From vineetdu at gmail.com Fri May 2 10:58:57 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 2 May 2008 10:58:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSk4KS/?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSmIOCkleClgCDgpJzgpKHgpLwg4KSu4KSc4KSs4KWC4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleCksOCkpOClgCDgpK7gpYDgpKHgpL/gpK/gpL4gPw==?= Message-ID: <829019b0805012228w717765c1wdb19474304e85691@mail.gmail.com> मथुरा में छः साल की बच्ची को आग में झोंक देने की घटना पर देशभर के चैनलों ने स्क्रिप्ट लिखे। किसी ने कृष्णनगरी में राक्षस तो किसी ने दरिंदा शब्द का प्रयोग किया। मेरे दोस्त ने भी स्क्रिप्ट लिखी। लेकिन उसकी स्क्रिप्ट को लेकर मामला थोड़ा फंस गया। मीडिया में इस खबर को लेकर जो कॉमन रही जिसे कि सारे चैनलों और अखबारों ने फालो किया वो ये कि बच्ची के आगे दलित जोड़ना जरुरी है। सच पूछिए तो खबर बिकने के लिए यही एक शब्द जरुरी था।इसके बिना खबर का कोई सौन्दर्य ही नहीं बनता। दोस्त भी इस शब्द को छोड़ना नहीं चाहता था, न छोड़ना उसकी मजबूरी भी रही होगी। लेकिन साथ में उसने जो किया वो ज्यादा रोचक है। उसने लिखा- छः साल की बच्ची को सवर्णों ने आग में झोंक दिया। ये स्क्रिप्ट आगे गयी और बॉस ने उसे काटकर दबंग कर दिया। दोस्त का बहुत ही साफ तर्क है कि जब आप एक तरफ जातिगत शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो दूसरी तरफ भी उसी के मुताबिक शब्द का प्रयोग करना होगा। यानि दलित के साथ सवर्ण। ये दबंग शब्द का तो कोई तुक ही नहीं बनता। लेकिन बॉस का कहना था कि नहीं, सवर्ण कैसे लिखोगे, दबंग ही ठीक है। इससे आप क्या अर्थ निकालते हैं। एक बात तो साफ है कि इस घिनौनी हरकत के साथ सवर्ण शब्द जोड़ दिए जाएं ये बात ठीक नहीं है। हो सकता है इससे देशभर के सवर्ण भड़क जाएं और दिखाए जानेवाले चैनल में आकर तोड़-फोड़ मचा दें। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे खबर को बताते हुए भी एक खास तरह की सावधानी या फिर मानसिकता को बनाने की कोशिश की गयी। इस बात को मान भी लिया जाए कि हिंसा न भड़के इसलिए सवर्ण शब्द न लिखकर दबंग का प्रयोग किया गया। लेकिन, दूसरी तरफ दलित लिखकर क्या साबित करना चाह रहे हैं। यही न कि चैनल दलितों को लेकर बहुत ही सहानुभूति रखता है। वो भी वहां जहां की सरकार दलितों के हित में हमेशा तैयार खड़ी है। ये तो आप सोचते हैं। हो सकता है इसका सामाजिक प्रभाव कुछ और बनता हो। इधर आप देखिए कि दलित-विमर्श के नाम पर दलितों की स्थिति मजबूत करने के बजाए दलित नेतृत्व उन सारे प्रसंगों को खोज लाने में अपनी ताकत झोंकती नजर आती है जहां सवर्णों ने उनका शोषण किया, उनका अपमान किया। इन्हीं संदर्भों को खोजते-खोजते वो प्रेमचंद की रचना रंगभूमि और गोदान तक चले जाते हैं और एक हद तक प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील रचनाकार भी दलितविरोधी लगने लग जाते हैं। ऐसा करने से दलितों का कितना भला होता है इसके आंकड़े हो सकता है उन नेताओं के पास हो। लेकिन सवर्ण के प्रति दलित आक्रोश का ग्राफ जरुर बहुत उपर चला जाता है जो कि दलितों के हित में कम और नेताओं के हित में ज्यादा है। इस ग्राफ के भीतर वो विकास काम के प्रति अपने निकम्मेपन को छिपा ले जाते हैं। इस अर्थ में ये पूरी कारवाई हिन्दूवादी रुझान की राजनीति करनेवालों से किसी भी मामले में अलग नहीं है। जो एक तरफ अपनी गौरव गाथा बताने के साथ ही ये भी बता देते हैं कि आज हमारी दुर्दशा किसने की है।...और बंदा अपनी स्थिति सुधारने के बजाए प्रतिशोध में कूद पड़ता है और सारा मामला विकास बनाम प्रतिशोध बनकर रह जाता है। इसलिए दलितों के प्रति सहानुभूति जताने का जो रवैया चल निकला है जिसमें कि मीडिया भी शामिल है। आनेवाले समय में वो भी इस बात का संदर्भ बने कि इसने देश में जातिवाद की जड़ को मजबूती दी है। क्योंकि सहानुभूति का छद्म आगे जाकर जरुर चरमराएगा और दलित इस बात को समझने लगेंगे कि जहां-जहां दबंग शब्दों का मीडिया ने प्रयोग किया है, दरअसल वहां सब के सब सवर्ण ही रहे हैं। इसलिए मीडिया को अभी भले ही लग रहा हो कि शब्दों के कुछ उलटफेर से दलितों के प्रति सहानुभूति और सवर्णों का बीच-बचाव एक साथ कर ले रही है लेकिन बहुत जल्द ही शब्दों की ये कलाबाजी दलितों की समझ के भीतर होगी। हर दलित शोषण और अत्याचार से जुड़ी खबरों को बाकी चीजों को छोड़कर अंधाधुन केवल दलित बोलकर चलाने और दूसरी तरफ सवर्ण की जगह दबंग जोड़ने के पहले सोचना होगा। नहीं तो... अभी तो बाजारवाद, पूंजी और अश्लीलता में लिपटी मीडिया को कोस ही रही है लेकिन कल को इस पर जातिवाद को मजबूत करने का आरोप भी लग जाए, जातिगत आधार पर खबर प्रसारित करने का आरोप लग जाए तो वो भी बेबुनियादी नहीं होंगे। यही बात आज की जनसत्ता के संपादकीय उत्पीड़न के हाथ पर भी लागू होती है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 9223 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080502/210662d0/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Sun May 4 22:38:26 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 4 May 2008 22:38:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleClgeCkguCkoOCkviDgpJXgpYAg4KSs4KSy4KS/IOCkqCDgpJo=?= =?utf-8?b?4KSi4KS8IOCknOCkvuCkjyDgpKzgpY3gpLLgpYngpJfgpJzgpJfgpKQ=?= Message-ID: <829019b0805041008q5d1462f0gd163b706451fb400@mail.gmail.com> अवीनाश, भडास, एन डी टी वी ओर हिन्दी ब्लोगजगत पोस्ट में खुल के बोल ने लिखा कि हिंन्दी ब्लॉगिंग के 5000 ब्लॉग्स मे से सिर्फ दो – मोहल्ला और भड़ास ही दर्शकों तक पहुँचाये गये । इसके अलावा अविनाश के करीबी यार रवीश , का ब्लॉग कस्बा का पता दिखाया गया । उनकी शिकायत है कि बाकी लोग कहां गए।... खुल के बोल की जो पीड़ा है, इसे मैं पीड़ा न कहकर मलाल कहूं तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि पीड़ा खुल के बोल को बहुत ही निरीह और असहाय बना देगा जो कि वो हैं नहीं। खैर, खुल के बोल का जो मलाल है वो हिन्दी समाज के लिए नया नहीं है। हिन्दी समाज इसका पुराना मरीज और मुरीद रहा है। आप एक राउंड लगा आइए हिन्दी वालों के बीच आपको इसका अंदाजा लग जाएगा कि हिन्दी समाज में ९० प्रतिशत से ज्यादा लोग मलाल और कुंठा में जीते हैं और इस बीच अगर कुछ लिखते भी है तो इससे गुजरते हुए। स्थापित तो स्थापित जिन्हें अभी लिखना शुरु किए जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं हुए वो आपको कहता मिल जाएगा- देखिए जी, दस कहानियां लिख चुका, अभी तक राजेन्द्रजी ने कहीं कुछ कहा ही नहीं मेरे बारे में। पचासों कविताएं छप चुकी है, नामवरजी ने कभी नोटिस नहीं ली। अब तक पता नहीं किस मसले पर लिखता रहा लेकिन जैसे ही उसके दिमाग में ये बात आनी शुरु हो जाती है कि उसकी कोई नोटिस नहीं ले रहा, आगे से चाहे वो जिस किसी मुद्दे पर लिखे, उसमें जाने-अनजाने कुंठा,मलाल, नोटिस होने की छटपटाहट घुलने लगा जाती है। ये कितना सही है या गलत, पता नहीं लेकिन किताबी ज्ञान की बात करुं तो मम्मट, भामह से लेकर नए आचार्यों ने रचनाकार की उपलब्धि में बाकी चीजों के साथ यश की प्राप्ति बताया है। कोई बंदा इनके शास्त्र न भी पढ़ा हो तो लिखनेवालों के बीच यश पाने की लालसा जन्मजात होती है, यानि जब से वो लिखना शुरु करता है। इसका नतीजा होता है कि कई बार लिखनेवाले की रचना उसके मुद्दे और लिखने की वजह से खिसकते चले जाते हैं। कई उभरते रचनाकार इस हादसे के शिकार हो चुके हैं। जिन्हें इस बात का एहसास होने लगा कि नोटिस होने के लिए कुछ अलग लिखो, उटपटांग भी लिखो यो फिर नोटिस में आ गए हो तो नोटिस में बने रहने के लिए लिखो। ऐसे में वो अपने भीतर ही आए दिन अपने से लड़ता है, अपनी कुंठा से लड़ता है। मैंने अपने एम.ए की पढ़ाई के दौरान कुछ ऐसे भी मास्टरों से शिक्षा ली है जिनका मलाल बना रहा कि उन्होंने कविता पर और वादों ( इज्म) पर इतनी सारी किताबें लिख दीं लेकिन साहित्य के इतिहासकारों ने उनके बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा. एक दो ऐसे विद्वान और हिन्दी के बाबा मिल जाएंगे जिन्हें इस बात का मलाल है कि उनसे टटपूंजिए लोग प्रोफेसर बन गए और वो रीडर से ही रिटायर हो गए।... और उनकी ये कुंठा और मलाल इनकी राइटिंग में इतनी हावी हो जाती है कि वो हमें बता ही नहीं पाते कि वो कहना क्या चाह रहे हैं. मुद्दे से फिसलना इसे ही कहते हैं। खुल के बोल जिस बात को आज रख रहे हैं कि ५००० ब्लॉगों के बीच केवल तीन ही चार ब्लॉग हैं जिसकी चर्चा एक नेशनल चैनल में की जानी चाहिए, ये मसला भी नहीं है। इनकी तरह मैं भी जब नया-नया ब्लॉग की दुनिया में आया तो नीलिमा के एक लेख पर गहरी आपत्ति दर्ज की थी कि उन्होंने करीब आठ-दस पन्ने में जो लेख लिखा उसमें मोहल्ला जैसे चर्चित ब्लॉग की कहीं कोई चर्चा ही नहीं की। मैं इस बात को पचा ही नहीं पा रहा था कि इतने पॉपुलर ब्लॉग को कोई कैसे छोड़ सकता है र तब मैंने मोहल्ला पर ही पोस्ट लिखी। वो लेख भी देशभर में बिकनेवाली नए विमर्शों की त्रैमासिक वाक् में छपी थी।... लेकिन धीरे- धीरे मैं समझने लगा कि हम या हम जैसे कोई भी नए लोग जब ब्लॉग की दुनिया में आते हैं तो उसे बहुत ही मासूम और इन्सेंट माध्यम मानने लगते हैं। इसी क्रम में, कलम छोड़कर जब लोगों ने कीबोर्ड थामा तो एकबारगी तो ऐसा लगा कि अब हिन्दी समाज हीनता की ग्रंथि जल्द ही मुक्त हो जाएगा। क्योंकि अब कतरन फाड़कर दिखानेवाले भी औकात में आ जाएंगें जो अबतक मुनादी किए फिरते थे कि देखोजी, हमारा छपा है। यहां तो मामला एकदम से साफ है कि जिसको लिखना है लिखे, जैसा चाहे लिखे। जिसमें औकात होगी, उसे लोग पढ़ेंगे। संपादक जैसे किसी भी नॉलेज ब्राकर की जरुरत नहीं है। आप ही लेखक, आप ही संपादक और जो कुछ भी आर्थिक मुनाफा होगा, उसके हकदार आप ही। लेकिन, फिर उस कहावत का क्या होता- *चल जाओ चाहे नेपाल, रहेगा वही कपाल।* आमतौर पर हिन्दी समाज में कोई विचारधारा या तकनीक आती है तो उससे इस बात की उम्मीद कर ली जाती है कि अब क्या, इसके आते ही सारी झंझटें दूर हो जाएंगी। परिवार से लेकर व्यक्तिगत कुंठा तक सारी चीजें दूर हो जाएंगी। जबकि सच्चाई ये है कि जब भी हम किसी चीज को अपनाते हैं तो उसे अपनी मानसिकता के साथ शामिल करते हैं। इसलिए माध्यम के बदल जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। हिन्दी समाज में पॉपुलर होने का बहुत ही सीधा फंड़ा है। शुरु में लात खाओ और बाद में लात मारने की कला सीखो और फिर लात मारने और गलती से खा लेने पर बर्दाश्त करने की कला सीखो। इसे आप बने रहने का बेसिक फंड़ा भी कह सकते हैं और इसी में अगर बरकत होती रही तो बने रहने से आगे की स्टेप जिसे अपनी भाषा में मठाधीशी भी कहते हैं। इस फार्मूले के तहत लिखते-पढ़ते रहने से कभी मलाल नहीं होता, कुंठा कभी पनपने नहीं पाती। खुल के बोल वाले भायजी अगर आप इतनी बात समझते हैं, समझते तो हैं ही, बस ध्यान से उतर गया होगा तो अब आपको समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि पांच हजार के ब्लॉग के बीच तीन ही क्यों।...और जबाब मिलते ही मलाल थूक दीजिएगा, प्लीज.... ।।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080504/a303ce76/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon May 5 15:28:19 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 5 May 2008 15:28:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KS/4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleCliyDgpJfgpL7gpLLgpYAg4KSoIOCkreClgCDgpKbgpYfgpIIs?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCksCDgpKTgpYsg4KS44KSV4KSk4KWHIOCkueClgCDgpLk=?= =?utf-8?b?4KWI4KSC?= Message-ID: <829019b0805050258m5e8ccd80h12fa61f333867715@mail.gmail.com> हां, वो कनकलता ही है। मैंने उसे अक्सर किताबों के पन्नों के बीच उलझते देखा है। गाइड के इंतजार में डिपार्टमेंट के आगे इंतजार करते देखा है। लेकिन कभी उसकी आवाज नहीं सुनी।....जबकि कल से लेकर आज तक उसकी तस्वीर और दास्तान पूरी मीडिया में पसरी हुई है। कल दोपहर को ही जब राकेश सर मुझे बुलाकर खुद घर से गायब हो गए तो मैंने पता किया कि भई, बात क्या है। दो घंटे बाद जब वो वापस लौटे तो बताया अभी-अभी मुकर्जीनगर से एक फोन आया है। मकान मालिक ने किराये पर रह रहे भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा है। वजह सिर्फ इतनी है कि उसे पता चल गया कि वो लोग दलित हैं। शनिवार को हुई इस घटना की रिपोर्ट पुलिस ने अभी तक दर्ज नहीं की है। उसमें से एक डीयू से ही एम।फिल् कर रही है। उस समय ये पता नहीं चल पाया कि वो मेरे विभाग में ही है। आने के बाद राकेश सर मीडिया के रवैये से काफी नाराज थे। सारे लोग एक कागज के टुकडे के पीछे पड़े थे, पता नहीं उस कागज के टुकड़े में ऐसा क्या था. और जी-जान से उस कोशिश में लगे थे कि किसी तरह उस लड़की की बाइट मिल जाए। कुछ चैनल बार-बार एक ही बात दुहरा रहे थे कि इसका बेस क्या है। बेस और सुपरस्ट्रक्चर की तलाश के बीच मानवीय संवेदना की स्टोरी कितनी निकल पायी होगी इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि समय बीतने के साथ ही घटना पर परत दर परत चढ़ते चले गए।॥....इन सबके वाबजूद संवेदना का पक्ष भले ही छूट जाए लेकिन खबर तो बनी ही कि एक डीयू की रिसर्चर और दूसरी सिविल की तैयारी करनेवाली दलित लड़कियों को दिल्ली के एक मकान मालिक ने बुरी तरह पीटा है।... और शुरुआत के कुछ घंटों में जिसे दलित जाति की जानकारी होने पर मकान मालिक द्वारा पीटे जाने की घटना बोलकर स्टोरी चली, बाद में उस कहानी के कई तार निकल आए और दैनिक सोने से पहले मैंने चौबीस घंटे चौबीस रिपोर्टर में ये खबर देखा कि मकान-मालिक ने उसे सिर्फ इसलिए पीटा क्योंकि वो दलित है। जबकि सुबह दैनिक हिन्दुस्तान ने मकान मालिक की बात को भी छापा कि- दरअसल मामला ये है कि एग्रीमेंट के मुताबिक करार खत्म हो गया था और इन्हें मकान खाली करनी थी और हमनें जब ऐसा करने को कहा तो ये जातिसूचक शब्दों के प्रयोग का आरोप लगा रही है। यानि कि मकान मालिक ने लड़की के दलित होने पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया। थोड़ी देर के लिए अगर इस बात पर भरोसा कर भी लिया जाए कि ऐसा ही हुआ होगा और लड़की और उसके भाई-बहन मकान छोड़ना नहीं चाह रहे होंगे और बात बढ़ गयी होगी। लेकिन तब उसका क्या करें जिसे कि पूरी मीडिया में दिखाया गया। लड़की का शरीर जगह-जगह से छिल गया है। हाथों पर भी चोटें आयी है। दूसरी बहन का चेहरा बुत बना हुआ है। मकान-मालिक अगर चाहे तो आगे भी जोड़ सकते हैं कि ये सारे घाव उसने खुद हमें फंसाने के लिए बनाए हैं। देश में एक तपका ऐसा भी है जो उनकी बातों को आसानी से मान लेगें कि- हांजी ऐसा ही हुआ होगा। बाहर से आकर ये लोग पढ़ाई के नाम पर दिल्ली के लोगों को फजीहत में डालते हैं।...और फिर, महिलाओं और दलितों के मामले में ऐसा करना तो बहुत ही सामान्य-सी बात है। जब भी लड़की, स्त्री से कोई जुड़ा कोई मामला हो तो साफ कहो कि- अजी, मैं जानता हूं, वो चाल-चलन की ठीक नहीं थी और जब इस बात पर उंगली उठायी गयी तो फंसा दिया। चाल-चलन और चरित्र को लेकर न जाने कितनी स्त्रियां इंसाफ पाने से रह जाती है और पितृसत्तात्मक समाज की अकड़ मजबूत होती है। इधर प्रशासन भी बहुत ज्यादा खोजबीन के पचड़े से बच जाती है। और वैसे भी समाज के गिने-चुने इज्जतदार लोग कह दें कि हांजी, बात सही है तो फिर प्रशासन को मानने और पचाने में क्या परेशानी है। तथाकथित समाज के इज्जतदार लोगों और रसूकदारों के बीच इतनी भी समझ नहीं बन पायी है और शायद कभी भी न बने कि एक स्त्री जो अपने चरित्र को लेकर इतनी कॉन्शस रहती है, एक दलित अपनी जाति को लेकर इतना इनस्क्योर रहता है वो इसे सरेआम कैसे होने देंगे। मकान मालिक को इस बात का अंदाजा ही कहां होगा कि जिस लड़की पर उसने झूठा होने का आरोप लगाया है उसकी जिंदगी का अच्छा-खासा समय अस्मिता की तलाश और उसके विमर्शों से होते हुए गुजरा है। हर साल मानवीय संवेदना का पक्ष लेते हुए परीक्षाएं पास की है। कितनी टूट-फूट मची होगी उसके भीतर और एक रिसर्चर होना भी उसे कितना खोखला लग रहा होगा। इन सब मसलों पर भला कहां सोच सकते हैं वो। सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग तमाम तरह की आधुनिकता से लैस होने के वाबजूद दलित और जाति व्यवस्था के सवाल पर अपने को बदल नहीं पाए और बदलना भी नहीं चाहते। क्योंकि सबकुछ तो गंवा ही चुके। एक यही जातिवाद तो पुरखों की निशानी है और इसे भी कैसे छोड़ दें।...वो भी वेवजह, जबकि छोड़ने का कोई लाभ ही नहीं है और उल्टे आनेवाले समय में परेशानी भले ही हो जाए। ऐसे में दिल्ली जैसे तथाकथित स्वच्छ दिल्ली, हमारी दिल्ली में भी कोई जातिवाद को जिंदा रखना चाह रहा है तो इसमें बेजा क्या है। आखिर जातिवाद उनके पुरखों की निशानी है। लेकिन, इसके ठीक उलट दलित ही क्यों, शोषित समाज का कोई भी हिस्सा और उसकी पीढ़ी अपने पुरखों की निशानी को बचाना नहीं चाहती, उसे जल्द से जल्द धो-पोछना चाहती है।....और कनकलता इसी की कड़ी है। उसके जैसी लाखों देश की लड़कियां अपने पुरखों की निशानी को मिटाने के औजार खोजती आगे बढ़ रही है। सवर्णों के शोषण के हथियार से जब वो सर्ववाइवल के औजार बना रहीं हैं तो तो तकलीफ होगी ही। लेकिन बदलाव की बयार इसी तकलीफ के भीतर से होकर गुजरते हैं। ....और इसका असर भी तो दिखने लगा है। जैसे कि मुकर्जीनगर क्या, कहीं का भी मालिक ये भले ही कह दे कि ये जाति का मामला जोड़कर हमें फंसा रहे हैं लेकिन उसने ये हिम्मत खो दी है कि वो जबरदस्ती करके कहे कि ये घाव भी इसने खुद बनाए हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080505/4125a0a0/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Tue May 6 15:41:59 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Tue, 06 May 2008 15:41:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWC4KSX4KSy?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpKLgpLngpL7gpIgg4KSt4KS+4KS34KS+4KSIIOCkpuClgA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <48202EEF.4030702@sarai.net> *गूगल ने ढहाई भाषाई दीवार* संजीव तिवारी, तकनीक भेदभाव नहीं करती। कई भाषाओं में अनुवाद की सुविधा पेश कर गूगल ने भी इस बात पर मुहर लगाई है। सोमवार को अपनी वेबसाइट पर शुरू की गई इस सेवा के जरिए खोजी नंबर सर्च इंजन गूगल ने भाषाई दीवार ढहा दी है। अपनी तरह की इस अनोखी व पहली सेवा में हिंदी और अंग्रेजी को आपस में अनुवाद करना बस अंगुली नचाने का खेल है। इसके जरिए चार अन्य भारतीय भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है। खूबियों का खात्मा यहीं नहीं होता, अनुवाद सेवा में आप पूरा का पूरा वेबपेज भी साधारण कॉपी-पेस्ट के जरिए हिंदी में पढ़ सकते हैं। आप अपनी भाषा में ब्लॉग लिखकर उसे अंग्रेजी में तब्दील कर सकते हैं। गूगल इंडिया के प्रोडक्ट मैनेजर राहुल चौधरी के मुताबिक इस सेवा के जरिए अंग्रेजी में कठिनाई महसूस करने वाले लोग भी इंटरनेट के अथाह सागर से ज्ञान के मोती हासिल करने में कामयाब रहेंगे। उन्होंने कहा कि ग्लोबल भाषा होने के कारण इंटरनेट पर ज्यादातर सामग्री अंगे्रजी में ही है, लेकिन देश में केवल 13 फीसदी लोगों की ही इस पर ठीक-ठाक पकड़ है। ऐसे में गूगल की यह सेवा इन लोगों के लिए वरदान साबित होगी। यह सेवा इंटरनेट पर डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.गूगल.इन/ट्रांसलेट-(अंडरस्कोर)टी टाइप कर हासिल की जा सकती है। चौधरी ने कहा कि शुरुआती दौर में इसमें कुछ वाक्यों के अनुवाद का भाव गलत भी हो सकता है। इस त्रुटि को सुधारने की व्यवस्था भी वेबसाइट में है। इसमें नेट यूजर्स सही अनुवाद टाइप कर भेज सकते हैं। इस अवसर पर गूगल ने गुजरात सरकार की साझा सेवा केंद्र (सीएससी) परियोजना में भी भागीदार बनने की घोषणा की। इस परियोजना के तहत गुजरात सरकार ने राज्य के ग्रामीणों के जीवन स्तर में तकनीकी सुधार के लिए प्रति हजार आबादी पर एक इंटरनेट कियोस्क स्थापित करने का लक्ष्य रखा है।गूगल ने ढहाई भाषाई दीवार इस परियोजना में भागीदारी करते हुए गूगल ने अपने होमपेज पर एक लिंक होम.ईग्राम.को.इन दे रखा है। इसमें क्लिक करते ही गूगल की सारी सामग्री गुजराती में उपलब्ध होती है। उदाहरण के तौर पर इसकी सोशल नेटवर्किग वेबसाइट आरकुट में भी राज्य के ग्रामीण गुजराती में अपने संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। गूगल इंडिया के प्रेसीडेंट(आरएंडडी) डा. प्रसाद राम ने बताया कि भविष्य में अन्य राज्यों के साथ भी ऐसी परियोजना पर गठजोड़ किया जाएगा। From avinashonly at gmail.com Tue May 6 22:21:13 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Tue, 6 May 2008 16:51:13 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Meet Poet Majaaz the Muslim In-Reply-To: References: Message-ID: <85de31b90805060951gf0f21f1q60f09ff9b61d3413@mail.gmail.com> kya koi sajjan iska hindi mein anuwaad kar sakte hain? ---------- Forwarded message ---------- From: Qurban Ali Date: May 3, 2008 4:09 PM Subject: Meet Poet Majaaz the Muslim To: avinash das Dear Avinash, It can be a good piece for Mohalla if one can translate it. Cheers! Qurban [image: Jawed Naavi] *Meet Majaaz the Muslim * *By Jawed Naqvi* IN India’s Brahminised concept of secularism it was inevitable that a little noticed five-rupee postal stamp issued on March 28 to celebrate the anti-imperialist, anti-capitalist Urdu poet Asraar ul Haq Majaaz showed his handsome visage superimposed on the picture of a mosque. The fact is that Majaaz, a renowned romantic and agnostic, had as little to do with a mosque as his contemporaries like Faiz and Josh or Ghalib and Mir who preceded them by well over a century.. But the dominant semi-official formula â€" Urdu equals Muslims equals mosques â€" is not unique to India alone. Early protagonists of Pakistan fell into the trap until Bangladesh happened and, at great cost, showed up their mistake. However, even if for the wrong reason, Urdu has at least been saved in Pakistan from the slow extinction it has been subjected to in India. Last week, thanks to the rare effort of its scholarly vice-chancellor, the Jamia Milia Islamia in Delhi unveiled a conference hall named after Mir Taqi Mir. The complex has a room dedicated to the memory of the matchless marsia writer Mir Anis. What becomes of these facilities eventually is for the future to tell. The last time I heard of it, the spot in Lucknow where Mir’s grave would be stands dissected by a railway track. It would be well nigh impossible for us to locate Ghalib’s grave in Delhi but for the efforts of filmmaker Sohrab Modi who built a simple marble tomb over the place near the Hazrat Nizamuddin shrine, rescuing it from the squatters and stray animals that defiled it. To mark his centenary some years ago, Ghalib’s famous haveli in Gali Qasim Jaan of Old Delhi was cleared of the coal depot it had become. Though a public telephone stall still operates from within its precincts, at least his countless lovers can make their pilgrimage to the fabled narrow lanes and an aesthetically restored haveli. But perhaps I am complaining too much. After all, the modest philatelic event for Majaaz was an uncommon official gesture in the service of Urdu literature, a language shunned, I suspect, because it embarrasses freed India’s comprador administrators. After all, Urdu encompassed a culture of resistance to man’s enslavement by man, intense love and passion, eclectic mysticism, full-blooded hedonism, unrelenting anti-imperialism and a defiant conversation with God and the mullahs, when necessary â€" mullahs who were more often than not depicted as dishonest agents of religious lottery. The new Indian state connived with the mullahs to throttle Urdu and to turn it into a language of their prescriptive religious seminaries. That’s how the unstoppable Sahir Ludhianavi was compelled to observe the state of affairs bluntly amid the official Ghalib celebrations: Ghalib jisey kehtey hain, Urdu hi ka shayer tha Urdu pe sitam dha ke Ghalib pe karam kyun hai? (Ghalib was an Urdu poet, his muse you’ve all but killed Celebrate him but destroy his language? Is that what he willed?) So 52 years after Majaaz was picked up on a freezing winter morning from a country liquor shop in Lucknow, this full-blooded agnostic was declared a religious Muslim in the Indian capital by sheer innuendo. He possibly lived for a few hours more after being rescued by a passerby but the end came soon enough (either of pneumonia or was it cirrhosis) at Lucknow’s Balrampur Hospital. The tragic news spread to the far corners in an instant thanks to the sway that the Progressive Writers’ Association held over much of India those days. Majaaz was the group’s most beloved and most tragedy-prone member. Showing Majaaz with a mosque is a metaphor not unique to him. The Congress leaders had successfully belittled Mohammad Ali Jinnah when they overlooked his impeccable liberal credentials and painted the giant national leader as a smaller representative of Indian Muslims. The dangerous ploy boomeranged hard when Jinnah did become a leader of Indian Muslims. Would the government of India bring out a stamp on its best-known icon of liberal ideals Jawaharlal Nehru with a Hindu shrine in the background even if he may have visited the most splendorous temples in southern India? I am pretty certain they dare not. They know that images carry far more loaded meanings than words can ever convey.. Aligarh University, where Majaaz studied, is not about mosques alone as the stamp tries to suggest. It has the beautiful British-built Strachey Hall and countless other secular symbols. The university reminds me more of great historians like Irfan Habib, progressive writers like Jazbi and Sardar Jaffri and of course Majaaz and more recently Shahryaar, an excellent Urdu poet doomed to be known as the fellow who wrote lyrics for a movie about a famous courtesan. Let me quote a poem by Majaaz to illustrate why the mosque was the wrong symbol for him. He wrote Khwaab-i-Sahar in 1939, the title of hope suggesting that morning dreams often come true. The poem is mostly about man’s exploitation by vendors of religion. A few relevant lines go thus: Masjidon main maulvi khutbe sunate hi rahe, Mandiron mein barhaman ashlok gatey hi rahey Ik na ik dar par jabeen-i-shouq ghisti hi rahi Aadamiyat zulm ki chakki mein pisti hi rahi Rahbari jaari rahi, paighambari jaari rahi Deen ke parde mein jang-i-zargari jaari rahi. (The mullah and the pundit and their ceaseless sermon Man bowed before each one of them but did he learn The great messiahs came claiming divinity Their religions, mostly ruses for plunder turn by turn.) Its peculiar association with South Asia’s Muslims has accompanied the virtual dismemberment of Urdu in India. This shows insensitivities on two counts. First, it is unfair to South Asian Muslims of other hues such as Tamil, Malayali, Telugu, Konkani, Gujarati, Bengali, Baloch, Punjabi and Pashtun among others. Secondly, the approach insults the invaluable contribution of Hindu and Sikh writers of Urdu such as Brijnarayan Chakbast, Prem Chand, Firaq Gorakhpuri, Upendra Nath Ashk, Rajinder Singh Bedi, Krishan Chander, Malik Ram and Ram Lal. There were notable Anglo-Indian Urdu poets too. Releasing the stamp, Indian Vice-President Hamid Ansari described Majaaz as a revolutionary poet whose writings impacted an entire generation. “His poems were full of romance and revolution.â€� From the corner of the stamp, Majaaz appeared to mock the proceedings where he must have spotted nephew and film lyricist Javed Akhtar, and sister Hameeda Salim. In a message scribbled in Urdu, the dying language of India, Majaaz laughed: Bakhshi hain humko ishq ne wo jurratein Majaaz Dartey nahi siysat-i-ahl- i-jahaan se hum. (Unalloyed love gives me a potent elixir that I can dare The politics, the cunning intrigues of life everywhere.) n *The writer is Dawn’s correspondent in Delhi. jawednaqvi at gmail. com * __._,_.___ Messages in this topic (1) Reply (via web post) | Start a new topic Messages The author is solely responsible for his view. AligarhNetwork neither endorses nor condones any policy of American Govt at the international level and at times where appropriate project positive image. Moderator AligarhNetwork For more information visit home page: http://groups.yahoo.com/group/AligarhNetwork/ "From the seed which we sow today there may spring up a mighty tree whose branches, like those of the banyan of the soil, shall in their turn strike firm roots into the earth and themselves send forth new and vigorous saplings.. This college may expand into a university whose sons shall go forth throughout the length and breadth of the land to preach the gospel of free enquiry, of large hearted toleration, and of pure morality." -- Sir Syed Ahmad Khan The tradition continues…………. ation, and of pure morality." -- Sir Syed Ahmad Khan The tradition continues…………. __,_._,___ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080506/20a48b16/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 5649 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080506/20a48b16/attachment-0001.jpe From vineetdu at gmail.com Wed May 7 12:30:12 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 7 May 2008 12:30:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWB4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSr4KS84KSc4KS+LCDgpI/gpJUg4KSu4KWB4KS44KSy4KSu4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCktuCksOCljeCkrOCkpA==?= Message-ID: <829019b0805070000g158aac96m424996a1d5c3dc99@mail.gmail.com> तुम्हें कैसे रुह आफ़जा इतना पसंद है, मुझे तो इससे मुसममानी स्मेल आती है। मैंने पूछा, मुसलमानी मतलब, इत्र औऱ गुलाब जैसी खुशबू क्या। उसने कहा नहीं, वैसी नहीं स्मेल माने दुर्गंध। मुझे इससे मुसलमानी दुर्गंध आती है। उसने जातिगत तरीके से सुगंध और दुर्गंध पर रिसर्च कर लिया है तो उसके आगे मैंने कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। लेकिन क्या मुसलमानी दुर्गंध कुछ अलग से भी होती है . कल लाइट नहीं थी, पूरा हॉस्टल हाउंटेड पैलेस की तरह लग रहा था। कोई बंदा अपने कमरे में टिकना नहीं चाह रहा था। फिर क्या हो गया बाहर लॉन में लोगों का जमावड़ा। मैं अपनी एथिनिसिटी बघारने के लिए एक ताड़ का पंखा ले आया। उसके बाद तो धीरे-धीरे हमलोग नॉस्टॉलजिया के शिकार होते गए। सब बताने लगे कि वो अपने घर में गर्मी के दिनों में क्या-क्या करते थे। आमझोर( दिल्ली में लोग आमपन्ना कहते हैं) से लेकर बेल का शर्बत, खजूर और ताड़ की ताडी तक आ गए। और फिर मामला ऐसा जमा कि लोग शर्बत को लेकर बातें करने लगे। मेरे पास घर और शर्बत को लेकर सिर्फ एक ही याद है। छुटपन में मैं एक खाली गिलास और चम्मच लेकर मां के पीछे-पीछे घुमता रहता। मां से कहता कि शर्बत बनाने के लिए मेरे पास तो सबकुछ है कि, तुम सिर्फ जरा-सा रुह आफ़जा दे दो। मां घर के छोटे-मोटे काम करवाती और फिर नापकर दो ढक्कन रुह आफंजा दे देती। उससे शर्बत मीठा तो नहीं बनता सिर्फ लाल रंग आता। घर में जब कोई आते तब मां ज्यादा ड़लकर बनाती और बर्फ भी डालती। बाद में जब घर छूटा तो पांच साल रांची में रहना हुआ। ...और घर यानि जमशेदपुर से किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता। सो हमेशा रुह-आफ़जा मां भेजा करती। फिर तो ऐसा हो गया कि रुह आफ़जा के स्वाद से ज्यादा एक रुटीन-सा हो गया कि गर्मी के दिनों में बाहर से आने पर इसे पीना है। लेकिन दिल्ली आने पर मैंने कभी अपने से खरीदा नहीं। क्योंकि रुह आफ़जा के साथ मां भी याद आती है और फिर कौन इतनी व्यस्त जिंदगी में नॉस्टॉलडिया का शिकार होना चाहेगा। लेकिन कल तो रुह आफ़जा को लेकर बिल्कुल नई बात हो गयी। किस आधार पर वो बंदा इसे मुसलमानी स्मेल वाली शर्बत कह रहा था। मैंने पूछा भी कि, हमदर्द का है इसलिए क्या। उसने कहा नहीं। अगर आप पीजिएगा तो लगेगा कि आसपास कोई मुसलमानी बैठी है। कैसी बेतुकी बाते करते हो यार। क्या हमदर्द ने उनके स्मेल पर रिसर्च करके ऐसा तैयार किया है। घुमा-फिराकर वो बंदा इसे अच्छी शर्बत नहीं कहना चाह रहा था। हो सकता है किसी को इसकी फ्लेवर पंसद न आए। लेकिन किसी खास समुदाय से खाने-पीने की चीजों को जोड़कर देखना, पता नहीं क्यों, मुझे अटपटा सा लगा। मुझे याद है जब हम भाई-बहन छोटे थे तो घर से आगे एक ब्रेड बनाने की फैक्ट्री थी। उसके मालिक का लड़का सादिक मेरा क्लासमेट था। वो अक्सर लंच में पांवरोटी जिसकी शक्ल बर्गर ने ले ली है। दिल्ली में लोग इसे मीठी ब्रेड कहते हैं। उपर एक चेरी का टुकड़ा खोंसा होता है। वही पांवरोटी, एकदम ताजी और मुलायम सादिक लेकर आता।...और हमलोग उससे टिफिन बदल लेते। बाद में हमलोग उसके यहां जाकर भी लाया करते। मेरी दादी जिसे हमलोग भोंपा कहते। क्योंकि वो चुपचाप बैठकर सबों को सिर्फ नसीहतें देती रहतीं। हर बात के पीछे पड़ जाती। अगर आप आम काट रहे हैं तो देखते ही कहेगी-ठीक से अंगुरी कट जैतो। दूध पीते देख कहती- गरम है, मुंह जल जैतो। ....और अक्सर हमलोगों के साथ ऐसा होता। तब हम रोते हुए चिल्लाते, अब खुश। पांवरोटी खाते भी देखकर नसीहतें देतीं। मत खाओ, गोड से यानि पैर से रौंदकर बनाता है सब। पता नहीं कहां-कहां से चलके आता होगा। हमलोग कहते, नहीं हम देखकर आते हैं, सादिक भी बताता है कि कोई पैर से नहीं रौंदकर बनाता है। तब आगे कहती- तयिओ तो बनाता तो मुसलमान ही है। आज जब उस बंदे ने स्मेल वाली बात कही तो अचानक से ये सब याद आ गया। आप इसे भी नॉस्टॉलजिया कह सकते हैं। लेकिन दादी की बात को समझना ज्यादा आसान था कि वो मुसलमानों के हाथ का बना खाने से परहेज करती है। ये अलग बात है कि जाने-अनजाने कितनी चीजें खा लिया करती। लेकिन इस बंदे के बारे में आप सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि वो दादी की बात को दुहरा रहा है। वो एक तरह से आरोप लगा रहा है कि मुसलमानों से एक स्मेल आती है। उसके हिसाब से गंदी स्मेल। कुछ-कुछ रुह आफ़जा की तरह या फिर मुसलमानों की तरह का रुह आफ़जा की स्मेल। अगर उसके दिमाग में स्मेल का संबंध गंदगी से है तो फिर हिन्दू बस्ती और उसके लोग क्यों नहीं आए। गंदगी उनके बीच कम है क्या। तो क्या गंदगी औऱ हमदर्द के होने की वजह साथ-साथ है। जाति और समुदाय को लेकर बाजार कैसे खड़ी करता है, ब्रांड का मायाजाल॥पढिए अगली किस्त -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-239487 Size: 29634 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080507/9ef1cae6/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu May 8 12:31:49 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 8 May 2008 12:31:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSoIOCkrOCkqOCkvuCkj+CkguCkl+ClhyDgpJrgpL/gpJU=?= =?utf-8?b?4KSoIOCklOCksCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYIg4KS44KS/4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSrIOCkuOCli+CkueCkqOCkueCksuCkteCkvg==?= Message-ID: <829019b0805080001u11a2898bg2c26da6e85a50779@mail.gmail.com> हद है, मुसलमान होकर भी चिकन बनाना नहीं जानता। गए थे, बहुत नाम सुन रखा था, भरोसा करके कि कुछ खास होगा। साढ़े चार सौ रुपये बर्बाद हो गए। ये दास्तान है हॉस्टल के हमारे दूसरे साथी की जो कुछ दिनों पहले मेस बंद होने की वजह से बाहर खाने गए थे। चांदनी चौक के उस रेस्तरां में जिसका उन्होंने बहुत नाम सुन रखा था। दि हिन्दू में रिव्यू भी पढ़ी थी उसने। लेकिन आज बहुत खुन्नस खाए हुए थे। उनका कहना बिल्कुल साफ था कि- अब गलती से भी कभी नहीं जाएंगे वहां और किसी को जाने की राय भी नहीं देंगे। मैंने उनसे कहा भी कि हो सकता है आज ऐसा हो गया हो, नाम तो मैंने भी सुना है बहुत वहां का। यहां तक कि लोग बताते हैं जब शाहरुख या रानी मुखर्जी दिल्ली आने पर तो वहां एक बार जरुर खाते हैं। कुछ तो बात होगी, तभी तो।..वो बंदा गरम था, अजी खास होगा कच्चू। चावल वैसा ही घटिया और चिकन की पीस, ओह नाम मत लीजिए। बेकार में इतना नाम है। भाई साहब जिसका नाम ले रहे हैं,वाकई वो दिल्ली का मशहूर नॉनवेज रेस्तरॉ है। दिल्ली क्या नॉनवेज के शौकीन लोग दिल्ली के बाहर भी इसका नाम अलापते हैं। मैं कभी वहां गया ही नहीं। एक बार सीएसडीस-सराय के वर्कशॉप के तहत वहां जाना भी होता कि बैंग्लूर से आयी मीरा हमें परांठेवाली गली लेकर चली गयी। उसने कहा जब नॉनवेज खाना ही नहीं है तो वहां जाकर क्या करोगे। लोगों ने बताया कि नहीं वहां तो वेज भी मिलते हैं लेकिन उसका कहना था कि जब वेज ही खाना है तो फिर वहां क्यों। सो, मैं वहां गया नहीं. बंदे की शिकायत रही कि मुसलमान होकर भी नॉनवेज ठीक से बनाना नहीं जानता जबकि मीरा की जिद थी कि जब वेज ही खाना है तो वहां क्यों जाओगे। इसका एक मतलब तो ये भी निकला कि मुसलमान को जरुरी तौर पर बढ़िया नॉनवेज बनाने आना चाहिए जबकि वो बेहतर वेज बना ही नहीं सकते. यानि खाने को लेकर समुदाय विशेष के प्रति लोगों का नजरिया बरकरार है। इसी तरह आप कहते सुन जाएंगे कि- अजी मछली खानी हो तो बंगाली या मैथिल के हाथ की खाओ। जाहिर है इडली और सांभर-बड़े के लिए आप दक्षिण भारतीयों का नाम लेंगे।...और इसी तरह एक लम्बी फेहरिस्त होगी। बाजार भी इसी मानसिकता को बेहतर तरीके से समझती है क्योंकि बाजार ग्राहकों की मानसिकता के हिसाब से चले बिना बिजनेस कर ही नहीं सकता। इसलिए आप देखेंगे कि दिल्ली में पंजाबी, हरियाणवी कल्चर की प्रमुखता के वाबजूद भी जब दही की बात आती है तो मदर डेरी की- मिष्टी दोई हो जाती है। बाकी चीजें और चीजों के नाम दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों के कल्चर के हिसाब से ही तय होते हैं। इसकी एक बड़ी वजह तो ये होती है कि जो चीजें जहां प्रमुखता से इस्तेमाल होती है, उनका प्रोडक्शन होता है या फिर वहां के जीवन का एक हिस्सा है, बाजार उसे सतर्कता से अपने में शामिल कर लेता है और एक आम ग्राहक के विश्वास को विज्ञापन में बदल देता है. मैं जब बिहार के कस्बों में जाता हूं तो लोग गलियों में खोंमचे लगाकर चिल्लाते दिख जाते हैं- मथुरा के पेड़े ले लो। ये लो इलाहाबादी अमरुद. जबकि दोनों में से वो चीजें वहां की नहीं होती. देखते-देखते बेचनेवाले और खरीदनेवाले के बीच एक प्रैक्टिस सी हो जाती है- वहां का नहीं भी होने पर वहां की बताकर बेचना और वहां की नहीं होने पर ये जानते हुए भी खरीदना. जब कभी कोई कहीं का नहीं बताकर सीधे-सीधे कहता है- मीठे, रसीले या फिर और कुछ तो कई लोगों को पूछते देखा है, कहां का है भईया, अमरुद इलाहाबादी है क्या और वो हां कहता है और खरीददार मुस्कराकर रह जाता है। हिन्दुस्तान में चीजों के उत्पादन, बिक्री और उसकी खरीददारी पर आप एक नजर डालेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां का बाजार इसी स्थानीयता बोध,सामुदाय विशेष और जातिगत आधार पर निर्मित है। आप रेडिकल होकर कह सकते हैं कि जिस जातिवाद और क्षेत्रवाद को समाज का कलंक मानकर सोशल साइंटिस्ट खत्म करने की बात करते हैं, बाजार उसे दुर्गुण न मानकर कन्ज्यूमरिज्म के स्तर पर मजबूत करना चाहता है. एक मुसलमान से किसी को लगाव भले ही न हो, एक बंगाली के विचारों से असहमति भले ही हो, मथुरा जाने पर पाकेटमारी का भय भले ही बना रहे लेकिन चिकन और मटन, मिष्टी दोई और रोसगुल्ला और पेड़े के प्रति विश्वसनियता की बात आती है तो आप इनके मुरीद हो जाते हैं। बाजार इस मानसिकता को लम्बे समय से मजबूत करता आया है। इसलिए पुश्तैनी बिजनेस का कॉन्सेप्ट लम्बे समय तक चलता रहा है। एक पंडितजी की चाय अच्छी होने पर पूरे उत्तरांचल के लोगों को चाय बनाने में सिद्धस्थ मान लेते हैं।...और आप देखेंगे कि डीयू में सारे टी स्टॉल का नाम लगभग पंडितजी की कैंटीन के आसपास ही है। पुश्तैनी और जातिगत आधार पर बाजार का असर इतना है कि कोई राजस्थानी है औऱ उसके पुरखे लम्बे समय तक नमकीन का रोजगार करते आए तो वो ग्लोबल ब्रांडिंग भी उसी शर्त पर करता है। उत्पादन की तकनीक, पैकिंग और विज्ञापन के पूरी तरह बदल जाने के बाद भी पोस्टर या पैकेट के कोने में अपने परदादा की मूंछ पर ताव देती तस्वीर या फिर नाम डालता है। यही उनका लोगो है और ब्रांड प्रोमोशन के टूल्स भी। जाति,समुदाय, प्रांत और क्षेत्र के एलिमेंट्स को लेकर बाजार जो काम करता है उसे आप क्या कहेंगे कि ये जाति, क्षेत्र और प्रांत की फीलिंग को मजबूत करता है। अगर ऐसा है तब तो चिकन खानेवाले बंदे की धारणा के टूटने के साथ ही जातिगत मानसिकता से मुक्त हो जाना चाहिए। बिहारी-बंगाली का भी झमेला खत्म हो जाना चाहिए। दूसरी तरफ जिस बाजार की बात मानकर आप मिष्टी दोई और साउथ इंडियन रेस्तरां में जाकर छोटू न बोलकर अन्ना बोल रहे हैं तो भाषा और क्षेत्रवाद का झमेला भी खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन ऐसा होता है। नहीं न...आप कोई राय बना ही नहीं सकते कि कहां, कहां बाजार इसे मजबूत करता है और कहां इसे धवस्त करता है लेकिन कुछ करता तो जरुर है। तब तक... ये है मीना बाजार तू देख बबुआ। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080508/02cd419f/attachment-0001.html From rahulpandita at yahoo.com Thu May 8 14:27:59 2008 From: rahulpandita at yahoo.com (Rahul Pandita) Date: Thu, 8 May 2008 01:57:59 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Meet_Poet_M?= =?utf-8?q?ajaaz_the_Muslim?= In-Reply-To: <85de31b90805060951gf0f21f1q60f09ff9b61d3413@mail.gmail.com> Message-ID: <838498.41444.qm@web31704.mail.mud.yahoo.com> An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080508/3c9dbaa3/attachment.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 5649 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080508/3c9dbaa3/attachment.jpe From rakesh at sarai.net Thu May 8 15:22:03 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Thu, 8 May 2008 15:22:03 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?iso-8859-1?q?=26=232361=3B?= =?iso-8859-1?q?=26=232350=3B=26=232366=3B=26=232352=3B=26=232366=3B_=26?= =?iso-8859-1?q?=232344=3B=26=232375=3B=26=232340=3B=26=232366=3B______=26?= =?iso-8859-1?q?=232330=3B=26=232380=3B=26=232337=3B=26=232364=3B=26=23237?= =?iso-8859-1?q?5=3B_=26=232360=3B=26=232375=3B?= Message-ID: <3544.59.180.45.246.1210240323.squirrel@mail.sarai.net> मित्रों पेश है इलाहाबाद की छात्र राजनीति पर अतुल चौरसिया का यह लेख उन्हीं से ब्लॉग चौराहा http://chauraha.wordpress.com से. हमारा नेता चौड़े से कई दिनों से लिखने का शगुन नहीं बन रहा था, या कहें कि कुछ मजेदार लिखने को सूझ नहीं रहा था। आप इसे अपन का तंग हाथ कह सकते हैं, तो सोचा कि एकाध इलाहाबादी दिनों का संस्मरण लिखा जाय। विश्वविद्यालय की घनी पेड़ों की छांव में पढ़ाई लिखाई संबंधित क्रिया-कलापों के अलावा बाकी सब कुछ होता था। बम बनाने के गुर यहां के कुछ मठाधीश बुजुर्गवार (बाइज्जत सीनियर) बाकायदा नवांगतुकों को सिखाते रहते थे। बहरहाल इसके अलावा भी इस विद्यालय की एक ख़ास पहचान हैं-यहां के छात्र नेता। परिसर में छात्र कम कड़ियल झक सफेद खद्दरधारी छात्र नेता ज्यादा नज़र आते थे। यहां का मशहूर जुमला है विश्वविद्यालय परिसर राजनीति की पहली पाठशाला है। गणेश शंकर विद्यार्थी भवन का लतियाया-जुतियाया सीधे संसद भवन पहुंचता है। बहरहाल यहां अपनी चर्चा का विषय कक्षा के वो छात्र है जिनके अंदर नेतागिरी का कीड़ा तो कुलबुलाता रहता था पर प्रतिभा की कमी या उससे भी ज्यादा पैसे की कमी की वजह से परिसर में उनका झंडा बुलंद नहीं हो पाता था। हर कक्षा में इस तरह के कीड़े से ग्रस्त दो चार प्राणी जरूर मिल जाते थे। और मज़े की बात ये थी कि क्लास में जी-10 भी हुआ करता था। ये ऐसे छात्रों का समूह था जिनकी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं सुबह चाय-ब्रेड-बटर और शाम को चाट- समोसे के साथ बदल जातीं थीं। खासियत ये थी कि ये अपना शिकार भांपने के बाद पूरी ईमानदारी से उनके पीछे खड़ा होता था। नेतागिरी के कीड़े की कुलबुलाहट से परेशान नेता को इस बात का भान करवा दिया जाता था कि उनके पास अच्छा खासा छात्रों का समर्थन है। जी-10 के पास छात्रहित से जुड़े मुद्दों का रेडीमेड भंडार होता था। जिसके सहारे वो नेताजी को परिसर में धरना-हड़ताल-प्रदर्शन के लिए तैयार करते थे। नेताजी को भी अहसास हो जाता था कि इन्हीं खटकरमों से गुजर कर विश्वविद्यालय की गद्दी हथियायी जाती है। हर दिन परिसर में नेता जी का जुलूस निकलता। जी-10 उनके पीछे खड़ा रहता। नारे लगते हमारा नेता चौड़े से—बाकी नेता (सेंसरर्ड) से। क्यों पड़े हो चक्कर में कोई नहीं है टक्कर में। मजे की बात ये थी कि छात्रों के स्कॉलरशिप से लेकर छात्रावास दिलाने तक हर मुद्दे की मांग में नारे यही लगा करते थे। स्कॉलरशिप, छात्रावास का जिक्र भी कानों में नहीं पड़ता था। इन तमाम चकल्लस के साथ जी-10 के नाश्ते-पानी का जुगाड़ एक सत्र के लिए हो जाता था।। नेताजी गद्दी पाने के सपने में चंपुओं से घिरे रहते लेकिन उन्हें इसका अहसास नहीं होता था या कि होने ही नहीं दिया जाता था। मजे की बात तो ये थी कि इन्हीं के बीच से जलूस के दौरान पत्थर फेंका जाता था। लेकिन जब सामने से घुड़सवार पुलिस का मुगलई काफिला लट्ठ पटकता हुआ पहुंचता था तो नेता जी भरे मैदान में अकेले नज़र आते। इसके बाद उन्हें अपने रंगरूटों का दुबारा से दर्शन अगली सुबह सीधे स्वरूपरानी हॉस्पिटल के बेड पर पड़े-पड़े ही हो जाता था। नेताजी को होश हवास में आने के बाद उन्हें फिर से इस बात का अहसास करा दिया जाता था कि बिना पुलिसिया लट्ठ खाए कोई नेता हो सकता है भला। पुलिस की लाठी खा कर ज़मीन पर गिरा नेता ही आगे चलकर ज़मीनी कहलाता है। नेता जी चुनावी चक्कर में इस क़दर फंसते थे कि परीक्षा में फेल हो जाते। जी-10 अगले शिकार की खोज शुरू कर देता क्योंकि फेल नेता दुबारा से चुनाव नहीं लड़ सकता। गांव में मां-बाप खेती-किसानी से जुड़े थे। यहां लड़के को नेतागिरी की धुन सवार हो गई। जी टेन ने उन्हें संसद तक का सपना दिखाया था आज तक कोई अपन को यहां नज़र नहीं आया। यहां आया तो पता चला अब दिल्ली सिर्फ धर्मेद्र सिंह यादव, राहुल, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य, जितिन प्रसाद जैसे पहुंचते हैं। अब खेती किसानी वाला बाप मुलायम सिंह यादव की बराबरी तो कर नहीं सकता ना। अब गुस्से में भले ही कोई कह दे– इलाहाबाद में लाठी खाने के लिए हमारा बेटा और दिल्ली में मलाई काटने के लिए मुलायम का बेटा, पर कर भी क्या सकते हैं? नतीजा, गए थे पढ़ लिख कर साहब बनने वापस आकर खेती किसानी में हाथ गंदे करने पड़ गए। बाप भी कितने दिन जवान बेटे को बैठाकर खिलाता। नेतागिरी का कीड़ा फिर भी रह-रहकर कुलांचे मारता लिहाजा गांव के परधानी के चुनाव में हाथ आजमाने से खुद को रोक न सके। लेकिन यहां भी किस्मत साथ नहीं दे सकी। यहां ठाकुर पंडित मिल गए, अहीरों का वोट कम पड़ गया ऊपर से हरिजन बस्ती ने भी आखिरी समय में हाथ खींच लिया। अब ये कोई विश्वविद्यालय का चुनाव तो है नहीं। यहां तो एक एक वोट जाति बिरादरी के तराजू पर तौल कर और रिश्तेदारी-पट्टीदारी की भट्टी में तपाकर दिए जाते हैं। लिहाजा बेचारे नेताजी को यहां भी हार से दो चार होना पड़ा। इधर अपन को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संसद पहुंचने वाले नेता का अभी भी इंतज़ार है। ----------------------------------------- This email was sent using SquirrelMail. "Webmail for nuts!" http://squirrelmail.org/ From chandma1987 at gmail.com Thu May 8 15:30:42 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Thu, 8 May 2008 06:00:42 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOClh+CkpOCkviDgpJrgpYzgpKHgpLzgpYcg4KS44KWH?= Message-ID: Rakesh ji sudhra huaa. mail मित्रों पेश है इलाहाबाद की छात्र राजनीति पर अतुल चौरसिया का यह लेख उन्हीं से ब्लॉग चौराहा http://chauraha.wordpress.com से. हमारा नेता चौड़े से… कई दिनों से लिखने का शगुन नहीं बन रहा था, या कहें कि कुछ मजेदार लिखने को सूझ नहीं रहा था। आप इसे अपन का तंग हाथ कह सकते हैं, तो सोचा कि एकाध इलाहाबादी दिनों का संस्मरण लिखा जाय। विश्वविद्यालय की घनी पेड़ों की छांव में पढ़ाई लिखाई संबंधित क्रिया-कलापों के अलावा बाकी सब कुछ होता था। बम बनाने के गुर यहां के कुछ मठाधीश बुजुर्गवार (बाइज्जत सीनियर) बाकायदा नवांगतुकों को सिखाते रहते थे। बहरहाल इसके अलावा भी इस विद्यालय की एक ख़ास पहचान हैं-यहां के छात्र नेता। परिसर में छात्र कम कड़ियल झक सफेद खद्दरधारी छात्र नेता ज्यादा नज़र आते थे। यहां का मशहूर जुमला है विश्वविद्यालय परिसर राजनीति की पहली पाठशाला है। गणेश शंकर विद्यार्थी भवन का लतियाया-जुतियाया सीधे संसद भवन पहुंचता है। बहरहाल यहां अपनी चर्चा का विषय कक्षा के वो छात्र है जिनके अंदर नेतागिरी का कीड़ा तो कुलबुलाता रहता था पर प्रतिभा की कमी या उससे भी ज्यादा पैसे की कमी की वजह से परिसर में उनका झंडा बुलंद नहीं हो पाता था। हर कक्षा में इस तरह के कीड़े से ग्रस्त दो चार प्राणी जरूर मिल जाते थे। और मज़े की बात ये थी कि क्लास में जी-10 भी हुआ करता था। ये ऐसे छात्रों का समूह था जिनकी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं सुबह चाय-ब्रेड-बटर और शाम को चाट- समोसे के साथ बदल जातीं थीं। खासियत ये थी कि ये अपना शिकार भांपने के बाद पूरी ईमानदारी से उनके पीछे खड़ा होता था। नेतागिरी के कीड़े की कुलबुलाहट से परेशान नेता को इस बात का भान करवा दिया जाता था कि उनके पास अच्छा खासा छात्रों का समर्थन है। जी-10 के पास छात्रहित से जुड़े मुद्दों का रेडीमेड भंडार होता था। जिसके सहारे वो नेताजी को परिसर में धरना-हड़ताल-प्रदर्शन के लिए तैयार करते थे। नेताजी को भी अहसास हो जाता था कि इन्हीं खटकरमों से गुजर कर विश्वविद्यालय की गद्दी हथियायी जाती है। हर दिन परिसर में नेता जी का जुलूस निकलता। जी-10 उनके पीछे खड़ा रहता। नारे लगते हमारा नेता चौड़े से—बाकी नेता (सेंसरर्ड) से। क्यों पड़े हो चक्कर में कोई नहीं है टक्कर में। मजे की बात ये थी कि छात्रों के स्कॉलरशिप से लेकर छात्रावास दिलाने तक हर मुद्दे की मांग में नारे यही लगा करते थे। स्कॉलरशिप, छात्रावास का जिक्र भी कानों में नहीं पड़ता था। इन तमाम चकल्लस के साथ जी-10 के नाश्ते-पानी का जुगाड़ एक सत्र के लिए हो जाता था।। नेताजी गद्दी पाने के सपने में चंपुओं से घिरे रहते लेकिन उन्हें इसका अहसास नहीं होता था या कि होने ही नहीं दिया जाता था। मजे की बात तो ये थी कि इन्हीं के बीच से जलूस के दौरान पत्थर फेंका जाता था। लेकिन जब सामने से घुड़सवार पुलिस का मुगलई काफिला लट्ठ पटकता हुआ पहुंचता था तो नेता जी भरे मैदान में अकेले नज़र आते। इसके बाद उन्हें अपने रंगरूटों का दुबारा से दर्शन अगली सुबह सीधे स्वरूपरानी हॉस्पिटल के बेड पर पड़े-पड़े ही हो जाता था। नेताजी को होश हवास में आने के बाद उन्हें फिर से इस बात का अहसास करा दिया जाता था कि बिना पुलिसिया लट्ठ खाए कोई नेता हो सकता है भला। पुलिस की लाठी खा कर ज़मीन पर गिरा नेता ही आगे चलकर ज़मीनी कहलाता है। नेता जी चुनावी चक्कर में इस क़दर फंसते थे कि परीक्षा में फेल हो जाते। जी-10 अगले शिकार की खोज शुरू कर देता क्योंकि फेल नेता दुबारा से चुनाव नहीं लड़ सकता। गांव में मां-बाप खेती-किसानी से जुड़े थे। यहां लड़के को नेतागिरी की धुन सवार हो गई। जी टेन ने उन्हें संसद तक का सपना दिखाया था आज तक कोई अपन को यहां नज़र नहीं आया। यहां आया तो पता चला अब दिल्ली सिर्फ धर्मेद्र सिंह यादव, राहुल, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य, जितिन प्रसाद जैसे पहुंचते हैं। अब खेती किसानी वाला बाप मुलायम सिंह यादव की बराबरी तो कर नहीं सकता ना। अब गुस्से में भले ही कोई कह दे– इलाहाबाद में लाठी खाने के लिए हमारा बेटा और दिल्ली में मलाई काटने के लिए मुलायम का बेटा, पर कर भी क्या सकते हैं? नतीजा, गए थे पढ़ लिख कर साहब बनने वापस आकर खेती किसानी में हाथ गंदे करने पड़ गए। बाप भी कितने दिन जवान बेटे को बैठाकर खिलाता। नेतागिरी का कीड़ा फिर भी रह-रहकर कुलांचे मारता लिहाजा गांव के परधानी के चुनाव में हाथ आजमाने से खुद को रोक न सके। लेकिन यहां भी किस्मत साथ नहीं दे सकी। यहां ठाकुर पंडित मिल गए, अहीरों का वोट कम पड़ गया ऊपर से हरिजन बस्ती ने भी आखिरी समय में हाथ खींच लिया। अब ये कोई विश्वविद्यालय का चुनाव तो है नहीं। यहां तो एक एक वोट जाति बिरादरी के तराजू पर तौल कर और रिश्तेदारी-पट्टीदारी की भट्टी में तपाकर दिए जाते हैं। लिहाजा बेचारे नेताजी को यहां भी हार से दो चार होना पड़ा। इधर अपन को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संसद पहुंचने वाले नेता का अभी भी इंतज़ार है। -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080508/c73f8f26/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri May 9 12:21:06 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 9 May 2008 12:21:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSYIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkuOCkleCljeCksOCkv+CkryDgpKXgpYcg4KS44KWL?= =?utf-8?b?IOCkrOCkvuCksi3gpLXgpL/gpLXgpL7gpLkg4KSV4KSwIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+?= Message-ID: <829019b0805082351x22839d3bqd715462845929965@mail.gmail.com> संघ में बहुत सक्रिय थे तो मां-बाप ने सोचा कि शादी करा दो, सब ठीक हो जाएगा और तब हमारी शादी हो गयी। राजस्थान के एक विधायक ने राजस्थान में बाल-विवाह के मसले पर एनडीटीवी को ये बाइट दी है। जाहिर है विधायकजी बाल-विवाह की सारी जिम्मवेवारी अपने मां-बाप और परिवार के लोगों पर थोपते हुए अपने को दूध का धुला बताना चाह रहे हैं। लेकिन विधायकजी से ये सवाल कौन करने जाए कि जब आप संघ में सक्रिय थे। अखंड भारत बनाने में जुटे थे, समाज को एक नयी दिशा देने में लगे थे और आपको लगता था कि संघ की कारवाइयों को तेज करने से समाज बदल सकता है तब आपको ये नहीं लगा कि हम अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपनी शादी जो कि कानूनन गलत है, रोक सकते हैं। आपमें दुनिया को बदल देने की समझदारी है लेकिन जब अपनी बारी आयी तो आप सारी बात अपने घरवालों पर थोप आए। मंत्रीजी अगर आप ये भी कह देते कि घरवालों ने हमें हाफपैंट पहनाकर वहां भेज दिया तब आपके प्रति जरुर सहानुभूति रखते। समाज में अक्सर ये देखा जाता है कि लड़के दुनियाभर के काम अपनी मर्जी से करेंगे। चाहे वो किसी विचारधारा को अपनाने की रही हो, करियर चुनने का रहा हो, अपने सम्पर्क बनाने का रहा हो। लेकिन जैसी ही बात शादी पर आती है तो इसका सारा ठिकरा मां-बाप पर फोड़ देते हैं। राजस्थान में ६५ विधायकों का बाल-विवाह हुआ है जिसमें ८ मंत्री भी शामिल हैं। यहां बाल-विवाह के खिलाफ कानून होने के वाबजूद भी ४८ प्रतिशत शादियां बाल-विवाह के अन्तर्गत आते हैं। एनडीटीवी की खबर के मुताबिक जिन लोगों को इस कानून को सख्ती से लागू करने में सहयोग देना चाहिए वो खुद बाल-विवाह के जोड़े को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं। अब देखिए, बचपन से ही समाज को सुधारने का संकल्प लेकर बढ़ने वाले ये नेता अपनी शादी के समय बाल-विवाह का विरोध नहीं कर सके क्योंकि ये मां-बाप का दिल दुखाना नहीं चाहते थे।॥और अब ये जानते हुए कि बाल-विवाह अपराध है, इसे इसलिए नहीं रोकते क्योंकि इससे उनकी वोट कट जाएगी। नतीजा ये हुआ है कि राजस्थान में समारोह की शक्ल में बाल-विवाह होते हैं। प्रशासन की नाक के नीचे होते हैं और नेताजी बादाम-केसर पीने और विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं। समाज को वो तपका जो कि पढ़ा-लिखा नहीं है। जिनके बीच सूचना-क्रांति की कोई पहुंच नहीं है और अगर पहुंच है भी तो जड़ परंपरा के आगे बेअसर है। ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास कराने के लिए कि कौन सी चीजें उनके हित में नहीं है, समाज के प्रभावी लोग इस बारे में बताएं। शिक्षा का प्रसार पूरी तरह से जब होगा, तब होगा और कुछ रिवाज और अंध परम्परा शिक्षा के विस्तार के बाद भी खत्म हो जाएगी, आप पूरे दावे के साथ नहीं कह सकते। पढ़े-लिखे लोगों को भी इसमें शामिल होते देखकर तो ऐसा ही लगता है। ऐसे में समाज के प्रभावी लोगों की बातों का उनपर सीधा असर होता है। पल्स पोलियो के लिए अमिताभ बच्चन और एड्स के लिए विवेक ऑवराय को लाने के पीछे यही समझदारी काम करती है। अब समाज के ये प्रभावी नेता विरोध तो नहीं ही करते हैं, साथ ही आशीर्वाद देने जब बाल-विवाह के मंडप पर पहुंचते हैं तो इन लोगों के बीच क्या संदेश जाता है। यही न कि जब इतने बड़े-बड़े लोग इस शादी में आते हैं तो ये भला किस हिसाब से गलत हो सकता है। इसलिए प्रचार-प्रसार की धार भी ये नेता शामिल होकर भोथरे करते हैं। अगर ये सकारात्मक दिशा में जाकर काम करें और उस तरह की मानव विरोधी रिवाजों का विरोध करें तो सुधार की गुंजाइंश तो बनती ही है। लेकिन नहीं, वो ऐसा क्यों करने लगें।॥ वोट तो एक बड़ा फैक्टर है ही साथ में जब इस तरह के रीति-रिवाजों की बात आती है तब वो सरकार के लोग न होकर उस परिवेश और मानसिकता के लोग हो जाते हैं जहां ये सारी चीजें उपजती है। अपना दिखाने के फेर में, अपने बीच का होने का बताने में वो इन कार्यक्रमों में शामिल हो जाते हैं। बिहार और यूपी से जुड़ी उन खबरों में अक्सर आप देखते-सुनते होंगे कि विधायक बारगर्ल डांस में शामिल हुए, उनके आनंद लेने की क्लिपिंग्स मीडिया अक्सर दिखाती है। वहां तो उनका प्रभाव कायम हो जाता है। लोगों को भी लगता है कि ये बड़े हैं तो क्या हुआ, हैं तो अपने बीच के ही और अपनापा बना रह जाता है और इधर नेताजी का भी काम बन जाता है। जबकि नेताजी को ऐसे मौके पर समझने की जरुरत है कि वो उसी समय प्रशासन, व्यवस्था और सरकार का हिस्सा हैं। वो जो कुछ भी करेंगे उसका सीधा असर समाज पर होगा। जिस मीडिया को वो दिन-रात गरियाते रहते हैं, उनपर नकेल कसने की बात करते नजर आते हैं, उसी मीडिया ने उन्हें इतना समझदार तो जरुर बना दिया है कि वो समझ सकें कि कौन सी बातें मानव विरोधी हैं और उनका समर्थन नहीं विरोध करनी चाहिए। इधर घरवाले ने कहा कि शादी कर लो तो कर लिया। घरवालों ने कहा कि दहेज कम देने पर लड़की को प्रताड़ित करो तो उस कारवायी में शामिल हो गए। इन सब कामों के लिए हम जिम्मवेवार नहीं। लेकिन कोई तर्क है आपके पास जो बता सके कि हर हाल में स्त्रियों के शोषण का सीधा जिम्मवेवार वो न होकर कोई और है। कम उम्र में शादी की वजह से बच्चा जनने के समय लड़कियों की मौत, अपरिपक्व अवस्था में यौन संबंध से स्वास्थ्य में लगातार गिरावट और दमघोंटू जिंदगी जीने के लिए मजबूर इन लड़कियों की कोई बाइट है जो नेताजी की तरह बता सके कि संघ में सक्रिय थे इसलिए शादी कर दी गयी।....और हम आगे जोड़ दें कि अखण्ड भारत के संकल्प के आगे इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान गया ही नहीं। अब तो इस फार्मूले को भी फिट करने की स्थिति में भी नहीं हैं कि आप कह सकें कि एक स्त्री की पीड़ा को स्त्री ही समझ सकती है। अगर ऐसा होता तो राजस्थान में बाल-विवाह के आंकड़ों का ग्राफ बड़ी तेजी से गिर जाने चाहिए थे और अब तक खत्म भी हो जाते। लेकिन....लेकिन सत्ता का अपना ही चरित्र होता है, वो स्त्री-पुरुष के आधार पर विशलेषण किए जाने से परे है.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080509/c4ebd304/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Fri May 9 13:55:41 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Fri, 09 May 2008 13:55:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSw4KS+4KSg?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCksCDgpK3gpL7gpLDgpYAg4KSt4KWL4KSc4KSq4KWB4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkuOCkv+CkqOClh+CkruCkvg==?= Message-ID: <48240A85.5070207@sarai.net> राष्टीय सहारा की /संपादकीय/ मै प्रकाशित लेख तारीख 9 मई *मराठी पर भारी भोजपुरी सिनेमा* आनंद भारती हिन्दुस्तान की किसी भी भाषा और उसकी स्थिति को जानने के लिए मुंबई जैसा उपयुक्त महानगर और कोई नहीं है। आम भाषा में मुंबई को ‘मिनी भारत’ कहा जाता है। हालांकि मिनी भारत के दर्जे में आज कई महानगर आ गए हैं। पर मुंबई चूंकि देश की अर्थव्यवस्था और फिल्म उघोग का प्रमुख केंद्र है इसलिए यह सबका ध्यान आकर्षित करती है। मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी भी है इसलिए यहां मराठी वर्चस्व कायम है। होना भी चाहिए मगर दूसरे को किनारे रखने की शर्त पर अगर इस दबदबे को बनाए रखने की कोशिश की जाती है तो शायद यह संभव नहीं होगा। मुंबई में भारत की मिली-जुली संस्कृति राज कर रही है और ग्लोबलाइजेशन के बाद तो इसका नया चेहरा भी सामने आ गया है। इस वक्त मुंबई में जिस तरह की राजनीति चलाई जा रही है, वह मुंबई को अलग राज्य बनाने की आ॓र धकेल रही है। यहां दूसरे राज्यों से पलायन कर आए लोगों के खिलाफ चलाए गए अभियान ने केन्द्र को बुरी तरह चिंतित कर दिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से लेकर मायावती, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार तक ने इस पर अपनी-अपनी तरह से प्रतिक्रिया दी है। पहली मई को ‘महाराष्ट्र दिवस’ के अवसर पर शरद पवार, राज्य के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, उप-मुख्यमंत्री पाटील तथा पूर्व वायुसेना प्रमुख टिपणीस को भी कहना पड़ा कि बाहरी लोगों को कहीं भी जाने-आने से रोका नहीं जा सकता। भाषाई स्तर की बात करें तो मुंबई में दक्षिण भारत की फिल्में भले न बनती हों, मगर वहां हिन्दी में जितनी फिल्में बनी हैं, वह अपने आप में इतिहास है। यही नहीं अब यहां भोजपुरी, नेपाली, राजस्थानी, हरियाणवी, गढ़वाली, पंजाबी, उड़िया और असमिया की भी अनेक फिल्में बन रही हैं। कहना न होगा कि क्षेत्रीय सिनेमा के मामले में भोजपुरी सबसे आगे है और इन फिल्मों की शूटिंग कहीं भी हो लेकिन तकनीशियन यहीं के होते हैं और फिल्म बनने के बाद की पूरी प्रक्रिया मुंबई में ही संपन्न होती है। यानी हजारों तकनीशियनों को क्षेत्रीय सिनेमा रोजगार दे रहा है। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि मुंबई में सरकारी निर्देशों के बावजूद मराठी फिल्मों को थियेटर में जगह नहीं मिल रही है, जबकि भोजपुरी फिल्मों ने मुंबई तथा आसपास के लगभग 40 थियेटरों को जीवनदान दिया है। इन थियेटरों को हिन्दी फिल्में नहीं मिल रही थीं और ये बंदी के कगार पर थे। भोजपुरी फिल्मों ने वहां की रौनक को फिर से लौटा दिया है। राज ठाकरे को भोजपुरी की यह समृद्धि और विकास रास नहीं आया तो उनके समर्थकों ने थियेटरों में जाकर तोड़-फोड़ की। कुछ दिनों तक भय का माहौल रहा, मगर जब लगा कि लोग उनके खिलाफ होने लगे हैं और सरकार को राजस्व का नुकसान होने लगा है, तब मामला रफा-दफा किया गया। यह जानना भी जरूरी है कि मुंबई में भोजपुरी सिनेमा बिना किसी की मदद से आगे बढ़ रहा है। हिन्दी के फिल्मकार भी मानने लगे हैं कि यह हिन्दी के समानांतर खड़ा हो रहा है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि भोजपुरी को भारत की भाषाओं में अष्टम सूची तक में शामिल नहीं किया गया है। यह बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड के कुछ ही जिलों की बोली है मगर इसका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय बन गया है। शायद हिन्दी की करीबी बोली होने का फायदा भोजपुरी को मिला है। भोजपुरी सिनेमा में आमूलचूल सुधार या परिवर्तन की जरूरत है- यह सवाल अपनी जगह है लेकिन इसके प्रति लोगों का बढ़ता रूझान महसूस करने लायक है। पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार को मल्टीप्लेक्स सहित मुंबई के 35 थियेटरों को ‘कारण बताआ॓ नोटिस’ जारी करना पड़ा। सरकार ने नोटिस में कहा कि थियेटरों में मराठी फिल्में क्यों नहीं लगाई जा रही है, जबकि सरकार ने इस संबंध में स्पष्ट आदेश जारी किया था। दरअसल, पिछले साल मराठी फिल्मकारों ने शिकायत की थी कि मल्टीप्लेक्स सहित अन्य सिनेमाघर, जो मराठी बहुल इलाके में हैं, में मराठी फिल्में नहीं लगाई जाती हैं जबकि मराठी में अच्छी फिल्में बन रही हैं और ऑस्कर लायक फिल्मों की संख्या भी काफी है। थियटरों में नहीं लगाए जाने की अंदरूनी वजह दर्शकों की कमी बताई जाती है। इससे थियेटरों को नुकसान झेलना पड़ता है। सिंगल स्क्रीन की तो अपनी मजबूरी है, मगर मल्टीप्लेक्स इस समय तानाशाह बना हुआ है। वह पैसे को मल्टीप्लाई करके देखता है। हिन्दी की बड़ी फिल्में ही वहां लगती हैं या फिर अंग्रेजी की। छोटे बजट की वैसी फिल्मों को जगह दी जाती है जो या तो ऑफ बीट हैं या कुछ स्टारडम है। भोजपुरी फिल्मों को लगाने से मल्टीप्लेक्स भी परहेज करता है। बहरहाल, मराठी के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार का पूरा कुनबा ऐसे मौके पर सक्रिय हो गया है जब एक साल बाद चुनाव होना है। कुछ दल मराठी बनाम बाहरी का मुद्दा उछालने में लगे हैं। इसलिए मराठी भाषा और फिल्मों को लेकर सबकी चिंता बढ़ गई है। वहीं भोजपुरी को लेकर उनका रवैया बिल्कुल सौतेला हो गया है। कहना न होगा कि मुंबई तथा आसपास के जिलों में भोजपुरी इन दिनों राजनीतिक ताकत बन गये हैं। मुंबई के संदर्भ में भोजपुरी का मतलब अब भोजपुरी भाषी ही नहीं, बल्कि बिहार-उत्तर प्रदेश के वे सारे लोग हैं जो यहां रहते हैं। कल्याण में हुई रेलवे परीक्षार्थियों की पिटाई ने ऐसा रंग दिखाया कि शिवसेना-भाजपा सत्ता में आते-आते रह गई। गुरूदास कामत की सहानुभूति के कारण वोट बैंक कांग्रेस के पक्ष में चला गया। वह वोट बैंक फिर एक बार शिवसेना के पक्ष में जाता दिखाई दे रहा था कि राज ठाकरे की रणनीति के कारण फिर से उत्तर प्रदेश-बिहार के लोग तटस्थ मुद्रा में आ गए। उल्लेखनीय है कि मुंबई के थियेटरों में लगने वाली फिल्मों तथा नाटकों के मंचन पर मुंबई महानगर निगम टैक्स लेता है। मराठी और गुजराती फिल्मों तथा नाटक पर निगम टैक्स में छूट देता है। इस छूट में कुछ लोगों ने भोजपुरी को भी शामिल करने की कोशिश की। उसमें ठोस तर्क यह था कि भोजपुरी दर्शक चूंकि गरीब वर्ग से आते हैं, इसलिए टैक्स में छूट देकर उन्हें राहत दी जा सकती है। तब इसका समर्थन शिवसेना, भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा समाजवादी पार्टी ने किया। विरोध में सिर्फ राज ठाकरे की पार्टी थी। वह मांग बीच में ही लटक गई है क्योंकि दलों को बिहार-उत्तर प्रदेश के वोट बैंक से ज्यादा जरूरी मराठी वोट बैंक लगा। किसी भाषा और बोली को लेकर इस आग्रह और दुराग्रह से हालांकि भोजपुरी को कोई फर्क नहीं पड़ा है मगर इससे इनकार करना किसी के लिए भी मुश्किल है कि भोजपुरी ने अपनी मजबूत नींव खुद ही बनाई है। भोजपुरी ने अपने लिए कोई प्रांतीय सीमा तैयार नहीं की, जबकि मराठी को लेकर काफी हायतौबा की जा रही है। मराठी फिल्मों के लिए सरकार को अगर महाराष्ट्र में आदेश जारी करना पड़ा, तो यह संदेह पनपता है कि इसमें आम लोगों की दिलचस्पी में कमी आ गई है। जबकि मराठी स्कूलों की हालत खस्ता देखकर जो चिंता सरकार और मराठी का झंडा उठाये नेताओं को करनी चाहिए वह कहीं नहीं दिखती। अंग्रेजी के प्रति उनकी दीवानगी कई गुना ज्यादा है। भगवती From beingred at gmail.com Fri May 9 16:09:36 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 9 May 2008 16:09:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSc4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkruClh+CkgiDgpKbgpYsg4KSq4KWB4KSy4KS/4KS44KSV?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSu4KS/4KSv4KWL4KSCIOCkquCksCDgpKjgpL7gpLDgpY0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkn+Clh+CkuOCljeCknyDgpLjgpY3gpKXgpJfgpL/gpKQ=?= Message-ID: <363092e30805090339y10ab78d3mb912348d9bd6b25e@mail.gmail.com> yah hai google translator dwara kiya gaya translation. " गुजरात में दो पुलिसकर्मियों पर नार्को टेस्ट , डीजी वंजारा और राजकुमार यन , अभियुक्त मंचन मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के लिए स्थगित कर दिया गया है " समय जा रहा है " , के एक अधिकारी ने कहा कि सोमवार है . " गुजरात पर नार्को टेस्ट cops डाल देना चिपकाया 5 मई , 2008 द्वारा Tarique अनवर http://www.twocircles.net/2008may05/narco_test_gujarat_cops_put.html IANS करके , अहमदाबाद : गुजरात के दो पुलिसकर्मियों पर नार्को टेस्ट , महानिदेशक वंजारा और राजकुमार यन , अभियुक्त मंचन मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के लिए स्थगित कर दिया गया है " समय जा रहा है " , के एक अधिकारी ने कहा कि सोमवार को . गांधीनगर फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला ( FSL ) के निदेशक जेएम व्यास के स्थगन की घोषणा की है . अस्वीकृत करने का कहना है कि जब उन्होंने परीक्षण किया जाएगा का आयोजन किया जा रहा है . उम्मीद थी कि इस परीक्षण के बाद सोमवार को आयोजित होने के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश PB पिछले शुक्रवार को हिरासत में मान्यता प्रदान की देसाई की जोड़ी को आपराधिक जांच विभाग ( अपराध ) के संचालन के लिए 5 मई को नार्को विश्लेषण और मई के बीच 9 . सीआईडी के शुरू के लिए तैयार है जब नार्को टेस्ट के पहले सत्र न्यायालय की अनुमति 13 अप्रैल . ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080509/2c99bed5/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri May 9 19:12:59 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 9 May 2008 19:12:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWH4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkreClgCAsIOCkn+Clh+CkuOCljeCkn+ClgCDgpK3gpYAg4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleClgOCkoeCkvOClhyDgpK3gpYA=?= Message-ID: <200805091912.59491.ravikant@sarai.net> सचित्र देखने के लिए नीचे की कड़ी को चटकाएँ. रविकान्त http://www.hindimedia.in/content/view/2008/43/ देश के करोड़ों उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के साथ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ किस तरह खिलवाड़ कर रही है उसकी मिसाल है नेस्ले कंपनी द्वारा बेची जा रही मैगी। मैगी बादाम संजीवनी नाम से बेचे जा रहे मैगी के एक पैकेट को गरम पानी में डालते ही उसमें कीड़े कुलबुलाने लगे। मुंबई के हमारे एक जागरुक पाठक ने, जो खुद एक विज्ञापन कंपनी में महत्वपूर्ण पद पर हैं, बड़े अफसोस के साथ हमें यह शिकायत भेजी है। उन्होने मैगी का यह पैकेट मुंबई में इस्पीनैच सुपर मार्केट, शिंपोली के पास से खरीदा था। खरीदने के बाद जब घर लाए और बडे़ उत्साह के साथ मैगी को गरम पानी में डाला तो पूरा परिवार यह देखकर दंग रह गया कि उसमें मैगी के साथ कीड़े कुलबुला रहे थे। उन्होंने तत्काल इसके स्टोर मैनेजर को फोन किया। मगर वहाँ से बजाय कोई जिम्मेदारी लेने के कहा गया कि अच्छा ऐसी बात है, तो आप आकर पैकेट बदलवा लीजिए। हारकर उन्होंने कंपनी की वेब साईट पर जाकर उसमें आधे-अधूरे ढंग से दिए गए एक फीडबैंक फार्म के जरिए शिकायत की, लेकिन इस शिकायत के बावजूद भी उनसे कंपनी के किसी जिम्मेदार अधिकारी ने संपर्क करने की कोशिश नहीं की। इस उपभोक्ता ने जिनके कई न्यूज चैनल वालों से व्यक्तिगत संबंध हैं उनसे भी संपर्क किया और कीड़े निकलने की बात बताई तो सभी न्यूज चैनल वालों ने उनसे यही कहा कि कोई दूसरा चैनल यह खबर दिखा देगा तो हम भी दिखा देंगे। इस शिकायत के मिलने पर जब हमने नेस्ले की वेब साईट पर जाकर यह पता लगाने की कोशिश की कि इस मामलेmaggi3.jpg में नेस्ले की ओर से कौन जिम्मेदार अधिकारी प्रतिक्रिया दे सकता है, तौ यह जानकर आश्चर्य हुआ कि करोड़ों रुपये खर्च कर हिन्दी में विज्ञापन करने वाली इस कंपनी की साईट पर हिन्दी में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी। शिकायत के संबंध में संपर्क करने के लिए न तो किसी अधिकारी का फोन नंबर था न इ मेल। जैसे तसे हमको कंपनी के दिल्ली का कंपनी का गुड़गाँव का एक फोन नं. 0124-2389300 हाथ लगा, इस नंबर पर संपर्क करने पर हमको एक इ मेल consumer.services at in.nsetle.com और एक फोन नंबर दिया गया इस इ मेल पर बार बार मेल करने पर भी मेल बाउंस होता रहा। जब नए फोन नंबर 0124-2389300 पर संपर्क किया तो वहाँ से किसी कर्मचारी से बात होने पर थोड़ी देर में किसी अना सिंह नामकी महिला ने संपर्क किया और अपना इ मेल ana.sinha at in.nestle.com दिया, मजे की बात यह है कि इस इमेल पर मेल भेजने पर भी मेल बाउंस हो गया। हम सुबह 10 बजे से दोपहर साढ़े 12 बजे तक यह कसरत करते रहे कि कीड़े नि कलने की बात कंपनी के किसी जिम्मेदार अधिकारी तक पहुँचे और कोई उस पर अपनी अधिकारिक प्रति क्रिया दे, मगर शायद इस देश में कारोबार कर रही मल्टीनेशनल कंपनियों को न तो इस देश के आम उपभोक्ता के स्वास्थ्य की, और न देश के कानूनों की ही कोई फिक्र है। आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि उसी ब्रांड का उत्पाद देश में अभी भी उसी स्टोर के साथ ही अन्य कई स्टोर्स पर भी बेचा जा रहा है। जिस पैकेट को उपयोग किए जाने पर ये कीड़े निकले वह फरवरी के बैच का है। इसे 'मैगी हेल्दी सूप संजीवनी बादाम का फ्लेवर टेस्टी भी, हेल्दी भी' के नाम से बेचा जा रहा है। इस पर वैजिटैरियन का मार्क है। संबंधित उपभोक्ता ने अभी तक वह पानी सम्हा ल कर रखा है, जिसमें कीड़े तैर रहे हैं। ऐसा ही एक मामला कैडबरी का हुआ था, कैडबरी के पैकेटों में जब कीड़े निकलने लगे थे, तो इस कंपनी ने अमिताभ बच्चन को अपना विज्ञापन हीरो बनाकर कैडबरी का प्रचार शुरु किया था, इससे कैडबरी के पैकेट में कीड़े निकलना बंद हुए हों या न हुए हों मगर अमिताभ बच्चन को देश के करोड़ों बच्चों को गुमराह कर उनको कैडबरी जैसा उत्पाद खाने के लिए उकसाने का लायसेंस जरुर मिल गया था। अब देखना यह है कि मैगी वाले अपने कीड़े खिलाने के लिए किस फिल्मी हस्ती को सामने लाते हैं। From RAVISH at NDTV.COM Sat May 10 11:23:53 2008 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sat, 10 May 2008 11:23:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ????, ?????, ??????? ?? ???? ??? Message-ID: <00682802BF86B74395257E1EABF5DB6A077C766A@DEL-BE1.ARCHANA.NDTV.COM> ise aap naisadak.blogspot.com par bhee parh sakte hain. ravish ????, ?????,??????? ?? ???? ??? ???? ??? ???? ??? ????? ?? ????? ???? ??? ???? ?? ????? ??? ?? ????? ?? ???? ???? ?? ??? ???? ???? ???? ??? ?? ??? ????? ?? ???? ???? ???? ??????? ???? ?? ?? ?? ??? ?????? ???? ?? ??? ???? ?? ?? ?? ????? ?? ??? ??? ????? ??? ?? ????? ??????? ??? ???????? ?? ???? ?????? ?? ?? ???? ?????? ?????? ?? ???? ???????? ?? ????? ?? ?????? ?? ?? ? ?? ??? ????? ?? ???? ??? ?? ???? ???????? ?????? ??????? ???? ?????? ?? ?????? ?? ?? ???? ???? ?? ?? ???? ???????? ?????? ?? ??? ??? ?? ???? ???????? ???? ??????? ?????? ?? ???? ?? ?? ???? ??? ???? ???? ?? ????? ???? ??? ????? ??? ?? ?? ?? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ??? ????? ????? ???? ???? ??? ??? ????? ????? ???? ?????? ??? ??? ???????? ???,???????? ?????? ?? ?????? ?? ?? ????? ?? ???? ?? ??? ??? ??? ????? ?? ?? ??? ??? ?? ????? ?? ??????? ???? ???? ???? ?????? ?? ???? ??? ??????? ?? ???????? ?? ????? ?? ?? ??????? ??? ???????? ??? ???????? ?? ???? ???? ???????? ?? ??? ???? ???? ??? ??? ?? ??????? ? ???? ????? ??? ?? ?? ????? ??? ?? ???? ?? ????? ?? ???????? ??????? ???? ???? ???? ?? ???????? ?? ??????? ???? ???? ??? ??? ??? ??? ?? ???? ???? ?? ???? ????? ??? ???? ??? ????????? ?? ???? ??? ???? ??????, ???? ?? ????? ?? ?? ????? ??? ????? ?? ????? ??? ?????? ?? ???? ????? ??? ???? ??????? ???? ???? ?? ??? ?? ?? ??? ?? ?? ???? ?? ?? ???? ????? ??? ???? ??? ????? ?? ?? ?? ?? ?????? ??? ???? ?????? ?? ???? ??? ?? ?? ?? ?? ?????? ??? ??????? ?? ?????? ?? ???? ???? ??? ??? ???? ?? ???? ???? ???? ???? ?? ???? ?? ??? ???? ?? ?? ???? ?? ???? ??? ???? ???? ???? ?????? ???? ????? ?? ?????? ?? ???? ???? ???? ?? ????? ?? ?? ??????? ?? ????? ??? ?????? ?? ?????? ??? ????? ???? ??? ??? ??? ????? ?? ????????? ????? ?? ??? ??? ????? ?? ????? ????? ???? ????? ???? ?????? ?? ????????? ???? ????? ?? ??? ???? ????? ?? ??? ?? ????? ????? ????? ??? ?? ????? ??? ?????? ??? ?? ??? ?? ???? ????? ?????? ?? ?????? ????????? ?? ?????? ???? ??? ???? ?? ?? ?? ?????? ?? ???? ??? ??? ?? ???? ??? ?? ???? ??????? ?? ?????? ??? ???????? ???? ??? ???? ????? ??? ??? ???? ??? ?? ?? ???? ????? ????? ??? ???? ???? ?????? ??? ??? ??? ?? ???? ?? ???? ??? ???? ??? ?? ??????? ???? ????? ?? ?? ?? ??????? ??????? ?? ??? ?? ???? ??? ?? ?????? ?????? ??? ?? ????? ???? ???? ??? ? ???? ??? ???? ?? ???? ???? ????? ?? ?? ?? ???? ?? ???? ????? ???? ?? ?? ?????? ????? ?? ?????? ??? ??? ?? ???? ??????? ?? ???? ??? ?? ??????? ???? ???? ??? ??????? ?????? ???? ???? ?? ???? ??? ?? ??? ???????? ???????? ???? ????? ???? ?? ?????? ?? ???? ??- ?????? ?? ???? ???? ?????? ?????? ??? ????? ?? ???? ?? ?????? ??? ?? ???? ??? ?? ??????? ???? ????? ???? ???? ????? ?? ???? ???? ?????? ?? ?? ???? ?? ???? ???? ????? ?? ??????? ??????? ?? ????? ???? ??? ???? ?????, ????? ?? ??????? ????? ?? ??????? ?? ???????? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ???????? ????? ???? ??? ?? ?????? ??????,?? ???? ????? ??,????? ?? ?????? ?????? ?? ???? ??? ??????? ?? ?? ???????? ???? ?? ?? ?????? ????? ????? ?? ?? ?? ????? ?? ????????? ?? ????? ??? ???? ??? ?? ??? ??? ??? ?? ???? ?? ?????? ???? ?? ??? ???? ?? ???? ??? ???? ??? ????? ??? ????? ??? ??????? ??? ?? ???? ?? ???? ??????? ??? ?? ?????? ???? ???? ??????? ????? ?? ?? ?? ????? ?? ?? ???? ???? ?????? ?????? ?? ?? ??? ?? ?? ??? ??? ???? ???? ?? ??? ??? ???? ???????? ?? ???? ???? ????? ??? ???? ?? ?? ????? ???? ?? ???? ??? ???? ??? ????? ?? ???? ??? ????? ? ??? ??? ?? ?? ?? ?????????? ????? ???? ?????? ?? ?? ???? ?????? ??? ??? ?? ?? ?? ????? ????? ???? ??? ???,????? ???? ???? ???? ???? ???? ???? ????? ?? ????????? ?? ???? ??? ????? ?????????? ??? ???? ????? ???????? ?????? ?? ???? ??????? ??? ?????? ?? ??? ???????? ?? ??? ??? ?????? ?? ?????? ?? ???? ???? ?? ??? ??? ?? ?????? ?? ??????? ???? ?? ??? ??? ??? ??? ?????? ?? ???? ????? ?? ?? ?????? ?? ???????? ??? ???? ??? ?????????? ??? ?????? ?? ?? ???? ??? ?? ????? ?? ???? ???? ??? ?? ?? ???? ???? ?? ???? ??? ?? ?????? ????? ???? ?? ??? ?? ?? ???? ??????? ?? ???? ??? ???? ????? ?????????? ??? ?????? ???? ???? ??? ???? ??? ????? ?? ????? ?? ???????? ??? ?? ?? ?????? ?? ???? ????? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080510/3d6cdd93/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat May 10 14:44:37 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 10 May 2008 14:44:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= mihir ka IPL Message-ID: <200805101444.37334.ravikant@sarai.net> http://www.aawarahoon.blogspot.com/ कहाँ रंगीन मिजाज़ शेन वार्न और कहाँ पारंपरिक राजस्थान. जनता शंका में थी जी... सच्ची! कुछ शहर के बारे में... जयपुर के पुराने शहर में घरों का गुलाबी रंग कुछ उड़ा-उड़ा सा है लेकिन अब भी बाकी है. और इसके सा थ ही जयपुर ने अपना ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज अब भी बचा कर रखा है. राजनीति में जयपुर भा.ज.पा. का गढ़ माना जाता है. गिरधारीलाल भार्गव यहाँ से सांसद हैं और पुरानी बस्ती में उनके बारे में मशहूर है कि शहर में अपनी पैठ उन्होंने लोगों की अर्थियों को कांधा देकर बनाई है. वो रोज़ सुबह उठकर अखबार पढ़ते हैं. देखते हैं कि श्रद्धांजलि वाले कॉलम में किसकी मौत की सूचना है और फिर पहुँच जाते हैं उनके घर. और इसी प्रतिष्ठा के दम पर वो एक चुनाव में जयपुर के राजा भवानी सिंह को भी हरा चुके हैं. कहते हैं कि यहाँ भा.ज.पा. पत्थर की मूरत को भी चुनाव में खड़ा कर दे तो वो भी जीत जाए. समय-समय पर प्रमोद महाजन, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के लिए सुरक्षित सी ट की तलाश में उन्हें जयपुर से लोकसभा का चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव आता रहा है. लोकसभा चुनावों में यहाँ शहर में हर तरफ़ एक ही गीत बजता है... "शावा नी गिरधारीलाल! बल्ले नी गिरधारीला ल!" जीत के पहले... 16 तारीख को मैं जयपुर पहुँचा. कुछ इस तरह की खबरों ने मेरा स्वागत किया :- अरे भाई वॉर्न आया है. कोई ना कोई कांड तो करेगा ही! जनता इसी आशंका (पढ़ें उम्मीद) में थी. सुना है शहर की नर्सों को ख़ास हिदायत दी गई है कि किसी भी अनजान नंबर से SMS आने पर तुरंत IPL के अधिकारियों को सूचित करें. और अगर SMS में गुगली या फ्लिपर जैसे शब्दों का प्रयोग हो तो सीधा ललित मोदी को रिपोर्ट करें. कुछ लोग यह भी ख़बर लाये थे कि वॉर्न को ख़ास नोकिया 2100 दिया गया है उसके घातक SMS पर नियंत्रण के लिए और उसके फ़ोन को विशेष निगरानी में रखा गया है. शेन वॉर्न के शहर में आगमन के साथ ही सिगरेट की बिक्री में भारी इजाफा दर्ज किया गया है. रोहित का कहना था कि हर टीम के पास स्टार है. किसी के साथ शाहरुख़ है तो किसी के साथ प्रिटी जिंटा. इसपर भास्कर का कहना था कि हमारे पास भी तो स्टार है, रोहित राय! और इला अरुण और मिला लो तो फिर और कौन टिकता है हमारे सामने! ऐसा भी सुना गया कि ललित मोदी ने जयपुर में पहले मैच में रोहित राय के पोस्टर बेचे. उसमें रोहित राय शर्ट-लेस अपनी सिक्स पैक ऐब्स दिखा रहा था! क्या बात है, तुम्हारे पास शाहरुख़ तो हमारे पास रोहित राय! वाह क्या मुका बला है! पहला मैच देखने आए लोगों को जब पता चला कि समीरा रेड्डी का नाच मैच के पहले ही हो चुका तो उन्होंने अपने पैसे वापिस लौटाने की मांग की. बाकि लोगों ने चीयरलीडर्स से तसल्ली की. जीत के बाद... लगातार 5 जीत और IPL टेबल में सबसे ऊपर आने के बाद शेन वॉर्न अब राजस्थान का अपना छोरा है. आने वाले समय में आप कुछ ऐसी चीजों के लिए तैयार रहें... इस महान वीर कर्म के लिए वॉर्न को तेजाजी,पाबूजी और रामदेव जी की तरह लोकदेवता का दर्जा मिल सकता है. आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि ये सभी लोकदेवता साधारण मनुष्य ही थे जो आमतौर पर गाय या अन्य पशुओं की रक्षा में मारे गए. वैसे ही उसके मन्दिर बन सकते हैं जहाँ परसाद में सिगरेट चढ़ा करेंगी. बोलो शेन वॉर्न महाराज की जय! अगले RAS के पेपर में राजस्थान के सामान्य ज्ञान में एक सवाल होगा, "राजस्थान के दो वीर योद्धा जिनका एक ही नाम हैं और जिनके पराक्रम के किस्से बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं." और जवाब हो गा, "शेन वॉर्न और शेन वाटसन." राजकुमार संतोषी अपना सर पीट रहा होगा. कह रहा होगा कि अब अपनी फ़िल्म 'हल्ला बोल' रिलीज़ करता तो राजस्थान रोयल्स के हल्ला बोल में वो भी चल जाती. इला अरुण को एक संगीत कम्पनी फिर से प्राइवेट अल्बम का कांट्रेक्ट देगी. वीडियो में रखी सावंत को लिया जाएगा (और कौन!) बाद में दोनों में कौन ज्यादा पैसे लेगा इसको लेकर झगड़ा होगा और दोनों एक-दूसरे से ज्यादा बड़ी आईटम होने का दावा करेंगी. राखी हाल ही में आए 'देखता है तू क्या' का हवाला देंगी और इला अरुण 'दिल्ली शहर में म्हारो घाघरो जो घूम्यो' को सबूत के तौर पर पेश करेंगी. फिर इस मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया द्वारा एक देशव्यापी SMS अभियान चलेगा. नतीजे का हमें भी इंतज़ार है. ..................... यहाँ सबकुछ मिलेगा सिवाय क्रिकेट के. निवेदन है कि उसकी तलाश ना करें. अगर क्रिकेट देखनी है तो इंग्लैंड- न्यूजीलैंड टेस्ट सीरीज़ (15 मई) और ऑस्ट्रेलिया- वेस्ट इंडीज़ टेस्ट सीरीज़ (22 मई) का इंतज़ार करें. चाहें तो 11 मई को मैनचेस्टर यूनाइटेड को खिताब जीतते देखें जैसी उम्मीद है. From ravikant at sarai.net Sat May 10 14:50:17 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 10 May 2008 14:50:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSX4KS8?= =?utf-8?b?ICwg4KSX4KS84KS+4KSc4KS8ICwg4KS24KSw4KWN4KSu4KS44KS+4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCknOCkguCkl+CksiDgpLDgpL7gpJw=?= Message-ID: <200805101450.17503.ravikant@sarai.net> Raveesh ka post jo bigaR gaya tha. ravikant http://naisadak.blogspot.com/ दाग़, ग़ाज़,शर्मसार और जंगल राज आपने कभी दाग़ लगी वर्दी को धुलते देखा है? क्या आप जानते हैं कि वर्दी पर दाग़ लगने के बाद उसका क्या होता है? या फिर वर्दी पर दाग़ लगना इतनी असमान्य घटना है कि जब कोई सिपाही किसी को पीट देता है तो वह वर्दी पर दाग लगा बैठता है। हम हिंदी पत्रकार कुछ मुहावरों को लेकर इमोशनल हो गए हैं। उन्हें छोड़ते ही नहीं है।पुलिस या अपराध की स्टोरी पर एक न एक बार वर्दी पर दाग़ लगा ही देते हैं।इसका अतिरेक इस्तमाल सर्फ एक्सेल को उत्साह से भर देता होगा कि जब इतनी वर्दियां दागदार हो रही हैं तो उनका प्रोडक्ट ख़ूब बिकेगा। अख़बार या चैनल सब की भाषा में दाग़ लगना एक भयंकर घटना है। पुलिस कुछ भी कर ले वर्दी पर दाग लगने से नहीं रोक सकती। भगवान जाने इतनी दाग लगी वर्दी पहनते कैसे होंगे? उसी तरह पुलिसिया कहर,पुलिसिया ज़ुल्म का ज़िक्र भी हर पुलिस की ख़बर के साथ आता है। शुक्र है हम दाद खाज और खुजली का इस्तमाल नहीं करते वरना शब्दों और उनसे बने वाक्यों को एक्ज़िमा हो जाता। एक और मुहावरा है। इंसानियत हुई शर्मसार। तो क्या हुआ? इंसानियत ने कुछ किया ताकि उसे आगे से शर्मसार न होना पड़े। फिर भी हम लिखते हैं कि भीड़ की करतूत से इंसानियत शर्मसार हुई। क्या कि सी ने इंसानियत को शर्मसार होते देखा है? ठीक उसी तरह से क्या किसी ने गाज़ गिरते हुए देखा है? पत्रकारों की भाषा में गाज़ मंत्री, अफसर और पुलिस पर ही गिरती है। आमतौर से इन्ही तीन वर्गों पर गाज़ गिरती है। इसका इस्तमाल इतना अधिक हो गया है कि सुन कर ही लगता है कि गाज़ गिरना कोई बड़ी बात नहीं। कल की भी एक स्टोरी में किसी मंत्री पर गाज़ गिर गई थी आज की स्टोरी में मायावती के अफसरों का गाज़ गिरी है। पता नहीं यह गाज़ कहां अटकी होती है जहां से गिर जाती है तो ख़बर बन जाती है। क्या बिना गाज़ गिराये किसी अफ़सर के तबादले की ख़बर नहीं लिखी जा सकती? एक और मुहावरा है मासूम का। बच्चों की स्टोरी में मासूम शब्द खूब आता है। मासूम पर अत्याचार। मासूम का छिन गया बचपन। हर बच्चा मासूम होता होगा। क्या बच्चों का पर्यावाची शब्द मासूम भी है? मुझे हिंदी कम आती है इसलिए जानना चाहता हूं कि आख़िर किस मजबूरी में इस तरह के शब्द हमारी ख़बरों और ख़ासकर हेडलाइन्स का हिस्सा बनती रही हैं। एक और है स्थिति है जंगल राज की। यह जंगल राज भी ख़ास राज्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। जैसे बिहार में कोई बैंक लूट ले तो ख़बर बनेगी बिहार में जंगल राज। दिल्ली में इसी तरह की घटना की ख़बर में जंगल राज का इस्तमाल नहीं होता। कम से कम उत्साही पत्रकार यह लिख ही सकते हैं कि दक्षिण दिल्ली में भी बिहार वाला जंगल राज आ चुका है। माया का जंगल राज। शुक्र है कि और शायद यह मेरा मौलिक दावा है कि केंद्र सरकार के संदर्भ में अभी तक किसी पत्रकार ने जंगल राज का इस्तमाल नहीं किया है। क्योंकि उन्हें लगता होगा कि जंगल राज की कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं होती। वरना एक हेंडिग हो सकती है- मनमोहन का जंगल राज। हिमाचल प्रदेश में अपराध की घटना के संदर्भ में हम जंगल राज का इस्तमाल नहीं करते। जबकि वहां बिहार से अधिक पेड़ होंगे। एक और शब्द है जिसे लेकर हिंदी के पत्रकार पीढियों से भावुक होते रहे हैं। इंसाफ, कानून और अन्याय। हिंदी का पत्रकार सब बर्दाश्त कर लेगा कानून और इंसाफ से छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। कब मिलेगा इंसा फ़,ये अंधा कानून है,कानून की करतूत। अन्याय का अंत। सभी पत्रकार की यह ख़्वाहिश होती है कि इंसाफ़ जल्दी मिले। कम से कम हिंदी के पत्रकारों ने हमेशा यही चाहा है। और हां मैं मां की ममता का ज़िक्र नहीं कर रहा हूं। यह मेरे लिए बहुत टची मामला है। बल्कि सभी पत्रकार मां की ममता को लेकर सामान्य भाव से इमोशनल हैं। इसका इस्तमाल करें। कम से कम मांओं को तो बुरा नहीं लगेगा। गुस्सा तो तब आता है जब कोई मां अपने बेटे को मार दे। हमें बर्दा श्त ही नहीं होता जिसके पास ममता है वो हत्या कैसे कर सकती है? क्या मां लोगों की ममता में बदलाव आ रहा है। इस पर एक लाइफस्टाइल सर्वे होना चाहिए। जब से ममता क्षमता में बदल गई है और मांएं नौकरी करने लगी हैं,ज़रूर उनकी ममता वैसी नहीं होगी जैसी हिंदी के पत्रकारों ने देखी है। हिंदी पत्रकारिता में किसी स्थाई अनुप्रास संपादक की ग़ैर मौजूदगी में शब्दों के साथ अत्याचार हो रहा है। ज़माने से शब्दों पर दाग़ लगाए जा रहे हैं और शब्दों को शर्मसार किया जा रहा है। बार बार शब्दों पर गाज़ गिरती है और शब्दों की मासूमियत छिन जाती है। पत्रकारिता में शब्दों के इस जंगल राज का सफाया कब होगा भाई। बोर हो गए हैं। लगता है बहुत दिन से निर्मल वर्मा बनने की चाह और आह लिये साहित्य का मारा कोई शख्स हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश नहीं किया है। वरना वही हिंदी को बदलने की ठेकेदारी में इन सब शब्दों को फेंक देता। From ravikant at sarai.net Sat May 10 15:06:09 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 10 May 2008 15:06:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSa4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSvIOCkueCknOCkvuCksOClgCDgpKrgpY3gpLDgpLjgpL7gpKYg4KSm?= =?utf-8?b?4KWN4KS14KS/4KS14KWH4KSm4KWA4KSDIOCkleClgeCkmyDgpLjgpYLgpKQ=?= =?utf-8?b?4KWN4KSw?= Message-ID: <200805101506.09418.ravikant@sarai.net> द्विवेदी जी साहित्यिकों में अच्छे उपन्यासकार, इतिहासकार, आलोचक और विराट दिल वाले चिंतक थे, जिन्होंने हिन्दी में आलोचना की दूसरी परंपरा को जन्म दिया. अभी तद्भव में भी विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन पर मज़ेदार संस्मरण लिखे हैं: शांतिनिकेतन में द्विवेदी जी का आरम्भिक दौर: http://tadbhav.com/shantiniketan.htm#shantiniketan नीचे पेश है उन्हीं की किताबों से उठाई गई कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ, मज़े के लिए: ravikant http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MadhuSandhu/achary_Hazari_prasad_dwevdi_sutra.htm डॉ० मधु सन्धु 1. आध्यात्मिक ऊँचाई तक समाज के बहुत थोड़े लोग ही पहुँच सकते हैं। बाकी लोग छोटे-मोटे दुनियावी टंटों में उलझे रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक आदर्श को विकृत कर देते हैं। 2. आम्रमंजरी मदन देवता का अमोघ बाण है। 3. आसमान में निरन्तर मुक्का मारने में कम परिश्रम नहीं है। 4. कमजोरों में भावुकता ज्यादा होती होगी। 5. कभी कभी शिष्य परम्परा में ऐसे भी शिष्य निकल आते हैं, जो मूल सम्प्रदाय प्रवर्त्तक से भी अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। फिर भी सम्प्रदाय स्थापना का अभिशाप यह है कि उसके भीतर रहने वाले का स्वाधीन चिन्तन कम हो जाता है। 6. कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने पर अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जाता है। 7. कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है! केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है। 8. घृणा और द्वेष से जो बढ़ता है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है। 9. जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो, आसक्त हो। 10. जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य, कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरम्भ किया जाय, वह फलदायक नहीं होगा। 11. जितना कुछ इस जीवन शक्ति को समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक दिया जाता हैं। 12. जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है, उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है। 13. जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परामुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे सा हित्य कहने में मुझे संकोच होता हैं। 14. जो साहित्य मनुष्य समाज को रोग, शोक, दारिद्रय, अज्ञान तथा परामुखापेक्षिता से बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता है, वह निश्चय ही अक्षय निधि है। 15. ड़ेमोक्रेट हँसना और मुस्कराना जानता है पर डिक्टेटर हँसने की बात सोचते भी नहीं। 16. धर्म मनुष्य से त्याग की आशा रखता है। 17. नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा भक्ति तथा योग मूलक अनूभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है जिसे हम संस्कृति शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं। 18. पंडिताई भी एक बोझ है जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबोती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है तब वह बोझ नहीं रहती। 19. प्रवृतियों को दबाना नहीं चाहिए, उनसे दबना भी नहीं चाहिए। 20. पावक को कभी कलंक स्पर्श नहीं करता, दीपशिखा को अंधकार की कालिमा नहीं लगती, चंद्रमंडल को आकाश की नीलिमा कलंकित नहीं करती और जाह्नवी की वारिधारा को धरती का कलुष स्पर्श भी नहीं करता। 21. पुरुष का सत्य और है, नारी का और। 22. पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वव्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी, पुरुष मुक्त है, स्त्री बद्ध। 23. पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है, पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है। 24. प्रेम बड़ी वस्तु है, त्याग बड़ी वस्तु है और मनुष्य मात्र को वास्तविक मनुष्य बनाने वाला ज्ञान भी बड़ी वस्तु है। 25. ब्राह्मण न भिखारी होता है, न महासंधिविग्रहिक, वह धर्म का व्यवस्थापक होता है। 26. भारतीय जनता की विविध साधनाओं की सबसे सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा जा सकता हैं। 27. मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। 28. मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति हैं। 29. मनुष्य के भीतर नाखून बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उनके काटने की जो प्रवृत्ति है वह उसकी मनुष्यता की निशानी है। 30. मनुष्य में जो मनुष्यता है, जो उसे पशु से अलग कर देती है, वही आराध्य है। क्या साहित्य और क्या राजनीति, सबका एक मात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है। 31. मानव जीवन की तीन स्थितियाँ मानी गई हैं- विकृति, प्रवृति और संस्कृति। विकृति अधोगा मिनी स्थिति है तो संस्कृति ऊर्ध्वगामिनी। 32. माया का जाल छुड़ाए छूटता नहीं, यह इतिहास की चिरोद्धोषित वार्ता सब देशों और सब कालों में समान भाव से सत्य रही है। 33. माया से छूटने के लिए माया के प्रपंच रचे गए , यह सत्य है। 34. मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ। 35. यदि आप संसार की सारी समस्याओं का विश्लेषण करें तो इनके मूल में एक ही बात पाएँगे-मनुष्य की तृष्णा। 36. यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और मन की शुद्धि आवश्यक है। 37. राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल है, असिधारा से भी अधिक दुर्गम है, विद्युत शिखा से भी अधिक चंचल है। 38. राजनैतिक पराधीनता बड़ी बुरी वस्तु है। वह मनुष्य को जीवन यात्रा में अग्रसर होने वाली वस्तुओं से वंचित कर देती है। 39. विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक सा होता है। आप दुर्दान्त डाकू के दिल में विनोदप्रियता भर दीजिए, वह लोकतन्त्र का लीडर हो जाएगा, आप समाज सुधार के उत्साही कार्य कर्त्ता के हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजेक्शन दे दीजिए, वह अखबारनवीस हो जाएगा। 40. शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। 41. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा सी अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। 42. संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की चरम परिणति है। धर्म के समान वह भी अविरोधी वस्तु है। वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य उत्पन्न करती है। 43. सत्य सार्वदेशिक होता है। 44. सभ्यता की दृष्टि वर्तमान की सुविधा-असुविधा पर रहती है, संस्कृति की भविष्य या अतीत के आदर्श पर। 45. सभ्यता बाह्य होने के कारण चंचल है, संस्कृति आंतरिक होने के कारण स्थायी। 46. सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अंतर के विकास का। 47. सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है। 48. साहित्य यदि जनता के भीतर आत्मविश्वास और अधिकार चेतना की संजीवनी शक्ति नहीं संचा रित करता तो परिणाम बड़े भयंकर होंगे। 49. सीधी रेखा खींचना सबसे टेढ़ा काम है। 50. सुविधाओं को पा लेना ही बड़ी बात नहीं है, प्राप्त सुविधाओं को मनुष्य मात्र के मंगल के लिए नियोजित कर सकना भी बहुत बड़ी बात है। 51. स्त्री प्रकृति है। उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, किन्तु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है। 52. स्नेह बड़ी दारुण वस्तु है, ममता बड़ी प्रचंड शक्ति है। 53. स्यारों के स्पर्श से सिंह किशोरी कलुषित नहीं होती। असुरों के गृह में जाने से लक्ष्मी घर्षित नहीं होती। चींटियों के स्पर्श से कामधेनु अपमानित नहीं होती। चरित्रहीनों के बीच वास करने से सरस्वती कलंकित नहीं होती। 54. स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होती। 55. हमारी राजनीति, हमारी अर्थनीति और हमारी नवनिर्माण की योजनाएँ तभी सर्वमंगल वि धायिनी बन सकेंगी जब हमारा हृदय उदार और संवेदनशील होगा, बुद्धि सूक्ष्म और सारग्रहिणी हो गी और संकल्प महान और शुभ होगा। From vineetdu at gmail.com Sun May 4 11:37:38 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 4 May 2008 11:37:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleClgeCkguCkoOCkviDgpJXgpYAg4KSs4KSy4KS/IOCkqCDgpJo=?= =?utf-8?b?4KSi4KS8IOCknOCkvuCkjyDgpKzgpY3gpLLgpYngpJfgpJzgpJfgpKQ=?= Message-ID: <829019b0805032307o27f1c15dg67c43300878fb650@mail.gmail.com> अवीनाश, भडास, एन डी टी वी ओर हिन्दी ब्लोगजगत पोस्ट में खुल के बोल ने लिखा कि हिंन्दी ब्लॉगिंग के 5000 ब्लॉग्स मे से सिर्फ दो – मोहल्ला और भड़ास ही दर्शकों तक पहुँचाये गये । इसके अलावा अविनाश के करीबी यार रवीश , का ब्लॉग कस्बा का पता दिखाया गया । उनकी शिकायत है कि बाकी लोग कहां गए।... खुल के बोल की जो पीड़ा है, इसे मैं पीड़ा न कहकर मलाल कहूं तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि पीड़ा खुल के बोल को बहुत ही निरीह और असहाय बना देगा जो कि वो हैं नहीं। खैर, खुल के बोल का जो मलाल है वो हिन्दी समाज के लिए नया नहीं है। हिन्दी समाज इसका पुराना मरीज और मुरीद रहा है। आप एक राउंड लगा आइए हिन्दी वालों के बीच आपको इसका अंदाजा लग जाएगा कि हिन्दी समाज में ९० प्रतिशत से ज्यादा लोग मलाल और कुंठा में जीते हैं और इस बीच अगर कुछ लिखते भी है तो इससे गुजरते हुए। स्थापित तो स्थापित जिन्हें अभी लिखना शुरु किए जुम्मा-जुम्मा चार दिन भी नहीं हुए वो आपको कहता मिल जाएगा- देखिए जी, दस कहानियां लिख चुका, अभी तक राजेन्द्रजी ने कहीं कुछ कहा ही नहीं मेरे बारे में। पचासों कविताएं छप चुकी है, नामवरजी ने कभी नोटिस नहीं ली। अब तक पता नहीं किस मसले पर लिखता रहा लेकिन जैसे ही उसके दिमाग में ये बात आनी शुरु हो जाती है कि उसकी कोई नोटिस नहीं ले रहा, आगे से चाहे वो जिस किसी मुद्दे पर लिखे, उसमें जाने-अनजाने कुंठा,मलाल, नोटिस होने की छटपटाहट घुलने लगा जाती है। ये कितना सही है या गलत, पता नहीं लेकिन किताबी ज्ञान की बात करुं तो मम्मट, भामह से लेकर नए आचार्यों ने रचनाकार की उपलब्धि में बाकी चीजों के साथ यश की प्राप्ति बताया है। कोई बंदा इनके शास्त्र न भी पढ़ा हो तो लिखनेवालों के बीच यश पाने की लालसा जन्मजात होती है, यानि जब से वो लिखना शुरु करता है। इसका नतीजा होता है कि कई बार लिखनेवाले की रचना उसके मुद्दे और लिखने की वजह से खिसकते चले जाते हैं। कई उभरते रचनाकार इस हादसे के शिकार हो चुके हैं। जिन्हें इस बात का एहसास होने लगा कि नोटिस होने के लिए कुछ अलग लिखो, उटपटांग भी लिखो यो फिर नोटिस में आ गए हो तो नोटिस में बने रहने के लिए लिखो। ऐसे में वो अपने भीतर ही आए दिन अपने से लड़ता है, अपनी कुंठा से लड़ता है। मैंने अपने एम.ए की पढ़ाई के दौरान कुछ ऐसे भी मास्टरों से शिक्षा ली है जिनका मलाल बना रहा कि उन्होंने कविता पर और वादों ( इज्म) पर इतनी सारी किताबें लिख दीं लेकिन साहित्य के इतिहासकारों ने उनके बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा. एक दो ऐसे विद्वान और हिन्दी के बाबा मिल जाएंगे जिन्हें इस बात का मलाल है कि उनसे टटपूंजिए लोग प्रोफेसर बन गए और वो रीडर से ही रिटायर हो गए।... और उनकी ये कुंठा और मलाल इनकी राइटिंग में इतनी हावी हो जाती है कि वो हमें बता ही नहीं पाते कि वो कहना क्या चाह रहे हैं. मुद्दे से फिसलना इसे ही कहते हैं। खुल के बोल जिस बात को आज रख रहे हैं कि ५००० ब्लॉगों के बीच केवल तीन ही चार ब्लॉग हैं जिसकी चर्चा एक नेशनल चैनल में की जानी चाहिए, ये मसला भी नहीं है। इनकी तरह मैं भी जब नया-नया ब्लॉग की दुनिया में आया तो नीलिमा के एक लेख पर गहरी आपत्ति दर्ज की थी कि उन्होंने करीब आठ-दस पन्ने में जो लेख लिखा उसमें मोहल्ला जैसे चर्चित ब्लॉग की कहीं कोई चर्चा ही नहीं की। मैं इस बात को पचा ही नहीं पा रहा था कि इतने पॉपुलर ब्लॉग को कोई कैसे छोड़ सकता है र तब मैंने मोहल्ला पर ही पोस्ट लिखी। वो लेख भी देशभर में बिकनेवाली नए विमर्शों की त्रैमासिक वाक् में छपी थी।... लेकिन धीरे- धीरे मैं समझने लगा कि हम या हम जैसे कोई भी नए लोग जब ब्लॉग की दुनिया में आते हैं तो उसे बहुत ही मासूम और इन्सेंट माध्यम मानने लगते हैं। इसी क्रम में, कलम छोड़कर जब लोगों ने कीबोर्ड थामा तो एकबारगी तो ऐसा लगा कि अब हिन्दी समाज हीनता की ग्रंथि जल्द ही मुक्त हो जाएगा। क्योंकि अब कतरन फाड़कर दिखानेवाले भी औकात में आ जाएंगें जो अबतक मुनादी किए फिरते थे कि देखोजी, हमारा छपा है। यहां तो मामला एकदम से साफ है कि जिसको लिखना है लिखे, जैसा चाहे लिखे। जिसमें औकात होगी, उसे लोग पढ़ेंगे। संपादक जैसे किसी भी नॉलेज ब्राकर की जरुरत नहीं है। आप ही लेखक, आप ही संपादक और जो कुछ भी आर्थिक मुनाफा होगा, उसके हकदार आप ही। लेकिन, फिर उस कहावत का क्या होता- *चल जाओ चाहे नेपाल, रहेगा वही कपाल।* आमतौर पर हिन्दी समाज में कोई विचारधारा या तकनीक आती है तो उससे इस बात की उम्मीद कर ली जाती है कि अब क्या, इसके आते ही सारी झंझटें दूर हो जाएंगी। परिवार से लेकर व्यक्तिगत कुंठा तक सारी चीजें दूर हो जाएंगी। जबकि सच्चाई ये है कि जब भी हम किसी चीज को अपनाते हैं तो उसे अपनी मानसिकता के साथ शामिल करते हैं। इसलिए माध्यम के बदल जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। हिन्दी समाज में पॉपुलर होने का बहुत ही सीधा फंड़ा है। शुरु में लात खाओ और बाद में लात मारने की कला सीखो और फिर लात मारने और गलती से खा लेने पर बर्दाश्त करने की कला सीखो। इसे आप बने रहने का बेसिक फंड़ा भी कह सकते हैं और इसी में अगर बरकत होती रही तो बने रहने से आगे की स्टेप जिसे अपनी भाषा में मठाधीशी भी कहते हैं। इस फार्मूले के तहत लिखते-पढ़ते रहने से कभी मलाल नहीं होता, कुंठा कभी पनपने नहीं पाती। खुल के बोल वाले भायजी अगर आप इतनी बात समझते हैं, समझते तो हैं ही, बस ध्यान से उतर गया होगा तो अब आपको समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि पांच हजार के ब्लॉग के बीच तीन ही क्यों।...और जबाब मिलते ही मलाल थूक दीजिएगा, प्लीज.... ।।। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-437964 Size: 97455 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080504/9859102c/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Sun May 4 16:49:10 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 4 May 2008 16:49:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJXgpLk=?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCkleClgeCkguCkoOCkviDgpJXgpYAg4KSs4KSy4KS/IA==?= =?utf-8?b?4KSoIOCkmuCkouCkvCDgpJzgpL7gpI8g4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX4KSc?= =?utf-8?b?4KSX4KSk?= In-Reply-To: <829019b0805032307o27f1c15dg67c43300878fb650@mail.gmail.com> References: <829019b0805032307o27f1c15dg67c43300878fb650@mail.gmail.com> Message-ID: <829019b0805040419u3ca7af04n58405701ca2a2eb0@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080504/1aa91048/attachment-0001.html From r_p_bhatt at hotmail.com Sat May 10 18:19:30 2008 From: r_p_bhatt at hotmail.com (RP bhatt) Date: Sat, 10 May 2008 12:49:30 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 89, Issue 10 In-Reply-To: References: Message-ID: Dear Ravikant Saheb, wonderful! I must tell you that in recent news briefing, especially in "live news reporting" I have noticed that most of the journalist use sentences like: ...kahin n kahin to..., ...koi n koi to... ...kuch n kuch to... etc very, very often. Almost everything is made indefinite. What to say about "Hinglish"! Are all those reporters usually well trained? Best regards, RP Bhatt > From: deewan-request at mail.sarai.net> Subject: Deewan Digest, Vol 89, Issue 10> To: deewan at mail.sarai.net> Date: Sat, 10 May 2008 15:06:31 +0530> > Send Deewan mailing list submissions to> deewan at mail.sarai.net> > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan> or, via email, send a message with subject or body 'help' to> deewan-request at mail.sarai.net> > You can reach the person managing the list at> deewan-owner at mail.sarai.net> > When replying, please edit your Subject line so it is more specific> than "Re: Contents of Deewan digest..."> > > Today's Topics:> > 1. [दीवान] mihir ka IPL (Ravikant)> 2. [दीवान]दाग़ , ग़ाज़ ,> शर्मसार और जंगल राज (Ravikant)> 3. [दीवान]आचार्य हजारी> प्रसाद द्विवेदीः कुछ> सूत्र (Ravikant)> > > ----------------------------------------------------------------------> > Message: 1> Date: Sat, 10 May 2008 14:44:37 +0530> From: Ravikant > Subject: [दीवान] mihir ka IPL> To: deewan at sarai.net> Message-ID: <200805101444.37334.ravikant at sarai.net>> Content-Type: text/plain; charset="utf-8"> > http://www.aawarahoon.blogspot.com/> > कहाँ रंगीन मिजाज़ शेन वार्न और कहाँ पारंपरिक राजस्थान. जनता शंका में थी जी... सच्ची!> > > कुछ शहर के बारे में...> जयपुर के पुराने शहर में घरों का गुलाबी रंग कुछ उड़ा-उड़ा सा है लेकिन अब भी बाकी है. और इसके सा> थ ही जयपुर ने अपना ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज अब भी बचा कर रखा है. राजनीति में जयपुर > भा.ज.पा. का गढ़ माना जाता है. गिरधारीलाल भार्गव यहाँ से सांसद हैं और पुरानी बस्ती में उनके > बारे में मशहूर है कि शहर में अपनी पैठ उन्होंने लोगों की अर्थियों को कांधा देकर बनाई है. वो रोज़ > सुबह उठकर अखबार पढ़ते हैं. देखते हैं कि श्रद्धांजलि वाले कॉलम में किसकी मौत की सूचना है और फिर > पहुँच जाते हैं उनके घर. और इसी प्रतिष्ठा के दम पर वो एक चुनाव में जयपुर के राजा भवानी सिंह> को भी हरा चुके हैं. कहते हैं कि यहाँ भा.ज.पा. पत्थर की मूरत को भी चुनाव में खड़ा कर दे तो वो > भी जीत जाए. समय-समय पर प्रमोद महाजन, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के लिए सुरक्षित सी> ट की तलाश में उन्हें जयपुर से लोकसभा का चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव आता रहा है. लोकसभा चुनावों > में यहाँ शहर में हर तरफ़ एक ही गीत बजता है... "शावा नी गिरधारीलाल! बल्ले नी गिरधारीला> ल!"> > जीत के पहले...> 16 तारीख को मैं जयपुर पहुँचा. कुछ इस तरह की खबरों ने मेरा स्वागत किया :-> > अरे भाई वॉर्न आया है. कोई ना कोई कांड तो करेगा ही! जनता इसी आशंका (पढ़ें उम्मीद) में थी.> > सुना है शहर की नर्सों को ख़ास हिदायत दी गई है कि किसी भी अनजान नंबर से SMS आने पर तुरंत > IPL के अधिकारियों को सूचित करें. और अगर SMS में गुगली या फ्लिपर जैसे शब्दों का प्रयोग हो तो > सीधा ललित मोदी को रिपोर्ट करें.> > कुछ लोग यह भी ख़बर लाये थे कि वॉर्न को ख़ास नोकिया 2100 दिया गया है उसके घातक SMS > पर नियंत्रण के लिए और उसके फ़ोन को विशेष निगरानी में रखा गया है.> शेन वॉर्न के शहर में आगमन के साथ ही सिगरेट की बिक्री में भारी इजाफा दर्ज किया गया है.> > रोहित का कहना था कि हर टीम के पास स्टार है. किसी के साथ शाहरुख़ है तो किसी के साथ > प्रिटी जिंटा. इसपर भास्कर का कहना था कि हमारे पास भी तो स्टार है, रोहित राय! और इला > अरुण और मिला लो तो फिर और कौन टिकता है हमारे सामने! ऐसा भी सुना गया कि ललित मोदी ने > जयपुर में पहले मैच में रोहित राय के पोस्टर बेचे. उसमें रोहित राय शर्ट-लेस अपनी सिक्स पैक > ऐब्स दिखा रहा था! क्या बात है, तुम्हारे पास शाहरुख़ तो हमारे पास रोहित राय! वाह क्या मुका> बला है!> > > पहला मैच देखने आए लोगों को जब पता चला कि समीरा रेड्डी का नाच मैच के पहले ही हो चुका तो > उन्होंने अपने पैसे वापिस लौटाने की मांग की. बाकि लोगों ने चीयरलीडर्स से तसल्ली की.> > जीत के बाद...> लगातार 5 जीत और IPL टेबल में सबसे ऊपर आने के बाद शेन वॉर्न अब राजस्थान का अपना छोरा है. > आने वाले समय में आप कुछ ऐसी चीजों के लिए तैयार रहें...> > > > इस महान वीर कर्म के लिए वॉर्न को तेजाजी,पाबूजी और रामदेव जी की तरह लोकदेवता का दर्जा> मिल सकता है. आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि ये सभी लोकदेवता साधारण मनुष्य ही थे जो > आमतौर पर गाय या अन्य पशुओं की रक्षा में मारे गए. वैसे ही उसके मन्दिर बन सकते हैं जहाँ परसाद > में सिगरेट चढ़ा करेंगी. बोलो शेन वॉर्न महाराज की जय!> > > > अगले RAS के पेपर में राजस्थान के सामान्य ज्ञान में एक सवाल होगा, "राजस्थान के दो वीर योद्धा > जिनका एक ही नाम हैं और जिनके पराक्रम के किस्से बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं." और जवाब हो> गा, "शेन वॉर्न और शेन वाटसन."> > > राजकुमार संतोषी अपना सर पीट रहा होगा. कह रहा होगा कि अब अपनी फ़िल्म 'हल्ला बोल' > रिलीज़ करता तो राजस्थान रोयल्स के हल्ला बोल में वो भी चल जाती.> > > > इला अरुण को एक संगीत कम्पनी फिर से प्राइवेट अल्बम का कांट्रेक्ट देगी. वीडियो में रखी सावंत को > लिया जाएगा (और कौन!) बाद में दोनों में कौन ज्यादा पैसे लेगा इसको लेकर झगड़ा होगा और दोनों > एक-दूसरे से ज्यादा बड़ी आईटम होने का दावा करेंगी. राखी हाल ही में आए 'देखता है तू क्या' का > हवाला देंगी और इला अरुण 'दिल्ली शहर में म्हारो घाघरो जो घूम्यो' को सबूत के तौर पर पेश> करेंगी. फिर इस मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया द्वारा एक देशव्यापी SMS अभियान चलेगा. नतीजे का > हमें भी इंतज़ार है.> .....................> > > यहाँ सबकुछ मिलेगा सिवाय क्रिकेट के. निवेदन है कि उसकी तलाश ना करें. अगर क्रिकेट देखनी है तो > इंग्लैंड- न्यूजीलैंड टेस्ट सीरीज़ (15 मई) और ऑस्ट्रेलिया- वेस्ट इंडीज़ टेस्ट सीरीज़ (22 मई) का> इंतज़ार करें. चाहें तो 11 मई को मैनचेस्टर यूनाइटेड को खिताब जीतते देखें जैसी उम्मीद है.> > ------------------------------> > Message: 2> Date: Sat, 10 May 2008 14:50:17 +0530> From: Ravikant > Subject: [दीवान]दाग़ , ग़ाज़ ,> शर्मसार और जंगल राज> To: deewan at sarai.net> Message-ID: <200805101450.17503.ravikant at sarai.net>> Content-Type: text/plain; charset="utf-8"> > Raveesh ka post jo bigaR gaya tha. > > ravikant> > http://naisadak.blogspot.com/> > दाग़, ग़ाज़,शर्मसार और जंगल राज > आपने कभी दाग़ लगी वर्दी को धुलते देखा है? क्या आप जानते हैं कि वर्दी पर दाग़ लगने के बाद उसका > क्या होता है? या फिर वर्दी पर दाग़ लगना इतनी असमान्य घटना है कि जब कोई सिपाही किसी > को पीट देता है तो वह वर्दी पर दाग लगा बैठता है। हम हिंदी पत्रकार कुछ मुहावरों को लेकर> इमोशनल हो गए हैं। उन्हें छोड़ते ही नहीं है।पुलिस या अपराध की स्टोरी पर एक न एक बार वर्दी > पर दाग़ लगा ही देते हैं।इसका अतिरेक इस्तमाल सर्फ एक्सेल को उत्साह से भर देता होगा कि जब > इतनी वर्दियां दागदार हो रही हैं तो उनका प्रोडक्ट ख़ूब बिकेगा। अख़बार या चैनल सब की भाषा > में दाग़ लगना एक भयंकर घटना है। पुलिस कुछ भी कर ले वर्दी पर दाग लगने से नहीं रोक सकती। > भगवान जाने इतनी दाग लगी वर्दी पहनते कैसे होंगे? उसी तरह पुलिसिया कहर,पुलिसिया ज़ुल्म> का ज़िक्र भी हर पुलिस की ख़बर के साथ आता है। शुक्र है हम दाद खाज और खुजली का इस्तमाल नहीं > करते वरना शब्दों और उनसे बने वाक्यों को एक्ज़िमा हो जाता।> > > एक और मुहावरा है। इंसानियत हुई शर्मसार। तो क्या हुआ? इंसानियत ने कुछ किया ताकि उसे आगे से > शर्मसार न होना पड़े। फिर भी हम लिखते हैं कि भीड़ की करतूत से इंसानियत शर्मसार हुई। क्या कि> सी ने इंसानियत को शर्मसार होते देखा है? ठीक उसी तरह से क्या किसी ने गाज़ गिरते हुए देखा है? > पत्रकारों की भाषा में गाज़ मंत्री, अफसर और पुलिस पर ही गिरती है। आमतौर से इन्ही तीन वर्गों > पर गाज़ गिरती है। इसका इस्तमाल इतना अधिक हो गया है कि सुन कर ही लगता है कि गाज़ > गिरना कोई बड़ी बात नहीं। कल की भी एक स्टोरी में किसी मंत्री पर गाज़ गिर गई थी आज की> स्टोरी में मायावती के अफसरों का गाज़ गिरी है। पता नहीं यह गाज़ कहां अटकी होती है जहां से> गिर जाती है तो ख़बर बन जाती है। क्या बिना गाज़ गिराये किसी अफ़सर के तबादले की ख़बर नहीं > लिखी जा सकती? एक और मुहावरा है मासूम का। बच्चों की स्टोरी में मासूम शब्द खूब आता है। मासूम > पर अत्याचार। मासूम का छिन गया बचपन। हर बच्चा मासूम होता होगा। क्या बच्चों का > पर्यावाची शब्द मासूम भी है? मुझे हिंदी कम आती है इसलिए जानना चाहता हूं कि आख़िर किस मजबूरी > में इस तरह के शब्द हमारी ख़बरों और ख़ासकर हेडलाइन्स का हिस्सा बनती रही हैं। > > एक और है स्थिति है जंगल राज की। यह जंगल राज भी ख़ास राज्यों के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। जैसे > बिहार में कोई बैंक लूट ले तो ख़बर बनेगी बिहार में जंगल राज। दिल्ली में इसी तरह की घटना की > ख़बर में जंगल राज का इस्तमाल नहीं होता। कम से कम उत्साही पत्रकार यह लिख ही सकते हैं > कि दक्षिण दिल्ली में भी बिहार वाला जंगल राज आ चुका है। माया का जंगल राज। शुक्र है कि > और शायद यह मेरा मौलिक दावा है कि केंद्र सरकार के संदर्भ में अभी तक किसी पत्रकार ने जंगल राज > का इस्तमाल नहीं किया है। क्योंकि उन्हें लगता होगा कि जंगल राज की कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं > होती। वरना एक हेंडिग हो सकती है- मनमोहन का जंगल राज। हिमाचल प्रदेश में अपराध की घटना > के संदर्भ में हम जंगल राज का इस्तमाल नहीं करते। जबकि वहां बिहार से अधिक पेड़ होंगे। > > एक और शब्द है जिसे लेकर हिंदी के पत्रकार पीढियों से भावुक होते रहे हैं। इंसाफ, कानून और अन्याय। > हिंदी का पत्रकार सब बर्दाश्त कर लेगा कानून और इंसाफ से छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। कब मिलेगा इंसा> फ़,ये अंधा कानून है,कानून की करतूत। अन्याय का अंत। सभी पत्रकार की यह ख़्वाहिश होती है कि > इंसाफ़ जल्दी मिले। कम से कम हिंदी के पत्रकारों ने हमेशा यही चाहा है।> > और हां मैं मां की ममता का ज़िक्र नहीं कर रहा हूं। यह मेरे लिए बहुत टची मामला है। बल्कि सभी > पत्रकार मां की ममता को लेकर सामान्य भाव से इमोशनल हैं। इसका इस्तमाल करें। कम से > कम मांओं को तो बुरा नहीं लगेगा। गुस्सा तो तब आता है जब कोई मां अपने बेटे को मार दे। हमें बर्दा> श्त ही नहीं होता जिसके पास ममता है वो हत्या कैसे कर सकती है? क्या मां लोगों की ममता में > बदलाव आ रहा है। इस पर एक लाइफस्टाइल सर्वे होना चाहिए। जब से ममता क्षमता में बदल गई है > और मांएं नौकरी करने लगी हैं,ज़रूर उनकी ममता वैसी नहीं होगी जैसी हिंदी के पत्रकारों ने देखी है।> > हिंदी पत्रकारिता में किसी स्थाई अनुप्रास संपादक की ग़ैर मौजूदगी में शब्दों के साथ अत्याचार हो > रहा है। ज़माने से शब्दों पर दाग़ लगाए जा रहे हैं और शब्दों को शर्मसार किया जा रहा है। बार> बार शब्दों पर गाज़ गिरती है और शब्दों की मासूमियत छिन जाती है। पत्रकारिता में शब्दों के इस > जंगल राज का सफाया कब होगा भाई। बोर हो गए हैं। लगता है बहुत दिन से निर्मल वर्मा बनने की > चाह और आह लिये साहित्य का मारा कोई शख्स हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश नहीं किया है। वरना > वही हिंदी को बदलने की ठेकेदारी में इन सब शब्दों को फेंक देता।> > ------------------------------> > Message: 3> Date: Sat, 10 May 2008 15:06:09 +0530> From: Ravikant > Subject: [दीवान]आचार्य हजारी> प्रसाद द्विवेदीः कुछ> सूत्र> To: deewan at sarai.net> Message-ID: <200805101506.09418.ravikant at sarai.net>> Content-Type: text/plain; charset="utf-8"> > द्विवेदी जी साहित्यिकों में अच्छे उपन्यासकार, इतिहासकार, आलोचक और विराट दिल वाले चिंतक थे, > जिन्होंने हिन्दी में आलोचना की दूसरी परंपरा को जन्म दिया. अभी तद्भव में भी विश्वनाथ > त्रिपाठी ने उन पर मज़ेदार संस्मरण लिखे हैं: शांतिनिकेतन में द्विवेदी जी का आरम्भिक दौर:> > http://tadbhav.com/shantiniketan.htm#shantiniketan> > नीचे पेश है उन्हीं की किताबों से उठाई गई कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ, मज़े के लिए:> > > ravikant> > http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MadhuSandhu/achary_Hazari_prasad_dwevdi_sutra.htm> > डॉ० मधु सन्धु> 1. आध्यात्मिक ऊँचाई तक समाज के बहुत थोड़े लोग ही पहुँच सकते हैं। बाकी लोग छोटे-मोटे > दुनियावी टंटों में उलझे रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक आदर्श को विकृत कर देते हैं।> 2. आम्रमंजरी मदन देवता का अमोघ बाण है।> 3. आसमान में निरन्तर मुक्का मारने में कम परिश्रम नहीं है।> 4. कमजोरों में भावुकता ज्यादा होती होगी।> 5. कभी कभी शिष्य परम्परा में ऐसे भी शिष्य निकल आते हैं, जो मूल सम्प्रदाय प्रवर्त्तक से > भी अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। फिर भी सम्प्रदाय स्थापना का अभिशाप यह है कि उसके भीतर > रहने वाले का स्वाधीन चिन्तन कम हो जाता है।> 6. कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने पर > अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जाता है।> 7. कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है! केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता > है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है।> 8. घृणा और द्वेष से जो बढ़ता है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है।> 9. जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो, > आसक्त हो। > 10. जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य, कितनी ही> व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरम्भ किया जाय, वह फलदायक नहीं होगा।> 11. जितना कुछ इस जीवन शक्ति को समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक > दिया जाता हैं।> 12. जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है, उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है।> 13. जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परामुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी > आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे सा> हित्य कहने में मुझे संकोच होता हैं।> 14. जो साहित्य मनुष्य समाज को रोग, शोक, दारिद्रय, अज्ञान तथा परामुखापेक्षिता से > बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता है, वह निश्चय ही अक्षय निधि है।> 15. ड़ेमोक्रेट हँसना और मुस्कराना जानता है पर डिक्टेटर हँसने की बात सोचते भी नहीं।> 16. धर्म मनुष्य से त्याग की आशा रखता है।> 17. नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा भक्ति तथा योग मूलक > अनूभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है जिसे > हम संस्कृति शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं।> 18. पंडिताई भी एक बोझ है जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबोती है। जब वह > जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है तब वह बोझ नहीं रहती।> 19. प्रवृतियों को दबाना नहीं चाहिए, उनसे दबना भी नहीं चाहिए।> 20. पावक को कभी कलंक स्पर्श नहीं करता, दीपशिखा को अंधकार की कालिमा नहीं लगती, > चंद्रमंडल को आकाश की नीलिमा कलंकित नहीं करती और जाह्नवी की वारिधारा को धरती का कलुष > स्पर्श भी नहीं करता।> 21. पुरुष का सत्य और है, नारी का और।> 22. पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वव्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी, पुरुष मुक्त है, > स्त्री बद्ध।> 23. पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है, पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर > अधूरी रह जाती है।> 24. प्रेम बड़ी वस्तु है, त्याग बड़ी वस्तु है और मनुष्य मात्र को वास्तविक मनुष्य बनाने वाला > ज्ञान भी बड़ी वस्तु है। > 25. ब्राह्मण न भिखारी होता है, न महासंधिविग्रहिक, वह धर्म का व्यवस्थापक होता है। > 26. भारतीय जनता की विविध साधनाओं की सबसे सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा > जा सकता हैं।> 27. मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती > चली आ रही है।> 28. मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति हैं।> 29. मनुष्य के भीतर नाखून बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। > उनके काटने की जो प्रवृत्ति है वह उसकी मनुष्यता की निशानी है।> 30. मनुष्य में जो मनुष्यता है, जो उसे पशु से अलग कर देती है, वही आराध्य है। क्या साहित्य > और क्या राजनीति, सबका एक मात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है।> 31. मानव जीवन की तीन स्थितियाँ मानी गई हैं- विकृति, प्रवृति और संस्कृति। विकृति अधोगा> मिनी स्थिति है तो संस्कृति ऊर्ध्वगामिनी। > 32. माया का जाल छुड़ाए छूटता नहीं, यह इतिहास की चिरोद्धोषित वार्ता सब देशों और सब > कालों में समान भाव से सत्य रही है।> 33. माया से छूटने के लिए माया के प्रपंच रचे गए , यह सत्य है। > 34. मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।> 35. यदि आप संसार की सारी समस्याओं का विश्लेषण करें तो इनके मूल में एक ही बात पाएँगे-मनुष्य > की तृष्णा।> 36. यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और > मन की शुद्धि आवश्यक है।> 37. राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल है, असिधारा से भी अधिक दुर्गम है, विद्युत शिखा से > भी अधिक चंचल है।> 38. राजनैतिक पराधीनता बड़ी बुरी वस्तु है। वह मनुष्य को जीवन यात्रा में अग्रसर होने वाली > वस्तुओं से वंचित कर देती है।> 39. विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक सा होता है। आप दुर्दान्त डाकू के दिल में विनोदप्रियता > भर दीजिए, वह लोकतन्त्र का लीडर हो जाएगा, आप समाज सुधार के उत्साही कार्य कर्त्ता के > हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजेक्शन दे दीजिए, वह अखबारनवीस हो जाएगा।> 40. शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।> 41. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा सी अबाधित-अनाहत धारा के समान सब > कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है।> 42. संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की चरम परिणति है। धर्म के समान वह भी अविरोधी > वस्तु है। वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य उत्पन्न करती है। > 43. सत्य सार्वदेशिक होता है।> 44. सभ्यता की दृष्टि वर्तमान की सुविधा-असुविधा पर रहती है, संस्कृति की भविष्य या अतीत > के आदर्श पर।> 45. सभ्यता बाह्य होने के कारण चंचल है, संस्कृति आंतरिक होने के कारण स्थायी। > 46. सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अंतर के विकास का।> 47. सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।> 48. साहित्य यदि जनता के भीतर आत्मविश्वास और अधिकार चेतना की संजीवनी शक्ति नहीं संचा> रित करता तो परिणाम बड़े भयंकर होंगे।> 49. सीधी रेखा खींचना सबसे टेढ़ा काम है।> 50. सुविधाओं को पा लेना ही बड़ी बात नहीं है, प्राप्त सुविधाओं को मनुष्य मात्र के मंगल के > लिए नियोजित कर सकना भी बहुत बड़ी बात है।> 51. स्त्री प्रकृति है। उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, किन्तु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में > है।> 52. स्नेह बड़ी दारुण वस्तु है, ममता बड़ी प्रचंड शक्ति है।> 53. स्यारों के स्पर्श से सिंह किशोरी कलुषित नहीं होती। असुरों के गृह में जाने से लक्ष्मी घर्षित > नहीं होती। चींटियों के स्पर्श से कामधेनु अपमानित नहीं होती। चरित्रहीनों के बीच वास करने से > सरस्वती कलंकित नहीं होती।> 54. स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होती।> 55. हमारी राजनीति, हमारी अर्थनीति और हमारी नवनिर्माण की योजनाएँ तभी सर्वमंगल वि> धायिनी बन सकेंगी जब हमारा हृदय उदार और संवेदनशील होगा, बुद्धि सूक्ष्म और सारग्रहिणी हो> गी और संकल्प महान और शुभ होगा।> > > ------------------------------> > _______________________________________________> Deewan mailing list> Deewan at mail.sarai.net> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan> > > End of Deewan Digest, Vol 89, Issue 10> ************************************** _________________________________________________________________ Connect to the next generation of MSN Messenger  http://imagine-msn.com/messenger/launch80/default.aspx?locale=en-us&source=wlmailtagline -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080510/ec33d17c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun May 11 09:46:27 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 11 May 2008 09:46:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSd4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleClgeCkmyDgpK3gpYAg4KSq4KSk4KS+IOCkqCDgpLngpYgg4KSu?= =?utf-8?b?4KS+4KSC?= Message-ID: <829019b0805102116i288e8c86ybf1278b8e09bfdb7@mail.gmail.com> आपकी जिंदगी में टीवी और रेडियो का कितना असर है , मैं नहीं जानता। लेकिन मेरे रोज की रुटिन का अच्छा-खासा समय टीवी और रेडियो के उपर जाता है. शाम के सात बजे के बाद मैं सिर्फ टीवी देखता हूं, उनके कार्यकर्मों की रिकॉर्डिंग करता हूं। मुझे बाहयात प्रोग्रामों को देखने पर भी संतोष मिलता है कि चलो आज भी किसी के खिलाफ जबरदस्ती का मोर्चा खोलने से बच गया। आज भी वेवजह किसी की शिकायत किसी से नहीं की। हॉस्टल से बाहर जितने समय तक रहता हूं, रेडियों सुनता हूं। ऐसा करने से एक अलग ढ़ंग का उत्साह बना रहता है। मेरे लिए एक थेरेपी है इन्हें सुनना और देखना. मेरे कई फैसले टीवी और रेडियो से तय होते हैं। कल की ही बात लीजिए न।... मुझे नहीं पता कि मदर्स डे का क्या इतिहास है। स्टार प्लस पर जब मंदिरा ने कहा कि ये हमारे कैलेंडर का सबसे इम्पार्टेंट डे है तो मैं चौक गया कि भई किस कलेंडर में लिखा है। घर में रहा तो ठाकुर पंचाग को पलटता या फिर एलआइसी के कलेंडर और यहां हूं तो मंत्रालय के कलेंडर लेकिन दोनों में से कहीं भी इसका कोई जिक्र नहीं है। लेकिन रात के दस बजे से साढ़े ग्यारह बजे तक स्टार प्लस ने मदर्स डे स्पेशल के नाम पर जो जीता वही सुपरस्टार में ऑडिएंस को सेंटी करने की कोशिश की, उसका शिकार मैं भी हो गया। विनीत,राजा, अभिजीत सामंत की तरह मैं कोई सिलेब्रेटी तो नहीं बन पाया कि मैं स्क्रीन पर दूर बैठी मां को मैसेज दे सकूं लेकिन उन सबकी मां और मेरी मां कॉमन है क्योंकि उनकी तरह मेरी मां ने भी मुझे कुछ अलग, डिफरेंट और काबिल बनाने की कोशिशें की।...और अभिजीत की मां की तरह दस पैसे गिरने पर खोज के ला कहां गिराया है,पैसे का महत्व बताती रही। *पेश है मां से जुड़ी कुछ यादें, कुछ बातें।* * *तुम जैसे पढ़े-लिखे आदमी के आगे हम जैसे अनपढ आदमी के बीन बजाने का कोई फायदा नहीं है। तुम वही करोगे जो तुम्हारा मन होगा। इतना कहने के वाबजूद भी वो फोन पर अक्सर दुनिया भर की नसीहतें झोंक देती हैं। खाने-पीने पर ध्यान देना,बिना बात के किसी से मत उलझना,पैसे बचाना मत जो मन आए खाना-पीना। कोई लादकर थोड़े ही ले जाता है। इधर भइया ने जबसे बताया है कि मैं इनटरनेट पर किसी-किसी के बारे में कुछ लिख देता हूं तो वो घबरा जाती है। किसी के खिलाफ तुम लिखते हो तो वो तुमको चुम्मा थोड़े ही लेगा। कभी न कभी आंख पर चढ़ा लेगा. बेकार में काहे दुश्मनी मोल लेते हो. तुम बस अपने कोर्स का लिखा-पढ़ी करो। दुनिया का अखबार गलत-सलत छापता है,बेटी बहू के साथ बैठकर देखने लायक प्रोग्राम टीवी पर नहीं आता है तो क्या तुम सबको सुधार लेने का ठेका ले रखे हो। बहुत डरती है वो कि मेरे लिखने पर कोई दुश्मनी न निकाल ले। मुझे याद है बचपन मैं जिस मोहल्ले में रहता था, जहां हमारा अपना घर था, वहां बहुत ही अमीर किस्म के लोग रहते थे। पापा की भी औकात कुछ कम नहीं रही थी। लेकिन मेरे होने के कुछ साल पहले इमरजेंसी की मार कुछ ऐसे पढ़ी थी कि पापा बताते हैं कि भारी नुकसान हुआ था। उनकी दूकान तक तोड़ दी गयी थी औऱ जिसका फायदा लोकल लोगों ने उठाया था और बहुत सारा माल लूट ले गए। पापा के शब्दों में कहें तो सबकुछ लुट गया था। तब घर में सिर्फ जरुरत के सामान आते। फालतू चीजें बंद कर दी गयी थी। घी फालतू चीजों में शामिल थी। मैं बाकी बच्चों को भी घी और चीनी लगाकर रोल करके रोटी खाते देखता जिसे हमलोग बांसुरी बनाकर खाना कहते तो मेरा भी मन करता। मां के पास जाता तो कभी-कभी डालड़ा यानि वनस्पति घी दे देती । दिन में भात बनाती और उसके पानी यानि माड के उपर की परत जिसे कि हम छाली कहते वो दे देती। बहुत बेकार लगता और मैं रोटी सहित उसे फेंक देता तो मां बहुत मारती, फिर गोद में लेकर खूब रोने लग जाती। पापा को कई चीजों के बारे में कहते सुनता-इसके बिना मर नहीं जाएगा कोई. मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहां लोग स्टील या अल्यूमीनियम के बक्से ले जाया करते। मेरा भी मन होता। बहुत रोने पर पापा ने टीन की लाकर दिया तो था लेकिन बरसात आने पर उसमें जंग लग गयी और गर्मी की छुट्टी के बाद देखा तो सारे कॉपी किताब खराब हो गए थे। पापा बहुत नाराज हुए थे कि सब बर्बाद कर दिया। तब मां ने लकड़ी का श्रृंगारदान जिसे दी अब बेनेटी बॉक्स कहती है, दे दिया था। देखने में तो बहुत खूबसूरत था। कुछ दिन ले भी गया लेकिन बाद में सर लोग बहुत हंसते, लड़कियां कहतीं, हमसे बदला-बदली करोगे और एक दिन फादर ने कहा-कल से इसे लेकर आए तो बाहर खड़ा कर दूगा। मैट्रिक के बाद मैं बाहर जाना चाहता था। लेकिन घर में कोई भी राजी नहीं था. पापा की इच्छा थी कि यहीं रहकर पढ़े औऱ शाम को लौंडों की संगति में रहकर बर्बाद न हो जाए सो दुकान आ जाया करे. लेकिन मां अड़ गयी थी। उसने सारे मामा को देखा था- इंजीनियरिंग और मेडिकल निकालकर लाइफ बनाते। पापा से खूब बहस करके मां ने मुझे रांची भेज दिया। एक बार सेंट जेवियर्स से मेरा एक दोस्त आया मेरे घर।.. और पापा ने उसे टॉयलेट के पास सिगरेट पीते देख लिया। फिर क्या था वहीं पर शुरु हो गए। लड़के को रांची भेजा और मैं डेढ़ महीने तक घर में झक मारता रहा। पापा का साफ कहना था कि हमें ऐसी पढ़ाई नहीं करानी है। बहुत ही अवसाद के दिन थे वो। तब छोटे भइया आगे आए थे। डिवेट बोलने पर एक बार मेरी रंगीन तस्वीर छपी थी, दैनिक हिन्दुस्तान में। लिखा था- बीए हिन्दी, सेकेण्ड इयर, हिन्दी से विनीत कुमार। मां को बहुत सदमा लगा कि इतनी मेहनत और लात-जूता खाने पर मैं हिन्दी पढ़ रहा हूं। साइंस नहीं। बस एक लाइन कहा था मां ने. अब किस बूते तुम्हारे लिए लड़ेंगे, बताओ। क्या करोगे इसे पढ़कर। तब से मां का मन कचोटता रहा और मैं बताता रहा कि मां मैं पत्रकार बनूंगा। मां नानी के यहां सबसे बड़ी थी सो नाना की दूकान पर रोज बैठती। इस क्रम में लोकल अखबारों के पत्रकार बड़ी ही दीन हीन दशा में विज्ञापन के लिए आते। कई पत्रकार एक ही साथ कुछ दूसरे काम भी करते। मां भी उससे कुछ न कुछ करवा लेती। इसलिए मां के सामने पत्रकार की हैसियत अच्छी नहीं थी। उसे लगता कि इसका सब दिन मांगकर गुजारा होगा। तब और उदास हो गयी थी। लेकिन मेरे प्रति विशेष लगाव बना रहता। घर में सबसे छोटा था. अनुशासन बरतने के नाम पर हर कोई दो-चार हाथ जब तब आजमा लेता, व्यंगय करता,ताने मारता और तब मां एकदम से बड़े भाई-बहनों और कभी-कभी पापा के सामने कर देती। सब्जी काटनेवाला हंसिया लाती और कहती- काटकर फेंक दो इसे करेजा भर जाएगा सबका.... सुस्त-सुस्त सा रहता है कहीं लड़की का तो चक्कर नहीं। पढ़िए अगली किस्त में -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-33242 Size: 14052 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080511/6aa27422/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Mon May 12 14:55:58 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 12 May 2008 14:55:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSk4KSw4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpKrgpKTgpLDgpL4g4KSo4KS54KWA4KSCIOCklg==?= =?utf-8?b?4KWL4KSy4KWH4KSX4KS+IOCkruClh+CksOCkviDgpKzgpYfgpJ/gpL4=?= Message-ID: <829019b0805120225n1e5bcd08m424f2fa27c39fd6b@mail.gmail.com> पढिए मां की यादें, मां की बातें की दूसरी किस्त- घर के बाकी लोगों ने मजे लेने शुरु कर दिए थे। जिसकी चपेट में मां भी आ गयी। वो मजाक तो नहीं करती लेकिन जब घर में कोई नहीं होता तो बहुत ही गंभीर होकर पूछती, सही में कोई लड़की है क्या। मैं कहता, नहीं मां ऐसा कुछ भी नहीं है, होती तो बताता नहीं। मां जोर देकर कहती- नहीं बेटा, इस उमर में ऐसा होता है, कोई नई बात तो है नहीं। कुछ हुआ है तो बताने में क्या हर्ज है। मैं अपनी बात पर अड़ा रहता। आगे मां ऐसे सलाह देने लग जाती जैसे मैं सचमुच किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया हूं और उसी की याद के कारण दिल्ली से आने पर खोया-खोया सा रहता हूं। सुस्त-सा पड़ा रहता हूं। पहली बार मुझे मां की योग्यता पर शक हुआ। पहली बार लगा कि अब कोई टेक देनेवाला नहीं है। क्योंकि अब तक तो लगता रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए, मां तो है ही, वो हमें अच्छी तरह समझती है। लेकिन जब वो पापा पुराण सुनाने लग जाती तो मेरा भी दिल बैठने लग जाता। तुमसे क्या छिपा है, कितनी मुश्किल से सबसे लड़-झगड़कर भेजा है तुम्हें। कुछ नहीं भी करना तो कम से कम हमलोगों की लाज रख लेना बेटा। मैं फफक-फफककर रोने लग जाता। मेरे भीतर से एक साथ न जाने कितनी चीजें टूटने लग जाती औऱ लगता सबकुछ कलेजे पर आकर जमा हो गया है। मैं दिन-रात पड़ा रहता। दीदी लोग एक-दो बार मेरे कमरे में आती और कभी व्यंग्य से कभी दया से और कभी हिकारत से मेरी तरफ देखकर चली जाती। मुझे अब समझ में आता है कि बीच-बीच में बच्चों के साथ-साथ मां-बाप की काउंन्सेलिंग कितनी जरुरी है। उस दौरान अगर मुझे किसी से नफरत होती तो मां से। बाकियों के बारे में सोचता कि ये तो शुरु से ही ऐसे हैं। मां से ऐसी उम्मीद नहीं थी। गुस्सा तब और बढ़ जाता जब सोते हुए मेर माथे पर कोई भभूत लगाने लग जाती। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही कटे। अब घर के लोग बुरी तरह परेशान हो गए। दीदी ने कहा इसे डॉक्टर से दिखाओ और तब हमें डॉक्टर के पास ले जाया गया। डॉक्टर के मुताबिक मैं डिप्रेशन का शिकार हो गया था। बताया कि इसका खास ख्याल रखिए। जो बात इसे पसंद नहीं बिल्कुल मत दुहराइए। इससे बहस मत कीजिए और जो कहे मान लीजिए। जो कहे खाने को वही दीजिए, अपनी तरफ से जिद मत कीजिए। साथ में खूब सारी दवाइयां लिख दी। घर आकर इन सारी बातों को मां के सामने दुहराया गया। मैं तो अधमरा-सा पड़ा था। मां को सब जानकर बहुत अपसोस हुआ। दीदी को कोसती हुई बोला- हम तो हैं कि अनपढ़- गंवार, तुमलोग को भी पता नहीं था कि ऐसी भी कोई बीमारी है और दिनभर लड़की-लड़की बोलकर बच्चा को पगलाते रहे। वही कहें जब बीए तक में कुछ नहीं किया बेचारा तो अतरा में पतरा खोलेगा। उसके बाद लोगों ने चिढ़ाना बंद किया और मुझे मरीज का दर्जा मिल गया। कॉलोनी में दबी जुवान से ये भी सुनने को मिल जाता कि फलां बाबू का छोटका लड़का पगला गया है। मां अपने लिए जितने भी पुण्य के काम करती। मेरे लिए पाप का काम करने के लिए उतनी ही तैयार रहती। मां कि नजर में पाप और पुण्य की पहचान एकदम साफ थी। इतनी साफ कि दिनभर माथा-पच्ची करते बाबाजी भी गश खा जाएं। मां के हिसाब से सभी पापों में से एक पाप था-मांस, मछली खाना।छूना तक पाप समझती। लेकिन उस कार्तिक के महीने में जबकि मां रोज शाम को दिए जलाती,ये पाप कर गयी। शाम को मुझे अचानक उबले हुए अंडे खाने का मन कर गया। मां को भी बताया। मां थोड़ी देर सोचती रही फिर चप्पल पहनकर गेट के बाहर चली गयी। ये भी नहीं बताया कि कहां जा रही है। मुझे लगा, कार्तिक के महीने में मेरी इस इच्छा को सुनकर शायद उसे बुरा लगा हो। करीब पच्चीस मिनट बाद हरी पत्तियों में लपेटे उबले अंडे लेकर खड़ी मिली.....और कहा, अब कम से कम बाहर तो आ जाओ,यहीं खा लो। मेरा मन किया कि मैं अंदर ही खा लूं और कहूं, ये सब ढोंग अपने पास रखो। लेकिन तब इतनी ताकत भी कहां थी देह में कि ऐसा कर सकूं। अंडे थमाने के बाद उस ठंड में खूब नहायी।... मां की इन सब हरकतों से मैं अक्सर तय नहीं कर पाता कि मुझे करना क्या चाहिए। किस बात पर गुस्सा होना है और किस बात पर खुश पता ही नहीं चल पाता और नतीजा ये होता कि मां जिस उम्मीद से किसी काम को करती कि मैं खुश हो जाउँगा, मैं अक्सर नाराज हो जाता और बाद में एहसास होन पर पछताता। घर से दिल्ली आने पर इतना कुछ भर देती कि लगेज उठाते हुए मन भन्ना जाता। और झल्लाते हुए कहता-इसे क्यों दे दिया, इतना तो घर में रहकर खाया हूं। मां सिर्फ इतना ही कहती- दिल्ली पहुंचते ही खाने का मन करेगा। और सचमुच में जो भी कष्ट होता, लाने में ही होता...जब एक-एक चीजों को खोलता तो आंखें भर जातीं, तभी मां का फोन आती...पॉलीछीन में अलग से नारियल का लड्डू डाल दिए थे, खाए थे। मैं पता नहीं क्यों भावुकता के बीच में ही व्यंग्य कर जाता कि- भेजी थी खाने के लिए तो क्या फेंक देते। घर से निकलने के पहले कहता- लो अब आराम से रहना। मेरे चक्कर में तुम्हारे दस दिन बर्बाद हो गए। अब तुम्हारा पूजा-पाठ भी टाइम से होगा। मैं उसके आराध्य का जब तब मजाक उड़ाया करता हूं और वो कान पर हाथ सटाकर कहती है- सब माफ करिहो ठाकुरजी और खूब जोर-जोर से रोने लग जाती। मां की बातें और मां की बातों का अंत नहीं है। लेकिन इतना तो जरुर है कि अगर मां को सिर्फ भावुक न होकर, तर्क पर, किताबी ज्ञान और डिग्रियों की गर्मी को साथ रखकर भी याद करुं तो भी मां से लगाव में रत्तीभर भी कमी नहीं आएगी। मेरी बात रखने के लिए वो हां में हां मिला भी दे तो भी चीजों को देखने और समझने का उसका अपना नजरिया है, न जाने कितने मुहावरे हैं, जिसे विश्लेषित करने के लिए मुझे न जाने कितने वाद पढ़ने पड़ जाएं और कितनी किताबों के रेफरेंस देने पड़ जाएं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2 Size: 44464 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080512/7280b53b/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Wed May 14 15:26:18 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 14 May 2008 15:26:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSm4KS4?= =?utf-8?b?4KWHLCDgpLngpK4g4KSU4KSwIOCkueCkruCkvuCksOClhyDgpJrgpYg=?= =?utf-8?b?4KSo4KSy4KWN4KS4?= Message-ID: <829019b0805140256o4a344244tce8779f09a51e8bb@mail.gmail.com> *मिहिर के फोन पर बताने पर कि मेरे होम टाउन जयपुर में जबरदस्त हादसे हुए हैं. आप चैनल्स देखिए न। मैं करीब छः घंटे तक टीवी देखता रहा। इस बीच कई विचार आए, कई आशंकाएं भी। लेकिन एक ऑडिएंस की हैसियत से जो भी समझा, आपके सामने है-* हादसों की खबर दिखाते समय चैनलों का चरित्र बिल्कुल अलग हो जाता है। वो और दिनों की अपेक्षा ज्यादा ऑडिएंस प्रो हो जाते हैं। ज्यादा संवेदनशील, भावुक और शायराना हो जाते हैं। ऐसे समय में वो न केवल सूचना देने का काम कर रहे होते हैं बल्कि समाजसेवी की भूमिका में आ जाते हैं। वो आपसे शांति बनाए रखने की बात करते हैं, रक्तदान दान करने की बात करते हैं, मदद के लिए आगे आने की बात करते हैं। जहां हादसे हुए हैं वहां की एतिहासिकता की याद दिलाकर आपको ज़ज्बाती बनाने की कोशिश करते हैं, वो अपनी एकरिंग से आपको एक्टिवेट करने का काम करते हैं। वो सबकुछ करते हैं जिससे आपको पूरा भरोसा हो जाए कि इस मुश्किल घड़ी मे वो आपके साथ हैं। ऐसे समय में हम इतने बदहवास होते हैं, इतने घबराए होते हैं कि लगता है कोई हमारे साथ हो, हमें बैकअप दे और मीडिया सबसे पहले बैकअप देनी शुरु कर देती है। वो आपको बताने लग जाती है कि किस हेल्पलाइन पर आप सम्पर्क कर सकते हैं। सलामती के लिए स्क्रीन पर पट्टियां चलने लग जाती है। मरनेवालों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं और घायलों को बचाने में सूचना और सम्पर्क के जरिए बचाने में लग जाते हैं। एक घड़ी को आपको लगने लग जाएगा कि वाकई मीडिया जनपक्षधरता को लेकर चलनेवाली चीज है। बाकी के दिनों में आप खबर के नाम पर खली, रैम्प, क्रिकेट औऱ मसाले दिखाए जाने से चिढ़े रहते हैं, आज आप ठीक इसके उलट हो जाते हैं। आप मीडिया के प्रति सहानुभूति रखते हैं कि ये भी बेचारे क्या करें। बने रहने के लिए ये सब करना पड़ता है। इधर हर एक खबर के बाद विज्ञापन दिखाने वाले चैनल भी सतर्क हो जाते हैं. वो घंटेभर तक बिना विज्ञापन दिखाए सिर्फ खबरें दिखाते रहते हैं। ताकि आपके भीतर खीज पैदा न हो, आप भटके नहीं और झल्लाकर चैनल न बदल दें। बिना विज्ञापन के जब आप सिर्फउ खबर देख रहे होते हैं तो खबरों के प्रति एक रिदम बनती है, आप डिस्ट्रैक्ट नहीं होते और आप खबरों में खुद भी शामिल हो जाते हैं। तभी आप भी हादसे को लेकर भावुक, बेचैन और संवेदनशील भी होते हैं. और दिनों की तरह डेड बॉडी को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाए आपमें ये भाव जगने लगता है कि आज जयपुर में हुआ है तो हो सकता है, कल को दिल्ली में या फिर अपने ही शहर में हो जाए। आपकी चिंता का दायरा बढ़ता है और आप आज से साठ-सत्तर या फिर उससे भी पहले के इंसान बनने लग जाते हैं जहां मानवीयता एक मूल्य के रुप में मानी जाती रही है. साल में एक-दो मौके ऐसे आ ही जाते हैं जबकि हम सेल्फ से हटकर अदर्स पर आकर सोचना शुरु करते हैं। और ऐसे में चैनल भी आपको उसी ओर ले जाए तो आपको और भी अच्छा लगता है। हादसे की इस घड़ी में आपकी मनःस्थिति और चैनल की रणनीति में कोई फर्क नहीं होता। आप भी सिर्फ और सिर्फ इंसानियत की बात सोचते हैं और चैनल भी. इसलिए दोनों को एक होने में वक्त नहीं लगता और फिर आपको पता भी नहीं चलता और ये चैनल आपकी भाषा बोलने लग जाते हैं और आप भावुक हो उठते हैं। विज्ञापन नहीं होने की वजह से आपको चैनल को भी समझने का पूरा मौका मिलता है। क्योंकि इस बीच चैनल जो अपने कार्यक्रमों का विज्ञापन देते हैं वो आपको ठीक-ठीक समझ में आता है। वस्तु विज्ञापनों के बीच वो मिक्स नहीं होते। चैनल की सही पहगचान इन्हीं हादसों के बीच बनती है। आप पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं कि मीडिया जनपक्षधरता को तबज्जो देती है। ये चैनलों की महानता ही है कि इस दिन चड्डी, चप्पल और ठंड़ा न बेचकर हमें हालात से रुबरु कराती है। इसके बाद मामला धीरे-धीरे बदलने लग जाता है। चैनल को जब ये भरोसा हो जाता है कि हमारी ऑडिएंस खबरों में पूरी तरह घुस चुकी है तो फिर उनका कुछ कलाबाजी करने का मन कर जाता है. क्योंकि जिस मीडिया की आदत में शामिल है, कलाबाजी दिखाना वो भला कितनी देर तक एक खबर को लेकर मौन बनी रहेगी।...और आप देखेंगे कि यहीं से हादसे की खबर कहीं और शिसकने लग जाती है। सबसे पहले सरकारी बयान शुरु होते हैं। राहत एवं बचाव कार्य के साथ मुआवजे की घोषणा हो जाए जिससे आम आदमी का गुस्सा थोड़ी देर के लिए थमे। सरकार के प्रति हमारा भरोसा बने। लेकिन फिर ऐसा न हो जाए कि आप पूरी तरह सरकार के भक्त ही हो जाएं। इसके लिए जरुरी है कि विपक्षी पार्टियों की बाइट सुनायी जाए। इससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि गड़बड़ी कहां-कहां थी। आप इस बात का भी अंदाजा लगाने लग जाएंगे कि सरकारी लापरवाही के कारण ऐसा हुआ। अगर सरकारी सचेत रहती तो हमारे भाई और माताओं की जान जाने से बच जाती। आप इतने बौखलाए होते हैं कि आपका मन करता है कि अपना गुस्सा किस पर उतारें। आप विपक्षी पार्टियों की बाइट सुनकर सरकार के विरोध में चले जाते हैं। आपको लगने लग जाता है कि सरकार ने ही सब नरक किया है. आप कोसने लग जाते हैं, गरिआते हैं और आपका मन करता है कि सरकार को सड़क पर खींच लाएं और जनता की क्या औकात हैं उन्हें बताएं। लेकिन आप इतना ज्यादा टेंपर न हो जाएं कि आप देशद्रोही हो जाएं, अपने देश और वहां की सरकार के खिलाफ हो जाएं और बौखलाहट में देशविरोधी कारवाइयों को अंजाम न देने लग जाएं। इसलिए तभी, आप देखेंगे कि किसी आतंकवादी संगठन का नाम फ्लैश होने लग जाता है और उसके साथ किसी विदेशी शक्ति के हाथ होने की बात की जाने लगती है। आपका पूरा गुस्सा विदेशियों और आतंकवादी संगठनों पर शिफट हो जाता है. आप पूरी तरह भारतीय होने लग जाते हैं। आप देश के लिए मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। चैनल जब आपसे ये कहता है कि इन आतंकवादियों के नापाक इरादों को हम कामयाब नहीं होने देगें। ये सवाल सिर्फ जयपुर का नहीं है पूरे देख का है तो एकबार फिर आप जोश से भर जाते हैं और आपमें नेशनल होने का बोध हो जाता है। चैनल आपकी इस पूरी मानसिकता के साथ चलता है या यों कहें कि चैनल और आप दोनों एकददूसरे की मानसिकता के साथ चलने लग जाते हैं। लेकिन इसी बीच चैनल की जज्बाती एंकरिंग के बीच की मदद में आए सैंकड़ों हाथ, कोई मेडिकल स्टूडेंट जिसे की बचाव एवं सेवा कार्य में लगाया गया है, बड़े ही साफ शब्दों में कहने लग जाती है कि- नहीं मदद के लिए बहुत कम लोग आगे आ रहे हैं। हजार में से दस लोग आ रहे हैं खून देने और तब पीछे से आवाज आने प फिर सुधार कर बोलती है कि नहीं दस भी नहीं आ रहे हैं। तब आपको एहसास होगा कि चैनल कुछ ज्यादा ही ज़ज्बाती हो गए। वो वस्तुस्थिति को धकेलकर मानवता का पाठ उच्चार रहे हैं। ये सब करते-कराते हम, आप और चैनल खबरों से इतनी दूर चले जाते हैं, इतने साहित्यिक और भावुक हो जाते हैं। सच जानने के नाम पर इतने पॉलिटिकल होते चले जाते हैं कि हमारी सारी समझ मरनेवालों की संख्या, मुआवजे और दिया न रे बाबा के बीच उलझकर रह जाती है।....और इतना थक भी तो जाते हैं कि इंसानी चीख शोर लगने लग जाते हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-507343 Size: 15487 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080514/dff5b7da/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu May 15 23:47:55 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 15 May 2008 23:47:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSVLeCkjy3gpJXgpYvgpLngpL/gpLjgpY3gpKTgpL7gpKgg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkhuCkteCkvuCknOCkgyDgpJzgpYHgpKHgpYLgpK4t4KSc4KWB4KSh?= =?utf-8?b?4KWC4KSu?= Message-ID: <829019b0805151117r5dc2af76kda15ad6e0a105d30@mail.gmail.com> महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि- *यदि देश की सुरक्षा यही होती है कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा* *है* * -पाश *फारुकी साहब की दास्तान गोई में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था जहां जादूगर अय्यारों को कुछ इस तरह की सुरक्षा दे रहे थे कि अय्यार तबाह-तबाह हो गए। लेकिन ये जादूगर एक सुरक्षित मुल्क बनाने पर आमादा थे। फारुकी साहब के हिसाब से वो मुल्क-ए-कोहिस्तान बनाना चाह रहे थे। जहां के लिए सबसे खतरनाक शब्द था- आजादी। हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे। छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है। लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी। सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है। दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं। छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं। विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो- या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है.. नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस... लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी? -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-683177 Size: 13339 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080515/9133d268/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Sat May 17 13:19:36 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 17 May 2008 13:19:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Bilingual Hindi-English Reading with Uday Prakash and Jason Grunebaum Message-ID: <200805171319.36072.ravikant@sarai.net> जेसन गुणेबाम ने उदय प्रकाश की कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है. जिसमें एक पीली छतरीवाली लड़की का अनुवाद भी शामिल है, जिसे 2005 में पेन अनुवाद कोश से सहायता भी मिली थी. नीचे के आयोजन की सूचना आप सबके सूचनार्थ ही है. जो लोग शिकागो में या आसपास रहते हैं, वे अवश्य जाएँ. शुक्रिया रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: FW: Bilingual Hindi-English Reading with Uday Prakash and Jason Grunebaum Date: शुक्रवार 16 मई 2008 22:44 From: uday prakash The Committee on Creative Writing and The Department of South Asian Languages and CivilizationsPresented with support fromThe University of Chicago Division of the Humanities A Bilingual Hindi-English Reading with Uday Prakash and Jason Grunebaum Monday, May 195:00pmThe Franke Institute, Regenstein Library1100 E. 57th Street Uday Prakash is one of contemporary Hindi's most important, audacious and controversial voices. His over twelve volumes of poetry and fiction over the past twenty-five years have earned him numerous prestigious Indian and international literary awards, and his work has been translated into nearly ten languages. English translations include the collections Rage, Reverly, and Romance, Short Shorts Long Shots, and the novel The Girl with The Golden Parasol. "Doom-laden yet tender, at once bitterly disillusioned and comic, [The Girl with the Golden Parasol] is a terrific novel and a paean to the dignity of human desires and to the last remnants of our bygone cosmopolitanisms. It's also a memorable invective against the present state of provincial higher education, the Hindi language, the Brahmin legacy, and the bewildering India in which we now find ourselves."--Amit Chaudhuri Jason Grunebaum's short stories and translations have appeared in many literary journals. His translation of The Girl with The Golden Parasol was awarded a 2005 PEN Translation Fund grant. He is a senior lecturer in Hindi at the University of Chicago.Q&A with Uday Prakash and a reception to followIf you believe you may need assistance, please call 773-834-8524 in advance of the event. /\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\Jason GrunebaumSenior Lecturer in HindiSouth Asian Languages and CivilizationsUniversity of ChicagoFoster Hall1130 East 59th StreetChicago, IL 60637 h 312.939.2576c 773.573.6621w 773.702.8644 /\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\/\Jason GrunebaumSenior Lecturer in HindiSouth Asian Languages and CivilizationsUniversity of ChicagoFoster Hall1130 East 59th StreetChicago, IL 60637 h 312.939.2576c 773.573.6621w 773.702.8644 _________________________________________________________________ Watch hottest Bollywood videos, clips, movie tailors, star interviews, songs and more on MSN videos. http://video.msn.com/?mkt=en-in ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat May 17 16:36:27 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 17 May 2008 16:36:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSk4KS/4KS3K+CkruCli+CkrOCkvuCkh+CksiA9IOCkleCksuCljeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KSjLiDgpKrgpLAg4KSP4KS54KSk4KS/4KSv4KS+4KSkIOCkrOCksA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWH4KSBIQ==?= Message-ID: <200805171636.27506.ravikant@sarai.net> नेट पर खुली झोली लेकर भटकने से कभी-कभी ऐसे रत्न आपकी झोली में गिर जाते हैँ. आप भी पढ़ कर पुण्य बटोरें! दैनिक भास्कर से साभार. रविकान्त धार्मिक मंत्रों की रिंगटोन का ज्योतिषीय प्रभाव पंडित राकेश ओझा http://www.bhaskar.com/2008/05/11/0805111336_ringtone_effect.html Sunday, May 11, 2008 ज्योतिष विज्ञान. tones इन दिनों मोबाइल या डोर बैल में धार्मिक मंत्रों का रिंगटोन के रूप में इस्तेमाल बढ़ रहा है। बगैर यह जाने कि वह संबंधित व्यक्ति की राशि के लिए उपयुक्त भी हैं या नहीं । जरूरी है कि राशि के अनुरूप ही रिंगटोन या डोर बैल का चयन किया जाए। कारण, मंत्रों की मर्यादाएं होती है। समय, स्थान पर शुद्धता के साथ मंत्रों का उच्चरण हो इसका ध्यान न रख पाने से संबंधित व्यक्ति को विपरीत प्रभाव का भी सामना करना पड़ सकता है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर में तीन गुण विद्यमान हैं-सत्व्गुण, रज्गुण एवं तम गुण। इन तीनों गुणों की मात्रा का अनुपात कम या ज्यादा होने से ही प्रत्येक प्राणी में शारीरिक एवं मानसिक विविधता एं पाई जाती हैं। धार्मिक मंत्रों का प्रयोग करने से सत्व्गुण को बढ़ाया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में नेक विचारों का समावेश होता है। ऐसे में विभिन्न देवी-देवताओं के मंत्रों का सही समय पर सही प्रयोग करना आज के दौर में अवश्य फा यदेमंद साबित हो सकता है। व्यक्ति के पास समयाभाव होने के कारण, आज वह विभिन्न धार्मिक मंत्रों की रिंगटोन/कॉलर टोन को अपने मोबाइल, डोर बैल एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में उपयोग करने लगा है। ज्योतिष के आधार पर देखा जाए तो अगर राशि के अनुसार सही रिंगटोन नहीं है तो मोबाइल आदि में धार्मिक मंत्रों की टोन रखने से फायदे कम नुकसान होने की संभावना अधिक है। कारण बहुत साफ है। प्रत्येक मंत्रों की अपनी मर्यादाएं होती हैं। ऐसे में समय, स्थान पर शुद्धता के साथ मंत्रों का उच्चरण हो इसका ध्यान रिंगटोन के रुप में बजने वाले मंत्रों के साथ संभव नहीं हो पाता। किस समय मंत्र का उच्चरण होना चाहिए ये मोबाइल में फिक्स नहीं हो सकता। शास्त्रों के अनुसार भी कुछ मंत्रों का सुबह जाप होता है, कुछ मंत्र संध्याकालीन है एवं कुछ मंत्र रात्रिकालीन भी होते हैं। इसके अलावा चलते हुए मंत्र के बीच में ही फोन उठ जाने से मंत्र खंडित हो जाता है। अर्थात मंत्र अपूर्ण रह जाता है जिसके दुष्परिणाम ज्योतिषीय दृष्टि से सुनने वाले व सुनाने वाले दोनों को भुगतने पड़ सकते हंै। हर मंत्र, हर आदमी को काम में नहीं लेना चाहिए क्योंकि जन्मकुण्डली के अनुसार बारह लग्र/राशि हो ती हैं। इन 12 लग्नों में अलग-अलग मंत्र, अलग-अलग लग्न वालों के लिए फायदेमंद या नुकसानदायक हो ते हैं। आम आदमी को रिंगटोन (मंत्रों की) रखते हुए ध्यान नहीं रहता कि रखी हुई मंत्र टोन से उसे फायदा है अथवा नुकसान। यही नहीं कुछ मंत्र औरतों के लिए खासतौर पर वर्जित हैं तब भी वह अपने मोबाइल में उनका इस्तेमाल कर लेती है। उदाहरण के रूप में किसी व्यक्ति की जन्मपत्रिका के प्रथम भाव में जो राशि स्थित है उस राशि का विपरीत ग्रह, प्रथम भाव में बैठा है या उसकी दृष्टि पड़ रही है, यदि वह व्यक्ति उस विपरीत (शत्रु) देवता के मंत्र की रिंगटोन रखेगा तो उसे शारीरिक पीड़ा, मानसिक पीड़ा यानी डिप्रेशन आदि रह सकता है। यदि भाग्यवश सही ग्रह प्रथम भाव में सही राशि में है तो रिंगटोन लाभ देगा। द्वितीय भाव यदि जन्मपत्रिका के द्वितीय भाव में स्थित राशि का विपरीत ग्रह द्वितीय भाव में ही बैठा है और उससे संबंधित देवता के मंत्र की रिंगटोन प्रयोग की जाती है तो उस व्यक्ति के कुटुम्ब में (घर में) परेशानियां, आंखों में तकलीफ आदि रहेगी। तृतीय भाव यदि तृतीय भाव में स्थित राशि का विरोधी ग्रह तृतीय भाव में बैठा है तो उस विरोधी ग्रह से संबंधित देवता के मंत्र की रिंगटोन का प्रयोग करने से भाई-बहनों को परेशानी, पराक्रम में कमी तथा हाथों में तकलीफ पैदा हो सकती है। चतुर्थ भाव जन्मपत्रिका के चतुर्थ भाव में जो राशि स्थित है यदि उस राशि का विरोधी ग्रह उसमें बैठा है तो उस राशि के विपरीत देवता के मंत्र की टोन का प्रयोग करने पर माता को परेशानी, जमीन-जायदाद के सुख में कमी पैदा होगी। पंचम भाव जन्मपत्रिका के पंचम भाव में स्थित राशि के विरोधी ग्रह से संबंधित देवता के मंत्रों की रिं गटोन का प्रयोग करने से पढ़ाई में दिक्कत, मित्रों से संबंध ठीक नहीं रहना, संतान को कष्ट, खेल में बाधा आ सकती है। छठा भाव यदि जन्मपत्रिका के छठे भाव में स्थित राशि के विरोधी ग्रह से संबंधित देवता के मंत्रों की रिंगटोन रखते हैं तो उस आदमी को रोग परेशान करेंगे, ऋण बढ़ेगा व शत्रु हावी होंगे। सप्तम भाव जन्मपत्रिका के सप्तम भाव में स्थित राशि के विरोधी ग्रह के देवता की रिंगटोन का प्रयोग करने से पति-पत्नी के संबंध बिगडेंगे। यदि अविवाहित हैं तो शादी में विलम्ब होगा, अचानक दुघर्टना होना आदि भी घटित हो सकता है। अष्टम भाव जन्मपत्रिका के अष्टम भाव में स्थित राशि का विरोधी ग्रह यदि अष्टम भाव में बैठा है या उस विरोधी ग्रह की दृष्टि अष्टम भाव पर है तो उस देवता के मंत्र की रिंगटोन का प्रयोग करना घातक सिद्ध हो सकता है। विदेश यात्रा में बाधा, भूत-प्रेत का डर आदि संबंधित परेशानियां संबंधित व्यक्ति को झेलनी पड़ सकती हैं। नवम भाव जन्मपत्रिका के नवम भाव में स्थित राशि के विपरीत देवता से संबंधित मंत्र की रिंगटोन रखने से भाग्य फल में कमी आना, मनोबल कमजोर होना समेत हर कार्य में बाधा आ सकती है। दशम भाव जन्मपत्रिका के दशमभाव में स्थित राशि के विपरीत देवता के मंत्रों की रिंगटोन रखने से नौ करी, व्यवसाय में परेशानी तथा पिता को तकलीफ व हर काम में बाधा रह सकती है। ग्यारहवां भाव जन्मपत्रिका के 11 वें भाव में स्थित राशि के विरोधी देवता के मंत्रों की रिंगटोन यदि कोई व्यक्ति रखता है तो उसे लाभ(आय) में कमी, हाथ-पैर में परेशानी, स्वास्थ्य से संबंधित परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं। बारहवां भाव जन्मपत्रिका के 12 वें भाव में स्थित राशि का शत्रुग्रह, यदि 12 वें भाव में बैठा है या उसकी दृष्टि 12 वें भाव पर है। यदि उस विपरीत देवता के मंत्र की रिंगटोन मोबाइल धारक बजाता है तो उसे खर्चा अधिक होगा, आंखों में तकलीफ, पड़ोसियों से शत्रुता तथा विदेश यात्रा में बाधा आदि रह सकती है। यह फलित इस प्रकार देखना चाहिए। जिस भाव का फल देखना हो उस भाव में स्थित राशि के स्वामी ग्रह को तालिका में देख लें और पंचधा मैत्री चक्र द्वारा उस ग्रह के शत्रु या अतिशत्रु ग्रह को देख लें। यदि वह शत्रु ग्रह उस राशि में स्थित है तो उस का फलित देख लें। कोई भी व्यक्ति यदि मोबाइल में किसी देवता के मंत्रों की रिंगटोन रखता है, तो वह ज्योतिष के आधार पर मंत्रों का चयन करके ही रिंगटोन डाले। जाने अनजाने में जो मोबाइल धारक मंत्रों की रिंगटोन रखते है बड़ी समस्याओं को दावत दे रहे हैं। यह अच्छी बात है कि धार्मिक मंत्रों का प्रचलन मोबाइल में रिंगटोन या डोर बैल के माध्यम से बढ़ रहा है। बच्चे, जवान तथा बूढ़े सभी वर्ग के लोग चाहे वे मंत्र की शक्ति व महत्व नहीं समझते हो लेकिन मंत्रों के प्रति धार्मिक विचार व आस्थाएं बढ़ रही हैं। इस वजह से आगामी वर्षो में प्रेम भाईचारा, सहानुभूति आदि सद्गुण लोगों में बढेंगे। वैसे उचित तो यही रहेगा कि मोबाइल में मंत्रों की रिंगटोन न रखते हुए जो मंत्र आपके लिए ज्योतिषानुसार फायदेमंद है, उसका सही उच्चरण अपने मुख से करें तो यह ज्यादा लाभकारी होगा। From ravikant at sarai.net Sat May 17 17:02:11 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 17 May 2008 17:02:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWJ4KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KSs4KWHIOCkn+ClieCkleClgOCknA==?= Message-ID: <200805171702.11884.ravikant@sarai.net> राष्टरीय सहारा: शनिवार, 17 मई 2008/मूवी मसाला http://www.rashtriyasahara.com/NewsDetailFrame.aspx?newsid=54563&catid बॉम्बे टॉकीज : वो भूली दास्तां (1935) हरीश तिवारी कुछ महीनों पहले, एक सुबह, मुंबई के उपनगर मालाड के आकाश पर काले रंग का भयावना धुंआ तैरने लगा। बाद में टीवी की ‘ब्रेकिंग न्यूज’ से पता लगा-बांबे टाकीज में आग लग गयी। थोड़ी ही देर बाद टीवी के हर चैनल पर थोथी, भ्रामक और बांबे टाकीज के बारे में घिसी-पिटी जानकारी देने की होड़ लग गयी। कुछ फिल्मों मसलन ‘अछूत कन्या’, ‘महल’ आदि की एक दो क्लिपिंग बार-बार दिखायी जा ने लगीं। पर, ऐसे मौके पर कुछ लोगों का ताज्जुब में पड़ना स्वाभाविक ही था। जानकार लोगों को पता था, आग बांबे टाकीज में नहीं, वहां स्थित प्लास्टिक की उन दर्जनों फैक्ट्रियों में लगी है, जिन्होंने 55 साल हुए, स्व. हिमांशु रॉय के हालीवुड जैसे भव्य और सुंदर बांबे टाकीज को अजगर की तरह लील कर इंडस्ट्रियल इस्टेट के कूड़े़ में तब्दील कर दिया। जो लोग फिल्मों और फिल्म कला को समर्पित हैं, उन्हें मालूम है, बांबे टाकीज जैसी महान संस्था को जब आंच लगती है तो वह प्रदूषण फैला ने वाले धुएं का ढेर नहीं, ऐसा बादल बन जाती है जो सिनेमा प्रेमियों के दिलों में हमेशा बरसता रहता है। सन् 1935 में हॉलीवुड के विख्यात स्टूडिआ॓ एमजीएम की तर्ज पर हिमांशु राय ने मुंबई में महान फिल्म निर्माण संस्था बांबे टाकीज की स्थापना की थी। फिल्म निर्माण की सब सुविधाओं से लैस, उस स्टूडिआ॓ में ध्वनिमुद्रण, संपादन, साज-सज्जा, वेश-भूषा, सेटिंग, कहानी, पटकथा, गीत और संगीत के अलग-अलग विभाग थे। इन सभी विभागों से संबंधित पुस्तकों की लायब्रेरी भी वहां मौजूद थी। हिमांशु राय ऐसे पहले फिल्मकार थे, जिन्होंने पहली बार उर्दू के भारी-भरकम संवादों की जगह सरल और जनसाधारण की समझ में आने वाली हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग अपनी फिल्मों में किया। ‘अछूत कन्या’ (1936) और ‘भाभी’ जैसी फिल्मों ने अपनी उत्कृष्टता सुकोमलता और सरलता भरे ट्रीटमेंट से जनता का मन मोह लिया और हिंदी फिल्मकारों के लिए नया रास्ता खोल दिया। जिस जगह कभी बांबे टाकीज हुआ करता था, उसके आस-पास रहते हुए इन पंक्तियों के लेखक को लगभग चा र दशक पूरे होते हैं। गौरेगांव से गंदा सा नाला लांघ कर मलाड की सीमा शुरू होती थी। आमों के बा ग और हरी भरी फसलों के खेत पार कर जब कोयल की कूक सुनायी देती थी तो लगता था-आस पास ही कहीं अशोककुमार और देविकारानी झूला झूलते मिल जायेंगे-‘‘मैं की चिड़िया बन कर बन बन डोलूं रे...।’’ फिर, उस छोटे से दुमंजिले बंगले के सामने खड़े हो जाने की विवशता महसूस होती थी, जिसके फाटक के पत्थर पर उसकी निर्माण तिथि खुदी हुई थी-(1936) बांबे टाकीज के छायाकार व निर्देशक फ्रैंज आस्टिन सुना वहीं रहते थे। वहीं विख्यात फ्रैंज आस्टिन जिन्हें हिमांशु राय ने जर्मनी से बुलवाया था। उन्होंने ‘जीवन नया’ फिल्म के हीरो के रूप में अशोक कुमार का स्क्रीन टेस्ट रद्द करते हुए उनसे कहा था, ‘‘तुम्हारे जबड़े मगरमच्छ की तरह खुलते बंद होते हैं, फिल्मों में काम करने की बात भूल जा आ॓...?’’ पर, शर्मीले सकुचाये अशोक कुमार को हर हालत में हीरो लेने की बात पर अड़ गये हिमांशु राय ने फ्रैंज आस्टिन की एक न सुनी। आगे चल कर लाइन में तीन सिल्वर जुबली फिल्में ‘कंगन’, ‘बंधन’ और ‘झूला’ जैसी हैट्रिक करके अशोक कुमार ने हिमांशु राय की जिद को सही करार दिया। यही नहीं, कलकत्ता के एक थियेटर में चार साल तक कर उनकी ‘किस्मत’ फिल्म ने बांबे टाकीज का ध्वज जैसे हिमालय की चोटी पर फहरा दिया। ‘किस्मत’ फिल्म का रेकार्ड बाद में सन् ‘70 के दशक में बनी फिल्म ‘शोले’ ही तोड़ पायी। बांबे टाकीज ने सन् ‘30 और चालीस के दशक में एक से एक आला दर्जे की फिल्में बनायीं। खासकर फि ल्म ‘बसंत’ और ‘किस्मत’ ने सारे हिंदोस्तान को सुरीला कर दिया। ‘वसंत’ में प्रसिद्ध बांसुरीवादक पन्नालाल घोष का संगीत था। लगभग 66 साल पहले की उस फिल्म में आज विस्मृति की गर्त में खो गयी गायिका पारूल घोष की मदमाती, सबसे अलग हट कर, चुंबक जैसे खिंचाव वाली आवाज थी-‘‘तुमको मुबारक हों ऊंचे महल ये, हमको हैं प्यारी हमारी गालियां...।’’ इस गाने से तब हिंदुस्तान का कण कण गूंज उठा था। बेबी मुमताज के नाम से बाल कलाकार के रूप में इसमें मधुबाला भी दिखती थीं। ‘किस्मत’ फिल्म में अनिल विश्वास का संगीत था और सारे गीत लिखे थे पंडित प्रदीप ने। ‘आज हिमा लय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ जैसे क्रांतिकारी गीत ने ब्रिटिश सेंसर की आंखों में धूल झोंक कर ऐसा रोमांचकारी इतिहास रचा, उसकी दूसरी मिसाल नहीं। बांबे टाकीज के कंपाउंड में घूमते महसूस होता था- यहीं कहीं पंडित प्रदीप किसी पेड़ के नीचे गीत लिखते हुए न मिल जायें? तभी अमीरबाई कर्णाटकी की आम सरीखी रसभीनी आवाज कानों में गूंजने लगती थी- ‘धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे जा, मेरा बुलबुल सो रहा है, शोर-गुल न मचा...।’ From vineetdu at gmail.com Mon May 19 16:31:16 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 19 May 2008 16:31:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkviDgpIfgpKgg4KSH4KSC4KSX?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS/4KS2IOCknOCksOCljeCkqOCksuCkv+CknOCljeCkrg==?= Message-ID: <829019b0805190401p49ba51a0x1daf69f4c70add4c@mail.gmail.com> इंडियन ऑथिरिटी अभी तक जिन घोटालों को मानने से इन्कार करती आयी है, ये उससे भी बड़ा घोटाला है। मुझे नेताओं से ज्यादा गुस्सा उन पत्रकारों पर आया। द टाइम्स ऑफ इंडिया भारत का सबसे बड़ा अखबार है और उसने जीविका के लिए भोपाल से दिल्ली आए लोगों के बार में एक शब्द नहीं लिखा. ( The fact that the Times of India, which is the biggest paper here, never said a word about the bhopal survivors coming to delhi...I find it more of scandal than the indian authorities who refused to receive them. i'm much angier at them than at the poiticians. DOMINIQUE LAPIERRE, interview with Raghu Karanad, tehelka. vol 5, page no- 45 issue 20, 24 MAY 08) 25 वर्षों से भोपाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार काम करनेवाले, सिटी ऑफ ज्वॉय, फ्रीडम एट मिडनाइट और फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल के लेखक डॉमिनिक लैपीअरे ने देश के एक बड़े अखबार के रवैये पर टिप्पणी करके भारत में काम कर रही मीडिया के सच को हमारे सामने लाकर रख दिया. लैपीयरे को इस साल पद्म भूषण से नवाजा गया है। वो पिछले पच्चीस साल से भोपाल, बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार सेवा का काम करते आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की स्थिति और यहां की संभावनाओं पर किताब लिखते रहे हैं। हममें से सब ए सिटी ऑफ ज्वॉय के कायल रहे हैं। अपनी अभिव्यक्ति और काम के मामले में वो उतने ही भारतीय हैं जितने कि आप और हम। इसलिए अगर उनकी बात को एक भारतीय की भी बात के रुप में शामिल करके समझें तो मुझे नहीं लगता कि कोई परेशानी है। लैपीअरे ने भोपाल गैस कांड के बाद अपनी जीविका के लिए भोपाल से पलायन कर दिल्ली आकर रोजी-रोजगार खोजनेवालों के बारे में बात करते हैं। उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करते हैं और इसी बीच उन्हें एक बड़ी सच्चाई हाथ लगती है कि द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने इन लोगों की परेशानियों के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। आप इसे क्या कहेंगे। कोई चूक, नजरअंदाज कर जाना, अखबार में स्पेस की कमी होना या फिर ऐसी खबरों का कोई खास मतलब नहीं होना। या फिर कुछ और.... लेकिन लैपीअरे के हिसाब से ये घोटाला है। उन घोटालों से भी बड़ा घोटाला जिसे कि सरकार या प्रशासन तंत्र पचाने की कोशिश करती है, दबाती है, मानने से इन्कार करती है या फिर जांच के नाम पर कालीन के नीचे दबा देती है...और जब पत्रकार भी कुछ इसी तरह की कोशिशें करते हैं तो लैपीअरे को नेताओं से ज्यादा गुस्सा पत्रकारों पर आता है। नेताओं पर गुस्सा आना एक इस्ट्रीम पोजिशन है। उससे ज्यादा गुस्सा आपको किसी पर भी नहीं आ सकता. क्योंकि हमारे सामने उनकी छवि ऐसी है कि हम मानकर चलते हैं कि उनसे ज्यादा कोई भ्रष्ट नहीं है लेकिन लैपीअरे को उससे भी ज्यादा गुस्सा आता है इन पत्रकारों पर जो कि मुद्दों को दबाने का काम करते हैं। आप इन पत्रकारों को क्या कहेंगे.......? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080519/1733bee8/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon May 19 16:54:36 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 19 May 2008 16:54:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkmOCli+Ckn+CkvuCksuCkviDgpIfgpKgg4KSH4KSC4KSX?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS/4KS2IOCknOCksOCljeCkqOCksuCkv+CknOCljeCkrg==?= In-Reply-To: <829019b0805190401p49ba51a0x1daf69f4c70add4c@mail.gmail.com> References: <829019b0805190401p49ba51a0x1daf69f4c70add4c@mail.gmail.com> Message-ID: <829019b0805190424u41a96696vfc98d536b6ec8a28@mail.gmail.com> scandal की सही हिन्दी है कलंक लेकिन मैंने जगह-जगह घोटाले शब्द का प्रयोग कर दिया है। आप चाहें तो सुधार कर पढ़े लें या फिर घोटाले से भी अर्छ में बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ रहा. क्षमार्थी- विनीत On 5/19/08, vineet kumar wrote: > > इंडियन ऑथिरिटी अभी तक जिन घोटालों को मानने से इन्कार करती आयी है, ये उससे > भी बड़ा घोटाला है। मुझे नेताओं से ज्यादा गुस्सा उन पत्रकारों पर आया। द > टाइम्स ऑफ इंडिया भारत का सबसे बड़ा अखबार है और उसने जीविका के लिए भोपाल से > दिल्ली आए लोगों के बार में एक शब्द नहीं लिखा. > ( The fact that the Times of India, which is the biggest paper here, never > said a word about the bhopal survivors coming to delhi...I find it more of > scandal than the indian authorities who refused to receive them. i'm much > angier at them than at the poiticians. > DOMINIQUE LAPIERRE, interview with Raghu Karanad, tehelka. vol 5, page no- > 45 issue 20, 24 MAY 08) > 25 वर्षों से भोपाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार काम करनेवाले, सिटी ऑफ > ज्वॉय, फ्रीडम एट मिडनाइट और फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल के लेखक डॉमिनिक > लैपीअरे ने देश के एक बड़े अखबार के रवैये पर टिप्पणी करके भारत में काम कर रही > मीडिया के सच को हमारे सामने लाकर रख दिया. > लैपीयरे को इस साल पद्म भूषण से नवाजा गया है। वो पिछले पच्चीस साल से भोपाल, > बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार सेवा का काम करते आ रहे हैं। > हिन्दुस्तान की स्थिति और यहां की संभावनाओं पर किताब लिखते रहे हैं। हममें से > सब ए सिटी ऑफ ज्वॉय के कायल रहे हैं। अपनी अभिव्यक्ति और काम के मामले में वो > उतने ही भारतीय हैं जितने कि आप और हम। इसलिए अगर उनकी बात को एक भारतीय की भी > बात के रुप में शामिल करके समझें तो मुझे नहीं लगता कि कोई परेशानी है। > लैपीअरे ने भोपाल गैस कांड के बाद अपनी जीविका के लिए भोपाल से पलायन कर > दिल्ली आकर रोजी-रोजगार खोजनेवालों के बारे में बात करते हैं। उनकी परेशानियों > को समझने की कोशिश करते हैं और इसी बीच उन्हें एक बड़ी सच्चाई हाथ लगती है कि द > टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने इन लोगों की परेशानियों के बारे में एक शब्द भी > नहीं लिखा। आप इसे क्या कहेंगे। कोई चूक, नजरअंदाज कर जाना, अखबार में स्पेस की > कमी होना या फिर ऐसी खबरों का कोई खास मतलब नहीं होना। या फिर कुछ और.... > लेकिन लैपीअरे के हिसाब से ये घोटाला है। उन घोटालों से भी बड़ा घोटाला जिसे > कि सरकार या प्रशासन तंत्र पचाने की कोशिश करती है, दबाती है, मानने से इन्कार > करती है या फिर जांच के नाम पर कालीन के नीचे दबा देती है...और जब पत्रकार भी > कुछ इसी तरह की कोशिशें करते हैं तो लैपीअरे को नेताओं से ज्यादा गुस्सा > पत्रकारों पर आता है। > नेताओं पर गुस्सा आना एक इस्ट्रीम पोजिशन है। उससे ज्यादा गुस्सा आपको किसी पर > भी नहीं आ सकता. क्योंकि हमारे सामने उनकी छवि ऐसी है कि हम मानकर चलते हैं कि > उनसे ज्यादा कोई भ्रष्ट नहीं है लेकिन लैपीअरे को उससे भी ज्यादा गुस्सा आता है > इन पत्रकारों पर जो कि मुद्दों को दबाने का काम करते हैं। आप इन पत्रकारों को > क्या कहेंगे.......? > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080519/bd55ca2d/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Mon May 19 18:23:23 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Mon, 19 May 2008 18:23:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSc4KWC?= =?utf-8?b?ISDgpKTgpYHgpK4g4KSu4KWB4KSd4KWHIOKAmOCkleCkvuCkqOKAmSDgpKQ=?= =?utf-8?b?4KSVIOCksuClhyDgpIbgpI8g4KSc4KWB4KSX4KSo4KWC?= Message-ID: <48317843.1030700@sarai.net> गाईड फिल्म की याद को ताज़ा करता यह लेख पढे मज़ा ले भगवती प्रसाद राजू! तुम मुझे ‘कान’ तक ले आए जुगनू डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू Monday, May 19, 2008 04:04 [IST] राजस्थान भास्कर उदयपुर.flim राजू! तुम मुझे कहां ले आए? मशहूर अदाकारा वहीदा रहमान ने आज से 42 बरस पहले उदयपुर की बोहरवाड़ी में राजू गाइड से जो सवाल किया था, उसका जवाब शायद अब जाकर मिला है- राजू! तुम मुझे कान फेस्टीवल तक ले आए.. इन दिनों चल रहे 61 वें कान (फ्रांस) फिल्म फेस्टीवल में भारत से जिस एकमात्र फिल्म का चयन किया गया है वह 9 फरवरी 1965 को रिलीज हुई ‘गाइड’ है। अपने दौर की इस मशहूर फिल्म को फिल्म को क्लासिकल श्रेणी के तहत दिखाया जाएगा। जिस वक्त उदयपुर में यह फिल्म बनी यहां गाइड की कल्चर ही नहीं थी, आज खासी संख्या में गाइड है, शहर को गाइड का कंसेप्ट इसी फिल्म ने दिया और देवानंद को 2003 में दादा साहब फाल्के अवार्ड दिलाया। भारतीय सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर मानी गई यह फिल्म औरत जात पर लादी गई बेमियाद, बेशुमार बाधाओं को करारा जवाब थी जिसमें रूसी मार्को बनी वहीदा अपने शोषक पति को टाटा करती है और अपने गुजरे वक्त का भांडा उदयपुर की सड़क पर फोड़ती हुई कहती है- अपने ही बस में नहीं मैं, दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं.. कान फेस्टीवल के मौके पर गाइड की गुजरी यादों पर एक रपट..। याद करें 42 साल पहले गुजरे उन लम्हों को जब घंटाघर के पास थी बोहरवाड़ी। बेहद संकड़ी, दिन में भी अंधेरे वाली छोटी-सी गली नुमा। अपने जमाने की मशहूर अदाकारा वहीदा रहमान को लेकर राजू गाइड देवानंद मनिहारी सामान की एक दुकान पर पहुंचता है और वहीदा सवाल दागती है- राजू! ये तुम मुझे कहां ले आए? यह सीन गाइड फिल्म का है जिसे अंतरराष्ट्रीय कान फिल्म फेस्टीवल में बतौर क्लासिकल दिखाया जा रहा है। उदयपुर में शूट किसी फिल्म के लिए यह पहला मौका है। इसे लेकर खुद देवानंद बेहद खुश हैं, उदयपुर वालों की भी इस मौके पर छाती चौड़ी होनी चाहिए कि जिस जमीं पर यह फिल्म बनी, वह अपने दौर की सबसे कामयाब थी। न सिर्फ चुनिंदा दृश्यों को लेकर बल्कि एक से बढ़कर एक लाजवाब गीतों के लिए भी। उस वक्त शायद किसी को कल्पना भी नहीं रही होगी, यह फिल्म जवानी ही नहीं, अधेड़पन में भी अपनी कामय़ाबी का सुरूर बरकरार रखेगी और कान्स जैसे फेस्टीवल के स्क्रीन पर होगी जो गत 14 तारीख से शुरू हुआ है। आर के नारायण के उपन्यास को पटकथा के रूप में लिखने वाले विजय आनंद के दृश्यों को फली मिस्त्री जैसे मशहूर संयोजक ने उदयपुर के मोतीमगरी, थूर, पुराना स्टेशन, बूझड़ा, सहेलियों की बाड़ी, घंटाघर के पुरानी छोटी बोहरवाड़ी वाले व्यस्त बाजार सहित कानपुर, कठार-कुंभलगढ़ और चित्तौड़ जैसे स्थानों पर ढूंढ़ा। उदयपुर की बोहरवाड़ी से खरीदे घूंघरू को पांव में बांधकर जब अदाकारा वहीदा रूसी मार्काे के किरदार में मुस्कुराई तो अंदाज को पर लग गए और फिल्म जगत को मिला इकलौता ‘बारहमासा’ गीत- पिया तोसे नैना लागे रे, नैना लागे रे, करूं क्या मैं अब आगे रे..। इसी सीन के लिए सूचना केंद्र का स्टेडियम जैसा सजा, वैसा आज तक नहीं सज पाया, लोककला मंडल पर जैसी रोशनी हुई, वह यादगार इसलिए है कि चंद पलों के लिए यहां नायिका के होठों और महावर लगे पांवों-सा सुर्ख नजारा चस्पा हो गया था। गौरतलब ये भी है कि रूसी की आतिशी खुशियां इतनी है कि उसका एक डग जमीं पर दूसरा आसमां पर, वह अपने बस में नहीं, घास भरे ट्रक में सवार होती है तो हवा में मटका उछालकर फोड़ देती है.. इसकी कल्पना सचिन दा जैसा संगीतकार ही कर सकता था। उन्होंने हमख्याल होते हुए एक डगमग दिमाग को दिखाने के लिए गाने को ही मुखड़े की बजाय अंतरे से शुरू किया और सिने इतिहास में एक यादगार गीत हो गया जिसकी अंतरे से शुरुआत है- कांटों से खींच के ये आंचल, तोड़ के बंधन बांधी पायल, हो हो हो, कोई ना रोके दिल की उड़ान को, दिल वो चला आ.हा.हा, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है..। गिर्वा की घाटियां आज भी हमकदम हुए राजू गाइड और रूसी के दिलों के धड़कने के अंदाज बयां करती हैं- दूरियां अब कैसी, अरे शाम जा रही है, हमको ढलते-ढलते समझा रही है, आती जाती सांस जाने कब से गा रही है, कहीं बीते ना ये रातें कहीं बीते ना ये दिन, गाता रहे मेरा दिल, मेरी तू ही मंजिल..। *देवानंद ने भास्कर से कहा* क्या बात है..क्या बात है ये पहली बार हो रहा है जब मुझे कान्स उत्सव में जाने का मौका मिला है। गाइड 42 साल पहले बनी थी। अगर आज उसे अंतरराष्ट्रीय उत्सव में दिखाया जा रहा है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है, मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होंने 20-30 बार इस फिल्म को देखा है। बस अगर किसी को मिस कर रहा हूं तो गाइड के निर्देशक विजय आनंद को। काश, वे भी हम सबके साथ होते। *भीड़ उमड़ पड़ी थी, टिकिट ब्लैक में* अशोका सिनेमा हॉल में यह फिल्म दो महीने तक हाउसफुल चली थी। टिकिट ब्लैक में बिके थे। पहला मौका था जब उदयपुर में बनी फिल्म का इतना क्रेज था। उससे पहले ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी थी जो इतने समय तक पर्दे पर रही हो। - शेरआलम खान, मैनेजर अशोका सिनेमा *स्टेशन पर सजी थी राजू की दुकान* मैं ग्यारहवीं में पढ़ती थी। गाइड फिल्म की शूटिंग इसलिए भी यादगार रही क्योंकि पुराना स्टेशन के पास राजू गाइड की दुकान सजी थी जहां ट्रेन से पहुंची वहीदा रहमान और किशोर साहू को राजू मिला था। इसके अलावा घंटाघर के पास पुरानी बोहरवाड़ी, मोती मगरी, सहेलियों की बाड़ी, थूर गांव, आनंद भवन, सास बहू के मंदिर और चित्तौड़ में शूटिंग हुई थी। - मधु शर्मा, गृहिणी, भूपालपुरा *शूटिंग देखने स्कूल छोड़ा* मैं उस वक्त भदेसर में पढ़ता था। अखबार तो थे नहीं लेकिन किसी से पता चला कि उदयपुर में देवानंद और वहीदा रहमान आए और शूटिंग हो रही है तो स्कूल छोड़कर देखने भागे लेकिन यूनिट तब तक चित्तौड़ जा चुकी थी। मैं चित्तौड़ पहुंचा और वहां टकटकी लगा दी। कांटों से खींच के ये आंचल.. गीत के वे सीन मेरे लिए तरोताजा हैं जो विजय स्तंभ के आगे, पद्मिनी महल, जयमल-पत्ता के महलों के पास फिल्माए गए। राजू गाइड को अपनी लकड़ी पर उठाए रूसी के चप्पलों का सीन भी मेरी आंखों के आगे हुआ। - स्वतंत्रभूषण शर्मा, बोहरा गणोश From ravikant at sarai.net Mon May 19 18:38:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 19 May 2008 18:38:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KS+4KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSsIOCklOCksCDgpIfgpJzgpLzgpL7gpLDgpKzgpILgpKYg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkl+CkvuCkgeCkoOClh+Ckgg==?= Message-ID: <200805191838.10914.ravikant@sarai.net> ये शशिकान्त जी की तरफ़ से. निदा फ़ाज़ली ने बीबीसी पर एक कॉलम शुरू किया है, उम्मीद है ऐसी ही मज़ेदार चीज़े पढ़ने को मिलेंगी. ये पढ़कर तो ऐसा लगता है कि इज़ारबंद का ज़नाना विमर्श में वही स्थान है जो मर्दाना में लंगोद का हुआ करता है - हमारी संस्कृति में लंगोट के पक्के होने पर काफ़ी बल दिया गया है! वैसे याद आया कि नज़ीर ने शहरे-आशोब विधा में रचना करते हुए 18वीं सदी के आगरे की दुर्दशा का वर्णन करते हुए क़स्बी अर्थात वेश्या के महीनों तक न खुलने वाले इज़ारबंद की मार्मिक बात कही है. ग़ौरतलब है कि वे बाक़ी रोज़गार के तबाह होने के ज़िक्र के साथ-साथ इस रोज़गार के ठप पड़ने की बात भी करते हैँ. पूरी नज़्म पढ़ने लायक़ है, इसे मैंने कभी विकिया पर डाला था. खोजेंगे तो मिल जाएगा. धीरज धरें तो मैं ही पोस्ट कर दूँगा रविकान्त बुधवार, 02 अगस्त, 2006 को 10:09 GMT तक के समाचार ग़ालिब और इज़ारबंद की गाँठें http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/08/060801_nida_column1.shtml निदा फ़ाज़ली शायर और लेखक ग़ालिब इतिहास सिर्फ़ राजाओं और बादशाहों की हार-जीत का नहीं होता. इतिहास उन छोटी-बड़ी वस्तुओं से भी बनता है जो अपने समय से जुड़ी होती हैं और समय गुज़र जाने के बाद ख़ुद इतिहास बन जा ती हैं. ये बज़ाहिर मामूली चीज़ें बहुत ग़ैरमामूली होती हैं. इसका एहसास मुझे उस वक़्त हुआ जब भारत के पूर्व राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने मिर्ज़ा ग़ालिब की याद में एक ‘ग़ालिब म्यूज़ियम’ बनवाया. दिल्ली में माता सुंदरी कॉलेज के सामने बनी यह ख़ूबसूरत इमारत है, जिसे ‘ऐवाने-ग़ालिब’ या ग़ालिब इंस्टीट्यूट कहा जाता है, ऐसी ही मामूली चीज़ों से ग़ालिब के दौर को दोहराती है. यह इमारत मुग़ल इमारत-साज़ी का एक नमूना है. आख़िरी मुग़ल सम्राट के समय के शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के समय को, उस समय के लिबासों, बर्तनों, टोपियों, पानदानों, जूतों और छोटे-बड़े ज़ेवरों से दिखाकर एक ऐसा इतिहास रचने को कोशिश की गई है. यह इतिहास उस इतिहास से मुख़्तलिफ़ है जो हमें स्कूल या कॉलेजों में पढ़ाया जाता है जिसमें तलवारों, बंदूकों और तोपों को हिंदू-मुस्लिम नाम देकर आदमी को आदमी से लड़ाया जाता है और फिर अपना अपना वोट बैंक बनाया जाता है. ग़ालिब का इज़ारबंद इस 'ग़ालिब म्यूज़ियम' में और बहुत सी चीज़ों के साथ किसी हस्तकार के हाथ का बना हुआ एक इज़ारबंद भी है. समय गतिशील है, यह एक यथार्थ है.लेकिन म्यूज़ियम में रखी पुरानी चीज़ों में समय का ठहराव भी कोई कम बड़ा यथार्थ नहीं है. आँख पड़ते ही इनमें से हर चीज़ देखने वाले को अपने युग में ले जाती है और फिर देर तक नए-नए मंज़र दि खाती है. दिल्ली में ग़ालिब की मज़ार ग़ालिब दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहा करते थे ग़ालिब के उस लंबे, रेशमी इज़ारबंद ने मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार किया. ग़ालिब म्यूज़ियम में पड़ा हुआ मैं अचानक 2006 से निकलकर पुरानी दिल्ली की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुज़रकर बल्लीमारान में सहमी सिमटी उस हवेली में पहुँच गया जहाँ ग़ालिब आते हुए बुढ़ापे में गई हुई जवानी का मातम कर रहे थे. इस हवेली के बाहर अंग्रेज़ दिल्ली के गली-कूचों में 1857 का खूनी रंग भर रहे थे. ग़ालिब का शेर है - हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमाँ अपना हवेली के बाहर के फाटक पर लगी लोहे की बड़ी सी कुंडी खड़खड़ाती है. ग़ालिब अंदर से बाहर आते हैं तो सामने अंग्रेज़ सिपाहियों की एक टोली नज़र आती है. ग़ालिब के सिर पर अनोखी सी टोपी, बदन पर कढ़ा हुआ चोगा और इसमें से झूलते हुए ख़ूबसूरत इज़ारबंद को देखकर टोली के सरदार ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, “तुमका नाम क्या होता?” ग़ालिब - “मिर्जा असदुल्ला खाँ ग़ालिब उर्फ़ नौश.” अंग्रेज़ -“तुम लाल किला में जाता होता था?” ग़ालिब-“जाता था मगर-जब बुलाया जाता था.” अंग्रेज़-“क्यों जाता होता था?” ग़ालिब- “अपनी शायरी सुनाने- उनकी गज़ल बनाने.” अंग्रेज़- “यू मीन तुम पोएट होता है?” ग़ालिब- “होता नहीं, हूँ भी.” अंग्रेज़- “तुम का रिलीजन कौन सा होता है?” ग़ालिब- “आधा मुसलमान.” अंग्रेज़- “व्हाट! आधा मुसलमान क्या होता है?” ग़ालिब- “जो शराब पीता है लेकिन सुअर नहीं खाता.” ग़ालिब की मज़ाकिया आदत ने उन्हें बचा लिया. गाठें मैंने देखा उस रात सोने से पहले उन्होंने अपने इज़ारबंद में कई गाठें लगाई थीं. ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे. जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे. सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे. हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है वो हरेक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था. इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है. इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे हिंदुस्तानी में इसे कमरबंद कहते हैं. यह इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे. औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ा रबंद भी बड़े कलात्मक होते थे. ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे. ये छुपाने के लिए नहीं होते थे. पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे. पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था. मुहावरों में इज़ारबंद इस एक शब्द से ‘क्लासिक पीरियड’ में कई मुहाविरे भी तराशे गए थे जो उस जमाने में इस्तेमाल होते थे. ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे इनमें कुछ यूँ हैं, ‘इज़ारबंद की ढीली’ उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. मैंने इस मुहावरे को छंदबद्ध किया है जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ा इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा ‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो’. इस मुहावरे का शेर इस तरह है, अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता. पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता. घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना. पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल. निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे. कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना. कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे. इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे. अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बना ते थे. नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे. जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भा षा का प्रमाण है. उनकी नज़्म के कुछ शेर - छोटा बड़ा, न कम न मझौला इज़ारबंद है उस परी का सबसे अमोला इज़ारबंद गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद From vineetdu at gmail.com Tue May 20 16:11:07 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 20 May 2008 16:11:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KS/4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpIfgpJzgpY3gpJzgpKQsIOCksuCkvuCkliDgpLDgpYE=?= =?utf-8?b?4KSq4KSv4KWHIOCkleClhyDgpK3gpYDgpKTgpLAg4KS54KWA?= Message-ID: <829019b0805200341t871aaban50b2d0980c4b0e25@mail.gmail.com> और एक बार फिर एक दलित भारतीय का सिस्टम से मोह भंग हुआ।..देश के और बेटियों के बाप की तरह एक और दलित लड़की के पिता को लगने लगा कि दलित के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा है वो सब पाखंड है। अगर वाकई दलितों की भलाई, समाज में दर्जा दिलाने और शोषण के खिलाफ कारवाई करने के कामों में तेजी आयी है तो कोई क्यों हमारी बच्ची को बेरहमी से पीटने और जलील करने के बाद भी छुट्टा घूम रहा है। सच मानिए दलितों के नाम पर राजनीति करने, घेराबेदी करने में और दलितों के लिए कुछ करने में बहुत फर्क है। ये बात अब हमको समझ में आने लगी है। कल मैं कनकलता के बाबूजी से मिला। वही कनकलता जिसका जिक्र मैंने 5 मई की पोस्ट "दलितों को गाली न भी दें, मार तो सकते ही हैं" में किया था। जिसे कि मकान मालिक ने दलित जान लेने पर उसे और उसके भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा था। मीडिया ने इसकी खबरें छापी और दिखाई भी थी। कनकलता के बाबूजी सारा काम-धाम छोड़कर बोकारो से दिल्ली आ गए है और अभी तक जहां-तक की चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें न्याय मिलता, इसके पहले ही कई कहानियां बन गयी। पहली कहानी तो ये कि कनकलता और उसके भाई-बहन को मारने पर जो केस उसके मकान-मालिक के उपर बनी है वही केस उसके और उसके भाई -बहन के उपर भी लगी है। यानि कि इनलोगों ने भी मिलकर मकान-मालिक की पिटाई की है। इस बात से हैरान जब उसके बाबूजी ने थाने के लोगों से बातचीत की तो उनका जबाब था कि- छोटी लड़की तो फिर भी थोड़ी मजबूत है लेकिन बड़ी लड़की यानि कनकलता को देखकर नहीं लगता कि वो किसी को मार सकती है। काफी कमजोर है। लेकिन केस तो केस है और अब उसे अपने बाबूजी के साथ दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो खुद को बचाने के लिए और दूसरा कि मकान मालिक को सजा दिलाने के लिए। वस्तुस्थिति ये है कि माकान-मालिक और उनके घर के लोग खुल्ला घूम रहे हैं, उन्हें किसी बात का ड़र नहीं है। उल्टे, इनलोगों को लोगों से धमकियां मिल रही हैं। बाहरी लोगों से दबाब बनाया जा रहा है। उन्हें समझौता कर लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें कहा जा रहा है कि हम आपके बच्चों को उठवा लेंगे। राह चलते और थाने में जाकर कहा कि- केस करेगी, भगवान ने दलितों को न शक्ल ही दिया और न ही अक्ल। इधर, बाप-बेटी का जहां-तहां चक्कर लगाते बुरा हाल है.बाबूजी को तो सबसे बड़ी हैरानी इस बात को लेकर है कि दिल्ली जैसे शहर में इतना सबकुछ हो गया और कोई कारवाई नहीं और उल्टे उन्हीं पर केस। दुखी होकर कहा- बताओ बेटा, एक लाख का ऑफर दे रहा है और कह रहा है कि कॉम्परमाइज कर लो। हम अपने बच्चों की इज्जत का सौदा करेंगे। बेटी के साथ वो लगातार दूसरी जगहों के साथ-साथ लगातार यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा रहे हैं। डूसू के लोगों से मिल रहे हैं जहां से उन्हें जबाब मिला है कि ये फैमिली मैटर है, इसमें वो क्या कर सकते हैं? शिक्षकों और विश्वविद्यालय प्रशासन से मिल रहे हैं। लेकिन इन सबसे एक टालू किस्म का जबाब मिल रहा है। कोई भी बात को सीरियसली नहीं ले रहा। दलित-विमर्श के नाम पर सेमिनार में मंचों की रौनक बढ़ाने वाले लोग कटने लगे हैं। सहानुभूति और तर्क के अतिरिक्त उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि कनकलता की परेशानियों के बीच काम आए। कितना खोखला है सबकुछ यहां, खाली दूर बैठकर देखने से ही लगता है कि दिल्ली में बहुत जागरुकता है, वहां लॉ- ऑर्डर ठीक से काम करता है। इस तरह की बातें जब उसके बाबूजी कर रहे थे तो हमारे पास कोई ठोस तर्क नहीं था कि हम उनकी बातों को काट सकें। अब तक दसों लोगों के मां-बाप के सामने जो हम ढींग हांकते आए कि हमारी यूनिवर्सिटी में काफी कुछ बदल गया है. यहां हिन्दी में भी सिर्फ कविता-कहानी नहीं पढ़ाए जाते, अस्मिता विमर्श भी पढ़ाए जाते हैं, दलित मुद्दों पर रिसर्च का काम होता है और स्त्री- विमर्श के बारे में सबकुछ पढ़ना पड़ता है, सब बेकार लगने लगा। सब खोखला औऱ एक-दूसरे के परस्पर विरोधी। पढ़ने-पढ़ाने के स्तर पर हम जो भी पढ़ लें। आइडेंटिटी पॉलिटिक्स से लेकर सोशल जस्टिस तक। लेकिन जब तक इसे महज कोर्स के रुप में देखते-समझते रहेंगे, तब तक दादू पढ़े या दलित विमर्श, क्या फर्क पड़ता है. जो कुछ भी हम पढ़ रहे हैं, सरकार जो भी स्लोगन बना रही है, अगर वो सबकुछ हमारी प्रैक्टिस में नहीं है तो फिर क्या मतलब है...। सही तो कहा बाबूजी ने कि सब पाखंड है। ...और इन सबके बीच अगर किसी के भी बाबूजी कहने लगें कि पूरे हिन्दुस्तान की हालत एक सी है, सब जगह दलाल बैठे हैं तो अपने प्रांत की शेखी बघारने, कोर्स अपडेट होने और दिल्ली मेरी जान कहने से पहले दस बार तो सोचना पड़ेगा ही और सोचना भी चाहिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080520/5913ae47/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed May 21 12:55:42 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 21 May 2008 12:55:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSC4KSs?= =?utf-8?b?4KSIIOCkleClgCDgpJrgpYzgpKrgpL7gpLIg4KSu4KWH4KSCIOCkl+Clgg==?= =?utf-8?b?4KSB4KSc4KS+IOCkuOCljeCkteCksCDgpKrgpILgpJrgpK4=?= Message-ID: <200805211255.42481.ravikant@sarai.net> http://www.hindimedia.in/content/view/2145/47/ मुंबई की चौपाल में गूँजा स्वर पंचम शिवानी जोशी मुंबई की चौपाल अपने आप में कई मायनों में अनूठी और अद्भुत है। बगैर किसी शोर शराबे के और बगैर कि सी पदाधिकारी के चलने वाली यह संस्था अपने दस साल पूरे कर चुकी है। चौपाल में हर बार किसी नए और अछूते विषय पर बात होती है, हर बार यह सिलसिला पूरे चार घंटे चलता है मगर इसके बा वजूद ऐसा लगता है मानो अभी तो बहुत सुनना और कहा जाना बाकी है। लेकिन अगर चौपाल कालजयी संगीतकार आरडी बर्मन उर्फ पंचम पर हो तो फिर कल्ना की जा सकती है कि इस चौपाल में सब-कुछ पाकर भी पाने वाले कितने अतृप्त रह गए होंगे। चौपाल के मौन कर्ता-धर्ता अतुल तिवारी और शेखर सेन के शोध और संदर्भ की दाद देना होगी कि वे चौपाल के लिए जिस विषय को चुनते हैं उसके लिए चुन चुन कर ऐसे लोगों को सामने लाते हैं जो उस विषय के साथ न्याय कर सके। तो साहब पंचमजी पर जब चौपाल हुई तो अमरीका से आए उनके एक दीवाने उन पर बनी फिल्म लेकर हाजिर थे, हालांकि फि ल्म पूरी तरह से नहीं बनी थी मगर जितनी देखी उससे लगा कि पंचम के बारे में इस फिल्म से कितना कुछ पता चल जाता है। किसी शख्सियत को हम सही तरीके से तभी जान सकते हैं उसके आसपास के लोगों की बातें, उनके संस्र्मरण और उनके अनुभवों को उनके ही मुख से सुनें, तो चौपाल में ऐसे कई लोग मौजूद थे जिन्होंने पंचम के साथ काम ही नहीं किया बल्कि नके अच्छे-बुरे दिनों में उनके साथ भी रहे। पंचम पर बात करने के लिए गुलज़ार साहब भी मौजूद थे तो गायक और संगीतकार भूपिंदरजी भी। पंचम के सहयोगी रह चुके संगीतकार भी। कार्यक्रम की शुरुआत की पंचम दा के सहयोगी रहे इंद्रु आत्मा ( और पंचमदा के ही क्यों फिल्म जगत का ऐसा कौन संगीतकार है जिसके साथ इंद्रुजी नहीं रहे होंगे) ने पंचम दा की ही शैली में हार्प और बेगू तरंग (बाँसुरी जैसा एक वाद्य) से बोर के रागों की जो सृष्टि की उसका मजा तो बस सुनकर ही लिया जा सकता था, हम लाख कोशिश करें उस रोमांच और आनंद को लिखकर नहीं बता सकेंगे। इसके बाद उन्होंने मटकियाँ बजाकर जो कमाल दिखाया वह वाकई कमाल था। उन्होंने मटकियों से लेकर कई जाने अनजाने साधनों के माध्यम से की धुनें निकालकर बताया कि किस तरह आरडी बर्मन छोटी छोटी चीजों से किसी भी गीत या दृश्य के अनुरूप धुन निकालकर उस क्षण को यादगार बना देते थे। फिल्म शोले में अमजद खान के आने के पहले जो करकराता संगीत बजता था वह और कुछ नहीं बल्कि एक स्प्रिंग को खींच कर निकाली गई धुन थी। उन्होंने बताया कि किस तरह पंचम ने फिल्म 1942 एक लव स्टोरी के लिए संगीत तैयार किया। पंचम अपने समय के जाने माने फिल्म संगीत कार सचिनदेव बर्मन के बेटे थे मगर उन्होंने अपने पिता के साये में रहकर काम करने की बजाय खुद संघर्ष करके फिल्म उद्योग में जगह बनाई, और अपनी जगह बना ने के लिए न तो उन्होंने संगीत की शुध्दता से कोई समझौता किया न अपने संगीत को बाजारु होने दि या। उनका संबंध ऐसे तो त्रिपुरा के राज परिवार से थाम मगर उन्होंने राजपाट सब-कुछ छोड़कर संगी त को ही अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया। उनका नाम पंचम कैसे पड़ा, इसका भीएक मजेदार कि स्सा शेखर सेन ने सुनाया। उन्होंने बताया कि आरडी बर्मन जब छोटे थे तो एक बार अशोक कुमार ने उनको तुतलाते हुए पा पा पा पा गाते हुए सुना तो उन्होंने संगीत की ही शैली में उनका नाम पंचम रख दिया। उनका बचपन का एक नाम टुबलु भी था। शेखर सेन ने एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि किस तरह एक बा र उन्होंने आशा भोसले से अपने गीत के लिए तारीख ले ली और पंचम दा को संगीतकार के रूप में लिया। लेकिन आशा जी के सचिनव की गलती से एन मौके पर आशाजी ने किसी दूसरी जगह रेकॉर्डिंग के लिए हाँ कर दी, आर्थिक अभाव में जैसे तैसे गाने के लिए स्टुडिओ और 45 संगीतकारों (साजिंदों) को बुक कराने वाले शेखरजी के तो हाथ पैर फूल गए, क्योंकि अगर रेकॉर्डिंग नहीं हुई तो पैसे भी गए और आशा जी की तारीख भी। मगर पंचम दा ने बात सम्हालली उन्होंने शेखरजी को कहा आशाजी तुम्हारी रेकॉर्डिंग पर पहले आएगी....खैर, आशाजी तमतमाती हुई रेकॉरडिंग पर आई और उन्होंने गीत भी गाया । साथ ङी उन्होंने यह सवाल भी पूछा कि पहले के दो गाने किसने गाए हैं...लेकिन जाते जाते वे यह कहना न भूलीं कि अगर मैने अच्छा नहीं गाया हो तो मैं इसकी रेकॉर्डिंग करने दोबारा आ जाउंगी। पंचम दा ने फिल्मों में संगीत ही नहीं दिया बल्कि उन्होंने मेहमूद के साथ फिल्म भूत बंगला में अभिनय भी किया। पंचम दा पर खूब बातें हो रही थी और हर किसी के संस्मरण को सुनकर लगता था कि यह बात कभी खत्म न हो, मगर ऐसा होना तो शायद संभव ही नही था। पंचम दा के प्रशंसकों में एक अद्भुत कलाकार साईंराम भी मौजूद थे, जिन्होंने पंचम दा के संगीतबध्द किए हुए गीतों को पुरूष और महिला स्वरों में इतनी परिपक्वता के साथ गाया कि यह अंदाज़ लगाना मुश्किल था कि माईक पर कौ न गा रहा है। पंचम दा द्वारा सोना हो सोना हो और आजा आजा आजा जैसे गीतों से लेकर लता, आशा किशोर कुमार और मोहम्मद रफी द्वारा गाए गए विभिन्न गीतों में किए गए अलग अलग प्रयोगों की एक लंबी फेहरि स्त थी, जिसे उनके प्रशंसकों ने उनकी खासियतों के साथ सामने रखा। पंचम दा के साथ परिचय, खुशबू जैसी फिल्में करने वाले गुलज़ार साहब भी मौजूद थे, उन्होंने पंचम दा को याद करते हुए कहा, मेरे गीतों एक नए कंपोज़र की ज़रुरत थी और उस ज़रुरत को पूरा किया पंचम ने। गुलज़ार साहब ने कहा कि पंचम दा की कमजोरी थी सितार, वे बगैर सितार के रह ही नहीं सकते थे। उन्होंने बताया कि किस तरह पंचम दा ने उनके गीत आजकल पाँ ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे, ओ माझी रे...., मुसाफिर हूँ यारों जैसे गीतों को सुरों में पिरोया। गुलज़ार साहब ने बड़ी मार्के की बात कही कि पंचम यानी आर डी बर्मन के पिता सचिनदेव बर्मन जब भी किसी गाने के लिए संगीत देते थे तो उस गाने की पूरी सिचुएशन, लोकेशन, कहानी, पटकथा आदि के बारे में विस्तार से पूछते थे, और खोद खोद कर पूछते थे, उनका मानना था कि किसी गीत का संगीत तैयार करने के पहले उस गाने का कैरेक्टर समझना जरुरी है। यही बात जिंदगी भर पंचम दा ने याद रखी। गुलज़ार साहब ने कहा कि पंचम दा कई बार अपने पिता सचिन देव बर्मन को भी सलाह देने से नहीं चूकते थे। उन्होंने बताया कि बंदिनी फिल्म के गीत अबके बरस भेज सैंया को बाबुल की धुन पंचम दा ने ही सुझाई थी। उन्होंने कहा कि कई गीतों का श्रेय लोग मुझे देते हैं जबकि उनके असली हकदार तो पंचम दा हैं। गुलज़ार साहब ने मजेदार बात बताई कि वे हर बार अपनी अंगूठी को चूमकर उसे सिर पर जरुर लगाते थे। पंचम दा कहा करते थे कि खाली गाना बनाने से गाना नहीं बन जाता, गाने की परवरिश करना पड़ती है, उसे पालना पड़ता है, गाने की परवरिश करना और फिर उसके हिसाब से वाद्य का प्रयोग करना संगीतकार का धर्म होता है। गुलज़ार साहब ने कहा कि पंचम दा को फिल्म के माध्यम की गहरी समझ थी और वे हर गाने पर हर धुन पर अपनी पूरी प्रतिभा को उंडेल देना चाहते थे। उन्होंने बतया कि उनको पंचम दाके साथ बैठकर उनको पूरी फिल्म के सात ही गाने और उससे जुड़े हर दृश्य को समझाना पड़ता था तब जाकर वे उसके लिए संगीत तैयार करने को राजी होते थे। गायक भूपिंदरजीने भी अपनी यादोंका पिटारा खोला और कहा कि 'एक ख्वाब कई बार देखा है मैने तुमने साड़ी में रिसली है चाभियाँ मेरे घर की', इस गाने को संगीत देने में पंचम दा को दो महीने लग गए। हम इस गाने को छोड़ देना चाहते थे मगर पंचम दा थे कि इसकी धुन के लिए लगे रहे। उन्होंने बताया कि किस तरह पंचम दा ने ‘बीती ना बिताई रैना’ में जब संजीव कुमार को खांसी आती है और फिर जया भादुड़ी उस गाने को पूरा करती है, बहुत ही खूबसूरती के साथ संगीतबध्द किया है। पंचम दा ने देवानंद की फिल्मों के लिए भी यादगार संगीत देकर उनको अमर कर दिया। ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ और ‘पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाए’ जैसे गीतों से देवानंद को एक नई पहचान मिली। पंचम दा ने मोहम्मद रफी से भी गवाया तो शैलेंद्र सिंह और डैनी डैंग्जोप्पा से भी। किशोर कुमार के बेटे अमित कुमार को फिल्मी दुनिया में गाने का पहला काम पंचम दा ने ही फिल्म ‘बालिका वधू’ के जरिए दिया था। अमित कुमार ने पंचम दा के संगीत निर्देशन में 'बड़े अच्छे लगते हैं ये धरती, ये तारे, और,...और तुम... ' पंचम दा पर कई लोगों को कहना भी बहुत था और सुनने वालों को सुनना भी बहुत था, लेकिन वक्त का तकाजा ता कि चार घंटे लगातार चल इस कार्यक्रम को विराम देना पड़ा। इस आयोजन की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि अमरीका में रह रहे एक प्रवासी भारतीय श्री ब्रह्मानंद ने पंचम दा पर फिल्मी दुनिया से लेकर उनके व्यक्तिगत दोस्तों को लेकर एक बेहद या दगार और शानदार फिल्म बनाई जिसमें हर एक शख्स ने पंचम दा के व्यक्तित्व की एक नई खूबी का बयान किया है। फिल्मी दुनिया क्या है, संगीतकार क्या होता है और पंचम दा जैसे लोगों को इस मायावी दुनिया में क्या क्या भोगना पड़ता है उसको इस फिल्म के जरिए जाना जा सकता है। From chandma1987 at gmail.com Wed May 21 13:52:17 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Wed, 21 May 2008 04:22:17 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIOCkgyDgpI/gpJUg4KSG4KS14KS24KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KSVIOCkquCkueCksg==?= Message-ID: समीक्षा मीडियानगरः एक आवश्यक पहल कैलाश दहिया मीडियानगर ऐसे सामूहिक प्रयास का नतीजा है जो चीज़ों को अलग ढंग में देखना चाहती है। हिन्दी मे ऐसी पत्रिका की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। जिसे सराय ने भरने की कोशिश की है। सराय अर्थात् 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ का कार्यक्रम' इसका यह तीसरा अंक है जो नेटवर्क-संस्कृति की विशद व्याख्या पर आधारित है। इससे पहले इसके दो अंक क्रमशः दिल्ली पर एकाग्र और उभरता मंज़र थे। नेटवर्क-संस्कृति के इस विशेष अंक में सिनेमा, संगीत, इश्तहार, मीडिया पायरेसी और हिन्दी जासूसी उपन्यासों की भी पड़ताल की गई है। सिने माहौल शीर्षक के अंतर्गत तीन लेख शामिल किए गए हैं जिसमें रवि वासुदेवन का लेख सिनेमा में शहरी बेचैनी पर गंभीर आलेख है। इसमें 'जंज़ीर' से लेकर 'सत्या' तक के पात्रों के माध्यम से इस बेचैनी को देखने की कोशिश की है। लेकिन मिहिर ने प्रसून जोशी पर टिप्पणी में थोड़ी जल्द बाज़ी दिखाई है। अभी कबीराई कुछ और समय की माँग करती है। इसी तरह संगीत संस्कृति में हरियाणा में कैसेट संस्कृति पर दीपक काद्यान ने अपने लेख में ख़ासी रिसर्च की है। वीडियोलीला में खदीज़ा आरिफ़ का लेख ज़ाकिर नगर की गलियों से गुज़रते हुए लगभग हर गली क़स्बे की रिपोर्ट है। उस समय हर जगह यही चल रहा था। लेकिन यह कथन कि केबल आने से वीडियो हाउस को फ़ायदा ही हुआ अतिशयोक्तिपूर्ण है। बल्कि केबल ही वह व्यवसाय है जिसने वीडियो हाउस का बोरिया बिस्तर गोल कर दिया। जैसा कि अब डी. टी.एच. केबल को समेटने की ओर अग्रसर है। और रहमत भाइयों से तो यह शहर भरा पड़ा है। इन रहमत भाइयों ही ने तो फ़िल्म, संगीत, प्रकाशन और ऐसे ही धंधों की बैंड बजा रखी है कॉपीराईट इनके आगे धूल चाटता है और हम इन्हें हाइलाइट कर रहे हैं। असली रहमत भाई कभी समाने नहीं आते। मीडियाचार में सम्मिलित लेख महत्त्वपूर्ण हैं। आनंद प्रधान ने नागरिक पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं को बताते हुए उसकी संभावना की चर्चा की है। ऐसे ही अरूंधति राय ने प्रायोजित ख़बर के बहाने जो ताना-बाना बुना है, वह बहुत से सवाल खड़े करता है। इसी बहाने वे नई ख़बर की आड़ में पुरानी हुई महती ख़बर के लिए आगाह करती हैं। स्वयं अरूंधती लिखती हैं अब होने यह लगा है कि सरकारें संकट को तब तक टालती रहती हैं जब तक वह ख़ुद ही निष्प्राण नहीं हो जाता। दरअसल सरकारें यह बात जानती हैं कि संकट अल्पजीवी ही होता है। वे यह बात भी जानती हैं कि मीडिया एक संकट के बारे में बहुत दिनों तक बात नहीं कर सकता। उसे जिन्दा रहने के लिए हमेशा अगले संकट का इंतज़ार रहता है। जिस तरह व्यावसायिक घरानों को एक वक़्त के बाद अपनी पूँजी दूसरी जगह लगानी पड़ती है उसी तरह मीडिया को भी एक समय के बाद नए संकट की दरकार होती है। इसी खंड में फ़िल्म मेकर संजय काक का इंटरव्यू डॉक्यूमैंट्री फ़िल्मों के बहाने नए तथ्यों की ओर इशारा करता है जिससे हमें परिचित होना चाहिए। पर्दे पर ख़बर खंड में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हरकतों का प्रदाफ़ाश किया गया है, चाहे ब्रेकिंग न्यूज़ की हक़ीक़त हो या चैनलों की भाषा। वैसे ब्रेकिंग न्यूज़ की समझ अब कुछ-कुछ दर्शकों को भी होने लगी है। ख़बरों की ख़बर के लिए लोग अभी भी दूरदर्शन पर ही भरोसा करते हैं, यह भी तथ्य है। रमोला की प्रेम कहानी के बहाने चैनलों की अच्छी पोल खोली गई है। कैसे एक कुतिया के पिल्लों के जन्म का लाइव टेलीकास्ट किया गया। इश्तहारनामा पर एक अलग खंड है जिसमें सम्मिलित लेखों में सैलवोज एडवटाईज़िंग लेख में मह्त्वपूर्ण जानकारी है। सैलवोज ऐडवटाईज़िंग अर्थात् सिनेमा हॉल में दिखाए जाने वाले विज्ञापन। इसमें उनकी कमर्शियल वैल्यू के साथ-साथ उसके बाज़ार की पड़ताल की गई है। एक तथ्य इसमें यह भी है कि सिनेमा हॉल की स्थिति, उसमें मिलने वाली सुविधाएँ और फ़िल्म रिलीज़ होने की तारीख़ के अनुसार ही उस हॉल को मिलने वाले विज्ञापन दरों को निर्धारित करते हैं, दुकानों मार्किट में लगे साइन बोर्डों के बारे में लेखक का एक मह्त्वपूर्ण कथन है मैंने यह पाया कि साइन बोर्डों की क्वालिटी व उस पर लिखे संदेश फ़ैशन के साथ-साथ इस बात से प्रभावित होते हैं कि वहाँ कैसे ग्राहक आ सकते हैं। इसलिए सदर बाज़ार की बड़ी-बड़ी थोक की दुकानें जंग खाते पुराने साइन बोर्डों से काम चलाते दिखते हैं, जबकि करोलबाग के छोटे-छोटे दुकानदार भी चमकीने और प्रकाशित साइनबोर्ड रखते हैं। इसी अध्या में एक तथ्य यह भी है कि दिल्ली के लोग चीज़ों को ज्यादा कौतुहल अंदाज़ से देखते हैं बजाए पटना या हाजीपुर के। और बग़ैर उन्वान के जैन क्लीनिक तो हर छोटे -बड़े शहर में भरे पड़े हैं। शीर्षक खंड जो नेटवर्क-संस्कृति पर आधारित है। इसके पहले लेख नेटवर्क के सिद्धांतः आलोचनात्मक इंटरनेट संस्कृति में गीर्यट लोविंक नेटवर्क के बनने और बिगड़ने की प्रक्रियाओं एवं चरणों का ज़िक्र करते हैं। इसका दूसरा अध्याय 'कला कर्म x टीके' एक महत्त्वपूर्ण आलेख है जिसमें 'इक्कीसवीं' सदी के नव मज़दूरों की पड़ताल की गई है। ये मज़दूर कॉल सेंटरों की चमकती दुनिया में काम करते हैं। यह एक रोटक व्याख्या है। ज़रा देखें इक्कीसवीं सदी का मज़दूर भी कलाकार है क्योंकि वह मायने रचकर मूल्य पैदा करता है। अपने रूटीनी काम के तहत वह रचना, शोध व व्याख्या इस तरह करता है कि उसे शोधार्थी या कलाकार माना जाए, ख़ास तौर पर तब जब शोधार्थी या कलाकार से हमारी मुराद ऐसे किरदार से हो जो अर्थ या ज्ञान की रचना करे। सूचना तक़नीक से चालित कॉल सेंटर और रिमोट डेटा आउटसोर्सिंग उद्योग में कार्यकत मज़दूरों की दशा इसकी बेहतरीन मिसाल है, जिसने मज़दूरी की एक नई वैश्विक संरचना गढ़ी है, और तथाकथित वैश्वीकरण को कलात्मक मंच और रुझान दिया है। इस अध्या में एक अलग तरह की ज़िद है जो नई आकृतियाँ बनाने और संवाद आरंभ करने पर ज़ोर देती है। यह एक महत्त्वपूर्ण आलेख है। इबारत-ए-शहर नामक खंड में 1940 के दशक में कानपुर की अख़बारी राजनीति के ज़रिए उस समय की राजनीति की पड़ताल की गई है। इन पंक्तियों के सहारे हम लेख के महत्व का अंदाज़ा लगा सकते हैं 'चालीस' के दशक के मध्य तक आते-आते पाकिस्तान के विचार के जन्मदाता की छवि के सिवाय जिन्ना की कोई और पहचान बाकी नहीं बची थी। पाकिस्तान के हवाले से जिन्ना को एक ऐसे बालक की तरह पेश किया जाता था जो अपने बाप का बाप बनने की कोशिश कर रहा है। दूसरी तरफ़ गाँधी मोटे तौर पर हिन्दुओं का नेतृत्व कर रहे थे जो वर्तमान की राय में उदासीन, सुप्त राष्ट्रवादियों का समुदाय था, एक ऐसा समुदाय जिसका 'राजनीतिक आचरण कायरता में, और धार्मिक उत्साह काहिली में डूबा हुआ है और जो सामाजिक तौर पर छिन्न-भिन्न है।' संक्षेप में, एक ऐसा समुदाय, जो अपनी अकर्मणयता को सहिष्णुता का नाम देकर गंगा नहा लिया था। इसी खंड में हिन्दी में जासूसी उपन्यास लेखन का इतिहास खंगाला गया है। जिसका निष्कर्ष यह है कि अगर जासूसी साहित्य हिन्दी में न आया होता तो आज हर ओर अश्लील पुस्तकों का बोलबाला होता। वैसे इस आलेख का अलग भाग लिखे जाने की गुंजाईश लेखक ने छोड़ी है, जो मेरठ पर केन्द्रित होने की संभावना है। अपने कलेवर और आकार में मीडियानगर पूरे पुस्तकाकार में है। साज-सज्जा आकर्षक है। जहाँ तक आलेखों की बात है, कई बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तो कई पुराने होने की वजह से अप्रासंगिक हो गए हैं। अधिकांश लेख अनुवादित हैं, जिसमें कई लेखों में जटिलता आ गई है। सराय से उम्मीद है कि अगले अंकों में मूल हिन्दी आलेखों को ज़्यादा स्थान मिलेगा, फिर भी हिन्दी पाठक के लिए मीडियानगर पठनीय एवं संग्रहणीय अंक है। -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-310 Size: 24381 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080521/ed92ae43/attachment-0002.bin -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Meediangar 03 Ek Aavashyak pahal_odt.DEFANGED-324 Type: application/defanged-324 Size: 26390 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080521/ed92ae43/attachment-0003.bin From ravikant at sarai.net Wed May 21 14:20:30 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 21 May 2008 14:20:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDog4KSP4KSVIOCkhuCkteCktuCljeCkr+CklSA=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200805211420.30433.ravikant@sarai.net> चंदन जी, इसे बयान नामक पत्रिका (वर्ष 2, अंक 20, अप्रैल, 2008) से नक़ल करने का शुक्रिया. बयान मोहनदास नैमिशराय निकालते हैं, जिनका नाम हिन्दी साहित्य में अनजाना नहीं है. नैमिशराय फ़िलवक़्त भारतीय अध्ययन संस्थान, शिमला में कार्यरत हैं, और उन्होंने दलित विषयों पर जमकर कहानियाँ, उपन्यास और लेख लिखे हैं. लगे हाथ यह भी बता दूँ कि मई अंक में उन्होंने मीडियानागर03 में छपे रक़्स मीडिया कलेक्टिव के एक्स-नोट्स से भी एक तवील उद्धरण दिया है. आप सबको बधाइयाँ. रविकान्त बुधवार 21 मई 2008 13:52 को, chandma1987 at gmail.com ने लिखा था: > समीक्षा > > मीडियानगरः एक आवश्यक पहल > > कैलाश दहिया > > > मीडियानगर ऐसे सामूहिक प्रयास का नतीजा है जो चीज़ों को अलग ढंग में देखना > चाहती है। हिन्दी मे ऐसी पत्रिका की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। जिसे सराय > ने भरने की कोशिश की है। सराय अर्थात् 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ का > कार्यक्रम' इसका यह तीसरा अंक है जो नेटवर्क-संस्कृति की विशद व्याख्या पर > आधारित है। इससे पहले इसके दो अंक क्रमशः दिल्ली पर एकाग्र और उभरता मंज़र थे। > नेटवर्क-संस्कृति के इस विशेष अंक में सिनेमा, संगीत, इश्तहार, मीडिया पायरेसी > और हिन्दी जासूसी उपन्यासों की भी पड़ताल की गई है। सिने माहौल शीर्षक के > अंतर्गत तीन लेख शामिल किए गए हैं जिसमें रवि वासुदेवन का लेख सिनेमा में शहरी > बेचैनी पर गंभीर आलेख है। इसमें 'जंज़ीर' से लेकर 'सत्या' तक के पात्रों के > माध्यम से इस बेचैनी को देखने की कोशिश की है। लेकिन मिहिर ने प्रसून जोशी पर > टिप्पणी में थोड़ी जल्द बाज़ी दिखाई है। अभी कबीराई कुछ और समय की माँग करती > है। इसी तरह संगीत संस्कृति में हरियाणा में कैसेट संस्कृति पर दीपक काद्यान > ने अपने लेख में ख़ासी रिसर्च की है। From ved1964 at gmail.com Thu May 22 10:02:57 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Thu, 22 May 2008 10:02:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Invitation for Dalit Lekhak Sangh Adhiveshan, 1-2 June 2008. New Delhi. In-Reply-To: <7ca650a20805210032x331136cg96ff20d43acdc17c@mail.gmail.com> References: <7ca650a20805210032x331136cg96ff20d43acdc17c@mail.gmail.com> Message-ID: <3452482c0805212132m69399863w5b9888b892c0bcb5@mail.gmail.com> प्रिय साथियो, दलित लेखक संघ अपना द्विवार्षिक अधिवेशन आगामी 1-2 जून 2008 को आयोजित कर रहा है. जिसका कार्यक्रम और आमंत्रण आपको भेज रहा हूँ. आप अधिक से अधिक साथियों के साथ सादर आमंत्रित हैं. अधिक जानकारी के लिए आप मुझे भी फोन कर सकते हैं- 9818620873. आपका, वेद प्रकाश ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080522/35fbc550/attachment.html From ved1964 at gmail.com Thu May 22 10:09:10 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Thu, 22 May 2008 10:09:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dalit lekhak sangh Message-ID: <3452482c0805212139g48970512mdcf4f62b965e8276@mail.gmail.com> प्रिय मित्रो, दलित लेखक संघ ने आज अपना ब्लाग भी बनाया है जिसका पता है dalitlekhaksangh.blogspot.com इस पर निरंतर दलित और प्रगतिशील साहित्य और दलित साहित्य संबंधी गतिविधियों की जानकारी मिला करेगी. आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में, आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080522/77f11ea5/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu May 22 20:40:36 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 22 May 2008 20:40:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCksOClh+CknyDgpLjgpYcg4KSc4KWN4KSv4KS+4KSm4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSC4KSX4KWH4KSC?= Message-ID: <829019b0805220810o10c2a7cbm2f355bd084609c36@mail.gmail.com> टेन जेन देंगे। एफजीसी देंगे। सीटी देंगे। इस तरह के ऑफर जब लड़की के बाप ने मेरे दोस्तों को देने शुरु किए तो मेरे दोस्त सब चकरा गए, घबरा गए। थोड़ी देर के लिए डर भी गए।...और मुझे फोन करके बताने लगे कि क्या करें यार, बड़ी मुसीबत में फंसे हैं। पहले तो मुझसे येसब जानना चाह रहे थे कि इन सारे संक्षिप्त शब्दों के मायने क्या हैं। उसके बाद उनसे बचने के उपाय भी पूछने लगे। मेरे कई दोस्तों की नौकरी देश के अलग-अलग हिस्सों में लग चुकी है। कुछ की मल्टीनेशनल कंपनी में, कुछ की मीडिया में, कुछ की सिविल सर्विसेज में और कुछ लोग जो अबतक पढ़ा है, उसे पढ़ाने या यों कहिए कि दुहराने का काम करने लगे हैं। सरकार इसके लिए पैसे देती है और अब वो लेक्चरर की श्रेणी में आते हैं। सामाजिक हैसियत अब उनकी ऐसी है कि अब वो बाजार में बिकने के लायक बन चुके हैं। उन सबके बाबूजी उनको फोन करके तबाह कर रहे हैं कि अब नहीं करोगे तो कब करोगे। अब तो नौकरी भी लग गई है। पुरुषों की स्मार्टनेस उसकी नौकरी लग जाने पर ही है। बल्कि उसकी स्मार्टनेस तब और बढ़ जाती है जबकि उसे नौकरी लग जाए। समाज की नजर भी उस पर तभी पड़ती है। नहीं तो इसके पहले वो समाज की नजर में नकारा, आवारा, बेकार और लड़कियों के पीछे छुछुआनेवाला जीव है। खैर, मेरे लगभग सारे दोस्त इस बिरादरी से बाहर हो गए हैं। पापा के फोन मेरे पास भी आते हैं। लेकिन थोड़े अलग किस्म से। वो कहते हैं कि- सामने वाले गुप्ताजी कह रहे थे कि- आपका लड़का अबी तक कौन-सी पढ़ाई पढ़ रहा है। पच्चीस से उपर होने जा रहा है और अभी तक पढ़ ही रहा है। कहीं ऐसा न हो कि बाजार रेट ही गिर जाए। मेरे एमए करने तक रेट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था लेकिन लोगों को भय है कि अब रेट गिरने न लग जाए। क्योंकि एमए तक जो बड़ी नौकरी की उम्मीद बंधी थी, उनके हिसाब से अब बेरोजगारी में तब्दील होने लगी है। मेरे घर के टोले-पड़ोस में हल्ला है कि बेइज्जती की वजह से मैं घर वापस नहीं आ रहा हूं, नहीं तो मेरा मामला पूरी तरह साफ है. दबी जुबान से लोग कहने भी लगे हैं कि देखिएगा, ये लड़का भी अपने बाप-भाइयों की तरह इसी शहर में साड़ी बिलाउज बेचने आएगा। इएचडी और पीएचडी सब ढकोसला है। पापा से मैंने सवाल किया कि दाम गिर जाएगा लेकिन लड़की मिलेगी कि नहीं, गुप्ताजी से जरा पता करके फोन कीजिएगा। ओह..हो, मैं भी बस चालू हो जाता हूं. फिलहाल उनकी बात करुं जो कि गर्व से अपने साथ नौकरी लेकर घर की तरफ वापस गए हैं, जो बिकने के लायक हो चुके है और जिनके लिए आए दिन ऑफर आने लगे हैं। मेरे दोस्त ने उपर बताए शब्दों को जब सुना तो लगा कि किसी दवाई का नाम लिया जा रहा है. या फिर किसी बैंक की बहुत बड़ी पॉलिसी होगी। लेकिन जब चर्चा हुई तो सारी बातें डिटेल में समझ में आ गई। टेन जेन का मतलब है- जेन गाड़ी और दस लाख कैश एफजीसी का मतलब है- फ्लैट,गाड़ी और कैश सीटी का मतलब है- कैश और ट्रांसफर मेरे कुछ दोस्तों की बहाली अल्टर जगह में हो गयी है। इसलिए लड़कीवाले उन्हें मनमुताबिक जगह में ट्रांसफर कराने के लिए तैयार हैं। बस उसे हां कहना है। सारे के सारे दोस्त घरवालों का दबाब झेल रहे हैं। एक दो की मां ने मदर्स डे के नाम पर वचन मांग लिया है कि दो साल के भीतर पोते का मुंह देखना चाहते हैं। एक की मां का कहना है कि बस बहुरिया के हाथ से दो जून की रोटी नसीब हो जाए। सेंटी वाक्यों से लदे मेरे दोस्त परेशान हैं कि करें तो करें क्या, जाएं तो जाएं कहां। बाबूजी लोगों का कहना है कि तुम जल्दी से कुछ करो। आए दिन लड़कीवोलों को टाइम देने पड़ते हैं, खातिरदारी करनी पड़ती है। समय और पैसे हवा और पानी की तरह बह रहे हैं। कुछ तो कीलियर करो ताकि हम उनको जबाब दें। जबकि मेरे दोस्तों की स्थिति कुछ अलग ही है- जिन्हें प्रेम विवाह करना है, उनके साथी का अगले साल फाइनल पेपर है, नेट में एपीयर होना है। अगले साल इनक्रीमेंट के इन्तजार में हैं। एक दोस्त चाहती है कि एक कमरे का भी कम से कम फ्लैट हो जाए ताकि पति से मामला बिगड़ जाए तो भी सुकून से रह सके। उसे ड़र है कि उसका पति इतना खुले विचार का होगा भी कि नहीं कि उसे नाइट शिफ्ट में मीडिया की नौकरी करने देगा। प्रेम विवाह करनेवाली एक दोस्त अपने मां-बाप के साथ धोखा नहीं करना चाहती। लेकिन मां द्वारा नापसंद किए गए अपने वर को ठुकरा भी नहीं सकती। फिलहाल महौल बनाना होगा और उसके लिए वक्त चाहिए। जबकि इधर लड़के के मां को पोते को खेलाने की इच्छा उफान पर है। एक- दो साथी अपने को खुलेआम बेचना नहीं चाहते। उन्हें तरीके की लड़की मिल जाए, बस। अपने बिजी लाइफ में अफेयर कर नहीं सकते। तरीके की लड़की उसके घरवाले खोज सकते हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि बिना दहेज के शादी करने की बात करनेवाला उनका लड़का पगला गया है। जब आज एक फोर्थ ग्रेड का आदमी पांच लाख उगाह ले रहा है तो उसका लड़का सिक्स प्वाइंट फाइव के पैकेज पर है। इसे पगलाना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। जिनके मां-बाबूजी मुझे पर्सनली जानते हैं, फोन पर कहते हैं- बेटा समझाओ अपने दोस्त को। अभी नहीं करेगा तो कब करेगा। अच्छा, दिल्ली में कोई चक्कर तो नहीं है बेटा इसका. पता चला हम इधर डोरा बांट रहे हैं और सीधे आशीर्वाद देने भर के रह जाएं, बताना। एक की मां ने पूछा कि- पूनमिया से अभीओ बतियाता है क्या। एक के बाबूजी ने कहा- तुम्हारी नौकरी लग जाती तो क्या तुम बंड़े ऐसे ही बैठे रहते बेटा. नाती-पोता का मुंह देखने का मन किसको नहीं होता है।...और देखो अपने दोस्त हरीशचन्द्र को, लड़कीवाले दे रहे हैं और इ मना कर रहा है। गांजा पी लिया है। एक लड़कीवाले ने दबी जुबान से कह भी दिया कि बताइए जनाब, आपके दोस्त तीस हजार महीना पाते हैं औऱ हमसे दहेज नहीं लेगें। अजी मैं तो कहता हूं, जरुर कोई ऐब या अंदरुनी कमजोरी होगी। आपको पता नहीं चलता होगा या बताया नहीं होगा। यहां रेडीवाले मुंह फाडे रहते हैं। सारे साथियों की स्थिति बड़ी गड्डमड्ड है। वो कुछ दिन और फ्री रहना चाहते हैं। ऐसे ही जीना चाहते है। शादी करना भी चाहते हैं तो भी अपनी शर्तों और सुविधा के हिसाब से। हमसे मदद मांगते हैं। मदद के नाम पर मैं उनके लिए कमरे खोज सकता हूं। गवाह जुटा सकता हूं और गृहस्थी में दो-तीन तिनके जोड़ सकता हूं। उनके समर्थन में, दहेज के खिलाफ पोस्ट लिख सकता हूं। बाकी तय करना तो उनका ही काम है। बोलिए कुछ गलत कहा।.. टिप्पणी- पोस्ट के उपर टिप्पणी के साथ-साथ स्थिति विशेष को लेकर सुझाव आमंत्रित हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080522/df60aaca/attachment-0001.html From nandinidubey1985 at gmail.com Sun May 18 21:08:11 2008 From: nandinidubey1985 at gmail.com (Nandini dubey) Date: Sun, 18 May 2008 21:08:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSC4KSm4KS/?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCkleCkviDgpKzgpY3igI3gpLLgpYngpJc=?= Message-ID: प्रिय मित्रो अंतत: हमने भी अपना ब्‍लॉग शुरू कर लिया है ... इसका लिंक है http://nandinidubey.blogspot.com/ पधारिए... पढिए ... और ठीक लगे तो हौंसला बढाने हेतु एक कमेंट भी चिपका दिजिए... .. अगर और अच्‍छा लगे तो बार बार आइये... आदर सहित धन्‍यवाद नंदिनी इंदौर -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080518/c472947a/attachment.html From girindranath at gmail.com Fri May 23 18:00:33 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 23 May 2008 18:00:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWA?= =?utf-8?b?IOCkqOCljeCkr+ClguCknCDgpJrgpYjgpKjgpLIg4KSV4KWHIOCksg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSPIOCkpOCkpOCljeCkleCkvuCksiDgpJrgpL7gpLngpL/gpI8=?= Message-ID: <63309c960805230530k61e1f928wf585d88845fc4f9d@mail.gmail.com> यहां से .... http://www.hindimedia.in/content/view/2164/43/ आनंद लें., विनीत भाई इन विषयों पर लगातार लिख रहे हैं... गिरीन्द्र टीवी न्यूज चैनल के लिए तत्काल चाहिए अपनी बात रमता जोगी Thursday, 22 May 2008 शीघ्र ही शुरु होने जा रहे हिन्दी के एक न्यूज़ चैनल के लिए देश के गाँव-गाँव से लेकर शहरों के गली मोहल्ले तक टीवी रिपोर्टर यानी टीवी पर खबरें देने वाले संवाददाताओं की आवश्यकता है, जो अपने शहर या मोहल्ले में होने वाली घटनाओं की रिपोर्टिंग कर सके। आवेदक के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं है, कोई भी थोड़ा पढा-लिखा आवेदन दे सकता है। लेकिन आवेदक को शहर के अपारधियों से लेकर पुलिस वालों से अच्छे संबंध होना चाहिए, ताकि उसे अपराध जगत की खबरें आसानी से मिल सके। अगर आवेदक खुद ब्लैकमैलिंग, चोरी, लूट बलात्कार जैसे अपराध में जेल जा चुका है या किसी दुश्मन द्वारा फँसाया जा चुका है तो उसके आवेदन पर तत्काल विचार किया जाएगा। ऐसे आवेदक को अपने ऊपर चल रहे मुकदमों, पुलिस में अपने खिलाफ दर्ज रिपोर्ट, अखबार में अपने खिलाफ छपी खबरों की कतरनें आदि प्रमाण के रूप में भेजना होगी। अपने आवेदन के साथ चैनल को हत्या, बलात्कार, लूट, धोखाधड़ी जैसे अपराध करने वालों की सूची, उनके द्वारा किए गए सफल अपराधों की सूची और वे किस अपराध में पारंगत हैं इसका पूरा व्यौरा भेजना होगा ताकि इस तरह के अपराधों पर चैनल उनसे तत्काल संपर्क कर उनसे इस तरह के अपराध पर विस्तार में चर्चा कर उनकी विशेषज्ञता का फायदा ले सके। आवेदक को चाहिए कि वो अपने शहर या गाँव में होने वाली हर छोटी बड़ी घटना पर नजर ही नहीं रखें बल्कि किसी भी घटना के होने के तत्काल बाद बढ़ा-चढ़ाकर उसकी खबर दें। किसी खबर को जितनी जल्दी भेजा जाएगा, उस संवाददाता को उतना ही योग्य माना जाएगा। शहर में होने वाली चोरियाँ, हत्या, बलात्कार, अपहरण, अवैध शराब के अड्डे, किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम या मेले में होने वाले फूहड़ नाच-गाने जैसी खबरें प्रमुखता से चैनल पर प्रसारित की जाएगी। अगर कोई रिपोर्टर साहित्यिक, सांस्कृतिक या धार्मिक रुचियों की खबरें भेजेगा तो ऐसी खबरें कतई स्वीकार नहीं की जाएगी। किसी साहित्यिक आयोजन की बजाय आपके शहर में कोई फिल्मी या टीवी अभिनेत्री किसी ब्यूटी पॉर्लर का उद्घाटन करे, किसी गली मोहल्ले में कहीं कोई फैशन शो हो रहा हो, ऐसी खबरों को प्रमुखता दें। टीवी चैनलों पर सास बहू के नकली झगड़ों को देखकर लोग अब बोर हो चुके हैं। हमारे द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि लोग अब असली झगड़ें देखना चाहते हैं। इसके लिए आप अपने गली मोहल्ले से लेकर आसपास के मोहल्लों में ऐसे परिवारों की सूची बनालें जहाँ आए दिन सास-बहू, देवरानी-जेठानी ननंद-भोजाई के बीच लड़ाई झगड़े होते हों। इन झगडों को आप सीधे चैनल पर भी प्रसारित कर सकते हैं और अगर आप चाहें तो इन सास बहू को या ननंद-भोजाई या देवरानी-जेठानी को अपने स्टुडिओ में भी ला सकते हैं। हम इनसे सीधी चर्चा कर इसका सीधा प्रसारण करेंगे ताकि लोग समझ सकें कि घरों में आखिर ये झगड़ें क्यों होते हैं और इनको कैसे सुलझाया जा सकता है। इनसे बात करने के साथ ही हम देश के जाने माने मनोवैज्ञानिकों से, देश की जानी-मानी सासुओं और बहुओं से भी बात करेंगे। लेकिन यह ध्यान रहे कि आप हर बार अलग अलग मोहल्ले की सास-बहुओं के झगड़ें कवर करें। एक ही मोहल्ले की एक घटना का प्रसारण एक बार ही किया जाएगा। एक ही मोहल्ले से दूसरे परिवार को मौका नहीं दिया जाएगा। अगर आप सास बहुओं के झगड़ों को कवर नहीं कर सकते हैं तो गली मोहल्ले में केल खेल में लड़ने वाले बच्चों के झगडो़ से फभी अपनी रिपोर्टिंग की शुरुआत कर सकते हैं। बच्चों के लड़ाई-झगड़ों में बड़े भी कूद पड़ते हैं और कई बार बच्चों की लडा़ई महाभारत की लडा़ई को भी मात कर देती है। आप चाहें तो गली मोहल्ले में खेलेन वाले बच्चों को उकसाकर भी उनको आपस में लड़ा सकते हैं और टीवी पर लाईव दिखा सकते हैं। टीवी पर बच्चों की लडा़ई दिखाने के बाद उनके माँ-बाप, मोहल्ले वाले और फिर उनकी जाति और समुदाय वाले भी बीच में कूद जाएंगे और इस तरह हम अपने चैनल पर बार बार यह चेतावनी देते रहेंगे कि यह झगड़ा सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले सकता है। इस तरह आप चाहें तो एक छोटी सी घटना को बड़ी घटना में वदलकर पूरे प्रशासन को और सरकार को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं। आप चाहें तो ऐसी किसी घटना की रिपोर्टिंग करने के दो-चार दिन पहले बच्चों के आपसी झगड़ें को दिखाकर यह चेतावनी दे सकते हैं कि ये झगड़ा कबी भी हिंक रूप ले सकता है, जाहिर है प्रशासन आपकी इस बात को कतई गंभीरता से नहीं लेगा। इस खबर के प्रसारण के दो चार दिन बाद आप बच्चों को अच्ची तरह भड़काकर उनको लड़ा सकते हैं। इस संबंध में अगर किसी तरह के मार्गदर्शन की जरुरत हो तो तत्काल स्टुडिओ से संपर्क कर सकते हैं। शीघ्र ही आने वाले देश के एक सबसे तेज न्यूज़ चैनल के लिए अपराधिक मानसिकता में जीने वाले, अपराधियों और ब्लैक मेलरों से संपर्क रखने वाले होशियार, तेजतर्राट और खबर को सूंघकर पहचान सकने वाले तत्काल आवेदन करें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080523/ac5339d5/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat May 24 14:42:05 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 24 May 2008 14:42:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= firefox hindi spell checker Message-ID: <200805241442.05668.ravikant@sarai.net> साथियो, रवि रतलामी नामक हमारी इकलौते आदमी की सेना के ब्लॉग से और इंडलिनक्स हिन्दी डाक सूची से साभार और सधन्यवाद. यह वर्तनी जाँचक - (रवि, जाँचक को भी दुरुस्त कर लें. चंद्र-बिन्दु का इस्तेमाल करें न कि सिर्फ़ बिन्दी का). बहरहाल यह औज़ार बहुत अच्छा चल रहा है. मैंने इसे लिनक्स और विन्डोज़ एक्स पी दोनों पर, फ़ायरफ़ॉक्स 2, पर टेस्ट किया है. मैंने इसे रवि के निर्देशानुसार स्थापित किया और गूगल में चिट्ठी लिखकर मैंने स्पेलचेक किया तो ये मज़े में चल रहा है. गूगल के इंडिक ट्रांस में भी बख़ूबी चलता है. पर जैसा कि रवि ने कहा है कि इसमें अभी शब्द कम हैं, इसलिए हमें अपनी बुद्धि पर ज़्यादा भरोसा करना पड़ेगा, और अपनी मशीन की शब्द-क्षमता बढ़ाने के लिए हमें कहना पड़ेगा कि ये शब्द कोष में जोड़ें. तो नीचे की कड़ियों पर जाएँ, पहले पर निर्देश के लिए और दूसरे पर डाउनलोड के लिए और मज़े लें. क्या कहा आपने, फ़ायरफ़ॉक्स ही नहीं है आपकी मशीन पर! किस सदी में हैं आप? हुज़ूर अभी डाउनलोड करके इंस्टॉल कीजिए न. मुक्त भी है, मुफ़्त भी: http://www.mozilla.com/en-US/firefox/ और अब रवि से दो सवाल: 1. अपनी मशीन में ख़ुद हमारे द्वारा घुसाए गए शब्दों को हम आमजन के इस्तेमाल के लायक़ कैसे बना सकते हैं? 2. एक बार वर्तनी जाँचक को लग जाए कि शब्द सही है तो वह कोष में जोड़ने का विकल्प नहीं देता. मेरे ख़याल से कभी-कभी वह ग़लत हो सकता है, और उसे हमारे सुझावों को हर हाल में समाहित करना चाहिए. इसके लिए क्या उपाय किया जाए? बहुत बहुत शुक्रिया रविकान्त Friday, May 23, 2008 मोज़िल्ला फ़ॉयरफ़ॉक्स में हिन्दी वर्तनी जांचक प्लगइन संस्थापित करें रवि रतलामी http://raviratlami.blogspot.com/2008/05/blog-post_23.html जब आप मोजिल्ला के जरिए किसी पृष्ठ पर अंग्रेज़ी में कुछ पाठ लिखते हैं तो उसका डिफ़ॉल्ट अंग्रेज़ी वर्तनी जांचक आपकी सहायता करता है और आपके अंग्रेज़ी के गलत हिज्जों को वह लाल रंग से रेखांकित कर देता है. आप उस शब्द पर क्लिक करते हैं तो उसका संभावित सही वर्तनी सुझाता है. और आप सही, अच्छी अंग्रेज़ी लिख लेते हैं. जबकि हिन्दी लिखते समय आपकी हिन्दी हीन्दि हो जाती है और आपकी सहायता के लिए कोई औजार नहीं है. पर, हिन्दी के लिए भी एक फ़ॉयरफ़ॉक्स प्लगइन जारी किया गया है. इस प्लगइन (hi-IN-dictionary.xpi फ़ाइल) को यहाँ से http://www.esnips.com/r/hmfl/doc/b5589890-42aa-45fe-99f9-f04ebd71ae4d/hi-IN-dictionary डाउनलोड करें. ( यह प्लगइन अभी फ़ॉयरफ़ॉक्स की साइट पर उपलब्ध नहीं है. तथा यह संस्करण 1.5 से 2.x पर काम करती है. फ़ॉयरफ़ॉक्स 3 बीटा पर अभी काम नहीं करती.) डाउनलोड के पश्चात इसे फ़ॉयरफ़ॉक्स से खोलें व इसे इंस्टाल हेतु चुनें. संस्थापित होने के बाद फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउजर के किसी भी इनपुट विंडो में हिन्दी लिखें या नक़ल कर चिपकाएं व दिए गए चित्रानुसार इनपुट बक्से में दायाँ क्लिक करें व भाषा में हिन्दी/इंडिया चुनें. बस, अब आपकी हिन्दी वर्तनी ‘कूत्ता’ को ‘कुत्ता’ बताएगा. चित्र को बड़े आकार में देखने के लिए इस पर क्लिक करें) अभी इस वर्तनी जांचक में मात्र पंद्रह हजार शब्द हैं, अतः इसमें अजदकी भाषा (प्रमोद जी, इसे प्रशंसनीय अंदाज में ही लें, आलोचना के रूप में नहीं,) की वर्तनी जांचने में निश्चित ही समस्या आएगी. वैसे, इस संख्या को बढ़ाने के लिए प्रयास चल रहे हैं. इस औजार को प्रयोग करें व अपने अनुभव अवश्य बताएं ताकि इसे और परिष्कृत किया जा सके. और हाँ, ये उन सभी प्लेटफ़ॉर्म में काम करता है जहाँ फ़ॉयरफ़ॉक्स चलता है - यानी विन्डोज़ , मेक ओएअस , लिनक्स इत्यादि पर भी :) From vineetdu at gmail.com Sun May 25 08:47:10 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 25 May 2008 08:47:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KS4IOCkrOCljeCksuCliOCklSDgpJXgpLDgpKTgpYAg4KS54KWIIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSy4KS14KWHIOCkn+Ckv+CkleCknyA/?= Message-ID: <829019b0805242017s5dcf750bw6a8e0c0dec69911b@mail.gmail.com> आप अगर अपने मां-बाबूजी के पैर छूकर या फिर दोस्तों को हाथ हिलाकर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से विदा करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको 250 रुपये देने पड़ेगें। हो सकता है इस काम के लिए आपको बहुत जिल्लत भी उठानी पड़े। कल रात भैया को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया। हम दोनों बहुत थके थे। लेकिन मेरे से ज्यादा खराब स्थिति भैया की थी। उन्हें एक बड़ा-सा जख्म हो गया था। मजबूरन हमें भी साथ जाना पड़ा। स्टेशन पहुंचने पर मैं प्लेटफार्म टिकट के लिए भटका। पुलिस से लेकर कुली तक पूछा तो सभी का एक ही जबाब था कि अब प्लेटफार्म टिकटें नहीं मिलती। मैं सबसे एक ही सवाल कर रहा था कि अगर टिकटें नहीं मिलती तो कोई प्लेटफॉर्म तक जाएगा कैसे। कोई तो बढ़ गया, किसी ने कहा-हमसे नहीं लालूजी से पूछिए तो किसी ने कहा, आप जाइए ही मत, जिनको यात्रा करनी है उन्हें जाने दीजिए। ऐसे कैसे हो सकता था कि मैं भइया को बिना ट्रेन में बिठाए लौट जाता। इसी बीच मैंने एक अजीब नजारा देखा। एक पुलिसवाला जेनरल क्लास की टिकट काउंटर के पीछे किसी को पैसे लेकर दे रहा है। पहले तो मैंने सोचा कि हो सकता है इसे जाना नहीं होगा, इसलिए टिकट दे दिया होगा। लेकिन एकदम पास जाकर साइड में खड़ा हुआ तो उस बंदे को बोलते सुना कि- आप ज्यादा मांग रहे हैं। मैंने उस पुलिसवाले को गौर से देखा और मुझे भी जल्दी थी, आगे बढ़ गया। मैं बिना टिकट के उपर चढ़ गया और जो पुलिसवाले सामान चेक करते हैं, उनसे पूछा- भइया जब टिकटें मिलती ही नहीं तो हम जाएं कैसे। बंदे ने नोटिस की तरफ इशारा किया और अपने काम में लग गया। नोटिस में साफ लिखा था कि- *अगले आदेश तक प्लटफार्म टिकट नहीं मिलेगी और जो भी बिना टिकट के प्लेटफार्म पर आते हैं उन्हें २५० रुपये देने होगें। *मैंने कहा, भाई साहब ये तो बहुत गड़बड़ है। उनका जबाब था, गड़बड़ क्या है, आप भी २५० रुपये दीजिए और जाइए। बगल में एक बंदा खड़ा था। उसने हंसते हुए कहा कि- हम भी २५० रुपये अभी दिया है। उसके हुलिए से साफ झलक रहा था कि वो २५० रुपये फाइन देने के बाद ऐसे हंसने की हैसियत नहीं रखता है। उसने पुलिसवाले से कहा- है तो दे दीजिए न और फिर हंसा। पुलिसवाले ने कहा- इनको कैसे दे दें, वो तो बहुत परेशान, दूसरे लोगों के लिए है। मुझे शक हुआ कि कहीं कोई और बात तो नहीं। मैं दुबारा पूछा-क्या ? दोनों ने एक साथ कहा- आपको कुछ नहीं कह रहे हैं। मजबूरन भइया को दो भारी बैग पकड़ाकर वापस उतरना पड़ा। नीचे आकर पता नहीं मेरा क्या मन हुआ। जबसे मैंने पुलिसवाले को पैसे लेकर टिकट देते देखा था, तभी से मन में खटका हो रहा था। मैं नीचे उतरकर जेनरल टिकट काउंटर की लाइन में लग गया। भयानक भीड़ थी। सभी लाइनों में एक-दो पुलिसवाले दिख गए। तभी मेरे आगे खड़े एक पुलिसवाले ने पीछे मुड़कर देखा। ये वही पुलिसवाला था जो जिसे कि मैंने टिकट बेचते देखा था। मुझे देखते ही लाइन से बाहर हो गया और उल्टे मुझे ही कहने लगा-लाइन में रहिए और फिर दो-तीन बार यही बात दोहरायी। सभी लोग पहले से ही लाइन में लगे थे, उसे बोलने की कोई जरुरत नहीं थी। थोड़ी देर बाद मैं वापस आ गया। मेरे दिमाग में ये सवाल अब भी बना हुआ है कि अगर ये पुलिसवाला ऑनड्यूटी था तो फिर टिकट क्यों कटा रहा था। औऱ अगर इसे कहीं जाना था तो फिर टिकट बेचकर, फिर से लाइन में क्यों खड़ा हो गया। सभी लाइनों पर एक-दो एक दो पुलिसवाले खड़े थे और टिकट खरीद रहे थे। कहीं ऑनड्यूटी पुलिसवाले की कमाई का जरिया जेनरल टिकट तो नहीं जिसे कि वो पीछ जाकर ज्यादा दामों पर बेचते हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-91 Size: 7819 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080525/86acf247/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Tue May 27 08:29:52 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 27 May 2008 08:29:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KS2LCDgpK/gpLbgpLXgpILgpKQg4KSP4KSVIOCkheCkn+Clhw==?= =?utf-8?b?4KSC4KS24KSoIOCkj+CksuCkv+CkruClh+CkguCknw==?= Message-ID: <829019b0805261959n14353b8au109175279ca40a3f@mail.gmail.com> *ब्लॉग की दुनिया में इन दिनों भयानक मार-काट मची हुई है. जिनको माद्दा है वो तो यही पटखनी देने लग जाते हैं और कुछ लोग घर में घसकर मारेंगे, जाओगे कहां वाले मूड़ में नजर आते हैं। गाली और लांछन के बिना लगता है हिन्दी ब्लॉगिंग का सौन्दर्यशास्त्र गढ़ा ही नहीं जा सकता. इसके बीच नाक पर रुमाल रखकर और वैष्णव बननेवालों की कमी नहीं है. कुछ लोग इसे इगो का मामला बता रहे हैं और कुछ को लग रहा है कि पुरानी खुन्नस निकालने का अच्छा नजरिया और माध्यम मिल गया है.* ** *मैंने इसे न्यूज चैनलों की मानसिकता और ब्लॉगर की मानसिकता से एक-दूसरे से जोड़कर देखने की कोशिश की है, कुछ आप भी राय दीजिए, राय बनाइए। फिलहाल अखाड़े के दो मुगदर मैंदान में हैं और उनके पीछे-पीछे कुछ लोग तुरही बजाते दिख जा रहे हैं। आप इसमें हमें भी शामिल कर सकते हैं, अगर जरुरत है तो....* ** ** *अविनाश, यशवंत एक अटेंशन एलिमेंट* मेरे एक ब्लॉगर साथी ने कहा कि अविनाश और यशवंत पर कोई भी लिख दे, उसकी पोस्ट हिट हो जाएगी और उसके ब्लॉग को लोग जानने लगेंगे। तो क्या एक तरीका ये है कि जितने भी नौसिखुए ब्लॉगर हैं जिनकी पोस्ट इस अंतर्जाल में खो जाती है, वो लोगों को अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए अविनाश, मोहल्ला, भड़ास और यशवंत के उपर लिखें। हो सकता है हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में यह बात एक फार्मूले की तरह काम आए। वैसे भी इस भीड़-भाड़ वाले इलाके में लोगों की समझ यही बनती है कि जितनी उंची हांक लगाओगे, ग्राहक उतने अधिक आएंगे। ये अलग बात है कि बाद में तुम्हारा माल देखकर बिदक जाएं। लेकिन एक बार अटेंशन तो बनेगा ही। यानि अब तक साहित्य या मीडिया में हम जिस प्रभाव की बात करते रहे हैं वो अब एटेंशन में शिफ्ट हो गया है।चैनल भी ऐसा ही कुछ करते हैं। हो न हो ब्लॉगर की मानसिकता भी इसी को देखकर बनी है। जरुरी नहीं कि सबकी, बहुत थोड़े की ही, लेकिन बनी तो सही है जिसमें मैं भी शामिल हूं। आप सबको याद होगा कि इंडिया टीवी ने इंडस्ट्री में इन्ट्री कैसे मारी थी। वो भी लोगों पर एकदम से अपना प्रभाव बनाने की फिराक में नहीं थी। वो सिर्फ इतना चाहती थी कि एक बार लोग उनकी तरफ एटेंशन लें।॥और फिर देखिए की लोगों के जेहन में एक नाम बस गया कि इंडिया टीवी बोलकर भी कोई चैनल है। आप उसकी खबरों की गुणवत्ता और कंटेंट पर मत जाइए। लेकिन इतना तो आप भी समझते हैं कि जब भी बात की जाती है कि- अजी अब तो खबरों के नाम पर सांप-संपेरे, भूत-प्रेत और सेक्स दिखाए जाते हैं तो किस चैनल पर अटेंशन बनाकर बात की जाती है। आप देखिए कि कैसे उसने बातों ही बातों में खबर के लिए मुहावरा ही बदल दिया और हम इस्तेमाल करने लग गए। अच्छा- खराब छोड़ दीजिए, लेकिन इस चैनल ने अपना एक अटेंशन तो बनाया ही है लोगों के बीच में। आज वो टीआरपी के खेल में शामिल हैं, तमाम फूहड़पन के बाद भी तो आप कह सकते हैं कि उसने अपना प्रभाव जमा लिया है। चैनल भी इस बात को समझने लगी है कि अब जो ऑडिएंस की पीढ़ी तैयार हो रही है उसमें फ्लोटेड ऑडिएंस की संख्या ज्यादा है। आप कह सकते हैं कि ऑडिएंस अब रिलॉयवल नहीं रह गए हैं। जहां आपने इधर-उधर किया या फिर आपने नहीं तो किसी और चैनल ने बेहतर तरीके से इधर-उधर कर दिया तो ऑडिएंस आपके चैनल से तुरंत कूदकर कहीं और चली जाएगी। अब ऑडिएंस की वो पीढ़ी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है जो कि सालों से एक ही चैनल पर अपनी पसंद बनाए हुए है। ऐसे में चैनल प्रभाव से ज्यादा अटेंशन पर काम करता है। प्रभाव जिसका कि असर लम्बे समय तक होता है और इसके बदौलत चैनल लंबी पारी खेल सकता है, जबकि अटेंशन का संबंध तात्कालिकता से है। जिस भी चैनल ने अपने यहां तात्कालिता को डाला, ऑडिएंस तुरंत वहां शिफ्ट हो जाएगी। चैनलों के लिए तात्कालिता एक जरुरी और निर्णायक एलीमेंट है।इसलिए आप देखेंगे कि चैनल प्रभाव से ज्यादा एटेंशन पर काम करते हैं। रोज के अटेंशन के लिए रोज अटेंशन एलिमेंट खोजने होंगे। इसलिए खबरों के नाम पर आपको जो कुछ भी हमें नसीब होता है वो स्वाभाविक ही है। प्रभाव, जिसके लिए होमवर्क करने होते हैं, खबरों के प्रति संजीदा होना होता है, एक-एक खबर पर रिसर्च करना होता है, इनपुट्स डालने होते हैं। अच्छी-खासी मेहनत तरनी पड़ती है। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी चैनल दूसरे किस्म की मेहनत के अभ्यस्त हो चले हैं। वो एक पैकेज बनाने के लिए फिल्मों की पचास सीडी देख जाएंगे, एफेक्ट्स डालने के लिए कलर, टोन और पूरी म्यूजिक गैलरी घूम आएंगे। मोन्टाज के लिए पूरी शिफ्ट लगा देंगे। ऐसा नहीं है कि चैनल्स मेहनत कम करते हैं, बल्कि पहले से कई गुना ज्यादा करते हैं। नहीं तो खबरों में इतनी रोचकता कहां से आने पाती। लेकिन वो एसेंस आपको नहीं मिलेंगे जिसके अभाव में आप निराश होते हैं। तो आप कह सकते हैं कि चैनल अटेंशन के लिए काम करते हैं, प्रभाव के लिए नहीं, और फिर स्थायी प्रभाव के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। यहां एक झलक आप देख लीजिए हमें की होड़ है, बस दस सेकेंड। तकनीकी चकमक के साथ-साथ अटेंशन का एक तरीका और भी है। कंटेंट के स्तर पर क्रिकेट, सेक्स, भूत-प्रेत, धर्म और स्टंट तो है ही। ये सारी ऐसी चीजें हैं जिसके लिए कोई हिन्दी चैनल कुछ भी न करे, सिर्फ अंग्रेजी चैनलों से मटीरियल लेकर हिन्दी में अनुवाद भर कर दे तो भी ठीक-ठीक ऑडिएंस जुटा लेगी। और ये हो भी रहा है। ये फिक्स एलीमेंट हैं। जो भी इसे चलाएगा, उस पर लोगों का अटेंशन तो बनेगा ही। बहुत नहीं भी तो और खबरों से ज्यादा ही। जैसे इमैजिन ने यह सोचकर रामायण चलाया कि चाहे कितना भी सामाजिक बदलाव आ जाए, हमेशा एक पीढ़ी रहेगी जो कि रामायण देखेगी ही, कुछ वैसा ही। इस चक्कर में आप देखेंगे कि जिन सैंकड़ों चैनलों के होने के होने पर सैंकड़ों अलग-अलग मुद्दे और खबरें होनी चाहिए, वो सबके सब फिक्स एलीमेंट की तरफ चले गए हैं। क्रिकेट की खबर है तो सब पर वही, क्राइम है तो सब पर वही। थोड़ा बहुत ट्रीटमेंट बदलता है जिसे कि आप अटेंशन एलीमेंट के तौर पर समझते हैं। तो क्या अविनाश, यशवंत, मोहल्ला और भड़ास चैनल के फिक्स एलीमेंट की तरह हो गए है। क्या ये चैनलों की तरह क्रिकेट, क्राइम और सेक्स एलीमेंट की तरह हैं। इन पर बात करने का मतलब है अपने ब्लॉग को लेकर अटेंशन की मानसिकता में शामिल हो जाना। इन पर कोई भी लिख दे और कैसे भी लिख दे, गलत स्पेलिंग के साथ, अशुद्ध वाक्य के साथ, कमजोर फैक्ट्स के साथ रीडर्स सुधारकर अपनी सुविधानुसार पढ़ लेगी। तो क्या फिर हिन्दी ब्ल़ॉगिंग भी हिन्दी चैनलों की राह पर चल निकला है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-79885 Size: 14177 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080527/55f3dd10/attachment-0001.bin From raviratlami at gmail.com Tue May 27 11:45:55 2008 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Tue, 27 May 2008 13:15:55 +0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?firefox_hindi_spel?= =?utf-8?q?l_checker?= In-Reply-To: References: <200805241442.05668.ravikant@sarai.net> Message-ID: <483BA71B.9000305@gmail.com> रविकांत जी, > > > 1. अपनी मशीन में ख़ुद हमारे द्वारा घुसाए गए शब्दों को हम आमजन के इस्तेमाल के लायक़ > कैसे बना > सकते हैं? > खुद हमारे द्वारा घुसाए गए शब्दों को आम जन के लायक बनाने के लिए कुछ उपाय करना होगा. > 2. एक बार वर्तनी जाँचक को लग जाए कि शब्द सही है तो वह कोष में जोड़ने का विकल्प > नहीं देता. > मेरे ख़याल से कभी-कभी वह ग़लत हो सकता है, और उसे हमारे सुझावों को हर हाल में > समाहित करना > चाहिए. इसके लिए क्या उपाय किया जाए? > एक बार वर्तनी जांचक को लगे कि शब्द सही है, तो आप उस शब्द को दायाँ क्लिक कर Add to Dictionary विकल्प चुन सकते हैं. इससे दुबारा वही शब्द आने पर सही वर्तनी बताएगा. स्क्रीनशॉट संलग्न है. रवि -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: firefox hindi spellchecker plugin 1.JPG Type: image/jpeg Size: 21060 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080527/55ca5a4c/attachment-0001.jpe From ravikant at sarai.net Tue May 27 18:44:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 27 May 2008 18:44:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= mahesh bhatt on English in Hindi cinema Message-ID: <200805271844.26394.ravikant@sarai.net> shayad kuchh logon ko is khabar mein dilchaspi ho. http://hindimedia.in se sabhar cheers ravikant फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास हैं और अलग-अलग मंचों पर उनके व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप भी सामने आते हैं, और कई बार तो वे एक मंच से कही गई अपनी एक बात का दूसरे मंच पर खंडन करते नजर आते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस बात को मानना पडे़गा कि जो भी कहते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर लेते हैं। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादेमी द्वारा मुंबई में भारतीय भाषाओं के भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में महेश भट्ट भी आए थे और कार्यक्रम के सूत्रधा र जाने माने पत्रकार और चिंतक और हिन्दी के प्रति समर्पित श्री राहुल देव ने महेश भट्ट से जब कहा कि वे हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों द्वारा हिन्दी फिल्मों की रोटी खाने के बावजूद हर जगह अपनी बात अंग्रेजी में कहने को लेकर कुछ कहें, तो इस पर महेश भट्ट ने जो कुछ कहा वह चौंकाने वाला था। और यह भी मानना पड़ेगा कि फिल्म उद्योग में ऐसी बात कहने की गुस्ताखी महेश भट्ट जैसी व्यक्ति ही कर सकता है। महेश भट्ट ने कहा कि ग्लोबलाईज़ेशन के इस दौर में इस बात को समझना जरुरी है कि हम गुलाम बनने की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जो हमारे अंदर अपनी माँ को भी गिरवी रखने का सोच पैदा करती है। उन्होंने कहा कि हमारा सिनेमा जड़हीन होता जा रहा है, इसकी कोई जड़ें नहीं है, और न कोई गहराई है। उन्होंने कहा कि फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा न्यूयॉर्क टाईम्स में अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से मिलता है। आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज फिल्म उद्योग में हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा कि इस अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से देश आईसलैंड ने माईक्रोसॉप्ट जैसी कंपनी के कंप्यूटर ऑप्रेटिंग सिस्टम को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह उनकी भाषा में नहीं था और माईक्रोसॉफ्ट को कुछ ही महीनों में उस देश के लिए उनकी भाषा में ऑप्रेटिंग सिस्टम बनाना पड़ा। हमारे देश भारत में आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कामकाज की सुविधा क्यों नहीं मिल पाई। महेश भट्ट ने कहा कि हिंदी फिल्मों के जिन सितारों की निगाहें लास एंजिलिस लगी रहती हैं वे हिंदी कैसे बोल सकते हैं? प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट ने कहा कि आज की स्थिति बहुत ही खतरनाक है। हर काम अंग्रेज़ी में हो रहा है। हम अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। लेकिन भाषा की सांस्कृतिक गहराई को नहीं समझ पा रहे हैं। भाषा हमारी माँ है और प्रगति के लिए आज हमें अपनी माँ को ही गिरवी रखना पड़ रहा है। चीन ने अगर अपनी भाषा में तरक्की की है और आइसलैंड जैसे देश ने अपनी भाषा के लिए माइक्रोसाफ्ट के अंगरेज़ी साफ्टवेयर को खरीदने से मना कर दिया तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करनी चाहिये, क्योंकि यह हमारी अस्मिता, हमारे वजूद से जुड़ा सवाल है। श्री राहुल देव के आग्रह पर श्री भट्ट ने कहा कि वे इस सम्मेलन में मौजूद सभी विद्वानों और विचा रकों की बात फिल्मी दुनिया के सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों तक पहुँचाएंगे। From alok at aadyakshar.co.in Tue May 27 19:22:03 2008 From: alok at aadyakshar.co.in (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Tue, 27 May 2008 19:22:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?mahesh_bhatt_on_En?= =?utf-8?q?glish_in_Hindi_cinema?= In-Reply-To: <4ae46ffe0805270649u41bce692g1625588a6c0964fe@mail.gmail.com> References: <200805271844.26394.ravikant@sarai.net> <4ae46ffe0805270649u41bce692g1625588a6c0964fe@mail.gmail.com> Message-ID: <4ae46ffe0805270652q1295ebbei6ab60a8779cb6157@mail.gmail.com> बस एक सवाल - महेश भट्ट ने यह भाषण कौन सी भाषा में दिया था? आइस्लैंड वाला वाकया काफ़ी आँख खोलू है, किसी और सन्दर्भ में भी इसकी चर्चा पढ़ी थी। फ़िन्लैण्ड और कोरिया में भी यही स्थिति है। > > २००८ मई २७ १८:४४ को, Ravikant ने लिखा: >> >> shayad kuchh logon ko is khabar mein dilchaspi ho. >> >> http://hindimedia.in se sabhar >> >> cheers >> ravikant >> >> फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास हैं और अलग-अलग मंचों पर उनके >> व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप भी सामने आते हैं, और कई बार तो वे एक मंच से कही गई अपनी एक बात >> का दूसरे मंच पर खंडन करते नजर आते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस बात को मानना पडे़गा कि जो भी >> कहते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर लेते हैं। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादेमी द्वारा मुंबई >> में भारतीय भाषाओं के भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में महेश भट्ट भी आए थे और कार्यक्रम के सूत्रधा >> र जाने माने पत्रकार और चिंतक और हिन्दी के प्रति समर्पित श्री राहुल देव ने महेश भट्ट से जब >> कहा कि वे हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों द्वारा हिन्दी फिल्मों की रोटी खाने के बावजूद हर >> जगह अपनी बात अंग्रेजी में कहने को लेकर कुछ कहें, तो इस पर महेश भट्ट ने जो कुछ कहा वह चौंकाने >> वाला था। और यह भी मानना पड़ेगा कि फिल्म उद्योग में ऐसी बात कहने की गुस्ताखी महेश >> भट्ट जैसी व्यक्ति ही कर सकता है। >> >> महेश भट्ट ने कहा कि ग्लोबलाईज़ेशन के इस दौर में इस बात को समझना जरुरी है कि हम गुलाम बनने >> की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जो हमारे अंदर अपनी माँ को भी गिरवी रखने का सोच पैदा >> करती है। उन्होंने कहा कि हमारा सिनेमा जड़हीन होता जा रहा है, इसकी कोई जड़ें नहीं है, और न >> कोई गहराई है। उन्होंने कहा कि फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा न्यूयॉर्क टाईम्स में >> अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से मिलता है। >> आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज फिल्म उद्योग में >> हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा कि इस >> अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है। >> >> >> उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से देश आईसलैंड ने माईक्रोसॉप्ट जैसी कंपनी के कंप्यूटर >> ऑप्रेटिंग सिस्टम को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह उनकी भाषा में नहीं था और माईक्रोसॉफ्ट >> को कुछ ही महीनों में उस देश के लिए उनकी भाषा में ऑप्रेटिंग सिस्टम बनाना पड़ा। हमारे देश भारत >> में आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कामकाज की सुविधा क्यों >> नहीं मिल पाई। महेश भट्ट ने कहा कि हिंदी फिल्मों के जिन सितारों की निगाहें लास एंजिलिस लगी >> रहती हैं वे हिंदी कैसे बोल सकते हैं? प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट ने कहा कि आज की >> स्थिति बहुत ही खतरनाक है। हर काम अंग्रेज़ी में हो रहा है। हम अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करते >> हैं। लेकिन भाषा की सांस्कृतिक गहराई को नहीं समझ पा रहे हैं। भाषा हमारी माँ है और प्रगति के >> लिए आज हमें अपनी माँ को ही गिरवी रखना पड़ रहा है। चीन ने अगर अपनी भाषा में तरक्की की है >> और आइसलैंड जैसे देश ने अपनी भाषा के लिए माइक्रोसाफ्ट के अंगरेज़ी साफ्टवेयर को खरीदने से मना कर >> दिया तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करनी चाहिये, >> क्योंकि यह हमारी अस्मिता, हमारे वजूद से जुड़ा सवाल है। >> >> श्री राहुल देव के आग्रह पर श्री भट्ट ने कहा कि वे इस सम्मेलन में मौजूद सभी विद्वानों और विचा >> रकों की बात फिल्मी दुनिया के सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों तक पहुँचाएंगे। >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > -- > Can't see Hindi? http://devanaagarii.net -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From alok at devanaagarii.net Tue May 27 19:19:00 2008 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Tue, 27 May 2008 19:19:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?mahesh_bhatt_on_En?= =?utf-8?q?glish_in_Hindi_cinema?= In-Reply-To: <200805271844.26394.ravikant@sarai.net> References: <200805271844.26394.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4ae46ffe0805270649u41bce692g1625588a6c0964fe@mail.gmail.com> बस एक सवाल - महेश भट्ट ने यह भाषण कौन सी भाषा में दिया था?आइस्लैंड वाला वाकया काफ़ी आँख खोलू है, किसी और सन्दर्भ में भी इसकी चर्चा पढ़ी थी। फ़िन्लैण्ड और कोरिया में भी यही स्थिति है। २००८ मई २७ १८:४४ को, Ravikant ने लिखा: > > shayad kuchh logon ko is khabar mein dilchaspi ho. > > http://hindimedia.in se sabhar > > cheers > ravikant > > फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास हैं और > अलग-अलग मंचों पर उनके > व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप भी सामने आते हैं, और कई बार तो वे एक मंच से कही > गई अपनी एक बात > का दूसरे मंच पर खंडन करते नजर आते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस बात को मानना > पडे़गा कि जो भी > कहते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर लेते हैं। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी > अकादेमी द्वारा मुंबई > में भारतीय भाषाओं के भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में महेश भट्ट भी आए थे और > कार्यक्रम के सूत्रधा > र जाने माने पत्रकार और चिंतक और हिन्दी के प्रति समर्पित श्री राहुल देव ने > महेश भट्ट से जब > कहा कि वे हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों द्वारा हिन्दी फिल्मों की रोटी खाने > के बावजूद हर > जगह अपनी बात अंग्रेजी में कहने को लेकर कुछ कहें, तो इस पर महेश भट्ट ने जो > कुछ कहा वह चौंकाने > वाला था। और यह भी मानना पड़ेगा कि फिल्म उद्योग में ऐसी बात कहने की गुस्ताखी > महेश > भट्ट जैसी व्यक्ति ही कर सकता है। > > महेश भट्ट ने कहा कि ग्लोबलाईज़ेशन के इस दौर में इस बात को समझना जरुरी है > कि हम गुलाम बनने > की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जो हमारे अंदर अपनी माँ को भी गिरवी रखने > का सोच पैदा > करती है। उन्होंने कहा कि हमारा सिनेमा जड़हीन होता जा रहा है, इसकी कोई जड़ें > नहीं है, और न > कोई गहराई है। उन्होंने कहा कि फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा > न्यूयॉर्क टाईम्स में > अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से > मिलता है। > आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज > फिल्म उद्योग में > हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा > कि इस > अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है। > > > उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से देश आईसलैंड ने माईक्रोसॉप्ट > जैसी कंपनी के कंप्यूटर > ऑप्रेटिंग सिस्टम को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह उनकी भाषा में नहीं था और > माईक्रोसॉफ्ट > को कुछ ही महीनों में उस देश के लिए उनकी भाषा में ऑप्रेटिंग सिस्टम बनाना > पड़ा। हमारे देश भारत > में आज तक किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कामकाज > की सुविधा क्यों > नहीं मिल पाई। महेश भट्ट ने कहा कि हिंदी फिल्मों के जिन सितारों की निगाहें > लास एंजिलिस लगी > रहती हैं वे हिंदी कैसे बोल सकते हैं? प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश > भट्ट ने कहा कि आज की > स्थिति बहुत ही खतरनाक है। हर काम अंग्रेज़ी में हो रहा है। हम अंग्रेज़ी > बोलने में गर्व महसूस करते > हैं। लेकिन भाषा की सांस्कृतिक गहराई को नहीं समझ पा रहे हैं। भाषा हमारी माँ > है और प्रगति के > लिए आज हमें अपनी माँ को ही गिरवी रखना पड़ रहा है। चीन ने अगर अपनी भाषा में > तरक्की की है > और आइसलैंड जैसे देश ने अपनी भाषा के लिए माइक्रोसाफ्ट के अंगरेज़ी साफ्टवेयर > को खरीदने से मना कर > दिया तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें अपनी भाषा की रक्षा हर कीमत पर करनी > चाहिये, > क्योंकि यह हमारी अस्मिता, हमारे वजूद से जुड़ा सवाल है। > > श्री राहुल देव के आग्रह पर श्री भट्ट ने कहा कि वे इस सम्मेलन में मौजूद सभी > विद्वानों और विचा > रकों की बात फिल्मी दुनिया के सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों तक > पहुँचाएंगे। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080527/99cec0c2/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu May 29 20:12:49 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 29 May 2008 20:12:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KS+IOCkueCliCDgpIXgpLXgpL/gpKjgpL7gpLYt4KSv4KS2?= =?utf-8?b?4KS14KSC4KSkIOCkleCkviDgpIXgpJ/gpYfgpILgpLbgpKgg4KSP4KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSu4KWH4KSC4KSf?= Message-ID: <829019b0805290742m52f8d86i2c5407cdbc7fabef@mail.gmail.com> कल जब एक प्रोफेसर ने हमसे सवाल किया कि- क्या सचमुच में अविनाश और यशवंत इतने बड़े फिगर हैं कि आपलोग दुनियाभर के मुद्दों को छोड़कर उनके पीछे हो लेते हैं, तो एकबारगी तो हमें भी लगा कि क्या ये दोनों चैनलों के लिए क्रिकेट, सेक्स और सिनेमा की तरह ही अटेंशन एलिमेंट हैं।..और हम जैसे लोग पीछे-पीछे तुरही बजाते हुए इनपर पैकेज बनाना शुरु कर देते हैं या फिर ब्लॉग में इसेक अलावे भी कुछ है जो हमारे प्रैक्टिस में है और जिसके बारे में मेरी पिछली पोस्ट पर टिप्पणियां आयीं कि आप अपने हिसाब से लिखते जाइए, पाठक वर्ग तैयार कीजिए, हम तो चैनलों से भी दूर हैं और अविनाश और यशवंत के पचड़ों से भी। प्रोफेसर साहब ने बड़े ही हल्के किन्तु रोचक ढंग से हमारे सामने एक सवाल रख दिया कि- हो सकता है ये दोनों लोग आपलोगों के हिसाब से बड़े फिगर हों भी तो आप उन कुछ घटनाओं और पोस्टों की तरफ क्यों नहीं जाते, उन्हें क्यों नहीं खोजते, जिसकी वजह से आप ऐसा महसूस करते हैं या फिर उनका नाम आते ही आपलोग उनके पीछे हो लेते हैं। अगर ऐतिहासिकता और पुरानेपन के लिहाज से बात करें तो एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इन दोनों के साथ ये तथ्य काम नहीं करता कि ये सबसे पुराने हैं और इसलिए लोगों का ध्यान इनके उपर चला जाता है। इनसे पुराने,सम्मानित और कई दूसरे ब्लॉगर हैं जो कि लगातार लिखते आ रहे हैं। इसलिए इस पर तो आकर बात बनती ही नहीं है। फिर अटेंशन एलिमेंट क्या है? यशवंत की भाषा, जिसे कि भाषाई उपद्रवता भी आप कह सकते हैं क्योंकि उनकी पोस्ट को पढ़ते हुए आपको एक अलग किस्म का एहसास होगा कि- अच्छा है बंदा लिखकर ही अपनी बात कह रहा है, नहीं तो साक्षात होता तो मामला लप्पड़-थप्पड़ और कॉलर पकड़-पकड़ी तक आ जाती। वैसे भी गाली-गलौज के बाद का स्वाभाविक विकासक्रम यही है। इसके साथ ही लोगों की कमीज उतारने की बेचैनी और मनोहरश्याम जोशी के पात्र की तरह सू-सू करते हुए धार पर होड़ लगाने की प्रतियोगिता कि- किसकी धार कितनी देर तक और लम्बी जाती है, एक अटेंशन बनाती है। जो बंदा ब्लॉग और पत्रकारिता की दुनिया में कच्चा-कच्चा है, एक घड़ी के लिए मोहित हो जाता है कि इसे कहते है हिम्मत और लिखते हुए कुछ कर गुजरने की ताकत। यशवंत के साथ-साथ ब्लॉग के बाकी साथियों की मानसिकता भी इसी किस्म की रही और भड़ास अटेंशन बनाए रखा। या यों भी कह लें कि इसी किस्म की मानसिकता के लोग यशवंत के साथ हुए और अटेंशन बनाए रखा. इसके अलावा मीडिया जगत में हुए हलचलों के लिए यहां एक अलग से स्पेस रहा और लोगों का ध्यान इसकी ओर गया। बड़ी खबर और ब्रकिंग न्यूज के नाम पर जो चैनलों में बासीपन आ गया है, इसे पढ़ते हुए हुए थोड़ी देर के लिए तो राहत जरुर मिल जाती कि नहीं कुछ ताजा माल भी तैयार हो रहा है। और इससे भी मजे कि बात कि मीडिया, खबरों के नाम पर जिस तरह से चटखारे लेती है, पहली बार भड़ास और यशवंत ने खबर बनानेवालों की स्थितियों पर चटखारे लेने लगे। तबादले की भाषा आप देखिए, आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये सिर्फ खबर भर नहीं है, पूरा का पूरा मजे का मसाला है।.. तो क्या ये कहा जा सकता है कि यशवंत और भड़ास के ये अटेंशन एलिमेंट रहे और मन हल्का करने के चक्कर में सबकुछ जिसे देखकर आज चोखेरबालियों सहित कईयों को एक सड़न का एहसास हो रहा है, हमारे सामने पसरता गया। इधर अविनाश के साथ कौन-सा अटेंशन एलिमेंट काम कर रहा है? एक बार दिल्ली से बहुत दूर के ब्लॉगर साथी दिल्ली आए तो हमसे भी मिलने चले आए। वो अविनाश के नाम पर पहले से ही बहुत खीजे हुए थे, हमसे मिलने के बाद जो उन्होंने अपनी बात रखी, उससे और भी साफ हो गया कि वो उनसे किताना खुन्नस खाए बैठे हैं। उन दिनों मैं मोहल्ला पर लिखनेवालों की टीम से अपना नाम हटाए जाने पर अविनाश भाई बोल-बोलकर लगातार पोस्ट लिख रहा था और उनको एक सही ब्लॉगर मिल गया था जिससे अपने मन की बात कही जा सकती थी। ब्लॉग की दुनिया में आने पर मेरे साथ एक बेहतर स्थिति रही है कि मैं यहां संबंधों की गठरी और ऐतिहासिकता का बोझ लेकर यहां नहीं आया. अगर मैं इस बात का दावा करुं कि ब्लॉग लिखने के पहले मैं एक भी व्यक्ति को पहले से पर्सनली नहीं जानता था तो शायद बात झूठी नहीं होगी। कुछ के नाम पहले से सुन रखे थे लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मिलना ब्लॉग लिखने के बाद ही हुआ। खैर, इस बातचीत में साथी ने जो बात कही,उससे लग रहा था किवो अविनाश और मोहल्ला के अटेंशन एलिमेंट की बात कर रहे हैं। उनका कहना था कि- अविनाश जब मोहल्ला लेकर आए तो काम्युनिस्टों की पूरी टीम लेकर आए। बातचीत से लग रहा था कि शायद वो इसलिए भी अविनाश के विरोधी हैं। उसके बाद तो पूछिए मत। मैंने पूछा भी नहीं। काम्युनिस्टों को लेकर आए मतलब क्या, वो गरीब किसान, मजदूर और समाज के दूसरे शोषितों की बात करने लग गए। कला और विचारधारा के नाम पर एक खास तरह के ग्लोबल पैटर्न को फॉलो करने लग गए। यानि शुरुआती दौर में ब्ल़ॉग पर जो लोग लिख रहे थे कि किसके घर में किस दाल की छौंक लगी है, उससे अलग होते गए। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। अगर ब्लॉग को धीरे-धीरे एक पर्सनल, वेरी-वेरी पर्सनल माध्यम बनाते जाने, जैसा कि मेरे एक टीचर ने मुझसे कहा, का मामला है तो ये आरोप अविनाश भाई पर भी उतना ही जायज ठहरता है और अगर कल को कोई इस बात पर बहस छेडे कि किस-किसने ब्लॉग को पर्सनल बनाया है तो उसमें इनका भी नाम होगा। हम तो इससे उनको बरी नहीं कर सकते। जाहिर है साथी,अविनाश भाई के संदर्भ में जिस काम्युनिस्ट होने की बात कर रहे थे उसमें कहीं से भी उसके साकारात्मक पक्ष शामिल नहीं थे। यानि काम्युनिज्म यहां थे ही नहीं। इसलिए अटेंशन का ये एलिमेंट यही खारिज हो जाता है और अभी तक काम्युनिज्म, दक्षिण पंथ या फिर कोई भी विचारधारा अटेंशन का एलिमेंट नहीं बन पायी है। चोखेरबाली को आप विचारधारा का ब्लॉग नहीं कह सकते क्योंकि वो प्रैक्टिस पर आधारित है न कि विचारधारा पर। ये अच्छा है या खराब बता नहीं सकता। लेकिन अविनाश भाई का एटेंशन एलिमेंट कॉम्युनिज्म नहीं हैं, ये तो साफ है।.. तो फिर क्या है अविनाश और मोहल्ला का अटेंशन एलिमेंट, पढ़िए हमारी अगली पोस्ट में। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080529/3b1d82f2/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Thu May 29 20:47:05 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 29 May 2008 20:47:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJfgpYs=?= =?utf-8?b?4KSw4KSW4KSq4KWB4KSwICwg4KSu4KWH4KSw4KWHIOCkreCkvuCkiCAh?= Message-ID: <200805292047.05967.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: गोरखपुर , मेरे भाई ! Date: गुरुवार 29 मई 2008 18:16 From: "mahinder pal" To: " ek artikle jo vaise to tukde mein jansatta mein chhap chuka hai magar doston ke comment aur padhne k liye mahinder गोरखपुर मेरे भाई निरंतर जागती और अथक भागती महानगरीय जिंदगी में सुकून के क्षण प्रायः कल्पना का हिस्सा होते रहे हैं . रोज़मर्रा की ज़रूरतें और चिंताएं इंसान को दिन में ही नही दौडातीं बल्कि दुह्स्वप्न की तरह रातों में भी उसका पीछा करती हैं . आदमी लुढ़कता -पुधकता पछाड़ खाता चलता रहता है .बहुतों की इच्छाओं - संवेदनाओं को कहीं पे कुचलता है तो कइयों को अपनी मुहैया कराता है . आधुनिक दुनिया की चकाचौंध उसको इतना सा अँधेरा भी मयस्सर नही कराती कि जिसके आंचल में छुप के दो पल चैन से वो सो सके .क्योकि बंद आंखों में भी कोई न कोई ज़रूरत ,कोई दिक्कत चटक धूप सी चमक उठती है और वो बेचैन सा होकर रह जाता है .ऐसे में अतीत कि गलियां ही राहत का आँचल मुहैया कराती हैं , इंसान उस आँचल की गोद में गुज़रे पलों व पडावों के मोती बीनता है उन्हीं मोतियों की चमक से मौजूदा जिंदगी के अंधेरों को रोशन करने की कोशिश करता है दस साल की दिल्ली की इस महा नगरीय जिंदगी में मई भी प्रायः कल्पना में उत्तर प्रदेश के अपने एक छोटे शहर व उसके भीतर बसे इक शांत कस्बे को जीता रहा हूँ . हर किसी की तरह मेरे लिए भी मेरा शहर व क़स्बा ठीक उसी रूप में उभरता है जैसा कि मैं उसे छोड़ आया था . वही पेड़ों की घनी छाया से ढंकी सड़कें , हरियाली से लदे बाग़ बगीचे , मस्त चाल चलती जिंदगी की रफ्तार , मेरी कल्पना में वैसे ही उतरते थे जैसा कि मैं उन्हें छोड़ आया था पिछले एक दशक में हुई संचार क्रांति ने जिस तरह पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में किया है , उसकी नेमत से अपने उस शहर व कस्बे की धडकनों - आहटों को में भी पिछले कुछ सालों से सुनता आ रहा था दूर से सुनाई देती ये आहटें मुझे प्रायः वहाँ का निमंत्रण भेजती थी और उस दिन मैं भी निकल पड़ा उससे मिलने ,रास्ते भर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि वो मेरे सामने इंसानी शक्ल में आ बैठा है . हस्त-पुष्ट बाजुओं जैसे उसके विस्तार , मजबूती से टिके बाजारों- इमारतों जैसे पाँव , हरियाली से लदे बाग़ बगीचों जैसा सीना व कहकहों , मस्त चाल से चमकता चेहरा व आंखें . पूरे रास्ते वह इसी रूप में मेरे समक्ष उपस्थित रहा . मगर जैसे ही दूसरे दिन ,सुबह की शफ्फाक धूप में मैंने उसमें प्रवेश किया तो मेरी कल्पना एक परकटे पंछी की तरह आ ज़मीन पे गिरी और पूछ बैठा अपनी उस शहराक्रति से कि क्या हो गया है तुमको ? इस तरह दिख रहे हो मानो किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो ! चेहरे पे तकलीफ की झुर्रियों के निशान गहराई से चस्पां हैं और जिन्होंने न सिर्फ़ तुम्हारे शरीर को बल्कि तुम्हारी मनः स्थिति को भी हिलाकर रख दिया है मैं जब तुमसे मिलने के ख्याल से घर से चला तो तुम्हारी खूबसूरत स्मृतियाँ एक चलचित्र से उभरते आ रहे थे , तमाम किस्सों के अनगिनत लम्हे यकायक ताजी हवा का अहसास कर रहे थे . तुम्हारी गलियों की खिड़की - दरवाजों से आती फटकारों -आशीर्वादों की सदाएं मुझे अभी भी भीतर तक भिगोती सी महसूस होती हैं तुम्हारी राहें आज भी राहत की खुशबु बिखेरती सी लगती हैं . किस्सों कहकहों से लदे स्मृतिवृक्ष आज भी मेरी कल्पना का हिस्सा हैं और वे अभी तक मेरी तमाम किस्सगोइयों के फल- फूलों से लदे रहे हैं . तुम्हारे करीब आकर तुम्हारा स्पर्श पाकर मेरे भीतर एक पथरीला सन्नाटा सा पसर गया . हरियाली के स्मृतिवृक्ष यकायक पतझड़ के उजड़े पेड़ बन गए . तुम मुझे उस व्यक्ति से दिखे जिसे कोई गंभीर बीमारी हो गई है और जिसने उसकी सारी मुस्कराहट , सारी रौनक छीन ली है . वह एक बंजर या अस्थियों का एक ढांचा मात्र रह गया है तुम्हारे उजाड़ चेहरे ने मुझे भीतर तक उदास कर दिया है . तुम्हारी रातों का चाँद उदासी के जालों में उलझा दिखाई दिया है . हरियाली के तुम्हारे स्तम्भ जाने कहाँ चले गए ?और जो कहीं कुछ बचे दिखे भी तो गमज़दा से दिखे . उनके पास से गुज़रना मानो किसी मातमी धुन को कानों से छूना हो . बुरी तरह से घायल तुम्हारी राहों से जिंदगी की रफ्तार जंग खाती महसूस हुई . फटी चादर पे पैबंद से दिखते कुछ नए रंग रोगनों से तुमने ख़ुद को सजाने की कोशिश तो की है ताकि एक बारगी देखने से किसी को यह मुगालता हो जाए की चलो वक़्त की बदली हुई इस बयार ने तुम्हारे चेहरे पे भी कुछ रौनक ला दी है . आधुनिकता व वैश्वीकरण के मंजे हाथों से बने क्रीम पाउडर ने तुम्हारा रूखापन या यह कहें कि मरियल्पन छुपा दिया है लेकिन भीतर तक धंसती जा रही तुम्हारी बीमारियाँ तुम्हारे शरीर को लगातार चाटती सी दिखाई दीं . कुछ बलवर्धक दवाओं से तुम अपनी मांसपेशियों को फुला तो रहे हो मगर तुम्हारी नसों-शिराओं की रक्त- कोशिकाएं लगातार सफ़ेद पड़ती जा रही हैं और कभी ताना सा दिखता तुम्हारा शरीर लगातार आगे की ओर झुकता जा रहा है . अब तुम्हारी छत्रछाया तुम्हारे बाशिंदों को सिर्फ ऊपरी राहत दे रही है लेकिन भीतर निरंतर गहराती उनकी चिंताओं को कम नही कर पा रही है वे तुम्हारी छाँव में रहते हुए भी बेचैन से दिखते हैं उनको तुम्हारी छाँव चटक धूप में लगी पारदर्शी प्लास्टिक चादर सी लगती है जो गर्मी तो कम नही करती बल्कि बाहर की हवा को अन्दर आने से रोकती है . जिससे दम घुटने का डर पैदा होता है . और वे बेचैन से दिखते हैं , उनको तुम्हारी छाँव सुकून की जगह तनावग्रस्त अधिक बना रही है और वे इस तनाव में कहीं आत्महंता की स्थिति में , तो कहीं आपस में ही एक दूसरे को घायल करते जा रहे हैं. ऐसा लगता है कि हर कोई तुम्हारे आगोश से मुक्त होना चाहता है , तुम्हारी छत्रछाया से बाहर निकल ,खुली हवा में आना चाहता है . क्योकि तुम चाहकर भी अपेक्षित जलवायु व संसाधन मुहैया नही कर पा रहे हो , जिनकी उनको ज़रूरत है . न सिर्फ तुम्हारे पास बल्कि तुम्हारे जैसे बहुत से और भी शहर -कसबे हैं जो इसी तरह हाशिये पर खड़े हैं और समय का संत्रास झेल रहे हैं . क्योकि आधुनिक दुनिया की विकासचकरी दूर से ही तुम्हारी उर्जा को दोहन में माहिर है , वो महानगरों में बैठे - बैठे एक शातिर तमाशाई की तरह करतब दिखाकर अपना मूल्य वसूल लेती है लेकिन तुमको अपना हिस्सा नही बनाती . इसीलिए तुम्हारी उर्जा तुम्हारी छत्रछाया से निकल , बाहर के अंधड़ को झेलने के लिए भी खुद को तैयार मान रही है . यही सोचकर कि आँधियों में झेलते झेलते उड़ने की नयी ताकत हासिल होगी , पंखों को नयी मजबूती मिलेगी . क्योकि तुम्हारी छत्रछाया उनको उड़ने के मौके ही मुहैया नही करवा पा रही है .तुम्हारे पास बहुत ही सीमित है उनके लिए आसमान. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Thu May 29 20:52:20 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 29 May 2008 20:52:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KS34KS+?= =?utf-8?b?4KST4KSCIOCkleClgCDgpLjgpL/gpJXgpYHgpZzgpKTgpYAg4KSm4KWB4KSo?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: <200805292052.21062.ravikant@sarai.net> यह लेख पिछले साल सामयिक वार्ता में छपा था. पीएनएन हिन्दी ने इसे युनिकोड में सुलभ कराया है. साभार. मैं अपनी टिप्पणी अभी बचाके रखता हूँ. महेश भट्ट वाले लेख पर कई निजी तौर पर भेजी प्रतिक्रियाएँ आईं हैं. अस्तु. प़िलहाल एक सवाल: अगर ऐसा है तो क्या हम इस हश्र के लिए अभिशप्त हैँ? रविकान्त भाषाओं की सिकुड़ती दुनिया - चंदन श्रीवास्तव http://pnnhindi-post.blogspot.com/2007/10/blog-post_4540.html मछली पानी में रहती है और मनुष्य भाषा में। मछली के जीवन की बुनियादी शर्त है - पानी। उसके पास पानी से अलग रहने का कोई विकल्प नहीं है। चाहें तो कह लें कि अस्तित्व के एक खास धरातल पर मछली और पानी दो नहीं एक हैं। मछली और पानी की पारस्परिकता का यही तकाजा है। मनुष्य के पास भी भाषा के सिवाय और कोई घर नहीं। जब से मनुष्य है तभी से भाषा भी है। आदमी रहता आया है दुनिया में मगर दुनिया को पाया उसने भाषा में। आदमी आधा अपनी स्मृतियों में होता है और आधा अपनी आकांक्षा में। स्मृतियां उसका भूत हैं और आकांक्षा उसका भविष्य। अपने होने के अर्थ को पाने के लिए आदमी चाहे जिस तरफ गति करे उसको पहला और अंतिम सहारा भाषा में मिलता है। यह सफर चा हे 'मैं' से 'हम' होने का हो या 'हम कौन थे और क्या होंगे अभी' का। इस सफर का एक-एक कदम भाषा के भीतर से होकर गुजरता है। भाषा में शब्द होते हैं, शब्द में अर्थ, अर्थ में इतिहास, इतिहास में मूल्य और मूल्यों से ही जीवन का मानचित्र रचता-रंगता है। पानी कम पड़े, सूखने लगे या गंदला होता जाय। कुछ ऐसा हो कि मछली की सांसे अटकने लगे तो फिर समझिए कि मछली की जिजीविषा के आगे अब अंधी सुरंग है और इस सुरंग के आखिरी सिरे पर है एक तयशुदा मौत। दुनिया का पानी कम पड़ रहा है : तेजाब में तब्दील हो रहा है - मछलियां सड़ और मर रही हैं। हां! भाषाएं भी कम हो रही हैं और भाषाओं के बिछौने पर लेटे मा नवता के कई-कई संस्करण या तो मिट गए हैं या मिटने के कगार पर हैं। अगर आपको यह बात किसी भयभीत और दुनिया के नाश की भविष्यवाणी में रस लेने वाले गपोड़ की मनोग्रंथि जान पड़े तो एक नजर प्रोफेसर हैरीसन और ग्रेगरी एंडरसन की बातों पर डालिए। खतरे में पड़ी भाषाओं की खोज-बीन से जुड़ी ओरेगांव की एक संस्था से संबध्द ये दो भाषा-प्रेमी (और भाषाविद् भी) संसार भर की खाक छान चुके हैं। नेशनल ज्यॉग्राफ्रिक सोसायटी की भाषा विषयक एक परियोजना के सिलसिले में इन दोनों ने दुनिया भर में घूम-घूम कर यह टटोला कि आखिर किन भाषाओं के सामने अब दुनिया की स्लेट से मिट जाने का खतरा है और खतरे की जद में आ चुकी इन भाषाओं के बोलने-चालने वाले कितने और कैसी दशा में हैं। प्रो. हैरीसन और एंडरसन का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विनाश के कगार पर हैं। पूर्वी साइबेरिया, उत्तारी आस्ट्रेलिया, मध्यवर्ती दक्षिण अमरीका और संयुक्त राज्य अमरीका के प्रशांत महासागरीय उत्तार-पश्चिमी इलाके में ऐसी सैकड़ों भाषाएं हैं जो अपनी गिनी-चुनी सांसे गिन रही हैं। पेन्सिलवेनिया स्थित वार्थमोर कॉलेज के भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेविड हैरिसन चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि भाषाओं के अस्तित्व पर विश्वव्यापी खतरा मंडरा रहा है। भाषाओं के लुप्त होने की गति वनस्पतियों और जैव प्रजातियों के लुप्त होने की गति से कहीं अधिक तेज है और 'कहीं-कहीं तो हालत इतनी बद्तर है कि किसी-किसी भाषा का सिर्फ एक जाननहारा बचा है।' इन दोनों भाषाविदों ने अपनी खोजबीन में पाया कि कुछ भाषाएं आनन-फानन में मिट गईं। इसका का रण रही प्राकृतिक आपदा जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में लिया और उस समुदाय के साथ उसकी भाषा भी काल के गाल में समा गई। बहरहाल, ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हुआ। अधिा कतर भाषाएं धीमे-धीमे अपने अंत को पहुंची - लोगों ने अपनी जबान छोड़ दी क्योंकि बदलते हुए हाला त में उन्होंने अपने जीवन को गैरभाषा और इसके बोलने वालों से घिरा पाया। हालात के दबाव में यह गैरभाषा ही उनकी भाषा बन गई। मिसाल के लिए वोलिविया का उदाहरण लिया जा सकता है। इन दो शोधकर्ताओं का कहना है कि वोलिविया में योरोप की अपेक्षा भाषाओं की संख्या दोगुनी है लेकिन भाषाओं के इस भरे-पूरे संसार को स्पेनिश का दुर्दम्य विस्तार अपनी चपेट में ले रहा है। कुछ भाषाएं इस प्रक्रिया में उतनी ही बची हैं जितने उनके बोलने वाले। अपने इतिहास और विस्तार से वंचित होती ऐसी भाषाओं में उत्तारी आस्ट्रेलिया की एक भाषा मगाटा का नाम लिया जा सकता है। इस भा षा के अब बस तीन बोलनेवाले बचे हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया की एक भाषा यावुरु के भी तीन ही ना मलेवा इस दुनिया में शेष हैं और अमुरदाग नाम की भाषा को तो अब बस एक आदमी का सहारा है। उस एक आदमी के साथ यह भाषा भी दुनिया से विदा हो जाएगी। भाषाओं के मिटने की इस तेज रफ्तार को एक संकेत मानें तो इन शोधकर्ताओं का यह आकलन चाहे डरावना जितना हो लेकिन अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ता कि इस सदी के समाप्त होते-होते दुनिया की 7 हजार भाषाओं में से आधी सदा के लि ए खत्म हो जायेंगी और उनके खात्मे के साथ इन भाषाओं में निबध्द प्राकृतिक जगत का जतन से जुगाया हुआ सारा ज्ञान भी मिट जाएगा। प्रो. हैरिसन की चिंता है कि किसी भाषा के मरने पर सिर्फ भा षा नहीं मरती, वह सब भी मरता है जिसका संकेत और संरक्षण भाषा करते आयी है। हैरिसन की मानें तो - 'हम पारिस्थितिकी तंत्र अथवा जैव-प्रजातियों के बारे में जितना कुछ जानते हैं वह सारा का सारा लिखित नहीं है। मनुष्य के मस्तिष्क में ही उनका वजूद है और भाषा के मिटने के साथ वह ज्ञान मिट जाएगा। जैव-प्रजातियों का अस्सी फीसदी विज्ञान का जाना हुआ नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मनुष्य इन जैव-प्रजातियों से अनजान है। किसी खास पारिस्थितिकी तंत्र का मनुष्य उस तंत्र के जैव-प्रजातियों को बड़े करीब से जानता है और इन प्रजातियों के गुण-धार्म का वर्गीकरण भी वह अक्सर विज्ञान की तुलना में कहीं ज्यादा बारीकी से करके बरत रहा होता है। हम दरअसल भाषाओं को मिटने से न बचाकर सदियों से संरक्षित ज्ञान और आविष्कार को मिटा रहे हैं।' बोलिविया में इन भाषाविदों की पहचान कलावाया समुदाय के लोगों से हुई। यह समुदाय ईसापूर्व के दिनों से जड़ी-बूटि यों का जानकार रहा है। रोजमर्रा के बरताव में कलावाया समुदाय क्वेचुआ भाषा का इस्तेमाल करता है लेकिन एक कूटभाषा इनकी और भी है। इस कूटभाषा में कलावाया समुदाय के लोगों ने ऐसे हजारों पौ धों और उनके औषधीय प्रयोगों का ज्ञान निबध्द कर रखा है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए अनजाने हैं। कलावाया समुदाय और उनकी भाषा की समाप्ति के साथ मानवता इस धान से भी वंचित हो जाएगी। इसी तरह माइक्रोनेशिया के बाशिंदों ने अपनी खास भाषा में नौवहन की जानकारी निबध्द की है और सदियों के जतन से सहेजी इस जानकारी का बेड़ा उस भाषा के मिटने के साथ गर्क हो जाएगा। इन शोधकर्ताओं ने विश्व के पांच ऐसे बड़े क्षेत्रों की पहचान की है जहां की भाषाओं को सबसे बड़ा खतरा है। ये वही क्षेत्र हैं जहां से लोग अब उजड़कर कहीं और जाकर बसने लगे हैं। इस उजाड़ के कारण आज की अर्थव्यवस्था में छुपे है। पिछले 500 वर्षों में टस्कन से तस्मानिया तक के भूगोल में विश्व की कुल भाषाओं में से आधी विलुप्त हो चुकी हैं। आज की तारीख में भाषाओं के विलुप्त होने की रफ्रतार कहीं ज्यादा तेज है। प्रो. हैरिसन की मानें तो आज विश्व में 500 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10 से भी कम लोग बोलते हैं। भाषाओं का मिटना खुद में कोई रोग नहीं है। वह एक लक्षण हो सकता है - किसी रुग्ण सभ्यता का। भाषाओं का मिटना समुदायों के मिटने का साक्ष्य है और समुदाय की समाप्ति सहज ही हमारे सामने एक अयाचित मगर उतना ही जरूरी यह सवाल पूछने को छोड़ जाती है कि क्या हमारी सभ्यता में ऐसा कुछ है जो अनिवार्य रूप से मनुष्य विरोधी है। From kashyapabhishek03 at gmail.com Thu May 29 20:59:38 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Thu, 29 May 2008 20:59:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= subject Message-ID: deewan dak suchi ke bare me vistar se batain. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080529/2f3f3399/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri May 30 11:18:08 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 30 May 2008 11:18:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkrOCkleCliyDgpJfgpL7gpLLgpL/gpK/gpL7gpIIsIOCkmuCkvg==?= =?utf-8?b?4KS54KWHIOCkleCkqOCkleCksuCkpOCkviDgpLngpYsg4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KWAIOCkrOCkueClgeCkj+Ckgg==?= Message-ID: <829019b0805292248q4d5116c3v5537681dc22a45ac@mail.gmail.com> तीन-चार मुलाकातों में कनकलता हमलोगों से यही कहती रही कि- मकान-मालिक, उसके दोनों बेटों और बहुओं ने जो गालियां हमें दी है, मैं आपको बता नहीं सकती। सचमुच में इन गालियों को हमारे सामने उसने नहीं रखा। इसके लिए उसने कीवर्ड खोज निकाला-अपशब्द कहे। हम अपनी तरफ से अंदाजा लगा रहे थे कि इनलोगों को वो लिंग आधारित, बाप-दादाओं को लेकर और उसकी जाति को लेकर गालियां दी होगी। संवेदनशीलता के स्तर पर यह सुनकर कि बहुत ही अश्लील शब्द कहे होंगे, इस हम समझ सकते हैं, जरुरी नहीं कि इसे एक सभ्य समाज में दोहराया जाए, हम चुप लगा जाते हैं। हम भी अंदाजा लगाकर चुप मार गए। लेकिन बात जब कानूनी मसले के तौर पर आ जाती है तो ये जानना जरुरी हो जाता है कि- ठीक-ठीक उनलोगों ने क्या गालियां दीं। अपूर्वानंद सर ने जब उसे ये बात समझायी कि जब आप कहेंगीं कि उसने मुझे बहुत गंदी-गंदी गालियां दी, बहुत ही अश्लील शब्द कहें, तो इसका सीधा अर्थ लगाया जाएगा कि आपको किसी भी तरह की गाली नहीं दी गयी। इसलिए जब मैं उससे और उसकी और उसके भाई-बहनों की बातों को सुनकर हादसानामा लिख रहा था तो उसे पहली बार वो सारी गालियां बतानी पड़ गयी। वो सारी बातें बताती जाती लेकिन जब उनलोगों द्वारा बोले गए शब्दों को बताने की बारी आती जिसे कि उद्धरण चिन्हों के भीतर लिखना होता, तब वो कहती, लाइए लिख देती हूं। फिर सबकुछ कागज पर लिख देती। टाइप करते समय भी जब मैंने कहा कि देखो, तुमने अपनी बहुत सारी बातें तो कागज पर लिख दी लेकिन मुझे देखकर टाइप करने की आदत बिल्कुल भी नहीं है। ऐसा करो, तुम धीरे-धीरे बोलती जाओ और मैं टाइप भी करता जाउंगा और जहां जरुरत हुई, एडीट भी करता जाउंगा। उस वक्त भी वो बोलती जाती और जैसे ही गालियां आती, कागज हमें पकड़ा देती। मैं गालियों को देख-देखकर टाइप करता। जितनी भी गालियां उस हादसानामा में शामिल थीं, वो संज्ञा या फिर विशेषण के रुप में प्रयोग नहीं किए गए थे। उन गालियों से एक क्रियात्मक अर्थ का बोध होता था। वो गालियां मकान-मालिक और उनके बेटों के हवशी चरित्र को बयान करते हैं। उन गालियों में इन लड़कियों से जो बदला लेने की भावना है वो मार-पीटकर नहीं है। मैं बीच-बीच में पूछता भी कि- इतनी गंदी-गंदी गालियां दी उनलोगों ने। सवाल आपके मन में भी उठ सकते हैं कि तथाकथित ये सभ्य लोग जिनमें उनका एक लड़का स्कूल टीचर भी है, ऐसी गालियां कैसे दे सकता है? कनकलता बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कहती- ये लोग लड़ाई के समय अपने बेटों और बहुओं को ऐसी ही गालियां देते हैं। औऱ वो भी बहुओं के सामने। कई बार मैं खुद अपनी कानों से सुन चुकी हूं।..तो क्या ये समझा जाए कि गालियां देते समय संबंधों को लेकर कोई एतराज नहीं होता और इस स्तर पर बहू होने के वावजूद भी लड़के की पत्नियां कनकलता से कम बड़ी दुश्मन नहीं हो जाती। ये चीजे उस पुरुष प्रैक्टिस में है इसलिए इसे आप स्त्री विशेष के बजाए स्त्री-समाज के स्तर पर देख सकते हैं। मैंने गौर किया कि जब मैं गालियां को टाइप कर रहा होता, उसका ध्यान मॉनिटर से हटकर कहीं और चला जाता, कुछ और ही सोचने लग जाती। जिन गालियों को हम रोजमर्रा की जिंदगी में अभिव्यक्ति की शैली मानकर धडल्ले से इस्तेमाल करते हैं, उससे गुजरना एक लड़की के लिए कितना असह्य हो जाता है, ये सब मुझे पहली बार एहसास हो रहा था। जब बी मेट में गीत यानि करीना कपूर को यानि एक स्त्री को जब साजिद गुस्सा निकालने और मन हल्का करने के लिए गाली बकना सीखाता है तो पहली मर्तबा उसे वैसा करने में कितना कष्ट होता है, प्रोड्यूसर ने दिखाया है। लेकिन वही गीत जब बोल्ड होकर, तेरी मां की बोलती है तो हम दर्शक ताली बजाने लग जाते हैं। हम खुश होते हैं कि देख पुरुष, नहले पे दहला। तो क्या हम गीत के बोल्ड होने और गाली बकने पर खुश होते हैं या फिर महज गाली बकने की अदा पर फिदा होते हैं। स्त्रियों की हिचक तोड़ने, उसके भीतर के भय को खत्म करने के लिए ये गालियां और उसके बकने का अभ्यास,हो सकता है स्त्री के बोल्ड होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के प्रस्थान बिन्दु हो सकते हैं। लेकिन जो स्त्री,कोई एक्ट्रेस अपने अधिकारों के लिए गाली के अलावे कोई और प्रस्थान बिन्दु तय करना चाहती है तो उसका विकल्प क्या है और क्या उसके इस पहल पर दर्शक उतनी ही तालियां बजाएंगे। हो सकता है कि उसके उस पहल को भी लोग अदा मानकर तालियां पीटने लग जाएं। क्योंकि जिनकी मानसिकता का विकास सिर्फ दामिनी और गदर जैसी फिल्मों को देखकर हुआ है, उनके लिए ये स्वाभाविक भी है। लेकिन बाकी का क्या? कनकलता औऱ उसकी छोटी बहन गीत नहीं बनना चाहती क्योंकि उसने प्रस्थान बिन्दु के तौर पर गाली नहीं चुना है तो क्या वो बोल्ड भी नहीं हो सकती। प्रोड्यूसर का जबाब तो साफ होगा- बिल्कुल नहीं। आपकी क्या राय है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080530/769d4c34/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat May 31 12:20:35 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 31 May 2008 12:20:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSd4KWM?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkleClgCDgpLDgpL7gpKQsIOCksuCkvuCkmuCkvuCksCA=?= =?utf-8?b?4KSG4KSW4KS/4KSwIOCkleCksOClhyDgpK3gpYAg4KSk4KWLIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <829019b0805302350gb2153c0j586c4731944c6099@mail.gmail.com> *टेलीविजन चैन्लस और बाकी मीडिया कैम्पस की खबरों के नाम पर जो कुछ भी दिखाती है, वो मौजा-मौजा कल्चर का एक हिस्सा होता है, लेकिन इसके अलावे भी कई बातें यहां हो जाया करती है, कई खबरें बनतीं हैं- पेश है कल रात हुई घटना की एक रिपोर्ट-* ** * वो खून से तर-बतर था। उस बंदे के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। पुलिस थाने में जब कांस्टेबल ने उससे पूछा कि तुम क्या चाहते हो। हम तो जिसे तुमलोगों ने मारा है उसे बंद करने जा रहे है. बंदा सिसक रहा था, डरा और घबराया हुआ था. धीरे से बोला, हम कुछ नहीं चाहते हैं. सर हम समझौता करना चाहते हैं. आप मेरा इलाज करा दीजिए,बस. समझौते के लिए आए लोगों ने कहा कि- जब इलाज ही कराना चाहते हो तो यहां क्यों बैठे हो, समझौते कर अभी तेरा इलाज करा देते हैं। यह घटना है दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हाल हॉस्टल में कल रात हुई मारपीट और उसके बाद पास के थाने मौरिसनगर की. हुआ यूं कि कॉमन रूम में कुछ लोग आइपीएल मैच देख रहे थे। कुछ लोग आगे की कुर्सी पर खुलेआम पी रहे थे और मैच देख रहे थे। पीछे बैठा एक बंदा ईश्वर भी था। ईश्वर पहले इस हॉस्टल का रेसीडेंट रह चुका है और फिलहाल गेस्ट स्टेटस पर यहां टिका हुआ है. पढ़ने में होशियार वो चाहता तो डीयू से आगे रिसर्च के लिए रुक सकता था लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, इसलिए हरियाणा के एक स्कूल में नौकरी लग जाने के बाद वहां चला गया।..और अब दिल्ली में आकर पीएच.डी. में रजिस्ट्रेशन की कोशिशें कर रहा है। तब तो मैं हॉस्टल में नहीं रहा, जब ईश्वर यहां का रेसीडेंट था लेकिन लोग बता रहे थे कि आजतक उसकी किसी ने आवाज तक नहीं सुनी। खैर, जिस बंदे ने उसके नाक फोड़ दिए, उसके नाक से भी खून निकले और वो भी अपने को विकटिम बता रहा था। उसने पुलिस के सामने बयान दिया कि ईश्वर टीटी की टेबल पर बैठा था और मैंने उसे बस इतना कहा कि- स्साला, तुम्हें पता है ये टेबुल मंहगी आती है, चल नीचे उतर कर बैठ जा. इतने में ही उसने मुझे पंच मार दिया और बाद में जो कुछ भी हुआ, आप सब जानते हैं। ईश्वर ने उसके इस बयान को सुधारते हुए कहा कि नहीं- इसके कहने पर मैं उतरकर कुर्सी पर बैठ गया था लेकिन उसके बाद भी ये मुझे गालियां दिए जा रहा था। मां-बहन की गालियां और मैं सुनता जा रहा था और अंत में मुझे तेज गुस्सा और मैंने उसे एक हाथ दे मारा। बाद में इसने मिलकर बहुत मारा। ईश्वर दिल्ली में रहकर भी गाली सुनने का अभ्यस्त नहीं रहा है.ये बात उसकी सजा के लिए काफी है। घटना के समय तो लोगों ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन जब मामला नहीं बना तो बात पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी और जब पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी तो देखिए वहां का नजारा। पहले दोनों को मेडिकल चेकअप के लिए हिन्दूराव हॉस्पीटल में ले जाया गया। वहां से पुलिस रिपोर्ट और उन दोनों को साथ में लेकर आयी। रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि नहीं हुई कि जो बंदा दो घंटे पहले खुलेआम कॉमन रूम में बैठकर पी रहा था, उसने अल्कोहल ले रखी थी। ये अलग बात है कि बात करने के क्रम में उसके मुंह से अब भी शराब की गंध आ रही थी औऱ बैठी पुलिस को कोई भी अजूबा नहीं लग रहा था. रिपोर्ट लेकर बैठी पुलिस दोनों बंदे,गवाह,हॉस्टल ऑथिरिटी और हमलोग उस पीछे वाले कमरे थे। इस बात के लिए माहौल बनाया जा रहा था कि समझौता हो जाए। ईश्वर डरकर समझौते के लिए पहले से ही तैयार बैठा था। लेकिन दूसरा बंदा सुकांत वत्स इस बात के लिए तैयार ही नहीं था। तब थाने के मक्खन सिंह ने आवाज लगायी- जा भाई,रस्सी ले आ। अरेस्ट पेपर तैयार किए जाने लगे। सुकांत की तरफ से समझौते के लिए आए लोग मक्खन सिंह को समझाने में लग गए। लेकिन मक्खन सिंह का चिल्लाना जारी था. इधर सुकांत इस बात की रट लगाए जा रहा था कि नहीं हमें बंद ही होना है। थोड़ी देर बाद दो प्रभावी लोग कमरे में दाखिल होते हैं। लोगों ने बताया कि उनमें से एक पेशे से वकील है. आते ही मक्खन सिंह की ओर मुखातिब हुआ और कहा- क्या हो गया भाई, यही क्या दोस्ती-यारी में झगड़ा। मक्खन सिंह का गुस्सा अचानक से गायब हो गया, हां में हां मिलाते हुए कहा, हां जी बस,बस। वो बंदा मक्खन सिंह की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया और कई बार मक्खन सिंह के कंधे पर हाथ रखते हुए बात करने लगा. माहौल को हल्का करने की कोशिशें करने लगा,ताकि लगे कि कुछ हुआ ही नहीं है, बस दोस्ती-यारी का झगड़ा है. इसी क्रम में पास खड़े कांन्सटेबल को कहा- बाकी लोगों को कहिए बाहर जाए, बेकार में भीड़ लगाए से क्या फायदा. एक-दो लोग जो घटना के समय थे, रह जाएं। कांस्टेबल हरकत में आए और हमलोगों को थोड़ा पुश करते हुए, इतना ही पुश किया कि लगे कि हमलोग भेड़-बकरी हैं और कहा- निकलिए आपलोग यहां से। हमने कहा, आराम से बात कीजिए, आप ऐसे कैसे हमसे बात कर सकते हैं। उनका सीधा जबाब था- के कर लेगा। धीरे-धीरे हम सारे लोग कमरे से बाहर आ गए। कांस्टेबल का मन इतने में भी नहीं भरा था, वो हमें थाने से बाहर निकालकर ही दम मार पाए। करीब बीस मिनट तक पुलिस के लोग हमलोगों को बातों में उलझाए रखा, अपनी शेखी बघारते रहे। औऱ ये भी बताते रहे कि ये दिल्ली है,भई, अगर यही मामला हरियाणा थाने में होता, तब पता चलता। हमें बाहर निकालनेवाली ये पुलिस हमसे इतनी औपचारिक हो गयी कि अपने दोस्तों-यारों की बात करने लग गयी। बीस-पच्चीस मिनट के बाद पुलिस ने घोषणा कि- चलो भाई, चलो सब अपने-अपने ठिकाने, एक बज गए। जाओ जाकर सो जाओ, मामला निबट गया है। वाकई में समझौता हो गया था। दोनों बाहर निकल रहे थे। और ईश्वर पुलिस के सामने मिली धमकी कि-आगे कुछ किया तो देख लिये, लिए भारी कदमों से बाहर निकल रहा था. लौटेने पर देखा कि ह़ॉस्टल के बाहर वो बंदा जो कि अंदर बंद होने की इच्छा रख रहा था, प्रोवोस्ट से सीधे-सीधे शब्दों में कह रहा था- सर हमें न्याय नहीं मिला है, मैं आगे तक देख लूंगा।... वाकई समझौते की यह रात थी जिसमें दिल्ली पुलिस को एक बार फिर सफलता मिली। * -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... 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