From beingred at gmail.com Sat Mar 1 01:30:14 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 1 Mar 2008 01:30:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4u4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSc4KSfIOCkleCkviDgpIfgpILgpKTgpJzgpL7gpLAg4KSV4KWM?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCksOCkpOCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <363092e30802291200qed00c2bw81006b6c1f2bee59@mail.gmail.com> ...और बजट का इंतजार कौन करता है सुष्मिता यह साफ दिखता है कि पी चिदंबरम ने विदेशी पूंजी के लिए जो रास्ते खोल कर रखे हैं, यह बजट उसी रास्ते पर आगे बढनेवाला है. आर्थिक सर्वेक्षण का कहना है कि वृद्धि दर को बरकरार रखना एक बडी चुनौती है, क्योंकि पहले से यह बात कही जा रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सुनहरे दिन अपने आधार पर खडे होने के बजाय विदेशी कारकों पर ज्यादा निर्भर हैं. पिछले साल भी वृद्धि दर का सबसे अधिक फायदा कारपोरेट सेक्टर को मिला था, लेकिन सरकार ने इस सेक्टर को इस बार भी कर वृद्धि से मुक्त रखा है. इस बार तो सरकार के लिए वृद्धि दर को बनाये रखना ही सबसे बडी चुनौती है, और इसलिए वह कारपोरेट टैक्स नहीं बढा रही है, क्योंकि इसी की बुनियाद पर वृद्धि दर को इस स्तर पर बनाया रखा जा सकता है. देश में व्याप्त कृषि संकट मुख्यतः विदेशी पूंजी के साथ स्पर्धा और रियायतों के खात्मे की वजह से पैदा हुआ है. इसलिए अगर कृषि को संकट से निकालना है तो किसानों को तात्कालिक राहत के बतौर समर्थन मूल्य ज्यादा दिया जाना चाहिए था. अल्पकाल में किसानों की समस्याओं का समाधान यह सरकार नहीं कर सकती है, क्योंकि यह खुद वैश्वीकरण की पैरोकार है, जो किसानों के संकट का मूल कारण है. ग्रामीण अधिसंरचना में खर्च का जो प्रावधान है, वह किसानों को राहत देने के लिए कम और गांवों को बाजार में बदल देने के लिए ज्यादा है, ताकि कारपोरेट घरानों की पहुंच में हरेक गांव आ जाये. किसानों की कर्जमाफी का फायदा मूल रूप से बडे किसानों को ही मिलना है, क्योंकि छोटे और मध्यम किसान कर्जों के लिए आज भी गैर संस्थागत स्रोतों पर ही सबसे ज्यादा निर्भर हैं. अकेले कर्ज माफी की प्रक्रिया किसानों को संकट से बाहर नहीं निकाल सकती है, क्योंकि सरकार ने पहले ही खाद्यान्नों की उपज के बजाय हॉर्टिकल्चर को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया था, ताकि किसान कारपोरेट जगत के लिए कच्चा माल तैयार कर सकें. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना से जिस अनुपात में नये जिले जोडे गये हैं, उस अनुपात में आवंटन अपर्याप्त है. वैसे भी रोजगार गारंटी अधिनियम किसानों को बेहतर जीवन देने के बजाय डिमांड ड्राइव बनाये रखनेवाला है. इस योजना के तहत दी जानेवाली न्यूनतम बढायी जानी चाहिए. कृषि को संकट से निकालने के लिए किसानों को सिंचाई की सुविधा, अधिक समर्थन मूल्य, सस्ते आयातित कृषि उत्पादों के साथ स्पर्धा में बाजार में टिके रहने के लिए संरक्षण और बडे किसानों पर टैक्स आदि के कदम जरूरी हैं. देश भर में बेरोजगारी का संकट बढ रहा है. कारपोरेट कल्चर बेरोजगारी बढायेगा ही. देश में क्षेत्रीय तौर पर असमान औद्योगिक विकास के कारण रोजगार के अवसर कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित हैं. इसके कारण क्षेत्रीय दुर्भावना बढेगी और कुल मिला कर इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान ही होगा. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080301/53eff8b6/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Sat Mar 1 01:30:14 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 1 Mar 2008 01:30:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4u4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSc4KSfIOCkleCkviDgpIfgpILgpKTgpJzgpL7gpLAg4KSV4KWM?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCksOCkpOCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <363092e30802291200qed00c2bw81006b6c1f2bee59@mail.gmail.com> ...और बजट का इंतजार कौन करता है सुष्मिता यह साफ दिखता है कि पी चिदंबरम ने विदेशी पूंजी के लिए जो रास्ते खोल कर रखे हैं, यह बजट उसी रास्ते पर आगे बढनेवाला है. आर्थिक सर्वेक्षण का कहना है कि वृद्धि दर को बरकरार रखना एक बडी चुनौती है, क्योंकि पहले से यह बात कही जा रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सुनहरे दिन अपने आधार पर खडे होने के बजाय विदेशी कारकों पर ज्यादा निर्भर हैं. पिछले साल भी वृद्धि दर का सबसे अधिक फायदा कारपोरेट सेक्टर को मिला था, लेकिन सरकार ने इस सेक्टर को इस बार भी कर वृद्धि से मुक्त रखा है. इस बार तो सरकार के लिए वृद्धि दर को बनाये रखना ही सबसे बडी चुनौती है, और इसलिए वह कारपोरेट टैक्स नहीं बढा रही है, क्योंकि इसी की बुनियाद पर वृद्धि दर को इस स्तर पर बनाया रखा जा सकता है. देश में व्याप्त कृषि संकट मुख्यतः विदेशी पूंजी के साथ स्पर्धा और रियायतों के खात्मे की वजह से पैदा हुआ है. इसलिए अगर कृषि को संकट से निकालना है तो किसानों को तात्कालिक राहत के बतौर समर्थन मूल्य ज्यादा दिया जाना चाहिए था. अल्पकाल में किसानों की समस्याओं का समाधान यह सरकार नहीं कर सकती है, क्योंकि यह खुद वैश्वीकरण की पैरोकार है, जो किसानों के संकट का मूल कारण है. ग्रामीण अधिसंरचना में खर्च का जो प्रावधान है, वह किसानों को राहत देने के लिए कम और गांवों को बाजार में बदल देने के लिए ज्यादा है, ताकि कारपोरेट घरानों की पहुंच में हरेक गांव आ जाये. किसानों की कर्जमाफी का फायदा मूल रूप से बडे किसानों को ही मिलना है, क्योंकि छोटे और मध्यम किसान कर्जों के लिए आज भी गैर संस्थागत स्रोतों पर ही सबसे ज्यादा निर्भर हैं. अकेले कर्ज माफी की प्रक्रिया किसानों को संकट से बाहर नहीं निकाल सकती है, क्योंकि सरकार ने पहले ही खाद्यान्नों की उपज के बजाय हॉर्टिकल्चर को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया था, ताकि किसान कारपोरेट जगत के लिए कच्चा माल तैयार कर सकें. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना से जिस अनुपात में नये जिले जोडे गये हैं, उस अनुपात में आवंटन अपर्याप्त है. वैसे भी रोजगार गारंटी अधिनियम किसानों को बेहतर जीवन देने के बजाय डिमांड ड्राइव बनाये रखनेवाला है. इस योजना के तहत दी जानेवाली न्यूनतम बढायी जानी चाहिए. कृषि को संकट से निकालने के लिए किसानों को सिंचाई की सुविधा, अधिक समर्थन मूल्य, सस्ते आयातित कृषि उत्पादों के साथ स्पर्धा में बाजार में टिके रहने के लिए संरक्षण और बडे किसानों पर टैक्स आदि के कदम जरूरी हैं. देश भर में बेरोजगारी का संकट बढ रहा है. कारपोरेट कल्चर बेरोजगारी बढायेगा ही. देश में क्षेत्रीय तौर पर असमान औद्योगिक विकास के कारण रोजगार के अवसर कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित हैं. इसके कारण क्षेत्रीय दुर्भावना बढेगी और कुल मिला कर इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान ही होगा. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080301/53eff8b6/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Sat Mar 1 01:31:43 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 1 Mar 2008 01:31:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4u4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KSc4KSfIOCkleCkviDgpIfgpILgpKTgpJzgpL7gpLAg4KSV4KWM?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCksOCkpOCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <363092e30802291201y6c99c23ftb7efe0cadfb5fe9c@mail.gmail.com> ...और बजट का इंतजार कौन करता है सुष्मिता यह साफ दिखता है कि पी चिदंबरम ने विदेशी पूंजी के लिए जो रास्ते खोल कर रखे हैं, यह बजट उसी रास्ते पर आगे बढनेवाला है. आर्थिक सर्वेक्षण का कहना है कि वृद्धि दर को बरकरार रखना एक बडी चुनौती है, क्योंकि पहले से यह बात कही जा रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सुनहरे दिन अपने आधार पर खडे होने के बजाय विदेशी कारकों पर ज्यादा निर्भर हैं. पिछले साल भी वृद्धि दर का सबसे अधिक फायदा कारपोरेट सेक्टर को मिला था, लेकिन सरकार ने इस सेक्टर को इस बार भी कर वृद्धि से मुक्त रखा है. इस बार तो सरकार के लिए वृद्धि दर को बनाये रखना ही सबसे बडी चुनौती है, और इसलिए वह कारपोरेट टैक्स नहीं बढा रही है, क्योंकि इसी की बुनियाद पर वृद्धि दर को इस स्तर पर बनाया रखा जा सकता है. देश में व्याप्त कृषि संकट मुख्यतः विदेशी पूंजी के साथ स्पर्धा और रियायतों के खात्मे की वजह से पैदा हुआ है. इसलिए अगर कृषि को संकट से निकालना है तो किसानों को तात्कालिक राहत के बतौर समर्थन मूल्य ज्यादा दिया जाना चाहिए था. अल्पकाल में किसानों की समस्याओं का समाधान यह सरकार नहीं कर सकती है, क्योंकि यह खुद वैश्वीकरण की पैरोकार है, जो किसानों के संकट का मूल कारण है. ग्रामीण अधिसंरचना में खर्च का जो प्रावधान है, वह किसानों को राहत देने के लिए कम और गांवों को बाजार में बदल देने के लिए ज्यादा है, ताकि कारपोरेट घरानों की पहुंच में हरेक गांव आ जाये. किसानों की कर्जमाफी का फायदा मूल रूप से बडे किसानों को ही मिलना है, क्योंकि छोटे और मध्यम किसान कर्जों के लिए आज भी गैर संस्थागत स्रोतों पर ही सबसे ज्यादा निर्भर हैं. अकेले कर्ज माफी की प्रक्रिया किसानों को संकट से बाहर नहीं निकाल सकती है, क्योंकि सरकार ने पहले ही खाद्यान्नों की उपज के बजाय हॉर्टिकल्चर को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया था, ताकि किसान कारपोरेट जगत के लिए कच्चा माल तैयार कर सकें. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना से जिस अनुपात में नये जिले जोडे गये हैं, उस अनुपात में आवंटन अपर्याप्त है. वैसे भी रोजगार गारंटी अधिनियम किसानों को बेहतर जीवन देने के बजाय डिमांड ड्राइव बनाये रखनेवाला है. इस योजना के तहत दी जानेवाली न्यूनतम बढायी जानी चाहिए. कृषि को संकट से निकालने के लिए किसानों को सिंचाई की सुविधा, अधिक समर्थन मूल्य, सस्ते आयातित कृषि उत्पादों के साथ स्पर्धा में बाजार में टिके रहने के लिए संरक्षण और बडे किसानों पर टैक्स आदि के कदम जरूरी हैं. देश भर में बेरोजगारी का संकट बढ रहा है. कारपोरेट कल्चर बेरोजगारी बढायेगा ही. देश में क्षेत्रीय तौर पर असमान औद्योगिक विकास के कारण रोजगार के अवसर कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित हैं. इसके कारण क्षेत्रीय दुर्भावना बढेगी और कुल मिला कर इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान ही होगा. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080301/0356ffc9/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Mar 1 17:53:49 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Mar 2008 17:53:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sudarshan Faqir - Message-ID: <200803011753.49943.ravikant@sarai.net> नीचे के लेख के अलावा एक तोहफ़ा मेरी ओर से भी. पवन झा ने किसी ओर सूची पर जिसे रोमनागरी में पेश किया था, उसे गूगल इंडिक ट्रांस से नागरी में करते हुए. मेरे मसौदा फ़ोल्डर में पड़ा हुआ था. किसी रंजिश को हवा दो, कि मैं ज़िन्दा हूँ अभी मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िन्दा हूँ अभी मेरे रुकने से मेरी साँसें भी रुक जाएँगी फ़ासले और बढ़ा दो कि मैं ज़िन्दा हूँ अभी ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालो अब कोई और दवा दो की मैं ज़िन्दा हूँ अभी चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है `फ़ाक़िर` भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िन्दा हूँ अभी रविकान्त http://www.hindimedia.in/content/view/1263/43/ वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी छापें ई-मेल अपनी बात रमता जोगी Thursday, 21 February 2008 हमारे बीच से अचानक एस ऐसा शायर चला गया जिसके बारे में कभी कुछ न जाना, न पढ़ा. मगर जि सके शब्द कभी जगजीत सिंह की आवाज से कभी बेगम अख्तर की आवाज़ से तो कभी मुकेश की आवाज़ में बचपन से लेकर आज तक कानों में गूंजते रहे। देश के अखबारों से लेकर खबरिया चैनलों को तो खैर ऐसे लोगों के बारे में न कुछ पता होता है न कभी जानने की कोशिश की जाती है। मगर आज सुबह सुबह अचानक सहारा समय पर पुण्य प्रसून बाजपेयी को कुछ वोलते सुना तो रुक गए , क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है कि आप पुण्य प्रसून बाजपेयी को कोई खबर सुनाते देखें तो आपको निराश होना पड़े। चैनलों और रिपोर्टरों से लेकर ऐंकरों की भीड़ में पुण्य प्रसून बाजपेयी साहित्य और संस्कारों से जुड़ी खबरों को देने की भरपूर कोशिश करते हैं, तो पुण्य प्रसून बाजपेयी सुदर्शन फाकिर पर बात कर रहे थे, जि नका 73 साल की उम्र में जालंधर में निधन हो गया। जगजीत सिंह ने शोहरत की जिन बुलंदियों को छुआ है उसमें सबसे बड़ा योगदान सुदर्शन फाकिर का रहा है। सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह डीएवी कॉलेज जालंधर में साथ पढ़ते थे। फाकिर साहब ने अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान में एम किया था। दो नों एक दो साल के अंतराल से 60 के दशक में मुंबई आए और इसके बाद फाकिर की कलम ने जगजीत सिंह को जगजीत सिह बना दिया। वे अपने पीछे पत्नी सुदेश बेटा मानव, बहू इशिता और पौत्र आर्यमान साथ ही देश और दुनिया में फैले लाखों-करोड़ों प्रशंसकों को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ गए। सुदर्शन फाकिर ने अपने कैरियर की शुरआत रेडिओ स्टेशन जालंधर से की थी। एक बार बेगम अख्त़र को रेडिओ स्टेशन पर अपना गायन पेश करने आना था, और शाकिर साहब को उनको रेडिओ स्टेशन तक लाने का काम सौंपा गया था। रास्ते में ही फाकिर साहब ने बातों बातों में बेगम अख़्तर 'हम तो समझे थे कि बरसात मे बरसेगी शराब आई बर्सात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया', सुनाया तो बेगम अख्तर ने उस कार्यक्रम में फाकिर साहब की यही गज़ल सुनाकर ज़बर्दस्त वाहवाही लूटी। फाकिर साहब की ख्याति साठ के दशक मे मुंबई तक पहुँची, यह वह दौर था जब लिखने वालों की ख्याति मुंबई तक पहुँच जाती थी और मुंबई की फिल्मी दुनिया में बैठे लोग देश भर में छुपे ऐसे लोगों को अपनी फिल्मों में लेखक या गीतकार के रूप में मौका देते थे। स्वर्गीय मदन मोहन ने सुदर्शन फाकिर के बारे में सुना तो उन्होने फाकिर साहब को मुंबई बुला लिया। लेकिन उनको पहला गीत लिखने का मौका दिया जयदेव ने। फाकिर साहब ने फिरोज खान की फिल्म 'यलगार' के संवाद और गीत भी लिखे और इस फिल्म का नाम भी उन्होंने ही सुझाया था। इस फिल्म का गीत 'आखिर तुझे आना है, जरा देर लगेगी' संजय दत्त पर फिल्माया गया था। गुरदास मान की फिल्म 'पत्थर दिल' का गीत 'जग में क्या था, रब से पहले, इश्क था शायद सबसे पहले' भी फाकिर साहब ने ही लिखा था। एनसीसी की परेड में गाया जाने वाला गीत हम सब भारतीय हैं-फाकिर साहब ने ही लिखा था। फिल्म दूरियाँ और प्रेम अगन से लेकर कई हिट फिल्मों के गीत भी उन्होंने लिखे थे। किसी फनकार का परिचय उसकी कलम और उसका फन ही होता है। आपने हजारों बार सुदर्शन फाकिर साहब को रेडिओं, टीवी और जगजीत सिंह साहब से सुना होगा मगर शायद आपको इस बात का अहसास कभी नहीं हुआ होगा कि इन शब्दों का चितेरा कौन है, कौन हे वो जादूगर जो इतनी सहजता और सरलता से एक आम आदमी के दर्द को बयाँ करता है। हम उनको श्रध्दांजलि के रूप में उनकी ही लिखे गीत और गज़लें उनको पेश कर सकते हैं। किसी शायर और गीतकार के लिए इससे बड़ी श्रध्दांजलि और क्या हो सकती है। हमें अफसोस इस बात का भी है कि जि स शख्स की लिखी गज़ल गाकर जगजीत सिंह को पूरी दुनिया में ख्याति मिली, पहचान मिली उन्होंने कभी किसी मंच से यह कहने का साहस नहीं किया कि जिस शायर का कलाम वे गा रहे हैं वो कौन है। इस मामले में शुभा मुद्गल को मानना होगा वे जब भी कोई गीत पेश करती हैं उस गीत के गीतकार का नाम कई बार पूरे सम्मान से लेती है और बार बार उसको याद करती है। अगर जगजीत सिंह जैसे ख्यातिप्राप्त लोग अपने कार्यक्रमों में सुदर्शन फाकिर जैसी शख्सियतों का परिचय दिया करे तो इससे जगजीत सिंहजी का कद तो बढ़ेगा ही उनके सुनने वाले उस असली फनकार से भी परिचित हो सकेंगे, जिसके बारे में शायद उनको कभी जानने को नहीं मिल सकता है। प्रस्तुत है फाकिर साहब की कुछ अमर रचनाएं वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी । मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन वो काग़ज़ की कश्‍ती वो बारिश का पानी ।। मोहल्ले की सबसे निशानी पुरानी, वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी, वो नानी की बातों में परियों का डेरा, वो चेहरे की झुर्रियों में सदियों का फेरा, भुलाए नहीं भूल सकता है कोई, वो छोटी-सी रातें वो लम्बी कहानी। कड़ी धूप में अपने घर से निकलना वो चिड़िया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना, वो गुड़िया की शादी पे लड़ना-झगड़ना, वो झूलों से गिरना, वो गिर के सँभलना, वो पीतल के छल्लों के प्यारे-से तोहफ़े, वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी। कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना घरौंदे बनाना,बना के मिटाना, वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी, वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी, न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों का बंधन, बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी । आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यों है ज़ख़्म हर सर पे, हर हाथ में पत्थर क्यों है — सुदर्शन फ़ाकिर — दिल तोड़ दिया कुछ तो दुनियाकी इनाया़त ने दिल तोड़ दिया और कुछ तल्ख़ी-ए हालात ने दिल तोड़ दिया हम तो समझे थे कि बर्सात मे बरसेगी शराब आई बर्सात तो बर्सात ने दिल तोड़ दिया दिल तो रोता रहे और ऑखसे ऑसू न बहे इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया वो मेरे है मुझे मिल जाऎगे आ जाऎगे ऐसे बेकार खय़ालात ने दिल तोड़ दिया आपको प्यार है मुझसे कि नही है मुझसे जाने क्यो ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया पत्थर के ख़ुदा, पत्थर के सनम पत्‍थर के ख़ुदा पत्‍थर के सनम पत्‍थर के ही इंसां पाए हैं तुम शहरे मुहब्‍बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं ।। बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो ना वहां क्‍या हालत ह हम लोग वहीं से गुज़रे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं ।। हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहां सहरा में खु़शी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं ।। होठों पे तबस्‍सुम हल्‍का-सा आंखों में नमी से है 'फाकिर' हम अहले-मुहब्‍बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं ।। ज़ख़्म जो आपकी इनायत है ज़ख्म़ जो आप की इनायत है इस निशानी को क्या नाम दें हम प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को क्या नाम दें हम आप इल्ज़ाम धर गए हम पर एक एहसान कर गए हम पर आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को क्या नाम दें हम आप को यूं ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चांदनी समझा भूल ही भूल जिस की आदत है इक जवानी को क्या नाम दें हम रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो गु़बार सा देखा बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबां निकला बेज़ुबानी को क्या नाम दें हम From ravikant at sarai.net Sat Mar 1 18:09:20 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Mar 2008 18:09:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= machchhar chalisa Message-ID: <200803011809.20612.ravikant@sarai.net> ज़हीन मित्र करुणाकर का शुक्रिया, और रवि का भी जिन्होंने छोटा-मोटा शोध ही कर डाला. रविकान्त मच्छर-चरितमानस http://raviratlami.blogspot.com/2008/03/blog-post.html इस बेहद दिलचस्प, मजेदार, मच्छर-चालीसा को मेरे एक जहीन मित्र ने मुझे ईमेल फ़ॉरवर्ड से भेजा है. इसके मूल रचयिता का नाम नहीं मालूम है, परंतु उन अज्ञात अनाम रचनाकार को सलाम. उनके प्रति बेहद आदर, सम्मान व आभार सहित इसे यहाँ पुनर्प्रकाशित कर रहा हूँ. यदि वे इन पंक्तियों को पढ़ पा रहे हों तो कृपया सूचित करें, ताकि उन्हें श्रेय दिया जा सके. या सुधी पाठकों को पता हो कि ये पंक्तियाँ किनकी हैं? ------. मच्छर चालीसा जय मच्छर बलवान उजागर, जय अगणित रोगों के सागर । नगर दूत अतुलित बलधामा, तुमको जीत न पाए रामा । गुप्त रूप घर तुम आ जाते, भीम रूप घर तुम खा जाते । मधुर मधुर खुजलाहट लाते, सबकी देह लाल कर जाते । वैद्य हकीम के तुम रखवाले, हर घर में हो रहने वाले । हो मलेरिया के तुम दाता, तुम खटमल के छोटे भ्राता । नाम तुम्हारे बाजे डंका ,तुमको नहीं काल की शंका । मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारा, हर घर में हो परचम तुम्हारा । सभी जगह तुम आदर पाते, बिना इजाजत के घुस जाते । कोई जगह न ऐसी छोड़ी, जहां न रिश्तेदारी जोड़ी । जनता तुम्हे खूब पहचाने, नगर पालिका लोहा माने । डरकर तुमको यह वर दीना, जब तक जी चाहे सो जीना । भेदभाव तुमको नही भावें, प्रेम तुम्हारा सब कोई पावे । रूप कुरूप न तुमने जाना, छोटा बडा न तुमने माना । खावन-पढन न सोवन देते, दुख देते सब सुख हर लेते । भिन्न भिन्न जब राग सुनाते, ढोलक पेटी तक शर्माते । बाद में रोग मिले बहु पीड़ा, जगत निरन्तर मच्छर क्रीड़ा । जो मच्छर चालीसा गाये, सब दुख मिले रोग सब पाये । बहुत पहले मैंने भी एक मच्छरिया ग़ज़ल (व्यंज़ल) लिखा था. यह मच्छरिया ग़ज़ल कोई पंद्रह साल पुरानी है, जब मलेरिया ने मुझे अच्छा खासा जकड़ा था, और, तब उस बीमारी के दर्द से यह व्यंज़ल उपजा था--- मच्छरिया ग़ज़ल 10 मच्छरों ने हमको काटकर चूसा है इस तरह आदमकद आइना भी अब जरा छोटा चाहिए । घर हो या दालान मच्छर भरे हैं हर तरफ इनसे बचने सोने का कमरा छोटा चाहिए । डीडीटी, ओडोमॉस, अगरबत्ती, और आलआउट अब तो मसहरी का हर छेद छोटा चाहिए । एक चादर सरोपा बदन ढंकने नाकाफी है इस आफत से बचने क़द भी छोटा चाहिए । सुहानी यादों का वक्त हो या ग़म पीने का मच्छरों से बचने अब शाम छोटा चाहिए । ------. गर्मी बढ़ रही है, और नतीजतन मच्छरों की संख्या भी. मेरा घर, मेरा शहर मच्छरों से अंटा-पटा पड़ा है. इंटरनेट पर कितने मच्छर हैं? मैंने जरा मच्छरों को इंटरनेट पर ढूंढने की कोशिश की- परिणाम ये रहे- गूगल पर 4500 और याहू! पर 12000 से ऊपर! अब समझ में आया, माइक्रोसॉफ़्ट, याहू पर क्यों निगाहें डाले बैठा है! और, हम याहू! से क्यों दूर रहते हैं? मच्छरों की भरमार जो है! ----. (मच्छर का चित्र - साभार, बीबीसी) From ravikant at sarai.net Sat Mar 1 18:59:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Mar 2008 18:59:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWALeClmuClm+Cksg==?= Message-ID: <200803011859.12847.ravikant@sarai.net> vaise dilchasp lekh hai par mera sawal ise parhne ke baad bhi vahi hai: magar kyun? Firaq ka hikarati jumla parhkar bahut hansi aayi. sahityakunj ke taza ank mein trilochan par bahut kuchh hai. ravikant दुष्यंत की पुण्यतिथि-३१ दिसम्बर के अवसर पर ’हिन्दी-ग़ज़ल‘ को ग़ज़ल से भिन्न विधा मानें http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/V/VirendraJain/ वीरेन्द्र जैन दुष्यन्त कुमार आम तौर पर पारंपरिक उर्दू साहित्य के लोग हिन्दी ग़ज़ल को हीन दृष्टि से देख नाक भों सिकोड़ते हैं। उनके पास ग़ज़ल को मापने का जो पैमाना है उसके अनुसार वे ठीक ही करते हैं। किंतु उनके इस नाक भों सिकोड़ने के बाद भी आज हिंदी ग़ज़ल दूधों नहा कर पूतों फल रही है, हाँ रही बात अच्छी बुरी की, सो बड़े से बड़े शायर की भी सभी रचनाएँ एक जैसी श्रेष्ठता नहीं रखतीं तथा हर भाषा के लेखकों में स्तर भेद विद्यमान है आप किसी भाषा के खराब साहित्य को नमूने के तौर पर रख कर यह नहीं कह सकते कि यदि इस भाषा में लिखोगे तो ऐसा ही साहित्य निकलेगा। वैसे तो ग़ज़ल भारतेन्दु हरिश्चन्द, मैथिली शरण गुप्त और निराला ने भी लिखी हैं तथा पंडित रघुपति सहाय फ़िराक़ तो निराला को छोड़ कर बाकी के हिन्दी लेखकों को माँ बहिन की गालियों के साथ याद करते थे। उनका कहना था कि उर्दू की जूतियों के चरमराने से जो आवाज़ आती है वह हिन्दी है। हो सकता है किसी समय उनकी बात सही रही हो और खड़ी बोली किसी की मातृभाषा न होने के का रण ऐसी बनावटी भाषा लगती रही हो जिसमें दिल की बात करना अस्वाभाविक लगने के कारण उसकी कविता प्लास्टिक के फूलों जैसी लगती हो, किंतु खड़ी बोली वाली हिंदी आज लाखों लेागों की मातृभाषा बन चुकी है और वे इसी में पैदा होने के साथ साथ इसी भाषा में हँसने रोने लगे हैं। किसी भी भाषा के विकास में कुछ समय तो लगता ही है तथा खड़ी बोली को खड़े हुये अभी समय ही कितना हुआ है? सच तो यह है कि हिन्दी ग़ज़ल हिन्दी कविता की केन्द्रीय विधा तब ही बन सकी जब खड़ी बोली ने लाखों लोगों के दैनिंदिन जीवन में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया। बलवीर सिंह रंग, रामावतार त्यागी आदि ने दुष्यंत कुमार से भी पहले देवनागरी में हिंदुस्तानी भाषा की ग़ज़लें लिखना प्रारंभ कर दिया था पर इस विधा की हिंदी ग़ज़ल के रूप में पहचान दुष्यंत की लो कप्रियता के बाद उसी तरह की ग़ज़लों की बाढ़ आने के बाद ही हुयी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि पहली बार इस विधा को पुराने पैमाने पर नाप कर इसे खारिज करने के प्रयास भी हुये। इन प्रयासों में उसकी लोकप्रियता को नज़रअन्दाज़ किया गया। किसी भी लोकप्रिय विधा को आलोचक की छुरियाँ मार नहीं सकतीं अपितु कई बार तो उसकी लोकप्रियता के आगे वे छुरियाँ ही भोंतरी हो जाती हैं। हिन्दी ग़ज़ल के साथ भी ऐसा ही हुआ। साहित्य की सभी विधाएँ क्रमशः विकसित हुयी होंगीं और अपनी स्थापना के लिए सभी को पहले पहले ऐसे ही अस्वीकार के वाण झेलने पड़े होंगे। ये नई ग़ज़ल पारंपरिक ग़ज़ल के बहर वज़न रदीफ़ काफ़िये मतले मक़्‍ते के नियमों का लगभग वैसा ही उल्लंघन कर रहीं थीं जैसा कि छंद मुक्त कविता वालों ने कभी छंद का किया था। पर इन लोगों की ये रचनाएँ लोगों को पसंद आयीं व जिस छंदमुक्त नई कविता ने आम हिंदुस्तानी को कविता से दूर कर दि या था उसकी रुचियाँ फिर से कविता की ओेर लौटीं। उर्दू की परंपरागत ग़ज़ल के नियमों का उल्लंघन करने वालों ने भी आलोचकों की आपत्तियों को विनम्रतापूर्वक स्वीकारते हुये अपनी इन ग़ज़ल जैसी रचनाओं का नया नामकरण किया। हिंदी के सुप्रसिद्ध गीतकार नीरज ने इसे गीतिका कहा तो किसी हास्यकवि ने उसे हजल का नाम दिया। व्यंगकारों ने उसे व्यंग़ज़ल कहा तो किसी ने उसे सजल कह दिया । पत्र पत्रिकाओं ने इसे आमतौर पर देवनागरी में लिखी ग़ज़ल ही मानते हुये ग़ज़ल या हिन्दी-ग़ज़ल का नाम देकर ही छापा। छन्दमुक्त नई कविता की तरह इसका कोई फार्म तय नहीं हुआ और यह हर तरह के आकार प्रकार में ढल कर सामने आयी तथा दो तुकांत पंक्तियों के पाँच सात शेर नुमा जोड़ों को हि न्दी ग़ज़ल माना गया। यह देवनागरी में हिन्दी भाषा के शब्दों के आधिक्य वाली ’ग़ज़ल‘ नहीं थी जैसेी कि कुछ लोगों को गलतफहमी है। ये ग़ज़लनुमा वे काव्य रचनाएँ हैं जो केवल कथ्य के आधार पर ही अपनी सफलता के सूत्र खेाजने बेसहारे खुले में निकल आयीं व जिन्दा बनी हुयी है। ऐेसी असुरक्षित दशा में इसका जिन्दा बने रहना इस बात का प्रमाण है कि इसमें जनभावनाओं के साथा एकाकार होने की ताकत है तथा सरकारी प्रोत्साहन, पुस्तकाकार प्रकाशन, और पुरस्कार के लालची टुकड़ों के बिना भी यह अपना अस्तित्व बचाये हुये है। मुझे लगता है कि उर्दू ग़ज़ल के बारे में भरपूर ज्ञान होने और उस सन्दर्भ में लम्बी चर्चाओं के बाद दुष्यंत कुमार ने पूरे विश्वास के साथ इस क्षेत्र में अपने कदम रखे होंगे। यह बात न केवल ’साये में धूप‘ की उनकी भूमिका से ही प्रकट होती है अपितु उनके अनेक शेर भी आलोचनाओं के उत्तर देते से लगते हैं। भूमि का के अंश देखिये- “कुछ उरदू-दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है। उनका कहना है कि शब्द ’शहर‘ नहीं होता है ’शह्र‘ होता है, वज़न नहीं होता है वज़्न होता है। -कि मैं उर्दू नहीं जानता लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर‘ की जगह ’नगर‘ लिख कर इस दोष से मुकित पा लूँ, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है जिस रूप में वे हिंदी में घुलमिल गये हैं।.............इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में कही गयी हैं, जिसे मैं बोलता हूँ। - कि ग़ज़ल की विधा एक बहुत पुरानी, किंतु सशक्त विधा है, जिसमें बड़े बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य रचना की है। हिंदी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आजमाया है। परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बाबजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे आज भी संकोच तो है, पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था। शायद इसका कारण ये है कि पत्र पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़ कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्मविश्वास दि या है।‘‘ यदि हम दुष्यंत को आज की हिंदी ग़ज़ल का अग्रदूत मानते हैं तो उपरोक्त पंक्तियों को इस विधा के सूत्र मान सकते हैं जिनके अनुसार बोलचाल व व्यवहार की भाषा का प्रयोग व कथ्य के आधार पर सम्प्रेषणीयता और जनप्रियता ही इसके प्राण तत्व हैं। उनके ही कुछ शेर देखें- मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ दुष्यंत की ग़ज़लें एक जनआंदोलन के लिए साथ जनता के साथ एकाकार होती उनके गले से लिपटती ग़ज़लें हैं- मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है और इस आंदोलन के लिए ग़ज़ल की भूमिका का औचित्य बताते हुये वे कह रहे हैं - सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत हर किसी के पास तो ऐसी नजर होती नहीं वे नितांत व्यक्तिगत दर्द तक केन्द्रित ग़ज़ल के शायर नहीं हैं अपितु उनकी ओढ़ने बिछाने वाली ग़ज़लें हवाओं में घुल कर भी साँसों के द्वारा जीवन के साथ मिलती हैं- जिन हवाओं ने तुझको दुलराया उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी उनकी ग़ज़लें ऊँघे हुये लोगों में चेतना के लिए भी काम करती हैं- अब तड़फती सी ग़ज़ल कोई सुनाये हमसफर ऊँघे हुये हैं अनमने हैं उनकी ग़ज़लें फार्म की जकड़बन्दी को तोड़ कर स्वतंत्र रूप से व्यवहार करना चाहती है क्योंकि सिर्फ हंगामा खड़ा करना उनका मकसद नहीं है अपितु वे सूरत बदलना चाहते हैं इसलिए कहते हैं कि- जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं वे पुराने ग़ज़लकारों पर व्यंग्य करते हुये नये लोगों को सावधान करते हुये कहते हैं कि- इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उड़ेल अब लोग टोकते हैं कि ग़ज़ल है कि मर्सिया हिन्दी ग़ज़ल के पितृ पुरूष के ये सीधे संवाद करते शेर हिन्दी ग़ज़ल की भूमिका हैं जो उसे पुरानी ग़ज़ल से अलग करते हुये एक नई विधा का रूप देते हैं भले ही वह किसी भी लिपि में लिखी गयी हो। From girindranath at gmail.com Tue Mar 4 01:17:18 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 4 Mar 2008 01:17:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSy4KSc?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkleCkviDgpK/gpLkg4KSF4KSC4KSm4KS+4KScIC4uLi4u?= =?utf-8?b?Li4=?= Message-ID: <63309c960803031147x79f6d102q600d3225f8808db1@mail.gmail.com> यह गुलज़ारकी कविता है। आप बस इसमे खो जायें वैसे गुलज़ार ने इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डाक्टर भास्कर बनर्जी नामक चरित्र के लिये लिखा गया था। याद है न! इस चरित्र को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था। गिरीन्द्र ये रही कविता - मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे जर्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080304/1c39bc5e/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Mar 5 17:43:58 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 5 Mar 2008 17:43:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Talk by CM Naim on Delhi Message-ID: <200803051743.58264.ravikant@sarai.net> प्रो. सीएम नईम उर्दू भाषा-साहित्य के विद्वान और अनुअल ऑफ़ उर्दू स्टडीज़ के संस्थापक संपादक रहे हैं. http://www.urdustudies.com/ मूलत: बाराबंकी के रहनेवाले नईम साहब ने भाषा और अस्मिता के मसले पर उन्होंने काफ़ी कुछ लिखा है, और ज़िक्रे मीर का अंग्रेज़ी में तर्जुमा भी किया है, उनकी इंट्रोडक्शन टू उर्दू, दो खंडों में, किसी भी उर्दू सीखनेवाले के लिए अच्छा स्रोत है. इंटरनेट पर तो है ही, और उर्दू काउंसिल, आरके पुरम दिल्ली से भी सस्ते दाम पर उपलब्ध है. कृपया ज़रूर आएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Talk by CM Naim on Delhi Date: बुधवार 05 मार्च 2008 17:32 From: Ravikant To: reader-list at sarai.net You are cordially invited to a Talk by C. M. Naim, Professor Emeritus, University of Chicago on Sir Syed Ahmed Khan's Two Books on Delhi 12 March 2008, Wednesday: 3.00 PM Seminar Room, Sarai-CSDS regards ravikant ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Mar 5 18:34:33 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 5 Mar 2008 18:34:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkreCkvuCkt+CkviDgpJXgpILgpKrgpY3gpK/gpYLgpJ/gpLA=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CktuCkvuCksuCkviAvIDcg4KS1IDgg4KSu?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWN4KSaIDIwMDg=?= Message-ID: <200803051834.33115.ravikant@sarai.net> दीवान-ए-आम और ख़ास तौर पर कंप्यूटरी के स्थानीयकरण में दिलचस्पी रखनेवालों को सूचित किया जाता है कि राजीव गांधी फ़ाउंडेशन से मिलकर सराय में 7 और 8 मार्च को एक कार्यशाला आयोजित की जा रही है. दो दिनों की कार्यशाला में हम हिन्दी, उर्दू, और कश्मीरी भाषा में चल रहे स्थानी यकरण के काम का जायज़ा लेंगे, उसकी समीक्षा करेंगे. इसमें सराय फ़्लॉस फ़ेलो रवि रतलामी, रेड हैट के राजेश रंजन, उर्दू में कार्यरत सवूद आलम(सराय ) आदि के अलावा कश्मीरी के इंदर सलीम और अशोक पंडित सराय फ़ेलो) शिरकत करेंगे. सचिन जोशी हिन्दी की वाणी पहचानने वाले सॉफ़टवेयर पर बोलेंगे, हम फ़ायरफ़ॉक्स की हिन्दी पर भी चर्चा करेंगे, जबकि उर्दू और कश्मीरी को लेकर बुनियादी भाषाई-तकनीकी उलझनों को समझेंगे. हमारा काम 10-10.30 बजे शुरू होगा और शाम के तक़रीबन 6 बजे तक चलेगा. आप सबको दावत है, आइए, और इस महती काम में अपना योगदान दीजिए. और हाँ, थोड़ा वक़्त हाथ में लेकर आइए. शुक्रिया रविकान्त From chauhan.vijender at gmail.com Wed Mar 5 19:15:19 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 5 Mar 2008 19:15:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkreCkvuCkt+CkviDgpJXgpILgpKrgpY3gpK/gpYLgpJ8=?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CktuCkvuCksuCkviAvIDcg4KS1?= =?utf-8?b?IDgg4KSu4KS+4KSw4KWN4KSaIDIwMDg=?= In-Reply-To: <200803051834.33115.ravikant@sarai.net> References: <200803051834.33115.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540803050545k7fbddcf8pc0f0e05d749cda20@mail.gmail.com> बहुत काम का दावतनामा है। यदि कार्यशाला में किसी प्रकार की पठनीय सामग्री बोले तो रीडिंग मेटिरियल दिया जाना है तो उसकी नाजुक प्रति यहॉं भी पहले ही मुहैया करवा दें तो और भला शुक्रिया विजेंद्र On Wed, Mar 5, 2008 at 6:34 PM, Ravikant wrote: > दीवान-ए-आम और ख़ास तौर पर कंप्यूटरी के स्थानीयकरण में दिलचस्पी रखनेवालों > को सूचित किया > जाता है कि राजीव गांधी फ़ाउंडेशन से मिलकर सराय में 7 और 8 मार्च को एक > कार्यशाला आयोजित > की जा रही है. दो दिनों की कार्यशाला में हम हिन्दी, उर्दू, और कश्मीरी भाषा > में चल रहे स्थानी > यकरण के काम का जायज़ा लेंगे, उसकी समीक्षा करेंगे. इसमें सराय फ़्लॉस फ़ेलो > रवि रतलामी, रेड हैट > के राजेश रंजन, उर्दू में कार्यरत सवूद आलम(सराय ) आदि के अलावा कश्मीरी के > इंदर सलीम और अशोक > पंडित सराय फ़ेलो) शिरकत करेंगे. सचिन जोशी हिन्दी की वाणी पहचानने वाले > सॉफ़टवेयर पर बोलेंगे, > हम फ़ायरफ़ॉक्स की हिन्दी पर भी चर्चा करेंगे, जबकि उर्दू और कश्मीरी को लेकर > बुनियादी > भाषाई-तकनीकी उलझनों को समझेंगे. > > हमारा काम 10-10.30 बजे शुरू होगा और शाम के तक़रीबन 6 बजे तक चलेगा. > > आप सबको दावत है, आइए, और इस महती काम में अपना योगदान दीजिए. > > और हाँ, थोड़ा वक़्त हाथ में लेकर आइए. > > शुक्रिया > रविकान्त > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 3422 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080305/6038575f/attachment.bin From ravikant at sarai.net Thu Mar 6 15:33:44 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 6 Mar 2008 15:33:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCkreCkvuCkt+CkviDgpJXgpILgpKrgpY3gpK/gpYLgpJ/gpLA=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkvuCksOCljeCkr+CktuCkvuCksuCkviAvIDcg4KS1IDgg4KSu?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KWN4KSaIDIwMDg=?= In-Reply-To: <8bdde4540803050545k7fbddcf8pc0f0e05d749cda20@mail.gmail.com> References: <200803051834.33115.ravikant@sarai.net> <8bdde4540803050545k7fbddcf8pc0f0e05d749cda20@mail.gmail.com> Message-ID: <200803061533.44344.ravikant@sarai.net> विजेन्दर साहब, इस तरह की कार्यशाला में हम पाठ्यसामग्री नहीं देते, बल्कि हम सॉफ़्टवेयर के भारतीय भाषाओं में हुए अनुवाद को तरह-तरह की प्रयोक्ता कसौटियों पर कसते हैं. तकनीकी मुश्किलों को सुलझाने की दिशा में सोचते-विचारते हैं. तो आप आएँ, देखें, बतियाएँ, अनुवाद वग़ैरह ठीक करें, मूल काम ये है. शुक्रिया बुधवार 05 मार्च 2008 19:15 को, आपने लिखा था: > बहुत काम का दावतनामा है। यदि कार्यशाला में किसी प्रकार की पठनीय सामग्री > बोले तो रीडिंग मेटिरियल दिया जाना है तो उसकी नाजुक प्रति यहॉं भी पहले ही > मुहैया करवा दें तो और भला > शुक्रिया > विजेंद्र > > On Wed, Mar 5, 2008 at 6:34 PM, Ravikant wrote: > > दीवान-ए-आम और ख़ास तौर पर कंप्यूटरी के स्थानीयकरण में दिलचस्पी रखनेवालों > > को सूचित किया > > जाता है कि राजीव गांधी फ़ाउंडेशन से मिलकर सराय में 7 और 8 मार्च को एक > > कार्यशाला आयोजित > > की जा रही है. दो दिनों की कार्यशाला में हम हिन्दी, उर्दू, और कश्मीरी भाषा > > में चल रहे स्थानी > > यकरण के काम का जायज़ा लेंगे, उसकी समीक्षा करेंगे. इसमें सराय फ़्लॉस फ़ेलो > > रवि रतलामी, रेड हैट > > के राजेश रंजन, उर्दू में कार्यरत सवूद आलम(सराय ) आदि के अलावा कश्मीरी के > > इंदर सलीम और अशोक > > पंडित सराय फ़ेलो) शिरकत करेंगे. सचिन जोशी हिन्दी की वाणी पहचानने वाले > > सॉफ़टवेयर पर बोलेंगे, > > हम फ़ायरफ़ॉक्स की हिन्दी पर भी चर्चा करेंगे, जबकि उर्दू और कश्मीरी को > > लेकर बुनियादी > > भाषाई-तकनीकी उलझनों को समझेंगे. > > > > हमारा काम 10-10.30 बजे शुरू होगा और शाम के तक़रीबन 6 बजे तक चलेगा. > > > > आप सबको दावत है, आइए, और इस महती काम में अपना योगदान दीजिए. > > > > और हाँ, थोड़ा वक़्त हाथ में लेकर आइए. > > > > शुक्रिया > > रविकान्त > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From vineetdu at gmail.com Sat Mar 8 11:27:45 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 7 Mar 2008 21:57:45 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KS/4KSy?= =?utf-8?b?4KS+IOCkpuCkv+CkteCkuCDgpK/gpL7gpKjgpL8g4KS54KWLIOCknA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSPIOCkruCljOCknOCkvi3gpK7gpYzgpJzgpL4=?= Message-ID: <829019b0803072157n41fbc81fld09997ae88819465@mail.gmail.com> अगर आप वाकई देश की महिलाओं के लिए कुछ करना चाहते हैं तो मेरी मानिए, कुछ मत कीजिए, उऩको उनके हाल पर छोड़ दीजिए। सड़ने दीजिए कचरों के बीच में, बिलखने दीजिए रोटी के एक टुकड़े के लिए, बनने दीजिए उसे पुरुष की हवस का चारा और करने दीजिए थानेदार को गंदे-गंदे सवाल। आप बस चुपचाप देखते-सुनते रहिए। वैसे भी जितने धक्के और रगड़ खाएगी, उतनी ही मजबूत होगी, समाज के सच को बेहतर तरीके से समझ पाएगी लेकिन प्लीज आप वो सब मत कीजिए जो उनके नाम पर आज कर रहे हैं। ८ मार्च को महिला दिवस है, इसकी मुनादी मीडिया तीन-चार दिन पहले से ही कर रही है। आज तो कइयो ने चाबी बनाकर, भारत का नक्शा बनाकर बीच में कुमकुम लगाई हुई महिला की तस्वीर छापी है। तमाम अखबारों और चैनलों के ग्राफिक्स के बंदों ने रातभर खूब दिमाग लगाया है। देशभर के स्त्री विशेषज्ञों को जुटाया है। उन सफल महिलाओं की सूची बनाई है और अखबारों ने फोटो सहित छोटी-छोटी राय प्रकाशित की है। इधर दिल्ली महिला आयोग ने तो बकायदा मेला लगाया है जिसमें स्त्री और लड़की के हाथों से बनी चीजों की प्रदर्शनी लगायी है। मेरी कुछ दोस्त ने अपनी बुटिक और शोरुम बंद रखे हैं और घर पर ही कुछ करने का मन बनाया है। फोन करके कहा कि शाम को कहीं मत जाना। जोधा-अकबर अभी नहीं देखे हो न। एक को तो सुबह-सुबह ही उसके पति ने पर्ल सेट दिया है इस मौके पर। मेरे कुछ दोस्तों ने बताया कि अगर मूड बन गया तो आज छुट्टी ले लेंगे और खाना भी बाहर खाएंगे या फिर खुद ही कुछ ट्राय करेंगे लेकिन पत्नी को आजभर के लिए बख्श देंगे, हाथ जलाने नहीं देगें। मीडिया का महिला अभियान बहुत ही व्यवस्थित तरीके से शुरु होता है। कुछ दिन पहले वे ये खोजते हैं कि रिक्शा चलानेवाली पहली महिला कौन है और फिर पहाड़ पर चढ़नेवाली पहली महिला कौन है। और फिर इस तर्ज पर शुरु हो जाता है कि देश की पहली फलां...कौन... पहली फलां कौन.....। अखबार तो उससे सम्पर्क करके उनके संघर्ष की कहानी छाप देते हैं लेकिन चैनल के लिए काम थोड़ा बढ़ जाता है। वो उन तमाम महिलाओं से चैट की कोशिश करते हैं जिन-जिन के घर में चैनल की ओबी वैन पहुंच पाती है या फिर वो महिला खुद स्टूडियो तक आ जाए फिर दिनभर एक ही बात की रगड़ाई। जो चैनल सीधे-सीधे इस ट्रेंड में कूदना नहीं चाहते और उन्हे लगता है कि महिला दिवस के नाम पर ये सारे तामझाम बेकार हैं वो शहर के कोलाहल से थोड़ी दूर चले जाते हैं और फिर शुरु होता हैं पैकेज। आज हम दुनिया भर में महिला दिवस मना रहे हैं और देश का एक ऐसा भी हिस्सा है जहां की महिलाएं इसका मतलब नहीं जानतीं। अब भी शौच के लिए घर से तीन किलोमीटर चलकर जाती है, इसके लिए उन्हें सुबह चार बजे ही उठना पड़ता है। जीडीपी ९ प्रतिशत हो जाने के बाबजूद बेहाल हैं, दो जून की रोटी तक मय्यसर नहीं।...ऑडिएंस की नजर में सबसे बेहतर दिखने और लगने के लिए जी-जान लगाते एंकर-रिपोर्टर। विचारधारा के स्तर पर अगर बात होती है तो बहस की गुंजाइश भी बन सकती है कि इसे बनाओ, इसे मत मनाओ लेकिन अब तो इसमें बाजार भी शामिल है और सच कहें तो सबसे ज्यादा तरीके से सक्रिय है। वो बाजार जो विचारधारा और तर्कों पर नहीं खपत पर चलता है। इसलिए आपको जो मन में आए दिन और दिवस मनाइए इससे बाजार को कोई परेशानी नहीं है। जहां राधा-कृष्ण की जोड़ी बिक रही थी अब महिला दिवस के नाम पर लक्क्षीमाई की तस्वीर बिकती है तो क्या दिक्कत है, भंवरीदेवी का टैटो बिकती है तो वही बेचो। सारे बड़े मॉल में कुछ न कुछ इवेंट होगें। एक-दो साल और होने दीजिए, अभी कायदे से मार्केट की नजर इस पर गई नहीं है। नहीं तो महिला दिवस के सात दिन पहले से सात दिन बाद तक कूकर- कड़ाही, नॉनस्टिक पैन, फ्रीज, वॉशिंग मशीन और घर की तमाम चीजों पर छूट मिलने लगेंगे। स्टेफी महिला मैराथन कराएगा, अयूर हर्वल गांव में गोरापन के लिए शिविर लगाएगा।.....वो सब कुछ होगा, कराया जाएगा जिससे देश की महिलाओं और महिला दिवस के नाम पर अच्छी-खासी खरीदारी की जा सके। अभी गिफ्ट और कार्ड की कम्पनियों का ढंग से कूदना बाकी है। ......इधर सरकारी कोशिशें भी तेज है। इस दिन बड़ी-बड़ी घोषनाएं करो, देश की बेटियों के पक्ष में, गर्भवती होने पर राहत की बात करो, उनसे कहो कि तुम चटाई बनाओ, बाजार हम देंगे। घर में मसाला पीसो, पैकिंग करके बेचने की व्यवस्था हम कर देंगे। दो-चार पुल महिला के नाम पर बना दो। वो सब कुछ करो जिससे लगे कि पितृसत्तात्मक समाज में महिला के लिए भी पूरा स्पेस है। ऐसा महौल तैयार करो कि महिलाएं सूचना अधिकार को लेकर सवाल न करे, विवाह संस्था पर उंगली न उठाए, कचहरी जाने की बात न करे, थानेदार के भद्दे-भद्दे कमेंट पर भी न लजाए और बनी रहे।.....८ मार्च को खूब मौजा-मौजा कर दो, सालभर असर रहेगा। वैसे भी भारतीय जनमानस उत्सवधर्मी माहौल का कायल रहा है। आप इसका वास्तविक संदर्भ न भी बताएंगे तो भी......... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-92 Size: 10288 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080307/48d489d3/attachment-0001.bin From beingred at gmail.com Sun Mar 9 15:03:18 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 9 Mar 2008 15:03:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KSy4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KWA4KSo4KWAIOCkleCljeCksOCkvuCkguCkpOCkvyDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSa4KWH4KSk4KSo4KS+IDog4KSc4KWJ4KSw4KWN4KScIOCkueCkrA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KS+4KS2?= Message-ID: <363092e30803090133q7f5ee1a5me6613b4277cdfb4e@mail.gmail.com> फलस्तीनी क्रांति की चेतना : जॉर्ज हब्बाश फलस्तीनी क्रांति की चेतना जॉर्ज हब्बाश 02 अगस्त, 1926-26 जनवरी, 2008 रेयाज-उल-हक सभी क्रांतिकारियों को निश्चित तौर पर मार्क्सवादी होना चाहिए, क्योंकि माक्सर्वाद मजदूर वर्ग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है. -जॉर्ज हब्बाश फलस्तीनियों के बेवतन होने के 50 वें साल में उनके हकीम ने उन्हें अलविदा कह दिया. यह पूरी दुनिया के जनसंघर्षों, छापामार योद्धाओं और मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांतिकारियों के लिए एक उदास कर देनेवाली खबर थी. यह हर तरह के शोषण के खात्मे और बराबरी का सपना देखनेवाले लोगों के लिए आंसुओं से भरी हुई खबर थी-आंसुओं, खून और पसीने से भरी हुई, जो जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम के जीवन का हिस्सा रहे. जॉर्ज हब्बाश नहीं रहे. 82 साल की उम्र में जब उन्होंने अपनी आंखें बंद कीं, उनके वतन के 40 लाख लोग-एक पूरा का पूरा देश-अपनी अनेक पीढियों के शोक, पीडा और अपराजेय लडाइयों के साथ अब भी निर्वासित, बेघरबार और बेजमीन बने हुए हैं. वे एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं, जिसकी अपनी कोई जमीन नहीं रही. उनकी जमीन उनसे छीन कर एक दूसरे देश को दे दी गयी और वह दूसरा्व देश लगातार अपनी घेराबंदी उनके चारों ओर कसता जा रहा है. हब्बाश 2 अगस्त, 1926 को लिड्डा में जन्मे थे. उनका परिवार एक यूनानी ऑर्थोडॉक्स ईसाई परिवार था. उनका परिवार व्यापार करता था और काफी संपन्न था. जब हब्बाश 10 वर्ष के थे, 1936 में विद्रोह और क्रांतिकारी संघर्ष से उनका पहला परिचय हुआ. यह महान फलस्तीनी विद्रोह के फूट पडने का दौर था. बाद में, अभी से लगभग 10 साल पहले एक इंटरव्यू के दौरान हब्बाश ने उन दिनों को याद किया. उन्होंने याद किया कि किस तरह फलस्तीनी राष्ट्रवादी आंदोलनकारी ब्रिटेन के खिलाफ बडे विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया करते थे. उन्होंने उन शिक्षकों को याद किया, जिन्होंने उन सबमें संघर्ष की भावना भरी थी और अपने छात्रों को अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष को प्रोत्साहित किया था. हब्बाश ने उन्हें भी याद किया था, जिन्होंने दुनिया के इस सबसे लंबे युद्ध में अपनी जमीन और अपने लोगों के लिए महान शहादतें दीं. जॉर्ज हब्बाश उन्हीं शहादतों, उन्हीं संघर्षों, उन्हीं लडाइयों और मुक्ति के उन्हीं सपनों की उपज थे. 1948 में हब्बाश अपने परिवार के साथ एक शरणार्थी बन गये, जब इस्राइल की स्थापना की गयी और फलस्तीन में जायनिस्ट हमलावर घुस आये. लाखों फलस्तीनी अपने घरों से जबरन खदेड दिये गये. फलस्तीनियों के जेहन में यह घटना अल नकबा के नाम से याद है। हब्बाश के परिवार को लेबनान में शरण लेनी पडी. वहां रहते हुए हब्बाश का नामांकन बेरूत स्थित अमेरिका विश्वविद्यालय में हो गया, जहां उन्होंने मेडिकल की पढाई की. एक बातचीत में हब्बाश ने तबके लेबनानी राष्ट्रपति डॉ बायर्ड डोडगे की बातों को याद किया है-वे हमसे कहते कि हमें अमेरिका के बारे में बताओ जो कि इंसाफ, आजादी और मानवतावादी उसूलों के लिए खडा है. लेकिन हम उनकी बातों में, जो वे अमेरिका के बारे में कह रहे होते और अमेरिका जो कर रहा होता-इस्राइल और यहूदीवाद का समर्थन-में विरोधाभास देखते. हब्बाश ने 1951 में मेडिकल की अपनी पढाई पूरी की. उन्होंने कुछ समय तक प्रैक्टिस भी की. उन्होंने उन दिनों अपनी जन्मभूमि लिड्डा की यात्रा की, जब वह एक जायनिस्ट हत्यारे गिरोह के कब्जे में थी. शहर पर इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे हगाना नामक गिरोह की मदद से शासन कर रहे उक्त जायनिस्ट गिरोह ने शहर को लगभग श्मशान में तबदील कर दिया था. शहर के 20 हजार बाशिंदों का सफाया कर दिया गया. अब हम इस घटना को लिड्डा डेथ मार्च्व के नाम से जानते हैं. इस्राइली इतिहासकारों के अनुसार इसमें सिर्फ 335 आदमी, औरतें और बच्चे मारे गये, जबकि अन्य स्रोत इससे कहीं अधिक की संख्या बताते हैं. इस घटना के पहले 426 लोगों की हत्या जायनिस्ट बलों ने कर दी थी. विस्थापित फलस्तीनी जॉर्डन में शरण ले रहे थे. हब्बाश जॉर्डन स्थित इन शरणार्थी शिविरों में डॉक्टर के रूप में काम कर रहे थे. यहां रोज उनका सामना निर्वासन के कठोर जीवन और इस्राइली क्रूरता से होता. धीरे-धीरे वे मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर के अखिल अरब राष्ट्रवाद्व के करीब आये. 1957 में उन्हें जॉर्डन छोडने पर मजबूर होना पडा, क्योंकि तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी. इसके लगभग एक साल बाद, 1958 में अमेरिका विवि, बेरूत के पूर्व छात्रों को लेकर हब्बाश ने अरब नेशनलिस्ट मूवमेंट शुरू किया. जो कि अम्मान और जॉर्डन में सक्रिय था. उनकी कोशिश थी कि इस्राइल के विरुद्ध सारा अरब जगत एक हो जाये. 1967 में इस्राइल-अरब के बीच छह दिवसीय युद्ध हुआ, जिसने मध्यपूर्व के भावी इतिहास की दिशा तय की. इस युद्ध में अरबों की पराजय हुई और इस्राइल ने पूर्वी येरुशेलम, पश्चिमी तट और गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया. इलाके में बढते इस्राइली प्रभाव, मध्यपूर्व में अमेरिकी हस्तक्षेप, इस्राइल को खुली अमेरिकी मदद और अरब जगत पर विभिन्न रूपों में जायनिस्ट हमलों ने हब्बाश के लिए यह साफ कर दिया कि शांतिपूर्ण और समझौतावादी संघर्षों से कुछ नहीं होनेवाला. उन्होंने फलस्तीन की मुक्ति के लिए नये तरह के युद्ध की जरूरत समझी और पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ पैलेस्टाइन्व (पीएफएलपी)नामक मशहूर संगठन की बुनियाद रखी। हब्बाश के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ और घटनाओं के आपसी अंतर्संबंध इतने साफ थे कि वे मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद के अस्तित्व, उसके स्वरूपों, उसके उत्पीडन और उसके खिलाफ निर्णायक युद्ध की जरूरत को मध्यपूर्व के किसी भी नेता से अधिक समझ रहे थे. इसलिए उन्होंने सिर्फ फलस्तीन की मुक्ति तक ही अपने को सीमित नहीं रखा. वे यह जानते थे कि उनका देश साम्राज्यवाद के मंसूबों के तहत उत्पीडन का शिकार है और इसके पतन के बगैर फलस्तीन आजाद नहीं हो सकता. इसके लिए पूरे अरब जगत और पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ संघर्षों की जरूरत और उनसे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष की एकता के महत्व को उन्होंने समझा. यही वजह रही कि हब्बाश के पीएफएलपी ने पीएलओ के एक और घटक फतह से बिल्कुल भिन्न रास्ता अपनाया. फतह ने अपने को फलस्तीनी चरित्र दिया और उसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही सशस्त्र संघर्ष का सहारा लिया और इसके साथ-साथ कूटनीतिक कार्रवाइयां जारी रखीं. इसके उलट पीएफएलपी ने आरंभ से ही क्रांतिकारी कार्रवाइयों को अपनाया. हब्बाश ने अपने को वैचारिक तौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद से समृद्ध किया. उन्होंने अपने उेश्यों के लिए क्रांतिकारी हिंसा का रास्ता चुना, जिसके बारे में उन्होंने 1967 में पीएफएलपी के उद्धाटन वक्तव्य में कहा-क्रांतिकारी हिंसा एकमात्र भाषा है, जिसे दुश्मन समझता है. पीएफएलपी ने जायनिस्ट दुश्मन के खिलाफ संघर्ष को ऐतिहासिक कार्यभार घोषित किया और उनके द्वारा कब्जा की हुई भूमि को नरक में बदल देने का आह्वान किया. 1969 में पीएफएलपी ने खुद को एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन घोषित किया और यह एलान किया कि वह साम्राज्यवाद और अरब प्रतिक्रियावाद के खिलाफ लडेगा. पीएफएलपी ने फलस्तीन को मुक्त करने के संघर्ष को व्यापक राजनीतिक-सामाजिक क्रांति के एक हिस्से के तौर पर देखा. हब्बाश का कहना था कि फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष सिर्फ फलस्तीन को यहूदीवादियों से मुक्त कराने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उेश्य अरब जगत को पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों से मुक्त कराना भी है. इसके अलावा उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि इस्राइल पर विजय तभी हासिल हो सकती है जब पारंपरिक अरब सरकारें क्रांतिकारी शासन द्वारा हटा दी जायें. 60 का दशक दुनिया की उत्पीडित जनता के लिए सबसे सौभाग्यशाली दशकों में से था. यह वह दौर था जब दुनिया के अनेक देशों में उत्पीडित जनता साम्राज्यवादी, सामंती और उत्पीडक शासकों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्षों के नये-नये रूप तलाश रही थी और नये मोरचों पर अपने दुश्मनों को मात दे रही थी. भारत में नक्सलबाडी के रूप में एक सुव्यवस्थित क्रांतिकारी आंदोलन जन्म ले रहा था, चीन माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था और वियतनाम में उसकी बहादुर जनता के अपराजेय प्रतिरोध के कारण अमेरिका अपने इतिहास के सबसे अपमानजनक पराजय की ओर बढ रहा था. पेरिस में भी छात्रों का आंदोलन उभर रहा था. जॉर्ज हब्बाश के नेतृत्व में पीएफएलपी इन संघर्षों की उत्तेजना और तकनीक से कटा हुआ नहीं था. वह उनसे सीख रहा था और समृद्ध हो रहा था. इसी दौर में पीएफएलपी ने चीन और वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध से गुरिल्ला तकनीक अपनायी और फलस्तीन-अरब मुक्ति संघर्ष में एक नये दौर की शुरुआत हुई. हब्बाश का मानना था कि फलस्तीन की मुक्ति के लिए चीन और वियतनाम के रास्ते उपयुक्त हैं. हालांकि एक समय हब्बाश फिदायीन हमलों के बडे विरोधी रहे थे. लेकिन नयी परिस्थितियों में उन्होंने पाया कि गुरिल्ला युद्ध एक अनिवार्यता हो गया है. इस कारण से हो रही हिंसा के बारे में पूछने पर वे कहते-हमें दोष मत दो, दोष इस्राइलियों को दो जो हमारे युद्ध के स्वरूप को बिगाडने की कोशिश करते हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ सहित दुनिया की बडी ताकतों ने इस्राइल की स्थापना करने के बाद फलस्तीनियों को भुला दिया था. उनके लिए मानो फलस्तीनियों की व्यथा और उनका नारकीय-गुलामीभरा जीवन था ही नहीं. उनके संघर्षों की ओर और उनकी पीडा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता था. 1970 में पीएफएलपी ने दुनिया का ध्यान फलस्तीन संघर्ष की ओर आकर्षित करने के लिए उग्र रणनीति अपनायी. उसके योद्धाओं ने दो वायुयानों को हाइजैक किया और नष्ट कर दिया. हब्बाश का कहना था कि जब हम एक हवाई जहाज हाइजैक करते हैं तो यह सौ इस्राइलियों को युद्ध में मारने से ज्यादा प्रभावकारी होता है...दशकों से विश्व जनमत न तो फलस्तीन के पक्ष में और न इसके खिलाफ रहा है. उन्होंने सामान्यतः हमें नजरअंदाज किया है. कम से कम अब दुनिया हमारे बारे में बात तो करती है. वे कहते-इस्राइली बिना अमेरिकी समर्थन के कुछ भी नहीं कर सकते हैं. वे उस सबके जिम्मेवार हैं, जो हमारे शिविरों में हो रहा है. फलस्तीनी शरणार्थी शिविर यहूदियों के लिए बने नाजी यातना शिविरों से थोडे बेहतर हैं. हालांकि बाद में पीएफएलपी ने पश्चिमी सरकारों पर हमलों की रणनीति को त्याग दिया लेकिन उसने इस्राइली आक्रमणकारियों पर ऐसे हमले जारी रखे.फलस्तीननियों1980 में हब्बाश को दिल का एक दौरा पडा और उन्हें मजबूरी में कामकाज से अलग होना पडा. 1990 में वे सीरिया और जॉर्डन में रहे. 1993 में जब यासर अराफात ने ओस्लो समझौता किया तो पीएफएलपी ने अराफात पर आरोप लगाया कि वे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष को बेच आये हैं. इस समझौते के तहत पीएलओ ने उन इलाकों में जिन पर इस्राइल ने 1967 के बाद से अधिकार कर लिया था, फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के साथ सीमित शासन को स्वीकार कर लिया. यह फलस्तीनी मुक्ति आंदोलन के पारंपरिक उेश्य-फलस्तीन से एक इस्राइली यहूदी राज्य की जगह एक लोकतांत्रिक, धर्मनरिपेक्ष राज्य के गठन जिसमें सभी धर्मों-मूलों को लोग समानता के साथ रह सकें-से पीछे हटना था. इस समझौते में उन फलस्तीनियों को लिए कोई चिंता नहीं दिखती थी, जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जी रहे थे. उनके लौटने का कोई प्रावधान इसमें नहीं था और न ही यह इस्राइल पर किसी भी तरह बाध्यकारी था कि वह फलस्तीनियों को उनके अधिकार सौंपे. वे इस बात को समझते थे कि ओस्लो समझौते के बाद पीएलओ अरबों का समर्थन खो देगा, क्योंकि इस समझौते में अरब-इस्राइल विवाद के केंद्र में नहीं रखा गया है और मामले के केवल फलस्तीन तक सीमति रखा गया है. वे इससे चिंतित थे कि यह समझौता फलस्तीनी एकता को खत्म कर देगा. ओस्लो समझौते के विरोध के लिए पीएफएलपी ने ब्लॉक-10 नामक समूह बनाया, जिसमें इसके अलावा हमास और इस्लामिक जेहाद समेत नौ और संगठन थे. फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के बाद भी हब्बाश ने कभी भी उसे मान्यता नहीं दी और न उसके अधिकार क्षेत्र में आनेवाली भूमि पर कदम रखे. 1998 में एक साक्षात्कार में हब्बाश ने कहा था- इस्राइलियों के साथ काम करने की कूटनीति के लिए कोई जगह नहीं है.हब्बाश यासर अराफात से कभी भी सहमत नहीं रहे. उन्होंने अराफात पर आरोप लगाया कि अराफात ने यहूदीवाद के असली चरित्र को भुला दिया है और ओस्लो समझौते के परिणाम फलस्तीनी लोगों के लिए त्रासद रहेंगे. हब्बाश उन संगठनों के नजदीक थे जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते थे. उनका कहना था- हम हमास से जुडे हुए हैं. हरेक फलस्तीनी को अपने घर, अपनी जमीन, अपने परिवार और अपने सम्मान के लिए लडने का अधिकार है-ये उसके अधिकार हैं. अंत-अंत तक उन्होंने इसके कोई संकेत नहीं दिये कि उनका फ्रंट सैन्य कार्रवाइयों को स्थगित करने का इरादा रखता है. वे कहते-सशस्त्र संघर्ष विवाद की प्रकृति पर निर्भर करता है-जो कि दुश्मन की प्रकृति द्वारा तय होता है. अपने अंतिम दिनों में हब्बाश ने युद्धरत फलस्तीनी धडों की एकता और गाजा की दीवारबंदी के खिलाफ युद्ध के लिए आह्वान किया. हब्बाश कहते थे-अरब राष्ट्रवाद और स्थानीय सक्रियता के बीच जुडाव जरूरी है. आज हब्बाश अम्मान के एक कब्रिस्तान में गहरी नींद सो रहे हैं. उनके सम्मान में फलस्तीनी राष्ट्रीय झंडा झुका रहा और फलस्तीनियों ने शोक मनाया. वे जीवनपर्यंत फलस्तीन की क्रांति के नायक रहे. यहां तक कि वे लोग भी, जो हब्बाश से असहमत थे, वे हब्बाश को फलस्तीनी क्रांति की चेतना कहते थे. वे एक ईसाई थे और उनका संघर्ष फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करता है. जॉर्ज हब्बाश अपने फलस्तीन को कभी मुक्त हुआ नहीं देख सके, लेकिन उन्होंने फलस्तीनी जनता में और उसकी संघर्षचेतना में कभी यकीन भी नहीं खोया. फलस्तीन कासपना, आजादी और बराबरी का सपना, प्रतिरोध और संघर्ष की परंपरा जब तक जिंदा रहेगी, जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम जिंदा रहेंगे...और दुनिया उस तरह मुक्त होगी, जिस तरह उन्होंने चाहा था-मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर, मजदूरों, किसानों और व्यापक जनता के निर्णायक संघर्षों के जरिये। -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080309/9297b6ce/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Sun Mar 9 15:03:18 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 9 Mar 2008 15:03:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KSy4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KWA4KSo4KWAIOCkleCljeCksOCkvuCkguCkpOCkvyDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSa4KWH4KSk4KSo4KS+IDog4KSc4KWJ4KSw4KWN4KScIOCkueCkrA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSs4KS+4KS2?= Message-ID: <363092e30803090133q7f5ee1a5me6613b4277cdfb4e@mail.gmail.com> फलस्तीनी क्रांति की चेतना : जॉर्ज हब्बाश फलस्तीनी क्रांति की चेतना जॉर्ज हब्बाश 02 अगस्त, 1926-26 जनवरी, 2008 रेयाज-उल-हक सभी क्रांतिकारियों को निश्चित तौर पर मार्क्सवादी होना चाहिए, क्योंकि माक्सर्वाद मजदूर वर्ग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है. -जॉर्ज हब्बाश फलस्तीनियों के बेवतन होने के 50 वें साल में उनके हकीम ने उन्हें अलविदा कह दिया. यह पूरी दुनिया के जनसंघर्षों, छापामार योद्धाओं और मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांतिकारियों के लिए एक उदास कर देनेवाली खबर थी. यह हर तरह के शोषण के खात्मे और बराबरी का सपना देखनेवाले लोगों के लिए आंसुओं से भरी हुई खबर थी-आंसुओं, खून और पसीने से भरी हुई, जो जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम के जीवन का हिस्सा रहे. जॉर्ज हब्बाश नहीं रहे. 82 साल की उम्र में जब उन्होंने अपनी आंखें बंद कीं, उनके वतन के 40 लाख लोग-एक पूरा का पूरा देश-अपनी अनेक पीढियों के शोक, पीडा और अपराजेय लडाइयों के साथ अब भी निर्वासित, बेघरबार और बेजमीन बने हुए हैं. वे एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं, जिसकी अपनी कोई जमीन नहीं रही. उनकी जमीन उनसे छीन कर एक दूसरे देश को दे दी गयी और वह दूसरा्व देश लगातार अपनी घेराबंदी उनके चारों ओर कसता जा रहा है. हब्बाश 2 अगस्त, 1926 को लिड्डा में जन्मे थे. उनका परिवार एक यूनानी ऑर्थोडॉक्स ईसाई परिवार था. उनका परिवार व्यापार करता था और काफी संपन्न था. जब हब्बाश 10 वर्ष के थे, 1936 में विद्रोह और क्रांतिकारी संघर्ष से उनका पहला परिचय हुआ. यह महान फलस्तीनी विद्रोह के फूट पडने का दौर था. बाद में, अभी से लगभग 10 साल पहले एक इंटरव्यू के दौरान हब्बाश ने उन दिनों को याद किया. उन्होंने याद किया कि किस तरह फलस्तीनी राष्ट्रवादी आंदोलनकारी ब्रिटेन के खिलाफ बडे विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया करते थे. उन्होंने उन शिक्षकों को याद किया, जिन्होंने उन सबमें संघर्ष की भावना भरी थी और अपने छात्रों को अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष को प्रोत्साहित किया था. हब्बाश ने उन्हें भी याद किया था, जिन्होंने दुनिया के इस सबसे लंबे युद्ध में अपनी जमीन और अपने लोगों के लिए महान शहादतें दीं. जॉर्ज हब्बाश उन्हीं शहादतों, उन्हीं संघर्षों, उन्हीं लडाइयों और मुक्ति के उन्हीं सपनों की उपज थे. 1948 में हब्बाश अपने परिवार के साथ एक शरणार्थी बन गये, जब इस्राइल की स्थापना की गयी और फलस्तीन में जायनिस्ट हमलावर घुस आये. लाखों फलस्तीनी अपने घरों से जबरन खदेड दिये गये. फलस्तीनियों के जेहन में यह घटना अल नकबा के नाम से याद है। हब्बाश के परिवार को लेबनान में शरण लेनी पडी. वहां रहते हुए हब्बाश का नामांकन बेरूत स्थित अमेरिका विश्वविद्यालय में हो गया, जहां उन्होंने मेडिकल की पढाई की. एक बातचीत में हब्बाश ने तबके लेबनानी राष्ट्रपति डॉ बायर्ड डोडगे की बातों को याद किया है-वे हमसे कहते कि हमें अमेरिका के बारे में बताओ जो कि इंसाफ, आजादी और मानवतावादी उसूलों के लिए खडा है. लेकिन हम उनकी बातों में, जो वे अमेरिका के बारे में कह रहे होते और अमेरिका जो कर रहा होता-इस्राइल और यहूदीवाद का समर्थन-में विरोधाभास देखते. हब्बाश ने 1951 में मेडिकल की अपनी पढाई पूरी की. उन्होंने कुछ समय तक प्रैक्टिस भी की. उन्होंने उन दिनों अपनी जन्मभूमि लिड्डा की यात्रा की, जब वह एक जायनिस्ट हत्यारे गिरोह के कब्जे में थी. शहर पर इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे हगाना नामक गिरोह की मदद से शासन कर रहे उक्त जायनिस्ट गिरोह ने शहर को लगभग श्मशान में तबदील कर दिया था. शहर के 20 हजार बाशिंदों का सफाया कर दिया गया. अब हम इस घटना को लिड्डा डेथ मार्च्व के नाम से जानते हैं. इस्राइली इतिहासकारों के अनुसार इसमें सिर्फ 335 आदमी, औरतें और बच्चे मारे गये, जबकि अन्य स्रोत इससे कहीं अधिक की संख्या बताते हैं. इस घटना के पहले 426 लोगों की हत्या जायनिस्ट बलों ने कर दी थी. विस्थापित फलस्तीनी जॉर्डन में शरण ले रहे थे. हब्बाश जॉर्डन स्थित इन शरणार्थी शिविरों में डॉक्टर के रूप में काम कर रहे थे. यहां रोज उनका सामना निर्वासन के कठोर जीवन और इस्राइली क्रूरता से होता. धीरे-धीरे वे मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर के अखिल अरब राष्ट्रवाद्व के करीब आये. 1957 में उन्हें जॉर्डन छोडने पर मजबूर होना पडा, क्योंकि तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी. इसके लगभग एक साल बाद, 1958 में अमेरिका विवि, बेरूत के पूर्व छात्रों को लेकर हब्बाश ने अरब नेशनलिस्ट मूवमेंट शुरू किया. जो कि अम्मान और जॉर्डन में सक्रिय था. उनकी कोशिश थी कि इस्राइल के विरुद्ध सारा अरब जगत एक हो जाये. 1967 में इस्राइल-अरब के बीच छह दिवसीय युद्ध हुआ, जिसने मध्यपूर्व के भावी इतिहास की दिशा तय की. इस युद्ध में अरबों की पराजय हुई और इस्राइल ने पूर्वी येरुशेलम, पश्चिमी तट और गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया. इलाके में बढते इस्राइली प्रभाव, मध्यपूर्व में अमेरिकी हस्तक्षेप, इस्राइल को खुली अमेरिकी मदद और अरब जगत पर विभिन्न रूपों में जायनिस्ट हमलों ने हब्बाश के लिए यह साफ कर दिया कि शांतिपूर्ण और समझौतावादी संघर्षों से कुछ नहीं होनेवाला. उन्होंने फलस्तीन की मुक्ति के लिए नये तरह के युद्ध की जरूरत समझी और पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ पैलेस्टाइन्व (पीएफएलपी)नामक मशहूर संगठन की बुनियाद रखी। हब्बाश के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ और घटनाओं के आपसी अंतर्संबंध इतने साफ थे कि वे मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद के अस्तित्व, उसके स्वरूपों, उसके उत्पीडन और उसके खिलाफ निर्णायक युद्ध की जरूरत को मध्यपूर्व के किसी भी नेता से अधिक समझ रहे थे. इसलिए उन्होंने सिर्फ फलस्तीन की मुक्ति तक ही अपने को सीमित नहीं रखा. वे यह जानते थे कि उनका देश साम्राज्यवाद के मंसूबों के तहत उत्पीडन का शिकार है और इसके पतन के बगैर फलस्तीन आजाद नहीं हो सकता. इसके लिए पूरे अरब जगत और पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ संघर्षों की जरूरत और उनसे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष की एकता के महत्व को उन्होंने समझा. यही वजह रही कि हब्बाश के पीएफएलपी ने पीएलओ के एक और घटक फतह से बिल्कुल भिन्न रास्ता अपनाया. फतह ने अपने को फलस्तीनी चरित्र दिया और उसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही सशस्त्र संघर्ष का सहारा लिया और इसके साथ-साथ कूटनीतिक कार्रवाइयां जारी रखीं. इसके उलट पीएफएलपी ने आरंभ से ही क्रांतिकारी कार्रवाइयों को अपनाया. हब्बाश ने अपने को वैचारिक तौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद से समृद्ध किया. उन्होंने अपने उेश्यों के लिए क्रांतिकारी हिंसा का रास्ता चुना, जिसके बारे में उन्होंने 1967 में पीएफएलपी के उद्धाटन वक्तव्य में कहा-क्रांतिकारी हिंसा एकमात्र भाषा है, जिसे दुश्मन समझता है. पीएफएलपी ने जायनिस्ट दुश्मन के खिलाफ संघर्ष को ऐतिहासिक कार्यभार घोषित किया और उनके द्वारा कब्जा की हुई भूमि को नरक में बदल देने का आह्वान किया. 1969 में पीएफएलपी ने खुद को एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन घोषित किया और यह एलान किया कि वह साम्राज्यवाद और अरब प्रतिक्रियावाद के खिलाफ लडेगा. पीएफएलपी ने फलस्तीन को मुक्त करने के संघर्ष को व्यापक राजनीतिक-सामाजिक क्रांति के एक हिस्से के तौर पर देखा. हब्बाश का कहना था कि फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष सिर्फ फलस्तीन को यहूदीवादियों से मुक्त कराने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उेश्य अरब जगत को पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों से मुक्त कराना भी है. इसके अलावा उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि इस्राइल पर विजय तभी हासिल हो सकती है जब पारंपरिक अरब सरकारें क्रांतिकारी शासन द्वारा हटा दी जायें. 60 का दशक दुनिया की उत्पीडित जनता के लिए सबसे सौभाग्यशाली दशकों में से था. यह वह दौर था जब दुनिया के अनेक देशों में उत्पीडित जनता साम्राज्यवादी, सामंती और उत्पीडक शासकों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्षों के नये-नये रूप तलाश रही थी और नये मोरचों पर अपने दुश्मनों को मात दे रही थी. भारत में नक्सलबाडी के रूप में एक सुव्यवस्थित क्रांतिकारी आंदोलन जन्म ले रहा था, चीन माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था और वियतनाम में उसकी बहादुर जनता के अपराजेय प्रतिरोध के कारण अमेरिका अपने इतिहास के सबसे अपमानजनक पराजय की ओर बढ रहा था. पेरिस में भी छात्रों का आंदोलन उभर रहा था. जॉर्ज हब्बाश के नेतृत्व में पीएफएलपी इन संघर्षों की उत्तेजना और तकनीक से कटा हुआ नहीं था. वह उनसे सीख रहा था और समृद्ध हो रहा था. इसी दौर में पीएफएलपी ने चीन और वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध से गुरिल्ला तकनीक अपनायी और फलस्तीन-अरब मुक्ति संघर्ष में एक नये दौर की शुरुआत हुई. हब्बाश का मानना था कि फलस्तीन की मुक्ति के लिए चीन और वियतनाम के रास्ते उपयुक्त हैं. हालांकि एक समय हब्बाश फिदायीन हमलों के बडे विरोधी रहे थे. लेकिन नयी परिस्थितियों में उन्होंने पाया कि गुरिल्ला युद्ध एक अनिवार्यता हो गया है. इस कारण से हो रही हिंसा के बारे में पूछने पर वे कहते-हमें दोष मत दो, दोष इस्राइलियों को दो जो हमारे युद्ध के स्वरूप को बिगाडने की कोशिश करते हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ सहित दुनिया की बडी ताकतों ने इस्राइल की स्थापना करने के बाद फलस्तीनियों को भुला दिया था. उनके लिए मानो फलस्तीनियों की व्यथा और उनका नारकीय-गुलामीभरा जीवन था ही नहीं. उनके संघर्षों की ओर और उनकी पीडा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता था. 1970 में पीएफएलपी ने दुनिया का ध्यान फलस्तीन संघर्ष की ओर आकर्षित करने के लिए उग्र रणनीति अपनायी. उसके योद्धाओं ने दो वायुयानों को हाइजैक किया और नष्ट कर दिया. हब्बाश का कहना था कि जब हम एक हवाई जहाज हाइजैक करते हैं तो यह सौ इस्राइलियों को युद्ध में मारने से ज्यादा प्रभावकारी होता है...दशकों से विश्व जनमत न तो फलस्तीन के पक्ष में और न इसके खिलाफ रहा है. उन्होंने सामान्यतः हमें नजरअंदाज किया है. कम से कम अब दुनिया हमारे बारे में बात तो करती है. वे कहते-इस्राइली बिना अमेरिकी समर्थन के कुछ भी नहीं कर सकते हैं. वे उस सबके जिम्मेवार हैं, जो हमारे शिविरों में हो रहा है. फलस्तीनी शरणार्थी शिविर यहूदियों के लिए बने नाजी यातना शिविरों से थोडे बेहतर हैं. हालांकि बाद में पीएफएलपी ने पश्चिमी सरकारों पर हमलों की रणनीति को त्याग दिया लेकिन उसने इस्राइली आक्रमणकारियों पर ऐसे हमले जारी रखे.फलस्तीननियों1980 में हब्बाश को दिल का एक दौरा पडा और उन्हें मजबूरी में कामकाज से अलग होना पडा. 1990 में वे सीरिया और जॉर्डन में रहे. 1993 में जब यासर अराफात ने ओस्लो समझौता किया तो पीएफएलपी ने अराफात पर आरोप लगाया कि वे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष को बेच आये हैं. इस समझौते के तहत पीएलओ ने उन इलाकों में जिन पर इस्राइल ने 1967 के बाद से अधिकार कर लिया था, फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के साथ सीमित शासन को स्वीकार कर लिया. यह फलस्तीनी मुक्ति आंदोलन के पारंपरिक उेश्य-फलस्तीन से एक इस्राइली यहूदी राज्य की जगह एक लोकतांत्रिक, धर्मनरिपेक्ष राज्य के गठन जिसमें सभी धर्मों-मूलों को लोग समानता के साथ रह सकें-से पीछे हटना था. इस समझौते में उन फलस्तीनियों को लिए कोई चिंता नहीं दिखती थी, जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जी रहे थे. उनके लौटने का कोई प्रावधान इसमें नहीं था और न ही यह इस्राइल पर किसी भी तरह बाध्यकारी था कि वह फलस्तीनियों को उनके अधिकार सौंपे. वे इस बात को समझते थे कि ओस्लो समझौते के बाद पीएलओ अरबों का समर्थन खो देगा, क्योंकि इस समझौते में अरब-इस्राइल विवाद के केंद्र में नहीं रखा गया है और मामले के केवल फलस्तीन तक सीमति रखा गया है. वे इससे चिंतित थे कि यह समझौता फलस्तीनी एकता को खत्म कर देगा. ओस्लो समझौते के विरोध के लिए पीएफएलपी ने ब्लॉक-10 नामक समूह बनाया, जिसमें इसके अलावा हमास और इस्लामिक जेहाद समेत नौ और संगठन थे. फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के बाद भी हब्बाश ने कभी भी उसे मान्यता नहीं दी और न उसके अधिकार क्षेत्र में आनेवाली भूमि पर कदम रखे. 1998 में एक साक्षात्कार में हब्बाश ने कहा था- इस्राइलियों के साथ काम करने की कूटनीति के लिए कोई जगह नहीं है.हब्बाश यासर अराफात से कभी भी सहमत नहीं रहे. उन्होंने अराफात पर आरोप लगाया कि अराफात ने यहूदीवाद के असली चरित्र को भुला दिया है और ओस्लो समझौते के परिणाम फलस्तीनी लोगों के लिए त्रासद रहेंगे. हब्बाश उन संगठनों के नजदीक थे जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते थे. उनका कहना था- हम हमास से जुडे हुए हैं. हरेक फलस्तीनी को अपने घर, अपनी जमीन, अपने परिवार और अपने सम्मान के लिए लडने का अधिकार है-ये उसके अधिकार हैं. अंत-अंत तक उन्होंने इसके कोई संकेत नहीं दिये कि उनका फ्रंट सैन्य कार्रवाइयों को स्थगित करने का इरादा रखता है. वे कहते-सशस्त्र संघर्ष विवाद की प्रकृति पर निर्भर करता है-जो कि दुश्मन की प्रकृति द्वारा तय होता है. अपने अंतिम दिनों में हब्बाश ने युद्धरत फलस्तीनी धडों की एकता और गाजा की दीवारबंदी के खिलाफ युद्ध के लिए आह्वान किया. हब्बाश कहते थे-अरब राष्ट्रवाद और स्थानीय सक्रियता के बीच जुडाव जरूरी है. आज हब्बाश अम्मान के एक कब्रिस्तान में गहरी नींद सो रहे हैं. उनके सम्मान में फलस्तीनी राष्ट्रीय झंडा झुका रहा और फलस्तीनियों ने शोक मनाया. वे जीवनपर्यंत फलस्तीन की क्रांति के नायक रहे. यहां तक कि वे लोग भी, जो हब्बाश से असहमत थे, वे हब्बाश को फलस्तीनी क्रांति की चेतना कहते थे. वे एक ईसाई थे और उनका संघर्ष फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करता है. जॉर्ज हब्बाश अपने फलस्तीन को कभी मुक्त हुआ नहीं देख सके, लेकिन उन्होंने फलस्तीनी जनता में और उसकी संघर्षचेतना में कभी यकीन भी नहीं खोया. फलस्तीन कासपना, आजादी और बराबरी का सपना, प्रतिरोध और संघर्ष की परंपरा जब तक जिंदा रहेगी, जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम जिंदा रहेंगे...और दुनिया उस तरह मुक्त होगी, जिस तरह उन्होंने चाहा था-मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर, मजदूरों, किसानों और व्यापक जनता के निर्णायक संघर्षों के जरिये। -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080309/9297b6ce/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Mon Mar 10 10:16:19 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 9 Mar 2008 20:46:19 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWC4KSi4KS8?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruCkvuCkgi3gpKzgpL7gpKog4KSV4KWAIOCkuOCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS44KS/4KSC4KSXIOCkleCksOCkviDgpKbgpYfgpII=?= Message-ID: <829019b0803092146v20da7330ge67294e139fe618@mail.gmail.com> बूढ़े मां-बाप की सर्विसिंग करा दें अब ये समय पत्नी को कोसने और उससे इस बात पर बहस करने का नहीं है कि तुम ही ने कहा था कि बाबूजी को गांव छोड़ आओ, खेती-बाडी का काम देखेंगे, यहां रहते हैं तो दिनभर मेरा दिमाग चाटते रहते हैं।...और न ही उससे ये कहने की है कि मां को तुमने बड़े भाई साहब के यहां भिजवा कर गलती कर दी। अब जो तत्काल आप कर सकते हैं वो ये कि आपके बूढ़े बाबूजी जहां कहीं भी हैं उन्हें तत्काल अपने घर ले आइए, ओल्डएज होम में रखा है तो कहिए कि 6 महीने तक हम अपने बाबूजी को अडॉप्ट करना चाहते हैं। गांव में है तो तुरन्त बलिया, बक्सर, जगदीशपुर, लहरिया सराय जहां कहीं भी भेजा है वहां की टिकट लीजिए। कन्फर्म नहीं मिलेगा, तत्काल में देखिए, नहीं तो मीडिया में हैं तो कुछ भिड़ाइए। माताजी को बड़े भाई साहब के यहां छोड़ रखा है तो वहां भी जाइए और कहिए कि सुषमा को आजकल मांजी की बहुत याद आती रहती है, पिछले चार साल से होली में मां के साथ नहीं है। भाई साहब बहू के मामले में टांग नहीं अड़ाएंगे, हां कर देगें। वैसे भी उनके पास बचा क्या है, बंटवारा तो पहले हो ही चुका है। बात रह गई घर के काम करने की तो आप बात न बने तो खोजकर एक आया भिजवा दीजिए, न हो तो अपने ही घर की। वैसे भी मांजी तो आ ही रहीं है, संभाल लेंगी। बस कोशिश कीजिएगा कि मां को दो-तीन घंटे का समय मिल जाए। इतना काम आप सप्ताह दिन के अंदर कर लीजिए। अब जब मां- बाबूजी आ जाएं तो बाबूजी को फैब इंडिया ले जाइए। चटक, झक-झक रंग के दो-तीन कुर्ते खरीद दें, खादिम या बाटा से एक बढ़िया चप्पल भी। मांजी को बाबा खड्गसिंह मार्ग के इम्पोरियम से दो-तीन ढ़ंग की हैंडलूम साडियां। अगर कहीं से लोन का जुगाड़ बन जाता है तो आप थोड़ा हल्का ही सही एक ब्रेसलेट खरीद दें। फसल बचाने के चक्कर में सब गंवा चुकी होंगी। कुल मिलाकर मां-बाबूजी का हुलिया इतना दुरुस्त कर दें कि लगने लगें कि वो आप ही के मां-बाबूजी हैं।...और आरुशि भी शान से कह सके कि ये मेरे ग्रैंड पा हैं। अब इतना हो जाने पर मां-बाबूजी को थोड़ी अंग्रेजी सिखाएं। ज्यादा नहीं,यू नो, आइ मीन, ओके, एक्चुअली, फक यार,थैंक्स, बट...ब्ला.ब्ला..। आप जानते हैं, सुषमा भी इसमें आपकी मदद करेगी। बाबूजी को थोड़ा सिविल सोसाइटी के मैनर्स सीखाएं। मसलन किसी के हाथ में झोला देखकर ये न पूछने लग जाएं-क्या ले जा रहे हो बेटा। रात में कोई बंदा लड़खड़कर चल रहा हो तो न पूछें-तबीयत तो ठीक है न बेटा। बेसमेंट में खेलते बच्चे से न पूछे कि आज तुम्हारी मम्मी ने कौन-सी सब्जी बनायी है। मां को सुषमा देख लेगी। वो भी अपार्टमेंट की महिलाओं से ज्यादा मिक्स-अप न हो जाए। किसी ने कह दिया कि मांजी आप तिलभोगे के लड्डू बनाती है और आप चल न दें बनाने के लिए। किसी के यहां साग टूंगने की कोई जरुरत नहीं है। बोलिए कि जब समय मिले तो कुछ क्लासिक नॉवेल पढ़े,कल्ट फिल्में देखे। इतना कुछ अगर आप मेहनत से कर देते हैं तो लगेगा नहीं कि आपके मां-बाबूजी गांव से हैं। बच्चे तो आपके हैं ही देहलाइट।...तो हो गई आपकी रॉक- एन रॉल फैमिली। अब कल बताता हूं कि आगे क्या करना है। तब तक आप भी दिमाग लगाइए कि मां-बाबूजी को इलीट बेटे का मां-बाबूजी दिखने के लिए क्या करना सही रहेगा।.....(क्रमश:)1 नयी बात नयी बात नयी बात नयी बात हिन्दी का टंटा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080309/28468bc2/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Mar 10 13:15:02 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 10 Mar 2008 13:15:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) March 10th 2008 Message-ID: <200803101315.03023.ravikant@sarai.net> विनीत ने अच्छा वंयग्य लिखा है, माँ-बाप की सर्विसिंग पर. ये उतना अच्छा तो नहीं है, पर पढ़ने लायक़ ज़रूर है. विनीत के लिखे से मेरा कलेजा इतना पसीज गया कि मैं इस होली मार-तमाम परेशानियाँ मोल लेकर भी लगता है घर चला ही जाऊँगा. बहरहाल मज़े लें. रविकान्त श्रीमती जी को कद्दू पसंद हैं -संजय ग्रोवर कृपया निम्न लेख को पढ़ते समय ध्यान रखें कि यह एक व्यंग्य है। श्रीमती जी को कद्दू पसंद है और मुझे टिंडा। बोलीं कि कई दिन से टिंडा खा रहे हैं आज कद्दू बना लेती हूँ। मैं हँसा, गँवार कहीं की। रूआँसी हो बोली कि गँवार हूँ तो मुझसे शादी क्यों की थी। मैंने कहा, मूर्ख कहीं की, तू न होती तो मैं हँसी किसकी उड़ाता, चुटकुले किस पर लिखता, (यानी कि) व्यंग्य किस पर लिखता। पत्नियाँ तो होती ही इसलिए हैं कि उन पर कुछ भी लिख दिया जाए। वे उसे व्यंग्य मान कर अपराध बोध महसूस करने लगती हैं। पत्नी सचमुच शर्मिंदा हो गई। टिंडा फिर कद्दू पर हावी हो गया। पुराने लोग बहुत अच्छे होते हैं। नए बहुत ही ज़्यादा गंदे होते हैं। एक बार मैं नई पीढ़ी था। तब पुरानी पीढ़ी काफ़ी घटिया थी। अब मैं पुरानी पीढ़ी होता जा रहा हूँ और नई पीढ़ी खराब होती जा रही है। मैंने सुबह ग्रंथादि का पाठ शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। पहले भी कई बार हुआ है। (ऐसा मैंने सुना है।)। दूसरे बहुत ही गंदे हैं। हम बहुत ही अच्छे हैं। दूसरे एकदम खराब। हम एकदम अच्छे। दूसरे खराब। हम अच्छे। टॉँय टू। टाँय टू। टाँय टू। टाँय टू। टू-टू। एक साल बाद। टाँय-टाँय। दस साल बाद। टू-टू। सौ साल बाद। टाँय-टू। हज़ार साल बाद। टाँय टू। दसियों हज़ार साल बाद। टाँय टू। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाँय टू। टाँय टू। जनता बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छे हैं। नेता सब नालायक हैं। जनता ज़मीन से पैदा होती हैं। नेता आसमान से टपकते हैं। न जाने कब अच्छे नेताओं की बारिश होगी। वैसे कुछ अच्छे नेता भी हैं। पर ऐसे नेता बस दो-चार ही हैं। एक ने मेरी क़िताब छपवाने में मदद की। एक ने उसका विमोचन किया। तीसरे ने मुझे एक जगह सस्ता प्लॉट दिलवा दिया है। लगभग मुफ्त का। चौथे के मेरे घर आते-जाते रहने से पड़ोसियों में मेरी छवि भी ख़ासी दमदार बनी हुई हैं। राशन-गैस भी घर बैठे आ जाते हैं। अब क्या करूँ। दुनियादारी भी तो कोई चीज़ है। 'एडजस्ट' तो करना ही पड़ता है न। रोटी भी तो खा नी है कि नहीं। आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि जैसा समाज होता है वैसा ही उसका नेता होता है। लगता है इन लोगों ने अपने खाने-पीने रहने का 'फुलप्रूफ' जुगाड़ कर लिया है। पर मेरे सामने तो सारी ज़िंदगी पड़ी है। अपना 'कैरियर' भी तो सँवारना है। मैं ऐसी बातें खुलकर कैसे कह सकता हूँ। लोग तो प्रकाशकों और पाठकों की भी बुराई करते हैं। मैं कहता हूँ कि कौन कहता है किताबें नहीं बि कती। खुद मेरी किताबों 'पेटदर्द चुटकुले', 'हँसती हुई उबासियाँ', 'घर में हँसो, बाज़ार में हँसो, पत्नी पर हँसो, सरदार पर हँसो` के कई संस्करण छपे भी हैं और बिके भी हैं। मेरे नए कविता संग्रह 'लड़की नहाई आँगन में' को छापने के लिए कई प्रकाशक अभी से दरवाज़ा पीट रहे हैं। कुछ पाठकों के तो प्रशंसा पत्र भी अभी से आ गए हैं। मैं एक उद्योग हूँ। व्यंग्य एक उत्पाद है। अखबार बिचौलिया है। पाठक एक ग्राहक है। रोज़ाना सुबह आपको एक कॉलम व्यंग्य सप्लाई करना होता है। बड़ा ही मेहनत का काम है। एक भी पंक्ति कम या ज़्यादा हो जाती है तो संपादक जी की नज़रों में मेरा रिकार्ड गिर जाता है। वैसे बहुत कम ही ऐसा होता है। इसलिए संपादक जी मुझसे खुश रहते हैं। मैं उनका चहेता व्यंग्यकार हूँ। वे अक्सर कहते हैं, 'बेटा, लिखो चाहे कुछ भी पर कॉलम पूरा भर जाना चाहिए, बस।' उम्मीद है आज के लेख के शरी र का आकार भी तैयार शुदा कॉलम की यूनीफॉर्म में फिट बैठेगा। नहीं तो पिछले रिकार्ड के आधार पर मुझे फिर चांस दिया जाएगा। पुनश्च : व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लि ए व्यंग्य लिखते हैं। दूसरी श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूँ जो दूसरी श्रेणी की पूरक होती है। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियाँ भी होते हैं। एक बार फिर याद दिला दूँ कि यह एक व्यंग्य था। (यह लेखक संपादक का मित्र है, अखबार-मालिक का रिश्तेदार व स्वयं ऊँचे सरकारी ओहदे पर हैं) ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) March 10th 2008 Date: सोमवार 10 मार्च 2008 00:05 From: "AbhiAnu" To: "AbhiAnu" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). इस सप्ताह * समकालीन कहानी के अंतर्गत भारत से प्रत्यक्षा की कहानी मछलीमार * संजय ग्रोवर का व्यंग्य एक कॉलम व्यंग्य * भावना कुंअर का आलेख इत्र में अवसाद * रसोईघर में होली के पकवानों की तैयारी * खोज-यात्राओं की कहानियों में बच्चों के लिए जानकारी- अमेरिका की खोज * गीतों में- हरि ठाकुर * अंजुमन में- श्याम सखा श्याम * इस माह के कवि में- नवराही * कविताओं में- सुशील कुमार * दोहों में- जगदीश व्योम अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. Both Abhivyakti & Anubhuti revise on every Monday. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Mar 12 13:43:25 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 12 Mar 2008 13:43:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCksuCkv+CkluCliyDgpIjgpKjgpL7gpK4g4KSq4KS+4KST?= Message-ID: <200803121343.26053.ravikant@sarai.net> विमर्श पर विवाद हो सकता है, पर ईनाम तो लिया ही जाए! मुझसे मत पूछिए कि कहाँ भेजना है, शायद इसी वेबसाइट को: रविकान्त http://www.hindimedia.in/content/view/1404/143/ हिन्दी लिखो ईनाम पाओ Tuesday, 11 March 2008 हिन्दी ने इंटरनेट पर जिस गति से अपनी जगह बनाई है वह चौंकाने वाली है। इस बात में कोई शक नहीं कि हिन्दी अख़बारों और हिन्दी टीवी चैनलों से लेकर हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन इसके साथ ही हिन्दी को बाजार की भाषा बनाने के ना म पर उसके साथ शर्मनाक दुराचार भी किया है। इसका कारण यह है कि अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी मा हौल में पले-बढ़े लोगों ने अपनी एमबीए और मास कम्युनिकेशन की डिग्रियों के बल पर मीडिया, कॉर्पोरेट और सैटेलाईट चैनलों की महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा कर लिया। यहाँ आने के बाद भाषा की शिष्टता, उसकी शुध्दता और भाषाई सौंदर्य का उनके लिए कोई मतलब नहीं रहा। हिन्दी मात्र बोली रह गई यानि जिसको हिन्दी बोलना आता है और जो हिन्दी समझ लेता है वह देश और दुनिया में बसे 70 करोड़ हिन्दी भाषियों का मसीहा हो गया। हिन्दी लिखना या पढ़ना आना कोई योग्यता नहीं रही। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी को भ्रष्ट तरीके से लोगों पर थोपा जा रहा है। टीवी पर ख़बर देने वाला हो, या टीवी पर खबर पढ़ने वाला दोनों को अगर हिन्दी का कोई शब्द नहीं सूझता तो वह फट से अंग्रेजी का शब्द बोलकर अपनी खबर को परोस देता है। भले ही उस अंग्रेजी शब्द से अर्थ का अनर्थ हो जाता हो। विज्ञापनों की दुनिया में बैठे लोगों का भी यही हाल है, हिन्दी विज्ञापनों पर अंतिम फैसला वो लोग करते हैं जो न हिन्दी पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं। बस सुनकर अगर उनको मजा आ जाए तो उस विज्ञापन को हरी झंडी मिल जाती है और करोड़ों रुपये खर्च कर उसको बाज़ार में चला दिया जाता है। मगर हिन्दी की शुध्दता के नाम पर कुछ हजार रुपये तक नहीं खर्च किए जाते हैं। हिन्दी शब्दों को जिस आज़ादी के साथ तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है ऐसा धृष्टता अंग्रेजी शब्दों को लेकर कतई नहीं की जाती क्योंकि तब हिन्दुस्तानी अंग्रेज ऐसी विज्ञापन एजेंसी, टीवी चैनल या खबर पढ़ने वाले से लेकर खबर देने वाले तक के अंग्रेजी ज्ञान का उपहास उड़ा सकते हैं, लेकिन हिन्दी को भ्रष्ट करके लिखा और बोला जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि अगर किसी ने हिन्दी में कुछ गलत लिखा है या बोला है तो उसे कहने वाला कौन... ? हिन्दी अखबार तो और आगे जाकर हिन्दी के शब्दों की बखिया उधेड़ने में लगे हैं। न्यूज़ चैनल वाले तो बिचारे हिन्दी जानते ही नहीं, और हिन्दी अखबारों में भी वो लोग काम करने आऩे लगे हैं जिनको चैनल का रिपोर्टर बनना है। लेकिन इस अंधरे में रोशनी पैदा की है इंटरनेट के विस्तार ने। दुनिया भर में फैले हमारे हिन्दी प्रेमी साथियों ने अपनी जिंदगी की जद्दोजहद को जारी रखते हुए, नौकरी और परिवार के लिए अपना समय देने के साथ ही हिन्दी को बचाने की एक ऐसी सार्थक पहल शुरु की है जिससे लगता है कि चैनल और अखबार वालों को बहुत जल्दी अपनी हिन्दी सुधारना पड़ेगी, अगर नहीं सुधारी तो इंटरनेट की हिन्दी जमात उनको इस बात के लिए मजबूर कर देगी। हम इस यात्रा को और विस्तार देते हुए दुनिया भर में फैले हिन्दी प्रेमी साथियों से आग्रह करते हैं कि वे अपने आसपास की घटनाएं, अपने संस्मरण, अपने स्कूल के दिनों की यादें, अपने बचपन के दोस्तों, शिक्षकों, बचपन में नाना-नानी या दादा-दादी के घर की मस्ती भरी जिंदगी, गाँवों की जिंदगी, घर में मनाए जाने वाले वार त्यौहारों, पारिवारिक परंपराओं, घर के बुज़ुर्गों के साथ बिता ए अपने यादगार दिनों, अपनी किसी यादगार यात्रा, धार्मिक या पर्यटन स्थल या अपनी पसंद के किसी भी विषय पर लिखें। हम आपमें से ही पाठकों की राय के आधार पर श्रेष्ठतम प्रविष्ठी को पुरस्कृत करेंगे। इस प्रतियोगिता को आयोजित करने का सबसे अहम मकसद है कॉर्पोरेट जगत और सैटेलाईट चैनलों के लोगों को यह अहसास कराना कि इस देश के कोने-कोने में हिन्दी लिखने वाले और हिन्दी में सोचने वाले लोग बैठे हैं, उनकी सोच जमीन से जुड़ी है और उसके अंदर भाषा की महक भी है। लेकिन दुर्भाग्य से अपने कमजोर अंग्रेजी ज्ञान की वजह से उनकी शुध्द हिन्दी और मौलिक सोच अंग्रेजी के घुटन भरे माहोल में पुष्पित-पल्लवित नहीं हो पाती। इंटरनेट की दुनिया में आने वाला कल हिन्दी वालों का होगा। क्योंकि अब समय आ गया है कि अगर कि सी को हिन्दुस्तान में कारोबार करना है अपना माल बेचना है और 70-80 करोड़ लोगों तक सीधे पहुँचना है तो उसे हिन्दी में ही अपनी बात कहना होगी। देश में और दुनिया में कहीं भी कारोबार करने वाली हर कंपनी को अपनी वेब साईट हिन्दी में बनाना होगी और इसके लिए हजारों लाखों हिन्दी लिखने वालों की जरुरत होगी। ये हिन्दी लिखने वाले अमरीका, जापान, रुस या चीन से नहीं आएंगे, यह काम आपको ही करना होगा। बहुत जल्दी ही वह समय आएगा जब देश के कोने-कोने में छोटे से छोटे गाँव में बैठे हर हिन्दी भाषी को घर बैठे लिखने का काम मिलेगा और पैसा भी मिलेगा। आज तो हालात यह है कि जिन मोबाईल कंपनियों और बैंकों को आप करोड़ों रुपये दे रहे हैं उनकी वेब सा ईट तक हिन्दी में नहीं है। आपको अगर अपने मोबाईल या बैंक की सेवा को लेकर कोई शिकायत करना है तो आप अपनी भाषा में नहीं कर सकते। लेकिन जब आपको मोबाईल बेचा जाता है तो आपको तमाम प्रचार सामग्री हिन्दी में दी जाती है। अगर आप आज ही जाग जाएं तो वह दिन दूर नहीं कि देश की मोबाईल कंपनियों और बैंकों को अपनी वेब साईट हिन्दी में बनाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। और अगर वेब साईटें हिन्दी में बनेगी तो लिखेगा कौन...जाहिर है यह मौका अपको ही मिलेगा....तो हम चाहते हैं कि आप अभी से जागें और इंटरनेट पर हिन्दी में लिखना शुरु करें। हमारे लिए नहीं बल्कि अपने आपके लिए, आपका लिखने का शौक आपके लिए नौकरी का और पैसा कमाने का जरिया हो जाएगा। और जल्दी ही वह दिन भी आएगा जब नौकरी मिलने की योग्यता अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी हो जा एगी। तो तैयार हो जाईये अगर आपके पास कंप्यूटर नहीं है तो किसी साईबर कैफे पर जाईये और हिन्दी लिखने की शुरुआत कीजिए-और अपने साथ अपने किसी साथी को भी ले जाईये ताकि एक साथ दो लोग हिन्दी लिखने के लिए तैयार हो सकें। हमारे लिए आपका लिखा हुए एक-एक शब्द कीमती है। From ravikant at sarai.net Thu Mar 13 16:08:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 13 Mar 2008 16:08:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Talk_by_CM_?= =?utf-8?q?Naim_on_Delhi?= In-Reply-To: <200803051743.58264.ravikant@sarai.net> References: <200803051743.58264.ravikant@sarai.net> Message-ID: <200803131608.26873.ravikant@sarai.net> प्रो. चौधरी मोहम्मद नईम ने जो मैराथॉन प्रस्तुति कल सराय-सीएसडीएस में की वह हमारे लिए कई कारणों से यादगार रहेगी. अमूमन दो घंटे तक बग़ैर किसी अनावश्यक लफ़्फ़ाज़ी या लटके-झटके के श्रोता ओं को सिर्फ़ प्रचुर सामग्री के चतुर संयोजन के सहारे मंत्रमुग्ध करके रखना वाक़ई एक उपलब्धि है. वह भी तब जब कि अध्यक्ष महमूद फ़ारूक़ी ने पहले ही उनके शीर्षक के राज़ को यह कहकर खोल दिया था कि नईम साहब मूलत: सर सैयद अहमद ख़ान की मशहूर किताब आसारुल सनादीद के दो संस्करणों की बात करनेवाले हैं. बहरहाल बात तो उन्होंने वही की लेकिन मज़ा उस क़िस्से की तफ़सील में था - कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में कुछ ही सालों के अंतराल में दोनों संस्करण आते हैं, पर पहले संस्करण की तारीख़ आख़िर क्या थी, क्या लोगों को आसार एकमुश्त मिली या क़िश्तवार, पहली जिल्द में अंदाज़े बयाँ बेलौस है, पर दूसरे दुभाषी संस्करण तक आते-आते मेटकाफ़ की अपेक्षाओं के अनुरूप चलते हुए सर सैयद उसे बिल्कुल इतिहास में तब्दील कर देते हैं, जहाँ वर्णन तिथियों के चौखटे में तो कस ही जाता है, उसमें कल्पना की उड़ान की गुंज़ाइशें, लोककथाओं की छौंक, क़यास के अवकाश ख़त्म हो जाते हैं. यानी वर्नाक्युलर इतिहास, प्रॉपर आधुनिक इतिहास बन जाता है. इस सिलसिले में दिल्ली के पुराने वर्णनों की भी दिलचस्प झाँकियाँ आईं - कि किस मुसाफ़िर को क्या भाता है, दिल्ली का क़ुतुब मीनार ऐसा कोई ख़ास आकर्षण नहीं रखता पर अशोक की जो लाट है, उसके बारे में जितनी किंवदंतियाँ हैं, कि लोग मानते हैं कि वह शेषनाग के फन को जिस पर ये धरती टिकी है, स्थिर रखने के लिए गाड़ी गई है - उनकी तवील और तार्किक चीड़-फाड़ की जाती है, निहायत चुटीले अंदाज़ में. नईम साहब ने सर सैयद के हवाले से एक क़िस्सा भी सुनाया कि वे एक दफ़ा वहीं किनारे बैठकर जब सुट्टा लगा रहे थे तो कुछ कमसिन लड़कियाँ अपने हाथों का गोल बनाकर लाट को बारी-बारी से आग़ोश में लेने की कोशिश कर रही थीं. तब विश्वास यह था कि जो उसे अपने उल्टे अँकवार में नहीं भर पाए, वह अपने माँ-बाप की सच्ची पैदाइश नहीं है. एक लड़की जो ऐसा नहीं कर पाई थी, और इसलिए अपनी सखियों की ठिठोली का शिकार हो रही थी, मायूस होकर सैयद के पास आती है, और पूछती है कि क्या वाक़ई मैं कमअस्ल हूँ. सर सैयद उस हसीना का दिल नहीं तोड़ना चाहते और कहते हैं कि ये मसल तो बीस साल से ऊपर के लोगों पर लागू होती है! आजकल तो लोग लाट को बाँहो में लेकर मन्नत माँगते और पाते हैं. या शायद लोहे से घेर दिए जाने के बाद वहाँ तक पहुँच भी नहीं पाते. तो आसार1, जो नईम साहब को बेहद पसंद है, में यही सब कच्ची-सच्ची कहानियाँ हैं, 19वीं सदी के मध्य की दिल्ली की, जिनमें सर सैयद का शहर के प्रति बेइंतहा प्यार भी झलकता है - जिसका पानी हर जगह खारा होने के बाद भी इतना अच्छा है कि बेहतरीन इंसान पैदा करता है. मैंने आसार नहीं पढ़ा है, पर महेश्वर दयाल पढ़ा है, पर कल की बातचीत के बाद पता चला कि शहर को लिखने की वह विधि दरअसल आसार से ही आती है, या कहें कि आसार उस तरह से लिखने की कला का एक शीर्ष उदाहरण रहा होगा. ग़ौरतलब है कि मूल आसार में कुल 130 रेखाचित्र थे, जिसे बड़ी मेहनत से सर सैयद के साथ काम करनेवाले कलाकारों ने काफ़ी लगन और नाप-जोख के बाद बनाया था. और आसार शा यद लिथोग्राफ़ी तकनीक का इस्तेमाल करके छपी पहली सचित्र किताबों में से एक रही होगी. नईम साहब ने आबोहवा(एक्लाइम - यूनानी, अरबी का मूल शब्द, जिससे क्लाइमेट लफ़्ज़ निकला है)की समृद्ध अर्थछायाओं को भी खोला, यह नोट करते हुए कि जहाँ क्लाइम की बात करते हुए पंचतत्वों से लेकर दिशाओं तक मिलाते हुए बीसियों अवयवों की बात करते हुए सर सैयद गीतमय हो जाते हैं, वहीं अक्षांश और देशांतर रेखाओं में दिल्ली के गुगराफ़िए को फ़िट करते हुए उनकी शायरी का सोता सूख जाता है! और भी ढेर-सारी बातें थीं दिल्ली के बारे में, इसके पर्यटन-आकर्षण केन्द्र होने व इसकी पर्यटन टेकनॉलजी के बारे में, पर फिर सही! इस आयोजन को मुमकिन बनाने के लिए डॉ. अवधेन्द्र शरण और प्रो. शाहिद अमीन का ख़ास शुक्रिया! एक आख़िरी बात और - राष्ट्रवाद की गिरफ़्त में फँसे हमारे इतिहास-लेखन-परंपरा की ये विडंबना रही है कि हम सर सैयद का एक ही आयाम देख पाए हैं, वह इंसान जिसने कॉङग्रेस व हिन्दी-विरोधी रुख़ लिया, यानी कि वह हमारे इतिहास में मोहम्मद अली जिन्ना के पहले का संभवत: सबसे बड़ा खलनायक है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में भी जो श्रेय उन्हें मिलना चाहिए था, वह पाकिस्तान आंदोलन से जुड़े होने के चलते नकारात्मक खाते में ही चला जाता है. इन सबसे अलग बतौर मुंशी, बतौर शोधार्थी और बतौर लेखक सर सैयद के संघर्षों की इन कहानियों में और भी बहुत कुछ है, उनकी संतुलित जीवनी लिखी जानी शेष है. रविकान्त बुधवार 05 मार्च 2008 17:43 को, Ravikant ने लिखा था: > प्रो. सीएम नईम उर्दू भाषा-साहित्य के विद्वान और अनुअल ऑफ़ उर्दू स्टडीज़ के > संस्थापक संपादक रहे हैं. > http://www.urdustudies.com/ > > मूलत: बाराबंकी के रहनेवाले नईम साहब ने भाषा और अस्मिता के मसले पर उन्होंने > काफ़ी कुछ लिखा है, और ज़िक्रे मीर का अंग्रेज़ी में तर्जुमा भी किया है, उनकी > इंट्रोडक्शन टू उर्दू, दो खंडों में, किसी भी उर्दू सीखनेवाले के लिए अच्छा > स्रोत है. इंटरनेट पर तो है ही, और उर्दू काउंसिल, आरके पुरम दिल्ली से भी > सस्ते दाम पर उपलब्ध है. > > > कृपया ज़रूर आएँ. > > रविकान्त > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: Talk by CM Naim on Delhi > Date: बुधवार 05 मार्च 2008 17:32 > From: Ravikant > To: reader-list at sarai.net > > You are cordially invited to a Talk by > > C. M. Naim, Professor Emeritus, University of Chicago > > on > > Sir Syed Ahmed Khan's Two Books on Delhi > > > 12 March 2008, Wednesday: 3.00 PM > Seminar Room, Sarai-CSDS > > > regards > ravikant > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From rakesh at sarai.net Fri Mar 14 12:09:26 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Fri, 14 Mar 2008 12:09:26 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ग ् व ा य र ह ॉ ल म े ं 'इ ं ड ि य ा अ न ट च ् ड ' Message-ID: <2051.59.180.7.142.1205476766.squirrel@mail.sarai.net> जाति व्यवस्था, ख़ासकर छुआछूत की समस्या पर बनी अब तक की सबसे बेहतरीन और बहुचर्चित फिल्म 'इंडिया अनटच्ड' का प्रदर्शन आज दिनांक 14 मार्च 2008 को शाम 5 बजे ग्वायर हॉल छात्रावास, दिल्ली विश्वविद्यालय में किया जा रहा है. ग्वायर हॉल छात्र संघ और सफ़र के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस प्रदर्शन के बाद फिल्म के निर्देशक श्री स्टालिन के से सीधी बातचीत भी होगी. ग्वायर हॉल विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से 5-7 मिनट की दूरी पर स्थित है. ----------------------------------------- This email was sent using SquirrelMail. "Webmail for nuts!" http://squirrelmail.org/ From jeebesh at sarai.net Fri Mar 14 12:45:24 2008 From: jeebesh at sarai.net (Jeebesh Bagchi) Date: Fri, 14 Mar 2008 12:15:24 +0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?JiMyMzI3OyAmIzIz?= =?utf-8?b?ODE7ICYjMjM1NzsgJiMyMzY2OyAmIzIzNTE7ICYjMjM1MjsgJiMyMzYxOyAm?= =?utf-8?b?IzIzNzc7ICYjMjM1NDsgJiMyMzUwOyAmIzIzNzU7ICYjMjMwNjsgJyYjMjMx?= =?utf-8?b?MTsgJiMyMzA2OyAmIzIzMzc7ICYjMjM2NzsgJiMyMzUxOyAmIzIzNjY7ICYj?= =?utf-8?b?MjMwOTsgJiMyMzQ0OyAmIzIzMzU7ICYjMjMzMDsgJiMyMzgxOyAmIzIzMzc7?= =?utf-8?q?_=27?= In-Reply-To: <2051.59.180.7.142.1205476766.squirrel@mail.sarai.net> References: <2051.59.180.7.142.1205476766.squirrel@mail.sarai.net> Message-ID: dear Rakesh, Aap kiya aajkal mathematics mein kaam kar rahe ho? pks jeebesh On 14-Mar-08, at 11:39 AM, rakesh at sarai.net wrote: > जाति > व्यवस्था, > ख़ासकर > छुआछूत की > समस्या पर > बनी अब तक की > सबसे > बेहतरीन और > बहुचर्चित > फिल्म > 'इंडिया > अनटच्ड' का > प्रदर्शन > आज > दिनांक 14 > मार्च 2008 को > शाम 5 बजे > ग्वायर हॉल > छात्रावास, > दिल्ली > विश्वविद्य > ालय > में किया जा > रहा है. > ग्वायर हॉल > छात्र संघ > और > सफ़र के > संयुक्त > तत्वाधान > में आयोजित > इस > प्रदर्शन > के बाद > फिल्म > के > निर्देशक > श्री > स्टालिन के > से सीधी > बातचीत भी > होगी. > > ग्वायर हॉल > विश्वविद्य > ालय > मेट्रो > स्टेशन से 5-7 > मिनट की > दूरी > पर स्थित है. > > > ----------------------------------------- > This email was sent using SquirrelMail. > "Webmail for nuts!" > http://squirrelmail.org/ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From vineetdu at gmail.com Fri Mar 14 12:20:13 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 13 Mar 2008 22:50:13 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSV4KWN4KS4?= =?utf-8?b?4KSa4KWH4KSC4KScIOCkkeCkq+CksCwg4KSs4KWC4KSi4KS84KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSCLeCkrOCkvuCkqiDgpJzgpK7gpL4g4KSV4KSw4KWLLCA=?= =?utf-8?b?4KSo4KS14KSc4KS+4KSkIOCktuCkv+CktuClgSDgpLLgpYcg4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KST?= Message-ID: <829019b0803132350u38484f53j6909f796d53282e1@mail.gmail.com> ....तो अभी तक आप अपने बूढ़े मां-बाप को गांव और बड़े भाई साहब के यहां से ले आए होगे। वो सब कुछ भी कर दिया होगा जिससे वो इलीट के मां-बाप जैसे दिखने लगे होंगे।...दिल्ली जैसे बड़े शहरों की आवोहवा में एडजेस्ट कर गए होंगे। अब आगे पढ़िए कि क्या करना है- आपके घर में आजकल एक नया चैनल आ रहा होगा- एनडीटीवी इमैजिन। आपकी माताजी को पता होगा क्योंकि वो रामायण भी दिखा रहा है। तो सुनिए...सात से आठ उसी चैनल पर एक प्रोग्राम आता है- नच ले वे विद सरोज खान। पूरा दिखा सकें तब तो सोने पे सुहागा हो जाए नहीं तो शुरुआत का कम से कम दस मिनट जरुर दिखाएं। आपको ऑफिस से लौटने में देर हो जाती है तो कोई बात नहीं, सुषमा तो तब तक स्कूल से आ जाती है, उसी को बोल दें। ये दस मिनट उनके लिए होता है जो डांस को रगड़कर तो नहीं सीख पाते लेकिन दस मिनट के अभ्यास से मोटा-मोटी स्टेप्स सीख जाते हैं।॥उतना कि देखकर लगे कि बंदे को डांस की समझ है। अच्छा, अपनी सरोज सीखाती भी वही सारे स्टेप्स हैं जो ऑनडिमांड होते हैं। मसलन मौजा-मौजा या फिर सलामे इश्क,इश्क,इश्क सलामें इश्क। अगर मा-बाबूजी ने इतना सीख लिया तो समझिए चारों धाम की चौखट पूरी हो गई। इतना सबकुछ हो जाने पर ऑफिसीयली तौर पर अपनी फैमिली को रॉक एन रॉल फैमिली घोषित कर दीजिए। आपको तो नाचना आता ही है, एक-दो घूंट गुर्दे की दवाई मिल गई तो अच्छा नाच ही लेंगे। सुषमा कत्थक में डिप्लोमा है ही और आरुशि को रेगुलर डांस क्लास में भेज ही रहे हो। इधर मां-बाबूजी का पैकेज तैयार हो ही गया है। बस अब आप हो गए तीन पीढियों की ऐसी फैमिली जिस पर खानदान को गर्व हो सकता है। अब आज से प्रत्येक शुक्रवार और शनिवार को जीटीवी ९ से दस बजे तक के लिए बैठ जाइए। आज आपके लिए पहला दिन होगा। आजसे आपको मिलेंगे अजय देवगण, काजोल और तनुजा। अजय और काजोल भारत के लिए सबसे बेजोड़ और आदर्श पति-पत्नी हैं। मेरे हिसाब से तो राम और सीता से भी ज्यादा बेजोड़ क्योंकि दोनों मिलकर फ्रीज और फोन बेचते हैं। कंधे से कंधा मिलाकर। राम की तरह नहीं कि वो कंदमूल लेने चले गए और इधर सीता के माथे गोबर से घर लीपने का काम पड़ गया। आपको मन है तो कह सकते हैं कि अजय भगवान राम से ज्यादा प्रोग्रेसिव है और इधर काजोल ने भी साबित कर दिया है कि वृद्ध पूंजीवाद की परवरिश बिना स्त्रियों के सहयोग के नहीं की जा सकती।....और जिन बूढ़े दर्शकों को उनके नाती-पोतों ने सोनी मैक्स से जबरदस्ती घसीटकर हंगामा, बिंदास और कार्टून नेटवर्क पर ला पटका है उन बुजुर्गों का खोया हुआ सम्मान ये जीटीवी वाले दिलाएंगे। तनुजा को लाएंगे और बुजुर्गों का मन एक बार फिर से हरा होगा, माताजी फिर तनुजा के सौन्दर्य से डाह करेगी और बहू की तरह ब्यूटी कॉन्सस हो जाएगी, फिर बूढ़े बाप का मन कहीं न भटकेगा और रात की कराह ओ मेरी सिद्धेश्वरी में तब्दील हो जाया करेंगे। ओल्ड एज एक बार फिर से गोल्ड एज में प्रवेश करेगा। बूढ़ी मां के प्रिंटेड ब्लॉउज के लिए एक बार फिर बाबूजी पार्टटाइम नौकरी के लिए जुगत भिड़ाने में लग जाएंगे, सुषमा को फिर राहत मिलेगी और मांजी भी सुषमा से कुमकुम नहीं मांगेगी, अपने पति की बूढ़ी कमायी से शिल्पा चार चांद लगाएगी।....इतना मजा, फायदा और बदलाव तो तब आएगा जब आपकी रॉक एन रॉल फैमिली महज दर्शक की हैसियत से जीटीवी को ९ से १० देखती है और अगर दीपासती माई की किरपा से प्रोग्राम में पार्टिसीपेट करने का मौका मिल गया तब तो आपके ये बूढ़े मां-बाप दो-चार ठुमके लगाकर ही चैनल से इतने पैसे दिलवा देंगे कि बड़ी होने पर आपकी आरुशि भी एयर हॉस्टेस, टीवी एंकर या फिर इवेंट मैनेजर बनकर नहीं कमा पाएगी और अगर तरक्की मिल भी गई तो बदनामी भी साथ लाएगी। इसलिए हे पाठकों, मेरी आपसे बस इतनी ही अपील है कि बूढ़े मां-बाप को दुरुस्त करके एनडीटीवी और जीटीवी की खुराक जरुर लगाएं, यकीन मानिए उनके मरझाए चेहरे पर रौनक फिर से लौट आएगी। ....और बाकी तो चैनल खुद साबित कर ही रहा है कि आपके बूढ़े मां-बाप भी आपको बना सकते हैं धन्ना सेठ। इसलिए ये कब काम आ जाएं आप भी नहीं जानते। हो सकता है कल को कोई एनजीओ ऑफर निकाल दे कि अपने बूढ़े मां-बाप को जमा कीजिए और जिनको लड़का-बच्चा नहीं हो रहा वो नवजात शिशु ले जाए, एक्सचेंज ऑफर *आगे पढिए बदलते समाज में बुजुर्गों की हैसियत* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080313/4e3717f3/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 14 12:58:52 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 14 Mar 2008 12:58:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+Ckh+CkguCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+IOCkheCkqOCkn+CkmuCljeCkoSc=?= In-Reply-To: References: <2051.59.180.7.142.1205476766.squirrel@mail.sarai.net> Message-ID: <200803141258.52200.ravikant@sarai.net> ये रहा राकेश का संदेश, जो बिगड़ गया था. http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html पर जाकर ठीक कर दिया है. रविकान्त जाति व्यवस्था, ख़ासकर छुआछूत की समस्या पर बनी अब तक की सबसे बेहतरीन और बहुचर्चित फि ल्म 'इंडिया अनटच्ड' का प्रदर्शन आज दिनांक 14 मार्च 2008 को शाम 5 बजे ग्वायर हॉल छात्रावास, दिल्ली विश्वविद्यालय में किया जा रहा है. ग्वायर हॉल छात्र संघ और सफ़र के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस प्रदर्शन के बाद फिल्म के निर्देशक श्री स्टालिन के से सीधी बातचीत भी होगी. ग्वायर हॉल विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से 5-7 मिनट की दूरी पर स्थित है. शुक्रवार 14 मार्च 2008 12:45 को, Jeebesh Bagchi ने लिखा था: > dear Rakesh, > > Aap kiya aajkal mathematics mein kaam kar rahe ho? > > pks > jeebesh > > On 14-Mar-08, at 11:39 AM, rakesh at sarai.net wrote: > > जाति > > & From bhagwati at sarai.net Sat Mar 15 13:14:08 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Sat, 15 Mar 2008 13:14:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= INVITATION TO A BOOK DISCUSSION Message-ID: <47DB7E48.3060803@sarai.net> hai all INVITATION TO A BOOK DISCUSSION On POWER AND CONTESTATION. INDIA SINCE 1989 by Dr. Aditya Nigam and Dr. Nivedita Menon Discussants: Prof. Tanika Sarkar, Dr. Ravi Vasudevan and Dr. Sarada Balagopalan Venue: Seminar Room, Centre for the Study of Developing Societies (CSDS), 29 Rajpur Road, Delhi 110054 Friday, March 28, 2008 4.00 pm Prof. Rajeev Bhargava will chair the discussion Please do join us Awadhendra Sharan In-Charge, Seminars, CSDS Aditya Nigam XB-7 Sah-Vikas Apts, 68 Patparganj, Delhi-110092 Tel: 2223 1855 (R), 23942199, 23951190 (O) From vineetdu at gmail.com Mon Mar 17 14:43:29 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 17 Mar 2008 14:43:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSo4KSh4KWA?= =?utf-8?b?4KSf4KWA4KS14KWAIOCkreClgCDgpKLgpYvgpILgpJcg4KS54KWIID8g?= =?utf-8?b?4KSH4KSu4KWI4KSc4KS/4KSoIOCkquCksCDgpJvgpYLgpJ/gpKTgpL4g?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCkreCli+CksuClhyDgpKzgpL7gpKzgpL4g4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSd4KWL4KSy4KS+?= Message-ID: <829019b0803170213g6d83742fjc55d6e1c6522193f@mail.gmail.com> बाजार की मार से कॉल सेंटर में तब्दील हो चुके न्यूज चैनलों के बीच भी एनडीटीवी की अपनी पहचान है। अभी भी आप देखेंगे कि बाकी चैनल जहां खबरों के नाम पर रियलिटी शो की उठापटक और फाइव सी तक सिमट जाते हैं, एनडीटीवी इसके बाहर की दुनिया की भी खबर ठीकठाक लेता है। आज भी आपको यहां खबर के नाम पर सनसनी और फेब्रिकेटेड आइटम कम मिलेंगे। बाकी चैनलों से किसान और हाशिए पर के लोग भले ही गायब होते जा रहे हों लेकिन एनडीटीवी आज भी इनसे जुड़े मसलों को बड़ी ही शिद्दत से उठाता है।....ऑडिएंस के बीच इसकी एमेज की बात करें तो ये देश का वो न्यूज चैनल है जिसे कि सबसे कम लोग गाली देते हैं। मेरी समझ से तो अगर दूरदर्शन से सरकारी तामझाम और पंजा तो कभी कमल बनती प्रक्रिया को हटा दें तो जो कुछ भी बचेगा वो सब एनडीटीवी में मौजूद है। इस अर्थ में एनडीटीवी पढ़े-लिखे लोगों के बीच सम्मानित चैनल है। लेकिन कहते हैं न कि- अखंड कुछ भी नहीं है। न ही मंदिर जानेवालों की आस्था और न ही एनडीटीवी देखनेवालों का विश्वास। सो हम जैसे दर्शकों के साथ भी इधर ऐसा ही कुछ हो रहा है। एक बड़ी ही सामान्य सी बात है कि जब कोई भी कम्पनी, संगठन या सेवाएं बाजार में शामिल होती है तो उसकी सबसे बड़ी कोशिश होती है, ग्राहकों के बीच साख पैदा करना, अपनी ब्रांड इमेज बनाना। कई बार इमेज समय बीतने के साथ बनते हैं कि जो जितना पुराना होगा, वो उतना ही भरोसेमंद होगा। बाजार में बाटा के जूते, डाबर का हाजमोला, शहद और बाकी चीजें भी इसी बूते बिक रही हैं। जो बहुत नामी नहीं भी है, जिसने कोई ब्रांडिंग नहीं है वो भी अगर अपने दूकान के आगे लिख दे- ७० साल से आपकी सेवा में तो आपको थोड़ी देर के लिए भरोसा जरुर हो जाएगा। दिल्ली के चांदनी चौक में ऐसी सैंकडों दूकाने मिल जाएंगी जो इतिहास से जोड़कर अपनी ब्रांड इमेज बना रहीं हैं। न्यूज चैनल के साथ मजबूरी है कि वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि न्यूज चैनलों के साथ जुम्मा-जुम्मा आठ रोजवाली कहावत लागू होती है। और लगभग सारे चैनलों की इमेज इसी आधार पर बनी है कि कम से कम समय में किसने समाज के बीच अपनी पहचान बनायी है, खबरों को दिखाकर समाज को साकारात्मक दिशा में बदलने का काम किया है, वगैरह॥वगैरह। इस मामले में भी दर्शकों ने एनडीटीवी को सही सम्मान दिया है। लेकिन बाजार और कम्पनी के साथ एक दिक्कत है। वो ये कि अगर कम्पनी ने शुरु में तौलिया बनाया और बाजार में बेचा, उसकी दुकान जम गयी तो फिर बनियान भी बनाएगी, फिर लुंगी भी, फिर बिकनी भी, फिर जुरावें भी और पता नहीं क्या-क्या। इसके भी दो तरीके हैं। एक तो कि इससे जुडी बाकी चीजें भी बनाए। जैसे दूध बेच रहे हो तो मक्खन भी बनाओ, ब्रेड भी, शहद भी, दही भी, घी भी और धीरे-धीरे ऐसा करो कि नाश्ते की टेबल पर सिर्फ आपका ही प्रोडक्ट हो। दूसरा तरीका है कि वो सब कुछ बनाओ जिससे अलग-अलग पेशे और मिजाज के लोग जुड़ जाएं। अब चड्ड़ी तुम्हारे यहां से खरीद रहा है तो फिर चश्में के लिए कहां जाए। धूपबत्ती तुम्हारी जला रहा है तो अखबार किसी और की क्यों पढे। कैडवरी ने तो कह दिया कि दूसरे का नमक नहीं खाना और अब बाजार में उसकी नमकीन भी है। यानि ऐसा करो कि आप ग्राहक की जिंदगी में ज्यादा से ज्यादा शामिल हों। इधर कम्पनी की, एक प्रोडक्ट को लेकर जैसी इमेज बन गई वो चाहती है कि बाकी प्रोडक्ट जब बाजार में उतारे तो लोगों का वही भरोसा हासिल कर ले। टाटा की बनायी बाल्टी का हत्था नहीं उखड़ता तो फिर मोबाइल का नेटवर्क कैसे गायब हो जाएगा, किंगफिशर का पैग मारकर जब रात रंगीन हो जाती है तो एयरलांइस में बैठने पर सुबह हसीन होने में क्या दिक्कत है। हम ग्राहकों का भरोसा भी इसी तरह से पनपा है औऱ मजाक में कहते भी हैं कि अगर एडीडास कल से धोती बेचने लगे तो बाबूजी के लिए वही ले जाएंगे और अगर रिवलॉन मेंहदी बेचने लगे तो वही भाभी को ले जाकर देंगे। ब्रांड इमेज दोनों तरफ से ऐसे ही बनते और बरकरार रहते हैं। एनडीवी और उसके नए इंटरटेनमेंट चैनल एनडीटीवी इमैजिन के साथ ऐसा ही हुआ है। एनडी को लगा कि खबर देखने तो हमारा ऑडिएंस यहां रेगुलर आता है लेकिन मनोरंजन के लिए फिर से स्टार या जी पर चला जाता है। क्यों न उसे ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने घर में ही रोके रखें। सो उतर गया मनोरंजन की दुनिया में भी। इधर हम एनडी के दर्शकों को भी खटकता रहता कि न्यूज तो बहुत प्रोग्रेसिव तरीके का मिल जाता है लेकिन मनोरंजन करना होता है तो वही सास-बहू की हांय-हांय और पाखंडियों के चैनलों की ओर मुंह करना पड़ जाता है। कमजोर दिल के मेरे साथी डरते भी रहे कि कहीं हिन्दूवादी न हो जाएंगे। इसलिए इमैजिन ने जब रामायण दिखाना शुरु किया तो भी बुरा नहीं लगा क्योंकि दिमाग में था कि एनडी इसे अपने एप्रोच से दिखाएगा। जबरदस्ती के क्षेपकों को हटाकर एक तर्क के साथ पेश करेगा लेकिन दो-तीन एपिसोड के बाद देखना छोड़ दिया। बाकी नच ले विद सरोज खान के साथ लगाव बना रहा। इधर मैं तेरी परछाई हूं, राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी, धरमवीर, जस्सू बेन जयंतीलाल जोशी की ज्वाइंट फैमिली को भी बीच-बीच में देखता रहा औऱ प्रोग्रेसिव एलिमेंट खोजता रहा। इसी बीच कल रात में समझिए कांड ही हो गया। एक नए आइडिया के साथ कि इमैजिन के जितने भी प्रोग्राम हैं, उनके जितने भी कलाकार हैं सबको मिलाकर होली पर एक स्पेशल प्रोग्राम बनाया। एक सीरियल की कहानी दूसरे से जुड़ी हुई और साथ में सरोज खान भी । आइडिया नया और बढ़िया था। लेकिन होली की मस्ती के नाम पर चड्ढा-चोपड़ा की फिल्मों वाली चकल्लस। फिल्मी गानों पर सारे कलाकारों का नाच-गाना।॥ .....और तो और जब ये स्पेशल खत्म होने को है तो जस्सूबेन कहती है कि इस बार शिवजी ने दर्शन नहीं दिए। जयंतीलाल समझाता है कि इस बार खुशियों के रुप में भोलेबाबा हमारे घर आए। मुझे लगा कि एनडी ने अपना असर दिखाया। लेकिन तभी आया एक झोला लेकर आती है और बताती है कि सारे मेहमानों से पूछ लिया- किसी का नहीं है। जस्सूबेन खोलती है तो पाती है कि उसमें एक शंख है जिस पर काले रंग की एक शिवलिंग बनी है। गले से लगाते हुए जस्सूबेन कहती है...पधारिए भोलेबाबा। क्या वाकई एनडीटीवी २४ इनटू ७ देखने वाले दर्शकों को इसकी जरुरत थी। चैनल चाहे तो तर्क दे सकता है कि हमें बाजार में बने रहने के लिए दिखाना पड़ेगा। आपकी बात तो ठीक है लेकिन दर्शक तो आपके इस एप्रोच को एनडीटीवी के चरित्र से जोड़कर देखेगी। और फिर आपने ये कैसे मान लिया कि आप जो कुछ भी दिखाएंगे, हम उसे प्रोग्रेसिव मान लेंगे। हमें तो यही लगता है कि ये पाखंड साथ-साथ चल जाए तो गनीमत है, चैनल चल भी जाए तो आपकी आइडियोलॉजी तो पिट ही जाएगी, अब शायद आपको इसकी जरुरत न हो।॥हम तो मनोरंजन चैनल को लेकर अनाथ के अनाथ ही रह गए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080317/c1a12009/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Mar 18 10:28:20 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 18 Mar 2008 10:28:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSt4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSt4KWAIOCknOCksuCkteCkviDgpLngpYgg4KS54KSC4KSf4KSw4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCkvg==?= Message-ID: <200803181028.20269.ravikant@sarai.net> अभी भी जलवा है हंटरवाली का http://www.hindimedia.in/content/view/1466/86/ Monday, 17 March 2008 1935 में आई सफल हिंदी फिल्म 'हंटरवाली' में जानदार भूमिका करने के बाद फिल्मी दुनिया में और व्यक्तिगत जीवन में हंटरवाली के नाम से मशहूर हुई अभिनेत्री नादिया को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक नई पहचान मिलेगी। 'फियरलेस एन' नामक स्टेज शो में नादिया के जीवन तथा भारत में उनके कला जगत में परचम लहराने तक के सफर को दर्शाया गया है, जिसे ऑस्ट्रेलि या में दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। अब उनके जीवन पर एक फिल्म तथा वृतचित्र का भी निर्माण होगा। अपने जमाने की इस महान भारतीय अदाकारा नादिया के नाटकीय जीवन को दर्शाती एक फिल्म तथा स्टेज शो का मंचन ऑस्ट्रेलिया में हो रहा है, और बड़ी संख्या में दर्शकों की भीड़ इसको देखने के लिए उमड़ रही है। नादिया का जन्म 8 जनवरी, 1908 को पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश फौज में अधिकारी थे। वे ग्रीक थिएटर से भी जुड़े थे और 1913 में जब उनको भारत के मुंबई में भेजा गया तब उनकी बेटी मैरी एन इवान मात्र 7 साल की थी। नादिया ने किशोरावस्था में ही नाटकों में काम करना शुरु कर दिया था और उन्होंने 1920 से 1936 तक देश के कई हिस्सों में जा कर नाटकों में भाग लिया। एक ज्योतिषी के कहने पर उन्होंने अपना नाम मैरी एन इवान से बदलकर नादिया रख लिया था। उनको हिन्दी फिल्म उद्योग में नादिया नाम से ज़बर्दस्त ख्याति मिली। उन्होंने 1933 में पहली बार हिंदी फिल्म 'लाल-ए-यमन' में अभिनय किया था, जिसका निर्माण वाडिया मूवीटोन्स के जेबीएच वाडिया ने किया था। उन्होंने 1932 में मखज़ने अल औचक नामकी एक अरबी फिल्म में भी काम किया था और अरब देशों के साथ ही ईरान, इराक तक में उनके अभिनय की चर्चा फैल गई थी। इस फिल्म की शूटिंग मिस्त्र के इजिप्ट में हुई थी। भारत में 'हंटरवाली' के नाम से मशहूर हुई नादिया ने 1930 और 40 के दशक में 35 से अधिक फिल्मों में काम किया। 1935 में बनी फिल्म हंटरवाली से उनके अभिनय के चर्चे घर घर में होने लगे थे और महिलाओं की तो वे आदर्श अभिनेत्री हो गई थी। स्थिति यह हो गई थी कि अगर कोई औरत या लड़की तब किसी पर गुस्सा हो जाती थी और किसी मनचले की पिटाई कर देती थी तो लोग उसको हंटरवाली कहकर बुलाने लगते थे। फिल्म हंटरवाली का निर्देशन भी होमी वाडिया ने किया था और यह भारतीय सिनेमा की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्मों में एक मानी जाती है। फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी अगली कड़ी के रूप में 1943 में हंटरवाली की बेटी का निर्माण किया गया। 1970 में प्रदर्शित फिल्म एक थी नन्हीं मुन्नी लडकी उनकी अंतिम फिल्म थी। नादिया ने दो शादियाँ की थी और पहली शादी से उनको एक बेटा भी था। वे फिल्म निर्माता होमी वाडिया से उनका रुमानी संबंध कई सालों तक चला और दोनों शादी करना चाहते थे लेकिन पारसी परिवार के वा डिया की माँ नहीं चाहती थी कि उनका बेटा किसी गैरपारसी से शादी करे। 1960 मं होमी वाडिया की माँ के निधन के बाद नादिया ने होमी वाडिया से शादी कर ली थी। नादिया का निधन मुंबई के कंबाला हिल अस्पताल में 88 साल की उम्र में 1993 में उनके जन्मदिन के कुछ दिनों बाद ही हुआ। उनके पोते ने उन पर एक वृत्त चित्र भी बनाया है जिसका नाम है फीअरलैसः द हंटरवाली (बेखौ फ हंटरवाली)। From ravikant at sarai.net Tue Mar 18 19:24:50 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 18 Mar 2008 19:24:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BIndlinux?= =?utf-8?b?LWhpbmRpXSDgpIXgpILgpJfgpY3gpLDgpYfgpJzgpYAg4KSy4KS/4KSW4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KWHICwg4KS14KWH4KSs4KS44KS+4KSH4KSfIOCkquCksCDgpLk=?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSm4KWAIOCkpuCkv+CkluClh+Ckl+ClgA==?= Message-ID: <200803181924.50849.ravikant@sarai.net> Akhiri line karunakar ki hai, miss na karein. meri apni ummeed ab dhahne lagi hai! ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Indlinux-hindi] अंग्रेजी लिखेंगे, वेबसाइट पर हिंदी दिखेगी Date: मंगलवार 18 मार्च 2008 18:31 From: "G Karunakar" To: "List for Hindi Localization" कुछ एसे ही याहू के हिन्दी साईट खोला तो ये पाया http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_4277640/ Mar 18, 03:11 pm देहरादून [जागरण संवाददाता]। वेबसाइट पर आप अंग्रेजी के शब्द टाइप करेंगे तो उसका हिंदी में शाब्दिक अनुवाद [मानक हिंदी शब्द] स्वत: ही आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाएगा। यह अनोखी पहल भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग की है। केंद्रीय वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष प्रो. के विजय कुमार ने दैनिक जागरण से विशेष मुलाकात में बताया कि केंद्रीय शब्दावली आयोग की इस वर्ष शुरू होने वाली दो दूरगामी परियोजनाएं हैं, जिनमें वेबसाइट 'सीएसटीटी डाट जीओवी डाट इन' लांच करने का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। इस वेबसाइट से केंद्र व राज्य सरकार के दफ्तरों में हिंदी में काम करने की सुविधा व ताकत दोनों बढ़ेंगी। प्रो. कुमार के मुताबिक शब्दावली आयोग का महत्वाकांक्षी नेशनल ट्रांसलेशन मिशन भी इस वर्ष शुरू हो जाएगा। 700 करोड़ रुपये के इस मिशन का ब्लू प्रिंट लगभग तैयार हो चुका है, जिसमें अब योजना आयोग से स्वीकृति की औपचारिकता पूरी होनी है। यह मिशन पांच वर्ष में पूरा होना है, जिसमें अंग्रेजी सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं और भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण एवं विश्व प्रसिद्ध पुस्तकों के अनुवाद हिंदी में होंगे। इस अनुवाद योजना के अंतर्गत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सभी शाखाओं के साथ आर्थिक, इतिहास, भूगोल आदि से संबंधित विषयों की चुनिंदा पुस्तकें भी शामिल की जानी हैं। उन्होंने बताया कि शब्दावली आयोग ने 37 वर्ष के अपने कार्यकाल में अंग्रेजी के नौ लाख शब्दों और कन्नड़, कोंकणी, बोडो, उड़िया व मराठी के छह लाख शब्दों के हिंदी में मानक रूपांतरण प्रस्तुत किए हैं। वर्ष 2006 से आयोग ने राष्ट्रीय प्रशासनिक शब्दावली कार्यक्रम भी आरंभ किया है, जिसे इसी वित्तीय वर्ष 2008-09 में पूरा होना है। इस कार्यक्रम में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के 20 हजार शब्दों को सूचीबद्ध किया जाना है, जिससे भारतीय भाषाओं में शाब्दिक व वर्तनी की एकरूपता कायम हो सके। National Translation mission पर थोडी पैनी नजर रखनी पडेगी ! करुणाकर ------------------------------------------------------------------------- This SF.net email is sponsored by: Microsoft Defy all challenges. Microsoft(R) Visual Studio 2008. http://clk.atdmt.com/MRT/go/vse0120000070mrt/direct/01/ _______________________________________________ Indlinux-hindi mailing list Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi ------------------------------------------------------- From sadanjha at gmail.com Wed Mar 19 11:05:55 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Wed, 19 Mar 2008 11:05:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: H-ASIA: CFP South Asia special issue Intl. Jrnl of Zizek Studies In-Reply-To: References: Message-ID: <1a9a8b710803182235h4516677dlf7d6a1db40112df9@mail.gmail.com> deewano, aaj ek dusare list se Zizek journal ke sambandh main ek CFP aayaa. socha ki aap logon se share karain. saayad aap main se koi dilchaspi le. hindi main translation bhi dekha to deewan par mail karane ka man ho gaya.niche link hai. agalaa ank south asia par focus ho raha hai. http://zizekstudies.org/translations/home_hindi.pdf sadan. ---------- Forwarded message ---------- From: Frank Conlon Date: Mar 19, 2008 5:25 AM Subject: H-ASIA: CFP South Asia special issue Intl. Jrnl of Zizek Studies To: H-ASIA at h-net.msu.edu H-ASIA March 18, 2008 Call for papers: Special South Asia Issue of the International Journal of Zizek Studies ************************************************************************ Ed. note: For the uninitiated the following note from the Internet Encyclopedia of Philosophy states: "Slavoj Zizek is a Slovenian-born political philosopher and cultural critic. He was described by Terry Eagleton as the 'most formidably brilliant' recent theorist to have emerged from Continental Europe. Zizek's work is infamously idiosyncratic. It features striking dialectical reversals of received common sense; a ubiquitous sense of humour; a patented disrespect towards the modern distinction between high and low culture; and the examination of examples taken from the most diverse cultural and political fields." FFC - ------------------------------------------------------------------- From: H-Net Announcements Call for Papers - South Asia: Special issue of International Journal of Zizek Studies Call for Papers Date: 2008-04-30 Date Submitted: 2008-03-14 Announcement ID: 161474 Guest Editor: Gopalan Ravindran (gopalanravindran at rediffmail.com) Subaltern Studies Media and Communications Collective is proud to collaborate with the International Journal of Zizek Studies in bringing out a special issue of the journal for writings on South Asis, either to elaborate on or critique the ideas of Slavoj Zizek. We welcome papers analysing/theorising South Asia on the topics given below (though not limited to). * postcolonialism * ideology * myths * fundamentalism * secularism * multiculturalism * psychoanalysis * popular culture * mass media * capital * globalization * cyberspace * human rights * post-marxism * modernity * feudalism * tradition * regionalism * sub-nationalism * populism * cult behaviour The deadline for submission of abstracts (500 words) is April 30 2008.Full papers are due by Oct. 15 2008.Revisions: Nov. 15. Tentative release date Dec. 15 2008.Pl.visit http://zizekstudies.org for citation style. Pl.mail your abstracts and papers to gopalanravindran at rediffmail.com. Gopalan Ravindran Dept.of Communication Manonmaniam Sundaranar University Tirunelveli 627012 India Email: gopalanravindran at rediffmail.com Visit the website at http://zizekstudies.org H-Net reproduces announcements that have been submitted to us as a free service to the academic community. 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India. blog: mamuliram.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Wed Mar 19 12:51:44 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 19 Mar 2008 12:51:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCknA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWB4KSw4KWAIOCkqOCkueClgOCkgiDgpJXgpL8g4KSa4KWI4KSo?= =?utf-8?b?4KSyIOCkleClgCDgpKjgpYzgpJXgpLDgpYAg4KSs4KSc4KS+4KSP4KSC?= Message-ID: <829019b0803190021o6cda83c6o412d6308d3c5b960@mail.gmail.com> आंखों में लेकचरर होने का सपना लिए और रिसर्च के लिए चार-पांच हजार की मीडिया में नौकरी करते हुए हमने अपने सीनियर्स को देखा है। मैं खुद भी इस जमात में शामिल रहा। लेकिन अब सही पत्रकार होने, कहलाने और बनने के लिए जरुरी नहीं है कि हम किसी चैनल का पट्टा लगाकर दस-बारह घंटे की ड्यूटी बजाएं। हमें जो कुछ करना होगा, मीडिया के जरिए जो कुछ भी करना होगा, खुद कर लेंगे। अब हमारे साथ इस बात की कोई जबरदस्ती नहीं करेगा कि रिपोर्टर बोलकर नौकरी देगा और महीनों पैकेजिंग में डाल देगा। शोषण और श्रम कानून पर रिपोर्ट लिखवाएगा और खुद १२ से चौदह घंटे के पहले छोड़ेगा नहीं। डीयू में मीडिया पर शोध करने वाले रिसर्चर अब जोश में हैं और मीडिया का सही अर्थ खोजने में जुट गए हैं। यूजीसी की स्कॉलरशिप की स्कीम के तहत अब एम।फिल् और पीएच।डी करने वाले प्रत्येक रिसर्चर को प्रतिमाह ३००० और पांच हजार रुपये मिलेंगे। किताबें औऱ बाकी चीजों के लिए एक साल में दस हजार रुपये। थोड़ी देर के लिए अगर चैनलों में मिलनेवाली पैकजों की बात छोड़ दे तो ये किसी भी रिसर्चर के लिए उसेक जीवन का सबसे सुखद क्षण है। ये बात सही है कि चैनलों के मुताबिक पांच हजार रुपये कुछ भी नहीं है, इससे कहीं ज्यादा रकम वहॉ के ऑफिसों के लिए काम करनेवाले सर्विस ब्ऑय की होगी। लेकिन इस पांच हजार रुपये में एक रिसर्चर अपने मन मुताबिक वो सबकुछ कर सकता है जो कि पचास हजार रुपये मंथली मिलने पर भी कोई पत्रकार शायद ही कर पाता है। मीडिया पर रिसर्चर कर रहे मेरे कुछ दोस्तों से बात हुई। उनका कहना है कि अभी उन्हें पिछले छ महीने का पैसा एक साथ जोड़कर मिलेगा। स्कॉलरशिप की ये स्कीम मार्च २००७ से लागू है लेकिन पैसे मिलने अब शुरु हुए हैं। इसलिए ६-६ महीने का एक साथ मिल जाएगा और उसके बाद महीने के हिसाब से। मेरे कुछ साथियों को एक ही साथ ४०-४५ हजार मिल रहे हैं, मिलनेवाले हैं। उनका कहना है कि इतने पैसे से तो कामलायक, ठीकठाक हैंडीकैम आ जाएंगे और अगली खेप में लैपटॉप के लिए सोचा जाएगा। हमारे आसपास, हरियाणा में, राजस्थान में, बिहार में और यहां तक कि दिल्ली में कई ऐसी घटनाएं होतीं रहती है जिन पर कि कायदे से नोटिस नहीं ली जाती। मेनस्ट्रीम की मीडिया का एक बनाया ट्रेंड है जिसमें दो या तीन लोगों की बाइट सहित डेढ़ से दो मिनट की पैकेज में सारी बातें डाल देगी। सूचनाएं तो चारों तरफ फैल जाती है, मानवीय संवेदना का पक्ष बिल्कुल छूट जाता है। अब तक तो बहुत हुआ तो अखबार में चिट्ठी लिखकर अपनी असहमति और पक्ष दर्ज कराते रहे लेकिन इन पैसों से अब डॉक्यूमेंटरी बनायी जा सकती है। बाकी ट्यूशन पढ़ाकर शोध-कार्य करना जारी रहेगा। इस हिसाब से अगर विचार करें तो एम्।फिल या पीएचडी के दौरान रिसर्चर एक भी डॉक्यूमेंटरी बनाता है तो साल में कम से कम ७५-८० डॉक्यूमेंटकी बन जाएंगे। ....और अगले सालभर तक शहर के अलग-अलग हिस्सों में स्क्रीनिंग करा सकेंगे। किसी एक मुद्दे को या फिर अपने रिसर्च टॉपिक को लेकर ही अगर ये फिल्म बनाते हैं तो आज जो हम मेनस्ट्रीम की मीडिया के मोहताज बने है, उसके सही या गलत हर खबर पर हम अपनी राय बना लेतें हैं, इस पर थोड़ी रोक जरुर लगेगी। चाहे तो कुछ लोग मिलकर सामूहिक स्तर पर पत्रिका निकाल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि विश्वविद्यालय में इस स्तर के काम कभी शुरु नहीं हुए लेकिन हर बार देखने में आया है कि पैसे के अभाव में उसे बीच में बंद करना पड़ गया। लेकिन अब इसकी पहल की जाती है तो लम्बा चलेगा। दूसरी बात जो मैं समझता हूं कि मीडिया जैसे सेंशेटिव प्रोफेशन में एक बड़ी तादाद में खर-पतवार शामिल हैं, जिन्हें बेसिक चीजों की समझ नहीं है लेकिन देशभर के लोगों के लिए राय बनाने का काम कर रहें हैं। कहीं से भी सालभर की डिप्लोमा डिग्री लेकर समाज को रातोंरात बदलने का जज्बा लेकर आते हैं, वो समाज को कितना बदल पाते हैं, ये तो समाज ने बोलना शुरु कर दिया हैं लेकिन महीने दो-महीने के अंदर वो खुद कितना बदल जाते हैं इसका अंदाजा शायद उन्हें भी न होता होगा। अकादमिक स्तर पर भी मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के रवैये पर लगातार विरोध और गुत्थम-गुत्थी चलती रहती है। इस स्कॉलरशिप से उन्हें एक नया स्पेस मिला है, काफी कुछ वो अपने मुताबिक कवर कर सकते हैं, लिख सकते हैं। ये भी संभव है कि गुजरात जैसे दंगे जिसका कि सामाजिक स्तर पर बड़ा प्रभाव रहा और जिसे लेकर मीडिया से भी शिकायत रही कि उसने चीजों को तोड़-मरोड़कर दिखाया। ऐसे मसले पर यूनिवर्सिटी के कुछ रिसर्चर टीम बनाकर, अपनी यूनिट लेकर खुद ऐसी जगहों पर जा सकते हैं और अपने तरीके से टीआरपी के दबाव से मुक्त होकर तटस्थ रुप से सारी चीजें लोगों के सामने रख सकते हैं। तीन साल, चार साल जो भी समय लगता है एम् फिल पीएचडी में बाकी के लोगो की तरह गाजियाबाद में प्लॉट या फ्लैट न भी ले पाए तो भी इस दौरान मीडिया में काम करने का तरीका ढंग से मालूम हो जाएगा। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि क्या मीडिया को बनाए रखने के लिए बिना बाजार के गुलाम हुए सीधे-सीधे खबर देने से मामला बन जाएगा या फिर वाकई हर खबर एक खबर के बाद विज्ञापन के लिए ब्रेक लेना जरुरी है। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि बिना ताम-झाम के बिना लाग- लपेट पेज थ्री और फाइव सी में घुसी हमारी बातों और खबरों में लोगों की कितनी रुचि है। वाकई ऑडिएंस दिनभर जलवे देखना चाहती है या फिर चैनल उनके साथ जबरदस्ती करके अपनी बात थोपते आ रहे हैं। यानि कुल बातों का लब्बोलुवाव इतना है कि रिसर्च के दौरान मिलनेवाले स्कॉलरशिप से रिसर्चर चाहे तो तरीके का वैकल्पिक मीडिया खड़ी कर सकता है। एक ऐसी मीडिया जो मानवीय संवेदना के ज्यादा करीब है। बिना फ्रशट्रेशन के अपने मन मुताबिक काम कर सकता है और चैनल में काम कर रहे साथी मीडिया के खोए हुए अर्थ को पाने की छटपटाहट में हैं, यूनिवर्सिटी में मीडिया पर शोध कर रहा रिसर्चर आसानी से वो अर्थ दे सकता है।....और सही तरीके से काम करता गया तो भविष्य में भी दुनियाभर की शर्तों पर किसी चैनल या अखबार में काम करने की नौबत नहीं आएगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080319/3ad6f690/attachment-0001.html From manoj.hrb at gmail.com Thu Mar 20 13:55:20 2008 From: manoj.hrb at gmail.com (manoj kumar) Date: Thu, 20 Mar 2008 13:55:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: KAHAANI PAATH & PARICHARCHA In-Reply-To: <59dc83100803200120g40655d26s26caedd879c93b9c@mail.gmail.com> References: <59dc83100803200120g40655d26s26caedd879c93b9c@mail.gmail.com> Message-ID: <59dc83100803200125q24abe0c9g2b3068bbee40937b@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- From: manoj kumar Date: Mar 20, 2008 1:50 PM Subject: KAHAANI PAATH & PARICHARCHA To: yogender.dutt at gmail.com Cc: naresh goswami You are cordially invited in a literary programme on occasion of* Bhagat Singh Shahadat diwas(23 march*). Noted story writer and novelist SANJEEVwill read his to be published story MAUSAM in next issue of HANS monthly followed by a discussion chaired byPr Gopeshwar singh ., Deptt. of Hindi. The detais of programme is as KAHAANI PAATH & PARICHARCHA based on Sanjeev 11 am,25th march,2008 activity centre spic macay canteen arts faculty , DU Sanjeev is acing editor of HANS monthly and popular and dedicated story writer and novelist. some his critially acclaimed stories are " * APARAADH,PRERNASROTE,MAANPATRA,LITERATURE,PRETMUKTI,KHOJ*,* DUNIYA KI SABSR HASEEN* *AURAT* etc ". Some his famous novels are " * SUTRADHAAR*(based on life and struggle obf Bhikhari thakur), *JAHAAN SE JANGLE SHURU HOTA HAI*, *SAAWDHAN!NEECHE AAG HAI*,* DHAAR* ( based on Jharkhans's coaliary life and struggle), CIRCUS etc". prof. Gpeshwar Singh teaches in deptt. oh Hindi ,DU and a noted critique of contemporary and mediaval literature. Manoj Kumar on Behalf of PREMCHAND VICHAAR MANCH a forum of progressive thought. 9968124195 / 9868035530 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080320/1a1ce967/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Mar 20 22:51:18 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 20 Mar 2008 22:51:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KSP4KSVIOCkquCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSa4KS+?= Message-ID: <363092e30803201021n2eeb8d60h6c27d574a7b113dd@mail.gmail.com> होली के खिलाफ एक पर्चा http://hashiya.blogspot.com/2008/03/blog-post_20.html रंग अच्छे लगते तो हैं, लेकिन तब जब वे आंखों के सामने हों. अगर वे आंखों में डाल दिये जायें तो चुभने लगते हैं. होली में जिस तरह औरतों को लेकर निम्नस्तरीय और अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं, गीत गाये जाते हैं-वे शर्मशार करते हैं. स्त्रियों की इस तरह इज्जात उतारने का उत्सव किसी और सभ्यता-संस्कृति में शायद ही होता हो, जिसमें पूरा समाज भाग लेता हो. समाज की जो हाइरार्की है-हर कमजोर को, दलित को, औरतों को लक्षित करके जिस तरह होली मनायी जाती है-वह असहनीय है. होली सामंती समाज का त्योहार है और कम से कम वे लोग, जो इस समाज को खारिज करते हैं, उसे खत्म करना चाहते हैं-उन्हें इसके खिलाफ आना चाहिए न कि होली की यादों में उभ-चुभ करना चाहिए. कुमार अनिल की रिपोर्ट, एक गांव से लौट कर. कुमार अनिल बिहार के दलित टोलों में होली किसी बुरे सपने की तरह रही है. दबंग लोगों के लिए होली हमेशा से उत्पीडन का बहाना रही है. पुलिस अथवा सामंती ताकतों द्वारा जनसंहार झेल चुके दर्जन भर गांवों के दौरे के बाद लेखक ने होली को हर गांव में उत्पीडन का जरिया ही पाया. आज से 20 साल पहले दलित टोलों में होली नहीं खेली जाती थी. लोग सहमे- सहमे रहते थे. गांव के बडे लोगों का होली गाता हुजूम हर दलित टोलों में घूमता था. भूमिहीन परिवारों की बहू-बेटियों के नाम लेकर अश्लील गीत गाये जाते थे. एक ही टोली एक ही समय में सास व बहू और मां व बेटी के नाम लेकर अश्लील गीत गाती थी. औरतों के कोमल अंगों का जोर-जोर से उल्लेख किया जाता था. दलित नौजवान मन मसोस कर रह जाते थे. रतनी फरीदपुर प्रखंड का नोआवां गांव भी यही कहानी कहता है. पता नहीं यह परंपरा कब से चली आ रही थी. इस गांव में सबसे पहले कहार जाति के युवा कैलाश राम ने इस अश्लीलता का विरोध किया. इस गांव में कहार जाति के महज २० घर हैं, पर रविदासों के 50, मुसहरों के 30, पासवानों के 10 व डोमों के आठ घर हैं. बात 1984 की है. कैलाश ने पूरे दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व किया. उसे अश्लील गीतों के विरोध का खामियाजा भुगतना पडा. दबंगों ने उसे बुरी तरह पीट दिया. उसे मरा हुआ जान कर छोड दिया गया. पिटाई तो कैलाश राम की हुई, पर पूरा दलित टोला घायल हुआ. घटना के बाद सभी में जबरदस्त एकता बन गयी. उसके बाद दलितों व सामंती ताकतों के बीच लंबी लडाई चली. एक ही गांव जैसे दो दुश्मन देश बन गये. एक टोले के लोग दूसरे टोले में अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर सकते थे. अनेकों गांवों में होली के अवसर पर दलितों के जनसंहार भी हुए हैं. रणवीर सेना होली को जनसंहार दिवस के रूप में मनाती रही है. समय बदला व उत्पीडन का स्वरूप भी बदला. शक्ति संतुलन बदलने के कारण अब दलित टोलों में भी युवा होली खेलने लगे हैं. दुर्भाग्य से आज के दलित युवा भी होली की अश्लीलता से अछूते नहीं हैं. उन्होंने दबंगों की अश्लीलता को अपना लिया. हालांकि यह वैसा नहीं है, जैसा पहले के जमाने में होता था. समय के साथ उत्पीडन के हथियार भी बदल गये हैं. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080320/f0b6fdda/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Mar 20 22:51:18 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 20 Mar 2008 22:51:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpJbgpL/gpLLgpL7gpKsg4KSP4KSVIOCkquCksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSa4KS+?= Message-ID: <363092e30803201021n2eeb8d60h6c27d574a7b113dd@mail.gmail.com> होली के खिलाफ एक पर्चा http://hashiya.blogspot.com/2008/03/blog-post_20.html रंग अच्छे लगते तो हैं, लेकिन तब जब वे आंखों के सामने हों. अगर वे आंखों में डाल दिये जायें तो चुभने लगते हैं. होली में जिस तरह औरतों को लेकर निम्नस्तरीय और अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं, गीत गाये जाते हैं-वे शर्मशार करते हैं. स्त्रियों की इस तरह इज्जात उतारने का उत्सव किसी और सभ्यता-संस्कृति में शायद ही होता हो, जिसमें पूरा समाज भाग लेता हो. समाज की जो हाइरार्की है-हर कमजोर को, दलित को, औरतों को लक्षित करके जिस तरह होली मनायी जाती है-वह असहनीय है. होली सामंती समाज का त्योहार है और कम से कम वे लोग, जो इस समाज को खारिज करते हैं, उसे खत्म करना चाहते हैं-उन्हें इसके खिलाफ आना चाहिए न कि होली की यादों में उभ-चुभ करना चाहिए. कुमार अनिल की रिपोर्ट, एक गांव से लौट कर. कुमार अनिल बिहार के दलित टोलों में होली किसी बुरे सपने की तरह रही है. दबंग लोगों के लिए होली हमेशा से उत्पीडन का बहाना रही है. पुलिस अथवा सामंती ताकतों द्वारा जनसंहार झेल चुके दर्जन भर गांवों के दौरे के बाद लेखक ने होली को हर गांव में उत्पीडन का जरिया ही पाया. आज से 20 साल पहले दलित टोलों में होली नहीं खेली जाती थी. लोग सहमे- सहमे रहते थे. गांव के बडे लोगों का होली गाता हुजूम हर दलित टोलों में घूमता था. भूमिहीन परिवारों की बहू-बेटियों के नाम लेकर अश्लील गीत गाये जाते थे. एक ही टोली एक ही समय में सास व बहू और मां व बेटी के नाम लेकर अश्लील गीत गाती थी. औरतों के कोमल अंगों का जोर-जोर से उल्लेख किया जाता था. दलित नौजवान मन मसोस कर रह जाते थे. रतनी फरीदपुर प्रखंड का नोआवां गांव भी यही कहानी कहता है. पता नहीं यह परंपरा कब से चली आ रही थी. इस गांव में सबसे पहले कहार जाति के युवा कैलाश राम ने इस अश्लीलता का विरोध किया. इस गांव में कहार जाति के महज २० घर हैं, पर रविदासों के 50, मुसहरों के 30, पासवानों के 10 व डोमों के आठ घर हैं. बात 1984 की है. कैलाश ने पूरे दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व किया. उसे अश्लील गीतों के विरोध का खामियाजा भुगतना पडा. दबंगों ने उसे बुरी तरह पीट दिया. उसे मरा हुआ जान कर छोड दिया गया. पिटाई तो कैलाश राम की हुई, पर पूरा दलित टोला घायल हुआ. घटना के बाद सभी में जबरदस्त एकता बन गयी. उसके बाद दलितों व सामंती ताकतों के बीच लंबी लडाई चली. एक ही गांव जैसे दो दुश्मन देश बन गये. एक टोले के लोग दूसरे टोले में अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर सकते थे. अनेकों गांवों में होली के अवसर पर दलितों के जनसंहार भी हुए हैं. रणवीर सेना होली को जनसंहार दिवस के रूप में मनाती रही है. समय बदला व उत्पीडन का स्वरूप भी बदला. शक्ति संतुलन बदलने के कारण अब दलित टोलों में भी युवा होली खेलने लगे हैं. दुर्भाग्य से आज के दलित युवा भी होली की अश्लीलता से अछूते नहीं हैं. उन्होंने दबंगों की अश्लीलता को अपना लिया. हालांकि यह वैसा नहीं है, जैसा पहले के जमाने में होता था. समय के साथ उत्पीडन के हथियार भी बदल गये हैं. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080320/f0b6fdda/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Sat Mar 22 00:26:03 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 21 Mar 2008 10:56:03 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKrgpYDgpJvgpYcg4KSV4KWN4KSv4KS+IOCkueCliCwg?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSy4KWAIOCkleClhyDgpKrgpYDgpJvgpYc=?= Message-ID: <829019b0803211156s2dc171c4vb93bddb2dbd32493@mail.gmail.com> दुनिया के लिए होगी होली प्यार और भाईचारे को बढ़ाने का दिन। अपन से तो भाईलोगों ने दुश्मनी निकालने का बहुत सही दिन डिसाइड किया था। इस दिशा में कोई शोध करे कि होली के दिन जान पहचान के लोग अपने ही लोगों से खुन्नस कैसे निकालते हैं तो ठीक-ठाक आंकडें सामने आ जाएंगे।क्योंकि एक लाइन लोगों को जन्मसिद्ध अधिकार के तौर पर पहले से ही मिल जाते हैं कि - बुरा न मानो होली है,...आगे मैं जोड़ देता हूं- चंपकों,चूतियों की टोली है। इनके आगे आप कुछ नहीं कर सकते। दिल्ली यूनिवर्सिटी में होली का पहला साल।बहुत घीसने के बाद मिला था हॉस्टल। बिहारी से बिहारी का हवाला देकर, झारखंडी से झारखंड का हवाला देकर, हिन्दीवालों से हिन्दी का बोलकर, गोरखपुरवालों से पूर्वांचल बोलकर, ब्राह्मणों से ये बोलकर कि मेरी मां आपलोगों की बहुत ही इज्जत करती है, आपको पूजती है। अगर आप मेरी मदद करेंगे तो आपके प्रति उनका सम्मान और बढ़ेगा औऱ अगर मुझे आपने हॉस्टल लेने में मदद नहीं कि तो आपलोगों पर से उनका विश्वास उठ जाएगा। वो भी समझेगी कि आप जातिवाद के शिकार हैं। खैर, किसी तरह छ-पांच करके हॉस्टल के अंदर तो पहुंच गया और फोन भी किया मां को कि- तुम्हें सबकुछ पता है न मां। मामला फंस गया विचारधारा को लेकर। सुबह-सुबह तांबे के लोटे से जल चढ़ानेवालों को मैं दूसरे दिन से ही बहुत खटकता रहा। पहले दिन तो मेरे हाथ में तांबे का लोटा देखकर बहुत खुश हुए और कहा भी कि बहुत संस्कारी हो लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि इसका इस्तेमाल मैं चना और मूंग भिगोकर खाने के लिए करता हूं औऱ वो सब नहीं करता जिसके लिए लोटे का इजाद हुआ है तो बहुत खुन्नस हुई। मुंह पर तो कुछ कहा नहीं लेकिन अगले दिन से कटने लगे। फिर मुझे लेकर कानाफूसी शुरु हो गयी। एक ने कहा कि पैंट उतार दो तो पता नहीं हिन्दू निकले भी की नहीं। मैं उनके लिए चोखेरबाला बन चुका था और वो जैसे तैसे मुझे झेल रहे थे। डीयू में किसी को इतनी हिम्मत नही है कि किसी को कुछ कर दे, पब्लिकली मार-पीट दे। लेकिन आंखें ऐसे तरेरते कि- मां के शब्दों में कहूं तो निगल जाएंगे।॥इसी बीच होली आ गयी और उनका काम आसान हो गया। दुश्मनी निकालने के लिए पूरे भारतवर्ष में इससे बढ़िया दिन मुहैया नहीं कराया गया है। जो मन आए किसी के साथ कर दो और मामला फंस जाए तो हीं हीं हीं हीं...ठे ठे ठे करके गले मिल लो और कहो- बुरा न मानो होली है। इधर आप भी भड़ास निकालो, मन ही मन बोलकर...चंपक चूतियों की टोली है। मामनू लोगन तक तो बात पहुंच ही नहीं पाती और अगर पहुंच भी गई तो उल्टे आप पर ही बरसेंगे- वैण के होली तेरे से नहीं खेलेंगे तो क्या तेरे ताउ के पास जाएंगे। सालभर तेरे साथ रहा है तो वैण के होली के दिन कहां जाएंगे खेलने। साइड में ले जाकर कहेंगे, अब बहुत हुआ निकाल दोनों पार्टी त्योहारी, अपणे भी तो बाल-बच्चे हैं।...और आप बिना कुछ बोले वृद्ध भिक्षु के दाम टिका दो, मामला रफा-दफा।॥ सो भाई लोग लॉन में बैठे थे, सुबह-सुबह। होली के दिन हॉस्टल के सारे कमरे में जाकर गार्ड साहब बड़ी इज्जत से बुलाते हैं कि साहबजी बाहर होली खेलने के लिए लोग आपको बुला रहे हैं। बाहर खूब सारी खाने की चीजें रखी होगी, ढेर सारे रंग...और भी बहुत कुछ। बाबा लोग ढंडई पर भिडे होगें।...एक ने ईशारा करके बुलाया। तब मैं बहुत ही दुबला-पतला निरीह-सा दिखता था। मैं उनके पास गया। उन्होंने कहा- चल इधर आ मेरे साथ ठंडई पी। मैंने कहा, मैं भांग नहीं पीता। दूसरे बंदे ने कहा-स्साले ठंडई को भांग कहता है।भोलेबाबा के भोग का ऐसा अपमान औऱ एक ने जबरदस्ती ग्लास मुंह में ठूंस दिया। ग्लास में खून की कुछ बूंदें टपक गई और सब सत्यानाश हो गया। मैंने कहा-मैं भांग नहीं दारु पीता हूं। एक ने रहम खाकर कहा-चल दारु ही पी ले। रॉयल चैंलेंज। कभी मुंह नही लगाया था दारु को। मुझे स्मेल ही अच्छी नहीं लगती है दारु की। लेकिन कोई उपाय नहीं था। बिना पानी मिलाए ही नीट, एक-एक बार में पांच पैग पी गया और उनसे कहा-हो गया न। अब चलता हूं। वहां से सीधे अपने कमरे में पहुंचा। दोस्तों ने बताया था कि पीने के बाद अगर नींबू पी लो तो नशा उतर जाता है। मैं मेस जाकर एक ही साथ चार नींबू निचोड़कर पी गया। पता नहीं आप इसे कैसे लेंगे लेकिन उस समय मेरे मन में अजीब-सी ग्लानि हुई। लगा कल की ही ट्रेन से घर भाग जाउँ। अब तो अभ्यस्त हो गया हूं, इन सब चीजों का। इसी ग्लानि को लेकर मैं सोया नहीं सीधे स्टडी टेबल पर बैठा और विद्यापति के नोट्स बनाने लगा। एक धुन में नोट्स बनाता रहा। करीब एक घंटे बाद पांच-छ लोग मेरे कमरे में आए और दरवाजा बंद कर दिया। मुझे अंदाजा लग गया था कि मेरे साथ क्या होनेवाला है। लेकिन सबको घोर आश्चर्य हुआ कि ये लड़का इतना पीकर पढ़ कैसे रहा है। पूरे हॉस्टल में सबको पता चल गया कि विनीत चार पैग नीट पीकर भी नार्मल है। एक ने कहा भी कि भोसड़ी के हमें चूतिया बना रहा है। पहले से बड़ा पियाक रहा होगा।वही कहें कि स्साला सबको सलाम-सलाम बोलता है, दारु कैसे नहीं पीता होगा। नतीजा ये हुआ कि मैं बच गया, लोगों ने मुझे मारा नहीं और होली के बाद जब भी कहता कि मैं भी पिउंगा तो कहते-पैसे पूल करने होंगे। इस होली ने वाकई मुझे बहुत मजबूत किया और मेरे भीतर एर धारणा बनी है कि दारु पीने से इतना भी नशा नहीं आ जाता कि आप सबकी मां-बहन करने लग जाएं। नशे से ज्यादा लोग ड्रामेबाजी करते हैं.... ॥सभी ब्लॉगर दोस्तों को होली मुबारक। ऑफर करेंगे तो मना नहीं करुंगा, क्योंकि पता है कि आप पॉलिटिक्स नहीं करेंगे और कर भी दिया तो अब नोट्स किस चीज का बनाउंगा, एमए तो पास कर गया।... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080321/a2140f09/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Mar 22 23:32:40 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 22 Mar 2008 10:02:40 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSc4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSo4KWH4KS14KS+4KSy4KWHIOCkhuCkh+Ckn+CkriDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksCDgpK3gpYAg4KS24KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSy?= Message-ID: <829019b0803221102k2436ca0ld7429a9c5ab437a3@mail.gmail.com> होली के नाम पर जितनी बतकुच्चन करनी थी वो तो हो गई,जिसको जिसके बारे में जो कुछ भी कहना, सुनना और करना था वो सब हो गया। अब रोजमर्रा की जिंदगी में फिर से लौट आने का समय है। थोड़ा सीरियस होने का है और सीरियसली सोचने का है कि- अब ग्रेट इंडियन वालों ने हम पत्रकारों का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया है। कवि, सरदार, नेता, पति,लालूजी और सिद्धू तो मजाक और चुटकुले के जबरदस्त आइटम तो हुआ ही करते हैं, अबकी टेलीविजन के पत्रकार भी शामिल हो गए हैं। इनका भी अब जमकर मजाक उड़ाया जाता है। देखा नहीं आपने सोनी पर अपने राजू श्रीवास्तव ने कैसे रिपोर्टर, एंकर और यहां तक कि चैनलों का मजाक बनाया। जिसने सोनी नहीं देखा हो तो स्टार न्यूज पर तो स्लग के साथ आ रहा था। चाहे वो मामला चैनलों द्वारा दो साल पुराने फुटेज और स्टोरी आज की चलाने का मामला हो, सबसे तेज के चक्कर में आंय-बांय कुछ भी बोल देने का मामला हो या फिर खबरों की गंभीरता को समझे बिना रिपोर्टरों द्वारा घिसा-पिटा वाहियात सवाल पूछने का हो। राजू ने कहा कि एक बंदा पानी में डूब रहा है और रिपोर्टर ने पूछा, डूबते हुए आपको कैसा लग रहा है। हमने तो समझा कि अब रिपोर्टर सिलेब्रिटी के नशे में इतना धुत्त होते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि सवाल आम आदमी से करना है औऱ वो मर रहा है, उसकी म्यूजिक एलवम नहीं लांच हो रही है कि पूछा जाए कि आपको कैसा लग रहा है. राजू के इस मजाक को बस मजाक में लेने की जरुरत है, खुश होने की बात है कि चलो हमारे प्रोफेशन पर भी चुटकुले बनने लगे हैं या फिर वाकई गंभीरता से कुछ सोचने की जरुरत है। हिन्दी फिल्मों में आप देखेंगे कि जब भी कभी कॉलेज की सीन हो, क्लास रुम का मामला हो या फिर टीचर की बात हो- हिन्दी के टीचर को जानबूझकर औरों से अल्टर, उपहास का आइटम या फिर मजाक के पात्र के रुप में दिखाया जाता है। तारे जमीं पर इसका ताजा उदाहरण है। इसके पहले मैं हूं न कि मैम इतनी झेल है कि बच्चे उसे देखकर रास्ता बदल लेते हैं। सिनेमा ने हिन्दी के मास्टर को इस रुप में प्रोजेक्ट किया है कि अब ये मिथक की तरह स्थापित हो गया है कि हिन्दी के मास्टर झेल,पकाउ,बोरिंग,डल और बैकवर्ड होते हैं। थोड़ी इसमें सच्चाई भी है लेकिन हिन्दी के लोगों ने साकारात्मक स्तर पर क्या किया है, दूसरे सब्जेक्ट के बच्चों के बीच भी कितना पॉपुलर है,कितना मल्टी टैलेंटेड है, सिनेमा इस पर बात नहीं करता। इसका नतीजा आपके सामने है। आपसे बिना तरीके से बात किए ही लोग कहने लगगें कि अच्छा हिन्दी में हो, मास्टर बनोगे और पीठे से ठहाके मारने लगेंगे। मैं ये नहीं कहता कि इसके लिए केवल और केवल सिनेमा जिम्मेवार है। लेकिन, सिनेमा चाहे तो इस छवि और धारणा को तोड़ सकता है लेकिन तोड़ता नहीं। ठीक उसी तरह, न्यूज चैनलों में कई चीजें वकवास आती है, ये बात कौन नहीं जानता लेकिन इसके साथ इसके जरिए कई बेहतर काम भी होते हैं। कम से कम लोगों के बीच एक डर तो है कि गलत करेंगे तो मीडिया धर दबोचेगी। गलत करने पर जो डर प्रशासन, पुलिस और सरकार नहीं कर सकी वो काम मीडिया ने किया। लेकिन आज आप देख रहे हैं कि उसे कई बेबकूफाना अंदाज को लेकर लोग उसका भी उपहास उड़ा रहे हैं। होली के मौके पर हंसने के लिए तो बढञिया मसाला है। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो इस प्रोफेशन के वर्किंग कल्चर को लेकर मजाक उड़ाए जाते हैं तो स्थिति वाकई चिंताजनक है। इसमें गलती न तो राजू श्रीवास्तव की नहीं है। उन्होंने तो एक एक्टिव ऑडिएंस के तौर पर अपनी प्रतिक्रिया हमारे सामने रख दी। अब इसमुद्दे पर हमें सोचना है कि ये मजाक कहीं इस बात की ओर संकेत तो नहीं करती कि हमने वाकई मीडिया को मजाक बना दिया है। माइक हाथ में आते ही अपने अलावे बाकी बैठे सारे ऑडिएंस को अंगूठा छाप समझने लगते हैं। राजूजी को मंत मिला तो उन्होंने अपने स्तर से बात हमारे सामने रख दी। बाकी लोग भी अपने-अपने तरीके से इसे लेकर अपनी बात करते रहते हैं। लेकिन अगर इसका विरोध होता है तो उतनी चिंताजनक बात नहीं है जबकि मजाक उड़ाया जाना ज्यादा गंभीर मसला है। नेताओं की तरह हम पत्रकारों को लेकर भी ये बात आम हो जाए कि ये तो ऐसे ही हैं जी, इसके पहले आपको नहीं लगता कि मीडिया के चरित्र पर और हमारे काम करने के तरीके पर विचार करना जरुरी है। क्योंकि मजाक बनने के साथ ही मीडिया अपना असर खोता चला जाएगा। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-898 Size: 9241 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080322/61b92b44/attachment.bin From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Mar 25 01:19:38 2008 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 25 Mar 2008 01:19:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleCliyDgpLjgpLLgpL7gpK4=?= Message-ID: <6a32f8f0803241249y2a0d9b9cv215c95cd50de6eb4@mail.gmail.com> अरसा बाद कुछ भेज रहा हूं। देश की राजधानी में छात्रों के बीच त्योहारों के मूल चरित्र की निशानियां गुम होती जा रही हैं। यहां थोपी गई तहजीब तेजी से जड़ पकड़ती दिख रही है। होली है और ठंडाई की जगह ब्रांड हावी है। गुजरे होली में प्रवासी छात्रों के इलाके में यह साफ साफ नजर आया। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले ज्यादातर पूरिबया छात्र होली के दिन ठंडाई पीने वाले ठेठ देसी संस्कृति के रिवाज से चिपके होते थे। अब नजारे बदले बदले से हैं। विश्वविद्यालय के ही छात्र बदलाते हैं कि ठंडाई का अपना मजा है जनाब ! पर इसे तैयार करना बड़े झमेले का काम है। इसलिए होली के दिन ठंडाई के मुरीद भी शराब से काम चला लेते हैं। लेकिन कोशिश रहती है कि ठंडाई का जुगाड़ हो जाए। दरअसल इस कैंपस में जुगाड़ा का बड़ा बोलबाला है। भांग पीसने से लेकर नौकरी लेने तक जुगाड़ लगाना पड़ता है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब परिसर में स्थित सभी होस्टलों में होली के दिन ठंडाई तैयार किया जाने का रिवाज था। नए पुराने सभी छात्रों की मंडली लगती थी। देशी ठाठ के राग का बोलवाल होता था। ऐसा न था कि लड़के शराब के मुरीद न थे। पर वह ठंडाई के मामाले में हदतोड़ी थे। यारो, मैं कहना इतना भर कहना चाहता हूं कि उस वक्त शराब पर ठंडाई हावी हुआ करता था और तब जमता था रंग। लेकिन गत एक दशक में स्थितियां बदली हैं। नए छात्रों में एक अलग किस्म की नफासत है। वह बेहद तहजीबयाफ्ता हैं। ठंडाई आज भी बनाई जाती है। उसके रसिक आज भी हैं। पर औसतन कम। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-25 Size: 3459 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080325/8d213c15/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Tue Mar 25 13:48:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 25 Mar 2008 13:48:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Invite: hori, chaiti, jhoomar, Sohar, ghazal Message-ID: <200803251348.12683.ravikant@sarai.net> Important Dates : 28th & 29th March at India Habitat Centre 7,00 pm – Please join us for - 28th – Rhythmic, lilting , traditional folk- Songs from Bihar – Hori, Chaiti , Kajri , Jhoomar , Sohar by Bihar Ratna – Satyendra Kumar. 29th - Book Release – An engrossing Romantic comedy, Manna Bahadur’s “ Neelanjana” Reading by NSD artist. Followed by – Geet & Ghazals by eminent artists – Indra Mukherjee & Satyendra Kumar From Manna Bahadur’s “ Aks Mere Jazbaat Ke ” Repeat performances on 30th & 31st at Epicentre, Sector - 44, Near Gold Souk, Gurgaon, 7.00 pm. With regards, Pratap & Manna Bahadur M : 9811211313 From ravikant at sarai.net Tue Mar 25 14:51:14 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 25 Mar 2008 14:51:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Znc6IOCkpuClgA==?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSoIOCkleCliyDgpLjgpLLgpL7gpK4=?= Message-ID: <200803251451.14437.ravikant@sarai.net> अरसा बाद कुछ भेज रहा हूं। देश की राजधानी में छात्रों के बीच त्योहारों के मूल चरित्र की निशानियां गुम होती जा रही हैं। यहां थोपी गई तहजीब तेजी से जड़ पकड़ती दिख रही है। होली है और ठंडाई की जगह ब्रांड हावी है। गुजरे होली में प्रवासी छात्रों के इलाके में यह साफ साफ नजर आया। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले ज्यादातर पूरिबया छात्र होली के दिन ठंडाई पीने वाले ठेठ देसी संस्कृति के रिवाज से चिपके होते थे। अब नजारे बदले बदले से हैं। विश्वविद्यालय के ही छात्र बदलाते हैं कि ठंडाई का अपना मजा है जनाब ! पर इसे तैयार करना बड़े झमेले का काम है। इसलिए होली के दिन ठंडाई के मुरीद भी शराब से काम चला लेते हैं। लेकिन कोशिश रहती है कि ठंडाई का जुगाड़ हो जाए। दरअसल इस कैंपस में जुगाड़ा का बड़ा बोलबाला है। भांग पीसने से लेकर नौकरी लेने तक जुगाड़ लगाना पड़ता है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब परिसर में स्थित सभी होस्टलों में होली के दिन ठंडाई तैयार किया जाने का रिवाज था। नए पुराने सभी छात्रों की मंडली लगती थी। देशी ठाठ के राग का बोलवाल होता था। ऐसा न था कि लड़के शराब के मुरीद न थे। पर वह ठंडाई के मामाले में हदतोड़ी थे। यारो, मैं कहना इतना भर कहना चाहता हूं कि उस वक्त शराब पर ठंडाई हावी हुआ करता था और तब जमता था रंग। लेकिन गत एक दशक में स्थितियां बदली हैं। नए छात्रों में एक अलग किस्म की नफासत है। वह बेहद तहजीबयाफ्ता हैं। ठंडाई आज भी बनाई जाती है। उसके रसिक आज भी हैं। पर औसतन कम। ब्रजेश झा From vineetdu at gmail.com Tue Mar 25 15:36:21 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 25 Mar 2008 02:06:21 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+Ckviwg4KSF4KSw4KWN4KSl4KS+?= =?utf-8?b?4KSkLCDgpKzgpYzgpJbgpLLgpL7gpI8g4KSV4KSC4KSh4KWA4KS24KSo?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJbgpKzgpLDgpYfgpII=?= Message-ID: <829019b0803250306v2e0b516bt9d2ef574c882d6b4@mail.gmail.com> हिन्दी समाज भले ही इस बात को ताल ठोककर हेकड़ी भरता रहे कि संवेदना के मामले में वो अंग्रेजी से आगे है। भाषा की बात आने पर अंग्रेजीवालों का मुंह नोचने पर आमादा हो आए, हिन्दी को लेकर कितना सीरियस है इस पर बात न करके अंग्रेजी के नाम पर कितना जल्दी खून खौल जाए में अपना बडप्पन समझता है। लेकिन सच्चाई यही है कि इतने प्रयासों के बावजूद हिन्दी के लोग अंग्रेजी के मुकाबले बहुत पीछे हैं। अपनी समझ से शुरु से ही मैं मानकर चलता हूं कि जब कभी भी हम भाषा पर विचार करते हैं तो सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति में आए फर्क को लेकर नहीं होता है बल्कि कंटेंट और संदर्भ भी पूरी तरह बदल जाते हैं। यहां अगर बात अंग्रेजी और हिन्दी को ध्यान में रखकर की जाए तो यह मामला साहित्य, मीडिया और टीवी चैनलों में साफ दिखाई देता है। इस बात पर मुझे कुछ भी कहने की जरुरत महसूस इसलिए हुई कि मेरी पोस्ट पर एक साथी ने लिखा कि आप बताएं- देश में क्या सिर्फ अंग्रेजीवाले सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं। साथ विकास का सवाल इस मामले में था कि हिन्दी चनलों को जब भी कहा जाता है कि ये सांप-सपेरों या फिर जलवों में फंसकर रह गए हैं तो इनका सीधा जबाव होता है कि दर्शक जो देखना चाह रही है वही हम दिखा रहे हैं। विकास का कहना बिल्कुल जायज है कि अगर अंग्रेजी चैनलों में अनर्गल चीजें कम आतीं हैं तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि अंग्रेजी के दर्शक हार्ड कोर सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं। हिन्दी मीडिया और साहित्य दोनों को लेकर बात करें तो जो मेरी अपनी समझदारी बनती है वो यह कि जो बंदा अंग्रेजी में न्यूज देख-समझ रहा है, उससे इस बात की उम्मीद की जाती है कि वो केवल भाषा ही नहीं समझ रहा है बल्कि मुद्दों के स्तर पर भी मैच्योर है, समझदार है, पढ़ा-लिखा है। ये वो दर्शक है जिसे कि आप कुछ भी दिखा देंगे और वो देख लेगी ऐसा नहीं है, वो सीधे आपके चैनल को छोड़कर कहीं और चली जाएगी। इसलिए अंग्रेजी चैनल खबरों या पैकेजों को चलाते समय इस बात का ध्यान रखती है कि उसका ऑडिएंस भाषा के साथ-साथ कटेंट को लेकर भी सजग है। जबकि हिन्दी मीडिया के साथ बात बिल्कुल दूसरी है। जो हिन्दी जानता है, समझता है उससे इस बात की अपेक्षा नहीं होती कि वो मुद्दे को लेकर भी उतना ही समझदार है, वो सारे मसलों को उतनी ही सजींदगी से समझता है। ये वो दर्शक है जो अभी-अभी सूचना की दुनिया से जुड़ा है या फिर पहले भी जुड़ा गै तो भी शिक्षित हो जरुरी नहीं। इनमें नेगलेंस क्षमता नहीं होती, इन्हें जो भी दिखा दो, देश लेगी। यानि एक स्तर पर हिन्दी मीडिया मानकर चलती है कि हमारी ऑडिएंस मूर्ख हैं, इम्मैच्योर है। ऐसे मैं अगर बात ईमानदारी की जाए तो कायदे से हिन्दी मीडिया को अपनी ऑडिएंस को ज्यादा समझदार बनाना चाहिए, उसे मैच्योर बनाए लेकिन मीडिया अगर ऐसा करने लगे तो फिर उसका काम तो हो गया। ये लम्बी प्रक्रिया है, बहुत पेशेंस का काम है। और फिर अगर ऑडिएंस उतनी समझदार हो भी गई तो फिर इनका कौन-सा भला होगा, उल्टे इनका नुकसान ही होगा। वो आगे से इनके अधकचरे ज्ञान को, खबरों को, जल्दीबाजी में बटोरे गए आंकड़ों और बाइटों पर भरोसा करना छोड़ देगी। वो समझने लगेगी कि आधे से ज्यादा खबर अंग्रेजी तैनलों, बेबसाइटों और न्यूज एजेंसियों की कॉपी है, उनका सीधे-सीधे अनुवाद हुआ है। अगर ऑरिजिनल कॉपी हाथ लग जाए तो अंग्रेजी बहुत अच्छी न होने पर भी बात ज्यादा समझ में आएगी। जिस दिन हिन्दी मीडिया की ऑडिएंस समझदार हो गई उस दिन हिन्दी मीडिया के दावों की जो कि सीना तानकर कहते-फिरके हैं कि हमने खोजा, हमने दिखाया की हवा निकाल देंगे। उस दिन उन्दें हिन्दी चैनलों की स्टोरी पायरेटेड लगने लगेगी। अब इसी बात का कोई विरोध करे और बताए कि हिन्दी मीडिया में दोयम दर्जे का काम होता है तो हिन्दी भक्तों को सीधा लगेगा कि ऐसा लिखनेवाले बंदे का हाथ तत्काल काट लिए जाएं। वो सीधा-सीधा उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू समझ बैठेगा। जबकि गड़बड़ी कहां है, आप सब जानते हैं और ये भी जान रहे हैं कि यहां विरोध भाषा को लेकर नहीं है। बल्कि गड़बड़ी इस बात को लेकर है कि हिन्दी मीडिया अपने होमवर्क को लेकर अंग्रेजी चैनलों से बहुत पीछे है। हिन्दी का रिसर्च वर्क बहुत कमजोर है। वो किसी भी असर को घटना के तौर पर देखना-समझना चाहती है जबकि असर को रिसर्च करते हुए देखने की जरुरत होती है। इसमें भाषा का कहीं कोई दोष नहीं है और न ही हिन्दी में शब्दों की कोई कमी है। लेकिन आप खुद महसूस करेंगे कि हिन्दी पट्टी, मान लीजिए बनारस में कोई घटना होती है तो उसकी कवरेज आमतौर पर किसी हिन्दी अखबार या चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी के चैनलों, न्यूज एजेंसियों में ज्यादा बेहतर तरीके से आती है। क्यों, क्योंकि अंग्रेजी चैनलों को इस बात का एहसास है कि हमारी ऑडिएंस रेशनल है, वो ऐसे सिर्फ खबरों से नहीं मानने वाली है, उसे सारी चीजें बड़ी लॉजिकल तरीके से समझानी होगी। जबकि हिन्दी चैनलों के सामने दूसरे तरह की सिरदर्दी है, उससे लोगों के बीच सबसे पहले जाने की हड़बड़ी है। उसके सामने अभी भी बाजार की प्रायरिटी अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा है, वो अभी भी अपने को जनता के सामने स्थापित नहीं कर पायी है। कोई चैनल चार-पांच सालों से नंबर वन पर है तो भी लगातार डर बना हुआ है कि पता नहीं कब ताज छिन जाए। इसलिए एक घबरायी हुई, बौखलाई हुई स्थिति में जो खबरें मिलती हैं हमारे सामने परोस दी जाती है, बिना किसी रिसर्च के, बिना ऑडिएंस के इश्यू को ध्यान करके। इसलिए आप देखेंगे कि हिन्दी मीडिया रामनामी बेचनेवाली खबर और रंडी की दलाली करनेवाली खबरों में फर्क नहीं कर पाती।।। आगे पढ़िए, साहित्य के स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080325/9bbb6937/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Mar 26 14:17:43 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 26 Mar 2008 14:17:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK7gpYfgpIIg4KSW4KSs?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSCIOCkrOCkvuCkuOClgCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS54KWL?= =?utf-8?b?4KSC4KSk4KWALCDgpJfgpLDgpYDgpKwg4KSV4KWHIOCkmOCksCDgpJo=?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KSoIOCkuOCkoeCkvOCkpOCkviDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0803260147h630cf725mb26184519da18ab5@mail.gmail.com> तो आपने देखा कि कैसे हिन्दी मीडिया अंग्रेजी न्यूज एजेंसियों, रॉयटर या एपीटीएन से खबरों को उठाकर, उसका अनुवाद करके अपना लेबल चस्पा देते हैं। मीडिया की नौकरी करते हुए ऐसा हमसे खूब करवाया जाता रहा। एक प्रोग्राम आया करता था हमारे चैनल पर अराउंड द वर्ल्ड। उसमें अजीबोगरीब खबरें चलाये जाते थे, जिसका कि यहां के लोगों से कोई लेना-देना नहीं होता था और न ही उससे किसी तरह का जीएस ही मजबूत होता था। जिसके संदर्भ अपने से बिल्कुल नहीं मिलते थे। ऑफिस जाते ही चार-पांच देशों की ऐसी खबरें पकड़ा दी जाती और कहा जाता कि पैकेज बनाओ। खून के आंसू रोते थे हमलोग और रोज मनाते कि कब ये प्रोग्राम बंद हो। लेकिन बेअक्ल प्रोड्यूसर समझ ही नहीं पाता था कि इसका कोई मजसब ही नहीं है। जिस दिन प्रोग्राम बंद हुआ था, हम तीन-चार साथियों ने मंदिर मार्ग पर जमकर पराठे खाए थे। अभी भी कोई बंदा किसी हिन्दी चैनल या अखबार में नौकरी के लिए जाए तो उसे इंटरनेट से एक-दो पन्ने प्रिंट आउट निकालकर दे दिया जाता है और फिर कहा जाता है इसकी खबर या पैकेज बनाओ। मजेदार, ऐसा कि एक-दो लाइन ही देख-पढ़कर आगे के लिए बंदा मचल जाए। एक बार मैंने भी एक बड़े अखबार के लिए डॉगी डिनर पर ऐसी खबर बनायी थी। वो पसे बार-बार कहेंगे कि खबर ऐसी लगे कि टची लगे, मन को छू जाए। आप उसे ऐसे समझो कि, खबर को इस तरह से लिखना है कि लगे नहीं कि वो अंग्रेजी का अनुवाद है, वहां से टीपा गया है। एकदम से परकाया प्रवेश लगे।॥और अखबार या चैनल आपपर रौब जमा जाए कि- देखिए कहां-कहां से खबरें हम खोज-खोजकर लाते हैं। इंडिया टीवी जब शराबी बकरे की खबर दिखाता है तो आप उसे गाली देते हो लेकिन सच कहूं ये खबर इंडिया टीवी की अपनी नहीं नहीं थी, किसी बड़े अंग्रेजी न्यूज एजेंसी से ली गयी थी।...यानि हिन्दी चैनल जब अंग्रेजी से कुछ लेते हैं तो ये भी नहीं सोच पाते कि क्या बेहतर है या हो सकता है। वो इस मानसिकता से अब बी ग्रसित हैं कि अंग्रेजी में है तो कुछ भी , बढिया ही होगा। ....और तारीफ देखिए जनाब कि जब कभी वो ऐसी खबरें लेते हैं तो एक बार सोर्स का नाम देना तक जरुरी नहीं समझते। यानि की ऑडिएंस को मूर्ख समझने वाली हिन्दी मीडिया कभी-कभी अपने को भी मुर्ख मान लेती है और अंग्रेजी ने जैसे जो कुछ रख दिया उसे मान लेती है। मैने कभी नहीं देखा कि इन अंग्रेजी न्यूज एंजेंसियों की खबरों की क्रॉस चेकिंग होती हो। चाहे वो खबर उड़ीसा या फिर हिन्दुस्तान के किसी दूसरे हिस्से की ही क्यों न हो।। आप इसे अंग्रेजी पर अतिरिक्त निर्भरता नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। सेकेंडरी सोर्स के बूते कूदनेवाली हिन्दी मीडिया लोग के बीच जिस तरह से अकड़ कर खड़ी होती है और एक गांव का आदमी चैनल के रिपोर्टर को तोप समझ बैठता है, यह रिपोर्टर के लिए भले ही सुखद क्षण होते होगें लेकिन कम पढे-लिखे समाज को और अधिक जाहिल बनाने में चैनल भी जिम्मेवार हो जाता है। आपने कभी किसी कस्बे या गांव के लोगों के बीच पॉलिटिक्स पर बहस और दावे करते हुए सुना है। जब वो बात करते हैं और सामने वाला बंदा बात नहीं मानता तो हवाला देता है कि क्या फलां चैनल झूठ बोलेगा। अगर आप उसी चैनल से हैं जिस चैनल का बंदे ने नाम लिया है तब तो आप फुलकर कुप्पा हो जाएंगे कि भई ये है खबर का असर।॥और उंचे ओहदे पर हैं तो आकर तुरंत चलाएंगे फ्लैश- खबर का असर। लेकिन कभी इस एंगिल से सोचिए कि कितना भरोसा करती है ऑडिएंस आप पर औ कितनी बड़ी भारी जिम्मेवारी आप पर लाद देती है, ढाई-तीन सौ रुपये की झिंग्गा ल॥ ला लगाकर। उस बंदे को क्या पता कि जिस खबर को वो देख रहा है उसे बनानेवाला न जाने कितनी बार डिक्शनरी पलटकर हिन्दी तर्जुमा किया है, न जाने किस अखबार की कतरन को न्यूज में ढाला है, न जाने किस बेबसाइट से चेपा है। इसलिए आप देखेंगे कि कभी-कभी चैनलों पर जो खबरें आती हैं उसकी हिन्दी भूली-भटकी हिन्दी होती है। जैसे किसी बाहर के आदमी को दिल्ली के मूलचंद फ्लाई ओवर की सारी सड़के एक सी लगती है और मरीज को लगता है कि सारे रास्ते एम्स को जाते हैं। ठीक उसी तरह हिन्दी मीडिया के कुछ शब्द हमेशा हवा में तैरते रहते हैं। आपको जब जरुरत पड़े उसे उठा लें। ऐसे में अगर आप चैनल की खबरों पर गौर करें तो आप देखेंगे कि सारी चीजें चैनल के पास तैयार होतीं हैं- रिपोर्टर, ओबी, एंकर, बाइट, पैकेज, शब्द, सिर्फ घटनाएं होनी बाकी होती है। इधर हत्या हुई नहीं कि खबर तैयार। ऑडिएंस को चैनल के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ जाता है कि वाह, क्या तेजी है, क्या चुस्ती है। उसे क्या पता कि दिल्ली की अभ्यस्त दुनिया में सारी चीजें पहले से कटी होती हैं बस छौंक लगानी होती है, मामला चाहे शाही पनीर का हो या फिर चाउमिन का। खबरें भी ऐसे ही तैयार होती है। विश्वास न हो तो आप किसी पैकेज को गौर से देखें और नोट करें कि इसके किपने फुटेज बासी यानि साल, दो साल या छ महीने पहले के हैं। अब रोज-रोज कहीं कोई शूट करने नहीं जाता, नहीं हुआ तो बेबसाइट से कुछ ताजा माल ले लो। इन सबके बावजूद भी हिन्दी मीडिया ताल ठोकने के लिए तैयार है। क्योंकि मीडिया है ही ऐसी चीज कि इसमें चाहे लाख गड़बड़ी हो, सामाजिक जागरुकता के कुछ हिस्से निकल ही आते हैं और हिन्दी मीडिया को दावे करने के लिए इतना पर्याप्त है। आगे पढिए साहित्य की दुनिया में चेपा-चेपी और हिन्दी- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080326/44a8152a/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Mar 27 11:33:16 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 27 Mar 2008 11:33:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpK7gpYHgpJfgpLLgpLg=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSvIOCknOCkguCkleCljeCktuCkqCDgpLngpYggPw==?= Message-ID: <829019b0803262303w57e83471x54ae61605c8f9f75@mail.gmail.com> कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी मीडिया में काम करने के लिए आपकी अंग्रेजी दुरुस्त हो। टाइम और गार्जियन की खबरों के प्रति समझ बनाने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी से हिन्दी में ऐसा अनुवाद करने के लिए कि लगे आप खुद गए थे, अंडमान में स्टोरी कवर करने के लिए, अब आगे पढ़िए- मुगलसराय एक ऐसी जगह है जहां से आपको कहीं की भी बस, ट्रेन पकड़नी हो, जर्नी ब्रेकअप करनी हो, तफरी के लिए बनारस जाना हो या फिर थकान मिटाने के लिए यहां सुस्ताना हो...इन सब कामों के लिए भारतीय रेल के पास इससे बेहतर कोई स्टेशन नहीं है। यहां इस बात से कोई मतलब नहीं है कि आपने पहले से टिकट लिया है या नहीं, रिजर्वेशन कराया है या नहीं। यहां सबकुछ आपके मूड पर डिपेंड करता है। गाड़ी में बैठ जाओ, समय के साथ सब मैनेज हो जाएगा। क्या हिन्दी मीडिया के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कोई सा भी कोर्स करो, कभी भी मन करे, कोई भी बैग्ग्राउंड है यहां आप आ सकते हो। ये तो अब हो गया है कि कहीं से आपको मीडिया में सालभर का डिप्लोमा या ऐसे ही किसी कोर्स कोर्स का सर्टिफिकेट आपके पास होनी चाहिए। और इसके लिए दुनिया भर के संस्थान पहले से तैयार बैठे हैं।...अजी इंस्टीच्यूट तो ऐसे भरे पड़े हैं जो परीक्षा के समय दरवाजा सटा देंगे और कहेंगे लिखो...मगर हल्ला मत करो और जब लगेगा कि वो गलत करवा रहें हैं तो आपसे साफ कहेंगे, भाई मीडिया में परिक्षा कोई बड़ी चीज नहीं है, असल चीज तो है कि आप चैनल या अखबारों में जाकर कैसा परफार्म करते हो, आपकी स्क्रिप्ट कैसी है, ये अलग बात है कि सालभर के कोर्स में आपसे एक दिन भी स्क्रिप्ट पर काम नहीं करवाया जाएगा। कईयों के तो मामू या चाचू पहले से ही मीडिया में जड़ जमाए हुए हैं और उन्हें गेट पास के रुप में एक डिग्री चाहिए बस। दो-तीन बंदों को पता चला कि मैं झारखंड से हूं तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि- सुना है झारखंड में दस हजार रुपये में सर्टिफिकेट मिल जाता है, आप कुछ कीजिए। कोर्स तो आप भी कर ही रहे हैं, वैसा कुछ जुगाड़ बन गया तो आपको भी कहीं न कहीं सेट करा देंगे।....उपरी स्तर पर वो कुछ कोशिश करते भी नजर आएंगे। एकाध बार मामू से मिलवाया भी। हिन्दी मीडिया में काम करनेवालों की अकड़ का एक और नमूना देखिए- मिलते ही आपसे पूछेंगे कि तुम्हारी अंग्रेजी कैसी है, काम कर लोगे अंग्रेजी में। साहब जिस समय बंदा मीडिया का कोर्स कर रहा होता है अगर उसे पता चल जाए कि फलां काम सीखने से नौकरी मिल जाएगी तो अंग्रेजी क्या फ्रेंच भी सीख लेगा। मामू को पता है कि हिन्दी से एमए है, बैग्ग्राउंड सेंट बोरिस का ही रहा होगा। गरीब राज्य के बच्चे बचपन में जूट या बोरी बिछाकर पढ़ते हैं, दिल्ली में आकर उनकी इज्जत बनी रहे इसलिए मैं सेंट बोरिस लिखता हूं। सो कहेंगे कि दि टाइम्स में एक पोस्ट तो है जो रिक्र्यूटमेंट देखती है, मेरी क्लासमेट भी है। अगर अंग्रेजी बहुत अच्छी है तो आगे बात करते हैं। आप स्वाभाविक तौर पर पिछड़ जाएंगे। लेकिन मैं तो यहां भी जड़ जमाने के चक्कर में रहता। सीधे कहता-मामू आप बात कीजिए, बाकी हम सब देख लेंगे। बाद में मामू खबर भिजवाते कि बोलने का थोड़ा ठीक-ठीक अभ्यास करे, पता नहीं कब इंटरव्यू के लिए निकलना पड़े। उन्हें ये भी पता होता कि अपने तरफ का है तो जरुर घोड़ा को घोरा और श को स बोलता होगा।...साइड से लड़के को समझा देते, थोड़ी दूरी ही बनाए रखना इससे। है तो झारखंड से लेकिन दो साल से डीयू में है, पॉलिटिक्स में माहिर होगा। अपने तो सेट हो जाएगा और तुम बिना सर्टिफिकेट के लटक जाओगे। इधर जब मैं मामाडी की कुंडली पता करता तो इग्नू से बीए हैं, सिविल में जाना चाहते थे लेकिन भ्रष्टाचार के मारे गए ही नहीं, कुछ हटकर करना चाहते थे। मीडिया में हर कोई आता भी इसलिए ही है कि वो कुछ हटकर करना चाहता है। क्योंकि दुनिया में कुछ भी हटकर करने की गुंजाइश मीडिया में ही है। जो बंदा सुबह-शाम ध्वज लगा रहा है, उतार रहा है वो भी और जो बंदा मुट्ठी भर तान देने से क्रांति आ जाने के सपने देखता है वो भी। एक ध्वज लगाते-लगाते बोर हो गया है तो दूसरा मुट्ठी तानते-तानते। सालभर हो गए, कहीं कुछ भी तो नहीं बदला, चलो मीडिया में ही कुछ किया जाए। कुछ नहीं तो समाज को देखने-समझने का अनुभव तो उनके पास है ही और मीडिया में काम करने के लिए इतना क्या कुछ कम है। उनसे तो बेहतर ही हैं जो भैंस बांधकर बगल में एसएससी या बैंकिग की तैयारी करने बैठे हैं।....अब उनको कौन बताए कि अपार्टमेंट के पांचवें तल्ले पर रात के तीन-तीन बजे तक लाइट जलती है वो भी मीडिया में आना चाहते हैं और व्यूजी कॉन्टेस्ट जीत चुकी पड़ोस की नीदिमा भी हमें फाइट देगी, सीधे एंकर बनेगी। जो बंदा दो-तीन बार यूपीएसी में बैठ चुका है। पीटी निकाल चुका है लेकिन मेन्स में अटक जाता है वो भी हिन्दी मीडिया में जाने का मन बना चुका है। उसके दिमाग में बस बात बैठ गई है कि सब चुतियापा है, सिविल में कुछ भी नहीं रखा है। आइएस बन भी जाओगे तो क्या कर लोगे। ऑपरेशन पर गए हो और लौटे तो पता चला कि पत्नी गायब। इधर से फोन पर २० लाख की डिमांड हो रही है। अपने मन का कुछ कर नहीं सकते। मीडिया में आदमी कम से कम अपने मन का लिख-पढ़ तो सकता है।...और कौन कर लेगा किडनैप। इधर तीन साल तक यूनिवर्सिटी में झोला ढोनेवाला हमारा रिसर्चर मीडिया में आने के लिए बेताब हुआ जा रहा है। पीएचडी होने को है लेकिन गाइड उससे पहले ही रिटायर हो गए। उनका जो कुछ भी बना-बनाया था सब खत्म हो गया। अब कोई नौकरी क्यों देगा। बेचारे ने कोशिश तो बहुत की लेकिन कुछ नहीं हो सका। अच्छा ही है, मीडिया में रहूंगा तो कम से कम अपडेट रहूंगा। वैसे भी सूर-कबीर पढ़ते और गेस्ट लेक्चरर बनकर पढ़ाते-पढ़ाते पक गया हूं। मेरी मां के शब्दों में इतना पढ़कर पढाएगा और कोई दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। जेनरेशन भी सुधरेगा, बच्चों को भी सोसाइटी में बताने में अच्छा लगेगा- माई डैड इज जर्नलिस्ट। इसी तरह मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, रेलवे में अजमाकर हताश हुए लोगों की एक लम्बी फौज हिन्दी मीडिया में अपनी हैसियत बनाने आते हैं। सब पीछे की जिंदगी, करियर से उबे हुए, थके हुए, निराश और परेशान। लेकिन मीडिया को लेकर उत्साहित। मीडिया उनके लिए विरेचन का काम करता है। क्योंकि यहां क्या नहीं है, पैसा, पावर, स्टेटस, लाइफ और कुछ हटकर करने का मौका। ये वो खेप होते हैं जो कुछ नहीं बन पाए तो हिन्दी मीडिया में आ गए। इनकी आस्था एक बार टूट चुकी है सही तैयारी करके, रगड़कर पढ़कर और लाल बत्ती औऱ कोलगेट के विज्ञापन में आने सपने देखकर। अब वो उतना ही कर पाएंगे जितने से वो पत्रकार होने की सैलरी पाते हैं। न तो चैनलों में कुछ एडवेंचरस करने के स्पेस हैं और न ही उनमें कुछ करने का ज़ज्बा। जो चल रहा है, जैसे चल रहा चलने दो। चैनलों का ध्यान इस थकेली खेप पर चली जाती है। इसलिए वो हमेशा फ्रेश का डिमांड करती है। कभी-कभी ग्रेजुएशन कर रहे बच्चों को ही सीधे बिना कोर्स के रख लेती है। लेकिन तीन-चार महीने बाद या तो वो खुद छोड़ देते हैं या फिर चैनल खुद ही जबाब दे देते हैं कि आप चल नहीं पाएंगे। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल फ्रेश का मतलब उम्र या क्लास से लगा लेती है जबकि ग्रेजुएशन के बच्चे भी साल, दो साल, तीन साल मेडिकल या इंजीनियरिंग में झक मारकर ग्रेजुएशन करने आते हैं और बाद में यहां भी कुछ कर नहीं पाते तो मीडिया में।... इसलिए सीधे-सीधे ये मान लेना कि मीडिया में आकर लोग बोर हो जाते हैं गलत होगा। सच्चाई तो ये है कि मीडिया डितनी उदारता से सारे लोगों को बिना बैग्ग्राउंड की तफसील में गए ले लेता है, उतनी शिद्दत से उनके इन्टरेस्ट को बनाए रख नहीं पाता और लोग हाय,हाय करते हैं, डिप्रेशन में जाते हैं। तब उन्हें लगता है कि जो सोचकर मीडिया में आए थे वैसा कुछ भी नहीं हैं और इतिहास उन्हें बार-बार कोडे मारता है कि-तुम वहीं ठीक थे। दलील- जो लोग हिन्दी मीडिया में पैशन के तौर पर काम कर रहे हैं, उन्हें सलाम। उनकी तरक्की होती रहे, देश का बच्चा-बच्चा उन्हें जाने और मन में उत्साह बना रहे कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, इससे समाज पहले से बेहतर बन रहा है। उनपर मेरी पोस्ट का एक भी शब्द लागू नहीं होता।...दोस्त की शुभकामनाएं साथ है। हिन्दी के मसले को साहित्य की दुनिया में भी देखेंगे, अभी कुछ आगे तक हिन्दी मीडिया को ही जाने दें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080327/1859c67f/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Thu Mar 27 12:30:29 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Thu, 27 Mar 2008 12:30:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS34KWN?= =?utf-8?b?4KSf4KWN4KSw4KWA4KSvIOCksOClguCkqiDgpK7gpYfgpIIg4KS54KS/4KSC?= =?utf-8?b?4KSm4KWA?= Message-ID: <47EB460D.6020502@sarai.net> उत्तार प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ ने 13, 14 व 15 मार्च को अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन का आयोजन किया। मैं दो दिन इस सम्मेलन में उपस्थित था। दूसरे दिन पहले सत्र का विषय था-हिंदीतर भाषी रचनाकारों का योगदान और दूसरा सत्र नारी विमर्श पर केंद्रित था। अंतिम दिन दोपहर के पहले का सत्र दलित विमर्श पर आधारित था। सभी सत्रों में साहित्य प्रेमी श्रोताओं की उपस्थिति से पूरा हाल भरा रहा। प्राय: साहित्यिक आयोजनों में ऐसी स्थिति नहीं होती। हिंदीतर भाषी प्रदेशों में हिंदी के मौलिक रचनाकारों की निरंतर घटती हुई रुचि और संख्या के संबंध में मैं अपनी चिंता और सरोकार इससे पहले भी अनेक आलेखों में व्यक्त कर चुका हूं। इस सत्र में अनेक वक्ताओं ने यह मुद्दा उठाया कि इन प्रदेशों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की क्या स्थिति है? क्षेत्रीय भाषाओं की कृतियों का हिंदी में और हिंदी की कृतियों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद कार्य किस प्रकार हो रहा है? उन प्रदेशों में हिंदी-लेखकों को कितना पढ़ा जाता है और हिंदी की पुस्तकें कितनी बिकती है? मुझे लगता है कि विषय का मूल बिंदु कुछ और है। हिंदीतर प्रदेशों में हिंदी का कार्य दो स्तरों पर होता रहा है। पहले स्तर पर लगभग सभी प्रदेशों में हिंदी प्रचार सभाएं कार्य करती है। ये सभाएं हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का अंग थीं। राष्ट्रीय स्तर के सभी बड़े नेता और चिंतक, भले ही उनकी मातृभाषा कुछ भी रही हो, यह मानते थे कि राष्ट्रीय एकता के लिए संपूर्ण भारत में एक संपर्क भाषा की आवश्यकता है। हिंदी इस आवश्यकता की पूर्ति करती है। इसलिए संपूर्ण देश में हिंदी का प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग रहा है। इसी के साथ यह भी सच है कि विभिन्न क्षेत्रों से आए सभी बड़े नेता अपना अधिक लेखन कार्य अपनी-अपनी मातृभाषाओं में करते थे। उनकी दृष्टि में राष्ट्रभाषा के स्तर पर हिंदी और अपनी मातृभाषा का आपस में कोई विरोध या द्वंद्व नहीं था। ये सभी लेखक यह बात भी मानते थे कि सभी भारतीय भाषाओं का अपना महत्व है, उनकी अपनी अस्मिता है। ये भाषाएं समुन्नत हों, समृद्ध हों और राष्ट्रीय जीवन में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकें, इसलिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था कि प्रांतीय स्वराज को सफल बनाने के लिए शासन और शिक्षा, दोनों का माध्यम उस प्रांत की भाषा हो। 1917 में लोकमान्य तिलक ने कलकत्ता कांग्रेस में भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की वकालत की थी। स्वतंत्र भारत के छठे-सातवें दशक में यह कार्य संपन्न हुआ। राष्ट्रीय कार्य का सहभागी बन कर हिंदी प्रचार का कार्य सारे देश में हुआ। उसका एक परिणाम यह भी हुआ कि हिंदीतर प्रदेशों के अनेक रचनाकारों ने न केवल हिंदी भाषा और साहित्य का उच्चस्तरीय अध्ययन किया, बल्कि हिंदी को अपनी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना लिया। मन्मथनाथ गुप्त बांग्ला भाषी थे। अनंत गोपाल शेवड़े, गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, चंद्रकांत वांदिवडेकर आदि कितने ही लेखकों की मातृभाषा मराठी है। तेलुगू भाषी अरिगपूडि रमेश चौधरी ने एक दर्जन से अधिक मौलिक उपन्यास हिंदी में लिखे। बालशौरि रेड्डी और आर. शौरीराजन ने हिंदी में निरंतर लिखा है। केरल में मलयालम भाषी हिंदी प्राध्यापकों, लेखकों, अनुवादकों की लंबी परंपरा है। गुजराती, पंजाबी और सिंधी मातृभाषा वाले हिंदी लेखकों की लंबी सूची है, किंतु हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले आलोचक ऐसी दुरभिसंधि से ग्रस्त दिखाई देते है कि वे स्वनिर्मित दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहते। एक आलोचक ने उस संगोष्ठी में कहा कि विभिन्न भाषाओं के लेखन में उनका प्रदेश बोलता है, किंतु हिंदी लेखन में सारा भारत बोलता है। यह बड़ा चुस्त दिखने वाला वाक्य है। स्वाभाविक है इसे सुनकर सभागार में खूब तालियां बजीं, किंतु इस कथन का निहितार्थ क्या है? क्या इसका अर्थ यह है कि देश की अन्य सभी भाषाएं अपने प्रदेशों की ही भावनाओं को वाणी देती है और हिंदी संपूर्ण राष्ट्र को वाणी देती है? देखने में यह बात कितनी मोहक लगती है, किंतु क्या यह अन्य भारतीय भाषाओं को छोटा और हीन नहीं बनाती है? यदि ऐसा है तो यह बड़ा खतरनाक संदेश है। संविधान आठवें अनुच्छेद में शामिल सभी भाषाओं को भारत की राष्ट्रीय भाषाएं मानता है और हिंदी को केंद्र सरकार की राजभाषा के रूप में स्वीकार करता है। वह हिंदी सहित सभी भाषाओं को श्रेणियों में नहीं बांटता। मेरी मान्यता है कि भारत की किसी भी भाषा में लिखे गए साहित्य में केवल वह प्रदेश ही नहीं बोलता, संपूर्ण भारत बोलता है। यदि यह देश एक अखंड राष्ट्र है तो इस राष्ट्र के मणिपुर जैसे छोटे प्रदेश की भाषा में भी पूरा भारतीय मानस अभिव्यक्ति पाता है। यदि किसी की सोच में हिंदी को वरिष्ठ और अन्य भाषाओं को द्वितीय श्रेणी की भाषा होने का आग्रह है तो हिंदी के लिए इससे अधिक हानिकर और कोई बात नहीं हो सकती। नारी विमर्श और दलित विमर्श पर भी भरपूर चर्चा हुई। हिंदी में जब नारी विमर्श अथवा दलित विमर्श की बात होती है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि साहित्य में स्त्री और पुरुष लेखकों के मध्य कोई टकराव है। इसी प्रकार कुछ लोग इस बहस में पड़ जाते है कि साहित्य दलित किस प्रकार हो जाता है? साहित्य को केवल साहित्य के रूप में देखना चाहिए। इस स्थिति में मूल मुद्दा गड़बड़ा जाता है। हम सभी जानते है कि हमारे सामाजिक जीवन में स्त्री और दलित वर्ग शताब्दियों से उत्पीड़ित और उपेक्षित रहे है। साहित्य में जब इनकी चर्चा होती है तो उसका अर्थ यह है कि ये दोनों वंचित वर्ग आज के साहित्य में आत्म अभिव्यक्ति किस प्रकार कर रहे है और जागरूक समाज उसे किस प्रकार स्वीकार कर रहा है। आज से कुछ वर्ष पहले बहुत कम लेखिकाएं रचना कर्म में भागीदार थीं। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, चंद्र किरण सौन्रिक्सा जैसे कुछ नाम ही सामने आते थे। आज का परिदृश्य पूरी तरह बदला हुआ है। आज साहित्य की सभी विधाओं में नारी रचनाकारों का वर्चस्व है। ऐसे विमर्श में यह बात रेखांकित होती है कि ये रचनाकार आधुनिक नारी की चिंताओं को किस प्रकार अभिव्यक्ति दे रही हैं। साहित्य में सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद मुद्दा दलित विमर्श है। समकालीन साहित्य की कोई भी चर्चा इसके बिना पूरी नहीं होती। इस सम्मेलन के दलित विमर्श सत्र के अध्यक्ष मंडल में बैठे लगभग सभी विमर्शकर्ता इसी वर्ग के थे। मराठी भाषा में चार दशक पहले दलित साहित्य की चर्चा प्रारंभ हुई। डा. अंबेडकर के जीवन-दर्शन से इस वर्ग में राजनीतिक चेतना का उभार आया। परंपरागत मान्यताओं और असमानता मूलक व्यवस्थाओं के प्रति बड़ी रोषपूर्ण अभिव्यक्तियां मराठी दलित साहित्य में दिखाई दीं। अब यह रोष और आक्रोश भरा स्वर अनेक भाषाओं में दिखाई दे रहा है। राजनीति में दलित वर्ग की सक्रिय भागीदारी और उपलब्धियों ने इस स्वर को अधिक तीव्र किया है। दलित विमर्श सत्र में सभी वक्ताओं के स्वर में परंपरागत मान्यताओं के प्रति जो असंतोष और आक्रोश दिखाई दे रहा था वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समाज कितनी तेज गति से बदल रहा है। आज जब राजनीति और अर्थतंत्र की आंधी में सब कुछ बहा चला जा रहा है, ऐसे साहित्यिक आयोजन करना बहुत दूभर कार्य है, किंतु इनकी सार्थकता से कौन इनकार कर सकता है। [डा. महीप सिंह, लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं] From ravikant at sarai.net Fri Mar 28 13:15:07 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 28 Mar 2008 13:15:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSq4KSo4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClgCDgpLDgpYfgpLIg4KSV4KS+IOCkheCkl+CksuCkviDgpKo=?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KS+4KS1?= Message-ID: <200803281315.07696.ravikant@sarai.net> शुक्रिया अनिल पांडेय का जिन्होंने न केवल सपनों की रेल की सवारी की, बल्कि उस पर लिखा और छापा भी. ये पुराने और नए शोधार्थियों के बीच चलते रचनात्मक संवाद का बेहतरीन नमूना है. रविकान्त जैगम इमाम के  "सपनों की रेल" में मैं भी सफर करके आया.. मजा आया.. नौजवानों और छात्रों से मिला और उनसे इस रेलगाड़ी और उनके भावनात्मक संबंध को जानने की कोशिश की. लौटने के बाद द संडे इंडियन में एक लेख भी लिख मारा... आप के मार्गदर्शन के लिए लेख आप को भेज रहा हू. लेखन की कमियों पर आप से सुझाव चाहूंगा. आप का अनिल पांडेय आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े गए तो खाना फ्री इलाहाबाद को पूरब का आक्सफोर्ड कहा जाता है. यहां हर साल हजारों नौजवान आईएएस और पीसीएस बनने का सपना लेकर आते हैं. हम आप को ऐसी एक रेलगाड़ी के सफर पर लेकर चल रहे हैं, जिसमें इन नौ जवानों के सपने पलते-बढ़ते हैं. और एक दिन जब इन सपनों को मंजिल मिल जाती है तो रेलगाड़ी से उनका साथ छूट जाता है. लेकिन इस जुदाई की टीस हमेशा उन्हें सालती रहती है... उस नौजवान की हरकते रेल कर्मचारियों और यात्रियों को हैरत में डाल रही थी. वह रेल के इंजन से इस तरह लिपट रहा था, मानों जैसे वह इसे बाहों में भर लेना चाहता हो. वह अगस्त की एक अलसाई हुई सुबह थी. सूरज ने अभी-अभी अपनी आंखे खोली थी.. लोग प्रयाग रेलवे-स्टेशन पर इलाहाबाद-जौ नपुर पैंसेजर (एजे) का इंतजार कर रहे होते हैं. जैसे ही एजे रुकती है, विनोद यादव इंजन की तरफ भा गता है, उसके हाथों में बड़ा सा फूलों का हार होता है. इससे पहले कोई कुछ समझ पाता वह इंजन पर चढ़ कर हार उसके गले में डाल देता है, उसे लड्डू चढ़ाने लगता है.. अचानक शोर गूंजता है, "अरे इसे क्या हो गया... माथा ठनक गया है क्या.. " लोग उसे अचम्भे से देखते हैं, कोई उसे पागल करार देता है तो कोई सनकी. लेकिन थोड़ी ही देर में जब लोगों को असलियत पता लगती है तो उनकी आंखे छलछला जाती हैं. कौतूहल भरा वह माहौल अचानक बधाइंयों में तब्दील हो जाता है. दरअसल आज विनोद का सपना पूरा हुआ है. उसे सरकारी नौकरी मिल गई है. वह हाई स्कूल में अध्यापक बन गया है. छह साल तक यह रेलगाड़ी विनोद के सपनों का बोझ ढ़ोती रही. और जब सपनों को मंजि ल मिली, तो विनोद को सबसे पहले एजे की ही याद आई. इस खुशी के मौके पर मौजूद रहे विनोद के रूम पार्टनर और सहपाठी हनुमान यादव द संडे इंडियन से कहते हैं, “यह रेलगाड़ी मेरे और विनोद जैसे हजारों गरीब नौजवानों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, इसे मैं शब्दों से बयां नहीं कर सकता. बस इतना समझ लीजिए, अगर यह रेलगाड़ी नहीं होती तो विनोद के सपने कभी सच नहीं होते.” यह कहते हुए हनुमान यादव भाव-विभोर हो जाते हैं. विनोद जैसे लाखों नौजवान हैं जिनके कैरियर संवारने में इस रेलगाड़ी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसलिए इन लोगों का इस रेलगाड़ी से एक भावनात्मक रिश्ता है, जिसे शब्दों के जरिए बयां करना काफी मुश्किल है. उसे केवल इस रेल में सफर करके ही समझा और अनुभव किया जा सकता है. दरअसल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का आक्सफोर्ड कहा जाता है. अध्ययन के साथ सिविल सर्विस और दूसरी प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करने भी दूर-दराज के लाखों गरीब नौजवा न यहां आ कर रहते हैं. एक अनुमान के मुताबिक इलाहाबाद में ऐसे छात्रों की संख्या करीब चार लाख है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े और गरीब इलाकों से छात्र इसी रेलगाड़ी से अपने सपनों को सा कार करने यहां पहुंचते हैं. इस "सपनों की रेलगाड़ी" में हमने इलाहाबाद से लेकर जौनपुर तक का सफर तय किया और जानने की कोशिश की कि किस तरह यह रेलगाड़ी पूर्वी उत्तर प्रदेश के नौजवानों के सपनों को साकार करने में मददगार साबित होती है. उस दिन इलाहाबाद में काफी ठंड थी, मैं और मेरे फोटोग्राफर साथी सुबह तड़के 5.30 इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर थे. लोगों ने हमें सही चेताया था, "एजे चलती राईट टाइम है लेकिन कभी राइट टाइम पहुंचती नहीं है." निश्चित समय पर रेलगाड़ी रवाना हो जाती है. कंपार्टमेंट में घूसते ही ट्वायलेट की बदबू और बिखरे पानी से हमारा स्वागत होता है. कंपार्टमेंट में नजर दौड़ाने पर ऐसा लगता है कि किसी पेंटर ने मानों "पान की पीक" से कंपार्टमेंट में भारत के विभिन्न "प्रांतों का नक्शा" उकेर दिया हो. सवारियों से बातचीत में पता चलता है कि करीब 900 सवारियों की क्षमता वाली इस रेलगाड़ी में मेल और एक्सप्रेस रेलगाड़ियों के खारिज हो चुके जनरल कोच के डिब्बे लगाए जाते हैं. रेलवे में इन डिब्बों की गिनती कबाड़ में की जाती है. पैच वर्क के जरिए इन डिब्बों में जान डालने की को शिश की जाती है, लेकिन खिड़की की गायब राड़, उखड़ी सीटें, नदारत वास बेसिन, गुम हो चुके पंखें और बल्व इस रेलगाड़ी की असलियत बयां कर देते हैं. एजे उन चुंनिंदा रेलगाड़ियों में से है जिसकी शुरुआत अंग्रेजों ने 1940 में की थी. कंपार्टमेंट का जायजा लेते हुए जैसे ही हम अपनी सीट संभालते हैं, तभी गाड़ी प्रयाग स्टेशन पर रुकती है. सवारियों के एक तेज झोंके से खाली पड़ा कंपार्टमेंट भर जाता है. तभी बाहर से एक नौजवान इशा रे से मुझसे खिड़की खोलने के लिए कहता है. खिड़की खुलते ही उसने अपनी साईकिल उठा कर खिड़की पर लटका दी. बाहर झांक कर देखता हूं तो कई खिड़कियों पर साईकिलें टंगी हैं. साईकिल टांकने वाले नौ जवान और उसके दूसरे साथियों से बातचीत का सिलसिला शुरु होता है तो पता चलता है कि वे इलाहा बाद में रह कर मेडिकल और सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं. एलएलबी कर चुके आशुतोष सिंह छह साल से इस रेलगाड़ी से सफर कर रहे हैं. वे बताते हैं, "महीने में राशन-पानी लेने करीब दो बार घर जाता हूं. गांव से स्टेशन दूर है. लिहाजा साइकिल साथ लेकर चलता हूं. मेरे जैसे हजारों गरीब छात्र इसीलिए इलाहाबाद में साइकिल रखते हैं." मैं उनसे पूंछता हूं, "क्या कोई भी छात्र टिकट नहीं लेता? इस भोले सवाल पर लोग हंसने लगते हैं. मेरे पास बैठे छात्र सुनील मुझे एजे का फुलफार्म बताते हैं, "ए-जे यानी आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े गए तो खाना फ्री" कंपार्टमेंट में ठहाका गूंज जाता है. इलाहाबाद में नौकरी करने वाले रामकृपाल हंसते हुए कहते हैं, "छात्रों की देखा-देखी दूसरे कई लो ग भी टिकट नहीं लेते. ज्यादातर वकील तो बिना टिकट ही चलते हैं. जब मजिस्ट्रेट चेकिंग होती है तब नजारा देखने लायक होता है. बिना टिकट वाले कई बजुर्ग भी खेतों में भागते नजर आते हैं." बीच में बात काटते हुए आशुतोष कहते हैं, "एजे में चलने वाले ज्यादातर छात्र गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते हैं. जिनके पास किराए के पैसे नहीं होते. शहरी लोग तो बस और अपने निजी वाहनों मोटरसाइकिल वगैरह से सफर करते हैं." हनुमान यादव की वकालत और सिविल सर्विस की तैयारी इसी रेलगाड़ी के भरोसे हैं. वे बताते हैं, "जौनपुर स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय से मैने वकालत की पढ़ाई की और वहीं वकालत करने लगा. एक साल पहले मैं सिविल सर्विस की तैयारी के लिए इलाहाबाद आ गया. जिस दिन मेरे क्लाइंट की तारीख होती है उस दिन मैं फ्री (बिना टिकट) में एजे से जौनपुर आ जाता हू. और मुकदमें की पैरवी के बाद शाम को वापस इलाहाबाद लौट आता हूं. इससे मेरी पढ़ाई का खर्चा निकल आता है. नहीं तो, मेरे जैसे गरीब आदमी के लिए पढ़ना मुश्किल हो जाता." इस यात्रा में हम टिकट दिखाने के लिए टीटी का इंतजार करते रहे. लेकिन बाद में गार्ड से पता चला कि इसमें कोई टीटी चलता ही नहीं. रेलगाड़ी में सफर करने वालों में 70 फीसदी छात्र होते हैं. सुरेश यादव बताते हैं, "इलाहाबाद और पूर्वांचल विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले छात्रों के अलावा हाई स्कूल, इंटर, पालिटेक्निक और आटीआई के बहुत सारे छात्र नियमित रूप से इस रेलगाड़ी से आवागमन करते हैं." हालांकि इनमें से कुछ छात्र स्कूल या कालेज से मिलने वाले रेलवे के रिआयती पास भी रखते हैं. दरअसल इस रेलगाड़ी का आने-जाने का कुछ समय ही ऐसा है जो छात्रों से लेकर नौकरी पेशा वालों तक के लिए सुविधाजनक है. इलाहाबाद से जौनपुर और जौनपुर से इलाहाबाद तड़के करीब 5.30 एक-एक रेलगाड़ी रवाना होती है, जो शाम पांच बजे दोनों स्टेशनों से वापस हो जाती है. इलाहाबाद में मेडिकल की तैयारी कर रहे सागर वर्मा और उनके भाई जितेंद्र वर्मा मुस्कराते हुए कहते हैं, "मेडिकल की तैयारी के लिए कानपुर अच्छा माना जाता है, लेकिन वहां एजे नहीं जाती. इसलिए हम इलाहाबा द में ही तैयारी कर रहे हैं." तभी हमारा ध्यान रुकी रेलगाड़ी पर जाता है. मैं बाहर झांक कर देखता हूं. दूर-दूर तक कोई प्लेटफार्म दिखाई नहीं देता. आशुतोष सिंह बताते हैं, "बहुत सारे छात्रों का गांव रेल पटरी के किनारे हैं, वे अपनी सुविधा से जहां चाहते हैं, गाड़ी रुकवा लेते है. कई बार तो हम लोग गार्ड या ड्राइवर को पहले ही उस स्थान पर रोकने के लिए सूचित कर देते हैं और वे रोक भी देते हैं." मेरे यह पूछने पर अगर वे गाड़ी नहीं रोकते तो...राहुल मौर्या तपाक से कहते हैं, "इतना तो छात्रों का उनमें भय है. फिर हम प्यार से भी उनसे अपनी बात मनवा लेते हैं और वे मान भी जाते हैं." हम जंघई स्टेशन पर खड़े हैं. यहां एजे आधा घंटा रुकती है. मै पचास से ज्यादा छात्रों से घिरा हूं. छात्र इस ट्रेन से जुड़े अपने अनुभव व संस्मरण सुना रहे हैं. वीरेंद्र यादव हमें बताते हैं कि कैसे एक बार रात में एजे का इंजन खराब हो गया था और जब तक यह ठीक होता वह पास के गांव में आई बारात से खा-पीकर लौट आए थे. भीड़ में मौजूद तमाम छात्र अपनी याददास्त पर जोर डाल कर हमें उन लोगों के नाम बता रहे थे जो इस रेलगाड़ी से इलाहाबाद पढ़ने जाया करते थे बाद में आईएएस और आईपीएस बन गए... हवा में कई नाम उछलते है. "इलाहाबाद के कमिश्नर रहे आर.एन त्रिपाठी, आईजी जगमो हन यादव... एजे से ही तो पढ़ने जाते थे." ऐसे नामों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है. राजाराम बताते है, "70 और 80 के दशक में तो आईएएस और पीसीएस की सूची में इलाहाबाद के छात्रों का बोलबाला रहता था. और इनमें से ज्यादातर सफल प्रत्याशी पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही होते थे, जो इसी रेलगाडी से सफर किया करते थे." तो इलाहाबाद में ही निजी सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने वाले जिंतेंद्र कहते हैं, "मैं ऐसे कई गरीब छात्रों को जानता हूं जो रात मैं चौकीदारी करके या फिर रिक्शा चला कर सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं. वे इसी रेलगाड़ी से राशन-पानी लेकर घर से इलाहाबाद जाते हैं. अगर यह रेलगाड़ी न होती तो उनका पढ़ना मुश्किल था." महेंद्र प्रसाद कहते हैं, "इस रेलगाड़ी से हमारा भावनात्मक लगाव है. इसमें बैठ कर ऐसा एहसास होता है जैसे हम अपने घर में बैठे हों." मैं देखता हूं बहुत सारे ग्रामीण और किसान गठरी के साथ सफर कर रहे हैं. किसान राम समुझ हमें बताते हैं, "किसान लोग सब्जी और दूसरा सामान लेकर इसी से मंड़ी जाते हैं. जंघई से जौनपुर तक 45 किमी के बीच केवल यही एक रेलगाड़ी चलती है." दरअसल इस रेलगाड़ी का किराया बहुत ही सस्ता है. इलाहाबाद से जौनपुर तक का 115 किमी का सफर मैने केवल 22 रूपये में तय किया. जब की बस का किराया इसका करीब तीन गुना है. इस रेलगाड़ी का सबसे सस्ता टिकट तीन रूपये का है. राम समुझ से बातचीत के दौरान देखता हूं, एक महिला गोद में अपने बच्चे को लेकर दौड़ी चली आ रही है. वह हाथ से रेलगाड़ी को रोकने का इशारा करती है.. और... बगैर स्टेशन के गाड़ी रुक जाती है. रा हुल और उनके दूसरे साथी झट महिला की गठरी पकड़ कर उसे रेलगाड़ी में चढ़ने में मदद करते हैं. आशुतोष कहते हैं, "यह छात्रों द्वारा बनाई गई आचार संहिता का नतीजा है. जिसके मुताबिक बजुर्ग और महि ला को देखकर ड्राइवर को गाड़ी रोकना ही है. अगर गाड़ी नहीं रुकी, तो उसकी खैर नहीं." जफराबाद स्टेशन पर उतर कर मैं गार्ड दिनेश कुशवाहा के केबिन में चला जाता हूं. बातचीत में काफी शालीन दिनेश कहते हैं, "अगर हम छात्रों की बात न माने तो वे पाइप काट कर रेलगाड़ी रोक देंगे, फिर इसे ठीक करने में काफी वक्त लगता है. इसलिए हम छात्रों से कहते हैं कि उन्हें जहां उतरना हों, हमें पहले पहले ही बता दें और हम वहां गाड़ी रोक देते हैं." तभी बातचीत के बीच में दिनेश कुशवाहा उठते हैं और दरवाजा खोलते हुए कहते हैं, "टीडी कालेज आने वाला है. यहां ढेर सारे छात्र उतरेंगे. इसलिए हम लोग यहां गाड़ी रोक देते हैं." गाड़ी रुकती है और ढेर सारे छात्र हाथों में किताबे लिए रेलगाड़ी से कूद पड़ते हैं. हमारा सफर खत्म होने वाला है. लेकिन इस छोटे से सफर में लगा कि सचमुच यह "सपनों की रेलगाड़ी" है. यह एक ऐसी रेलगाड़ी है जिसमें हजारों युवाओं के सपनें सफर करते हैं. इसी रेलगाड़ी में उनके सपने जन्म लेते हैं, पलते-बढ़ते हैं और फिर एक दिन इनमें पंख लग जाते हैं...तब सपने सच हो जाते हैं. दिल्ली आकर मैंने वरिष्ठ आईपीएस आधिकारी और उत्तर प्रदेश पुलिस में आईजी जगमोहन यादव को ढूंढा (छात्र बार-बार इनका नाम ले रहे थे.) और उनसे सपनों के रेल के सफर के अनुभवों के बारे में जानना चाहा. एजे का नाम सुनते ही जगमोहन यादव पुरानी यादों में खो जाते हैं. पुरानी यादों की खुशी उनकी बातचीत में साफ झलकती है. जगमोहन यादव इसी रेलगाड़ी से 10वीं और 12वीं की पढ़ाई के लि ए उग्रसेन पुर से फूलपुर जाया करते थे और फिर उच्च अध्ययन के लिए इलाहाबाद. वे कहते हैं, "हमारे गांव से स्टेशन काफी दूर था लेकिन इंजन की सीटी से हमें उसकी दूरी का एहसास हो जाता था, और हम लोग दूर से ही दौड़ लगा देते थे." जगमोहन यादव जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षक हो गए तब भी वे परिवार के साथ इस रेलगाड़ी से सफर किया करते थे. लेकिन जब से वह आईपीएस बने, तब से उनका इस रेलगाड़ी से नाता टूट गया है. उन्हें इसका मलाल भी है. जगमोहन यादव भावुक हो कर कहते हैं, "यह रेलगाड़ी न होती तो मैं शायद कभी आईपीएस नहीं बन पाता. बस एक तमन्ना है, मैं एक बार इस रेलगाड़ी में चुपचाप बिना किसी को बताए सफर करना चाहता हूं, बिलकुल वैसे ही जैसे कालेज के दिनों में किया करता था." किसी रेलगाड़ी से इस तरह का भावनात्मक लगाव, शायद ही कहीं देखने को मिले. यह भावनात्मक लगाव ऐजे में चलने वाले तमाम छात्रों में दिखाई देता है. From sadan at sarai.net Fri Mar 28 15:18:45 2008 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Fri, 28 Mar 2008 15:18:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSq4KSo4KWL?= =?utf-8?b?ICAg4KSCIOCkleClgCDgpLDgpYfgpLIg4KSV4KS+IOCkheCkl+Cksg==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqiAgIOCkoeCkvOCkvuCktQ==?= In-Reply-To: <200803281315.07696.ravikant@sarai.net> References: <200803281315.07696.ravikant@sarai.net> Message-ID: anil pandey ko meri taraf se bhi bahut bahut dhanyavaad. padh kar majaa aa gaya. sadan. On 1:15 pm 03/28/08 Ravikant wrote: > शुक्रिया अनिल पांडेय का > जिन्होंने न केवल सपनों की > रेल की सवारी की, बल्कि उस पर > लिखा और छापा भी. ये पुराने > और नए शोधार्थियों के बीच > चलते रचनात्मक संवाद का > बेहतरीन नमूना है. > > रविकान्त > > > जैगम इमाम के  "सपनों की रेल" > में मैं भी सफर करके आया.. मजा > आया.. नौजवानों और छात्रों > से मिला और उनसे इस रेलगाड़ी > और उनके भावनात्मक संबंध को > जानने की कोशिश की. लौटने के > बाद द संडे इंडियन में एक > लेख भी लिख मारा... आप के > मार्गदर्शन के लिए लेख आप को > भेज रहा हू. लेखन की कमियों > पर आप से सुझाव चाहूंगा. > > आप का > अनिल पांडेय > > आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े > गए तो खाना फ्री > > इलाहाबाद को पूरब का > आक्सफोर्ड कहा जाता है. यहां > हर साल हजारों नौजवान आईएएस > और पीसीएस बनने का सपना > लेकर आते हैं. हम आप को ऐसी एक > रेलगाड़ी के सफर पर लेकर चल > रहे हैं, जिसमें इन नौ > जवानों के सपने पलते-बढ़ते > हैं. और एक दिन जब इन सपनों को > मंजिल मिल जाती है तो > रेलगाड़ी से उनका साथ छूट > जाता है. लेकिन इस जुदाई की > टीस हमेशा उन्हें सालती > रहती है... > > उस नौजवान की हरकते रेल > कर्मचारियों और यात्रियों > को हैरत में डाल रही थी. वह > रेल के इंजन से इस तरह लिपट > रहा था, मानों जैसे वह इसे > बाहों में भर लेना चाहता हो. > वह अगस्त की एक अलसाई हुई > सुबह थी. सूरज ने अभी-अभी > अपनी आंखे खोली थी.. लोग > प्रयाग रेलवे-स्टेशन पर > इलाहाबाद-जौ नपुर पैंसेजर > (एजे) का इंतजार कर रहे होते > हैं. जैसे ही एजे रुकती है, > विनोद यादव इंजन की तरफ भा > गता है, उसके हाथों में बड़ा > सा फूलों का हार होता है. > इससे पहले कोई कुछ समझ पाता > वह इंजन पर चढ़ कर हार उसके > गले में डाल देता है, उसे > लड्डू चढ़ाने लगता है.. > अचानक शोर गूंजता है, "अरे > इसे क्या हो गया... माथा ठनक > गया है क्या.. " लोग उसे > अचम्भे से देखते हैं, कोई > उसे पागल करार देता है तो > कोई सनकी. लेकिन थोड़ी ही > देर में जब लोगों को असलियत > पता लगती है तो उनकी आंखे > छलछला जाती हैं. कौतूहल भरा > वह माहौल अचानक बधाइंयों > में तब्दील हो जाता है. > > दरअसल आज विनोद का सपना > पूरा हुआ है. उसे सरकारी > नौकरी मिल गई है. वह हाई > स्कूल में अध्यापक बन गया > है. छह साल तक यह रेलगाड़ी > विनोद के सपनों का बोझ ढ़ोती > रही. और जब सपनों को मंजि ल > मिली, तो विनोद को सबसे पहले > एजे की ही याद आई. इस खुशी के > मौके पर मौजूद रहे विनोद के > रूम पार्टनर और सहपाठी > हनुमान यादव द संडे इंडियन > से कहते हैं, “यह रेलगाड़ी > मेरे और विनोद जैसे हजारों > गरीब नौजवानों के लिए कितनी > महत्वपूर्ण है, इसे मैं > शब्दों से बयां नहीं कर > सकता. बस इतना समझ लीजिए, > अगर यह रेलगाड़ी नहीं होती > तो विनोद के सपने कभी सच > नहीं होते.” यह कहते हुए > हनुमान यादव भाव-विभोर हो > जाते हैं. विनोद जैसे लाखों > नौजवान हैं जिनके कैरियर > संवारने में इस रेलगाड़ी > ने महत्वपूर्ण भूमिका > निभाई है. इसलिए इन लोगों का > इस रेलगाड़ी से एक भावनात्म > क रिश्ता है, जिसे शब्दों के ऊ> > ܠİिए बयां करना काफी मुश्किल > है. उसे केवल इस रेल में सफर > करके ही समझा और अनुभव किया > जा सकता है. दरअसल, इलाहाबाद > विश्वविद्यालय को पूरब का > आक्सफोर्ड कहा जाता है. > अध्ययन के साथ सिविल > सर्विस और दूसरी प्रतियोगी > परिक्षाओं की तैयारी करने > भी दूर-दराज के लाखों गरीब > नौजवा न यहां आ कर रहते हैं. > एक अनुमान के मुताबिक > इलाहाबाद में ऐसे छात्रों > की संख्या करीब चार लाख है. > पूर्वी उत्तर प्रदेश के > बेहद पिछड़े और गरीब इलाकों > से छात्र इसी रेलगाड़ी से > अपने सपनों को सा कार करने > यहां पहुंचते हैं. इस "सपनों > की रेलगाड़ी" में हमने > इलाहाबाद से लेकर जौनपुर तक > का सफर तय किया और जानने की > कोशिश की कि किस तरह यह > रेलगाड़ी पूर्वी उत्तर > प्रदेश के नौजवानों के > सपनों को साकार करने में > मददगार साबित होती है. > > उस दिन इलाहाबाद में काफी ठंड थी, मैं और मेरे फोटोग्रा > फर साथी सुबह तड़के 5.30 इलाहाब > ाद रेलवे > स्टेशन पर थे. लोगों ने हमें > सही चेताया था, "एजे चलती > राईट टाइम है लेकिन कभी राइट > टाइम पहुंचती नहीं है." > निश्चित समय पर रेलगाड़ी रवाना हो जाती है. कंपार्टमेʦgt; Ăट में घूसते ही ट्वायलेट > की बदबू और बिखरे पानी से > हमारा स्वागत होता है. > कंपार्टमेंट में नजर > दौड़ाने पर ऐसा लगता है कि > किसी पेंटर ने मानों "पान की > पीक" से कंपार्टमेंट में > भारत के विभिन्न "प्रांतों > का नक्शा" उकेर दिया हो. > सवारियों से बातचीत में पता > चलता है कि करीब 900 सवारियों > की क्षमता वाली इस रेलगाड़ी > में मेल और एक्सप्रेस रेलगाʦgt; > ġ़ियों के खारिज हो चुके जनरऊ> > Ҡकोच के डिब्बे लगाए जाते हैऊ> > ® रेलवे > में इन डिब्बों की गिनती > कबाड़ में की जाती है. पैच > वर्क के जरिए इन डिब्बों में > जान डालने की को शिश की जाती > है, लेकिन खिड़की की गायब > राड़, उखड़ी सीटें, नदारत > वास बेसिन, गुम हो चुके > पंखें और बल्व इस रेलगाड़ी > की असलियत बयां कर देते हैं. एजे उन चुंनिंदा रेलगाड़ियो > ं में से है जिसकी शुरुआत > अंग्रेजों ने 1940 में की थी. > > कंपार्टमेंट का जायजा लेते > हुए जैसे ही हम अपनी सीट > संभालते हैं, तभी गाड़ी > प्रयाग स्टेशन पर रुकती है. > सवारियों के एक तेज झोंके से > खाली पड़ा कंपार्टमेंट भर > जाता है. तभी बाहर से एक > नौजवान इशा रे से मुझसे > खिड़की खोलने के लिए कहता > है. खिड़की खुलते ही उसने > अपनी साईकिल उठा कर खिड़की > पर लटका दी. बाहर झांक कर > देखता हूं तो कई खिड़कियों > पर साईकिलें टंगी हैं. > साईकिल टांकने वाले नौ > जवान और उसके दूसरे साथियों > से बातचीत का सिलसिला शुरु > होता है तो पता चलता है कि वे > इलाहा बाद में रह कर मेडिकल > और सिविल सर्विस की तैयारी > कर रहे हैं. एलएलबी कर चुके > आशुतोष सिंह छह साल से इस > रेलगाड़ी से सफर कर रहे हैं. > वे बताते हैं, "महीने में > राशन-पानी लेने करीब दो बार > घर जाता हूं. गांव से स्टेशन > दूर है. लिहाजा साइकिल साथ > लेकर चलता हूं. मेरे जैसे > हजारों गरीब छात्र इसीलिए > इलाहाबाद में साइकिल रखते > हैं." मैं उनसे पूंछता हूं, > "क्या कोई भी छात्र टिकट > नहीं लेता? इस भोले सवाल पर > लोग हंसने लगते हैं. मेरे > पास बैठे छात्र सुनील मुझे > एजे का फुलफार्म बताते हैं, > "ए-जे यानी आना फ्री, जाना > फ्री, पकड़े गए तो खाना फ्री" > कंपार्टमेंट में ठहाका > गूंज जाता है. इलाहाबाद में > नौकरी करने वाले रामकृपाल हंसते हुए कहते हैं, "छात्रों > की देखा-देखी दूसरे कई लो > ग भी टिकट नहीं लेते. > ज्यादातर वकील तो बिना टिकट > ही चलते हैं. जब मजिस्ट्रेट > चेकिंग होती है तब नजारा > देखने लायक होता है. बिना > टिकट वाले कई बजुर्ग भी > खेतों में भागते नजर आते > हैं." बीच में बात काटते हुए > आशुतोष कहते हैं, "एजे में > चलने वाले ज्यादातर छात्र > गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि > के होते हैं. जिनके पास > किराए के पैसे नहीं होते. > शहरी लोग तो बस और अपने निजी > वाहनों मोटरसाइकिल वगैरह > से सफर करते हैं." हनुमान > यादव की वकालत और सिविल > सर्विस की तैयारी इसी > रेलगाड़ी के भरोसे हैं. वे > बताते हैं, "जौनपुर स्थित > पूर्वांचल विश्वविद्यालय > से मैने वकालत की पढ़ाई की > और वहीं वकालत करने लगा. एक > साल पहले मैं सिविल सर्विस > की तैयारी के लिए इलाहाबाद > आ गया. जिस दिन मेरे क्लाइंट > की तारीख होती है उस दिन मैं > फ्री (बिना टिकट) में एजे से > जौनपुर आ जाता हू. और > मुकदमें की पैरवी के बाद शाम > को वापस इलाहाबाद लौट आता > हूं. इससे मेरी पढ़ाई का > खर्चा निकल आता है. नहीं तो, > मेरे जैसे गरीब आदमी के लिए > पढ़ना मुश्किल हो जाता." इस > यात्रा में हम टिकट दिखाने > के लिए टीटी का इंतजार करते > रहे. लेकिन बाद में गार्ड से > पता चला कि इसमें कोई टीटी > चलता ही नहीं. > > रेलगाड़ी में सफर करने > वालों में 70 फीसदी छात्र > होते हैं. सुरेश यादव बताते > हैं, "इलाहाबाद और पूर्वांचʦgt; > IJ विश्वविद्यालय में पढ़ाई क > रने वाले छात्रों के अलावा > हʦgt; ľई स्कूल, इंटर, पालिटेक्निक ʦgt; Ĕर > आटीआई के बहुत सारे छात्र > नियमित रूप से इस रेलगाड़ी से आवागमन करते हैं." हालांकि > > इनमें से कुछ छात्र स्कूल > या कालेज से मिलने वाले > रेलवे के रिआयती पास भी रखते > हैं. दरअसल इस रेलगाड़ी का > आने-जाने का कुछ समय ही ऐसा > है जो छात्रों से लेकर नौकरी > पेशा वालों तक के लिए > सुविधाजनक है. इलाहाबाद से जौनपुर और जौनपुर से इलाहाबऊ> ޠĦ तड़के करीब 5.30 एक-एक > रेलगाड़ी रवाना होती है, जो शाम पांच बजे दोनों स्टेशनोऊ>  से वापस हो जाती है. इलाहाबाʦgt; Ħ में > मेडिकल की तैयारी कर रहे > सागर वर्मा और उनके भाई > जितेंद्र वर्मा मुस्कराते > हुए कहते हैं, "मेडिकल की > तैयारी के लिए कानपुर अच्छा > माना जाता है, लेकिन वहां > एजे नहीं जाती. इसलिए हम > इलाहाबा द में ही तैयारी कर > रहे हैं." तभी हमारा ध्यान > रुकी रेलगाड़ी पर जाता है. > मैं बाहर झांक कर देखता हूं. दूर-दूर तक कोई प्लेटफार > ्म दिखाई नहीं देता. आशुतोष स > िंह बताते हैं, "बहुत सारे छाऊ> > Ġōरों > का गांव रेल पटरी के किनारे > हैं, वे अपनी सुविधा से जहां > चाहते हैं, गाड़ी रुकवा लेते > है. कई बार तो हम लोग गार्ड > या ड्राइवर को पहले ही उस > स्थान पर रोकने के लिए सूचित > कर देते हैं और वे रोक भी > देते हैं." मेरे यह पूछने पर > अगर वे गाड़ी नहीं रोकते > तो...राहुल मौर्या तपाक से > कहते हैं, "इतना तो छात्रों > का उनमें भय है. फिर हम प्यार > से भी उनसे अपनी बात मनवा > लेते हैं और वे मान भी जाते > हैं." > > हम जंघई स्टेशन पर खड़े हैं. > यहां एजे आधा घंटा रुकती है. > मै पचास से ज्यादा छात्रों > से घिरा हूं. छात्र इस ट्रेन > से जुड़े अपने अनुभव व > संस्मरण सुना रहे हैं. > वीरेंद्र यादव हमें बताते > हैं कि कैसे एक बार रात में > एजे का इंजन खराब हो गया था > और जब तक यह ठीक होता वह पास > के गांव में आई बारात से > खा-पीकर लौट आए थे. भीड़ में > मौजूद तमाम छात्र अपनी > याददास्त पर जोर डाल कर हमें > उन लोगों के नाम बता रहे थे > जो इस रेलगाड़ी से इलाहाबाद > पढ़ने जाया करते थे बाद में > आईएएस और आईपीएस बन गए... हवा में कई नाम उछलते है. "इलाहाबऊ> ޠĦ के कमिश्नर रहे आर.एन त्रिऊ> ʠľठी, आईजी जगमो > हन यादव... एजे से ही तो पढ़ने > जाते थे." ऐसे नामों की > फेहरिस्त बड़ी लंबी है. > राजाराम बताते है, "70 और 80 के > दशक में तो आईएएस और पीसीएस > की सूची में इलाहाबाद के > छात्रों का बोलबाला रहता > था. और इनमें से ज्यादातर > सफल प्रत्याशी पूर्वी > उत्तर प्रदेश के ही होते थे, > जो इसी रेलगाडी से सफर किया > करते थे." तो इलाहाबाद में ही > निजी सुरक्षा गार्ड की > नौकरी करने वाले जिंतेंद्र > कहते हैं, "मैं ऐसे कई गरीब छा > त्रों को जानता हूं जो रात मै > ं चौकीदारी करके या > फिर रिक्शा चला कर सिविल > सर्विस की तैयारी कर रहे > हैं. वे इसी रेलगाड़ी से > राशन-पानी लेकर घर से > इलाहाबाद जाते हैं. अगर यह > रेलगाड़ी न होती तो उनका > पढ़ना मुश्किल था." महेंद्र > प्रसाद कहते हैं, "इस रेलगाड़ी से हमारा भावनात्म > क लगाव है. इसमें बैठ कर ऐसा > एʦgt; Ĺसास होता है जैसे हम > अपने घर में बैठे हों." > > मैं देखता हूं बहुत सारे > ग्रामीण और किसान गठरी के > साथ सफर कर रहे हैं. किसान > राम समुझ हमें बताते हैं, > "किसान लोग सब्जी और दूसरा > सामान लेकर इसी से मंड़ी > जाते हैं. जंघई से जौनपुर तक > 45 किमी के बीच केवल यही एक > रेलगाड़ी चलती है." दरअसल इस > रेलगाड़ी का किराया बहुत ही > सस्ता है. इलाहाबाद से > जौनपुर तक का 115 किमी का सफर > मैने केवल 22 रूपये में तय > किया. जब की बस का किराया > इसका करीब तीन गुना है. इस > रेलगाड़ी का सबसे सस्ता > टिकट तीन रूपये का है. राम > समुझ से बातचीत के दौरान > देखता हूं, एक महिला गोद में > अपने बच्चे को लेकर दौड़ी > चली आ रही है. वह हाथ से > रेलगाड़ी को रोकने का इशारा > करती है.. और... बगैर स्टेशन के > गाड़ी रुक जाती है. रा हुल > और उनके दूसरे साथी झट महिला की गठरी पकड़ कर उसे रेलगाड़ʦgt; ŀ में चढ़ने में मदद करते हैं. > आशुतोष > कहते हैं, "यह छात्रों > द्वारा बनाई गई आचार संहिता > का नतीजा है. जिसके मुताबिक > बजुर्ग और महि ला को देखकर > ड्राइवर को गाड़ी रोकना ही > है. अगर गाड़ी नहीं रुकी, तो > उसकी खैर नहीं." > > जफराबाद स्टेशन पर उतर कर > मैं गार्ड दिनेश कुशवाहा के > केबिन में चला जाता हूं. > बातचीत में काफी शालीन > दिनेश कहते हैं, "अगर हम > छात्रों की बात न माने तो वे > पाइप काट कर रेलगाड़ी रोक > देंगे, फिर इसे ठीक करने में > काफी वक्त लगता है. इसलिए हम > छात्रों से कहते हैं कि > उन्हें जहां उतरना हों, > हमें पहले पहले ही बता दें > और हम वहां गाड़ी रोक देते > हैं." तभी बातचीत के बीच में > दिनेश कुशवाहा उठते हैं और > दरवाजा खोलते हुए कहते हैं, > "टीडी कालेज आने वाला है. यहां ढेर सारे छात्र उतरेंगॊ> Ǯ > इसलिए हम लोग यहां गाड़ी > रोक देते हैं." गाड़ी रुकती > है और ढेर सारे छात्र हाथों > में किताबे लिए रेलगाड़ी > से कूद पड़ते हैं. हमारा सफर > खत्म होने वाला है. लेकिन इस > छोटे से सफर में लगा कि > सचमुच यह "सपनों की रेलगाड़ॊ> " > है. यह एक ऐसी रेलगाड़ी है जऊ> > ߠĸमें हजारों युवाओं के > सपनेʦgt; Ă सफर करते हैं. > इसी रेलगाड़ी में उनके सपने जन्म लेते हैं, पलते-बढ़ > ते हैं और फिर एक दिन इनमें पऊ> >  Ė लग जाते हैं...तब > सपने सच हो जाते हैं. > > दिल्ली आकर मैंने वरिष्ठ > आईपीएस आधिकारी और उत्तर > प्रदेश पुलिस में आईजी > जगमोहन यादव को ढूंढा > (छात्र बार-बार इनका नाम ले > रहे थे.) और उनसे सपनों के रेल > के सफर के अनुभवों के बारे > में जानना चाहा. एजे का नाम > सुनते ही जगमोहन यादव > पुरानी यादों में खो जाते > हैं. पुरानी यादों की खुशी > उनकी बातचीत में साफ झलकती है. जगमोहन यादव इसी रेलगाड़ʦgt; ŀ से 10वीं और 12वीं की पढ़ाई के ʦgt; IJि > ए उग्रसेन पुर से फूलपुर > जाया करते थे और फिर उच्च > अध्ययन के लिए इलाहाबाद. वे > कहते हैं, "हमारे गांव से > स्टेशन काफी दूर था लेकिन > इंजन की सीटी से हमें उसकी > दूरी का एहसास हो जाता था, > और हम लोग दूर से ही दौड़ लगा > देते थे." जगमोहन यादव जब > इलाहाबाद विश्वविद्यालय > में शिक्षक हो गए तब भी वे > परिवार के साथ इस रेलगाड़ी > से सफर किया करते थे. लेकिन > जब से वह आईपीएस बने, तब से > उनका इस रेलगाड़ी से नाता > टूट गया है. उन्हें इसका > मलाल भी है. जगमोहन यादव > भावुक हो कर कहते हैं, "यह > रेलगाड़ी न होती तो मैं शायद > कभी आईपीएस नहीं बन पाता. बस > एक तमन्ना है, मैं एक बार इस > रेलगाड़ी में चुपचाप बिना > किसी को बताए सफर करना चाहता > हूं, बिलकुल वैसे ही जैसे > कालेज के दिनों में किया > करता था." किसी रेलगाड़ी से > इस तरह का भावनात्मक लगाव, > शायद ही कहीं देखने को मिले. > यह भावनात्मक लगाव ऐजे में > चलने वाले तमाम छात्रों में > दिखाई देता है. _________________________________ > ______________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ved1964 at gmail.com Fri Mar 28 21:28:51 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Fri, 28 Mar 2008 21:28:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpIXgpJXgpL7gpLDgpL7gpKbgpL/gpJXgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSu?= Message-ID: <3452482c0803280858o6d1190caka5e5a3cbeb666ac3@mail.gmail.com> प्रिय मित्रो, यदि कुंजीपटल में क्ष, त्र, ज्ञ के लिए एक कुंजी तय की जाती है तो इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती. वैसे भी इंस्क्रिप्ट कुंजीपट में न केवल क्ष, त्र, ज्ञ के लिए बल्कि श्र के लिए भी एक कुंजी तय की हुई है. लेकिन उसमें हलंत के प्रयोग से भी इन अक्षरों को टाइप करने की सुविधा दी हुई है. मेरे विचार में यह व्यवस्था बहुत अच्छी है. जब हम स्पीड से टाइप करते हैं तो एक कुंजी के बजाय हलंत से अक्षर टाइप करना कहीं आसान लगता है, पर ये सब आदत और अभ्यास का मसला है. इसलिए इसे चलता रहने दिया जा सकता है. परंतु जहाँ तक क्ष, त्र , ज्ञ को वर्णमाला में अलग स्थान देने का मसला है, मैं उससे सहमत नहीं हूँ, लेकिन अगर दे भी दिया जाए तो मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. लेकिन सवाल तो सोर्टिंग आर्डर का है. इसमें यदि हम क्ष को क ् ष के स्थान के बजाय ह के बाद देते हैं तो वर्तमान सभी कोषों के साथ विसंगति बैठती है. साथ ही यह व्याकरण के अनुसार भी ग़लत होगा. जहाँ तक कं कँ कः क के क्रम का सवाल है मैं नहीं जानता कि कं को क से पहले क्यों रखा गया है और यह कितना तर्कसंगत है. जब मैंने ढूँढने की कोशिश की तो इसका जवाब हरदेव बाहरी ने निम्नलिखित दिया है-- "अं/अँ, अः को अलग अक्षर नहीं माना गया है, ये दोनों ध्वनियाँ अ के पेटे में आएँगी." मैं कह नहीं सकता कि यह तर्क कितना युक्तिसंगत है. मैं देख नहीं पाया कि रामचंद्र वर्मा या किशोरी दास वाजपेयी इस बारे में क्या कहते हैं. वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत हिंदी कोश देखा तो उसमें भी यही क्रम पाया. जहाँ तक मेरी जानकारी है क्ष, त्र, ज्ञ सभी कोशों में उनके संयुक्ताक्षर वाले रूपों यानी क्ष को क ् ष के स्थान पर ही रखा गया है. अगर किसी कोश में कोई और क्रम हो तो कृपया मुझे भी बताएँ. फिलहाल इतना ही. सादर, आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080328/ea7bd3ae/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Mar 29 11:33:58 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 29 Mar 2008 11:33:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpKXgpYvgpKHgpLzgpYAg?= =?utf-8?b?4KS24KSV4KWN4oCN4KSV4KWALCDgpKXgpYvgpKHgpLzgpYAg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KSy4KWAIOCkoeCkv+CkuOCljeCkn+CksOCljeCktQ==?= Message-ID: <829019b0803282303v169f2405leb1ade7764b956d0@mail.gmail.com> सच, सच, सच और खाटी सच जानने के लिए हिन्दी मीडिया क्या कुछ करने का दावा करती नजर नहीं आती। कोई रेलवे स्टेशन पर तीन-चार बार टॉयलेट चला जाए तो उसे लगने लगता है कि जरुर कोई कांड होने वाला है। बड़ी हुई दाढ़ी के बंदे में आतंकवादी होने के सबूत खोजने में लग जाती है,गर्मी में भी कोई लड़की सिर पर दुपट्टा रखकर गुजरती है तो लगता है इसका कनेक्शन बनारस की दालमंडी के दलालों से है और सड़कों पर परेशान हर तीसरा-चौथा आदमी उसे सरगना या गैंग का आदमी लगता है। सच को खोजने और हमारे सामने सबसे पहले लाने के चक्कर में शक्की होती जा रहा है हिन्दी मीडिया, थोड़ी मेंटली डिस्टर्व भी। लेकिन सच खोजती इस मीडिया के सामने अगर सच अपने आप आकर खड़ा हो जा तो फिर ये बौखलाने लगती है, चीखने लगती है, चिल्लाने लगती है, तिलमिलाने लगती है। लेकिन ये कैसे कह दे कि उसे सच नहीं चाहिए, उसे ऐसा सच नहीं चाहिए, कुछ अलग किस्म का सच चाहिए। उसे सच जैसा कुछ चाहिए लेकिन एकदम से सच नहीं चाहिए। उसे ऑडिएंस का सच चाहिए और ऑडिएंस का सच वो है जो मीडिया तय करेगी। मतलब आप बस ये समझिए कि मीडिया तय करेगी कि कौन सच है औऱ किस सच को ऑडिएंस के बीच ले जाना है। अगर ऐसा नहीं होता, हिन्दी मीडिया के सामने इस बात की झंझट नहीं होती कि कौन से सच को सामने रखना है और किसको दरकिनार करना है तो हमारे साथी जो मीडिया में सक्रिय ढंग से काम करने के बाद ब्लॉगिंग करते हैं उन पर पाबंदियां नहीं लगाई जाती, उनका ये कहकर उपहास नहीं उड़ाया जाता कि अजी आपकी तो बात ही कुछ और है आप तो ब्लॉगर हैं। दिक्कत कहां है। हिन्दी मीडिया को ये बार-बार लगता है कि बंदा जो ब्लॉगिंग कर रहा है हो न हो कभी कुछ सा लिख दे, कुछ वो सच लिख दे जिसे ऑडिएंस के पास ले जाना ही नहीं था। मीडिया जिसे न्यूज फिलटरेशन कहती है जिसके तहत न्यूज छन-छनकर आती है उस प्रक्रिया में ब्लॉगर कहीं मट्ठा न गोल दे। हम जो दिन रात दावे करते हैं किए एकदम सच दिखाते हैं, चाकू लगने की बात सच दिखाते हैं और अगर हमें चाकू लग जा तो भी सच दिखाते हैं। कहीं इस दावे में सेंध न लग जाए। मीडिया के उपर हमने जो सच का ताना-बाना बुना है। मीडिया अनिवार्यता सच होगी, आजादी के समय जो मूल्य हमें मिले हैं और हमने इसका लबादा बनाकर ओढा है, कहीं ये ब्लॉगिंग के चक्कर में मसक न जाए। चैनलों में इतनी फिलटरेशन के बावजूद कुछ खबरें आ जाती है, जो सच जो अपने काम के लिए होनी चाहिए थी, ऑडिएंस को नहीं जानना चाहिए था तो ब्लॉगिंग से तो और ज्यादा सच रिसता होगा। क्योंकि यहां तो फिलटरेशन का कोई चक्कर ही नहीं है। यहां तो जो मालिक है, वही एडीटर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर॥मतलब सबकुछ। ये तो बड़े छोटे-छोटे मसले को उठाता है, बड़े मसले हमारे लिए छोड़ जाता है। उन मसलों को उठाता है जिसे हम चाहकर भी नहीं उठा पाते।.. सो पता नहीं कल को ये सीख दे कि आठ घंटे की शिफ्ट के बजाय उनसे 11-12 घंटे काम लिए जाते हैं. उनके चैनल में महीनों इंटर्नशिप के नाम पर फ्री में बंदों को जोता जाता है, ठीक दिखनेवाली लड़की को बॉस बार-बार स्क्रिप्ट और स्टोरी समझाने के लिए अपने पास बुलाता है और उसी बीच सर्वर डॉन होने की खबर लेकर कोई बंदा चला जाए तो झिड़क दिया जाता है। रोज की शिफ्ट में आने के बाद भी कभी वीकएंड में शाम को आने के लिए किसी लड़की को कहा जाता है। 6000 रुपये में साल-सालभर से खट रहे साथियों को कुध दिन बाद प्रोजेक्ट करने के झांसे दिए जाते हैं। सेक्सुअल हेरास्मेंट के चक्कर में बॉस को रातोंरात कहीं और जाना पड़ जाए। दोयम दर्जे के काम को, क्लर्की को, दूसरे के लिए स्टोरी लिखवाले को, दिनरात खबर के नाम पर अनुवाद करवाने जैसे काम को मीडिया का एबीसी बताकर बंदे को घिसा जा। ये कुछ हिन्दी मीडिया के ऐसे सच हैं जिसे कि मीडिया नहीं चाहती कि इसे ऑडिएंस के सामने लाया जाए। अबतक तो ऐसा ही था कि जब तक वो नहीं चाहेगी तब तक चौक पर बरगद भी गिर जाए तो खबर नहीं होगी और अगर वो चाह ले तो सिलेब्रेटी की आँख पर नीम की पत्ती गिर जाने से एक्सीडेंट की बात लिख दे, दिखा दे, छाप दे। हिन्दी मीडिया इस तरह के सच से डरती है, घबराती है, बौखला जाती है जानकर सुनकर। वो नहीं चाहती कि प्रेस का कार्ड दिखाकर अकड़ दिखाने की प्रथा में कहीं कोई बट्टा लग जाए। लेकिन ये वैकल्पिक मीडिया खड़ी करने में लगे ब्लॉगर मानते नहीं और जब तब कुछ ऐसे सच बयां करने में लगे रहते हैं। इस लिए हिन्दी मीडिया ब्लॉग के इस रुप को बर्दास्त नहीं कर सकती। कुछ ऐसे सच हैं जिसे कि मीडिया शॉफ्ट तरीके से दिखाना पसंद करती है। मसलन किसी बंदे ने एक्जाम से परेशान होकर खुदखुशी कर ली। मीडिया इस एक घटना मानती है और कुछ फुटेज को दिनभर घिसती है। शाम में या फिर जब भी काबिल एक्सपर्ट मिल जाए, पैनल डिस्कशन कराती है और अंत में मामला निकलकर आता है कि पढ़ाई को हॉवी की तरह लेनी चाहिए, दैट्स इट। इस पर कोई बात नहीं होती कि मां-बाप का इस बच्चे को लेकर किस तरह का दबाब था, क्या ये लोग इस पर लगातार प्रेशर बना रहे थे कि अगर अच्छे नंबर नहीं लाते तो फिर....दिक्कत होगी। तो मीडिया का एक बना-बनाया फार्मूला है। मां को बिलखते हुए दिखाओ और बाप की ये कहते हुए बाइट दिखा कि अजी हमारे घर का तो चिराग ही बुझ गया। घटना मानकर स्टोरी कवर करने की अभ्यस्त मीडिया रिसर्च से बचना चाहती है, ऐसा नहीं है कि वो खबरों के पीछे मेहनत नहीं करती लेकिन ये भी मानना होगा कि जहां तक हो सके, रिस्क लेने से बचती है। इस बात को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि प्राइम टाइम की खबरों में रियलिटी शो के फुटेज कई-कई मिनट तक चलते हैं। प्राइम टाइम कि खबरें कभी पूरे शहर को हिलाकर रख देनेवाली हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि मैं ये मानकर चल रहा हूं कि पहले बहुत अच्छा था और अब दिनोंदिन कबाड़ा होता जा रहा है। पहले भी लोगों को मजा करने आता था, उन्हें भी गुदगुदाने वाली चीजें पसंद आया करती थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि समय निकालकर कोई बंदा प्राइम टाइम के नाम पर लाफ्टर चैलेंजर के हसगुल्ले सुने। ऐसा नहीं है कि हिन्दी मीडिया ने पत्रकारिता के विकास क्रम को देखा-समझा नहीं है। वो सब समझती है, वो सब जानती है. लेकिन ये सबकुछ जान-समझकर भी हंसोगे तो फंसोगे, देती है। हम ऑडिएंस तो सही में फंसते है जो कि खबरों के समय पाजी प्लीज करते नजर आते हैं। आप उठाकर देख लीजिए, खोजी खबरों की संख्या लगातार घट रही है, दूसरे चैनलों से फुटेज काटकर पैकेज चलाने की फ्रीक्वेंसी तेज होती जा रही है। मीडिया तो बाजार और हमारे इन्टरेस्ट का रोना रोएगी ही। क्योंकि उसे पाक साफ दिखना है। लेकिन यकीन मानिए हिन्दी मीडिया अपने से हारी हुई मीडिया है जो अपने चैनल के पंच लाइन तक को पूरा नहीं कर पाती, घबराई हुई मीडिया जिसे बार-बार लगता है कि इधर ऑडिएंस जागरुक हुई और इधर हम पिटे। वो सच का साहस नहीं बटोर पा रही है, सच को बर्दास्त करने की ताकत पैदा नहीं कर पा रही, करना नहीं चाह रही। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-42952 Size: 14626 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080329/2e78a545/attachment-0001.bin From girindranath at gmail.com Mon Mar 31 16:46:00 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Mon, 31 Mar 2008 16:16:00 +0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KWL4KSCIOCkleCliyDgpKbgpLLgpL7gpLIg4KSV4KS5?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkquCksCDgpIbgpIjgpI/gpI/gpLgg4KSV4KWAIOCklg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KSa4KS+4KSI?= Message-ID: <63309c960803310416p21687e02k720ad8f22912342d@mail.gmail.com> *आखिर क्या गलत कह डाला बंदना प्रेयशी ने. आपकी प्रतिक्रियाओ का स्वागत है.* ** *इंडो-एशियन न्यूज सर्विस से साभार* गिरीन्द्र पटना, 31 मार्च (आईएएनएस)। बिहार काडर की भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी बंदना प्रेयशी द्वारा पत्रकारों को दलाल कहने पर राज्य में हंगामा खड़ा हो गया है। हाल ही में सीवान की जिलाधिकारी के पद पर आसीन होने के बाद प्रेयशी ने एक पत्रकार सम्मेलन में कहा, "पत्रकार दलाल हैं। मैं बाढ़ (पटना के अंतर्गत सब-डिवीजन) के अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकती हूं।" सीवान में जिलाधिकारी का पद संभालने से पूर्व प्रेयशी बाढ़ क्षेत्र की उप-जिलाधिकारी थीं। उनके शब्दों में, "बाढ़ के कुछ पत्रकार दलाल हैं। वह अपने मुनाफे के लिए कुछ भी काम मिलने पर खुश रहते हैं। यदि उन्हें काम नहीं मिलता तो वह प्रशासन के बारे में कुछ भी लिख देते हैं। मैं नहीं जानती कि यहां भी ऐसा ही चल रहा है या नहीं।" मामले को राजनीतिक रंग देते हुए राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रवक्ता श्याम रजक ने कहा कि यह प्रकरण मौजूदा सरकार में नौकरशाहों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों और पत्रकारों को तंग करने को मिली छूट का आदर्श उदाहरण है। उधर कांग्रेसी नेता प्रेमचंद मिश्र ने प्रेयशी का फौरन तबादला किए जाने की मांग की है। जिलाधिकारी के बयान के बाद बिहार कार्यकारी पत्रकार संघ ने उनसे माफी मांगने की मांग की है और राज्य सरकार से उन पर पत्रकारों को बदनाम करने के आरोप में मामला दर्ज करने को कहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080331/39af2c96/attachment.html From avinashonly at gmail.com Sun Mar 30 02:52:57 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sat, 29 Mar 2008 21:22:57 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkr+CkviDgpKzgpJXgpLXgpL7gpLg=?= Message-ID: <85de31b90803291422u20733114w99264110ad1ca9a1@mail.gmail.com> देखिए, कुछ बात बनती है... या यूं ही रियाज़ का मामला रह जाता है... http://dilli-darbhanga.blogspot.com/2008/03/blog-post_29.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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