From ravikant at sarai.net Sat Aug 1 16:37:48 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Aug 2009 16:37:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSf4KWA?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KWH4KSo4KWN4KS4IOCkleClieCksuClh+CknCDgpK7gpYfgpIIg?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KS44KWN4KSk4KS+4KSo4KSX4KWL4KSI?= Message-ID: <200908011637.48746.ravikant@sarai.net> Dastangoi performance at St Stephen's College, Delhi University. Tuesday 3rd August at 1.30 pm Performers- Mahmood Farooqui and Danish Husain Sets and Costumes-Anusha Rizvi From vineetdu at gmail.com Sun Aug 2 09:29:28 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 2 Aug 2009 09:29:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSQ4KS14KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KWHLeCkl+CkvOCkvuCksuCkv+CkrCDgpK7gpYfgpIIg4KSo4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KS14KSwIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpJXgpYsg4KS54KWLIOCkleCljQ==?= =?utf-8?b?4oCN4KSv4KS+IOCkl+Ckr+CkviDgpKXgpL4=?= Message-ID: <829019b0908012059n518d7cafrafb4d204aabcb2e1@mail.gmail.com> युवा होने के नाते ये देख-सुन कर आपको भी हैरानी हो रही होगी कि हिंदी साहित्य के अमिताभ बच्चन माने जानेवाले आलोचक नामवर सिंह की जिस बात पर युवाओं से खचाखच भरे *ऐवाने ग़ालिब* में हंगामा हो जाना चाहिए था कि साहब आप क्या बात कर रहे हैं, नामवरजी ये आप क्या कह रहे हैं, ऐसा कैसे कह सकते हैं नामवरजी, अफ़सोस कि इस जमात के अधिकांश युवाओं ने स्तुति करते हुए ताली पीटने का काम किया। जिस ऐवाने में युवाओं की ओर से नामवर सिंह के ख़‍िलाफ प्रतिरोध के स्वर फूटने चाहिए थे, उसमें गदगद हो जाने का एक विस्मय कर देनेवाला नज़ारा सामने था। किसी के बुरी तरह लताड़े और लतियाये जाने के बीच भी वो कौन-सी मनःस्थिति होती है कि इंसान इससे तृप्त होता है, आनंद लेता है और श्रद्धा भाव से लतियाये जानेवाले की स्तुति करने लग जाता है, तीन साल तक काव्यशास्त्र तक पढ़ने के बाद भी न तो हमें उस स्थिति से कभी पाला पड़ा और न ही कभी उस रस का हमने पहले कभी स्वाद चखा। पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- http://mohallalive.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090802/65455889/attachment-0001.html From pkray11 at gmail.com Sun Aug 2 13:18:35 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Sun, 2 Aug 2009 13:18:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWM4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KS+LeCkquCljeCksOCkuOCkguCklyDgpKrgpLAg4KSV4KWB4KSb?= Message-ID: <98f331e00908020048t1f6cf2c8w7607b963194993ee@mail.gmail.com> आजकल मोहल्ले में लौंडेबाजी पर चर्चा गर्म है. भाई अभिषेक और विनीत ने नामवर सिंह के 'बयान' पर रोचक आलेख लिखा है. यारों को बड़ा मज़ा आया. हिंदी का हो के भी यार 'हिंदी' के आउटसाइडर रहे. साहित्य का आनंद लेते हैं, पर टिपण्णी का 'हक़' ओफ्फिसिअली तो उनका रहा है जो हिंदी विभागों या छापाखानों से गुंथे हैं. पर दोस्तों ने ऐसा उकसाया है कि कुछ कहने का मन कर रहा है. बात प्रसंग से ही शुरू करें. यारों का मानना है कि 'हिंदी' की एक गंभीर समस्या पर एक गंभीर व्यक्ति ने निहायत ही अगम्भीर तरीके से कहा है. लौंडे पालना न तो 'हिंदी' के लिए और न ही हिंदीपट्टी के समाज और राजनीति के लिए कोई नई बात है. ध्यान रहे, इस बात के जितने आशय हो सकते हैं, उन सबकी ओर यारों का इशारा है. जानकारों का कहना है कि हिंदी विभागों, हिंदी मीडिया, प्रकाशन आदि में अगर कुछ पाना है तो लौंडा बनना 'ही' होता है. और इससे तो सभी सहमत होंगे कि हिंदीपट्टी में मोक्ष का मतलब 'पाना' होता है. आपने पा लिया, धन्य हुए. बाप की प्रतिष्ठा बढ़ी. असफलता का कलंक मिटा. यमुना किनारे या द्वारका में रिहायश का पारलौकिक सुख हासिल हुआ. थोड़ा जम गए तो आपको भी लौंडे पालने का अवसर और अधिकार. लिखने-बोलने का विचारधारात्मक संतोष अलग से. बतौर बोनस 'राष्ट्रभाषा' की सेवा का 'राष्ट्रवादी' गौरव. अनुभव हासिल कीजिये और आयोगों-अकादमियों की सदस्यता की जुगत लगाईये. आपसी नूर-कुश्ती कीजिये और चर्चा में बने रहिये. बहस के नाम पे लिखिए कौन दारुबाज़ है और फुसफुसाइए कि कौन किसके साथ.... याद कीजिये, नामवर की पचहतरवीं वर्षगांठ के बाद की जनसत्ता की बकवास-श्रृंखला. याद कीजिये, अजय तिवारी का लेख पुरुषोत्तम अग्रवाल के बारे में. पता कीजिये, कौन कहाँ नौकरी पा रहा है. गौर से देखिये, 'हिंदी' के मठाधीश और उनके लौंडे सामंतवाद से लड़ रहे हैं. जेएनयू में कोई लड़का शिक्षकों के बारे में अपने सहपाठियों के विचारों की ऑडियो बनता है और गुरुजनों के समक्ष रखता है. एम फिल में दाखिले की लिस्ट में से एक को छोड़ सबका नाम गायब मिलता है. चर्चा तो ऐसे मठाधीशों की भी रही जो ससुर-दामाद जोड़ी बना के खेले. सच या झूठ, लैपटॉप्स भी गायब हुए. अलोक राय की किताब Hindi Nationalism आई तो 'हिंदी' ने उसका नोटिस भी नहीं लिया. 'हिंदी' की बीमारियों का बढ़िया विश्लेषण है इस किताब में. टीवी में भी यही हाल है. जब कोई स्थापित व्यक्ति इस चैनल से उस चैनल जाता है तो लौंडों को भी ले जाता है जिसे आमतौर पे 'टीम' कहते हैं. ख़ैर सब वही बातें हैं. और अंत में प्रसंग पर लौटते हुए यारों का यही कहना है कि 'हिंदी' के बूढ़े पगला गए हैं और युवा मलाई की जुगत में लगे है. ये tragic irony 'हिंदी' की ही नहीं, पूरे हिंदी पट्टी की है. शायद देश की भी. प्रकाश कुमार राय www.cinemela.youthv.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090802/7b743f60/attachment.html From miyaa_mihir at yahoo.com Sun Aug 2 17:07:24 2009 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Sun, 2 Aug 2009 04:37:24 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSf4KWA?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KWH4KSo4KWN4KS4IOCkleClieCksuClh+CknCDgpK7gpYfgpIIg?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KS44KWN4KSk4KS+4KSo4KSX4KWL4KSI?= In-Reply-To: <200908011637.48746.ravikant@sarai.net> Message-ID: <354403.68507.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> Tuesday or 3rd august ? --- On Sat, 8/1/09, Ravikant wrote: From: Ravikant Subject: [दीवान]स्टीफ़ेन्स कॉलेज में दास्तानगोई To: deewan at sarai.net Date: Saturday, August 1, 2009, 4:37 PM Dastangoi performance at St Stephen's College, Delhi University. Tuesday 3rd August at 1.30 pm Performers- Mahmood Farooqui and Danish Husain Sets and Costumes-Anusha Rizvi _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090802/180cc896/attachment.html From mahmood.farooqui at gmail.com Mon Aug 3 08:25:37 2009 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Mon, 3 Aug 2009 08:25:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSf4KWA?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KWH4KSo4KWN4KS4IOCkleClieCksuClh+CknCDgpK7gpYc=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkvuCkuOCljeCkpOCkvuCkqOCkl+Cli+CkiA==?= In-Reply-To: <354403.68507.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> References: <200908011637.48746.ravikant@sarai.net> <354403.68507.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> Message-ID: 3rd august, jo darasal monday hai tuesday nahi...sorry 2009/8/2 mihir pandya > Tuesday or 3rd august ? > > --- On *Sat, 8/1/09, Ravikant * wrote: > > > From: Ravikant > Subject: [दीवान]स्टीफ़ेन्स कॉलेज में दास्तानगोई > To: deewan at sarai.net > Date: Saturday, August 1, 2009, 4:37 PM > > > Dastangoi performance at St Stephen's College, Delhi University. > > Tuesday 3rd August at 1.30 pm > > Performers- Mahmood Farooqui and Danish Husain > > Sets and Costumes-Anusha Rizvi > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090803/65d90e8b/attachment.html From reksethi at gmail.com Mon Aug 3 13:15:54 2009 From: reksethi at gmail.com (rekha sethi) Date: Mon, 3 Aug 2009 13:15:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Harper Hindi invite In-Reply-To: <1c926b7c0908030031x69f13cdv66496493c53a76c2@mail.gmail.com> References: <71696FAAA62FC64A9C300E3E4349D1A23F73895FFE@DELF26EXCLUS.ITGNET.COM> <1c926b7c0908030024j2a06af88t8a4ced2a895d2514@mail.gmail.com> <1c926b7c0908030031x69f13cdv66496493c53a76c2@mail.gmail.com> Message-ID: <1c926b7c0908030045l241d9c4encbe37e4f6c742806@mail.gmail.com> दीवान के सभी साथियों के लिए निमंत्रण रेखा सेठी रेखा उप्रेती ---------- Forwarded message ---------- From: rekha sethi Date: Mon, Aug 3, 2009 at 1:01 PM Subject: Fwd: Harper Hindi invite To: amishaaneja at hotmail.com, aroysaha at hotmail.com, asthanaval at gmail.com, Sugeeta Roy Choudhury , shubhda chaudhary < shubhda.chaudhary at gmail.com>, charugoel84 at gmail.com, Kalyani Dutta < kalidutta at gmail.com>, "tomoko(takaochi) kikuchi" , indlit at gmail.com, jnanpith at satyam.net.in, jain.kirtis at yahoo.com, kirti jain , sukrita paul kumar , Satchidanandan Koyamparambath , kishankaljayee at gmail.com, MANSI RASTOGI , meenakshi_khanna at hotmail.com, meenukpr70 at gmail.com, Uday Prakash < udayprakash05 at gmail.com>, prabhakarshrotriya at yahoo.co.in, savita.singh6 at gmail.com, suryanath singh , tinimini51 at rediffmail.com, umagupta.delhi at gmail.com, vinsinha at gmail.com Dear All Special invitation for all of you Rekha Sethi Rekha Upreti ---------- Forwarded message ---------- From: rekha sethi Date: Mon, Aug 3, 2009 at 12:54 PM Subject: Fwd: Harper Hindi invite To: aroysaha at hotmail.com, meenukpr70 at gmail.com, MANSI RASTOGI < mansi1012001 at yahoo.co.in>, meenakshi_khanna at hotmail.com, vinsinha at gmail.com, "River ..." , snehmahajan41 at gmail.com, "tomoko(takaochi) kikuchi" ---------- Forwarded message ---------- From: Minakshi Thakur Date: Mon, Aug 3, 2009 at 10:52 AM Subject: Harper Hindi invite To: rekha sethi , sameera jain Cc: rekha sethi , Shuka Jain < shuka.jain at harpercollins-india.com>, riti jain dhar Please forward it to all your friends. Thanks. Minakshi ------------------------------ *From:* Amrita Talwar *Sent:* Friday, July 31, 2009 11:32 AM *To:* Karthika V K; Krishan Chopra; Geetanjali Sharma; Minakshi Thakur; Saugata Mukherjee; Girija Padmanabhan; Vimal Kumar; Madan; Arvind Gupta; J. Ganguly; Amit Kumar Sharma (HC); Lipika Bhushan; Mohit Mehta; Promila Rawat; Sheema Mookherjee; Amit Agarwal (HCI); Shuka Jain; Pradipta Sarkar; Deverkonda Sainath; Preet Khanna (HCI); Neelini Sarkar; Purshotam Khurana; Shantanu Ray Chaudhuri; Rajeev Sethi; G Siddhartha; N S. Krishna; P.M. Sukumar; Ratna Joshi; Lipika Bhushan; rohit at iws.in; Indranil Roychowdhury *Subject:* Harper Hindi invite * * ------------------------------ For up-to-the-minute coverage of news and entertainment in English, visit http://www.indiatoday.in/ and in Hindi, visit http://www.aajtak.in/ This e-mail communication and any attachments may be privileged and confidential to Living Media India Limited and are intended only for the use of the recipients named above. If you are not the intended recipient, please do not review, disclose, disseminate, distribute or copy this e-mail and attachments. If you have received this email in error, please delete the same along with all attachments there to and notify us immediately at ithelpdesk at intoday.com. -- rekha sethi -- rekha sethi -- rekha sethi -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090803/e1b92222/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 42712 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090803/e1b92222/attachment-0001.jpe From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Aug 3 14:02:57 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 3 Aug 2009 14:02:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSd4KWC4KSg4KWA?= =?utf-8?b?IOCkluCkvOCkrOCksOCli+CkguKAmSDgpKrgpLAg4KSJ4KSb4KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KWAIOKAmOCkneClguCkoOClgCDgpJ/gpYDgpIbgpLDgpKrgpYDigJk=?= Message-ID: <196167b80908030132i2fb551el6bb00c1e156780f7@mail.gmail.com> *झूठी ख़बरों’ पर उछलती ‘झूठी टीआरपी’* टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट बड़ी ताक़तवर चीज़ है, वरना किसकी मजाल थी, जो राखी का बीच चैनल पर स्वयंवर करवा देता। ‘सच का सामना’ सेक्स का सामना हो जाता, घने जंगलो में सुंदर कन्याओं को लाकर खड़ा कर दिया जाता और वे आकर आधे-अधूरे कपड़ों में कैमरे के सामने खड़ी भी हो जातीं। आप सोचते होंगे सब कुछ नवयौवनाओं के साहस की वजह से संभव हो पा रहा है। नहीं जी, नहीं। यह सब साहस का नहीं साहब, टीआरपी का खेल है। ‘खबरों की दुनिया’ में रहना है तो ‘रजत शर्मा’ बन जाओ प्यारे! सुबह-शाम टीआरपी के गुण गाओं प्यारे! नहीं तो दूसरे चैनल की टीआरपी जीने नहीं देगी और विज्ञापन देने वाली एजेंसियां खाने नहीं देगी – पीने नहीं देगी!!’ यही टीआरपी का सीधा-सा फंडा है। यह टीआरपी तय करने वाली एजेंस‍ियों का घाल-मेल आज तक मेरी समझ में नहीं आया। उन पार्टियों का ज़‍िक्र अक्सर सुनता रहा हूं, जो टीआरपी बेहतर होने पर पत्रकारों को चैनल प्रबंधन की तरफ से मिलती हैं। वास्तव में टीआरपी लॉटरी लगने जैसा ही है। किस कार्यक्रम की टीआरपी ऊपर जाएगी, यह बता पाना अधिकतर मामलों में वरिष्ठ पत्रकारों के लिए भी मुश्किल होता है। इसलिए इंडिया टीवी जैसा चैनल किसी प्रकार के असंमजस में पड़ने की जगह, कभी मस्तराम मार्का तन दिखाऊ कहानियां परोसता है और कभी मनोहर कहानियां हो जाता है और कभी डेबोनायर। अब दर्शक बच कर जाएंगे कहां? पिछले दिनों खली ने खलबली मचायी। स्टार न्यूज़ ने अपना विशेष 24 घंटे 24 रिपोर्टर जैसा कार्यक्रम रोक कर खली को लाइव दिखाया। उस चैनल में काम कर रहे कई पत्रकारों को लगा, यह एक ग़लत निर्णय है। पिछले एक सप्ताह से दर्शक खली को देख-देख कर बोर हो गये होंगे। लेकिन टीआरपी रिपोर्ट ने वाया खली स्टार को नंबर वन घोषित किया। भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी संचार एवं पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय से जुड़े *पुष्पेंद्र पाल सिंह* ने अपने एक मित्र पत्रकार की कथा सुनायी थी, जो एक राष्ट्रीय चैनल में काम करता है और भोपाल में उसकी छवि गंभीर पत्रकार की रही है। एक दिन सिंह सर को भागता हुआ मिला, उन्होंने औपचारिकता वश पूछ लिया, ‘कोई बड़ी खबर है क्या?’ पत्रकार महोदय का जवाब काबिले गौर था। वे अपने चैनल के लिए एक ‘एक्सक्लूसिव’ खबर लाने जा रहे थे। खबर थी, बाघिन की आंखों का ऑपरेशन। यह ख़बर, ख़बर के लिहाज से जैसी भी हो, लेकिन टीआरपी के लिहाज से यह नंबर वन है। विभिन्न संगठनों के धरना-प्रदर्शन के दौरान अच्छे विजुअल्स के लिए इलैक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों द्वारा प्रदर्शन करने वालों को उकसाते हुए देखा जाना अब आम सी बात हो गयी है। टीआरपी के ही संदर्भ में मुज़फ्फरपुर के जनसंपर्क अधिकारी गुप्ताजी की बात भला कैसे भूल सकता हूं, जिन्होंने उस खबर की खाल निकाली, जिसमें बिहार के एक स्थानीय चैनल ने रातों रात हर पत्ते पर ‘राम’ लिखे होने की ख़बर दिखायी थी। गांव में मेला लग गया। गुप्ता जी ने जब पेड़ की सबसे ऊपरी शाख से पत्ते मंगाए तो राम नाम ग़ायब। यह कैसा चमत्कार था, जिसमें राम का नाम नीचे वाले पत्तों पर लिखा था लेकिन ऊपर वाले पत्तों पर नहीं। गुप्ताजी ने पता किया तो जानकारी मिली, यह सब उस पत्रकार और कुछ गांव वालों की मिलीभगत से हुआ था। इसके बावजूद इस झूठी ख़बर पर भी टीआरपी मिली। एक बात और, वह पत्रकार आजकल बिहार के चैनल से निकल कर एक राष्ट्रीय चैनल का प्रतिनिधि हो गया है। *विकास* भीम राव अंबेदकर कॉलेज से निकल कर आज एक अच्छे चैनल में काम करता है। वह खुद को पत्रकार नहीं कहता। लंबे समय तक उसने एक चैनल के लिए भूत-पिशाच ढूंढने का काम किया। इसमें उसे पत्रकारिता नज़र नहीं आती। वह इसे खालिस नौकरी ही कहता है। कलिमपोंग (नई जलपाईगुड़ी), वहां हिल वेलफेयर एसोसिएशन की अध्यक्ष *शोभा क्षेत्री* ने बताया, उनके यहां के एक पुराने किलेनुमा मकान को जो पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकता था, एक चैनल वाले ने भूत बंगला कह कर दिखा दिया। यह ख़बर चैनल देखने वालों के लिए भले रोमांचक हो लेकिन कलिमपोंग के लोगों के लिए हास्यास्पद थी। ‘झूठी खबरों’ का यह सारा खेल ‘झूठी टीआरपी’ बटोरने के लिए खेला जा रहा है। इस टीआरपी को बढ़ाने-घटाने में उन रिमोट कंट्रोलों का एक फीसदी भी योगदान नहीं है, जो भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों से नियंत्रित होती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090803/9b70e57c/attachment.html From pkray11 at gmail.com Mon Aug 3 17:44:29 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Mon, 3 Aug 2009 17:44:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSs4KWA4KSs?= =?utf-8?b?IOCkpOCkqOCkteClgOCksCDgpJXgpYcg4KSo4KS+4KSf4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkquCljeCksOCkpOCkv+CkrOCkqOCljeCkpw==?= Message-ID: <98f331e00908030514n67c9a055nc75522895f2dc3b5@mail.gmail.com> कल जब ख़बर आयी कि हबीब साहेब का प्रसिद्ध नाटक चरणदास चोर पर छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया है तो यारों को बड़ा मज़ा आया. आखिर इस महान आदमी को फासिस्टों ने भी श्रद्धांजलि दे ही दी. वाणी प्रकाशन से यह नाटक 2004 में छ्पा था. रिपोर्ट है कि ऐसा सतनामी संप्रदाय के विरोध के कारण किया गया है. जैसा कि राज्य के शिक्षा सचिव ने कहा है कि प्रतिबन्ध के साथ ही पुस्तकालयों से इस किताब को हटा लिया जायेगा. अकबर इलाहाबादी का शेर याद आ रहा है: हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं इस निर्णय का विरोध तो होगा ही और मजबूती से होना चाहिए. अफ़सोस की एक और बात यह है कि दिल्ली के आर्ट समिट में इस बार भी संघियों के डर से मक़बूल फ़िदा हुसैन की कृतियाँ शामिल नहीं की जाएँगी. फिलहाल यारों ने तय किया है कि नाटक की एक प्रति श्री रमण सिंह के परिवार को स्वतंत्र दिवस के अवसर पर भेंट के तौर पर भेज दें. प्रकाश कुमार राय www.cinemela.youthv.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090803/494c1de7/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Aug 4 10:37:17 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 4 Aug 2009 10:37:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkquClgOCkoCDgpJXgpYsg4KSP4KSu4KS44KWA4KSh4KWAIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpuClgOCkteCkvuCksCDgpK7gpKQg4KSs4KSo4KS+4KSH4KSP?= =?utf-8?b?IOCksOCkguCkl+CkqOCkvuCkpeCknOClgCAh?= Message-ID: <829019b0908032207mfd708efuf74e05b434db346c@mail.gmail.com> हंस की संगोष्ठी में नामवर सिंह के सावधान रहो इन लौंडों से कहे जाने के बाद मेरे सहित कई लोगों को इस बात से हैरानी हुई कि हमारे आलोचक का जिगर औऱ नजरिया इतना छोटा कैसे हो गया? अजय नावरिया औऱ राजेन्द्र यादव के लिए अपने-अपने राहुल जैसे मुहावरे का प्रयोग करने की जरुरत क्यों पड़ गयी? मोहल्लाlive परऐवाने-ग़ालिब में नामवर सिंह को हो क्‍या गया था? लिखे जाने के बाद रंगनाथ सिंह ने मेरे उपर राजेन्द्र यादव का आदमी औऱ हंस के इनहाउस लोगों की जुबान बोलने का लेबल लगाने में तत्परता दिखायी। जिस व्यक्तिवाद के प्रतिरोध में हमने बात करनी शुरु की,हम खुद ही कैसे इसके शिकार होते चले गए,आप भी पढ़ें और राय दें कि क्या हिन्दी मानसिकता कुछ इसी तरह की है कि तालाब पर विमर्श के लिए जुटनेवाले लोग अंत में अपने-अपने हिस्से का कुआं घेरने में लग जाते हैं। रंगनाथ भाई इतनी गंभीरता से पोस्ट पढ़ने के लिए शुक्रिया। मुझे इस बात की आशंका लिखने के पहले से ही थी कि हंस की संगोष्ठी में जो कुछ भी हुआ और नामवर सिंह ने जो बातें हमलोगों के सामने रखीं, अगर मैं उससे असहमत होते हुए कुछ लिखता हूं, तो लोग (जिसमें कि अब आप शामिल हैं) मेरे ऊपर हंस और राजेंद्र यादव का आदमी होने का लेबल लगा देंगे। इन सबके बावजूद मैंने इस पर लिखा, क्योंकि मुझे पता है कि इस तरह के स्टीगर हवा और पानी के संपर्क में आते ही बहुत जल्द ही उखड़ जाते हैं। मुझे बहुत अफ़सोस नहीं है कि मैं अपनी बात जिस संदर्भ में करना चाह रहा हूं, आपने उससे ठीक उलट अर्थ लिया बल्कि लिया ही नहीं, अर्थ ही थोप डाला जिसे कि अरुंधति रायरिप्लेसिंग द मीनिंग ऑफ द वर्ड कह रही थीं। इसमें आपका कोई दोष भी नहीं है क्योंकि जिस परिवेश और औजार से हम निर्मित हुए, साहित्य की समझ जिस ढंग से हमारी बनी है, उसमें व्यापक संदर्भ के आते ही हम घबरा जाते हैं। हमारे हाथ में अभी तक तोड़ती पत्थर वाली साइज़ की छेनी और हथौड़ा है जबकि अब हमें आये दिन पहाड़ों से टकराना पड़ जाता है और हम तब निरस्त हो जाते हैं। कहने को तो हमारी साहित्यिक समझ और बौद्धिकता का विकास प्रकृति, मानवीय संवेदना और दुनिया के तमाम विचारों को लेने से हुआ है, जिसका कि कैनवास बहुत बड़ा है लेकिन सच्चाई ये है कि हम एक बड़े जंगल में एक ऐसा मचान बना कर रह रहे हैं, जहां कुछ ही लोग उस पर बैठे हैं, दिन-रात गप्प-शप करते हैं, हुक्का-सुक्का पीते हैं और बीहड़ जंगल में रहने के महानताबोध से अकड़े रहते हैं। दुनिया को बताते फिरते हैं कि हम जंगल में रहते हैं और कितना रिस्क कवर करते हैं। जबकि मेरी तरह इतना तो आप भी जानते होंगे कि जिस सेफ ज़ोन में रहकर हिंदी के हम जैसे अधिकांश लोग काम कर रहे हैं, वो खुशफहमी के अलावा कुछ भी नहीं है। हमने प्रकृति, जंगल और मानवीय संवेदना से भरे साहित्य के इस बड़े कैनवास को कितना छोटा कर लिया है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि नामवर सिंह को बोले चार दिन हो गये और अभी तक हम उसी को पकड़ कर बैठे हैं। ऐसा लगता है जैसे सचमुच हमारे पास कोई दूसरा काम नहीं है। मुंबई और नोएडा फिल्म सिटी में काम करनेवाले मेरे दोस्त मेरी इस हालत पर अब हंस रहे हैं। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि साहित्यिक बहसें करने और रचने के नाम पर साहित्य का एक बड़ा हिस्सा व्यक्तिगत स्तर की लल्लो-चप्पो और हील-हुज्‍ज़तों में जाया कर दिया गया है, जिसका कि एक समय के बाद कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इस नजरिए से अगर हम साहित्य को देखना शुरू करें, तो हमें अफ़सोस भी होगा। कहने को तो साहित्य की इतनी बड़ी दुनिया, जिसमें इंद्रसभा से लेकर अमेरिका का साम्राज्यवाद तक समा जाए, लेकिन सच्चाई देखिए। महज दो सौ से ढाई सौ चेहरों के बीच पूरा का पूरा हिंदी साहित्य सिमट कर रह गया है। हम इन्हीं लोगों की बातों और गतिविधियों के बीच फंसे रह जाते हैं। इसमें बिडंबना है कि इतनी बड़ी दुनिया होने पर भी हम छत्तीसगढ़ के भीतर घुस नहीं पाते, जाकर कुछ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। दिल्ली में बैठ कर चार दिन तक नामवर सिंह के पक्ष-विपक्ष में कबड्डी खेलना पसंद करते हैं लेकिन भोपाल, पटना में मर रहे किसी रचनाकर्मी को देख आने का जज्बा पैदा नहीं कर पाते। अपनी पोस्ट में मैं यही तो बताना चाह रहा था कि साहित्य के नाम पर हम कितने व्यक्तिवादी हो जाते हैं। नामवर सिंह जैसा आलोचक युवा का मतलब राहुल का मुहावरा इस्तेमाल किये बिना समझ नहीं पाते और युवा रचनाकार का मतलब सिर्फ अजय नावरिया से लगा लेते हैं। मैं अपनी उसी मानसिकता पर तो बात कर रहा था, जहां हिंदी समाज एक बड़े संदर्भ को कैसे संकुचित करता जाता है। अरुंधति राय ने भाषा के सवाल पर जो बात कही, उसकी चर्चा न करते हुए हम आलोचक नामवर सिंह की चुटकुलेबाज़ी में फंस कर रह जाते हैं क्योंकि उसमें हमारी व्यक्तिगत स्तर पर की जानेवाली चुगली का सार्वजनिक रूप दिखायी दे रहा था, हमें मज़ा आ रहा था। क्या हम साहित्य पढ़ते हुए चुगलखोर होते चले जाते हैं। रंगनाथ भाई, विश्वविद्यालय सहित अब तक मैंने लिखने-पढ़ने के स्तर पर जितना भी समय बिताया है, उस आधार पर इतनी समझदारी तो बन ही गयी है कि हिंदी समाज में जीने-खाने और बने रहने के लिए आपको अपनी पीठ पर किसी न किसी का तो लेबल लगाना ही होगा। बहुत लंबे समय तक आपकी पीठ कोरी नहीं रह जाएगी। मेरी पीठ अब तक कोरी है, तो इसका मतलब कतई नहीं है कि मैं कोई महान किस्म का लिटरेचर प्रैक्टिसनर हूं। बल्कि सच बात तो ये है कि अब तक मैंने इसकी शिद्दत से ज़रूरत महसूस नहीं की है। जिस दिन करूंगा, उस दिन ज़रूर लगा लूंगा। इस बीच आप जैसे लोगों से बातचीत होती रही, तो ज़रूरत पड़ने पर आपसे राय भी लूंगा। लेकिन क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि मेरे ऊपर राजेंद्र यादव और हंस से जुड़े लोगों का लेबल लगाने का अधिकार किसने दिया। क्या साहित्य में हम इश्तहारों, लेबलों, स्टीकरों से अटी-पड़ी पीठ देखने के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमें कोरी पीठ आंखों में चुभने लग जाती है। क्या नामवर सिंह या फिर किसी भी दूसरे आलोचक की बात से असहमत होने के लिए हंस, राजेंद्र यादव या किसी दूसरे संस्थान और व्यक्ति का लेबल लगाना अनिवार्य है। बिना इसके हम अपनी बात नहीं कर सकते और अगर सचमुच नहीं कर सकते जिसकी घोषणा आपने अपनी पोस्ट में सरोगेट रूप में कर दी है तो क्या हमें इसके विरोध में कुछ काम नहीं करने चाहिए। बजाय इसके कि हम एक पोस्टर के लगने और दूसरे पोस्टर के उखड़ने का इंतज़ार करते रहें और हम अपनी इसी भूमिका को साहित्यिक भूमिका मान कर बौद्धिक होने और कहलाने का क्लेम करने लग जाएं, जैसा कि अधिकांश लोग करते आये हैं। आज आपको सुविधा हो गयी कि मैंने नामवर सिंह से असहमति जतायी नहीं कि दूसरी तरफ मेरी पीठ पर राजेंद्र यादव का लेबल चिपकाने के लिए मौक़ा मिल गया। संभव हो ये सुविधा आपको हमेशा मिलती रहे, क्योंकि कोई न कोई तो आयोजक होगा और जब हमें असहमति होगी, मैं लिखूंगा ही। इस हिसाब से आपको भविष्य में भी मुझे संघी, व्यक्तिवादी, कुंठित, फ्रस्ट्रेड और भी बहुत तरह के लेबल लगाने को मिल जाएंगे। लेकिन एक स्थिति ऐसी भी बनती है कि जब नामवर सिंह एक ऐसी किताब पर बोलने आते हैं, जिसे कि उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। केवल इतनी-सी जानकारी के आधार पर 25 मिनट तक उस पर बोल जाते हैं कि इस किताब को दिल्ली की झुग्गियों में रहनेवाले अंडर मैट्रिकुलेशन के बच्चों ने मिल कर लिखी है। नामवर सिंह को किताब के शीर्षक पर आपत्ति होती है, उन्हें ये नाम धुंधला-धुंधला सा-नज़र आता है। आलोचक फिर भाषा पर बात करते हैं, इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कि इसे किस बैग्ग्राउंड के बच्चों ने कितनी शिद्दत से लिखा है। मैंने लोकार्पण के पांच घंटे बाद ही दीवान (सराय, सीएसडीएस के मेलिंग ग्रुप) पर लिखा, नामवर सिंह से घोर असहमति। बच्चे एक बुजुर्ग के मुख से भाषा-वाषा पर गंभीर बात सुनकर अवाक हो गये थे। रंगनाथ भाई, मैंने उस समय भी नामवर सिंह के रवैय पर असहमति जतायी। बताइए, आप होते तो कौन सा लेबल लगाते। ये भी संभव है कि हवा-पानी से ये लेबल और स्टीगर उखड़ते चले जाएं और आप नया लगाते चले जाएं। आप बिल्कुल नहीं थकें। लेकिन मैं आपसे अपील करता हूं कि प्लीज़ आप मेरी पीठ को एमसीडी की दीवार मत बनाइए। ऐसा करना आपके लिए जितना सुविधाजनक है, मेरे लिए उतनी ही तक़लीफ़देह और शायद हिंदी के नाम पर होनेवाले विमर्श के लिए ख़तरनाक भी। देखिए न, ये कितनी बड़ी विडंबना है कि हममें से दोनों लोग व्यक्तिवाद के विरोध में लिख रहे होते हैं। हमें नामवर सिंह में व्यक्तिवाद की भनक लगी और आपको हंस में बोलनेवाले कुछ लोगों में। लेकिन अब जब हम लिख रहे हैं तो आप अपनी चिठ्ठी के लगभग हर पैरे में विनीत और विनीत कुमार लिख रहे हैं और मैं रंगनाथ भाई, रंगनाथ भाई किये जा रहा हूं। इससे अधिक और व्यक्तिवादी कैसे हुआ जा सकता है? हम क्यों साहित्य जैसे तालाब पर विमर्श के लिए जुटते हैं और अंत तक आते-आते उसमें मौजूद पानी, उसकी सड़ांध और पलनेवाले लोगों के बारे में बात करने के बजाय अपने-अपने हिस्से का कुंआ घेरने में लग जाते हैं। क्या हम इस बात की गुंजाइश पैदा नहीं कर सकते कि हम बेबाक तरीके से अपनी बात रख सकें, मेरी पीठ कोरी रह जाए और आपको बार-बार स्टीगर चिपकाने से मुक्ति मिल जाए। मुश्किल तो है लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है। बहुत हो गया। जिस तरह से अपन लोग बात कर रहे हैं, ये बहुत ही पर्सनल मामला बनता जा रहा है। इसे पढ़नेवाले जो लोग हमें जानते हैं, वो ज़रूर गरिआएंगे – स्साला, यहां दिखाने के लिए एक दूसरे पर पिल पड़े हैं जबकि मंडी हाउस में एक-दूसरे के पैसे से समोसे खाने के लिए खींचतान करेंगे। ये इनहाउस विज्ञापन हो जाएगा रंगनाथ भाई, कोशिश करते हैं कि हम औरों की तरह इससे बचें और अपना नाम चमकाने के बजाय मुद्दों को व्यापक और सही संदर्भ में समझें… है कि नहीं। मोहल्लाlive पर प्रकाशि -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090804/c1ca4fb5/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Aug 4 14:20:40 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Tue, 4 Aug 2009 14:20:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleClgCDgpafgpabgpaYg4KS44KSw4KWN4KS14KS24KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KS34KWN4KSgIOCkquCljeCksOClh+CkriDgpJXgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSk4KS+?= Message-ID: <196167b80908040150j1f93ea2ckfff42ca523884a8f@mail.gmail.com> अनुभूति पत्रिका के लिये श्री जगदीश व्योम जी द्वारा संपादित ’हिन्दी की १०० सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताओं का संकलन’ यहां पढ सकते है : http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/prem_kavitayen/index.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090804/bb29dafe/attachment.html From anant7akash at gmail.com Tue Aug 4 20:55:16 2009 From: anant7akash at gmail.com (anant7akash) Date: 4 Aug 2009 15:25:16 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= anant7akash invites you to join Zorpia Message-ID: <20090804152516.30963.qmail@zorpia.com> Hi ! Your friend anant7akash from delhi India, just invited you to his/her online photo albums and journals at Zorpia.com. So what is Zorpia? It is an online community that allows you to upload unlimited amount of photos, write journals and make friends. We also have a variety of skins in store for you so that you can customize your homepage freely. Join now for free! Please click the following link to join Zorpia: http://in.signup.zorpia.com/signup?invitation_key=200907e1830edc48a26baf5437621747&referral=anant7akash This message was delivered with the anant7akash's initiation. If you wish to discontinue receiving invitations from us, please click the following link: http://in.signup.zorpia.com/email/optout/Deewan at mail.sarai.net -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090804/02631a7c/attachment.html From pkray11 at gmail.com Wed Aug 5 11:23:46 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Wed, 5 Aug 2009 11:23:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KSo4KWH?= =?utf-8?b?4KSCLSDgpKTgpYHgpLfgpL7gpLAg4KSn4KS14KSyIOCkleClgCDgpI8=?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleCkteCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: <98f331e00908042253o20aae51bv693e94357d1918a7@mail.gmail.com> आंगन में बंधे खम्भे से लट सी उलझ जाती हैं बहनें और दर्द की एक सदी खुली छत की गर्म हवा में कबूतर बन उड़ जाती है। वे बाप की छप्पन साल पुरानी कमीज़ हैं वे माँ के बचपन की यादें हैं जो उठती हैं हर शाम चूल्हे के धुएँ संग और उड़तीं हैं पतंग बन। वे चुनती हैं प्याली भर चावल कि ज़िन्दगी को बनाया जा सके अधिक से अधिक साफ़ और सफ़ेद। वे बनती हैं आंगन से गली और गली से मैदान जहाँ रात की चादर में बुलबुले सी फूटती है भोर और देखते ही देखते धरती की माँ बन जाती हैं बहनें। -तुषार धवल( http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%A7%E0%A4%B5%E0%A4%B2 ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090805/4ddecab8/attachment.html From RAVISH at NDTV.COM Wed Aug 5 12:47:21 2009 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Wed, 5 Aug 2009 12:47:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [?????]?????- ????? ??? ?? ?? ????? References: <98f331e00908042253o20aae51bv693e94357d1918a7@mail.gmail.com> Message-ID: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A100F50E0@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> bahut sundar ________________________________ From: deewan-bounces at mail.sarai.net on behalf of prakash ray Sent: Wed 8/5/2009 11:23 AM To: Deewan at mail.sarai.net Subject: [?????]?????- ????? ??? ?? ?? ????? ???? ??? ???? ????? ?? ?? ?? ??? ???? ??? ????? ?? ???? ?? ?? ??? ???? ?? ?? ???? ??? ??? ????? ?? ??? ???? ??? ?? ??? ?? ????? ??? ?????? ????? ??? ?? ??? ?? ???? ?? ????? ??? ?? ???? ??? ?? ??? ?????? ?? ???? ??? ?? ?????? ??? ???? ??? ?? ????? ??? ?????? ?? ???? ?? ???????? ?? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ???? ?? ?????? ?? ???? ??? ???? ?? ??? ?? ??? ?? ????? ???? ??? ?? ???? ??? ??????? ?? ????? ?? ??? ?? ????? ?? ????? ???? ?? ??? ?? ???? ??? ?????? -????? ??? (http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%A7%E0%A4%B5%E0%A4%B2) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090805/f2964cd0/attachment.html From uchaturvedi at gmail.com Thu Aug 6 13:24:17 2009 From: uchaturvedi at gmail.com (umesh chaturvedi) Date: Thu, 6 Aug 2009 13:24:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= padhe - gune Message-ID: <8a9e78f0908060054u78938707i7d391a3bf0c9a2f2@mail.gmail.com> ek nazar idhar bhi -- उमेश चतुर्वेदी -------------------------- *दुनिया मेरे आगे*** *बाबूजी नहीं आएंगे दिल्ली*** *उमेश चतुर्वेदी*** दक्षिण पूर्वी मानसून महाराज ने दगा दे दी है। वर्षारानी के इंतजार में आंखें पथरा गईं हैं। कभी-कभार हो रही हल्की फुहारों से ही सब्र करना पड़ रहा है। खेती का काम चौपट हो गया है। लिहाजा इस बार गांव में काम कम ही रह गया है। बारिश की खुशखबरी के लिए गंवई मन फोन किए बिना नहीं रहता। लेकिन रोज निराशा ही हाथ लगती है। मानसून नहीं तो खेती नहीं...लिहाजा एक दिन बाबू जी को दिल्ली आने के लिए इसरार कर बैठा। दिल्ली की भागमभाग के बीच गांव कहीं पीछे छूट गया है। अगर कहीं है भी तो सिर्फ मन में..रोज घर लौटते वक्त गांव को जीने की इच्छा बलवती हो उठती है। मन ही मन रोजाना योजनाएं बनती हैं..कि कुछ ऐसा किया जाय को महीना-दो महीना में गांव का चक्कर लग ही जाए। लेकिन अगले दिन सूरज की किरणों के साथ जैसे अंधेरा गायब हो जाता है, गांव को जीने की ये लालसा फुर्र हो जाती है और नून-तेल की चिंता में शुरू हो जाती है एक अंतहीन दौ़ड़..लेकिन मन तो ठहरा गंवई...अंतर्मन में शायद माई और बाबूजी के ही बहाने गांव को जी लेने की इच्छा कहीं दबी हुई है। लिहाजा मैं बाबूजी और माई पर दिल्ली आने के लिए जोर डालने लगा। मोबाइल फोन के उस पार से आ रही आवाज से लगा कि मां हम लोगों से मिलने के लिए उत्सुक तो है...लेकिन बाबूजी की आवाज ठंडी और टाल-मटोल वाली लगी। इसके साथ ही मुझे बाबूजी की पिछली दिल्ली यात्रा की याद आ गई। आंख का इलाज कराने के लिए उन्हें दिल्ली लाया गया था। यहां के आकर पता चला कि उन्हें सेहत से जुड़ी कई और समस्याएं भी हैं। लिहाजा उनका लंबा इलाज चला। चूंकि इलाज लंबा था, इसलिए उन्हें यहां देर तक ठहरना पड़ा। सुबह तो जैसे उनकी ताजगी में अखबार और चाय के साथ उत्फुल्लता से कट जाती। लेकिन शाम होते ही वे कुछ असहज हो जाते। लगता, वे उदास हैं और अपनी उदासी छुपाने की कोशिश करते वे प्रतीत होते। मैं उनकी परेशानी समझता था। पूरी जिंदगी अध्यापक के तौर पर गांव में गुजार चुके बाबूजी का अपना वहां भरा-पूरा समाज है। शाम को काम से फारिग होने के बाद वे अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी में जुट जाते हैं। उनके दोस्तों में हर जाति के लोग हैं। ब्राह्मणत्व को किनारे रख कर अड्डेबाजी करने के लिए उनकी अपनी बिरादरी में आलोचना भी होती रही है। लेकिन वे कभी अपने दोस्तों से दूर नहीं हुए। लेकिन दिल्ली में वह समाज मिलने से रहा। फ्लैटों के बंद दरवाजे के पीछे टेलीविजन के सहारे चलती जिंदगी उन्हें रास नहीं आई। मुझे याद है जिस दिन वे दिल्ली से गांव लौटे तो उन्होंने पीछे मुड़कर देखना भी गवारा नहीं हुआ। उनका जाना ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो लंबी यातना से छूटा कैदी भाग रहा हो । हमारा दावा है कि आने वाले दिनों में शहरी आबादी में तेजी से विस्तार होगा। आजादी के बाद तकरीबन अस्सी फीसदी अपनी आबादी गांवों में रहती थी। अब ये आंकड़ा 67 के नजदीक पहुंच गया है। सच है कि गांवों के मुकाबले शहरों में जिंदगी गुजारने के लिए तमाम तरह की सुविधाएं हासिल हैं। इसके बावजूद एक पूरी की पूरी पीढ़ी ऐसी है, जिसे ये सुविधाएं नहीं लुभा पातीं। कवि शमशेर के शब्दों में कहें तो वह पीढ़ी गाती फिरती है- अच्छी अपनी ठाठ फकीरी, मंगनी के सुखसाज से। शहर में सुखसाज तो है, लेकिन ठाठ नहीं है और मानवीयता और रिश्तों की उष्मा का तो खैर कम ही दर्शन होता है। मानव ही क्यों, जानवर भी अगर अपना समाज बनाता है तो उसमें इस उष्मा का ही बड़ा योगदान होता है। बाबूजी जैसे लोगों की पीढ़ी ने अपनी पूरी जिंदगी इसी उष्मा के सहारे गुजारी है। लिहाजा उन्हें जीवन की सांध्य बेला में सुखसाज से ज्यादा ठाठफकीरी में लिपटा अपना जीवंत समुदाय ही ज्यादा मुफीद लगता है। लिहाजा उनके लिए अपना गांव छोड़ना और दिल्ली में रहना...नरक भोगने जैसा है। इसीलिए वे दिल्ली या मुंबई का रूख करने से बचते हैं। हमने अपने गांव में देखा है। एक दंपत्ति के सभी बच्चे उंची तालीम हासिल कर मोटी पगार और रसूख वाली नौकरियों में चले गए। सभी बच्चे माता-पिता को जोर देकर गांव से अपने साथ ले जाते रहे, लेकिन माता-पिता साल-छह महीने बाद लौटते रहे। उनके लिए गांव छोड़ना अपनी माटी से दगाबाजी करने जैसा रहा। हमारे एक और मित्र हैं। उनकी मां का देहांत हो गया है। प्रोफेसर पिता रिटायर हो गए हैं। मित्र अपने भाई के साथ दिल्ली में अच्छी तरह सेटल हैं। लेकिन उनकी रोजाना की सांझ पिता की चिंता में ही गुजरती है। क्योंकि पिता भी दिल के मरीज हैं। लेकिन पिता हैं कि दिल्ली रहने को तैयार नहीं। जोर देने पर दिल्ली आते हैं तो दस – पंद्रह दिन में ही उबकर वापस लौट जाते हैं। आजादी के आंदोलन या नेहरू के स्वप्नवादी दौर में पैदा हुई इस पीढ़ी के ही सहारे गांवों का वजूद बचा हुआ है। जहां तमाम पेंचीदगियों के बावजूद जिंदगी की एक धार अब भी बह रही है। दुर्भाग्य ये कि अब ये पीढ़ी अपनी विदाई की बेला में है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि हमारे जैसे लोग क्या दिल्ली या मुंबई की कथित जिंदगी को कभी अपनी इस पूर्ववर्ती पीढ़ी की तरह निर्ममता पूर्वक छोड़ पाएंगे। या फिर जिंदगी की धार में डूबने का सिर्फ सपना ही देखते रह जाएंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090806/659b8d72/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Aug 10 14:11:05 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 10 Aug 2009 14:11:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <196167b80908100141u5e86abceued0c3dd5cbbd292b@mail.gmail.com> संसाधनों के आगे कभी-कभी जीवटता घुटने टेक देती है। सपने बिखर जाते हैं, और अपनी संपूर्णता से पहले ही कोई बड़ा संकल्प दम तोड़ देता है। उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर के एक कस्बे में शुरू हुआ ग्रामीण लड़कियों का 'अप्पन चैनल' संसाधनों का कुछ ऐसा ही संकट झेल रहा है। कोई दो वर्ष पूर्व एक युवक ने सपना देखा कि गांव का अपना चैनल हो। जैसे कम्युनिटी रेडियो होता है, वैसा ही। सपने को धरातल पर उतारने को चीजें जुटायी जाने लगीं। चंदे से सामान जुटा भी और प्रोजेक्टर के परदे पर 'गांव ही गांव' दिखने लगा। स्थानीय स्तर पर इस प्रयास की बड़ी सराहना हुई। दिल्ली की मीडिया मंडी ने साहेबगंज (मुजफ्फरपुर) आकर डाक्यूमेंट्री बनायी। बात बढ़ी और लोगों ने इसकी सराहना मीडिया के वैकल्पिक माध्यम के रूप में की। सपनों को जमीं पर उतारने वाला युवक संतोष सारंग, दिल्ली के मीडिया समूह द्वारा संचालित नेटवर्क-18 के हाथों 16 अक्तूबर 2008 को पुरस्कृत हुआ। सिटीजन जर्नलिस्ट का पुरस्कार वहां की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक बड़े आयोजन में उसे दिया। आज अपने बूते यह चैनल सफर तय कर रहा है। ठोस आर्थिक मदद कहीं से नहीं संतोष का मानना है कि विपन्नता के बावजूद उसका यह संघर्ष जारी रहेगा। दु:ख इस बात का कि चैनल विस्तार नहीं पा रहा है। लोक जागरूकता के लिए जितना होना चाहिए, वह अल्प साधन में नहीं हो पाया है। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में इस चैनल ने बड़े चैनलों की तरह शो भी गांवों में किए। 'वोट का चोट' अभियान चलाया गया और गांव के लोगों को मताधिकार के प्रति जागरूक किया गया। लड़कियों की जो टीम अभी काम कर रही है, उनमें पूजा, अनिता, सरोज, नीलू चौधरी, रिंकू कुमारी, प्रीतम आदि हैं। स्कूल-कालेज की इन लड़कियों और एक दो गृहिणी को संतोष ने कैमरा हैंडिल करने की ट्रेनिंग दी है। कुछ लड़कियों ने एडिटिंग सीखी। अब यह टीम गांवों में खुद प्रोग्राम तैयार कर लेती है। स्वच्छता, दहेज का विरोध, कृषि तकनीक, जन स्वास्थ्य पर आधारित उपयोगी कार्यक्रम बनाये जाते हैं। तकनीकी मदद मुजफ्फरपुर के एडिटिंग स्टूडियो में राजेश कुमार से मिलती है। मुजफ्फरपुर के पांच प्रखंडों में इस चुनाव के दरम्यान अभियान चलाया गया। पारू, सरैया, मड़वन, साहेबगंज और मुशहरी प्रखंड के गांवो में लोगों को उनके वोट की ताकत बतायी गयी। संतोष कहते हैं कि प्रशासनिक तंत्र से मदद के लिए उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन सब विफल रहा। संघर्ष जारी है, लेकिन टीम की जीवटता 'मंझधार' में फंसी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090810/13a15475/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Aug 10 14:39:26 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Aug 2009 14:39:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKzgpL8=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KWAIOCktuCkrOCljeCkpuCkleCli+Ckt+CkteCkvg==?= Message-ID: <200908101439.27652.ravikant@sarai.net> shukriya, Vibhas. yeh mail main bhi parh chuka hun. lekin kisi ne glossary mein izafa kiya hai to socha deewan par daal hi diya jaye. cheers ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Fwd: बिहारी शब्दकोषवा Date: रविवार 09 अगस्त 2009 13:45 From: vibhas verma बिहार स्पेशल शब्दकोष। पेश है शब्दकोश के कुछ जाने-पहचाने शब्द: " कपड़ा फींच\खींच लो, बरतन मईंस लो, ललुआ, ख़चड़ा, खच्चड़, ऐहो, सूना न, ले लोट्टा, ढ़हलेल, सोटा, धुत्त मड़दे, ए गो, दू गो, तीन गो,भकलोल, बकलाहा, का रे, टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़), ससपेन (स्सपेंस), हम तो अकबका (चौंक) गए, जोन है सोन, जे हे से कि, कहाँ गएथे आज शमावा (शाम) को?, गैया को हाँक दो, का भैया का हाल चाल बा, बत्तिया बुता (बुझा) दे, सक-पका गए, और एक ठो रोटी दो, कपाड़ (सिर),तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया, धुर् महराज, अरे बाप रे बाप, हौओ देखा (वो भी देखो), ऐने आवा हो (इधर आओ), टरका दो (टालमटोल), का होमरदे, लैकियन (लड़कियाँ), लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे), की होलो रे (क्या हुआ रे), चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका(रिक्सा), ए गजोधर, बुझला बबुआ (समझे बाबू), सुनत बाड़े रे (सुनते हो), फलनवाँ-चिलनवाँ, कीन दो (ख़रीद दो), कचकाड़ा (प्लास्टिक),चिमचिमी (पोलिथिन बैग), हरासंख, चटाई या पटिया, खटिया, बनरवा (बंदर), जा झाड़ के, पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी), ढ़िबरी, चुनौटी,बेंग (मेंढ़क), नरेट्टी (गरदन) चीप दो, कनगोजर, गाछ (पेड़), गुमटी (पान का दुकान), अंगा या बूशर्ट (कमीज़), चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा,लुंगी, अरे तोरी के, अइजे (यहीं पर), हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे), दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना), दू सौ हो गया,बोड़हनझट्टी, लफुआ (लोफर), फर्सटिया जाना, मोछ कबड़ा, थेथड़लौजी, नरभसिया गए हैं (नरवस), पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोरव्हीलर), हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी), मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा), टंडेली नहीं करो, ज्यादा बड़-बड़करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे, आँख में अंगुली हूर देंगे, चकाचक, ससुर के नाती, लोटा के पनिया, पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खालिए), कौंची (क्या) कर रहा है, जरलाहा, कचिया-हाँसू, कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे, ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की),पतरकी (दुबली लड़की), ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी), सिंघारा (समोसा), खबसुरत, बोकरादी, भोरे-अन्हारे, ओसारा बहार दो, ढ़ूकें,आप केने जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा, अनठेकानी, लंद-फंद दिस् दैट, देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए, लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर, काहेइतना खिसिया --- LE BALAIYA, ee ka hua? Kahe albalaye huye hain? Etna narbhasane se kuchchho nahin  hoga (Omigosh, what's this? Why are you so flustered? Such nervousness won't help matters.) The inveterate linguist may scream at such an apparent contamination of Hindi language but the average Bihari simply loves to throw all narrow parameters of grammar to the winds. For them, the funnier they are, the better their adaptability is into their inimitable lingua  franca. Over the years, Biharis have invented a language, which has an unmistakable stamp of their own. In recent times, its popularity has  travelled far and wide beyond the borders of the State and many screen heroes,including Amitabh Bachchan, have mouthed Bihari liches with  characteristic elan - a far cry from the days when it was thought to be an infra  dig of sorts for anybody other than country bumpkins and unscrupulous  politicians to perpetrate such "verbal atrocities". All that, however, is  passe now. Bihari  Boli is sweeter than honey now. Not only in Bollywood but  also on the campuses of prestigious universities and BITs across the country. Words  like harbaraye, garbaraye,bargalaye, thartharaye and dhanmanaye  which would have sounded Greek to outsiders earlier are being used with gay abandon by the hep youngsters there.  Sobriquets laced with double entendres like "garda","  bawaal" and "dhuan" denoting the varying degree of a girl's beauty and sex  appeal can be heard  not only in Patna University colleges but also faraway  Fergusson College in Pune. Moreover, a-go, dugo, teengo and chaartho type of numerology which was a matter of disdain not long ago is being accepted even by  the stiff upper-lips without any qualms. So, notes sarka do (pass on the notes)", "battia buta do (put out the lights)", Prinspal ko harka do  (bamboozle the principal), burbak kahin ka (you stupid fellow!), hum to  biga gaye(I was thrown out) and Hum to huan thebe kiye the (I was very much  there) are some of the expressions which have conveniently made their way  into the  otherwise prim-and-propah St Stephens, New Delhi. Similarly, coinages like dhakiyaye (shoved), mukiyaye (punched), and latiyaye (kicked) are the current rage. Hiyan (here), huan  (there), kahe  (why), enne (this way) and onne (that way) are some of other typical words, which are spoken rather nonchalantly by so-called educated  lot in the  State. One, therefore, does not get surprised if one hears tanikke  for little, nimman for good, anhar for darkness and ejot for lights.  For them, colloquial language need not be tied to any narrow rules. Ee topicwa par maatha khapane se kuchchho nahi hoga(nothing s to come out of this topic), as one wit commented. Among many characteristics of this language are its terms fendearment. Seldom does one hear  people on the  streets calling each other by their real names. Raju  automatically becomes Rajua, Pappu turns into Pappua,Rajesh into Rajeshwa and  Shatrughna at best Satrohna. This potpourri of all Bihari dialects has also  coined new terms  for human anatomy which would baffle an FRCP if he were to  land here straight from Edinburgh. Here gor means legs, moori is  substitute to head,  ongree is equivalent to finger, thor denotes lips and kapar  is synonymous  with forehead.  This language also has more onomatopoeic words than  probably any other.  Words like tapak se, gapak se, and japak se can be  understood by listening  to their phonetical sounds. No longer is Bihari language  associated with a  few howlers like eskool (school)", teesan (station) and  singal (signal)  only. There are certain words which carry the precise  meaning but which  cannot be properly substituted by any word in other  languages. Machchar  bhambhor liya is probably is one such example. Bhambhorna  is a super word,  which means the collective assault of mosquitoes to "bhambhor" you.   But then, one might argue, where else do you find so many mosquitoes to  bhambhor you. Right from Laloo Prasad Yadav, who emerges as  the best   speaker  of his ghar ki boli to Shekhar Suman, everybody loves to  flaunt his native   command of the language. Earlier, Biharis were notorious  for atrocious  gender sense and shoddy pronunciation. Now, the same traits  have become the  tour de force of their conversation.   The time has certainly come to raise ekadhgo (one or two)  toast to the  longevity of the Bihari language. "Teengo" cheers to that!!! ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Mon Aug 10 14:40:24 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Aug 2009 14:40:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkheCkleCkvuCkpuCkruClgCDgpJXgpYAg4KSW4KWA?= =?utf-8?b?4KSC4KSa4KSk4KS+4KSo?= Message-ID: <200908101440.24970.ravikant@sarai.net> वाक़ई अच्छा मसाला है, विभास. इसमें वह सब कुछ लिखा है जो मैं इस प्रसंग में अशोक चक्रधर की तथाकथित अपात्रता को लेकर महसूस करता रहा हूँ. इसे साझा करने का शुक्रिया. रविकान्त गलियों के दादा पिछले महीने भर से दिल्ली की साहित्यिक गलियों में घूमने-फिरने वाली ख़बरों में हिन्दी अकादमी का मसला छाया हुआ है। इस पूरे मामले की केस-स्žटडी दिल्लीवासी हिन्दी- "साहित्यकारों"की मानसिकता, राजनैतिक- सांस्कृतिक व्यवहार को समझने के लिये दिलचस्प नुक़्ते सामने रखता है। मामला शुरू होता है अब तक शालीन, तटस्थ और गंभीर छवि के लिए जानी जानेवाली अर्चना वर्मा- जो उसी कॉलेज़ में असोशिएट प्रोफ़ेसर हैं जहाँ दिल्ली की वर्तमान मुख्यमंत्री ने शिक्षा पाई है- के अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफ़े से । उनके इस्तीफ़े की चिट्ठी (जिसकी भाषा एक बार पढ़ कर समझलेने का दावा करनेवाले माई के लाल कम होंगे)में अकादमी के बदलते माहौल के प्रति क्षोभ व्यक्त किया गया है। माहौल के बदलने के कारण में अकादमी की कार्य-प्रणाली पर राजनीति और नौकरशाही के कसते शिकंजे का हवाला दिया गया है। अपनी इस राय के समर्थन में उन्होंने सिर्फ़ एक तथ्य प्रस्तुत किया है जिसे वे इस तरह से रखती हैं कि मानो इस कृत्य से पाप का घड़ा भर गया और उन्हें सुदर्शन चक्र उठाने को बाध्य होना पड़ा।यह तथ्य है अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति।अर्चना वर्मा के चक्र ( जिसकी "सुदर्शनीयता" पर बहुत सारे लोगों को आपत्ति और उनके निकट के मानेजानेवाले चंद लोगों को आश्चर्य और दुख हुआ)का निशाना भी चक्रधर महोदय ही थे।अशोक चक्रधर की नियुक्ति राजनैतिक प्रसाद का परिणाम है इस बात को लेकर अर्चना वर्मा का आक्रोश तो है पर वह बुनियादी नहीं है उनका मानना यह जान पड़ता है कि यदि प्रसाद ही देना था तो किसी श्रीकांत वर्मा वरगी साहित्यकार को दिया जाता, चक्रधर जैसे - उन्होंने जो विशेषण लगाए हैं उसके बारे में एक अखबार में टिप्पणी थी कि उन "अलंकारों" को सुनकर अशोक चक्रधर को ख़ुद ही त्याग-पत्र दे देना चाहिए था- को क्यों दिया गया।इसके अगले दिन ख़बर आई कि विवाद-सम्राट राजेन्द्र यादव, सहारा-पुरुष मंगलेश डबराल, वीर बालक रामशरण जोशी और राजेन्द्र यादव को प्यार से साहित्य का डॉन माननेवालों द्वारा 'छोटा राजन' कहे जानेवाले पंकज बिष्ट जैसे कुछ "साहित्यकारों" ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी है जिसमें अशोक चक्रधर जैसी(हास्य-कवि होने के कारण) 'नीची' हैसियत के (क्योंकि उनसे ऊँची हैसियत के कई साहित्यकार दिल्ली में घूम-घूम कर फिर रहे हैं) साहित्यकार को उपाध्यक्ष बनाने पर गुस्सा जताते हुए धमकी दी गई (अब डॉन धमकी नहीं देगा तो खाएगा कहाँ से) कि अगर उन्हें नहीं हटाया गया तो वे अकादमी का बहिष्कार करेंगे, यानी चलने नहीं देंगे।अर्चना वर्मा और राजेन्द्र यादव एंड गैंग की चिट्ठियों में अशोक चक्रधर के प्रति व्यक्त की गयी घृणा के अलावा एक और बात समान थी, वह थी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की साहित्यिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता में व्यक्त की गयी अटूट आस्था जिसकी नोटिस एक अखबार ने भी ली। इन लोगों की भावना उस वक़्त कहीं बिला गयी थी जब मुकुन्žद द्विवेदी और जनार्दन द्विवेदी जैसे लोगों को संवेदनशीला शीलाजी ने उपाध्यक्ष बनाया था।मुकुन्द द्विवेदी जिनकी पहचान उनके पिता की ग्रन्žथावली के संपादक होने के अलावा पता नहीं क्या है और जनार्दन द्विवेदी जिनकी साहित्यिक देन सोनिया गाँधी के भाषण लिखने के अलावा क्या है इसका पता लगाने के लिये कोई आयोग बिठाया जाना चाहिए, को किसी राजनैतिक चाटुकारिता या पक्षपात, जिसका आरोप चक्रधर पर है, के कारण उपाध्यक्ष पद नहीं मिला यह तो संभवत: वे दोनों ख़ुद नहीं मानेंगे।मगर इन मनोनयनों पर किसी साहित्यकार या प्रगतिशील, जनवादी,जनसंस्कृतिवादी, राष्ट्रवादी,कलावादी, कैसे भी साहित्यिक संगठन को जरा भी आपत्ति नहीं हुई थी।इनके कार्यकाल के कार्यक्रमों में सबने उछल-उछलकर भाग लिया था।राजेन्द्र यादव जो साहित्य में वर्ण-व्यवस्था का विरोध करनेवाले दलित-साहित्य को हिन्दी में खड़ा करने का दावा करते हैं, साहित्य में विधाओं की नई वर्ण-व्यवस्था कायम कर रहे हैं। पॉपुलर और एलीट के वर्गीकरण पर खड़ी इस वर्ण-व्यवस्था को छोड़ भी दें तो यह तथ्य वे सुविधा से भुला देते हैं कि चक्रधर मुक्तिबोध पर किताब लिखनेवाले और शोध करनेवाले शुरुआती लोगों में हैं,देश-विदेश घूमे हुए प्रोफ़ेसर हैं।ई० एच० कार की 'व्हाट इज़ हिस्ट्री' जैसी किताब का हिन्दी में अनुवाद किया है। बाल-साहित्य और नव-साक्षरों के लिये काफ़ी लिखा हैटेलिविजन के कार्यक्रमों के लिए लिखा है।इन सब बातों से महत्त्वपूर्ण,हिन्दी भाषा को इंटरनेट की भाषा से जोड़ने की पहल करनेवालों में साहित्य की दुनिया से पहले लोगों में हैं और उनके इस कार्य की प्रशंसा माइक्रोसॉफ्ट ने भी की है। आख़िर हिन्दीवाले उन लोगों को श्रेय देना कब शुरू करेंगे जिन्होंने हिन्दी को साहित्य के 'घेटो' से निकालने का काम किया है और जिनकी रचनाओं ने हिन्दी के समाज का विस्तार करने में बड़ी भूमिका निभाई है।हो सकता है चक्रधर ने यह सब पैसे कमाने के लिये किया हो, पर इससे वे मुकुन्द द्विवेदी, जनार्दन द्विवेदी से 'नीचे' नहीं हो जाते। इसके बाद घटनाक्रम का विकास अकादमी के सचिव जो इसी नौकरशाही और राजनीति के द्वारा सचिव नियुक्त किये गये ज्योतिष जोशी, जिनके जोशी नामकरण और जनेवि में छात्र परिषद के समर्थन के कई किस्से जनेवि के पूर्व-छात्रों द्वारा सुने-सुनाये जाते हैं, के इस्तीफ़े से हुआ। उनके इस्तीफ़े को लेकर सार्वजनिक बयान यह आया कि मौज़ूदा हालात में उनके लिये अकादमी में काम करना असंभव हो गया था। निजी तौर पर, हालांकि ये बातें भी अख़बारों में आईं , उन्होंने लोगों को बताया कि उन्हें किसी नौकरशाह ने डाँट पिलाते हुए उनसे इस्तीफ़ा लिया। उनके इस्तीफ़े के कारणों की जाँच की माँग भी किसी "साहित्यकार" ने उठाई। इस इस्तीफ़े के बाद घटनाक्रम का विकास और तेज़ी से हुआ।प्रोफेसर नित्यानन्द तिवारी ने भी, जो पहले अर्चना वर्मा द्वारा चक्रधर को 'विदूषक' कहे जाने पर आपत्ति जता चुके थे और अशोक चक्रधर के साथ काम करने में अनापत्ति भी प्रकट कर चुके थे, इस्तीफ़ा दे दिया ।उन्होंने अशोक चक्रधर के एक बयान का हवाला दिया कि चक्रधर जो कि उनके शिष्य रहे हैं, ने कहीं कहा है कि मैं साहित्य को मनोरंजन की वस्तु मानता हूँ और ऐसा मानने वालों के नेतृत्व में काम करना उनके लिये मुश्किल है। (हालांकि चक्रधर ने अपने 'गुरू' के इस्तीफ़े पर खेद प्रकट करते हुए उन्हें चुनौती भी दी कि वो बताएँ कि ऐसा कहाँ कहा पर)…यहाँ तक घटनाक्रम पिछले ढर्रे पर ही चला पर प्रो०तिवारी के पत्र में जो दूसरी बात थी उसने नैरेटिव को डेप्थ एक और आयाम दिया। उन्होंने संकेत किया कि पिछली संचालन समिति के एकमत निर्णय जो शलाका पुरस्कार के संबंध में था,को मुख्यमंत्री के आश्वासन के बावज़ूद निरस्त कर दिया जाना इन इस्तीफ़ों के पीछे का कारण है ।कृष्ण बलदेव वैद को पुरस्कार दिये जाने के समिति के संकल्प के तुरंत बाद किसी पुरुषोत्तम गोयल नाम के चिरकुट की चिट्ठी सरकारी महकमे में चक्कर लगाने लगी जिसमें वैद साहब को पोर्नोग्राफिक लेखक ठहराते हुए उनके एक उपन्यास से अंश छाँट-छाँट कर प्रस्तुत किये गए थे। इसके बाद पुरस्कारों की घोषणा को स्थगित कर दिया गया और बाद में चुनाव आचार-संहिता का हवाला देकर बात टाली गई। मुख्यमंत्रीने आश्वासन दिया था कि समिति ने यदि निर्णय ले लिया है तो यह पुरस्कार दिया जाएगा। आचार-संहिता हटने के बाद भी पिछली समिति के कार्यकाल में पुरस्कारों की घोषणा नहीं की गईयदि यह निरस्तीकरण पहले का था तो इस्तीफ़ा पहले ही दे दिया जाना चाहिए था पर इस निर्णय की ख़बर अब लगी।ख़बर कहाँ से आई पता नहीं, प्रो० तिवारी ने यह ख़बर संभवत: उसी स्रोत से प्राप्त की जिससे उन्होंने चक्रधर के बयान की ख़बर प्राप्त की थी क्योंकि चक्रधर के उपाध्यक्ष बनने के बाद न तो अकादमी की कोई बैठक हुई न ही सरकार की ओर से ऐसी कोई अधिसूचना ही जारी की गयी। प्रो० तिवारी मिली इन सूचनाओं का कोई ठोस आधार नहीं, स्रोत कोई 'ज्योतिषी' ही होंगे।बहरहाल इसके बाद इस्तीफ़ों और अस्वीकारों की झड़ी लग गई है। धमकी असर दिखाने लगी है। अब तक प्राप्त ख़बरों में नवीनतम इस्तीफ़ा चक्रधर के दूसरे गुरू विश्वनाथ त्रिपाठी का है जिन्होंने कारणों की पुरानी लिस्ट में एक और कारण जोड़ा है- अकादमी द्वारा दिये जानेवाले साहित्यिक पुरस्कारों की संख्या कम किया जाना। इस निर्णय को पिछली समिति के समय ही लागू किया गया था।पर विश्वनाथ त्रिपाठी तक यह सूचना पहुँचने में महीनों लग गए। रेवड़ियों की तरह बाँटे जानेवाले थोड़ी-थोड़ी राशि के पुरस्कारों की जगह पर सम्मानजनक राशि के कम ही पुरस्कारों को बाँटे जाने के निर्णय को लेकर इस्तीफ़ा देने में ज़रूर कोई औचित्य होगा। सवाल इन इस्तीफ़ों की टाइमिंग से है।जो लोग अशोक चक्रधर को काम करने का मौका देने के पक्ष में थे वे बग़ैर एक भी मीटिंग के इस्तीफ़ा क्यों देने लगे? क्या एक मीटिंग में जाकर अकादमी की कार्य-शैली और दबावों की बात उठाकर इस्तीफ़ा देना सही क़दम नहीं होता? पहली मीटिंग तो मुख्यमंत्री के साथ ही होती है। या यह ख़तरा था कि कहीं मीटिंग के बाद चक्रधर के नेतृत्व को नकारने का कोई बहाना न मिला तो साहित्यिक वर्ण-व्यवस्था को उलट-पलट करनेवाले क़दम को बेअसर करनेका मौका कैसे मिलता? आखिर जनार्दन द्विवेदी और मुकुन्द द्विवेदी जैसे ग़ैर-साहित्यिक लोगों की मौजूदगी में थोक भाव से लोगों को उपकृत करने की सत्ता जो भोग चुके हैं वो इस सत्ता और वर्चस्व में किसी और का साझा कैसे होने दें। इसके लिये झूठ,प्वाद और साहित्यिक माफियाओं की मदद लेनी ही पड़े तो क्या है ? देखें कैसे चला लेते हैं हमारे बग़ैर अकादमी । अभी और इस्तीफ़े आने बाकी हैं ।अख़बारों के अनुमान के अनुसार इनमें अजित कुमार, हिमांशु जोशी, भानु भारती,विभास वर्मा और अनवर जमाल के नाम संभावित हैं। पुनश्च: अवान्तर कथाओं की तरह कुछ अन्य कथाएँ भी हैं। एक खोजी अख़बार ने ख़बर निकाली है कि असली कारण राष्ट्रकुल खेलों के अवसर पर करोड़ों की लागत से होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय कवि- सम्मेलन पर दो अशोकों की दावेदारी का है। एक की दावेदारी इस आइडिया के जनक होने के कारण है तो दूसरे ने कवि-सम्मेलनों पर अपना पेटेंट पहले से डाल रखा है। दूसरे अशोक ने पहले अशोक के एजेंट को अकादमी से निकलवा दिया। दूसरी कथा को इस पूरे प्रसंग में से उभरी एकमात्र तोषदायी घटना के तौर पर देखा जा सकता है कि वर्चस्व और सत्ता की इस लड़ाई में जनवादी लेखक संघ जो अब तक वैद जैसे लेखकों को कलावादी और इसी तर्क से प्रतिक्रियावादी मानता था, उनके पक्ष में उतर आया। ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Mon Aug 10 15:12:27 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Aug 2009 15:12:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSDgpJXgpYAg4KSV4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+?= Message-ID: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> निहायत लज़ीज़: मज़े लें. रविकान्त वे तीन बुड्ढे आलोक श्रीवास्तव वे तीन बुड्ढे अब भी दिखते हैं राजधानी के सभागारों में पुस्तकों का विमोचन करते उनमें से एक कला की हाँकता है और दो समाजवाद की जरा ने अशक्त कर दिया है काया क्षीण है वाणी भी थोड़ी काँपती है पर वे पूरी तसल्ली से अपना महिमामय होना जीते हैं उसी भाषा में जिसमें मरे मुक्तिबोध अपमानित हुए रघुवीर सहाय अकेले पड़े शमशेर विदर्भ के पठारों पर एक आवाज़ गूँजती है: 'जीवन अब तक क्या जिया भूतोँ की शादी में कनात से तन गए'. कनात से तने तीनों बूढ़े हो हो कर हँसते हैं दो नहीं रहेंगे कुछ दिनों बाद तीसरा थोड़ा कम उम्र है पर तीनों ने अपने लघु प्रतिरूप गढ़े हैं ढेरों जो उन्ही की तरह होंगे ताक़तवर! इनमेँ शायद थोड़ी आँख की शर्म बची है उनमें वह भी नहीं होगी. From ravikant at sarai.net Mon Aug 10 18:32:37 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Aug 2009 18:32:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSDgpJXgpYAg4KSV4KS1?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KS+?= In-Reply-To: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> References: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> Message-ID: <200908101832.38232.ravikant@sarai.net> गोकि ये आलोक जी को संबोधित है, लेकिन मुझे भी नक़ल भेजी गई थी, तो मैंने सोचा दीवान तक पहुँचा दूँ. रविकान्त प्रिय  आलोकजी हेल्लो कविता के लिए धन्यवाद. लेकिन व्यक्तिगत आरोप के कारन कविता हलकी हो गयी और अच्छा नहीं लगा . ये तीनो 'बूढे हमारे समाज  के , हमारे समय के , और हमारे ही विकसित रूप हैं!! कमो वेश  वे तीनो हम ही हैं!! इसलिए इसके पीछे के कारणों पर  बात होनी चाहिए, व्यक्ति पर छींटा कासी बिलकुल ही सही नहीं है. बिचार , एवं सोंच की आलोचना की आपसे अपेछा थी उम्मीद है आगे इसका ख्याल रखियेगा आपका डी के  ओ सोमवार 10 अगस्त 2009 15:12 को, Ravikant ने लिखा था: > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From vineetdu at gmail.com Mon Aug 10 19:18:46 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 10 Aug 2009 19:18:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSDgpJXgpYAg4KSV?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSk4KS+?= In-Reply-To: <200908101832.38232.ravikant@sarai.net> References: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> <200908101832.38232.ravikant@sarai.net> Message-ID: <829019b0908100648g5f48970fh5e8f717cffe9e179@mail.gmail.com> हमें तो कविता कहीं से हल्की नहीं लगी। अब जब आचारजी लोगही पहले की तरह भारी नहीं रह गए तो कविता में तो वो भाव आएगें ही न। मजा आ गया पढ़कर,लगा कि कुछ और कड़ियां पढ़ने को मिलते। विनीत 2009/8/10 Ravikant > गोकि ये आलोक जी को संबोधित है, लेकिन मुझे भी नक़ल भेजी गई थी, तो मैंने सोचा > दीवान तक पहुँचा > दूँ. > > रविकान्त > > प्रिय आलोकजी > हेल्लो > > कविता के लिए धन्यवाद. > > लेकिन व्यक्तिगत आरोप के कारन कविता हलकी हो गयी और अच्छा नहीं लगा . > > ये तीनो 'बूढे हमारे समाज के , हमारे समय के , और हमारे ही विकसित रूप हैं!! > > कमो वेश वे तीनो हम ही हैं!! > > इसलिए इसके पीछे के कारणों पर बात होनी चाहिए, व्यक्ति पर छींटा कासी बिलकुल > ही सही नहीं है. > > बिचार , एवं सोंच की आलोचना की आपसे अपेछा थी > > उम्मीद है आगे इसका ख्याल रखियेगा > > आपका > > डी के ओ > > > सोमवार 10 अगस्त 2009 15:12 को, Ravikant ने लिखा था: > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090810/fe7ebce5/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Aug 10 20:14:25 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 10 Aug 2009 20:14:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?IOCktuCljeCksOClgOCkteCkvuCkuOCljeCkpOCktSDgpJXgpYAg4KSV?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSk4KS+?= In-Reply-To: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> References: <200908101512.28200.ravikant@sarai.net> Message-ID: <6a32f8f0908100744y74632ee6v2280dec9e6205b9a@mail.gmail.com> कविता का अपना रंग है, पर औऱ बेहतर गढ़ा जा सकता था। बहरहाल, इसे पढ़कर इक बात याद आ गई। जैनेन्द्र की कुछ कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद हुआ था, पुस्तक का विमोचन था। जिसकी कविता में चर्चा है, वही लोग थे। बतौर रिपोर्ट मैं वहां था। सबों ने कहा। फिर *जैनेन्द्र के पुत्र बोले। उन्होंने एक किस्सा सुनाया- जैनेन्द्र की कहानियों पर चर्चा हो रही थी। कोई महानुभाव कहानी पर बोलते-बोलते जैनेन्द्र पर फिसल गए। खूब सुनाया। जब जैनेन्द्र की बारी आई तो उन्होंने इतना भर कहा- आलेख अच्छा था। पर व्यक्ति-परक ज्यादा था। रचना पर ही बाद होती तो और अच्छा होता।* *खैर, गालिब के आंगन में जो हुआ, जिसपर बमचक मचा है। वह एक खास वर्ग पर ज्यादा था। विषय पर कम। * On 8/10/09, Ravikant wrote: > > निहायत लज़ीज़: मज़े लें. > > रविकान्त > > वे तीन बुड्ढे > > आलोक श्रीवास्तव > > > वे तीन बुड्ढे अब भी दिखते हैं > राजधानी के सभागारों में > पुस्तकों का विमोचन करते > उनमें से एक कला की हाँकता है > और दो समाजवाद की > > जरा ने अशक्त कर दिया है > काया क्षीण है > वाणी भी थोड़ी काँपती है > पर वे पूरी तसल्ली से अपना महिमामय होना जीते हैं > उसी भाषा में > जिसमें मरे मुक्तिबोध > अपमानित हुए रघुवीर सहाय > अकेले पड़े शमशेर > > विदर्भ के पठारों पर एक आवाज़ गूँजती है: > 'जीवन अब तक क्या जिया > भूतोँ की शादी में कनात से तन गए'. > > कनात से तने तीनों बूढ़े > हो हो कर हँसते हैं > > दो नहीं रहेंगे कुछ दिनों बाद > तीसरा थोड़ा कम उम्र है > पर तीनों ने अपने लघु प्रतिरूप गढ़े हैं ढेरों > जो उन्ही की तरह होंगे ताक़तवर! > > इनमेँ शायद थोड़ी आँख की शर्म बची है > उनमें वह भी नहीं होगी. > > > > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090810/8f4463c2/attachment-0001.html From baliwrites at gmail.com Tue Aug 11 12:20:54 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Tue, 11 Aug 2009 12:20:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dilli govt. school ke sach Message-ID: dear all, dilli me hi kahin par sthit ek rajkiya vidyalay ki diary ke panne neeche likhe blog mein aap pad sakte hain. please click at the following link http://vidyalayadiary.blogspot.com/ regards balvinder bali -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090811/0032fdee/attachment.html From baliwrites at gmail.com Tue Aug 11 12:20:54 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Tue, 11 Aug 2009 12:20:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dilli govt. school ke sach Message-ID: dear all, dilli me hi kahin par sthit ek rajkiya vidyalay ki diary ke panne neeche likhe blog mein aap pad sakte hain. please click at the following link http://vidyalayadiary.blogspot.com/ regards balvinder bali -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090811/0032fdee/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Aug 11 16:04:28 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 11 Aug 2009 16:04:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KWL4KSc?= =?utf-8?b?IOCkleCliyDgpKTgpLngpYcg4KSm4KS/4KSyIOCkuOClhyDgpKzgpKfgpL4=?= =?utf-8?b?4KSI?= Message-ID: <200908111604.29907.ravikant@sarai.net> वर्ष 2009 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार मनोज कुमार झा को उनकी कविता स्थगन के लिए दिया गया है। यह कविता कथन के वर्ष 2008 के जुलाई-सितंबर अंक में प्रकाशित हुई थी। पुरस्‍कार समिति के निर्णायक मंडल में प्रो नामवर सिंह, विष्‍णु खरे, प्रो केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी और अरुण कमल हैं जो हर साल बारी-बारी से वर्ष की श्रेष्‍ठ कविता का चयन करते हैं। इस बार अरुण कमल निर्णायक थे। वे पहली बार अपना निर्णय सुना रहे हैं। उन्‍होंने अपनी संस्‍तुति में कहा है कि स्‍थगन कविता को निरीक्षण की नवीनता, बिंबों की सघनता और कथन की अप्रत्‍याशित भंगिमा ओं के लिए रेखांकित किया जाता है। बार-बार घटित होने वाले एक पुरातन अनुभव और स्थिति को बि ल्‍कुल नयी तरह से रचते हुए यह कविता भारतीय ग्राम-जीवन को अद्यतन संदर्भों में प्रस्‍तुत करती है। मनोज कुमार झा दरभंगा में रहते हैं। सीपीआई एमएल लिबरेशन से उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता रही है। गांव में खेती-बारी के कामकाज देखते हैं। (जन्म : 07 सितम्बर 1976। बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-मांऊबेहट गांव में। शिक्षा : विज्ञान में स्नातकोत्तर। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं एवं आलेख प्रकाशि त। चॉम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि के लेखों का अनुवाद प्रकाशित। एजाज अहमद की किताब “रिफ्लेक्शन ऑन ऑवर टाइम्स” का हिंदी अनुवाद संवाद प्रकाशन से प्रकाशित। सराय/सीएसडीएस के लिए “विक्षिप्तों की दिखन” पर शोध। संप्रति : गांव में रह कर स्वतंत्र लेखन, शोध एवं अनुवाद संपर्क : मनोज कुमार झा, मार्फत श्री सुरेश मिश्र, दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा 846004, E-mail : jhamanoj01 ऐट याहू डॉट कॉम आप उनकी कुछ कविताएं मोहल्ला लाइव और प्रतिलिपि पर पढ़ सकते हैं. http://mohallalive.com/2009/08/09/poems-of-manoj-kumar-jha/ http://pratilipi.in/manoj-kumar-jha/ पुरस्कृत कविता स्थगन जेठ की धहधह दुपहरिया में जब पांव के नीचे की ज़मीन से पानी खिसक जाता है चटपटाती जीभ ब्रह्मांड को घिसती है कतरा-कतरा पानी के लिए सभी लालसाओं को देह में बांध सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए पृथ्वी से बड़ा गलता है गछपक्कू आम जहां बचा रहता है कंठ भीगने भर पानी जीभ भीगने भर स्वाद और पुतली भीगने भर जगत चूल्हे की अगली धधक के लिये पत्ता खररती पूरे मास की जिह्वल स्त्री अधखाये आम का कट्टा लेते हुए गर्भस्थ शिशु का माथा सहला सुग्गे के भाग्य पर विचार करती है शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में आम का रस चूता है और उसकी आंखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ जहां सर्वाधिक स्थान छेक रखा है जीवन को अगली सांस तक पार लगा पाने की इच्छाओं ने माथे के ऊपर से अभी-अभी गुज़रा वायुयान गुज़रने का शोर करते हुए ताका उत्कंठित स्त्री ने आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था बढ़ी तो थीं आंखें आसमान तक जाने को पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम और वक्त होता तो कहता कोई शिशु चंद्र ने खोला है मुंह तरल चांदनी चू रही है अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में कंपायमान। कुछ और कविताएं निर्णय स्वयं ही चुनने प्रश्न और उत्तरों को थाहते धंसते चले जाना स्वप्नों के अथाह में कहीं कोई यक्ष नहीं कि सौंप कर यात्रा की धूल उतर जाएं प्यास की सीढ़ियां समय के विशाल कपाट पर अंगुलियों की खटखट लौट-लौट गूंजती है अपने ही कानों में ये घायल अंगुलियां अंतिम सहयात्री शरशैय्या-सी जितना भींग सका पानी में बदन में जितना घुला शहद जितना नसीब हुआ नमक कौन कहेगा – कम है या ज़्यादा खुद ही तौलना तौलते जाना जरा-सा भी अवकाश नहीं रफ वर्क का और कोई सप्लीमेंट्री कॉपी भी नहीं। शेष दरिद्रा तो अब अपनी सिकुड़ गयी अकाल दुकाल फूलता पेट जोड़तोड़िया ग्राहक को देख कान में हंसी फेंकता है परचूनिया पनियाए बासी भात की खातिर झलफल भोर तोड़ता था बबूल की टहनी छुपाता हूं बच्चों से फिर भी जब छूटता है सामने अन्न और खराब नल बेसिन का तो हथेली की कोई धातु अकबकाती गिड़ाती हथ-धोअन थाली में रख आता हूं अब यह जो औसतिया भूख अलसाये रोओं वाली उसकी चोंच से छिटके दाने सड़क जहां साफ और ओट बिजली के खंभे का वो स्त्री तो जानती बचा लेगी सुबह झाड़ू देते वक्त कहीं खुरेठ न दे कोई अधसोया सांड़ कोइ कव्वा आये कदाचित निराश किसी दुखी सजनी की आंगन की मिट्टी कोड़ या कोई मैना नवतुरियों को उखना सिखाते-सिखाते थकी हुई बेटी लपेटती मेरे कॉलर पर अपना हरा रिबन क्यों नहीं रख देते सेव के टुकड़े भी उतरेंगे सुग्गे। तासीर मिरी खिड़की के पास केले के पेड़ थे रात में धुल कर हुई भारी बूंदें बजती थीं टप-टप तेरे आंगन में नीम के पेड़ थे मद्धम बोलते बारिश से मुझे केले के पत्तों पर बारिश जुड़ाती थी और तुझे नीम के पत्तों पर वो हमारे होने का वसंत था हमने माना कि हर जगह की बारिश होती है सुंदर मेरा धूप मांजता था तेरी हरियाली तेरा धूप मांजता मेरी हरियाली को हमारी जड़ों ने तज दी मिट्टी हमारे तनाओं ने तजा पवन हम ब्रह्माण्ड के सभी बलों से मक्त थे नाचते साथ-साथ अब मुझे मेरी मिट्टी बांध रही है मुझे मेरा पवन घेर रहा है हर दिशा से बलों का प्रहार आओ, कहो कि कहीं भी हो अच्छी लगती है बारिश कहो कि बारिश अच्छी केले पर भी नीम पर भी। विवश पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी आंखों के जल में उठी हिलोर मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद इसी पेड़ के नीचे तो छांटता रहा गेहूं से जौ उस शाम थकान की नोक पर खसा था इसी चिड़िया का खोंता कंधे पर पंछी भी रहा, अचीन्हा, मैं अंधड़ की आंत में फंसा पियराया पत्ता संवारने थे वसंत के अयाल पतझरों के पत्तों के साथ बजना था बदलती ऋतुओं से थे सवालात प्रश्नो में उतरता सृष्टि का दूध मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूं मरुथल में। रात्रिमध्ये तै तो था एक एक सुग्गे को बिंबफल उसका भी वो जो उद्विग्न रातभर ताकता रहता चांद अगोरता रहा सेमल का फल पिछले साल वन वन घूम रही प्यास की साही निष्कंठ ढूंढ़ती कोई ठौर पथरायी हवा से टूट रहे कांटे पसीज रहा रात का गुड़ निद्राघट भग्न पपड़िया रहा मन खम्भे हिल रहे थे, तड़-तड़ फूट रहे थे खपड़े ग्राह खींच रहा था पिता के पांव उस अंधड़ में बनाया था कागज की नाव भाई की ज़‍िद पर सुबह भूल गया था भाई, गल गयी कहीं या चूहे कुतर गये या दादी ने रख दिया उस बक्से में जहां धरा हुआ है उनका रामायण और सिंहासन बत्तीसी छप्पर की गुठलियां दह गयी इधर की गुठली हुई आम किधर या सड़ गयी किसी लाश की लुंगी में फंस कर किसी डबरे में मुठभेड़ के बाद वह आदमी सड़क हो गया दौड़ रहे महाप्रभुओं के रथ, कल तो वो डाभ मोला रहा था बच्चे संग लिये वसंत की उस सुबह रक्त में घुली थी जिसकी छुअन क्या उसका चेहरा भी हो गया फटा टाट! चेहरे क्यों हो जाते फसल कटे खेत एक दिन ताजिया पड़ा हुआ… निचुड़ती रंग की कीमिया पल पल… लुटती रफ्ता कागज की धज… ये कहां चली छुरी कि गेंदे पर रक्त की बूंदें कुछ भी नहीं जान सका उस तितली की मृत्यु का मैं तो ढूंढ़ रहा था कबाड़ में कुर्ते का बटन हर कठौती की पेंटी में छेद, हर यमुना में कालियादह कहां भिगोऊं पुतलियां… किस घाट धोऊं बरौनियां… तांत रंगवाऊ कहां… किस मरूद्वीप पर खोदू कुंआ बहुत उड़ी धूल, पसरा स्वेद-सरोवर क्षितिज के पार तक रौशनी सोख रही आंखों का शहद… धर तो दूं आकाश में अपने थापे हुए तारे …नींद के कछार में बरसेंगी ओस पंक हुए प्यास में जनमेगी हरी दूब जहां दबे पांव चलेंगे देवगण… ! From ravikant at sarai.net Tue Aug 11 18:23:26 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 11 Aug 2009 18:23:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KWA4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYc6IOCkruCkv+CkueCkv+CkpCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSC4KSh4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <200908111823.27754.ravikant@sarai.net> जिन्होंने इसे मोहल्ला लाइव पर देखा है, उनसे क्षमा याचना सहित. वैसे कल शुद्धा के पूछने पर याद आया कि कमीने शब्द के और भी मायने हुआ करते हैं/थे. ये वस्तुत: कमीन से आया है. बहरहाल फ़ैलन के महान कोश से पेश है वो तमाम अल्फ़ाज़: हिन्दी: कमीन कर कमीन, कमीन काँडू, काम, work  कमीना = low. Menial servants. उदाहरण: कर कमीन को भी समझा करो! कमीन ज़ात, n.f. The lower castes. अरबी: कमीन, कमीनगाह; H. घात की जगह, n.f. An ambuscade.  ( amush;  to lurk. फ़ारसी: कमीने, कमीनी, adj. Ignoble; vulgar; vile; common; abject , कमीना, n.m. कमीनी,n.f. low mean, vulagr or common people. कमीनापन, कमीनपन, n.m. Meanness; base- चंदन जी को शुक्रिया सहित. रविकान्त http://mohallalive.com/?s=%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B0&x=0&y=0 नज़रिया, सिनेमा » मासूम सा कबूतर, नाचा तो मोर निकला/ मिहिर पंड्या मैं झमाझम बारिश से भीगती बस में था। यह शाम का वही वक़्त था, जिसके लिए एक गीतों भरी प्रेम कहानी में कभी गुलज़ार ने लिखा था कि सूरज डूबते डूबते गरम कोयले की तरह डूब गया… और बुझ गया! गुड़गांव से थोड़ा पहले महिपालपुर क्रॉसिंग पर जहां मेट्रो की नयी बनी लाइन घुमावदार उलझे फ्ला ईओवरों के ऊपर से पच्चीस डिग्री के कोण पर उन्हें नीचा दिखाती हुई सीधा चांद की ओर निकल जाती है, वहीं, बस वहीं। दूर बादलों के बीच से निकलता एक हवाईजहाज़ था, जिसकी बत्ती किसी डूबते सितारे की तरह दूर जाती लग रही थी। खिड़की के शीशे पर अटकी बारिश की बूंदें थीं जिन्हें सामने से आती ट्रक की हेडलाइट रह-रह कर सुनहरे मोती में बदल देती थी। रह-रह कर पानी, रह-रहकर मोती। चमकता सा पानी, बहते से मोती। खिड़की से दीखते सामने टंगे चांद को देख कर ये ख्याल आया था कि क्या हमारी तरह चांद भी बारिश में भीग जाता होगा? क्या घुटने जोड़ कर, दो नों हाथों के बीच सर छिपा कर वो भी इस ठिठुरन भरे मौसम में अपनी जान बचाता होगा? मैंने खि ड़की से ऐसा ही एक भीगा हुआ चांद देखा। तेज़ बौछार में उसके कपड़े जब टपकते होंगे तो क्या वो उन्हें सुखाने के लिए दो उजले तारों के बीच फैला कर लटका देता होगा? वहीं, बस वहीं मुझे अधूरेपन का अहसास हुआ। वहीं, बस वहीं मैंने एक कहानी लिखने का फ़ैसला किया। वहीं, बस वहीं मैंने भाग जाने की सोची। वहीं, बस वहीं मैंने ‘कमीने’ के गीत सुने। जैसे पहली बार सुने, जैसे आख़‍िरी बार सुने। ढैन टे णे टेणे नेणे 4:45 (सुखविंदर सिंह, विशाल डडलानी, रॉबर्ट बॉब) आजा आजा दिल निचोड़े, रात की मटकी तोड़े। कोई गुडलक निकालें, आज गुल्लक तो फोड़ें। विशाल को शायद शेक्सपियर के साथ लम्बी संगत का यह गुण मिला है कि वे आदिम मनोभावों को सबसे बेहतर पहचानने लगे हैं। इसी संगत का असर है कि विशाल मुम्बइया सिनेमा की सबसे आदिम धुन खोज लाये हैं। ढैन टै णे टेणे टेणे… हमेशा से मौजूद हमारे बॉलीवुडीय मसाला सिनेमाई मनोभावों को अभि व्यक्त करने वाली सबसे आदिम धुन। इस धुन का बॉलीवुड के लिए वही महत्व है जो हॉलीवुड के लि ए ‘द गुड, द बैड एंड द अगली’ की शीर्षक धुन का था। मुझे लगता है मैं इस धुन को सालों से जानता हूं। इस धुन के साथ सत्तर के दशक के अमिताभीय सिनेमा से अस्सी के दशक के मिथुन चक्रवर्तीय सिनेमा तक सिनेमा की एक पूरी किस्म अपने सारे फॉर्मूलों के साथ जी उठती है। यह महा (खल) नायक के दौ र से आयी आदिम धुन है। मारक असर वाली। सुखविंदर की हमलावर आवाज़ के साथ। हमेशा की तरह गुलज़ार बेहतर प्रयोग करते हैं। हालांकि इस गीत में कोई चमत्कारिक प्रयोग नहीं है लेकिन संगीत की बुलन्दी उसे ढक लेती है। कहते हैं मुम्बई शहर कभी सोता नहीं। कहते हैं मुम्बई शहर रात का शहर है। यह गीत मुम्बई में ही होना था। यह सड़क का गाना है। रात में जागती सड़क का गाना। इसमें बहुत साल पहले जावेद अख़्तर के लिखे ‘सो गया ये जहां’ का आवारापन घुला है। विनोद कुमार शुक्ल ने ‘नौकर की कमीज़’ में लिखा था, “घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है। लौटने के लिए खुद का घर ज़रूरी होता है।” ओये लक्की लक्की ओये से कमीने तक, क्या हम नष्ट/छूटे घर की तलाश में अनवरत भटकते नायकों की कथाएं रच रहे हैं। रात आयी तो वो जिनके घर थे वो घर को गये सो गये रात आयी तो हम जैसे आवारा फिर निकले राहों में और खो गये इस गली, उस गली इस नगर उस नगर जाएं भी तो कहां जाना चाहें अगर सो गयी हैं सारी मंज़िलें सो गया है रस्ता पहली बार मोहब्बत 5:24 (मोहित चौहान) याद है पीपल के जिसके घने साये थे, हमने गिलहरी के झूठे मटर खाये थे। ये बरक़त उन हज़रत की है, पहली बार मोहब्बत की है। आख़‍िरी बार मोहब्बत की है। यह दूर पहाड़ों का गीत है। यह गाना पानी वाला गाना है। ठंडे पानी वाला गाना। रसोई के पीछे अलावघर से बुलाती उसकी आवाज़। बर्फीले पानी वाला गाना। कुड़कुड़ी वाले सर्द मौसम के बीच मिट्टी के कुल्हड़ में गरमागरम धुआं उड़ाती चाय। कुछ है जो बहता हुआ है। नम। जैसे सुनो और भीग जाओ। देवदार। इस गाने की फ़ितरत में ठिठुरन है। कोयले की सिगड़ी, जिसमें फूंक मारते ही कोयले का रंग स्याह से बदल कर सुनहरा हो जाता है। ऊना, चोप्ता, लद्दाख, दार्जिलिंग। कहते हैं कि अगर दार्जिलिंग में एड़ी के बल उचक कर ऊपर को देखो तो दूर कंचनजंघा दीख पड़ता है। मैं बस इस गाने को सुनने के लिए पहली बार पहाड़ों पर जाऊं, आख़‍िरी बार पहाड़ों पर जाऊं। मोहित चौहान को मैंने ‘गुंचा कोई मेरे नाम कर दिया’ के साथ खोजा था, दुनिया ने ‘तुमसे ही दिन होता है’ के साथ पाया। अब उन्हीं के लिए गीत रचे जा रहे हैं। सुनिएगा, जब ‘पहली बार… मो हब्बत की है’ के साथ गीत ऊपर जाता है तो किसी चीड़ या देवदार की सी ऊंचाई का एहसास होता है। गुलज़ार फिर एक बार ‘सोये वोये भी तो कम हैं’ जैसे प्रयोगों के साथ दिल जीत लेते हैं। एक सच्चे प्रेम-गीत की तरह यह भी ढेर सारी पुरानी यादों से गुंथा हुआ गीत है। घने साये वाले पीपल के नीचे खाये गिलहरी के झूठे मटर वाला किस्सा इस गीत की जान है। इस गीत का नशा धीरे धीरे चढ़ता है। ‘रात के ढाई बजे’ से उलट यह गीत पहली नज़र का प्यार नहीं, साहचर्य का प्रेम है। आप पर आता ही जाता है, आता ही जाता है, आता ही जाता है। रात के ढाई बजे 4:31 (सुरेश वाडकर, रेखा भारद्वाज, सुनिधि चौहान, कुणाल गांजावाला, अर्ल ईडी) एक ही लट सुलझाने में सारी रात गुज़ारी है चांद की गठरी सर पे ले ली आपने कैसी ज़हमत की है यह पहली नज़र का प्यार है। शुरू में ही शहनाई की बदमाश आवाज़ नोटिस करें। रैप का प्रयोग इतना उम्दा है कि हम यह भूल ही जाते हैं कि विशाल के लिए यह बिलकुल नया प्रयोग है। हमारे समय के कुछ सबसे बेहतरीन गायकों की गायकी के बीच रैप कुछ इस तरह पिरोया गया है कि अठखेली को एक और रूप तो मिलता है लेकिन गी त की तन्मयता टूटने नहीं पाती है। यह विशाल की वैरायटी है ‘सपने में मिलती है’ की मासूम बदमा शी से ‘कल्लू मामा’ के उजड्डपन तक और ‘छोड़ आये हम वो गलियां’ के नॉस्टेल्जिया से ‘तुम गए सब गया’ के मृत्युबोध तक। इस गीत की गायकी के बारे में कुछ बात विस्तार से। रेखा भारद्वाज और सुनिधि चैहान इस वक़्त हमारी सबसे वर्सटाइल गायिकाओं में से हैं। दोनों की आवाज़ की बदमाशी अब तो जगज़ाहिर है। अगर आप आवाज़ों की मूल प्रकृति पहचानते हैं तो जान जाएंगे कि इस गीत में सुरेश वाडकर की आवाज़ का क्या महत्व है। इस सांसारिक मोहमाया में फंसे साधारण इच्छाओं के गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ अचानक एक ‘पवित्रताबोध’ देती है, जैसे उसे कुछ ऊंचा उठा देती है। गौर करें कैसे कुणाल गांजावाला अपनी चार लाइनों में कुछ अठखेलियां करते हैं और आख़‍िर में टाऊ णाऊ भी, लेकिन उन्हीं पंक्तियों को गाते हुए सुरेश वाडकर कितने सटीक हैं। सुरेश की आवाज़ चीनी घुली आवाज़ों के बीच गुड़ की मिठास है। और विशाल इसे बखूबी पहचानते हैं। तभी तो दूसरे अंतरे में पहली तीन लाइनें तो कुणाल की आवाज़ में हैं लेकिन ‘भोले भाले बन्दे’ में अचानक सुरेश वाडकर की आवाज़ आती है और उसे कितना, कितना विश्वसनी य बनाती है। मैं कुणाल और सुनिधि का भी बड़ा फैन हूं लेकिन मुझे कहीं गहरे यह लगता है कि इस गीत पर पूरा हक रेखा भारद्वाज और सुरेश वाडकर का ही होना था। मैं पूरे गीत में उनकी आवाज़ का इंतज़ार करता हूं। शायद उनके हिस्से का असल गीत अभी बाकी है। विशाल सुन रहे हैं न? फटक 5:03 (सुखविंदर सिंह, कैलाश खेर) ये इश्क नहीं आसां, अजी एड्स का खतरा है। पतवार पहन जाना, ये आग का दरिया है। आक्रामक गाना है। हमला करता हुआ। वैसे भी सुखविंदर और कैलाश हमारी सबसे बुलन्द आवाज़ें हैं। थीम बैकग्राउंड बीट है ‘फटाक’, किसी वाद्ययंत्र से नहीं कोरस आवाज़ में। टिपिकल विशाल का अंदाज़। सत्या के ‘कल्लू मामा’ में भी ‘ढिशक्याऊं’ की धुन इसी अन्दाज़ में आती थी। यह यथार्थवाद का विशाल का अपना तर्जुमा है। बीच में ढोल का प्रयोग एम एम करीम से रहमान तक बहुत से और लोगों के काम की याद दिला जाता है। बहुत ही लिरिकल है, सीधे ज़बान और दिमाग़ पर चढ़ने वाला। इंस्टैंट असर के लिए। गुलज़ार के प्रयोग भी अपनी पूरी बुलन्दी पर हैं। इस बार तो सामाजिक संदेश भी साथ है। ‘रात का जाया रे’ जैसे प्रयोग फिर गीत को सतह से थोड़ा गहरे ले जाते हैं। कमीने 5:57 (विशाल भारद्वाज) जिसका भी चेहरा छीला, अन्दर से और निकला। मासूम सा कबूतर, नाचा तो मोर निकला। कभी हम कमीने निकले, कभी दूसरे कमीने। सोल ऑफ़ द एलबम। पूरी तरह विशाल छाप गाना जिसमें इस बार आवाज़ भी खुद विशाल की है। इस गी त में कुल बीस बार कमीने शब्द आता है फिर भी मैं कहना चाहूंगा कि यह इस दशक का सबसे मासूम गी त है। सबसे ईमानदार गीत। ऐसी ईमानदारी जो शायद आपके भीतर की उस सच्चाई को जगा दे, जि सका सामना करने से आप खुद भी डरते हैं। इस गीत की प्रकृति कुछ-कुछ ‘सच का सामना’ की कुर्सी पर बैठने जैसी है। यह गीत डायरी लिखने जैसा ईमानदार काम है। यह अपने ही भीतर के स्याह हिस्से की उजली तलाश है। यह गीत न्यू वेव हिन्दी सिनेमा का थीम सांग हो सकता है। यह वो सारे भाव अपने भीतर समेटे है जिसकी तलाश दिबाकर बनर्जी से अनुराग कश्यप तक अपने सिनेमा में करते रहे हैं। यह सही समय है कि एक ‘पल्प फिक्शन’ हमारे यहां भी आये, कोई टैरेन्टीनो हमारे यहां भी जिन्दगी के उन स्याह हिस्सों की तलाश में निकले जिन्हें शेक्सपियर के ओथेलो से ओमकारा तक और मैकबैथ से मक़बूल तक खोजा ही जाता रहा है। विशाल, अब हम आपके इंतज़ार में हैं। mihir pandya1 (मिहिर हमारे समय के उभरते सबसे क्रिएटिव फिल्‍म समीक्षकों में से एक हैं। उन्‍होंने कमीने की संगीत समीक्षा के साथ ही हिंदी में ये नया चलन शुरू किया From vineetdu at gmail.com Thu Aug 13 10:58:21 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 13 Aug 2009 10:58:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSY4KSs4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSH4KSPIOCkqOCkueClgOCkgiwg4KSH4KS4IOCkquCli+CkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSfIOCkleCliyDgpKrgpKLgpLzgpJXgpLAg4KS44KWN4KS14KS+4KSH?= =?utf-8?b?4KSoIOCkq+CljeCksuClgiDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS54KWL4KSX4KS+?= Message-ID: <829019b0908122228h7c03d3e6yd364ec8fb7238df4@mail.gmail.com> धीरे-धीरे,एक-एक करके सब कटते चले गए। जिनलोगों को दिनभर में पांच बार कभी कैंची,कभी फैबीकोल,कभी मूव और कभी फिल्मों की सीडी जैसी छोटी-मोटी चीजों की जरुरत होती,अब उन्होंने मुझे छोड़ किसी और को विकल्प के तौर पर चुन लिया है। उन्हें जैसे ही इस बात की जानकारी हुई कि मुझे पिछले पांच दिनों से बुखार है,छींकें आती हैं,रह-रहकर खांसी भी उठ जाती है यानी वो सबकुछ होता है जिसे दिखा-बताकर मरा-गिरा चैनल भी इन दिनों अपनी सेहत दुरुस्त करने में जुटा है,वो हमसे किनाराकशी करते चले गए। जाहिर सी बात है कि इतनी छोटी-मोटी चीजों के लिए वो अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहते। बाथरु घुसते ही लोग एक साइड हो जाते हैं। मुझे कुछ हो गया,मर-मुरा गए तो फिर भी ब्लॉगर-पत्रकार भाइयों के सहयोग से एक छोटी ही किन्तु शोक-सभा हो जाएगी,लोग मुझे याद भी करेंगे लेकिन बाकियों का क्या होगा जिसे कि कैंपस में ही दस आदमी भी ठीक से नहीं पहचानता। मजाक में ही सही,लेकिन उस बंदे ने बात तो सही ही कही,इसलिए बाकियों को हमसे दूर रहने और अधिक जीने और कुछ नाम-शोहरत कमाने का पूरा हक है। जो कल तक हमारे संडे फ्रूट के उपर का ड्राइ फ्रूट छांट-छांटकर खाते रहे,चलिए डॉक्टर साहब आपको कमलानगर में कन्टाप-कन्टाप माल दिखाकर लाते हैं,मोमोज खिला लाते हैं,पटेल चेस्ट से घूमकर आते हैं,आज वो फोन से हाल जानना चाहते हैं-कहिए कैसे हैं। मेरी मिरमिरायी आवाज पर ठहाके लगाते हैं,अरे आपको कुछ नहीं हुआ है-आपको दू-चार दिन लेडिस-उडिस का साथ मिल जाएगा तो दुइए मिनट में टनमना जाइएगा। मेरा दोस्त देवघर में परेशान है,मैं फोन नहीं उठा पाता हूं। वो बताते हैं कि अभी डॉक्टर से अंदर दिखवा रहे हैं,कुछ खास नहीं हुआ है,बस ओही बीमारी..जिसका एक ही इलाज है...हा हा हा..आप तो सब जानवे करते हैं। धीरे-धीरे फोन भी आने बंद हो जाते हैं। रोग-बीमारी तो होता ही रहता है,आदमी कितना फोन करे,आखिर अपनी भी तो लाइफ है न। ये हम जैसों का हाल है जिसे कि सरकार की ओर से लगभग सारी सुविधाएं प्राप्त है। आजतक के रिपोर्टर अमित चौधरी ने जब कहा कि दिल्ली के कई ऐसे परिवार हैं जो कि एक ही कमरे में गुजारा करते हैं,सरकार को चाहिए कि किसी एक के बीमार हो जाने पर बाकी लोगों के रहने का इंतजाम करें। क्या ये सवाल सिर्फ जगह मुहैय्या कराने भर का है या फिर कन्शसनेस के नाम पर अलग-थलग होने,पड़ जाने,कर दिए जाने या फिर बीमारी के बहाने कई चीजों के चटक जाने का है। कमरे में अकेले पड़ा-पड़ा मैं कई चीजें याद करता हूं,एक साथ। बीमारी हमें फ्लैशबैक में जाने का भरपूर मौका देती है,बीती हुई जिंदगी को याद करने का मौका। इसे याद करना,एक-एक क्षणों को खोल-खोलकर याद करते हुए दुहराना कुछ-कुछ वैसा ही लगता है जैसे आप घर से आयी चीजों को एक-एक करके खोलते हैं। ऐसे समय में एल्बम देखना अच्छा लगता है। एक-एक सर्टिफिकेट को देखना अच्छा लगता है,आर्चिज औऱ हॉलमार्क के उन कार्डों को देखना अच्छा लगता है जिसके बारे में सोचते हुए आफ सिहर जाते हैं कि अगर इसे कभी होनेवाली पत्नी देख लेगी तो।..फिर आप जमाने को गाली देते हुए कहते है...चुतिए स्साले। क्या है ऐसा इसमें,किसी ने प्यार से दिया है तो इसमें दिक्कत क्या है,आप अपनी ही पीठ ठोकते हुए कहते हैं-होने दो शादी,सारे कार्ड दिखाउंगा,एक ही रजाई में दोनों प्राणी पैर डालकर साथ देखें और पढेंगे इन कार्डों को। पत्नी हम पर शक करने के बजाए उन लड़कियों पर हंसेगी,सो स्वीट। किसी कार्ड पर ठहाके लगाएगी..मेरी इच्छाओं की प्रतिध्वनि..ओह माइ गॉड,ये हिन्दीवाली भी न।..हम फुलकर कुप्पा हो जाते हैं,ऐसा सोचते हुए कि मेरी पत्नी कितनी ब्रॉडमाइंडेड होगी। मां याद आती है,ऐसे समय में अक्सर। बीमारी के वक्त मां जब भी याद आती है तो बस एक ही मुद्रा में। ट्वायलेट के आगे रुपाली स्याही की खाली बोतल से बनी ढिबरी लिए मां। देर होने पर अधखुले दरवाजे होने पर भी कोई आवाज न आने पर घबराकर आवाज लगाती मां। वो सारी लड़कियां जिसने कभी भी हमें छुआ हो,अपनी सीट पर काम करते रहने की स्थिति में पीछे से कंधा दबाने वाली लड़की,जिससे ये कहने पर कि बहुत अच्छा लगता है,थोड़ा देर और दबाओ न,बिदककर कहनेवाली लड़की-शक्ल देखी है आइने में। बॉस के बार-बार कहने पर कि कितना क्यूट है-सीढ़ी पर एकांत में मेरी क्यूटनेस को महसूस करनेवाली लड़की। जाने दोगी कि नहीं,वो कहती-नहीं जाने दूंगी। लाचार होकर मैं कहता-अगर नहीं जाने दोगी तो मैं कुछ कर दूंगा। तभी वो कहती-सो क्यूट,क्या कर दोगे। उसी वक्त वो लड़कियां भी याद आती जिससे एक बार हाथभर छू जाए तो पता नहीं घर जाकर कितनी बार मेडिमिक्स से हाथ धोती होंगी। बीमारी के वक्त एक-एक करके सब याद आते हैं। जिन्हें नहीं पता कि मैं बीमार हूं,वो अपने काम से फोन करते हैं। जैसा कि इंसान औपचारिक होने की स्थिति में कहता है-औऱ कैसे हो। मैं कहता हूं-बीमार हूं। किसी चीज की जरुरत हो,तुरंत बताना। ये बात उन्हें भी पता है कि हमें किस चीज की जरुरत होगी,जो भी बीमार हुआ है वो मेरी आज की पोस्ट की शैली पढ़कर समझ सकता है ऐसे में किसी को क्या चाहिए होता है। उस फेज से हम बाहर आ गए हैं,जब 200-500 रुपये के चलते सर्दी,खांसी,बुखार जैसी बीमारियों को लेकर बैठे हुए हैं।..तो फिर क्या चाहिए हमें। इसी बीच मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज सर लगातार फोन करते हैं-कैसी है तबीयत,सुनो शहद के साथ हल्दी मिलाकर चाटा करो,इधर-उधर की बातें करके फिर फोन रख देते हैं। तीन घंटे बाद फिर फोन करते हैं- अरे सुनिए तो,गरम पानी नियमित चाय की तरह पिया कीजिए,आराम मिलेगा। फिर अगले दिन,आप बैचलर हैं,सांड की तरह रहा कीजिए,फिर गृहस्थी में तो फंसना ही है। मैं हंसने की कोशिश करता हूं,खांसी उठती है-सर,मत हंसाइए प्लीज। मुझे अच्छा लगता है। मैं दो-चार दिनों में ठीक हो जाउंगा,तय है क्योंकि मौत आनेवाली बीमारी का आभास अलग तरीके का होता है लेकिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में अक्सर बोला जानेवाला शेर मुझे अब कुछ इस तरह से याद आता है- बस एक ही स्वाइन फ्लू काफी है, बर्बाद हर रिश्ते के करने को हर साल जो एक फ्लू आता है अंजाम-ए-रिश्ता क्या होगा। वैसे सच कहूं,हम जैसे लोगों को जो कि अक्सर गुमान होता है कि हमें दिल्ली में जाननेवाले लोग इतने हैं,ये मेरा सोशल कैपिटल है,हम फुलकर बारा हुए रहते हैं,जरुरी है कि कभी-कभी ऐसी बीमारी होती रहनी चाहिए ताकि हम अपने संबंधों के अकाउंट्स की ऑडिटिंग बेहतर तरीके से करते रह सकें। अब देखिए न,इतना बड़ा शहर,इतने लोग लेकिन सब...कोई दिक्कत हो तो बताना शैली में जीनेवाले लोग। कल को फिर कहने वाले लोग...हद करते हो यार,इतने दिनों तक बीमार रह गए और एक फोन तक नहीं किया,इट्स नॉ फेयर।...नो..नेवर।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090813/dec8f856/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Tue Aug 11 21:33:28 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 11 Aug 2009 21:33:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KSCIOCkleClgCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSF4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIDog4KS14KS/4KSo4KWA4KSkIOCkieCkpOCljeCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy?= In-Reply-To: <190a2d470908110901n5c60d370mfe964c067502902@mail.gmail.com> References: <190a2d470908110901n5c60d370mfe964c067502902@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470908110903g4ec75561xbbf70023a4978919@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: vinit utpal Date: 2009/8/11 Subject: विवादों की हिंदी अकादमी : विनीत उत्पल To: avinashonly at gmail.com *विवादों की हिंदी अकादमी* : *विनीत उत्पल* जब साहित्य पर राजनीति और नौकरशाही हावी हो जाती है तो रचनात्मकता के लिए जगह की गुंजाइश कम हो जाती है। ऐसे में बहुतेरे विवाद इस कदर घुलमिल जाते हैं कि उनको अलग करना काफी कठिन होता है। कभी पद को लेकर बवाल उठ खड़ा होता है तो कभी पुरस्कार व सम्मान देने के निर्णय को चुनौती का सामना करना पड़ता है. लोकप्रिय और गंभीर लेखन और इससे इतर भी सवालिया निशान लगाए जाने लगते हैं। इस बीच हिन्दी अकादमी को लेकर जिस कदर कई मामले चाहे- अशोक चक्रधर को उपाध्यक्ष बनाने का हो या अकादमी की स्वायत्तता के साथ-साथ शलाका सम्मान को लेकर बवाल, काफी गंभीर हैं और अकादमी की छवि पर सवाल भी। हिन्दी अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक को उपाध्यक्ष के पद के लिए दिल्ली सरकार ने मनोनीत किया और इसके साथ ही लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को लेकर विवाद खड़ा हो गया। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जो लेखन लोक से जितना दूर रहता है वह उतना ही गंभीर कहलाता है और हास्य-व्यंग्य से जुड़े साहित्यकारों को ‘विदूषक’ कहा जाता है। जैसा कि अशोक चक्रधर के मामले में हुआ। शलाका सम्मान को लेकर भी अकादमी की कार्यकारिणी से लेकर संचालन समिति तक कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जिस कदर कृष्ण बलदेव वैघ को श्लाका सम्मान देने को लेकर डॉ. नित्यानंद तिवारी से लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने इस्तीफा दिया, वह अकादमी के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। ए क नेता के पत्र लिखने पर कि वैघ अश्लील लेखन करते हैं, वास्तव में साहित्यिक दिवालियापन ही माना जाए गा। क्योंकि इससे काफी हद तक साहित्य पर राजनीति के हावी होने की बू आती है। अकादमी के 28 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सचिव के सामने इतनी विकट परिस्थिति आ गई कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही इस्तीफा देना उचित समझा। पुरस्कार या सम्मान मिलना ए क अलग मसला है और रचनात्मक क्षमता के साथ भविष्वदृष्टा होना अलग मसला। गलती कहीं भी किसी से भी हुई हो गलती स्वीकार कर क्षमा मांगने से किसी का कद छोटा नहीं हो जाता। निर्णय पर पुनर्विचार करने की गुंुजाइश हमेशा बनी रहती है। ‘नृप होई कोऊ हमें का हानी’ वाली बात साहित्य को याद रखने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का दायरा काफी व्यापक है। इस पर लगातार तकनीक और सूचना का दबाव है। साथ ही राजनीति की रोटी भी इसके सहारे जमकर सेंकी जाती रही है और जाती है। लेकिन साहित्यकार चाहे वह किसी भी सोच व समझ के हों, उन्हें बौद्धिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। हिटलरशाही की जगह लोकतंत्र में विश्वास करना होगा और ए क मंच पर बैठकर अपनी बातों को रखने का साहस भी जुटाना होगा। इस्तीफे देना या लेना, पुरस्कार या सम्मान देना या न देना, पद मिलना या न मिलना इतनी तुच्छ बातें हैं जिसका तत्कालीन संदर्भ में मायने तो होता है लेकिन कालजयी तो रचना और रचना प्रक्रिया से आए तत्व ही होते हैं। ---------------------------------------------- *आलोचना ही नहीं आत्मलोचना भी हो : अशोक चक्रधर* हित स्वार्थगत, परमार्थिक, अथवा परम आर्थिक कारणों से जब भी कोई विवाद जन्म लेता है तो किसी निरीह अथवा समर्थ की बलि लेना चाहता है। मुझे लगता है कि अंतरंग कारण कुछ और हैं, निशाना मुझे बना दिया गया। निजी तौर पर मेरा भारी अहित हुआ है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, आर्थिक लाभ का नहीं। इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम होता है दिशा-निर्देश और परामर्श देना। पुरस्कारों को लेकर जो विवाद हैं वे मेरे आने से पहले के हैं। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा बन रही है। अभी तो मैं चीजों को समझने की प्रक्रिया में हूं। मेरी कार्यशैली पर अनावश्यक कयास लगाए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हिन्दी-प्रेमी समाज और मेरे देशवासी विभिन्न संचार माध्यमों के कारण, अनगिन छात्र विभिन्न विश्वविघालयों में मेरी अध्यापकीय सक्रियता के कारण, हिन्दी के भविष्य की चिंता रखने वाले मेरे कम्प्यूटर-कर्म के कारण, कुछ दर्शक मेरी अभिनय-प्रस्तुति और फिल्म-लेखन-निर्देशन-कार्यों के कारण, दशकों से मुझे प्यार करते हैं। यह प्रेम मेरी पूंजी है। लेकिन कुछ हैं जो केवल‘ हास्य कवि’ कहकर ए कांगी छवि बनाना चाहते हैं। ‘हास्य-कवि’ कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। वे हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का मानते है। लोकप्रियता क्योंकि उनके हिस्से में नहीं आ सकी, इसलिए उससे नफरत करते हैं। जनतंत्र सभी को बोलने का अधिकार देता है, साथ ही कर्तव्यों का बोध भी कराता है। मैं मानता हूं कि विवादों को विमर्श की दिशा में मुड़ना चाहिए । करिए , विमर्श करिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराए ं हैं? हर धारा में गंभीर और अगंभीर तत्व होते हैं, उनकी पहचान कैसे की जाए ? किसी संस्था के उद्देश्य क्या हैं? हिन्दी अकादमी का कार्य क्या केवल साहित्य का पोषण है या हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार से भी उसका कुछ लेना-देना है? साहित्य लोकप्रिय भी होता है और शास्त्रीय भी। जनता की भाषा को लेकर शास्त्रीय लोग हमेशा ही कुपित होते रहे हैं। वे लोकप्रिय साहित्यकार को गंभीर मानते ही नहीं। मैं पूछता हूं कि क्या लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य नहीं है? और क्या सारा कथित गंभीर साहित्य सचमुच गंभीर है? साहित्य का आकलन विचार-चिंतन और जीवन- मूल्यों के आधार पर किया जाना चाहिए । देखना चाहिए कि किसका साहित्य समाज को बीमार बनाता है और किसका स्वस्थ। हंसी तो स्वास्थ्य की निशानी है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं हिन्दी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। इसलिए धैर्य न खोए ं, काम करने दें, उतावली न करें। अपमान की भाषा अच्छी नहीं होती है। आलोचना करने वाले आत्मालोचना भी करें। सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक न बनें। मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है, मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विवि स्तर पर मानक मानी जाती हैं। मुक्तिबोध ने सिखाया है कि अनुभव प्रक्रिया से विवेक निष्कर्षों तक पहुंचो और निष्कर्षों को क्रियागत परिणति तक पहुंचाआ॓। मेरा हास्य व्यंग्य लेखन भी इस शिक्षा से प्रभावित रहा है। ----------------------------------------------------------------------------------- *क्या कहता है साहित्य जगत* *विवाद के कारण हुआ बैचैन : विश्वनाथ त्रिपाठी* हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद, सचिव पर दबाब डालकर इस्तीफा देने और शलाका सम्मान को लेकर हुए विवाद ने बैचन कर दिया है। पिछले दो सालों में मैं अकादमी की किसी बैठक में नहीं जा पाया। मैंने हिंदी अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफा दिया है, अकादमी से नहीं। मैं उम्र को देखते हुए अपना समय रचनात्मक कामों में लगाना चाहता हूं। जहां तक अशोक चक्रधर के उपाध्यक्ष बनाये जाने का सवाल है, मैं न तो उसके विरूद्ध हूं और न ही साथ खड़ा हूं। जिस कदर उन्हें लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, ए ेसे में उन्हें उपाध्यक्ष के नाते तटस्थ रहने को लेकर बयान देना चाहिए , जिससे पता चले कि जो उनका विरोध कर रहे हैं और जो दोस्त हैं, उनके लिए बतौर उपाध्यक्ष समान भाव रखते हैं। *अकादमी की छवि को हो सकता है नुकसान : अर्चना वर्मा* हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद साहित्य के उस प्रतिनिधि को दिया गया है जो मंचीय है, गंभीर नहीं है। अशोक चक्रधर के अलावा सुरेंद्र शर्मा भी कई सालों से संचालन समिति में शामिल हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई पद दे दिया जाए । हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अकादमी के सबसे महंगे कार्यक्रम मंचीय ही होते हैं। जहां नित्यानंद तिवारी, विश्वनात्र त्रिपाठी जैसे गंभीर लोग मौजूद हों, वहां उन्हें उपाध्यक्ष पद देने से अकादमी की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है। साहित्य-संस्कृति अकादमी को राजनीति दुम समझती है। अशोक चक्रधर से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन उनकी जो छवि है उससे अकादमिक छवि को नुकसान हो सकता है। *विपरीत परिस्थितियां है कारण : ज्योतिष जोशी* अकादमी की विपरीत परिस्थितियों के कारण मेरे लिए वहां काम करना संभव नहीं था। यहां गंभीर कार्यक्रमों, महत्वपूर्ण अकादमिक पुस्तकों के प्रकाशनों और उनकी संभावनों और योजनाओं में कमी के आसार दिख रहे थे। ए ेसे में मुझे लगा कि मेरी यहां कोई रचनात्मकता और प्रभावी भूमिका नहीं रहने वाली है। जिस उद्देश्य को लेकर मैं काम कर रह था, वह हिंदी अकादमी की स्थापना के मूल उद्देश्य थे। इससे यह भटकता दिखा तो यहां से मुक्ति पाना ज्यादा उचित लगा। *मनोरंजक साहित्य इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग : नित्यानंद तिवारी* मैंने अशोक चक्रधर की वजह से इस्तीफा नहीं दिया है। मैंने इस्तीफा पिछली कार्यकारिणी में कृष्ण बलदेव वैघ का शलाका सम्मान स्थगित करने को लेकर दिया है। मैंने तय किया था कि यह मामला फिर जब कार्यकारिणी के सामने आए गा तो इस बार भी वैघ के नाम पर ही जोर दूंगा लेकिन संचालन समिति इसके कार्यकाल से पहले ही भंग कर दी गई। ए ेसे में मैंने काफी पहले ही त्यागपत्र देने का मन बना लिया था। उस वक्त तक तो अशोक आए भी नहीं थे। हां, ए क अखबार में खबर आई थी कि अशोक चक्रधर ने कहा कि मैं मंच का कवि हूं और साहित्य को मनोरंजन मानता हूं। हालांकि मैं इस बयान का विरोध कार्यकारिणी में रहते भी कर सकता था। अशोक से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन अफसर और राजनेता के सीधे हस्तक्षेप का विरोध अवश्य है। साहित्य संबंधी उनके विचार को लेकर मेरा विरोध था। हास्य-व्यंग्य लेखन काफी कठिन काम है लेकिन मंच के जरिए पैसे कमाना या उपभोक्ता पैदा करने वाली भाषा साहित्य कैसे हो सकता है। साहित्य यदि मनोरंजन करता है तो वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग हो गया। *स्वायत्ता व कामकाज इस्तीफे का कारण : बृजेन्द्र त्रिपाठी* मेरा इस्तीफा अकादमी की स्वायत्ता और कामकाज को लेकर है। शलाका सम्मान को लेकर जिस तरह कृष्ण बलदेव वैघ के बारे में कहा गया कि वह अश्लील लेखक हैं, यह बहुत अशोभनीय है। यदि पुरस्कार और सम्मान को लेकर नौकरशाह और सरकार के कहने पर अमल हो तो यह गलत है। फैसला लेखकों और साहित्यकारों पर छोड़ा जाना चाहिए । जब सब सरकार ही तय करेगी तो साहित्यकार वहां क्या करेंगे। जहां तक अशोक चक्रधर के अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का सवाल है, मेरा इस्तीफा इस मामले से नहीं जुड़ा है। मेरा इस्तीफा स्वायत्तता को लेकर है व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं। (यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में रविवार यानि नौ अगस्त,२००९ को मंथन पेज पर छपा है. ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090811/980fefcc/attachment-0002.html From vinitutpal at gmail.com Tue Aug 11 21:33:28 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Tue, 11 Aug 2009 21:33:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KWL4KSCIOCkleClgCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSF4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSm4KSu4KWAIDog4KS14KS/4KSo4KWA4KSkIOCkieCkpOCljeCkqg==?= =?utf-8?b?4KSy?= In-Reply-To: <190a2d470908110901n5c60d370mfe964c067502902@mail.gmail.com> References: <190a2d470908110901n5c60d370mfe964c067502902@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470908110903g4ec75561xbbf70023a4978919@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: vinit utpal Date: 2009/8/11 Subject: विवादों की हिंदी अकादमी : विनीत उत्पल To: avinashonly at gmail.com *विवादों की हिंदी अकादमी* : *विनीत उत्पल* जब साहित्य पर राजनीति और नौकरशाही हावी हो जाती है तो रचनात्मकता के लिए जगह की गुंजाइश कम हो जाती है। ऐसे में बहुतेरे विवाद इस कदर घुलमिल जाते हैं कि उनको अलग करना काफी कठिन होता है। कभी पद को लेकर बवाल उठ खड़ा होता है तो कभी पुरस्कार व सम्मान देने के निर्णय को चुनौती का सामना करना पड़ता है. लोकप्रिय और गंभीर लेखन और इससे इतर भी सवालिया निशान लगाए जाने लगते हैं। इस बीच हिन्दी अकादमी को लेकर जिस कदर कई मामले चाहे- अशोक चक्रधर को उपाध्यक्ष बनाने का हो या अकादमी की स्वायत्तता के साथ-साथ शलाका सम्मान को लेकर बवाल, काफी गंभीर हैं और अकादमी की छवि पर सवाल भी। हिन्दी अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक को उपाध्यक्ष के पद के लिए दिल्ली सरकार ने मनोनीत किया और इसके साथ ही लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को लेकर विवाद खड़ा हो गया। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जो लेखन लोक से जितना दूर रहता है वह उतना ही गंभीर कहलाता है और हास्य-व्यंग्य से जुड़े साहित्यकारों को ‘विदूषक’ कहा जाता है। जैसा कि अशोक चक्रधर के मामले में हुआ। शलाका सम्मान को लेकर भी अकादमी की कार्यकारिणी से लेकर संचालन समिति तक कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जिस कदर कृष्ण बलदेव वैघ को श्लाका सम्मान देने को लेकर डॉ. नित्यानंद तिवारी से लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने इस्तीफा दिया, वह अकादमी के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। ए क नेता के पत्र लिखने पर कि वैघ अश्लील लेखन करते हैं, वास्तव में साहित्यिक दिवालियापन ही माना जाए गा। क्योंकि इससे काफी हद तक साहित्य पर राजनीति के हावी होने की बू आती है। अकादमी के 28 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सचिव के सामने इतनी विकट परिस्थिति आ गई कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही इस्तीफा देना उचित समझा। पुरस्कार या सम्मान मिलना ए क अलग मसला है और रचनात्मक क्षमता के साथ भविष्वदृष्टा होना अलग मसला। गलती कहीं भी किसी से भी हुई हो गलती स्वीकार कर क्षमा मांगने से किसी का कद छोटा नहीं हो जाता। निर्णय पर पुनर्विचार करने की गुंुजाइश हमेशा बनी रहती है। ‘नृप होई कोऊ हमें का हानी’ वाली बात साहित्य को याद रखने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का दायरा काफी व्यापक है। इस पर लगातार तकनीक और सूचना का दबाव है। साथ ही राजनीति की रोटी भी इसके सहारे जमकर सेंकी जाती रही है और जाती है। लेकिन साहित्यकार चाहे वह किसी भी सोच व समझ के हों, उन्हें बौद्धिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। हिटलरशाही की जगह लोकतंत्र में विश्वास करना होगा और ए क मंच पर बैठकर अपनी बातों को रखने का साहस भी जुटाना होगा। इस्तीफे देना या लेना, पुरस्कार या सम्मान देना या न देना, पद मिलना या न मिलना इतनी तुच्छ बातें हैं जिसका तत्कालीन संदर्भ में मायने तो होता है लेकिन कालजयी तो रचना और रचना प्रक्रिया से आए तत्व ही होते हैं। ---------------------------------------------- *आलोचना ही नहीं आत्मलोचना भी हो : अशोक चक्रधर* हित स्वार्थगत, परमार्थिक, अथवा परम आर्थिक कारणों से जब भी कोई विवाद जन्म लेता है तो किसी निरीह अथवा समर्थ की बलि लेना चाहता है। मुझे लगता है कि अंतरंग कारण कुछ और हैं, निशाना मुझे बना दिया गया। निजी तौर पर मेरा भारी अहित हुआ है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, आर्थिक लाभ का नहीं। इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम होता है दिशा-निर्देश और परामर्श देना। पुरस्कारों को लेकर जो विवाद हैं वे मेरे आने से पहले के हैं। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा बन रही है। अभी तो मैं चीजों को समझने की प्रक्रिया में हूं। मेरी कार्यशैली पर अनावश्यक कयास लगाए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हिन्दी-प्रेमी समाज और मेरे देशवासी विभिन्न संचार माध्यमों के कारण, अनगिन छात्र विभिन्न विश्वविघालयों में मेरी अध्यापकीय सक्रियता के कारण, हिन्दी के भविष्य की चिंता रखने वाले मेरे कम्प्यूटर-कर्म के कारण, कुछ दर्शक मेरी अभिनय-प्रस्तुति और फिल्म-लेखन-निर्देशन-कार्यों के कारण, दशकों से मुझे प्यार करते हैं। यह प्रेम मेरी पूंजी है। लेकिन कुछ हैं जो केवल‘ हास्य कवि’ कहकर ए कांगी छवि बनाना चाहते हैं। ‘हास्य-कवि’ कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। वे हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का मानते है। लोकप्रियता क्योंकि उनके हिस्से में नहीं आ सकी, इसलिए उससे नफरत करते हैं। जनतंत्र सभी को बोलने का अधिकार देता है, साथ ही कर्तव्यों का बोध भी कराता है। मैं मानता हूं कि विवादों को विमर्श की दिशा में मुड़ना चाहिए । करिए , विमर्श करिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराए ं हैं? हर धारा में गंभीर और अगंभीर तत्व होते हैं, उनकी पहचान कैसे की जाए ? किसी संस्था के उद्देश्य क्या हैं? हिन्दी अकादमी का कार्य क्या केवल साहित्य का पोषण है या हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार से भी उसका कुछ लेना-देना है? साहित्य लोकप्रिय भी होता है और शास्त्रीय भी। जनता की भाषा को लेकर शास्त्रीय लोग हमेशा ही कुपित होते रहे हैं। वे लोकप्रिय साहित्यकार को गंभीर मानते ही नहीं। मैं पूछता हूं कि क्या लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य नहीं है? और क्या सारा कथित गंभीर साहित्य सचमुच गंभीर है? साहित्य का आकलन विचार-चिंतन और जीवन- मूल्यों के आधार पर किया जाना चाहिए । देखना चाहिए कि किसका साहित्य समाज को बीमार बनाता है और किसका स्वस्थ। हंसी तो स्वास्थ्य की निशानी है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं हिन्दी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। इसलिए धैर्य न खोए ं, काम करने दें, उतावली न करें। अपमान की भाषा अच्छी नहीं होती है। आलोचना करने वाले आत्मालोचना भी करें। सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक न बनें। मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है, मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विवि स्तर पर मानक मानी जाती हैं। मुक्तिबोध ने सिखाया है कि अनुभव प्रक्रिया से विवेक निष्कर्षों तक पहुंचो और निष्कर्षों को क्रियागत परिणति तक पहुंचाआ॓। मेरा हास्य व्यंग्य लेखन भी इस शिक्षा से प्रभावित रहा है। ----------------------------------------------------------------------------------- *क्या कहता है साहित्य जगत* *विवाद के कारण हुआ बैचैन : विश्वनाथ त्रिपाठी* हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद, सचिव पर दबाब डालकर इस्तीफा देने और शलाका सम्मान को लेकर हुए विवाद ने बैचन कर दिया है। पिछले दो सालों में मैं अकादमी की किसी बैठक में नहीं जा पाया। मैंने हिंदी अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफा दिया है, अकादमी से नहीं। मैं उम्र को देखते हुए अपना समय रचनात्मक कामों में लगाना चाहता हूं। जहां तक अशोक चक्रधर के उपाध्यक्ष बनाये जाने का सवाल है, मैं न तो उसके विरूद्ध हूं और न ही साथ खड़ा हूं। जिस कदर उन्हें लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, ए ेसे में उन्हें उपाध्यक्ष के नाते तटस्थ रहने को लेकर बयान देना चाहिए , जिससे पता चले कि जो उनका विरोध कर रहे हैं और जो दोस्त हैं, उनके लिए बतौर उपाध्यक्ष समान भाव रखते हैं। *अकादमी की छवि को हो सकता है नुकसान : अर्चना वर्मा* हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद साहित्य के उस प्रतिनिधि को दिया गया है जो मंचीय है, गंभीर नहीं है। अशोक चक्रधर के अलावा सुरेंद्र शर्मा भी कई सालों से संचालन समिति में शामिल हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई पद दे दिया जाए । हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अकादमी के सबसे महंगे कार्यक्रम मंचीय ही होते हैं। जहां नित्यानंद तिवारी, विश्वनात्र त्रिपाठी जैसे गंभीर लोग मौजूद हों, वहां उन्हें उपाध्यक्ष पद देने से अकादमी की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है। साहित्य-संस्कृति अकादमी को राजनीति दुम समझती है। अशोक चक्रधर से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन उनकी जो छवि है उससे अकादमिक छवि को नुकसान हो सकता है। *विपरीत परिस्थितियां है कारण : ज्योतिष जोशी* अकादमी की विपरीत परिस्थितियों के कारण मेरे लिए वहां काम करना संभव नहीं था। यहां गंभीर कार्यक्रमों, महत्वपूर्ण अकादमिक पुस्तकों के प्रकाशनों और उनकी संभावनों और योजनाओं में कमी के आसार दिख रहे थे। ए ेसे में मुझे लगा कि मेरी यहां कोई रचनात्मकता और प्रभावी भूमिका नहीं रहने वाली है। जिस उद्देश्य को लेकर मैं काम कर रह था, वह हिंदी अकादमी की स्थापना के मूल उद्देश्य थे। इससे यह भटकता दिखा तो यहां से मुक्ति पाना ज्यादा उचित लगा। *मनोरंजक साहित्य इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग : नित्यानंद तिवारी* मैंने अशोक चक्रधर की वजह से इस्तीफा नहीं दिया है। मैंने इस्तीफा पिछली कार्यकारिणी में कृष्ण बलदेव वैघ का शलाका सम्मान स्थगित करने को लेकर दिया है। मैंने तय किया था कि यह मामला फिर जब कार्यकारिणी के सामने आए गा तो इस बार भी वैघ के नाम पर ही जोर दूंगा लेकिन संचालन समिति इसके कार्यकाल से पहले ही भंग कर दी गई। ए ेसे में मैंने काफी पहले ही त्यागपत्र देने का मन बना लिया था। उस वक्त तक तो अशोक आए भी नहीं थे। हां, ए क अखबार में खबर आई थी कि अशोक चक्रधर ने कहा कि मैं मंच का कवि हूं और साहित्य को मनोरंजन मानता हूं। हालांकि मैं इस बयान का विरोध कार्यकारिणी में रहते भी कर सकता था। अशोक से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन अफसर और राजनेता के सीधे हस्तक्षेप का विरोध अवश्य है। साहित्य संबंधी उनके विचार को लेकर मेरा विरोध था। हास्य-व्यंग्य लेखन काफी कठिन काम है लेकिन मंच के जरिए पैसे कमाना या उपभोक्ता पैदा करने वाली भाषा साहित्य कैसे हो सकता है। साहित्य यदि मनोरंजन करता है तो वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग हो गया। *स्वायत्ता व कामकाज इस्तीफे का कारण : बृजेन्द्र त्रिपाठी* मेरा इस्तीफा अकादमी की स्वायत्ता और कामकाज को लेकर है। शलाका सम्मान को लेकर जिस तरह कृष्ण बलदेव वैघ के बारे में कहा गया कि वह अश्लील लेखक हैं, यह बहुत अशोभनीय है। यदि पुरस्कार और सम्मान को लेकर नौकरशाह और सरकार के कहने पर अमल हो तो यह गलत है। फैसला लेखकों और साहित्यकारों पर छोड़ा जाना चाहिए । जब सब सरकार ही तय करेगी तो साहित्यकार वहां क्या करेंगे। जहां तक अशोक चक्रधर के अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का सवाल है, मेरा इस्तीफा इस मामले से नहीं जुड़ा है। मेरा इस्तीफा स्वायत्तता को लेकर है व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं। (यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में रविवार यानि नौ अगस्त,२००९ को मंथन पेज पर छपा है. ) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090811/980fefcc/attachment-0003.html From mrinal.panjiyar at gmail.com Wed Aug 12 21:55:38 2009 From: mrinal.panjiyar at gmail.com (mrinal panjiyar) Date: Wed, 12 Aug 2009 21:55:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= CHARAN DAS CHOR NEVER BANNED Message-ID: <32e492180908120925g2ff16109yd7b34ba4d9b39e5c@mail.gmail.com> **प्रिय मित्रों, छत्तीसगढ़ में न तो चरणदास चोर किताब पर प्रतिबंध लगाया गया है और न ही इसके मंचन पर. लेकिन बीते 5 दशकों से दुनिया भर में धूम मचाने वाली छत्तीसगढ़ के रंगकर्मी हबीब तनवीर की इस कालजयी कृति को सरकार और रंगकर्म के झंडाबरदारों ने मिलकर विवादों के घेरे में खड़ा कर दिया है और एक अनावश्यक विवाद में चरणदास चोर को एक बार फिर फांसी पर लटकाया जा रहा है. आपको फुरसत हो तो www.raviwar.com में इस पर छपी रिपोर्ट जरुर पढ़ें. शुभकामनाओं के साथ मृणाल -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090812/08f35d70/attachment.html From b.dhatiyan at gmail.com Thu Aug 13 15:59:15 2009 From: b.dhatiyan at gmail.com (Buntu Dhatiyan) Date: Thu, 13 Aug 2009 15:59:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWA4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWC4KSi4KWH4KSC?= Message-ID: <5bf247910908130329r3f4aa27o440623404a6fd47f@mail.gmail.com> हिंदी में तीन बूढें न होते तो उनकी जगह और कई बूढें होते. अब दिवंगत हो चुके श्री विद्या निवास मिश्र जैसी विभूतियों के गैंग होते. अपने पठ्ठों को वे भी इसी तरह शीरनी बांटते. उन्हें अख़बारों, विश्व विद्यालयों या किसी अन्य जगह फिट कराते. वैसे आलोक भाई अगर हिंदी के लोकवृत्त में ये तीन जयीफ़ न होते तो हालात और भी खराब हो सकते थे. बहुत मुमकिन है कि तब बिन्देश्वरी दुबे टाइप लोग साहित्यकारों को इस्लाह देते. मंच पर आने से पहले नेपथ्य में कोई कितने कपड़े बदलता है यह मायने नहीं रखता. बस उसे मंच पर नंगा नहीं आना चाहिए. गुजरात हिंसा के मामले में कलावादी बूढे ने बाकायदा स्टैंड लिया था. और बाकी के दोनों बूढों ने भी साहित्य में विपक्ष को जिन्दा तो रखा ही है. हिंदी जनपद के नए रण-बाँकुरे जिस आपा-धापी में जी रहे हैं उन्हें देख कर तो नहीं लगता कि वे इन बूढों का रिकॉर्ड छू भी पाएंगे. इसलिए- इन बूढों को जीने दो. दो तो वैसे भी दो-चार साल में कुछ भी कहना छोड़ देंगे. फिर पूरे मंच पर युवाओं और अधेडों का ही जत्था होगा. तब आपस में तय कर लेना कि किसको जेनुइन समाजवादी की पोशाक ओढनी है. बुन्तु. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090813/a3481603/attachment.html From tripathimrityunjay at gmail.com Thu Aug 13 18:21:53 2009 From: tripathimrityunjay at gmail.com (mrityunjay tripathi) Date: Thu, 13 Aug 2009 18:21:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= charan das chor Message-ID: मिहिर ने जो पोस्ट लगाई है उस लिन्क पर जा कर देखा था मैनें, और फिर अपना कमेंट कबाडखाना पर पोस्ट कर दिया था. आप भी इसे पढें और खुद ही तय करें.... वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 'चरणदास चोर' (२००४ संस्करण) की हबीब तनवीर द्वारा लिखित भूमिका का एक अंश प्रस्तुत है, ताकि पाठक खुद निर्णय कर सकें कि हबीब साहब का सतनामी समुदाय से क्या रिश्ता था. जबसे सहमत, बहुरूप, जन संस्कृति मंच, इप्टा, प्रलेस, जलेस आदि ने प्रतिबंध का विरोध किया है, तबसे रायपुर से ब्लॉग दुनिया में रिपोर्टें आ रही हैं कि नाटक प्रतिबंधित नहीं हुआ है, किताब या उसकी भूमिका ही प्रतिबंधित है. बहरहाल इन रिपोर्टों में किसी आधिकारिक स्रोत का हवाला नहीं दिया गया है, जबकि हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स अफ़ इंडिया आदि में नाटक खेलने पर भी प्रतिबंध की बात स्पष्ट रूप से कही गई है. बहरहाल यह उद्धरण उसी भूमिका से ही है - " ... मैने दर्शकों से कहा कि 'हम एक नया नाटक तैयार करने जा रहे हैं. अभी यह दिमाग के कारखाने से पूरी तरह नहीं निकला है, और न ऐक्टरों की तैयारी अभी पूरी हुई है, फिर भी यह देखते हुए कि इस मंचन की आयोजक एक सतनामी संस्था है, और यहां सतनामी दर्शक हज़ारों की संख्या में जमा हैं, और हमारे नाटक का आधार 'सतनाम' धर्म है, अगर आप कहें तो हम इस अधपके नाटक को भी अभी प्रस्तुत कर दें!'. सबने एक आवाज़ हो कर कहा 'हो!, ज़रूर दिखाओ,हम मन ला कोई जल्दी नई है! अभी भोर कहां हुए है?' विजयदान ने अपनी कहानी में चोर को कोई नाम नहीं दिया है. हम नाम सोचने में लगे थे. पहले सोचा चोर मरने के बाद अमर हो जाता है, क्यों न उसका नाम 'अमरदास' रखें.पंथियों ने कहा, " ये नाम नहीं हो सकता, अमरदास नाम के हमारे एक गुरू गुज़रे हैं." हमने दूसरा नाम तज़वीज़ किया. ये दूसरे गुरू का नाम निकला. आखिर हमने भिलाई के शो के लिए 'चोर चोर' नाम रख दिया, और आगे चलकर 'चरणदास' रख दिया. नाचा पार्टियों में हमारे साथ वर्कशाप में धमतरी के अछोटा गांव की नाचा पार्टी भी थी, उसके लीडर थे रामलाल निर्मलकर. अच्छे कामिक ऐक्टर थे. उनसे कहा,चोर की भूमिका में खड़े हो जाओ. मैनें दर्शकों से कहा, 'हो सकता है कि बीच में उठकर मुझे किसी अभिनेता की जगह ठीक करना पड़े या संवाद में मदद करना पड़े, तो आप लोग कृपया इस बात को नज़र अन्दाज़ कर दीजिएगा'. बिलकुल यही हुआ.मुझे न सिर्फ़ एकाध बार उठकर किसी सैनिक की मंच पर जगह ठीक करनी पड़ी क्योंकि आगे चलकर इसके कारण सीन में बाधा पड़ने का अंदेशा था, बल्कि बीच बीच में आर्केस्ट्रा के साथ बैठकर खुद गाने भी गाता रहा. गाने उस वक्त तक नहीं लिखे गए थे. मैनें पंथी गीतों की एक छोटी सी पुस्तक अपने पास रख ली थी. साजिंदे हमारे अपने साथ थे ही,बस मैं गाता रहा, कोरस में गाने वाले कलाकार दोहराते रहे, और इस तरह कोई ४५-५० मिनट में नाटक समाप्त हुअ तो मैदान तारीफ़ और तालियों से देर तक गूंजता रहा. मुझे दर्शकों की राय मिल गई थी, उन्होंने नाटक को अपनी कच्ची शैली और बाकी सब कमज़ोरियों के बावजूद पसंद कर लिया था. दर्शकों में सभी लोग पंथी थे और पंथियों का बुनियादी उसूल है - 'सत्य ही ईश्वर है, ईश्वर ही सत्य है.' यही उसूल उनके रोज़मर्रा के पारंपरिक गीत में भी है, और उसी गीत पर हमने नाटक खत्म किया था. बाकी ये सब देख सुन कर उनकी भावुकता उबल पड़ी थी. इस भावुकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्ही के पंथ का एक व्यक्ति नाटक का नायक था जिसे नाटकों में पहले कभी नहीं देखा गया था. पंथ की स्थापना के पहले गुरू घासी दास स्वयं एक डाकू थे. शूद्र वर्ग के लोगों ने सतनामी धर्म अपनाया तो उन्होंने समाज में उनकी अत्महीनता दूर करने के लिए उन्हे जनेऊ पहनने का आदेश दिया. इन तमाम चीज़ों के बावजूद आज तक उनका मुकाम गांव के बाहर है. उनका कुआं, उनका पानी समाज से अलग है, इन्हीं कारणों से सतनामियों में अपने धर्म के प्रति जोश होता है. वे अपनी सुरक्षा के लिए लाठी चलाने में भी निपुण होते हैं और जहां तक अपने अधिकारों के लिए लड़ने का संबंध है, तो इतिहास सैकड़ों साल से उनके आंदोलनों, उनके संघर्ष से भरा पड़ा है." "तो मित्रो, ये है हबीब साहब के खयालात ,सतनामी समुदाय के प्रति, ममता और सम्मान से ओत-प्रोत." Mrityunjay Allahabad From pkray11 at gmail.com Thu Aug 13 18:58:05 2009 From: pkray11 at gmail.com (prakash ray) Date: Thu, 13 Aug 2009 18:58:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS5IOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSaIOCkpuClgCDgpJzgpL7gpK/gpYfgpJfgpYAg4KSF4KSq4KSo?= =?utf-8?b?4KWAIOCkpuClgeCkp+CkruClgeCkguCkueClgCDgpKzgpYfgpJ/gpYAg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkuOCkvuCkpQ==?= Message-ID: <98f331e00908130628g724984eala3a1986aea49d714@mail.gmail.com> उसकी शादी बचपन में कर दी गयी थी. जब वह बड़ी हुई तो उसने दूसरी शादी की. यह शादी सभी संबंधित परिवारों की सहमति से हुई थी. उसके पहले पति और उसके परिवार के लोग भी रज़ामंद थे. उसने एक बच्ची को जन्म दिया जो आज आठ महीने की है. पति-पत्नी मजदूर हैं और अतिरिक्त आमदनी के लिए गाय का दूध बेचते हैं. अचानक एक दिन जाति-पंचायत और इलाके के दबंगों को उसकी पहली शादी की याद आयी और उन्होंने दूसरी शादी को 'अवैध' घोषित कर दिया. पंचों ने फ़ैसला दिया: हर्जाने में भरी रक़म अदा करो. ऐसा नहीं करने पर ये रक़म उसे और उसकी बेटी की नीलामी से वसूली जायेगी. रक़म चुकाने तक उसके परिवार को चापाकल से पानी लेने और गाँव की अन्य सुविधाओं का लाभ उठाने पर प्रतिबन्ध रहेगा. कोई भी उससे दूध नहीं खरीदेगा. ग्रामीण रोज़गार योजना के तहत भी उसे और उसके परिवार को काम नहीं मिलेगा. क्षेत्र के विधायक और सांसद (केंद्रीय मंत्री) को गुहार लगायी गयी है. जवाब का इन्तेज़ार है. प्रशासन ने भी उदासीनता ही दिखाई है अबतक. एक टीवी पत्रकार उससे पूछती है: मेहराज, तुम इस अन्याय से लड़ोगी या पंचायत का फ़ैसला मान लोगी? मेहराज: मरते दम तक मुक़ाबला करुँगी. गोद में उसकी बच्ची मुस्करा रही है. अवाक् हूँ मैं. अशोक वाजपेयी की एक कविता याद करता हूँ. कोई नहीं सुनता पुकार-- सुनती है कान खड़े कर सीढियों पर चौकन्नी खड़ी बिल्ली, जिसे ठीक से पता नहीं कि डर कर भाग जाना चाहिए या ठिठककर एकटक उस ओर देखना चाहिए। कोई नहीं सुनता चीख़-- सुनती है खिड़की के बाहर हरियाये पेड़ पर अचानक आ गई नीली चिड़िया, जिसे पता नहीं कि यह चीख़ है या कि आवाज़ों के तुमुल में से एक और आवाज़। कोई नहीं सुनता प्रार्थना-- सुनती है अपने पालने में लेटी दुधमुंही बच्ची, जो आदिम अंधेरे से निकलकर उजाले में आने पर इतनी भौंचक है कि उसके लिए अभी आवाज़ होने, न होने के बीच का सुनसान है। प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090813/c8f59426/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Aug 17 14:00:45 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 17 Aug 2009 14:00:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSPIOCkouCkv+CkguCkl+CksOCkvg==?= Message-ID: <6a32f8f0908170130n620b9520nfcc4c3e5a4e2d16b@mail.gmail.com> याद आए ढिंगरा ठीक सौ वर्ष पहले आज ही के दिन क्रांतिकारी मदन लाल ढिंगरा को फांसी दी गई थी। उनपर अंग्रेज अधिकारी कर्जन वैलि को मारने का आरोप था। ढिंगरा का जन्म सन् 1883 में हुआ था और उनके पिता सिविल सर्जन थे। हालांकि उनका परिवार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार था। फिर भी वे अंग्रेजी राज का विरोध करते रहे। अंततः महज 26 वर्ष की उम्र में वतन के लिए शहीद हो गए। आज उनकी शहादत की शताब्दी दिवस पर कम ही लोग उन्हें याद कर रहे हैं। मीडिया भी अपवाद नहीं है। वैसे, *द हिन्दू *इस मामले में आगे है। इसलिए तो बेहतर है। वेब पत्रकारिता में भी मूल्य की खूब बात होती है। पर, ढिंगरा को भूल गए उसका क्या ? सरकारी चंपुओं से हम इसकी उम्मीद नहीं कर सकते। अभी तो सब राहुल नाम का चादर ओड़े हैं। ऐसे में दूसरे नौजवान को कैसे याद किया जा सकता है ? शहीद हुए तो अपनी बला से! समझदारी से काम करते तो संभव था सन् 1947 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार होते। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090817/a85c2ad6/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Aug 17 18:17:47 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 17 Aug 2009 18:17:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSBIA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSd4KWHIOCkuOCksuCkvuCkrg==?= Message-ID: <200908171817.48166.ravikant@sarai.net> गुज़रे कल के जनसत्ता से. यह अंश कामिनी मथाई की किताब 'एआर रहमान: अ म्युज़िकल स्टॉर्म' के एक अध्याय से अवतरित है। किताब वाइकिंग/पेंगुइन से इसी साल कुछ महीने पहले आई है। अनुवाद मेरा है. रविकान्त माँ तुझे सलाम एक बार जब एआर रहमान का करियर परवान चढ़ने लगा तो न तो उसकी गति थमने का नाम लेती थी, न ही उसके पीछे मुड़ने का अवकाश था। फ़िल्‍मों के ऑफ़र तेज़ी से आ रहे थे और रहमान उन पर जुनूनी रफ़्तार से जुटे हुए थे। तभी उनके एक पुराने स्कूली सहपाठी भारत बाला अचानक नमूदार हुए। दोनों ने अस्सी की दहाई के अंतिम सालों में विज्ञापनों के लिए साथ काम किया था। भारत का परिचय दिलीप से उनके साझा दो स्त वेणुगोपाल के ज़रिए हुआ था, जो पीएसएसबी के उनके सहपाठी रह चुके थे, और जिनके साथ मिलकर रहमान ने अपना पहला बैण्‍ड बनाया था। तक़रीबन सौ विज्ञापनों में एक साथ - कभी-कभार मुंबई में, पर अक्‍सरहाँ दिलीप के चेन्‍नई वाले छोटे स्‍टूडियो में - काम करते हुए दोनों में दोस्‍ती हो गई थी। हालाँकि दिलीप का फ़िल्‍मी करियर नब्‍बे के दशक की शुरुआत में चल निकला था, पर भारत अब भी उन्‍हें विज्ञापन फ़िल्‍में भेज दिया करते थे, चूँकि उन्‍हें किसी और संगीतकार के काम से तसल्ली नहीं होती थी। सन 1996 की बात है। रहमान मुंबई गए हुए थे, स्टार स्क्रीन पुरस्कार समारोह के लिए कि उन्हें बता या गया था कि उन्हें पुरस्कार दिया जाएगा। वे समारोह-भर इंतज़ार करते रहे पर ऐसा कुछ हुआ नहीं - सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार करण अर्जुन के लिए राजेश रोशन को दिए जाने की घोषणा हो गई। दुखी रहमान ने मुंबई में रह रहे बाला को फोन किया और बाला, उनकी बीवी कणिका, रहमान और उनकी पत्नी सायरा ने वह शाम साथ गुज़ारी। बाला की गाड़ी में बैठकर वे मुंबई की सड़कें नापते रहे और गाड़ी में संयोगवश जो गीत बजता रहा था वह था माइकल जैक्‍सन का 'दे डोन्ट केयर अबाउट अस'। रहमान उसकी सुर में सुर मिलाते रहे। तक़रीबन दो महीने बाद अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता के उपदेश - भारतीयों को भारत बेचो - से प्रेरणा पाकर बाला रहमान के चेन्नई स्टूडियो में आ धमके। उनके हाथ में एक सीडी के कवर का खाका था, जिसके ऊपर थोट्टा तरनी का बनाया भारतीय तिरंगा था, और आर-पार 'वंदे-मातरम' अंकित था। बाला ने रहमान से कहा, 'बॉस तुम्हारा अभी तक कोई अल्बम नहीं आया है, ये तुम्हारा पहला अल्बम होगा।' सीडी कवर देखकर रहमान की पहली प्रतिक्रिया थी, 'या अल्लाह, ये मैं कैसे करूँगा?' लेकिन जल्द ही असर तारी हो गया, और अगले आठ महीने बाला के साथ अल्बम बनाने की कोशिश में लगे रहे। 'मैं देख रहा था कि दूसरे प्रोड्यूसर और निर्देशक खीझ रहे थे कि ये बंदा फ़िल्‍मों की इतनी लंबी क़तार लगी होने के बावजूद एक अदद अल्बम पर अपना वक़्त कैसे ख़राब कर सकता है! पर रहमान इस अल्बम को पूरा करने पर आमादा था', बाला का कहना है। सच कहें तो रहमान की ये एक ख़ासियत है कि उन्हें अगर लग गया कि ये करने लायक़ काम है, तो वह उसमें अपना सब कुछ झोंक देगा, फिर चाहे दुनि या उसे पागल क्यों न समझने लगे। अगर उन्हें लग गया कि निर्देशक किसी आम कहानी को उठाने की हैसियत रखता है, तो वह उसका साथ देगा - जैसा कि रंगीला के साथ हुआ, जो उनके मुताबिक़ काफ़ी अमफ़हम प्‍लॉट था, पर उन्हें राम गोपाल वर्मा के तसव्वुर पर भरोसा था। 'हम रहमान के स्टूडियो फ़्‍लोर पर रात-दर-रात गुज़ारते चले जाते थे पर कोई धुन ही नहीं सूझती थी', बाला फ़रमाते हैं। बाला ने भी इस अल्बम के लिए अपने तमाम विज्ञापन वाले प्रॉजेक्ट टाल रखे थे। तभी एक रात अचानक - रहमान का कहना है कि वो रमज़ान की कोई रात थी - कोई डेढ़ बजे रहमान की नींद खुली, उन्होंने बाला को जगाया, और फ़ौरन अपने ध्वनि-अभियंता शिवा को ढूँढ लाने को कहा। शिवा से संपर्क नहीं सधा, तो रहमान ने बाला से कहा कि मैं और इंतज़ार नहीं कर सकता, उन्हें अभी-का-अभी ये गाना रिकॉर्ड करना है। रहमान ने बाला को आनन-फ़ानन में रिकॉर्डिंग का फ़ौरी कोर्स दे डाला और कहा कि सँभालो और ख़ुद ध्वनि-कक्ष में मोमबत्ती जलाकर चालू हो गए - 'माँ तुझे सलाम'! वंदे मातरम का यह अनोखा अनुवाद रहमान का ही सोचा हुआ था, और बाला आदि ने इसमें और अंतरे डालने का काम पूरा किया। रहमान ने यह पूरा गाना बग़ैर किसी साज़-ओ-संगीत के गाया, लेकिन उनकी आवाज़ में एक ग़ज़ब का जुनून था, और जब वे वापस रिकॉर्डिंग कक्ष में आए तो बाला को आँसुओं से नम पाया। रहमान ने जो संस्करण उस रात गाया, वही बाग़ी, विस्फोटक संस्करण अल्बम में जस-का-तस रहा - सिवाय उन नए अंतरों के जो बाद में जोड़े गए। 'उस रात उसकी आवाज़ में ऐसी देशभक्ति कशिश, ऐसा हाल था कि मुझे अपने अल्बम के लिए उससे अलग कोई तर्ज़े-बयानी नहीं चाहिए थी। वही फ़ायनल था,' बाला का कहना है। उसके बाद दोनों ने एक-दो और गीतों पर काम किया, जैसे कि ‘जन गण मन’, और ‘प्रे फ़ॉर मी ब्रदर'। वंदे मातरम को सोनी ने ख़रीद लिया। ये पहला मौक़ा था जब रहमान के गाए किसी गाने का विडियो भी बना, और ये उनका पहला आधिकारिक अल्बम भी था, जिसे आज़ादी के पचासवें साल पर लोकार्पित किया गया। इसमें लगा रहमान का पंचम सुर उनकी ख़ासियत - ट्रेडमार्क - बन गया, जिसे अब हर कोई पहचान लेगा। इसके बाद रहमान के फ़िल्‍मी संगीत में भी बतौर गायक उनकी दख़ल बढ़ने लगी, पर दिलचस्प है कि उन्होंने जिन गानों को अपना सुर दिया वे या तो देशभक्ति-गीत थे, या फिर धा र्मिक क़िस्म के गीत थे। ‘माँ तुझे सलाम’ का पहला मंचीय प्रदर्शन दिल्ली में पेश हुआ। फिर अमेरिका की एक संगीत-संगत में। गाने के बाद ‘मार-तमाम श्रोता सम्मान देते हुए उठ खड़े हुए। मुझे लगा कि हरेक समुदाय आनंदित और पुलकित है', रहमान ने याद करते हुए कहा। एक और बातचीत में रहमान ने बताया कि वे दरअसल चा हते थे कि लोग - ख़ास तौर पर 'एमटीवी पीढ़ी के जवान' - इस गीत को उल्लास से, न कि किसी कर्तव्यबोध से दबकर गाएँ, भावविह्वल होकर गाएँ। वंदे मातरम की सीडी के आवरण पर भी रहमान की यह मंशा साफ़ झलकती है - क्योंकि ये भारत की भावी पीढ़ियों को इस संदेश के साथ समर्पित है कि वे देश के बुनियादी मूल्‍यों, और उसकी नैतिकता को समझें। वंदे मातरम की रचना के दौरान रहमान ने अपने बाल भी बढ़ा लिए थे, और ख़ुद को युवतर, हिप बना डाला था। यह रूप उस जीन्स और सफ़ेद टी-शर्ट के लिबास के साथ जँचता था, जिसे रहमान को वीडि यो के लिए पहनाया जाना था। अल्बम को कुल अट्ठाइस देशों में लोकार्पित किया गया, और दुनि या-भर में इसकी लाखों प्रतियाँ बिकीं। रहमान को लगता है कि वंदे मातरम की यात्रा तो अभी शुरू हुई है, और लोग इसे अगले पचास साल तक इसे सराहेंगे। प्राचीन और रहमान के वंदे मातरम को गाने वाली लता मंगेशकर ने शायद संगीतकार से कहा भी कि उन्हें उनका संस्करण बेहतर लगता है। आप जानते ही हैं कि लता जी ने आनंद मठ फ़िल्‍म के लिए हेमंत कुमार के संगीत निर्देशन में ये गीत गाया था (1952)। (कहना चाहिए उस ज़माने का वंदे मातरम गा या था।) मज़ेदार बात है कि ये पहला मौक़ा था जब आम जनता ने अपने रहमान को वाक़ई देखा था। और बाक़ायदा सफ़ेद टीशर्ट, नीली जीन्स और लंबे बालों में क्षितिज के छोरों पर माँ तुझे सलाम का आर्तना द करते सुना था। ये रहमान का नया, लोकप्रिय अवतार था। रहमान इस गाने को ख़ुद पर फ़िल्‍माना नहीं चाहते थे पर बाला ने ज़िद की कि पर्दे पर भी वही गाएँ क्योंकि वह अनुपम भावो द्रेक कोई और नहीं जगा सकता था। ज़ाहिर है कि रहमान का वंदे मातरम बंकिम चंद्र चटर्जी के मौलिक प्रार्थना-नुमा प्रयाण गीत से ख़ा सा मुख़्तलिफ़ था। वो कुछ गांधीवादी-सा था - निहायत मधुर पर ढोल-झाल का समायोजन उसमें सिरे से ग़ायब था। रहमान का वंदे मातरम वाक़ई आक्रामक और साहसिक था, तुर्की-बा-तुर्की तेवर वाला । स्वाभाविक था कि ये उस नए देश का कंठहार बन गया जिसने ख़ुद को बतौर राष्ट्र पुनराविष्कृत करने की ठान ली थी। आप वाक़िफ़ होंगे कि तक़रीबन 130 साल पहले लिखे इस गाने का भारतीय इतिहास में अप्रतिम स्थान है, और समय-समय पर इससे अनेक विवाद उलझे-पुलझे रहे हैं; जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी वाली स्थिति रही है। इसकी रचना 1875 में हुई, और फिर बंकिम बाबू ने जब इसे आनंदमठ में शामिल किया तो आज़ादी के दीवाने हर जगह इसे गाने लगे, और अंग्रेज़ों का सिरदर्द बढ़ाने लगे। इतिहास यह भी बताता है कि कॉन्‍गरेस के 1923 के सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे मोहम्मद अली ने इसके गाए जाने पर यह कहकर आपत्ति जतायी कि उनका धर्म किसी देवी-देवता के पूजे जाने की इजा ज़त नहीं देता, और यह गीत भारतमाता की देवीरूप में स्तुति ही तो है। इसके बाद मुस्लिम लीग ने बुतपरस्ती की मिसाल बताकर इसका विरोध किया और 1937 में कॉङ्रेस ने पहले दो अंतरे छोड़कर बाक़ी निकाल दिए। कहा जाता है कि पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साहब इसके प्रबलतम आलोचकों में से थे। यही वजह रही होगी कि रहमान को वंदे मातरम के लोकार्पण के बाद 1997 में इस्लामी और हिन्दू दो नों क़िस्म के कठमुल्लों से धमकियाँ मिलने लगीं - एक तरफ़ अगर यह इस्लामी नज़रिए से क़ुफ़्र माना गया, तो दूसरी तरफ़, हिन्दू दृष्टि से अनाधिकार चेष्टा। आपको याद होगा कि वंदे मातरम अल्बम में एक और गाना था ‘गुरुज़ ऑफ़ पीस’ (शांतिगुरु), जिस पर उस्ताद नुसरत फ़तह अली ख़ान और रहमान ने साथ काम किया था। बाला को याद है कि 'जब रहमान 1997 में मुंबई में नुसरत साहब से अल्बम की बाबत बात करने के लिए मिलने गए तो उनके यहाँ पहुँचते-पहुँचते रात के ढाई बज चुके थे। और रहमान ने जो पहला इसरार नुसरत साहब से किया वो ये था कि वे उन्हें क़व्वाली सिखाएँ। उस्ताद भी फ़ौरन तैयार! अपने साज़िन्‍दों को जगाया, कमरे में बुलाया और लगे गाने। बाला ने देखा कि रहमान गाने की हर नज़ाकत-नफ़ासत को तमिल में लिखते चले जा रहे हैं। और थोड़ी देर में ही दोनों में ऐसी पटी कि चार बजे दोनों जुगलबंदी करते नज़र आए'। From vineetdu at gmail.com Tue Aug 18 12:32:16 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 18 Aug 2009 12:32:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSvIOCkleCliyDgpKzgpL7gpKzgpL4g4KSw4KS+4KSu4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KS1IOCkleCkviDgpK/gpYvgpJcg4KSu4KSkIOCkuOCkvuCkrA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSkIOCkleClgOCknOCkv+Ckjw==?= Message-ID: <829019b0908180002s143086d3tbd7648cee50e8dbd@mail.gmail.com> आउटलुक पत्रिका ने हिन्दी कवि-कथाकारों को लेकर एक सर्वे शुरु किया है। रंगनाथजी को इस सर्वे से इस बात को लेकर गहरी आपत्ति है क्योंकि वो साहित्य को बाजार के फार्मूले से देखने के खिलाफ हैं जबकि मेरी मान्यता है कि- साहित्य को महान कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ नहीं लगेगी। आप भी पढ़ें औऱ अपनी राय दें- ‘हमारे प्रिय रचानाकार’, ‘हमारे प्रिय कवि’, ‘हमारे प्रिय कथाकार’ जैसे शीर्षक से निबंध लिख-लिख कर हिंदी पट्टी का जो समाज स्कूली परीक्षा पास करता आया है, आज उसी समाज से आये हुए रंगनाथजी आउटलुक के साहित्यकार सर्वे पर सवालिया निशान खड़े करने में जुटे हैं। उनका विरोध जितना स्वाभाविक है, उतना ही अनिवार्य भी। स्कूली जीवन में जब ये समझ और साहस पैदा न कर सके कि वो मास्टर या परीक्षा बोर्ड के आगे जवाब तलब कर सकें कि ऐसा क्यों लिखें हम? अगर प्रेमचंद हमें सबसे ज़्यादा पसंद हैं तो इस निबंध में ये लिखने की कहां गुंजाइश बची रह जाती है कि रेणु भी मुझे उतने ही पसंद हैं। मुक्तिबोध अगर मेरे सबसे प्रिय कवि हैं, तो फिर इससे ये कैसे साबित करें कि नागार्जुन हमें उतने ही पसंद हैं। जाहिर है, उस समय चाहे रंगनाथजी हों या फिर देश काhttp://www.blogger.com/img/blank.gif कोई और स्कूली बच्चा, नंबर पाने के आगे न तो उसका विरोध करेगा और न ही इतनी समझ बना पाएगा कि इस तरह के शीर्षक पर निबंध लिखने से हम बाकी के रचनाकारों के साथ क्या कर रहे होतें हैं। उस समय तो एक ऐसे फार्मूले और शब्दों के फेर में होते हैं कि चाहे किसी पर भी निबंध आ जाए, प्रेमचंद को रिप्लेस करो और वहां जैनेंद्र को लगा दो, अज्ञेय को हटाओ और रघुवीर सहाय को फिट कर दो। करनेवाले तो इस फार्मूले से यूजीसी की परीक्षा तक पास कर जाते हैं, हम फिलहाल इस बात पर बहस नहीं करना चाह रहे और न ही रंगनाथजी से इस बात पर हील-हुज्‍जत करना चाहेंगे कि वो स्कूली शिक्षा से अलग सोच क्यों रखते हैं? हां, इतना तो ज़रूर जानना चाहेंगे और अपने स्तर पर अनुमान लगाना चाहेंगे कि सर्वे के विरोध में खड़ा होने का उन्हें ज्ञान कहां से मिला और उन्हें क्यों लगता है कि साहित्यकारों को लेकर इस तरह का सर्वे वाहियात काम है? यहां कुछ आगे कहने के पहले साफ कर दूं कि हिंदीवाला कहने का मतलब या हिंदी पढ़नेवाला से आशय सिर्फ उनलोगों से नहीं है, जो रचनाओं को पढ़ते हुए पचपन प्रतिशत लाने के मोहताज रहते हैं। जिनके लिए साहित्यिक रचनाओं और उनकी पंक्तियों से इतना भर का नाता है कि दसों साल से पूछे जा रहे सवालों के हिसाब से किस लाइन को निकाल कर किस सवाल के आगे भिड़ाना है, संदर्भ के लिए उपयोग में लाना है, उदाहरण देने हैं, कुल मिलाकर हलाल मीट या झटका मीट तैयार करने की विधि अपनानी है। यहां हिंदीवाला से आशय उन तमाम लोगों से है, जो इसमें दिलचस्पी रखते हैं, चाहे वो मांगकर, चाहे वो खरीदकर या फिर समीक्षा के नाम पर पुस्तकें लेकर पढ़ते हैं। ये सारे लोग हिंदीवालों में शामिल हैं। अब बात आउटलुक की ओर से किये जा रहे साहित्यकार सर्वे और उस पर की जा रही असहमति पर करें। रंगनाथजी का मानना है कि आउटलुक वालों को यह तो पता होना ही चाहिए कि टॉप तीन का फंडा सिर्फ उन्हीं चीज़ों पर लागू होता है, जो बाज़ारू हैं। यानी जो बेचने के लिए ही तैयार की जाती हैं। साहित्य की दुनिया तो ग़ालिब के उसूलों से चलती है, न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह नहीं मानी मेरे अशआर में नहीं न सही रंगनाथजी की बात से अब आप समझ रहे होंगे कि वो इस सर्वे का विरोध क्यों कर रहे हैं। इसलिए कि इस तरह के सर्वे साहित्य जैसी विधा, मनुष्य की महान उपलब्धि को बाज़ार में घसीट लाने की प्रक्रिया है। बाज़ार में आते ही चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, उसकी तासीर ख़त्म हो जाती है। इसलिए ज़रूरी है कि साहित्य को बाज़ार से अलग रखा जाए। साहित्य लिखने-पढ़नेवालों की ये नैतिक ज़‍िम्मेदारी है कि वो साहित्य को बाज़ार में, उसकी शर्तों पर बिकने और अपनाने से रोका जाए और जो कोई ऐसा करता है, उसके प्रतिरोध में अपनी आवाज़ उठायी जाए। ऐसा बचाव हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसे एक ज़माने में घर की किसी भी स्त्री के घर से बाहर जाने पर भ्रष्ट हो जाने, परपुरुषों से बात कर लेने पर बदचलन हो जाने के डर से करते रहे। जिन लोगों को ऐसा डर अभी भी बना हुआ है, वो इस तरह के बचाव कार्य में जी-जान से जुटे हैं। हमें साहित्य को हर हाल में शुचिता की सीखचों के बीच सुरक्षित रखना है, किसी हाल में बाज़ार की छाया इस पर नहीं पड़नी चाहिए। साहित्य को लेकर जो समझ रंगनाथजी की बनी है, वो कोई नयी समझ नहीं है। आप हिंदी से जुड़ी किसी भी रचना को उठा कर देख लीजिए, उसमें बाज़ार के ख़‍िलाफ़ खड़े होने की बात अनिवार्य तौर पर मिल जाएगी। इसलिए अगर ये कहा जाए कि रंगनाथजी साहित्य के सच्चे पाठक और रक्षक हैं, तो मुझे नहीं लगता कि उन्हें कोई आपत्ति होगी। साहित्य पढ़ने का मतलब ही है कि आप बाज़ार के विरोध में खड़े हों, उन तमाम हरक़तों और ताक़तों के विरोध में खड़े हों जो कि साहित्य को बाज़ार के बीच ला पटकने के लिए आमादा हैं। जिस साहित्य को लोकमंगल की भावना से लिखा-पढ़ा जाता रहा, अगर वो लालाओं की जेब को गर्म करने लग गया है, तो हमें उसका हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए। यहां तक हम रंगनाथजी के साथ हैं। लेकिन… माफ कीजिएगा, हम चाहकर भी रंगनाथजी की मासूमियत पर फिदा होना नहीं चाहेंगे। गालिब का शेर ठोंक कर उन्होंने साहित्य का जो मान बढ़ाया है, हम उसके आगे कुछ बोलना नहीं चाहेंगे। बल्कि हम इससे अलग सिर्फ इतना भर जानना चाहेंगे कि वो किस साहित्य के लिए इस तरह के भारी-भरकम वैल्यू लोडेड शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उस साहित्य के लिए, जिसकी पांच सौ प्रति छाप कर (ये मुहावरा दिलीप मंडल का है), कुछ प्रति आलोचकों के हाथों मुफ्त बांटने और बाकी रैकेट के तहत लाइब्रेरियों में पहुंचाने के बाद चंद अख़बारों और पत्रिकाओं में हुआं-हुआं करके महान साबित करने का कर्मकांड पूरा किया जाता है। कहीं उस साहित्य के लिए तो नहीं, जिसे कि ठोस तौर पर पॉपुलर होने, एक ही झटके में बिकने और रातोंरात कुछ बटोर लेने की नीयत से लिखे जाते हैं? अगर ऐसा है, तो यक़ीन मानिए रंगनाथजी ने गालिब के शेर का अपमान किया है, उसका मान किसी भी हद तक बढ़ाने का काम नहीं किया है और इस साहित्य को बाज़ार क्या, सर्वे क्या, किसी भी शर्त पर परखने का काम किया जाए, मुझे कहीं से कोई आपत्ति नहीं होगी। ऐसे में कहीं कोई एक कहानी, कविता छपवा कर अकड़ जाता हो, अपने को गुलेरी की पांत में खड़ा करके नामवर और अशोक वाजपेयी को गरियाता है, तो ज़रूरी है कि उनलोगों की औकात बताने के लिए ऐसा सर्वे एक नहीं, एक पत्रिका की ओर से नहीं, कई और कई पत्रिकाओं और संस्थानों की ओर से किया जाने चाहिए। रही बात साहित्यकारों को सूची में शामिल किये जाने की, तो अगर व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो किसी ने कुछ लिख कर क्रांति मचा देने का काम नहीं किया है। अपवादों में न जाएं, तो इन साहित्यकारों के लिखते रहने से हिंदी लेखन परंपरा भले ही मज़बूत हुई हो, लेकिन सामाजिक स्तर पर कहीं कोई रद्दोबदल का काम नहीं हुआ है और न ही उन्‍होंने उसके लिए आगे आने का काम किया है। इसलिए हमें साहित्य की परंपरा से इन साहित्यकारों को जोड़ने के पहले खास खयाल रखना होगा कि हम क्या करने जा रहे हैं। रंगनाथजी का मैं ज़ोरदार समर्थन करता हूं कि किसी के फूले हुए पेट को बॉडी, तो किसी की फूली हुई टांग को बॉडी और किसी के फूले हुए हाथ को बॉडी मानने का जो ग़ैरबराबरी का काम गीताश्री ने किया है, वो काम हमें नहीं करना चाहिए। लेकिन रंगनाथजी आपको भी इन सूचीबद्ध साहित्यकारों को हिंदी की पूरी परंपरा में शामिल करने के पहले ये सोचना होगा कि हम किस आधार पर उन्हें शामिल करने जा रहे हैं। कोई माने या न माने, लेकिन ये सच है कि आज का साहित्यकार अपने रोज़मर्रा के जीवन में नून, तेल, मर्चा का सामान इसी बाज़ार में रहकर खरीद रहा है, खरीदने की ताक़त वो इसी बाज़ार में रहकर पैदा कर रहा है। एक बार नाम हो जाने पर (नाम होने का स्तर चाहे जो भी हो) इसी बाज़ार में बेमन से लिखे गये, कुछ भी लिखी, कही गयी चीज़ों को, एक ही चीज़ को कई लेबलों से छपवाने और बेचने का काम कर रहा है, जिसे कि नाम ले-लेकर दरियागंज में भटकनेवाले लोग बखूबी जानते हैं। ऐसे में उन पर बाज़ार की शर्तें लागू नहीं होनी चाहिए, उन्हें बाज़ार में खड़े होकर नहीं देखना चाहिए तो फिर क्या उस पर महान साहित्य होने का लेबल चस्पाना चाहिए। दरअसल साहित्य को बाज़ार की किसी भी चीज़ से अलग करके देखने की पूरी कवायद ही बेमानी है। अगर कोई लेखक अपनी बिकनेवाली प्रति के बारे में नहीं जानता, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो साधु प्रवृत्त‍ि का है, बल्कि वो प्रकाशक के शोषण का शिकार हुआ है। वो दुनिया से लड़ते हुए भी प्रकाशक के विरोध में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। साहित्य और साहित्यकारों को महान होने और कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये साहित्य महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ कभी नहीं लगेगी। हां इतना जरुर होगा कि इसका असर कार या जूते से अलग होगा, जिसे कि वाल्टर बेंजामिन ने विस्तार से समझाया है। रंगनाथजी ने सरस सलिल और गुलशन नंदा को साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यकारों के बीच घुसा कर एक बहुत ही चमकीला उदाहरण पेश किया है। ये काम भी उनका कोई नया प्रयोग नहीं है। यूनिवर्सिटी में मनोहर श्याम जोशी की तारीफ करने के बाद शिक्षकों से लताड़ सुनने के दौरान ऐसी मानसिकता को पहले ही समझ चुका हूं। हिंदी में जो लोकप्रिय है, जो ज़्यादा बिकाऊ है, उसे हिंदी के लोग घटिया साबित करने में दम लगा देते हैं। हिंदी में महान होने की पहली शर्त है दुर्लभ होना, गूढ़ होना, किसी के रेफरंस से महान बताया जाना। शुक्र कीजिए कि प्रेमचंद इस मानसिकता से काफी हद तक बच गये। ऊपरी तौर पर रंगनाथजी का ये उदाहरण बहुत ही सटीक लगता है कि सही में अगर ज़्यादा ही बिकना आधार है तो फिर गुलशन नंदा महान क्यों नहीं, सरस सलिल सबसे बेहतर पत्रिका क्यों नहीं। ऐसा करके वो सर्वे करानेवाली पत्रिका की ओछी समझ की तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि पढ़े-लिखे लोग क्या, दरियगंज में संडे मार्केट में भी हरेक माल 20 रुपये के तहत किताब बेचनेवाला बहुत ही कम पढ़ा-लिखा बंदा जानता है कि किस किताब की क्या औकात है। इसलिए बीस रुपये की किताब के बगल में ही पड़ी दि पार्शियल वूमेन पर हाथ लगाएंगे तो उसे अस्सी रुपये बताएगा। कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि बाज़ार में आने के बाद ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि चीजें अपना महत्व खो देती है। जिस सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे की सीडी मोजरवियर 30 रुपये में दे देता है, उसी मोजरवियर से आनेवाली गुलज़ार की सीडी के लिए 190 रुपये क्यों देने पड़ते हैं, इसे अगर आप समझ रहे हैं तो आपको रंगनाथजी का ये उदाहरण बकवास लगेगा। कहानी सिर्फ इतनी भर है कि सब कुछ बाज़ार के दबाव के तहत खरीदने, पढ़ने और उस पर सोचनेवाले हम जैसे लाखों लोग अब साहित्य और पत्रकारिता में महान, लोकमंगल, जनहित जैसे लबादों के भीतर रहकर जीने से ऊब गए हैं। हमें बेचैनी होती है कि हमसे सारी चीज़ें बाज़ार के तहत लिया-वसूला जा रहा है और ज़बरदस्ती लोकहित और महान होने का पाखंड किया जा रहा है। साहित्य को बाबा रामदेव का योग मत साबित कीजिए, जहां दाम लेकर सांस लेने और छोड़ने की विधि बतायी जाती हो। और अगर ऐसा करते हैं, तो हमें और हमारी पीढ़ी को इसकी जानकारी होनी चाहिए। हमें और हमारी आनेवाली पीढ़ी को पता होना चाहिए कि जिस साहित्य को पढ़ कर हम संवेदनशील होते हैं, भावुक होते हैं, इसे महसूस करने के लिए हमें पैसे देने पड़े हैं, हमें इसकी उपयोगिता पर सवाल करने का हक़ है। हां, अब इस पर बात कीजिए कि कौन कितनी ईमानदारी से हमें भावुक, संवेदनशील और रस का आस्वाद करनेवाला बना पाया है। …अंत में इतना ज़रूर कहूंगा, बल्कि रंगनाथजी की ही बात को दोहराना चाहूंगा कि सर्वे का आधार ग़लत है, उसकी सूची गड़बड़ हो सकती है और है। रंगनाथजी तो इस सिस्टम को ही उखाड़ फेंकने के पक्ष में हैं जबकि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आगे जब भी इस तरह के सर्वे किये हों, तो उसे और दुरुस्त, परफेक्ट और तर्कसंगत तरीके से किया जाए। आधा बाज़ार और आधा समाज का कॉकटेल (भले ही वो संकोच या डर से हो) बनाने के बजाय उसी तरह की पद्धति अपनाएं, जिस तरह की पद्धति मार्केटिंग के लोग अपनाते हैं। यक़ीन मानिए, इससे साहित्यकारों के बीच अवसाद पैदा होने के बजाय प्रोफेशनलिज़्म आएगा, जो कि ज़बरदस्ती की मठाधीशी से कई गुना अच्छा है. मोहल्लाlive पर प्रकाशित -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090818/7db5958e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Aug 19 08:49:45 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 19 Aug 2009 08:49:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSf4KSw?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSfIOCkquCksCDgpJzgpYsg4KSJ4KSq4KSm4KWH4KS2IA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSC4KSX4KWHLOCkteCliyDgpK7gpL7gpLDgpYcg4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSP4KSC4KSX4KWH?= Message-ID: <829019b0908182019y4c7cf8dcn2444bdda61ae61a6@mail.gmail.com> इंटरनेट के जरिए हिन्दी में जो कुछ भी लिखा-कहा जा रहा है उसे देख-पढ़कर प्रिंट मीडिया और अकादमिक जगत के अनुभवी और बुजुर्ग लोगों का एक खेमा तेजी से इसके विरोध में सक्रिय होता जा रहा है। कभी पूरे हिन्दी ब्लॉग लेखन को भड़ास ब्लॉग लेखन तक सीमित करते हुए मृणाल पांडे हिन्दुस्तान में संपादकीय लिखती हैं तो कभी आलोक मेहताअपने पक्ष में पोस्टों को खंगालते हुए रमेश उपाध्याय की पुरानी पोस्ट को नयी दुनिया में छापते हैं,रमेश उपाध्याय इंटरनेट की दुनिया में,हिन्दी में लिखनेवालों पर आरोप लगाते हैं कि- बड़े खेद की बात है कि इसका दुरुपयोग अपनी भाषा और साहित्य से लोगों को विमुख करने के लिए किया जा रहा है। और यह काम हिंदी वाले स्वयं कर रहे हैं। रमेश उपाध्यायकी इस बात का मीडिया विशेषज्ञ औऱ अनुभवी अध्यापक जगदीश्वर चतुर्वेदी न सिर्फ खुलकर समर्थन करते हैं बल्कि इंटरनेट पर के लेखन को- इसके लेखन से भाषा न तो समृद्ध होगी और न भाषा मरेगी,नेट के वि‍चार सि‍र्फ वि‍चार है और वह भी बासी और मृत वि‍चार हैं,उनमें स्‍वयं चलने की शक्‍ति‍ नहीं होती, आप नेट पर महान क्रांति‍कारी कि‍ताब लि‍खकर और उसे करोड़ लोगों को पढाकर दुनि‍या नहीं बदल सकते जैसी राय जड़ देते हैं। इंटरनेट पर हिन्दी में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसे कूड़ा-कचरा बतानेवाले ये नए लोग नहीं है।इनसे पहले भी कई लोगों ने असहमति के लेख को इसी तरह इंटरनेट लेखन के विरोध में महौल बनाने का काम किया जबकि इन्हीं के बीच से आए वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की आवाज जब अखबारों ने नहीं सुनी तो मजबूरन उन्हें इंटरनेट पर लिखी जा रही हिन्दी पर उम्मीद जतानी पड़ गयी। विरोध में महौल बनाने का काम जारी रहेगा लेकिन इतना तय है कि जो लोग यहां उपदेश और ज्ञान देने का काम करेंगे वो मारे जाएंगे- जगदीश्‍वर चतुर्वेदी said: वि‍नीत कुमार जी, समस्‍या व्‍यक्‍ि‍तगत नहीं है, बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत बनाने से ज्‍यादा बेहतर है यह जानना कि‍ वर्चुअल तो नकल की नकल है, आपने मेरी कि‍ताबें देखी हैं तो कृपा करके पढकर भी देखें । फि‍र बताएं। मैं नि‍जी तौर पर हिंदी में इंटरनेट के जनप्रि‍य होने और इंटरनेट पर ज्‍यादातर सामग्री आने के पहले से ही कम्‍प्‍यूटर,सूचना जगत वगैरह पर लि‍ख चुका हूं। यह मेरी हिंदी के प्रति‍ नैति‍क जि‍म्‍मदारी है कि‍ हिंदी में वह सभी गंभीर चीजें पाठक पढ़ें जि‍न्‍हें वे नहीं जानते अथवा जो उनके भवि‍ष्‍य में काम आ सकती है। आप वर्चुअल की बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं,वर्चुअल में झगड़ा नहीं करते, टोपी भी नहीं उछालते,वर्चुअल तो आनंद की जगह है,सामंजस्‍य की जगह है,संवाद की जगह है। कृपया हिंदी साहि‍त्‍य की तू-तू मैं- मैं को नेट पर मत लाइए,चीजों को चाहे जि‍तनी तल्‍खी से उठाएं किंतु व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं। आप अच्‍छे लोग हैं और अच्‍छे लोग अच्‍छे ही रहते हैं,संवाद करते हैं. जगदीश्वरजी, बात बहुत साफ है। हम नेट पर लिखने वालों को अक्सर ये हिदायत देते आये हैं कि आप चीज़ों को व्यक्तिगत मत बनाइए। सार्थक बहस कीजिए वगैरह… वगैरह। लेकिन ऐसा कहते हुए हम इंटरनेट की दुनिया के मिज़ाज को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। यहां तो जिसके पास बिजली की सुविधा है और इंटरनेट कनेक्शन है, वही कीपैड तान देता है। मैं इसे न तो ग़लत मानता हूं और न ही इनके पीछे उपदेश की ताक़त झोंकने के पक्ष में हूं। हां, इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि आज इंटरनेट की दुनिया में हिंदी अगर इतनी तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही है, आये दिन इसे लेकर नये-नये सॉफ्टवेयर लाये जा रहे हैं, तो ये किसी के संपादकीय लिखने का फल नहीं है और न ही किसी अखबार-पत्रिका के मीडिया विशेषांक निकाले जाने का नतीजा है। ये हमहीं जैसे कच्चे-पक्के लिखनेवाले लोगों की बढ़ती तादाद को देखते हुए किया जा रहा है क्योंकि सीधा-सीधा मामला बाज़ार, उपभोग और उससे जुड़ी लोकप्रियता का है। आप भी इंटरनेट की दुनिया में सक्रिय होते हैं, हम जैसे नौसिखुए के लिखे पर प्रतिक्रिया करते हैं, पढ़कर बहुत अच्छा लगता है लेकिन जैसे ही कोई रमेश उपाध्याय या फिर मृणाल पांडे जैसा ज्ञान देने लग जाता है तो इंटरनेट की दुनिया पर लगातार लिखनेवालों का बिदकना स्वाभाविक है। हमने इसी संपादकीय डंडे की मार और मठाधीशी से ऊबकर यहां लिखना शुरू किया है। ऐसा भी नहीं है कि हममें प्रिंट में छपने और लिखने की काबिलियत नहीं है लेकिन अब अधिकांश जगहों में छपने के पहले ही घिन आने लगती है। माफ कीजिएगा, हम कोई नयी या क्रांति की बात नहीं कर रहे लेकिन शालीनता और सभ्यता के नाम पर लिजलिजेपन को बर्दाश्त नहीं कर सकते। हर मिज़ाज के लोग लिख रहे हैं, किसी की भाषा थोड़ी उग्र है तो किसी की थोड़ी उटपटांग। ये तो होगा ही लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि सुनियोजित तरीके से इंटरनेट लेखन के विरोध में लगातार महौल बनाये जाएं और उससे भी जी न भरे तो अखबारों में लेख और संपादकीय लिखने लग जाएं। आप आज से दो साल पहले के इंटरनेट पर हिंदी लेखन और अब में तुलना कीजिए तो आपको साफ फर्क समझ आ जाएगा कि पहले के मुकाबले आज की राइटिंग कितनी मैच्योर हुई है। ऐसे ही आगे भी होगा। इसमें कहीं से ज़्यादा बिफरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हां इतना तो आप भी जानते हैं कि इंटरनेट की दुनिया में जो कोई भी उपदेश देने का काम करेगा, वो मारा जाएगा। आप देख लीजिए, हजारों ऐसे ब्लॉग हैं, जिनमें बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं लेकिन उस पर पांच हीटिंग भी नहीं है। ऐसा इसलिए कि वो क्या महसूस करते हैं से ज़्यादा क्या महसूस कराना चाहते हैं की शैली में लिखे गये हैं। लेखन को लेकर ईमानदारी है ही नहीं। संगोष्ठियों में ओढ़ ली गयी शालीनता तो यहां नहीं ही चलेगी न। कई नामचीन लोग बडी-बड़ी बातें लिख देते हैं लेकिन उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं है, आखिर क्यों? हिंदी समाज ज्ञान की मुद्रा से अघा चुका है। वो महसूस करने के स्तर पर लिखना-पढ़ना चाहता है। और जहां तक आपकी किताब पढ़ने की बात है, तो सच कहूं तो माध्यम साम्राज्यवाद से लेकर माध्यम सैद्धांतिकी, युद्ध और ग्लोबल मीडिया संस्कृति सबों से होकर गुज़रा हूं। भाषा में एक हद तक बेहयापन हो सकता है लेकिन जिन चीज़ों के बारे में नहीं जानता, कोशिश करता हूं कि उस पर न ही बात करूं। शुरुआती दौर में मीडिया की जो भी कच्ची-पक्ची समझ बनी है, उसमें आपकी किताबों ने बड़ी मदद की है। इसलिए मेरा कमेंट व्यक्तिगत न मानकर एक लेखक-पाठक के बीच का संवाद मानकर पढें, तो मुझे भी अच्छा लगेगा। अपने पक्ष में बहुत अच्छा कहने के बजाय इतना ज़रूर कहूंगा कि आपको बहुत कम ही पाठक ऐसे मिले होंगे, जो आपसे असहमति रखते हुए भी आपकी सारी किताबों को बेचैनी से ढूंढते हुए पढ़ता है। बाकी संवाद को मैं भी सृजन प्रक्रिया का सबसे अनिवार्य हिस्सा मानता हूं। भाषा को लेकर अगर बेशर्मी बरती हो, तो माफ करेंगे। ♦ विनीत कुमार -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090819/6d849e85/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Fri Aug 21 03:03:44 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Fri, 21 Aug 2009 03:03:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSm4KS54KS1?= =?utf-8?b?4KS+4KS4IOCktuCkueCksCDgpK7gpYfgpIIg4KSr4KSC4KS44KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSo4KWN4KSm4KSX4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSo4KWAIDog4KSV4KSu4KWA4KSo4KWH?= Message-ID: www.mihirpandya.com ***** उस शाम सराय में रविकांत और मैं मुम्बई की पहचान पर ही तो भिड़े थे. ’मुम्बई की आत्मा महानगरीय है लेकिन दिल्ली की नहीं’ कहकर मैंने एक सच्चे दिल्लीवाले को उकसा दिया था शायद. ’और इसी महानगरीय आत्मा वाले शहर में शिवसेना से लेकर मनसे तक के मराठी मानुस वाले तांडव होते हैं?’ रविकांत भी सही थे अपनी जगह. मैं मुम्बई का खुलापन और आज़ादी देखता था और वो बढ़ते दक्षिणपंथी राजनीति के उभार चिह्नित कर रहे थे. हम ’मेट्रोपॉलिटन’ और ’कॉस्मोपॉलिटन’ के भेद वाली पारिभाषिक बहसों में उलझे थे. हमारे सामने एक विरोधाभासी पहचानों वाला शहर था. हम दोनों सही थे. मुम्बई के असल चेहरे में ही एक फांक है. यह शहर ऐसी बहुत सारी पहचानों से मिलकर बनता है जो अब एक-दूसरे को इसके भीतर शामिल नहीं होने देना चाहती. हाँ यह कॉस्मोपॉलिटन है. लेकिन अब कॉस्मोपॉलिटन शहर की परिभाषा बदल रही है. दुनिया के हर कॉस्मोपॉलिटन शहर में एक धारा ऐसी भी मिलती है जो उस रंग-बिरंगी कॉस्मोपॉलिटन पहचान को उलट देना चाहती है. दरअसल इस धारा से मिलकर ही शहर का ’मेल्टिंग पॉट’ पूरा होता है. ’मेल्टिंग पॉट’. *विशाल भारद्वाज *की *’कमीने’* ऐसे ही ’मेल्टिंग पॉट’ मुम्बई की कहानी है जहां सब गड्ड-मड्ड है. सिर्फ़ चौबीस घंटे की कहानी. यह दो भाइयों (शाहिद कपूर दोहरी भूमिका में) की कहानी है जो एक-दूसरे की शक्ल से भी नफ़रत करते हैं और इस नफ़रत की वजह उनके अतीत में दफ़्न है. चार्ली तेज़ है, उसके सपने बड़े हैं. वह रेसकोर्स का बड़ा खिलाड़ी बनना चाहता है. गुड्डू छोटी इच्छाओं वाला जीव है जिसकी ज़िन्दगी का ख़ाका पॉलीटेक्नीक में डिप्लोमा, नौकरी, तरक्की, शादी से मिलकर बनता है. लेकिन इस सबके बीच एक प्रेम कहानी है. गुड्डू की ज़िन्दगी में स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) है जो माँ बनने वाली है और बदकिस्मती से वो लोकल माफिया डॉन भोपे भाऊ (अमोल गुप्ते) की बहन है. पूरी फ़िल्म धोखे और फरेब से भरी है लेकिन अंत में आपको महसूस होगा कि असल में यह फ़िल्म अच्छाई के बारे में है. यह इंसान के भीतर छिपी अच्छाई की तलाश है. यह कबूतर के भीतर छिपे मोर की तलाश है. ’कमीने’ को लिकप्रिय हिन्दी सिनेमा की सर्वकालिक महानतम क्लासिक *’शोले’* का आधुनिक संस्करण कह सकते हैं. और इस आधुनिक संस्करण के मूल सूत्र ’शोले’ से ही उठाए गए हैं. इस मुम्बई में अन्डरवर्ल्ड माफिया के तीन अलग अलग तंत्र एक साथ काम कर रहे हैं और जिस ’क़त्ल की रात’ की यह कहानी है उस रात यह तीनों माफिया तंत्र आपस में बुरी तरह उलझ गए हैं. अपने सपनों के पीछे भागता एक भाई चार्ली ज़िन्दगी में शॉर्टकट लेने के चक्कर में ऐसे चक्कर में फंसा है कि अब जान बचानी मुश्किल है और दूसरा भाई गुड्डू न चाहते हुए भी अब भोपे भाऊ के निशाने पर है. मराठी अस्मिता के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले भोपे भाऊ के लिए एक उत्तर भारतीय दामाद उनकी राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं का अंत है. और इसी सबके बीच उस बरसाती रात उनकी ज़िन्दगियां आपस में टकरा जाती हैं. जैसे एक-दूसरे का रास्ता काट जाती हैं. तेज़ बरसात है. गुप्प अंधेरा है. एक गिटार है जिसमें दस करोड़ रु. बन्द हैं. उस गिटार के आस-पास खून है, गोलियां हैं, लालच है, विश्वासघात है, मौत है. एक तरफ शादी की शहनाई बज रही है और दूसरी तरफ अंधाधुंध गोलियों की बौछार है. इस सारे मकडजाल से भाग जाने की इच्छा लिए हुए हमारे दोनों नायक हैं और चीज़ों को और जटिल बनाने के लिए इन दोनों नायकों की शक्लें भी एक हैं. इसी सबके बीच पुलिस के भेस में माफिया के गुर्गे हैं, बाराबंकी से मुम्बई रोज़ी की तलाश में होते विस्थापन के किस्से हैं, रिज़वानुर्रहमान से तहलका तक के उल्लेख हैं और सबसे ऊपर आर.डी बर्मन के गीत हैं. *’सत्या’*के साथ हिन्दी सिनेमा ने मुम्बई अन्डरवर्ल्ड का जो यथार्थवादी स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उसे *अनुराग कश्यप*और *विशाल भारद्वाज* अपने सिनेमा में नए आयाम दे रहे हैं. गुड्डू की भूमिका में शाहिद कपूर हकलाते हैं और चार्ली की भूमिका में उनका उच्चारण गलत है (मैं ’फ़’ को ’फ़’ बोलता हूँ! आपने सुना ही होगा.) लेकिन इन शारिरिक भेदों से अलग शाहिद ने अपनी अदाकारी से दो अलग व्यक्तित्वों को जीवित किया है. स्वीटी के किरदार की आक्रामकता उसे आकर्षक बनाती है और एक मराठी लड़की के किरदार में प्रियंका बेहतर लगी हैं. भाइयों की कहानियां देखने की अभ्यस्त हिन्दुस्तानी जनता को विशाल ने खूब पकड़ा है. अब तक देखे मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा से आपकी जो भी समझ बनी है उसे साथ लेकर थियेटर में जाइएगा, वो सारे फॉर्मूले आपको बहुत काम आयेंगे इस फ़िल्म का आनंद उठाने में. वही बॉलीवुडीय परंपरा कभी आपको खास सूत्र देगी फ़िल्म को समझने के और वही कई बार आपको उस क्षण तक भी पहुंचाएगी जिसके आगे आपने जो सोचा होगा वो उलट जाएगा. *श्रीराम राघवन*की ही तरह विशाल भारद्वाज ने भी एक थ्रिलर को अमली जामा पहनाने के लिए हमारी साझा फ़िल्मी स्मृतियों का खूब सहारा लिया है. इस फ़िल्म की बड़ी खासियत इसके सह-कलाकारों का सही चयन और अभिनय है. कमाल किया है भोपे भाऊ की भूमिका में अमोल गुप्ते ने एवं मिखाइल की भूमिका में चंदन रॉय सान्याल ने. चंदन तो इस फ़िल्म की खोज कहे जा सकते हैं. अपने किरदार में वो कुछ इस तरह प्रविष्ठ हुए हैं कि उन्हें उससे अलगाना असंभव हो गया है. विशाल का पुराना काम देखें तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि ’कमीने’ सबके बीच कहां ठहरती है? क्या इसे शेक्सपियर की रचनाओं के विशाल द्वारा किए तर्जुमे *’मक़बूल’ * और *’ओमकारा’ *के आगे की कड़ी माना जाए? बेशक ’कमीने’ विशाल की पिछली ’ओमकारा’ और ’मक़बूल’ से अलग है. इसमें शेक्सपियर की कहानियों का मृत्युबोध नहीं है, इसमें संसार की निस्सारता और नश्वरता का अलौकिक बोध नहीं है. इस मायने में यह फ़िल्म अपने अनुभव में ज़्यादा सांसारिक फ़िल्म है. ज़्यादा आमफ़हम. शायद इसमें मृत्यु भी एक आमफ़हम चीज़ बन गई है. और यहीं यह फ़िल्म *क्वेन्टीन टेरेन्टीनो*की फ़िल्मों के सबसे नज़दीक ठहरती है. इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि एक बेहतरीन थ्रिलर की तरह यह पूरे समय अपना तनाव बरकरार रखती है. और यह तनाव बनाने के लिए विशाल ने किसी तकनीकी सहारे का उपयोग नहीं किया है बल्कि यह तनाव किरदारों के आपसी संबंधों से निकल कर आता है. ’कमीने’ कसी पटकथा और सटीक संवादों से रची फ़िल्म है जिसमें बेवजह कुछ भी नहीं है. हाँ इस कहानी में ’मक़बूल’ जितने गहरे अर्थ नहीं मिलेंगे लेकिन ’कमीने’ एक रोचक फ़िल्म है. और यह रोचक फ़िल्म अपना आकर्षण बनाए रखने के लिए हमेशा सही रास्ता चुनती है, कोई ’फॉर्टकट’ नहीं. यही मुंबई का ‘मेल्टिंग पॉट’ है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090821/3787e099/attachment-0001.html From pankaj.pushkar at gmail.com Fri Aug 21 20:19:07 2009 From: pankaj.pushkar at gmail.com (Pankaj Pushkar) Date: Fri, 21 Aug 2009 20:19:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= A discussion on "State of Social Sciences in Indian languages" Message-ID: Dear friend, You are cordially invited for a discussion on *"State of Social Sciences in Indian languages" *The purpose of the discussion to to explore challenges and possibilities in doing social sciences in Indian languages. *The venue*of the discussion would be *Department of Political Science (Art Faculty, North Campus, University of Delhi).* You are requested to express your interest so that we can send you a backgrounder. The discussion would be* on 26th Aug., 2009 at 3:00 PM.*This discussion may start with reflecting on the state of Political Science in Hindi. You are also requested to forward this mail to all who may be interested in this venture. We hope many of us will join this discussion and make it a process. with regards, Dr. Madhulika Banenerjee Pankaj Pushkar (9868984442) प्रिय साथी, आप समाज विज्ञानों को जन-सापेक्ष बनाने के व्यापक सरोकार से जुड़े रहें हैं. समाज विज्ञान जन-सापेक्ष बनें इसके लिए यह देखना जरूरी है कि विभिन्न भारतीय भाषायों में समाज विज्ञानों की उपस्थिति कैसी है. आपने अक्सर इन सवालों पर सोचा होगा कि भारतीय भाषायों में समाज विज्ञानों के विकास में चुनौतियाँ और संभावनाएं क्या हैं. हम इन्ही सवालों पर आपसी विचारों और अनुभवों कि साझेदारी से शुरुआत करना चाहते हैं. पारंपरिक रूप से भारतीय भाषायों में समाज विज्ञानों के विकास के सवाल को अनुवाद के दायरे में देखा जाता रहा है. अनुवाद आज भी एक जरूरी और प्रासंगिक उपाय है. लेकिन, समाज विज्ञानों में अनुवाद के आज तक के अनुभवों से सीखने की जरूरत भी है. इसके अलावा इस सवाल को भी जांचने की जरूरत है की यह अनुवाद दृष्टी किस सीमा तक "ज्ञान की राजनीति" से प्रभावित रही है. क्यों न पुराने अनुभवों और प्रचलित विमर्श से सीखते हुए ज्ञान-निर्माण में अनुवाद की भूमिका को नए सिरे से तलाशने की कोशिश की जाये. इस लिहाज से भारतीय भाषायों में समाज विज्ञानों के विकास के सवालों को ज्ञान-मीमांसा और शिक्षाशास्त्र की बहसों की रोशनी में देखने की जरूरत है. हम देख सकतें हैं कि भारत जैसे नव-शिक्षित होते देश की उच्च शिक्षा में पहली पीढी के पढाकुयों का आना कई दशकों तक चलते रहना है. यह नवागत पीढी भारतीय भाषायों में सोचने-जीने वाली पीढी होगी. इन पीढियों का अनुभव संसार जिस समाज विज्ञान की मांग करेगा वह न केवल भारतीय भाषायों में होगा बल्कि शिक्षाशास्त्र और ज्ञान की बनावट के हिसाब से कुछ फरक किस्म का होगा. बाजार का तर्क कहता है की मांग होने पर उत्पादन स्वयं होने लगता है, लेकिन यह तर्क उत्पादन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं करता. यानी, जरूरत विचार-मंथन और पूर्व-तैयारी की है. उम्मीद है कि हम लोग इन चुनौतियों के समाधान खोजने में मददगार बनेंगे. इन सवालों को सामने रख हम लोग दिल्ली विश्वविद्यालय (उत्तर परिसर) के राजनीति विज्ञान विभाग में 26-08-2009 (दिन गुरुवार ) को दोपहर 3:०० बजे शुरूआती चर्चा के लिए मिल रहे हैं. आप जरूर आइयेगा. आपसे अनुरोध है की इन सवालों के लिहाज से आप जिस भी हम-ख्याल साथी को बुलाना चाहें जरूर बुलाईयेगा या हमें उनका संपर्क सूत्र दीजियेगा. मधुलिका बनर्जी पंकज पुष्कर (9868984442) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090821/c8e0b7ad/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Aug 22 14:32:50 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 22 Aug 2009 14:32:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: some facts some text on swine flu Message-ID: <200908221432.53133.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: some facts some text Date: बुधवार 19 अगस्त 2009 20:16 From: jeevesh chaube To: Dear all; read n think shayad kuchh jyadati lage magar kuchh fact bhi hai aur shayad kuchh such bhi........ सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar) [image: Powered by Blogger] Monday, 17 August, 2009 ये हैं स्वाइन फ़्लू के असली "स्वाइन" Swine Flue, Roche, Donald Rumsfeld जबसे स्वाइन फ़्लू का “सुपर हौवा” मीडिया ने खड़ा किया है और उसके बाद लोगबाग हिसाब किताब लगाने लगे हैं कि आखिर इस “डराने वाले खेल” में कौन कितना कमा रहा है, कोई बता रहा है कि 10 रुपये का मास्क 200 रुपये में बिका, किसी ने बताया कि निजी अस्पताल विभिन्न टेस्ट के नाम पर लूट रहे हैं, डॉक्टरों के यहाँ भीड़ लगी पड़ी है और उन्हें नोट गिनने से ही फ़ुर्सत नहीं है… लेकिन शायद आपको पता नहीं होगा कि इस बीमारी के नाम पर डरा-धमकाकर भारत में जितनी और जैसी भी कमाई हो रही है वह “चिड़िया का चुग्गा” भर है। एक नज़र इधर भी डालिये जनाब – स्वाइन फ़्लू पर कारगर दवा के रूप में रातोंरात मशहूर हो चुकी (हालांकि अभी इसमें भी संदेह है कि यह बच्चों पर कितनी कारगर है) दवाई “टैमीफ़्लू” की स्विट्ज़रलैंड स्थित बहुराष्ट्रीय कम्पनी “रॉश” (Roche) ने गत 6 माह में 938 मिलियन डालर (659 मिलियन यूरो – भारतीय रुपये में गणना मत कीजिये चक्कर आ जायेगा) का माल विभिन्न देशों को बेचा है। रॉश कम्पनी की वार्षिक सेल से 203% अधिक का टारगेट सिर्फ़ 6 माह में हासिल कर लिया गया है। इसके अलावा अभी भी अलग-अलग देशों और अन्तर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थानों की ओर से भारी मांग बनी हुई है। (यहाँ देखें http://www.nytimes.com/2009/07/24/business/24roche.html) कम्पनी के अध्यक्ष सेवेरिन श्वान कहते हैं कि टैमीफ़्लू की इस भारी मांग के बावजूद वह अपने ऑर्डर पूरा करने में सक्षम हैं लेकिन दवाओं के सभी ऑर्डर इस साल के अन्त तक ही दिये जा सकेंगे। कम्पनी की योजना है कि सन 2010 तक टैमीफ़्लू का उत्पादन 400 मिलियन पैकेट प्रतिवर्ष तक बढ़ाया जाये, जो कि आज की स्थिति से चार गुना अधिक होगा (यानी कम्पनी स्वाइन फ़्लू के प्रति बेहद “आशावान” है)। इस बड़े “खेल” में एक पेंच यह भी है कि कैलीफ़ोर्निया स्थित “जिलीड साइंसेस” नामक कम्पनी ने इस दवा का आविष्कार किया है, और इसका पेटेंट और लाइसेंस भी उसी के पास है, अतः जितनी अधिक टैमीफ़्लू बिकेगी, उतनी ही अधिक रॉयल्टी जिलीड साइंसेस को मिलेगी, और यह कोई संयोग नहीं हो सकता कि जिलीड साइंसेस कम्पनी के सबसे प्रमुख शेयर होल्डर हैं अमेरिका पूर्व रक्षा सचिव डोनल्ड रम्सफ़ेल्ड। क्या हुआ चौंक गये क्या? यह रम्सफ़ेल्ड साहब वहीं शख्स हैं, जिन्होंने जॉर्ज बुश को ईराक के खिलाफ़ भड़काने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाई थी, इन्ही साहब ने “इराक के पास महाविनाशक हथियार हैं” वाली थ्योरी को मीडिया के जरिये आगे बढ़ाया था। अब ये बात और है कि ईराक के पास से न कुछ मिलना था, न ही मिला लेकिन “तेल के खेल” में अमेरिका, जॉर्ज बुश की तेल कम्पनी और रम्सफ़ेल्ड ने अरबों डालर कमा लिये। डोनल्ड रम्सफ़ेल्ड 1997 में जिलीड रिसर्च बायोटेक के चेयरमैन बने और 2001 में उन्होंने जॉर्ज बुश सरकार में पद ग्रहण किया, और आज की तारीख में भी उनके पास “जिलीड” के लगभग 25 मिलियन डालर के शेयर हैं। बुश प्रशासन के एक और पूर्व रक्षा सचिव जॉर्ज शुल्ट्ज़ भी जिलीड कम्पनी के बोर्ड मेम्बर हैं और उन्होंने सन 2005 से लेकर अब तक 7 मिलियन डालर के शेयर बेचे हैं। सन्देह की पुष्टि की बात यह है कि अमेरिका कि फ़ेडरल सरकार टैमीफ़्लू की सबसे बड़ी ग्राहक भी है, पेंटागन ने जुलाई में 58 मिलियन डालर की टैमीफ़्लू खरीदी के आदेश जारी किये हैं ताकि विश्व के विभिन्न इलाकों में रहने वाले सैनिकों को यह दवा भेजी जा सके, जबकि अमेरिकी कांग्रेस एक और बड़ी खरीदी के बिल पर विचार कर रही है। मजे की बात यह भी है कि जिलीड साइंस ही ओसेटमिविर नामक दवा बनाती है जो बर्ड फ़्लू के उपचार में काम आती है… और पिछले 5-7 वर्ष के दौरान अचानक विश्व में “सार्स”, “बर्ड फ़्लू”, एवियन फ़्लू, स्वाइन फ़्लू नामक नई-नई बीमारियाँ देखने में आने लगीं? इन्हें देखें… http://www.timesonline.co.uk/tol/news/uk/health/Swine_flu/article6737507.eceऔ र http://www.infowars.net/articles/november2005/081105birdflu.htm स्वाइन फ़्लू का वायरस प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों की गलती की वजह से फ़ैला? ऐसा हो सकता है, “रशिया टुडे” में वेयन मैडसेन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वाइन फ़्लू का वायरस “मानव निर्मित” है और यह वैज्ञानिकों और प्रयोगकर्ताओं की गलती की वजह से मेक्सिको में फ़ैला और फ़िर आगे दुनिया में बढ़ा… देखें यह रिपोर्ट http://www.russiatoday.com/Top_News/2009-07-16/Swine_flu_virus_began_life_in_ a_lab.html (अतः इस सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता कि इन प्रयोगशालाओं के जरिये यह वायरस जानबूझकर फ़ैलाया गया हो) आईये अब देखते हैं कि स्वाइन फ़्लू नामक इस बड़े भारी “षडयन्त्र” को कैसे अंजाम दिया गया – 1) फ़रवरी 2009 – मेक्सिको के CDC ने कहा कि इस वर्ष फ़ैलने वाला फ़्लू टैमीफ़्लू द्वारा नहीं रोका जा सकता और यह फ़्लू टैमीफ़्लू की गोली के प्रति प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुका है। इस खबर से रॉश कम्पनी की बिक्री में 68% की गिरावट देखी गई। (यहाँ देखें http://www.fiercepharma.com/story/roche-suffers-tamiflu-resistance/2009-02-06 ) 2) मार्च का प्रथम सप्ताह 2009 – दवा बनाने वाली एक भीमकाय कम्पनी सनोफ़ी एवेन्टिस ने बोर्ड मीटिंग में यह तय किया कि वह मेक्सिको में प्रतिवर्ष फ़ैलने वाले इन्फ़्लुएंज़ा के वैक्सीन निर्माण हेतु 100 मिलियन डालर का निवेश करेगी (तगड़ा माल कमाने की जुगाड़ सभी को दिखाई देने लगी)। (यहाँ देखें http://www.medicalnewstoday.com/articles/142835.php) 3) 18 मार्च 2009 – स्वाइन फ़्लू का पहला मरीज मेक्सिको सिटी में मिला। (यहाँ देखें http://www.who.int/csr/don/2009_04_24/en/index.html) 4) 25 अप्रैल 2009 – एक माह में मेक्सिको में इस बुखार से 60 लोगों की मौत हो गई, जबकि अमेरिका में इसी वायरस से ग्रसित 7 मरीज अपने-आप ठीक भी हो गये। यहाँ देखें (http://uk.reuters.com/article/idUKTRE53N4X020090424) 5) 25 अप्रैल 2009 – इसी दिन इसे “स्वाइन फ़्लू” नाम दिया गया, जबकि न तो यह सूअरों को संक्रमित करती है, न ही सूअरों के द्वारा फ़ैलती है। यह वायरस मनुष्य से मनुष्य में ही फ़ैलता है। 6) फ़रवरी से अप्रैल 2009 आते-आते मात्र 2 महीने में मीडिया के जरिये यह घोषित कर दिया गया कि “रॉश” कम्पनी की दवाई टैमीफ़्लू स्वाइन फ़्लू पर सर्वाधिक असरकारक है। यहाँ देखें http://www.marketwatch.com/story/roche-talks-who-tamiflu-potential जबकि जिन जड़ी बूटियों के बारे में स्वामी रामदेव बता रहे थे.. उनका ज़िक्र और स्वाइन फ्लू से लड़ने के उपाय डॉक्टर विरेंदर सोढ़ी (1980 से अमेरिका के निवासी और आयुर्वेद के एमडी) मई 2009 में कर चुके थे, लेकिन उनके पास पालतू मीडिया की ताकत नहीं थी और इतने समय में तो बड़े खिलाड़ी अपना खेल दिखा चुके। यहाँ देखें http://74.125.153.132/search?q=cache:mBxlGe9h0qUJ:goodeatssd.blogspot.com/200 9/05/about-swine-flu.html+Tinospora+cordifolia+Swine+Flu&cd=1&hl=en&ct=clnk स्वाइन फ्लू का पहला केस 18 मार्च 2009 को सामने आया था.. तब से लेकर अब तक क़रीब 150 दिनों (पांच महीने) में दुनियाभर में अधिकतम 1500 मौत हुई हैं (WHO के मुताबिक़ 1154)... इस लिहाज़ से स्वाइन फ्लू दुनिया में रोज़ सात से दस लोगों को मौत का शिकार बना रहा है. जबकि दूसरी संक्रामक बीमारियां ज्यादा ख़तरनाक है. 1) TB ट्यूबरकोलिसिस – रोज़ 900 भारतीय मारे जाते हैं यहाँ देखें http://www.medindia.net/news/TB-Claims-900-Lives-in-India-Daily-Dr-Ramadoss- 36092-1.htm 2) डायरिया– रोज़ 1000 मारे जाते हैं- डायरिया के कारण दुनिया भर में 3.5 मिलियन बच्चे अपने जीवन के 5 वर्ष पूर्ण नहीं कर पाते, और मरने वाला हर पाँचवां बच्चा भारतीय होता है। (http://www.earthtimes.org/articles/show/109532.html) (कभी गुलाम नबी आज़ाद को डायरिया के सम्बन्ध में इतने बयान देते देखा है?) 3) मलेरिया से रोज़ाना देश में 41 मौत, जिसमें 13 बच्चे WHO की ताज़ा रिपोर्ट http://apps.who.int/malaria/wmr2008/malaria2008.pdf (कभी अम्बुमणि रामादौस को मलेरिया के लिये चिन्तित होते देखा है?) 4) हेपीटाइटिस से रोज़ 273 की मौत- http://74.125.153.132/search?q=cache:ue5L0E7gRvIJ:india.gov.in/citizen/health /hepatitis.php+hepatitis+india+every+year&cd=2&hl=en&ct=clnk 5) देश में रोज़ 214 महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं - यहाँ देखें http://uk.reuters.com/article/idUKLNE51H04H20090218?sp=true (कभी प्रधानमंत्री को इलाज के अभाव में देश के ग्रामीण इलाकों में रोज़ाना होने वाली महिलाओं की दशा को लेकर राष्ट्र को सम्बोधित करते देखा है?) 6) जापानी बुखार से रोज़ चार मौत- जापानी इन्सेफ़लाइटिस की रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.thaindian.com/newsportal/health/japanese-encephalitis-claimed-963- lives-in-india_10042110.html 7) कैंसर, हार्ट अटैक और अन्य बीमारियों के आंकड़े भी हैरत में डालने वाले हैं. और जबकि इसमें सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों का आँकड़ा शामिल नहीं किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि विश्व में फ़ैलने वाली किसी भी महामारी और युद्ध के बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता कि वह वाकई महामारी और लड़ाई है अथवा “पैसे के भूखे” अमेरिका में बैठे कुछ बड़े “शातिर खिलाड़ियों” का एक घिनौना षडयन्त्र है। स्वाइन का मतलब होता है “सूअर” और जो पैसा कमाने के लिये नीच कर्म करता है… send it to other friends jeevesh ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat Aug 22 18:04:56 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 22 Aug 2009 18:04:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSs4KWA4KSs?= =?utf-8?b?IOCkpOCkqOCkteClgOCksCDgpJTgpLAg4KSo4KSv4KS+IOCkpeCkv+Ckjw==?= =?utf-8?b?4KSf4KSwIOCkquCksCDgpKbgpYsg4KSr4KS84KS/4KSy4KWN4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <200908221804.57071.ravikant@sarai.net> सोमवार 24 अगस्त को 4 बजे शाम, सराय में दिखाई जा रही हैं. माफ़ कीजिएगा, सूचना देर से जा रही है. एक महमूद फ़ारूक़ी साहब की है, जिन्हे आप बख़ूबी जानते हैं, और दूसरी - गाँव के नाँव थिएटर, मोर नाँव हबीब - सुधन्वा देशपांडे व संजय महर्षि ने बनाई है. जन नाट्य मंच के सुधन्वा ने जननाटकों पर लंबे समय तक और महत्वपूर्ण काम किया है और कर रहे हैं. संजय महर्षि भी नाटक और फ़िल्मों की दुनिया में सक्रिय रहे हैं. महमूद की फ़िल्म का नाम है 'डान्सिंग ऐट एटी: हबीब तनवीर्स थिएटर'. ज़रूर आएँ! रविकान्त विस्तृत विवरण नीचे है: *Newsletter August 2009 Film Screening at Sarai* Sarai will screen two immensely interesting films on Habib Tanvir, *My Village Is Theatre, My Name Is Habib (Gaon Ke Naon Theatre, Mor Naon Habib)* and *Dancing at Eighty: Habib Tanvir's Naya Theatre* on *24th August 2009*, at the *Seminar Room, CSDS*. The film screenings will start at *4:00 pm*. *Synopsis of My Village Is Theatre, My Name Is Habib (Gaon Ke Naon Theatre, Mor Naon Habib) Directors: Sudhanva Deshpande & Sanjay Maharishi. * They crisscross the country by road and by rail, living out of suitcases and trunks, singing, dancing, performing. 'Naya Theatre' is a professional theatre company of rural actors from Chhattisgarh, founded in 1959. The company is led by Habib Tanvir --- actor, writer director, singer, poet, designer, teacher. Through interaction with the actors in their villages, the making 'Zahareeli Hawa', Tanvir's translation of Rahul Varma's English play on the Bhopal gas tragedy, and incidents such as the time when Habib Tanvir and the actors came under attack from the Hindu Right in 2003 for performing 'Ponga Pandit', the film looks at life in Naya Theatre as the actors tour one city after another, performing continuously. *Synopsis of Dancing at Eighty: Habib Tanvir's Naya Theatre* Made on the occasion of Habib Tanvir's eightieth birthday, Mahmood Farooqui's documentary provides a slice of life account of Naya Theatre at work. Made with rudimentary equipment and sometimes technically poor, the film parallels, in some ways, the poor infrastructural condition in which the theatre was produced. The film creates two parallel streams. One part of it deals with the vision, aspiration and world view of Habib Tanvir which relies on interviews with him in a green room, at the final dress rehearsal, while he rehearses on an open terrace amidst jagran bhajan loudspeakers in Bhopal and at his house. The second part of the film contains conversations with his actors many of whom have now died or have retired including the legendary singer Bholua Ram, Govind Ram Nirmalkar, Poonam Tiwari and Chaitram. The actors have a different and bittersweet understanding of their practice, of their journey and their own regrets. Not aspiring to any completeness the film merely puts the conversations on a public platform, leaving the audience to work out their own wholeness. From vineetdu at gmail.com Mon Aug 24 14:25:57 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 24 Aug 2009 14:25:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSC4KS1?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJbgpYvgpJwg4KS44KS+4KS54KS/4KSk4KWN4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK7gpYfgpIIs4KSs4KWB?= =?utf-8?b?4KSm4KWN4KSn4KS/4KSc4KWA4KS14KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleCkviA=?= =?utf-8?b?4KSc4KSu4KS+4KS14KSh4KS84KS+IOCkpuCkv+CksuCljeCksuClgCA=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <829019b0908240155t69b1ed55pc3e252c96e472ca4@mail.gmail.com> गांव के लोगों का दिल अब गांव में नहीं लगता। बुजुर्ग कथाकार विद्यासागर नौटियाल की इस समझ पर असहमति जताते हुए टेलीविजन पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा- सच तो ये है कि अब शहर में मन नहीं लगता। शायद इसलिए आज हम गांव पर बात करने के लिए यहां जमा हुआ हैं। बड़ी तेजी से एक ऐसी संस्कृति पनप रही है जहां हम अकेले होते जा रहे हैं। विदर्भ के चालीस हजार किसानों ने हत्या की तो अकेले होकर आत्म हत्या की। हम अकेले बनता दुनिया के बीच जी रहे हैं।विचार के ये बिल्कुल दो अलग सिरे हैं लेकिन गांव और शहर को लेकर जो भी नक्शा हमारे जेहन में बनता है,उसकी भाषिक व्याख्या पाखी,साहित्यिक पत्रिका की ओर से आयोजित संगोष्ठी साहित्य और पत्रकारिता में गांव में सुनकर अच्छा ही लगा। हालांकि पूरी बहस का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर आकर टिक गया कि दिल्ली या फिर दूसरे बड़े शहरों में रहकर गांव और देहात पर लिखनेवाले लोगों की बातों कि ऑथेंटिसिटी कितनी है या फिर शहर में रहकर जो लोग गांव पर लिख रहे हैं उसमें कितनी तल्खी है। मैनेजर पांडेय के शब्दों में कहें तो दिल्ली जैसे शहर में,एसी हॉल में बैठकर जो हम गांव पर सेमिनार कर रहे हैं उससे बड़ा ही मनोरंक दृश्य पैदा हो गया,जाहिर है ये उनकी ओर से सेमिनार को लेकर किया गया व्यंग्य है लेकिन इसी बहाने साहित्य औऱ पत्रकारिता के बीच गांव भी एक मुद्दा है,इस पर बात होनी चाहिए, ऐसे सेमिनार विमर्श की दुनिया में इन विषयों के प्रति एक महौल पैदा करने का काम तो करते ही है। साखी पत्रिका ने साहित्य औऱ मीडिया में गांव विषय पर संगोष्ठी का आयोजन पत्रिका के एक साल पूरी होने के उपलक्ष्य में कराया और विषय की जरुरत को ध्यान में रखते हुए इस पर विशेषांक भी निकालने की बात भी की। ये अलग बात है कि इस पूरे एक साल में स्वयं पाखी ने गांव औऱ उनसे जुड़ी समस्याओं,स्थितियों औऱ संरचना को लेकर रचनात्मक स्तर पर बहुत कुछ नहीं किया। बकौल पुण्य प्रसून वाजपेयी इस एक साल में न तो पाखी ने और न ही हंस ने गांव को लेकर बहुत कुछ किया है। संगोष्ठी के बाद विशेषांक निकाले जाएंगे इससे एक उम्मीद बंधती है लेकिन सवाल ये है कि इसके बाद क्या? बहरहाल, वक्ता के तौर पर साहित्य और मीडिया से जुड़े कुल चार बुद्धिजीवियों ने अपनी बात रखी। बुजुर्ग कथाकार विद्यासागर नौटियाल,टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी, बरिष्ठ हिन्दी आलोचक मैनेजर पांडेय और हंस के संपादक औऱ कथाकार राजेन्द्र यादव। बुजुर्ग कथाकारनौटियाल के ये कहे जाने पर ही कि अब गांव के लोगों का मन भी गांव में नहीं लगता,किसी गांव में बैठकर भी वो न्यूयार्क,लंदन और विदेशों के बारे में ही सोचते हैं तो समझिए कि बहस का पलीता सुलगाने का काम हो गया। उसके बाद उनकी ये बात गंभीर रही कि पहले के मुकाबले देहातों में अखबार पढ़ने का चलन बढ़ा है,कई गुना ज्यादा अखबार बिकने लगे हैं,मीडिया उन इलाकों में प्रवेश करने लग गया है जबकि साहित्य से देहात तेजी से गायब हो रहे हैं। अगर लिखा भी जा रहा है तो वो भी नास्टॉलिक होकर ही। साहित्य को इस दिशा में सोचने की जरुरत है जबकि मीडिया जिस भाषा का प्रयोग कर रहा है,अखबार जिन शब्दों औऱ भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं,जिसे पढ़कर देहात के लोग भाषा सीखते हैं,वही भाषा में कल को दिल्ली आकर बोलेंगे वो बहुत ही खतरनाक है। नौटियाल ने इस बात पर चिंता जाहिर करते हुए संभावना के लिए बैचेन नजर आए कि आज देश में कोई भी एक अखबार नहीं है जिसकी भाषा हिन्दी हो। हिन्दी के नाम पर भाषा पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी है। नौटियाल की गांव के लोगों का मन गांव में नहीं लगने की बात को पुण्य प्रसून वाजपेयीने अपने वक्तव्य में एक दार्शनिक और काफी हद महानगरों का एक पुर्जा बनकर रह जानेवाली बिडंबना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि सच तो ये है कि अब हमारा मन शहर में नहीं लगता। हम लगातार अकेले होते जा रहे हैं। विदर्भ को आइडियल शहर घोषित किया गया लेकिन वहां चालीस हजार किसानों ने अकेलेपन के स्तर पर आत्महत्याएं की। आज अगर मीडिया में गांव नहीं है,मीडिया से जुड़े लोग गांव की स्थितियों को संवेदना के स्तर पर नहीं ला पा रहे हैं इसके लिए उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर जिम्मेवार ठहराया। सरकार मतलब कोई मनमोहन सिंह और नरसिंह राव की सरकार नहीं बल्कि वो संसदीय प्रक्रिया और मशीनरी जिसके तहत निर्णय लेने और लागू करने के काम होते हैं। वाजपेयी मीडिया से गांव के गायब हो जाने की घटना को देश की आर्थिक नीतियों से जोड़ते हैं और लोगों की उस मानसिकता को तोड़ने का प्रयास करते हैं जो आज की अधिकांश गड़बड़ियों के लिए सीधे-सीधे मीडिया को जिम्मेवार मानते हैं। वाजपेयी के मुताबिक निजी टेलीविजन चैनलों के आए हुए तो मात्र दस साल हुए लेकिन आप देखिए लोकसभा जैसा चैनल पर भी भूखमरी पर बात करते हुए एक्सप्कट ठहाके लगाने का काम करता है। वाजपेयी ने मीडिया और गांव से जुड़े सवाल को संसद औऱ उसको लेकर होनेवाली राजनीति,आर्थिक नीतियों और नियत से जोड़ते हुए विस्तार से समझाया। किसानों के मजदूर बन जाने की घटना,रेड कॉरीडोर को धकियाते हुए अंदर किए जाने की बात,कोई विकल्प न दोने औऱ खड़ा करने की बात पर चिंचा जताते हुए वाजपेयी ने उन तमाम बिडंबनाओं की तरफ खुलकर इशारा किया जहां किसान सभा निकालने वाले राजनाथ सिंह पूरे गांव से हाइवे की सड़कों की तरह गुजर जाते हैं,राहुल गांधी बिस्लरी की बोतल थामे लोगों से जुड़ने के लिए बेचैन रहते है औऱ चंदन मित्रा जैसा पत्रकार राजनीति में आते ही जनता की न होकर पार्टी लाइन की जुबान बोलने लग जाते हैं। पत्रकारिता की पराकाष्ठा राजनीति तक आकर शांत हो जाती है। मैनेजर पांडेय इस बात को नहीं मानते कि हिन्दी साहित्य में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसमें गांव को लेकर कोई चिंता नहीं है। उन्होंने शिवमूर्ति का आखिर छलांग और रणेन्द्र का उपन्यास लालचंद असुर और ग्लोबल गांव के देवता का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि हिन्दी में लोग लगातार गांव से जुड़े मसलों और समस्याओं पर लिख रहे हैं। वक्तव्य के अंत में उन्होंने राजेश जोशी की दो कविताएं भी पढ़ी जिसमें से कि विकल्प कविता की उन पंक्तियों पर जोर दिया जहां गांव के लोगों के पास या तो शहर जाकर नौकर बनने या फिर आत्महत्या कर लेने के अलावे कोई दूसरा विकल्प नहीं है,अपराध के दरवाजे पर नो वैकेंसी का बोर्ड कभी नहीं लगा होता,इस विकल्प पर सोचकर हमारे सामने जो सीन बनते हैं,उससे भी हम शायद मौजूदा समाज का विश्सेलेषण कर सकते हैं। मैनेजर पांडेय के मुताबिक आज जो देश की स्थिति है,दरअसल इसके भीतर एक ही साथ दो-दो हिन्दुस्तान है। एक हिन्दुस्तान जिसमें कि कुल आबादी के नब्बे फीसदी लोग रहते हैं औऱ दूसरे हिन्दुस्तान में मात्र दस फीसदी लोग रहते हैं। दस फीसदी के लोगों के लिए ये स्वर्णिम युग है,स्वर्ग है,बसंत है जबकि नब्बे फीसदी लोगों के लिए ये नरक है और अब वो इस इस नरक को छोड़कर कहीं औऱ नहीं जाना चाहते,उनके लिए ये माघ की ठिठुरन है....और सबसे बुरा वक्त है। मैनेजर पांडेय ने अपने सरस अंदाज में गांव की चिंता करनेवाले उन बुद्धिजीवी साहित्यकारों की मानसिकता की तरफ भी इशारा किया जो कि सामयिक मसलों से बिल्कुल कटकर जीने को अभ्यस्त हैं जिसे कि उन्होंने हरियाणा औऱ दिल्ली के आसपास इलाकों में युवाओं के प्रेम किए जाने पर सामूहिक हत्या कर देने और फरमान जारी करने पर दिल्ली में पांच लोग भी जुटकर प्रतिरोध नहीं करने के तौर पर रेखांकित किया। अंतिम वक्ता के तौर पर राजेन्द्र यादव ने उक्त विषय पर बोलने से पहले ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी कि वो अपने को इस विषय पर बोलने के अधिकारी नहीं मानते। लेखन के स्तर पर शुरुआती दौर से ही उनका संबंध मध्य वर्ग की समस्याओं से रहा है। लेकिन इस घोषणा के बाद उन्होंने जो कुछ भी कहा उसे समझना जरुरी है। राजेन्द्र यादव के मुताबिक अब तब जितने बदलाव हुए हैं उनमें शहर और मध्य वर्ग के लोगों की ही भूमिका रही है। शहर और यहां के लोगों ने धक्का दे-देकर गांव में बदलाव की भूमिका तैयार की है। अगर ये शहर और लोग नहीं होते तो गांव रुढ़िवाद और अपनी स्थानीय जड़ता में ही जकड़ा रहता। इस लिहाज से मुझे गांव पर न बोलने और लिखने का कोई अफसोस नहीं है। राजेन्दर यादव ने गांव और शहर के बीच में कथाकार संजीव और स्वयं के बीच के प्रसंग को एक रुपक के तौर पर पेश किया और उन लोगों पर लगभग व्यंगय भी जो गांव शब्द सुनते ही पंत की कविता याद करते हैं-अहा-ग्राम्य-जीवन भी-क्या है,थोड़े में निर्वाह यहां है...याद करने लग जाते हैं और खोने की नकल करते हैं। पाखी पत्रिका ने जिस विषय पर संगोष्ठी आयोजित की है,उस पर बात करने के लिए निश्चित पर निर्धारित समय बहुत ही कम रहा,इस पर लंबी बहस औऱ बातचीत संभव है जिसकी भरपायी विशेषांक निकाले जाने की घोषणा के साथ करने की कोशिश की गयी। लेकिन फिर वही सवाल कि उसके बाद क्या...क्या मुख्यधारा की पत्रकारिता और साहित्य के बीच इसे शामिल करने की जरुरत पूरी हो पाती है या फिर हिन्दी पखवाड़ा या आरक्षण की नीति के तहत इसके लिए साल में दो-चार दिन निर्धारित कर दें औऱ बाकी समय हुर्रा-हुर्रा करते निकल जाएं। पूरी संगोष्ठी में हुई बातचीत सुनने के लिए चटकाएं- साहित्य और पत्रकारिता में गांव,23 अगस्त 09.पाखी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090824/8fe5c142/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Aug 25 09:41:59 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 25 Aug 2009 09:41:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSH4KS4?= =?utf-8?b?IOCkkeCkqyDgpIfgpILgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWHIOCkrOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KWHIOCknOCksOCkviDgpLjgpYvgpJrgpL/gpI8s4KSV4KWB?= =?utf-8?b?4KSbIOCkleClgOCknOCkv+Ckjw==?= Message-ID: <829019b0908242111g76889f9fj57abdc5253b3e72f@mail.gmail.com> *उस समय* तक वाइस ऑफ इंडिया की सांसें लगभग उखड़ चुकी थीं, जब साईं भक्त और चैनल के सीईओ अमित सिन्हा इसे मज़बूती के तौर पर खड़े करने की बात करते नज़र आ रहे थे। मीडिया ख़बरों से जुड़ी एक वेबसाइट पर बतौर सीईओ उन्होंने कहा कि मैं साईं का भक्त हूं और मुझे उन पर पूरा भरोसा है, सब ठीक हो जाएगा। जाहिर है, उस समय अमित सिन्हा ने चैनल से जुड़े लोगों को जो भरोसा दिलाया, वो एक सीईओ की हैसियत से ज़्यादा श्रद्धा में जकड़े एक भक्त की भावुकता से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। जिन लोगों को लगता है कि उनका जीवन श्रद्धा, विश्वास और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर तय होते हैं, उन्हें अमित सिन्हा की बात पर भरोसा करने में रत्तीभर भी संदेह नहीं हुआ होगा और वो इस इंटरव्यू के पढ़े जाने के बाद से ही राहत महसूस करने लगे होंगे। वैसे भी देश के भीतर एक खास तरह की जनता हमेशा से मौजूद है जो बाबा, पुजारी, भगवान और पीर-फकीरों के प्रभाव से कोढ़ी, लाचार और अपाहिज को रातोंरात चंगा होते देखते आये हैं। अपनी इसी समझदारी के बूते पर अमित सिन्हा ने सीईओ के तौर पर एक-दो लोगों की जिंदगी नहीं बल्कि पूरा का पूरा एक चैनल ही चंगा करने की जिम्मेवारी अपने आराध्य पर डाल दी। अगर अमित सिन्हा के भीतर प्रोफेशनल एप्रोच होता, तो वो साईं मिलेनियर नाम से दूसरा चैनल खोलने के बजाय मौजूदा चैनल को दुरुस्त करने का काम करते। इस बात को समझ पाते कि दिन-रात साधना और आध्यात्म की बात करनेवाले चैनल भी बाज़ार की शर्तों पर चलते हैं, उसे कोई बाहरी शक्ति चंगा करने नहीं आती। नहीं तो अब या तो ये मानिए कि सारी गड़बड़ी उस आराध्य की है, वो अब समर्थ नहीं रह गये कि कोढ़ी को चंगा कर सकें या फिर अमित सिन्हा को इस पूरे प्रकरण के लिए जिम्मेवार मानिए कि उन्होंने सैकड़ों मीडियाकर्मियों की जिंदगी से खिलवाड़ किया है और भक्त होकर आस्था की सत्ता के आगे ढोंग रचने का काम किया है। ये मामला एक चैनल का है] इसलिए बाकी के चैनल कवरेज करने के बावजूद भी चुप्पी साधे बैठे हैं। नहीं तो दूसरी स्थिति होती तो ये पूरा मामला आस्था और कल्याण से जुड़ी स्टोरी एंगिल को लेते हुए हम ऑडिएंस के लिए एक के बाद एक पैकेज बनकर सामने आते। बहरहाल… वेबसाइट पर इंटरव्यू पढ़ने के बाद मैंने अमित सिन्हा को एक मेल किया और सीधे तौर पर कहा कि एक पत्रकार होने के नाते ये उचित नहीं है कि आप अपनी आस्था, विश्वास और राजनीतिक अवधारणा को सार्वजनिक स्तर पर किये जानेवाले फ़ैसले का आधार बनाएं। बेहतर हो कि आप पत्रकारिता के मानकों और उनकी शर्तों के हिसाब से काम करें। मेल का कोई जवाब नहीं आया और वेबसाइट पर इस चैनल के विज्ञापन की चमक फीकी पड़ने के साथ ही बात आयी-गयी हो गयी। आज वॉइस ऑफ इंडिया की जो स्थिति है, वो आपके सामने है। मुझे तो पहली बार पढ़ कर हैरानी हुई कि इस चैनल के पास जेनरेटर चलाने के लिए पेट्रोल तक के पैसे नहीं हैं, चैनल ब्लैक आउट हो गया है। एक वेबसाइट ने जब इस मामले में मेरी राय जाननी चाही, तो मैंने साफ तौर पर कहा कि जो भी लोग चैनल चला रहे हैं, दरअसल उनके पास कोई स्ट्रैटजी नहीं है। आज अगर चैनल चला रहे हैं, उसमें घाटा होगा तो सॉफ्ट लोन के लिए जुगत भिड़ाएंगे और अगर सफल नहीं हुए तो टायर की दुकान खोल लेंगे, पूरे मामले से पल्ला झाड़ देंगे। आज किसी भी मीडिया संस्थान का खुलना और अंत में हांफ-हांफ कर बंद हो जाना कितना आसान हो गया है। लेकिन इन सबके बीच पत्रकारों की जिंदगी का क्या होगा? सच पूछिए तो नोएडा की सड़क पार करते हुए और फोन पर बात करते हुए मैं एक घड़ी के लिए उन पत्रकारों के बारे में सोच कर बौखला गया जो पैकेज-दर-पैकेज के लिए कूद-फांद मचाये रहते हैं। मीडिया मालिक आज आश्वस्त हो गये हैं कि पैसा फेंकने पर देश के किसी भी पत्रकार को पालतू बनाया जा सकता है और उसे दूह कर टीआरपी के दूध निकाले जा सकते हैं। अगर वो दुधारू साबित नहीं होता है, तो गर्दन पकड़ कर बाहर निकाला जा सकता है। ये है आज देश के एक पत्रकार की हैसियत, दुनिया भर में हक की लड़ाई लड़नेवाले पत्रकारों की हकीकत, मैनेजमेंट की ओर से धमकियां सुननेवाले खट्ट-खट्ट कीबोर्ड बजाने और गर्दन की नसें फुला कर पीटीसी देनेवाले एडिटर और रिपोर्टर की असली औकात। किसी पत्रकार के बच्चों का स्कूल से नाम कट गया, कोई पत्रकार अपनी पत्नी को खर्च से बचने के लिए उसके मायके पटक आया है, किसी ने पान-बीड़ी पर कटौती करके छोटे झोले में सब्जी दूध लाना शुरु कर दिया है। आपको ये सब सुनकर कैसा लगता है? क्या सिर्फ उनके प्रति संवेदना पैदा होती है, रहम खाकर कुछ मदद करने का मन करता है। क्या मेरी तरह आपके मन में भी घृणा, अफसोस, दया, सहानुभूति और गुस्सा एक साथ नहीं पनपता? लगता है कि इससे तो अच्छा होता वो बदहाल होकर भी अपने हक की लड़ाई लड़ने की स्थिति में होते, प्रोफेशन के स्तर पर लोगों के लिए हक की लड़ाई लड़ने के नाम पर स्वांग तो करते ही रहते हैं। मीडिया मालिकों के बीच इस मानसिकता को किसने मज़बूत किया है कि किसी भी पत्रकार की कोई आडियोलॉजी नहीं होती, जितनी मोटी रकम दोगे उतना ही रिटर्न देगा, बाकी के सारे लोग कीबोर्ड के मजदूर हैं, दो-चार पांच हजार बढ़ाते रहो, मन लगाकर काम करते रहेंगे। नये लोग मरे जा रहे हैं मीडिया में काम करने के लिए। उनके हाथ बेताब हैं माइक थामने के लिए। नतीजा, चार-चार महीने फ्री में इंटर्नशिप करने को तैयार हैं। दो-दो साल तक बिना किसी इन्क्रीमेंट के चौदह घंटे-सोलह घंटे खटता जा रहा है। अब कोई ये दलील देने लग जाए कि वो सामाजिक बदलाव के लिए इस प्रोफेशन में आया है, तो बेहतर है कि आप कोई और बकवास सुन लीजिए, इस ओर कान मत दीजिए। वॉइस ऑफ इंडिया के हवाले से अगर आप मीडियाकर्मियों की स्थिति पर गौर करें तो इनकी स्थिति गर्दन झुका कर पत्थर फोड़नेवाले मज़दूरों से भी गयी-गुजरी है। उस मज़दूर के सामने संभव है कि बेहतर दुनिया की तस्वीर साफ न हो और हो भी तो पाने के आधार की जानकारी न हो लेकिन मीडियाकर्मी के पास सब चीजों की जानकारी होते हुए हाथ रहते लूला है, ज़ुबान रहते गूंगा है, आंख रहते कुछ भी न देख पाने की स्थिति में है। वो दूसरों के लिए चाहे कुछ भी लिख दे, दिखा दे अपने लिए उसके पास न तो शब्द हैं और न ही विजुअल्स। इधर देखिए। एक औसत आदमी भी पान-बीड़ी, परचून और दूध-दही की दूकान खोलता है, चाट-गोलगप्पे के खोमचे लगाता है, उनके पास स्ट्रैटजी होती है। उन्हें पता होता है कि कितनी लागत है और कितना प्रॉफिट है। एक-एक चीज़ पर बारीकी से विचार करता है। लेकिन करोड़ों रुपये की लागत पर चलनेवाले चैनल को देखकर लगता है कि उनके पास सामाजिक बदलाव को लेकर कोई विजन तो नहीं ही है, चैनल को बनाये रखने का भी कोई प्लान नहीं है। जब तक चला तो चला, नहीं तो बेतहाशा छंटनी करो, लोगों को हाथ-पैर रहते अपाहिज कर दो या नहीं तो फिर अपने घाटे की भरपाई के लिए सरकार से जुगाड़ करके लोन लो, भूत-प्रेत, ढिंचिक-ढिंचिक स्टोरी और खबरों के पीछे पानी की तरह पैसे बहाओ। न तो कोई हिसाब लेनेवाला है कि किसका पैसा है, आम आदमी की गाढ़ी कमाई को कोई ऐसे कैसे बहा सकता है। देश की जिस जनता को कफ सिरप चाहिए, उसके पैसे से स्वर्ग की सीढ़ी क्यों खोजे जा रहे हैं? कहीं कोई सवाल नहीं, कोई हलचल नहीं। सब चल रहा है। इस पक्ष पर अगर कोई काम करे और तथ्यों को सामने रखे तो अंदाजा लग जाएगा कि चीख-चीख कर खबरों को पेश करनेवाले चैनल, समाज को झक-झक सफेद करने का दावा करनेवाला मीडिया आम आदमी के लिए किस तरह विष घोलने का काम करता है। वॉयस ऑफ इंडिया की घटना मीडिया इंडस्ट्री के भीतर सुलगनेवाली ज्वालामुखी का धुआं भर है, आगे की स्थिति और ज्यादा खतरनाक होने जा रही है। सरोकारों से कटकर हमें क्या लेना-देना के अंदाज में मीडिया के भीतर जो लोग भी काम कर रहे हैं। उन्हें अभी ये समझ में भले ही नहीं आ रहा हो कि आनेवाले कल के लिए, वो अपने लिए मौत की डमी तैयार कर रहे हैं लेकिन एहसास करना होगा कि हक की लड़ाई के मोर्चे पर वो बिल्कुल अकेले हैं। विदर्भ के किसानों की तरह उन्हें अकेले आत्महत्या करनी होगी जिसके ऊपर शायद ही सामूहिक रुदन हो। इसलिए ज़रुरी है कि स्वार्थ और हक के फर्क को समझने की कोशिश में वॉयस ऑफ इंडिया के भीतर जो मीडियाकर्मी जुटे हैं, उनकी आवाज़ को बुलंद करें और दलालों से मुक्त होकर दलाल संस्कृति की पत्रकारिता को खत्म करने की कोशिश करें। यहां से दुनिया भर के लोगों के पक्ष में लड़ाई लड़ने का ढोंग रचनेवाले मीडिया के विरोध में हमारी लड़ाई शुरु होती है। मोह्ल्लाlive पर प्रकाशित -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090825/4730f5a5/attachment-0001.html From RAVISH at NDTV.COM Wed Aug 26 10:39:02 2009 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Wed, 26 Aug 2009 10:39:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= jawant is doing conspiracy against me- md ali jinnah Message-ID: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A218BF60D@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> (???????,?????? ?? ???? ?????? ???? ???? ?????? ??? ??? ?????? ?? ?? ???? ?? ?? ????? ????? ???? ??? ?? ???? ????????? ?? ???????? ?? ????? ?? ??? ???? ????? ?? ??? ?? ??? ????? ?? ????? ?????? ???? ?? ??????? ?????? ?? ???? ?? ??? ??? ??? ???) ???? ????? ???? ???? ?? ?? ????? ?? ?????? ???? ???? ???????? ????? ???? ?? ?? ????? ???? ??????? ???? ??? ?? ?????? ?? ?? ????? ???? ?? ?? ??? ?????? ???? ?? ????? ???? ?? ????? ??????? ??? ?? ?? ???????? ??? ??? ???? ?? ?????? ?? ?????? ?? ?? ???? ?? ??? ?? ????? ?????? ??? ???? ???? ?????? ???? ?? ??? ??? ???? ???? ????? ?????? ???? ???????? ????? ???? ?? ?????? ?? ???? ???? ??? ??? ????? ?? ????? ?? ???? ??? ?? ??????????? ?????? ??? ??? ????? ?? ????? ????? ?? ????? ?? ????? ?? ????? ??? ??? ???? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ???? ???? ????? ?? ???? ?? ?? ????????? ??? ??????? ?? ???? ?????? ?????????? ???? ??? ?? ????? ?? ??? ?????????? ???????? ??????? ??? ???? ?? ?????? ?? ?????? ?? ???? ??? ????????? ?? ??? ???? ??????? ?? ??? ???? ?? ?? ????????? ?? ???? ????? ??? ?? ?? ????? ?? ???? ?? ?? ?? ?? ????? ?? ??? ??? ???? ???? ??? ?? ????? ????? ?? ??????? ?? ???? ??, ????? ??????? ????? ?? ?? ????? ?? ???? ?????? ?????? ???? ?? ????????? ??? ????? ?? ????? ?? ????? ? ????? ???? ?? ??? ???? ?? ??? ?? ???? ???? ??? ???,?? ?? ???? ???? ??? ???? ???? ???????? ????? ?????? ????? ????????? ???? ?????? ?? ???? ???????? ???? ?????? ????,????? ????? ?? ??? ???? ??? ???? ??? ????????? ?? ????? ?? ??? ??? ??? ???? ?? ???? ??? ????????? ???? ????? ??? ??? ?? ?? ?? ????? ????????? ??? ??? ???? ??????-???? ?? ????? ?? ????? ?? ?????? ?????? ????? ?? ????? ???? ?? ?? ?????? ?????? ?? ?????? ?? ??????????? ??? ??? ???? ?? ??? ???? ???? ???? ?? ? ?????? ???? ?? ?????? ?? ???? ???? ?????? ?? ?????? ????? ?? ????? ??? ???? ?? ???? ???? ??? ??? ???? ??? ????? ?? ???? ?? ????,???? ?? ????? ?????? ?? ???? ?????? ???? ??? ??? ???? ??? ??? ??? ?? ?????? ???? ?? ?? ???? ?? ???? ??? ?? ?? ?????? ???? ???? ???? ?????????,???? ??????,???? ??????? ???? ?????? ?? ???? ??????? ????? ?????? ?? ?? ????? ???? ??? ????? ???? ?? ??? ???? ?? ?? ???? ?? ???? ????? ??? ?? ???? ??? ??? ?? ??? ?? ?? ???? ?? ??? ???? ?????? ??? ??? ???? ???? ?? ???? ???? ?????? ????????? ?????? ?? ?? ???? ????? ?? ????? ?????? ???? ?? ????? ????? ???? ??? ???? ????????? ?? ??? ????? ?? ????? ??? ??????? ??? ?? ?????? ???? ??? ?????? ????? ????? ?????? ?? ?? ????? ?????? ??? ?? ????? ?? ???? ???? ?? ???????? ????? ?????? ?????, ??? ??? ?????? ?? ??? ???? ?? ?? ???-?????? ???? ?? ??????? ???? ????? ?? ?? ????? ?? ????????? ?? ????? ??? ??? ?????? ?? ???? ????? ??? ???? ????? ???? ??? ????? ????????? ????? ?? ??????? ?? ????? ?????-????? ?? ??? ???? ????? ???? ???? ?????? ??? ????? ?????????? ????????? ?? ?????? ?? ????? ?? ?? ??????????? ?? ?????? ??? ?????? ??? ????? ????????? ?? ??? ????? ?? ?????????? ????? ?? ?? ???????? ?? ?????? ????? ???? ??? ???????? ???? ?? ???? ???? ???? ??????? ?????? ?? ????????? ?? ????? ?? ???? ??? ?? ????? ????? ?????? ?? ??????? ????? ?????, ???????? ?????? ????? ??? ???? ?? ?? ?? ????? ??? ???? ?????? ??? ????? ????? ????? ??? ??? ???? ???? ????? ????? ??? ?????? ????? ?? ???? ??? ???? ???? ?? ?????? ?????? ?? ?? ???? ?? ????? ?? ??? ??? ?? ?????? ?? ???? ???? ??????? ?? ????? ???? ???? ???? ??? ????? ?? ???? ??? ?? ??????? ?? ?? ????? ???? ???? ??? ?????? ?? ?? ??? ?? ?? ?????? ?? ?? ??? ??? ?? ?? ??? ?? ?? ????? ?? ?????? ??? ??? ???? ?? ???? ?? ???? ???? ?? ????????? ?? ????? ??? ??? ????? ????? ?? ???? ?????? ?? ?????? ??? ?? ?????? ?? ?? ????? ????????? ??? ??????? ?? ?? ??? ?? ?? ?? ?? ??? ?? ???? ?? ?? ???? ??? ?? ????? ?? ??????? ?? ???? ???? ?? ?????? ?? ?????? ???? ?? ?? ????? ????? ?? ????? ?? ???? ?? ??? ????? ????? ?? ?? ???? ?? ???? ????? ?? ??? ??? ???? ??? ?? ???? ??? ???? ???? ????????? ???? ?? ???? ???? ?????? ???? ?? ?????? ???? ??? ????? ??? ????? ????????? ??? ????? ???? ???? ?????? ??? ????? ????????? ?? ??? ???? ??? ?? ????? ?? ????????? ?????? ?? ??? ??? ????? ?? ??? ???? ???? ?? ?? ?????? ??? ??? ?????? ???? ????? ???? ????????? ?? ???? ?? ???????? ?? ????? ?? ????? ??? ?? ???? ???? ?? ???? ?? ???? ???? ????? ???? ?? ?? ????? ?? ????? ?? ?? ?????? ??? ?? ??? ?? ????? ??? ???? ?? ?????? ??? ??? ?? ???? ?? ????? ?? ???? ?? ??? ?????? ?????? ??? ???? ?? ???? ??? ????? ??????? ?? ????,??????? ??? ?? ????? ??? ????????? ???? ???? ???? ??????? ?? ????? ?? ???? ?? ??? ???? ?? ????? ???? ????? ?? ??? ??? ??? ???? ???? ???? ???????? ???? ?? ?????? ?????? ?? ?????? ?? ????? ?? ???? ?? ?? ?? ???? ??? ????? ????? ????? ??? ???? ????? ????????? ???? ?????? ??? ????? ?????? ????? ?? ?????? ???? ???? ??? ??? ???? ??? ???? ???? ????? ????? ?? ???? ?? ??? ?????? ???? ??? ???????? ?? ????? ?????? ???? ??? ?? ???? ??? ?? ?????? ???? ???? ????? ?????? ???? ?? ???? ?????? ??? ??? ???? ??????? ??????? ???? ????? ????? ????? ????? ??? ???? ????? ?????? ???? ?? ???? ????? ??? ?? ???? ?? ??? ?????? ???? ??? ??? ??? ??????? ???? ??? ???? ????? ??? ????? ?? ????????? ?? ????? ?? ???????? ?? ??????? ??? ??? ???? ???? ????? ??????? ???? ???? ?? ?? ???????? ????? ?? ???? ?? ???? ?????? ??? ??? ???? ?? ???? ???? ?? ????? ???? ?????????? ??? ????? ??? ???? ?? ??? ???? ?? ??? ??? ?? ???? ?? ????? ????? ???? ?? ?? ?????? ????????? ???? ?? ?? ??????? ?? ?? ???? ?? ?? ??????? ?? ??? ?????? ?????? ????? ??????????? ???? ?????? ?? ????? ?????? ?? ?? ??????????? ???? ????? ????? ?? ??????? ????????? ?? ??? ?? ?????? ?? ??? ???? ?? ???? ?????? ????? ???????? ???????? ?????????? ???? ??? ????????? ????? ????? ??? ????????? ???? ????? ?? ???? ???? ??? ??? ???? ????? ?? ??? ?? ?? ??????? ????? ????? ????? ?? ????? ?? ?????? ?? ?? ?? ??? ??? ???? ???? ??? ???? ?? ????? ??? ??? ????? ?????? ??? ?? ???? ?? ?? ?? ?? ???? ?????? ?? ??? ???? ???? ??? ??? ???? ?????? ?? ????? ????? ????? ????? ?????? ?? ??? ???? ?? ??? ???? ???? ??? ??? ????? ??? ?? ????????? ????? ?? ??????? ???? ???? ? ?? ?????-????? ??? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090826/6b86cf31/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Aug 26 12:23:45 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 26 Aug 2009 12:23:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= jawant is doing conspiracy against me- md ali jinnah In-Reply-To: <40590c1b0908252328g4fccd80bra3359ebaebcd482a@mail.gmail.com> References: <40590c1b0908252328g4fccd80bra3359ebaebcd482a@mail.gmail.com> Message-ID: <200908261223.46476.ravikant@sarai.net> रवीश, मेरा डाकडिब्बा भी कुछ मरकरी की तरह जल रहा था, इसलिए अलंकार की मदद से थोड़ी देर बाद पढ़ पाया. क्या गहरी बातें कह दी हैं, तुमने, और वह भी इतने पुरलुत्फ़ अंदाज़ में. आलोक पुराणिक, सावधान. आप गंभीर विधागत चुनौती के लिए तैयार हैं न? आप में से कई लोगों ने यूट्यूब का ये वीडियो देखा होगा, जीओ टीवी वाला, जिसमें कवि प्रदीप के गीत को एनिमेशन के साथ रीमिक्स किया गया है: http://www.youtube.com/watch?v=VRRM21tHsL8 गीत के बोल, अगर मैंने सही सुने हैं तो नीचे हैं. इसलिए डाल रहा हूँ कि ये गीत रवीश की बात की ताईद करता है, क़ायदे-आज़म के नाम की दुहाई देकर पाकिस्तान को जगाना चाहता है. वैसे ये मौसम ही क्रॉसओवर का लगता है, वरना कवि प्रदीप का पाकिस्तानी नवजागरण से क्या लेना-देना! क़ायद ने तो दिया नहीं था ऐसा पाकिस्‍तान कितना बदल गया इंसान(2) कैसा वक़्‍त ये आया भाई, आपस में है मार-कुटाई चोरी घपला और बुराई, प्यार के बदले ख़ूब लड़ाई रिश्वत के बाज़ार में अपना बेच रहा ईमान क़ायद ने तो कितना बदल गया इंसान पहले थे किरदार के पक्के, आज फ़क़त है मौक़ापरस्ती पहले थे गुफ़्तार के पक्के, आज हुई हर बात है सस्ती किसी के बहकावे में मत आ, होश में आ नादान कितना बदल गया इंसान. शेर बहादुर रब के बंदे, कल थे मुजाहिद आज हैं अंधे फैलाएँ हर काम में फंदे, देख लिए सब इनके धंधे अपने वतन की अस्मत, अपनी हस्ती को पहचान कितना बदल गया इंसान रहबर हमने थे वो पाए, हर मुश्किल में आड़े आए आज है नैया बीच भँवर में। कोई नहीं जो पार लगाए याद नहीं रखे क्‍या हमने क़ायद के फ़रमान कितना बदल गया इंसान। पाकिस्‍तान को जीने दो! उम्मीद है मज़ा आया होगा. रवीश की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान में नारा होगा: जिन्नाह को जीने दो! रविकान्त बुधवार 26 अगस्त 2009 11:58 को, आपने लिखा था: > (ब्लॉगरो,जिन्ना जी बहुत परेशान हैं। उनका एसएमएस आया था। फेसबुक पर भी लिखा > है कि जसवंत बेकार आदमी हैं और मुझे पाकिस्तान से निकलवाने की कोशिश कर रहे > हैं। मुझसे भी कहा कि मैं ब्लॉग पर लिखकर जिन्ना साहब की पोज़िशन क्लियर कर > दूं। सो मैं लिख रहा हूं) > From vineetdu at gmail.com Wed Aug 26 16:48:37 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 26 Aug 2009 16:48:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWIIOCkteCkvuCkh+CkuCDgpJHgpKsg4KSH4KSC4KSh4KS/4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpI/gpJUg4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkreCkvuCkt+Ckvg==?= Message-ID: <829019b0908260418k518e707bw5027c1531302823a@mail.gmail.com> ये विनीत एक नंबर का चूतिया मालूम पड़ रहा है। कुछ पता-वता है नहीं, उल्टी-सीधी बातें लिख मारी हैं। अबे विनीत, तुम खुद क्या हो, तुम्हारी क्या औकात है। अमित सिन्हा जैसे ईमानदार इंसान को तुझ जैसे झटियल से प्रमाणपत्र हासिल करने की जरूरत नहीं है। पहले खुद को इस लायक बनाओ कि लोग तुम्हे जाने-पहचाने फिर कमेंट्स करने की हिमाकत करो। अबे, अमित सिन्हा या किशोर मालवीय तो बहुत दूर की बात है, तुम तो एक इंटर्न पर भी टिप्पणी करने की औकात नहीं रखते। ये मुंह और मसूर की दाल। गधे हो जो फालतू की बातें लिख रहे हो। अविनाश भाई, मुझे आप पर भी तरस आता है कि आपने अपने पूर्व अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और ऐसे चिरकुटों की बातों को छाप रहे हैं। गुरूजी, ये चूतिए अपने चुतियापे से आपकी छवि की भी मां बहन कर रहे हैं। संभल जाओ दोस्त। संजय देशवाल वाइस ऑफ इंडिया में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उस संबंध में मैंने अपनी राय मोहल्लाlive पर जाहिर की। एक वेबसाइट ने जब इस संबंध में मेरी राय जाननी चाही तो मैंने साफ तौर पर कहा कि चैनल के पास न तो कोई स्ट्रैटजी है और न ही वहां काम कर रहे मीडियाकर्मियों को लेकर कोई चिंता। आज चैनल चला रहे हैं,अगर घाटा इसी तरह जारी रहा तो जोड़-तोड़ से सरकार की ओर से सॉफ्टलोन के लिए जुगत भिड़ाएंगे और आम आदमी का पैसा सांप-सपेरे औऱ ढिंचिक-ढिंचक खबरों के लिए झोंक दिया जाएगा,कहीं कोई हिसाब लेनेवाला नहीं है। चैनल के सीइओ अमित सिन्हा की जो समझ है वो अनुभव मीडियाकर्मी से कहीं ज्यादा भावुकता और श्रद्धा में जकड़े एक भक्त की है। चैनल के भीतर खबरों पर चर्चा होने से कहीं ज्यादा साईं बाबा के नाम पर आरती की थालियां घुमायी जाती है जिसका खुलासा अपने अधिकारों के लिए लड़नेवाले वाइस ऑफ इंडिया के मीडियकर्मियों ने बनाए ब्लॉग long live voi पर किया। ये अलग बात है कि अब उन्होंने इस ब्लॉग को अपनी मांगें और शर्तें पूरी होने के साथ ही बंद कर दिया। आप कह सकते हैं कि हम पाठकों के साथ भावनात्मक रुप से खिलवाड़ किया वो इसे मीडिया इतिहास से धो-पोछकर खत्म कर देना चाहते हैं जबकि ये संभव नहीं है। मेरी बात संजय देशवाल नाम के एक शख्स को इतनी चुभ गयी कि उन्होंने मेरे लिए सार्वजनिक रुप से चुतिया शब्द का इस्तेमाल किया औरमोहल्लाlive के मॉडरेटर अविनाश की छवि की मां-बहन करने का मुझ पर आरोप भी लगाया। इसी बीच मेरे पास कई पत्रकारों,दोस्तों और ब्लॉग पाठकों के फोन आए। सबों ने कहा कि इस तरह की अभद्र भाषा का कोई कैसे प्रयोग कर सकता है,आप तुरंत अविनाश से बोलकर इस कमेंट को हटाने कहो। मैं जानता हूं कि अविनाश हाइपर डेमोक्रेटिक आदमी हैं,इसलिए उन्हें कुछ भी कहना सही नहीं होगा। दूसरी तरफ हम चाहते थे कि पाठकों को पता तो चले कि देश के एक पत्रकार के प्रतिरोध की भाषा क्या हो सकती है और उसे किसी की बात से सहमति नहीं होती है तो वो किस जुबान में बात करता है,इसका अंदाजा लगा सकें। इसलिए मैंने नीचे एक उस कमेंट का एक युगल रुप देते हुए एक छोटा-सा कमेंट किया- संजयजी,आपको पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा,आपने मुझे इतनी गंभीरता से पढ़ा और अपने संस्कार और भाषा का परिचय दिया। मैं यहां बैठे-बैठे ही आपकी छवि को समझ सकता हूं। अगर आप जैन टीवी से लाइव करनेवाले खेमे में थे तो भविष्य के लिए शुभकामनाएं। आपकी भाषा बहुत अच्छी है,अगर कोई स्टोरी इसी भाषा में लिखते हों तो आप मुझे मेल कीजिएगा,देखना चाहूंगा।….और हां अमित सिन्हा के प्रति प्रतिबद्धता को देखकर काफी प्रभावित भी हुआ। आप जैसे लोगों से वो हमेशा घिरे रहें इसके लिए उन्हें भी शुभकामनाएं…. इस कमेंट के जरिए मैंने किसी भी रुप में अपने को महान साबित करने की कोशिश नहीं की है बल्कि मुन्नाभाई एमबीबीएस में बॉमन इरानी की तरह टेंशन रिलीज करने के प्रयोग किए हैं। ये भाषा उसी पत्रकार समाज से प्रयोग की गयी है जो दिन-रात हमें फोन करके,मेल के जरिए नसीहत दिए फिरते हैं कि आपको जो मन आए लिखिए लेकिन अपशब्दों का प्रयोग मत कीजिए। उनकी लगातार कोशिश होती है कि हमारे लिखे के भीतर से चीर-फाड़कर एक-दो ऐसे शब्द निकालें और उसे अश्लील साबित करते हुए पूरे मुद्दे को निगल जाएं। ब्लॉग और पार्टल के विरोध में ऐसी छवि बनाए जैसा कि मृणाल पांडे औऱ वरिष्ठ आलोचक रमेश उपाध्याय जैसे लोग बनाते आए हैं। जो लोग इंटरनेट की दुनिया में नहीं विचरते,दूर से हांक लगानेवाले आलोचकों को सुनकर राय बनाते हैं कि इस पर लेखन के नाम पर सिर्फ टुच्चई होती है,उन्हें ये भरोसा हो जाए कि इंटरनेट पर लिखनेवाले लोग कभी कुछ बेहतर लिख ही नहीं सकते। मेरे एक-दो अनुभवी मीडिया साथियों ने कहा कि ये जो कमेंट किया गया है वो वाइस ऑफ इंडिया के किसी वरिष्ठ मीडियाकर्मी का है,ऐसा काम वो पहले भी कर चुके है। नाम बदलकर कमेंट करने का काम वो पहले भी कर चुके हैं। लेकिन मैं बार-बार यही कामना कर रहा हूं कि ये किसी भी चैनल के पत्रकार की भाषा न हो,ऐसे शख्स की भाषा न हो जो मीडिया प्रोफेशन से संबंध रखता हो। नहीं तो इधर पन्द्रह दिनों में मीडिया को लेकर जो विश्वास छीजते चले जा रहे हैं,उसमें इजाफा हो जाएगा और मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090826/c38de8cc/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Aug 27 15:11:25 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 27 Aug 2009 15:11:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkr+ClhyDgpK3gpL7gpLfgpL4g4KSP4KSC4KSV4KSwIOCkheCkpA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSyIOCkheCkl+CljeCksOCkteCkvuCksiDgpJXgpYAg4KSk4KWL?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: <829019b0908270241o7f5ae4bal6334fb5a4ae3b5fe@mail.gmail.com> टेलीविजन स्क्रीन पर इतने आक्रामक अंदाज में बात करने वाला शख्स भीतर से इतना खोखला होगा कि अपने मालिक के प्रति वफादारी दिखाने के लिए गुंडे-मवालियों की भाषा का इस्तेमाल करने लग जाएगा,सोचकर किसी भी एंगिल से यकीन नहीं होता। एक नामचीन पत्रकार के बारे में ऐसा सोचते हुए मन कसैला हो जाता है। सच पूछिए तो मेरा ध्यान वहां तक गया भी नहीं। हां इतना समझ पाया कि जिस किसी ने मेरे उपर ये कमेंट किया है उसे मेरी बात भीतर तक लगी है और वो इसे पढञकर बुरी तरह तिलमिला गया है और अपने को संभाल नहीं पाया है। लेकिन मोहल्लाlive पर बेनामी नाम से एक कमेंट को पढ़कर मैं उनके बताए फ्रेम में थोड़ी देर रुककर सोचने लगा। उन्होंने लिखा- मेरा बेनामी रहना बहुत ज़रूरी है। दरअसल ये जो संजय देशवाल है वह अतुल अग्रवाल ही है। जो लोग अतुल अग्रवाल को करीब से जानते हैं वो पहचान गए होंगे इस टिप्पणी की भाषा से। न्यूज २४ में इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया करते थे जनाब। अगर किसी को कोई संदेह है तो जनाब की वेब साईटhttp://www.hindikhabar.com पर जाकर पढ़ लें। भाषा एक जैसी है। मैं अतुल अग्रवाल को लेखन के स्तर पर न के बराबर जानता हूं। अगर उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी है तो माफ कीजिएगा मैंने उसे पढ़ा नहीं है। लेकिन हां,बोलने के स्तर पर उन्हें लगातार एक टेलीविजन ऑडिएंस की हैसियत से सुनता आया हूं। बोलने का आक्रामक अंदाज,गर्दन की नस फुलाकर बोलने की शैली एकबारगी हमें आकर्षित करती है। लेकिन इतना तो आप भी जानते है कि बड़ी पूंजी के बीच फंसी मीडिया के बीच से चाहे जितनी भी जोर से आवाज निकाले जाएं वो आवाज क्रांति या बदलाव की नहीं हो सकती,वो अंत तक आते-आते एक शोर और कानों के लिए एलर्जी पैदा करनेवाले एलीमेंट बनकर रह जाते हैं। इसलिए दो मिनट के बाद ही मुझे चांदनी चौक में जामुन बेचनेवाले बंदे का ध्यान हो आता है जो अकेले जामुन में ही दुनियाभर की बीमारियों को हरनेवाले गुणों को बताकर हांक लगाने का काम करता है। कॉर्पोरेट ग्लूकोज पीकर आधे-एक घंटे की बुलेटिन पेश कर अतुल अग्रवाल या देश का कोई भी मीडियाकर्मी पूरी तरह सड़ चुकी व्यवस्था में कितनी रद्दोबदल कर सकता है ये आपसे औऱ हमसे छिपा नहीं है। इसलिए मेरी तरह आपको भी यकीन हो जाएगा कि ऐसा बोलने का अंदाज एक शैली भर से ज्यादा कुछ भी नहीं है,शांत मिजाज की ऑडिएंस इस शैली को शायद ही पसंद करे। बहरहाल, लेखन के स्तर पर मेरी तरह इंटरनेट पर पढ़नेवाले लोगों के बीच जैसे ही अतुल अग्रवालका नाम आता है तो एक ही बात एक साथ निकलती है- अच्छा,वही जिसने खुशवंत सिंहको लेकर अनाप-शनाप लिखा था। मैंने अतुल अग्रवाल की लिखी ये पोस्ट रॉ फार्म में ही पढ़ी थी। कई गालियां,भद्दे-भद्दे कमेंट,अश्लीलता और फूहड़ भाषा से भरी इस पोस्ट को पढ़ते हुए मुझे बार-बार ऐसा लगा कि मैं अन्तर्वासना डॉट कॉम पर लिखी गयी कहानियों की भूमिका से गुजर रहा हूं। मन में एक सवाल भी आया कि जो इंसान बतौर एक लेखक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है तब वो बोलने के स्तर पर किस तरह की भाषा का इस्तेमाल करता होगा? लेकिन यही तो चमत्कार है कि सुबह से शाम तक मां की,बहन की करनेवाले सैंकड़ों लोग शाम गहराते ही मानवीयता,शालीनता और बदलाव के लबादे ओढ़कर ज्ञान देने की मुद्रा में आ जाते हैं। हालांकि अतुल अग्रवाल की इस पोस्ट को कई वेबसाइटों ने अपने स्तर से फिल्टर करके छापा लेकिन उसके फ्लेवर में कोई खास फर्क नहीं आया। शायद यही वजह है कि जिस बेनामी शख्स ने मेरे लिए की गयी टिप्पणी को अतुल अग्रवाल की कारस्तानी बताया,वो इस पोस्ट की याद दिलाना नहीं भूला,उसे बतौर रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल किया। इसके साथ ही एक साइट की लिंक भी दी और कहा कि हम उसकी भाषा से अगर टिप्पणी की भाषा का मिलान करते हैं तो हमें पक्का विश्वास हो जाएगा कि ये उन्हीं का काम है। टिप्पणी के मुताबिक सही में मैं अतुल अग्रवाल के आगे कुछ भी नहीं हूं,पासींगा भी नहीं। लेकिन बिडंबना देखिए कि देश के इतने बड़े पत्रकार को(अगर वाकई हैं तो) मुझ जैसी नाचीज को जबाब देने के लिए जहमत उठानी पड़ गयी। मैं इस मसले पर अभी लिखने ही जा रहा था कि जीमेल टॉक पर अचानक से एक पत्रकार भाई का संदेश आया- विनीत,आपके उपर किसने कमेंट किया है,मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं। मैंने कहा- एक शख्स ने तो कमेंट के तौर पर लिखा है कि ये काम अतुल अग्रवाल का है। उधर से फिर जबाब आया,एकदम सही लिखा है,सौ फीसदी सही। मैंने फिर कहा-मैं तो लिखने जा रहा हूं-कहीं ये कमेंट अतुल अग्रवाल का तो नहीं। उधर से फिर जबाब आया-आप निश्चिंत रहिए,ये काम उसी शख्स का है। डिस्क्लेमर- इस पोस्ट के जरिए हमने सिर्फ उस गुंजाइश को समझने की कोशिश की है जो कमेंट और अतुल अग्रवाल की भाषा को एक करती है। हमारा इरादा न तो अतुल अग्रवाल जैसे बड़े पत्रकार के बारे में कोई अतिरिक्त छवि बनाने की है औऱ न ही हम उन जैसे किसी भी शख्स से मुकाबला करने की स्थिति में हैं। अगर उन्हीं के शब्दों को दोहराएं तो-अबे, अमित सिन्हा या किशोर मालवीय तो बहुत दूर की बात है, तुम तो एक इंटर्न पर भी टिप्पणी करने की औकात नहीं रखते। नोटः- मुझे अभी तक मेरी अपनी औकात का अंदाजा नहीं था,ये बताने के लिए टिप्पणीकार का शुक्रिया। खुशी होगी कि अतुल अग्रवाल यहां आकर लताड़ लगा जाएं औऱ कहें कि तुम्हें हिम्मत कैसे हुई मुझ पर शक करने की,मेरे पास इस तरह के वाहियात काम करने की जरा भी फुर्सत नहीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090827/124432ba/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Aug 27 16:42:26 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 27 Aug 2009 16:42:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSF4KSX4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSkIOClqOClpuClpuClryDgpIXgpILgpJU=?= Message-ID: <196167b80908270412y634672ebkc233a60d98bdd745@mail.gmail.com> http://docs.google.com/fileview?id=0B1caqA4NLGq6OTZlYThmNjQtNTRiNy00OWMyLWJhNGMtMTcwMWJhYTQ4MDcx&hl=en कृपया एक नजर यहाँ भी मीडिया स्कैन का अगस्त २००९ अंक आपकी प्रतिक्रया का इंतजार रहेगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090827/bb0581bd/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Thu Aug 27 16:42:26 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Thu, 27 Aug 2009 16:42:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KSF4KSX4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSkIOClqOClpuClpuClryDgpIXgpILgpJU=?= Message-ID: <196167b80908270412y634672ebkc233a60d98bdd745@mail.gmail.com> http://docs.google.com/fileview?id=0B1caqA4NLGq6OTZlYThmNjQtNTRiNy00OWMyLWJhNGMtMTcwMWJhYTQ4MDcx&hl=en कृपया एक नजर यहाँ भी मीडिया स्कैन का अगस्त २००९ अंक आपकी प्रतिक्रया का इंतजार रहेगा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090827/bb0581bd/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Aug 27 22:43:33 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 27 Aug 2009 22:43:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= prabhash Message-ID: <829019b0908271013x4a4acce4m89890fcfe6fb0d8a@mail.gmail.com> http://sanjeettripathi.blogspot.com/2009/08/blog-post_27.html http://virodh.blogspot.com/2009/08/blog-post_27.html भारत के सबसे सिद्व और प्रसिद्व संपादक और उससे भी आगे शास्त्रीय संगीत से ले कर क्रिकेट तक हुनर जानने वाले प्रभाष जोशी के पीछे आज कल कुछ लफंगों की जमात पड़ गई है। खास तौर पर इंटरनेट पर जहां प्रभाष जी जाते नहीं, और नेट को समाज मानने से भी इंकार करते हैं, कई अज्ञात कुलशील वेबसाइटें और ब्लॉग भरे पड़े हैं जो प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, सामंती और सती प्रथा का समर्थक बता रहे हैं। कहानी रविवार डॉट कॉम में हमारे मित्र आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा प्रभाष जी के इंटरव्यू से शुरू हुई थी। वेबसाइट के आठ पन्नों में यह इंटरव्यू छपा है और इसके कुछ हिस्सों को ले कर भाई लोग प्रभाष जी को निपटाने की कोशिश कर रहे हैं। जिसे इंदिरा गांधी नहीं निपटा पाईं, जिसे राजीव गांधी नहीं निपटा पाए, जिस लाल कृष्ण आडवाणी नहीं निपटा पाए उसे निपटाने में लगे हैं भाई लोग और जैसे अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू दिखाने से टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती हैं वैसे ही ये ब्लॉग प्रभाष जी की वजह से लोकप्रिय और हिट हो रहे हैं। मगर लोकप्रिय की बात करें तो यह लोग कौन सा हैं? प्रभाष जी पर इल्जाम है कि वे जातिवादी हैें और ब्राह्मणों को हमेशा उन्होंने आगे बढ़ाया। दूर नहीं जाना है। मेरा उदाहरण लीजिए। मैं ब्राह्मण नहीं हूं और अपने कुलीन राजपूत होने पर मुझे दर्प नहीं तो शर्म भी नहीं है। पंडित प्रभाष जोशी ने मुझ जैसे गांव के लड़के को छह साल में सात प्रमोशन दिए और जब वाछावत वेतन आयोग आया था तो इन्हीं पदोन्नतियों की वजह से देश में सबसे ज्यादा एरियर पाने वाला पत्रकार मैं था जिससे मैंने कार खरीदी थी। प्रभाष जी ने जनसत्ता के दिल्ली संस्करण का संपादक बनवारी को बनाया जो ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन ज्ञान और ध्यान में कई ब्राह्मणों से भारी पड़ेंगे। प्रभाष जी ने सुशील कुमार सिंह को चीफ रिपोर्टर बनाया। सुशील ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने कुमार आनंद को चीफ रिपोर्टर बनाया, वे भी ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने अगर मुझे नौकरी से निकाला तो पंडित हरिशंकर ब्यास को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। सिलिकॉन वैली में अगर ब्राह्मण छाए हुए हैं तो यह तथ्य है और किसी तथ्य को तर्क में इस्तेमाल करने में संविधान में कोई प्रतिबंध नहीं लगा हुआ है। प्रभाष जी तो इसी आनुवांशिक परंपरा के हिसाब से मुसलमानों को क्रिकेट में सबसे कौशलवादी कॉम मानते हैं और अगर कहते हैं कि इनको हुनर आता था और चूंकि हिंदू धर्म में इन्हें सम्मान नहीं मिला इसलिए उनके पुरखे मुसलमान बन गए थे। अगर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, नरसिंह राव और राजीव गांधी ब्राह्मण हैं तो इसमें प्रभाष जी का क्या कसूर हैं? इतिहास बदलना उनके वश का नहीं है। प्रभाष जी ने इंटरव्यू में कहा है कि सुनील गावस्कर ब्राह्मण और सचिन तेंदूलकर ब्राह्मण लेकिन इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि अजहरुद्दीन और मोहम्मद कैफ भारतीय क्रिकेट के गौरव रहे हैं। एक और बात उछाली जा रही है और वह है सती होने की बात। एक जमाने में देवराला सती कांड हुआ था तो बनवारी जी ने शास्त्रों का हवाला दे कर एक संपादकीय लिखा था जिसमें कहा गया था कि सती होना भारतीय परंपरा का हिस्सा है। वे तथ्य बता रहे थे। सती होने की वकालत नहीं कर रहे थे। इस पर बवाल मचना था सो मचा और प्रभाष जी ने हालांकि वह संपादकीय नहीं लिखा था, मगर टीम के नायक होने के नाते उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। रविवार के इंटरव्यू में प्रभाष जी कहते हैं कि सती अपनी परंपरा में सत्य से जुड़ी हुई चीज है। मेरा सत्य और मेरा निजत्व जो है उसका पालन करना ही सती होना है। उन्होंने कहा है कि सीता और सावित्रि ने अपने पति का साथ दिया इसीलिए सबसे बड़ी सती हिंदू समाज में वे ही मानी जाती है। अरे भाई इंटरव्यू पढ़िए तो। फालतू में प्रभाष जी को जसवंत सिंह बनाने पर तूले हुए हैं। प्रभाष जी अगर ये कहते हैं कि भारत में अगर आदिवासियों का राज होता तो महुआ शेैंपियन की तरह महान शराब मानी जाती लेकिन हम तो आदिवासियों को हिकारत की नजर से देखते है इसलिए महुआ को भी हिकारत से देखते हैे। मनमोहन सिंह को खेती के पतन और उद्योग के उत्थान के लिए प्रभाष जी ने आंकड़े दे कर समझाया है और अंबानी और कलावती की तुलना की है, हे अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ मेंं ये नहीं आता। आपको पता था क्या कि शक संभवत उन शक हमलावरों ने चलाया था जिन्हें विक्रमादित्य ने हराया था लेकिन शक संभवत मौजूद है और विक्रमी संभवत भी मौजूद है। यह प्रभाष जी ने बताया है। प्रभाष जी सारी विचारधाराओं को सोच समझ कर धारण करते हैं और इसीलिए संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक राष्ट्रवाद कहते हैें। इसके बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से ले कर भैरो सिंह शेखावत तक से उनका उठना बैठना रहा है। विनाबा के भूदान आंदोलन में वे पैदल घूमे, जय प्रकाश नारायण के साथ आंदोलन में खड़े रहे और अड़े रहे। चंबल के डाकुओं के दो बार आत्म समर्पण में सूत्रधार बने और यह सिर्फ प्रभाष जी कर सकते हैं कि रामनाथ गोयनका ने दूसरे संपादकों के बराबर करने के लिए उनका वेतन बढ़ाया तो उन्होंने विरोध का पत्र लिख दिया। उन्होंने लिखा था कि मेरा काम जितने में चल जाता है मुझे उतना ही पैसा चाहिए। ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा? ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है। मैं बहुत विनम्र हो कर कह रहा हूं कि आप प्रभाष जी की पूजा मत करिए। मैं करूंगा क्योंकि वे मेरे गुरु हैं। आप प्रभाष जी से असहमत होने के लिए आजाद हैं और मैं भी कई बार असहमत हुआ हूं। जिस समय हमारा एक्सप्रेस समूह विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारे घोड़े खोल चुका था और प्रधानमंत्री वे बन भी गए थे तो ठीक पंद्रह अगस्त को जिस दिन उन्होंने लाल किले से देश को संबोधित करना था, जनसत्ता के संपादकीय पन्ने पर मैंने उन्हें जोकर लिखा था और वह लेख छपा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लगभग विलखते हुए फोन किया था तो प्रभाष जी ने उन्में मेरा नंबर दे दिया था कि आलोक से बात करो। यह कलेजा प्रभाष जी जैसे संपादक का ही हो सकता है कि एक बार रामनाथ गोयनका ने सीधे मुझे किसी खबर पर सफाई देने के लिए संदेश भेज दिया तो जवाब प्रभाष जी ने दिया और जवाब यह था कि जब तक मैं संपादक हूं तब तक अपने साथियों से जवाब लेना होगा तो मैं लूंगा। यह आर एन जी का बड़प्पन था कि अगली बार उन्होंने संदेश को भेजा मगर प्रभाष जी के जरिए भेजा कि आलोक तोमर को बंबई भेज दो, बात करनी है। आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती है, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च कर के एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए। क्योंकि अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाईयो बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं। लेखक जाने-माने पत्रकार हैं। Posted by Sanjeet Tripathi at Thursday, August 27, 2009 वर्गीकरण आवारा-बंजारा के मेहमान 5 टिप्पणी:Anonymous 27/8/09 15:47 भईया, नीचे लिखे वाक्यों के अर्थ बता देंगे *"ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह.......जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं"* अफ़लातून 27/8/09 16:04 आलोक तोमरजी के सम्पादक रहे तो हिन्दी पत्रकारिता के जीवित गौरव होंगे ही ! श्रवण कुमार गर्ग ,अनुपम मिश्र के साथ जेपी के समक्ष चम्बल के बागियों के आत्मसमर्पण पर पुस्तिका लिख दी तो आत्मसमर्पण के सूत्रधार हो गये । जब सूत्रधार हो ही गये तो विनोबा के समक्ष लोकमन दीक्षित के नेतृत्व में जो आत्मसमर्पण हुआ उसका सूत्रधार भी बना दो। विनोबा की भूदान - पदयात्रा में कहां ,कब चले ? तोमरजी बतायेंगे। निपटाननुमा शक्सियतों को निपटाने के लिए आलोकजी की निपटान-शैली की आवश्यकता होगी - ’लफ़ंगों’वाली ,पूजा करने वाली । कुछ पत्रकार शाष्टांग - प्रन्निपात करते भी देखे जाते थे । Ghost Buster 27/8/09 20:38 बढ़िया है. तोमर में दम है. Dr. Mahesh Sinha 27/8/09 20:42 अगर आप किसी का सम्मान नहीं कर सकते तो अपमान करने का अधिकार भी नहीं मिलता . जो लोग सामने आने की क्षमता नहीं रखते उनका तो कोई वजूद ही नहीं होता . आलोक जी भी भावावेश में ज्यादा बोल गए दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi 27/8/09 22:12 यह भक्त समर्थक का बयान है। बहुत अतिउत्साह है। प्रभाष जी भी इंसान हैं। गलतियाँ उन से भी हुई ही हैं। लेकिन उन्हें एक भक्त कैसे स्वीकार करे। पर जैसी निंदा उन की की जा रही है वह भी किसी खास उद्देश्य से प्रेरित है और निंदा के लिए निंदा है। एक भक्त समर्थक के बयान और निंदा के लिए निंदा के बीच कहीं प्रभाष जी हैं भारत के सबसे सिद्व और प्रसिद्व संपादक और उससे भी आगे शास्त्रीय संगीत से ले कर क्रिकेट तक हुनर जानने वाले प्रभाष जोशी के पीछे आज कल कुछ लफंगों की जमात पड़ गई है। खास तौर पर इंटरनेट पर जहां प्रभाष जी जाते नहीं, और नेट को समाज मानने से भी इंकार करते हैं, कई अज्ञात कुलशील वेबसाइटें और ब्लॉग भरे पड़े हैं जो प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, सामंती और सती प्रथा का समर्थक बता रहे हैं। आगे यहाँ पढ़े POSTED BY AMBRISH KUMAR AT 2:23 AM 3 COMMENTS:अंशुमाली रस्तोगी said... "प्रभाष जोशी के पीछे आज कल कुछ लफंगों की जमात पड़ गई है।" ये कुछ लफंगों से आपका क्या मतलब है अंबरीशजी? क्यो जो आदमी प्रभाष जोशी का विरोध करेगा, उसे आप लफंगा घोषित कर देंगे। इसका मतलब तो यही हुआ कि कोई भी कहीं भी बस महापुरुष प्रभाष जोशी का विरोध न करे। उनके हर गलत को सही मान हर वक्त उनकी चरणवंदना करता-करवाता रहे। बंधु, यह चाकरी आप ही कर सकते हैं परंतु हम नहीं। और कभी भी नहीं। August 27, 2009 3:00 AM sanjeet said... हे महान रस्तोगी विरोध और लफंगई का बुनियादी फर्क तो जान लो तुम चाकरी नहीं करोगे तो प्रभाष जोशी का कद तो घट नहीं जायेगा .जो लोग लाफंगो की भाषा में चिल्ला रहे थे -शर्म तुमको नहीं आती प्रभाष जोशी उनके लिए यह भाषा बहुत samman जनक है काम तो ...खाने वाला किया था August 27, 2009 9:05 AM antaryatri said... पता चला है की एक सज्जन जो जनसत्ता के टेस्ट में फ़ैल हो गए थे उनकी मुलाकात दुसरे कुंठित से हुई जिसका घटिया सा लेख जनसत्ता में नहीं छुप पाया फिर दोनों एक अँधा एक कोढ़ी की तर्ज़ पर बाभनवाद से लड़ने जुट गए. August 27, 2009 9:13 AM -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090827/deacf01b/attachment-0001.html From water.community at gmail.com Fri Aug 14 22:08:00 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 14 Aug 2009 22:08:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSkIOCkleClhyDgpJzgpLIg4KSt4KSj4KWN4KSh4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpOClh+CknOClgCDgpLjgpYcg4KS44KS/4KSV4KWB4KSh4KS8?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpILigKbgpKjgpL7gpLjgpL4g4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkj+CklSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ8=?= Message-ID: <8b2ca7430908140938l57341853i8aaf7e56dbd1e1f0@mail.gmail.com> *15 august Water News* Report- भारत के जल भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं…नासा की एक रिपोर्ट * * [image: भूजल : खाली होते भंडार]अमेरिकी संस्था नासा ने चिंताजनक शोध जारी किया है. शोध यह है कि पिछले एक दशक के दौरान समूचे उत्तर भारत में हर साल औसतन भूजल स्तर एक फुट नीचे गिरा है. इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है कि भूजल स्तर गिरा है लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है. 13 अगस्त 2009 को प्रकाशित “नेचर” पत्रिका के Vol.460 की एक रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह आधारित चित्रों से पता चला है कि भारत के जल स्रोत और भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं और जल्दी ही किसानों को परम्परागत सिंचाई के तरीके छोड़कर पानी की खपत कम रखने वाले आधुनिक तरीके और फ़सलें अपनानी होंगी। भारत में अस्थाई उपलब्धता भविष्य में खेती पर गम्भीर असर डालने वाली है और एक भीषण जल संकट की आहट सुनाई दे रही है . . . Read more *Waste and effluent in Ganga at Haridwar * *Drought in India * *Cromium in Ground Water in Delhi & Varanasi * * _________________________________________* *Youth Camp for Yamuna * ______________________________________________________ NREGS- *UP govt. initiated to bring the ares facing water crisis, in safe zone * * .................................................................................. * *Upcoming Events* *Gyan Chaupal: climate change and developing sustainable system * *Camp for Ganga freedom * *Training Program on Ecological sanitation * * * * ................................................................................ * View Bagmati Embankment a continuous cause of flood * .............................................................................. * *Job/ Vacancy* *Program Coordinator/ Senior Researcher with CSE * *National Coordinatotr with WES Net India * * * * ................................................................................... * *Israel: An outstanding example for water saving * * ................................................................................. * * * *Ask a water question * *जल** **शब्दकोश*** *जल** **समाचार*** *हमसे** **जुड़ें*** *हमें** **लिखें*** *हिंदी** **न्यूजलैटर** **सब्सक्राइब** **करें*** *अपने** **आलेख** **पोर्टल** **पर** **प्रकाशित** **कराने** **के** **लिए** ** संपर्क** **करें**- **hindi at indiawaterportal.org* * * -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090814/d2239c32/attachment-0002.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From water.community at gmail.com Fri Aug 14 22:08:00 2009 From: water.community at gmail.com (water community) Date: Fri, 14 Aug 2009 22:08:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=5BHindimedia=5D_?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSkIOCkleClhyDgpJzgpLIg4KSt4KSj4KWN4KSh4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpOClh+CknOClgCDgpLjgpYcg4KS44KS/4KSV4KWB4KSh4KS8?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClhyDgpLngpYjgpILigKbgpKjgpL7gpLjgpL4g4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkj+CklSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ8=?= Message-ID: <8b2ca7430908140938l57341853i8aaf7e56dbd1e1f0@mail.gmail.com> *15 august Water News* Report- भारत के जल भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं…नासा की एक रिपोर्ट * * [image: भूजल : खाली होते भंडार]अमेरिकी संस्था नासा ने चिंताजनक शोध जारी किया है. शोध यह है कि पिछले एक दशक के दौरान समूचे उत्तर भारत में हर साल औसतन भूजल स्तर एक फुट नीचे गिरा है. इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है कि भूजल स्तर गिरा है लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है. 13 अगस्त 2009 को प्रकाशित “नेचर” पत्रिका के Vol.460 की एक रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह आधारित चित्रों से पता चला है कि भारत के जल स्रोत और भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं और जल्दी ही किसानों को परम्परागत सिंचाई के तरीके छोड़कर पानी की खपत कम रखने वाले आधुनिक तरीके और फ़सलें अपनानी होंगी। भारत में अस्थाई उपलब्धता भविष्य में खेती पर गम्भीर असर डालने वाली है और एक भीषण जल संकट की आहट सुनाई दे रही है . . . Read more *Waste and effluent in Ganga at Haridwar * *Drought in India * *Cromium in Ground Water in Delhi & Varanasi * * _________________________________________* *Youth Camp for Yamuna * ______________________________________________________ NREGS- *UP govt. initiated to bring the ares facing water crisis, in safe zone * * .................................................................................. * *Upcoming Events* *Gyan Chaupal: climate change and developing sustainable system * *Camp for Ganga freedom * *Training Program on Ecological sanitation * * * * ................................................................................ * View Bagmati Embankment a continuous cause of flood * .............................................................................. * *Job/ Vacancy* *Program Coordinator/ Senior Researcher with CSE * *National Coordinatotr with WES Net India * * * * ................................................................................... * *Israel: An outstanding example for water saving * * ................................................................................. * * * *Ask a water question * *जल** **शब्दकोश*** *जल** **समाचार*** *हमसे** **जुड़ें*** *हमें** **लिखें*** *हिंदी** **न्यूजलैटर** **सब्सक्राइब** **करें*** *अपने** **आलेख** **पोर्टल** **पर** **प्रकाशित** **कराने** **के** **लिए** ** संपर्क** **करें**- **hindi at indiawaterportal.org* * * -- Minakshi Arora hindi.indiawaterportal.org -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090814/d2239c32/attachment-0003.html -------------- next part -------------- _______________________________________________ Hindimedia mailing list Hindimedia at lists.indiawaterportal.org http://lists.indiawaterportal.org/mailman/listinfo/hindimedia From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Aug 29 17:55:07 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 29 Aug 2009 17:55:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KS44KS/4KSk4KSu?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KSwIOCkheCkguCklQ==?= Message-ID: <196167b80908290525scac3fcif537a83a430dc3a2@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन का सितम्बर अंक आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ------------------------------------------------ http://docs.google.com/fileview?id=0B95-3otTvfq8OGIwODc5YmEtNjliNS00MDZhLTllODItYzQxNjUyZjZiNmQ0&hl=एन ---------------------------------------------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090829/26e83500/attachment.html From baliwrites at gmail.com Sun Aug 30 11:06:33 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Sun, 30 Aug 2009 11:06:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= school ka blog Message-ID: choti si shuruaat school blog link niche : vidyalayadiary.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090830/9221437d/attachment.html From baliwrites at gmail.com Sun Aug 30 11:06:33 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Sun, 30 Aug 2009 11:06:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= school ka blog Message-ID: choti si shuruaat school blog link niche : vidyalayadiary.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090830/9221437d/attachment-0001.html From baliwrites at gmail.com Sun Aug 30 11:13:26 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Sun, 30 Aug 2009 11:13:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= school Message-ID: EK CHHOTI SI BAT MERE IS BLOG ME vidyalayadiary.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090830/079110d1/attachment.html From baliwrites at gmail.com Sun Aug 30 11:13:26 2009 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Sun, 30 Aug 2009 11:13:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= school Message-ID: EK CHHOTI SI BAT MERE IS BLOG ME vidyalayadiary.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090830/079110d1/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Aug 31 09:13:41 2009 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Mon, 31 Aug 2009 09:13:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kavita kosh @ sarai Message-ID: <8d505fb8de0afe5917f89aa698f9b122@sarai.net> dosto, kavitakosh naamak website http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=कविता_कोश_मुखपृष्ठ se aapka taaruf ho chuka hoga. hamari khushqismati hai ki iske peechhe ki ek mool prerna, Lalit Ji, aaj sarai aayenge, taqreeban 3 baje. yeh soochna main jaldbazi mein de raha hun. par ummeed hai aap vaqt nikal kar unki prastuti dekhne aur unse baatcheet karne ayenge. agar aap jansatta parhte hain to aapne pichhle ke pichhle ravivar ko kavita kosh par ek lamba agralekh dekha hoga. aap jante hi hain ki kai drishtiyon se kavitakosh hindi-urdu sahitya ke liye aham muqam ban gaya hai. Lalit ji aap sab se mil kar bahut khush honge. bahut bahut shukriya ravikant From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Aug 31 12:03:12 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 31 Aug 2009 12:03:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCljeCkleCliOCkqCDgpJXgpL4g4KS44KS/4KSk4KSu?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KSwIOCkheCkguCklQ==?= In-Reply-To: <196167b80908290525scac3fcif537a83a430dc3a2@mail.gmail.com> References: <196167b80908290525scac3fcif537a83a430dc3a2@mail.gmail.com> Message-ID: <196167b80908302333s96cb9f8o919fec0e25ca247@mail.gmail.com> मीडिया स्कैन का सितम्बर अंक आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ------------------------------------------------ http://docs.google.com/fileview?id=0B95-3otTvfq8OGIwODc5YmEtNjliNS00MDZhLTllODItYzQxNjUyZjZiNmQ0&hl=एन ---------------------------------------------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090831/830c4a0e/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Aug 31 19:13:02 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 31 Aug 2009 19:13:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KS+4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkguCkmA==?= Message-ID: <6a32f8f0908310643j4c4a9fadg75db23fb956f0973@mail.gmail.com> * राह में भटका छात्र संघ * दि्ल्ली विश्वविद्यालय छात्र *संघ* का चुनाव चार सितंबर को होना है। शायद ही किसी दूसरे विश्वविद्यालय में छात्र संघ का चुनाव इतनी नियमितता से होता है, जितना कि दिल्ली विश्वविद्यालय में। पर यहां कि छात्र राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है। वैसे तो युवाओं की बढ़ती अराजनीतिक मानसिकता और कैरियर बनाने की आपाधापी वाले इस दौर में पूरे देश की ही छात्र राजनीति प्रभावित हुई है। देश का कोई परिसर अब किसी बदलाव के लिए नहीं गर्माता। मुद्दे गायब रहते हैं। यूं कहें कि चुनाव राजनीति की ताकतवर दुनिया में जाने की सीढ़ी होकर रह गए हैं। डुसू की राजनीति इन्हीं आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द घुमती है। लिंगदोह समिति की रोपोर्ट इस राह में रोड़े डालती है, जिसकी वजह से बड़े छात्र संगठन आपत्ति दर्ज करा रहे है। खैर। *सन् सत्तर से अब तक डुसू में चुने गए अध्यक्ष व सचिव* *वर्ष अध्यक्ष सचिव* 1970-71 सुभाष चोपड़ा भगवान सिंह 1971-72 भगवान सिंह रावत कुमार 1972-73 श्रीराम खन्ना शेर सिंह डागर 1973-74 अशोक कुमार अटल भाटिया 1974-75 अरुण जेटली हेमंत विश्नोई *1975-76 आपात काल* *1976-77 आपात काल* 1977-78 विजय गोयल रजत शर्मा 1978-79 हरि शंकर विजय जॉली 1979-80 राजेश ओबराय पिंकी आनंद 1980-81 विजय जॉली सुशील कुमार 1981-82 सुधांशु मित्तल अजित पांडे 1982-83 योगेश शर्मा आर पी सिंह 1983-84 आर सोनी नरेश शर्मा 1984-85 बलराम यादव सतपाल धुग्ना 1985-86 अजय माकन राजेश गर्ग 1986-87 मदन सिंह बिष्ट नरेंद्र टंडन 1987-88 नरेंद्र टंडन अंजु सचदेवा 1988-89 आशीष हरिओम 1989-90 अंजु सचदेवा कमल कांत सचदेवा 1990-91 अंजु सचदेवा कमल कांत सचदेवा 1991-92 राजीव गोस्वामी सोनिया सेठ 1992-93 अवधेश शर्मा मोनिका कक्कर 1993-94 मोनिका कक्कर शालू मलिक 1994-95 शालू मलिक वंदना मिश्रा 1995-96 अलका लांबा रेखा जिंदल 1996-97 रेखा जिंदल * *सुरेंद्र गोयल 1997-98 अनिल झा सुनीता नारंग 1998-99 जयवीर राणा रीतू वर्मा 1999-00 रीतू वर्मा नीतू वर्मा 2000-01 अमित मलिक तरुण कुमार 2001-02 नीतू वर्मा विकास सोकीन 2002-03 नकुल भारद्वाज दीप्ति रावत 2003-04 रोहित चौधरी रागिनी नायक 2004-05 नरेंद्र टोकस अमृता धवन 2005-06 रागिनी नायक रमित सहरावत 2006-07 अमृता धवन ..... 2007-08 अमृता बाहरी मनीष चौधरी 2008-09 नुपूर शर्मा अमित चौधरी *नोट-* डुसू चुनाव सन् 54 से हो रहा है। और पीछे के अधिकारी का नाम जानने के लिए। khambaa.blogspot.com पर घूम आएं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090831/796ef4a5/attachment-0001.html