चर्चा होती रही है. जिस मोड़ से हमारा देश गुजर रहा है-अगले पांच वर्षों में बहुत कुछ हो जाने की संभावनाएं-आशंकाएं सामने आ रही हैं. जिस तरह से कारपोरेट जगत भारत की दलाल सत्ता व्यवस्था की मदद से हमारा सब कुछ छीन कर मुनाफे के आपने तंदूर को गर्म रखना चाहता है-उसमें हम सब भुन कर कोयला हो जायेंगे या पकी मिटटी की तरह झनझनाते हुए बाहर निकलेंगे-यह अभी तय नहीं है. उम्मीद की किरण वे लोग हैं-वह जनता है- जो इस प्रक्रिया के खिलाफ अपना सब कुछ गँवा कर भी लड़ने को तैयार हैं. हम उम्मीद करते हैं कि वे विजयी रहें. हमारा भविष्य भी उन के विजय पर निर्भर करता है. पढ़िए इस पुस्तक का एक अंश, जिसे लेखक की अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है. * *ग्लोबल गांव के देवता * *इक्कीसवाँ अध्याय* *पाथरपाट* पुलिस चैकी में भी फोर्स भर गया था । सशस्त्र बल के जवान इलाके में हर कहीं दिख रहे थे । लेकिन इस बार लालचन दा, डाॅक्टर रामकुमार और उनके साथियों की गिरफ्तारी नहीं हो पा रही थी । विधायक जी और शिवदास बाबा के दबाव से जिला प्रशासन थोड़ी दुविधा में था । पाट पर लालचन दा की ‘संघर्ष समिति’ ने जनता कफ्र्यू लगा दिया । अन्दर गाँवों में पुलिस-प्रशासन का आना जाना बन्द । गिरफ्तारी के बहाने घरों में घुसते हैं और बेटी-बहुओं का दुरगिंजन करते हैं । सखुआ के पेड़ों को काट कर हर गाँव के मुहाने पर चेकनाका बना दिया गया था । पूरी सड़क को घेरे हुए मोटे तने का एक अवरोधक । एक छोर पर पत्थरों के भार से बँधा हुआ दूसरी छोर पर मजबूत रस्सियों से झुका कर छोटे खम्भों के सहारे बँधा हुआ । गाड़ी के तो आने-जाने का सवाल ही नहीं । साइकिल, आदमी, गाय-गरू किनारे से पार करने भर रास्ता छोड़ा हुआ । ये चेकनाका ‘संघर्ष समिति’ के कार्यकत्र्ताओं के घर के सामने ही बने थे । जैसे ही रात-बिरात कोई पुलिस जीप आती, रूक कर वे चेकनाका खोलने लगते । सामने घर मंे नगाड़ा बजने लगता और दस मिनट में गाँव के सभी मर्द-औरत इकट्ठे हो जाते । जीप के सामने यहाँ से वहाँ तक चुपचाप बैठ जाते । कोई-कोई हवलदार-दरोगा माई-बहन की गाली-वाली देकर या बेंतों से खोंच -खाँच कर उत्तेजित करने की कोशिश करता, किन्तु चुप और शान्त भीड़ के प्रतिरोध से लाचार होकर पुलिस को लौटना पड़ता । लालचन दा के भरोसे ही लड़ाई चल रही थी । किन्तु लालचन दा खुद पहले जैसे नहीं रह गए थे । बदले-बदले से थे । चाचा के हत्यारे की गिरफ्तारी अब तक नहीं होना, पुश्तैनी धनहर खेत का खानदान के हाथ से निकल जाना , बालचन के दवा-दारू में हाथ का खाली होना, बेटियों का आश्रम स्कूल में बेइज्जत होना । इन सारी घटनाओं ने उनकी निश्छल हँसी उनसे छीन ली थी । उनके ललाट की चमक मटमैली पड़ गई । कपड़े-लत्ते की साफ-सफाई पर भी उतना ध्यान नही रहता । पाट के सबसे सम्मानित परिवार के सदस्य होने, प्रभावी होने का आत्मविश्वास कहीं टूटा था । ललिता से सहिया जोड़ने के कारण अम्बाटोली मेरा आना-जाना घटा तो नहीं था, थोड़ा बढ़ ही गया था, किन्तु लालचन भौजी का देवर वाला गीत अब सुनने को नहीं मिलता । हाँ, हमारी सहिया फूल फूलझर झरना वाला गीत अक्सर सुनाया करती थी । लेकिन भौजी तो भौजी थी, उनकी जगह फूल कैसे ले सकता था । रूमझुम भाई की नशाखोरी से भी हो सकता है लालचन दा थोड़ा अकेलापन महसूस करते हों । डाॅक्टर साहब की अपनी व्यस्तताएँ थीं । इधर-उधर ही रहते हों किन्तु पाट के रोगी उन्हें खोज ही लेते थे । माँ-बहनों की चिन्ता भी उन्हें करनी ही पड़ती थी । सोमा-भीखा जैसे लड़के रूमझुम की जगह नहीं ले सकते थे । एक ही शख्स उस कमी को पूरा कर सकता था, वही थी मेरी फूल । किन्तु काका-भतीजी एक-दूसरे से खुले ही नहीं थे । बचपन से कभी साथ बैठ कर बातचीत की आदत ही नहीं थी । सारी बात काकी के माध्यम से कहती आई थी । अब एकाएक मुँह लगा कर कैसे बोल सकती थी ? इतनी भी बड़ी नहीं हो गई थी । मीटिंग-उटिंग में भी पीछे ही बैठती । बुधनी दी बहुत कोशिश करती, उनके साथ आगे की पाँत में बैठे, लेकिन ललिता सुनती कहाँ थी ? उस दिन मेरे स्कूल जाने के पहले रूमझुम-ललिता मेरे कमरे में आए । साल भर में पूरे अल्कोहालिक हो गए थे रूमझुम । आँख के पपोटे और चेहरा सूजा हुआ । सुना था, अब तो सबेरे जागते हैं तो कुल्ला भी महुआ की पहली धार से करते हैं । उनके बाबा (पिता) तो कन्दापाट में रहते नहीं हैं । बीस मील दूर जिस स्कूल में पोस्टिंग है, वहीं रहते हैं । सुनील यूनिवर्सिटी हाॅस्टल से आता ही नहीं है । आयो (माँ) डाँट ही नहीं पाती है, केवल बेहाथ होते बेटे और सोने जैसी उसकी देह को गलता देख रोती रहती है । एतवार को जब बाबा आते हैं तो रूमझुम गायब रहते हैं । आज शायद ललिता साथ में थी, इसीलिए नहीं पिए थे । चुपचाप थोड़ी देर बैठे । फूल ने चाय बनाई । नींबू वाली लाल चाय । भर गिलास चाय पी लिए, तब बात शुरू की । उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय का फैक्स नम्बर चाहिए था । संदेश देकर ललिता को खूब सबेरे बुलवाया था और प्रधानमंत्री के नाम एक चिट्ठी लिखवाई थी । चिट्ठी पढ़कर आँखें डबडबा गईं । छाती में एक हूक सी उठी । इसे सचमुच पी.एम.ओ. भेजना चाहिए । लेकिन फैक्स नम्बर एक बड़ी समस्या थी । हालाँकि बन्दी के एक सप्ताह से ज्यादा दिन बीत गये थे । हाकिम-हुक्काम का पाट पर आना-जाना बढ़ गया था । शिन्डाल्को मैनेजर पाण्डे जी, ‘वेदांग’ कम्पनी की गाड़ियाँ खूब सक्रिय थीं । लेकिन यह नम्बर कौन देगा ? यह समझ में नहीं आ रहा था । रूमझुम भाई ने ही इशारा किया कि एम.पी. साहब बता सकते हैं । उनके पास पहले के पाँच-सात पेज ऐसे ही सारे टेलीफोन-फैक्स नम्बर लिखे हुए हैं। ठीक बात है । एकदम सही बात । कौन कहता है कि खिसक गए हैं रूमझुम भाई । चिट्ठी में भी जितनी बातेें थीं, हम जैसे रोज अखबार पढ़ने वाले को भी उतनी जानकारियाँ नहीं थीं । चिट्ठी की लिखावट बहुत ही सुन्दर थी । एकदम गोल-गोल । मोतियों जैसी । मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरी सहिया जितनी सुन्दर है, उसके अक्षर भी उतने ही सुन्दर हैं । लेकिन खत का मजमून बहुत ही उदास करने वाला, भयावह हकीकतों से भरा था । मजमून कुछ ऐसा था - *पूरा पढ़िए : उपन्यास अंश : ग्लोबल गांव के देवता * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091221/d668e7a8/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Tue Dec 22 10:24:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 22 Dec 2009 10:24:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSC4KSfIOCkuOCljeCkleClguCksuCli+CkgiDgpJXgpYcg?= =?utf-8?b?4KSs4KWA4KSaIOCkhuCkpOCljeCkruCkqOCkv+CksOCljeCkreCksCA=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KWL4KS44KS+IOCkmuCkvuCknw==?= Message-ID: <829019b0912212054o62473678v201b0c7692e5f6d8@mail.gmail.com> चाट-समोसे के ठेले का नाम "आत्मनिर्भर समोसा चाट" देखकर मैं एकदम से प्रभात की स्कूटी से कूद गया। जल्दी से कैमरा ऑन किया और दो-तीन तस्वीरें खींच ली। मेरा मन इतने से नहीं माना। मैं जानना चाह रहा था कि आमतौर पर चाट,समोसे,फास्ट फूड और मोमोज जैसी चीजें बेचनेवाले ठेलों के नाम हिंग्लिश में हुआ करते है,फिर इसने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा है? गरम-गरम समोसे तल रहे हमउम्र साथी से मैंने आखिर पूछ ही लिया-ये बताओ दोस्त,आपने ठेले का नाम आत्मनिर्भर चाट भंडार क्यों रखा है? उसने पीछे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वो भइया बताएंगे। मैंने पीछे की तरफ देखा। उस दूकान के दो दरवाजे खुलते हैं-एक पुरुलिया रोड की तरफ जहां कि संत जेवियर्स कॉलेज,उर्सूलाइन कॉन्वेंट से लेकर रांची शहर के तमाम स्कूल-कॉलेज हैं और दूसरा दरवाजा संत जॉन्स स्कूल के अंदर की ओर। आगे के दरवाजे से हम जैसे राह चलते लोग सामान खरीद सकते हैं जबकि पीछे के दरवाजे से सिर्फ स्कूल के बच्चे ही चॉकलेट,पेटिज,कोलड्रिंक,चिप्स वगैरह खरीदते हैं। पूरे पुरुलिया रोड में जहां कि एक से एक अंग्रेजी नाम से स्कूल,कॉलेज और संस्थान हैं ऐसे में सत्य भारती के बाद ये ठेला ही है जो होर्डिंग्स और दूकानों के नाम को लेकर किसी भी हिन्दी-अंग्रेजी के मसले पर सोचनेवाले को अपनी ओर बरबस खींचता है। ठेले के इस टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे की कहानी बताते हुए संजय तिर्की ने कहा कि हमलोगों के एक भैइया है-धनीजीत रामसाथ। वो भइया समाज के विकलांगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। इसलिए पहले उन्होंने प्रेस खोला। लेकिन बाद में कई अलग-अलग चीजों पर भी विचार करने लगे। अब देखिए-विकलांगों के लिए सरकारी नौकरी में कई तरह की सुविधाएं और छूट है। लेकिन ये फायदा तो उसी को मिलेगा न जो कि पढ़ा-लिखा है या फिर सरकारी नौकरी की तरफ जाना चाहता है। समाज विकलांगों का एक बड़ा वर्ग है जो कि इस नौकरी लायक नहीं है। उसे हर-हाल में छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करने गुजारा करना होता है। ये लोग जब किसी दूकान वगैरह में काम मांगने जाते हैं तो सब यही कहता है कि-ये तो अपाहिज है,ये भला क्या काम करेगा। इसलिए भइया ने सोचा कि ऐसा कुछ शुरु किया जाए जिसमें कि इनलोगों को भी काम में लगाया जाए। ऐसे ही इस तरह से चाट के ठेले की शुरुआत हुई। संजय तिर्की संत पॉल स्कूल की जमीन पर बनी जिस दूकान को चलाते हैं उसका भी नाम आत्मनिर्भर स्टोर है जिसे कि रोमन लिपि में लिखा गया है। इसलिए एकबारगी वो अंग्रेजी लगता है लेकिन दूकान के आगे के ठेले का नाम देवनागरी लिपि में है। मेरे इस सवाल पर कि आज तो इतने सारे अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे नाम है जो कि सुनने में ज्यादा स्टैण्डर्ड और बोलने में ज्यादा सहज लगते हैं फिर आपने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा? संजय तिर्की ने जबाब दिया कि ये सिर्फ एक ठेले का नाम नहीं है,एक संस्था है जिसके तहत हम विकलांगों के लिए काम करते हैं। हम सब आत्मनिर्भर होना चाहते हैं औरों को भी करना चाहते हैं इसलिए यही नाम रखा। दूसरे नाम रख देने पर वो चीज नहीं हो पाती। एक टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे संजय का तर्क मुझे बहुत ही साफ लगा। ये किसी भी भाषाई दुराग्रहों से अलग है। इस नाम के पीछे कोशिश सिर्फ इतनी भर है कि संदर्भ जिंदा रहे। इसके भीतर अंग्रेजी-हिन्दी की कोई भी बहस शामिल नहीं है। नहीं तो अकादमिक बहसों की तो छोड़िए,आम आदमी को समझाने और बताने के लिए जिस हिन्दी का प्रयोग किया जाता है उसमें दुनियाभर की पॉलिटिक्स,बेहूदापन और चोचलेबाजी शामिल है। कल अंबेडकर कॉलेज से गुजरते हुए मैंने सीलमपुर के इलाके में बने डस्टबिन के लिए 'डलाव'शब्द बहुत ही बड़े-बड़े अक्षर में लिखा देखा। पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। लगा कि कुछ मात्रा छूट गयी है लेकिन बाद में उल्टी तरफ अंग्रेजी में डस्टबिन लिखा देख समझ पाया। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नए-नए बोर्ड लगे हैं। वहां की कहानी और भी दिलचस्प है। उपर से नीचे की तरफ उतरने वाली सीढ़ी के पास एक बोर्ड लगा है। एक तरफ लाइन से हिन्दी में लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। दूसरी तरफ अंग्रेजी में नाम लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। जिधर हिन्दी लिखा है उधर हिन्दी के ऐरो दिए गए हैं और जिधर अंग्रेजी लिखी गयी है वहां हिन्दी से उल्टी दिशा में तीर के निशान दिए गए हैं। मतलब ये कि अगर आप हिन्दी के निर्देश का पालन करते हैं तो कहीं और उतरेंगे और अंग्रेजी का फॉलो करने पर कहीं और। भाषा के बदलने के साथ ही आपका गंतव्य बदल जाएगा। देशभर के दर्जनों एनजीओ हैं जो कि बहुत ही चमत्कारिक ढंग से नाम रखते हैं। उनका शार्ट फार्म टिपिकल हिन्दी में होता है। लेकिन उसके फुल फार्म अंग्रेजी में होते हैं। लोगों की जुबान पर वो हिन्दी नाम हो और सांस्थानिक तौर पर अंग्रेजी में उसकी व्याख्या। नामों की इस तरह की चोचलेबाजी के बीच बहुत तरह के पचड़े,फैशन,सुविधा है। रवीश कुमार मोबाईल पत्रकारिता के जरिए इसे लगातार बता रहे हैं लेकिन संजय तिर्की के सादगी से दिए गए जबाब पर गौर करना जरुरी है कि- बाकी नाम में वो बात नहीं होती। यानी दूकानो,ठेलों,निर्देशों के नाम और शब्द के पीछे संदर्भों का जिंदा रहना जरुरी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091222/49a95094/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Sat Dec 26 20:53:29 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 26 Dec 2009 20:53:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KS44KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCksOCli+CktuCkqOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KS54KSuIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KS+IOCkuOCkguCkuOCkvuCksCDgpKbgpYfgpJbgpYfgpIIg?= =?utf-8?b?OiDgpI/gpLDgpL/gpJUg4KS54KWJ4KSs4KWN4KS44KSs4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkh+CkpOCkv+CkueCkvuCkuCDgpJXgpYAg4KS24KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSwIOCkleCkv+CkpOCkvuCkrOClh+Ckgiwg4KS54KS/4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30912260723x265ac747v9fa9ec3a7afb907@mail.gmail.com> *संवाद प्रकाशन से विश्व पुस्तक मेला (30 जनवरी, से 7 फरवरी, 2009, प्रगति मैदान, नई दिल्ली) के अवसर पर बीसवीं सदी के सर्वाधिक समादृत इतिहास ग्रंथों की 5 खंडों की श्रृंखला का प्रकाशन हो रहा है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस श्रृंखला के लेखक एरिक हाब्शबाम हैं और अलग-अलग खंडों का अनुवाद हिंदी के प्रमुख इतिहास अध्येता और समर्थ लेखकों, प्रो लाल बहादुर वर्मा, प्रकाश दीक्षितऔर वंदना राग ने किया है. ये पांचों खंड संवाद की परंपरा के अनुसार पेपरबैक के मुख्य संस्करण में होंगे. लगभग 1800 पृष्ठों से अधिक के इन पांचों खंडों का मूल्य 1500/- है, पुस्तक मेले में यह श्रृंखला 1100/- के विशेष रियायती मूल्य पर उपलब्ध होगी. प्रस्तुत है, इस श्रृंखला के लिए आलोक श्रीवास्तव की भूमिका. पूरा पढ़िए : **जिसकी रोशनी में हम अपना संसार देखें : एरिक हॉब्सबाम की इतिहास की शानदार किताबें, हिंदी में * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091226/a701dfc9/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Dec 26 20:53:29 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 26 Dec 2009 20:53:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KS44KSV?= =?utf-8?b?4KWAIOCksOCli+CktuCkqOClgCDgpK7gpYfgpIIg4KS54KSuIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KS+IOCkuOCkguCkuOCkvuCksCDgpKbgpYfgpJbgpYfgpIIg?= =?utf-8?b?OiDgpI/gpLDgpL/gpJUg4KS54KWJ4KSs4KWN4KS44KSs4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkh+CkpOCkv+CkueCkvuCkuCDgpJXgpYAg4KS24KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSwIOCkleCkv+CkpOCkvuCkrOClh+Ckgiwg4KS54KS/4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30912260723x265ac747v9fa9ec3a7afb907@mail.gmail.com> *संवाद प्रकाशन से विश्व पुस्तक मेला (30 जनवरी, से 7 फरवरी, 2009, प्रगति मैदान, नई दिल्ली) के अवसर पर बीसवीं सदी के सर्वाधिक समादृत इतिहास ग्रंथों की 5 खंडों की श्रृंखला का प्रकाशन हो रहा है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस श्रृंखला के लेखक एरिक हाब्शबाम हैं और अलग-अलग खंडों का अनुवाद हिंदी के प्रमुख इतिहास अध्येता और समर्थ लेखकों, प्रो लाल बहादुर वर्मा, प्रकाश दीक्षितऔर वंदना राग ने किया है. ये पांचों खंड संवाद की परंपरा के अनुसार पेपरबैक के मुख्य संस्करण में होंगे. लगभग 1800 पृष्ठों से अधिक के इन पांचों खंडों का मूल्य 1500/- है, पुस्तक मेले में यह श्रृंखला 1100/- के विशेष रियायती मूल्य पर उपलब्ध होगी. प्रस्तुत है, इस श्रृंखला के लिए आलोक श्रीवास्तव की भूमिका. पूरा पढ़िए : **जिसकी रोशनी में हम अपना संसार देखें : एरिक हॉब्सबाम की इतिहास की शानदार किताबें, हिंदी में * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091226/a701dfc9/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Tue Dec 29 17:34:56 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 29 Dec 2009 17:34:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KWA4KSw?= =?utf-8?b?IOCkp+CksOCkpOClgCDgpJXgpYcg4KSX4KSw4KWA4KSsIOCksuCliw==?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSCIOCkleCkviDgpJfgpYHgpLjgpY3gpLjgpL4=?= Message-ID: <363092e30912290404x32e5265cy472c7dd46ae52dd3@mail.gmail.com> अमीर धरती के गरीब लोगों का गुस्सा *सुनीता नारायण* *भारत* का नक्शा उठाइए और उन जिलों पर निशान लगाइए जहां वन संपदा उपलब्ध है और जहां पेड़ों का भरापूरा और सघन आवरण मौजूद है। उसके बाद उन पर उन नदियों और धाराओं को चिह्नित कीजिए जिनसे हमें और हमारी जल संपदा को जीवन मिलता है। फिर उन पर खनिज भंडारों की खोज कीजिए। इन भंडारों में लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और वे सभी खनिज शामिल हैं जिनसे हमारी अर्थव्यवस्था समृद्ध होती है। पर यहीं मत रुकिए। इस संपदा के ऊपर एक और सूचकांक को चिह्नित कीजिए। वहां उन जिलों की निशानदेही कीजिए जहां हमारे देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं। वे सब हमारे आदिवासी जिले हैं। यहां आपको एक संपूर्ण तालमेल मिलेगा। धरती के सबसे समृद्ध इलाके में सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब आप देश की इस श्रेणी वाले हिस्से को लाल रंग से घेर दीजिए। यही वे जिले हैं जहां नक्सलवादी घूमते रहते हैं। इन्हीं जिलों के बारे में सरकार मानती है कि वहां उन्हें अपने ही लोगों से युद्ध लड़ना पड़ रहा है। क्योंकि वे आतंक फैलाने और मारने के लिए बंदूक उठा चुके हैं। खराब विकास के इस सबक को हमें ध्यान से समझना चाहिए। आइए इस मानचित्र में पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं को पिरोएं। मधु कोड़ा झारखंड राज्य के करीब एक साल तक मुख्यमंत्री थे। वह राज्य खनिज और वन संपदा से समृद्ध है पर वहां के लोग गरीब हैं। आज जांच एजंसियों को पता चला है कि वहां सारे घोटालों का बाप मौजूद है। उन्होंने वहां मधु कोड़ा और उनके सहयोगियों के पास से चार हजार करोड़ का घोटाला पकड़ा है। उन्होंने राज्य को लूट कर अपनी अकूत संपत्ति बनाई थी। इतनी बड़ी राशि का घोटाला राज्य के सालाना बजट का पांचवां हिस्सा है। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह घोटाला उन खनिजों के माध्यम से किया गया है जिन्होंने अपनी जनता को कभी समृद्ध नहीं बनाया। *पूरा पढ़िए : अमीर धरती के गरीब लोगों का गुस्सा * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091229/8ecb98bc/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Tue Dec 29 17:34:56 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 29 Dec 2009 17:34:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KWA4KSw?= =?utf-8?b?IOCkp+CksOCkpOClgCDgpJXgpYcg4KSX4KSw4KWA4KSsIOCksuCliw==?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSCIOCkleCkviDgpJfgpYHgpLjgpY3gpLjgpL4=?= Message-ID: <363092e30912290404x32e5265cy472c7dd46ae52dd3@mail.gmail.com> अमीर धरती के गरीब लोगों का गुस्सा *सुनीता नारायण* *भारत* का नक्शा उठाइए और उन जिलों पर निशान लगाइए जहां वन संपदा उपलब्ध है और जहां पेड़ों का भरापूरा और सघन आवरण मौजूद है। उसके बाद उन पर उन नदियों और धाराओं को चिह्नित कीजिए जिनसे हमें और हमारी जल संपदा को जीवन मिलता है। फिर उन पर खनिज भंडारों की खोज कीजिए। इन भंडारों में लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और वे सभी खनिज शामिल हैं जिनसे हमारी अर्थव्यवस्था समृद्ध होती है। पर यहीं मत रुकिए। इस संपदा के ऊपर एक और सूचकांक को चिह्नित कीजिए। वहां उन जिलों की निशानदेही कीजिए जहां हमारे देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं। वे सब हमारे आदिवासी जिले हैं। यहां आपको एक संपूर्ण तालमेल मिलेगा। धरती के सबसे समृद्ध इलाके में सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब आप देश की इस श्रेणी वाले हिस्से को लाल रंग से घेर दीजिए। यही वे जिले हैं जहां नक्सलवादी घूमते रहते हैं। इन्हीं जिलों के बारे में सरकार मानती है कि वहां उन्हें अपने ही लोगों से युद्ध लड़ना पड़ रहा है। क्योंकि वे आतंक फैलाने और मारने के लिए बंदूक उठा चुके हैं। खराब विकास के इस सबक को हमें ध्यान से समझना चाहिए। आइए इस मानचित्र में पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं को पिरोएं। मधु कोड़ा झारखंड राज्य के करीब एक साल तक मुख्यमंत्री थे। वह राज्य खनिज और वन संपदा से समृद्ध है पर वहां के लोग गरीब हैं। आज जांच एजंसियों को पता चला है कि वहां सारे घोटालों का बाप मौजूद है। उन्होंने वहां मधु कोड़ा और उनके सहयोगियों के पास से चार हजार करोड़ का घोटाला पकड़ा है। उन्होंने राज्य को लूट कर अपनी अकूत संपत्ति बनाई थी। इतनी बड़ी राशि का घोटाला राज्य के सालाना बजट का पांचवां हिस्सा है। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह घोटाला उन खनिजों के माध्यम से किया गया है जिन्होंने अपनी जनता को कभी समृद्ध नहीं बनाया। *पूरा पढ़िए : अमीर धरती के गरीब लोगों का गुस्सा * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091229/8ecb98bc/attachment-0002.html From vineetdu at gmail.com Wed Dec 30 09:48:12 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 30 Dec 2009 09:48:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkquCkvuCkoOCkleCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSs4KWA4KSaIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KS4IOCksuClhyDgpLjgpJXgpYcg4KSw4KSa4KSo4KS+4KSP?= =?utf-8?b?4KSCLi4=?= Message-ID: <829019b0912292018j472ee8fh3bd25ee6b6fa6a32@mail.gmail.com> आज की तारीख में रचना और पाठक के बीच इतनी एजेंसियां उग आयीं हैं कि पाठक और रचना के बीच सीधा और स्वाभाविक रिश्ता नहीं रह गया है। एक पाठक हालिया प्रकाशित रचनाओं को जिन माध्यमों के जरिए जान पाता है वो विश्वस्नीय नहीं रह गए हैं। अखबारों में थोक के भाव में जो पुस्तक परिचय,किताबों की समीक्षाएं छपती है वो पाठकों के बीच रुचि पैदा करने से कहीं ज्यादा मार्केटिंग करते नजर आते हैं। दुनियाभर के हिन्दी के आलोचक बाजारवाद और छोटे-मोटे स्वार्थों के विरोध में दिन-रात लिखते हैं,भाषण देते हैं जबकि रचना को लेकर पाठक के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते। आपसी संबंधों,जुगाड़ों और मिली भगत की राजनीति के तहत रचना और किताबों को चढ़ाने और गिराने का काम करते हैं। उनका ये रवैया किताबों के बारे में लिखते समय साफ तौर पर झलकता है। नतीजा हमारे सामने है- रचना के बारे में आलोचकीय समझ के साथ लिखने के बजाय विज्ञापन करने में देश का तथाकथित महान से महान आलोचक अपनी ताकत झोंक दे रहा है। इधर रचनाकार से लेकर प्रकाशक तक नहीं चाहते कि उनकी छपी किताब या रचना की निर्मम किन्तु सच्ची आलोचना करे। इसलिए तटस्थ होकर लिखनेवालों की खेप लगातार घटती चली जा रही है और जो हैं उन्हें हाशिए पर धकेल देने में ही भलाई समझा जाता है। इस पूरे गुणा-गणित के बीच पाठक और रचना के बीच जो संबंध बनते हैं वो ग्राहक और उत्पाद का संबंध होता है जिसमें आस्वाद से कहीं ज्यादा बाजार के अधीन होकर पढ़ने और खरीदने का फार्मूला काम कर रहा होता है। पेंग्विन इंडिया ने प्रकाशक की हैसियत से पाठक और रचना के बीच सीधा संबंध कायम हो,इस गरज से पहल की है। "कुछ नया कुछ पुराना" नाम से शुरु किए जानेवाले सीरिज में रचनाओं का साभिनय पाठ होगा। इसके पीछे मकसद है कि उन पुरानी रचनाओं को पाठकों के सामने एक बार फिर से सामने लाए जाएं जो कि स्थायी महत्व रखते हों। दूसरी तरफ नयी रचनाओं का साभिनय पाठ के आधार पर पाठक किसी एजेंसी के आधार पर राय कायम करने के बजाय सीधे रचना से गुजरकर राय बना सकें। ऐसा होने से आलोचकों की विश्वसनीयता को जांचने-परखने का सही मौका मिल सकेगा और रचना को बेहतर और बदतर करार दिए जाने की उनकी इजारेदारी एक हद तक टूटेगी। यह संभव है कि पेंग्विन का ये प्रयास काफी हद तक मार्केटिंग का हिस्सा हो लेकिन इतना जरुर है कि पाठक को रचना और राय के बीच एक विकल्प मिल सकेगा। पेंग्विन ने इस पहल के तहत साभिनय पाठ के लिए इस बार हिन्दी-उर्दू के मशहूर रचनाकारों- मोहसिन हामिद,ज़किया ज़हीर,राजी सेठ,चित्रा मुद्गल और विलियम डेलरिम्पल की रचानाओं को चुना है। इन रचनाओं का साभिनय पाठ के लिए एनएसडी से पासआउट प्रसिद्ध रंगकर्मी सुमन वैद्य को विशेष तौर पर आमंत्रित किया है। आपलोगों में जिनलोगों ने भी एम.के.रैना द्वारा निर्देशित "बाणभट्ट की आत्मकथा" देखी है वो बाणभट्टयानी सुमन वैद्य की अदाकारी पर जरुर फिदा हुए होंगे। राजेन्द्र नाथ के निर्देशन में घासीराम बने सुमन वैद्य को जरुर सराह रहे होंगे। आज एक बार फिर उन्हें नए अंदाज में देखने-सुनने का मौका मिलेगा। पेंग्विन ने इस साभिनय पाठ की स्थायी योजना तय की है जिसके तहत महीने में एक बार इस कार्यक्रम का आयोजन करेगी। हर बार पुरानी औऱ नयी रचनाओं का पाठ होगा। हम उम्मीद करते हैं कि इससे रचना और पाठक के बीच नए सिरे से गर्माहट पैदा होगी। नोट- कार्यक्रम को लेकर डिटेल कार्ड में दिया गया है जिसे कि आप क्लिक करके बड़े साइज में देख सकते हैं। नाटकों में भूमिका के तौर पर सुमन वैद्य का परिचय- Play Name Role Director Short cut Arun Bakshi Sh. Ranjeet Kapoor Antral Kumar(Mohan Rakesh) Sh. Ranjeet Kapoor Janeman Panna Nayak Sh.Waman Kendre Ban Bhatt Ban Bhatt Sh. M.K. Raina Batohi Batohi(Bhikari Thakur) Sh. D.R.Ankur Gunda Gunda Nanku Singh Sh.Chittranjan Giri Ghasiram Kotwal Ghasiram Sh. Rajender Nath Chanakya Vishnugupt Chandragupt Sh Souti Chakraborty 1857 Ek Safarnama Shamsuddin Ms Nadira Zaheer Babbar निर्देशन- Death Watch in Hindi written by Jian Genet in Nainital (1992) * Kajirangat Hahakar (Assamese) with Children in Nagaon Assam (2007),and in TIE Company(NSD)’s Children Theatre Festival 2009 * Kaath Gharat Bhagwan (Assamese Translation of a Hindi Play written by Shri Krishna) in Nagaon Assam.(2008). -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/cd137276/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Dec 30 16:56:45 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant) Date: Wed, 30 Dec 2009 16:56:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= naye saal ke liye ek kavita Message-ID: <4B3B38F5.1030502@sarai.net> deewan ke paathakon ke liye Mohan Rana ke blog se sabhar. ravikant http://wordwheel.blogspot.com/ अंतिम दिन भीगती शाम ठिठुरती सर्द पानी में दरवाजे के बाहर ही है अब नया साल समय को बाँचता दस्तक देने से पहले कुछ छुट्टे पैसे ही बचे हैं उसकी जेब में ये कुछ दिन, जिनमें ना आशा है ना उदासी वे ना जिंदा हैं ना अचेत बस एक बेचैन धड़कन अगर मैं उन्हें चूम लूँ तो एक ही डर कहीं बंध (?) ना हो जाऊँ समय के अविरल प्रवाह में कहीं भूल ना जाऊँ अपना नाम कैसे पहचानूँगा फिर तुम्हें! अभिशप्त जैसे ये क्षण निरंतर आर्तनाद में डूबे मैं कानों को बंद करता हूँ पर खुली रह जाती हैं आँखें ---------------- © मोहन राणा From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:29:24 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:29:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWI4KS44KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpKjgpL/gpLDgpY3gpK7gpL/gpKQg4KSV4KSw?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpIIsIOCkueCkv+CkguCkpuClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCkriDgpKrgpLA/?= Message-ID: <363092e30912300859i4f73e8b7wc49a85909b35db6e@mail.gmail.com> कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं, हिंदी के नाम पर? *अनिल * *वर्धा *के महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में कल 29 दिसंबर को जहां एक ओर 12 वां स्थापना दिवस मनाया गया, वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई-लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे रहे। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया। पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन था, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की गयी। यहां इस पूरे आयोजन और इस स्थापना दिवस की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा। तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 के दिन नौवें स्थापना दिवस पर तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन ने अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आंदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गयी थी, जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ सनकी क़िस्म के लोग यह समारोह जेल में मना रहे होंगे। *पूरा पढ़िए :कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं, हिंदी के नाम पर? * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/632bd5db/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:29:24 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:29:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWI4KS44KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkvuCknCDgpKjgpL/gpLDgpY3gpK7gpL/gpKQg4KSV4KSw?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpIIsIOCkueCkv+CkguCkpuClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkqOCkvuCkriDgpKrgpLA/?= Message-ID: <363092e30912300859i4f73e8b7wc49a85909b35db6e@mail.gmail.com> कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं, हिंदी के नाम पर? *अनिल * *वर्धा *के महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में कल 29 दिसंबर को जहां एक ओर 12 वां स्थापना दिवस मनाया गया, वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई-लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे रहे। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया। पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन था, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की गयी। यहां इस पूरे आयोजन और इस स्थापना दिवस की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा। तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 के दिन नौवें स्थापना दिवस पर तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन ने अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आंदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गयी थी, जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ सनकी क़िस्म के लोग यह समारोह जेल में मना रहे होंगे। *पूरा पढ़िए :कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं, हिंदी के नाम पर? * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/632bd5db/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:31:46 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:31:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSw4KSq?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWH4KSfIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS54KS/4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkpuClh+CktiDgpJXgpYAg4KSG4KSuIOCknOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkleClhyDgpLjgpILgpLngpL7gpLAg4KSV4KWAIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSc4KSo4KS+IOCksOCli+CkleClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30912300901m6dc7908ds8ffe7802abc7dc0b@mail.gmail.com> कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपीलमें शामिल हों. -अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/4064707d/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:31:46 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:31:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSw4KSq?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWH4KSfIOCknOCkl+CkpCDgpJXgpYcg4KS54KS/4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkpuClh+CktiDgpJXgpYAg4KSG4KSuIOCknOCkqA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkleClhyDgpLjgpILgpLngpL7gpLAg4KSV4KWAIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSc4KSo4KS+IOCksOCli+CkleClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30912300901m6dc7908ds8ffe7802abc7dc0b@mail.gmail.com> कॉरपोरेट जगत के हित में देश की आम जनता के संहार की योजना रोकें हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपीलमें शामिल हों. -अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/4064707d/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:34:32 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:34:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KWH4KSw?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KWAIOCkrOCkriDgpJTgpLAg4KSr4KSw4KWA4KSm4KSV4KWL?= =?utf-8?b?4KSfIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJrgpYvgpIIg4KSV4KWAIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KSy4KS+4KSC4KSX4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30912300904w37d1b1adsbcab7efe66862413@mail.gmail.com> अमेरिकी बम और फरीदकोट के बच्चों की विकलांगता *सुभाष गाताडे* *बड़ा* सिर, आंखें बाहर निकली हुईं और टेढ़-मेढ़े हाथ-पैर जो शरीर संभालने लायक भी नहीं हैं। यह किसी वीडियोगेम का नहीं बल्कि पंजाब के सीमावर्ती जिले फरीदकोट में पैदा हो रहे नवजात बच्चों का वर्णन है जिनकी तादाद यहां अचानक बढ़ती दिख रही है। फरीदकोट के बाबा फरीद सेन्टर फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन के प्रमुख पृथपाल सिंह इससे चिंतित हैं। कुछ समय पहले जिले के दौरे पर आए दक्षिण अफ्रीका के टॉक्सिकॉलोजिस्ट डॉ कारिन स्मिथ ने इस पहेली को सुलझाने में उनकी थोड़ी मदद की। उन्होंने बच्चों के बाल के नमूने जर्मन प्रयोगशाला में भेजे। जांच के परिणाम विचलित करनेवाले थे। पता चला कि विकलांगता में आयी तेजी का कारण इन बच्चों में पायी गयी यूरेनियम की अत्यधिक मात्रा है। जांच चल रही है कि यूरेनियम के अवशेष प्राकृतिक संसाधनों से हैं या किसी अन्य कारण से। प्रश्न है कि एक ऐसे क्षेत्र में, जहां यूरेनियम के प्राकृतिक स्रोत न हों, वहां बच्चों के खून में यह कहां से आ रहा है? क्या इसका रिश्ता अफगानिस्तान से वहां पहुंचनेवाली हवाओं से जोड़ा जा सकता है जहां युद्ध के मैदान की धूल में मौजूद यूरेनियम के कणों ने बच्चों को प्रभावित किया हो। एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक में अप्रैल माह में इस सिलसिले में एक लम्बी स्टोरी छपी थी जिसमें कहा गया था कि पंजाब की जनता अफगानिस्तान और इराक युद्धों का खामियाजा भुगत रही है। इन युद्धों में अमेरिका व उसकी सहयोगी सेनाओं ने जिस नि:शेष यूरेनियम का प्रयोग किया, वही बच्चों की विकलांगता की जड़ में है। गौरतलब है कि सात अक्टूबर 2001 को अफगानिस्तान पर हमला हुआ और सेंटर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट यही बताती है कि प्रभावित बच्चों की तादाद ‘विगत छह सात सालों में तेजी से बढ़ी है।’ जाहिर है जब अफगानिस्तान से तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित पंजाब के बच्चों पर इसका असर देखा जा सकता है तो बीच में पड़नेवाले पाकिस्तान के नवजात बच्चे भी इससे प्रभावित हो रहे होंगे। हथियार बनाने के लिए संवर्द्धन की प्रक्रिया से गुजरने या परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होने के बाद यूरेनियम का जो हिस्सा बचता है उसे नि:शेष या डिप्लीटेड यूरेनियम कहते हैं। *पूरा पढ़िए : अमेरिकी बम और फरीदकोट के बच्चों की विकलांगता * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/8f28f64b/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Dec 30 22:34:32 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 30 Dec 2009 22:34:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KWH4KSw?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KWAIOCkrOCkriDgpJTgpLAg4KSr4KSw4KWA4KSm4KSV4KWL?= =?utf-8?b?4KSfIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJrgpYvgpIIg4KSV4KWAIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KSy4KS+4KSC4KSX4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30912300904w37d1b1adsbcab7efe66862413@mail.gmail.com> अमेरिकी बम और फरीदकोट के बच्चों की विकलांगता *सुभाष गाताडे* *बड़ा* सिर, आंखें बाहर निकली हुईं और टेढ़-मेढ़े हाथ-पैर जो शरीर संभालने लायक भी नहीं हैं। यह किसी वीडियोगेम का नहीं बल्कि पंजाब के सीमावर्ती जिले फरीदकोट में पैदा हो रहे नवजात बच्चों का वर्णन है जिनकी तादाद यहां अचानक बढ़ती दिख रही है। फरीदकोट के बाबा फरीद सेन्टर फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन के प्रमुख पृथपाल सिंह इससे चिंतित हैं। कुछ समय पहले जिले के दौरे पर आए दक्षिण अफ्रीका के टॉक्सिकॉलोजिस्ट डॉ कारिन स्मिथ ने इस पहेली को सुलझाने में उनकी थोड़ी मदद की। उन्होंने बच्चों के बाल के नमूने जर्मन प्रयोगशाला में भेजे। जांच के परिणाम विचलित करनेवाले थे। पता चला कि विकलांगता में आयी तेजी का कारण इन बच्चों में पायी गयी यूरेनियम की अत्यधिक मात्रा है। जांच चल रही है कि यूरेनियम के अवशेष प्राकृतिक संसाधनों से हैं या किसी अन्य कारण से। प्रश्न है कि एक ऐसे क्षेत्र में, जहां यूरेनियम के प्राकृतिक स्रोत न हों, वहां बच्चों के खून में यह कहां से आ रहा है? क्या इसका रिश्ता अफगानिस्तान से वहां पहुंचनेवाली हवाओं से जोड़ा जा सकता है जहां युद्ध के मैदान की धूल में मौजूद यूरेनियम के कणों ने बच्चों को प्रभावित किया हो। एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक में अप्रैल माह में इस सिलसिले में एक लम्बी स्टोरी छपी थी जिसमें कहा गया था कि पंजाब की जनता अफगानिस्तान और इराक युद्धों का खामियाजा भुगत रही है। इन युद्धों में अमेरिका व उसकी सहयोगी सेनाओं ने जिस नि:शेष यूरेनियम का प्रयोग किया, वही बच्चों की विकलांगता की जड़ में है। गौरतलब है कि सात अक्टूबर 2001 को अफगानिस्तान पर हमला हुआ और सेंटर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट यही बताती है कि प्रभावित बच्चों की तादाद ‘विगत छह सात सालों में तेजी से बढ़ी है।’ जाहिर है जब अफगानिस्तान से तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित पंजाब के बच्चों पर इसका असर देखा जा सकता है तो बीच में पड़नेवाले पाकिस्तान के नवजात बच्चे भी इससे प्रभावित हो रहे होंगे। हथियार बनाने के लिए संवर्द्धन की प्रक्रिया से गुजरने या परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होने के बाद यूरेनियम का जो हिस्सा बचता है उसे नि:शेष या डिप्लीटेड यूरेनियम कहते हैं। *पूरा पढ़िए : अमेरिकी बम और फरीदकोट के बच्चों की विकलांगता * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091230/8f28f64b/attachment-0003.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Dec 31 15:03:47 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 31 Dec 2009 15:03:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSo4KWH?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSY4KSw?= Message-ID: <6a32f8f0912310133o52c89d9cm3f94c07d6cc1cb07@mail.gmail.com> रोमांच का स्थल सिनेमाघर ब्रजेश कुमार दिल्ली में कभी मोती सिनेमाघर का जलवा था। यह चांदनी चौक इलाके में स्थित है। पुराने लोग बताते हैं कि यह राजधानी के पुराने सिनेमाघरों में से एक है। शायद सबसे पुराना। सिनेमाघरों पर दृश्य-श्रव्य माध्यम से सराय/सीएसडीएस में शोध कर चुकीं नंदिता रमण ने कहा, “किरीट देशाई ने सन् 1938 में एक पुराने थिएटर को मोती सिनेमाघर का रूप दिया।” दरअसल, देशाई परिवार सिनेमा के सबसे बड़े वितरकों में रहा है। शौकिया ही मोती सिनेमाघर को अस्तित्व में लाया था। जो भी हो, यह सिनेड़ियों के लिए बड़े रोमांच की जगह थी। उन्हीं दिनों पुरानी दिल्ली इलाके में दो और सिनेमाघर आबाद हुए। नाम था- एक्सेल्सियर और वैस्ट एंड। नंदिता ने बातचीत के दौरान बताया कि चावड़ी बाजार के लाल कुआं के निकट स्थित एक्सेल्सियर सिनेमाघर सन् 1938 से पहले इनायत पवेलियन के नाम से मशहूर था। तब वह एक थिएटर हुआ करता था। एस.बी.चिटनिस ने सन् 38 में इसे सिनेमाघर में तब्दील करवा दिया। वैस्ट एंड सिनेमाघर भी चिटनिस परिवार का है। एक जमाने में यह दोनों सिनेमाघर महिलाओं के बीच खासा लोकप्रिय था। कई शो ऐसे होते थे, जिसमें पूरी बालकॉनी महिलाओं से भरी होती थी। यह जानना रोचक होगा कि रीगल, मोती या एक्सेल्सियर व वैस्ट एंड में से वह कौन सा सिनेमाघर है जिसमें पहली दफा फिल्म दिखलाई गई थी। वैसे, ये चारों सिनेमाघर 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में ही आबाद हुए थे। कुछ बाद में अस्तित्व में आए सिनेमाघरों में रिट्ज और नॉवेल्टि की खास पहचान बनी। पर, सन् 1940 तक पुरानी दिल्ली इलाके में कुल सात या आठ सिनेमाघर थे। तब आम आदमी इन सिनेमाघरों को बाइसकोप घर के नाम से पुकारता था। सिनेमाघर को उसके नाम से जानने का कोई रिवाज नहीं था। भटके राहगीरों को निशानदेही के लिए हमेशा बताए जानेवाले तमाम सिनेमाघरों के साथ-साथ प्लाजा और डेलाइट की गिनती भी पुराने हॉल के रूप में होती है। कहा जाता है कि कनॉट प्लेस का विकास करते समय रॉबर्ट टोर रुसेल नाम के वास्तुकार ने प्लाजा को आकार दिया था। जबकि डेलाइट सन् 1955 में अस्तित्व में आया था, जो अपनी वैभवता के लिए हमेशा सिनेप्रेमियों के बीच लोकप्रिय रहा। पर, 90 के दशक में जब केबल टीवी और वीसीआर पर फिल्मों को देखने का चलन बढ़ा तो सिनेमाघर धीरे-धीरे उपेक्षित होने लगा। उनकी लोकप्रियता पर असर पढ़ा। रीगल समेत तमाम सिनेमाघर इसकी चपेट में आए। मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों का उदय भी यहीं से शुरू हुआ। सन् 1997 में पहली बार पीवीआर साकेत मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल के रूप में लोगों के सामने आया। इसके ठीक चार साल बाद पीवीआर विकासपुरी और पीवीआर नारायणा अस्तित्व में आया। समाज में हो रहे भारी फेर-बदल का ही परिणाम था कि सिनेमाघर को तौड़कर मल्टीप्लेक्स बनाने का सिलसिला जो सन् 97 से शुरू हुआ वह अब भी जारी है। चाणक्य सिनेमाघर को भी जमींदोज कर दिया। शायद इसी चक्कर में। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। सराय के सिनेमा विशेषज्ञों की राय में सिनेमाघर एक ऐसा उत्सवी जगह होता था जो पूरे समाज को एक जगह लाता था। अब मल्टीप्लेक्स कल्चर आने से स्थिति बदली है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/e2643517/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Dec 31 21:56:20 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 31 Dec 2009 21:56:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSR4KSq4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KS24KSoIOCkl+CljeCksOClgOCkqOCkueCkguCknzog4KSc4KSo4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KSc4KSC4KSX?= Message-ID: <363092e30912310826h7414f5d5g71b79720c682417d@mail.gmail.com> ऑपरेशन ग्रीनहंट: जनता के खिलाफ जंग *प्रफुल्ल बिदवई जो *कुछ मीडिया में कहा जा रहा है, यदि वह सही है तो श्री मधु कोडा ने दो वर्ष तक झारखंड के मुख्यमंत्री पद पर काम करने के दौरान 4000 करोड रुपए की विपुल धनराशि गैरकानूनी ढंग से एकत्रित की और उसे दुनिया भर में अलग-अलग परिसंपत्तियों में निविष्ट किया, जिनमें जहाजरानी कंपनियां, होटल और स्विस बैंक खाते शामिल हैं। जैसा कि बताया जाता है, इसमें से अधिकतर राशि झारखंड में, जो कि भारत के खनिज समृध्द तीन राज्यों में से एक है, खनन परियोजनाओं को मंजूरी देने के एवज में ली गई रिश्वत के जरिए इकट्ठी की गई। इनमें से अधिकतर परियोजनाएं गैरकानूनी थीं और जितनी अवधि और जितने क्षेत्र के लिए अनुमति दी गई थी वह भी कानूनी सीमा के बाहर थी। आदिवासी झारखंड का सबसे बडा जाति समूह है और वे वहां के मूल बाशिंदे हैं जिनका अपनी भूमि पर से उत्तरोत्तर कब्जा छिनता चला गया है। *पूरा पढ़िए :ऑपरेशन ग्रीनहंट: जनता के खिलाफ जंग * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/c8e58f80/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Thu Dec 31 21:56:20 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 31 Dec 2009 21:56:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSR4KSq4KSw4KWH?= =?utf-8?b?4KS24KSoIOCkl+CljeCksOClgOCkqOCkueCkguCknzog4KSc4KSo4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KSc4KSC4KSX?= Message-ID: <363092e30912310826h7414f5d5g71b79720c682417d@mail.gmail.com> ऑपरेशन ग्रीनहंट: जनता के खिलाफ जंग *प्रफुल्ल बिदवई जो *कुछ मीडिया में कहा जा रहा है, यदि वह सही है तो श्री मधु कोडा ने दो वर्ष तक झारखंड के मुख्यमंत्री पद पर काम करने के दौरान 4000 करोड रुपए की विपुल धनराशि गैरकानूनी ढंग से एकत्रित की और उसे दुनिया भर में अलग-अलग परिसंपत्तियों में निविष्ट किया, जिनमें जहाजरानी कंपनियां, होटल और स्विस बैंक खाते शामिल हैं। जैसा कि बताया जाता है, इसमें से अधिकतर राशि झारखंड में, जो कि भारत के खनिज समृध्द तीन राज्यों में से एक है, खनन परियोजनाओं को मंजूरी देने के एवज में ली गई रिश्वत के जरिए इकट्ठी की गई। इनमें से अधिकतर परियोजनाएं गैरकानूनी थीं और जितनी अवधि और जितने क्षेत्र के लिए अनुमति दी गई थी वह भी कानूनी सीमा के बाहर थी। आदिवासी झारखंड का सबसे बडा जाति समूह है और वे वहां के मूल बाशिंदे हैं जिनका अपनी भूमि पर से उत्तरोत्तर कब्जा छिनता चला गया है। *पूरा पढ़िए :ऑपरेशन ग्रीनहंट: जनता के खिलाफ जंग * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/c8e58f80/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Thu Dec 31 22:38:26 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 31 Dec 2009 22:38:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSX4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCkieCkpeCksi3gpKrgpYHgpKXgpLIg4KSV4KWAIOCkpOCksOCkqyA=?= =?utf-8?b?4KSs4KSi4KS84KSk4KS+IOCkrOCkv+CkueCkvuCksA==?= Message-ID: <363092e30912310908g79f93304hbe39f26e7f5ce0b5@mail.gmail.com> उग्र उथल-पुथल की तरफ बढ़ता बिहार *मित्रों, यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन सच है. मोहल्ला लाइव पर कुछ दिनों पहले एक पोस्ट आयी थी, जिसके लेखक के रूप में हेमंत कुमार का नाम दिया गया है. वास्तव में यह लेख हमारे साथी और प्रभात खबर में उप संपादक कुमार अनिल का है, जिनसे 'अपने ब्लॉग पर डालने' के नाम पर हेमंत कुमार ने यह लेख उनसे माँगा था. कल शाम को कुमार अनिल का यह आलेख मुझे मिला तो मुझे हैरत हुई. आज मैं उनसे लेखक का नाम कन्फर्म कर हाशिया पर पोस्ट कर रहा हूँ, इसे दोहराते हुए, कि यह आलेख हेमंत कुमार का नहीं-जो प्रभात खबर में काम करते हैं और समाचार संपादक हैं, बल्कि यह कुमार अनिल का है और जो प्रभात खबर में उप संपादक हैं. **इसके साथ यह तथ्य जोड़ना भी ज़रूरी है कि इस लेख को बिहार के किसी अख़बार ने छापने का साहस नहीं दिखाया है. * *राज्य *सरकार को अपनी रिपोर्ट दे चुके भूमि सुधार आयोग के चेयरमैन डी बंद्योपाध्याय का मानना है कि बिहार एक उग्र सामाजिक उथल-पुथल की तरफ बढ़ रहा है। बिहार देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में से एक है। कृषि भूमि पर भूस्वामियों के अत्यधिक नियंत्रण के कारण प्रदेश का ग्रामीण हिस्सा घुटन में जी रहा है। बड़े भूस्वामियों की कृषि उत्पादन के विकास में रुचि नहीं है। जो खेती करते हैं, उन बटाईदार किसानों के पास अपनी ज़मीन बहुत कम है। ऐसे में भूमि सुधार की सिफारिशें नकार कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वैधानिक तरीके से उत्पादन संबंधों को व्यवस्थित करने का मौका खो दिया है। अब बिहार में बदलाव उग्र सामाजिक संघर्ष के जरिये ही आएगा। *पूरा पढ़िए : उग्र उथल-पुथल की तरफ बढ़ता बिहार * -- El pueblo unido jamás será vencido -------------------------------------------------- http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/9025d5df/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Dec 31 22:41:46 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 31 Dec 2009 22:41:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWLIOCkqOCkvuCkn+CklSDgpJXgpYAg4KSv4KS+4KSmIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS+IOCkl+CkjyDgpLjgpYHgpK7gpKgg4KS14KWI4KSm4KWN?= =?utf-8?b?4KSv?= Message-ID: <829019b0912310911w49e26116y569d08aad3aa28a3@mail.gmail.com> मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive पाठकों का रचना से सीधा रिश्ता कायम हो, इस क्रम में यात्रा बुक्सऔर पेंग्विन इंडिया का प्रयोग सफल रहा। दिल्ली की कंपकंपा देनेवाली ठंड में भीइंडिया हैबिटेट सेंटरका गुलमोहर सभागारलगभग भरा हो तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि रचना पाठ को लेकर पाठक अब भी कितने उत्‍सुक हैं। एक प्रकाशक की हैसियत से यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने इस बात की पहल की है कि रचना और पाठक के बीच एक स्वाभाविक संबंध विकसित हो। एक ऐसा संबंध, जो कि अख़बारों की फॉर्मूलाबद्ध समीक्षाओं और आलोचकों की इजारेदारी के बीच विकल्प के तौर पर काम कर सके। यह संबंध पाठक की गरिमा को बनाये रखे, उसे विज्ञापनदार समीक्षा पढ़ कर ग्राहक बनने पर मजबूर न करे। इस दिशा में यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने “कुछ नया कुछ पुराना” नाम से साभिनय पाठ सीरीज़ की शुरुआत की है। इस प्रकाशन संस्थान की योजना है कि प्रत्येक महीने, नहीं तो दो महीने में कम से कम एक बार हिंदी-उर्दू और दूसरी भाषाओं से हिंदी में अनूदित रचनाओं का साभिनय पाठ हो और उस आधार पर पाठक रचना से जुड़ सके। इस सीरीज़ की शुरुआत होने से पहले ही पेंग्विन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम ने मंच संचालक की भूमिका निभाते हुए कहा कि आलम ये है कि किताबें पाठकों की बाट जोहती रह जाती हैं। इस तरह के कार्यक्रम किताबों के इस इंतज़ार को ख़त्म करने की दिशा में काम करेंगे। साभिनय पाठ की शुरुआत युवा रंगकर्मी सुमन वैद्य ने की। सुमन वैद्य जितना एक रंगकर्मी के तौर पर हमें प्रभावित करते आये हैं, रचनाओं का पाठ करते हुए उससे रत्तीभर भी कम प्रभावित नहीं करते। कहानियों का पाठ करते वक्त शब्दों के उतार-चढ़ाव के साथ जो भाव-योजना बनती है, वो रेडियो नाटक जैसा असर पैदा करती है। सभागार में बैठे हमें कई बार छुटपन में सुने रेडियो के हवामहल कार्यक्रम की याद दिला गया। इसके साथ ही पाठ के मिज़ाज के हिसाब से चेहरे पर बनते-बिगड़ते भाव, हाथों और शरीर की भंगिमाएं पाठ का विजुअल एडिशन तैयार करती है। मोहल्लाlive पर इस कार्यक्रम की ख़बर को लेकर मुंबई की रंगकर्मी विभा रानी साहित्य को विजुअल कम्युनिकेशन फार्म में लाने की बात करती हैं।सुमन वैद्य के साभिनय पाठ ने उसे पूरा किया। ऐसा होने से एक तो रचना से आस्वाद के स्तर का जुड़ाव बनता है, वहीं दूसरी ओर इस बात की भी परख हो जाती है कि किसी भी रचना में माध्यम रूपांतरण के बाद आस्वाद पैदा करने की ताकत कितनी है? भविष्य में ये प्रयोग किसी भी रचना को लेकर सीरियल या फिल्म बनाने के पहले की प्रक्रिया के तौर पर आजमाये जा सकते हैं। कुछ नया कुछ पुराना सीरीज़ के अंतर्गत कुल पांच रचनाओं के अंशों का पाठ किया गया, जिसमें आख़‍री मुग़ल को छोड़कर बाकी चार का पाठ सुमन वैद्य ने किया। आख़री मुग़ल का पाठ ज़किया ज़हीर ने किया। आख़‍री मुग़ल दरअसल विलियम डेलरिंपल की अंग्रेज़ी में लिखी द लास्ट मुग़ल का हिंदी रूपांतर है। खुद ज़किया ही इसे हिंदी और उर्दू में रूपांतरित कर रही हैं। राजी सेठ की रचना मार्था का देश के अंश को थोड़ा कम करके यदि ज़िदगी ज़िंदादिली का नाम है (ज़किया ज़हीर) संकलन से कुछ और रचनाओं का पाठ किया जाता, तो ऑडिएंस ज़्यादा बेहतर तरीके से जुड़ पाती। इस पूरे साभिनय पाठ में सबसे प्रभावी रचना रही चित्रा मुदगल की बच्चों पर केंद्रित कहानियों के संकलन से पढ़ी गयी लघुकथा – दूध। इस रचना ने मुश्किल से दो से तीन मिनट का समय लिया, लेकिन सबसे ज़्यादा असर पैदा किया। एक औसत दर्जे के भारतीय परिवार में दूध घर के मर्द पीते हैं। स्त्री या लड़की का काम है दूध के गुनगुने गिलास को सावधानीपूर्वक उन तक पहुंचाना। एक दिन लड़की चोरी से दूध पीती है। उसकी मां उस पर बरसती है – दूध पी रही थी कमीनी? लड़की का सवाल होता है – एक बात पूछूं मां? मैं जब जनमी तो दूध उतरा था तेरी छातियों में? हां… खूब। पर… पर तू कहना क्या चाहती है? तब भी मेरे हिस्से का दूध क्या तूने घर के मर्दों को पिला दिया था? और कहानी ख़त्म हो जाती है। इस आधार पर समझें तो साभिनय पाठ की सफलता का बड़ा हिस्सा इस बात से जुड़ता है कि पाठ के लिए किस रचना का चयन किया गया है। कई बार ऐसा होता है कि कई रचनाएं पढ़ने के लिहाज से बहुत ही बेहतर हुआ करती हैं लेकिन साभिनय पाठ के दौरान उतना मज़ा नहीं आता जबकि कुछ में दोनों स्तरों पर मज़ा आता है। इसलिए साभिनय पाठ के लिए रचनाओं पर अधिक से अधिक होमवर्क करने की ज़रूरत है जो कि इस कार्यक्रम के दौरान समझने को मिला। बहरहाल यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया का ये प्रयोग प्रभावित तो ज़रूर करता है। इसे हम इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जहां दिल्ली की बड़ी आबादी नये साल की तैयारियों में जुटी है, शहरभर के स्कूल-कॉलेज बंद हैं और छुट्टी के मूड में हैं, ऐसे में शहर के पुस्तक प्रेमी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। अशोक वाजपेयी, हिमांशु जोशी, मृदुला गर्ग, राजेंद्र धोड़पकर, कृष्णदत्त पालीवाल, राजी सेठ, चित्रा मुदगल, रवींद्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्‍थी,अभिसार शर्मा, क़ुर्बान अली सहित कई गणमान्‍य लोग रचना पाठ सुनने के लिए आये। इनमें से अधिकांश अंत-अंत तक बने रहे। कार्यक्रम के अंत की घोषणा और धन्यवाद ज्ञापन करते हुए यात्रा बुक्स की प्रकाशक नीता गुप्ता ने कहा कि “कुछ नया कुछ पुराना” कार्यक्रम ने साहित्य और अभिनय को जोड़ने का काम किया है। इसे हम आगे भी जारी रखेंगे। नीता गुप्ता की बात को आगे ले जाकर कहा जाए तो ऐसे कार्यक्रमों को न केवल जारी रखने की ज़रूरत है बल्कि पाठकों की अलग-अलग पहुंच औऱ हैसियत के हिसाब से अलग-अलग जगहों पर आयोजित किया जाना ज़रूरी है, जिससे कि खुले तौर पर ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसमें शामिल हो सकें। बेहतर हो कि यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया की इस पहल की देखादेखी ही सही, बाकी के प्रकाशन भी इस दिशा में आगे आएं। क्योंकि लोकार्पण और भाषणबाजी से हटकर ये अकेला कार्यक्रम है, जिसमें मुनाफे के पाले में पाठक का हिस्सा ज़्यादा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/692ee456/attachment-0001.html From water.community at gmail.com Tue Dec 22 09:41:09 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 22 Dec 2009 04:11:09 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS24KSoIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSm?= =?utf-8?b?4KWLIOCkhuCksuClh+CkliAtIDEtIOCkleCli+CkquClh+CkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWH4KSX4KSoIOCkteCkvuCksOCljeCkpOCkviDgpJXgpL4g4KSm4KWB?= =?utf-8?b?4KSD4KSW4KSmIOCkheCkguCkpC8gMiAt4KS44KSu4KWD4KSm4KWN4KSn?= =?utf-8?b?4KS/IOCkleCkviDgpLDgpL7gpLjgpY3gpKTgpL4u?= In-Reply-To: <67c3afa80912202200s6217ae2eh9053251fdda27f36@mail.gmail.com> References: <67c3afa80912202200s6217ae2eh9053251fdda27f36@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430912212005k53c15c6eqf0deb8544764c398@mail.gmail.com> प्रकाशन के लिए दो लेख भेज रहे हैं। आप इन लेखों को उदरता से इस्तेमाल कर सकते हैं। स्रोत में (इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी) का जिक्र करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा। कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत [image: जलवायु परिवर्तन]*जलवायु परिवर्तन**मीनाक्षी अरोरा* अंततः जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, - - Read more समृद्धि का रास्ता *ग्राम गौरव प्रतिष्ठान* जिस तरह पानी फसलों की वृद्धि और हरियाली लाता है ठीक वही सब कुछ महादपुर गांव के लिए सामूहिक सिंचाई संचालन ने किया है। दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं। - - Read more - - -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091222/aa0d8bdb/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Tue Dec 22 09:41:28 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Tue, 22 Dec 2009 04:11:28 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS24KSoIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSm?= =?utf-8?b?4KWLIOCkhuCksuClh+CkliAtIDEtIOCkleCli+CkquClh+CkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWH4KSX4KSoIOCkteCkvuCksOCljeCkpOCkviDgpJXgpL4g4KSm4KWB?= =?utf-8?b?4KSD4KSW4KSmIOCkheCkguCkpC8gMiAt4KS44KSu4KWD4KSm4KWN4KSn?= =?utf-8?b?4KS/IOCkleCkviDgpLDgpL7gpLjgpY3gpKTgpL4u?= In-Reply-To: <67c3afa80912202200s6217ae2eh9053251fdda27f36@mail.gmail.com> References: <67c3afa80912202200s6217ae2eh9053251fdda27f36@mail.gmail.com> Message-ID: <8b2ca7430912212005k53c15c6eqf0deb8544764c398@mail.gmail.com> प्रकाशन के लिए दो लेख भेज रहे हैं। आप इन लेखों को उदरता से इस्तेमाल कर सकते हैं। स्रोत में (इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी) का जिक्र करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा। कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत [image: जलवायु परिवर्तन]*जलवायु परिवर्तन**मीनाक्षी अरोरा* अंततः जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, - - Read more समृद्धि का रास्ता *ग्राम गौरव प्रतिष्ठान* जिस तरह पानी फसलों की वृद्धि और हरियाली लाता है ठीक वही सब कुछ महादपुर गांव के लिए सामूहिक सिंचाई संचालन ने किया है। दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं। - - Read more - - -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091222/aa0d8bdb/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From rajanhmr at gmail.com Sat Dec 26 15:27:13 2009 From: rajanhmr at gmail.com (rajinder rajan) Date: Sat, 26 Dec 2009 15:27:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= REQUEST FOR SHORT STORIES FOR KATHA VISHESHANK OF IRAVATI Message-ID: Dear Sir/Madam, I am sending herewith a request letter inviting therein short stories for the Katha Visheshank of Iravati on behalf of Dr. Suraj Paliwal, Chief Editor of Iravati. Sincerely Rajendra Rajan Shimla -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091226/cfd31614/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Letter.doc Type: application/msword Size: 39936 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091226/cfd31614/attachment-0001.doc From smcjsr77 at gmail.com Sat Dec 26 19:49:51 2009 From: smcjsr77 at gmail.com (Naresh Agarwal) Date: Sat, 26 Dec 2009 19:49:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Hindi website of poet/writer Naresh agarwal www.nareshagarwala.com Message-ID: <209cfb310912260619x1e4cbb01g7a7e349d54873d45@mail.gmail.com> Sub Famous and free hindi website for poems/photos/epigrams other articles Please visit www.nareshagarwala.com by Naresh Agarwal(click here to know more), a unique website to download 11 exclusive books absolutely free. The website has 5 inspirational books on education -a must for all 5 books on modern hindi poetry with extraordinary expressions 1 book on Indian Bonsai Plus get to see photo gallery of Rajasthan, Kashmir, Ladakh, Kerala, Andaman and Nicobar, Sunderban (Kolkatta), Hyderabad etc. All by Naresh Agarwal mobile no. 09334825981 E mail id – smcjsr77 at gmail.com from Jamshedpur, From water.community at gmail.com Thu Dec 31 08:55:58 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Thu, 31 Dec 2009 08:55:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSk4KWN4KSw4KWL4KSCIOCknOCkvuCkpOClhyDgpLngpYE=?= =?utf-8?b?4KSPIOCkteCksOCljeCktyDgpJXgpYAg4KS44KWB4KSW4KSmIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUsIOCkqOCktSDgpLU=?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS3IOCkquCksCDgpIbgpKog4KS44KSs4KSV4KWLIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSn4KS+4KSI?= Message-ID: <8b2ca7430912301925k355b1950ge3d0f8e64c596a6e@mail.gmail.com> 2010 का कैलेण्डर *गोरी गंगा की एक झलक*प्रिय मित्रों, मेरे सामने पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई) का सन् 2010 का कैलेण्डर रखा हुआ है, हो सकता है कि सुनने में यह थोड़ा बेशर्मी भरा लगे, लेकिन सच यही है कि यह कैलेण्डर बेहद आश्चर्यजनक और उम्दा है। पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट के 2009 का कैलेण्डर भी “गंगा” नदी पर आधारित था, इस बार का कैलेण्डर 'गोरी गंगा' पर आधारित है और सौंदर्यबोध की दृष्टि से देखा जाये तो इस वर्ष का कैलेण्डर अधिक बेहतर है। - - Read more स्थाई समाधान तलाशा आपको भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि किस प्रकार टोरनी गांव भूख,प्यास,गरीबी और बेकारी के दलदल से बाहर निकलते हुए समृद्धि और खुशहाली की ओर अग्रसर हो रहा है और आज हम सभी के लिए एक आदर्श गाँव के रूप में उभर रहा है। यहां पानी का सही प्रबंधन किया जाता है। यहां पानी की उपलब्धता के साथ-साथ फसलों की भी चौगुनी पैदावार हो गई है और यहां से पलायन कर गए लोग वापस लौट आए हैं। टोरनी गांव खंडवा से 28 किलोमीटर की दूरी पर खंडवा- इंदौर राजमार्ग पर एक आदिवासी बहुल गांव है। - - Read more वर्षावन क्यों महत्वपूर्ण है? * * वर्षावन विश्व स्तरीय पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) के लिए महत्वपूर्ण हैं। वर्षावन: - कई पौधों और जानवरों को आवास उपलब्ध करते हैं; - -दुनिया की जलवायु को स्थिर बनाने में मदद करते हैं; - - बाढ़, अकाल, और भूमि के कटाव से रक्षा करते हैं; - - दवाओं और खाद्य पदार्थों के लिए एक स्रोत हैं; - -जनजातीय लोगों को आश्रय प्रदान करते हैं; और - - घूमने के लिए एक एक दिलचस्प स्थान हैं। वर्षावन के बारे में और विशेष जानकारी कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत [image: जलवायु परिवर्तन]*जलवायु परिवर्तन**मीनाक्षी अरोरा* अंततः जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, - - Read more -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/08e81098/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Thu Dec 31 08:55:58 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Thu, 31 Dec 2009 08:55:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSk4KWN4KSw4KWL4KSCIOCknOCkvuCkpOClhyDgpLngpYE=?= =?utf-8?b?4KSPIOCkteCksOCljeCktyDgpJXgpYAg4KS44KWB4KSW4KSmIOCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUsIOCkqOCktSDgpLU=?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS3IOCkquCksCDgpIbgpKog4KS44KSs4KSV4KWLIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSn4KS+4KSI?= Message-ID: <8b2ca7430912301925k355b1950ge3d0f8e64c596a6e@mail.gmail.com> 2010 का कैलेण्डर *गोरी गंगा की एक झलक*प्रिय मित्रों, मेरे सामने पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई) का सन् 2010 का कैलेण्डर रखा हुआ है, हो सकता है कि सुनने में यह थोड़ा बेशर्मी भरा लगे, लेकिन सच यही है कि यह कैलेण्डर बेहद आश्चर्यजनक और उम्दा है। पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट के 2009 का कैलेण्डर भी “गंगा” नदी पर आधारित था, इस बार का कैलेण्डर 'गोरी गंगा' पर आधारित है और सौंदर्यबोध की दृष्टि से देखा जाये तो इस वर्ष का कैलेण्डर अधिक बेहतर है। - - Read more स्थाई समाधान तलाशा आपको भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि किस प्रकार टोरनी गांव भूख,प्यास,गरीबी और बेकारी के दलदल से बाहर निकलते हुए समृद्धि और खुशहाली की ओर अग्रसर हो रहा है और आज हम सभी के लिए एक आदर्श गाँव के रूप में उभर रहा है। यहां पानी का सही प्रबंधन किया जाता है। यहां पानी की उपलब्धता के साथ-साथ फसलों की भी चौगुनी पैदावार हो गई है और यहां से पलायन कर गए लोग वापस लौट आए हैं। टोरनी गांव खंडवा से 28 किलोमीटर की दूरी पर खंडवा- इंदौर राजमार्ग पर एक आदिवासी बहुल गांव है। - - Read more वर्षावन क्यों महत्वपूर्ण है? * * वर्षावन विश्व स्तरीय पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) के लिए महत्वपूर्ण हैं। वर्षावन: - कई पौधों और जानवरों को आवास उपलब्ध करते हैं; - -दुनिया की जलवायु को स्थिर बनाने में मदद करते हैं; - - बाढ़, अकाल, और भूमि के कटाव से रक्षा करते हैं; - - दवाओं और खाद्य पदार्थों के लिए एक स्रोत हैं; - -जनजातीय लोगों को आश्रय प्रदान करते हैं; और - - घूमने के लिए एक एक दिलचस्प स्थान हैं। वर्षावन के बारे में और विशेष जानकारी कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत [image: जलवायु परिवर्तन]*जलवायु परिवर्तन**मीनाक्षी अरोरा* अंततः जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, - - Read more -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20091231/08e81098/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/cgi-bin/mailman/listinfo/hindimedia