From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Apr 1 11:34:10 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 1 Apr 2009 11:34:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYvgpIIg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSw4KS+4KSoIOCkheCkrCDgpKTgpJUg4KSs4KWB4KSy4KSC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueClgeCkjyDgpKjgpL7gpLDgpYct?= Message-ID: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा करता है। इस मामले में सीपीआई ने नारा दिया था- “*लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान।*” आजादी के शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू पार्टी और सरकार में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा दिया- *“**नेहरू के हाथ मजबूत करो।*” उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस पार्टी का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते थे- “*इस दिये में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।” * दैनिक समस्यों से कई मुद्दे नारे का रूप लेते रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दे चुनावी नारों की शक्ल अख्तियार करते रहे हैं। मुलाहिजा फरमाइये- “*रोजी-रोटी दे न सके जो वह सरकार निकम्मी है*”, “ *जो सरकार निकम्मी है उसे हमें बदलना है।*” सन 1967 तक साझा चुनाव होते थे इसलिए चुनावी नारों में स्थानीय व प्रांतीय मुद्दों का हावी होना लाजमी था। सन 1967 में उत्तरप्रदेश में छात्रों ने कुछ ज्यादा ही तीखे चुनावी नारे लगाए। जैसे- “*उत्तरप्रदेश में तीन चोर, मुंशी गुप्ता युगलकिशोर*। ” उन दिनों छात्र आंदोलन की वजह से कई छात्र जेलों में बंद थे। तब छात्रों ने नारा दिया- “*जेल के फाटक टूटेंगे, साथी हमारे छूटेंगे।*” पिछड़े वर्ग की आवाज बुलंद करते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया- “*संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।* ” गोरक्षा आंदोलन को तेज करते हुए जनसंघ ने नारा दिया- “*गौ हमारी माता है, देश-धरम का नाता है।”* इंदिरा गांधी के आते-आते बहुत कुछ व्यक्ति केंद्रित हो गया था, तब नारा चुनावी नारा बना- *“**इंदिरा हटाओ, देश बचाओ।*” दूसरी तरफ इंदिरा ने नारा दिया- “*वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ*।” आपात काल के बाद आम चुनाव में नारों का सर्वाधिक जोर रहा। इस दौरान जो आकाश फाडू नारे लगे वे इस प्रकार थे- *“**सन सतहत्तर की ललकार, दिल्ली में जनता सरकार।”** “**संपूर्ण क्रांति का नारा है, भावी इतिहास हमारा है।” “**फांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा छूटेगा।” “**नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल।”* सन 1980 में कांग्रेस ने नारा दिया- “*जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।”* इसी चुनाव में इंदिरा के समर्थन में और भी वजनी नारे लगाए- *“**आधी रोटी खाएंगे, **इंदिरा को बुलाएंगे **।”* इंदिरा की हत्या के बाद सन 84 में राजीव गांधी के समर्थन में जो नारे लगे वो इस प्रकार थे- “*पानी में और आंधी में, विश्वास है राजीव गांधी में।*” हालांकि यह विश्वास सन 89 में चूर-चूर हो गया और नारे लगे- *“**बोफोर्स के दलालों को एक धक्का और दो।* ” दूसरी तरफ वीपी सिंह के समर्थन में नारे लगे- *“**राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है।” * इसके जवाब में नारे लगे- *“**फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।”* सन 1996 में अटलबिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे-“*अबकी बारी अटलबिहारी।*” अगले चुनाव यानी सन 2004 में इंडिया साइनिंग का नारा लगा। फिर भी वे चुनाव हार गए। तब कांग्रेस ने नारा दिया था*-**“**कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ।*” इस बार कांग्रेसी *–“**कांग्रेस की पहचान, विकास और निर्माण।”* पर ताल ठोक रहे हैं। कुछ और बुलंद नारे इस प्रकार हैं- *“**एक शेरनी सब लंगूर, चिकमंगलूर चिकमंगलूर”, “**मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”, “**तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार”**।* और भी है, वह फिर कभी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090401/9772a808/attachment-0001.html From aboutsandeep123 at gmail.com Wed Apr 1 13:07:42 2009 From: aboutsandeep123 at gmail.com (sandeep pandey) Date: Wed, 1 Apr 2009 13:07:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYvgpIIg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSw4KS+4KSoIOCkheCkrCDgpKTgpJUg4KSs4KWB4KSy4KSC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueClgeCkjyDgpKjgpL7gpLDgpYct?= In-Reply-To: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> Message-ID: ब्रजेश भाई कुछ और नारे याद आते हैं मसलन *अटल बिहारी कमल निशान * *मांग रहा है हिन्दुस्तान* *ब्राहमण शंख बजायेगा * *हाथी चलता जायेगा* इसी तरह ददुआ के भाई ने बांदा में नारा दिया था *मोहर लगेगी हाथी पर वरना गोली चलेगी छाती पर ....* 2009/4/1 brajesh kumar jha > चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा करता > है। इस मामले में सीपीआई ने नारा दिया था- “*लाल किले पर लाल निशान, मांग > रहा है हिंदुस्तान।*” आजादी के शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू पार्टी और > सरकार में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा दिया- *“**नेहरू > के हाथ मजबूत करो।*” > > > > उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस पार्टी > का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते थे- “*इस > दिये में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।” * > > > > दैनिक समस्यों से कई मुद्दे नारे का रूप लेते रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, > महंगाई जैसे मुद्दे चुनावी नारों की शक्ल अख्तियार करते रहे हैं। मुलाहिजा > फरमाइये- “*रोजी-रोटी दे न सके जो वह सरकार निकम्मी है*”, “ *जो सरकार > निकम्मी है उसे हमें बदलना है।*” सन 1967 तक साझा चुनाव होते थे इसलिए चुनावी > नारों में स्थानीय व प्रांतीय मुद्दों का हावी होना लाजमी था। > > > > सन 1967 में उत्तरप्रदेश में छात्रों ने कुछ ज्यादा ही तीखे चुनावी नारे > लगाए। जैसे- “*उत्तरप्रदेश में तीन चोर, मुंशी गुप्ता युगलकिशोर*। ” उन दिनों > छात्र आंदोलन की वजह से कई छात्र जेलों में बंद थे। तब छात्रों ने नारा दिया- > “*जेल के फाटक टूटेंगे, साथी हमारे छूटेंगे।*” पिछड़े वर्ग की आवाज बुलंद > करते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया- “*संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े > पावें सौ में साठ।* ” गोरक्षा आंदोलन को तेज करते हुए जनसंघ ने नारा दिया- “*गौ > हमारी माता है, देश-धरम का नाता है।”* > > > > इंदिरा गांधी के आते-आते बहुत कुछ व्यक्ति केंद्रित हो गया था, तब नारा चुनावी > नारा बना- *“**इंदिरा हटाओ, देश बचाओ।*” दूसरी तरफ इंदिरा ने नारा दिया- “*वे > कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ*।” आपात काल के बाद आम चुनाव > में नारों का सर्वाधिक जोर रहा। इस दौरान जो आकाश फाडू नारे लगे वे इस प्रकार > थे- *“**सन सतहत्तर की ललकार, दिल्ली में जनता सरकार।”** “**संपूर्ण क्रांति > का नारा है, भावी इतिहास हमारा है।” “**फांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा > छूटेगा।” “**नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल।”* > > > > सन 1980 में कांग्रेस ने नारा दिया- “*जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।”* इसी > चुनाव में इंदिरा के समर्थन में और भी वजनी नारे लगाए- *“**आधी रोटी खाएंगे, > **इंदिरा को बुलाएंगे **।”* इंदिरा की हत्या के बाद सन 84 में राजीव गांधी के > समर्थन में जो नारे लगे वो इस प्रकार थे- “*पानी में और आंधी में, विश्वास है > राजीव गांधी में।*” हालांकि यह विश्वास सन 89 में चूर-चूर हो गया और नारे > लगे- *“**बोफोर्स के दलालों को एक धक्का और दो।* ” दूसरी तरफ वीपी सिंह के > समर्थन में नारे लगे- *“**राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है।” * इसके जवाब > में नारे लगे- *“**फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।”* > > > > सन 1996 में अटलबिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे-“*अबकी बारी अटलबिहारी।*” > अगले चुनाव यानी सन 2004 में इंडिया साइनिंग का नारा लगा। फिर भी वे चुनाव हार > गए। तब कांग्रेस ने नारा दिया था*-**“**कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ।*” इस > बार कांग्रेसी *–“**कांग्रेस की पहचान, विकास और निर्माण।”* पर ताल ठोक रहे > हैं। > > > > कुछ और बुलंद नारे इस प्रकार हैं- *“**एक शेरनी सब लंगूर, चिकमंगलूर > चिकमंगलूर”, “**मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”, “**तिलक > तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार”**।* और भी है, वह फिर कभी। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sandeep -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090401/991d83f2/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Wed Apr 1 13:38:49 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Wed, 1 Apr 2009 13:38:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWC4KSWIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkhuCkl+Cli+CktiDgpK7gpYfgpIIg4KSW4KSk4KWN4KSu?= =?utf-8?b?IOCkueCli+CkpOClgCDgpJzgpL/gpILgpKbgpJfgpYA=?= Message-ID: <190a2d470904010108q25303157o3cf2e3a0716d2437@mail.gmail.com> http://vinitutpal.blogspot.com/ भूख के आगोश में खत्म होती जिंदगी विनीत उत्पल भारत के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के लिए कुपोषण व भुखमरी जैसी समस्याएं सालों से बड़ा सिरदर्द बनी हुई हैं। भारत के करीब छह सौ से अधिक जिलों में जिस कदर कुपोषण के मामले सामने आ रहे हैं, वह गंभीर है। पूरे विश्व में हर दिन करीब 18 हजार बच्चे भूखे मर रहे हैं। विश्व की करीब 85 करोड़ आबादी रात में भूखे पेट सोने के लिए विवश है। पूरी दुनिया में करीब 92 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं जबकि भारत में 42।5 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यह बहुत ही चिंताजनक है कि पूरे विश्व में 60 फीसद बच्चों की मौत भूख से होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, 12 लोगों में एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है। वर्ष 2006 में भूख या इससे होने वाली बीमारियों के कारण 36 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। भुखमरी की विकराल स्थिति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 तक पूरे विश्व में करीब 92 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार थे जबकि 1990 में इनकी संख्या 84 करोड़ थी। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र ने इस मामले पर गंभीरता बरतते हुए 2000 में तय लक्ष्यों में भुखमरी और गरीबी के शिकार लोगों की संख्या 2015 तक आधी करना शामिल किया है। भारत में भुखमरी और कुपोषण के मामले की आ॓र नजर डालें तो यहां स्थिति और भी भयावह है। पिछले महीने वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के आठ राज्यों में ग्रामीण महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान खून की कमी का सामना करना आम बात हैं। दुनिया का हर चौथा भूखा व्यक्ति भारतीय है। वाशिंगटन स्थित मिस मेनन नामक संस्था ने अपने वैश्विक भूख सूचकांक में भारत को करीब दो दर्जन अफ्रीकी देशों से नीचे स्थान दिया है। पूरी दुनिया में जितने बच्चे कुपोषण से पीड़ित हंै उनमें से आधे से अधिक बच्चे भारत में हैं। संस्था की आ॓र से जारी शोध में कहा गया है कि चीन के मुकाबले भारत में स्तनपान कराने वाली महिलाओं में कुपोषण होने के कारण बच्चों में खून की कमी के मामले अधिक आ रहे हंै। सूचकांक में चेतावनी दी गई है कि भारत के मध्यप्रदेश में समस्या काफी विकराल है और इसकी स्थिति इथोपिया से भी बदतर है। इस रिपोर्ट में चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि भारत के महाराष्ट्र व गुजरात जैसे राज्यों में भुखमरी की समस्या और गंभीर है जहां आर्थिक विकास काफी हुआ है। भारत में कुपोषण की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां राजधानी दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे अधिक है वहीं करीब 40 फीसद बच्चे पांच साल से अधिक जीवित नहीं रह पाते। अधिकतर बच्चों की लंबाई अपनी उम्र के मुकाबले कम है जबकि 26 फीसद बच्चों का वजन कम पाया गया। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ भारत में करीब 20 करोड़ लोग खाली पेट रात में सोने के लिए विवश हैं। पिछले दिनों न्यूयार्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे विश्व के तमाम देशों की तुलना में भारत में वृहत पैमाने पर बाल पोषण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके बावजूद भारत की हालत चिंताजनक है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत की तुलना में चीन की स्थिति बेहतर है और वहां पांच साल से कम उम्र के करीब सात फीसद बच्चों का वजन उनके उम्र के मुकाबले कम है। इस मामले में विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि गर्भवती महिलाओं के साथ-साथ दो साल तक के बच्चों को पर्याप्त पौष्टिक भोजन के लिए लालायित होना पड़ता है।अनाज के दामों में गिरावट आई है पर अनाज संकट का अंत नहीं हुआ है। पूरे विश्व के साथ-साथ भारत की स्थिति लगातार भयावह होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र की तमाम योजनाओं के साथ-साथ केंद्र सरकार की योजनाओं का फायदा किसे मिल रहा है, यह एक अहम सवाल है। हर रोज लोग भूख और कुपोषण से मर रहे हैं पर सरकारी रिकार्ड कुछ और ही बयां करते हैं। महिलाओं, बच्चों के साथ-साथ गरीबों को पौष्टिक भोजन की बात तो दूर, दो जून की रोटी तक नसीब नहीं होती। राजधानी दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए कुपोषित बच्चों का भीख मांगते दिख जाना आम है। दरअसल, स्वतंत्रता प्राप्ति के साठ साल बीतने के बाद भी समाज के हाशिए पर रहे लोगों की हालत में कोई सटीक सुधार नहीं हुआ है। देश के कई राज्यों में सरकार द्वारा चलायी जाने वाली ‘नरेगा’ जैसी योजनाएं किस कदर लोगों को सालों दर साल से भूखे पेट सोने वाले लोगों को उनकी परिस्थितियों से निजात दिलाने में सक्षम हो रही हैं, यह सवाल आम लोगों के सामने है तो देश के नीति निर्धारकों के सामने भी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090401/ec962844/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Wed Apr 1 14:21:55 2009 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 1 Apr 2009 14:21:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYvgpIIg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSw4KS+4KSoIOCkheCkrCDgpKTgpJUg4KSs4KWB4KSy4KSC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueClgeCkjyDgpKjgpL7gpLDgpYct?= In-Reply-To: References: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0904010151m76fc866cl7be50b3fbeac4689@mail.gmail.com> जात पर न पात पर मोहर लगेगी हाथ पर खा गेल चीनी पी गेल तेल देखs इ कांग्रेस के खेल गली-गली में शोर है इंदिरा गांधी चोर है गली गली 2009/4/1 sandeep pandey : > ब्रजेश भाई कुछ और नारे याद आते हैं मसलन > अटल बिहारी कमल निशान > मांग रहा है हिन्दुस्तान > > ब्राहमण शंख बजायेगा > हाथी चलता जायेगा > > इसी तरह ददुआ के भाई ने बांदा में नारा दिया था > > मोहर लगेगी हाथी पर > वरना गोली चलेगी छाती पर .... > > 2009/4/1 brajesh kumar jha >> >> चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा करता >> है। इस मामले में सीपीआई ने  नारा दिया था- “लाल किले पर लाल निशान,  मांग रहा >> है हिंदुस्तान।” आजादी के शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू पार्टी और सरकार >> में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा दिया- “नेहरू के हाथ >> मजबूत करो।” >> >> >> >> उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस पार्टी >> का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते थे- “इस दिये >> में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।” >> >> >> >> दैनिक समस्यों से कई मुद्दे नारे का रूप लेते रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, >> महंगाई जैसे मुद्दे चुनावी नारों की शक्ल अख्तियार करते रहे हैं। मुलाहिजा >> फरमाइये- “रोजी-रोटी दे न सके जो वह सरकार निकम्मी है”, “ जो सरकार निकम्मी है >> उसे हमें बदलना है।” सन 1967 तक साझा चुनाव होते थे इसलिए चुनावी नारों में >> स्थानीय व प्रांतीय मुद्दों का हावी होना लाजमी था। >> >> >> >>  सन 1967 में उत्तरप्रदेश में छात्रों ने कुछ ज्यादा ही तीखे चुनावी नारे >> लगाए। जैसे- “उत्तरप्रदेश में तीन चोर, मुंशी गुप्ता युगलकिशोर। ” उन दिनों >> छात्र आंदोलन की वजह से कई छात्र जेलों में बंद थे। तब छात्रों ने नारा दिया- >> “जेल के फाटक टूटेंगे, साथी हमारे छूटेंगे।” पिछड़े वर्ग की आवाज बुलंद करते >> हुए सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया- “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में >> साठ। ” गोरक्षा आंदोलन को तेज करते हुए जनसंघ ने नारा दिया- “गौ हमारी माता है, >> देश-धरम का नाता है।” >> >> >> >> इंदिरा गांधी के आते-आते बहुत कुछ व्यक्ति केंद्रित हो गया था, तब नारा >> चुनावी नारा बना- “इंदिरा हटाओ, देश बचाओ।” दूसरी तरफ इंदिरा ने नारा दिया- “वे >> कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ।” आपात काल के बाद आम चुनाव में >> नारों का सर्वाधिक जोर रहा। इस दौरान जो आकाश फाडू नारे लगे वे इस प्रकार थे- >> “सन सतहत्तर की ललकार, दिल्ली में जनता सरकार।” “संपूर्ण क्रांति का नारा है, >> भावी इतिहास हमारा है।” “फांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा छूटेगा।” “नसबंदी >> के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल।” >> >> >> >> सन 1980 में कांग्रेस ने नारा दिया- “जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।” >> इसी चुनाव में इंदिरा के समर्थन में और भी वजनी नारे लगाए- “आधी रोटी खाएंगे, >> इंदिरा को बुलाएंगे ।” इंदिरा की हत्या के बाद सन 84 में राजीव गांधी के समर्थन >> में जो नारे लगे वो इस प्रकार थे- “पानी में और आंधी में, विश्वास है राजीव >> गांधी में।” हालांकि यह विश्वास सन 89 में चूर-चूर हो गया और नारे लगे- >> “बोफोर्स के दलालों को एक धक्का और दो। ” दूसरी तरफ वीपी सिंह के समर्थन में >> नारे लगे- “राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है।”  इसके जवाब में नारे लगे- >> “फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।” >> >> >> >> सन 1996 में अटलबिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे-“अबकी बारी अटलबिहारी।” >> अगले चुनाव यानी सन 2004 में इंडिया साइनिंग का नारा लगा। फिर भी वे चुनाव हार >> गए। तब कांग्रेस ने नारा दिया था-“कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ।” इस बार >> कांग्रेसी –“कांग्रेस की पहचान, विकास और निर्माण।” पर ताल ठोक रहे हैं। >> >> >> >> कुछ और बुलंद नारे इस प्रकार हैं- “एक शेरनी सब लंगूर, चिकमंगलूर चिकमंगलूर”, >> “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”, “तिलक तराजू और तलवार, >> इनको मारो जूते चार”। और भी है, वह फिर कभी। >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> > > > > -- > Sandeep > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com http://sarai.net http://safarindia.org Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From ravikant at sarai.net Wed Apr 1 15:03:11 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 1 Apr 2009 15:03:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYvgpIIg4KSV4KWHIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWM4KSw4KS+4KSoIOCkheCkrCDgpKTgpJUg4KSs4KWB4KSy4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KSPIOCkqOCkvuCksOClhy0=?= In-Reply-To: <292550dd0904010151m76fc866cl7be50b3fbeac4689@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> <292550dd0904010151m76fc866cl7be50b3fbeac4689@mail.gmail.com> Message-ID: <200904011503.12004.ravikant@sarai.net> यह थ्रेड अच्छा जा रहा है, ब्रजेश. दीवान के साथियों को याद होगा कि मृत्युंजय ने इलाहाबाद की छात्र राजनीति से अच्छे-ख़ासे रंगीन नारे निकाले थे. कुछ मेरी याद से भी: गाय बछड़ा फाटक में, इंदिरा गांधी नाटक में. देखो रे जनता(पार्टी) का खेल 16 रूपए कड़ुआ तेल. गली-गली में शोर है, अमुक अमुक चोर है. सड़ी गली सरकार को एक धक्का और दो! 10/12/?? करोड़ हैं बेरोज़गार कौन है इसका ज़िम्मेदार ये सरकार ये सरकार टाटा बिड़ला की सरकार! और याद आएगा तो डालूँगा. रविकान्त बुधवार 01 अप्रैल 2009 14:21 को, Rakesh Singh ने लिखा था: > जात पर न पात पर > > मोहर लगेगी हाथ पर > > > खा गेल चीनी पी गेल तेल > > देखs इ कांग्रेस के खेल > > > गली-गली में शोर है > इंदिरा गांधी चोर है > > > > गली गली > > 2009/4/1 sandeep pandey : > > ब्रजेश भाई कुछ और नारे याद आते हैं मसलन > > अटल बिहारी कमल निशान > > मांग रहा है हिन्दुस्तान > > > > ब्राहमण शंख बजायेगा > > हाथी चलता जायेगा > > > > इसी तरह ददुआ के भाई ने बांदा में नारा दिया था > > > > मोहर लगेगी हाथी पर > > वरना गोली चलेगी छाती पर .... > > > > 2009/4/1 brajesh kumar jha > > > >> चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा > >> करता है। इस मामले में सीपीआई ने  नारा दिया था- “लाल किले पर लाल निशान,  > >> मांग रहा है हिंदुस्तान।” आजादी के शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू > >> पार्टी और सरकार में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा > >> दिया- “नेहरू के हाथ मजबूत करो।” > >> > >> > >> > >> उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस > >> पार्टी का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते > >> थे- “इस दिये में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।” > >> > >> > >> From jha.brajeshkumar at gmail.com Wed Apr 1 23:30:50 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Wed, 1 Apr 2009 23:30:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJrgpYHgpKjgpL7gpLXgpYvgpIIg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWM4KSw4KS+4KSoIOCkheCkrCDgpKTgpJUg4KSs4KWB4KSy4KSC?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueClgeCkjyDgpKjgpL7gpLDgpYct?= In-Reply-To: <200904011503.12004.ravikant@sarai.net> References: <6a32f8f0903312304t10cc17a0u6ba975bfbfbd69ad@mail.gmail.com> <292550dd0904010151m76fc866cl7be50b3fbeac4689@mail.gmail.com> <200904011503.12004.ravikant@sarai.net> Message-ID: <6a32f8f0904011100g3e06a677qf106a66ed09a6585@mail.gmail.com> वाह भई, ई तो मामला जम गया मालूम पड़ता है। तब कुछ हमहुं जोड़ते चलें- 1- *वामन ठाकुर लाला चोर, बाकी सब है डीएसकोर।।* 2-*हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है।।* राकेश सिंह जी ने जो चीनी, तेल वाले नारे का जिक्र किया है, उसका राष्ट्रीय संस्करण इस प्रकार फूटा था। *3-देखो इंदिरा गांधी का खेल, खा गई चीनी पी गई तेल।।* ** *4- हवा नहीं अब आंधी दो, हमें प्रियंका गांधी दो।।* ** रविकांत साहब ने तो जिक्र किया ही है कि इलाहाबद की छात्र राजनीति पर शोध के दौरान मृत्यंजय ने ऐसे खूब नारे इकट्ठा किए हैं, जिसका रंग चुनावी फिजा में और भी गाड़ा हो जाता है। तब सराय(सीएसडीएस) में मृत्यंजय की शोध प्रस्तुति के दौरान भी खूब रंग जमा था। शुक्रिया ब्रजेश झा * * On 4/1/09, Ravikant wrote: > > यह थ्रेड अच्छा जा रहा है, ब्रजेश. दीवान के साथियों को याद होगा कि मृत्युंजय > ने इलाहाबाद की > छात्र राजनीति से अच्छे-ख़ासे रंगीन नारे निकाले थे. कुछ मेरी याद से भी: > > गाय बछड़ा फाटक में, > इंदिरा गांधी नाटक में. > > देखो रे जनता(पार्टी) का खेल > 16 रूपए कड़ुआ तेल. > > गली-गली में शोर है, > अमुक अमुक चोर है. > > सड़ी गली सरकार को > एक धक्का और दो! > > 10/12/?? करोड़ हैं बेरोज़गार > कौन है इसका ज़िम्मेदार > ये सरकार ये सरकार > टाटा बिड़ला की सरकार! > > और याद आएगा तो डालूँगा. > > रविकान्त > > > बुधवार 01 अप्रैल 2009 14:21 को, Rakesh Singh ने लिखा था: > > जात पर न पात पर > > > > मोहर लगेगी हाथ पर > > > > > > खा गेल चीनी पी गेल तेल > > > > देखs इ कांग्रेस के खेल > > > > > > गली-गली में शोर है > > इंदिरा गांधी चोर है > > > > > > > > गली गली > > > > 2009/4/1 sandeep pandey : > > > ब्रजेश भाई कुछ और नारे याद आते हैं मसलन > > > अटल बिहारी कमल निशान > > > मांग रहा है हिन्दुस्तान > > > > > > ब्राहमण शंख बजायेगा > > > हाथी चलता जायेगा > > > > > > इसी तरह ददुआ के भाई ने बांदा में नारा दिया था > > > > > > मोहर लगेगी हाथी पर > > > वरना गोली चलेगी छाती पर .... > > > > > > 2009/4/1 brajesh kumar jha > > > > > >> चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा > > >> करता है। इस मामले में सीपीआई ने नारा दिया था- “लाल किले पर लाल निशान, > > > >> मांग रहा है हिंदुस्तान।” आजादी के शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू > > >> पार्टी और सरकार में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा > > >> दिया- “नेहरू के हाथ मजबूत करो।” > > >> > > >> > > >> > > >> उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस > > >> पार्टी का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते > > >> थे- “इस दिये में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।” > > >> > > >> > > >> > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090401/529f6d12/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Thu Apr 2 12:14:17 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Thu, 2 Apr 2009 12:14:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KSX4KSwIOCkrOCkqCDgpJzgpKjgpKTgpL4g4KSV4KWLIOCkruCliw==?= =?utf-8?b?4KS54KSo4KWHIOCkmuCksuClhyDgpKjgpYfgpKTgpL4=?= Message-ID: <190a2d470904012344m49de5f1fg669bfe8263c55f85@mail.gmail.com> *http://vinitutpal.blogspot.com/* *ब्लाग की दुनिया में भी शुरू हुआ चुनाव प्रचार* लोकसभा चुनाव में पहली बार राजनेता ब्लाग का सहारा लेकर मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर रहे हैं। देश के करीब एक दर्जन नेता ऐसे हैं जो अपने ब्लाग के जरिये जनता का मन टटोलने की कोशिश कर रहे हैं। दिलचस्प है कि नेताओं में ब्लाग का यह चस्का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा द्वारा चुनाव प्रचार करने की देखादेखी लगा है। ब्लाग की दुनिया में इस बार लालकृष्ण आडवाणी आए हैं जो हिन्दी और अंगरेजी दोनों भाषाओँ में ब्लाग लिख रहे हैं। अभी तक वह अंगरेजी में दस और हिन्दी में आठ ब्लाग पोस्ट कर चुके हैं। आडवाणी ने ३० मार्च के अन्तिम पोस्ट में गांधीजी के सात सिद्धांतों के चर्चा की है। हिन्दी ब्लागरों की जमात में कुछ दिन पहले राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी भी शामिल हुए। फिक्की के पूर्व अध्यक्ष और राज्यसभा के निर्दलीय सदस्य राजीव चंद्रशेखर जमकर अंगरेजी में ब्लाग लिख रहे हैं। कर्नाटक सरकार के गृहमंत्री डा वी.एस आचार्य और ब्लागर राजनेताओं से काफी आगे हैं। तमिलनाडु विधानसभा सदस्य एम् के स्तालिन भी अपनी राय जनता को अवगत करा रहें हैं। अजीत जोगी के पुत्र अमित जोगी भी अंगरेजी में ब्लाग लिख रहें हैं। इसके आलावा, इसी राज्य के गृहमंत्री ब्रजमोहन अग्रवाल और रायपुर लोकसभा के कांग्रेस प्रत्याशी भूपेश बग़ल भी ब्लाग के जरिये जनता से संवाद कर रहे हैं। कर्नाटक के उदूप्पी विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक व भाजपा नेता के रघुपति भी अक्सर ब्लाग लिखते हैं। ब्लागर आलोक पुराणिक का मानना है कि यह संचार माध्यम की नवीनतम व उभरती तकनीक है लेकिन खासकर युवाओं में यह काफी लोकप्रिय है। हास्य कवि और ब्लागर अशोक चक्रधर का मानना है कि देश में सबसे अधिक इन्टरनेट यूजर्स युवा हैं और वोट देने वाले भी, इस कारण वह एक ऐसा मध्यम है जिससे राजनेता जनता से सीधे संवाद कर सकेंगे। इससे उलट, विस्फोट के ब्लागर संजय तिवारी का मानना है कि जिस देश में महज ४.५ करोड़ लोग इन्टरनेट का प्रयोग करते है वहां वे किस तरह लोगों को आकर्षित कर पाएंगे। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090402/ba470286/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Thu Apr 2 17:35:19 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 02 Apr 2009 12:05:19 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <00163630f5c9f1cc350466913e20@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// जब से मेरी आंख खुली है : रवि नागर Posted: 02 Apr 2009 02:55 AM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/pW29ljO3u2Y/blog-post_02.html रवि नागर जाने-माने समकालीन गीतकार हैं. रचना, गाना, बजाना, झुमाना, सराबोर कर देना: रवि भाई की ख़ासियत है. रहते लखनउ में हैं पर देश का शायद ही कोई हिस्‍सा बचता हो जहां इनके चाहने वाले न बसते हों. शुरुआत इप्‍टा के दिनों में ही मुक्तिबोध, कबीर, खुसरो आदि से लगाव हुआ. ऐसा कि उनको गाने लगे. शास्‍त्रीय संगीत में महारत भी शायद आपने उन्‍हीं दिनों में हासिल कर ली थी. लखनउ में रहने की वज़ह से काफ़ी कुछ तो विरासत में ही पा गए थे. आजकल जनांदोलनों, साहित्‍य व लोक संस्‍कृतियों से उभरी-पगी रचनाओं का शास्‍त्रीय संगीत के साथ बड़ा दिलचस्‍प फ़्यूजन कर रहे हैं. पेश है अपने मित्रों के लिए उनका ये गीत जो उन्‍होंने अपने इलाहाबादी मित्र और बड़े भाई यश मालवीय के घर पर बड़े ही अनौपचारिक माहौल में गाया था. सफ़र द्वार 14 अप्रैल को बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित 'अभिव्‍यक्ति' में इस बार दिल्‍ली में मित्रों को रवि नागर के गायन का लुत्‍फ़ उठाने का मौक़ा मिलेगा. विस्‍तृत जानकारी बाद में पोस्‍ट कर दी जाएगी. फिलहाल आनंद लें. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090402/e0e55e54/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 3 10:42:45 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 3 Apr 2009 10:42:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSh4KWA4KSf?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkruCktuClgOCkqCDgpJXgpYAg4KS44KSC4KSk4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSCOg==?= Message-ID: <829019b0904022212g764c5e1fk6c93ca683ccaa091@mail.gmail.com> मूलतः प्रतिलिपि अप्रैल 2009 में प्रकाशित एडीटिंग मशीन की संतानें: विनीत कुमार वर्चुअल टेरॅ्, टीआरपी और आतंक की आदत हिंदुस्तान का कोई भी टीवी पत्रकार इस वक्त तालिबान के इलाके में नही है. लेकिन हर दिन तालिबान पर रिपोर्टिंग हो रही है. चेहरे पर नकाब हाथों में बंदूक लिए आगे और पीछे की उजाड़ वादी यह तालिबान है. सब कुछ फिल्मी स्टाइल में दिखाया जा रहा है. कुछ इस तरह से कि शो में केवल गोली - बंदूक की तस्वीर दिखे. आपको लगे कि वाह क्या देख रहे हैं हिन्दी के टीवी रिपोर्टर सीधा तालिबान के गढ़ से रिपोर्टिंग कर रहे हैं. कभी आपने सोचा है कि तालिबान फार्मूला क्यों बन गया है. दरअसल टीआरपी की दौड़ में टीवी चैनलों पर इस तरह की ख़बरों का दौर आता है एक समय भूत-प्रेत चला तो उसके बाद पौराणिक नायकों के ससुराल से लाकर रसोई तक,पलंग तक ढूंढा गया. आप दर्शकों के लिए जब भी ऐसा दौर होता है तो आप हैरान होकर देखते हैं. इससे पहले कि आप चट जाते हैं. तब लगता है कि ये तो बेकार की न्यूज़ देखते रहे तब तक टीवी का काम हो जाता है. टीवी चैनल वाले भी नए फार्मूले की तरफ़ बढ़ जाते हैं. तालिबान एक नया फार्मूला है. 26 नवम्बर को मुम्बई पर हमला क्या हुआ कि टीवी को फार्मूला मिल गया.[i] आमतौर पर टेलीविजन में काम करनेवाले लोगों के मुताबिक, टेलीविजन- समीक्षा के नाम पर हिन्दी मीडिया आलोचकों के पास टीआरीपी हासिल करने की कवायद में जुटे चैनलों और पत्रकारों को कोसने के अलावा कोई गंभीर समझ नहीं है। आजकल टेलीविजन न्यूज चैनलों की आलोचना करने की परंपरा सी बन गयी है।[ii] कार्यक्रम चाहे जो भी हों, सबके लिए विज्ञापन और टीआरपी से जोड़कर देखने की एक परंपरा-सी विकसित हो गयी, टेलीविजन समीक्षा के नाम पर एक मुहावरा चल निकला- टीआरपी के लिए टेलीविजन वाले जो न करें। ये धारणा इतनी मजबूत और प्रचलित हो चली है कि कोई व्यक्ति टेलीविजन की आलोचना कर्म में अकादमिक या लेखन के स्तर पर सीधे-सीधे न भी जुड़ा हो तो भी बड़ी आसानी से टेलीविजन को टीआरपी का दास साबित कर सकता है। मीडिया आलोचकों ने विश्लेषण के नाम पर टेलीविजन को टीआरपी की देहरी पर ला पटका है। मीडिया आलोचना का यह रवैया न तो टेलीविजन के लोगों के गले उतरता है और न ही इसमें तटस्थ और सकारात्मक समझ का विकास ही हो पाता है। लेकिन आज, इसी पैटर्न पर, न्यूज चैनलों की आलोचना कोई मीडिया आलोचक न करके स्वयं एक चैनल कर रहा है। यानि एक खबरिया चैनल ऐसा करके अपने ही उपर कोड़े बरसाने का काम कर रहा है। ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल कॉन्फेशन के दौर से गुजर रहा है। एनडीटीवी द्वारा 27 जनवरी 08 को आंतकवाद की खबरों के पीछे के खेल की रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट करने की कोशिश की गयी कि सहयोगी न्यूज चैनल टीआरपी की खातिर क्या-क्या नहीं करते हैं। खबर के नाम पर कूड़ा-कचरा प्रसारित किए जा रहे हैं। आतंकवाद के नाम पर ऐसी खबरों का प्रसारण, जिसका दर्शकों से कोई सरोकार नहीं है,जो कुछ भी वो दिखा रहे हैं, वो फील्ड की रिपोर्टिंग नहीं है। पत्रकार यूट्यूब की खानों में खो चुके हैं, एडिटिंग मशीन के बूते ऐसी खबरों को गढ़ा जाता है और धमारेदार आवाज और चौंका देनेवाले लेबलों के साथ खबरों को परोसा जाता है।[iii] एनडीटीवी की इस खबर पर गौर करें तो दो बातें स्पष्ट हो जाती है, एक तो यह कि न्यूज चैनल इस तरह की खबरों का प्रसारण इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें पता है कि देश की ऑडिएंस 26 नबम्बर 08 के मुंबई आतंकवादी हमले से, उसके भय और असुरक्षा से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। यानि आतंकवाद से जुड़ी खबरें अभी भी उनके लिए प्रासंगिक है और दूसरा यह कि ये खबरें फील्ड की रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं बल्कि एडिटिंग मशीन की संतान है, जो कि मैनिपुलेटेड है, अविश्वसनीय है। आतंकवाद की यह वास्तविक छवि नहीं है। इस लिहाज से अगर हम रोज शाम प्राइम टाइम पर प्रसारित होनेवाले आतंकवादी खबरों पर विचार करें तो स्पष्ट है कि चैनलों का इरादा हमारे बीच, देर तक ख़ौफ के बने रहने, असुरक्षा के साथ जीने और असंभावित घटनाओं से घिरे रहने का महौल पैदा करना है। ऐसा करने से न्यूज चैनलों के प्रति लोगों का रुझान लंबे समय तक बना रह सकता है। क्योंकि ज्योतिष की तरह टेलीविजन खबरों के साथ भी लोग तभी तक ज्यादा समय तक जुड़े रह सकते हैं, जब तक उस पर हमेशा असंभावित होने का खतरा पैदा देने वाली खबरें हो, भीतर एक बेचैनी बनी रहे कि आगे क्या होगा। कोई जरुरी नहीं कि ये बेचैनी सिर्फ़ किसी एक घटना या हादसे को लेकर हो। बेचैनी की यह मनोवृति स्थायी तौर पर उनके भीतर जम जाए और वो हर बात के लिए बेचैन हो जाएं। ये काफी कुछ सिनेमाई अंदाज में होता है। सिनेमा दर्शकों के सामने एक ऐसी स्थिति या छवि प्रस्तुत करता है जहां वे खुद को ख़ौफ और भय से भरी दुनिया से रु-ब-रु पाते हैं.[iv] आतंकवाद से जुड़ी खबरों के प्रसारित किए जाने की स्ट्रैटजी की व्याख्या जिस रुप में की जा रही है,आतंकवाद के नाम पर न्यूज चैनलों में जो कुछ भी दिखाया जा रहा है, उसे काफी हद तक खबरों के बदलने का एक पैटर्न भर माना जा सकता है। लेकिन एक स्थिति यह भी है कि रोजमर्रा के तौर पर आतंकवाद की खींची गयी छवि हमें किसी भी हद तक आतंकित नहीं करती,बेचैन नहीं करती। बल्कि एक आदत पैदा करती है, आतंकवाद को लेकर फेमिलियर बनाती है, हमें इस बात के लिए अभ्यस्त करती है कि हम आतंकवादी घटनाओं को किसी भी समय, किसी भी मनस्थिति में देखने के लिए तैयार हो सकें। इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए सूसन सोंटाग का मानना है कि- ये सब कैमरे से उतारी गयी छवियाँ हैं। वे इतनी ज्यादा प्रतिदिन दिखती है कि वे औसत यथार्थ में बदल गयी है। इन छवियों का जिन ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भों में जन्म हुआ, ये अपने उन मूल अभिप्रायों को खो देती हैं और स्वायत्त छवियां बन जाती है। इसलिए इन छवियों के प्रति हमारा विवेकशील और आलोचनात्मक रवैया नहीं,बल्कि उनसे सम्मोहित हो जानेवाला एक रिश्ता बन गया है। छवियां आज वास्तविकता की सिर्फ नकल नहीं है। वे वास्तविकता से ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुकी हैं। वे वास्तविकता को नष्ट कर देना चाहती हैं और हम निरंतर उन छवियों के संसार में रह रहे हैं। या सच तो यह है कि हम छवियों के शिकार हैं।[v] यानि हम जिसे सच मान कर देख रहे होते हैं, वो छवियों के अंबार से भरा एक पैकेज भर होता है। अब, एनडीटीवी की इस खबर, सूसन सोंटाग की इस मान्यता और टीआरपी के खेल के आधार पर चैनलों की आलोचना से अलग एक स्थिति है जिस पर गौर किया जाना जरुरी है। न्यूज चैनलों द्वारा आतंकवादी घटनाओं को दिखाए जाने के पीछे जागरुकता, सामाजिक सच,यथार्थ को उसके वास्तविक रुप में लाने की कोशिश की बात की जाती है। सामाजिक जागरुकता की बात करते हुए आतंकवाद से जुड़ी जो तस्वीरे और खबरें दिखायी जाती है, उससे आतंकवाद की छवि किस तरह की बनती है, इसे समझना जरुरी है। आगे भी जारी संदर्भः- [i] स्पेशल रिपोर्टः एनडीटीवी इंडिया,9.35 बजे रात, 27 जनवरी 08)। [ii] सुप्रिया प्रसाद,न्यूज डॉयरेक्टर,न्यूज 24, मीडिया खबर डॉट कॉम [iii] सावधान आ रहा है तालिबान…/आगे बढ़ रहा है तालिबान…तालिबान के बढ़ते कदम…/तालिबान से भारत को खतरा…हो रही है जंग की तैयारी…/तालिबान कर सकता है हमला…तालिबानी मानव बम का खतरा…/भारत का दुश्मन नंबर वन…। (स्पेशल रिपोर्टः एनडीटीवी इंडिया,9ः37 बजे रात, 27 जनवरी 08)। [iv] रवि वासुदेवन, ख़ौफ़ का उन्मादः सिनेमा की शहरी बेचैनी, मीडियानगर-03 नेटवर्क-संस्कृति, पेज नं-02 2007,सराय सीएसडीएस,,दिल्ली-110054 [v] छवियां वास्तविकता को ख्तम कर देती है-सूसन सोंटाग, अंधेरे समय में विचार, बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का वैचारिक परिदृश्य(विजय कुमार) पेज-207-08, संवाद प्रकाशन, मुंबई,मेरठ, 2006 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/a163640e/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Fri Apr 3 11:45:50 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Fri, 3 Apr 2009 11:45:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSW4KS84KS/?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSu4KSo4KSu?= =?utf-8?b?4KWL4KS54KSoIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpLLgpYvgpJUg4KS44KSt4KS+?= =?utf-8?b?IOCkmuClgeCkqOCkvuCktSDgpLLgpZzgpKTgpYcg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: <190a2d470904022315h448b4cb9pd77a01a7150a7421@mail.gmail.com> आख़िर क्यों नहीं मनमोहन सिंह लोक सभा चुनाव लड़ते हैं http://vinitutpal.blogspot.com/2009/04/blog-post_02.html भले ही मनमोहन सिंह लोकतंत्र के इस महापर्व के मौके पर मैदान में उतरने से हिचकिचाते हों, लेकिन इसी कांग्रेस में नरसिम्हा राव ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने देश की लगाम थामने के साथ अपने संसदीय क्षेत्र में जीत का परचम लहराया। जीत का अंतर इस कदर था की उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज हो गया। १९९१ में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरसिम्हा राव ने जब आन्ध्र प्रदेश के नंदयाल से चुनाव लड़ा तो करीब पॉँच लाख वोट से अपनी जीत दर्ज की। उस वक्त तेलगू देशम पार्टी के नेता एन टी रामाराव ने उनके विरूद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं करने की घोषणा की थी। तर्क था कि पहली बार दक्षिण का कोई नेता प्रधानमंत्री बन रहा है। इस कारण मार्ग में कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यही कारण रहा कि इस सीट पर मतदाताओं ने उन्हें इस कदर सर पर उठाया कि उनकी जीत का रिकार्ड गिनीज बुक में शामिल हो गया। लोकसभा चुनाव के इतिहास की ओर नजर डालें तो कांग्रेस पार्टी से प्रधानमंत्री बननेवालों में राजीव गांधी ऐसे नेता थे जिन्होंने अमेठी से ८३.६७ फीसदी वोट हासिल किया था। इस सीट पर कुल ३.६५.०४१ मतों को पाकर १९८४ में वह देश के प्रधानमंत्री बने। यह दिलचस्प है कि उस वक्त इंदिरा गांधी के ह्त्या के कारण पूरे देश में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी। जनाधार के साथ देश पर शासन करने वालों में इंदिरा गांधी काफी अव्वल रही हैं और जनता में लोकप्रियता की उनकी कोई सीमा न थी। सिर्फ़ एक बार १९७७ के आम चुनाव में उत्तरप्रदेश के रायबरेली से उन्हें राज नारायण के हाथों जबरदस्त मात खानी पडी थें। इस चुनाव में जहाँ राजनारायण को ५२.५२ फीसद वोट हासिल हुए, वहीं इंदिरा गांधी को महज ३६.८९ वोट से संतोष करना पड़ा। १९८० के चुनाव में रायबरेली के लोगों ने इंदिरा गांधी को ५८.२७ फीसद वोटों से संसद तो पहुँचाया लेकिन आँध्रप्रदेश के मेडक से ६७.९३ फीसद वोट पाने और लोगों के प्यार को देखते हुए बाद में रायबरेली की सीट छोड़ दी। भारतीय लोकतंत्र की दिलचस्प बात यह है की सबसे लंबे समय तक देश पर राज्य करने वाले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उत्तरप्रदेश के इलाहबाद और फूलपुर से चुनाव लड़े थे लेकिन पहले दो चुनाव में उन्हें ४० फीसद वोट से ही संतोष करना पड़ा था। चुनाव आयोग के आंकडे बताते हैं कि देश के पहले आम चुनाव में इलाहाबाद में उन्हें महज ३८.७३ वोट हासिल हुए थे, वहीं १९५७ में फूलपुर लोकसभा सीट से लोगों ने सिर्फ़ ३६.८७ वोट उनके पक्ष में दिया था, लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब १९६२ के चुनाव में राममनोहर लोहिया सरकार की नीतियों और जवाहरलाल नेहरू के कामकाज ke विरोध के लिए आमने-सामने हुए तो जनता ने उनके पक्ष में ६१.६२ फीसदी मतदान किया। इस चुनाव में राममनोहर लोहिया को महज २८.१७ फीसदी वोट मिले थे। जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद बने अंतरिम प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा १९५७ और १९६२ में लोकसभा सदस्य बने थे और १९६२ के चुनाव में गुजरात के सबर कांता से ५१.३४ फीसद वोट के साथ जीत दर्ज की थी। १९६२ के आम चुनाव में देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को मुगलसराय के लोगों ने १,२९,४६८ वोटों के साथ करीब ५१.३४ फीसदी वोट देकर अपना प्रतिनिधि बनाया था. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/f3781ef1/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 3 12:12:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 3 Apr 2009 12:12:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkr+ClhyDgpIXgpLbgpY3gpLLgpYDgpLIg4KSk4KWLIOCkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSC?= Message-ID: <829019b0904022342p45bbf788h31ac6f1a5ae44af2@mail.gmail.com> शोरुम के आगे लगी प्लास्टिक की एक कठपुतली की हिप पर हाथ फिराते हुए उस लड़के ने कहा- क्या सामान है!आगे साथ चल रही दो लड़कियों ने जल्दी से पीछे मुड़कर देखा कि कहीं पीछे से कोई मनचला उस पर कमेंट तो नहीं कर रहा। तब तक उसके साथ के दूसरे लड़के ने हाथ फिराते हुए कहा- सचमुच यार। लड़कियां समझ गयी कि ये उसे नहीं कहा जा रहा है बल्कि कठपुतलियों को देखकर कहा जा रहा है,सच्चाई ये भी है कि हमें देखकर कठपुतलियों को कहा जा रहा है। लेकिन सीधे-सीधे वो उनसे बहस करने के बजाय इतना ही कहा- फ्रस्टू है स्साला। अपने इलाके की लड़कियां होती तो शायद कहती, घर में मां-बहन नहीं है क्या। कमलानगर में दो दूकानें ऐसी हैं जहां गार्मेंट से ज्यादा उनके यहां कठपुतलियां हैं,ये मुहावरा हो सकता है लेकिन वाकई उनके यहां बहुत सारी कठपुतलियां हैं औऱ सबों को वो फैशन के हिसाब से ड्रेस पहनाकर शोरुम के आगे लगाए रहते हैं। एक शो रुम है बेसमेंट में है, उसके उपर कलर प्लस और किलर का शोरुम है। यहां कम से कम बीस-पच्चीस कठपुतलियां तो जरुर होगी। अक्सर इन्हें बहुत छोटे कपड़े पहनाकर आगे लगाते हैं,स्कर्ट या फिर शार्ट पैंट। बदलते फैशन की झलक इस शोरुम से गुजरते हुए आपको आसानी से मिल जाएंगे। लड़कियों और कठपुतलियों को एक-दूसरे से जोड़कर लड़को को आपस में कोहनी मारते हुए,ठहाके लगाते हुए और कमेंट करते हुए सबसे ज्यादा यही देखता हूं। एक शोरुम प्रेम स्टुडियो के सामने है। उस शोरुम में भी करीब 15-20 से बीस कठपुतलियां हैं। इन दिनों देखा कि सबों को हल्के पिंक कलर की नाइट शूट पहना रखा है। एक तो नाइटी, दूसरा कि प्रिंटेड कुर्ते और नीचे ढीला पायजामा। सबों का स्टफ बिल्कुल ट्रांसपेरेंट। एक बार साथ घुमते हुए पोल्टू दा ने कहा- सोने की चीज को पहनाकर इन लड़कियों को दुकानदार ने खड़ा क्यों कर रखा है,सही चीजें सही जगह पर ही होनी चाहिए। फिर वही ठहाकें। मुझे याद है कि जब भी घर जाता हूं और दूकान पर बैठने का मौका मिलता है, आसपास के दूकानदार कठपुतलियों के कपड़े को शटर गिराकर बदलते हैं। अव्वल तो वो रात में ही बदलते हैं। लेकिन दुकानदारों में एक बेचैनी होती है कि जो आइटम नया-नया आया है उसे जल्दी से जल्दी से डिस्प्ले कर दो। उनका मानना होता है कि डिस्प्ले करने के दिन कुछ न कुछ वो आइटम तो बिकता ही है। अगर आइटम दोपहर को आया है तो ऐसी स्थिति में वो शटर नीचे गिरा देते हैं, फिर साइड में ले जाकर इन कठपुतलियों के कपड़े बदलते हैं। ये बहुत कॉमन है। मैंने कभी नहीं देखा कि वो पब्लिकली उनके कपड़े बदलते हों। एक बार पास के एक दूकान में काम करनेवाले लड़के को कहते सुना- गजब ठरकी है स्साला बुढ़वा, हमसे कह दिया कि इस साड़ी का मैचिंग ब्लाउज लेकर आओ औऱ आए तो देखा कि कठपुतलिए पर हाथ फिरा रहा है। एक मानसिकता ये भी है। हमारे शहर में दिल्ली की तरह हाट लगता है,दिनों के नाम के हिसाब से इनके नाम होते हैं। इसमें से एक हाट का नाम होता है मंगला हाट। शहर में जिन लोगों के स्थानीय दूकान हैं,वो अपने पेंडिग माल के साथ दूकान के किसी एक-दो स्टॉफ को भेज देते हैं। इस हाट में चाहे कुछ भी कितना ही घटिया सामान ले जाओ, बिक जाएंगे। लड़के माल के साथ-साथ कठपुतलियां भी ले जाते हैं लेकिन वो पूरे नहीं होते। बस उपर का हिस्सा। एक तो लाने,ले जाने में परेशानी और फिर मंहगे भी होते हैं, हाट में इतनी धक्का-मुक्की होती है कि अगर गिर जाए तो बिजली-बत्ती गड़बड़ा जाती है। मंगला हाट में आमतौर शहरी लोग सिर्फ सब्जियों औऱ छोटी-मोटी चीजें खरीदने जाते हैं,वहां से कपडे,बर्तन,जूते जैसी चीजें नहीं खरीदते। इसे खरीदनेवाले कस्बों से आए लोग होते हैं। झुंड की झुंड लड़कियां, इन्हीं कस्बों और आसपास के गांव से आयी लड़कियां। लड़के जब ठीक-ठाक कपड़े बेच लेते हैं तब जोश में आ जाते हैं फिर लड़कियों को देखकर चिल्लाते हैं- ये लो,ये लो सामान के लिए बढ़िया सामान,बाजिब दाम में सामान के लिए सामान। हाट-बाजार में लगानेवाली हांक पर गौर करें तो उसका एक बड़ा हिस्सा ग्राहकों पर किया जानेवाला व्यंग्य होता है,दूकानदार चुटकी लेते नजर आते हैं। कठपुतलियों को लेकर मसखरई औऱ लड़कियों पर फब्तियां कसे जाने के लिहाज से देखें तो 360 का सर्किल पूरा हो जाता है जिसमें किसी न किसी रुप में बाजार में शामिल अलग-अलग लोग आ जाते हैं, सामान बेचनेवाले दूकानदार से लेकर खरीदार तक,ये कहते हुए कि...स्साला अब ऐसी कठपुतली बनने लगा है कि लगता है सच्चोमुच्चो कोई लड़की खड़ी है और परपोज कर रही है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/afccec4c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 3 12:27:08 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 3 Apr 2009 12:27:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KS14KWAIOCkqOCkvuCksOClhyzgpLjgpL7gpK3gpL7gpLAg4KSV4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KS+?= Message-ID: <829019b0904022357k552ca8e6pe62ceae9bdb926ff@mail.gmail.com> दीवान के साथियों चुनावी नारों को याद करते हुए मेरी नजर रवीश कुमार के ब्लॉग पर पड़ गयी। थोक के भाव में मिल गए स्लोगन औऱ वो भी मिजाज से एकदम टटके और ताजे, अधिक प्रासंगिक भी। पढ़े और मजे लें, १. लालू मिल गए पासवान से कांग्रेस गई अब काम से २. मायावती की बारी है हाथी सबकी सवारी है ३. नीला रंग आसमान का हाथी चला कांशीराम का ४. पंडी जी बोले राम राम दलित बोला मैं हूं राम ५. अमर सिंह की सीडी में फंस गए बेटा पोलटिक्स में ६. राजनाथ का है गुणा भाग मित्तल अंदर, जेटली भाग ७. यूपी की इस पोलटिक्स में मुलायम तगड़े सेटिंग में ८. मुन्ना मर्सिडिज़ की पार्टी है पर नाम समाजवादी पार्टी है ९. मुलायम का है आखिरी दांव पटको हाथी, झटको हाथ १० बहन जी का भजन है बहुजन अब सर्वजन है ११. सोनिया जी सोनिया जी देखो कैसी दुनिया जी १२, लेफ्ट हो गया अब लाल है कांग्रेस का आ गया काल है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/dc22f7d4/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 3 12:34:40 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 3 Apr 2009 12:34:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KS14KWAIOCkqOCkvuCksOClhywg4KS44KS+4KSt4KS+4KSwIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS14KWA4KS2IOCkleClgeCkruCkvuCksCgyKQ==?= Message-ID: <829019b0904030004s4fc5c0b3qc7cde1f7823432f2@mail.gmail.com> और ये रहा बिहार के लिए अलग से एक लॉटरवीश कुमार के ही ब्लॉग से पूरे बिहार के लिए कामन स्लोगन १. बाबाजी न ठाकुर न हउवें इ बनिया चलले ओबामा इलेक्शन लड़े पूर्णिया २. बिहार का इ माइनस फैक्टर है डेबलेपमेंट नहीं कास्ट फैक्टर है ३. जात-पात है खरपतवार काटो इसको, बचाओ बिहार ४. इलेक्शन में अब यही काम बच गया है लालू का एंटी था कांग्रेसी हो गया है लालू के लिए स्लोगन १. लालू पासवान का है रेल सेल नीतीश को मिलके देंगे ठेल २. देगा सबको तगड़ा फाइट लालू करेगा सबको टाइट ३. आलू नहीं ये चालू है लड़ने आया लालू है ४. हार्वड में जाकर आया है लालू बदल कर आया है ५. एमबीए में होती पढ़ाई लालू ने कैसे रेल चलाई 6. लालू में आया चेंज है बढ़ गया इसका रेंज है नीतीश के लिए १. रोड बनाकर,लाइट लगाकर नीतीश जीतेगा काम दिखाकर २. चल बिहार तू छोड़ जात नीतीश अपना ज़िंदाबाद ३. तू जात जात मैं विकास विकास ४. नीतीश बाबू नीतीश बाबू कहां गए चोर डाकू कांग्रेसियों के लिए १. राहुल बाबा का है ज़ोर कांग्रेस पार्टी का है शोर २. नीतीश का तगड़ा सेटिंग है आडवाणी पीएम वेटिंग हैं ३. बचे खुचे हैं हम सारे ज़ोर लगाके दम मारे ४. डूबते को तिनके का सहारा कांग्रेस को राहुल का सहारा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/8e68f0df/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 4 10:04:48 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 4 Apr 2009 10:04:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KWH4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KSoIOCkleClhyDgpI/gpJUg4KSm4KSw4KWN4KSc4KWH4KSo?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCksA==?= Message-ID: <829019b0904032134j7ed19f7ci33c85a4da8fce99b@mail.gmail.com> 1. खिला कमल है आर्कुट पर, वोट न डालो चिरकुट पर (जनहित में जारी) 2. लालूजी,लालूजी क्या हुआ आपको कुर्सी के चक्कर में सटा लिए सांप को (बिहार की जनता) 3. तूफां आए या आ जाए आंधी कभी न आएगा कोई गांधी (सोनिया का फैसला) 4. भाजपा के शासन में चावल पैंतीस रुपये बोरी होगा जागो रे प्रजा दुखारी धान के खेत में चोरी होगा ( विदूषक) 5. जनता की आस्था का, खुलेआम व्यापार होगा लालकृष्ण के राज में,श्रीराम का अवतार होगा ( विपक्षी पार्टियों का अनुमान) 6. सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वही बनाएंगे वोट मांगने लेकिन तब भी मस्जिद में भी जाएंगे। (बीजेपी की चुनावी घोषणा) 7. सरकार व्यस्त है नैनो में झाकों नेता हमरी नयनों में (कारविहीन देश की जनता) 8. स्विस बैंक काला धन अपने देश में लाएंगे काला-केसरिया फेंट-फेंटकर उजला उसे बनाएंगे। (बीजेपी कार्यकर्ता की योजना) 9. देश का नेता कैसा हो ऑडियो टेप जैसा हो मनमोहन सिंह को लाएंगे पलट-पलटकर बजाएंगे। (कांग्रेस की योजना) 10. अमर सिंह को है आनंद मिल गए उनको देवानंद फिलिम पर्दे पर जब आएगा होम मिनिस्टरी मिल जाएगा ( सपा कार्यकर्ता हैं निश्चिंत) 11. कांग्रेस,बीजेपी गो अवे कम अगेन अनगर डे बहनी नाउ वॉन्ट्स टू प्ले (यूपी पाठ्यक्रम की नयी राइम्स) 12. राजनीति के खेल में सब उल्टा हो जाता है मुन्नाभाई एमबीबीएस का भी यहां तेल हो जाता है। ( राजनीति का सच) ( सारे नारे स्वरचित है। ये किसी भी राजनीति पार्टी से वित्त प्रदत्त नहीं है।) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090404/377501de/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Apr 4 12:19:43 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 4 Apr 2009 12:19:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSy4KWH4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KSoIOCkleClhyDgpI/gpJUg4KSm4KSw4KWN4KSc4KWH4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw?= In-Reply-To: <829019b0904032134j7ed19f7ci33c85a4da8fce99b@mail.gmail.com> References: <829019b0904032134j7ed19f7ci33c85a4da8fce99b@mail.gmail.com> Message-ID: <200904041219.43523.ravikant@sarai.net> क्या बात है विनीत! मज़ा आ गया. नारे आने बंद हों तो हमें कुछ संस्मरण भी पेश करना चाहिए. जनवाद के अपने-अपने तजुर्बे पर. मीडिया से जुड़े हों तो क्या कहने. रविकान्त शनिवार 04 अप्रैल 2009 10:04 को, vineet kumar ने लिखा था: > 1. > खिला कमल है आर्कुट पर, > वोट न डालो चिरकुट पर > (जनहित में जारी) > > 2. लालूजी,लालूजी क्या हुआ आपको > कुर्सी के चक्कर में सटा लिए सांप को > (बिहार की जनता) > > 3. तूफां आए या आ जाए आंधी > कभी न आएगा कोई गांधी > (सोनिया का फैसला) > > 4. भाजपा के शासन में > चावल पैंतीस रुपये बोरी होगा > जागो रे प्रजा दुखारी > धान के खेत में चोरी होगा > ( विदूषक) > > 5. जनता की आस्था का, खुलेआम व्यापार होगा > लालकृष्ण के राज में,श्रीराम का अवतार होगा > ( विपक्षी पार्टियों का अनुमान) > > 6. सौगंध राम की खाते हैं > मंदिर वही बनाएंगे > वोट मांगने लेकिन तब भी > मस्जिद में भी जाएंगे। > (बीजेपी की चुनावी घोषणा) > > 7. सरकार व्यस्त है नैनो में > झाकों नेता हमरी नयनों में > (कारविहीन देश की जनता) > > 8. स्विस बैंक काला धन > अपने देश में लाएंगे > काला-केसरिया फेंट-फेंटकर > उजला उसे बनाएंगे। > (बीजेपी कार्यकर्ता की योजना) > > 9. देश का नेता कैसा हो > ऑडियो टेप जैसा हो > मनमोहन सिंह को लाएंगे > पलट-पलटकर बजाएंगे। > (कांग्रेस की योजना) > > 10. अमर सिंह को है आनंद > मिल गए उनको देवानंद > फिलिम पर्दे पर जब आएगा > होम मिनिस्टरी मिल जाएगा > ( सपा कार्यकर्ता हैं निश्चिंत) > > 11. कांग्रेस,बीजेपी गो अवे > कम अगेन अनगर डे > बहनी नाउ वॉन्ट्स टू प्ले > (यूपी पाठ्यक्रम की नयी राइम्स) > > 12. राजनीति के खेल में > सब उल्टा हो जाता है > मुन्नाभाई एमबीबीएस का भी > यहां तेल हो जाता है। > ( राजनीति का सच) > > ( सारे नारे स्वरचित है। ये किसी भी राजनीति पार्टी से वित्त प्रदत्त नहीं > है।) From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 4 17:03:41 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 4 Apr 2009 17:03:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSk4KS/4KSv4KS+ICjgpKouIOCkmuCkruCljeCkquCkvuCksA==?= =?utf-8?b?4KSjKSDgpLXgpL7gpLLgpYcg4KSV4KS+IOCkrOCkr+CkvuCkqCDigJQg?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCDigJjgpIXgpILgpLY=?= =?utf-8?b?4KWB4oCZ?= Message-ID: <196167b80904040433j26790ab5n62b4c6684445517d@mail.gmail.com> *बेतिया के अपने गजोधर भइया से अभी कुछ ही दिन पहले ही बातचीत हुई। वह वर्तमान राजनीति की स्थिति को लेकर बेहद चिन्तित दिखे। उन्होंने फोन से जो कहा, उस बातचीत के मुख्य हिस्से को आपके सामने रख रहा हूं।* "क्या बताएं सर अब चुनाव वगैरह में रुचि बिल्कुले खत्म हो गया है। किसका नाम लें, किसको छोड़े। सब एक ही जैसे हैं। कोई सज्जन नहीं है। वैसे भी सज्जन-सज्जन भाई नहीं होते, लेकिन चोर-चोर मौसेरे भाई साबित होते हैं। बेजाय हो जाती है जनता। अब देखिए ना रामविलास और लालू दोनों एक-दूसरे को बिहार में देखना नहीं चाहते थे। आज दोनों में दांत काटी रोटी हो गई है। साधु अपने जीजा (लालू प्रसाद) और दीदी (राबड़ी देवी) को छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। सिर्फ टिकट नहीं मिलने की वजह से। सर, जो सत्ताा के लिए अपनी बहन का नहीं हुआ, वह उम्मीद रखता है कि जनता उसकी होगी। दूसरी तरफ लालूजी का सोचिए, जो अपने साले का विश्वास नहीं जीत पाए। वे जनता का ‘विश्वास’ जीत रहे हैं। बेतिया सीट पर इस बार कांटे की टक्कर है। सब धुरंधर योध्दा खड़े हैं। लेकिन हम सोचते हैं कि बैलेट पेपर पर एक ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प होता तो वहीं मोहर मार आते। साधु यादवजी कांग्रेस से खड़े हैं। उनके संबंध में क्या बताएं? उनको सब कोई जानता है। बिहार में कौन है, जो शाहबुद्दीन, सूरजभान, पप्पू यादव, साधु यादव को नहीं जानता हो। बिहार में रहने वाले व्यावसायियों के लिए तो ये नाम प्रात: स्मरणीय हैं। लोकजनशक्ति पार्टी रामविलास पासवान की पार्टी है। इनकी पार्टी से उम्मीदवार हैं प्रकाश झा। ये नीतिश के खास लोगों में गिने जाते थे। कहा जाता है, बेतिया से इनकी टिकट पक्की थी। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति में कुछ भी पक्का नहीं होता और यहां कोई किसी का सगा नहीं होता। प्रकाश झा वही हैं, जिन्होंने पिछली दफा लोकसभा चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़कर 25,700 मतों से अपनी जमानत जप्त कराई थी। वे अपने एनजीओ और जमीन संबंधी विवादों को लेकर चर्चा में रहे हैं। सर, बेतिया के लोगों का तो साफ मानना है कि वे एक नंबर का पैसा बनाएं हैं या दो नम्बर का, यदि उस कमाई का एक हिस्सा वे जिला के विकास पर खर्च कर रहे हैं तो भले आदमी हैं। पहली बार जब वे चुनाव लड़े थे तो बिल्कुल नौसिखुए थे। इस बार बेतिया के मुस्लिम बस्ती मंशा टोला के एक मस्जिद से जब उन्होंने चुनाव प्रचार का शंखनाद किया तो इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि अब वे भी राजनीति के दांव-पेंच अर्थात् वोट बैंक पॉलिटिक्स समझ गए हैं। संजय जायसवाल बेतिया से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं। संजय पार्टी प्रत्याशी कैसे बन गए, यह तो अरुणजी जेटली के भी लिए संशय का विषय है। राजनाथजी ने सोचा होगा कि हाल ही में पिताजी (स्व. मदन प्रसाद जायसवाल) की मृत्यु हुई है, सहानुभूति के वोट के सहारे संजय वैतरणी पार कर जाएंगे। लेकिन बेतिया की जनता बहूत कन्फ्यूजन में है। यह संजय भाजपा उम्मीदवार है या लालटेन का। हो सकता है संजय के बहुत से चाहने वाले बैलेट पर उन्हें लालटेन में तलाशें। और वहां लालटेन ना मिलने पर निराश होकर लौट आएं। ज्यादा मुश्किल उन भाजपाइयों के लिए भी है, जिन्होंने पार्टी छोड़कर जानेपर जायसवाल परिवार को पानी पी-पी कर कोसा है। संजय के पिता डा. मदन प्रसाद जायसवाल को भाजपा उम्मीदवार के तौर पर बेतिया की जनता ने सिर आंखों पर रखा, उस दौर में जब राज्य में राजद का बोलबाला था। विधानसभा में ‘इन्हीं ंसंजय’ को टिकट ना मिलने की वजह से ‘इन्हीं संजय’ के दबाव में आकर पिता ने राजद का दामन थामा था। और आज भाजपा ‘इन्हीं संजय’ को अपना उम्मीदवार बना रही है। इस फैसले से बिहार में पार्टी कितनी लाचार है, यही बात साबित होती है। इन तीन बड़े उम्मीदवारों के बाद कुल जमा बचे दो ‘टक्कर’ में शामिल उम्मीदवार। एक गुप्ता फोटो स्टेट वाले शंभू प्रसाद गुप्ता। जो बहुजन समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं। दूसरे हैं सीपीएम की तरफ से चुनाव लड़ रहे सुगौली विधानसभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह। यह उम्मीदवार द्वय चुनाव जीतने के लिए चुनाव लड़ ही नहीं रहे हैं। जमानत बचाने के लिए मैदान में है। यदि इन दोनों ने अपनी जमानत बचा ली, यही उनकी सबसे बड़ी जीत होगी। जय हो!!!" -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090404/77b3e1dc/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Sat Apr 4 23:52:14 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sat, 4 Apr 2009 23:52:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KWZ4KS+4KSu4KWL?= =?utf-8?b?4KS24KWAIOCkleClhyDgpIngpLgg4KSq4KS+4KSwIDog4KS14KS/4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KS2?= Message-ID: From www.mihirpandya.com ************ ** *मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित* *दीपा मेहता* की *’विदेश’*परेशान करती है, बेचैन करती है. यह देखने वाले के लिए एक मुश्किल अनुभव है. कई जगहों पर यंत्रणादायक. इतना असहनीय कि आसान रास्ता है इसे एक ’बे-सिर-पैर’ की कहानी कहकर नकार देना. यह ज़िन्दगी की तमाम खूबसूरतियाँ अपने में समेटे एक तितली सी चंचल, झरने सी कलकल लड़की चांद *(प्रीति ज़िन्टा)*के भोले, नादान, खूबसूरत सपने की असल ज़िन्दगी में मौजूद कुरूप यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है. चांद के लिए यथार्थ इतना असहनीय और अप्रत्याशित है कि वो उसे सम्भाल नहीं पाती. सपना कुछ यूँ टूटता है कि चांद हक़ीक़त और फ़साने के बीच का फ़र्क खो बैठती है. आगे पूरी फ़िल्म में इस टूटे सपने की बिखरी किरचें हैं जिन्हें प्यार से रुककर समेटने वाला भी कोई नहीं. वो निपट अकेली जितना इन्हें समेटने की कोशिश करती है उतने ही अपने हाथ लहूलुहान करती है. इस फ़िल्म की मिथकीय कथा को तर्क की कसौटी पर कसकर नकार देना आसान रास्ता है लेकिन *यान मारटेल*का बहुचर्चित *’लाइफ़ ऑफ़ पाई’* पढ़ने वाले जानते हैं कि असहनीय यथार्थ का सामना करने के लिए कथा में एक शेर ’रिचर्ड पारकर’ गढ़ लेना इंसानी मजबूरी है. चांद को उसका पति बेरहमी से मारता है. अपने देश, अपनी पहचान से दूर दड़बेनुमा घर में कैद चांद की लड़ाई अपनी पहचान की लड़ाई है. पति से प्यार और अपनेपन की अथक चाह उसे एक ऐसी मिथक कथा पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती है जिसमें एक शेषनाग उसके पति का रूप धरकर आता है और उसे दुलारता है. *गिरीश कर्नाड*के नाटक ’नागमंडलम’ से लिए गए फ़िल्म के इस दूसरे हिस्से को ’जादुई यथार्थ’ का बेजा इस्तेमाल कहकर टाला नहीं जा सकता. यह आपको असहज कर देता है. और फ़िल्म के मर्म तक पहुँचने के लिए आपको इस एहसास से जूझना होगा. चांद की कहानी कोरी घरेलू हिंसा की कहानी भर नहीं. दरअसल यह उस मनोस्थिति के बारे में है जिससे अपने ही पति द्वारा जानवरों की तरह मारी-पीटी जा रही चांद गुज़र रही है. उसका ’पगला जाना’ ऐसी त्रासदी है जिसे दीपा मेहता सिनेमा के पर्दे को बार-बार स्याह-सफ़ेद रँगकर और तीखेपन से उभारती हैं. *प्रीति*यहाँ अपनी मुखर सार्वजनिक छवि के उलट दूर देस में फँसी एक अकेली और अपनी पहचान पाने की जद्दोज़हद में जुटी लड़की चांद के किरदार में जान फ़ूँक देती हैं और बाकी तमाम अनजान चेहरे इस फ़िल्म को अपनी नैसर्गिक अदायगी से वत्तचित्र का सा तेवर देते हैं. कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय परिवार में ब्याही गई चांद की कहानी ’विदेश’ अप्रत्यक्ष रूप से उस बदहाल हो रहे सूबे पंजाब की कहानी भी है जिसके सपने भी अब विदेशों से आती स्पॉन्सरशिप और किसी दूर देस में मौजूद अनदेखे सुनहरे भविष्य से लगाई झूठी उम्मीद के मोहताज हैं. आमतौर से स्त्री पर होती घरेलू हिंसा पर आधारित कहानियों में मुख्य खलनायक पति या घरवाले होते हैं लेकिन दीपा की ’विदेश’ यह साफ़ करती है कि व्यख्याएं हमेशा इतनी सरल नहीं होती. यहाँ बहु की पिटाई में संतुष्टि पाने वाली सास (तारीफ़ कीजिए *बलिन्दर जोहल*के बेहतरीन काम की) में एक असुरक्षित माँ छिपी है जिसे डर है कि उसके बेटे को यह नई आई रूपवती बहु हड़प लेगी. और अपनी ही पत्नी को मारने वाला रॉकी (वंश भारद्वाज) उन एन.आर.आई. सपनों को ढोती जीती-जागती लाश है जिसे ’फ़ीलगुड सिनेमा’ के नाम पर हिन्दुस्तानी सिनेमा ने सालों से बुना है. समझ आता है कि उसे हिन्दी सिनेमा के उल्लेख भर से क्यों चिढ़ है. विदेश एक त्रासद अनुभव है. यह दीवार की ओट से आती उन बेआवाज़ सिसकियों की तरह है जिन्हें सुनने के लिए कानों की नहीं दिल की ज़रूरत होती है. ...miHir. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090404/9db4b4f3/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sun Apr 5 09:32:39 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 5 Apr 2009 09:32:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSh4KWA4KSf?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkruCktuClgOCkqCDgpJXgpYAg4KS44KSC4KSk4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSCLOCkteCksOCljeCkmuClgeCkheCksiDgpJ/gpYfgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KSw?= Message-ID: <829019b0904042102h760659b2sd7a45a29becafee1@mail.gmail.com> प्रतिलिपि के लेख का दूसरा भाग फिलहाल, मुंबई आतंकवाद के संदर्भ में बात करें तो आतंकवाद और उससे पैदा होनेवाली भयावह स्थिति को दिखाने के लिए कुछ विजुअल्स स्टैब्लिश किए गए जिसे कि लगभग सभी चैनलों ने खबरों के पीछे का बैग्ग्राउंड( क्रोमा) के तौर पर इस्तेमाल किया। 1. होटल ताज की बिल्डिंग से उठती आग की लपटें, 2. हथियारों से लैस,चेहरा ढंके आतंकियों की तस्वीरें 3. चिखती हुई स्त्रियां और ऑडिएंस की तरफ ताकता मासूम 4. बिना जोड़ी के बिखरी चप्पलें 5. खून से लथ-पथ जमीन 6. भयभित,असहाय और इधर-उधर भागते लोग। 7. मरे हुए पक्षी, बेचैन उड़ते हुए पक्षी 8. दो आंखे जिनमें एक ही साथ दर्द, बेचैनी और असहाय हो जाने के कई मिलते-जुलते भाव मौजूद होते हैं। 9. घटना स्थल पर लगातार आग फैलने और धमाके के होने के विजुअल्स अगर होटल ताज, नरीमन हाउस और होटल ऑबराय को छोड़ दे तो बाकी के विजुअल्स आपको किसी भी आतंकवादी घटना के होने पर मामूली हेर-फेर के साथ दिखायी देंगे। आतंकवादी घटनाओं के विजुअल्स देखते हुए कोई भी आसानी से बता सकता है कि चाहे स्थिति कितनी भी भयावह हो, कुछ भी कवर करने की स्थिति न बनने पाती हो लेकिन आतंकवाद के महौल को स्टैब्लिश करने के लिए इतना सब कुछ दिखाना अनिवार्य है। यानि आतंकवाद की छवि को स्थापित करने के लिए चैनलों के भीतर एक शास्त्र निर्मित है। इस तरह की घटनाओं में विजुअल्स की कमी की वजह से एक ही तस्वीर बार-बार दिखाई जाती है और इससे एक स्थायी छवि निर्मित होती है। इन विजुअल्स के साथ जिन शब्दों का जिसे कि एस्टर्न और स्लग कहते हैं वह भी लगभग निर्धारित होता है। भाषा साफ-साफ दो स्तरों पर बंट जाती है। एक स्तर वो जिसमें आतंकवाद, उसकी स्थिति,उससे बनने वाले हालात को अधिक से अधिक असरदार तरीके से दिखाए जा सकें। बाद में इसमें सरकार की नाकामी, राजनीतिक पेंच, संबद्ध लोगों की बाइट आदि आ जाते हैं, फिलहाल हम उस दिशा में न जाएं तो भी। और दूसरा स्तर जिसके जरिए जज्बात,भावना,राष्ट्रीयता और इंडियननेस होने के सबूत को प्रस्तुत किए जाएं। शब्दों का इन दो रुपों में प्रयोग मुंबई आतंकवादी घटनाओं में भी किया गया। आतंकवादी घटना के पहले और दूसरे दिनों तक कुछ चैनलों( स्टार न्यूज, इंडिया टीवी) ने इसे अधिक से अधिक भयावह बताने के लिए 9/11 की तर्ज पर 26/11 का प्रयोग किया। इसके पीछे की रणनीति सिर्फ इतनी कि ऑडिएंस पेंटागन के मंजर और उसके अनुभव से इसे जोड़कर देखे। 9/11 आतंकवाद की एक स्थापित छवि है जिसमें किसी एक विजुअल्स के बिना पूरा का पूरा आतंकवादी दृश्य अपने आप उभरकर सामने आ जाता है। उसके बाद आतंक को घंटों में बताया जाना शुरु किया गया। आतंक के 18 घंटे[vi] या फिर आतंक के 37 घंटे[vii]। आतंक को घंटे में बताए जाने से आतंकवादियों की तैयारी और प्रशासन की असफलता की एक तस्वीर हमारे सामने उभरती है। हालांकि बाद में यह अवधि जितनी हो और बतायी जाए उससे जज्बात को उतना उपर तक उठाया जा सकता है कि देश ने आतंकवादियों का मुकाबला कितने घंटों तक किया। इस अर्थ में आप कह सकते हैं कि शब्दों के जरिए टेलीविजन चैनलों द्वारा प्रयुक्त छवि यूनीइमैजिनरी होते हैं जो दो विरोधी पक्षों और विपरीत दशा में एक ही साथ काम में लाए जा सकते हैं। राष्ट्रहित की बात करते हुए आतंकवाद की एक और छवि चैनल द्वारा बनाने की कोशिश की गयी। यह छवि यूट्यूब और एडिटिंग मशीन से बनी छवि से अलग है, यह छवि तस्वीर रहने के वाबजूद देश की सुरक्षा की खातिर नहीं दिखाने की छवि से अलग है। यह छवि बनती है आतंकवादी और एंकर के बीच के सीधे संवाद से।[viii] इस बातचीत का एक अंश है- एंकर- आपलोग ऐसा क्यों कर रहे हैं, बेगुनाह लोगों को मारने से आपको क्या मिलेगा? होटल ताज में छिपा आतंकवादी- जब लोग बाबरी मस्जिद गिरा रहे थे,उस समय लोगों को इस बात का खयाल क्यों नहीं आया।…. यहाँ हमारे भाई को परेशान किया जाता है, हमें सुकून से सोने नहीं दिया गया। हमारी मां-बहनों को कत्ल-ए-आम दिया गया।[ix] आतंकवादियों की एक यह भी छवि है जिसे चैनल फोन पर( हालांकि इस फोन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए गए) हुई बातचीत के आधार पर निर्मित करता है। एडीटिंग मशीन से पैदा की जानेवाली वर्चुअल टेर् को समझने के क्रम में सिल्वरस्टोन के टेलीविजन और तकनीक संबंधी विचार पर नजर डाल लेना दिलचस्प होगा। सिल्वरस्टोन का मानना है कि टेलीविजन अपने-आप में एक तकनीक है औऱ यह एक ऐसा तकनीक है जो कि दो प्रकार के अर्थों से जुड़ा हुआ है। इससे पैदा होनेवाले अर्थ एक तो निर्माता और उपभोक्ता के जरिए होता है और दूसरा स्वयं इस तकनीक के द्वारा जो कि प्रसारण और व्यवहार के दौरान पैदा होता है।[x] सिल्वरस्टोन की माने तो सूसन सोंटाग की कैमरे और तकनीक के आते ही घटना की वास्तविकता खत्म हो जाती है की मान्यता को बिल्कुल उसी रुप में मान लेना व्यावहारिक नहीं जान पड़ता। बिना तकनीक के टेलीविजन के होने की बात नहीं की जा सकती। तकनीक की अनिवार्यता ही टेलीविजन या फिर दूसरे संचार माध्यमों को संभव कर सकती है। दूसरी बात कि टेलीविजन से पैदा होनेवाले अर्थ सिर्फ उनके निर्माताओं की सक्रियता से नहीं होती बल्कि स्वयं उसका उपभोक्ता यानि ऑडिएंस भी अर्थ पैदा करने में सक्रिय होते हैं। यहां पर मार्शल मैक्लूहान की यह मान्यता खंडित होती है कि टेलीविजन कोल्ड माध्यम है क्योंकि यह उपभोक्ता को पैसिव बनाता है।[xi] मार्शल मैक्लूहान के बाद टेलीविजन विमर्श में एक अवधारणा तेजी से विकसित हुई जिसके अन्तर्गत ऑडिएंस को भी अर्थ पैदा करनेवाला यानि प्रोड्यूसर के तौर पर समझा गया।[xii] ऑडिएंस के अर्थ ग्रहण करने और पैदा करने का ही परिणाम है कि उन खबरों की भी खपत होती है, उनकी भी टीआरपी बढ़ती है जिससे कि सीधा सरोकार बहुत ही कम लोगों का होता है या फिर कई बार नहीं भी होता है। सूसन सोंटाग की मान्यता के आधार पर जब लोग ड्राइंग रुम में बैठकर आतंकवाद की खबरें देख रहे होते हैं तो इत्मिनान होते हैं, उनके भीतर एक निश्चिंतता का बोध होता है कि हम सुरक्षित हैं। लेकिन क्या देश और दुनियाभर की ऑडिएंस टेलीविजन को इसी रुप में जानती-समझती है। तकनीकी रुप से सबों के टेलीविजन स्क्रीन एक ही तरह के होते हैं, संभव है एक ही खबर या प्रोग्राम को एक ही साथ लाखों लोग देख रहे हों, लेकिन क्या उनकी मान्यताएं, उनकी सामाजिक स्थिति और समझ एक होती है।[xiii] ऑडिएंस के बीच कई स्तरों की भिन्नता ही खबरों के अर्थ को बदलता है और साथ ही उसके बीच एक निजी संदर्भ पैदा करता है। तालिबान में होनेवाले हमले से हिन्दुस्तान के किसी गांव या कस्बे में बैठी ऑडिएंस को कोई खतरा नहीं है, मुंबई में होनेवाले आतंकी हमले से देश के दूसरे हिस्से में बैठी ऑडिएंस को तत्काल कोई नुकसान नहीं हो रहा,संभव है करोड़ों ऑडिएंस का आहत लोगों से कोई सीधा सरोकार नहीं हो लेकिन खबर तो सब देखते हैं। इसकी बड़ी वजह है कि टेलीविजन अनिवार्यतः एक घरेलू माध्यम है और इसलिए ऑडिएंस उसकी खबरों औऱ कार्यक्रमों के बीच से अपने संदर्भ और अर्थ खोज लेती है.[xiv] यानी आतंकवादी खबरों से अधिक से अधिक लोगों के जुड़ने के पीछे सिर्फ उसके निश्चिंत महौल में खबर की तरह इन्ज्वॉय करना भर नहीं होता है बल्कि उस खबर में स्थानीय खौफ और आंतक के चिन्हों की तलाश करना भी होता है। तकनीक और एडिटिंग मशीन के इस्तेमाल होने से ऑडिएंस इसी संदर्भहीन आतंक के बीच से अधिक से अधिक स्थानीय संदर्भ खोजने की कोशिश करती है जिसे हम ऑडिएंस के बीच पैदा हुए अर्थ कह सकते हैं। संदर्भः [vi] आजतक, 5.07 बजे,27 नबंबर 08 [vii] स्टार न्यूज,4.45 बजे, 28 नबंबर,08 [viii] अपील का असर आतंकवादियों ने की इंडिया टीवी से बातचीत। (इंडिया टीवी,10.08 बजे सुबह,27 नबंबर 08) [ix] वही [x] आर सिल्वरस्टोन -लेख, टेलीविजन एंड एवरीडे लाइफः टूवर्ड्स एन एन्थ्रोपोलॉजी ऑफ दि टेलीविजन ऑडिएंस, पुस्तक- पब्लिक कम्युनिकेशनः दि न्यू इम्परेटिव्स, सं- एम फर्गसन, लंदनःसेज,1990 [xi] मार्शल मैक्लूहान(1965),अंडर्स्टैंडिंग मीडियाःदि एक्सटेंशन ऑफ मैन,अध्याय 2 न्यूयार्क, अमेरिकन लाइब्रेरी. [xii] क्रिस बारकर(2003), दि एक्टिव ऑडिएंस, कल्चरल स्टडीज, पेज नं-325, सेज पब्लिकेशन इं. प्रा.लि.बी-42,पंचशील एन्क्लेव,नई दिल्ली 100017 [xiii] डेविड मोर्ले(2002), टेलीविजन ऑडिएंन्सेंज एंड कल्चरल स्टडीज,पेज नं-203, राउटलेज 11 न्यू फिटर लेन,लंदन [xiv] नोम चॉमस्की (2006,हिन्दी संस्करण), जनमाध्यमों का माया लोक,अनुवादक-चंद्रभूषण ग्रंथशिल्पी(इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड,बी-7 लक्ष्मीनगर, नई दिल्ली 110092 आगे भी जारी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090405/d3b4eb45/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Apr 6 01:31:08 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 6 Apr 2009 01:31:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KS54KWH4KSCIOCkquCkpOCkviDgpLngpYguLi4u4KS14KWLIOCksg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSV4KWAIFNDIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0904051301m19359d26ob5cd993382583874@mail.gmail.com> वो अपने टिस्स के हॉस्टल(टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज,मुंबई)का कमरा छोड़कर,एनेक्जायटी डिस्ऑर्डर की स्थिति में,एम.फिल् कर रहे एक सीनियर दोस्त के कमरे में दसों दिनों तक पड़ा रहा। चुपचाप,गुमसुम,बिना किसी को कुछ बताए, बिना किसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किए बगैर...। अगर उसी के शब्दों में कहूं तो टिस्स में सबसे ज्यादा विजिवल दिखनेवाला लड़का,ऐसा कैसे कर सकता है, सोचता हूं तो ताजुब्ब होता है। लेकिन इन सबके बीच ये भी एक सच है कि कभी शराब को नहीं छूनेवाला,सिगरेट को कभी हाथ तक नहीं लगाया और उस दिन पूरी की पूरी बोतल पी गया, कितना पानी या सोड़ा मिलाया पता नहीं, आठ सिगरेट एक के बाद एक पी गया, कितनी कश मारी और कितने को फिल्टर तक आने पर भी कश खींचता रहा, कुच भी याद नहीं। बस इतना याद करता हूं कि अगर मैं ट्रेन से सफर करने जा रहा हूं और चढ़ने के पहले ही लड़खड़कर गिर जाउं तो मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन दिन होगा। मरने की स्थिति में इसके लिए न तो कोई जिम्मेवार होगा औऱ न ही बच जाने की स्थिति में आत्महत्या के प्रयास में फिर से मौत को दोहराने जैसी जिंदगी जीनी पड़ेगी। भैय्या, सबकुछ भूल जाने की स्थिति में मैं अब भी इस बात को याद करता हूं, ऐसे जैसे कि ये मेरे साथ घटित हुआ है या फिर इसका कुछ न कुछ हिस्सा अभी भी किस्तों में जी रहा हूं। ये एक टिस्स से महीने भर में सोशल वर्क की डिग्री लेकर दुनिया में समाज बदलने के जज्बे को लेकर संस्थान से बाहर आनेवाले छात्र का सच है। यह एक उस छात्र का सच है जिसने तीन साल तक मीडिया की पढ़ाई की, अखबारों में जमकर लिखा, आजतक में 45 दिनों तक आर्थिक खबरें लिखीं,दिल्ली की समस्याओं पर "जनपथ" जैसे कार्यक्रमों में अपनी रुचि से जाता रहा...हर बार एक नए विचारों के साथ,एक नयी बहस के साथा और एक नए अंदाज में हमसे टकराता रहा,घंटों विडियोकॉन टावर के नीचे चार रुपये की मूंगफली पर हमें दुनियाभर की नसीहतें देता रहा और अंत में कहता आया- भैय्या,आप तो मेरे से बड़े हैं,आप बेहतर जानते हैं। ये उस साथी का सच है जो एक समय में मीडिया के जरिए समाज को बदलने के लिए नहीं तो कम से कम बेहतर करने के लिए बेचैन रहा और बाद में और अधिक योगदान देने की नीयत से किसी चैनल में नौकरी करने के बजाय सीधे टिस्स मुंबई चला गया। वहां जाकर वो लगातार मीडिया के उन माध्यमों पर काम करता रहा, वर्कशॉप में जाता रहा जो कि कम लागत में लोगों को जागरुक कर सके, कभी सामुदायिक रेडियो को समझने, एक महीने के लिए अहमदाबाद चला जाता,कभी हैदराबाद तो कभी "सेवा" के लोगों के साथ वैकल्पिक मीडिया को लेकर प्रोजेक्ट पर काम करने लग जाता। मैं उससे एक ही बात कह पाता- तुम जितना काम करते हो और वो भी अलग-अलग जगहों पर जाकर,मेरे लिए तो काम करना तो दूर, सिर्फ वहां चला जाउं तो ही बहुत है। फोन पर तो कम ही लेकिन ऑनलाइन होने पर एक ही बात कहता- एक बार समाज को लेकर सोचिेए तो आप भी कर लेंगे। हमेशा भीतर एक आग, कुछ करने की छटपटाहट,एक ही बात- दिल्ली लौटूंगा भईया,और बेहतर होकर, और जोरदार तरीके। आज वो बताता है कि उसे लो ब्लडप्रेशर हो गया है और वो दो दिनों तक हॉस्पीटल में भर्ती रहा। ये टिस्स में पढ़ रहे उस छात्र का सच है जो कल कहीं भी जाएगा तो बीस-पच्चीस लोगों के लिए गाइडलाइन तय करेगा कि समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या करने चाहिए, जैसा कि संस्थान का दावा है। आज वो देर रात कह रहा है, चैट करते हुए कितना कहूं,क्या कहूं भइया और फिर उसने फोन ही कर दिया। उखड़ी हुई आवाज,बार-बार बातों का टूटता क्रम और भीतर से एक डर भी कि कहीं आसपास कोई है तो नहीं,बात करते हुए अब रो देगा कि तब। भइया, ऐसी जगहों पर आकर हमारा कितना बड़ा मिथक टूटता है,हम छोटे शहरों से आकर डीयू में पढ़ते हैं,टिस्स में पढ़ते हैं,मन के भीतर औऱों से अलग और फिल्टर्ड होने का भाव होता है। हम यहां आकर जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं,सामाजिक भेदभाव को दूर करना चाहते हैं। दुनिया हम जैसे लोगों को गरियाती है कि मोटी रकम देकर पढ़ने के बाद लोगों के खून चूसकर जमा किए पैसे को सैलरी के तौर पर लेगा और कहता है कि समाज बदलेंगे। गुस्सा तो बहुत आता रहा कि लोगों को ऐसा कहने का क्या अधिकार है लेकिन अब लगता है कि लोगों को गरियाने का पर्याप्त अधिकार है। वो क्यों न गरिआएं, हम किसकी स्थिति सुधारने में लगे हैं। किसके बीच से जातिवाद खत्म करना चाहते हैं,कौन-सा सामाजिक भेदभाव दूर करना चाहते हैं, किसके लिए गाइडलाइन तय करने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, अपने लिए या फिर उन गरीबों के लिए, देश की गटर में पैदा होकर दम तोड़नेवालों के लिए जो कल एनजीओ में जाने पर वो हमारी भाषा तक नहीं समझेंगे।..औऱ हमारे लिए जाति,भेद,उंच-नीच,ब्राह्मण-राजपूत, सब कुछ पहले से तय भेदभावों के आधार पर चलता रहेगा। आज मैं खुद एक छोटी-सी पार्टी से लौटा हूं। अजीबों-गरीब अनुभव के साथ। पीना मेरे लिए न के बराबर ही होता है। सभ्य समाज के बीच लोमेंटलिटी करार दिए जाने के भय से एक-दो पैग तक पचा लेने की कला सीख ली है। हम बहुत ही स्वाभाविक तरीके से हाथ में ग्लास लिए बातें कर रहे थे। ये गिलास आपसी रजामंदी कि आज एक पैग पीना है और बुलाए जानेवाले के सम्मान का परिणाम था। तभी एक ने हमलोगों के साथ की एक तस्वीर लेनी चाही, बहुत जल्दी से एक लड़की फ्रेम से बाहर हो आयी, उसे बहुत बुरा लगा कि हम पी रहे थे। हमने दो मिनट में,काला-खट्टा की तरह पैग खत्म किया और फिर कहा- अब आ जाओ। उसका साफ कहना था- हम जिस चीज का विरोध करते हैं, हम खुद भी उसमें शामिल क्यों हो जाते हैं। अपनी पुरानी भाषा में कहूं तो हम दुनियाभर के लोगों के लिए फ्रेम बनाने के पीछे परेशान क्यों रहते हैं, कभी खुद उस फ्रेम में शामिल क्यों नहीं होना चाहते। उस समय के बाद से मन में एक अजीब सी छटपटाहट,इसे मैं आत्मग्लानि भी कह लूं जो कि इसके पहले दसों बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पैग की कला को आजमाने के दौरान नहीं हुई,क्या कहें कि इस बात को कभी इस चश्में से सोचा ही नहीं। आज बार-बार बेचैन हो रहा हूं। मन करता है- रो दूं,अपने किए पर,मन करता हूं- हंस दूं अपने उपर। शाबासी दूं, अपने को कि तुम जो हो,वही दिखना चाहते हो, इसमें गलत नहीं है, कुछ भी गलत नहीं। मैं और मुन्ना अपनी इस बेचैनी को माल रोड़ पर लिमका पीकर कम करना चाहते हैं, एक-एक शिप पर,एक-एक बातें। भारी मन से गुजरते हुए...तभी उस फ्रेम से हट जानेवाली लड़की का एसएमएस आता है- जिनके आंगन में अमीरी का साजार लगता है,उनका हर ऐब जमाने में हुनर लगता है।..ये(यानी हमने जो किया) नैतिकता का नहीं, सामाजिक बुराई का सवाल है। उधऱ मुंबई से फोन आता है- भइया,लोग जाति पूछकर-बताकर जमाने के साथ कौन-सी थेथरई करते हैं। ये एसएमएस और फोन मानों दोनों हम जैसे लोगों से पूछ रहे हों,जो हो वो दुनिया को बताकर क्या हो जाएगा, अपने को उघाड़कर रख देने से क्या साबित करना चाहते हो,ये उत्तर-आधुनिक रवैया सब जगह नहीं चलेगा। ओह, अपनी बेचैनी में मैं उस लड़के का दर्द तो भूल ही गया, पोस्ट के शीर्षक का क्या सेंस है, ये भी बताना रह गया, कल लिख दूंगा...जरुर।.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090406/baef5446/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Apr 6 17:21:12 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 6 Apr 2009 17:21:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSh4KWA4KSf?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSXIOCkruCktuClgOCkqCDgpJXgpYAg4KS44KSC4KSk4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSC?= Message-ID: <829019b0904060451l3462fe23m57781aa495ea54d1@mail.gmail.com> प्रतिलिपि में छपे लेख का अंतिम भाग ऑडिएंस आतंकवाद की जिन खबरों में अपने एक निजी संदर्भ की तलाश करती है,उसे खबर प्रसारित करनेवालों के अनुसार अर्थ ग्रहण करें तो इसके दिखाए जाने के पीछे राष्ट्रचिंता और मानवता के स्वर छिपे हैं। नोम चॉमस्की ने ब्राजील तक दूसरे देशों का हवाला देते हुए जो लिखा है कि यहां संचार माध्यमों के बारे में मानकर चला जाता है कि वे सार्वजनिक हित की सेवा के लिए प्रतिबद्ध है,[xv]कमोवेश वही स्थिति भारतीय संदर्भ में भी है। ऑडिएंस जिस स्तर पर खबरों से अर्थ ग्रहण करती है वो निजी होता है, खबरों के प्रसारण के पीछे भी यही रणनीति काम कर रही होती है कि हर खबर की प्रस्तुति कुछ इस तरीके से हो कि ऑडिएंस उसमें अपने मतलब की बात को खोज पाए लेकिन स्ट्रैटजी से अलग इनके तर्क बिल्कुल अलग हैं। होटल ताज के सामने से कवर करते हुए हमलोग जो भी दिखा या कह रहे थे वह यथार्थ था उसमें कोई ड्रामा नहीं था। आतंकवादी गतिविधियों के शुरु होने के बाद से ही स्टार न्यूज का पूरा का पूरा दफ्तर और टॉप मैनेजमेंट लगातार साठ घंटे तक न्यूज रुम में मौजूद रहा और उस वक्त हममें से किसी के दिमाग में रेटिंग शब्द शायद ही कभी आया होगा।[xvi] खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश की सुरक्षा। देश की सुरक्षा की ।खातिर हम तस्वीरें लाइवें नहीं दिखा रहे हैं। हमारे संवाददाता प्रियदर्शन लाइव रिपोर्ट दे रहे हैं।[xvii] ये खबर लाइव नहीं है। चैनल जो अपनी टीआरीपी के लिए ज्यादा से ज्यादा लाइव करवेज के लिए परेशान रहते हैं, सरकार की ओर से मिले निर्देश के अनुसार अब लाइव प्रसारण नहीं कर रहे होते हैं। यही काम बाकी के चैनलों ने भी किया। इस बयान के मुताबिक मुंबई आतंकवादी हमले के दौरान जो कुछ भी दिखाया गया,वो टीआरपी का खेल नहीं था,उसमें राष्ट्रहित की भावना जुड़ी थी। देश और दुनिया के लोगों को यह बताने की कोशिश थी कि कुछ लोग मानवता के खिलाफ कितना गंदे से गंदा षडयंत्र कर सकते हैं। यानि आतंकवाद के मंजर को दिखाने के क्रम में न्यूज चैनलों के पास अपने-अपने दृष्टिकोण,समझ और व्यावहारिक प्रयोग है। यहां आकर आलोचना का यह आधार कि टीआरपी के लिए चैनल कुछ भी कर सकते हैं, टूटता नजर आता है, ऑडिएंस के निजी अर्थ और खबरों के प्रसारणकर्ता के तर्क से पैदा हुए अर्थ के बीच का एकहरापन टूटता है। यहां आकर ऐसा नहीं होता कि ऑडिएंस जिस स्तर पर अर्थ ग्रहण कर रही होती है पूरी तरह वही अर्थ संप्रेषण हो रहा होता है और ऐसा भी नहीं होता कि प्रसारणकर्ता जिसे राष्ट्रहित बता रहे होते हैं, आतंकवाद से जुड़ी खबरों को दिखाने के पीछे यही स्ट्रैटजी पूरी तरह काम कर रही होती है। इस स्थिति में सिल्वरस्टोन की अर्थ पैदा होने के दूसरे आधार पर गौर करें तो यह भी समझना जरुरी होता है कि संचार से भी अर्थ बनते हैं जिसमें ऑडिएंस की कोई भूमिका नहीं होती। उपरी तौर पर प्रसारणकर्ता की भी कोई भूमिका नहीं होती। कैमरे का सच या फिर कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता का मुहावरे के प्रयोग के पीछे बार-बार यही साबित करने की कोशिश रहती है कि जो कुछ भी दिखाया जा रहा है उसके प्रति प्रसारणकर्ता तटस्थ है। खबरों की प्रस्तुति में शामिल लोगों की तटस्थता को स्थापित किए जाने की स्थिति में प्रसारण औऱ तकनीक की भूमिका बढ़ जाती है और ऑडिएंस को बिना कोई मैनिपुलेशन के खबर प्रसारित होने का आभास होता है। लेकिन यही आकर सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है कि तकनीक का आधार लेकर अपने को तटस्थ बताने की रणनीति क्या तर्कसंगत है। आज एनडीटीवी ने आतंकवादी घटनाओं की खबरों को दिखाए जाने के पीछे जिस तरह से आपत्ति दर्ज की है, उसमें तकनीक पर सवार होकर अपने को तटस्थ बताए जाने का फार्मूला कितना विश्वसनीय है, इस पर विचार किए जाने चाहिए। क्या तकनीक और प्रसारण के बीच अपने अनुरुप खबरों का रुख करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। इस संदर्भ में पी.एन.बासंती का मानना है कि मुंबई आतंकवाद की खबरों को जिस तरह से टेलीविजन चैनलों ने दिखाया, खबर को जिस तरह से लोगों के बेडरुम तक पहुंचाया वो रियलिटी शो के रुप में था।[xviii] बासंती खबरों की प्रस्तुति के लिए रियलिटी शो का प्रयोग कर रही हैं, यानी पूरा विश्लेषण इस संदर्भ में है कि खबरों को जिस तरीके से प्रस्तुत किए जाते हैं उससे खबरों के कंटेट से अलग अर्थ पैदा होते हैं। आतंकवादी घटना को देखने के बाद खौफ,असुरक्षा औऱ चिंता के भाव पैदा होने चाहिए लेकिन रोमांच औऱ कौतुहल पैदा होता है। शायद यही वजह है कि देश की ऑडिएंस आतंकवादी घटनाओं को किसी खबर के बजाय आदतन एक कार्यक्रम के तौर पर देखने की अभ्यस्त होती चली जाती है। हार्रर फिल्मों की तरह थोड़ी देर डरकर खुद का विरेचन करती है। संभवतः यही वजह है कि वो इस आदत के बीच डेस्कटॉप पर चले रहे यूट्यूब और चैनलों द्वारा फिर से कैमरे में कैद कर लिए जाने और उस पर कुछ चमकदार लेबल और स्लग लगा दिए जानेवाली खबरों को भी देखकर परेशान नहीं होती, आतंकवाद को खत्म करने के लिए बेचैन नहीं होती और चैनल जिस राष्ट्रीय चिंता का आधार तय करता है, उसे लेकर असहमत नहीं हो पाती। भारतीय दर्शकों के बीच एक बड़ी सच्चाई ये है कि वो न्यूज चैनलों के जरिए प्रसारित होनेवाली खबरों औऱ घटनाओं को सच मानकर चलती है। इस लिहाज से प्रसारणकर्ता का ये फार्मूला कि कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता काम कर जाता है। कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता की समझ के नीचे विकसित होनेवाले दर्शकों के लिए ये समझना वाकई मुश्किल काम है कि कैमरे के पहले औऱ बाद भी किस तरह के तकनीकी प्रयोग किए जाते हैं औऱ उससे अर्थ( मतलब भी औऱ टीआरपी भी) पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। यहां पर डेविड मोर्ले की बात पर विचार करना जरुरी है कि ऑडिएंस टेलीविजन के अर्थ को किस रुप में ग्रहण करती है, इससे समझने के लिए उसके परिवेश और मान्यताओं को तो समझना जरुरी है ही इसके साथ ही ये भी समझना जरुरी है कि वो आसपास की तकनीक से किस रुप में जुड़ी हुई है।[xix] नलिन मेहता ने कैमरे से बनी छवि और ऑडिएंस के उपर इसके असर को जब 2002 के गुजरात दंगे के संदर्भ में देखते हैं, तब इसी कैमरे और माइक के होने से डरे हुए लोग घर से बाहर निकलकर आए और दुनिया के सामने आकर अपनी बात रखी।[xx] इसी टेलीविजन और तकनीक के बीच से पैदा होनेवाली बेचैनी औऱ सवाल से जुड़कर मुंबई आतंकवाद के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और टेलीविजन के फुटस्टेप को मानते हुए अपनी बात रखी। इसलिए तकनीक और संचार के बीच से पैदा होनेवाले अर्थ सिर्फ वर्चुअल स्पेस के भीतर भटकनेवाले शब्द भर नहीं होते, उसका रुपांतरण सामाजिक स्तर पर भी होता है। इसलिए एक स्थिति ये भी बनती है कि यह समाज को पहले से अधिक लोकतांत्रिक बनाता है। एसएमएस और फोन कॉल के जरिए इन घटनाओं के विरोध में, लोगों के समर्थन में अपनी बात रखते हैं, वह भी लोकतंत्र का हिस्सा है, इसे चाहे तो टेली-डेमोक्रेसी कहा जा सकता है। भारतीय दर्शकों के बीच टेलीविजन सहित मोबाइल, कैमरे, इंटरनेट और दूसरे संचार औऱ तकनीक माध्यमों का जितनी तेजी से प्रसार बढ़ रहा है उससे एक निष्कर्ष निकालना आसान हो गया है कि तकनीक को लेकर भारतीय समाज फैमिलियर होता जा रहा है। लेकिन इस तकनीक का उपयोग किस स्तर तक किया जाता है इससे विश्लेषित करना आसान नहीं है औऱ संभव है कि प्रसार को लेकर जो हम हुलस रहे हैं तकनीक आधारित जागरुकता के इस निष्कर्ष पर यह जानकर हम उदास हो जाएं कि इन तकनीकों का इस्तेमाल महज एक उत्पाद के रुप में हो रहा है न कि एक संचार माध्यम के रुप में। फिलहाल,मुंबई आतंकवाद द्वारा निर्मित छवियों का प्रभाव विश्लेषण करें तो इतना तो स्पष्ट है कि लोग इसे देखकर ठीक वैसे ही निश्चिंत नहीं हुए जिस तरह से निश्चिंत होने की बात सोंटाग करती है। कम से कम मुंबई की ऑडिएंस के संदर्भ में तो नहीं ही कहा जा सकता है। बाद में तो देश के अलग-अलग हिस्सों में भी सक्रियता बढ़ी। सोंटाग जिसे निष्क्रियता बता रही है, वो यहाँ ठीक उलट हाइपर डेमोक्रेसी के रुप में उभरकर सामने आता है। चैनलों को आतंकवाद से डरानेवाली स्ट्रैटजी के बजाय जज्बाती होनेवाली स्थिति की तरफ ले जाता है। इसलिए चैनलों द्वारा निर्मित इन छवियों को जल्दीबाजी में सिर्फ टीआरपी के फार्मूले, सोंटाग के ऑफ फोटोग्राफी के सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करने के बजाय लोगों के बीच बननेवाले डेमोक्रेटिक-कल्चर को भी संदर्भ के तौर पर देखना अनिवार्य होगा। यह सिर्फ मीडिया विश्लेषण का हिस्सा नहीं बल्कि इसका संबंध समाज के बीच संरचनागत बदलावों, कई दूसरे दृष्टिकोणों, अनुभव और प्रभावों से है। इसलिए छवि निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हुए इन सबका शामिल किया जाना अनिवार्य है। लेकिन नलिन मेहता के कैमरे का असर और राजदीप सरदेसाई की टेलीडेमोक्रेसी की मान्यता को काफी हद तक मान लेने के बाद भी इस बात को समझना जरुरी है कि सारा काम कैमरे का नहीं है। तकनीक के नाम पर हमें कैमरे से आगे एडिटिंग रुम में होनेवाली गतिविधियों को भी समझना होगा। हिन्दी मीडिया में समाज, संरचना, मनोवैज्ञानिक प्रभाव औऱ घरेलू परिवेश के आधार पर विश्लेषण करने की पद्धति एक आकार ले रही है, इसी क्रम में तकनीक, लोगों से उसके जुड़ाव औऱ जागरुकता के आधार पर विश्लेषण करने का दौर शुरु हो जाए तो संभव है कि साइट और यूट्यूब के भरोसे खबरें गढ़नेवाले न्यूज चैनलों को कैमरे कभी झूठ नहीं बोलते का मुहावरा इस्तेमाल करने के पहले दस बार सोचने पड़ जाएं।… संदर्भ- [xv] मीडिया मंत्र( जनवरी-फरवरी 08)सं- पुष्कर पुष्प,डायरी पेज- दीपक चौरसिया( एडीटर, नेशनल न्यूज, स्टार न्यूज) [xvi] आजतक, 7 बजे सुबह, 29 नवंबर 08 [xvii] एनडीटीवी इंडियाःमुकाबला दिसंबर 12, 08 पी.एन.बासंती, डायरेक्टर सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज [xviii] डेविड मोर्ले(2002), टेलीविजन ऑडिएंन्सेंज एंड कल्चरल स्टडीज,पेज नं-204, राउटलेज 11 न्यू फिटर लेन,लंदन [xix]नलिन मेहता(2008) इंडिया ऑन टेलीविजन, पेज नं-294,हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया, नई दिल्ली [xx] वही पेज नं- 257, राजदीप सरदेसाई का मत Posted by विनीत कुमार at 04:38 0 comments Labels: टीआरपी , टीवी , टेर्र -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090406/996f938f/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Wed Apr 8 12:50:50 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Wed, 8 Apr 2009 12:50:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSc4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSm4KS+4KSk4KSwIOCkheCkreCkv+CkqOClh+CkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSo4KWA4KSk4KS/IOCkruClh+CkgiDgpLngpYsg4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpJfgpYHgpK4=?= Message-ID: <190a2d470904080020w52502deft9bddcdb917a469fa@mail.gmail.com> हिन्दी फिल्मों के ज्यादातर अभिनेता राजनीति में हो जाते हैं गुम http://www.vinitutpal.blogspot.com/ *दक्षिण के स्टारों की बजती है धुन* अभिनेता राजनेता तो बन जाते हैं लेकिन राजनीति में सक्रिय भागीदारी की कमी उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े करती है। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की तूती आम जनता के बीच जमकर बोलती है लेकिन राजनीति की रपटीली राहों में वे खो जाते हैं। अभी तक मुट्ठी भर अभिनेता ही ऐसे हुए हैं जिन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल होने का मौका मिला है। वहीं, दक्षिण भाषाओँ की फिल्मों के अभिनेताओं की लोकप्रियता और कामकाज का आलम यह है कि उन्होंने मुख्यमंत्री जैसे पद पर पहुँचने के साथ-साथ वर्षों तक जनता के दिलों पर शासन भी किया है। कुछ समय पहले संजय दत्त का राजनीति में उदय हुआ। समाजवादी पार्टी ने उन्हें लखनऊ से उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया लेकिन वैधानिक आधार पर खड़े नहीं उतरने के कारण उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा देने के बाद नफीसा अली को टिकट दिया गया है। इससे पहले भी लखनऊ की सीट पर समाजवादी पार्टी ने मुजफ्फर अली को दो बार लोकसभा का टिकट दिया लेकिन वह जीत नही पाए। राजबब्बर भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद बने, हालाँकि बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। फ़िल्म अभिनेत्री जयाप्रदा भी उत्तरप्रदेश के रामपुर सीट से सांसद बनी। गौरतलब है कि नेहरू-गांधी परिवार से निकटता के कारण अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से सांसद तो बने लेकिन जल्द ही राजनीति से उनका मोहभंग हो गया। आपातकाल के दौरान देवानंद ने अपनी पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश किया लेकिन आखिरकार फिल्मी दुनिया में वापस हो गए। हिन्दी फिल्मों की मायावी दुनिया से निकलकर वैजंतीमाला, राजेश खन्ना, जया बच्चन, हेमामालिनी, धर्मेन्द्र, पूनम ढिल्लन और गोविंदा ने भी संसद की राह देखी है। सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे अभिनेताओं में शुमार रहे जिन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का मौका मिला। हालाँकि नरगिस दत्त और शबाना आजमी को राज्यसभा का सदस्य बनने का मौका मिला। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं के विपरीत दक्षिण भारत की फिल्मों के अभिनेताओं ने फिल्मों के साथ-साथ देश की राजनीति के इतिहास में जमकर जलवा बिखेरा है। उनमें कई को अपने-अपने राज्य में सत्ता भी हासिल हुई है। एमजे रामचंद्रन ऐसे पहले अभिनेता रहे जिन्हें पहली बार किसी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी मिले। वह ५० का दशक था। जयललिता का फिल्मी परदे से हटकर राजनीति में उदय हुआ और वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। यही इतिहास करूणानिधि का भी है। दक्षिण फिल्मों के एक अन्य अभिनेता एनटी रामाराव ने अपनी काबिलियत की बदौलत न सिर्फ़ आँध्रप्रदेश की राजनीति बल्कि देश के राजनीति को भी प्रभावित किया। इसके अलावा, रजनीकांत, चिरंजीवी, विजयकांत, राजकुमार आदि ने भी फिल्मी दुनिया से आकर राजनीति में भी जलवे बिखेरे और उनकी लोकप्रियता अपार है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/f197e3c8/attachment.html From vinitutpal at gmail.com Wed Apr 8 12:51:53 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Wed, 8 Apr 2009 12:51:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSc4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSm4KS+4KSk4KSwIOCkheCkreCkv+CkqOClh+CkpOCkviA=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KSo4KWA4KSk4KS/IOCkruClh+CkgiDgpLngpYsg4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpJfgpYHgpK4=?= In-Reply-To: <190a2d470904080020w52502deft9bddcdb917a469fa@mail.gmail.com> References: <190a2d470904080020w52502deft9bddcdb917a469fa@mail.gmail.com> Message-ID: <190a2d470904080021k7cfbe66dv3d19658d3db704ca@mail.gmail.com> हिन्दी फिल्मों के ज्यादातर अभिनेता राजनीति में हो जाते हैं गुम http://www.vinitutpal.blogspot.com/ *दक्षिण के स्टारों की बजती है धुन* अभिनेता राजनेता तो बन जाते हैं लेकिन राजनीति में सक्रिय भागीदारी की कमी उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े करती है। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की तूती आम जनता के बीच जमकर बोलती है लेकिन राजनीति की रपटीली राहों में वे खो जाते हैं। अभी तक मुट्ठी भर अभिनेता ही ऐसे हुए हैं जिन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल होने का मौका मिला है। वहीं, दक्षिण भाषाओँ की फिल्मों के अभिनेताओं की लोकप्रियता और कामकाज का आलम यह है कि उन्होंने मुख्यमंत्री जैसे पद पर पहुँचने के साथ-साथ वर्षों तक जनता के दिलों पर शासन भी किया है। कुछ समय पहले संजय दत्त का राजनीति में उदय हुआ। समाजवादी पार्टी ने उन्हें लखनऊ से उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया लेकिन वैधानिक आधार पर खड़े नहीं उतरने के कारण उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा देने के बाद नफीसा अली को टिकट दिया गया है। इससे पहले भी लखनऊ की सीट पर समाजवादी पार्टी ने मुजफ्फर अली को दो बार लोकसभा का टिकट दिया लेकिन वह जीत नही पाए। राजबब्बर भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद बने, हालाँकि बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। फ़िल्म अभिनेत्री जयाप्रदा भी उत्तरप्रदेश के रामपुर सीट से सांसद बनी। गौरतलब है कि नेहरू-गांधी परिवार से निकटता के कारण अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से सांसद तो बने लेकिन जल्द ही राजनीति से उनका मोहभंग हो गया। आपातकाल के दौरान देवानंद ने अपनी पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश किया लेकिन आखिरकार फिल्मी दुनिया में वापस हो गए। हिन्दी फिल्मों की मायावी दुनिया से निकलकर वैजंतीमाला, राजेश खन्ना, जया बच्चन, हेमामालिनी, धर्मेन्द्र, पूनम ढिल्लन और गोविंदा ने भी संसद की राह देखी है। सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे अभिनेताओं में शुमार रहे जिन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का मौका मिला। हालाँकि नरगिस दत्त और शबाना आजमी को राज्यसभा का सदस्य बनने का मौका मिला। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं के विपरीत दक्षिण भारत की फिल्मों के अभिनेताओं ने फिल्मों के साथ-साथ देश की राजनीति के इतिहास में जमकर जलवा बिखेरा है। उनमें कई को अपने-अपने राज्य में सत्ता भी हासिल हुई है। एमजे रामचंद्रन ऐसे पहले अभिनेता रहे जिन्हें पहली बार किसी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी मिले। वह ५० का दशक था। जयललिता का फिल्मी परदे से हटकर राजनीति में उदय हुआ और वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। यही इतिहास करूणानिधि का भी है। दक्षिण फिल्मों के एक अन्य अभिनेता एनटी रामाराव ने अपनी काबिलियत की बदौलत न सिर्फ़ आँध्रप्रदेश की राजनीति बल्कि देश के राजनीति को भी प्रभावित किया। इसके अलावा, रजनीकांत, चिरंजीवी, विजयकांत, राजकुमार आदि ने भी फिल्मी दुनिया से आकर राजनीति में भी जलवे बिखेरे और उनकी लोकप्रियता अपार है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/8cb3da14/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Apr 8 13:32:05 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 8 Apr 2009 13:32:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KWN4KSo?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KS44KWN4KSfIOCkleCliyDgpI/gpJXgpY3gpJ/gpL/gpLU=?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWN4KSfIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYvgpKjgpL4g4KSa?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSPLSDgpJzgpLDgpKjgpYjgpLIg4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: <829019b0904080102i63ffca6amdc979fc110cd98de@mail.gmail.com> IBN7 के खास कार्यक्रमडंके की चोट पर में आशुतोष ने जरनैल सिंह से सवाल किया कि- जरनैल,क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट होना चाहिए? जिस तरह से आपने काम किया,क्या आपको लगता है कि ये आपको शोभा देता है?(9:23PM) जरनैल सिंह ने आशुतोष के इस सवाल का जबाब देते हुए कहा- मैं वहां पर ऐज ए जर्नलिस्ट था तो मुझे ऐज ए जर्नलिस्ट ही बर्ताव करना चाहिए था जब मैं प्रेस कॉन्फेंस में हूं। अगर आप एक्टिविस्ट बनना चाहते हैं तो उसके लिए अलग से फील्ड है,आप बन सकते हैं। देखिए मेरा मानना है कि जर्नलिस्ट को जर्नलिस्ट ही रहना चाहिए। और ऐज ए जर्नलिस्ट आइ रिग्रेट वॉट आइ डिड। वो मुझे अपसोस है कि ऐज ए जर्नलिस्ट वहां हुआ। इससे दिक्कतें बढ़ेगी,पत्रकार दोस्तों की दिक्कतें बढ़ेंगी जो कि ठीक नहीं है। कल,देश के गृहमंत्री पी.चिदंबरम के उपर,दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा जूते फेंके जाने के बाद जिस तरह की राजनीति गर्मायी और चैनलों ने बाकी की खबरों को धकेलते हुए इसे प्राइम तक पहुंचाया,फिलहाल हम उस बहस में नहीं पड़ना चाहते। हमारी दिल्चस्पी बगदाद से लेकर दिल्ली तक जूते फेंके जाने की घटना को एक ऐतिहासिकता तौर पर बन रही परंपरा साबित करना भी नहीं है। यहां हम इस घटना और खासकर इस सवाल-जबाब के जरिए पत्रकार,एक्टिविस्ट और न्यूज चैनलों के जरिए बननेवाली इमेज पर बात करना चाहेंगे। चैनलों द्वारा जरनैल सिंह का नाम बार-बार एक हिन्दी पत्रकार के रुप में उछाया गया। उसके साथ बार-बार हिन्दी शब्द जोड़ा गया। उसके बाद अखबार का नाम लिया गया। आइबीएन7 ने जरनैल सिंह को लेकर, दैनिक जागरण की ओर से जारी बयान को भी उसके लेटर पैड के साथ दिखाया। कैमरे पर खुद जरनैल सिंह के दैनिक जागरण का पत्रकार बोले जाने के बाद चैनलों ने इसे अखबार के नाम के साथ जोड़कर दिखाना शुरु किया। मुझे इस बात पर जरा-सी भी आपत्ति नहीं है कि अखबार का नाम क्यों लिया गया। लेकिन अखबार के नाम के साथ पूरी इस घटना को दिखाए जाने के पीछे मेरी जो समझ बनती है वो ये कि- क्या ऐसा इसलिए तो नहीं कि चैनल के पत्रकारों ने प्रिंट की पत्रकारिता और चैनल के बीच एक विभाजन रेखा खींच ली है। मतलब ये कि इस खबर को दिखाए जाने के तरीके के आधार पर ये साबित होता है कि प्रिंट औऱ इलेक्ट्रॉनिक को लेकर पक्षधरता का विभाजन साफ है। इस पर विचार करना इसलिए भी जरुरी है कि दो औऱ घटनाओं पर अगर आप गौर करें तो कुछ ऐसी ही समझ बनती है। लाइव इंडिया के रिपोर्टर प्रकाश सिंह द्वारा उमा खुराना को लेकर एक ऐसी खबर दिखायी गयी और चैनलों द्वारा इस तरह से पेश किया गया कि तुर्कमान गेट के पास धीरे-धीरे दंगे का महौल बन गया। दिनभर तक चलायी जानेवाली खबर पर लोगों की उग्र प्रतिक्रिया हुई। बाद में इस खबर के पीछे का कच्चापन,रातोंरात मीडिया में चमकने की छटपटाहट और छिछोरेपन का मामला सामने आया। तब तक किसी भी चैनल ने इस चैनल का नाम नहीं लिया,इसे उछालने का काम नहीं किया। दूसरी खबर,सौम्या विश्वनाथन की हत्या के संदर्भ में। सौम्या विश्वनाथन जिस चैनल से जुड़ी थी उस चैनल ने घटना के बारह घंटे बाद तक इस खबर पर अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। बाकी चैनलों से बहुत बाद में उसने खबर दिखाया,ये अलग बात है कि उस चैनल की आत्मा सबसे तेज कहलाकर ही तृप्त होती है। बाद में इस खबर को विस्तार से दिखाया गया और व्ऑयस ऑफ इंडिया ने इसे बतौर पैकेज बनाकर दिखाया। जब आप चैनल के लिए स्टोरी लिख रहे होते हैं तो आपको बार-बार बताया जाता है कि आप किसी चैनल का नाम नहीं लेंगे। शायद ये मीडिया एथिक्स का हिस्सा हो। लेकिन वहां पर ये भी देखना होता है कि किस तरह की खबर है। आप कल की घटना सहित बाकी तीनों खबरों को दिखाए जाने पर गौर करें तो आप इस बात से इत्तेफाक रखेंगे कि चैनल किसी दूसरे मीडिया संस्थान का नाम या फिर अपने ही संस्थान का नाम तब तक नहीं लेता, जब तक कि कानून की पेंच में खुद उसके पड़ जाने की थोड़ी भी गुंजाइश बची रहती है। जब ये साफ हो जाता है कि- किसी भी खबर को लेकर मीडिया संस्थान की कहीं कोई भूमिका नहीं है या अगर है भी तो उसे ब्लर्र किया जा सकता है, तब संस्थान का नाम लिया जाता है। ऐसे में,खबर करने औऱ झमेले में फंसने की स्थिति में पत्रकार बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाता है। वह मामूली इंसान हो जाता है और उसी तरह की मानसिक परेशानी झेलता है। संस्थान को उससे पल्ला झाड़ने में एक मिनट का भी समय नहीं लगता। मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि गलती किसकी है। चैनल को नंबर बनाने की होड़ में प्रकाश सिंह की या संस्थान की। इधर प्रेस कांफ्रेंस में जूते फेंकनेवाले करनैल सिंह की। लेकिन टीआरपी बटोरने की ललक क्या सिर्फ एक पत्रकार की ही होती है जो वो स्टोरी कर रहा है या फिर संस्थान अपने भीतर लगातार उस मानसिकता को प्रोत्साहित करता है जिससे कि ऐसी हरकतें सामने आती है। जूते फेकने से पहले,सवाल पूछ-पूछकर किसके लिए बाइट जुटा रहा था,किसके लिए खास-खबर बनाने की जद्दाजहद में था,जिस सवाल से चिदंबरम बचना चाह रहे थे,किसके लिए वो उसके जबाब मांग रहा था। लेकिन, करनैल सिंह के मामले में चैनल ने अखबार की ओर से स्थिति स्पष्ट करते हुए सवाल किया कि- करनैल सिंह को अखबार की ओर से पी.चिदंबरम के प्रेस कांफ्रेस के लिए नहीं भेजा गया था,वो अपनी मर्जी से वहां चले गए थे। जाहिर है,करनैल सिंह को ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्या देश के एक बड़े अखबार का प्रबंधन इतना बदहोश है कि उसे पता तक नहीं कि किसे किस काम के लिए भेजा जाना है औऱ अगर अपनी मर्जी से कोई भी कहीं चला जाता है तो बर्बर वर्किंग कल्चर को कैसे रोका जाए। लाइव इंडिया के मामले में चैनल हेड ने कुछ ऐसे ही बयान दिए थे। और तो और.. इस सवाल को खड़ी करके चैनल कुछ दूसरी ही बात साबित करना चाह रहा था। कहीं किसी योजनाबद्ध तरीके से जरनैल सिंह ने ऐसा तो नहीं किया। उसकी मां और पत्नी की बाइट ली गयी। मेनस्ट्रीम की मीडिया में जरनैल सिंह के गुस्से को एक सिक्ख के गुस्से के तौर पर स्थापित किया गया न कि एक पत्रकार के गुस्स को। अब जो राजनीति हो रही है उसमें मीडिया अपनी भूमिका को लेकर चुप है, सिरे से गायब है। उसने एक लाइन भी नहीं लिखा-कहा कि देश में न्याय-प्रक्रिया का जो आलम है औऱ लोगों की जिंदगी के बरक्स राजनीति हावी है, ऐसे में किसी भी पत्रकार को गुस्सा आना मामूली बात है। मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि ऐसा करके करनैल सिंह का पक्ष लिया जाना चाहिए और उसने जो कुछ भी किया है उसे जायज ठहराया जाना चाहिए लेकिन एक पत्रकार के गुस्से को एक समुदाय के गुस्से के रुप में स्थापित करने के पीछे मीडिया को खुद सवाल करने चाहिए कि क्या देश के किसी भा हालत को देखकर उसके भीतर उबाल नहीं आते,उसे बेचैनी नहीं होती। खबरों का रंग बदलकर मीडिया,देश के भीतर कौन से लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाना चाहती है। करनैल सिंह के जूते फेंकने को हटा दें तो अगर इस उबाल को,इस गुस्से को व्यवस्थित किया जाए तो एक सही पत्रकारिता की तस्वीर हमारे सामने होगी लेकिन नजारा देखिए- आशुतोष ने सवाल में पत्रकार के साथ एक्टिविस्ट शब्द का इस्तेमाल किया। जिस संदर्भ में उसने इस शब्द का प्रयोग किया उससे एक्टिविस्ट शब्द का अर्थ निकलता है कि- एक्टिविस्ट यानी गुस्से में कुछ भी कर जानेवाले लोग,होश-हवाश खोकर अपनी बात रखनेवाले लोग। संभवतः इसलिए जरनैल सिंह ने इस संदर्भ के मुताबिक अर्थ दिया कि- नहीं पत्रकार को एक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए। क्या आशुतोष ने एक्टिविस्ट शब्द का प्रयोग सही संदर्भ में किया, ये एक जरुरी सवाल है। आशुतोष को एक्टिविस्ट की निगेटिव छवि बनाने के पहले सोचना चाहिए भी या नहीं। और क्या जर्नलिज्म,साहित्य या फिर प्रतिरोध से जुड़े जितने भी प्रोफेशन है उनमें एक्टिविज्म का सेंस पैदा किए वगैर,एक्टिविज्म एप्रोच लिए बिना बदलाव के पक्ष में काम करना संभव है। आज क्यों किसी अखबार के पूरे के पूरे पेज छापे जाने पर भी कोई खास असर नहीं होता, आज क्यों चैनल द्वारा किसी भी खबर को लेकर घंटों चलाए जाने के बाद भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्यों शब्दों ने अपनी ताकत खो दी है, किसी के विरोध में लिखे जाने पर भी वो छोटे-छोटे कंकड भर का काम करके निकल जाते हैं जिसे कि भ्रष्ट नेता या अधिकारी सहलाकर निश्चिंत हो जाते हैं। पत्रकारों द्वारा लिखे-कहे शब्द अगर उसकी रगों में नहीं दौड़ते,तब बदलाव की गुंजाइश ही कहां बचती है। ऐसे मौके पर पत्रकार के भीतर के उबाल पर,देश की लचर व्यवस्था पर औऱ एक्टिविज्म पर बात होनी चाहिए थी लेकिन सही समय में गलत संदर्भ के बीच आशुतोष ने एक्टिविज्म शब्द का इस्तेमाल करते हुए,जरनैल सिंह ने इससे इत्तेफाक नहीं रखते हुए उस भरोसे को पनपने नहीं दिया। जिसके बीच से पत्रकारिता और सक्रियता के बीच एक पर्याय बन सकता है,उसे दबा दिया, क्या ये पत्रकारिता के बीच सही संदर्भों की भ्रूण हत्या तो नहीं या फिर दूकान में बैठकर करनेवाली,सॉरी चलानेवीली पत्रकारिता का व्यावहारिक एप्रोच है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/26101fa3/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Apr 8 15:05:34 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Wed, 8 Apr 2009 15:05:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSqIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KSkIOCkueCliOCkgiDgpK/gpL4g4KSo4KS54KWA4KSCIC0g?= =?utf-8?b?4KSW4KWB4KSyIOCkleClhyDgpKzgpYvgpLLgpL/gpI8=?= Message-ID: <196167b80904080235i37db7742t1efb3ea58c8d120c@mail.gmail.com> आज कोलकाता से पत्रकार और सामजिक कार्यकर्ता द्वय शंकर दादा का मेल आया. मेल में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि 'पत्नी तो पत्नी ही होती है, इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि वह क्या है और कौन है. इस मेल का सबसे दिलचस्प पहलू इसके साथ सलग्न तस्वीर थी. तस्वीर देखकर बताइए- क्या आप शंकर दादा की बात से सहमत हैं-या नहीं? http://ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/8b41fc68/attachment.html From dangijs at gmail.com Fri Apr 3 17:26:35 2009 From: dangijs at gmail.com (Jagdeep Dangi) Date: Fri, 3 Apr 2009 07:56:35 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSW?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuClh+CkteCkqOCkvuCkl+CksOClgCDgpZ7gpYngpKjgpY0=?= =?utf-8?b?4KSfIOCkquCksOCkv+CkteCksOCljeCkpOCklS4uLklTQ0lJIFRPIFVO?= =?utf-8?q?ICODE_CONVERTER=2E=2E=2E?= In-Reply-To: <1662afad0904022253i20dffbd2i5d830c01965e0bbc@mail.gmail.com> References: <1662afad0904022253i20dffbd2i5d830c01965e0bbc@mail.gmail.com> Message-ID: <1662afad0904030456r3bf67746w69631b0743e250be@mail.gmail.com> जय हिन्द. प्रखर देवनागरी फ़ॉन्ट परिवर्तक...ISCII TO UNICODE CONVERTER... http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=5321&Itemid=139 लिंकः- > > > http://www.4shared.com/file/95233113/8580c800/Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html > > > http://www.4shared.com/file/95041835/4e581a8/DangiSoft_Prakhar_Devanagari_Font_Parivartak.html > > > -- Er. Jagdeep Dangi Ward No. 2, Behind Co-operative Bank, Station Area Ganj Basoda, Distt. Vidisha (M.P.) India. PIN- 464 221 Res. (07594) 222457 Mob. 09826343498 Profile: http://www.iiitm.ac.in/iiitm/Scientist_Eng/JDangi.htm -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090403/38d57b56/attachment.html From uchaturvedi at gmail.com Wed Apr 8 15:14:22 2009 From: uchaturvedi at gmail.com (umesh chaturvedi) Date: Wed, 8 Apr 2009 15:14:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAg4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCli+CkgiDgpJXgpYcg?= =?utf-8?b?4KSc4KWN4KSv4KS+4KSm4KS+4KSk4KSwIOCkheCkreCkv+CkqOClhw==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpOCkvyDgpK7gpYfgpIIg4KS5?= =?utf-8?b?4KWLIOCknOCkvuCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KSX4KWB4KSu?= In-Reply-To: <8a9e78f0904080157keafff0bi2beb5d0d5845767a@mail.gmail.com> References: <190a2d470904080020w52502deft9bddcdb917a469fa@mail.gmail.com> <190a2d470904080021k7cfbe66dv3d19658d3db704ca@mail.gmail.com> <8a9e78f0904080157keafff0bi2beb5d0d5845767a@mail.gmail.com> Message-ID: <8a9e78f0904080244j56ad5e93l42b530f3677fe0cc@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: umesh chaturvedi Date: 2009/4/8 Subject: Re: [दीवान] हिन्दी फिल्मों के ज्यादातर अभिनेता राजनीति में हो जाते हैं गुम To: vinit utpal राजनीति के गुलदस्ते उमेश चतुर्वेदी चुनावी माहौल में इन दिनों नेता बने अभिनेता बेहद चर्चा में हैं। दोनों हिंदी फिल्मों के नामी-गिरामी सितारे हैं। दोनों का नाम उस फिल्म की सफलता की गारंटी होती है। लेकिन दोनों अपनी इस फिल्मी लोकप्रियता को सियासी मैदान में भुनाने के लिए मैदान में नहीं उतर सके। इनमें से एक को जहां सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी तो दूसरे को उसकी पार्टी ने ही इस काबिल नहीं समझा। जी हां, ठीक फरमाया। यहां चर्चा संजय दत्त और गोविंदा की हो रही है। चुनाव लड़ने और ना लड़ने की खींचतान के बीच एक सवाल पूरी तरह से गायब है। वह सवाल है कि इन राजनेताओं की क्या कोई सियासी वकत भी है, जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी है या फिर ये राजनीति के ड्राइंग रूम में सजाने के लिए सिर्फ गुलदस्ते की ही भूमिका निभाते हैं। गोविंदा की मुंबई के कांग्रेसी मैदान से विदाई से साफ है कि फिल्मी पर्दे पर ये राजनेता जनता की चाहे जितनी सेवा कर लें, जनता के हकों की लड़ाई चाहे जितनी कामयाबी से लड़ लें – लेकिन अगर उनमें सचमुच जनता की सेवा करने का जज्बा नहीं है तो सियासी मैदान में उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है और संसद में एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी पार्टियां उन्हें चुनावी मैदान से निकाल बाहर करने में भी देर नहीं लगातीं। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, ये हालत राष्ट्रवाद के मुद्दे को जिंदा रखने वाली बीजेपी और डॉक्टर लोहिया और नरेंद्रदेव की चिंता करने वाली समाजवादी पार्टी सबके साथ है। डॉक्टर लोहिया के चेले मुलायम सिंह को तो जहां भी थोड़ी उम्मीद दिखती है, वहां उनके पास फिल्मी मैदान से उतारने के लिए एक नेता मिल जाता है। जयाप्रदा, जया बच्चन, संजय दत्त और राजबब्बर के अलावा उसे कोई दिखता ही नहीं है। ये बात और ही राजबब्बर आजकल कांग्रेस की बहियां थाम बैठे हैं। वैसे राजबब्बर सियासी अभिनेताओं से कुछ अलग जरूर हैं। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा से छात्र राजनीति शुरू की थी। पुलिस की लाठियां भी खाईं थीं। लेकिन जया बच्चन हों या जया प्रदा या फिर संजय दत्त...उनका ऐसा क्या इतिहास रहा है। 1984 के आम चुनावों में राजीव गांधी ने कुछ वैसे ही अभिनेता-अभिनेत्रियों पर भरोसा जताया था, जैसे आज अमर सिंह कर रहे हैं। तब इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन, चेन्नई से बैजयंती माला और ऐसे ही ना जाने कितने रजत पटी चेहरे मैदान में उतार दिए गए। उनकी फिल्मी लोकप्रियता बैलेट बॉक्स में भी जमकर बरसी और वे देश की सबसे बड़ी पंचायत में जा पहुंचे। लेकिन वहां उनका प्रदर्शन कैसा रहा, ये संसद की कार्यवाही के इतिहास में दर्ज है। अमिताभ को तो जल्द ही मैदान छोड़ना पड़ा और बैजयंती माला बाली भी राजनीति को बॉय-बॉय बोल चुकी हैं। गोविंदा उसी की अगली कड़ी हैं। 2004 के आम चुनावों में उन्होंने राम नाइक जैसे कद्दावर नेता को हरा तो दिया – लेकिन जनता से उनका वैसा संवाद नहीं बना, जैसी की उनसे बतौर एक राजनेता और सांसद अपेक्षा पाली गई थी। अकेले कांग्रेस की ही ये कहानी नहीं है। बीजेपी ने भी अपनी स्टार प्रचारक हेमा मालिनी के पति धर्मेंद्र को बीकानेर की सीट से दिल्ली के दरबार में दाखिल करा दिया- लेकिन जिस जनता के वोटों से जीतकर वे संसद की सपनीली पंचायत में पहुंचे, उसके प्रति वे अपना कोई फर्ज नहीं निभा सके। परिणाम ये हुआ कि उनके वोटरों को धर्मेंद्र के लापता होने का पोस्टर लगाना पड़ा। ये सच है कि आज के दौर में बहुत सारे राजनेता ऐसे हैं – जो अपनी जनप्रतिबद्धता को सही तरीके से निभा नहीं पा रहे हैं। उन पर पैसाखोरी और अंधाधुंध कमाई के साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। उनकी तुलना में अभिनेता-अभिनेत्रियों की एक सामाजिक छवि होती है। फिल्मी पर्दे पर वे जनता की लड़ाई करते हुए दिखते-दिखाते कम से कम औसत मतदाताओं में उनकी ये सामाजिक छवि विकसित होती है। यही वजह है कि आम लोग टूट कर उन्हें वोट देते हैं। लेकिन जब यही अभिनेता उसकी समस्याओं को दूर कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, उसे लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताता तो जनता उसके लापता होने का पोस्टर लगाने लगती है। फिर जो पार्टी उसे धूमधाम से संसद में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए टिकट देकर जिता कर लाई होती है – वही उससे किनारा करने लगती है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी उस जनता को होती है, जो बड़े अरमानों के साथ उस नेता को जिता कर संसद के गलियारे में भेजती है। पार्टी भले ही बाद में उसका टिकट काट दे – लेकिन नुकसान उस जनता को ही भुगतना पड़ता है, जिसने अपना कीमती वोट उस राजनेता बने अभिनेता को दिया होता है। उसका पांच साल बरबाद हो जाता है। डॉक्टर लोहिया कहते थे कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं कर सकतीं – लेकिन मजबूरी देखिए कि इस जिंदा कौम को पूरी सजगता के बावजूद पांच साल तक अपनी बदहाली दूर कराने , अपनी समस्याएं निबटवाने वाले राजनेताओं की खोज के लिए पांच साल तक इंतजार करना पड़ता है। ऐसे में ये कहा जाय कि सियासी स्वार्थ के लिए पार्टियां ऐसे अभिनेताओं को अपने साथ लेकर आती हैं, उन्हें जिताती भी हैं। लेकिन उनकी भूमिका राजनीति के ड्राइंग रूम में सजे गुलदस्ते से ज्यादा की नहीं होती। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि सियासी ड्राइंगरूम में इन अभिनेताओं को गुलदस्ते की तरह सजाने की जरूरत क्या है। क्या संसद के गलियारे में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए जनता के प्रति जवाबदेही को पांच साल तक स्थगित रखा जाना चाहिए। अभी तक तो जनता ये सवाल नहीं पूछ रही है। लेकिन देर-सवेर राजनीतिक पार्टियों से ये सवाल पूछे जाएंगे। तब शायद कोई मुन्नाभाई या विरार का छोकरा महज गुलदस्ता बनने राजनीति के आंगन में नहीं उतरेगा। लेकिन इससे वे पार्टियां भी अपनी सामाजिक भूमिका से बच नहीं सकतीं, जिनके हाथ इन गुलदस्तों को सजाने के लिए आगे बढ़ते रहे हैं। 2009/4/8 vinit utpal > हिन्दी फिल्मों के ज्यादातर अभिनेता राजनीति में हो जाते हैं गुम > http://www.vinitutpal.blogspot.com/ > *दक्षिण के स्टारों की बजती है धुन* > अभिनेता राजनेता तो बन जाते हैं लेकिन राजनीति में सक्रिय भागीदारी की कमी > उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े करती है। हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की तूती आम > जनता के बीच जमकर बोलती है लेकिन राजनीति की रपटीली राहों में वे खो जाते हैं। > अभी तक मुट्ठी भर अभिनेता ही ऐसे हुए हैं जिन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल > होने का मौका मिला है। वहीं, दक्षिण भाषाओँ की फिल्मों के अभिनेताओं की > लोकप्रियता और कामकाज का आलम यह है कि उन्होंने मुख्यमंत्री जैसे पद पर पहुँचने > के साथ-साथ वर्षों तक जनता के दिलों पर शासन भी किया है। > कुछ समय पहले संजय दत्त का राजनीति में उदय हुआ। समाजवादी पार्टी ने उन्हें > लखनऊ से उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया लेकिन वैधानिक आधार पर खड़े नहीं उतरने के > कारण उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा देने के बाद नफीसा अली को टिकट दिया गया है। > इससे पहले भी लखनऊ की सीट पर समाजवादी पार्टी ने मुजफ्फर अली को दो बार लोकसभा > का टिकट दिया लेकिन वह जीत नही पाए। राजबब्बर भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर > सांसद बने, हालाँकि बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। फ़िल्म अभिनेत्री जयाप्रदा > भी उत्तरप्रदेश के रामपुर सीट से सांसद बनी। > गौरतलब है कि नेहरू-गांधी परिवार से निकटता के कारण अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से > सांसद तो बने लेकिन जल्द ही राजनीति से उनका मोहभंग हो गया। आपातकाल के दौरान > देवानंद ने अपनी पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश किया लेकिन आखिरकार फिल्मी > दुनिया में वापस हो गए। हिन्दी फिल्मों की मायावी दुनिया से निकलकर वैजंतीमाला, > राजेश खन्ना, जया बच्चन, हेमामालिनी, धर्मेन्द्र, पूनम ढिल्लन और गोविंदा ने भी > संसद की राह देखी है। सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे अभिनेताओं > में शुमार रहे जिन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का मौका मिला। हालाँकि नरगिस दत्त > और शबाना आजमी को राज्यसभा का सदस्य बनने का मौका मिला। > हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं के विपरीत दक्षिण भारत की फिल्मों के अभिनेताओं > ने फिल्मों के साथ-साथ देश की राजनीति के इतिहास में जमकर जलवा बिखेरा है। > उनमें कई को अपने-अपने राज्य में सत्ता भी हासिल हुई है। एमजे रामचंद्रन ऐसे > पहले अभिनेता रहे जिन्हें पहली बार किसी राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी मिले। > वह ५० का दशक था। जयललिता का फिल्मी परदे से हटकर राजनीति में उदय हुआ और वे > तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। यही इतिहास करूणानिधि का भी है। दक्षिण फिल्मों > के एक अन्य अभिनेता एनटी रामाराव ने अपनी काबिलियत की बदौलत न सिर्फ़ > आँध्रप्रदेश की राजनीति बल्कि देश के राजनीति को भी प्रभावित किया। इसके अलावा, > रजनीकांत, चिरंजीवी, विजयकांत, राजकुमार आदि ने भी फिल्मी दुनिया से आकर > राजनीति में भी जलवे बिखेरे और उनकी लोकप्रियता अपार है। > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- उमेश चतुर्वेदी -- उमेश चतुर्वेदी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/cdf62108/attachment-0001.html From nisha.nigam1 at gmail.com Wed Apr 8 20:19:48 2009 From: nisha.nigam1 at gmail.com (nisha nigam) Date: Wed, 8 Apr 2009 20:19:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSX4KWAIOCkleClhyDgpLbgpYvgpKcg4KS44KWHLQ==?= Message-ID: <141845e70904080749y38d62f49h43dfebc22eed3b47@mail.gmail.com> गार्गी के शोध पत्र से जुड़े एक टुकड़े को जब मैंने दीवान पर डाला तो मुझे कई प्रतिक्रियाएं मिलीं। मैं एक-एक कर सबों को जवाब भेज चुकी हूं। इसके बाद मैं सोचती रही कि क्या करुं! चुप रहती हूं तो पिछला पोस्ट गलत माना जाएगा। इसलिए मैं सोचती हूं बात साक्ष्यों के आधार पर की जाए। देश में जितनी हिन्दी न्यूज एजेंसी काम कर रही है, वह अपने अंग्रेजी विंग पर निर्भर है। वह हिन्दी की सबसे बड़ी एजेंसी भाषा हो या कोई अन्य। यहां कुछ अगल और दूसरों से बेहतर करने की बात दोहराने वाले, दरअसल भ्रमजाल फैलाए हुए हैं। एजेंसी में हिन्दी की बेहतरीन कॉपी का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता हो, ऐसी जानकारी तमाम कोशिशों के बाद भी अब तक नहीं मिली है। लेकिन, अंग्रेजी की कचरा कॉपी भी हिन्दी में बनती है। इन कॉपियों का अनुवाद कर कुछ लोग विनीत जी की भाषा में तुर्रम खां बनते हैं। *अब गार्गी के शोध से-* डेढ़ साल पहले आईएएनएस (हिन्दी) बड़ी सादगी के साथ अस्तित्व में आया था। उस समय संस्थान से जुड़ी एक पत्रकार ने बताया- शुरू में संपादक समेत कुल 14 पत्रकारों की उत्साही टीम बनी थी। जल्द ही लखनऊ, बनारस, भोपाल और पटना में हिन्दी सर्विस के कुल छह संवाददाता रखे गए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि संस्थान की हिन्दी को एक मजबूत व स्वायत्त इकाई के रूप में खड़ा करने की योजना रही होगी। निश्चित रूप से यह एक हिम्मत की बात थी। उक्त पत्रकार के मुताबिक चार से पांच महिनों के भीतर हिन्दी में रोजाना 100 से अधिक स्टोरी भेजी जाती थी, जिसमें हिन्दी में तैयार होने वाली कॉपी कम से कम 20 प्रतिशत तक होता था। तब हिन्दी में तैयार होने वाली special स्टोरी की भी अच्छी संख्या होती थी। अब स्थिति बदली है। गत सात-आठ महिनों से आउट स्टेशन में तीन संवाददाता रह गए हैं। वैसे, स्टोरी की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। उन्होंने एक मजेदार बात यह बताई कि हिन्दी सर्विस को वर्ष 2008 के अंत तक 20 से 21 लोग छोड़ चुके हैं। हालांकि, इस पर वरिष्ठ लोगों की अलग-अलग राय है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090408/40f7526d/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Thu Apr 9 12:52:12 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 9 Apr 2009 12:52:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkqOCljOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleClgCDgpJXgpK7gpYDgpJzigJkg4KSq4KWd4KSk4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KSPLi4uICgxKQ==?= Message-ID: *विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ’नौकर की कमीज’ (1979) से कुछ अंश...* यदि मैं किसी काम से बाहर जाऊँ, जैसे पान खाने, तो यह घर से खास बाहर निकलना नहीं था. क्योंकि मुझे वापस लौटकर आना था. और इस बात की पूरी कोशिश करके कि काम पूरा हो, यानी पान खाकर. घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है. मेरी आवाज़ में बहुत कमज़ोरी थी. उदाहरण के लिए एक ऐसे बीमार आदमी की कमज़ोरी जिसे बिस्तर से सहारा देकर उठाया जाता है. कई दिनों से उसे भूख नहीं लगी. चटपटी सब्जी खाने की उसकी बहुत इच्छा होती है. पर सब्जी कोई बनाता नहीं. जो भी वह खाता है, उल्टी हो जाती है. पानी पीता है. कराहता रहता है. डाक्टर को पूरी उम्मीद है कि वह बच जाएगा. इसलिए घर के लोग खुश हैं. और जितनी तकलीफ़ बीमार को है, उतना दुख उन लोगों को नहीं है, ऐसा बीमार सोचता है. जब वह अपनी तकलीफ़ की बात करता है तो उसकी पत्नी उसकी तकलीफ़ को यह कहकर कम कर देती है कि डाक्टर ने कहा है उसे कुछ नहीं होगा. जब वह कहता है कि अब वह मर जायेगा, तब उसकी माँ उसका माथा सहलाती हुई कहती है कि घबराओ नहीं, डाक्टर ने कहा है सब ठीक हो जाएगा. उसे प्यास लगती है, तो पत्नी कटोरी में दूध लेकर आती है. मजबूरी में थोड़ा दूध पी लेता है. तभी उसे कै करने की इच्छा होती है. उससे मिलने के लिए उसके दफ़्तर के लोग आते हैं. कमज़ोरी में वह किसी से बात नहीं कर सकता. गले तक चादर ओढ़े वह पड़ा रहता है. उसके बदले उसकी माँ और पत्नी मिलनेवालों से बात करती हैं. लोगों के पूछने कि पहले की तबियत कैसी है, दोनों में से कोई कहेगा कि डाक्टर ने कहा कि सब ठीक हो जाएगा. गुस्से में वह पत्नी को गाली देना चाहता है. माँ से बात करना नहीं चाहता. पर कमज़ोरी के कारण वह शांत रहता है. मरता नहीं, थककर सो जाता है. हमेशा-हमेशा के लिए मैदान छोड़ने की मेरी इच्छा कभी नहीं हुई. मैं ज्यादा देर तक न तो घर से बाहर रह सकता था और न घर के अंदर. फिर भी मेरी मन:स्थिति ऐसी थी जिसमें मैं अनंत काल तक घर लौटना नहीं चाहता था. पर जब भी लौटूँ, पत्नी को उसी तरह भरी बाल्टी लिए हुए, माँ को चावल पछोरते हुए पाना चाहता था. यानी अनंतकाल के बाद भी हर चीज को बिलकुल अभी जैसी — जैसे इस घर को, गिरे हुए गिलास को, पर खपरों में लगे मकड़ी के जालों को नहीं. और उस मक्खी को भी नहीं जो मेरी पत्नी के पैर में बार-बार आकर बैठ रही थी. चाहता था कि अनंतकाल से लौटने के बाद दोनों खुश मिलें. पत्नी की आँख के नीचे जो काले धब्बे हैं, वे न हों. घर की लिपाई-पुताई हो जाए तो और भी अच्छा है. किसी दिन पच्चीसों बार ऐसा होता था कि बस दु:ख ही दु:ख है. उसी दिन या दूसरे दिन कुछ ऐसी बातें भी होती थीं जिससे दु:ख नहीं होता था. कभी-कभी बहुत खुशी की बात भी होती थी. दु:ख को घटाकर महसूस करने की ताकत मुझमें नहीं थी. मैं ऐसे नाप का गिलास बन गया था कि थोड़ी तकलीफ़ में भी दु:ख से भर जाता और ज्यादा तकलीफ़ में भी यही होता. ऐसी अकलमंदी नहीं थी कि एक लकीर को बिना मिटाए छोटी करने के लिए तरीका बड़ी लकीर खींचने का है. ऐसी अकलमंदी किस काम की कि हर आनेवाला दु:ख पहले से बड़ा होता चला जाए और बीते दु:ख का संतोष हो कि बड़ा नहीं था. जिंदगी के हर क्षण से पच्चीसों लाल चीटियाँ चिपकी रहती थीं, शायद पसीना इसका कारण हो. लेकिन उनको सहने की आदत पड़ गई थी. जिस क्षण से चींटी अलग होती वह क्षण भी चींटी के साथ-साथ मरकर नीचे गिर जाता. यदि एकबारगी कोई गर्दन काटने के लिए आए तो जान बचाने के लिए जी-जान से लड़ाई होती. इसलिए एकदम से गर्दन काटने कोई नहीं आता. पीढ़ियों से गर्दन धीरे-धीरे कटती है. इसलिए खास तकलीफ़ नहीं होती और गरीबी पैदाइशी रहती है. गर्दन को हिलगाए हुए सब लोग अपना काम जारी रखते हैं — यानी गर्दन कटवाने का काम. मेरा वेतन एक कटघरा था, जिसे तोड़ना मेरे बस में नहीं था. यह कटघरा मुझमें कमीज की तरह फ़िट था. और मैं अपनी पूरी ताकत से कमजोर होने की हद तक अपना वेतन पा रहा था. इस कटघरे में सुराख कर मैं सिनेमा देखता था, या स्वप्न. हफ़्ते-भर बाद ही मेरी फ़िल्म देखने की इच्छा हो जाती थी. फ़िल्में और लोगों की तरह मुझमें भी जीने का विश्वास बढ़ाती थीं. यह जीना यथास्थिति में जीने का था. रिक्शेवाले से एक करोड़पति की लड़की की शादी हो सकती थी तो रिक्शावाला इसी संतोष से रिक्शा चलाता रहेगा. अमीर लड़की से गरीब लड़के के प्रेम को देखकर गरीबों को कुछ वैसा ही सुख मिलता था जो अपनी चारपाई या जमीन पर सोने से ज्यादा, बढ़िया गद्देदार पलंग के नीचे झाडू लगाने में नौकर को मिलता होगा. खाना बनानेवाला नौकर ज्यादा खाना बनाएगा ताकि खाना बचे. परंतु विज्ञान से गरीबों को खास लाभ नहीं मिला था. मालकिन बचा हुआ खाना रेफ्रीजरेटर में रख देगी. नौकर को कभी-न-कभी कुछ जरूर मिलेगा क्योंकि रेफ्रीजरेटर में रखे-रखे बहुत दिनों का सामान खराब हो जाता है. ज्यादातर आदमी का स्वाद मिठाई के ढेर से थोड़ी मिठाई चुराकर चख लेने का स्वाद था. आदमी के विचार तेजी से बदल रहे थे. लेकिन उतनी ही तेजी से रद्दीपन इकट्ठा हो रहा था. रदीपन देर तक ताजा रहेगा. अच्छाई तुरंत सड़ जाती थी. देवांगन बाबू 5 फुट 2 इंच के थे. उनकी ड्रार में एक डायरी थी, उसमें ऊँचाई की जगह उन्होंने 5 फुट 2 इंच लिखा था. वजन में 58 किलो लिखा था. स्कूटर, कार के नंबर की जगह साइकिल का नंबर था. ड्राइविंग लाइसेंस नंबर की जगह उनके दो लड़कों का नाम था- मदनलाल देवांगन और सोहनलाल देवांगन. टेलीफोन नंबर की जगह वल्द रामचरन देवांगन, ग्राम डोंगरगाँव था. रेडियो लाइसेंस नंबर की जगह उन्होंने रेडियो लाइसेंस का नंबर ही लिखा था. सेफ डिपाजिट व्हाल्ट की जगह उन्होंने लिखा था– हरे रंग की पेटी. www.mihirpandya.com से -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090409/b0e02ead/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Thu Apr 9 12:56:21 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 9 Apr 2009 12:56:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkqOCljOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleClgCDgpJXgpK7gpYDgpJzigJkg4KSq4KWd4KSk4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWB4KSPLi4uICgyKQ==?= Message-ID: *विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ’नौकर की कमीज’ (1979) से कुछ अंश.* अपने बस में करने और अपना खरीदा गुलाम बनाने के तरीके बदल गए थे. सड़क के किनारे कोई आदमी थका हुआ सुस्ताने खड़ा रहेगा तो एक रौबदार आदमी आएगा और समझाते हुए कहेगा कि यह तुम्हारे खड़े होने लायक जगह नहीं है. वह सोचेगा जगह खड़े होने लायक क्यों नहीं है. रौबदार आदमी इशारा करके बतलाएगा कि वहाँ खड़े रहो जहाँ उसकी मोटरकार है. फिर बहुत आत्मीयता से कंधे पर हाथ रखकर उस जगह तक ले जाएगा. फिर कहेगा कि खड़े-खड़े मोटरकार ताकते रहो, वह अभी खरीदी करके आता है और आजकल पलक झपकते चोरी हो जाती है. मोटरकार कोई न ले जाए पर उस पर जमी धूल पर बदमाश लड़के उँगली से अश्लील गालियाँ लिख देते हैं. मालूम पड़ता नहीं. मोटर के साथ-साथ गंदी गालियाँ घर तक पहुँच जाती हैं जिस पर घर में लड़के, लड़की, नौकर, पत्नी सबकी नज़र पड़ती है. यह हरकत सभी मोटरकार के साथ होती है. फिर भी शंका तो होती है कि उसके साथ क्यों? कोई उससे ज़रूर चिढ़ा हुआ है जो सामने नहीं आना चाहता. छुपकर वार करने की फिराक में है. तब वह पूरी ईमानदारी से मानवता के आधार पर, जो उसे परंपरा से मिले थे, टकटकी बाँधे मोटरकार को ताकता रहेगा. यहाँ तक कि ताकते-ताकते थक जाएगा. तब उसे गृहस्थी के बहुत से ज़रूरी काम याद आएँगे. वह परेशान होकर चहल-कदमी करने लगेगा. चलकदमी करते-करते फिर थक जाएगा और सुस्ताते हुए मोटरकार ताकता रहेगा; आखिर में वह देखेगा कि मोटरकारवाला कब का मोटरकार लेकर चला गया. मोटरकार का नम्बर उसे याद नहीं रहेगा. पर मोटर के पीछे धूल में लिखी गालियाँ उसे याद रहेंगी. मिट्टी के तेल की उधारी पाकर मैं बहुत संतुष्ट था. सही माने में सभी संतुष्ट थे. भिखारी को भीख मिल जाती थी. बेईमानी के साथ-साथ धर्म के काम भी बढ़ते थे. क्योंकि बेईमानी की कमाई से धर्म-पुण्य का काम होता था. घर का खर्च कम नहीं होता था. फालतू खर्च क्या है, जिसमें कटौती की जाए, यह बहुत दिनों तक समझ में नहीं आया. बाद में भिखमंगे को रोटी देना एक फालतू खर्च समझ में आया. तब यह रोटी घर में उपयोग होने लगी. -खर्च पूरा न बैठने के कारण दया और उदारता कम हो जाती है, यह बात समझ में जल्दी आती थी. उदारता और दया का सीधा-सीधा संबंध रुपए से है. सिर पर हाथ फिरा देना न तो उदारता होती है, न दया. बस सिर पर हाथ फिराना होता है. बड़े-बड़े बँगलों के सामने रास्ता चलती गायों के पानी पीने के लिए एक-एक टाँका बना था. गर्मियों मे सेठ मारवाड़ियों के लड़के प्याऊ खोलकर बैठ जाते थे. रेलवे स्टेशन में यात्रियों को ठंडा पानी पिलाने के लिए रेलगाड़ी के समय लड़के मोटरकार में बैठकर आते. यात्रियों को पानी पिलाकर पसीना पोंछते हुए घर लौट जाते थे. दोनों हाथ हिलाते चलते थे, एक हाथ से बईमानी और दूसरे हाथ से धर्म, सामाजिक और राजनैतिक कार्य इत्यादि. गरीब एक स्तर के होते हुए भी एक जैसे इकट्ठे नहीं होते जैसे पचास आदमी को काटकर पचास आदमी बना देना. यदि पचास हैं तो इसका मतलब सिर्फ़ पचास, एक और फिर गिनती गिनो इक्यावन. “मैं अपनी कमीज नौकर को कभी देना नहीं चाहूँगा. जो मैं पहनता हूँ उसे नौकर पहने, यह मुझे पसन्द नहीं है. मैं घर का बचा-कुचा खाना भी नौकरों को देने का हिमायती नहीं हूँ. जो स्वाद हमें मालूम है, उनको कभी नहीं मालूम होना चाहिए. अगर यह हुआ तो उनमें असंतोष फैलेगा. बाद में हम लोगों की तकलीफ़ें बढ़ जाएँगी. खाना उनको वैसा ही दो, जैसा वे खाते हैं. जैसा हम खाते हैं, वैसा बचा हुआ भी मत दो. ये पेट भरते हैं, चाहे आधा या चौथाई. स्वाद से इनको कोई मतलब नहीं. सड़क के किनारे चाट खाने वाले, चाट खाकर जो फैंकते हैं, यह मुझे गुस्सा दिलाता है. इसी के कारण आवारा गरीब लड़के पत्ते चाटकर जादुई स्वाद का पता लगा लेते हैं, जिससे चोरी, गुंडागर्दी और हक माँगनेवाली झंझटें बढ़ी हैं. स्वाद हम लोगों को संतोष नहीं दे सका तो इनको क्या देगा? अगर ये स्वाद के चक्कर में पड़ गए तो अपनी जान बचानी मुश्किल होगी.” मैं अधिक देर तक नौकर की कमीज पहने हुए नहीं रह सकता था. इससे छुटकारा पाना चाहता था. कमीज से मुझे पेन्ट की गंध आ रही थी. साहब के बंगले की खिड़की-दरवाजों में अभी हाल में पेन्ट किया गया था. मैंने अपने हाथों को सूँघकर देखा, उससे भी नए पेन्ट की गंध आ रही थी. क्या मुझे भी पेन्ट किया गया है? बड़े बाबू के दो लड़के और तीन लड़कियाँ थीं. एक लड़का साल भर हो गया, घर से भाग गया था. पत्नी तीन-चार साल से नहीं थी. उन्हें अपने लड़के के मिलने की उम्मीद रोज़ रहती थी. जब वह भीड़ में होते तो यह उम्मीद बढ़ जाती थी. इसलिए यदि सब्जी खरीदने गए तो खरीदते-खरीदते भीड़ में नज़र से अपने लड़के को ढूँढते. जब पिक्चर देखने जाते तो खेल खत्म होने के बाद एक तरफ़ खड़े होकर भीड़ की तरफ़ देखते रहते. सड़क पर जहाँ दस-पन्द्रह आदमी दिखाई देते तो वहाँ लड़के को ढूँढने का मन होता और एक ढूँढ़ती नज़र डालकर आगे बढ़ जाते. आते-जाते लोगों पर भी उनकी निगाह ढूँढ़ लेने की होती. किसी परिचित को भी देखेंगे, जैसे वे एकदम से मुझे संतू बाबू नहीं देखेंगे, पहले देखेंगे कि मैं उनका लड़का नहीं हूँ, फिर मुझे संतू बाबू देखेंगे. छुट्टी मुझे एक ऐसी फुर्सत लगती है जिसमें एक आदमी अपना ही तमाशा देखता है. कितना सुख था ! *‘नौकर की कमीज’, लेखक- विनोद कुमार शुक्ल दूसरी आवृत्ति 2006, राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002* *************** ** *www.mihirpandya.com से. * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090409/39a2deb7/attachment-0001.html From vinitutpal at gmail.com Thu Apr 9 13:02:00 2009 From: vinitutpal at gmail.com (vinit utpal) Date: Thu, 9 Apr 2009 13:02:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KS+IOCkleCljOCkriDgpKrgpYngpIHgpJog4KSo4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkrOCksuCljeCkleCkvyDgpKrgpJrgpL7gpLgg4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSk4KSVIOCkleCkv+Ckr+CkviDgpIfgpILgpKTgpJzgpL7gpLA=?= Message-ID: <190a2d470904090032y42a437e8p1c1486d6339aa2d2@mail.gmail.com> जिन्दा कौम पॉँच नहीं बल्कि पचास साल तक किया इंतजार http://vinitutpal.blogspot.com/2009/04/blog-post_08.html राममनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि जिन्दा कौम पॉँच साल इंतजार नहीं करती, लेकिन देश के दो नेता ऐसे रहे जिन्होंने न सिर्फ़ पॉँच साल बल्कि पचास साल तक लोगों के दिलों पर राज किया। ये वे नेता थे जो दूसरे लोकसभा में भी चुनकर आए थे और चौदहवीं लोकसभा में भी। यही कारण रहा कि इन्होंने अपने समय के सभी प्रधानमंत्रियों के कामकाज के अलावा देश की राजनीतिक हलचलों को काफी बारीक से देखा। ये हैं भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी और दूसरे हैं महाराजा मानवेन्द्र शाह । इन नेताओं को जब लगा कि प्रधानमंत्री का कामकाज बेहतर है तो बड़ाई की और जब लगा कि कुछ ग़लत हो रहा है तो खुलकर निंदा। विपक्ष में रहने के बावजूद भारत-पाक युद्ध के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी का इंदिरा गांधी को दुर्गा कहना लोग भूले नहीं हैं। वाजपेयी ने १९५७ के आम चुनाव में बलरामपुर से चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनसे काफी प्रभावित थे। दिलचस्प बात है की नेहरू की भविष्यवाणी के अनुरूप वह देश के तेरहवें और सोलहवें प्रधानमंत्री बने। वाजपेयी ने जहाँ दस बार जनता का प्रतिनिधित्व किया वहीं मानवेन्द्र शाह आठ बार। वाजपेयीजी के आलावा दस बार सांसद बनने का रिकार्ड सोमनाथ चटर्जी के नाम है। इस बार स्वास्थ्य को देखते हुए वह लखनऊ से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, जबकि मानवेन्द्र शाह का निधन २००७ में हो गया। वाजपेयीजी को जहाँ तीसरी, आठवीं और नवीं लोकसभा के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, वहीं मानवेन्द्र शाह को पांचवीं से लेकर नवीं तक लगातार लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। शुरुआत में वे कांग्रेस के सदस्य थे, लेकिन बाद में वे जनसंघ और भाजपा के सदस्य बन गए। वे १९८० से १९८३ तक आयरलैंड में भारतीय राजदूत भी रहे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090409/3e2be7c2/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Apr 10 01:32:13 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 10 Apr 2009 01:32:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KSk4KWB4KSu?= =?utf-8?b?IOCkqCDgpJzgpL7gpKjgpYcg4KSV4KS/4KS4IOCknOCkueCkvuCkgiA=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkluCliyDgpJfgpI/igJk=?= Message-ID: <6a32f8f0904091302j5acb437fv550f953ce38c32ea@mail.gmail.com> *‘**तुम न जाने किस जहां में खो गए**’* *कश्मीर की कली *और *अमर प्रेम* जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले शक्ति सामंत अब इस दुनिया में नहीं रहे। वे 83 वर्ष के थे। शक्ति सामंत का नाम उन चंद फिल्म निर्देशकों में गिना जा सकता है, जिन्होंने बॉलीवुड को दिशा प्रदान की। उन्होंने साथ ही साठ और सत्तर के दशक में कुछ ऐसी फिल्में बनाई, जो आने वाले समय में भी मिशाल पेश करेंगी। हालांकि, यहां से जाना तो सभी को है। किन्तु, फिलहाल उनका जाना एक सपना का टूटने जैसा है। अब कौन है, जो कश्मीर की खिलखिलाती वादियों की सैर कराएगा? शर्मिला टैगोर जैसी बेहतरीन अदाकारा से दर्शकों को रू-ब-रू कराएगा। उन्होंने हावड़ा ब्रिज, एन इवनिंग इन पेरिस, अराधना' जैसी कई प्रसिद्ध फिल्मों का निर्देशन किया था। यकीनन, ये फिल्में हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेंगी। सामंत पर कुछ खास जल्द ही। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090410/8aaba294/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Apr 10 01:40:35 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 10 Apr 2009 01:40:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KS+4KSg?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuClgCDgpJfgpLLgpYAg4KSV4KS+IOCkruCknA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCksuClgOCknOCkv+Ckjw==?= Message-ID: <6a32f8f0904091310u6ead79cfn57f3cceb5aa4a9ba@mail.gmail.com> दिल्ली का मुगलकालीन बाजार, यानी चांदनी चौक। यह इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है। यहां की पराठे-वाली गली के क्या कहने हैं ! भई, जो भी गली में आया, इसका मुरीद बनकर रह गया। सन् 1646 में मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली लेकर आए थे। तब चांदनी चौक आबाद हुआ था। स्थानीय लोगों के मुताबिक पराठे-वाली गली के नाम से मशहूर इस गली का वजूद भी उसी समय आ गया था। लेकिन, उन दिनों भी यह गली पराठे-वाली गली के नाम से पहचानी जाती थी, इसका कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है। खैर! इस गली के दूसरे मोड़ पर करीब 140 वर्ष पुरानी पीटी गयाप्रसाद शिवचरण नाम की दुकान है। दुकान पर बैठे मनीष शर्मा बताते हैं, हमारे पुरखे आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन 1872 में इस दुकान को खोला था। बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि उनकी दुकान में पराठा बनाने वाले भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम कर रहे हैं। इनके पुरखे भी मनीष के पुरखे के साथ काम किया करते थे। इनका वर्षों का नाता है। इसके बगल वाले परांठे की दुकान 1876-77 की है। दुकान से बाहर परांठे का स्वाद लेने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही विद्या ने बताया कि उन्हें जब भी चांदनी चौक आने का मौका मिलता है तो पराठे-वाली गली जरूर आती हैं। भीड़-भाड़ वाली इस गली में बहुत मुमकिन है कि आप बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी तय कर सकें। इसके बावजूद यहां आने वाले लोगों से पराठे-वाली गली के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे, वो अब भी बने हुए हैं। मनीष बताते हैं कई ऐसे लोग हैं जो पहले अपने पिताजी के साथ यहां पराठा खाने आते थे। अब अपने बच्चों को लेकर पराठा खाने आते हैं। आज नए उग आए बाजारों में खुले बड़े-बड़े रेस्तरां के मुकाबले चांदनी चौक की पराठे-वाली गली का मान है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह गली खांटी देशीपन का आभास कराती है। साथ ही देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों का लुत्फ उठाने का भरपूर अवसर देती है। शायद इसलिए लोग समय निकालकर यहां आते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090410/b0265dd6/attachment-0001.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Apr 10 01:43:04 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 10 Apr 2009 01:43:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSw4KS+4KSg?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuClgCDgpJfgpLLgpYAg4KSV4KS+IOCkruCknA==?= =?utf-8?b?4KS+IOCksuClgOCknOCkv+Ckjw==?= Message-ID: <6a32f8f0904091313m3f7e9401vb13c1aa462dcdd3f@mail.gmail.com> दिल्ली का मुगलकालीन बाजार, यानी चांदनी चौक। यह इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है। यहां की पराठे-वाली गली के क्या कहने हैं ! भई, जो भी गली में आया, इसका मुरीद बनकर रह गया। सन् 1646 में मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली लेकर आए थे। तब चांदनी चौक आबाद हुआ था। स्थानीय लोगों के मुताबिक पराठे-वाली गली के नाम से मशहूर इस गली का वजूद भी उसी समय आ गया था। लेकिन, उन दिनों भी यह गली पराठे-वाली गली के नाम से पहचानी जाती थी, इसका कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है। खैर! इस गली के दूसरे मोड़ पर करीब 140 वर्ष पुरानी पीटी गयाप्रसाद शिवचरण नाम की दुकान है। दुकान पर बैठे मनीष शर्मा बताते हैं, हमारे पुरखे आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन 1872 में इस दुकान को खोला था। बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि उनकी दुकान में पराठा बनाने वाले भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम कर रहे हैं। इनके पुरखे भी मनीष के पुरखे के साथ काम किया करते थे। इनका वर्षों का नाता है। इसके बगल वाले परांठे की दुकान 1876-77 की है। दुकान से बाहर परांठे का स्वाद लेने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही विद्या ने बताया कि उन्हें जब भी चांदनी चौक आने का मौका मिलता है तो पराठे-वाली गली जरूर आती हैं। भीड़-भाड़ वाली इस गली में बहुत मुमकिन है कि आप बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी तय कर सकें। इसके बावजूद यहां आने वाले लोगों से पराठे-वाली गली के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे, वो अब भी बने हुए हैं। मनीष बताते हैं कई ऐसे लोग हैं जो पहले अपने पिताजी के साथ यहां पराठा खाने आते थे। अब अपने बच्चों को लेकर पराठा खाने आते हैं। आज नए उग आए बाजारों में खुले बड़े-बड़े रेस्तरां के मुकाबले चांदनी चौक की पराठे-वाली गली का मान है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह गली खांटी देशीपन का आभास कराती है। साथ ही देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों का लुत्फ उठाने का भरपूर अवसर देती है। शायद इसलिए लोग समय निकालकर यहां आते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090410/bd89c6fd/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 11 09:52:31 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 11 Apr 2009 09:52:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS44KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkrizgpKbgpYHgpLLgpLDgpYHgpIYg4KSo4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSo4KS+4KSuIOCkqOCkvuCkriDgpK7gpYfgpIIg4KSV4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KS+IOCksOCkluCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <829019b0904102122t545776d9wbcdb7e7737ab2df6@mail.gmail.com> फोन पर वो लगभग गुस्से में थे। गुस्सा शब्द इस्तेमाल करने से वो भाव पैदा नहीं हो रहा जो भाव मैं उनसे बात करते हुए महसूस कर रहा था। इसके लिए अपनी तरफ शब्द इस्तेमाल करते हैं,बमके हुए थे, कबड़ गए थे या फिर बमककर फायर हो गए थे...जो भी हो,कथादेश,अप्रैल 09 में गिरि यानी उऩके बारे में कुछा लिखा गया है, लोगों द्वारा फोन पर ये बताए जाने के बाद वो ऐसे ही कुछ हो गए थे। फोन पर तो हमें कुछ बोलते बना ही नहीं कि क्या कहा जाए,बाहर थे सो इतना ही कहा-आप ध्यान से पढ़िए,ऐसा कुछ नहीं लिखा है आपके बारे में और वो तो आपके लिए है भी नहीं,वो तो गिरीन्द्र के बारे में लिखा है जो उनसे फेसबुक पर बात हुई थी। कथादेश में जैसे ही मैंने सिर्फ गिरि दिखा तो खटका लगा था कि हो न हो कोई झनेला हो जाए, अपनापे में लिखी गयी पोस्ट निगेटिव पब्लिसिटी न कर जाए। अब मेरे दिमाग में एक ही सवाल बार-बार आ रहा था कि किसी को प्यार से पुकारने में भी झमेला हो सकता है? किसी को प्यार से पुकारने में भी कन्फ्यूजन हो सकता है। खैर,रात में दोबारा फोन करके डीटेल में सबकुछ बताया और साथ में कहा भी कि आप मेरे से बड़े हैं,आप हमें भइया क्यों कहेंगे,तब जाकर मामला नार्मल हुआ। गिरीन्द्र को मैं प्यार से गिरि कहता हूं,वो मुझे भइया कहता है। ये भइया संबोधन,लड़कियों के उच्चारण भय्या से बिल्कुल अलग होता है। पहले मुझे लगा कि संस्कारवश मुझे ऐसा कहता है इसलिए मैंने टोका भी लेकिन बाद में देखा कि ये संस्कार से ज्यादा लगाव का मामला है तो मैंने कुछ नहीं कहा। वैसे भी पच्चीस साल तक लोगों को भइया-भइया बोलते मेरी जीभ घिस गयी,बदले में दोनों कानों को सिर्फ नसीहतें,आदेश और फटकार ही नसीब हुए तो अब गिरि से भइया सुनने से कानों को राहत मिलती है,सो मैं कुछ कहता नहीं। आपका किसी से लगाव होता है तो अमूमन पहला काम करते हैं कि उसके नाम को कुछ अपने अंदाज में बदल देते हैं या कोई नया नाम देते हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मामले में सिनेमा के जरिए आप सैंकड़ों उदाहरण जुटा सकते हैं। जिस लड़की के मां-बाप ने कुछ और नाम रखे हैं, उसका लड़का दोस्त कुछ अलग नाम से बुलाता है। कई बार तो सेंटी सीन इसी आधार पर बनते हैं कि वो हमें स्वीटी नाम से बुलाता रहा,लेकिन अब...। गांवों में जिस स्त्री का पति पहले मर जाता है तो वो चूड़ी फोड़ते हुए चिल्लाती है- राजा रे राजा, अब हमरा मलकिनी के कहतै रे राजा,छः साल के बेटे को अपनी ओर खींचती है,फिर...राजा रे राजा,अब ऐकरा(इसको)धन्नू(असली नाम धीरज) के कहतै रे राजा। अपने भावों को, प्यार-लाड़,दुलार को जाहिर करने के लिए नाम का बदलना या अपने हिसाब से कोई नया नाम देना आम बात है। कई बार इसी से मूड़ का पता चलता है,महौल औऱ हालात का पता चलता है। कई बार लड़की जब सर्टिफिकेट के नाम से बुलाती है,तब समझ जाइए कि पास में उसका बाप-भाई मौजूद है या फिर वो ऐसी जगह पर है जहां उसकी नोटिस ली जा रही है। मूड़ खराब होने की स्थिति में अपनी ओर से दिया गया नाम लेना आसान नहीं होता,गुस्से को जाहिर करने का संकेत ही होता है कि उसे सर्टिफिकेट के नाम से बुलाया जाए और सुनकर अटपटा लगे। बचपन में हमारे कई नाम होते हैं,यानी हमारे कई पर्यायवाची शब्द होते हैं,एक ही बच्चे के आधे दर्जन नाम। उसकी हर अदा को लेकर एक नाम,उसके हर ऐब को लेकर एक नाम। दोस्तों की ओर से दिए गए नाम,मां,बाप,पड़ोस,मौसी,चाची औऱ बुआ-फुआ की ओर से दिए गए नाम। इसलिए नाम की कई श्रेणियां बनतीं। पुकरुआ नाम यानी जिस नाम से पुकारा जाता हो,दुलरुआ नाम जिसे कि आमतौर पर मां-बाप रखते हैं,घऱेलू नाम जिसे कि आसपास के लोग जानते-पुकारते हैं। असली नाम जो कि स्कूल में दर्ज होता है। नाम रखने की एक और कोटि होती। गांव-घर में कईयों के यहां बच्चा पैदा होते ही या कुछ दिन के बाद मर जाता,बहुत दिनों तक बच्चा होता ही नहीं,मन्नतें मांगनी पड़ती जिसको मांगल-चांगल बच्चा कहते। ऐसी स्थिति में उसके नाम प्रेम और भावुकता के आधार पर नहीं सुरक्षा के लिहाज से रखे जाते,एकदम हेय समझे जानेवाले नाम जैसे फेकुआ(फेका हुआ),नेटवा(नाक की गंदगी),अघोरी(जो हमेशा गंदा,श्मशान में रहता है)। ऐसे नाम रखने के पीछे की समझ होती कि इससे भगवान को भी घृणा हो या फिर उसे लगे कि ये बच्चा मां-बाप के लिए मामूली है और मारने के लिहाज से नजरअंदाज कर जाए। कुछ लोगों के नाम अपभ्रंश करके बुलाए जाने लग जाते हैं जिसे लोग अपने नसीब का नाम मान लेते हैं। अब दिल्ली दूर नहीं फिल्म में घसीटाराम(नसीब के घिस जाने पर)अपने नाम का तर्क इसी आधार पर बताता है। इसलिए आप देखते होंगे कि बचपन में आपसे पूछा जाता होगा-आपका क्या नाम है और आप जबाब देते होंगे-रिंकू,चिंटू,मन्नू,मुन्नी,सुल्ली,बेबी या फिर फेकू तो आपसे दुबारा पूछा जाता होगा- ये तो घर का नाम है,असली नाम क्या है। असली नाम माने स्कूल का नाम। तब आप मेहनत-मशक्कत करके बताते होंगे-धीरज,राजेश,सुभाष,माधुरी,रजनी,अर्चना आदि-आदि। मतलब ये कि घर के नामों में भावुकता या अपनापा झलकने पर भी इसे असली नाम नहीं माना जाता क्योंकि जीवन भावुकता से नहीं,व्यावहारिकता से चलती है, इसलिए इसके लिए असली नाम चाहिए होते हैं,यानी स्कूली नाम। जब हम बड़े होते हैं तो एक अदब आने लग जाती है,इगो सेंस पैदा होता है, हम चाहते हैं कि लोग हमें अपने असली नाम से पुकारे,अकेले में गर्लफ्रैंड जानू,तानी पार्टनर कह ले लेकिन समाज में असली नाम ले,मां-बाप भी ऐसा ही करे। इसलिए कई बार बड़े हुए बच्चे पिंकू,झुनकी कहने पर तुनक जाते हैं- मां अब हम बड़े हो गए हैं, सबके सामने आप ये नाम बोलती हैं, अच्छा नहीं लगता। पड़ोस की लड़की के घर का नाम स्कूल में दोस्तों को बता दो तो वो शर्म से पानी-पानी हो जाती है। मेरी एक लड़की दोस्त ने मजाक में कहा करती है आगे से जहां तुम हमको टिनिया बोले तो चार जूता मारुंगी.ये अलग बात है कि शहर में उसका ये नाम उसे अपनापा-सा लगता है। बड़े होकर हम चाहते है कि कोई हमारा दुलरुआ नाम न ले,पुकारु नाम न ले,घरेलू नाम न ले, इससे हमारे बड़े होने का एहसास खत्म होता है,हमारा कद छोटा होता है, हमारे बैग्ग्राउंड का पता चल जाता है, जिसे कि हम धो-पोछकर खत्म कर देना चाहते हैं। लेकिन यहां का तो झमेला ही अलग है- एक ही नाम लिया गिरि जिसके लिए ये दुलरुआ नाम है, वो इतरा रहा है,खुश हो रहा है और दूसरा जिसका कि असली नाम है,बबमकर फायर है। अब किसी को है हिम्मत कि कहे-भइया नाम में क्या रखा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090411/855ad5e3/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Sat Apr 11 10:56:21 2009 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sat, 11 Apr 2009 10:56:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSj4KWB?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CksOClhyA6IOCkkCDgpJzgpYHgpLLgpL7gpLngpYcg4KSG?= =?utf-8?b?IOCksOCkueClgCDgpLngpYgg4KSk4KWH4KSw4KWAIOCkr+CkvuCkpg==?= Message-ID: <63309c960904102226n2d11ef75w549a412192e7735f@mail.gmail.com> फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में केंद्र स्थान से कथाओं की अनेक धाराएं एक दूसरे से काटती हुई एक समुच्चय उपस्थित करती है। आम कथा चक्रों की तरह ये पूरी नहीं होती और शिल्प स्तर पर इनमें सटीक रैखिक प्रवाह होता है। वे कथादेश रचते हैं और हमे मोह लेते हैं। रेणु ने दुनिया से जब विदा लिया, तब मेरा जन्म नहीं हुआ था। वे तो मेरे जन्म से छह वर्ष पूर्व ही 11 अप्रैल 77 की रात नौ बजे अनंत की ओर कूच कर चुके थे। पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में दम तोड़ा। आज उनकी पुण्यतिथि है। उनके बारे में बातचीत शुरू करने से पहले धर्मयुग में 1 नवंबर 1964 में प्रकाशित *पांडुलेख *में रेणु की ही कलम को यहां रखना चाहूंगा। वे अपने बारे में कहते हैं- *“अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा-जी.बी.एस.(जार्ज बनार्ड शॉ) की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर। और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं..कोई भी लिख भी नहीं सकता।”* ये है रेणु की आत्मस्वीकृति, शायद इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। उनकी पुण्यतिथि पर एकांकी के दृश्य की चर्चा करना चाहूंगा। उनकी तरह महान कथाशिल्पी का पत्रकार होना, अपने आप में रोचक प्रसंग है, जिसे एकांकी के दृश्य को पढ़कर महसूस किया जा सकता है। उनके रिपोर्ताज आज भी प्रसांगिक हैं। वे खुद लिखते हैं- *“गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ (शल्य चिकित्सा) विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज..।“(धर्मयुग-8 नवंबर 1964) * रेणु का पहला रिपोर्ताज *डायन कोसी* 1947 में प्रकाशित हुआ। पूर्णिया के शरणार्थी कैंप पर लिखित एकटु आस्ते-आस्ते रिपोर्ताज पर तो सोशलिस्ट पार्टी में विवाद खड़ा हो गया था। रेणु के जिस रिपोर्ताज से मुझे सबसे अधिक लगाव है, वह है – *बिदापत-नाच। * इसमें रेणु लिखते हैं- *“तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी हेठी समझते हैं, लेकिन मुसहर, धांगड़, दुसाध के यहां विवाह, मुंडन तथा अन्य अवसरों पर इसकी धूम मची रहती है।“* फिर रेणु कहते हैं- “*आईए, आज आप भी मेरे साथ थोड़ी देर के लिए भद्रता का चोला उतार फेंकिए। वहां मुसहर टोली में जो भीड़ जमा है, वहीं आज बिदापत नाच होने जा रहा है।“ * आप जब इसे पढ़ते हैं तो पाठक नहीं दर्शक बन जाते हैं, और यहीं रेणु आपका दिल जीत लेते हैं। रेणु के निधन पर *निर्मल वर्मा* ने लिखा- *“कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं, ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखायी देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पी़ड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है। रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे। पता नहीं जमीन की कौन सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था- यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका।” (परिषद पत्रिका, रेणु विशेषांक) * रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। बाकी उनका लिखा जो मिलता सो पढ़ता गया। रेणु को करीब से देखने वाले एक व्यक्ति ने उनके बारे में इक बार बताया था कि उनका रचनाक्रम उनके जीवन-कर्म की तीव्रता के बीच ही अधिक हुआ था। जब-जब वे संघर्षों के बीच जूझते रहे, रचनात्मक ऊर्जा उस दरम्यान ज्यादा हासिल की। साथ ही और भी श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया। निश्चिन्तता और सुख-सुविधा की स्थिती में उन्होंने छोटी-छोटी फुटकल रचनाएं की। उस शख्स ने एक और बात बताई। वो यह कि रेणु को कुत्ते पालने का बेहद शौक था। अलग-अलग नस्ल के कुत्तों और उनके गुणों की उन्हें बारीक पहचान थी। उनके पास एक झबरीला कुत्ता हुआ करता था। वे कहते थे कि* कुत्तों की छठी इंद्रीय अधिक जाग्रत होती हैं, यही सजग लेखकों में पायी जाने वाली संवेदनशीलता है।* रेणु खुलकर बोलने और लिखने वाले थे, उनके कथा-पात्रों से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इसका प्रमाण मैला-आंचल की भूमिका है। इसमें वे लिखते हैं- *इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य के दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूं। * रेणु की खासियत उनका रचना संसार था। वे अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं- *“इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से) * रेणु को चाहने वालों में साहित्यिक बिरादरी के अलावा आम लोग भी हैं, जिन्हें रेणु के शब्दों से खास लगाव हैं। वे रेणु को प्यार करते हैं। वे आम पाठकों के रूह को छूने वाले कथाकार थे। कोलकाता का एक अभिभूत कर देने वाला प्रकरण है। तब रेणु की पहुंच फिल्म तीसरी कसम से दूर-दूर तक फैल चुकी थी। रेणु कुछ फिल्मी दुनिया के साथियों के साथ देर रात धर्मतल्ला (कोलकाता) के इलाके में अंग्रेजी शराब के संधान में लगे हुए थे। उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था। रेणु ने जाकर उससे मनुहार की कि उन्हें शराब दे दी जाए। दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी। रेणु ने निराश होकर अपने साथियों को और दुकानदार को देखा। उनके मुंह से बरबरस निकल पड़ा*- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो....।* दुकानदार ने चौंक कर रेणु को देखा। लंबे-लंबे घुंघराले बाल। संभवत उसने रेणु की कहीं तस्वीर देखी होगी। उसने पूछा अरे आप रेणु हैं। रेणु चौंके और कहा- हां। दुकानदार अपनी खुशी छुपा न सका। उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- *तीसरी कसम के नायक हीरामन के जुबान पर सादगी भरे लहजे में लजालू अभिव्यक्ति सूचक इस्स्स चढ़ाने की सूझी कैसे आपको। रेणु किंकर्त्तव्यविमूढ़ , क्या जवाब देते..बस हंसते रहे........। *ये थी रेणु की पहुंच। वे साहित्य के जरिए चोट मारने में भी माहिर थे। उनकी एक कविता है- मंगरू मियां के *नए जोगीड़े (वर्ष 1950*)। इसमें वे राजनीतिक दलों पर चोट मारते कहते हैं- *कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ, परम पूज्य का ले परवाना खुलकर मौज उड़ाओ जोगीजी सर-र-र.. खादी पहनो, चांदी काटो, रहे हाथ में झोली दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली जोगीजी सर-र-र.. *अपनी इन्हीं कृतियों के कारण रेणु आज भी जीवंत हैं। यदि आप कोसी के इलाकों में गए हैं तो वहां महसूस करेंगे उनके क्रेज को। उनके साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी के साथ, मैं उन्हें सलाम करना चाहूंगा- *“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।“(मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320) * गिरीन्द्र -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090411/9c1a0483/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Apr 11 14:03:32 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Sat, 11 Apr 2009 14:03:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpOClgeCkruCljeCkueClh+CkgiDgpK7gpYHgpLjgpLLgpK7gpL4=?= =?utf-8?b?4KSo4KWL4KSCIOCkleClhyDgpKzgpYDgpJog4KSu4KWH4KSCIOCknA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSk4KWHIOCkueClgeCkjyDgpKHgpLAg4KSo4KS54KWA4KSCPz8/?= Message-ID: <196167b80904110133t17f90fcby3692581d7ad47892@mail.gmail.com> *क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं* ** कल संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर एक साथी के साथ जाना हुआ. साथी ने अन्दर जाते हुए एक सवाल पूछा- 'क्या तुम्हें मुसलमानों के बीच में जाते हुए डर नहीं लगता?' अजीब तरह का सवाल था, उनसे इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी. मैं देर तक हंसता रहा. उन्हें शायद अपने अजीब तरह के सवाल का इल्म हो गया था. 'नहीं आशीष, पूरी दुनिया में इस समय इस तरह का माहौल बन गया है कि सारे गलत कामों में मुसलमान शामिल हैं. मैं सिर्फ तुम्हारी राय जानना चाहता हूँ.' सवाल का जवाब इतना आसान नहीं था. मेरा जवाब 'मैं इस तरह की राय नहीं रखता.' बिल्कुल इस सवाल के साथ न्याय नहीं था. साथी के सवाल पर आपकी क्या राय है, जरूर बताएं. http://ashishanshu.blogspot.com/2009/04/blog-post_10.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090411/c3bb6dee/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Sun Apr 12 17:36:43 2009 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 12 Apr 2009 17:36:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KWe4KS/4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSVIOCkleClhyDgpLbgpLngpLAg4KSu4KWH4KSCIOCkuOCkv+CkqA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSu4KS+IOCkleCkviDgpK7gpYfgpLLgpL4gOiDgpJfgpYvgpLA=?= =?utf-8?b?4KSW4KSq4KWB4KSwIOClnuCkv+CksuCljeCkriDgpIngpKTgpY3gpLg=?= =?utf-8?b?4KS1?= Message-ID: *www.mihirpandya.com* “हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश, हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं.” -*फ़िराक़ गोरखपुरी*. *गोरखपुर फ़िल्म महोत्सव* इस बरस अपने चौथे साल में प्रवेश कर रहा था. *’प्रतिरोध का सिनेमा’* की थीम लेकर शुरु हुआ यह सिनेमा का मेला अब सिर्फ़ सार्थक सिनेमा के प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि प्रकाशन से लेकर फ़िल्मों के वितरण तक इसके दायरे तेज़ी से फ़ैल रहे हैं. *गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी* द्वारा पहले प्रकाशन के रूप में विश्व सिनेमा के दस महानतम फ़िल्मकारों पर केन्द्रित ’*पहली किताब*’ का प्रकाशन इस उत्सव की उल्लेखनीय घटना थी. इस किताब में *अब्बास किआरुस्तमी, अकीरा कुरोसावा, इल्माज़ गुने, इंगमार बर्गमैन, बिमल राय, चार्ली चैप्लिन* और *दि सिका* जैसे फ़िल्मकारों पर महत्वपूर्ण लेख संकलित हैं. गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी अब वृत्तचित्रों के वितरण का काम भी कर रही है और स्मारिका के अनुसार पन्द्रह से ज़्यादा फ़िल्मों के वितरण के अधिकार अब इसके पास हैं. इनमें *संजय काक* की ’*जश्न-ए-आज़ादी*’ और ’*पानी पे लिखा*’, *यूसुफ़ सईद की * ’*ख्याल दर्पण*’, *मेघनाथ* और *बीजू टोप्पो* की ’*लोहा गरम है*’ जैसी फ़िल्में शामिल हैं. लेकिन मेरे लिए इस पहली गोरखपुर यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण यह देखना था कि गोरखपुर जैसे राजनैतिक रूप से ’हायपरएक्टिव’ और उग्र हिन्दुत्ववादी राजनीति के गढ़ बनते जा रहे शहर में यह प्रतिरोध के सिनेमा का मेला शहर के सार्वजनिक जीवन में किस तरह का बदलाव ला रहा है. बेशक अब यह पूरे पूर्वांचल में अपनी तरह का अकेला फ़िल्म समारोह बनकर उभरा है लेकिन क्या यह इलाके के सांस्कृतिक पटल पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर पाया है? इस बार उत्सव में मुख्य वक्तव्य *अरुंधति राय*का था. समारोह की थीम *’अमेरिकी साम्राज्यवाद से मुक्ति के नाम’* थी और दुनिया-भर से तमाम जनसंघर्षों से जुड़ी फ़िल्में समारोह में दिखाई जानी थीं. अरुंधति अपने वक्तव्य को लेकर कुछ दुविधा में थीं. वे चाहती थीं कि उनका वक्तव्य एकतरफ़ा संवाद न होकर दुतरफ़ा हो और यह चर्चा बातचीत की शक्ल में आगे बढ़े. उनकी इच्छा अपनी बताने से ज़्यादा लोगों के मन की बात जानने में थी. शायद वे समझना चाहती थीं कि लोगों के मन में क्या चल रहा है. वैसे शहर में आते ही स्थानीय मीडिया ने उन्हें घेरने की कोशिश शुरु कर दी थी और उन्हें लेकर मीडिया का यह पागलपन पूरे उद्घाटन सत्र में जारी रहा. मैंने उनसे पूछा कि क्या वे इस ’सेलिब्रिटी’ के पीछे पागल मीडिया और लोगों के बीच अपने असल पाठक को पहचान पाती हैं? और उन्होंने विश्वास के साथ कहा : हाँ. बी.बी.सी. से आये मिर्ज़ा बेग ऐसे ही असल पाठक थे जिनसे अरुंधति काफ़ी देर तक बात करती रहीं. अरुंधति ने मगहर के रास्ते में आपसी बातचीत के दौरान कहा था, “इन पुरस्कारों से मिली प्रसिद्धि की चकाचौंध को मैंने नहीं चुना था लेकिन अपनी जिन्दगी के लिये मैंने जिन चीजों को चुना है उन्हें मैं इस प्रसिद्धि की वजह से खोने से इनकार करती हूँ.” अगले दिन हिन्दुस्तान दैनिक में छपे उनके साक्षात्कार का शीर्षक था, “मैं सच नहीं लिखूँगी तो मर जाऊँगी.” इस तमाम चकाचौंध के बावजूद अरुंधति ने अपनी बात कही और लोगों के सवालों से ये साफ़ था कि बात उन तक पहुँची है. अरुंधति ने कहा कि आज साम्राज्यवाद का अमेरिकी मॉडल हार रहा है. ओबामा जैसे उनके लिए आपातकालीन स्थिति के पायलट बनकर आये हैं. लेकिन यह लड़ाई का अंत नहीं है. इशारा था उन नए रूपों की ओर जिनका भेस धरकर साम्राज्यवाद वापस आयेगा, शायद हमारे ही भीतर से. हमें उन रूपों की पहचान करनी होगी. शायद यह लड़ाई का अगला चरण है जो ज़्यादा जटिल है. वे हमारे प्रतिरोध के मंच भी हड़प लेना चाहते हैं. ऐसे में प्रतिरोध का हर छोटा रूप बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. गोरखपुर का यह फ़िल्म उत्सव ऐसा ही मंच है और इसलिये एक महत्वपूर्ण कोशिश है. उत्सव स्थल इसबार विश्वविद्यालय के प्रांगण से निकलकर शहर के बीचों-बीच आ गया था. पूरा शहर जहाँ भाजपा की आगामी 15 फ़रवरी को होनेवाली ’राष्ट्र रक्षा रैली’ के पोस्टरों और बैनरों से अटा पड़ा था वहीं इस सबके बीच शहर के मुख्य चौराहे पर समारोह स्थल पर लगा फ़ेस्टिवल का विशाल बैनर आते-जाते लोगों मे अजब उत्सुक़्ता जगा रहा था. मैंने कई लोगों को रुक-रुक कर उत्सव परिसर में घूमते और किताबें, फ़िल्में, कविता पोस्टर पढ़ते देखा. हमारी दोस्त भाषा एक सुबह उठकर अखबार की तलाश में कुछ दूर निकलीं तो उन्होंने अखबार की दुकान पर सुबह के जमावड़े में भी समारोह की चर्चा होते सुनी. शहर उत्सुक़्ता से देख रहा है, धीरे-धीरे शहर उत्सव से जुड़ रहा है. यह बात समारोह के आयोजक *संजय जोशी* और *मनोज सिंह* के लिए सबसे खास है. मनोज कहते हैं, “2006 में समारोह की शुरुआत का विचार इस इलाके के ठहरे हुए सांस्कृतिक परिदृश्य में पत्थर मारने सरीख़ा था. लेकिन हमारा उद्देश्य सिर्फ़ यही नहीं. हम चाहते हैं कि संवाद का माहौल बने. फ़िल्म समारोह के ज़रिए हम ऐसा प्रगतिशील आन्दोलन खड़ा करना चाहते हैं जो इस प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य में भी अपनी दखल बनाये.” शायद अभी उसमें वक़्त है लेकिन उत्सव से जुड़े लोग इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. *बीजू टोप्पो* जो अपनी फ़िल्म ’*लोहा गरम है*’ के साथ समारोह में मौजूद थे, का कहना था, “मेरे लिए यह समारोह सिर्फ़ अपनी फ़िल्म एक बड़े समूह को दिखाने का माध्यम भर नहीं. मैं खुद यहाँ दुनिया भर के जन आन्दोलनों से जुड़ी फ़िल्में देख पाता हूँ और उनसे अपनी लड़ाई को जोड़कर देख पाता हूँ जो और कहीं संभव नहीं. इस बार भी ब्रिटिश निर्देशक *गिब्बी जोबेल* की ब्राज़ील के भूमि-सुधार आन्दोलन पर बनी फ़िल्म ’*एम.एस.टी.*’ समारोह का मुख्य आकर्षण थी और मैंने, बीजू ने और हम जैसे बहुत से दर्शकों ने इस फ़िल्म के माध्यम से ब्राज़ील में राष्ट्रपति लूला के शासनकाल के बारे में बहुत सी नई जानकारियाँ पाईं. गिब्बी खुद समारोह में मौजूद थे और पूरे समारोह में उनकी आम लोगों से जुड़ने की कोशिश, हिन्दी सीखने की कोशिश के हम सब गवाह बने! फिर समारोह में ’*वर्किंग मैन्स डैथ*’ जैसी हार्ड हिटिंग फ़िल्म भी थी जिसे मैं इस समारोह की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार करता हूँ. इसबार समारोह *इल्माज़ गुने* की फ़िल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव लेकर आया था और अपने ही देश में प्रतिबंधित इस मार्मिक फ़िल्मकार की ’*योल*’ और ’*उमत*’ जैसी फ़िल्में यहाँ दिखाई गईं और पसंद की गईं. प्रतिरोध कितना रचनात्मक हो सकता है इसका सबसे बेहतर उदाहरण था *’जूता तो खाना ही था’*शीर्षक आधारित कविता प्रदर्शनी. इराक में पत्रकार मुंतज़र अलजैदी की बुश को जूता मारने की बहादुराना कार्यवाही पर देश भर से साथियों ने कवितायें लिखकर भेजीं थीं जिन्हें समारोह के मौके पर एक प्रदर्शनी के तौर पर सजाया गया था. यहाँ मैं *मृत्युंजय* की कविता का एक अंश आपके सामने पेश कर रहा हूँ, “यह जूता है प्रजातंत्र का, नया नवेला चमड़ा, ठाने बैठा अमरीका से नव प्रतिरोधी रगड़ा. तेल-लुटइया, जंग-करइया, अब तो नाथ-नथाना ही था, व्हाइट हाउस के गब्बर-गोरे जूता तो खाना ही था!.” तो यह उत्सव सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं. अमेरिका के साम्राज्यवाद से दुनिया भर में ज़ारी लड़ाई और उड़ीसा के गाँव-देहातों मे चल रहे जनसंघर्ष यहाँ आकर एक पहचान पाते हैं. मुझे अफ़सोस रहा कि आखिरी दिन मैं अपनी ट्रेन का वक़्त हो जाने की वजह से *अशोक भौमिक* द्वारा *युद्ध विरोधी चित्रकला पर व्याख्यान* नहीं सुन पाया. लेकिन अब मुझे पता है कि जिनके लिये वो व्याख्यान था वे लोग धीरे-धीरे आ रहे हैं, सुन रहे हैं, सोच रहे हैं. गोरखपुर धीरे-धीरे ही सही लेकिन यहाँ से निकली आवाज़ें सुन रहा है. उग्र धार्मिक पहचान वाला यह शहर अब अपने शायर फ़िराक की तरह इंसानों में खुदा देखने लगा है. *********** * *मूलत: ’द पब्लिक एजेंडा’ के 18 मार्च 2009 अंक में प्रकाशित रपट.* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090412/e3cd870f/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Apr 14 00:06:42 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 14 Apr 2009 00:06:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSX4KSwIOCkuOCkvuCkpeClgCwg4KSw4KS+4KSv4KSk4KS+IOCkrg==?= =?utf-8?b?4KSkIOCkq+CliOCksuCkvuCkh+CkjyDgpKrgpY3gpLLgpYDgpJw=?= Message-ID: <829019b0904131136xdfe8c77l5cc392398884ff1b@mail.gmail.com> हमारे कुछ ब्लॉगर साथियों को एग्रीगेटर पर भरोसा नहीं है,हमारे उपर भरोसा नहीं है, जो वो लिख रहे होते हैं,उस पर भरोसा नहीं है इसलिए वो लगातार ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जो भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं वो एग्रीगेटर से वाकिफ नहीं हैं,उन्हें लगता है कि जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं वो अपनी पोस्ट लिखने के बाद किसी का कुछ नहीं पढ़ते,उन्हें लगता है कि अगर औरों का पढ़ते भी हैं तो शायद मेरी पोस्ट नहीं पढ़ते। शायद इसलिए वो नई पोस्ट लिखते ही मेल जारी करते हैं। एक लाइन में पोस्ट की इन्ट्रो देकर पूरी पोस्ट पढ़ने का अनुरोध करते हैं। कईयों की प्रस्तुति तो विज्ञापननुमा होती है कि अगर आप उनकी पोस्ट नहीं पढ़ रहे हैं तो बहुत बड़ी चीज मिस कर रहे हैं। आप क्यों हरेक पोस्ट के बाद मेल करते हैं। आपको क्यों लगता है कि आपकी पोस्ट इतनी अलग,यूनिक है कि दुनियाभर के लोगों को इसे पढ़ना चाहिए। ये अहं की पराकाष्ठा है। आपको क्यों लगता है कि आपने इतनी बेकार पोस्ट लिखी है कि किसी की उस पर शायद नजर ही नहीं गयी हो और चलता कर दिया गया हो,आत्मविश्वास की इतनी अधिक कमी, ब्लॉगिंग तो आत्मविश्वास से लवरेज लोगों के लिए है,ऐसे में तो हिट नहीं मिलने पर भी आप बहुत परेशान होते होंगे। इतनी बड़ी दुनिया है, कोई न कोई आपको लगातार पढ़ रहा होगा, इतनी छटपटाहट क्यों मची रहती है। क्यों बेचैन रहते हैं कि मेरी पोस्ट,कमेंट से लद जाए। चलिए,आपके अनुरोध पर,आपके मेल पर हमने पोस्ट पढ़ भी ली। फिर आप पूछते हैं, कैसी लगी। अच्छी लगी तो क्या चाहते हैं कि ब्लॉग की दुनिया में मुनादी करवा दें कि फलां की पोस्ट मुझे बहुत अच्छी लगी या फिर ये चाहते हैं कि अपने पैसे लगाकर जनसत्ता में आपके नाम इश्तहार छपवा दें। ब्लॉगिंग को स्वाभाविक क्यों नहीं रहने देना चाहते आप? जो लोग भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं,मैं मानकर चलता हूं कि उनके बीच पढ़ने-लिखने की पर्याप्त भूख है,उस भूख को बढाने के लिए हमारे-आपके जैसे कोई उत्प्रेरक की जरुरत नहीं है। मैं खुद ब्लॉगर कम्युनिटी से हूं और ब्लॉगरों को लेकर कहीं कोई कुछ हल्के ढंग से कहता है तो मैं लड़ पड़ता हूं लेकिन एक बड़ी सच्चाई है कि कुछ ब्लॉगर, ब्लॉगिंग कर रहे लोगों को एक ऐसी जमात में ढकेलने में लगे हैं कि उसे इरिटेटिंग समाज का हिस्सा मान लिया जाएगा। हम लाख सह्दय होते हुए जैसे अनचाहे फोन कॉल,मैसेज,बैंकों और मोबाइल के प्लानों को सुन-सुनकर परेशान हो जाते हैं,यही हाल अब ब्लॉगरों द्वारा भेजे गए एसएमएस और मेल का है। जब भी जीमेल खोलिए दर्जन भर मेल पड़े हैं। सब में एक ही बात,इसे पढ़िए,उसे पढ़िए। हम ब्लॉगिंग भीतर की बेचैनी को कम करने के लिए कर रहे हैं,हल्का होने के लिए कर रहे हैं, इस माध्यम के जरिए रोजमर्रा की हलकान को कम करने की कोशिश कर रहे हैं, अब इससे भी बेचैनी होने लगे तब तो दिक्कत है। आप खुद महसूस कीजिए न कि आपके बिना बताए लोग आकर आपके ब्लॉग की तारीफ करते हैं, पोस्ट पर कमेंट करते हैं,अखबार या पत्रिका में छापने की बात करते हैं तो कितना अच्छा लगता है, कितने स्वाभाविक तरीके से आप खुश होते हैं। लेकिन नहीं,इसे पता नहीं लोग शेयर बाजार बनाना चाहते हैं या फिर आजादपुर सब्जी मंडी की मार मेल पर मेल भेजे जा रहे हैं। अभी तो थोड़ी कम परेशानी लग रही है लेकिन नेट पर आपके नाम से लोग उतने चिढ़ेगे,जितना की एक सेल्समैंन के कॉलबेल बजाने पर चिढ़ते हैं, तब मानवता और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें धरी की धरी रह जाएगी और हम तुरंत लतखोर जमात के लोग करार दिए जाएंगे। मुझे पता है कि कोई हमें कहे कि इतनी सी बात को लेकर इतना ज्ञान क्यों दे रहे हो या तो बिना पढ़े डिलीट करो या फिर स्पैम की व्यवस्था करो। लेकिन मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि ब्लॉग पर अच्छा-बुरा,महान,घटिया जो मन में आए लिखा जाए लेकिन पोस्ट लिखकर फेरी लगाने का काम न हो तो बेहतर होगा। ऐसा करने से लोग बेहतर चीजों को भी बिना पढ़े डिलीट कर देते हैं,डिफैमिलिएश का ये रवैया ब्लॉगिंग के लिए सही नहीं होगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090414/5c85cd9f/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Fri Apr 17 17:33:30 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 17 Apr 2009 12:03:30 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016e6469cfe1b236e0467bef8e8@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// पीत चट्टी प्रहारक केसरिया कार्यकर्ता Posted: 16 Apr 2009 09:36 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/vxUrcMTfOjo/blog-post_16.html जाते-जाते पूर्व अमेरिकी राष्‍ट्रपति श्रीमान् बुश महोदय मुंतज़र अल ज़ैदी के जूतों से बच निकले. दुनिया को समझते देर न लगी कि ज़ैदी ने ये तोहफ़ा क्‍यों दिया बुश को! विगत दिसंबर से अब तक दुनिया भर में कई नेताओं पर जूते उछाले गए. मज़े की बात ये कि पिछले आठ-दस दिनों में जितने जूते भारतीय नेताओं पर उछाले गए उतने कभी और दुनिया के किसी अन्‍य हिस्‍से में न उछाले गए. पिछले हफ़्ते जागरणी जर्नलिस्‍ट जरनैल सिंह ने चितंबरम जैसे धाकड़ नेता पर जूते उछाले. चिदंबरम सर को किसी प्रकार की चोट नहीं आयी और उन्‍होंने गांधी की राह पर चलते हुए जरनैल को माफ़ कर दिया. पर दिल्‍ली के दो दिग्‍गज आज भी रह-रह कर जरनैली जूते की चोट को सहलाने लगते हैं. बेचारों का राजनीतिक जायक़ा ख़राब हो चुका है. न जाने कब तक इन्‍हें राजनीतिक पनाह की बाट जोहनी पड़ जाए. 1984 में इंदिरा अम्‍मा की हत्‍या के बाद राजधानी में सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपी इन दोनों कांग्रेसी नेताओं की टिकटें न कटतीं तो ख़ुद कांग्रेस को चुनाव परिणाम से प्राप्‍त होने वाली कुल सीटों में दो और का इज़फ़ा तय माना जा रहा था. यानी संभव है कि जरनैल के जूते का असर भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस पर पड़ जाए. दिल्‍ली से चले जरनैली जूते चंद रोज़ बाद कुरुक्षेत्र पहुंचे. अबकी ये सख्‍़त सोल वाले मास्‍टरी थे और इसकी जद में आए देश के जाने-माने उद्योगपति, शौकिया पोलो खिलाड़ी और निवर्तमान कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल साहब. जिंदल साहब वही हैं जो दिल्ली हाई कोर्ट से आदेश प्राप्‍त करने के बाद हमेशा अपनी जेब पर तिरंगा टांगे रहते हैं. पर ये जूते नियत डेस्टिनेशन से पहले ही गुरुत्‍वाकर्षण के नियमों के चंगूल में फंस कर चंद क़दम की दूरी पर वापस धरती को ही कुछ चोट पहुंचा गए. उसके बाद स्‍थानीय लोगों (कुछ लोगों के मुताबिक़ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं) ने सरकार से क्षुब्‍ध सेवानिवृत्त उस मास्‍साब पर न्‍यूटन के तीसरे नियम का पालन करते हुए तब तक लात-घुसों की बारीश करते रहे जब तक कि पुलिस न आ गयी. शाम को टेलीविज़न पर ख्‍़ाबर देखते हुए ज्ञात हुआ कि जिंदल साहब ने मास्‍साब का लिहाज़ करते हुए उन पर कोई मुक़दमा दायर नहीं करवाया है, हां पुलिस अपनी कार्रवाई करने के लिए आज़ाद है जो कि होकर रहेगी. कल पता चला कि बीते कुछ दिनों में कुछ हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके कुछ जूते मध्‍यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गए हैं. पता ये भी चला कि कुछ ने तो अपनी शक्‍ल भी बदल ली है. प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावले माननीय लालकृष्‍ण आडवाणी जी पर जो चरण पादूका कल कटनी में उछाली गयी थी दरअसल टेलीविज़न स्क्रीन पर देखने से वो दादाजी के ज़माने की पीत चट्टी प्रतीत हो रही थी. लकड़ी के सोल पर रबर की पट्टी लगी इस प्रकार की चट्टी को जानकार धार्मिक दृष्टि से बेहद शुद्ध और पवित्र मानते हुए खड़ाउं की श्रेणी में रखते हैं. 'पंडिताई' की शुरुआत में रंगरुटिए को चट्टी पहनने की ही सलाह दी जाती है क्‍योंकि सीधे पैर की उंगलियों में खड़ाउं का अंकुसा फंसाने भर की कोशिश से ही पैर के चोटिल हो जाने का ख़तरा बना रहता है. बचपन में ऐसी चट्टियों पर हम खेल-कूद कर घर लौटने के बाद पैर धोया करते थे. कल समाचारों से ज्ञात हुआ कि भारत के पूर्व गृहमंत्री, एक समय यहीं के उपप्रधानमंत्री, निवर्तमान लोकसभा में विपक्ष के नेता और आज प्रधानमंत्री बनने के लिए अधीर व व्‍याकुल वृद्ध माननीय लालकृष्‍ण पर उस पीत-चट्टी का प्रहारक उनकी ही पार्टी का कार्यकर्ता था (हालांकि भारत के दो बड़े राजनीतिक दलों में परिस्थितियों व पारिवारिक पृष्‍ठभूमियों के हिसाब के कुछ नौजवानों के लिए कार्यकर्तागिरी करना आवश्‍यक नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए सिंधिया व गांधी परिवार से संबद्ध राजनीतिपसंद लोग) वैसे जब पुलिस उसके कमर में हाथ डाल कर ले जा रही थी उस वक्‍़त उसने अपने गले पर पीतांबरी अंगवस्‍त्र (या कहिए कि थोड़ा गाढ़ापन लिए) धारण किया हुआ था. यहां उद्देश्‍य उपर्युक्त वर्णित जूतेबाज़ी के चारों उदाहरणों से कुछ सबक निकालना है. मुंतजर के जूते अमेरिका के हाथों इराक की हुई बर्बादी के विरोध में थे, जरनैल के जूते 84 के दंगा-पीडितों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी की मुखालफ़त कर रहे, मास्‍साब के जूते हरियाणा सरकार के प्रति उनके आक्रोष का प्रतिविंबन कर रहे थे. यहां तक तो बात समझ आ रही है, पर कटनी में आडवाणीजी पर चट्टी का प्रहारक तो संघ संप्रदाय का ही हिस्‍सा था. उस भले आदमी ने ऐसा क्यों किया? मेरी शंकाएं इस प्रकार निम्‍न हैं : आडवाणीजी उन्‍हें पसंद न हों,आडवाणीजी के क्रियाकलाप उन्‍हें पसंद न हों, आडवाणीजी ने कभी कोई ऐसा अपराध किया हो जिसका दंड वे भरी सभा में देना चाह रहे हों,आडवाणीजी ने कभी किसी तरह उनका अपमान किया हो, जिसका बदला लेने का वे मौक़ा तलाश रहे हों, आडवाणीजी के मन में कोई खोट हो, आडवाणीजी की कथनी और करनी में नाबर्दाश्‍तग़ी की हद तक उन्‍होंने फ़र्क़ महसूस किया हो, आडवाणीजी से संरक्षणप्राप्‍त नेताओं से उन्‍हें चीढ हो, आडवाणीजी ने उनसे कभी कोई कोई वायद किया हो और बाद में मुकर गए हों, आडवाणीजी के हस्‍तक्षेप से उनको कभी मिलने वाला चुनावी टिकट कट गया हो, आडवाणीजी का पाकिस्‍तान में जिन्ना के मज़ार पर कशीदा पढ़ना उन्‍हें चुभ गया हो, आडवाणीजी का राम के नाम परा वोट मांग कर राम का घर आज तक न बनवा पाना उन्‍हें सालता रहा हो, निवर्तमान संसद में आडवाणीजी का सार्थक हस्‍तक्षेप न देख कर क्रोध आ गया हो, आडवाणीजी की लिडरई में भाजपा द्वारा जबरन हिन्‍दुत्‍व का ठेका हथिया लेने पर हज़ारों हिन्‍दुओं की तरह उनकी आस्‍था पर भी चोट पहुंची हो, आडवाणीजी की लिडरई में 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्‍वंस उन्‍हें नागवार गुज़रा हो, आडवाणीजी का वाजपेईजी के कैबिनेट पर दूसरे नंबर पर होने के बावजूद उड़ीसा में ग्राहम स्‍टेंस और उनके दो बच्‍चों को बजरंगियों द्वारा जिंदा जला देने पर भी आडवाणीजी का चुप्पी साधे रखना उन्‍हें याद आ गया हो, आडवाणीजी के गृहमंत्री रहते देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में ननों के साथ हुए बलात्‍कार को उन्‍होंने धर्म के खांचे में बांटकर देखने के बजाय स्‍त्री जाति और मानवता पर हमला मान लिया हो, आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में गुजरात में वहां की सरकार के नेतृत्‍व में मुसलमानों के नरसंहार का दृश्‍य उन्‍हें याद आ गया हो, आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दौर में झज्‍जर में गोहत्‍या का आरोप लगाकर दलितों की मार देने की घटना एक बार फिर उनके ज़हन को झकझोर गयी हो,आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में ग़रीबों पर हुए अत्‍याचार के नमूने उनके नज़र में नाच गए हों, आडवाणीजी द्वारा भारतीय संविधान की अक्षुण्‍ण्‍ता बनाए की सौगंध खाने के बाद अपने देश का नाम हिन्‍दुस्‍थान उच्‍चारित करना उन्‍हें बिल्‍कुल नागवार गुज़रा हो, आडवाणीजी द्वारा हाल में वरूण गांधी वाले प्रकरण में वरूण को निर्दोष करार दिये जाने से वे क्षुब्‍ध हों, आडवाणीजी द्वारा अचानक बीच चुनाव में काले धन की बात करके असली मुद्दे से जनता को बरगलाना उन्‍हें न भाया हो क्‍योंकि पिछले पांच साल जब वे विपक्ष के नेता थे तब उन्‍होंने एक बार भी इस मसले का संसद के किसी सदन में न ख़ुद उठाया और न ही किसी से उठवाया, आडवाणीजी के उस विज़न से उन्‍हें दिक़्क़त हो जिससे भारत में तानाशाही को बल मिलता हो. बहरहाल, प्रधानमंत्री पद कब्‍जाने को आतुर माननीय लालकृष्‍ण आडवाणी पर पीत चट्टी से प्रहार करने वाले पीत अंगवस्‍त्रधारी केसरिया कार्यकर्ता ने उपर वर्णित कारणों में से किसी एक, या एक से अधिक या सभी कारणों से ऐसा किया हो; या किसी अन्‍य कारणवश्‍ा ऐसा किया हो - मेरे हिसाब से लोकतंत्र में ये नाकाबिल-ए-बर्दाश्‍त है. ऐसी किसी भी घटना की जितनी भी निंदा की जाए कम है. यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090417/55c82cec/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 18 12:20:08 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 18 Apr 2009 12:20:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOCljeCkr+ClguCknCAyNCDgpJXgpYcg4KSP4KSC4KSV4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCkviDgpIfgpLgg4KS24KSV4KWN4KSyIOCkruClh+CkgiA=?= =?utf-8?b?4KSG4KSo4KS+IOCkuOCkueClgCDgpKXgpL4=?= Message-ID: <829019b0904172350x198c350atd1e4333372cfa8de@mail.gmail.com> संगति का असर किस पर नहीं होता है,चाहे वो हमारी-आपकी जैसी ऑडिएंस हो या फिर न्यूज 24 जैसे चैनल। दिन-रात जिस महौल में हम काम कर रहे होते हैं, उसका असर हमारे काम करने और सोचने तरीके पर तो पड़ता ही है। न्यूज 24 सहित देश के बाकी चैनल लंबे समय से प्राइम टाइम में रियलिटी शो, लॉफ्टर चैलेंज और टीवी सीरियलों से जुड़ी खबरें दिखाते आ रहे हैं। कभी आनंदी के घर में मातम की खबर,कभी नन्हे हंसगुल्लों की खबर तो कभी बिग बॉस के घर से संभावना के निकलने की खबर। देश की ऑडिएंस के उपर इन कार्यक्रमों का क्या असर हुआ है,होता है,इसका विश्लेषण एक स्तरीय नहीं है और न ही इतना आसान ही कि हम किसी निष्कर्ष तक पहुंच सकें. लेकिन न्यूज चैनलों पर इन कार्यक्रमों का असर साफ देखा जा सकता है। टेलीविजन के इन कार्यक्रमों के शब्दों के प्रयोग से लेकर इसके फार्मेट की कॉपी करने के पीछे की वजह साफ है कि न्यूज चैनल खबरों को प्रस्तुत करते समय और कार्यक्रम बनाते समय इन्हीं मनोरंजन प्रधान चैनलों के आस-पास होकर सोचते हैं। कुछ नया करने के लिए खाद-पानी की तलाश वो इन्हीं चैनलों के बीच से करते हैं। आज रात( 17अप्रैल,9 बजे) न्यूज 24 के कार्यक्रम आइपीएल का बिग शो देखकर कुछ-कुछ ऐसा ही लगा। न्यूज चैनलो के पास कुछ भी दिखाने और किसी भी रुप में दिखाने के पीछे का सबसे बड़ा तर्क होता है कि देश की ऑडिएंस वही सब कुछ देखना चाहती है जिसे कि हम दिखा रहे हैं। भाषा को सरल से सरल बनाने का मासूम तर्क आज इतने जोर पर है कि हर दो लाइन की खबर को पेश करने के क्रम में कभी क्रिकेट में घुस जाते हैं,कभी रियलिटी शो में। सिनेमा के शब्दों,डॉयलॉग औऱ मुहावरे का प्रयोग वो लंबे अर्से से तो कर ही रहे हैं। देश के तमाम न्यूज चैनल्स ऑडिएंस की भाषा-क्षमता को लेकर एक निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि खबर की अपनी कोई भाषा नहीं होती या फिर भाषा में खबर बताए नहीं जा सकते, उसे हर हाल में सिनेमा,रियलिटी शो और क्रिकेट की ओर रुख करना ही पड़ेगा। फिलहाल मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं जाना चाहता कि देश की ऑडिएंस क्या देखना चाहती है और क्या दिखाया जा रहा है। ऑडिएंस के आगे हम भी वैसे ही मजबूर हैं जैसे कि न्यूज चैनल। अगर वो यही सब कुछ देखना चाहती है तो फिर हम और आप कौन होते हैं बोलनेवाले कि- नहीं,ये नहीं वो दिखाओ। माफ कीजिएगा मैं उन मीडिया समीक्षकों की तरह बात नहीं कर सकता जो कि मीडिया आलोचना के नाम पर गाइडलाइन तय करने लग जाते हैं कि ये दिखाओ,वो दिखाओ, ये जाने-समझने बिना कि देश की ऑडिएंस उन्हें तबज्जो देती भी है या नहीं, न्यूज चैनलों की तो बात बहुत बाद में आती है। मेरा सवाल क्या दिखाया जाए या कया नहीं से बिल्कुल अलग है। अक्सर हम कंटेंट का बहस छेड़कर बाकी मुद्दों से बिसर जाते हैं जबकि कंटेंट के अलावे भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कि हमें बात करनी चाहिए। हमें इस पर भी बात की जानी चाहिए कि टेलीविजन किसी भी खबर या घटना को कैसे दिखा रहा है और उसका अर्थ क्या है। इधर न्यूज चैनलों के तेजी से बदलते रवैये को देखकर ये साफ और बहुत जरुरी लगने लगा है कि कंटेंट के साथ-साथ औऱ कई बार तो इससे पहले ही इस मसले पर बात को किसी खबर को दिखाया कैसे जा रहा है। न्यूज 24 के आठ एंकर आइपीएल की अलग-अलग टीमों की टीशर्ट पहने स्टूडियो में बैठे हैं। जो जिस टीम की टीशर्ट पहने बैठा है,उसे उस टीम की तरफदारी करनी है। मसलन आशीष चढ्ढा नाम का न्यूज एंकर राजस्थान रॉयल की टीशर्ट पहने बैठा है तो उसे राजस्थान रॉयल की तरफदारी करनी होगी। इसी तरह चेन्नई टीम की टीशर्ट पहनी अंजना कश्यप को चेन्नई टीम की सपोर्ट में अपनी बात रखेंगी। इस तरह चैनल के आठ एंकर,आइपीएल की आठों टीमों के पक्ष में अपनी बात रखेंगे। चैनल ने बिग बॉस की कॉपी की है। एक-एक करके सारे एंकर एक कुर्सी पर आकर बैठते हैं, बिग बॉस की आवाज में कोई सवाल कर रहा होता है और एंकर उसका जबाब दे रहे होते हैं। इसे आप खबरों के जरिए तमाशा या फिर तमाशा के भीतर खबर कहिए, ये आप पर निर्भर करता है। इनमें से कोई भी एंकर निष्पक्ष नहीं होगा। आप भूल जाइए कि चैनल की स्क्रीन पर चैनल के एंकर को देख रहे हैं, आप देख रहे हैं टीम के प्रतिनिधि को। 15 वें लोकसभा चुनाव ने आइपीएल सीजन-2 की हवा निकालकर रख दी। अबकी बार आइपीएल पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आग लगाने के मूड में था। गांव-गांव में क्रिकेट का बुखार फैलाने की योजना में था। यह जानते हुए भी कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव से बड़ा कोई पर्व,चुनाव से बड़ा कोई दूसरा खेल साबित कर पाना आसान काम नहीं है। न्यूज चैनल इस मिजाज को समझते हुए दिन-रात राजनीतिक खबरें प्रसारित करते रहे, कई शक्लों में, कई अंदाजों में। लेकिन देखते ही देखते 18 अप्रैल नजदीक आ गया,आइपीएल शुरु होने का दिन। अब सारे चैनलों को इसमें फूंक मारना जरुरी लगने लगा। इसी फूंक मारने की हरकत में न्यूज 24 पर आइपीएल का बिग शो प्रसारित किया गया। दुनिया को पता है कि जिस कॉन्सेप्ट को लेकर आइपीएल की शुरुआत की गयी,वो कॉन्सेप्ट बुरी तरह पिट चुकी है। दक्षिण अफ्रीका जाकर आप बंगाल,पंजाब और राजस्थान के होने का भाव पैदा कर सकेंगे,असल में ये संभव नहीं है। ये बात न्यूज चैनल भी जानते हैं लेकिन उनके पास प्रसार का तंत्र है। वो जब अमेरिका को लोकल जैसा दिखा सकते हैं तो फिर ग्लोबल स्तर पर जा चुके राजस्थान,पंजाब,बंगाल को लोकल क्यों नहीं। सारे चैनलों के लिए ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। यूट्यूब,गूगल सर्च इंजन और चुनावी कवरेज के पैसे बचाकर चैनल आएपीएल में फूंक मारने का काम तो कर ही सकते हैं। एक ऑडिएंस के नाते,दिमाग में इस सवाल का उठना जायज है कि कॉन्सेप्ट के स्तर पर पिट चुके इस आइपीएल के आगे न्यूज चैनल किस बात की तुरही बजाने में लगे हैं। दक्षिण अफ्रीका में होनेवाले खेलों में लोकल फ्लेवर डालने के लिए क्यों बेचैन जान पड़ रहे हैं। जिस टीशर्ट को आप और हम दक्षिण अफ्रीका के मैदानों में खिलाडियों को पहनकर दौड़ते हुए देखेंगे, उसे नोएडा की स्टूडियों में,एंकर को पहनाकर क्यों बिठाए हैं। क्या ये सबकुछ ऑडिएंस के लोकल-लोकल का एहसास पैदा करने के लिए। पहली बार कितनी मुनादी की थी इस आइपीएल ने कि वो देश के भीतर क्रिकेटिज्म पैदा करेंगे। बंगाल को बैंग्लोर से प्रतिस्पर्धा दिखाया, एक-दूसरे को वैसा ही बताया जैसा कि भारत-पाकिस्तान की टीम को बताया जाता है। लेकिन अबकी बार सबके-सब दक्षिण अफ्रीका में है। क्या वहां भी राजस्थान को चेन्नई के विरोध में देखना इतना ही आसान है, व्यावहारिक तौर पर कम से कम ऑडिएंस के लिए तो नहीं ही। ऑडिएंस घर बैठे,अफ्रीका के मैंदान में खेलते हुए राजस्थान,बंगाल के बीच के फर्क को समझे, न्यूज 24 जैसा चैनल सरोगेट टीम वर्कर का काम कर रहा है। लेकिन क्यों, जाहिर है आइपीएल के पिट चुके कॉन्सेप्ट को बचाने के लिए नहीं ही,तो फिर..... अभी कुछ ही दिनों पहले P7 के लांचिंग प्रोग्राम में एंकरों के रैंप पर चलने को लेकर काफी हंगामा हुआ था औऱ इसे पत्रकारिता जगत का अपमान समझा गया था। किसी ने उन पत्रकारों के प्रति संवेदना जतायी थी कि वो मजबूर थे, ऐसा करने के लिए। आज न्यूज 24 ने किसी न किसी रुप में वही बातें दोहरा दी। अभी चुनावी महौल है, चैनल बार-बार घोषणा कर रहा है कि वो आम आदमी के साथ है, मतदाता के साथ है,जब-तब चैनल के माई-बाप नेताओं की क्लास लेते नजर आते हैं, देश के आम आदमी के लिए। लेकिन आज आठ एंकरों को आठों टीमों का प्रतिनिधि बनाकर दिखाए जाने पर यही भरोसा जमेगा कि- देश का चैनल,आम आदमी के साथ या फिर देश के उन पूंजीपतियों के साथ जो आम जनता का खून चूसने के लिए और महीन औजार इजाद करने में जुटे हैं। कहीं ये नेताओं से भी बदतर तो नहीं,नेताओं के आगे-पीछे भ्रष्ट होने की भनक तो लगती है, इनकी तो वो भी नहीं। उल्टे जब भी ये अपने उपर के हमले को लोकतंत्र की हत्या होने की बात करते हैं, हम भावुकतावश इनके साथ हो लेते हैं। ये किसके साथ हैं,कहना मुश्किल है।... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090418/98ea6223/attachment-0001.html From sadanjha at gmail.com Sat Apr 18 14:55:39 2009 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Sat, 18 Apr 2009 14:55:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+Ckr+ClhyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KSV4KWHIOCkuOCkvuCkpSDgpLngpYjgpIIs4KSV4KS54KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClgeCktuCljeCkleCkv+CksiDgpLngpYjgpaQuLi4n?= Message-ID: <1a9a8b710904180225j66d6411eoac44f77c38ff5597@mail.gmail.com> विनीत ने अंतिम में लिखा 'ये किसके साथ हैं,कहना मुश्किल है।...'मेरे ख्याल से यह जरूरी भी है की पत्रकार वही नहि बोले जो हम सब उससे बुलबाना चाहते हैं. वह वहां नहि हो जहाँ हम उसे देखना चाहते है. वह हमें झकझोर दे, अपने बोल से, अपने जगह से, अपने तेबर से विनीत के आलोचना को पढ़ते हुए एक खास किस्म की तरलता का अहसास होता है कभी बारीकियाँ इम्प्रेस करती है तो कभी अटपटा भी लगता है. शायद दुसरे भी मुझसे सहमत होंगे कि कुलमिलाकर एक नैतिकता के अहसास से मुखरित होता है इनका लेखन. एक आदर्शवादी मिडिया को खोते जाने का भय सुरसा के समान साथ चलता है.जब ये अपने आप को लेकर लिखते हैं तो यह चिंता सबसे प्रखर तरह से सामने आती है. लेकिन यदि सतह के भीतर जायें तो ये कहते हैं कि मिडिया के खेल को काले-सफ़ेद में न देखा जाए. बाजार से बहुत खफा नहि हैं क्योंकि इसकी नियति से भाग नहि सकते लेकिन बजारुपने से सख्त नफरत दिखता है. यदि शब्दों में थोरी कोताही बरतकर विचार को थोरा और भी मांजे तो बेहतर लगेगा. सदन. 2009/4/18 vineet kumar > संगति का असर किस पर नहीं होता है,चाहे वो हमारी-आपकी जैसी ऑडिएंस हो या फिर > न्यूज 24 जैसे चैनल। दिन-रात जिस महौल में हम काम कर रहे होते हैं, उसका असर > हमारे काम करने और सोचने तरीके पर तो पड़ता ही है। न्यूज 24 सहित देश के बाकी > चैनल लंबे समय से प्राइम टाइम में रियलिटी शो, लॉफ्टर चैलेंज और टीवी सीरियलों > से जुड़ी खबरें दिखाते आ रहे हैं। कभी आनंदी के घर में मातम की खबर,कभी नन्हे > हंसगुल्लों की खबर तो कभी बिग बॉस के घर से संभावना के निकलने की खबर। देश की > ऑडिएंस के उपर इन कार्यक्रमों का क्या असर हुआ है,होता है,इसका विश्लेषण एक > स्तरीय नहीं है और न ही इतना आसान ही कि हम किसी निष्कर्ष तक पहुंच सकें. लेकिन > न्यूज चैनलों पर इन कार्यक्रमों का असर साफ देखा जा सकता है। टेलीविजन के इन > कार्यक्रमों के शब्दों के प्रयोग से लेकर इसके फार्मेट की कॉपी करने के पीछे की > वजह साफ है कि न्यूज चैनल खबरों को प्रस्तुत करते समय और कार्यक्रम बनाते समय > इन्हीं मनोरंजन प्रधान चैनलों के आस-पास होकर सोचते हैं। कुछ नया करने के लिए > खाद-पानी की तलाश वो इन्हीं चैनलों के बीच से करते हैं। आज रात( 17अप्रैल,9 > बजे) न्यूज 24 के कार्यक्रम आइपीएल का बिग शो देखकर कुछ-कुछ ऐसा ही लगा। > न्यूज चैनलो के पास कुछ भी दिखाने और किसी भी रुप में दिखाने के पीछे का सबसे > बड़ा तर्क होता है कि देश की ऑडिएंस वही सब कुछ देखना चाहती है जिसे कि हम दिखा > रहे हैं। भाषा को सरल से सरल बनाने का मासूम तर्क आज इतने जोर पर है कि हर दो > लाइन की खबर को पेश करने के क्रम में कभी क्रिकेट में घुस जाते हैं,कभी रियलिटी > शो में। सिनेमा के शब्दों,डॉयलॉग औऱ मुहावरे का प्रयोग वो लंबे अर्से से तो कर > ही रहे हैं। देश के तमाम न्यूज चैनल्स ऑडिएंस की भाषा-क्षमता को लेकर एक > निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि खबर की अपनी कोई भाषा नहीं होती या फिर भाषा में > खबर बताए नहीं जा सकते, उसे हर हाल में सिनेमा,रियलिटी शो और क्रिकेट की ओर रुख > करना ही पड़ेगा। फिलहाल मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं जाना चाहता कि देश की > ऑडिएंस क्या देखना चाहती है और क्या दिखाया जा रहा है। ऑडिएंस के आगे हम भी > वैसे ही मजबूर हैं जैसे कि न्यूज चैनल। अगर वो यही सब कुछ देखना चाहती है तो > फिर हम और आप कौन होते हैं बोलनेवाले कि- नहीं,ये नहीं वो दिखाओ। माफ कीजिएगा > मैं उन मीडिया समीक्षकों की तरह बात नहीं कर सकता जो कि मीडिया आलोचना के नाम > पर गाइडलाइन तय करने लग जाते हैं कि ये दिखाओ,वो दिखाओ, ये जाने-समझने बिना कि > देश की ऑडिएंस उन्हें तबज्जो देती भी है या नहीं, न्यूज चैनलों की तो बात बहुत > बाद में आती है। मेरा सवाल क्या दिखाया जाए या कया नहीं से बिल्कुल अलग है। > अक्सर हम कंटेंट का बहस छेड़कर बाकी मुद्दों से बिसर जाते हैं जबकि कंटेंट के > अलावे भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कि हमें बात करनी चाहिए। हमें इस पर भी बात > की जानी चाहिए कि टेलीविजन किसी भी खबर या घटना को कैसे दिखा रहा है और उसका > अर्थ क्या है। इधर न्यूज चैनलों के तेजी से बदलते रवैये को देखकर ये साफ और > बहुत जरुरी लगने लगा है कि कंटेंट के साथ-साथ औऱ कई बार तो इससे पहले ही इस > मसले पर बात को किसी खबर को दिखाया कैसे जा रहा है। > न्यूज 24 के आठ एंकर आइपीएल की अलग-अलग टीमों की टीशर्ट पहने स्टूडियो में > बैठे हैं। जो जिस टीम की टीशर्ट पहने बैठा है,उसे उस टीम की तरफदारी करनी है। > मसलन आशीष चढ्ढा नाम का न्यूज एंकर राजस्थान रॉयल की टीशर्ट पहने बैठा है तो > उसे राजस्थान रॉयल की तरफदारी करनी होगी। इसी तरह चेन्नई टीम की टीशर्ट पहनी > अंजना कश्यप को चेन्नई टीम की सपोर्ट में अपनी बात रखेंगी। इस तरह चैनल के आठ > एंकर,आइपीएल की आठों टीमों के पक्ष में अपनी बात रखेंगे। चैनल ने बिग बॉस की > कॉपी की है। एक-एक करके सारे एंकर एक कुर्सी पर आकर बैठते हैं, बिग बॉस की आवाज > में कोई सवाल कर रहा होता है और एंकर उसका जबाब दे रहे होते हैं। इसे आप खबरों > के जरिए तमाशा या फिर तमाशा के भीतर खबर कहिए, ये आप पर निर्भर करता है। इनमें > से कोई भी एंकर निष्पक्ष नहीं होगा। आप भूल जाइए कि चैनल की स्क्रीन पर चैनल के > एंकर को देख रहे हैं, आप देख रहे हैं टीम के प्रतिनिधि को। > 15 वें लोकसभा चुनाव ने आइपीएल सीजन-2 की हवा निकालकर रख दी। अबकी बार आइपीएल > पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आग लगाने के मूड में था। गांव-गांव में क्रिकेट > का बुखार फैलाने की योजना में था। यह जानते हुए भी कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र > में चुनाव से बड़ा कोई पर्व,चुनाव से बड़ा कोई दूसरा खेल साबित कर पाना आसान > काम नहीं है। न्यूज चैनल इस मिजाज को समझते हुए दिन-रात राजनीतिक खबरें > प्रसारित करते रहे, कई शक्लों में, कई अंदाजों में। लेकिन देखते ही देखते 18 > अप्रैल नजदीक आ गया,आइपीएल शुरु होने का दिन। अब सारे चैनलों को इसमें फूंक > मारना जरुरी लगने लगा। इसी फूंक मारने की हरकत में न्यूज 24 पर आइपीएल का बिग > शो प्रसारित किया गया। > दुनिया को पता है कि जिस कॉन्सेप्ट को लेकर आइपीएल की शुरुआत की गयी,वो > कॉन्सेप्ट बुरी तरह पिट चुकी है। दक्षिण अफ्रीका जाकर आप बंगाल,पंजाब और > राजस्थान के होने का भाव पैदा कर सकेंगे,असल में ये संभव नहीं है। ये बात न्यूज > चैनल भी जानते हैं लेकिन उनके पास प्रसार का तंत्र है। वो जब अमेरिका को लोकल > जैसा दिखा सकते हैं तो फिर ग्लोबल स्तर पर जा चुके राजस्थान,पंजाब,बंगाल को > लोकल क्यों नहीं। सारे चैनलों के लिए ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। > यूट्यूब,गूगल सर्च इंजन और चुनावी कवरेज के पैसे बचाकर चैनल आएपीएल में फूंक > मारने का काम तो कर ही सकते हैं। > एक ऑडिएंस के नाते,दिमाग में इस सवाल का उठना जायज है कि कॉन्सेप्ट के स्तर पर > पिट चुके इस आइपीएल के आगे न्यूज चैनल किस बात की तुरही बजाने में लगे हैं। > दक्षिण अफ्रीका में होनेवाले खेलों में लोकल फ्लेवर डालने के लिए क्यों बेचैन > जान पड़ रहे हैं। जिस टीशर्ट को आप और हम दक्षिण अफ्रीका के मैदानों में > खिलाडियों को पहनकर दौड़ते हुए देखेंगे, उसे नोएडा की स्टूडियों में,एंकर को > पहनाकर क्यों बिठाए हैं। क्या ये सबकुछ ऑडिएंस के लोकल-लोकल का एहसास पैदा करने > के लिए। पहली बार कितनी मुनादी की थी इस आइपीएल ने कि वो देश के भीतर > क्रिकेटिज्म पैदा करेंगे। बंगाल को बैंग्लोर से प्रतिस्पर्धा दिखाया, एक-दूसरे > को वैसा ही बताया जैसा कि भारत-पाकिस्तान की टीम को बताया जाता है। लेकिन अबकी > बार सबके-सब दक्षिण अफ्रीका में है। क्या वहां भी राजस्थान को चेन्नई के विरोध > में देखना इतना ही आसान है, व्यावहारिक तौर पर कम से कम ऑडिएंस के लिए तो नहीं > ही। ऑडिएंस घर बैठे,अफ्रीका के मैंदान में खेलते हुए राजस्थान,बंगाल के बीच के > फर्क को समझे, न्यूज 24 जैसा चैनल सरोगेट टीम वर्कर का काम कर रहा है। लेकिन > क्यों, जाहिर है आइपीएल के पिट चुके कॉन्सेप्ट को बचाने के लिए नहीं ही,तो > फिर..... > अभी कुछ ही दिनों पहले P7 के लांचिंग प्रोग्राम में एंकरों के रैंप पर चलने को > लेकर काफी हंगामा हुआ था औऱ इसे पत्रकारिता जगत का अपमान समझा गया था। किसी ने > उन पत्रकारों के प्रति संवेदना जतायी थी कि वो मजबूर थे, ऐसा करने के लिए। आज > न्यूज 24 ने किसी न किसी रुप में वही बातें दोहरा दी। अभी चुनावी महौल है, चैनल > बार-बार घोषणा कर रहा है कि वो आम आदमी के साथ है, मतदाता के साथ है,जब-तब चैनल > के माई-बाप नेताओं की क्लास लेते नजर आते हैं, देश के आम आदमी के लिए। लेकिन आज > आठ एंकरों को आठों टीमों का प्रतिनिधि बनाकर दिखाए जाने पर यही भरोसा जमेगा कि- > देश का चैनल,आम आदमी के साथ या फिर देश के उन पूंजीपतियों के साथ जो आम जनता का > खून चूसने के लिए और महीन औजार इजाद करने में जुटे हैं। कहीं ये नेताओं से भी > बदतर तो नहीं,नेताओं के आगे-पीछे भ्रष्ट होने की भनक तो लगती है, इनकी तो वो भी > नहीं। उल्टे जब भी ये अपने उपर के हमले को लोकतंत्र की हत्या होने की बात करते > हैं, हम भावुकतावश इनके साथ हो लेते हैं। ये किसके साथ हैं,कहना मुश्किल है।... > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090418/9fab7ac3/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Apr 20 17:53:56 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 20 Apr 2009 17:53:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS/4KSh4KS8?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkleClhyDgpIngpLgg4KSq4KS+4KSw?= In-Reply-To: <196167b80904192236t1bcc2621ib264f951180b61b8@mail.gmail.com> References: <196167b80904192236t1bcc2621ib264f951180b61b8@mail.gmail.com> Message-ID: <196167b80904200523k7044b6c4ofc45ee2e6c2bba65@mail.gmail.com> *जी बी रोड जिसका नाम लेते हुए भी सभ्य समाज में रहने वाले लोगों की जुबान लड़खड़ा जाती है, वहां रहने वाली महिलाओं की जिन्दगी के पीछे छिपे दर्द को शब्द देने की कोशिश की है युवा पत्रकार तरुणा गौड़ ने. उनका यह लेख एक पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ है। तरुणा ने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत झांसी दैनिक भास्कर से की. फिर दैनिक महामेधा और विराट वैभव में काम किया. बहरहाल यहाँ प्रस्तुत है, तरुणा के अनुभव *:- *हमारे समाज में एक जगह ऐसी भी है जहाँ बेटी पैदा होने पर खुशियाँ मनाई जाती है और बेटा पैदा होने पर मुंह सिकुड़ जाता है, ये बदनाम गलियों की दास्ताँ है। दिल्ली के जी बी रोड की अँधेरी जर्जर खिड़कियों में पीली रोशनी से इशारा करती लड़कियों के विषय में जानने की फुर्सत शायद ही किसी के पास हो। भारी व्यावसायिक गतिविधियों और भीड़ भरे इस बाजार में वहां के व्यापारियों के लिए यह कुछ नया नहीं है। शरीफ लोग मुंह उठाकर ऊपर नहीं देखते। महिलाएं तो शायद ही ऐसा करती हों ।* जब हमने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जीबी रोड जाने का रास्ता पूछा तो लोगों के चेहरे पर कई भाव आये और गए। तिरछी मुस्कान से लोग दायें और बाएं जाना बताते रहे। हमारे लिए यह एकदम नया अनुभव था। टूटे -फूटे दुमंजिले मकान की खिड़कियों से अधखुले कंधे दिखाते गाउन पहने इशारा करती महिलाओं को देखकर समझ मे आ गया कि हमारा गंतव्य स्थल आ गया है। परन्तु एक बड़ी समस्या थी की इन महिलाओं (वेश्याओं) से संपर्क किस तरह किया जाय। इसके लिए हमने पहले वहां के दुकानदार से बातचीत करना तय किया। रामशरण (बदला हुआ नाम) इस इलाके में 48 साल से दुकान चला रहे हैं। वो इस विषय पर काफी सहज नजर आए। वो कहते हैं "ना तो ये महिलाएं हमसे बात करती है ना हीं हम हम लोग इनके काम में दखल अंदाजी नहीं करते। यदि इन्हें कभी काम पड़ता है तो किसी बच्चे या नौकर के जरिये कहलवा दिया जाता है। जीबी रोड मेटल और मेवे का बड़ा बाजार है। यहाँ हमेशा चहल पहल रहती है। आगे रामशरण कहते हैं बाजार होने से ये वेश्याएं सुरक्षित महसूस करती हैं। ग्राहक इनके साथ ज्यादती नहीं कर पाते और यहाँ के व्यवसायी भी सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि कोठों की गुंडों की वजह से कोई हमारे साथ गलत हरकत नहीं करता। रामशरण यह भी दावा करते हैं की जिस बाजार में भी वेश्यावृत्ति होती है वह बाजार काफी फलता फूलता है। जब हमने उनसे पूछा कि आपको कभी कुछ असहज लगता है तो उनका जवाब था कि वो अपना काम करती है बस अजीब यह लगता है कि कल जो छोटी सी बच्ची फ्रॉक पहने यहाँ टॉफी बिस्किट खरीदती थी वो आज खिड़की के पीछे से ग्राहकों की बाट जोहती है, इशारे करती है। वो वेश्यावृत्ति में लग जाती है। इन्ही के माध्यम से हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। रामशरण धर्मेन्द्र (बदला हुआ नाम) नाम के एक व्यक्ति को हमारे साथ कर देते हैं जो हमें आगे का रास्ता दिखाता है। घनी दुकानों के बीच कोठे पर जाने के रास्ते का अनुमान लगाना काफी कठिन था। धर्मेन्द्र आगे चला और दुकानों के बीच से एक संकरी और अँधेरी सीढियों से ऊपर ले गया। ऊपर एक अलग ही दुनिया थी। एक बड़े से हालनुमा कमरे में मुजरे की एक बड़ी तस्वीर लगी थी और सामने एक दलाल बैठा था।18 से 30 साल की लड़कियां इधर से उधर घूम रही थी। शाम के करीब 5 बजे थे उनके लिए यह सुबह का समय था। सभी लड़कियां नींद से जागी थी और दिनचर्या शुरू ही की थी। नाईटी और गाउन में लड़कियां साबुन ब्रश लिए बार-बार उस कमरे से गुजरती जिस कमरे में हम बैठे थे और हम पर नजर डालती। लेकिन बात करने के लिए कोई तैयार नहीं होती थी। सीढियों से अन्दर घुसते ही पहले वो खूबसरत कमरा था जिसमे ऊपर फानूस लटक रहा था। नीचे बिछे गद्दे पर बड़े गोल तकिये लगे थे। इसी खूबसूरती के पीछे छुपी थी काली असलियत। संजीव दलाल (बदला हुआ नाम) जो सभी लड़कियों की निगरानी कर रहा था और हमसे बात भी कर रहा था, उसने बताया कि एक बिल्डिंग में कई कोठे हैं और सबके मालिक अलग अलग होते हैं। इसी बीच वहां पर कुछ ग्राहक भी आ गए जिनको दलाल ने उस वक्त डांट कर भगा दिया। जब हमने लड़कियों के रहन सहन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि एक कमरे में आठ से दस लड़कियां रहती है। उसने दिल्ली के कई पाश इलाके के नाम बताए जहाँ पर खुले आम वेश्यावृत्ति होती है। उसने बताया कि पहड्गंज, लक्ष्मी नगर, पटेल नगर के अलावा और भी कई अच्छे इलाको मे यह करोबार यहा से ज्यादा चलता है। बातचीत के दौरान ही हम हॉलनुमा कमरे के सामने दिख रही अँधेरी गली से अन्दर जाने में सफल रहे, जहाँ इन महिलाओं के रहने के लिए कोठरीनुमा कमरे बने हुए थे। वहां पर बेहद छोटी जगह में बनी रसोई में बैठी माला देवी से बात हुई। 40 साल की मालादेवी अब धंधा नहीं करती वो नई लड़कियों के लिए खाना बनाने का काम करती है। उसकी माँ भी इसी कोठे का हिस्सा थी। अन्दर की स्थिती काफी अमानुषिक थी। एक मंजिले मकान में नीची छत पाटकर दो मंजिल में विभाजित कर दिया गया था। कमरे से ही लकडी की खड़ी सीढ़ी ऊपर जाने के लिए लगी थी। जिसे ग्राहक के ऊपर जाने के बाद हटा लिया जाता है। ऊपर से कुछ महिलाओं ने हमें झाँक कर देखा। हमारे प्यार से हैलो कहने का जवाब इनके पास नहीं था। यहाँ हमसे कोई भी लड़की बात करने के लिए तैयार नहीं हुई। हम वापस दलाल के पास आए उसने कई तरह के बहाने बनाए कि कोठा मालकिन अभी शादी में गयी है। उसकी आज्ञा के बिना यहाँ कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिये वेश्याओं से बात करने के लिए हम दूसरी मंजिल पर बने एक अन्य कोठे में गए। यहाँ भी हमें वैसा ही माहौल मिला पहले-पहल कोई भी लड़की बात करने के लिए राजी नहीं हुई लेकिन उन्हें समझाने के बाद कुछ ने अपने दिल के राज खोले। देखने में मासूम और खूबसूरत ये लड़कियां कहीं से भी आम लड़कियों से जुदा नहीं थी। यहाँ पर हम वेश्यावृत्ति करने वाली आरजू से मिले। आरजू जितना खूबसूरत नाम है उतनी ही वो खूबसूरत भी थी। लेकिन उसकी हकीकत कहीं ज्यादा बदसूरत थी। राजस्थान के छोटे से गांव से आई आरजू की शादी हो चुकी है, पति और पारिवार गांव मे ही रहते हैं आरजू वहां तीज त्योहारों पर जाती है। आरजू हंस कर बात कर रही थी उससे जब हमने पूछा कि उनकी दिनचर्या क्या होती है तो उनका कहना था कि "रात भर काम करने के बाद हम सुबह में सो पाती हैं और शाम को जागती हैं। ब्रश करती हैं, नहाने और नाश्ते के बाद हम मुजरे के लिए तैयार होते हैं। इसी बीच इन्हें खाना और व्यक्तिगत काम निबटाने होते। कुछ ज्यादा ना बोल दे इसलिए बीच में प्रिया आ गयी, थोड़े गठीले बदन कि प्रिया इन सबसे ज्यादा तेज दिखी लेकिन किस्मत उसकी भी धीमी थी। पास में ही बैठी बिंदिया के एक लड़का और एक लड़की है। फ़िलहाल दोनों दूर कही पढ़ाई कर रहे हैं। लेकिन बिंदिया को डर है कि उसकी बेटी को भी यहीं न आना पड़े। तीज त्यौहार किस तरह मनाती है पर प्रिया ने बताया कि वो दोस्तों के साथ पार्टी करती हैं। घूमने जाती हैं। इनकी आँखों में भी सपने थे लेकिन वो सपने थे जो रात को ग्राहक दिखाते हैं और सुबह उनके साथ ही कही गुम हो जाते हैं। इससे ज्यादा ये लड़कियां खुलने को तैयार नहीं हुई। शाम को मुजरे में शामिल होने का वादा भी इन्होने हमसे लिया। हम उसी अँधेरी सीढियों से नीचे आने लगे तो आरजू कि आवाज कानों में पड़ी थी -"नाईस मीटिंग यू"| उनके लिये शायद जरूर नाईस मीटिंग होगी लेकिन हम खुद को उन्हीं तंग कोठरियों में घिरा महसूस कर रहे थे। हमें लग रहा था कि वो दीवारे हमारे साथ चली आ रही है। जहाँ सिर्फ अँधेरा है और छलावा देने वाली रोशनी है। इसके बाद हम जीबी रोड पर बनी पुलिस चौकी पर पहुंचे। वहां पर तीन चार कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल मौजूद थे। जब हमने वहां पर हो रही वेश्यावृत्ति और कोठों के बारे में जानकारी मांगी तो सभी पुलिस वाले बेतहाशा हंसने लगे व मजाकिया लहजे में बात करने लगे। उन्होंने बड़ी शान से कहा जीबी रोड पर 64 नंबर कोठा सबसे शानदार है। वहां पर अच्छे व बड़े घरों के रसूखदार लोग आते हैं। हमने अपनी जिज्ञासा दिखाते हुए कहा कि हम किसी वेश्या से बात करना चाहते हैं तो उन्होने आसान रास्ता बताया कि "सीधे चले जाओ, पहले कोठा मालकिन को 200-250 फीस देनी पड़ेगी फिर तुम्हें लड्की मिल जायेगी और आप उससे आराम से बात करना। ग्राहक बनने का रास्ता सुझाते हुए तीनों पुलिस वाले ने एक दूसरे को कनखियों से देखा और जोर से हंसने लगे। जब हमने गंभीरता से प्रश्न पूछे तो उन्होने हमारा परिचय जानना चाहा। मीडिया की बात जानकर अब वो पूरी मुस्तैदी से बात करने लगे। उन्होने बताया कि जब लड़कियां यहाँ जबरन लाई जाती है और हमें शिकायत मिलती है तो हम तुंरत कार्रवाई करते हैं, या फिर नाबालिग़ लड़की कि सूचना मिलती है तो रेड करते हैं। अभी हाल ही में एक एनजीओ की शिकायत पर दो तीन लड़कियों को रेस्क्यू करा कर हमने नारी निकेतन भिजवाया है। हम जैसे ही यहाँ से वापसी के लिए आगे बढे एक ग्राहक हमारे पास आकर गिडगिडाने लगा की वह कोठे पर गया था, वहां पर कुछ वेश्याओं ने मिलकर उसके तीन हजार रुपये छीन लिए और मारा पीटा। हमारे लिए यह तस्वीर का दूसरा पहलू था। वेश्यावृत्ति भारत में अपराध की श्रेणी में आती है लेकिन प्रश्न यह है कि फिर क्यों जीबी रोड पर रजिस्टर्ड कोठे स्थित हैं। दरअसल यह कोठे राजा महाराजाओं के ज़माने से यहाँ पर स्थित है। तब इनकी शान और रंगीनियाँ अलग रुतबा रखा करती थी। यहाँ रहने वाली महिलाएं बाई जी कहलाती थी लेकिन ये लोग देह व्यापार नहीं करती थी। यहाँ पर राजा, महाराजा मनोरंजन के लिए आया करता थे। गाना बजाना हुआ करता था। इनके संगीत और कला को सराहा जाता था। कइ बाईयाँ तो अपनी आवाज़ और शायरी के लिये दूर्-दूर तक मशहूर थी। धीरे-धीरे यहाँ पर कोठों की संख्या भी काफी हो गयी थी। इसके अलावा जीबी रोड के पास ही सदर बाजार खारी बावली और चांदनी चौक जैसे प्रतिष्ठित मंडियां और बाजार स्थित हैं। यहाँ पर बड़े पैमाने पर व्यापार होता था और आज यह व्यापार काफी फल फूल चुका है। पहले दूर दूर से व्यापारी यहाँ आकर रुकते थे। आधुनिक मनोरंजन के साधन नहीं होने के कारण दूर से भी शौकीन लोग यहाँ पर मनोरंजन के लिए आया करते थे। बाजार आज भी वैसा ही है। लेकिन मुजरे के नाम पर देह व्यापार होने लगा है। मुजरे आज भी होते हैं क्योंकि सरकार की ओर से इन कोठों को मुजरा करने के लिए लाइसेंस मिले हुए हैं और यहाँ हर रात 9 से 12 बजे तक मुजरा होता है। पुलिस के अनुसार 12 बजे के बाद कोई भी व्यक्ति कोठे में नहीं जा सकता। 12 बजते ही पुलिस कोठों को बंद करा देती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090420/3f1874fe/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Tue Apr 21 17:38:12 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 21 Apr 2009 12:08:12 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0015175746023fc3a504680f805c@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी Posted: 20 Apr 2009 10:36 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/HurRyK-cD9E/blog-post_20.html सिर्फ़ प्रोमो ही देख पाया था. पूरी बातचीत तो बीते इतवार को दस बजे रात को आना था रजत शर्मा वाली 'आपकी अदालत में'. पर जितना देख सका, उससे ज़ाहिर हो गया कि जगदीश टाइटलर को गहरा ठेस लगा है. उनकी आंखों में पानी आ गया था. सुबक भी रहे थे. सुबकते हुए उन्‍होंने सिखों के साथ 84 में हुई ज्‍़यादती के लिए माफ़ी भी मांगी थी. बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ़ कर देना अच्‍छा रहेगा कि मेरी मंशा जगदीश टाइटलर को दोषी या दोषमुक्‍ती का प्रमाणपत्र देना कदापि नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि टाइटलर साब कितने दोषी हैं और कितने नहीं. कितने सरदारों का कत्‍ल उन्‍होंने किया और कितनों को ऐसा करने को उकसाया, कितने घर उन्‍होंने ख़ुद फूंके और कितने फुंकवाए... बस मैं तो अपनी स्‍मृतियों को खंघालते हुए कुछ दृश्‍यों के ज़रिए अपनी समझ साझा करने की कोशिश भर करूंगा. उन दिनों मैं उत्तर बिहार के पूर्णियां शहर में एक आश्रमनुमा स्‍कूल में पढ़ता था, जो उस स्‍कूल के तत्‍कालीन प्रधानाध्‍यापक सच्चिदा बाबू के स्‍कूल के नाम से जाना जाता था. सच्चिदा बाबू ने अपनी सेवानिवृति के बाद अपने ही अहाते में कुछ कमरे बनवाकर उसे स्‍कूल सा शक्‍ल दे दिया था और उनके परिचितों और शिष्‍यों के बच्‍चे वहां ज्ञानार्जन करते थे. ज्‍़यादातर बच्‍चे रहते भी वहीं थे. यानी हॉस्‍टल में. हमारे सच्चिदा बाबू सत्‍याग्रह वगैह में गांधी के साथ रहे थे और कई बार बापू के किस्से सुनाते-सुनाते वे फफक पड़ते थे. माने पक्‍के कांग्रेसी थे. गप-शप (हमारी पढाई-लिखाई इसी शैली में होती थी) के दौरान कई बार वे इंदिराजी की बहादुरी के किस्‍से भी सुना डालते थे. लिहाज़ा अक्‍टूबर 1984 की ही किसी दोपहरी में जब रंगभूमि मैदान में इंदिराजी की जनसभी हुई, तो वे हम बच्‍चों को भी उनका भाषण सुनाने ले गए. याद है उस दिन इस्‍त्री वाली हाफ़ पैंट और कमीज़ बहुत दिनों बाद धारण किए थे बच्‍चों ने. मेरे जैसे कुछ बच्‍चों ने चानी पर कड़ुआ तेल भी थोप लिया था. बस, चप्‍पल फटफटाते बच्‍चे लाइन-बाज़ार के आस पास से पैदल ही पहुंच गए थे रंगभूमि मैदान. याद नहीं है क्‍या-क्‍या बोला था इंदिराजी ने, केवल उनके आधे सफे़द और आधे काल बाल ही याद हैं. शायद छठ की छुट्टी से लौटे थे धमदाहा से. मेरी फुआ का कामत था वहां. हॉस्‍टल आने पर पता चला कि इंदिराजी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मार दी. हॉस्‍टल में सन्‍नाटा पसरा था. हेडमास्‍टर साहब सच्चिदा बाबू बार-बार गमछा से आंखे पोछते रहते थे. हमारी पढ़ाई-लिखाई भी बाधित हो गयी थी. पता नहीं अचानक कहां से पंजाबियों (सरदारों) पर आफत आ पड़ी. फारबिसगंज मोड़ से कचहरी के रास्‍ते में एक 'पंजाब टेंट हाउस' था, रातोंरात उसने बोर्ड पर 'भारत टेंट हाउस' लिखवा लिया. हमारे स्‍कूल के क़रीब ही तत्‍कालीन पूर्णिया शहर के गिने-चुने खू़बसूरत घरों में से एक सरदार मंगल सिंह के घर पर ताबड़तोड़ बमबारी कर दी थी किसी ने. सरदार साहब के परिवार की औरतें बदहवास रोती जा रही थीं. अच्‍छी तरह याद है तब तमाम ग़ैरसरदार न केवल तमाशा देख रहे थे बल्कि सरदारों के खिलाफ़ अफ़वाहों की खेती कर रहे थे. रोज़ नए-नए अफ़वाह! बचपन के आंकलन के मुताबिक तब शहर के ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में सरदार ही सबसे आगे थे. शायद वो दिलवाड़ा सिंह थे 'ऐतियाना' वाले, और एक और सिख बस व्‍यवसायी थे. हमारे स्‍कूल में ही किसी बच्‍चे ने कहा था कि दिलवाड़ा सिंह ने अपने अहाते में 50 आतंकवादियों को छुपा रखा है, उनके पास रडार-वडार सब कुछ है. वे लोग डीएम और एसपी को उड़ाने वाले हैं ... महीनों ऐसी अफ़वाहें उड़ती रही थीं.उन्‍हीं दिनों दिसंबर-जनवरी या फरवरी में राजीव गांधी की जनसभा होने वाली थी, अफवाह सुनी, 'फलां सरदार ने अपने छत पर ही मशीनगन सेट कर लिया है, अपने घर से ही भाषण वाले मंच पर राजीव गांधी को टीक देगा.उसके बाद का राजनीतिक घटनाक्रम याद दिलाना मेरे ख़याल से ज़रूरी नहीं है. एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्‍या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्‍दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया जिसका प्रमाण तत्‍काल बाद वाले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करके उन्‍होंने दिया. तब के कई कांग्रेसी आज संघ के विभिन्‍न मंचों और संगठनों के मार्फ़त अपना काम कर रहे हैं. कुछेक विधायक, सांसद और मंत्री भी बनने में कामयाब रहे. मेरे ख़याल से पूर्णिया की तत्‍कालीन सांसद माधुरी सिंहा के सुपुत्र पप्‍पू सिंह ने भी उत्तरार्द्ध में शायद ऐसा ही कुछ किया. अपनी बात समेटते हुए मैं बस यही कहना चाहूंगा कि दंगाइयों का एक तबक़ा चुनाव से बाहर कर दिया जाए और दूसरा प्रधानमंत्री बनने और बनवाने के लिए अखाड़े में ताल ठोकता रहे. मेरे खयाल से नेचुरल जस्टिस इसे तो नहीं ही कहा जा सकता. इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090421/5d14ac9a/attachment-0001.html From ganesh.visputay at gmail.com Wed Apr 22 07:57:08 2009 From: ganesh.visputay at gmail.com (Ganesh Visputay) Date: Tue, 21 Apr 2009 22:27:08 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Ganesh Visputay sent you a Friend Request on Yaari Message-ID: <18422f97885417a42a5ef35c2b148459@localhost.localdomain> Ganesh Visputay wants you to join Yaari! Is Ganesh your friend? Yes, Ganesh is my friend! No, Ganesh isn't my friend. Please respond or Ganesh may think you said no :( Thanks, The Yaari Team ____ If you prefer not to receive this email tell us here. If you have any concerns regarding the content of this message, please email abuse at yaari.com. Yaari LLC, 358 Angier Ave, Atlanta, GA 30312 YaariBDD572WMH693GPA318YKO513 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090421/e8274bbd/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Apr 23 11:35:28 2009 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 23 Apr 2009 11:35:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KS84KSs4KSw?= =?utf-8?b?IOCkquCliOCkpuCkviDgpJXgpLDgpKjgpYcg4KSV4KS+IOCkuOCkueClgCA=?= =?utf-8?b?4KSk4KSw4KWA4KSV4KS84KS+?= Message-ID: <200904231135.29395.ravikant@sarai.net> बीबीसी के हिन्दी ब्लॉग से, ख़दीजा आरिफ़ को धन्यवाद. मैंने दिलचस्प टिप्पणियों की भी नक़लचेपी कर दी है, ताकि मीडिया के विद्यार्थियों को फ़ायदा हो. उम्मीद है कि मैंने लेखक का नाम नागरी में सही लिखा है, उर्दू में था. http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/04/iic-ramsena.html ख़बर पैदा करने का सही तरीक़ा وسعت اللہ خان वुस‌अत उल्लाह ख़ान 15 Apr 09, 02:40 PM आज सीएनएन-आईबीएन, एनडीटीवी जैसे ज़िम्मेदार चैनलों समेत बहुत से भारतीय चैनलों पर यह ख़बर चल रही थी- " नई दिल्ली के इंडियन इटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तान के पत्रकारों पर राम सेना के नौजवानों का हमला, हालात पर क़ाबू करने के लिए पुलिस तलब." मैं भी इस सेमिनार में भाग ले रहे ढाई सौ लोगों में मौजूद था, जो भारत-पाकिस्तान में अंधराष्ट्रभक्ति की सोच बढ़ाने में मीडिया की भूमिका के मौजू पर जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ, मेल टुडे के भारत भूषण और पाकिस्तान के रहीमुल्ला युसुफ़जई और वीना सरवर समेत कई वक्ताओं को सुनने आए थे. जो वाक़या राई के दाने से पहाड़ बना वह बस इतना था कि रहीमुल्ला युसुफ़जई पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के ग़ैर ज़िम्मेदराना रवैए का तुलनात्मक जायज़ा पेश कर रहे थे तो तीन नौजवानों ने पाकिस्तान के बारे में नारा लगाया. प्रबंधकों ने उनको हाल से बाहर निकाल दिया. बस फिर क्या था जो कैमरे सेमिनार की कार्रवाई फ़ि ल्मा रहे थे वे सब के सब बाहर आ गए और उन नौजवानों की प्रबंधकों से हल्की-फुल्की हाथापाई को फ़िल्माया और साउंड बाइट के तौर पर उन नौजवानों के इंटरव्यू लिए. प्रबंधकों ने एहतियात के तौर पर पुलिस के पाँच-छह सिपाहियों को हाल के बाहर खड़ा कर दिया. सेमिनार की कार्रवाई इसके बाद डेढ़ घंटे तक जारी रही. सवाल-जवाब का लंबा सेशन हुआ. ढाई सौ लोगों का लंच हुआ लेकिन चैनलों को मिर्च-मसाला मिल चुका था. इसलिए उनकी नज़र में सेमिनार तो गया भाड़ में, ख़बर यह बनी कि पाकिस्तानी पत्रकारों पर नौजवानों का हमला. फिर यह ख़बर सरहद पार पाकिस्तानी चैनलों ने भी उठा ली और पेशावर में मेरी बीवी तक भी पहुँच गई. उसने फ़ोन करके कहा, आप ख़ैरियत से तो हैं. कोई चोट तो नहीं लगी. जब मैंने कहा इस वाकए का कोई वजूद ही नहीं है तो कहने लगी आप मेरा दिल रखने के लिए झूठ बोल रहे हैं. अब मैं यह बात किससे कहूँ कि जिसे कल तक पत्रकारिता कहा जाता था. आज वह बंदर के हाथ का उस्तरा बन चुकी है और ऐसे माहौल में भारत-पाकिस्तान में जिंगोइज़्म यानी कि अंधराष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की भूमिका की बात करना ऐसा ही है कि अंधे के आगे रोए, अपने नैन खोए. पाठकों की प्रतिक्रिया Vinit Kumar Upadhyay April 15, 2009 3:10 PM आपने फिर वही काम किया सब को एक साथ लपेट लिया (भारत और पाक मीडिया को). शायद आप को पता नहीं भारतीय मीडिया को आजकल धर्मनिर्पेक्षता को बढ़ावा देने का भूत सवार है, इसलिए वो तुरंत सभी ऐसे मुद्दों को पकड़ कर उछाल देते हैं. सभी को एक तरह से देखने का आपका तरीक़ा सरासर ग़लत है. वह अंधराष्ट्रभक्ति नहीं बल्कि भारतीय नौजवान बुद्धिजीवियों के शब्दों में अंधसेकुलरिज़्म या बीमार धर्मनिर्पेक्षता है. तेजपाल सिंह हंसपाल April 15, 2009 3:18 PM बंदर के हाथ का उस्तरा बन रही पत्रकारिता के नियंत्रण के लिए अब एक मैकेनिज़्म की आवश्यकता महसूस होने लगी है. पर सवाल ये उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? Narendra Shekhawat April 15, 2009 3:39 PM आप जैसे पत्रकार होनें चाहिएं. मैं आपकी प्रशंसा करता हूं. Daya Shankar Singh April 15, 2009 3:58 PM हाँ, भारत के टीवी न्यूज़ चैनल बक्वास करते हैं. Tapesh TYAGI April 15, 2009 4:39 PM मुझे आप का ब्लॉग पढ़ कर काफ़ी ख़ुशी हुई. मेरे विचार से सरकार को ऐसे लोगों के लिए एक क़ानून बना ना चाहिए जो अपना कारोबार चमकाने के लिए ऐसे न्यूज़ चैनल चलाते हैं. Sanjay Sharma April 15, 2009 5:07 PM वसतुल्लाह भाई, आपने एकदम सही रग पकड़ी है. आज का मीडिया एक ऐसा जंगली भैंसा बन चुका है जो कहीं भी लाल कपड़ा देख कर दौड़ पड़ता है. टीआरपी (TRP) की होड़ ने पत्रकारिता की आत्मा को मार दिया है. T. S. Kehwar April 15, 2009 5:36 PM मैं ख़ान साहब से पूरी तरह समहत हूँ. ये एक तथ्य है कि मीडिया बहुत ही ग़ैरज़िम्मेदार हो चुका है, वह समाज और मानवता के प्रति अपना दायित्व भूल चुका है. javed April 15, 2009 5:42 PM सर, आप सच कहते हैं. इन दिनों मीडिया राजनेताओं और चरमपंथियों का खिलौना बन चुका है. अंधराष्ट्रवाद मीडिया में ताज़ा ताज़ा आया है. वास्तव में मीडिया स्थानीय नेताओं की तरह है. जैसे नेता स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं ठीक उसी तरह टीआरपी बढ़ाने और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए मीडिया कुछ भी करने को तैयार है. anjani kumar April 15, 2009 6:18 PM सर, कृपया आप इसे इस रूप में देखिए कि यहां पर इस तरह की घटनाओं को हिंदूवादी संगठनों को बदना म करने के लिए तूल दिया जाता है. Rakesh K. Mathur April 16, 2009 1:42 AM नौजवान पत्रकारों का आजकल यही हाल है. आजकल इस माध्यम को अनुभव और अनुभुति के आधार पर बनी विश्लेषण की नहीं बस एक पत्नी की मसालेदार टिप्पणी की आवश्यक्ता है. बहरहाल भविष्य के बारे में हम फिर भी आशावादी हैं. ashok kumar rana April 16, 2009 3:56 AM टीआरपी की इस अंधी दौड़ में इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया अपना मूलभूत दायित्व भूल गए हैं. ब्रेकिं ग न्यूज़ के बिना मानों उनका अस्तित्व ही नहीं है. उन्हें झूठ ही जनतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. ये लोग तो मीडिया हाउस के सिर्फ़ ग़ुलाम हैं. उनकी देशभक्ति की परीक्षा तो 26/11 में ही हो गई. shivratan vyas April 16, 2009 5:29 AM ये बात बिल्कुल सही है और उसके साथ सटीक भी. आजकल ख़बरें ऐसे बनाई जाती हैं. सच बात पाठकों के सामने लाने के लिए धन्यवाद. Chander Tolani April 16, 2009 5:33 AM पहले तो आप को बधाई कि आपने इस विषय में लिखा. इतनी बेबाकी से कोई और शायद ही लिख पाता, ख़ासकर ऐसे में जबकि आप ख़ुद एक पत्रकार हैं. टीवी चैनलों में ख़बरें दिखाने की जल्दबाज़ी में कुछ का कुछ दिखा दिया जाता है. कल भी एक बड़े हिंदी न्यूज़ चैनल ने सलमान ख़ान पर चुनाव प्रचार में एक लड़के के ज़रिए हमले की बात कही पर बाद में साफ़ हुआ कि वह लड़का तो सलमान का बचाव कर रहा था. Hanfi April 16, 2009 5:38 AM देखा, कितना ज़िम्मेदार है हमारा मीडिया! डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल April 16, 2009 6:18 AM काश! आप जैसे संतुलित लोगों की आवाज़ मुख्यधरा का मीडिया भी सुने और सुनाये. लेकिन उसे तो अपनी टीआरपी बढ़ाने की अंधी दौड़ से फ़ुरसत मिले तब तो वह ऐसा करें. Ronny Yadav April 16, 2009 6:48 AM बहुत दिनों बाद एक पत्रकार से मुलाक़ात हुई. साहब ये सीएनएन और एनडीटीवी वाले मुनाफ़ा ख़ोर पत्रकार नहीं हैं, बीबीसी में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें टीआरपी के लिए काम करना पड़ता है. लेकिन आप जैसे ईमानदार लोग आगे नहीं आएंगे तो कल पत्रकारों की भी वही हैसियत होगी जो हमारे देश में पुलिस और नेताओं की है. kuldeep koshta April 16, 2009 6:52 AM मैं आप के विचार से सहमत हूँ. मीडिया का हाल ये है कि जहां किसी ने कहा कि कौवा कान ले गया तो वे कान को देखे बिना कौवे के पीछे दौड़ पड़ते हैं. Abhay Sahay April 16, 2009 7:32 AM आज का न्यूज़ चैनल हमें ज़हर पिला रहा है और हम जाने अनजाने इसे पी रहे हैं क्योंकि हम न्यूज़ देखने के भूखे हैं. एक ही बात को ये न्यूज़ चैनल 8-10 बार कहते हैं. ऐसे में ग़लत भी सही लगने लगता है, उस कहावत की तरह कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच हो जाता है. मुझे तो न्यूज़ चैनल से घृणा होने लगी है. Mukesh Sakarwal April 16, 2009 8:13 AM बहुत अच्छा काम किया है आपने, ख़ास तौर से इसलिए भी की आप ही उसके चश्मदीद गवाह भी हैं और इस के बारे में आपसे बेहतर और कौन कह सकता है. आपने किसी का भी पक्ष नहीं लिया है और निशाना सीधा लगाया है. मैं समाचार देखना पसंद करता था लेकिन पिछले दस वर्षों में टीआरपी के चक्कर में और न्यूज़ कंपनी और संवाददाताओं के निजी लाभ के लिए इसमें काफ़ी गिरावट आई है. हर आदमी केंद्र में रहना चाहता है उन्हें इससे मतलब नहीं है कि वे क्या दिखा रहे हैं और इसका समाज पर क्या असर पड़ रहा है. Mayank Tyagi April 16, 2009 8:52 AM मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूं और ये विश्वास रखता हूं कि आप ऐसे ही निष्पक्ष हो कर ब्लॉग लिख कर इस अंधेर नगरी में उजाला करते रहेंगे. हो सकता है कि आपको देखकर कुछ और लोगों को भी अक़ल आए और वे इस बात को समझें कि मीडिया जिसे हम लोकतांत्रिक देश का चौथा स्तंभ मानते हैं वो आज धूल में मिल रही है. Deepak Verma April 16, 2009 9:10 AM ख़ान साहब, वैसे तो मैंने आपके काफ़ी लेख पढ़े हैं लेकिन एक दिन आपका लेख 'आख़िर रसोइया क्या करे' पढ़ा तो मैं आपका फ़ैन हो गया. मैं आपका वेदप्रताप वेदिक, अकबर जैसे पत्रकारों की तरह दिल से सम्मान करता हूँ और मैं आपसे पूरी तरह से सहमत हूं. आज भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो बिल्कुल बकवास हो गई है, ये हर तरह से गिर चुकी है, मैंने आरु‏षि कांड को टीवी पर देखने के बाद इनसे नफ़रत करने लागा हूं और अपना केबल कटवा दिया है. हम सबको इनका बॉयकॉट कर देना चाहिए जबतक सरकार इनके लिए कोई आचार संहिता नहीं बनाती. Abdul Wahid April 16, 2009 9:52 AM भाई जवाब नहीं. मै खुद भी एक टीवी पत्रकार हूँ. लेकिन पत्रकारिता बनाम बाज़ारवाद और न जाने कितने वादों से आहत हूँ. कभी कभी तो मेरा दम घुटने लगता है. वास्तविकता यह है कि योग्य पत्रका र पूँजीवादी अर्थव्यव्स्था में धरातल से रसातल में चला गया है. कुछ लुभावने और मनमोहक चेहरों से का म चलाया जा रहा है. ऐसे वातावरण में आप क्या आशा कर सकते हैं. Mohd Alamgir April 16, 2009 10:06 AM भारतीय मीडिया केवल टीआरपी के लिए कुछ भी बोल और दिखा देता है. जैसे इंडिया टीवी केवल साँप बिच्छू और प्रलय ही दिखाता है. उसकी हर ख़बर विशेष ही होती है. बाटला हाउस एनकाउंटर में ही मीडिया वालों का सच सामने आ गया था. सच क्या है उसे जानते हुए भी सच को नहीं दिखा रहे थे. मीडिया वाले भी पुलिस और सरकार से डरते हैं. sanjeev sharma April 16, 2009 10:48 AM भारत का टीवी मीडिया हर मायने में ग़ैर ज़िम्मेदार है. Shailesh Sharma April 16, 2009 11:06 AM खान साहब, आपने आज दुखती रग पर हाथ रख दिया. एनडीटीवी, आईबीएन-7 जैसे चैनल भी आब मुनाफ़ा खोर हो गए हैं. एकतरफ़ा खबरें देने लगे हैं. बिक चुके हैं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया. एब तो प्रिंट मीडिया से ही उम्मीद बची है. sanjeev kumar April 16, 2009 11:52 AM खान साहब, मैं आपके हर ब्लॉग को पढ़ता हूँ. आपकी बात हमारे दिल को छू जाती है. लगता है कि पत्रकारिता का जो मक़सद होना चाहिए वो अब रहा नहीं और अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ये लोग ख़ास करके भारत के सारे चैनल काम करने में लगे रहते हैं. आप जैसे वरिष्ठ समझदार लोगों को सरकार से मिल कर कुछ मापदंड बनानी चाहिए नहीं तो पत्रकारिता का मतलब ही ग़लत हो जाएगा. Ashok April 16, 2009 12:09 PM मैं मानता हूँ कि आज हमारे देश का जो बुरा हाल है उसके ज़िम्मेदार आज ये सारे समाचार चैनल हैं क्योंकि मीडिया ही लोगों को जैसा दिखाएगा वो वैसा ही देख कर सोचेंगे. मीडिया को अपनी सही ज़िम्मेदारी समझने की ज़रूरत है न कि अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने की. जितेंद्र वाघ April 16, 2009 12:43 PM बहुत खूब वसतुल्लाह साहब, लेकिन सही कहूं तो आपका लेख पढ़ने से कहीं ज़्यादा मज़ा आपके निराले अंदाज़ में आपकी रिपोर्टर की चिट्ठी सुनने में आता है. एक निष्पक्ष पत्रकार, वाकई ढूंढे नहीं मिलता आज, सिवाय बीबीसी के. Rajan April 16, 2009 12:44 PM आपका बहुत शुक्रिया. मुझे बड़ी हैरानी है आपका ब्लॉग पढ़कर लेकिन उससे ज़्यादा हैरानी हुई यह देखकर कि ये बीबीसी पर है. मतलब अभी कुछ लोग मीडिया में हैं ज़मीर वाले लेकिन हिंदुस्तान में एक भी नहीं बचा. आज नेता और पुलिस से ज़्यादा भ्रष्टाचार मीडिया में है . हर किसी को पैसा चाहिए. चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए क्या बोलते हैं और कैसे बोलते हैं कुछ अहसास नहीं है. मैं आपकी ईमानदारी की तहेदिल से कद्र करता हूँ. मुझे मालूम है अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता पर कम से कम हमें अपने ज़मीर के आगे शर्मिंदा नहीं होना पड़ता. dashrath singh April 16, 2009 1:05 PM वाह आज मुझे एक सच्चे पत्रकार का लेख पढ़ने को मिला है. नफ़रत के सैलाब में मोहब्बत का पैग़ाम मिला है. आप जैसे पत्रकार मिल जाएं तो दुनिया में शांति छा जाएगी और धर्म से बढ़ कर इंसानियत हो जा एगी. आप जैसे लोगों को बुद्धिजीवी कहने में मुझे फ़ख़्र महसूस हुआ. सर, माफ़ करें, मेरे पास आपकी क़ा बिलियत की तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं. govind goyal, sriganganagar April 16, 2009 1:19 PM तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाना हमें बहुत आता है और बहुत भाता भी है. NARENDRA SHARMA April 16, 2009 1:47 PM कभी मैं भी पत्रकार बनना चाहता था लेकिन आज की पत्रकारिता से चिढ़ हो गई है. आजकल के पत्रका र पैसे के भूखे और देश के दुश्मन हैं. जब पाकिस्तान यूरोप से हॉकी में जीतता है तो मैं खुश होता हूँ जैसे हम जीते. एक बात कहूँ, ..हिंदी पाकिस्तानी भाई भाई क्योंकि और कोई भाई हो ही नहीं सकता. सोचना होगा हम सबको इस बारे में. आपका बेइंतेहा शुक्रिया. prashant April 16, 2009 2:33 PM आपको पढ़ कर सोचने पर मजबूर हुआ कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता. pradeep singh April 16, 2009 2:54 PM बिलकुल सही कहा आपने. pradeep singh April 16, 2009 2:55 PM सही कहा आपने कि पत्रकारिता से ज़िम्मेदारी गायब होती जा रही है. ख़ास कर इलैक्ट्रॉनिक मीडि या से. उनको तो सिर्फ़ मसाला चाहिए. sharma April 16, 2009 3:11 PM मीडिया कभी गरीब का दर्द नहीं दिखाता. उन्हें तो अरबपतियों-करोड़पतियों की खबर ही दिखती हैं जैसे सोनिया गाँधी. वह जूता चप्पल की बात करते हैं लेकिन गरीब बच्चों की शिक्षा के बारे में कोई खबर नहीं दिखाते. Ramprakash meel April 16, 2009 3:59 PM वुसतुल्ला जी, आपको पढ़ा, यह सही है कि भारत हो या पाकिस्तान, दोनों तरफ़ ही मीडिया ऐसे लो गों के कब्ज़े में है जिन्हें इन देशों की असली समस्या पर बात करने की बजाय एक दूसरे के देश को गालि याँ निकालना आसान लगता है. वो मानते हैं कि ऐसा करने से वो सच्चे राष्ट्रभक्त बन जाते हैं. इन्हें कौन सदबुद्धि देगा. ये सबसे बड़ा सवाल है. maneesh kumar sinha April 16, 2009 4:15 PM आप यहाँ क्या कर रहे हैं? आप स्वात में अपने समाज की ओर से चलाए जा रहे तालेबानी और चरमपंथी शि विरों के बारे में बात करने की हिम्मत क्यों नहीं करते. Archana Bharti April 16, 2009 4:55 PM सर, आपका कहना बिलकुल सही है. आज का मीडिया राजनेताओं के हाथ का खिलौना बन चुका है. उनमें वस्तुनिष्ठा की कमी हो गई है. ये जो भी हो रहा है बहुत ग़लत हो रहा है जिसके कारण मीडिया का ग़लत असर समाज पर पड़ रहा है. मीडिया के लोग एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में ऐसा काम कर रहे हैं. मीडिया के सिद्धांत और नियमों को तो भूल चुके हैं. ऐसे मीडियाकर्मी के कारण मीडिया बदनाम हो रहा है. KHALID NAJMI JALKAURVI April 16, 2009 5:17 PM वुसतुल्ला भाई, उर्दू रेडियों में आपका मशहूर कार्यक्रम बात से बात हो, हम बहुत पसंद करते हैं जो सच्चाई और हक़ीक़त पर आधारित होता है. लेकिन आज जो वाकई हुआ वो भी आज की पत्रकारिता की तल्ख़ हक़ीक़त का पता देती है. सिर्फ़ सबसे तेज बनने के लिए असल चीज़ छूट जाती है. जिसे हम पत्रका रों को सीखने की ज़रूरत है. आज की पत्रकारिता का हाल यह है कि ख़ुदकुशी करने वाला कैमरे के सा मने ख़ुदकुशी कर रहा है और लोग बचाने की बजाय फ़िल्म बनाने में मशगूल हैं. शायद समाज को उसूल सि खाने वालों को भी उसूल सिखाने की ज़रूरत आ पड़ी है. आर्य April 16, 2009 7:01 PM ये बात बिलकुल सही कही आपने. आजकल टीवी और समाचार पत्र बिलकुल बेकार हो गए हैं. हर कोई अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहा है. पैसे और नाम कमाने के लिए अधिकतर पत्रकार कुछ भी करने को तैयार हैं. अब पत्रकार जन-हित की नहीं सोचते, केवल अपने हित की ही सोचते हैं. दीपक शर्मा April 16, 2009 7:09 PM आपने बिल्कुल सही बात कही है. लोगो को पता है कि कुछ भी ,अर्थविहीन या अनाप-शनाप करो, जैसे कैमरे के सामने जूते फ़ेंको, फिर आपको हिट करने के लिये सनसनी खोजने वाला मीडिया तो है ही ! मगर बुनियादी प्रश्न यह है कि दिखाने वाला है इसीलिये कोई देखता है या कोई देखना चाहता है इसलिये दिखाने वाला है. असल में इसके पीछे आम लोगों की मांग है ...इसी कारण जर्नालिज़्म का कैपिटलिज़्म हो रहा है! satish shama April 16, 2009 7:17 PM निष्पक्ष खबरें लोगों के सामने ज़्यादा संख्या में आनी चाहिए. Sanjay Shah April 16, 2009 7:48 PM जी हाँ, खान साहब, मैं आपकी बातों से बिलकुल सहमत हूँ. कुछ मीडिया वाले राई का पहाड़ बनाने में माहिर हैं. लेकिन ये यह नहीं समझते कि इसका प्रभाव क्या होगा. जैसे कि आपने कहा कि आपने अपनी बीवी को फ़ोन करके बताया कि आप ख़ैरियत से हैं लेकिन उनको यकीं नहीं हुआ...यही वो वजह है जो दिलों में नफ़रत की चिंगारी भरती है. ये मीडियावाले कुछ भाईचारा, कुछ दूरियों को दूर करने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं. मीडिया वालों, अभी भी कुछ अच्छा करो. पहले तो नेताओं की वजह से 2/3 टुकड़े हो चुके हैं हिंदुस्तान के...पता नहीं तुम्हारे रवैये से इस मुल्क़ के कितने टुकड़े होंगे. vishal gupta April 17, 2009 6:08 AM यह बिलकुल सच है कि आजकल मीडिया समाज को जोड़ने नहीं बल्कि तोड़ने का काम कर रहा है. इसपर रोक लगनी चाहिए. इसके लिए हमें भी कुछ प्रयास करने चाहिए जैसे मीडिया के लोगों के साथ बातची त की जाए. tanzir ansar April 17, 2009 6:38 AM शायद इसीलिए पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है. और इसमें भी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता पर सबसे ज़्यादा सवाल उठ रहे हैं. टीआरपी की अंधी दौड़ और कुछ नया परोसने की जल्दबाज़ी ने इसे आम आदमी के सरोकार से अलग कर दिया है. देखते हैं कि यह सब कब तक बर्दाश्त किया जाएगा. From vineetdu at gmail.com Fri Apr 24 17:40:06 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 24 Apr 2009 17:40:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKrgpYjgpKbgpL7gpIfgpLYg4KS5?= =?utf-8?b?4KWC4KSCLOCkquCli+CkuOCljeCknyDgpLLgpL/gpJbgpYcg4KSs4KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkruCksCDgpJzgpL7gpIngpILgpJfgpL4=?= Message-ID: <829019b0904240510w651813fet7265bc7d1d18c513@mail.gmail.com> अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखे मुझे छ दिन हो गए। ब्लॉग खोलकर देखा तो सोचा- बाप रे,छ दिन जब हो गए. मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है कि मैं दिल्ली में हूं,कमरे में लिखने की सारी सुविधा है,फिर भी छह दिनों तक कुछ लिखा ही नहीं। अब ऐसा भी कुछ नहीं था कि मैं कोई पहाड़ तोड़ रहा था। आमतौर पर ब्लॉगरों की राय होती है कि वे फुर्सत में होते हैं, तभी ब्लॉगिंग करते हैं। मेरे साथ थोड़ी दूसरी स्थिति है। मैं फुर्सत में होता हूं तो चाहे जो कुछ भी कर लूं लेकिन ब्लॉगिंग नहीं करता. बहुत ही व्यस्त समय में ब्लॉगिंग करता हूं। जब खूब अच्छी पढ़ाई चल रही होती है,प्रिंट के लिए डेडलाइन होती है कि इतने दिनों में देना है, ऐसे समय में ब्लॉगिंग करता हूं। व्यस्त होने की स्थिति में मेरा सब कुछ रेगुलर हो जाता है, लोगों से चैट करने से लेकर ब्लॉगिंग करने तक। लेकिन अबकि बार स्थिति दूसरी हो गयी। व्यस्त तो रहा,अपनी पीएचडी का कुछ काम भी किया,नया ज्ञानोदय के लिए मर-गिरकर लेख भी लिख दिया,लोगों से चैटिंग भी की,फेसबुक पर लिखी रवीश की सस्ती शायरी का जबाब भी दिया जिसे कि मेरी एक दोस्त दूतरफी चुतियापा कहती है,सब कुछ किया लेकिन ब्लॉगिंग नहीं की। मन करता है कि कोई हमसे सवाल करे- छ दिन तक तुम्हें ब्लॉगिंग नहीं की, मन नहीं किया कि कुछ लिखें, कैसे रह गए तुम छह दिनों तक. मन किया,एक-दो नहीं,बहुत बार किया। अभी लिखने बैठा तो पांच ड्राफ्ट पड़े थे,सबके सब अधूरे। किसी पोस्ट की पांच लाइन,किसी की चार लाइन,किसी की दो लाइन,एक की तो सिर्फ शीर्षक ही। मैं चाहता तो अब तक ये पांचों पोस्ट प्रकाशित हो गयी होती। मैं लिखता औऱ फिर मिटा देता। मैंने बहुत कोशिश करके इसे नहीं प्रकाशित होने दिया, बहुत दबाना पड़ा इसके लिए अपने को। पिछले दिनों जब मैं अपने दोस्तों सहित बाकी के लोगों से मिला तो सबने यही कहा- यार बहुत लिखते हो तुम,इतना क्यों लिखते हो। ये बात किसी ने तारीफ में नहीं कही। किसी ने मेरी तुलना राजकिशोर औऱ आलोक पुराणिक से करनी शुरु कर दी तो किसी ने कहा- क्या-क्या पढ़े तुम्हारा लिखा। एक ने कहा- तुम लिख देते हो और जब चर्चा होती है तो लोग पूछते हैं- विनीत की फलां पोस्ट पढी तुमने, मैं कहता हूं नहीं. यार,जबरदस्ती एक प्रेशर क्रिएट करते हो,लिखते हो तो पढ़ना पड़ता है। अच्छा, लिखते हो तो लिखो, उसे दीवान(सीएसडीएस,सराय का हिन्दी चिट्ठा मंच)पर मत डाला करो। इन सब लोगों की बात मुझे थोड़ी लग गयी। मुझे सबसे ज्यादा ये बात लगी कि मेरी तुलना किसी से की जाने लगी है, वो भी कंटेंट को लेकर नहीं, लिखने को लेकर। ये किसी भी स्ट्रग्लर राइटर के लिए खतरनाक स्थिति होती है। मैंने मन को मजबूत किया औऱ सोचा,अब कम लिखा जाए। आज दोपहर,आनंद प्रधान सर से चैटबॉक्स पर बात हो रही थी। फेसबुक पर उन्होंने अपने एक स्टूडेंट के सवाल को चस्पाया है कि इस लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया की क्रेडिबलिटी खत्म हो जाएगी। ऐसा इसलिए कहा कि खबर है कि अखबारों में पैसे लेकर खबरें औऱ प्रत्याशियों के इंटरव्यू छापे जा रहे हैं। मैंने कहा- सर मैं इसी के उपर पोस्ट लिखना चाह रहा हूं। उन्होंने कहा- हजार शब्द का एक लेख ही लिख दो,शाम तक। मैंने अभी-अभी उन्हें वो लेख मेल कर दिया। पोस्ट फिर भी लिखना नहीं हो सका. आज की पोस्ट का विषय तो प्रिंट के लिए चला गया। इन दिनों जब मैं कुछ-कुछ प्रिंट के लिए लिखने लगा तो लगा कि ब्लॉगिंग छूट जाएगी। जब लिखने के पैसे मिल रहे हैं तो फिर मुफ्त में क्यों ब्लॉग पर जान देता रहूं। लेकिन मैंने महसूस किया कि मैं प्रिंट के लिए लाख लिखूं, जब तक पोस्ट नहीं लिख लेता,तब तक बेचैनी बनी रहती है। मैंने सोचा, आज उसी वजह को आपके सामने रख दूं। क्यों है ऐसा, दिन-दिनभर रिसर्च की थीसिस और लेख लिखते रहने के बाद भी ब्लॉग लिखने की छटपटाहट क्यों बनी रहती है। कई बार मैंने महसूस किया है कि जिस दिन मैं पोस्ट लिखने बैठता हूं और कोई कहता है इस मसले पर लेख लिखो तो उसके बाद भी मैं पोस्ट लिखता हूं। इसे हिन्दी समाज ब्लॉगिया जाना कहता है। अगर बीमारी है तो इलाज के लिए सोचना होगा। क्या कोई डॉक्टरी इलाज संभव है। तब उस हरकत का भी इलाज होगा, जब बछड़ा,रस्सी तोड़कर मां के पास जाने के लिए छटपटा जाता है। सात महीने की नन्हीं अपनी मां को देखते ही दूसरे की गोद से उस पर कूद जाती है,खुशी का भी इलाज कराना होगा, जब मेरे पापा की पेट पर फुटबॉल खेलने के लिए मचल उठती है। लिखने के मामले में,मैं शुद्ध रुप से ब्लॉगिंग की पैदाइश हूं। ब्लॉग पर मैंने लिखना सीखा। यही आकर समझा कि बेमतलब का लिखना कैसा होता है। खट-खट टाइप करते हुए यहीं मॉनिटर पर कभी प्रेमचंद के अक्श दिखाई दिए तो कभी लिख-लिखकर कागज फाड़ते हिन्दी रचनाकारों की कतार दिख गयी। अभी तक मेरा मन नहीं कहता कि तुम्हें कोई बीमारी हुई है और अगर तुम्हें फिर भी लगता है कि कि बीमारी है तो उसका एक ही इलाज है- पहले की तरह ही लिखो,लिखते रहो। पाठकों,मेरे दोस्तों मुझे जीवन में स्वस्थ रहना है, ये मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती है औऱ स्वस्थ रहने के लिए मुझे लिखते रहना होगा। अब तुम्हारे जो जी में आए कहो- मुझे लिखना है,मुझे झेलने के अलावे कोई उपाय है तो खोज लो प्लीज। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090424/d615a7bb/attachment-0001.html From ganesh.visputay at gmail.com Sat Apr 25 07:58:07 2009 From: ganesh.visputay at gmail.com (Ganesh Visputay) Date: Fri, 24 Apr 2009 22:28:07 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Reminder: Please Respond to Ganesh's Invitation Message-ID: <830be3dd0a56e2c50d153dcc491a1064@localhost.localdomain> Ganesh Visputay wants you to join Yaari! Is Ganesh your friend? Yes, Ganesh is my friend! No, Ganesh isn't my friend. Please respond or Ganesh may think you said no :( Thanks, The Yaari Team ----------------------------------------------------------- Yaari Inc., 358 Angier Ave NE Atlanta, GA 30312 Privacy Policy | Unsubscribe | Terms of Service YaariBDD572WMH693GPA318YKO513 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090424/f6692814/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 25 19:47:33 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 25 Apr 2009 19:47:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KS24KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkpuClh+CkluClh+Ckgg==?= Message-ID: <363092e30904250717v2b421a67qfe255fc5e1c8db83@mail.gmail.com> भागीदारी नहीं, व्यवस्था परिवर्तन में है मुक्ति कुछ दलित विचारक डाइवर्सिटी के अमेरिकी सिद्धांत की बात करते हैं तथा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग करनेवाले कुछ दलित नेता अमेरिका की प्रसंशा में लगे हुए है. चंद्रभान जैसे तथाकथित दलित विचारक पूंजीवादी व्यवस्था में ही दलितों का उत्थान देखते हैं. उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि देश में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है , वह सही है और उसे रोकने की जरूरत नहीं है. वे केवल इतना ही चाहते हैं कि इस नयी व्यवस्था में कुछ हिस्सा दलितों को भी मिल जाये. निस्संदेह यह हिस्सा 25 करोड दलितों के लिए नहीं, बल्कि उन दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए है , जो भ्रष्ट साधनों से धन कुबेर बन गये हैं. ये दलित धन कुबेर ही निजी कंपनियों में ठेके प्राप्त कर सकते हैं और ये ही इन कंपनियों में नौकरी पाने लायक उच्चतम शिक्षा अपने बच्चों को दिलाने की क्षमता रखते है. इस व्यवस्था में 95 प्रतिशत गरीब दलित कहां आते हैं , जो रोज कमाते और खाते हैं तथा एक पूर्ण नागरिक का हक पाने के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं और जूझ रहे हैं. आज की इस दिग्भ्रमित दलित राजनीति और दलित चिंतन के खतरनाक भटकाव में यह विचार करना लाजिमी लगता है कि दलित समाज का हित सिर्फ जातिवाद पर आधारित भागीदारी आंदोलन में नहीं, और न सिर्फ आरक्षण में है, बल्कि समग्र दलित समाज का हित शोषण पर आधारित, इस व्यवस्था को बदलने में है. रामशंकर आर्य का यह पूरा आलेख पढिये हाशियापर. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090425/322d18f5/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Sun Apr 26 00:42:12 2009 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 26 Apr 2009 00:42:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KSo4KSX4KSwIOCkleCkviDgpLjgpL/gpK/gpL7gpLjgpYAg4KSW4KWH?= =?utf-8?b?4KSyIOCknOCkqOCkpOCkviDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCkqOCljA==?= =?utf-8?b?4KSf4KSC4KSV4KWA?= Message-ID: <6a32f8f0904251212q51a3af2dnb5346f89b36f8e7d@mail.gmail.com> *श्रीनगर** **का सियासी खेल जनता के लिए नौटंकी* जम्मू और कश्मीर की राजनीति में ऊंची रसूख रखने वाला शेख अब्दुल्ला का परिवार 15वीं लोकसभा चुनाव में आमने-सानमे है। शेख अब्दुल्ला के बेटे डा. फारूख अब्दुल्ला और बेटी खालिदा शाह श्रीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही हैं। इससे घाटी में चुनावी बयार धीमी गति से ही पर रंग पकड़ता जा रहा है। इन दोनों भाई-बहन की सियासत की राहें वर्ष 1986 में ही उस समय अलग हो गई थीं, जब खालिदा के पति जीएम शाह ने नेशनल कांफ्रेंस से अलग होकर कांग्रेस के सहयोग से अपने मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा किया था। लेकिन, दोनों पहली बार सियासी लड़ाई में आमने-सामने खड़े हैं। यहां राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता इन दिनों खूब सक्रिय हैं। पत्रकार बिरादरी इनकी सियासी चालें सूंघने में लगी हैं। लेकिन, अवाम में इस लोकतांत्रिक उत्सव को लेकर खास उत्साह नहीं है। वे अपनी रोजमर्रा की कठिनाइयों से निपटने में व्यस्त हैं। शहर की किसी चौपाटी पर नमकीन चाय की चुस्कियों के साथ कोई इस चुनाव के बाबत बहस करना नजर नहीं आता है। हालांकि, देश के दूसरे राज्यों में इन दिनों यह नजारा आम है। यहां लाल चौंक से गुजरते समय निसार मिल गए। वह दिल्ली स्थित एक कॉल सेंटर में दो वर्ष नौकरी कर वापस लौटे हैं। उन्होंने कहा, “वादी के आम लोगों से जुड़ा मुद्दा कभी यहां गंभीर मुद्दा नहीं बनता है। दिल्ली में प्याज महंगे होते हैं तो सरकार बदल जाती है। यहां जान जाती है तो उसपर लोग अपनी सियासत चमकाते हैं।” उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियां केवल भावनात्मक मुद्दों को उठाकर वोट पाना चाहती हैं। जब से होश संभाला है, कश्मीर को इसी आग में जलते देखा है। कई बार निसार की बातें सही मालूम पड़ती हैं। इन दिनों दिल्ली में स्कूल फीस का मामला गर्म है। बच्चों के माता-पिता फीस बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं। नेतागण उनकी बात सुन रहे हैं। मीडिया भी नोटिस कर रही है। उधर श्रीनगर की स्थिति अलग है। शहर के सबसे अच्छे स्कूल की स्थापना सन् 1880 में हुई थी। फिलहाल नाम याद नहीं। लेकिन स्कूल की दीवार लाल चौंक से लगी है। लोगों ने बताया कि इस स्कूल की फीस 50 से 60 हजार रुपये सलाना है। जहां आम लोगों की आमदनी का जरिया काफी हद तक खत्म हो चुका है। वहां के लोग कैसे अपने बच्चे को इस स्कूल में पढ़ा सकते हैं। कोई इस बात को नहीं उठाता। अपनी जरूरत में हद तक कटौती कर कई लोग अपने बच्चे को यहां पढ़ाते हैं। श्रीनगर में हाउस बोट चलाने वाले मोहम्मद शफीक ने बताया, “वोट देने का उत्साह तो उस वक्त जगता है, जब कोई उम्मीद दिखे। यहां तो सियासी चालों के बीच हमारी रोजी-रोटी मुश्किल में पड़ जाती है। ऐसे में उत्साह कैसे जगेगा।” साल भर पहले की एक घटना का हवाला देते हुए शफीक ने कहा- पिछले साल जब पर्यटकों के आने का मौसम हुआ तो सियासतदानों ने नाहक ही अमरनाथ जमीन विवाद को पैदा कर दिया। खूब हंगामें हुए। घटना के बाद यहां नाम मात्र के पर्यटक ही आए। ऐसे में हमारी कमाई पूरी तरह चौपट हो गई। अब हम किस पर यकीन करें? और जब यकीन ही नहीं है तो वोट किसे दें? यहां शहरी क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों के लोग वोट की तारीख यानी 7 मई का इंतजार कर रहे हैं। एक ग्रामीण बुजुर्ग महिला ने बताया कि कभी शेख अब्दुल्ला उनके नेता हुआ करते थे। इस परिवार में आज भी उनका यकीन है। लेकिन, उक्त महिला यह जानकर परेशान है कि शेख अब्दुल्ला के पुत्र फारूख और पुत्री खालिदा इस बार चुनाव में आमने-सामने हैं। खालिदा अवामी नेशनल कांफ्रेंस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी हैं। उन्होंने बातचीत में कहा कि वे अवाम की आवाज बुलंद करने के वास्ते चुनाव मैदान में उतरी हैं। ऐसे में श्रीनगर लोकसभा सीट का मुकाबला दिलचस्प माना जा रहा है। 2004 के चुनाव में यहां से नेशनल कांफ्रेंस की टिकट पर पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के पुत्र उमर अब्दुल्ला चुनाव जीते थे। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी पीडीपी के गुलाम नबी लोन को 23,169 वोटों से हराय था। उस समय यहां 18.57 प्रतिशत वोट डाले गए थे। इस बार हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के वोट प्रतिशत को देखते हुए पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा अधिक वोट पड़ने की उम्मीद है। इसके बावजूद शहरी क्षेत्र में वोटिंक प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद नहीं है। द कश्मीर टाइम्स नामक दैनिक अखबार के एक पत्रकार ने बताया कि यहां मोबाइल वोटिंग का भी चलन है। विभिन्न पार्टी के कार्यकर्ता उन लोगों को निशाने पर रखते हैं जो वोट नहीं डालते हैं और चुनाव के दिन फर्जी वोटर आई कार्ड लेकर उक्त व्यक्ति के नाम से धूम-धूमकर वोट डालते जाते हैं। हाल में हुए विधानसभा चुनाव के बाद यह मामला सामने आया है। फिलहाल यहां मतदाताओं की कुल संख्या 11,02,451 है। इनमें 5,74,443 पुरुष और 5,28,008 महिलाएं हैं। स्थानीय लोगों का अनुमान है कि डा. फारूख को सियासत का लंबा तजुर्बा है। वे जनता की नबज पहचानते हैं। इसलिए वे अपनी बड़ी बहन खालिदा की अपेक्षा यहां मजबूत स्थिति में हैं। इसके बावजूद शहरी क्षेत्र में कम मतदान होने की संभावना उनके लिए चिंता का सबब है। यहां से पीडीपी प्रत्यासी मौलवी इफ्तिखार हुसैन मैदान में हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090426/c70bddfe/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Apr 27 15:22:45 2009 From: ashishkumaranshu at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSG4KS24KWA4KS3IOCkleClgeCkruCkvuCksCAn4KSF4KSC4KS24KWBJw==?=) Date: Mon, 27 Apr 2009 15:22:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpJjgpLAg4KS54KWL4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSC4KSn4KWHIOCkquCksA==?= Message-ID: <196167b80904270252o5fb01b73r7ca4b8eef4314e74@mail.gmail.com> http://deshbandhu.co.in/php/newsDetails.php?news_id=514&ntype=10 दो महीने से भी कम में मानसून पुन: आ जाएगा। बिहार में पिछले मानसून में कोसी नदी में आई बाढ़ की क्षतिपूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है। आज भी बाढ़ पीड़ितों को एक वर्ग राहत शिविरों एवं खुले आसमान के नीचे रहने को अभिशप्त है। कोसी क्षेत्र में एक कहावत प्रसिध्द है- 'कोसी का घर कांधे पर।' अर्थात् बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले यायावरों सी जिन्दगी जीने को विवश हैं। इस साल वे जहां रह रहे हैं, जरूरी नहीं कि अगले साल भी वे उसी जगह मिले। कोसी की धार के साथ-साथ इनके घर भी बदलते हैं। बाढ़ का आकर इन लोगों का घर तोड़ती है और ये लोग पानी उतरने के बाद अपने घरों को फिर जोड़ लेते हैं। इस जोड़-तोड़ के खेल में जो नहीं टूटा है, वह है इस क्षेत्र में रहने वालों का हौसला। सुपौल जिले के डूमरिया गांव के मोहम्मद मोहिनुद्दीन को 60 सालों की अपनी जिंदगी में 28 बार घर बदलना पड़ा है। जब-जब कोसी ने अपनी जगह बदली तब-तब मोहिनुद्दीन का कोसी के साथ इस तरह की आंख-मिचौली का खेल हुआ। जहां कल तक कोसी थी आज वहीं मोहिनुद्दीन का घर है। यह अकेली मोहिनुद्दीन की कहानी नहीं है। उन जैसे सैकड़ों हजारों लोगों का यह दर्द है। इस क्षेत्र में आपसी सहयोग की भावना ऐसी है कि कोई किसी की जमीन पर अपना घर बना ले तो जिसकी जमीन है उसे आपत्ति नहीं होती। लोग एक की जमीन से दूसरे की जमीन पर यायावरों की तरह इस उम्मीद में सफर कर रहे हैं, कि उनकी जो जमीन कोसी के गर्भ में है वह एक दिन बाहर आएगी। इतना कुछ गुजरने के बाद भी लोगों की नाराजगी कोसी से तनिक भी नहीं है। कोसी तो इस क्षेत्र की बेटी है और यहां रहने वालों के मन में उसके लिए 'मां' सा सम्मान है। लोगों की नाराजगी, उन लोगों से है जो प्राकृतिक नहीं 'सरकारी बाढ़' के लिए जिम्मेवार हैं। सबकी शिकायत सरकार, प्रशासन और व्यवस्था से है। जिनके लिए 'कोसी की बाढ़' रिलीफ फंड की गंगा है। यात्रा के दौरान एक भी ऐसा नहीं मिला जो कोसी को बिहार का शोक मानता हो। हाल में ही (20 मार्च से 27 मार्च 2009) बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र के सान्निध्य में उन क्षेत्रों में जाने का मौका मिला जहां बरसात के मौसम में जाया नहीं जा सकता। बाढ़ वास्तव में बिहार के लिए एक बार की समस्या नहीं है। यह हर साल आती है। उसके बावजूद अब तक इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकाला जा सका। इसकी वजह है, बाढ़ के नाम पर आने वाला रिलीफ फंड। बाबू से लेकर अधिकारी तक ऐसा कौन है जिसने 'बाढ़ रिलीफ फंड' की गंगा से दो-चार बाल्टी पानी न निकाला हो? बाढ़ आने के साथ-साथ कुकुरमुत्ते की तरह एनजीओ उग आते हैं और बाढ़ खत्म होने के साथ-साथ खत्म भी हो जाते हैं। पता नहीं सरकार बाढ़ का स्थायी उपाय क्यों नहीं ढूंढती? बाढ़ प्रभावित जिलों में पंचायत स्तर पर नाव की व्यवस्था करवाना बहुत अधिक खर्चीला काम नहीं है। यात्रा के दौरान कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के दौरान पता चला कि सरकार ने कुशहा में मरम्मत के समय कुछ लाख रुपया बचाने के लिए लाखों लोगों की जान दांव पर लगा दी और अरबों रुपयों का नुकसान उठाया। हमारी यात्रा जारी थी। यात्रा के क्रम में जब हम लोग नेपाल के सुनसरी जिले में आने वाले कुशहा तटबंध पर पहुंचे तो वहां काम जोरों पर था। यह वही कुशहा थी, जहां 18 अगस्त 08 को तटबंध टूटने की वजह से बिहार को भीषण बाढ़ से जूझना पड़ा था। जिसकी वजह से बिहार के पांच जिलों के 35 प्रखंडों के 993 गांवों के 33.29 लाख लोग प्रभावित हुए थे। इससे 3.68 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ की चपेट में आई और 2.37 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए। लगभग 600 लोगों के शव बरामद कर लिए गए हैं और उनकी पहचान हो गई है। उसके बाद भी अभी तक हजारों लोग लापता हैं। कुशहा में मौजूद इंजीनियरों ने आश्वस्त किया कि 20 अप्रैल 09 तक तटबंध की मरम्मत का काम पूरा हो जाएगा। परंतु इस बार फिर पानी का दबाव बढ़ने पर तटबंध नहीं टूटेगा इस बात की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है। यह विश्वास जरूर दिलाया गया कि तटबंध उस जगह से नहीं टूटेगा, जहां पिछली दफा टूटा था। कुशहा के बाद हम लोग पहुंचे सुनसरी जिले के ही प्रकाशपुर के अंतर्गत राजाबास गांव में बने तटबंध पर। यहां कोसी तटबंध के बिल्कुल पास पहुंच चुकी है और तटबंध की हालत खस्ता है। यदि केन्द्र और राज्य सरकारें नहीं जागीं तो कुशहा साबित न हो जाए। नेपाल में कुशहा और प्रकाशपुर तटबंधों की देखभाल का काम भारत के पास ही है। कुशहा का क्षेत्र नेपाल में सुरक्षित क्षेत्र घोषित होने की वजह से आम नेपाली व्यक्ति तटबंध तक नहीं जा सकता। पिछले साल जिन लोगों ने टूटने से पहले कुशहा तटबंध को देखा था, उनमें एक माओवादी नेता देवनाथ यादव भी थे। यादव के अनुसार उस वक्त तटबंध पर बिछाए गए पत्थर बालू में तब्दील हो गए थे। वहां इस्तेमाल की गई जाली भी सड़ गई थी। कमाल की बात तो यह है कि तटबंध टूटने से पहले वहां से जाली और बोल्डर हटा लिए गए थे। इसलिए इतना नुकसान हुआ। कुछ-कुछ ऐसे ही हालात इस वक्त प्रकाशपुर में हैं। आने वाले समय में कोसी की धार किस रास्ते मुड़ेगी कोई नहीं जानता। इसलिए हमें सतर्क हो जाना चाहिए। जानकारों के अनुसार इस बार प्रकाशपुर का बांध टूटा तो पूर्णिया को बचा पाना भी मुश्किल होगा। -*आशीष कुमार 'अंशु'* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090427/7c95f5e9/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Mon Apr 27 17:52:09 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Mon, 27 Apr 2009 12:22:09 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0016363b929c38550a04688865ba@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// पहला मतदान दस बरस की उम्र में Posted: 26 Apr 2009 09:44 PM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/6p6NZ5B6N-0/blog-post_26.html 84 की ही बात है. सच्चिदा बाबू वाले स्‍कूल में किसी बात की छुट्टी थी. लिहाज़ा हम (सुधांशु और मैं) धमदाहा में थे. चुनावी गहमागहमी ज़ोरों पर थी. तब फुफाजी जीवित थे. पढ़ा-लिखा परिवार होने के कारण उनकी कद्र थी. सीपीआई से लेकर कांग्रेस तक, सभी दलों के प्रत्‍याशी ज़रूर उनके दरवाज़े पर आते थे. उसी क्रम में एक दिन माधुरी सिन्‍हा के दर्शन का योग बना. श्रीमती सिन्‍हा तब वहां की सांसद थीं और चुनाव में कांग्रेस (इ) की उम्‍मीदवार भी. फुफाजी के कहने पर भाग कर अंगना से स्‍टील वाली कप में रखी चाय को स्‍टील वाली ट्रे पर लाने में गजब की खु़शी हुई थी. जल्‍दी-जल्‍दी चाय ले कर पहुंचने के चक्‍कर में लगभग आधी चाय छलक कर ट्रे में हिलकोरे मारने लगी थी. कुल जमा ये कि फुफाजी के दरवाज़े पर प्रत्‍याशियों का आना-जाना लगा रहता था. फुफाजी सबसे प्‍यार से मिलते थे और अपनी ओर से निश्चिंत होने का भरोसा दिलाते थे. तो लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से पहले वाली शाम को चुनाव संपन्‍न कराने वाले कर्मियों का दल आया. मेरे फुफेरे भाइयों व उनके चचेरे भाइयों ने उनके ठहरने और खाने-पीने का ठीक-ठाक इंतजाम करा दिया. अब उन मछुआरे का नाम याद नहीं जो फुफाजी के घर के पास ही रहते थे और रात-विरात मौक़ा पड़ने पर मछली लेकर हाजिर हो जाते थे. तो उस रात मछली-भात खाने के बाद पोलिंग पार्टी मंदिर के पास नंदकिशोर भइया वाले दालान में लेटने चले गए. बाद में भैया वगैरह उनसे अगले दिन के कार्यक्रम के बारे में बातचीत कर आए. हम बच्‍चों को उस गोष्‍ठी से महरूम रखा गया. सुबह से ही आस-पास के टोले वाले मंदिर से थोड़ी दूर पर कोसी किनारे टाट-फट्टी वाले स्कूल पर कतारबद्ध जमा होने लगे थे. फुफाजी और उनके कुनबे में जो भी हम चार-छह बच्‍चे थे, उनमें 'भोट' देखने को लेकर बड़ा उत्‍साह था. पर भैया लोगों के डर से हम दूर से ही तमाशा देखने को मजबूर थे. पता नहीं, किधर से संजय भैया आए और बोले, 'हम त भोट गिरा के अइनि ह'. संजय भैया फुफाजी के सबसे छोटे भतीजा थे और हमसे तीन-चार साल बड़े थे. हमारे लिए उनका भोट गिरा कर आना किसी किला फतह करने से कम नहीं था. हम सारे बच्‍चे हिम्‍मत जुटा कर चल पड़े बूथ की तरफ़. भैया लोग और पोलिंग पार्टी दोनों कमरे में व्‍यस्‍त थे. एक-दो भैया लाइन-वाइन ठीक करा रहे थे. और कुछ स्‍कूल के तथाकथित गेट के बाहर बन्‍दूक लेकर निगरानी कर रहे थे. हमारी हिम्‍मत, हम तीनों-चारों अवरोधों को पार करते हुए पहुंच गए अंदर बूथ पर. बड़का भैया देखे और चिल्‍लाए, 'वाह रे भोटर सS! भागS ताड़S कि ना तोहनिं.' मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और रोते-रोते वोट डलवा देने की विनती करने लगा. हमारी गिरगिराहट से पसीज कर भइया ने मुझे प्रेजाइडिंग ऑफिसर से एक बैलेट पेपर दिलवा दिया. जब तक हम बैलेट को हाथ में लेकर खु़श होते तब तक उन्‍होंने मुहर थमाते हुए कागज पर छपे 'हाथ' के निशान पर मेरा हाथ पकड़ कर ठप्‍पा दिलवा दिया. मेरे उंगली में रोशनाई लगाने की मांग को भी वे मान गए. बग़ल में बैठे किसी साहब में ने मेरी उंगली पर निशान लगा दिया. बड़ा मज़ा आया था. महज़ दस बरस का था तब. आज भी उस वाक़ये को याद करके रोमांचित हो उठता हूं. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090427/e0948989/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Apr 28 08:09:58 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 28 Apr 2009 08:09:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS/4KSV4KWN?= =?utf-8?b?4KSa4KSwIOCkn+CljeCkr+ClguCkrCDgpJXgpL4g4KSy4KWL4KSV4KSk?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KWN4KSw?= Message-ID: <829019b0904271939o500d9324m33b3a6f25e2e42d5@mail.gmail.com> न्यूज 24 की रिपोर्टर शैलजा सिन्हा ने लगभग दस लोगों से ये सवाल किया कि चुनावी महौल में नेता लोग मुद्दों पर बात न करके एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में लगे हैं। कभी मनमोहन सिंह आडवाणी के बारे में कुछ कहते हैं तो कभी आडवाणी मनमोहन सिंह के बारे में कुछ कहते हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं? लड़कों के हॉस्टल(ग्वायर हॉल,दिल्ली विश्वविद्यालय)में मौजूद डूसू की एक्स प्रेसीडेंट रागिनी नायक सहित बाकी लोगों ने कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। नेताओं को चाहिए कि वे मुद्दों पर बात करें। लोगों का मानना रहा कि गरीबी,आतंकवाद,आर्थिक मंदी सहित ऐसे दर्जनों मुद्दें हैं जिस पर की बात की जानी चाहिए लेकिन आज मुद्दा आइपीएल बन गया है,एक-दूसरे को भला-बुरा कहना और कोसना बन गया है। एक मीडिया स्टूडेंट होने के नाते मेरी अपनी जो समझदारी बनी उसे मैंने कुछ इस तरह रखा- देखिए,इसमें पूरा मामला जो है जिस डेमोक्रेसी या लोकतंत्र की बात कर रहे हैं ये इमेज बिल्डिंग की डेमोक्रेसी है। ये छवि बनाने,बिगाडने,करप्ट और इन्जस्ट करने की डेमोक्रेसी है। इसलिए आज छवि इतना ज्यादा जरुरी हो गया है। मुद्दों पर राजनीति हो ही नहीं रही है और जैसे-जैसे अन्य माध्यमों का विकास होगा,मुद्दे की राजनीति खत्म हो जाएगी। आप देखिए कि क्यों करोड़ों रुपये लगाकर इतने विज्ञापन बनाए जा रहे हैं? क्यों वर्चुअल स्पेस जेनरेट किया जा रहा है? उसमें आडवाणी की कहें या राहुल गांधी की कहें,ऐसी छवि बनायी जो रही है जो जोश से लवरेज है। वो रातोंरात हिन्दुस्तान को बदल देने का जज्बा रखता है। लेकिन दूसरी तरफ ये भी देखिए कि वही इंडिया शाइनिंग करोड़ों रुपये लगाने के बाद भी पिट जाता है। जब तक इस इमेज बिल्डिंग की डिकोडिंग पर्सनल लाइफ में वोटर टू वोटर नहीं होगा,एक ऑडिएंस को जब तक मतदाता के रुप में कन्वर्ट नहीं करेंगे,ये इमेज बिल्डिंग आधारित डेमोक्रेसी जो बन रही है,ये बुरी तरह पिट जाएगी। इसलिए मुद्दों का नहीं होना जैसा कि मेरे कुछ दोस्तों ने कहा,कोई बड़ी समस्या नहीं है। आनेवाले समय में सारे मुद्दे गायब हो जाएं,कोई बात नहीं। जरुरत सिर्फ इस बात की है कि आप जो छवि बना रहे हैं, टेलीविजन के जरिए,विज्ञापन के जरिए,उसकी डिकोडिंग मतदाता के सामने हो जाए बस। आज से चार दिन पहले एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम विनोद दुआ लाइव में अपूर्वानंद(प्राध्यापक और समाजशास्त्री,डीयू ) ने विज्ञापन आधारित राजनीति पर चिंता जताते हुए कहा कि- हमारी चिंता इस बात की है कि इस तरह की राजनीति से राजनीतिक व्यक्तियों से आम जनता का संवाद धीरे-धीरे खत्म हो ता चला जाएगा जो कि किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंता पैदा करनेवाली स्थिति है। यह बात साफ है कि विज्ञापन और टेलीविजन के जरिए लोकतंत्र की जो शक्ल बन रही है वो पार्टी कार्यकर्ता,प्रत्याशी और मतदाता के सीधे हस्तक्षेप से बनने वाले लोकतंत्र से बिल्कुल अलग है। इसे मैंने टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि निर्माण का लोकतंत्र पर लेख लिखने के क्रम में( नया ज्ञानोदय के लिए) पिक्चर ट्यूब से पैदा लोकतंत्र या वर्चुअल डेमोक्रेसी कहा है जहां राजनीतिक रुप से सक्रिय होने के स्तर पर हमारी भूमिका बस इतनी भर है कि हम ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन देखें,उनके चिन्हों को समझें औऱ एहसास करें कि हम सक्रिय मतदाता या नागरिक हैं। तस्वीर देखने के लिए क्लिक करें-http://teeveeplus.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090428/bf64b5c3/attachment-0001.html From raviratlami at gmail.com Tue Apr 28 09:51:20 2009 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Tue, 28 Apr 2009 09:51:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KSmIOCkleClgeCkruCkvuCksCDgpJXgpL4g4KSG4KSy4KWH4KSWIDog?= =?utf-8?b?MjEg4KS14KWA4KSCIOCkuOCkpuClgCDgpJXgpYAg4KSb4KSy4KSb4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSJ4KSa4KWN4KSb4KSyIOCkueCkv+CkguCkpuClgA==?= Message-ID: <49F68440.50703@gmail.com> अरविंद कुमार का आलेख : 21 वीं सदी की छलछल उच्छल हिंदी रचनाकार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है हिन्दी समांतर कोश के रचयिता अरविंद कुमार का एक समीचीन, बेहतरीन और विचारोत्तेजक आलेख. हिंदी की परिशुद्धता का रोना रोने वालों की सदा सर्वदा के लिए आँखें खोल देने वाला आलेख. अत्यंत पठनीय, उद्धरणीय व संग्रहणीय. अपने तमाम मित्रों को, फ़ोरमों पर मुक्त-हस्त, अधिक से अधिक फॉरवर्ड करें. *अरविंद कुमार आजकल एक अनूठे English--Hindi--Roman Hindi कंप्यूटर प्रोग्राम पर काम कर रहे हैं*... यह कोश थिसारस और लैंग्वेज ऐक्सप्लोरर होगा--संसार में अपनी तरह का एकमात्र विशाल शब्द भंडार जिस के द्वारा हर लेखक अनुवादक किसी भी भाव से किसी भी भाव तक, शब्द समूहों तक जा सकेगा. जो लोग देवनागरी नहीं जानते लेकिन हिंदी सीखना चाहते हैं...रोमन लिपि उन की सहायता करेगी, चाहे वे बंगाली हों, तेलुगु या विदेशी.इसी प्रकार हिंदी भाषियों को यह इंग्लिश शब्द संपदा बढ़ाने में सहायक होगा. clip_image002 --अरविंद कुमार 24 अप्रैल 2007 के /हिंदुस्तान/ (दिल्ली) के मुखपृष्ठ पर छपे एक चित्र का कैप्शन-- /"//पीऐसऐलवी सी-8 //से इटली के उपग्रह एजाइल को कक्षा में स्थापित कर भारत ने ग्लोबल स्पेस मार्केट में प्रवेश किया. इसरो की यह उड़ान पहली व्यावसायिक उडान थी. इसरो दुनिया की अग्रणी एजेसियों की श्रेणी में आया. (श्रीहरिकोटा से) लांचिंग के दौरान सतीश धवन केंद्र के इसरो प्रमुख जी. माधवन व वरिष्ठ वैज्ञानिक मौजूद थे."/ यह है आजादी के साठवें वर्ष में नौजवान हिंदुस्तान, और नौजवान हिंदी -- संसार से बराबरी के स्तर पर होड़ करने के लिए उतावला हिंदुस्तान. और पूर्वग्रहों से मुक्त हर भाषा से आवश्यक शब्द समो कर अपने को समृद्ध करने को तैयार हिंदी, जो इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय नगर न्यू यार्क में विश्व सम्मेलन कर रही है, और अपने लिए अधिकारपूर्वक जगह माँग रही है. कहाँ 1947 का वह देश जहाँ एक सूई भी नहीं बनती थी, जहाँ चमड़ा कमा कर बाहर भेजा जाता था, और जूते इंपोर्ट किए जाते थे. जहाँ साल दो साल बाद भारी अकाल पड़ते थे. बंगाल के अकाल के बारे में आजकल के लोग नहीं जानते, पर अँगरेजी राज के हिंदुस्तान की वही सच्ची तसवीर है--भूखा नेगा किसान, बेरोज़गार नौजवान. कहाँ आज अपनी धरती से देशी राकेट में अंतरिक्ष की व्यवासायिक उड़ान भरने वाला, चाँद तक अपने राकेट भेजने के सपने देखने वाला देश! *आज़ादी में हिंदी का पहला मतलब...* ऐसे में मेरा मन साठ बासठ साल पीछे चला जाता है. होश सँभालने पर मैं ने आजादी की लड़ाई के अंतिम दो तीन वर्ष ही देखे--1945 से 1947 तक. 15 अगस्त की झूूमती गाती मस्ती और उत्साह से रात भर सो न सकने वाली दिल्ली मुझे याद है. मुझे यह भी याद है कि किस प्रकार सितंबर से सांप्रदायिक दंगों से घिरी दिल्ली में हमारा स्वयंसेवकों का दस्ता दिन भर करौल बाग़ के आसपास के उन मकानों का जायजा लेता था जिन के निवासी पाकिस्तान जाने वाले शिविरों में चले गए थे (ऐसे ही एक घर में मैं ने तवे पर अधपकी रोटी देखी थी, और किसी कमरे में किताबों से भरे आले अल्मारियाँ देखे थे, जिन में से मैं प्रसिद्ध अँगरेजी उपन्यास /वैस्टवर्ड हो/ उठा लाया था), और रात को रेलवे स्टोशन पर उतरने वाले रोते बिलखते या सहमे बच्चों वाले परिवारों को ट्रकों में लाद कर उन घरों में छोड़ आता था. आजादी के पहले दिनों की याद आए और वे दिन याद न आएँ ऐसा हो नहीं सकता. मुझे याद है आम आदमी की तरह हमारे मनों में भाषा को ले कर कोई एक बात थी तो थी अँगरेजी से मुक्त होने की ललक. (मैं मैट्रिक पास कर चुका था, कोई भाषाविद नहीं था, पर भाषा प्रेम तो कूट कूट कर भरा था.) चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अँगरेजी की सफ़ाई बिदाई के बाद हिंदी की ताजपोशी हो, सत्ताभिषेक--जल्दी से जल्दी, तत्काल, फौरन. उन दिनों जनता के स्तर पर ब्रिटिश इंडिया में हिंदी कहीं नहीं थी. कोर्ट कचहरी थाने तहसील में काररवाई अँगरेजी के बाद उर्दू में होती थी. कारण ऐतिहासिक थे. लेकिन हिंदी वालों के मन में उर्दू का विरोध भी गहरे बसा था. उसे सांप्रदायिक रंग भी दिया जाता था, जिस के पीछे एक भ्रामक नारा था -- /हिंदी//, //हिंदु, //हिंदुस्तान./ जैसे देश मलयालम, तमिल, गुजराती, बांग्ला आदि भाषाएँ हों ही नहीं! उत्तर भारत के बहुत सारे लोगों को वह नारा मोहक लगता था. आज़ाद होते ही हर क्षेत्र की तरह भाषा के क्षेत्र में भी देश ने दूरगामी क़दम उठाने शुरू कर दिए. तरह तरह के वैज्ञानिक संस्थान और शिक्षा के लिए अच्छे से अच्छे तकनीकी विद्यालयों की योजनाएं बनाई जाने लगीं. छलाँग लगा कर पचास सालों में तेज दौड़ती दुनिया के निकट पहुँचने के पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं. आकलन किया गया था कि 1984 के आसपास हम लक्ष्य के कहीं क़रीब होंगे. 84 तक हिंदुस्तान की उन्नति का लांचिंग पैड तैयार हो चुका था, अब उडानें नज़र आ रही हैं. इसी प्रकार हिंदी की उन्नति के लिए आयोग बने, नई शब्दावली का निर्माण आरंभ हुआ. तरह तरह के कोशों के लिए अनुदान दिए गए. डाक्टर रघुवीर की /कंप्रीहैंसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी /और पंडित सुंदर लाल का विवादित हिंदुस्तानी कोश उन्हीं अनुदानों का परिणाम थे. हिंदी के सामने चुनौती थी उस अँगरेजी तक पहुँचने की जो औद्योगिक क्रांति के समय से ही तकनीकी शब्द बनाती आगे बढ़ रही थी. वहाँ शब्दों का बनना और प्रचिलत होना एक ऐसी प्रक्रिया थी, जैसे सही जलवायु में किसी बीज का विशाल पेड़ बन जाना. हिंदी के पास यह सुविधा नहीं थी, या कहें कि इस का समय नहीं था. रास्ते में उसे ग़लतियाँ करनी ही थीं. ऊपर वाले दोनों कोश वैसी ही ग़लतियाँ कहे जा सकते हैं. (रघुवीरी कोश को भी ग़लती मान कर मैं ने कोई कुफ़्र तो नहीं कर दिया? लेकिन मैदाने जंग में शहसवार ही गिरते हैं, घुटनों के बल चलने वाले बच्चे नहीं. डाक्टर रघुवीर हमारे कुशलतम घुड़सवार थे, इस में कोई शक नहीं.) आज़ादी के बाद हिंदी का मतलब पंडिताऊ हिंदी से बचती हुई लेकिन संस्कृत शब्दों से प्रेरित नवसंस्कृत शब्दों वाली भाषा हो गया था. अचानक राष्ट्रभाषा और राज्यभाषा पद पर बैठने वाली भाषा को अँगरेजी की सदियों में बनी वौकेबुलैरी के नज़दीक पहुँचना था. हिंदी के लिए तकनीकी शब्दावली बनाने का महाभियान या आपरेशन शुरू किया गया. यह ज़रूरी भी था. नई स्वतंत्र राष्ट्रीयता के जोश में वैज्ञानिकों के साथ बैठ कर हिंदी विद्वान शब्द बनाने बैठे. जैसा चीन में हुआ वैसा ही भारत में भी. तकनीकी शब्दों के अनुवाद, कई जगहों पर अनगढ़ अप्रिय अनुवाद, किए जाने लगे. जो भाषा बनी वह रेडियो समाचारों और हिंदी दैनिकों पर कई दशक छाई रही. लेकिन लोकप्रिय न हो पाई. कारण: यह फ़ैक्ट ओवरलुक कर दिया गया कि तकनीकी शब्द वे लोग बनाते हैं जो किसी उपकरण को यूज़ करते हैं या इनवैंट करते हैं. यह भी नज़रंदाज कर दिया गया कि उन्नीसवीं सदी वाली आधी-ऊँघती आधी-जागती दुनिया इक्कीसवीं सदी की तरफ़ दौड़ रही है. अब इनफ़ौर्मेशन क्रांति के युग में हर रोज़ इतनी सारी नई चीज़ें बन रही हैं कि उन के नामो का अनुवाद करते करते और अनुवाद को लोकप्रिय करते करते संसार हमें पीछे छोड़ जाएगा. जो भी हो पिछले सौ सालों में हिंदी में जो तीव्र विकास हुआ है, एक आधुनिक संपन्न भाषा उभर कर आई है, वह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है. लैटिन से आक्रांत इंग्लैंड में अँगरेजी को जहाँ तक पहुँचने में पाँच सौ से ऊपर साल लगे, वहाँ तक पहुँचने में हिंदी को मेरी राय में कुल मिला कर डेढ़ सौ साल लगेंगे--2050 तक वह संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी-- सिवाए एक बात के. वह यह कि आज अँगरेजी संसार में संपर्क की प्रमुख भाषा है. इस स्थान तक हिंदी शायद कभी न पहुँचे, या पहुँचे तो तब जब भारत दुनिया का सर्वप्रमुख देश बन पाएगा. दुरदिल्ली! संख्या की दृष्टि से हिंदी बोलने वाले आज दुनिया में चौथे स्थान पर हैं. वे धरती के हर कोने में मिलते हैं. कई देशों में वे इनफ़ौर्मेशन तकनीक में मार्गदर्शक ही नहीं नेता का काम कर रहे हैं, जब कि भारत में यह तकनीक काफ़ी बाद में पहुँची. इस सब के पीछे है वह आंतरिक ऊर्जा जो हर भारतवासी के मन में है. वह ललक जो हमें किसी से पीछे न रहने के लिए उकसाती है. अँगरेजी राज के दौरान भी यह भावना हम में सजग थी. कुछ सत्ता सुख भोगी या सत्ताश्रित वर्गों के अलावा आम आदमी ने विदेशी राज को कभी स्वीकार नहीं किया. *इतिहास गवाह है...* लेकिन इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रकार और स्तर पर अंतरसांस्कृतिक संपर्क परिवर्तन और विकास का प्रेरक रहा है. भारत के आधुनिकीककरण के पीछे अँगरेजी शासन और यूरोपीय संस्कृतियों से संपर्क के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. राजा राम मोहन राय के ज़माने से ही समाज को बदलने की मुहिम भीतर तक व्यापने को उतावली हो गई थी. सुधारों के सतही विरोध के बावजूद ऊपरी तौर पर दक़ियानूसी दिखाई देने वाले लोग भी एक अनदेखी सांस्कृतिक प्रणाली से साबक़ा पड़ने पर मन ही मन अपने को बदलाव के लिए तैयार कर रहे थे. ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे आंदोलन यूरोप, सत्ता द्वारा प्रचारित ईसाइयत और विदेशी शासन कं ख़िलाफ़ और अपने आप को उस से बेहतर साबित करने के तेजी से लोकप्रिय होते तरीक़े थे. इंग्लिश थोप कर भारतीयों को देसी अँगरेज बनाने की मैकाले की नीति उलटी पड़ चुकी थी. वह केवल कुछ काले साहब बना पाई, आम जनता जिन का मज़ाक़ उड़ाती रही. मैकाल की मनोकल्पना के विपरीत अँगरेजी शिक्षा ने विरोधी विचारकों और नेताओं की एक पूरी फ़ौज ज़रूर तैयार कर दी जो यूरोप में प्रचलित नवीनतम बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को समझ कर अँगेरजी शासन के ख़िलाफ़ जन जागरण का बिगुल फूँकने लगे. इस परिप्रेक्ष्य में कई बार विचार जागता है कि अगर मैकाले न होता, उस ने अँगरेजी न थोपी होती, तो क्या हमारा देश आज भी अफ़गानिस्तान ईरान और अनेक अरब देशों जैसा मध्यकाल में रहने वाला देश न रह जाता! आज जापान दुनिया में हम से भी बहुत आगे है. जापान में सम्राट मेजी का जो सुधार अभियान (चुने नौजवानों को अमेरिका भेज कर अँगरेजी सिखाना, नवीनतम तकनीक सीख कर देश को आधुनिक बनाना, और कुरीतियों को मिटा कर समाज सुधार करना) 19वी सदी के अंतिम दो दशकों में आरंभ हुआ, भारत में उस की नीवं मैकाले ने अँगरेजी शिक्षा का माध्यम बना कर अनजाने ही लगभग पचास साल पहले रख दी थी. तकनीकी विकास पर ज़ोर हमारे यहाँ नदारद था, क्यों कि वह शासकों के हित में नहीं था. लेकिन तकनीकी विकास और भारत की पुरानी तकनीकी अग्रस्थिति को फिर से पाने की तमन्ना भारत में आज़ादी की पहली लड़ाई से पहले ही जाग उठी थी. अँगरेजो से लड़ाई के लिए टीपू सुल्तान ने फ़्रांस से संपर्क किया था, कई नौजवान वहाँ भेजे थे, नवीनतम तकनीक सीखने. टीपू की हार ने वह सब स्ामाप्त कर दिया. ढाके की मलमल का और किस प्रकार उसे बनाने वाले कारीगरों के अँगूठे कटवाए गए--इस बात का जिक्र बीसवीं सदी के स्वतंत्रता आंदोलनों पर लगातार छाया रहा. 1857 से कुछ वर्ष पहले ही सेठ रणछोड़ ने अहमदाबाद में पहली सूती मिल खोल दी थी. जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने इस्पात संयंत्र की स्थापना बीसवीं सदी के मुख पर 1907 में कर दी थी. स्वदेशी आंदोलन इस से पहले शुरू हो चुके थे. समाज सुधार और आजादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था. हिंदी राजनीतिक संवाद की भाषा और जनता की पुकार बनी. पत्रकारों ने इसे माँजा, साहित्यकारों ने सँवारा. उन दिनों सभी भाषाओं के अख़बारों में तार द्वारा और टैलिप्रिंटर पर दुनिया भर के समाचार अँगरेजी में आते थे. इन में होती थी एक नए, और कई बार अपरिचित, विश्व की अनजान अनोखी तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक शब्दावली जिस का अनुवाद तत्काल किया जाना होता था ताकि सुबह सबेरे पाठकों तक पहुँच सके. कई दशक तक हज़ारों अनाम पत्रकारों ने इस चुनौती को झेला और हिंदी की शब्द संपदा को नया रंगरूप देने का महान काम कर दिखाया. पत्रकारों ने ही हिंदी की वर्तनी को एकरूप करने के प्रयास किए. वाराणसी का ज्ञान मंडल का कोश दैनिक आज के संपादन विभागाों से उपजे विचारों और उसके प्रकाशकों की ही देन है. मुझ जैसे हिंदी प्रेमियों के लिए यह वर्तनी का वेद है. तीसादि दशक में फ़िल्मों को आवाज़ मिली. बोलपट या टाकी मूवी का युग शुरू हुआ. अब फ़िल्मों ने हिंदी को देश के कोने कोने में और देश के बाहर भी फैलाया. संसार भर में भारतीयों को जोड़े रखने का काम बीसवीं सदी में सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, पत्रकारों, साहित्यकारों और फ़िल्मकारों ने बड़ी ख़ूबी से किया... आज कुछ वर्गों में ग्लोबलाइज़ेशन का विरोध फ़ैशन बन गया है. ग्लोबलाइज़ेशन या ग्लोबलन या फिर सुधीश पचौरी के बनाए शब्द ग्लोकुल के आधार पर ग्लोकुलन है क्या? व्यापारिक, सांस्कृतिक और संप्रेषण के स्तर पर दुनिया का एक गाँव भर बना जाना, या ऐसा परस्पर-संपृक्त कुल बन जाना जो परस्पर तत्काल व्यवहार कर रहा हो, एक दूसरे से आदान प्रदान कर रहा हो. आज आज़ाद हिंदुस्तान इस दुनिया में अपनी जगह सुदृढ़ करने के लिए उतावला है. हिंदी का विकास और प्रसार इस में सबल भूमिका निभा रहा है. परिणामस्वरूप भाषाई स्तर पर जो उलटफेर हो रहा है, उस से कुछ हिंदी वाले कई तरह की आशंकाओं, दुश्चिंताओं और भयों से त्रस्त हैं. कई प्रतिक्रियाएँ तो ऐसी हैं जो इस वैश्विक परिवर्तन के युग में, अंतरराष्ट्रीय (विशेषकर इंग्लिश) शब्दावली की तीखी भरमार के कारण देखने को मिलती हैं. ग्लोकुलन कोई नई प्रक्रिया नहीं है. बड़ी संख्या में मानविकी, नृवंशिकी, भाषाविज्ञानी मानते हैं कि कोई दो हज़ार संख्या वाले एक मानव वंश ने पेचीदा भाषा रचना का गुर पा लिया. भाषा के हथियार के सहारे यह वंश सुनियंत्रित सुगठित दलों की रचना कर के वे भयानक जीवों पर विजय पा सकने में सफल हो गया. उस का वंश तेजी से बढ़ने फैलने लगा. तकरीबन 50 हज़ार साल पहले इस के वंशजों को नौपरिवहन के गुर पता चल गए तो अरब सागर (पुरानी शब्दावली में वरुण सागर) पार कर के वे भारत भूखंड के उत्तर पश्चिम तट पर कहीं गुजरात के आसपास पहुँचे. यहाँ से वे सारी दिशाओं में बढ़ते चले गए. यह था पहला ग्लोकुलन अभियान. अफ़्रीका में टिके रहे साथी पूरे महाद्वीप में फैलते रहे. जो लोग भारत आ गए थे, वे देश में तो फैले ही, साथ साथ अफ़ग़ानिस्तान-इराक़-ईरान के रास्ते एक तरफ़ यूरोप, दूसरी तरफ़ चीन, मंगोलिया, जापान और एशिया के उत्र पूर्वी छोर से अलास्का के रास्ते अमरीकी महाद्वीपों पर छा गए. मानव वंश बढ़ता बँटता रहा, बदलते देश, भूगोल और आवश्यकताओं के अनुसार भाषाएँ बनती बदलती रहीं. अब दुनिया विविध जातियों और 5,000 से अधिक भाषाओं में बँटी है. उन की मूल भाषा का कोई रूप अब नहीं मिलता. इसी ग्लोकुलन के सहारे मानव सभ्यता आगे बढ़ी है. पिछली तीन चार सदियों में विज्ञान और औद्योगिक क्रांति ने बिखरी जातियों और भाषाओं को बड़े पैमाने पर नजदीक लाना शुरू कर दिया था. कभी साम्राज्यों के द्वारा, कभी विचारों के द्वारा. आज हम लोग ग्लोकुलन की नवीनतम और सबलतम धारा के बीच है. दुनिया तेजी से छोटी हो रही है. ग्लोब का कोई कोना आवागमन की तेज धारा से बचा नहीं है. स्वयं हिंदुस्तान के लोग किस कोने में नहीं हैं? उन पर सूरज कभी नहीं डूबता. पिछले दशकों में सूचना तकनीक में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई है. इस में हम भारतीयों का योगदान कम नहीं है, तो इस लिए भी कि हम अँगरेजी भाषा में पारंगत हैं. संप्रेषण के क्षेत्र में व्यापकता और तात्कालिकता आई है. सारी दुनिया हर ख़बर साथ साथ अपनी आँखों देखती है. लिखित समाचार के ऊपर बोला गया वाचिक रिपोर्ताज हावी होता जा रहा है. मुम्ाकिन नहीं था कि इस सब का असर समाज और भाषा पर न पड़े. सारी भाषाएँ बदलाव की तेज रौ में बह रही हैं. नई तकनीकें नए विचार, नए शब्द, ला रही हैं. विश्व के परस्पर संलग्नन का सब से ज़्यादा असर जीवन स्तर और शैली पर और भी ज़्यादा हुआ है. हर साल नए से नया परिवर्तन. नई समृद्धि का संदेश, नई आशा! नए से नया बेहतरीन माल! हिंदुस्तान अब वह नहीं है जो 1907 में था, या 1947 में या 1957 में था. आज का नौजवान हिंदुस्तान वह नहीं है जो 1991 में था. 2001 से 2007 तक भी इंडिया बदल गया है. 1947 में बीए ऐमए पढ़े लिखे युवक के सामने रोज़गार के गिने चुने पेशे थे. पहला क्लर्की, टाइपिंग, शार्टहैंड, अध्यापकी. वह भी सिफ़ारिश हो तो. कोई कोई प्रबंधन में भी पहुँच जाता था. मैनेजमैंट के स्कूल नहीं थे. कामर्स वाले अकाउंटैंट बन सकते थे. साइंस पढ़ने पर भी कुछ ख़ास अवसर नहीं थे. हाँ, इंजीनियरिंग वालों के लिए संभावनाएँ थीं. पर कितनी? इंजीनियरिंग सिखाने के संस्थान ही कितने थे! आज हर तरफ़ उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए मारामारी. नए से नए कालिज खुल रहे हैं. मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर छात्रों को अंतिम वर्ष पार करने से पहले ही दुनिया के इंडस्ट्रियलिस्ट मुँहमाँगे इनकम पैकेज पर रखने को मुँह फाड़े खड़े रहते हैं. इस के पीछे देश में अँगरेजी जानने पढ़ने और लिखने वालों की बेहद बड़ी संख्या होना है. मध्य वर्ग की संख्या और ख़रीद शक्ति का विस्तार हुआ है. सब से पहले मोबाइल उस के पास आए, एक से एक बढ़िया माल उसे मिल सकता है. कंप्यूटर, इंटरनैट जीवन का आवश्यक अंग है. बहुत सारी ख़रीद फ़रोख्त वह आनलाइन करता है. हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदता, न्यू यार्क में होटल बुक करता है. नई से नई कारों के माडल उस के पास हैं. क्रैडिट कार्ड, एटीऐम. सब का असर भाषा पर न पड़े यह संभव नहीं था. आजादी के बाद हिंदुस्तान ने और हिंदी ने कट्टर अंगरेजी विरोध का युग देखा. हम चाहते थे अँगरेजी का कोई शब्द हमारी भाषा में न हो. ऐसी हिंदी बने जिम में किसी और बोली का पुट न हो. लेकिन दुनिया में ऐसा कभी होता नहीं है कि कोई भाषा दूसरी भाषाओं से अछूती रहे. अँगरेजी का पहला आधुनिक कोश बनाने वाले जानसन का सपना थी कि अपनी भाषा को इतना शुद्ध और सुस्थिर कर दे कि उस में कोई विकार न हो. यही सपना अमेरिका में कोशकार वैब्स्टर ने भी देखा था. उन की अँगरेजी आज हर साल लाखों नए शब्द दुनिया भर से लेती है! आज हिंदी रघुवीरी युग से निकल कर नए आयाम तलाश रही है. अँगरेजी शब्दों का होलसेल आयात कर रही है, बस यही परेशानी है जो शुुद्धतावादियों की पेशानी को परेशान को परेशान कर रही है. कहा जा रहा है, हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट रही है. टीवी चैनलों ने तो हद कर दी है! कुछ का कहना है कि यह विकृत भाषा मानवीय संवेदनाओं को छिछले रूप में ही प्रकट कर सकने की क्षमता रखती है, इस से अधिक नहीं. उन्हें डर है हिंदी घोर पतन की कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली... और... उन्हें लगता है कि वह दिन जल्दी आएगा, जब कह सकेंगे-- लो फिसल ही गई! वे लोग भूल जाते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ती रही है तो इस लिए कि वह पिछली दस सदियों से अपने आप को हर बदलते समय के साँचे में ढालती रही, नए समाज की नई ज़रूरतों के अनुसार नई शब्दावली बना कर या उधार ले कर समृद्ध होती रही है. आजादी के बाद नए से नए सृजन आंदोलनों से यह समृद्ध हुई, सजीव बहसों से गुज़री. इन बहसों में जो गरिष्ठ हिंदी तथाकथित विद्वान लिखते थे, वह कठिनतम भाषाओं के उदाहरण के रूप में पेश की जा सकती है. इसी रुझान में रेडियो के समाचारों में जो हिंदी सुनने को वह सब के सिर से उतर जाती थी. भाषाई आयोगों और रघुबीरी कोशों को आर्थिक सहायता देने वाले पंडित नेहरु शिकायत करते सुने जाते थे कि यह हिंदी वह नहीं समझ पा रहे. पर विद्वज्जन (!) यह कह कर टाल देते कि परिवर्तन के दौर में ऐसा तो होता ही है. एक दिन आम आदमी यही भाषा बोलने लिखने लगेगा. ऐसा हुआ नहीं. *हिंदी को विश्वनाथ जी का योगदान...* मेरा सौभाग्य है कि पिछले बासठ सालों से (1945 से) मैं मुद्रण, पत्रकारिता (/सरिता//, //कैरेवान, //मुक्ता, //माधुरी, //सर्वोत्तम रीडर्स डाइजैस्ट/) से जुड़ा रहा हूँ. पत्रकार, लेखक, अनुवादक, कला-नाटक-फ़िल्म समीक्षक होने के नाते अनेक क्षेत्रों से मेरा साबक़ा पड़ा. दिल्ली में रंगमंच से सक्रिय संपर्क रहा, और मुंबई में फ़िल्मों की दुनिया को निकट से देखने का मौक़ा मिला. इस का लाभ हुआ भिन्न विधाओं की भाषा समस्याओं को नज़दीक से देखना समझना. चाहे तो कोई भाषा को कितना ही गरिष्ठ बना सकता है. लेकिन पाठक को दिमाग़ी बदहज़मी करा के न लेखक का कोई लाभ होता है, न पाठक लेखक की बात पचा पाता है--यह पाठ मुझे पत्रकारिता और लेखन में मेरे गुरु /सरिता-कैरेवान/ संपादक विश्वनाथ जी ने शुरू में ही अच्छी तरह समझा दी थी. हिंदी साहित्यिक दुनिया में विश्वनाथ जी का नाम कभी कोई नहीं लेता. सच यह है कि 1945 में /सरिता/ का पहला अंक छपने से ले कर अपने अंतिम समय तक उन्हों ने हिंदी को, समाज को, देश को जो कुछ दिया वह अप्रशंसित भले ही रह जाए, नकारा नहीं जा सकता. उन्हों ने भाषा का जो गुर मुझे सिखाया, वह अनायास मिला वरदान था. /सरिता/ के संपादन विभाग तक मैं 1950 के आसपास पहुँचा. उपसंपादक के रूप में मैं हर अंक में बहुत कुछ लिखता था. विश्वनाथ जी मेरे लिखे से ख़ुश रहते थे. मेरे सीधे सादे वाक्य उन्हें बहुत अच्छे लगते थै. लेकिन कई शब्द? एक दिन उन्हों ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, पूछा, /"//क्या तेली, //मोची, //पनवाड़ी, //ये ही क्यों क्या आम आदमी, //विद्वानों की भाषा समझ पाएगा? //क्या यह विद्यादंभी विद्वान तेली आदि की भाषा समझ लेगा?"/ स्पष्ट है मेरे पास एक ही उत्तर हो सकता था: विद्वान की भाषा तो केवल विद्वान ही समझेंगे, आम आदमी की भाषा समझने में विद्वानों को कोई कठिनाई नही होगी. थोड़े से शब्दों में विश्वनाथ जी ने मुझे संप्रेषण का मूल मंत्र सिखा दिया था. जिस से हम मुख़ातिब हैं, जो हमारा पाठक श्रोता दर्शक आडिएंस है, हमें उस की भाषा में बात करनी होगी. मुझ से उस संवाद का परिणाम था कि विश्वनाथ जी ने /सरिता/ में नया स्थायी स्तंभ जोड़ दिया: /यह किस देश प्रदेश की भाषा है//?/ इस में तथाकथित महापंडितों की गरिष्ठ, दुर्बोध और दुरूह वाक्यों से भरपूर हिंदी के चुने उद्धरण छापे जाते थे. उन पर कोई कमैंट नहीं किया जाता था. इस शीर्षक के नीचे उन का छपना ही मारक कमैंट था. जीवंत समाज और भाषा बदलते रहते हैं. हिंदुस्तान बहुत बदला है, बदल रहा है. हिंदी बदली है, बदल रही है, बदलेगी. मैं समझता हूँ न बदलना संभव नहीं है. न बदलेगी तो इस की गिनती संस्कृत जैसी मृत भाषाओं में होगी, जिस से विद्रोह कर गोस्वामी तुलसीदास ने /रामचरित मानस/ की रचना 'भाषा' में की. मैं संस्कृत भाषा की समृद्धता के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहा हूँ. संस्कृत न होती तो हमारी हिंदी भी न होती. हमारे अधिकतर शब्द वहीं से आए हैं, कभी तत्सम रूप में, तो कभी तद्भव रूप में. संस्कृत जैसे शब्दों की हमारी एक बिल्कुल नई कोटि भी है. वे अनगिनत शब्द जो हम ने बनाए हैं, लेकिन जो प्राचीन संस्कृत भाषा और साहित्य में नहीं हैं. यदि हैं तो भिन्न अर्थों में हैं. इन नए शब्दों का आधार तो संस्कृत है पर इन की रचना बिल्कुल नए भावों को प्रकट करने के लिए की गई है. इन्हें संस्कृत शब्द कहना ग़लत होगा. ये आज की हिंदी की पहचान बन गए हैं. उदाहरण के लिए अंगरेजी के /कोऐग्ज़िटैंस/ का हिंदी अनुवाद /सहअस्तित्व/ . यह किसी भी प्रकार संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत में इसे /सहास्तित्व/ लिखा जाता. इस शब्द के पीछे जो भाव है वह भी संस्कृत में इस विशिष्ट संदर्भ में नहीं मिलेगा. इन शब्दों को हम नवसंस्कृत कह सकते हैं. *इंडिया में न्यू हिंदी: रघुबीरी को ढूँढ़ते रह जाओगे!* ख़ुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है, और रघुबीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. पत्रकार अब हर अँगरेजी शब्द का अनुवाद करने की मुसीबत से छूट चुके हैं. वे एक जीवंत हिंदी की रचना में लगे हैं. /आतंकवादी/ के स्थान पर अब वे /आतंकी /जैसे छोटे और सार्थक शब्द बनाने लगे हैं. उन्हों ने बिल्कुल व्याकरण असंगत शब्द /चयनित/ गढ़ा है, लेकिन वह पूरी तरह काम दे रहा है. आरोप लगाने वाले /आरोपी/ का प्रयोग वे /आरोपित व्यक्ति/ के लिए कर रहे हैं. अगर पाठक उन का मतलब सही समझ लेता है, यह भी क्षम्य माना जा सकता है. तकनीकी शब्दों या चीज़ों या नई प्रवृत्तियों के नामों के अनुवाद में सब से बड़ी समस्या एकरूपता की होती है. कोई रेडियो को /दूरवाणी/ लिखेगा, कोई /आकाश वाणी/, कोई /नभवाणी/, तो कोई /विकीर्ण ध्वनि/... मेरी राय में नए अन्वेषणों का अनुवाद अनुपयुक्त प्रथा है. /स्पूतनिक/ का अनुवाद नहीं किया जा सकता. /गाँधी चरखे/ या /अंबर चरख़े/ को अँगरेजी में इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. इंग्लैंड में आविष्कृत कताई मशीन /स्पिनिंग जैनी/ को हिंदी में /कतनी छोकरी/ नहीं कहा जा सकता. ख़ुशी है कि रेलगाड़ी को /लौहपथगामिनी/ लिखने वाले अब नहीं बचे. दैनिक पत्रों के मुक़ाबले टीवी की तात्कालिकता निपट तात्कालिक होती है, विशेषकर समाचार टीवी में. यह तात्कालिकता ही हमारी भाषा के नए सबल साँचे में ढलने की गारंटी है. नई भाषा की एक ख़ूबी है कि वह नई जीवन शैली जीने को उत्सुक नवयुवा पीढ़ी की भाषा है. यह पीढ़ी 1947 के भारत की हमारी जैसी पीढ़ी नहीं है. पर मुझ जैसे अनेक लोग हैं जो इस बदलाव के साथ बदलते आए हैं और बदलते ज़माने के साथ बदलते रहे हैं औ अपने आप को उस के निकट पाते हैं. मैं नहीं समझता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है. मैं तो कहूँगा कि वह हर दिन समृद्ध हो रही है. नए समाज में नौजवानों की अपनी भाषा बदल गई है. एक ज़माना था जब हिंदी समाचार पत्र दुकानदारों, नौकरों और कम पढ़ेलिखे लोगों के अख़बार माने जाते थे. आज हिंदी पत्रकार नई नौजवान पीढ़ी के लिए अख़बार निकाल रहे हैं. उन में शिक्षा के, रोज़गार के नए अवसरों की जानकारी होती है. नई बाइकों कारों की जानकारी होती है. कभी देखा था इन्हें हिंदी दैनिकों में. नए ज़माने के नए शब्द बेहिचक, बेखटके, बेधड़क, निश्शंक, पूरे साहस के साथ ला रही है. दो तीन दिन के /हिंदुस्तान/ और /दैनिक जागरण/ से कुछ शब्द देता हूँ: /हॉट शॉट//, //बॉलीवुड, //ट्रेलर, //चैनल, //किरदार, //समलैंगिक..., //एसजीपीसी /(शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति), /दिल्ली विवि/ (विश्वविद्यालय), /रजिस्ट्रार, //फ़्लाईओवर, //स्टेडियम, //पासवर्ड, //इनफ़ोटेनमैंट, //सब्स्क्राइबर, //नैटवर्किंग, //डायरैक्ट टु होम (डीटीएच)./ /सेंट्रल लाइब्रेरी, //ओपन स्कूल, //हाईवे, //इन्वेस्टमैंट मूड, //प्रॉपर्टी, //लिविंग स्टाइल, //लोकेशन, //शॉपिंग सेंटर.../ 21वीं सदी के हिंदुस्तान ने ग़ुलामी के दिनों के अंधे अँगरेजी विरोध वाली मैंटलिटी से छुट्टी पा ली. नई सोसाइटी में रीडर बदल रहे हैं, भाषा बदल रही है. परिवर्तन को सब से पहले पहचाना मीडिया ने. उस की शैली बदल गई, भाषा बदल गई, नीति बदल गई. टीवी वाले तात्कालिकता के साथ नई सरपट ज़बान में भड़भड़ गाड़ी दौड़ाते हैं. पेश हैं हिंदी न्यूज़पेपर अब जो छाप रहें हैं, उस के कुछ नमूने-- */हाई कोर्ट/ *का आयोग से जवाबतलब (कहाँ गया उच्च न्यायालय?). */कोर्ट/* ने */औबीसी/* की पहचान का आधार पूछा... */जस्टिस/* अरिजीत पसायत... आंबेडकर */यूनिवर्सिटी/* के */वीसी/* हटाए गए गुजरात के दंगों में */बीजेपी/* के दो पार्षदों को सज़ा (भाजपा नहीं) पेट्रोल में */सॉल्वेंट/* की मात्रा इतनी अधिक मिला देते हैं कि */हाईटेक/* कार भी... हॉबवुड */सर्फ़िंग सेशन/* के */विनर/* रहे (विजेता नहीं) वज़ीराबाद */वाटर ट्रीटमैंट प्लांट/*... 2 */पीपीएम/* बढ़ जाएगी. */एडमिशन /*शुरू होने से पहले (प्रवेश या दाखिला नहीं)... */डीयू/* (दिल्ली विश्वविद्यालय) के */अंडरग्रेजुएट कोर्सों /*में ... */प्री-एडमिशन फ़ॉर्म/* व */इनर्फ़मेशन बुलेटिन/*... */स्टूडैंट्स/* को... (छात्र अब कितने लोग बोलते हैं?) */लेटेस्ट इंस्ट्रूमेंट/* रोकेगा पानी की बरबादी */एमसीडी /*व */मेट्रो/* में विवाद */इन्फ़्रास्ट्रकचर/* तैयार करने में जुटा, 1 */सबस्टेशन /*अगले महीने शुरू रणपाल के */एनकाउंटर/* से उठे कई सवाल */ऑटो पेंट/* की */फ़ैक्ट्री/* में आग */इंटैग्रेेटिड टाउनशिप प्रोजेक्ट/* */इंटरनेट सर्फ़िंग /*आसान होगी */पाकिट सर्फ़र/* से... */पाकिट सर्फ़र लॉन्च/* किया... */कस्टमर/* बिना किसी */सेल्यूलर/* या */लैंडलाइन मोडेम/* से जोड़े ... इंटरनेट सर्फ़िग कर सकता है... चेन्नै में */मैन्यूफ़ैक्चरिंग यूनिट/* लगा सकती है मोटोरोला... SBI को कलाम ने दिया 7 सूत्रीय मिशन बेहतर */ट्रेनिग/* के लिए NIIT से हाथ मिलाया */अक्रॉस दे बॉर्डर/* */विंडो शॉपिंग/* */रीडर्स मेल /*(पाठकों के पत्र नहीं) फ़ुटबॉल */पॉपुलर/* खेल ही नही रहा, यह */ग्लोबल रिलीजन /*बन गया है... मेरा */कर्मा /*तू मेरा */धर्मा/* तू... */POLIO /*रविवार */सर्विकल कैंसर वैक्सीन/* */बुक ऑफ़ लाइफ़/* में जुड़ा बड़ा अध्याय... वर्णावली */सीक्वेंसिंग/* का काम पूरा कर लिया है. युवाओं का */आइकॉन /*(आदर्श पुरुष नहीं, युवा हृदय सम्राट नहीं) आरक्षित आग्रहों का */कवरेज /*(मीडिया में रिपोर्ट) */अवार्ड/* की */लाइन /*में बात थोड़ी */सीरियस/* हुई ... मेरी */हैक्टिक लाइफ़/*...तबीयत ख़राब होने के बाद */रिकवरी/*... कैसे */ऑर्गनाइज़/* करें */परफ़ेक्ट पार्टी/* ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ -- */डबल ऑफ़र/* */बीएसए/* ने किया इनकार, */डीएम /*ने माँगा जवाब... */वीआईपी/* का इंतज़ार बच्चों पर मार */मोबाइल क्लोनिंग/* में चार दबोचे Jodee No* 1 copy -- Rs* 144 per month ताश के पत्तों की तरह गिरे */पोल/* (खंभे नहीं) */लाइफ़/* में लाओ */चेंज/* पुराना */टीवी/* करो */एक्सचेंज/* मास्को में दिल्ली */फ़ेस्टिवल/* शुरू (समारोह या उत्सव नहीं) */स्टूडेंट्स फ़ंडिग /*के लिए */कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप /* */एनबीटी/* कमबोला के लिए... बहुमूल्य वस्तु... */डायमंड/* हो या */प्लाज़्मा कलर टीवी/*... 108 */लकी/* प्रतियोगियों के लिए art d' enox के */फ़्री गिफ़्ट/* मिलते हैं... पिछले 3 */कॉन्टेस्ट/* ... के */टोटल/*... */डियर रीडर्स/*...* */सर्च इंजन /*(वर्गीकृत विज्ञापन नहीं.) - डाक्टर लड़का अवधिया कुर्मी (MBBS) 33/5'6'' (सरकारी सेवारत झारखंड सरकार) हेतु डा. वधु (MBBS/BDS) चाहिए... पिता सरकारी सेवारत (MS OBST & GYNAE) अपना नर्सिंग होम. - अंबष्ठ गोरी लंबी ख़ूबसूरत MBA, MCA, BE प्रतिष्ठित परिवार की लड़की मांगलिक 29/5'6" Sr* Software Engineer, Satyam Computer, Pune में कार्यरत लड़की के लिए कुछ इसे महापतन मानते हैं. लेकिन नई पीढ़ी को इस की ज़रा भी चिंता नहीं है. वे लोग भाषा कोश देख कर नहीं बोलते, न उन्हें अपने आप को विद्वानी हिंदी का दिग्गज साहबित करना है. ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में अपने नए शब्द नहीं बन रहे. सच यह है कि भाषा विद्वान नहीं बनाते, भाषा बनाते हैं भाषा का उपयोग करने वाले... आम आदमी, मिस्तरी, करख़नदार या फिर लिखने वाले. /घुड़चढ़ी/ शब्द डाक्टर रघुवीर नहीं बना सकते थे, न ही वे /मुँहनोंचवा/ बना सकते हैं. कार मेकेनिकों ने अपने शब्द बनाए हैं, पहलवानों ने कुश्ती की जो शब्दावली बनाई है (कुछ उदाहरण: /मरोड़ी कुंदा//, //मलाई घिस्सा, //भीतरली टाँग, //बैठी जनेऊ/) वह कोई भी भाषा आयोग नहीं बना सकता था. विद्वानों का काम होता है भाषा का अध्ययन, विश्लेषण... अख़बारों में नई देशज हिंदी शब्दावली भी बन रही है. नए ठेठ हिंदी शब्द विद्वान नहीं बना रहे. हिंदी लिखने वाले बना रहे हैं--जैसे कबूतरबाजी. अँगरेजी ह्यूमैन ट्रैफ़िकिंग के लिए पूरी तरह देशी शब्द. ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से, पासपोर्ट वीजा नियमों को तोड़ते हुए हिंदुस्तानियों को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने का धंधा. या फिर ब्लौगिया या चिट्ठाकार, और चिट्ठाकारिता. इंटरनेट की दुनिया से आम आदमी द्वारा उपजे शब्द. अँगरेजी में इंटरनेट पर लिखने और परस्पर विचारविमर्श बहसाबहसी की प्रथा को पहले वैबलौगिंग कहा गया, बाद में उस से बना ब्लौगिंग. उसी से दुनिया भर में फैले आम हिंदी प्रेमी ने य शब्द बनाए हैं, ब्लौगिंग करने वाला ब्लौगिया, ब्लौग (यानी लिखा गया कोई विचार) चिट्ठा, पुराने चिट्ठा और चिट्ठी को दिया गया बिल्कुल नया अर्थ. क्या कोई विद्वान ये शब्द बना पाता? इंग्लिश में कहीं हिंग्लिश, कहीं पूरी हिंदी अगर हिंदी वाले अँगरेजी शब्द भारी मात्रा में आयातित कर रहे हैं, तो अँगरेजी तो बहुत पहले से ही हिंदी शब्द खुले दिल से लेती रही है.../pucca kutcha/ (पक्का कच्चा) आदि शब्द पुराने उदाहरण हैं. आजकल भारतीय अँगरेजी में स्थानीय शब्दों और मुहावरों का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है. जो नई भाषा बन रही है, उसे लोग हिंग्लिश कहने लगे हैं. हिंग्लिश तब होती है जब कहीं कोई एक शब्द लिखा जाए जैसें fake /gajra/, /desi/ chick. अब पूरे के पूरे हिंदी वाक्य आप को रोमन लिपि में लिखे मिल जाएँगे, और कहीं कहीं तो सीधे देवनागरी में. दोनों भाषाओं में यह सब बाज़ार और आडिएँस करवा रही है. पेश हैं कुछ नमूने-- India ka naya TASHAN... Ab jeeyo poore tashan se! Presenting the Samsung C130... masaala maar ke... रविवार को फ़िल्मो की जानकारी के साथ... dil se... Mujhe hai apni har khata manzoor, bhool ho jati hai insano se* I'm really sorry* Please forgive me... Boss ko patana...Mummy ko samjhana...Girlfriend ko manana...*AB SAB 50 PAISE mein* (Tata Indicom) PHIR LOOT HI LOOT...*Buyanu Microtek Inverter... 2ka mazaa 1 mein... Buy one and get one free... सब कुछ सब के लिए... salasar mega store Ab Dilli Dur Nahin... Parklands Faridabad... Kal kare so aaj kar...ICICI Prudential Exchange Dhamaka... एक्सचेंज बोनस Rs* 15,000/- तक...Maruti Suzuki Property Maha saver package...* HT Classifieds शब्दावली से जुड़ा एक और पहलू है बोलने की हिंदी और लिखित हिंदी में बढते जाते भेद का. हमारी बोली में ऐसे स्थानों पर अकार को लोप होता जा रहा है जहाँ उच्चारण में यति आती है या अंतिम अक्षर अकारांत अक्षर होता है. हम लिखते हैं /कृपया/ . यह सही भी है. लेकिन बोलते हैं /कृप्या/ . अनेक स्थानों पर आप को यह लिखा मिलेगा. समाचार पत्रों की कृपा है कि वे /कृप्या/ नहीं लिखते... /कृपया/ ही लिख रहे हैं. उत्तराखंड के एक सरकारी विज्ञापन में किसी भ्रमित कापीराइटर ने लिखा-- शहीदों को/ शत् शत्/ प्रणाम. अगर यह दावा मान लिया जाए कि हिंदी में हमें वैसा ही लिखते हैं, जैसा बोलते हैं, तो /शत् प्रतिशत्/ सही! और अंत में... तो आइए चेंजिंग भारत की लाइवली वाइब्रैंट बोली और भाषा का हार्टी वैेलकम करें, सैलिब्रेट करें, जश्न मनाएँ. उन जर्नलिस्टों पत्रकारों विज्ञापकों के गुण गाएँ जिन्होंने दुनिया में अपनी जगह तलाशते हिंदुस्तान को पहचाना, नई रीडरशिप को टटोला, नब्ज़ को पकड़ा, जो अख़बार कभी दुकानदारों, नौकरों और हिंदी-प्रमियों के ही लिए थे, उन्हें नई जनरेशन के नौजवानों तक पहुँचाया. नारों को भूल कर यथार्थ को समझा. अरविंद कुमार, सी-18 चंद्र नगर, ग़ाजियाबाद 201011 9312760129 - 0120 4110655 *और अंत में...* क्या हैं ये सब? /आंद्या, //इंदिज्स्की, //ऐंत्क्सग, //खिंदी, //चिंदी, //चिंद्ज़ी, //खिंदी, //तिएंग हिन-दी, //यिन दी यू, //हिंदिह्श्चिना, //ह्योनद्विसफ़्... / जी हाँ हिंदी! हिंदू शब्द की ही तरह हिंदी शब्द भारत में नहीं बना. यह ईरान से आया है. यूँ कभी ईरान भी भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र का अभिन्न अंग था. कहने को हिंदी मुख्यतः उत्तर भारत के भारी पापुलेशन वाले राज्यों में बोली जाती है, कई राज्यों और पूरे देश की राज्यभाषा है, लेकिन उसे लिखने पढ़ने और बोलने वाले पूरे देश में मिलते हैं. विदेशों में हिंदी बोलने वाले लोग गायना, सुरिनाम, त्रिनिदाद और टबैगो, फीजी, मारीशस, क़तार, कुवैत, बह्रीन, संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, रूस, सिंगापुर, दक्षिण अफ़्रीका आदि में पाए जाते हैं. आज जो हिंदी हम जानते हैं, वह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों की भाषा हुआ करती थी, जिसे खड़ी बोली कहते हैं. संभवतः खड़ी बोली शब्द कौरवी बोली का बदला रूप है यानी वह भाषा जो कुरु (कौरव और पांडव) क्षेत्र में बोली जाती थी. सदियों से हिंदी के नाम बदलते रहे हैं. कुछ नाम रहे हैं-- */भाखा/**/, /**/भाषा, /**/रेख़ता, /**/हिंदवी, /**/हिंदी, /**/हिंदुस्तानी./* जिसे आज हम उर्दू कहते हैं वह वास्तव में हिंदी ही है. पिछली दो सदी में अनेक राजनीतिक कारणों से वह अरबी-फ़ारसी मिश्रित शब्दों वाली अलग शैली और फिर अलग भाषा बन गई. खड़ी बोली के अतिरिक्त ब्रजभाषा, भोजपुरी, राजस्थानी, हरियाणवी आदि हिंदी की अनेक उपभाषाएँ मानी जाती हैं, जो धीरे धीरे शायद स्वतंत्र आधुनिक भाषाएँ बन जाएँ. दुनिया भर में लोग विदेशी शब्दों का उच्चारण अपनी जीभ के अनुसार करते हैं, और कई बार उन के लिए अलग नाम भी देते हैं. कुछ विदेशी भाषाओं में लोग हिंदी को इन नामों से जानते हैं: /अफ़्रीकांस:/ हिंदी; /अम्हारी:/ आंद्या; /अरबी:/ हिंदीया; /आइसलैंडी:/ हिंदी; /आजेरी:/ हिंद; /आयरलैंडी:/ ह्योनद्विसफ़्; /आरमीनियाई:/ हिंदी; /इंदोनेशियाई:/ हिंदी; /उत्तरी सामी:/ खिंदी; /ऐस्तोनियाई:/ हिंदी; /ऐस्पेरांतो:/ हिंद; /औकितान:/ इंदी; /कातलान:/ हिंदी; /कोरियाई: /हिंदी'इयो; /क्रोशियाई:/ इंदिज्स्की; क्षोसा: /इसिहिंदी//;/ ग्रीक (आधुनिक): चिंदी; /चीनी:/ यिन दी यू; /चैक:/ हिंदिस्की; /जरमन:/ हिंदी'न; /जापानी:/ हिंदीई-गो; /जुलू:/ इसिहिंदी; /ज्योर्जियाई:/ हिंदी; /डच:/ हिंदी'न; /डेनिश:/ हिंदी; /तातारी:/ खिंदी; /तुर्की:/ हिंत्सी/हिंदू; /थाई:/ फाशा-हिंदू; /नार्वेजियाई:/ हिंदी; /पुर्तगाली:/ हिंदी; /पोलैंडी:/ हिंदी; /फ़ारसी:/ हेंदी; /फिनिश:/ हिंदी; /फ़्रांसीसी: /हिंदी; /बल्गेरियाई:/ खिंदी; /बास्क:/ हिंदी; /बेलोरूसियाई:/ चिंद्ज़ी; /मलय:/ हिंदी; /मालटाई:/ हिंदी; /मोक्सा:/ हिंदी; /मंगोलियाई:/ ऐंत्क्सग; /यूक्रेनियाई:/ खिंदी; /रूसी:/ खिंदी; /रोमानियाई:/ हिंदुसा; /लिथुआनियाई:/ हिंदी; /लैटवियाई:/ हिंदी; /लोहबान:/ क्षिंदो; /वालून:/ हिंदी; /वियतनामी:/ तिएंग हिन-दी; /वैल्श:/ हिंदी; /सोर्बियाई:/ हिंदिह्श्चिना; /स्पेनी:/ हिंदी'म; /स्लोवीन:/ हिंदिह्श्चिना; /स्वाहिली:/ किहिंदी; /स्वीडिश:/ हिंदी; /हंगेरियाई:/ हिंदी; /हिब्रू:/ हिंदिथ. From beingred at gmail.com Wed Apr 29 16:13:07 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 29 Apr 2009 16:13:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KWL4KSCIOCkquCksCDgpJzgpYHgpLLgpY3gpK4g4KS5?= =?utf-8?b?4KWL4KSk4KS+IOCkueCliCDgpKTgpYsg4KS14KWHIOCksuCkoeCkvA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueCliOCkgg==?= Message-ID: <363092e30904290343k55cc3a64q58fba5f828b3a847@mail.gmail.com> इस्लामिक विषयों के विद्वान डॉ. असगर अली इंजीनियर से रेयाज उल हक की बातचीत ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म’ के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के विद्वान डॉ. असगर अली इंजीनियर की पहचान मजहबी कट्टरवाद के खिलाफ लगातार लड़ने वाले शख्स के रुप में है. असगर अली इंजीनियर मानते हैं कि जहां-जहां इस्लाम पर जुल्म हुआ है, वहां के लोग लड़ाई के लिए खड़े हुए हैं. वे मानते हैं कि कट्टरपंथ मजहब से नहीं, सोसायटी से पैदा होता है. इनकी राय में भारतीय मुसलमान इसलिए अतीतजीवी है क्योंकि यहां के 90 प्रतिशत मुसलमान पिछड़े हैं और उनका सारा संघर्ष दो जून की रोटी के लिए है. इसलिए उनके भीतर भविष्य को लेकर कोई ललक नहीं है. यहां प्रस्तुत है, डॉ. असगर अली इंजीनियर से की गई बातचीत के अंश. असगर अली इंजीनियर --------------------- • अगर धर्म के आधार पर देखा जाये तो दुनिया भर में अमरिकी प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष में इसलामी राष्ट्रों के लोग ही सबसे अगली कतारों में हैं. इसके क्या कारण देखते हैं आप ? विश्व के जिन हिस्सों पर जुल्म हो रहा है, वे सारे वही हिस्से हैं, जहां मुसलमान हैं. आज अमरिकी हमला वियतनाम, कोरिया या चीन पर नहीं हो रहा है. तो वहां के लोग क्यों लडेंगे अमेरिका के खिलाफ ? फलस्तीन में या इराक में जो कुछ हो रहा है, उसे भुगतनेवाले तो मुसलमान ही हैं न ? तो लडनेवाले भी मुसलमान ही होंगे. • इसके क्या कारण हो सकते हैं कि मुसलमानों को ही टारगेट बनाया जा रहा है? • • इसलिए कि अमेरिका मध्यपूर्व पर अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहता है. वहां तेल का भंडार है, जिस पर वह अपना कब्जा जमाना चाहता है. वहां जो भी जुल्म होता है, उसमें वह इस्राइल की हिमायत करता है. इसके जरिये वह अरबों को दबा कर रखना चाहता है. इस्राइल अमेरिका की पुलिस चौकी है, जिसके जरिये अमरिकी अरबों पर कंट्रोल रखना चाहते हैं. जब इस पुलिस चौकी द्वारा फलस्तीन के लोगों पर जुल्म होता है तो वे लड़ते हैं उनके खिलाफ. इसी तरह अमेरिका इराक पर कब्जा करता है क्योंकि वहां बेशुमार तेल है. सऊदी अरब के बाद वहां सबसे ज्यादा तेल है. इसलिए वह वहां अपना कब्जा जमाये रखना चाहता है. तो बदले की कार्रवाई तो होगी ही. • भारत और शेष विश्व के मुसलिम समाज में एक फर्क दिखता है. पूरी दुनिया के मुसलिम समाज में ऐसे साम्राज्यवादी जुल्म के खिलाफ हर तरह के संघर्ष चल रहे हैं. लेकिन भारत के मुसलमान इस साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में दूर-दूर तक नहीं दिखते या बहुत कम. वे विरोध जताने के लिए एक साधारण-सा जुलूस तक नहीं निकाल पाते हैं. ऐसा क्यों ? • • इसलिए कि किसी जमाने में जब विरोध किया तो उसका रद्दे अमल सख्त हुआ. जैसे इस्राइल का येरुशेलम पर हमला हुआ था 1968 में, तो मुसलमानों ने बहुत बडा जुलूस निकाला. उसका बहुत ही बुरा रद्दे अमल हुआ. उस समय जनसंघ ने काफी प्रोपेगेंडा किया कि मुसलमानों की वफादारी भारत के साथ नहीं है बल्कि मक्का-मदीना के साथ है, बैतुल मुकस (येरूशेलम) के साथ है. इसका लोगों पर बहुत खराब असर पडा. इसके अलावा हिंदुस्तान में उस जमाने के मुकाबले में इतनी तबदीलियां आयी हैं कि मुसलमान खुद दुनिया के भविष्य के बारे में सोचने से ज्यादा यह महसूस करता है कि उसके अपने भविष्य का क्या होगा. इसलिए वह कश्मीर के भी आंदोलन का खुल कर समर्थन नहीं करता. आप देखेंगे कि कश्मीर की हिमायत में भी दूसरे राज्यों के मुसलमान कोई जुलूस नहीं निकालते. अब वे यह समझते हैं कि उनके हक उनके इलाके से जुडे हुए हैं और उन्हें अपना भविष्य देखना है. इसलिए उनकी वफादारी भी किसी एक पार्टी से खत्म हो गयी. किसी जमाने में उनकी वफादारी सिर्फ कांग्रेस के साथ थी, लेकिन अब हालत यह है कि यहां बिहार में कांग्रेस चुनाव लडती भी है तो वह राजद को वोट देता है. केरल में कम्युनिस्टों को वोट देता है. आंध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम को वोट देता है. जो क्षेत्रीय हित हैं, वे भी इसमें काम करते हैं. *पूरी यहाँबातचीत पढिये * -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090429/a7d03020/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Wed Apr 29 16:13:07 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 29 Apr 2009 16:13:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KWL4KSCIOCkquCksCDgpJzgpYHgpLLgpY3gpK4g4KS5?= =?utf-8?b?4KWL4KSk4KS+IOCkueCliCDgpKTgpYsg4KS14KWHIOCksuCkoeCkvA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueCliOCkgg==?= Message-ID: <363092e30904290343k55cc3a64q58fba5f828b3a847@mail.gmail.com> इस्लामिक विषयों के विद्वान डॉ. असगर अली इंजीनियर से रेयाज उल हक की बातचीत ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म’ के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के विद्वान डॉ. असगर अली इंजीनियर की पहचान मजहबी कट्टरवाद के खिलाफ लगातार लड़ने वाले शख्स के रुप में है. असगर अली इंजीनियर मानते हैं कि जहां-जहां इस्लाम पर जुल्म हुआ है, वहां के लोग लड़ाई के लिए खड़े हुए हैं. वे मानते हैं कि कट्टरपंथ मजहब से नहीं, सोसायटी से पैदा होता है. इनकी राय में भारतीय मुसलमान इसलिए अतीतजीवी है क्योंकि यहां के 90 प्रतिशत मुसलमान पिछड़े हैं और उनका सारा संघर्ष दो जून की रोटी के लिए है. इसलिए उनके भीतर भविष्य को लेकर कोई ललक नहीं है. यहां प्रस्तुत है, डॉ. असगर अली इंजीनियर से की गई बातचीत के अंश. असगर अली इंजीनियर --------------------- • अगर धर्म के आधार पर देखा जाये तो दुनिया भर में अमरिकी प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष में इसलामी राष्ट्रों के लोग ही सबसे अगली कतारों में हैं. इसके क्या कारण देखते हैं आप ? विश्व के जिन हिस्सों पर जुल्म हो रहा है, वे सारे वही हिस्से हैं, जहां मुसलमान हैं. आज अमरिकी हमला वियतनाम, कोरिया या चीन पर नहीं हो रहा है. तो वहां के लोग क्यों लडेंगे अमेरिका के खिलाफ ? फलस्तीन में या इराक में जो कुछ हो रहा है, उसे भुगतनेवाले तो मुसलमान ही हैं न ? तो लडनेवाले भी मुसलमान ही होंगे. • इसके क्या कारण हो सकते हैं कि मुसलमानों को ही टारगेट बनाया जा रहा है? • • इसलिए कि अमेरिका मध्यपूर्व पर अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहता है. वहां तेल का भंडार है, जिस पर वह अपना कब्जा जमाना चाहता है. वहां जो भी जुल्म होता है, उसमें वह इस्राइल की हिमायत करता है. इसके जरिये वह अरबों को दबा कर रखना चाहता है. इस्राइल अमेरिका की पुलिस चौकी है, जिसके जरिये अमरिकी अरबों पर कंट्रोल रखना चाहते हैं. जब इस पुलिस चौकी द्वारा फलस्तीन के लोगों पर जुल्म होता है तो वे लड़ते हैं उनके खिलाफ. इसी तरह अमेरिका इराक पर कब्जा करता है क्योंकि वहां बेशुमार तेल है. सऊदी अरब के बाद वहां सबसे ज्यादा तेल है. इसलिए वह वहां अपना कब्जा जमाये रखना चाहता है. तो बदले की कार्रवाई तो होगी ही. • भारत और शेष विश्व के मुसलिम समाज में एक फर्क दिखता है. पूरी दुनिया के मुसलिम समाज में ऐसे साम्राज्यवादी जुल्म के खिलाफ हर तरह के संघर्ष चल रहे हैं. लेकिन भारत के मुसलमान इस साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में दूर-दूर तक नहीं दिखते या बहुत कम. वे विरोध जताने के लिए एक साधारण-सा जुलूस तक नहीं निकाल पाते हैं. ऐसा क्यों ? • • इसलिए कि किसी जमाने में जब विरोध किया तो उसका रद्दे अमल सख्त हुआ. जैसे इस्राइल का येरुशेलम पर हमला हुआ था 1968 में, तो मुसलमानों ने बहुत बडा जुलूस निकाला. उसका बहुत ही बुरा रद्दे अमल हुआ. उस समय जनसंघ ने काफी प्रोपेगेंडा किया कि मुसलमानों की वफादारी भारत के साथ नहीं है बल्कि मक्का-मदीना के साथ है, बैतुल मुकस (येरूशेलम) के साथ है. इसका लोगों पर बहुत खराब असर पडा. इसके अलावा हिंदुस्तान में उस जमाने के मुकाबले में इतनी तबदीलियां आयी हैं कि मुसलमान खुद दुनिया के भविष्य के बारे में सोचने से ज्यादा यह महसूस करता है कि उसके अपने भविष्य का क्या होगा. इसलिए वह कश्मीर के भी आंदोलन का खुल कर समर्थन नहीं करता. आप देखेंगे कि कश्मीर की हिमायत में भी दूसरे राज्यों के मुसलमान कोई जुलूस नहीं निकालते. अब वे यह समझते हैं कि उनके हक उनके इलाके से जुडे हुए हैं और उन्हें अपना भविष्य देखना है. इसलिए उनकी वफादारी भी किसी एक पार्टी से खत्म हो गयी. किसी जमाने में उनकी वफादारी सिर्फ कांग्रेस के साथ थी, लेकिन अब हालत यह है कि यहां बिहार में कांग्रेस चुनाव लडती भी है तो वह राजद को वोट देता है. केरल में कम्युनिस्टों को वोट देता है. आंध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम को वोट देता है. जो क्षेत्रीय हित हैं, वे भी इसमें काम करते हैं. *पूरी यहाँबातचीत पढिये * -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090429/a7d03020/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Thu Apr 30 09:27:55 2009 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 30 Apr 2009 09:27:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy4KWA?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSc4KSoLOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpOCkv+CklSDgpLU=?= =?utf-8?b?4KS/4KSc4KWN4KSe4KS+4KSq4KSoIOCklOCksCDgpJvgpLXgpL8g4KSo?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KWN4KSu4KS+4KSjIOCkleCkviDgpLLgpYvgpJXgpKTgpII=?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw?= Message-ID: <829019b0904292057h7f1c0a3rda11232909b6170@mail.gmail.com> मूलतः प्रकाशित नया ज्ञानोदय मई 09 सिनेमा के जिस गाने के दम पर पूरी दुनिया का दिल जीता जा सकता है, ऑस्कर जीते जा सकते हैं, तो फिर उसी गाने के बूते देश की जनता का मन और लोकसभा चुनाव क्यों नहीं? अपने चुनावी विज्ञापन के लिए,स्लमडॉग मिलेनियर के गीत ‘जय हो’ की कॉपीराइट खरीदनेवाली राजनीतिक पार्टी की इस समझदारी पर आप चाहें तो हंस सकते हैं, अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र के सच और मनोरंजन की फंतासी में कोई फर्क नहीं रहने दिया गया है। आप चाहें तो इसके विरोध में विपक्षी दल की पैरॉडी में शामिल हो सकते हैं जहां जय हो के बदले भय हो की बात की जा रही है, जहां चतुर्दिक विकास और जय हो के लोकतंत्र का पर्दाफाश करते हुए भूख,गरीबी,मंदी औऱ आतंकवाद के बीच लथपथ एक लाचार लोकतंत्र दिखाया जा रहा है लेकिन इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि टेलीविजन औऱ राजनीतिक विज्ञापनों के गठजोड़ से लोकतंत्र की राजनीति की जो शक्ल उभरकर सामने आ रही है, वह प्रत्याशी,पार्टी कार्यकर्ता और मतदाता के सीधे हस्तक्षेप से बननेवाले लोकतंत्र से बिल्कुल अलग है। इसे आप चाहें तो वर्चुअल डेमोक्रेसी या फिर पिक्चर ट्यूब से पैदा हुआ लोकतंत्र कह सकते हैं जहां मतदाता के तौर पर हम सबकी सक्रियता का अर्थ इस बात से है कि कि ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन देखें,उस पर बननेवाली राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों की छवियों को समझें,विज्ञापन के चिन्हों पर गौर करें और इस आधार पर राजनीतिक समझ तैयार करें। पिछले दो-तीन सालों से टेलीविजन की संवादधर्मिता बढ़ी है इसलिए चाहें तो फोनो के माध्यम से सवाल-जबाब कर सकते हैं। ऐसा करते हुए हम वर्चुअल डेमोक्रेसी की गतिविधियों में शामिल होते हैं और इस स्तर पर अपने को सक्रिय मतदाता मानते हैं। सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सीधे हस्तक्षेप के बजाय माध्यमों के स्तर पर सक्रिय होने की इस स्थिति को आर्मन्ड ने “क्राइसिस ऑफ पब्लिक कल्चर” के रुप में विश्लेषित किया है।( आर्मन्ड मैटेलार्टः1991,पेज न-196, एडवर्टाइजिंग इंटरनेशनलः दि प्राइवेटाइजेशन ऑफ पब्लिक स्पेस,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। टेलीविजन की ताकत इस बात में है कि वह हमें बिना किसी धक्का-मुक्की वाले चुनावी रैलियों में शामिल हुए, बिना किसी पार्टी के पक्ष में नारे लगाए ,किसी प्रत्याशी के लिए हाय-हाय किए बिना और चुनावी वायदों पर वाह-वाह किए बिना ही हमें सजग मतदाता औऱ नागरिक होने का अहसास कराता है। यह,एक सुरक्षित औऱ सुविधाजनक मनोदशा में हमें राजनीति से जुड़ने का अवसर मुहैया कराता है। टेलीविजन में इस बात की क्षमता है कि यह “मास वोटर/ऑडिएंस”( अलग-अलग मनस्थिति और विचारधारा के लोग,एक-दूसरे से अपरिचित किन्तु माध्यम के स्तर पर एकजुट होनेवाले लोग) को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करने का काम करता है जिससे कि लक्ष्य-मतदाता के रुप में राजनीतिक विज्ञापनों का असर उन पर हो सके। टेलीविजन की यही ताकत राजनीतिक पार्टियों को अपने पक्ष में विज्ञापन करने के लिए उकसाती है औऱ आज नतीजा यह कि देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी टेलीविजन के माध्यम से लोकतंत्र की राजनीति करना चाहते हैं। यहां आकर टेलीविजन “सरोगेट पार्टी वर्कर” के रुप में काम करने लग जाता है।( रॉबर्ट एग्रनॉफः1977,दि न्यू स्टाइल इन इलेक्शन कैम्पेन्स,दूसरा संस्करण,पेज न-4-6,हॉलब्रुक प्रेस-बॉस्टन)। दूसरी बात, यह जानते हुए भी कि मनोरंजन के पॉपुलर रुपों,फिल्मी गीतों,संवादों,हस्तियों और छवियों को स्क्रीन पर उतारकर स्वयं टेलीविजन राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में हमसे वोट मांगने का जो काम कर रहा है, इसका सरोकार हमारी जमीनी हकीकत औऱ जरुरतों को समझने से नहीं है, राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में विज्ञापन करके विकास के नाम पर जो कुछ भी दिखा रही हैं उसकी कल्पना हम और आप सिर्फ राम राज्य के मिथक के भीतर ही रहकर सकते हैं, आज विपक्षी दल, विकास को जय हो का लोकतंत्र के रुप में दिखाए जाने से परेशान हैं, इससे ठीक पहले के लोकसभा चुनाव में उसने भी साम्प्रदायिकता, बेरोजगारी और असुरक्षा के उपर इंडिया शाइनिंग का मुलम्मा चढ़ाया था, समाचार चैनल भी जो मतदाता के रुप में हमें सबसे ताकतवर साबित करने में जुटे हैं, इनका मकसद भी टीआरपी के पास आकर ठहर जाएगा, वाबजूद इसके हम टेलीविजन पर यह सब लगातार देख रहे हैं। हमारे पास इन सबों को गैरजरुरी और प्रवंचना साबित करने के कई आधार हैं लेकिन वाबजूद इसके हम टेलीविजन की इन गतिविधियों से घिरे रह जाते हैं और देश की एक बड़ी आबादी इसे ही समझदारी का आधार मानती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजनीति सहित बाकी सामाजिक मसलों पर जब हम विचार करते हैं तब हमारी हैसियत एक नागरिक या मतदाता की होती है जबकि टेलीविजन पर उससे जुड़े विज्ञापनों को देखते हुए हमारी भूमिका एक दर्शक में बदल जाती है। हम दर्शक होने की सुविधा से अपने को मुक्त नहीं कर पाते हैं और एक हद तक हमारी समझ टेलीविजन में शामिल रंगों,आकृतियों,प्रस्तुति और ध्वनियों के आधार पर बननी शुरु होती है और हम इसे बाकी के कार्यक्रमों के रुप में ही देखना शुरु करते हैं। यहां आकर विचारधारा औऱ मुद्दों की जगह पार्टी के चिन्ह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कांग्रेस के विज्ञापन में हाथ( आओ तुम्हें दिखाएं इस हाथ की करामात,आजतकः9.07 बजे रात,21 मार्च और बीजेपी के पहचान है,अभिमान है के विज्ञापन में कमल बार-बार बिजली की तरह चमकता है,इंडिया टीवी,8.14 बजे,29 मार्च। राजनीतिक विज्ञापनों और टेलीविजन का हमारे इस बदले रुप का भरपूर लाभ मिलता है और वे धीरे-धीरे नागरिक जरुरतों और सवालों की शिफ्टिंग, दर्शक की पसंद-नापसंद के रुप में करते चले जाते हैं। राजनीति विज्ञापन छवि निर्माण का काम दर्शक की इसी स्थिति के भीतर करता है। मसलन असल जिंदगी में लालकृष्ण आडवाणी के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है,राजनीतिक विज्ञापन को इससे कोई खास मतलब नहीं है. उसे बस कुछ ऐसे विजुअल्स चाहिए जिसमें वे एक स्वस्थ और प्रभावी प्रत्याशी लगें क्योंकि टेलीविजन पर मतदाता/दर्शक हर हाल में अपने भावी प्रधानमंत्री को स्वस्थ, मजबूत और प्रभावी राजनीतिक व्यक्तित्व के रुप में देखना चाहते हैं। राजनीतिक पार्टियों द्वारा विज्ञापन पर करोंड़ों रुपये खर्च करने के पीछे का एक ही उद्देश्य होता है कि वह नागरिक की जरुरतों और दर्शक की पसंद,छवि और वास्तविकता के बीच में घालमेल कर दे ताकि उसे मुद्दों और मतदाता के प्रति जबाबदेही से हटकर छवि आधारित लोकतंत्र की राजनीति करने में सुविधा हो । माध्यम और राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता की राजनीति के बीच से मुद्दों के बजाय छवियों को स्थापित करने की वड़ी वजह यही है कि राजनीति पार्टियां देश के मतदाताओं का दिल पहले दर्शक के स्तर पर जीतना चाहती हैं उसके बाद इसकी डिकोडिंग मतदाता के रुप में करना चाहती है। इस संदर्भ में रिचर्ड किरवी की मान्यता को समझना जरुरी है। किरवी,चुनाव में मुद्दों के नहीं होने को समस्या के बजाय एक बदलाव की स्थिति मानते हैं। उनके अनुसार अब किसी भी चुनाव में मुद्दे के मुकाबले- प्रत्याशी, नेता और राजनीतिक पार्टी का मूल्य ज्यादा है। इसलिए चुनाव अब मुद्दों के आधार पर की जानवाली राजनीति के बजाय छवि,रणनीति और चाल आधारित प्रतियोगिता है। मतदाता अब मुद्दों से ज्यादा छवि से प्रभावित होते हैं.( विलियम लीज, क्लीन, जैलीः 1990,सोशल कम्युनिकेशन इन एडवर्टाइजिंगः पर्सन,प्रोडक्ट्स एंड इमेज ऑफ वेल विइंग, पेज नं-309,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। बीजेपी की पंचलाइन- मजबूत नेता,निर्णायक सरकार में कहीं कोई मुद्दा नहीं है। यहां पूरी तरह एक प्रत्याशी की छवि को स्थापित करने की कोशिश है। यानी लोकतंत्र की राजनीति, विज्ञापनों और टेलीविजन की दुनिया में छवि निर्माण और नियंत्रण का खेल है। ऐसा होने से लोकतंत्र की राजनीति के भीतर एक प्रबंधन की शोली तेजी से पनप रही है जिसे कि अब पॉलिटिकल मार्केटिंग के अन्तर्गत विश्लेषित किया जाने लगा है। यहां भी उपभोक्ता व्यवहार के आधार पर सर्वे कराए जाते हैं और फिर रणनीति और विज्ञापन बनाए जाते हैं। उपभोग के लोकतंत्र की तरह यहां भी विज्ञापन के जरिए मतदाताओं को राजनीतिक पार्टी और प्रत्याशी के पक्ष में रिझाने के काम किए जाते हैं।( गैरी माउसरः1988,मार्केटिंग एंड पॉलिटिकल कैम्पेनिंगःस्ट्रैटजी एंड लिमिट्स,पेज नं-2 बेलमांट,बॉड्सवार्थ)। आगे भी जारी.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090430/b73cc1b6/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Thu Apr 30 18:03:09 2009 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 30 Apr 2009 12:33:09 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <0015175708f811b13a0468c4e6a0@google.com> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// अब ना सहब हम जुलुमिया तोहार Posted: 30 Apr 2009 02:29 AM PDT http://feedproxy.google.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/bF4kBaE2sPs/blog-post_30.html बीते 26 अप्रैल को तिमारपुर में प्रगतिशील युवा संगठन के सदस्‍यों ने भगत सिंह और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की स्‍मृति में एक सांस्‍कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया. पेश है उस कार्यक्रम में नन्‍हे-मुन्‍ने बच्‍चों द्वारा गाया गया यह भोजपुरी गींत. मेरे ख़याल से साउंड की क्‍वालिटी ऐसी है कि थोड़ा ध्‍यान लगाकर सुनने से बात समझ में आ जाती है. बहुत दिनों बाद भोजपुरी सुन रहा था. पालथी मारकर बैठा था, बच्‍चों के गायन ने जांघ पर हथेलियों की थपकियों के लिए मजबूर कर दिया. आप भी आनंद लें. सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubscribe now http://feedburner.google.com/fb/a/mailunsubscribe?k=ye56x97IAylIWC8xSOSQO-nCg0s If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o Google, 20 W Kinzie, Chicago IL USA 60610 Email delivery powered by Google. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090430/a288ac0a/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Apr 30 21:22:29 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 30 Apr 2009 21:22:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCksg==?= =?utf-8?b?4KWL4KSV4KSk4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkueCliCwg4KS14KS/4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueCliCwg4KSX4KWB4KSC4KSh4KSIIOCkueCliCDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSJ4KSo4KSV4KS+IOCkquCkvuCkl+CksuCkquCkqCDgpLngpYg=?= Message-ID: <363092e30904300852s39d09fd8ud0d37edc6986c197@mail.gmail.com> यह लोकतंत्र है, विवाद है, गुंडई है या उनका पागलपन है यह शायद लोकतंत्र है। या शायद उनके संस्कार। या शायद उनकी देशभक्ति। या शायद उनका नीचता के हद पर उतरा पागलपन। वे क्या कर रहे हैं, यह शायद वे ही बेहतर बता सकते हैं? असगर अली इंजीनियर की बातचीतपर आए कमेंट्सके जवाब में संजय काक से एक बातचीतके अंश हाशिया पर पोस्ट किए गएतो अपने दिमाग का संतुलन खोते ये 'देशभक्त' धमकाने की हद तक उतर आए। यह उनका लोकतंत्र और संविधान और देश की उनकी यह समझ है। इसमें संदेह भी नहीं क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात और उडीसा में उनकी समझ का यही सिलसिला रहा है. ये टिप्पणियां आप भी देखें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20090430/197b2f20/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Apr 30 21:22:29 2009 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 30 Apr 2009 21:22:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCksg==?= =?utf-8?b?4KWL4KSV4KSk4KSC4KSk4KWN4KSwIOCkueCliCwg4KS14KS/4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSmIOCkueCliCwg4KSX4KWB4KSC4KSh4KSIIOCkueCliCDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSJ4KSo4KSV4KS+IOCkquCkvuCkl+CksuCkquCkqCDgpLngpYg=?= Message-ID: <363092e30904300852s39d09fd8ud0d37edc6986c197@mail.gmail.com> यह लोकतंत्र है, विवाद है, गुंडई है या उनका पागलपन है यह शायद लोकतंत्र है। या शायद उनके संस्कार। या शायद उनकी देशभक्ति। या शायद उनका नीचता के हद पर उतरा पागलपन। वे क्या कर रहे हैं, यह शायद वे ही बेहतर बता सकते हैं? असगर अली इंजीनियर की बातचीतपर आए कमेंट्सके जवाब में संजय काक से एक बातचीतके अंश हाशिया पर पोस्ट किए गएतो अपने दिमाग का संतुलन खोते ये 'देशभक्त' धमकाने की हद तक उतर आए। यह उनका लोकतंत्र और संविधान और देश की उनकी यह समझ है। इसमें संदेह भी नहीं क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात और उडीसा में उनकी समझ का यही सिलसिला रहा है. ये टिप्पणियां आप भी देखें. -- REYAZ-UL-HAQUE - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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