From vineetdu at gmail.com Sat Nov 1 10:53:10 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 1 Nov 2008 10:53:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS14KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkrOCljeCksuClieCkl+CksCDgpJXgpYcg4KSR4KSl4KWH4KSC4KSf?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KS/4KSf4KWAIOCkleClgCDgpK3gpYAg4KS54KWI?= Message-ID: <829019b0810312223g674baa83y44164203854b7555@mail.gmail.com> तो भई, अपने मैथिली गुप्तजी इस बात के पुरजोर समर्थन में लगे हैं कि आनेवाला समय वेबपत्रकारिता का है। बाकी की सारी पत्रकारिता पतझड़ के पत्ते की तरह झड़ते चले जाएंगे। अभी जो बी लोग प्रिंट माध्यम से खबरों को जान रहे हैं, वो या तो तकनीक के मामले में असमर्थ हैं या फिर उनकी अभी भी पुरानी आदत गई नहीं है। मैथिलीजी अब मैं भी कई लोगों को लैपटॉप पर कुछ न कुछ लेटकर पढते हुए देख रहा हूं। थोड़ा वजनी तो होता है लेकिन पन्ने बदलने की झंझट से मुक्ति मिल जाती है. खैर, एक सवाल औऱ कि जो भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। इस पूरे बातचीत में मेनस्ट्रीम की तरफ से मुझसे ये भी सवाल किया गया कि- जो लोग भी नेट पर लिख रहे हैं, चाहे वो ब्लॉग के जरिए हो या फिर वेब पर, उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। वेब से जुड़े लोग, जिनका कि अपना डोमेन है, उन्हें तो फिर भी आसानी से पकड़ा जा सकता है. लेकिन जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनको लेकर दिक्कत है। अब कोई कठपिंगलजी को ही लीजिए न। या फिर सुशील कुमार सिंह को ही, मान्यता प्राप्त होने के बाद भी वो अपने नाम से नहीं लिख रहे। ऐसे में उनकी बातों को कितना ऑथेंटिंक मान सकते हैं। दूसरी बात सुशीलजी तो वेब के जरिए पत्रकारिता कर भी नहीं रहे हैं, वो तो गप्प कर रहे हैं। न्यूज रुम का गप्प. फिल्म सिटी के कमजोर गुमटियों पर बड़ी-बड़ी बातों को लेकर किया जा रहा औपचारिर गप्प। इसे कोई कैसे पत्रकारिता कह सकता है। यानि इसी तरह निजी अनुभवों को टांकने और वेब पर लिखने को हम जर्नलिज्म कगैसे कह सकते हैं। इसमें बहुत गुंजाइश है कि कोई अपनी पर्सनल खुन्नस निकालने के लिए किसी चैनल या मीडिया समूह को टांगने में लग जाए. क्या इसे सिर्फ इसलिए जर्नलिज्म कहा जाए कि ये सार्वजनिक कर दिया जाता है। अगर कंटेट को लेकर ही विभाजन करनी है तो ब्लॉग के एक बड़े हिस्से को फिक्शन के खाते में डाला जा सकता है, कुछ को संस्मरण, कुछ को रिपोर्ताज और कुछ को रिपोर्टिंग. हालांकि इस तरह का विभाजन उचित नहीं है और मेरे सहित कई और लोगों को भी इस बात को लेकर परेशानी हो सकती है। तो भी इसमें जर्नलिज्म के एलीमेंट को अलग करने के लिए एक घड़ी को ऐसा किया जा सकता है। आप देखेंगे कि ब्लॉग का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसे आप जर्नलिज्म कह सकते हैं। उसमें मेनस्ट्रीम की तरह की प्रस्तुति है, वो सूचनात्मक हैं, कोई पर्सनल और भावुक किस्म की बातें नहीं. कई बार तो मेनस्ट्रीम की मीडिया उसे ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर लेती है। जिन लोगों को ब्लॉग में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने के साथ-साथ मेनस्ट्रीम की मीडिया में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने की इच्छा है वो इस बात पर दावा कर सकते हैं कि- चैनल जो दिखा रहे हैं, चाहे वो धर्म के नाम पर हो, पब्लिक व्आइस के नाम पर हो, उसकी कितनी ऑथेंटिसिटी है. इस आधार पर साफ कहा जा सकता है, पहले अपने गिरेबां में झांककर देखें, ब्लॉगिंग में जर्नलिज्म के एलीमेंट कितने हैं, ये बात में बाद में पता कर लिया जाएगा। अब जो लोग ब्लगिंग में मेनस्ट्रीम की मीडिया के मुकाबले ज्यादा सच्चाई और ऑथेंटिसिटी का दावा कर रहे हैं, जाहिर है उनका आधार फिक्शन आधारित ब्लॉग नहीं है। ये वो ब्लॉग हैं जो सीधे-सीधे सामयिकता और देश-दुनिया की घटनाओं से जुड़े हैं. इसलिए ब्लॉग के भीतर की ऑथेंटिसिटी घोषित करने का मसला नहीं है, बल्कि महसूस करने और छानबीन करने का मसला है. मुझे नहीं लगता कि कोई अपने ब्लॉग पर अदिकारों के हनन की बात, शोषण और अन्याय की बात लिख रहा है तो वो गप्प कर रहा है या फिर फिक्शन लिख रहा है। औऱ अगर किसी को फर्जी कथा लिखने में रचनात्मकता दिखाई देती है तो कानूनी डंडे न भी पड़े तो भी सामाजिक दबाब जरुर पड़ेंगे और किसी भी समझदार इंसान को इसकी चिंता जरुरू होती है. इसलिए ऐसा गप्प जिसका कि वास्तविकता से सीधा संबंध हो, ऐसा करनेवाला ब्लॉगर जरुर सोचेगा और सोचना भी चाहिए. लेकिन फिर वही बात, कि अगर न सोचे तो. तो इस थेथरई और जब्बडपने का क्या इलाज है. इस इलाज को लेकर आप ऐसे ही सोचिए जैसे आप इंडिया टीवी के बारे में सोच रहे हैं। नहीं सोच रहे हैं तो आज न कल सोचना शुरु तो करेंगे ही। उसी खेप में आप उन ब्लॉगरों के बारे में भी सोच लीजिएगा कि कोई खबर के नाम पर गप्प कर रहा है, पर्सनल खुन्नस निकाल रहा है तो उसका क्या करें. इलाज निकल आएगा, खुशी की बात है, अपनी उम्मीद भी बंधी है कि यहां तो एक से एक सोशल साइंटिस्ट बैठे हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 9428 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081101/c1f54d09/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Sun Nov 2 11:25:04 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 2 Nov 2008 11:25:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCljeCkn+CljeCksOCliOCkn+CknOClgC0g4KSF4KSq4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleCliyDgpKbgpL/gpJbgpYcg4KSF4KSC4KSh4KS+IOCkpOCliyA=?= =?utf-8?b?4KSR4KSh4KS/4KSP4KSC4KS4IOCkleCliyDgpKbgpL/gpJbgpL7gpJMg?= =?utf-8?b?4KSh4KS+4KSv4KSo4KS+4KS44KWL4KSw?= Message-ID: <829019b0811012255n45f45934o3163930db6d6c336@mail.gmail.com> न्यूज २४ पर दो दिल आते हैं। एकदम गाढे लाल टेस रंग में। इनकी साइज धीरे-धीरे बढ़ती है और फिर सफेद से लिखा दिखाई देने लग जाता है- आइ लव यू राहुल। इसी तरह दूसरे दिल पर लिखा दिखाई देता है- आई लव यू मोनिका। चैनल बताता है कि बिग बॉस के भीतर राहुल और मोनिका में बहुत कुछ चल रहा है। दूसरे चैनलों पर तो ये भी चर्चा जारी है कि बिग बॉस से लौटने के बाद शायद राहुल और मोनिका कोई बड़ा फैसला लें। हमारी दिलचस्पी न तो राहुल और मोनिका के बीच जो कुछ भी चल रहा है उसमें है, न तो उनके बिग बॉस से बाहर आकर बड़े फैसले लेने का इंतजार है और न हमें इस बात की चिंता सताए जा रही है कि राहुल और मोनिका के बीच ये सब क्या और क्यों चल रहा है। जिन्हें चिंता हुई, जिन्हें लगा कि किसी रियलिटी शो में दोनों को इस तरह से दिखाए जाने पर भारतीय संस्कृति पर चोट पहुंचती है, घर के लोगों के संस्कार पर बुरा असर पड़ता है, उन्होंने विरोध किया। जिन्हें इस प्रोग्राम के जरिए टीआरपी बटोरनी थी और अभी भी है, उन्होंने दिखाया कि- अबू सलेम को याद आ रहा है पुराना प्रेम, जेल में मांगा अबू सलेम ने टीवी, मोनिका का दीदार करना चाहता है अबू सलेम, बिग बॉस देखना चाहता है अबू सलेम। यकीन मानिए हमारी दिलचस्पी इनमें से किसी भी चीज में नहीं है। हमारी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में है कि जो घटनाएं( अगर रियलिटी शो और उनकी बातों को घटना मानें तो) हो रही हैं, उसे न्यूज चैनलों में किस रुप में पेश किया जा रहा है। बिग बॉस में मोनिका और राहुल के भीतर जो कुछ भी चल रहा है, वो लोगों का मन लगाए रखने के लिए किया जा रहा है, संभव है टीआरपी के लिए नुस्खे के रुप में काम आ रहे हों, इसी नुस्खे में एक और जोड़ी- डायना और आशुतोष की जोड़ी तैयार कर दी गयी है। क्योंकि चैनल को ये पता है कि ऑडिएंस बिना कमेस्ट्री देखे बिना मानने वाली नहीं है। लेकिन इन सारी बातों को न्यूज चैनल खबर की शक्ल देने पर आमादा हैं। आप प्राइम टाइम के ठीक पहले देखिए, कई बार तो प्राइम टाइम में भी कि- जो चीजें, जो बातें और जो स्टंट मनोरंजन प्रधाम चैनल के जरिए मनोरंजन, मैलोड्रामा और टीआरपी जेनरेट करने के लिए किए गए हैं, उसे खबर के तौर पर चैनल पेश करते हैं। समझ और समाचार देने के साथ-साथ मनोरंजन कराने का जिम्मा न्यूज चैनलों ने अपने आप ले लिया है। खैर, ये सबकुछ न्यूज चैनलों की अपनी पॉलिसी हो सकती है और सरकारी नीतियों की बात है कि वो न्यूज के नाम पर क्या-क्या प्रसारित करने का अधिकार देती है। यहां मैं चैनल के आधार पर ही मानकर चल रहा हूं कि- आइ लव यू राहुल और आइ लव यू मोनिका खबर है। न्यूज चैनल के लिए भी, ऑडिएंस के लिए भी,साथ ही बॉलीवुड इन्डस्ट्री के लिए भी और अगर न्यूज चैनलों ने इसके तार अभी तक अबू सलेम से जोड़ रखे हैं तो अंडरवर्ल्ड के लिए भी। वाकई ये बड़ी खबर है। चाहे भले ही यह सबकुछ फेक हो, लेकिन बिग बॉस के भीतर दोनों के बीच जो कुछ भी चल रहा है उस पर सभी चैनलों ने मिलकर अब तक पचासों स्टोरी बना दी होगी। कलर्स पर भी लोग अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। एहसान कुरैशी ने तो दोनों पर राइम्स बनाने शुरु कर दिए हैं। एक बार पहले बाहर आ चुकी मोनिका को इस मामले में दुनियाभर की सफाई भी देनी पड़ी है। इन सबके बीच मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल उठ रहा था- कि क्या वाकई में मोनिका ने राहुल को आइ लव यू कहा है। चैनल के हिसाब से अगर सिर्फ राहुल कहता है- मोनिका आइ लव यू तो कोई बड़ी खबर नहीं है। बड़ी खबर तब है जबकि मोनिका भी ऐसा ही कहे। न्यूज २४ ने मोंटाज बनाए उसमें ऐसा लिखा। इफेक्ट के लिए चैनल के बैक्ग्राउंड में जो केरोमा और मोंटाज बनाए जाते हैं कि कोई चाहे तो उस पर अलग से रिसर्च कर सकता है। खबर को लेकर स्टोरी आइडिया, काफी कुछ इसी से साफ हो जाता है। खबरों की तरह इसमें भी आए दिन कलाकारी और फैब्रिकेशन जारी है। इसे देखकर मैं बिग बॉस के ऑरिजिनल शॉट्स देखने के लिए परेशान हो गया। संयोग से भटकते-भटकते जब मैं कलर्स पर पहुंचा, साढ़े बारह बजे तक देखता रहा। बिग बॉस के रिपीटेड एपीसोड आ रहे थे। दीवाली धमाका स्पेशल भी उसी में था। जब भी ब्रेक होता, उस शॉट्स के फुटेज दिखाए जाते जिसमें राहुल मोनिका से कहता है- बोलो- आइ, मोनिका दोहराती है आइ, बोलो लव, मोनिका दोहराती है लव, आगे राहुल कहता है- राहुल। अबकि बार मोनिका कुछ बोले इसके पहले ही ब्रेक हो जाता है. ऐसा मैंने कम से कम दस बार देखा और इंतजार करता रहा कि मोनिका क्या बोलती है। यही है ऑडिएंस की क्योरियोसिटी जिसे कि चैनल खूब समझता है।अंत में करीब सवा बारह या कुछ इसी के आसपास वो शॉट पूरा दिखाया जाता है। बिग बॉस के मिनट्स के हिसाब से ये रात के आठ बजकर पच्चीस मिनट का समय है। आइ लव यू के बाद जैसे ही राहुल, राहुल दोहराने कहता है, मोनिका दोहराने के बजाय कहती है- सुधर जाओ।॥ अब साफ हो गया था कि मोनिका ने कहीं भी नहीं कहा- आइ लव यू राहुल. यानि चैनल अपनी तरफ से चला रहा था- आई लव यू राहुल। इसे कहते हैं, थोड़े से बड़े अंडे की साइज देखकर, पूरे डॉयनासोर पर डॉक्यूमेंट्री बना डालना। चैनल भी खबरों के साथ यही सबकुछ कर रहे हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1967 Size: 11136 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081102/c9312055/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Mon Nov 3 10:07:17 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 3 Nov 2008 10:07:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSC4KSq4KSf?= =?utf-8?b?IOCkmuCliOCkqOCksuCkgyDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4g4KSP4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KS44KSq4KSw4KWN4KSfIOCkleCkriDgpJzgpL/gpK7gpY3gpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KS14KS+4KSwIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: <829019b0811022037x119a5aa1v9bf6045b5be960@mail.gmail.com> आम ऑडिएंस के पास ऐसा कोई भी साधन नहीं है जिससे की वो खबरों को लेकर किए जानेवाले manipulation को समझ सके। चैनल किस तरह शब्दों को इधर-उधर करके, उस पर मोंटाज और क्रोमा लगाकर पूरे अर्थ को बदल देते हैं,उसे समझ पाना आसान नहीं है। ले-देकर ऑडिएंस, यहां तक कि मीडिया समीक्षकों की झोली में भी एक ही दो शब्द है जिसे कि किसी भी टीवी चैनल या प्रोग्राम का विश्लेषण करने के लि फिट कर देते हैं- एक तो सीधे-सीधे ये कहना कि- अजी कुछ नहीं, सब टीआरपी का खेल है और दूसरा कि सब लंपटई पर उतर आए हैं। निजी हिन्दी चैनलों को प्रभाव में आए पन्द्रह-सोलह साल होने जा रहे है। इतने कम समय में लोगों पर इसका जितना जबरदस्त असर हुआ है, उसके मुकाबले विश्लेषण के स्तर पर न के बराबर ही काम हुए हैं। मीडिया विश्लेषण के नाम पर कोई पद्धति का विकास होने के बजाय स्टीरियोटाइप राइटिंग ही अधिक हुई है। यह भी एक बड़ी वजह है कि आज तेजी से गिरते चैनलों के स्तर पर बात करने पर कोई भी चैनल मीडिया विश्लेषकों की बात को तबज्जो नहीं देते। शुरुआती दौर से ही चैनलों को पूंजी का माध्यम, मानवीय संवेदना के अंत होने की घोषणा का असर और वैल्यू लोडेड शब्दों के प्रयोग और चैनल को लगातार साहित्य के साथ जोड़कर देखने की छटपटाहट ने कुछ लोगों को मीडिया विश्लेषक तो जरुर बना दिए। वो साहित्यिक हल्कों के बीच हिट तो हो गए, अपनी पैठ तो बना ली। वो इस बात के लिए जाने जाने लगे कि बंदा चैनल और मीडिया में भी जनपक्षधरता की बात को पकड़े हुए तो है लेकिन ये विश्लेषक भी इस बात को चैनल के सामने नहीं रख पाए कि पूंजी औऱ बाजार के खेल के बीच भी कैसे सामाजिक सरोकार के माध्यम विकसित किए जा सकते हैं, इस बारे में कोई समझ नहीं दे पाए। अपने व्यावहारिक जीवन में उन्हें भी पता है कि काम सिर्फ महान आख्यानों और संवेदना को थामे रहने से नहीं चलता लेकिन मीडिया विश्लेषण के लिए इसे पकड़े रहना, मीडियाकर्मियों और चैनल के लोगों के लिए अप्रासंगिक बना देता है। अगर साफ- साफ कहें तो मीडिया विश्लेषकों की बाजार,अर्तव्यवस्था, पूंजी की उपलब्धता और इन सबकी अनिवार्यता के बीच चैनल या मीडिया के चलने की बात को न समझ पाना ही उनके द्वारा किए जा रहे विश्लेषण की नाकामी का नतीजा है। मेरी तरह और कोई भी जो कि मीडिया विश्लेषण को बतौर करियर बनाने पर विचार कर रहा है, उसके मन में एक सवाल सबसे पहले आता है औऱ आने भी चाहिए कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर जो कुछ भी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता क्या है। मीडिया पर लगातार उंगली रखकर, उसे हमेशा पटखनी देने की नीयत से जिस भाषा का हम इस्तेमाल कर रहे हैं, उसका असर कितना है। संभव है मेरे लिखे और विश्लेषण की खपत कॉलेज के उन स्टूडेंट के बीच हो जाए जो हिन्दी विभाग में रहते हुए भी एक पेपर सेफसाइड के रुप में मीडिया ले लेते हैं कि कहीं कुछ नहीं होगा तो मीडिया लाइन में ही घुस लेंगे। उनके बीच अपनी पॉपुलरिटी बढ़ जाए और वो हमारे लेखों की फोटोकॉपी कराकर पढ़ने लगें। हमारे विश्लेषण का इससे ज्यादा कोई उपयोग है, फिलहाल मेरे जेहन में नहीं आता. इस आधार पर अगर ये मान लें कि हम तो आनेवाली पीढ़ी के लिए लिख रहे हैं, हम उनके बीच मीडिया की एक स्पष्ट समझ देना चाहते हैं। तो अब जरा अपने लिखे की उपयोगिता की जांच उनके हिसाब से कर लें. कोर्स सहित मीडिया में काम करते हुए मैं करीब ढ़ाई साल तक मीडिया से सीधे-सीधे जुड़ा रहा। एमए में भी चार पेपर मीडिया की पढ़ाई की। इसलिए आप एक साल और जोड़ ले, यानि करीब तीन साल. इस दौरान मुझे कभी नहीं लगा कि हिन्दी मीडिया की किताबों में जानकारी के नाम पर जो चीजें उपलब्ध कराया है, वो किसी काम की है. जैसे हमारी लिखी बातें आनेवाली पीढ़ी के लिए किसी काम की नहीं हो सकती है, ठीक उसी तरह मुझे उपलब्ध किताबों को देखकर लगा। मसलन टीआपी के नाम पर विश्लेषक दुनियाभर की बातें झाड देंगे लेकिन किसी ने नहीं बताया कि ये कॉन्सेप्ट कैसे आया, किस तरह ये काम करता है और इसका असर मीडिया कंटेंट पर किस तरह से होता है। मीडिया की समझ के नाम पर वैचारिकी झोंकने से स्टडेंट का कितना भला होता है,, इसेक बारे में स्टूडेंट बेहतर बता सकता है। यकीन मानिए अगर ढंग से पांच मीडिया के स्टूडेंट मीडिया विश्लेषकों के सामने बैठ जाएं और अपनी जरुरत और कोर्स की उपयोगिता पर बात करने लग जाएं तो विश्लेषकों को अपने को गैरजरुरी होने का एहसास होते देर नहीं लगेगी। अब विश्लेषकों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वो साफ-साफ घोषणा करें कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर सिर्फ मास्टरी नहीं कर रहे हैं. हम सिर्फ उनके लिए लेख और किताबें नहीं लिख रहे हैं जो साल दो-साल बाद बीस-पच्चीस हजार रुपये कमाने के चक्कर में लगे हैं। हम एक ऐसी पीढ़ी गढना चाहते हैं जो मीडिया की नकेल कस सके, चैनलों की थेथरई पर लगाम लगा सके. खबर के नाम पर जो चैनल अंड-बंड दिखा रहे हैं उनको भय हो कि आनेवाले समय में दिक्कत हो सकती है। लेकिन सवाल तो अभी भी रह जाता है कि मीडया की नकेल कसनेवाली पीढ़ी तैयार करने के लिए मीडिया संस्थानों, विभागों में और रिसर्च सेंटरों में जो कुछ, जैसा भी चल रहा है उसे उसी तरह चलने दिया जाए. किताब के नाम पर जो हुमचनेवाले विचार झोंके जा रहे हैं, उसे जारी रखा जाए या फिर इसके अलावे या इसे छोड़कर कुछ अलग से भी करने की जरुरत है ? -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-14 Size: 11389 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081103/c2ff1ab1/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Tue Nov 4 13:47:39 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 4 Nov 2008 13:47:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?IOCkheCkguCkl+CljeCksOClh+CknOClgCwg4KSw4KS/4KSq4KWL4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSf4KS/4KSC4KSXIOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpKjgpY3gpKY=?= =?utf-8?b?4KWALCDgpK7gpL7gpK7gpLLgpL4g4KSV4KWN4KSy4KS+4KS4IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkueCliCA/?= Message-ID: <829019b0811040017s26e7b4d0ufbfebce67e6b717b@mail.gmail.com> टाइम्स नाउ अंग्रेजी न्यूज चैनल है। लेकिन फैशन फिल्म में इसकी रिपोर्टर हिन्दी में खबर देती नजर आयी। पेज थ्री के हिसाब से और चैनल के हिसाब से भी हिन्दी भाषा का प्रयोग अटपटा लगता है। मैं ये नहीं कह रहा कि पेजथ्री के लोग हिन्दी नहीं बोलते. अंग्रेजी चैनलों में कभी-कभार देखा है कि अगर कोई गांव-देहात का बंदा अंग्रेजी नहीं बोल पा रहा होता है तो रिपोर्टर या फिर एंकर उससे हिन्दी में ही बात करने पर उतर आते हैं। लेकिन यहां तो वैसी कोई बात नहीं थी। इससे पहले कार्पोरेट फिल्म में भी टाइम्स नाउ ही मीडिया पार्टनर है। वहां भी कहानी का ढांचा कुछ इस तरह से है कि बार-बार रिपोर्टिंग करने की जरुरत पड़ती है और टाइम्स नाउ की रिपोर्टर फील्ड से रिपोर्टिंग करती है। लेकिन उस फिल्म में कभी भी हिन्दी में कुछ भी नहीं बोलती। वो वहां पर अंग्रेजी चैनल की सार्थकता और ब्रांड को पूरी तरह सार्थक करती नजर आती है। बत्रा में मेरे साथ गया पोल्टू दा ने तभी कहा था- कुछ बी कह लो, एकदम से फील्ड में खड़े होकर धड़ाधड़ अंग्रेजी में बोलते जाना मामूली बात नहीं है. आपसे, हमसे कहे कोई ऐसा करने तो दुइए लाइन में फिस्स हो जाएंगे।हिन्दी के कट्टर प्रेमियों के लिए ये सीन जरुर थपड़ी बजाने का हो सकता है। चाहे तो वो अकड़ सकते हैं कि अंग्रेजी चैनल खोलो चाहे फ्रैंच चैनल, भारत में अगर रहना होगा तो हिन्दी में ही कहना होगा। इन प्रेमियों के लिए पूरी फिल्म का पैसा इसी में सध जाएगा कि अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर ने हिन्दी में पूरी रिपोर्टिंग की है। अब आया न उंट पहाड के नीचे। आजकल देख रहा हूं कि हरेक फिल्म में चालीस से पैंतालिस फीसदी बात अंग्रेजी में ही करते हैं। पैसा दिए हैं हिन्दी सिनेमा के लिए और जबरदस्ती दिखा रहा है अंग्रेजी और वो भी खाली बोली-बात ही। सीन तो सब हिन्दी सिनेमा का ही है। उसमें काहे नहीं दरियादिली दिखा रहे है। हिन्दी के कट्टर प्रेमियों के लिए ये सीन जरुर थपड़ी बजाने का हो सकता है। चाहे तो वो अकड़ सकते हैं कि अंग्रेजी चैनल खोलो चाहे फ्रैंच चैनल, भारत में अगर रहना होगा तो हिन्दी में ही कहना होगा। इन प्रेमियों के लिए पूरी फिल्म का पैसा इसी में सध जाएगा कि अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर ने हिन्दी में पूरी रिपोर्टिंग की है। अब आया न उंट पहाड के नीचे। आजकल देख रहा हूं कि हरेक फिल्म में चालीस से पैंतालिस फीसदी बात अंग्रेजी में ही करते हैं। पैसा दिए हैं हिन्दी सिनेमा के लिए और जबरदस्ती दिखा रहा है अंग्रेजी और वो भी खाली बोली-बात ही। सीन तो सब हिन्दी सिनेमा का ही है। उसमें काहे नहीं दरियादिली दिखा रहे है। मधुर भंडारकर के जो फैन हैं और जिन्हें लगता है कि जिस तरह से अमोल पालेकर ने आम आदमी के दर्द को समझा है, उसी तरह से भंडारकर आम आडिएंस के दर्द को समझा है। वो काबिल आदमी है, उसको देश के लोगों की नब्ज पता है। वो जानते हैं कि बात-बात में अंग्रेजी झोकने से हमारी आडिएंस लसफसा जाती है। सिर्फ भाषा के कारण ही पूरे फिल्म का मजा नहीं ले पाती है। बहुत सोच-समझकर रिपोर्टर से हिन्दी में बोलवाए हैं। रैपिडेक्स से अंगरेजी ठीक करके एसएससी का एलडीसी निकाला जा सकता है, फिल्मवाली अंग्रेजी समझने के लिए शुरु से ही ध्यान देना होता है। अंग्रेजी के संस्कार शुरु से ही होने जरुरी है। भंडारकर ने ऐसे ही अठारह महीने नहीं चक्कर काटे हैं इस फिल्म के लिए। इस पर भी रिसर्च किया होगा। यही है बढ़िया फिल्म बनानेवालों की समझदारी। जो लोग बाजार के भरोस हिन्दी की तरक्की का ताल ठोकते हैं उसके लिए फैशन फिल्म एक रेफरेंस की तरह काम आएगा। वो लोगों को आसानी से बता सकते हैं कि- अजी जब फैश जैसी पेज थ्री फल्मों के लिए भंडारकर को हिन्दी में रिपोर्टिंग करानी पड़ गयी तो अब आगे की बात कौन करे। जान लीजिए, ऐसा करके भंडारकर साहेब ने हिन्दी पर कोई एहसान नहीं कर दिया है। ये उनकी मजबूरी है, बाजार की मजबूरी है कि बिना काउंटर में हिन्दी का माल डाले आप टिक नहीं सकते। अभी देखते जाइए न, कहां-कहां हिन्दी अपना पैर पसारती है। जो लोग कह रहे हैं कि हिन्दी का भविष्य संकट में है, उनको आंख खोल देगा,ये सब। अजी जिस हिन्दी में बात करने में हिन्दी के चैनलवालों को स्क्रीन के बाहर बोलने में शर्म आती रही है, जिस हिन्दी को बोलने से अंग्रेजी चैनलवालों की जीभ पर गोबर की स्मेल रेंगने लग जाती रही, आज वो करोडो़ पब्लिक के सामने हिन्दी में बात कर रहे हैं। इसको कहते हैं, औकता में आ जाना। अभी देखते रहिए, आगे-आगे होता है क्या। अब दिमाग लगानेवालों की कमी तो है नहीं। फिल्म खतम होने के बाद पोल्टू दो ने एकदम से कहा- मामू बनाया है भंडारकर ने तुम हिन्दीवालों को। कार्पोरेट में काहे नहीं हिन्दी में रिपोर्टिंग करवाई। वहां भी तो अंग्रेजी चैनल ही था. उसको पता है कि कार्पोरेट फिल्म जो भी देखने आएगा, वो एलीट किस्म का आदमी होगा और एलीट लोगों को अंगंरेजी आए नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है. वहां क्लास की बात थी. भंडारकर को ये भी पता था कि- फैशन फिल्म सिर्फ वही लोग देखने नहीं आएंगे, हो सकता है वो कम ही आएं. फैशन देखने वो भी लोग आएंगो जो दू रुपया के सेनुर-टिकली और पचास रुपये के लहटी,शंखा-पोला और तीन सौ रुपये आर्टिफिशियल गहनों से फैशन कर लेती है। वो लौंडा सब भी आएगा जो बुध बाजार में भी औकात के भीतर लेटेस्ट फैशन कर लेने का दम रखता है। हैसियत देखकर अंग्रेजी के बजाय हिन्दी बोलवाया है भंडारकर ने। तुम सबको मामू बनाया है, मामू।... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-5 Size: 11648 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081104/f2a55176/attachment-0001.bin From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Nov 4 14:28:39 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Tue, 4 Nov 2008 14:28:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+Ckj+CklSDgpLg=?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSn4KWAIOCkleCkviDgpKbgpLDgpY3gpKYn?= Message-ID: <196167b80811040058w5d2af8a0mc072e2316e6c8085@mail.gmail.com> *डा. रविप्रकाश टेकचन्दानी, दिल्ली विश्वविद्यालय में सिन्धी विषय के वरिष्ठ व्याख्याता हैं. अपनी कविता 'एक सिन्धी के दर्द' में उन्होंने सिन्धी समाज के एक प्रतिनिधि के नाते अपनी बात कही है. बकौल टेकचन्दानी- ४७ का मतलब पूरे देश के लिए आज़ादी हो सकती है लेकिन सिन्धी समाज को मिला विखण्डित भारत. हमारा सबकुछ पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में छूट गया. ' आज सिन्धी समाज के लोग अपने ही देश में विस्थापितों की तरह जीने को मजबूर हैं. सरकार कुछ सोच रही है इस समाज के लिए. आइय कविता के माध्यम से उस समाज के दर्द को समझने का प्रयत्न करें। * ** *'एक सिन्धी का दर्द'* करते हो याद साल दर साल आजादी को सैंतालिस की काली रात भी याद कर तो देखो, खून, बलात्कार, बिछोह, खुद बखुद नजर आएगा किसी सिन्धी की आंखों में झांक के तो देखो. कहते हो क्या हुआ जो सिंध छोड़ आए अपने मोहल्ले को ज़रा छोड़ कर तो देखो, बिछोह के दर्द का एहसास अभी-अभी हो जाएगा अपनी माँ से दो पल दूर होकर तो देखो. पढ़ते हो हर रोज सिंध को अखबारों के अक्षरों में कभी करांची या सक्खर घूम कर तो देखो, विभाजन के खँडहर साफ़-साफ़ दिखा जाएंगे आजादी की नींव में लगा पत्थर तो देखो. उठाते हो बेजा सवाल देश भक्ति का, मिलेगा कहाँ ऐसा मिसाल खोजकर देखो, सिंधियों के सामर्थ्य के तप का अनुभव हो जाएगा किसी सिन्धी महिला के गर्भ से जन्म लेकर तो देखो. करते हो पैदा डर की मीट जाएंगे हवाओं में ये डर पैदा कर तो देखो, जर्रे-जर्रे में 'रवि' हयात नजर आएँगे पूरी कायनात में सर उठाकर तो देखो. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-9 Size: 3595 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081104/d95cba5f/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Thu Nov 6 10:47:01 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 6 Nov 2008 10:47:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSq4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KS4IOCkleClgCDgpKzgpYHgpKjgpL7gpLXgpJ8g4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkrOCljeCksuClieCklyDgpJXgpYcg4KSw4KWH4KS24KWH?= Message-ID: <829019b0811052117g6c514fddh1b537f822f21b0e7@mail.gmail.com> हिन्दी समाज में जो लोग शुद्ध साहित्य का दीया जलाए बैठे हैं उन्हें संजय कुंदन का ये प्रयोग जरुर परेशान कर सकता है। जो रचनात्मकता के नाम पर ब्लॉगिंग को छूहतर माध्यम मानते हैं उन्हें मुंह बिचकाने के लिए अच्छा मौका मिल जाएगा कि माना कि जिंदगी की उठापटक के बीच जब कोई इंसान परेशान होता है तो उसे लगता है कि उसके भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसे वो दुनिया के सामने रख दे। इससे ये भले ही साबित नहीं करना चाहता कि वो दुनिया का सबसे परेशान औऱ अलग किस्म का आदमी है तो भी अपनी बात करके मन हल्का जरुर करना चाहता है। लेकिन इसका मतलब थोडे है कि आदमी कुछ भी करने लग जाए। कुछ भी मतलब कुछ भी और किसी भी विधा में लिखने लग जाए और वो भी जब मामला साहित्य का हो। हिन्दी में इतनी सारी विधाएं हैं, उसे छोड़कर उपन्यास के पात्र को ब्लॉग में धकेलने की क्या जरुरत पड़ गयी। टूटने के बाद संजय कुंदन का पहला उपन्यास है जो इसी महीने नया ज्ञानोदय में उपन्यास शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। उपन्यास में एक पात्र है अप्पू। अप्पू के बाबूजी रमेश के साथ-साथ उसका भाई अजय औऱ यहां तक की मां विमला भी जीवन में भौतिक चीजों और सुख-सुविधाओं को अनिवार्य मानती है। संभव है हममें से बहुतों के परिवारवाले ऐसा नहीं मानते हों लेकिन अप्पू और हम सबके लिए कॉमन बात है परिवेश। परिवेश चाहे अप्पू का हो या फिर हम जैसे मध्यवर्गीय समाज के लोगों का जो कि रोज भाग्य पर एफर्ट की लकीरें चिसते रहते हैं, सब एक ही है। सबका परिवेश मानता है कि जीवन में सफल कहलाने में भौतिक सम्पन्नता भी शामिल है, बल्कि यों कहें कि आज कोई भी इंसान इसके बिना सफल कहलाने की योग्यता नहीं रखता। इसलिए हम और आप चाहते और न चाहते हुए भी इसके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में हो-हल्ला मचाते नजर आते हैं। संजय कुंदन के उपन्यास में भी ये हरकत बदस्तूर जारी है। उपन्यास का हरेक पात्र और ज्यादा और ज्यादा की लत का शिकार और दूसरों को धकिआते हुए बढ़ने का अभ्यस्त नजर आता है। अप्पू यानि रमेश बाबू का छोटा लड़का इसका अपवाद है। अप्पू को हमेशा लगता है कि जिंदगी में ये भोग-विलास और ऐश्वर्य की चीजें मायने नहीं रखती। वो रेपटाइल कल्चर से हटकर कुछ अलग सोचता है, अलग करना चाहता है। वो वह सबकुछ नहीं करना चाहता जो कि उसका बड़ा भाई अजय औऱ पिता रमेश बाबू करते हैं। एक लाइन में कहें तो वो सफल होने के बजाय सार्थक होना चाहता है। आज के इस पैटर्न सी ढल चुकी जिदगी में अगर कोई भी इंसान इस तरह से सोचता है, दिल्ली जैसे शहर में पढ़कर पटना लौटने की बात करता है तो उसे स्वाभाविक कहना मुश्किल होगा। इसलिए उसके एसएमएस भेजे जाने पर कि वो घर छोड़कर जा रहा है, विमला परेशान हो जाती है। उसे कुंडली की बात याद आती है कि बड़ा होकर अप्पू साधू होगा। वो भीतर से सिहर जाती है। इधर अप्पू पूरे उपन्यास में इन्ही सब बातों को लेकर परेशान रहता है। उसे समझ नहीं आता कि वो क्या करे। लेकिन जब उपन्यास का सिर्फ ढाई पेज बचता है तो उसे एक उपाय सूझती है। पहले तो वो एक फाइल बनाता है औऱ उसके भीतर वो सारी बातें लिखता है जो उसके दिमाग में चक्कर काट रही होती है। लिखकर वो हल्का महसूस करता है लेकिन तभी सोचता है कि वो इसका क्या करे। उसकी खपत कहां हो। पुराने हिन्दी उपन्यासों के पात्रों की तरह वो प्रकाशकों और संपादकों के चक्कर काटने के बजाय ब्लॉग बनाता है। संजय कुंदन ने यहीं पर आकर उपन्यास में ब्लॉग का एक नया संदर्भ पैदा किया है, ब्लॉग की परिभाषा का एक रचनात्मक प्रयोग किया है।. और यहीं पर संभव है कि हिन्दी के प्रचलित विधाओं के प्रेमी खुन्नस खा जाएं। वो इस बात पर झल्ला सकते हैं कि- ऐसे कैसे चलेगा। हिन्दी में जब पहले से ही कविता, उपन्यास, कहानी या फिर डायरी लिखने की महान परंपरा रही है तो फिर कोई ब्लॉग कैसे लिख सकता है। कहनेवाले शायद ये भी कहें कि इसे आप जबरदस्ती ठूंसा हुआ ही माने, सब प्रायोजित है। एक घड़ी के लिए वो कांप भी सकते हैं कि तो क्या आनेवाले समय में महान वृतांत के अंत की तरह कागजों पर भावुक होने का दौर भी खत्म हो जाएगा। उस पीढ़ी का अंत हो जाएगा जो फर्रे का फर्रा लिखकर कॉफी हाउस या फिर मंडी हाउस के आसपास हमारी चिरौरी करते रहे।.....शायद कोई कोशिश भी करें, नहीं ऐसा नहीं होने पाएं। लेकिन इन्हीं सबके बीच जो लोग दिन-रात काम के बीच नेट से चिपके हैं, उन्हें ये बात बहुत ही स्वाभाविक लगेगी कि अप्पू ने ब्लॉग ही क्यों बनाया औऱ वो भी हम नाकामयाब के नाम से। इन्हें पता है कि शिल्पी, कौशल, विनीत सहित दुनियाभर के लोगों के कमेंट्स उसे कितना राहत देते हैं। जो लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं, उन्हें पता है कि ब्लॉगरों ने टिप्पणीकारों के बूते लिखना शुरु कर दिया है। अगर चार-पांच दिन न लिखो तो फोन करके पूछते हैं- आपकी तबीयत तो ठीक है न। संजय कुंदन ने अप्पू के ब्लॉग हम नाकामयाब का आगे क्या हुआ नहीं बताया। जाहिर है ये उपन्यास के लिए अनिवार्य न रहा हो। लेकिन ब्लॉग के उत्साह में कोई कह सकता है कि जब दुनियाभर के लोग अप्पू के ब्लॉग पर टिप्पणी करने लगे होंगे तो आत्महत्या की वेबसाइट खंगालनेवाले अप्पू को ब्लॉग के बहाने जिंदगी के प्रति मोह पैदा हो गया होगा। हम तो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि आगे कोई कहानी या उपन्यास हो जिसके पात्र ब्लॉग के बहाने जीना शुरु कर दे, ब्लॉगिंग करते-करते जिंदगी जीत जाए।... *संजय कुंदन का पूरा उपन्यास टूटने के बाद के लिए क्लिक करें-* http://www.jnanpith.net/ny.pdf -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-153352 Size: 12060 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081106/0aaa819f/attachment-0001.bin From miyaamihir at gmail.com Thu Nov 6 12:38:50 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 6 Nov 2008 12:38:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KWHIOCkueClgeCkjywg4KS24KS54KSwIOCkrOCkpuCksiA=?= =?utf-8?b?4KSX4KSP4oCm?= Message-ID: From:~ www.mihirpandya.com ...miHir :-) तुम अपने अकेलेपन की कहानियाँ कहो. तुम अपने डर को बयान करो. तुम अपने दुःख को किस्सों में गढ़ कर पेश करो. दुनिया यूँ सुनेगी जैसे ये उनकी ही कहानी है. हर लेखक हरबार अपनी ही कहानी कहता है. कथा और इतर-कथा तो बस बात कहने के अलग अलग रूप हैं. कहानी तो इस रूप के भीतर कहीं छुपी है. अपना microcosm खोजो और फिर देखो इस भरमाती दुनिया को. ये बातें करती है. वरुण और मेरे लिए बहुत से मामलों में 'एक-सा संगीत' है. हम दुनिया को देखने के लिए एक चश्मे का इस्तेमाल करते हैं शायद. क्रिकेट, सिनेमा और राजनीति.. हमारे लिए एक complex society को समझने का जरिया बनते हैं. एक दूसरे की scrapbook में लिखकर अपनी उलझनें सुलझाना हमारा पुराना शगल है! वैसे भी Orkut हमारे लिए ख़ास है क्योंकि हमारी मुलाकात यहीं हुई थी. वरुण के लेखन का मैं तब से फैन रहा हूँ जब वो 'ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो' लिखा करता था. हाल ही में उसमे अपनी पहली हिन्दी कहानी के प्रकाशन के साथ हिन्दी साहित्य जगत में भी धमाकेदार एंट्री ली है. आप 'डेन्यूब के पत्थर'में ना जाने कितनी समकालीन परिस्थितियों की गूँज सुन सकते हैं. अनिल कुंबले के जाने से शायद हम दोनों अनमने से थे और ऐसे में ये Orkut की skrapbook वार्ता आई. आज पढ़ा तो मुझे लगा कि एक लेख लिखने से ज़्यादा खूबसूरत ख़याल इसे blog पर डाल देना होगा. कुंबले हमारे जीवन में क्या जगह रखता था इसे देखना ज़रूरी है. ****** * * * *मिहिर:~* अरे यार.. मेरे हीरो ने आज यूँ अचानक अलविदा कह दिया. कुछ अच्छा नहीं लग रहा है… मालूम था कि एक दिन ये होगा लेकिन क्या करुँ यार.. मैं कुंबले के बिना जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकता… He is my childhood hero. my first cricket memory coincides with his first coming-of-age performance. 1993 Hero cup final where he took 6-12… is there a life after kumble…? * * *वरुण:~* यार…सच में… दोपहर से बड़ा ख़ाली-ख़ाली लग रहा है. कुंबले को जाना था, यह कब से मालूम था… लेकिन फिर भी, एक्सेप्ट करना मुश्किल ही होता है. मुझे भी हीरो कप का वो फाइनल हमेशा याद रहेगा. शायद दिवाली के एक-दो दिन बाद ही था… हमारे पास बहुत सारे पटाखे बचे हुए थे और हमने जम के फोड़े थे. कुंबले उस दिन ख़ुदा लग रहा था… और हमेशा ही लगा है जब उसकी फ्लिपर्स लोअर-आर्डर बल्लेबाजों को खड़े-खड़े उड़ा देती हैं. एक बार साउथ अफ्रीका में शायद 89 रन भी बनाए थे और उस दिन मुझे बड़ा बुरा लगा था कि सेंचुरी नहीं हुई. आज अचानक से यह ख़याल आया कि जब सचिन भी चला जायेगा और राहुल भी… तब हम क्रिकेट क्यूँ देखेंगे? शायद उनके साथ साथ हमें भी रिटायर हो जाना चाहिए. हम भी बूढे हो चले हैं शायद. ऐसा ही होता है - एक आइकन के गुज़र जाने से साथ में वो era, उस era की values/memories/motivations सब गुज़र जाती हैं. अपनी गुज़रती उम्र का एहसास करा जाती हैं. यह बात वैसे हर दौर के लोग बोलते होंगे… (और बोलते हैं, यह जानते हुए भी, मैं कहूँगा) कि क्रिकेट अब वैसा नहीं रहा. और कुछ दिन बाद इस बात का भरम भी खत्म हो जायेगा - जब हम सचिन, राहुल, लक्ष्मण को भी अलविदा कह देंगे. एक मज़ेदार बात याद आई. जब दुनिया में शायद किसी ने भी कुंबले का नाम 'जम्बो' नहीं रखा था, तब भी मैं और मेरा छोटा भाई उसे 'हाथी' ही बोलते थे. उसके बड़े पैरों की वजह से नहीं (जो कि शायद उसके निकनेम की असली वजह है) बल्कि इसलिए कि बॉलिंग एक्शन के वक्त उसके हाथ किसी हाथी की सूंड जैसे लहराते थे… मानो हाथी नारियल उठा के नमस्कार कर रहा हो. फिर बाद में जब हमें पता चला कि टीम ने उसका नाम जम्बो रख दिया है तो हमें बड़ी खुशी हुई… * * *मिहिर:~* अगर मुझे सही याद है तो 88.. उसी पारी में अज़हर ने सेंचुरी बनायी थी और कुंबले ने उसके साथ एक लम्बी पार्टनरशिप की थी. अज़हर के आउट होते ही मुझे डर लगा था कि देखना अब कुंबले की सेंचुरी रह जायेगी और वही हुआ था. 90s की क्रिकेट तो मुझे (हमें!) ज़बानी रटी हुई है! एक दौर था जब मैं कुंबले के एक-एक विकेट को गिना करता था. मैं उसकी ही वजह से स्पिनर बना (अपनी गली क्रिकेट का ऑफ़ कोर्स!) और उसके होने से मुझे दुनिया कुछ ज्यादा आसान लगती थी. क्लास में बिना होमवर्क किए जाने के डर से कुंबले की बॉलिंग निजात दिलाती थी. संजय जी की डांट से कुंबले बचाता था (मुझे ऐसा लगता था). एक self-confidence आता था मेरे भीतर जो ये अनिल कुंबले नाम का शक़्स देता था. चाहे कुछ हो जाए.. चाहे मैच में स्कोर 200-1 हो लेकिन इसकी बॉलिंग में फर्क नहीं देखा कभी… कभी कभी लगता है कि ये दौर आज नही ख़त्म हुआ है, ये दौर तो बहुत पहले जा चुका. लेकिन एक भरम हम बनाकर रखते हैं जैसा तुमने कहा. आज वो टूट गया… टाईटन कप.. सहारा कप.. Independence cup.. टाईटन कप में कुंबले और श्रीनाथ की वो लास्ट पार्टनरशिप याद है! उस मैच में सचिन को मैन-ऑफ़-दी-मैच मिला था लेकिन बाद में सचिन ने कहा था कि मैं तो मैच को बिना जिताए आउट होकर आ गया था, मैच तो इन दोनों ने जिताया है. मैन-ऑफ़-दी-मैच तो इन्हें मिलना चाहिए. और सबने कहा था, मैच बंगलौर में था ना.. आख़िर शहर के लड़के ही स्टार बने हैं! और फिर वो फाइनल.. क्या दिन थे यार! आज लगता है मैं बड़ा हो गया यार. बचपन ख़त्म हुआ… * * *वरुण:~* हाँ…मैं बचपन में बहुत मोटा था और तेज़ बॉलिंग तो कर ही नहीं सकता था. ऐसे वक्त में मुझे मेरा हीरो मिल गया था - कुंबले. दो लम्बी डींगें भरो, हाथ को हवा में ऊँचा ले जाओ, और गेंद छोड़ते समय ऊँगली से हल्का सा झटका या ट्विस्ट दो…लेग-स्पिन नहीं तो ऑफ़-स्पिन तो हो ही जाती थी. और गेंद करने से पहले, हाथ में गेंद को घुमाते हुए उछालना… उस वक्त लगता था हम भी कुंबले हैं. लगता था बैट्समैन अब हमसे भी डर रहा होगा. मुझे आज तक हाथ में वैसे गेंद घुमाने का शौक है… और एक अजीब सा confidence आता है अपने अन्दर. और सही कहते हो- वो वाला दौर कब का जा चुका. हम बस उसके illusion में जी रहे हैं… और वो भी टूटता जाता है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081106/f674bbc4/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Nov 7 14:35:03 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 7 Nov 2008 14:35:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkrOCljeCksuClieCklyDgpJXgpYsg4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJfgpJ/gpLAg4KSX4KSC4KSX4KS+IOCkleCkviDgpLk=?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWN4KS44KS+IOCkruCkvuCkqOCkqOCkviDgpLjgpLngpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWIID8=?= Message-ID: <829019b0811070105h5a907185o36d7967b0f70587f@mail.gmail.com> हंस के ताजा अंक में मुकेश कुमार ने अपने लेख मीडिया की भट्ठी में आतंकवाद में ब्लॉग को मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा माना है। मुकेश कुमार का ये कोई अपना मुहावरा नहीं है। इसे उन्होंने पहले ही संदर्भ देकर स्पष्ट कर दिया है। कमलेश्वर के संपादन में गंगा नाम से एक पत्रिका निकलती थी जिसमें गंगा स्नान बोलकर एक स्तंभ हुआ करता था। उस स्तंभ में मीडिया की पोल-पट्टी खोली जाती थी। मुकेश कुमार ने वही से ये मुहावरा थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ ब्लॉग के लिए इस्तेमाल किया है। हालांकि मुकेश ने ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि ये मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है तो भी इन्हें भी अभिव्यक्ति मिले तो अच्छा है। ऐसा कहते हुए उन्हें इस बात की भी आशंका जताई है कि संभव है कि बहुत से लोगों को इस ब्लॉग की कुछ सामग्री व्यक्तिगत कुंठाओं का उगलदान लगे, क्योंकि कई बार भाषा का संयम नदारद हो जाता है। इस बात की चर्चा हम बहुत पहले ही कर चुके हैं। सुशील कुमार सिंह के मामले में इसे हमने कई टिप्पणीकारों की बातों को साथ जोड़ते हुए देखा है। इसे फिलहाल खींचने की जरुरत नहीं है। यहां हम इस बात पर विचार करें कि क्या मुकेश कुमार के एक मुहावरे से कि ब्लॉग मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है से इस बात को स्टैब्लिश करने की कोशिश है कि ब्लॉग में मीडिया की गटर का ही एक बडा़ हिस्सा उडेला जा रहा है या फिर इसमें कुछ अलग किस्म की बातें भी है। ये गटर की सामग्री न होकर अलग किस्म की रचनात्मकता है। अविनास ने इस सवाल का जबाब कथादेश के अगस्त ०८ अंक में कुछ हद तक दिया है। जब मैंने इस सवाल को लगातार उठाया कि न्यूज चैनल के बड़े दिग्गज ब्लॉगिंग क्यों करते हैं। इसके पहले रवीश कुमार ने भी सामयिक मीमांसा में छपे लेख-हिन्दी ब्लॉगिंगः दूसरी अभिव्यक्ति की खोज में अपनी बात रखते हुए कहा-पूरी घटना को मिनट-दो मिनट में समेटना होता है। खबरों के लिए देशभर में घूमते रहना होता है। इस क्रम में कई चीजें होती हैं जिसका कि इस्तेमाल हम नहीं कर पाते। संभव है ये समय या फिर बाकी चीजों के दबाब के कारण होता हो। लेकिन इस बची हुई चीजों का इस्तेमाल ब्लॉग करते हुए हो जाता है। यानि ब्लॉग में वो हिस्सा भी सामने आता है जो कि मेनस्ट्रीम की मीडिया में आने से रह जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि चैनल या अखबार को जिस मुद्दे पर स्टोरी देनी होती है, उसे कवर करने के दौरान उसकी प्रकृति से बिल्कुल अलग किस्म की बात दिमाग में आती है, ब्लॉग में उसे शामिल कर लिया जाता है। इस बात से रवीश कुमार की बात को जोड़कर देखें तो मीडिया में काम करते हुए बी कई चीजों को सामने न ला पाने की छटपटाहट पत्रकार को ब्लॉग की ओर मुड़ने को विवश करती है। इसी क्रम में ऐसा भी होता है कि पत्रकार की व्यक्तिगत परेशानी भी यहां पर टांक ली जाती है। इसलिए मीडिया के विरोध में गटर की गंगा सुनने में अच्छा लगने के बिना पर ब्लॉग को इसका हिस्सा मान लेना बहुत मुफीद नहीं है। मुझे नहीं लगता कि जिस लापरवाही के साथ गटर में चीजें फेंकी जाती है, उसी लापरवाही से कोई ब्लॉगर और वो अगर पत्रकार है तो उसे ब्लॉग पर फेंकता है। वो उसे सद्इच्छा से, स्ट्रैटजी से या फिर भीतर की बेचैनी के साथ पहले संजोता है, उसे ढोते चलता है और तब हमारे-आपके सामने रखता है. इसलिए गटर का मुहावरा सुनने में अच्छा लगते हुए भी संदर्भ और प्रयोग के लिहाज से फिट नहीं बैठता. लेकिन इसमें अच्छा बात है कि मुकेश कुमार ने ऐसा प्रयोग करते हुए भी इसकी होने औऱ विकसित करने की अनिवार्यता का पक्ष लिया है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-418353 Size: 7576 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081107/1a06621a/attachment.bin From chauhan.vijender at gmail.com Sat Nov 8 22:26:14 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Sat, 8 Nov 2008 22:26:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkm+CkvuCkpOCljeCksOCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSl4KWC4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCksuCkv+CkuOCkoeCkvOClhyDgpJrgpYfgpLngpLDgpYcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkruClh+CksOClhyDgpKHgpLA=?= Message-ID: <8bdde4540811080856i24bfb99dh8ac413c1f695cd9d@mail.gmail.com> अपने छात्रों के थूक से लिसड़े चेहरे के मेरे डर एस ए आर जीलानी हमारे विश्‍वविद्यालय के ही अध्‍यापक हैं बल्कि वे दरअसल उसी कॉलेज में अरबी भाषा पढ़ाते हैं जिसमें मैं हिन्‍दी, केवल समय का अंतर है। मैं प्रात: काल की पारी के कॉलेज में हूँ जबकि जीलानी सांध्‍य कॉलेज में हैं। वरना कॉलेज की इमारत, इतिहास, संस्‍कृति एक ही हैं। स्‍टाफ कक्ष के जिन सोफों पर सुबह हम बैठते हैं शाम को आकर वे बैठते हैं। सेमिनार रूम, गलियारे सब एक ही तो हैं। विश्‍वविद्यालय परिसर के जिस संगोष्‍ठी कक्ष में डा. जीलानी के मुँह पर थूक दिया गया उनसे बदतमीजी की गई उसमें जाकर बोलना सुनना हमारा भी होता रहता है। गोया बात ये है कि कल से हमें लग रहा कि बस ये संयोग ही है कि जीलानी का मुँह था, हमारा भी हो सकता था। जीलानी हमारे मित्र नहीं है, जब से उन पर जानलेवा हमला करवाया गया था तबसे सुरक्षा की सरकारी नौटंकी के चलते वे संयोग भी कम हो गए थे कि वे सामने पड़ जाएं तो दुआ-सलाम हो जाए पर इस सबके बावजूद हमें कतई नहीं लगता...कि वे हमसे अलग हैं। हम इस थूक की लिजलिजाहट अपने चेहरे पर कँपकँपाते हुए महसूस कर रहे हैं। कक्षा में कभी कोई विद्यार्थी (हमारे भी और जीलानी के भी..छात्र तो एकसे ही हैं न) हमसे असहमत होकर कभी अटपटा, या थोड़ा अधिक उत्‍साह या कक्षा की गरिमा से इधर उधर सा विचलित होता हुआ कह बैठता है तो हम हल्‍का सा चुप हो जाते हैं, ऑंख उसकी ओर गढ़ा सा कर देखते भर हैं..कभी नही हुआ कि उसे महसूस न हो जाए कि असहमति ठीक है पर वे इस तरह नहीं बोल सकते। बात को गरिमा से ही कहना होगा। पर अब कल क्‍या होगा...मुझे गोदान पढ़ाना है मुझे लगता है कि राय साहब व होरी एक ही तरह मरजाद के मिथक के शिकार भर हैं...लेकिन अगली पंक्ति के सौरभ को लगता है कि दोनों को एकसा नही माना जा सकता ..एक शोषक है दूसरा शोषित। पर आज मुझे डर लगता है मैंने अपनी बात कही..उसे पसंद नहीं आई तो अब वो कहीं..मुझ पर थूक तो नहीं देगा न। जीलानी साहब के मुँह पर तो थूक दिया न, सौरभ न सही कोई और विद्यार्थी था क्‍या फर्क पड़ता है। जीलानी और हममें कोई बहस नहीं हुई पर मैं उनकी विचारधारा से सहमति नहीं रखता...अगर बहस होने की नौबत आती तो अपनी बात कहता, उनकी सुनता..शायद असहमत ही र‍हते पर...बात करते। अब उनसे बात नहीं कह सकता...मेरी बात दमदार लगी तो अपनी सौम्‍य सी मुस्‍कान के बाद कहेंगे कि अगर इस बात से मैं सहमत नहीं हुआ तो क्‍या आप भी मुझ पर थूकेंगे। जिन्‍हें ये राष्‍ट्र की समस्‍या लगती है लगे...मेरे लिए नितांत निजी कष्‍ट है मुझसे मेरे ही कार्यस्‍थल पर आजाद होकर काम करने के, बच्‍चों को पढ़ाने का हक मुझसे इस लिजलिजे थूक ने छीन लिया है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081108/204429ba/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Nov 9 11:23:30 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 9 Nov 2008 11:23:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSc4KSq?= =?utf-8?b?4KWH4KSv4KWA4KSc4KWAIOCkj+CklSDgpJXgpLLgpL4g4KSa4KWI4KSo?= =?utf-8?b?4KSyIOCkluCli+CksuCkv+CkjyDgpKrgpY3gpLLgpYDgpJw=?= Message-ID: <829019b0811082153y719b44ber904d830b84967176@mail.gmail.com> *वाजपेयीजी एक कला चैनल खोलिए प्लीज* कथादेश के नबम्बर अंक में रवीन्द्र त्रिपाठी ने अशोक वाजपेयी के नाम एक खुला पत्र लिखा है। वही अपने वाजपेयीजी जो साहित्य की लॉन में राजनीति, समाजशास्त्र और इसी तरह दूसरे डिसीप्लीन के खोंमचे लगाने से लोगों को मना करते हैं। वो नहीं चाहते कि जो साहित्य टहलने या टेनिस खेलने की जगह है वहां लोग राजनीति, समाज, शोषण और हाय रे देखो वो मरा, वो गया कि हांक लगाते फिरे। रवीन्द्र त्रिपाठी ने इनसे एक कला चैनल खोलने या फिर इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है। रवीन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि- *वाजपेयीजी, मैं नहीं जानता कि आप टेलीविजन के बारे में क्या निजी विचार रखते हैं। वाजपेयीजी, आमतौर पर हिन्दी के जिन बुद्धिजीवियों से मेरा बौद्धिक आदान-प्रदान का संबंध रहा है उनमें से ज्यादातर टेलीविजन के बारे में गंभीर राय नहीं रखते। दुर्भाग्य से ऐसा इसलिए हुआ है कि निजी टेलीविजन चैनलों की आपसी होड़ ने उसे सनसनीपूर्ण अतिरेक का पर्याय सा बना दिया है। फिर भी यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि टेलीविजन की संभावनाएं अभी पूरी तरह तलाशी नहीं गयी है।....* आगे रवीन्द्र त्रिपाठी की बात रखूं इसके पहले अपनी तरफ से जोड़ता हूं कि हिन्दी का बौद्धिक समाज न केवल टेलीविजन के प्रति गंभीर राय रखते हैं बल्कि जो इसकी आलोचना और इसके विमर्श में लगे हैं, उन्हें भी हल्के ढंग से लेते हैं। संभव है ऐसा इसलिए भी है कि आलोचना करनेवाले भी टीवी पर स्टीरियोटाइप से बात करते हैं अगर गंभीरता से बात करने की कोशिश करते हैं तो मार्क्स को इस कदर लादने पर आमादा हो जाते हैं कि दस-बीस पन्ने के बाद टीवी गायब हो जाता है औऱ सारी बहस पूंजी, उत्पादन और उसका समाज पर पड़नेवाले प्रभाव पर आकर टिक जाती है। बहुत हुआ तो एडोर्नो की कल्चर इन्डस्ट्री के आजू-बाजू फेरे लगाकर दम मार लेते हैं। वो साठ के बाद या फिर दूरदर्शन के आगे बढ़ ही नहीं पाते। बढ़िया चैनल के नाम पर वो दूरदर्शन को रख देते हैं. नतीजा ये होता है कि अंत तक आते-आते ये साबित कर देते हैं कि निजी हाथों टीवी की साकारात्मक छवि पेश की ही नहीं जा सकती.और दुर्भाग्य तो ये है कि कई बुद्धिजीवी टीवी को बिना देखे-समझे ही दुत्कारने लगते हैं। अकड़कर कहते हैं, मैं तो कभी टीवी देखता ही नहीं। उनकी सारी समझ टीवी क दरकिनार करके विकसित हुई है। संभवतः यही वजह है कि हन्दी समाज- ने अभी तक टीवी में बड़ी संभावना की खोज नहीं की है। वो अभी भी स्त्रीन पर आने के बजाय जोड़-तोड़ से किताब छपवाने में भरोसा रखते हैं। ये जानते हुए भी कि जिसके लिए वो किताब लसिख रहे हैं, शायद ही व इस किताब को पढ़ पाएगा य फिर उसकी हैसियत होगी कि वो इसे खरीद सके। आगे उन्होंने कहा- *मैं इस ओर आपका और साथ ही बैद्धिक समुदाय की भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि हिन्दी में कलाओं के संबंधित एक टेलीविजन चैनल की जरुरत है और ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मिलकर सामूहिक रुप से एक कला चैनल की शुरुआत करें तो उससे कलाओं का भी लाभ होगा और सहृदयता का विस्तार भी।* रवीन्द्र त्रिपाठी ने जो अनुरोध किया है वो आम कलाप्रेमियो, दर्शकों और कला, साहित्य और संस्कृति को लेकर भला सोचनेवालों के लिए डेमोक्रेटिक है। अगर वाजपेयीजी सहित दूसरे लोग भी इस दिशा में प्रयास करते हैं और चैनल खुल जाता है तो वाकई हम जैसे घसीट-घसीटकर, बशर्मी से लिफ्ट मांगकर मंडी हाउस, आइआइसी और हैबिटेट सेंटर जानवाले लोगों को बहुत ही राहत मिलेगी। वहां जाकर फैब इंडिया में लदे-फदे लोगों को देकर कॉम्प्लेक्स पालने से मुक्ति मिलेगी। पहले इन्ट्री टिकट ले लें या फिर इसे छोड़कर केबलवाले का बिल भर दें, इस दुविधा से राहत मिलेगी। और वैसे भी हमारे जैसे देशभर में करोड़ों दर्शक बैठे हैं जो भीड़-भाड़ में जाने के बजाय सबकुछ टीवी पर ही देख लेने की जोड़-तोड़ में लगे होते हैं। और फिर फ्री इन्ट्री होने पर भी कहां संभव है कूद-कूदकर हौजखास औऱ लोदी रोड जाना। आने-जाने में ही सौ-डेढ़ सौ ढीला। जितना का बउआ नहीं उससे ज्यादा का झुनझुना। अब कहने को कईंया कह लीजिए लेकिन सच बात है कि कला और संस्कृति के नाम पर जो माहौल बन रहा है उसमें आदमी चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता। दुनियाभर के सांस्कृतिक संस्थान इस अर्थ में विस्तार और अभिरुचि पैदा करने के बजाय क्लास पैदा करने में लगे हैं जिसे देखकर ही लगेगा कि वो इस ऐसे-वैसे को शामिल होने ही नहीं देना चाहते. इसलिए चैनल की सोच के स्तर पर रवीन्द्र त्रिपाठी की बात जितनी व्यावहारिक है, प्रैक्टिस के लेबल पर उतनी ही परेशानी पैदा करनेवाली। इस मामले में उनका हिन्दी समाज के प्रति ज्ञान कच्चा है। अब जब चैनल खुल जाएंगे तो फिर मठाधीशी का क्या होगा। सभाओं में जो अकड़ बनती है उसका क्या होगा। औऱ किसने कह दिया कि इन संगोष्ठियों, प्रदर्शनियों में लोग कलाप्रेम की वजह से जाते हैं। एक नजर मारिए तो कि जो भी आयोजन होते हैं उसका वाकई उद्देश्य होता है कि कला का विस्तार होता है। आपको क्या लगता है कि चैनल खोलने के पहले बौद्धिक टोली इस एंगिल से विचार नहीं करेगी। रवीन्द्रजी आप तो उन्हें अपने ही पैर पर कुल्हाडी मारकर पालकी बनाने क अनुरोध कर रहे हैं...दधीचि का सपना आया था क्या। ऐसा कुछ नहीं होनेवाला।.. हिन्दी४ समाज ज्यादा से ज्यादा मैनुअल मीट में विश्वास रखता है, आप है कि उन्हें वर्चुअल होने की राय दे रहे हैं। हां कोई निजी कम्पनी चैनल खोले तो जमा लेगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081109/f1857390/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Nov 10 12:20:46 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 10 Nov 2008 12:20:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpLngpK4g4KS54KWAIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSC4KS14KS+4KSw4KWH4KSC?= Message-ID: <829019b0811092250x423204b6g873d45fcffc11563@mail.gmail.com> दीपक चौरसिया की कचहरी जो भी कहूंगा सच कहूंगा में अबकी बार पेशगी हुई स्मृति इरानी यानि घर-घर की तुलसी की। कहते हैं न कि डब्बे से हींग खत्म हो जाता है लेकिन उसकी खुशबू लम्बे समय तक रहती है। टीआरपी को लेकर क्योंकि सास भी कभी बहू तो बुरी तरह पिट गया लेकिन अब न्यूज चैनल है कि एक समय टीवी ऑडिएंस पर राज करनेवाली तुलसी को लेकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में जुटे हैं। वो उससे किरदार के बारे में, बालीजी फिल्मस के बारे में, एकता कपूर के बारे में औऔर इसके साथ ही उसकी पर्सनल जिंदगी के बारे में पूछते हैं। न्यूज चैनल की पूरी कोशिश है कि आठ साल से सिर आंखों पर लिए जानेवाली तुलसी को ऑडिएंस इतनी जल्दी न भुला दे। चैनल को इस बात की भनक लग गयी है कि अब ऑडिएंस पर बालिका वधू का रंग चढ़ना शुरु हो गया है और इसके मुकाबले वो तुलसी को भूलने लग गए हैं।...तो भी भागते भूत की लंगोट ही सही। अब जबकि तुलसी और पार्वती जैसी बहुओं ने सात-आठ साल राज किया है तो उसके भीतर से कुछ तो निकाला जाए जो कि बालिका वधू को पटखनी दे सके। स्टार न्यूज तो ऐसा और भी चाहेगा क्योंकि ये इसके सिस्टर चैनल स्टार प्लस पर आता रहा। प्राइम टाइम में दीपक चौरसिया की कचहरी में स्मृति की पेशगी इसी स्ट्रैटजी का हिस्सा है। न्यूज चैनलों के साथ एक बड़ी सुविधा है कि वो जो और जिस तरह के सवाल तुलसी, पार्वती या काकुली से कर सकते हैं उस तरह के सवाल आनंदी यानि छोटी बहू से नहीं कर सकते। मसलन वो आनंदी से नहीं पूछ सकते कि सीरियल खत्म होने के बाद आप किस राजनीतिक पार्टियों के लिए कैम्पेन करेंगे। सीरियल करते वक्त अपने पति और बच्चों के साथ कैसे एडजेस्ट किया। फैमिली और सेट दोनों को एक साथ मैनेज करना कितना मुश्किल रहा होगा। अब इंडिया टीवी की बात छोड़ दीजिए। उसके लिए पहले से सवाल बना है कि आनंदी पहली बार आपको जींस पहनकर कैसा लगा। कल दिनभर प्रोमो चलाया कि आज बालिका वधू पहली बार पहनेगी जींस। खैर, दीपक चौरसिया ने बहुत ही मुलायम होकर स्मृति से दुनियाभर के सवाल किए। दुनिया जहां के सवाल। उसके बारे में , कैसे उसे तुलसी का रोल मिला से लेकर कैसे एकता और उसके बीच दरार आए। तुलसी बहुत ही संभलकर जबाब देती और जिस बात का जबाब नहीं देना होता, मुस्कराने लग जाती। वो एकता के लिए किसी भी तरह के उल्टे-सीधे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहती। इसलिए जिस अंदाज में स्मृति बात करती, उसके शब्द दीपक चौरसिया शुद दे देते और कहते- ये मैं कह रहा हूं। लेकिन इतने मुलायम तरह से सवाल-जबाब में दीपक चैरसिया को बहुत मजा नहीं आ रहा था। उनके मिजाज से ये लेडिसाना माहौल बन गया था। वो चाह रहे थे कि कोई गहमा-गहमी हो। समृति कोई ऐसी बात करे, जिसे कि दो-चार घंटे फ्लैश चलाया जाए। ऑडिएंस को बताया जाए कि ये है देश की आदर्श बहू की आपबीती। लेकिन यहां पर भी तुलसी वैसे ही वैलेंस बनाती रही, जैसे कि वो क्योंकि में बनाए रखा था। स्मृति का कहना बिल्कुल साफ था कि मैं तुलसी बनकर भले ही लोगों की आंखो में आंसू भर देती थीलेकिन मैं नहीं चाहती कि लोग मेरी पर्सनल प्रॉब्लम को सुनकर भावुक हो जाएं। मैंने बहुत स्ट्रगल किए हैं लेकिन इसे कभी भी स्क्रीन पर आने नहीं दिए। स्मृति के पर्सनल इश्यू टीवी के बाहर है। न्यूज चैनल इसी टीवी के बाहर की चीज को फिर से टीवी पर लाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन तुलसी तो तुलसी है वो क्यों ऐसा होने देती। वो जानती है कि उसी एक-एक बात बाइट है। इसलिए अंत में जब दीपक चौरसिया ने अपने मिजाज औऱ मतलब की बात के लिए स्मृति के लिए पूछा- आप जिस पार्टी से जुड़ी है, उसमें तो आए-दिन उठापटक चलते रहते हैं, कोई किसी की टांग खींच रहा है तो कोई किसी को गिराने में लगा है। आप ये सब कैसे मैनेज करेंगी। मतलब ये कि क्या तुलसी राजनीति में टिक पाएगी। स्मृति का बहुत ही मैच्योर जबाब था- राजनीति से ज्यादा राजनीति टीवी में राजनीत होती है। अगर इस टीवी में इंटरटेन्मेंट सहित न्यूज चैनलों को भी शामिल कर लें तो वाकई स्मृति ने बहुत ही अंदर की बात कह दी थी जिसे कि दीपक चौरसिया सहित देश का कोई भी पत्रकार जिसकी दुकान जम गयी है कि कोई उसके अंदर की बात जाने। स्मृति मीडिया के मोटे तिरपाल में आम ऑडिएंस को भीतर झांकने के लिए एक छेद बनाकर चली गयी।... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-8985 Size: 9058 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081110/1138196e/attachment.bin From ravikant at sarai.net Mon Nov 10 15:34:58 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Nov 2008 15:34:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [BBC] nida fazli Message-ID: <200811101534.59148.ravikant@sarai.net> शुक्रिया शशिकान्त जी जिन लोगों ने बीबीसी हिन्दी पर निदा फ़ाज़ली के हालिया आलेख नहीं देखे हैं, वे यहाँ जाकर देख सकते हैं. रविकान्त कल्चर तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/09/070927_nida_column.shtml निदा फ़ाज़ली शायर और लेखक मेरी बेटी का नाम तहरीर है. तहरीर अरबी भाषा का शब्द है. यह शब्द अरब के रेगिस्तान से चल कर गंगा के मैदान में आया और हिंदुस्तानी बोली में घुलमिल गया. इसे फारस में दस्तावेज़ और आम जुबान में लिखावट भी कहते हैं, ये तीनों शब्द साथ-साथ एक ही शब्द कोष में रहते हैं. इनमें से लिखने वाले को इबारत के अनुसार जो लफ्ज़ जँचता है उसे आसानी से इस्तेमाल कर लेता है. इस चयन में कोई राजनीतिक मतभेद का दबाव नहीं होता, लेखक की समस्या केवल अभिव्यक्ति होती है. कौन सा शब्द कहाँ से चलकर कहाँ आता है और कैसे किस भाषा का हिस्सा बन जाता है, यह क़िस्सा भाषा विज्ञान का है. शब्दों के इस आदान प्रदान में शब्दों के उच्चारण भी बदल जाते हैं और कभी-कभी इनके अर्थ भी तब्दील हो जाते हैं. ग़ालिब के समकालीन लखनऊ के ख्वाजा हैदर अली आतिश थे. उनकी गज़ल की पंक्ति है, ‘मैं जहाँगीर हूँ तू नूरजहाँ बेगम है’ उनके युग में एक जानकार ने उनपर शब्द को ग़लत इस्तेमाल करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, यह शब्द तुरकिस्तान का है और तुर्की भाषा में इसे ‘बेगुम’ बोला जाता है. आतिश का जवाब था मैं तुर्की नहीं, अपने देश की भाषा में इसे लिख रहा हूँ. इसलिए बेगम उचित है. उलट अर्थ एक शब्द है गुमान, फारसी में इसे यक़ीन से उलट शक के अर्थ उपयोग किया जाता है. मीरा बाई ने एक कृष्ण-गान में इसे गर्व के अर्थ दिए हैं. 'मुरलिया काहे गुमान भरे'. शब्दों का मेलजोल, कल्चर के व्यापक रूप का एक अंग है और कल्चर तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं होता, लहरों में बहता सागर होता है, जिसमें विभिन्न दिशाओं से नदियाँ आती हैं और सा गर में सागर बनती जाती है. नदियों के नाम अलग-अलग होते हैं परंतु सागर को हमेशा एक नाम से ही पुकारा जाता है, जो सांस्कृतिक शुद्धता का राग आलापते हैं वे अपने एक डेढ मीटर के गज़ से धरती के विस्तार को नापते हैं. जो ग़लत है अंग्रेज़ों ने 1857 से 1947 तक भारत पर राज किया. हमने विदेशियों देश छड़ने पर विवश किया लेकिन उनके शब्द स्टेशन, साइकिल आदि उनके साथ नहीं जाने दिया. शब्दों का मेलजोल, कल्चर के व्यापक रूप का एक अंग है और कल्चर तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं होता, लहरों में बहता सागर होता है, जिसमें विभिन्न दिशाओं से नदियाँ आती हैं और सागर में सागर बनती जाती है. नदियों के नाम अलग-अलग होते हैं परंतु सागर को हमेशा एक नाम से ही पुकारा जाता है, जो सांस्कृतिक शुद्धता का राग आलापते हैं वे अपने एक डेढ मीटर के गज़ से धरती के विस्तार को नापते हैं. जो ग़लत है. हमारे रहन-सहन, खान-पान, नियम कायदे वक़्त के साथ बदलते रहते हैं, देशी-विदेशी, प्रभाव इनमें चलते रहते हैं. आलू लंदन से आया और हमारे भोजन का ज़रूरी हिस्सा हो गया. मिर्च पुर्तुगाल से चलकर आई और हमारे स्वाद में शामिल हो गई. सिख धर्म का पावन ग्रंथ भारत में एक में अनेकता की झाँकी की सबसे बड़ी मिसाल है, इस ग्रंथ में प्रथम पांच गुरूओं के उपदेशों के साथ भाषा और क्षेत्रीयता की सारी सीमाओं से दूर होकर, इसमें बनारस के कबीर भी हैं और चालपटन के फरीद भी हैं मराठी भाषी नामदेव भी है...इस तरह इसमें विभिन्न प्रांतों और संस्कृतियों की कुछ बोलिया शरीक हैं. फिराक़ साहब कल्चर की पलपल बदलती इस प्रकृति को बहुत सुंदर शब्द दिए हैं. सरजमीने-हिंद में अकवामे आलम (संसार की कौमें) के फिराक़ कारवां आते गए हिंदोस्ताँ बनता गया फिराक़ के इसी शेर के ख़याल को मजरूह ने अपने अंदाज़ में यूँ पिरोया है मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया हर तहज़ीब आते-जाते कारवाँ के मेल-मिलाप की कहानी सुनाती है और सुनने वाले को यह समझाती है कि मानव जीवन किसी कालखंड में लगी हुई तस्वीर नहीं है. चलते हुए समय के साथ बदलती हुई तहरीर है. इस तहरीर को पढ़ने के लिए खुली आँखों और रौशन दिमागों की ज़रूरत होती है. जो हमारे देश में शिक्षा की कमी या शिक्षा के राजनीतिकरण के कारण कम ही दिखाई देते हैं. राजनीति को सोचने वाले ज़ेहनों से अधिक बिना सोचे चलने वाली भेड़ बकरियों की ज़रूरत होती है, भेड़-बकरियों को इंसान बनाने का खतरा मोल लेना कोई नहीं चाहता, इन्हीं भेड़-बकरियों के सहारे जब धर्म के नाम पर देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान वजूद में आ गया तब जिन्ना भी पाकिस्तान की प्रथम लोकसभा में क़ायदे आज़म की सेक्यूलर तकरीर पर टिप्पणी करते हुए, पाकिस्तान के ही एक इतिहासकार शाहीद जावेद बर्क़ी ने अपनी पुस्तक 'फिफ्टी इयर्स ऑफ़ नेशनहुड' (पाकिस्तान निर्माण के पचास साल) में लिखा था, "क्या जिन्ना उस दो कौमी नज़रिए को नकार रहे हैं जो पाकिस्तान की बुनियाद है...क्या इससे यह नतीजा निकाला जाए कि जिन्ना ने मज़हबी दीवानगी को हवा देकर भारत को टुकड़ों में बँटवाया", इस टिप्पणी में शाहिद जावेद ने कई चुभते हुए सवाल पूछे थे, लेकिन जि न्ना अपने जीवन के अंत तक इन प्रश्नों के सीधे जवाब नहीं दे पाए. गुमनामों की सिर्फ़ गिनती है उनके नाम नहीं होते. पहले की तरह आज भी लोगों को बुश या सद्दाम हुसैन के दो नाम ही याद है. इराक या अफगानिस्तान में जो लाखों बेकसूर ख़त्म हुए उसकी कोई फहरि स्त आज तक सामने नहीं आई राजनीति के पास अपने कार्यों के तर्क होते भी नहीं...जिन्ना साहब की यह तकरीर उस वक़्त की है जब वह उद्देश्यपूर्ति के बाद, ली़डर से इंसान बने थे. लीडर से इंसान बनने के अंतराल में जो कुछ हुआ वह अब इतिहास का किस्सा है. इस किस्से में थोड़ा सा मेरा भी हिस्सा है. अपने इस हिस्से को मैं अपनी शायरी में टुकड़ा-टुकड़ा बयान करता रहता हूँ. कभी बिछड़ी हुई माँ के बहाने, कभी कराची में कब्र बने पिता के बहाने कभी उधर से उधर होते हुए लाखों के कत्लों ख़ून के ज़रिए. गुमनामों की तलाश लीडर या शासक के इन्सान बनने की यात्रा सराही जाती है और ऐसा होना भी चाहिए. लेकिन इस परिवर्तन से पहले जो कुछ हो चुका होता है उसकी प्रशंसा नहीं होती उस पर केवल आंसू ही बहाए जा सकते हैं. सम्राट अशोक भी अशांति से निकलकर शांति की ओर आए थे, लेकिन उनका यह सफ़र कालिंग की युद्ध में तीन लाख जीती-जागती लाशों से गुज़रने में पूरा हुआ था. यह और बात है इति हास में अशोक सम्राट हुए और तीन लाख उधर और उधर के सिपाही बारहबाट हुए. मेरा एक शेर है, तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी गुमनाम जो हुए हैं वह लश्कर तलाश कर इन गुमनामों की सिर्फ़ गिनती है उनके नाम नहीं होते. पहले की तरह आज भी लोगों को बुश या सद्दा म हुसैन के दो नाम ही याद है. इराक या अफगानिस्तान में जो लाखों बेकसूर ख़त्म हुए उसकी कोई फहरिस्त आज तक सामने नहीं आई. कही शिया-सुन्नी के विवाद पर आम आदमी मरते हैं, कही हिंदू-मुस्लिम बनकर जान से गुज़रते है...कहीं ईसाइयत और इस्लाम को जंग का मुद्दा बनाया जाता है कहीं कोल-सफ़ेद का झंडा उठाया जाता है-मगर यह सारा खेल तमाशा मुट्ठी भर लोगों के द्वारा रचा या जाता है. मेरी बेटी तहरीर की माँ गुजरात की हिंदू है. वह जिस स्कूल में जाती है उसे ईसाई मिशनरी चलाती है और वह बिल्डिंग में जिन अपनी उम्र के बच्चों के साथ वक़्त बिताती है उनके माता पिता कई धर्मों, कई भाषाओं और प्रांतों के हैं. इस हिसाब से उस की परवरिश में थोड़ा सा हिंदुत्व है, थोड़ा सा इस्लाम है थोड़ी सी ईसायत है, थोड़ा सा बौद्धमत है और थोड़ी सी गुरुनानक की रूहानियत है. और वह जिन मूल्यों के साथ बड़ी हो रही है उनका नाम इंसानियत है. अंग्रेज़ी भाषा के कवि वर्ड्सवर्थ की एक कविता की पंक्ति है, 'चाइल्ड इज़ दी फ़ादर ऑफ मैन' (बच्चा बड़ो का उस्ताद होता है) यह पंक्ति जब पढ़ी थी उस समय इसका अर्थ साफ़ नहीं था, लेकिन एक दि न तहरीर की बात सुनी तो पंक्ति का अर्थ भी खुला और कवि की सच्चाई पर यकीन भी आया. हुआ यूँ, एक दिन वह मेरे घर के किचन में, अपनी माँ के छोटे से मंदिर के सामने हाथ जोड़े नज़र आई. मैं जब अपनी लाइब्रेरी की तरफ़ जा रहा था तो मेरी नज़र उस पर पड़ी. उसे इस रूप में देखकर मैंने उससे मजाक़ में पूछा...क्या कर रही है, उसने आँखे खोलकर गंभीरता से उत्तर दिया, "जयजय कर रही हूँ." मैंने उसके जवाब को सुनकर आवाज़ बदल कर कहा, "जयजय नहीं अल्ला-अल्ला करो". मेरी बात सुनकर वह उस वक़्त तो खामोश रही...लेकिन जब मैं अपनी लाइब्रेरी में यगानाचंगेज़ी की एक ग़ज़ल का मक़्ता ( वह शेर जिसमें शायर अपना उपनाम इस्तेमाल करता है) पढ़ रहा था, कृषण का हूँ मैं पुजारी अली का बंदा हूँ यगाना शाने ख़ुदा देखकर रहा न गया तो वह खामोशी से मेरे पास आई और उसने कहा, "पापा अल्ला और जयजय एक ही होते हैं." From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Nov 11 13:23:23 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Tue, 11 Nov 2008 13:23:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSVIOCkqOCkiCDgpKrgpYDgpKLgpLzgpYAg4KSV4KWAICjgpKbgpY0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSk4KWA4KSvIOCkleCkvuCkteCljeCkr+Cli+CkpOCljQ==?= =?utf-8?b?4KS44KS1KQ==?= Message-ID: <196167b80811102353n7b602110o176ffec5ad59be0f@mail.gmail.com> दिशा फाउण्डेशन का आमंत्रण दस्तक नई पीढ़ी की (द्वितीय काव्योत्सव) 15 नवम्बर 2008 सायं 5:30 बजे, हिन्दी भवन, 11, विष्णु दिगम्बर मार्ग, नई दिल्ली सान्निध्य श्री जगदीश मित्तल, राष्ट्रीय संयोजक-राष्ट्रीय कवि संगम अध्यक्षता श्री उदय प्रताप सिंह, संसद सदस्य और प्रख्यात कवि मुख्य अतिथि क॰ तेजेन्द्र पाल त्यागी, वीर चक्र विजेता आशीर्वचन श्री जैमिनी हरियाणवी, प्रख्यात हास्य कवि डा॰ गोविन्द व्यास, वरिष्ठ कवि एवं मंत्री हिन्दी भवन श्री कृष्ण मित्र, प्रख्यात ओज कवि आमंत्रित कवि: आशीष कुमार 'अंशु', कुमार पंकज, बबीता अग्रवाल, बलजीत कौर तन्हा, पदमिनी शर्मा, कुमार वैभव, प्रबल पौद्दार, अनीश भोला, श्रीकांत श्री, सौरव भारद्वाज, कुलदीप आजाद, जितेन्द्र प्रीतम, शेखर अग्रवाल, शिवानन्द वशिष्ठ, स्पर्श जैन कार्यक्रम जलपान 5:30 सायं कवि सम्मेलन 5:50 सायं स्नेह भोज 8:40 रात्रि VISIT MY BLOG PAGE: www.ashishanshu.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081111/456736dd/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Nov 11 18:37:57 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 11 Nov 2008 18:37:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hindi anuvad group Message-ID: <200811111837.57951.ravikant@sarai.net> जिन लोगों को हिन्दी भाषा या अनुवाद में दिलचस्पी है, वे इस चिट्ठे को देख सकते हैं, इसके मालिक एक गूगल ग्रुप भी चलाते हैं, जो अनुवाद पर ही केन्द्रित है: http://hinditathaakuchhaur.wordpress.com/ रविकान्त From vineetdu at gmail.com Wed Nov 12 15:00:24 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 12 Nov 2008 15:00:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KS1IOCkhuCkr+Cli+CklyDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCksuCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS84KSV4KS/4KSv4KS+4KSCIOCkreClgCDgpLngpYgg4KSq4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSq4KWC?= Message-ID: <829019b0811120130vf80e20bhffa8a0210b9634a4@mail.gmail.com> चुनाव आयोग की अपील कम विज्ञापन इन दिनों लगभग सारे अखबारों में छाया हुआ है- वोट कीजिए, पप्पू बनने से बचिए। आयोग ने पप्पू कान्ट डांस स्साला का रचनात्मक उपयोग करने की कोशिश की है औऱ इसी क्रम में लड़कियों को भी पप्पू बना दिया है। हिन्दी एक दैनिक अखबार में एक लड़की की तस्वीर है। उसे जींस, टॉप में दिखाया गया है। लुकवाइज वो मॉड है जो कि आमतौर पर दिल्ली की लड़कियां होती है। तस्वीर में रेखाएं खींचकर बताया गया है कि देखिए वो किस तरह शहरी है लेकिन तस्वीर से ये भी जाहिर होता है कि वो वोट नहीं कर रही. उसे मतदान में कोई दिलचल्पी नहीं है। विज्ञापन का कहना है- पप्पू लड़की मत बनिए। दरअसल पप्पू की तरह ही कॉलाकियल फार्म में लल्लू, गदहा, उल्लू, चंपू औऱ ऐसे सैकड़ों शब्द हैं जो कि वेवकूफ या फिर डल टाइप के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कहीं-कहीं ऐसे लोगों को बोतल, ढक्कन,पगलेट, फुद्दू या चिरकुट भी कहा जाता है। आप से मूर्ख या डल के लिए पर्याय ही मान लीजिए। इन विशेषणों का प्रयोग अलग-अलग इलाकों में बदल जाता है। बिहार, झारखंड सहित उत्तर बिहार में बुडबक शब्द का प्रयोग आम है जिसका इस्तेमाल करते अक्सर लालू प्रसाद दिख जाते हैं। उनकी मिमिकरी करते हुए राजू श्रीवास्तव ने इसे और अधिक पॉपुलर बनाया। इस तरह के शब्दों के पीछे कोई समाजशास्त्रीय अवधारणा काम करती है, कोई चाहे तो कोई शोध कर सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि ये न तो किसी व्याकरणिक नियमों के तहत निर्मित शब्द है और न ही इसके पीछे कोई बहुत अधिक प्रयास होता है। कई शब्द तो ऐसे हैं कि बस बोलते-बोलते कॉमन हो जाते हैं और फिर उसे सिनेमा और मीडिया अपना लेते हैं। व्याकरण के लिहाज से भाषा-प्रयोग की बात करनेवाले लोगों के लिए ये दौर बहुत ही खतरनाक है। क्योंकि न तो इसके हिसाब से भाषा -प्रयोग किए जा रहे हैं और न ही व्याकरण को लेकर कोई काम ही हो रहा है। बहुत दूर मत जाइए, जो लोग भाषा या फिर हिन्दी साहित्य में हैं, उसकी पढ़ाई या फिर शोध कर रहे हैं, उनके यहां भी व्याकरण या फिर भाषा-प्रयोग के नियमों से संबंधित कोई किताब मिल जाए तो गनीमत है। आम बोलचाल की भाषा का जो तर्क है वो सब जगह धडल्ले से लागू है। कई बार तो बहुत ही मामूली कोशिश के बाद परिष्कृत शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने की कोशि बहुत ही कम होती है. भाषा को कबाड़ा करने का ठीकरा ले देकर हम मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों पर फोड देते हैं। लेकिन आप देखिए कि भाषा के प्रयोग, निर्माण और उसे एक बेहतर रुप देने के लिए सरकार के पास करोडों रुपये का इन्फ्रास्ट्रक्चर है, एक प्रोजेक्ट पर लाखों रुपये खर्च होते हैं लेकिन जो लोग वोट देने नहीं जाते, उनके लिए एक सही शब्द नहीं ढूंढ पाए। एक नाम को बाजार और विज्ञापन की तर्ज पर पप्पू बना दिया जिसमें लड़कियों को भी शामिल कर लिया है। आयोग के पास इसके लिए खूबसूरत तर्क है कि जिस तरह पप्पू( जाने न जाने तू फिल्म का पप्पू) के पास दुनिया भर की चीजें हैं लेकिन वो डांस नहीं सकता, इसलिए वो पप्पू है। उसी तरह हमने सोचा कि जो लोग पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, जिनके पास पैसा है वो ही वोट करने नहीं जाते। इसलिए हमने सोचा कि क्यों न इनके लिए पप्पू शब्द का इस्तेमाल किया जाए। मतलब ये कि अगर सरकारी विभाग को भी इसी तरह से शब्दों के प्रयोग करने हैं तो भाषा संबंधी द९ेश के सारे विभाग में ताला लगाकर, मंत्रालय को निरस्त करके सारे कर्मचारियों को एफएम के अलग-अलग स्टेशनों को सुनने का काम दे देना चाहिए क्योंकि भाषा को लेकर क्रिएटिविटी में इसके आगे कुछ भी नहीं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-434 Size: 7664 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081112/9ca7e7a6/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Fri Nov 14 12:42:13 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 14 Nov 2008 12:42:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KS54KSw?= =?utf-8?b?4KWBIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJrgpYcsIOCkruClgOCkoeCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJrgpYc=?= Message-ID: <829019b0811132312k239098a8if8e70470ea292830@mail.gmail.com> *नेहरु के बच्चे, मीडिया के बच्चे* ** आनंदी, जगदीसिया सहित दर्जनों टीवी के बाल कलाकार पिछले चार-पांच दिनों से हमसे हाथ जोड़कर माफी मांग रहे हैं। वो बार-बार कह रहे हैं कि बहुत जल्द ही हम आपको नए एपीसोड दिखाएंगे। नीचे स्क्रीन पर कैप्शन आ रहा होता है कि- क्यों आपके मनपसंदीदा कार्यक्रमों के नए एपिसोड नहीं दिखाए जा रहे हैं। दोनों चीजों को एक-दूसरे से जोड़कर देखें तो लगेगा कि इसके लिए जूनियर आर्टिस्ट ही पूरी तरह जिम्मेवार हैं जो कि अपनी मांगों को लेकर अडे हुए हैं। ये बाल कलाकार चैनल द्वारा लिखकर दी गयी स्क्रिप्ट का मतलब भी समझते होंगे। और अगर समझते भी हैं तो उनके पास इतनी समझ नहीं बन पायी है कि वो सही और गलत को अलगा सकें। रियलिटी शो, सोप ओपेरा सहित विज्ञापनों में आपको ऐसी कई बातें बच्चों के जुबान से सुनने को मिल जाएगी जिसे सुनकर आप एकदम से कहेंगे- जानते-समझते कुछ नहीं जो चैनलवालों ने बोलने के लिए कहा-बस बक दिया। ये बच्चे तो शुरु से ही एक बर्फ के गोले में ही बहक जाते हैं और अब जब उन्हें लाखों में रकम मिलने लगे हैं तो क्यों न बोले। पांच से छः साल का बच्चा हमारे आपके जैसे नौजवान लड़के-लड़कियों को अफेयर के टिप्स देते नजर आ जाएंगे। ये सिलेब्रेटी बच्चे हैं। ये पेज थ्री के बच्चे हैं। आज ही दि टाइम्स ऑफ इंडिया ने ऐसे बच्चों की आमदनी का ठीक-ठाक अनुमान लगाया है। हम उसके पर्सनल लाइफ के बारे में जानना चाहते हैं। सात साल की आयु में भी स्ट्रगल के किस्से सुनना चाहते है। ये बच्चे अभी से ही बाइट देने में सिद्धस्थ हो गए हैं, अभी से ही इनकी विपरीत लिंगों के प्रति कमेस्ट्री बनने लगी है।ये मीडिया के बच्चे हैं. धूल में लोटते हुए, रुपये-दो रुपये का फोकना( बलून) के लिए तीन-चार थप्पड़ खाने के बाद देश में लाखों बच्चे चीखते हैं, चिल्लाते हैं और अपनी मां को धमकी देते हैं कि- और मारोगी तो घर छोड़कर भाग जाएंगे। संभव है ये बच्चे नहीं जानते कि घर छोड़कर भागना क्या होता है। हजारों लड़के बच्चे सम्पन्न और रईसजादों के बच्चों को चॉकोबार खाते हुए देखकर अपने फुन्नू( लिंग) को मरोड़ते हुए चुपचाप खड़े रहते हैं। लड़कियां दिऔटे पर से दो रुपये चुराती है और बैनाथ साहू के यहां से लाल रीबन लेकर आती है। अभी वो मनमुताबिक फूल बना ही रही होता है कि पीछे से धांय-धांय उसकी मां धौल जमाती है। लगातार चिल्लाती है कि-कलमुंही रक्ख कर गए थे कि बिरजूआ के लिए संकटमोचन लाएंगे, दो दिन से पेट धोइना हो गया है और इसको सिंगार-पटार सूझा है। हजारों लड़कियां मार खाकर बिना बाल बांधे जिसे की हम मधुमक्खी का छत्ता कहते हैं, लिए देश में घूम रही है। ये नेहरु के बच्चे हैं।जी हां, चाचा नेहरु के बच्चे। बाल दिवस के मौके पर हम अपनी इसी मोटी समझ को लेकर स्टोरी बनाने में भिड़ जाते। मीडिया के भीतर जो हम जैसे लोग हैं, जो बात-बात में आम आदमी पर उतर आते हैं, जो समझते हैं कि घठ्ठे पड़े लोगों को स्क्रीन पर लाने से उनके दुख दूर हो जाएंगे, उन्हें ऐसे मौकों पर भजनपुरा, पुरानी दिल्ली, मुनिरका के पीछे की जुग्गी जैसे इलाकों में भेजा जाता। हमें वहां के बच्चों के बाल-दिवस को खोजना होता। हम उनके बीच ज्यादा से ज्यादा बदहाली देखने की कोशिश करते, उन्हें ज्यादा से ज्यादा विद्रुप दिखाने की कोशिश करते। इतना विद्रुप कि जिसे देखकर आज के समाज को संवेदना से ज्यादा घृणा का भाव पैदा हो। औऱ फिर सोफे पर बैठे अपने बच्चे को पुचकारने लग जाएं- उसके मुलायम गालों में खो जाएं। बदहाल बच्चे को खोजने की तिकड़म हम ऑफिस से निकलने के साथ ही शुरु कर देते। और इंडिया गेट के पास कोई न कोई बच्चा कुछ बेचते हुए, रिरियाते हुए मिल ही जाता। हम वहीं से शुरु हो जाते। इनकी बदहाली को दूर करने में दुनियाभर के एनजीओ लगे हैं। इस दिन हमें उनकी भी पीठ ठोकनी होती। हम वहां भी जाते और बॉस के बताए एनजीओ और उनके लोगों को स्टोरी में शामिल कर लेते। हम बच्चों के कपड़े का एक ही रंग दिखाते-मटमैला और अगर लाल-पीले रंग दिखाने होते तो उसके पहले एनजीओ के बैनर जरुर दिखाते जो कि इनके जीवन में रंग भरने का काम करते. हमारी स्टोरी बनती, कभी चलती और कभी नहीं भी चलती। लेकिन हम नेहरु के बच्चों पर जरुर स्टोरी बनाते। दूसरी तरफ आइ मीन यू नो कल्चर की लड़कियां और कुछ लड़के भी होते। जो टीवी और सिनेमा में काम कर रहे बच्चों पर स्टोरी बनाते। उन्हें अक्सर फील्ड में जाने की जरुरत नहीं पड़ती। नेट पर से दुनियाभर की चीजें खोज लेते। रियलिटी शो और फिल्मों के फुटेज लाइब्रेरी से मिल जाते। तारे जमीं पर और लिटिल चैम्पस इनमें खूब मददगार साबित होते। फिर देशभर के लिटिल चैम्पस( सारेगम के अलावे) को लाइन अप करने की कोशिश की जाती। अगर तीन-चार भी मिल गए तो इनका काम हो गया. पहले तो लाइनअप करने की बड़ी हाय-तौबा मचती थी, सारे चैनल लाइव ही लेना चाहते। लेकिन अब तो चैम्पस की संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि सबको कोई न कोई हाथ लग ही जाता है. इसके साथ ही चैनलों की म्यूचुअल अंडर्स्टैंडिंग भी पहले से बढ़ी है. काम बन जाता औऱ शाम होते-होते चैनल के स्क्रीन चमचमा उठते।उन चैम्पस से उनके टीवी सफर के बारे में पूछा जाता। अलग-अलग ब्यूरो में बैठे चैम्पस से एक-दूसरे के अफेयर के बारे में पूछा जाता। कोई चैम्पस ओवर स्मार्ट होता, दिनरात गाने में लगा रहता और बताता कि मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूं. किसी भी एंकर को इतनी हिम्मत या समझ नहीं होती कि वो उससे पूछे कि वो दिनभर में कितने घंटे की पढ़ाई करते हैं। उल्टे ऐसा कहने से उनकी तारीफों के पुल बांधने लग जाते। तब हमें नेहरु के बच्चों पर की गयी स्टोरी बहुत ही फीकी लगने लग जाती। ऑफिस के भीतर ऐसा महौल बनता कि उन बदरंग बच्चों की तरह हम और हमारी स्टोरी भी बदरंग हो जाती। हम आइएमसीसी से आए लोगों के साथ अफसोस जताते- इन बच्चों का कुछ नहीं सकता, ये बदरंग ही रहेंगे। पीछे से एक-दो लड़कियां चिल्लाती- अबे अपनी सोच, ऐसा ही स्टोरी करेगा तो तेरा भी कुछ नहीं होगा।..एक काम कर तू ऐसे चैनल खोज जहां नेहरु के बच्चों की सुध ली जाती है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-479 Size: 13245 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081114/dedd6b53/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Mon Nov 17 12:56:06 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 17 Nov 2008 12:56:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) November 17th 2008 Message-ID: <200811171256.06345.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) November 17th 2008 Date: सोमवार 17 नवम्बर 2008 10:18 From: "AbhiAnu" To: "AbhiAnu" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). इस सप्ताह * समकालीन कहानियों में भारत से मनोहर पुरी की कहानी क्रेडिट कार्ड * कैलाशचंद्र का व्यंग्य खरबूजे के रंग * पर्यटन में राजेन्द्र अवस्थी का आलेख हरे समंदर में मोतियों की माला * गंगाप्रसाद विमल का विवेचन ओदोलेन स्मेकल की कविता * हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध अशोक के फूल * पुनर्पाठ में- विनोद श्रीवास्तव * अंजुमन में- नीरज गोस्वामी * कविताओं में- शंभु चौधरी * दिशांतर में- अनिल प्रभा कुमार * मुक्तक में- डॉ. चंद्र प्रकाश वर्मा अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. Both Abhivyakti & Anubhuti revise on every Monday. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Tue Nov 18 12:16:53 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 18 Nov 2008 12:16:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSCIOCkpuCkviDgpLLgpL7gpKHgpLLgpYvgpIIg4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSW4KS+LSDgpKTgpYHgpK7gpY3gpLngpL7gpLDgpL4g4KSs?= =?utf-8?b?4KWH4KSf4KS+IOCkl+ClhyDgpLngpYg=?= Message-ID: <829019b0811172246nf981c69y61c55c8bdad1836d@mail.gmail.com> *जब मां दा लाडलों ने देखा- तुम्हारा बेटा गे है* ओह माइ गॉड, दो लड़कों के बीच के प्रेम को देखने के लिए इतनी मारामारी, एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकते लोग। बत्रा सिनेमा में घुसने के क्रम में जब मैंने ये लाइन कही तो मेरे आगे की तीन लड़कियां ठहाके मारकर हंसने लग गयी। वो पीछे मुड़कर देखना चाहती थी कि कौन बंदा है जो इतनी बेबाकी से अपनी बात कह रहा है। लेकिन जब तक वो मुड़ती, मेरी जगह प्रबुद्ध आ गया था और सारी क्रेडिट उसी के खाते चली गयी। मेले-ठेले, भीड़भाड़ इलाके में और खासकर जहां मामला इंटरटेन्मेंट का हो, मेरी तरह हजारों लोग हैं जो कुछ न कुछ कमेंट किया करते हैं। एसे में मां कहा करती है कि लड़कियों को देखते ही लड़के बौडा यानि बौरा जाते हैं. लेकिन यहां मैं येसब इसलिए कर रहा था कि कहीं मेरी नाजुक चप्पल इसे रेलम-पेल में शहीद न हो जाए। बत्रा में नंबर के हिसाब से सीटिंग अरेंजमेंट का बिसाब नहीं है, जिसको जहां सीट मिले, लपक लो। अब संयोग देखिए कि वो तीनों लड़कियां मेरी ही लाइन में बैठी। उनलोगों को इस बात का एहसास हो कि उनके बगल में जो लोग बैठे हैं, क्रिएटिव किस्म के लोग हैं, सिर्फ सिनेमा देखने की नीयत से नहीं आए हैं, यहां से जाकर ब्लॉग लिखेंगे, दूसरा अखबार में लिख मारेगा और तीसरा तो यूथ और सिनेमा पर रिसर्च आर्टिकल की तैयारी में जुटा है, प्रबुद्ध ने कहा- जानते हैं विनीतजी, कुछ लोग इसलिए आपाधापी मचा रहे थे कि कहीं पोलियोवाला विज्ञापन छूट न जाए। पोल्टू दा ने कहा और औरतें तो इसलिए मारामारी कर रही थी कि वो अंदर जाकर जल्दी से अपने पति को नागिनवाला विज्ञापन दिखा सके और कहे कि- चुनो किसको चुनना है, हमें या फिर शराब को। वो लोग पति का आंख खोलने के लिए मारामारी हो रही थी। इन सबके बीच मैं अपने को थोड़ा कॉन्शनट्रेट करने में लगा था। इन तीनों लड़कियों सहित आजू-बाजू के लोगों की प्रतिक्रिया सुनना चाहता था। फिल्म में जैसे ही नेहा यानि प्रियंका चोपड़ा ने अभिषेक और जॉन इब्राहिम से पूछा कि- इतने दिनों तक तुमलोग एक ही कमरे में रहे, तुमलोगों के बीच...मेरी मतलब है कि कभी...। तभी तीनों में से एक लड़की ने कहा- हाउ चीप। कोई लड़की कैसे किसी लड़के से ऐसा पूछ सकती है। कोहनी मारते हुए दूसरे से पूछा-बता न, तू पूछ लेगी। उनलोगों को जब लगा कि हम उनकी बातों को गौर से सुन रहे हैं तो कुछ ज्यादा जोर से ही बाते करने लगी। अब वो बातें कम और हमारे सामने क्योशचनआयर फेंक रही थी। प्रबुद्ध ने जबाब दागा- इसमें नया क्या है, हमारे हॉस्टल में तो कईयों की गर्लफ्रैंड कहती है और ठहाके लगाती है- पहले ही बता दो, पार्टनर के साथ कुछ चक्कर-वक्कर तो नहीं है। पता चला, एक सेमेस्टर बर्बाद भी किए और फिर तुम मासूम साबित हो जाओ. दोनों के किस लेने और पासपोर्ट के लिए ऐज ए कपल अप्लाय करने पर पीछ से एक लड़के ने कहा- आप लड़कियों को आएगा मजा। बहुत भाव खाती रही है अब तक। देखिएगा, बहुत जल्द ही सब लड़कियों का नेहवा वाला हाल होगा। हठ्ठा-कठ्ठा लड़का दोस्त तो बन जाएगा लेकिन बस देखने भर का, उसके लेके कोई सपना नहीं देख सकती है। हम पहले ही कहे थे आपको मर्द,मर्द होता है, बैठा नहीं रहेगा लड़कियों के भरोसे। दोख नहीं रहे हैं, कैसे दोनों फ्री माइंड से अपना काम कर रहे हैं और नेहवा है कि लसफसा रही है। एक ने समर्थन किया- बाबा, आप तो बेकार में यूपीएसी के पीछ पड़े हैं, गांव का खेत बेचिए और दोस्ताना एक्स बोलके फिल्म बनाइए। पब्लिक कमेंट्स की वजह से फिल्म की लाइन साफ-साफ सुनना मुश्किल होने लग गया था। फिल्म को समझने के लिए एकबार और देखने की जरुरत थी। पोल्टू दा लगातार कह रहे थे, तुमलोगों को पहले ही कहा- उपर देखते हैं लेकिन विनीतजी कहते है- अरे वहां कुछ नहीं मिलेगा। मसाला खोजने के चक्कर में इनको डीक्लास में घुसते एक मिनट भी नहीं लगता। तभी पीछे से फिर आवाज आयी- गूगल बाबा, इ दोनों हीरो जो कर रहा है न किराया पर घर लेने के लिए, वो हमारे गांव में भी खूब होता है। बाकी गांव में कोई स्वीकार नहीं करता कि ऐसा हमलोग करते हैं। इ दोनों सही में असली मर्द है, करेजा ठोककर कह रहा है कि हां- हम गे हैं। अब करे जिसको जो करना है. धीरे से एक ने कहा- आपको ये सब बात यहां नहीं करनी चाहिए, सामने आपकी भौजी लोग बैठी है, सुनेगी तो क्या सोचेगी। बंद ने तपाक से कहा- क्या सोचेगी, जब एतना ही आंख के कोर में पानी रहा तो घर में रहती, सीडी मंगाके देखती। सोचेगी कि लड़को से बराबरी भी करें और कुछ सुनना भी न पड़े तो ऐसे कैसे होगा। बाकी देखिएगा- धीरे-धीरे जो लोग हैं ,स्वीकार करने लगेंगे कि वो गे हैं. फिलिम का समाज पर असर तो होता ही है। सुबह एनडीटीवी इंडिया की रिपोर्ट है कि मुंबई में दोस्ताना फिल्म की एक स्पेशल शो आयोजित की गयी और फिल्म की वजह से लोगों में हौसला बढ़ा है। हरीश अय्यर इसके पहले अपनी बहन को कभी नहीं बताया कि वो गे हैं। लेकिन फिल्म आने के बाद जैसे ही बताया तो उसकी बहन ने पूछा कि- आप कौन से गे हो अभिषेक की तरह या फिर जॉन की तरह। एक महिला की बाइट थी कि- मेरा बेटा अमेरिका मे रहता है और वो गे है. स्क्रीन पर सबके सामने एक्सेप्ट करती है। निर्माता तरुण मनसुखानी का मानना है कि फिल्म के कारण लोगों का नजरिया बदला है। उम्मीद कीजिए कि अगर कोई ओसामा पर फिल्म बनाओ तो उसका हृदय परिवर्तन हो और वो किसी चैनल पर आत्मसमर्पण करता दिख जाए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081118/f8b26f01/attachment-0001.html From miyaamihir at gmail.com Thu Nov 20 04:57:06 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Thu, 20 Nov 2008 04:57:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCktuCkueCksCDgpJXgpYAg4KSc4KSX4KSu4KSXIOCkleClhyDgpK0=?= =?utf-8?b?4KWA4KSk4KSwIOCkueCliCDgpIXgpIHgpKfgpYfgpLDgpL4gOiDgpZ4=?= =?utf-8?b?4KS/4KSy4KWN4KSuIOCkuOCkruClgOCkleCljeCkt+CkviDgpKbgpLg=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSm4KS+4KSo4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: बहुत दिनों बाद थियेटर में अकेले कोई फ़िल्म देखी. बहुत दिनों बाद थियेटर में रोया. बहुत दिनों बाद यूँ अकेले घूमने का मन हुआ. बहुत दिनों बाद लगा कि जिन्हें प्यार करता हूँ उन्हें जाकर यह कह दूँ कि मैं उनके बिना नहीं रह पाता. माँ की बहुत याद आयी. रिवोली से निकलकर सेन्ट्रल पार्क में साथ घूमते जोड़ों को निहारता रहा और प्यार के उस भोलेपन/अल्हड़पन का एक बार फ़िर कायल हुआ. निधि कुशवाहा याद आयी. मेट्रो में उतरती सीढ़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए किसी लड़की के बालों की क्लिप सामने पड़ी मिली और मैं उसे अपना बचपन याद करता हुआ जेब में रख साथ ले आया. *दसविदानिया * आपके साथ बहुत कुछ करती है. ये उनमें से कुछ की झलक है. दसविदानिया हास्य फ़िल्म नहीं है. इसकी एक बड़ी ख़ासियत मेरी नज़र में यह है कि इसमें ज़्यादातर मुख्य किरदार अन्य हास्य फ़िल्मों की तरह कैरीकैचर नहीं हैं. आजकल यह फ़िल्म में हास्य पैदा करने का सबसे आसान तरीका मान लिया गया है. अमर कौल, विवेक कौल, राजीव जुल्का, नेहा भानोट, गिटारिस्ट अंकल, सेल्सवुमन पूरबी जोशी सभी सामान्य जीते-जागते हमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मिलते रहने वाले इंसान हैं जिनमें ना देखकर हँसने लायक कुछ है और ना ये बात-बात पर कोई जोक या पंच मारते हैं. हां कुछ कैरीकैचर हैं जैसे अमर का बॉस (सौरभ शुक्ला) जो हर वक्त कुछ ना कुछ खाता रहता है लेकिन यह उसी तरह का छौंक है जो सादा दाल को 'दाल मखनी' बना देता है. यह फ़िल्म तमाम प्रलोभनों के बावजूद अपनी ईमानदारी बनाकर रखती है और चारों तरफ़ एक ही दिशा में बहती हवा के बाद भी कोई गैरज़रूरी कॉमेडी का तड़का अपनी कहानी में नहीं लगाती. कहानी के साथ ईमानदारी और बॉक्स ऑफिस पर सफ़लता में सुशांत शाह ने ईमानदारी को चुना है और इस ईमानदारी को फ़िल्म ही नहीं फ़िल्म के प्रोमोस में भी बनाकर रखा है. यह बात तब और भी ख़ास हो जाती है जब यह पता चले कि अपनी पहली फ़िल्म बना रहे सुशांत शाह स्टार वन के मशहूर कॉमेडी शो 'दी ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो'और 'रणवीर, विनय और कौन' के निर्देशक हैं. दरअसल यह वहीं से निकली टीम है और फ़िल्म के कहानीकार अरशद सैयद इन दोनों धारावहिकों के भी प्रमुख पटकथा लेखक थे. और आप दसविदानिया में 'दि ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो' के अनेक चेहरों विनय पाठक, रणवीर शौरी, गौरव गेरा, पूरबी जोशी को पहचान सकते हैं. यह साफ़ करता है कि यह नई पीढ़ी बात को गंभीरता से कहना भी उतना ही अच्छे से जानती है जितना हँसाना. खोसला का घोंसला, मिथ्या , रघु रोमियो, मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डरजैसी फ़िल्में इस बात को पुख़्ता करती हैं कि इस हँसी के पीछे एक गहरा छिपा दर्द है जो सालता रहता है. एक उदासी है जो पसरी दिखायी देती है मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर के बीहड़/पीले/प्यासे कस्बों से दसविदानियामें बालकनी से दिखायी देती ऊंची-ऊंची इमारतों तक. आप अमर कौल को बरिश में भीगते हुए/ डमशिराज़ में आई लव यू कहते हुए देखें और आप समझ जायेंगे कि ऐसे मौकों पर कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं होती. न जाने इस बारिश में क्या चमत्कार था कि मैंनें देखा मैं भी अपनी आँखें पोंछ रहा था. मैज़िकल चार्ली चैप्लिनने कहा था कि उन्हें बारिश इसलिये भाती है कि उसमें कोई उनके आंसू नहीं देख पाता. दसविदानिया में अमर कौल को भी यूँ रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती और मुंबई की मशहूर 'बिन-मौसम-बरसात' आती है. किसी भी किरदार को उसकी तयशुदा स्पेस से ज़्यादा जगह नहीं दी गयी है और रणवीरजैसे कलाकार भी दस मिनट के रोल में आते हैं. ऐसे में शीर्षक भूमिका निभाते विनय के लिये यह वन-मैन-शो है. विनय की ख़ास बात यहाँ यह है कि एक बहुत ही 'आम' इंसान का रोल निभाते हुए भी उनकी स्क्रीन प्रेसेंस बहुत भारी है. लेकिन यह भारी स्क्रीन प्रेसेंस कहीं भी 'आम' इंसान वाली भूमिका की तय सीमा नहीं लांघती. वो एक मरते हुए आदमी का रोल करते हुए भी आकर्षक बने रहते हैं. लेकिन यह आकर्षण सिर्फ़ दर्शकों को बांधे रखने तक जाता है, रोल के साथ नाइंसाफ़ी तक नहीं. गौरव गेरा (विवेक कौल की भूमिका में) मुझे विशेष पसंद आये. उनके गुस्से में एक सच्चाई थी. उनकी अदाकारी में एक सच्चाई थी. शायद उनके किरदार में एक सच्चाई थी. और वहीं विवेक के साथ बातचीत में शायद अमर का किरदार सबसे अच्छी तरह खुलता है. एक छोटा भाई शिकायती लहजे में कहता है कि अगर माँ को मेरी शादी से परेशानी थी तो आप तो जानते थे कि मैं ठीक कर रहा हूं. फ़िर आपने मेरा साथ क्यों नहीं दिया? क्यों मुझे घर से निकाल दिया? और जवाब में अमर कहता है कि तू बता विवेक मैं क्या करता, तुझे घर से ना निकालता तो क्या माँ को घर से निकाल देता? शुक्रिया अरशद इतनी जटिलताओं और तनावों को इतने सरल शब्दों में (एक ही वाक्य में) व्यक्त कर देने के लिये. गौर से देखिये, अमर ज़िन्दगी से हारा हुआ इंसान नहीं है, उसने अपनी मर्जी से यह 'हार' चुनी है अगर आप उसे हार कहें तो. अगर उसे अपने 'सही' कहलाये जाने और किसी अपने की खुशी में से एक को चुनना हो तो वह बिना सोचे अपनों की खुशी चुनता है. 'गलत' कहलाया जाना चुनता है. एक 'हारा हुआ आदमी' कहलाया जाना चुनता है. यह एक ऐसे इंसान की कथा है जो अपनी मर्जी से एक 'आम' ज़िन्दगी चुनता है. और दसविदानिया देखने के बाद मैं इस आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी ज़िन्दगी (और वैसी ही आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी मौत) को 'हार' नहीं 'जीत' कहूंगा. विशेष तारीफ़ सरिता जोशी (माँ) के लिये. माँ जिन्हें यह परेशानी है कि टी.वी. के रिमोट (टाटा स्काई रिमोट!) में इतने सारे बटन क्यों होते हैं! माँ के लिये उनके बेटों का कहना है कि उन्हें आजतक कमीज़ के बटन के सिवा और कोई बटन समझ नहीं आया चाहे वो लिफ़्ट का बटन हो या घंटी का बटन. और यही माँ अपने बेटे की मौत की खबर सुनने के बाद पहली बार खुद लिफ़्ट से जाने की इच्छा प्रगट करती है. माँ कभी यह विश्वास नहीं करती कि उसका बेटा मरने वाला है (बेटे को भी यह विश्वास नहीं करने देती, जैसे उसका विश्वास ही मौत को जीत लेगा) लेकिन उनका खुद लिफ़्ट से नीचे जाने का फ़ैसला करना सच्चाई आपके सामने रख ही देता है. यह एक सीन इशारा कर देता है कि तमाम तांत्रिकों के चक्करों के बावजूद आख़िर में तो माँ भी जानती है कि क्या होने वाला है. जब अमर अपनी नयी कार में माँ को बैठाता है तो उनकी खुशी देखने लायक है. मैं यहाँ सरिता जोशी की 'ओवर-द-टॉप' खुशी को फ़िल्म के सबसे अच्छे सीन के तौर पर याद रखूँगा. फ़िल्म अपने कालक्रम को लेकर भी काफ़ी सजग है. अमर के दफ़्तर में चर्चा गरम है कि जब सभी टीम में अपने खिलाड़ी हैं (आया आई.पी.एल.का ज़माना!) तो सपोर्ट किसे करें? लेट 80s में बड़े होने वाले अमर और राजीव एक दूसरे के लिये 'गनमास्टर जी-नाइन' और 'गनमास्टर जी-टेन' हैं (जय हो 'गरीबों के अमिताभ' मिथुन की!) और नेहा-अमर की फ़्लैशबैक मुलाकात में पीछे 'मैनें प्यार किया'का पोस्टर विशेष उल्लेख की मांग करता है. फ़िल्म में कुछ ख़ामियां भी हैं जैसे राजीव जुल्का की पत्नी के रोल में सुचित्रा पिल्लई का नकारात्मक किरदार गैरज़रूरी था. जहाँ मौत जैसा नकारात्मक तथ्य आपके पास पहले से हो वहाँ फ़िल्म में बाकी सब सकारात्मक ही होना चाहिये. 'खोसला का घोंसला' की तरह ही एक बार फ़िर पुरानी तस्वीरों ने (तस्वीर ने) फ़िल्म में एक अहम भूमिका निभायी है. मैं दसविदानिया देखकर अपनी बचपन की तस्वीरों को फ़िर याद करता हूं. इस बार बनस्थली जाउँगा तो ज़रूर कुछ साथ ले आऊँगा. पुरानी तस्वीरें फ़्रेम में बंद यादों की तरह होती हैं. फ़ोर बाय सिक्स/पोस्टकार्ड साइज़/पासपोर्ट साइज़ में कैद सुनहरी यादें. ***** फ़िल्म के निर्देशक सुशांत शाह और विनय पाठक से एक प्रदर्शन पूर्व की गयी बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं. प्रश्नकर्ता अपने ही दोस्त वरुण हैं. जैसा आप जानते हैं वरुण भी इस 'टीम' का हिस्सा रहे हैं. आप वरुण समीक्षा यहाँ देख सकते हैं. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 17771 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081120/66352931/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Fri Nov 21 16:05:07 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 21 Nov 2008 16:05:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCktuCkueCksCDgpJXgpYAg4KSc4KSX4KSu4KSXIOCkleClhyDgpK3gpYA=?= =?utf-8?b?4KSk4KSwIOCkueCliCDgpIXgpIHgpKfgpYfgpLDgpL4gOiDgpZ7gpL/gpLI=?= =?utf-8?b?4KWN4KSuIOCkuOCkruClgOCkleCljeCkt+CkviDgpKbgpLjgpLXgpL/gpKY=?= =?utf-8?b?4KS+4KSo4KS/4KSv4KS+?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200811211605.07764.ravikant@sarai.net> शुक्रिया मिहिर, और दोस्ताना पर लिखने के लिए, विनीत, दीवान के हमारे मीडिया समीक्षकों ने बड़ी तेज़ी से परिपक्वता हासिल कर ली है, ऐसा लगता है. ऐसा मैं इन फ़िल्मों की कुछ अख़बारी समीक्षाएँ देखते हुए कह रहा हूँ. विनीत का आलेख समीक्षा न होकर फ़िल्म-दर्शन का समाजशास्त्र ज़्यादा है, जहाँ दर्शक यानी कि बत्रा के माहौल में लड़के-लड़कियाँ, एक-ूसरे के लिए पर्फ़ॉर्म करते हैं. सुधीर चंद्र ने भी पिछले रविवार की जनसत्ता में मज़ेदार टिप्पणियाँ की थीँ - दोस्ताना के बहाने समलैंगिकता पर. मुझे याद आता है एक बार दिल्ली विवि के एक छात्रावास में समलैंगिकता को लेकर एक वाद-विवाद आयोजित किया गया था जिसमें मैंने इसके 'जनप्रिय' होने की बात कही थी - जिस पर कुछ मित्रों ने आपत्ति की थी - जो मेरे ख़याल से एक डिनायल जैसी स्थिति है,. इसके उलट मुख्यधारा/अंग्रेज़ी पत्रकारिता के शोर-शराबे के चलते कई बार हमें लगता है कि यह एक पश्चिमी फ़ैड है - जिसे एक तरह से स्थानीयकृत करने की पहल शहरी गे-लेस्बियन समूहों और अब करण जौहर, आदि ने की है. पर हक़ीक़त, जैसा कि विनीत ने भी इशारा किया इस हौसले से कहीं ज़्यादा गहरा, स्थानीय रंग लिए हुए है. मैं इन दोनों फ़िल्मों को देखने के लिए प्रेरित महसूस कर रहा हूँ. रविकान्त गुरुवार 20 नवम्बर 2008 04:57 को, mihir pandya ने लिखा था: > बहुत दिनों बाद थियेटर में अकेले कोई फ़िल्म देखी. बहुत दिनों बाद थियेटर में > रोया. बहुत दिनों बाद यूँ अकेले घूमने का मन हुआ. बहुत दिनों बाद लगा कि > जिन्हें प्यार करता हूँ उन्हें जाकर यह कह दूँ कि मैं उनके बिना नहीं रह पाता. > माँ की बहुत याद आयी. रिवोली से निकलकर सेन्ट्रल पार्क में साथ घूमते जोड़ों को > निहारता रहा और प्यार के उस भोलेपन/अल्हड़पन का एक बार फ़िर कायल हुआ. निधि > कुशवाहा याद आयी. मेट्रो में उतरती सीढ़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेते > हुए किसी लड़की के बालों की क्लिप सामने पड़ी मिली और मैं उसे अपना बचपन याद > करता हुआ जेब में रख साथ ले आया. *दसविदानिया * > आपके साथ बहुत कुछ करती है. ये उनमें से कुछ की झलक है. > > > फ़िल्म के निर्देशक सुशांत शाह और विनय पाठक से एक प्रदर्शन पूर्व की गयी > बातचीत आप यहाँ > ashant-shah/>पढ़ सकते हैं. प्रश्नकर्ता अपने ही दोस्त वरुण हैं. जैसा आप जानते > हैं वरुण भी इस 'टीम' का हिस्सा रहे हैं. आप वरुण समीक्षा यहाँ > e-fun/>देख सकते हैं. From ravikant at sarai.net Tue Nov 25 17:57:32 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 25 Nov 2008 17:57:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLjgpKw=?= =?utf-8?b?4KSmIOCkteCkv+CktuClh+CktyA6IOClrCA6IOCkleClgeCkguCkteCksCA=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw4KS+4KSv4KSjIDog4KSo4KSIIOCkqOCkv+Ckl+CkvuCkuSA=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <200811251757.32243.ravikant@sarai.net> *vatsanurag.blogspot.com* se saabhaar. ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: सबद विशेष : ६ : कुंवर नारायण : नई निगाह में Date: मंगलवार 25 नवम्बर 2008 16:16 From: "anurag vats" *यह सबद की ओर से किए गए आग्रह से कहीं ज़्यादा अपनी भाषा के एक बड़े कवि-लेखक के सम्मान में लिखने की अन्तःप्रेरणा रही होगी जिसकी वजह से युवा कवि-लेखकों की इस टोली ने कुंवरजी के बहुविधात्मक कृतित्व पर इतना त्वरित लेखन किया। इनमें से पंकज चतुर्वेदी पहली बार ब्लॉग कि दुनिया में अपना रुख कर रहे हैं, उनका स्वागत ! गीत और गिरिराज ने कुंवरजी की कविता पर ख़ुद को एकाग्र किया है, जबकि प्रभात रंजन ने उनके एकलौते कहानी संग्रह के मध्यम से उनकी कहानियों के अनूठेपन की ओर इशारा किया है। * आग का वादा पंकज चतुर्वेदी कुंवर नारायण पिछले लगभग छह दशकों से रचनारत हैं। आज जब त्रिलोचन और रघुवीर सहाय हमारे बीच नहीं हैं, तो बेशक वह हिन्दी के सबसे बडे़ कवि हैं। मुक्तिबोध ने 1964 में ही उनके महत्त्व को पहचा नते हुए लिखा था कि वह 'अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना' के कवि हैं। मगर 1964 से 1994, यानी तीस वर्षों का लम्बा वक्फा ऐसा भी रहा है; जिसमें सतत रचनाशीलता के बावजूद कुंवर नारायण को हिन्दी आलोचना में वह सम्मान और शोहरत नहीं मिली, जिसके दरअसल वह हक़दार थे। उलटे, उनकी कविता की सायास उपेक्षा, अवमूल्यन और अन्यथाकरण का प्रकट न सही, पर गुपचुप एक प्रायोजित सिलसिला इस बीच ज़रूर चलता रहा। इसे अंजाम देनेवाले लोग हिन्दी की विश्वविद्यालयी दुनिया, प्रकाशन-तंत्र और पुरस्कार-तंत्र पर क़ाबिज़ थे। इन्हें कौन नहीं जानता? इन्होंने यह साबित करना और करवाना चाहा कि कुँवर नारायण तो एक ख़ास स्कूल के कवि हैं। मगर 1993 में 'कोई दूसरा नहीं' सरीखे एक सौ कविताओं के अनूठे संग्रह के प्रकाशन और 1995 में इसके लिए उन्हें 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार' सहित अनेक सम्मान मिल जाने पर ऐसी कोशिशें अंतिम तौर पर ना काम हो गईं। साहित्य-संसार में सक्रिय विभिन्न विचारधारात्मक शिविरों के आर-पार कुंवर नारायण को एक क़िस्म की सर्वानुमति या व्यापक प्रतिष्ठा हासिल हुई। ज़ाहिर है कि इस मक़ाम पर किसी 'साहित्यिक राजनीति' के ज़रिए नहीं पहुँचा जा सकता; बल्कि शब्द और कर्म, संवेदना और विचार तथा कविता और जीवन की वह दुर्लभ एकता ज़रूरी है, जो उनके यहाँ मिलती है। दूसरे शब्दों में, प्रगतिशील दिखना नहीं, होना अनिवार्य है। मसलन यह सभी जानते हैं कि कुंवर नारायण ने किसी ख़ास विचारधारा से ख़ुद को प्रतिबद्ध नहीं किया; पर यह ख़बर बहुत कम लोगों तक पहुँची कि उन्होंने कवि ता की एक फ़ेलोशिप के तहत आयोवा जाने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें यह लिखकर देने को कहा गया था कि ''मैं वामपंथी नहीं हूँ।'' इसी तरह उन्होंने पहली बार एक उद्योगपति के नाम पर रखे गए हिन्दी साहित्य के बदनाम पुरस्कार 'दयावती मोदी कविशेखर सम्मान' को भी नामंजू़र कर दि या, जिसे कथित प्रगतिशीलों और कलावादियों ने प्रसन्न और आत्ममुग्ध भाव से स्वीकार किया। हिन्दी कवियों में कोई संघर्ष न करते हुए उसका दिखावा करने का चलन आम हो गया है; जबकि कुंवर नारायण जो कुछ करते हैं, उसका सार्वजनिक ज़िक्र करने में संकोच करते हैं। एक तरफ़ वे साहित्यका र हैं, जो नैतिक और अनैतिक का फ़र्क़ भूल चुके हैं; दूसरी तरफ़ कवि है, जिसे इस द्वन्द्व को मिटाने की सज़ा मालूम है--''नर और कुन्जर के फ़र्क़ को मिटाते ही/मिट गया जो/वह एक शोकातुर पिता था । ...सज़ा सिर्फ़ इतनी थी/कि इस अन्तर को समझती हुई दृष्टि से/नरक देखना पड़ा था धर्मराज को ।'' कुंवर नारायण की कविता जिस बौद्धिक सान्द्रता और क्लासिकी संयम के लिए मशहूर है; उससे कम महत्त्वपूर्ण उनके स्वभाव की सादगी और विनयशीलता नहीं है, जिनके होने को हिन्दी के ज़्यादा तर नामचीन साहित्यकार अपने बड़प्पन में बाधक समझते हैं। ऐसों को अशोक वाजपेयी की ये काव्य-पंक्तियाँ याद रखनी चाहिए कि ''जीवन में आभिजात्य तो आ जाता है/गरिमा आती है बड़ी मुश्किल से।'' कुंवर नारायण की कविता और व्यक्तित्व, दोनों में ही जिस उदात्तता, गरिमा और संवेदनशीलता का विरल संश्लेष है; उससे रश्क करने से ज़्यादा अहम यह जानना है कि इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है, सब-कुछ पा लेने की ग़रज़ या चालाकी से यह मुमकिन नहीं। इसके लिए सिर्फ़ 'दुनियादारी' से नहीं, 'साहित्य की राजनीति' से भी अलहदा और निर्लिप्त रहना ज़रूरी है। दूसरे, हमारी रौशनी और ऊर्जा के स्रोत महज़ बाहरी ज्ञान-विज्ञान में नहीं; बल्कि भारत की अपनी दार्शनिक, सांस्कृति क, नैतिक और मिथकीय विरासत में भी हैं, जिसके आशयों को नये सन्दर्भों में अन्वेषित किये बिना हम अपनी समूची आत्मवत्ता को अर्जित नहीं कर सकते। बगै़र इस बुनियाद के मुक्ति की उम्मीद करना बेमा नी है। कुंवर नारायण के शब्दों में 'पराक्रम की धुरी पर ही प्रगति-बिन्दु' का स्वप्न देखा जा सकता है। उनकी कविता में भारत की श्रेष्ठ सर्जनात्मक मनीषा का सारभूत रूप मिलता है। इसका मिलना कुछ दूसरे कवियों में भी इन दिनों बताया जा रहा है, पर बतानेवाले भी जानते हैं कि दूसरों के बारे में यह बयान जितना झूठ है, कुंवर नारायण के सम्बन्ध में उतना ही सच। तीसरे, कुंवर नारायण की कविता हमें सिखाती है कि शाश्वत मूल्यों के इसरार का मतलब समकालीनता की अन्तर्वस्तु से इनकार हरगिज़ नहीं है, जिसकी कोशिश हिन्दी आलोचना के एक तबके़ द्वारा बराबर की जाती है। इसके विपरीत, कुंवर नारायण की कविता के सफ़र में आठवें दशक में इमर्जेन्सी, 1992 में अयो ध्या-केन्द्रित उग्र हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता और 2002 में एकध्रुवीय हो चुकी दुनिया में अमेरिका के नव-उदार आर्थिक-सांस्कृतिक और सैनिक साम्राज्यवाद--यानी मौजूदा भारत और विश्व की कितनी ही विसंगतियों और विडम्बनाओं का गहरा और सशक्त प्रतिकार देखने को मिलता है। कुंवर नारायण भारत के पहले और एकमात्र कवि हैं, जिन्हें रोम का अन्तरराष्ट्रीय 'प्रीमिओ फे़रोनिआ सम्मान' हाल में दिया गया है। ऐसे में 'भारतीय ज्ञानपीठ' के लिए यह आत्म-व्यंग्य ही होता, अगर वह अपना शीर्ष पुरस्कार उन्हें प्रदान न करती। मेरे जैसे उनके अनगिनत प्रशंसकों के लिए यह दोहरी खु़शी का मौक़ा है, जिसे मुहैया कराने के लिए वे इस संस्था के शुक्रगुज़ार हैं। दरअसल, सबसे बड़ी बात यह है कि कुंवर नारायण भारत के आम आदमी को, उसकी ज़िन्दगी के रोज़मर्रा के प्रसंगों में बार-बार याद आने और उसका साथ देनेवाले मूल्यवान् कवि हैं। कैसा सुखद इत्तिफ़ाक़ है कि इसी महीने की दस तारीख़ को बनारस के दशाश्वमेध घाट पर प्रतिदिन शा म को होनेवाली भव्य गंगा-आरती को देखने के लिए मैं एक नाव में मशहूर कवि असद जै़दी, उनकी जी वन-संगिनी नलिनी तनेजा और प्रसिद्ध कवि-मित्र व्योमेश शुक्ल के साथ था। मैंने कहा कि 'नाव से यह दृश्य देखना बहुत अच्छा लगता है।' असद जी ने पूछा-'अच्छा क्यों लगता है ?' मैं अपनी आत्मा की हक़ीक़त जानता था कि मुझे वह सब-कुछ किसी रूढ़ धार्मिक-पौराणिक मानी में अच्छा नहीं लग सकता। फिर क्या बात थी ? क्या सिर्फ़ उसका सौन्दर्य खींचता था ? नहीं। मैंने उनसे कहा, ''मुझे कुंवर ना रायण की एक कविता याद आती है --''आग का वादा''--फिर मिलेंगे/...नदी के किनारे !'' ( लेखक युवा कवि-आलोचक हैं।) **** तितलियों के देश में: जहाँ जिंदगी सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा गिरिराज किराड़ू या कहीं ऐसा तो नहीं कि आकाश और पाताल को मिलाती एक काल्पनिक रेखा जहाँ दायें बायें को काटती है सचाई का सबसे नाज़ुक बिन्दु वही हो? (अभिनवगुप्त) कुंवर नारायण की कविता की ‘महत्वपूर्णता’ को ऐसे कहा जा सकता है, कहा जाता है कि उनकी कवि ता हिन्दी (कविता) में संस्कृति हो चुकी कमअक्ली और कमसुखनी की लद्धड, सांस्थानिक, किलेबंद अहमन्यता को भी हमदर्दी और परिष्कार बख्शता एक प्रतिकार, एक प्रत्याख्यान है; कि वह हिन्दी के दो संसारों के, उनके अतिचारों के आरपार एक प्रौढ़ मध्यमार्ग/तीसरा रास्ता है आदि आदि। लेकिन ये उनकी कविता के ‘एप्रोप्रिएशन’ की न सिर्फ़ आसान बल्कि खतरनाक तरकीबें हैं क्योंकि इस तरह वह (पॉलेमिकल) परिप्रेक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जिसके समर्थन/ विरोध में ‘ही’ इस कविता की सार्थकता संभव होती/ सिद्ध की जाती है। यहाँ ऐसा करने का पर्याप्त अवकाश नहीं है लेकिन एक प्रस्तावना की कोशिश है कि उनकी कविता को, एक स्वतंत्र काव्य-दृष्टि और सत्ता-दृष्टि की तरह पढ़ा जाये, उपलब्ध काव्य/सत्ता-दृष्टियों के पक्ष/प्रतिपक्ष की तरह नहीं, उनके ‘मध्यमार्ग’ की तरह नहीं क्योंकि ‘मध्यमार्ग’ इस कविता का मार्ग नहीं, उन उपलब्ध दृष्टियों की सुविधा है। कुंवर नारायण की कविता ही कहती हैः हर एक के अपने-अपने ईमान धरम इतने पारदर्शी कि अपठनीय (अपठनीय) 2 कुंवर नारायण की कविता/उनका लेखन मनुष्य होने की, कवि/कविता होने की संपूर्णतर विधियों को लगातार खोजने, पाने का एक आत्मविश्वस्त उद्यम है। उनमें सेल्फ-सेंसरशिप बिल्कुल नहीं है । वे मनुष्य की, ‘यथार्थ’ की, होने के उम्मीद और अज़ाब की अ-वश्य और सदैव हतप्रभ कर देने वाली, अक्सर वि लोम छवियों/संस्करणों को विरल सहजता से और बहुत तरह के स्रोतों से मुमकिन करते हैं। उनकी ज्ञानमार्गी वस्तुनिष्ठता अपने नेपथ्य में, अपने डार्क-रुम में जितनी जटिल, विकट संघटना है, अपने प्रदर्शन के ‘धोखे’ में उतनी ही सहज (एफ़र्टलेस और सहजात दोनों अर्थों में, लेकिन ‘सरल’ के अर्थ में नहीं)। यूँ कहना चाहिये कि यह ऐसा पूरावक्ती ज्ञानमार्ग है जिसमें जटिल ही सहज हो गया है। हर कविता/रचना अपने में मनुष्य होने की वर्तमान, अतीत और भविष्य-संभव अवस्थितियों के संवाद से, इतिहास, पुराण और समकाल-संभव अन्योन्याश्रितता से, ‘कला’, ‘समाज’, ‘यथार्थ’, ‘राजनी ति’, ‘व्यक्ति’, ‘अध्यात्म’ आदि ‘विरुद्धों’ के ‘सामंजस्य’ से नहीं उनके जैविक और डायलेक्टिकल एकत्व से, निर्मित होती हुई एक ‘सम्पूर्ण(तर) संघटना’ है। उनकी कविता/लेखन में समावेशिता और सम्पूर्णता के बीच एक अनोखा डायलेक्टिक्स है। बिना समग्रतामूलक सामान्यीकरणों/महाख्यानों के, बल्कि प्रायः उनके वि-सर्जन से सम्पूर्ण(तर)’ को मुमकिन करने की एक अजब कोशिश है यह जो ‘अनोखा’ और ‘अजब’ जैसे विशेषणों की अतिरिक्ति से फुसलाई नहीं जा सकती। 3 मैं जिंदगी से भागना नहीं उससे जुड़ना चाहता हूँ। – उसे झकझोरना चाहता हूँ उसके काल्पनिक अक्ष पर ठीक उस जगह जहाँ वह सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा। (उत्केंद्रित) (आपसे गुज़ारिश है आप उद्धृत काव्यांशों के बोल्ड किये हर्फ़ों को गौर से पढ़ें, क्योंकि मुमकिन है आपको भी वही ‘धोखा’ हो रहा हो जिससे मेरी वाक़फ़ियत बिल्कुल न होती अगर कुँवर नारायण/बोरहेस जैसे लेखक न होते) एक बार धोखा हुआ कि तितलियों के देश में पहुँच गया हूँ और एक तितली मेरा पीछा कर रही है ________ दरअसल वह भी मेरी ही तरह धोखे में थी कि वह तितलियों के देश में है और कोई उसका पीछा कर रहा है। (तितलियों के देश में) 4 उनसे सच्ची, जानलेवा, ज़िरही ईर्ष्या किये बिना उनसे प्रेरणा लेना तक मुश्किल है। यह उनके स्वावलंबी ज्ञानमार्ग की शर्त भी है, वसीयत भी। ( लेखक युवा कवि और प्रतिलिपि के संपादक हैं। ) **** मिथिहास से निकल कर आया ऋषि गीत चतुर्वेदी बीसवीं सदी दृश्य-माध्यमों के दबाव की सदी थी। कला की सारी विधाओं पर, अंदरूनी आवाजाही से इतर, यह दबाव देखा गया। इस दबाव के बावजूद, कुंवर नारायण के यहां तमाम रूढि़गत दृश्य-विधान टूटते हैं और धीरे-धीरे कविता एक स्वतंत्र कला के रूप में विकसित होती है। उनकी कविता महज़ दृश्य में बंध जाने की आकांक्षी नहीं है। वह दृश्य और बंधने की प्रक्रिया दोनों को ही सतत जटिल रूप देती है। कुंवर नारायण की कविताओं में कहे और अनकहे के बीच लगातार द्वंद्व चलता रहता है, जो कविताओं के पाठ के स्तर को बढ़ा देता है। सहज न दिखने वाला यह द्वंद्व ही कविता को लंबे समय तक प्रभावी रखता है। उनकी कविताओं की यह ख़ासियत है कि बहुधा वे एक साथ दो मन:स्थितियों और भावों को अभिव्यक्त करती हैं। जैसे वही पंक्ति ठठाकर हंसते समय भी आपके ज़ेहन में आ सकती है और ऐन रुदन के क्षणों में भी। दोनों ही स्थितियों से बराबर जुड़ती हुई। जैसे नीम के पेड़ से आहिस्ता-आहिस्ता झरती निंबोली एक स्त्री के केश में अटक जाती है। रूमान और अवसाद एक साथ चलते हैं। ऊपर से पीला दिखता रंग भीतर से हरा होता है। जो ऊपर से मृत्यु दिखती है, वह जीवन भी है। 'आत्मजयी' हो या 'वाजश्रवा', इसी कारण इनमें जीने की अदम्य इच्छा दिखती है। नचिकेता का लौ टना या घर तक पहुंचना, संभावनाओं के प्रति कवि की प्रतिबद्धता दिखाते हैं। एक कविता में घोड़े से बंधे घिसटते हुए आदमी के सिर्फ़ दो हाथ ही दिल्ली पहुंच पाते हैं, तो वह सारी राजनीतिक क़लाबाजि़यों को एक झटके में फ़ाश कर देते हैं। यह कविता दिल्ली या किसी भी शहर को, उन हाथों के जुड़े होने से, देखने की मांग करती है। यातनाओं और यांत्रिकता की अपेक्षा मनुष्यता की ओर ज़रा ज़्या दा सरक कर। उनकी कविताएं गहरे अर्थों में राजनीतिक कविताएं हैं, क्योंकि यहां राजनीति नारों की बजाय, सूक्ष्म चिंतन की तरह आती है। व्यक्ति, समाज, देश, मेटाफि़जि़क्स और `कथित मनुष्यता´ की राजनीति। उनकी एक छोटी-सी कविता है `पुराना कंबल´, इसे उनकी कविता का 'पदार्थ' माना जा सकता है, जिसमें भारतीय चिंतन परंपरा के `पद´ और `अर्थ´ दोनों ही आ जाते हैं। इस कवि ता की ही तरह कुंवर नारायण का पूरा कवि एक महाप्राचीन कंबल को कवच की तरह धारण करता है और वर्तमान को चुनौती देता है। कलाकार का संघर्ष हमेशा वर्तमान से होता है। कुंवर नारायण इसीलिए मिथकों की तरफ़ जाते हैं और बेहतरी से जुड़े तमाम बुनियादी प्रश्नों का जीवद्रव्य वहां से पाते हैं। मिथिहास की कंदराओं से निकले एक आधुनिक विद्रोही ऋषि की तरह, जो अपनी हड्डियों को दूसरों का हथियार नहीं बनने देगा।और यह द्वंद्व भी उनकी कविता को अनुपम ऊंचाई देता है कि इतिहास, मिथकों, स्मृतियों, अद्वैत में जाने के बाद भी वह अपनी कविता में किसी भी कि़स्म के मोनोजेनेसिस को नकार देते हैं। ( लेखक युवा कवि-कहानीकार हैं ) **** इकहरे यथार्थ का अतिक्रमण करती कहानियाँ प्रभात रंजन 1973 में प्रकाशित अपने कथा-संग्रह, ''आकारों के आसपास'' की भूमिका में कुंवर नारायण ने लिखा है कि उनकी कहानियां वास्तव में यथार्थ से एक रोमांस हैं- यथार्थ के नाम पर कहानी नहीं, कहानी के नाम पर यथार्थ की बात करता हूं। संग्रह की सत्रह कहानियों को पढ़ते उनकी कथा-मुद्रा सहज ही ध्यान आकर्षित करती है। यह सवाल भी बार-बार मन में कौंधता है कि यथार्थ केवल बाहरी होता है या उसका कोई मानसिक स्तर भी होता है। ''आकारों के आसपास'' और ''आशंका'' शीर्षक कहानियों का इस संदर्भ में विषेश उल्लेख किया जा सकता है। कुंवर जी की कहानियों में यथार्थ के अनेक स्तर हैं। उनमें एक तरफ ऐतिहासिक संदर्भ हैं तो दूसरी ओर नितांत समसामयिकता। ''मुगल सल्तनत और भिश्ती'' कहानी में मुगल बादषाह हुमायूं के जी वन के उस संदर्भ को उठाया गया है जब जान बचाने के एवज में हुमायूं ने एक भिश्ती को आधे दिन की बादशाहत अता की थी। कहानी में उस भिश्ती के अंतर्द्वंदों का बड़ा बारीक विष्लेशण किया गया है। आजकल कहानी में लेखकीय हस्तक्षेप को उत्तर-आधुनिक कथात्मक युक्ति के रूप में देखा जाता है। कुंवर जी की कहानियों इस युक्ति का बहुत सुंदर उपयोग दिखाई देता है। ''मुगल सल्तनत और भिश्ती'' कहानी में कहानी सुनाने के बाद लेखक उपस्थित होकर इस कहानी की ऐतिहासिकता पर ही संदेह करता है। इसी तरह ''अचला और अचल'' कहानी में प्रेम कहानी सुनाने के बाद लेखक अंत में उपस्थित होकर कहता है कि वह नहीं जानता कि यह कहानी दुखांत हुई या सुखांत... बीसवीं षताब्दी के महान लेखक बोर्खेज के बारे में एक आलोचक ने लिखा है कि वे कहानियां नहीं लिखते, ऊहापोह और भूलभुलैया रचते हैं। वास्तव में कुंवर जी ने इस संग्रह में अनेक कथारूप आजमाए हैं और उनके माध्यम से यथार्थ की जटिलताओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। उनकी कहानियां मानो पाठकों को बार-बार इस बात की याद दिलाती हैं कि कुछ भी इकहरा नहीं होता- न जीवन में न यथार्थ में। ( लेखक युवा कहानीकार हैं।) From vineetdu at gmail.com Wed Nov 26 10:55:56 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 26 Nov 2008 10:55:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWHLeCkhuCkquCkleClhyDgpJzgpYLgpKDgpKgg4KS44KWHIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWC4KSw4KWHIOCkueCli+CkpOClhyDgpIngpKjgpJXgpYcg4KS44KSq?= =?utf-8?b?4KSo4KWH?= Message-ID: <829019b0811252125t311862fey40430d5d730b8e45@mail.gmail.com> करीब चार साल की एक बच्ची है इच्छा। उस बच्ची का समाज से सीधा सवाल है कि लोग उसे क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने उससे बनते हैं जिसे लोग छोड़ देते हैं। यह वही बच्ची है जिसने कभी तीन वक्त का खाना नहीं खाया, जिसके जीवन में झक-झक सफेद रंग कभी नहीं आया, कभी बाल वाली गुडिया नहीं मिली और न ही कभी उसने रंग-बिरंगे फ्रांक पहने। उसके जिवन में बस एक ही रंग है मटमैला। दुनिया में होते होंगे दुनियाभर के रंग और सॉफ्टवेयर से जुड़े लोग आए दिन कम्प्यूटर की मदद से बना रहे होंगे कई नए रंग लेकिन इच्छा के पास सभी चीजें आकर एक ही रंग का हो जाता है मटमैला। एक ऐसा रंग जिसे मेरी मां मैलपच्चू रंग कहती है। वो रंग जिसमें दुनियाभर की गंदगी को पचा लेने की ताकत होती है। आप उस रंग के कपड़े को चाहे कितना भी गंदा क्यों न करो उसके रंग में कोई फर्क नहीं आता। कुछ ऐसे ही रंग हैं जो कि इच्छा की जिंदगी के चारो ओर फैले हैं। इच्छा की जिंदगी की जिंदगी बदलती है। उसे अब बालवाली गुड़िया मिलती है। वो भी बहुत बड़ी। इतनी बड़ी कि एक बार में उसे संभाल नहीं पाती और एक नहीं दो-दो। एक फ्राक भी बिल्कुल हरा। मां के शब्दों में एकदम से कचूर हरा। अगर आप ताजे पत्ते को मसल दें तो वैसा ही रंग होगा. एक जोड़ी सफेद जोड़ी जूते भी। इच्छा के वो सारे सपने पूरे होते हैं जिसे देखने में उसने अपनी उम्र का अच्छा-खासा समय लगा दिया। अब वो खुश है। लेकिन इससे पहले कि इन सारी चीजों को लेकर वो अपने दोस्तों के बीच धौस जमाती कि उसके पूरे हुए सपने पर बस्ती के बच्चे सेंध लगा जाते हैं। जूते दिखाती कि आगे से उन जूतों के बीच से उंगली निकाल देता है। हरे फ्रांक का पिछला हिस्सा, फैशन है या फिर रिजेक्टेड और दोनों बालवाली गुड़िया। ये वो गुड़िया है जो इच्छा के सपने में अक्सर आया करती रही या फिर किसी मनचले बच्चे की हिकारत की शिकार गुडिया जिसके बाल के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन पता नहीं पेट ही फाड़ डाले या फिर उसे अंदरुनी चोट पहुंचाने की कोशिशक की है। इच्छा के पूरे होते सपने दोस्तों के बीच तहस-नहस हो जाते हैं। इच्छा फिर सवाल दोहराती है, लोग क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने लोगों के छोड़ दी गयी चीजों से पूरे होते हैं। यह कलर्स चैनल पर जल्द ही शुरु होनेवाले सीरियल उतरन का प्रोमो है। सीरियल ने समाज की जूठन समझी जानेवाली जमात में इच्छा जैसे चरित्र को गढ़ा है, बचपन, अभाव, सपने, समझदारी और जीवन सच्चाई को एक-दूसरे से नत्थी करके दिखाने की कोशिश में है। इस समझदारी के साथ कि आनेवाले समय में टेलीविजन कोई भी क्रांति करने नहीं जा रहा या फिर करोड़ो रुपये लगाकर समाज के हाशिए पर के लोगों को नायक बनाने नहीं जा रहा, इतनाभर मानने में कोई परेशानी नहीं है कि टेलीविजन सीरियलों का चरित्र इधर एक साल में तेजी से बदल रहा है। अब तक हाइप्रोफाइल के लोगों को आधार बनाकर सीरियल प्रोड्यूस करने की बाढ़ सी रही। अगर कोई इन सीरियलों को लेकर कोई मजाक करना चाहे तो कह सकता है कि एक सीरियल को बनाने के लिए क्या-क्या चाहिए, दो तीन बड़े फार्म हाउस, दो-तीन फैशन डिजाइनर और गहनों-कपड़ों में लदी-फदी डेढ़ से दो दर्जन बिसूरनेवाली महिलाएं। अब जबकि सीरियल का ट्रेंड तेजी से बदल रहा है। इस मामले में मैलोड्रामा ही सही, टेलीविजन ने फिर से आम आदमी के लिहाज से पटकथा का दामन पकड़ा है. उतरन उसी की एक कड़ी है.*आगे भी जारी* ........ -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-176135 Size: 7450 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081126/70e5e490/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Thu Nov 27 18:07:32 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 27 Nov 2008 18:07:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSk4KSC4KSV4KS14KS+4KSm4KWAIOCkpuClh+CkluCkpOClhyDgpLA=?= =?utf-8?b?4KS54KWHIOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJ/gpYDgpLXgpYA=?= Message-ID: <829019b0811270437m6308b2dak62e7ff9cd4b504bb@mail.gmail.com> अंग्रेजी सहित देश के किसी भी न्यूज चैनलों के पास सुबह के सवा नौ बजे तक होटल ओबराय, होटल ताज और नारीमन हाउस के भीतर क्या हो रहा है, इसकी न तो खबर थी औ न ही कोई फुटेज। ले देकर सभी चैनलों के पास ताज होटल के उपर से उड़ते धुएं की फुटेज और दि टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस की खिड़की से ली गई एक हमलावर की तस्वीर थी। सारे चैनल इसी को लाल गोला बना-बनाकर चला रहे थे. सबों के पास लगभग एक से फुटेज थे। बहुत कोशिश करने पर इक्का-दुक्का चैनल उन खिड़कियों को जूम इन करके दिखाता जहां सुरक्षाकर्मी तैनात थे। बाकी वही सुनसान सड़के, पुलिस की गाडियां बेस्ट बसें और चैनल की गाडियां. इस आतंकवादी हमले में इस बार किसी भी चैनल ने खून से लथपथ तस्वीरें नहीं दिखायी।... तभी इंडिया टीवी के फोन की घंटी बजती है। मुंबई से उस आतंकवादी का फोन था जिसने कि इस घटना का अंजाम दिया था। वो और उसके साथी ताज या ओबरॉय होटल के भीतर ही थे. वो इंडिया टीवी से बात करना चाह रहे थे। जबकि बाकी चैनलों ने बताया कि इन आतंवादियों ने अपनी तरफ से कोई अभी तक मांग नहीं रखी है। एक चैनल के एंकर ने अपने रिपोर्टर से सवाल भी किया कि ये तो और भी खतरनाक स्थिति है जबकि आतंकवादी कोई मांग न रखे. रिपोर्टर ने कहा- बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. चैनल उस सरकार की अपील को दोहरा रहे थे जिसें ऐसा कहा गया था कि- मीडिया ऐसा कुछ भी न दिखाए जिससे कि आतंवादियों को ऑपरेशन के बारे में जानकारी मिल जाए. लेकिन इंडिया टीवी का अवतारी चरित्र सामने आया। यहां आतंकवादी ने साफ कहा कि उनकी मांग है कि देश में जितने भी मुजाहिउद्दीन से जुड़े लोगों को पकड़ा गया है सरकार उन्हें तुरंत छोड़ दे, मुसलमानों को परेशान करना बंद कर दे। इंडिया टीवी के एंकर ने सवाल किया कि- आप भी इसी देश के हैं, आप बेकसूर लोगों को क्यों मार रहे हैं, इसमें आप के भी भाई हो सकते हैं. आतंकवादी ने जबाब दिया। मुझे इस देश से प्यार है. लेकिन जब लोग मेरी ही भाइयों को, मेरी ही बहू-बेटियों पर अत्याचार कर रहे थे तब क्यों नहीं सोचा कि ये सब गलत है। बाबरी मस्जिद गिराते समय क्यों नहीं सोचा कि वो गलत कर रहे हैं। ये बात उन्हें अभी ही क्यों याद आयी। ये सब बातें हो ही रही थी कि इसी बीच इंडिया टीवी ने एक्सपर्ट जुटा लिए। बाबा रामदेव से लेकर फतेहपुर मस्जिद के इमाम और इस्लाम के दूसरे भी विद्वान इंडिया टीवी पर अपनी बात करने लगे। इनमें से एक ने कहा कि- ऐसा करके वो सिर्फ बेकसूरों को नहीं मार रहे बल्कि इस्लाम को मार रहे हैं। दूसरे ने साफ कर दिया कि- मैं भी देश में घूमता रहता हूं, मुझे भी पता है कि कहां के लोग किस तरह से, किस भाषा में बात करते हैं। ये आतंकवादी जो कुछ भी बोल रहे हैं, दरअसल वो हैदराबाद के है ही नहीं। ये सारी बातें बना कर बोल रहे हैं। दस-बारह जुमले सीख लिए हैं उन्हें बोल दे रहे हैं, बाकी चीजें बोल नहीं पा रहे। उनके हिसाब से या तो ये हैदराबाद के नहीं हैं या फिर....हम सोचें तो इंडिया टीवी पर फ्लैश आने शुरु हो गए- *अपील का असर * *आतंकवादियों ने की इंडिया टीवी से बातचीत * *इंडिया टीवी के पास आतंवादियों के हैं मो। नंबर* *आतंवादी देख रहे हैं इंडिया टीवी। * जितने एक्सपर्ट से इस मामले में राय ली जाती उतनी बार आतंकवादी और इंडिया टीवी के बीच हुई बातचीत को दोहराया जाता. डेढ़-घंटे पहले हुई बातचीत को भी लाइव बोलकर चलाया जाता रहा। बाद में इसकी एडिटिंग कुछ इस तरह से हुई कि सवाल-जबाब का क्रम भी चैनल के हिसाब से बदल गया। इन सबके बीच सीएनएन, टाइम्स नाउ और कुछ दूसरे हिन्दी चैनल घायल लोगों की बात कर रहे थे. एक हिन्दी चैनल ये भी बता रहा था कि बेस्ट बसों का इस्तेमाल भी जरुरत पड़ने पर एम्बुलेंस के रुप में किया जा सकता है। कुछ चैनल आतंकवाद के इतिहास से ९ बटा ११ जैसे मुहावरे खोजने में लगे थे। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2 Size: 8427 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081127/73591e10/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Fri Nov 28 09:59:43 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 28 Nov 2008 09:59:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpK3gpLDgpYvgpLjgpYcg4KSc4KWA4KSk4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCli+Cklw==?= Message-ID: <829019b0811272029k57c4b8c2k1e71cb19afab404b@mail.gmail.com> मीडिया के भरोसे जीते लोग शाम के करीब चार बजे मेरे बिस्तर पर पड़े अखबारों को पलटते हुए वो एकदम से चौंक गया। इतना कुछ हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। आपने देखी थी खबर। कब हुआ येसब. फिर जानने के लिए बेचैन हो उठा कि अभी वहां का क्या हाल है। मैंने पूछा-तुम्हें सचमुच पता नहीं है कि कल रात क्या हुआ मुंबई में। उसने फिर दोहराया- नहीं बिल्कुल भी नहीं। मैंने बस इतना कहा- आश्चर्य है। वो भीतर से बहुत ही परेशान महसूस कर रहा था और इस बात पर बार-बार अपसोस जता रहा था कि उसे येसब कैसे कुछ पता नहीं है। तुरंत उसने मुंबई में न्यूज चैनलों में काम कर रहे अपने दोस्तों को फोन किया- सब ठीक तो है न, सेफ हो न,लगे होगे रातभर से न्यूजरुम में। उधर से जबरदस्ती उत्साहित होते हुए आवाज आयी- हां यार,सब मस्त है, अपनी बता, दिल्ली में दिल्लगी हो रही है न, कब खुशखबरी सुना रहा है. अंत में भाभीजी का हाल पूछते हुए उसने कहा-चलो फिर बात करते हैं,. वो जल्दी से जल्दी टीवी देखना चाह रहा था। मेरे पास बहुत ही जल्दीबाजी में आया था. एत किताब लेनी थी बस। मैं उसे इस बात का लोभ देकर कमरे तक ले आया कि कपड़े बदलकर आज रात तुम्हारे पास चलूंगा और खाना बनाउंगा। लेकिन इस जल्दबाजी में भी वो करीब पन्द्रह मिनट तक न्यूज चैनलों से चिपका रहा। फिर बताना शुरु किया- दरअसल हुआ ये कि आज अखबारवाले ने पेपर दिया ही नहीं। रात को नौ बजे जब एफएम रैनवो समाचार सुना तब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। बाद में भी रेडियो सुनता रहा लेकिन कहीं से किसी भी चीज का आभास नहीं हुआ. मैंने फिर कहा-लेकिन यार, शाम के चार बज रहे हैं, घटना के हुए करीब 18 घंटे। इस बीच तुम यूनिवर्सिटी घूम आए। इसके पहले ऑटो में बैठकर आए। कहीं किसी ने कोई बात नहीं की. उसने कहा नहीं. फोन की बात मैं नहीं कर सकता था क्योंकि अगर यही आतंकवादी हमले दिल्ली में होते तो लोग फोनकर पूछते- सेफ हो न तुम। लेकिन मुंबई में होने के कारण किसी ने इस संबंध में कोई बात नहीं की। यही कहानी शायद मेरे इस दोस्त के साथ भी हुआ होगा। ऐसे फोन करनेवालों की संख्या बहुत कम गयी है जो सीधे-सीधे सरोकार न होने पर भी बातचीत के लिहाज से फोन करते हैं। इसलिए घटना के करीब दिनभर बीत जाने पर भी अगर मेरे इस दोस्त को कोई जानकारी नहीं तो ये आश्चर्य की बात तो जरुर है लेकिन विश्वास करनेवाली बात है कि आज अगर आप किसी न किसी मीडिया से नहीं जुड़े हैं तो बहुत ही मुश्किल और लगभग असंभव है कि आपको किसी व्यक्ति के माध्यम से किसी घटना की जानकारी मिले। ग्लोबलाइजेशन के विरोध और समर्थन में खड़े लोगों ने लोकल, ग्लोबल से जुड़े कई मुहावरे तो जुटा लिए हैं लेकिन समाज के इस ढ़ांचे पर बिल्कुल चुप हैं। मीडिया में भारी पूंजी के निवेश औऱ इसके मुनाफे का रोजगार साबित करनेवाले मीडिया आलोचकों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है लेकिन वो भी इस बात पर चुप हैं कि व्यक्ति खुद भी एक माध्यम है। इसे किस रुप में संचार के प्रति सक्रिय बनाया जा सकता है. अब व्यक्ति ने आपस में डिस्कशन , बहस और शेयर करने कम कर दिए हैं। संभव है कि कुछ लोग इस बात के लिए भी मीडिया के बढ़ते प्रभाव और उसके नए रुपों को ही इसके लिए जिम्मेवार ठहराएं। मीडिया ने ही लोगों को अपने उपर इतना अधिक निर्भर होने की आदत डाल दी है कि व्यक्ति के भीतर अपने स्तर पर संचार करने की इच्छा मरने लगी है। चौक-चौराहे पर खड़े होकर किसी बात को जानने से बेहतर वो कमरे में इंटरनेट, टीवी फिर अखबारों के जरिए सूचनाओं में विश्वास करने लगा है। लेकिन यकीन मानिए दिन-रात मीडिया को पानी पी-पीकर कोसनेवाले आलोचकों ने मैनुअली संचार की सक्रियता बढ़ाने के क्रम में कोई काम नहीं किया। छोटे स्तर पर सूचना तंत्र कैसे विकसित की जाए, इस संबंध में कोई मॉडल पेश नहीं कर पाए। सारा काम स्वयंसेवी संस्थाओं के भरोसे छोड़कर छुट्टी कर लिए. यही कारण है कि हम जब भी वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं तो हमें सिर्फ गांव के अनपढ़ लोग ही ध्यान में आते हैं, देश का वही कोना याद आता है जहां मीडिया की पहुंच नहीं है। हम शहर के स्तर पर भी वैकल्पक मीडिया या फिर व्यक्ति के स्तर पर संचार की जरुरत है, इसपर कभी बात ही नहीं करते। मीडिया कहने-पढ़ने और इसके बारे में बात करने का मतलब सिर्फ अखबार, चैनल और इंटरनेट के बारे में ही बात करना है। यहां तक आकर हमारी जरुरतें खत्म हो जाती है और जहां तक मामला मेरे दोस्त के कुछ भी न जान पानेका है तो इसे शहर का स्वभाव बोलकर छुट्टी पा लिया जा सकता है। कमलेश्वर की कहानी- दिल्ली में एक मौत से कितना आगे पीछे हो पाएं हैं हम और मीडिया को कोसते हुए सूचना का वैकल्पिक रुप कितना विकसित कर पाए हैं हम। सवाल एक नहीं कई हैं, सवाल ही सवाल है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081128/923aa121/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Nov 28 17:25:45 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 28 Nov 2008 17:25:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: for deewan Message-ID: <200811281725.45344.ravikant@sarai.net> शशिकान्त जी , दीवान के तकनीक-सक्षम पाठकों के लिए इसमें कुच नया नहीं है, लेकिन आपने भेजा है तो हम इसे डाल देते हैं. शायद इन कड़ियों में किसी को कुछ दिलचस्प चीज़ मिल जाए. शुक्रिया रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: for deewan Date: शुक्रवार 28 नवम्बर 2008 15:21 From: "shashi kant" To: ravikant at sarai.net सरकार ने कहा, कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करो [image: Print] [image: E-mail] विशेष Written by देवमणि पांडे | बुधवार , 29 अक्टूबर 2008 पिछले माह महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी ने सर्वभाषा सम्मेलन आयोजित किया था। उसमें एक सत्र इंटरनेट और हिन्दी पर भी था। वहाँ यह बात सामने आई कि अभी लोगों को यह पता नहीं है कि कंप्यूटर में हिन्दी इनबिल्ट है। यानी अब आपको अलग से हिन्दी का कोई साफ्टवेयर खरीदने की ज़रूरत नहीं है। पता नहीं कंप्यूटर कंपनियों की यह अज्ञानता है या बदमाशी कि वे इसके बारे में लोगों को बताते नहीं। (यह बात इसलिए भी प्रचारित नहीं की जाती है कि कहीं हिन्दी वाले लोग कंप्यूटर का प्रयोग करने में अंग्रेजी वालों को पीछे न छोड़ दें, जिस दिन हिन्दी भाषी लोग कंप्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करने लगेंगे, हिन्दी जानने वालों को अपने आप काम मिलने लगेगा और अंग्रेजी के ज्ञान पर काम करने वाले लोग हिन्दी की शरण में आ जाएंगे।) आम आदमी को कौन कहे सरकारी कार्यालयों में अभी भी ऐसे साफ्टवेयर खरीदने में पैसा बर्बाद किया जा रहा है जब कि इनका उपयोग आप ईमेल भेजने में नहीं कर सकते। इस संबंध में श्री रंजीत इस्सर, सचिव, भारत सरकार (राजभाषा ) द्वारा 14 सितम्बर को सरकारी विभागों के लिए एक दिशा निर्देश जारी किया किया है। इसमें बताया गया है कि विंडो 2000 , XP और उसके बाद के सभी कम्प्यूटर्स में हिन्दी का यूनिकोड फोण्ट 'मंगल' इनबिल्ट है। इसलिए अब अलग से हिन्दी का कोई साफ़्ट्वेयर या प्रोग्राम खरीदने की ज़रूरत नही हैं। मंगल फोण्ट को कंट्रोल पैनेल में जाकर ऐक्टिवेट किया जा सकता है। ऐक्टीवेट होने के बाद आसानी से इसमें ऐंग्लो रोमन तरीके से ऑफिस वर्ड में हिन्दी में टाइप किया जा सकता है तथा उसे ईमेल भी किया जा सकता है।किसी दूसरे फाण्ट में टाइप मैटर कॊ भारत सरकार द्वारा नेट पर उपलब्ध कराए गए निःशुल्क साफ़्टवेयर 'परिवर्तन' के ज़रिए मंगल में कन्वर्ट भी किया जा सकता है। मंगल फोण्ट में टाइप कोई भी फाइल किसी भी XP कम्प्यूटर में आसानी से खुल जाएगी। इस फोण्ट के ज़रिए कोई भी फाइल ईमेल के साथ अटैच की जा सकती है। बाज़ार में सीडेक कं. की 'सुविधा' नामक सीडी उपलब्ध है। इसे लोड करते ही आपको टाइपराइटर का कीबोर्ड मिल जाएगा। अगर आपका कम्प्यूटर XP नहीं है,यानी विंडो 98 वगैरा है तो उसमें यूनिकोड मंगल डालने के लिए भारत सरकार ने 'हिन्दी साफ़्ट्वेयर' नाम की एक सीडी निकाली है जिस पर सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह की तस्वीर है। इसे डाउनलोड किया जा सकता है या राजभाषा विभाग से मुफ्त में प्राप्त किया जा सकता है । आपका ब्राउज़र इस छवि के प्रदर्शन का समर्थन नहीं भी कर सकता. बाक़ी जानकारी यहाँ से लीजिए- rajbhasha.gov.in , डाउनलोड के लिए इसे देखें- http://ildc.gov.in/hindi/downloadhindi.htm , यहाँ 'परिवर्तन' साफ़्ट्वेयर के साथ ही इंस्क्रिप्ट, रैमिंगटन और फोनेटिक कीबोर्ड भी लोड कर सकते हैं। आवश्यकतनुसार राजभाषा विभाग (तकनीकी कक्ष) दिल्ली से फोन 011-2461 9860 से संप्रक कर जानकारी हासिल की जा सकती है । ईमेल techcell-ol at nic.inThis e-mail address is being protected from spam bots, you need JavaScript enabled to view it से नि:शुल्क साफ़्ट्वेयर प्राप्त करने संबंधी जानकारी ली जा सकती है। तो अब देर किस बात की, अब हम सभी को यूनिकोड समर्थित सुविधा का प्रयोग शुरू कर देना चाहिए ताकि पूरी दुनिया के हिन्दी कामकाज में एकरूपता लाई जा सके। 14 सितम्बर को हिन्दी मीडिया.इन पर मेरा लेख प्रकाशित हुआ था-'' कंप्यूटर पर हिन्दी और हिन्दी में ईमेल।'' पहले ही दिन इसे पढ़ने वालों की संख्या 32759 थी। अब आप समझ सकते हैं कि कंप्यूटर पर हिन्दी प्रेमियों की संख्या कितनी तेज़ी से बढ़ रही है । उपरोक्त लेख में मैंने आपको इंटरनेट द्वारा कंप्यूटर पर हिन्दी लिखने और उसे ईमेल email के तीन तरीके बताए थे - http://kaulonline.com/uninagari/ http://www.google.com/transliterate/indic/ और Baraha.com । इसमें Baraha.com को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया क्योंकि इसके ज़रिए आप सीधे कम्पोज़ मेल में टाईप कर सकते हैं, कॉपी-पेस्ट नहीं करना पड़ता । दूसरे इसमें संयुक्त अक्षरों को लिखना बहुत आसान है । अगर आपको बारहा डॉट काम लोड करने में या हिन्दी लिखने में कोई असुविधा है तो आप tarakash.comके संजय बेंगाणी या hindyugm.com के शैलेश भारतवासी से संपर्क कर सकते हैं । इस मामले में यह दोनों प्रवीण होने के साथ साथ बहुत सहयोगी हैं और हिन्दी प्रेमियों को हर तरह से मदद करने को तत्पर रहते हैं। (लेखक आयकर विभाग में राजभाषा अधिकारी हैं) ------------------------------------------------------- From beingred at gmail.com Sun Nov 30 18:49:54 2008 From: beingred at gmail.com (reyazul haque) Date: Sun, 30 Nov 2008 08:19:54 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Mumbai: we will not be divided Message-ID: <1ce0eafcdbee98b165d7e4fbec60c301@dp1.avaaz.org> A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-396 Size: 1814 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081130/e618f46c/attachment.bin