From chandma1987 at gmail.com Mon Sep 1 18:38:25 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Mon, 1 Sep 2008 09:08:25 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWI4KSw4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuCkviDgpLjgpK7gpL7gpJwg4KSh4KWC4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: यह लेख जनसत्ता अखबार में छपा है तैरने वाला समाज डूब रहा है अनुपम मिश्र नदियाँ विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कुदती हैं, यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएँ उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक सरल दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियाँ थीं। इन असंख्य नदियों में वहाँ का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन और अपने विचारों से उतारता था। इसलिए कभी वहाँ कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएँ रेत में उकेरी जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं-हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहाँ दोहराने लायक है। कभी भूतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदल कर कहीं और भटक गई। तब भुतही को वापस बुलाने के लिए एक बड़ा अनुष्ठान किया गया। नदी के मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई! ये कहानियाँ समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम रहे कि यहाँ की नदियाँ कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं और साधारण लोगों के आग्रह को स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में रख कर जीवन चलाओ। ये सभी चीजें हम लोगों को इस तरफ़ ले जाती हैं कि हम जिन बातों को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें। उत्तर बिहार की बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलात है कि इनमें ऐसे भंवर उठते हैं कि हाथियों को भी डुबो दें। इनमें चट्टानों और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं तो ऐसी आवाज़ आती है कि दिशाएँ बहरी हो जाएँ! ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियाँ एक-दूसरे से बहुत मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में बदल दिया है। नहीं तो यहाँ के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे। इन्हीं नदियों के बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है चार कोसी झाड़ी। इसके बारे में नए लोगों को अब ज़्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहाँ के इलाके का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चंपारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यवहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़ में आने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी। ये सारी चीजें हमें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे। यहाँ का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था। इस बाढ़ में तरना भी जानता है। इस पूरे इलाके में ह्रद और चौर दो शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। इस इलाके में पुराने और बड़े तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे बनाने वाले लोगों ने अगस्तय मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न होगा यह वहाँ के लोगों को भी पता था। पर यह खेल है कि हम इतना बड़ा तालाब बनाना जानते हैं। उन्नीसवीं शाताब्दी तक वहाँ के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। चौर में भी बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। परिहारपुर, भरवारा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं इनका पानी सुखा कर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत ज़रूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये बड़े-बड़े तालाब वहाँ बाढ़ का पानी रोकने का काम करते थे। आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिं सिस्टम था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम से कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहाँ मिलता है-नदियाँ ताल। मतलब है वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहाँ हिमालय से उतरने वाली नदियाँ इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज़्यादा व्यवहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाता था। आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी हैं। उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाजा है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठी होती है उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फीसद उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहाँ तीन बड़ी नदियाँ-गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियाँ नब्बे फीसद पानी उस देश में लेकर आती हैं और कुल दस फीसद वर्षा से मिलता है। बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे, इनके संगम के किनारे रहना जानता था। वहाँ नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियाँ नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई दे। वहाँ की नदियाँ क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ़ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसलिए सोनार बांग्ला कहलाता था। लेकिन धीरे-धीरे चार कोसी झाड़ी गई। ह्रद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसको लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैला कर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियाँ कहाँ बनेगी, कहाँ नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी-ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूल कर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण-अब हम निदयों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण उसके रास्ते में विकास करता है। एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो-एक सौ साल में हुई हैं वे हैं तटबंध और बाँध। छोटे से लेकर बड़े बाँध इस इलाके में बनाए गए हैं बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके यह मान कर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। और उसके बाद आज पता चलता है कि इनसे बाढ़ रुकने की बजाय बढ़ी है, नुक़सान ही ज़्यादा हुआ है। अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित होती है तो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़ से बचाने वाली योजना थी वे केवल शरण स्थली में बदल गई है। इन सब चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग कह रहे हैं कि तटबंध व्यावहारिक नहीं है। लेकिन हमने देखा है कि पिछले डेढ़ सौ-दो सौ साल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है। बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियाँ तय हैं और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे-जैसे ज़्यादा विकसित होते जा रहे हैं इसकी तिथियाँ और इसका स्वभाव भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बांटने में खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टर का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से सिर्फ़ दो करोड़ रुपए की रोटी-सब्जी बांटी गई थी। ज़्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलिकॉप्टर के बदले हम कम से कम बीस हज़ार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इसे भयानक नहीं दिखती। अपने घर की, परिवार की सदस्य की तरह दिखती है। उसके हाथ में हमने बीस हज़ार नावें छोड़ी होती। इस साल नहीं छोड़ी गई तो अगले साल इस तरह की योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएँ-उनके नाविक तैयार हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहाँ के जिलाधिकारी या इलाके की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें कितनी राहत की सामग्री कहाँ-कहाँ से रखी जाएगी यह सब तय हो। और हरेक नाव को निश्चिंत गाँवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए, पुराने अनुभव को देखते हुए उनको सबसे पहले कहाँ-कहाँ अनाज या बना-बनाया खाना पहुँचाना है इसकी तैयारी हो। तब हम पाएँगे कि चौबीस करोड़ के हेलिकॉप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़ में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए। हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश-सभी को मिल कर बात करनी होगी। पुरानी स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे उनका फिर से आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा। और उन्हें नई व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों का त्यों या कुछ सुधार कर अपना सकते हैं इस पर ध्यान देना होगा। जब शुरू-शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक-दो सह्रदय समझदार और यहाँ की मिट्टी को जानने-समझने वाले अधिकारी रहे जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है उससे यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। इन सबको एक साथ समझना-बूझना चाहिए और इसमें से फिर कोई रास्ता निकालना चाहिए। नहीं तो उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहेगा। हम उसका उत्तर नहीं खोज पाएँगे। जनसत्ता रविवारी 31 अगस्त 2008 -- Chandan Sharma Computer Operator & Hindi Typist Sarai CSDS -- Chandan Sharma Computer Operator & Hindi Typist Sarai CSDS -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080901/dc4006f8/attachment-0001.html From chandma1987 at gmail.com Mon Sep 1 18:38:25 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Mon, 1 Sep 2008 09:08:25 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWI4KSw4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuCkviDgpLjgpK7gpL7gpJwg4KSh4KWC4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS54KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: यह लेख जनसत्ता अखबार में छपा है तैरने वाला समाज डूब रहा है अनुपम मिश्र नदियाँ विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कुदती हैं, यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएँ उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक सरल दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियाँ थीं। इन असंख्य नदियों में वहाँ का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन और अपने विचारों से उतारता था। इसलिए कभी वहाँ कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएँ रेत में उकेरी जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं-हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहाँ दोहराने लायक है। कभी भूतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदल कर कहीं और भटक गई। तब भुतही को वापस बुलाने के लिए एक बड़ा अनुष्ठान किया गया। नदी के मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई! ये कहानियाँ समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम रहे कि यहाँ की नदियाँ कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं और साधारण लोगों के आग्रह को स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में रख कर जीवन चलाओ। ये सभी चीजें हम लोगों को इस तरफ़ ले जाती हैं कि हम जिन बातों को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें। उत्तर बिहार की बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलात है कि इनमें ऐसे भंवर उठते हैं कि हाथियों को भी डुबो दें। इनमें चट्टानों और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं तो ऐसी आवाज़ आती है कि दिशाएँ बहरी हो जाएँ! ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियाँ एक-दूसरे से बहुत मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में बदल दिया है। नहीं तो यहाँ के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे। इन्हीं नदियों के बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है चार कोसी झाड़ी। इसके बारे में नए लोगों को अब ज़्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहाँ के इलाके का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चंपारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यवहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़ में आने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी। ये सारी चीजें हमें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे। यहाँ का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था। इस बाढ़ में तरना भी जानता है। इस पूरे इलाके में ह्रद और चौर दो शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। इस इलाके में पुराने और बड़े तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे बनाने वाले लोगों ने अगस्तय मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न होगा यह वहाँ के लोगों को भी पता था। पर यह खेल है कि हम इतना बड़ा तालाब बनाना जानते हैं। उन्नीसवीं शाताब्दी तक वहाँ के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। चौर में भी बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। परिहारपुर, भरवारा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं इनका पानी सुखा कर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत ज़रूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये बड़े-बड़े तालाब वहाँ बाढ़ का पानी रोकने का काम करते थे। आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिं सिस्टम था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम से कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहाँ मिलता है-नदियाँ ताल। मतलब है वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहाँ हिमालय से उतरने वाली नदियाँ इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज़्यादा व्यवहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाता था। आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी हैं। उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाजा है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठी होती है उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फीसद उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहाँ तीन बड़ी नदियाँ-गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियाँ नब्बे फीसद पानी उस देश में लेकर आती हैं और कुल दस फीसद वर्षा से मिलता है। बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे, इनके संगम के किनारे रहना जानता था। वहाँ नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियाँ नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई दे। वहाँ की नदियाँ क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ़ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसलिए सोनार बांग्ला कहलाता था। लेकिन धीरे-धीरे चार कोसी झाड़ी गई। ह्रद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसको लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैला कर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियाँ कहाँ बनेगी, कहाँ नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी-ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूल कर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण-अब हम निदयों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण उसके रास्ते में विकास करता है। एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो-एक सौ साल में हुई हैं वे हैं तटबंध और बाँध। छोटे से लेकर बड़े बाँध इस इलाके में बनाए गए हैं बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके यह मान कर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। और उसके बाद आज पता चलता है कि इनसे बाढ़ रुकने की बजाय बढ़ी है, नुक़सान ही ज़्यादा हुआ है। अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित होती है तो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़ से बचाने वाली योजना थी वे केवल शरण स्थली में बदल गई है। इन सब चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग कह रहे हैं कि तटबंध व्यावहारिक नहीं है। लेकिन हमने देखा है कि पिछले डेढ़ सौ-दो सौ साल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है। बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियाँ तय हैं और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे-जैसे ज़्यादा विकसित होते जा रहे हैं इसकी तिथियाँ और इसका स्वभाव भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बांटने में खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टर का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से सिर्फ़ दो करोड़ रुपए की रोटी-सब्जी बांटी गई थी। ज़्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलिकॉप्टर के बदले हम कम से कम बीस हज़ार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इसे भयानक नहीं दिखती। अपने घर की, परिवार की सदस्य की तरह दिखती है। उसके हाथ में हमने बीस हज़ार नावें छोड़ी होती। इस साल नहीं छोड़ी गई तो अगले साल इस तरह की योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएँ-उनके नाविक तैयार हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहाँ के जिलाधिकारी या इलाके की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें कितनी राहत की सामग्री कहाँ-कहाँ से रखी जाएगी यह सब तय हो। और हरेक नाव को निश्चिंत गाँवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए, पुराने अनुभव को देखते हुए उनको सबसे पहले कहाँ-कहाँ अनाज या बना-बनाया खाना पहुँचाना है इसकी तैयारी हो। तब हम पाएँगे कि चौबीस करोड़ के हेलिकॉप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़ में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए। हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश-सभी को मिल कर बात करनी होगी। पुरानी स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे उनका फिर से आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा। और उन्हें नई व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों का त्यों या कुछ सुधार कर अपना सकते हैं इस पर ध्यान देना होगा। जब शुरू-शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक-दो सह्रदय समझदार और यहाँ की मिट्टी को जानने-समझने वाले अधिकारी रहे जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है उससे यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। इन सबको एक साथ समझना-बूझना चाहिए और इसमें से फिर कोई रास्ता निकालना चाहिए। नहीं तो उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहेगा। हम उसका उत्तर नहीं खोज पाएँगे। जनसत्ता रविवारी 31 अगस्त 2008 -- Chandan Sharma Computer Operator & Hindi Typist Sarai CSDS -- Chandan Sharma Computer Operator & Hindi Typist Sarai CSDS -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080901/dc4006f8/attachment-0003.html From anna at sarai.net Tue Sep 2 12:01:53 2008 From: anna at sarai.net (Anna Jay) Date: Tue, 2 Sep 2008 12:01:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: plz read Message-ID: Fwd: From: "avinash das" Date: September 1, 2008 2:04:37 AM GMT+05:30 To: deewan at sarai.net plz read http://mohalla.blogspot.com/2008/08/blog-post_31.html -- avinash -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080902/772ae568/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Sep 2 14:15:21 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 2 Sep 2008 01:45:21 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/IOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSo4KWHIOCkleClgCDgpKrgpYHgpLDgpL7gpKjgpYAg4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSv4KSkIOCkluCkpOCljeCkriDgpLngpYsg4KSa4KWB4KSV4KWA?= Message-ID: <843683.70732.qm@web52905.mail.re2.yahoo.com> http://kramashah.blogspot.com/2008/08/blog-post_31.html 'पानी के आदमियों जैसे हजार-हजार सर' और कौसिकी की धार कोसी इलाके का हूँ शायद इसलिए परेशान ज्यादा हूँ...जाने पहचाने चेहरों, गलियों, सड़कों का दर्द, उनसे जुड़ी पीड़ा शायद ज्यादा सीधी लगती है. पुणे में रहकर क्या करूँ...न्यूज़ जिस वक्त खोज रहा था उस समय चैनलों के अपने धंधे चल रहे थे. फोन पर हर अपनों से पूछते-पूछते परेशान था कि क्या कर रहे हैं...क्या हालत है. अब तो चैनलों की टीआरपी को भी यह ख़बर अब रास आ रही है. बस ज्यादा कुछ बकबक करने की इच्छा नहीं हो रही है. बस, इस दुख की घड़ी में कुछ कविताएँ याद आ रही हैं... "पत्थरों पर पानी सर सर फोड़ता था पानी के आदमियों जैसे हजार-हजार सर और धुंध में जमता झाग रात में चमकता हुआ" - मंगलेश डबराल "पानी में दिखता है कभी तेज बहाव में छटपटाता हुआ कोई बेमानी मगर उसकी छटपटाहट बिलकुल निरूपाय कि बचाने की पुरानी रिवायत खत्म हो चुकी" -पंकज सिंह सचमुच 'बचाने की पुरानी रिवायत खत्म हो चुकी है' और विष्णु खरे की उधार लें तो लगता है कि "बादल और नदियाँ सूरज, हवा और घरती से मिलकर अपना निर्मम और व्यापक बदला लेते हैं." अंत में कौसिकी के धार में पले बढ़े नागार्जुन की सुनें: गाछी सुखा गेल कलमबाग नष्ट भेल उजड़ल देहात बिगड़ल बसात लोकवेद बेहाल पड़ल अकाल मुइल माल-जाल कतहु रहल ने शेष आरि धुरक ने रेख लै गेल बहाय सभक खेत औ' पथार कौसिकीक धार !  - राजेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080902/b3b63e73/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Sep 2 14:27:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Sep 2008 14:27:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCksCDgpJXgpYcg4KSs4KWA4KSaIOCkruClgOCkoeCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4=?= Message-ID: <829019b0809020157r77320aecw4b337a50a0264432@mail.gmail.com> आप चाहें तो कह सकते हैं कि देश में सालभर में दो-तीन बार ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिसको लेकर मीडियाकर्मी अपनी आत्मा की शुद्धि कर सकते हैं, खोई हुए संवेदना को वापस ला सकते हैं और भाषाई स्तर पर अपने को दुरुस्त कर सकते हैं। जिन्हें भरोसा है कि साहित्य अब भी मानवीय संवेदना को बचाने में मीडिया के मुकाबले ज्यादा कारगार है, वो इस बात का भी दावा कर सकते हैं कि हादसे की घड़ी में मीडिया के लोग बाजार की भाषा भूलकर साहित्य की भाषा अपनाने को मजबूर हो जाते हैं क्योंकि संवेदना साहित्य की भाषा में है, मीडिया की भाषा में नहीं। औऱ साहित्य की इस संवेदना को ले जाकर भले ही बाजार में भुना लें लेकिन साहित्य की भाषा मीडिया के लिए अब भी कम मतलब की नहीं है। इन सबके बीच अगर आप लगातार कोसी के कहर के बीच न्यूज चैनलों को देख रहे हैं, फील्ड में घुसे उनके रिपोर्टरों को देख रहे हैं तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि पिछले चार-पांच दिनों में लगभग सारे न्यूज चैनलों की भाषा अचानक से बदल गयी है, अखबार भाषा में मनुष्यता और आम आदमी की पक्षधरता तलाशते नजर आ रहे हैं। हेडरों के लिए रेणु का मैला आंचल इस्तेमाल करते नजर आ रहे हैं। वो साहित्यिक नजर आ रहे हैं। रघुवीर सहाय ने जब कहा कि- *सात सौ लोग मारे गए, * *अखबार कहता है* *टूटे हुए खंडहरर और शहतीर दूरदर्शन दिखाता है* *मेरे भीतर से कई खबरें आतीं है हरहराकर।* तो वो बार-बार इस बात पर चिंता जता रहे होते हैं कि मानवीय संवेदना को सामने लाने में दूरदर्शन असमर्थ है। वो सिर्फ सूचना भऱ दे सकता है और वो भी वहीं की सूचना जहां तक कैमरे की पहुंच है। रघुवीर उस दूरदर्शन को असमर्थ बता रहे हैं जिसका काम ही है सामाजिक विकास और आम आदमी के दर्द को सामने लाना। सरकार की ओर से इसे करोड़ों रुपये इसी बात के मिलते हैं। औऱ आज अगर वो सैकड़ों प्राइवेट चैनलों को ध्यान में रखकर यही कविता लिख रहे होते तो पता नहीं दो ही पंक्ति में साबित कर देते कि वो संवेदना क्या कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ हैं। रघुवीर को इस बात पर शायद ही भरोसा होता कि जो एंकर २२ डिग्री पर स्टूडियों में जाकर खबरें पढ़ता है वो भला कोसी में जाकर पीड़ितों के पक्ष में कुछ बोल सकता है। जो चैनल दिन-रात टीआरपी की तिकड़मों और विज्ञापन बटोरने में लगा होता है, वो भला इनके लिए कुछ राहत और बचाव कर सकता है. रघुवीर को कन्वीन्स करना इन मीडियाकर्मियों के लिए वाकई बहुत मुश्किल काम होता. औऱ आज भी जिनकी मानसिकता पूरी तरह रघुवीर और इसी तरह के दूसरे रचनाकारों से मिल-जुलकर बनी है वो सारे चैनलों के इस मानवीय प्रयास को पाखंड करार दे देगा। रघुवीर ने कविता में कहा कि पत्रकारिता की तटस्थता पर मत जाओ, आंकड़े बाद में जुटा लेना। पहले उन खबरों का कुछ करो, जो भीतर से हरहराकर आ रही है, जिसे कि कितने भी मेगा पिक्सल के कैमरों हों, कैद नहीं किया जा सकता। आज के हिसाब से कहें तो जिस मंजर को किसी भी चैनल की ओबी वैन लाइव नहीं कर सकती। ये सवाल पत्रकारिता का नहीं, मानवता का है और जाहिर है कि इसमें इस बात से मतलब नहीं होता कि आप इसे सामने लाने के लिए मीडिया के टूल्स सामने ला रहे हो या फिर कुछ और। कोसी के कहर के बीच लगातार पैदा होती खबरों को मारकर अगर कुछ जानें बचा ली गईं तो रघुवीर के हिसाब से हरहराकर आती हुई भीतर की खबरों को जुबान मिल जाती है। कुछ जानों के बच जाने का मतलब है पत्रकारिता और मानवता के बीच एक द्वैत की स्थिति का आ जाना। रघुवीर पत्रकारिता की तटस्थता के बीच संवेदना के स्तर की तलाश करते नजर आते हैं। तटस्थता औऱ उदासीनता के बीच फर्क करते हैं। उनकी ये चार पंक्तियां बार -बार इस बात की जिद करती है कि- खबरों की तटस्थता की बात बाद में करना, पहले भीतर से जो खबरें आ रहीं है, भीतर जो हलचल है, उसका क्या करें, उसका सोचो, आंकडों पर मत जाओ। कल पूर्णिया से स्टार के लिए कवरेज कर रहे दीपक चौरसिया ने कहा कि आंकड़ों पर मत जाइए, ये देखिए की हम कितना कुछ कर पा रहे हैं इनके लिए। ये वही पत्रकार है जो हमेशा आंकड़ों की बात करता है, वीडियोकॉन टावर में बैठकर एक आंकड़ा सामनेवाले के आगे कर दिया करता और बस हां या न में जबाब मांगता रहा है। उसे आंकडों में ही हमेशा सच नजर आया। लेकिन आज उसके लिए आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है. एक तो खुद उसके बूते का नहीं है कि वो आंकड़ें जुटा पाए. इंडियन डिजास्टर मैंनेजमेंट की २००६ के बाद बाढ़ को लेकर कोई मीटिंग नहीं हुई कि कहीं से कोई आंकड़े मिल सकें और पर्सनल लेबल पर कोई आंकड़े जुटाए नहीं जा सकते। इसलिए आप ये भी समझ सकते हैं कि किसी भी बड़े पत्रकार के लिए आंकड़ों को छोड़ने के अलावे कोई उपाय नहीं है, इसलिए इस बात को मानवता में कन्वर्ट कर रहा है। भिवानी के अखाडे के बाद रवीश को मैंने सीधे नेपाल के उस इलाके में देखा जहां मछलियों के चक्कर में, हेरा-फेरी करने के लिए लोग बांध की शटर बार-बार उठाते हैं और जिससे उसका लीवर कमजोर होता है। रवीश झल्ला रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, चेहरे पर आए पसीने का मिजाज भिवानी और दिल्ली के पसीने से ज्यादा गाढ़ा है। चेहरे को देखकर ही लगता है कि गए थे सिर्फ रिपोर्टिंग करने लेकिन देखते ही देखते वहां के लोगों के दर्द में शामिल हो गए। राहत शिविर की दुर्गति पर क्षुब्ध हो गए। रवीश एक बूढ़े पथराए चेहरे की तरफ ईशारा करके बताते हैं कि जो सौ किलो से भी ज्यादा अनाज अपने घर में छोड़ आया है, इस राहत शिविर की खिचड़ी के लिए बाट जोह रहा है। स्टार न्यूज के पंकज सहरसा में बचपन के डूबने की बात बता रहे हैं और दो पंक्तियां दोहराते है- *मगर मुझको लौटा दो बचपन की यादें, * *वो काग़ज की कश्ती, वो वारिश का पानी।* वो बताते हैं कि इन मासूम बच्चों का वो आंगन छूट गया है जहां वे खेलते। इन चैनलों के संवाददाता पर्सनल लेवल पर कोसी की कराहों को कम करते नजर आते हैं। न्यूज २४ का कार्तिकेय शर्मा जो अब तक संसद के गलियारों में खबरें खोजता रहे, राजनीतिक पेंचों को दर्शकों के सामने पेश करते रहे, आज राहत के लिए लगाए गए हैलीकॉप्टर से हमें सूचनाएं दे रहे है, एक-एक पैकेट के पीछे भागते लोगों को कवर कर रहे हैं, उनके दर्द को बार-बार बयान कर रहें है। सबके सब मीडियाकर्मी साहिकत्यिक भाषा बोलने लग गए हैं। आप कह सकतें हैं कि वो अपने जूनियर्स को लाख समझाते रहे हों कि आम भाषा का इस्तेमाल करो। आम का मतलब उपभोक्ता की भाषा। भले की मार्केटिंग का आदमी शब्दों को तय करता रहा हो कि किसके बदले कौन-सा शब्द बोलना हो लोकिन उनका भरोसा अब भी कायम है कि साहित्य और मानवीय संबंधों का गहरा संबंध है। दर्द, बेबसी औऱ खोती हुई उम्मीदों के बीच साहित्य की भाषा ही काम आ सकती है। चार-पांच दिन में बदली मीडिया औऱ मीडियाकर्मियों को चाहे तो कोई पाखंड कह ले, संवेदना का सौदा कह ले, कोसी क्या कुछ भी हो जिससे टीआरपी बढ़ती हो दिखाएंगे कह ले लेकिन हमें इस बात का संतोष होता है कि मीडिया में मानवीय संवेदना की गुंजाइश अभी पूरी तरह मरी नहीं है। *नोट- हालांकि इस बात का एक दूसरा पक्ष भी है जिसे देखेंगे अगले दिन* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080902/3f50fd71/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Wed Sep 3 00:45:03 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 3 Sep 2008 00:45:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= plz read it must Message-ID: <85de31b90809021215s49a4b7f6y503aa6572fdccc21@mail.gmail.com> brilliant report on bihar flood... plz read it must : http://mohalla.blogspot.com/2008/09/blog-post_9435.html avinash -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080903/03042b05/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Sep 3 14:58:35 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 3 Sep 2008 14:58:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJXgpLngpLAg4KSV4KWN4KSv4KWL4KSC4KSV4KS/?= =?utf-8?b?IOCkluCkrOCksOCkv+Ckr+CkviDgpJrgpYjgpKjgpLIg4KSw4KS54KWH?= =?utf-8?b?IOCkrOClh+CkluCkrOCksA==?= Message-ID: <829019b0809030228o381c670fhe8f2b2e91ea021d1@mail.gmail.com> कोसी के कहर में जिस प्रशासनिक विफलता की हांक लगा रही है और लगातार सरकार और उसकी मशीनरी को इसके लिए जिम्मेदार बता रही है, इसके बीच एक बड़ी सच्चाई खबरिया चैनलों की खबरों को लेकर घपलेबाजी रही है। प्राइम टाइम से गायब होती खबरें और अपनी सुविधा के लिए मनोरंजन प्रधान चैनलों का मुंह जोहते और पेज 3 जर्नलिज्म से खबरों को लैश कर देने की हरकत भी कोसी कहर के लि उतनी ही जिम्मेदार है। पढ़िए ताना-बाना पर पूरी बात- http://taanabaana.blogspot.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-77535 Size: 1228 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080903/0fe40566/attachment.bin From debashish at gmail.com Fri Sep 5 16:58:21 2008 From: debashish at gmail.com (Debashish) Date: Fri, 5 Sep 2008 16:58:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Manthan_Award_Sout?= =?utf-8?q?h_Asia_2008_-_Nominations_Open_Now_-_Last_day_15th_July_?= =?utf-8?b?JzA4?= In-Reply-To: References: Message-ID: दीवान सूची के मित्रों, नमस्ते। इस सूची का नया रंगरूट हूँ। पिछले दिनों रविकांत जी से चर्चा के दौरान मैंने ज़िक्र किया कि मेरे द्वारा प्रकाशित जालपत्रिका निरंतर http://www.nirantar.org अब अनिरंतर हो गई है और जिस तरह के आलेख हम छापते रहे हैं उस किस्म के लेखों के टोटे पड़े रहते हैं। मैं हिन्दी ब्लॉगों की एक निर्देशिका भी चलाता हूँ और उस पर शामिल चिट्ठों के आधार पर कह सकता हूँ कि सबसे बड़ा तबका कविताई चिट्ठों का है, दूसरा नंबर निजी चिट्ठों का आता है। निरंतर पर साहित्यिक रचनायें हम कम ही छापते हैं, छापना चाहते हैं। इस हेतु अभिव्यक्ति, कृत्या, अनुभूति जैसी बेहतरीन जाल पत्रिकायें मौजूद ही हैं। पर हम साहित्य से मुंह नहीं मोड़ रहे, प्रत्यक्षा ने निरंतर पर अनोखी इंटरेक्टिव कहानी "लाल परी" लिखी जहाँ पाठकों ने कहानी का रुख तय किया। पर हम मुख्यतः समाचार विचार, तकनीकी लेख व ट्यूटोरियल, साक्षात्कार, पुस्तक व उत्पाद समीक्षा, ब्लॉगमंडल के उद्भव जैसे मुद्दों पर लेख छापना चाहते हैं। निरंतर के गतांकों में हमने हिन्दी ब्लॉग के रचना संसार, जिसमें वर्डप्रेस पर आधारित अपनी तरह का विशेषांक भी शामिल रहा, से लेकर, शिक्षा व इसमें सूचना प्रोद्योगिकी के प्रयोग, जल संकट, विस्थापन, जैसे अनेक मुद्दों पर लेख छापे हैं। मेधा पाटकर से लेकर डॉ सुगाता मित्र के साक्षात्कार और अतानु दे, प्रो यशपाल जैसे लेखकों के लेख यहाँ छपे हैं। पर ये बड़े नाम अपवाद हैं, निरंतर मूलतः ब्लॉगरों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका है, हम लोग पेशेवर लेखक नहीं हैं पर हम पेशेवराना रवैये की बिसात पर प्रिंट मीडिया की गुणवत्ता से लोहा लेने का साहस लेकर चले हैं। हमने केरल के एक गुमनाम छात्र का साक्षात्कार भी छापा जिसने कागज़ को हार्डडिस्क जैसे इस्तेमाल करने की तकनीक खोजी और एक पत्रकार की पुस्तक का भी ज़िक्र किया जिसने बाँधों से विस्थापन का दर्द उजागर किया। हमारे लेख प्रिंट प्रकाशन भी यदा कदा छापते रहे हैं। यह सब कुछ कहा निरंतर के बारे में कुछ बताने के लिये, अधिक जानकारी http://nirantar.org/about यहाँ है। इस सूची के माध्यम से हम आगामी अंक के लिये आलेख आमंत्रित करते हैं, हम निम्नलिखित विषयों पर खास निरंतर के लिये लेख आमंत्रित कर रहे हैं, स्वीकृत लेख पर २०० से ५०० रुपये मानदेय का प्रावधान है। (क्षमा करें पर निरंतर से फिलहाल आय नहीं होती अतः पारिश्रमिक देने की स्थिति हमारी नहीं है।) -- हम एक आधुनिक समाज में है फिर भी हमारे समाज में आज भी बाबाओं और स्वामियों ने डेरा डाल रखा है, जो या तो निरे जादूगर है या सधे व्यापारी। चाहे टीवी पर "योग" की मार्केटिंग कर इमेज बिल्डिंग के धुनी बाबा रामदेव हों या उसी योग को कार्पोरेट रूप देकर करोड़पतियों को बेचते श्री श्री रविशंकर। विदेशों में ऐसे ढोंगी गुरुओं के कारण भूमीगत रेलसेवा में जहरीली गैस फैलाव से लेकर सामूहिक आत्महत्या जैसे वीभत्स कांड हुये हैं। सत्यसाई बाबा के सरकारी टीवी पर हाथ की सफाई दिखाते फुटेज के स्पष्ट सबूत के बावजूद सुनील गावस्कर से लेकर शेषन जैसे अनेकानेक जानेमाने लोग उनके अंधभक्त रहे। रजनीश ने लालसा से ही मोक्ष का मार्ग बता कर अपनी अथाह संपत्ति पर आपत्ति के दरवाज़े बंद करवा दिये। गुजरात के एक कथित सन्यासी व उनके पुत्र पर आश्रमों में बच्चों की मौत और यौन शोषण के आरोप के बावजूद इन पर कोई हाथ भी नहीं डाल सका। इनके द्वारा कमाई दौलत की न कई अकांउंटिंग है न कोई इन के बारे में कुछ बोलने का साहस करता है। राजनेताओं और पैसों के बलबूते पर करोड़ों लोग हर रोज़ बेवकूफ बनाये जा रहे हैं। इंटरनेट पर खोजने की देर है इस तथाकथित समाज सुधारकों की असलियत बताते हज़ारों लोग आपको मिलेंगे। पर एक तथ्य ये भी है कि इनमें से कई ने अनेकानेक स्कूल व अस्पताल भी खुलवायें हैं, लोगों की मदद भी की है। क्या आप लिखना चाहेंगे इस विषय पर एक तथ्यपरक लेख? ‍‍-- भारत के बढ़ते आर्थिक बल से इसके उज्जवल भविष्य की नास्त्रादमिय भविष्यवाणी के सच होने के आसार दिखते हैं। पर जिस तरह का हमारा सामाजिक व्यवहार, सिविक सेंस, राजनीतिक व सरकारी चरित्र है उससे यह सोच कर भी डर लगता है कि भविष्य की जिम्मेवारी हम कैसे ढो पायेंगे। चीन ने आलंपिक के शानदार आयोजन से आलोचकों का मुंह बंद कर दिया, भले दमनकारी शासन तंत्र हो, मानवाधिकार के सवाल रहे हों, इस देश ने आयोजन और मेडलों के द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। लाखों स्वयंसेवकों के सहारे अनुशासित व्यवस्थापन, प्रदूषण और भाषा जैसी समस्याओं के फौरी हल पर कठोरता से अमल, प्राकृतिक आपदा से निबटने का तंत्र और काबलियत, ये मज़ाक नहीं है। इसके सापेक्ष हमारा हाल देखिये, कहाँ से बनेंगे हम सुपरपॉवर? किस जनम में हम आलंपिक का आयोजन कर पायेंगे? पुणे में कॉमनवेल्थ यूथ खेलों के इंतज़ामात देखिये, छ महीनों से अखबार चेताते रहे, आज माह भर दूर हैं खेल और शहर अस्तव्यस्त है, सड़कें खुदी हैं , सारे काम आधे अधूरे, स्टेडियम, हॉस्टल तक तैयार नहीं। बिहार में हमारा आपदा नियंत्रण देखिये, यहाँ भी राजनीति चलाते हैं हम। हमारा सिविक सेंस देखिये, हम कितने भ्रष्ट राष्ट्र हैं देखिये। क्या ट्रैफिक, क्या टैक्स, नियम तोड़ना हमारा धर्म बन चुका है। और इन्हीं भारतियों को मैंने न्यूयॉर्क की सड़कों पर कायदे से चलते देखा है। विदेशी भले हमारे chaotic तंत्र में भी देश के चलते रहने की झूठी तारीफ करें, हकीकत हम जानते हैं। क्यों हैं देश हमारा ऐसा? हम इस तरह सुपरपॉवर कैसे बनेंगे? क्या आप लिखना चाहेंगे इस विषय पर एक झकझोरता लेख? इनके अलावा: किसी अनछुये विषय पर आसान भाषा में लिखे तकनीकी लेख, नये उत्पादों व जालस्थलों की समीक्षा का भी स्वागत है। अंत में एक बात कोलेबोरेटव लेखन http://en.wikipedia.org/wiki/Collaborative_writing की। निरंतर पर हम कोलेबोरेटिव लेखन को बढ़ावा देते हैं। अगर आप के पास किसी लेख का विचार है तो आप उसे साथी लेखकों या हमारे संपादक मंडल के साथ मिल कर लिख सकते हैं। निरंतर पर इस तरह के अनेक आलेख प्रकाशित हुये हैं, मसलनः झरिया की भूमिगत आग http://www.nirantar.org/1006/cover/centralia, रियल एस्टेट http://www.nirantar.org/1206/cover/indian-property-bubble, वेबारू http://www.nirantar.org/0806/nidhi/webaroo तथा एड्स http://www.nirantar.org/0806 पर आमुख कथायें। निरंतर के लिये निरंतर लिखने के इच्छुक http://groups.google.com/group/nirantar-mitra पर हमारे पत्र समूह के भी सदस्य बन सकते हैं। आशा है आप और हम मिलकर कुछ नये विचारों का सृजन करेंगे और सार्थक बहसों का ज़रिया बनेंगे। आपके सुझाव व प्रतिक्रिया का सदा स्वागत है जिसे आप patrikaa at gmail.com पर भेज सकते हैं। आपका देबाशीष -- For information about me and other links visit my homepage at http://www.debashish.com. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080905/68a2b31f/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Fri Sep 5 17:24:55 2008 From: bhagwati at sarai.net (Bhagwati) Date: Fri, 05 Sep 2008 18:54:55 +0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWA4KSo4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkriwg4KSc4KS84KS/4KSC4KSm4KSX4KWAIOCknOCkvOCljeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KS+?= Message-ID: <48C11E0F.8070100@sarai.net> रविवार डाट काम ब्लॉग पर राजेंदर यादव का साक्षात्कार चीनी कम, ज़िंदगी ज़्यादा राजेंद्र यादव से जयंती रंगनाथन की बातचीत किताबघर से गीताश्री के संपादन व संयोजन में शीघ्र प्रकाश्य 'राजेंद्र यादव और छब्बीस लेखिकाएं' में यह साक्षात्कार शामिल है. इस किताब में राजेंद्र यादव से संबंधित आलेख, संस्मरण और साक्षात्कार हैं. पहली बार कब पढ़ा था राजेंद्र यादव को.. ..? लगभग तीस साल पहले. उस समय की दूसरी किशोरियों की तरह साहित्य पढ़ने की शुरुआत में ही दो महत्वपूर्ण उपन्यास से रूबरू हुई धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ और राजेंद्र यादव का ‘सारा आकाश’. ‘गुनाहों का देवता’ ने मुझे उतना प्रभावित नहीं किया, जितना ‘सारा आकाश’ ने किया था. सुधा और चंदर खास कर सुधा का चरित्र जरूरत से ज्यादा कमजोर लगा. बीच में चंदर और नर्स का प्रसंग भी मुझे अरुचिकर लगा. लेकिन ‘सारा आकाश’ की नायिका के संघर्ष से मैं अपने को जोड़ पाई. भाषा, शैली, सब कुछ सहज और सरल. इसके कुछ सालों बाद जब धर्मयुग से जुड़ी, तो सारा आकाश और राजेंद्र यादव के जिक्र पर एक सीनियर कलीग ने टिप्पणी की, “ उपन्यास अच्छा लगा, तो वहीं तक रखो. कभी लेखक से मिलने की इच्छा मत करना. यादव जी भारती जी नहीं हैं.” भारती जी मेरे बॉस थे, संपादक थे. हालांकि जिस समय मैं धर्मयुग से जुड़ी (1985 में), वे दूसरों के हिसाब से काफी बदल चुके थे. हंसते भी थे और अपने स्टाफ को ब्रीदिंग स्पेस भी देते थे. लेकिन कभी मुझे उनके साथ यह नहीं लगा कि मैं सहज हो कर गपियाऊं या उनसे चर्चा करूं. दूरियां थीं, काफी थीं. (मैं कुछ ज्यादा अपरिपक्व थी और वे उम्र और पद के हिसाब से ज्यादा परिपक्व). सालों बाद मुंबई से दिल्ली आना और बसना हुआ. राजेंद्र यादव के जिक्र पर कई लोगों से सुनने को मिला, “रसिया आदमी हैं. अगर आप अपने को बचा सकें, तो जरूर जाइए और मिलिए.” हंस की गोष्ठियों में दूर से उन्हें देखा, हमेशा युवा स्त्रियों से घिरे, हंसते-ठहाके लगाते हुए यादव जी. कभी हिम्मत नहीं हुई पास जाने की, बात करने की. इस बीच उनसे बिना मिले ही हंस में दो कहानियां छपीं. उसी दौरान धीरेंद्र अस्थाना और उनकी पत्नी ललिता भाभी के साथ पहली बार राजेंद्र यादव से मिलना हुआ. धीरेंद्र जी ने परिचय कराया, तो राजेंद्र जी ने सहजता से कहा, “तो तुम हो जयंती! ” उस दिन एक दीवार टूट गई. मेरे सामने जो था वो एक पारदर्शी व्यक्ति था. सहज और सरल. मेरी कल्पना से परे. लगा कि एक्ट कर रहे हैं. लेकिन सबके साथ वे ऐसे ही थे. फिर भी एक संकोच था. जो टूटा कुछ सालों बाद, जब मैं गीताश्री, अमृता, कमलेश और असीमा के साथ उनसे मिलने लगी, अकसर उनके घर पर हम सब धमाल मचाने पहुंचने लगे. राजेंद्र जी खुश होते थे, हंसते थे, तमाम विषयों पर खुल कर जिक्र करते थे. हमें वे कहते गुंडियां- बड़ी गुंडी, मंझली गुंडी और छोटी गुंडी. अपनी असुरक्षाओं का जिक्र करते, जिंदगी में अकेलेपन को लेकर अपना पक्ष बताते. लेकिन अधिकतर वे खुश रहते, ठहाके लगाते. इन सबके बीच वो राजेंद्र यादव कहां है, जिनके बारे में सालों पहले मुझे सावधान किया गया था? ये तो एक ऐसा शख्स था, जिसके सामने हम अपनी तरह से रह सकते थे, वो कह सकते थे जो ना जाने कब से हमारे अंदर था और बाहर निकल नहीं पा रहा था. क्या हम स्त्रियां ऐसे पुरुष को नहीं जानना चाहतीं, जो उनका चेहरा पढ़ ले, जिनके सामने वे अपना स्त्री होना भूल जाए और सिर्फ यह याद रखे कि वो एक जीती-जागती मनुष्य भी है आकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब. हमारे गैंग के कुछ सदस्यों को राजेंद्र यादव के नॉनवेज जोक्स पर एतराज है. लेकिन एंजाय सभी करते हैं. एसएमएस सभी शेअर करते हैं. हर साल राजेंद्र यादव के जन्मदिन की पार्टी में कई दिलचस्प किरदारों से मुलाकातें, बहस, शेअरिंग, गैंग में शामिल होते नए सदस्य-कड़ी से कड़ी जुड़ रही है. मैं हर बार जान रही हूं राजेंद्र यादव के व्यक्तित्व के नए पहलुओं को. वाकई यह व्यक्ति औरों से अलग है. अपने ऊपर उम्र को हावी होने नहीं देता. कभी यह अहसास नहीं होने देता कि वह ‘ द राजेंद्र यादव’ है. हां, इसका नुकसान भी है. जब कोई नया व्यक्ति उनसे मिलता है और उनके आसपास एक खास किस्म के ‘ऑरा’ की अपेक्षा करता है, तो उसे निराश होना पड़ता है. उनसे कई बार कई विषयों पर बात हुई. गंभीर और अगंभीर बातें. फिजूल की बहसें भी हुईं. उनकी टिप्पणियां हर बार आपको अच्छी लगें, यह भी जरूरी नहीं. लेकिन मित्रवत बातचीत के अलावा एक औपचारिक इंटरव्यू लेने की बात जब आई, तो तय हुआ कि हम साहित्य से इतर ही बात करेंगे. ऐसे राजेंद्र यादव के बारे में बात करेंगे, जो अभी भी कुछ स्त्रियों को ‘डराता’ है, एक बौध्दिक वर्ग को ‘छिछोरा’ लगता है और हंस के पाठकों और एक बड़े प्रशंसक वर्ग को ‘अभिभूत’ करता है. • आप कितने अ-साहित्यक व्यक्ति हैं? जब मैं पढ़ता या लिखता हूं तो पूरी तरह एक साहित्यिक आदमी होता हूं, लेकिन इसके बाद मैं कोशिश करता हूं कि एक आम आदमी की तरह हंसू, बर्ताव करूं. आइ वांट टू बी लाइक ए कॉमन मैन. इसके लिए मुझे किसी तरह की कोशिश नहीं करनी पड़ती. मुझे यह नेचुरल लगता है. शाम को घर लौटने के बाद या तो दोस्तों से मिलना-जुलना होता है, अकेला होता हूं तो कोई फिल्म देख लेता हूं. • आपका मन नहीं होता कि अलग क्षेत्र के लोगों से मिले-जुलें? मिलना चाहता हूं.. . दिक्कत क्या है कि हमारे सर्किल में ऐसे लोग नहीं हैं, सारे पढ़ने-लिखने वाले हैं. कभी-कभी इच्छा होती है कि ऐसे लोगों से मिला जाए जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है. • अगर सफर में ऐसे व्यक्ति का साथ मिल जाए, जो आपको नहीं जानता, तब आपकी क्या प्रतिक्रिया होती है? मैं अपनी तरफ से कभी नहीं बताता. अगर पूछे तो सिर्फ इतना बताता हूं कि लिखने-पढ़ने का काम करता हूं. ज्यादा पूछे तो कहता हूं कि मैगजीन निकालता हूं. मैं उनके और अपने बीच डिस्टंस पैदा नहीं करना चाहता. मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरे पैर छुए या मुझसे दूरी बना कर चले. हमेशा से यही लगता रहा कि मैं लोगों के करीब रहूं. पैर छुआना, ओरा बना कर चलना--यह सब ड्रामा लगता है. अच्छा लगता है जहां बेतकल्लुफ-सी बातचीत हो, दुराव-छिपाव ना हो, खुल कर हो, गंदी बातें भी कर सकें और अच्छी बातें भी. आगे पढ़ें • एक आम आदमी का जीवन कितना मिस करते हैं आप? उम्र के इस मोड़ पर पहुंच कर आप एक एक्टिव जिंदगी जी रहे हैं, कभी लगता है कि कहीं प्रोफेसर होते या कोई और काम किया होता? कभी नहीं.. • लेकिन यादव जी पैसा तो नहीं है ना इस फील्ड में .. .. हां, लेकिन ना मुझे इसका अफसोस है ना कभी इच्छा रही. मेरी इच्छाएं, खासकर अपने लिए बहुत कम हैं, शुरू से. • हाल ही में गीताश्री की पुस्तक के विमोचन समारोह में आप पर खूब फब्तियां कसी गईं, आपने दो लाइन क्या लिखा करीना कपूर के बारे में कंट्रोवर्सी बन गई.. कहा गया कि बुढ़ापे में जवां लड़कियों का ‘ शौक ’ हो जाता है, मनीषा ने भी यह बात कही और मैत्रेयी ने भी. अच्छा यह बताओ, क्या मुझे एक सुंदर लड़की देख कर एप्रीशिएट कहने का हक नहीं? इस तरह के विवादों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता. मैं समझता हूं कि जो कह रहा है, वो बेवकूफ है. अगर इनमें से किसी को मैं इस निगाह से देखता तो शायद उनको खुशी होती. • अब तो आपकी हर बात कंट्रोवर्सी बन जाती है. पहली कंट्रोवर्सी कौन सी बनी? ठीक से याद नहीं. पर मेरे उपन्यास ‘सारा आकाश’ में एक शिरीष नाम का किरदार था, जो धर्म-कर्म किसी पर यकीं नहीं करता था, इसको ले कर विवाद छिड़ा. बाद में होता ही रहा. उस समय मुझे लगा कि जो मैं कह रहा हूं, सही है और मन से कह रहा हूं और इसे ऐसा ही होना चाहिए. मुझे याद है, बहुत पहले पैंसठ-सत्तर की बात है, मैंने एक लीड लिखा कुछ शास्त्रीय निषेधों के बारे में-प्राध्यापकों के खिलाफ, जो जड़ होते हैं, जो अपनी दुनिया से बाहर निकलना नहीं चाहते और यह समझते हैं कि साहित्य सिर्फ उतना ही है जितना हम जानते हैं, आधुनिक साहित्य को आने ही नहीं देंगे. मैंने एक लंबा लेख लिखा था, डॉ नरेंद्र और उन जैसे लोगों के खिलाफ बाकायदा खुल कर लिखा था. उसे ले कर बहुत कंट्रोवर्सी हुई. उस समय वह अजंता में छपा था. • आपकी कितनी उम्र रही होगी उस समय ? जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. मुझे हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी. मैं तीस के ऊपर का था. शुरू से ही मैं जो एस्टाब्लिश- स्थापित और स्वीकृत है, उनको विकर्षक्रित करना चाहता हूं. मुझे लगता है कि चीजों को जैसे का तैसा स्वीकार करना गलत है. • स्त्री को जान पाने की पहल सबसे पहले कब हुई? बड़ा मुश्किल है कहना. जाइंट परिवार था. 18 बहनें थीं, कुछ बड़ी कुछ छोटी. किसी के प्रति ज्यादा अटैचमैंट था. कहना चाहिए कि इमोशनल टाइज वहीं से शुरू हुए. धीरे-धीरे लगा कि हम जिस स्त्री को जानना चाहते हैं वह कम से कम मेरी बहन नहीं है, बेटी नहीं है, मां नहीं है. बेटी, मां,बहन आपका चॉइस नहीं, आपको दे दी गई हैं. हमारी चाइस वो स्त्री है जिसे हमने चुना, हम उस स्त्री की बात कर रहे हैं. मां, बहन, बेटी के बारे में बात करनी भी नहीं चाहिए. ये महिलाएं किसी और के लिए औरत होंगी, हमारे लिए नहीं हैं. मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्री विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं करूंगा. घर के अंदर भी स्त्री को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए, मैंने दी है. बेटी को जिंदगी में एक बार थप्पड़ मारा, आज तक उसका अफसोस है. बाद में जिंदगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए. यह फ्रीडम तो देनी ही पड़ेगी. • ‘ अपनी दुनिया की स्त्री’ से आपका साबका कब हुआ? मेरे फादर डॉक्टर थे. छोटे कस्बों में उनका ट्रांसफर होता था. जहां कंपाउंडर, नौकर, कुक, चौकीदार और उनका परिवार होता था. कंपाउंडर की बेटियों से हमारी दोस्ती थी. उनसे छेड़छाड़ चलता रहता था. स्त्री को वहीं से जानना शुरू किया, उनके शरीर को भी. समझते थे कि हम प्यार कर रहे हैं. वह लस्ट था, आकर्षण था. उस समय बहुत आगे जाने के बारे में मालूम नहीं था. सच में जिसके साथ अटैचमेंट हुआ वो उन्नीस-बीस साल में हुआ, जो आज तक चला आ रहा है. सेक्स बहुत बाद में आया. शुरू में यह मानना भी मुश्किल था कि वी लव इच अदर. हमारे बीच प्लेटोनिक लव था. चिट्टियां लिख रहे हैं. दक्षिण भारत गए घूमने, रामविलास शर्मा, मैं अमृतलाल नागर वगैरह, वहां से चिट्ठियां लिख रहे है कि तुम भी होती तो कितना अच्छा था, वगैरह वगैरह. तब तक हमने आपस में आइ लव यू नहीं कहा था. यह बात हम लोगों ने पांच साल बाद मानी. जब शादी की बात आई, तो वह कलकत्ते आई, बाकायदा मेरे पास तीन-चार दिन रही. शादी की बात पर उसने कहा- मैं प्यार कर सकती हूं, शादी की योजना मेरे दिमाग में नहीं है. • उस लिबरेटेड वूमन को आप पचा पाए? सम्मान के साथ उसे जाने दिया कि मन में खलिश रह गई? जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. उसकी जिम्मेदारियां थीं. फादर उसके बीमार रहते थे या संत हो गए थे. जैन लोग थे. सारे घर का इंतजाम, भाइयों के बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का काम वही करती थी. बाद में फॉरच्युनेटली या अनफॉरच्युनेटली उसने डबल एम ए किया, पीएचडी किया और प्रोफेसर हो गई. अधिकार की जो चेतना शुरू में थी, वो बाद में बाकायदा एक ऑफिसर की या प्रिंसेस जैसी हो गई. मुझे हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी. आगे पढ़ें • क्या आप उसके साथ एक नार्मल जिंदगी जी पाते? आज उसे शिकायत है कि तुमने मुझे एक बच्चा भी नहीं दिया. • उसकी शिकायत को जेनुइन मानते हैं आप? मुझे अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को. नहीं, वह गजब की इगोइस्ट थी. जब पहली बार सेक्स संबंध बने, हम दोनों 10-12 दिन पहाड़ पर रहे थे, उसकी तबीयत खराब हो गयी. महीने भर तक. मुझे शक है कि उसने एबार्ट करवाया. हालांकि उसने बताया नहीं. • इतनी इगोइस्ट महिला से आपको प्यार कैसे हो गया? हो गया, क्या करें? बल्कि आज भी लड़ती है मुझसे, सत्तर साल की हो गई है, बल्कि अबव सेवंटी, कहीं एक अख़बार में कुछ आ गया होगा उसके बारे में, कहती है कि मैं बिलकुल नहीं चाहती कि कहीं मेरा नाम आए. शी इज पर्सन ऑफ ए स्ट्रांग कैरेक्टर. • क्या वो आपको मिल जाती तो आप दोनों के बीच प्यार रहता? औरत का यह तेज रूप बर्दाश्त कर पाते आप? मेरे ख्याल से नहीं कर पाता. नई कहानी का सारा दर्द यही है. खास कर मोहन राकेश का-अंधेरे बंद कमरे, आषाढ़ का एक दिन सबकी थीम यही है. हमने स्त्री को पर्सनालिटी दी, आत्मनिर्भरता दी, स्वतंत्रता दी, लेकिन हमारी मानसिकता उसे बर्दाश्त नहीं कर पायी. हमारे संस्कारों में है कि हम रात कहें तो वो रात कहे, दिन कहें तो दिन. ये स्त्रियां अलग थीं. शायद इसलिए हमारी जनरेशन के पुरुष स्ट्रांग स्त्री के साथ निबाह नहीं कर पाए. • आप आज भी अपने भूले बिसरे प्यार को इसीलिए तो याद नहीं कर रहे कि बहुत सारी बातें अनकही रह गईं? शायद. • क्या आज भी आप अपने आपको रोमांटिक महसूस करते हैं? आज से दस साल पहले करता था. अब तो खाली एक नोस्टालजिया है. पिछले दिनों मेरी मुलाकात हुई थी उससे, दो-तीन घंटे साथ थे-पर अब नया कुछ नहीं बन सकता. • आप सत्तर प्लस के जॉनर को बिलांग नहीं करते. क्या कहीं यह तो नहीं लगता है कि वो तो बुढ़ा गई है, लेकिन मैं अभी भी यंग हूं. हां, लगता है. कम्युनिकेशन का लेवल बदल गया है. चूंकि उसे लगता है कि हमने उसे संरक्षण या साथ नहीं दिया, इसलिए उसे अपने परिवार में अपने भाभियों के साथ ही रहना है. कहती है कि जब मुझे सुविधा होगी, तो आऊंगी. नहीं आई तो बुरा मानने की जरूरत नहीं है. • आज जबकि आप दोनों अकेले हैं, वो आपके साथ रहने का निर्णय क्यों नहीं ले पातीं? उस पर बुढ़ापा आ गया है, असुरक्षा महसूस करती है, कि मुझे वहीं रहना है, अपने भाई-भाभी के बच्चों के बीच. वो ही बुढ़ापे में मेरी देखरेख करेंगे. • वाज शी ब्यूटिफुल? करीना कपूर नहीं थी, हां प्रंजेटेबल तो थी. कहीं कमरे में जाती थी, तो लोग मुड़ कर देखते थे, एक पर्सनालिटी थी. एक तो कॉन्फिडेंस और दूसरे आधिकारिक लेवल पर काम करने से जो बात आ जाती है, वो. ये था कि मुझे उसे साथ ले जाने में शर्म नहीं आती थी. • जिन लोगों के साथ आपके नाम जुड़े, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा इनमें असाधारण क्या नजर आया ? क्या ये सब टिपिकल औरतें नहीं थीं? इनकी जो मानसिक बनावट है, जो गुण हैं, उनसे मैं प्रभावित हुआ. प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं. • मन्नू को आप प्रेमिका क्यों नहीं बना पाए? बाद में हमने डिस्कवर किया कि जिंदगी सिर्फ लेखन नहीं है. मन्नू का पालन पोषण जिन लोगों के साथ हुआ, वे बहुत भले लोग थे. सुबह नौ बजे दफ्तर जाना, शाम समय पर घर लौट कर बच्चों के साथ समय बिताना. सब उतने ही आत्मीय थे. हमारी लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग थी. वो पांच बजे घर आ जाएं और चार बजे हमारे निकलने का टाइम था. ऐसा नहीं है, कई बार वे मेरे साथ आईं, कोलकता में जब तक रहे उसने मेरा साथ दिया. काफी हाउस में देर तक रहना, दोस्तों से मिलना आदि. दिक्कत थी एक पति की जिम्मेदारियां-जो मैं नहीं निभा पाया. साथ रहना और पति-पत्नी बन कर रहना दो अलग बातें हैं. बीस साल एक आदमी-औरत साथ रहे. एक दिन उनके मन में आया कि क्यों ना हम शादी कर लें. अगले दिन पुरुष ने कहा, सुबह उठ कर कि तुम चाय बनाओ. पत्नी ने जवाब दिया, मैं क्यों बनाऊं, तुम बनाओ जैसा पहले बनाते थे. बात यह है कि शादी दो चीजें मांगता है स्वतंत्रता, नैतिक और दैहिक आचरण. उससे बाहर जाते ही खटखट होनी शुरू हो गई. बाहर आप खुदा होंगे, घर में आप औरत और आदमी हैं. मन्नू को ऐसा पति चाहिए था, जो उसकी शिकायतें सुनता. उसने अपनी शिकायतें एक्साजिरेट करना शुरू कर दिया. हमारे बाहर भी संबंध थे. शारीरिक नहीं, पर हां अच्छे संबंध तो थे ही. जैसे मृदुला गर्ग से. उसकी पहली कहानी ‘हंस’ में रीराइट करके छापा. उसकी पहली कहानी ‘केअर ऑफ’ अक्षर प्रकाशन छपी थी. उसके उपन्यास को भी रीराइट करना, ठीक करना-हमने ही करवाया. मृदुला के साथ बहुत अच्छे संबंध थे. मन्नू को यह बात पसंद नहीं थी कि बाहर लड़कियों से संबंध रखूं, मिलूं, फोन पर बात करूं. • पीछे मुड़ कर देखते हैं तो क्या अफसोस होता है कि आप टिपिकल हसबैंड नहीं बन पाए? मुझे शिकायत नहीं. पर मन्नू की तरफ से सोचता हूं तो लगता है कि मैं असमर्थ था. मुझे अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को. • विवाहित जीवन में सुविधाएं भी तो थीं? फिर अलग होने की क्या सोची? हां.. जब खटखट बढ़ी तो सोचा कि अलग रह कर देखा जाए. महीनों बाहर रहा. कई दिनों तक गाजियाबाद मित्र के घर रहा, कि दोनों एक दूसरे की कमी महसूस कर सकें. छह महीने मैं आईआईटी कानपुर में रहा, युनिवरसिटी का गेस्ट बन कर. मन्नू दो साल के लिए चली गई. हमने ये प्रयोग किये कि डे टू डे की क्लेश खत्म हो. आगे पढ़ें • क्या आप विवाह संस्था में यकीन करते हैं? मैं नहीं करता, लेकिन मन्नू करती है. शादी एक बंधन हो, वहां तक तो ठीक है. लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है, उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहां एडजस्ट नहीं कर पाता. • मन्नू से अलग होने के बाद में कभी सेटल होने का मन नहीं आया? नहीं. लेकिन मेरा परिचय कई खूबसूरत महिलाओं से रहा. एक थी शोभना भुटानी, एनएसडी से थी, एक्टर थी. मेरे बहुत क्लोज थी. एक संयुक्ता थी, बहुत खूबसूरत. उन दिनों ‘सारा आकाश’ पर फिल्म बन रही थी आगरा में. मेरे बुलाने पर वह मेरे साथ आगरा आई. स्टेशन पर जैसे ही वह उतरी, सबने कहा कि हीरोइन आ गई. बाद में उसके मन्नू से बहुत अच्छे संबंध बन गए. पता नहीं वो मन्नू को घुमाने कहां-कहां ले गई. लेह-लद्दाख. पहले तो बहुत ईष्या थी मन्नू को उससे लेकिन बाद में वह मन्नू की आलमोस्ट बेटी बन गई. • क्या देख कर आप स्त्री की तरफ आकर्षित होते हैं? पहले तो रंग रूप आता है. उसके बाद एक कॉमन कैमिस्ट्री बनती है. मुझे ऐसी महिलाएं पसंद आती हैं जिनसे संवाद बना सकूं, बाकायदा बात कर सकूं, किसी भी विषय पर. हमारे कुछ मित्र रहे हैं, स्त्री के नाम पर जो मिले झाडू लगाने वाली हो या चौका बरतन करने वाली हो, मौका मिला तो दबोच लिया. दिस, आई कांट डू. जिस स्त्री के साथ मैं मन से एक इंटीमेट संबंध ना बना सकूं, उनसे मेरा रिश्ता नहीं बन सकता. • ऐसी कोई महिला आई है, जिसके साथ आपके अच्छे संबंध रहे हों, आपने उनसे संबंध बनाना चाहा हो, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. हां. एक्चुअली सेक्स के स्तर पर मेरा रिश्ता तीन ही महिलाओं के साथ रहा है. मन्नू, दूसरी जिस प्रेमिका का मैंने जिक्र किया और एक और के साथ. बाकि स्त्रियों के साथ सेक्स नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि मैं सेक्सुअली कमजोर हूं, पर उस स्टेज तक आई नहीं बात. आने भी नहीं दिया. हरेक से सेक्स नहीं कर सकता. • लेकिन आप जो ‘ऑरा’ बना कर चलते हैं, उससे तो यही बात सामने आती है कि आपके कई स्त्रियों के साथ दैहिक संबंध रहे हैं. पिछले दिनों अजय नावरिया आपके ही सामने जिक्र करे थे सोनी का, जिसे दीवाली की सुबह उसने आपके घर में नाइट सूट में देखा था. इससे बाहर यही संदेश जाता है कि वो रात को सोई हैं. नहीं. मेरे उससे इंटीमेट संबंध हैं. मैं चाहता हूं कि मेरे पास जो भी रहे, वो फ्रीली अपना घर समझ कर रहे. मैं यहां आदमी-औरत की बात नहीं करता. अगर वो यहां रहती है, तो उसे पूरी स्वतंत्रता के साथ रहना चाहिए. सोनी जब मुझसे पहली बार मिली थी, तो इक्कीस या बाईस साल की थी. और दूसरे साल ही मेरी जान को लग गई कि मैं आपका इंटरव्यू करूंगी और आपसे सेक्स संबंधों के बारे में सवाल करूंगी. इक्कीस साल की लड़की मेरे सामने खुल कर पूछ रही है मेरे संबंधों के बारे में. बिंदास. मुझे ऐसी लड़कियां पसंद हैं. सेक्स की जरूरत महसूस होती है. लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुझे ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड़ दें. अब तो तसवीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं. • जितनी भी महिलाएं आती हैं, आपसे मिलने, उन सबके साथ आपका नाम जुड़ता है. माना जाता है कि आपके साथ सोती हैं ? सोनी जब मुझसे आई तो काफी समय बात उसने मुझे बताया कि उसे कहा गया था यादव जी के यहां मत जाओ, खतरनाक आदमी हैं, उनके चंगुल से बच नहीं पाओगी. जो भी है.. .. साल भर हो गया, आपने तो ऐसा कुछ नहीं किया. मैंने हंस कर पूछा कि क्या तुम चाहती हो कि मैं ऐसा कुछ करूं? छूना-छाना, लपक-झपक मौका मिले तो किस करना यह सब तो चलता है, इससे किसी को आपत्ति भी नहीं होती. मुझे कई स्त्रियों ने बताया है कि उन्हें यह बता कर भेजा जाता था कि यादव जी से मिलने जा रही हो तो पर्स में एक छुरा रखना मत भूलना. • सेक्स की जरूरत महसूस नहीं होती आपको? होती है. . लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुझे ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड़ दें. अब तो तस्वीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं. • करीना का कौन सा रूप आकर्षित कर गया आपको? ‘टशन’ में स्विम सूट वाला या..? ‘जब वी मेट’ में मुझे वो अच्छी लगी, हम ब्यूटी के साथ एक इनोसेंस, एक डिविनिटी लगा कर देखते हैं. इसलिए ‘टशन’ देखने का मेरा मन नहीं है. एक जमाने में मुझे स्मिता पाटिल बहुत अच्छी लगती थी, बहुत सेक्सी. रमोला भी. • कुछ समय पहले जब मैंने आपसे कहा था कि मैं मुंबई जा रही हूं लेस्बियंस पर एक स्टोरी करने तो आपने हँस कर यह कह कर बात उड़ा दी कि दो औरतें कैसे करती हैं सेक्स? आप गे रिश्तों के बारे में क्या सोचते हैं? हालांकि सन साठ में मैंने ‘प्रतीक्षा’ नाम से कहानी लिखी थी गे सबंधों के बारे में. पता नहीं कितने ट्रांसलेशन हुए, एक अमरीकी आदमी ने अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया और इंप्रिंट मैगजीन में छपा. लेस्बियन महिलाओं की बात तो दूर, मुझे सोडोमी एस्थेटिकली नहीं जंचता. संस्कार कहिए या जो भी, मैं इन रिश्तों को समर्थ नहीं देता. मुझे चालीस साल नॉन वेज खाते हो गए. पिछले पांच-छह सालों से शोरबा खा पाता हूं, पीस नहीं. अब इसे चाहे जो कहो. मुझे एस्थेटिकली ये संबंध गंदे लगते हैं. • लेकिन आंकड़े तो कहते हैं कि हर दस में से एक पुरुष गे संबंधों के प्रति आकृष्ट होता है. अधिकांश लड़के बचपन में शिकार बनते हैं. इन बॉर्न का नहीं पता. जब हम स्कूल में थे, तो हमसे बड़ी उम्र का एक लड़का स्साला हमें बैठा देता था कि मास्टरबेशन करो. इस तरह के संबंध होते हैं. टीचर लोग पढ़ाने के लिए बच्चों को बुलाते हैं और फिर करवाते हैं. हां.. मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, लेकिन मैंने देखा है. आगे पढ़ें • औरतों की एक जमात जो आपको सठिया और बुढ़ऊ कहती है, आप कैसे रिएक्ट करते हैं. मुझे सच में महसूस नहीं होता कि मैं बूढ़ा हूं. यह बात भीतर से ही नहीं आती कि मैं उम्र दराज हो गया हूं. राजेंद्र यादव मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है. • क्या आप सेवंटी में पहुंची महिला से इसी तरह बेतकल्लुफी से बात कर पाते हैं? जहां बीच में संस्कार, सीमाएं वगैरह हों, वहां बराबरी की दोस्ती नहीं बन सकती. मैं चाहता हूं जिन स्त्रियों से मेरी दोस्ती हो एक पुरुष की तरह दोस्ती हो. उतनी ही बेतकल्लुफ, संकोचहीन. ये जो महिलाएं आपके साथ चली आती हैं, दोस्ती करती हैं यह बात सिर्फ वहीं तक नहीं रहती. उन्हें अपने परिवार को जवाब देना पड़ता है. मान लीजिए मैं किसी लड़की से प्यार करता हूं, उसका नाम ले कर लिख देता हूं. आज वो कहीं किसी की मां है, पत्नी है, वो क्या जवाब देगी? मेरे प्यार का तकाजा यह है कि मैं उसे ऐसी स्थिति में ना डालूं, जहां वो अपने आपको छोटा महसूस कर सके. • अगर कोई महिला ऑटोबायोग्राफी लिखे, आपका जिक्र करे तो आपको फर्क पड़ेगा कि नहीं? नहीं.. .. मेरे बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है. औरतें लिखती रही हैं. एक आई थी, मुझे याद भी नहीं कि वह मुझसे मिली था या नहीं, लेकिन उसने जो मेरे बारे में लिखा वो कोरी बातें थीं, बिलकुल काल्पनिक कि उन्होंने ऐसे देखा जैसे मुझे खा जाएंगे.. वगैरह वगैरह. मेरे और मेरे लेखन के ऊपर एक बहुत बड़ा सेंसर है वीना का. वीना मेरे क्लोज है, मुझसे बहुत फ्री है. लेकिन वह कहती रहती है कि ‘हंस’ में यह छपेगा और यह नहीं छपेगा. जब मैंने ‘हासिल’ नाम की कहानी लिखी, तो उसने कहा- नहीं छापेंगे, मैं अड़ गया. मोस्ट मशहूर लेख ‘होना सोना’ पर अड़ गई कि नहीं छापेंगे, ‘हंस’ के लायक नहीं, उससे लड़ कर मुझे अपना लेख छापना पड़ा. • जो स्त्रियां नारी मुक्ति का झंडा उठा कर चलती हैं, जो गाहे बगाहे आपके खिलाफ बोलती हैं, उनके बारे में कुछ सुनहरे शब्द हो जाएं? वे महिलाएं मानसिकता से या उम्र से साठ के ऊपर की हैं, जो नारी मुक्ति को नहीं मानती. जो गोलमोल वक्तव्य में विश्वास रखती हैं कि मनुष्य तो सब एक ही है. अच्छा, जो पुरुष की मानसिकता से लिखा गया है और जो स्त्री की मानसिकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है. दो अलग अप्रोच हैं. उस चीज को तो हमें मानना होगा. क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा जिन परंपराओं में हुई, वहां तो लेखक पुरुष ही थे, जो लिखते थे, एकाध थीं, महादेवी वगैरह, जो गोल-गोल बातें लिखती थीं मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, उसमें किसको आपत्ति हो सकती थी? फिर महिलाओं ने जो लिखना शुरू किया, इतनी वेरायटी के साथ आईं, निर्मला जैन, मृदुला, मृणाल- वे फेमिनिस्ट विरोधी हैं. झंडा बुलंद करके चलने वाली स्त्रियां हमें गालियां देती हैं कि हमने उन लेखिकाओं को बिगाड़ दिया. यहां मैं कोट करना चाहूंगा, पिछले साल किसी भी चैनल या न्यूज पेपर ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मायावती के आने की घोषणा नहीं की. वे बस गोल-गोल घूमते रहे. लेकिन जब रिजल्ट आए तो सब चौंक गए. मायावती जीत गईं. कोई तो सचाई थी, जो उसके साथ थी, जिससे बिना शोर मचाए, बिना कहे लोग उसके साथ जुड़े हुए थे. तो स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में कोई तो बात, चीज थी कि आज कोई संवाद, कोई बहस इसके बिना पूरी नहीं होती. यूनिवरसिटी में दलितों का अलग सेक्शन है. यह जो उनके अनचाहे बढ़ रही है, यह बौखलाहट है उनके मन में (झंडा उठा कर चलने वालों के). इनमें सिर्फ मैत्रेयी है, जो मानती है कि वो स्त्री वादी है. प्रभा तो बकायदा इतनी पढ़ी लिखी है कि अपने तर्कों से वह सबका मुंह बंद कर देती है. यह श्रेय तो हमें मिलना चाहिए कि पिछले बीस सालों में हमने इसे साहित्य का एक सेंटर और करेंट बना दिया. • आप पर जो अश्लीलता का आरोप लगता है, कितना जेनुइन है, कैसी प्रतिक्रिया करते हैं? बहुत पहले हम शक्ति नगर में रहते थे, तो बस से आते-जाते थे. बस में एक औरत सफर किया करती थी, मेरा ख्याल है वही तीस-पैंतीस की होगी. जब कभी वो किसी पुरुष की बगल में बैठती, तो झगड़ा मोल लेती कि मुझे क्यों छेड़ रहा है? लड़ती हुई जाती थी. सब हंसते हुए जाते थे. यह एक किस्म की कुंठा है कि सब मुझे छेड़ते हैं. तीस पैंतीस साल की स्त्री मैच्योर होती हैं. उनसे बात करने में यह भी होता है कि आप कोई नई चीज जान लें. वो उनके अंतरमन में झांकने का एक मौका देती हैं. • क्या आपको अफसोस होता है कि आपको तीन चार जनरेशन बाद पैदा होना था? इस जनरेशन के पास जो है पहले नहीं था, इतनी आजादी, विचारों में इतना खुलापन.. ठीक है, हां यह तो सही है कि आज के जनरेशन के पास आजादी है. पर जो है सो है. अब होता है कि बेकार में अपनी जिंदगी खराब की. रोंमाटिसिस्म में और इन सबमें कई खूबसूरत चीजें अनदेखी कर दी. अफसोस तो होता है. • किसी चीज की शिकायत रह गई? पावर, पैसा या और कुछ? उस मामले में जो मैंने चाहा मुझे मिला. इस तरह की कोई शिकायत नहीं है. हां, अकेलापन कभी-कभी खलता है. • जो भी औरत आपके पास, आपसे मिलने आती है, आपसे क्या चाहती है? शुरू में जो भी आती है एक दूरी बना कर आती है. जब इंटीमेट हो जाती है तो फिर आदमी-औरत वाली बात नहीं रहती. उससे ऐसा रिश्ता बन जाता है जिसमें वो लड़ भी सकती है गाली भी दे सकती है. • ऐसे संबंध आपको ज्यादा प्रिय हैं? बिलकुल. इंटीमेट, बेतकल्लुफी भरे संबंध मुझे अच्छे लगते हैं. • आप अपनी फेंटेसीज किसके साथ शेअर करते हैं? किसी से नहीं. कभी डायरी में लिख दिया, तो लिख दिया. हां मिस तो करता हूं कि किसी से कह नहीं पाता. यहां मैं चीनी कम फिल्म का जिक्र करूंगा. यह फिल्म मुझे बहुत अच्छी लगी. उसमें नायक-नायिका (अमिताभ बच्चन-तब्बू) के बीच जो एज डिफरेंस और अंडरस्टैडिंग है, बहुत सही है. मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है. From debashish at gmail.com Sun Sep 7 00:06:00 2008 From: debashish at gmail.com (Debashish) Date: Sun, 7 Sep 2008 00:06:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Nirantar=2Eorg=3A_?= =?utf-8?b?4KSG4KSX4KS+4KSu4KWAIOCkheCkguCklSDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSv?= =?utf-8?b?4KWHIOCkhuCksuClh+CkliDgpIbgpK7gpILgpKTgpY3gpLDgpL/gpKQ=?= Message-ID: दीवान सूची के मित्रों, नमस्ते। इस सूची का नया रंगरूट हूँ। पिछले दिनों रविकांत जी से चर्चा के दौरान मैंने ज़िक्र किया कि मेरे द्वारा प्रकाशित जालपत्रिका निरंतर http://www.nirantar.org अब अनिरंतर हो गई है और जिस तरह के आलेख हम छापते रहे हैं उस किस्म के लेखों के टोटे पड़े रहते हैं। मैं हिन्दी ब्लॉगों की एक निर्देशिका भी चलाता हूँ और उस पर शामिल चिट्ठों के आधार पर कह सकता हूँ कि सबसे बड़ा तबका कविताई चिट्ठों का है, दूसरा नंबर निजी चिट्ठों का आता है। निरंतर पर साहित्यिक रचनायें हम कम ही छापते हैं, छापना चाहते हैं। इस हेतु अभिव्यक्ति, कृत्या, अनुभूति जैसी बेहतरीन जाल पत्रिकायें मौजूद ही हैं। पर हम साहित्य से मुंह नहीं मोड़ रहे, प्रत्यक्षा ने निरंतर पर अनोखी इंटरेक्टिव कहानी "लाल परी" लिखी जहाँ पाठकों ने कहानी का रुख तय किया। पर हम मुख्यतः समाचार विचार, तकनीकी लेख व ट्यूटोरियल, साक्षात्कार, पुस्तक व उत्पाद समीक्षा, ब्लॉगमंडल के उद्भव जैसे मुद्दों पर लेख छापना चाहते हैं। निरंतर के गतांकों में हमने हिन्दी ब्लॉग के रचना संसार, जिसमें वर्डप्रेस पर आधारित अपनी तरह का विशेषांक भी शामिल रहा, से लेकर, शिक्षा व इसमें सूचना प्रोद्योगिकी के प्रयोग, जल संकट, विस्थापन, जैसे अनेक मुद्दों पर लेख छापे हैं। मेधा पाटकर से लेकर डॉ सुगाता मित्र के साक्षात्कार और अतानु दे, प्रो यशपाल जैसे लेखकों के लेख यहाँ छपे हैं। पर ये बड़े नाम अपवाद हैं, निरंतर मूलतः ब्लॉगरों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका है, हम लोग पेशेवर लेखक नहीं हैं पर हम पेशेवराना रवैये की बिसात पर प्रिंट मीडिया की गुणवत्ता से लोहा लेने का साहस लेकर चले हैं। हमने केरल के एक गुमनाम छात्र का साक्षात्कार भी छापा जिसने कागज़ को हार्डडिस्क जैसे इस्तेमाल करने की तकनीक खोजी और एक पत्रकार की पुस्तक का भी ज़िक्र किया जिसने बाँधों से विस्थापन का दर्द उजागर किया। हमारे लेख प्रिंट प्रकाशन भी यदा कदा छापते रहे हैं। यह सब कुछ कहा निरंतर के बारे में कुछ बताने के लिये, अधिक जानकारी http://nirantar.org/about पर है। इस सूची के माध्यम से हम आगामी अंक के लिये आलेख आमंत्रित करते हैं, हम निम्नलिखित विषयों पर खास निरंतर के लिये लेख आमंत्रित कर रहे हैं, स्वीकृत लेख पर २०० से ५०० रुपये मानदेय का प्रावधान है। (क्षमा करें पर निरंतर से फिलहाल आय नहीं होती अतः पारिश्रमिक देने की स्थिति हमारी नहीं है।) -- हम एक आधुनिक समाज में है फिर भी हमारे समाज में आज भी बाबाओं और स्वामियों ने डेरा डाल रखा है, जो या तो निरे जादूगर है या सधे व्यापारी। चाहे टीवी पर "योग" की मार्केटिंग कर इमेज बिल्डिंग के धुनी बाबा रामदेव हों या उसी योग को कार्पोरेट रूप देकर करोड़पतियों को बेचते श्री श्री रविशंकर। विदेशों में ऐसे ढोंगी गुरुओं के कारण भूमीगत रेलसेवा में जहरीली गैस फैलाव से लेकर सामूहिक आत्महत्या जैसे वीभत्स कांड हुये हैं। सत्यसाई बाबा के सरकारी टीवी पर हाथ की सफाई दिखाते फुटेज के स्पष्ट सबूत के बावजूद सुनील गावस्कर से लेकर शेषन जैसे अनेकानेक जानेमाने लोग उनके अंधभक्त रहे। रजनीश ने लालसा से ही मोक्ष का मार्ग बता कर अपनी अथाह संपत्ति पर आपत्ति के दरवाज़े बंद करवा दिये। गुजरात के एक कथित सन्यासी व उनके पुत्र पर आश्रमों में बच्चों की मौत और यौन शोषण के आरोप के बावजूद इन पर कोई हाथ भी नहीं डाल सका। इनके द्वारा कमाई दौलत की न कई अकांउंटिंग है न कोई इन के बारे में कुछ बोलने का साहस करता है। राजनेताओं और पैसों के बलबूते पर करोड़ों लोग हर रोज़ बेवकूफ बनाये जा रहे हैं। इंटरनेट पर खोजने की देर है इस तथाकथित समाज सुधारकों की असलियत बताते हज़ारों लोग आपको मिलेंगे। पर एक तथ्य ये भी है कि इनमें से कई ने अनेकानेक स्कूल व अस्पताल भी खुलवायें हैं, लोगों की मदद भी की है। क्या आप लिखना चाहेंगे इस विषय पर एक तथ्यपरक लेख? ‍‍-- भारत के बढ़ते आर्थिक बल से इसके उज्जवल भविष्य की नास्त्रादमिय भविष्यवाणी के सच होने के आसार दिखते हैं। पर जिस तरह का हमारा सामाजिक व्यवहार, सिविक सेंस, राजनीतिक व सरकारी चरित्र है उससे यह सोच कर भी डर लगता है कि भविष्य की जिम्मेवारी हम कैसे ढो पायेंगे। चीन ने आलंपिक के शानदार आयोजन से आलोचकों का मुंह बंद कर दिया, भले दमनकारी शासन तंत्र हो, मानवाधिकार के सवाल रहे हों, इस देश ने आयोजन और मेडलों के द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। लाखों स्वयंसेवकों के सहारे अनुशासित व्यवस्थापन, प्रदूषण और भाषा जैसी समस्याओं के फौरी हल पर कठोरता से अमल, प्राकृतिक आपदा से निबटने का तंत्र और काबलियत, ये मज़ाक नहीं है। इसके सापेक्ष हमारा हाल देखिये, कहाँ से बनेंगे हम सुपरपॉवर? किस जनम में हम आलंपिक का आयोजन कर पायेंगे? पुणे में कॉमनवेल्थ यूथ खेलों के इंतज़ामात देखिये, छ महीनों से अखबार चेताते रहे, आज माह भर दूर हैं खेल और शहर अस्तव्यस्त है, सड़कें खुदी हैं , सारे काम आधे अधूरे, स्टेडियम, हॉस्टल तक तैयार नहीं। बिहार में हमारा आपदा नियंत्रण देखिये, यहाँ भी राजनीति चलाते हैं हम। हमारा सिविक सेंस देखिये, हम कितने भ्रष्ट राष्ट्र हैं देखिये। क्या ट्रैफिक, क्या टैक्स, नियम तोड़ना हमारा धर्म बन चुका है। और इन्हीं भारतियों को मैंने न्यूयॉर्क की सड़कों पर कायदे से चलते देखा है। विदेशी भले हमारे chaotic तंत्र में भी देश के चलते रहने की झूठी तारीफ करें, हकीकत हम जानते हैं। क्यों हैं देश हमारा ऐसा? हम इस तरह सुपरपॉवर कैसे बनेंगे? क्या आप लिखना चाहेंगे इस विषय पर एक झकझोरता लेख? इनके अलावा: किसी अनछुये विषय पर आसान भाषा में लिखे तकनीकी लेख, नये उत्पादों व जालस्थलों की समीक्षा का भी स्वागत है। अंत में एक बात कोलेबोरेटव लेखन http://en.wikipedia.org/wiki/Collaborative_writing की। निरंतर पर हम कोलेबोरेटिव लेखन को बढ़ावा देते हैं। अगर आप के पास किसी लेख का विचार है तो आप उसे साथी लेखकों या हमारे संपादक मंडल के साथ मिल कर लिख सकते हैं। निरंतर पर इस तरह के अनेक आलेख प्रकाशित हुये हैं, मसलनः झरिया की भूमिगत आग http://www.nirantar.org/1006/cover/centralia, रियल एस्टेट http://www.nirantar.org/1206/cover/indian-property-bubble, वेबारू http://www.nirantar.org/0806/nidhi/webaroo तथा एड्स http://www.nirantar.org/0806 पर आमुख कथायें। निरंतर के लिये निरंतर लिखने के इच्छुक http://groups.google.com/group/nirantar-mitra पर हमारे पत्र समूह के भी सदस्य बन सकते हैं। आशा है आप और हम मिलकर कुछ नये विचारों का सृजन करेंगे और सार्थक बहसों का ज़रिया बनेंगे। आपके सुझाव व प्रतिक्रिया का सदा स्वागत है जिसे आप patrikaa at gmail.com पर भेज सकते हैं। आपका देबाशीष -- For information about me and other links visit my homepage at http://www.debashish.com. From ravikant at sarai.net Thu Sep 11 13:58:05 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Sep 2008 13:58:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLjgpJY=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkquCkvuCkoCA6IOClqCA6IOCkl+ClgeCksuCknOCkvuCksCDgpKw=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KS/4KSPIOCksOCkteClgOCkguCkpuCljeCksCDgpLXgpY3gpK8=?= =?utf-8?b?4KS+4KS4?= Message-ID: <200809111358.05449.ravikant@sarai.net> sabad nirantar se saabhar. cheers ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास Date: बुधवार 10 सितम्बर 2008 20:28 From: "anurag vats" To: Wednesday, September 10, 2008 सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास ( वे पेंटर हैं, कहनियाँ लिखते हैं, हरा कोना नाम का उनका ब्लॉग है और हिन्दी के इस वर्चुअल वर्ल्ड में उनकी सजग उपस्थिति चहुँ ओर सराही गई है। जब हमने सखा पाठ स्तंभ शुरू किया था तो उसके पीछे किसी रचना से प्रेरित रचना को सामने लाने की अवधारणा थी। सबद में ही रिल्के पर छपे राजी सेठ के लेख के बाद बतौर बढ़त गिरिराज किराडू की कविता दी थी। उसके बाद यह सिलसिला थम सा गया। रवींद्र व्यास के माध्यम से वह फिर से शुरू हुआ है। उन्होंने गुलजार की कविता पर न सिर्फ़ पेंटिंग दी, बल्कि इसरार करने पर गद्य भी भेजा। हम उनके आभारी हैं। ) एक और रात गुलजार चुपचाप दबे पांव चली जाती है रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं कांच का नीला-सा गुंबद है, उड़ा जाता है खाली खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन भी नहीं चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता **** ये देखो तो क्या होता है गुलजार की जमीन और आसमान सरगोशियों से मिलकर बने हैं। ये सरगोशियां खामोशियों की रातें बुनती हैं। इन रातों में कई चांद डूबते-उतरते रहते हैं। कई टंगे रहते हैं, अपने अकेलेपन में जिनकी पेशानी पर कभी-कभी धुआं उठता रहता है। दूज का चांद, चौदहवीं का चांद और कभी एक सौ सोला रातों का चां द। कभी ये चांद किसी चिकनी डली की तरह घुलता रहता है। ये चांद ख्वाब बुनते रहते हैं। ख्वाबों में रिश्ते फूलों की तरह खिलते रहते हैं और उसकी खुशबू पलकों के नीचे महकती रहती है। ये रिश्ते कभी मुरझा कर ओस की बूंदों की तरह खामोश रातों में झरते रहते हैं। वे किसी गर्भवती स्त्री की तरह गुनगुनी धूप में यादों को गुनगुनाते महीन शब्दों से मन का स्वेटर बुनते हैं। इसमें उनकी खास रंगतें कभी उजली धूप की तरह चमकती रहती है। कभी इसमें सन्नाटों की धूल उड़ती रहती है। इसकी बनावट और बुनावट की धीमी आंच में रिश्तों के रेशे अपने दिलकश अंदाज में आपके मन को आपकी देह को रूहानी अहसास कराते हैं। कहते हैं किसी की आत्मा पेड़ों में बसती है। किसी आत्मा एक फूल में बसती है। कहते यह भी हैं कि आत्मा एक पिंड में बसती है। और यह भी कि आत्मा एक स्वर्ग में बसती है, एक मुहूर्त में बसती है। क्या कहा जा सकता है कि गुलजार की गीतात्मा चांद में बसती है। और चांद यानी रात भी। और रात यानी तारे भी। और तारे यानी समूची कायनात। और इसके बीच वह भी जिससे हिज्र की रात में कहा जा रहा है कि काश इक बार कभी नींद में उठकर तुम भी ये देखो तो क्या होता है... इस नज्म की पहली लाइन में रात के बहाने अपनी स्थिति बताने का एकदम सादगीभरा जलवा है। कोई बनाव नहीं। कोई श्रृगांर नहीं। लुभाने-रिझाने का कोई अंदाज नहीं। अकेलेपन में रात का चुपचाप, एकदम खामोश गुजरनाभर है। यह एक इमेज है। कहने दीजिए गुलजार इमेजेस के ही कवि हैं। दूसरी लाइन में कोई आहट नहीं, कोई गूंज नहीं। न रोना, न हंसना। एक अनकहे को पकड़ने की कोशिश। एक जरूरी दूरी पर खड़े होकर। न डूबकर, न उतरकर। अपने को भरसक थिर रखते हुए। तीसरी लाइन में रात के जादू को आकार में पकड़ने का वही दिलकश अंदाज है। इसमें चार चीजें हैं-कांच है, नीला है, गुंबद है और वह उड़ा जाता है। कांच, जाहिर है यह रात को उसकी नाजुकता में देखने की निगाह है। रात नीला गुंबद है। अहा। क्या बात है। इसमें एक कोई देखी मुगलकालीन भव्य इमारत की झीनी सी याद है। यह रात को कल्पना से तराशने का सधा काम है। रात को एक आकार देना। उसे देहधारी बनाना। और यह गुंबद है, जो उड़ा जाता है। यानी एक एक मोहक और मारक गति है। एक उड़ती हुई गति। जाहिर है इस गति में रात की लय शामिल है। बीतती लयात्मक रात। यह मोहब्बत का स्पर्श है जो गुंबद के भारीपन को किसी चिड़िया की मानिंद एक उड़ान देता है। विश्व विख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर को याद करिए। वे पत्थर में चिड़िया को ऐसे ढालते हैं कि पत्थर अपने भारीपन से मुक्त होकर चिड़िया के रूप में उड़ने-उड़ने को होता है। यह फनकार की ताकत है, अपने मीडियम से मोहब्बत है। पांचवी लाइन बताती है कि यह शायर रातों की जागता है और रोज ही रातों को निहारता है। इसी जागने से यह एक और रात बनी है जिसमें कहा जा रहा है कि चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन नहीं। यह आपकी इंद्रियों का जागना भी है। कलाकार यही करता है। वह सभी इंद्रियों के प्रति आपको सचेत करता है। यह देखना-दिखाना भर नहीं है। छठी पंक्ति में चिकनी डली है। स्पर्श का अहसास है। फिर घुलना है। यह एक और रात कि घुली जा रही है। कि पर गौर फरमाएं। है न कुछ बा त। और सातवीं लाइन में इन सबसे घुल-मिल कर एक सन्नाटा रात की तरह ही फैलता जा रहा है। वे इसे उड़ती धूल में पकड़ते हैं। महीन धूल। आठवीं और नौवीं लाइन मारू है। यह रात का जो जादू है, उसकी सुंदरता का जो भव्य स्थापत्य है, अकेलापन है, सन्नाटा है और खामोश गुजरना भर है, इसमें एक ख्वाहिश भी है कि कोई हिज्र की रातों में नींद से उठकर इसे देखे। यह भी कि- ये देखो तो क्या हो ता है। vatsanurag.blogspot.com ------------------------------------------------------- From rakeshjee at gmail.com Sat Sep 13 00:44:33 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 12 Sep 2008 14:14:33 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <28746489.1839291221246873022.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// बिहार बाढ़ पीड़ितों के साथ एकजुटता के लिए सामने आएं Posted: 12 Sep 2008 05:48 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/390573757/blog-post.html बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क की ओर से बिहार बाढ़ पीडितों के समर्थन में जारी अपील प्रिय साथियों बिहार के शोक के नाम से जानी जानेवाली कोसी नदी ने अपने साथ हुई छेड़छाड़ के प्रति अपना ग़ुस्सा दिखाते हुए तटबंधों को तोड़ दिया है। उत्तर बिहार के 15 ज़िले के लोगों की ज़िंदगी और रोज़गार पानी के धारों के साथ बह चली है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राज्य के लगभग 30 लाख लोग अपने घर, रोज़गार और सम्मान से वंचित हो गए हैं। अपनी मेहनत से कमाकर खानेवाले लोग मुट्ठी-भर दाने के लिए मुहताज हो गए हैं। कार्यकर्ता और बचाव और राहत कार्य में जुटे गंभीर विश्लेषकों का मानना है कि मृतकों और प्रभावितों की संख्या का सही आकलन तभी लगाया जा सकता है जब बाढ़ उतर जाए और सारे लोग अपनी जगह पर वापस आ जाएं। इसकी संभावना भी कम ही दिखाई देती है क्योंकि अभी से लोग बड़ी संख्या में पनाह और रोज़गार की तलाश में दिल्ली, पंजाब और दूसरे छोटे-बड़े शहरों की ओर पलायन करने लग गए हैं। एक अख़बार के अनुसार 1 लाख हेक्टेयर या 2.5 लाख एकड़ की खेती तबाह हो गई है। इससे बिहार की पहले से बिगड़ी खाद्य-स्थिति पर और भी बुरा असर पड़ेगा और क्षेत्र की जनसंख्या को पोषित करने की क्षमता में तीव्र गिरावट निश्चित है। दोस्तो, जैसे-जैसे बाढ़ के पानी के उतरने की ख़बर आ रही है मीडिया के लिए बाढ़ की ख़बर ग़ैर-ज़रूरी होती जा रही है। बिहार सरकार ने मान लिया है कि बचाव का काम पूरा हो चुका है और अब बचाव कार्य की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। सरकार ने यह घोषणा भी कर दी है लेकिन बचाव और राहत कार्य से जुड़े एक प्रोफ़ेसर कार्यकर्ता ने सेना के एक महत्वपूर्ण अफ़सर के हवाले से कहा है कि अभी तक 3/4 लोग यहां-वहां बाढ़ के पानी में फंसे हैं और उनतक राहत का कोई सामान नहीं पहुंच रहा है। अभी समय की मांग है कि सभी प्रभावित और बाढ़ में फंसे लोगों को बिना और समय गंवाए सुरक्षित जगहों तक पहुंचाया जाए। बाढ़ग्रस्त इलाक़ांे से यह ख़बर आ रही है कि बचाव और राहत कार्य में दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ बड़े स्तर पर भेदभाव किया जा रहा है। हम सभी का यह दायित्व है कि सरकारों और प्रशासन पर यह दबाव बनाया जाए कि वे जाति-धर्म और दूसरी सभी दीवारों को भूलकर सभी प्रभावित लोगों को देश का समान नागरिक मानकर अपनी सेवाएं पहुंचाएं। दोस्तो, बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में राहत सामग्रियों की बेहद कमी है। कई सामाजिक संस्थाओं, राज्यों की सरकारों और दूसरे समूहों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए बाढ़ पीड़ितों के साथ अपनी एकजुटता का परिचय दिया है और राहत के कामों में जुटी हैं। लेकिन इस बाढ़ से जिस स्तर की तबाही आई है उससे लड़ने के लिए इतना सहयोग काफ़ी नहीं है। बिहार की सरकार द्वारा कोसी नदी तटबंध के टूटने के पहले और बाद में जिस तरह की लापरवाहियां बरती गई हैं वे जगज़ाहिर हैं। बचाव और राहत कार्यों को पूरा करने में भी सरकार ने अपनी अक्षमता का खुलकर प्रदर्शन किया है। इन कारणों से सरकारी पुनर्निर्माण की संभावनाएं भी शक के घेरे में आ जाती हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि बचाव और राहत कार्यों पर कड़ी नज़र रखें और राहत सामग्री सही हक़दारों तक पहुंचे इसकी भी गारंटी करें। दोस्तो, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ का पानी जैसे-जैसे उतरेगा मानवीय अपील के कारण होने वाले राहत कार्य भी शिथिल पड़ते जाएंगे। पीड़ित लोगों की यादों में बाक़ी रह जाएंगी अपने अपनों, घर और रोज़गार की तबाही की तस्वीरें और एक ऐसा निराशाजनक भविष्य जो किसी का भी दिल दहला दे। इसलिए हमारी यह भी मांग होनी चाहिए कि सभी प्रभिावित लोगों का पूरा पुनस्र्थापन हो। जीवन और मानवता के पुनर्निर्माण के इस काम में हमें अपनी भूमिका भी तय करनी होगी। अगर हम इस काम में असमर्थ रहते हैं तो पलायन का एक ऐसा दौर चलेगा जो ग़रीबों के जीवन को और भी कठिन बना देगा और मानवाधिकारों की सभी लड़ाइयों को कमज़ोर कर देगा। दिल्ली के सजग नागरिकों, कार्यकर्ताओं और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने मिलकर बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क नाम से एक मोर्चा बनाया है जो बाढ़ पीड़ितों के अधिकारों के लिए काम करनेवाले लोगों और संस्थाओं के कामों में अपना सहयोग दे रहा है। आप भी इस मोर्चे से जुड़ें और बिहार के बाढ़ पीड़ितों के जीवन के पुनर्निर्माण के काम में अपना सहयोग सुनिश्चित करें। ज़्यादा जानकारी के लिए संपर्क करें राकेश सिंह फ़ोनः 9811972872 ईमेलः rakeshjee at gmail.com विनय सिंह फ़ोनः 9810361918 ईमेलः kumarvinaysingh at gmail.com इश्तियाक़ अहमद फ़ोनः 9968329198 ईमेलः muktigami at gmail.com -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080912/b0d27ac7/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Sat Sep 13 22:56:42 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Sat, 13 Sep 2008 12:26:42 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <27247790.1441841221326802823.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// विस्फोट के वक्त हम सेंट्रल पार्क के आसपास ही थे Posted: 13 Sep 2008 11:05 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/391675693/blog-post_13.html तू आ क़दम मिला के चल चलेंगे एक साथ हम, अगर कहीं हैं स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर ... गा रहे थे हम लोग. संवेदना मार्च जनपथ मार्केट से गुजर रहा था. हममें से कुछ के हाथों में दान-पात्र थे. लोग हमें कौतूहल भरी नजरों से देख रहे थे और उन्हीं में से कुछ हमारे दान-पात्रों में कुछ डालते जा रहे थे. ये बिहार के बाढ़ पीडितों के लिए राहत के लिए किया जा रहा था. हमारा गाना ख़त्म भी नहीं हुआ था कि दो ज़ोरदार धमाके हुए. साथ चल रही मालविका ने पूछा, 'सर ये किस चीज़ की आवाज़ है ?' कबूतर उड़ाने के लिए किसी ने पटाखे छोड़े हैं शायद, कहकर मैंने मामले को हल्का करना चाहा. हम गाते हुए जंतर-मंतर की तरफ़ बढ रहे थे. अफ़रातफ़री-सी शुरू हो गयी थी. इसी बीच ग्रीष्मा ने कहा कि उसके पापा ने फोन करके बताया है कि दिल्ली में सिरीयल ब्लास्‍ट हो रहा है. करोलबाग और सेंट्रल पार्क में हो चुके हैं धमाके. यानी जिसे मैंने कबूतर उड़ाने वाला पटाखा कहा था अब वो सचमूच का बम-विस्‍फोट साबित हो चुका था. सेंट्रल पार्क से केवल आधा किलोमीटर दूर थे हम. चारों ओर से पुलिस और एम्बुलेंस उधर ही जा रही थी. हमारे पीछे-पीछे चल रहे एक वायरलेस वाले सिपाही ने हमसे दो-दो के ग्रुप में जल्दी से जल्दी इलाक़ा छोड़ देने की लगभग मिन्नत ही कर रहे थे. आखिरकार, हमें वहां से हटना पड़ा. कुछ लोग सेंट्रल पार्क जाकर वोलंटियरी भी करना चाह रहे थे. पर देर हो चुकी थी. हमें भगाने वाले लोग हमसे ज़्यादा प्रतिबद्ध निकले. गजब की भीड़ थी मेट्रो में. पहले कभी भी वैसी भीड़ नहीं देखी. तिल रखने की जगह भी नहीं थी. किलकारी और कई अन्य साथियों तो फर्श पर ही बैठ गए. थके थे. पल भर में ही दिल्ली और बाहर से तमाम दोस्तों के मैसेज आ गए. हालचाल जानना चाह रहे थे वे. दिल्ली के कुछ दोस्तों को मालूम था कि आज बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क की ओर से संवेदना मार्च निकलने वाला है. कई दोस्तों आशंकित थे. नौ बजे के क़रीब जब फोन चालू हुआ तो सबको बताया कि ठीक हैं हम लोग और मार्च ठीक ठाक रहा. तक़रीबन तीन हज़ार रुपए भी जमा हुए. पता चला है कि कुछ संगठनों ने जिम्मेदारी ली है इस सिरीयल ब्लास्ट की. मुझे नहीं मालूम कि कैसे लोग हैं ये जो ऐसे विस्‍फोटों के बाद जिम्मा झटकने लगते हैं. इस झटकदारी से अगर कोई किसी मसले को हल कर लेने का मंसूबा रखता है तो भइया एक नहीं हज़ारो-लाखों बार उन्हें पटखनी खानी होगी. कौन सा समाज इस बर्बरता की तरफदारी करेगा. ये निहायत ही खोखला और कायराना काम है. के शिकार हुए लोगों के प्रति व्यक्त करने का कोई नहीं है मेरे पास. इस क्षति की भरपाई कैसे होगी, नहीं मालूम. हां, आगे न हो इसके लिए समाज में विश्वास का माहौल क़ायम करना बेहद ज़रूरी है. कैसे होगा? शायद मिल जुल कर ही. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080913/e80a8ddb/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Sep 15 13:08:13 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 15 Sep 2008 13:08:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSlIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+4KST4KSCIOCkleClhyDgpKzgpYDgpJog4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWA4KSuIOCkueCli+CkpOClgCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYA=?= Message-ID: <829019b0809150038l8023cb7yaa989bc32e8135cf@mail.gmail.com> गुंडे,मवालियों और बाजार के दलालों के बीच हिन्दी एक असहाय स्त्री की तरह खड़ी है। अगर आप इन दिनों हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़नेवालों पर गौर कर रहे हैं तो अपनी हिन्दी को लेकर इससे कोई अलग छवि नहीं बनने पाती है। हाय हिन्दी,आय हिन्दी करके कराह रहे, तड़प रहे हिन्दी मठाधीशों से हिन्दी अखबार भरा पड़ा है। इन सबके बीच हिन्दी के जिन मठाधीशों को सालभर तक कोई नहीं पूछता,हिन्दी पखवाड़े के लिए कोई बड़ा मठाधीश नहीं मिल पाने की स्थिति में इन्हें ही पकड़ लिया गया है। आखिर हिन्दी पखवाड़ा है,किसी न किसी से तो मातमपुर्सी करवानी ही है। ये वही स्थिति है जब पितृपक्ष में फुर्सत में रहे ब्राह्मणों की क्राइसिस हो जाती है जबकि श्राद्ध कराना जरुरी होता है। क्या किया जाए। तब दो ही उपाय बचते हैं-या तो जाति से ब्राह्मण रहे बुतरु पंडिजी को ही पकड़ लिया जाय,मंत्र भले ही न पढ़ पाते हों,हाथ से छू तो देंगे कम से कम। या फिर उम्र पार कर चुके लोथ पंडिजी को ही पकड़ लिया जाए,जीवन भर श्राद्ध कराया है,कुछ तो जस होगा ही। हिन्दी पखवाड़े के दौरान हिन्दी के माठाधीशों की ऐसी ही क्राइसिस हो जाती है तब लोथ(जो चलने-फिरने लायक नहीं होते, यहां जो पढ़ने और अपडेट होने की स्थिति में नहीं होते) मठाधीश को पकड़ लिया जाता है। हिन्दी में बुतरु को शामिल करने का प्रचलन अभी शुरु नहीं हुआ है। लोग लोथ से ही काम चला लेते हैं। खैर,लिफाफे की जोर से ये मठाधीश कुछ न कुछ तो बोल जाते हैं,आयोजक बुलाते समय आपस में बात करते हैं-अरे,कुच्छो न कुच्छो तो बोलेंगे ही,बुला लीजिए,अब अंतिम समय में कहां अपडेट बाबा को खोजें,सब तो चैनल और अखबार ने तो पहले ही हथिया लिए हैं। लेकिन इनका बोलना वैसा ही होता है,जैसा कि पूर्णिमा में सत्यनारायण स्वामी की कथा का पढ़ा जाना। सालों से वही कहानी,न कथानक के स्तर पर कोई बदलाव और न ही कंटेट के स्तर पर कोई नयापन। कोई मठाधीश चाहे तो एक ही बात का लेमिनेशन कराके रख ले और एक सभा करके तय कर ले कि हर साल इसी बात को मंत्र की तरह दुहराया जाएगा। हिन्दी को सती-सावित्री और बाजार के दलालों से मुक्त रखने के लिए यह उपाय जोरदार है।दूसरी स्थिति है उनलोगों की जो हिन्दी को एक ऐसी स्त्री के रुप में देख रहे हैं जिसे कल तक रोटी-भात के पैसे नहीं होते थे,आज वो सप्ताह में आराम से एकबार फेशियल करा रही है। बाकी के कॉस्ट्यूम्स और हर्बल से भरा है बैनिटी बॉक्स। हिन्दी न केवल फल-फूल रही है बल्कि बाजार के सहयोग से धीरे-धीरे मॉड और स्लीम होती जा रही है। हिन्दी की इस फीगर पर अपनी राष्ट्रपति की भी नजर गयी और उन्होंने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिन्दी को बड़े पैमाने पर अपनाया है,वे विज्ञापनों में हिन्दी का प्रयोग करने लगे हैं। इसका श्रेय प्रवासी भारतीयों को जाता है जिन्होंने हिन्दी का विस्तार किया। मेरी तरफ से प्रवासी भारतीयों को शुक्रिया जिन्होंने हिन्दी को ऐसा लुक दिया। हालांकि हिन्दी के इस नए रुप पर खुश होनेवाले लोगों की संख्या अभी बहुत ही कम है, जो खुश हो रहे हैं उन्हें हिम्मत जुटानी पड़ रही है कि अगर कोई उन्हें बाजारवादी भी कह देंगे तो रिएक्ट करने के बजाए चुपचाप अपना काम करते रहना है।इसी हो-हल्ले के बीच जहां मैंने खुद हिन्दी पर कुछ भी पढ़ना-गुनना छोड़ दिया। मेले-ठेले से मुझे बहुत तकलीफ होती है,कौन रगड़ मार के चला जाए, इसलिए दोने बाजार में खरीदने के बाद घर लाकर ही खाना पसंद करता हूं। सब सामान जुटा रहा हूं और फुर्सत से पढ़ने की सोच रहा था कि इसी बीच शंभूनाथ ने लिख दिया कि हिन्दी के विकास में जितने रोड़े हिन्दी अधिकारी अटकाते हैं उससे कम रोड़े हिन्दी के मास्टर लोग नहीं अटकाते(जनसत्ता,१५ सितंबर,०८), तब सोचा, नहीं भाई इत्मीनान वाला फंडा छोड़ों,कुछ अभी हो चख लो, नहीं तो सेरा जाने पर(ठंडा होने को सेरा जाना कहते हैं) मजा नहीं आएगा। सो दिल्ली हादसों के बीच हिन्दी को लेकर बैठ गया। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-36 Size: 8413 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080915/9d030ef1/attachment-0001.bin From sadanjha at gmail.com Mon Sep 15 15:50:04 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Mon, 15 Sep 2008 15:50:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: H-ASIA: Haiku in Hindi--a new publication In-Reply-To: References: Message-ID: <1a9a8b710809150320t181b7dc3t6950733b346db8a5@mail.gmail.com> Dear Deewan list members, Today, I came across this mail and thought it mnay be of some concern for this list. sadan. ---------- Forwarded message ---------- From: Frank Conlon Date: 2008/9/9 Subject: H-ASIA: Haiku in Hindi--a new publication To: H-ASIA at h-net.msu.edu H-ASIA September 9, 2008 A new resource on Haiku in Hindi ************************************************************************ Ed. note: Unaccountably, this post--sent on August 8, was snared by my university's spam filter, and rescued only today. At least in this case the information is not as time sensitive as a conference notice. I regret any inconvenience. FFC - ------------------------------------------------------------------------ From: Robert Lucky Dear Members, Some of you may be interested in a new journal slated to print its premier issue later this year. _Haiku Sansaar_, a journal in Hindi and English, is to be edited by Dr. Jagdish Vyom (Hindi) and Dr. Angelee Deodhar (English). It will be published by Modern English Tanka Press of Baltimore, MD, and more information can be found at . Below is a review of two recent works by Dr. Deodhar. All of Dr. Deodhar's books mentioned in the review have been self-published and printed by Azad Hind Stores (P) Ltd of Chandigarh. She can be contacted at angeleedeodhar at gmail.com. Sincerely, Bob Lucky Hangzhou International School Hangzhou, China - ---------------------------- Dr. Angelee Deodhar has exhibited remarkable focus and dedication in the past few years as she has sought to broaden the exposure of Indian readers to the pleasures of Japanese short form poetry, in particular tanka and haiku, through her translations into Hindi of widely accepted English renditions of the Japanese originals. Her translations in Ogura Hyakushin Isshu/100 Poems by 100 Poets (2007) are models of clarity and fidelity. Moreover, note should be made of her generosity in distributing her works to educators and poets around the world. She has taken on a task that deserves support in India and abroad. Her two recent collections of translations, Children's Haiku From Around the World: A Haiku Primer (2007) and Indian Haiku (2008) should be of interest to any one who loves poetry--reading it, teaching it, and writing it. Children's Haiku is, as its title states, a primer intended to introduce the youth of India to Japanese haiku. Of course, this involves educating the teachers of those youths as well, and to this end the book begins with a preface by the translator, who acknowledges that much of what goes under the name of haiku in India may be something else altogether, an introduction to the collection of poems by Momoko Kuroda, and a handbook of sorts by Patricia Donegan and Kazuo Sato for teaching haiku to children. The haiku themselves are international in scope, coming from children from twenty-eight countries. The enormity of this undertaking should not be underestimated. India has a long tradition of poetry treating nature, which is the primary office of haiku. Why haiku? First, it is a window on to Japanese culture, and who isn't for better cross-cultural understanding? Second, it teaches a respect of nature through a heightened awareness of nature. Bear in mind that these haijin are children and many of their haiku are only so in spirit, but the spirit of haiku is exactly what Dr. Deodhar wishes to instill in young Indian poets and poetry lovers. This is an excellent place to start. Some purists may quibble, not surprisingly since committees are regularly formed to come up with new definitions of haiku as it spreads in popularity through languages worldwide. But it's good to remember that Krishna didn't give Arjuna the complete lesson from the start, after all. Indian Haiku is the beginning of the complete lesson, certainly a book that should start a meaningful discussion amongst Indian poets and translators of all stripes. For English readers, it is also a good introduction to a selection of Hindi haiku from the last two decades. For theorists, it's an opportunity to sink their teeth into Hindi haiku and how it relates to what might be called contrastive praxis. Hindi is not English is not Japanese and so on. Even in this brief selection of poems, one can discern a kinder acceptance of anthropomorphism than in English language haiku. Here, dewdrops speak to sunrays, breezes to trees. The moon sings. Mountains weep. Nevertheless, if we can accept that the soul of haiku is a brief, direct observation of nature written in such a way that each reader may find a connection, a personal insight, then there are many fine haiku being written in Hindi. The majority of the haiku in this book were originally written in Hindi (and one each in Marathi and Gujarati). Writers such as Guatam Nadkarni, Kala Ramesh, and A. Thiagarajan, who are familiar to English readers, have had some of their haiku translated into Hindi. The English and Hindi versions are on facing pages, making comparisons easy. Once again, Dr. Deodhar's translations are admirable, in both directions. Experienced English readers of haiku have come to grips, so to speak, with many of the cultural aspects of Japanese haiku. Haiku may capture a moment, but in its one to three lines it also encapsulates a world. In this collection one can find cultural references to Vedic chants, tree saints, prayer lamps, wedding processions and more. And with India's rich literary traditions, allusions will abound. Is not Dr. Savitra Daga's "my message/must have reached/in the rain-drops" a bow in the direction of Kalidasa's Meghaduta? With this book readers now have the opportunity to explore and learn a new world. It will take time and effort, but it will be worth it. Bob Lucky, Hangzhou, China ****************************************************************** To post to H-ASIA simply send your message to: For holidays or short absences send post to: with message: SET H-ASIA NOMAIL Upon return, send post with message SET H-ASIA MAIL H-ASIA WEB HOMEPAGE URL: http://h-net.msu.edu/~asia/ - -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From sadanjha at gmail.com Tue Sep 16 12:59:01 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Tue, 16 Sep 2008 12:59:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSwOiDgpKzgpL/gpLDgpLngpL4g4KSV4KWAIOCksOCkvuCkpCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCknOCksuCkqOCkvg==?= Message-ID: <1a9a8b710809160029l41a0094fo4303c5a8cd0bc7fa@mail.gmail.com> vatsanurag.blogspot.com गुलजार को रवींद्र व्‍यास के जरिये पढ़ना दिलचस्‍प भी और टीस देने बाला भी। बहुत अटपटा लगेगा गुलजार को चाहने बालों को मेरा यह कहना। मैं खुद पेशोपेश में रहता हूँ, गुलजार को लेकर। यह उलझन इक बारगी तो बयाँ करती है एक कवि के शब्‍दों की ताकत को, जहाँ अर्थोँ की बहुलता है, वह पुकारता भी है, पुचकारता भी, दुलारता भी और लतारता भी, समाज को बदलने की बहुत प्‍यारी सी लतार– चप्‍पा चप्‍पा चरखा चले… मैं जब से गीत के बोल समझने लगा, जब से यह पता चला कि सनिमा के गीत में कोई भाषा, कुछ अर्थ होते हैं, तब से गुलजार का मुरीद बन गया। दरभंगा जैसे छोटे शहर, अस्‍सी का गुजरता दशक, मध्‍यवर्गीय शिक्षक का पारिवारिक माहौल, पढ़ने लिखने की चाहत, लड़कियों को चुपके से देखने और फिर उनके छाते की रँगों या कान के झुमके को सोचते हुए खुद में ही खुश होते मैं और मेरे चंद दोस्‍त। शेखर और भुवन में अपने को तलाशते, पिताजी के कार्ड पर लनामिवि विश्‍वविधालय पुस्‍तकालय से ए ए बेल संपादित फ्रायड के लेखन से उत्‍साहित हमलोग दिन गुजार देते, गुलजार के बोलों पर– एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक अकेला काँधे का तिल। सँख्‍या के गणित में एक अनोखी, अबुझ अलसाया सा रहस्‍य हमेशा शेष रह जाता था, भोर के सपने की तरह। तिल है तो मधुबाला की तरह ओठों के नीचे क्‍यो नहीं, चाँद तो फिर एक सौ सोलह क्‍यों? गुलजार के यहाँ सब कुछ समेटने की जिद नहीं थी, जो बचा-खुचा छुटा रह जाता है उसके चौखट पर ठहर कर समय गुजारने की, उसके साये से लिपट कर समय को खो देने की कशिश है। एक ठहरेपन की आवारगी। तो ऐसे में टीस कहाँ से आता है? 'लेकिन' में टूटी हुई चुड़ियोँ से कलाईयाँ जोड़ी जाती है तो 'इजाजत' ली जाती है सावन के भीगे भीगे दिनों को लौटा देने की। ये यादें हैं बीते हुए अहसासों की रवायतें जो मीठा मीठा दर्द देती हैं। लेकिन टीस तो कुछ अलग हुआ, है ना? मेरे एक दोस्‍त ने अपने तेवर वाले जमाने में कहा, गुलजार क्राँति की ईंट खिसकाकर वहाँ रोमाँस की हवा भर देते हैँ। 2008/9/11 Ravikant : > sabad nirantar se saabhar. > > cheers > ravikant > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास > Date: बुधवार 10 सितम्बर 2008 20:28 > From: "anurag vats" > To: Wednesday, September 10, 2008 > सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास > ( वे पेंटर हैं, कहनियाँ लिखते हैं, हरा कोना नाम का उनका ब्लॉग है और हिन्दी के इस वर्चुअल वर्ल्ड > में उनकी सजग उपस्थिति चहुँ ओर सराही गई है। जब हमने सखा पाठ स्तंभ शुरू किया था तो उसके पीछे > किसी रचना से प्रेरित रचना को सामने लाने की अवधारणा थी। सबद में ही रिल्के पर छपे राजी सेठ > के लेख के बाद बतौर बढ़त गिरिराज किराडू की कविता दी थी। उसके बाद यह सिलसिला थम सा > गया। रवींद्र व्यास के माध्यम से वह फिर से शुरू हुआ है। उन्होंने गुलजार की कविता पर > न सिर्फ़ पेंटिंग दी, बल्कि इसरार करने पर गद्य भी भेजा। हम उनके आभारी हैं। ) > > एक और रात > > गुलजार > > चुपचाप दबे पांव चली जाती है > रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं > कांच का नीला-सा गुंबद है, उड़ा जाता है > खाली खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है > > चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन भी नहीं > चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है > और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है > > काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी > हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता > > **** > > ये देखो तो क्या होता है > > गुलजार की जमीन और आसमान सरगोशियों से मिलकर बने हैं। ये सरगोशियां खामोशियों की रातें बुनती > हैं। इन रातों में कई चांद डूबते-उतरते रहते हैं। कई टंगे रहते हैं, अपने अकेलेपन में जिनकी पेशानी पर > कभी-कभी धुआं उठता रहता है। दूज का चांद, चौदहवीं का चांद और कभी एक सौ सोला रातों का चां > द। कभी ये चांद किसी चिकनी डली की तरह घुलता रहता है। ये चांद ख्वाब बुनते रहते हैं। ख्वाबों में > रिश्ते फूलों की तरह खिलते रहते हैं और उसकी खुशबू पलकों के नीचे महकती रहती है। ये रिश्ते कभी > मुरझा कर ओस की बूंदों की तरह खामोश रातों में झरते रहते हैं। > > वे किसी गर्भवती स्त्री की तरह गुनगुनी धूप में यादों को गुनगुनाते महीन शब्दों से मन का स्वेटर बुनते > हैं। इसमें उनकी खास रंगतें कभी उजली धूप की तरह चमकती रहती है। कभी इसमें सन्नाटों की धूल > उड़ती रहती है। इसकी बनावट और बुनावट की धीमी आंच में रिश्तों के रेशे अपने दिलकश अंदाज में आपके > मन को आपकी देह को रूहानी अहसास कराते हैं। > > कहते हैं किसी की आत्मा पेड़ों में बसती है। किसी आत्मा एक फूल में बसती है। कहते यह भी हैं कि आत्मा > एक पिंड में बसती है। और यह भी कि आत्मा एक स्वर्ग में बसती है, एक मुहूर्त में बसती है। क्या कहा > जा सकता है कि गुलजार की गीतात्मा चांद में बसती है। और चांद यानी रात भी। और रात यानी > तारे भी। और तारे यानी समूची कायनात। और इसके बीच वह भी जिससे हिज्र की रात में कहा जा > रहा है कि काश इक बार कभी नींद में उठकर तुम भी ये देखो तो क्या होता है... > > > > इस नज्म की पहली लाइन में रात के बहाने अपनी स्थिति बताने का एकदम सादगीभरा जलवा है। कोई > बनाव नहीं। कोई श्रृगांर नहीं। लुभाने-रिझाने का कोई अंदाज नहीं। अकेलेपन में रात का चुपचाप, > एकदम खामोश गुजरनाभर है। यह एक इमेज है। कहने दीजिए गुलजार इमेजेस के ही कवि हैं। दूसरी लाइन > में कोई आहट नहीं, कोई गूंज नहीं। न रोना, न हंसना। एक अनकहे को पकड़ने की कोशिश। एक जरूरी > दूरी पर खड़े होकर। न डूबकर, न उतरकर। अपने को भरसक थिर रखते हुए। तीसरी लाइन में रात के > जादू को आकार में पकड़ने का वही दिलकश अंदाज है। इसमें चार चीजें हैं-कांच है, नीला है, गुंबद है और > वह उड़ा जाता है। कांच, जाहिर है यह रात को उसकी नाजुकता में देखने की निगाह है। रात नीला > गुंबद है। अहा। क्या बात है। इसमें एक कोई देखी मुगलकालीन भव्य इमारत की झीनी सी याद है। > > यह रात को कल्पना से तराशने का सधा काम है। रात को एक आकार देना। उसे देहधारी बनाना। और > यह गुंबद है, जो उड़ा जाता है। यानी एक एक मोहक और मारक गति है। एक उड़ती हुई गति। जाहिर > है इस गति में रात की लय शामिल है। बीतती लयात्मक रात। यह मोहब्बत का स्पर्श है जो गुंबद के > भारीपन को किसी चिड़िया की मानिंद एक उड़ान देता है। विश्व विख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर को > याद करिए। वे पत्थर में चिड़िया को ऐसे ढालते हैं कि पत्थर अपने भारीपन से मुक्त होकर चिड़िया के > रूप में उड़ने-उड़ने को होता है। यह फनकार की ताकत है, अपने मीडियम से मोहब्बत है। > > पांचवी लाइन बताती है कि यह शायर रातों की जागता है और रोज ही रातों को निहारता है। इसी > जागने से यह एक और रात बनी है जिसमें कहा जा रहा है कि चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन > नहीं। यह आपकी इंद्रियों का जागना भी है। कलाकार यही करता है। वह सभी इंद्रियों के प्रति > आपको सचेत करता है। यह देखना-दिखाना भर नहीं है। छठी पंक्ति में चिकनी डली है। स्पर्श का > अहसास है। फिर घुलना है। यह एक और रात कि घुली जा रही है। कि पर गौर फरमाएं। है न कुछ बा > त। और सातवीं लाइन में इन सबसे घुल-मिल कर एक सन्नाटा रात की तरह ही फैलता जा रहा है। वे > इसे उड़ती धूल में पकड़ते हैं। महीन धूल। आठवीं और नौवीं लाइन मारू है। यह रात का जो जादू है, > उसकी सुंदरता का जो भव्य स्थापत्य है, अकेलापन है, सन्नाटा है और खामोश गुजरना भर है, इसमें एक > ख्वाहिश भी है कि कोई हिज्र की रातों में नींद से उठकर इसे देखे। यह भी कि- ये देखो तो क्या हो > ता है। > > vatsanurag.blogspot.com > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From ravikant at sarai.net Tue Sep 16 17:46:54 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 16 Sep 2008 17:46:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSX?= =?utf-8?b?4KWB4KSy4KSc4KS+4KSwOiDgpKzgpL/gpLDgpLngpL4g4KSV4KWAIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkleCkviDgpJzgpLLgpKjgpL4=?= Message-ID: <200809161746.54785.ravikant@sarai.net> sadan ji, bachpan se lekar aaj tak mujhe bhi 'jeevan ke do pahloo hain hariyali aur rasta' ka matlab samajh mein nahin aaya hai. aapki pahli baat abstract mein sahi hai. lekin fan likh dene bhar se main aapke is ilzaam se sahmat nahin ho sakta. shukriya. vaise maza aa raha hai to likho ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: गुलजार: बिरहा की रात का जलना Date: मंगलवार 16 सितम्बर 2008 15:37 From: "Sadan Jha" To: ravikant at sarai.net thanks. lekin main saayad baat aage badhaun. dekhiye kuch baatain mujhe bhi paresaan karti hai. jab hum kisi lyricist se apne ko connect karte hain to kya unki baat ko tarjih na dain jo parchewaaj aalochak hote hain ( parchewaaj aalochak isliye ki aise logon ki aalochana netao ke bhashan jaisi hoti hai. par unka bhi to apana ek wajood hota hi hai. dekhiye aage likh pata hun ya nahi. haan kandhe ka til aapne sahi yaad dilaya, lekin un dino jab hum log film baad main dekhte the aur geet pahle sunate the to saayad yah jehan main nahi aata tha ki mardon ke sarir ke liye bhi upma ho sakti hai. yah baat factual level par ekdam galat hai, aaj ki taarikh main main saayad yadi jaankari ke taur par likhun to galat aur atpata hi hoga. par un dino ki yaad, wo apane man hi main khichari pakaate jaanaa kuch alag hi tha. hum log til hamesha heroin ke badan par hi sochate the. warmly, sadan. 2008/9/16 Ravikant : > बहुत ख़ूब सदन. सच में कुछ तो हमारे विषय का भी असर होता ही है कि कभी-कभी हम > शायर हो जाते हैं, जैसा कि आप हुए जा रहे हैं. बतौर बेशर्म गुलज़ार फ़ैन मैं > सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि 'काँधे का तिल' यहाँ अनुराधा पटेल कह रही है, > नसीरूद्दीन शाह के लिए, अब चाँद जैसी ज़नाना उपमा का विपर्यय अगर गुलज़ार > करेगा तो उसे तो महेन्द्र के मर्दाना, मांसल कंधे पर ही टिकाएगा न! सिर पर तो > वैसे भी 'चंद्रशेखर' का क़ब्ज़ा सदियों से चला आ रहा था. > > और रही बात आपके दोस्त की, तो फ़क़त ईंट की क्रांति ऊन्हें मुबारक हो. उनकी > हवा हवाई क्रांति के लिए हम गुलज़ार का ठोस रोमांस तो नहीं छोड़ेंगे! ठहरेपन > की आवारगी का विरोधाभास भी ख़ूब रहा! > > रविकान्त > > मंगलवार 16 सितम्बर 2008 12:59 को, आपने लिखा था: >> vatsanurag.blogspot.com >> गुलजार को रवींद्र व्‍यास के जरिये पढ़ना दिलचस्‍प भी और टीस देने बाला >> भी। बहुत अटपटा लगेगा गुलजार को चाहने बालों को मेरा यह कहना। मैं खुद >> पेशोपेश में रहता हूँ, गुलजार को लेकर। यह उलझन इक बारगी तो बयाँ करती है >> एक कवि के शब्‍दों की ताकत को, जहाँ अर्थोँ की बहुलता है, वह पुकारता भी >> है, पुचकारता भी, दुलारता भी और लतारता भी, समाज को बदलने की बहुत >> प्‍यारी सी लतार– चप्‍पा चप्‍पा चरखा चले… >> मैं जब से गीत के बोल समझने लगा, जब से यह पता चला कि सनिमा के गीत में >> कोई भाषा, कुछ अर्थ होते हैं, तब से गुलजार का मुरीद बन गया। दरभंगा जैसे >> छोटे शहर, अस्‍सी का गुजरता दशक, मध्‍यवर्गीय शिक्षक का पारिवारिक माहौल, >> पढ़ने लिखने की चाहत, लड़कियों को चुपके से देखने और फिर उनके छाते की >> रँगों या कान के झुमके को सोचते हुए खुद में ही खुश होते मैं और मेरे चंद >> दोस्‍त। शेखर और भुवन में अपने को तलाशते, पिताजी के कार्ड पर लनामिवि >> विश्‍वविधालय पुस्‍तकालय से ए ए बेल संपादित फ्रायड के लेखन से उत्‍साहित >> हमलोग दिन गुजार देते, गुलजार के बोलों पर– एक सौ सोलह चाँद की रातें और >> एक अकेला काँधे का तिल। सँख्‍या के गणित में एक अनोखी, अबुझ अलसाया सा >> रहस्‍य हमेशा शेष रह जाता था, भोर के सपने की तरह। तिल है तो मधुबाला की >> तरह ओठों के नीचे क्‍यो नहीं, चाँद तो फिर एक सौ सोलह क्‍यों? गुलजार के >> यहाँ सब कुछ समेटने की जिद नहीं थी, जो बचा-खुचा छुटा रह जाता है उसके >> चौखट पर ठहर कर समय गुजारने की, उसके साये से लिपट कर समय को खो देने की >> कशिश है। एक ठहरेपन की आवारगी। >> तो ऐसे में टीस कहाँ से आता है? >> 'लेकिन' में टूटी हुई चुड़ियोँ से कलाईयाँ जोड़ी जाती है तो 'इजाजत' ली >> जाती है सावन के भीगे भीगे दिनों को लौटा देने की। ये यादें हैं बीते हुए >> अहसासों की रवायतें जो मीठा मीठा दर्द देती हैं। लेकिन टीस तो कुछ अलग >> हुआ, है ना? >> मेरे एक दोस्‍त ने अपने तेवर वाले जमाने में कहा, गुलजार क्राँति की ईंट >> खिसकाकर वहाँ रोमाँस की हवा भर देते हैँ। >> >> 2008/9/11 Ravikant : >> > sabad nirantar se saabhar. >> > >> > cheers >> > ravikant >> > >> > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- >> > >> > Subject: सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास >> > Date: बुधवार 10 सितम्बर 2008 20:28 >> > From: "anurag vats" >> > To: Wednesday, September 10, 2008 >> > सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास >> > ( वे पेंटर हैं, कहनियाँ लिखते हैं, हरा कोना नाम का उनका ब्लॉग है और >> > हिन्दी के इस वर्चुअल वर्ल्ड में उनकी सजग उपस्थिति चहुँ ओर सराही गई है। >> > जब हमने सखा पाठ स्तंभ शुरू किया था तो उसके पीछे किसी रचना से प्रेरित >> > रचना को सामने लाने की अवधारणा थी। सबद में ही रिल्के पर छपे राजी सेठ के >> > लेख के बाद बतौर बढ़त गिरिराज किराडू की कविता दी थी। उसके बाद यह सिलसिला >> > थम सा गया। रवींद्र व्यास के माध्यम से वह फिर से शुरू हुआ है। उन्होंने >> > गुलजार की कविता पर न सिर्फ़ पेंटिंग दी, बल्कि इसरार करने पर गद्य भी >> > भेजा। हम उनके आभारी हैं। ) >> > >> > एक और रात >> > >> > गुलजार >> > >> > चुपचाप दबे पांव चली जाती है >> > रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं >> > कांच का नीला-सा गुंबद है, उड़ा जाता है >> > खाली खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है >> > >> > चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन भी नहीं >> > चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है >> > और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है >> > >> > काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी >> > हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता >> > >> > **** >> > >> > ये देखो तो क्या होता है >> > >> > गुलजार की जमीन और आसमान सरगोशियों से मिलकर बने हैं। ये सरगोशियां >> > खामोशियों की रातें बुनती हैं। इन रातों में कई चांद डूबते-उतरते रहते हैं। >> > कई टंगे रहते हैं, अपने अकेलेपन में जिनकी पेशानी पर कभी-कभी धुआं उठता >> > रहता है। दूज का चांद, चौदहवीं का चांद और कभी एक सौ सोला रातों का चां द। >> > कभी ये चांद किसी चिकनी डली की तरह घुलता रहता है। ये चांद ख्वाब बुनते >> > रहते हैं। ख्वाबों में रिश्ते फूलों की तरह खिलते रहते हैं और उसकी खुशबू >> > पलकों के नीचे महकती रहती है। ये रिश्ते कभी मुरझा कर ओस की बूंदों की तरह >> > खामोश रातों में झरते रहते हैं। >> > >> > वे किसी गर्भवती स्त्री की तरह गुनगुनी धूप में यादों को गुनगुनाते महीन >> > शब्दों से मन का स्वेटर बुनते हैं। इसमें उनकी खास रंगतें कभी उजली धूप की >> > तरह चमकती रहती है। कभी इसमें सन्नाटों की धूल उड़ती रहती है। इसकी बनावट >> > और बुनावट की धीमी आंच में रिश्तों के रेशे अपने दिलकश अंदाज में आपके मन >> > को आपकी देह को रूहानी अहसास कराते हैं। >> > >> > कहते हैं किसी की आत्मा पेड़ों में बसती है। किसी आत्मा एक फूल में बसती >> > है। कहते यह भी हैं कि आत्मा एक पिंड में बसती है। और यह भी कि आत्मा एक >> > स्वर्ग में बसती है, एक मुहूर्त में बसती है। क्या कहा जा सकता है कि >> > गुलजार की गीतात्मा चांद में बसती है। और चांद यानी रात भी। और रात यानी >> > तारे भी। और तारे यानी समूची कायनात। और इसके बीच वह भी जिससे हिज्र की रात >> > में कहा जा रहा है कि काश इक बार कभी नींद में उठकर तुम भी ये देखो तो क्या >> > होता है... >> > >> > >> > >> > इस नज्म की पहली लाइन में रात के बहाने अपनी स्थिति बताने का एकदम सादगीभरा >> > जलवा है। कोई बनाव नहीं। कोई श्रृगांर नहीं। लुभाने-रिझाने का कोई अंदाज >> > नहीं। अकेलेपन में रात का चुपचाप, एकदम खामोश गुजरनाभर है। यह एक इमेज है। >> > कहने दीजिए गुलजार इमेजेस के ही कवि हैं। दूसरी लाइन में कोई आहट नहीं, कोई >> > गूंज नहीं। न रोना, न हंसना। एक अनकहे को पकड़ने की कोशिश। एक जरूरी दूरी >> > पर खड़े होकर। न डूबकर, न उतरकर। अपने को भरसक थिर रखते हुए। तीसरी लाइन >> > में रात के जादू को आकार में पकड़ने का वही दिलकश अंदाज है। इसमें चार >> > चीजें हैं-कांच है, नीला है, गुंबद है और वह उड़ा जाता है। कांच, जाहिर है >> > यह रात को उसकी नाजुकता में देखने की निगाह है। रात नीला गुंबद है। अहा। >> > क्या बात है। इसमें एक कोई देखी मुगलकालीन भव्य इमारत की झीनी सी याद है। >> > >> > यह रात को कल्पना से तराशने का सधा काम है। रात को एक आकार देना। उसे >> > देहधारी बनाना। और यह गुंबद है, जो उड़ा जाता है। यानी एक एक मोहक और मारक >> > गति है। एक उड़ती हुई गति। जाहिर है इस गति में रात की लय शामिल है। बीतती >> > लयात्मक रात। यह मोहब्बत का स्पर्श है जो गुंबद के भारीपन को किसी चिड़िया >> > की मानिंद एक उड़ान देता है। विश्व विख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर को याद >> > करिए। वे पत्थर में चिड़िया को ऐसे ढालते हैं कि पत्थर अपने भारीपन से >> > मुक्त होकर चिड़िया के रूप में उड़ने-उड़ने को होता है। यह फनकार की ताकत >> > है, अपने मीडियम से मोहब्बत है। >> > >> > पांचवी लाइन बताती है कि यह शायर रातों की जागता है और रोज ही रातों को >> > निहारता है। इसी जागने से यह एक और रात बनी है जिसमें कहा जा रहा है कि >> > चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन नहीं। यह आपकी इंद्रियों का जागना भी >> > है। कलाकार यही करता है। वह सभी इंद्रियों के प्रति आपको सचेत करता है। यह >> > देखना-दिखाना भर नहीं है। छठी पंक्ति में चिकनी डली है। स्पर्श का अहसास >> > है। फिर घुलना है। यह एक और रात कि घुली जा रही है। कि पर गौर फरमाएं। है न >> > कुछ बा त। और सातवीं लाइन में इन सबसे घुल-मिल कर एक सन्नाटा रात की तरह ही >> > फैलता जा रहा है। वे इसे उड़ती धूल में पकड़ते हैं। महीन धूल। आठवीं और >> > नौवीं लाइन मारू है। यह रात का जो जादू है, उसकी सुंदरता का जो भव्य >> > स्थापत्य है, अकेलापन है, सन्नाटा है और खामोश गुजरना भर है, इसमें एक >> > ख्वाहिश भी है कि कोई हिज्र की रातों में नींद से उठकर इसे देखे। यह भी कि- >> > ये देखो तो क्या हो ता है। >> > >> > vatsanurag.blogspot.com >> > >> > ------------------------------------------------------- >> > _______________________________________________ >> > Deewan mailing list >> > Deewan at mail.sarai.net >> > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Wed Sep 17 11:59:07 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 17 Sep 2008 11:59:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWC4KSw4KWHIOCkueCliyDgpJfgpI8u?= Message-ID: <829019b0809162329k319e3613j9a8edebda28e6384@mail.gmail.com> मीडिया की नौकरी छोड़ने के बाद की अगली सुबह १७ सितंबर से लिखना शुरु किया था मैंने। दोपहर तक मेरा अपना ब्लॉग बन गया। आज २४१ पोस्ट के साथ इसके एक साल पूरे हो गए. जो लिखा,जैसा लिखा,आपके सामने है- गाहे बगाहे को जन्मदिन मुबारक. http://taanabaana.blogspot.com vineet -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-253 Size: 1338 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080917/5aa46b51/attachment-0001.bin From sadanjha at gmail.com Wed Sep 17 12:01:55 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Wed, 17 Sep 2008 12:01:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSX?= =?utf-8?b?4KWB4KSy4KSc4KS+4KSwOiDgpKzgpL/gpLDgpLngpL4g4KSV4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSkIOCkleCkviDgpJzgpLLgpKjgpL4=?= In-Reply-To: <200809161746.54785.ravikant@sarai.net> References: <200809161746.54785.ravikant@sarai.net> Message-ID: <1a9a8b710809162331u1780f53dk74ad66ddfcac57d4@mail.gmail.com> हाँ ये अच्‍छा रहा। हमलोग (मैं और मेरे जैसे ही कुछ) अक्‍सर ही गीतों के बोल में फँस जाया करते थे। जब मैं मानसरोवर छात्रावास में था तो मेरे एक अंतेवासी सखा ने जो तब संस्‍क्‌र्‍ुत से पीएचडी कर रहे थे ने एक दफा संकोच के साथ स्‍वीकार किया कि वो समझते थे कि बोल है, रात भर जाँघ से जाँघ टकराएगा… और परेशान हुए जाते कि भला यह क्‍या हुआ? थोड़ी गंभिरता से लें तो सवाल दुसरा है– जानकारी और याद के बीच के संवंधों का। याद जो जानकारी को समेटे हुए हो सकता है पर जहां संभव है कि हम जानकारी को आज के अपने समझ से तौल रहे हों। ऐसी स्‍थिती में हम याद को जानकारी के अधीन कर देते हैं और याद की अपनी सत्‍ता खो जाती है। दुसरे तरह से देखें तो ये जानकारी और अनुभव के बीच के अंतर की ओर भी संकेत करता है जिसपर मेरे पसंदीदा अगमबेन ने खुब लिखा है। पर अभी मैं गुलजार को खोना नही चाहता, अगमबेन फिर कभी। सदन। देर से: कम से कम आप तो मुझे सदनजी न ही कहें। मैं यह मेल दिवान पर भेज रहा हूं, आशा है आपको कोई आपत्‍ति नहीं होगी। संभव है कुछ और गीत-पतित जुड़ जाएँ। 2008/9/16 Ravikant : > sadan ji, > > bachpan se lekar aaj tak mujhe bhi 'jeevan ke do pahloo hain hariyali aur > rasta' ka matlab samajh mein nahin aaya hai. aapki pahli baat abstract mein > sahi hai. lekin fan likh dene bhar se main aapke is ilzaam se sahmat nahin ho > sakta. shukriya. vaise maza aa raha hai to likho > > ravikant > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: Re: गुलजार: बिरहा की रात का जलना > Date: मंगलवार 16 सितम्बर 2008 15:37 > From: "Sadan Jha" > To: ravikant at sarai.net > > thanks. lekin main saayad baat aage badhaun. dekhiye kuch baatain > mujhe bhi paresaan karti hai. jab hum kisi lyricist se apne ko connect > karte hain to kya unki baat ko tarjih na dain jo parchewaaj aalochak > hote hain ( parchewaaj aalochak isliye ki aise logon ki aalochana > netao ke bhashan jaisi hoti hai. par unka bhi to apana ek wajood hota > hi hai. > dekhiye aage likh pata hun ya nahi. > haan kandhe ka til aapne sahi yaad dilaya, lekin un dino jab hum log > film baad main dekhte the aur geet pahle sunate the to saayad yah > jehan main nahi aata tha ki mardon ke sarir ke liye bhi upma ho sakti > hai. yah baat factual level par ekdam galat hai, aaj ki taarikh main > main saayad yadi jaankari ke taur par likhun to galat aur atpata hi > hoga. par un dino ki yaad, wo apane man hi main khichari pakaate > jaanaa kuch alag hi tha. hum log til hamesha heroin ke badan par hi > sochate the. > warmly, > sadan. > > 2008/9/16 Ravikant : >> बहुत ख़ूब सदन. सच में कुछ तो हमारे विषय का भी असर होता ही है कि कभी-कभी हम >> शायर हो जाते हैं, जैसा कि आप हुए जा रहे हैं. बतौर बेशर्म गुलज़ार फ़ैन मैं >> सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि 'काँधे का तिल' यहाँ अनुराधा पटेल कह रही है, >> नसीरूद्दीन शाह के लिए, अब चाँद जैसी ज़नाना उपमा का विपर्यय अगर गुलज़ार >> करेगा तो उसे तो महेन्द्र के मर्दाना, मांसल कंधे पर ही टिकाएगा न! सिर पर तो >> वैसे भी 'चंद्रशेखर' का क़ब्ज़ा सदियों से चला आ रहा था. >> >> और रही बात आपके दोस्त की, तो फ़क़त ईंट की क्रांति ऊन्हें मुबारक हो. उनकी >> हवा हवाई क्रांति के लिए हम गुलज़ार का ठोस रोमांस तो नहीं छोड़ेंगे! ठहरेपन >> की आवारगी का विरोधाभास भी ख़ूब रहा! >> >> रविकान्त >> >> मंगलवार 16 सितम्बर 2008 12:59 को, आपने लिखा था: >>> vatsanurag.blogspot.com >>> गुलजार को रवींद्र व्‍यास के जरिये पढ़ना दिलचस्‍प भी और टीस देने बाला >>> भी। बहुत अटपटा लगेगा गुलजार को चाहने बालों को मेरा यह कहना। मैं खुद >>> पेशोपेश में रहता हूँ, गुलजार को लेकर। यह उलझन इक बारगी तो बयाँ करती है >>> एक कवि के शब्‍दों की ताकत को, जहाँ अर्थोँ की बहुलता है, वह पुकारता भी >>> है, पुचकारता भी, दुलारता भी और लतारता भी, समाज को बदलने की बहुत >>> प्‍यारी सी लतार– चप्‍पा चप्‍पा चरखा चले… >>> मैं जब से गीत के बोल समझने लगा, जब से यह पता चला कि सनिमा के गीत में >>> कोई भाषा, कुछ अर्थ होते हैं, तब से गुलजार का मुरीद बन गया। दरभंगा जैसे >>> छोटे शहर, अस्‍सी का गुजरता दशक, मध्‍यवर्गीय शिक्षक का पारिवारिक माहौल, >>> पढ़ने लिखने की चाहत, लड़कियों को चुपके से देखने और फिर उनके छाते की >>> रँगों या कान के झुमके को सोचते हुए खुद में ही खुश होते मैं और मेरे चंद >>> दोस्‍त। शेखर और भुवन में अपने को तलाशते, पिताजी के कार्ड पर लनामिवि >>> विश्‍वविधालय पुस्‍तकालय से ए ए बेल संपादित फ्रायड के लेखन से उत्‍साहित >>> हमलोग दिन गुजार देते, गुलजार के बोलों पर– एक सौ सोलह चाँद की रातें और >>> एक अकेला काँधे का तिल। सँख्‍या के गणित में एक अनोखी, अबुझ अलसाया सा >>> रहस्‍य हमेशा शेष रह जाता था, भोर के सपने की तरह। तिल है तो मधुबाला की >>> तरह ओठों के नीचे क्‍यो नहीं, चाँद तो फिर एक सौ सोलह क्‍यों? गुलजार के >>> यहाँ सब कुछ समेटने की जिद नहीं थी, जो बचा-खुचा छुटा रह जाता है उसके >>> चौखट पर ठहर कर समय गुजारने की, उसके साये से लिपट कर समय को खो देने की >>> कशिश है। एक ठहरेपन की आवारगी। >>> तो ऐसे में टीस कहाँ से आता है? >>> 'लेकिन' में टूटी हुई चुड़ियोँ से कलाईयाँ जोड़ी जाती है तो 'इजाजत' ली >>> जाती है सावन के भीगे भीगे दिनों को लौटा देने की। ये यादें हैं बीते हुए >>> अहसासों की रवायतें जो मीठा मीठा दर्द देती हैं। लेकिन टीस तो कुछ अलग >>> हुआ, है ना? >>> मेरे एक दोस्‍त ने अपने तेवर वाले जमाने में कहा, गुलजार क्राँति की ईंट >>> खिसकाकर वहाँ रोमाँस की हवा भर देते हैँ। >>> >>> 2008/9/11 Ravikant : >>> > sabad nirantar se saabhar. >>> > >>> > cheers >>> > ravikant >>> > >>> > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- >>> > >>> > Subject: सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास >>> > Date: बुधवार 10 सितम्बर 2008 20:28 >>> > From: "anurag vats" >>> > To: Wednesday, September 10, 2008 >>> > सखा पाठ : २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास >>> > ( वे पेंटर हैं, कहनियाँ लिखते हैं, हरा कोना नाम का उनका ब्लॉग है और >>> > हिन्दी के इस वर्चुअल वर्ल्ड में उनकी सजग उपस्थिति चहुँ ओर सराही गई है। >>> > जब हमने सखा पाठ स्तंभ शुरू किया था तो उसके पीछे किसी रचना से प्रेरित >>> > रचना को सामने लाने की अवधारणा थी। सबद में ही रिल्के पर छपे राजी सेठ के >>> > लेख के बाद बतौर बढ़त गिरिराज किराडू की कविता दी थी। उसके बाद यह सिलसिला >>> > थम सा गया। रवींद्र व्यास के माध्यम से वह फिर से शुरू हुआ है। उन्होंने >>> > गुलजार की कविता पर न सिर्फ़ पेंटिंग दी, बल्कि इसरार करने पर गद्य भी >>> > भेजा। हम उनके आभारी हैं। ) >>> > >>> > एक और रात >>> > >>> > गुलजार >>> > >>> > चुपचाप दबे पांव चली जाती है >>> > रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं >>> > कांच का नीला-सा गुंबद है, उड़ा जाता है >>> > खाली खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है >>> > >>> > चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन भी नहीं >>> > चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है >>> > और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है >>> > >>> > काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी >>> > हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता >>> > >>> > **** >>> > >>> > ये देखो तो क्या होता है >>> > >>> > गुलजार की जमीन और आसमान सरगोशियों से मिलकर बने हैं। ये सरगोशियां >>> > खामोशियों की रातें बुनती हैं। इन रातों में कई चांद डूबते-उतरते रहते हैं। >>> > कई टंगे रहते हैं, अपने अकेलेपन में जिनकी पेशानी पर कभी-कभी धुआं उठता >>> > रहता है। दूज का चांद, चौदहवीं का चांद और कभी एक सौ सोला रातों का चां द। >>> > कभी ये चांद किसी चिकनी डली की तरह घुलता रहता है। ये चांद ख्वाब बुनते >>> > रहते हैं। ख्वाबों में रिश्ते फूलों की तरह खिलते रहते हैं और उसकी खुशबू >>> > पलकों के नीचे महकती रहती है। ये रिश्ते कभी मुरझा कर ओस की बूंदों की तरह >>> > खामोश रातों में झरते रहते हैं। >>> > >>> > वे किसी गर्भवती स्त्री की तरह गुनगुनी धूप में यादों को गुनगुनाते महीन >>> > शब्दों से मन का स्वेटर बुनते हैं। इसमें उनकी खास रंगतें कभी उजली धूप की >>> > तरह चमकती रहती है। कभी इसमें सन्नाटों की धूल उड़ती रहती है। इसकी बनावट >>> > और बुनावट की धीमी आंच में रिश्तों के रेशे अपने दिलकश अंदाज में आपके मन >>> > को आपकी देह को रूहानी अहसास कराते हैं। >>> > >>> > कहते हैं किसी की आत्मा पेड़ों में बसती है। किसी आत्मा एक फूल में बसती >>> > है। कहते यह भी हैं कि आत्मा एक पिंड में बसती है। और यह भी कि आत्मा एक >>> > स्वर्ग में बसती है, एक मुहूर्त में बसती है। क्या कहा जा सकता है कि >>> > गुलजार की गीतात्मा चांद में बसती है। और चांद यानी रात भी। और रात यानी >>> > तारे भी। और तारे यानी समूची कायनात। और इसके बीच वह भी जिससे हिज्र की रात >>> > में कहा जा रहा है कि काश इक बार कभी नींद में उठकर तुम भी ये देखो तो क्या >>> > होता है... >>> > >>> > >>> > >>> > इस नज्म की पहली लाइन में रात के बहाने अपनी स्थिति बताने का एकदम सादगीभरा >>> > जलवा है। कोई बनाव नहीं। कोई श्रृगांर नहीं। लुभाने-रिझाने का कोई अंदाज >>> > नहीं। अकेलेपन में रात का चुपचाप, एकदम खामोश गुजरनाभर है। यह एक इमेज है। >>> > कहने दीजिए गुलजार इमेजेस के ही कवि हैं। दूसरी लाइन में कोई आहट नहीं, कोई >>> > गूंज नहीं। न रोना, न हंसना। एक अनकहे को पकड़ने की कोशिश। एक जरूरी दूरी >>> > पर खड़े होकर। न डूबकर, न उतरकर। अपने को भरसक थिर रखते हुए। तीसरी लाइन >>> > में रात के जादू को आकार में पकड़ने का वही दिलकश अंदाज है। इसमें चार >>> > चीजें हैं-कांच है, नीला है, गुंबद है और वह उड़ा जाता है। कांच, जाहिर है >>> > यह रात को उसकी नाजुकता में देखने की निगाह है। रात नीला गुंबद है। अहा। >>> > क्या बात है। इसमें एक कोई देखी मुगलकालीन भव्य इमारत की झीनी सी याद है। >>> > >>> > यह रात को कल्पना से तराशने का सधा काम है। रात को एक आकार देना। उसे >>> > देहधारी बनाना। और यह गुंबद है, जो उड़ा जाता है। यानी एक एक मोहक और मारक >>> > गति है। एक उड़ती हुई गति। जाहिर है इस गति में रात की लय शामिल है। बीतती >>> > लयात्मक रात। यह मोहब्बत का स्पर्श है जो गुंबद के भारीपन को किसी चिड़िया >>> > की मानिंद एक उड़ान देता है। विश्व विख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर को याद >>> > करिए। वे पत्थर में चिड़िया को ऐसे ढालते हैं कि पत्थर अपने भारीपन से >>> > मुक्त होकर चिड़िया के रूप में उड़ने-उड़ने को होता है। यह फनकार की ताकत >>> > है, अपने मीडियम से मोहब्बत है। >>> > >>> > पांचवी लाइन बताती है कि यह शायर रातों की जागता है और रोज ही रातों को >>> > निहारता है। इसी जागने से यह एक और रात बनी है जिसमें कहा जा रहा है कि >>> > चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन नहीं। यह आपकी इंद्रियों का जागना भी >>> > है। कलाकार यही करता है। वह सभी इंद्रियों के प्रति आपको सचेत करता है। यह >>> > देखना-दिखाना भर नहीं है। छठी पंक्ति में चिकनी डली है। स्पर्श का अहसास >>> > है। फिर घुलना है। यह एक और रात कि घुली जा रही है। कि पर गौर फरमाएं। है न >>> > कुछ बा त। और सातवीं लाइन में इन सबसे घुल-मिल कर एक सन्नाटा रात की तरह ही >>> > फैलता जा रहा है। वे इसे उड़ती धूल में पकड़ते हैं। महीन धूल। आठवीं और >>> > नौवीं लाइन मारू है। यह रात का जो जादू है, उसकी सुंदरता का जो भव्य >>> > स्थापत्य है, अकेलापन है, सन्नाटा है और खामोश गुजरना भर है, इसमें एक >>> > ख्वाहिश भी है कि कोई हिज्र की रातों में नींद से उठकर इसे देखे। यह भी कि- >>> > ये देखो तो क्या हो ता है। >>> > >>> > vatsanurag.blogspot.com >>> > >>> > ------------------------------------------------------- >>> > _______________________________________________ >>> > Deewan mailing list >>> > Deewan at mail.sarai.net >>> > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- > Sadan Jha > Assistant Professor, > Centre for Social Studies. > Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. > Surat. Gujarat. India. > blog: mamuliram.blogspot.com > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Wed Sep 17 12:02:35 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 17 Sep 2008 12:02:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KSsIOCklA==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkheCkrCDgpJXgpYcg4KSs4KS/4KS44KWN4KSr4KWL4KSfIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkrOClgOCkmiDgpI/gpKvgpI/gpK4g4KSU4KSxIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWC4KScIOCkmuCliOCkqOCksuCljeCkuA==?= Message-ID: <829019b0809162332u159aec3w9f6d6a252f25b4eb@mail.gmail.com> धनतेरस की शाम थी। मेरा दोस्त कुमार कुणाल दिल्ली आजतक के लिए लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से लाइव रिपोर्टिंग कर रहा था। बहुत भावुक था वो। नीचे हॉस्टल गेट पर सभी के लिए एक-एक पैकेट मोमबत्ती,मिठाई का डिब्बा,माचिस और बाकी दूसरी चीजें रखी थी। गार्ड साहब हॉस्टल के हर रेसीडेंट को बता रहे थे- सर,लीजिए ये आपके लिए है। मेस सेक्रेटरी ने कहा है-हॉस्टल का कोई भी बंदा हो तो उसे एक-एक पैकेट लेने के लिए बोलना। बहुत कम ही लोगों ने लिया था पैकेट। बम विस्फोट के बाद किसी का मन नहीं हो रहा था की मिठाई खाए। इन सबके बीच मैं मोमबत्ती का पैकेट लेकर कॉमन रुम में कान में एफएम लगाए सुन रहा था और साथ ही कुणाल की रिपोर्टिंग भी देख रहा था।टीवी पर बार-बार बम बिस्फोट में मारे गए परिजनों के फुटेज दिकाए जा रहे थे। उन्हें रोते हुए दिखाया जा रहा था। कुणाल बता रहा था कि फलां पास से मोमबत्ती लाने गया था सो अभी तक नहीं आया। सब लोग बदहवाश एक-दूसरे को खोज रहे थे. चारो ओर अफरातफरी मची थी। दस मिनट तक लगातार देखता रहा था मैं। शुरु-शुरु में तो टीवी देखते हुए भी ध्यान एफएम पर था। आवाज आ रही थी- रेडियो मिर्ची सुन रहे हैं आप और अगला गाना है.....कजरारे-कजरारे। मैं टीवी की फुटेज और एफएम में कोई संतुलन नहीं बना पा रहा था. एक पर लगातार बम बिस्फोट की खबरें,चीखते-चिल्लाते लोग और दूसरे पर रेडियो मिर्ची सुननेवाले ऑलवेज खुश का दावा। मन पूरी तरह भन्नाया हुआ था। एक बार तो मन में आया कि बंद कर दूं इसे, बड़ा ही बेशर्म माध्यम है। यहां लोगों की जान जा रही है और ये लगातार बेमतलब की बातें और गाने सुनाए जा रहा है। लेकिन मैंने दो घंटे तक एफएम बंद नहीं किया।मैं इंतजार कर रहा था कि अब इसके बाद वो दिल्ली बम धमाके के बारे में कुछ बात करेंगे, कुछ अफसोस जताएंगे। जो लोग एफएम सुन रहे हैं उन्हें कुछ जानकारियां देंगे। लेकिन गाने चलते रहे और दिल्ली बम बिस्फोट पर कोई बात नहीं हुई। पहली बार मुझे वाकई बहुत गुस्सा आ रहा था एफएम पर। मैं कुछ और तो नहीं इसकी जिंदादिली माहौल बनाने का कायल रहा हूं। दिल्ली में जब भी मन उदास हुआ है, डिप्रेशन आया है,एफएम ने मु्झे बहुत साथ दिया है। दिल्ली से बाहर जाने पर सबसे ज्यादा यहां के एफएम को मिस करता हूं। लेकिन आज इधर से या उधर से किसी भी तर्क के सहारे एफएम के इस रवैये को मैं जस्टीफाई नहीं कर पा रहा था। जिंदादिली के नाम पर क्या केवल खुश ही हुआ जा सकता है। जीवन की सच्चाई के बीच से खुशी को इस तरह बीन-बीनकर अलग कर लेना और बाकी दर्द को,तकलीफ को ऐसे ही छोड़ देना इतना आसान है। एफएम कुछ ऐसा ही कर रहा था। अंत में भारी मन से मैंने एफएम बंद कर दिया और देर रात तक टीवी से चिपका रहा।अबकी बार दिल्ली में दूसरी बार हुए बम बिस्फोट के वक्त मैं देश-दुनिया से कटा बिल्कुल एकांत में पड़ा था। पिछले पांच दिनों से भारी थकान और कमजोरी की स्थिति में भी लोगों का लगातार आना-जाना बना हुआ था। फोन पर इतनी व्यस्तता बढ़ गयी थी कि मैं झल्ला-सा गया था। दिल्ली में हो,जरा दरियागंज से फलां-फलां चीजें खरीद लेना. गया से मामू आ रहे हैं,दो दिन रहेंगे जरा देख लेना। दिनभर की चिड़चिड़ाहट औऱ रात होने पर दर्द के एहसास के बीच मैं बुरी तरह पिस रहा था। इन सबके बीच कब दे रहे हो विनीत लेख, बेटा लेट हो रहा हूं या फिर यार इस बार क्या हो गया। अंत में मैंने मोबाइल बंद किया, एक बैग में कुछ कपड़े डाले औऱ दूसरे बैग में पढ़ने-लिखने की चीजें और पंकज भैय्या के पास इस विश्वास से चला गया कि डॉक्टर हैं-मुझे राहत मिल जाएगी,वहां जाने से।पिछले चार साल में पहली बार हुआ है कि मैंने चार दिनों तक टीवी नहीं देखा, रेडियो नहीं सुना, बॉलकनी से उठाकर अखबार तक नहीं पढ़ा। भैय्या की नाइट शिफ्ट चल रही थी और वो सुबह आते ही सो जाते। मैं बालकनी तक जाता ही नहीं,अखबार उठाने। कम्प्यूटर पर मेल नहीं खोलता। दिनभर भसर करने का शौकीन मैं किसी से बात नहीं करना चाह रहा था, किसी के बारे में जानना नहीं चाह रहा था। चार दिनों तक बस लेख लिखता रहा।पांचवे दिन वहां से सारा सामान लेकर वापस अपने हॉस्टल आया। दस बजे पहुंचने पर पता चला कि आज दिल्ली में शाम को बम बिस्फोट हुआ है। मैं टीवी देखता इसके पहले सिमकार्ड डालकर मोबाइल फोन ऑन किया और फिर से एफएम सुनने लगा। सभी चैनलों पर ऑडिएंस से कहा जा रहा था- आपको किसी के बारे में कोई भी जानकारी लेनी हो,कुछ भी बताना हो,हमें फोन करें। आपको किसी भी तरह की मदद चाहिए रेडियो मिर्ची आपके साथ है। लगभग सारे चैनलों पर इसके बारे में कुछ न कुछ बातें की जा रही है। कॉलर अगर फोन कर रहे हैं तो पहली ही बात कह रहे हैं-दिल्ली के लोगों का दिल बड़ा है, हम आतंकवादियों के नापाक इरादे को पूरा नहीं होने देंगे। हालांकि सारी बातों में जज्बातों के अलावे कुछ भी नहीं था। फिर भी एफएम सुनते हुए लग रहा था कि अबकी बार धमाके का असर एफएम पर भी हुआ है। सारे जॉकी पीडितों के प्रति संवेदना व्यक्त कर रहे हैं।टीवी देखना अगले ही दिन संभव हो सका. पहले तो स्टार,फिर जी और फिर बाकी के सारे चैनलों पर एक ही बात- तीन-तीन ड्रेस बदले थे शिवराज पाटिल ने उस दिन औऱ फिर एंकर का थोक के भाव में फोन लाइन और फील्ड पर मौजूद रिपोर्टरों से सवाल। सब पाटिल पर आकर अटके थे। हादसे की खबर को राजनीतिक खबर बनाने की प्रक्रिया बड़ी तेजी से चल रही थी। लोगों की कराह फील्ड से आकर डेस्क तक ही रह जाते। स्टूडियो तक आने तक में दम तोड़ जाते। इसके बीच मरनेवाले, उनके परिवारवालों और सरकारी कार्यवाइयों से जुड़ी खबरों का स्पेस कम हो रहा था। अगले दिन अखबार ने फ्रंट पर पाटिल को भी छापा। चैनल तीन बिंडो काटकर पीटिल की तीन ड्रेस दिखाने में लगे रहे।आज इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी है- RADIO ACTIVE : FM stations did their bit to help stunned Delhities on terror weekend रेडियो सिटी की जॉकी सिमरन को एक ऑडिएंस ने फोन करके बताया कि आपलोगों ने बहुत अच्छा काम किया है। आप इस मुश्किल घड़ी में भी लोगों का हौसला बनाए रखा। आपकी हंसी बहुत अच्छी है और आपको पता है आपकी तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस में छपी है। सिमरन फिर हंसती है...औऱ थैंक्यू कहती है।आप क्या कहते हैं कि इस तीन साल में एफएम का विरेचन हुआ है औऱ न्यूज चैनलों को हर बात में झौं-झौं करने की आदत पड़ गयी है। भटके हुए देश में क्या चैनल भी खबरों से हमें भटकाने की कोशिश करते हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2477 Size: 13475 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080917/cac33e8b/attachment-0001.bin From sadanjha at gmail.com Wed Sep 17 14:50:07 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Wed, 17 Sep 2008 14:50:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= wardha In-Reply-To: References: Message-ID: <1a9a8b710809170220y6dd9e06dh4354ec48535d23bf@mail.gmail.com> sahitya ki saajis to sahi hai, aur wahi eeski khubsurati bhi lagati hai. par ab jab, ravikant ne likha aur aapne bhi to main yah soch raha hun ki kya mardon ke deh ke saath khelne ke adhik example hain hamare hindi film lyrics main? मर्द का देह जो नायिका के लिए एक खेल का साधन हो। इसके कितने उदाहरण होंगे हिंदी फिल्‍मों में? यह दिलचस्‍प होगा। Laura Mulvy ke male gaze ka jawab, female gaze jahan male body lust ka romance ka playground ho. तिल की बात और खोल कर लिखें। तिल का तार बने तो अच्‍छा है। बातचीत बढ़ाते हुए, सदन। देर से: अमरेंद्‍्‍ बहुत दिन हो गए मुलाकात के, आशा है आप खुश होंगे। 2008/9/17 amrendra sharma : > Sadan ji > Namskar > 'Kandhe ka til' main shamil ho raha hoon. > Asal main ye jo 'til' ka mamla hai vo keval '116 chand ki raatein' per bhari > pharne ka hai.Upma ka mardvadi ya strivadi hona literature ki dimagi sajish > jaisi dhiklayi deti hai. > warms > > > Amrendra Kumar Sharma > Lecturer, > Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Viswavidyalya > Wardha 442001 (Maharashtra) > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From ravikant at sarai.net Wed Sep 17 17:30:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Sep 2008 17:30:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KSw4KWA?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkleClhyDgpKHgpYjgpLLgpLgg4KSu4KWH4KSCIOCkreCkvg==?= =?utf-8?b?4KSw4KSk4KWA4KSvIOCktuCkrOCkqOCkrg==?= Message-ID: <200809171730.12592.ravikant@sarai.net> अमरीका के डैलस में भारतीय शबनम डैलस से रचना श्रीवास्तव http://www.hindimedia.in/content/view/3543/141/ (अप्रवासी भारतीय | डैलस से रचना श्रीवास्तव | Wednesday, 17 September 2008 शबनम का मतलब होता है ओस की बूंद, जो सुबह सुबह अपने घर के आसपास और बाग-बगीचों में पेड़-पौधों पर बहुत ही खूबसूरती से अपनी जीवंतता का अहसास कराती है। पत्ते पर पड़ी ओस की बूंद पूरे पौधे और बगीचे के सौंदर्य को कई गुना कर देती है। जब तक किसी बगीचे में या पेड़-पौधे पर शबनम की बूंद मुस्कराती रहती है, उसकी मौजूदगी हर फूल, हर पौधे और हर पत्ते को एक अद्भुत सौंदर्य प्रदान करती है। लेकिन एक शबनम है जिसका जन्म तो भारत में हुआ, मगर अब वह अमरीका के डैलस में अपनी दिलकश आवाज के जादू से अमरीका में बसे भारतीयों के बीच एक खुशनुमाँ अहसास की तरह घुल-मिल गई है। ) इस शबमन का जन्म ३ सितम्बर को दिल्ली में हुआ, मगर आज अमरीका के डैलस में इनकी आवाज हर भा रतीय के दिल पर राज कर रही है। पिता एयर मार्शल आहलुवालिया और माँ हरजीत की पहली बेटी। माता-पिता की दुलारी थी और इनका नाम बड़े प्यार से शबनम रखा गया। इनके एक भाई और एक बहन हैं। पिता फौज में थे तो घर का पूरा माहौल देश भक्ति में डूबा था। माँ ने देश-भक्तों की गौ रव गाथा सुना-सुनाकर बच्चों के मन में बचपन से ही देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भर दी और शबनमजी आज भी अपने देश की बात करने पर भाव विभोर हो जाती हैं । एक दिन ये २६ जनवरी को ये डैलास में रेडियो प्रोग्राम कर रही थी तो सब से पूछ रही थी की आप को आज के दिन सबसे ज्यादा क्या याद आता है सभी कुछ न कुछ बता रहे थे। मैने कहा आप बताएँ कि आप को क्या याद आता है, तो उन्होंने कहा कि हर २६ जनवरी को ये परेड देखने जाती थीं और जब आकाश में अपने पापा को विमान उडा़ते हुए तिरंगा बनाते देखती थी तो इनको बहुत गर्व होता था। उन सारे हवाई जहाजों में अपने पापा का जहाज़ खोजती रहती थी कि उनका हवाई जहाज कौनसा है। अपने देश से बहुत प्यार करने वाली शबनम पढ़ाई में भी अव्वल थी मिलनसार होने की वजह से सभी की चहेती थी। शबनम की शिक्षा- दीक्षा दिल्ली में हुई। उन्होंने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातक किया। इसके बा द होटल मैनेजमेंट का कोर्स दिल्ली में पूसा से किया। वे अपनी हर परीक्षा में अव्वल आती रही। पढ़ाई पूरी होने पर ताज होटल में नौकरी मिल गई। दिल्ली में ५ साल काम किया फ़िर इनको न्यूयार्क भेजा गया यहाँ भी इन्होने ५ साल और ८ साल वॉशिंगटन डीसी में काम किया। यहाँ इनके जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। यही था वो समय जब इन्होने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कि या। जीवन के रंगीन सपने लिए ये डैलस आगई और अपने परिवार में रम गईं । समय के साथ इनके आंगन में नन्हे फूल खिले। इन फूलों को सजाने-सँवारने में शबनम जी ने अपना काम छोड़ दिया। इनका मानना था कि के घर और बच्चे हर चीज से पहले आते हैं बच्चों को संस्कार एक माँ से अच्छा कोई और नही दे सकता। जब बच्चे थोड़े बड़े़ हुए तो इन्होंने रीयलस्टेट का काम किया। और जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो इन्होने प्लेनों में स्थित प्राईमरी स्कूल में नैकरी की, ये उस स्कूल में प्रिंसिपल के पद पर रही। बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ते थे तो काम भी हो जाता था और बच्चों की देखभाल भी । बच्चों के बड़े होने पर इन्होंने अपना अधिक समय काम को देना प्रारम्भ कर दिया। अभी शबनम जी यूनाइटेड सेंट्रल बैंक मे मार्केटिंग विभाग मे काम करती हैं, डैलस में स्थित इंडियन ला यंस कल्ब की ये बोर्ड मेम्बर है,प्रथम नामक संस्था के बोर्ड मे हैं, ग्रेटर डैलस एशियन अमेरिकन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स की डाइरेक्टर हैं फेडरेशन ऑफ़ इंडियन एसोशियेशन की रीजनल वाइस प्रेसिडेंट हैं। डैलस मे मीडिया जगत का एक बड़ा नाम है फन एशिया, जिसमें फन एशिया रेडियो, फन एशिया बुक,फन एशिया थिएटर शामिल हैं। शबनमजी इस ग्रुप की वॉइस प्रेसिडेन्ट हैं,फन एशिया रेडियो की डाइरेक्टर हैं और फन एशिया किताब (देसी पेजेज़) की संपादिका भी। शबनम जी कहती है, यहाँ काम करते करते अब तो ऐसा लगता है कि फन एशिया ही उन का घर है। वे इंडियन एसोशियेशन ऑफ़ नॉर्थ टेक्सेस की प्रेसीडेंट भी रह चुकी हैं। जब शबनम जी ये सब मुझ को बता रहीं थी तो एक सपना सा लग रहा था। ये इतना सारा काम कैसे कर पाती है। यह बात मुझे तब मालूम हुई, जब एक बार ये वाशिंगटन गईं थी, वहाँ सेनीटर्स की मीटिंग थी उसमें इनको भी जाना था (हालांकि ये सेनिटर नहीं हैं, लेकिन इनको विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था) वहाँ जाकर भी इन्होंने आपना रेडियो कार्यक्रम फ़ोन के जरिये किया। डैलस मे तन्जिरा उनकी सहायता कर रही थी। तभी तन्जिरा ने शबनम जी से पूछा की इतनी सारी व्यस्तता है, काम है तो क्या आपको ठीक से नींद आई। तो लाजवाब कर देने वाला उनका जवाब था, नींद में समय क्यों बर्बाद करना, मै सुन कर हैरान रह गई। केवल ज़रूरत भर की नींद और बस उस के बाद काम। इस को कहते हैं काम के प्रति समर्पण। शायद यही कारण है कि ये इतने सारे काम कर पाती हैं। काम इनके लिए पूजा है। काम की इज्जत करती हैं और काम इनकी इज्जत करता है, और यही वजह है कि जो एक बार इनसे मिल लेता है इनके प्रति आदर और श्रध्दा से भर जाता है। ये हिन्दी उर्दू, अंग्रेजी और पंजाबी बहुत अच्छे से बोल लेती है, फ्रेंच और स्पेनिश भी इनको आती है। इतनी बुलंदियों को छूने के बाद भी घमंड इनको जरा भी नहीं है यश की ऊँचाईयाँ को छुआ पर पैर धरा से ही जुड़ा है। इतना पढ़ने के बाद, इतनी सफलता के बाद आज भी इनकी अभिलाषा है कि पी एचडी करें। कहती हैं कि जब भी समय ने समय दिया तो पीएचडी जरूर करेंगी। अपने जीवन का आदर्श ये अपने माता-पिता को मानती हैं, कहती हैं कि माता-पिता ने ही सिखाया कि अनुशासन का जीवन में क्या महत्व होता है। अपने माता-पिता से मिले इन्हीं संस्कारों और आदर्शों को लेकर वे जीवन में नए आयाम छूती रही। दोस्तों के बारे में पूछने पे कहती हैं की जहाँ भी रही सभी मेरे दोस्त रहे। आज भी इनके शुभेच्छु और इनको प्यार करने वाले मित्र बहुत हैं अतः कि सी एक का नाम नही लेना चाहती हैं कहती हैं, सभी मेरे दोस्त हैं। शबनम जी कहती हैं जो भी करो, सही करो पूरी निष्ठा और लगन से करो, शुभ करमन ते कबंहूँ न डरो यही आप के जीवन का आधार है और मूल मन्त्र भी। वैसे तो खाली समय आप को मिलता नही पर यदि मिलता है तो अपने परिवार के साथ बिताना पसंद करती हैं। सुबह जब आप रेडियो कार्यक्रम करती हैं तो कहती हैं "आई ऍम ड्राइविंग यू टू योर वर्क "इनकी ये बात एक मुहावरा बन गई है, और डैलस में बसे हर भारतीय के लिए एक ऐसे संदेश की तरह है जिसमें उर्जा भी है और अपने कार्य के प्रति समर्पण का बोध कराता एक अध्यात्मिक भाव भी। जब मैने बड़ी मुश्किल से इनसे इनका समय छीनकर इनसे इतनी बात की तो जाना कि सुबह सबको काम तक पहुँचाने वाली शबनम ख़ुद कितना काम करती है, इनकी कर्म-निष्ठा देख कर मै तो नतमस्तक हो गई। सच में यदि कोई इनकी तरह जीवन में अनुशासन,कर्म-निष्ठा, समय का सदुपयोग और काम के प्रति समर्पण रखे तो फिर दुनिया की ऐसी कौनसी चीज है जो इंसान नहीं पा सकता। सफलता की ऐसी कौन सी सीढ़ी है जिस पर चढ़ना मुश्किल हो। मैने तो इनसे बहुत कुछ सीखा है और एक भारती य होने के नाते अमरीका में बसे हम सभी भारतीयों को इन पर बहुत गर्व है। (रचनाजी कोई लेखिका नहीं है, लेकिन वे हमारे पाठकों के लिए कुछ लिखना चाहती थी और उनको लगा कि इसके लिए शबनमजी से अच्छा कोई किरदार नहीं हो सकता। हिन्दी प्रेमी पाठकों के लिए उन्हों ने मेहनत करके यह लेख हिन्दी में तैयार किया और हमको भेजा) From ravikant at sarai.net Wed Sep 17 17:33:55 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Sep 2008 17:33:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSw4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWCIOCkleClhyDgpLXgpL/gpKbgpY3gpLXgpL7gpKgg4KSw4KS+4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSrIOCksOCkuOClh+CksiDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSw4KS54KWH?= Message-ID: <200809171733.55531.ravikant@sarai.net> ख़बर हिन्दी मीडिया.इन से साभार महान शायर गालिब को लेकर शोध करने वाले उर्दू के विद्वान अंग्रेज राल्फ रसेल का लंदन के ट्रिनिटी अस्पताल में 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे लदन विश्वविद्यालय के उर्दू एवं प्राचीन अरब सा हित्य विभाग के अध्यक्ष थे। उन्होंने 1968 में मुगल शायरों मीर तकी मीर, सौदा तथा मीर हसन पर किताबें लिखी थी। उऩका जन्म 1918 में हुआ था। उनको सबसे ज्यादा प्रसिध्दि गालिब लाइफ ऐंड लेटर नामक किताब से मिली। उन्होंने अपने जावन का अधिकांश समय भारत और पाकिस्तान में पुरानी लायब्रेरियों में उर्दू साहित्य को खोजने और पढ़ने में विताया। वर्ष 2000 में भी उन्होंने द फेमस गालिब नाम से एक पुस्तक लिखी। उसके अलावा ए परस्यूट आफ उर्दू लिटरेचर नामक किताब में उन्होंने उर्दू साहित्य और शायरी को लेकर कई खोजपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए थे। उनके निधन पर पाकिस्तान के उर्दू शायरों और लेखकों ने शोक व्यक्त किया है। उर्दू साहित्य में उनके शोध कार्य को देखते हुए पाकिस्तान सरकार ने उन्हें सितारा-ए-इम्तियाज़ की उपाधि से सम्मा नित किया था। राल्फ रसेल के बारे में विस्तार से जानकारी उनकी वेब साईट: http://www.ralphrussell.co.uk/index.html पर उपलब्ध है। From ravikant at sarai.net Wed Sep 17 17:56:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Sep 2008 17:56:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Hindi ki Purnima/ Hindustan ki Shabnam Message-ID: <200809171756.26814.ravikant@sarai.net> कुछ और दिलचस्प सामग्री हिन्दी मीडिया डॉट इन से ही. शुक्रिया शिवानी जोशी. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Hindi ki Purnima/ Hindustan ki Shabnam Date: बुधवार 17 सितम्बर 2008 16:45 From: "Jai Hindi" To: undisclosed-recipients:; *Hindi ki Purnima/ Hindustan ki Shabnam* Pls find 3 reports from Hindi World.. Hindi Ki Purnima http://www.hindimedia.in/content/blogcategory/49/139/ Aur Hindustan Ki Shabnam..in USA.. http://www.hindimedia.in/content/blogcategory/50/141/ Hindi Blog Samiksha.. http://www.hindimedia.in/content/blogcategory/56/168/ And other stories..on Hole Page. http://www.hindimedia.in/ Shivani Joshi Satellite Media Mumbai ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Fri Sep 19 11:44:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 19 Sep 2008 11:44:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSV4KWA4KSw4KSkIOCkleClguCkqiDgpJzgpLIgLCDgpK3gpL7gpLc=?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCkueCkpOCkviDgpKjgpYDgpLAgLTE=?= Message-ID: <200809191144.16693.ravikant@sarai.net> दोस्तो, वेद प्रकाश जी ने यह लेख लिखा है, जिसे मैं दो क़िस्तों में दीवान पर डाल रहा हूँ. इसकी तफ़सीलात में जाकर हम बहस कर सकते हैं, लेकिन उनकी मूल बात में दम है, हालाँकि मैं भाषा को किसी भी अस्मिता से वाबस्ता करने में यक़ीन नहीं रखता, लेकिन उम्मीद है आप इस लेख की भावना को समझते हुए अपनी प्रतिक्रियाएँ देंगे. रविकान्त प्रिय रवि और साथियो, सराय की शब्द-गोष्ठियों /अनुवाद गोष्ठियों में अक्सर सुनने को मिला कि सरकारी या तकनीकी शब्दावली संस्कृत की कलिष्ट शब्दावली से भरी पड़ी है, यह सही भी है. पर इसकी पड़ताल फिर कभी. पर उसी की पड़ताल करते हुए यह जानने की इच्छा हुई कि हमारे अभिजात लोग/पुनरुत्थान वादी लोग संस्कृत को इतना महत्व क्यों देते हैं. इसी सिलसिले में इतिहास और साहित्य की कुछ पुस्तकें उलटी-पलटीं तो जो हाथ लगा उसे आपके साथ बाँटने की इच्छा हो रही है. आपकी राय का तलबगार हूँ. वेद प्रकाश संस्कृत का गुणगान—राष्ट्रवाद या ब्राह्मणवाद --वेद प्रकाश इस देश के अधिकतर पढ़े-लिखे लोग भारत की महानता की कुँजी संस्कृत को मानते हैं. औरों की तो बात ही क्या एस.जी. सरदेसाई जैसे बड़े मार्क्सवादी भी इस बात की सिफारिश करते हैं कि यदि इस देश में क्रांति करनी है तो संस्कृत को सीखना होगा. प्रखर मार्क्सवादी आलोचक डॉ.रामविलास शर्मा तो संस्कृत के साथ-साथ वेदों की ओर लौटने का आह्वान करने लगे थे. तो फिर स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती इसका मुक्तकंठ से गुणगान करते हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बा त है. इसके बरअक्स, भारत की लोक-ज्ञान परंपरा प्रारंभ से ही वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को चुनौती देती रही है. सब जानते ही हैं कि पुराने समय में नास्तिक का भगवान को न मानने वाले को नहीं, वेदों की निन्दा करने वाले को कहा जाता था. चार्वाकों से लेकर भगवान बुद्ध और महावी र स्वामी से होते हुए, सिद्धों और नाथों की पूरी परंपरा, मध्य काल में निर्गुण संत कबीर और रैदास से आधुनिक युग में जोतिबा फूले और डॉ.अंबेडकर तक सभी एक स्वर से वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को नकारते हैं, उसके वर्चस्व को चुनौती देते हैं. वेदों के साथ-साथ संस्कृत की उपेक्षा भी आपको लोक-ज्ञान परंपरा में मिलती है—‘संस्कीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर’. फिर भी कुछ लोग संस्कृत की महानता का राग आलापे चले जा रहे हैं. पिछले 100 सालों में इतने शोध हुए हैं, इतनी नई-नई बातें सामने आई हैं लेकिन फिर भी हमारे ‘तथाकथित’ विद्वान, उच्‍च अधिकारी और राजनेता वजह-बेवजह संस्कृत की महानता का राग आलापने लगते हैं. संस्कृत की महानता का जादू इतना शक्तिशाली है कि वह जीवनभर शास्‍त्र परंपरा का विरोध और लोक परंपरा का गुणगान करने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुख से भी प्रकट हो उठता है-- ‘हिमालय से सेतुबंध तक सारे भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा कुछ सौ वर्ष पहले तक एक रही है. यह भाषा संस्कृत थी. भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है, वह इस भाषा के भंडार में संचित किया गया है. जितनी दूर तक इतिहास हमें ठेलकर पीछे ले जा सकता है, उतनी दूर तक इस भाषा के सिवा हमारा कोई सहारा नहीं है... हमारे कम से कम छह-सात हजार वर्ष के विशाल इतिहास में अधिक से अधिक पाँच सौ वर्ष ऐसे रहे हैं जिनमें विदेशी भाषा (फारसी, अरबी) का आधिपत्य रहा. दुर्भाग्यवश इस सीमित काल और सी मित अंश में व्यवहृत भाषा का दावा आज हमारी भाषा समस्या का सर्वाधिक जबरदस्त रोड़ा साबित हो रहा है.. इस विशाल देश की भाषा समस्या का हल आज से सहस्रों वर्षों पूर्व से लेकर अब तक जि स भाषा के जरिए हुआ है, उसके सामने कोई भी भाषा न्यायपूर्वक अपना दावा लेकर उपस्थित नहीं रह सकती, फिर वह स्वदेशी हो या विदेशी, इस धर्म के मानने वालों की हो या उस धर्म के. इतिहास साक्षी है कि संस्कृत इस देश की अद्वित्तीय महिमाशालिनी भाषा है : अविजित, अनाहत और दुर्द्धर्ष.’1 अगर हम प्राचीन भारत के प्रति अंधश्रद्धा नहीं रखते और अपने आसपास की चीज़ों के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखते हैं तो हम बड़ी आसानी से देख पाते हैं कि इस एक पैराग्राफ में कितनी तथ्यात्मक भूलें हैं. लेकिन अचरज की बात यह है कि जिन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी लेखनी से लोकधर्म और लोक संस्कृति की अमर महिमा का बखान किया है वे संस्कृत का गुणगान करते हुए क्योंकर अपने ही द्वारा उल्लिखित तथ्यों की अनदेखी कर जाते हैं. इसका क्या कारण है? आइए, यह जानें कि संस्कृत की महानता के बारे में क्या-क्या ऊँचे बयान जारी किए जाते हैं. और यह भी जानें कि ये बयान सत्यों और तथ्यों की कसौटी पर कितने टिक पाते हैं. (1)सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत के बारे में सबसे ज्यादा प्रचार जिस बात का किया जाता है, वह इसकी प्राचीनता का है. कहा जाता है कि यह भारत की, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा है. तथ्यों को तटस्थता से देखने पर जाहिर होता है कि यह बात बिल्कुल ग़लत है. संस्कृत भारत की एकमात्र प्राचीन भाषा नहीं है. जिस समय वेद, पुराण, उपनिषद आदि लिखे जा रहे थे उस समय भी संस्कृत के अलावा अनेक भाषाएँ प्रचलित थीं. यह और बात है कि आज उन भाषाओं के उस समय के ग्रंथ, काव्य, अभिलेख आदि नहीं मिलते. पर इससे यह नतीजा निकालना एकदम ग़लत होगा कि उस समय दूसरी भाषाएँ थीं ही नहीं. उन दूसरी भाषाओं की मौजूदगी के कई प्रमाण दिए जा सकते हैं. पहला, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त भाषा, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका. इससे और कुछ साबित होता हो या न होता हो पर इतना तो साबित होता ही है कि वह भाषा चाहे कोई भी हो पर कम-से-कम संस्कृत नहीं है. यानी कि इस देश में संस्कृत के जन्म से पहले भी एक भाषा बोली जाती थी. दूसरा, आज जब यातायात और परिवहन के साधन इतनी तेज गति वाले हो गए हैं कि सारी दुनिया सि कुड़-सी गई है तब भी इतनी सारी भाषाएँ मौजूद हैं और बोली तो कोस भर में बदल जाती है. तब यह कैसे माना जा सकता है कि जिस समय लोग पैदल या बैल गाड़ियों में यात्रा करते थे उस समय सारे भा रत की बोलचाल की भाषा एक ही यानी संस्कृत थी. हम ज्यादा से ज्यादा यह मान सकते हैं कि उस समय का शासक वर्ग या पुरोहित समुदाय अपनी सुविधा के लिए एक भाषा का इस्तेमाल करता था, जिसे देश भर के अभिजात लोगों को सीखना पड़ता था. इसे सीखना पड़ता था, न कि यह उनकी मा तृभाषा थी. यही सच भी था. तीसरा, अगर किसी भाषा का लिखित साहित्य न मिले तो उसके अस्तित्व को ही नकार देना, ठीक नहीं है. आज भी सैंकड़ो ऐसी बोलियाँ या भाषाएँ हैं जिनका लिखित साहित्य तो दूर की बात, उनकी अपनी कोई लिपि तक नहीं है. फिर भी वे भाषाएँ हैं और उनके बोलने वाले भी हैं. चौथा, संस्कृत साहित्य में स्त्रियों और शूद्र पात्रों के मुख से साधारण रूप से प्राकृत बुलवाई जाती है. इससे जाहिर होता है कि ये वर्ग संस्कृत नहीं जानते थे, इनकी अपनी भाषा थी, जो प्राकृत थी. पाँचवाँ, संस्कृत ग्रंथों खासकर स्मृतियों से पता चलता है कि स्त्रियों, शूद्रों और अंत्यजों के संस्कृत पढ़ने पर रोक थी. यह बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे संस्कृत भाषा की सामाजिक भूमिका का भी पता चलता है. आप ही बताइए, जब यह भाषा समाज के ज्यादातर लोगों के लिए बोलना मना थी और वे लोग अगर गूँगे नहीं थे तो उनकी कोई भाषाएँ तो होंगी ही. और ये भाषाएँ निश्चित ही संस्कृत नहीं रही होंगी. उपरोक्त तथ्यों और तर्कों के आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्कृत भारत की एक मात्र प्राचीन भाषा नहीं थी. (2) आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत के बारे में दूसरी बात यह कही जाती है कि सारी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ही पैदा हुई हैं. कहा जाता है कि वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत बनी. अनपढ़-गँवार लोगों के शुद्ध संस्कृत बोल पाने में असमर्थता के कारण यही विकृत हो कर प्राकृत बनी. प्राकृत भी आगे जाकर विकृत हुई तो उससे अपभ्रंश बनी और अपभ्रंश से विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे हिंदी, मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी आदि पैदा हुई हैं. यह बात एकदम बेबुनियाद है कि संस्कृत से सभी भाषाएँ पैदा हुई हैं. सच तो यह है कि हिंदी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास संस्कृत से नहीं, बल्कि उसके समकालीन बोले जाने वाली दूसरी भाषाओं से हुआ है. जैसाकि महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ‘हिंदी भाषा की उत्पत्ति’ नामक किताब की भूमिका में कहते हैं—‘अब तक बहुत लोगों का ख़याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है. यह ठीक नहीं. हिंदी की उत्पत्ति अपभ्रंश भाषाओं से हैं और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत से है. प्राकृत अपने पहले की पुरानी बोलचाल की संस्कृत से निकली है और परिमार्जि त संस्कृत भी (जिसे हम आजकल केवल “संस्कृत” कहते हैं) किसी पुरानी बोलचाल की संस्कृत से निकली है. आज तक की जाँच से यही सिद्ध हुआ है कि वर्तमान हिंदी की उत्पत्ति ठेठ संस्कृत से नहीं.” 2 यही बात‘हिंदी शब्दानुशासन’ की पूर्व पीठिका में आचार्य किशोरी दास वाजपेयी कहते हैं— “हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मिकी या का लिदास आदि के काव्य-ग्रंथों में हमें उपलब्ध है. ‘करोति’ से ‘करता है’ कैसे निकल पड़ेगा? ... दोनों की चाल एकदम अलग-अलग है... (संस्कृत और हिंदी) दोनों का पृथक और स्वतंत्र पद्धति पर विकास हुआ है; परंतु हैं दोनों एक ही मूल भाषा की शाखाएँ. बहुत बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं ये, इतनी बड़ी कि तना कहीं दिखाई ही नहीं देता और इतना विस्तार कि कोई सहसा समझ नहीं पाता कि कहाँ से ये चली हैं. ... मूल भाषा का नाम तब ‘प्राकृत-भाषा’ रखा गया, जब कि उसका एक रूप ‘संस्कृत भाषा’ कहलाने लगा. वैदिक युग की प्राकृत का कुछ आभास हमें ‘गाथा’ में मिलता है. .. भारत के प्रदेशों में और छोटे-छोटे जनपदों में विभिन्न प्रकार की प्राकृत चल रही थी. भगवान महावीर ने और भगवान बुद्ध ने अपनी-अपनी ‘बोली’ में—अपनी-अपनी प्राकृत भाषा में—जनता को उपदेश दिए. इससे प्राकृत को बहुत बल मिला. महाराजा अशोक के समय प्राकृत राजभाषा हो गई. बुद्ध ने अपनी (मागधी) प्राकृत में ही जनता को उपदेश दिए जो आगे चल कर देश भर की संपत्ति हो गए और वे ऐसी प्राकृत में लिखे गए जिसे वास्तविक ‘मागधी’ नहीं कह सकते. उस प्राकृत का नाम आगे चल कर ‘पा ली’ पड़ गया... बुद्ध के आगे-पीछे इस देश में जो प्राकृतें चल रही थीं वे द्वितीय अवस्था की हैं...आगे चल कर इनके रूपों का भी विकास हुआ और होते-होते इतना रूपांतर हो गया कि इस तीसरी अवस्था में आ कर रूप एकदम बदल गए. इन तीसरी प्राकृतों को, या प्राकृत की तीसरी अवस्था के रूपों को, ‘अपभ्रंश’ कहते हैं, जो ठीक नहीं. ‘तीसरी प्राकृत’ कहना ही ठीक है. ... देश भर में जो तीसरी प्राकृत के विविध रूप चल रहे थे, उनका आगे विकास हुआ और ये पूर्ण विकसित रूप ही आज की हमारी प्रांतीय या प्रादेशिक भाषाएँ हैं—बैसवाड़ी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, बँगला, मरा ठी, उड़िया, गुजराती आदि.”3 महावीर प्रसाद द्विवेदी या किशोरी दास वाजपेयी ही नहीं, राबर्ट काल्डवेल, माधव मुरलीधर देशपांडे, राजमल बोरा भी यही मानते हैं कि प्राकृत संस्कृत से पैदा नहीं हुई है. बल्कि वे इस भ्रम को हानिकारक भी मानते हैं—“संस्कृत और प्राकृत का आपस में संबंध जानने के लिए पहले तो हमें यह भ्रम दूर करना है कि संस्कृत से प्राकृत का जन्म हुआ है. इस भ्रम को पाले रखने से हमें बहुत हानि हुई है.”4 कहने का अभिप्राय इतना ही है कि हिंदी का विकास संस्कृत से न हो कर एक मूल लोकभाषा से हुआ था, जिससे संस्कृत का भी विकास हुआ था. फिर यह ग़लतफ़हमी कैसे फैली इसका एक कारण तो यह तथ्य है कि सभी भारतीय भाषाओं—जैसे बँगाली, हिंदी, मराठी, कन्नड़, तेलुगु आदि—में बड़ी संख्या में संस्कृत के शब्द पाए जाते हैं. इसका यह जवाब दिया जा सकता है कि चूँकि संस्कृत राजकाज और कर्मकांड की भाषा रही है. और यह स्थापित तथ्य है कि जो भी भाषा राजकाज, कर्मकांड या व्यापार की होती है, उसके शब्द जन भाषाओं में प्रचलित हो जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे आज अंग्रेज़ी के बहुत से शब्द अनपढ़ गंवार लोगों की समझ में भी बड़ी आसानी से आ जाते हैं और वे उनका इस्तेमाल भी करते हैं. अगर अंग्रेज़ी शब्दों के चलन के आधार पर कोई यह निष्कर्ष निकाले कि हिंदी आदि भाषाएँ अंग्रेज़ी से निकली हैं, तो कैसा लगेगा. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि संस्कृत के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग अर्थ रखते हैं जैसे ‘चेष्टा’ हिंदी में प्रयास करना है और मराठी में मज़ा क उड़ाना. दूसरे, संस्कृत जानने वाले पुरोहित वर्ग ने जानबूझकर दूसरी भाषाओं के ग्रंथ आदि नष्ट करवाए और हिंदुओं ने हिंदू धर्म न मानने वालों यानी बौद्धों, चार्वाकों आदि के सारे धर्म और विज्ञा न आदि के ग्रंथ नष्ट कर दिए. आज उपलब्ध बौद्ध धर्म का सारा वाङ्‍मय तिब्बत आदि से खोज कर निकाला गया है या वहाँ उपलब्ध चीनी, भोट आदि भाषाओं से पालि में अनुवाद करके पुनः सृजित किया गया है. भारत में तो उनका कोई नामलेवा भी नहीं बचने दिया गया. संस्कृत बोलने वाले लोगों के घमंड और धूर्तता ने भारत का विपुल ज्ञान नष्ट करवा दिया. From ravikant at sarai.net Fri Sep 19 11:48:06 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 19 Sep 2008 11:48:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSV4KWA4KSw4KSkIOCkueCliCDgpJXgpYLgpKog4KSc4KSyICwg4KSt4KS+?= =?utf-8?b?4KSW4KS+IOCkrOCkueCkpOCkviDgpKjgpYDgpLAgLTI=?= Message-ID: <200809191148.07074.ravikant@sarai.net> gataank se aage.... (3) विशुद्ध भाषा और देववाणी संस्कृत के बारे में तीसरी बात यह कही जाती है कि यह एक विशुद्ध भाषा है, देववाणी है, इसने दूसरी किसी भाषा से कुछ ग्रहण नहीं किया. जबकि इस विषय में हुए आधुनिक अनुसंधान तो यह बताते हैं कि लौकिक संस्कृत की तो बात ही क्या वैदिक संस्कृत में भी दूसरी भाषाओं से बहुत कुछ लिया गया था. जैसाकि निम्‍नलिखित बातों से जाहिर होता है— 1.ए.एल. बाशम भारतीय भाषाओं में मौजूद मूर्धन्य ध्वनियों को द्रविड़ प्रभाव से जोड़ते हैं, वे कहते हैं —‘भारतीयों के लिए मूर्धन्य व्यंजन (ट, ठ, ड, ढ और ण) दंत्य व्यंजनों (त, थ, द, ध और न) से बि ल्कुल भिन्न हैं,... मूर्धन्य ध्वनियाँ भारोपीय नहीं हैं और ये बहुत आरंभ में भारत के आदिवासियों, आद्यआग्‍नेय अथवा द्रविड़ों से ग्रहण की गई हैं.’5 2.वहीं विख्यात भाषाविद सुनीतिकुमार चटर्जी ऋग्वेद तक में अनार्य प्रभाव देखते हैं—‘इन अनार्यों से संपर्क तथा स्वाभाविक विकास के कारण आर्यभाषा में और भी परिवर्तन आ गए. धीरे-धीरे वह आर्य (या भारतीय-ईरानी) से भारतीय आर्य भाषा बनती चली गई, जिसका नवीनतम विकसित रूप ऋग्वेद की भाषा में मिलता है.’6 3.इसी बात को आगे बढ़ाते हुए के.एम.श्रीमाली कहते हैं कि—‘वैदिक साहित्य की तथाकथित संस्कत भाषा में न केवल द्रविड़ भाषा बल्कि प्राकृत भाषा के भी स्पष्ट प्रमाण हैं. ट, ठ, ड जैसी मूर्धन्य व्यंजनों की उपस्थिति द्रविड़ प्रभाव जबकि ऋ के स्थान पर ळ का प्रयोग प्राकृत प्रभाव माना जा ता है. 4.कृषि संबंधी शब्दावली तथा पेड़-पौधों के लिए प्रयुक्त शब्दों से भी वैदिक साहित्य के रचना काल में विभिन्न भाषा-परिवारों का अस्तित्व दिखाई देता है. 5.सजातीयता संबंधी शब्द यथा चाचा के लिए काक्क अथवा काका का प्रयोग गैर-संस्कृत ही है. 6.ऋक्संहिता में मुंडा भाषा के तत्वों की खोज जारी है. भारत के मूर्धन्य भाषाविद स्वर्गीय सुनीति कुमार चटर्जी का तो यहाँ तक कहना है कि वैदिक काल से ही इंडो-यूरोपियन, द्रविड़ और मुंडा भाषा परिवारों के पारस्परिक संबंध इतने घनिष्ठ थे कि हम एक प्रकार की ‘भारतीय भाषा’ के अस्ति त्व की बात कर सकते हैं.’7 राजमल बोरा ने राबर्ट काल्डवेल के ‘ए कंपेरेटिव ग्रामर ऑफ द द्रविडियन एंड साउथ इंडियन फैमिली ऑफ लैंग्वेजेज़’ और माधव मुरलीधर देशपांडे की ‘संस्कृत आणि प्राकृत भाषा’ आदि के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि--“संस्कृत भाषा ने भारतवर्ष की प्रायः सभी भाषाओं के शब्द-समूह को अपनाया और आत्मसात कर लिया है. पता ही नहीं चलता कि ये शब्द संस्कृत में कहाँ से आए. बात यह है कि हम सब संस्कृत को मूल माने हुए हैं. इस प्रकार की धारणा का अंत होना चाहिए.”8 जब यह बात बिल्कुल साफ है कि एक, संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा नहीं है; दो, भारत की आधुनिक भाषाएँ संस्कृत से पैदा नहीं हुई हैं और तीन, संस्कृत ने भी दूसरी भाषाओं से काफी कुछ ग्रहण किया है. न केवल यह, बल्कि यह भी कि हमारी आधुनिक भाषाएँ संस्कृत का विरोध करने के कारण ही पनपीं और अपना अस्तित्व बचा पाई हैं. तो फिर हमारे अधिकतर विद्वान और राजनेता संस्कृत को प्रतिष्ठित करने के लिए झूठ पर झूठ क्यों दोहराए जाते हैं. एक और बात, हमारा अभिजात वर्ग संस्कृत की बात तो करता ही है, साथ ही संस्कृत साहित्य में व्या प्त असमानता और भेदभावपूर्ण मूल्यों के गुणगान में भी लगा रहता है. उनकी आलोचना या उन पर हल्की फुलकी छींटाकशी किए जाने पर भी हिंसक हो उठता है. यहाँ हमें संस्कृत की सामाजिक भूमिका को देखना होगा. वैसे तो कोई भी भाषा पूरे समुदाय की भाषा होती है. लेकिन संस्कृत पूरे भारतीय/हिंदू समुदाय की भाषा नहीं है और न ही यह कभी पूरे भारतीय समुदाय की भाषा रही है. जो भाषा पूरे समुदाय की भाषा न हो, केवल अभिजात वर्ग की भाषा हो, वह एक प्राकृतिक भाषा कभी नहीं हो सकती. संस्कृत को अपने ही समुदाय के शूद्रों, अतिशूद्रों आदि के बोलने पर रोक लगाई गई थी. संस्कृत के आम बोलचाल की भाषा न होने का एक सबूत यह भी है कि मानव जीवन के अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर बोलते समय संस्कृत भाषा गूँगी और बहरी हो जाती है. जब मजदूरों और किसानों को इसकी जरूरत पड़ती है, तो कन्नी काट जाती है. पर पुरोहितों और शासक वर्ग की भाषा के रूप में यह इतना चिल्लाने लगती है कि दूसरी भाषाओं का अस्तित्व तक मिट जाए. जहाँ इसमें ब्रह्म, परमात्मा, आत्मा तथा परलोक के लिए शब्दों और अर्थों के सैंकड़ों भेद-उपभेद हैं वहीं मजदूर के लिए कोई शब्द नहीं मिलता. आजकल उपलब्ध ‘श्रमिक’ शब्द तो अंग्रेज़ी के ‘लेबर’ के लिए हाल ही में गढ़ा गया शब्द है. इसी तरह ‘बेलदार’, ‘मिस्त्री’ या इन लोगों के औजारों और इनकी जरूरत की चीजों के लिए संस्कृत में शब्दों का घोर अकाल है. इस भाषा में रोजी रोटी कमाने के लिए ‘आजीविका’ या ‘जीविकोपा र्जन’ जैसे जटिल शब्द होना और भीख माँगने के लिए ‘दान’ जैसा सरल शब्द होना बताता है कि यह भाषा किस वर्ग के हित साधने के लिए बनाई गई और आज भी बरकरार रखी जा रही है. फारसी आदि विदेशी भाषाओं के वे शब्द ही हिंदी आदि भारतीय भाषाओं में खपकर लोकप्रिय हुए हैं जिनके लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं था या वे जबरन अनपढ़ रखे गए लोगों के लिए बोलने में बहुत कठिन थे. यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि राजा राममोहन राय ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम पिट को 11 दिसंबर, 1823 को लिखे पत्र में कहा था कि शिक्षा की संस्कृत भाषा की पद्धति इस देश को अंधकार में रखने का सबसे सरल रास्ता है. इस भाषा में शिल्पियों, कारीगरों, स्त्रियों, दासों सबको एक समान मान कर ताड़ना का अधिकारी बताया गया है. “इसमें उन्होंने लिखा था कि संस्कृत स्कूल की स्थापना से भारतीय युवकों के मस्तिष्क को व्याकरण की बारीकियों तथा पराभौतिक विभेदों से भर दिया जाएगा जो व्यक्ति और समाज में से किसी के भी लाभ मे नहीं है. शि क्षार्थी केवल वही जान सकेंगे जो भारतीय विद्वानों को दो हज़ार वर्षों से ज्ञात है. उस ज्ञान के बाद के लोगों द्वारा टीका-टिप्पणियों के रूप में की गई माथापच्ची भी जुड़वाई जाएगी. उन्होंने बताया कि संस्कृत भाषा इतनी कठिन है कि उसमें पारंगत होने के लिए किसी मनुष्य को लगभग अपना पूरा जीवन होम करना पड़ता है. तभी कुछ लोगों ने संस्कॉत के अध्ययन को केवल अपने स्वार्थ के हित साधन के लिए अपनाया था. संस्कृत की इसी दुरूहता के कारण ज्ञान को सामान्य लोगों के लिए सुलभ नहीं कराया गया था. सामान्य जनता को अशिक्षित रखने के लिए संस्कृतज्ञों के पास भाषा की दुरूहता का एक अच्छा बहाना मिल गया था. भाषा को सरल करने से ज्ञान सर्वसुलभ हो सकता था. इसलिए उन्होंने भाषा की दुरूहता को सामान्य जनता के विरुद्ध एक हथियार के रूप में प्रयोग किया था. फिर इस दुरूह भाषा में जो कुछ संग्रहीत था उससे शिक्षार्थी द्वारा किए गए परिश्रम की तुलना में कुछ विशेष लाभ नहीं था.” 9 इन बातों को कृष्ण मोहन श्रीमाली के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि— 1.संस्कृत भाषा कभी भी जन-जीवन की भाषा नहीं थी. यह सब जानते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर इसके पढ़ने-पढ़ाने और कुल मिला कर शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार पर ही समाज के उच्च वर्गों का अधिकार था. 2.वैदिक संस्कृति और भारतीय संस्कृति को एक मानने वालों का मत पुष्ट नहीं होता क्योंकि भारतीय संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा ग़ैर-वैदिक है. 3.वैदिक संस्कृति को मात्र संस्कृत भाषियों की देन मानना भी ऐतिहासिक प्रक्रिया को नकारना होगा क्योंकि तत्कालीन समाज में अनेक ग़ैर-संस्कृत भाषियों की मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता. 4.आधुनिक भारत की लगभग सभी भाषाओं और लिपियों का जन्म कम से कम एक हजार साल पहले हो चुका था और स्वयं संस्कृत के प्रचार और प्रसार में इनका भी बड़ा हाथ रहा है.10 थोड़े में कहें तो संस्कृत दूसरों की कमाई पर पलने वाले अभिजात वर्ग की भाषा रही है और पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से ले कर हिंदी, मराठी, तेलुगु, तमिल आदि भाषाएँ कमेरों, मजूरों, किसानों की भा षाएँ रही हैं. इसीलिए आम जनता से जुड़े शब्दों का इन भाषाओं में अथाह भंडार है. फिर भी संस्कृत का बेवजह का गुणगान क्यों? जैसाकि हमने पहले भी कहा है संस्कृत का संबंध दूसरों की कमाई पर मौज-मेला करने वालों से था और उस समय यातायात के साधनों के अविकसित होने और हमारी अर्थव्यवस्था के ग्राम केंद्रित होने के कारण आम लोगों का आपस में मेल मिलाप नहीं था. उनकी भाषाएँ रोज़मर्रा के अनुभवों और जरूरतों तक सीमि त थीं. जबकि शासक वर्ग की भाषा यानी संस्कृत, शासक वर्ग की जरूरतों के चलते ख़ासी विकसित हो गई थी. संस्कृत भाषा का विकास दर्शनशास्त्र में शून्यता और अनिर्वचनीयता तक पहुँचा तो काव्य में नारी-शरीर के अंग-प्रत्यंगों के चित्रण तक. जब अंग्रेज भारत में आए तो उन्होंने इस ‘अपने में खो ई-अपने तक सीमित’ गाँव आधारित व्यवस्था को तोड़ डाला. यह काम उन्होंने राजनीतिक ताकत से कम, व्यापारिक कुटिलता से अधिक किया. व्यापार के विकास और नए किस्म के शासक वर्ग के उदय के साथ ही हम इन विभिन्न भारतीय भाषाओं को विकसित होता हुआ पाते हैं. वैसे इनका अस्तित्व कम से कम एक हज़ार पहले से मिलना शुरू हो जाता है. मुगल काल में जब आर्थिक प्रणाली में मनसबदारी प्रथा द्वारा दखल दिया गया और एक नई किस्म की व्यवस्था लाई गई उसी समय से हम इन भाषाओं को साहित्यिक, धार्मिक और दूसरे क्षेत्रों में कदम रखता हुआ पाते हैं. सिद्धों के चर्यापद, कबीर की साखियाँ, सूरदास के पद के अलावा रासो परंपरा में भी हम इन भाषाओं की ताकत को महसूस करते हैं. वैसे इसके पहले के काल में पालि की गाथाएँ और अपभ्रंश के कवित्त भी लोगों का मन मोहते नज़र आते हैं. अँग्रेज़ों के आगमन पर तो ये सभी भाषाएँ मानो कमर कस कर लोहा लेने को तैयार दिखती हैं. जैसे यूरोप में पूँजीवाद ने सामंतवाद के परखच्चे उड़ा दिए वैसा भारत में नहीं हुआ. यहाँ पूँजीवाद को, कमज़ोर होने के कारण, सामंतवाद से समझौता करना पड़ा. इसीलिए यहाँ हमें सामंतवाद का विरोध और समर्थन एक साथ दिखाई देता है. इस संस्कृत-प्रेम का एक रूप विभिन्न भाषाओं की शब्दावलियों को संस्कृत के कृत्रिम शब्दों से भरना भी है. इसी कारण हमें आधुनिक भाषाओं में सांप्रदायिक, सामंती अवशेष दिखाई देते हैं जो लौट-लौट कर संस्कृत की कलिष्ट शब्दावली के रूप में इन भाषाओं के पाँव की बेड़ी बनते हैं. भाषाओं में ये अवशेष संस्कृत, फारसी या अंग्रेज़ी भाषाओं या इन भाषाओं की शब्दावली के प्रति प्रेम में झलकते हैं. हमारा शासक वर्ग जानता है कि आज संस्कृत को राजकाज की भाषा नहीं बनाया जा सकता. वैसे अगर यह संभव होता तो हमारा शासक वर्ग सबसे पहले यही करता. चूँकि यह संभव नहीं है इसलिए यह वर्ग इन भाषाओं में संस्कृत शब्दावली ठूँसने की कोशिश करता है ताकि इन भा षाओं को जटिल और अबूझ बनाकर ज्ञान और शिक्षा को अभिजात वर्ग तक सीमित रखा जा सके. जब एक अभिजात वर्ग (संस्कृत समर्थक) का दूसरे अभिजात वर्ग (फारसी समर्थक) से टकराव होता है तो अभिजात वर्ग की लड़ाई को हिंदी और उर्दू के रूप में जनता की लड़ाई में बदल दिया जाता है. इसके लिए अभिजात वर्ग बड़ी कुटिलता पूर्वक शतरंज बिछाता है. क्योंकि इससे आम लोगों का विकास और लोकतंत्र का फैलाव रुक जाता है. नतीजतन दोनों ही अभिजात वर्ग फायदे में रहते हैं. मज़े की बात तो यह है कि इन दोनों ही अभिजात वर्गों की छाती पर मूँग दलने वाला शासक वर्ग या नी अंग्रेज़ी अभिजात वर्ग सबसे ज्यादा फायदे में रहता है. बिल्लियों की लड़ाई में सारी रोटी बंदर के पेट में जाती है. इसकी एक वजह इन अभिजात वर्गों द्वारा एक-दूसरे को परास्त करने के लिए अंग्रेजी भाषी अभिजात वर्ग की मदद लेना है. इस दिलचस्प बंदरबाँट में तीनों अभिजात वर्ग फायदे में रहते हैं, अपनी-अपनी तिकड़मों से ये सभी वर्ग लाभ उठाते हैं. घाटे में रहती है आम जनता. क्योंकि बंदरबाँट का यह घमासान उसी के गाढ़े पसीने की कमाई के लिए होता है. मात्र संस्कृत को राष्ट्रीय सम्मान का पर्याय मानना, उसे ही भारत की महानता की भाषा मानना उस भारतीय मानसिकता से कोसों दूर है जिसने भारतीय संस्कृति की असली पहचान बनाई है. दरअसल हमें इस बात की भी पड़ताल करने की जरूरत है कि वेद के निंदक को नास्तिक क्यों कहा गया. उसे अनैतिक क्यों माना गया. यहाँ यह बताना भी अप्रांसगिक नहीं होगा कि हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि संस्कृत भाषा या सा हित्य में कुछ भी उपयोगी नहीं है. हमारा इतना ही मतलब है कि ‘संस्कृत’ का गुणगान करने वाली मानसिकता ‘वर्ण-व्यवस्था’ का प्रचार करने वाली अभिजात मानसिकता है. सत्ता के लिए भाषा की जटिलता अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने का औजार है. फिर यह भाषा संस्कृत हो, फारसी हो, संस्कृत-निष्ठ हिंदी हो, अरबी-फारसी-निष्ठ उर्दू हो या अंग्रेज़ी हो. भाषा की जटिलता आम लोगों को ज्ञान से दूर करने और ज्ञान से दूर करके सत्ता से दूर रखने का औजार है. नहीं तो संस्कृत के नाम पर वेदों-पुराणों की हाँक लगाने वालों को बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन और धर्मकीर्ति, महाकवि अश्वघोष याद क्यों नहीं आते. इनकी तो छोड़िए, इन्हें तो कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट भी याद नहीं आते. फिर आर्यभट, सुश्रुत, भास्कर, चरक जैसे वैज्ञानिकों को याद करने की कौन कहे. ज्ञान के नाम पर इन्हें सिर्फ कुटिल चाणक्य याद आते हैं. इसका एक ही जवाब संभव है. और वह है वर्णाश्रम व्यवस्था. वर्णाश्रम व्यवस्था का मूल है ब्राह्मणों की सर्वोच्‍चता. इस पूरे प्रचारित संस्कृत साहित्य में धर्म का व्यवहारिक अर्थ ब्राह्मणों की सेवा करना ही है. जन्म से लेकर मरण तक सारे कर्मकांड ब्राह्मणों की रोजी-रोटी के जरिए हैं. ऋग्वेद का पुरुष सूक्त वर्ण-व्यवस्था के विचार को सबसे पहले प्रस्तुत करता है. बाद के लगभग सभी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने वेदों द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था को स्वीकार लिया. अगर उनके विचारों से कहीं वेदों का विरोध हुआ भी तो उन्होंने उसकी उपेक्षा ही की. कारण इतना ही था कि कहीं उनका सामाजिक बहिष्कार न हो जाए. ब्राह्मण वर्चस्व को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम संस्कृत भाषा पर एकाधिकार था. शूद्र और अतिशूद्र के लिए प्रतिबंधित इस भाषा के जरिए ही ब्राह्मणों ने अपना राज निष्कंटक किया. हमारे देश में वैज्ञानिक सोच के न पनप पाने का एक महत्वपूर्ण कारण सा माजिक बहिष्कार का डर भी था. इसीलिए जिन भी दार्शनिकों ने मानव के पक्ष में खड़े होने का जोखिम उठाया उनके पास इसके सिवा कोई चारा न था कि वे वेदों की अपौरुषेयता को, संस्कृत के देववाणी होने को और ब्राह्मणों के महामानव होने की कड़ी आलोचना करें. और यही हुआ भी. चार्वाक, बौद्ध, जैन, सिद्ध, नाथ, नि र्गुण संत—भारतीय लोक-ज्ञान परंपरा के सभी विचारक वेदों और संस्कृत के खिलाफ खड़े हैं और लोक और ज्ञान के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. और आधुनिक भारत में इसी परंपरा को जोतिबा फूले और डॉ. अंबेडकर ने आगे बढ़ाया है. अंत में हम कह सकते हैं कि अगर हमें इस देश में लोकतंत्र, समता, स्वतंत्रता, विज्ञान दृष्टि और न्याय स्थापित करना है तो इस देश के क्रांतिकारी विचारकों—भगवान बुद्ध और महात्मा कबीर—की तरह हमारे पास भी कोई चारा नहीं है, सिवाय इसके कि हम वेदों और संस्कृत के वर्चस्व को चुनौती दें. आज सीधे संस्कृतीकरण का खतरा नहीं है. आज संस्कृत और इसके मानव-विरोधी मूल्य हिंदी आदि भाषाओं की तकनीकी शब्दावली के जरिये हम पर हमला कर रहे हैं. अफसोस की बात है कि जनवादी ताकतों की तरफ से इसका अपेक्षित मुखर विरोध नहीं हो रहा है. उल्टे वे खुद संस्कृत की जटिल पदावली का प्रयोग कर लोक भाषा हिंदी को दुरूह कर रहे हैं. पादटिप्पणियाँ— 1.हजारी प्रसाद द्विवेदी, भाषा, साहित्य और देश, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1998, पृ.9-13. 2.महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रतिनिधि संकलन, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1997, पृ.214. 3.किशोरीदास वाजपेयी, हिंदी शब्दानुशासन, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 2045 वि., पृ.1-9. 4.राजमल बोरा, समकालीन भारतीय साहित्य-69, जनवरी-फरवरी 1997, पृ.44. 5.ए एल बाशम, अद्भुत भारत, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, 1997, पृ.321. 6.सुनीति कुमार चटर्जी, भारतीय आर्य भाषा और हिंदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.41. 7.कृष्ण मोहन श्रीमाली, धर्म, समाज और संस्कृति, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2005, पृ.176-177. 8.राजमल बोरा, समकालीन भारतीय साहित्य-69, जनवरी-फरवरी 1997, पृ.47. 9.डॉ. धर्मवीर, हिंदी की आत्मा, समता प्रकाशन, दिल्ली, 1984, पृ.76. 10.कृष्ण मोहन श्रीमाली, धर्म, समाज और संस्कृति, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2005, पृ.187-88 From ravikant at sarai.net Fri Sep 19 20:10:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 19 Sep 2008 20:10:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJXgpLIg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljeCksOCkrg==?= Message-ID: <200809192010.26389.ravikant@sarai.net> Subject: कल के कार्यक्रम Date: शुक्रवार 19 सितम्बर 2008 18:04 From: "Rajesh Ranjan" *सॉफ़्टवेयर मुक्ति दिवस और हिन्दी दिवस के अवसर पर आप सब हिन्दी वेब पत्रिका www.literatureindia.com/hindi/ के लोकार्पण कार्यक्रम में आमंत्रित हैं. कवि श्री नीलाभ लोकार्पण व अध्यक्षता करेंगे इस अवसर पर कवि श्री मोहन राणा अपनी कविता पाठ के साथ संक्षिप्त वक्तव्य देंगे. बीज वक्तव्य रविकांत का होगा. संचालन व्यंग्यकार व तकनीकी अनुवादक श्री रवि रतलामी करेंगे. स्थान: सर्वर irc.freenode.net चैनल #sarai दिनांक: 20 सितंबर 2008 शनिवार समय: 04 बजे अपराह्न (भारतीय समयानुसार) *सादर, राजेश From indlinux at gmail.com Fri Sep 19 21:30:37 2008 From: indlinux at gmail.com (G Karunakar) Date: Fri, 19 Sep 2008 21:30:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJXgpLIg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CkleCljeCksOCkrg==?= In-Reply-To: <200809192010.26389.ravikant@sarai.net> References: <200809192010.26389.ravikant@sarai.net> Message-ID: <773e2c260809190900o1cc7fe2byca430ec232674e03@mail.gmail.com> 2008/9/19 Ravikant : > Subject: कल के कार्यक्रम > Date: शुक्रवार 19 सितम्बर 2008 18:04 > From: "Rajesh Ranjan" > > > *सॉफ़्टवेयर मुक्ति दिवस और हिन्दी दिवस के अवसर पर आप सब हिन्दी वेब पत्रिका > > www.literatureindia.com/hindi/ > > के लोकार्पण कार्यक्रम में आमंत्रित हैं. > > कवि श्री नीलाभ लोकार्पण व अध्यक्षता करेंगे > > इस अवसर पर कवि श्री मोहन राणा अपनी कविता पाठ के साथ संक्षिप्त वक्तव्य देंगे. > > बीज वक्तव्य रविकांत का होगा. संचालन व्यंग्यकार व तकनीकी > अनुवादक श्री रवि रतलामी करेंगे. > > स्थान: सर्वर irc.freenode.net चैनल #sarai > दिनांक: 20 सितंबर 2008 शनिवार > समय: 04 बजे अपराह्न (भारतीय समयानुसार) > जिनहोनें IRC का पहले उपयोग न किया हो 1) http://www.mibbit.com/ पर जाएँ 2) Connect to IRC: के सूची में Freenode.net चुनें 3) अगर आपके ब्राउज़र में हिन्दी ठीक दिखता हो ठीक है नहीं तो Charset पर क्लिक करके सुनिश्चित करें कि वो UTF-8 ही है. 4) Nick: में अपना नाम या उपनाम अंग्रेजी में भरें, पूरा नहीं बस एक शब्द में हो जैसे - 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<829019b0809202210m62a018cr20af5ce71ba53987@mail.gmail.com> मैं मानती हूं, उर्फ बिहारियों का लिंग ज्ञान जनसंख्या वृद्धि के लिए स्त्रियां ही जिम्मेवार है, इस विषय के विरोध में बोलते हुए जैसे ही मेरे मुंह से निकला कि - मैं मानती हूं कि, तभी सेमिनार हॉल में बैठे लोग ठहाके मारने लग गए। कुछ की तो हंसी रुकने ही नहीं पा रही थी कि लड़का होकर भी मानती हूं कैसे बोल गया। पीछे से एक भाई जो कि शायद मेरे विरोध में बोलने वाला था, जोर से चिल्लाया- अजी जब आपको स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का ज्ञान नहीं है तो फिर आप बोलने कैसे चले आए. पहले जाकर आप पता कीजिए कि आप मानता हूं वाले बिरादरी से हैं या फिर मानती हूं वाले बिरादरी से। उसकी इस बात पर लोग फिर ठहाके मारने लग गए। अधिकांश लोगों के चेहरे पर भाव इस तरह से थे कि- नहीं ऐसा इसने महज भावावेश में बोल दिया है। ऐसा कैसे हो सकता है कि उसे इतना भी ज्ञान न हो। मंच से उतरने के बाद लोगों ने यही कहा कि- बोलते तो बहुत जोरदार हो, लेकिन अपना लिंग कैसे भूल गए। खैर, उस समय तो मैंने संभाल लिया। मैंने सीधे कहा- अध्यक्ष महोदय, जो समाज एक क्रिया में पुरुष की जगह स्त्री के प्रयोग हो जाने पर इतने ठहाके लगा रहा है, विरोध कर रहा है, आप उस पुरुष प्रधान समाज से इस बात की उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह स्त्रियों के पक्ष में काम करेगा, स्त्रियों की जगह अपने को रखकर देखेगा। सच्चाई तो यह है कि पितृसत्तात्क समाज स्त्रियों के पक्ष में किसी भी तरह के बदलाव का विरोधी है, वह इसे पचा ही नहीं पाता कि कोई हम जैसा युवा, स्त्री-भावना को ध्यान में रखकर सोचे, समझे। अपना काम भी बन गया था। जजेज मेरी इस वाक् पटुता पर बहुत खुश थे। अंत में उन्होंने कहा भी था कि- हालांकि इसने मानती हूं का प्रयोग गलत किया है लेकिन जिस तरह बात को संभाला है, उसकी मैं कायल हूं। और वैसे भी हर पुरुष के भीतर एक स्त्री तो होती ही है और कभी-कभी पुरुष न बोलकर भीतर की स्त्री बोलने लग जाए तो इसमें बेजा क्या है। मुझे कुछ साहित्य सहित ४०० रुपये मिले थे। उस दिन मैं रांची यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल में वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोल रहा था, जिसका विषय था- जनसंख्या वृद्धि के लिए देश की स्त्रियां जिम्मेवार है। मेरी ही तरह कॉलेज के करीब ३५ लोग बोल रहे थे। तब झारखंड बोलकर कोई अलग राज्य नहीं था, सब बिहार ही था। शुरु मे जब चार-पांच लोगों ने बताया कि - हां स्त्रियां ही जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार है, तो मैं एकदम से भड़क गया. मैं वहां बोलने भी नहीं गया था। मैं बस रांची वीमेंस कॉलेज की एक रीडर के साथ गया था जो कि स्त्री-विमर्श पर एक पत्रिका निकालती थी- नारी संवाद। पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण था और उन्होंने मेरे एचओडी को कहा था कि जेवियर्स से भी कुछ बच्चों को आने बोलिए। कॉलेज आइडी लेकर गया था, इसलिए मैम की थोड़ी सी पैरवी के बाद मुझे बोलने का मौका मिल गया। मैं खुश था और मैम भी खुश थी। वहां से ले जाकर मुझे गाड़ी में बिठाया और सीदे चुरुवाले के यहां ले गयी। जमकर खाया और लिफाफे से निकालकर आधे पैसे मैने दिए। उसने मजाक में कहा- स्त्रियों की तरफदारी करने पर चार सौ मिले है, एक स्त्री पर कुछ खर्च करना तो बनता ही है। बाद में उसने सारा किस्सा हमारे हिन्दी के बांग्लाभाषी एचओडी को सुनाया, जिनका मानना था कि वहां तो लोगों ने स्त्रीलिंग के प्रयोग पर ठहाके लगा दिए लेकिन सच्चाई यही है कि एक आम बिहारी का लिंग ज्ञान बहुत ही कमजोर होता है। पांच लेडिस आ रहा है, उसको पुलिस पकड़कर धुन दिया, बस चला तब हमको ध्यान आया कि अरे, बेग तो लिए ही नहीं। बिहार में लेडिस, पुलिस, बस के लिए पुल्लिंग का प्रयोग आम बात है। इस प्रयोग के लोग इतने अभ्यस्त हैं कि कोई व्याकरणिक रुप से सही होते हुए भी इसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करता है तो वहां के लोगों को सुनने में अटपटा लगता है। दिल्ली से जाने पर मेरी कोशिश होती है कि ऐसा ही करुं तो कुछ लोग व्यंग्य भी कर देते हैं- बुझ गए कि तुम दिल्ली में रहते हो। अब बेसी मत छांटो और फिर मैं उसी रंग में रंग जाता हूं। इसके ठीक उलट दूसरी स्थिति यह भी है कि कोई भी आम बिहारी जब दिल्ली में नया-नया आता है तब वो लिंग, श और स को लेकर ओवर कॉन्शस होता है। मेरा एक जूनियर साथी अभी तक इस फेर में सुमन को शुमन बोलता है। मेरे टोकने पर तर्क देता है-जाने दीजिए, शलजम को सलजम तो नहीं बोलते। इसके अलावे कई ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जो कि पुल्लिंग होते हैं। आप कह सकते हैं कि दिल्ली आने से वह भाषा के स्तर पर वो स्त्री प्रधान समाज रचने लग जाते हैं। दिल्ली आने पर अधिकांश चीजें स्त्री रुप में दिखने लग जाती है लिंग की बात मुझे इसलिए सूझी कि मेरी एक दोस्त ने फोन पर कहा कि- यार, तुम बड़े डिवेटर रहे हो, स्कूल में बच्चों को एक डिवेट तैयार करानी है, कुछ माल-मटेरियल मेल कर दो और साथ में जोड़ दिया कि- चिंता मत करना लड़कों के लिए मैं मानती हूं कि जगह मानता हूं खुद कर लूंगी। बुरा मान गए. मैंने हंसते हुए कहा- अरे नहीं, सच्चाई यही है कि मैं जब भी कोई लेख किसी को छपने देता हूं तो एक बार जरुर कह देता हूं, लिंग का मामला आप अपने स्तर से देख लेंगे। मेरे एक- दो दोस्त जो कि पत्रिका निकालने का काम करते हैं, सबकुछ हो जाने पर हंसते हुए कहते हैं- यार, सारा काम हो गया, अब एकबार किसी गैरबिहारी से प्रूफरीडिंग करानी है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080921/188a2323/attachment-0001.html From chauhan.vijender at gmail.com Sun Sep 21 11:15:47 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sun, 21 Sep 2008 11:15:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4oCN4KSy4KWAIOCkmOClh+Ckn+CliyDgpJXgpYcg4KSP4KSo4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSJ4KSC4KSf4KSwIOCkleClgCDgpI/gpJUg4KS44KS+4KSH4KSh4KSy?= =?utf-8?b?4KS+4KSH4KSoIOCksOCkquCknw==?= Message-ID: <8bdde4540809202245p3aa1fc58r1ba14f350707eb51@mail.gmail.com> दिल्‍ली घेट्टो के एनकाउंटर की एक साइडलाइन रिपोर्ट मैंने एनकाउंटर की टीवी रिपोर्टिंग नहीं देखी थी, उस रिपोर्टिंग की रिपोर्टिंगजो ब्‍लॉग पर हुई उसे जरूर पढ़ा है। मुझे टीवी पर समाचार न देख पाने पर अब कोई मलाल नहीं होता, इस बार भी नहीं हुआ। पर मीडिया की भयानक तौर पर गिर गई साख से हो रही हानि को गहरे तौर पर बाद में अनुभव किया। सुबह स्‍टाफरूम में प्रवेश किया तो हवा में कुछ बदलाव था, महसूस करने में कुछ देर लगी। चुप्‍पाचुप्‍पी की फुसफुसाहट थी। मेज पर अखबार बिछे हुए थे...खबरों में एनकाउंटर ही छाया था। दरअसल कम से कम 10-12 शिक्षक साथी उसी इलाके से आते हैं जहॉं ये एनकाउंटर हुआ। उनका कहना था कि उस क्षेत्र के निवासियों की साफ राय ये है कि एनकाउंटर फर्जी था। जिन लड़कों को आतंकवादी कहकर मारा गया उन्‍हें दो दिन पहले ही उठा लिया गया फिर वापस लाकर उसका एनकाउंटर किया गया। इस मान्‍यता का स्रोत क्‍या है ये किसी शिक्षक मित्र को नहीं पता पर ये लोग भी इस राय से सहमत लग रहे थे। उनका कहना था कि यदि इंस्‍पेक्‍टर की मौत की घटना नहीं होती तो जामिया नगर में हालत विस्‍फोटक थी, वो तो इस मौत ने लोगों के मन में शक पैदा किया कि हो सकता है कि एनकाउंटर असली हो, पर तब तक तो वे तमाम मीडिया व पु‍लिस की बातों की तुलना में मोहल्‍ले की अफवाहों में ही ज्‍यादा यकीन कर रहे थे। मुझे इन लोगों की बात सुनकर राष्‍ट्रवाद के दौरे नहीं पड़े, आप चाहें तो मुझे राष्‍ट्रद्रोही करार दे सकते हैं। मुझे स्‍पेशल सेल के पुलिसवाले जॉंबाज राष्‍ट्ररक्षक भी नहीं लगते ये भी सच है। पर मैं उन्‍हें खास दोषी भी नहीं मानता, मुझे लगता है कि वे राज्‍य की लाचारी के प्रतीक हैं, राज्‍य को अपनी वैधता के रास्‍ते में आ गए तत्‍वों का निपटान करने में जब लाचारी महसूस होती हे तो उसे एनकाउंटर करने पड़ते हैं। इसे करने वाले तो औजार भर हैं, तथा उनकी शहादत एक कोलेट्रल डैमेज है। इस सबके बावजूद जामिया नगर के बहुत से लोगों का राष्‍ट्रीय मीडिया तथा प्रशासनिक ढॉंचे की तुलना में सुनी सुनाई बातों पर विश्‍वास कर लेना बेहद अवसादी परिघटना लगा। माना जा सकता है कि पुलिस ने इन आतंकवादियों को गिरफ्तार करने की तुलना में मार डालने का निर्णय लिया होगा ताकि ढिल्‍लू होम मिनिस्‍टर की छवि को धोया जा सके। पर राज्‍य ही नहीं वरन मीडिया पर भी इतने बड़े स्‍थानीय समुदाय का ऐसा अविश्‍वास कि वे बजाय राज्‍य की अपेक्षाकृत वैध संस्‍था के समर्थन में आने के, आतंकवादियों से सहानुभूति रखें ये त्रासद है। मुझे लगता है कि दशकभर के संप्रदायीकरण ने अब लगभग पूरे समाज में विभाजन की लकीर खींच दी है। राज्‍य व मीडिया ने अपनी वैधता पूरी तरह नहीं तो कम से कम अल्‍पसंख्‍यकों के लिए तो खो ही दी है। मुझे यह भी लगता है कि आने वाले दिनों में और एनकाउंटर देखने को मिलेंगे उससे भी दुर्भाग्‍यपूर्ण यह कि इन एनकाउंटरों का इस्‍तेमाल तंगअक्‍ल कठमुल्‍ले, आतंकवादियों की पैदावार बढ़ाने के लिए करेंगे, और मीडिया ...वो तो खैर केवल ब्रेक से ब्रेक तक की ही दृष्टि रखता है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080921/e4b67097/attachment.html From miyaamihir at gmail.com Sun Sep 21 14:43:07 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 21 Sep 2008 14:43:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSB?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpLbgpLngpLAg4KSV4KWLIOCkpuClh+CkluCliyA6IA==?= =?utf-8?b?4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: "शहरों को फूको के शब्दों में 'दौर-ए-हमवक्ती' (इपॉक ऑफ़ सायमाल्टेनिटी) कहा जा सकता है, जहाँ अलग-अलग कालखंड एकसाथ विद्यमान होते हैं. शहर, ख़ासतौर पर उत्तर-औपनिवेशिक शहर, अपनी ज़द में विभिन्न गतियों और लयों को समेटे रखता है और इससे विरोध और प्रतिस्पर्धा का निहायत गतिशील माहौल पैदा होता है." -आदित्य निगम. किसी फ़िल्म का अन्तिम दृश्य पूरी फ़िल्म को देखने का एक नया नज़रिया दे सकता है. एक आखिरी इशारा इतना कुछ कह दे कि पूरी फ़िल्म के मायने ही बदल जाएँ. मैं यह जानता तो था लेकिन हल्ला में बहुत दिनों बाद फ़िर ऐसा होता देखा. हल्ला यूँ भी एक बेहतर फ़िल्म है जो आधुनिक 'शहर' की यंत्रवत व्यवस्था और विडंबनाओं को light hearted way में उभारती है लेकिन इसका अंत इसे सिर्फ़ वही नहीं रहने देता. हल्ला का अंत बताता है कि जहाँ से आप शहर को देख रहे हैं वो शहर की अकेली तस्वीर नहीं. देखने के और नज़रिए हैं लेकिन इस आधुनिक शहर व्यवस्था में चीज़ें इतनी अलग-थलग हैं कि बहुत बार आप यह समझ भी नहीं पाते कि एक ही परिघटना के अलग-अलग व्यक्तियों के लिए कितने अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं. हल्ला के निर्देशक जयदीप वर्मा हर्षिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की फिल्में देखकर बड़े हुए हैं और हल्ला इसी परम्परा का अगला चरण है. शहर को देखने का ये नज़रिया कथा और चश्मेबत्तूर से आता है और इस रिश्ते से खोसला का घोंसला इसकी बड़ी बहन है. हल्ला में वो मुंबई है जो नायक को रोज़ सुनाई देती है, दिखाई देती है. हल्ला की मुंबई जुहू बीच, चौपाटी या मरीन ड्राइव नहीं है. हल्ला में दिन कार की अगली ड्राइवर सीट पर या ऑफिस में कम्प्यूटर के सामने शेयर बेचते-खरीदते बीत जाता है. फ़िल्म के दो सबसे महत्त्वपूर्ण घटनास्थल जहाँ ज्यादातर कहानी आगे बढ़ रही है वो एक चलती कार की अगली दो सीट और रिहायशी इमारत का पार्किंग लॉट हैं. कार्पोरेट व्यवस्था में निचली पायदान पर खड़ी जिंदगियाँ यही शहर देख रही हैं. बहुत देर तक लगता है कि यह फ़िल्म शोर के बारे में है. लेकिन हल्ला शहर के बारे में है. वो शहर जिससे आपका-मेरा रोज़ सामना होता है. शहर जिसकी कितनी लयें हैं ख़ुद उसे भी नहीं मालूम. सुकेतु मेहता Maximum city में लिखते हैं, " यह कमबख्त शहर. समुद्र की एक बड़ी लहर को आकर इन द्वीपों को मिटा देना चाहिए और इसे जल समाधि दे देनी चाहिए. इस शहर पर बम गिराकर इसे ख़त्म कर देना चाहिए. हर सुबह मुझे गुस्सा आता है. यहाँ कुछ भी काम कराने का यही रास्ता है; लोग गुस्सा करने पर ही काम करते हैं, गुस्से से डरते हैं. यदि पैसा और सही लोगों से जान-पहचान ना हो तो गुस्सा ही काम आता है. मैं गुस्से का फायदा समझने लगा हूँ- टेक्सी ड्राइवरों, द्वारपालों, प्लमबरों, सरकारी आदमियों पर गुस्सा होता हूँ. भारत में मेरा सीडी प्लेयर भी गुस्से या शारीरिक हिंसा की बदौलत चलता है. जब प्ले बटन को आराम से दबाने पर भी ये नींद से नहीं जागता, तो एक धौल जमाने से तुंरत बजने लगता है." रजत कपूर को इस रोल में देखना एक सुखद आश्चर्य था. रजत ख़ुद को मूलत: एक निर्देशक कहते हैं जो शौकिया अदाकारी भी करता है. अभी तक रजत कपूर ने बहुत से बेहतरीन रोल किए हैं लेकिन यह किरदार उनके भीतर के अदाकार के लिए भी एक चुनौती था. Osian's में उनकी 'the prisnor' देखते हुए भी लगा कि एक लेखक का किरदार उनके लिए चुनौती नहीं. लेकिन जनार्दन का किरदार रजत के लिए एक चुनौती था क्योंकि वो ऐसे बिल्कुल नहीं हैं. यह रोल कुछ-कुछ राहुल बोस के झंकार बीट्स में निभाए ऋषि जैसा है. ऋषि राहुल के लिए एक चुनौती था क्योंकि राहुल जैसे मेच्योर ऐक्टर के लिए एक इम्मेच्यौर रोल प्ले करना ही बड़ी चुनौती है. और हमारे दौर के कुछ बेहतरीन अदाकार अपनी अदाकारी की सुरक्षित पनाहों से निकलकर ऐसी चुनौती का सामना करने को तैयार हैं ये देखकर अच्छा लगता है. इस फ़िल्म की खूबसूरती यही है कि यह बड़े के पीछे नहीं भागती. हमने 'नई कहानी' पढ़ते हुए जाना है कि जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा भी अपने भीतर सारे अर्थ समेटे होता है. जिंदगी की एक छोटी सी 'क्राइसिस' किसी बड़े परिवर्तन की ओर ईशारा कर देती है. और कहानी का मूल काम है ईशारा करना. ……………………… *पोस्ट का शीर्षक फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म से लिया गया है. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-27658 Size: 9012 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080921/c357b568/attachment-0001.bin From miyaamihir at gmail.com Sun Sep 21 14:43:07 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 21 Sep 2008 14:43:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KS+4KSB?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpLbgpLngpLAg4KSV4KWLIOCkpuClh+CkluCliyA6IA==?= =?utf-8?b?4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: "शहरों को फूको के शब्दों में 'दौर-ए-हमवक्ती' (इपॉक ऑफ़ सायमाल्टेनिटी) कहा जा सकता है, जहाँ अलग-अलग कालखंड एकसाथ विद्यमान होते हैं. शहर, ख़ासतौर पर उत्तर-औपनिवेशिक शहर, अपनी ज़द में विभिन्न गतियों और लयों को समेटे रखता है और इससे विरोध और प्रतिस्पर्धा का निहायत गतिशील माहौल पैदा होता है." -आदित्य निगम. किसी फ़िल्म का अन्तिम दृश्य पूरी फ़िल्म को देखने का एक नया नज़रिया दे सकता है. एक आखिरी इशारा इतना कुछ कह दे कि पूरी फ़िल्म के मायने ही बदल जाएँ. मैं यह जानता तो था लेकिन हल्ला में बहुत दिनों बाद फ़िर ऐसा होता देखा. हल्ला यूँ भी एक बेहतर फ़िल्म है जो आधुनिक 'शहर' की यंत्रवत व्यवस्था और विडंबनाओं को light hearted way में उभारती है लेकिन इसका अंत इसे सिर्फ़ वही नहीं रहने देता. हल्ला का अंत बताता है कि जहाँ से आप शहर को देख रहे हैं वो शहर की अकेली तस्वीर नहीं. देखने के और नज़रिए हैं लेकिन इस आधुनिक शहर व्यवस्था में चीज़ें इतनी अलग-थलग हैं कि बहुत बार आप यह समझ भी नहीं पाते कि एक ही परिघटना के अलग-अलग व्यक्तियों के लिए कितने अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं. हल्ला के निर्देशक जयदीप वर्मा हर्षिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की फिल्में देखकर बड़े हुए हैं और हल्ला इसी परम्परा का अगला चरण है. शहर को देखने का ये नज़रिया कथा और चश्मेबत्तूर से आता है और इस रिश्ते से खोसला का घोंसला इसकी बड़ी बहन है. हल्ला में वो मुंबई है जो नायक को रोज़ सुनाई देती है, दिखाई देती है. हल्ला की मुंबई जुहू बीच, चौपाटी या मरीन ड्राइव नहीं है. हल्ला में दिन कार की अगली ड्राइवर सीट पर या ऑफिस में कम्प्यूटर के सामने शेयर बेचते-खरीदते बीत जाता है. फ़िल्म के दो सबसे महत्त्वपूर्ण घटनास्थल जहाँ ज्यादातर कहानी आगे बढ़ रही है वो एक चलती कार की अगली दो सीट और रिहायशी इमारत का पार्किंग लॉट हैं. कार्पोरेट व्यवस्था में निचली पायदान पर खड़ी जिंदगियाँ यही शहर देख रही हैं. बहुत देर तक लगता है कि यह फ़िल्म शोर के बारे में है. लेकिन हल्ला शहर के बारे में है. वो शहर जिससे आपका-मेरा रोज़ सामना होता है. शहर जिसकी कितनी लयें हैं ख़ुद उसे भी नहीं मालूम. सुकेतु मेहता Maximum city में लिखते हैं, " यह कमबख्त शहर. समुद्र की एक बड़ी लहर को आकर इन द्वीपों को मिटा देना चाहिए और इसे जल समाधि दे देनी चाहिए. इस शहर पर बम गिराकर इसे ख़त्म कर देना चाहिए. हर सुबह मुझे गुस्सा आता है. यहाँ कुछ भी काम कराने का यही रास्ता है; लोग गुस्सा करने पर ही काम करते हैं, गुस्से से डरते हैं. यदि पैसा और सही लोगों से जान-पहचान ना हो तो गुस्सा ही काम आता है. मैं गुस्से का फायदा समझने लगा हूँ- टेक्सी ड्राइवरों, द्वारपालों, प्लमबरों, सरकारी आदमियों पर गुस्सा होता हूँ. भारत में मेरा सीडी प्लेयर भी गुस्से या शारीरिक हिंसा की बदौलत चलता है. जब प्ले बटन को आराम से दबाने पर भी ये नींद से नहीं जागता, तो एक धौल जमाने से तुंरत बजने लगता है." रजत कपूर को इस रोल में देखना एक सुखद आश्चर्य था. रजत ख़ुद को मूलत: एक निर्देशक कहते हैं जो शौकिया अदाकारी भी करता है. अभी तक रजत कपूर ने बहुत से बेहतरीन रोल किए हैं लेकिन यह किरदार उनके भीतर के अदाकार के लिए भी एक चुनौती था. Osian's में उनकी 'the prisnor' देखते हुए भी लगा कि एक लेखक का किरदार उनके लिए चुनौती नहीं. लेकिन जनार्दन का किरदार रजत के लिए एक चुनौती था क्योंकि वो ऐसे बिल्कुल नहीं हैं. यह रोल कुछ-कुछ राहुल बोस के झंकार बीट्स में निभाए ऋषि जैसा है. ऋषि राहुल के लिए एक चुनौती था क्योंकि राहुल जैसे मेच्योर ऐक्टर के लिए एक इम्मेच्यौर रोल प्ले करना ही बड़ी चुनौती है. और हमारे दौर के कुछ बेहतरीन अदाकार अपनी अदाकारी की सुरक्षित पनाहों से निकलकर ऐसी चुनौती का सामना करने को तैयार हैं ये देखकर अच्छा लगता है. इस फ़िल्म की खूबसूरती यही है कि यह बड़े के पीछे नहीं भागती. हमने 'नई कहानी' पढ़ते हुए जाना है कि जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा भी अपने भीतर सारे अर्थ समेटे होता है. जिंदगी की एक छोटी सी 'क्राइसिस' किसी बड़े परिवर्तन की ओर ईशारा कर देती है. और कहानी का मूल काम है ईशारा करना. ……………………… *पोस्ट का शीर्षक फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म से लिया गया है. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-836 Size: 9012 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080921/c357b568/attachment-0002.bin From ravikant at sarai.net Mon Sep 22 18:01:44 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 22 Sep 2008 18:01:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4oCN4KSy4KWAIOCkmOClh+Ckn+CliyDgpJXgpYcg4KSP4KSo4KSV4KS+4KSJ?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KSwIOCkleClgCDgpI/gpJUg4KS44KS+4KSH4KSh4KSy4KS+4KSH?= =?utf-8?b?4KSoIOCksOCkquCknw==?= In-Reply-To: <8bdde4540809202245p3aa1fc58r1ba14f350707eb51@mail.gmail.com> References: <8bdde4540809202245p3aa1fc58r1ba14f350707eb51@mail.gmail.com> Message-ID: <200809221801.44093.ravikant@sarai.net> दोस्तो, मैं इसके जवाब में विजेन्द्र का पहला पोस्ट भी डाल रहा हूँ मसिजीवी से उठाकर जो उन्होंने ग़ुस्से में आकर, विवेक खोकर लिखा है, वे ऐसा सोचते हैं. पर उन्होंने दोनों ही पोस्टों में विवेक की ही बातें की हैं. आसान नहीं है ऐसे समय में विवेक से बँधे रहना, पर जो लोग दीख रही, दिखाई जा रही, सच्चाई से दूर जाकर देख पाते हैं, अपने तजुर्बों के आईने में, अलोचनात्मक मेधा या प्रज्ञाशक्ति के बल पर वे निश्चय ही श्लाघ्य हैं. लेकिन मुझे दोनों पोस्टों पर की गई टिप्पणियाँ भी काफ़ी दिलचस्प लगीं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह बात कई लोगों ने स्वीकार की कि वे टीवी नहीं देखते, ऐसे ही कारणों से, ऐसी ही रिपोर्टिंग की वजह से. मैंने ख़ुद को अपने अंतरंग मीडिया-मित्रों से पिछले महीने दो महीने में यह कहते पाया है कि वह दिन दूर नहीं कि वे किसी चौक-चौराहे पर लोगों के ग़ुस्से का शिकार हो जाएँ. क्योंकि विवेक तो दरअस्ल वे खो देते हैं, पत्रकारिता का बुनियादी धर्म उन्हें याद नहीं रहता, अपनी नाक से आगे नहीं देखते, जो पिलाया जाता है गटक लेते हैं ख़बरों में डुबकी नहीं लगा ते, चीख़ते-चिल्लाते हैं, रेटॉरिकल हो जाते हैं. तो विजेन्द्र जी मीडिया से दुराव महसूसने वाले सिर्फ़ अल्पसंख्यक नहीं हैं इस देश के - आप के पोस्ट पर की गई प्रशंसात्मक टिप्पणियों में सबसे ग़ौरतलब बात मुझे यही लगी. शुक्रिया रविकान्त Saturday, September 13, 2008 दिल्‍ली के ये बम मीडिया के लिए सौदा हैं http://masijeevi.blogspot.com/2008/09/blog-post_13.html ये पोस्‍ट बेहद गुस्‍से में लिखी गई है, विवेक की उम्‍मीद न करें। दिल्‍ली में इस वक्‍त कुछ बम विस्‍फोट हो रहे हैं। लोग मारे जा रहे हैं' ये दुकानदारी का समय है चैनलों के लिए। जिस पैमाने पर गैर जिम्‍मेदाराना रिपोर्टिंग अभी चल रही है, उसके बिना पर तो खुद इन चैनलों पर आतंकवाद फैलाने का मुकदमा चलना चाहिए। मौके पर खड़े पत्रकार शोर सुनते ही शो र मचा रहे हैं नेशनल मीडिया में कि मानव बम मिला ... कमबख्त मुड़कर जॉंच भी नहीं रहे कि खबर है या अफवाह... दो ही मिनट बाद गुब्‍बारे वाला बच्‍चा- मानव बम नहीं .. सबसे अहम गवाह हो जा रहा है। मुझे तो लगता है कि मीडिया वालों से तो कहीं ज्‍यादा जिम्‍मेदार व पेशेवर खुद वे आतंकवादी हैं जिन्‍होंने बम प्‍लांट किए। उनका काम है आतंक फैलाना और वे वहीं कर रहे हैं। लेकिन ये कम्‍बख्‍त पत्रकार व चैनल क्‍या इनका काम भी आतंक फैलाना है..अगर नहीं तो वे क्‍यों ये कर रहे हैं। कोई इन्‍हें बंद करो नहीं तो ये देश में आग लगवा देंगे- रविवार 21 सितम्बर 2008 11:15 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > दिल्‍ली घेट्टो के एनकाउंटर की एक साइडलाइन > रिपोर्ट > > मैंने एनकाउंटर की टीवी रिपोर्टिंग नहीं देखी थी, उस रिपोर्टिंग की > रिपोर्टिंगजो > ब्‍लॉग पर हुई उसे जरूर पढ़ा है। मुझे टीवी पर समाचार न देख पाने पर अब > कोई > मलाल नहीं होता, इस बार भी नहीं हुआ। पर मीडिया की भयानक तौर पर गिर गई साख से > हो रही हानि को गहरे तौर पर बाद में अनुभव किया। > > सुबह स्‍टाफरूम में प्रवेश किया तो हवा में कुछ बदलाव था, महसूस करने में कुछ > देर लगी। चुप्‍पाचुप्‍पी की फुसफुसाहट थी। मेज पर अखबार बिछे हुए थे...खबरों > में एनकाउंटर ही छाया था। दरअसल कम से कम 10-12 शिक्षक साथी उसी इलाके से आते > हैं जहॉं ये एनकाउंटर हुआ। उनका कहना था कि उस क्षेत्र के निवासियों की साफ > राय ये है कि एनकाउंटर फर्जी था। जिन लड़कों को आतंकवादी कहकर मारा गया > उन्‍हें दो दिन पहले ही उठा लिया गया फिर वापस लाकर उसका एनकाउंटर किया गया। > इस मान्‍यता का स्रोत क्‍या है ये किसी शिक्षक मित्र को नहीं पता पर ये लोग भी > इस राय से सहमत लग रहे थे। उनका कहना था कि यदि इंस्‍पेक्‍टर की मौत की घटना > नहीं होती तो जामिया नगर में हालत विस्‍फोटक थी, वो तो इस मौत ने लोगों के मन > में शक पैदा किया कि हो सकता है कि एनकाउंटर असली हो, पर तब तक तो वे तमाम > मीडिया व पु‍लिस की बातों की तुलना में मोहल्‍ले की अफवाहों में ही ज्‍यादा > यकीन कर रहे थे। > > From rakeshjee at gmail.com Wed Sep 24 12:11:38 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 24 Sep 2008 12:11:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KSk4KWAIOCkueClguCkgiwg4KSJ4KSw4KWN4KSrIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+4KSw4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLLgpL8=?= =?utf-8?b?4KSC4KSXIOCknOCljeCknuCkvuCkqA==?= In-Reply-To: <829019b0809202210m62a018cr20af5ce71ba53987@mail.gmail.com> References: <829019b0809202210m62a018cr20af5ce71ba53987@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0809232341h52b2c902ma2d66af7aa33d510@mail.gmail.com> बिल्कुल सही. अब तक कई जगह उलझ जाता हूं. लिंग ज्ञान अब भी नाज़ुक है. कोई भी लेख फाइनल करने से पहले एक बार चंद्रा से पढ़वा लेने की कोशिश ज़रूर करता हूं. वैसे भी मुज़फ़्फ़रपुर में मैंने हमेशा 'गाय चरता है' ही सुना है. राकेश 2008/9/21 vineet kumar : > मैं मानती हूं, उर्फ बिहारियों का लिंग ज्ञान > > > > > > जनसंख्या वृद्धि के लिए स्त्रियां ही जिम्मेवार है, इस विषय के विरोध में बोलते > हुए जैसे ही मेरे मुंह से निकला कि - मैं मानती हूं कि, तभी सेमिनार हॉल में > बैठे लोग ठहाके मारने लग गए। कुछ की तो हंसी रुकने ही नहीं पा रही थी कि लड़का > होकर भी मानती हूं कैसे बोल गया। पीछे से एक भाई जो कि शायद मेरे विरोध में > बोलने वाला था, जोर से चिल्लाया- अजी जब आपको स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का ज्ञान > नहीं है तो फिर आप बोलने कैसे चले आए. पहले जाकर आप पता कीजिए कि आप मानता हूं > वाले बिरादरी से हैं या फिर मानती हूं वाले बिरादरी से। उसकी इस बात पर लोग फिर > ठहाके मारने लग गए। अधिकांश लोगों के चेहरे पर भाव इस तरह से थे कि- नहीं ऐसा > इसने महज भावावेश में बोल दिया है। ऐसा कैसे हो सकता है कि उसे इतना भी ज्ञान न > हो। मंच से उतरने के बाद लोगों ने यही कहा कि- बोलते तो बहुत जोरदार हो, लेकिन > अपना लिंग कैसे भूल गए। > खैर, उस समय तो मैंने संभाल लिया। मैंने सीधे कहा- अध्यक्ष महोदय, जो समाज एक > क्रिया में पुरुष की जगह स्त्री के प्रयोग हो जाने पर इतने ठहाके लगा रहा है, > विरोध कर रहा है, आप उस पुरुष प्रधान समाज से इस बात की उम्मीद कैसे कर सकते > हैं कि वह स्त्रियों के पक्ष में काम करेगा, स्त्रियों की जगह अपने को रखकर > देखेगा। सच्चाई तो यह है कि पितृसत्तात्क समाज स्त्रियों के पक्ष में किसी भी > तरह के बदलाव का विरोधी है, वह इसे पचा ही नहीं पाता कि कोई हम जैसा युवा, > स्त्री-भावना को ध्यान में रखकर सोचे, समझे। अपना काम भी बन गया था। जजेज मेरी > इस वाक् पटुता पर बहुत खुश थे। अंत में उन्होंने कहा भी था कि- हालांकि इसने > मानती हूं का प्रयोग गलत किया है लेकिन जिस तरह बात को संभाला है, उसकी मैं > कायल हूं। और वैसे भी हर पुरुष के भीतर एक स्त्री तो होती ही है और कभी-कभी > पुरुष न बोलकर भीतर की स्त्री बोलने लग जाए तो इसमें बेजा क्या है। मुझे कुछ > साहित्य सहित ४०० रुपये मिले थे। > उस दिन मैं रांची यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल में वाद-विवाद प्रतियोगिता में > बोल रहा था, जिसका विषय था- जनसंख्या वृद्धि के लिए देश की स्त्रियां जिम्मेवार > है। मेरी ही तरह कॉलेज के करीब ३५ लोग बोल रहे थे। तब झारखंड बोलकर कोई अलग > राज्य नहीं था, सब बिहार ही था। शुरु मे जब चार-पांच लोगों ने बताया कि - हां > स्त्रियां ही जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार है, तो मैं एकदम से भड़क गया. > मैं वहां बोलने भी नहीं गया था। मैं बस रांची वीमेंस कॉलेज की एक रीडर के साथ > गया था जो कि स्त्री-विमर्श पर एक पत्रिका निकालती थी- नारी संवाद। पत्रिका के > नए अंक का लोकार्पण था और उन्होंने मेरे एचओडी को कहा था कि जेवियर्स से भी कुछ > बच्चों को आने बोलिए। कॉलेज आइडी लेकर गया था, इसलिए मैम की थोड़ी सी पैरवी के > बाद मुझे बोलने का मौका मिल गया। > मैं खुश था और मैम भी खुश थी। वहां से ले जाकर मुझे गाड़ी में बिठाया और सीदे > चुरुवाले के यहां ले गयी। जमकर खाया और लिफाफे से निकालकर आधे पैसे मैने दिए। > उसने मजाक में कहा- स्त्रियों की तरफदारी करने पर चार सौ मिले है, एक स्त्री पर > कुछ खर्च करना तो बनता ही है। बाद में उसने सारा किस्सा हमारे हिन्दी के > बांग्लाभाषी एचओडी को सुनाया, जिनका मानना था कि वहां तो लोगों ने स्त्रीलिंग > के प्रयोग पर ठहाके लगा दिए लेकिन सच्चाई यही है कि एक आम बिहारी का लिंग ज्ञान > बहुत ही कमजोर होता है। > > पांच लेडिस आ रहा है, उसको पुलिस पकड़कर धुन दिया, बस चला तब हमको ध्यान आया कि > अरे, बेग तो लिए ही नहीं। बिहार में लेडिस, पुलिस, बस के लिए पुल्लिंग का > प्रयोग आम बात है। इस प्रयोग के लोग इतने अभ्यस्त हैं कि कोई व्याकरणिक रुप से > सही होते हुए भी इसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करता है तो वहां के लोगों को > सुनने में अटपटा लगता है। दिल्ली से जाने पर मेरी कोशिश होती है कि ऐसा ही करुं > तो कुछ लोग व्यंग्य भी कर देते हैं- बुझ गए कि तुम दिल्ली में रहते हो। अब बेसी > मत छांटो और फिर मैं उसी रंग में रंग जाता हूं। > इसके ठीक उलट दूसरी स्थिति यह भी है कि कोई भी आम बिहारी जब दिल्ली में नया-नया > आता है तब वो लिंग, श और स को लेकर ओवर कॉन्शस होता है। मेरा एक जूनियर साथी > अभी तक इस फेर में सुमन को शुमन बोलता है। मेरे टोकने पर तर्क देता है-जाने > दीजिए, शलजम को सलजम तो नहीं बोलते। इसके अलावे कई ऐसे शब्दों का प्रयोग करता > है जो कि पुल्लिंग होते हैं। आप कह सकते हैं कि दिल्ली आने से वह भाषा के स्तर > पर वो स्त्री प्रधान समाज रचने लग जाते हैं। दिल्ली आने पर अधिकांश चीजें > स्त्री रुप में दिखने लग जाती है > लिंग की बात मुझे इसलिए सूझी कि मेरी एक दोस्त ने फोन पर कहा कि- यार, तुम बड़े > डिवेटर रहे हो, स्कूल में बच्चों को एक डिवेट तैयार करानी है, कुछ माल-मटेरियल > मेल कर दो और साथ में जोड़ दिया कि- चिंता मत करना लड़कों के लिए मैं मानती हूं > कि जगह मानता हूं खुद कर लूंगी। बुरा मान गए. मैंने हंसते हुए कहा- अरे नहीं, > सच्चाई यही है कि मैं जब भी कोई लेख किसी को छपने देता हूं तो एक बार जरुर कह > देता हूं, लिंग का मामला आप अपने स्तर से देख लेंगे। मेरे एक- दो दोस्त जो कि > पत्रिका निकालने का काम करते हैं, सबकुछ हो जाने पर हंसते हुए कहते हैं- यार, > सारा काम हो गया, अब एकबार किसी गैरबिहारी से प्रूफरीडिंग करानी है। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From kashaffairs at yahoo.co.uk Wed Sep 24 13:36:12 2008 From: kashaffairs at yahoo.co.uk (Kashmir Affairs) Date: Wed, 24 Sep 2008 08:06:12 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= please UNSUBSCRIBE In-Reply-To: <292550dd0809232341h52b2c902ma2d66af7aa33d510@mail.gmail.com> Message-ID: <308108.3748.qm@web27805.mail.ukl.yahoo.com> As i can't read Hindi, can you pls UNSUBSCRIBE me. thnx. --- On Wed, 24/9/08, Rakesh Singh wrote: From: Rakesh Singh Subject: Re: [दीवान]मैं मानती हूं, उर्फ बिहारियों का लिंग ज्ञान To: Date: Wednesday, 24 September, 2008, 7:41 AM बिल्कुल सही. अब तक कई जगह उलझ जाता हूं. लिंग ज्ञान अब भी नाज़ुक है. कोई भी लेख फाइनल करने से पहले एक बार चंद्रा से पढ़वा लेने की कोशिश ज़रूर करता हूं. वैसे भी मुज़फ़्फ़रपुर में मैंने हमेशा 'गाय चरता है' ही सुना है. राकेश 2008/9/21 vineet kumar : > मैं मानती हूं, उर्फ बिहारियों का लिंग ज्ञान > > > > > > जनसंख्या वृद्धि के लिए स्त्रियां ही जिम्मेवार है, इस विषय के विरोध में बोलते > हुए जैसे ही मेरे मुंह से निकला कि - मैं मानती हूं कि, तभी सेमिनार हॉल में > बैठे लोग ठहाके मारने लग गए। कुछ की तो हंसी रुकने ही नहीं पा रही थी कि लड़का > होकर भी मानती हूं कैसे बोल गया। पीछे से एक भाई जो कि शायद मेरे विरोध में > बोलने वाला था, जोर से चिल्लाया- अजी जब आपको स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का ज्ञान > नहीं है तो फिर आप बोलने कैसे चले आए. पहले जाकर आप पता कीजिए कि आप मानता हूं > वाले बिरादरी से हैं या फिर मानती हूं वाले बिरादरी से। उसकी इस बात पर लोग फिर > ठहाके मारने लग गए। अधिकांश लोगों के चेहरे पर भाव इस तरह से थे कि- नहीं ऐसा > इसने महज भावावेश में बोल दिया है। ऐसा कैसे हो सकता है कि उसे इतना भी ज्ञान न > हो। मंच से उतरने के बाद लोगों ने यही कहा कि- बोलते तो बहुत जोरदार हो, लेकिन > अपना लिंग कैसे भूल गए। > खैर, उस समय तो मैंने संभाल लिया। मैंने सीधे कहा- अध्यक्ष महोदय, जो समाज एक > क्रिया में पुरुष की जगह स्त्री के प्रयोग हो जाने पर इतने ठहाके लगा रहा है, > विरोध कर रहा है, आप उस पुरुष प्रधान समाज से इस बात की उम्मीद कैसे कर सकते > हैं कि वह स्त्रियों के पक्ष में काम करेगा, स्त्रियों की जगह अपने को रखकर > देखेगा। सच्चाई तो यह है कि पितृसत्तात्क समाज स्त्रियों के पक्ष में किसी भी > तरह के बदलाव का विरोधी है, वह इसे पचा ही नहीं पाता कि कोई हम जैसा युवा, > स्त्री-भावना को ध्यान में रखकर सोचे, समझे। अपना काम भी बन गया था। जजेज मेरी > इस वाक् पटुता पर बहुत खुश थे। अंत में उन्होंने कहा भी था कि- हालांकि इसने > मानती हूं का प्रयोग गलत किया है लेकिन जिस तरह बात को संभाला है, उसकी मैं > कायल हूं। और वैसे भी हर पुरुष के भीतर एक स्त्री तो होती ही है और कभी-कभी > पुरुष न बोलकर भीतर की स्त्री बोलने लग जाए तो इसमें बेजा क्या है। मुझे कुछ > साहित्य सहित ४०० रुपये मिले थे। > उस दिन मैं रांची यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल में वाद-विवाद प्रतियोगिता में > बोल रहा था, जिसका विषय था- जनसंख्या वृद्धि के लिए देश की स्त्रियां जिम्मेवार > है। मेरी ही तरह कॉलेज के करीब ३५ लोग बोल रहे थे। तब झारखंड बोलकर कोई अलग > राज्य नहीं था, सब बिहार ही था। शुरु मे जब चार-पांच लोगों ने बताया कि - हां > स्त्रियां ही जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार है, तो मैं एकदम से भड़क गया. > मैं वहां बोलने भी नहीं गया था। मैं बस रांची वीमेंस कॉलेज की एक रीडर के साथ > गया था जो कि स्त्री-विमर्श पर एक पत्रिका निकालती थी- नारी संवाद। पत्रिका के > नए अंक का लोकार्पण था और उन्होंने मेरे एचओडी को कहा था कि जेवियर्स से भी कुछ > बच्चों को आने बोलिए। कॉलेज आइडी लेकर गया था, इसलिए मैम की थोड़ी सी पैरवी के > बाद मुझे बोलने का मौका मिल गया। > मैं खुश था और मैम भी खुश थी। वहां से ले जाकर मुझे गाड़ी में बिठाया और सीदे > चुरुवाले के यहां ले गयी। जमकर खाया और लिफाफे से निकालकर आधे पैसे मैने दिए। > उसने मजाक में कहा- स्त्रियों की तरफदारी करने पर चार सौ मिले है, एक स्त्री पर > कुछ खर्च करना तो बनता ही है। बाद में उसने सारा किस्सा हमारे हिन्दी के > बांग्लाभाषी एचओडी को सुनाया, जिनका मानना था कि वहां तो लोगों ने स्त्रीलिंग > के प्रयोग पर ठहाके लगा दिए लेकिन सच्चाई यही है कि एक आम बिहारी का लिंग ज्ञान > बहुत ही कमजोर होता है। > > पांच लेडिस आ रहा है, उसको पुलिस पकड़कर धुन दिया, बस चला तब हमको ध्यान आया कि > अरे, बेग तो लिए ही नहीं। बिहार में लेडिस, पुलिस, बस के लिए पुल्लिंग का > प्रयोग आम बात है। इस प्रयोग के लोग इतने अभ्यस्त हैं कि कोई व्याकरणिक रुप से > सही होते हुए भी इसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करता है तो वहां के लोगों को > सुनने में अटपटा लगता है। दिल्ली से जाने पर मेरी कोशिश होती है कि ऐसा ही करुं > तो कुछ लोग व्यंग्य भी कर देते हैं- बुझ गए कि तुम दिल्ली में रहते हो। अब बेसी > मत छांटो और फिर मैं उसी रंग में रंग जाता हूं। > इसके ठीक उलट दूसरी स्थिति यह भी है कि कोई भी आम बिहारी जब दिल्ली में नया-नया > आता है तब वो लिंग, श और स को लेकर ओवर कॉन्शस होता है। मेरा एक जूनियर साथी > अभी तक इस फेर में सुमन को शुमन बोलता है। मेरे टोकने पर तर्क देता है-जाने > दीजिए, शलजम को सलजम तो नहीं बोलते। इसके अलावे कई ऐसे शब्दों का प्रयोग करता > है जो कि पुल्लिंग होते हैं। आप कह सकते हैं कि दिल्ली आने से वह भाषा के स्तर > पर वो स्त्री प्रधान समाज रचने लग जाते हैं। दिल्ली आने पर अधिकांश चीजें > स्त्री रुप में दिखने लग जाती है > लिंग की बात मुझे इसलिए सूझी कि मेरी एक दोस्त ने फोन पर कहा कि- यार, तुम बड़े > डिवेटर रहे हो, स्कूल में बच्चों को एक डिवेट तैयार करानी है, कुछ माल-मटेरियल > मेल कर दो और साथ में जोड़ दिया कि- चिंता मत करना लड़कों के लिए मैं मानती हूं > कि जगह मानता हूं खुद कर लूंगी। बुरा मान गए. मैंने हंसते हुए कहा- अरे नहीं, > सच्चाई यही है कि मैं जब भी कोई लेख किसी को छपने देता हूं तो एक बार जरुर कह > देता हूं, लिंग का मामला आप अपने स्तर से देख लेंगे। मेरे एक- दो दोस्त जो कि > पत्रिका निकालने का काम करते हैं, सबकुछ हो जाने पर हंसते हुए कहते हैं- यार, > सारा काम हो गया, अब एकबार किसी गैरबिहारी से प्रूफरीडिंग करानी है। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080924/a1824460/attachment-0001.html From gora at sarai.net Wed Sep 24 13:52:32 2008 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Wed, 24 Sep 2008 13:52:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fw=3A__please_UNSU?= =?utf-8?q?BSCRIBE?= Message-ID: <20080924135232.1af2f083@mail.sarai.net> On Wed, 24 Sep 2008 08:06:12 +0000 (GMT) Kashmir Affairs wrote: > As i can't read Hindi, can you pls UNSUBSCRIBE me. > thnx. [...] As you had apparently subscribed yourself, please feel free to unsubscribe yourself too. This can be done from the following link that is appended to all messages on the list, including your own. > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan Regards, Gora From rajeshkajha at yahoo.com Wed Sep 24 16:48:40 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 24 Sep 2008 04:18:40 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Firefox 3.0.2 Hindi Beta released Message-ID: <875290.22494.qm@web52901.mail.re2.yahoo.com> Please download for Linux/Mac/Windows http://en-us.www.mozilla.com/en-US/firefox/all.html#beta_versions and test regards, -------------- Rajesh Ranjan Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080924/0e76bd4e/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Sep 24 19:19:43 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Sep 2008 19:19:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KS/4KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSuOiDgpJbgpKHgpLzgpYAg4KSs4KWL4KSy4KWAIOCkleCkviDgpJo=?= =?utf-8?b?4KS+4KSj4KSV4KWN4KSv?= Message-ID: <200809241919.43808.ravikant@sarai.net> दोस्तो, राजीव रंजन गिरी से सूचना मिली है कि अयोध्या प्रसाद खत्री पर वीरेन नंदा की यह फ़िल्म(45 मि नट) 25 सितंबर को 6 बजे राजेन्द्र भवन, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, आटीओ के पास, दिखाई जाएगी। श्रद्धालुओं से अपील है कि पहुँचें। रविकान्त From ravikant at sarai.net Thu Sep 25 14:27:09 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 25 Sep 2008 14:27:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hey Ishwar! Message-ID: <200809251427.09335.ravikant@sarai.net> अविनाश ने अपने मोहल्ले से भेजा था, कई लोगों को एक साथ भेजा था, इसलिए हमारे दरवाज़े आकर अटक गया था, अब नक़लचेपी के बाद पेश है. टिप्पणी अविनाश ने कर ही दी है: रविकान्त http://mohalla.blogspot.com/2008/09/blog-post_24.html हे ईश्वर!! आकांक्षा पारे हमारी दोस्‍त हैं। आउटलुक से जुड़ी हैं। जब भी वक्‍त मिलता है, हम बातें करते हैं। अपनी अपनी ज़िँदगियों को आपस में बांटते हुए मैंने कभी उनके कवि-पक्ष पर गौर नहीं किया। सच तो ये है कि बहुत सारे दोस्‍तों की कविताओं के बारे में मैं मुतमइन रहता हूं कि वो ऐसी नहीं होंगी कि आपको बेचैनी हो। फिर उन्‍हें वक्‍त जाया करने के लिए क्‍यों पढ़ें। आकांक्षा ने जब रोमन में कविता नुमा कुछ भेजा, तो मैंने तुरत पढ़ना टाल दिया। ऑफिस में भी था और यही सोचा कि घर पहुंच कर देखेंगे। ऐसे हादसे कई मेल्‍स के साथ होते हैं और वे कभी पढ़े नहीं जाते। घर पहुंच कर नेट पर जमे, तो आकांक्षा का रिमाइंडर था, कविता पढ़ी या नहीं। और जब कविता पढ़ी, तो सचमुच दिल में एक बरछी सी चल गयी। लगा कुछ आरपार हो गया है। ऐसा बरसों बाद कोई कविता पढ़ते हुए लगा। या ये भी हो सकता है कि (मैंने क्‍योंकि हिंदी कविताएं पढ़नी बंद कर दी है और...) कविताओं में इधर पठनीयता कायदे से लौट आयी हों! मेरी गुज़ारिश है कि इसे आप भी पढ़ें। ईश्‍वर! सड़क बुहारते भीकू से बचते हुए बिल्‍कुल पवित्र पहुंचती हूं तुम्‍हारे मंदिर में ईश्‍वर! जूठन साफ करती रामी के बेटे की नज़र न लगे इसलिए आंचल से ढंक कर लाती हूं तुम्‍हारे लिए मोहनभोग की थाली ईश्‍वर! दो चोटियां गुंथे रानी आ कर मचले उससे पहले तुम्‍हारे शृंगार के लिए तोड़ लेती हूं बगिया में खिले सारे फूल ईश्‍वर! अभी परसों मैंने रखा था व्रत तुम्‍हें खुश करने के लिए बस दूध, फल, मेवे और मिठाई से मिटायी थी भूख कितना मुश्किल है अन्‍न के बिना जीवन तुम नहीं जानते ईश्‍वर! दरवाज़े पर दो रोटी की आस लिये आये व्‍यक्ति से पहले तुम्‍हारे प्रतिनिधि समझे जाने वाले पंडितों को खिलाया जी भर कर चरण छू कर लिया आशीर्वाद ईश्‍वर! नन्‍हें नाती की ज़‍िद सुने बिना मैंने तुम्‍हें अर्पण किये रितुफल ईश्‍वर! इतने बरसों से तुम्‍हारी भक्ति, सेवा और श्रद्धा में लीन हूं और तुम हो कि कभी आते नहीं दर्शन देने!!! From mrinal.panjiyar at gmail.com Fri Sep 26 10:33:37 2008 From: mrinal.panjiyar at gmail.com (mrinal panjiyar) Date: Fri, 26 Sep 2008 10:33:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Interview with a Naxal thinker Message-ID: <32e492180809252203j33cccb55p276cefe7dc3b8bee@mail.gmail.com> Dear friend, plz read an exclusive interview of Naxal thinkar Varvara rao http://www.raviwar.com/news/87_varvara-rao-interview-reyaz-ul-haq.shtml cheers Mrinal -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080926/a103b41c/attachment.html From mrinal.panjiyar at gmail.com Fri Sep 26 10:33:37 2008 From: mrinal.panjiyar at gmail.com (mrinal panjiyar) Date: Fri, 26 Sep 2008 10:33:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Interview with a Naxal thinker Message-ID: <32e492180809252203j33cccb55p276cefe7dc3b8bee@mail.gmail.com> Dear friend, plz read an exclusive interview of Naxal thinkar Varvara rao http://www.raviwar.com/news/87_varvara-rao-interview-reyaz-ul-haq.shtml cheers Mrinal -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080926/a103b41c/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Sep 27 20:54:40 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 27 Sep 2008 20:54:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpYc=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+IOCkhuCknOCkvOCkruCkl+CkouCkvA==?= Message-ID: <200809272054.40409.ravikant@sarai.net> अनिल सर, आपके इसे फिर से भेजने और मेरे दीवान पर डालने के बीच दो और धमाके हो चुके है, नानावती आयोग की रपट के और महरौली के. कुछ आभासी और कुछ असली मासूमों की जानें जा चुकी हैं. लेकिन अहम बात ये है कि ये सब होने के बाद और इन सबके दौरान हम कितना ठहरकर सोचने के लिए तैयार हैँ। आपके इस लेख का वक़्त गया नहीं है, हम जितना चाहें, जल्द तो नहीं जाएगा, भले ही यह थोड़े गुज़रे ज़माने की बात लगती हो। शुक्रिया रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Article Date: शनिवार 27 सितम्बर 2008 17:41 From: "anil pandey" To: ravikant at sarai.net सर आजमगढ़ आजकल अखबार की सुर्खियों में है. मैं आजमगढ. का ही रहने वाला हू. मेरा गांव अबू सलेम के घर सरायमीर के पास ही है. लिहाजा, मुझे मेरा आजमगढ़ बहुत याद आ रहा है. अपनी पुरानी यादों को तरोताजा करते हुए एक संस्मरण लिखा है. आप को भेज रहा हूं. -- इसे आप visfot.com पर भी पढ़ सकते हैं. अनिल पांडेय आखिर किसने बनाया आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी उस दिन अखबार की सुर्खियां खून से लथपथ थी. तमाम अखबार चीख चीख कर कह रहे थे, “दिल्ली, अहमदाबाद और उत्तर प्रदेश की अदालतों में सीरियल ब्लास्ट कर तबाही करने वाले आतंकी आजमगढ़ के रहने वाले थे.”… टीवी पर एंकर चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था, “आजमगढ़ है आतंकवाद की नर्सरी....” शाम ढलते-ढलते समाचार चैनलों ने देश भर में हुए तमाम विस्फोटों के तार आजमगढ़ से जो ड़ दिए. अचानक उत्तर प्रदेश का यह जिला अंतरऱाष्ट्रीय पटल पर छा जाता है. टीवी देखते-देखते मैं स्मृतियों में खो जाता हूं और आजमगढ़ में बिताए बचपन के दिन सिनेमा की रील तरह आंखों से गुजरने लगते हैं. मेरा आजमगढ़.... कैफी आजमी और राहुल सांस्कृत्यायन का आजमगढ़... गंगा जमुनी संस्कृति का आजमगढ़... लेकिन मेरा आजमगढ़ तो ऐसा नहीं था, जैसा आज दिखाई दे रहा है. नब्बे के दशक में हमारे राजनेताओं ने अपने चंद स्वार्थों के लिए हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत के जो बीज बोए, 18 साल बाद आज हम उसी की फसल काट रहे हैं. मुझे अपने प्यारे दोस्त साजिद का वह मासूम चेहरा आज भी अच्छी तरह याद है. कैसे मंदिर आंदोलन ने हम दोनों की दोस्ती को अलविदा कर दिया था. दोनों के बीच नफरत के बीच ऐसी दीवार खड़ी कर दी थी, जिसे मासूम मन तब समझ नहीं पाया था. “राम लला हम आंएगे, मंदिर वहीं बनाएंगे” के नारों की गूंज ने मेरे सहपाठियों राशिद, सलाउद्दीन, हासिम, फरदीन.... को भी मुझसे दूर कर दिया था. तब मैं दसवी में पढ़ता था. मुझे आज भी याद है साजिद की अम्मी की वे दुलार भरी आंखें... उनके कोमल हाथ, जिसे वे हमारे माथे पर फेर कर लंबी उम्र की दुआएं दिया करती थीं. शाम को स्कूल की छुट्टी हुई नहीं, मैं साजिद के घर पहुंच जाता था. या फिर साजिद मेरे घर आ जाता था. दोनों छत पर घंटों बैठते और सपने बुनते. हमारे सपनों में फौज हुआ करती थी. हम दोनों सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करना चाहते थे. लेकिन सपने बुनने का सिलसिला अचानक एक दिन रुक जाता है. तब 15 साल की उम्र में मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मैं हिंदू हूं और साजिद मुसलमान और हिंदू और मुसलमान कभी दोस्त नहीं बन सकते. साजिद मुझसे मिलने मेरे घर आता है और मेरे घर के लोग उसके साथ न केवल दुर्व्यवहार करते हैं, बल्कि उसे दुबारा कभी घर न आने की हिदायत भी देते हैं. मुझसे कहा जाता है कि साजिद मुसलमान है, इसलिए वह कभी घर नहीं आना चाहिए. मैं चुपके से घरवालों की नजरें बचा कर साजिद से मिलने उसके घर जाता हूं. लेकिन वहा भी वही हालात थे, जो मेरे घर में थे. तब बजरंग दल और विश्व हिंदू परि षद के नेताओं द्वारा हमें बताया गया कि मुसलमान इस देश के नहीं हैं. वे आक्रमणकारी हैं. उन्होंने इस देश के मूल निवासियों, हिंदुओं पर सैकड़ों साल तक जुल्म ढाया है. हमारे मंदिरों को उजाड कर मसजिद बना डाला है. हमें मसजिद को तोड़ कर मंदिर बनाना है. देखते-देखते पूरी फिजा में अशोक सिंघल, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और विनय कटियार के आग उगलते भाषण गूंजने लगते हैं. बजरंग दल और वि श्व हिंदू परिषद के नेता लोगों को कार सेवक बनाने लगे. गांव के जिस मंदिर में कभी दिया नहीं जतला था, उसमें 24 घंटे भजन कीर्तन होने लगा. जिस मसजिद में मौलवी साहब अकेले अजान दिया करते थे, उसमें लाउड स्पीकर के जरिए सैकड़ों अजान की आवाज सुनाई देने लगी. और हां, मसजिद के बा हर शाम की अजान के वक्त मौलवी साहब से अपने बच्चों की नजरे उतरवाने के लिए हिंदू मांओं की जो लंबी कतार लगती थी, वह भी अचानक काफूर हो जाती है. जिन बाबू मियां और फकीरिन चच्ची का हमारे घर खूब आना-जाना हुआ करता था, अचानक वह बंद हो जाता है. तब पहली बार मैने साजिद के चेहरे पर खौफ देखा था...मौत का खौफ. जब मैने गौर किया तो पाया कि यह खौफ तो गांव के सभी मुसलमान बच्चों के चेहरे पर दिखाई दे रहा था. और एक दिन साजिद जब स्कूल के रास्ते में मिला तो उसने मुझसे डरते हुए कहा, “हमें हिंदू लोग मार डालेंगे.” और इस बीच एक दिन आजमगढ़ से सटे फैजाबाद जिले में स्थित अयोध्या में बाबरी मसजिद गिरा दी गई. कहा गया कि हिंदुओं के माथे पर लगा कलंक मिटा दिया गया है. इस खुशी में मिठाईंयां बांटी जाती हैं. कई जगह दंगे होते हैं. दोनों संप्रदायों के ढेर सारे निर्दोष लोग दंगों की भेंट चढ़ जाते हैं. गांव और शहर खामोश हो जाते हैं. खैर, कुछ दिन बाद यह खामोशी तो छंट जाती है, लेकिन नफरत का गुबार नहीं. उस समय हिंदू और मुसलमानों में नफरत की जो खाई बनी, वह फिर कभी भर न सकी. बल्कि नई पीढ़ी के बीच वह और चौड़ी होती गई. आजमगढ़ कभी अंडरवर्ल्ड का गढ़ हुआ करता था. कुख्यात तस्कर हाजी मस्तान यही का रहने वाला था. दाउद के पिता ओर अबू सलेम का घर भी आजमगढ़ ही है. इनके गिरोहों में हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायों के लोग हुआ करते थे. दाऊद के करीबियों में तो मुसलमानों से ज्यादा संख्या हिंदुओं की थी. लेकिन बाबरी मसजिद के विध्वंस ने अंडरवर्ल्ड को भी दो खेमों में बांट दिया. इससे पहले आजमगढ़ अपराध की धरती थी, लेकिन नफरत की नहीं. 1992 के बाद देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी नफरत की फसल लहलहाने लगी. फर्क सिर्फ इतना था कि यहां अंडरवर्ल्ड के जरिए आईएसआई और दहशदगर्दों ने नफरत करने वाले लोगों के हाथों में हथियार पकड़ा दिया. करीब 16 साल बाद एक दिन जब मैं साजिद से मिला तो वह बिल्कुल बदल चुका था. उसका बदला रूप देख कर मैं चौक गया. उसके चेहरे की मासूमियत नफरत में तब्दील हो चुकी थी. सेना में भर्ती होकर देश सेवा का सपना संजोने वाला नौजवान जेहादी बनना चाहता है. गुजरे वक्त ने साजिद को जेहाद का समर्थक और ओसामा बिन लादेन का फैन बना दिया था. घंटे भर की मुलाकात के दौरान वह लगातार मुझसे शिकायत करता रहा कि इस मुल्क में अब वह सुरक्षित नहीं है. यह असुरक्षा की भावना आजमगढ़ के नई पीढ़ी के नौजवानों में घर कर गई है. बाबरी मसजिद को गिरते देखने वाली पीढ़ी अब नौजवान हो गई है. अगर ऐसे में कोई आतंकी संगठन या फिर आइएसआई नौजवानों को गुमराह कर दे, तो उन्हें शायद बंदूक उठाते देर न लगे. हो सकता है आतिफ और साजिद के साथ भी ऐसा ही हुआ हो. आज जब आजमगढ़ के बारे में सोचता हूं तो खुद से सवाल करता हूं, “आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी किसने बनाया है?” आतिफ ने या फिर अशोक सिंघल, मुलायम सिंह, इमाम बुखारी और सैयद शहाबुद्दीन ने. From vineetdu at gmail.com Mon Sep 29 11:38:47 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 29 Sep 2008 11:38:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS54KSy4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOClh+CkmuCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KS44KWI4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSaIOCkrOCljeCkkeCkrw==?= Message-ID: <829019b0809282308y1cd91b0bxa74d8958f6cacea2@mail.gmail.com> जिस मूल्य को लेकर तहलका काम कर रहा है, जिस बात को लेकर वह इलीट लोगों के बीच ट्रू जर्नलिज्म का ढोल पीट रहा है, आपको नहीं लगता कि वह औरों से भी घटिया काम कर रहा है। अब बताइए तहलका को क्या जरुरत पड़ गयी है कि जहां भी रेडलाइट है वहां वह सैंडविच ब्ऑय से मैगजीन बिकवाए। आपको क्या लगता है कि जिस रेडलाइट पर ये बच्चे तहलका के इश्यू लेकर आपसे-हमसे घिघियाते फिरते हैं, क्या कभी तरुण तेजपाल की नजर नहीं पड़ती होगी। वो तो अपनी एसी गाड़ी से आराम से गुजर जाते होंगे. एक न्यूज एजेंसी में काम करनेवाले मेरे एक साथी ने जब अपनी झल्लाहट मेरे सामने रखी तो अचानक से कोई तर्क मेरे दिमाग में नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या बोलूं। मैं अब तक सिर्फ इतना जानता हूं कि तहलका एक हद तक ट्रू जर्नलिज्म कर रहा है. आप तहलका के मुकाबले बाकी के मीडिया हाउस में देख लीजिए- आदिवासी, गुजरात नरसंहार में तबाह हुए मुसलमानों, देश के किसानों और हाशिए पर के लोगों की कितनी नोटिस ली जाती है। मेरा दोस्त अड़ा हुआ था. चलो मान लिया कि वो उन सब की नोटिस ले रहा है जिनतक नेता भी इस लोभ से कि वोट मिलेंगे, नहीं पहुंचते, पत्रकारों की कौन बात करे। मैंने एक ही बात कही- देखो, मामला ऐसा है कि अब जो भी मीडिया हाउस,संस्थान या इन्टल लोग अच्छी बातें कहते और लिखते हैं, वो दरअसल समाज के भले के लिए कह रहे हैं, इससे सामाजिक जागरुकता आएगी, ऐसा उनके दिमाग में नहीं होता। यह सब लिखना और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं। मसलन एक पत्रकार भ्रष्टाचार के विरोध में देशभक्ति पैदा करने के लिए जिम्मेदार है। उसकी रिपोर्टिंग में कितना प्रोफेशनलिज्म हैं कि वह ऑडिएंस के बीच यह भाव पैदा कर सके, उसकी काबलियत बस इतने भर से तय होती है कि ऐसा करने में वो किस हद तक सफल हो पाया है। जरुरी नहीं है कि वह खुद भी ऐसा ही व्यवहार करे। जो विचार और संदेश वो आंडिएंस को दे रहा है, उसे खुद भी मानने के लिए बाध्य नहीं है। अगर वो ऐसा नहीं करता है तो उसकी प्रोफेशनलिज्म मारी जाएगी। प्रोफेशनलिज्म एरा की एक बहुत बड़ी शर्त है कि लोग जिस चीज का उत्पादन कर रहे हैं उसको लेकर भावुक न हो जाएं। तुमने देखा है नोएडा और गाजियाबाद के किसी फैक्ट्री के मजदूर को कि वह जूते बनाने के बाद उसको लेकर भावुक हो गया हो। ऐसा है कि वह अगर नाइकी के जूते बना रहा है तो बाध्य है कि वो भी उसी कंपनी के जूते पहने ? उसका काम वहीं से खत्म हो जाता है तब वह बिकने लायक जूते बना देता है, दैट्स ऑल। फिलहाल अगर इस लिहाज से तहलका के सैंडविच ब्ऑय द्वारा बेचे जाने की बात को देखो तो मुझे नहीं लगता कि तुम्हें तरुण तेजपाल पर बहुत गुस्सा आएगा।....कहने को तो मुझे जो लगा, मैंने अपने दोस्त को कह दिया लेकिन इसी कड़ी में एक बात और याद आ गयी। मेरे एरिया के तहलका डिस्ट्रीब्यूटर ने बातचीत में एक बार मुझे बताया कि तहलका चार लाख से कम के विज्ञापन नहीं लेती है। उसके बताने का भाव कुछ इस तरह से था कि वह बाकी के मीडिया हाउस से तहलका को अलग करना चाह रहा हो। मतलब ये कि यह कोई हिन्दी चैनल नहीं है कि तीस रुपये की चड्डी से लेकर चालीस रुपये के हवाई चप्पल तक का विज्ञापन ले ले। तिसपर कि अभी हाथरस के शर्तिया इलाज का विज्ञापन आना बाकी है।..तहलका की औकात समझने-समझाने के लिए इतना काफी था।..और वैसे भी किसी भी मैगजीन, अखबार और चैनल की हैसियत इसी से बनती ही है कि वह किस-किस मंहगे उत्पादों के विज्ञापन जुटा ले रहा है। अब बारी पत्रकारों को दी जानेवाली सैलरी पर थी। मैंने कहा कि- सुना है, यहां काम करनेवालों को मोटी रकम मिलती है। इतनी कि कोई पत्रकार चाहे तो रबर की तरह दो-चार महीने में गाड़ी की साइज बढ़ा सकता है। अबकी मेरे दोस्त का पारा और गरम हो गया। लीजिए, अब देखिए। दुनियाभर की चीजों पर पैसा खर्च करने के लिए तहलका के पास पैसा है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम दुरुस्त करने के लिए पैसा नहीं है। आप सोचिए न कि जिस गरीब और अनाथ बच्चों की अंदर स्टोरी छपी होती है, मोटे विज्ञापनों के दम पर एकदम चिकने झकझक कागजों पर, उसे देखकर बच्चों पर क्या बितती होगी। मैंने भी जोड़ा- और कभी-कभी तो कवर पेज पर ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें भी होती है। ट्रू जर्नलिज्म का फंड़ा ही है-देश की एक लाचार तस्वीर। *नोट- सैंडविच ब्ऑय मार्केटिंग का शब्द है। कम उम्र के बच्चों का ऐसा समुदाय जिसे मार्केटिंग एजेंसियां रेडलाइट या फिर भीडभाड़ इलाके में मैगजीन या किताबें बेचने के लिए पकड़ती है। इसके जरिए माल बेचना आसान होता है। संभव हो इसमें कमीशन को लेकर बचत भी ज्यादा होती हो। दिल्ली में तो मैंने कई जगहों पर फूल की जगह पाइरेटेड आर्गुमेंटेटिव इडियन, गॉड ऑफ स्माल थिंग्स सहित तहलका, आउटलुक और इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं बच्चों को बेचते हुए देखा है। यहां पर आप मैगजीन की गुणवत्ता के कारण नहीं, इन बच्चों से पिंड छुड़ाने के लिए खरीदते हैं। आप पाठक की हैसियत से नहीं दाता की हैसियत से खरीदते हैं क्योंकि ये बच्चें बेचते नहीं लगभग भीख मांगते हैं। अब कोई कहे कि तहलका सहित बाकी पत्रिकाएं भीख मांगने की संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं तो ये तो वो ही जानें।* -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-80584 Size: 11536 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080929/cddb75f4/attachment-0001.bin From shashikanthindi at gmail.com Mon Sep 29 19:07:30 2008 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Mon, 29 Sep 2008 19:07:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS54KSy4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOClh+CkmuCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KS44KWI4KSC4KSh?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSaIOCkrOCljeCkkeCkrw==?= In-Reply-To: <829019b0809282308y1cd91b0bxa74d8958f6cacea2@mail.gmail.com> References: <829019b0809282308y1cd91b0bxa74d8958f6cacea2@mail.gmail.com> Message-ID: <2b1ae99f0809290637m1a0664e6s496ffec9aa629e02@mail.gmail.com> rjdhani ki lalbattiyon par tahalka bechte hain chote-chote bacche- tt bhi jante hain vineet ji jaise 15 august aur 26 january k aaspass tiranga bechte hain bacche- desh ki mahila evam bal vikas mantri, varishth naukarshah aur pardhanmantri evam rastrapati bhi jante hain.vichar parikarama k liye interview kiya nehru place aur gk-1 men, ndtv ki lalbatti par. 10 rupay k 2 jhande. kis desh ka jhanda hai? nahin batya. hum laye hain tufan se kisti nikaal k is desh ko rakhna mere baccho sanbhal k................... vineet ji, ye bacche desh ko hi to sanbhal rahe hain, desh inhen bhale n sanbhale. jai hind! shashikant 2008/9/29 vineet kumar > जिस मूल्य को लेकर तहलका काम कर रहा है, जिस बात को लेकर वह इलीट लोगों के बीच > ट्रू जर्नलिज्म का ढोल पीट रहा है, आपको नहीं लगता कि वह औरों से भी घटिया काम > कर रहा है। अब बताइए तहलका को क्या जरुरत पड़ गयी है कि जहां भी रेडलाइट है > वहां वह सैंडविच ब्ऑय से मैगजीन बिकवाए। आपको क्या लगता है कि जिस रेडलाइट पर > ये बच्चे तहलका के इश्यू लेकर आपसे-हमसे घिघियाते फिरते हैं, क्या कभी तरुण > तेजपाल की नजर नहीं पड़ती होगी। वो तो अपनी एसी गाड़ी से आराम से गुजर जाते > होंगे. > > एक न्यूज एजेंसी में काम करनेवाले मेरे एक साथी ने जब अपनी झल्लाहट मेरे सामने > रखी तो अचानक से कोई तर्क मेरे दिमाग में नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या बोलूं। > मैं अब तक सिर्फ इतना जानता हूं कि तहलका एक हद तक ट्रू जर्नलिज्म कर रहा है. > आप तहलका के मुकाबले बाकी के मीडिया हाउस में देख लीजिए- आदिवासी, गुजरात > नरसंहार में तबाह हुए मुसलमानों, देश के किसानों और हाशिए पर के लोगों की > कितनी > नोटिस ली जाती है। मेरा दोस्त अड़ा हुआ था. चलो मान लिया कि वो उन सब की नोटिस > ले रहा है जिनतक नेता भी इस लोभ से कि वोट मिलेंगे, नहीं पहुंचते, पत्रकारों > की > कौन बात करे। > > मैंने एक ही बात कही- देखो, मामला ऐसा है कि अब जो भी मीडिया हाउस,संस्थान या > इन्टल लोग अच्छी बातें कहते और लिखते हैं, वो दरअसल समाज के भले के लिए कह रहे > हैं, इससे सामाजिक जागरुकता आएगी, ऐसा उनके दिमाग में नहीं होता। यह सब लिखना > और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो > उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं। मसलन एक पत्रकार भ्रष्टाचार के विरोध में > देशभक्ति पैदा करने के लिए जिम्मेदार है। उसकी रिपोर्टिंग में कितना > प्रोफेशनलिज्म हैं कि वह ऑडिएंस के बीच यह भाव पैदा कर सके, उसकी काबलियत बस > इतने भर से तय होती है कि ऐसा करने में वो किस हद तक सफल हो पाया है। जरुरी > नहीं है कि वह खुद भी ऐसा ही व्यवहार करे। जो विचार और संदेश वो आंडिएंस को दे > रहा है, उसे खुद भी मानने के लिए बाध्य नहीं है। अगर वो ऐसा नहीं करता है तो > उसकी प्रोफेशनलिज्म मारी जाएगी। > > प्रोफेशनलिज्म एरा की एक बहुत बड़ी शर्त है कि लोग जिस चीज का उत्पादन कर रहे > हैं उसको लेकर भावुक न हो जाएं। तुमने देखा है नोएडा और गाजियाबाद के किसी > फैक्ट्री के मजदूर को कि वह जूते बनाने के बाद उसको लेकर भावुक हो गया हो। ऐसा > है कि वह अगर नाइकी के जूते बना रहा है तो बाध्य है कि वो भी उसी कंपनी के > जूते > पहने ? उसका काम वहीं से खत्म हो जाता है तब वह बिकने लायक जूते बना देता है, > दैट्स ऑल। फिलहाल अगर इस लिहाज से तहलका के सैंडविच ब्ऑय द्वारा बेचे जाने की > बात को देखो तो मुझे नहीं लगता कि तुम्हें तरुण तेजपाल पर बहुत गुस्सा > आएगा।....कहने को तो मुझे जो लगा, मैंने अपने दोस्त को कह दिया लेकिन इसी कड़ी > में एक बात और याद आ गयी। > > मेरे एरिया के तहलका डिस्ट्रीब्यूटर ने बातचीत में एक बार मुझे बताया कि तहलका > चार लाख से कम के विज्ञापन नहीं लेती है। उसके बताने का भाव कुछ इस तरह से था > कि वह बाकी के मीडिया हाउस से तहलका को अलग करना चाह रहा हो। मतलब ये कि यह > कोई > हिन्दी चैनल नहीं है कि तीस रुपये की चड्डी से लेकर चालीस रुपये के हवाई चप्पल > तक का विज्ञापन ले ले। तिसपर कि अभी हाथरस के शर्तिया इलाज का विज्ञापन आना > बाकी है।..तहलका की औकात समझने-समझाने के लिए इतना काफी था।..और वैसे भी किसी > भी मैगजीन, अखबार और चैनल की हैसियत इसी से बनती ही है कि वह किस-किस मंहगे > उत्पादों के विज्ञापन जुटा ले रहा है। > > अब बारी पत्रकारों को दी जानेवाली सैलरी पर थी। मैंने कहा कि- सुना है, यहां > काम करनेवालों को मोटी रकम मिलती है। इतनी कि कोई पत्रकार चाहे तो रबर की तरह > दो-चार महीने में गाड़ी की साइज बढ़ा सकता है। अबकी मेरे दोस्त का पारा और गरम > हो गया। लीजिए, अब देखिए। दुनियाभर की चीजों पर पैसा खर्च करने के लिए तहलका > के > पास पैसा है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम दुरुस्त करने के लिए पैसा नहीं है। > आप > सोचिए न कि जिस गरीब और अनाथ बच्चों की अंदर स्टोरी छपी होती है, मोटे > विज्ञापनों के दम पर एकदम चिकने झकझक कागजों पर, उसे देखकर बच्चों पर क्या > बितती होगी। मैंने भी जोड़ा- और कभी-कभी तो कवर पेज पर ऐसे ही बच्चों की > तस्वीरें भी होती है। ट्रू जर्नलिज्म का फंड़ा ही है-देश की एक लाचार तस्वीर। > > *नोट- सैंडविच ब्ऑय मार्केटिंग का शब्द है। कम उम्र के बच्चों का ऐसा समुदाय > जिसे मार्केटिंग एजेंसियां रेडलाइट या फिर भीडभाड़ इलाके में मैगजीन या > किताबें > बेचने के लिए पकड़ती है। इसके जरिए माल बेचना आसान होता है। संभव हो इसमें > कमीशन को लेकर बचत भी ज्यादा होती हो। दिल्ली में तो मैंने कई जगहों पर फूल की > जगह पाइरेटेड आर्गुमेंटेटिव इडियन, गॉड ऑफ स्माल थिंग्स सहित तहलका, आउटलुक और > इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं बच्चों को बेचते हुए देखा है। यहां पर आप मैगजीन > की > गुणवत्ता के कारण नहीं, इन बच्चों से पिंड छुड़ाने के लिए खरीदते हैं। आप पाठक > की हैसियत से नहीं दाता की हैसियत से खरीदते हैं क्योंकि ये बच्चें बेचते नहीं > लगभग भीख मांगते हैं। अब कोई कहे कि तहलका सहित बाकी पत्रिकाएं भीख मांगने की > संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं तो ये तो वो ही जानें।* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080929/099bef70/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Sep 30 12:11:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 30 Sep 2008 12:11:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK/gpLkg?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSy4KWN4oCN4KSVIOCkueCkruCkvuCksOCkviDgpLngpYvgpJU=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreClgCDgpLngpK7gpL7gpLDgpL4g4KSV4KWN4oCN4KSv4KWL4KSC?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgiDgpLLgpJfgpKTgpL4/?= Message-ID: <200809301211.26567.ravikant@sarai.net> अविनाश, शुक्रिया. मैंने भी मुश्ताक़ और नवीन के साक्षात्कार की यह हृदय-छू कहानी पढ़ी थी, किसी और डा क-सूची पर, और सोच ही रहा था कि दीवान पर डालूँ, तुमने अच्छा किया डालकर. मैं सिर्फ़ नीचे नक़लचेपी कर देता हूँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: यह मुल्‍क हमारा होकर भी हमारा क्‍यों नहीं लगता? Date: मंगलवार 30 सितम्बर 2008 00:48 From: "avinash das" To: mohallaclub at gmail.com *प्रख्यात शिक्षाविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता प्रोफ़ेसर अनिल सदगोपालने अफलातून को स्टार न्यूज़ के सीनियर एसोसिएट प्रोड्यूसर नवीन कुमार की आपबीती और उस पर अपनी टिप्पणी मुझे भेजी है। यह सच्ची कहानी है। नवीन कुमार नौजवान, मजबूत और विचारवान पत्रकार हैं। कॉर्पोरेशन्स का बर्ताव क्या व्यक्तियों से भिन्न है? हम ऐसे माहौल में हमवतन साथी मुश्ताकों का साथ दे रहे हैं या नहीं? नवीन कुमार का पत्र याहू के किसी ग्रुप में प्रोफेसर सदगोपाल को मिला था। plz must read * -- avinash उन्हें माफ करना मुश्ताक नवीन कुमार आज कई महीने बाद मुश्ताक का फोन आया है। उसका पहला वाक्य था, क्या मैं आतंकवादी लगता हूं। उसका लहजा इतना तल्ख है कि मैं सहम जाता हूं। मेरी जुबान जम जाती है। वह बिना मेरे बोलने का इंतजार किए कहता चला जाता है। ...तुमलोग हमें खत्म क्यों नहीं कर देते। यह लड़ाई किसके खिलाफ है। कुछ लोगों के खिलाफ या फिर पूरी एक कौम के खिलाफ।... वह रोने लगता है। मुश्ताक रो रहा है। भरोसा नहीं होता। उसे मैं पिछले 18 साल से जानता हूं। तब से जब हम पांचवीं में थे। उसके बारे में मशहूर था कि वो अब्बू के मरने पर भी नहीं रो सकता। वह मुश्ताक रो रहा है। दो दिन पहले ही दिल्ली के बटला हाउस इलाके में मुठभेड़ हुई है। यह ख़बर देखते ही देखते राजधानी के हर गली-कूचे-चौराहे पर पसर गई है। मुश्ताक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर में काम करता है। है नहीं था। आज उसे दफ्तर में घुसते हुए रोक दिया गया। मैनेजमेंट ने उसे कुछ दिनों तक न आने को कहा है। यह कुछ दिन कितना लंबा होगा उसे नहीं मालूम। उसके दफ्तरी दोस्तों में से ज्यादातर ने उससे किनारा कर लिया है। मुश्ताक हिचकी ले रहा है। मैं सन्न हूं। मुश्ताक पटना वापस लौट रहा है। मैं स्टेशन पर उससे मिलने आया हूं। वह बुरी तरह से बिखरा हुआ है। टूटा हुआ। वह मेरी नजरों में भरोसे की थाह लेना चाह रहा है। पूछता है यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता। मैं उसे रुकने को नहीं कह पाता। वह खुद ही कहता चला जाता है। रुक कर क्या होगा। तुम्हें सोच भी नहीं सकते हमपर क्या बीत रही है। अंदाजा भी नहीं हो सकता तुम्हारे नाम की वजह से दफ्तर के दरवाजे पर रोक दिए जाने की टीस। कलेजा फट जाता है। मुश्ताक सवाल नहीं कर रहा है। हथौड़े मार रहा है। हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर। सामाजिक सरोकारों पर। कोई नहीं पूछता कि अगर पुलिस को पता था कि आतंकवादी एक खास मकान के खास फ्लैट में छिपे बैठे हैं उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई। उनके खिलाफ सबूत क्या हैं। आतंकवाद के नाम पर वो किसी को भी उठा सकते हैं। किसी को भी मार सकते हैं। कहा जा रहा है वो अपना पाप छिपाए रखने के लिए ऊंची तालीम ले रहे हैं। एक पुलिसवाला पूरी बेशर्मी से कहता है सैफ दिखने में बहुत स्मार्ट है, उसकी कई महिला मित्र हैं। जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो। जैसे भरोसे की मीनारें ध्वस्त होती जा रही हैं। बटला हाउस की मुठभेड़ सिर्फ एक घटना नहीं है। का नून और मान्यताओं के बीच फैला एक ऐसा रेगिस्तान है जिसपर अविश्वास की नागफनी का एक भयावह जंगल उग रहा है। ट्रेन खुलने वाली है। मुश्ताक अपने पर्स से निकालकर मेरा विजिटिंग कार्ट फाड़ रहा है। कहता है, क्या पता किसी एनकाउंटर में कब मार दिया जाऊं और वो तुम्हें भी कठघरे में खड़ा कर दें। वह कसकर मेरा हाथ पकड़ लेता है। लगता है उसकी आत्मीयता की तपिश मुझे पिघला देगी। ट्रेन सरकने लगती है। दरकती जा रही है विश्वास की दीवार। नवीन कुमार सी-17, डीडीए फ्लैट्स फेज-1, कटवारिया सराय नई दिल्ली-110016 फोन - 9868525121 From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Sep 30 20:16:20 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Tue, 30 Sep 2008 20:16:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkj+CkqOCkleCkvuCkieCkguCkn+CksCDgpJTgpLAg4KSu?= =?utf-8?b?4KWB4KS44KWN4KSy4KS/4KSuIOCkquCkueCkmuCkvuCkqF/gpIbgpLY=?= =?utf-8?b?4KWB4KSk4KWL4KS3?= Message-ID: <196167b80809300746x7edb282cm1117304ad0dad259@mail.gmail.com> *मैंने अनवर* से पूछा - तुम क्या कर रहे हो? उसने पलटकर पूछा - इसका क्या मतलब ? मैंने कहा - अबे जामिया में ये रैली करने की क्या जरूरत है? तुम क्यों नहीं समझते? इससे गलत संदेश जाएगा। भगवान के लिए ऐसा मत करो। ये सुनते ही अनवर आपा खो बैठा और बोला- तुम्हारा क्या मतलब है? कानूनी सहायता देना मूलभूत अधिकार है। मैं उस पर भला कैसे आपत्ति कर सकता हूं। मैंने कहा- देखो, कोई भी भला आदमी इस बात पर उंगली नहीं उठाएगा पर यह वह समय नहीं है। ऐसे में जब कोई ये नहीं जानता कि कहां बम फटेगा और हम घर लौटेंगे भी या नहीं तब आप कैसे किसी से समझदारी की उम्मीद कर सकते हैं। काफी देर गर्मागर्मी होती रही। एक बार तो ऐसा लगा कि दोस्ती खतरे में है। अनवर और मैं 1988-90 में जेएनयू में साथ-साथ थे। तब से हम परिवार की तरह हैं। हमारे बीच कई बार काफी नोंकझोंक होती रही, और ढेरों मुद्दों पर हमारे विचार काफी अलग-अलग भी रहे लेकिन कभी भी हमारी दोस्ती पर आंच नहीं आयी। बहसाबहसी में मैंने महसूस किया कि हमारे गुस्से के कारण कुछ और है शायद हम एक दूसरे से जो कहना चाहते हैं वो कह नहीं पा रहे हैं। मैं शायद ये कहना चाहता था कि मुसलमानों के साथ कुछ गड़बड़ है। तुम लोग हमेशा बम फोड़ते हो और वह शायद यह कहना चाहता था कि सरकारी अमले और मीडिया में हिंदुओं का बोलबाला है, जो हमेशा ये सोचते हैं कि मुसलमान आतंकवादी होते हैं और उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए इसलिए निर्दोष मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर निशाना बनते हैं। यह वास्तव में अजीब था क्योंकि कट्टरवाद और फिरकापरस्ती से लड़ने का हम दोनों का लंबा इतिहास रहा है। हम दोनों ऐसी ताकतों के खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज उठाते रहे हैं। तो फिर ये गरमागर्मी क्यों? मुझे अगली सुबह इस बात का जवाब मिल गया जब मैंने वरिष्ठ पत्रकार और लेजेंडरी संपादक एम जे अकबर का लेख पढ़ा। अकबर ने बड़े दबे छुपे शब्दों में उस बात को लिख मारा जो अनवर नहीं कह पाया। मैं ये साफ कर दूं कि एम जे के प्रति हमेशा से मेरे मन में सम्मान रहा है, जो आज भी है। वे आधुनिक और बेहतर समझ वाले चुनिंदा संपादकों में से एक हैं। लेकिन टाइम्स आफ इंडिया में में रविवार को जो उन्होंने लिखा उसमें और शाह इमाम बुखारी के मुखर बयानों में काफी कुछ समानता मुझे दिखी। मैं काफी निराश , उदास और परेशान था। मैं जवाब तलाश रहा था। क्या मेरी सोच में कहीं कुछ गड़बड़ है? क्या मैं बदल गया हूं? क्या मैं वही आदमी हूं जो अबतक हिंदू सांप्रदायिकता और उसकी मुस्लिम विरोधी विचारधारा का विरोध करता आया है? आखिर, क्यों मैं अनवर और एम जे की विश्वसनीयता पर शक कर रहा हूं। सोचते वक्त मुझे जाने-माने पटकथा लेखक जावेद अख्तर का खयाल आया, जिन्होंने एक टीवी डिबेट के दौरान मेरे एक मंझे हुए एंकर संदीप चौधरी को यह कहकर झिड़क दिया था कि उनका सवाल सांप्रदायिक का है। मुझे ठीक से उनका वह सवाल याद नहीं लेकिन इतना याद है कि वह सवाल मुसलमानों और उनकी पहचान को लेकर था। तब मैंने गुस्से में एक हिंदी मैगजीन में एक तीखा लेख लिखा था और सवाल उठाया था कि क्यों आरिफ मोहम्मद खान को सैयद शहाबुद्दीन से 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत में मात खानी पड़ी? आखिर क्यों ऐसा हुआ कि वी पी सिंह ने आरिफ मोहम्मद खान को इलाहाबाद जाने से रोक दिया जहां से वे 1988 में लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे लेकिन शहाबुद्दीन का स्वागत किया गया। अचंभे की बात है कि मुझे इस मुद्दे पर जावेद अख्तर के कभी दोस्त रहे सलीम खान से जोरदार समर्थन मिला। उन्होंने दैनिक भास्कर में मेरे लिखे का हवाला देते हुए एक लेख लिखा था और मेरे कुछ तर्कों से सहमति जताई थी । मुझे यहां ये मानने में कोई संकोच नहीं है कि पिछले काफी समय से मेरे जेहन में ये सवाल रह रह कर गूंज रहा है कि अब मुस्लिम समुदाय के आत्ममंथन का वक्त आ गया है। समुदाय को खुद से ये सवाल पूछना होगा कि क्या अंदर कहीं कुछ गलत हो रहा है? आखिर क्यों नैरोबी से दार-ए-सलाम, इंडोनेशिया से सूडान, मैड्रिड से मैनहटन, काबुल से कश्मीर, चेचेन्या से चीन तक उनकी पहचान एक ऐसे शख्स की बन रही है जो बम फोड़ता है , धमाका करता? मुझे मालूम है कि ऐसा कह कर मैं क्या जोखिम मोल ले रहा हूं। मुझे मालूम है कि कुछ लोग यकायक कह उठेंगे कि देखा आशुतोष का चेहरा बेनकाब हो गया, धर्मनिरपेक्षता की आड़ में वो अबतक सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा था। यही है उसका असली चेहरा। अब उसकी हकीकत सामने आई है। लेकिन मुझे आज इसकी परवाह नहीं। आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर क्यों 20वीं सदी के बेहरतीन दिमागों में से एक सलमान रुश्दी खुली हवा में सांस नहीं ले सकते और क्यों तसलीमा नसरीन देश की सबसे धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली लेफ्ट सरकार के साए में शांति से नहीं रह सकतीं? आखिर क्यों लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह सिमी पर से बैन हटाने को सही ठहराने की कोशिश करते हैं? ऐसा क्यों होता है कि देवबंद के मौलाना मदनी रामलीला मैदान में आतंकवादी विरोधी रैली का आयोजन करते हैं और आतंकवाद का विरोध करते हैं तो उर्दू प्रेस उनकी आलोचना पर उतर आती है? कोई ये सवाल भी उठा सकता है कि कट्टरपंथ और फिरकापरस्ती तो हर धर्म में है तो ये हंगामा क्यों? मैं मानता हूं लेकिन थोड़ा फर्क है। हिंदू समाज में अगर भड़काने वाली कट्टरपंथी आवाज है तो वहीं इसके बराबर या कहें इससे भी अधिक मजूबत उदारपंथी आवाज भी है। ईसाईयत में ये जंग धार्मिक कट्टरपंथ काफी पहले हार चुका है। ईसाईयत में ये तय हो चुका है कि धर्म निजी आस्था का मामला है और राजनीति में मजहब के लिये कोई जगह नहीं है। हिंदुत्व और ईसाईयत में अबुल अल मौदूदी जैसे लोग नहीं दिखाई पड़ते जो धर्म और राजनीति का घालमेल करना चाहते हैं। मौदूदी दावा करते हैं कि इस्लाम एक क्रांतिकारी विचारधारा है और एक सिस्टम भी जो सरकारों को पलट देता है। मेरी नजर में मुस्लिम समुदाय में रैडिकल इस्लाम या राजनीतिक इस्लाम है जो खुद अपने ही लोगों और दुनिया के लिए मुसीबत पैदा कर रहा है। लेकिन हैरानी वाली बात ये है कि इस तथाकथित रैडिकल इस्लाम के खिलाफ कोई पुरजोर आवाज बुलंद नहीं करता न ही भारत में और न ही दूसरी जगहों पर। उदारपंथियों का एक बड़ा तबका अकसर चुप रहता है या फिर वह इसका इतनी ताकत से विरोध नहीं करता कि पूरा समुदाय इसको सुने। फरीद जकरिया ने अपनी किताब 'पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड' में लिखा है कि मुस्लिम जगत भी बदल रहा है लेकिन बाकी की तुलना में काफी धीमे। इसमें भी कई ऐसे लोग हैं जो इस बदलाव के विरोध में खडे़ हो खुद को इस तबके का नेता मानने का अहसास पाले बैठे हैं। दूसरी संस्कृतियों की तुलना में इस्लाम के अंदर प्रतिक्रियावादी ज्यादा कट्टर हैं- इनमें जड़ता व्याप्त है। हालांकि इनकी संख्या काफी कम है। काफी अल्पसंख्या में हैं। मैं मानता हूं कि मौदूदी जैसे लोग कम संख्या में हैं। नहीं तो अनवर, साजिद और आर्फीन जैसे मेरे दोस्त नहीं होते लेकिन बदकिस्मती से वे ऐसे कुछ लोगों को बाकी लोगों पर राज करने का मौका देते हैं। मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक तबके की ये चुप्पी तकलीफदेह है और अब यह चुप्पी काफी जटिल रूप अख्तियार करती जा रही है। यह इसी "कांप्लेक्स" का नतीजा है कि जामिया नगर का "पुलिस एनकाउंटर" मुस्लिम बौद्धिक वर्ग के लिये अपनी मुस्लिम पहचान बनाने का जरिया बन जाती है। मेरा सवाल यह है कि आखिर क्यों एक एनकाउंटर को मुस्लिम समुदाय के ऊपर हमला माना जा रहा है? पुलिस एनकाउंटर कोई नया नहीं है। ये असली या फर्जी दोनों ही होते हैं। यह हर रोज होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब कोई आतिफ अमीन मारा जाता है तो हंगामा हो जाता है, प्रदर्शन होते हैं। यहां कोई नंदू मारा जाता है तब जंतर-मंतर और जामिया पर रैली क्यों नहीं होती? मुझे एम जे अकबर को ये बताने की जरूरत नहीं कि एक नकली एनकाउंटर को असली बनाने के लिए पुलिसवाले अकसर खुद को गोली मारते हैं? राजबीर, दया नायक और प्रदीप शर्मा असली गोली चला कर हीरो नहीं बने बल्कि ये अकसर उन लोगों को मारकर हीरो बने है जिनकों इन्होंने पकड़ कर रखा था। मोहनचंद शर्मा भी कोई साधू नहीं था लेकिन एमजे को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि जामिया नगर एनकाउंटर में एम सी शर्मा पुलिस की गोलियों का भी शिकार हो सकते हैं? मेरा सवाल ये है कि क्या वो एक आम मुसलमान की तरह "रिऐक्ट" कर रहे हैं या फिर देश के एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर। यही सवाल मेरा अपने प्रिय मित्र अनवर से भी है। ये मेरा अनुमान नहीं बल्कि यकीन है कि दोनों महानुभाव एक नागरिक की तरह व्यवहार नहीं कर रहे हैं और उनके शब्दों में वही कुछ झलक रहा है जो कि जमिया नगर, सराय मीर और आजमगढ़ की सड़कों पर आम मुसलमान की बातों में झलक रहा है। यहां खुले रूप से कहा जा रहा है कि "काउंटर टेररिज्म" के नाम पर मासूम मुस्लिमों को शिकार बनाया जा रहा है। पहले आम मुसलमान और पढ़े-लिखे मुसलमान में फर्क था। लेकिन अब ये तस्वीर कुछ-कुछ धुंधली होती दिख रही है। और ये बात परेशान करने वाली है। भारतीय संदर्भ में क्या इसका ये मतलब है कि मुस्लिम समुदाय में उदारता कम होती जा रही है? मेरा जवाब है - बिग नो । फिर ऐसी प्रतिक्रिया क्यों? मैं इसे "लिटिल ब्वाय सिंड्रोम" कहता हूं। एक ऐसा बच्चा जिसे बार-बार उस शैतानी के लिए दोषी ठहराया जाता है जो उसने की ही नहीं। अवसाद के चलते वह जिद्दी और हठी हो जाता है - स्वीकारतावादी । और वो चिढ़ कर , तंग आकर , परेशान हो कर कह उठता है - "हां मैंने ही किया है। आप क्या कर लोगे?" तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने और अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के उभरने के बाद से उदारपंथी मुसलमानों के दिक्कतें शुरू हो गयीं, उनकी पहचान को खतरा पैदा हो गया है। दुनिया के हर कोने में उन पर लगातार नजर रखी जा रही हैं। उनका नाम आते ही उन्हे "अजीब सी नजरों" से देखा जाता है मानो वो आम इंसान न होकर आतंकवादी हों। न्यूयॉर्क हो या नई दिल्ली सब जगह यही हाल है। एक उदारपंथी मुसलमान जानता है कि उसका कट्टरपंथियों की सोच से कोई लेना देना नहीं है। उसका बम फोड़ों आंतकवादी सोच से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है। न ही वो ये मानता है कि हिंदू-यहूदी-ईसाई या भारत-इस्राइल-अमेरिका इस्लाम को नेस्तनाबूद करने के लिये साजिश रच रहे हैं। लेकिन वो कर क्या सकता है। वो असहाय है। उसे मालूम है कि उसकी सुनने वाला कोई नहीं। वो अंदर भी टूट रहा है और बाहर भी उनपर कोई यकीन नहीं कर रहा है कि ये खतरनाक सोच उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। और यही असहायता उसके अंदर एक ऐसे कांप्लेक्स को जन्म देती है जिसे हम लिटिल ब्वाय सिंड्रोम कहते हैं। अनवर मेरे दोस्त, तुम्हें इस सिंड्रोम से बाहर आना होगा क्योंकि अगर तुम मौदूदी और सैयद कुतुब और ओसामा और जवाहिरी जैसी सोच का शिकार हो गए तो इस धर्म का कोई भविष्य नहीं बचेगा जो शांति और क्षमा का पाठ पढ़ाता है। इस आततायी मानसिकता का जोरदार विराध करने का वक्त आ गया है। अगर अब ऐसा नहीं होगा तो मैं, तुम और एम जे जैसे लोग इतिहास में विलेन के रूप में देखे जाएंगे और हिंदू कट्टरपंथी जैसी ताकतें इस देश पर राज करेंगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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