From vineetdu at gmail.com Sun Jun 1 10:47:53 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 1 Jun 2008 10:47:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkiA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSo4KSm4KS+4KSwIOCkpuCksuCkv+CkpC3gpLXgpL/gpLA=?= =?utf-8?b?4KWL4KSn4KWAIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KS44KWN4KSk4KWB4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSX4KS+4KSo?= Message-ID: <829019b0805312217o14ada65bw33383a2f6cd2a12f@mail.gmail.com> दलितों का इतना ईमानदार विरोधी मुझे अभी तक नहीं मिला था। अपने डीयू कैंपस में तो फिर भी रिजर्वेशन के आधार पर किसी को नौकरी लग जाती है तो कुछ लोग गरियाते हैं, कोटे से हैं सो हो गया, वरना आता-जाता कुछ थोड़े ही न है। उनके गरियाने के वाबजूद भी मैंने उन्हें कई दलितों को समय पर मदद करते देखा है। परीक्षा के समय किताबें देते देखा है और यूजीसी का फार्म भरते समय पैसे देते देखा है। एक दो बार तो जो लोग दलित के नाम पर जिसे गरियाते हैं, उसी को मौके पर हॉस्पीटल पहुंचाते भी देखा है। ऐसी हालत में आप उन्हें दलितों का ईमानदारी विरोधी नहीं कह सकते हैं।लेकिन आजकल एक मुहावरा चल निकला है न कि- जो कहीं नहीं है, वो ब्लॉग पर है और जो कहीं नहीं होता वो ब्लॉग पर हो जाता है। दलित विरोधी के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ है।....और ये ब्लॉग की महिमा ही देखिए ही हमें दलितों का धुरविरोधी मिल गया, खालिस औऱ ईमानदार विरोधी मिल गया। कनकलता के मामले पर जब ब्लॉग पर चर्चा शुरु हुई, मोहल्ला और गाहे-बगाहे दोनों पर तब उसे लेकर एक सकारात्मक माहौल बना। तमाम अन्तर्विरोधों के वाबजूद कई ब्लॉगर एक साथ सामने आए। लोग कनकलता और उसके परिवार को लेकर संवेदनशील हुए, उनके पक्ष में खड़े होने की बात की। कई कमेंट्स से तो ऐसा लगा कि हम इस मसले पर उनसे जिस भी तरह की मदद चाहेंगे वो हमें करेंगे। उन्होंने कमेंट के दौरान अपना पता छोड़ा, मेल आइडी छोड़ी। कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर फोन करके, मेल करके कनकलता से सम्पर्क करने की कोशिशें की, उसका मनोबल बढ़ाया। ऐसा करने से उसके लिए संघर्ष कर रहे हमलोगों का भी हौसला बढ़ा औऱ हम ब्लॉग के जरिए भी न्याय मिलने की उम्मीद करने लगे। इसी बीच ब्लॉग की दुनिया में एक पुरुष ब्लॉगर ने अवतार लिया। अबतक ब्लॉगर को मैं इस तरह से लिंग भेद करके नहीं देखता था लेकिन इनके साथ ऐसा जोड़ना बहुत जरुरी है क्योंकि जिस हिम्मत का काम वो कर रहे हैं उसकी क्रेडिट अब तक पुरुषों को ही मिलता आया है। लोग कमेंट पर कमेंट किए जा रहे हैं, कनकलता और दलितों के पक्ष में और बिल्कुल स्पष्ट कर दे रहे हैं ये मामला सिर्फ मकान-मालिक और किरायेदार के बीच का नहीं है, फिर भी ये अवतारी पुरुष लीला किए जा रहे हैं। अब अवतार लिया है तो लीला करना इनकी मजबूरी है। इनका कहना है कि कनकलता के बारे में हम जो कुछ भी लिख रहे हैं वो एक झूठी कहानी है औऱ सारा मामला एकपक्षीय है। वो हमें इस बात की भी राय दे रहे हैं बल्कि कहिए कि ललकार रहे हैं कि हम मकान-मालिक से जाकर पूछें और पता करें कि असल में मामला है क्या। इस भाई साहब जिनके ब्लॉग का नाम दृष्टिकोन है लगातार कनकलता के विरोध में बातें किए जा रहे हैं औऱ मकान-मालिक के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। उनका कहना है कि दिल्ली में कोई भी मकान ११ महीने के लिए देता है और जब ये कांट्रेक्ट खत्म हो गया होगा तो मकान-मालिक ने घर खाली करने को कहा होगा औऱ फिर झगड़े हुए होंगे, इसे जबरदस्ती दलित उत्पीड़न और जातिगत दुर्व्यवहार का नाम दिया जा रहा है। अब इनको क्या समझाया जाए कि जब हमने कनकलता का हादसानामा मोहल्ला पर जारी किया था, उसी समय दुसरी ही पंक्ति में साफ कर दिया था कि जब उसने मकान-मालिक से कांट्रेक्ट की बात की और कहा कि हमलोग दे-तीन साल यहां रहेंगे तो मकान-मालिक ने साफ कहा था कि हमसे आपलोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी। इसके पहले भी हमने कोई कांट्रेक्ट नहीं बनवाया, आप आराम से रहो। भाई साहब ने शायद इसे नहीं पढ़ा है और पढ़ा भी होगा तो भी नजरअंदाज कर गए होंगे। दृष्टिकोन साहब जिस कांट्रेक्ट की रट बार-बार लगाए जा रहे हैं औऱ ११ महीने की बात कर रहे हैं, थोड़ी देर के लिए उनकी बात मान भी ली जाए, जो कि मानने लायक है ही नहीं तो भी कनकलता २००७ की जनवरी से रह रही थी औऱ रहते हुए उसे सवा साल होने जा रहे थे। मारपीट की घटना ३ मई २००८ को हुई। अगर मकान-मालिक को घर खाली ही कराना था तो सितंबर-अक्टूबर में ही कराना चाहिए था लेकिन नहीं कराया था। अब यहां मानवता वाला एंगिल मत झोकिएगा कि इस नाते उसने और दिनों के लिए मौका दिया। क्योंकि अगर मकान-मालिक में आदमियत होती तो सवा साल के बाद भी इतनी बुरी तरह बेईज्जत नहीं करता, पीटकर उल्टे पुलिस केस नहीं बनाता। भाई साहब ये सब तब हुआ जब उसे कनकलता की जाति का पता चला। अफसोस की बात देखिए कि ये भाई साहब सिर्फ कनकलता के मामले को लेकर हमसे असहमत नहीं है बल्कि इनका विरोध हमारे दलित समर्थन में होने से भी है। इसका नमूना भी इन्होंने हमारे ब्लॉग पर दिया है। ३१ मई की रात, ग्वायर हॉल, डीयू में एक कमजोर छात्र के पीटे जाने की घटना पर जब हमने पोस्ट लिखी तो भाई साहब ने टिप्पणी रही - अच्छा हुआ वो कमजोर छात्र दलित नहीं था, नहीं तो आप वहां भी दलित विमर्श करने लग जाते। इसका आप क्या अर्थ लगाते हैं। भाई साहब के हिसाब से तो दलितों के पक्ष में बात करने का मतलब हो-हल्ला मचाना है जो कि उन्होंने बहुत पहले ही साफ कर दिया था। इन सबके वाबजूद मुझे अच्छा लग रहा है कि इस डेमोक्रेटिक स्पेस में जहां कि सबको अपनी बात करने का हक है, एक भाई साहब बड़ी बहादुरी के साथ दलित-विरोधी, मानव-विरोधी विचार हमारे सामने रख रहे हैं। है आपमें इतनी हिम्मत, बीस-बीस दिन की ट्रेनिंग के बाद भी ऐसा करने में अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं जी।।.. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080601/98af8eed/attachment-0001.html From girindranath at gmail.com Sun Jun 1 22:52:38 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 1 Jun 2008 22:52:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKrgpY3gpLDgpKTgpL/gpK7gpL4t?= =?utf-8?b?IOCkq+Cko+ClgOCktuCljeCkteCksCDgpKjgpL7gpKUg4KSw4KWH4KSj?= =?utf-8?b?4KWB?= Message-ID: <63309c960806011022w4ba14429i81c6fca4f5ba5a9b@mail.gmail.com> हार्डिंग की प्रतिमा रेणु की यह रिपोर्ट 7 मई 1967 के दिनमान के चरचे और चरखे स्तंभ में प्रकाशित हुई थी। आज एक बार फिर आनंद लें। गिरीन्द्र 1912 में लॉर्ड हार्डिंग अपनी पत्नी के साथ बिहार पधारे थे। उसी पुण्य अवसर की स्मृति में उस समय के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर चार्ल्स बेली और महाराजा रामेश्वर सिंह (दरभंगा नरेश) के उद्योग से 1915 में पटना में लॉर्ड हार्डिंग की प्रतिमा की स्थापना की गई थी। इस प्रतिमा के शिल्पी लंदन निवासी हैंपटन को इसके पारिश्रमिक में 4,000 पौंड मिले थे। 12 फुट ऊंची वेदी पर इसकी स्थापना हुई। उसके आसपास की भूमि को घेरकर 70,100 रुपये की लागत से एक उद्यान बनाया गया था, जिसका नाम दिया गया – हार्डिंग पार्क। 12 अप्रैल 1967 को बिहार की गैर कांग्रेसी सरकार के संयुक्त समाजावदी मंत्री भोला सिंह ने इस ऐतिहासिक मूर्ति (जो हमारी गुलामी के दिनों की यादगार भी थी..) हटाकर जादू घर में डलवा दिया। और, यह शुभ कर्म उसी व्यक्ति के हाथ से संपन्न कराया गया जिसे संयुक्त समाजवादी पार्टी के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के समय इस मूर्ति का अंग भंग करने की चेष्ठा के अपराध में दंडित किया गया। 5 टन वजन की कांसे की विशाल मूर्ति जब ट्रक पर लदकर जादू घर की ओर चली, उपस्थित जनता ने विदाई में तरह-तरह के नारे लगाए, जिसमें एक नया नारा था- स्वेतलाना को वापस बुलाओ। सड़क से गुजरती सवारियों पर बैठे लोग अचरज से सबकुछ देख रहे थे। एक देहाती ने रिक्शेवाले से पूछा, भैया यह किसकी मूरत थी...रिक्शाचालक ने तुरंत जवाब दिया- अरे, यह भी नहीं मालूम.. बहुत पुराना कांगरेसी लीडर था और था कृष्णवल्लभ सहाय का आदमी..... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 5468 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080601/0623d256/attachment.bin From ravikant at sarai.net Mon Jun 2 12:38:22 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Jun 2008 12:38:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKrgpY3gpLDgpKTgpL/gpK7gpL4tIA==?= =?utf-8?b?4KSr4KSj4KWA4KS24KWN4KS14KSwIOCkqOCkvuCkpSDgpLDgpYfgpKPgpYE=?= In-Reply-To: <63309c960806011022w4ba14429i81c6fca4f5ba5a9b@mail.gmail.com> References: <63309c960806011022w4ba14429i81c6fca4f5ba5a9b@mail.gmail.com> Message-ID: <200806021238.23076.ravikant@sarai.net> शुक्रिया गिरीन्द्र, इस मज़ेदार पोस्ट के लिए. हार्डिंग पार्क का नाम भी शायद बदल गया है. पर आज भी लोग शायद उसे उसके पुराने नाम से ही याद करते हैं. हार्डिंग पार्क का महत्व उस बस स्टैंड के चलते बढ़ गया था, जहाँ से बिहार सरकार के सरकारी निगम के पतन के बाद निजी बस सेवाओं की शुरुआत हुई थी. 1980 के दशक में शुरू इन बसों में वीडियो सेवा का आम आकर्षण होता था. कुछ बसें वातानुकूलित भी होती थीं. अभी मैं भी दिनमान के कुछ पुराने अंक पलट रहा था - जिसे अभिषेक कश्यप ने हमारे अभिलेखागा र/पुस्तकालय के लिए ढूँढ निकाला है - और एक चिट्ठी सुनील गंगोपाध्याय ने लिखी थी, दिनमान को - 1980 के दशक के शुरू में ही, जिसमें उन्होंने पश्चिम बंगाल के वामपंथी निज़ाम की आलोचना इसलिए की थी कि उसने उनकी कृतियों को फ़हश यानी अश्लील बताया था. हैरत की बात है न कि यही सुनील गंगोपाध्याय अब उसी निज़ाम के पैरोकार हैं, और तस्लीमा नसरीन की आलोचना इन्हीं लफ़्ज़ों में करते हैं. पाश ने स्टालिन को संबोधित अपनी कविता में इस इतिहास चक्र की बात नहीं की थी, पर समांतर रेखाएँ खींचना दिलचस्प है. यह दस्तावेज़ आप सबको ज़रूर उपलब्ध कराया जाएगा. रविकान्त रविवार 01 जून 2008 22:52 को, आपने लिखा था: > हार्डिंग की प्रतिमा > > रेणु की यह रिपोर्ट 7 मई 1967 के दिनमान के चरचे और चरखे स्तंभ में प्रकाशित > हुई थी। आज एक बार फिर आनंद लें। > गिरीन्द्र > > > 1912 में लॉर्ड हार्डिंग अपनी पत्नी के साथ बिहार पधारे थे। उसी पुण्य अवसर की > स्मृति में उस समय के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर चार्ल्स बेली और महाराजा रामेश्वर > सिंह (दरभंगा नरेश) के उद्योग से 1915 में पटना में लॉर्ड हार्डिंग की प्रतिमा > की स्थापना की गई थी। इस प्रतिमा के शिल्पी लंदन निवासी हैंपटन को इसके > पारिश्रमिक में 4,000 पौंड मिले थे। > > > > 12 फुट ऊंची वेदी पर इसकी स्थापना हुई। उसके आसपास की भूमि को घेरकर 70,100 > रुपये की लागत से एक उद्यान बनाया गया था, जिसका नाम दिया गया – हार्डिंग > पार्क। 12 अप्रैल 1967 को बिहार की गैर कांग्रेसी सरकार के संयुक्त समाजावदी > मंत्री भोला सिंह ने इस ऐतिहासिक मूर्ति (जो हमारी गुलामी के दिनों की यादगार > भी थी..) हटाकर जादू घर में डलवा दिया। और, यह शुभ कर्म उसी व्यक्ति के हाथ से > संपन्न कराया गया जिसे संयुक्त समाजवादी पार्टी के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के > समय इस मूर्ति का अंग भंग करने की चेष्ठा के अपराध में दंडित किया गया। > > > > 5 टन वजन की कांसे की विशाल मूर्ति जब ट्रक पर लदकर जादू घर की ओर चली, > उपस्थित जनता ने विदाई में तरह-तरह के नारे लगाए, जिसमें एक नया नारा था- > स्वेतलाना को वापस बुलाओ। > > > > सड़क से गुजरती सवारियों पर बैठे लोग अचरज से सबकुछ देख रहे थे। एक देहाती ने > रिक्शेवाले से पूछा, भैया यह किसकी मूरत थी...रिक्शाचालक ने तुरंत जवाब दिया- > अरे, यह भी नहीं मालूम.. बहुत पुराना कांगरेसी लीडर था और था कृष्णवल्लभ सहाय > का आदमी..... From garima_161188 at yahoo.com Mon Jun 2 13:05:44 2008 From: garima_161188 at yahoo.com (Garima Sharma) Date: Mon, 2 Jun 2008 00:35:44 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= subscribe Message-ID: <570832.61844.qm@web55906.mail.re3.yahoo.com> -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080602/5324f283/attachment-0001.html From torrie_look at yahoo.com Mon Jun 2 13:07:11 2008 From: torrie_look at yahoo.com (Ruchika Pandit) Date: Mon, 2 Jun 2008 00:37:11 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= subscribe Message-ID: <403697.31677.qm@web46103.mail.sp1.yahoo.com> Explore your hobbies and interests. Go to http://in.promos.yahoo.com/groups/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080602/a1edea7f/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Jun 2 16:18:00 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Jun 2008 16:18:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJrgpII=?= =?utf-8?b?4KSs4KSyIOCkleClgCDgpLjgpY3gpJ/gpYvgpLDgpYA=?= Message-ID: <200806021618.00371.ravikant@sarai.net> --------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Story Date: सोमवार 02 जून 2008 14:27 From: "anil pandey" मित्रों संजय तिवारी जी ने मेरी चंबल की स्टोरी हाल ही में पढ़ी और उसे अपने विस्फोट डाटकाम पर प्रकाशित कर दिया है. कृपया इसे पढ़े और स्टोरी पर अपनी राय भी दें. मैं आप को विस्फोट डाटकाम का लिंक भेज रहा हूं. www.visfot.com प्रतिष्ठा, प्रतिशोध और प्रताडना चंबल के खून में है. यह धरती डाकू भी पैदा करती है और सिपाही भी. कई घरों में तो ऐसा है कि एक भाई डाकू है तो दूसरा भाई सिपाही. हमने दस्यु प्रभावित क्षेत्र ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, भिंड, मुरैना, इटावा और आगरा के विभिन्न इलाकों का दौरा किया. इस दौरान पाया कि यहां आजादी के साठ साल बाद भी विकास की बयार कहीं दिखाई नहीं देती. गांवों में न सड़कें है और न ही दूसरी बुनियादी सुविधाएं. बीहडों में कई जगह हालत यह थी कि हमें अपनी गाड़ी दूर छोड़कर पैदल सफर करना पड़ता था. उद्योग धंधे और रोजगार के अवसर तो न के बराबर हैं. खेती पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है. भिंड के पूर्व विधायक और दस्यु उन्मूलन अभियान चलाने वाले परशुराम भदौरिया कहते हैं, "बिजली की समस्या की वजह से खेतों की सिचाई नहीं हो पाती है. इससे पैदावार प्रभावित होती है. रोजगार के अवसर भी यहां न के बराबर है. व्यावसायिक शिक्षा की तरफ यहां सरकार ने कभी ध्यान ही नहीं दिया." लोगों के पास सरकारी नौकरी खास कर फौज में भर्ती होने के अलावा कोई चारा नहीं है. जमीन बेंचकर लोग इसके लिए रिश्वत का इंतजाम करते हैं. जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे अपहरण उद्योग में शामिल हो जाते हैं. भिंड के एसपी निरंजन बी वायंगणकर कहते हैं, "यहां के युवा 'पकड़' ले जाकर डकैतों को सौंप देते हैं. इसके बदले उन्हें फिरौती की रकम से एक हिस्सा मिल जाता है. यह हिस्सा 10 से 25 फीसदी तक होता है." अपहरण उद्योग से पुलिस को भी कमाई होती है. असलियत यह है कि पुलिस नहीं चाहती की दस्यु समस्या खत्म हो. पूर्व विधायक परशुराम भदौरिया इसकी वजह बताते हैं, "भ्रष्ट पुलिस वा लों के लिए दस्यु समस्या कमाई का जरिया बन गया है." पुलिस के कई लोग डाकुओं की मदद करते हैं. डीआईजी डी सी सागर मानते हैं कि उनके महकमें के लोगों द्वारा डाकुओं को मदद मिलती है. वे कहते हैं, "कई बार हमारी सूचनाएं डाकुओं तक पहुंच गई हैं और हमारा अभियान फेल हो गया. इस संबंध में हमने कई पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई भी की है." चंबल का इलाका अपनी बहादुरी और वीरता के लिए जाना जाता है. यही वजह है कि यहां की धरती पर अगर डाकू भी पैदा होते हैं तो सरहद पर देश की रक्षा के लिए शहीद होने वाले वीर सिपाही भी. कई बार तो एक भाई फौज में तो दूसरा डाकू. भिंड जिले के रिदौली गांव के जयश्रीराम बघेल 6 साल तक दस्यु सरगना विद्या गडेरिया के गिरोह में सक्रिय रहे. उनका छोटा भाई फौज में सुबेदार हैं. जयश्रीराम बघेल कहते हैं, "गांव के कुछ सबल लोगों ने मेरे चाचा की हत्या कर दी. बदला लेने के लिए ही मैं गडेरिया गिरोह में शामिल हो गया." चंबल इलाके से देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले कहीं ज्यादा लोग सेना में हैं. 1965 और 1972 की लड़ाई के अलावा कारगिल युद्द के दौरान भी यहां के कई जवान शहीद हुए थे. यहां की धरती पर कभी अंग्रेजों और सिंधिया स्टेट के अन्याय के खिलाफ हथि यार उठाने वाले बागियों से लेकर मौजूदा समय में अपहरण को उद्योग बनाने वाले डाकुओं की कहानियां बिखरी पड़ी हैं. पुलिस की नजर में ये डकैत बर्बर अपराधी हैं लेकिन वे अपने इलाके में रॉबिनवुड हैं. अपनी जाति के हीरों हैं. अमीरों से पैसा ऐठना और गरीबों खासकर अपनी जाति के लोगों की मदद करना इनका शगल है. लेकिन दुश्मनों और मुखबिरों के साथ ये ऐसा बर्बर रवैया अपनाते हैं कि देखने वा लों के दिल दहल जाएं. मध्य प्रदेश के डकैती विरोधी अभियान के प्रमुख रह चुके पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एसएस शुक्ला कहते हैं, "जिस जाति का व्यक्ति अपराध कर डाकू बन जाता है उसे उस वि शेष जाति समुदाय के लोग अपना 'हीरो' मानने लगते हैं. उसके साथ नायक जैसा व्यवहार करते हैं." यह परंपरा आज की नहीं है, जब से यहां डाकू पैदा हुए तब से यह परंपरा चली आ रही है. मानसिंह से लेकर दयाराम गड़ेरिया और ददुआ तक अपनी जाति के हीरो रहे. डाकूओं की फसल पैदा करने में प्रतिष्ठा, प्रतिशोध और प्रताडना तो कारण हैं ही लेकिन सबसे अहम भूमिका पुलिस की होती है. चंबल के दस्यु सरगनाओं का इतिहास देंखे तो डाकू मानसिंह से लेकर फूलन देवी तक सभी लोग अमीरों या रसूख वाले लोगों के शोषण के शिकार रहे हैं. और इस शोषण में पुलिस और व्यवस्था ने इनकी बजाय रसूखवालों का ही साथ दिया. ऐसे में ये लोग न्याय की उम्मीद किससे करते. कभी चंबल में पुलिस की नाक में दम करने वाले पूर्व दस्यु सरगना मलखान सिंह कहते हैं, "मेरे गां व के सरपंच ने मंदिर की जमीन पर कब्जा कर लिया. मेरे विरोध करने पर उन्होंने मेरे खिलाफ फर्जी केस दर्ज कर मुझे जेल भिजवा दिया और फिर मेरे साथ ही विरोध करने वाले मेरे एक साथी की हत्या भी कर दी. सरपंच तब के एक मंत्री का रिश्तेदार था और दरोगा और दीवान उसके घर पर हाजिरी बजाते थे. ऐसे में मैं किससे न्याय मागता. बंदूक उठाने के अलावा मेरे पास कोई चारा ही नहीं था." कमोबेश यह स्थिति आज भी बरकरार है. भिंड के एसपी निरंजन बी वायंगणकर मानते हैं कि फर्जी मुकदमें डाकू बनने की एक बड़ी वजह है. वे कहते हैं, "लोग दुश्मनी निकालने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ फर्जी मुकदमें दर्ज करा देते हैं. लेकिन मैंने शख्त हिदायद दी है कि फर्जी मुकदमें न दर्ज किए जाएं और न ही किसी किसी बेकसूर पर इनाम घोषित किया जाए." चंबल का इतिहास विद्रोह से भरा पड़ा है. यहां के भदावर और तोमर राजाओं ने भी अंग्रेजों और मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. यह बगावत की भावना आज भी बरकरारा है. चंबल की दस्यु समस्या पर शो ध कर चुके समाजशास्त्री प्रो पी.वी.एस तोमर कहते हैं, "यहां के लोग स्वाभिमानी और बहादुर होते हैं. इसलिए ये लोग प्रताड़ना और अन्याय बर्दास्त नहीं कर पाते. यही वजह है कि ये लोग अन्याय के खिलाफ बंदूक उठा लेते हैं." चंबल की भोगोलिक स्थिति इसमें मददगार साबित होती है. चंबल का इला का क्वारी, सिंध, चंबल, वैशाली और यमुना नदियों के अलावा कई छोटी नदियों से घिरा है. इनके किनारे मिट्टी के बड़े बड़े टीले और घने जंगल छुपने और पुलिस से सुरक्षित रहने की सबसे बेहतर जगह है. देश आजाद हो गया है लेकिन हालात नहीं बदले हैं. शोषण आज भी जारी है. बस अंतर इतना है कि पहले मुगलों और अंग्रेजों ने यहां के लोगों का शोषण किया तो अब व्यवस्था व पुलिस कर रही है. 1947 में देश आजाद हुआ तो आम जनता के साथ डाकुओं ने भी आजादी का जश्न मनाया. डाकू मानसिंह के साथी और उनके मरने के बाद गिरोह के सरदार रहे लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का कहते हैं, "देश आजाद हुआ तो हम भी खुश हुए. क्वींटलों लड्डू बांटे गए. जश्न मनाया गया कि अब शोषण और अन्याय बंद हो गा. लेकिन अब तो यह पहले से कहीं ज्यादा हो रहा है. हमारे सपने चूर हो गए." जगजीवन परिहार को डकैत बनाने के लिए तो पुलिस ही जिम्मेदार थी. वह पुलिस का मुखबिर था. नि र्भय गूजर को मारने के लिए पुलिस ने जगजीवन को हथियार मुहैया कराया और डाकू बना दिया. उपर से दबाव या फिर डाकू के पकड़े जाने पर भेद खुल जाने के डर से पुलिस वाले इनका इनकाउंटर कर देते हैं और फिर एक दूसरा गैंग तैयार करवा देते हैं. मध्य प्रदेश पुलिस के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक एसएस शुक्ला की मानें तो इनकाउंटर स्पेस्लिस्ट लोगों की इसमें खास भूमिका होती है. वे कहते हैं, "ऐसे लोग जब एक गैंग को मार गिराते हैं तो उनकी अर्निंग बंद हो जाती है. ऐसे में वे दूसरा गैंग तैयार कर देते हैं." चंबल के किनारे के मिट्टी के बड़े बड़े टीले डाकुओं की छुपने की जगह है. अगर सरकार इन्हें समतल कर लोगों में बांट दे तो इससे न केवल डाकू समस्या पर लगाम लगेगी बल्कि लोगों को खेती के लिए जमीन मिल जाएगी. लेकिन टीलों के समतलीकरण की योजना भ्रष्टाचार की वजह से परवान नहीं चढ़ पा रही है. डाकुओं के अलावा अब चंबल में नक्सली भी सक्रिय हो रहे हैं. डीआईजी डी सी सागर कहते हैं, "हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि नक्सलियों का प्रशिक्षण शिविर कहां चल रहा है." शोषण और बेरोजगारी ही दस्यु समस्या की तरह नक्सल समस्या की भी जड़ है. अगर इस समस्या से निपटना है तो गांवों में विकास की गंगा बहानी होगी. लोगों को शिक्षा और रोजगार मुहैया कराना होगा. वरना चंबल का दायरा फैलता हुआ पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लेगा और देश भर में बागियों की जमात पैदा हो जाएगी. अनिल पांडेय प्रमुख संवाददाता द संडे इंडियन 09968256956 Blog:- www.roadshow.com.co.in www.roadclub.blogspot.com ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Mon Jun 2 16:25:15 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Jun 2008 16:25:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KSr4KWL4KSfIOCkleCljeCkr+Cli+Ckgj8=?= Message-ID: <200806021625.15622.ravikant@sarai.net> अनिल पांडेय के ज़रिए विस्फोट.कॉम से परिचय हुआ. कौन लोग हैं, ये तो नहीं पता चल रहा पर इस पर डाली जा रही सामग्री दिलचस्प है. वैसे तो हिन्दी की सार्वजनिक दुनिया में सभी जनपक्षधर हैं, पर आख़िरी पंक्ति ने मेरा ध्यान ख़ास तौर पर खींचा है. यहाँ से एक और चीज़ भेजूँगा. रविकान्त http://visfot.com/index.php?page=3 कारपोरेट मीडिया के द्वंद-युद्ध में विस्फोट.कॉम अपने तरीके से जनपक्षीय हस्तक्षेप की कोशिश कर रहा है. यह पत्रकारों या जनवादी सूचनाकर्मियों का ऐसा मंच बनने की कोशिश करेगा जो निज इच्छा से ऊपर उठकर समाज और लोकहित में बात कर सकें. क्या मैं और क्या कोई दूसरा. फायदे को अर्थशास्त्र घोषित करते बाजार की कोशिश का पर्दाफाश ही हमारा पहला और आखिरी कार्य है. फिर इसके रास्ते में कोई भी आये परवाह नहीं करना है. कितनों को इस बात का अंदाज होगा कह नहीं सकते लेकिन देश में कंपनियों का दुष्प्रभाव बड़ी तेजी से पसर रहा है. प्रकृति और जीव दोनों ही फायदे के हाशिये पर हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं उस कंपनीराज का पोषण कर रही हैं जिसका हरसंभव विरोध होना चाहिए. कपनियां अपना प्रभाव चाहती हैं. इसके लिए उन्होंने व्यवस्था, लोकतंत्र, समाज, न्यायप्रणाली सबका चीरहरण कर लिया है. फायदे के तर्कशास्त्र में जीवन का अर्थशास्त्र डूब रहा है. सवाल यह है कि जिस दिन इस डूब का पानी उतरेगा क्या उस दिन हम अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे? हम जड़ों से जुड़े रहें इसीलिए डगमगाते हुए ब्लाग पर पहला कदम रखा. साल भर में पांव संभलते दिख रहे हैं. लेकिन अभी ठीक से चलना शुरू हुआ नहीं है. अभी तो पग ठाढ़े विस्मय भाव से आगे का रास्ता देख रहा हूं. जितनी क्षमता है उतना थाह लेने की कोशिश कर रहा हूं. पैर टिका तो चलने की कोशिश करूंगा. दौड़ना तो दूर की कौड़ी है. अगर आप हमारे कार्य और दिशा से सहमत हैं तो आप हमारे साथ जुड़िए. नहीं सहमत हैं तो हम आपके सा थ जुड़ना चाहते हैं. संवाद का एक सिलसिला चले कुछ आप हमें समझाएं कुछ हम आपको बताते हैं. आखिरका र असहमतियों के बीच एक तल है जहां हम आप सब एक ही हैं. मेरे लिए नहीं अपने लिए नहीं लेकिन उसके बारे में सोचिए जिसके बारे में कोई नहीं सोचता. ऐसे अभावग्रस्त लोगों के लिए काम कर रहा हूं जिनको बाजार और पूंजी ने दबा दिया है. पूंजी न सही कम से कम उनके बारे में बात तो करें. जो गलत हो रहा है उसे गलत कहना तो शुरू करें. विस्फोट.कॉम को बनाए रखने के लिएः आप स्वयं से ऐसा कोई काम शुरू कर सकते हैं जो अनाम लोगों के हित साधता हो. ऐसे किसी भी कार्य को हम सहर्ष मदद करने के लिए तत्पर हैं. आप हमारे द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों पर सहमति-असहमति दर्ज कर सकते हैं. आप मित्र बनकर हमें सूचनाओं से अवगत करा सकते हैं. आप सक्रिय सहयोगी बनकर मुद्दे उठा सकते हैं. किसी भी तल पर सहमत होने पर आप संपर्क करिए, हमें आपका इंतजार रहेगा. असहमत हों तो भी अपनी असहमति जरूर लिख भेंजे हम अपने को सुधारने की कोशिश करेगें. visfot.com एफ-29, अंसारी मार्केट दरियागंज, नई दिल्ली-110002 फोन/फैक्स- 011 23270041 visfot at gmail.com कापीराईट मुक्त विस्फोट.कॉम पर प्रकाशित किसी भी सामग्री पर कोई कापीराईट नहीं है. आप लोकहित में यहां दी गयी किसी भी सामग्री का गैर व्यावसायिक उपयोग कर सकते हैं. स्रोत का उल्लेख करेंगे तो अच्छा लगेगा. From ravikant at sarai.net Mon Jun 2 16:29:22 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Jun 2008 16:29:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KWB4KSq?= =?utf-8?b?4KSuIOCkruCkv+CktuCljeCksCDgpJXgpYAg4KSk4KS+4KSy4KS+4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSn4KSo4KS+?= Message-ID: <200806021629.22795.ravikant@sarai.net> http://visfot.com/index.php?news=131 बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि सीएसई की स्थापना में अनुपम मिश्र का बहुत योगदान रहा है. इसी तरह नर्मदा पर सबसे पहली आवाज अनुपम मिश्र ने ही उठायी थी. साध्य साधन और साधना लेख को लिखते हुए वे कहते हैं यह न अलंकरण है न अहंकार. अलंकरण और अहंकार से मुक्त अनुपम मिश्र का परिचय देना हो तो प्रख्यात कहकर समेट दिया जाता है. उनके लिए यह परिचय मुझे हमेशा अधूरा लगता है. फिर हमें अपनी समझ की सीमाओं का भी ध्यान आता है. हम चौखटों में समेटने के अभ्यस्त हैं इसलिए जब किसी को जानने निकलते हैं तो उसको भी अपनी समझ के चौखटों में समटेकर उसका एक परिचय गढ़ देते हैं. लेकिन क्या वह केवल वही है जिसे हमने अपनी सुविधा नुसार एक परिचय दे दिया है? कम से कम अनुपम मिश्र के बारे में यह बात लागू नहीं होती. वे हमारी समझ की सीमाओं को लांघ जाते हैं. उनको समझने के लिए हमें अपनी समझ की सीमाओं को विस्ता र देना होगा. अपने दायरे फैलाने होंगे. असीम की समझ से समझेंगे तो अनुपम मिश्र समझ में आयेंगे और यह भी कि वे केवल प्रख्यात पर्यावरणविद नहीं हैं. वे लोकजीवन और लोकज्ञान के साधक हैं. अब न लोकजीवन की कोई परिधि या सीमा है और न ही लो कज्ञान की. इसलिए अनुपम मिश्र भी किसी सीमा या परिचय से बंधें हुए नहीं हैं. हालांकि उन्हें हमेशा ऐतराज रहता है जब कोई उनके बारे में बोले-कहे या लिखे. उन्हें लगता है कि उनके बारे में लि खने से अच्छा है उनकी किताब "आज भी खरे हैं तालाब" के बारे में दो शब्द लिखे जाएं. कितने लाख लो ग अनुपम मिश्र को जानते हैं इससे कोई खास मतलब नहीं है कितनी प्रतियां इस किताब की बिकी हैं सारा मतलब इससे है. तो क्या अनुपम मिश्र अपनी रॉयल्टी की चिंता में लगे रहनेवाले व्यक्ति हैं जो अपनी किताब को लेकर इतने चिंतित रहते हैं? शायद. क्योंकि उनकी रायल्टी है कि समाज ज्यादा से ज्यादा तालाब के बारे में अपनी धारणा ठीक करें. पानी के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. पर्या वरण के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. भारत और भारतीयता के बारे में अपनी धारणा शुद्ध करे. अगर यह सब होता है तो अनुपम मिश्र को उनकी रायल्टी मिल जाती है. और किताब पर लिखा यह वाक्य आपको प्रेरित करे कि इस पुस्तक पर कोई कॉपीराईट नहीं है, तो आप इस किताब में छिपी ज्ञानगंगा का अपनी सुविधानुसार जैसा चाहें वैसा प्रवाह निर्मित कर सकते हैं. यह जिस रास्ते गुजरेगी कल्याण करेगी. 1948 में अनुपम मिश्र का जन्म वर्धा में हुआ था.पिताजी हिन्दी के महान कवि. यह भी आपको तब तक नहीं पता चलेगा कि वे भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं जब तक कोई दूसरा न बता दे. मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) के बारे में लिखे अपने पहले और संभवतः एकमात्र लेख में वे लिखते हैं"पिता पर उनके बेटे-बेटी खुद लिखें यह मन्ना को पसंद नहीं था." परवरिश की यह समझ उनके काम में भी दिखती है. इसलिए उनका परिचय अनुपम मिश्र हैं. भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्र कदापि नहीं. यह निजी मामला है. मन्ना उनके पिता थे और वैसे ही पिता थे जैसे आमतौर पर एक पिता होता है. बस. पढ़ाई लिखाई तो जो हुई वह हुई. 1969 में जब गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े तो एम.ए. कर चुके थे. लेकिन यह डिग्रीवाली शिक्षा किस काम की जब अनुपम मिश्र की समझ ज्ञान के उच्चतम धरातल पर विकसित होती हो. अपने एक लेख पर्यावरण के पाठ में वे लिखते हैं"लिखत-पढ़तवाली सब चीजें औपचारिक होती हैं. सब कक्षा में, स्कूल में बैठकर नहीं होता है. इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना होता है. कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा, के कंधों पर बैठ चलते-चलते समझ में आता है. यह उसी ढंग का काम है-जीवन शिक्षा का. अनुपम मिश्र कौन से काम की चर्चा कर रहे हैं? फिलहाल यहां तो वे पर्यावरण की बात कर रहे हैं. वे कहते हैं "केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता. वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते." यानी एक मजबूत समाज में पर्यावरण का पाठ स्कूलों में पढा़ने के भ्रम से मुक्त होना होगा. और केवल पर्यावरण ही क्यों जीवन के दूसरे जरूरी कार्यों की शिक्षा का स्रोत स्कूल नहीं हो सकते. फिर हमारी समझ यह क्यों बन गयी है कि स्कूल हमारे सभी शिक्षा संस्का रों के एकमेव केन्द्र होने चाहिए. क्या परिवार, समाज और संबंधों की कोई जिम्मेदारी नहीं रह गयी है? अनुपम मिश्र के बहाने ही सही इस बारे में तो हम सबको सोचना होगा. अनुपम मिश्र तो अपने हिस्से का काम कर रहे हैं. जरूरत है हम भी अपने हिस्से का काम करें. अनुपम मिश्र की जिस "आज भी खरे हैं तालाब" किताब का जिक्र मैं ऊपर कर आया हूं उसने पानी के मुद्दे पर बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं. राजस्थान के अलवर में राजेन्द्र सिंह के पानीवाले काम को सभी जानते हैं. इस काम के लिए उन्हें मैगसेसे पुरस्कार भी मिल चुका है. लेकिन इस काम में जन की भागीदारी वाला नुख्सा अनुपम मिश्र ने गढ़ा. राजेन्द्र सिंह के बनाये तरूण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे. शुरूआत में राजेन्द्र सिंह के साथ जिन दो लोगों ने मिलकर काम किया उसमें एक हैं अनुपम मिश्र और दूसरे सीएसई के संस्थापक अनिल अग्रवाल. सच कहें तो इन्हीं दो लोगों ने पूरे कार्य को वैचारिक आधार दिया. राजेन्द्र सिंह ने जमीनी मेहनत की और अलवर में पानी का ऐसा वैकल्पिक कार्य खड़ा हो गया जो आज देश के लिए एक उदाहरण है. लेकिन अनुपम मिश्र केवल अलवर में ही नहीं रूके. वे लापोड़िया में लक्ष्मण सिंह को भी मदद कर रहे हैं, पहाड़ में दूधातोली लोकविकास संगठन को पानी के काम की प्रेरणा दे रहे हैं और न जाने कितनी जगहों पर वे यात्राएं करते हैं और भारत के परंपरागत पर्यावरण और जीवन की समझ की याद दिलाते हैं. बहुत कम लोगों को इस बात की जानका री होगी कि सीएसई की स्थापना में अनुपम मिश्र का बहुत योगदान रहा है. इसी तरह नर्मदा पर सबसे पहली आवाज अनुपम मिश्र ने ही उठायी थी. हाल फिलहाल वे इंफोसिस होकर आये हैं. इंफोसिस फाउण्डेशन ने उनको सिर्फ इसलिए बुलाया था कि वे वहां आयें और पानी का काम देखें. अनुपम जी गये और कहा कि आपके पास पैसा भले बाहर का है लेकिन दृष्टि भारत की रखियेगा. भारत और भारतीयता की ऐसी गहरी समझ के साक्षात उदाहरण अनुपम मि श्र ने कुल छोटी-बड़ी 17 पुस्तके लिखी हैं जिनमें अधिकांश अब उपलब्ध नहीं है. एक बार नानाजी देशमुख ने उनसे कहा कि आज भी खरे हैं तालाब के बाद कोई और किताब लिख रहे हैं क्या? अनुपम जी सहजता से उत्तर दिया- जरूरत नहीं है. एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या जरूरत है. अनुपम मिश्र को भले ही लिखने की जरूरत नहीं हो लेकिन हमें अनुपम मिश्र को बहुत संजीदगी से पढ़ने की जरूरत है. अनुपम मिश्र संपादक, गांधी मार्ग गांधी शांति प्रतिष्ठान दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली - 110002 फोन-011 23237491, 23236734 अनुपम मिश्र की उपलब्ध पुस्तकें 1. आज भी खरे हैं तालाब 2. राजस्थान की रजत बूंदे 3. साफ माथे का समाज (यह लेख संग्रह पेंगुइन ने प्रकाशित किया है.) From ravikant at sarai.net Mon Jun 2 16:33:57 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 2 Jun 2008 16:33:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWI4KS44KS+?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgiDgpKrgpL7gpKjgpYAg4KSV4KSu4KS+4KSP4KSC4KSX?= =?utf-8?b?4KWHIOCksuCli+Ckly0g4KS24KWH4KSW4KSwIOCkleCkquClguCksA==?= Message-ID: <200806021633.57346.ravikant@sarai.net> http://visfot.com/index.php?news=147 यथार्थ को पर्दे पर उतारनेवाले शेखर कपूर 'पानी' बना रहे हैं. इस फिल्म में 2035 के उस भविष्य की कल्पना की गई है जब पानी का नामों-निशां नहीं होगा. फिल्म 'पानी' के बारे में निर्माता-नि र्देशक शेखर कपूर से बातचीत. क्या पानी ऐसा मुद्दा है जिस पर एक पूरी फिल्म बनाई जाए? हां! यह तो एक बड़ी चुनौती है। ऐतिहासिक दृष्टि से पानी हमेशा से एक सामुदायिक संपत्ति रहा है। यहां तक कि राजाओं के जमाने में भी। पहले पानी लेने के लिए हमें कड़ी मेहनत भी करनी पड़ती थी, लेकिन आधुनिक सदी में पानी एक निजी संपत्ति बन गया है। अब हरेक घर में पानी के लिए सीधे पाइप लगे हुए हैं। इससे हमारी मानसिकता में भी बदलाव आ गया है। अब हम बड़ी आसानी से पानी ले लेते हैं। महानगरों को इस तरह बनाया जा रहा है कि नए उभरने वाले शहरों को भी बुनियादी जरूरतों के लिए पानी पाइपों से मुहैया कराया जा सके। पानी इतनी आसानी से मिल जाने से ही पानी की बर्बादी शुरू हुई है। पानी की कमी के लिए लोग खुद जिम्मेदार हैं, उन्हें सीखना चाहिए कि कैसे व्यवहार करना है। सरकार को भी बड़ी जिम्मेदारी से काम करने की जरूरत है। जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है। आप एक काल्पनिक स्थिति दिखा रहे हैं। आपकी फिल्म में भयावह भविष्य का चित्रण है? यह पूरी तरह काल्पनिक नहीं है। नलों में पानी हमेशा नहीं रहेगा। पहले ही पानी की काफी कमी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बेमौसमी मानसून आ रहे हैं। हम नहीं देख पा रहे हैं कि हो सकता है एक अलग संसाधन के रूप में पानी रहे ही नहीं। हमें इसे सावधानी से इस्तेमाल करने की जरूरत है। निजामुद्दीन (दिल्ली) में मेरे दादा-दादी का एक बगीचा था, जिसमें हैंडपंप से पानी खींचकर सिंचाई की जाती थी, लेकिन अब तो बगीचों में फव्वारों (स्प्रिंकलर) की व्यवस्था है जिससे सिंचाई तो आसा न हो गई है, पर पानी की बर्बादी बदतर हो गई है। भूजल स्तर घट गया है और हैंडपंपों में पानी खत्म हो रहा है। चेन्नई पहले से ही पानी की कमी की मार झेल रहा है, जबकि दूसरी ओर पांच-सितारा होटलों में लोग आधे-आधे घंटे तक नहाते रहते हैं। गोवा में पयर्टन की वजह से पानी पर दबाव बढ़ रहा है। ऐसा हर जगह हो रहा है, यही वजह है कि पानी आज एक मुद्दा बन गया है। मुझे लगता है कि इस मुद्दे से लड़ने के माध्यम बच्चें होंगे, बच्चों को ही पानी का दूत बनने की शिक्षा दी जानी चाहिए। मेरी बेटी मुझे पानी के इस्तेमाल की शिक्षा देती है। अपनी फिल्म पानी के बारे कुछ बताईये? 'पानी' एक ऐसे शहर की कहानी है जो सन् 2035 का शहर है। पानी के लिए युध्द पहले ही शुरू हो चुके हैं। 15 फीसदी लोगों के पास पानी है बाकी 85 फीसदी को इसके लिए जूझना पड़ता है। पानी का निजीकरण हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रोटोकाल घोषणा करते हैं कि जिनके पास पानी है वे बाकियों को थोड़ा बहुत पानी मुहैया कराएं। लेकिन ऐसे में पानी की कालाबाजारी शुरू होती है। फिर एक ऐसी स्थिति भी होगी जब राजनेता कहेंगे 'वोट दोगे तो पानी मिलेगा'। लोगों का शोषण और नियंत्रण करने के लिए पानी का इस्तेमाल होगा। शायद लोग वहां काम नहीं करेंगे, जहां पीने का पानी नहीं मिलेगा। लोग उन कंपनियों में काम करेंगे जहां पानी मिलेगा, क्योंकि वहां कम से कम 'पा नी तो मिलता है पीने को.' अमीरों को अपने राजनीतिक कनेक्शन की वजह से पानी मिलेगा। झुग्गियों में पानी नहीं होगा। सामाजिक बेचैनी होगी। फिल्म 'पानी' में एक दृश्य ऐसा है, जहां लोग कार के रेडिएटर से पानी चुरा ने के लिए हमला करते हैं। फिल्म में एक ऐसा शहर है जहां हाईवे है। उन्हीं हाईवे के नीचे एक ऐसी औरत रहती है, जिसे मिलने वाला पानी दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। 'पानी' फिल्म बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया? शायद मैं ठीक ही हूंगा कि हरियाणा के नेता बंसीलाल ने गांव में पानी की कमी और शहरों में पानी की बर्बादी की ओर संकेत किया था। एक दिन जब मैं मालाबार हिल पर अपने मित्र के घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, उस वक्त वह आधे घंटे से भी ज्यादा देर तक नहाता रहा था तो मैं वहां से चला आया। रास्ते में मैंने धारावी झुग्गियों में पानी के लिए लोगों को लम्बी कतारों में खड़े देखा, जिसका मुझ पर गहरा असर हुआ। क्या पानी के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए जलकर एक तरीका है? मुझे नहीं लगता कि इससे कोई हल होगा। इसमें खास बात यह है कि जलकर पक्षपातपूर्ण भी हो सकता है, जो अन्याय होगा। सिर्फ पैसे वाले लोग ही पानी को खरीदेंगे और उन्हें ही पानी मिल पाएगा, जो कर नहीं चुका पाएंगे उन्हें यह नहीं मिल पाएगा। हालांकि कर समस्या का हल नहीं है, लेकिन हो टलों में पानी के इस्तेमाल के लिए मीटर होने चाहिए। कर के बजाय पानी की उपलब्धता और आपूर्ति समान होनी चाहिए। क्या पानी की कमी पर इस तरह से युध्द की कल्पना करना मुद्दे को जरूरत से ज्यादा तूल देना नहीं है? जरा सोचिये, अगर मुम्बई जैसे शहरों में पानी खत्म हो जाए तो? समस्या की शुरुआत पानी के निजीकरण के साथ हो रही है। केरल में कोका-कोला भूमिगत जल विवाद पानी विवाद का ही एक उदाहरण है। अगर मैंने 1965 में यह कहा होता कि एक दिन लोग पानी को बोतलबंद करके अच्छे दामों पर बेचेंगे तो शायद आप लोग मुझे पागल समझते। लेकिन आज हो रहा है। पानी के लिए युध्द, शायद आज असंगत लगे लेकिन आप देख रहे हैं कि आज पूरे विश्व में पानी के लिए लोग लड़ रहे हैं। टर्की के बीच से नदियां गुजरती हैं, पर वहां की गोलन हाइट्स को लेकर छिड़े विवाद में पानी ही बड़ा मुद्दा है। भारत-पाक विवादों में भी जल को लेकर काफी विवाद है, क्योंकि भारत सतलुज के पानी को रोकने की धमकियां देता है। मलेशिया और सिंगापुर के बीच भी पानी को लेकर संबंधों में तनाव है। सिंगापुर का एक अच्छा उदाहरण है कि गंदे पानी को रिसाइकिल (परिशोधन) कि या जा रहा है और टी.वी. पर प्रसारित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री जी वही परिशोधित पानी पी रहे थे। आने वाले समय में पानी का स्तर जितना नीचे जाएगा, पानी के लिए विवाद उतने ही ज्यादा होंगे। क्या कोई विकल्प है ? भूमिगत जल उपलब्ध नहीं है। समुद्री पानी के इस्तेमाल के लिए कर्ज की बहुत जरूरत है जो महंगा है। रीवर्स ओसमोसिस पर विचार किया जा सकता है। शायद बाहर निकलने का रास्ता नैनोटैक्नोलाजी में हो। अगर हमारे पास रासायनिक रूप से स्थायी नैनो अणु हो तो नमक के क्रिस्टल्स को रोका जा सकता है। किसी शहर में पानी की कमी होना एक भयावह स्थिति है। अगर हमारे पास पानी ही नहीं होगा तो 8-9 फीसदी आर्थिक विकास की बातें करना सब बेमानी ही है। कारखाने बंद हो सकते हैं। बड़ी मात्रा में विस्थापन हो सकता है, युध्द भी हो सकते हैं। इसलिए 'पानी' फिल्म में पानी को विषय बनाया गया है। फिल्म 'पानी' को भविष्य की कल्पना पर क्यों बनाया है? पहले ही 'बैडिंट क्वीन' की वजह से सेंसर बोर्ड से मैं काफी परेशान रह चुका हूं। मैं व्यवस्था के खिलाफ कुछ भी नहीं बनाना चाहता था। इसलिए इस फिल्म को भविष्य में सेट किया गया है। आपने शहरों को ही फोकस किया है। क्या गांवों में पानी की कमी नजरअंदाज नहीं हो गई है? गांवों में पानी की कमी दर्शाने वाली तो और भी फिल्में बनी हैं, जैसे 'गाइड', 'लगान'। लेकिन जब उन शहरी इलाकों में पानी की कमी होगी जो वित्तीय और प्रशासनिक केंद्र हैं, तक क्या होगा, यही दिखाना मेरा लक्ष्य है। लेकिन क्या शहरों के खत्म होने का विचार कहानी के पानी के मुद्दे को भटका नहीं रहा है? ठीक है न्यूयार्क जैसे शहरों में ऐसी स्थिति हो सकती है जहां पानी थोड़ा-थोड़ा टुकड़ों में मिलता रहे पर बाकी शहरों में तो स्थिति भयावह ही होगी। तिहास में 'तुगलकाबाद' इसका उदाहरण रहा है। यह पानी की कमी की वजह से ही खत्म हो गया था। पानी की कमी की वजह से लोग शहरों को छो ड़ देंगे। उम्मीद तो यही करता हूं कि किसी न किसी दिन पानी के लिए कोई मसीहा जरूर खड़ा हो गा। मैं इस बात से भी इत्तोफाक रखता हूं कि किसी न किसी को पानी के मुद्दे को उठाना चाहिए। मैं खुश हूं कि मैंने इसे उठाया है। आपको मुम्बई में पानी मिल जाता है, लेकिन चेन्नई, दिल्ली इनका क्या? हमें कुछ करने की जरूरत है। मुम्बई जैसे शहरों में पानी का इस्तेमाल कम किया जाना चाहिए। एक बूंद बचाना मतलब एक पैसा कमाना है। पानी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध नहीं है। विनाश हो सकता है। पानी की कमी की स्थितियां क्यों पैदा हुईं? वह सीधे तौर पर पानी के असमान और बिना सोचे-विचारे इस्तेमाल का नतीजा है। एक तरफ अमीरों के स्वीमिंग पूल पानी से भरे हैं तो दूसरी तरह किसानों को खेतों की सिंचाई तक के लिए पानी नहीं मि लता। मोरक्को में हर घर में ताल हैं और अब फ्रांसीसी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने मर्राकेश में गोल्फ कोर्स बना लिए हैं। लेकिन पानी की कमी हो जाए तो बाहर से आए पर्यटक भी आपको छोड़कर भाग जाएंगे। निश्चित रूप से प्रयास सामाजिक रूप से उत्तारदायी सिनेमा का होना चाहिए। सामाजिक उत्तारदायी सिनेमा में एक संदेश होता है। गुरुदत्त और 'मदर इंडिया', 'तारे जमीं पर' इसके दिलचस्प उदाहरण हैं। कई लोगों का मानना है कि केवल व्यवसायिक सिनेमा ही सफल हो सकता है। लेकिन आपको पता है, दर्शक भी बहुत चालाक हैं। मनोरंजक फिल्म बनाना आसान है। 'ओम शांति ओम' फिर भी काफी हिट है, हालांकि लोग 'तारे जमीं पर' फिल्म को लम्बे अर्से तक याद रखेंगे। सामाजिक रूप से जिम्मेदार सिनेमा कैसे बनाया जाना चाहिए? लोगों के मुद्दों को उठाने की जरूरत है। यह इसी दिशा की एक फिल्म है, जिसे मैंने एक आवाज दी है। यह भागीदारी की प्रक्रिया है। आप भी इंटरनेट के जरिए लोगों को जोड़ सकते हैं। क्या लोगों की भागीदारी से कुछ बदलाव लाया जा सकता है? बदलाव संभव है और हो भी रहा है। इंडिया वाटर पोर्टल/पीएनएन. अनुवाद- मीनाक्षी अरोरा. From kashyapabhishek03 at gmail.com Tue Jun 3 15:59:39 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Tue, 3 Jun 2008 15:59:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= latter Message-ID: अभी परसों डेल्ही विश्वविद्यालय के समाज कल्याण सभागार मे आयोजित दलित लेखक संघ की राष्ट्रीय संगोष्ठी मे मैंने कनकलता को पितृसत्ता मे दलित स्त्री विषय पर बोलते देखा - सुना. मंच लूटने का हुनर जानने वाले नियमित वक्ताओं से अलग जिस तरह उसने अपने साथ घटे हादसे को सहमी - सकुची मगर साफ-संयमित आवाज मे व्यक्त किया, उसने बहुतों को उसकी संवेदना से जोड़ दिया . गोष्टी मे मौजूद सराय से संबद्ध राकेश कुमार जी और संवेदनशील सामाजिक मसलों की पत्रकारिता से जुड़े अनुज आशीष अंशु से देर तक इस मसले पर बात होती रही. अंशु ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्र - छात्राएँ कनकलता की लड़ाई मे उसके साथ है .बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए! यह लड़ाई आगे बढ़नी ही चाहिए. नागरिक समाज मे ऐसे लोगों को कैसे बर्दास्त किया जा सकता है ! अभिषेक कश्यप ३ जून २००८ -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1438 Size: 3761 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080603/0d655d8e/attachment.bin From rakesh at sarai.net Tue Jun 3 16:18:12 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Tue, 3 Jun 2008 16:18:12 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?iso-8859-1?q?=5B=E0=A4=A6?= =?iso-8859-1?q?=E0=A5=80=E0=A4=B5=E0=A4=BE=E0=A4=A8=5D_latter?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4001.123.239.31.71.1212490092.squirrel@mail.sarai.net> मित्रो कल संपन्न हुए दलित लेखक संघ के तीसरे द्विवार्षिक सम्मेलन पर मैंने कुछ कल पोस्ट किया था ठपने ब्लॉग पर. ठभिषेकजी के पोस्ट के बाद मैंने उसे यहां डाल रहा हूं. सलाम राकेश चौथी कक्षा में पहली बार भेदभाव हुआ था मेरे साथ: कनकलता दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क में दलित लेखक संघ का द्विवार्षिक सम्मेलन का आज आखिरी दिन है. कल मैं भी गया था सम्मेलन में. दूसरी पाली में. साथ में डॉ. ठजीता, नोवा उनकी बिटिया नव्या और किलकारी तथा चन्द्रा भी थे. दूसरा सत्र आरंभ हो रहा था. आयोजकों ने ठतिथि वक्ताओं को मंच पर बुलाया. ठजीता और कनकलता भी पहुंचे मंच पर. सबसे पहले कनकलता को ही बोलने को कहा गया. कनक ने बातचीत की शुरुआत में बताया कि कैसे पहली बार चौथी कक्षा में उन्हें ये लगा कि उनके साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है. कनक ने ये भी बताया कि तबतक उन्हें पता नहीं था कि जाति-पाति भी कोई चीज़ होती है. बहरहाल, छठी कक्षा तक आते-आते उन्हें कुछ-कुछ बात समझ में आनी शुरू हो गयी थी. उन्होंने आगे बताया कि जातीय उत्पीड़न से लड़ने में ठकसर गैर-दलित मित्रों ने उनकी सहायता की है. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों उनके साथ जो भी दुर्व्यवहार हुआ उसमें भी ग़ैर-दलित मित्र और शुभचिंतक काफी बढ-चढ कर उनकी मदद कर रहे हैं. उनके मुताबिक कई बार तो दलित तबक़े के लोगों ने उनकी टांग खींचने की कोशिश की है. ज़ाहिर है, एक दलित लड़की, जिसके साथ हाल ही में जातीय दुर्व्यवहार की घटना ने दिल्ली के प्रगतिशील तबक़े में एक हलचल सी पैदा कर दी है; वो दलित लेखकों के सम्मेलन में ठगर ऐसी बात कहती हैं तो सभागार सन्न तो हो ही जाएगा. कल ऐसा ही हुआ. संचालक की ओर से एक-दो बार ये कहा गया कनक को कि उनके साथ पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ, उसके बारे में वो बताएं. पर कनक ने यह कह कर कि उनके साथ जो भी हुआ उस पर काफी कुछ लिखा-बोला जा रहा है, दो-चार बातें कह कर रह गयीं. और एक बार फिर ये कहकर कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है, और कुछ नहीं बोल पाएंगी, उन्होंने ठपनी बात समाप्त कर दी. उनके भाषण के बाद संचालक ने यह स्पष्ट किया कि दलितों ने उनके मामले के बारे में न ठख़बार में लिखा और न ही मोहल्ला पर लेकिन थाने से लेकर कोर्ट तक दलित साथ ही रहे, जमानत भी ली दलितों ने. उन्होंने ठपनी बात शुरू करने से पहले ये साफ़ कर दिया था कि इस सम्मेलन में बोलने के लिए उन्हें पिछली रात को ही कहा गया है और पिछले दिनों हुई दौड़-भाग की वजह से तबीयत भी ठीक नहीं है, लिहाज़ा वो ठपना भाषण तैयार नहीं कर पायी हैं. दरठसल, पांच मिनट के कनक के भाषण और तत्काल बाद संचालक के स्पष्टीकरण से यह तो साफ हो गया कि कनक की बात आयोजकों और सम्मेलन के कुछ भागीदारों को ठच्छा नहीं लगा. देर रात मेरे एक मित्र का फ़ोन आया जो दलित भी हैं और इस पूरे प्रकरण में पीडित पक्ष के साथ मुस्तैद हैं. घुम-फिर कर सभागार में कनक का भाषण और उसके बाद की स्थिति की जानकारी उन तक पहुंच चुकी थी, जिसकी तस्दीक वो मुझसे करना चाह रहे थे. मैंने सारी बात बता दी. जो बातें मैंने रात ठपने दोस्त से शेयर की, वही मैं यहां भी करना चाहूंगा. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कुछ छात्रों और शिक्षकों के ठलावा कनक ठपने सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने वाले दोस्तों के लिए ज़रूर जाना-पहचाना नाम रही होगी. मैंने भी कनक तो विगत 4 मई को मुखर्जीनगर थाने पहुंचकर ही जाना, वो भी ठपने मित्र संजीव के फ़ोन के बाद. यानी कनक हिन्दी विभाग में एम फिल की छात्रा के ठलावा सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए ख़ुद को तैयार करने वाली एक मेधावी और प्रतिभान छात्रा रही हैं. पर प्रगतिशील या दलित साहित्य में उनके दख़ल की मुझे जानकारी नहीं है. ठगर मैं भूला न होउं तो शायद कल जिस सत्र में कनक बोल रही थीं वो 'पितृसत्ता और दलित साहित्य' पर केंद्रित था. ठब ऐसे में आनन-फानन में कनक को भाषण के लिए किसी भी प्रकार तैयार करना, वो भी बेहद शॉट नोटिस पर शायद सामयिक और समुचित निर्णय नहीं माना जाएगा. दूसरी बात, कनक ने वही कहा जो उन्होंने महसूस किया. मैं भी इस पूरे मामले को नजदीक से देख रहा हूं, और काफ़ी हद तक पूरे प्रकरण में कनक के साथ हूं. मुझे मालूम है कि ग़ैर-दलितों एक ठच्छा-ख़ासा दायरा इस संघर्ष में उनके साथ है. पर मैं ये भी जानता हूं कि आज जो संघर्ष चल रहा है उसका विगुल दलित कार्यकर्ताओं ने ही फूंका था. थाने से लेकर ठदालत तक की लड़ाई में आज तक दलित मित्र कनक के साथ हैं. शायद कनक पहली बार किसी बड़े मंच से बोल रही थीं, जिसकी तैयारी उन्होंने नहीं की थी और न ही वो साहित्य और राजनीति की वैसी पुरोधा हैं जिन्हें कहीं बोलने के लिए किसी तैयारी की ज़रूरत नहीं पड़ती है. ऐसे में कनक की बात से इतना आहत होने की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए. कभी-कभी सामाजिक कार्यकर्ता जल्दबाज़ी कर जाते हैं. कनक कार्यकर्ता बनना चाहती हैं या नहीं ये उनके व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की बात है. फिलहाल तो वो संघर्ष कर रही हैं. हर तरह से उनके साथ खड़ा होना वक्त की ज़रूरत है, बीच में ठपना मन खट्टा करना नहीं. > ठभी परसों डेल्ही > विश्वविद्यालय के समाज > कल्याण सभागार मे आयोजित > दलित लेखक संघ > की राष्ट्रीय संगोष्ठी मे > मैंने कनकलता को पितृसत्ता > मे दलित स्त्री विषय पर > बोलते देखा - सुना. मंच लूटने > का हुनर जानने वाले नियमित > वक्ताओं से ठलग जिस > तरह उसने ठपने साथ घटे हादसे > को सहमी - सकुची मगर > साफ-संयमित आवाज मे व्यक्त > किया, उसने बहुतों को उसकी > संवेदना से जोड़ दिया . > गोष्टी मे मौजूद सराय से > संबद्ध राकेश कुमार जी और > संवेदनशील सामाजिक मसलों की > पत्रकारिता से जुड़े > ठनुज आशीष ठंशु से देर तक इस > मसले पर बात होती रही. ठंशु ने > बताया कि दिल्ली > विश्वविद्यालय के कई छात्र - > छात्राएँ कनकलता की लड़ाई मे > उसके साथ है .बात > निकली है तो दूर तलक जानी > चाहिए! यह लड़ाई आगे बढ़नी ही > चाहिए. नागरिक समाज मे > ऐसे लोगों को कैसे बर्दास्त > किया जा सकता है ! > > ठभिषेक कश्यप > > ३ जून २००८ > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > ----------------------------------------- This email was sent using SquirrelMail. "Webmail for nuts!" http://squirrelmail.org/ From miyaamihir at gmail.com Wed Jun 4 02:53:29 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Wed, 4 Jun 2008 02:53:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSa4KS/4KSo?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkruCklSDgpK7gpL/gpKXgpJUg4KSV4KWAIOCkluCliw==?= =?utf-8?b?4KScIOCkieCksOCljeCkq+CkvCDgpLjgpYHgpKjgpLngpLDgpYcg4KSX?= =?utf-8?b?4KSw4KWB4KWcIOCkleClgCDgpKTgpLLgpL7gpLYg4KSu4KWH4KSCLg==?= Message-ID: www.aawarahoon.blogspot.com ...miHir :) सचिन हमारी आदत में शुमार हैं. रविकांत मुझसे पूछते हैं कि क्या सचिन एक मिथक हैं? हमारे तमाम भगवान मिथकों की ही पैदाइश हैं. क्रिकेट हमारा धर्म है और सचिन हमारे भगवान. यह सराय में शाम की चाय का वक्त है. रविकांत और संजय बताते हैं कि वे चौबीस तारीख़ को फिरोजशाह कोटला में IPL का मैच देखने जा रहे हैं. रविकांत चाहते हैं कि मुम्बई आज मोहाली से हार जाए. यह दिल्ली के सेमी में पहुँचने के लिए ज़रूरी है. दिल्ली नए खिलाड़ियों की टीम है और उसे सेमी में होना ही चाहिए. आशीष को सहवाग का उजड्डपन पसंद नहीं है. संजय जानना चाहते हैं कि क्या मैदान में सेलफोन ले जाना मना है? मैं उन्हेंबताता हूँ कि मैं भी जयपुर में छब्बीस तारीख़ को होनेवाला आखिरी मैच देखने की कोशिश करूंगा. या राजस्थान और मुम्बई के बीच है. चाय के प्याले और बारिश के शोर के बीच हम सचिन को बल्लेबाज़ी करते देखते हैं. रविकांत मुझसे पूछते हैं कि क्या सचिन एक खिलाड़ी नहीं मिथक का नाम है? वे चौबीस तारीख़ को दिल्ली-मुम्बई मैच देखने जा रहे हैं और मैं छब्बीस तारीख़ को राजस्थान-मुम्बई. चाय के प्याले और बारिश के शोर के बीच मैं अपने आप से पूछता हूँ... सचिन टेस्ट क्रिकेट के सबसे महान बल्लेबाज़ नहीं हैं. विज्डनने सदी का महानतम क्रिकेटरचुनते हुए उन्हें बारहवें स्थान पर रखा था. एकदिवसीय के महानतम बल्लेबाज़ ने भारत को कभी विश्वकप नहीं जिताया है. वे एक असफल कप्तान रहे और उनके नाम लगातार पांच टेस्ट हार का रिकॉर्ड दर्ज है. माना जाता है कि उनकी तकनीक अचूक नहीं है और वह बांयें हाथ के स्विंग गेंदबाजों के सामने परेशानी महसूस करते हैं. उनके बैट और पैड के बीच में गैप रह जाता है और इसीलिए उनके आउट होने के तरीकों में बोल्ड और IBW का प्रतिशत सामान्य से ज़्यादा है. तो आख़िर यह सचिन का मिथक है क्या? शाहरुख़ और सचिन वैश्वीकरण की नई राह पकड़ते भारत का प्रतिनिधि चेहरा हैं. यह 1992 विश्वकप से पहले की बात है. 'इंडिया टुडे', जिसकी खामियाँ और खूबियाँ उसे भारतीय मध्यवर्ग की प्रतिनिधि पत्रिका बनाती हैं, को आनेवाले विश्वकप की तैयारी में क्रिकेट पर कवर स्टोरी करनी थी. उसने इस कवर स्टोरी के लिए खेल के बजाए इस खेलके एक नए उभरते सितारे को चुना. गौर कीजिये यह उस दौर की बात है जब सचिन ने अपना पहला एकदिवसीय शतक भी नहीं बनाया था. एक ऐसी कहानी जिसमें कुछ भी नकारात्मक नहीं हो. भीतर सचिन के बचपन की लंबे घुंघराले बालों वाली मशहूर तस्वीर थी. वो बचपन में जॉन मैकैनरो का फैन था और उन्हीं की तरह हाथ में पट्टा बाँधता था. उसे दोस्तों के साथ कार में तेज़ संगीत बजाते हुए लांग ड्राइव पर जाना पसंद है. यह सचिन के मिथकीकरण की शुरुआत है. एक बड़ा और सफ़ल खिलाड़ी जिसके पास अरबों की दौलत है लेकिन जिसके लिए आज भी सबसे कीमती वो तेरह एक रूपये के सिक्के हैं जो उसने अपने गुरु रमाकांत अचरेकर से पूरा दिन बिना आउट हुए बल्लेबाज़ी करने पर इनाम में पाए थे. एक मराठी कवि का बेटा जो अचानक मायानगरी मुम्बई का, जवान होती नई पीढ़ी और उसके अनंत ऊँचाइयों में पंख पसारकर उड़ते सपनों का, नई करवट लेते देश का प्रतीक बन जाता है. और यह सिर्फ़ युवा पीढ़ी की बात नहीं है. जैसा मुकुल केसवन उनके आगमन को यादकर लिखते हैं कि बत्तीस साल की उमर में उस सोलह साल के लड़के के माध्यम से मैं वो उन्मुक्त जवानी फ़िर जीना चाहता था जो मैंने अपने जीवन में नहीं पाई. सचिन की बल्लेबाज़ी में उन्मुक्तता रही है. उनकी महानतम एकदिवसीय पारियाँ इसी बेधड़क बल्लेबाज़ी का नमूना हैं. हिंसक तूफ़ान जो रास्ते में आनेवाली तमाम चीजों को नष्ट कर देता है. 1998 में आस्ट्रेलिया के विरुद्ध शारजाह में उनके बेहतरीन शतक के दौरान तो वास्तव में रेत का तूफ़ान आया था. लेकिन बाद में देखने वालों ने माना कि सचिन के बल्ले से निकले तूफ़ान के मुकाबले वो तूफ़ान फ़ीका था. यही वह श्रृंखला है जिसके बाद रिची बेनो ने उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ कहा था. यहाँ तक आते-आते सचिन नामक मिथक स्थापित होने लगता है. लेकिन सचिन नामक यह मिथक उनकी बल्लेबाज़ी की उन्मुक्तता में नहीं है. वह उनके व्यक्तित्व की साधारणता में छिपा है. उनके समकालीन महान ब्रायन लारा अपने घर में बैट की शक्ल का स्विमिंग पूल बनवाते हैं. सचिन सफलता के बाद भी लंबे समय तक अपना पुराना साहित्य सहवास सोसायटी का घर नहीं छोड़ते. एक और समकालीन महान शेन वॉर्नकी तरह उनके व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी मसालेदार और विवादास्पद नहीं है. वे एक आदर्श नायक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह. लेकिन जब वह बल्लेबाज़ी करने मैदान पर आते हैं तो कृष्ण की तरह लीलाएं दिखाते हैं. शेन वॉर्न का कहना है कि सचिन उनके सपनों में आते हैं और उनकी गेंदों पर आगे बढ़कर छक्के लगाते हैं. सचिन नब्बे के दशक के हिंदुस्तान की सबसे सुपरहिट फ़िल्म हैं. इसमें ड्रामा है, इमोशन है, ट्रेजेडी है, संगीत है और सबसे बढ़कर 'फीलगुड' है. एक बेटा है जो पिता की मौत के ठीक बाद अपने कर्मक्षेत्र में वापिस आता है और अपना कर्तव्य बख़ूबी पूराकरता है. एक दोस्त है जो सफलता की बुलंदियों पर पहुँचकर भी अपने दोस्त को नहीं भूलता और उसकी नाकामयाबी की टीस सदा अपने दिल में रखता है. एक ऐसा आदर्श नायक है जो मैच फिक्सिंग के दलदल से भी बेदाग़ बाहर निकल आता है. नब्बे का दशक भारतीय मध्यवर्ग के लिए अकल्पित सफलता का दौर तो है लेकिन अनियंत्रित विलासिता का नहीं. सचिन इसका प्रतिनिधि चेहरा बनते हैं. और हमेशा की तरह एक सफलता की गाथा को मिथक में तब्दील कर उसके पीछे हजारों बरबाद जिंदगियों की कहानी को दफ़नाया जाता है. सचिन मेरे सामने हैं. पहली बार आंखों के सामने, साक्षात्! मैं उन्हें खेलते देखता हूँ. वे थके से लगते हैं. वे लगातार अपनी ऊर्जा बचा रहे हैं. उस आनेवाले रन के लिए जो उन्हें फ़ुर्ती से दौड़ना होगा. अबतक वे एक हज़ार से ज़्यादा दिन की अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल चुके हैं. अगले साल उन्हें इस दुनिया में बीस साल पूरे हो जायेंगे. और फ़िर अचानक वे शेन वाटसन का कैच लपकने को एक अविश्वसनीय सी छलाँग लगाते हैं और बच्चों की तरह खुशी से उछल पड़ते हैं. मिथक फ़िर से जी उठता है. सचिन की टीम मैच हार जाती है. जैसे ऊपर बैठकर कोई इस IPLकी स्क्रिप्ट लिख रहा है. चारों पुराने सेनानायकों द्रविड़, सचिन, गाँगुली और लक्ष्मण की सेनाएँ सेमीफाइनल से बाहर हैं. इक्कीसवीं सदी ने अपने नए मिथक गढ़ने शुरू कर दिए हैं और इसका नायकमुम्बई से नहीं राँची से आता है. यह बल्लेबाज़ी ही नहीं जीवन में भी उन्मुक्तता का ज़माना है और इस दौर के नायक घर में बन रहे स्विमिंग पूल, पार्टियों में दोस्तों से झड़प और फिल्मी तारिकाओं से इश्क के चर्चों की वजह से सुर्खियाँ बटोरते हैं. राँची के इस नए नायक के लिए सर्वश्रेष्ठ होना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जीतना महत्त्वपूर्ण है. सितारा बुझकर ब्लैक होल में बदल जाने से पहले कुछ समय तक तेज़ रौशनी देता है. सचिन के प्रसंशकों का मानना है कि वो आँखें चौंधिया देने वाली चमक अभी आनी बाकी है. लेकिन मिथकों को पहले से जानने वाले लोगों को पता है कि देवताओं की मौत हमेशा साधारण होती है. कृष्ण भी एक बहेलिये के तीर से मारे गए थे. एक अनजान बहेलिये के शब्दभेदी बाण से मारा जाना हर भगवान् की और जलते-जलते अंत में बुझकर ब्लैक होल में बदल जाना हर सितारे की आखि़री नियति है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080604/1a473175/attachment-0001.html From chandma1987 at gmail.com Wed Jun 4 14:16:44 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Wed, 4 Jun 2008 04:46:44 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+?= =?utf-8?q?=E0=A4=A8_Letter?= Message-ID: yeh artical rakesh kumar sir ka hai. jise hum padh nahi pa rahe the. lekin ab padh saktein hai. मित्रो कल संपन्न हुए दलित लेखक संघ के तीसरे द्विवार्षिक सम्मेलन पर मैंने कुछ कल पोस्ट किया था अपने ब्लॉग पर. अभिषेकजी के पोस्ट के बाद मैंने उसे यहां डाल रहा हूं. सलाम राकेश चौथी कक्षा में पहली बार भेदभाव हुआ था मेरे साथ: कनकलता दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क में दलित लेखक संघ का द्विवार्षिक सम्मेलन का आज आखिरी दिन है. कल मैं भी गया था सम्मेलन में. दूसरी पाली में. साथ में डॉ. अजीता, नोवा उनकी बिटिया नव्या और किलकारी तथा चन्द्रा भी थे. दूसरा सत्र आरंभ हो रहा था. आयोजकों ने अतिथि वक्ताओं को मंच पर बुलाया. अजीता और कनकलता भी पहुंचे मंच पर. सबसे पहले कनकलता को ही बोलने को कहा गया. कनक ने बातचीत की शुरुआत में बताया कि कैसे पहली बार चौथी कक्षा में उन्हें ये लगा कि उनके साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है. कनक ने ये भी बताया कि तबतक उन्हें पता नहीं था कि जाति-पाति भी कोई चीज़ होती है. बहरहाल, छठी कक्षा तक आते-आते उन्हें कुछ-कुछ बात समझ में आनी शुरू हो गयी थी. उन्होंने आगे बताया कि जातीय उत्पीड़न से लड़ने में अकसर गैर-दलित मित्रों ने उनकी सहायता की है. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों उनके साथ जो भी दुर्व्यवहार हुआ उसमें भी ग़ैर-दलित मित्र और शुभचिंतक काफी बढ-चढ कर उनकी मदद कर रहे हैं. उनके मुताबिक कई बार तो दलित तबक़े के लोगों ने उनकी टांग खींचने की कोशिश की है. ज़ाहिर है, एक दलित लड़की, जिसके साथ हाल ही में जातीय दुर्व्यवहार की घटना ने दिल्ली के प्रगतिशील तबक़े में एक हलचल सी पैदा कर दी है; वो दलित लेखकों के सम्मेलन में अगर ऐसी बात कहती हैं तो सभागार सन्न तो हो ही जाएगा. कल ऐसा ही हुआ. संचालक की ओर से एक-दो बार ये कहा गया कनक को कि उनके साथ पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ, उसके बारे में वो बताएं. पर कनक ने यह कह कर कि उनके साथ जो भी हुआ उस पर काफी कुछ लिखा-बोला जा रहा है, दो-चार बातें कह कर रह गयीं. और एक बार फिर ये कहकर कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है, और कुछ नहीं बोल पाएंगी, उन्होंनेअपनी बात समाप्त कर दी. उनके भाषण के बाद संचालक ने यह स्पष्ट किया कि दलितों ने उनके मामले के बारे में न अख़बार में लिखा और न ही मोहल्ला पर लेकिन थाने से लेकर कोर्ट तक दलित साथ ही रहे, जमानत भी ली दलितों ने. उन्होंने अपनी बात शुरू करने से पहले ये साफ़ कर दिया था कि इस सम्मेलन में बोलने के लिए उन्हें पिछली रात को ही कहा गया है और पिछले दिनों हुई दौड़-भाग की वजह से तबीयत भी ठीक नहीं है, लिहाज़ा वो अपना भाषण तैयार नहीं कर पायी हैं. दरअसल, पांच मिनट के कनक के भाषण और तत्काल बाद संचालक के स्पष्टीकरण से यह तो साफ हो गया कि कनक की बात आयोजकों और सम्मेलन के कुछ भागीदारों को अच्छा नहीं लगा. देर रात मेरे एक मित्र का फ़ोन आया जो दलित भी हैं और इस पूरे प्रकरण में पीडित पक्ष के साथ मुस्तैद हैं. घुम-फिर कर सभागार में कनक का भाषण और उसके बाद की स्थिति की जानकारी उन तक पहुंच चुकी थी, जिसकी तस्दीक वो मुझसे करना चाह रहे थे. मैंने सारी बात बता दी. जो बातें मैंने रात अपने दोस्त से शेयर की, वही मैं यहां भी करना चाहूंगा. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कुछ छात्रों और शिक्षकों के अलावा कनक अपने सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने वाले दोस्तों के लिए ज़रूर जाना-पहचाना नाम रही होगी. मैंने भी कनक तो विगत 4 मई को मुखर्जीनगर थाने पहुंचकर ही जाना, वो भी अपने मित्र संजीव के फ़ोन के बाद. यानी कनक हिन्दी विभाग में एम फिल की छात्रा के अलावा सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए ख़ुद को तैयार करने वाली एक मेधावी और प्रतिभान छात्रा रही हैं. पर प्रगतिशील या दलित साहित्य में उनके दख़ल की मुझे जानकारी नहीं है. अगर मैं भूला न होउं तो शायद कल जिस सत्र में कनक बोल रही थीं वो 'पितृसत्ता और दलित साहित्य' पर केंद्रित था. अब ऐसे में आनन-फानन में कनक को भाषण के लिए किसी भी प्रकार तैयार करना, वो भी बेहद शॉट नोटिस पर शायद सामयिक और समुचित निर्णय नहीं माना जाएगा. दूसरी बात, कनक ने वही कहा जो उन्होंने महसूस किया. मैं भी इस पूरे मामले को नजदीक से देख रहा हूं, और काफ़ी हद तक पूरे प्रकरण में कनक के साथ हूं. मुझे मालूम है कि ग़ैर-दलितों एक अच्छा-ख़ासा दायरा इस संघर्ष में उनके साथ है. पर मैं ये भी जानता हूं कि आज जो संघर्ष चल रहा है उसका विगुल दलित कार्यकर्ताओं ने ही फूंका था. थाने से लेकर अदालत तक की लड़ाई में आज तक दलित मित्र कनक के साथ हैं. शायद कनक पहली बार किसी बड़े मंच से बोल रही थीं, जिसकी तैयारी उन्होंने नहीं की थी और न ही वो साहित्य और राजनीति की वैसी पुरोधा हैं जिन्हें कहीं बोलने के लिए किसी तैयारी की ज़रूरत नहीं पड़ती है. ऐसे में कनक की बात से इतना आहत होने की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए. कभी-कभी सामाजिक कार्यकर्ता जल्दबाज़ी कर जाते हैं. कनक कार्यकर्ता बनना चाहती हैं या नहीं ये उनके व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की बात है. फिलहाल तो वो संघर्ष कर रही हैं. हर तरह से उनके साथ खड़ा होना वक्त की ज़रूरत है, बीच में अपना मन खट्टा करना नहीं. अभी परसों डेल्ही विश्वविद्यालय के समाज कल्याण सभागार मे आयोजित दलित लेखक संघ की राष्ट्रीय संगोष्ठी मे मैंने कनकलता को पितृसत्ता मे दलित स्त्री विषय पर बोलते देखा - सुना. मंच लूटने का हुनर जानने वाले नियमित वक्ताओं से अलग जिस तरह उसने अपने साथ घटे हादसे को सहमी - सकुची मगर साफ-संयमित आवाज मे व्यक्त किया, उसने बहुतों को उसकी संवेदना से जोड़ दिया . गोष्टी मे मौजूद सराय से संबद्ध राकेश कुमार जी और संवेदनशील सामाजिक मसलों की पत्रकारिता से जुड़े अनुज आशीष अंशु से देर तक इस मसले पर बात होती रही. अंशु ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्र - छात्राएँ कनकलता की लड़ाई मे उसके साथ है .बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए! यह लड़ाई आगे बढ़नी ही चाहिए. नागरिक समाज मे ऐसे लोगों को कैसे बर्दास्त किया जा सकता है ! अभिषेक कश्यप ३ जून २००८ -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080604/300f7b46/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Jun 4 16:48:18 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 4 Jun 2008 16:48:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWN4KSv4KWC?= =?utf-8?b?4KSc4KS84KS/4KSVIDIuMA==?= Message-ID: <200806041648.18384.ravikant@sarai.net> म्यूज़िक 2.0: गर्ड लियोनार्ड का लेख-संग्रह अभी मैनचेस्टर के फ़्यूचरसोनिक सम्मेलन में गर्ड लियोनार्ड से मुलाक़ात हुई. वे वहाँ अपना बीज भाषण देने आए थे. हिन्दुस्तान आ चुके हैं, और एशियाई संगीत के चलन में भी दिलचस्पी रखते हैं. उनसे मुलाक़ात तो मैनचेस्टर हवाई अड्डे से होटल तक जाते समय ही टैक्सी में हो गई थी. फिर भाषण के बाद जब उन्होंने कहा कि चलो खाना खाने चलते हैं तो मैं साथ हो लिया. गर्ड ने अपनी नई किताब भी मुझे भेंट की जिसे आपमें से जो लोग समसामयिक संगीत में दिलचस्पी रखते हैं, लेकर पढ़ सकते हैं, या नेट से भी उतार सकते हैं. बहरहाल इस पोस्ट में मैं गर्ड के तर्क का एक सार पेश करने जा रहूँ. किताब भी बिंदुवार लिखी गई है, लिहाज़ा मेरी पेशकश किताब जैसी ही होगी. शायद ये आप लोगों को दिलचस्प लगे कि गर्ड की किताब, जैसा कि वे अपनी भूमिका में कहते हैं, उनके ब्लॉग लेखन की रियाज़त से भी निकली है, जो वे हवाई जहाज़ों, टैक्सियों, बसों, होटलों की लॉबियों, सम्मेलन स्थलों और घर से करते रहे हैं. यह भी ध्यान रहे कि संगीत के बाज़ार की चलन की यह भविष्यवाणी करते हुए बतौर फ़्यूचरिस्ट (युगद्रष्टा) वे अपने आपको बहुत गंभीरता से लेते हैं. इसीलिए उन्हें एक साथ संगीत की बड़ी कंपनियाँ और हम जिन जमावड़ों में जाते हैं, वैसे लोग भी सुनना पसंद करते हैं. ख़याल रहे कि इस ख़ास जमावड़े में रिचर्ड स्टॉलमैन भी अपनी तान बजाने के लिए बुलाए गए थे. तो क्या हैं गर्ड के मूल विचार? 1. संगीत बहता नीर: यह बात हम भाषा के बारे में कबीर के हवाले से जानते हैं. पर संगीत के बारे में भी गर्ड की राय कबीराना है. संगीत अब उत्पाद नहीं रह गया है, बल्कि एक तरह की सेवा हो गया है. रिकॉर्डिंग के आगमन के बाद संगीत ने उत्पाद का रूप ले लिया था. और जल्द ही बड़े उद्योग भी स्थापित हो गए जो मानते थे कि बोतल बेचना शराब बेचने से ज़यादा चोखा धंधा है. लेकिन अब वक़्त बदल रहा है और भविष्य में जब आप 'संगीत के लेबल की बात' करें तो उसे 'संगीत की सेवा प्रदान करने वाली कंपनी' समझें. 2. संगीत का विस्तार, पर क़ीमतों में कमी: संगीत की क़ीमत के मौजूदा मानदंड बदल जाएँगे. चूँकि संगीत की सेवा कई औपचारिक व अनौपचारिक तरीक़ों से हासिल की जाएगी, और चूँकि मनोरंजन के दूसरे स्रोतों से भी स्पर्धा बढ़ेगी तो मौजूदा निज़ाम में बदलाव होना ही है. एक तरल मूल्य-प्रणाली विकसित होगी जिसके तहत लोग संगीत सेवाओं की सदस्यता लेंगे, यानी चंदे देंगे, लोगों को मल्टी-चैनल, मल्टी-औज़ार ऐक्सेस प्राप्त करने के लिए पैसे देने होंगे. सरल शाब्दों में आप संगीत की ग्राहकी लेते वक़्त यह तय करना चाहेंगे कि कौन सा सेवा-प्रदाता मुझे हर तरह का संगीत दे रहा है, जो हर तरह के तंत्र पर चल सके. सीडी की क़ीमतोँ मेँ भारी गिरावट आएगी. लेकिन संगीत सुननेवालों की तादाद बेतहाशा बढ. जाएगी, और अगर संगीत कंपनियाँ उत्पाद-प्रणाली से सेवा-प्रणाली का यह संक्रमण ढंग से साध पाएँ तो वे हर इंसान से 50-90 यूरो सालाना वसूल सकती हैं. इस बाज़ार में 75% लोग सक्रिय ग्राहक होंगे, तो आप उनके मुनाफ़े का अंदाज़ा लगा सकते हैं. 3. सबरंग और सर्वव्यापी: नए दौर का संगीत विविध, नानारूप और हर जगह उपलब्ध होगा. संगीत अब वहाँ भी होगा जहाँ पहले सिर्फ़ तस्वीर होती थी. मसलन विज्ञापनों में अब मल्टी-मीडिया प्रयोग बढ़ेंगे, संगीत का दृश्य-श्रव्य पक्ष उछाल लेगा, तो संगीत के लाइसेंस से आमद भी तो कई गुणा बढ़ जाएगी. 4. हम संगीत के मालिक नहीं होंगे, बल्कि उस तक हम पहुँचा करेंगे: चूँकि संगीत हर जगह, हर समय उपलब्ध होगा हम उसे ढोते हुए नहीं चलना चाहेंगे. संगीत वाक़ई पानी जैसा बहता मिलेगा. वैसा ही महसूस होगा. 5. दूसरे लफ़्ज़ों में संगीत को आप रेलवे स्टेशन पर, मॉल में, हवाई अड्डे पर, दारू के अड्ढे से कहीं से उठा सकेंगे. आपके पास तारवाला या बेतार कनेक्शन होगा, जिससे आप इच्छानुसार संगीत डाउनलोड कर लिया करेंगे. 6. मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है: यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि अगर घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या. यानी लेखक अगर अपनी किताब नेट पर डाल दे तो उसे क्या मिलेगा? संगीतकार या गायक अपना संगीत नेट पर छोड़ दे तो वह भूखा मरेगा, इत्यादि. मुक्त या खुले स्रोत का सिद्धांत करनेवालों और अब गर्ड का भी मानना है कि दरअसल इस निज़ाम में फ़ायदा तो कलाकारों का शायद ही होता है, बिचौलिया कंपनियों का ही ज़्यादा होता है, इसीलिए वही मुटाती जाती हैं. अब संगीतकार/गायक/लेखक अपने श्रोताओं व पाठकों से मुख़ातिब होंगे. बिचौलियों की बूमिका ख़त्म हो जाएगी. कलाकार अपने फ़ैन से ही पैसे वसूला करेंगे - जो कि हर हालत में कंपनी-रेट से कम ही होगा. 7. ज़ाहिर है कि जब ऐसा होगा तो वैसी संस्थाएँ भी ग़ायब हो जाएँगी जो कलाकारों के हक़ की हिफ़ाज़त का बीड़ा उठाने का धंधा करती हैं. लोग सीधे कलाकार के साइट पर सीधा लेन-देन कर पाएँगे. जो वाटरमार्किंग या फ़िगर-प्रन्टिंग तकनीक के ज़रिए ज़्यादा साफ़ ढंग से और तत्काल संपन्न हो पाएगा. 8. जब हर हाथ में समुन्नत मोबाइल या इसी तरह के दूसरे बेतार औज़ार होंगे तो कल्पना करें कि सामग्री के लिए इनकी सकल भूख कितनी होगी. रिंग-टोन, एस(एम)-एम-एस, स्ट्रीमींग रेडियो, टीवी, जावा गेम की कितनी बड़ी माँग पहले युरोप में और फिर एशिया की बड़ी आबादी में पैदा होगी. कहना चाहिए हो रही है, बड़ी तेज़ी से हो रही है. कुछ और चीज़े मैं निकालता हूँ उस किताब से, धीरे-धीरे. यह अभी शुरुआत है. किताब और गर्ड के ब्लॉग के लिए कड़ी ये है: www.futuretalks.com www.music20book.com मज़े लें. और अपनी प्रतिक्रिया भी भेजें. दीवान पर भेजें तो बेहतर. रविकान्त -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080604/2f3e877e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Jun 5 02:56:19 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 5 Jun 2008 02:56:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSg4KSq4KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KSX4KSyIOCkueCkruCkvuCksOClhyDgpKzgpYDgpJog4KSo4KS5?= =?utf-8?b?4KWA4KSCIOCksOCkueClhw==?= Message-ID: <829019b0806041426v39ea3ea2u6324a6c184dc0dfd@mail.gmail.com> घर में कोने से कटी हुई कोई चिट्ठी आती तो मैं उसे पकड़ने और पढ़ने से बहुत ड़रता, उसमें किसी के मौत की खबर होती। इसलिए जब भी हम भाई-बहन कोई चिट्ठी( हिन्दी या अंग्रेजी में) लिखते तो मां जरुरी चेक करती कि कहीं कोने से फटे हुए कागज पर तो इनलोगों ने कोई चिट्ठी तो नहीं लिख दी है। घर तो बहुत पहले छूट गया। अब मौत की खबर आती भी है तो टेलीफोन से या फिर मेल के जरिए। पढ़ने और सुनने में अभी भी बहुत लगता है। आज भी वही हुआ। चार दिनों से बुखार जिसमें कि कमजोरी अब भी बरकार है के बाद जब बहुत हिम्मत जुटाकर दोस्त के सो जाने पर अभी उसके लैपटॉप पर बैठा तो अचानक बहुत बड़ा झटका लगा। कठपिंगलजी पर क्लिक किया तो देखा ब्लॉग ही गायब है। यानि कठंपिंगलजी अब हमारे बीच नहीं रहे। इतनी रात गए जबकि मैं बिल्कुल बीमार और अकेला हूं( जागते हुए) , पढ़कर बहुत सदमा पहुंचा। मोहल्ला पर मेरी पोस्ट पढ़कर जब कठपिंगलजी ने मुझे साला कहा था तो मैंने उनके लिए बिलटउआ और अवतारी शब्द का प्रयोग किया था। बलटउआ यानि जिसको कोई बर्बाद न करे, बल्कि अपनी करतूतों से आप ही बर्बाद हो जाए।॥ और अवतारी वो जो किसी खास मकसद के लिए इस धरती पर मनुष्य रुप में अवतार लेते हैं और पूरी हो जाने पर विलीन हो जाते हैं। कठपिंगल ऐसे ही ब्लॉगर थे। कठंपिंगलजी को किसी ने बर्बाद नहीं किया बल्कि छिटपुट ढंग से इधर-उधर लकड़ी करने के बात खुद ही मनोबल खो बैठे और चल बसे। अवतारी तो इसलिए लिए कि उन्हें दो पोस्ट लिखनी थी- एक यशवंत पर और दूसरी अविनाश पर। उन दोनों पोस्टों से हम मनुष्यों को जो भी बताना-समझाना चाहते थे, हम समझ लिए उसके बाद वो आंख मूंद लिए। अभी तक इतना चमत्कारी ब्लॉगर मैंने नहीं देखा। गजब का ओज रहन भइया... भगवान ओके आत्मा को शांति दे। मेरी मां कहती है कि मरने के बाद आदमी देवता हो जाता है। उस हिसाब से धरती से ज्यादा मारामारी उपर है। ऐसे में उनको रहने लायक जगह-ठौर मिल जाए। मां ये भी कहती है कि जो मर जाए उसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए, सो मां की बात तो माननी ही पड़ेगी, कोई शिकायत नहीं। वैसे भी जो इस दुनिया में है ही नहीं, उससे शिकायत कैसी। लेकिन कठपिंगलजी, आपकी आत्मा को शांति मिले इसके लिए मैं दो-तीन काम कर रहा हूं। एक तो ये कि मैं सारे ब्लॉग से अपनी सदस्यता समाप्त करता हूं। तकनीक के मामले में कच्चा हूं इसलिए कई बार कोशिश करने के बाद भी मैं अपना नाम हटा नहीं पाया और आपके साथ-साथ औऱ भी लोगों को घेरने का मौका मिल गया। ये जरुरी भी है क्योंकि कल को मेरे जिस गुरु ने बालात्कार करने की कोशिश की है, क्या पता उसमें उसके गलबइंया चेले का भी नाम न जुड़ जाए। कोर्ट-कचहरी से बहुत ड़रता हूं, शरीर से कमजोर आदमी हूं, दो ही दिन में टें बोल जाउँगा। बिना पीएच।डी किए मरना नहीं चाहता। गाइड से वादा कर चुका हूं। दूसरा कि मेरे लिखने की वजह से इससे पहले कि कनकलता का मामला कोई और मोड़ ले ले, विमर्श गाली-गलौज में बदल जाए, उसकी तकलीफों के उपर बौद्धिकता का मुल्लमा चढ़ जाए, मैं कनकलता के मामले को ब्लॉग के स्तर पर यहीं रोकता हूं। व्यक्तिगत स्तर पर जितना कर सकूंगा, आगे मेरा प्रयास जारी रहेगा। तीसरा कि आपने मेरी आंखें खोल दी। आप पहले ब्लॉगर मिले जिन्होंने खुले दिल से मेरी आलोचना की और बाद में इस परंपरा का विकास हुआ। बहुत कम लोग होते हैं जो ऐसा कर पाते हैं। लेकिन मरने के बाद भी एक शिकायत करुंगा कि आप कौन से अवतार थे, पता नहीं चल पाया। साहित्य का छात्र रहा हूं, इन सब चीजों पर आस्था न रहते हुए भी जानकारी के लिए छटपटाता रहता हूं। बिना पहचान के आप हमारे बीच रहे, ब्लॉग जगत में एक कलंक थोप गए। आपको तो फिर भी अवतारी जानकर कुछ नहीं बोले, सबके साथ ऐसे कैसे चलेगा। खैर, आप जहां भी रहें, सुखी रहें। भगवान आपकी आत्मा को शांति दे। कोशिश कीजिए कि जल्दी किसी योनि में पहचान सहित पैदा लें ताकि आलोचना का माहौल बना रहे। सिर्फ ध्यान रखिएगा कि गाली देनेवाली योनि में पैदा न ले लें। आपके अलावे किसी को कोई जबाब नहीं दे रहे हैं, काहे कि सब लोग अभी यहीं है, नाम सहित मौजूद हैं, इसलिए उनके साथ भावुक होने के बजाय तार्किक होने में भलाई है। राम नाम सत्य है राम नाम सत्य है राम नाम सत्य है राम नाम सत्य है राम नाम सत्य है.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/1e32f074/attachment.html From pratilipi.in at gmail.com Tue Jun 3 14:51:54 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Tue, 3 Jun 2008 14:51:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Announcement: Pratilipi 2 In-Reply-To: <435290ba0806030217p42a810c7w9475a35bf372b544@mail.gmail.com> References: <435290ba0806030217p42a810c7w9475a35bf372b544@mail.gmail.com> Message-ID: <435290ba0806030221i101d2a31qfdddf6cf719faa01@mail.gmail.com> मित्रों/ Friends प्रतिलिपि के प्रवेशांक ने पाठकों, लेखकों, प्रकाशकों, सरकारों को हिला के नहीं रख दिया. हमें ऐसी अपेक्षा नहीं थी. न ही इसने (ऑनलाइन) साहित्यिक पत्रकारिता के नए प्रतिमान तय कर दिए. ऐसी अपेक्षा भी हमें नहीं थी. हमारी साईट पर रोज़ पाँच सौ पाठक नहीं आए. अपेक्षा हमें इसकी भी नहीं थी. क्या हम कुछ अपेक्षा कर भी रहे थे? बस यही कि जो पाठक/लेखक इस अंक तक पहुँचें, वे इसे संजीदगी से लें और ज्यादातर ऐसा हुआ भी. अब दूसरे अंक का समय है. हमारा पूर्वानुमान था दूसरा अंक निकलना कठिन होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. * * Pratilipi's inaugural issue did not take readers, writers, publishers or governments by storm. We didn't expect that. It did not set new standards for (online) literary journalism. We didn't expect that either. It didn't have five hundred visitors a day and that too was not unexpected. Did we expect anything, then? Yes, we expected it to be enjoyed by readers/writers once they came to visit/read it. And they did. At least, most of them. Now it is time for the second issue. We anticipated it to be a tougher task than it turned out to be. * * * * *दूसरा अंक** / THE SECOND ISSUE* * * *Features* आन येदरलुण्ड की बारह कवितायें, स्ताफान स्यदरब्लुम की परिचयात्मक टिप्पणी के साथ Ann Jäderlund : 12 Poems Introduced by Staffan Soderblom विशेष - एक तिलस्मी उपाख्यान: वागीश शुक्ल / Vishesh – Ek Tilismi Upakhyaan : Wagish Shukla १८५७ के विद्रोह में दलितों की भूमिका पर बद्री नारायण / Badri Narayan on the Role of Dalits in the 1857 Revolt सेल्फ एंड द डैथ: रुस्तम (सिंह) / Self and the Death: Rustam (Singh) मलयज के पत्र: Malayj's Letters *Fiction* कृष्ण बलदेव वैद / Krishna Baldev Vaid सम्पूर्णा चटर्जी / Sampurna Chattarji तेजी ग्रोवर / Teji Grover सारा राय / Sara Rai संगीता गुन्देचा / Sangeeta Gundecha *कविता / Poetry* पुरुषोत्तम अग्रवाल/ Purushottam Agrawal मंगलेश डबराल / Mangalesh Dabral के.वी.के. मूर्ती / KVK Murthy शीन काफ़ निज़ाम/ Sheen Kaaf Nizam एच.एस.शिवप्रकाश / H.S. Shiva Prakash समीर रावल / Sameer Rawal विवेक नारायणन / Vivek Narayanan एनी ज़ैदी / Annie Zaidi *कथेत्तर/ Non-Fiction* के.एन.पणिक्कर के रंगमंच पर उदयन वाजपेयी /Udayan Vajpeyi on KN Panikkar's Theatre शेक्सपीयर, भारतीय पूर्वग्रहों और ए लुनेटिक इन माय हैड पर चंद्रहास चौधरी/ Chandrahas Choudhuri on Shakespeare, Indian prejudices and A Lunatic in My Head आन येदरलुण्ड को अनुवाद करने पर तेजी ग्रोवर / Teji Grover on Translating Ann Jäderlund *संपादक / Editors* गिरिराज किराडू / Giriraj Kiradoo राहुल सोनी / Rahul Soni *संपादक कला / Art Editor* शिव कुमार गाँधी / Shiv Kumar Gandhi http://pratilipi.in/ -- www.pratilipi.in ----Pratilipi is (for the time being) a completely non-commercial magazine running on the editors' investments and on the works of likeminded contributors. Pratilipi forbids itself nothing – except taking on a representational role on the web or catering to such expectations – and, hopefully, never will. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080603/d9ae34fa/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Pratilipi. IInd Issue.pdf Type: application/pdf Size: 73326 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080603/d9ae34fa/attachment-0001.pdf From ved1964 at gmail.com Thu Jun 5 08:01:30 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Thu, 5 Jun 2008 08:01:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: PRESS RELEASE: Third Adhiveshan of the Dalit Lekhak Sangh. In-Reply-To: <9d7ad1780806041928o46390024l3393976f4774b158@mail.gmail.com> References: <7ca650a20806020622m7ab15942s7583f2baaf2d01b9@mail.gmail.com> <9d7ad1780806041928o46390024l3393976f4774b158@mail.gmail.com> Message-ID: <3452482c0806041931n47f8e56emc94205643ff64e67@mail.gmail.com> प्रिय साथियो, इसके साथ दलित लेखक संघ के तीसरे अधिवेशन की संक्षिप्त रिपोर्ट है जो अखबारों के लिए तैयार की गई थी. कृपया अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँ. आपका, वेद प्रकाश ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/cc3f43a4/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: DSCN1892.JPG Type: image/jpeg Size: 423757 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/cc3f43a4/attachment-0002.jpe -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: DSCN1899.JPG Type: image/jpeg Size: 426807 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/cc3f43a4/attachment-0003.jpe From ved1964 at gmail.com Thu Jun 5 08:06:02 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Thu, 5 Jun 2008 08:06:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSy4KS/4KSk?= =?utf-8?b?IOCksuClh+CkluCklSDgpLjgpILgpJgg4KSV4KWHIOCkpOClgOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWHIOCkheCkp+Ckv+CkteClh+CktuCkqCDgpJXgpYAg4KS44KSC?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS34KS/4KSq4KWN4KSkIOCksOCkv+CkquCli+CksOCljQ==?= =?utf-8?b?4KSf?= Message-ID: <3452482c0806041936p4b0e3879ye1757893407d408b@mail.gmail.com> प्रिय साथियो, इसके साथ दलित लेखक संघ के तीसरे अधिवेशन की संक्षिप्त रिपोर्ट है जो अखबारों के लिए तैयार की गई थी. कृपया अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँ. आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/72184b31/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Press Release Adhiveshan 1.pdf Type: application/pdf Size: 796660 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/72184b31/attachment-0001.pdf From pratilipi.in at gmail.com Thu Jun 5 12:01:11 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Thu, 5 Jun 2008 12:01:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Announcement: Pratilipi 2 Message-ID: <435290ba0806042331s63d69f58h1b52910d347aef47@mail.gmail.com> मित्रों/ Friends प्रतिलिपि के प्रवेशांक ने पाठकों, लेखकों, प्रकाशकों, सरकारों को हिला के नहीं रख दिया. हमें ऐसी अपेक्षा नहीं थी. न ही इसने (ऑनलाइन) साहित्यिक पत्रकारिता के नए प्रतिमान तय कर दिए. ऐसी अपेक्षा भी हमें नहीं थी. हमारी साईट पर रोज़ पाँच सौ पाठक नहीं आए. अपेक्षा हमें इसकी भी नहीं थी. क्या हम कुछ अपेक्षा कर भी रहे थे? बस यही कि जो पाठक/लेखक इस अंक तक पहुँचें, वे इसे संजीदगी से लें और ज्यादातर ऐसा हुआ भी. अब दूसरे अंक का समय है. हमारा पूर्वानुमान था दूसरा अंक निकलना कठिन होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. * * Pratilipi's inaugural issue did not take readers, writers, publishers or governments by storm. We didn't expect that. It did not set new standards for (online) literary journalism. We didn't expect that either. It didn't have five hundred visitors a day and that too was not unexpected. Did we expect anything, then? Yes, we expected it to be enjoyed by readers/writers once they came to visit/read it. And they did. At least, most of them. Now it is time for the second issue. We anticipated it to be a tougher task than it turned out to be. * * * * *दूसरा अंक** / THE SECOND ISSUE* * * *Features* आन येदरलुण्ड की बारह कवितायें, स्ताफान स्यदरब्लुम की परिचयात्मक टिप्पणी के साथ Ann Jäderlund : 12 Poems Introduced by Staffan Soderblom विशेष - एक तिलस्मी उपाख्यान: वागीश शुक्ल / Vishesh – Ek Tilismi Upakhyaan : Wagish Shukla १८५७ के विद्रोह में दलितों की भूमिका पर बद्री नारायण / Badri Narayan on the Role of Dalits in the 1857 Revolt डैथ एंड द सेल्फ : रुस्तम (सिंह) / Death and the Self: Rustam (Singh) - Hide quoted text - मलयज के पत्र: Malayj's Letters *Fiction* कृष्ण बलदेव वैद / Krishna Baldev Vaid सम्पूर्णा चटर्जी / Sampurna Chattarji तेजी ग्रोवर / Teji Grover सारा राय / Sara Rai संगीता गुन्देचा / Sangeeta Gundecha *कविता / Poetry* पुरुषोत्तम अग्रवाल/ Purushottam Agrawal मंगलेश डबराल / Mangalesh Dabral के.वी.के. मूर्ती / KVK Murthy शीन काफ़ निज़ाम/ Sheen Kaaf Nizam एच.एस.शिवप्रकाश / H.S. Shiva Prakash समीर रावल / Sameer Rawal विवेक नारायणन / Vivek Narayanan एनी ज़ैदी / Annie Zaidi *कथेत्तर/ Non-Fiction* के.एन.पणिक्कर के रंगमंच पर उदयन वाजपेयी /Udayan Vajpeyi on KN Panikkar's Theatre शेक्सपीयर, भारतीय पूर्वग्रहों और ए लुनेटिक इन माय हैड पर चंद्रहास चौधरी/ Chandrahas Choudhuri on Shakespeare, Indian prejudices and A Lunatic in My Head आन येदरलुण्ड को अनुवाद करने पर तेजी ग्रोवर / Teji Grover on Translating Ann Jäderlund *संपादक / Editors* गिरिराज किराडू / Giriraj Kiradoo राहुल सोनी / Rahul Soni *संपादक कला / Art Editor* शिव कुमार गाँधी / Shiv Kumar Gandhi http://pratilipi.in/ -- www.pratilipi.in ----Pratilipi is (for the time being) a completely non-commercial magazine running on the editors' investments and on the works of likeminded contributors. Pratilipi forbids itself nothing – except taking on a representational role on the web or catering to such expectations – and, hopefully, never will. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 13471 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/0ac6be4f/attachment.bin From ravikant at sarai.net Thu Jun 5 15:07:45 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 5 Jun 2008 15:07:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCklOCksCDgpKbgpYfgpLYg4KS44KWHIOCkpuCksOCkrOCkpuCksC8=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktg==?= Message-ID: <200806051507.45418.ravikant@sarai.net> द्विभासी, द्वैमासिक पत्रिका प्रतिलिप से ही पुनचर्क्रित. और भी बहुत कुछ है यहाँ. http://pratilipi.in/?p=169 रविकान्त तिब्बत तिब्बत से आये हुए लामा घूमते रहते हैं आजकल मंत्र बुदबुदाते उनके खच्चरों के झुंड बगीचों में उतरते हैं गेंदे के पौधों को नहीं चरते गेंदे के एक फूल में कितने फूल होते हैं पापा ? तिब्बत में बरसात जब होती है तब हम किस मौसम में होते हैं ? तिब्बत में जब तीन बजते हैं तब हम किस समय में होते हैं ? तिब्बत में गेंदे के फूल होते हैं क्या पापा ? लामा शंख बजाते है पापा? पापा लामाओं को कंबल ओढ़ कर अंधेरे में तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है कभी ? जब लोग मर जाते हैं तब उनकी कब्रों के चारों ओर सिर झुका कर खड़े हो जाते हैं लामा वे मंत्र नहीं पढ़ते। वे फुसफुसाते हैं ….तिब्बत ..तिब्बत … तिब्बत - तिब्बत ….तिब्बत - तिब्बत - तिब्बत तिब्बत-तिब्बत .. ..तिब्बत ….. ….. तिब्बत -तिब्बत तिब्बत ……. और रोते रहते हैं रात-रात भर। क्या लामा हमारी तरह ही रोते हैं पापा ? कविता और देश से दरबदर 1. यह बात आज से कई साल पुरानी है। आप में से कई लोगों का जन्म भी तब तक नहीं हुआ होगा। आज के कई चर्चित और प्रतिष्ठित लेखक-लेखिकाओं का भी जन्म नहीं हुआ होगा। मेरा जन्म मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से गांव सीतापुर में सन् 1952 में हुआ था। तब तक हमारे यहां बिजली नहीं आई थी। हमारा घर बहुत पुराना था और नदी के ठीक तट पर बना हुआ था। तट मतलब यह कि जब नदी में बाढ़ आती थी तो हमारी रसोई तक पहुंच जाती थी। तब तक नदी में पुल नहीं बना था। पेड़ के मोटे तने को खो खला करके उसे नाव की तरह, बांस की लंबी डांग से ठेलते हुए चलाते थे। इसे `डोंडा़´ या `डोंगा´ कहते थे। जब नदी में बाढ़ अधिक होती और नदी की धार बहुत गहरी और तेज़ हो जाती, तो काठ की यह नाव नहीं चलती थी। क्योंकि बांस की डांग उतनी लंबी नहीं होती थी कि धार की गहराई की थाह ले सके और नाव को आगे ठेल सके। उस समय तक गांव में बिजली नहीं थी। लालटेनें, दिये, ढिबरियां जलती थीं। मैंने खुद भी लि खना-पढ़ना, चित्र आदि बनाना बिना बल्ब और बिजली के सीखा है। बल्कि आज तक मुझे लालटेनें और ढिबरियां अच्छी लगती हैं। हालांकि इस उम्र में और शहरों में इतने वर्षो से रहने के बाद उनकी रो शनी में अब कुछ लिख-पढ़ पाना संभव नहीं होता। दियों को मैं दीवाली और पूजा-त्यौहार के अलावा कभी पसंद नहीं कर पाया क्योंकि उनकी रुई की बाती को बार-बार बढ़ाना पड़ता है, ऐसे में उंगलियों में तेल लग जाता है और अगर आप कागज पर लिख रहे हैं या कोई किताब पढ़ रहे हैं, तो वे तेल के धब्बे हमेशा के लिए वहां आ जाते हैं। जो बात मैं `तिब्बत´ के बारे में आपको बता रहा हूं, वह इसके बहुत बाद की है। तब तक हालांकि बि जली हमारे गांव में नहीं आई थी, लेकिन बैटरी से चलने वाला रेडियो आ गया था। अंग्रेजी के नौ के अंक के भीतर से एक छलांग मारती लंबोतरी-सी बिल्ली उस रेडियो की बैटरी पर होती थी। अगर उस समय मैं यह जानता कि इस बैटरी को बनाने वाली कम्पनी वही हैं , जिसने कई साल बाद १९८४ में भोपाल में एक ज़हरीली गैस से कई हज़ार लोगो को मार डाला , तो मैं उस बैटरी ही नही रेडियो से भी डरने लगता. लेकिन तब तक मुझे यह पता नही था. रेडियो में गाने और उसके भीतर से लोगों को बोलते हुए सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं कई बार रेडियो के भीतर झांक कर देखने की कोशिश करता कि वे लोग बाजा कहां पर खड़े होकर बजाते हैं और कहां से बोलते हैं। क्योंकि आवाज़ ठीक उस रेडियो के अंदर से ही आती थी। कहीं और से आती हुई बिल्कुल भी नहीं लगती थी। कोई सितार या बांसुरी बजती तो लगता इसी जगह से वह आवाज़ पैदा हुई है। बिल्कुल साफ़। धातु के तारों की आकि स्मक झनझनाहट और बांस की नली के भीतर से गुज़रती सांस की स्पष्ट सरसराहट के साथ। अगर मैं आपसे कहूं कि एक बार मैंने देर रात गये, रेडियो के अंदर, उसके भीतर के असंख्य नन्हें-नन्हें यंत्रों की नीली-लाल, हरी-पीली कई रंगों की धुंधली रहस्यपूर्ण रोशनी में बिल्कुल छोटे-छोटे, पुतलियों जैसे लोगों को एक वृत्त में खड़े होकर कई तरह के साज़ बजाते और धीरे-धीरे झूमते और गाते हुए देखा था, तो क्या आप इसे मानेंगे ? आप कहेंगे कि मैं वहीं रेडियो के पास सो गया होऊंगा और नींद में ऐसा देख लिया होगा। बचपन में घटने वाली ऐसी किसी भी घटना को कोई भी दूसरा वयस्क बाद में नहीं मानता। नेरुदा का संस्मरण आपने पढ़ा होगा, जब बचपन में उसके सिर के ऊपर से, उसकी मां द्वारा बुनी गई हरे रंग की ऊनी टोपी आंधी में उड़ गई थी और नेरुदा ने देखा था कि वह टोपी हरे रंग का तोता बन कर तोतों के झुंड में शामिल हो गई थी। उसने जब अपनी मां से इस घटना के बारे में बताया, तो मां ने उस पर विश्वास नहीं किया। आपमें से अगर किसी ने मेरी एक कहानी `डिबिया´ पढ़ी हो तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे साथ, मेरे बचपन में ऐसी कितनी घटनाएं घटी हैं। `अरेबा-परेबा´ कहानी भी ऐसी ही बचपन की एक घटना के बारे में है। यह सचमुच गहरे अकेलेपन, असहायता और पराजय का क्षण होता है, जब आप पाते हैं कि आपके साथ घटे किसी सच का न तो कोई गवाह है, न कोई उस पर विश्वास कर रहा है। फिर सबसे बड़ी और पीड़ादायक स्थिति यह कि संसार के ज्ञान-विज्ञान के जितने भी प्रामाणिक और विश्वसनीय तरीके हैं, उनके द्वारा आप अपने उस सच को प्रमाणित भी नहीं कर सकते। मेरे साथ तो एक निजी समस्या यह भी है कि कई बार मैं स्वयं ही उलझन में पड़ जाता हूं कि अभी-अभी जो कुछ हुआ और जो कुछ हो रहा है, वह सच है या कोई स्वप्न। `तिरिछ´ के पिताजी और बाद में उसके नैरेटर के साथ, या `पीली छतरी वाली लड़की´ की वह घटना जब छतरी तितली में बदल जाती है, या फिर `वारेन हेस्टिंग्स का सांड´ में चोखी और हेस्टिंग्स के बीच का पहला प्रसंग ही नहीं, उस पूरे आख्यान में यहां से वहां तक फैला असमंजस, एक तरह का विभ्रम। अगर आप ध्यान दें तो मेरी हर कहानी में मिथ्या और सत्य, कल्पना और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता, अतीत और भविष्य सब आपस में एक दूसरे में घुले मि ले रहते हैं। इस हद तक कि उन्हें ठीक-ठीक से पहचान कर अलग कर पाना संभव नहीं लगता। स्वयं मेरे लिए भी . मैं ऐसी कोई कहानी पढ़ भी नहीं पाता जिसमें कोई स्वप्न और विभ्रम न हो। हो सकता है बचपन से गांव में सुनी गई कहानियों-किस्सों और रामायण-महाभारत से लेकर कई ग्रंथों और बाद में पढ़े गये बहुत से श्रेष्ठ उपन्यासों-कथाओं और देखे गये सिनेमा का असर हो। तिब्बत के साथ भी मेरा एक ऐसा ही बिल्कुल निजी प्रसंग और संबंध है। `तिब्बत´ कविता जब मैंने 1977-78 में लिखी, तो वह बचपन की एक ऐसी ही घटना से जुड़ी हुई थी। From vineetdu at gmail.com Fri Jun 6 12:32:21 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 6 Jun 2008 12:32:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSh4KSu4KWA?= =?utf-8?b?4KS24KSoIOCksuClh+CkqOCkviDgpKzgpL7gpKYg4KSu4KWH4KSCLCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWHIOCkleCkqOClh+CkleCljeCktuCkqCDgpLLgpYcg?= =?utf-8?b?4KSy4KWL?= Message-ID: <829019b0806060002qbca9b88q48a70ef3efb7ebea@mail.gmail.com> वोडाफोन का हचपपी लोगों की मदद करके हैप्पी टू हेल्प होता है। बच्ची की टाई छूटने पर पहुंचाकर, थूक से डाक टिकट छिपकाकर वो लोगों की खूब मदद करता है। हैप्पी उसके संस्कार में है औऱ यही संस्कार आजकल आपको डीयू कैंपस में देखने को मिल जाएंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमीशन फीवर शुरु हो गया है। कैंपस में हूं इसलिए इसका सीधा असर देख और समझ पाता हूं. हर कॉलेज के आगे बड़े-बड़े स्टॉल लगे हैं। इंस्टीट्यूट के, कोल्डड्रिंक के औऱ सबसे ज्यादा मोबाईल कंपनियों के। हर दस कदम पर आपको किसी न किसी चैनल या अखबार के लोग घूमते-खोजते और परेशान होते दिख जाएंगे। जो जहां से है उसकी टीशर्ट पर कुछ न कुछ लिखा है। औऱ सबके उपर एक वाक्य लिखा है- मे आई हेल्प यू। वोडाफोनवालों की टीशर्ट पर हचपपी बना है और लिखा है हैप्पी टू हेल्प। इन दिनों डीयू कैंपस हेल्पिंग कल्चर में जी रहा है। हर पांच कदम पर आपको कोई न कोई हेल्प करने के लिए तैयार खड़ा है। हैल्प करने के लिए लोगों को इतना बेताब होते पहले कभी नहीं देखा। कल अपने गाइड से मिलने गया था. चार-पांच दिनों से कहीं चलना-फिरना हुआ नहीं था सो सोचा, पैदल ही मार लूं। दस दूना बीस रुपये की आमदनी भी हो जाएगी। हॉस्टल से सर के पास तक पहुंचने में पांच कंपनियों की मदद का शिकार हो गया। उनके स्टॉल से गुजरता तो उन्हें लगता कि वो हमारी तरफ ही आ रहे हैं और फिर एक ही सवाल पूछते कि आर यू स्टूडेंट सर औऱ फिर शुरु हो जाते. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि मैं इधर क्यों आया हूं, क्या काम है, जल्दी में हूं,रुकने का मन नहीं कर रहा। स्टूडेंट हूं तो भी मुझे एडमीशन नहीं लेने हैं,ये सब कुछ भी जानना नहीं चाह रहे हैं। सीधा यह कि सर दिस इज स्पेशली फॉर कैंपस पीपुल। ये स्टूडेंट ऑफर है सर। औऱ फिर बताने लग जाते कि क्या-क्या फायदे हैं इस स्कीम को ले लेने से। कोई इंस्टीट्यूट वाले मिल जाएंगे और फिर एमबीए के पैकेज,मैनेजमेंट के पैकेज और ऑफर आदि की बात करने लग जाएंगे। आपसे ये भी नहीं जानना चाहेंगे कि आप किस चीज की पढाई कर रहे हो औऱ ये आपके काम का है भी कि नहीं। आप कुछ बोलेंगे इसके पहले कि वो आपको ढेर सारे ब्राउसर पकड़ा देंगे, या तो उसे आप पढ़िए या फिर सड़कों पर फेंक दीजिए, इससे उनको कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वो मशीन की तरह मूढ़ होकर आपको थमाते चले जाएंगे। कई बार तो एक ही संस्थान या कंपनी के लोग इतनी नजदीकी पर स्टॉल लगाते हैं कि रास्ते में जाते हुए आपको कई बार एक ही सामग्री बार-बार मिल जाएगी। मैं उसे बर्बाद नहीं करना चाहता इसलिए हाथ में ही रखता हूं और दोबारा देने पर कहता हूं- नहीं है मेरे पास। कुछ तो मुस्करा देते हैं लेकिन कुछ कहते हैं, कोई बात नहीं सर, दोस्तों को दे दीजिएगा। शाम को पांच से छः के बीच अगर आप कैंपस से गुजरते हैं तो आपको कॉलेजों के आसपास की जमीन दिखायी नहीं देगी, वहां पोस्टरों का अंबार लगा होता है। ब्राउसर फैले होते हैं जिसे कि हम और आप जैसे लोग पढ़कर या फिर बिन पढ़े फेंक देते हैं। ऐसी स्थिति यहां डूसू चुनाव के समय होती है, जब गाडियों पर चढ़कर लोग अपनी पार्टी या फिर प्रत्याशी की पोस्टरें अंधाधुन उड़ाते हैं। थोड़ी देर के लिए अगर आप सड़कों पर फैले इन पोस्टरों पर गौर करेंगे तो आपको एहसास हो जाएगा कि ये पोस्टर और संस्थानों के ब्राउसर लोगों को जानकारी देने के लिए नहीं छापे जाते बल्कि शक्ति प्रदर्शन के लिए बांटे जाते हैं, फैलाए जाते हैं। आपको इन कंपनियों और संस्थानों पर भरोसा होने लग जाए कि जब ये लाखों रुपये पोस्टरों पर खर्च कर देती है तो फिर इसकी हैसियत कितनी होगी। संस्थानों के प्रति आपका भरोसा बढ़ता है. दूसरी तरफ एक कंपनी के मुकाबले जब दूसरी कंपनी दुगने स्तर से पोस्टरें बांटना शुरु करती है तो सारा मामला बाजार की प्रतिस्पर्धा में बदल जाती है. आपको लगने लग जाएगा कि दिन में किस तरह का एक बर्बर माहौल बना होगा। लोग मदद करने की आपाधापी में, पोस्टरें बांटने की होड़ मचाए होंगे। अपनी कंपनी को सामने वाली कंपनी से बेहतर दिखाने की मारकाट शैली विकसित हुई होगी। इस पूरे सीन में सूचना के लिए पोस्टर और मदद के लिए हेल्प और मदद करने पर खुश होनेवाले संस्कार गायब होते जाते होंगे, इन सबका अंदाजा आप सिर्फ शाम को कॉलेज के आगे बिखरे पोस्टरों के ढेर से लगा सकते हैं। ये पोस्टर जो कि सुबह के लिए सबसे बड़ी सूचना बनने की दौड में थे शाम को सूचनाविहीन कूड़े के ढेर में तब्दील हो गए हैं। आप इसे लेट कैपिटलिज्म का कचरा कह सकते हैं जो दूसरों की मदद के लिए बेताब तो है लेकिन शाम तक खुद ही लाचार हो जाते हैं,अर्थहीन हो जाते हैं,कुछ-कुछ पोस्टरों की तरह, ब्राउसर के माफिक।.। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 10248 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080606/7c327966/attachment.bin From ravikant at sarai.net Fri Jun 6 14:39:25 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 6 Jun 2008 14:39:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSh4KSu4KWA?= =?utf-8?b?4KS24KSoIOCksuClh+CkqOCkviDgpKzgpL7gpKYg4KSu4KWH4KSCICwg4KSq?= =?utf-8?b?4KS54KSy4KWHIOCkleCkqOClh+CkleCljeCktuCkqCDgpLLgpYcg4KSy4KWL?= In-Reply-To: <829019b0806060002qbca9b88q48a70ef3efb7ebea@mail.gmail.com> References: <829019b0806060002qbca9b88q48a70ef3efb7ebea@mail.gmail.com> Message-ID: <200806061439.25417.ravikant@sarai.net> बहुत अच्छे विनीत. मैंने भी दो-तीन दिन पहले पटेल चेस्ट से गुज़रते हुए मददगारों का रंग-बिरंगा हुजूम देखा था. और पर्चों, ब्रोशरों की बात पर याद आता है कि दिल्ली विवि छात्र संघ के चुनावों में चूँकि उनकी तादाद/मात्रा पर एक हद तक पाबंदी है - लिंगदो आयोग के बाद, जिसे बड़े-बड़े छात्र मोर्चे बज़ाहिर नापसंद करते हैं - तो पूंजीवादी कचरे का यह कुत्सित बाज़ार विडंबना की नई तह लेकर आता है. मुझे सिर्फ़ एक फ़ायदा यही नज़र आता है कि छोटे-बड़े छात्र संगठन अब थोड़ा चैन की साँस ले सकते हैं क्योंकि प्रवेश में मदद हेतु पूरा बाज़ार हाज़िर है! अगर वे बेरोज़गार महसूस करते हैं तो मुद्दा हाज़िर है, अगर हम पर्चे नहीं बाँट सकते तो इन्हें क्यों बाँटने दिया जा रहा है? रविकान्त शुक्रवार 06 जून 2008 12:32 को, vineet kumar ने लिखा था: > वोडाफोन का हचपपी लोगों की मदद करके हैप्पी टू हेल्प होता है। बच्ची की टाई > छूटने पर पहुंचाकर, थूक से डाक टिकट छिपकाकर वो लोगों की खूब मदद करता है। > हैप्पी उसके संस्कार में है औऱ यही संस्कार आजकल आपको डीयू कैंपस में देखने को > मिल जाएंगे। > दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमीशन फीवर शुरु हो गया है। From vineetdu at gmail.com Sat Jun 7 02:50:23 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 7 Jun 2008 02:50:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSo4KSV4KSy?= =?utf-8?b?4KSk4KS+LCDgpLngpK4g4KSk4KWB4KSu4KWN4KS54KS+4KSw4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSlIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <829019b0806061420w27c52e7ah2a06e01e737b626d@mail.gmail.com> हम कनकलता के साथ नहीं हैं। इस बात की जानकारी अभी हमें दो घंटे पहले मिली। जुबां पे सच, दिल में इंडिया रखनेवाले चैनल ने बताया कि यूनिवर्सिटी के किसी भी स्टूडेंट ने कनकलता का साथ नहीं दिया। जिसमें हम सब भी शामिल हैं। पहले तो व्आइस ओवर में बताया गया कि इस पूरे मामले में यूनिवर्सिटी का कोई भी स्टूडेंट खुलकर सामने नहीं आया। उसके बाद लगातार फ्लैश चलाया गया कि युनिवर्सिटी के किसी भी स्टूडेंट ने साथ नहीं दिया। ब्लॉग की खबर से अगर इस खबर को जोड़कर देखें तो यह एक बड़ा अन्तर्विरोध है। २९ मई को अपूर्वानंद सर ने मोहल्ला पर लिखा- *आपको यह सूचना देना आवश्यक है कि कनक और उसके भाई-बहनों ने इस अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई छोड़ी नहीं है। कि उनके माता पिता ने उन्हें समझौते की आसान राह पकड़ने का उपदेश नहीं दिया है। कि उनके साथ विनीत, मीनाक्षी, मुन्ना जैसे उनके मित्र खड़े हैं, जो दलित नहीं हैं, लेकिन ख़ुद को इस लड़ाई के लिए जिम्मेदार समझते हैं। कनकलता एक छात्रा है! एक दलित है! एक नागरिक है! * इस पर टिप्पणी देते हुए अरुण आदित्य ने लिखा- Arun Aditya said... *विनीत, मुन्ना और मीनाक्षी बधाई के पात्र हैं। सब को इनका हौसला बढ़ाना चाहिए। अपूर्वानंद जी को भी एक सही मुद्दा उठाने के लिए साधुवाद।* २९ मई को अपूर्वानंद सर ने मोहल्ला पर जो पोस्ट लिखी है, दरअसल वो जनसत्ता के बिलंबित में आए लेख का ब्लॉग प्रस्तुति है। उस लेख भी उन्होंने इसी बात को दोहराया कि कई मित्र उनेके साथ खड़े हैं जो दलित नही हैं। ये अलग बात है कि वहां किसी का नाम नहीं लिया गया. उसके बाद कनकलता को लेकर कुछ मीटिंग रखी गयी जिसमें डीयू के कुछ स्टूडेंट अपनी इच्छा और मानवीयता के स्तर पर उसमें शामिल हुए और पिछले महीने भर से किसी न किसी रुप में उसके साथ रहे। उसकी बातों को लिखते रहे, उठाते रहे। इस संबंध में जो कुछ भी लिखा गया सब मोहल्लाऔर गाहे बगाहे पर मौजूद है। लोग लगातार अपने कमेंट्स से डीयू के इन छात्रों का हौसला बढ़ाते रहे और आगे कारवाई करने के लिए प्रेरित करते रहे। इसी क्रम में रवीश कुमार ने मोहल्ला पर एक पोस्ट लिखी -कनकलता, बीमार लोगों की है ये दिल्‍ली! औऱ उसमें कनकलता को व्यावहारिक सलाह भी दिया कि- *दिल्ली विश्वविद्यालय में बराबरी के लिए संघर्षरत युवाओं को बुलाया जाए। कहा जाए कि अब ज़रा लड़ो तुम। वो नहीं आएंगे। वो आज कल न्यूज़ चैनलों में ईमेल करने लगे हैं। वो जान गये हैं कि किनके लिए कौन आता है।* रवीश सर की इस बात से मुझे गहरी असहमति हुई और मैंने तुरंत लिखा कि- विनीत कुमार said... *अपने सामान को उसी छत पर रहने दो। सड़ जाने दो उसे, उनकी सोच के साथ साथ। कपड़े, बर्तन, किताबें और कुछ यादें। इनकी कोई ज़रूरत नहीं।...ऐसा करना जरुरी है।लेकिन, इसी विश्वविद्यालय में कुछ ऐसे लोग भी हैं सर जो चैनलों में ईमेल करने की आदत से मुक्त हैं,कुछ, करना जरुरी भी नहीं समझते और जाहिर तौर पर वो कनकलता के साथ हैं।* ब्लॉग पर कनकलता के बारे में लगातार लिखा जाता रहा। कमेंट्स करके लोग उसके साथ जुड़ते चले गए। कई लोगों ने उससे, हम डीयू के लोगों से सम्पर्क करना शुरु कर दिया। अभी भी मेल और फोन लगातार आ रहे हैं। और इधर डीयू के छात्र अपने स्तर से जो कुछ भी कर सकते थे करने लगे थे। कम से कम लोगों को बताने लगे थे औऱ माहौल बनने लगा था कि आगे कुछ ठोस कारवाई करनी है। इस मामले में विभाग के रीडर अपूर्वानंद सर बड़ी गंभीरता से, बड़ी तेजी से काम करने लग गए जिसका असर हमें साफ दिखने लगा है। हमलोगों को भरोसा होने लगा जो कि अब और अधिक मजबूत होता जा रहा है कि कनकलता को उसका अधिकार मिलेगा। ग्रोवर परिवार ने जिस तरह से उसके साथ किया है, हमसब उसे सजा दिलाने में कामयाब होंगे। लेकिन आज जब मैंने एनडीवी इंडिया के स्पेशल रिपोर्ट में जो कि कनकलता के उपर थी देखा तो सन्न रह गया। पहले तो रिपोर्टर द्वारा ये कहा गया कि- डीयू के कोई भी स्टूडेंट कनकलता के मामले में खुलकर सामने नहीं आए। फिर लगातार फ्लैश चलाया गया कि यूनिवर्सिटी के किसी स्टूडेंट ने साथ नहींम दिया। मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा था कि खुलकर सामने आना क्या होता है। अगर इसका मतलब नारेबाजी करना और सड़क जाम करना है तो हां सचमुच में ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया। लेकिन अपने-अपने स्तर से जितने भी स्टूडेंट थे वो काम कर रहे थे। अपने रिसर्च के काम को छोड़कर कनकलता के साथ थे, अपना खर्चा चलाने के लिए रिकॉर्डिंग का काम रोककर कनकलता के साथ थे, घर न जाकर कनकलता के साथ थे, घटना के जानने पर दिन में दो बार फोन करके पूछनेवाले लोग साथ थे कि हमें क्या करना है। लेकिन आज, ये सबके सब कनकलता के साथ नहीं हैं। ऐसा हम नहीं कहते बल्कि जुबां पे सच औऱ दिल में इंडिया रखनेवाले लोग कहते हैं। मुझे पता है देश की जनता इस नेशनल चैनल को ज्यादा सच मानेगी क्योंकि इसके पास संसाधनों की ताकत है, ज्यादा लोगों तक इसकी पहुंच है। ब्लॉग तो हिन्दी समाज ने अभी-अभी सुनना ही शुरु किया है। लेकिन ये बात मन को बहुत कचोटती है कि आंख के सामने की सारी घटना को, जिसके एक-एक स्टेप को हमने देखा, चैनल उसे कैसे नाटकीय औऱ गैरजिम्मेदाराना तरीके से दिखाया। इसी चैनल के कितनी सुध ली थी कनकलता की, लोग जानते हैं। रिपोर्टर ने खुद कहा कि एक महीने बाद हम वहां पहुंचे। अब कोई सवाल करे कि एक महीने क्यों, पहले क्यों नहीं। है कोई जबाब इनके पास। इन्हें तो घटना के तुरंत बाद फॉलो अप करना चाहिए था। लेकिन आज ये दोष एक ही साथ कई लोगों पर मढ़ रहे हैं। आज कनकलता के साथ वो लोग हैं जो कल तक इसे परिवार का मामला बताकर पल्ला झाड़ ले रहे थे। आज डूसू की अध्यक्ष अमृता बाहरी है जो मीडिया के साथ पहुंचने पर कनकलता को मदद करने के लिए एक्टिव हो जाती है। जो तुरंत फोन लगाती है कि सर, एक छोटा-सा काम है, एक एम्।फिल। की स्टूडेंट को हॉस्टल से बाहर निकाल दिया गया है। उसे भले ही पता नहीं हो कि कनकलता को हॉस्टल से नहीं बल्कि मकान-मालिक ने जातीय आधार पर पीटा है और मारकर बाहर निकाला है। लेकिन कोई बात नहीं उसके लिए छोटा काम ही है और आश्वासन भी है कि हो जाएगा। उसके साथ वो लोग हैं जो कल तक कौन झंझट में पड़े बोलकर, तमाशा देखकर वापस लौट आए थे। उसके साथ आज वो लोग हैं जो छात्र अधिकारों के लिए लड़ने के वाबजूद भी दलित एंगिल होने की वजह से लौट आए थे। उसके साथ वो लोग है जो नियमित रुप से विवेकानंद की मूर्ति के पास बैठते हैं, मुद्दों की तलाश में रहते हैं। लेकिन इस फिसले मुद्दे में पिछड़ जाने पर भी आज साथ हैं। आज उसके साथ वोलोग भी शामिल हैं जो अपने समाज का पोस्टर बंटबाते फिरते हैं। आज कनकलता अकेली नहीं है। अकेली तो तब भी नहीं थी,जब वो अकेली महसूस कर रही थी। तब भी डीयू के स्टूडेंट उसका हौसला बढा रहे थे, अपने साथ होने का विश्वास दिला रहे थे। ये अलग बात है कि वो स्टूडेंट थे, भावुक, संवेदनशील और वादों के घेरों से मुक्त। जिसे सिर्फ इतना लगा था हमारी दोस्त, हमारी सहपाठी और हमारी यूनिवर्सिटी की लड़की के साथ ऐसा हुआ है औऱ हमें चुप नहीं रहना है। वो बाइट के देने के लिए, अपना नाम चमकाने के लिए परेशान सो कॉल्ड प्रैक्टिकल लोग नहीं थे। इन सबके बीच प्रतिबद्ध अपूर्वानंद सर हैं, ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ता संजीव हैं जो कि घटना के दिन भी धरने पर बैठने के लिए तैयार थे और जिन्हें इस पर हल के बजाए अपना नाम चमकानेवाले लोगों ने मना कर दिया था। इनके असर से मौके पर उग आए लोगों का असर जरुर कम होगा। एनडीटीवी की इस घोषणा के बाद भी कि युनिवर्सिटी के वो भावुक छात्र औ रिसर्चर हैं जो कनकलता को आनेवाले समय में दलित स्कॉलर, सोशल एक्टिविस्ट और दूसरों के लिए तत्पर व्यकित्व के रुप में देखना चाहते हैं। औऱ निश्चित रुप से मीडिया भी जो अगली बार तरीके से होमवर्क करके आएगी। कनकलता को अब अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी संघर्ष शुरु कर देनी चाहिए क्योंकि उसे तो न्याय मिलना तय ही है...अब देश की हजारों-हजार कनकलता के लिए काम करना जरुरी है। और अंत में मौके पर उग आए, बाइट देने के लिए बेताब भाईयों से अपील है कि अगर आप मामले को तरीके से नहीं जानते तो उस पर चुप ही मार जाइए। बात हो रही है कनकलता के साथ हुए दुर्व्यवहार की और आप मार झोंके जा रहे हैं, एकता, मिली-जुली संस्कृति, पता नहीं क्या-क्या वैल्यू लोडेड शब्द। अगर आप सचमुच चाहते हैं कि ऐसी घटनाएं न दोहरायी जाए तो बेहतर होगा एक मेधावी छात्रा के पीडित छात्रा के रुप में पहचान बदल जाने के पहले से सक्रिय हो जाएं। सेंकने के लिए और भी मुद्दे मिल जाएंगे। यहां वक्श दीजिए प्लीज।।. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 18815 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080607/a6c3e9bc/attachment-0001.bin From confirmations at emailenfuego.net Sat Jun 7 11:15:57 2008 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Sat, 7 Jun 2008 00:45:57 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkruCli+CkueCksuCljeCksuCkvg==?= Message-ID: <838251.376021212817557828.JavaMail.rsspp@fb1.feedburner.com> Hello there, You recently requested an email subscription to मोहल्ला. 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Name: media scan may final.pdf Type: application/pdf Size: 323408 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080605/a1c80c91/attachment-0001.pdf From ravikant at sarai.net Sat Jun 7 14:53:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jun 2008 14:53:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWB4KSV4KS1?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSuIOCkleCkviDgpJzgpL7gpKjgpL4=?= Message-ID: <200806071453.26750.ravikant@sarai.net> शुक्रिया अरविंद दास, बीबीसी हिन्दी से साभार. इस तरह कई रपटें अग्रेज़ी अख़बारों में भी आई हैं. बुकवर्म किस ख़ास वजह से बंद हो रहा है, इसके क्या ख़ास कारण हो सकते हैं शायद हम नहीं जान पाएँगे. अगर वे डिस्काउंट नहीं देते थे, तो ग़लती करते थे, उन्हें देना चाहिए था - वे नहीं देते थे, इसलिए हम उनके पास एक ही बार गए थे. अब आप सोचिए कि हर प्रकाशक किसी भी वितरक को 40-45 % तक छूट देता है. लेकिन कोई ग्राहक सीधे दुकान पर पहुँचे तो उसे इसमें से कोई छूट नहीं मिले, यह सरासर अन्याय नहीं तो क्या है. यानी कोई किताब अगर मैं वितरक या किसी खुदरा दुकान से लूँ तो मुझे छूट मिल जाएगी पर वक़्त निकाल कर अपना तेल जलाकर पहुँचने पर नहीं! हमेँ किताबें तो कहीं और से मिल ही जाया करती थीँ - उनमें ऐसे कौन से सुर्ख़ाब के पर लगे थे? अगर अरुंधती राय की किताब नक़ली संस्करणों में फ़ुटपाथ पर मिल रही है, तो ये तो ग्राहक और लेखक दोनों के लिए ख़ुशी की बात है, मातम की नहीं. हाँ किताबों की दुकानों से हमारा ज़रूर भावनात्मक रिश्ता बन जाता है, जो मैं समझ सकता हूँ. रविकान्त किताबों में घटती रुचि अरविंद दास, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, दिल्ली से http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2008/06/080606_bookworm_demise.shtml दिल्ली के कनाट प्लेस में स्थित किताब की चर्चित दुकान 'बुकवर्म' की अकाल मौत हो रही है. तीस वर्ष पुराने इस किताबघर में सत्यजीत राय, अमिताभ घोष, सुनील गावस्कर और प्रकाश करात जैसी शख़्सियतें और देश-विदेश के किताबी कीड़े आते रहे हैं. दिल्ली में इस दुकान की एक ख़ास पहचान रही है. जैसे छोटे शहरों और क़स्बों की दुकानों से आपका एक निजी रिश्ता रहता है उसी तरह ग्राहकों के साथ इस दुकान का भी एक निजी संबंध रहा है. ऐसा नहीं कि कनॉट प्लेस में किताबों की और दुकानें नहीं हैं, पर साहित्य, कला, संस्कृति और अकादमि क जगत की किताबों का जैसा संग्रह यहाँ मिलता था वैसा दिल्ली में अब इक्की-दुक्की दुकानों पर ही मिलता है. दिल्ली और इसके आस-पास हाल के वर्षों में 'मॉल संस्कृति' ख़ूब पनपी है जहाँ किताब की दुकानें भी काफ़ी नज़र आने लगी हैं. पहले की तुलना में हाल के वर्षों में लोगों की रुचि इन किताबों में नहीं रही. अब उतना फ़ायदा नहीं होता जितना होना चाहिए. साथ ही बाज़ार में नकली और सस्ती किताबें मौजूद है, फिर क्यों कोई अपना पैसा बर्बाद करेगा लेकिन मॉल में वही किताबें मिलती है जिनकी बिक्री से बहुत फ़ायदा हो या जिन्हें लेकर मीडिया में काफ़ी चर्चा हो रही हो. वहाँ कॉफ़ी टेबल' को सजाने वाली किताबें आसानी से मिल जाती हैं पर अकादमिक रुचि या साहित्य की किसी दुर्लभ किताब को ढूँढ़ना बेहद मुश्किल है. ऐसे में इस किताबघर का बंद होना मायूस करता है. मायूस बुकवर्म के मालिक अनिल अरोड़ा भी हैं. अपने पुस्तक प्रेम के कारण इन्होंने अपने पुश्तैनी शराब के व्यवसाय को छोड़ कर किताबों के बीच अपनी जवानी गुज़ारी. लेकिन वे कहते हैं कि अब बहुत हो गया, कुछ भी करुँगा किताब का व्यवसाय नहीं करुँगा. वे कहते हैं, "पहले की तुलना में हाल के वर्षों में लोगों की रुचि इन किताबों में नहीं रही. अब उतना फ़ायदा नहीं होता जितना होना चाहिए. साथ ही बाज़ार में नकली और सस्ती किताबें मौ जूद है, फिर क्यों कोई अपना पैसा बर्बाद करेगा." उनका कहना ग़लत भी नहीं है. अरुंधति राय की 'द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स' की क़ीमत दुकान में क़रीब तीन सौ रुपए है. दुकान के ठीक बाहर फ़ुटपाथ पर मोल-भाव करने पर वही 'नक़ली किताब' सौ रुपए में मिल रही है. अनिल कहते हैं कि मॉल में बड़े व्यावसायियों की दुकानों में किताबों की बिक्री हो न हो उन्हें बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन उन जैसे स्वतंत्र दुकानदारों को इससे बहुत फ़र्क़ पड़ता है. दिल्ली भले ही राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हो लेकिन यह साहित्य-संस्कृति की भी नगरी है. ऐसे में बुकवर्म का जाना हमारे समय में शहर की बदल रही संस्कृति पर भी एक टिप्पणी है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पिछले तीस वर्षों से किताब की दुकान चलाने वाले अशोक मजुमदार कहते हैं, "अब छात्रों और यहाँ तक की शिक्षकों में भी पुस्तकों को लेकर वह उत्सुकता और उत्कंठा नहीं दिखती जो 10-20 वर्ष पहले तक थी." कमी खलेगी दो तल्लों में फैली बुकवर्म में मौजूद क़रीब 20 हज़ार किताबों पर आज-कल भारी छूट है. इससे पहले इस दुकान में ऐसा कभी नहीं हुआ. छपे हुए दामों पर ही यहाँ किताबें मिलती रही है. इस किताबघर के बंद होने से दुकान के पुराने ग्राहक काफ़ी दुखी है. अनिल अरोड़ा कहते हैं, "यह ख़बर सुन कर की जुलाई के आख़िर तक यह दुकान बंद हो जाएगी लोग महज़ अपना दुख व्यक्त करने आ रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि वे किसी सगे-संबंधी के गुज़र जाने पर शोक व्यक्त करने आ रहे हों." पिछले बीस वर्षों से इस दुकान में आने वाले आस्ट्रेलिया के रिचर्डस कहते हैं, "मुझे काफ़ी बुरा लग रहा है. जब जब मैं दिल्ली आता हूँ यहाँ ज़रुर आता हूँ. इस दुकान की कमी मुझे बहुत खलेगी" पिछले दशकों में भारत में उभरे नए मध्यम वर्ग के पास जिस अनुपात में शिक्षा और पैसा बढ़ा है उसी अनुपात में पढ़ने की फ़ुरसत भी कम हुई है. किताबों के बजाय अब लोग अपना समय इंटरनेट, टेलीविज़न देखने या सैर-सपाटे में गुज़ारना पसंद करते हैं. 'आज की, कल की और आने वाले कल की' बात करती नोम चोमस्की, कामू, और अरुंधति राय की किताबें 'बुकवर्म' में उदास पड़ी है. दुकान न हो तो इन लेखकों को अपना पाठक कैसे मिलेगा? फिर ये किताबें किस से बातें करेंगी? From ravikant at sarai.net Sat Jun 7 16:44:06 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jun 2008 16:44:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?MEDIA_SCAN?= In-Reply-To: <196167b80806050349k6ee8a67ftb3546ef2a96a8a3e@mail.gmail.com> References: <196167b80806050349k6ee8a67ftb3546ef2a96a8a3e@mail.gmail.com> Message-ID: <200806071644.06322.ravikant@sarai.net> आशिष कुमार अंशु साहब, कृपया दीवान पर अटैचमेंट अथवा संलग्नक न भेजा करें. अगर पीडीएफ़ बनाने के पहले कोई टेक्स्ट डॉक्युमेंट हो, वह भी युनिकोडित तो उसे ही भेजें. नहीं तो, अपनी पत्रिका को कहीं आप अगर नेट पर डालते हैं तो उसकी कड़ी भेज दिया करें. शुक्रिया रविकान्त गुरुवार 05 जून 2008 16:19 को, ashishkumar anshu ने लिखा था: > Dear Sir/Madam > > I am sending Issue of मीडिया स्कैन (MAY 2008) > If you will send me your views and suggestions, I would thankful. > > *Media Scan Team* > 09891323387 > 09968167559 > 09891322178 From avinashonly at gmail.com Sat Jun 7 19:48:27 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sat, 7 Jun 2008 09:18:27 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <18755191.776271212848307537.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// शाम सात बजे, त्रिवेणी कला संगम में द्रौपदी Posted: 07 Jun 2008 02:42 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/306659854/blog-post_2123.html असीमा भट्ट की एकल प्रस्‍तुति एक ज़रूरी गुज़ारिश आपलोगों से करनी थी, जो भूल गया था। अभी असीमा का फ़ोन आया, तो याद आया। दो दिन पहले उन्‍होंने मुझे सूचना दी थी कि शनिवार, 7 जून को उनकी एकल नाट्य प्रस्‍तुति त्रिवेणी कला संगम में है, शाम सात बजे। इसकी सूचना आज हिंदू अख़बार में भी आयी है। प्रस्‍तुति का नाम है, द्रौपदी। पौराणिक पात्र को इस उलझे हुए आधुनिक समय में असीमा किस तरह से पेश करेंगी, इसको देखने लिए आप सब ज़रूर जाएं। असीमा भट्ट पटना की हमारी दोस्‍त हैं। राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय में तीन साल गुज़ारने के बाद उन्‍होंने लगातार पर मंच पर भी काम किया है और छोटे-बड़े पर्दे पर भी। वो पत्रकार भी रही हैं और उनकी कुछ बहुत बेहतरीन कविताएं हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी हैं। कवि आलोकधन्‍वा के साथ एक दशक के त्रस्‍त दांपत्‍य जीवन के बाद वो पूरी आज़ादी से दुनिया के रंगमंच पर अपनी खोज में जुटी हैं। इस सूचना को ज़रूरी समझें और आज शाम सात बजे त्रिवेणी कला संगम का रुख़ ज़रूर करें। /////////////////////////////////////////// सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है Posted: 07 Jun 2008 02:10 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/306635551/blog-post_07.html अभी परसों क़ुरबान साहब के यहां खाना खाने गया था। क़ुरबान साहब थे नहीं, अब्‍बा से मुलाक़ात हो गयी। अब्‍बा माने कैप्‍टन अब्‍बास अली। सियासी हलक़ों में लोग उन्‍हें कप्‍तान साहब के नाम से जानते हैं। कुछ सालों बाद उनकी उमर सौ साल होगी। हमारे घर से बुज़ुर्गों का साया तभी उठ गया, जब मैं बहुत छोटा था। अपने बाबा को तो देखा ही नहीं। मेरी पैदाइश से पहले उन्‍हें डकैतों ने गोली मार दी थी। बड़े बाबा, जो मैथिली भाषा के कवि थे, इतना याद है कि वे दालान में लेटते थे, कभी-कभार चौकी पर बैठ कर करची (बांस) की क़लम से लिखते थे। मैं छप्‍पर पर डालने वाले खप्‍पर के टुकड़े से उनका तलवा खुजाया करता था। आज सुबह अचानक मैंने अपने अजीज़ मुनव्‍वर साहब की एक पतली सी किताब उठायी। बुज़ुर्गों पर उनकी शाइरी की बहुत सारी टुकड़‍ियों ने मेरी आंखें भिंगो दी। मेरे अपने दोस्‍तों से गुज़ारिश है कि कोई अच्‍छी-सी किताब पढ़ें - तो उनके बारे में यहां मोहल्‍ले में भी बताएं। जैसे मुनव्‍वर साहब की इन टुकड़‍ियों को मैं यहां पेश कर रहा हूं। ख़ुद से चल कर नहीं ये तर्जे़ सुखन आया है पांव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है + हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पायी नतीजा यह है कि हम लोफ़रों में रहने लगे + हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है + रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा + सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्‍चे पेड़ गिनते हैं बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वह सूखे पेड़ गिनते हैं + हवेलियों की छतें गिर गयी मगर अब तक मेरे बुज़ुर्गों का नश्‍शा नहीं उतरता है + बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्‍चे मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खंडर के नीचे है + मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा + इश्‍क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती आग बुझते हुए चूल्‍हों से नहीं ली जाती + मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था + बड़े-बूढ़े कुएं में नेकियां क्‍यों फेंक आते हैं कुएं में छुप के आख़‍िर क्‍यों ये नेकी बैठ जाती है + मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने कि अब जंगल भला लगता है घर अच्‍छा नहीं लगता -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080607/9f3a3201/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Jun 9 12:03:46 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 9 Jun 2008 12:03:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Art of Reading Update Message-ID: <200806091203.46810.ravikant@sarai.net> क्या बात है इरफ़ान साहब, मैंने जान बूझकर आपका संदेश वैसे ही दीवान पर नहीं जाने दिया क्योंकि हमें सामूहिक मेलरों के ज़रिए इतने दोस्तों की इमेल पहचान को ऐसे सरे आम एक्स्पोज़ नहीं करना चाहिए. लेकिन ये वाक़ई असाधारण कोशिश है. बहुत-बहुत बधाई, और इसको तो फ़ुर्सत से सुनना पड़ेगा. दोस्तो, आनंद लें - इंटरनेट रेडियो के साहित्यावतार का स्वागत करें. रविकान्त ramrotiaaloo at gmail.com ने लिखा: कृपया देखें और सुझाएँ- www.artofreading.blogspot.com -- www.tooteehueebikhreehuee.blogspot.com इनकेप्सुलेटेड संदेश का अंत From vineetdu at gmail.com Mon Jun 9 14:34:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 9 Jun 2008 14:34:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSd4KWH?= =?utf-8?b?IOCkn+ClgOCkteClgCDgpLjgpYcg4KSs4KS+4KS54KSwIOCkruCkpCA=?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KS+4KSy4KWLLCDgpKrgpY3gpLLgpYDgpJw=?= Message-ID: <829019b0806090204u27252c1cl8ac84aa55dd9c0a6@mail.gmail.com> गणेश अब पुरानी जिंदगी में लौटकर नहीं जाना चाहता। आमिर को गाते-गाते इसलिए आंसू आ गए कि उसके पापा ऑटो चलाते हैं। तुलसी यानि स्मृति इरानी की आंखे इसलिए छलछला गयीं कि वो समझ ही नहीं पा रही है कि यहां से निकलने के बाद स्लम से आए इन बच्चों का क्या होगा? रियलिटी शो की एक तस्वीर ये भी है। अभी तक लोग टीवी को जितना देखते आए हैं, उससे कई गुना ज्यादा उसकी आलोचना करते आए हैं, उसे कोसते आए हैं। चेलीविजन स जुड़े लोग भी इस बात को समझते हैं क्योंकि उनका बचपन भी यही सब सुनते गुजरा है कि- टीवी मत देखो, पढ़ाई करों, टीवी से आंखे खराब हो जाती है, टीवी देखने से बच्चे बर्बाद हो जाते हैं। टीवी औऱ उसके कार्यक्रमों की आलोचना सांस्कृतिक विकृति से लेकर उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवद की जादुई लीला, न जाने कितने तरीके से की जाती रही है। इस मामले में टेलीविजन इतना सहज माध्यम है कि कोई जैसे चाहे इसकी आलोचना करे. किसी भी छोर से इसकी शुरुआत कर सकता है और अंत में ये साबित कर सकता है कि टीवी वाहियात चीज है। हर आदमी के पास इसकी बुराई में कहने के लिए कुछ न कुछ तथ्य मौजूद हैं. भले ही वो दे-चार लोगों को देखते ही देखते करोडपति और सिलेब्रेटी क्यों न बना दें। इललिए आप देखेंगे कि टीवी कार्यक्रमों को आकर्षक बनाने के साथ-साथ अपनी छवि लगातार सुधारने में जुटा है। ये है जलवा का गणेश, राखी सावंत की चिल्लड पार्टी, लिटिल चैम्पस का आमिर और वूगी-वूगी की मदर्स स्पेशल की मां जिसका पति सूनामी में मारा गया इसकी योजना की कड़ी हैं। ये है जलवा ने तो बार-बार इस बात की घोषणा भी की है कि ये आम आदमी का शो है। यानि देश का वो आम आदमी जिसे कि आज से दो-चार साल पहले स्टूडियो का चौकीदार आस-पास फटकने तक भी नहीं देता और आज वो सिलेब्रेटी है। गणेश जब अपने स्लम जाता है तो लोग उसका ऑटोग्राफ लेने के लिए घेर लेते हैं। आमिर पूरे इलाके का उदाहरण बना हुआ है। देश की उन मांओं को बल मिलता है कि 35 साल की कल्पना पति की मौत हो जाने के बाद भी इसलिए यहां डांस कर रही है क्योंकि एयर फोर्स में काम करनेवाला उसका पति उसे अक्सर कहा करता था कि- देखो मैं सुबह जा रहा हूं और अगर दोपहर और उसके बाद कभी नहीं लौटा तो तुम रोना मत, जिंदगी हमेशा मुस्कराने का नाम है। रियलिटी में शो में इस तरह के कंटेस्टेंट की संख्या बढ़ रही है। इससे कार्यक्रमों की अपनी ब्रांड इमेज तो बनती ही हैं साथ ही लोगों का भरोसा भी बनता है कि यहां स्टेटस को लेकर भेदभाव नहीं है। सा,रे, ग,म की पूनम अभी तक आपको याद होगी। लखनउ की पूनम जो कि रेडियो और अपनी मां से सुन-सुनकर सारेगम के फाइनल रांउड तक पहुंचती है। उसके पापा नहीं है और न ही कोई दूसरा सहारा। मां-बेटी बड़ी मुश्किल से ट्युशन पढ़कर अपना गुजरा कर रही थी। इस तरह से जिस तपके के कंटेस्टेंट को शो में शामिल किया जाता है, उनके साथ-साथ उस हालात में जी रहे करोड़ों लोग उसके साथ अपने-आप जुड़ जाते हैं। उनके सपने जुड़ते चले जाते हैं कि जब गणेश, पूनम, कल्पना और आमिर तो फिर हम क्यों नहीं। यानि बदहाली में जी रहे लोग जिनके भीतर हुनर है, निराशा और फ्रस्ट्रेशन में जीते हैं, ये रियलिटी शो उनके बीच एक सपना पैदा करता है, एक संभावना को जन्म देता है कि तुम भी सिलेक्रेटी की पांत में आ सकते हो। ये अलग बात है कि एक बड़ी सच्चाई है कि सबके सब ऐसा नहीं हो सकते। दस करोड़ के सपनों के बीच कोई एक सफल होगा। लेकिन रियलिटी शो के लिए एक संख्या भी पर्याप्त है क्योंकि उदाहरण के लिए बस एक व्यक्ति चाहिए। ऐसे अगर आप सोचने लगेंगे तो आपको बात समझ में आ जाएगी कि राम तो एक ही हुए,हुए भी इस पर भी शक है तो भी। सब जानते हैं कि कोई दूसरा राम हो ही सकता, तो भी अपने को लगातार बेहतर करने की कोशिश और उनकी जीवनी पढने की कोशिश तो सभी करते हैं। इस हिसाब से सोचने पर आप देखेंगे कि रियलिटी शो उन तमाम पैटर्न को फॉलो करती है जिसके भीतर हम और आप जीते हैं, लेकिन गौर नहीं करते। जिंदगी जीते हुए और रियलिटी शो देखते हुए फर्क सिर्फ इतना ही होता है कि असल जिंदगी में हम अपनी स्थितियों के हिसाब से सोचते हैं जबकि रियलिटी शो देखते हुए दूसरों या फिर सफल हुए लोगों के हिसाब से सोचते हैं। यही तो है टीवी का मायाजाल। झूठ भी नहीं लेकिन सही भी तो नहीं।...। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-5 Size: 9090 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080609/7b82e63c/attachment.bin From kashyapabhishek03 at gmail.com Tue Jun 10 20:03:44 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Tue, 10 Jun 2008 20:03:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= galpaayan Message-ID: दोस्तों, मैंने अपना ब्लॉग शुरू किया है. अभी एक ही पोस्ट डाली है . आप इसे जरूर देखें और अपनी राय दें . http://galpaayan.blogspot.com/ अभिषेक कश्यप -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080610/76281098/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Tue Jun 10 20:27:00 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 10 Jun 2008 09:57:00 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <24329096.1070051213109820062.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// टीवी मीडिया का आने वाला समय: काटो काटो काटो! Posted: 09 Jun 2008 10:56 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/308144371/blog-post_09.html मैंने आपको पहले एक मेल भेजा था ना! याद है कि भूल गए? एक बार फिर कल इंडिया टीवी ने एक साईं बाबा का वीडियो दिखाया और कहा कि ये सच है, इसमें साईं बाबा बोल रहे हैं। लेकिन मजेदार बात ये थी उसी वक्त आज तक दिखा रहा था कि साईं बाबा का ये वीडियो सच नहीं है। ये सिर्फ एक वीडियो ट्रिक है। अगले एक घंटे तक इंडिया टीवी ने हल्ला मचाया कि ये वीडियो सच्चा है और आजतक ने झूठे वीडियो का हल्ला मचाया।अपराजिता शर्माअभी तक सभी चैनल्स में बहुत कॉम्पटीशन चल रहा था। अगर इंडिया टीवी ने भूत दिखा दिया, तो आजतक और स्टार न्यूज वाले सोचने लगते थे कि कहां से ऐसा पावरफुल भूत लाएं, जो इंडिया टीवी वाले से भी ज़्यादा लाइव हो। इस तरह के सभी चैनल्स की एडीटोरियल मीटिंग में ये ही बहस होती थी कि कैसे किसी चैनल से अच्छा ड्रामा हम अपने चैनल पर करें और टीआरपी (आफत की जड़) लूट कर मजे करें। लेकिन अब कम से कम इस समस्या से मुक्ति मिलती नज़र आ रही है। ट्रेंड बदल रहा है। अब खुलासा होने का समय आ गया है। आजतक ने एक खबर चलायी कि एक आदमी उड़ सकता है और इस बात के बहुत से सबूत देने की कोशिश की कि ये विजुअल्स सच हैं यानी आदमी उड़ सकता है। इसके करीब 2-3 घंटे बाद इंडिया टावी का खुलासा हुआ कि ये तो वीडियो ट्रिक है। यानी कोई उड़ नहीं सकता है। ये तो कैमरे का कमाल है जिसे देख कर ऐसा लग रहा कि कोई उड़ रहा है। इंडिया टीवी ने लगभग साबित कर दिया कि ये विजुअल्स सच नहीं और आजतक की सारी मेहनत मिट्टी में मिला दी। अब कल्पना करो कि ये ट्रेंड चल निकले तो क्या हो? यानी खुलासा और एक दूसरे की ख़बरों को काटना शुरु कर दें! कल्पना करो कितना मज़ा आएगा एक स्टोरी को दो एंगल से देखने में! एक कोरी गप्प और फिर उस गप्प टाइप ख़बर का खुलासा! मैंने तो कल्पना कर ली, सब अच्छा ही अच्छा होगा। सबसे पहले तो भूत टाइप के रिपोटर्स की बोलती बंद हो जाएगी और कुछ साइंटिफिक सोच वाले पत्रकारों का महत्व दुबारा बढ़ जाएगा। और सोचो कितना मज़ा आएगा कि एडीटोरियल मीटिंग की बहस का मुद्दा भी बदल जाएगा। सारे बॉस मिल कर कहेंगे कि रिपोर्टर्स के लिए आदेश है - ऐसी स्टोरी फाइल करें, जिसका कोई काट न हो। यानी स्टोरी दिखाने के बाद ही ख़त्म कर दी जाएगी ताकि कोई और चैनल उसका पोस्टमॉर्टम करके अपनी टीआरपी न बढ़ा ले जाए। मान लो कोई नाग देवता के दूध पीने की स्टोरी दिखाएगा, तो उस नाग जी को मारना पड़ेगा। वरना इंडिया टीवी टाइप चैनल 2 घंटे बाद नाग देवता के सामने कोई दूध जैसा लिक्विड रख कर बैठे होंगे और फिर कहेंगे कि देखिए जो आपने देखा वो झूठ था, ये तो दूध नहीं पीता। फिर सोचो उस चैनल की विश्वसनीयता का तो बैंड ही बज जाएगा। जिन प्रोग्राम्स की आलोचना करते करते हमारे मुंह दुख चुके हैं, ब्लॉग भरे जा रहे हैं, एडीटोरियल पेज काले किये जा रहे हैं कि एक दिन ये बदल जाएगा - समझो अब ये सारी टेंशन खत्म। मिठाई बांटो - अब भूत-प्रेत नाग-नागिन और खली पर टूटने जैसी स्टोरी करते हुए मन घबराएगा कि पता नहीं कौन सा चैनल पोल-खोल स्टिंग कर दे। भूत वगैरा भी असली लाने पड़ेंगे यानि जो मर चुके हैं ताकि वो किसी दूसरे चैनल्स को न दिख जाएं... और भी ऐसी बहुत सी कल्पनाएं हैं। पर अब बस इतना चाहती हूं कि ये नया खुलासा ट्रेंड कुछ दिन चलता रहे। आप भी अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाइए। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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Posted: 11 Jun 2008 01:47 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/309399064/blog-post_11.html कभी गुलजार के जादू पर प्रियदर्शन ने बात पते की लिखी थी। उस पर आये कमेंट्स बताते हैं कि गुलज़ार के लिए कितनी मोहब्‍बत रखते हैं लोग। अभी जाबिर साहब ने दोआबा का ताज़ा अंक भेजा, जो निर्मला देशपांडे की दूध-जैसी सफ़ेद स्‍मृतियों को समर्पित है। उसमें गुलज़ार की दो बेहतरीन कविताएं पढ़ने को मिलीं। यह अंक विभाजन की त्रासदी से जुड़े किस्‍सों और शाइरियों का कोलाज है, जिसका उन्‍वान जाबिर साहब ने दिया है, कंधों पर सलीबें। पहले पन्‍ने पर अमृता प्रीतम की चंद लाइनें हैं : और इससे पहले कि कुछ दूरी पर खड़े हुए हम म‍िट जाएं / चलो! वीरान-से बदन पानी पर बिछाएं / तुम अपने बदन पर पैर रखना / और आधे दरिया तक चले आना / मैं अपने बदन पर पैर रखूंगी / और आधे दरिया को चीरकर तुमसे मिलूंगी! पेश है गुलज़ार की एक नज़्म, मोहल्‍ला-वासियों के लिए। सियासत ने मेरे पिछवाड़े में कुछ लोग लाकर बो दिये थे वो बस उस माशरिक़ी बंगाल से आये थे, जिन पर वो ज़मीन तंग हो गयी थी हज़ार एकड़ ज़मीं देकर अहाता खींच कर ये कह दिया था- यहीं रहना और कहा था, मिट्टी पानी सब मिलेगा तुम्‍हारा धर्म और ज़ातें यहां महफूज़ हैं सब मगर वो रोशनी सूरज की जो तुम छोड़ आये हो वो शायद कम मिलेगी घटाएं घेरे रहती हैं जो कल्‍चर तापा करते थे... चिराग़ों से उसे तुम ज़‍िंदा रखना ज़रूरत पड़ गयी तो तुम अलाव भी जला सकते हो, लेकिन यहीं से ढूंढ़ लेना, सूखे कीकर, और जला लेना उन्‍हें चालिस बरस होने लगे हैं कई नस्‍लें उगी हैं, सूखी जंगली झाड़‍ियों जैसी किसी का क़द नहीं निकला... वो मिट्टी से जुड़े तो हैं जड़ों की उंगलियां खुलतीं नहीं उनसे उन्‍हें सूरज पकड़ता है, न वो मिट्टी पकड़ते हैंदोआबा से साभार -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080611/673a5f6d/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Thu Jun 12 20:27:13 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Thu, 12 Jun 2008 09:57:13 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <27826425.1133911213282633934.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// दोआबा का पता-ठिकाना Posted: 11 Jun 2008 12:58 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/309803194/blog-post_3508.html अविनाश भाई, नमस्कारहुआ कुछ यूं कि उदय प्रकाश जी और आपके ब्लॉग पर दोआबा का ज़िक्र लगातार पढ़ने में आया। उन्होंने राजेन्द्र राजन और आपने गुलज़ार साहब के हवाले से इस पत्रिका का उल्लेख किया था। बड़ी मेहरबानी आपकी यदि आप दोआबा का पता और email id मुझे मेल कर दें, जिससे मैं भी इस सुंदर पत्रिका का आनंद ले सकूं।संजय पटेल संजय जी,आपने ख़त लिखा, इसका शुक्रिया। जाबिर साहब राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन उनके सरोकार बड़े ज़मीनी रहे हैं। वे उर्दू के राइटर भी हैं और पिछली बार उन्‍हें साहित्‍य अकादमी अवार्ड से भी नवाज़ा गया था। बिहार विधान परिषद का सभापति रहते हुए उन्‍होंने साक्ष्‍य जैसी ज़रूरी पत्रिका निकाली। उसके कई बेमिसाल अंक निकले। साक्ष्‍य की शुरुआत जब हुई थी, तब मैं जाबिर साहब के साथ रहता था। दिन भर परिषद की गतिविधियों और शाम में पैरवी के लिए आने वाले मुलाक़ातियों से फारिग़ होकर रात 11-12 बजे हम साक्ष्‍य के काम के लिए बैठते थे। उनकी तन्‍मयता और प्रतिबद्धता का मुरीद मैं उन्‍हीं दिनों हो गया था। वे सामग्री चयन करते थे, मैं प्रूफ देखता था। बाबा नागार्जुन के बाद प्रूफ देखने की वैज्ञानिक पद्धति उन्‍होंने मुझे सिखायी है। आपको दोआबा का पता देकर मुझे ख़ुशी होगी। इस पत्रिका के दो पते हैं। पहला है पटना का। ये स्‍थायी पता है जाबिर साहब के अपने मकान का।247, एमआईजी, लोहियानगर, पटना 800020दूसरा पता दिल्‍ली का है, जो अस्‍थायी है।सी 703, स्‍वर्ण जयंती सदन, डॉ बीडी मार्ग, नयी दिल्‍ली 110001बंधु, अब जाबिर साहब पत्र लिख कर पत्रिका जल्‍दी से मंगवा लीजिए।आपका, अविनाशपुनश्‍च: जाबिर साहब ने आज तक हमें अपना ईमेल आईडी दिया नहीं है। दिया होता, तो मैं उसका इस्‍तेमाल भी करता और आपको भी देता। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080612/3e496af1/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Jun 13 12:52:40 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 13 Jun 2008 12:52:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWA4KSWIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSC4KSX4KSk4KWHLCDgpK7gpYfgpLDgpYcg4KSs4KS/4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSm4KSw4KWAIOCkleClhyDgpKzgpJrgpY3gpJrgpYc=?= Message-ID: <829019b0806130022r456411bbh70696120fcc370bc@mail.gmail.com> आठ साल की बच्ची ने मुनिरका रेडलाइट पर बांह पकड़कर हिलाया तब मेरा ध्यान टूटा। भइया, भइया कहा और फिर गुलाब के फूलों का एक गुच्छा मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहने लगी- ले लीजिए न भइया, ले लीजिए न। सिर्फ दस रुपये लेंगे आपसे, सिर्फ दस रुपये। मुनिरका रेडलाइट पर ऐसा आए दिन होता है, यह कोई नयी बात नहीं थी जो मेरे साथ हुई थी। आम तौर पर छः साल से दस साल तक की लड़कियां गुलाब के फूलों का गुच्छा लिए आपसे खरीदने की जिद करती हुई दिख जाएगी। मैंने उस लड़की से कहा, क्या करुंगा इन फूलों को लेकर, ये तो बर्बाद हो जाएंगे। फिर तुम्हारे फूल भी तो मुरझाए हुए हैं औऱ हॉस्टल ले जाते-जाते एकदम से और बासी हो जाएंगे। इसके लिए तुम्हें दस रुपये क्यों दे दूं। वैसे भी लम्बे समय से जेएनयू आता-जाता रहा हूं। 615 और 621 नं की ब्लूलाइन बसों में डीटीसी पास दिखाने पर कनडक्टर मान जाते हैं। मेरे दोस्त कहते आप डीयू की आइडी निकालकर अलग से रख लीजिए और सिर्फ पास दिखा दीजिएगा,पूछेगा तो बता दीजिएगा, यहीं जेएनयू में हैं। लेकिन यह झूठ बोलने की नौबत नहीं आयी, पास दिखाने से ही दस रुपये बच जाते। जब से जेआरएफ हुआ है,मेरा पास नहीं बनता और मुझे पैसे लगाकर वहां से आना होता है। मैं सोचने लगा कि कितनी मुश्किल से दस रुपये बचाया करता था और आज कह रही है कि दस रुपये का फूल खरीद लीजिए। मैंने फिर कहा- अच्छा, तुम ही बताओ, मैं क्या करुंगा, तुम्हारे इस फूल को लेकर। आठ साल की उस लड़की ने बड़े ही सपाट ढंग से जबाब दिया, अपनी गलफेंड को दे दीजिएगा। मुझे एकदम से हंसी आ गयी और समझ में भी आ गया कि क्यों यहां दिनोंदिन फूल बेचनेवाली लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है। मन ही मन सोचा, कोई गलफेंड तो है नहीं और अगर हो भी तो इस फूल को देने से रह भी नहीं जाएगी, हो सकता है मुंह पर फेंककर मार दे। मेट्रो का काम होने के कारण अच्छा-खासा जाम था, मैं एसी कार में बैठा था, कोई परेशानी नहीं हो रही थी, उस लड़की को जाम तक बात में फंसाए रखना चाहता था. मैंने कहा- तो क्या तुमसे सब गलफेंड के लिए ही फूल खरीदते हैं। लड़की ने कहा- नहीं कोई-कोई बायफेंड के लिए भी खरीदती है। अबकि मुझे और जोर से हंसी आ गयी।। तो ये बात बताओ, तब तुम सिर्फ जवान लोगों को ही पकड़ती होगी। लड़की का जबाब था- ऐसा नहीं है, बूढ़े को भी खरीदने कहते हैं। उसे तुम क्या कहकर खरीदने कहती हो- लड़की ने कहा- कहते हैं कि खरीद लो, भगवान के आगे मथ्था टेककर चढ़ा देना। औऱ वो न मानें तो- तो क्या भइया, अंत में सबको यही कहते हैं, फूल खरीदने कौन कह रहा है तुमसे, पास में रोटी है,छोले खरीदने के लिए पांच रुपये दे दो, मेरा भाई बहुत भूखा है। फ्री में कार में बैठा था, सोचा चलो ये समझूंगा कि भाड़ा लगाकर आए हैं और मैंने उस लडकी के हाथ में दस रुपये धर दिए। इस बीच ग्रीन सिग्नल हो गया था औऱ हमारी गाड़ी आगे बढ़ गयी. लड़की तेजी से मेरी तरफ बढ़ी और आवाज दिया- भइया, आपने फूल तो लिया ही नहीं। मैंने भी जोर से कहा- कोई नहीं, किसी और को बेच देना, मैं लेकर क्या करुंगा। मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। आप यों कहिए कि इस तरह से थोड़ी देर के लिए भावुक होकर मैंने कई बार छोटे बच्चों को पैसे दिए हैं। कभी पास बैठे लोगों को एहसास कराने के लिए कि- तुमसे हम बहुत अच्छे हैं, संवेदना मरी नहीं है हमारी, कभी खुश होने पर और कभी मानवता के नाते। दिल्ली के तीन जगहों पर स्थायी तौर पर मैं ऐसा करता आया हूं। बाराखंभा रोड के रेडलाइट पर, रामकृष्ण आश्रम मेट्रो के पास और मुनिरका रेडलाइट पर। इन तीनों जगहों पर लम्बे समय से आता-जाता रहा हूं। मीडिया की पढ़ाई करते समय मैं रोज बाराखंभा रोड़ से गुजरता। कभी पैदल, कभी बस और कभी एक-दो धनी लड़की दोस्त की कार से। पैदल गुजरता तो नहीं देता, धक्के लगने की गुंजाइश होती, कार में होता तो लड़कियों पर प्रभाव जमाने के लिए कि देखो, आदमीयत है हममे औऱ जब इनका ख्याल रख सकता हूं तो फिर....। ये अलग बात है कि मेरी दोस्त इस हरकत को मीडिल क्लास मेंटलिटी मानती और ताने मारकर कहती- झारखंड छूटा नहीं है, तुम्हारा। शीशे खोलता तो मना करती- एसी चल रही है, शीशा मत खोलो,कभी कहती, बहुत गंदे हैं ये लोग। लेकिन मैं तब और खोलता। बाराखंभा के जो बच्चे होते, वो पैसे मांगने के पहले बांह में पत्थर का टुकड़ा दबाते और दोनों को सटाकर बजाते- मैं निकला,गड्ड़ी लेके औऱ फिर समय होने पर हमसे और हमारी दोस्त से एक- दो लाइन जोड़कर गाते। मुझे मजा आता। एक दिन बस में बैठा। बहुत खुश था,इंटरनल में मुझे सबसे ज्यादा नंबर आए थे। बस में बच्चे आए और फिर शुरु हो गए- मैं निकला। रोज वो यही गाना गाते लेकिन मुझे अलग-अलग मनःस्थिति में होने के कारण अलग-अलग मजा मिलता। मैंने उस दिन उन्हें पचास का नोट पकड़ाया और जब बच्चे मुझे चालीस रुपये लौटाने लगे तो मैंने कहा रख लो। लेडिस सीट की तरफ बैठी दो लड़कियों ने एक-दूसरे को कोहनी मारी और ठहाके मारकर हंसने लगी। शायद मुझे बेउडा समझा। मैं सिर्फ इतना सुन पाया कि- नया-नया गिरा है, दिल्ली में। रामकृष्ण आश्रम के पास के बच्चे पैसे बड़े ही कलात्मक औऱ जोखिम तरीके से मांगते। जैसे ही रेडलाइट होती, तीन बच्चे आ जाते जिनके हाथ में बहुत ही छोटा लोहे का छल्ला होता। पहले एक उसके भीतर से गुजरता और उसके बाद एक ही साथ हो गुजर जाते. एक ढोल बजाता और फिर दो लोग छल्ले से बाहर- भीतर करके नाचने लगते। मैं एकटक देखता रहता। ये नजारा देखने के लिए मैं झंडेवालान जहां मुझे अपनी ऑफिस के लिए उतरना होता, वहां न उतरकर यहां उतरता और फिर यह सब देखकर पैदल जाता। बच्चे मुझे पहचान गए थे और दूर से ही चिल्लाते- रिपोटर भैय्या आ गए, बाकी लोग सुनते और उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता। पुरुलिया से गुजरते हुए एक लड़की हारमोनियम पर रवीन्द्र संगीत गाती और मैं तब भी पांच-दस पकड़ा देता। एक दिन बैठकर मैंने इस बारे में सोचा औऱ पाया कि मैं उन बच्चों को कभी पचास पैसे भी नहीं देता जो मेरे सामने यह कहते कि भैय्या, कुछ खाने के दे दो, बहुत अधिक भावुक भी नहीं होता उन्हें देखकर, जबकि गाने-बजाने, कुछ करतब दिखानेवाले बच्चों को पचास रुपये तक बड़ी आसानी से दे देता। तो क्या मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि मुझे लगता है, ये मेरे जाति-बिरादरी के लोग हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2894 Size: 13194 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080613/b1c3cfa5/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Fri Jun 13 20:27:57 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Fri, 13 Jun 2008 09:57:57 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <21028855.1193931213369077197.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// पश्चिम से क्यों सीखे सभ्यता की आदि भूमि Posted: 13 Jun 2008 12:17 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/310923878/blog-post_13.html समरेंद्र अपने ब्लॉग चौखंबा में कहते हैं कि पश्चिम के ढोंग का गुणगान न करें। चलिए नहीं करते हैं किसी के भी ढोंग की गुणगान। आंखें बंद रखने से कितना सुख मिलता है - क्यों समरेंद्र? हम तो वैसे भी सभ्यता की आदिभूमि हैं। विश्वगुरु वगैरह-वगैरह हैं। पश्चिम ने हमसे सब कुछ सीखा है। आजकल हम उन्हें कपाल भारती सिखा रहे हैं। समर बाबू, नीचे दी गयी सामग्री को देखिए। क्या हमारे महान देश में आप ऐसे किसी सर्वे की कल्पना भी कर सकते हैं। और अमेरिका में ये सर्वे सरकार नहीं, मीडिया इंडस्ट्री खुद करती है। मक़सद ये है कि मीडिया का बाज़ार और न्यूज़ रूम के सुर-ताल एक से हों। अमेरिका में सबसे ज्यादा बिकने वाले 20 अखबारों में डायवर्सिटी (% में) /////////////////////////////////////////// पश्चिम के ब्लॉग में पूरब का मोटापा Posted: 12 Jun 2008 11:47 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/310606723/blog-post_12.html आधुनिकता की हकीकत और फैंटसी दिलीप मंडल किसी भी भारतीय एयरलाइंस में एक खास वजन से ज्यादा की महिलाओं को एयर होस्टेस बने रहने की इजाज़त नहीं है। उनकी बाकी योग्यता - आपातस्थिति में यात्रियों को सुरक्षित रखने की उनकी काबिलियत, बूढ़े-बुजुर्गों और बच्चों का ध्यान रखने की उनकी क्षमता, किसी के अस्वस्थ होने पर उन्हें बेसिक ट्रीटमेंट देने की क्षमता - सब कुछ बेकार है, अगर वो एक ख़ास वज़न से ज्यादा की हो गयी हैं। और ये कोई राहचलता आदमी नहीं कह रहा है। ये हमारे देश की एक बड़ी अदालत - दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय जजों का फ़रमान है। भारत में इसे लेकर कोई बहस नहीं है। कोर्ट ने कहा तो ठीक ही है। और फिर भारतीय समाज की वर्तमान यथास्थिति के संरक्षक जजों से किसी और फ़ैसले की उम्मीद क्यों। गोरी चाहिए, गोरेपन की क्रीम और ब्लीच और वैक्सिंग और थ्रेडिंग चाहिए, छरहरी चाहिए - आवर ग्लास चाहिए, जीरो साइज चाहिए, सॉना बेल्ट और मॉर्निंग वाकर चाहिए, गृहकार्य में दक्ष चाहिए- होमसाइंस की पढ़ाई चाहिए, कुकरी क्लासेस चाहिए, सुशील तो होना ही होगा, लेकिन नौकरी करके कुछ कमा कर ले आये, तभी बात है। वरना दहेज भी देना होगा। कल्पना कीजिए कि अगर विमानों में सफ़र करने वालों में महिलाएं ज्यादा हों, खासकर बिजनेस क्लास में, तो क्या छरहरी, गोरी, बिना दाग धब्बों वाली शर्त इसी रूप में रहेगी। या फिर एविएशन कंपनियां सिक्स पैक्स एब वाले हैंडसम लड़कों की तलाश करेंगी। गोरी, छरहरी लड़कियां तो पुरुष क्लाइंटेल को ध्यान में रख कर ही लायी जाती हैं। बिजनेस और इकोनॉमी की सबसे बड़ी पत्रिका - इकोनॉमिस्ट, जिसे कंजर्वेटिव-ग्लोबल-फ्री इकोनॉमी वाले पश्चिम का मुखपत्र माना जाता है, में एक ब्लॉगर ने एयर होस्टेस के मामले में कोर्ट के फैसले पर एक पोस्ट लिखी है। यहां क्लिक करके पोस्ट पढ़िए और साथ में आई टिप्पणियां भी। भारतीय समाज के लिए इसमें कई सबक हैं। वैसे यूरोप और अमेरिका में रहकर आये कुछ लोगों से बातचीत से ये पता चला कि अगर अश्वेत चीयरलीडर्स को चुन कर और जानकर ग्राउंड से बाहर रखने की घटना वहां हुई होती तो कोहराम मच जाता। अव्वल तो ये वहां मुमकिन ही नहीं है और अगर ऐसा हो गया, तो पूरा समाज उसके ख़‍िलाफ़ खड़ा हो जाता है। अमेरिका में ओबामा अश्वेत नहीं, बल्कि श्वेत वोटों की वजह से आगे हैं। आप देख ही रहे कि इंग्लैंड में सिर्फ ये कहने पर कि भारत में लोग खिड़की से कूड़ा फेंकते हैं (जो झूठ भी नहीं है, कूड़ा भी फेंकते हैं और सड़क पर थूकते भी हैं) कैसा हंगामा मचा है और टिप्पणीकर्ता को इसके लिए सावर्जनिक तौर पर माफ़ी मांगनी पड़ी है। इन सारी बातों से मेरी ये धारणा मज़बूत हुई है कि भारतीय समाज की पूंछ अभी झड़ी नहीं है और भारतीय संस्कृति और समाज रचना की श्रेष्ठता के दावे को सही साबित करने के लिए अभी हमें लंबा सफ़र तय करना है। आधुनिकता अभी हमारी फैंटसी में ही है। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080613/3e7a6a7e/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Jun 14 11:27:06 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 14 Jun 2008 11:27:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KSmICwg?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSW4KWAICwg4KSw4KSu4KWI4KSj4KWAIOCkheCksOCljeCkpQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOClhyDgpJXgpYcg4KSw4KWC4KSqIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkj+CklSDgpJTgpLAg4KSq4KSk4KWN4KSw4KS/4KSV4KS+?= Message-ID: <200806141127.07131.ravikant@sarai.net> कबीराना काव्य-रूपों से प्रेरित स्तंभों में विभाजित एक और साहित्यिक पत्रिका जिसमें कुछ युवा कवि और लेखक पाए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ जैसे, प्रभात रंजन और यतीन्द्र मिश्र को हममें से कुछ लोग जानते हैं, कुछ सराय से जुड़े रहे हैं, कुछ नहीं. http://vatsanurag.blogspot.com/ देसी-विदेसी कवियों लेखकों की रचनाओं पर कुछ दिलचस्प बातों का आनंद लें और अनुराग वत्स को शुक्रिया कहें जिन्होंने हमें इसके अस्तित्व से आगाह किया. रविकान्त From avinashonly at gmail.com Sat Jun 14 19:58:32 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sat, 14 Jun 2008 09:28:32 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <63011.844341213453712049.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// क्या सच आज टीवी पत्रकारिता की रखैल है? Posted: 14 Jun 2008 06:22 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/311766541/blog-post_4332.html अंशुमाली रस्‍तोगी कानपुर के रहने वाले अंशुमाली रस्‍तोगी ने मीडिया का चाहे जैसा विश्‍लेषण किया हो, लेकिन जिस तरह की संज्ञा (रखैल) उन्‍होंने दी है - उससे हमारा इत्तेफाक़ नहीं है। यह उसी पुरुष नज़रिये का नीर-क्षीर-विवेक है - जो महिलाओं को सामान की तरह देखने के लिए प्रेरित करता है। ख़ैर हम यहां स्‍त्री मुक्ति की बहस नहीं छेड़ रहे हैं - अपनी सिर्फ़ एक छोटी सी आपत्ति के साथ इस आलेख को पेश कर रहे हैं। हम हर पल सच के ख़तरे से घिरे रहते हैं। मीडिया के किसी भी कोने में निगाह डालें वहां हर पल खतरनाक सच को दिखाया जा रहा है। साफ शब्दों में कहूं, मीडिया की नस-नस में सच का संचार हो रहा है। बेहद शौक व उत्साह के साथ मीडिया अपना सच जनता के सामने कभी इस भगवान, कभी उस भगवान या आस्था के रूप में परोस रहा है। मीडिया ने सच के मायने और मानक दोनों को बदल कर रख दिया है। पहले सच सार्वजनिक हुआ करता था, अब सच का निजीकरण हो गया है। सभी सच को अपनी ‘रखैल’ मान-समझ कर उसका जब-जैसा चाहे, दोहन-शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं। कहीं कोई रोक-टोक नहीं। कभी किसी जमाने में झूठ का पर्दाफाश कर सच को सामने लाने का काम अखबार किया करते थे पर जब से चौबीस घंटे के चैनल आये हैं, उन्होंने सच को परदे के पीछे और ‘झूठे सच’ को परदे के आगे कर दिया है। पहले सच इसलिए भी जिंदा था, क्योंकि उस पर बाजार का काला साया नहीं हुआ करता था। सच को सच की तरह छापा जाता था और उसे जनता द्वारा सच ही स्वीकार भी किया जाता था। मगर अब ऐसा नहीं है। अब सच चैनलों की गिरफ्त में है। हर चैनल यह दावा करता है कि वो केवल सच दिखाता है। उसके सच में ईश्वर का अस्तित्व भी सच्चा है, भूत-प्रेत-आत्मा से जुड़े किस्से भी सच्चे हैं, प्रेम-बलात्कार के घिनौने किस्से भी सच्चे हैं, फिल्मी नायक-नायिका का महिमामंडन भी सच्चा है। ऐसे न जाने और कितने सच हैं, जिनका सच मीडिया के रास्ते होकर गुज़रता है। रात ११ बजे के बाद यह मीडिया इस कदर सच्चा हो जाता है कि पूछिए मत। अगर थोड़ा-बहुत कानूनी डर न हो तो यह मीडिया आधी रात को अपने कथित सच को इस कदर नीला कर देता कि क्या कहें! मीडियाई सच ने सच को बाजार बना दिया है। जब कोई चीज बाजार में आ जाती है तब ही उसकी खरीद-फरोख्त शुरू होती है। मीडिया जिस सच को हमें चौबीस घंटे दिखाता है उसके तार बाजार के लाभ से जुड़े रहते हैं। चौबीस घंटे चलने वाला चैनल और इतने बड़े स्टाफ को हर माह हजारों-लाखों का वेतन बांट देना इतना सरल नहीं होता, जब तब आप ख़बरों को बाजार में बेचने में सक्षम नहीं हो जाते। आज अगर आप चैनलों की ख़बर में सच को खोजने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही पगला जाएगें। वहां ख़बरों के बहाने जिस सच को दिखाया जाता है वो बाजार का सच होता है जिसके सहारे टीआरपी का माल और उस माल का लाभ पैसे के ऐवज में ख़बरिया चैनलों को प्राप्त होता है। आज अगर किसी चैनल के पास हनुमान की पैदाइश की ख़बर है तो दूसरे के पास साईं का बोलनेवाला चित्र है। मौज उसी चैनल की है जिसके पास ‘आस्था का बाजार’ है। अब यह नियम-सा बनता जा रहा है कि जो चैनल भगवानों के कथित सच्चे किस्सों को जितनी देर दिखाएगा, वो बाजार से उतना ही कमाएगा। चैनल जानते हैं कि कथित सच को जनता और बाजार के बीच स्थापित करने के लिए ईश्वर से श्रेष्ठ कुछ हो ही नहीं सकता। ईश्वर ऐसा व्यापार, ऐसा माल है जो हर क्षण, हर जगह महंगे से महंगा बिक सकता है। जहां ईश्वर की सत्ता है वहां सच होगा ही होगा ऐसी धारणा पर हमारा विश्वास आदिकाल से रहा है। अक्सर मीडिया के इस कथित ईश्वरीय सच को देखकर मैं सोचता हूं कि हम इक्कसवीं सदी में रहकर भी सोच, विचार और दिमाग के स्तर पर अभी कितना पीछे हैं। जिस कपोल-कल्पना पर अंध-विश्वास, अंध-श्रद्धा, अंध-भक्ति का ‘बाजारू आवरण’ चढ़ा कर हमें परोसा जा रहा है, उसे हम न केवल स्वीकार कर रहे हैं बल्कि अपनी सफलता-असफलता के मानक और मायने उसके आधार पर तय भी कर रहे हैं। हमारे मीडिया ने सच के शरीर से प्रत्येक कपड़े को उतार फेंका है और अब हमसे कह रहा है कि जाओ तुम इसको भोगो क्योंकि यह हमारी रखैल है। यह हमें हर ख़बर पर पैसा और टीआरपी कमा कर देती है। अब आप ही बताओ कि मैं उस सच में क्या देखूं, क्या पढ़ूं जिसके शरीर के एक-एक अंग का सौदा मीडिया ने बाजार के सहारे कर दिया है। /////////////////////////////////////////// पुरानी दिल्ली की दोपहर Posted: 14 Jun 2008 03:33 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/311700365/blog-post_14.html हमने दोआबा से साभार गुलज़ार की एक कविता छापी, तो टेरी गुप्‍ता का एक ख़त आया। वे फीडबर्नर से मोहल्‍ले की पोस्‍ट मंगवाते/मंगवाती हैं। उन्‍होंने लिखा, ‘मई के नया ज्ञानोदय में गुलज़ार की पांच कविताएं छपी हैं, जो पांच शहरों पर हैं। उनमें से पुरानी दिल्‍ली के बारे में जो कविता है, वह इतनी उम्‍दा है कि बचपन और मां की याद दिला जाती है। वाक़ई उस कविता को पढ़ कर आंखों में आंसू छलक आये।’ हम ऑनलाइन नया ज्ञानोदय से उठा कर गुलज़ार की कविता पुरानी दिल्‍ली की दोपहर मोहल्‍ले में पब्लिश कर रहे हैं। सन्‍नाटों में लिपटी वो दोपहर कहां अब धूप में आधी रात का सन्‍नाटा रहता था। लू से झुलसी दिल्‍ली की दोपहर में अक्‍सर... ‘चारपाई’ बुनने वाला जब, घंटा घर वाले नुक्‍कड़ से, कान पे रख के हाथ, इस हांक लगाता था- ‘चार... पई... बनवा लो...!’ ख़सख़स की टट्यों में सोये लोग अंदाज़ा कर लेते थे... डेढ़ बजा है! दो बजते-बजते जामुन वाला गुज़रेगा ‘जामुन... ठंडे... काले... जामुन...!’ टोकरी में बड़ के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था बंद कमरों में... बच्‍चे कानी आंख से लेटे लेटे मां को देखते थे, वो करवट लेकर सो जाती थी तीन बजे तक लू का सन्‍नाटा रहता था चार बजे तक ‘लंगरी सोटा’ पीसने लगता था ठंडाई चार बजे के पास पास ही ‘हापड़ के पापड़!’ आते थे ‘लो... हापड़... के... पापड़...’ लू की कन्‍नी टूटने पर छिड़काव होता था आंगन और दुकानों पर! बर्फ़ की सिल पर सजने लगती थीं गंडेरियां केवड़ा छिड़का जाता था और छतों पर बिस्‍तर लग जाते थे जब ठंडे ठंडे आसमान पर तारे छटकने लगते थे! -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080614/f51368d1/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jun 15 12:49:23 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 15 Jun 2008 12:49:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSsIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkquCkvuCkquCkviDgpJzgpY3gpK/gpL7gpKbgpL4g4KS44KS5?= =?utf-8?b?4KScIOCkueCli+CkpOClhyDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <829019b0806150019s2969e770md58b3554bb2e36ce@mail.gmail.com> *पहले के मुकाबले आज के पापा ज्यादा सहज और दोस्ताना ढ़ंग से पेश आते हैं। तुम्हारे भले के लिए के नाम पर बच्चों के उपर अपनी जिद, अपनी अनाप-शनाप धारणा पहले से कम लादते हैं। ये मेरी अपनी समझदारी है, आप इससे असहमत भी हो सकते हैं। पढ़िए फादर्स डे पर मेरी ये पोस्ट-* पापा चलो न खेलने, ममा नहीं जा रही। चार साल के बच्चे को अपने पापा का बांह खीचते हुए आप आसानी से देख सकते हैं। उसका मन करेगा तो वो अपने पापा को बुद्धू भी कह देगा, यह भी कह देगा कि सिगरेट मत पियो पापा, कैंसर हो जाएगा, पड़ोस की निमी आंटी कहती है तुम्हारे पापा में एटीट्यूड बहुत है, आदि-आदि। चार साल के बच्चे को अपने पापा से इतना कुछ कहने को होता है कि पापा अगर दिनभर बैठकर सुने तो भी समय कम पड़ जाए। आप बच्चे की इस बात को यह कहकर टाल जाते हैं या फिर प्रशंसा करते हैं कि मेरी बेटी या बेटा बहुत बोलता है और आप उसके कुछ उदाहरण पेश कर देते हैं। आपका ध्यान इस बात पर जाता ही नहीं कि बच्चा हमेशा किन-किन मुद्दों पर बात करने लगा है। अगर आप एक सूची बनाएं और अपने बचपन के दिन को याद करें तो आपको हैरानी होगी कि अपने बच्चे की उम्र में जब आप थे तो ७० से ८० प्रतिशत बातें नहीं करते थे। पापा आपसे कुछ पूछते थे तब आप बात करना शुरु करते थे। कुछ लोगों के मामले में हो सकता है कि कॉम्युनिकेशन गैप इतना होता हो कि लोग बच्चे से सीधा न पूछकर अपनी पत्नी से पूछते हैं- निकी ने खाना खा लिया, आजकल होमवर्क ठीक से करती है या नहीं, गाली देना तो नहीं सीख लिया, ड्रेस जो खरीदी थी वो पसंद आया, वगैरह, वगैरह। जो सवाल उन्हें सीधे अपने बच्चों से करने चाहिए वो अपनी बत्नी से करते हैं। लेकिन उन लोगों की संख्या बढ़ी है जो सीधे अपने बच्चों से सवाल पूछते हैं, उनके साथ खेलते हैं, उनकी बातों को सुनते हैं, साथ में टीवी देखते हैं। एक लाइन में कहें तो शेयर करते हैं। ऐसा होने से पिता और बच्चों के बीच संवाद की स्थिति आज से बीच-पच्चीस साल पहले से बहुत बेहतर हुई है। संवाद की बेहतर स्थिति होने से बच्चों का अपने पापा से नजदीकियां पहले से ज्यादा बढ़ी है। हो सकता है मेरी ये धारणा सब पर लागू नहीं होती, कुछ के मामलों में गलत भी हो सकती है लेकिन अपने अनुभव से मैंने देखा है वो यह कि हम बचपन में पापा के सामने इतने सहज नहीं हो पाते थे जितना कि आज के बच्चे। हो सकता है दूसरे क्लास के बच्चों में ऐसा नहीं हो लेकिन मैं जिस क्लास से आता हूं, आज उसी क्लास के बच्चे अपने पापा से दुनिया-जहां भर की बातें बड़ी सहजता से करते हैं। चार साल की खुशी मेरे भैय्या से बड़े ही सहज ढंग से कहती है- सलमान बहुत चीप है, दस के दम में बहुत ही गंदे-गंदे सवाल करता है, शाहरुख तो फिर भी अच्छी-अच्छी बातें करता है। हो सकता है ये बात उसने किसी और से सुनी हो लेकिन जितनी सहजता से वो अपने पापा को बताती है, हमें संवाद को लेकर बदलाव साफ नजर आता है। आप प्रयोग के स्तर पर एक सूची बनाएं तो आपको इस बात का अंदाजा लग जाएगा। आपका बच्चा आपसे क्या नहीं बोलता है, किन मुद्दों पर बात नहीं करता है, क्लास के किन बच्चों या टीचर की नकल करके नहीं दिखाता है। वो आज इस बात का फर्क ही नहीं करता कि कौन सी बात अपने पापा से कहनी चाहिए और कौन-सी बात अपने दोस्तों से। ऐसा नहीं है कि उसमें समझदारी की कमी है, बल्कि आज वो अपने पापा को अपने से बहुत नजदीक पाता है। वो बीच-बीच में यह भी कह देता है, पापा गीला टॉवेल बेड पर मत रखो, ममा डांटेंगी। अपने बच्चों से आज से बीस-पच्चीस साल पहले ये सब सुनना मेरे अनुभव से इतना सहज नहीं था। अव्वल तो ये कि ममा भी पापा को डांट सकती है। आज के पापा ने अपने को बच्चों के सामने अपने को दोस्त के तौर पर प्रोजेक्ट करना शुरु कर दिया है जो कि जरुरी भी है। इस बदलाव के कई कारण हो सकते हैं औऱ हो सकता है कई पापा अभी भी ऐसा इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से बच्चों के बीच उनका प्रभाव कम जाएगा, बच्चे उनकी बात नहीं सुनेंगे। लेकिन ऐसा करने का दूसरा पक्ष ये भी है कि बच्चों के बीच सहज रहने से उन्हें अनुशासन के डंडे से दुरुस्त करने के बजाए भावनात्मक स्तर पर नियंत्रित करना ज्यादा आसान और बेहतर होता है। पढ़े- लिखे आधुनिक शैली में जीनेवाले पापा ये भी सोचते हैं कि इन बच्चों से दिनभर में एक-दो घंटे ही तो मिलना होता है, उस पर भी अगर इनके साथ सख्ती से पेश आया जाए तो ये डर से भले ही मेरी बात मानें लेकिन दिल से मेरे लिए सम्मान नहीं होगा। जैसे-जैसे बड़े होते जाएंगे, भावनाच्मक स्तर पर दूर होते चले जाएंगे। इसलिए बेहतर है कि इनके साथ संवेदना के स्तर पर संबंध बनाए जाएं। पत्नी के कामकाजी और व्यस्त होने की वजह से पापा अपने बच्चों को नहलाने लग गए हैं, जूते के फीते बांधने लगे हैं औऱ कभी-कभी ब्रेकफास्ट भी बनाने लगे हैं। इन घरेलू काम में शामिल होने की बजह से बच्चों से उनकी नजदीकियां पहले से बढ़ी है जो कि अच्छी बात है। और वैसे भी अब वो जमाना लद गया कि बच्चे को अनुशासित करने के नाम पर आप उसे बेरहमी से पीटते रहो और सरकार का कानून नाक बजाकर सोता रहे। ऐसा करने पर आपके खिलाफ कारवाई हो सकती है। इसलिए अच्छा लगता है जब चार साल का कोई बच्चा मॉल में आपका हाथ खींचकर ले जाता है और कहता है, है न पापा बहुत सुंदर। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-153392 Size: 11382 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080615/a5a4b53f/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Sun Jun 15 19:54:43 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sun, 15 Jun 2008 09:24:43 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <19159916.652681213539883767.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// 2023 में न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन: दो-चार स्केचेज़ Posted: 14 Jun 2008 01:25 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/311945126/2023.html अविनाश जी, अपराजिता ने चैनलों के कंटेंट में हो रहे सतत बदलावों को इंगित करते हुए एक लेख टीवी मीडिया का आने वाला समय: काटो काटो काटो लिखा है। मैं उसी कड़ी को बढ़ाते हुए एक छोटा सा लेख भेज रहा हूं। इसके केंद्र में मैंने अपने आप को रखते हुए साल 2023 में टीवी पत्रकारिता की कल्पना की है। मोहल्ला पर यह मेरा पहला प्रयास है। आशा है जगह देकर बहस को और आगे बढ़ाएंगे। हेडलाइन मैंने आपके जिम्मे सौप दी है।आपका, राजीवराजीव कुमार हैं तो मूलत: मधुबनी के रहने वाले, लेकिन उनका ज़्यादातर व़क़्त पटना में गुज़रा है। फिलहाल आजतक से जुड़े हैं। पटना कॉलेज और आईआईएमसी से पढ़ाई-लिखाई हुई है। टीवी पत्रकारिता के भविष्‍य को लेकर उनकी आशा हमें आकर्षित करती है। वे खुद मानते हैं कि कंटेंट की दुर्दशा का ये एक फेज है, जो जल्‍दी ही ख़त्‍म हो जाएगा। इस आलेख में उन्‍होंने भविष्‍य की टीवी पत्रकारिता का जो स्‍केच ख़ींचा है, वह लाजवाब है।फरवरी 2023 की एक अलमस्त सुबह। शीतलहर अभी बीता ही है और सूरज अभी भी आसमान में शरमा रहा है। मैं एक बड़े चैनल में कंसल्टेट बन गया हूं और पत्नी युनिवर्सिटी जाने के लिए तैयार है, जहां वो पत्रकारिता पढ़ाती है। मेरी बेटी 10 साल की हो गयी है, और शेल्डन सीरीज़ के नावेल कब की चाट चुकी है। आजकल वो प्री-चाईनीज सर्टिफिकेट कोर्स के साथ-साथ हिंदी डिक्सन के एडवांस कोर्स करने में व्यस्त है। मेरे चैनल पर हेल्थ शो की डिमांड बढ़ गयी है और फूडीज के साथ-साथ एक डॉग शो भी चर्चा में है। क्रिकेट का जादू अभी भी है लेकिन कुछ नए खेलों ने घुसपैठ की है। फुटबॉल, टेनिस और शूटिंग ने क्रिकेट का चंक कम किया है। एक शो नये इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स पर चल रहा है। साथ ही धर्म और अध्यात्म ने तीसरे दर्जे के सनसनीख़ेज सेलिब्रेटियों को टेलिविजन के पर्दे से लगभग तड़ीपार कर दिया है। हिंदी चैनलों पर स्तरीय डिबेट्स, पॉलिटिकल इंटरव्‍यूज़ और समाजिक मुद्दो पर एक नयी बहस देखने को मिल रही है। कारोबार और शेयर बाज़ार से ताल्लुक रखने वाले प्रोग्राम प्राइम टाइम में आने लगे हैं। मेरी पत्नी और मैं कभी-कभी ये देख कर मुसकुराते हैं कि एक वो ज़माना भी था, जब नाग-नागिन के बाद खली का युग आया था... और नौजवान ये नहीं सोच पा रहे थे कि राखी सावंत जैसा बनना ज्यादा फायदेमंद है या शनि महाराज। ज्योतिष का कैरियर उसी ज़माने से आईआईएम ग्रेजुएट्स को टक्कर दे रहा है और इसी से उत्साहित होकर एक तमिल एनआरआई ने बाकायदा महाकाल की नगरी उज्जैन में 2015 के आसपास 500 एकड़ जमीन में ज्योतिष संस्थान ही खोल डाला। मुझे याद आता है सिर्फ 15 साल ही तो हुए है - मेरे चैनल ने ही भगवान को बाकायदा ज़‍िंदा शूट कर लिया और उससे पहले लगातार घंटो तक शनि ग्रह का छल्ला और एक बाबा को स्टूडियो से दिखाता रहा। हालांकि अपनी बेटी के सामने हम ये ज़‍िक्र कम ही करते हैं। आजकल वो सयानी हो रही है, और हमारे ज़माने की खिचाई का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती है। हम भी तो ऐसे ही थे। मुझे याद आता है वो दिन, जब ‘आज तक’ और ‘स्टार’ के जलवे में हम ‘दूरदर्शन’ के अस्सी वाले दशक के कार्यक्रमों का मज़ाक उड़ाया करते थे। इधर कुछ नयी घटनाएं भी हुईं है। 2018 तक हिंदी में तकरीबन 50 से ज्यादा नेशनल न्यूज चैनल आ गए... और अब कंसोलिडेशन का दौर शुरू हुआ है। यानी इतने चैनलों के लिए स्पेस नहीं है... और मर्जर-एक्वीजिशन चल रहा है। फिर भी 10-15 ठोस खिलाड़ी तो रह ही जाएंगे... और हरेक तरह के अभी भी है। गंभीर चैनलों की तादाद बढ़ गयी है। हालांकि राखी सावंत टाईप चैनल अभी भी हैं, क्योकि वैसे दर्शक अभी भी खासे हैं। राखी सावंत अब 40 पार की हो गयी है और सुना है कि उसने एक एक्टिंग सिखाने का स्कूल खोल लिया है। वह अभी भी कभी-कभी सी-ग्रेड चैनलों पर आ ही जाती है और वो चैनल अब एक विंडो में उसका पुरान विजुअल लूप मे डाल कर चलाता है। दूसरी तरफ अंग्रेज़ी के चैनलों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इधर उनमें भी गिरावट आयी है। अब महानगरों के मेट्रो चैनल सिर्फ अंग्रेज़ी में आ रहे हैं। सुना है कि साउथ में कुछ राज्य स्तरीय चैनल भी अंग्रेज़ी में खुल गये हैं। दिलचस्प बात ये कि जो काम 2008 के आसपास हिंदी चैनल करते थे, वो अब अंग्रेज़ी चैनल करने लगे हैं। अंग्रेज़ी मेट्रो चैनलों ने बाथरूम से लेकर वीआईपीज़ के बेडरुम तक में कैमरा फिट कर दिया है और धड़ाधड़ एमएमएस दिखा रहे हैं। सुनने में आया है कि पिछले दिनों एक केंद्रीय मंत्री की बेटी को ही स्वीमिंग पूल में उसके दोस्त के साथ शूट कर लिया गया, जो पार्टी आलाकमान को आंख दिखाता था। बेचारा बाद में गिड़गिड़ाने लगा। अब ऐसे-ऐसे कैमरे आ गए हैं, जो पानी के अंदर और बंद कमरे के बाहर भी शूट कर सकते है। इधर हिंदुस्तान बेतरह बदला है। शहरी आबादी तकरीबन 55 फीसदी हो गयी है और साक्षरता 90 फ़ीसदी। हिंदी पट्टी के गांवो मे बिजली और इंटरनेट के आने से बच्चों में अधनंगी मॉडलों को देखने का क्रेज़ ख़त्म हो गया है और टीवी पर फूहर सी हिरोइनों और मॉडलो का रुतबा घट गया है। इधर यूपी-बिहार के तकरीबन सारे बड़े नेताओं ने चैनल खोल लिये हैं... और राजनीतिक कार्यकर्ता बनने के लिए जाति के साथ-साथ पर्सनाल्‍टी और प्रेजेंटेशन और भाषण का अच्छा स्क्रिप्ट ज़रूरी हो गया है। सुना ये भी है कि हिंदी चैनलों के बेहतरीन स्क्रिप्ट राइटर नेताओं के लिए पोच कर लिये गये है। उधर चीन के साथ संबंध सुधरा है... और कोलकाता समेत देश के पूर्वी इलाकों का विकास हुआ है। टैम ने अपना टीआरपी मीटर किशनगंज, मोतिहारी और दरभंगा तक में लगा दिये है। मैं चैनल बदलता हूं। एक हिंदी चैनल पर अर्थ रिपोर्ट जैसा प्रोग्राम आ रहा है जिसका स्टिंग है धरती माता। आज के एपिसोड में सोमालिया में हुए पुनर्निर्माण पर एक ख़ास रिपोर्ट आ रही है। और मजे़ की बात ये है कि इस प्रोग्राम के ईपी वही हैं, जो कभी खली और शनि ग्रह के प्रोड्यूसर थे। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080615/051e5eed/attachment-0001.html From baliwrites at gmail.com Mon Jun 16 18:22:35 2008 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Mon, 16 Jun 2008 18:22:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= new blog Message-ID: namaste dosto, ek blog shuru kiya he . ummeed he aap padhenge or apni ray denge. link neeche he : http://vidyalayadiary.blogspot.com/ balvinder'bali' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080616/c1c77c00/attachment.html From baliwrites at gmail.com Mon Jun 16 18:22:35 2008 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Mon, 16 Jun 2008 18:22:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= new blog Message-ID: namaste dosto, ek blog shuru kiya he . ummeed he aap padhenge or apni ray denge. link neeche he : http://vidyalayadiary.blogspot.com/ balvinder'bali' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080616/c1c77c00/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Mon Jun 16 20:36:05 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 16 Jun 2008 10:06:05 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <14058609.882341213628765231.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// एसपी सिंह के बाद की टीवी पत्रकारिता Posted: 16 Jun 2008 08:48 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/313040699/blog-post_16.html 16 जून 1997। सुबह का समय। सुरेंद्र प्रताप सिंह अचानक घर पर गिर पड़े। दोपहर होते होते पता चला कि ये साधारण बेहोशी नहीं थी। कोमा में थे एसपी। ब्रेन हेमरेज हो गया था। एसपी अपने जीवन के चौथे दशक में ही थे। 27 जून को अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। दिल्ली के लोदी रोड शवदाह गृह में उनके भतीजे और पत्रकार चंदन प्रताप सिंह ने शव को मुखाग्नि दी। ग्यारह साल बाद आज पत्रकारिता, खासकर हिंदी टीवी न्यूज पत्रकारिता एक रोचक दौर में है। भारत में टीवी पत्रकारिता में मॉडर्निटी की शुरूआत आप एसपी के आज तक से मान सकते हैं। जिन लोगों ने एसपी का काम देखा है, या सुना है, या उनसे जुड़ी किसी चर्चा में शामिल हुए हैं, या उनके बारे में कोई राय रखते हैं, उनकी और बाकी सभी की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। ये एस पी को श्रद्धांजलि देने का समय नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं है। एसपी मठ तोड़ने के हिमायती थे। ये क्या कम आश्चर्य की बात है कि एसपी के लगभग पांच सौ या उससे भी ज्यादा लेख और इंटरव्यू यहां-वहां बिखरे हैं, लेकिन उनका संकलन अब तक नहीं छप पाया है। एसपी कहते थे - जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ। एसपी कोई चेला मंडली नहीं छोड़ गए। एसपी किसी चेलामंडली के बिना ही कल्ट बन गए। भारत में पत्रकारिता के अकेले कल्ट फिगर। ऐसे एसपी की याद में आप स्मारक नहीं बना सकते, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता पर बात जरूर रख सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में ये घटाटोप अंधकार का दौर है और कि ये घनघोर पतन का दशक साबित हुआ। आपके पास शायद रोशनी की कोई किरण हो। /////////////////////////////////////////// आपको क्या सिखायेगा अमेरिकी मीडिया? Posted: 15 Jun 2008 10:59 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/312440398/blog-post_15.html मोहल्ला में अंशुमाली जी का यह लेख और उससे पहले दिलीप मंडल का। मैंने टिप्पणी के रूप में कुछ बातें की थीं। शायद वे इन दोनों लेखों से जुड़ती हैं। दिलीप भाई के लेख पर कुछ इस तरह की शिकायत भी टिप्पणी के रूप में आयी थी कि बहस को दूसरी दिशा में क्यों मोड़ दिया गया। पूर्व और पश्चिम की बात करते हुए अक्सर हम एक अतिवादी दृष्टिकोण का शिकार हो जाते हैं। कुछ-कुछ मनोज कुमार की भारतीयता की तरह। उम्मीद है कि मित्रगण इसे वस्तुस्थिति और तथ्यपरकता की राह पर लाएंगे। इस दरम्यान मीडिया को 2023 में देखने की कल्पना भी आ गयी है। वह कितनी सटीक है, इस पर भी चर्चा हो सकती है, क्योंकि अब तुलसी के दौर की धीमी रफ़्तार से ज़माना नहीं बदल रहा कि कह दिया जाए कलयुग में यह होगा, वह होगा। पिछले बीस सालों में वेदों के काल से चले आ रहे खेती के तौर-तरीके, खेती के औज़ारों के नाम तक उन्मूलित हो चुके हैं। अस्तु... फिलहाल बात मीडिया की हो रही है।मैंने कुछ इस तरह लिखा था... दिलीप भाई, सर्वे वहां कराया जाता है जहां इसकी ज़रूरत होती है। हमारा मीडिया अंतर्यामी है और तय करता है कि जनता को क्या पढ़ना-देखना-सुनना चाहिए। हमारे यहां मीडिया का बाज़ार और न्यूज रूम के सुर-ताल का एक नमूना एक हिंदी राष्ट्रीय चैनल पर मैंने चंद दिन पहले ही देखा। ऐसे उदाहरण लगभग हर चैनल से दिए जा सकते हैं। पतित होने की स्पर्द्धा चल रही है -एक महिला को साईं बाबा साक्षात दर्शन देने के बाद माला थमा कर चले गये। उसके बाद इसे ख़बर की तरह पेश करके उस तथ्य से जोड़ दिया गया कि साईं बाबा ने देह त्यागने से पहले अपने 9 सिक्के सेवा करने वाली लक्ष्मी अम्मा को दे दिये थे। उस महिला की पोती ने यह भी बताया कि वह वर्ष 1918 का कोई दिन था।दर्शन देने वाले इस गल्प को कई ब्रेक लेकर बताया गया और हर ब्रेक में भरपूर विज्ञापन भी थे। सोचिए इन विज्ञापनों के जुटने से पहले साईं बाबा को टीवी पर ख़बर बन कर आने के लिए समाधि में कितनी करवटें बदलना पड़ीं होंगी! वैसे, यह ख़बर देखने के बाद साईं बाबा मेरे सपने में भी आये थे और इस तरह ‘यूज़ कर लिये जाने’ की अपनी असहायता पर फूट-फूट कर रो रहे थे! (भक्तजनों से क्षमायाचना सहित!) ...अब अमेरिकी मीडिया इंडस्ट्री के इस सर्वे की बात (कृपया दिलीप मंडल की उसी पोस्ट में तालिका देखें)। वह समाज या पाठकों के हितों वाला सर्वे नहीं है, बल्कि अपनी जान बचाये रखने का सर्कुलेशन सर्वे है। वहां पारंपरिक मीडिया की हालत पर्याप्त पतली हो चली है। भारत में भी कई संस्थाएं मेहनताना वसूल कर अखबारों-पत्रिकाओं के लिए इस तरह के सर्वे करती रहती हैं कि किस आयु वर्ग के लोग किस तरह की सामग्री पढ़ना पसंद करते हैं, वगैरह। नॉम चोम्स्की ने सच ही कहा था कि अमेरिकी समाज दरअसल, एक बन्द समाज है। इसमें मैं यह और जोड़ना चाहूंगा कि अमेरिकी मीडिया की भूमिका इसमें बहुत ज़्यादा है। पड़ताल की जाए तो अमेरिकी मीडिया दुनिया भर के मीडिया, ख़ास कर भारतीय मीडिया से कई गुना ज़्यादा कुत्सित है। अमेरिका कितना ही लोकतंत्र का दम भरे, वह अपने नागरिकों को किसी भी वैध माध्यम से दुनिया की सही तस्वीर नहीं पहुंचने देता। ख़ास तौर पर तब, जब उसके अत्याचारों की पोल अपनी ही जनता के सामने खुल रही हो। वहां का पूरा मीडिया इस खेल में शामिल होता है। ताज़ा उदाहरण इराक़ युद्ध का है। अमेरिकियों को इराक़ हमले के शुरुआती दो साल तक यह पता ही नहीं लगने दिया गया कि अमेरिकी सैनिकों की अगुवाई में क्या-क्या कहर निर्दोष इराकी जनता पर ढाये जा रहे हैं। वहां सद्दाम को आज-कल में पकड़ लेने और इराक में लोकतंत्र का झंडा एक-दो दिनों में फहरा दिये जाने की ख़बरें चलायी जा रही थीं। तमाम आरोपों के बावजूद इराक़ युद्ध की कहीं ज़्यादा व्यवस्थित ख़बरें भारत पहुंच रही थीं। दिनांक 11 सितम्बर 2001 को न्यूयार्क स्थित ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद गिरफ्तार अल-कायदा कार्यकर्ताओं को रखने के लिए क्यूबा की धरती पर गुआंतानामो जेल (ख़ास प्रकोष्ठ) साल 2002 में बनायी गयी थी। बाद में इसमें अफ़गानिस्तान युद्ध के तालिबान बंदी लाये गये, उसके बाद इराक़ युद्ध के दौरान पकड़े गए लोग ठूंसे गये। इस जेल में अमरीकियों द्वारा विदेशी कैदियों पर ढाये गये अमानुषिक, लोमहर्षक लैंगिक अत्याचार पिशाचों को भी शर्मिन्दा कर देने वाले हैं। लेकिन अमेरिकी जनता को इनकी भनक भी नहीं लगने दी गयी। अत्याचार करने वालों में यूएस महिला सैनिक भी शामिल थीं!यह तो तकरीबन 3 साल पहले भांडा फूटा और दुनिया के सामने अमेरिका का मुंह काला हो गया। अब जाकर गुरु (12/06/2008) को यूएस सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इन कैदियों को अमेरिकी संविधान के तहत न्याय मिलेगा, इस पर यूएन ने भी ताली बजायी है। देखने वाली बात यह है कि जनता के सामने बात खुल जाने के बाद अब आगामी राष्ट्रपति चुनाव के दोनों प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेट बराक ओबामा और रिपब्लिकन जॉन मकैन भी इस जेल को ख़त्म कर देने के वादे करते नहीं अघा रहे।इसी तरह जिस दिन से ब्‍लॉगों और अन्य माध्यमों से इराक़ युद्ध की विभीषिका की तस्वीर साफ होना शुरू हुई, उसी दिन से राष्ट्रपति बुश को अपनी जनता से नज़रें चुरानापड़ रही हैं। हर दूसरे-चौथे दिन सफाई देते रहते हैं और इस बार का राष्ट्रपति चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा जाना है, उनमें से यह एक बड़ा मुद्दा होगा। और अमेरिकी मीडिया हर बार के राष्ट्रपति चुनाव की तरह अमेरिका की शानदार हेट कैम्पेन परम्परा का सक्रिय सहयोगी बन जाएगा। आख़िर विश्व में अमेरिकी पूंजी का तांडव होने से उसकी झोली में भी तो डॉलर बरसते हैं। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080616/b30654fb/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Tue Jun 17 20:49:57 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 17 Jun 2008 10:19:57 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <18818403.924051213715997580.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// एस पी की गैरहाजिरी का मतलब Posted: 17 Jun 2008 06:10 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/313584348/blog-post_17.html कबीर की परंपरा के पत्रकार, घुमक्कड़ और औघड़ अनिल यादव की ये पोस्ट उनकी इजाजत के बाद आप लोगो के लिए पेश है। अनिल यादव उन साहसी पत्रकारों में हैं, जो नौकरी छोड़ कर महीनों तक नार्थ ईस्ट की खाक छानने और जानने के लिए किसी एसाइनमेंट या फेलोशिप का इंतज़ार नहीं करते। अनिल यादव ने अभी अभी हारमोनियम नाम का ब्लॉग शुरू किया है और उनके लड़कपन की एक तस्वीर मोहल्ला के ऊपर वाले कोने में लगी है : दिलीप मंडलहां भाई दिलीप, आज ही एसपी की मौत हुई थी और इसके एक हफ्ते बाद लखनऊ में एनेक्सी के प्रेस रूम में एक रस्मी शोक सभा हम लोगों ने की थी। हम लोगों के पास वह फोटो नहीं था, जो उनसे नत्थी हर कार्यक्रम में लगता आया है। जैसा कि देश में अन्य शोकसभाओं में कहा गया था, उस शोकसभा में भी आश्चर्यजनक समानता से कहा गया- अच्छे थे, भले बहुत थे, पत्रकारिता के सबसे उज्‍ज्‍वल नक्षत्र थे और यह भी कहा कि उनके निधन से क्षति अपूरणीय हुई है। एसपी सिंह पूप्रमं वीपी सिंह के चेले पत्रकार संतोष भारतीय और कांग्रेस के एमपी राजीव शुक्ल के गुरु पत्रकार उदयन शर्मा के साथअनिल यादव का दिया कैप्‍शनलेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया की इस गति यानि ओझा, सोखा, भूत, चुरइन, तंत्र-मंत्र, बैंगन में भगवान, हत्या-बलातकार के मूल से भी वीभत्स रिप्ले, बिल्लो रानी, कैसा लग रहा है आपको, जनता गई तेल लेने-टीआरपी ला उर्फ छीन-झपट में झोली में धर टाइप फ्यूचर का अंदाजा था और वे बहुत चाहते हुए भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाये। कर भी क्या सकते थे वे? उनके बस में था ही क्या? शायद वे भी बस एक पुरज़ा बन कर रह गये थे। या नयी छंलाग से पहले ज़रा गौर से तमासा देख रहे थे। जितना रविवार में या दैनंदिन ज़‍िंदगी में उनने किया वो क्या कम था, इससे ज्यादा की उम्मीद उनसे करना क्या ज़्यादती नहीं है। अक्सर हम लोग पत्रकारों में नायकत्व की तलाश की रौ में उस शालीन, चुप्पे, नज़र न आने वाले चतुर व्यापारी उर्फ मालिक को भूल जाते हैं, जिसका पैसा लगा होता है। यानि जिसने हमारे नायक को नौकरी दी होती है और हर महीने तनख्वाह दे रहा (झेल रहा) होता है।अगर कोई बदलाव आना है इलेक्‍ट्रॉनिक, प्रिंट, इंटरनेट पत्रकारिता में तो पहले उस पूंजी के चरित्र, नीयत और अकीदे में आएगा (क्या वाकई) - जिसके बूते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सुगंधित, पौष्टिक बिस्कुट खाने वाला या लोकतंत्र का रखवाला यह कुकुर (वॉचडाग) पलता है। बहरहाल इस कुकुर को पोसना महंगा शौक बना डाला गया है और उसे बिजनेस कंपल्सन्स के कारण इतना स्पेस देना ही पड़ता है कि कभी-कभार गुर्रा सके। ... और यह गुर्राना भी आवारा पूंजी के मालिकों के छलकते लहकट अरमानों के हूबहू अमल के दौर में कम बड़ी सहूलियत नहीं है। उस शोकसभा के एक दिन पहले मेरी लिखी आबिचुअरी अमर उजाला के लखनऊ संस्करण के पेज ग्यारह पर छपी थी (अपने वीरेन डंगवाल के बजाय शंभुनाथ सुकुल टाइप का कोई रिपोर्टर की खबर अपने नाम से छापने वाला, जनेऊ का प्रतिभा की तरह इस्तेमाल करने वाला कोई और संपादक होता तो शायद वह भी नहीं छपती)। काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती, तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है, जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे ज़रूर अपने ब्लाग पर डालिएगा। खैर वह तिरानवे था और मैं मेरठ अमर उजाला में ख़बर एडिट करने वाला मजूर था और पार की पटकथा लिखने वाले, चुंधी आंखों और न फबने के बावजूद खफीफी दाढ़ी रखने वाले एसपी के लिए मेरे भीतर कोई सम्मोहन था। वह होना ही था वरना गिद्धों की बीट से गंधाती दिल्ली रोड से हर शाम गुज़र कर अमर उजाला में पपीता फल ही नहीं, औषधि भी टाइप के फीचर और मृतक साइकिल पर जा रहा था टाइप ख़बरें रात के तीन बजे तक एडिट करते हुए और सुभाष ढाबे वाले के मोबिल आयल में डूबे गुनगुनाते पराठे खाकर जीना संभव नहीं था।(हां वे इतने मोटे और फूले होते थे - फोड़ने पर सीटी बजाते और गुनगुनाते थे)तो तिरानबे में दीवाली के आसपास अपने जिले के पत्रकार एसपी से मिलने एक दिन आजतक में पहुंच गया। दो दिन - कई घंटे बैठने के बाद मुलाकात हुई। बैठने के दौरान मैने पीपी, राकेश त्रिपाठी अनेकों परिचितों और खुद की थोड़ी दबी (लेकिन इसी दबाव के कारण ज्यादा फैले नथुनों से एफिशिएंट) नाक से सूंघ कर जाना कि आजतक में एक चारा मशीन इन्सटाल हो चुकी थी, जिससे गुज़र कर अच्छी खासी तंदरूस्त ख़बर लंगड़ाने लगती थी। एसपी टीवी के बाहर अपनी गरदन निकाल कर उसे दर्शक तक ठेलने की जिद भरी कोशिश करते, पर वह टांग टूटी मैना की तरह वहीं कुदकती रह जाती थी। एसपी चौकन्ने बहुत थे। वे बहुगुणा की तरह मुझे और मेरे मालिक अतुल माहेश्वरी दोनों को जानते थे। स्वाभाविक था कि उन्होंने मुझे नौकरी-आतुर गाजिपुरिया युवक समझा होगा। लेकिन थोड़ी बातचीत के बाद कहा कि इस मीडियम में क्यों आना चाहते हो, यह तो अब थूकने की भी जगह नहीं है। यहां क्या है, बस भोंपू ले जाकर किसी नेता-परेता या बाइटबाज के मुंह पर अड़ा देना होता है, बाकी काम वह खुद करता है। यहां सोचने समझने वाले के लिए कोई स्पेस नहीं है। तुम प्रिंट में हो, फिर भी वहां बहुत स्पेस है और फिर अतुल माहेश्वरी जैसा समझदार लाला तुम्हारा मालिक है, जिसने समय की नब्ज देखते हुए कारोबार जैसा अखबार निकाला है।इसी बीच दीपक कमरे में आ गया। उसके हाथ में एक टेडी बियर था। एसपी ने उसे लेकर उलट-पलट कर देखा। फिर मेरी तरफ देखा - देखा, हमारा रिपोर्टर अभी भी भालू से खेलता है। इसमें व्यंग्य था या दीपक के ट्रेंडी होने का रिकगनिशन, मैं नहीं समझ पाया। दीपक के तो खैर दोनों होंठ कानों को छू रहे थे समझ ही गया होगा। स्वाभाविक यह भी था कि मुझे लगा कि मीठी गोली है, अब कट लो का इशारा है। इडियोलाजी और मीडिया को जनता के पक्ष में इस्तेमाल करने के लौंडप्पन भरे अरमानों की बातें काफी हो लीं, अब काम का समय है। चलो... मेरठ निकलो। बराबरी के आंतरिक स्केल पर सबको नापने के कुटैव से और उनके आकर्षण से त्रस्त मैने पूछ लिया, तो आप फिर क्यों अब तक यानि इस मीडियम में क्यों बने हुए हैं। आपको नहीं लगता कि निकल लेना चाहिए?...मैं तो बेहद बीमार था (बीमारी बाद में पता चली)। अस्पताल का बिल (मैने मतलब निकाला कर्ज) बहुत हो गया था। एक दिन अरुण पुरी बोट क्लब पर मिल गये। वहां से हम दोनों पैदल चलते हुए यहां तक आये और हाथ पकड़ कर उन्होंने इस कुर्सी पर बिठा दिया। तब से बैठा हुआ हूं। क्या कर सकता हूं, पैसा चाहिए तो यहीं बैठना होगा।होगा (होबो) सुन कर लगा बंगाल वाले एसपी हैं, क्योंकि उनकी आंखों की कोर भीग गयी थी। एक पछतावा था, जो मैने महसूस किया। उस रात राकेश के कमरे पर नोएडा में रूकना था। हम लोग आजतक की रात की पाली के स्टाफ को घर छोडने वाली कार से वापस से लौटे। कार में एक ढलती सी, सेक्सी, बस जरा बीच-बीच में मजबूर लगती गाय सी कातर आंखों वाली लड़की थी, जो किसी जूनियर को बता रही थी कि उसका सपना किसी दिन दो वारशिप्‍स की आमने-सामने टक्कर को कवर करना है। मुझे रोमांचित होना चाहिए था। लगा कि इससे कल रात ही कोई थ्रिलर पढ़ा है या फिर जो इसके रोल मॉडल सर होंगे, उनकी बकचोदी को सत्य मानकर उवाच रही है। बहरहाल वह ढलती लड़की फिर कभी अफगान, इराक या किसी और वार के दौरान नज़र नहीं आयी। फिर लड़की की नकली उन्माद में खत्म तेल की भभकती ढिबरी लगती आंखों में झांकते हुए, उस रात मुझे लगा कि एसपी गोली नहीं दे रहे थे। उन्हें आभास है कि कल दफ्तर के भीतर एमएमएस और बाहर डाइन के प्रकोप में खेलती ग़रीब औरतों का दयनीय उन्माद और उनके फटे ब्लाउज बिकने वाले हैं। आज ही भाई दिलीप को बजरिये ई-मेल बताया कि ब्लाग बन गया। शाम को पोस्ट से ख्याल आया कि एसपी आज ही गये थे। सोचा था रात बारह से पहले लिख देना है, क्या पता किसी को इस का इंतजार हो। लेकिन देर हो ही गयी। बच्चा नींद में उन्मत्त रो रहा है, भूख भयानक लगी है, सुबह जल्दी उठ कर डाक्टर को आंख दिखानी है - नहीं तो ससुरा इस हफ्ते फिर लटका देगा। एसपी पर संशोधित, सुचिंतित पोस्ट फिर कभी। खैर जाते समय क्या एसपी मुझ जैसी ही हड़बड़ी में नहीं गये होंगे। देखिए तो कितने काम छूट गये, जो शायद वह या वही कर सकते थे। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080617/d7c6b3e5/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Jun 18 05:44:49 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 18 Jun 2008 05:44:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSX4KSwIOCkuOCkvuCkpeCkv+Ckr+Cli+CkgiDgpLjgpYcg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCkheCkquClgOCksg==?= Message-ID: <829019b0806171714l20c31c81s3ba693d9805daf34@mail.gmail.com> कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के खिलाफः विरोध प्रदर्शन [image: कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के खिलाफः विरोध प्रदर्शन] *19 जून 2008, 11 बजे सुबह; पुलिस हेडक्वार्टर, आइटीओ के नजदीक, नई दिल्ली,सम्पर्क- 9811853307,9871155668, 9811972872* साथियों, कनकलता के मामले में अखबारों,टेलीविजन चैनलों के अलावा ब्लॉग के जरिए भी आपको लगातार सूचनाएं मिलती रही हैं। आपके सामने सबकुछ स्पष्ट है कि किस तरह से कनकलता के मकान-मालिक और उसके परिवारवालों ने उसकी जाति जान लेने पर कि वो दलित है,कनकलता औऱ उसके भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा। कनकलता औऱ उसकी बहन को सामूहिक बलात्कार की धमकियां दी और उसके भाईयों को अपनी बहू के साथ छेड़छाड़ करने के खिलाफ फर्जी केस बनाने की कोशिश की। पुलिस ने भी इनकी शिकायत दर्ज करने के बजाय इसी बात को दुहराया और समझौते कर लेने के लिए दबाब बनाती रही। आज इस घटना के हुए 45 दिनों से ज्यादा हो रहे हैं लेकिन कनकलता और उसके भाई-बहनों के साथ हुए इस जातीय उत्पीड़न को प्रशासन की ओर से गंभीरता से नहीं लिया गया है। मकान-मालिक और उनके परिवार वाले आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। उन पर इस बात का कोई भी असर नहीं हो रहा है कि उन्होंने गैरमानवीय कार्य किया है। उल्टे उनकी दादागिरी बढ़ती ही जा रही है। तभी तो वापस उस घर में सामान ले जाने के लिए गई कनकलता को मकान-मालिक ने साफ कहा कि- आगे से कोई सामान यहां से नहीं जाएगा और कनकलता का आधा सामान आज भी उस 165 नं, घर के दूसरे तल पर बंद है। घटना के शुरुआती दौर में पुलिस ने बार-बार समझौते के लिए दबाब बनाए और अब भी तेजी से कोई भी कारवाई करने में नाकाम रही है। इसे आप कनकलता को न्याय दिलाने में पुलिस की दिलचस्पी का न होना या फिर दोषी मकान-मालिक को समर्थन देने के रुप में देख सकते हैं। साथियों, पुलिस के इस टालमटोल रवैये और मकान-मालिक की बढ़ती दादागिरी के खिलाफ अब सड़कों पर उतरने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा चारा नहीं है। हमनें तय किया है कि कनकलता के पक्ष में हम अपनी आवाज सड़कों पर बुलंद करेंगे। हम कनकलता के पक्ष में अब उन-उन जगहों पर जाकर आवाज उठाएंगे जहां से हमें अब तक न्याय की गारंटी मिलती रही है औऱ जो वक्त के साथ-साथ कोरे आश्वासन में बदलती चली जा रही है। हम मांग करते हैं कि- ओमप्रकाश ग्रोवर तथा उसके परिवार के सदस्यों पर अनुसूचित जाति/जनजाति(अत्याचार निवारण)अधिनियम 1989 की धारा 3 के तहत अबिलंब मुकदमा दायर किया जाए और उकी त्वरित सुनवायी की जाए। कनकलता और उसके भाई-बहनों के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के मामले को रफा-दफा करवाने में सक्रिय रुप से शामिल मुखर्जीनगर थाने की एसएचओ श्री इंदिरा शर्मा और एसपी. उत्तर पश्चिम चंद्रहास यादव को बर्खास्त किया जाए तथा उनके विरुद्ध अनुसूचित जाति/जनजाति(अत्याचार निवारण)अधिनियम 1989 के धारा 4 के तहत मामला दर्ज किया जाए कनकलता और उसके भाई-बहनों के खिलाफ दर्ज फर्जी मुकदमा तत्काल वापस लिया जाए।। आप ब्लॉगर साथियों से अपील है कि आप हमारे इस मिशन में शामिल हो। इस अपील के नीचे नाम सहित टिप्पणी करें, संभव हो तो बताए गए स्थान और समय के मुताबिक आकर हमारा साथ दें। औऱ जो ब्लॉगर साथी समाचार पत्र,न्यूज चैनल या फिर मीडिया के अन्य माध्यमों से जुड़े हैं वो इस पोस्ट को खबर के तौर पर आगे प्रसारित करें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080618/65b95e1d/attachment.html From avinashonly at gmail.com Wed Jun 18 20:49:55 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 18 Jun 2008 10:19:55 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <19122728.1072561213802395801.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन: 19 जून, 11 बजे Posted: 18 Jun 2008 07:57 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/314587170/19-11.html पिछले डेढ़ महीने से कनकलता अपने साथ हुए अत्याचार के खिलाफ़ न्याय की तलाश कर रही हैं। दिल्ली पुलिस के दारोगा से लेकर कमिश्नर, महिला आयोग, अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग, मानवाधिकार आयोग और दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर तक: सबका दरवाज़ा खटखटाया उसने इस डेढ़ महीने में। कहीं से कुछ नहीं मिला। ऐसे में कनक, उनके भाई-बहन और मित्रों के पास सड़कों पर उतरने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। कनक और उसके साथियों ने कल दिनांक 19 जून 2008 को 11 बजे आई टी ओ स्थित दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर विरोध-प्रदर्शन करने का निर्णय लिया है। आप तमाम इंसाफ़ और तरक्कीपसंद लोगों से यह अपील है कि कल होने वाले प्रदर्शन में अपनी उपस्थिति सुनिश्चित बनाकर कनक के संघर्ष को और आगे बढाएं। /////////////////////////////////////////// देह की भाषा में बतियाता खबरची Posted: 17 Jun 2008 12:53 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/313948842/blog-post_227.html भाई दिलीप मंडल की पोस्ट एसपी की गैरहाजिरी का मतलब में अनिल यादव ने लिखा है, ‘काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है, जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा। ’ एसपी सिंह के निधन के बाद निर्मलेंदु जी ने एक पुस्तक संपादित की थी, ‘शिला पर आख़िरी अभिलेख ’। पुस्तक में विशेष सहयोग देने वालों में दिलीप मंडल भी थे। यह पुस्तक मेरे पास है। रिजेक्ट माल पर मैंने जो टिप्पणी की थी, उसमें जिस किताब का ज़िक्र हुआ है, वह यही है। अनिल यादव का वह लेख पृष्ठ क्रमांक 192 पर है। शीर्षक है, ‘देह की भाषा में बतियाता खबरची ’। अनिल जी का वह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं : विजयशंकर चतुर्वेदी‘एंकरपर्सन’ एसपी सिंह को परदे पर ख़बर बांचते देखना अजीब था। एक तटस्थ और शातिर सांवादिक (कम्यूनिकेटर) की तरह ख़बर को हवा में तैरा कर वह चुप नहीं हो जाते थे - भौंहें सिकोड़ कर, बहुत ज़ोर लगा कर, गर्दन मटकाते हुए पढ़ते थे। मानो ख़बर में छिपी ख़बर को धकियाते हुए परदे के पार जितना अधिक हो सके, उतनी दूर भेज देना चाहते हों। उन्हें शायद यक़ीन नहीं आता था कि दूरदर्शन के सेंसर की चारा मशीन में फंस कर लंगड़ी हो चुकी ख़बर ख़ुद अपना सफ़र तय कर पाएगी। उनका यह ढंग थोड़ा खीझ ज़रूर पैदा करता था, लेकिन साथ ही साथ दर्शकों को ज़्यादा सहज हो कर टीवी के सामने बैठने को बाध्य भी करता था। आख़िर कुछ तो है, जिसकी तरफ आंखों से, गर्दन को पूरा ज़ोर लगा कर वह इशारा कर रहे हैं। वह सरकार और बाज़ार की बंदिशों को धकेल कर देह की भाषा में सबसे बतियाते खबरची थे। खबरें उन्हें फड़फड़ाने को मजबूर करती थीं। यह बहुत बड़ी बात थी। शिखर पर बैठा हुआ प्रोफेशनल होने के बावजूद एसपी ठंडे और तटस्थ नहीं रह पाते थे। जनवरी 1997 की एक शाम। ‘आज तक’ के दिल्ली दफ्तर में एसपी से हुई लंबी मुलाक़ात जेहन में आज भी फंसी हुई है - जस की तस। वह पत्रकारिता में बहुतों के आग्रह थे। कुछ के गुरूर थे और कुछ के लिए कुशल ख़बर मुनीम। यहां दूसरे एसपी थे। आत्मरति में नहायी आग और पत्रकारीय किलाफतह लनतरानियों से एकदम अछूते। थोड़े हताश, बहुत आक्रामक, करीब-करीब मुंहफट और बेधड़क। बिना इंट्रो के नंगी ख़बर की तरह अनौपचारिक और बहुआयामी। उस शाम इस एसपी के सामने मैं भी नौकरी मांगने की गरज से पहुंचा औरों की तरह। एक रिपोर्टर के हाथ से पैकेट ले कर खोलते हुए वह मुस्कुराए - ‘देखा? हमारा रिपोर्टर अब भी भालू से खेलता है।’ रिपोर्टर झेंप गया। वह बोले, ‘अरे भाई, ख़बर पकड़ने के लिए बच्चों जैसा कौतुक ज़रूरी है।’ रिपोर्टर के जाते ही वह दोबारा पुरानी पटरी पर आ गये, ‘हां, तो आप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बूझना-समझना-जानना चाहते हैं। सच कहूं तो यह बहुत छिछोरा माध्यम है। भदेस ढंग से कहें तो थूकने की भी जगह नहीं है यहां। ख़बरनवीस को कुछ नहीं करना है, केवल माइक सामने वाले के मुंह पर अड़ा देना है। बाकी काम कैमरामैन करता रहेगा। समय इतना कम है और बंदिशें इतनी ज़्यादा कि किसी के लिए बहुत कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं है। पांच साल कोई यही करता रहे तो तकनालोजी का तो बड़ा जानकार हो जाएगा, लेकिन दिमाग़ एकदम ख़ाली हो जाएगा। अगर आप कुछ ख़ास करके ले भी आएं, तो दूरदर्शन का सेंसर कैंची चला देगा, वहां एक से एक ठस दिमाग़ वाले बैठे हैं। आम बोलचाल की भाषा, दरअसल, उन्हें समझ में नहीं आती, आपत्तिजनक लगती है। हां, यहां पैसा और चकाचौंध बहुत है।’ एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’‘मेरा मानना है कि पढ़े-लिखे विचार वाले लोगों को प्रिंट मीडिया में ही जाना चाहिए। अब भी वहां बहुत गुंजाइश है।’ नौकरी गयी एक तरफ। एसपी को और अधिक खोलने के लिए सीधी मुठभेड़ का मन बना चुका था। पूछ ही लिया, ‘फिर आप सब जानते-बूझते हुए क्यों इस माध्यम में आ गए?’ कुर्सी पर निढाल होते हुए एसपी खुले, ‘हां यार, आ तो गया। मैं ‘इंडिया टुडे’ में एक कॉलम लिख रहा था। पैसे भी ठीक मिल रहे थे। काम चल रहा था। इसी बीच बीमार पड़ा और अस्पताल पहुंच गया। लिखना रुक जाने से पैसे मिलने का सिलसिला टूट गया। अरुण पुरी (लिविंग मीडिया के मालिक) से पहले भी बातचीत हुई थी। इस बार फिर बात हुई। उन्होंने कहा कि काम शुरू कर दीजिए। मैं मना नहीं कर पाया और ज्वाइन कर लिया।’‘लेकिन यहां आने के बाद आपने पत्रिका और अख़बारों में लिखना क्यों छोड़ दिया?’ एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’ मुझे झटका लगा। क्या एसपी इसी तरह हताशा और मोहभंग की हालत में बीते कई सालों से यंत्रवत लिखते आये हैं। मैंने उन्हें दूसरी तरफ मोड़ा, ‘ऐसा नहीं है। हिंदी अख़बारों में भी नये प्रयोग हो रहे हैं। अभी ‘अमर उजाला’ ने अपने एक संवाददाता को उत्तरप्रदेश में मंडल और मंदिर आन्दोलन के बाद बदली सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के अध्ययन के लिए लगाया है।’ अनमने-से दीख रहे एसपी चौकन्ना हो गये, ‘क्या सचमुच ऐसा है! क्योंकि आम तौर पर हिंदी में दूसरों (ख़ास कर अंग्रेज़ी) का कहा सच मान लिया जाता है। लोग ख़ुद खोजने की ज़हमत नहीं मोल लेते। जिसने भी यह काम किया है, उस सम्पादक से मैं मिलना चाहूंगा। यह मामूली बात नहीं है!’ इस बातचीत के बीच वह लगातार सहकर्मियों को निर्देश देते हुए, टेलीप्रिंटर से ख़बरें छांटते हुए, मज़ाक करते हुए रिकॉर्डिंग के लिए तैयार हो रहे थे। ख़बरों पर बहस करते-करते अचानक किसी को डपट देना और तुंरत गढे गये किसी लतीफे से खिंच आये सन्नाटे को तोड़ डालना उनके स्वभाव का अविरल बहता हिस्सा था। मैं ख़बरनवीस एसपी में अब कुछ और खोज रहा था। वह क्या चीज़ है, जो गाज़ीपुर के उस छोटे-से अंधियारे गांव से यहां कनाट प्लेस में बसे मायावी मीडिया लोक के शीर्ष तक उन्हें ले आयी है। ख़फीफी दाढ़ी और पैनी आंखों की कौंध के बीच उसे तुंरत खोजना असंभव था। आत्मविश्वास से भरे एसपी को वहां शीर्ष पर देखना सचमुच एक गुरूर जगाता था कि मीडिया का सिंहासन सिर्फ विदेशपलट या वसीयतनामे जेब में ले कर आये लोगों के लिए ही नहीं है। अपनी ज़मीन की समझदारी में पगी जिजीविषा भी वहां छलांग मार कर बैठ सकती है। मुझे वहां खोया हुआ छोड़ एसपी ने कुर्सी पर टंगा कोट उठाया और झटके से रिकॉर्डिंग के लिए चले गये... ...यही उन्होंने 27 जून को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भी किया। इससे उस गुरूर को धक्का जरूर लगा है। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080618/3ef7bd97/attachment-0001.html From chandma1987 at gmail.com Thu Jun 19 14:01:39 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Thu, 19 Jun 2008 04:31:39 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDAzIOCkqOClh+Ckn+CkteCksOCljeCklS0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN4KSV4KWD4KSk4KS/IOCkleCkviDgpKrgpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSv4KSV?= Message-ID: *समीक्षा* *मीडिया नगर **03: **नेटवर्क**-**संस्कृति का परिचायक* *सुरेश पंडित* कहते हैं वख़्त कभी एक-सा नहीं रहता। बदलता रहता है। वख़्त के साथ दुनिया और उसके लोग और उनकी जिन्दगियाँ सब कुछ बदलते रहते हैं। वख़्त में बदलाव की गति तेज़ होती है बाक़ी सब तो उसे पकड़ने, उसके अनुसार ढल जाने में देर लगाते हैं। पर लगता है पिछली चौथाई सदी में बाक़ी सब चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं कि उन्हेंने वख़्त की गति को पछाड़ दिया है। इस वायु वेग सरीखे बदलाव को पकड़ने, इसके असर को आँकने और आगे की संभावनाओं का अंदाज़ा लगाने की जो कोशिशें हो रही हैं उनमें 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ दिल्ली' के द्वारा आयोजित 'सराय' कार्यक्रम आशा और उत्साह पैदा करने वाला है। पिछले कुछ सालों में 'सराय' ने इस बारे में न केवल अनुशासित व सुनियोजित ढँग से शोधकार्य किया है बल्कि उसका क्रमिक प्रकाशन कर भारतीय बुद्धिजीवियों को उस पर विचार-बहस करने और अपने सुझावों, मंतव्यों से उसे सप्लीमेंट करने के लिए आमंत्रित भी किया है। इस परियोजना के अंतर्गत पहला प्रकाशन मीडिया नगर 01: दिल्ली पर और मीडिया नगर 02: उभरता मंजर के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं अब मीडिया नगर 03: नेटवर्क-संस्कृति पर 2007 के आखिरी महीनों में सामने आया है। तीसरे नंबर की इस 272 पृष्ठों वाली पुलस्तक में नेटवर्क के विस्तार और उसकी पारस्परिक कनेक्टिविटी को फोक़स में रखते हुए फ़िल्म, संगीत, मीडिया के साथ-साथ अख़बार, टेलीविज़न और विज्ञापन आदि को भी विचार परिधि में शामिल करने का प्रयास किया गया है। इसके पहले खंड में 'सिने-माहौल' के तहत तीन लेख हैं। इनमें रवि वासुदेवन का पहला लेख - 'खौफ़ का उन्मादः सिनेमा की शहरी बेचैनी' अस्सी के दशक की फ़िल्मों में शहरी बेचैनी और उससे पैदा हुई उग्रता, हिंसात्मकता एवं असहिष्णुता को प्रदर्शित करता है। उनके मतानुसार इन फ़ल्मों में एक्शन, हीरोइज्म और हीमेनशिप को दिखलाने पर जोर दिया गया है और नायिकाओं की भूमिका प्रायः गौण बना दी गई है। दूसरा लेख मीहिर का है - 'बौंराई सी ख़ुशबू और प्रसून जोशी की कबीराई' इसमें वे पहले की फ़िल्मों से मौज़ूदा फ़िल्में कि तरह पटकथा से लेकर गीत, संगीत तक के संदर्भ में अलग व विशिष्ट हैं इस पर प्रकाश डालते हैं। आमिर ख़ान की फ़िल्म 'रंग दे बंसती' के गीतकार प्रसून जोशी के सारे गीतों में कबीर की अनुगूँज सुनाई देती है। आज के भगतसिंह को ढूँढ़ती यह फ़िल्म कबीर की तरह रंगरेज से दुआ करती है - 'अब देर न कर सचमुच रंग दे/रंगरेज मेरे सब कुछ रंग दे।' इसी खंड के तीसरे लेख में देवश्री मुख़र्जी खुलासा करती हैं कि फ़िल्मों या टीवी सीरियलों को बनाने में जब किसी मकान के अंदर की गतिविधियों को फ़िल्माने की ज़रूरत पड़ती है तो निर्माताओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मकान मालिकों को भारी अहसान लेते हुए मुँह माँगा पैसा तो किराए के रूप में चुकाना ही होता है उनकी शर्तों का भी हर समय ध्यान रखना पड़ता है। दूसरे खंड में 'संगीत की संस्कृति' पर दो शोधपरक लेख हैं। पहले में हरियाणवी लोकसंगीत की मौख़िक परंपरा के इतिहास पर सरसरी नज़र डालने के बाद उसे कैसेटों में बंद कर बाज़ार का उत्पाद बना देने की कहानी पर रोशनी डाली गई है। आधुनिक प्रौद्योगिकी जहाँ एक ओर नेटवर्किंग कि ज़रिए लोगों को परस्पर जोड़ने की बात करती है वहीं दूसरी ओर सामूहिकता की संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर व्यक्तिवाद को पनपाती भी है। सेलफ़ोन व कैसेट के आविष्कार इसके जीवंत उदाहरण हैं। सेलफ़ोन कनेक्ट करने का दावा करता है और कैसेट एक साथ सैकड़ों की संख्या में बेठकर लोक संगीत सुनने वाले श्रोता समूह को छिन्न-भिन्न कर उन्हें अलग-अलग घरों के एकांत में बद कर देता है। दूसरे लेख में खेलों के शहर जालंधर में लगने वाले हरिबल्लभ संगीत मेले के वार्षिक आयोजन में हर बार आ रहे बादलाव को दर्शाने की चेष्टा की गई है और यह दिखाया गया है कि कैसे एक स्थानीय परंपरा बाज़ार के जाल में फँसकर अपनी स्वाभाविकता खो देती है।संपादक परिंदे, पत्रिका वर्ष 1 अंक -2 जून-जुलाई, 2008 -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080619/34e78441/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Jun 20 09:48:52 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 20 Jun 2008 09:48:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWB4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KS4IOCkruClgeCkluCljeCkr+CkvuCksuCkryDgpKrgpLAg4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSm4KSw4KWN4KS24KSoIDsg4KSV4KSo4KSV4KSy4KSk4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCkruCkv+CksuClh+Ckl+CkviDgpKjgpY3gpK/gpL7gpK8=?= Message-ID: <829019b0806192118l18a20430ref58381ae48276c0@mail.gmail.com> जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष कर रही कनकलता और उसके परिवार वालों को आज एक बड़ी सफलता मिली है। दिल्ली पुलिस ने उत्तर-पश्चिम के एसीपी चन्द्रहास यादव को जांच अधिकारी के पद से हटा दिया है। ध्यातव्य है कि एसीपी यादव पर आरोपी ग्रोवर परिवार को बचाने का आरोप है। आज पुलिस मुख्याल्य में "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" के प्रतिनिधिमंडल से बात करते हुए दिल्ली पुलिस के संयुक्त सचिव श्री आर.आर.मीणा ने बताया कि अब कनकलता के मामले की छानबीन डीसीपी उत्तर-पश्चिम डॉ सागरप्रीत हुडा करेंगे। डॉ हुडा ने प्रतिनिधि मंडल को आश्वस्त करते हुए ये कहां कि भारतीय दंड संहिता की धारा १६४ के तहत कनकलता का वक्तव्य दर्ज किया जाएगा। उन्होंने यह वादा भी किया कि इस मामले में अबतक जो भी कारवाई हुई है उसकी रिपोर्ट ४८ घंटे के भीतर "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" और पीड़िता को दे दी जाएगी। पुलिस मुख्यालय में आज आला अधिकारियों के साथ प्रतिनिधि मंडल की हुई बातचीत में यह तथ्य साफ तौर पर निकलकर सामने आया कि एसीपी उत्तर-पश्चिम चन्द्रहास यादव ने ग्रोवर परिवार के साथ आपराधिक सांठ-गांठ करके कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के इस मामले को पूरी तरह दबाने की कोशिश की। प्रतिनिधि मंडल को यह बताया गया कि ग्रोवर परिवार के खिलाफ ६ मई को ही अनुसूचित जाति/जनजाति ( उत्पीड़न निरोधक) अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर लिया गया है। ऐसे में ग्रोवर परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी न होना चंद्रहास यादव औऱ दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा करती है। दिल्ली पुलिस के संयुक्त सचिव श्री मीणा ने प्रतिनिध मंडल को यह आश्वस्त किया कि दिल्ली उच्च न्यायालय में अगली सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस आरोपी ग्रोवर परिवार के सदस्यों की जमानत का पुरजोर विरोध करेगी। प्रतिनिधि मंडल में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक अपूर्वानंद, इग्नू की विमल थोराट, एनसीडीएचआर के पॉल दिवाकर, जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष संदीप औऱ कनकलता शामिल थी। ध्यान रहे विगत ३ मई को कनकलता औऱ उसके भाई-बहनों की जाति जान लेने के बाद मुखर्जीनगर, दिल्ली में उनके मकान-मालिक ओमप्रकाश ग्रोवर और उनके परिवार के सदस्यों ने कनकलता और उनके भाई-बहनों के साथ गाली-गलौच और मारपीट की थी। कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न में पुलिस की संदिग्ध भूमिका और अब तक आरोपी ग्रोवर परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी न होने के विरोध में "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" के बैनर तले आज दौ सौ से भी अधिक छात्रों, शिक्षकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस मुख्यालय पर धरना दिया। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080620/829fbb14/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Jun 20 11:21:10 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 20 Jun 2008 11:21:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkpOClgeCkriDgpJXgpLDgpYsg4KSs4KWH4KS24KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSu4KWALCDgpLjgpKvgpL7gpIgg4KS54KSuIOCkpuCkv+CkjyDgpKY=?= =?utf-8?b?4KWH4KSk4KWHIOCkueCliOCkgg==?= Message-ID: <829019b0806192251p14b30033ud7593f4d03ea702e@mail.gmail.com> मीडिया को इस बात की जानकारी पहले से थी। पूरी बात सुनने के पहले,अधूरे वाक्य के बीच में ही उधर से जबाब आता- हॉ, हॉ पता है, कल है न। हमारे सर ने भी बताया कि अधिकांश मीडिया को फैक्स कर दिया गया है,मेल भी किया गया है। लेकिन टेलीविजन चैनलों में दूरदर्शन और सहारा के अलावा हमें कोई नहीं दिखा। बीच-बीच में कैमरे के फ्लैश चमकते तो हमने अंदाजा लगाया कि अखबार से लोग आए होंगे। लेकिन आज हिन्दी-अंग्रेजी सहित देश के चार बड़े अखबारों में खोजा तो कहीं कोई खबर नहीं थी। हमारे साथ जुड़े कई लोगों को मीडिया के इस चरित्र पर हैरानी हो रही थी, अफसोस हो रहा था औऱ कुछ कह रहे थे, सब ढ़ोंग पालते हैं ये मीडियावाले। एक बार गड्डे से प्रिंस को बचाने में मदद कर दी, जसिका लाल मामले में महौल तैयार कर दिया तो उसे अभी तक विज्ञापन करके उलजुलूल खबरें दिखायी जा रही है औऱ दावा करते हैं कि हम आदमी के पक्ष में काम कर रहे हैं, हम देश का चेहरा दिखा रहे,बकवास करते हैं, सब के सब। मेरे साथ के लोग जिसे मीडिया की बशर्मी कह रहे थे उसे मैं मीडिया की मजबूरी समझ रहा था और कोशिश कर रहा था कि उनकी सफाई में कुछ कहूं। आमतौर पर डीयू, जेएनयू कैंपस में यूनिट लगाकर दिन-दिनभर लोगों की बाट जोहते रिपोर्टर्स आपको मिल जाएंगे। देश के किसी भी कोने में कोई हलचल हो, कोई फेरबदल हो औऱ इस मामले में देश के युवाओं से राय जाननी हो, इन रिपोर्टरर्स के लिए सबसे आसान होता है कि कैंपस की राह पकड़ लें। दो-चार हैप किस्म के लड़के-लड़कियों को पकड़ लें, उनका मन हो चाहे नहीं हो, उस मामले में उनको कोई जानकारी हो चाहे नहीं हो, बोलना चाहते हों या नहीं हो लेकिन चार-पांच मिनट की ब्रीफिंग के बाद उन्हें उस मसले पर कुछ बोलने के लिए मिन्नतें करने लगेंगे। अनचाहे ढंग से दी गई उनकी बाइट देश के युवाओं की सोच बन जाती है। सवाल भी ऐसे-ऐसे कि- क्या आपको नहीं लगता कि धोनी का करियर बॉलीवुड की कमेस्ट्री की वजह से गड़बड़ रहा है, आपको लगता है कि राहुल गांधी ही देश के युवाओं के सही विकल्प हैं, क्या गांगुली को क्रिकेट से संन्यास ले लेने चाहिए। लड़कियों के लिहाज से कितनी सेफ है दिल्ली, आपको क्या लगता है। स्टिरियो टाइप के वो सारे सवाल ये आपसे पूछते हैं जिसे कि असाइनमेंट डेस्क पर अपने बॉस के साथ तय करके आते हैं या फिर रास्ते में ड्राइवर से डिस्कश करके तैयार करते हैं. मुझे तो कई बार इस मामले में ड्राइवर ज्यादा काबिल लगा है। इस बाइट, अपनी पीस टू औऱ आइडिया के बूते उन्हें लगता है कि आज उन्होंने कोई तीर मार लिया है और अगर इसी तरह की स्टोरी करते रहे तो जरुर गोयनका अवार्ड मिल जाएगा। बाइट के लिए लोगों के बीच रिरियाते हुए कोई बंदा इसे देखता है तो एक घड़ी को जरुर मीडिया में जाने का अपना इरादा बदल लेगा। प्रोफेसर्स तो कहते हुए गुजर ही जाते हैं कि- ये भी बेचारे क्या करें, इनका पेशा ही कुछ ऐसा है। लेकिन इन्हीं रिपोर्टरों को कल जब डीयू, जेएनयू और जामिया मिलिया औऱ इग्नू के दौ सौ से भी ज्यादा स्टूडेंट्स, टीचर्स औऱ मानवाधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोग पुलिस हेडक्वार्टर पर विरोध प्रदर्शन किया तो उन्हें इसमें कोई स्टोरी नहीं दिखी। यह जानते हुए कि ये लोग क्या यहां सड़कों पर उतर आए हैं, ये जानते हुए कि जिस लड़की के साथ जातीय उत्पीड़न हुआ है वह भी डीयू कैंपस की ही छात्रा है उन्हें चलाने के लिए कुछ नहीं मिला। अब मीडिया के हमारे सारे दोस्त बेशर्मी तो कर गए लेकिन सफाई हमें देनी पड़ गयी। देखिए, हुआ क्या होगा कि जो लोग डेली रुटीन रिपोर्टर के तौर पर कैंपस को कवर करते हैं, उन्हें लगा होगा कि ये तो कैंपस में कुछ हो ही नहीं रहा। विरोध प्रदर्शन करनेवाले लोग तो आइटीओ जा रहे हैं। इन रिपोटरर्स के लिए लोग से ज्यादा मायने लोकेशन रखते हैं। इसलिए कल की स्टोरी को कवर करने की जिम्मेवारी उन पर नहीं थी। उनकी जिम्मेवारी कैंपस में होनेवाली गतिविधियों को कवर करने की है। इसलिए गलती उनलगों की है जिन्होंने प्रदर्शन कैंपस में न करके आइटीओ पर किया। आप इन कैंपस रिपोर्टरों को दोष नहीं दे सकते। अच्छा, जब ये स्टोरी कैंपस की है ही नहीं,पुलिस मुख्यालय की है तो फिर ये जेनरल स्टोरी है। जेनरल स्टोरी ऐसी कि डीयू में रिसर्च करनेवाली एक लड़की को उसके मकान-मालिक ने सिर्फ इसलिए पीटा कि उसे पता चल गया था कि वो दलित है। घर खाली करने के लिए कहा और यह धमकी कि नहीं खाली करोगे तो सामूहिक रेप करेंगे इसलिए दी कि वो दलित है। एक जेनरल स्टोरी के हिसाब से दिल्ली जैसे बड़े शहर में कौन सी बात है, ऐसा तो आए दिन होता रहता है,दिल्ली के लोग और खुद मीडिया भी इस तरह की घटनाओं की अभ्यस्त हो चुकी है। अब गली-गली में ऐसा होता रहे तो मीडिया थोड़े ही सभी खबरों को चलाएगी। मीडिया तो सेलेक्टेड स्टोरी उठाएगी और उसके जरिए लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करेगी कि आगे से ऐसी कोई घटना न हो। कल के विरोध-प्रदर्शन की अगर मीडिया ने कोई खोज-खबर नहीं ली,45 दिनों से मकान के लिए भटक रही कनकलता और उसके भाई-बहनों की मीडिया ने कोई सुध नहीं ली तो इसमें नया क्या है औऱ 6 मई को दलित एक्ट लग जाने के बाद भी ग्रोवर परिवार को 20 मई को जमानत मिल जाती है तो इसमें आश्चर्य क्या है। किसे नहीं पता कि दिल्ली पुलिस कई मामलों में आरोपियों को सहयोग करती आई है, इसमें आश्चर्य क्या है। मुझे नहीं लगता कि अगर मीडिया ने कल के प्रदर्शन और इस पूरे मामले को नहीं उठाया तो कोई बशर्मी है और अगर बेशर्मी कह भी रहे हैं तो मीडिया की मजबूरी भी कम नहीं हैं,उनके पास ऐसा करने के ठोस तर्क हैं। इसलिए मीडिया को लेकर हाय-तौबा मचाने की जरुरत नहीं हैं। अपने तरफ से इतनी सफाई तो पर्याप्त है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-14687 Size: 12078 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080620/e3b65810/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Sat Jun 21 20:08:07 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sat, 21 Jun 2008 09:38:07 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <22164575.682851214059087410.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// निजी टीवी चैनलों का भविष्य बेहतर है Posted: 21 Jun 2008 01:23 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/316722813/blog-post_21.html यह लेख सुरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने इंतकाल से थोड़े दिनों पहले लिखा था। अभी प्रथम प्रवक्‍ता की पीडीएफ कॉपी हमें जुगनू शारदेय जी ने भेजी, जिसमें यह लेख था। इस लेख से अंदाज़ा होता है कि टीवी चैनल में अपनी उपस्थिति को लेकर एसपी कितने सचेत और सुनियोजित थे। एक ख़ास बात जो इस लेख में डिस्‍कस्‍ड है, वो ये कि 1995 के आसपास हिंदी न्‍यूज़ चैनल का कोई चरित्र नहीं बन पाया था। कमोबेश यही स्थिति आज भी है। 10-12 साल तक एक माध्‍यम चरित्र के मामले में अनगढ़ ही है, लेकिन धंधे में हो रही बरक्‍कत को अगर टीवी चैनलों की सफलता माना जाए, तो हम मान सकते हैं एसपी चैनलों का भविष्‍य देखने के मामले में दूरंदेशी थे। निजी चैनलों का भारत में भविष्य कैसा है? पत्रकारिता की शैली में यदि आप मुझसे यह प्रश्‍न पूछें तो मैं कहूंगा कि भविष्य उज्ज्वल है। लेकिन इससे काम चलेगा नहीं। दूरदर्शन को एक तरह की चुनौती मिलनी शुरू हुई है और कई तरह के चैनल हमारे सामने आ रहे हैं। इन नये चैनलों में भारतीय, विदेशी, निजी और सरकारी चैनल शामिल हैं, लेकिन इन चैनलों की गहराई में यदि उतरें, तो ऐसा लगता है कि भविष्य जितना उज्ज्वल लगता है उतना है नहीं। चैनल आते हैं, थोड़े दिनों तक दिखाई देते हैं, ग़ायब हो जाते हैं। स्थायी भाव से दिखने वाले चैनलों में उत्तर भारत में जो हैं, मर्डोक के स्टार नेटवर्क के चैनल हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे वे चैनल हैं जो जी और स्टार के चैनलों की नकल हैं। वे उसी की तरह का स्वांग करते हुए बाजार में आ रहे हैं। सोनी टीवी जी की नकल कर रहा है। एटीएन है, लेकिन वह पूरी तरह फिल्मों पर ही आधारित है। नया होम टीवी शुरू हुआ है। कुछ इलाकों में आ रहा है, कुछ में नहीं आ रहा। कुल मिला कर स्थिति जो बन रही है, सरसरी तौर पर देखा जाए तो निजी चैनल जितने आये हैं, उनमें सफलता का प्रतिशत ज्यादा नहीं है। फिर भी मैं यह जोखिम लेकर कहना चाहता हूं कि निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल है। मैं समझता हूं कि व्यावसायिक कोण के बिना किसी चैनल की सफलता या असफलता को आंकना आज के जमाने में नामुमकिन है। प्रिंट मीडिया जैसी स्थिति नहीं रही, जहां आप छोटी से छोटी पूंजी को लेकर एक विचारधारा के सहारे, अपनी पत्रिका निकाल लें। यह ऐसा माध्‍यम है, जिसमें करोड़ों की पूंजी लगती है। सिर्फ अच्छे कार्यक्रमों के आधार पर किसी चैनल की सफलता को नहीं आंका जा सकता, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इस देश में `डिस्कवरी´ एक बहुत सफल चैनल हो गया होता। जिस आधार पर मैं कह रहा हूं कि निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है, उसके लिए मेरे पास दो आंकड़े हैं। एक आंकड़ा है कि 1985 में विज्ञापनों पर कितना पैसा खर्च किया जाता था और दूसरा आंकड़ा 1994 का है कि विज्ञापनों पर अब कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। वर्ष 1985 में विज्ञापनों पर 15 अरब रुपए खर्च किये गये। इनमें से 75 प्रतिशत प्रिंट मीडिया पर खर्च होता था। 12 प्रतिशत रेडियो पर, 3 प्रतिशत सिनेमा पर और शेष 6 प्रतिशत आउटडोर, यानी होर्डिंग आदि पर। लेकिन वर्ष 1994 में विज्ञापनों पर खर्च होने वाली कुल राशि 1.5 से बढ़कर 35 अरब हो गयी, यानी 10 साल में 400 प्रतिशत से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन प्रिंट मीडिया का हिस्सा 75 से घट कर 62 पर आ गया। टेरिस्ट्रियल टीवी, यानी दूरदर्शन, तब भी 12 वें स्थान पर था और अब भी वहीं डटा हुआ है। कुल विज्ञापन राशि का 6 प्रतिशत हिस्सा सैटेलाइट टेलीविजन के पास गया है। रेडियो घट कर 6 प्रतिशत पर आ गया है। चिंता की बात है कि इस गरीब देश में, जहां पर रेडियो की पहुंच सबसे ज्यादा है, उस पर विज्ञापनों में कमी आयी है। रेडियो से भी ज्यादा दयनीय स्थिति सिनेमा की है। उसका पहले का 3 प्रतिशत हिस्सा घट कर लगभग शून्य पर आ गया है। इन आंकड़ों से मुझे निश्‍िचत रूप से यह लगता है कि इस देश में निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल है। पर निजी चैनल हैं क्या? निजी चैनल हमारे यहां दो-तीन तरह के हैं। एक वह सॉफ्टवेयर प्रोड्यूसर जो दूरदर्शन के चैनल पर काम कर रहे हैं। दूरदर्शन के नियम मानते हैं। उसके नियम मानते हुए अपने प्रोग्राम बनाते हैं, अपना विज्ञापन लाते हैं और उस विज्ञापन में शेयर बांटते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो चैनल चला रहे हैं। भारतीय चैनल चलाने वाले भी हैं और विदेशी चैनल चलाने वाले भी। पर इनमें कौन कितना भारतीय है कौन कितना विदेशी है - यह साफ नहीं समझ आता। जी भारतीय है और स्टार विदेशी है। जी में लगभग 49.9 प्रतिशत मर्डोक है और 50.1 प्रतिशत जी। होम टेलीविजन शुरू हुआ है, जिसमें 20 प्रतिशत ही शायद हिंदुस्तान टाइम्स का है और बाकी 80 प्रतिशत में चार बड़ी-बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी है। इसे हम भारतीय मानें या न मानें, यह भी अपने आप में विवाद का विषय है। हम अगर हिंदी मीडिया से बाहर निकल कर उत्तर से दक्षिण भारत पर नजर डालें, तो हमारा दिमाग साफ हो जाएगा कि किस पैमाने पर वहां निजी चैनल सफलतापूर्वक चल रहे हैं। वहां पर चार चैनल तो बड़े सफल साबित हो रहे हैं। इनमें सन, जेमिनी, राज और जेजे शामिल हैं। जी हिंदी का सबसे सफल चैनल है, लेकिन उस पर भी लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे ज्यादा देखे जाने वाले कार्यक्रम क्लोज अप अंताक्षरी, फिलिप्स टॉप टेन और कैंपस हैं, जिनकी टीआरपी रेटिंग 10 के आस-पास रहती है। इससे ऊपर नहीं जा पाती। दूरदर्शन की रेटिंग बहुत ऊंची है। जब महाभारत अपने पूरे उफान पर होता है, तो 60-62 पर चलता है। कृष्णा है। 50-52 से नीचे कहीं नहीं रहता। `आपकी अदालत´, जो एक तरह से टेलीविजन पत्रकारिता में एक प्रतिमान कायम कर रहा है, वह भी लोकप्रियता में दो प्रतिशत से ऊपर नहीं पहुंच पाता। दूसरी तरफ आप देखिए तमिल के जो चैनल हैं और वहां पर उनके जो समाचार आते हैं, उन्हें देखने वालों का प्रतिशत 40 से 70 तक पहुंच जाता है। यह सिर्फ तमिल में ही नहीं होता, तेलुगु में भी होता है और मलयालम में भी। जयललिता की पराजय में बहुत बड़ी भूमिका सन टीवी की रही। अंतिम दिनों में वहां पर रजनीकांत ने जो अपना बयान दिया, उसका असर यह हुआ है कि जयललिता की पार्टी तमिलनाडु में पूरी तरह से साफ हो गई। तो इतनी प्रभावशाली भूमिका में दक्षिण भारत के चैनल अभी काम कर रहे हैं। आर्थिक रूप से भी वे इतने सक्षम हो गये हैं कि दावे के साथ भारत सरकार के सामने कह रहे हैं कि आप हमें अपलिंकिंग की सुविधा दीजिए, हम सारा इंतजाम खुद करेंगे। दक्षिण के चैनलों की तरह की स्थिति हिंदी के चैनलों की नहीं बन पा रही है। लेकिन स्थिति कोई बहुत ज्‍यादा बुरी भी नहीं है कि हम यह मान लें कि उनका भविष्य इस देश में उज्ज्वल नहीं है। यह स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है, इसका मुख्य कारण है कि अभी तक हिंदी के चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है। सिर्फ सिनेमा के क्लिप लेकर और एक लड़का और लड़की को ले लें और वह तरह-तरह से उछलता रहे, कभी सड़क पर कभी चिड़‍ियाघर में; इस तरह के 20 प्रोग्राम आप हम पर झोंक दें और उम्मीद करें कि वह सफल हो जाएंगे। नहीं होंगे। हर तरह के प्रोग्रामों की एक सीमा होती है और अभी जो स्थिति है कि हम लोग परीक्षण के दौर से गुज़र रहे हैं कि जो चीज सफल हो गयी तो उस पर भेड़चाल से टूट पड़ते हैं। यानी एक अंताक्षरी सफल है तो आप सौ अंताक्षरियों के लिए तैयार हो जाइए। या एक काउंटडाउन सफल हो गया है, तो सौ तरह से काउंटडाउन आपके पास आने वाले हैं। हमारा बौद्ध‍िक दिवालियापन इस हद तक है। अगर एक हनुमान चल रहे हैं, तो अब दूसरे भी आ गये हैं। और मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि अब तीसरे हनुमान भी आने वाले हैं। यह सिर्फ निजी चैनलों की बात नहीं है। हमारा जो दूरदर्शन है, वहां पर भी कल्पनाशीलता का घोर अभाव है। आज उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि टीआरपी रेटिंग कैसी है। हमारे देश में अशिक्षितों की संख्या सबसे ज्यादा है। टीवी 44 प्रतिशत निरक्षर लोगों के घरों तक पहुंचता है। पश्‍िचम में सैटेलाइट या इलेक्टॉनिक मीडिया का जब हमला हुआ तो कमोबेश उस समाज में शिक्षा का एक स्तर पहुंच चुका था, जहां लोग कम से कम 90 प्रतिशत और कहीं-कहीं शत-प्रतिशत साक्षर थे। वहां पर जब इसका हमला हुआ, तो इसकी जो बुराइयां थीं वे उनको झेल गये। हमारा देश तो वैसे भी वाचिक परंपरा का देश रहा है। हम लिखने पर विश्‍वास कम करते हैं और बोलने में ज्यादा। हमारे ज्यादातर महाकाव्य बोल कर लिखे गये। ऐसे देश में, जो बीच का स्थान था उसे हम फलांग कर आगे निकल गये। अशिक्षित लोगों के पास अब हम इतने सशक्त माध्‍यम को लेकर जा रहे हैं जो दृश्‍य भी है और श्रव्य भी। किस हद तक यह माध्‍यम उनको प्रभावित कर सकता है, जरा इसके बारे में सोचें और इसके ख़तरे के बारे में विचार करें। इस माध्‍यम का अच्छा उपयोग करें, तो अच्छी बात होगी। लेकिन उपयोग यदि बुरा हुआ तो स्थिति बहुत गंभीर हो जाएगी। मैं सरकार में नौकरशाही और राजनीतिज्ञों को अलग-अलग करके देखता हूं। इसमें नौकरशाही की भूमिका यह है कि इसने यह समझ लिया है कि इस देश के ज्यादातर लोग गैरजिम्मेदार हैं। हमारा दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वाला- चेटरिंग क्लास है, उसको लोकतंत्र से ही चिढ़ होती जा रही है। लोग फूलन देवी को चुन कर भेज देते हैं। मुलायम सिंह जीत कर आ जाते हैं। देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बना देते हैं। इनकी राय है कि ये तो गैरजिम्मेदार लोग हैं। किसी को भी चुन लेते हैं, कोई भी आकर बैठ जाता है। यह जो देश है, यह जो ढांचा है, यह जो स्टीलफ्रेम हमको अंग्रेजों ने सौंपा था, इसको बनाये रखने की पूरी जिम्मेदारी हमारी है। नौकरशाही अपने बहुत सारे तर्क देती रहती है। सबसे बड़ा तर्क तो यह है कि देश की सुरक्षा पर ख़तरा है। सुरक्षा पर क्या खतरा है? दूरदर्शन और आकाशवाणी मुक्त हो जाएं, तो देश की सुरक्षा पर खतरा है। कश्‍मीर का मामला है, पंजाब का मामला है, आदि आदि। हम लोग यह जोखिम नहीं ले सकते। हमारी संस्कृति पर खतरा है। इसलिए हम निजी चैनलों को अपलिंकिंग की सुविधा नहीं देंगे। हम लोग जो समाचार दे रहे हैं, वह सारा झूठ दे रहे हैं। इसकी हमको कोई चिंता नहीं है। हम जो मनोरंजन दे रहे हैं, वह तीसरे दर्जे से भी घटिया किस्म का है। कहीं कोई कल्पनाशीलता नहीं है। कहीं कोई सामाजिक सरोकार नहीं है। दरअसल, कुछ अखबार वाले आतंकित हैं कि विदेशी आकर हमारा एकाधिकार समाप्त कर देंगे। वे इस तरह का हौआ खड़ा कर रहे हैं। कुछ ऐसे राजनयिक और कुछ ऐसे नौकरशाह हैं, जो सत्ता में रह कर इस माध्‍यम का अपने हित में इस्तेमाल करना चाहते हैं। मैं समझता हूं कि यह तभी ठीक हो पाएगा जब निजी चैनल भारतीय प्रतिभा के द्वारा संचालित होंगे, जो भारतीय नियमों से चलेंगे और भारतीय जमीन से जिनका जुड़ाव बौद्धिक स्तर पर होगा, तभी इन परिस्थितियों में सुधार आएगा। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080621/4e0f17b2/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Jun 22 18:38:02 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 22 Jun 2008 18:38:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleClhyDgpKzgpYzgpJbgpLLgpL7gpI8g4KSu4KS44KWA?= =?utf-8?b?4KS54KS+?= Message-ID: <829019b0806220608q261b7d66p92619fb9e45250a1@mail.gmail.com> हाय री हिन्दी, हमने तुम्हें इतने जतन से संभाले रखा लेकिन अंत में इन दुष्टों ने तुम्हें बाजार के कोठे पर बिठा ही दिया, तुम्हें पूंजीवाद के कसाईयों के हाथों बेच ही दिया, मीडिया पर रिसर्च कर-करके अपवित्र कर ही दिया, तुम्हें वर्जिन नहीं रहने दिया हिन्दी। हाय मैं क्या करुं, क्या-क्या नहीं किया तुम्हें बचाने के लिए , कौन-कौन से वाद नहीं झोंकें, तुम्हें शुद्ध रखने के लिए। इतना शुद्ध की बाजार की कभी काली छाया तुम्हारे उपर न पड़ने पाए। ...ये चित्कार है हिन्दी के एक बौखलाए हुए मसीहा की। एक ऐसे मसीहा की जिन्हें आज से साल-सवा साल पहले तक लगता रहा कि गोला बनाकर ज्ञान बांचने से हिन्दी को शीर्ष पर बैठाया जा सकता है, हिन्दी के जरिए शीर्ष पर बैठा जा सकता है, गोला कल्चर से वो हिन्दी जगत में क्रांति ला देंगे लेकिन यही गोला असफलता और हताशा की मार में जब टूटकर, छितराकर मलवे के रुप में इधर-उधर बिखरता नजर आ रहा है, इस गोले का केन्द्र खिसकता जान पड़ रहा है तो अब बिल-बिलाकर जहां तहां भकुआ रहे हैं। अपने जिन औजारों और तिकड़मों से वो खुद को हिन्दी की दुनिया में अजर-अमर होने का ख्बाव देखते रहे, जब उन औजारों का उल्टा असर उन पर पड़ा तो उसी औजार से हिन्दी को बचाने की प्रवंचना करने में लगे हैं। दुनिया को हिन्दी बचाने की हांक लगानेवाले ये मसीहा अप्रत्यक्ष रुप से अपने समर्थन में कुछ भीड़-भाड़ जुटाने में जुटे हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने बौद्धिकता का रास्ता अपनाने के बजाए बल्ली मारान के उन दुकानदारों का रवैया अपनाना ज्यादा जरुरी समझा, शायद वो इसी में समर्थ हों, जो अपने माल पर से मक्खी उड़ाने के बजाय पड़ोस वाले दुकानदार के माल के बारे में कहते-फिरते हैं कि- अजी उसके यहां तो अरब की मक्खियां बैठती हैं, अपने यहां तो फिर भी देशी ही हैं, लोकल। औऱ जब दुकानदार इसी अरब को मतलब की जगह बताकर अपना माल इत्मिनान से बेचने में जुटा है तो वो बौखलाए हुए हैं। आज २२ जून, जनसत्ता में संजय कुमार झा के लेख *शोध का दायरा* में इस मसीहा के विचार कुछ इसी तरह की मानसिकता को पुष्ट करते हैं। इससे आपको उनकी बौखलायी मानसिकता का अंदाजा तो लग ही जाएगा, साथ ही इस बात की भी समझ बढ़ेगी कि बौखलाने पर इंसान की समझदारी कैसे जाती रहती है। संजय कुमारजी ने जो लेख लिखा है उसमें यह बताने का प्रयास किया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोध कर रहे रिसर्चर का विषय को लेकर मिजाज पहले से काफी बदला है। उनका रुझान पुराने और घिसे-पिटे विषयों के बजाय मीडिया, सिनेमा और नए माध्यमों की ओर बढ़ा है। मेरे हिसाब से विजुअल लिटरेचर को लेकर लोग पहले से बहुत अधिक कॉन्शस हुए हैं। हालांकि संजय कुमार ने विषयों को लेकर दोनों तरह के लोगों के विचार हम पाठकों के सामने रखे हैं। एक उनके विचार जो हिन्दी के भीतर मीडिया, सिनेमा और कल्चर के अध्ययन को ही नाजायज मानते हैं। उनके हिसाब से अव्वल ये साहित्य है ही नहीं तो फिर उनका हिन्दी में अध्ययन क्यों किया जाए और दूसरा उनकी भी जो बदलते समय के साथ नए विषयों पर शोध करने और करवाने के लिए उत्साहित हैं। लेकिन जहां-जहां संजय कुमारजी ने अपनी राय देने की कोशिश की है वहां यह साबित हो जाता है कि वो भी इस तरह के विषयों पर शोध होने देने के पक्ष में नहीं हैं। वो भी हिन्दी को शुद्धतावादी नजरिए से देखने के अभ्यस्त नजर आते हैं। संजयजी ने एक पत्रकार की हैसियत से अपनी बात रखी है और उनकी बात को उनकी ही हैसियत के हिसाब से देखा जाएगा। वो चाहें तो लगातार लिखकर इस तरह के विषयों पर शोध होने के विरोध में माहौल तैयार कर सकते हैं, अब वो कितना वैधानिक होगा ये अलग मसला है। इसलिए संजय की बात को हम यहीं रोकते हैं क्योंकि वो सीधे-सीधे हस्तक्षेप करके विषय में फेरबदल नहीं कर सकते। हम बात उन टीचरों की करना चाहते हैं जो रिसर्च कमेटी में शामिल होते है, इंटरव्यू में शामिल होते हैं, एक साक्षात्कार देने वाले बंदे के दांत से पसीना निकाल देते हैं, उनसे इतना सवाल करते हैं कि वो पीएच।डी कर लेने के बाद भी उसका सही-सही जबाब नहीं दे पाएगा। उससे वो सब कुछ पूछते हैं जिन्हें वो सवाल के तौर पर वाक्य के रुप में बना सकते हैं। अगर कोई बंदा रिसर्च के लिए मीडिया के विषय चुनता है तब तो उसे साहित्य का पथभ्रष्ट मानकर औऱ ही ज्यादा सवाल करते हैं। आप उसे सवाल करना न कहकर जलील करना कह सकते हैं। वो इन विषयों पर कुछ इस तरह से रिएक्ट करते हैं कि गोया ये कोई विषय न होकर व्यक्ति हो औऱ जिनसे उनकी अपनी खुन्नस निकालनी हो,इन विषयों के प्रति दुराग्रह, तंग नजरिया और हिकारत उनके चेहरे से साफ झलकती है। लेकिन इन सबके वाबजूद बंदा जबाब देता है और चयनित होता है। आज जो टीचर इस तरह के विषयों पर शोध किए जाने से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं वो परास्त मानसिकता की बौखलाहट है और कुछ भी नहीं। जिस मसीहा ने असहमति के नाम पर यह कहा है कि- *इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन शोधों के जरिए यह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि पॉपुलर कल्चर में जो भी है, वह अच्छा ही अच्छा है। कायदे से इन प्रसंगों पर किए गए शोध में पॉपुलर कल्चर की खामियों पर भी चर्चा होनी चाहिए। लेकिन शोधार्थी ऐसा करते हैं, इसमें संदेह है।* कुछ शिक्षकों का कहना है कि *ऐसा इसलिए है कि शोधार्थियों परइस बात का दबाव होता है कि वे अपने शोध में ऐसा कुछ ना लिखें जो बाजारवादी सोच के खिलाफ हो। *संजयजी की चतुरता देखिए कि उन्होंने पूरे लेख में इस बात का विरोध करने वाले केवल एक ही बौखलाए मसीहा का नाम लिया, बाकी को कुछ कहकर अपना काम चला लिया। अगर नाम ही देना था तो या तो फिर पूरे का या फिर किसी का भी नहीं। संजयजी की इस काबिलियत के दो मायने निकलते हैं। एक तो है कि एक का नाम लेकर वो इस पूरे मामले को तमाशे की शक्ल में बदलना चाहते हैं जिससे कि आम पाठक मजे लें या फिर ऐसा लिखकर संजय एकमुश्त के बाकी बाबाओं से रार नहीं लेना चाहते। जिस मसीहा का उन्होंने नाम लिया है वो पहले भी अलग-अलग मसलों पर हिन्दी विभाग के खिलाफ बोलते आए हैं इसलिए यहां भी नाम आ जाए तो कोई हर्ज नहीं है, इससे उनकी निरंतरता और प्रतिबद्धता पर औऱ ढंग से मुहर लगेगी। लेकिन बाकियों को जो कुछ की श्रेणी में रखा है उन्हें अभी भी खुलकर सामने में हिचक आ रही हो, अपने को तैयार नहीं कर पाए हों कि वो खुलकर सामने आएं। ऐसा भी हो सकता है कि विशेषज्ञता किसी और क्षेत्र में होने के वाबजूद इन विषयों में भी हाथ आजमाने की कोशिश में हों और भविष्य को देखते हुए खामख्वाह अपना काम खराब नहीं करना चाहते हों। इसलिए संजयजी से कहा होगा कि विरोध में बोल तो दूंगा लेकिन नाम मत लेना। संजयजी को इस ग्रांउड पर माफ किया जा सकता है, जब रॉ ही मिलावटी मिला है तो फिर फाइनल कहां से प्योर देंगे। अब संयोग देखिए कि मीडिया और पॉपुलर कल्चर के लिए संजयजी ने जिन दो विषयों को उदाहरण के तौर पर पेश किया है वो सीधे-सीधे मेरे रिसर्च के काम से जुड़ें हैं। संजयजी ने लिखा है कि- *टेलीविजन की भाषा और एफ एम चैनलों के बीच अंतर पर पीएचडी हो रही है।* एफ एम पर मैंने एम फिल में काम किया है और टेलीविजन की भाषा पर पीएचडी कर रहा हूं। इस विषय के बारे में संजयजी ने शिक्षकों की जो राय रखी है वो यह कि-*फिल्म टेलीविजन और या एफ एम रेडियो के जिन प्रसंगों पर शोध किए जा रहे हैं, क्या उन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। क्या इन विषयों पर शोध को बढ़वा देना हिन्दी विभाग का काम है।*.... ...आगे संजयजी ने लिखा है कि दरअसल इन लोगों की चिंता यह है कि यह सब बाजार के इशारे पर किया जा रहा है। संजयजी ने जिस मसीहा का वाकायदा नाम लिया है, सबसे पहले तो वो मेरी तरफ से उन्हें शुक्रिया का संदेश पहुंचाएं कि उन्होंने अपने रिसर्चर के काम के अलावे हम जैसे लोगों के काम को भी पढ़ा। वरना हिन्दी क्या, कई विभाग के लोग अपने ही स्टूडेंट का काम पढ़ते तक नहीं। इस मसीहा जैसे लोग हिन्दी में दो-चार हो -जाएं तो रिसर्चर की पीड़ा ही खत्म हो जाए जो बहुत मेहनत से काम करने के बाद पछताते-फिरते हैं कि बेकार में इतनी मेहनत से काम किए, गाइड ने पल्टा तक नहीं। हम उनकी बौद्धिक क्षमता के भी कायल हैं जो बिना रिसर्च पूरा हुए पता लगा ले रहे हैं कि हम क्या निष्कर्ष निकालेंगे। लेकिन उनसे कहिएगा कि हम रिसर्च कर रहे हैं किसी कम्पनी का प्रोजेक्ट नहीं बना रहे, जहां सबकुछ पहले से तय है। संजयजी प्लीज एक और बात के लिए धन्यवाद दीजिएगा कि- हम दुष्टों में उन्होंने इस योग्यता को देख लिया कि हम हिन्दी को बाजार के लिए तैयार कर रहे हैं या फिर हम बाजार के हिसाब से तैयार हो रहे हैं। वरना अभी तक तो हिन्दी के लोग अपने भिखमंगई लुक के लिए विश्वविख्यात हैं ही औऱ उस जड़ता के शिकार भी की हम झोला ढोते-ढोते मर जाएंगे, गोला बनाते-बनाते मिट जाएंगे लेकिन रोजी-रोजगार के लिए अपने को तैयार नहीं करेंगे।संजयजी, जाते-जाते एक सवाल आप जरुर पूछिएगा उस बौखलाए मसीहा से कि- क्या वो जो कुछ भी कह रहे हैं, हिन्दी और हिन्दी विभाग को जिस रुप में बनाना चाह रहे हैं क्या उसके केन्द्र में वाकई छात्र हित है या फिर उनकी व्यक्तिगत कुंठा, फ्रसट्रेशन और नो डाउट उनकी बौखलाहट।। आगे पढ़िए- क्यों बौखलाए हिन्दी के मसीहा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-586 Size: 21483 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080622/b240914a/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Mon Jun 23 20:41:31 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 23 Jun 2008 10:11:31 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <22703444.738461214233891165.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// यह बहुत सारी चीज़ों की भोंगली बना लेने का समय है! Posted: 23 Jun 2008 02:14 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/317882557/blog-post_23.html रवींद्र व्‍यास रवींद्र व्यास नई दुनिया, इंदौर में डिप्‍टी एडिटर हैं। इसी शहर में सन 62 में उनकी पैदाईश हुई। यही पढ़ाई और यहीं मोहब्‍बत हुई। विज्ञान, समाजकार्य और पत्रकारिता में डिग्री ली। यानी इंदौर में ही नाल ठुंकी, इंदौर में ही खाल खींची। 88-89 में इंदौर के साप्ताहिक अख़बार प्रभात किरण से पत्रकारिता की शुरूआत। फिर 89 से लेकर 98 तक दैनिक चौथा संसार में 9 साल तक डेस्क से लेकर रिपोर्टिंग और फीचर पेजों का संपादन। इंटरव्यू, समाचार विश्लेषण, फीचर और फिल्म समीक्षाएं लिखीं। अगस्त 98 से लेकर मध्य फरवरी, 2008 तक दैनिक भास्कर, इंदौर में चुनाव डेस्क की ज़‍िम्‍मेदारी संभाली। पाक्षिक पत्रिका इंदौर पोस्ट और साप्ताहिक भास्कर टुडे का संपादन भी किया। चित्रकारी और संगीत में रवींद्र व्‍यास की गहरी दिलचस्पी है। अब तक चित्रों की तीन समूह प्रदर्शनियों में शिरकत की है और दो नेशनल आर्ट कैंप में भागीदारी। इस साल चार एकल प्रदर्शनियों की योजना है।मीडिया पर हम बहस कर रहे हैं। टीवी के रंग-ढंग पर काफी बातें कही-सुनी गयीं। छापे की दुनिया में भी तरह-तरह के ड्रामे हैं। इस ड्रामे का पर्दा जब पहली बार उठा, तब से कई पत्रकार इसके दृश्‍यों को देख रहे हैं। जिन्‍होंने बीच से इस ड्रामे को देखा है, वे पुरानी कहानी की खोज में लगे रहते हैं - जो दरअसल मीडिया का असल अर्थ समझना चाहते हैं। वरना ज़्यादातर को तो कोई मतलब नहीं है - वे नये रंग के रंगे सियार की तरह गंगा में हाथ धो रहे हैं। रवींद्र व्‍यास की दिलचस्‍प राइटिंग का मर्म समझने की कोशिश कीजिए।दोस्तो कुछ करने आये थे, कुछ बनने आये थे लेकिन टीपू बन कर रह गये। नहीं, कोई विलाप नहीं, कोई दुःख नहीं, कोई आंसू और आह नहीं। कोई चीत्कार और कोई अवसाद भी नहीं। बस एक हंसी फटी पड़ी है और पेट में बल पड़ रहे हैं। साली यह हंसी ही एक दिन विलाप में न बदल जाए। यह हंसी ही कहीं आत्मघाती न बन जाए। हंसी ही ऐसी है कि रूकती नहीं। अंतहीन। वह जब संपादक के केबिन से बाहर निकला, तो उसके चेहरे पर उसके भीतर हमेशा जलती रहने वाली कंदील का उजाला नहीं, बुझ चुकी मोमबत्ती का धुंआ था। सीनियर ने उसे झिड़का- “तुम चूतिये हो। उस्ताद अमीर खां साहब पर इतना अच्छा लेख लिखने की क्या ज़रूरत थी? ज़‍िंदा रहना है और ज़्यादा इंक्रीमेंट चाहिए तो आमिर खान पर लिखो। और उस्ताद अमीर खां पर इतना बड़ा लिख मारा। मालिक की नज़र पड़ गयी तो यह पेज तुरंत बंद कर देगा। मुझे समझ नहीं आता कि तुम्हारे सौंदर्यबोध को हो क्या गया है? तुमने इस पन्ने पर जिस हीरोइन का फोटो छापा है, वो साड़ी में है। तुम्हें यही एक फोटो मिला। इसमें इसके बोबे तो दिख ही नहीं रहे। और जांघें?” अगली बार फिल्म के पेज पर उसने जो फोटो लगाया, जाहिर है उसमें वह सब था, जो सीनियर चाहता था। उसने सोचा, फिर तो इस पन्ने पर बेनेगल या बर्गमैन पर लिखना असंभव है। सीनियर ने उसे समझाया कि यह समय बहुत सारी चीजों की भोंगली बना लेने का समय है। अंग्रेज़ी अख़बार से आये एक संपादक ने हिंदी अख़बार के रिपोर्टर से कहा- “तुमको एक स्टोरी कंडोम पर करनी चाहिए कि लोग मिंट वाला पसंद करते हैं कि डॉट्स वाला। कई तरह के फ्लेवर हैं। मिंट, स्ट्राबेरी... जानो कि महिलाएं क्या पसंद कर रही हैं।” “सर, मुझे तो लगता है कि इन कंडोम की पैकिंग और फ्लेवर से आकर्षित होकर कहीं बच्चे इन्हें चबाने न लगें”, रिपोर्टर ने कहा। “तुम चूतिये हो। आजकल बच्चे स्मार्ट हो गये हैं। वे चबाएंगे नहीं, लगाएंगे।” जाहिर है यह अंग्रेज़ी अख़बार से आया संपादक था। आते ही उसने घोषणा कर दी कि यह हिंदी का अख़बार ग़रीबों के लिए नहीं निकाला जा रहा है। हम करण जौहर और आदित्य चोपड़ा की फिल्म बनाना चाहते हैं, सत्यजीत राय या श्याम बेनेगल की नहीं। रिपोर्टर ने कॉपी लिखना शुरू किया...एक सर्वे का निष्कर्ष है कि उच्चमध्यमवर्गीय परिवार की 22 से 35 साल की महिलाओं के बीच एक्स्ट्रा रिब्स वाले कंडोम का क्रेज़ बढ़ा है। 62 फ़ीसदी महिलाओं का कहना है कि उन्हें एक्स्ट्रा रिब्स वाले कंडोम से ज़्यादा आनंद आता है जबकि 30 फ़ीसदी महिलाओं का कहना है कि मिंट वाले कंडोम उन्हें ज़्यादा पसंद आते हैं। आठ फ़ीसदी महिलाएं कोई जवाब नहीं दे पायीं।उसने कॉपी पूरी की, रीडिंग की और सबमिट कर दी। उसने धीरे से पहले गर्दन बाएं घुमायी और थोड़ी देर बाद दायीं ओर। फिर उसने पीछे देखा। उसे कोई नहीं देख रहा था। उसने राहत की सांस ली। सब गर्दन झुकाये कॉपी लिखने में मशगूल थे। वहां सब थे... नेहा जो कविताएं लिखती थी, आराधना जो कहानियां लिखती थी, अजय जिसने मोबाइल से छोटी-छोटी फिल्में बनायी थीं, अनिरुद्ध जो मीर तकी मीर का दीवाना था... और ये समय समय पर कुछ बेहतर करने का मौका नहीं चूकते थे। समय और तेज़ी से बदला और कुछ नयीं भर्तियां हुईं। लेकिन कुछ लोग हमेशा के लिए इस अख़बार से ही नहीं, इस पेशे से ही ग़ायब हो गये। कुलवंत जिसकी झक्की आदतों यानी बात-बात पर संपादक से बहस करने की आदत थी, जो चार अख़बारों की नौकरी छोड़ चुका था और हमेशा अपने कोट की जेब में नेरूदा की कहीं से उतारी कविता को संभाले रखता था और जिसका अब कोई पता नहीं था कि वह ज़‍िंदा है या मर गया। एक साथी ने बताया कि उसने रेल से कट कर आत्महत्या कर ली। और वह लंबा दुबला-पतला मोहसिन भी नहीं है, जो अपनी कॉपी सबमिट करने के बाद एक करेक्शन करवाने के लिए आठ किलोमीटर दूर से वापस आता था और अपनी करेक्शन करवाता था। संपादक उसे हमेशा झिड़का करते थे कि यार तुम अपनी कॉपी में उर्दू के शब्दों का नाहक ही प्रयोग करते हो। वह अपनी कॉपी सबमिट करने के बाद नाटकों की रिहर्सल करने निकल जाया करता था और हमेशा चैपलिन की नकल किया करता था। वह संपादक से हमेशा कहता था कि उसे कल्चरल बीट दी जाए लेकिन संपादक ने उसे रिजनल डेस्क पर बैठा रखा था। सुना है उसने अपने पिता का गैराज संभाल लिया है। वह रशीद खान भी नहीं है, जो वॉन गाग की स्टेरी नाइट पैंटिंग को अपलक निहारा करता था और पेंटर बनना चाहता था और कहता था कि वह यह सोचते-सोचते और घुल-घुट कर ही मर जाएगा कि अपने कैनवास पर ऐसा पीला रंग कभी नहीं लगा पाएगा जैसा गॉग लगाकर चला गया है। उसने संपादक को एक नया पेज प्लान कर के दिया था जिसमें विदेशी साहित्य, नृत्य, चित्रकला के बारे में साप्ताहिक सामग्री देने का आग्रह था लेकिन अब उसने बैंक से लोन लेकर फ्रेमिंग आर्ट नाम से एक दुकान खोल ली है। दोस्तो, इनमें कोई चेखव था, कोई नेरूदा, कोई चैपलिन था, कोई मारिया स्वेतेयावा, कोई गॉग था, कोई मीर... अब ये नहीं हैं। अब चेखव बहुत बड़ा टीपू बन गया है, दस में से आठ घंटे ट्रांसलेशन ही करता रहता है। अख़बार में छपने वाले लिक्खाड़ कॉलमिस्ट के कॉलम्स का अनुवाद करता रहता है। उसके अख़बार में सात में से पांच दिन अंग्रेज़ी कॉलम के अनुवाद छपते हैं। नेरूदा का कोई पता नहीं कि वह कहां है? सुना है चैपलिन ने रेडीमेड के कपड़ों की दुकान खोल ली है। उसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं, जिनको चैपलिन की फिल्में दिखाता है और जब सब हंसने लगते हैं, तो उसके गाल पर जलता हुआ रेला चलने लगता है और उसे यह भी भान नहीं रहता कि उसकी पत्नी यह सोचते हुए उसे देख रही है कि चैपलिन की मज़ेदार हरकत पर ये जनाब रोये क्यों चले जा रहे हैं! और ये जनाब, जो वान गॉग की औलाद बने फिरते हैं, अपने हरे-पीले चित्रों में उसी रंग को लगाने की कोशिश करते रहते हैं, जिनके बदन पर उस लड़की के देखने से पड़े पीले छींटें अब भी वैसे ही खिले, निखरे और चमकदार हैं! एक और हैं, जो रिल्के के दीवाने हैं। एक दिन संपादक ने बीस लोगों के सामने अपमानित कर दिया कि जनाब आपको कविताई करना है तो अपना ब्लॉग लिखें, यहां तो ख़बर ही लिखना पड़ेगी। तब से वह ख़बर लिख रहा है कि ऐश्वर्या अभी गर्भवती नहीं हुई हैं! मालिक ने एलान किया है कि अगले महीने से अख़बार के सारे पेज रंगीन हो जाएंगे...! -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080623/c47c9e89/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Jun 24 17:35:41 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 24 Jun 2008 17:35:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpL4g4KSV4KS+4KSy?= =?utf-8?b?4KS+IOCkheCkp+CljeCkr+CkvuCkrw==?= Message-ID: <829019b0806240505ndc1b253h4c5ae023c1ee3ae9@mail.gmail.com> एक प्रोडक्शन हाउस ने हाल ही में खोले गए अपने हिन्दी इंटरटेन्मेंट चैनल से एकमुश्त ३० स्थायी मीडियाकर्मियों की छंटनी कर दी औऱ अब ये सारे के सारे सड़क पर आ गए हैं। हाउस ने छंटनी करने के एक दिन पहले तक उन्हें नहीं बताया कि उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है। छंटनी के दिन उनसे सीधे कहा गया कि अब हमें आपकी जरुरत नहीं है। हिन्दी टेलीविजन के इतिहास में पहली ऐसी घटना है जहां एक साथ ३० लोगों को बिना पूर्व सूचना के काम से बाहर निकाल दिया गया। यह कानूनी तौर पर गलत तो है ही साथ ही मीडिया एथिक्स के हिसाब से भी गलत है। वाकई हिन्दी मीडिया के इतिहास का यह काला अध्याय है और हम ब्लॉग के जरिए इसका पुरजोर विरोध करते हैं। मीडिया संस्थानों से पत्रकारों को निकाल-बाहर करने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी कई चैनलों से बड़े-बड़े अधिकारियों को आपसी विवाद या फिर चरित्र का मसला बताकर निकाल-बाहर किया गया है। लेकिन टेलीविजन के इतिहास में शर्मसार कर देनेवाली शायद ये पहली घटना है जब एक ही साथ तीस मीडियाकर्मियों को जरुरत नहीं है बताकर निकाल दिया गया। इनमें नीचे स्तर से लेकर प्रोड्यूसर लेबल तक के लोग शामिल हैं। हाउस अगर निकालने की वजह सबके लिए व्यक्तिगत स्तर पर बताती है तो इसके लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। संभव है कि अगर ये सारे लोग मिलकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं तो प्रोडक्शन हाउस पर भारी पड़ जाए। हाउस ने इतनी बड़ी छंटनी की है इसका बड़ा आधार हो सकता है कि वो इसके जरिए अपने वित्तीय घाटे को पूरा करना चाह रही हो। उसे इन कर्मियों के वेतन का बोझ उठाना भारी पड़ रहा हो। उसकी स्थिति शायद ऐसी नहीं बन रही हो कि वो अधिक मैन पॉवर का खर्चा उठा सके। वैसे भी बाजार में इस प्रोडक्शन हाउस के शेयर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिस हाउस के शेयर १०४ रुपये तक गए थे, आज वो लगातार गिरकर ३३ रुपये पर आ गया है। इससे इसके वित्तीय स्थिति का अंदाजा साफ झलक जाता है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि मीडिया सेक्टर बिजनेस के बाकी सेक्टर से अलग है। एक तो मीडिया अभी भी शुद्ध बिजनेस की शक्ल में सामने नहीं आ पाया है औऱ अगर भीतर से हो भी गया हो तो आम जनता के बीच इसकी छवि बिजनेस की नहीं बन पायी है। एक हद तक मीडियाकर्मी भी पूरी तरह से बिजनेस के हिसाब से मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाए हैं। अधिक पैकेज और पद को लेकर वो चैनल बदल लेते हों तो भी। इसलिए अगर चैनल को घाटा भी होता है तो भी एक हद तक उसे मीडिया इथिक्स फॉलो करना अनिवार्य है। यह मीडिया इथिक्स कई मामलों में बिजनेस प्रोफेशनलिज्म से अलग है। ....औऱ फिर इस हाउस के प्रमुख की पृष्ठभूमि खुद भी एक पत्रकार की रही है। उन्होंने भी पत्रकार की हैसियत से इस स्थिति में तनाव जरुर झेले होंगे। एक पत्रकार के मनोभावों को समझने की क्षमता उन्हें है, इस बात की तो उम्मीद की ही जा सकती है। इसके साथ ही इतने बड़े चैनल में बड़ा निवेश करने और उसके नफा-नुकसान पर संतुलित ढंग से कदम उठाने का तरीका भी उन्हें बखूबी आता ही होगा। हम उनसे उन लालाओं की तरह के हरकतों की उम्मीद नहीं करते जो कि अपने फायदे के लिए अपने कर्मचारियों को ही दूहने लग जाए। चाहे वो मशीन पर काम करनेवाले कर्मचारी हों चाहे डेस्क पर काम करने वाले मीडियाकर्मी।चैनल की वित्तीय स्थिति अगर पहले से दिनोंदिन खराब होती जा रही है औऱ उसे नियंत्रण में लाए जाना जरुरी है। इस नियंत्रण के लिए यह भी जरुरी है कि साधनों में कटौती की जाए लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि साधनों में कटौती के नाम पर सबसे पहली गाज वहां के मीडियाकर्मियों पर गिरायी जाए। जो संस्थान करोंड़ों रुपये की लागत से चैनल खोलने का माद्दा रखता है उसे उसके नफा-नुकसान की स्थिति में संयमित रहने का कौशल जरुर आना चाहिए। उसे इस बात की पूरी चिंता होनी चाहिए कि हमारे यहां काम करनेवाले लोग किस हद तक कम्फर्ट हैं।कटौती के सौ तरीके हैं औऱ हो सकते हैं। और इन सबके वाबजूद भी अगर चैनल के पास कटौती के और कोई रास्ते नहीं बचते हैं और अपने कर्मियों को निकालना जरुरी हो जाता है तो इसके दो या तीन महीने जो कि पेपर पर लिखा होता है, पहले बताना चाहिए ताकि लोग अपना विकल्प तलाश लें। दरअसल जितनी हड़बड़ा से चैनल लांच किए जा रहे हैं औऱ महीने-दो-महीने बाद जिस तरह से उसके परिणाम सामने आ रहे हैं उससे साफ लगता है कि चैनल के लोग कंटेंट पर भले ही रिसर्च कर लेते हों कि क्या चलाया जाए कि टीआरपी आसमान छूने लग जाए, पहले के सारे चैनल ध्वस्त हो जाएं लेकिन इस बात पर काम नहीं होता कि कितने लोगों को किस काम के लिए रखना है, उनसे कितना काम लेना है। शुरुआत में आंधी-तूफान की तरह लोगों को भर्ती किए जाते हैं लेकिन बाद में जब चैनल की स्थिति अच्छी नहीं बनती तो फिर किसी न कीसी बहाने से निकालते चले जाते हैं। चैनल को इस मामले में बाकी के बिजनेस की तरह पहले से तय करना होगा और काम करनेवाले लोगों को एश्योर करना होगा कि वो सेफ हैं। नहीं तो लोगों के बीच जो असंतोष पनपेगा, उसका सीधा असर चैनल पर दिखेगा। अभी इस चैनल ने प्रोड्यूसर लेबल के लोगों की छंटनी की है, हो सकता है इसका प्रभाव बड़े अधिकारियों पर भी पड़े और वो आगे के लिए अपने विकल्प तलाशने लग जाएं या फिर चैनल उन्हें भी चलता कर दे। ऐसे में पूरी मीडिया पर क्या असर होगा, यह वाकई चिंता का विषय है।जिन तीस लोगों को निकाल-बाहर किया गया है, संभव है वो किसी तरह की कारवाई नहीं करें। अपने जीवन का एक छोटा सा हादसा मानकर कहीं और जाने की कोशिश में लग जाएं। एक आदत के तौर पर इसे पचा जाएं। उनके लिए कोई यूनियन भी नहीं है क्योंकि पर्सनल लेबल पर अपने को ब्रांड बनाने के फेर में मीडियाकर्मियों खासकर टेवीविजन के लोगों ने यूनियन फार्म करना जरुरी नहीं समझा। लेकिन इसके साथ ही दूसरे चैनल भी यही रवैया अपनाने लग जाएं। मसलन इस चैनल की सिस्टर न्यूज चैनल ही ऐसा ही करने लग जाए तो फिर मीडिया में काले अध्यायों की भरमार होगी और जिसे हटाने के लिए कोई नहीं आएगा, शायद मीडियाकर्मी भी नहीं। इसलिए इस तरह के हादसों को होने से रोकना अभी से ही बहुत जरुरी है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-207 Size: 13376 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080624/160cfe54/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Tue Jun 24 20:49:28 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 24 Jun 2008 10:19:28 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <7104045.1006181214320768137.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// बदल रहा है समाज, क्या करे पत्रकारिता? Posted: 24 Jun 2008 09:11 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/318334329/blog-post_24.html आज जो बात रवींद्र व्‍यास लिख रहे हैं, उसकी एक झलकी आज से 16 साल पहले सुरेंद्र प्रताप सिंह ने भी दिखायी थी। बदलाव कैसे और क्‍यों आया, एसपी ने इसको समझने की कोशिश की थी। पटना से 1992 में प्रकाशित जनछवि के लोकार्पण पर “बदलती सामाजिक परिस्थिति में पत्रकारिता की भूमिका” पर विचार गोष्‍ठी हुई। एसपी ने यह आलेख उसी गोष्‍ठी के लिए लिखा था। मैं जुगनू शारदेय का एक बार फिर से यह लेख उपलब्‍ध कराने के लिए शुक्रिया अदा करता हूं और वो पीडीएफ फाइल भी सार्वजनिक करता हूं, जो उन्‍होंने मेल से मुझे भेजा।मूलत: वाचिक परंपरा का अर्धशिक्षित देश होने के कारण लिखे हुए शब्दों को जैसा महत्‍व इस देश में प्राप्त है, वैसा पश्‍िचम के विकसित समाज में देखने को नहीं मिलता। इसीलिए भारत जैसे देश में लेखन और पत्रकारिता अपने आप विशिष्‍ट दर्जा प्राप्त कर लेती है। आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता की भूमिका सर्वविदित है और इसमें भी, हिंदी की तत्कालीन पत्रकारिता तो स्वाधीनता संग्राम का एक महत्‍वपूर्ण अंग ही बन गयी थी। उस समय अख़बार छोटे थे, प्रसार क्षेत्र सीमित था, समृद्धि पूर्णत: अनुपस्थित, लेकिन पत्रकारिता के सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व का क्षितिज असीमित था। पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, मिशन थी और पत्रकारों को अपने सामाजिक दायित्व के बारे में किसी भी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश नहीं थी। समुद्र तट पर एसपीआजादी के बाद राजनीति ने जिस तीव्रता से अपनी नयी भूमिका से समझौता करके अपने को बिल्कुल नये सांचे में ढाल लिया और आजादी से पहले के मिशन को सांप के केंचुल की तरह उतार फेंका, पत्रकारिता काफी दिनों तक वैसा नहीं कर पायी। लंबे अरसे तक भ्रम का एक माहौल बना रहा, जिसके कारण कब राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रनिर्माण का संकल्प पार्टी-प्रेम और नेता की छवि-निर्माण के कर्म में बदल गया, बहुत सारे पत्रकारों को इसका पता भी नहीं चला। मिशन और व्यावसायिकता की बहस चलाते हुए हमारे ढेर सारे अग्रणी लेखक, पत्रकार और संपादक सिर्फ चाटुकार बन कर रह गये। संख्या बल के कारण ही भारत की भाषायी पत्रकारिता अव्वल स्थान पर पहुंच गयी। पत्र-पत्रिकाओं के कलेवर स्थूल होने लगे, विज्ञापनों की भरमार हो गयी, अख़बार रंगीन हो गये, पत्र-पत्रकारों की समाज और सरकार में पूछ बढ़ गयी। उधर, लेखन, विचार और सामाजिक सरोकार के स्तर पर तीव्र गिरावट आयी। मिशन और व्यावसायिकता की बहस में अख़बार घोर व्यावसायिक हो गये, पत्रकार मिशनभ्रष्ट हो गये और पत्रकारिता समाज में आ रही चहुंमुखी गिरावट का एक अंग मात्र बन कर रह गयी। विधायिका, कार्यपालिका और एक हद तक न्यायपालिका के क्रमिक पतन के पीछे के प्रलोभन तथा कारण स्पष्ट रूप से सामने दिखाई देते हैं, जबकि लोकतंत्र के चौथे सबल स्तंभ पत्रकारिता के पतन का इतिहास एक हद तक रहस्य के आवरण में छिपा हुआ है। पत्रकारिता को, जो सिर्फ मिशन नहीं व्यापार मानते थे, यानी अख़बारों के मालिक और व्यवस्थापक आदि - उन लोगों ने इसके व्यापार पक्ष के आगे बाकी सारे पवित्र उद्देष्यों को तिलांजलि दे डाली और समाचारपत्र उद्योग को समृद्धि की एक नयी उंचाई पर ले गये। आप इनके उद्देश्‍यों से असहमत होते हुए भी, इनकी कार्यपद्धति की आलोचना नहीं कर सकते हैं। क्योंकि इनके लक्ष्य में कहीं कोई अस्पष्टता या इनके उद्देश्‍यों में कहीं किसी प्रकार का असमंजस नहीं था। वैचारिक स्तर पर भले ही ये कभी पत्रकारिता के मिशन स्वरूप को चुनौती न देते हों, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर इसके व्यावसायिक पक्ष को संवारने में इन्होंने कोई कोताही नहीं की। जबकि पत्रकार भ्रम के पुंज बने रहे। इनके मन में पत्रकारिता का मिशन और व्यवसाय पक्ष का द्वंद्व इस सीमा तक गड्डमड्ड होता रहा कि कब पत्रकारिता का सामाजिक सरोकार दृश्‍यपटल से ग़ायब हो गया, इन्हें पता भी नहीं चला। इस दिशाहीनता से पहला साबका करीब दो साल पहले पड़ा, जब मंडल और मंदिर के मुद्दे पर भारतीय समाज पूरी तरह से बंट गया। तब पता चला कि राष्ट्रीय आंदोलन से उपजी हमारी हिंदी पत्रकारिता आज वास्‍तव में कहां पहुंची है, जब हिंदी के अधिकांश पत्र सवर्ण हिंदू मानसिकता का दर्पण बन कर सामने आये। वे सभी लोग, जो कभी अपने को समतावादी समाज के लिए प्रतिबद्ध मानते थे या जातिविहीन हिंदू समाज की कल्पना करते थे, उन्‍होंने अचानक अपने को उस पंक्ति में खड़ा पाया, जो जातिवाद का विरोध करते हुए खुद शुद्ध जातिवादी बनकर दलित, ग़रीब, पिछड़ों को उनके वाजिब हक से वंचित करने का षड्यंत्र कर रहे थे। या वे उस पंक्ति में थे, जो इतिहास के किसी नीच वास्तविक अन्याय का बदला लेने के लिए उस सीमा तक जाने को तैयार थे, जहां ज़रूरत पड़ने पर अपनी न्याय व्यवस्था, अपना संविधान और अपनी लोकतांत्रिक परंपरा को भी ख़तरे में डाल दिया जाए। यह हिंदी की गौरवशाली पत्रकारिता परंपरा के लिए सबसे महत्‍वपूर्ण परीक्षा की घड़ी थी, जिसमें एकाध अपवाद को छोड़ कर हिंदी के अधिकांश पत्र तथा पत्रकार असफल सिद्ध हुए। हमारे समय का यह संकट आज और तीव्र हुआ है। सांप्रदायिक उन्माद हमारे सामाजिक ताने-बाने को और छिन्न-भिन्न कर रहा है। जातिवाद ने कुछ ऐसा स्वरूप लिया है कि शहरी मध्‍यवर्ग और ग्रामीण उच्च वर्ग ने संयुक्त रूप से पिछड़ी, गरीब और दलित जातियों पर अब और आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर लिया है। समाज के जिन नेताओं से अपेक्षा थी कि वे इस विकृति का विरोध करेंगे, वही आज लोकतंत्र के इन खंभों पर प्रहार कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में पत्र, पत्रकार और पत्रकारिता ही ऐसे हथियार हैं, जो निर्बल तथा दमित समाज के पक्ष में दृढ़ता से खड़े हो सकते हैं। मिशन और व्यावसायिकता का द्वंद्व ऐसी स्थिति में समाप्त हो जाना चाहिए। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पत्रकारिता जिनके लिए व्यवसाय है, उनके लिए सब कुछ व्यवसाय है। देश, समाज, राष्ट्रीयता, जाति और धर्म, सभ्य समाज के हर अंग को वस्तु के रूप में बेचा ख़रीदा जा सकता है। और जिनके लिए यह मिशन है, उनके सामने भी यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इसके सहारे घोर व्यावसायिकता की बैसाखी पर सवार होकर सामाजिक सरोकार की लड़ाई सफलतापूर्वक तो क्या, सम्मानपूर्वक भी अब नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए, इस बदलती हुई सामाजिक परिस्थिति में यदि सच्ची लड़ाई लड़नी है, तो लड़ाई के अस्त्र-शस्त्र भी अपने खुद के ही होने चाहिए। उधार के हथियार से कभी कोई पवित्र युद्ध न लड़ पाया है और न जीत पाया है। पत्रकारिता कोई ऐसा जटिल व्यवसाय नहीं है कि कलम के सिपाही इसे समझ न पाएं। अब समय है कि अपने सामाजिक सरोकार को स्पष्ट करते हुए लेखक, पत्रकार अपनी आवाज अब खुद गुंजाने का उद्यम करें। तभी वह आवाज सुनी जाएगी। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080624/b4b17dfa/attachment-0001.html From ramrotiaaloo at gmail.com Sun Jun 8 08:54:12 2008 From: ramrotiaaloo at gmail.com (irfan) Date: Sun, 08 Jun 2008 03:24:12 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Art of Reading Update Message-ID: कृपया देखें और सुझाएँ- www.artofreading.blogspot.com -- www.tooteehueebikhreehuee.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080608/c6669c6a/attachment.html From ramrotiaaloo at gmail.com Sun Jun 8 08:54:15 2008 From: ramrotiaaloo at gmail.com (irfan) Date: Sun, 08 Jun 2008 03:24:15 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Art of Reading Update Message-ID: कृपया देखें और सुझाएँ- www.artofreading.blogspot.com -- www.tooteehueebikhreehuee.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080608/c6669c6a/attachment-0001.html From manthanaward at gmail.com Mon Jun 16 12:12:04 2008 From: manthanaward at gmail.com (Manthan Award) Date: Mon, 16 Jun 2008 12:12:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Manthan Award South Asia 2008 - Nominations Open Now - Last day 15th July '08 Message-ID: Dear Friends, As you may know Manthan Award is always encouraging the innovative use of information and communication technology for the development of economy, masses, rural development in all aspects of life cycle. We would be glad to hear from you if you are one of them and if you know somebody whom you would like to be nominated. We are open for the 2008 nomination for the Manthan Award and from this year we are also inviting nominations from all South Asian countries including Afghanistan. Please help us identify the one you have, and those you know. Please follow the following links and forward the same if you want the grassroots development through the use of ICT gets its due. Warmest regards, ** ** *to **Afghanistan; Bangladesh; Bhutan; India; Maldives; Nepal; Pakistan; Sri Lanka** * *Last Date for Nominations: July 15, 2008 * We are pleased to announce the launch of Manthan Award South Asia 2008 recognising Best ICT & e-Content Practices and Innovations for Development. Nominations are open for 2008 edition from e-Content innovators, practitioners and creators across South Asian Countries who wants to nominate their products and innovations for this prestigious recognition. Nominations are invited in *15 categories:* *e-business; e-learning; e-culture; e-government; e-health; e-enterprise and livelihood; e-entertainment; e-education; e-environment; e-inclusion; e-localization; e-news; e-youth; m-content; community broadcasting* *.* To file n ominations please visit www.manthanaward.org or http://www.manthanaward.org/NomProduct.asp The Manthan Award is an initiative of Digital Empowerment Foundation with strategic support from Department of Information Technology, Government of India, World Summit Award and others. with regards, *Pritam Sinha* Content Cordinator Digital Empowerment Foundation New Delhi www.defindia.net www.manthanaward.org www.wsis-award.org www.econtentworldwide.org www.localareaportal.org www.gyanpedia.in www.neerjaal.org 12/17 Lower Ground Sarvapriya Vihar New Delhi – 110016 Tel : +91-11-26532786 Telefax : +91-11-26532787 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080616/4e5a8dfd/attachment.html From manthanaward at gmail.com Mon Jun 16 12:12:04 2008 From: manthanaward at gmail.com (Manthan Award) Date: Mon, 16 Jun 2008 12:12:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Manthan Award South Asia 2008 - Nominations Open Now - Last day 15th July '08 Message-ID: Dear Friends, As you may know Manthan Award is always encouraging the innovative use of information and communication technology for the development of economy, masses, rural development in all aspects of life cycle. We would be glad to hear from you if you are one of them and if you know somebody whom you would like to be nominated. We are open for the 2008 nomination for the Manthan Award and from this year we are also inviting nominations from all South Asian countries including Afghanistan. Please help us identify the one you have, and those you know. Please follow the following links and forward the same if you want the grassroots development through the use of ICT gets its due. Warmest regards, ** ** *to **Afghanistan; Bangladesh; Bhutan; India; Maldives; Nepal; Pakistan; Sri Lanka** * *Last Date for Nominations: July 15, 2008 * We are pleased to announce the launch of Manthan Award South Asia 2008 recognising Best ICT & e-Content Practices and Innovations for Development. Nominations are open for 2008 edition from e-Content innovators, practitioners and creators across South Asian Countries who wants to nominate their products and innovations for this prestigious recognition. Nominations are invited in *15 categories:* *e-business; e-learning; e-culture; e-government; e-health; e-enterprise and livelihood; e-entertainment; e-education; e-environment; e-inclusion; e-localization; e-news; e-youth; m-content; community broadcasting* *.* To file n ominations please visit www.manthanaward.org or http://www.manthanaward.org/NomProduct.asp The Manthan Award is an initiative of Digital Empowerment Foundation with strategic support from Department of Information Technology, Government of India, World Summit Award and others. with regards, *Pritam Sinha* Content Cordinator Digital Empowerment Foundation New Delhi www.defindia.net www.manthanaward.org www.wsis-award.org www.econtentworldwide.org www.localareaportal.org www.gyanpedia.in www.neerjaal.org 12/17 Lower Ground Sarvapriya Vihar New Delhi – 110016 Tel : +91-11-26532786 Telefax : +91-11-26532787 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080616/4e5a8dfd/attachment-0003.html From avinashonly at gmail.com Thu Jun 19 20:47:43 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Thu, 19 Jun 2008 10:17:43 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <19185296.892371213888663938.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// आओ, महान बनाने का खेल खेलें Posted: 19 Jun 2008 08:28 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/315369262/blog-post_3142.html मॉडर्न तकनीक और भदेस मानस के मिलन का पर्व: आपके टीवी स्‍क्रीन पर न्यूज चैनलों में आज कल जो हो रहा है और उसे लेकर आपको जैसी चिंता है, वैसी बहस पश्चिम में छठे और सातवें दशक में खूब हुई थी। ऊपर लिखी पंक्तियां आपको आज की लग सकती हैं लेकिन ये ब्रिटेन की 1960 की पिलकिंग्टन कमेटी की रिपोर्ट के अंश हैं। इस कमेटी ने ही अव्यावसायिक बीबीसी और व्यावसायिक आईटीवी को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई थीं। बीबीसी का चैसा चेहरा हम देखते हैं, उस पर इस रिपोर्ट की गहरी छाया है... Read More आलोक श्रीवास्तवआज जो मीडिया हमारे सामने है, एसपी की छाया उसमें देखी जा सकती है। टीवी टुडे के चेंबर में बेबस बैठे एसपी इस मीडिया को ऐसा ही देखना चाहते थे, जैसा आज ये है। जो लोग मीडिया में अपनी घुटन से गढ़े हुए सपने को एसपी का सपना बता रहे हैं, वे एक झूठ का तिलस्‍म रच रहे हैं। एसपी की पत्रकारिता पर बड़ी-बड़ी बातों के बीच में आलोक श्रीवास्‍तव ने हमें अपना यह आलेख मेल से भेजा है। आठ साल पहले ये कथादेश में छपा था, अक्‍टूबर 2000 में अख़बारनामा स्‍तंभ में। बाद में आलोक की ही किताब अख़बारनामा : पत्रकारिता का साम्राज्‍यवादी चेहरा (संवाद प्रकाशन, आई 499, शास्‍त्रीनगर, मेरठ 250004 से 2004 में प्रकाशित) में इसे संकलित किया गया।पिछले दो दशकों में हिंदी पत्रकारिता की दुनिया काफी बदल गयी है। नवऔपनिवेशक साम्राज्यवाद इस बदलाव के मूल में है। अख़बार आज उत्पादों का ऐसा “मेनू” हैं, जो तक़रीबन हर वर्ग और हर इलाक़े में पहुंच कर लोगों में इन उत्पादों का बाज़ार बनाने में लगे हैं और खुद भारी खपत वाले एक उत्पाद में बदल गये हैं। अच्‍छा हुआ मैं एसपी से नहीं मिला समरेंद्र फिर वही जून। फिर वही एसपी सिंह और फिर वही रोना धोना। एसपी होते तो ऐसा होता, एसपी होते तो वैसा होता। कुछ का दावा तो यहां तक कि एसपी होते तो टीवी पत्रकारिता का रूप ही कुछ और होता। इस रोने-धोने और एसपी के बहाने मीडिया को गरियाने में वही सबसे आगे हैं जो खुद मीडिया में ताकतवर ओहदों पर बैठे हैं। ये भी मीडिया के उसी जाने-पहचाने सिद्धांत को ज़ाहिर करता है कि ख़बरें उन्हीं की जो ख़बरों में बने हुए हैं। एसपी के जिन साथियों की टीआरपी गिर गई, जो वक़्त के साथ ताल से ताल नहीं मिला सके... हाथिये पर ढकेल दिये गये उनके लेख कम छपते हैं। उनकी बातें कभी कभार ही सुनाई देती हैं। ये अजीब त्रासदी है और उम्मीद की किरण बहुत धुंधली है। नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं। वो बलात्कार और क़त्ल की ख़बरों को दिलचस्प बता कर पेश करते हैं। जब ऐसी कोई ख़बर नहीं होती जिसमें तड़का लगा सकें तो लोगों को डराना शुरू कर देते हैं। वैज्ञानिकों की जगह ज्योतिषियों को बिठा कर बात-बात पर कहते हैं कि दुनिया तबाह होने वाली है ... ज़िंदगी देने वाला सूरज खुद ही धरती को निगल लेगा... कलयुग है ... घोर कलयुग।Read More पिछले दो दशकों की हिंदी पत्रकारिता को भीतर से जानने के लिहाज़ से एक नकारात्मक पर ज़रूरी किताब हाल ही में आयी है - शिला पर आख़िरी अभिलेख (संपादक : निर्मलेंदु, प्रकाशक : अर्घ्य प्रकाशन, पो : रहड़ा, सारदापल्ली, पूर्व, 24 परगना, उत्तर, प. बंगाल)। इस किताब में इन दो दशकों की हिंदी पत्रकारिता के केंद्र में रहे सुरेंद्रप्रताप सिंह के मित्रों/सहकर्मियों ने उनके बारे में प्राय: प्रशस्तिपूर्ण ढंग से लिखा है। ये लेख सुरेंद्रप्रताप के जीवन और पत्रकारिता संबंधी उनके कामों का स्तुतिपरक विवेचन करते हैं। सुरेंद्रप्रताप के व्यक्तित्व के अनेक आयामों को भी ये लेख खोलते हैं। व्यक्ति विशेष पर अभिनंदन-ग्रंथों की परंपरा हिंदी में पुरानी है। पर यह पुस्तक उस शख्स़ का अभिनंदन उतना नहीं है, जितनी कि यह उसके साथ होने के निजी अनुभवों और उसे खोने की पीड़ा से जुड़ी है। साथ ही बड़े पदों पर रहे अपने मित्र को महानता और श्रेष्ठता के मिथ्या आभामंडल से मंडित करने की दयनीय चेष्टाएं अधिकांश लेखों में नज़र आती हैं। पर हमारे लिए इस पुस्तक की ये सारी विशेषताएं उतनी महत्‍व की नहीं हैं। महत्‍वपूर्ण हैं ये दो दशक, जो हिंदी पत्रकारिता में सुरेंद्रप्रताप के नायकत्व के रहे हैं। इन्हीं दो दशकों में हिंदी पत्रकारिता में बुनियादी बदलाव हुए। इन सबके बीच सुरेंद्रप्रताप की भूमिका क्या रही? और भावुक होकर उन्हें याद करने वाले उनके साथियों में क्या इस बात की चेतना भी है कि जिस हिंदी पत्रकारिता के एकमात्र नायक को लेकर वे विभोर हैं, उसे हिंदी पत्रकारिता का इतिहास किस नज़रिए से देखेगा? वस्तुत: हमारा युग सफलता से चुंधियाये मध्यमवर्गीयों का युग है, जिसमें सफलता ही एकमात्र मूल्य है। शिखर ही पूज्य है। (तुम हमेशा शिखरों की तलाश करते रहे... और पाते भी रहे उन्हें, लेकिन मज़े की बात यह है कि ये शिखर बने-बनाये नहीं थे : विश्‍वनाथ सचदेव) उन आंखों को यह नहीं दिखता कि एक किशोर, जो पूर्वी उत्तरप्रदेश के पिछड़े अंचल से कुछ सपने और भरपूर आत्मविश्‍वास लिये कलकत्ता, बंबई और दिल्ली में अपने जीवन के उद्देश्‍य तलाशता पहुंचा था, जो कभी कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड (उनके मित्र गणेश मंत्री के मुताबिक) रखे रहता था, किताबें जिसका व्यसन थीं, वह कैसे उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है, जिसे बदलने के विचार उसके आरंभिक युवा काल की प्रेरणा थे। उसका बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। सत्ता के गलियारों में ऊंचे संपर्कों वाली पत्रकारिता के बीच उसे किसी परिवर्तन की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। यहां तक कि बड़ी नौकरियों के एवज में वह पूंजीवादी पत्रकारिता के संपूर्ण ढांचे की वकालत में असावधान कुतर्कों तक का इस्तेमाल करने लगता है। वही व्यवस्था एक दिन उसे निर्ममता से बाहर भी कर देती है। वह उसी व्यवस्था से गुहार भी करता है (सुरेंद्रप्रताप ने नवभारत टाइम्स से अपने हटाये जाने के मुद्दे को इस बात से जोड़ा कि प्रबंधन चाहता है कि उनका हिंदी अख़बार उसी समूह के अंग्रेज़ी अख़बार के अनुवाद पर आधारित हो। इस मुद्दे को राष्‍ट्रभाषा से जोड़ कर एक संवेदनशील राष्‍ट्रीय मुद्दे तक के रूप में उन्होंने संसद में भी उठवाने की कोशश की, जबकि हक़ीकत यह थी कि यह हिंदी अख़बार शुरू से ही उस समूह के अंग्रेज़ी अख़बार का परजीवी था और आज भी है)। पर व्यवस्था विगत में निभायी गयी उसकी “पेशे के प्रति प्रतिबद्धता” और “निष्‍ठा” का कोई प्रतिसाद नहीं देती। यदि रास्ते में अचानक “आज तक” न आ जाता, तो लगभग एक तरह की गुमनामी ही उनका भविष्‍य बन चुकी थी। व्यक्तित्व का यह कायांतरण यूं ही ऊपर-ऊपर से नहीं घट जाता। वह इंसान को उसकी जड़ों से, उसकी प्रेरणाओं से, उसके भविष्‍य से, उसके आंतरिक स्वत्व से काट देता है, और नयी ज़मीन भी उसे नहीं मिलती। वह एक सांस्कृतिक बियाबान में रहने को अभिशप्त हो जाता है (एक ही बात कचोटती कि किसने उसे इतना अशांत बना दिया था। किस वजह से वह इतना उदास और मायूस बन गया : रूमा सेनगुप्ता)। सुरेंद्रप्रताप की सफलता के चारण उस शख्स़ के उस दर्द को कभी नहीं समझ पाएंगे, जो उसके अपने ही व्यक्तित्व से विलगाव के नतीजे में उपजा था (नब्बे के दशक का एसपी असली एसपी नहीं था, वह मिस्टर सुरेंद्र प्रताप सिंह था... कार्पोरेट जगत का क़ैदी पुरजा : उदयन शर्मा)। इस सदी के आख़िरी दो दशक भारत भर में पत्रकारिता के एक नये दौर के साल हैं। अख़बारों की सबसे विशाल खपत के कारण हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह नया दौर हिंदी पत्रकारिता पर गहरा असर डालने वाला साबित हुआ। इस दौर की हिंदी पत्रकारिता ने तथाकथित “राष्‍ट्रीय पत्रकारिता” से उतर कर “गांव की प्रधानी की शपथ के दौरान पुत्र रत्न” (मुंबई के लोकप्रिय दैनिक “यशोभूमि” में जुलाई, 2000 में छपी एक ख़बर) के समाचार वाली स्थानीयता से लेकर “सौंदर्य उत्पादों व ग्लोबलाइजेशन की अंतर्राष्‍ट्रीयता तक अपना दायरा फैला लिया। यह एक नये तरह की पत्रकारिता थी, जो नयी आर्थिक नीति और उदारीकरण के कारण फैली थी। इस पत्रकारिता के नक़्शे में भविष्‍य नहीं, अतीत नहीं, सिर्फ़ एक वर्तमान था। उसकी सनसनियां थीं। उसके राजनीतिक गलियारे थे। निहित स्वार्थों की सत्ता और समीकरण थे। वहां विचार नहीं तथ्य थे। वे भी चुनिंदा... ऐसे तथ्य जिनसे विचार न पैदा हो सकें। इस पत्रकारिता के दो मुंह थे। एक मुंह समाज-सेवा और मिशन का मिथ बनाकर अपनी विश्‍वसनीयता का भरोसा दिलाता और सरकारी मदद हड़पता और दूसरा मुंह किसी भी क़िस्म की पूंजीवादी-व्यावसायिक ईमानदारी तक का पालन न करने वाला। सुरेंद्रप्रताप को इसी पत्रकारिता ने नायक के रूप में चुना था। तभी वे कहते थे, “इतनी सुखद स्थिति हिंदी की कभी रही नहीं”। बेशक यह स्थिति सुखद थी। क्योंकि हिंदी अख़बार मालिकों का एक पूरा वर्ग उभर आया था, जो प्रसार-संख्या में हुए विस्फोट के कारण रातो-रात करोड़ों में खेलने लगा था। जबकि उन्हीं अख़बारों में श्रम-नियोजन की स्थिति यह थी और आज भी है कि अधिकांश पत्रकार 2-3 हज़ार रुपयों के एवज में 10 से 12 घंटे तक रोज़ाना काम करते हैं। बेशक अख़बारों के पृष्‍ठ बढ़े, रंगीनी बढ़ी, किंतु अख़बारों का संपूर्ण प्रभाव कस्बाई और ग्रामीण पाठक-वर्ग में उदारीकरण के साथ आये उपभोक्तावाद के प्रसार और सत्ता आधारित राजनीति में दिलचस्पी के अलावा कुछ भी नहीं था। सुरेंद्रप्रताप काफी आक्रोश की भाषा में कहते थे, “शिक्षक की प्रतिबद्धता शिक्षण के प्रति होगी या एक वकील की प्रतिबद्धता अपने वकालत के पेशे के प्रति होगी। वैसे ही एक पत्रकार की प्रतिबद्धता पत्रकारिता के प्रति होनी चाहिए (यानी अख़बार के मालिकों ने अपने पूंजीगत लाभों या इतर निहित स्वार्थों के अनुसार पेशे के जो मानदंड तय किये हैं, जो स्वरूप और मूल्य निर्धारित किया है, जो प्राथमिकताएं, जो दिशा-निर्देश और सेंसर की जो स्वचालित प्रणालियां पत्रकारों को दी हैं, उनके प्रति प्रतिबद्ध होना: लेखक)। लेकिन कहें कि नहीं साहब, इसे छोड़-छाड़ कर आप हमारे अमुक कॉज के लिए प्रतिबद्ध रहिए। अमुक कॉज के लिए आप प्रतिबद्ध हैं, तो उस संस्था से कहिए, या उस कॉज में विश्‍वास करने वाले लोगों से कहिए, उस तरह की पत्रिका निकालें और चलाएं। उसकी इकोनॉमिक्स क्या हो, उसके व्यापार का तंत्र क्या हो, उसे वह समझें व चलाएं- वह उनकी अपनी परेशानी है... लेकिन आप कोशश करें कि नहीं हमारा अख़बार तो सेठ निकाले, सारे ख़र्चे सेठ बर्दाश्‍त करे और उसमें बैठ कर क्रांति मैं करूं, तो मैं समझता हूं कि यह अनुचित मांग है।” तो यह परिणति थी। खुद को कभी समाज-परिवर्तन की विश्व-दृष्टि से जुड़ा समझने वाले सुरेंद्रप्रताप की (वह किसी मिशन या काम के लिए समर्पित पत्रकार नहीं था। उसका समर्पण सिर्फ़ पत्रकारिता के लिए था : उदयन शर्मा)। ये उनके विचार नहीं उस तंत्र के विचार थे, जो मोटी तनख़्वाहों, शोहरत और पत्रकारीय-सत्ता के साथ उनके मस्तिष्‍क में प्रत्यारोपित हो चुके थे। वे यह तथ्य भी भूल रहे थे कि जो सेठ अख़बार निकालते हैं और ख़र्चा बर्दाश्त करते हैं... उनके संस्थानों का अगले दिन भट्ठा बैठ जाएगा, यदि जनता के करों से अर्जित संपदा से उन्हें लोकतंत्र के चौथे खंभे के नाम पर मिलने वाली अरबों रुपये की ढांचागत सुविधाएं तथा तमाम तरह के करों में मिलने वाली भारी छूट हटा ली जाए। वे यह भी भूल रहे थे कि हर व्यवस्था अपने अस्तित्व के आधारों के रूप में हर ढांचेगत संस्था का इस्तेमाल करती है। शिक्षा-व्यवस्था से लेकर न्याय-व्यवस्था तक सबको वह अपने अनुरूप ढाल लेती है। ठीक वैसे ही, जैसे भारत की दलाल पूंजीवादी व्यवस्था ने भारत की शिक्षण-व्यवस्था, प्रशासन, न्याय सब कुछ को अपनी चाकरी में ख़रीद रखा है। ऐसे हालात में पेशे के प्रति अप्रश्न प्रतिबद्धता के तर्क का एकमात्र अर्थ इस दलाल पूंजीवादी व्यवस्था के दलाल-कम दास बन जाने से ज्य़ादा कुछ नहीं है। पत्रकारिता के संदर्भ में तो वह और भी ख़तरनाक और समाज विरोधी है। सुरेंद्रप्रताप मसीहाई मुद्रा में इसी महापथ पर “महाजनो येन गत: स पंथा:” कह रहे थे। वे अपनी भाषा के उन हज़ारीप्रसाद द्विवेदी को भी भूल रहे थे, जिन्होंने कहा था, “शास्त्र से भी मत डरो। गुरु से भी नहीं। लोक से भी नहीं।” वे उस भारतीय परंपरा को भी भूल रहे थे, जो नचिकेता से लेकर सत्यकाम तक निरंतर इस देश के अवाम में सत्य के अनुसंधान और उसके लिए कीमत चुकाने के साहस में मूल्य बन कर व्यक्त होती रही है। पेशे के प्रति निष्‍ठा वाले द्रोण भारतीय जन-मानस के नायक नहीं हैं। नायक तो एकलव्य ही है। यह सुरेंद्रप्रताप के जीवन की विडंबना ही थी कि एक ओर वे हिंदी पत्रकारिता के शिल्प को सुधारने की कोशिश में थे, उसकी भाषा मांज रहे थे... पर बाज़ार में बेहतर उत्पाद पहुंचाने से ज्य़ादा दृष्टि और समझ उनके पास नहीं थी। और उसके अभाव को भी वे महसूस नहीं करते थे। बल्कि यह दृष्टिहीनता उन्हें एक ऐसा गुण लगती थी, जिसे वे प्रोफेशनलिज्म़ के रूप में स्थापित और प्रचारित करने की कोशिश में रहे। वे काफी मंदमति अड़ियलपने के साथ पत्रकारिता को साहित्य और साहित्यकारों से बचाये रखने में विश्‍वास करते थे। उनका यह विश्‍वास विद्यानिवास मिश्र (हिंदी के प्राध्यापक तथा प्राचीन संस्कृत काव्य व भक्तिकाव्य के अध्येता, जिन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में स्वयं को अचानक एक दिन “नवभारत टाइम्स” के संपादक की कुर्सी पर बैठा देखा) जैसे संपादक श्रेष्‍ठों के संदर्भ में उचित भी हो सकता है - पर रघुवीर सहाय, हेमिंग्वे, मार्खेज जैसे साहित्यकारों की पत्रकारिता का क्या होगा, जिन्होंने भाषा और संवेदना, तथ्य और विश्लेषण, सामयिकता और इतिहास-बोध की संश्लिष्‍टता से नये रास्ते खोले - पत्रकारिता के संदर्भ में बातें करते वक्त़ उन्होंने कभी भी मीडियॉकर साहित्यकार-पत्रकारों व समाजचेता साहित्यकार-पत्रकारों में भेद करने की ज़रूरत नहीं समझी। दिनमान और रविवार (जिसका संपादन सुरेंद्रप्रताप ने किया और जहां से उनकी ख्याति-यात्रा शुरू हुई) दो युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय के जिस बिंदु पर दिनमान की गंभीर पत्रकारिता ख़त्‍म हो रही थी, उसी समय के मोड़ से रविवार की “सच” कहने वाली एक ऐसी अल्पजीवी पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी, जिसके लिए “सच”, “तथ्य”, “अत्याचार” आदि उत्पादन का कच्चा माल मात्र थे। भागलपुर के क़ैदियों की आंखें फूटने पर वह पत्रकारिता चीखती थी, पर व्यवस्था के संपूर्ण स्वरूप और ढांचे को लेकर वह सहमत थी (फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन और पत्रकारिता में सुरेंद्रप्रताप सिंह का उदय एक समान है... दोनों ने जीवन में हिंसक प्रवृत्ति को बेचा... विजय कुमार)। माना औद्योगिक समूहों के पत्रों से “क्रांति नहीं की जा सकती। दिनमान ने भी नहीं की थी। क्रांति पत्रों से नहीं होती। क्रांति इतिहास की परिघटना है, जिसका संबंध जनता से है। पर बुर्ज्वाजी के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल कर जन-चेतना के विस्तार का शिल्प विकसित करने का एक विकल्प हमेशा रहता है। दिनमान ने भी यही किया था और रविवार यही नहीं कर पाया। फिर भी सुरेंद्रप्रताप नायक थे, क्योंकि वे हिंदी के बौनों के बीच खड़े थे। बेशक सुरेंद्रप्रताप में एक मामूली स्तर की प्रबुद्धता थी। हिंदी पत्रकारिता के स्तर और प्रामाणिकता को लेकर बुनियादी क़िस्म की चिंता भी। उसे एक तरह का स्तर प्रदान करने की क्षमता भी उनमें थी। पर वे यह भूल रहे थे कि भारत में अख़बार का सामयिक मतलब पूंजीवादी घराने की निजी संपत्ति है... विचारों या निष्‍पक्षता का कोई मंच नहीं, यह सदी के उत्तरार्द्ध की पत्रकारिता थी। जन-विरोधी राजसत्ता और यदि जनता ही राष्‍ट्र है, तो राष्‍ट्रद्रोही शासक-वर्ग के मूल्य, जीवन-शैली, एजेंडे आदि अंग्रेज़ी के तथाकथित “राष्‍ट्रीय अख़बारों” द्वारा उत्पादित होते थे और हज़ारों भाषाई अख़बारों की करोड़ों प्रतियों में पुनरुत्पादित होकर रोज़ाना निम्नमध्यवर्गीय भारत के पास उस जीवन-शैली के प्रति ललक और कुंठा बन कर, उस एजेंडे के प्रति जागरूकता बन कर और उस राजनीति के प्रति उत्सुकता बन कर पहुंचते थे। इस पत्रकारिता के ग्लोबल नायक प्रीतिश नंदी, अरुण शौरी, एमजे अकबर थे। सत्ता और उसके समीकरणों के अंश और सजग कैरियरिस्ट। और देसी नायक के हिंदी विंग में थे अकेले सुरेंद्रप्रताप। इस भ्रम के साथ कि हिंदी पत्रकारिता में वे कुछ महत्त्वपूर्ण जोड़ रहे हैं। उन्हें शायद इस बात का विश्लेषण करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी कि अख़बारों की सत्ता-संरचना और हिंदुस्तानी अवाम के बीच इन पत्रों की भूमिका और उसके सामाजिक निहितार्थ और नतीजे क्या हैं। वे एक मासूस खुशफ़हमी में थे। यह उनके जीवन की विडंबना ही थी कि इस वैचारिक पतन के बावजूद जीवन में शायद बेईमान नहीं हो पाये। वे मोटी चमड़ी के उस मस्त पत्रकार में नहीं बदल पाये, जो आठवें-नौवें दशक की इस पत्रकारिता ने (जिसे सुरेंद्रप्रताप “हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग” कहते थे) पैदा किये हैं, जो न जाने किन-किन स्रोतों से किस-किस एवज में करोड़ों कमा लेता है, फार्म हाउस ख़रीदता है, प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-उद्योगपतियों-ठेक़ेदारों के चैनलों के बीच जनसंपर्क अधिकारी का काम करता है। यह वैचारिक दलाल बाद में सांसद बन जाता है या राज्यसभा सदस्य। वे अपने समकक्ष-समवयसी दलाल पत्रकारों के बीच सिर्फ़ ऊंची तनख्व़ाह वाले सफल पत्रकार भर थे। यह एक टूटे हुए द्वंद्वग्रस्त व्यक्तित्व का मॉडल था (1997 के मार्च में ऑफिस के काम से मैं दिल्ली गया था। उन दिनों एसपी “आज तक” में था। फोन पर एसपी से बातचीत होते ही उसने तुरंत कहा कि बिजित दा मैं आपसे आज ही मिलना चाहता हूं। मैं उससे मिला। उसने कहा, “कुछ अच्छा नहीं लग रहा है यहां बिजित दा...” उसके चेहरे पर परेशानी झलक रही थी: बिजित बसु), जो दुश्मनों के कबीले में रह रहा था और उनके बीच बने रहने के लिए ही जिसकी सारी जद्दोजहद थी और जिसे किसी-किसी रात में अपने कबीले के लोग हाथ उठा कर पुकारते हुए दिखते थे, पर उसके पास न लौटने का रास्ता था, न चलने की ताक़त। उनकी मृत्यु बेशक ट्रैजिक थी, पर उतनी नहीं जितना त्रासद उनका जीवन रहा। उनकी सफलता से विभोर लोग कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस सफलता की क़ीमत क्या थी? ऐसी सफलताएं हमेशा ज़मीर के एवज में मिलती हैं। और यह त्रासदी सिर्फ़ एसपी सिंह के जीवन की नहीं है, एक पूरी पीढ़ी की है, जो अपना ज़मीर बेचकर आज जीवन के उजाड़ में खड़ी है... भविष्‍यहीन! आज भारत में मध्यवर्ग का निहितार्थ यही है। ज्य़ादातर लोगों ने संवदेनाओं से, सवालों से मुक्ति पा ली है। उनके लिए मुझे रघुवीर सहाय द्वारा अनूदित हंगारी कवि फेंरेंत्स यूहास की लंबी कविता का यह टुकड़ा याद आता है...लड़का जो बन गया हिरन रहस्य द्वार पर रोता है। छटपटा-छटपटा अगली टांगे उठा डोलता... कंठ में हिरन की बोली गुंगवा कर रह जाती है। बेटे के एक बूंद आंसू टपकता है वह तट की मिट्टी को बार-बार खूंदता कि पानी का राक्षस विलुप्त हो, भंवर उसे लील ले अंधेरे में चंचल मछलियां जहां लाल पंख फरकाती हीरों के बुज्जों-सी तिरती हैं अंत में तरंगें अंधेरे में खो गयीं किंतु चांदनी में खड़ा हिरन रह जाता है। अब आप इस हिरन को सोने में मढ़ा कहें या कुछ भी कहें!(इस लेख में प्रयुक्त सुरेंद्रप्रताप सिंह के मित्रों/परिचितों के उद्धरण पुस्तक “शिला पर आख़‍िरी अभिलेख” से तथा सुरेंद्रप्रताप सिंह के उद्धरण “जनमत” के 29 फरवरी, 1996 के पत्रकारिता विशेषांक से लिए गए हैं।) /////////////////////////////////////////// मॉडर्न तकनीक और भदेस मानस के मिलन का पर्व Posted: 19 Jun 2008 12:59 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/315167177/blog-post_19.html दिलीप मंडलTo give the public what it wants, is a misleading phrase. It appears to be an appeal to democratic principal but is in fact patronizing and arrogant, in that it claims to know what the public is but defines it as no more than the mass audience, and limits its choice to the average of experience.आपके टीवी स्क्रिन पर न्यूज चैनलों में आज कल जो हो रहा है और उसे लेकर आपको जैसी चिंता है, वैसी बहस पश्चिम में छठे और सातवें दशक में खूब हुई थी। ऊपर लिखी पंक्तियां आपको आज की लग सकती हैं लेकिन ये ब्रिटेन की 1960 की पिलकिंग्टन कमेटी की रिपोर्ट के अंश हैं। इस कमेटी ने ही अव्यावसायिक बीबीसी और व्यावसायिक आईटीवी को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई थीं। बीबीसी का चैसा चेहरा हम देखते हैं, उस पर इस रिपोर्ट की गहरी छाया है। अमेरिका के चर्चित ब्रॉडकास्टर एडवर्ड आर मुरो की जीवनी प्राइम टाइम में इस रिपोर्ट का जिक्र (पेज 30) किया गया है। मुरो ने मैकार्थी की नीतियों के खिलाफ सीबीएस चैनल में रहते हुए साहसिक लड़ाई लड़ी थी और अमेरिका में रेडियो और टेलीविजन न्यूज डायरेक्टर्स एसोसिएशन (आरटीएनडीए) उनकी स्मृति में इस साल कई सारे कार्यक्रम कर रहा है। जॉर्ज क्लूनी की फिल्म गुड नाइट एंड गुड लक (2005) मुरो की ही कहानी है। प्राइम टाइम का एक पूरा अध्याय To give the public what it wants की अवधारणा और उसकी सीमाओं की व्याख्या करने को लेकर है। बहरहाल जैसा कि अनिल यादव कहते हैं कि “इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया की इस गति यानि ओझा, सोखा, भूत, चुरइन, तंत्र-मंत्र, बैंगन में भगवान, हत्या-बलात्कार के मूल से भी वीभत्स रिप्ले, बिल्लो रानी, कैसा लग रहा है आपको” वाली पत्रकारिता के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क यही है कि – जनता जो चाहती है वो हम देते हैं। इस तर्क का ख़तरनाक सीमा तक विस्तार न्यूज चैनलों ने कर दिया है। बाजार जो चाहता है वो हम परोसते हैं के तर्क की भी स्क्रूटनी होनी चाहिए। बाजार अपने ब्रांड्स को वीभत्स खबरों के बीच दिखाना भला क्यों चाहेगा? क्या मीडिया, विज्ञापन बाजार को बेहतर विकल्प दे रहा है या ऐसा करने की कोशिश कर रहा है। मीडियाकर्मी जानते हैं कि व्यूअरशिप रेटिंग और एड रेट हमेशा जुगलबंदी करके नहीं चलते। कई चैनल कम रेटिंग के बावजूद बेहतर एड रेट कमांड करते हैं। यहीं दरअसल आशा की एक किरण है। अगर आप मानते हैं कि बाजार ने बिगाड़ा है, तो यकीन मानिए बाजार ही सुधारेगा। पिछले दस साल, जिसे हिंदी टीवी न्यूज मीडिया के पतन का दशक करार दिया गया है, उसी दौर में सिनेमा, समाचार पत्रों और वेब ने मॉडर्निटी के साथ कदमताल करने का दम दिखाया है। सिनेमा में विषयों का चयन देखिए, वो भी तो उसी बाजार से संचालित हैं, जिसके दबाव के नाम पर चैनल भूत और नाग और साईं महिमा दिखा रहे हैं। टीवी का अचंभावाद उसी दौर में है, जब अखबार लगातार उपयोगी और एक्साइटिंग होते जा रहे हैं। सूचनाओं के मुख्य स्रोत के तौर पर, हममें से कौन है, जो टीवी पर निर्भर होना चाहेगा? लेकिन फिलहाल सवाल ये है कि क्या जनता जो चाहती है के तर्क को लेकर भारतीय खासकर हिंदी टीवी मीडिया में बहस का समय आ गया है या अभी मॉडर्न तकनीक और भदेस मानस के मिलन का पर्व और उसके कुछ अध्याय बाकी हैं। ये समस्या जितनी हिंदी न्यूज चैनलों की है, उतनी ही हिंदी समाज की भी है। इस पर भी सोचकर देखिए। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080619/1ae6454e/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Fri Jun 20 13:55:12 2008 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Fri, 20 Jun 2008 13:55:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkruCkp+ClgeCkleCksCDgpLjgpL/gpILgpLkg4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkquCkleCljeCkt+CkmOCkvuCkpA==?= Message-ID: <9c56c5340806200125m3a4c993n439e3392abe8be84@mail.gmail.com> *इस पोस्‍ट का कोई आशय नहीं !* पूरी पोस्‍ट यहां देखें http://sanshyatma.blogspot.com/ अधिकांश लोगों के लिए शायद यह महज एक सूचना होगी, ले‍किन शायद ब्‍लॉग की दुनिया में कुछ लोग ऐसे हों, जिन्‍हें यह समाचार दुखी कर देगा। कथाकार मधुकर सिंह पिछले लगभग डेढ महीने से पक्षघात के पीडित है। इससे भी अधिक त्रासद यह है कि उनके इलाज की मुकम्‍मल व्‍यवस्‍था नहीं हो पा रही। आर्थिक कारणों से न तो उनकी फिजियोथेरेपी हो पा रही है, न ही पर्याप्‍त दवाएं उपलब्‍ध हो रहीं हैं। वह पटना छोड कर आरा में रोग शैयया पर पडे हैं। प्रभात खबर समेत पटना के अन्‍य अखबारों में भी इससे संबंधित सूचना प्रकाशित हो चुकी है। लेकिन न तो सरकार की ओर से कोई मदद मिली है न ही लेखक बिरादरी ने अपनी ओर से कोई कोशिश की हैं। इस संबंध में मैंने कुछ राजनेताओं से बात करने की कोशिश की तो उनका रिस्‍पांस तो बेहद ठंडा था । हां, कुछ लेखकों ने जरूर इस आशय का परिपत्र तैयार कर देने पर उस अपने 'हस्‍ताक्षर' कर देने की सहमति देने की * दरियादिली* दिखाई। बहरहाल, इस पोस्‍ट का आशय इतना भर है कि........ शायद इसका कोई आशय नहीं है ! क़पया इस पोस्‍ट पर अपनी टिप्‍पणी न दें, यह लेखकों के हस्‍ताक्षर जैसी ही दरियादिली होगी। मधुकर जी का मोबाइल नं है 9973608542, 9334821919 । पूरी पोस्‍ट यहां देखें http://sanshyatma.blogspot.com/ -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-34 Size: 23009 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080620/6f3fb6e4/attachment-0001.bin From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jun 23 14:52:33 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Mon, 23 Jun 2008 14:52:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWB4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWH4KSy4KSW4KSC4KShOiDgpKTgpYDgpKgg4KSv4KWB4KS14KSk4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSCIOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpK/gpL7gpLg=?= Message-ID: <196167b80806230222u59741869t53144bb7d1c51bb@mail.gmail.com> बुंदेलखंड: तीन युवतियों का प्रयास महोबा के पनवाडी ब्लोक के पहाडिया गाँव में करीब १७० परिवार हैं। प्राकृतिक आपदा और पानी की कमी से यहाँ की फसलें चौपट हो गई हैं। जिसकी वजह से गाँव के कई परिवार भुखमरी की हालत में पहुच गए। ऐसे समय में ४ लाख रुपए कर्ज तले दबे रामकुमार परिहार की दो बेटियों गुडिया और रीना ने अपनी एक सहेली नीतू के साथ मिलकर ऐसे जरुरत मंद गाँव वालों की मदद करने की ठानी जो दाने-दाने को मोहताज हैं। ये लड़कियां जरुरतमंदों की मदद के लिय गाँव में दादर (गाने बजाने की महफ़िल) आयोजित करती हैं। इससे जो आखत ( गीत सुनने वालों द्वारा दिया गया धन या अनाज) आता है। उसे इकठा कर जरुरत मंद परिवारों तक ये लड़कियां पहुचाती हैं। वाकई इन्हे देखकर प्रेरणा मिलती। शाबाश लड़कियों। From rakeshjee at gmail.com Wed Jun 25 17:07:49 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 25 Jun 2008 17:07:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?SUlUIOCkpuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KSy4KWAIOCkleClhyDgpJvgpL7gpKTgpY3gpLDgpYvgpIIg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkuOCkruCksOCljeCkpeCkqCDgpK7gpYfgpIIg4KSV4KSy?= =?utf-8?b?IOCkp+CksOCkqOCkvg==?= Message-ID: <292550dd0806250437g1aa985efv128ddd522a56f7e8@mail.gmail.com> दीवानों कनकलता के मामले में दिखी एकजुटता काबिलेगौर है. आईआईटी के छात्रों को भी बड़े समर्थन की ज़रूरत है. पिछले दिनों ख़बर आयी कि इस साल आईआईटी दिल्ली में वार्षिक परीक्षा में लगभग दो दर्जन छात्रों को फेल कर दिया गया है. यह भी पता चला कि वहां परीक्षा और परिणामों की कोई नियत पद्धति नहीं है. शिक्षक अपने हिसाब से पास होने के लिए न्यूनतम अंक तय करते हैं, जो उनकी मर्जी के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है. इस पास-फेल के गेम में वैसे बच्चों को खास तौर से टारगेट किया जाता है जो पिछड़े इलाक़ों और समुदायों से आते हैं. जबरन फेल किए गए एक छात्र ने बताया कि आईआईटी दिल्ली में परीक्षा-परिणाम की घो‍षणा नोटिस-बोर्ड पर नहीं की जाती है, छात्रों को व्यक्तिगत ई मेल या फ़ोन के ज़रिए उनके परिणाम बताए जाते हैं. ज़ाहिर है, परीक्षा-परिणाम की घोषणा का यह तरीक़ा और कुछ भी हो पर पारदर्शी तो नहीं ही कहा जा सकता है. इस महीने की शुरुआत में लगभग दर्जन छात्रों को परीक्षा में फेल बताकर संस्थान छोड़ने का नोटिस जारी किया गया था. ऐसे ही कुछ छात्रों ने एससी/एसटी कमिशन में शिकायत दर्ज की थी जिसकी सुनावाई करते हुए विगत 17 जून को आयोग ने संस्थान के डायरेक्टर और डीन को तलब किया और अगली तारीख़ पर इससे मुताल्लिक रिपोर्ट पेश करने को कहा. उसके बाद से आईआईटी प्रशासन ने जबरन फेल किए गए छात्रों को बुलाकर धमकाना और तरह-तरह का प्रलोभन देना शुरू कर दिया है. आईआईटी प्रशासन की धांधली और छात्रों के भविष्य के साथ किए जा रहे खिलवाड़ के खिलाफ़ विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के छात्रों, शिक्षकों एवं दिल्ली के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कल दिनांक 26 जून 2008 को सुबह 10.30 बजे आईआईटी मेन गेट पर धरने का निर्णय लिया है. आप तमाम इंसाफ़ पसंद लोगों से आग्रह है कि इस धरने में शामिल हों और उच्च शिक्षा के इस संस्थान में प्रशासन के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का प्रतिवाद करें. धरना का ब्यौरा: स्थान: मेन गेट, आईआईटी, दिल्ली समय: 10.30 बजे सुबह, 26 जून 2008 उत्तरी दिल्ली से जाने वाले मित्र केंद्रिय सचिवालय मेट्रो स्टेशन से 620 नं. की बस ले सकते हैं. -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080625/ac95b73b/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Wed Jun 25 17:17:42 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Wed, 25 Jun 2008 07:47:42 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDAzIOCkqOClh+Ckn+CksOCljeCkteCklS0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN4KSV4KWD4KSk4KS/IOCkleCkviDgpKrgpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSv4KSV?= Message-ID: माफी चाहता हूँ, साथियों पहले जो लेख मैंने भेजा वो पूरा नहीं था इसलिए उसी लेख को मैं दुबारा भेज रहा हूँ यह लेख परिंदे पत्रिका में छपा है *समीक्षा* *मीडिया नगर **03: **नेटवर्क**-**संस्कृति का परिचायक* *सुरेश पंडित* कहते हैं वख़्त कभी एक-सा नहीं रहता। बदलता रहता है। वख़्त के साथ दुनिया और उसके लोग और उनकी जिन्दगियाँ सब कुछ बदलते रहते हैं। वख़्त में बदलाव की गति तेज़ होती है बाक़ी सब तो उसे पकड़ने, उसके अनुसार ढल जाने में देर लगाते हैं। पर लगता है पिछली चौथाई सदी में बाक़ी सब चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं कि उन्हेंने वख़्त की गति को पछाड़ दिया है। इस वायु वेग सरीखे बदलाव को पकड़ने, इसके असर को आँकने और आगे की संभावनाओं का अंदाज़ा लगाने की जो कोशिशें हो रही हैं उनमें 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ दिल्ली' के द्वारा आयोजित 'सराय' कार्यक्रम आशा और उत्साह पैदा करने वाला है। पिछले कुछ सालों में 'सराय' ने इस बारे में न केवल अनुशासित व सुनियोजित ढँग से शोधकार्य किया है बल्कि उसका क्रमिक प्रकाशन कर भारतीय बुद्धिजीवियों को उस पर विचार-बहस करने और अपने सुझावों, मंतव्यों से उसे सप्लीमेंट करने के लिए आमंत्रित भी किया है। इस परियोजना के अंतर्गत पहला प्रकाशन मीडिया नगर 01: दिल्ली पर और मीडिया नगर 02: उभरता मंजर के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं अब मीडिया नगर 03: नेटवर्क-संस्कृति पर 2007 के आखिरी महीनों में सामने आया है। तीसरे नंबर की इस 272 पृष्ठों वाली पुलस्तक में नेटवर्क के विस्तार और उसकी पारस्परिक कनेक्टिविटी को फोक़स में रखते हुए फ़िल्म, संगीत, मीडिया के साथ-साथ अख़बार, टेलीविज़न और विज्ञापन आदि को भी विचार परिधि में शामिल करने का प्रयास किया गया है। इसके पहले खंड में 'सिने-माहौल' के तहत तीन लेख हैं। इनमें रवि वासुदेवन का पहला लेख - 'खौफ़ का उन्मादः सिनेमा की शहरी बेचैनी' अस्सी के दशक की फ़िल्मों में शहरी बेचैनी और उससे पैदा हुई उग्रता, हिंसात्मकता एवं असहिष्णुता को प्रदर्शित करता है। उनके मतानुसार इन फ़ल्मों में एक्शन, हीरोइज्म और हीमेनशिप को दिखलाने पर जोर दिया गया है और नायिकाओं की भूमिका प्रायः गौण बना दी गई है। दूसरा लेख मीहिर का है - 'बौंराई सी ख़ुशबू और प्रसून जोशी की कबीराई' इसमें वे पहले की फ़िल्मों से मौज़ूदा फ़िल्में कि तरह पटकथा से लेकर गीत, संगीत तक के संदर्भ में अलग व विशिष्ट हैं इस पर प्रकाश डालते हैं। आमिर ख़ान की फ़िल्म 'रंग दे बंसती' के गीतकार प्रसून जोशी के सारे गीतों में कबीर की अनुगूँज सुनाई देती है। आज के भगतसिंह को ढूँढ़ती यह फ़िल्म कबीर की तरह रंगरेज से दुआ करती है - 'अब देर न कर सचमुच रंग दे/रंगरेज मेरे सब कुछ रंग दे।' इसी खंड के तीसरे लेख में देवश्री मुख़र्जी खुलासा करती हैं कि फ़िल्मों या टीवी सीरियलों को बनाने में जब किसी मकान के अंदर की गतिविधियों को फ़िल्माने की ज़रूरत पड़ती है तो निर्माताओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मकान मालिकों को भारी अहसान लेते हुए मुँह माँगा पैसा तो किराए के रूप में चुकाना ही होता है उनकी शर्तों का भी हर समय ध्यान रखना पड़ता है। दूसरे खंड में 'संगीत की संस्कृति' पर दो शोधपरक लेख हैं। पहले में हरियाणवी लोकसंगीत की मौख़िक परंपरा के इतिहास पर सरसरी नज़र डालने के बाद उसे कैसेटों में बंद कर बाज़ार का उत्पाद बना देने की कहानी पर रोशनी डाली गई है। आधुनिक प्रौद्योगिकी जहाँ एक ओर नेटवर्किंग कि ज़रिए लोगों को परस्पर जोड़ने की बात करती है वहीं दूसरी ओर सामूहिकता की संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर व्यक्तिवाद को पनपाती भी है। सेलफ़ोन व कैसेट के आविष्कार इसके जीवंत उदाहरण हैं। सेलफ़ोन कनेक्ट करने का दावा करता है और कैसेट एक साथ सैकड़ों की संख्या में बेठकर लोक संगीत सुनने वाले श्रोता समूह को छिन्न-भिन्न कर उन्हें अलग-अलग घरों के एकांत में बद कर देता है। दूसरे लेख में खेलों के शहर जालंधर में लगने वाले हरिबल्लभ संगीत मेले के वार्षिक आयोजन में हर बार आ रहे बादलाव को दर्शाने की चेष्टा की गई है और यह दिखाया गया है कि कैसे एक स्थानीय परंपरा बाज़ार के जाल में फँसकर अपनी स्वाभाविकता खो देती है। तीसरे खंड का शीर्षक 'नेटवर्क-संस्कृति' इसलिए है क्योंकि इसमें नेटवर्किंग के सिद्धांतः आलोचनात्मक इंटरनेट संस्कृति, जाली दुनिया की जिद्दी संरचनाएँ और वैश्विक शहर में ई-स्पेस के मुहावरे से संबंधित ऐसे तथ्यों की जानकारियाँ दी गई हैं जिन से हिन्दी का पाठक सामान्यतः परिचित नहीं रहता। पहला लेख मूलतः गीयर्ट लोविंक के लेख का अनुवाद है। गीयर्ट इसमें नेटवर्क संस्कृति की संरचना के सूक्ष्म तंतुओं पर विचार करते हुए बताते हैं कि संगठित नेटवर्क में जो चीज़ साफ़ तौर पर देखी जा सकती है वह इसका संस्थागत विस्तार जो संप्रेषण के सामाजिक तकनीकी ढाँचे में अंतर्निहित रहता है। इसका आशय यह है कि संगठित नेटवर्क के निर्माण का कोई सार्वभौमिक सूत्र नहीं होता। 'जालीय दुनिया की जिद्दी संरचनाएँ' में रक़्स मीडिया कलेक्टिव नेटवर्क की बुनावटों पर दस अलग-अलग कोणों से विचार किया गया है। रक़्स का कहना है कि नेटवर्क कैसे काम करता है और किस सीमा तक हमारी चेतना पर ख़ुद को आरोपित करता है उसे रिसाव के रूपक से समझा जा सकता है। इसी तरह तीसरा लेख सायबर स्पेस किस तरह से खंडित और किन जगहों पर अवस्थिति है की व्याख्या करता है। इस खंडित सायबर संसार में आर्थिक इलेक्ट्रॉनिक स्पेस और उसमें भी अर्थतंत्र के निरंतर बढ़ते अंकीकरण (डिजिटलाईजेशन) की प्रक्रिया पर गहराई से विचार किया गया है। यह इलेक्ट्रॉनिक स्पेस की अवस्थिति की दिशा में कुछ विश्लेषणात्मक रास्ते भी सुझाता है। सभी अन्य खंडों से यह खंड अधिक दुरूह है क्योंकि इसमें तकनीकी शब्दावलि का अधिक इस्तेमाल हुआ है। अतः जिन पाठकों की इंटरनेट से गरही पहचान नहीं है उन्हें इसे समझने में कठिनाई महसूस होना स्वाभाविक है। चौथा खंड 'वीडियो लीला' पर केंद्रित है। इसका पहला लेख गुरिला न्यूज़ नेटवर्क अर्थात जीएनएन की शुरूआत तथा इसके द्वारा किए गए कामों से पाठकों को अवगत कराना है। सुप्रसिद्ध कनाडाई लेखक और फ़िल्म निर्माता स्टीफ़न मार्शल बताते हैं कि इस फील्ड में कई तरह के काम करने के बाद उन्होंने जीएनएन की शुरूआत की। एक धमाके दार और अर्थपूर्ण मल्टी मीडिया साइट के रूप में इसका प्रवेश तब हुआ जब डॉट कॉम क्रांति का जगह-जगह शोर मचा हुआ था। इसी समय उन्होंने सियरा लियो के हीरा व्यापार में सीआईए की सक्रिय भूमिका को उजागर करने वाली दो वीडियो फ़िल्में तैयार की थी। वे बतातें हैं कि हमने हर घटना की पीछे किसी साज़िश के होने की प्रचलित सोच को स्वीकार नहीं किया और हमेशा यह बात ध्यान में रखी कि किसी भी स्टोरी को तभी पेश किया जाए जब वह पत्रकारिता के मानकों पर खरी उतरती हो। अगले लेख में खदीज़ा आरिफ़ दिल्ली में वीडियो पार्लर किस तरह यकायक अस्तित्व में आए और फिर बिलाते गए को विस्तार से वर्णित, जाक़िर नगर की गलियों में चल रहे इस तरह के प्रदर्शनगृहों की झलकियों के माध्यम से करती हैं। इसी खंड के तीसरे लेख में अंकुर खन्ना मुंबई के उन रहमत भाई का खाका खींचते दिखाई देते हैं जो सीडी व डीवीडी की सप्लाई खुले आम किया करते थे। इसी तरह मयूर सुरेश एक ऐसे शख़्स से साक्षात्कार करवाते हैं जो पाकिस्तान इरान, इराक में भारतीय हिन्दी फिल्मों की तस्करी कर चुके थे। 'मीडियानगर' शीर्षक पाँचवा खंड आनंद प्रधान के 'नागरिक पत्रकारिता की दस्तक' नामक लेख से शुरू होता है। इसमें वे बताते हैं कि इसका उद्देश्य सीधे-सीधे लोगों को मीडिया से जोड़ना है। इसमें टीवी चैनल व अख़बार आम नागरिकों से यह पेशकश करते रहते हैं कि यदि उन्के पास किसी घटना, समाचार की कोई तथ्यात्मक जानकारी है या वे उसके प्रत्यक्ष दर्शक-संभागी रहे हैं तो वे उसकी वीडियो क्लिपिंग या रिपोर्ट सीधे भेज सकते हैं। समय पर उसका समुचित उपयोग किया जाएगा। लोगों से किसी मुद्दे पर उनकी राय जानना या परिचर्चा में आमंत्रित करना भी इसी पत्रकारिता का एक रूप है। दूसरे लेख में अरूंधती राय भारतीय प्रेस जगत में छिड़ी उस बहस की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं जिसमें एक अख़बार की उस ख़बर को लक्षित किया गया है जिसके अनुसार कोई भी पाठक उसके तीसरे पेज पर पैसा देकर अपनी ख़बर छपवा सकता है। इससे बरबस यह संकेत मिलता है कि इस पेज के अलावा बाक़ी जगहों पर छपी खबरें अप्रायोजित, बेदाग़ और सच्ची होती हैं। लोगों की आम प्रतिक्रिया यह है कि पैसे लेकर ख़बर छापना निष्पक्ष पत्रकारिता का अद्योपतन है। अरूंधती राय कहती हैं कि इससे तो यह साबित हो जाएगा कि जैसे घोषित रूप से पैसे लेकर ये अख़बार किसी की भी ख़बर छाप सकते हैं उसी तरह गुप्त रूप से पैसे लेकर ये बाक़ी ख़बरें भी छापते रहे होंगे। तीसरा खंड संजय काका का है। वे खुले तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि वे एक पॉलिटिकल फ़िल्म मेकर हैं। क्योंकि उन्होंने देश में चल रहे उन आंदोलनों की फ़िल्में बनाई हैं जो आमजन के मुद्दों को उठाने और लोगों को उत्पीड़न से राहत दिलाने के लिए किए जा रहे हैं। छठा खंड 'पर्दे की ख़बर' का है। पहले लेख 'ब्रेकिंग न्यूज़ का कालचक्र' में आसीम खाँ चौबीसों घंटे चलने वाले ख़बरिया चैनलों का एकमात्र मोटो - 'साम दाम दंड भेद जैसे भी बाइट लाओ' को सामने रखते हुए मौज़ूदा दौर में टीवी ख़बरों के उत्पादन से जुड़े कुछ पहलुओं पर प्राकश डालते हैं। वे बताते हैं कि टीवी माध्यम के लिए एयर टाइम को वैसे ही समझा जा सकता है जैसे अख़बार के कॉलम। दिन के चौबीस घंटे की न्यूज़ का मतलब है अख़बार के चैबीस पन्ने। न्यूज़ चैनलों में प्रयुक्त भाषा पर पैनी नज़र डालता हुआ विनीत कुमार का लेख है 'वर्दी में जल्लाद' जहाँ इनकी भाषा को पंडित जानबूझकर भ्रष्ट करना मानते हैं जबकि इनमें काम करने वालों का कहना है कि हम वही भाषा इस्तेमाल करते हैं जो आम आदमी के लिए बोधगम्य होती है। लेकिन ख़बरों में हिन्दी के वाक्यों में ज़बरदस्ती अंग्रेज़ी शब्द ठूंसना जबकि उनके समानांतर आसन शब्द मौज़ूद हों तो इस मनोवृत्ति को क्षम्य नहीं माना जा सकता। राहुल पंडिता अपने लेख में खबरें कैसे बनाई जाती हैं उनका उद्देश्य सूचना देना होता है या सनसनी पैदा करना जैसी बातों पर विस्तार से चर्चा करती हैं सातवें खंड 'इश्तहारनामा' में आनंद विवेक तनेजा फ़िल्म से जुड़े विज्ञापनों की भाषा और उनके भावों की प्रस्तुतियों से शुरू से लेकर अब तक कैसे-कैसे परिवर्तन हुए हैं इसका ख़ुलासा करते हैं। राकेश कुमार सिंह (जो इस संकलन के संपादक भी हैं) भगवती प्रसाद और अंशु मालवीय के साथ अघले लेख 'बग़ैर उन्वान' में स्वयं कम उनके दिए विज्ञापन अधिक बोलते हैं। यह लेख एक फोटो फीचर शैली में है जो चित्रों को अपने कथ्य का माध्यम बनाता है। आठवें खंड में पायरेसी किस तरह नए-नए तरीके अख़्तियार कर रही है और यह अवैध व्यापार भारत और चीन में क्यों व कैसे बढ़ रहा है इसकी जानकारी देता है। इसी तरह नौवें खंड 'इबारत-ए-शहर' में दैनिक जागरण अख़बार के 1940 में छपे अंकों को सामने रखकर कानपुर की राजनीति पर प्रकाश डाला गया है। कमल किशोर मिश्रा ने हिन्दी में जासूसी उपन्यास की लेखन परंपरा को प्रदर्शित किया है और देवेन्द्र चौबे ने लखनऊ के चौक के गरिमामय इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाली है। दसवां खंड 'इतिहास-प्रकाश' का है। इसमें लेखक, वोल्फगांग शिवेलबुश प्रकाश के प्रेवश ने रंगमंच को किस तरह बदला है इस बात को विस्तार से बताते हैं। वे यह भी बताते हैं कि जब से रोशनी के क़दम इस ओर पड़े हैं सेट, साज सज्जा, सौंदर्यबोध और प्रस्तुतिकरण में भी अपूर्व बदलाव आया है। अब नाटक लेखक, निर्देशक, संगीतकार और पात्रों के साथ ध्वनि व प्रकाश व्यवस्था करने वालों के योगदान को भी हाईलाइट किया जाने लगा है। ग्यारहवां अंतिम खंड 'फील्ड नोट्स' का है। इसमें देवश्री मुखर्ज़ी मुंबई में फ़िल्म निर्माण पर शोध करते हुए जूनियर आर्टिस्टस की उद्योग में क्या स्थिति है इसकी जानकारी तो हासिल कराती ही है और उनके रेफ्रेंस से उन कलाकारों की स्याह सफ़ेद जिन्दगी को भी पाठकों के सामने उघाड़कर रखने की चेष्टा करती है। राकेश कुमार सिंह इस युग के सबसे बड़े सूचना उपकरण कंप्यूटर और उसके विभिन्न अवयवों की किसी जमाने में सबसे बड़ी मंडी रहे दिल्ली के नेहरू प्लेस की दास्तान वहीं के डीलरों की ज़ुबानी पेश करते हैं। वहाँ व्यापार पहले कैसा था अब क्या स्थिति है, माल का क्रय-विक्रय कैसे होता है, लाभा-हानि का क्या गणित है, दुकानों के किराए और अन्य सुविधाओं की क्या स्थिति है जैसी बातों की जानकारी इन नोट्स के ज़रिए पाठकों तक पहुँचाते हैं। मीडिया नगर के पिछले दो अंकों की तरह यह अंक भी प्रयोग और रचनाकर्म की अपनी अलग विशेषताएँ लिए हुए हैं। हिन्दी अंग्रेज़ी के शब्दों के मिश्रण से बनी इसकी भाषा तब और भी लाजवाब व विशिष्ट हो जाती है जब किसी भाव के लिए उपयुक्त शब्दावली न मिलने पर लेखक/अनुवादक स्वयं अपनी शब्दावली गढ़ लेते हैं पर इस मिलावट में कुछ भी आरोपित नहीं लगता। संपादक ने स्वयं यह स्वीकार लिया है कि इस बार भी अधिकतर संकगलित लेख मूल अंग्रेज़ी से ही अनुदित हैं। पर यह शायद उनकी मज़बूरी भी है। हाँ, एक बात यह ज़रूर अच्छी है कि लेखों को पढ़ते हुए यह प्रायः महसूस नहीं होता कि हम अनुवादकों को निश्चय ही बधाई दी जानी चाहिए। पर इतनी बढ़िया छपी पुस्तक में चित्रों की दुर्दशा क्यों हुई है यह समझ से बाहर है, क्या ये और सफ़ाई के साथ नहीं छापे जा सकते थे। पुस्तक की उपयोगिता का आकंलन तो पढ़ने से ही हो सकता है परंतु यह बात निःसंकोच कहीं जा सकती है कि नेटवर्क की संस्कृति को समझने के लिए यह एक अद्भूत पुस्तक है और हिन्दी में अपने ढंग की विरल भी। परिंदे, पत्रिका वर्ष 1 अंक 2 जून-जुलाई 2008 -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080625/51208499/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Wed Jun 25 21:14:03 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 25 Jun 2008 21:14:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClgCDgpJbgpKzgpLAsIOCkruClgOCkoeCkv+Ckrw==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCliyDgpJbgpKzgpLAg4KSo4KS54KWA4KSC?= Message-ID: <829019b0806250844ma20fb15v9961750b260d2635@mail.gmail.com> हिन्दी मीडिया में मीडिया से जुड़े लोगों की खबरें नहीं होंती। जो इंसान पूरी दुनिया के लिए खबरें बना रहा हो, पूरी दुनिया की खबर ले रहा हो, पूरी दुनिया को खबर कर रहा हो, उसके लिए अखबारों में या फिर टेलीविजन में कोई स्पेस नहीं है। हिन्दी अखबारों में न तो इसके लिए कोई कॉलम है जहां ही इनसे जुड़ी बातों का जिक्र हो। इनके मनोभावों, स्थितियों और परेशानियों की चर्चा हो औऱ न ही टेलीविजन चैनलों के भीतर ऐसे कोई कार्यक्रम हैं जहां उनके बारे में बताया जाता हो, हम दर्शकों को सूचित किया जाता हो। मीडिया के लिए काम करनेवाले लोग मीडिया के बीच से सिरे से गायब हैं। उनकी खबर खुद मीडिया भी नहीं लेती। कल मैंने एक इंटरटेनमेंट चैनल से एकमुश्त ३० लोगों को निकाले जाने की खबर अपने ब्लॉग पर लिखा। कई फोन आए, कुछ लोगों नें मेल भी किया। सबका एक ही सवाल कि आपने न्यूज चैनल का नाम ही नहीं लिया। आखिर, हमें भी तो पता चले कि किस चैनल ने ऐसा काम किया है। एक कमेंट में यहा तक कहा गया कि आपमें इतना भी साहस नहीं है कि आप चैनल का और उनके कर्ता-धर्ता का नाम लिख सकें। बिना चैनल का नाम लिए पूरी बात कह जाने पर इस तरह की टिप्पणी का आना स्वाभाविक ही है। यह अलग बात है कि मैंने अपनी बात इतने साफ ढंग से कर दी थी कोई भी अंदाजा लगा लेगा कि किस चैनल और प्रोडक्शन हाउस के बारे मे बात की जा रही है। बाद में अनिल रघुराजजी की टिप्पणी से तो सब साफ हो जाता है। खैर, मैंने गौर किया कि जितने भी फोन और मेल इस जानकारी के लिए मेरे पास आए, उनमें से ज्यादातर लोग किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े हैं। कुछ लोग मीडिया में बहुत सक्रिय भी हैं। लेकिन वो अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे कि किस चैनल के बारे में बात की जा रही है। एक मेल में यहां तक लिखा था कि- इस तरह की बातें मीडिया के भीतर इतनी हो रही है कि अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है, आप स्पष्ट करें। मीडिया के भीतर एक बड़ी सच्चाई है कि सूचना के स्तर पर एक trainee तक को यह पता होता है कि कौन किस पैकेज पर कहां जा रहा है औऱ किस चैनल के लिए जा रहा है और वहां जाने पर वो किस रुप में काम करेगा। यह बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। लेकिन इसी मीडिया के भीतर यह जानकारी नहीं है कि किस तीस चैनल के लोगों की छंटनी की गयी। यह मीडियाकर्मियों के अधिकार का मामला है जिसकी जानकारी लोगों को नहीं मिल पायी। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सूचना समाज के नाम पर और खबरों की बाढ़ के बीच कौन सी खबरें तैर रही हैं और कौन सी खबरें परे धकेल दी जातीं हैं। तेजी से एक प्रोमोशन और मजबूत पैकेज के लिए एक चैनल से दूसरे चैनल में जाने की घटना मीडिया के लोगों के लिए वाकई में कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन इसके साथ ही ३० लोगों की छंटनी भी कोई बड़ी बात नहीं है। उसे भी आसानी से पचाया जा सकता है। हिन्दी मीडिया के भीतर इस तरह की खबरों को लेकर जो अभ्यस्त मानसिकता तेजी से पनप रही है वो मीडिया के लिए कितना खतरनाक है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तमाम तरह के शोषणों के वाबजूद मीडिया के बीच से प्रतिरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं देता। अधिकारों के लिए यूनियन औऱ संगठन की बात तो बहुत आगे की चीज है। किसी मीडिया हाउस पर हमला या आरोप लगा हो तो यह काम भी आ जाए लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर किसी मीडियाकर्मी के साथ कोई गड़बड़ी होती है तो यह काम आएगी इसे विश्वसनीय ढ़ंग से नहीं कहा जा सकता। जून के मीडिया मंत्र अंक में पुष्कर पुष्प ने जब यह छापा कि एक पत्रकार ने आजीज आकर अपने बॉस के उपर थूक दिया तो लगा कि चलो कुछ तो पत्रकारों की हिम्मत बंधी होगी। लेकिन इसे आप प्रतिरोध का स्वर नहीं कह सकते। यह असहाय हो जाने की स्थिति को संकेतित करता है। मैं अपनी तरफ से इस बात की कोई घोषणा नहीं करता कि प्रतिरोध के स्तर पर हिन्दी मीडिया के पत्रकार असहाय हो गए है। ऐसा कहने का न तो मेरे पास कोई अधिकार है और न ही यह घोषित करने का दावा। लेकिन इतना तो जरुर कहा जा सकता है कि दुनिया भर के लोगों को नागरिक अधिकारों का पाठ पढानेवाले मीडियाकर्मी अपने लिए इतने चुप क्यों रह जाते हैं। इसके पीछे जो मजबूरी इनकी है वही मजबूरी बाकी नागरिकों के साथ भी है तो फिर जागरुक समाज होने का दावा कहां बचा रह जाता है। क्या यह स्थिति कुछ ऐसी है कि एक मल्टीनेशनल के एक दिन में दर्जनों जूते बनानेवाला मजदूर चप्पल के अभाव में फटी बिबाइयां लिए घूम रहा है। एक किसान जो लहलहाती फसलों के बीच मंत्रालय के लिए अपनी फोटो खिंचवाता है और दो जून की रोटी के लिए पछाड़ खाकर गिरता-पड़ता रहता है। क्या अधिकारों के स्तर हिन्दी मीडिया के पत्रकारों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। जो सिर्फ सिर झुकाए स्क्रिप्ट तैयार करते हैं, पैकेज काटते हैं और अन्याय होते देख सामान्य से ज्यादा उंची आवाज में हमें सचेत करते हैं। क्या इन शब्दों में, इन पैकेजों में उनका कोई स्वर नहीं होता। अगर ऐसा है तो फिर इनके अधिकारों का क्या होगा। महीनों पांच हजार, छः हजार की नौकरी करनेवाले मीडियाकर्मी कब तक देश की क्रांति के लिए पृष्ठभूमि चैयार करते रहेंगे। कब तक डबल शिफ्ट करते हुए शोषण और उत्पीड़न के विरोध में पैकेज तैयार करते रहेंगे। दुनिया के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार है, स्वयंसेवी संगठन हैं, प्रेस हैं और न्यायालय है लेकिन इनके लिए। जाहिर है व्यावहारिक स्तर पर,,,,,,, चैनल का नाम अब भी नहीं दे रहा क्योंकि मेरी पोस्ट और अनिल रघुराज की टिप्पणी से सब स्पष्ट है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080625/b6b6d895/attachment-0001.html From chandma1987 at gmail.com Wed Jun 25 17:28:34 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Wed, 25 Jun 2008 07:58:34 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDAzIOCkqOClh+Ckn+CksOCljeCkteCklS0=?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KS44KWN4KSV4KWD4KSk4KS/IOCkleCkviDgpKrgpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSv4KSV?= Message-ID: माफी चाहता हूँ, साथियों पहले जो लेख मैंने भेजा वो पूरा नहीं था इसलिए उसी लेख को मैं दुबारा भेज रहा हूँ यह लेख परिंदे पत्रिका में छपा है *समीक्षा* *मीडिया नगर **03: **नेटवर्क**-**संस्कृति का परिचायक* *सुरेश पंडित* कहते हैं वख़्त कभी एक-सा नहीं रहता। बदलता रहता है। वख़्त के साथ दुनिया और उसके लोग और उनकी जिन्दगियाँ सब कुछ बदलते रहते हैं। वख़्त में बदलाव की गति तेज़ होती है बाक़ी सब तो उसे पकड़ने, उसके अनुसार ढल जाने में देर लगाते हैं। पर लगता है पिछली चौथाई सदी में बाक़ी सब चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं कि उन्हेंने वख़्त की गति को पछाड़ दिया है। इस वायु वेग सरीखे बदलाव को पकड़ने, इसके असर को आँकने और आगे की संभावनाओं का अंदाज़ा लगाने की जो कोशिशें हो रही हैं उनमें 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ दिल्ली' के द्वारा आयोजित 'सराय' कार्यक्रम आशा और उत्साह पैदा करने वाला है। पिछले कुछ सालों में 'सराय' ने इस बारे में न केवल अनुशासित व सुनियोजित ढँग से शोधकार्य किया है बल्कि उसका क्रमिक प्रकाशन कर भारतीय बुद्धिजीवियों को उस पर विचार-बहस करने और अपने सुझावों, मंतव्यों से उसे सप्लीमेंट करने के लिए आमंत्रित भी किया है। इस परियोजना के अंतर्गत पहला प्रकाशन मीडिया नगर 01: दिल्ली पर और मीडिया नगर 02: उभरता मंजर के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं अब मीडिया नगर 03: नेटवर्क-संस्कृति पर 2007 के आखिरी महीनों में सामने आया है। तीसरे नंबर की इस 272 पृष्ठों वाली पुलस्तक में नेटवर्क के विस्तार और उसकी पारस्परिक कनेक्टिविटी को फोक़स में रखते हुए फ़िल्म, संगीत, मीडिया के साथ-साथ अख़बार, टेलीविज़न और विज्ञापन आदि को भी विचार परिधि में शामिल करने का प्रयास किया गया है। इसके पहले खंड में 'सिने-माहौल' के तहत तीन लेख हैं। इनमें रवि वासुदेवन का पहला लेख - 'खौफ़ का उन्मादः सिनेमा की शहरी बेचैनी' अस्सी के दशक की फ़िल्मों में शहरी बेचैनी और उससे पैदा हुई उग्रता, हिंसात्मकता एवं असहिष्णुता को प्रदर्शित करता है। उनके मतानुसार इन फ़ल्मों में एक्शन, हीरोइज्म और हीमेनशिप को दिखलाने पर जोर दिया गया है और नायिकाओं की भूमिका प्रायः गौण बना दी गई है। दूसरा लेख मीहिर का है - 'बौंराई सी ख़ुशबू और प्रसून जोशी की कबीराई' इसमें वे पहले की फ़िल्मों से मौज़ूदा फ़िल्में कि तरह पटकथा से लेकर गीत, संगीत तक के संदर्भ में अलग व विशिष्ट हैं इस पर प्रकाश डालते हैं। आमिर ख़ान की फ़िल्म 'रंग दे बंसती' के गीतकार प्रसून जोशी के सारे गीतों में कबीर की अनुगूँज सुनाई देती है। आज के भगतसिंह को ढूँढ़ती यह फ़िल्म कबीर की तरह रंगरेज से दुआ करती है - 'अब देर न कर सचमुच रंग दे/रंगरेज मेरे सब कुछ रंग दे।' इसी खंड के तीसरे लेख में देवश्री मुख़र्जी खुलासा करती हैं कि फ़िल्मों या टीवी सीरियलों को बनाने में जब किसी मकान के अंदर की गतिविधियों को फ़िल्माने की ज़रूरत पड़ती है तो निर्माताओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मकान मालिकों को भारी अहसान लेते हुए मुँह माँगा पैसा तो किराए के रूप में चुकाना ही होता है उनकी शर्तों का भी हर समय ध्यान रखना पड़ता है। दूसरे खंड में 'संगीत की संस्कृति' पर दो शोधपरक लेख हैं। पहले में हरियाणवी लोकसंगीत की मौख़िक परंपरा के इतिहास पर सरसरी नज़र डालने के बाद उसे कैसेटों में बंद कर बाज़ार का उत्पाद बना देने की कहानी पर रोशनी डाली गई है। आधुनिक प्रौद्योगिकी जहाँ एक ओर नेटवर्किंग कि ज़रिए लोगों को परस्पर जोड़ने की बात करती है वहीं दूसरी ओर सामूहिकता की संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर व्यक्तिवाद को पनपाती भी है। सेलफ़ोन व कैसेट के आविष्कार इसके जीवंत उदाहरण हैं। सेलफ़ोन कनेक्ट करने का दावा करता है और कैसेट एक साथ सैकड़ों की संख्या में बेठकर लोक संगीत सुनने वाले श्रोता समूह को छिन्न-भिन्न कर उन्हें अलग-अलग घरों के एकांत में बद कर देता है। दूसरे लेख में खेलों के शहर जालंधर में लगने वाले हरिबल्लभ संगीत मेले के वार्षिक आयोजन में हर बार आ रहे बादलाव को दर्शाने की चेष्टा की गई है और यह दिखाया गया है कि कैसे एक स्थानीय परंपरा बाज़ार के जाल में फँसकर अपनी स्वाभाविकता खो देती है। तीसरे खंड का शीर्षक 'नेटवर्क-संस्कृति' इसलिए है क्योंकि इसमें नेटवर्किंग के सिद्धांतः आलोचनात्मक इंटरनेट संस्कृति, जाली दुनिया की जिद्दी संरचनाएँ और वैश्विक शहर में ई-स्पेस के मुहावरे से संबंधित ऐसे तथ्यों की जानकारियाँ दी गई हैं जिन से हिन्दी का पाठक सामान्यतः परिचित नहीं रहता। पहला लेख मूलतः गीयर्ट लोविंक के लेख का अनुवाद है। गीयर्ट इसमें नेटवर्क संस्कृति की संरचना के सूक्ष्म तंतुओं पर विचार करते हुए बताते हैं कि संगठित नेटवर्क में जो चीज़ साफ़ तौर पर देखी जा सकती है वह इसका संस्थागत विस्तार जो संप्रेषण के सामाजिक तकनीकी ढाँचे में अंतर्निहित रहता है। इसका आशय यह है कि संगठित नेटवर्क के निर्माण का कोई सार्वभौमिक सूत्र नहीं होता। 'जालीय दुनिया की जिद्दी संरचनाएँ' में रक़्स मीडिया कलेक्टिव नेटवर्क की बुनावटों पर दस अलग-अलग कोणों से विचार किया गया है। रक़्स का कहना है कि नेटवर्क कैसे काम करता है और किस सीमा तक हमारी चेतना पर ख़ुद को आरोपित करता है उसे रिसाव के रूपक से समझा जा सकता है। इसी तरह तीसरा लेख सायबर स्पेस किस तरह से खंडित और किन जगहों पर अवस्थिति है की व्याख्या करता है। इस खंडित सायबर संसार में आर्थिक इलेक्ट्रॉनिक स्पेस और उसमें भी अर्थतंत्र के निरंतर बढ़ते अंकीकरण (डिजिटलाईजेशन) की प्रक्रिया पर गहराई से विचार किया गया है। यह इलेक्ट्रॉनिक स्पेस की अवस्थिति की दिशा में कुछ विश्लेषणात्मक रास्ते भी सुझाता है। सभी अन्य खंडों से यह खंड अधिक दुरूह है क्योंकि इसमें तकनीकी शब्दावलि का अधिक इस्तेमाल हुआ है। अतः जिन पाठकों की इंटरनेट से गरही पहचान नहीं है उन्हें इसे समझने में कठिनाई महसूस होना स्वाभाविक है। चौथा खंड 'वीडियो लीला' पर केंद्रित है। इसका पहला लेख गुरिला न्यूज़ नेटवर्क अर्थात जीएनएन की शुरूआत तथा इसके द्वारा किए गए कामों से पाठकों को अवगत कराना है। सुप्रसिद्ध कनाडाई लेखक और फ़िल्म निर्माता स्टीफ़न मार्शल बताते हैं कि इस फील्ड में कई तरह के काम करने के बाद उन्होंने जीएनएन की शुरूआत की। एक धमाके दार और अर्थपूर्ण मल्टी मीडिया साइट के रूप में इसका प्रवेश तब हुआ जब डॉट कॉम क्रांति का जगह-जगह शोर मचा हुआ था। इसी समय उन्होंने सियरा लियो के हीरा व्यापार में सीआईए की सक्रिय भूमिका को उजागर करने वाली दो वीडियो फ़िल्में तैयार की थी। वे बतातें हैं कि हमने हर घटना की पीछे किसी साज़िश के होने की प्रचलित सोच को स्वीकार नहीं किया और हमेशा यह बात ध्यान में रखी कि किसी भी स्टोरी को तभी पेश किया जाए जब वह पत्रकारिता के मानकों पर खरी उतरती हो। अगले लेख में खदीज़ा आरिफ़ दिल्ली में वीडियो पार्लर किस तरह यकायक अस्तित्व में आए और फिर बिलाते गए को विस्तार से वर्णित, जाक़िर नगर की गलियों में चल रहे इस तरह के प्रदर्शनगृहों की झलकियों के माध्यम से करती हैं। इसी खंड के तीसरे लेख में अंकुर खन्ना मुंबई के उन रहमत भाई का खाका खींचते दिखाई देते हैं जो सीडी व डीवीडी की सप्लाई खुले आम किया करते थे। इसी तरह मयूर सुरेश एक ऐसे शख़्स से साक्षात्कार करवाते हैं जो पाकिस्तान इरान, इराक में भारतीय हिन्दी फिल्मों की तस्करी कर चुके थे। 'मीडियानगर' शीर्षक पाँचवा खंड आनंद प्रधान के 'नागरिक पत्रकारिता की दस्तक' नामक लेख से शुरू होता है। इसमें वे बताते हैं कि इसका उद्देश्य सीधे-सीधे लोगों को मीडिया से जोड़ना है। इसमें टीवी चैनल व अख़बार आम नागरिकों से यह पेशकश करते रहते हैं कि यदि उन्के पास किसी घटना, समाचार की कोई तथ्यात्मक जानकारी है या वे उसके प्रत्यक्ष दर्शक-संभागी रहे हैं तो वे उसकी वीडियो क्लिपिंग या रिपोर्ट सीधे भेज सकते हैं। समय पर उसका समुचित उपयोग किया जाएगा। लोगों से किसी मुद्दे पर उनकी राय जानना या परिचर्चा में आमंत्रित करना भी इसी पत्रकारिता का एक रूप है। दूसरे लेख में अरूंधती राय भारतीय प्रेस जगत में छिड़ी उस बहस की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं जिसमें एक अख़बार की उस ख़बर को लक्षित किया गया है जिसके अनुसार कोई भी पाठक उसके तीसरे पेज पर पैसा देकर अपनी ख़बर छपवा सकता है। इससे बरबस यह संकेत मिलता है कि इस पेज के अलावा बाक़ी जगहों पर छपी खबरें अप्रायोजित, बेदाग़ और सच्ची होती हैं। लोगों की आम प्रतिक्रिया यह है कि पैसे लेकर ख़बर छापना निष्पक्ष पत्रकारिता का अद्योपतन है। अरूंधती राय कहती हैं कि इससे तो यह साबित हो जाएगा कि जैसे घोषित रूप से पैसे लेकर ये अख़बार किसी की भी ख़बर छाप सकते हैं उसी तरह गुप्त रूप से पैसे लेकर ये बाक़ी ख़बरें भी छापते रहे होंगे। तीसरा खंड संजय काका का है। वे खुले तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि वे एक पॉलिटिकल फ़िल्म मेकर हैं। क्योंकि उन्होंने देश में चल रहे उन आंदोलनों की फ़िल्में बनाई हैं जो आमजन के मुद्दों को उठाने और लोगों को उत्पीड़न से राहत दिलाने के लिए किए जा रहे हैं। छठा खंड 'पर्दे की ख़बर' का है। पहले लेख 'ब्रेकिंग न्यूज़ का कालचक्र' में आसीम खाँ चौबीसों घंटे चलने वाले ख़बरिया चैनलों का एकमात्र मोटो - 'साम दाम दंड भेद जैसे भी बाइट लाओ' को सामने रखते हुए मौज़ूदा दौर में टीवी ख़बरों के उत्पादन से जुड़े कुछ पहलुओं पर प्राकश डालते हैं। वे बताते हैं कि टीवी माध्यम के लिए एयर टाइम को वैसे ही समझा जा सकता है जैसे अख़बार के कॉलम। दिन के चौबीस घंटे की न्यूज़ का मतलब है अख़बार के चैबीस पन्ने। न्यूज़ चैनलों में प्रयुक्त भाषा पर पैनी नज़र डालता हुआ विनीत कुमार का लेख है 'वर्दी में जल्लाद' जहाँ इनकी भाषा को पंडित जानबूझकर भ्रष्ट करना मानते हैं जबकि इनमें काम करने वालों का कहना है कि हम वही भाषा इस्तेमाल करते हैं जो आम आदमी के लिए बोधगम्य होती है। लेकिन ख़बरों में हिन्दी के वाक्यों में ज़बरदस्ती अंग्रेज़ी शब्द ठूंसना जबकि उनके समानांतर आसन शब्द मौज़ूद हों तो इस मनोवृत्ति को क्षम्य नहीं माना जा सकता। राहुल पंडिता अपने लेख में खबरें कैसे बनाई जाती हैं उनका उद्देश्य सूचना देना होता है या सनसनी पैदा करना जैसी बातों पर विस्तार से चर्चा करती हैं सातवें खंड 'इश्तहारनामा' में आनंद विवेक तनेजा फ़िल्म से जुड़े विज्ञापनों की भाषा और उनके भावों की प्रस्तुतियों से शुरू से लेकर अब तक कैसे-कैसे परिवर्तन हुए हैं इसका ख़ुलासा करते हैं। राकेश कुमार सिंह (जो इस संकलन के संपादक भी हैं) भगवती प्रसाद और अंशु मालवीय के साथ अघले लेख 'बग़ैर उन्वान' में स्वयं कम उनके दिए विज्ञापन अधिक बोलते हैं। यह लेख एक फोटो फीचर शैली में है जो चित्रों को अपने कथ्य का माध्यम बनाता है। आठवें खंड में पायरेसी किस तरह नए-नए तरीके अख़्तियार कर रही है और यह अवैध व्यापार भारत और चीन में क्यों व कैसे बढ़ रहा है इसकी जानकारी देता है। इसी तरह नौवें खंड 'इबारत-ए-शहर' में दैनिक जागरण अख़बार के 1940 में छपे अंकों को सामने रखकर कानपुर की राजनीति पर प्रकाश डाला गया है। कमल किशोर मिश्रा ने हिन्दी में जासूसी उपन्यास की लेखन परंपरा को प्रदर्शित किया है और देवेन्द्र चौबे ने लखनऊ के चौक के गरिमामय इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाली है। दसवां खंड 'इतिहास-प्रकाश' का है। इसमें लेखक, वोल्फगांग शिवेलबुश प्रकाश के प्रेवश ने रंगमंच को किस तरह बदला है इस बात को विस्तार से बताते हैं। वे यह भी बताते हैं कि जब से रोशनी के क़दम इस ओर पड़े हैं सेट, साज सज्जा, सौंदर्यबोध और प्रस्तुतिकरण में भी अपूर्व बदलाव आया है। अब नाटक लेखक, निर्देशक, संगीतकार और पात्रों के साथ ध्वनि व प्रकाश व्यवस्था करने वालों के योगदान को भी हाईलाइट किया जाने लगा है। ग्यारहवां अंतिम खंड 'फील्ड नोट्स' का है। इसमें देवश्री मुखर्ज़ी मुंबई में फ़िल्म निर्माण पर शोध करते हुए जूनियर आर्टिस्टस की उद्योग में क्या स्थिति है इसकी जानकारी तो हासिल कराती ही है और उनके रेफ्रेंस से उन कलाकारों की स्याह सफ़ेद जिन्दगी को भी पाठकों के सामने उघाड़कर रखने की चेष्टा करती है। राकेश कुमार सिंह इस युग के सबसे बड़े सूचना उपकरण कंप्यूटर और उसके विभिन्न अवयवों की किसी जमाने में सबसे बड़ी मंडी रहे दिल्ली के नेहरू प्लेस की दास्तान वहीं के डीलरों की ज़ुबानी पेश करते हैं। वहाँ व्यापार पहले कैसा था अब क्या स्थिति है, माल का क्रय-विक्रय कैसे होता है, लाभा-हानि का क्या गणित है, दुकानों के किराए और अन्य सुविधाओं की क्या स्थिति है जैसी बातों की जानकारी इन नोट्स के ज़रिए पाठकों तक पहुँचाते हैं। मीडिया नगर के पिछले दो अंकों की तरह यह अंक भी प्रयोग और रचनाकर्म की अपनी अलग विशेषताएँ लिए हुए हैं। हिन्दी अंग्रेज़ी के शब्दों के मिश्रण से बनी इसकी भाषा तब और भी लाजवाब व विशिष्ट हो जाती है जब किसी भाव के लिए उपयुक्त शब्दावली न मिलने पर लेखक/अनुवादक स्वयं अपनी शब्दावली गढ़ लेते हैं पर इस मिलावट में कुछ भी आरोपित नहीं लगता। संपादक ने स्वयं यह स्वीकार लिया है कि इस बार भी अधिकतर संकगलित लेख मूल अंग्रेज़ी से ही अनुदित हैं। पर यह शायद उनकी मज़बूरी भी है। हाँ, एक बात यह ज़रूर अच्छी है कि लेखों को पढ़ते हुए यह प्रायः महसूस नहीं होता कि हम अनुवादकों को निश्चय ही बधाई दी जानी चाहिए। पर इतनी बढ़िया छपी पुस्तक में चित्रों की दुर्दशा क्यों हुई है यह समझ से बाहर है, क्या ये और सफ़ाई के साथ नहीं छापे जा सकते थे। पुस्तक की उपयोगिता का आकंलन तो पढ़ने से ही हो सकता है परंतु यह बात निःसंकोच कहीं जा सकती है कि नेटवर्क की संस्कृति को समझने के लिए यह एक अद्भूत पुस्तक है और हिन्दी में अपने ढंग की विरल भी। परिंदे, पत्रिका वर्ष 1 अंक 2 जून-जुलाई 2008 -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080625/a29be0f2/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Wed Jun 25 20:51:05 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 25 Jun 2008 10:21:05 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <11801052.919001214407265419.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है... Posted: 25 Jun 2008 04:58 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/319570537/blog-post_25.html पिछले दिनों एक परिचित का एसएमएस आया। उनसे बात एक साल से नहीं हो पा रही थी। वे इंडिया टीवी में थे, फिर कहीं और चले गये और वापिस इंडिया टीवी में आ गये। उन दिनों वे इस चैनल में ख़बरों को लेकर गैरसंजीदगी और ड्रामे-सेंसेशन-सेक्‍स वगैरा-वगैरा को लेकर अतिउत्‍साह से परेशान थे। मैंने यूं ही कहा था कि आप देखिएगा कि यही सब करते हुए इंडिया टीवी एक दिन नंबर वन चैनल होगा और आज जो तथाकथित ख़बर-केंद्रित चैनल माने जाते हैं, इंडिया टीवी को फॉलो करेंगे। कुछ हफ़्ते पहले जब एक टीआरपी रिज़ल्‍ट आया, तो सचमुच इंडिया टीवी नंबर था और उसकी यह जगह अब भी बनी हुई है। तो उनका एसएमएस था कि आपकी वो वाली बात याद आ गयी। पर ऐसा नहीं है कि इंडिया टीवी में जो हो रहा है - वह एक पॉपुलरिटी की कुंजी मिल जाने के चलते हो रहा है। बल्कि पॉपुलरिटी की गलियां खोजते रहने की कोशिशों का ही फल वे खा रहे हैं। रजत शर्मा, जो इस चैनल के मालिक हैं - इस मामले में उनकी दलीलें भी एकदम साफ-साफ है, जो तहलका को इंटरव्‍यू देते वक्‍त उन्‍होंने दी हैं।आखिरी पायदान से शीर्ष तक का सफर... अपनी यात्रा के बारे में कुछ बताएं?बहुत मुश्किलों भरी थी ये। आज से चार साल पहले जब मैंने इंडिया टीवी शुरू करने का फैसला किया था तब मेरे दोस्तों ने मुझसे कहा कि मैं एक ऐसे बाज़ार में छलांग लगाने जा रहा हूं जो पहले से ही खचाखच भरा हुआ है। एनडीटीवी, स्टार, आज तक, ज़ी, सहारा और डीडी जैसे न्यूज़ चैनल पहले से ही स्थापित थे। लेकिन मेरा विश्वास उन दर्शकों पर था जिन्होंने मेरे पूरे टेलीविज़न करियर के दौरान मेरा साथ दिया था। मुझे यकीन था कि अगर मैं अपना चैनल शुरू करता हूं तब भी वे मेरा साथ देंगे। इसमें काफी समय और ऊर्जा लगी। इस दौरान कई डरावने पल भी आए, जब मुझे लगा कि शायद मैं इसे कर ही न पाऊं। तीन मौकों पर मुझे तनख्वाहें देने के लिए अपनी संपत्ति तक को बेचना पड़ा। 20 सालों के करियर में मैंने जो भी कमाया था वो सब धीरे-धीरे गायब होने लगा। लेकिन परिस्थितियां बदली। जब पहला विदेशी निवेशक सामने आया तो उसने कंपनी की कीमत 300 करोड़ आंकी, अगले ने 600 करोड़ और अब निवेशक इसे 1000 करोड़ का बताते हैं। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि संकट के जो पल थे उनसे गुज़रना बेकार नहीं गया।आज तक और स्टार जैसे अपने निकट प्रतिद्वंदियों को पछाड़ने का आपका फार्मूला क्या है?मैं अपनी संपादकीय टीम से कहता रहता हूं कि टीवी का दर्शक वर्ग किसी क्रिकेट के खेल की तरह होता है। एक समय था जब टेस्ट मैच काफी पसंद किए जाते थे, गावस्कर हीरो थे। इसके बात सीमित ओवरों के क्रिकेट का जमाना आया और कपिल के रूप में नया सितारा चमका। अब ज़माना टी-20 का है। आज मैं ये थोड़े ही कह सकता हूं कि मुझे सुनील गावस्कर बन कर टी-20 खेलना है। ‘कान्‍टेंट’ को समय के साथ बदलना ही होता है फिर भले ही इसमें मीडिया के दूसरे साथियों की आलोचना क्यों न झेलनी पड़े। हमारे प्रतिस्पर्धी इसे लोकप्रियता की होड़ का नाम दे सकते हैं लेकिन हमारा असल सरोकार तो दर्शक से ही होता है। अगर दर्शक टी-20 देखना चाहते हैं तो मैं उन्हें टेस्ट मैच थोड़े ही दिखा सकता हूं।आलोचनाओं पर आते हैं... हिंदी चैनलों की सबसे ज्यादा आलोचना इस बात के लिए हो रही है कि उनकी काँटेंट का स्तर काफी गिर गया है।नहीं, ऐसा नहीं है। हमने न्यूज़ की परिभाषा बदल दी है। अगर लोग आज भी सोचते हैं कि फीता काटते नेता और संसद में भाषण देना ही ख़बर हैं तो वो दिन बीत गए। हिंदी के न्यूज़ चैनलों पर आरोप लग रहे हैं लेकिन अगर आप सभी बड़े अख़बारों के मुखपृष्ठ पर नज़र डालें तो आपको आईपीएल नज़र आएगा। सच्चाई ये है कि दो शीर्ष साप्ताहिक पत्रिकाएं भारतीय महिलाओं की यौन अभिरुचियों पर कवर स्टोरी छाप चुकी हैं, लेकिन उन्हें तो कोई कटघरे में खड़ा नहीं करता। तहलका को छोड़कर, जो कि एक अपवाद रहा, लगभग सभी लोकप्रिय पत्रिकाओं में आईपीएल को प्रमुखता दी गई। अगर आप पुरानी परंपरा के हिसाब से चलेंगे तो इस हफ्ते की कवर स्टोरी महंगाई होनी चाहिए थी। इसी तरह से टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों की भी विषयवस्तु बदल गई है।राजनीतिक तबके के विचारों की आप किस हद तक परवाह करते हैं?बहुत ज्यादा। जिस तरह से राजनेता लोगों के प्रति जवाबदेह हैं उसी तरह हम भी हैं। हमारा काम ही है राजनीतिज्ञों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना। इसी सोच से प्रेरित होकर “आप की अदालत” का जन्म हुआ था। आज 16 साल बाद भी ये प्रोग्राम उतना ही पसंद किया जाता है। इंडिया टीवी इसी फॉर्मूले पर आधारित है। इसकी कोशिश है कि लोग जनता के प्रति जवाबदेह बनें, चाहे वो राजनेता हों, फिल्म स्टार हों या फिर क्रिकेटर।अगर मैं ये कहूं कि इंडिया टीवी भूत-प्रेत का पर्याय बन गया है तो आप क्या कहेंगे?ये छह महीने पहले की बात है। उसके बाद से हमने भूत-प्रेत की एक भी कहानी नहीं दिखाई है।लेकिन आपने टीआरपी की सीढ़ियां चढ़ने के लिए इसका सहारा लिया है।नहीं, हमने ऐसा नहीं किया। उन दिनों इसी तरह की कहानियां आती थीं। और लोग इन्हें पसंद करते थे। उदाहरण के लिए पिछले हफ्ते हमने पाया कि 51 फीसदी दर्शकों ने इंडिया टीवी देखा क्योंकि हमने विष्णु का इंटरव्यू दिखाया था, जो कि पहले राजेश तलवार के यहां काम करता था। हमारे रिपोर्टर ने उसे नेपाल में कहीं ढूंढ़ निकाला था। पिछले हफ्ते हमें रेटिंग में सबसे ऊपर जगह मिलने की वजह रही आरुषि हत्याकांड पर हमारी विस्तृत कवरेज। इसमें भूत-प्रेत या सांप-नागिन की कोई भूमिका नहीं थी। किस्मत से दूसरे ख़बरिया चैनलों ने वही पुराना फॉर्मूला अपनाया। शाहरुख ख़ान के शो पांचवीं पास... में लालू प्रसाद यादव मेहमान बन कर आए। ये राजनीति और मनोरंजन का शानदार मेल था। हम लोगों की पसंद के मुताबिक चल रहे हैं।आप ख़बरों के बाज़ार में हैं या मनोरंजन के?हम सिर्फ और सिर्फ ख़बरों के बाज़ार में हैं। मगर इन दिनों मनोरंजन भी बड़ी ख़बर बन गया है। समय बदल रहा है। आईपीएल क्रिकेट है, मनोरंजन नहीं। लालू एक राजनेता हैं, जनता के प्रतिनिधि, आप उन्हें मनोरंजनकर्ता नहीं कह सकते। इंडिया टीवी एक न्यूज़ चैनल है, आप इसे मनोरंजन चैनल नहीं कह सकते।सामाजिक जिम्मेदारियों पर क्या कहेंगे? क्या इंडिया टीवी खैरलांजी में हुई हत्याओं पर कोई अभियान चलाएगा?इंडिया टीवी अकेला चैनल है जिसने अभियानों को सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में चलाया है। मैं आपको तमाम उदाहरण दे सकता हूं। मैं विनम्रता से कुछेक के बारे में आपको बताता हूं। एक जादूगर बच्चे को हर महीने 60,000 रूपए का एक इंजेक्शन लगना था। हमारी स्क्रीन पर एक अपील तीन घंटों तक प्रसारित हुई और इसके बाद चेकों की बरसात होने लगी। मुंबई में अनाथ बच्चों के लिए एक सामाजिक संस्था थी। एक दिन भवन के मालिक ने उन्हें निकाल फेंकने का फैसला कर लिया। इंडिया टीवी वहां पहुंचा और वहां से सीधा प्रसारण शुरू कर दिया। अंतत: मालिक को अपना फैसला बदलना पड़ा। जब पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की घोषणा की गई, हम दिन भर दिखाते रहे कि इस बढ़ोत्तरी का लोगों पर क्या असर पड़ने वाला है। जब भी सामाजिक, राजनीतिक या फिर दर्शकों के हितों के लिए लड़ने की बात आएगी दर्शक हमेशा हमारी जिम्मेदारी को महसूस करेंगे। इसीलिए इंडिया टीवी ने अब अपनी टैग लाइन बनाई है “आपकी आवाज़”। जनता की आवाज़ बनना ही हमारा लक्ष्य है।लेकिन ये बात तो सच है कि टीआरपी की लड़ाई में अपने प्रतिस्पर्धियों से आगे निकलने के लिए इंडिया टीवी ने भूत प्रेत का सहारा लिया?इंडिया टीवी ने समय की जरूरतों के हिसाब से खुद को बदला है। एक समय था जब हमने उड़ीसा के एक गांव में चुड़ैल के घूमने की ख़बर दिखाई थी। हमने अपने दर्शकों को खबर के माध्यम से बताया कि ये महज़ अंधविश्वास है।लेकिन इस बात से तो आप सहमत होंगे कि ये कोई ख़बर नहीं है?ये खबर ही है। मान लीजिए ठाणे में ये अफवाह है कि वहां कोई भूत घूम रहा है जो लोगों की हत्या कर रहा है। हम लोगों को बताते हैं कि ये कोई भूत नहीं है बल्कि कोई हत्यारा है जो ऐसा कर रहा है। हम इस तरह की ख़बरें लोगों को जागरुक करने के लिए दिखाते हैं।आप कह रहे हैं कि लोग जो चाहते हैं आप वही दिखाते हैं। पर आप को नहीं लगता कि आपको खुद भी एक मानक स्थापित करने की जरूरत है?इस देश का एजेंडा क्या है? क्या ये सिर्फ नेताओं को गाली देते रहना है? क्या सिर्फ लंबे-लंबे भाषण और फीते कटते हुए दिखाए जाएं? हमने मानक तय किए हैं। आज मैं आपसे पूरे गर्व के साथ ये कह सकता हूं कि हमारे पीछे सात चैनल हमारे नक्शेक़दम पर चल रहे हैं। वे हमारी काँटेंट ही नहीं बल्कि चैनल को प्रमोट करने का तरीका भी अपना रहे हैं। ये चैनल हमारे ग्राफिक्स, सेट्स, संगीत और विजुअल्स... सब की नकल कर रहे हैं। आज हम ट्रेंडसेटर बन चुके हैं। इसी वजह से हमें इतनी संख्या में लोग पसंद कर रहे है, लोग असल को देखना पसंद करते हैं, नकल नहीं।क्या आपका कोई फॉर्मूला है?मैं अपने संपादकीय दल के साथ रोज़ाना होने वाली बैठकों में कहता हूं कि “जाओ और खुद को झोंक दो”। ऐसी स्टोरी मत करो जिससे मुझे, चीफ प्रोड्यूसर को या तुम्हें खुशी मिलती हो। ऐसा करो कि जिससे दर्शकों को खुशी मिले। यही मेरा फॉर्मूला है। दर्शक के लिए करो, उनके लिए बोलो।आपके पास न्यूज़ और इन्वेस्टिगेशन के लिए लंबा-चौड़ा बजट है।जब हमने इन्वेस्टिगेशन पर ध्यान देना शुरू किया तो हमारे ऊपर “स्टिंग चैनल” का ठप्पा लग गया। जब हमने इसे रोक दिया तो लोग कहने लगे, रोका क्यों? ये तेज़ी से बढ़ने, नंबर वन होने की दुश्वारियां हैं। पिछले साल हमारी तरक्की की रफ्तार 110 फीसदी रही। हमारे प्रतिद्वंदियों की रही महज़ 2-4 फीसदी। लोग इस फॉर्मूले को जानना चाहते हैं। फार्मूला ये है कि मैं दिन में 18 घंटे अपने न्यूज़रूम में ही बिताता हूं, मैं अभी भी स्टोरी लिखता हूं। मैं गर्व से कह सकता हूं कि इस देश में ऐसा कोई नहीं है जो एक चैनल का मालिक होते हुए भी स्क्रिप्ट लिखता हो और तीन घंटे की प्रोग्रामिंग और प्रोमोज़ भी करता हो।शक्ति कपूर के स्टिंग ऑपरेशन की ये कह कर आलोचना हुई थी कि ये लोगों के निजी जीवन में ताकाझांकी थी। आपको लगता है कि वो एक ग़लती थी?नहीं, मुझे इस पर फख्र है। पिछले हफ्ते हमारे एक प्रतिद्वंदी ने कास्टिंग काउच पर एक कार्यक्रम चलाया। छह महीने पहले ही पूर्व में नंबर एक रहे एक चैनल ने भी इसे उठाया था। मुझे फिल्म इंडस्ट्री या फिर मीडिया की तरफ से होने वाली आलोचनाओं की चिंता नहीं थी। मेरे ख्याल से ये फिल्म इंडस्ट्री में आने को लालायित युवा लड़कियों को चेतावनी देने के लिए उठाया गया एक सही क़दम था।आपको टीआरपी के लिए कुछ भी करने और व्यावसायिक सफलता की अंधी दौड़ में ख़बरों को दरकिनार करने का दोषी ठहराया जा सकता है।मेरी रुचि कभी भी व्यावसायिक सफलता पाने में नहीं रही। मुझे पैसे ने कभी आकर्षित नहीं किया। लोगों का प्यार और लोकप्रियता ही हमेशा से मेरी कमज़ोरी रही हैं।आपको नहीं लगता कि आपने “कान्‍टेंट” का स्तर गिरा दिया है?बिल्कुल नहीं। अगर हमारी सामग्री इतनी घटिया है तो फिर बाकी सात चैनल इसकी नकल क्यों कर रहे हैं? जब भी लोग मुझसे टीआरपी की दौड़ में शामिल होने के बारे पूछते हैं तो मुझे बहुत आश्चर्य होता है। क्या आप सचिन तेंदुलकर से कभी पूछते हैं कि वो इतने सारे रन क्यों बनाते हैं? मेरा काम एक ऐसे चैनल की स्थापना है जो रेटिंग्स में शीर्ष पर हो। इस पर मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है।आज तक, स्टार न्यूज़ जैसे प्रतिस्पर्धियों में आपको क्या अच्छा लगता है और वो क्या चीज़ है जो आपको चिंता में डालती है?मुझे उनका जुझारूपन अच्छा लगता है। एकाध मौकों को छोड़ दिया जाए तो हम स्वस्थ प्रतिस्पर्धी रहे हैं। हमारा नंबर एक पर काबिज होना ऐसा था मानो हरभजन ने श्रीसंथ को थप्पड़ मार दिया हो। इससे पहले हमारी लड़ाई में दुर्भावना नहीं थी। मैं अवीक सरकार की तहेदिल से इज़्ज़त करता हूं जो इस समय स्टार न्यूज़ के मुखिया हैं। मैं अरुण पुरी का सम्मान करता हूं जो आज तक के प्रमुख हैं। इन लोगों ने भारतीय पत्रकारिता को नये-नये आयाम दिये हैं। अवीक सरकार ने ‘टेलीग्राफ’ की शुरुआत की और अरुण पुरी ने ‘इंडिया टुडे’ की। ये लोग पुरोधा हैं। जब हम उनके चैनलों को ऐसा करते हुए देखते हैं तो कष्ट होता है। लेकिन हम इस गंदे खेल में शामिल नहीं होंगे। हम न तो कोई जवाब देंगे न मखौल उड़ाएंगे और न ही उन्हें गालियां देंगे। /////////////////////////////////////////// इत्तफ़ाकन एक मुलाक़ात सच से, थोड़ी गुफ्तगू भी! Posted: 24 Jun 2008 10:56 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/318982168/blog-post_4749.html अंशुमाली रस्‍तोगीसच की शपथ और सच का कारोबार आज अदालत से लेकर मीडिया तक अपने उत्‍कर्ष पर है। पिछले दिनों एनडीटीवी इंडिया पर नीता शर्मा की एक रिपोर्ट ने बताया कि कैसे न्‍यायाधीश भी घूस खाते हैं। लेकिन जिस गौरव से हम इस सच को दिखाने का दंभ भरते हैं, उतना ही गिरगिट रंग हमारी रगों में भी बसा हुआ है। हम जो मीडिया के तथाकथित लोग है, अक्‍सर दूसरों से ये बताया करते हैं कि सच हमारे बटुए में है। सच किस तरह भारत के आधुनिक मीडिया का हथकंडा और धंधा हो गया है, एक ज़बर्दस्‍त संवाद में इसे पेश कर रहे हैं अंशुमाली रस्‍तोगी। पिछले दिनों राह चलते सच से छोटी-सी मुलाक़ात हुई। सच पहले से काफी तंदुरुस्त और मोटा-ताज़ा नज़र आया। मैंने पूछा, ‘यार! तुम तो एकदम बदल गये। बरसों पहले जब तुमसे मुलाक़ात हुआ करती थी, तब तो बेहद दुबले-पतले नज़र आते थे। अब अचानक ऐसा क्या हुआ कि ऊपर से नीचे तक की पूरी रंगत ही बदल गयी।’ सच ने खुल कर जो सच सुनाया, उसे आप भी ग़ौर से सुनें। किस्सा मज़ेदार है। सच बोला, ‘पहले मैं पनप इसलिए नहीं पाता था क्योंकि मेरी ‘परवाह’ करने वाले लोग कम थे। जब जिसका दिल किया मुझसे ‘फ़ायदा’ उठा ले जाता था। मेरे सच से फ़ायदा वो उठाते थे, पैसा वो कमाते थे जिनके पास ‘अपना सच’ नहीं था। और मैं हर वक्त हाशिये पर पड़ा-पड़ा कभी उन्हें, कभी खुद को कोसा करता था। मेरे सच की सीढ़ी पर चढ़ कर यहां जाने कितनों ने अपने बैंक-खाते मोटे किये, जाने कितनों ने आलिशान घर-कोठियां बना लीं। मगर मैं जहां था वहीं का वहीं रहा। फिर मैंने सोचा ऐसा कब तक और कहां तक चलेगा! आख़‍िर पेट का भी तो सवाल है! अपने सच को इस तरह से लुटते-बंटते मैं भला कैसे देखता रहता। तब मैंने तय किया कि मैं अपने सच की क़ीमत हर एक से वसूलूंगा। धीरे-धीरे समय बदला। चीज़ें अब अख़बार तक ही सीमित नहीं रहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चौबीसों घंटे चीख़ने-चिल्‍लाने लगा। मैं इस कदर ‘पॉपुलर’ होने लगा कि हर टीवी चैनल मेरी ‘क़सम’ खाकर ही अपनी शुरुआत करता। प्रत्येक टीवी चैनल हर ख़बर पर ‘सच’ दिखाने का दावा करता। वो सच को कभी ऊपर से, कभी नीचे से दिखाता। सच का नशा चैनलों पर इस कदर छाने लगा कि उन्हें कम कपड़ों में सच, हत्या-आत्महत्या में सच, जुए-सट्टे में सच, भगवान की मूर्ति-आंसू में सच... हर जगह सच ही सच दिखने व नज़र आने लगा। मित्र, इसका फायदा मुझे यह मिला कि मेरी टीआरपी का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही चला जाने लगा। जब सभी मेरे सहारे बाज़ार को लूटने में लगे थे, तब भला मैं क्यों पीछे रहता! बाज़ार का असर देखते हुए मैंने भी अपना ‘सौदा’ करना शुरू कर दिया। अब मैं चैनलों व अख़बारों में खुल कर बेचा-ख़रीदा जाने लगा। अपराध की ख़बरों में तो मैं ‘राजा’ हो जाता हूं। पता नहीं लोग यह कैसे कह देते या मान लेते हैं कि सच को ख़रीदा-बेचा नहीं जा सकता? लेकिन मैं तो निरंतर हर रोज़, हर क्षण यहां-वहां ख़रीदा-बेचा जाता हूं। मुझसे बेहतर ‘मेरा सच’ कौन जान सकता है, भला। मित्र, यह जो मेरी तंदुरुस्ती को देख कर तुम भौंचक्के रह गये, इसकी वजह मेरी ख़रीद-फरोख्त में ही निहित है। सच कहूं, अब मैं अपनी ख़रीद-बेच का ‘पूरा मज़ा’ लेता हूं। मेरी मार्केट-वैल्यू को देखते-परखते हुए ही सभी अख़बारों-चैनलों ने अपनी दरें तय कर दी हैं। हां, अभी भी दो-चार शुद्ध सत्यवादी हैं हमारे आस-पास, मगर जल्दी ही वे भी रास्ते पर आ जाएंगे। दरअसल, अब सच में ताक़त नहीं, ताक़त में सच होता है। यही हमारे बाज़ार का क़ायदा भी है और फारमूला भी। मुझे कितना दिखाना चाहिए, कितना छिपाना - यह अब बाज़ार तय करता है - अख़बार या चैनल्‍स नहीं। बाज़ार को ‘पेज-थ्री वाला सच’ ही चाहिए। पेज-थ्री पर जो सच तुम-हम देखते-पढ़ते हैं, उसमें कोशिश रहती है कि कपड़े कम से कम हों। कम कपड़ों में लिपटा सच ज़्यादा ग्लैमरस और सेक्सी दिखाई देता है, ऐसी बाज़ार की मान्यता है। सच आज पैशन और टशन का मिलाजुला क्लोन है। मैं अपनी निरंतर बढ़ती मांग को देख-सुन-पढ़ कर इतना उत्साहित हूं कि अपनी अगली पीढ़ी को भी मैं बाज़ार के साथ चलने-ढलने की सीख दे रहा हूं। जब ज़माना बदल रहा है, फिर मैं क्यों न बदलूं? पेज-थ्री वाला सच ही आज का सच है, जिसे आसानी से ख़रीदा-बेचा जा सकता है।’ तो बंधु सच से इस सच को सुन कर सन्न हूं। देखिए सच मोटा-ताज़ा हो रहा है, क्योंकि पेज-थ्री का चस्‍का उसको लग गया है। जय हो चैनलवालो! जय हो अख़बारवालो!! जय हो बाजारवालों!!! -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080625/de2c9a37/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Thu Jun 26 21:04:18 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Thu, 26 Jun 2008 10:34:18 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <13079173.931071214494458048.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// 20 साल पुरानी एक शाही शादी, दूल्हा थे एसपी सिंह Posted: 26 Jun 2008 10:10 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/320563971/20.html आनंद स्‍वरूप वर्माएसपी पर कई संदर्भों में चर्चा चल रही है। एक लाइन यह है कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता की कुछ जकड़नों को तोड़ा और नये मानक गढ़े। एक लाइन यह है कि एसपी भाषाई पत्रकारिता के उस महीन बिंदु पर थे, जहां उनकी काबिलियत और कुछ संयोगों ने उन्‍हें शिखर पर पहुंचाया - लेकिन ये शिखर आदर्श का शिखर नहीं था। एसपी की मौत पर कथाकार उदय प्रकाश ने एक बहुत ही मार्मिक ज़‍िक्र हमें सौंपा है, जिसे हम जल्‍द ही आपसे साझा करेंगे। अभी आनंद स्‍वरूप वर्मा की एक रपट हम प्रकाशित कर रहे हैं, जो उन्‍होंने आज से बीस साल पहले एसपी की शादी पर लिखी थी। इसे उपलब्‍ध कराया है हमारे दोस्‍त विश्‍वदीपक ने, जिनका गिरिराज किशोर से लिया गया एक इं‍टरव्‍यू आपको याद होगा। खैर, आनंद स्‍वरूप वर्मा की यह रपट नयी पत्रकारिता की नैतिकता के पीछे छुपी ढोंग जैसी किसी चीज़ को खोजने में मददगार हो सकती है।9 मार्च, 1988 को राजधानी दिल्‍ली के पत्रकारों एवं अतिविशिष्‍ट जनों ने एक संपादक की शादी की अवसर पर आयोजित जिस भोज में हिस्‍सा लिया, वह अविस्‍मरणीय है। किसी पत्रकार के लिए ऐसा शाही इंतज़ाम अब तक के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। दिल्‍ली के पांचसितारा होटल मौर्या शेरटन के सबसे महंगे हिस्‍से नांदिया गार्डेन में इस पार्टी का आयोजन था। इस भव्‍य समारोह में सत्ता और विपक्ष के राजनेता, चोटी के अभिनेता, खिलाड़ी, उद्योगपति और अनेक राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों सहित हिंदी के अनेक कवि, लेखक और पत्रकार थे। वे पत्रकार भी बड़े उत्‍साह के साथ व्‍यवस्‍था संभालने में लगे थे, जिन्‍होंने कुछ ही दिनों पहले माधवराव सिंधिया की शादी पर की गयी फिज़ूलख़र्ची के ख़‍िलाफ लिखने और छापने मे कोई कसर न छोड़ी थी। नांदिया गार्डेन के अलावा होटल के चार कमरो मे उन लोगो के लिए उत्तम व्‍यवस्था की गयी थी, जिंनकी मदिरा पान मे रुचि थी। कुल मिलाकर दो से हज़ार लोगो ने खांनपान मे हिस्सा लिया और वर-वधू को आशीर्वाद दिया। इस सारे आयोजन पर लगभग ढाई लाख रुपये व्‍यय हुए। अगर यह गोविंद निहलानी या श्याम बेनेगल की किसी फिल्म का दृश्‍य होता तो कोई भी दर्शक इसे अतिरंजनापूर्ण चित्रण मानता। हो सकता है, इन पंक्तियो को पढ़ते समय उन लोगो को भी यह विवरण कुछ अतिशयोक्ति लगे, जो वहां मौजूद नहीं थे। यह शादी नवभारत टाइम्स दिल्ली के स्थानीय संपादक सुरेंद्र प्रताप सिह की थी। वही एसपी सिंह, जिन्‍होंने 1977 मे फणीश्वर नाथ रेणु की कवर स्‍टोरी वाले रविवार के प्रवेशांक के साथ हिंदी पत्रकारिता मे एक नयी क्रांति का सूत्रपात किया था। यह और बात है कि जयप्रकाश नारायण की सपूर्ण क्रांति की तरह इसका हश्र भी कुछ बहुत सुखद नही रहा और इनके द्वारा रोपे गये पौधे के ढेर सारे फूल या तो असमय मुरझा गये या सत्ता के गलियारों मे रखे गुलदस्तो की शोभा बढ़ाने लगे। यह आयोजन अपने आप में ही आज की पत्रकारिता (ख़ास तौर से हिंदी पत्रकारिता) और आज की राजनीति पर एक फूहड़ टिप्‍पणी थी। देवी लाल से लेकर एचकेएल भगत तक जिस बेताबी के साथ इस आयोजन में अपनी हाज़‍िरी दर्ज कराने के लिए बेचैन दिखाई दे रहे थे, उससे लगता था कि सचमुच हिंदी का पत्रकार अब फोर्थ स्‍टेट वाला हो गया है। राज बब्बर, शत्रुघ्‍न सिन्हा, कपिलदेव के अलावा तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिह, बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आज़ाद, हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल, मध्यप्रदेश के तत्‍कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा, राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्‍ण हेगड़े, गुजरात के मुख्यमंत्री अमर सिह चौधरी, केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, जनमोर्चा नेता वीपी सिंह, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, सतपाल मल्लिक, लोकदल नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद यादव, केसी त्यागी सहित हर पार्टी के नेता अपने-अपने उपहार के साथ मौजूद थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ मंत्री ख़ास तौर से इसी काम के लिए आये थे। मंत्रियों और मुख्‍यमंत्रियों के साथ आये सैकड़ों आईएएस अधिकारियों की फौज अलग थी। शायद राजीव गांधी भी अपने कार्यक्रम में इतनी विविधता नहीं जुटा सकते। समारोह के समय ही प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मीटिंग चल रही थी और बार-बार कुछ मंत्रियों का संदेश होटल तक पहुंच रहा था कि मजबूरीवश हाज़‍िर नहीं हो पा रहे हैं। रात में क़रीब साढ़े दस बजे मीटिंग ख़त्‍म होते ही एचकेएल भगत मौर्या शेरेटन की ओर रवाना हुए और रास्‍ते भर वायरलेस से संदेश भेजते रहे कि अब इतनी दूर तक पहुंच गये हैं। अपने ब्‍लैक कैट कमांडोज़ के साथ एचकेएल भगत ने समारोह का समापन किया। 9 मार्च को ही दिल्‍ली में लोकदल की एक बहुत बड़ी रैली थी। नयी दिल्‍ली का समूचा इलाक़ा हरी कमीज़ और हरी टोपी वाले हरियाणा के लोकदल कार्यकर्ताओं से भर गया था। इस रैली को संबोधित करते हुए हरियाणा के मुख्‍यमंत्री चौधरी देवीलाल ने यूपी के मुख्‍यमंत्री को खूब गालियां दी थीं। वह महेंद्र सिंह टिकैत आंदोलन के संदर्भ में बोल रहे थे और बता रहे थे कि ‘वीर बहादुर गदहा है। उसे शासन करना आता ही नहीं।’ कह रहे थे कि अगर उनके हाथ में उत्तर प्रदेश का शासन आ जाए, तो गन्‍ने की क़ीमत 35 रुपये क्विंटल कर दें। देवीलाल वीर बहादुर सिंह को जितनी ही गालियां देते, जनता उतनी ही ताली पीटती। वोटक्‍लब की सभा से सीधे देवीलाल जी मौर्या शेरेटन पहुंचे थे, जहां यूपी निवास से वीर बहादुर भी पहुंच चुके थे। वोट क्‍लब की जनता को क्‍या पता कि उनका नेता अभी जिसको जी भर गालियां दे रहा था, एक घंटे बाद ही उसके साथ मौर्या में चाय पी रहा है। समारोह में इन दोनों की ‘अश्‍लील उपस्थिति’ मौजूदा राजनीति पर एक व्‍यंग्‍य थी। समारोह के आयोजक (जिन्‍होंने मंत्रियों और मुख्‍यमंत्रियों को बुलाने की ज़‍िम्‍मेदारी ली थी) अपनी सफलता पर मुग्‍ध थे। इनमें मुख्‍य रूप से दो ऐसे संपादक थे, जो काफी समय तक रिपोर्टर रह चुके थे। एक ने सत्ता पक्ष को संभाल लिया था, दूसरे ने विपक्ष को। वैसे, इस विशाल आयोजन से पहले कई मिनी आयोजन हो चुके थे और यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। मौर्या की पार्टी से एक ही दिन पहले दोनों में से एक संपादक के घर पर भोर के चार बजे तक जश्‍न मनाया गया था। इसमें नारायण दत्त तिवारी, मुरली देवड़ा जैसे कांग्रेसियों के साथ लोकदल के शरद पवार और केसी त्‍यागी भी थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों ने एक बातचीत में कहा कि इसे किसी व्‍यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि एक बड़े घराने से निकलने वाले राष्‍ट्रीय दैनिक के संपादक की शादी का आयोजन माना जाए। इन पंक्तियों के पाठकों से भी अनुरोध है कि वे इस टिप्‍पणी को किसी व्‍यक्ति विशेष के ख़‍िलाफ़ न मान कर आज की पत्रकारिता के संदर्भ में देखें। किसी पत्रकार की हैसियत इतना पैसा ख़र्च करने की नहीं है - हो सकता है कि यह सारा ख़र्च बेनेट कोलमैन कंपनी ने वहन किया हो या कंपनी के इशारे पर किसी उद्योगपति ने दे दिया हो। सवाल यह है कि क्‍या अज्ञेय या रघुवीर सहाय जैसे संपादकों के यहां कोई आयोजन होता तो वे मंत्रियों की इस उपस्थिति को पसंद करते? अव्‍वल तो वे इन्‍हें निमंत्रित ही नहीं करते और सौजन्‍यवश अगर कोई मंत्री या मंत्रीगण आ जाते तो वे ख़ुद के अंदर झांक कर देखते कि गड़बड़ी कहां है! मैं समझता हूं कि राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या अरुण शौरी भी इसे पसंद नहीं करते। जिन मंत्रियों के भ्रष्‍टाचार के ख़‍िलाफ़ आपसे लगातार लिखते रहने की अपेक्षा की जाती है, उनसे अगर इतने मधुर संबंध दिखाई देते हैं, तो यह चिंता की बात है। दूसरी तरफ राजनेताओं ने भी अब जान लिया है कि अख़बार के दफ़्तरों में कुछ प्रमुख लोगों को ‘पटाकर’ रखो और निश्चिंत होकर भ्रष्‍टाचार करते रहो। पिछले वर्ष मई में मेरठ से पकड़कर लाये गये मुसलमानों को जब पीएसी ने मार कर नहर में फ़ेंक दिया और ‘चौथी दुनिया’ ने ‘लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाश बहा दी’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया तो इसे दिल्‍ली के किसी राष्‍ट्रीय हिंदी दैनिक ने ‘लिफ्ट’ नहीं दिया। ज़रूरी नहीं कि ऐसा करने के लिए वीर बहादुर सिंह ने पत्रकारों को फोन किया हो - आपके संबंध इतने मधुर हैं कि आपका अवचेतन इन ख़बरों के प्रति उदासीन हो जाता है। इस समारोह के बाद दिल्‍ली में हिंदी के दो और पत्रकारों के यहां शादी से संबंधित आयोजन हुए और उन्‍होंने भी उसी परंपरा का निर्वाह किया। अब मंत्रियों को जुटाना हिंदी पत्रकारों के लिए एक स्‍टेटस सिंबल हो गया है। हिंदी का पत्रकार वर्षों से अंग्रेज़ी पत्रकारों की उद्दंड उपेक्षा का शिकार होता रहा है और इससे उसके अंदर जो हीन ग्रंथि विकसित हुई, उसकी भरपाई अब वह शायद इन्‍हीं तरीक़ों से करना चाहता है। मार्च में ही जम्‍मू कश्‍मीर के एक युवा मंत्री की शादी हुई, जिसमें उसने अपने किसी सहयोगी को नहीं आमंत्रित किया। अपने सहयोगियों की शिकायत पर उसने जवाब दिया कि यह उसक व्‍यक्तिगत और पारिवारिक मामला था, इसलिए उसने बंद रिश्‍तेदारों को बुला कर बड़ी सादगी के साथ विवाह किया। क्‍या हम इससे कुछ सबक ले सकेंगे?समकालीन तीसरी दुनिया, नई दिल्‍ली, सितंबर-अक्‍टूबर, 1988 में छपी रपट -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080626/c972b1df/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Jun 27 01:12:34 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 27 Jun 2008 01:12:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSC4KSX4KSy?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkoeCkrOCksOCkvuCksiDgpJXgpYAg4KSh4KS+4KSv4KSw4KWA?= Message-ID: <200806270112.34434.ravikant@sarai.net> sabad se sabhar. interesting comments: koi hai maai ka lal ya lali jo maidan mein utare? ravikant vatsanurag.blogspot.com मंगलेश डबराल की डायरी ( हिन्दी के अग्रणी कवि मंगलेश डबराल की डायरियों की ये प्रविष्टियां उनकी शीघ्र प्रकाश्य गद्य पुस्तक,''कवि का अकेलापन'' से ले गई हैं. मंगलेशजी ने इन्हे प्रीतिपूर्वक हमें छापने को दिया है. हम उनके कृतज्ञ हैं. ) कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं। यही एक बड़ा प्रतिकार है। और अगर यह ऐसा युग है जब कविता में बुरा मनुष्य भी दिख रहा है तब तो कविता में अच्छा मनुष्य और भी ज्यादा दिखेगा। लेकिन क्या ऐसा भी समय आ सकता है कि अच्छे साहित्य की चर्चा ही न हो ? सिर्फ़ दोयम दर्जे की कविता-कहानी को महान, अभूतपूर्व, युगांतकारी मानाजाने लगे ?कोई बहुत अच्छी कविता कहीं छपे और लोग उस पर कोई बात न करें और चुप लगा जाएं। यह कितना भयानक होगा। लेकिन समय की विशाल छलनी भी तो कुछ छानती रहती है। चुपचाप। **** नेता, इंजीनियर, डॉक्टर, एमबीए, सूचना तकनीक के माहिर लोग, सॉफ्टवेयर निर्माता, पत्रकार, प्रशासक, नौकरशाह, चित्रकार, संगीतकार, नृत्यकार वगैरह प्रायः राज्य, सत्ता, बाज़ार और ग्लो बलाइजेशन के अनुरूप ही सोचते हैं। वे यथास्थिति के विरोध में नहीं जाते। प्रायः कवि-लेखक-बुद्धिजीवी हैं जो सत्ताओं के प्रतिकूल सोचते हैं। इसके अपवाद ज़रूर हैं, इसलिए हम उन्हें हमेशा याद रखते हैं। माइकलएंजेलो वेटिकन के पोप को अपने बड़ा नहीं समझता, इकबाल बानो पकिस्ता न में याह्या खान की हुकूमत के ख़िलाफ़ फैज़ की नज़्म गति हैं, जर्मनी में कई कलाकार हिटलर के ख़िला फ़ पेंटिंग करते हैं, बीठोफेन नेपोलियन के विरोध में उसे फले समर्पित की हुई अपनी सिंफनी फाड़ डा लता है... पोलैंड के महान पियानोवादक लिस्त के बारे में एक कहानी प्रसिद्द है की एक बार उसके संगीत कार्यक्रम में रूस के ज़ार निकोलस सपरिवार अगली कतार में बैठे हुए थे। पोलैंड तब रूस के अधीन था। लिस्त बजा रहे थे और ज़ार परिवार बैटन में मशगूल था। उन्हें बातें करते देख लिस्त ने पिया नो बजाना बंद कर दिया, लेकिन ज़ार ने उनसे कहा कि बजाते जाइए। यह क्रम तीन बार चला। चौथी बार लिस्त ने पियानो बंद किया और व्यंग्य से कहा कि जब ज़ार बोल रहे हों तो हर चीज़ को खामोश हो जन चाहिए। ऐसे कलाकार अमर हैं, क्योंकि वे कला का नैतिक मूल्य समझते हैं और बादशाहों-तानाशाहों को कुछ नहीं समझते। अब्दुल हलीम शरर की किताब, '' गुज़िश्ता लखनऊ '' में नवाब हैदर खां का किस्सा कितना मशहूर है। इस किस्से को स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जन चाहिए। **** राजनैतिक कविता के नाम पर ज़्यादातर जो कुछ दिखाई देता है वह शायद किसी बड़ी कविता को निर्मित कर सकनेवाला कच्चा माल है। यह हम मार्क्सवादी कविओं की एक खामी है कि हम कविता की सामग्री को कविता की तरह पेश करते रहते हैं और गैर-कलावादी बनते हैं। हम अपनी कविता के रसो ईघर को ही कविता मान लेते हैं, ताकि भोजन की असलियत भी पता चल जाए। हम अपनी किचन आपको पूरा क्यों दिखाएं ? थोड़ा-बहुत दिखाएंगे, लेकिन यह भी बताएंगे कि बहुत कम चीज़ों से हम बहुत अच्छा खाना बनते हैं। यही हमारी कला है। और कला हमारी ही है, किन्हीं कलावादियों कि नहीं। **** क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि इधर मैंने जितनी कविताएं लिखी हैं उनमें से कई मृतकों के बारे में हैं--भुला दिए गए नामों को संबोधित, उनसे संवाद या उनके प्रति श्रद्धांजलि या फिर उनकी ओर से कोई वक्तव्य ? शायद यह, ''गुजरात के मृतक का बयान'' से से शुरू हुआ। फिर करुणानिधानमोहन थपलिया ल, गोरख पांडेय, मुक्तिबोध, शमशेर, या माँ के बारे में। और पहले की कुछ कविताओं के पात्र केशव अनुरागी, गुणानंद पथिक, अमीर खां भी तो जीवित नहीं हैं। क्या जीवितों की तुलना में मृतकों से संवाद आज ज़्यादा संभव और ज़्यादा सार्थक हो गया है ? इन्हें लिखते हुए--खासकर गुजरात के मृतकों और मोहन थपलियाल पर--मुझे बहुत पीड़ा हुई, कभी रोया भी, लेकिन लिख चुकने के बाद लगा जैसे मेरा कोई बोझ उतर गया है, मैं भारहीन-सा हो गया हूँ और वह एक नैतिक मूल्य मुझमें भी समां गया है जिसका प्रतिनिधित्व ये प्रतिभाएं करती हैं। इस तरह मृतक मेरे, ''कन्सायन्स-कीपर'' हैं। मृतकों का अपना जीवन है जो शायद हम जीवितों से खिन ज़्यादा सुंदर, उद्दात और मानवीय है। इतने अद्भुत लोग, और जिंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए। जो नहीं हैं मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ वे मेरे मुहं से बोलें। From vineetdu at gmail.com Fri Jun 27 20:14:19 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 27 Jun 2008 20:14:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSf4KSR4KSr?= =?utf-8?b?IOCksuCkv+CkuOCljeCknyDgpK7gpYfgpIIg4KSt4KWAIOCkleCljQ==?= =?utf-8?b?4KS34KWH4KSk4KWN4KSw4KS/4KSv4KSk4KS+IOCkleClhyDgpLjgpY0=?= =?utf-8?b?4KSk4KSwIOCkquCksCDgpK3gpYfgpKbgpK3gpL7gpLUs?= Message-ID: <829019b0806270744j65703849rb6853e6913c7ef4e@mail.gmail.com> कटऑफ लिस्ट को लेकर डीयू के हंसराज कॉलेज के हिन्दी विभाग में क्षेत्रीयता के आधार पर भेदभाव करने का मामला सामने आया है। हंसराज कॉलेज से पास आउट हुए छात्रों का आरोप है कि हिन्दी विभाग में पर्सेंटेज को लेकर भारी गड़बड़ी है। विभाग की कोशिश है कि हिन्दी भाषी राज्य बिहार के लोग यहां नहीं आएं इसलिए उसने बड़ी चतुराई से कटऑफ लिस्ट जारी किया है। इस बात में कितनी सच्चाई है ये अलग मसला है लेकिन कटऑफ लिस्ट में जो पर्सेंटेज तय किए गए हैं और उसके पीछे जो तर्क दिया जा रहा है, वो अजीबोगरीब और हैरत में डालने वाले जरुर हैं। विभाग ने बीए हिन्दी ऑनर्स में एडमीशन लेने के लिए जो पहली लिस्ट जारी की है उसमें पर्सेंटेज ६५ और ७० है। यानि ६५ प्रतिशत कोर वालों के लिए और ७० प्रतिशत सेलेक्टिव वालों के लिए। यहां तक तो मामला ठीक बनता है लेकिन आगे की बात जरुर चौंकानवाली है। विभाग ने आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय किया है। आरबीएच का मतलब है राष्टभाषा हिन्दी। पूरे देश में बिहार ही एक ऐसी जगह है जहां इंटरमीडिएट में हिन्दी को राष्टभाषा हिन्दी के नाम से पढ़ाया जाता है। इसे सबको पढ़ना अनिवार्य होता है। बिहार के अलावे आरबीएच बोलकर हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती। विभाग द्वारा इस आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत करने का मतलब है कि बिहार के लोगों को हंसराज के हिन्दी विभाग से दूर रखा जाए। छात्रों का तर्क है कि एक तो ये कटऑफ ही गलत है क्योंकि आरबीएच हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया ही नहीं है. हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया भी होगा तो या तो वो देश के दूसरी जगहों के होंगे या फिर सीबीएससीइ बोर्ड के. जिन लोगों ने बिहार बोर्ड की पढ़ाई की है, उनके ८० प्रतिशत नंबर नहीं आए। यानि वो एडमीशन की दौड़ से बाहर है। जबकि देश के दूसरे हिस्से के लोग या फिर दूसरे बोर्ड के लोग ६५ या ७० प्रतिशत नंबर लाकर भी एडमीशन के काबिल हैं। छात्रों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि जब विभाग ने बाकियों के लिए ये प्रतिश तय किया है तो फिर आरबीएच के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय करने का क्या मतलब है। यानि विभाग सीधे-सीधे बिहार के लोगों को न रोक पाने की स्थिति के बाद भी चतुराई से बिहार के लोगों को बाहर कर देना चाहती है। इस मामले में जब छात्रों ने विभाग के लोगों से बात की तो विभाग का जबाब था कि- ऐसा इसलिए किया गया है कि आरबीएच हिन्दी पढ़कर जो लोग आते हैं उनका सिलेबस बहुत ही कमजोर है, इसलिए अधिक पर्सेंटेज तय करना स्वाभाविक है, इसमें कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है। जबकि इसी बात को लेकर छात्रों का तर्क बिल्कुल अलग है. छात्रों का कहना है कि देश के किस बोर्ड की सिलेबस कमजोर है और कहां की नहीं, यह तय तरने का जिम्मा यूजीसी को है न की किसी कॉलेज के विभाग को। औऱ फिर बिहार की हिन्दी का सिलेबस क्या अगरतल्ला और मिजोरम से भी कमजोर है, क्या देशभर की हिन्दी में सबसे कमजोर सिलेबस बिहार की ही है, ऐसा हो ही नहीं सकता। हंसराज के पुराने छात्र इस लचर तर्क मानते हैं और सिरे से खारिज करते हैं। दो साल पहबले एमए पास हुए हंसराज के एक छात्र का यहां तक कहना है कि मेरे बाद हिन्दी विभाग में बिहार के बहुत ही कम लोगों को हिन्दी विभाग में बीए के लिए लिया गया. और लिया भी गया तो वे बिहार बोर्ड के नहीं थे। क्या विभाग के लिए सिर्फ हिन्दी ही कमजोर है, बाकी विभाग के लोगों ने तो ऐसा कोई भी तर्क नहीं दिया। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, तर्क चाहे जो भी दिए जाएं। छात्र इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिए तैयार हो रहे हैं और अगर इनके द्वारा बताई गयी बात सचमुच में सही है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए वाकई बहुत शर्मनाक स्थिति है। बिहार क्या, देश के किसी भी हिस्से से पढ़कर आए लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव जायज नहीं है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय होते के नाते इसे मानक रुप तय करने और मानने ही होंगे। छात्रों की बातों की सच्चाई के साथ हम उनके साथ हैं और किसी भी स्तर पर भेदभाव किए जाने के खिलाफ हम उनका जमकर विरोध करते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080627/ff662233/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jun 28 11:37:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 28 Jun 2008 11:37:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?IOCkruClh+Ckgiwg4KSs4KWJ4KS4IOCkqOClhyDgpJXgpLngpL4g4KSl?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <829019b0806272307w483889c1ne1f4c11e7d0afc66@mail.gmail.com> *मीडिया को लेकर कई तरह के सवाल और विमर्श जारी हैँ। मुझे लगता है कि जो भी लोग किसी चैनल या अखबारों में काम कर रहे हैं, अगर वो अपने बॉस की बात याद करें तो मीडिया को लेकर समझदारी पहले से काफी बढ़ सकती है। तो आइए याद करते हैं- * याद कीजिए, जब आपने चैनल या अखबार ज्वॉयन किया था तो आपके बॉस ने आपसे क्या कहा था। अगर सभी लोग बॉस की बात को याद करते हैं तो इससे मौजूदा मीडिया के बारे में अच्छी-खासी समझ बन सकती है। मैं अपनी बात बताता हूं, आगे आपलोग भी अपनी बात जोड़ देंगे।बॉस ने कहा था कि ये मीडिया है, यहां सरकारी नौकरी की तरह १० से पांच की ड्यूटी नहीं होती। यहां समय काम के हिसाब से तय होता है न कि समय के हिसाब से काम। इसलिए कई बार काम करते हुए तुम्हें १२ घंटे १४ घंटे भी लग सकते हैं और तुम्हें काम खत्म करके ही जाना होगा। मीडिया के लोगों के लिए कोई होली-दीवाली नहीं होती। होली-दीवाली दुनिया के लिए होती है और हम उनके लिए ही कार्यक्रम बनाते हैं। मैंने भी देखा था कि सिर्फ चैनल के स्क्रीन पर त्योहार होते, चैनल के भीतर नहीं। तुम्हें यह सोचकर काम नहीं करना है कि आज तो होली है, छुट्टी नहीं होनी चाहिए। मैं भी चाहूं तो छुट्टी ले सकता हूं लेकिन देखो, तुम्हारे सामने खड़ा हूं. पत्रकार का कोई अलग से जीवन नहीं होता। उसे खबरों में ही जीना होता है, अखबारों के साथ दिन की शुरुआत होती है और चैनलों के साथ खत्म होती हैं रातें। इसलिए तुम्हें खबरें खानी होंगी, खबरें पीनी होगी, खबरें ही सपने होंगे। सब खबर के भीतर ही जीना होगा। रेग्युलर टीवी देखो, नहीं है तो खरीदो। यू नो न्यूज इज योर माइ बाप। तुम्हें आगे बढ़ना है, मीडिया में कुछ हटकर करना है इसलिए छोटी-छोटी चीजों को नजरअंदाज करो। ऑफिस में लगे कि ये वर्किंग कल्चर को खराब कर रहा है, उसकी खबर हमें दो। जो ऑफिस में सड़न पैदा करता हो, उसकी रिपोर्ट हमें दो। जो तुम्हें ज्यादा काम करने पर बहकाता हो, उसकी खबर दो। तुम समझदार हो, एमए, एम फिल् करके आए हो, तुम सारी चीजें बेहतर तरीके से समझते हो। पैसे-वैसे की चिंता मत करो। मीडिया में संघर्ष है, अभी तुम्हें पैसे भी बहुत कम मिल रहे हैं लेकिन ये मत भूलो कि तुम एक बहुत बड़े मिशन पर लगे हो। तुम्हारा काम आम आदमी का नहीं है। तुम्हारे पास जो पॉवर है, प्रेस्टिज है वो अच्छे-अच्छे पैसेवालों के पास नहीं है। इसलिए पैसे को लेकर बहुत टेंस होने की जरुरत नहीं है। बाकी तुम समझदार हो ही। ....कुछ इसी तरह के वाक्यों के साथ मैंने चैनल में अपनी नौकरी की शुरुआत की थी। उस समय हमें बहुत पैसे नहीं चाहिए थे, काम चाहिए था। बिजी होना चाहता था, लम्बे समय के डिप्रेशन से उबरना चाहता था। मेरी तरह कई दोस्त थे और उन्होंने तो इंटर्नशिप के लिए आकाशवाणी औकर दूरदर्शन में पैसे तक दिए थे। इसलिए मैं शुरुआत के दिनों में खुश था। बाद में क्या हुआ, ये बात फिर कभी। बॉस ने हमसे जो कुछ भी कहा उससे आप मीडिया को लेकर अंदाजा लगा सकते हैं। खुद ही तय कर सकते हैं कि इसमें कितनी सच्चाई है और आज सही अर्थों में इसकी क्या स्थिति है. बाकी आप खुद भी जोर देकर याद करें कि आपके बॉस ने पहले दिन क्या कहा था। आगे पढिए, चैनल के छोड़ने के दिन क्या कहा था बॉस ने -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1209 Size: 7369 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080628/37d189eb/attachment.bin From avinashonly at gmail.com Sat Jun 28 20:10:44 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sat, 28 Jun 2008 09:40:44 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <20726771.760361214664044903.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// अघटित ऐसे घटता है Posted: 27 Jun 2008 07:26 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/321698064/blog-post_27.html उदय प्रकाशआमतौर पर उदय जी का मेल ऐसा आता नहीं है। उन्‍होंने लिखा था, Dear Avinash, Can we meet soon? रात में मेल पर नज़र पड़ी। सुबह-सुबह उनके घर पहुंच गया। बहुत सारी बातों के साथ एसपी का ज़‍िक्र भी आया। ये भी कि दिनमान के आख़‍िरी दिनों में एसपी ने किस तरह से उनकी मदद की थी। उनकी निश्‍िचत मौत और अस्‍पताल में पड़ी उनकी बेजान काया के दो-तीन मीडिया के बाहर चाहे जैसा भी शोर और सनसनी हो, मीडिया के भीतर एक अजीब किस्‍म का सन्‍नाटा था। पूरे देश को एसपी की दशा बताने से वंचित रखा गया। क्‍या यह सुनियोजित था? उदय प्रकाश ने उनकी मौत के फ़ौरन बाद इसकी व्‍याख्‍या अपने अंदाज़ में की थी। चूंकि एसपी पर यहां बात चल रही है, उन्‍होंने हमें ये उपलब्‍ध कराया। ये लेख मीडिया के चरित्र को समझने में भी हमारी मदद करता है।रूसी भाषा के बहुत संवेदनशील कहानी-लेखक वासिलेई शुक्सिन की मृत्‍यु उस समय हुई, जब वे एक फ़‍िल्‍म में किसी पात्र का अभिनय कर रहे थे। कैमरे के सामने, उस फ़‍िल्‍म के एक दृश्‍य की शूटिंग के समय संवाद बोलते-बोलते अचानक उनका हृदय थम गया था। संवाद संयोग से पूरा हो चुका था। उनकी मृत्‍यु कैमरे के सामने हुई और कैमरे में वह दर्ज हो गयी। उनकी मृत्‍यु ‘रिकॉर्डेड’ है। सुप्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह की मृत्‍यु संयोग से कैमरे के बाहर हुई। उस क्षण को कैमरे ने रिकॉर्ड नहीं किया। वासिलेई शुक्सिन जिस फ़‍िल्‍म में अभिनय कर रहे थे और उसकी शूटिंग के दौरान उनकी अप्रत्‍याशित मृत्‍यु हुई, वह मृत्‍यु उस फ़‍िल्‍म की पटकथा या ‘स्‍टोरी लाइन’ का हिस्‍सा नहीं थी। एक ही रील में, एक ही फ़ुटेज में, उस फ़‍िल्‍म का दृश्‍य भी अंकित हुआ और उसी में वासिलेई शुक्सिन की मृत्‍यु भी। यानी एक ही फुटेज में आख्‍यान और यथार्थ दोनों साथ-साथ दर्ज हो गये। शुक्सिन की मृत्‍यु यथार्थ में हुई थी और वह अभिनय एक कल्पित आख्‍यान में कर रहे थे। जब फ़‍िल्‍म का संपादन किया गया होगा, तो उतना हिस्‍सा तो ले लिया गया होगा, जो फ़‍िल्‍म के कथानक से संबंधित था और उनकी मृत्‍युवाला अंश काट कर अलग कर दिया गया होगा। क्‍योंकि यथार्थ में हुई उस मृत्‍यु का फ़‍िल्‍म की कथा से कोई लेना-देना नहीं था। उस मृत्‍यु का उस पात्र की भूमिका से भी कोई सरोकार नहीं था, जिसका अभिनय शुक्सिन कर रहे थे। हो सकता है, शुक्सिन का रोल बाद में किसी दूसरे अभिनेता को सौंप दिया गया हो। गुरुदत्त की अंतिम फ़‍िल्‍म (संभवत: बहारें फिर भी आएंगी) के साथ भी यही हुआ था। उनकी भूमिका किसी दूसरे अभिनेता ने निभायी थी। अभी कुछ साल पहले अभिनेत्री दिव्‍या भारती की अप्रत्‍याशित मृत्‍यु के बाद उनकी पिछली फ़‍िल्‍मों के फुटेज से कंप्‍यूटर एनिमेशन तकनीक के जरिये, उनकी चलती-फिरती, नाचती-गाती प्रतिकृतियां बना कर उनकी अंतिम अधूरी फ़‍िल्‍म पूरी की गयी। ऐसा ‘टेक्‍नॉलॉजी’ के विकास के कारण संभव हुआ। यह संभव हुआ कि किसी अभिनेता की यथार्थ में हुई वास्‍तविक भौतिक मृत्‍यु के बावजूद, उसकी छवि परदे पर हंस-बोल सकती है। दु:ख और सुख और मनुष्‍य की अनेक भावनाओं को अभिव्‍यक्‍त कर सकती है। इसका मतलब यह कि जो व्‍यक्ति यथार्थ में अनुपस्थित हो चुका है, मर चुका है, वह फ़‍िल्‍म में उपस्थित रह सकता है। ज़‍िंदा रह सकता है। वस्‍तु और उसकी छवि या यथार्थ और स्‍वप्‍न का ऐसा चमत्‍कारी विच्‍छेद टेक्‍नॉलॉजी के कारण संभव हुआ। स्‍पीलबर्ग इसी तकनीकी के द्वारा हज़ारों साल पहले पृथ्‍वी से विलुप्‍त हो चुके डायनासोर को जुरासिक पार्क में जीवित पेश करके संसार-भर के दर्शकों को एक रोमांचक आश्‍चर्यलोक में ले गये थे। वह आज के समय में प्रागैतिहासिक काल का कल्‍पनातीत साक्षात्‍कार था। पॉप गायक एल्विस प्रीसले भी अपनी वर्षों पहले हुई मृत्‍यु के बावजूद, एक ऐसी ही फ़‍िल्‍म में आज जीवित हो गये हैं। अपने बाद के समय को जीते हुए। वासिलेई शुक्सिन की मृत्‍यु ने रूसी जनता के मन में गहरा शोक पैदा किया। उनकी मृत्‍यु बिल्‍कुल अप्रत्‍याशित थी। मास्‍को में उनकी शवयात्रा तब तक की सबसे बड़ी और शोकाकुल शवयात्रा थी। यह हर कोई जानता था कि शुक्सिन बहुत संवेदनशील और ईमानदार थे। वे रूसियों के प्रिय कहानीकार थे। वे रूस के किसी सुदूर देहाती इलाके से चलते हुए मास्‍को जैसे महानगर और तब के सोवियत संघ की राजधानी में पहुंचे थे। शुक्सिन कहानी लिखने के साथ-साथ फ़‍िल्‍मों में भी काम करते हुए अपनी आजीविका चलाते थे। लेकिन वासिलेई शुक्सिन के जीवन में कई विडंबनाएं भी थीं, जो स्‍वर्गीय पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह की या हममें से बहुतों की विडंबनाओं से मिलती-जुलती थीं। मास्‍को के अमीर, संभ्रांत और ‘एलीट’ वर्ग में शुक्सिन को देहाती या ‘रास्टिक’ माना जाता था। दूसरी ओर उनके गांव के लोग अब उन्‍हें शहरी और ‘एलीट’ मानने लगे थे। इस तरह शुक्सिन महानगर और गांव, दोनों से निर्वासित थे। यह आत्‍म-निर्वासन नहीं था। इसी तरह कहानीकार उन्‍हें फ़‍िल्‍म का आदमी मानते थे और फ़‍िल्‍म के लोग उन्‍हें साहित्‍यकार समझते थे। दोनों में कहीं भी वे सहजता के साथ, पूरी तरह स्‍वीकृत नहीं थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह या हममें से अधिकांश के साथ भी ऐसी ही मिलती-जुलती विडंबनाएं हैं। लेकिन वासिलेई शुक्सिन की कहानियां आप पढ़ें तो उनकी मार्मिक संवेदनशीलता, अपने समय और समाज से उनकी गहरी संपृक्ति और ठीक इसी के समानांतर एक उदास-सी विरक्ति के साथ-साथ निजी जीवन के अंतर्द्वंद्व भी देखने को मिलते हैं, जो उन्‍हें इस सदी के विरल कथाकारों में से एक बनाते हैं। अगर आपने उस शनिवार को दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर प्रसारित होने वाला समाचार कार्यक्रम आज तक देखा हो, जिसे सुरेंद्र प्रताप सिंह ने दिल्‍ली के ‘उपहार’ सिनेमा हॉल में जल कर मरने वाले दर्शकों की स्‍मृति को समर्पित किया था, तो आप उनकी गहरी करुणा और संवेदनशीलता से ज़रूर परिचित हुए होंगे। जब अंत में उन्‍होंने कहा था, ‘और जीवन यों ही चलता रहता है...’, तो उसमें एक उदास करने वाला विडंबना-बोध था। किसी तमाशे के बीच पैदा होने वाली विरक्ति या तटस्‍थता। सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एसपी का जाना भी उतना ही अप्रत्‍याशित था। किसी भी पूर्वानुमान से परे। कहते हैं न कि ‘अघटित घट गया’। तो उनकी तब तक अघटित मृत्‍यु अचानक वैसी ही घटित हुई, हालांकि शुक्सिन की तरह उसे कोई कैमरा रिकॉर्ड नहीं कर रहा था। संयोग से उस समय वे बाथरूम में थे। शूटिंग से बाहर। इतवार की डीडी टू में समाचार कार्यक्रम ‘आज तक’ प्रसारित नहीं होता। एक दिन का अंतराल रहता है। इसीलिए उन्‍होंने शनिवार के कार्यक्रम में अपना चिरपरिचित वाक्‍य दुहराया था, ‘ये थीं ख़बरें आज तक, इंतज़ार कीजिए सोमवार तक’। यह टेलीविज़न में बोला गया उनका अंतिम वाक्‍य था। यह किसी निरंतरता का संकेत करता असमाप्‍त-सा वाक्‍य था। इसका पूर्वार्द्ध वर्तमान के अल्‍पविराम (कॉमा) के साथ ठहरता था और अगला हिस्‍सा यानी उत्तरार्द्ध भविष्‍य की ओर कहीं जाता हुआ, संगीत, विज्ञापन और टाइटल्‍स में डूब जाता था। यानी ‘आज तक’ को अगले, भविष्‍य के सोमवार में फिर से प्रसारित होना था। इसी के लिए एसपी किसी तेज़तर्रार पंचलाइन या ब्रांड लाइन की तरह ‘इंतज़ार’ शब्‍द का इस्‍तेमाल लापरवाह औपचारिकता के साथ करते थे। अंत में हल्‍का-सा मुस्‍कराते हुए। लेकिन सोमवार को जब ‘आज तक’ प्रसारित हुआ, तो उसमें एसपी नहीं थे। उनके न होने की वजह की कोई सूचना या ख़बर भी उसमें नहीं थी। हालांकि मध्‍याह्न तक दिल्‍ली के तमाम लेखकों, पत्रकारों और उनके करीबी लोगों को पता चल चुका था कि सुबह-सुबह एसपी को ब्रेन हेमरेज हो गया है। उनके मस्तिष्‍क की महत्‍वपूर्ण नस फट गयी है और वे अपोलो अस्‍पताल के गहन चिकित्‍सा कक्ष में कॉमा की हालत में पड़े हुए हैं। उनकी स्थिति गंभीर है। क्रिटिकल। मंगलवार को सिर्फ़ जनसत्ता में इसके बारे में एक छोटी-सी ख़बर छपी। बाक़ी किसी अख़बार या समाचार कार्यक्रम में इसकी कोई सूचना नहीं थी। दिल्‍ली ही नहीं, ‘आज तक’ के देश-भर में फैले 10 करोड़ से ज़्यादा दर्शक, पत्रकारिता, साहित्‍य, संस्‍कृति, सामाजिक कार्य और राजनीति से जुड़े एसपी के असंख्‍य प्रेमी और प्रशंसक लगातार चिंता में थे। एसपी के स्‍वास्‍थ्‍य के बारे में सूचना पाने का उनका हक़ बनता था। औपचारिक और वैधानिक भाषा में कहें तो यह सूचना पाना उनका बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार था। मानवीयता की बोली में कहें तो यह उनका मानवीय अधिकार था। लेकिन यह सूचना कहीं नहीं उपलब्‍ध हो रही थी। एसपी के स्‍वास्‍थ्‍य की सूचना पर एक रहस्‍यपूर्ण खामोशी का काला परदा टांग दिया गया था। ‘आज तक’ हर रोज़ नियत समय पर आता था। ठीक रात को दस बजे। लेकिन उसमें एसपी अनुपस्थित थे। संजय पुगलिया ने एंकर का काम संभाल लिया था। वे एसपी की ही भाषा, लहजे, टोन और शब्‍दावली में बोलते थे। एसपी के ही चिरपरिचित मुहावरों और फ़्रेजेज़ का इस्‍तेमाल करते थे। इससे एसपी की अनुपस्थिति हर रोज़ और सघन होती जाती थी। ‘आज तक’ की समूची प्रस्‍तुति में एसपी की छाप और उसकी परछांई फैली हुई थी, स्‍वयं एसपी से संबंधित हर सूचना को रोक दिया गया था। क्‍या यह एक ‘सेंसरशिप’ थी, जिसे ‘गवर्नमेंट’ ने नहीं किसी और ने इतनी ताक़त और असर के साथ लागू किया था? मैं सोचता हूं, ऐसा क्‍यों हुआ? जिस सप्‍ताह और जिन दिनों एसपी अपोलो अस्‍पताल में मृत्‍यु से संघर्ष कर रहे थे, और अचेत थे, उन्‍हीं दिनों केंद्र में मंत्री रह चुके और भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री के पुत्र हरिकृष्‍ण शास्‍त्री भी गंभीर हालत में दिल्‍ली के ही अस्‍पताल में भर्ती थे। उनके बारे में निरंतर सूचना मिल रही थी। एसपी के बारे में नहीं। जहां तक लोकप्रियता का प्रश्‍न है, एसपी किसी मायने में कम लोकप्रिय नहीं थे। क्‍या मुख्‍य कारण यह था कि एसपी राजनीतिक नेता नहीं थे, इसलिए उतने ताक़तवर नहीं थे, इसलिए वीवीआईपी नहीं थे। इसलिए उनसे संबंधित सूचना को वरीयता नहीं दी गयी थी। उसे प्रसारण के योग्‍य नहीं समझा गया था। अगर राजनेता रहे होते तो बार-बार उनका स्‍वास्‍थ्‍य बुलेटिन हर जगह फ़्लैश किया जाता। क्‍या राजनीति और सत्ता संरचना ही वह गजी होती है, जिससे किसी शख्सियत का कद और उसका महत्‍व नापा जाता है। किसी भ्रष्‍ट और बूढ़े मंत्री या नेता को अस्‍पताल में भर्ती होने दीजिए, उसकी ख़बरें और सूचनाएं, कोई चाहे या न चाहे, जबरन सारे देश में बरसनी शुरू हो जाएंगी। चीन के चेयरमैन माओ जब बूढ़े और जर्जर होकर बिस्‍तरबंद हो चुके थे, तब भी तरणताल में तैरते हुए उनके झूठे फ़ोटोग्राफ़ हर जगह छापे और प्रसारित किये जाते थे। यह हर कोई जानता है कि रूस के मौजूदा राष्‍ट्रपति बोरिस येल्‍तसिन (23 अप्रैल, 2007 को उनकी मृत्‍यु हो चुकी है: मॉडरेटर) बाइपास सर्जरी के बाद मुश्किल से तीस प्रतिशत ही जीवंत हैं, लेकिन उनकी फुर्तीली, चुस्‍त-चौबंद छवियां ही हर जगह प्रसारित की जाती हैं। देंग शियाओ फिंग के साथ भी यही था। मरणासन्‍न थे, लेकिन तस्‍वीरें जॉगिंग सूट में। स्‍पेन का तानाशाह फ्रांको एक दशक तक मरता रहा, लेकिन एक दशक तक लगातार उनके स्‍वास्‍थ्‍य के सुधरने की ख़बर फैलायी जाती रही। इसका अर्थ यही है कि मीडिया वही सूचना या ख़बर प्रसारित करता है, जो उसका नियंत्रण करने वाला तंत्र तय करता है। जो व्‍यवस्‍था या तंत्र मीडिया का स्‍वामी है, सुरेंद्र प्रताप सिंह के स्‍वास्‍थ्‍य की सूचना उसके लिए महत्‍वपूर्ण नहीं थी। क्‍योंकि एसपी ऐसे पत्रकार थे, जो मीडिया में रहते हुए उसी तंत्र या व्‍यवस्‍था की आलोचना करने लगते थे। उनका व्‍यंग्‍य उनकी समाचार प्रस्‍तुति में साफ़ दिखाई देता था। और इसी तत्‍व ने उनके व्‍यक्तित्‍व और ‘आज तक’ को वह लोकप्रियता और विश्‍वसनीयता प्रदान की थी, जो ‘आज तक’ को हिंदी का बीबीसी बनाती थी। लेकिन इसके बावजूद एसपी वहां सिर्फ़ एक कर्मचारी थे। वे उस मीडिया के मातहत थे, जिस पर किसी और का अधिकार था। ‘आज तक’ ने एसपी से संबंधित ख़बर को तब तक रोका, जब तक एसपी ख़ुद एक बड़ी ख़बर नहीं बन गये। अब उस ख़बर को रोक पाना टीवी टुडे या ‘आज तक’ के वश में नहीं था। स्‍टार न्‍यूज, दूरदर्शन, जीटीवी, बीबीसी सब उसे प्रसारित कर चुके थे। एसपी सिंह की मृत्‍यु की सूचना करोड़ों लोगों तक अन्‍य चैनलों और माध्‍यमों के जरिये पहुंच चुकी थी और उसने एक ऐसे शोक को जन्‍म दिया था, जो वास्‍तविक था, मानवीय था, गहरा था और बहुत बड़ा था। अगर ‘आज तक’ ने तब भी वह समाचार प्रसारित न किया होता, तो एक समाचार कार्यक्रम के रूप में उसकी वैधता, पहान और विश्‍वसनीयता संदिग्‍ध हो जाती। ‘आज तक’ ने अगर अपने संकल्‍पक, प्रस्‍तुतकर्ता, अपने जन्‍मदाता और अपनी मूल आत्‍मा यानी एसपी को याद किया, तो इसके लिए वह विवश भी था। कोई दूसरा चारा उसके पास नहीं था। एसपी ने मर कर उस तंत्र को परास्‍त किया, जिसमें जीवित रहते हुए वे मातहत थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह की मृत्‍यु यथार्थ में हुई थी। उनकी मृत्‍यु उस कॉमर्शियल सूचना सेवा की मूल स्क्रिप्‍ट में शामिल नहीं थी। उसी तरह जैसे रूस के संवेदनशील कथाकार वासिलेई शुक्सिन की मृत्‍यु उस फ़‍िल्‍म की मूल पटकथा में शामिल नहीं थी, जिसमें वह अभिनय करते हुए मरे थे। टीवी टुडे ने ज़‍िंदा एसपी की प्रतिभा, पेशेवर कुशलता और कल्‍पनाशीलता को किराये पर लिया था और इससे उसने मुनाफ़ा कमाया था। एसपी की मृत्‍यु से वह हतप्रभ था। वह उसकी व्‍यावसायिक परिधि के बाहर घटी घटना थी। अंत में उसने उस मृत्‍यु का भी व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल किया। क्‍योंकि धंधा तो धंधा ही है, और उसे चलते रहना है। लेकिन जाने क्‍यों मुझे उस व्‍यावसायिक फोटोग्राफ़र वेरोनिका की याद आती है, जिसके बारे में मैंने कहीं पढ़ा था। वह एक ऐसा रूपक था, जिसे आधार बना कर मैं कहानी लिखना चाहता था। वेरोनिका एक ऐसी कामयाब व्‍यावसायिक फोटोग्राफ़र थी, जिसे अपने मॉडल हेक्‍टर के शरीर की सुंदरता से प्‍यार हो गया था। वह प्‍यार पेशेवराना था। उसने हेक्‍टर को ऊंची तनख़्वाह में अपना स्‍थायी मॉडल बना कर रख लिया। हेक्‍टर के शरीर के आकर्षण का उसने भरपूर इस्‍तेमाल किया। उसके फोटोग्राफ़ बहुत प्रसिद्ध हुए और ऊंची क़ीमत में बिके। बाद में हेक्‍टर का शरीर ढलने लगा। वेरोनिका को चिंता हुई। लेकिन उसने अपनी विलक्षण मार्केट प्रतिभा का परिचय दिया। वह हेक्‍टर के शरीर को डेवलपर से नहला देती और उसे विशाल प्रिंट पेपर पर सुलाकर उसके मानव छापे तैयार करती। बिना कैमरा, एनलार्जर या फ़‍िल्‍म के तैयार ये छापे इतने चर्चित हुए कि उसे ‘अल्‍टीमेट फोटोग्राफी’ कहा गया। वेरोनिका बहुत अमीर हो गयी। लेकिन हेक्‍टर के शरीर की बाज़ार संभावनाओं का अभी अंत नहीं हुआ था। वेरोनिका हालांकि उससे सहवास भी करती थी, लेकिन वह उस देह की व्‍यावसायिक संभावनाओं के प्रति हमेशा सजग रहती थी। मुनाफा और शोहरत और मज़ा, हेक्‍टर के शरीर से उसे सब हासिल करना था। हालांकि उसने बाद में कपड़ों को प्रकाश-संवेदी सिल्‍वर ब्रोमाइड के घोल में डुबा कर उसे विभिन्‍न रसायनों में लिथड़े हेक्‍टर की देह में लपेट कर ऐसे विलक्षण फोटोग्राफ तैयार किये, जिसमें हेक्‍टर अलग-अलग धातुओं से बनी मूर्ति नज़र आता था। आज तो यह तकनीक बहुत आम लेकिन शुरू में इन चित्रों को ‘वेरोनिका आवरण’ कहा गया। लेकिन इन रसायनों का असर घातक हुआ। इतने अधिक इस्‍तेमाल से हेक्‍टर का शरीर नष्‍ट होने लगा और उसकी मृत्‍यु के साथ ही वेरोनिका के मुनाफ़े का अंत हुआ। लेकिन हेक्‍टर की मृत्‍यु इस समय को और इस मीडिया तंत्र को समझने का एक सूक्ष्‍म मानवीय अर्थ तो देती ही है! -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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Posted: 29 Jun 2008 04:00 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/322443071/blog-post_29.html अगर आप धंधा कर रहे हैं, तो फिर समाज के चौथे स्तंभ होने के नाम पर फायदे बटोरने और जगह-जगह प्रिविलेज लेने की दौड़ में आप सबसे आगे क्यों? सेंसरशिप या सरकारी लगाम की बात पर आपको एतराज क्यों? क्यों आप पीआईबी की आधे दाम की रेल यात्रा करने के अधिकारी माने जाएं? क्यों आपको मुफ्त पार्किंग के पास दिये जाएं? क्यों पत्रकारों को संसद के सेंट्रल हॉल जैसी प्रतिष्ठित जगहों पर घुसने दिया जाए? क्यों न आपको भी सिर्फ उतनी ही सुविधाएं मिलें जो स्टार प्लस जैसे चैनल को मिलती हैं? और इस सबसे ऊपर, आप को जनता की तरफ से सवाल पूछने का अधिकार क्यों दिया जाए? इसलिए कि आप कच्चे मुर्गे चबाता आदमी दिखाते हैं या इसलिए कि आप संभोग करते एक गंजे संन्यासी का स्टिंग ऑपरेशन दिखाते हैं?ये प्रतिक्रिया किसी नुक्‍कड़ के पनवाड़ी ने भेजी है। ये वही पनवाड़ी हैं, जिन्‍होंने किसी विश्‍वविद्यालय से एमए या एलएलबी किया होगा, व्‍यवस्‍था का राग-रंग देख कर उसके स्‍वीमिंग पूल में छप-छप करने से एक पान की दुकान खोल कर ज़‍िंदगी गुज़ारना बेहतर समझा होगा। यह दौर रजत शर्मा जैसे लोगों का है, जिनकी कामयाबी की दलीलें हमने तहलका से साभार छापी थी। पनवाड़ी ने ये शाइरी उन्‍हीं दलीलों के टेबुललैंप में बैठ कर की है। मोहल्‍ले में एसपी सिंह की चर्चा के बहाने मीडिया पर चली बहस के दरम्‍यान यह पहली ऐसी टिप्‍पणी है, जिस पर ग़ौर फ़रमाने की सिफ़ारिश कर रहा हूं।रजत जी बहुत पुराने खिलाड़ी हैं। टी-ट्वेंटी खेलने का शौक उनके लिए नया भले ही हो पर रूल्स से दुश्मनी निकालना उनका पुराना शगल है। जब पत्रकारों को नेताओं से दूर रहने की सलाह दी जाती थी तो रजत जी बीजेपी के अरुण जेटली जैसे नेताओं के साथ दिन भर गाड़ी में घूमते देखे जाते थे। हिंदी के पत्रकार हैं पर हिंदी की टांग तोड़कर हिंग्लिस बनाना जबरदस्ती अंग्रेजी के शब्दों को ठूंसना यहां तक कि हिंदी में अग्रेजी का व्याकरण भी घोल देने का उनका अंदाज हमेशा नापसंद किया जाता रहा है। जब जब जिस जिस दौर में रहे रजत जी ने दुनिया की परवाह नही की। जो बड़े और नामी लोग रजत जी के इंडिया टीवी से जुड़े मधुरता से भरे अनुभव लेकर गए। सतीश जैकब जैसे बडे पत्रकार हों या नौकर समझे जाने वाले "कीड़े मकोड़े" पत्रकार चा फिर आलोक तोमर जैसे फर्टाइल दिमाग। सब इंडिया टीवी से ऐसे अनुभव लेकर गए कि अब सपने भी वो रजत शर्मा की शक्ल देखकर डर जाते होंगे। एम्प्लायर इतने बढिया कि चार साल में जितने लोग जुड़े करीब करीब सभी भागते नज़र आए। तो रजत जी हमेशा हर मंच पर हर जगह आलोचनाओं के केन्द्र में रहे। लेकिन फिर भी वो सफल हैं। सफल इसलिए हैं क्योंकि ये पूंजी का दौर है। जो जितना कमाएगा महान कहलाएगा। क्या फर्क पड़ता है कि कैसे कमाया और कहां से कमाया। सफलता का मतलब है पैसा। गांधी जी आज के दौर में होते तो कौन उनको टॉप टेन इंडियन में भी जगह देता? कितने ही लोग हैं और नाम हैं जो चुपचाप काम कर रहे हैं लेकिन वो सक्सेसफुल नहीं कहलाते। राजेन्द्र सिंह यमुना के लिए जान दिये पड़े हैं पर कौन पूछता है। सुनीता नारायण को इसलिए लोग जान गये क्योंकि उन्होंने पूंजीवादी समाज और दुनिया को छुआ। कोक और पेप्सी पर हाथ न डालतीं तो कौन उनको जानता। वैसे पर्यावरण के लिए किये गये उनके बाक़ी काम की जानकारी किसी के पास नहीं है। चूंकि जब सब धंधा है तो मुनाफे के लिए ही तो दौड़ होगी और इस दौड़ में जो मारेगा, वो ही मीर होगा। लेकिन ये सब अगर धंधे के लिए है, तो फिर समाज के चौथे स्तंभ होने के नाम पर फायदे बटोरने और जगह-जगह प्रिविलेज लेने की दौड़ में आप सबसे आगे क्यों? सेंसरशिप या सरकारी लगाम की बात पर आपको एतराज क्यों? क्यों आप पीआईबी की आधे दाम की रेल यात्रा करने के अधिकारी माने जाएं? क्यों आपको मुफ्त पार्किंग के पास दिये जाएं? क्यों पत्रकारों को संसद के सेंट्रल हॉल जैसी प्रतिष्ठित जगहों पर घुसने दिया जाए? क्यों न आपको भी सिर्फ उतनी ही सुविधाएं मिलें जो स्टार प्लस जैसे चैनल को मिलती हैं? और इस सबसे ऊपर, आप को जनता की तरफ से सवाल पूछने का अधिकार क्यों दिया जाए? इसलिए कि आप कच्चे मुर्गे चबाता आदमी दिखाते हैं या इसलिए कि आप संभोग करते एक गंजे संन्यासी का स्टिंग ऑपरेशन दिखाते हैं? दरअसल पूंजीवाद का असर और लालच ने मीडिया के रजत शर्माओं की आंखों पर पट्टी बांध दी है और लालची का कोई चरित्र नहीं होता। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080629/cf658757/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Mon Jun 30 12:05:04 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Mon, 30 Jun 2008 12:05:04 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <1338.59.180.89.236.1214807704.squirrel@mail.sarai.net> मित्रों मुझे अच्छी लगीं ये पंक्तियां. सोचा आपको भी अच्छी लगेंगी. वैसे अवनीश भाई अकसर अच्छा लिखते हैं. उनकी और कविताएं पढने के लिए आप http://avanishgautam.com का चक्कर लगा सकते हैं. तो पढें और मज़े लें. सलाम राकेश मंडी रैप भीड भडक्का शोर सडक का बैगन भरता दाल तडक्का घंटी शंटी रेलम्पेल मची है कैसी ठेलमठेल आओ मिल कर बेंचे तेल दान धरम ईमान के धंधे पापी नीच बे ईमान ये गन्दे खेले मिल कर मौत के खेल आओ मिल कर बेंचे तेल अन्नो बन्नो शबनम शन्नो राधा रानी देवी दुखियारी सबको बना दिया है रेल आओ मिल कर बेंचे तेल अरबन शरबन गरिबा गुरुबन चले जा रहे आँखे मीचे धक्कमपेल लगी है सेल आओ मिल कर बेंचे तेल ----------------------------------------- This email was sent using SquirrelMail. "Webmail for nuts!" http://squirrelmail.org/ From chandma1987 at gmail.com Mon Jun 30 12:47:25 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Mon, 30 Jun 2008 03:17:25 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=28no_subje?= =?utf-8?b?Y3Qp?= In-Reply-To: <1338.59.180.89.236.1214807704.squirrel@mail.sarai.net> References: <1338.59.180.89.236.1214807704.squirrel@mail.sarai.net> Message-ID: ये मेल राकेश जी का है उन्होंने जो भेजा था हम पढ़ नहीं पा रहे थे. इसको मैं ठीक कर वही मेल फार्वड कर रहा हूँ. मित्रों मुझे अच्छी लगीं ये पंक्तियां. सोचा आपको भी अच्छी लगेंगी. वैसे अवनीश भाई अकसर अच्छा लिखते हैं. उनकी और कविताएं पढने के लिए आप http://avanishgautam.com का चक्कर लगा सकते हैं. तो पढें और मज़े लें. सलाम राकेश मंडी रैप भीड भडक्का शोर सडक का बैगन भरता दाल तडक्का घंटी शंटी रेलम्पेल मची है कैसी ठेलमठेल आओ मिल कर बेंचे तेल दान धरम ईमान के धंधे पापी नीच बे ईमान ये गन्दे खेले मिल कर मौत के खेल आओ मिल कर बेंचे तेल अन्नो बन्नो शबनम शन्नो राधा रानी देवी दुखियारी सबको बना दिया है रेल आओ मिल कर बेंचे तेल अरबन शरबन गरिबा गुरुबन चले जा रहे आँखे मीचे धक्कमपेल लगी है सेल आओ मिल कर बेंचे तेल -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080630/9150ec32/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Mon Jun 30 13:03:46 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Mon, 30 Jun 2008 13:03:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= In-Reply-To: References: <1338.59.180.89.236.1214807704.squirrel@mail.sarai.net> Message-ID: ये मेल राकेश जी का है उन्होंने जो भेजा था हम पढ़ नहीं पा रहे थे. इसको मैं > ठीक कर वही मेल फार्वड कर रहा हूँ. > > भीड भडक्का > शोर सडक का > बैगन भरता > दाल तडक्का > घंटी शंटी रेलम्पेल > मची है कैसी ठेलमठेल > आओ मिल कर बेंचे तेल > > दान धरम > ईमान के धंधे > पापी नीच > बे ईमान > ये गन्दे > खेले मिल कर मौत के खेल > आओ मिल कर बेंचे तेल > > अन्नो बन्नो > शबनम शन्नो > राधा रानी > देवी दुखियारी > सबको बना दिया है रेल > आओ मिल कर बेंचे तेल > > अरबन शरबन > गरिबा गुरुबन > चले जा रहे > आँखे मीचे > धक्कमपेल लगी है सेल > आओ मिल कर बेंचे तेल > > > > -- > Chandan Sharma > -- Chandan Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080630/e0a2a7a2/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Jun 30 14:07:08 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 30 Jun 2008 14:07:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkleClhyDgpLLgpYvgpJcg4KSt4KSX4KS14KS+4KSoIA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSCIOCkueCli+CkpOClhw==?= Message-ID: <829019b0806300137r16de70c0h907e05f707769b05@mail.gmail.com> एनडीटी के प्रोग्राम *हमलोग* में आशुतोष (आइबीएन7) ने कहा कि ये *तो लोगों का बड़प्पन है कि वो हमें भगवान मान रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि हमसे कोई गलती नहीं होगी, नहीं तो हम भी इंसान हैं और हमसे भी गलतियां होती है।* आशुतोष अपनी बातों से बिल्कुल स्पष्ट कर दे रहे थे कि हम भी और इंसानों की तरह की इंसान ही हैं। यानि जिस तरह से दूसरे प्रोफेशन-प्रशासन,न्याय,मेडिकल औऱ यहां तक की राजनीति के लोग गलतियां करते हैं उसी तरह मीडिया के भी लोग करते हैं। मीडिया की बदलती कार्यशैली को समझने के लिए इस बात पर गौर करना बहुत जरुरी है कि मीडिया के लोगों ko भी आम आदमी की तरह की समझा जाए। आशुतोष के तो हम पहले से ही कायल हैं लेकिन इस तरह के ईमानदारीपूर्वक वक्तव्य से समझिए मुरीद ही हो गए।आशुतोष ने जो बात कही है उसमें साफ संकेत हैं कि गड़बड़ी हम पाठकों के सोचने में है। हम ही मान लेते हैं कि मीडिया जो कुछ भी दिखाती है वो सब सच है। शहरों में और पढ़े-लिखे लोगों के बीच तो थोड़ी बहस भी होती है कि नहीं जी, सब सच कहां होता है, काफी कुछ क्रीएटेड होता है लेकिन गांव के अपढ़ लोग मीडिया में दिखाए गए एक-एक बात को सच मान लेते हैं। अगर आप उनके सामने तर्क करते हैं तो वो आपसे सीधे कहेंगे कि- चलिए आपकी बात मान लेते हैं कि बहुत कुछ अपने से लिख दिया होगा लेकिन एक बात बताइए कि मर्डर और रैप का फोटू भी अपने से ले लिया होगा। ये कैसे संभव है कि मर्डर हुआ नहीं और चैनल दिखा दे। हिन्दुस्तान में एक बड़ा तपका ऐसा है जो मीडिया में दिखायी गयी हर खबरों को सच मानता है,चैनल को समाज का bada सच मानता है। उन्हें उन बारीकियों से कोई लेना-देना नहीं होता कि कहां-कहां और किस तकनीक को लेकर मैनुपुलेशन हुआ है, कहां चीजें रीक्रिएट की गयी हैं। टेलीविजन की खबरें, हमारे औऱ आपके द्वारा लगातार सवाल खड़े किए जाने के बावजूद उनके लिए एक मूल्य की तरह है। आप लाख समझाने की कोशिश करें कि- नही मीडिया की सारी खबरें सच नहीं होंती तो भी वो इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। कई अर्थों में टेलीविजन औऱ न्यूज चैनलों के कंटेंट उनके लिए मूल्य होते हैं। बात-बात में वो आपसे कहें कि इंडिया टीवी ने साफ-साफ दिखाया है, आजतक ने इस पर खुलासा कर दिया है। टेलीविजन के लोग भी इस बात को बेहतर तरीके से समझते हैं कि उनके चैनल को और उनके द्वारा दिखायी जानेवाली खबरों को ऑडिएंस किस रुप में लेती है। अगर आप चैनलों के दावों aur उनके पंचलाइन पर गौर करें तो आपकों अंदाजा लग जाएगा कि अधिकांश चैनल सच को स्टैब्लिश करते हैं, सच ही उनकी साख है। आप लाख तर्क दे दीजिए, आए दिन तकनीक का विकास कर लीजिए, खबरों को प्रभावशाली बनाने के लिए नाट्य रुपांतर कर लीजिए लेकिन मीडिया के साथ सच का संबंध सबसे बड़े मूल्य के ऱुप में जुड़ा है। इस बात को अगर मीडिया के लोग खुद भी मानने से गुरेज करें तो भी आम ऑडिएंस को तरह से सोचने में वक्त लगेगा। इसलिए अगर आशुतोष साफ-साफ शब्दों में कहते हैं कि हम ईश्वर नहीं हैं और हमसे भी गलतियां हो सकती है तो एक तरह ऑडिएंस की मानसिकता को बदलने की बात कर रहे हैं। यह जानते हुए कि मीडिया की गलती बाकी के प्रोफेशन की गलतियों से बिल्कुल अलग है औऱ सबसे बड़ी बात तो यह कि इससे प्रभावित होनेवाले लोगों और शामिल होनेवाले लोगों की संख्या और प्रोफेशन के लोगों से बहुत अधिक है। अब बदलना दर्शकों को ही होगा,चैनलों को नहीं। आशुतोष की बात से तो हमने यही समझा है। लेकिन इस बीच मीडिया यह दावा करना छोड़ दे कि वो जो कुछ भी दिखा रही है सौ फीसदी सच है तो दर्शकों को आशुतोष की बात मान लेने में बहुत सहुलियत होगी....और इधर जिस तरह मेरे बॉस ने समझाना शुरु किया था कि मीडिया के लोग औरों से हटकर होते हैं तो फिर मजा आ जाए। हम ऑडिएंस इस बात को आसानी से मान लेंगे कि मीडिया के लोग भी गलतियां करते हैं और वो जो कुछ भी दिखाते हैं, सौ फीसदी सच नहीं होता। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-20 Size: 8416 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080630/f77232ff/attachment-0001.bin From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jun 30 16:23:16 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Mon, 30 Jun 2008 16:23:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWLIOCktg==?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSm?= Message-ID: <196167b80806300353p4ee82ba6p23e6303fb57e7f10@mail.gmail.com> आज खबर नहीं है, किसी समाज की तरक्की, किसी शहर का अमन, किसी मासूम चेहरे की हँसी, किसी बेरोजगार स्त्री का किसी भी कस्टिंग काउच से साफ़ बच निकलना खबर नहीं है। खबर है हत्या, लूट, घोटाले, बेईमनी और बलात्कार, रविना, उर्मिला करीना के गॉशिप्स, युवतियों के शरीर पर कम होते कपडे, खबर है, होटल में करते व्यभिचार दो गए पकडे। भाईजानमेहरबान, कद्रदान, यह युग खबरों का नहीं है, यह युग है सनसनी का, यह युग समाचार का नहीं है, यह युग है टी आर पी का। मतलब साफ है स्पष्ट है, बाजार में समाचार नहीं बिकता सनसनी बिकती है। -आशीष कुमार 'अंशु' From rakeshjee at gmail.com Mon Jun 30 17:48:47 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Mon, 30 Jun 2008 17:48:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSI4KSG4KSI?= =?utf-8?b?4KSf4KWAIOCkleClhyDgpLjgpILgpJjgpLDgpY3gpLcg4KSo4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KSX4KS+4KSv4KWAIOCkqOCljeCkr+CkvuCkryDgpJXgpYAg4KSJ?= =?utf-8?b?4KSu4KWN4KSu4KWA4KSm?= Message-ID: <292550dd0806300518u33862f3ck5bb9991296991b02@mail.gmail.com> दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि IIT Delhi ने इस महीने की शुरुआत में 28 छात्रों को यह कहक र संस्थान छोड़ने का नोटिस जारी किया कि उनका प्रदर्शन संस्था की साख से मेल नहीं खाती. बेहतर है कि समय रहते वे संस्थान छोड़ दें. जब तक यह बात जनता में आयी तब तक घटनाक्रम की एक परत और खुली और पता चला कि IIT, Delhi से निष्कासित किए गए छात्रों में अस्सी फ़ीसदी तो दलित हैं और शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों से हैं. पीडि़त छात्रों का एक समूह केंद्रिय अनुसूचित/जनजाति आयोग का दरवाज़ा भी खटखटाया था, जिसके बाद आयोग ने आईआईटी प्रशासन से जवाब-तलब किया था और सुनवाई की अगली तारीख़ पर विस्तृत रपट पेश करने को कहा था. 22 जून को नयी दिल्ली में इनसाइट फ़ाउन्डेशन द्वारा बुलाई गयी एक बैठक में आईआईटी, दिल्ली के वैसे कुछ छात्रों ने संस्थान में दलित और पिछड़े तबक़े के छात्रों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया था जिन्हें संस्‍थान ने कैंपस छोड़ देने का नोटिस दे चुकी है. तत्काल कैंपस न छोड़ने की स्थिति में उनसे 150 रुपए रोज वसूला जा रहा है . उन्होंने बताया कि उनकी जाति जानने के बाद शिक्षकों के तेवर अचानक कैसे बदल जाते हैं. अचानक कैसे शिक्षकों को यह लगने लगता है कि आरक्षण के सहारे आये इन मुट्ठी भर छात्रों के कारण इस प्रतिष्ठित संस्थान की साख में बट्ठा लग जाएगा. बस जाति खुल जाने की देरी है, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के तरीक़े इज़ाद करने में तो माहिर ही हैं अध्यापक और प्रशासन के लोग. और तो और हॉस्टल और मेस में काम करने वाले कर्मचारी भी पीछे नहीं रह जाते हैं दलित छात्रों को अपनी औकात का एहसास कराने में. ताज़ा घटनाक्रम के बारे में छात्रों का कहना था कि शिक्षकों द्वारा ख़ास तौर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को छात्रों को निशाना बनाने की यह कोई पहली घटना नहीं है. हर साल 3-4 बच्चों को कोई न कोई बहाना बनाकर संस्थान से निकाला जाता रहा है. इस बार मामला इसलिए बड़ा बन गया कि क्योंकि निष्कासित किए जाने वाले छात्रों की संख्या ज़्यादा थी. और ये छात्र फ़र्स्ट इयर से लेकर फ़ाइनल इयर तक के थे. छां त्रों ने ये बताया कि वहां कोई निश्चित परीक्षा प्रणाली नहीं है और न ही परीक्षा में पास होने के लिए कोई निर्धारित अंक. ऐसे में जम कर मनमानी करते हैं वहां के शिक्षक. एक छात्र ने बताया कि जब भी छात्रों ने हॉस्टल में अंबेडकर जयंती मनाने की कोशिश की, प्रशासन ने नाकाम कर दिया. आईआईटी, दिल्ली के एससी/एसटी इम्प्लॉयज वेलफ़ेयर एसोसिएशन के महासचिव नरेंद्र भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, ''स्टूडेंट्स को छोडिये, ऐडमिनिस्ट्रेशन हमें नहीं मनाने देता था अंबेडकर जयंती यहां पर. पिछले दो-तीन सालों ने हमने लड़-झगड़ कर बाबा साहब की जयंती पर कार्यक्रम करना शुरू किया है.'' 26 जून 200 को सफ़र , एनसीडीएचआर, नैक्डोर , इनसाइट फ़ाउण्‍डेशन, JNUSU के संयुक्त तत्वाधान में JUSTICE FOR IIT STUDENTS के बैनर तले छात्रों तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने आईआईटी ने विरोध प्रदर्शन किया. 26 जून का वो विरोध प्रदर्शन भारत के छात्र आंदोलन और दलित आंदोलन के लिए एक महत्तवपूर्ण तारीख़ बन गया. दुनिया में श्रेष्ठ इंजि‍नीयर पैदा करने का दावा करने वाले इस संस्थान के 40 साल के इतिहास में 26 जून को किया गया विरोध-प्रदर्शन अब तक वहां किया गया किसी भी तरह का पहला प्रदर्शन था. इसने प्रशासन के होश ठिकाने लगा दिए. छात्रों के भविष्य के साथ किए जा रहे खिलवाड़ का जवाब मांगने जब प्रदर्शनकारी आईआईटी कैंपस में पहुंचे तो उनकी तो हवा ख़राब हो गयी. पूरा प्रशासन हरकत में आ गया. थोड़ी देर में ऐडमिनि‍स्ट्रेटिव ब्लॉक पुलिस छावनी में तब्दील हो गया. महिला प्रदर्शनकारियों पर भी डंडा बरसाने की कोशिश की गयी और ये काम पुरुष सिपाही ही कर रहे थे. प्रदर्शनकारियों ने जब छात्रों के निष्कासन का कारण पूछना शुरू किये तो स्टूडेंट वेलफेय र एस आर काले और डिप्टी डायरेक्टर एच सी गुप्ता की हालत ख़राब हो गयी, उनके जबान लड़खलड़ानें लगे. अ....आ.... के आगे बढ़ नहीं पाए. कक्षाओं और परीक्षाओं के इतर आईआईटी की रोज़मर्रा में छात्रों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में जब उनसे पूछा गया तो एक बार फिर उनकी घिघ्‍घी बंध गयी. बार-बार वे ये ही कहते रहे कि कमेटी बना दी गयी है, कमेटी का जो निर्णय होगा उसका वे पालन करेंगे. प्रदर्शनकारियों ने कहा कि जो कमेटी गठित की गयी है वो छात्रों को अमान्य है, उसमें उत्पीड़कों के नुमांइदे ही हैं. प्रदर्शनकारियों ने मांग की जो भी कमेटी गठित की गयी है उसे तत्काल भंग किया जाए और नयी कमेटी गठित की जाए और उसमें निष्पक्ष लोगों को शामिल किया जाए. प्रदर्शनकारियों ने इसके लिए आईआईटी प्रशासन को 5 दिन का समय दिया. बहरहाल, दलित और पिछड़े तबके के छात्रों के इस निष्कासन और उसके बाद राजधानी में शुरू हुए हलचल से यह तो स्पष्ट हो गया है कि उच्च शिक्षा का यह प्रतिष्ठित संस्थान मनुवादियों का बहुत बड़ा अखाड़ा है जहां ये मेरिट के नाम पर समाज के दबे-कुचले तबक़े से आने वाले छात्रों के भविष्य के साथ खुलकर खेला जाता है. पर छात्रों ने जिस तरह इन मनुवादियों के खिलाफ़ मोर्चा खोला है, निश्चित ही भारतीय समाज पर उसका दूरगामी असर पड़ेगा. -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080630/2436b0d6/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Mon Jun 30 20:53:28 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 30 Jun 2008 10:23:28 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <3207180.813251214839408805.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// इहै हउवै भइया अमवसा का मेला Posted: 30 Jun 2008 06:39 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/322964543/blog-post_344.html पिछले साल जुलाई में हमने कैलाश गौतम की एक कविता पढ़ी और पढ़वायी थी। तब उनसे जुड़ी कुछ यादों का ज़‍िक्र भी किया था। रांची के उसी कवि सम्‍मेलन में उन्‍होंने अमवसा का मेला सुनाया था। ऐसा धाराप्रवाह और लय से भरा हुआ पाठ कि आधी रात को लोग उसके तरंग में बहते चले गये। करमा में नाचने वाले और संताली से लेकर मैथिली-भोजपुरी बोलने वाले एक झारखंडी शहर में अवधी का नशा एक अविस्‍मरणीय अनुभव था। पिछले दिनों क‍थादेश के संपादक हरिनारायण जी के यहां अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ, यूपी की ओर से छपी एक बेडौल किताब में कैलाश गौतम की बहुत सारी कविताएं मिल गयीं। उनमें अमवसा का मेला भी था। बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद ने बताया कि अमवसा का मेला लखनऊ आकाशवाणी से अक्‍सर प्रसारित होती है। लोगों के पोस्‍टकार्ड उसके प्रसारण के लिए आते हैं। मैं बीच बहस में ये कविता सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। वैसे भी अज़दकी बिलाड़ों का समूह ऐसी बहसों पर खाऊं खाऊं रहता है और भाषा में नकली छौंक से चमत्‍कार करने की कोशिश करता रहता है। ये कविता उन्‍हें असल देशज रोशनी दिखाएगी।ई भक्‍ती के रंग में रंगल गांव देखा धरम में करम में सनल गांव देखा अगल में बगल में सगल गांव देखा अमवसा नहाये चलल गांव देखा एहू हाथे झोरा ओहू हाथे झोरा अ कान्‍ही पर बोरी कपारे पर बोरा अ कमरी में केहू रजाई में केहू अ कथरी में केहू दुलाई में केहू अ आजी रंगावत हई गोड़ देखा हंसत हउवै बब्‍बा तनी जोड़ देखा घुघटवै से पूछे पतोहिया कि अइया गठरिया में अबका रखाई बतइहा एहर हउवै लुग्‍गा हौ मडुआ क ढूंढ़ी ऊ चाउर अ चिउरा किनारे की ओरी अ नयका चपलवा अंचारे की ओरी अमवसा का मेला अमवसा का मेला। इहै हउवै भइया अमवसा का मेला।। मचल हउवै हल्‍ला चढ़ावा उतारा खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा एहर गुर्री गुर्रा ओहर लोली लोला अ बिच्‍चे में हउवै शराफत से बोला चंपायल हौ केहू दबायल हौ केहू अ घंटन से उप्‍पर टंगायल हौ केहू केहू हक्‍का बक्‍का केहू लाल पीयर केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर अ बप्‍पारे बप्‍पा अ दइया रे दइया तनी हमैं आगे बढ़े देता भइया मगर केहू दर से टसकले न टसकै टसकले के टसकै मसकले न मसकै छिड़ल हौ हिताई नताई क चरचा पढ़ाई लिखाई कमाई क चरचा दरोगा के बदली करावत हौ केहू अ लग्‍गी से पानी पियावत हौ केहू अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा क मेला।। जेहर देखा ओहरैं बढ़त हउवै मेला अ सरगे क सीढ़ी चढ़त हउवै मेला बड़ी हउवै सांसत न कहले कहाला मूड़ै मूड़ सगरो न गिनले गिनाला एही भीड़ में संत गिरहस्‍त देखा सबै अपने अपने में ही व्‍यस्‍त देखा अ टाई में केहू त टोपी में केहू अ झूंसी में केहू अलोपी में केहू अखाड़न क संगत अ रंगत ई देखा बिछल हौ हजारन क पंगत ई देखा कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ कहीं गोष्‍ठी हौ कहीं पर भजन हौ केहू बु‍ढ़‍िया माई के कोरा उठावै अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै कलपवास में घर क चिंता लगल हौ कटल धान खरिहाने वइसै परल हौ अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा का मेला।। गुलब्‍बन क दुलहिन चलैं धीरे-धीरे भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे सजल देह जइसे हौ गौने के डोली हंसी सौ बताशा शहद हउवै बोली अ देखलीऊ ठोकर बचावैंली धक्‍का मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्‍का फुटेहरा नियर मुसकिया मुसकिया के निहारैली मेला सिहा के चिहा के सबै देवी देवता मनावत चलैंली अ नरियर पर नरियर चढ़ावत चलैंली किनारे से देखैं इशारे से बोलैं कहीं गांठ जोड़ै कहीं गांठ खोलैं बड़े मन से मंदिर में दरसन करैंलीं अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैंलीं चढ़ावै चढ़ावा अ गोंठैं शिवाला छुवल चाहैं पिंडी लटक नाहीं जाला अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा क मेला।। बहुत दिन पर चंपा चमेली भेंटइलीं अ बचपन के दूनो सहेली भेंटइली ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं असों का बनवलू असों का गढ़वलू तू जीजा क फोटो न अब तक पठवलू न ई उन्‍हैं रोकैं न ऊ इन्‍हैं टोकैं दूनों अपने दुलहा क तारीफ झोंकैं हमैं अपने सासू के पुतरी तू जान्‍या अ हम्‍मैं ससुर जी की पगरी तू जान्‍या शहरियों में पक्‍की देहतियों में पक्‍की चलत हउवै टेंपो चलत हउवै चक्‍की मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनो भयल तू तू मैं मैं लड़ैं लगली दूनो अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावैं अ हलवाई जइसे कराही छोड़ावैं अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा क मेला।। कलौता के माई के झोरा हेरायल अ बुद्धू क बड़का कटोरा हेरायल टिकुलिया क माइ टिकुलिया के जोहै बिजुलिया क माई बिजुलिया के जोहै मचल हउवै मेला में सगरो ढुंढ़ाई चमेला के बाबू चमेला के माई गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले अ छोटकी बिटिउवा के मारत चलैले बिटिवइ पे गुस्‍सा उतारत चलैले गोबरधन क सरहज किनारे भेंटइली गोबरधन के संगे पउंड़ के नहइली घरे चलता पाहुन दही गुड़ खियाइत भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत उहैं फेंक गठरी परइलैं गोबरधन न फिर फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा क मेला।। केहू शाल सूटर दुशाला मोलावै केहू बस अटैची क ताला मोलावै केहू चायदानी पियाला मोलावै सोठउरा क केहू मसाला मोलावै नुमाइस में जातै बदल गइलीं भउजी अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी हिंडोला जब आयल मचल गइलीं भउजी अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी अ भइया बेचारू जोड़त हउवैं खरचा भुलइले न भूलै पकउड़ी क मरचा बिहाने कचहरी कचहरी क चिंता बहिनियां के गौना मसहरी क चिंता फटल हउवैं कुरता टुटल हउवै जूता खलित्ता म खाली केराया क बूता तबै पीछे पीछे चलत जात हउवन गदोरी में सुरती मलत जात हउवन अमवसा क मेला अमवसा क मेला। इहै हउवै भइया अमवसा क मेला।। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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