From shashikanthindi at gmail.com Wed Oct 1 21:42:30 2008 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Wed, 1 Oct 2008 09:12:30 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkj+CkqOCkleCkvuCkieCkguCkn+CksCDgpJTgpLAg4KSu?= =?utf-8?b?4KWB4KS44KWN4KSy4KS/4KSuIOCkquCkueCkmuCkvuCkqF/gpIbgpLY=?= =?utf-8?b?4KWB4KSk4KWL4KS3?= In-Reply-To: <2b1ae99f0810010911p2f53e08cq76c9020c6d420e1b@mail.gmail.com> References: <196167b80809300746x7edb282cm1117304ad0dad259@mail.gmail.com> <2b1ae99f0810010911p2f53e08cq76c9020c6d420e1b@mail.gmail.com> Message-ID: <2b1ae99f0810010912g326f2e97q1c01b8d5221a7871@mail.gmail.com> On Wed, Oct 1, 2008 at 9:11 AM, shashi kant wrote: > > jamiya muthbher-- andhere men proff. ur buddhijivi > > muktibodh ki kavita andhere men raat k andhere me doma ji ustad, > buddhijivi, patrakar, lekhak sabhi sath dikte hain. jamiya mamle men to > sabhi dindahare sath-sath hain. > > secularism k nam par dilli ke kuch pragatisheel buddhijivi aatankwaad ka > samartahan kar rahe hain jaise jamiya ka vc aur kuch prof. saampradaayik > star par aatankwad ka samarthan kar rahe hain. > > yah dukh ki baat hai. > > ugra hindutwa, bajrang dal shivsena, rss, vhp, bjp, aadvani,modi, thkre > jaison ka hum virodh karte hain isliye ki ye hindustan ki ganga-jamuni > sanskriti k khilaf soch rakhte hainin. main attankvadi manta hun inko. in > ki vajah se hindu dharam badnam ho raha hai. > > nida fazli k sabdon men kahen to hum application nahi dene gaye the ki > hame hindu ya musalman bana do. > > alpsankhyak, dalit, bacche, aadivasi ya anya hashiye k log hain > isliye simpathy jarur rakhen lekin bacche jab roj marpit karen aur 1 din > pistaul se hatya kar den, aadivasi neta shashinath jha ko marva den, > mayavati ji jaisi dalit netri jab jarurat se jyada empowerewd aur takatvar > ho jayen, dilli k jamiya ilake men dharam vishesh k log ikatthe hokar mini > pakistan bana len aur bum forkar masum logon ki hatya karen, ghar men ak 47 > rakhe-- ye sub kaise jayaj kaha ja sakta hai? > > dilli me bum visfot hua. masum log mare gaye. pulis apna kam kar rahi hai. > jo doshi hain unehe saza milni chahiye aur har tabke ko uski kali kartuton > ki ninda karni chahiye. pragatil buddhijiviyon ko bhi. han, begunaho ko > bevajah ghasita bhi nahi jana chahiye. > > mera manna hai ki buddhijivi aur jamiya k prof police aur kanun ko kam > karne me aranga laga rahe hain aur secularism aur sampradayik addhar par > aatankvad ka samarthan kar rahe hain. > > muthbher galat tha ya sahi ye court tay karegi. sirf begunahon ki chinta > karen buddhijivi aur prof. to behtar hoga. ak 47 k sath pakre-mare gaye > tathakit aatankvadi k human right ki chinta karne vale hamare buddhijivi > ya jamiya k prof 1 hafta pahle bum visfot me mare gaye begunah logo k > manvadhikar ko lekar koi march kyon nahi nikala ya blog par kuch kyon nahi > likha? > > naya mulla jyada pyaj khata hai usi tarah naye buddhijivi state /nation ko > gariyate hain. bhaiya state aur nation globalizetion k janak amerika ko > samajh me aa raha hai jaha divaliya huye public sector ka nationalization ho > raha hai. > aur karb men taliban shashit afganistan k halat ko yaad karen. > nation me bahut si kamiyan han manta hun lekin lekin afgistan banana > manjoor nahi hamen.shyad aap pragatisheel buddhijiviyon aur profesaron ko > bhi nahi hoga- isliye sekularism aur sampradiyik addhaar par aatankvad ka > samarthan n karen. begunahon par julm na ho- ye bhi chahte hain lekin 1 > loktantra ko afganistan banane k hum kilaf hain. hidu sampradayikta jitna > khatarnak hai usse jyada nahi to utna hi khatarnak muslim ya anya > sampradikta aur aatankvad bhi hai. > > shyad meri bhavna aap samajhne ki koshis karenge. > khuda hafiz. > shashikant > > > 2008ma/9/30 ashishkumar anshu > >> *मैंने अनवर* से पूछा - तुम क्या कर रहे हो? >> >> उसने पलटकर पूछा - इसका क्या मतलब ? >> >> मैंने कहा - अबे जामिया में ये रैली करने की क्या जरूरत है? तुम क्यों नहीं >> समझते? इससे गलत संदेश जाएगा। भगवान के लिए ऐसा मत करो। >> >> ये सुनते ही अनवर आपा खो बैठा और बोला- तुम्हारा क्या मतलब है? कानूनी सहायता >> देना मूलभूत अधिकार है। मैं उस पर भला कैसे आपत्ति कर सकता हूं। मैंने कहा- >> देखो, कोई भी भला आदमी इस बात पर उंगली नहीं उठाएगा पर यह वह समय नहीं है। ऐसे >> में जब कोई ये नहीं जानता कि कहां बम फटेगा और हम घर लौटेंगे भी या नहीं तब आप >> कैसे किसी से समझदारी की उम्मीद कर सकते हैं। >> >> काफी देर गर्मागर्मी होती रही। एक बार तो ऐसा लगा कि दोस्ती खतरे में है। >> अनवर और मैं 1988-90 में जेएनयू में साथ-साथ थे। तब से हम परिवार की तरह हैं। >> हमारे बीच कई बार काफी नोंकझोंक होती रही, और ढेरों मुद्दों पर हमारे विचार >> काफी अलग-अलग भी रहे लेकिन कभी भी हमारी दोस्ती पर आंच नहीं आयी। >> >> बहसाबहसी में मैंने महसूस किया कि हमारे गुस्से के कारण कुछ और है शायद हम एक >> दूसरे से जो कहना चाहते हैं वो कह नहीं पा रहे हैं। मैं शायद ये कहना चाहता था >> कि मुसलमानों के साथ कुछ गड़बड़ है। तुम लोग हमेशा बम फोड़ते हो और वह शायद यह >> कहना चाहता था कि सरकारी अमले और मीडिया में हिंदुओं का बोलबाला है, जो हमेशा >> ये सोचते हैं कि मुसलमान आतंकवादी होते हैं और उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए >> इसलिए निर्दोष मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर निशाना बनते हैं। >> >> यह वास्तव में अजीब था क्योंकि कट्टरवाद और फिरकापरस्ती से लड़ने का हम दोनों >> का लंबा इतिहास रहा है। हम दोनों ऐसी ताकतों के खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज उठाते >> रहे हैं। तो फिर ये गरमागर्मी क्यों? मुझे अगली सुबह इस बात का जवाब मिल गया जब >> मैंने वरिष्ठ पत्रकार और लेजेंडरी संपादक एम जे अकबर का लेख पढ़ा। अकबर ने बड़े >> दबे छुपे शब्दों में उस बात को लिख मारा जो अनवर नहीं कह पाया। मैं ये साफ कर >> दूं कि एम जे के प्रति हमेशा से मेरे मन में सम्मान रहा है, जो आज भी है। वे >> आधुनिक और बेहतर समझ वाले चुनिंदा संपादकों में से एक हैं। लेकिन टाइम्स आफ >> इंडिया में में रविवार को जो उन्होंने लिखा उसमें और शाह इमाम बुखारी के मुखर >> बयानों में काफी कुछ समानता मुझे दिखी। >> >> मैं काफी निराश , उदास और परेशान था। मैं जवाब तलाश रहा था। क्या मेरी सोच >> में कहीं कुछ गड़बड़ है? क्या मैं बदल गया हूं? क्या मैं वही आदमी हूं जो अबतक >> हिंदू सांप्रदायिकता और उसकी मुस्लिम विरोधी विचारधारा का विरोध करता आया है? >> आखिर, क्यों मैं अनवर और एम जे की विश्वसनीयता पर शक कर रहा हूं। >> >> सोचते वक्त मुझे जाने-माने पटकथा लेखक जावेद अख्तर का खयाल आया, जिन्होंने एक >> टीवी डिबेट के दौरान मेरे एक मंझे हुए एंकर संदीप चौधरी को यह कहकर झिड़क दिया >> था कि उनका सवाल सांप्रदायिक का है। मुझे ठीक से उनका वह सवाल याद नहीं लेकिन >> इतना याद है कि वह सवाल मुसलमानों और उनकी पहचान को लेकर था। तब मैंने गुस्से >> में एक हिंदी मैगजीन में एक तीखा लेख लिखा था और सवाल उठाया था कि क्यों आरिफ >> मोहम्मद खान को सैयद शहाबुद्दीन से 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत >> में मात खानी पड़ी? आखिर क्यों ऐसा हुआ कि वी पी सिंह ने आरिफ मोहम्मद खान को >> इलाहाबाद जाने से रोक दिया जहां से वे 1988 में लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे >> लेकिन शहाबुद्दीन का स्वागत किया गया। >> >> अचंभे की बात है कि मुझे इस मुद्दे पर जावेद अख्तर के कभी दोस्त रहे सलीम खान >> से जोरदार समर्थन मिला। उन्होंने दैनिक भास्कर में मेरे लिखे का हवाला देते हुए >> एक लेख लिखा था और मेरे कुछ तर्कों से सहमति जताई थी । >> >> मुझे यहां ये मानने में कोई संकोच नहीं है कि पिछले काफी समय से मेरे जेहन >> में ये सवाल रह रह कर गूंज रहा है कि अब मुस्लिम समुदाय के आत्ममंथन का वक्त आ >> गया है। समुदाय को खुद से ये सवाल पूछना होगा कि क्या अंदर कहीं कुछ गलत हो रहा >> है? >> >> आखिर क्यों नैरोबी से दार-ए-सलाम, इंडोनेशिया से सूडान, मैड्रिड से मैनहटन, >> काबुल से कश्मीर, चेचेन्या से चीन तक उनकी पहचान एक ऐसे शख्स की बन रही है जो >> बम फोड़ता है , धमाका करता? >> >> मुझे मालूम है कि ऐसा कह कर मैं क्या जोखिम मोल ले रहा हूं। मुझे मालूम है कि >> कुछ लोग यकायक कह उठेंगे कि देखा आशुतोष का चेहरा बेनकाब हो गया, >> धर्मनिरपेक्षता की आड़ में वो अबतक सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा था। यही है >> उसका असली चेहरा। अब उसकी हकीकत सामने आई है। लेकिन मुझे आज इसकी परवाह नहीं। >> >> आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर क्यों 20वीं सदी के बेहरतीन दिमागों में से >> एक सलमान रुश्दी खुली हवा में सांस नहीं ले सकते और क्यों तसलीमा नसरीन देश की >> सबसे धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली लेफ्ट सरकार के साए में शांति से नहीं रह >> सकतीं? आखिर क्यों लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह सिमी पर से बैन हटाने को >> सही ठहराने की कोशिश करते हैं? ऐसा क्यों होता है कि देवबंद के मौलाना मदनी >> रामलीला मैदान में आतंकवादी विरोधी रैली का आयोजन करते हैं और आतंकवाद का विरोध >> करते हैं तो उर्दू प्रेस उनकी आलोचना पर उतर आती है? >> >> कोई ये सवाल भी उठा सकता है कि कट्टरपंथ और फिरकापरस्ती तो हर धर्म में है तो >> ये हंगामा क्यों? मैं मानता हूं लेकिन थोड़ा फर्क है। हिंदू समाज में अगर >> भड़काने वाली कट्टरपंथी आवाज है तो वहीं इसके बराबर या कहें इससे भी अधिक मजूबत >> उदारपंथी आवाज भी है। ईसाईयत में ये जंग धार्मिक कट्टरपंथ काफी पहले हार चुका >> है। ईसाईयत में ये तय हो चुका है कि धर्म निजी आस्था का मामला है और राजनीति >> में मजहब के लिये कोई जगह नहीं है। हिंदुत्व और ईसाईयत में अबुल अल मौदूदी जैसे >> लोग नहीं दिखाई पड़ते जो धर्म और राजनीति का घालमेल करना चाहते हैं। मौदूदी >> दावा करते हैं कि इस्लाम एक क्रांतिकारी विचारधारा है और एक सिस्टम भी जो >> सरकारों को पलट देता है। >> >> मेरी नजर में मुस्लिम समुदाय में रैडिकल इस्लाम या राजनीतिक इस्लाम है जो खुद >> अपने ही लोगों और दुनिया के लिए मुसीबत पैदा कर रहा है। लेकिन हैरानी वाली बात >> ये है कि इस तथाकथित रैडिकल इस्लाम के खिलाफ कोई पुरजोर आवाज बुलंद नहीं करता न >> ही भारत में और न ही दूसरी जगहों पर। उदारपंथियों का एक बड़ा तबका अकसर चुप >> रहता है या फिर वह इसका इतनी ताकत से विरोध नहीं करता कि पूरा समुदाय इसको >> सुने। >> >> फरीद जकरिया ने अपनी किताब 'पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड' में लिखा है कि मुस्लिम >> जगत भी बदल रहा है लेकिन बाकी की तुलना में काफी धीमे। इसमें भी कई ऐसे लोग हैं >> जो इस बदलाव के विरोध में खडे़ हो खुद को इस तबके का नेता मानने का अहसास पाले >> बैठे हैं। दूसरी संस्कृतियों की तुलना में इस्लाम के अंदर प्रतिक्रियावादी >> ज्यादा कट्टर हैं- इनमें जड़ता व्याप्त है। हालांकि इनकी संख्या काफी कम है। >> काफी अल्पसंख्या में हैं। >> >> मैं मानता हूं कि मौदूदी जैसे लोग कम संख्या में हैं। नहीं तो अनवर, साजिद और >> आर्फीन जैसे मेरे दोस्त नहीं होते लेकिन बदकिस्मती से वे ऐसे कुछ लोगों को बाकी >> लोगों पर राज करने का मौका देते हैं। मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक तबके की ये >> चुप्पी तकलीफदेह है और अब यह चुप्पी काफी जटिल रूप अख्तियार करती जा रही है। यह >> इसी "कांप्लेक्स" का नतीजा है कि जामिया नगर का "पुलिस एनकाउंटर" मुस्लिम >> बौद्धिक वर्ग के लिये अपनी मुस्लिम पहचान बनाने का जरिया बन जाती है। >> >> मेरा सवाल यह है कि आखिर क्यों एक एनकाउंटर को मुस्लिम समुदाय के ऊपर हमला >> माना जा रहा है? पुलिस एनकाउंटर कोई नया नहीं है। ये असली या फर्जी दोनों ही >> होते हैं। यह हर रोज होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब कोई आतिफ अमीन >> मारा जाता है तो हंगामा हो जाता है, प्रदर्शन होते हैं। यहां कोई नंदू मारा >> जाता है तब जंतर-मंतर और जामिया पर रैली क्यों नहीं होती? >> >> मुझे एम जे अकबर को ये बताने की जरूरत नहीं कि एक नकली एनकाउंटर को असली >> बनाने के लिए पुलिसवाले अकसर खुद को गोली मारते हैं? राजबीर, दया नायक और >> प्रदीप शर्मा असली गोली चला कर हीरो नहीं बने बल्कि ये अकसर उन लोगों को मारकर >> हीरो बने है जिनकों इन्होंने पकड़ कर रखा था। मोहनचंद शर्मा भी कोई साधू नहीं >> था लेकिन एमजे को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि जामिया नगर एनकाउंटर में एम >> सी शर्मा पुलिस की गोलियों का भी शिकार हो सकते हैं? मेरा सवाल ये है कि क्या >> वो एक आम मुसलमान की तरह "रिऐक्ट" कर रहे हैं या फिर देश के एक जिम्मेदार >> नागरिक के तौर पर। यही सवाल मेरा अपने प्रिय मित्र अनवर से भी है। >> >> ये मेरा अनुमान नहीं बल्कि यकीन है कि दोनों महानुभाव एक नागरिक की तरह >> व्यवहार नहीं कर रहे हैं और उनके शब्दों में वही कुछ झलक रहा है जो कि जमिया >> नगर, सराय मीर और आजमगढ़ की सड़कों पर आम मुसलमान की बातों में झलक रहा है। >> यहां खुले रूप से कहा जा रहा है कि "काउंटर टेररिज्म" के नाम पर मासूम >> मुस्लिमों को शिकार बनाया जा रहा है। पहले आम मुसलमान और पढ़े-लिखे मुसलमान में >> फर्क था। लेकिन अब ये तस्वीर कुछ-कुछ धुंधली होती दिख रही है। और ये बात परेशान >> करने वाली है। >> >> भारतीय संदर्भ में क्या इसका ये मतलब है कि मुस्लिम समुदाय में उदारता कम >> होती जा रही है? मेरा जवाब है - बिग नो । फिर ऐसी प्रतिक्रिया क्यों? मैं इसे >> "लिटिल ब्वाय सिंड्रोम" कहता हूं। एक ऐसा बच्चा जिसे बार-बार उस शैतानी के लिए >> दोषी ठहराया जाता है जो उसने की ही नहीं। अवसाद के चलते वह जिद्दी और हठी हो >> जाता है - स्वीकारतावादी । और वो चिढ़ कर , तंग आकर , परेशान हो कर कह उठता है >> - "हां मैंने ही किया है। आप क्या कर लोगे?" >> >> तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने और अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के >> उभरने के बाद से उदारपंथी मुसलमानों के दिक्कतें शुरू हो गयीं, उनकी पहचान को >> खतरा पैदा हो गया है। दुनिया के हर कोने में उन पर लगातार नजर रखी जा रही हैं। >> उनका नाम आते ही उन्हे "अजीब सी नजरों" से देखा जाता है मानो वो आम इंसान न >> होकर आतंकवादी हों। न्यूयॉर्क हो या नई दिल्ली सब जगह यही हाल है। एक उदारपंथी >> मुसलमान जानता है कि उसका कट्टरपंथियों की सोच से कोई लेना देना नहीं है। >> >> उसका बम फोड़ों आंतकवादी सोच से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है। न ही वो >> ये मानता है कि हिंदू-यहूदी-ईसाई या भारत-इस्राइल-अमेरिका इस्लाम को नेस्तनाबूद >> करने के लिये साजिश रच रहे हैं। लेकिन वो कर क्या सकता है। वो असहाय है। उसे >> मालूम है कि उसकी सुनने वाला कोई नहीं। वो अंदर भी टूट रहा है और बाहर भी उनपर >> कोई यकीन नहीं कर रहा है कि ये खतरनाक सोच उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। और >> यही असहायता उसके अंदर एक ऐसे कांप्लेक्स को जन्म देती है जिसे हम लिटिल ब्वाय >> सिंड्रोम कहते हैं। >> >> अनवर मेरे दोस्त, तुम्हें इस सिंड्रोम से बाहर आना होगा क्योंकि अगर तुम >> मौदूदी और सैयद कुतुब और ओसामा और जवाहिरी जैसी सोच का शिकार हो गए तो इस धर्म >> का कोई भविष्य नहीं बचेगा जो शांति और क्षमा का पाठ पढ़ाता है। इस आततायी >> मानसिकता का जोरदार विराध करने का वक्त आ गया है। अगर अब ऐसा नहीं होगा तो मैं, >> तुम और एम जे जैसे लोग इतिहास में विलेन के रूप में देखे जाएंगे और हिंदू >> कट्टरपंथी जैसी ताकतें इस देश पर राज करेंगी। >> >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081001/a2bfeadb/attachment-0001.html From sadanjha at gmail.com Fri Oct 3 11:26:36 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Fri, 3 Oct 2008 11:26:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkj+CkqOCkleCkvuCkieCkguCkn+CksCDgpJTgpLAg4KSu?= =?utf-8?b?4KWB4KS44KWN4KSy4KS/4KSuIOCkquCkueCkmuCkvuCkqF/gpIbgpLY=?= =?utf-8?b?4KWB4KSk4KWL4KS3?= In-Reply-To: <196167b80809300746x7edb282cm1117304ad0dad259@mail.gmail.com> References: <196167b80809300746x7edb282cm1117304ad0dad259@mail.gmail.com> Message-ID: <1a9a8b710810022256q6fa2eb6cnf079d043c0031239@mail.gmail.com> मेरा भी एक दोस्‍त है और वह हिंदू है। मैंने उससे कहा कि हिंदु समुदाय को आत्‍ममंथन की जरुरत है। लेकिन तुम यह क्‌यों कह रहे हो। हर समुदाय को आत्‍ममंथन करना चाहिये… यह था उसका उत्‍तर। मेने कहा, तो फिर तुम हमेशा क्‍यों लिखते हो कि मुसलमान समुदाय को खुद के बारे मे सोचना चाहिये? किसने यह हक दिया कि तुम मढ़ दो 'लिटिल व्‍याय सिंड्‍रोम' हमारे माथे पर?… आधुनिकता से सरावोर साईकालाजी के जरिये जिसे यदि आप इजाजत दें तो हर किसी को असामान्‍य करार दे दे। जरुरत यह भी कि ये सन पचास के दशक की भाषा छोड़ो कि हम सब हिंदु, मुसलमान, सिक्‍ख ईसाई एक है। गंगा-जमुनी तहजीब के बीच के हाईफन की मौजुदगी को जाने बिना हम दो जीवन धाराओं की दोस्‍ती नहीं रख पाएंगे। हिंदु और मुसलमान दो अलग अलग कौम है। तुम क्‍यों नही चाहते कि हम तुमसे अलग सोच रखें। मैं तुम जैसा नहीं बनना चाहता। मेरे बिरोध के स्‍वर तो तुम खैर बरदास्‍त कर जाते हो लेकिन मेरे तेवर तुम्‍हे क्‍यों नागवार गुजर जाते? क्‍या तुमने सोचा कभी कि तुम मेरी तरह क्‍यों नहीं बन जाते? कोशिश तो करो। बहुत मुश्‍किल नहीं है है यह। शर्त बस इतनी कि बड़े भाई साहब का रुतबा खोना पड़ेगा। मुझे पता नहीं साइकालाजी में इसे क्‍या कहते हैं। 2008/9/30 ashishkumar anshu : > मैंने अनवर से पूछा - तुम क्या कर रहे हो? > > उसने पलटकर पूछा - इसका क्या मतलब ? > > मैंने कहा - अबे जामिया में ये रैली करने की क्या जरूरत है? तुम क्यों नहीं > समझते? इससे गलत संदेश जाएगा। भगवान के लिए ऐसा मत करो। > > ये सुनते ही अनवर आपा खो बैठा और बोला- तुम्हारा क्या मतलब है? कानूनी सहायता > देना मूलभूत अधिकार है। मैं उस पर भला कैसे आपत्ति कर सकता हूं। मैंने कहा- > देखो, कोई भी भला आदमी इस बात पर उंगली नहीं उठाएगा पर यह वह समय नहीं है। ऐसे > में जब कोई ये नहीं जानता कि कहां बम फटेगा और हम घर लौटेंगे भी या नहीं तब आप > कैसे किसी से समझदारी की उम्मीद कर सकते हैं। > > काफी देर गर्मागर्मी होती रही। एक बार तो ऐसा लगा कि दोस्ती खतरे में है। अनवर > और मैं 1988-90 में जेएनयू में साथ-साथ थे। तब से हम परिवार की तरह हैं। हमारे > बीच कई बार काफी नोंकझोंक होती रही, और ढेरों मुद्दों पर हमारे विचार काफी > अलग-अलग भी रहे लेकिन कभी भी हमारी दोस्ती पर आंच नहीं आयी। > > बहसाबहसी में मैंने महसूस किया कि हमारे गुस्से के कारण कुछ और है शायद हम एक > दूसरे से जो कहना चाहते हैं वो कह नहीं पा रहे हैं। मैं शायद ये कहना चाहता था > कि मुसलमानों के साथ कुछ गड़बड़ है। तुम लोग हमेशा बम फोड़ते हो और वह शायद यह > कहना चाहता था कि सरकारी अमले और मीडिया में हिंदुओं का बोलबाला है, जो हमेशा > ये सोचते हैं कि मुसलमान आतंकवादी होते हैं और उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए > इसलिए निर्दोष मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर निशाना बनते हैं। > > यह वास्तव में अजीब था क्योंकि कट्टरवाद और फिरकापरस्ती से लड़ने का हम दोनों > का लंबा इतिहास रहा है। हम दोनों ऐसी ताकतों के खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज उठाते > रहे हैं। तो फिर ये गरमागर्मी क्यों? मुझे अगली सुबह इस बात का जवाब मिल गया जब > मैंने वरिष्ठ पत्रकार और लेजेंडरी संपादक एम जे अकबर का लेख पढ़ा। अकबर ने बड़े > दबे छुपे शब्दों में उस बात को लिख मारा जो अनवर नहीं कह पाया। मैं ये साफ कर > दूं कि एम जे के प्रति हमेशा से मेरे मन में सम्मान रहा है, जो आज भी है। वे > आधुनिक और बेहतर समझ वाले चुनिंदा संपादकों में से एक हैं। लेकिन टाइम्स आफ > इंडिया में में रविवार को जो उन्होंने लिखा उसमें और शाह इमाम बुखारी के मुखर > बयानों में काफी कुछ समानता मुझे दिखी। > > मैं काफी निराश , उदास और परेशान था। मैं जवाब तलाश रहा था। क्या मेरी सोच में > कहीं कुछ गड़बड़ है? क्या मैं बदल गया हूं? क्या मैं वही आदमी हूं जो अबतक > हिंदू सांप्रदायिकता और उसकी मुस्लिम विरोधी विचारधारा का विरोध करता आया है? > आखिर, क्यों मैं अनवर और एम जे की विश्वसनीयता पर शक कर रहा हूं। > > सोचते वक्त मुझे जाने-माने पटकथा लेखक जावेद अख्तर का खयाल आया, जिन्होंने एक > टीवी डिबेट के दौरान मेरे एक मंझे हुए एंकर संदीप चौधरी को यह कहकर झिड़क दिया > था कि उनका सवाल सांप्रदायिक का है। मुझे ठीक से उनका वह सवाल याद नहीं लेकिन > इतना याद है कि वह सवाल मुसलमानों और उनकी पहचान को लेकर था। तब मैंने गुस्से > में एक हिंदी मैगजीन में एक तीखा लेख लिखा था और सवाल उठाया था कि क्यों आरिफ > मोहम्मद खान को सैयद शहाबुद्दीन से 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत > में मात खानी पड़ी? आखिर क्यों ऐसा हुआ कि वी पी सिंह ने आरिफ मोहम्मद खान को > इलाहाबाद जाने से रोक दिया जहां से वे 1988 में लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे > लेकिन शहाबुद्दीन का स्वागत किया गया। > > अचंभे की बात है कि मुझे इस मुद्दे पर जावेद अख्तर के कभी दोस्त रहे सलीम खान > से जोरदार समर्थन मिला। उन्होंने दैनिक भास्कर में मेरे लिखे का हवाला देते हुए > एक लेख लिखा था और मेरे कुछ तर्कों से सहमति जताई थी । > > मुझे यहां ये मानने में कोई संकोच नहीं है कि पिछले काफी समय से मेरे जेहन में > ये सवाल रह रह कर गूंज रहा है कि अब मुस्लिम समुदाय के आत्ममंथन का वक्त आ गया > है। समुदाय को खुद से ये सवाल पूछना होगा कि क्या अंदर कहीं कुछ गलत हो रहा है? > > आखिर क्यों नैरोबी से दार-ए-सलाम, इंडोनेशिया से सूडान, मैड्रिड से मैनहटन, > काबुल से कश्मीर, चेचेन्या से चीन तक उनकी पहचान एक ऐसे शख्स की बन रही है जो > बम फोड़ता है , धमाका करता? > > मुझे मालूम है कि ऐसा कह कर मैं क्या जोखिम मोल ले रहा हूं। मुझे मालूम है कि > कुछ लोग यकायक कह उठेंगे कि देखा आशुतोष का चेहरा बेनकाब हो गया, > धर्मनिरपेक्षता की आड़ में वो अबतक सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा था। यही है > उसका असली चेहरा। अब उसकी हकीकत सामने आई है। लेकिन मुझे आज इसकी परवाह नहीं। > > आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर क्यों 20वीं सदी के बेहरतीन दिमागों में से एक > सलमान रुश्दी खुली हवा में सांस नहीं ले सकते और क्यों तसलीमा नसरीन देश की > सबसे धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली लेफ्ट सरकार के साए में शांति से नहीं रह > सकतीं? आखिर क्यों लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह सिमी पर से बैन हटाने को > सही ठहराने की कोशिश करते हैं? ऐसा क्यों होता है कि देवबंद के मौलाना मदनी > रामलीला मैदान में आतंकवादी विरोधी रैली का आयोजन करते हैं और आतंकवाद का विरोध > करते हैं तो उर्दू प्रेस उनकी आलोचना पर उतर आती है? > > कोई ये सवाल भी उठा सकता है कि कट्टरपंथ और फिरकापरस्ती तो हर धर्म में है तो > ये हंगामा क्यों? मैं मानता हूं लेकिन थोड़ा फर्क है। हिंदू समाज में अगर > भड़काने वाली कट्टरपंथी आवाज है तो वहीं इसके बराबर या कहें इससे भी अधिक मजूबत > उदारपंथी आवाज भी है। ईसाईयत में ये जंग धार्मिक कट्टरपंथ काफी पहले हार चुका > है। ईसाईयत में ये तय हो चुका है कि धर्म निजी आस्था का मामला है और राजनीति > में मजहब के लिये कोई जगह नहीं है। हिंदुत्व और ईसाईयत में अबुल अल मौदूदी जैसे > लोग नहीं दिखाई पड़ते जो धर्म और राजनीति का घालमेल करना चाहते हैं। मौदूदी > दावा करते हैं कि इस्लाम एक क्रांतिकारी विचारधारा है और एक सिस्टम भी जो > सरकारों को पलट देता है। > > मेरी नजर में मुस्लिम समुदाय में रैडिकल इस्लाम या राजनीतिक इस्लाम है जो खुद > अपने ही लोगों और दुनिया के लिए मुसीबत पैदा कर रहा है। लेकिन हैरानी वाली बात > ये है कि इस तथाकथित रैडिकल इस्लाम के खिलाफ कोई पुरजोर आवाज बुलंद नहीं करता न > ही भारत में और न ही दूसरी जगहों पर। उदारपंथियों का एक बड़ा तबका अकसर चुप > रहता है या फिर वह इसका इतनी ताकत से विरोध नहीं करता कि पूरा समुदाय इसको > सुने। > > फरीद जकरिया ने अपनी किताब 'पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड' में लिखा है कि मुस्लिम जगत > भी बदल रहा है लेकिन बाकी की तुलना में काफी धीमे। इसमें भी कई ऐसे लोग हैं जो > इस बदलाव के विरोध में खडे़ हो खुद को इस तबके का नेता मानने का अहसास पाले > बैठे हैं। दूसरी संस्कृतियों की तुलना में इस्लाम के अंदर प्रतिक्रियावादी > ज्यादा कट्टर हैं- इनमें जड़ता व्याप्त है। हालांकि इनकी संख्या काफी कम है। > काफी अल्पसंख्या में हैं। > > मैं मानता हूं कि मौदूदी जैसे लोग कम संख्या में हैं। नहीं तो अनवर, साजिद और > आर्फीन जैसे मेरे दोस्त नहीं होते लेकिन बदकिस्मती से वे ऐसे कुछ लोगों को बाकी > लोगों पर राज करने का मौका देते हैं। मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक तबके की ये > चुप्पी तकलीफदेह है और अब यह चुप्पी काफी जटिल रूप अख्तियार करती जा रही है। यह > इसी "कांप्लेक्स" का नतीजा है कि जामिया नगर का "पुलिस एनकाउंटर" मुस्लिम > बौद्धिक वर्ग के लिये अपनी मुस्लिम पहचान बनाने का जरिया बन जाती है। > > मेरा सवाल यह है कि आखिर क्यों एक एनकाउंटर को मुस्लिम समुदाय के ऊपर हमला माना > जा रहा है? पुलिस एनकाउंटर कोई नया नहीं है। ये असली या फर्जी दोनों ही होते > हैं। यह हर रोज होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब कोई आतिफ अमीन मारा > जाता है तो हंगामा हो जाता है, प्रदर्शन होते हैं। यहां कोई नंदू मारा जाता है > तब जंतर-मंतर और जामिया पर रैली क्यों नहीं होती? > > मुझे एम जे अकबर को ये बताने की जरूरत नहीं कि एक नकली एनकाउंटर को असली बनाने > के लिए पुलिसवाले अकसर खुद को गोली मारते हैं? राजबीर, दया नायक और प्रदीप > शर्मा असली गोली चला कर हीरो नहीं बने बल्कि ये अकसर उन लोगों को मारकर हीरो > बने है जिनकों इन्होंने पकड़ कर रखा था। मोहनचंद शर्मा भी कोई साधू नहीं था > लेकिन एमजे को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि जामिया नगर एनकाउंटर में एम सी > शर्मा पुलिस की गोलियों का भी शिकार हो सकते हैं? मेरा सवाल ये है कि क्या वो > एक आम मुसलमान की तरह "रिऐक्ट" कर रहे हैं या फिर देश के एक जिम्मेदार नागरिक > के तौर पर। यही सवाल मेरा अपने प्रिय मित्र अनवर से भी है। > > ये मेरा अनुमान नहीं बल्कि यकीन है कि दोनों महानुभाव एक नागरिक की तरह व्यवहार > नहीं कर रहे हैं और उनके शब्दों में वही कुछ झलक रहा है जो कि जमिया नगर, सराय > मीर और आजमगढ़ की सड़कों पर आम मुसलमान की बातों में झलक रहा है। यहां खुले रूप > से कहा जा रहा है कि "काउंटर टेररिज्म" के नाम पर मासूम मुस्लिमों को शिकार > बनाया जा रहा है। पहले आम मुसलमान और पढ़े-लिखे मुसलमान में फर्क था। लेकिन अब > ये तस्वीर कुछ-कुछ धुंधली होती दिख रही है। और ये बात परेशान करने वाली है। > > भारतीय संदर्भ में क्या इसका ये मतलब है कि मुस्लिम समुदाय में उदारता कम होती > जा रही है? मेरा जवाब है - बिग नो । फिर ऐसी प्रतिक्रिया क्यों? मैं इसे "लिटिल > ब्वाय सिंड्रोम" कहता हूं। एक ऐसा बच्चा जिसे बार-बार उस शैतानी के लिए दोषी > ठहराया जाता है जो उसने की ही नहीं। अवसाद के चलते वह जिद्दी और हठी हो जाता है > - स्वीकारतावादी । और वो चिढ़ कर , तंग आकर , परेशान हो कर कह उठता है - "हां > मैंने ही किया है। आप क्या कर लोगे?" > > तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने और अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के उभरने > के बाद से उदारपंथी मुसलमानों के दिक्कतें शुरू हो गयीं, उनकी पहचान को खतरा > पैदा हो गया है। दुनिया के हर कोने में उन पर लगातार नजर रखी जा रही हैं। उनका > नाम आते ही उन्हे "अजीब सी नजरों" से देखा जाता है मानो वो आम इंसान न होकर > आतंकवादी हों। न्यूयॉर्क हो या नई दिल्ली सब जगह यही हाल है। एक उदारपंथी > मुसलमान जानता है कि उसका कट्टरपंथियों की सोच से कोई लेना देना नहीं है। > > उसका बम फोड़ों आंतकवादी सोच से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है। न ही वो ये > मानता है कि हिंदू-यहूदी-ईसाई या भारत-इस्राइल-अमेरिका इस्लाम को नेस्तनाबूद > करने के लिये साजिश रच रहे हैं। लेकिन वो कर क्या सकता है। वो असहाय है। उसे > मालूम है कि उसकी सुनने वाला कोई नहीं। वो अंदर भी टूट रहा है और बाहर भी उनपर > कोई यकीन नहीं कर रहा है कि ये खतरनाक सोच उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। और > यही असहायता उसके अंदर एक ऐसे कांप्लेक्स को जन्म देती है जिसे हम लिटिल ब्वाय > सिंड्रोम कहते हैं। > > अनवर मेरे दोस्त, तुम्हें इस सिंड्रोम से बाहर आना होगा क्योंकि अगर तुम मौदूदी > और सैयद कुतुब और ओसामा और जवाहिरी जैसी सोच का शिकार हो गए तो इस धर्म का कोई > भविष्य नहीं बचेगा जो शांति और क्षमा का पाठ पढ़ाता है। इस आततायी मानसिकता का > जोरदार विराध करने का वक्त आ गया है। अगर अब ऐसा नहीं होगा तो मैं, तुम और एम > जे जैसे लोग इतिहास में विलेन के रूप में देखे जाएंगे और हिंदू कट्टरपंथी जैसी > ताकतें इस देश पर राज करेंगी। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Oct 3 20:01:38 2008 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 3 Oct 2008 20:01:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSo4KWH?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSIIOCkl+ClgOCkpCDgpLUg4KSu4KS/4KSw4KWN4KSc4KS+?= Message-ID: <6a32f8f0810030731l300d7a25r84dbae3ee6723ed3@mail.gmail.com> मिर्जा गाजिब से जुड़ा एक अखबारी लेख याद आता है- अली सरदार जाफरी एक गोष्ठी में बोल रहे थे कि जिंदगी के हर वाक़ये पर गालिब याद आते हैं। कुछ समय पहले एक मित्र का पैर टूटा तो मिर्जा का यह शेर याद आया*-*** *हुए हैं पांव ही पहले नबुर्दे इश्क में जख्मी**,*** *न भागा जाए है मुझसे न ठहरा जाए है मुझसे।* तभी दिल्ली आया तो कुर्रतुलएन हैदर से मिलना हुआ और पता चला कि उनका हाथ चोट लगने से कुछ दिनों तक प्लास्टर से बंधा रहा। सुनते ही पुनः मिर्जा याद आ गए- *बेकारि-ए-जहां को है सर पीटने का शग्ल**,*** *जब हाथ टूट जाए तो फिर क्या करे कोई।*** * * यह किस्सा लुत्फ उठाने के लिए नहीं, बल्कि सोचने के लिए है। वह यह कि यदि मिर्जा के यहां सभी मौके और बातों के लिए शेर मौजूद है तो क्या हिन्दी सिनेमाई गीतों के साथ ऐसा है। यह सब दिमाग में चल रहा था और मेरे मित्र रसोई घर में लजीज व्यंजन की तैयारी में जुटे हुए थे। हालांकि, वहां बैठी उनकी अज़ीज़ सखा चाहती थीं कि वह साथ ही बैठें। वहां तत्काल मुझे एक गीत याद आया- * मसाला बांच लूं**, **प्याज काट लूं**, * *छुरी किधर गई**, **है नल खुला हुआ...। *** *मैं कह रहा हूं क्या**, **तू सुन रही है क्या...। *** *कहो न जोर से...। सुनो न गौर से...।*(फिल्म- करीब)। हालांकि थोड़ा उल्टा मामला है। नायक महोदय रसोई में हैं, पर सीधा भी जल्द ही ढूंढ़ लिया जाएगा। संख्या के लिहाज से इस दुनिया में इश्किया गीत हद तक हैं और यकीनन इन गीतों का आना जारी भी रहेगा। इसके बावजूद कई चीजों को देख-सुनकर गीत याद आते हैं। एक समाचार चैनल पर खबर आई कि शुक्रवार रात मोटरसाइकिल से जा रहे दो युवकों ने एक व्यक्ति की जमकर पिटाई कर दी। पुलिस हरकत में आई और दोनों को पकड़ ले गई। सुबह-सबेरे दोनों महानुभाव रिहा कर दिए गए। ऐसे में गुलजार याद आते हैं-** *आबो-हवा देश की बहुत साफ है।*** *कायदा है कानून है**, **इंसाफ है.* *अल्लाह-मियां जाने कोई जिए या मरे* *आदमी को खून-वून सब माफ है। (फिल्म-मेरे आपने)* यहां जनकवि से गीतकार बने शैलेंद्र के भी एक गीत दिमाग में चक्कर लगाने लगता हैं- *बूढ़े दरोगा ने चश्मे से देखा* *आगे से देखा**, **पीछे से देखा* *ऊपर से देखा**, **नीचे से देखा* *बोले ये क्या कर बैठे घोटाला* *ये तो है थाने दार का साला (फिल्म- श्री 420)* यह न समझा जाए की यहां मिर्जा और फिल्मी गीतकारों के बीच किसी किस्म की समानता ढूंढ़ने की कोशिश हो रही है। हां, यह जानने की कोशिश जरूर है कि जिस तरह हर वाक़ये पर मिर्जा याद आते हैं तो क्या उस तरह फिल्मी गीत याद आ सकते हैं ! ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-5734 Size: 16995 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081003/974f42cf/attachment-0001.bin From miyaamihir at gmail.com Sun Oct 5 15:18:20 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sun, 5 Oct 2008 15:18:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KS/4KSq4KS/OiDgpIXgpJXgpY3gpKTgpYLgpKzgpLAgMjAw?= =?utf-8?q?8?= Message-ID: दोस्तों, 'प्रतिलिपि' का अक्टूबर अंक अब ऑनलाइन उपलब्ध है. देखें www.pratilipi.in इस अंक में मेरे अज़ीज़ दोस्त वरुण की पहली कहानी 'डेन्यूब के पत्थर' प्रकाशित हुई है. एक काल्पनिक फंतासी जो आज बहुत प्रासंगिक बन गई है. क्योंकि मैं इस कहानी का पहला पाठक था इसलिए इसके प्रति मेरे मन में एक ममता भाव आप देख सकते हैं. मैं ये कहानी नीचे चिपका रहा हूँ. वैसे मुझे उम्मीद है कि आप सब प्रतिलिपि तक जाकर वहाँ इस कहानी के बारे में अपनी राय प्रेषित करेंगे जिससे वरुण तक हमारी बात पहुँच पाये. और प्रतिलिपि तक जाने का फायदा ये है कि वहाँ प्रकाशित अनेक दुर्लभ लेख आपको सुलभ होंगे जिनमें गुलज़ार के आनेवाले नज़्म संग्रह 'यार जुलाहे' के भूमिका तथा कुछ चुनिंदा नज्में शामिल हैं. पढ़ें पुरुषोत्तम अग्रवाल का शीर्ष लेख "*In Search of Ramanand - The Guru of Kabir and Others"* तो देखें www.pratilipi.in ***** *डैन्यूब के पत्थर: वरूण* बात थोड़ी अजीब है और एक स्ट्रग्लिंग राइटर को तो ऐसा बिल्कुल नहीं कहना चाहिए लेकिन सच यही है कि मुझे नहीं पता कि ये कहानी कब की है. ना ही सही-सही लोकेशन मालूम है इस कहानी के घटनास्थल की. बस इतना पता है कि उस ज़माने में एशिया, यूरोप, अफ्रीका और शायद अमेरिका महाद्वीप भी आपस में जुड़े हुए थे. आपने ज़रूर वो पुराने नक्शे देखे होंगे जिनमें इस तरह की विस्मयकारी पॉसिब्लिटीज को रेखा-चित्रांकित किया गया है. यूरोप का बायाँ हिस्सा अफ्रीका के दाहिने में और आस्ट्रेलिया का ऊपरी पश्चिमी किनारा आज के तमिलनाडु के बगल में. मतलब कि यूएनओ जो सपना हमारे भविष्य के लिए देखता है, वो हमारे इतिहास में पहले ही पूरा हो चुका है. लिंग्विस्ट्स का मानना है कि उस समय दुनिया में भाषा का विकास भी ठीक से नहीं हुआ था. अधविकसित मानव को भाषा की कॉम्प्लेक्स संरचनाओं और व्याकरण की गहरी समझ नहीं थी, और अलग-अलग कबीलों में बोली जाने वाली ज़्यादातर बोलियाँ एक दूसरे से काफी मिलती-जुलती थीं. तो अगर एक कबीला, मान लीजिए बाद का यूरोप, माँ को 'माथिर' बोलता तो दूसरा, मान लीजिए बाद का एशिया, उसे 'मातृ' कहता होगा. सिर्फ इतना ही नहीं, आजकल के भाषा-वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया की सारी भाषाएँ केवल एक ही भाषा से जन्मी हैं और इसे प्रोटो-वर्ड कहा जाता है. खासे शोध के बाद, दुनिया भर में सहमति है कि भाषा हमारी अंदरूनी ज़रूरत भले ही हो - इसका तात्कालिक कारण, इसका ड्राईविंग फोर्स, हमेशा से बाह्य तत्वों, यानि कि प्रकृति से ही मिला है. मतलब कि, भाषा एक एक्शन नहीं, प्रकृति को देखकर दिया गया हमारा रिएक्शन मात्र है. सूरज को देखकर हर प्रजाति के मनुष्य के मुँह से 'रा' ही निकला. इसलिए मिस्र में भी सूर्य भगवान 'रा' हैं और सिंधु के इस पार भी सूर्यवंशी भगवान का नाम 'राम' है. (सूर्य का जाया हमेशा 'राजा' होता है.) आप सोचेंगे कि ये कहानी शुरु भी होगी या सिर्फ भाषा पुराण के पन्ने ही फड़फड़ाते रहेंगे. लेकिन सच यही है कि भाषा इस कहानी का धरातल है, इस दूर-दूर तक बंजर दिखने वाले प्लॉट (सिनेमा की कहानी वाला) का इकलौता रोमांचक किरदार है, और इसलिए भाषा पर एक आखिरी बात और. बेबिलोनियन सभ्यता कि एक पौराणिक कथा, जो कि ओल्ड टेस्टामेंट में भी पाई जाती है, में कहा गया है कि एक ज़माना था जब पूरी दुनिया बाबिलू नाम के एक शहर में बसती थी और एक ही भाषा बोलती थी. इस शहर के लोगों ने एक बार एक बड़ी-सी मीनार बनाने की कोशिश की, इतनी ऊँची कि जिसपे चढ़ के इंसान भगवान के पास पहुँच जाए. भगवान को ये दाँव पसंद नहीं आया और उसने सबको शाप दिया कि "जाओ, आज से तुम सब लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलोगे." और तब से दुनिया में अराजकता, भाषावाद, और अविश्वास फैल गया. इस मीनार को 'टावर ऑव बाबेल' और बेमतलब बड़बड़ाने को (आज भी) बैब्लिंग कहते हैं. खैर, हम जब की बात कर रहे हैं तब इतने एनालिसिस की ना तो दरकार थी और शायद ना ही स्कोप. आज की डैन्यूब नदी की घाटी के पास बसने वाले उस पुरातन मानव का नाम शायद 'क्वैं' था. उसके दोस्त, प्रेमिकाएँ और रिश्तेदार उसे इसी नाम से बुलाते थे और वो भी अक्सर समझ जाता था कि 'क्वैं' उसी को संबोधित है. क्वैं की उम्र करीबन अठारह साल रही होगी; यानि कि वो नवकिशोर था, आज का टीनएजर. और जैसा इस उम्र में होता है, क्वैं दिनभर फालतू घूमता, नदी किनारे बैठा रहता, कभी-कभी किसी प्रेमिका से सहवास कर लेता, और शाम ढले अपने कबीले के आसपास पहुँच जाता. शिकार करना अनिवार्य था, लेकिन इस मामले मे क्वैं थोडा कमज़ोर था. उसे जंगली जानवरों से डर लगता था. (इस डर को भी वैज्ञानिकों ने एक नाम दिया है - एटाविस्टिक फिअर. और उनका मानना है कि आज भी, हमारे अंदर कुछ डर ऐसे हैं जो हमें हमारे पुरखों से मिले हैं - जैसे कि अंधेरे का डर, किसी परिजन की मृत्यु का डर) इसलिए वो अक्सर नदी किनारे से मछलियाँ पकड़ लाता और कबीले में अपनी इज़्ज़त बनाए रखने की कोशिश करता. पर मछलियाँ पकड़ने से इज़्ज़त ना आज मिलती है (मुंबई के मूलवासी, कोलियों से पूछिए) और ना क्वैं के वक़्त में मिलती थी. क्वैं की पकड़ी मछलियाँ भी कई बार बहुत काँटेदार और बेस्वाद ही होती और उस दिन झगड़ा और बढ़ जाता. कबीले के बाकी नवकिशोर, 'खू', 'बो' और 'नाह', अच्छे लड़ाकू थे और उन्हें क्वैं की ये मुफ्तखोरी ज़रा भी पसंद नहीं थी. खू तो इसी बात को लेकर पहले भी एक कबीलेवाले को मार चुका था. उस बुड्ढे कबीलेवाले की लाई हुई मछली का काँटा खू के गले में फँस गया था और खू ने पास पड़ा पत्थर उठा कर उसके जबड़े पर दे मारा था. उसके बाद भैंसे की टाँग की नुकीली हड्डी से उसका सीना चीर दिया था और फिर रात भर रोया था. सुबह उगते सूरज के सामने निर्वस्त्र खड़े खू ने अपने ही हाथों मारे गए बुड्ढे को नदी के पास वाले दलदल में डाल दिया था और आसमान की तरफ मुँह उठाकर एक अजीब-सी आवाज़ निकाली थी, जिसके बाद वहाँ गिद्धों और कौओं की टोलियाँ मंडराने लगीं थीं. मतलब कि, क्वैं सिर्फ मछलियाँ पकड़कर बहुत दिन चैन से नहीं रह सकता था. पर पिछले कुछ दिनों से उसे एक दूसरा ही खयाल आ रहा था. उसके अंदर, जाने कहाँ से, एक अजीब सा गुस्सा पनपने लगा था. ये गुस्सा किसी एक चीज़, व्यक्ति, या परिस्थिति के खिलाफ़ नहीं था पर किसके खिलाफ़ था, ये कहने में क्वैं एवोल्यूशनरीली असमर्थ था. शायद उसका अंतर इस गुस्से के लिए शब्द ढूँढ रहा था और शब्द ना मिलने से गुस्सा और बढ़ जाता था. इसका परिणाम ये हुआ कि क्वैं का सहवास भी बड़ा अजीब-सा हो गया - वो सहवास करते-करते अचानक ही अपनी प्रेमिका को मारने लगता या उसपे थूकता, और फिर उसे किनारे धकेल कर नदी में तैरने चले जाता. कबीले में भी झगड़े बढ़ने लगे, और क्वैं के मूक समर्थक यानि कि कबीले के बड़े लोग भी अब धीरे-धीरे उससे कटने लगे. वो रात को देर तक जागता, झाड़ियों की आवाज़ में नए-नए स्वर सुनता और उन्हें जोड़कर कुछ बनाने की कोशिश करता. पर झाड़ियों से आई एक आवाज़ दोबारा नहीं आती, हर बार नई तरह का स्वर निकलता और क्वैं उन्हें याद करते करते, जोड़ते-जोड़ते परेशान हो जाता. जिन दिनों बारिश होती, क्वैं की ये उलझन और बढ़ जाती. वो सर उठा कर आसमान को देखता और उसपर टपकती मोटी-मोटी बूँदों की आवाज़ को पीने की कोशिश करता - मन ही मन 'टप-टप' दोहराता और उस आवाज़ को अपनी लंबी, भूरी जटाओं में बाँधने को तड़पता. जीव-विज्ञानी (और कवि भी) मान सकते हैं कि क्वैं एवोल्यूशन के उस दोराहे पर खड़ा था जहाँ इंसान की चेष्टा उसके दायरे से बाहर छलांग लगाने लगती है, जब उसे हर तरफ सवाल दिखने लगते हैं और उनका जवाब ढूँढने की इकलौती कोशिश पूरी मानव-जाति को फायदा (या नुकसान) पहुँचाती है. जी हाँ, क्वैं को अपनी नियमित शब्दावली अब परेशान करने लगी थी. उसे नए शोर, नई हड़कंप, नई झुनझुनाहट की तलाश थी. क्वैं ये खुद नहीं जानता था, लेकिन उसके अंदर की झुंझलाहट यही थी - उसे अब अपनी गिनी-चुनी आवाज़ों से दिक्कत होने लगी थी. इसलिए अब वो दिनभर आवाज़ें इकठ्ठी करता फिरता. जहाँ भी कोई नई ध्वनि सुनता, तुरंत उसे दोहराता. झाड़ियों को परे हटाने की आवाज़, पानी में तैरने की आवाज़, कच्चा फल चबाने की आवाज़, और जैसा कि बहुत-से महान अभिनेता करते हैं - पानी में अपनी ही झलक देखकर निकले खुशी के स्वर. और इन आवाज़ों को 'स्टोर' करने के लिए भी उसने एक बढ़िया माध्यम तलाश लिया था. ये माध्यम थे - डैन्यूब के पत्थर. हुआ यूँ कि एक दिन तैरते-तैरते क्वैं के पाँव एक झाड़ी में उलझ गए और उसे चोटिल होकर किनारे पे आना पड़ा. पाँव घिसटते हुए वो किनारे पहुँचा ही था कि उसे बारिश की आवाज़ सुनायी दी - बिल्कुल वही टप-टप वाली आवाज़. चकराकर क्वैं ने ऊपर देखा पर आसमान एकदम साफ था - ना बरसात की बूँद और ना ही इंतज़ार करता हुआ किसी कवि का चातक. फिर? आवाज़ कैसे आई? और बिल्कुल वही आवाज़ जो क्वैं ने हूबहू रट रखी थी? पैर आगे घसीटा तो मामला साफ हो गया. नदी किनारे के दो काले गोल पत्थर थे - जो एक दूसरे से रगड़कर वही आवाज़ दे रहे थे. क्वैं बड़ी देर तक वहाँ बैठा उनको रगड़ता रहा - उसके सामने एक खज़ाना खुल गया था. पत्थरों में वो आवाज़ें कैद थीं जिन्हें वो दुनिया भर में ढूँढता फिरता था. वो जादूई आवाज़ें जिन्हें याद करने के लिए वो कितने दिन भूखा सोया था - कितने दिन सोया ही नहीं था. और अब ये पत्थर मिल गए थे - घाटी में फैले हज़ारों लाखों पत्थर जुड़ के वो हर तरह की आवाज़ निकाल सकते थे जो क्वैं ने कभी सुनी थी या आगे सुनने वाला था. तिथिवार देखा जाए तो इस क्लिशे का यह पहला प्रयोग होगा कि - क्वैं की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा था. अब क्वैं का दिन दो हिस्सों में बँट गया - आधा दिन आवाज़ें सुनने में जाता था और बाकी का आधा, डैन्यूब के पत्थरों से वही आवाज़ें रेप्लीकेट करने में. इसके बाद वो 'आज की आवाज़' वाले पत्थरों को अलग-अलग गुच्छों में बाँधता और उन्हें अपने कँधे पे लटका लेता. कई दिन तो ऐसा होता कि शाम को कबीले की ओर लौटते वक़्त उसके पास पत्थरों के पचास से ज़्यादा समूह होते. इन सारे गुच्छों को वो बड़े तरतीब से, कबीले के पीछे वाली ज़मीन में सजा देता और फिर देर रात तक उनसे अलग-अलग आवाज़ें बजाता, सुनता और खुश होता. कभी-कभी कबीले के छोटे बच्चे भी ये आवाज़ें सुन कर आ जाते, पर ज़्यादातर क्वैं को पागल ही मानते थे और उसके आसपास मंडराना सबको ही खतरनाक या फालतू लगता था. कुछ को तो डर था कि क्वैं किसी काले देवता (या रात) की आराधना करता है. सो ले-दे कर क्वैं और उसके पत्थर अकेले ही रहते थे. इस बीच एक नई चीज़ ये भी हुई कि क्वैं ने अपने कबीले वालों के साथ खाना बिल्कुल ही बंद कर दिया. अब वो कच्ची मछली और फलों पर ही ज़िंदा रहता था. तो फिर शाम को कबीले में लौट के ही क्यूँ आता था, ये सवाल भी वाजिब है. और इसका जवाब भी शायद उसकी किसी एटाविस्टिक ज़रूरत में छुपा होगा. महीने बीतते गए और क्वैं का पत्थरों वाला खज़ाना बड़ा होता गया. खूँ और नाह कभी-कभी उसकी गैरमौजूदगी में आकर पत्थरों को छूकर देखते. खूँ बेढंग से उन्हें बजाता भी और अजीब-सी आवाज़ सुनकर खूब हँसता. कभी-कभी गुस्से में उठाकर एकाध पत्थर फेंक भी देता, और उस रात क्वैं उससे झगड़ता भी. ऐसे ही एक झगड़े में एक दिन क्वैं ने खूँ को मार डाला. बात यहीं से शुरु हुई कि खूँ और एक छोटे लड़के ने दिन में क्वैं के पत्थरों को हाथ लगाया और उनकी जोड़ियां आपस में मिला दीं. शाम को जब क्वैं लौटा तो वो तुरंत समझ गया कि किसी कबीलेवाले ने छेड़छाड़ की है. गुस्से में आकर उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया. ये चिल्लाना एक तरह का ललकारना था और क्वैं एक बार को खुद भी अपनी आवाज़ सुन के डर गया - बहुत दिनों से वो पत्थरों की आवाज़ ही सुन रहा था. खूँ भी तेज़ी से उठा और क्वैं को ज़ोर से धकेला - इतनी ज़ोर से कि उसका सिर ज़मीन से टकराया और फट गया. क्वैं अभी वापस उठता, उससे पहले ही खूँ ने उसके पत्थरों को लात मारना शुरु कर दिया. खूँ के पाँव बहुत तेज़ चल रहे थे - पत्थर आपस में टकराते हुए, नई-नई आवाज़ें निकालते हुए, अंधेरे में ग़ुम हो रहे थे और क्वैं फटे सिर को पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था. उसका रोना बीच-बीच में रुकता, जब पत्थरों के कोई दो गुच्छे आपस में टकराते और कोई ऐसी आवाज़ निकालते जो उसने खुद आज तक नहीं सुनी थी. क्वैं थोड़ी देर बेतहाशा रोता रहा लेकिन फिर अचानक से हिम्मत जुटा कर, दौड़ कर अपने पत्थरों पे लेट गया. खूँ का गुस्सा अभी भी हरा था और वो फिर से क्वैं पे ही झपट पड़ा. लेकिन इस बार क्वैं के हाथ में वो बारिश वाले पत्थर थे - काले गोल पत्थर जो 'टप-टप' करते थे. खूँ के नज़दीक आते ही ये पूरी ताकत से उसके माथे पर जा पड़े. शायद एक ही वार में खूँ अंधा हो गया. उसके बाद क्वैं ने नुकीले पत्थर उठा कर खूँ की एक-एक नस काट डाली. तीन कबीलेवाले बीच में आए लेकिन वो भी मारे गए. और पास पड़े एक पत्थर के भाले से क्वैं ने एक छोटे बच्चे को भी मार डाला. सुबह होते-होते पूरा कबीला खाली हो गया. लोग डर के भाग गए, कुछ घायलों के साथ और कुछ लाशों के. मान लिया गया कि क्वैं सचमुच रात की ही आराधना करता था - उसके अंदर कोई काली शक्ति आ गई जो पूरे कबीले को खाने पे आमादा थी. इधर क्वैं सुबह होते ही आसपास बिखरे पत्थर जोड़ने लगा, उन्हें बजाने लगा, वापस वही गुच्छे बनाने लगा जो उसे उसके पसंदीदा स्वर देते थे. जिन पत्थरों पे खून लग गया था, उन्हें वो डैन्यूब में धो लाया. कबीले में अब अजीब-सी शांति थी, सिर्फ क्वैं और उसके पत्थर ही बोलते थे. पर उसे ऐसे ही अच्छा लगता था. *भरतवाक्य (एपीलॉग)* भाषा वैज्ञानिकों की एक काफ़ी बड़ी जमात का मानना है कि आधुनिक भाषा किसी एक सभ्यता या काल में नहीं बनी है, और इसमें जितना योगदान हमारे कांशस आब्जर्वेशन/लर्निंग का है, उतना ही हमारे स्नायु-तंत्र के विकसित होने का भी. यानि कि आज के जानवरों की तरह, ऐसे बहुत सारे साउन्ड वेरिएशन्स थे जो हम कभी निकाल ही नहीं सकते थे. और शायद ऐसे वक़्त में क्वैं के पत्थरों का खज़ाना किसी को मिला हो. ये खज़ाना उसके बाद कहाँ-कहाँ गया, कितनों ने उसे समझा, कितनों ने उसमें और जोड़ा और कितनों ने उसे मामूली पत्थर समझकर फेंक दिया, ये कहना मुश्किल है. लेकिन सच यही है कि उसमें से कुछ पत्थर डैन्यूब से बहकर, हम सबके हिस्से आए हैं. और कुछ शायद अभी भी वहीं पड़े हैं - डैन्यूब के किनारे. ***** ...miHir www.mihirpandya.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081005/3564cb42/attachment-0001.html From manoj.hrb at gmail.com Sun Oct 5 17:18:34 2008 From: manoj.hrb at gmail.com (manoj kumar) Date: Sun, 5 Oct 2008 17:18:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= article Message-ID: <59dc83100810050448n6a9badb2u77b6be4694ac7dde@mail.gmail.com> sathi 1 article attach kar raha hun . dekh lijiyega. manoj -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-338 Size: 129 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081005/b0ab5ea7/attachment-0001.bin -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081005/b0ab5ea7/attachment-0001.htm From vineetdu at gmail.com Mon Oct 6 21:25:04 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 6 Oct 2008 21:25:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS24KSoIOCkqOClhyDgpK/gpL7gpKYg4KSm4KS/4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KSPIOCkhuCkleCkvuCktuCkteCkvuCko+ClgCDgpJXgpYcg4KSq4KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSo4KWHIOCkpuCkv+CkqA==?= Message-ID: <829019b0810060855pc64857et3d1abfd208492210@mail.gmail.com> कल देर रात तक बड़े ही अनमने ढंग से चैनल को बदलता रहा। प्राइम टाइम के कार्यक्रमों की रिकार्डिंग पूरी हो चुकी थी. अब मैं अपने मन मुताबिक टीवी देखना चाह रहा था। तभी डीडी नेशनल पर अमीन सयानी की आवाज सुनकर चौंक गया और रुक भी गया.दूरदर्शन के मामले में कई बार ऐसा होता है कि विजुअल्स तो दूरदर्शन के आते हैं लेकिन ऑडियो एफएम रेनवो के आने लगते हैं. आप दूरदर्शन की खिंचाई करने के मूड में नहीं हैं तो आप टीवी देखते हुए रेडियो का मजा ले सकते हैं. मैं तो ऐसे में टीवी भी चालू रखता हूं और रेडियो भी जोर से चला देता हूं, ताकि मिलान कर सकूं कि किससे ज्यादा सुरीली आवाज आ रही है। लेकिन कल रात दूरदर्शन पर सचमुच में अमीन सयानी बोल रहे थे। और फिर अमीन सयानी ही नहीं, vivid bharti की पहली उदघोषिका शौकत आज़मी, तबस्सुम जो तरन्नुम कार्यक्रम लेकर आती थी, जयमाला के उदघोषक और भी पुराने-पुराने लोग. करीब आधे घंटे तक विविध भारती से जुड़े पुराने लोग दूरदर्शन पर बारी-बारी से आते रहे और रेडियो को लेकर अपने अनुभव बताते रहे. आज मीडिया में हम जिस परफेक्शन और प्रोफेशनलिज्म की बात करते हैं, इन सारे पुराने लोगों में ये सारी चीजें होते हुए भी माध्यम को लेकर भावुकता साफ झलक रही थी। वो रेडियो में बिताए गए क्षण को महज नौकरी के रुप में नहीं याद कर रहे थे बल्कि रेडियो के बदलाव के पीछे की एक-एक कहानी को बयां कर रहे थे. इसी क्रम में उन सारे लोगों को भी याद करते जाते जिन्होने उन्हें लगातार ब्रश अप करने का काम किया। आज तो एक मीडियाकर्मी अपने जीवनकाल में इतना बैनर बदलता है कि उसे शायद ही याद हो कि किससे क्या सीखा और किसके कहने पर कौन-सी शैली अपनायी। इन सारे लोगों में रेडियो से जुड़ी यादें बरकरार थी. शौकत आज़मी ने बताया कि एक बार मीटिंग में उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि- गाने के साथ-साथ लेखक का नाम, फिल्म का नाम, संगीतकार का नाम आदि जाएगा। नरेन्द्र शर्मा ने कहा- आगे से ऐसा ही होगा और उसके बाद से आज तक आकाशवाणी में यही फार्मेट चल रहा है। शौकत की शिकायत थी कि आज जो कुछ भी एफएम पर चल रहा है, सब बकवास है, उन्हें न तो बोलने आता है और न ही कार्यक्रम को पेश करने का शउर ही मालूम है। इसी बात को तबस्सुम ने दोहराया कि जिस तरह से हिन्दी फिल्मों में तकनीक के स्तर पर तो खूब तरक्की हो रही है लेकिन कंटेट के स्तर पर वो पिछड़ता चला जा रहा है, यही हाल आज के एफएम का है। इनके पास मैटर की कमी है। गाने के बारे में कहूं तो एक शेर याद आता है कि- अजब मंजर आने लगे हैं जो गानेवाले थे, चिल्लाने लगे हैं तबस्सुम और शौकत की बातों में एक हद तक अतिशयता है। कभी-कभी हम अतीत को बेहतर साबित करने के चक्कर में वर्तमान को ज्यादा घटिया से घटिया साबित करने में लग जाते हैं. ऐसा करने से वस्तुनिष्ठता खत्म होती है. लेकिन इनकी बातों से एक एंगिल तो जरुर सामने आता है कि बिंदास अभिव्यक्ति के नाम पर एफएम में जो कुछ भी चल रहा है, भाषाई स्तर पर वो कितना सही है, इस पर बात की जानी चाहिए.जितने भी लोग रेडियो पर बात कर रहे थे उनमें सबका जोर इस बात पर था कि हम जो कुछ भी आडिएंस के लिए प्रसारित कर रहे हैं उसका सीधा संबंध उसके मन से है, दिल से है. वो हमें बिल्कुल उसी अर्थ में लेते हैं. इसे आप रेडियो की ताकत कह लीजिए या फिर लोगों का भरोसा लेकिन सच तो यही है कि रेडियो लोगों के मन का मीत रहा है।विजयालक्ष्मी सिन्हा जिन्होंने पोस्टल से चालीस स्टेशनों में फीड भेजने के बजाय सेटेलाइट से भेजने की बात रखी थी, कहा- झुमरी तिलैया को झुमरी तिलैया बनाने में आकाशवाणी का बहुत बड़ा हाथ है. आज सब उसे जानते हैं. एकबार जब मैं उधर से गुजर रही थी तो लोगों ने बताया, यही है, झुमरी तिलैया. मैं सोचने लगी, इतनी छोटी सी जगह और इतने सारे खत यहां से आते हैं। ब्रेक में जाने से पहले विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून बजते और रात के ग्यारह बजे पापा कि आवाज कानों में गूंज जाती- दिनभर बजा-बजाकर बाजा को एकदम से खराब ही कर देगा। इसको होस कहां है कि इसमें बैटरी भी खर्चा होता है। कमल शर्मा बोलते-बोलते भावुक हो गए। करगिल के दौरान जब फौजी भाइयों के लिए जयमाला कार्यक्रम पेश करते थे तो फौजियों की तरफ से खूब फोन आते. सबका यही कहना होता कि- यहां आपके अलावे किसी भी स्टेशन की आवाज नहीं आती. आपको सुनना अच्छा लगता है और हमारा हौसला बढ़ता है। फिर वो इसी के जरिए अपने घर के लिए संदेश भी भेजते। तब मैं महसूस करता कि एसी स्टूडियो में बैठकर एंकरिंग करना कितना आसान होता है और देश के लिए ये जो कुछ भी कर रहे हैं, वो कितना mushkil है। कार्यक्रम पेश करने के बाद न जाने कितनी बार मैं रोया हूं। न चाहते हुए भी पता नहीं क्यों तबस्सुम की बात पर आंखों के कोर भींग गए. एक बार मैं खान मार्केट में सब्जी खरीद रही थी। मै बुर्के में थी. सब्जीवाले से मैं टमाटर, आलू और बाकी सब्जियों के दाम पूछ रही थी। मैं लगातार बोले जा रही थी और दुकानदार इधर-उधर कुछ खोज रहा था. मैंने पूछा- क्या खोज रहे हो, भाई? उसने जबाब दिया- लगता है मेरा रेडियो अभी भी खुला पड़ा है। शब्दों को लेकर लोगों के बीच इतना गहरा असर.तबस्सुम की बाइट यहीं पर आकर खत्म हो जाती है. मैं सोचता हूं, लाख ढोल पीटने के बाद भी क्या एफएम यह असर पैदा कर पाया है, एकबार आप भी सोचिएगा। अमीन सयानी की सारी बातों का निचोड़ था कि संचार के लिए मैं पांच स को अनिवार्य मानता हूं। स- सही, सत्य,स्पष्ट,सरल और सुंदर. सुंदर बनानै के लिए उन्होंने कहा कि थोड़ी बहुत नोक-झोंक, खींचतान और ड्रामेबाजी की जाए तो प्रस्तुति में मजा आ जाए. मेरे हिसाब से चारों का तो पता नहीं लेकिन इंडिया टीवी जैसे चैनल ने आप्त वचन के रुप में ग्रहण किया है। नोट- दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत गोल्डन बॉयस ऑफ इंडियाः विविध भारती, रेडियो को लेकर एक बार फिर से भावुक कर देता है। लेकिन जानकारी के लिहाज से यह दुर्लभ प्रस्तुति है. दूरदर्शन ने जिन फुटेज का इस्तेमाल किया है,मीडिया के छात्र अगर उसे देख भर लेते हैं तो बहुत सारी बातें समझ में आ जाएगी। मीडिया से जुड़े लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा. आप कोई भी चाहें तो मैं इसकी सीडी दे सकता हूं। वैसे बहुत जल्द ही सराय में इसकी एक प्रति भेंट करुंगा, आप वहां से भी ले सकते हैं -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-37 Size: 13421 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081006/63bfa731/attachment-0001.bin From rajeshkajha at yahoo.com Wed Oct 8 12:26:28 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 7 Oct 2008 23:56:28 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSo4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KS4IOCkoeClieCknyDgpJXgpYngpK4g4KSq4KSwIOCkq+CkvOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSy?= Message-ID: <12495.77487.qm@web52903.mail.re2.yahoo.com> http://www.linux.com/feature/149038 regards, -------------- Rajesh Ranjan Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081007/ba634b21/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Oct 9 01:53:40 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 9 Oct 2008 01:53:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKzgpL7gpKLgpLw=?= Message-ID: <200810090153.40351.ravikant@sarai.net> ...और उससे ऊपजी मानवीय त्रासदी पर पटना-स्थित पत्रकार प्रमोद रंजन ने बहुत कुछ लिखा और छापा है. अगर आप उनकी रपटें देखना चाहते हैँ तो संशयात्मा नामक चिट्ठे पर जाएँ, http://sanshyatma.blogspot.com/ और उनसे संपर्क साधना चाहते हैं तो उनका ईमेल ऊपर है ही. रविकान्त From pratilipi.in at gmail.com Sun Oct 5 16:24:20 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Sun, 5 Oct 2008 16:24:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Announcing Pratilipi, Issue 4 (October 2008) In-Reply-To: <48E89C84.9090703@gmail.com> References: <48E89C84.9090703@gmail.com> Message-ID: <435290ba0810050354u628255ffjec91ed9f3d4b6217@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081005/a781752c/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 44523 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081005/a781752c/attachment-0001.jpe From ravikant at sarai.net Sat Oct 11 16:59:28 2008 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sat, 11 Oct 2008 16:59:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS44KWA?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKzgpL7gpKLgpLw=?= In-Reply-To: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A0772BDDE@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> References: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A0772BDDE@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> Message-ID: <88294594c17520e87371069184d87845@sarai.net> ravish ke blog *kasba* ke Abhilekhagar se saabhar: http://naisadak.blogspot.com/2008_09_01_archive.html yhan ndtv par prasarit kuchh rapaton ke video links bhi hai. zarur dekhein agar aapne tv par unhein nahin dekha. cheers ravikant कोसी ढूंढ रही है सबको ( दोस्तों,सहरसा,सुपौल और मधेपुरा से लौट आया हूं । मेरा अब भी मानना है बाढ़ कि प्राकृतिक नहीं है। ऐसे तर्को से सावधान रहने की ज़रूरत है कि कोई भी सरकार इतनी बड़ी तबाही में क्या कर सकती है। इस तर्क से दोषियों को चेहरा छुपाने के लिए पर्दा मिल जाता है। नितांत भाग्यवादी तर्कों से बचा जाना चाहिए। भ्रष्ट लोगों की वजह से बाढ़ आई है। इसलिए इस आपदा में कारण बड़ी खबर है राहत नहीं। मानवीय खबरें बड़ी खबर नहीं है न ही बचाव में लगे किसी नायक की खोज। बल्कि बड़ी ख़बर सिर्फ यही है कि जिनकी वजह से बाढ़ आई वो कहां हैं। मुझे जो कुछ भी दिखा, लगा मैं यहां आपके सामने रखूंगा। यह मेरा पहला लेख है।) माइक और कैमरा बंद कर दिया है। अब आप सच बताइये। कहते ही कुशहा में तैनात इंजीनियर के चेहरे पर भय की रेखाएं निकल आईं। सच। हां,कैमरे पर कही गई बहुत बातें पर्दे में ही होती हैं। मैं ये अपने लिए जानना चाहता हूं। किसी को बताने के लिए नहीं। आपके बाल बच्चे होंगे। घर होगा। ईमान भी होगा। बता दीजिए कि कुशहा में जहां आप तटबंध का कटाव रोक रहे हैं वो काम पंद्रह दिन पहले हो सकता था या नहीं। इंजीनियर अब सच बोलना चाहता था। मुझे अकेले में ले गया। पत्रकार साहब,लोगों के शरीर में कीड़े पड़ेंगे। यहां जब हम आए तो लगा ही नहीं कि कुछ भी युद्ध स्तर पर किया जा रहा था। अगर बचाये जाने की कोशिश होती तो बचाया जा सकता था। कोई बड़ी बात नहीं थी। विभाग और सरकार से पाप हुआ है। लेकिन मेरा नाम मत छापियेगा। मेरी नौकरी चली जाएगी। मैं तो चौबीस तारीख के बाद पटना से आया हूं। मेरा कोई कसूर नहीं है। वो सच बोल चुका था। लेकिन बोलने के बाद भी उसका मन हल्का नहीं हुआ। क्योंकि उसके ठीक सामने से कोशी पूर्वी किनारे को तोड़ उन अधिकारियों,नेताओं और ठेकेदारों को ढूंढने पूर्णिया,सहरसा,अररिया,मधेपुरा,सुपौल तक जा चुकी थी। वो खेतो में,सड़कों पर,गांवों में,घरों की छत पर,हर तरफ ढूंढ रही थी। कोसी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वो उस समाज को भी ढूंढने लगी जिसने ऐसी चोर व्यवस्था चुनी है। उस मतदाता को भी ढूंढने लगी जो भ्रष्ट राजनेता चुनती है,उस नागरिक को भी ढूंढने लगी जिसके बेखबर होने से अफसरशाही भ्रष्ट होती है। कोसी इन्हीं को लोगों को ढूंढते ढूंढते बर्बादी ला रही थी। कोसी ने चालीस पचास निकम्मे और चोर नेताओं और अफसरों की सजा उन लाखों लोगों को भी दी है जिनकी एक उंगली इन्हें चुनती है। कोशी को समाज की सड़न या उसकी मजबूरियों से मतलब नहीं था। वो इन मजबूरियों को तटबंध से निकल कर ढहा देना चाह रही है। कोशी ने लाखों मासूम लोगों को मासूम बने रहने की सज़ा दी है। इंजीनियर सच बोलकर भी हल्का नहीं हुआ तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह कोसी के इरादे को जान गया था। बिहार सरकार और नीतीश कुमार रात दिन झूठ बोल रहे हैं। चेहरा गंभीर होता है लेकिन झूठ बोलते हैं। वे बाढ़ और राहत कार्य में व्यस्त होने के बहाने कारण पर बात नहीं करना चाहते। वे जानते हैं कि कारण पर चर्चा की तो गर्दन उनकी भी फंस जाएगी और कोशी ने जिन लाखों लोगों को उजाड़ा है वे कोसी का गुस्सा नीतीश कुमार पर उतार देंगे। हर मुख्यमंत्री राहत काम में व्यस्त होता है लेकिन किसकी वजह से टूटा ये क्या वो चार साल बाद बतायेगा। १७ अगस्त को कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर का तबादला किया जाता है। चीफ इंजीनियर एक बड़ा अफसर होता है। इसकी तैनाती या तबादला बिना मुख्यमंत्री की जानकारी या दस्तखत के नहीं होता। अगर जलसंसाधन मंत्री की कलम से भी होता है तो साफ हो जाता है कि बिजेंद्र यादव एक रुटीन तबादले में व्यस्त थे। वैसे चीफ इंजीनियर के तबादले की फाइल कैबिनेट में जाती है और मुख्यमंत्री मंजूरी देते हैं। ध्यान रहे कि चीफ इंजीनियर को किसी लापरवाही के चलते नहीं हटाया गया था बल्कि कोई और कारण रहे होंगे। साफ है कि किसी को मालूम नहीं था। मालूम इसलिए नहीं था क्योंकि जिस जगह पर तटबंध टूटा है वहां जाकर साफ हो गया कि आने जाने का रास्ता ही नहीं है। जंगल देखकर और बुरी तरह से टूटे रास्ते से पता चल गया कि यहां कोई आया ही नहीं होगा। रास्ते की हालत बता रही थी कि यहां किसी भी प्रयास से युद्ध स्तर के प्रयास हो ही नहीं सकते थे। किसी ने पूछा है कि निराशाजनक कहानी के बीच में कोई तो होगा जो अच्छा काम कर रहा होगा। ऐसे बहुत लोग है। लेकिन ये बाद की कहानी है। उनके अच्छा काम करने से से बाढ़ ग्रस्त इलाके की हकीकत में कोई बदलाव नहीं होता। जो अपने घरों में बैठे टीवी देख रहे हैं उन्हें शायद पोज़िटीव स्टोरी से राहत मिले लेकिन क्या जिनके घर उजड़ गए हैं उन्हें ह्यूमन या मानवीय या सकारात्मक स्टोरी से राहत मिलेगी। और इस जानकारी का क्या महत्व है। इस पर बहस अगले लेख में करूंगा। मेरी राय में कोसी को पटना तक आना चाहिए। इस सड़े हुए प्रदेश को सिरे से उजाड़ देना चाहिए। किसी को बिहार की ऐसी छवि से परेशानी हो सकती है लेकिन कोसी जानती है कि बिहार को एक दिन नई छवि बनानी होगी तब तक के लिए वो तटबंधों को तोड़ ऐसे भ्रष्ट समाज और सरकार को ढूंढने के लिए तबाही लाती रहेगी। Posted by ravish kumar at Saturday, September 06, 2008 30 comments Re: [दीवान]कोसी का बाढ़ > > ----- Original Message ----- > From: deewan-bounces at mail.sarai.net > To: deewan at sarai.net > Cc: Pramod Ranjan > Sent: Thu Oct 09 01:53:40 2008 > Subject: [दीवान]कोसी का बाढ़ > > ..और उससे ऊपजी मानवीय > त्रासदी पर पटना-स्थित > पत्रकार प्रमोद रंजन ने > बहुत कुछ लिखा और छापा है. > अगर आप उनकी रपटें देखना > चाहते हैँ तो संशयात्मा > नामक चिट्ठे पर जाएँ, > > http://sanshyatma.blogspot.com/ > > और उनसे संपर्क साधना > चाहते हैं तो उनका ईमेल ऊपर > है ही. > > रविकान्त > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon Oct 13 00:51:54 2008 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Sun, 12 Oct 2008 21:21:54 +0200 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSd4KWB4KSu4KSw?= =?utf-8?b?4KWA4KSk4KS/4KSy4KWI4KSv4KS+IOCkueCliCDgpK/gpL4gJ+CknQ==?= =?utf-8?b?4KWC4KSuIOCksOClgCDgpKTgpL/gpLLgpYjgpK/gpL4n?= Message-ID: <6a32f8f0810121221j5cb9fb9cia042ae7513b29344@mail.gmail.com> झुमरीतिलैया है या 'झूम री तिलैया' झुमरीतिलैया शहर के किस्से बड़े निराले हैं, कहा जाता है कि इस इलाके से केवल फरमाइशी गीतों की लहरें उठती हैं। इन रेडियो स्टेशनों से जब भी गीत प्रसारित होते हैं तो यहां के लोग मचल उठते हैं। तिलैयावासी संजीव बर्नवाल बताते हैं, "आप इस छोटे से शहर में घूमें। तब आपको पता चलेगा कि फिल्मी गीतों के कितने कद्रदान यहां हैं।" पहाड़ी पर बसे तिलैया शहर ने फरमाईशी गीतों के विविध कार्यक्रमों के बूते अपनी खास पहचान बनाई है। एक समय कहा जाने लगा था कि फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को तिलैया वालों ने हिट कर दिया है, जिसमें एक महत्वपूर्ण नाम रामेश्वर प्रसाद बर्नवाल का है/ रामेश्वर बर्नवाल अब नहीं रहे लेकिन रेडियो सिलोन (श्रीलंका)और विविध भारती का पता लिखा पोस्टकार्ड अब भी उनकी आलमारी में पड़ा है। उनकी पत्नी द्रोपदी देवी ने बताया, "मेरे पति गीतों के बड़े शौकीन थे और फिल्मी गीतों को खूब सुनते थे।" उन्होंने कहा, "साठ और सत्तर के दशक में जिन-जिन रेडियो स्टेशनों से फरमाईशी गीतों के कार्यक्रम प्रसारित होते थे, उन सभी स्टेशनों पर एक-एक पोस्टकार्ड भेजना उनका रोज का काम था।" रामेश्वर के बेटे संजीव ने बताया, "पिताजी बताते थे कि यह प्रक्रिया खेल-खेल में शुरू हो गई। उन दिनों गीत सुनने की अपेक्षा रेडियो में अपना व अपने शहर का नाम सुनना लोगों को अधिक रोमांचित करता था। धीरे-धीरे फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को सुनना तिलैयावासियों की आदत हो गई।" हजारीबाग के निकट बसे इस शहर में सन सत्तर के आसपास 'झुमरीतिलैया रेडियो श्रोता संघ' का गठन किया गया था। गंगा प्रसाद, मनोज बागरिया, राजेश सिंह, अर्जुन साह जैसे लोग इसके सदस्य बाद के दिनों में फरमाईशी गीतों को सुनने का ऐसा जादू चढ़ा कि लोग टेलीग्राम के माध्यम से भी पसंदीदा गीतों को बजाने की मांग करने लगे। इसकी शुरुआत भी रामेश्वर ने की थी। संजीव ने बताया कि सबसे पहले उन्होंने 'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गया रे'(फिल्म-गंगा यमुना) गीत सुनने के लिए विविध भारती को टेलीग्राम किया था। एक समय ऐसा भी कहा जाने लगा था कि हिन्दी फिल्मों का चलताऊ संगीतकार भी झुमरीतिलैया के श्रोताओं के बल पर सुख की नींद सोता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों न! लोग इस शहर को झुमरीतिलैया की जगह 'झूम-री-तिलैया' जो कहने लगे हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081012/5145404a/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Wed Oct 15 00:45:45 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 14 Oct 2008 14:15:45 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <12442393.1909431224011745716.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// डीटीपी को सच पसंद नहीं Posted: 13 Oct 2008 11:58 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/420318591/blog-post.html 13 अक्टूबर. शाम लगभग पांच बजे. दफ़्तर से लौट रहा था. पीछे चन्द्रा बैठी थी. बीडी एस्टेजट से थोड़ा पहले ही एक बुलेट पर नज़र पड़ी. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के नियम के मुताबिक़ मोटर साइकिल की पिछली सीट पर बैठे व्‍यक्ति के लिए हेल्मेट धारण करना अनिवार्य है. ठीक इसी नियम के अनुसार DL-1S 4589 पर नीली-सफ़ेद वर्दी धारण किए महोदय के सिर पर हेलमेट होनी चाहिए थी. न रहा गया. अपनी मोटर साइकिल उनके क़रीब लाकर हल्‍के से पूछ लिया, ‘सबके लिए क़ायदा-क़ानून, आपके लिए कुछ नहीं ? ‘ दांत निपोरे और बोले, ‘इमरजेंसी है...’ अचानक उनके मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज़ हो गयी. कुछ दूर बाद याद आया कि मेरे बैग में कैमरा तो है. चन्द्रा़ को कहा, ‘झट से कैमरा निकाल कर एक तस्‍वीर उतार लो सरजी की'. चन्‍द्रा ने वैसा किया. पर थोड़ा वक़्त लग गया. और ये सब करते हुए हम तिमारपुर गोल मार्केट के क़रीब पहुंच चुके थे. चन्द्रा ने दो तस्वीरें ली थी. बुलेट के चालक महोदय ने दाईं ओर वाले आइने से यह देख लिया. अब क्‍या था! अपने पीछे से आ रही ब्ल्यू लाइन को आगे न जाने देने के लिए पहली ब्‍ल्‍यू लाइन जैसे आड़े-तिरछे खड़ी हो जाती है, उसी अंदाज़ में अब वो बुलेट हमारे आगे खड़ी हो गयी. अचानक ज़ोर से ब्रेक लगाना पड़ा. किसी प्रकार की शारीरिक क्षति नहीं हुई. हल्‍की घबराहट आयी और चली गयी. अब एक गोरा-चिट्टा, छरहरा क़रीब 20-22 साल का नौजवान बड़ी नाज़-ओ-अदा से बुलेट से उतरा; जिस शीशे से हमें तस्‍वीरबा़ज़ी करते देख उसने गाड़ी रोकी थी, उसी पर अपना हेल्‍मेट टांगा और घूरता हुआ मुआयने की शैली में मेरे क़रीब आया. नौजवान के आने से पहले उस बुलेट की पिछली सीट पर सवारी कर रहे ट्रैफिक पुलिस के एक हाकिम हमारे क़रीब आ चुके थे. दिल्‍ली ट्रैफिक पुलिस के सब इंस्‍पेक्‍टर का नाम अब हम पढ़ पा रहे थे. शुरुआती दो अक्षर दो बिंदुओं के साथ मिलकर नाम के अगले हिस्‍से को थामे था, और ‘डोगरा’ के साथ उसका समापन हो रहा था. यानी कोई डोगरा साहब थे वे. गुस्से में तमतमाते डोगरा साहब आये और जिस पुलिसिया अंदाज़ से हम परिचित हैं उसी में हमसे मुख़ातिब हुए. उनके उस उपक्रम को धमकाना भी कह सकते हैं. और वो गोरा, छरहरा जवान पहले कुछ शब्द अपने मुंह में छानता और फुसफुसाहट के अंदाज़ में कुछ मेरे सामने पटकता. पर उसकी लिप सिंकिंग हमें उसकी लगभग हर अभिव्यमक्ति समझा पा रही थी. गली-मोहल्लों में नौजवान ऐसा बोलते ही रहते हैं. बहरहाल, श्री डोगरा साहब डांटते-धमकाते हुए हमें ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि किसी की इमरजेंसी को हम नहीं समझ पाए. उनकी गाड़ी या कुछ ख़राब है जिसको बनवाने के लिए वे मेकेनिक ले जा रहे हैं अपने साथ. यानी उस गोरे नौजवान को उन्होंने मेकेनिक बताया जिसके मुंह से रह-रह कर महीन बातों (बदलफ़्जों) की बुंदाबांदी हो रही थी. हमारा अंदाज़ है कि वो या तो डोगरा साहब का बेटा था या कोई बेहद क़रीबी रिश्तेदार या परिचित. श्रीमान डोगराजी की इस हरकत को क़रीब 50 राहगीर देखते रहे. जानने की कोशिश कर रहे थे लोग कि हमेशा आम आदमी की पर्ची काटने वाला ये पुलिसकर्मी आखिर यूं उलझ क्‍यों रहा है इस दंपत्ति से. तभी एक मित्र न जाने कहां से आ धमके. हम कुछ उन्‍हें बता पाते, इससे पहले डोगरा साहब ने लगभग एक सांस में ही ये बता दिया कि हमने कितनी बड़ी ग़लती कर दी है उनकी तस्‍वीर लेकर. साथ में डोगरा साहब ने हमारे मित्र को ये भी 'समझाया' कि हममें इंसानियत है ही नहीं. हमारे मित्र को समझाने का डोगरा साहब का अंदाज़ लगभग वैसा ही था जिस तरह वो हमें 'समझाने' की कोशिश कर रहे थे. उनका ‘मेकेनिक’ अपने ‘मालिक’ की वर्दी और स्थिति को देखते हुए अब फुसफुसाहट से आगे बढ़ चुका था. फुसफुसाहट अब सिसिआहट (धीरे-धीरे सिटी बजाने की आवाज़) का रूप लेने लगी थी. अब उसके कुछ शब्‍द साफ़-साफ़ बाहर आने लगे थे. ‘अच्छा फोटो खिंचा है, देखते हैं .... बताते हैं ....’ उसने मेरी मोटर साइकिल की नंबर प्‍लेट पर भी नज़रें इनायत की. तात्पर्य ये कि श्रीमान डोगरा साहब और उनके मेकेनिक में ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा था किसकी धमकी/डांट मेरे लिए ज्‍़यादा समझने और आदर करने योग्‍य है. मैं बार-बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के सब इंस्पेक्‍टर श्रीमान डोगराजी से यही अनुरोध करता रहा कि ‘आप अपनी बात कहिए पर इस जनाब को चुप कराइए’. तमतमाहट इतनी थी कि वे मेरी बात सुन नहीं पा रहे थे. कई बार तमतमाहट सुनने में अवरोध उत्‍पन्‍न करने लगता है. दिल्लीट ट्रैफिक पुलिस के एक सब इंस्पेबक्ट र की उनके ही विभाग द्वारा बनाए और उसी की हिफ़ाज़त में पलने वाले क़ानून की अवहेलना करने की एक मिसाल कैमरे में क़ैद कर लेने का 'जुर्म' हम पर थोपा जा रहा था. मुझे इस बात के लिए खुली सड़क पर हर संभव तरीक़े से ‘समझाया’ जा रहा था कि मैंने कैसे ग़लत किया है. कैसे ये ग़लती मुझे परेशानी में डाल सकती है. अपने देश में न्याय केवल भांति-भांति के सप्‍ताहों, पखवाड़ों, जयंतियों, पुण्‍यतिथियों, दिवसों तक ही सिमट कर रह गया है? गांधी जयंती गुज़रे एक पखवाड़ा भी नहीं बीता है. अख़बारों का वज़न विज्ञापनों से दोगुना हो गया था उस दिन. शायद ही कोई विभाग बापू की तस्‍वीर के साथ अपना संदेश और विज्ञापन प्रकाशित करने रह गया हो उस दिन. सबने सच की राह पर चलने की नसीहत दी. हर साल देते हैं. एक सच पर अमल क्‍या किया रात भर नींद ही नहीं आयी. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081014/ab2e076f/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Oct 20 11:15:24 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 20 Oct 2008 11:15:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KSq4KS+?= =?utf-8?b?4KS14KSy4KWAIOCkleClhyDgpKrgpLngpLLgpYcg4KSm4KSy4KS/4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KSm4KSwIOCkreCkl+CkviDgpLLgpL/gpK/gpL4g4KSV4KSw4KWL?= Message-ID: <829019b0810192245n6036bd63j831b4add9ee65bf5@mail.gmail.com> दीपावली के दो-तीन दिन पहले मां हाथ में सूप, बटरी और चाबी लेकर पूरे घर में उसे पटक-पटककर बजाती थी। मां कहती कि इससे घर का दलिद्दर यानि कंगाली भाग जाती है और घर में लक्ष्मी के आने का मामला शत-प्रतिशत तय हो जाता है। जब मैं छोटा था तो मैं भी अलग से हाथ में सूप और चाबी लेकर मां के पीछे-पीछ बजाता। इस दौरान कोई घर में आया होता तो कहता, देखो चाची के साथ-साथ घर की छोटी बहुरिया भी कंगाली भगाने में लगी हुई है। लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया, मां के साथ बाकी चीजों के छूटने के साथ ही ये सारी चीजें भी छूटती चली गयीं। बड़ा होने पर तो मैं यहां तक कहने लगा था कि- ये सब ढोंग क्यों करती हो। रात में बजाती हो और मैं डिस्टर्ब हो जाता हूं। कंगाली भगाने के मां के इस तरीके पर मुझे रत्तीभर भी भरोसा नहीं होता। क्योंकि इसी दीपावली में मैं जब भी कुछ लाने कहता- पापा टाल जाते. कहने लगते- अच्छा बताओ, इसकी एकदम से अभी जरुरत है। और अगर एक ही साथ तीन-चार चीजें लाने कहता तो उसमें ऑप्षन दे देते- सबसे जरुरी सामान कौन-सी है. मैं पापा के जाने पर झल्लाकर कहता-तुम दिन दिनों से कंगाली भगा रही हो और फिर भी मेरे लिए घर में लक्ष्मी आ ही नहीं रही है. बोर्ड के बाद घर छूटा और एक खास रकम के साथ आजादी मिल गयी कि इतने पैसे भेजा जाएगा। अब इसमें तुम चाहो तो किताबें खरीदो, कमरे का किराया दो या फिर ऐश करो। यकीन मानिए, अगर किसी को इस तरह की आजादी मिलती है तो वो ज्यादा बंधा-बंधा महसूस करता है। वो कतर-ब्योंत की कला में इतना माहिर हो जाता है कि बिना पचास बार सोचे कुछ भी खरीद नहीं पाता। ये अलग बात है कि उसमें बचत के संस्कार आ जाते हैं लेकिन साथ में जो कइंयापन आ जाता है उससे वो जीवन भर मुक्त नहीं हो पाता। पैसे रहने पर भी वो उसे खर्च करने में पचास बार सोचता है। मेरे दिल्ली रहने पर मां मेरे लिए सबकुछ करती है। अलग से पूजा-पाठ करती है और पता चल जाए कि इन दिनों मैं बीमार चल रहा हूं तो पूजा की अवधि बढ़ा देती है लेकिन मेरे हॉस्टल के कमरे में आकर दलिद्दर और कंगाली भगाने का काम नहीं कर पाती। मैंने कभी भी कंगाली भगाने का काम नहीं किया है। परेशान होने पर भी पूजा-पाठ और अगरबत्ती नहीं जलाया। मां के हिसाब से यही वजह है कि हर साल दीपावली के पहले मेरे सामानों की चोरी हो जाती है। अबकी बार मां ने विजयादश्मी के समय ही कहा था- अबकी बार सूप पर चाबी पटककर जरुर बजाना। मां को बताया कि दिल्ली में सूप कहां से लाउं। और फिर तुम तो जानती ही हो कि मैं इन सब चीजों में विश्वास नहीं करता। मां बोली- नय मानते हो तो मत मानो, ऐसे बोलोगे तो भइया जा रहा है, एक सूप भेज देती हूं। मैंने कहा-नहीं, रहने दो। गिनकर तो पैसे मिलते हैं और जिंदगी भर ऐसे ही गिनकर मिलेंगे, अब इसमें क्या दलिद्दर भगाना औऱ लक्ष्मी को बुलाना, येसब काम घर में ही करो, जब लाख-दो लाख की जरुरत होगी तो तुम्हीं से मांग लूंगा। मां बेमन से बोली- जो जी में आए करो। तीन दिनों के प्रयास के बाद भी जब नतीजा कुछ भी नहीं निकला, तब अंत में जाकर मैंने मां को बताया। मेरी तबीयत जानने के लिए रोज फोन किया करती है। मैंने कहा- मां तबीयत तो ठीक हो गयी लेकिन इस साल फिर धक्का लगा है। मैं बीमार था, सो मेरी हालत देखकर नीरज मुझे अपने कमरे पर इंदिरा विहार ले गया। मेरी हालत कुछ ज्यादा ठीक नहीं थी, सो देखने एक-दो और दोस्त आ गए। हम चार थे और दो बजे तक बातचीत करते रहे। सुबह सब आठ-साढे आठ बजे सोकर उठे। देखा-हम सबों के मोबाइल गायब हैं। आधे घंटे ध्यान आया- अरे मेरी तो घड़ी भी गायब है। बाकियों के नकदी और आइडी येसब सब। रात में हमलोगों को स्प्रे करके एक गुट ने तीस-पैंतीस हजार का चूना लगा दिया था। मेरा करीब नौ हजार का नुकसान हो गया है। यही वही स्विस घड़ी है जिसे मैंने कइंयापन को तोड़ने के लिए खरीदी थी। बताओ मां लक्ष्मी के आने के पहले ही दलिद्दर धम-मदाडा़ हो जाता है।नीरज की मां फोन पर लगातार कह रही थी- हम तुमको बोले थे कि नवरात्र में ढोड़ी में तेल डाल लेना, ग्रह-गोचर कटेगा, तुम नहीं माने। मेरी मां कह रही थी- सबकुछ जानने-सुनने पर भी उपाय नहीं करते हो तो क्या होगा. फिर आस्था और भगवान पर सात मिनट पर बोलती रही। ये भी कहा कि- मृत्युंजय पंडिजी से पूछकर बताएंगे, क्या हुआ. अंत में कहा-जाने दो, जान तो बचा....ऐसा-ऐसा घड़ी और मोबाइल केतना आता है, केतना जाता है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-170 Size: 9384 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081020/b63a03ff/attachment.bin From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Oct 13 17:01:47 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Mon, 13 Oct 2008 17:01:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWA?= Message-ID: <196167b80810130431l67759812y5c8b96098f5e156e@mail.gmail.com> यह कविता मुझे अपने एक दोस्त से प्राप्त हुई है। कविता अदभूत है लेकिन इसे लिखा किसने है, इसकी जानकारी नहीं है. इस बार आप ब्लॉग बंधुओं के लिए यह कविता 'मिट्टी' . यदि किसी ब्लॉग बंधू को कवि का नाम-पता मालूम हो तो बताएं. *मिट्टी* मन भर मिट्टी के नीचे दबा है मेरा शरीर ...केवल हाथ बाहर है. ... वे भी हिल-डूल कर कुछ समझा रहे हैं पर कोई नहीं समझता ... आस्थाएं बिखर गईं हैं, घोषणा हो चुकी है ... कि प्रतीक कूच कर गए हैं इस श्रृष्टि से! मेरे हाथ क्या कहना चाह रहे हैं तमाम चिन्तक वर्ग लगा है इस मनन में ... यद्यपि वे कैद कर रहे हैं प्रतिक्षण परिवर्तन को डिजिटल कैमरे में। उनके लिए हो सकता है यह दृश्य मूर्तिशिल्प का विषय या बड़े कैनवाश का कोई आधुनिक मॉडल। कोई नहीं जानना चाहता कि इन हाथों की शिराओ में दौड़ते रक्त को संचरित करने वाला शरीर दबा है मन भर मिट्टी के नीचे ... और छाती में अभी धड़कन है बाकि। 'यद्यपि सांसों का रहना या ना रहना जीवित होने का कोई संकेत नहीं।' मगर इन हाथों के संकेतों में समय के बदलाव पर प्रश्न खड़े करने की क्षमता है. और प्रश्न पर प्रश्न दागने का कौशल भी. मगर विचार इसलिए भी पैदा नहीं रहा... क्योंकि उसके अंत की भी हो चुकी है घोषणा .... . कोई नहीं चाहता कि सोचे ... क्या कहना चाह रहा है यह हाथ! सभी चलताऊ-उपजाऊ विचार के फैशन से त्रस्त हैं. क्योंकि 'आउट ऑफ माइंड' से भयंकर है ... 'आउट ऑफ फैशन' होना. तब डर रहता है 'आउट डेटिड' होने का! इसलिए देखो और हो सके तो विकसित कर दो इसके आस-पास कोई सुंदर उद्यान तुम्हारे समय काटने का यह यह अच्छा तरीका हो सकता है. ... कभी तो कोई विदेशी समझेगा इसे ... तब कैसे छूडा पाओगे पिंड इससे ... इसका पिंडदान तो करना ही होगा. इसकी चिंता ना करो चिंता करो अपने चिंतन की यह जीवित रहेगा क्योंकि इसके पास पोषण है मिट्टी का...... और मिट्टी जिसको पोषित करती है उसको बना देती है पृथ्वी का हिस्सा ...! -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-7580 Size: 7784 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081013/1efa78e8/attachment-0001.bin From pramod4me at gmail.com Tue Oct 14 23:05:50 2008 From: pramod4me at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Tue, 14 Oct 2008 23:05:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkrOCkvuCkoiAy?= =?utf-8?b?MDA4LSDgpIXgpKjgpJXgpLngpYAg4KSV4KS54KS+4KSo4KWAJw==?= In-Reply-To: <506627250810141023p42da8af1rbc0f94e12ff6b4c7@mail.gmail.com> References: <9c56c5340810140210q20cb563cx8c65f7d8a433388@mail.gmail.com> <9c56c5340810141021u16eca1c3tfda556c9f259a7d3@mail.gmail.com> <506627250810141023p42da8af1rbc0f94e12ff6b4c7@mail.gmail.com> Message-ID: <8071d09a0810141035m51144b23h819b41ecd8ee3ae7@mail.gmail.com> *अनकही कहानी * 'बाढ 2008- अनकही कहानी' शीर्षक से यह 32 पन्‍नों की पुस्तिका 15 सितंबर को जारी हुई है। 10 अक्‍टूबर तक इसके पांच संस्‍करण हो चुके हैं। एक महीने में ही इसका मुद्रित संस्‍करण कई लाख लोग इसे पढ चुके हैं। अभी तक आपने इसके कुछ लेख इस ब्‍लॉग पर पढे हैं। अब यह पूरी पुस्तिका वहां उपलब्‍ध है। यहां इसके सभी लेखों के लिंक दिये जा रहे हैं ताकि इसे क्रमवार पढने में पढने में सुविधा हो। इसके मुद्रित संस्‍करण को पाठकों से व्‍यापक प्रशंसा मिली है लेकिन शायद टुकडों-टुकडों मे पढने के कारण ब्‍लॉग पाठकों की अजीबो-गरीब टिप्‍पणियां मिलती रही हैं। उम्‍मीद है इसे मुकम्‍मल रूप से पढने के बाद उनकी धारणाओं में कुछ सुधार होगा। ** ** *लेखों के लिंक* 1. बाढ की जाति - प्रमोद रंजन 2. बाढ है, मजाक नही- सत्‍यकाम 3. स्‍म़ति शून्‍यता के बीच जो याद रह पाया- एक संवाददाता की डायरी 4. सरकारी मिशनरी में उत्‍साह नहीं- मेधा पाटकर से बातचीत 5. इंजीनियर सत्‍यनारायण ने दी थी चेतावनी-प्रभातकुमार शांडिल्‍य 6. बयानों की बाढ- 19 अगस्‍त से 8 सितंबर,08 के बीच राजनीतिक दलों के बयान 7. सुधरो नीतीश कुमार- सत्‍यकाम -- Pramod Ranjan Gram Parivesh Teacher's calony Kumhrar Patna-800026.Mo : 9234251032,Res : 0612-2360369 ..................... Mohindra Pratap Singh Rana 114, P.C chamber Shimla-171001 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081014/0ea4e060/attachment-0002.html From pramod4me at gmail.com Tue Oct 14 23:05:50 2008 From: pramod4me at gmail.com (Pramod Ranjan) Date: Tue, 14 Oct 2008 23:05:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkrOCkvuCkoiAy?= =?utf-8?b?MDA4LSDgpIXgpKjgpJXgpLngpYAg4KSV4KS54KS+4KSo4KWAJw==?= In-Reply-To: <506627250810141023p42da8af1rbc0f94e12ff6b4c7@mail.gmail.com> References: <9c56c5340810140210q20cb563cx8c65f7d8a433388@mail.gmail.com> <9c56c5340810141021u16eca1c3tfda556c9f259a7d3@mail.gmail.com> <506627250810141023p42da8af1rbc0f94e12ff6b4c7@mail.gmail.com> Message-ID: <8071d09a0810141035m51144b23h819b41ecd8ee3ae7@mail.gmail.com> *अनकही कहानी * 'बाढ 2008- अनकही कहानी' शीर्षक से यह 32 पन्‍नों की पुस्तिका 15 सितंबर को जारी हुई है। 10 अक्‍टूबर तक इसके पांच संस्‍करण हो चुके हैं। एक महीने में ही इसका मुद्रित संस्‍करण कई लाख लोग इसे पढ चुके हैं। अभी तक आपने इसके कुछ लेख इस ब्‍लॉग पर पढे हैं। अब यह पूरी पुस्तिका वहां उपलब्‍ध है। यहां इसके सभी लेखों के लिंक दिये जा रहे हैं ताकि इसे क्रमवार पढने में पढने में सुविधा हो। इसके मुद्रित संस्‍करण को पाठकों से व्‍यापक प्रशंसा मिली है लेकिन शायद टुकडों-टुकडों मे पढने के कारण ब्‍लॉग पाठकों की अजीबो-गरीब टिप्‍पणियां मिलती रही हैं। उम्‍मीद है इसे मुकम्‍मल रूप से पढने के बाद उनकी धारणाओं में कुछ सुधार होगा। ** ** *लेखों के लिंक* 1. बाढ की जाति - प्रमोद रंजन 2. बाढ है, मजाक नही- सत्‍यकाम 3. स्‍म़ति शून्‍यता के बीच जो याद रह पाया- एक संवाददाता की डायरी 4. सरकारी मिशनरी में उत्‍साह नहीं- मेधा पाटकर से बातचीत 5. इंजीनियर सत्‍यनारायण ने दी थी चेतावनी-प्रभातकुमार शांडिल्‍य 6. बयानों की बाढ- 19 अगस्‍त से 8 सितंबर,08 के बीच राजनीतिक दलों के बयान 7. सुधरो नीतीश कुमार- सत्‍यकाम -- Pramod Ranjan Gram Parivesh Teacher's calony Kumhrar Patna-800026.Mo : 9234251032,Res : 0612-2360369 ..................... Mohindra Pratap Singh Rana 114, P.C chamber Shimla-171001 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081014/0ea4e060/attachment-0003.html From ravishndtv at gmail.com Thu Oct 9 22:31:18 2008 From: ravishndtv at gmail.com (ravish kumar) Date: Thu, 9 Oct 2008 22:31:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBb4KSV4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4oCN4KSs4KS+IHFhc2JhXSDgpK7gpYjgpIIg4KSo4KS+4KSu4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSmIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYLgpILgpaQ=?= In-Reply-To: <1223571117968.d20fee3b-929b-4135-96f6-34cde0e55c86@google.com> References: <1223571117968.d20fee3b-929b-4135-96f6-34cde0e55c86@google.com> Message-ID: ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081009/dad65132/attachment.html From vineetdu at gmail.com Tue Oct 21 11:37:21 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 21 Oct 2008 11:37:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KWL4KSCIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSb4KWA4KSc4KSk4KWA?= =?utf-8?b?IOCknOCkvuCkpOClgCDgpI/gpJUg4KSG4KSm4KSw4KWN4KS2IOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KWN4KSw4KWA?= Message-ID: <829019b0810202307w4190b17boa29cf3d77868635b@mail.gmail.com> स्त्रियां वरमाला के समय एक बार झुक जाती है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो जिंदगी भर पुरुषों के आगे झुकती चली जाए। अब वो जमाना गया कि पुरुष उसे जो कहे, जैसा कहे, वो मानती चली जाए। उसकी अपनी भी इच्छाएं हैं, अपनी भी मर्जी है। जिस घर में मेरी बेटी की एक छोटी सी इच्छा पूरी नहीं हो सकती, उस घर में मेरी बेटी कभी वापस नहीं जाएगी। ये घोषणा थी, आठ साल से चले आ रहे टेलीविजन सीरियल कहानी घर -घर की के अंतिम एपिसोड में पार्वती भाभी( साक्षी तंवर) की। पार्वती की इस घोषणा से एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि एकता कपूर आठ साल के भटकाव की भरपाई को इस अंतिम एपिसोड में करना चाहती है। लोकप्रियता के साथ-साथ सास-बहू आधारित सीरियलों की जितनी आलोचना हुई है, संभव है उसे ध्यान में रखकर एकता कपूर ने ऐसा किया हो औऱ ऑडिएंस के सामने एक प्रगतिशील मूल्य छोड़ना चाह रही हो। शायद तभी पार्वती भाभी जिसने की लाख परेशानियों के बावजूद भी अपने परिवार को टूटने नहीं दिया। परिवार को बचाए रखने के लिए एक स्त्री को जलाती रही, स्त्रीत्व जिसमें कि त्याग, अवमानना, परिहास, प्रताड़ना और न जाने कितने कष्ट शामिल रहे, सबको झेलती चली गयी। इस आठ साल में वो पागल हुई, उसे बार -बार इलेक्ट्रिक शॉक दिया गया लेकिन अंतिम एपिसोड तक परिवार तक आते-आते परिवार को बिखरने से बचा लिया। आठ साल पहले जिस दिवाली से कहानी घर-घर की शुरुआत हुई थी, आठ साल बाद उसी दिवाली से इसका अंत भी हुआ। पहले से कहीं बेहतर स्थिति में, भरपूरा। ऐसा तो रामायण में भी नहीं हुआ था। वहां भी दशरथ और अयोध्या के कुछ जरुरी पात्र मर-खप गए थे। इस अर्थ में कहानी घर-घर की, रामायण से भी ज्यादा सुखांत रहा। ये अलग बात है कि जब पार्वती जब ओम के साथ दिवाली के दिए जला रही थी, तब पूरी दिल्ली में रावण को जलाकर लौटने की थकान मिटी नहीं थी। न्यूज चैनल इस दौरान अभी तक हादसे में ही बझे-फंसे थे। पार्वती ने ये काम एडवांस में किया था। खैर, प्रगति को अंकुर ने दिवाली पर क्राइसिस होने की वजह से नेकलेस देने से मना कर दिया था। प्रगति के दिवाली के दिन अचानक से अपने ससुराल छोड़कर आ जाने के बाद पार्वती लगातार बोले जा रही थी। एक स्त्री के पक्ष में, उसके अधिकारों और इच्छाओं को ट्रेस करते हुए, उसके लिए तर्क देते हुए। उसके सारे वक्तव्यों से साफ झलक रहा था कि इस एपिसोड के लिए एकता कपूर ने स्त्री अधिकार संगठनों पर ठीक-ठाक रिसर्च किया है। पार्वती का कहना था कि पहले स्त्री की इच्छा है और उसके बाद रिश्ते हैं। तभी घर के एक-एक सदस्य पार्वती की उसी बात को दोहराने लगे, जिसे उसने आट साल तक चलनेवाले इन एपिसोडों के दौरान दोहराया था। ओम ने कहा- अगर पैसे औऱ इच्छाओं से ही संबंध मजबूत होने होते, तब तो पार्वती हमारे रिश्ते टूट जाने चाहिए थे, लेकिन हुआ ये कि हमारे संबंध पहले से और ज्यादा मजबूत हुए और इसके सामने पैसा छोटा पड़ गया। पार्वती ने दोहराया- परिवार को बचाने के लिए हमने जो बातें पहले की थी, आज उसका कोई महत्व नहीं है। लेकिन घर के एक-एक सदस्य पार्वती के परिवार के लिए गलने, छीजने और बर्दाश्त करने की बात दोहराते हुए। अंत में समझ में आया कि एकता कपूर ने आठ साल के भीतर जो कुछ भी दिखाया और भारतीय परिवार के जिन मूल्यों को सहेजने की बात की, दरअसल उसे डिफेंड करने का ये तरीका था। सीधे-सीधे पार्वती अगर कहती कि घर के लिए स्त्रियों का मिट जाना ही उसकी नियति है तो ये उपदेश-सा लगता औऱ शायद इसे लोग मानते भी नहीं। लेकिन जैसे ही घर के एक-एक सदस्य पार्वती की कही हुई बातें दोहराने लगे जिसमें कि अभी की पीढ़ी भी शामिल रही तो असर कुछ ज्यादा ही जमानेवाली बात हो गयी। हमारे सामने यह सिद्ध कर दिया गया कि आठ साल से जिन मूल्यों को सहेजने की बात की जा रही थी, वो महज पुरानी पीढ़ी की अपील भर नहीं थी, बल्कि नई पीढ़ी ने भ इसे हूबहू अपना लिया है। एपिसोड खत्म होने के बात देशभर के ऑडिएंस के वाक्सपॉप दिखाए गए जिसमें सबों ने कहा कि उन्हें पार्वती बहुत पसंद आयी। वो बहुत सही बात कर रही थी, रिश्ते ही नहीं रहेंगे तो फिर बाकी की चीजों का क्या करना। अब क्या था, कहानी घर-घर की पर ऑडिएंस की भी मुहर लग गयी थी। जाते-जाते पार्वती की आंखों के कोर भीग गए। उसने रुआंसे स्वर में कहा- आट साल से आप मुझे देखते रहे, मेरा इंतजार करते रहे, सच पूछिए तो जाने का मन नहीं कर रहा। लेकिन जाना होगा। आपका मुझे खूब प्यार मिला।। मुझे भरोसा है कि आपके मन में मैं हमेशा रहूंगी।....... हमेशा रहूंगी यानि रिश्तो के लिए तिल-तिल छीजनेवाली एक स्त्री, यही मूल्य है यही संस्कृति है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-57799 Size: 10041 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081021/0115db57/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Wed Oct 22 12:04:20 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 22 Oct 2008 12:04:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSm?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKrgpL7gpLAg4KSa4KSy4KWLLCDgpK/gpLngpL7gpIIg?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkruClgeCkuOCljeCksuCkv+CkriDgpJTgpLDgpKTgpYc=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkueCliOCkgiDgpLngpYAg4KSo4KS54KWA4KSC?= Message-ID: <829019b0810212334i4701eca7hcd5aaf976338e88b@mail.gmail.com> *चांद के पार चलो, यहां तो मुस्लिम औरतें हैं ही नहीं* दूरदर्शन के कुछ सीरियलों की बात छोड़ दें तो निजी मनोरंजन चैनल मुस्लिम समाज और उनकी संस्कृति को नजरअंदाज ही करते आए हैं। लगभग सभी मनोरंजन चैनलों पर कम से कम चार-पांच सीरियल चल रहे होते हैं, उनमें से एक भी ऐसा सीरियल नहीं है जिसकी पटकथा मुस्लिम परिवार, उसकी संस्कृति और उनके रिवाजों पर आधारित हो। अगर ऑडिएंस रिसर्च के हिसाब से बात करें तो तुरत-फुरत एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संभव है मुस्लिम औऱतें सीरियल नहीं देखा करती हैं। मीडिया की स्थापित दलील की जब ऑडिएंस हैं ही नहीं तो दिखाएंगे किसके लिए, ये काम में लाया जा सकता है। लेकिन इस लचर दलील में एक दिक्कत है- हिन्दू रीति-रिवाजों और संस्कृति पर आधारित सीरियलों को देश की मुस्लिम महिलाएं भी देखती हैं। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की लोकप्रियता हिन्दुस्तान के अलावे इस्लामिक देशों में भी रही। इससे एक बात तो साफ है कि ऑडिएंस सीरियलों को सिर्फ अपने रीति-रिवाजों भर के होने के कारण नहीं देखती, उसके अलावे भी उसमें कई ऐसे एलीमेंट हैं जिसकी वजह से सीरियल की लोकप्रियता बनती है। जिन लोगों के लिए टेलीविजन के सीरियल सिर्फ फैशन और कन्ज्यूमर कल्चर को बढ़ावा देने का मामला है वो चाहें तो खुश हो सकते हैं कि एक हद के बाद ऑडिएंस इन सब चीजों के अलावे और भी बहुत कुछ देखना-सुनना चाहती है। जो टेलीविजन की समीक्षा समाजशास्त्रीय आधारों पर करते हैं उनके हिसाब से बाकी चीजों के साथ-साथ मुस्लिम आधारित कथानकों को नहीं चुनना प्रोड्यूसरों का तंग नजरिया लग सकता है। आप हिन्दी के सारे मनोरंजन चैनलों पर एक नजर डालकर देखें। सीरियलों के मामले में इसकी संख्या पचास से उपर हैं। इसमें पांच से दस सीरियल ऐसे हैं जिसे कि कोई भी किसी न किसी रुप में जरुर जानता है। या तो उनके पात्रों की वजह से या तो कथानक की वजह से या फिर उनसे जुड़े लोगों के सीरियल के अलावे बाकी क्षेत्रों में सक्रिय होने की वजह से। लेकिन आप देखेंगे कि कहीं कोई मुस्लिम चरित्र नहीं है। ऐसी कोई घटना या एपिसोड नहीं है जिसमें कि उनकी संस्कृति या उनकी उपस्थिति को टेलीविजन में शामिल किया जा सके। संभव है कि असल जिंदगी में कई कलाकार मुस्लिम रहे हों लेकिन सीरियल के स्तर पर वो सिरे से गायब हैं। अगर टेलीविजन को वोट और रोटी पर सबका अधिकार वाले फार्मूले से देखें तो यह सरासर गलत है। कल तक की तो यही स्थिति रही। लेकिन एनडीटीवी इमैजिन ने इस पैटर्न को तोड़ा है। चांद के पार चलो का ताना-बाना मुस्लिम संस्कृति के इर्द-गिर्द बुना गया है। जिसमें भाषाई प्रयोग से लेकर उनके रीति-रिवाज तक को बड़े ही संवेदनशील तरीके से शामिल किया गया है। अगर आप ये कह भी दें कि- अजी सब टीआरपी का खेल हैं, जहां से माल मिलेगा, टीवी उधर की बात करेगा। तो भी एक बात तो माननी ही होगी कि- सीरियल के इतने बड़े-बड़े दिग्गज इन्डस्ट्री में पड़े हुए हैं, दुनियाभर के कथानकों पर सीरियल बनाते रहें लेकिन हिन्दू परिवारों के बीच ही क्यों घूमते रहे। जिस तरह से सरकारी कलेंडरों में उत्सव मनाने और शोक जाहिर करने के दिन पहले से तय होते हैं उसी तरह से इन सीरियलों में हिन्दुओं के लिए उत्सव और घटनाओं को लेकर शोक मनाने के एपिसोड पहले से निर्धारित क्यों कर दिए जाते रहे। सवाल-जबाब करने लग जाइए तो प्रोड्यूसरों को बात करना मुश्किल पड़ जाएगा।॥ ये बात हमें भी पता है कि एनडी भी जिस रुप में चांद के पार चलो की कहानी को आगे बढ़ा रहा है वो सास-बहू सीरियलों से बहुत आगे की चीज नहीं है। वो भी मुस्लिम संस्कृति और रीति-रिवाजों के नाम पर फिक्सेशन का काम करता जाएगा। जैसा कि अब तक के चैनल और सीरियलों में होता आया है। लेकिन इन सबके बावजूद एक बड़ी सच्चाई है कि जो भी चीजें टेलीविजन पर आती हैं, एक बार रिवाइव तो जरुर हो जाती है। इसकी बारीकियों पर धीरे-धीरे बात होती रहेगी। फिलहाल भारतीय दर्शकों को इतना तो पता चले कि जिस देश में करवा चौथ औऱ लक्ष्मी पूजा मनाए जाते हैं, उसी देश में ईद भी मनायी जाती है। जिस देश में लड़कियां रिश्तों में उलझती चली जाती है उसी देश में रेहाना अपने मन की सुनती है। जिस देश में बात-बात में मंदिर जाया जाता है, भगवान के आगे मत्था टेका जाता है, उसी देश में मजार भी है, जहां एक ही नूर के बंदे गाए जाते हैं। और फिर भारी-भरकमों करोड़ों रुपयों से लदी-फदी ज्वेलरी के आगे कोई महज चमकीले सितारों( प्लास्टिक के) से जड़े दुपट्टे ओढ़कर भी चांद जैसी खूबसूरत हो सकती है, कम पैसे में भी फैशन संभव है। गरीबों की डिक्शनरी से फैशन गायब नहीं होने चाहिए, ये कोशिश अगर एनडी कर रहा है तो बेजा क्या है। बाकी बातों को छोड़ दे तो फैशन के स्तर पर ही सही, बहुत ही चालू और सतही ढ़ंग से ही सही, सास-बहू की ऑडिएंस को एक अलग टेस्ट और नयी फ्लेवर तो जरुर मिल रहें हैं। और फिर इश्क कौन इंसा नहीं करता, यहां अगर उसके इजहार का तरीका बिल्कुल ही अलग है, तो ऑडिएंस तो हाथों-हाथ लेगी ही। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-336073 Size: 11146 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081022/be077af8/attachment-0001.bin From rakeshjee at gmail.com Thu Oct 23 01:20:03 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Wed, 22 Oct 2008 14:50:03 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <29307880.1881941224705003644.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// बाढ़ के दो महीने बाद सहरसा Posted: 22 Oct 2008 01:58 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/428362612/blog-post_21.html सहरसा रेलवे स्‍टेशन से कुछ तस्‍वीरें. काफ़ी कुछ माल है आपसे शेयर करने के लिए, पर थोड़ा वक्‍़त लगेगा. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081022/0e4e2280/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Oct 23 14:04:09 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 23 Oct 2008 14:04:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSV4KS+LSDgpLXgpKfgpYIg4KSJ4KSo4KSV4KWHIOCksuCkv+CkjyA=?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KSw4KS/4KSv4KSyIOCkleClhyDgpKrgpYjgpJ/gpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSoIOCkrOCkpuCksuCkqOClhyDgpJXgpL4g4KSu4KS+4KSu4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkreCksCDgpLngpYg=?= Message-ID: <829019b0810230134k5438ecfbt75e3575f8531cfc5@mail.gmail.com> बालिका- वधू उनके लिए सीरियल के पैटर्न बदलने का मामला भर है तो समझिए चैनल नहीं चाहते कि लड़कियों की तस्वीर बदले विनीत कुमार अभिषेक बच्चन ने आनंदी से सवाल किया कि- तुम स्कूल क्यों नहीं जाती. आनंदी ने जबाब दिया, मेरी शादी हो चुकी है न। उसके बाद अभिषेक ने बगल में खड़ी उसकी सहेली से भी यही सवाल किया-तुम क्यों नहीं जाती स्कूल। वो कुछ कहती इसके पहले ही आनंदी चहकते हुए बोल पड़ी- इसकी भी शादी हो चुकी है न। लेकिन बगल में खड़ा जगदीश जो कि आनंदी का पति है वो रोज स्कूल जाता है और न सिर्फ स्कूल जाता है, बल्कि धीरे-धीरे वो सबकुछ सीख रहा है जो कि पितृसत्तात्मक समाज को बनाए रखने के लिए और उस समाज में बने रखने के लिए जरुरी है. टीआपी की दौड़ में अच्छे-अच्छे सास-बहू सीरियलों को पछाड़ चुके बालिका-वधू की कुल मिलाकर यही कहानी है कि बाल-विवाह किस तरह से लड़कियों के बचपन को, उसके स्वाभाविक विकास को और उसकी जीवंतता को लील जाता है। बिहार, मध्यप्रदेश और खासकर राजस्थान में कच्ची उम्र में लड़कियों की एक बड़ी समस्या है। आप कह लीजिए कि जिस उम्र में लड़कियों की शादी होनी चाहिए, उस उम्र तक आते ही वो विधवा हो जाती है. बचपन का गला तो पहले से ही घोंट दिया जाता है, और इसी क्रम में आगे के जीवन को तबाह करने की तैयारी हो जाती है। सास-बहू सीरियलों को देख-देखकर जो लोग पक चुके हैं, उनके लिए संभव है, बालिका-वधू इसलिए अच्छा लगे कि एक नए ढंग का फ्लेवर मिल रहा है। सात-सात साल से भी अधिक चले आ रहे सीरियलों को लेकर ऑडिएंस की एक लॉट राय भी बना चुकी है कि सब बकबास है, कुछ नहीं रखा है इन सीरियलों में, आज उनमें से भी कुछ लोग इस सीरियल को लेकर टीवी पर फिर से जमने लगे हैं। उन्हें न सिर्फ स्टोरीलाइन पसंद आ रही है बल्कि लम्बे समय के बाद और वो भी किसी निजी मनोरंजन चैनल पर राजस्थान का टिपिकल ग्रामीण परिवेश दिखाई दे रहा है। मैंने कलर्स चैनल के लांच होने के पहले ही दिन लिखा था कि- बाकी जो भी हो, इस चैनल के लगभग सारे कार्यक्रमों के फुटेज आंचलिकता को छूती हुई जाती है। खैर, टेलीविजन में दुनियाभर का बकबास आ जाने के बाद भी जो लोग इससे सामाजिक विकास की उम्मीद लगाए बैठे हैं उन्हें बालिका-वधू में एक जबरदस्त सोशल मैसेज दिखायी दे रहा है। एक हद तक आप कह लें कि जो काम आज न्यूज चैनल नहीं कर पा रहे हैं वो एक सीरियल करने की कोशिश में लगा है। सीरियल की कहानी समस्यामूलक है। संभव है आनेवाले समय में मैलोड्रामा पैदा करने के लिए इसमें अबतक चे सीरियलों की तरह की खुरपेंच किए जाएं। लेकिन अच्ी बात है कि सीरियल के बीच-बीच में जो कैप्शन आते हैं, उसका सीधा संबंध सामाजिक जागरुकता से है? जो लोग सीरियल में रुचि नहीं लेते लेकिन स्त्री समस्याओं और उसके अधिकारों को लेकर काम कर रहे हैं, लिख-पढ़ रहे हैं उनके लिए ये बेहतर संदर्भ है। अबतक के एपिसोड को लेकर अपनी तो समझदारी इसी रुप में बनी है। लेकिन इसी क्रम में इस कार्यक्रम को लेकर अगर न्यूज चैनलों की बात करें तो उनकी समझदारी मेरी समझदारी से बिल्कुल अलग है। कहानी घर-घर की पिछले सप्ताह खत्म हो गया। बालाजी टेलीफिल्मस ने १० नबम्बर को क्योंकि सास भी कभी बहू थी, खत्म करने की घोषणा कर दी है। न्यूज चैनलों के लिए इस दौरान बढ़िया मसाला मिलेगा। उनकी भाषा में कहें तो खेलने के लिए बहुत कुछ है। चूंकि इ-२४ देश का पहला मनोरंजन न्यूज चैनल है इसलिए उसे इस मामले को लेकर औरों से पहले तैयार होना स्वाभाविक है। उसने अभी से ही इस पर स्पेशल पैकेज बनाने शुरु कर दिए हैं। कल रात इ-स्पेशल में चैनल ने क्योंकि सास भी कभी बहू थी की तुलसी और बालिका-वधू की आनंदी को आमने-सामने लाकर रख दिया। चैनल के मुताबिक अब धाराशायी हो रही है तुलसी। एक दौर था कि जब देश की महिलाएं चाहती थीं कि उसे तुलसी जैसी बहू मिले और वही तुलसी जब सास बन गई तो हर लड़कियां सोचने लगी कि उसे तुलसी जैसी सास मिले। लेकिन अब तुलसी के उपदेश लोगों को रास नहीं आ रहे हैं। अब लोग तुलसी के बजाए, बहू के रुप में लोग चुलबुली चुहिया यानि आनंदी को देखना पसंद कर रहे हैं। अब जब लोग तुलसी को पसंद नहीं कर रहे हैं तो जाहिर है कि उसे भी आनेवाली बहू के लिए जगह तो छोड़नी ही होगी। चैनल बालिका-वधू की लोकप्रियता को पीढ़ी के बदलाब के रुप में देख रही है। थोड़ा आगे जाकर समझें तो लोग अब इन्नोसेंट बहुएं पसंद करने लगे हैं. यहां पर एक तो कलर्स चैनल की खुद की गड़बड़ी है कि आनंदी बालिका बधू है, दिन-रात मांस्सा के ताने और उपेक्षा झेलती हुई जिंदगी, लेकिन उसके चेहरे पर कभी भी शिकन नहीं दिखाया। हमेशा नटखट और मनचली। चैनल ने टीआरपी के फेर में उसके बचपन को बख्श दिया है। बीच-बीच में भले ही कहती है कि- एक तो शादी कर दी औऱ अब उपर से अमिया भी नहीं तोड़ सकती। लेकिन कहीं भी बहुत रोते-बिलखते नहीं दिखाया गया। इससे ज्यादा तो आदर्श उम्र की बहुएं रोती हैं। अब दूसरा काम ये चैनल कर रहे हैं। नियत चाहे जो भी हो लेकिन यदि किसी मनोरंजन चैनल ने सामाजिक मुद्दों को आधार बनाकर सीरियल शुरु किए हैं तो न्यूज चैनलों को उसे प्रोग्रेसिव एलीमेंट स्टैब्लिश करने चाहिए। उसे आधार बनाकर उस इलाके की समस्याओं को सामने लाने चाहिए थे। जो काम सीरियल के स्तर पर हो रहे हैं, वहीं काम रिपोर्टिंग के स्तर पर होने चाहिए. लेकिन बिडंबना देखि कि लाफ्टर चैनल की दर्ज पर लगभग सारे चैनल हंसी के हंसगुल्ले परोसने के लिए तैयार हैं लेकिन बदलाव के नाम पर सक्रिय होना तो दूर उल्टे उसमें मिट्टी डालने का काम कर रहे हैं। तो क्या बालिका- वधू उनके लिए सीरियल के पैटर्न बदलने का मामला भर है। ------ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081023/628f3f2e/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Thu Oct 23 18:41:14 2008 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Thu, 23 Oct 2008 18:41:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSV4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4KSw4KS44KWN4oCN4KSkIOCkruCkp+ClgeCkleCksCDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KS5IOCkleCkviDgpKzgpL7gpK/gpYvgpKHgpL7gpJ/gpL4=?= Message-ID: <9c56c5340810230611m715af49dm325cb3edd43238f6@mail.gmail.com> लकवाग्रस्‍त मधुकर सिंह का बायोडाटा आज सुबह मधुकर सिंह का फोन आया। 'पांच मिनट के लिए आ जाते, बस पांच मिनट'। उनकी आवाज भर्रायी और आशंका से भरी थी। दफतर जाने से पहले उनके यहां पहुंचा। उन्‍होंने कोई बात न की सिर्फ दो आवेदन अपने कांपते हाथों से मे‍री ओर बढा दिये। 'इन पर दस्‍तख्‍त कर दीजिए।' मैं समझ गया। बिहार के शिक्षा मंत्री के नाम आर्थिक मदद का आवेदन होगा। उन्‍होंने इस आवेदन पर मई में ही मेरा हस्‍ताक्षर लिया था। तो वह अभी तक दिया नहीं गया... वह मेरी ओर टकटकी लगाये देख रहे थे। वह एक अजीब नजर थी। उनकी आंखों की पु‍ तलियां थरथरा रहीं थीं। दस्‍तख्‍त करने से पहले उन आवेदनों को पढने की मेरी हिम्‍मत नहीं हुई। दस्‍तख्‍त कर दिये। यह उन आवेदनों पर किया गया पहला ही हस्‍ ताक्षर था। मधुकर जी ने कहा- अपने अखबार का नाम भी लिख दें तो शायद अच्‍छा रहेगा। तब मैंने आवेदनों का उपरी हिस्‍सा देखा। मैं समझ रहा था कि यह शिक्षा मंत्री के नाम लिखे एक ही आवेदन की दो प्रतिलिपियां हैं। लेकिन इनमें से एक शिक्षा मंत्री के नाम लिखा गया जबकि दूसरा मुख्‍यमंत्री के नाम। मैंने अभी डेढ महीने पहले ही कोसी मे आयी बाढ पर कुछ लेख लिखे हैं। एक पुस्तिका भी जारी की है। कई जगहों से मुझे सूचनाएं मिल रही हैं कि मेरा यह सारा काम मुख् ‍यमंत्री को बेहद नागवार गुजरा है। जैसे-जैसे इस पुस्तिका के रिप्रिंट आते रहे, सत्‍ताधारी दल के खास लोगों का गुस्‍सा बढता जा रहा है। ...ऐसे में शिक्षा मंत्री वाले आवेदन पर तो नहीं लेकिन मुख्‍यमंत्री वाले आवेदन पर मेरा हस्‍ ताक्षर (और साथ में अखबार का नाम भी) राज्‍य सरकार द्वारा संभावित आर्थिक मदद मे रोडा बन सकता है। दस्‍तख्‍त तो मैं कर चुका था, मधुकर जी का ध्‍यान इस ओर दिलाया और कहा कि कम से कम मुख्‍यमंत्री वाले दरख्‍वास्‍त से मेरा हस्‍ताक्षर हटा देना चाहिए। हिंदी कथा साहित्‍य के पुरोधाओं में एक मधुकर का जबाब था - 'मदद न देना हो तो मत दे लेकिन सिर्फ आप अपना हस्‍ताक्षर रहने दें'। यह है रोगशैया पर पडे मधुकर सिंह की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रा के प्रति प्रतिबद्वता। क्‍या 40 करोड हिंदी भाषी जनता के लिए इस प्रतिबद्वता का कोई मोल नहीं है। मधुकर जी को लकवा है। अप्रैल के अंतिम सप्‍ता से ही वह रोगशैया पर पडे हैं। इधर कुछ हालत सुधरी है। शारीरिक हालत में तो थोडा ही सुधार आया है लेकिन आर्थिक हालत उसके कई गुणा बदतर हो गयी है। फिजियोथेरेपी वाला रोज सौ रूपये लेता है। सौ -दो सौ की रोज दवाइयां। दत्‍तक पुत्री व अन्‍य परिजनों के साथ रहने खाने पीने का खर्च अलग। पटना में जिस मकान में है उसका किराया भी उनकी आर्थिक हैसयित से काफी भारी है। पर उपाय ही क्‍या है, पटना छोड कर अपने पै‍तक गांव चले जाएं तो इलाज कैसे हो। मुख्‍यमंत्री और शिक्षा मंत्री के नाम लिखे आवेदनों के साथ मधुकर सिंह का बायोडाटा लगा है। इसके तीन पन्‍नों में उनकी किताबों, पुरस्‍कारों, उनपर हुए शोंधों, उनके द्वारा बिहार की धरती पर करवाए गये साहित्यिक आयोजनों का जिक्र है। यह बायाडाटा क्‍या हमें शर्म से डुबो देने के लिए काफी नहीं है। मधुकर सिंह जैसे हिंदी के दिग्‍गज लेखकों को अब अपना बायोडाटा लेकर घूमना होगा.... मधुकर सिंह मार्क्‍सवाद की सामाजिक न्‍याय के धारा के लेखक रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई अतिश्‍योक्ति नहीं लगती कि बिहार की धरती पर उनके कथा साहित्‍य को पढकर हजारों युवक सामाजिक न्‍याय की अवधारणा मे दीक्षित हुए हैं। हजारों ने जनवाद को अपनाया है। बिहार में सत्‍ता पक्ष और विपक्ष दोंनों कथित्त रूप से सामाजिक न्‍याय का हिमायती है। तब भी ... मैं नहीं जानता कि मधुकर सिंह का यह बायोडाटा सत्‍ताधीशों तक पहुंच पाएगा या नहीं। अगर पहुंच भी गया तो उसका हश्र क्‍या होगा, यह भी मुझे नहीं पता। मित्रों, सरकार से मधुकर सिंह को चाहे जितनी आशा हो, न हो, मेरी अपेक्षा बस इतनी है कि हिंदी समाज उन्‍हें इस हालत में इस कदर अकेला न छोडे। मैं नहीं जानता की उनके लिए सार्वजनिक रूप से आर्थिक मदद करने पर भी कितने लोग सामने आएंगे लेकिन तब भी, यह काम कर रहा हूं। मधुकर सिंह का फोन नं है - 9334821919 डाक का पता है - श्री मधुकर सिंह, द्वारा - श्री अशोक कुमार, बी-20, इंदिरापुरी कॉलोनी, पो-बी भी कॉलेज, पटना-800014 मधुकर सिंह पर इससे पहले लिखी मेरी टिप्‍पणी 'कथाकार मधुकर सिंह को पक्षधात' यहां देंखें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081023/d33aea1d/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Oct 27 11:34:00 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 27 Oct 2008 11:34:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KWN4KSo4KSy4KS/4KSc4KWN4KSuIOCkleCliyDgpJXgpYE=?= =?utf-8?b?4KSa4KSy4KSo4KWHIOCkleClgCDgpJXgpLXgpL7gpK/gpKYg4KS24KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KWB?= Message-ID: <829019b0810262304g5af12c66oee554d40ed75198d@mail.gmail.com> न्यूज चैनलों या फिर मेनस्ट्रीम की मीडिया पर होनेवाले हमले को लोकतंत्र पर हमला बताया जाना आम बात है। यह अलग बात है कि अधिकांश चैनल और मीडिया संस्थान अपने को लोकतंत्र से जोड़ने का अधिकार खो चुके हैं। अगर उनके हिसाब से लोकतंत्र का अर्थ अगर ज्यादा से ज्यादा लोगों की भीड़ भर है, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अपने को लोकतंत्र से जोड़े रखने के लिए मेनस्ट्रीम की मीडिया को अभी भी भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। लोकतंत्र के साथ अपने को जोड़ने का अधिकार मीडिया को तभी है जबकि वो समझदारी पैदा करने का काम करे। अगर उसके पास खुद की इतनी क्षमता नहीं है तो कम से कम जो सरकारी, गैर सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास चल रहे हैं उसे मजबूत करने का काम करे। मेनस्ट्रीम की मीडिया से एक सीधा सवाल है कि क्या सिर्फ एक मुहावरा भर गढ़ लेने से कि मीडिया पर हमले का मतलब है लोकतंत्र पर हमला, मीडिया के स्वर को दबाने का मतलब है, लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश, लोकतंत्र को हमेशा के लिए बचाए रखना संभव है।....और वो भी तब जब वो खुद लालाओं के हाथ की कठपुतली और बाजारपरस्ती के आगे हथियार डाले बैठे हैं। इसी के साथ एक और सवाल सामने है कि वो लोकतंत्र के नाम पर क्या बचाना चाहते हैं। लोकतंत्र के भीतर किसे बचाना चाहते हैं। क्या वो वही लोकतंत्र बचाना चाहते हैं जिसका प्रावधान हमारे संविधान में है या फिर इसी क्रम में कोई दूसरा लोकतंत्र जो कि देश के भीतर तेजी से पनप रहा है, उसे बचाने की बात कर रहे हैं। जब तक मेनस्ट्रीम की मीडिया इन बातों को एक आम पाठक या ऑडिएंस के सामने साफ नहीं कर देते, तब तक लोततंत्र के नाम पर मीडिया को बचाए जाने की अपील एक धोखा है, एक प्रवंचना है। यह बात सही है कि मेनस्ट्रीम की मीडिया किसी न किसी रुप में लोगों से जुड़े सवालों को आवाज देती है। लेकिन यहां पर यह समझना बहुत जरुरी है कि केवल और केवल मेनस्ट्रीम की मीडिया ही नहीं है जो कि ऐसा करती है। इसके अलावे भी दर्जनों एजेंसियां औऱ हजारों व्यक्तिगत प्रयास हैं जो कि लोकतंत्र को जिंदा रखने का काम करते हैं। अगर मेनस्ट्रीम की मीडिया की नीयत साफ है कि उसे हर हालत में लोकतंत्र को जिंदा रखना है तो फिर उन्हें इन सबों को सहयोग करना चाहिए, उनके छोट-छोटे प्रयासों को मजबूत करना चाहिए। लेकिन क्या वाकई में ऐसा ही हो रहा है। क्या सचमुच मेनस्ट्रीम की मीडिया लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए बेचैन है। परसों मीडिया खबर ने एक मेल भेजा जिसमें बताया कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाया गया है। पुलिस उन्हें लगातार परेशान कर रही है। ईमानदारी से अपनी आवाज उठानेवालों को पुलिस द्वारा परेशान किया जाना कोई नई बात नहीं है। अगर आप पुराने पत्रकारों और सुधार की दिशा में काम करनेवाले लोगों के बारे में पढ़े तो आपको इस बात की लम्बी फेहरिस्त मिल जाएगी। लेकिन नयी बात ये है कि ये सारा काम एचटी मीडया जैसे एक बड़े मीडिया समूह के शीर्ष पर बैठे कुछ मठाधीशों द्वारा किया जा रहा है। उनके कहने पर ही पुलिस बेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को लगातार परेशान कर रही है। इन मठादीशों से अगर सवाल किए जाएं कि आप कौन से लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए ऐसा कर रहे हैं तो शायद वो सही से जबाब न देने पाएं लेकिन सच्चाई यही है कि वो बी किसी न किसी लोकतंत्र की रक्षा जरुर कर रहे हैं, भले ही साइज में वो अबी बहुत ही छोटा है और उम्र के लिहाज से बहुत ही मासूम। लेकिन यह संविधान के लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है। यह उसे बदलने की फिराक में है। बदलने का ये जिम्मा ऐसे ही समूहों के शीर्ष पर बैठनेवाले लोगों के हाथ में है। इस पूरे प्रकरण में सुशील कुमार सिंह का दोष सिर्फ इतना भर है कि उन्होंने एचटी की संपादकीय गड़बड़ी पर उंगली रख दी और वो इन्हें बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। आप चाहें तो कह सकते हैं कि इतना बड़ा समूह संजय के इस प्रयास को जिसे कि साकारात्मक रुप में लिया जाना चाहिए था, नहीं पचा पा रहा है, तब वो बाकी मोर्चों पर, जहां उनकी अपनी मर्जी चलती होगी, क्या करते होगें। फिलहाल आनेवाले समय में बेब पर अपनी आवाज उठानेवालों की सुरक्षा और परस्पर सहयोग के लिहाज से दिल्ली में *वेब पत्रकार संघर्ष समिति* का गठन किया गया है। जो मेनस्ट्रीम की मीडिया के द्वारा विस्तार दिए जानेवाले लोकतंत्र का विरोध करते हुए संविधान द्वारा प्रस्तावित लोकतंत्र की बहाली में अपनी ओर से प्रयास करेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये समिति आनेवाले समय में साकारात्मक विस्तार लेगी और बाकी की समितियों की तरह छोटी-मोटी मांगों और पूर्ति के बीच उलझकर नहीं रह जाएगी। इसका व्यापक दायरा होगा और सही अर्थों में प्रतिरोध के स्वर जिंदा रह सकेंगे। *मीडिया ख़बर की ओर से भेजी गयी मेल-* वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने के खिलाफ वेब पत्रकार संघर्ष समिति की मुहिम एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की।आगे की ख़बर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें http://mediakhabar.com/media-khabar-webjournalism.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2 Size: 11719 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081027/d9dfe017/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Mon Oct 27 15:15:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 27 Oct 2008 15:15:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSy4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSkIOCkpOCkguCklyDgpLngpYg=?= Message-ID: <200810271515.16113.ravikant@sarai.net> गीताश्री के ब्लॉग से साभार. दिलचस्प, विचारशील यात्रा. छप-पत्रकारिता में महिलाओं की जद्दो जहद भरी उपस्थिति का समाजशास्त्र, पर और भी बहुत कुछ. मज़ा आया. इस ब्लॉग की ओर ध्यान खींचने के लिए बीजू टोप्पो का भी शुक्रिया. रविकान्त http://hamaranukkad.blogspot.com/ Monday, October 6, 2008 एक फसाना ऐसा भी ये है अपनी इरा दीदी. पत्रकारिता के शुरुआती दौर में मुझ जैसी कई नई लड़कियो की प्रेरणा. हमने जब सोचा कि इस पेशे में जाएंगे तब तलाश शुरु हुई अपने आदर्श की. महिलाओं में चंद नाम ही थे सामने. उनमें एक इरा जी का भी था जो बाद में मेरी इरा दीदी बनी. अपने पेशे में उनकी संघर्ष गाथा का लोहा सभी मानते है. जुझारुपन उनके स्वभाव का हिस्सा है. इरा बहुत बेबाक हैं, मस्त हैं, बेहद खुली हुई, लेकिन अगर उन्हें गुस्सा आ जाए तो फिर आपकी खैर नहीं. प्यार और नफरत, दोनों हाथ से उड़ेलती हैं. इन दिनों एक किताब तैयार करते हुए मैंने उनसे एक लेख का अनुरोध किया और वे मान गईं. मेरे लिए ठीक-ठीक कह पाना तो मुश्किल है कि ऐसा क्यों हुआ, लेकिन लेख को पढ़ते हुए मुझे लगा कि किताब जब आए तब आए (किताब जल्दी ही आ रही है) उससे पहले इस लेख को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. सो नुक्कड़ पर इरा झा का यह आलेख. यह आलेख यूं तो एकवचन में है, लेकिन है बहुवचन के हिस्से का सच. मीडिया में एक अकेली स्त्री के संघर्ष और उसके जय-पराजय की यह कहानी केवल इरा झा के हिस्से की कहानी नहीं है, यह उन हज़ारों स्त्रियों की कहानी है जो देवघर से दिल्ली तक पुरुषों के वर्चस्व वाली इस दुनिया में अपनी सकारात्मक और सार्थक उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. -गीताश्री गली बहुत तंग है इरा झा युवा माता-पिता की जिस जवां गोद में मैंने आंखें खोलीं वहां लड़की होने का कोई खास मतलब नहीं था. मेरे भी पैदा होने पर वैसे ही बंदूक चली थी जैसी मेरे इकलौते भाई की पैदाइश पर. संगी-साथी से लेकर सहपाठी तक छोकरे ही थे. इसलिए खेल-कूद और धमाचौकड़ी का अंदाज उन जैसा ही था. लड़कों को कूटा भी और कुटी भी पर लड़कपन को भरपूर जिया. उस पर रही-सही कसर घर पर बुजुर्गों की कमी ने पूरी कर दी. टोका-टाकी करने को घर पर न दादी, न नानी. उलटे परी-सी खूबसूरत मेरी चंचल मां और युवा पिता. जिन्हें बिनाका गीत माला सुनने की धुन चढ़ती तो नया रेडियो खरीद लाते. जमकर फिल्में देखते और देर रात तक बैठक करते. बेटियों की हर फरमाइश मुंह से निकलते ही पूरी होती. पूरे व्यक्तित्व में स्त्रियोचित गुणों की खासी किल्लत थी. ऊपर से नसीहत यह कि भला किस मामले में कमजोर हो. पिता बस्तर जिले में बड़े वकील थे और उनकी कमाई उड़ाने को मेरी मां काफी थी. पिताजी को पाक कला में पारंगत अपनी पत्नी का किचन में घुसना गंवारा नहीं था. वजह यह नहीं कि रांधने में कहीं कमी थी. उन्हें किसी भी महिला का पकाने-खिलाने जैसे कामों में लगना वक्त की बर्बादी लगता रहा. मेरी मां अब से 40 बरस पहले भी बस्तर जिले की नामी सोशल वर्कर थी और इसी नाते बाल न्यायालय की ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी. जब भी मीटिंग के सिलसिले में वह तब के बस्तर से कई-कई ट्रेन बदलकर मुंबई-दिल्ली, भोपाल-जबलपुर अकेली घूमतीं पर न उन्हें कभी आवाजाही के लिए अपने पति की जरूरत महसूस हुई, न मेरे पिता कभी उन्हें लेकर असुरक्षित लगे. उन्हें बाहर जाने के लिए अपने पति से इजाजत की दरकार कभी नहीं रही, उनको सूचित कर देना ही काफी था. वह बस्तर के सुदूर गांवों में आदिवासी महिलाओं और बच्चों को हाईजीन का पाठ पढ़ातीं. उनके देहांत के बाद मुझे यह भी पता लगा कि आदिवासी महिलाओं के आपराधिक ट्रेंड पर उन्होंने बढ़िया अध्ययन किया था. अब लगता है कि आदिवासी मसलों पर लेखन का यह रुझान शायद उन्हीं की देन है. यह माहौल ही था जिसकी बदौलत युवा होने पर भी हम चारों बहनों को कभी पाक कला में हाथ आजमाने या कढ़ाई, बुनाई-सीखने की नसीहत नहीं मिली. डटकर फैशन, खूब घूमना, पूरी दुनिया घूमे विद्वान पिता से अंतर्राष्ट्रीय कानून, एटॉमिक मसलों से लेकर गांधी फिल्म, पेटेंट उरुग्वे राडुंड तक की तमाम तकनीकी और प्रशासनिक पेचीदगियों पर दुनिया जहान की बातें, यही थी हमारी दिनचर्या. अब परिवार चलाते हुए कभी-कभार यह परवरिश खटकती जरूर है पर उस घर का माहौल ही कुछ ऐसा था, जूते पहनने से लेकर चोटी गुंथवाने या बाल काढ़ने तक के लिए लोग थे. वक्त ने हमें बदल दिया पर मेरे पिता को आज भी अपनी बहू का उन्हें दूध गरम करके देना सख्त नागवार गुजरता है. पर यह परवरिश पिता की हैसियत के कारण नहीं थी. पूरे छत्तीसगढ़ में लड़कियों की परवरिश का कुछ ऐसा ही आलम है. पढ़ने की मनचाही आजादी, घरेलू कामकाज का दबाव नहीं पुरुषों से मेलजोल को लेकर कोई पूर्वग्रह नहीं, न ही शादी का दबाव. सबसे अहम है लड़की की पढ़ाई और स्वावलंबन. उसके कॅरि यर के लिए पूरा परिवार कंप्रोमाइज करने को तैयार. स्त्री सुबोधिनी जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं. छत्तीसगढ़ की आबो-हवा शायद 50 बरस पहले भी ऐसी थी और आज तो लड़कियों के हक में फिजा और खुशगवार है. उन्हें सेकेंड सेक्स का अहसास दिलाने वाले परिवार तब भी विरले थे और तब भी ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. दिल्ली से बैठकर छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके की लड़कियों का अगड़ापन और आत्मविश्वास नहीं समझा जा सकता. एक बार वहां पहुंचकर कोई हकीकत से रूबरू हो तो कोई बात है. उस पर मुझे तो बस्तर के उन अबूझे माड़िया-मुरियाओं का निपट आदिवासी परिवेश मिला जो रहन-सहन और संस्कारों के मामले में यूरोपीय समुदाय के देशों के बाशिंदों से भी ज्यादा एडवांस हैं; रहन-सहन के नाम पर मिनी स्कर्ट की तरह लपेटी गई साड़ी खुले स्तन (ये मातृत्व का प्रतीक हैं, सेक्स का नहीं) और लंगोटी लगाए पुरुष. घरेलू अर्थव्यवस्था की धुरी है वहां औरत. वह खेत में हल चलाती है. फसल बो ती है, मछली पकड़ती है और इसे बेचने के लिए बाजार भी वही जाती है. पति की भूमिका है कमाऊ पत्नी के पीछे बच्चों की परवरिश. बल्कि एक तरह से बच्चों की पैदाइश में मदद की प्राकृतिक जरूरत पूरी करना. सारे कामों से निपटकर इन निपट देहाती औरतों का थकान मिटाने का अंदाज भी कुछ यूरोपीयन-सा है. महुए की शराब के नशे में धुत्ता होकर मर्दों के साथ राने जवां-राने जवां या रे रेला रेला रे बाबा की धुन पर सुबह होने तक थिरकना. पति की छाया बनकर घूमने का बंधन नहीं. युवाओं के लिए तो पहले बाकायदे नाइट क्लब की तर्ज पर घोटुल हुआ करते थे. अविवाहित जोड़ों के लिए समझ लीजिए खास तरह के ट्रेनिंग सेंटर. यहां घर बनाने से लेकर दांपत्य जीवन के लिए जरूरी सभी तरह की शिक्षा. गोबर से आंगन लीपने से लेकर खाना रांधना और यौन शिक्षा तक. घोटुल के अंदर को ई यौन वर्जना नहीं होती थी और सचमुच प्रेमजाल में पड़कर किसी जोड़े के विवाह की नौबत आ जाए तो समझिए पूरी इज्जत के साथ हमेशा के लिए उनकी विदाई. विवाह हुआ नहीं कि जोड़ा घोटुल के लि ए पराया हो गया. ऐसी भी मिसालें हैं जिसमें कई संतानों की मौजूदगी में जोड़े दांपत्य सूत्र में बंधे. इन आदिवासियों के बीच जिंदगी का बड़ा हिस्सा गुजर गया. बैलाडीला की फूलमती और हिड़मे, कुटरू के जोगे, मादी, चंपी बिज्जे, कोंटा का बारे, किलेपाल का डोरा-डौका और मोलसनार का भूगोड़ी मांझी. इनके चेहरे और आवाज आज भी यादों में ऐसे बसे हैं जैसे आज की ही बात हो. न जाने कितने परिचित थे जिनके बीच स्कूली छुट्टियां, उन्हें एयरगन से चमगादड़, पंडूकी या हरियल मा रकर भेंट करके कांटी. बस्तर के जंगलों में तब शिकार की तलाश में 12 बोर की बंदूक लिये घूमना भी बचपन का खास शगल था. कुटरू और मोलसनार के जंगलों में घूमकर बिताए दिन भला कैसे भुलाए जा सकते हैं. अपने आफत के परकाले मामाओं के साथ बस्तर और वैसे ही आदिवासी जिले मंडला में न जाने कितनी बार शेर से लेकर चीतल तक के शिकार में गई, याद नहीं. एक बात और बता दूं, इस शिकार प्रकरण को सलमान खान से न जोड़ें क्योंकि तब शिकार पर सरकारी रोक नहीं थी. उस पर रही-सही कसर बस्तर के राजपरिवार में आवाजाही ने पूरी कर दी. राजा प्रवीरचंद भंजदेव, छोटे कुंवर, बड़े कुंवर, राजगुरु परिवार में तब जो देखा उसे बखानने बैठूं तो भरोसेमंद नहीं लगेगा. मुझे अच्छी तरह याद है बस्तर गोलीकांड में शहीद होने के बाद दुनिया भर में जाने जाने वाले महाराजा प्रवीरचंद के रहन-सहन का विलायती अंदाज, उनकी टूटी-फूटी हिंदी और अंग्रेजीदां महिला मित्र. कुंवर गणेश सिंह की पत्नी जिन्हें हम नानी कहते थे, की फिल्मी सितारे की-सी छवि. संगमरमर के टेबल पर अपनी लंबी उंगलियों में थमी सिगरेट के कश लगाते हुए पत्ते खेलना. उन्हीं के घर की शशि की मां (नाम याद नहीं) और ठुन्नू बाबा (शायद पद्मा नाम था उनका) महारानी हितेंद्र कुमारी के हा ल्टरनुमा ब्लाउज. कुटरू जमींदारिन नानी की हाथी मार बंदूक. उनके वह शाहखर्च बेटे छत्रापाल शाह उर्फ बाबा जिन्होंने देश में सबसे कम उम्र में मंत्री बनने के साथ-साथ घर की पूरी प्रॉपर्टी अपने चेलों पर लुटाकर यह मिथक तोड़ा कि नेतागिरी कमाई का जरिया है. परलकोट जमींदारिन का पान की जुगाली करना. समानता की मिसाल देखिए, बस्तर में लड़कियों को तब बाबा कहा जाता था. लड़की होने का अहसास तब भी नहीं जागा. पिता के तबादले के साथ शहर और कॉलेज बदले. यह जागरूकता तो इस दिल्ली ने दिलाई जिसे लोग महानगर कहते हैं. इसी महानगर में आकर जाना कि लड़कियों को दिन ढलने से पहले घर लौट आना चाहिए. लड़कियां बतातीं, मां ने फलां जगह जाने को मना किया है. शाम का शो नहीं देखना या मेरे भाई का जन्मदिन है, धूमधाम से मनेगा तो ताज्जुब होता. ये छोटी सोच का कैसा महा नगर है. अपने सेकेंड सेक्स होने का अहसास तब और गहराया जब पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने का जज्बा मुझे पटना ले गया. 1984 की बात है. एक मुख्यमंत्री की मिल्कियत वाले अखबार में जब काम करने पहुंची तो पता लगा कि लड़की हूं लिहाजा रिपोर्टिंग कैसे कर सकती हूं. खासी हुज्जत के बाद रिपोर्टिंग मिली तो हजारों नसीहतें फलां से बात मत करना, फलां के साथ क्या कर रही थीं, मानों बात न हुई कोई स्कैंड्ल हो गया. उस पर आशियाने की तलाश में मेरी जाति से लेकर मेरा प्रो फेशन और उससे भी बढ़कर लड़की होना कैसे बाधक बना, अब सोचती हूं तो लोगों की बुध्दि पर तरस आता है. दिल्ली में बैठे मेरे माता-पिता को यह तनिक भी अंदाज न होगा कि पटना जाकर मुझे क्या-क्या झेलना पड़ेगा. पर पटना का हर राह चलता इंसान जैसे मेरा जबरिया हमदर्द था. उन्हें यह बात हजम नहीं होती थी कि सिर्फ कॅरिअर और जज्बे की खातिर कोई मां-बाप अपनी युवा बेटी को एक अनजान शहर में जाने की छूट दे सकते हैं. लिहाजा वे अटकलें लगाते, बेचारी बहुत गरीब होगी. कहीं घर से भागी तो नहीं है. आम राय यही बनती है कि किसी आर्थिक तौर पर बेहद तंग परिवार की होने के कारण मुझे इतनी दूर नौकरी करनी पड़ रही है. लोग खोद-खोद कर मेरे परिवार का ब्यौरा मुझसे लेते और जब मैं बताती कि मेरे पिता भारत सरकार में बड़े ओहदे पर हैं तो वे ऐसे अविश्वास से देखते जैसे किसी पहले दर्जे की झूठी से पाला पड़ा है. मेरी जिंदगी के सफर का ये एक ऐसा पड़ाव था जिसने मुझे औरत होने की जमीनी हकीकत से रूबरू कराया. पटना पहुंच कर लगा जैसे लड़की होकर मैंने कोई पाप किया हो. इस नाते मेरी महत्वाकांक्षा का रास्ता शादी के गलियारे में भटक जाता है. आसपास की आंखों में मैं यह सवाल कि क्या मैं इलिजिबल हूं, साफ पढ़ लेती थी. पटना के इस दमघोटूं माहौल की काली रातें जल्द कट गईं. एक राष्ट्रीय अखबार में मेरी नियुक्ति हो गई. मुझे जयपुर भेजा गया. नया शहर, नए साथी, मनपसंद काम और पटना से हटकर खुला-खुला माहौ ल. मेरे लिए तो जैसे जन्नत. पर जन्नत की ये खुशगवारी ज्यादा दिन न रह पाई. शहर में घरों के दरवाजे लड़की किराएदारों के लिए खुले थे. इसके पीछे तर्क ये था कि लड़कियां दंदी-फंदी नहीं होतीं. शराबखोरी और मंडली बाजी का लफड़ा नहीं. ऐसी आम सोच थी पर दफ्तर का माहौल तब भी उतना उदार न था. 25 लोगों के बीच दो लड़कियां. उस पर हमारे सर्वेसर्वा का पक्षपातपूर्ण रवैया. मेरी चाल-ढाल से लेकर काम-काज तक पर टिप्पणी और वजह शायद यह कि कभी बिना जरूरत उनसे मुखातिब नहीं हुई. कभी खुद के लड़की होने की दलील देकर कभी कोई फेवर नहीं मांगा. उलटे तब इस्तीफा देने पर आमादा हो गई जब पता लगा कि मेरा लिंग और कम उम्र मेरे कर्तव्य के रास्ते में बाधक है. इसके सिर्फ दो मतलब थे पहला मेरे आचरण पर आशंका या मेरे साथियों के चाल-चलन पर भरोसा न हो ना. मानों मैं इन विश्वामित्रों की कर्तव्यपरायणता में कहीं रोड़ा न बन जाऊं. वह मामला कैसे नि पटा और मैं कैसे काम पर लौटी इसकी एक अलग कहानी है. बहरहाल, इसी दफ्तर ने मुझे बताया कि लड़के और लड़की के बीच सिर्फ प्रेम हो सकता है, दोस्ती की बात बकवास है. नतीजतन मेरी दोस्तियों पर टीका-टिप्पणी के दौर चल पड़े और अपने एक सहयोगी से मैं शादी कर बैठी. आज भी उस घड़ी को कोसती हूं जब मुझ जैसे बेबाक इंसान पर माहौल हावी हो गया. मेरी परवरिश, मेरे जीवन मूल्य कभी मुझे ऐसी दहलीज पर ला खड़े करेंगे यह कभी सोचा न था. हालात कुछ ऐसे बने कि मुझे अपने ही अखबार के दिल्ली दफ्तर आना पड़ा. दिल्ली में दिलों के दायरे और सिमटे हुए थे. जितना बड़ा दफ्तर उतनी छोटी सोच. दिल्ली दफ्तर में काम करने का मेरा खुमार चंद महीनों में उतर गया. काम का जज्बा तो वैसा ही था, पर लो ग वैसे नहीं थे, जैसे पत्रकारिता में होने चाहिए. ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी जो लड़कियों की एक नजर के कायल थे, उनकी उम्र भर की ख्वाहिश होती कि एकांत में चाय के कप पर चंद लम्हे मिल जा एं. मुझे चाय पीने पर कोई आपत्ति नहीं थी, गिला इस बात का था कि ये सभी चाहते कि उनके बाकी साथियों को इसकी कानोकान खबर न हो. एक वरिष्ठ साथी ने जब मुझसे कहा कि तुम कैंटीन पहुंचो, मैं आता हूं तो उनका रवैया मुझे बड़ा रहस्यमय लगा. मैंने इस गोपनीयता पर सवाल उठाने शुरू किए तो लोगों को खटकने लगी. एक और सज्जन की अक्सर मेरे साथ नाइट डयूटी लगती (या शायद वे लगवाते). इस दौरान वे मेरे दिमाग से लेकर रूप, गुण की तारीफ करते थकते नहीं. फलां रंग आप पर फबता है. फलां ड्रेस सूट करती है. आप चुप क्यों हैं, बोलते हुए अच्छी लगती हैं और एक बार सार्वजनिक तौर पर जब उन्होंने मेरे बातूनीपन पर सवाल उठा या कि आप इतना बोलती क्यों हैं और मेरे पलटकर उन्हीं की बात कहने पर उनके चेहरे का उड़ा रंग देखने वाला था. बस तभी से मैंने उनसे बोलचाल बंद कर दी. इसी संस्थान ने मुझे बताया कि औरत होने के नाते मैं पुरुष साथियों की बराबरी करूं बल्कि बढ़-चढ़कर काम करूं तो भी मेरी सीमाएं हैं, मेरी सामर्थ्य हमेशा उनसे कमतर है. और मर्द होने के नाते उन्हें मुझे मोनिका लेविंस्की के फोटो दिखाकर आपस में अश्लील फब्तियां कसकर सताने का हक है. एडीशन निका लने से लेकर मेरी चाल-ढाल, व्यवहार तक में मुझे मेरी दोयम दर्जे की हैसियत का अहसास कराया जाता. इन हालातों के बीच मेरी परवरिश ने मुझे हमेशा पूरी ताकत और विश्वास से जूझने का हौसला दिया. मैं माहौल से परेशान अपनी साथिनों की तरह संस्थान छोड़कर भागी नहीं (जब तक कि उन्होंने मुझे निकाल न दिया). शायद यही वजह थी कि मैं कामयाबी की ऊंचाइयों की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रही थी. उस संस्थान में सबसे कम समय में दो प्रमोशन पाने की हैरतअंगेज मिसाल कायम करने वाली अकेली कर्मचारी थी पर मेरी यही काबिलियत, मेरा जुझारूपन लोगों के आंख की किरकिरी बन गया. कल तक जो लोग कितनी प्यारी लड़की है, बड़ी मेहनती है, दौड़-दौड़कर काम करती है, कहते नहीं अघाते थे, दौड़ में मुझे अपने समानांतर पाते ही बहकने लगे. दरअसल, हमारी पारंपरिक परवरिश ने पुरुषों को लड़कियों को सिर्फ मातहत के तौर बर्दाश्त करना सिखाया है. बराबरी या वरिष्ठता की बातें उनके जीवन की सिर्फ मजबूरी है. पत्रकारिता की दुनिया में लड़की होना ऐसा गुनाह है, जिसकी कोई सीधी सजा नहीं है, सिर्फ घुट-घुटकर बर्दाश्त करने की नियति, काम आप करें क्रेडिट आपका पुरुष साथी ले जाए. वह सारी कवा यद कुछ ऐसे पेश करे जैसे कर्ता-धर्ता वही और आप हक्के-बक्के पर इस दुनिया की ये दरीदंगियां भी मुझे अपने लक्ष्य से डिगा नहीं पाईं. आदिवासी जिले बस्तर की एक मामूली स्कूल की इस लड़की को बहुत आगे जाना था, पर स्वाभिमान से लगन और मेहनत से. कहीं कोई शार्टकट नहीं. लिहाजा लड़कर हमेशा अपने हिस्से का हक पाया. हिंदी पत्रकारिता में न्यूज डेस्क पर शायद उस समय पहली महिला चीफ सब-एडीटर थी. अपने काम और मातहतों से भाई-बंदी के स्वभाव ने मेरे इतने प्रशंसक तैयार कर दिए थे कि विरोधी फौज मेरी खबरें फेंके या फोटो गायब करें पर एडीशन बिरले ही लेट हुआ होगा. पूरा सपोर्ट सिस्टम था मेरे पीछे. अब उस टीम के सामने यही चारा था कि सीधे आबरू पर हमला बोल दिया जाए. मुझे मेरी योग्यता और लोकप्रियता की एवज में जिस तरह जलील होना पड़ा और छोटी-छोटी और बड़ी से बड़ी अदालतों तक लड़ाई लड़ी उसकी अलग कहानी है. ऐसी कहानी जिससे न्यायालयों और मानवाधिकार की पैरोकार कंपनियों की पोल खुल जाए. इस पूरी लड़ाई के नतीजे के तौर पर मुझे नौकरी से निकाल दि या गया. फिलहाल, देश के बड़े हिंदी अखबार में ठीक-ठाक पद पर हूं पर अब भी यही लगता है कि औरत के लिए यहां भी गली तंग है. बस्तर की परवरिश की वजह से अब भी ठठाकर हंसती हूं, साथियों से ठिठोली करती हूं और जोर से नाराजगी दिखाती हूं. लेकिन इसमें बस्तर के दिनों की स्वच्छंदता नहीं है. मेरे पिता से विरासत में मिली आजादी नहीं है. काश कि मेरे पिता यह जान पाते की उनकी बेटी जिस दुनिया में गुजर कर रही है वहां औरतों की बेबाकी सिर्फ कंटेंट है. यहां अरुंधति राय या किरण बेदी के सिर्फ इंटरव्यू छप सकते हैं वे खुद आ जाएं तो उनकी हालत पुलिस की नौकरी से कोई खास अलग न होगी. औरतों की बेबाकी यहां अब भी बड़बोलापन है. यहां औरतों को फैशनपरस्ती पर लिखने की तो छूट है पर ठाठ-बाट से रहना ऐसी आभिजात्य की नि शानी है जिससे ज्यादातर लोगों का बैर है. बस काम किए जाइए और लोगों को क्रेडिट लेने दीजिए. फल की चिंता से बेपरवाह आपने अपने हक का सवाल उठाया नहीं कि न जाने कितनी आवाजें किस्सागो इयों के साथ कितने कोनों से उभरेंगी और आपके बुलंद हौसलों को मटियामेट कर देंगी. हिंदी पत्रकारिता का यही उसूल है. औरत कराहे तो वाह-वाह और आवाज उठाए तो-? ऽऽ मैंने कहा न यहां की गलियां बड़ी तंग हैं पर पूरे माहौल में मैं अब भी और औरतों से अलहदा हूं. मेरी यह उन्मुक्तता किसे कैसी लगती यह साफ पढ़ लेती हूं. इस खुलेपन के साथ इन तंग गलियों में गुजर कैसे हो, पता नहीं, यह कब सीख पाऊंगी? From vineetdu at gmail.com Wed Oct 29 10:54:00 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 29 Oct 2008 10:54:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSo4KS4?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KWN4KSw4KWA4KSuIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkquCkvuCksCDgpKbgpY3gpLXgpL7gpLA=?= Message-ID: <829019b0810282224j731ad271j2726b868ad9a6b0@mail.gmail.com> *मेनस्ट्रीम मीडिया के पार द्वार* क्या ब्लॉगिंग को वेब पत्रकारिता कहा जा सकता है ? गॉशिप अड्डा के ब्लॉगर सुशील कुमार सिहं के लिए जब मैंने वेब पत्रकार शब्द का प्रयोग किया तो यही सवाल लोगों ने हमसे पूछा। इसके साथ ही एक और भी सवाल को जोड़कर देखें कि ब्लॉग जो कि वर्चुअल मीडियम है, उसकी विश्वसनीयता कितनी है। ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में आप इसे पत्रकारिता तो किसी भी हाल में नहीं कह सकते थे। इसके लिए लोगों ने इंटरनेट डायरी लेखन शब्द गढ़ लिया था। शुरुआती दौर में अधिकांश ब्लॉगर अपने निजी अनुभव और एक खास तरह की भावुकता हमारे सामने आते रहे हैं. कई बार तो पढ़कर लगता कि- कोई नहीं मिला है बोलने बतियाने के लिए तो हमारे पास आ गए हैं। पोस्ट पढ़कर ही लगता, कि इन्हें अदद एक शेयर करनेवाले की तलाश है, एक कंधे की खोज है, जिसपर अपना सिर टिकाकर अपने दिल की बात कह सकें, खुद को हल्का कर सकें। लेकिन इसके बाद बहुत जल्द ही जिसे कि मैंने अपने एक लेख में ब्लॉगजगत का दूसरा दौर कहा है, वहां लोग अपने लेखन को लेकर ज्यादा कॉन्शस होते चले गए। इसकी एक बड़ी वजह थी कि ब्लॉग की बढ़ती लोकप्रियता के साथ-साथ रीडर उनकी लिखी बातों की अच्छी-खासी नोटिस लेने लग गए। और सिर्फ रीडर ही नहीं, मेनस्ट्रीम की मीडिया भी उनके बारे में कुछ-कुछ लिखने छापने लग गए। कुछ चैनलों ने इन पर स्टोरी की। यानि ब्लॉग जिसे कि अब तक अभिव्यक्ति का कोना भर माना जाता रहा, धीरे-धीरे वो आकाश का रुप लेने लग गया। इसलिए अब लोग भी बहुत ही स्ट्रैटिजिकली लिखने लग गए। जाने-अनजाने ऐसी दो-तीन घटनाएं हो गयीं कि जिसमें ब्लॉग का असर साफ दिखाई देने लगा। इसलिए लोगों में एक भरोसा भी जमा कि यहां पर लिखने से भी कुछ हलचल हो सकती है। कोई चाहे तो कह सकता है कि जैसे-जैसे हलचल पैदा करने के लिए, चाहे वो साकारात्मक हो या फिर नाकारात्मक, ब्लॉग लिख जाने लगे, वैसे-वैसे इसकी स्वाभाविकता खत्म होती चली गयी। लेकिन यह भी सच है कि ब्लॉगिंग कोई इंसानी दुनिया से बाहर की चीज नहीं है कि उसमें रोजमर्रा के जीवन शामिल नहीं होते। और वही हुआ। शुरुआती दौर में जिस ब्लॉग पर जी भरकर भावनाओं के तोते उड़ाए गए, सिनिकल होकर छोटी-छोटी बातों पर कीबोर्ड तानते रहे, अब वही धीरे-धीरे व्यावहारिक होता चला गया, यथार्थपरक होता चला गया। इतना अधिक यथार्थपरक की एटॉमिक डील से लेकर आतंकवाद तक पर जमकर लिखा जाने लगा। उन सब चीजों पर, बातों पर लिखा जाने लगा, जिसे कि अब तक इसलिए छोड़ा जाता रहा कि अरे, इस पर तो अखबारों में बात होती ही रहती है, चैनल तो दिनभर इस पर स्टोरी किया ही करते हैं. ब्लॉग में इसे दोहराया जाना जरुरी नहीं है। मेनस्ट्रीम की मीडिया में जिन मुद्दों पर बात की जाती, उसे फिर से ब्लॉग पर लाने का मतलब कभी-कभी तो ये रहा कि जो लोग इस बात को मिस्स कर गए होगें, उन्हें यहां से जानकारी मिल जाएगी, ये काम अभी भी हो रहा है। लेकिन इससे आगे भी दो बड़ी वजह है- एक तो ये कि मुद्दे को लेकर मीडिया का क्या रवैया रहा, किस अखबार और चैनल ने उसे किस रुप में देखा, इस पर बात हो सके। यानि मीडिया के साथ जोड़कर मुद्दों का विश्ललेषण। इसे आप चाहें तो मेनस्ट्रीम की मीडिया से आगे की चीज कह सकते हैं। दूसरा कि स्वयं मेनस्ट्रीम की मीडिया ने ब्लॉग को न्यूज माध्यम के रुप में स्वीकार कर लिया। कई अखबारों ने इससे उठाकर छापना शुरु कर दिया। मतलब ये कि ब्लॉग मेनस्ट्रीम की मीडिया के लिए पूरक भी बना और एक हद तक उसके आगे की चीज भी। पहले के पोस्टों के मुकाबले आप अभी के पोस्टों पर गौर करें, आपको अंदाजा लग जाएगा कि कितना बड़ा फर्क आया है। ये अलग बात है कि शुरुआती दौर में कोई भी व्यक्ति ब्लॉग की पुरानी परिभाषा के आधार पर भावुक और बहुत ही पर्सनल किस्म की बातों को लिखता है, लेकिन बहुत जल्द ही उसे यहां का मंजर देखकर समझ में आ जाता है कि- मामला बस इतना भर नहीं है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 8461 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081029/6e4ea35f/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Fri Oct 31 12:22:15 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 31 Oct 2008 12:22:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSW4KSs4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KSwLCDgpJzgpYsg4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX4KSwIOCkleCliyA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkleCkueCkvg==?= Message-ID: <829019b0810302352g786be937q6621ca5541193c93@mail.gmail.com> सुशील कुमार सिंह की बेबसाइट गॉशिप अड्डा को ब्लॉग कहने और इस आधार पर उन्हें ब्लॉगर कहने के लिए माफी। ये तो और भी अच्छी बात है कि इसे मान्यता प्राप्त है। लेकिन इन सबके बीच फिर वही सवाल कि क्या ब्लॉगर को पत्रकार कहा जा सकता है। और इसके साथ ही कि क्या वेब पत्रकारिता को मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता में शामिल किया जा सकता है। पिछली पोस्ट की टिप्पणियों से एक बात तो सामने आयी कि वेब पत्रकाकिता में किसी न किसी रुप में व्यावसायिकता का रंग चढ़ चुका है। यहां लोग अपने फायदे के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। *( blog aur web site me abhi fark hai.web site swanta sukhai ki bajai der saber munafe ke liye suru ki jata hai jaise akhbar.)- *ambrish kumar के लिहाज से ब्लॉग स्वांत सुखाय के लिए लिखा जा रहा है। यानि ये एक इनोसेंट रचना प्रक्रिया है जबकि वेब पत्रकारिता में धन कमाने की लालसा बनी हुई है। कुछ लोग ब्लॉग में भी इसी नीयत से आते है। *कुछेक एक वेबसाईट ने तो अपने लेखों के लिंक देने के लिये ही ब्लाग बना लिये हैं.- मैथिली गुप्त * इन दोनों टिप्पणियों से साफ है कि वेबसाइट की तुलना ब्लॉग से नहीं की जा सकती। इसी तरह जो लोग ब्लॉग के लिए लिख रहे हैं उन्हें वेब के लिए लिखनेवालों की पांत में नहीं बैठाया जा सकता। *ब्लागर ब्लागर होते हैं और पत्रकार पत्रकार. दोनों अलग अलग हैं. आजकल सारी दुनियां में ब्लागर अधिक विश्वसनीय माने जारहे हैं. - मैथिली गुप्त * उपर की दोनों टिप्पणियों से ब्लॉगर और पत्रकार चाहे वो वेब पत्रकार हों या फिर मेनस्ट्रीम के पत्रकार, दोनों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी गयी है। जाहिर है ये जो टिप्पणियां की गयी है उसमें आज की पत्रकारिता के चरित्र को भी एक हद तक शामिल कर लिया गया है। पत्रकार से ज्यादा ब्लॉगर विश्वसनीय हैं। संभव है ये ज्यादा खरी-खरी औऱ धारधार लिखते हैं। उनमें बात कहने के आधार पर मैलोड्रामा नहीं होता। सपाटबयानी की ताकत के साथ जो ब्लॉगिंग चल रही है, वही आगे आनेवाले समय में इसे पहचान देगी। पिछली पोस्ट की टिप्पणियों के आधार पर मैंने ब्लॉग का यही अर्थ लगाया। लेकिन यहां पर मैं अंवरीश कुमार की बात को फिर से दोहराना चाहूंगा कि वाकई ब्लॉग में उतनी ही सहजता है, उतनी ही मासूमियत है जितनी कि उम्मीद वो कर रहे हैं। उनके ऐसा मानने के क्रम में हम जैसे हजारों मामूली ब्लॉगर शामिल हैं तब तो मैं भी एक हद तक इस बात को ज्यों का त्यों मानने को तैयार हूं लेकिन जैसे ही ये बात सिलेब्रेटी और समाज के प्रभावी लोगों के पाले में जाती है, तब इस बात को पचा पाना मुशिकल हो जाता है। मेरी पोस्ट पर बात करते हुए हालांकि एक-दो लोगों ने बात की भी कि- संभव है ब्लॉग पर किसी भी बात का दबाव नहीं है इसलिए लोग अपनी मर्जी से और अपने मन की बात खुलर लिख ले रहे हैं, लेकिन ब्लॉगर को मेनस्ट्रीम की मीडिया के आगे खड़ा करने का कोई तुक ही नहीं बनता। मेनस्ट्रीम की मीडिया में विज्ञापन, मार्केटिंग और दुनियाभर की चीजों के बीच संतुलन बनाना होता है। ऐसे में कोई ब्लॉग की ताकत यहां रखे तो और बात है। जहां तक बात वेब पत्रकारिता की है तो ये तो बर्चुअल मीडिया है, इसे रीयल मीडिया के सामने खड़ा करने का कोईम मतलब ही नहीं बनता है। रीयल और वर्चुअल की भी एक अलग ही बहस है। इसके लिए फिर एक अलग पोस्ट की जरुरत होगी.लेकिन फिलहाल इतना ही समझता हूं कि जिस वेब औऱ ब्लॉग को वर्चुअल कहकर उसकी ताकत और क्षमता को कमतर करके देखा जा रहा है, सच्चाई ये हैं कि उसके बढ़ते संजाल के की वजह से मेनस्ट्रीम की मीडिया के बीच भी खदबदाहट है। अगर वेब वर्चुअल ही है तो फिर हरेक चैनल वेबसाइट लांच करते ही क्यों दुनियाभर के विज्ञापनों के साथ इससे हमें रुबरु कराते हैं. आप मानिए या न मानिए वेब और ब्लॉग की उम्र भले ही कम हो लेकिन मेनसट्रीम की मीडिया इस पर एक हद तक आश्रित होने लगी है. दीपावली के अगले दिन बाकी अखबारों के साथ ही दि टाइम्स ऑप इंडिया के भी ऑफिस बंद रहे. जनसत्ता और दूसरे अखबारों ने एक छोटे से बॉक्स में लिखा- कार्यालय बंद रहने के कारण कल हम आप तक नहीं पहुंच सकेंगे। हमारी मुलाकात परसों होगी। लेकिन दि टाइम्स ने लिखा- ताजातरीन खबरों के लिए आप हमारे वेबसाइट पर जा सकते हैं।पूरी बहस में, ब्लॉगर अपने को पत्रकार कहलाना नहीं चाहते, ब्लॉगर ही कहलाना चाहते हैं। आप इसे पत्रकारिता को लेकर लोगों के बीच की विश्वसनीयता पर एक बार नए सिरे से विचार कर सकते हैं। दिन-रात सिटिजन जर्नलिज्म की ढोल पीटनेवाले चैनलों के वाबजूद भी वो ब्लॉगर ही बने रहना चाहते हैं, भावुक और संवेदनशील ही बने रहना चाहते हैं। कईयों के लिए ये बात बेचैन करनेवाली तो जरुर है, बेहतर हो कि खांचे में न फिट होनेवालों की तादात दिन-दोगुनी रात-चौगुनी बढ़ती रहे। nadeem की एक शिकायत की मैं गिने-चुने ब्लॉग पर जाकर ही अपनी राय बना लेता हूं। सच तो ये है कि जिसे सिर्फ ब्लॉग पढ़ना है तो गिने-चुने क्या एक ही ब्लॉग पर जाकर राय बना ले लेकिन जिसे पढ़ने के बाद कुछ लिखने के लिए हिम्मत जुटानी होती हो, उसके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता। बात रह गयी भावना और संवेदना कि तो वाकई अव ये ब्लॉग की मुख्य प्रवृत्ति नहीं रह गयी है। - 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