From avinashonly at gmail.com Tue Jul 1 21:08:46 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 1 Jul 2008 10:38:46 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <25961446.983771214926726186.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// सृष्टि से पहले सत नहीं था Posted: 01 Jul 2008 01:55 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/323834831/blog-post.html काफी दिनों से इसका इंतज़ार था, जिसकी सूचना आज इरफ़ान ने दी है। भारत एक खोज हम सबकी बचपन का एक प्रसंग रहा है। हालांकि उन दिनों हमारे घर में टीवी नहीं हुआ करता था, लेकिन तब पड़ोस का दरवाज़ा आज की तरह संकोच के साथ नहीं खुलता था। यही कोई बीस साल पहले की बात है - सृष्टि से पहले सत नहीं था, हमारे कानों में मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अजानों की तरह गूंजता रहता था। दूरदर्शन और भारत में डाक्‍यु-ड्रामा के इतिहास की वह पहली घटना थी, जो अब शायद ही फिर से घटित हो। इतने सालों बाद दूरदर्शन के आर्काइव ने भारत एक खोज की डीवीडी जारी की है। लेकिन उसकी क़ीमत बीस हज़ार रुपये है। इरफ़ान डीवीडी हासिल करने के लिए ddarchives at dd.nic.in या 011-23421271 पर बात करने की सलाह देते हैं, पर सवाल ये है कि एकमुश्‍त बीस हज़ार रुपये का इंतज़ाम कैसे हो। बाद में देखेंगे, अभी यू ट्यूब का जुगाड़ है। जल्‍दी ही सारे एपिसोड उपलब्‍ध हो जाएंगे - अभी जितना है, उतने का ही आनंद लीजिए।The Discovery of India भारत एक खोज بھارت ایک کھوج साल: 1988, दूरदर्शन पर प्रसारित, निर्देशक : श्‍याम बेनेगल पंडित जवाहरलाल नेहरु की किताब पर आधारित सितारे : रोशन सेठ (जवाहरलाल नेहरु), टॉम अल्‍टर, सदाशिव अमरापुरकर, सलीम घोष, नीना गुप्‍ता, अशोक कुमार, ओमपुरी, चंद्रकांत ठक्‍कर... START Track पहला अध्‍याय : भारत माता की जय एक दो तीन चार दूसरा अध्‍याय : आगाज़ एक दो तीन चार पांच तीसरा अध्‍याय : वैदिक लोग और ऋग्‍वेद एक दो तीन चार पांच छह चौथा अध्‍याय : जाति का आगमन एक दो तीन चार पांच पांचवां अध्‍याय : महाभारत एक दो तीन चार पांच छह सात आठ नौ दस ग्‍यारह बारह सातवां अध्‍याय : रामायण एक दो तीन चार पांच नौवां अध्‍याय : रिपब्लिक्‍स और किंगडम्स‍ एक दो तीन चार -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080701/bff2f16e/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Jul 2 12:06:16 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Wed, 2 Jul 2008 12:06:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWM4KSoIOCkuOClgCDgpLjgpKbgpYAg4KS54KWIIC4uLi4=?= Message-ID: <196167b80807012336p73b69386i19a3f2414b08ce83@mail.gmail.com> कल ">/विस्फ़ोट के मोडरेटर संजय तिवारी जी और स्वतंत्र पत्रकार कुमार विजय के साथ बैठने का मौका मिला। विस्फोट के दफ्तर में ही। आदतन वहाँ अपने ब्लॉग (www.ashishanshu.blogspot.com) पर चला गया। मेरे एक पोस्ट 'हम हम भूईहार हैं" (26 जून 2008 को डाली गई पोस्ट) पर एक लम्बी टिप्पणी थी। पढ़कर अन्नंद आया। क्योंकि किसी ने मेरे पोस्ट पर पहली बार मुंह तोड़ जवाब (टिप्पणी पढ़े ) भेजा था। मेरे जबड़े इसलिए बच गए क्योंकि जहाँ निशाना साधा गया था, वहाँ मैं था ही नहीं। खैर आज पोस्ट में उनकी (Chiranjiv ) और अपनी बात, साथ में कुछ टिप्पणियाँ भी । Chiranjiv की बात - बच्चा का तो मालुम नहीं लेकिन बडो को कौन सिखाता है कि तुम अपनी जाती वालॊ के साथ ही रहो। अब देखो ना तुम मैथिल ब्राह्मिन हो तो ओर्कुट मे मैथिल ब्राह्मिण कि कमुनीटी ज्वाइन कर रखे हो. http://www.orkut.co.in/ProfileC.aspx?uid=13449057633332419340&ct=&tab=0&pno=3 ये तुम्हारा हि प्रोफाइल है ना? शरम नही आती है इस तरह का लेख लिखते हुए जब खुद मैथिल ब्राह्मिण के नाम पर जाती वादी करते हो. तुम्हारि भुमिहार से दुश्मनी है तो ढंग से करो. अपने घर के बच्चो का फोटो लगा कर ब्लोग मे वाहवाही लुटना चाह रहे हो? ऐसे लेख पर कुकुर भी मुतने नहिं आया. दु गो महिला लोग आयिं जिन्हे तुम्हारी जाती का रुप मालुम नहीं था.मैं खुद मैथिल ब्राह्मिण हुं और मुझे मालुम है मैथिल ब्राह्मिण किस हद तक जातियता करतें हैं. आज भी मैथिल ब्राह्मिण अछुतो का छुआ नहीं खाते. गावॊं मे उनका घर और अछुतो का घर अलग होता है. गांव मे जिस तरफ से मैथिल ब्राह्मिण निकलते हैं उधर से अछुत नहीं निकलते. अछुतो का गावं मे निकास दुसरे तरफ से होता है. ये जो लेख तुमने लिखी है उसके लिये तुम्हे अरवल जाने कि जरुरत नहीं थी. किसी भी मैथिल ब्राह्मिण (या खुद के गांव) मे चला जाता वहां ऐसा द्रिश्य (जैसा कि तुमने इस काल्पनिक कहानी मे लिखि है) मिल जाती. इसका टाइटिल रख लो "मैं मैथिल ब्राह्मीण छी"।वैसे इस फोटो मे बच्चे खेल साथ मे रहे हैं. तुम्हारे ओर्कुट प्रोफाइल मे ज्यादातर लोग ब्राह्मिण हैं. ऐसा क्यों. कोइ दलित नहीं दिखाइ दिया. अगर दम है तो लिखो मैथिल ब्राह्मिण के बारे मे. हम मैथिल हैं. आज भी अगर हम गावं से गुजरते हैं और दलित खटिया पर से नहीं उठते तो डंडा से पिटाइ करते हैं. आज भी दलित जो मेरे उम्र से दुगने तिगुने हैं वो हाथ जोर कर प्रणाम करते हैं और हम खुश रहो का अशिर्वाद देते हुए आगे बढ जातें हैं. ऐसा हर मैथिल ब्राह्मिण के गावं मे होता है.ये सब जानते हुए तुमने भुमिहार का सहारा कि क्यों जरुरत पर गयी? क्या तुम इतने नपुंसक और कमजोर हो की अपनी जाती के अन्दर कि बात लिखने मे डर हो गयी? ऐसे कमजोर इन्सान जिन्दगी मे कुछ नहीं कर सकता है.तुम इस तरह का लेख लिख कर क्या साबित करना चाह रहे हो? कमुनिटि के नाम पर बेतिया, चम्पारण, मैथिल ब्राह्मिण जवाइन कर रखे हो. इसि से तुम्हारी मानसिकता झलकती है. बहुत कमुनिटि है बिहार, इन्डिया, नो जाती से सम्बन्धित वो पसंद नहिं है? मेरी बात - आप मेरे ब्लॉग पर आए आभार। तीखी प्रतिक्रया दी अच्छा लगा। और जो कुछ भी लिखा बेनाम बनकर नहीं लिखा। (यह और बात है कि जब आपका पोस्ट पढ़ने की कोशीश की तो तकनीकी गडबडी के कारण असफल रहा)। अपने नाम के साथ लिखा। यह और भी अच्छा लगा। आप यह सब लिखने से पहले एक बार मुझसे मिल लेते, तो उसके बाद आप जो कुछ भी लिखते वह आपका अनुभव होता। अभी आपने जो कुछ भी लिखा है, वह सिर्फ़ आपका अनुमान है। दोस्त यह बात तो आप भी मानेगे कि अनुमान की तुलना में अनुभव से लिखी हुई बात थोडी अधीक विश्वसनीय होती है। यह तो अच्छा हुआ कि मैंने अपने पोस्ट में यह नहीं लिखा कि मंझीयामा से जब मुझे जहानाबाद आने के लिए बस नहीं मिल रही थी, उस वक़्त जिस उमेश शर्मा जी ने मुझे आश्रय दिया, रात में खाना खिलाया, रात में अपने घर में रखने का प्रबंध किया। वह भूमिहार ही थे। वरना हो सकता था, आप मुझे 'नमक हराम' भी कह देते। अगले दिन जहानाबाद के करौना हॉल्ट के पास जिन लालन दास जी के साथ दिन का खाना खाया वह समाज की नजर में दलित ही थे। यदि आप अपने अनुभव से ब्रामणो के ख़िलाफ़ कोई लेख लिखकर भेजें तो मैं उसे अपने ब्लॉग पर स्थान देने का विश्वास दिलाता हूँ। यदि आप मुझे अपने कुछ दलित और भूमिहार मित्रों से मिलवाएं तो खुशी होगी। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि मैं 'ब्राहमणवादी' नहीं हूँ। आप चाहे तो मुझे फ़ोन कर सकते हैं - ०९८६८४१९४५३ अंत सिर्फ़ इतना ही कि मेरे बारे में कोई राय ना कायम करना । कुछ टिप्पणियाँ MEDIA SCAN - http://ashishanshu.blogspot.com/2008/06/blog-post_25.html हम भूईहार हैं अमित पुरोहित- राय तो कायम कर ली है, बस पूछो मत। Vijay Kumar - main ak maithil brahman hun is parichay ke bad yah kahna ki maithil brahman ke gaon me aaj bhee daliton ke sath atyachar hota hai mere mitra ka ak sahsik aur sundar kadam hai.. magar aaj bhee yadi mithilanchal me koi aisee jagah hai jahan dalito aur brahmano ke liye alag alag rasat hai gaon se nikalne ka. yadi aaj bhee marg me aane par khatiya me pade dalit yadi brahmano ka abhivadan na kare to brahaman uskee chhadee se pitaee kar de agar aaj bhee uska chua ann aur jal brahman grahan na kare aisa koi gaon hai to wah aadhunik yug ka vichitra teerth sthal hai.jiska bhraman karna ham sabka naitik dayitva hai aur agar moksh pana hai to wahan khud ko samarpiy bhee karna hoga .. samajik sakriyata ke jariye.... jati ko aadhar banakar anek prakar ke lekh likhe jate rahae hain jisme aksr ulool julool baten hee hotee hai.. aur anvashyak pralap bhee .. jaitya aakosh ka adbhut namuna is blogg par dekhne ko mil raha hai pratikriya ke roop me... aur aisa namoona dikhakar aadmi ak namoona matra sidh ho pata hai... ray kayam karne kee desh me swatantrata to hai magar uskee apnee ak maryada bhee hai.. chahe wah vyakti ke bare me , sanstha ke bare me ho ya patrakar ke bare me ...khair main pratikriyaon se bachta firta hun magar mujhe maloom hai yah yug action ka nahee reaction ka yug hai aur yug to apne hisab se hee chalega .. Nilambuj Singh - chirajeev ki tippani me dum hai saathi. tum bachav ki mudra me dikh rahe ho! Jitandra - yaa its unfortunate to read that still such things happening in 21st century if it is true what Chiranjiv has written.Somehow I try to understand which Chiranjiv tries to mention that these things are there in all castes. It is generic. I appreciate the guts of Chiranjiv who raise the voice against his own caste. I am visualizing the few lines of a great poet कस्तुरी मॄग नाभी बसे, ढुन्ढे जग माही. From vineetdu at gmail.com Wed Jul 2 15:41:55 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 2 Jul 2008 15:41:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSw4KWB?= =?utf-8?b?IOCkqOCkueClgOCkgiDgpLjgpL/gpLDgpY3gpKsg4KSy4KS1IOCkmg==?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSP?= Message-ID: <829019b0807020311h487a62d3h1c979b602d055da6@mail.gmail.com> वो रेडियो जॉकी है, लवगुरु है। प्रेम और अफेयर में फंसे लोगों को राहत पहुंचाने का काम करता है। उन्हें बताता है कि मुश्किल दिनों में क्या करे, उलझन से उबरने के लिए क्या करे। लेकिन आज यही लवगुरु परेशानी में है। पिछले एक महीने से वो इतना परेशान है कि अंत में उसे पुलिस की शरण लेनी पड़ गयी। वो अब उन सब चीजों से बचना चाहता है जिसे की प्रोफेशन के दौरान जीता रहा। ये रेडियो जॉकी है बिग 92.7 एफएम का अनिरुद्ध एलएलबी। इसकी परेशानी है कि इसके पीछे पिछले एक महीने से एक लेडी डॉक्टर लिस्नर पड़ी है। वो दिनभर उसे फोन करती है, एसएमएस करती है और उसका जीना हराम कर दिया है। शुरुआत में तो इस लवगुरु ने उसे बहुत समझाया कि आप ऐसा न करें लेकिन इस बात का कोई भी असर उस डॉक्टर पर नहीं हुआ। उस लिस्नर ने इस लवगुरु का जीना हराम कर दिया और अंत में उसे पुलिस की शरण लेनी पड़ गयी। बात ये हुई कि लवगुरु पिछले एक महीने से किसी दूसरे काम में फंसे हुए हैं। ऑफिस से उन्होंने छुट्टी ले रखी है। इसलिए इस बीच उनके फैन्स उन्हें बेसब्री से खोजते-फिर रहे हैं। उनके बारे में जानना चाह रहे हैं। कई लोग तो खोजते-खोजते ऑफिस तक आ गए जिसमें ये डॉक्टर लिस्नर भी हैं। लवगुरु ने बताया कि मीडिया के किसी भी व्यक्ति का नं लेना मुश्किल नहीं होता सो अंत में उसे भी मेरा नंबर मिल गया और उसके बाद तो.......। लवगुरु के लाख समझाने के बाद इस लिस्नर का एक ही जबाब है- मुझे गुरु नहीं लव चाहिए। मीडिया जब अच्छी-खासी भाषा को, लोकप्रय मुहावरों को तोड़ती-मरोड़ती है तब हम नाराज होते हैं। शब्दों के भीतर नए अर्थ भरे जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं लेकिन मीडिया की इसी नयी भाषा के साथ जब ऑडिएंस जीना शुरु कर देते हैं, उसे अपने फायदे के हिसाब से तोडते और समझते हैं तो एक नया सौंदर्य पैदा होता है।ऑडिएंस को परेशानी नहीं होती, कम्फर्ट फील होता है कि चलो हमने मीडिया के हिसाब से भाषा का प्रयोग करना सीख लिया। लेकिन मीडिया की अपनी ही इस भाषा से एलएलबी जैसे जॉकी को परेशानी होने लगती है। एलएलबी एक सीरियस शब्द है। आज भी अगर आप कहें कि वो एलएलबी कर रहा है तो उससे एक गंभीर और पढ़ाकू किस्म के इंसान की छवि बनती है। इस लवगुरु ने इस शब्द के अर्थ को रिप्लेस कर दिया और ये शब्द जितना ही गंभीर था उसे उतना ही कैजुअल और फंकी बना दिया। अब एलएलबी का मतलब है- लव, लड़कियां और बॉलीवुड। इन तीनों शब्दों के संदर्भ को अगर समझे तो मतलब साफ है कि सिर्फ मस्ती की बातें होंगी और जिन चीजों से मस्ती में रुकावटें आती हैं, उनकी बाते होगी। कानून पढ़नेवाले लोग कह सकते हैं कि मेरे प्रोफेशन के शब्द का कबाड़ा कर दिया। चाहें तो मान-हानि का भी दावा कर सकते हैं लेकिन यहां तो यही अर्थ है। इसके साथ ही गुरु शब्द भी अपने आप में गंभीर अर्थ रखता है। गुरु का एक अर्थ गंभीर भी है। लेकिन एफएम के सारे चैनलों पर लवगुरु या डॉक्टर लव मौजूद हैं। क्योंकि जब रिश्ते बन जाएं वहम तो जरुरत है डॉक्टर लव की। पॉपुलर मीडिया में कौन से शब्दों का प्रयोग कहां होगा,यह तय कर पाना मुश्किल है। हां अगर पॉपुलर कल्चर के मिजाज को समझ रहे हैं तब आपको इस बात का ज्ञान होने लग जाएगा कि किस शब्द का प्रयोग माध्यम को पॉपुलर बनाने के लिए किया जा सकता है। अब देखिए न, एमएमएस बोलते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं। हमें लगने लगता है कि जरुर कोई देशी पोर्न हाथ लगनेवाली है। हम इस पर अतिरिक्त एटेंशन देते हैं। इसलिए जब रितु बेरी एमएमएस सुनते हैं तो सबकुछ छोड़-छाड़कर उधर खींच जाते हैं। बाद में जब पता चलता है कि यहां एमएमएस का मतलब महा,महासेल है तो ठगे जाते हैं. अच्छी-खासी डिस्कांउट की बात जानने पर भी हमें लगता है कि हम झले गए हैं। शुरुआत में अगर हम इस तरह के शब्दों को सुनते हैं और पॉपुलर माध्यम के जरिए उसका अर्थ पाते हैं तो हमें लगता है कि हम उसमें छले गए हैं, हमारे साथ धोखा हुआ है। एक तपका इस बात का विरोध करने लग जाता है कि ऐसे कैसे शब्दों के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है. लेकिन, इसके साथ ही एक बड़ी सच्चाई है कि एक तपका तेजी से पनप रहा है जो सबकुछ में एडजस्ट कर लेता है। औऱ न सिर्फ एडजस्ट कर लेता है बल्कि उसी के हिसाब से भाषा-प्रयोग और अर्थ ग्रहण करने लग जाता है जिसे कि हम मास सोसाइटी कहते हैं। डॉक्टर लिस्नर भी उसी मास सोसाइटी से आती है। लेकिन मजे की बात देखिए कि जब यही मास सोसाइटी मीडिया द्वारा बनाए या बिगाड़े गए शब्दों का इस्तेमाल करने लग जाती है, उसी के बताए टिप्स के अनुरुप जीना शुरु करती है तो मीडिया को कितनी परेशानी होने लग जाती है. फिलहाल एलएलबी ने अच्छी बात कही है वो है कि हालांकि उन्होंने राहत के लिए पुलिस का सहारा लिया है लेकिन वो नहीं चाहते कि उस लिस्नर पर कोई कारवाई हो। आखिर वो उसकी फैन है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-7418 Size: 10215 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080702/f23e9d8e/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Wed Jul 2 21:11:40 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 2 Jul 2008 10:41:40 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <17908345.890041215013300035.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// दुख की दुख से बात Posted: 02 Jul 2008 09:17 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/324880547/blog-post_3480.html अविनाश भाई, मेरा नाम पंकज प्रियदर्शी है। मैं बीबीसी हिंदी सेवा के लंदन ऑफ़िस में काम करता हूं। मोहल्ला का नियमित पाठक हूं। लेकिन आपसे पहली बार संपर्क करने का मौक़ा मिल रहा है। दरअसल मेरे मित्र अमीष श्रीवास्तव, वॉयस ऑफ़ अमेरिका में काम करते हैं। आईआईएमसी में वे मेरे सीनियर थे। आज मुझे उनका एक ईमेल मिला। मेल पढ़ कर काफ़ी दुख हुआ, क्योंकि पिछली 28 तारीख़ को उनकी माता जी का निधन हो गया। लेकिन उन्होंने ईमेल में जिस तरह घर से लगातार दूर होते बेटों की पीड़ी बयां की है, वो मर्मस्पर्शी है। सोचा आपसे बाटूं ताकि एक पत्रकार होने के नाते आप भी इसे महसूस करें... और हम सभी पत्रकार भी इसे समझें कि कैसे करियर और कमाई के चक्कर में हम अपने मां-बाप और अपने गांव से दूर होते जा रहे हैं। मौक़ा मिले और सटीक लगे तो इसे मोहल्ला में छापिएगा ताकि इस विषय पर भी एक सार्थक बहस हो सके। धन्यवाद।अमीष का ईमेल अगस्‍त 1995 - आईआईएमसी में पढ़ने घर से दिल्‍ली के लिए निकला। फिर नौकरी, तरक्‍की और अगला मुकाम हासिल करने के चक्‍कर में ऐसा उलझा कि बस सोचता ही रह गया कि इस बार घर जाकर मम्‍मी के पास तबीयत से (ज़्यादा दिन) रहना है। 13 साल हो गये ऐसे किसी अच्‍छे मौक़े के पीछे भागते। लेकिन अचानक एक दिन पता चला कि देर कर दी मैंने। 28 जून को मम्‍मी नहीं रहीं। 72 साल की उम्र में लगभग 30 साल अस्‍थमा रहा उन्‍हें और अंतिम दिनों में उनके लंग्‍स ने काम करना बंद कर दिया था। /////////////////////////////////////////// क्या संदीप खरवार को नौकरी मिलेगी? Posted: 02 Jul 2008 01:34 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/324623657/blog-post_02.html अविनाश जीपिछले कई दिनों से एस पी के बहाने हम सब पत्रकारिता में आई गिरावट का रोना रो रहे हैं। कुछ ज्यादा ही निराशा भर गई है। कुछ आश जगाने वाली पोस्ट भी डालिए भाई। जैसे कि कुछ लोगे ऐसे भी होंगे जो बिना लालच के, बिना टी आर की चिंता के अपना काम कर रहे होंगे। आख़िर रोज रोज रोते रहने का क्या मतलब है। जैसे कोई मजमा हो और हम साबित करने में लगे हों कि हम बड़े दुखी हैं। दुःख है तो उसका इलाज भी होगा। दर्द है तो दवा भी होगी। और नही है तो ढूंढी जाए सब के साझे से।पूर्णेंदु शुक्ल संदीप की तस्‍वीरये पत्र तब आया था, जब एसपी सिंह के बहाने हम आज के मीडिया पर कुछ बात कर रहे थे। मैंने थोड़े तंज के साथ जवाब दिया था कि ‘आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है, तो भेजिए... खुशी है कि आपके पास आज के मीडिया के वातावरण में आशा जगाने वाले स्रोत हैं...’ मंगलवार को उन्‍होंने संदीप खरवार की कहानी भेजी। इसकी शुरुआत उम्‍मीद से होती है, लेकिन फिलहाल इस उम्‍मीद में भी निराशा की सेंध लग चुकी है। सचमुच ये सवाल है कि क्‍या वैकल्पिक मीडिया एक गल्‍पकथा की तरह दिमाग़ में ही बनता है और ख़त्‍म हो जाता है? माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रसारण पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री लेने के बाद पूर्णेंदु फिलहाल सी-वोटर में काम कर रहे हैं, जो दरअसल पत्रकारिता नहीं है। संदीप खरवार की कहानी हमसे साझा करके उन्‍होंने आधुनिक मीडिया की विडंबना से जुड़ा एक और पन्‍ना खोला है।संदीप खरवार आजमगढ़ के रहनेवाले हैं। साल 2006 में संदीप ने इलाहाबाद से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। इनके ज़्यादातर सहपाठियों ने इलाहाबाद से दिल्ली की राह पकड़ ली, पर संदीप और उनके कुछ दूसरे दोस्तों ने नयी राह चुनी। इन चार दोस्तों ने मिल कर एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम मिशन 20-20 रखा गया। दिसम्बर 2006 में इस पत्रिका की पहली प्रति आयी। 12 पृष्ठों की यह पत्रिका मुख्य रूप से ग्रामीण शिक्षा पर केंद्रित थी। नौवीं से बारहवीं के छात्रों पर फोकस इस पत्रिका में उनके लिए वो सुझाव थे, जो उनके भविष्य को बेहतर बना सकते थे। ग्रामीण शिक्षा के अलावा सूचना का अधिकार विषय भी पत्रिका के कंटेंट में शामिल था। कुछ समय में ही पत्रिका की प्रसार संख्या 10 हज़ार को पार कर गयी। इस पत्रिका ने शुरुआत में कुछ विज्ञापन स्वीकार किये, पर बाद में पूरी तरह से इसे लोगों की व्यक्तिगत सहायता से चलाया जाने लगा। संदीप और उनके साथियों ने गांव-गांव जाकर कैंप भी लगाया। गांव वालों को शिक्षा और सूचना के अधिकार के प्रति जागरूक भी किया। पत्रिका का नाम भी मिशन 20-20 और उसमें काम करने वाले भी एक मिशन को लेकर के चल रहे थे। चकाचौंध भरे करियर से अलग। मिशन 20-20 आज भी निकलती है, पर संदीप उससे अलग हो गये हैं। कुछ दिनों पहले ही संदीप से मेरी मुलाकात हुई। दिल्ली नौकरी की तलाश में आये हैं। मैंने पूछा कि आपने पत्रिका क्यों छोड़ दी? संदीप ने बताया कि आपस में मतभेद होने शुरू हो गये। पत्रिका के मुख्य फाइनेंसर अब इसका इस्तेमाल अपने ख़ुद के लाभ के लिए करना चाहते हैं। संदीप ने इस पत्रिका को चलाने में अपने घर से भी लगभग दो लाख रुपये लगाये थे। पर उन्हें कोई मलाल नही है। वो अपने आदर्श से समझौता नही कर सके। इसलिए अपने हाथों से शुरू की गयी पत्रिका को छोड़ दिल्ली चले आये। संदीप से बात करते हुए मुझे उनके अन्दर की ऊर्जा साफ़ नज़र आयी। मुझे लगा कि पत्रकारिता का सही अर्थ संदीप समझ पाये। पर अब जबकि संदीप दिल्ली आये हैं, नौकरी की तलाश में - उनके सामने चुनौतियों की पथरीली डगर है। ऐसी जगह जहां २-4 पदों के लिए हजारों आवेदन आते हैं, काट छांट के घोषित अघोषित तरीके हैं - ऐसे में जबकि संदीप समझौता न कर पाने के कारण दिल्ली आए हैं, मैं संदीप के भविष्य को लेकर परेशान हूं। संदीप के जानने वाले ने दूरदर्शन में दो महीने की इंटर्नशिप कराने का वादा किया है और उसके बाद शायद नौकरी भी...! /////////////////////////////////////////// खबरों का सिलसिला लगातार ज़ारी क्यों है? Posted: 01 Jul 2008 03:41 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/324216416/blog-post_01.html हिन्दी समाचार चैनलों के टीवी एंकरों की भाषा पर काफी बातें कही-सुनी जा चुकी हैं लेकिन वे नहीं सुधरे। गुणीजनों की निगाह नुक्तों और उच्चारण पर भी गयी हैं, लेकिन एक बात पर इनका भी ध्यान नहीं गया। बात एनडीटीवी, इंडिया टीवी, सहारा, आईबीएन 7 या इसी तरह के अन्य टीवी समाचार चैनलों की है। जिन चैनलों में कई दिनों से यह लाइन नहीं सुनी, पहले वे भी इसी रोग से ग्रस्त थे।बरसों से देखता-सुनता आ रहा हूं और आप भी देख-सुन रहे होंगे। अक्सर ब्रेक लेने से पहले एंकर यह पंक्ति उचारता है, "‘खबरों’ का सिलसिला लगातार ‘ज़ारी’ है।" औरों की तरह मैं भी यह मानता हूं कि हिंदी टीवी समाचार चैनलों में भाषा के बड़े-बड़े जानकार बैठे हैं लेकिन किसी का ध्यान इतने वर्षों में इस दारुण चूक पर नहीं गया। उपर्युक्त पंक्ति में तीन शब्द हैं - सिलसिला, लगातार और जारी। देखने की बात यह है कि इन तीनों शब्दों में एक ही भाव अंतर्निहित है और वह है ‘निरंतरता’। मतलब यह हुआ कि हम एक भाव और एक ही गतिविधि को तीन बार कहते जाते हैं। यह तो वही बात हो गयी जैसे कि कोई कहे- ‘मैं अभी वापस लौटता हूं।’ इसमें वापस होने में ही लौटने का भाव निहित है। इसीलिए वापस लौटने का प्रयोग बेजा हो जाता है। ठीक इसी प्रकार ख़बरों का सिलसिला जारी रहने का प्रयोग गलत है। इसमें 3 अलग-अलग वाक्य बनते हैं‌, 1) ख़बरों का सिलसिला बना रहेगा, 2) हम ख़बरें लगातार दिखाते रहेंगे और 3) ख़बरें जारी रहेंगी।अगर चैनल वाले चाहें तो इन 3 अलग-अलग पंक्तियों से 3 चैनलों का काम चल सकता है। मैं ये पंक्तियां उन्हें मुफ्त में देने को तैयार हूं। आप लोग क्या कहते हैं? -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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Posted: 03 Jul 2008 03:45 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/325533887/blog-post_03.html नुक्कड़ के पनवाड़ी की बात पर एक टिप्पणी मोहल्ले पर आयी है। समाचार चैनलों के कथ्य को लेकर चल रही बहस का ये एक नया प्रस्थान बिंदु हो सकता है। कहने का मतलब ये नहीं है कि ये चर्चा नहीं हो रही है। लेकिन ये मुद्दा इतना गंभीर दिखता है कि मीडिया के विद्यार्थी इस पर विस्तार से बहस कर सकते हैं। आप भी विचार कीजिए कि क्या ये टीवी में समाचार संकलन के अंत की शुरुआत है : दिलीप मंडल“रजत मॉडल की कामयाबी की पहली कैजुएल्टी हैं टेलीविजिन के रिपोर्टर और रिपोर्टिंग। ये यू ट्यूब और यहां-वहां से मिले फुटेज वाला खेल है। इसने रिपोर्टरों की छुट्टी कर दी है। वैसे, इंडिया टीवी में कुल कितने रिपोर्टर है और उनके नाम क्या हैं? सबसे पॉपुलर चैनल के एक भी रिपोर्टर का नाम या चेहरा याद क्यों नहीं आता।” -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080703/e86c6213/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Fri Jul 4 11:31:20 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 3 Jul 2008 23:01:20 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: [Indlinux-hindi] FUEL Hindi Evaluation Meet (12-13 July) Message-ID: <808510.19511.qm@web52906.mail.re2.yahoo.com> --- On Fri, 7/4/08, Guntupalli Karunakar wrote: From: Guntupalli Karunakar Subject: [Indlinux-hindi] FUEL Hindi Evaluation Meet (12-13 July) To: "IndLinux Hindi" Date: Friday, July 4, 2008, 12:22 AM Hi, A workshop on standardizing frequently used terminology is being organized in Pune next weekend. This will evaluate and discuss about 600 terms commonly used in Graphic User interfaces (esp menus, dialogs etc) in additional to Hindi Glossary work done in past. List of terms and completed work would be available online post workshop. More details below. Regards, Karunakar ======================== Fuel Hindi Evaluation Meet ------------------------ FUEL (Frequently Used Entries for Localization) aims at solving the Problem of Inconsistency and Lack of standardization in Computer Software Translation across the platform for all Indic Languages. It will try to provide a standardized and consistent look of computer for a language computer users. Fuel Hindi Evaluation Meet is a move to discuss the problem and come with the translation of an entries list created by choosing frequently used entries from important applications. Date: 12-13 July 2008 (10am - 6pm) Venue: Red Hat Software Services (India) Pvt. Ltd. 6th Floor, East Wing, Marisoft-III, Marigold premises Kalyani Nagar Pune - 411 014 Tel : +91 20 4005 7300 (Nearby Adlabs Gold in Kalyani Nagar.) Please be at venue around 9.30 AM. For Participants: If possible, please try to come with useful dictionaries and related items for the evaluation of words. Fuel Hindi Evaluation Meet Schedule ------------------------ Saturday, 12 July 2008 Day I: 10:00 -10:30 Meet and Greet 10:30 -11:00 FUEL - An Introduction 11:00 -11:30 Fuel Hindi : List of Entries - Discussions 11:30 -11:45 TEABREAK 11:45 -13:00 Fuel Hindi : Discussions (continued) 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:30 Fuel Hindi : Discussions (continued) 15:30 -15:45 TEABREAK 15:45 -17:00 Fuel Hindi : Discussions (continued) 17:00 -18:00 Deciding those Words that need more attention Sunday, 13 July 2008 Day II: 10:00 -11:30 Working on words that need attention 11:30 -11:45 TEABREAK 11:45 -13:00 Preparing final replacements for words need to be changed 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:45 Fuel Hindi : Final list Preparation 15:45 -16:00 TEABREAK 16:00 -17:30 Fuel Hindi : Final list Preparation and it's public availability 17:30 -18:00 Summary ================================= ------------------------------------------------------------------------- Sponsored by: SourceForge.net Community Choice Awards: VOTE NOW! Studies have shown that voting for your favorite open source project, along with a healthy diet, reduces your potential for chronic lameness and boredom. Vote Now at http://www.sourceforge.net/community/cca08 _______________________________________________ Indlinux-hindi mailing list Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080703/59dd6100/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jul 4 11:20:48 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Fri, 4 Jul 2008 11:20:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWA4KSkIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSwIOCkreClgCDgpLngpL7gpLAg4KSX4KSIIOCkruClgOCkqA==?= =?utf-8?b?4KWC?= Message-ID: <196167b80807032250u640d8a05kb8e4f1613308e0ec@mail.gmail.com> आज के दौर में जब हर तरफ़ इंडियन आयडल, लाफ्टर और अच्छे चेहरों की तलाश है। ऐसे में गरीब बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था 'चेतना' ने 'श्यामक डावर इन्स्टिट्यूट फार परफोर्मिंग आर्ट्स' के साथ मिलकर 'छूपे रुस्तम' नाम के कारनामे को अंजाम दिया। इन्होने छूपे रुस्तम कार्यक्रम के माध्यम से उन प्रतिभाशाली बच्चों को तलाशने का प्रयास किया जो झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। गलियों में आवारागर्दी करते हैं। या फ़िर किसी मालिक की दूकान पर काम करते हैं। भीख मांगते हैं या मजदूरी करते हैं। इस कार्यक्रम में २५ गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से लगभग ४०० बच्चों ने भाग लिया। इस कार्यक्रम में लड़कियों के ग्रुप में 'सोशल एक्शन फॉर ट्रेनिंग' की तरफ़ से आई मीनू को प्रथम स्थान मिला। वह अली गाँव के पास गौतम पूरी की झुग्गियों में रहती है। दूसरे के घरों में चूल्हे चौका का काम करती है। वह बड़ी होकर एक डांसर बनाना चाहती है। यह रिपोर्ट मैंने लगभग एक साल पहले मीनू के लिए लिखी थी। कल चेतना के संजय गुप्ता से बात हुई, तो मीनू का हाल पुछा उन्होंने बड़े बूझे हुए मन से कहा 'मीनू नहीं गई क्योंकि उसके परिवार वाले तैयार नहीं हुए। वह चाहते कि वह डांस में अपना कैरियर बनाए। ' 'क्यों? इसमें बुराई क्या है? ' मैं समझ नहीं पाया इतना अच्छा अवसर कोई कैसे छोड़ सकता है। संजय भाई का जवाब था, 'उन्होंने कहा लड़की है कहाँ जाएगी।' आज के समय में भी इस तरह की घटनाएं दिल्ली जैसे शहरों में हो रही है, क्या आपको कुछ कहना है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2637 Size: 4143 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080704/7b0c6793/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Fri Jul 4 13:45:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 4 Jul 2008 13:45:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KWH4KSc?= =?utf-8?b?4KS+IOCkruClh+CkgiDgpJjgpYHgpLjgpJXgpYcg4KSoIOCkrOCliw==?= =?utf-8?b?4KSy4KWHIOCksOClh+CkoeCkv+Ckr+CliyDgpJXgpL4g4KSG4KSm4KSu?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0807040115gcd56eb3p8ec7d30e3d33aed4@mail.gmail.com> *मीडिया में इन दिनों रियलिटी शो और रेडियो जॉकी को लेकर नए विचार बनने लगे हैं। अब तक ये दोनों जितना ही ह्यूमरस रहे हैं एक-दो घटनाओं को लेकर आलोचकों की नजर इस पर भी जाने लगी है। चैनल के लोग मार बड़े-बड़े एक्सपर्ट को बुलाकर विमर्श चला रहे हैं और ले-देकर अच्छा-बुरा के चक्कर में फंस जा रहे हैं. इन सबमें रेडियो जॉकी को लेकर मेरी मां की राय बड़ी स्पष्ट लगी, भले ही वो सौ फीसदी सही न हो और किसी चैनल में जाकर हांक न लगायी जा रही हो। संभव है देश की आम महिलाओं की राय भी कुछ इसी तरह की हो। * *शेयर कर रहा हूं आपसे- * ** करेजा में घुस-घुसकर ऐसे बोलेगा तो किसको नहीं सुहाएगा, कोई भी लड़की लट्टू हो जाएगी। बोलने वाला पगला है जो बोलता है कि- रंजनाजी आपके यहां पानी चला गया तो कोई बात नहीं, हम आकर भर देते हैं। उसको नहीं पता है कि इ जमाना में जहां से दू मीठा बोली मिल जाए, आदमी उसी का हो जाता है। रेडियो जॉकी पर मेरी मां की बेबाक टिप्पणी थी। तब मेरे उपर एफ एम का भूत सवार था। दिनभर में बीस-बीस घंटे लगातार एफ एम सुना करता और कई बार तो २४ घंटे लगातार और उसकी रिकार्डिंग करता। इसी बीच करीब सौ रिकार्डेड टेप लेकर घर चला गया। उन दिनों मैं गाने छोड़कर विज्ञापन गाता और जब-तब रेडियो जॉकी की नकल किया करता। जैसे ही मैं कहता-जब रिश्ते बन जाए वहम तो हाजिर है लवगुरु। मेरी मां कहती- इ तुम मउगा वाला भाषा-बोली कहां से सीख गए हो, एक रत्ती अच्छा नहीं लगता है। मउगा का मतलब होता है जो लड़की-औरतों के आसपास ही मंडराता रहता है। मां के हिसाब से उसकी पसंद बदल जाती है औऱ वो भी औरतों की तरह व्यवहार करने लग जाता है, उसकी भाषा-बोली बदल जाती है. इसी बीच मेरे बचपन का दोस्त श्रवण मिलता तो कहता-यार तुम्हारे बात-व्यवहार से लगता नहीं कि तुम दिल्ली में रिसर्च कर रहे हो, मुझे तो लगता है कि भडुआगिरी करने लग गए हो। मेरे इस तरह से रेडियो जॉकी की नकल करने पर लोग खुश होने की बजाए शक करने लगते कि पता नहीं दिल्ली में क्या कर रहा है। फिर मैंने मां को रिकार्डेड मटेरियल सुनाया और बताया कि मां पहले जैसे रेडियो पर अलाउन्सर होते थे न अब रेडियो जॉकी होने लगे हैं और देखो कितना जीवंत होकर बोलते है। लवगुरु का पूरा टेप सुनाया। मां ने लोगों के सवाल और लवगुरु के जबाब सुने। मां एकदम से भक्क थी। कहने लगी- बाप से, लड़की-लड़का जब जौरे-साथे रहता है उसका खिस्सा भी रेडियो पर भेज देता है। मां प्रेम औऱ अफेयर के लिए जौरे-साथे शब्द का प्रयोग करती है। इस शब्द में लिव इन का भी अर्थ अपने-आप ध्वनित हो जाता है। फिर मैंने रेडियो सिटी के प्रताप की टेप सुनायी। वो किसी लड़की से पानी चले जाने पर राय दे रहे थे। अबकी बार मां का अंदाज बिल्कुल बदल गया था। मां ने बिल्कुल ही बेलाग ढंग से कहा- कोई भी आदमी किसी लड़की से ऐसे करेजा में घुसकर बात करेगा तो लड़की उस आदमी के पगलाएगी नहीं तो क्या करेगी। चार दिन पहले फोन करके मैंने मां को बताया कि- मां रेडियो सुननेवाली एक लड़की सचमुच में एक जॉकी के पीछे पगला गई है और वो परेशान है। मां का सीधा जबाब था कि उसको बोलने के पहले नहीं सोचना चाहिए कि जवान-जुवान लड़की से एतना अपनापा से बात नहीं करे। इस उमर में लड़की को कौन आदमी खींच जाए कोई भरोसा है। उ तो रेडियोवाला के सोचना चाहिए न, लड़की का इसमें क्या कसूर है। उससे तो जो भी दू बोली मीठा से बोल दे, उससे जी जुड़ जाए। मैंने पूछा- तो तुम्हारे हिसाब से उस लड़की का कोई दोष नहीं है। मां ने कहा, नहीं. मैंने फिर कहा कि ये तो रेडियो है न, इसमें मीठा से नहीं बोले कोई तो फिर कौन सुनेगा, ये बात तो लड़की को समझना चाहिए न कि रेडियो की बात रेडियो तक रखे। रामायण शुरु होते ही अरुण गोविल को प्रणाम करनेलावी मां और जमशेदपुर आने पर कृष्ण बने नितीश भारद्वाज का पैर छूनेवाली मां ने सीधे-सीधे कहा कि- देखते-सुनते समय किसको होश रहता है कि इ टीवी के बात है कि रेडियो के, जी तो जुड़ा ही जाता है न।....लाख तर्क देने के बाद भी मां यह बात मानने को तैयार नहीं थी कि टीवी, रेडियो असल जिंदगी से कोई अलग चीज है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-3 Size: 8918 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080704/6d7dd3b8/attachment.bin From ravikant at sarai.net Sat Jul 5 12:44:38 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 5 Jul 2008 12:44:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kavitakosh ka janmadin Message-ID: <200807051244.38807.ravikant@sarai.net> दोस्तो, कविताकोश नामक भव्य विकिया परियोजना आज अपना दूसरा जन्म दिन मना रहा है. आपमें से जिन सा जन/सजनियों ने ये नहीं देखा है, वे अवश्य देखें. जाकर टिप्पणी दें, और अगर वक़्त व उत्साह है तो यो गदान भी करें. कविताकोश की टीम निहायत समझदार, प्रतिबद्ध और उदार लोगों की टीम है. इस कोश का महत्व शायद आप इस बात से आँक सकते हैं कि विकिपीडिया हिन्दी में अभी बीसेकहज़ार लेख हैं, तो कविताकोश में भी दस हज़ार कविताएँ हैं. हज़ार रचनाएँ गद्यकोश में भी हैं, जो मेरे ख़याल से हाल ही में शुरु हुआ है. बस मुट्ठी-भर लोग क्या-क्या नहीं कर डालते! उन्हें ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ रविकान्त पनश्च: अभी मेरा बिहार जाना हुआ. वहाँ के एक क़स्बे में पाठ्यपुस्तकों की दुकान पर दसवी, बारहवीं आदि की इतिहास, हिन्दी की किताबें उलट-पलट रहा था, तो पाठ्यक्रम में मंटो की कहानी नया क़ानून देखकर बहुत ख़ुशी हुई. त्रिलोचन का ग़ालिब पर लिखा सॉनेट भी बेहतरीन था. उत्तर प्रदेश वाले तो ख़ैर हिन्दी के दादा हैं ही, लेकिन यह जानकर अच्छा लगा कि जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे स्थानीय विद्वानों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला है. आप कविताकोश देखेंगे तो मेरा यह इशारा समझ जाएँगे कि जो काम दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रगतिशील हिन्दी विभाग में संभव नहीं होता, वह इंटरनेट पर हो जाता है, या फिर स्थानीय स्तर पर - एससीईआरटी जैसी संस्थाएँ कर दिखाती हैं. ---------- Forwarded message ---------- From avinashonly at gmail.com Sat Jul 5 20:00:28 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sat, 5 Jul 2008 09:30:28 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <2150057.763841215268228571.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// ये किसका लहू है कौन गिरा Posted: 04 Jul 2008 11:27 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/327137471/blog-post_05.html मेरा शहर बीती रात से दहशत के साये में सांस ले रहा है। भारत बंद की बात से शुरू हुआ मामला सांप्रदायिकता की होली खेल रहा है। मेरे जैसे अमन पसंद कई लोग हैं, जो मालवा के इस प्यारे शहर से बेइंतहा मुहब्बत करते हैं। किसी को ढंग से मालूम भी नहीं है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड वाला मामला क्या है। आमजन अपने काम में मसरूफ़ रहते हैं। मुम्बई का बच्चा कहा जाने वाला शहर बिला वजह वहशीपन का शिकार हो चला है। रिवायत ये रही है इन्दौर की कि हिन्दू-मुसलमान तहज़ीबें एक साथ मुस्कुराना जानती हैं। समझ में नहीं आता ये कौन हैं जो किसी शहर की शांति के साथ खिलवाड़ करते हैं? धंधेबाज़ बन जाते हैं रातों-रात? मन बहुत भारी हो रहा था सो यह सब आपको लिख बैठा। इस बात का ग़म तो है कि कुछ मासूम जानें इस नापाक़ तूफ़ान के हवाले हो जातीं हैं लेकिन ज़रा सोचिए ग़रीब-मज़लूम और बेसहारा लोग कर्फ़्यू के आलम में चूल्हा कैसे जलाएं? कहां जाएं? भीख मांगे? कौन है उनका रहनुमा? कौन उनकी परबत हो रही पीर पर मरहम लगाए? भीगी आंखों से जब ये मैटर टाइप कर रहा था तो एक नज़्म का इंतेख़ाब भी कर बैठा। जस की तस आपको ईमेल कर दी है : संजय पटेलउधर से आने वाला पत्थर केसरिया था इधर से जाने वाला हरा दोनो टकराये लहूलुहान हो गये जब होश आया तो कराहते एक दूसरे का हाल पूछा कैसे हो भाईजान ठीक हूं भैया तुम? बस आपकी दुआ से बच गया। बात आगे बढ़ी... ये कौन है जो हमें वापर रहा है ? हरा बोला, समझ में नहीं आता मैं तो सेठ हुकुमचंद की नसिया के कुंए का पानी पीकर बड़ा हुआ और गोवर्धननाथजी के मंदिर का प्रसाद खाता रहा बड़े मज़े से केसरिया बोला, मैंने तो अमीर ख़ां साहब के यहां ईद की सैविया खूब खायी है भाई हुसैन साहब तो हमारे आंगन में आकर लछमी मैया की रंगोली बनाते थे दीवाली पर हरा बोला, मैने तो शनि मंदिर में भीमसेन जोशी को पूरी रात गाते सुना और भैरवी सुनकर ही घर लौटता था केसरिया बोला, मैने भी अमीनुदुद्दीन डागर का फगवा हरि देखन को चलो री रतजगा कर के सुना है हरा बोला, क्या हम कुमार गंधर्व वाले मालवा के इन्दौर की ही बात कर रहे हैं केसरिया बोला, हां भाईजान वही बाजबहादुर वाला मालवा हरा बोला, भैया चंदू सर्वटे की ऑफ़ कटर याद है तुम्हें केसरिया बोला, नहीं मुझे तो मुश्ताक अली का लेट कट नहीं भूलता यार हो क्या गया इस शहर को यहां की रिवायत को यहां के अवाम को, उस नेक इंसान को ये तो हम जैसा हुआ जाता है हम पसीज रहे हैं पर ये तो क़त्ल पर क़त्ल किये जाता है कहां गये वो मिलने-मिलाने के सिलसिले हरे ने कहा। केसरिया बोला, तीज त्योहार, मंगलाचार सब धूल धुसरित हो गये भाईजान ये शहर इंसानों का नहीं कारोबारियों की सैरगाह हो गया है अब क्या करें हम दोनो क्या करें एक बोला, अरे मरने दो इन दिलजलों को जब अक़्ल आएगी तब बहुत देर हो जाएगी। राख हो जाएगा अपने भाई-बहनों के हाथों। दूसरा बोला, चलो हम कहीं और चलें अब यहां जी नहीं लगता शरीफ़ों की सोहबत का नहीं रहा ये शहर हरा और केसरिया पत्थर बहादुर शाह ज़फ़र को गुनगुनाते जा रहे हैं लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080705/257f4886/attachment.html From avinashonly at gmail.com Sun Jul 6 11:21:03 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 6 Jul 2008 06:51:03 +0100 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= from Krishna Kumar, Drishyantar, Jansatta Message-ID: <85de31b90807052251n4df4b7f2ud0d60e606b25ed71@mail.gmail.com> शुक्रिया कहने की इजाज़त चाहूंगा सर *यह एक बड़े पुरस्‍कार की तरह है। आज जनसत्ता में शिक्षाशास्‍त्री और एनसीईआरटी के निदेशक कृष्‍ण कुमार ने लिखने के रियाज़ में लगे मुझ जैसे अल्‍पज्ञात लेखक को तवज्‍जो दी है। पहले इसी ब्‍लॉग पर छपे रैंप पर अंतिम औरत का इतिहासऔर बाद में जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे ' स्‍तंभ में 'वह आख़‍िरी औरत ' शीर्षक से छपे निबंध को पढ़ कर उन्‍होंने मुझे फोन किया था। फोन पर उन्‍होंने जिस तरह की खुशी ज़ाहिर की, उसे बताना मेरे लिए असमंजस की तरह था। मुझे लगता था कि जो मेरे उल्‍लास, मेरी खुशी को 'अपने मुंह मियां मिट्ठू ' के मुहावरे वाले झोले में नहीं रखेंगे, उन सबको मैंने बताया कि कृष्‍ण कुमार जी ने मुझे कंप्‍लीमेंट दिया है। बाद में मैंने पता लगा ही लिया कि अपूर्वानंदसे उन्‍होंने मेरा फोन नंबर जुटाया था। मैंने उन्‍हें याद दिलाया कि 97-98 के साल में कुछ दोपहरी और सांझ मैं आपके यहां आता था। लेकिन मिलने-जुलने को लेकर मेरे निरुत्‍साह में एक लंबा अरसा यूं ही गुज़र गया। कृष्‍ण कुमार जी ने जनसत्ता में फोन पर की गयी उस प्रशंसा को जिस तरह से सार्वजनिक किया है, उसे पढ़ कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। जिन शहरों में जनसत्ता नहीं जाता है और जो जनसत्ता के पाठक नहीं हैं - उनके लिए कृष्‍ण कुमार जी का आलेख मैं दिल्‍ली-दरभंगा छोटी लाइन पर भी डाल रहा हूं।* *मुक्ति की चाल* *कृष्‍ण कुमार* *हर शब्‍द* अपने भीतर एक छोटा-सा इतिहास समाये रहता है, यह बात मुझे मालूम थी, पर यह समानांतर सत्‍य - कि शब्‍द में भविष्‍य भी झिलमिलाता है - मेरे लिए इसी पखवाड़े खुला। इस अख़बार में 'दुनिया मेरे आगे' एक स्‍तंभ छपता है, जिसमें कभी-कभी कुछ ग़ैरनिष्‍कर्षी गद्य पढ़ने को मिल जाता है। आठ-दस दिन पहले इस स्‍तंभ के तहत अविनाश की टिप्‍पणी पढ़ कर उस ख़बर का खुलासा मेरे लिए थोड़ी देर से हुआ, जो कई दिन पहले अख़बारों में सचित्र आ चुकी थी। ख़बर उन औरतों के बारे में थी, जो सुलभ इंटरनेशनल की पहल और मदद से मैला उठाने के काम से हटायी जा सकी हैं। अलवर की ये महिलाएं संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा घोषित 'सफाई वर्ष' के अंतर्गत न्‍यूयार्क में होने वाले एक कार्यक्रम के लिए चुनी गयी हैं। इस कार्यक्रम का एक तरह का पूर्वाभ्‍यास, जो दिल्‍ली में हुआ, अविनाश के संक्षिप्‍त निबंध का विषय था। अविनाश के निबंध का शीर्षक 'वह आख़‍िरी औरत' सतह पर महात्‍मा गांधी के मशहूर उद्धरण की गूंज लिये था, जिसमें उन्‍होंने आख़‍िरी आदमी की फिक्र की ज़रूरत बतायी है। मगर शुरुआती पैरा सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम के मंच और अगला पैरा गांव को शहर से जोड़ने वाली कंकरीली पगडंडी पर बचपन में बाबूजी द्वारा देख लिये जाने के बारे में था। शेष लेख में उस कैटवॉक का चित्रण था, जो अलवर की महिलाओं ने भारत के विख्‍यात फैशन मॉडलों के साथ सीरीफोर्ट सभागार के मंच पर की। इंटरनेट पर विकीपीडिया देख कर अविनाश यह पता लगा चुके थे कि कैटवॉक उस नुमाइशी चाल के लिए इस्‍तेमाल किया जाने वाला शब्‍द है, जो कपड़ों के नये फैशन प्रदर्शित करने के लिए आयोजित की जाती है। मैला ढोने जैसा काम करने वाली महिलाएं नीली साड़ी पहन कर, अमीर मॉडलों के साथ चलीं, फिर अमेरिका जाकर वहां भी कैटवॉक करेंगी। अविनाश ने इस प्रसंग की जटिलता को बड़ी संभली हुई तराश के साथ याद किया था। लेख के आख़‍िरी हिस्‍से में एक अधूरी खुशी के आंसू भी थे, एक बड़े-से अंधेरे की घुटन भी, और एकदम अंत में मेरे जैसे कस्‍बाई संस्‍कार वाले लोगों को महानगर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी राहत देता आया समोसा भी बदस्‍तूर मौजूद था। इस तरह वह लेख नहीं, पूरी दुनिया थी। परसों वह दुनिया न्‍यूयार्क में साकार हुई। संयुक्‍त राष्‍ट्र के उच्‍च पदासीन अधिकारियों के सम्‍मुख वह कैटवॉक अपनी पूरी शोभा सहित संपन्‍न हुई। अलवर की औरतों का मुक्‍त गीत विश्‍व की समाचार एजेंसियों की ख़बर बना। अंतत: मेरा भी मन हुआ कि पुस्‍तकालय के वृहद शब्‍दकोश में कैटवॉक का अर्थ देखूं। फैशन परेड वाला अर्थ सबसे पहले दिया गया था, जिसके तहत मॉडल नये कपड़े पहने एक उठी हुई सतह पर दर्शकों और कैमरे के सामने चलती हैं। इसके बाद भी कई अर्थ दिये थे। मुझे उन सभी अर्थों को पढ़ना ज़रूरी लगा, क्‍योंकि बिल्लियों में मेरी दिलचस्‍पी बचपन से रही है। मैं यह जानने को उत्‍सुक था कि फैशन की दुनिया में बिल्‍ली कैसे शामिल हो गयी। भाषा के इतिहास में चले किसी अनोखे खेल के नियम समझने की जिज्ञासावश मैंने पत्‍नी से कहा कि वे शब्‍दकोश की महीन छपाई पढ़ें, क्‍योंकि मेरी आंखों में इतनी रोशनी नहीं है। शब्‍दकोश में लिखा था कि 'कैटवॉक' मूलत: संकरे पुलनुमा ढांचे को कहा जाता था, जिसे निर्माणाधीन इमारतों में, जहाजों और रेलों में मज़दूरों और सफाई कर्मचारियों के लिए बनाया जाता है। लकड़ी, बांस या धातु का यह संकरा ढांचा ऊंचाई पर स्थित छज्‍जों या पानी की टंकियों तक पहुंचने में मदद करता है। टंकी साफ करके कर्मचारी के लौट आने के बाद ढांचा हटाया जा सकता है। इसे कैटवॉक कहते थे। पीछे बिल्‍ली की तरह संभल कर कदम रखने और चौकन्‍ना रहने की ज़रूरत है। इस सघन अर्थछाया के आलोक में अलवर की मैला ढोने वाली औरतों का पहले दिल्‍ली, फिर न्‍यूयार्क में प्रायोजित कैटवॉक थोड़ा दूर तक देखा जा सकता है। फैशन मॉडलों के साथ कैटवॉक की उपयुक्‍तता प्रायोजकों को संभवत: इसलिए सूझी होगी, क्‍योंकि मैला ढोने से मुक्‍त किये गये ये इंसान नारी थे, पुरुष नहीं। कपड़ों के नये फैशन का विज्ञापन करने वाली कैटवॉक मुख्‍यत: औरतों की परेड रही है, आदमी अभी-अभी और बहुत कम संख्‍या में आने शुरू हुए हैं। मैला ढोने वाली महिला को शख्सियत मिली, अविनाश के लेख में आये आंसू इसी बात की खुशी के थे। शख्सियत एक ऐसे आयोजन से मिली, जो भूमंडलीकरण के युग में नारी की घुटन के अभूतपूर्व विस्‍तार से जुड़ा है, यह बात उसी अंधेरे का ख़ौफ़ पैदा करती है, जो जनगढ़ सिंह श्‍याम ने जापान की व्‍यापारिक आर्ट गैलरी में अपनी आदिवासी आंखों के एकदम सामने महसूस किया होगा। जानकार लोग कहते हैं कि कैटवॉक कर रही औरत को अपनी आंखों में वही भाव लाना सिखाया जाता है, जो उमंग के साथ कंघी कर रहे किशोर के चेहरे पर स्‍वाभाविक रूप से इस सोच के साथ आ जाता है कि कोई मुझे देख रहा है। संकरे, रपटे या मुंडेर पर चल रही बिल्‍ली में यह भाव नहीं होता। पर बिल्‍ली मनुष्‍य को क्‍या-क्‍या सिखाये। हजारों साल के साहचर्य के बाद भी वह मानव को यह नहीं सिखा सकी कि आत्‍मसम्‍मान एक ऐसा भाव है, जो कहीं और जाकर नहीं, यहीं व्‍यक्‍त होना चाहिए और अपने ही मन और देह में प्रकटना चाहिए, मुजरे के दर्शकों की आंखों से नहीं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080706/18b93139/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Sun Jul 6 19:54:43 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sun, 6 Jul 2008 09:24:43 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <15050098.692381215354283276.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// "जिन्हें भारत को माता मानने में एतराज़ हो... Posted: 05 Jul 2008 11:16 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/327813920/blog-post_06.html ...वे उन्हें अपनी महबूबा भी मान सकते हैं” साथी अविनाश से कहना है कि इस बातचीत को ज्यों का त्यों एकालाप और जवाब के रूप में एक पोस्ट के रूप में पेश करें। बस एक जगह से आत्मीय संबोधन “चचा” उड़ा दें, ग़लत जगह लग गया है। यह आग्रह इसलिए कि इस संवाद में तैयारी के नतीजे में घुस आयी बनावट के बजाय एक खास तरह की स्पांटेनिटी है। अमूर्तन नहीं है, विद्वानों के हवाले नहीं हैं। इसे दिमाग से नहीं दिल से सोच कर लिखा गया है।इसी संवाद सेअनिल यादव : बहस प्रेमियो, कांग्रेस ने अमरनाथ देवस्थान बोर्ड को ज़मीन ठीक उसी मंशा ने दी, जिस मंशा से जन्मभूमि का ताला खोला था। सोचा था जम्मू के हिंदू थोक के भाव वोट देंगे। पीडीपी, नेकां ने सोचा कि इस के उलट घाटी के कटुवा वोट क्यों नहीं बटोर सकते। भाजपा जिसकी कामन सिविल कोड, 370 चिल्लाते-चिल्‍लाते चिर गयी थी और नतीजा नही निकला तो इसको लपक लिया। सिर्फ चार महीने बाद वहां विधानसभा चुनाव होने हैं। सबको बहुमत पाना है, इसलिए खेल दिया। अलबत्ता यह साबित हुआ कश्मीर में शांति के पदचाप सुनाते डलझील पर टूरिस्टों के फोटो फर्जी थे। सूचना विभाग के क्लर्कों ने नौकरी बजायी थी। अब पता चला कि उग्रवादी जनता को मोबलाइज कर सड़क पर भी उतार सकते हैं। एक नारा हैं वहां, जियो, जियो। मतलब आप जानते होंगे। कांग्रेस-बीजेपी को छोड़ दें, तो बाकी क्षेत्रीय दल चुप हैं। इसलिए कि कहीं मुसलमान वोटर नाराज न हो जाएं। सेकुलर भी कौमीएकजहती के सड़े गंगा-जमुनी तराने गा रहे हैं, जो अप्रासंगिक हो चुके हैं। ये सभी एक खामोश किस्म की सांप्रदायिकता को पाल रहे हैं, जो कल ज़रूर बम की तरह फटेगी। उनमें पोलिटिकल विल पावर नहीं है और सेकुलरों में साहस कि सच बोल सकें। लंठई आक्रामकता, हरमजदगी ऐसी चीजें हैं, जिनके आगे कोई भी शरीफजादा सेकुलर नहीं टिकता। इसी कारण चुनाव से पहले यह कटुवा-चुटिया पोलराइजेशन का खेल चलता है। बाद में गंगाजमनी तहजीब की निर्गुण नज़्में गाने में सब कलावंत हैं। कितने ब्लागर इस सवाल पर सूने लेकिन दुकानों की ओट से घूरते लाल चौक पर कफन के रंग के लाल कपड़े में बंधे माइक पर अपनी राय जाहिर करने चलेंगे। यह सवाल ईगो पर चोट करता हो और मुझे गाली देने का मन करता हो तो इसके सिनानिम सवाल भी है। शरीफ लोग चुनाव क्यों नहीं लड़ते? युवा राजनीति में क्यों नहीं आना चाहते? सब कैरियर ही बनाना क्यों चाहते हैं? हमारे इंटलेक्चुअल गोष्ठी वगैरा में गंड़ऊगदर काटकर सो क्यों जाते हैं और किसी वास्तविक सवाल से टकराने पर क्यों बताने लगते हैं कि वे निहायत ही मामूली आदमी हैं और फलां हरामी अफसर या हक्कानी नेता को जानते हैं। इस मिडिल क्लास चिरकुट में जब तक सड़क पर छेड़ी जाती लड़की के आगे अपनी कार का शीशा उतार कर छेड़ने वाले लफंगे से, “अबे क्या है”, पूछने का साहस नहीं आएगा, तब तक भारत माता की ऐसी-तेसी होती रहेगी। जिन्हें भारत को माता मानने मे एतराज़ हो, वे उन्हें अपनी महबूबा भी मान सकते हैं। परेश टोकेकर कबीरा : अनिल भाई आपकी मति मारी गयी लगती है। अरे भाई ये सब कांग्रेस का किया धरा है, तो जाएं गुलाम नबी को मारें जाके काश्मीर में। इंदौर या देश के मुसलमानों ने क्या बिगाडा है? ज़रा अपनी भाषा भी सुधारें, नहीं तो आपकी जात को गाली देना हमें भी आता है! अन्य धर्म वालो के प्रति क्या उच्च विचार हैं आपके? ये आपका नही आपकी परवरिश का दोष है। तरस आता है आपके पालको पर! क्या इतना ध्यान भी न दिया बचपन में अपनी औलाद पर। ये आप जैसे देश के गद्दार ही हैं जो इंसान को इंसान से लडा, बीवी के पल्ले में घुस मौत का तमाशा देखते बैठते हैं। हां, कल दोपहर तक व्यस्त हूं, अगर मुझ कटुवे को निपटाना हो, तो मेंरे ब्लाग से घर का पता ले लो। अनिल यादव : गुलाम नबी तो सदा का दरबारी है। जो कहा जाएगा वही करेगा। लेकिन कबीरा तुम अलग से ठंडे दिमाग से एक मुसलमान की तरह पोस्ट लिखो। बात हो सकती है। की-बोर्ड पर इतना क्या बांकपन? और नहीं तो बच्चो, वृंदा करात के साथ खड़े होकर “क मू नि स्त इं त र ने शि यो ना ल” गाने का विकल्प सदा से खुला है, खुला ही रहेगा। किसके लिए? अंत में तीन बिंदु : कश्मीर का हर कट्टरपंथी जानता है कि अमरनाथ का शिवलिंग 1950 में बूटा मलिक नाम के मुसलमान गड़रिये ने पहली बार पाया था और बहुत दिनों तक चढावा का हिस्सा उसके बाल बच्चों के पास जाता रहा था। डैंड्रफ की समस्या से परेशान फारूख चचा का लौंडा, जिसने राजेश पायलेट के लौंडे से अपनी बहन की शादी का स्वागत किया था - एक तरफ बयान देता है कि न्यूक्लियर डील दो देशों के बीच का मामला है - इसमें मुसलमान कहां से आ गये, दूसरी तरफ काफिरों को ज़मीन देने के सवाल पर वहां कट्टरपंथियों के साथ है। इंदौर से महाराष्ट्र जाकर बाल ठाकरे ने वहां की अस्मिता को आजीवन लीज पर ले लिया है। यह लचक और ढीठ दुस्साहस तुममें अगर नहीं है, तो तुम इनसे क्या अपनी प्यारी-प्‍यारी गंगाजमनी फर्जी पोएट्री से लड़ोगे मेरे भाई। साथी अविनाश से कहना है कि इस बातचीत को ज्यों का त्यों एकालाप और जवाब के रूप में एक पोस्ट के रूप में पेश करें। बस एक जगह से आत्मीय संबोधन “चचा” उड़ा दें, ग़लत जगह लग गया है। यह आग्रह इसलिए कि इस संवाद में तैयारी के नतीजे में घुस आयी बनावट के बजाय एक खास तरह की स्पांटेनिटी है। अमूर्तन नहीं है, विद्वानों के हवाले नहीं हैं। और इसे दिमाग से नहीं दिल से सोच कर लिखा गया है। /////////////////////////////////////////// राजीव जैसे लोग धर्मांध हैं कि जम्मू के मुसलमान? Posted: 05 Jul 2008 01:07 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/327466299/blog-post_4717.html मोहल्ले के दोस्तो, हिंदुओं का ख़याल भी रखना होगा राजीव कुमारलेकिन सवाल जो मुंह बाए खड़ा है कि क्या सिर्फ संघ या बीजेपी को गाली देकर इस समस्या का समाधान सुझाया जा सकता है। जिस देश में शुरू से ही मुस्लिम तुष्टीकरण को सेकुलरिज्म का पर्याय मान लिया गया हो वहां तो आपको इंदौर जैसी विकृतियां देखने को मिलेंगी ही मिलेंगी। जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हिंदुओं के साथ हुआ है, उस पर अगर सेकुलरों ने ज़रा सा भी आंसू बहा लिया होता, तो ये नौबत न आती। शर्म की इंतिहां को पार करता जम्मू-कश्मीर सरकार का फैसला कि हिंदुओं को ज़मीन नहीं देना है, महाभारत के दुर्योधन की याद दिलाता है, जिसमें उसने सुई की नोंक बराबर ज़मीन न देने की कसम खायी थी। पूरा-का पूरा कश्मीर इस जश्न में डूबा है कि काफिरों से ज़मीन छीन ली गयी, और इसमें शरीक सिर्फ आतंकवादी ही नहीं हैं, मुख्यधारा की सियासी पार्टियां भी हैं। दिन के उजाले में सेकुलिरिज़्म के साथ बलात्कार हो गया और दिल्ली में बैठे तमाम लिक्‍खाड़ हिजड़े बन गये। अब इंदौर की घटना पर वही लोग आठ-आठ आंसू बहा रहे हैं। मेरे लेख का मतलब मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलना नहीं, सिर्फ असलियत बताना है। वरना, बंद कमरे में बैठ कर बेक़सूर मुसलमानों की जान नहीं बचायी जा सकती। अगर मुल्क में अमन कायम रखना है तो “मोहल्ले के दोस्तों”, हिंदुओं का ख़याल भी रखना होगा। उम्मीद है मेरी बात को अन्यथा नहीं लिया जाएगा। संघी या भाजपाई का तमगा देना उन लोगों के लिए हमेशा आसान रहा है, जिनकी कलम में कोई ताक़त नहीं होती... ...Comment Linkराजीव कुमार जैसों को यह तो नज़र आता है कि “जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हिंदुओं के साथ हुआ है उस पर अगर सेकुलरो ने थोड़ी सी भी आंसू बहा ली होती...तो ये नौबत न आती।” टिप्पणी में यह ग़लत-सलत वाक्य राजीव कुमार का है। लेकिन उन रपटों से वह अंधे हो जाते हैं कि किस तरह जम्मू में विहिप और बजरंगियों के बेशर्म तांडव के बावजूद अमरनाथ यात्रियों को हर बार की तरह मुसलमानों ने खाना खिलाया, विश्राम करने के लिए तम्बू बांधे, महिला सह-यात्रियों को इन हिंदू आतताइयों से सुरक्षित रखा और यात्रा में आगे जाने के लिए सकुशल छोड़ा। अब यह बताइए कि राजीव कुमार जैसे लोग धर्मांध हैं कि जम्मू के मुसलमान? चाहिए कि इन तीर्थयात्रियों की शिनाख्त करके विहिप और बजरंग दल उन्हें विधर्मी घोषित कर दें। आत्मकथा के हिन्दी संस्करण को लोकार्पित करने भोपाल पहुंचे पीएम पद के स्वयंभू उम्मीदवार माननीय आडवाणी के बयान के बाद जम्मू में कर्फ्यू के बावजूद इन लोगों ने देश का क़ानून तोड़ते हुए यात्रियों की नाक में दम कर दिया। इनसे बड़ा धर्मद्रोही और राष्ट्रद्रोही कौन है? दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं कि हिन्दू-मुस्लिम एका हो। तब राजनीतिक रोटी कैसे सिंकेगी? इस संबंध में जनकवि गोरख पाण्डेय की एक मशहूर कविता भी है- 'इस बार दंगा बहुत बड़ा था खूब हुई थी खून की बारिश अगले साल फसल अच्छी होगी मतदान की'. जनता अंधी है या नहीं, इस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता... लेकिन उसकी याददाश्त ज़रूर कमज़ोर है। अभी भाजपा और विहिप ने जो देशव्यापी बंद रखा था, उससे गुजरात को क्यों अलग रखा गया? क्या इसलिए कि वहां फिलहाल चुनाव नहीं होने हैं या फिर इसलिए कि गुजरात के व्यापारियों को बेवजह तक़लीफ़ न दी जाए? मध्यप्रदेश (जहां कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं) के सतना में तो विहिप और भाजपा कार्यकर्त्ताओं ने एक इज्ज़तदार सोनी उप-नामक व्यक्ति को दूकान बंद न करने पर सड़क पर लाकर जूतों-चप्पलों से इस क़दर पीटा कि मारे ग्लानि के उसने तुंरत आग लगा कर खुदकुशी कर ली! उस व्यक्ति का कसूर बस इतना था कि उसने दूकान खोल ली थी। वह इतना भला आदमी था कि वह अपनी भांजी (बड़ी बहन की लड़की) को गोद लेकर पाल रहा था, उसने शादी तक नहीं की थी। (आरएसएस के प्रचारक समाज को बांटने के प्रचार के लिए शादी नहीं करते हैं, बाद में भाजपा के महासचिव (RSS quota) संजय जोशी की तरह भोपाल में उनकी ब्ल्यू फ़िल्म बन जाती है!) क्या सोनी मुसलमान था? उसका कसूर बस इतना था कि वह दिन भर की कमाई से महरूम होने की फ़िक्र में था। उसका कसूर यह भी था कि वह हिन्दू आतंकवादी नहीं था। ऐसे लोगों को आरएसएस वाले कहते हैं कि पता नहीं किस कायर मां-बाप ने पैदा किया है! सतना की इस शर्मनाक और घोर निंदनीय घटना पर क्षेत्र के सांसद गणेश सिंह फरमाते हैं, “यह घटना के बाद की दुर्घटना है।” और सोनी के भाई ने शहर एएसपी के सामने 9 आरोपियों का नाम भी लिया है, लेकिन उन्होंने अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ किया है। इंदौर में भी इन लोगों ने कर्फ्यू के बावजूद दंगा किया। इंदौर के लोगों की टिप्पणियों से जाहिर है कि वे लोग कितने दुखी हैं और जो लोग मारे गये हैं, उनके माता-पिता के आंसू देख कर वे हिंदू होने पर शर्मिन्दा महसूस कर रहे हैं। विहिप, बजरंग दल और भाजपाइयों का साहस इतना बढ़ा हुआ है कि न तो ये कोई क़ानून मानते हैं, न संविधान! न किसी का सम्मान करते हैं। भोपाल में एक भाजपाई ने महज मेयर की गाड़ी रोकने पर एसपी को थप्पड़ मारा था। बाबर और औरंगज़ेब का बदला लेने को छटपटा रहे यही लोग राजनीतिक छत्रछाया में रहते हुए बार-बार देशभक्ति का प्रमाण मांग कर मुसलमानों को आतंकवादी बनने को उकसाते हैं। हमलावरों की भूली-बिसरी कहानियों और मनगढ़ंत किस्सों को फैला कर ऐसे कारनामे अंजाम देते हैं कि बाबर और औरंगज़ेब शरमा जाएं! इसी श्रेणी के हिंदुओं ने गुजरात में मुस्लिम महिलाओं के स्तन काटे, उनकी योनियों में सरिये डाले और उनकी बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार किये। एक सांसद को तो कई घंटे उसके ही घर में घेर कर इन्होने मार डाला, क्योंकि वह मुसलमान था। जब इस आशय की रपटें आती थीं, तो कहते थे कि यह हिन्दू विरोधियो तथा छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा इनके ख़िलाफ़ किया गया प्रचार है। इस बारे में अब बात करो तो कहेंगे कि गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ते हैं? इससे साम्प्रदायिक सौमनस्य बिगड़ेगा। लेकिन बाबर को ये भुला नहीं पाते। साम्प्रदायिक सौमनस्य बनाने का इनका तरीका वही है, जो इन्होंने अभी इंदौर तथा सतना में दिखाया (ये दोनों शहर एमपी में हैं)। जम्मू का बदला इन शहरों में ले लिया गया। इनकी भाषा में कहा जाए तो जिस मुसलमान ने अकेले दम पर हिन्दू आतताइयों के उपद्रव से घबरा कर जान की ख़ैर मनाते हुए इधर-उधर भाग रहे सैकड़ों अमरनाथ तीर्थयात्रियों की देखभाल की; दरअसल साम्प्रदायिक सौमनस्य तो वह बिगाड़ रहा है! वह छद्म धर्मनिरपेक्ष है। वे तमाम रपटें झूठी हैं कि कच्छ और लातूर के भूकंप में सेवा करने पहुंचे आरएसएस के स्वयंसेवक हिन्दू-मुसलमान देख कर सेवायें देते थे। सिर्फ इनका “वर्सन” ब्रह्मा की लकीर है। इस नयी तरह की गुंडई का नाम ही धर्मनिरपेक्षता है और भारत की हर हाल में ऐसी-तैसी करके रख देना इनका अन्तिम लक्ष्य। पिछड़े, दबे कुचले वर्गों, मुसलमानों और महिलाओं की राजनीतिक वजहों से ही सही, अगर मदद की जाती है तो वह इन्हें तुष्टीकरण लगता है। बातें तो अनंत हैं लेकिन पीएम बनने पर हरा साफा बांध कर जब अटलबिहारी वाजपेयी 2 करोड़ मुसलमानों को शिक्षक की नौकरी देने का वादा कर रहे थे, तब वह क्या था - हिन्दू जिहाद के लिए “ब्रेन-वाश” किये गये लोग बताने का कष्ट करेंगे? माफ़ कीजिएगा, मैंने कुछ उर्दू हरूफ का इस्तेमाल कर लिया है, इसलिए मुझे छद्म धर्मनिरपेक्ष करार दे दिया जाना तो तय ठहरा। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080706/630cfef6/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Jul 5 17:28:41 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 5 Jul 2008 17:28:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Rozgar Samachar in Hindi on Net Message-ID: <200807051728.41634.ravikant@sarai.net> http://www.rojgarsamachar.gov.in/ jaankari ke liye hindimedia.in ka shukriya. ravikant From vineetdu at gmail.com Mon Jul 7 14:34:24 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 7 Jul 2008 14:34:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSs4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkpOClh+CknCDgpLDgpLngpYsg4KSF4KSq4KSo4KWHIOCkmOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCLCDgpLjgpK7gpL7gpJwg4KSu4KWH4KSCIOCkquCkvw==?= =?utf-8?b?4KSb4KSy4KSX4KWN4KSX4KWCIOCkueClgCDgpLDgpLngpYvgpJfgpYc=?= Message-ID: <829019b0807070204rcc9233fkb0313248979a7f09@mail.gmail.com> हिन्दी मीडिया ने रियलिटी शो की खामियों और इसके सामाजिक प्रभाव की चर्चा दबी जुबान से करनी शुरु कर दी है. अब उसे भी लगने लगा है कि इसको लेकर बच्चों के उपर इतना दबाब होता है कि प्रतिभा निखरने के बजाय शोषण की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। बच्चों पर इसका वाकई बहुत ही बुरा और उल्टा असर पड़ रहा है। यह वही मीडिया है जो प्राइम टाइम पर देश और दुनिया की बाकी खबरों को छोड़कर गजोधर के हंसगुल्ले, संगीत का महायुद्ध और रियलिटी शो के दो पार्टीसिपेन्ट्स को एक-दूसरे को इस तरह से पेरोजेक्ट करती है कि मानो आमने-सामने होने पर ये दोनों एक-दूसरे से सीधे गाली या घूंसों से बात करेंगे। सेंशन पैदा करने की गरज से हिन्दी मीडिया इसके पैकेज का हेडर और बीच-बीच में जिस तरह के स्लग चलाती है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि वो रियलिटी शो के भीतर कौन-सा एलिमेंट डालना चाह रहे हैं। हिन्दी के न्यूज चैनलों को अब होश आ रहा है कि बच्चों पर इतना मेंटल प्रेशर होता है कि वो मानसिक रुप से परेशान हो जाते हैं। ऐसा उसे तब महसूस हुआ जब बांग्ला चैनल के एक रियलिटी शो में एक बच्ची ने जज के डांटे जाने पर अपना नेचुरल लाइफ खो दिया। अब वो बोल नहीं पा रही है, नाचना और गाना तो दूर की बात है. हिन्दी मीडिया में रियलिटी शो के दुष्प्रभाव की चर्चा कायदे से इसी दिन से शुरु होती है। यही कोई १५ दिन पहले से। इसके पहले रियलिटी शो और टेलीविजन पर बच्चों द्वारा काम किए जाने पर मीडिया ने कोई रिसर्च नहीं किया। अलबत्ता बाल श्रम विरोध दिवस या फिर ऐसे ही सरकारी तिथियों के नाम पर अकबारों में खानापूर्ति तरीके से कहीं कुछ लिख दिया गया। चलताउ ढंग से सवाल उठाया गया कि टेलीविजन में काम करनेवाले बच्चों को बाल श्रमिक माना जाए या नहीं और फिर क्या उन पर भी वही नियम-कानून लागू होते हैं जो पांच साल के बच्चे के चाय बेचने और पंक्चर बनाने पर होते हैं। एक दिन की खबरों के बीच गंभीरता से इसकी कहीं कोई नोटिस नहीं ली गयी। लेकिन आज हिन्दी मीडिया हादसे के बाद इसकी खामियों पर बात करने की कोशिश में जुटा है. यह वही हिन्दी मीडिया है जो बाल दिवस, २६ जनवरी या फिर १५ अगस्त जैसे मौके पर लिटिल चैम्पस, इंडियन ऑयडल और चक दे बच्चे में शामिल लोगों को घंटों अपने स्टूडियों में बिठाए रखती है, उनसे चैट करती है, जी भरकर गाने गववाती है, अफेयर और लव एट फस्ट साइट से जुडे सवाल करती है और और एंकर से हो-हो करके ठहाके लगाने को कहती है। मैंने खुद लिटिल चैम्पस के दिवाकर को तीन बार लिफ्ट से लाया और छोड़ है. लाते समय तो फिर भी कोई साथ होता है लेकिन छोड़ते समय कोई नहीं। मुझे बुरा लगता तो मैं साथ छोड़ने चला जाता। कौन नहीं जानता कि बच्चे जब सोलह-सोलह घंटे प्रैक्टिस करते हैं और अगले दिन शूटिंग के लिए गाते हैं तो उनके बीच स्वाभाविकता खत्म होती चली जाती है. गानों में परफेक्शन आने के साथ-साथ बचपन उनसे दूर होता चला जाता है। इन सबके बीच जजों की डांट, साथियों से गला-काट टफ कंपटीशन उनके भीतर कई तरह के डिस्टर्वेंश पैदा करता है. इन सबके वाबजूद एक बड़ी सच्चाई है कि प्रतिभा को सामने लाने के लिए ये एक जरुरी प्रयास है। सरकारी तंत्र प्रतिभाओं को सामने लाने में पूरी तरह फेल हो चुका है, थोड़ा-बहुत काम का है भी तो उसमें इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि आम आदमी वहां तक पहुंच ही नहीं सकता. आकाशवाणी और दूरदर्शन के युवा केन्द्र के रजिस्टर में अपना नाम लिखते रहिए, कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में ये रियलिटी शो टैलेंट हंट का एक बेहतर माध्यम तो है ही। प्राइम टाइम में देशभर की बाकी खबकों को रिप्लेस करके रियलिटी शो के घंटेभर तक फुटेज और गॉशिप दिखानेवाली मीडिया के पास भी इससे कुछ अलग तर्क नहीं है। लेकिन आज इसी मीडिया को एक हादसे के बाद रियलिटी शो में सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां नजर आने लगी है। यह अलग बात है कि प्राइम टाइम में अब भी खबरों की जगह इसे दिखाना बंद नहीं किया है। इससे एक बात तो साफ हो जाता है कि मीडिया का आज अपना कोई स्टैंड रह ही नहीं गया है, इवेंट को लेकर उसका अपना कोई रिसर्च नहीं है। एक हद तक इस बात की समझदारी भी नहीं कि किस बात का क्या असर हो सकता है। इसलिए टीआरपी की दौड़ लगाते-लगाते जब यह मीडिया थक जाती है और जब सुस्ताने के लिए सामाजिक दायित्व का दामन पकड़ती है तो वो मीडिया की ताकत, प्रतिरोध के स्वर और आम जनता की हितैषी न लगकर पाखंडी, अननैचुरल और बददिमाग लगने लग जाती है जिसे देखकर कोई भी कह देगा कि- सबसे तेज हो तुम अपने घर में, समाज में तुम पिच्छलग्गू ही हो, तुम्हारे पास अपना कोई दिमाग भी तो नहीं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-9 Size: 9775 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080707/97e288a0/attachment.bin From avinashonly at gmail.com Mon Jul 7 21:07:53 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 7 Jul 2008 10:37:53 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <14967258.909791215445073108.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// गिलानी का "शिट" और हिन्दुओं का हित Posted: 07 Jul 2008 07:36 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/328674182/blog-post_5109.html हर सुबह, सय्यद अली शाह गिलानी अपने घर के बाथरूम में सफ़ेद रंग के कमोड पर बैठकर नित्य क्रिया से फारिग होते हैं. उनका मल पाइप के ज़रिये सोपोर में उनके घर की बगल में वुलर झील में चला जाता हैं. ये झील एक ज़माने में एशिया की सबसे बड़ी ताजे`पानी की झील थी जो २०२ वर्ग किलोमीटर से सिकुड़कर ३० वर्ग किलोमीटर रह गई हैं. इसी तरह श्रीनगर में उनके साथी, जो पर्यावरण का वास्ता देकर श्री अमरनाथ बोर्ड को दी गई ज़मीन को रद्द कराने में जी-जान से जुटे हुए थे, वो भी डल झील में रोज़ जमा हो रहे ३५ मिलियन लीटर के सीवेज में अपना योगदान देते हैं. इसी झील के ऊपर, इस सब से अनजान, भारतीय परिवार मटन गोश्ताबा का आनंद लेते हुए, पारंपरिक कश्मीरी पौशाक में फोटो खिंचवाते हैं. सरकार और एक भूतपूर्व राज्यपाल के साथ मिलकर, कश्मीर के गिलानियों ने हमारी भावनाओं को द्रौपदी में तब्दील कर दिया है. इस चौपड़ में सभी की कौडियाँ कुटिलता से लैस हैं. पिछले साल पाउडर वाली बर्फ मंगाई गई. राज्यपाल के सिपाहियों ने बिना जूते उतारे, पवित्र गुफा में जाकर शिवलिंग का कद बढाया, जैसे वो कोई मॉडल हो जिसे सिलिकॉन इम्प्लांट की सख्त ज़रूरत हैं. फिर इस साल हमें टीवी पर एक कृत्रिम शिवलिंग का नज़ारा दिखाया गया जिसे गुफा में रखा जायेगा ताकि यात्रियों को पूरे दर्शन हो. मान्यवर, आप सब लोग बाढ़ में जाईये. आपको लगता हैं आप ने अपनी कश्मीर यात्रा पर पैसे खर्च किए हैं और फुल-साइज़ शिवलिंग के दर्शन से आप "पैसा वसूल" करेंगे. आपके लिए अमरनाथ यात्रा पिकनिक होगी. हमारे लिए यह जीवन दर्शन है. इस दर्शन को लेकर मेरी शुरुआती स्मृति उस ताई की है जो हर सुबह "अतिभीशन, कटुभाषण, यम् किंकर पटली..." गाती थी और ऐसा करते हुए उनकी आंखों से आंसू झर-झर बहते थे. इसी दर्शन का हिस्सा हर साल फरवरी में शिवलिंग को चांदी के वर्क और बेलपत्र से सजाना भी था - शिवरात्रि पर जब वादी में बर्फ हमारे कमरे की खिड़की तक आ पहुँचता थी. यहीं दर्शन मेरे पिताजी के लिए वो सपना था जो उन्हें अपनी पहली नौकरी के कुछ दिनों बाद दिखा जब वो किसी समस्या से जूझ रहे थे. सपने में शिव ने ख़ुद आकर उन्हें रास्ता दिखाया था, ऐसा उनका मानना है. यहीं दर्शन मेरी बहन से अपनी सहेलियों के सामने कहलवाता है: "दरअसल, हम शैव हैं." सो, आप देख ही रहे होंगे, की ज़मीन आपको मिले या न मिले, मुझे कोई फर्क नही पड़ता. आप दर्शन कर पा रहे हैं या नही, इस की भी मुझे कोई चिंता नही. पर कृपा करके, अमरनाथ को अकेला छोड़ दीजिये. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक फोटो में अभी ५ दिन पहले राजनाथ सिंघ वैंकया नायडू को लड्डू खिला रहे थे. दोनों के चेहरे खिले हुए थे. चुनाव का सीज़न है और ऐसे में पका-पकाया मुद्दा मिला जाए तो क्या बात है. नंदू टीवी पर वो जम्मू में कुछ लोगों को दिखा रहे हैं जो वैष्णो देवी की चुन्नी सर पर बांधे कैमरा के लिए नारे लगा रहे हैं. "जो हिंदू हित की बात करेगा, वो ही देश पे राज करेगा." उनमे एक महिला भी है. उसकी शक्ल उस घर की महिला से मिलती है जिसने २० साल पहले कश्मीर से हमारे पलायन के बाद सस्ते चूने से अपनी गौशाला को रंगवाकर मेरे चाचा के परिवार को किराये पर चढाने की कोशिश की. दो दशक के बाद कश्मीर में भी हमारा स्वागत है. पिछले साल तो जन्माष्टमी का जुलूस भी उन्होंने निकलने दिया. सो जब तक हम सैलानियों की तरह कश्मीर आए, हाउस बोट में रहे, और "हिंदुस्तान" में अपने दोस्तों के लिए जाते हुए कश्मीरी शाल और कारपेट खरीदें, हमारा वहां स्वागत ही होगा. लेकिन जनाब, हमारे घरों का क्या? हामरी नौकरियों का क्या? हमारे सेब के बागों का क्या? "पंडित जी, आपकी सुरक्षा की गारंटी भला हम कैसे ले सकते है? आप तो जानते हैं की ये मरदूद अफगानी हमें भी बख्शते नही..." "सो आप जम्मू में ही बने रहिये. हम मिलने आयेंगे आप से. आपके पास राशन कार्ड है. अब तो क्षीर भवानी और हरि पर्वत की रेप्लिका भी आपने बना लिए हैं. तो में चलता हूँ, इस्लामाबाद.... नही, अनंतनाग जाना है." इस बीच, जम्मू से २९० किलोमीटर दूर, जैसे की बॉर्डर रोड आरगेनाइजेशन के वो पीले बोर्ड आपको बताएँगे, एक आदमी कारपेट पर हुक्के के बगल में बैठा गोश्त चख रहा है. जनाब, आप उसे जानते हैं... उसका नाम फारूक अहमद डार हैं. आप उसे बिट्टा कराटे के नाम से भी जानते हैं. /////////////////////////////////////////// "तुष्टीकरण" तो बंद होना ही चाहिए Posted: 06 Jul 2008 03:10 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/328276010/blog-post_07.html तुष्टीकरण। ये शब्द आपके मन में कैसी प्रतिक्रिया या विचार पैदा करता है? हमारे देश में ये शब्द आम तौर पर मुसलमानों को ज्यादा और बेहतर अवसर देने के संदर्भ में बीजेपी और आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना जैसे संगठन और उनकी विचारधारा वाले बुद्धिजीवी करते हैं। तुष्टीकरण यानी मुसलमानों को खुश करने के लिए राजसत्ता का पक्षपातपूर्ण व्यवहार। यानी बहुसंख्यकों के अधिकारों का हनन यानी अगर यही सिलसिला रहा तो भारत भी पाकिस्तान की तरह एक दिन मुस्लिम राष्ट्र बन जाएगा और हिंदू किसी लायक नहीं बचेंगे। तुष्टीकरण की इससे अलग और कोई व्याख्या मैंने नहीं सुनी है। लेकिन सच क्या है? क्या सचमुच मुसलमानों का इस देश में तुष्टीकरण हो रहा है? -दिलीप मंडल ये जानने के लिए आइए देखते हैं कि इस देश की संपदा में किसका कितना हिस्सा है। किस समुदाय में अमीर ज्यादा हैं और किस समुदाय में गरीब? खर्च के आधार पर जुटाए गए ये आंकड़े नेशनल सैंपल सर्वे यानी एनएसएसओ के हैं। ये संस्था भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय के तहत काम करती है और सरकार चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की या समाजवादी दलों की, इस संस्था के आंकड़े राजकाज से जुड़े फैसलों में निर्णायक महत्व के होते हैं। आंकड़ों को छोड़ भी दें तो इससे मिलती-जुलती तस्वीर आपको अपने शहर-कस्बों और गांवों में दिख जाएगी। 1. हिंदू (सवर्ण) उच्च आय - 17.2% मध्यम आय - 73.9 निम्न आय - 8.9% 2. हिंदू (एससी-एसटी) उच्च आय - 6.3% मध्यम आय - 65.1% निम्न आय - 28.6% 3. हिंदू (ओबीसी) उच्च आय - 1.5% मध्यम आय - 72.6% निम्न आय - 25.9% 4. मुसलमान(जनरल+ओबीसी) उच्च आय 4.2% मध्यम आय 65.0% निम्न आय 30.8% (इन आंकड़ों में गरीबी रेखा से नीचे यानी शहरी इलाकों में प्रति व्यक्ति 567 और ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति 361 रुपए की मासिक आमदनी से कम वालों को निम्न आय में रखा गया है। जबकि एक लाख रुपए से ज्यादा की आय वाले परिवारों को उच्च आय वाला माना गया है। एनएसएसओ परिवार का औसत आकार 5.59 मानता है। इस लिहाज से प्रति व्यक्ति उच्च आय की परिभाषा है शहरी इलाकों में प्रति माह 1491 रुपए और ग्रामीण इलाकों में 1368 रुपए। इन दोनों (निम्न और उच्च) आय वर्गों के बीच में जो भी है उसे मध्यम आय वाला माना गया है।) इन आंकड़ों को आप जस्टिस रजिंदर सच्चर की रिपोर्ट के 381 नंबर पेज पर देख सकते हैं।... कश्मीर से शुरू होकर इंदौर और देश के कई हिस्से में मचे फसाद के दौरान ये बात कहना खास तौर पर जरूरी है। आप न जानते हों, ऐसा भी नहीं है। पिछले दो दशक में देश की राजनीति में जिस एक शब्द का शायद सबसे ज्यादा गलत इस्तेमाल हुआ है वो है - तुष्टीकरण। सारे तथ्य इस बात के खिलाफ हैं कि मुसलमानों पर देश की संपदा लुटाई जा रही है। कोई ये नहीं कहता कि मुसलमान देश के सबसे संपन्न समुदाय हैं। कोई ये भी नहीं कहता कि उन्हें सरकारी नौकरियों में या शिक्षा संस्थानों में या फौज में ज्यादा जगह मिल रही है। या कि बैंक लोन देते समय मुसलमानों का खास ख्याल रखते हैं। बल्कि हालात उलट हैं। फिर भी बिना किसी हिचक के ये बात कह दी जाती है कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है। देश में मुसलमानों का तुष्टीकरण अगर हो रहा है तो बंद होना चाहिए। लोकतंत्र में हर किसी को आगे बढ़ने का समान हक मिलना चाहिए। धर्म के आधार पर अवसर में असमानता क्यों होनी चाहिए? लेकिन क्या देश में मुसलमानों की जो हालत है उसे देखकर, जानकर कोई भी ये कह सकता है कि उनका तुष्टीकरण हो रहा है। दरअसल भारत में तुष्टीकरण की बात इतनी बार और इतने तरीके से कही गई है और कही जा रही है कि कोई भी आदमी अगर वो बेहद चौकन्ना और सचेत नहीं है, तो ये मान बैठेगा कि मुसलमानों पर देश की संपदा लुटाई जा रही है। मुसलमानों के पिछड़ेपन या अशिक्षा के सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक कारण हैं। मुसलमानों के अपने नेतृत्व की खामियां भी हैं। उनमें सुधार आंदोलन को लेकर प्रतिरोध भी है। लेकिन कृपया आंख मूंदकर ये न मान लें कि उनका तुष्टीकरण हो रहा है। तथ्य इसके विपरीत हैं। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080707/49e55411/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Wed Jul 9 11:48:07 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Wed, 9 Jul 2008 11:48:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KS54KWL?= =?utf-8?b?4KSwIOCkj+CkleCljeCkuOCkquCljeCksOClh+CkuCDgpJXgpYAg4KSk?= =?utf-8?b?4KWH4KScIOCksOClnuCljeCkpOCkvuCksA==?= Message-ID: <196167b80807082318k345f9780n8526995940b4031b@mail.gmail.com> मध्य प्रदेश जहाँ की आवाम ने हमेशा अच्छे खिलाड़ियों को आंखों पर बिठाकर रखा। जहाँ की सरकार भी गाँव और छोटे कस्बों से खेल के क्षेत्र में बेहतर करने की सम्भावना वाली प्रतिभाओं को तलाशने के लिए प्रयत्नशील है। जिससे इन खिलाड़ियों की प्रतिभा को योग्य कोच की देखरेख में बेहतर प्रशिक्षण देकर और निखारा जा सके। इन तमाम तरह के सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों की नजर ना जाने कैसे मध्य प्रदेश के 'सीहोर एक्सप्रेस' मुनिस अंसारी पर अब तक नहीं पड़ी। जबकि इस खिलाड़ी की तेज रफ़्तार गेंद की सनसनाहट को सिर्फ़ भोपाल ने नहीं बल्कि 'ऑल इंडिया इस्कोर्पियो स्पीड स्टार कांटेस्ट' के माध्यम से देशभर ने महसूस किया। वह राज्य की राजधानी भोपाल से महज २५-३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटे से कस्बे सीहोर से ताल्लुक रखता है। उसने सीहोर की गलियों में बल्ले और गेंद के साथ खेलना उसी तरह शुरू किया जैसे उसके बहूत सारे साथियों ने किया था। हो सकता था वह भी अपने तमाम साथियों की तरह गुमनामी में खो जाता। यदि उसे स्पीड स्टार कोंटेस्ट की जानकारी नहीं मिलती। सीहोर की गलियों के इस तेज गेंदबाज की गेंद का सामना करने मुम्बई के मैदान में हरभजन सिंह आए। पहली गेंद हरभजन समझ नहीं पाए। दूसरी गेंद ने हरभजन के बल्ले को तोड़ दिया। तीसरी गेंद पर उनके हाथ से बल्ला छिटक कर दूर जा गिरा। औसतन वे १४० किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से वह गेंद फेंक रहा था। उसकी गेंदबाजी की प्रतिभा को देखकर उस समय bharatiy team के कोच ग्रेग चैपल, कप्तान राहुल द्रविड़, वसीम अकरम, किरण मोरे खास प्रभावित हुए थे। बावजूद इसके मध्य प्रदेश की क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उसे रणजी खेलने लायक भी नहीं समझती। मुनिस कहता है - 'अगर मेरा कोई गाड फादर होता तो मैं अबतक नेसनल खेल चुका होता।' मुनिस का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। उसके पिता मुस्तकीन अंसारी एक दिहाडी मजदूर हैं। परिवार की हालत अच्छी नहीं होने की वजह से वर्ष २००० में मुनिस ने क्रिकेट खेलना छोड़ दिया। ०४ साल उसने 'ऑयल फीड' कंपनी में बतौर सेक्युरिटी गार्ड काम किया। यह मुनिस की जिंदगी का वह वक़्त था। जब दीवान बाग़ क्रिकेट क्लब और क्रिकेट कहीं पीछे छूट गए थे। और वह रोटी कमाने की मशक्कत में जूट गया था। उसका क्रिकेट के साथ रिश्ता ख़त्म ही जाता यदि स्टार ई एस पी एन पर तेज गेंदबाजों की तलाश सम्बन्धी विज्ञापन नहीं आया होता। इस विज्ञापन को देखने के बाद बड़े भाई युनूस अंसारी ने मुनिस को प्रतियोगिता में जाने के लिए प्रेरित किया। ग्वालियर में ४००० गेंदबाजों के बीच पूरे मध्य प्रदेश से इकलौते मुनिस का चयन इस प्रतियोगिता के लिए हुआ। 'ऑल इंडिया स्कोर्पियो स्पीडस्टार कोंटेस्ट ' का प्रसारण चैनल सेवेन (अब आई बी एन सेवेन) पर हुआ। यह क्रिकेट प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम था। तीन साल पहले हुए इस कोंटेस्ट के बाद सीहोर एक्सप्रेस मुनिस का नाम मध्य प्रदेश के क्रिकेट प्रेमियों की जुबान पर छा गया, बस इस नाम को प्रदेश रणजी समिती की चयन समिति नहीं सून पाई। वरना बात आश्वासन तक ना रूकती। मुनिस का चयन भी किया जाता। खेलने की उम्र निश्चित होती है, अपनी युवा अवस्था में एक खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दे सकता है। ऐसे में मुनिस जैसे अच्छे खिलाड़ी की उपेक्षा करके हम अपनी क्रिकेट टीम को ही कमजोड बना रहे हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-238 Size: 7440 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080709/ec7f6e14/attachment.bin From balendu at gmail.com Tue Jul 8 18:50:30 2008 From: balendu at gmail.com (Balendu Dadhich) Date: Tue, 8 Jul 2008 18:50:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Art of Reading Update In-Reply-To: References: Message-ID: सम्माननीय मित्रो, राजनीति पर केंद्रित मेरे नए ब्लॉग 'मतान्तर' पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है। http://matantar.blogspot.com सादर, बालेन्दु दाधीच -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080708/38f64528/attachment-0002.html From balendu at gmail.com Tue Jul 8 18:50:30 2008 From: balendu at gmail.com (Balendu Dadhich) Date: Tue, 8 Jul 2008 18:50:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Art of Reading Update In-Reply-To: References: Message-ID: सम्माननीय मित्रो, राजनीति पर केंद्रित मेरे नए ब्लॉग 'मतान्तर' पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है। http://matantar.blogspot.com सादर, बालेन्दु दाधीच -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080708/38f64528/attachment-0003.html From naisehar at gmail.com Wed Jul 9 14:17:21 2008 From: naisehar at gmail.com (Mrityunjay Prabhakar) Date: Wed, 9 Jul 2008 14:17:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hi Message-ID: Ravikant jee, sending an article on left and indo -us deal http://nai-sehar.blogspot.com/2008/07/blog-post.html plz put it on deewan. Your's Mrityunjay Prabhakar -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080709/d5107663/attachment.html From avinashonly at gmail.com Wed Jul 9 21:00:53 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 9 Jul 2008 10:30:53 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <23929870.892241215617453570.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// बीबीसी की आउटसोर्सिंग बंद करो! बंद करो बंद करो!! Posted: 09 Jul 2008 10:25 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/330868008/blog-post_09.html बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की हिंदी, उर्दू और नेपाली सेवा के कर्मचारियों और कार्यक्रमों को लंदन से हटाकर बड़े पैमाने पर दिल्ली, इस्लमाबाद और काठमांडू भेजने के प्रयासों का ब्रितानी सांसदों ने विरोध किया है। ब्रितानी संसद में एक प्रस्ताव लाकर सांसदों ने सरकार से माँग की है कि वह वर्ल्ड सर्विस की आउटसोर्सिंग पर रोक लगाये। इराक़ पर हमला करने के विरोध में लेबर पार्टी से अलग हुए सांसद जॉर्ज गैलोवे ने यह प्रस्ताव हाउस ऑफ़ कॉमन्स में रखा है, जिस पर छह अन्य सांसदों ने हस्ताक्षर किए हैं। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने हिंदी सेवा के लगभग अस्सी प्रतिशत कर्मचारियों और सभी रेडियो कार्यक्रमों और ऑनलाइन सेवाओं को लंदन से हटा कर भारत भेजने का फ़ैसला किया है। उर्दू सेवा और नेपाली सेवाओं के कर्मचारियों को भी बड़े पैमाने पर इस्लामाबाद और काठमांडू भेजने की योजना है। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की दक्षिण एशिया के पत्रकार इस योजना का जमकर विरोध कर रहे हैं, उनका कहना है कि इस क़दम से बीबीसी की विश्वसनीयता, निष्पक्षता और कार्यकुशलता पर असर पड़ेगा। बीबीसी के कर्मचारी पिछले नौ सप्ताह से हर गुरूवार को बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के मुख्यालय बुश हाउस के बाहर फूलों के साथ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। ब्रिटेन में पत्रकारों के सबसे बड़े संगठन नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट (एनयूजे) के महासचिव जर्मी डियर इस क़दम के विरोध में कहते हैं, “हम इस योजना का विरोध करते हैं क्योंकि यह ग़लत नीतियों पर आधारित है, यह नौकरियों का मामला तो है ही, लेकिन उससे कहीं अधिक वर्ल्ड सर्विस की पत्रकारिता और उसके भविष्य के लिए भी संकट है...” एनयूजे की अर्जुम वाजेद का कहना है कि “बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का प्रबंधन हिंदी, उर्दू और नेपाली सेवा के पत्रकारों नौकरी छोड़कर चले जाने पर मजबूर कर रहा है या फिर उनसे कहा जा रहा है कि वे भारत-पाकिस्तान या नेपाल में स्थानीय शर्तों पर कम वेतन और सुविधाओं के साथ नौकरी करें...” संसद में रखे गये प्रस्ताव में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस और पाकिस्तान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी (पेमरा) के बीच हुए करार पर गहरी चिंता प्रकट की गयी है। सांसदों का कहना इस करार से बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की संपादकीय स्वतंत्रता पर असर पड़ा है। एनयूजे ने इस करार पर एतराज़ करते हुए कहा था कि “किसी देश की सरकारी एजेंसी को प्रसारण से पूर्व अपने कार्यक्रम उपलब्ध कराना संपादकीय स्वतंत्रता से समझौता है...” -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=11601255&key=0VvphG9mBh If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080709/98e2f191/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Jul 10 19:07:34 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 10 Jul 2008 19:07:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWH?= =?utf-8?b?IOCkieCkuOCljeCkpOCkvuCkpiDgpK7gpYfgpLngpKbgpYAg4KS54KS44KSo?= Message-ID: <200807101907.34630.ravikant@sarai.net> http://raviwar.com/news/16_mere_ustad_mehdi_hasan_afzalsubhani.shtml se saabhar. r मेरे उस्ताद मेहदी हसन अफज़ल सुभानी पाकिस्तान से बाहर का मैं पहला शागिर्द हूं, जिसे मेहदी हसन साहब ने गंडा बांध कर विधिवत शिष्य बनाया है. अपने गुरु को मैं जितनी बार देखता हूं, मेरा मन उनके प्रति आदर से भर जाता है. कला की सुंदरता, संगीत, आध्यात्म केवल महसूस किये जा सकते हैं, उन्हें समझा पाना लगभग नामुमकिन है. जब आप उस्ताद मेहदी हसन की आवाज़ को ग़ज़ल, ठुमरी या सिर्फ गुनगुनाने के रूप में सुनते हैं तो वो आपके अंतर में ऐसा भाव पैदा करती हैं जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. सच कहूं तो इसे बया न कर पाना लगभग नामुमकिन है. मैं टोरंटो, कनाडा में एक घर के पास से गुज़र रहा था तभी मुझे मेहदी हसन की एक गजल सुनाई पड़ी. मैं चकित रह गया क्योंकि उस इलाके के रहवासी एशियाई मूल के नहीं थे. परदेस में आवाज मैंने जाँच-पड़ताल करने का फैसला किया और जिस घर से आवाज आ रही थी, वहां मैंने दस्तक दी. कुछ ही देर में लगभग पचास साल की एक महिला बाहर आई. मैंने अपनी शंका उन्हें बताई तो उन्होंने कहा कि एक दिन वो एक देसी बाज़ार में खरीदारी करने गई थीं, और तभी उन्हें किसी के गाने की आवाज़ सुनाई दी. उस आवाज़ ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया. यह एक ऐसी आवाज़ थी जो उन्होंने कभी नहीं सुनी थी, वे उस रिकार्ड को खरीद ले आईं. इन सब बातें में सबसे ज्यादा चौंकाने बात मेरे लिए ये थी कि वह महिला ना ही कोई संगीतकार थीं ना ही उन्हें संगीत से ज्यादा लगाव था. इसे आप मेहदी हसन साहब की आवाज का जादू कह सकते हैं. उस्ताद मेहदी हसन ने अपनी आवाज़ को शास्त्रीय राग सुनाने का ज़रिया बनाया था. जब भी वे कोई ग़ज़ल गाते, उस राग को एक नया आयाम मिलता था. इसे आप उनकी हर रचना में साफ महसूस कर सकते हैं. हमारे संगीत की दुनिया के एक अन्य महान कलाकार मन्ना डे ने मेहदी हसन की “अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले ” सुनने के बाद अपने अनुभव साझा करने के लिए मेहदी हसन को सात पन्नों की एक लंबी चिट्ठी लिख मारी. संगीत बनाम आध्यात्म उस्ताद मेहदी हसन असल में एक बहुत सरल व्यक्तित्व के मालिक हैं. संगीत के प्रति अपने प्यार के अला वा बाकी सब भी संगीत के बराबर या उसी के साथ मिल सकने वाला होना चाहिए अन्यथा उसे महत्वहीन मान लिया जाता है. दूसरे शब्दों में वे संगीत के साथ आध्यात्म के स्तर से जुड़े हैं. एक वाकया मेरे जेहन में आ रहा है. वो एक सर्द सुबह थी और उस्ताद मेहदी हसन दूसरे कुछ फनकारों के साथ वीज़ा प्राप्त करने के लिए दरवाज़ा खुलने का इंतजार कर रहे थे. सुप्रसिद्ध तबला वादक तारी ने ख़ां साहब से पूछा, “ क्या आपको ठंड लग रही है ? हम सब तो बर्फ जैसा जमे हैं, हमें दरवाज़ा खुलने तक कॉफी शॉप में इंतज़ार करना चाहिए”. इस पर ख़ां साहब ने आश्चर्यजनक रूप से कहा, “बिल्कुल नहीं, मैं तो एक धुन बनाने में व्यस्त हूं”. मुझे हमेशा लगता है कि मेरे उस्ताद के लिए संगीत आध्यात्म की तरह है और वे हर हालत में उसमें डूबते-उतराते रहते हैं. मुझे आज भी याद है, जब हमने उनके लकवाग्रस्त होने के बाद फोन पर बात की थी. मैं उनकी महान आवाज़ नहीं पहचान पाया. मैं रो पड़ा. लकवा ने उनके वोकल कॉर्डस पर असर डाला था. पर बहुत ही कम समय में वो समय भी आया जब उन्होंने अपनी उसी आवाज़ में घोषणा की “मेरी आवाज़ वापस आ गई है” मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं सुना. From kashyapabhishek03 at gmail.com Thu Jul 10 19:41:11 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Thu, 10 Jul 2008 19:41:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS44KWA4KSo?= =?utf-8?b?4KWHIOCkruClh+CkgiDgpKrgpY3gpLDgpL7gpLDgpY3gpKXgpKjgpL4=?= Message-ID: http://galpaayan.blogspot.com/ पसीने में प्रार्थना ब्लू लाइन की बसों में रोज कुछ न कुछ दिलचस्प देखने को मिल ही जाता है, मगर आज का अनुभव बिल्कुल अनोखा था. आज दोपहर कोटला की रेड लाइट से कनाट प्लेस के लिए मैंने 450 नम्बर की बस पकड़ी. बस खचाखच भरी थी, सो सीट मिलने का तो सवाल ही नहीं था, सो बस की पाइप पकड़ कर सीट के इंतजार में खड़ा हो गया. दिल्ली में दो चार दिन से ऐसी उमस है कि दोपहर को ब्लू लाइन बस से यात्रा करते हुए पसीने से नहा जाना आम बात है. पसीने से उभचुभ मै सीट तलाश रहा था कि अपने पीछे मैंने बुदबुदाती हुई सी प्रार्थना की आवाज़ सुनी...जो dhrupad के aalap की तरह anwrat तेज होती जा रही थी...बाबा जी... सुखविंदर कौर की बीमारी ठीक कर दे...बाबाजी काके दे नौकरी लगा दे...बाबाजी सुखविंदर कौर को जिन्दा रख...बाबाजी मुझे जिन्दा रख...! चौंक कर पीछे मुड़ा तो देखा कि पसीने से लदफद 60 साल के एक लहीम sahaim सरदार जी आँखें बंद किए प्रार्थना में डूबे थे...देवनागरी और गुरुमुखी की यह मिश्रित प्रार्थना वयक्तिक को सामाजिक में बदल रही थी...15-16 साल pahle जब मै नया-नया साहित्य का पाठक बना था मैंने 'हंस' के किसी अंक में प्रियंवद ka उपन्यास पढ़ा था...उपन्यास का एक पात्र चिन्मय अपने आदरणीय गुरु दादू से कहता है - ' ईश्वर से व्यक्ति का सम्बन्ध वैसा ही होना चाहिए, जैसा पति का अपनी पत्नी से होता है.' ईश्वर के प्रति अपनी आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन से हमेशा मुझे चिढ सी रही है...शायद बुद्धि और विवेक से नाता रखने वाले और भी कई लोगों को रही हो, खास कर जब से दक्षिणपंथी ताक़तों ने धर्म और ईश्वर को प्रोडक्ट में तब्दील कर दिया है...मगर चीकट आस्तीन और पनियाई आँखों वाले उस वृद्ध की प्रार्थना ne मेरे दिलो दिमाग को भिंगो दिया...हिन्दी पाठकों को स्वम प्रकाश की मशहूर कहानी 'क्या तुमने किसी सरदार को भीख मांगते देखा है' की याद होगी...आज का दृश्य उस कहानी से कम मार्मिक नहीं था...जबकि कहानी की तरह यह कोई दंगा फसाद का समय नहीं...मगर कमरतोड़ महंगाई और अमरीका से परमाणु करार को बेकरार सरकार ने आम आदमी को कितना असुरक्षित, दीन और निरुपाय बना दिया है! ...ईश्वर से सार्वजनिक तौर पर मांगी गई इस भीख का पता सरकार और पॉलिसी मेकर्स को क्या कभी चल पायगा...? पसीने में प्रार्थना ब्लू लाइन की बसों में रोज कुछ न कुछ दिलचस्प देखने को मिल ही जाता है, मगर आज का अनुभव बिल्कुल अनोखा था. आज दोपहर कोटला की रेड लाइट से कनाट प्लेस के लिए मैंने 450 नम्बर की बस पकड़ी. बस खचाखच भरी थी, सो सीट मिलने का तो सवाल ही नहीं था, सो बस की पाइप पकड़ कर सीट के इंतजार में खड़ा हो गया. दिल्ली में दो चार दिन से ऐसी उमस है कि दोपहर को ब्लू लाइन बस से यात्रा करते हुए पसीने से नहा जाना आम बात है. पसीने से उभचुभ मै सीट तलाश रहा था कि अपने पीछे मैंने बुदबुदाती हुई सी प्रार्थना की आवाज़ सुनी...जो dhrupad के aalap की तरह anwrat तेज होती जा रही थी...बाबा जी... सुखविंदर कौर की बीमारी ठीक कर दे...बाबाजी काके दे नौकरी लगा दे...बाबाजी सुखविंदर कौर को जिन्दा रख...बाबाजी मुझे जिन्दा रख...! चौंक कर पीछे मुड़ा तो देखा कि पसीने से लदफद 60 साल के एक लहीम sahaim सरदार जी आँखें बंद किए प्रार्थना में डूबे थे...देवनागरी और गुरुमुखी की यह मिश्रित प्रार्थना वयक्तिक को सामाजिक में बदल रही थी...15-16 साल pahle जब मै नया-नया साहित्य का पाठक बना था मैंने 'हंस' के किसी अंक में प्रियंवद ka उपन्यास पढ़ा था...उपन्यास का एक पात्र चिन्मय अपने आदरणीय गुरु दादू से कहता है - ' ईश्वर से व्यक्ति का सम्बन्ध वैसा ही होना चाहिए, जैसा पति का अपनी पत्नी से होता है.' ईश्वर के प्रति अपनी आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन से हमेशा मुझे चिढ सी रही है...शायद बुद्धि और विवेक से नाता रखने वाले और भी कई लोगों को रही हो, खास कर जब से दक्षिणपंथी ताक़तों ने धर्म और ईश्वर को प्रोडक्ट में तब्दील कर दिया है...मगर चीकट आस्तीन और पनियाई आँखों वाले उस वृद्ध की प्रार्थना ne मेरे दिलो दिमाग को भिंगो दिया...हिन्दी पाठकों को स्वम प्रकाश की मशहूर कहानी 'क्या तुमने किसी सरदार को भीख मांगते देखा है' की याद होगी...आज का दृश्य उस कहानी से कम मार्मिक नहीं था...जबकि कहानी की तरह यह कोई दंगा फसाद का समय नहीं...मगर कमरतोड़ महंगाई और अमरीका से परमाणु करार को बेकरार सरकार ने आम आदमी को कितना असुरक्षित, दीन और निरुपाय बना दिया है! ...ईश्वर से सार्वजनिक तौर पर मांगी गई इस भीख का पता सरकार और पॉलिसी मेकर्स को क्या कभी चल पायगा...? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080710/dec0ea3c/attachment.html From kashyapabhishek03 at gmail.com Thu Jul 10 20:00:18 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Thu, 10 Jul 2008 20:00:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSX4KWI4KSw?= =?utf-8?b?IOCkieCkqOCkteCkvuCkqCDgpJXgpYcgOiDgpKTgpYDgpKg=?= Message-ID: http://galpaayan.blogspot.com/ बगैर उनवान के : तीन दोस्तों बड़ी मुश्किल है! मैंने राम पार्क मे बिताये दिल्ली के अपने शुरूआती दिनों के बारे मे लिखना शुरू किया और 16 साल पीछे पहुच गया, जब पहली बार दिल्ली के अबनूसी रंगों और गंधों से मेरा सामना हुआ था. आधी रात को रैली में आए हजारों की भीड़ मे चलते हुए भी पुरानी दिल्ली की जादूई गलियाँ मुझे बिल्कुल अकेला छोड़ दे रही थी...वो गलियाँ न जाने किन रहस्यों तक ले जातीं थी यह आज तक मै नही जान पाया. उसके बाद कई बार इन गलियों मे जाने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नही लगा. उस रात यह 'जानना' मैंने खो दिया!...भीड़ के साथ घिसटते हुए मै लाल किला मैदान पंहुचा. वहां मैंने रहस्यमयी अंधेरे मे डूबे विराट लाल किले को देखा...मैंने अपना लाल किला खो दिया था!...मेरा लाल किला यहाँ नही था...कहीं नही था...बचपन मे देखे दूरदर्शन के धारावाहिक मे बहादुर शाह ज़फर की लम्बी सफ़ेद दाढ़ी...वो गीत-संगीत...ये शायरों के नगमे, कवियों की कल्पनाएँ...है कितना बदनसीब ज़फर कि दो गज ज़मी भी न मिली कू-ऐ-यार में...यह मेरा लाल किला था...उस रात मैंने अपना यह लाल किला खो दिया था... Posted by अभिषेक कश्यप -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080710/2082f8e8/attachment-0001.html From kashyapabhishek03 at gmail.com Thu Jul 10 20:08:26 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Thu, 10 Jul 2008 20:08:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSX4KWI4KSw?= =?utf-8?b?IOCkieCkqOCkteCkvuCkqCDgpJXgpYcgOiDgpKbgpYs=?= Message-ID: http://galpaayan.blogspot.com बगैर उनवान के : दो कल मैंने इस सीरीज़ की पहली पोस्ट डाली और पश्चिमी दिल्ली के रामा पार्क मे दिल्ली के अपने शुरूआती दिनों की चर्चा करते हुए थोड़ा उलझ गया. इस माध्यम से अभी मेरा बहुत दोस्ताना सम्बन्ध नही बन पाया है . मैं जो कंप्यूटर इस्तमाल कर रहा हूँ , अभी उसमे हिन्दी टूल किट भी डाउनलोड नही हो पा रहा, सो हिन्दी लिखने के लिए फिलहाल मैं रोमन कि शरण मे हूँ. खैर, कल जैसा कि मैंने लिखा कि मैं बताना चाहता हूँ कि जगहें हमारे देखने और सोचने के ढंग को कितनी गहराई से प्रभावित करती है . क्या पता मैं क्या और कितना बता पाऊ! क्योकि अब तक तो कागज पर खूब जमा कर लिखने की आदत थी... तो कल मैं फूफा जी और सुनीता दीदी के बारे मे बता रहा था... मगर आज लग रहा है कि उनके बारे मे कुछ भी बताने से पहले मुझे थोड़ा पीछे जाना होगा, अपने अन्दर के अंधेरे कोनों के रसायन मे उस दिल्ली की गंध खोजनी होगी, जिसका सम्बन्ध फूफा जी और सुनीता दीदी के साथ मेरे संबंधों से है। वह साल 92 की गर्मियों का कोई दिन था. आधी रात को मैं अपने बड़े भाई और बचपन के दोस्त परकू के साथ पुरानी दिल्ली स्टेशन पर नींद से ऊँघती आँखों मे थोड़ी-सी दहशत और ढेर सारी उत्सुकता लिए हजारों लोगों की भीड़ मे घिस्टा चला जा रहा था. वह शायद बी जे पी की गरीब रैली थी, मुफ्त दिल्ली घूम आने के लोभ मे हम जिसके साथ हो लिए थे. वह मेरी इस तरह की पहली यात्रा थी. आज सोचता हूँ तो दहशत से भर जाता हूँ कि भेडं-बकरी की तरह लद कर इतनी मुसीबत झेल कर हम क्या लेने, क्या पाने दिल्ली आय थे ? भोपुओं की अश्लील आवाज़ चिल्ला-चिल्ला कर रैली मे आय उन हजारों लोगों का स्वागत कर रही थी... झुंड के झुंड लोग अपने लिए लाल किला मे बने तम्बुओं मे जा रहे थे...आधी रात मे इस महानगर के तरह-तरह के अंधेरों और तरह-तरह के उजालों मे मैं दिल्ली के आबनुसी रंगों और जादूई गंधों को अपने भीतर उतरते देख रहा था........... Posted by अभिषेक कश्यप -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080710/d91c22dd/attachment.html From kashyapabhishek03 at gmail.com Thu Jul 10 20:11:54 2008 From: kashyapabhishek03 at gmail.com (abhishek kashyap) Date: Thu, 10 Jul 2008 20:11:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSX4KWI4KSw?= =?utf-8?b?IOCkieCkqOCkteCkvuCkqCDgpJXgpYcgOiDgpI/gpJU=?= Message-ID: http://galpaayan.blogspot.com बगैर उनवान के : एक दोस्तों, कल रात मैं पूरे एक साल बाद रामा पार्क गया. रसरंजित! किंचित मदांध! और यह देख कर बेहद खुश हुआ कि वह पूरा इलाका आज भी वैसा ही है जैसा मैं उस छोड़ कर गया था. पश्चिमी दिल्ली मे यह इलाका उत्तम नगर से द्वारका मोड़ के रास्ते मे है. साल २००३ के आख़िर मे जब मैं दिल्ली आया तो थोड़े दिन उत्तम नगर मे रहने के बाद मैंने रामा पार्क मे एक कमरे का मकान किराये पर लिया. यह मकान तिलक नगर मे रहनेवाले किसी गुप्ता जी का था. नीचे दूध की डेरी थी, जिस पर उनका बेटा सोनू बैठता था और ऊपर दो कमरों का छोटा-सा मकान था. मुझे एक कमरे की जरूरत थी, सो मुझे एक कमरा-रसोई महज सात सौ महीना के किराय पर मिल गया. वह मकान मेरे लिए सुनीता दीदी ने खोजा था. सुनीता दीदी से मेरा परिचय फूफा जी के जरिये हुआ था. फूफा जी मेरे कोई रिश्तेदार नही थे. वे दिल्ली मे मेरे संघर्ष के दिन थे. हमेशा फाकाकशी रहती. फूफा जी के तीनमंजिले मकान मे एक परिचित के ज़रिए मैं मकान किराय पर लेने गया था. मकान के ग्राउंड फ्लोर पर उनकी कपड़े और राशन की दुकान थी और बाकी के तीन फ्लोर किरायादारों के लिए थे. कपडों की दुकान पर वे ख़ुद बैठते थे और राशन की दुकान पर उनका भतीजा पंकज. बाद मे मुझे पता चला कि ये दुकान-मकान कुछ भी उनका नही है. उनके सगे साले-साली यानी पंकज के माता-पिता का निधन उसके बचपन मे ही हो गया था. पंकज के पिता की राशन की दुकान थी और वह सूद पर पैसे देता था. सात साल के बेटे के साथ-साथ अपनी दुकान और बाज़ार मे अपने बीसियों लाख छोड़ कर मरा था . फूफा जी की कोई औलाद नही थी. जब कोई रिश्तेदार बच्चे और दुकान की जिम्मेवारी सँभालने आगे नही आया तो फूफा जी ने उसकी जिम्मेदारी ली. बाज़ार से पैसे वसूल कर यह मकान बनवाया...पंकज के फूफा होने की वजह से वे जगत फूफा हो गए...खैर, मैंने उनके मकान मे फर्स्ट फ्लोर का दो कमरों का मकान किराये पर ले लिया. मगर जल्द ही उनको मेरी हालत का अंदाजा हो गया. फूफा जी ने मुझसे एक महीने का किराया नही लिया और मैं उनके पैसे लौटा सकूँगा या नही, बिना इस बात की चिंता किए मेरी जब-तब मदद करते रहे. सुनीता दीदी फूफा जी की दुकान से साडियाँ ले जा कर बेचती थी. जब तक मैं रामा पार्क मे रहा फूफा जी की दुकान पर ठाट से बैठ कर चाय पीता, पान खाता रहा. सुनीता दीदी के घर जब-तब नाश्ता, दोपहर और रात का खाना खाता रहा....... यह एक बहुत लम्बी कहानी है , जिसके ज़रिए मैं बताना चाहता हूँ कि जगहें और घर हमारे देखने और सोचने की प्रक्रिया को कितनी गहराई से प्रभावित करती है......बाकी कल लिखूंगा....मिहिर, विनीत, राकेश जी और वेद प्रकाश जी ने कल गल्पयान के पहले पोस्ट को देख कर मेरी जो होसलाअफजाई की यह सीरीज़ लिखने का साहस उसी का नतीजा है. हार्दिक धन्यवाद ! Posted by अभिषेक कश्यप -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080710/433a0546/attachment-0001.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Jul 11 19:16:57 2008 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 11 Jul 2008 19:16:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSu4KSw4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSC4KS5IOCkleClhyDgpIngpLXgpL7gpJog4KSu4KS54KScIA==?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KS34KS/4KSVIOCkq+Ckv+CkuOCksuCkqCDgpKjgpLngpYA=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkueCliA==?= Message-ID: <749797f90807110646i378e68f8nd16dafe6ad2f90a4@mail.gmail.com> समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेटेरी अमर सिंह कई मायनों में जानी मानी हस्ती हैं ! आज के बाद उनको जिस एक अन्य जरूरी कारण से जाना जाएगा वह है सामाजिक जीवन में स्त्री के लिए उनके मन में बसने वाला सम्मान भाव ! एक औपचारिक बातचीत में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की लीडर सोनिया गांधी से हुई रजनीतिक मुलाकात के लिए "सुहागरात " और "बलात्कार" जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया ! कई स्त्री -संगठनों ने इसपर आपत्ति व्यक्त की है और अमर सिंह से उनके इस मासूस शाब्दिक प्रतीक के इस्तेमाल के एवज में सार्वजनिक माफी की मांग की है ! अमर सिंह की बात जाने दें ! ये दो बडे बडों के बीच का मसला है और कई मोर्चों से विरोध के स्वर भी उठ रहे हैं ! बात सुलट जाएगी ! सबकुछ पीसफुल हो ही जाएगा !पर एक आम कामकाजी औरत के व्यावसायिक जीवन में इस प्रकार के भाषिक यौन उत्पीडन की कल्पना करें तो हमारा स्वयं को कटघरे में पाते हैं ! कामकाजी जीवन में पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबर की भागीदारिता करने वाली हर स्त्री कभी न कभी इस तरह की वाचिक हिंसा का शिकार हो ही जाती है ! बहुत बार स्त्री अपने लिए कहे गए जुमलों और व्यंग्यों के भीतर छिपी यौन हिंसा को पहचान नहीं पाती ! प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धा में पुरुष से खुद को हीन न मान ने वाली औरतें हों या पुरुष को स्वाभाविक तौर पर स्त्री से बेहतर जीव मानने में संतोष करने वाली औरतें - दरअसल दोनों तरह की औरतें पुरुषों के द्वारा किए गए भाषिक हमले का शिकार होती हैं ! कभी कभी तो महज हल्के लगने वाले माहौल में हल्की बातचीत, लतीफागिरी , चुहलबाजी , प्रोफेशनल बातचीत आदि में पुरुष मित्रों और सहकर्मियों के द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा व प्रतीक स्त्री के प्रति उनके नजरिये को दर्शाते हैं ! मैंने अक्सर देखा है अपने लिए इस्तेमाल की गई सेक्सिस्ट भाषा व आपत्तिअजनक जुमलों का विरोध करने का नतीजा बहुत त्रासद होता है ! आपके प्रतिरोध के उपहार स्वरूप आपके लिए कहा जाएगा - य़े औरत तो पागल हो गई या फिर इस औरत का घरेलू जीवन ही बडा खराब है जिसका गुस्सा यह यहां उतार रही है या कमाल है इसका कौन सा पल्ला खींच लिया है या कहा जा सकता है यहाँ औरत झूठा इल्जाम लगा रही है किसी शत्रु सहकर्मी के भडकाने पर फंसा रही है ...वगैरह वगैरह... अमर सिंह की सार्वजिक रूप से की गई बयानबाजी के राजनीतिक गैरराजनीतिक पाठ भी हो सकते हैं और इस्तेमाल भी ! पर एक आम औरत जब अपने लिए नागवार गुजरने वाले आपत्तिजनक जुमलों का अकेला प्रतिरोध करती है तो उसके निहितार्थ घोर निजी होते हैं ! यहां घर परिवार ,मित्र, निकट की स्त्रियां व्यवस्था के सहयोग की मात्रा भी बहुत कम होती है ! यौन उत्पीडन का आरोप दर्ज करने वाली स्त्री को हर कदम पर अपने चरित्र और इरादों की सफाई भी देनी होती है ! इस विरोध के झंझटों से बच कर चलने वाली हर स्त्री कामकाज के स्थलों पर यह मानकर चलने लगती है कि जब बाहर निकलोगी तो यह सब तो होगा ही ...! पुरुष अपने अवचेतन में स्वयं स्त्री का यौन -नियंता समझता है ! उसके मन की भीतरी परतों मे स्त्री मात्र यौन- उपकरण है जिसपर बलपूर्वक अधिग्रहण किया जा सकता है ! सो कबीलाई समाज के संस्कार जाते जाते भी नहीं जा पाते ! उसके लिए स्त्री एक यौन प्रतीक है ,जिसकी कोई यौनिक आइडेंटिटी नहीं है ! इस अवचेतन मन के दबावों में सुहागरात बलात्कार ,संभोग ,स्त्री की देह सब प्रतीक है जिनका इस्तेमाल पुरुष किसी भी गंभीर अभिव्यक्ति के लिए भी जाहिर तौर पर कर बैठते हैं ! अमर सिंह ने भी समझा होगा इस भाषा के इस्तेमाल से वे सोनिया गांधी के राजनीतिक समीकरणों को आम भोली भाली जनता तक आसानी से पहुंचा पाऎंगे ! वे शायद भारतीय जनता के सार्वजनिक अवचेतन की गहरी समझ रखते होंगे ! या ये उनकी ज़बान की फायडियन स्लिप भी हो सकती है !.....जाने दें ..! जाहिर है स्त्री जितना सिकुडॆगी उतनी ही उसके लिए जगह कम होती जाएगी ! उसे अपने स्तर पर यौन हिंसा के इस रूप का विरोध करना ही होगा ! पर वह यह भी जानना चाहेगी कि ऎसे में स्त्री से इतर समाज का क्या स्टैंड है ? क्या हमें उस दिन का इंतज़ार है जब स्त्री की भाषा उन यौन प्रतीकों से बनी होगी जो पुरुष के लिए तकलीफदेह होंगे और उसकी कार्यकुशलता को सेक्सुअल आधारों पर कमतर सिद्ध करते होंगे ! -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080711/484ec00a/attachment.html From avinashonly at gmail.com Fri Jul 11 21:12:19 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Fri, 11 Jul 2008 10:42:19 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <20287828.972191215790939131.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// क्या असद ज़ैदी सांप्रदायिक कवि हैं? Posted: 11 Jul 2008 10:25 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/332766651/blog-post_11.html हिंदी कवि असद जैदी का नया कविता संग्रह सामान की तलाश हाल में परिकल्‍पना प्रकाशन, लखनऊ से छपा है। इस पर विवाद उठा है। उन्‍हें हिंदू और हिंदी विरोधी करार दिया गया है। दूसरी तरफ इस आरोप का खंडन करते हुए अन्‍य कवि उनके बचाव में आये हैं। जनसत्ता में दो मत प्रकाशित हुए, जिन्‍हें यहां दे रहे हैं। एक में असद जैदी को एकांगी बताया गया है, दूसरे में उनकी तुलना असदुल्‍ला खां गालिब से की गयी है। इन दोनों आलेखों के साथ चर्चित संग्रह की कुछ कविताएं यहां पेश हैं।1857 : सामान की तलाश 1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं ग्‍लानि और अपराध के इस दौर में जब हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और एक ठेठ हिंदुस्‍तानी शोरगुल भयभीत दलालों और मुख़बिरों की फुसफुसाहटें पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्‍यासों और व्‍यावसायिक सिनेमा का असर हो पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं जो भारत सरकार ने ‘आज़ादी की पहली लड़ाई’ के 150 साल बीत जाने का जश्‍न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर शर्मिंदा है और माफ़ी मांगता है पूरी दुनिया में जो एक बेहतर गुलामी के राष्‍ट्रीय लक्ष्‍य के लिए कुछ भी क़ुरबान करने को तैयार है यह उस सत्तावन की याद है जिसे पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्‍चंद्रों और उनके वंशजों ने जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे जिस सन् सत्तावन के लिए सिवा वितृष्‍णा या मौन के कुछ नहीं था मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेंद्रनाथों, ईश्‍वरचंद्रों, सैयर अहमदों, प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के मन में और हिंदी के भद्र साहित्‍य में जिसकी पहली याद सत्तर अस्‍सी साल के बाद सुभद्रा ही को आयी यह उस सिलसिले की याद जिसे जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्‍महत्‍या करते हुए इस ज़मीन के किसान और बुनकर जिन्‍हें बलवाई भी कहना मुश्किल है और जो चले जा रहे हैं राष्‍ट्रीय विकास और राष्‍ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकल कर सामूहिक क़ब्रों और मरघटों की तरफ़ एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह किसने कर दिया है उन्‍हें इतना अकेला? 1857 में मैला-कुचैलापन आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्‍य आज वह भयंकर अपराध है लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्‍सर, बाद में पूरी होने के लिए किसी और युग में किन्‍हीं और हथियारों से कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठ कर लड़ने लगते हैं फिर से जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज़्यादा मृत हैं पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम या हमदर्द समझ कर बताने लगते हैं अब मैं नजफ़गढ़ की तरफ़ जाता हूं या ठिठककर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्‍ता 1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे और हम उनके लिए कैसे मरते थे कुछ अपनी बताओ क्‍या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्‍याय या तुम्‍हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय। अयोध्‍या में कुछ क़ब्रें इस मलबे के पीछे कुछ दूर जाकर नदी के उस तरफ़ कई क़ब्रें हैं जिनमें दबी हैं कुछ कहानियां ज़ंग लगा एक चिमटा तांबे का प्‍याला एक तहमद एक लाठी एक दरी मेंहदी से रंगे बाल 2 X 3 इंच का नीले शीशे का चमकदार टुकड़ा और इसी तरह कुछ अटरम-सटरम हर शै ख़ामोश लेकिन अपनी जगह से कुछ सरकी हुई हर शै, दम साधे, हमारी तरह, किसी इंतज़ार में। कौन नहीं जानता कौन नहीं जानता अयोध्‍या में सभी कुछ काल्‍पनिक है वह मस्जिद जिसे ढहाया गया वह काल्‍पनिक थी वे तस्‍वीरें किसी मशहूर फ़‍िल्‍म के लिए थीं वह एक दोपहर की झपकी थी एक अस्‍तव्‍यस्‍त सा स्‍वप्‍न था या किसी का ख़र्राटा जिसकी आवाज़ के पर्दे में मेहराब के चटकने की ख़फ़ीफ़ सी आवाज़ धुल गयी कुछ गुंबदें धीमी गति से गिरती चली गयीं काले-सफ़ेद धुंधलके में। इस्‍लामाबाद मौसम ख़ुशनुमा था धूप में तेज़ी न थी हवा धीरे धीरे चलती थी, पैदल चलता आदमी चलता चला जा सकता था कई मील बड़े मज़े से यह भी एक ख़ुशफ़हमी थी हालांकि मेरे साथ चलते शुक्‍ल जी से जब रहा न गया तो बोले : मेरे विचार से तो अब हमें इस्‍लामाबाद पर परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए। दूरभाष साहित्‍य अकादमी के अफ़सरान आपके प्रश्‍नों से तंग आ चुके हैं। उन्‍हें सताना बंद कीजिए - उन्‍हें नहीं मालूम बंदी कविराय का फ़ोन नंबर और कलानाथ भा.प्र.से. के घर का पता वे आपको कैसे मिला सकते हैं सुशीला गुजरांवाल से या उनके ख़ाविंद से जिन्‍हें ख़ुद नहीं आजकल अपना पता! कौन खोटे? महेश खोटे! अजी वो तो कभी के यहां से जा चुके... महादेव प्रसाद से मिलिए या टेलिफ़ोन इन्‍क्‍वायरी से पूछिए महादेव प्रसाद? हां हां वही... परसों ही की बात है फ़ोन की घंटी बजी और अकादमी के सचिव से पूछा गया हमदर्द मुरादाबादी का स्‍वास्‍थ्‍य अब कैसा है और अकादमी का कोई आदमी उनके निवासस्‍थान पर तैनात है या नहीं... और हास्‍य कविता महाकुंभ की तारीख़ें क्‍या बदल दी गयीं हैं और वो जो गुरदास कान आने वाले थे कब आएंगे? साहित्‍य अकादमी के कारकुन शादी के सुंदर कार्ड बनवाने में आपकी मदद नहीं कर सकते हां तलाक़शुदा लोगों का अकादमी अपने वाचनालय में स्‍वागत करती है - वे बेहतरीन पाठक साबित होते हैं! जी नहीं, मसख़रों की अखिल भारतीय डाइरेक्‍टरी हम नहीं छापते हां कालातीत हास्‍य से जो रिश्‍ता साहित्‍य का बनता है उसको अकादमी मानती है... और इस विषय पर सेमिनार की योजना कुछ समय से विचाराधीन है। जी निखिल हिंदू सम्‍मेलन की गतिविधियों से तो हम वाक़‍िफ़ नहीं विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के बारे में ज़रूर जानते हैं पर वह हमारी शाखा नहीं है और विश्‍व हिंदू परिषद का हिंदू साहित्‍य सम्‍मेलन से कोई सीधा रिश्‍ता नहीं है... अव्‍वल तो आपकी मुराद शायद हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन से है... जी? अच्‍छा! हिंदू साहित्‍य सम्‍मेलन फिर कोई दूसरी संस्‍था होगी। नागरी प्रचारिणी सभा के हम मेम्‍बर नहीं और हिंदी जाति परिषद का नाम तो कभी पहले सुना नहीं! अच्‍छा, तो यह उत्तर-नेहरू विकास अध्‍ययन संस्‍थान का एक प्रकोष्‍ठ है! ठीक है। सुनिए, यह अकादमी एक अखिल भारतीय संस्‍था है और नागरी प्रचारिणी सभा या हिंदी जाति परिषद - दरअसल - दूसरी तरह की अखिल भारतीय संस्‍थाएं हैं हमारा इनसे कोई झगड़ा नहीं - असल में ये ग़ैर सरकारी संगठन हैं और अकादमी एक स्‍वायत्त संगठन। देखिए, हम न किसी के विरोध में हैं, न पक्ष में संविधान के आठवें शिड्यूल में जो भाषाएं हैं उन सबको अकादमी भारतीय भाषा का दर्जा देती है उर्दू भी - जैसा कि आप जानते हैं - आठवें शिड्यूल में है और नागरी प्रचारिणी वालों को भी इसका पता है। आप कुछ जिज्ञासु आदमी मालूम होते हैं देखिए हिंदुत्‍व की परिभाषा अकादमी ने नहीं उच्‍चतम न्‍यायालय ने तय की है : हम तो पालन के दोषी हैं और अगर हम ऐसा बहुत लंबे समय से करते चले आ रहे हैं तो इसे गफ़लत नहीं, दूरंदेशी समझा जाना चाहिए। हिंदू सांसद आपका पानी बेस्‍वाद आपका खाना ख़राब आपकी ज़बान ग़लीज़ आपकी पोशाक नक़ली आपका घर बेहूदा आपका बाहर बेकार आपकी रूह लापता आपका दिल मुर्दार आपका जिस्‍म आपसे बेज़ार आपका नौकर भी है आपसे नाराज़ मेरा वोट लिये बग़ैर भी आप मेरे सांसद हैं आपको वोट दिये बग़ैर भी मैं आपकी रिआया हूं अचानक आमने सामने पड़ जाने पर हम करते हैं एक दूसरे को विनयपूर्वक नमस्‍कार। पूरब दिशा एक दिन इस दुनिया से उर्दू बोलने वालों का सफ़ाया हो जाएगा रह जाएगी बस हमारी प्‍यारी हिंदी भाषा दफ़ना देंगे फिर हम अपनी यह कुल्‍हाड़ी एक दिन ख़त्‍म हो जाएंगी पश्‍िचम की तरफ़ मुंह करने वाली क़ौमें हर तरफ़ होगा पूरब की रीत का बोलबाला एक दिन पश्‍िचम दिशा ही ख़त्‍म हो जाएगी अकेली बच जाएगी बस हमारी पूरब दिशा। शनिवार सुबह सुबह मैं रास्‍ते में रुक कर फ़ुटपाथ पर झुक कर ख़रीद रहा था हिंदी के उस प्रतापी अख़बार को किसी धातु के काले पत्तर की तेल से चुपड़ी एक आकृति दिखा कर एक बदतमीज़ बालक मेरे कान के पास चिल्‍लाया - सनी महाराज! दिमाग़ सुन्‍न ऐनक फिसली जेब में रखे सिक्‍के खनके मैंने देना चाहा उसको एक मोटी गाली इतनी मोटी कि सबको दिखाई दे गयी लड़का भी जानता था कि पहली ज़्यादती उसी की थी और यह कि ख़तरा अब टल गया कहां के हो? मैंने दिखावटी रुखाई से पूछा और वह कमबख़्त मेरा हमवतन निकला ये शनि महाराज कौन हैं? उसने कहा - का पतौ...। इसके बाद मैंने छोड़ दी व्‍यापक राष्‍ट्रीय हित की चिंता और हिंदी भाषा का मोह भेंट किये तीनों सिक्‍के उस बदमाश लड़के को। पानी जब तक मैं इसे जल न कहूं मुझे इसकी कल-कल सुनाई नहीं देती मेरी चुटिया इससे भीगती नहीं मेरे लोटे में भरा रहता है अंधकार पाणिनी भी इसे जल ही कहते थे पानी नहीं कालांतर में इसे पानी कहा जाने लगा रघुवीर सहाय जैसे कवि हुए; उठ कर बोले : ‘पानी नहीं दिया तो समझो हमको बानी नहीं दिया।’ सही कहा - पानी में बानी कहां वह जो जल में है। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080711/c00c9447/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Mon Jul 14 17:56:36 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Mon, 14 Jul 2008 17:56:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSu4KSy?= =?utf-8?b?4KS+IOCksuCliyDgpKrgpY3gpLDgpYvgpKvgpL7gpIfgpLIg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?4KS4IOCkleCkviAuLi4=?= Message-ID: <196167b80807140526n748f3958leba7c14f4573ebd8@mail.gmail.com> लगभग एक सप्ताह पहले कीर्ति नगर में एक दस वर्षीय बच्चे अफारान की मौत किसी चॅनल के लिए बड़ी ख़बर नहीं बनी. उस बच्चे के साथ दो लोगों ने अप्राकृतिक यौनाचार किया. पत्रकार योगेन्द्र ने यह जानकारी देते हुए बताया, जबरदस्ती किए जाने की वजह से बच्चे की नस भींच गई. जिससे घटनास्थल पर ही बच्चे की मौत हो गई. जिन दो लोगों ने बच्चे के साथ जबरदस्ती की, वे एक फक्ट्री में मजदूरी करते हैं. अफारान के अब्बू भी मजदूर हैं. योगेन्द्र के अनुसार- वह इस स्टोरी को अपने चैनल के लिए करके वापस लौटा. लेकिन स्टोरी नहीं चली. क्योंकि यह लो प्रोफाइल केस था. योगेन्द्र ने बताया, 'मेरे बॉस ने साफ़ शब्दों में कहा- 'इस ख़बर को किसके लिए चलावोगे. यह लो प्रोफाइल केस है. कौन देखेगा इसे. साथ में उन्होंने यह भी कहा, अगर बच्चे के साथ तुम्हारी बहूत सहानुभूति है तो टिकर चलवा दो. और इस संवाद के साथ उस ख़बर का भी अंत हुआ. अर्थात ख़बर रूक गई. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-32 Size: 2114 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080714/8fae5561/attachment.bin From rajeshkajha at yahoo.com Tue Jul 15 12:30:43 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 15 Jul 2008 00:00:43 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FUEL Hindi Evaluation Meet (12-13 July) Message-ID: <372817.65054.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> Hi, Fuel Hindi Evaluation Meet organized by Red Hat, on 12-13 July 2008, successfully completed and came with a evaluated Fuel Hindi list of 578 entries.  For two full days, all active contributors of Hindi Localization Community with linguists and technical experts sat together to decide a standard replacement for entries that are coming on menu & sub-menus of desktop and applications used very frequently. Please go here for the details: https://fedorahosted.org/fuel/wiki/fuel-hindi FUEL (Frequently Used Entries for Localization) aims at solving the Problem of Inconsistency and Lack of standardization in Computer Software Translation across the platform for all India Languages. It will try to provide a standardized and consistent look of computer for a language computer users.  Fuel Hindi Evaluation Meet was a successful move towards the problem and it came with the standard translation of entries that are being frequently used by a normal user. I am very much thankful to all who participated and helped to make it successful. regards, Rajesh --- On Fri, 7/4/08, Rajesh Ranjan wrote: From: Rajesh Ranjan Subject: Fw: [Indlinux-hindi] FUEL Hindi Evaluation Meet (12-13 July) To: "Deewan" Date: Friday, July 4, 2008, 11:31 AM --- On Fri, 7/4/08, Guntupalli Karunakar wrote: From: Guntupalli Karunakar Subject: [Indlinux-hindi] FUEL Hindi Evaluation Meet (12-13 July) To: "IndLinux Hindi" Date: Friday, July 4, 2008, 12:22 AM Hi, A workshop on standardizing frequently used terminology is being organized in Pune next weekend. This will evaluate and discuss about 600 terms commonly used in Graphic User interfaces (esp menus, dialogs etc) in additional to Hindi Glossary work done in past. List of terms and completed work would be available online post workshop. More details below. Regards, Karunakar ======================== Fuel Hindi Evaluation Meet ------------------------ FUEL (Frequently Used Entries for Localization) aims at solving the Problem of Inconsistency and Lack of standardization in Computer Software Translation across the platform for all Indic Languages. It will try to provide a standardized and consistent look of computer for a language computer users. Fuel Hindi Evaluation Meet is a move to discuss the problem and come with the translation of an entries list created by choosing frequently used entries from important applications. Date: 12-13 July 2008 (10am - 6pm) Venue: Red Hat Software Services (India) Pvt. Ltd. 6th Floor, East Wing, Marisoft-III, Marigold premises Kalyani Nagar Pune - 411 014 Tel : +91 20 4005 7300 (Nearby Adlabs Gold in Kalyani Nagar.) Please be at venue around 9.30 AM. For Participants: If possible, please try to come with useful dictionaries and related items for the evaluation of words. Fuel Hindi Evaluation Meet Schedule ------------------------ Saturday, 12 July 2008 Day I: 10:00 -10:30 Meet and Greet 10:30 -11:00 FUEL - An Introduction 11:00 -11:30 Fuel Hindi : List of Entries - Discussions 11:30 -11:45 TEABREAK 11:45 -13:00 Fuel Hindi : Discussions (continued) 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:30 Fuel Hindi : Discussions (continued) 15:30 -15:45 TEABREAK 15:45 -17:00 Fuel Hindi : Discussions (continued) 17:00 -18:00 Deciding those Words that need more attention Sunday, 13 July 2008 Day II: 10:00 -11:30 Working on words that need attention 11:30 -11:45 TEABREAK 11:45 -13:00 Preparing final replacements for words need to be changed 13:00 -14:00 LUNCH 14:00 -15:45 Fuel Hindi : Final list Preparation 15:45 -16:00 TEABREAK 16:00 -17:30 Fuel Hindi : Final list Preparation and it's public availability 17:30 -18:00 Summary ================================= ------------------------------------------------------------------------- Sponsored by: SourceForge.net Community Choice Awards: VOTE NOW! Studies have shown that voting for your favorite open source project, along with a healthy diet, reduces your potential for chronic lameness and boredom. Vote Now at http://www.sourceforge.net/community/cca08 _______________________________________________ Indlinux-hindi mailing list Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080715/f352bd6a/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Jul 15 15:05:53 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 15 Jul 2008 02:35:53 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWC4KSyIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCAxMiDgpJzgpYHgpLLgpL7gpIgg?= =?utf-8?b?4KSV4KWLIOCknOCkvuCksOClgA==?= Message-ID: <628554.50723.qm@web52904.mail.re2.yahoo.com> फ़्यूल परियोजना की ओर से हिन्दी कंप्यूटर की बारंबार प्रयोग में आनेवाली प्रविष्टियों के एक मानक रूप की तलाश शायद समाप्त हुई लगती है. हिन्दी कंप्यूटर के मानकीकरण के प्रयास में परंपरागत प्रयासों से कुछ अलग हटकर फ़्यूल के प्रयास को एक बड़ी सफलता मिली है. व्यापक सामुदायिक मूल्यांकन के बाद फ़्यूल हिन्दी को गत रविवार को जारी किया गया है. कई अनुवादकों, भाषा के जानकार लोगों और स्थानीयकरण तकनीक से जुड़े धुंरधरों ने मिलकर फ़्यूल हिन्दी का मूल्यांकन कर उसे सार्वजनिक रूप से जारी किया. आप फ़्यूल हिन्दी के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं. फ़्यूल की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ शब्द पर निर्णय खुले व साझेदारी से लिए जाते हैं. फिर इस परियोजना में आपको सूची के संबंध में अपनी शिकायत को दर्ज़ करने की भी सुविधा है. किसी दूसरे सॉफ़्टवेयर विकास की प्रक्रियाओं की तरह यहाँ भी सारी सुविधाएँ हैं और कोई भी व्यक्ति इससे जुड़ सकता है. सबसे महत्वपूर्ण रूप से, यहाँ पर एक पूरे डेस्कटॉप की समग्रता में देखने के कोशिश की गई है बजाए अलग अलग अनुप्रयोग के. यह निश्चित रूप से डेस्कटॉप स्थानीयकरण के मानकीकरण की ओर जाने में मदद करेगा. साथ ही वैसे लोगों की सुविधा के लिए मूल्यांकन किए गए फाइल को दूसरे रूप में भी रखा गया है जो पीओ प्रारूप से परिचित नहीं हैं. इसके अलावे वर्शन कंट्रोल सिस्टम व एक डाक सूची भी है. दो दिनों तक लोगों ने मिल-बैठकर तय किया है कि भविष्य में इन प्रविष्टियों का स्वरूप स्थिर रखने की कोशिश की जाएगी...लेकिन माँग और आवश्यकता पड़ने पर हम तब्दीली भी जरूर करेंगे. साथ ही अनुप्रयोगों के नए संस्करणों के परिवर्तन को समाहित करने के लिए हम आवधिक रूप से इसे नए रूप में जारी करेंगे. लेकिन यह तो बाद की बात है...पहले हिन्दी फ़्यूल सूची pdf, ods या po में से किसी रूप में डाउनलोड कीजिए और अपने सुझाव इस फ़्यूल डाक सूची में शामिल होकर भेजिए. सादर, राजेश रंजन http://kramashah.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080715/e606337a/attachment-0001.html From invitations at green-room.ning.com Wed Jul 16 12:29:26 2008 From: invitations at green-room.ning.com (Mrityunjay Prabhakar) Date: Wed, 16 Jul 2008 06:59:26 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Come join me on Green-room... Message-ID: <7357280.1216191566244.JavaMail.xncore@omxp> Green-room: A public spehere open to differences Mrityunjay Prabhakar has invited you to join Green-room -------------------- Hi, I am inviting you all to join this forum to enjoy the freedom of speech and to build a public sphere, empowering enough to build a pressure group in the functioning of the society. Check out Green-room: http://green-room.ning.com/?xgi=5Qe8mpy If your email program doesn't recognize the web address above as an active link, please copy and paste it into your web browser -------------------- Members already on Green-room ANAMITRA SARKAR, amrita madhukalya, ananya, Dr. Anil Kumar Virmani, ananya -------------------- About Green-room... 6 members -------------------- To control which emails you receive on the corner, or to opt-out, go to: http://green-room.ning.com/profiles/profile/emailSettings -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080716/dd17d01c/attachment.html From invitations at green-room.ning.com Wed Jul 16 12:29:25 2008 From: invitations at green-room.ning.com (Mrityunjay Prabhakar) Date: Wed, 16 Jul 2008 06:59:25 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Come join me on Green-room... Message-ID: <3611386.17234081216191565883.JavaMail.xncore@omxp> Green-room: A public spehere open to differences Mrityunjay Prabhakar has invited you to join Green-room -------------------- Hi, I am inviting you all to join this forum to enjoy the freedom of speech and to build a public sphere, empowering enough to build a pressure group in the functioning of the society. Check out Green-room: http://green-room.ning.com/?xgi=9TpTqmI If your email program doesn't recognize the web address above as an active link, please copy and paste it into your web browser -------------------- Members already on Green-room ANAMITRA SARKAR, amrita madhukalya, ananya, Dr. Anil Kumar Virmani, ananya -------------------- About Green-room... 6 members -------------------- To control which emails you receive on the corner, or to opt-out, go to: http://green-room.ning.com/profiles/profile/emailSettings -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080716/269dad03/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Wed Jul 16 13:23:32 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 16 Jul 2008 13:23:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KSlIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KSoIOCkheCksOCljeCkpeCkvuCkpCDgpJzgpLzgpYfgpLk=?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClhyDgpJfgpYHgpKrgpY3gpKQg4KSw4KWL4KSX?= In-Reply-To: <292550dd0807160051u3c56bf5al1afc5746dbc42801@mail.gmail.com> References: <292550dd0807160051u3c56bf5al1afc5746dbc42801@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0807160053i5f3b29d3o91fcc4a1cb1fa33f@mail.gmail.com> मित्रों जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ, कलाकार, फिल्‍म निर्माता, पत्रकार व लेखक तथा सराय और रक्स मीडिया कलेक्टिव के संस्थापकों में से एक शुद्धब्रत सेनगुप्ता फिलहाल सराय मीडिया लैब में इंटर-मीडिया एवं डिजिटल कल्चर पर शोध कर रहे हैं. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है दीवन-ए-सराय 02: शहरनामा में प्रकाशित शुद्धब्रत सेनगुप्ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग की पहली किस्त. जल्दी ही शेष किस्तें भी पाठकों के लिए उपलब्ध होंगी. इसके लिए लेखक, अनुवादक, संपादक द्वय , प्रकाशक एवं विशेष सहयोगी चन्‍दन शर्मा का आभार. सीधे लेखक तक अपनी राय भेजने के लिए लिखें shudha at sarai.net पर. अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग ''एक रोज़ शायद ... लोग ये सवाल पूछेंगे कि अपनी सबसे पुरशोर कारस्तानियों पर छयी चुप्पी को बनाए रखने पर हम इतने आमादा क्यों हैं।'' मिशेल फूको, द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्शुऑलिटी, खंड I कनॉट प्लेस के आउटर सर्कल के गलियारे में बने मोड़ के पास एक छोटा सा कोना। इसी कोने की फुटपाथ पर एक आदमी पॉर्न साहित्य बेच रहा है। पास ही में एक लड़का दिल की शक़्ल वाले रजतरंगी गुब्बारे बेच रहा है। दोनों के पीछे की दीवार पर मीरा नायर की कामसूत्र का एक बदरंग हो गया पोस्टर लगा हुआ है। पोस्टर के पास ही सिक्के से चलने वाला एक फ़ोन है जो अब चलता नहीं है। जल्दबाज़ी में ही सही लेकिन बहुत सारे लोगों ने उस दीवार पर अपने-अपने दिल की बात कह डाली है। इस ग़रज़ से कि किसी की लापरवाह नज़र से वह चूक न जाएँ, तक़रीबन सभी ने अपने संदेशों के कुछ ख़ास हिस्सों को पूरी एहितयात के साथ रेखांकित भी कर दिया है। इन पैग़ामों में लोगों ने अपने नाम और फ़ोन नंबर दिए हैं और पढ़ने वालों को बात करने का खुला न्यौता भी। ज़्यादातर लोगों ने रात के एक ख़ास वक़्फ़े में बात करने की इच्छा ज़ाहिर की है। वाणी थक कर चूर हो जाने की हद तक सेक्स के बारे में बात करने को तैयार है बशर्ते बात करने वाला शख्स 18 से 25 साल के बीच हो. मनोज को ऐसे मर्दों से बात करने में दिलच्स्पी है जो मर्दों से बात करने में दिलचस्पी रखते हैं। अनीता सिर्फ़ एसएमएस के ज़रिए ताल्लुक क़ायम करना चाहती है। वह अपने फ़ोन पर नहीं बल्कि एक पेजर पर एसएमएस मंगवा रही है। उसका वादा है कि अगर उसे आपका संदेश अच्छा लगा तो वह भी यक़ीनन जवाबी एसएमएस भेजेगी। इन लघुकथाओं के लेखक कौन है? आउटर सर्कल की एक पपड़ाई सी दीवार के पास कुछ लम्हा ठहरने वाले ये लोग मच्छरों से कुश्ती लड़कर अजनबियों को अपने जिस्मानी अहसासात के बारे में बताते हुए पूरी रात जागकर क्यों गुज़ार देना चाहते हैं? इसमें लेन-देन या पैसे का कोई चक्कर नहीं है। ये वैसे दिलकश इश्तहारी बोर्ड नहीं जिनके ज़रिए आपको एंटीगुआ के किसी नंबर पर बात करने की दावत दी जाती है और, किसी कोने में आहिस्ते से ये जानकारी भी दे दी जाती है कि आपकी कॉल पर आईएसडी दरें लागू होंगी। ये इश्तहार आपको लाइव चैट की दावत देते हैं। पर ये चैट न तो जीवंत होती है और न ही चटपटी। ऊपर हमने जिन पैग़ामों का ज़िक्र किया है उनको लिखने वाले लोग एस्कॉर्ट कारोबार या मसाज-मालिश के धंधे में लगे ख़वातीनो-हज़रात भी नहीं हैं जो अपने ऑनलाईन इश्तहार और रेट कार्डों के ज़रिए मुक़म्मल ज़ेहनी और जिस्मानी संतुष्टि का यक़ीन दिलाते हैं। शायद यह स्कूली बच्चों की शरारत हो। अगर ऐसा है भी तो उनके ये संदेश अतीत की यादगार के तौर पर अगले मौसम की पुताई तक इस दीवार पर बने रहेंगे - एक बड़े, उदास शहर में वाबस्तगी की गुज़ारिशों की तरह। जिन्होंने इन दीवारों पर ये पैग़ाम लिखे हैं, उसके बारे में क्या कहा जाए? ये लोग ऐसी कौन सी बेजान हवा में साँस लेते हैं कि उन्होंने ज़िन्दगी से मुँह मोड़ शाँति और सुकून के लिए इस दीवार और टेलीफ़ोन का सहारा ले लिया और इस बचे-खुचे आनंद में ही ज़िन्दगी का समूचापन ढूँढ़ने लगे हैं। इस कराहती दीवार को मैने अपनी एक ख़ास तलाश के दौरान देखा था। उस वक़्त मैं दिल्ली में प्यार, वासना और चाहत के निशान खोज़ रहा था। मैं शहर की सड़कों और उसे जोड़े रखने वाले छोटे चौराहों पर चाहत, इज़ाहर व इक़रार की कहानियों और नृत्य-कथाओं को पढ़ना चाहता था। अब तक की दिल्लियों, यानी रसख़ान की दिल्ली, मीर और ग़ालिब की दिल्ली इन सबके भीतर रहा-बाट की बोल-चाल में काम-कला की साज-सज़ावट ख़ूब दिखाई देती है। दिल्ली की इन पुरानी शक़्लों ने मेरी सोच और चेतना पर एक गहरी परछाई छोड़ी है। अब मैं यही देखना चाहता था कि आज के दौर की तेज़ रोशनी में ये परछाईं कितनी टिक पाती है। मैं प्राचीन और आधुनिक दिल्ली की कामेच्छा का नक़्शा बनाना चाहता था। और इस काम के लिए ज़रूरी कुछ उपयोगी किंवदंतियाँ, सबूत और ऐसी ही कुछ दूसरी चीज़ें जुटानी चाहता था। मैं बस अड्डों, मक़बरों, सिनेमाघर की बालकनी में लगी सीटों, कॉफ़ी हाउसों में कोने पर रखी टेबलों की तरफ़ ग़ौर से देखने की ज़ुरूरत या गुंजाइश को दर्ज़ करना चाहता था। मैं चाहता था कि सार्वजनिक पार्कों के झाड़-झंखाड़ और शौचालयों से ख़ुद इन स्थानों को जो कामोद्दीपक हैसियत मिलती है, उसको जाना-बूझा जाए। शुरुआत में मैं बहुत दूर तक नहीं जा पाया। किसी बदतमीज़ वीडियो गेम के पहले ही दौर में ख़राब चाल चल कर लड़खड़ा जाने के नतीज़ों की तरह, आड़ी-टेढ़ी लिखावटों वाली यह दीवार मेरे रास्ते में आकर खड़ी हो गई। अपनी ख़ास भाषा या अल्फ़ाज़ा के कारण, या उनकी कमी से एक ख़ास हैसियत अख़्तियार कर चुकी इस दीवार, इस रुकावट ने मुझे मेरी खोज़ पर आगे बढ़ने से रोक दिया। अपनी खोज़ के लिए मुझे इस दीवार से आगे जाना ज़रूरी था और इसी कोशिश में मैं वहाँ जा पहुँचा जिसका ज़िक्र में करने जा रहा हूँ। मैंने वाणी को फ़ोन घुमा दिया। रात के ग्यारह बज चुके थे। मैंने उससे जानना चाहा कि क्या मैं उसी वाणी से बात कर रहा हूँ जिसने कनॉट प्लेस के आउटर सर्कल में एक दीवार पर अपना फ़ोन नंबर लिख छोड़ा था। ''यहाँ कोई वाणी नहीं रहती'', एक थकी हुई सी आवाज़ आई। आवाज़ से लगता था कि वह किसी औरत की है और उसकी उम्र पच्चीस से सैंतीस साल के बीच होगी। ऐसा लगा कि आवज़ तो वाणी की है लेकिन जैसे वह अपने नाम की पहचान से भाग रही है। मैं लगा रहता हूँ। अपनी इच्छा बताते हुए मैं उसे इस बात का भरोसा दिलाता हूँ कि मैंने होश गँवा देने की हद तक सेक्स के बारे में बात करने के लिए फ़ोन नहीं किया है, बल्कि मैं तो इस बारे में बात करना चाहता हूँ कि लोग दीवारों पर इस तरह के संदेश क्यों छोड़तें हैं। मैंने उससे कहा कि अब भी अगर वह चाहे तो फ़ोन काट सकती है। उसने फ़ोन नहीं काटा। अब उसने मुझसे एक सीधा सवाल किया - क्या मैं जेबोनेयर या फैंटेसी के लिए क़िस्से-कहानियाँ ढूँढ़ रहा हूँ। मैंने कहा कि मैं लिखता तो हूँ मगर मैं पत्रकार नहीं हूँ और अब तक डेबोनेयर या फैंटेसी में छपने का सौभाग्य नहीं मिला है। फिर पूछता हूँ कि क्या वह अब भी बात करने को तैयार है। ''सेक्स'', वह कुछ इस तरह बोलती है मानो बतियाने का मुद्दा खोल रही हो। कहा ''अगर हम सेक्स के बारे में बात नहीं कर सकते तो फिर बात करने का क्या तुक है?'' मेरे हाव-भाव में एहतियात का पुट है, आवाज़ बंद हो जाती है। मैं एक फ़ासला बनाए रखने की कोशिश कर रहा हूँ मुझे लगता है कि फ़ोन करके मैं बेमतलब ही इस झमेले में फँस गया हूँ। तभी उसने मेरी मुश्किल थोड़ी आसान कर दी। उसकी आवाज़ आयी, ''क्या आपको कोई समस्या है? निजी ज़िन्दगी की कोई परेशानी? कोई गुप्त रोग?'' ''तुम ये काम क्यों करती हो?'' मैं पूछता हूँ। उसने कहा, ''तुमने ये फ़ोन क्यों किया?'' और फ़ोन काट दिया। मैं इस अहसास के साथ फ़ोन के सामने बैठा रह जाता हूँ कि जवाबी सवाल पूछ कर उसने मेरे सवाल का जवाब ही तो दिया है। इस बात का आग्रह करके कि मैं संपर्क साधने की अपनी इस औचक कोशिश पर ज़रा ठहरकर सोचूँ। बड़ी महीन चतुराई से उसने ज़ाहिर कर दिया कि जिस तरह मैं उसे दीवार के पर्दे से खींचकर उससे बात कर सकता हूँ उसी सहजता से वह मेरे अस्तित्व को स्वीकार या नकार सकती है। किसी फ़ोन नेटवर्क के आउटर सर्कल पर हुआ यह संक्षिप्त साक्षात्कार जैसे रूहानी अंतरंगता का क्षण रहा हो। मैं वाणी के बारे में सोचने लगता हूँ। एक ऐसी औरत जिसका नाम 'ध्वनि' या 'शब्द' का संस्कृत पर्यायवाची है। एक ऐसी औरत जो देह से ज़्यादा एक आवाज़ है - एक ऐसी आवाज़ जो किसी के भी कानों में गूँज सकती है। एक ऐसी औरत जो जिस्मानी तौर पर हो या न हो, मगर टेलीफ़ोन के तारों में क़ैद किसी भूत की तरह कहीं न कहीं है। सोचते -सोचते मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ गई जो अभी भी उस वक़्त मुझे पल भर के लिए चिंता में डाल देती है जब रात-बिरात अचानक फ़ोन की घंटी बज उठती है। मैं सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसा ही है तो मर चुकी या क़ैद इच्छाओं के न जाने कितने भूत और जिन्न मेरे शहर की हवा में डोल रहे होंगे। निज़ामुद्दीन दरगाह की चारदीवारी के भीतर बनी छोटी-छोटी खोहों में ऐसे कई माहिर बैठे हैं जो 'ऊपरी हवा' में मौज़ूद जिन्न के सताये हुओं का इलाज करते हैं। क्या उन्होंने कभी मेरे शहर में कामना की सँकरी गलियों में भटकते भूतों पर ध्यान दिया है? क्या शहर की ख़त्म हो चुकी कामेच्छा में दोबारा जान आने के संकेत दिखाई देते हैं? क्रमश: -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From rakeshjee at gmail.com Wed Jul 16 13:26:22 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 16 Jul 2008 13:26:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KS54KSk?= =?utf-8?b?LCDgpLjgpY3gpKvgpYLgpLDgpY3gpKTgpL8g4KSU4KSwIOCknOCliw==?= =?utf-8?b?4KS2IOCkleCkviDgpKrgpYLgpLDgpL4g4KSW4KS84KSc4KS+4KSo4KS+?= Message-ID: <292550dd0807160056td516907ka4c15a958124843b@mail.gmail.com> मित्रों पेश है शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता के लेख अ‍कथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्‍त रोग की अगली खेप.पिछली खेप के बाद कल देर रात तक पाठकों के फ़ोन आते रहे. ज़्यादातर लोगों का कहना था कि लेख तो बढिया है पर शीर्षक भ्रामक है. मित्रों अच्छा लगा कि आपने फ़ोन किया, पर इस गंभीर मसले पर बातचीत शुरू हो पाती अगर आप लगे हाथ अपनी प्रतिक्रिया यहीं देते. तो आईए बढ़ते हैं अगली कड़ी की ओर. 'सेक्स' - ज़िन्दगी में पहली बार यह शब्द मैंने एक विशालकाय इश्तहार पर पढ़ा था। उस वक़्त मेरी उम्र सात साल रही होगी। मेरे स्कूल जाने के रास्ते में सड़क किनारे एक बड़ा सा इश्तहार लगा हुआ था जिस पर एक निहायत अहम से दिखने वाले शख़्स की तस्वीर बनी थी। उसकी लंबी ऐंठदार बेहद नुकीली मूँछें थी। उसने एक सूट और टाई पहनी हुई थी। होठों को देखर तो ऐसा लगता था मानो उसने लिपस्टिक भी लगा रखी हो। उस तस्वीर की सबसे दिलचस्प बात उस आदमी की पगड़ी थी जो क़रीब-क़रीब उसके चेहरे जितनी ही बड़ी थी और पठानी शैली में सिर पर मुड़े हुए पंखे की तरह बंधी थी। ये ख़ानदानी शफ़ाख़ना वाले हक़ीम हरकिशन लाल (''हमारी कोई ब्रांच नहीं'', ''हक़ीम जी की नक़ली तस्वीरों के झाँसे में न आएँ'' वाले हक़ीम साहब) की तस्वीर थी। और क्या तस्वीर थी! उसका क़द पाँच फुट भी नहीं रहा होगा मगर फिर भी मेरे लड़कपन में दिल्ली के आसमान पर उसी का राज था। रूरीटेराई तानाशाहों की तरह उसकी तस्वीर मुझे मानो शहर के हर चौराहे पर लटकी दिखाई देती थी। ''विश्व प्रसिद्ध सेक्स स्पेशलिस्ट'' - ये शब्द उसके मिशन का बयान करते थे और ''ख़ुशहाल वैवाहिक जीवनः गुप्त रोग से छुटकारे के लिए ख़ुद आकर मिलें या निज़ी तौर पर ख़त लिखें'' - इन शब्दों से उसके प्रोग्राम का पता चलता था। एक आम सात साल के लड़के की तरह कुछ समय के लिए मुझे इस बात का पूरा यक़ीन होने लगा था कि बदक़िस्मती से फख़रूद्दीन अली अहमद नहीं बल्कि यही आदमी भारत का राष्ट्रपति है, मेरे आसपास की दुनिया का सबसे बुलंद शख़्स। अफ़सोस अब हक़ीम जी हमारे बीच नहीं रहे। मगर अब शहर के ज़्यादातर चौराहों पर उनके जैसे सेक्स विशेषज्ञों की एक लंबी-चौड़ी गारद ने उनकी जगह ले ली है। इन सबके इश्तहारों पर मूँछों से लैस या सफ़ाचट, मगर लाज़िमी तौर पर सूट-बूट में सजा एक गबरू आदमी ज़रूर दिखाई देता है। इन इश्ताहरों को देखकर ऐसा लगता है कि आपातकाल के दिनों में चलाए गए नसबन्दी अभियान के दौरान दिल्ली के मर्दों में नामर्दी का जो ख़ौफ़ पैदा हुआ था, उसने हमारे शहर की दीवारों पर एक अमिट निशान छोड़ दिया है। इन हकीमजियों के पास नामर्दी, संतान प्राप्ति में दिक़्क़त और शुक्राणुओं की कमी (निल शुक्राणु) के जादुई व फ़ौरी असर करने वाले इलाज मौज़ूद हैं। उनके पास ''सेहत, स्फूर्ति और जोश'' का पूरा ख़जाना है। अख़बारी इश्ताहारों और सार्वजनिक पेशाबघरों की शोभा बढ़ाने वाले स्टिकरों से उनके चेहरे हैं। शौचालयों की दीवारों पर उन्हें इतनी ऊँचाई पर लगाया जाता है जहाँ से वह सीधे हमारी नज़र के दायरे में आ जाते हैं। उनके इर्द-गिर्द कुछ जिस्मानी हिस्सों की शौक़िया चित्रकारी भी दिखाई देती है जो गुफ़ाओं में की जाने वाली चित्रकारी की ख़त्म हो चुकी प्राचीन विधा का एकमात्र समकालीन अवशेष मालूम पड़ती है। तस्वीरों का मक़सद ऐकांतिक चिन्तन की प्रेरणा देना है। गुफ़ाचित्रों की तर्ज़ पर बनाए गए ये चित्र भी हमारी कल्पनाओं के साथ मिल कर एक जादुई असर पैदा करते हैं। इन चित्रों के कलाकारों को संभोगरत जोड़ों की अर्द्ध-यथार्थवादी तस्वीरें बनाने में ख़ासा मज़ा आता है। मगर आमतौर पर इन चित्रों के रचनाकार वृत, त्रिकोण, शंकु और अंडाकार ज्यामितीय रूपकों से ही काम चला लेते हैं। वैसे भी, इंसानी ज़िस्म के बहुत सारे अंगों को जब वह इन्हीं बिम्बों के सहारे अभिव्यक्‍त कर सकते हैं तो और ज़्यादा दक्षता की उन्हें ज़रूरत ही क्या है। ये चित्रकार अपने चित्र के ऊपर दो-चार लाईन की कविता भी पेल देते हैं जिससे पता चलता है कि वह आदमी क्या चाहता है (जी हाँ, फ़ोन बूथ के पास बने संदेशों के लेखकों के विपरीत इन चित्रों का चित्रकार कोई मर्द ही होता है), वह कहाँ क़ामयाब रहा है और कहाँ नाक़ामयाब हुआ है। इन कविताओं में मेरी पसन्दीदा कविता वह है जो मैंने लाजपत नगर की एक सार्वजनिक मूतरी में देखी थी। कविता कुछ इस तरह थीः चूतिया चोदा चौदह साल, आशिक़ दीवाना बेमिसाल। गुप्त रोग का रोगी रोया, दिल्ली आ के सब कुछ खोया।। 'गुप्त रोगों' के शहीदों को दी गई इस श्रद्धाजंलि से पता चलता है कि शहीद का कामुक करतबों से भरा जीवन बड़े त्रासद ढंग से ख़त्म हुआ था। संभव है कि जहाँ यह कविता थी वहाँ उसे परोपकार की भावना से किसी ने 'जनहित में' चिपकाया हो। इसके बग़ल में ही एक स्टिकर लगा हुआ है जिस पर गुप्त रोगों का जादुई इलाज करने वाले डॉ. रोशन का विज्ञापन छपा है। बुधवार और शुक्रवार को घंटाघर के पास अपने मरीजों का इलाज करने वाले डॉ. रोशन का यह विज्ञापन गागर में सागर से कम नहीं है। ''क्या आप अपने सामान के आकार से चिंतित हैं? क्या आपको कमज़ोरी की वजह से बार-बार शर्मिंदगी होती है? क्या आप शर्तिया लड़का पैदा करना चाहते है? वैवाहिक जीवन का आनंद लेना चाहते हैं? क्या स्वप्नदोष ने आपकी नींद हराम कर रखी है? क्या आपको गैस, मोटापा, भगंदर या बवासीर की शिकायत है? हमारे यहाँ इन गुप्त रोगों की तमाम गुप्त परेशानियों को पूरी तरह गुप्त तौर पर हल किया जाता है।'' पढ़ने वाले को एक बार फिर आगाह किया जाता है कि वह ख़ुफ़िया तौर पर ही हक़ीम जी को ख़त लिखे या ख़ुद आकर मिलें ताकि उसकी समस्या पर ''ख़ास तवज्ज़ो दी जा सके।'' आभार: चन्‍दन शर्मा क्रमश: -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From rakeshjee at gmail.com Fri Jul 18 14:14:18 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 18 Jul 2008 14:14:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KSlIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KSoIOCkheCksOCljeCkpeCkvuCkpCDgpJzgpLzgpYfgpLk=?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClhyDgpJfgpYHgpKrgpY3gpKQg4KSw4KWL4KSX?= Message-ID: <292550dd0807180144u6b996314hf5f2d867ffb8953f@mail.gmail.com> मित्रों पेश है शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्‍त रोग की अगली खेप. अगर मैं झूट बोल्लई होऊँ तो इत्ती की इत्ती मर जाऊँ गुप्त रोग मायूसी की एक अवस्था का लक्षण है। इन रोगों से ये भी पता चलता है कि हमारे शहर की ज़िन्दगी में सेक्शुअलिटी की क्या जगह है। सेक्स का ख़याल भी इतना परेशान करने वाला माना जाता है कि आप उसके बारे में सीधे-सीधे बात नहीं कर सकते। उसके साथ किसी ऐसे विशेषण का होना ज़रूरी है जिससे इस बारे में कोई शुबहा बाक़ी न रह जाए कि इस बारे में किस क़दर लुक-छिप कर बात करना ज़रूरी है। यानी जब आप 'सेक्स' कहना चाहें तो उसके आगे-पीछे कहीं 'गुप्त' या ऐसा ही कोई शब्द ज़रूर जोड़ें। कहने का मतलब ये है कि सेक्स के मुताल्लिक़ कोई भी चीज़ लाज़िमी तौर पर गुप्त होनी चाहिएः गुप्तांग, गुप्त ज्ञान, गुप्त आनंद वग़ैरह। इसका एक मतलब यह भी है कि स्वाभाविक दायरे से बेदख़ल कर दिए जाने पर गुप्त प्रसंग संक्रामक हद तक सर्वव्यापी हो जाते हैं। सड़क के कोनों पर लगे रंग-बिरंगे पर्चों की तरह ये क़िस्से भी हर कहीं मंडराने लगते हैं, बग़ल से गुज़रने वाले मुसाफ़िरों पर झपटने के लिए हर वक़्त तैयार जैसे चौक-चौराहे पर अपनी देह की नुमाइश करने के शौक़ीन लोग। गुप्त ज्ञान हमारी भाषा पर हावी हो चुका है। दिल्ली का औसत मर्द स्त्री या पुरुष के गुप्त अंगों की चर्चा किए बिना या पारिवारिक सेक्स के दैवी और वर्जित विशेषाधिकार का आवाहन किए बग़ैर कोई सार्थक जुमला मुकम्मल नहीं कर पाता। नतीजा, हर बातचीत के इर्द-गिर्द 'गुप्त शब्दों' का एक काला बवंडर छा जाता है। इन लफ़्जों पर कोई ध्यान नहीं देता और ख़ुद बोलने वाले भी इस बात से अनजान रहते है कि वह क्या बोल रहे हैं। मानो सेक्स से जुड़े शब्द, जैसे शिश्न/लंड या योनि/चूत को बयान करने वाले शब्द दिन-ब-दिन के सोच-व्यवहार और बातचीत के वॉलपेपर हों। इसके बावज़ूद जब संजीदगी के साथ शरीर के अलग-अलग हिस्सों का नाम लेने की बारी आती है तो एक अटपटी-सी शर्मिंदगी छा जाती है। मिसाल के तौर पर, टट्टों की बात चलने पर कुछ ऐसा भाव पैदा होता है मानो अंडकोष सिर्फ़ छोटी-छोटी गोलियाँ हों। जैसे कि अंडकोष की गोलियाँ शून्य हों - स्क्रैबल की ख़ाली जगहों की तरह अपने आप में अर्थहीन - अपने आप को छोड़कर हर दूसरी चीज़ की संज्ञा बन जाते हैं। इस मुक़ाम पर मैं दिल्ली में भाषा के विकासक्रम के बारे में बात करना चाहता हूँ। क्या दिल्ली, हमारा ये शहर, हमेशा से मादरचोद-बहनचोद शहर रहा है या आम चीज़ों के बारे में बात करने के लिए हमारे पास कोई और अभिव्यक्तियाँ भी थी? किसी भी ज़बान में निहित अभिव्यक्तियों की संभावनाओं का का एक पैमाना ये है कि वह भाषा किसी को कोसने के लिए कितने मुमकिन तरीक़े मुहैया करा पाती है। या फिर यह देखा जाए कि घटिया भाषा के रूप में परिभाषित करने के लिए जिस कवच का सहारा लिया गया है वह कितना मोटा है। मेरे ख़याल से अब मैं अपनी बात को थोड़ा और साफ़ तौर पर कह सकता हूँ। मेरा कहना ये है कि शहर की आम भाषा से कथित घटिया भाषा या नीची ज़बान को अलग करने की कोई ज़रूरत नहीं है। बल्कि मैं तो इस बात को लेकर अपनी शिक़ायत दर्ज़ कराना चाहता हूँ कि ये अभिव्यक्तियाँ हमारी महिला रिश्तेदारों (माँ या बहन) के साथ अपमानजनक यौन संबंधों तक सीमित होकर रह गई है। यानी हमारे पास इन बातों का भण्डार ख़त्म होता जा रहा है और ये अभिव्यक्तियाँ दो ख़ास दायरों तक सीमित होती जा रही है। इसके साथ मैं ये भी अर्ज़ करना चाहता हूँ कि यह तरीक़ा रूखी भाषा के दायरे को मर्दाना और आमतौर पर मीसोगाइनिस्ट तर्ज़ेबयाँ का औज़ार बना देता है। मुझे भाषा में मिसॉजिनी (औरतों से घृणा) से कोई ऐतराज़ नहीं है बशर्ते मर्दों के ख़िलाफ़ औरतों की अभिव्यक्ति के रास्ते भी उपलब्ध हों। अगर आपकी इजाज़त हो तो अब मैं 1961 में हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशिया इंस्टीट्यूट द्वारा शाया एक बेहद दिलचस्प मोनोग्राफ़ के कुछ अंश आपके सामने रखना चाहता हूँ। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर और भाषा विज्ञान के जाने-माने विद्वान रह चुके हैं। इस मोनोग्राफ़ से मैं ऐसी गालियों का एक छोटा-सा कैटलॉग पेश करना चहाता हूँ जो वक़्त की मार और भाषा की सिकुड़न झेलते-झेलते अब ख़त्म हो चुकी है। इसके ज़रिए मैं नाक़ाबिले बयान चीज़ों के बारे में भाषायी सहनशीलता, बर्दाश्त और संभावनाओं की लुप्त होती परंपरा की तरफ़ संकेत करना चाहता हूँ इसलिए थोड़ा सा धैर्य और रखें। तुम रहती दुनिया तक जीओ। दूल्हा के बाबा को पोते-पड़ौते खिलाने नसीब हों। जवानी की क़सम। अगर मैं झूट बोल्लई होऊँ तो इत्ती की इत्ती मर जाऊँ अपने लगमातरों से मिलने गई थी क्या? अपने घग्गड़ के पास थी क्या? इस मुए की पड़ौस पै झाडू फिरे। जवान लाश लौटे सांडबिजार, साँप के सँपोलिए छिनाल, हरामज़ादी हैज़े पीटी, हर्राफ़ा, लुच्ची नपूती, साली, भेनचो, सुअरख़नी, तूझे चार घड़ी का हैज़ा हो। द डायलेक्ट्स ऑफ़ डेल्ही, पृष्ठ 44-47. यह एक बड़ी बदक़िस्मती की बात है कि दूसरी परिपक्व और परिष्कृत भाषाओं के विपरीत हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी के विद्वानी ने गंदी या यौन केन्द्रित भाषा का पर्याप्त इकट्ठा नहीं किया है। मैंने अभय दुबे साहब, प्रोफ़ेसर शाहिद अमीन, और रविकान्त व अन्य विद्वान साथियों (और मेरा ख़याल है कि इस फ़ेहरिस्त में मुझे डॉ. आलोक राय का नाम भी शामिल कर लेना चाहिए) से ये पता लगाने की कोशिश की है कि क्या हिन्दी में भी ज़बान पर संजीदगी के साथ विचार किया गया है। अभय जी जैसे कुछ साथियों ने किसी मशहूर लेखक द्वारा लिखे गए एक अप्रकाशित मोनोग्राफ़ का ज़िक्र किया है जिसे धक्के मार-मार कर सार्वजनिक परिक्षेत्र से बाहर निकाल दिया गया। प्रोफ़ेसर अमीन जैसे कुछ अन्य लोगों ने बताया कि शब्दकोश और निघंटुओं की रचना ज्ञानोदय काल की देन रही है और गाली-गलौज़ का ज़िक्र ला कर असल में हम ज्ञानोदय से पहले की एक सामाजिक मौखिक संस्कृति की बात कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि नागरी प्रचारिणी सभा तो ज्ञानोदय काल के बाद की और बाक़ायदा आधुनिक चीज़ रही है और उसने इस सिलसिले में कुछ न कुछ काम ज़रूर किया होगा। रविकांत ने मुझे बताया कि फ़ादर एस.डब्लू. फ़ैलन की हिन्दुस्तानी डिक्शनरी में ऐसी चीज़ों का एक भारी ख़ज़ाना मिलता है। देखने पर पता चला कि उनकी बात वाक़ई काफ़ी हद तक सही थी। यह निघंटु अपने आप में निश्चय ही एक शानदार चीज़ है मगर मेरी राय में यह वक़्त की रफ़्तार में पीछे छूट गया है। सटीकता और सामयिकता की ऐतिहासिक कसौटियों की दृष्टि से देखें तो हमारे यहाँ आमफ़हम 'सड़कछाप' भाषा का ऐसा कोई कोश नहीं, जो रेख़्ती की नाज़ुक सरगोषियों से लेकर शहरी नीची ज़बान की धूमधड़ाका पंजाबी या बंबईया गालियों तक को अपने अंक में भर सके। क्योंकि मानक हिन्दी उर्दू कोशों में तो अपवाद के तौर पर नामवाची शब्दों को छोड़कर सम्पूर्ण शरीर के साथ न्याय कर सकने वाले तमाम लफ़्जों को नियमित तौर पर देश निकाला दिया जाता रहा है। आधुनिक भारतीय भाषा व साहित्य में सेंसर की पैठ इतनी गहरी है कि इससे भाषायी दरिद्रता की विंडबनात्मक स्थिति बन जाती है - जिन अश्लीलताओं का उपयोग नहीं होना चाहिए उनका अतिशय उपयोग होता है और दीगर क़िस्म के वाक्ररूपों की घनघोर उपेक्षा होती है। नतीजतन, एक तरफ़ तो मादरचोद-बहनचोद जैसी मुट्ठी भर गालियाँ चारों तरफ़ फैल जाती हैं और दूसरे सिरे पर कई बातों को कहने के लिए लोगों को क़ायदे के शब्द भी नहीं मिल पाते। मिसाल के तौर पर, अगर कोई हिन्दी भाषी महिला किसी डॉक्टर से बात करती है, ख़ासतौर से स्त्री रोग विशेषज्ञ से बात करती है तो उसे अपनी समस्या के बारे में बताते हुए बहुत दिक़्क़त महसूस होती है। इसीलिए हिन्दी साहित्य की 'काम-विषयक' अभिव्यक्तियों पर संस्कृत की कोई जमी रहती है। इशारों, द्विअर्थी अभिव्यक्तियों और दुलार-मनुहार के मामले में उर्दू का दामन फिर भी ज़्यादा भरा दिखाई देता है। सआदत हसन मंटो और इस्मत चुग़ताई जैसे कहानीकारों या नून मीम राशिद जैसे शायरों ने काम की बातों को अभिव्यक्त करने के रचनात्मक तरीक़े ईज़ाद किए थे लेकिन, इसमें भी कोई शक़ नहीं कि समकालीन उर्दू अदबीयत यौन विवरण के पूरी तरह ख़िलाफ़ है। अली सरदार जाफ़री ने दीवान-ए-मीर से सारे काम विषयक अशआर छाँट-छाँट कर बाहर निकाल दिए और पूरे अदबी दायरे में कहीं ज़रा सी फुसफुसाहट भी सुनाई नहीं दी। उर्दू और हिन्दुस्तानी के साहित्य भंडार के इस परिशोधन से होता यह है कि जिस्म, सेक्शुअलिटी और ऐसी हर चीज़ के इर्द-गिर्द ख़ामोशी का एक ब्लैकहोल पैदा हो जाता है जिसे 'नाक़ाबिले बयान' माना जाता है। -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From ravikant at sarai.net Fri Jul 18 14:40:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 18 Jul 2008 14:40:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSV4KSlIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KSoIOCkheCksOCljeCkpeCkvuCkpCDgpJzgpLzgpYfgpLngpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkl+ClgeCkquCljeCkpCDgpLDgpYvgpJc=?= In-Reply-To: <292550dd0807180144u6b996314hf5f2d867ffb8953f@mail.gmail.com> References: <292550dd0807180144u6b996314hf5f2d867ffb8953f@mail.gmail.com> Message-ID: <200807181440.10429.ravikant@sarai.net> शुक्रिया राकेश और चंदन, धीरे-धीरे हमारे सारे प्रकाशन युनिकोडित हो जा‌एँ तो वे खोज्य हो जाएँगे, मेरा मतलब गूगल्य हो जाएँगे. इस लेख के अनुवादक योगेन्द्र दत्त हैं, जिन्हें मैं अनुवादक शिरोमणि कहता हूँ. वैसे अगर मूल कड़ी भी लेख के साथ सला दिया करो तो लोग इसे टंकण आदि की भूलें पीडीएफ़ से भी जाँच लिया करेंगे. फिर पीडीएफ़ में डिज़ाइन देखने का अपना मज़ा है! रविकान्त शुक्रवार 18 जुलाई 2008 14:14 को, Rakesh Singh ने लिखा था: > मित्रों > > > पेश है शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्‍त रोग > की अगली खेप. > > From miyaamihir at gmail.com Sat Jul 19 00:37:46 2008 From: miyaamihir at gmail.com (mihir pandya) Date: Sat, 19 Jul 2008 00:37:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSo?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KS4?= Message-ID: From www.mihirpandya.com ...miHir. ........................................................................ विचित्र प्रोसेशन, गंभीर क्विक मार्च … कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैंड-दल- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप,उदर-आकृति आँतों के जालों-से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गंभीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर. बैंड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से, लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के ! ! बड़े-बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए इस बैंड-दल में ! ! उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल, चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पाँत टैंक-दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना, सैनिकों के पथराये चेहरे चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे ! शायद, मैंने उन्हें पहले कहीं तो भी देखा था. शायद, उनमें मेरे कई परिचित ! ! उनके पीछे यह क्या ! ! कैवेलरी ! ! काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस, चेहरे का आधा भाग सिंदूरी गेरुआ आधा भाग कोलतारी भैरव, भयानक ! ! हाथों में चमचमाती सीधी खड़ी तलवार आबदार ! ! कंधे से कमर तक कारतूसी बैल्ट है तिरछा. कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल, रोषभरी एकाग्र दृष्टि में धार है, कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल कई और सेनापति सेनाध्यक्ष चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते, उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मंत्री भी, उद्योगपति भी और विद्वान् यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय, हाय ! ! यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय. भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब साफ़ उभर आया है, छुपे हुए उद्देश्य यहाँ निखर आए हैं, यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की. *गजानन माधव मुक्तिबोधकी कविता 'अंधेरे में' का अंश.* मैं सिरीफोर्ट जाते हुए संसद के बाहर से गुज़रता हूँ. आज देखा वहाँ बड़ा जमावड़ा लगा है. चैनल बाहर से लाइव ख़बरें दे रहे हैं. हिंदुस्तान के प्रजातंत्र की सबसे बड़ी मंडी आजकल सजी है. मोलभाव जारी हैं. खरीद-फ़रोख्त चल रही है. भाव तय हो रहे हैं. रात न्यूज़ देखते हुए उबकाई सी आती है. मुझे संसद भवन को देखकर हरिशंकर परसाईका 'अकाल उत्सव' याद आता है, ** *"अब ये भूखे क्या खाएं? भाग्य विधाताओं और जीवन के थोक ठेकेदारों की नाक खा गए. वे सब भाग गए. अब क्या खाएं? आख़िर वे विधानसभा और संसद की इमारतों के पत्थर और इंटें काट-काटकर खाने लगे."* मोहनदास को लगता है. जो जितना ऊपर बैठा है लगता है वो उतना ही बड़ा बेईमान है. क्या सब नकली हैं? डुप्लीकेट? सारी व्यवस्था ही ढह गई है. जीता जागता हाड़-मांस का इंसान किसी काम का नहीं. इस दुनिया में कागज़ की लड़ाई लड़ी जाती है. न्याय व्यवस्था की आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके हाथ बंधे हैं. मोहनदास के पास पैसा नहीं, पहुँच नहीं. वो मोहनदास नहीं, कोई और अब मोहनदास है. कुछ समझ नहीं आ रहा है. डर सा लगता है. क्या कोई रास्ता है? मुक्तिबोध ने जब *अंधेरे में* लिखी तब आपातकाल सालों दूर था. लेकिन उन्होनें आनेवाले समय की डरावनी पदचाप सुन ली थी. *ब्रह्मराक्षस*साक्षात् उनके सामने था. यूँ ही तकरीबन चार साल पुरानी कहानी मोहनदासको आज 17 जुलाई 2008 को पहली बार देखते हुए मुझे ऐसा लगा कि आज ही वो दिन था जो तय किया गया था इस मुलाक़ात के लिए. आज जब पहली बार मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए एक अजीब सी गंध आई. सत्ता की तीखी दुर्गन्ध. गूंजते से शब्द, 20 करोड़, 25 करोड़, 30 करोड़… आज जब मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए पहली बार उबकाई सी आई. एक ईमानदार पाठक ही नहीं एक ईमानदार दर्शक की हैसियत से भी यह तो कहना होगा कि फ़िल्म कुछ कमज़ोर थी. ईमानदार राय यह है कि कहानी से जो सहूलियतें ली गयीं दरअसल वो ही फ़िल्म को कमज़ोर बनाती हैं. शुरुआत में मीडिया दर्शन के नामपर बहुत सारे स्टीरियोटाइप किरदार गढे गए. एक बड़ी राय यह भी थी कि कलाकारों का चयन ठीक नहीं हुआ है. खासकर कबूतर जैसी अपने परिवेश में इतनी रची बसी फ़िल्म देखने के बाद दर्शकों की यह राय लाज़मी थी. फ़िर भी एक बार मोहनदास की कहानी शुरू होने के बाद फ़िल्म अपना तनाव बनाकर रखती है. साफ़ है कि कहानी की अपनी ताक़त इतनी है कि वो फ़िल्म को अपने पैरों पर खड़ा रखती है. अनिल यादव जैसे किरदार कमाल की कास्टिंग और काम का उदाहरण हैं लेकिन ऐसे उदाहरण फ़िल्म में कुछ एक ही हैं. मोहनदास के रोल के लिए ही मैं अभी हाथों-हाथ 2-3 ज़्यादा अच्छे नाम सुझा सकता हूँ. फ़िल्म कस्बे के चित्रण में जहाँ खरी उतरी है वहीँ उसका गाँव कुछ 'बनाया-बनाया' सा लगता है. बोली अभी-अभी सीखी सी. कस्बे के बीच से बार-बार गुज़रती कोयले की गाडियाँ याद रहती हैं, कुछ कहती हैं. फ़िल्म कहानी के मुख्य संकेत नहीं छोड़ती है. बार बार यश मालवीय और वी. के. सोनकिया की कवितायें बात को आगे बढाती हैं. ब्रेख्तआते हैं. मुक्तिबोध आते हैं. मोहनदास के माँ-बाप पुतलीबाई और काबादास सतगुरु कबीरको याद करते हैं. कबीर जो एक ऐसी भाषा में कविता कहते थे जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है. हो सकता है कि मैं कहानी के प्रति कुछ पक्षपाती हो जाऊं. उदय प्रकाशको सहेजने वालों के साथ ऐसा हो जाता है. लेकिन फ़िल्म के शुरूआती आधे घंटे से मेरे वो दोस्त भी असंतुष्ट थे जिन्होनें कहानी नहीं पढ़ी है. शायद सोनाली कुलकर्णी के साथ थोड़ा कम वक्त और उससे मिली थोड़ी कम लम्बाई ज़्यादा कारगर रहे. कहानी की बड़ी बात यह थी कि उसमें आप एक विलेन को नहीं पकड़ पाते. अँधेरा है. डर है. पूरी व्यवस्था का पतन है. कहानी के बीच-बीच कोष्ठकों में पूरी दुनिया में घट रही घटनाएँ हैं. बुश हैं, लादेन हैं, गिरते ट्विन टावर हैं. मेरा यह कहना नहीं है कि यह सब फ़िल्म में होता. मुझे बस यह लगता है कि काश कहानी की तरह फ़िल्म भी कुछ व्यक्तियों को विलेन बनाकर पेश करने की बजाए सिस्टम के ध्वंसावशेष दिखा पाती. सुशांत सिंह और उसके पिता के रोल में अखिलेन्द्र मिश्रा अपनी पुरानी फिल्मी इमेज ढो रहे हैं. यह फ़िल्म को कमज़ोर बनाता है. लेकिन इस सबके बावजूद मैं फ़िल्म से इसलिए खुश हूँ कि वो कहानी का काफ़ी कुछ बचा लेती है. अंत में, क्या सिनेमा के लिए यह ज़रूरी है कि तमाम अंधेरों के बावजूद भी आख़िर में वह एक उम्मीद की किरण के साथ ख़त्म हो? क्या एक कला माध्यम को सकारात्मक होने के लिए आशावादी होना ज़रूरी है? क्या हर मोहनदास के अंत में एक पत्थर उछाले जाने से ही समाज बदलेगा? क्या एक बंद दरवाज़े के साथ हुआ मोहनदास का अंत ज़्यादा बड़ी शुरुआत नहीं है? फ़िल्म जिन सफ़दरों , मंजुनाथों और सत्येंद्रोंको याद करती है शायद उनका नाम ही था जो तमाम दबावों के बावजूद फ़िल्म का अंत नहीं बदला गया. और ब्रेख्त को दोहराती फ़िल्म से हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि वह सिनेमा के भीतर क्रांति की बात करने के बजाए उन अंधेरों की बात करे जो हमारे समय को घेर रहे हैं. मज़हर कामरानसे बार-बार यह पूछा गया कि आख़िर क्यों उनका मोहनदासअपनी लड़ाई लड़ना छोड़ देता है? आख़िर क्यों फ़िल्म इतने निराशाजनक नोट पर ख़त्म हो जाती है? क्या उन्हें फ़िल्म की माँग को समझते हुए उदय प्रकाशकी कहानी का अंत बदल देने का ख्याल नहीं आया? बहुत से दर्शक जो उदय की कहानी से अनजान थे वो निर्देशक से फ़िल्म के अंत में एक उम्मीद की किरण चाहते थे. एक उछाला जाता पत्थर शायद अंकुर की तरह या एक रोपा जाता पौधा शायद रंग दे बसंती की तरह. पता नहीं उदय प्रकाश इस सब में कहाँ थे? वो होते तो बहुत से दर्शक उनसे भी यही सवाल करते. और मुझे मालूम है कि उनका जवाब क्या होता… मैं यही चाहता था कि आप सब मुझे इस अंत के लिए कोसें. कहें कि यह अंत गलत है. मोहनदास को एक आखिरी पत्थर उछालना चाहिए. अब भी इस सत्ता तंत्र के पार एक सवेरा है जो उसका इंतज़ार करता है. आप सब ये कहें और मेरी कहानी शायद तब पूरी हो. एक-एक मोहनदास आप सबको इस हॉल से बाहर निकलने के बाद मिलेगा. आप उसे यही बात कहें. मेरी कहानी में तो उसने दरवाज़ा बंद कर लिया लेकिन हो सकता है कि आपकी कहानी में ऐसा ना हो. अगर हम एक भी कहानी ऐसी रच पाये जहाँ मोहनदास को उसकी पहचान वापिस मिल जाती है और वो आख़िर में दरवाज़ा बंद नहीं करता तो मेरा कहानी कहना पूरा हुआ. आप इस कहानी पर अविश्वास करें क्योंकि अगर सिनेमा में बंद हुआ दरवाज़ा असल जिंदगी में ऐसा एक भी दरवाज़ा खोल पाये तो मैं उस बंद दरवाज़े के साथ हूँ. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080719/8dda0481/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Sat Jul 19 12:19:34 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 19 Jul 2008 12:19:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Nirantar July 2008 edition released Message-ID: <200807191219.34208.ravikant@sarai.net> dosto, निरंतर का जुलाई २००८ का नया अंक जारी कर दिया गया है। वेबमेल तक पहुंच नहीं है अतः दीवान पर संदेश सीधे भेज नहीं सकता, आजकल घर जाकर भी पुनः नेट प्रयोग का अवसर नहीं मिल रहा। आपसे आग्रह है कि निम्नलिखित सूचना समूह में अग्रेषित कर दें। समूह की प्रतिक्रिया मिले तो अच्छा लगेगा। निरंतर पर सामयिक विषयों पर ओरिजिनल लेखकों का टोटा है, कहानी कविता भेजने के लिये हर कोई तैयार बैठा है, इस तरह की सामग्री हमें बिना मांगे मिलती भी रहती है, पर समाचार विचार विश्लेषण संबंधित लिखने वाले तो मुझे खोजे नहीं मिल रहे, शायद कारण फोकट में लिखवाने का हो। पर यह एक दिक्कत तो रहेगी, जब प्रिंट वाले ही मन मसोसे पड़े हैं तो जालपत्रिका से कमा लेने, और पारिश्रमिक दे सकने, के दिन अभी खासे दूर हैं। शुक्रिया! आपका देबाशीष ________________________________ From: nirantar-mitra at googlegroups.com [mailto:nirantar-mitra at googlegroups.com] On Behalf Of ?????? ????????? Sent: Wednesday, July 16, 2008 3:09 PM To: nirantar-mitra at googlegroups.com Subject: निरंतर ~ विश्व की पहली हिन्दी ब्लॉगज़ीन / Nirantar July 2008 edition released अंक-11 (जुलाई 2008) ???-11 (????? 2008) इस अंक में ख़ास 140 ??????? ?? ??????: ??????????????? 140 अक्षरों की दुनिया: माइक्रोब्लॉगिंग ब्लॉगिंग के बाद इंटरनेट पर एक और विधा ने जोर पकड़ा है। जी हाँ ट्विटर, पाउंस और प्लर्क के दीवाने अपने बलॉग छोड़ दीवाने हो चले हैं माईक्रोब्लॉगिंग के। पैट्रिक्स और देबाशीष कर रहे हैं इस लोकप्रिय तकनीक की संक्षिप्त पड़ताल जिसमें लोग फकत 140 अक्षरों में कभी अपने मोबाईल, कभी डेस्कटॉप तो कभी जालस्थल द्वारा अपना हालेदिल लिखे चले जाते हैं। IDN ?????? ?????? ?? ??? ???? IDN करेंगे हिन्दी का नाम रोशन जब जालपृष्ठ हिन्दी में है तो भला डोमेन नाम हिन्दी में क्यों नहीं? अन्तरराष्ट्रीय डोमेन नाम (IDN) द्वारा ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी इंटरनेट प्रयोक्ताओं को इसका हल तो मिला ही है, भविष्य में संपूर्ण डोमेन नाम अपनी भाषा में लिख सकने के मार्ग भी प्रशस्त हो रहे हैं। पढ़िये आइडीएन के बारे में विस्तृत जानकारी देता वरुण अग्रवाल का लिखा, रमण कौल द्वारा अनूदित लेख। ??????????? ?? ?????? ???????? ?? मनोचिकित्सा से फ़िल्म निर्देशन तक डॉ परवेज़ इमाम ने चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई पूरी कर मनोचिकित्सक का पेशा अपनाया पर अस्पताल की बजाय उनकी कर्मभूमि बनी वृतचित्र यानि डाक्यूमेंट्री फ़िल्मों की दुनिया। टीवी कार्यक्रम टर्निंग प्वाईंट से शुरुवात कर उन्होंने अब तक अनेकों पुरस्कृत वृत्तचित्रों का निर्माण किया है। संवाद में पढ़ें परवेज़ के जीवन और अनुभव पर डॉ सुनील दीपक से हुई उनकी बातचीत। इस अंक के अन्य आकर्षण ???? ???? ?? ???? ??? कृषि आधार का बढ़ता भार हर विकसित देश ने कालांतर में ग्राम-केन्द्रित, कृषि-केन्द्रित व्यवस्था से शहर-केन्द्रित, गैर-कृषि केन्द्रित व्यवस्था की ओर अन्तरण किया है। अतानु दे और रुबन अब्राहम मानते हैं कि भारत के पास विकल्प है कि वह 6 लाख छोटे गाँवों की बजाय 600 सुनियोजित, चमचमाते नए शहरों के निर्माण पर विचार करे। जबकि कृषक चिट्ठाकार अशोक पाण्डेय मानते हैं कि ऐसा कदम बाज़ार की ताकत के सामने गाँवों की आत्मनिर्भरता के घुटने टेक देने के समान होगा। ________________________________ ?????? व्यतीत संस्कृतियों, लिबासों और भाषाओं के कॉकटेल कलकत्ता में नीता के सामने श्यामल है, उसका वर्तमान। श्यामल पहली बार आया है यहाँ, पर नीता का व्यतीत अतीत उसे साल रहा है। वह कलकत्ता को भूल जाना चाहती है। वातायन में पढ़िये 1963 में मनोरमा पत्रिका में प्रकाशित वीणा सिन्हा की स्त्री के अंतर्दंद्व पर लिखी कहानी जो आज भी सामयिक लगती है। ________________________________ ????? ??????: ?????? ??????? ?? ????? अमृता इमरोज़: रूहानी रिश्तों की बयानी उमा त्रिलोक ने अपनी किताब में इमरोज़ और अमृता की रूहानी मोहब्बत के जज़्बे को तो खूबसूरती से अभिव्यक्त किया ही है, साथ ही अमृता प्रीतम के जीवन के आखिरी लम्हों को भी अपनी कलम से बख़ूबी बटोरा है। पढ़िये पुस्तक अमृता इमरोज़ की रविशंकर श्रीवास्तव व रंजना भाटिया द्वारा समीक्षायें। ________________________________ ??? ??????????? : ???? ?? ??? मैं बोरिशाइल्ला : भीड़ से अलग बांग्लादेश की मुक्ति-गाथा पर केंद्रित "मैं बोरिशाइल्ला" महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो चर्चित भी हुआ और सम्मानित भी। रवि कहते हैं कि थोड़ा बोझिल होने के बावजूद यह अलग सा उपन्यास अपने प्रामाणिक विवरण के कारण बांग्ला जनजीवन को जानने समझने वाले और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों को दिलचस्प लगेगा। ________________________________ ???-???? ???? ?? ???? ?????? सफल-असफल बनने की सत्य तथाकथा रवि रतलामी सफ़ल बनना चाहते थे, महान बनना चाहते थे। और खोजते खोजते उनका हाथ वो नुस्ख़ा लग ही गया जिससे वे महान ही नहीं, महानतम बन गये। तो देर किस बात की? आप भी बन जाइये उन के अनुयायी। ________________________________ ????? ????? ?? ???????! कितना बोलती हो सुनन्दा! वातायन के काव्य प्रभाग में पढ़िये युवा कवि गौरव सोलंकी की दो कवितायें। ________________________________ ??? ????? देख तमासा समस्या पूर्ति निरंतर का ऐसा स्तंभ है जहाँ आप अपनी रचनात्मकता परख सकते हैं। स्तंभ में दिये चित्र व शीर्षक के आधार पर रच डालिये कोई कविता, छंद या हाईकू। सर्वश्रेष्ठ रचना को मिलेगा आकर्षक पुरस्कार। ________________________________ Powered by iJoomla Magazine --~--~---------~--~----~------------~-------~--~----~ आपने यह संदेश प्राप्‍त कि‍या क्‍योंकि‍ आपने इसमें सदस्यता ली है Google समूह ”Nirantar Mitra” समूह इस समूह को पोस्ट करने के लिए, निम्नलिखित पते पर ईमेल भेजें nirantar-mitra at googlegroups.com इस समूह से सदस्यता समाप्‍ति‍ के लिए, यहां ईमेल भेजें nirantar-mitra-unsubscribe at googlegroups.com अधिक विकल्पों के लिए, http://groups.google.com/group/nirantar-mitra?hl=hi पर इस समूह में जाएँ -~----------~----~----~----~------~----~------~--~--- -------------------------------------------------------- NOTICE: If received in error, please destroy and notify sender. Sender does not intend to waive confidentiality or privilege. Use of this email is prohibited when received in error. ------------------------------------------------------- From delhi.yunus at gmail.com Sat Jul 19 12:42:53 2008 From: delhi.yunus at gmail.com (Syed Yunus) Date: Sat, 19 Jul 2008 12:42:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Tea for technology Message-ID: दोस्तों सलाम, मैं बहुत खुश हूँ की कल रात हमारी टी फॉर टेक्नोलॉजी की पहली मीटिंग हुई| आज जब मैं हिन्दी टाइपिंग प्रयोग करने बैठा तो बहुत मज़ा आया | ये तो सच में बहुत आसान हैं , अब मुझे कभी भी हिन्दी टाइप करने वालो के नखरे नहीं झेलने पड़ेंगे www.hindiyugm.com पर रोमन इंग्लिश को हिन्दी में लिखने का ये औजार बहुत ही कारामद है| अब देखिये न सिर्फ़ पाँच मिनट मैं ये चिठ्ठा तयार हो गया| इग्लिश मैं टाइप करने मैं ये मज़ा नही आता ! चलिए अब मैं आपको 'Tea for technology' के बारे में बताता हूँ | कुछ अरसे से ये ख्याल मेरे मन मैं कुलबुला रहाथा की आजकल टेक्नोलॉजी इतनी तेज़ी से बदल रही है की हर किसी को लगातार सीखना ज़रूरी है| मगर रोज़मर्रा की दोड़ धूप मैं इतना वक्त ही नही मिलता की खास तौर से कहीं जा के सीखें| मन में ये सवाल उठा की ऐसा क्या करें की हमारी रफ्तार टेक्नोलॉजी की रफ्तार के साथ मिल जाए और इससे सीखना कुदरती लगे ? अब ये तो सब ही जानते हैं की जितनी अहम और मजे दार बातें चाय की प्याली के साथ होती हैं, वैसी भारी भरकम 'वर्कशॉप' वाली मीटिंग मैं नही होतीं | और सीखने सिखाने का जो अम्ल है वो मज़ेदार ही होना चाहिए| तो साहब जन्म हुआ 'टी फॉर टेक्नोलॉजी' का | कल पहली मीटिंग हुई | हम पाँच दोस्त चाय की दुकान पे मिले और हमारे साथी सुहैल आज़म ने www.hindiyugm.com के बारे मैं बताया | मैंने आज सुबह प्रोयग किया और यह चिटठा लिख दिया | प्रयोग बहुत ही सफल रहा, अपने ख्यालों को ज़ाहिर करने केलिए मुझे हिन्दी टाइपिंग का सहारा मिल गया| टी फॉर टेक्नोलॉजी की अगली मीटिंग का इन्तिज़ार मुझे बेसब्री से रहेगा | मजे करें और लिखते रहें | यूनुस -- Change is the only constant in life ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080719/8dd6c3a8/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Sat Jul 19 12:49:15 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Sat, 19 Jul 2008 12:49:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSo?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KS4OiDgpJzgpL/gpKTgpKjgpYAg4KSF4KSa4KWN4KSb4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSo4KWAIOCkieCkpOCkqOClgCDgpJjgpJ/gpL/gpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSr4KS/4KSy4KWN4KSu?= Message-ID: <48819572.8030104@sarai.net> मित्रों पिछले अगस्त में यश भाई (मालवीय) आए थे. तब नागासाकी और हिरोशिमा की बरसी पर युद्धोन्माद के खिलाफ़ तिमारपुर में एक काव्य गोष्‍ठी हुई थी. यश भाई ने उस गोष्‍ठी में अन्य गीतों और कविताओं के अलावा 'नदी में ये चंदा किसे ढूंढता है ...' सुनायी थी. तब उन्होंने ये बताया था कि ये गीत उदयप्रकाश की कहानी 'मोहनदास' पर आधारित फिल्म 'मोहनदास' के लिए लिखा है. अगर ठीक-ठीक याद हो तो उन्होंने ये कहा था इसकी रिकॉर्डिंग भी हो चुकी है. बहरहाल, कल सिरीफ़ोर्ट ऑडिटोरियम में ओसियान फिल्म समारोह के दौरान मोहनदास देखने के बाद मेरे मन में जो सवाल कुलबुला रहे हैं, मैं उन्हें यहां आपसे बिन्दुवार साझा कर रहा हूं. 1. फिल्म में पात्रों के चयन को देखकर निर्देशन बेहद कमज़ोर लगी. नाम याद नहीं कि मोहनदास का किरदार किन्होंने निभाया है, पर मेरी राय है कि वो पूरी फिल्म के सबसे ढीले पात्र रहे हैं. मोहनदास की भूमिका तो कहीं से भी उन पर नहीं जम रही थी. मध्यप्रदेश के किसी पिछड़े से गांव का एक ग़रीब दलित जिसका घर का ख़र्चा हाट-बाज़ार में बांस की बुनी हुई टोकरी बेचकर चलता है, - उसके कपड़े हमेशा झकाझक कैसे रहते हैं. झकाझक ही नहीं अन्य सभी पात्रों से धवल. कितना गोरा है ये मोहनदास! 2. मोहनदास की पत्नी कस्‍तूरी बेमिसाल सुंदर है. ठुड्डी में तीन काले तिल, अरूणा इरानी की याद दिला जाते हैं. तीन तिल: यही ग्रामीण, मज़दूर दलित स्त्रियों का प्रतिनिधि चेहरा है? 3. जिस स्कूल में मोहन पढ़ता है वहां के बच्चे साफ़-सुथड़ी वर्दी तो पहन ही रहे हैं साथ में टाई भी लटक रही है बच्चों के गले में. हो सकता है निर्देशक महोदय को मध्यप्रदेश में वैसा स्कूल मिल गया होगा, अपन तो तीन बार गए नर्मदा बचाओ आंदोलन' के इलाक़े में पर कोई भी सरकारी स्कूल ऐसा नहीं दिखा. 4. दारोगाजी, कहीं से दारोगा नहीं लगते. और तो और अपने पोषाक से भी नहीं. ऐसा ढीला-ढाला मरियल दारोगा, ना जी ना. कोल माइन्स तो क्या दूर-दराज़ में रहने वाले भी ऐसे दारोगा को कभी भाव नहीं देंगे. एक तो ढीली कद-काठी उपर से अंगोछा ओढ़े : लग रहा था मानो पैसे लेकर स्कूली बच्‍चों को धमकाने का काम करता है. 5. सकारात्मक बातें भी है पात्र-चयन और पात्रों की भूमिका को लेकर. मुझे तो सबसे अच्छी भूमिका लगी स्ट्रींगर अनिल यादव (उत्तम) की. चयन भी ठीक था यहां. और भी बातें है जो ये बताती हैं कि फिल्म कितनी कमज़ोर बनी है और निर्देशन कितना कमज़ोर है. शायद मित्रों ने थोड़ा कुरेदा तो वो भी बक दूंगा. फिलहाल फिल्म का एक गीत सुनें जो हमारे भाई यश मालवीय ने पिछले अगस्त में पहली बार सुनाई थी. अरे हां, इसके लिए आपको क्लिक करना होगा http://haftawar.blogspot.com. शुक्रिया राकेश From shashikanthindi at gmail.com Sat Jul 19 14:07:29 2008 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 19 Jul 2008 14:07:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Nirantar_Ju?= =?utf-8?q?ly_2008_edition_released?= In-Reply-To: <200807191219.34208.ravikant@sarai.net> References: <200807191219.34208.ravikant@sarai.net> Message-ID: <2b1ae99f0807190137u1754f8a0n9bb3414a6fd78974@mail.gmail.com> HC notice to DU on teacher's plea for regularisation of job New Delhi, Jul 18 (PTI) The Delhi High Court has issued a notice to Delhi University on a college teacher's plea seeking regularisation of his service. Justice S N Aggarwal also issued notices to Shyam Lal College, chairperson of its governing body, head of the Hindi department and the teacher in-Charge of Hindi and sought their replies by August 12. The court said any appointment letter issued by the college would be subject to the final outcome of the writ petition. Filing a petition through counsel O P Saxena in the court, Dr Prem Prakash Sharma, an ad-hoc Lecturer in Hindi, sought the court to restrain the University and the college governing body from terminating his service. Seeking quashing of the minutes of a selection committee meeting on July 11 rejecting his application for appointment on a permanent basis, Sharma said the committee instead of considering his case selected six new candidates who were less qualified and experienced in the Hindi subject. Accusing the college of indulging in favouritism, Sharma, who worked in the college for more than nine years, contended that the intention of the selection committee was malafide, illegal and arbitrary. PTI PNM 2008/7/19 Ravikant : > > dosto, > > निरंतर का जुलाई २००८ का नया अंक जारी कर दिया गया है। वेबमेल तक पहुंच नहीं > है > अतः दीवान पर संदेश सीधे भेज नहीं सकता, आजकल घर जाकर भी पुनः नेट प्रयोग का > अवसर नहीं मिल रहा। आपसे आग्रह है कि निम्नलिखित सूचना समूह में अग्रेषित कर > दें। समूह की प्रतिक्रिया मिले तो अच्छा लगेगा। > > > > निरंतर पर सामयिक विषयों पर ओरिजिनल लेखकों का टोटा है, कहानी कविता भेजने के > लिये हर कोई तैयार बैठा है, इस तरह की सामग्री हमें बिना मांगे मिलती भी रहती > है, पर समाचार विचार विश्लेषण संबंधित लिखने वाले तो मुझे खोजे नहीं मिल रहे, > शायद कारण फोकट में लिखवाने का हो। पर यह एक दिक्कत तो रहेगी, जब प्रिंट वाले > ही मन मसोसे पड़े हैं तो जालपत्रिका से कमा लेने, और पारिश्रमिक दे सकने, के > दिन > अभी खासे दूर हैं। > > शुक्रिया! > > > आपका > > > > देबाशीष > > > ________________________________ > > From: nirantar-mitra at googlegroups.com > [mailto:nirantar-mitra at googlegroups.com] On Behalf Of ?????? ????????? > Sent: > Wednesday, July 16, 2008 3:09 PM > To: nirantar-mitra at googlegroups.com > Subject: निरंतर ~ विश्व की पहली हिन्दी ब्लॉगज़ीन / Nirantar July 2008 > edition > released > > > अंक-11 (जुलाई 2008) > ???-11 (????? 2008) > इस अंक में ख़ास > 140 ??????? ?? ??????: ??????????????? > 140 अक्षरों की > दुनिया: माइक्रोब्लॉगिंग > ब्लॉगिंग के बाद > इंटरनेट पर एक और विधा ने जोर पकड़ा है। जी हाँ ट्विटर, पाउंस और प्लर्क के > दीवाने अपने बलॉग छोड़ दीवाने हो चले हैं माईक्रोब्लॉगिंग के। पैट्रिक्स और > देबाशीष कर रहे हैं इस लोकप्रिय तकनीक की संक्षिप्त पड़ताल जिसमें लोग फकत 140 > अक्षरों में कभी अपने मोबाईल, कभी डेस्कटॉप तो कभी जालस्थल द्वारा अपना > हालेदिल > लिखे चले जाते हैं। IDN ?????? ?????? ?? ??? ???? > IDN करेंगे हिन्दी का नाम रोशन > > जब जालपृष्ठ हिन्दी में है तो भला डोमेन नाम हिन्दी में क्यों नहीं? > अन्तरराष्ट्रीय डोमेन नाम (IDN) द्वारा ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी इंटरनेट > प्रयोक्ताओं को इसका हल तो मिला ही है, भविष्य में संपूर्ण डोमेन नाम अपनी > भाषा > में लिख सकने के मार्ग भी प्रशस्त हो रहे हैं। पढ़िये आइडीएन के बारे में > विस्तृत जानकारी देता वरुण अग्रवाल का लिखा, रमण कौल द्वारा अनूदित लेख। > ??????????? ?? ?????? ???????? ?? > मनोचिकित्सा से फ़िल्म निर्देशन तक > डॉ > परवेज़ इमाम ने चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई पूरी कर मनोचिकित्सक का पेशा अपनाया > पर अस्पताल की बजाय उनकी कर्मभूमि बनी वृतचित्र यानि डाक्यूमेंट्री फ़िल्मों > की > दुनिया। टीवी कार्यक्रम टर्निंग प्वाईंट से शुरुवात कर उन्होंने अब तक अनेकों > पुरस्कृत वृत्तचित्रों का निर्माण किया है। संवाद में पढ़ें परवेज़ के जीवन और > अनुभव पर डॉ सुनील दीपक से हुई उनकी बातचीत। > > इस अंक के अन्य आकर्षण > ???? ???? ?? ???? ??? कृषि आधार > का > बढ़ता भार हर विकसित देश ने कालांतर > में > ग्राम-केन्द्रित, कृषि-केन्द्रित व्यवस्था से शहर-केन्द्रित, गैर-कृषि > केन्द्रित व्यवस्था की ओर अन्तरण किया है। अतानु दे और रुबन अब्राहम मानते > हैं > कि भारत के पास विकल्प है कि वह 6 लाख छोटे गाँवों की बजाय 600 सुनियोजित, > चमचमाते नए शहरों के निर्माण पर विचार करे। जबकि कृषक चिट्ठाकार अशोक पाण्डेय > मानते हैं कि ऐसा कदम बाज़ार की ताकत के सामने गाँवों की आत्मनिर्भरता के > घुटने > टेक देने के समान होगा। > > ________________________________ > > ?????? व्यतीत > संस्कृतियों, लिबासों और > भाषाओं > के कॉकटेल कलकत्ता में नीता के सामने श्यामल है, उसका वर्तमान। श्यामल पहली > बार > आया है यहाँ, पर नीता का व्यतीत अतीत उसे साल रहा है। वह कलकत्ता को भूल जाना > चाहती है। वातायन में पढ़िये 1963 में मनोरमा पत्रिका में प्रकाशित वीणा > सिन्हा > की स्त्री के अंतर्दंद्व पर लिखी कहानी जो आज भी सामयिक लगती है। > > ________________________________ > > ????? ??????: ?????? ??????? ?? ????? > अमृता > इमरोज़: > रूहानी रिश्तों की बयानी > उमा त्रिलोक > ने > अपनी किताब में इमरोज़ और अमृता की रूहानी मोहब्बत के जज़्बे को तो खूबसूरती > से > अभिव्यक्त किया ही है, साथ ही अमृता प्रीतम के जीवन के आखिरी लम्हों को भी > अपनी > कलम से बख़ूबी बटोरा है। पढ़िये पुस्तक अमृता इमरोज़ की रविशंकर श्रीवास्तव व > रंजना भाटिया द्वारा समीक्षायें। > > ________________________________ > > ??? ??????????? : ???? ?? ??? > मैं > बोरिशाइल्ला : भीड़ से अलग > बांग्लादेश की > मुक्ति-गाथा पर केंद्रित "मैं बोरिशाइल्ला" महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो > चर्चित भी हुआ और सम्मानित भी। रवि कहते हैं कि थोड़ा बोझिल होने के बावजूद > यह > अलग सा उपन्यास अपने प्रामाणिक विवरण के कारण बांग्ला जनजीवन को जानने समझने > वाले और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों को दिलचस्प लगेगा। > > ________________________________ > > ???-???? ???? ?? ???? ?????? > > सफल-असफल बनने की सत्य तथाकथा < > http://www.nirantar.org/0708/vatayan/vyangya> > रवि रतलामी सफ़ल बनना चाहते थे, महान बनना चाहते थे। और खोजते खोजते उनका हाथ > वो नुस्ख़ा लग ही गया जिससे वे महान ही नहीं, महानतम बन गये। तो देर किस बात > की? आप भी बन जाइये उन के अनुयायी। > > ________________________________ > > ????? ????? ?? ???????! > कितना > बोलती हो सुनन्दा! वातायन के > काव्य प्रभाग में पढ़िये युवा कवि गौरव सोलंकी की दो कवितायें। > > ________________________________ > > ??? ????? देख तमासा > समस्या पूर्ति निरंतर का ऐसा > स्तंभ है जहाँ आप अपनी रचनात्मकता परख सकते हैं। स्तंभ में दिये चित्र व > शीर्षक > के आधार पर रच डालिये कोई कविता, छंद या हाईकू। सर्वश्रेष्ठ रचना को मिलेगा > आकर्षक पुरस्कार। > > ________________________________ > > Powered by iJoomla Magazine > > --~--~---------~--~----~------------~-------~--~----~ > आपने यह संदेश प्राप्‍त कि‍या क्‍योंकि‍ आपने इसमें सदस्यता ली है Google समूह > "Nirantar Mitra" समूह इस समूह को पोस्ट करने के लिए, निम्नलिखित पते पर ईमेल > भेजें nirantar-mitra at googlegroups.com इस समूह से सदस्यता समाप्‍ति‍ के > लिए, > यहां ईमेल भेजें nirantar-mitra-unsubscribe at googlegroups.com अधिक विकल्पों > के > लिए, http://groups.google.com/group/nirantar-mitra?hl=hi पर इस समूह में > जाएँ > -~----------~----~----~----~------~----~------~--~--- > -------------------------------------------------------- > > NOTICE: If received in error, please destroy and notify sender. Sender does > not intend to waive confidentiality or privilege. Use of this email is > prohibited when received in error. > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080719/8c400caa/attachment-0001.html From shashikanthindi at gmail.com Sat Jul 19 14:09:56 2008 From: shashikanthindi at gmail.com (shashi kant) Date: Sat, 19 Jul 2008 14:09:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Nirantar_Ju?= =?utf-8?q?ly_2008_edition_released?= In-Reply-To: <2b1ae99f0807190137u1754f8a0n9bb3414a6fd78974@mail.gmail.com> References: <200807191219.34208.ravikant@sarai.net> <2b1ae99f0807190137u1754f8a0n9bb3414a6fd78974@mail.gmail.com> Message-ID: <2b1ae99f0807190139p58e43c29r6a25b58c5db102e3@mail.gmail.com> for ravikant and other deevan readers 2008/7/19 shashi kant : > HC notice to DU on teacher's plea for regularisation of job > New Delhi, Jul 18 (PTI) The Delhi High Court has > issued a notice to Delhi University on a college teacher's > plea seeking regularisation of his service. > Justice S N Aggarwal also issued notices to Shyam Lal > College, chairperson of its governing body, head of the Hindi > department and the teacher in-Charge of Hindi and sought > their replies by August 12. > The court said any appointment letter issued by the > college would be subject to the final outcome of the writ > petition. > Filing a petition through counsel O P Saxena in the > court, Dr Prem Prakash Sharma, an ad-hoc Lecturer in Hindi, > sought the court to restrain the University and the college > governing body from terminating his service. > Seeking quashing of the minutes of a selection committee > meeting on July 11 rejecting his application for appointment > on a permanent basis, Sharma said the committee instead of > considering his case selected six new candidates who were less > qualified and experienced in the Hindi subject. > Accusing the college of indulging in favouritism, > Sharma, who worked in the college for more than nine years, > contended that the intention of the selection committee was > malafide, illegal and arbitrary. PTI PNM > > 2008/7/19 Ravikant : > > >> dosto, >> >> निरंतर का जुलाई २००८ का नया अंक जारी कर दिया गया है। वेबमेल तक पहुंच नहीं >> है >> अतः दीवान पर संदेश सीधे भेज नहीं सकता, आजकल घर जाकर भी पुनः नेट प्रयोग का >> अवसर नहीं मिल रहा। आपसे आग्रह है कि निम्नलिखित सूचना समूह में अग्रेषित कर >> दें। समूह की प्रतिक्रिया मिले तो अच्छा लगेगा। >> >> >> >> निरंतर पर सामयिक विषयों पर ओरिजिनल लेखकों का टोटा है, कहानी कविता भेजने के >> लिये हर कोई तैयार बैठा है, इस तरह की सामग्री हमें बिना मांगे मिलती भी >> रहती >> है, पर समाचार विचार विश्लेषण संबंधित लिखने वाले तो मुझे खोजे नहीं मिल >> रहे, >> शायद कारण फोकट में लिखवाने का हो। पर यह एक दिक्कत तो रहेगी, जब प्रिंट >> वाले >> ही मन मसोसे पड़े हैं तो जालपत्रिका से कमा लेने, और पारिश्रमिक दे सकने, के >> दिन >> अभी खासे दूर हैं। >> >> शुक्रिया! >> >> >> आपका >> >> >> >> देबाशीष >> >> >> ________________________________ >> >> From: nirantar-mitra at googlegroups.com >> [mailto:nirantar-mitra at googlegroups.com] On Behalf Of ?????? ????????? >> Sent: >> Wednesday, July 16, 2008 3:09 PM >> To: nirantar-mitra at googlegroups.com >> Subject: निरंतर ~ विश्व की पहली हिन्दी ब्लॉगज़ीन / Nirantar July 2008 >> edition >> released >> >> >> अंक-11 (जुलाई 2008) >> ???-11 (????? 2008) >> इस अंक में ख़ास >> 140 ??????? ?? ??????: ??????????????? >> 140 अक्षरों की >> दुनिया: माइक्रोब्लॉगिंग >> ब्लॉगिंग के >> बाद >> इंटरनेट पर एक और विधा ने जोर पकड़ा है। जी हाँ ट्विटर, पाउंस और प्लर्क के >> दीवाने अपने बलॉग छोड़ दीवाने हो चले हैं माईक्रोब्लॉगिंग के। पैट्रिक्स और >> देबाशीष कर रहे हैं इस लोकप्रिय तकनीक की संक्षिप्त पड़ताल जिसमें लोग फकत >> 140 >> अक्षरों में कभी अपने मोबाईल, कभी डेस्कटॉप तो कभी जालस्थल द्वारा अपना >> हालेदिल >> लिखे चले जाते हैं। IDN ?????? ?????? ?? ??? ???? >> IDN करेंगे हिन्दी का नाम रोशन >> >> जब जालपृष्ठ हिन्दी में है तो भला डोमेन नाम हिन्दी में क्यों नहीं? >> अन्तरराष्ट्रीय डोमेन नाम (IDN) द्वारा ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी इंटरनेट >> प्रयोक्ताओं को इसका हल तो मिला ही है, भविष्य में संपूर्ण डोमेन नाम अपनी >> भाषा >> में लिख सकने के मार्ग भी प्रशस्त हो रहे हैं। पढ़िये आइडीएन के बारे में >> विस्तृत जानकारी देता वरुण अग्रवाल का लिखा, रमण कौल द्वारा अनूदित लेख। >> ??????????? ?? ?????? ???????? ?? >> मनोचिकित्सा से फ़िल्म निर्देशन तक >> डॉ >> परवेज़ इमाम ने चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई पूरी कर मनोचिकित्सक का पेशा >> अपनाया >> पर अस्पताल की बजाय उनकी कर्मभूमि बनी वृतचित्र यानि डाक्यूमेंट्री फ़िल्मों >> की >> दुनिया। टीवी कार्यक्रम टर्निंग प्वाईंट से शुरुवात कर उन्होंने अब तक >> अनेकों >> पुरस्कृत वृत्तचित्रों का निर्माण किया है। संवाद में पढ़ें परवेज़ के जीवन >> और >> अनुभव पर डॉ सुनील दीपक से हुई उनकी बातचीत। >> >> इस अंक के अन्य आकर्षण >> ???? ???? ?? ???? ??? कृषि >> आधार का >> बढ़ता भार हर विकसित देश ने कालांतर >> में >> ग्राम-केन्द्रित, कृषि-केन्द्रित व्यवस्था से शहर-केन्द्रित, गैर-कृषि >> केन्द्रित व्यवस्था की ओर अन्तरण किया है। अतानु दे और रुबन अब्राहम मानते >> हैं >> कि भारत के पास विकल्प है कि वह 6 लाख छोटे गाँवों की बजाय 600 सुनियोजित, >> चमचमाते नए शहरों के निर्माण पर विचार करे। जबकि कृषक चिट्ठाकार अशोक >> पाण्डेय >> मानते हैं कि ऐसा कदम बाज़ार की ताकत के सामने गाँवों की आत्मनिर्भरता के >> घुटने >> टेक देने के समान होगा। >> >> ________________________________ >> >> ?????? व्यतीत >> संस्कृतियों, लिबासों और >> भाषाओं >> के कॉकटेल कलकत्ता में नीता के सामने श्यामल है, उसका वर्तमान। श्यामल पहली >> बार >> आया है यहाँ, पर नीता का व्यतीत अतीत उसे साल रहा है। वह कलकत्ता को भूल >> जाना >> चाहती है। वातायन में पढ़िये 1963 में मनोरमा पत्रिका में प्रकाशित वीणा >> सिन्हा >> की स्त्री के अंतर्दंद्व पर लिखी कहानी जो आज भी सामयिक लगती है। >> >> ________________________________ >> >> ????? ??????: ?????? ??????? ?? ????? >> अमृता >> इमरोज़: >> रूहानी रिश्तों की बयानी >> उमा त्रिलोक >> ने >> अपनी किताब में इमरोज़ और अमृता की रूहानी मोहब्बत के जज़्बे को तो खूबसूरती >> से >> अभिव्यक्त किया ही है, साथ ही अमृता प्रीतम के जीवन के आखिरी लम्हों को भी >> अपनी >> कलम से बख़ूबी बटोरा है। पढ़िये पुस्तक अमृता इमरोज़ की रविशंकर श्रीवास्तव व >> रंजना भाटिया द्वारा समीक्षायें। >> >> ________________________________ >> >> ??? ??????????? : ???? ?? ??? >> मैं >> बोरिशाइल्ला : भीड़ से अलग >> बांग्लादेश >> की >> मुक्ति-गाथा पर केंद्रित "मैं बोरिशाइल्ला" महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो >> चर्चित भी हुआ और सम्मानित भी। रवि कहते हैं कि थोड़ा बोझिल होने के बावजूद >> यह >> अलग सा उपन्यास अपने प्रामाणिक विवरण के कारण बांग्ला जनजीवन को जानने समझने >> वाले और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों को दिलचस्प लगेगा। >> >> ________________________________ >> >> ???-???? ???? ?? ???? ?????? < >> http://www.nirantar.org/0708/vatayan/vyangya> >> सफल-असफल बनने की सत्य तथाकथा < >> http://www.nirantar.org/0708/vatayan/vyangya> >> रवि रतलामी सफ़ल बनना चाहते थे, महान बनना चाहते थे। और खोजते खोजते उनका >> हाथ >> वो नुस्ख़ा लग ही गया जिससे वे महान ही नहीं, महानतम बन गये। तो देर किस बात >> की? आप भी बन जाइये उन के अनुयायी। >> >> ________________________________ >> >> ????? ????? ?? ???????! >> कितना >> बोलती हो सुनन्दा! वातायन >> के >> काव्य प्रभाग में पढ़िये युवा कवि गौरव सोलंकी की दो कवितायें। >> >> ________________________________ >> >> ??? ????? देख तमासा >> समस्या पूर्ति निरंतर का ऐसा >> स्तंभ है जहाँ आप अपनी रचनात्मकता परख सकते हैं। स्तंभ में दिये चित्र व >> शीर्षक >> के आधार पर रच डालिये कोई कविता, छंद या हाईकू। सर्वश्रेष्ठ रचना को मिलेगा >> आकर्षक पुरस्कार। >> >> ________________________________ >> >> Powered by iJoomla Magazine >> >> --~--~---------~--~----~------------~-------~--~----~ >> आपने यह संदेश प्राप्‍त कि‍या क्‍योंकि‍ आपने इसमें सदस्यता ली है Google >> समूह >> "Nirantar Mitra" समूह इस समूह को पोस्ट करने के लिए, निम्नलिखित पते पर >> ईमेल >> भेजें nirantar-mitra at googlegroups.com इस समूह से सदस्यता समाप्‍ति‍ के >> लिए, >> यहां ईमेल भेजें nirantar-mitra-unsubscribe at googlegroups.com अधिक >> विकल्पों के >> लिए, http://groups.google.com/group/nirantar-mitra?hl=hi पर इस समूह में >> जाएँ >> -~----------~----~----~----~------~----~------~--~--- >> -------------------------------------------------------- >> >> NOTICE: If received in error, please destroy and notify sender. 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080719/e4873e41/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Sun Jul 20 20:41:31 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Sun, 20 Jul 2008 20:41:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSyUyDgpKo=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSy4KWHIOCkpOCli+CkueCkleClhyDgpKjgpLjgpY3gpKTgpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KS+4KSI4KSC?= Message-ID: <488355A3.7020202@sarai.net> मित्रों, क़रीब चार साल पहले कुछ लिखने की कोशिश की थी. चार-पांच हज़ार शब्द लिखे भी. दोस्तों ने इतनी हौसलाअफ़ज़ाई की कि 'अब उपन्यास ही लिखूंगा' सोचकर लिखना-विखना ही बंद कर दिया. देखना है आपका उत्साहवर्द्धन इसे कहां ले जाता है. हां, इस श्रृंखला का कोई नाम नहीं सूझ रहा है मुझे. आपको कुछ सूझे तो बताइएगा. सलाम राकेश xxx xxx xxxx xxxx xxxx ‘कहिए न, कइसे आना हुआ ?’ ‘बस, ऐसे ही. बहुत दिनों से इधर आया नहीं था, इसीलिए सोचा कि ज़रा आप लोगों से मिलते चलूं.’ ‘अरे नहीं बिना काम के त आप इधर अइबे नहीं करते हैं, जरूर फेर केकरो जीवनी चरित लेने आए होइएगा आप.’ जवाहर की बात में भी दम था. आदर्श जब भी उनके पास जाता था, किसी न किसी से बात करवा देने की जिद ज़रूर करता था. दरअसल पिछले तेरह-चौदह महीनों से आदर्श दिल्ली के एक मीडिया मार्केट का अध्ययन कर रहा है. कहते हैं मुग़लों को पछाड़ने के बाद जब लाल किले को अंग्रेज़ों ने अपना इन्फ़ेंट्री बेस बनाया तब आदर्श के शोध की यह धूरी अस्तबल के लिए उपयुक्त समझी गयी. आज़ादी के मतवालों के कमर में रस्सी बांधकर घसीटने वाले घुड़सवारों के घोड़े इसी जगह पर बांधे जाते थे. सन् सैंतालिस ने आदर्श के इस अध्ययन धूरी को बहुत बड़े शरणार्थी केन्द्र में तब्दील कर दिया. उस तरफ़ से घर-बार, हित-प्रेम छोड़कर भागने वालों को यहीं पनाह मिली. जवाहरलाल की सरकार ने इन पनाहगिरों की रोज़ी-रोटी के लिए इसे बाज़ार बना दिया. समय बीतने के साथ यह कच्चा बाज़ार कब पक्का हो गया, कब यह इलेक्ट्रॉनिक मंडी बन गयी: यहां के दुकानदारों को भी इसका एहसास बहुत देर से हुआ. बाज़ार में बदलाव की कहानी ट्रांजिस्टर से शुरू होकर टेप रिकॉडर और वीडियो के बीच से गुज़रते हुए अब हर वैसी चीज़ के साथ आ टिकी है जिसे इलेक्ट्रॉनिक प्रॉडक्ट कहते हैं. तो अपने उसी अध्ययन के सिलसिले में आदर्श बाबू हर दूसरे दिन बाज़ार पहुंच जाते थे. कभी बाज़ार में बोझा ढोने वालों से बतियाने लगते तो कभी छोटे-छोटे स्टॉल वालों से तो कभी रेहड़ी-पटरी वालों से. इसी दरम्यान उनकी जान-पहचान जवाहर से हो गयी थी. जवाहर मूलत: बक्सर जिले के निवासी हैं. पूस्तैनी काम तो वैसे मछली पकड़ना रहा है उनका लेकिन दसवीं करने के बाद उन्हें गांव में ही टेलीफ़ोन विभाग में नौकरी मिल गयी थी. कच्ची नौकरी और कम तनख़्वाह के चलते उनके लिए परिवार का गुजर-बसर करना मुश्किल था. तब हरियाणा-पंजाब कमाने का चलन ज़ोर नहीं पकड़ा था. कमाने-धमाने लोग कलकत्ता जाया करते थे. हां बीते कुछ सालों से उनके गांव वालों ने काम-धंधे का एक और नए ठिकाने का पता लगा लिया था ‘डिल्ली’. धड़ाधड़ फ़ैक्ट्रियां खुलती जा रही थी उस डिल्ली में. डिल्ली कमाने वाले जब गांव लौटते थे तो उनके पास थोड़े-से रुपयों-पैसों के साथ एक रेडियो भी होता था, जिसको सुनने के लिए शाम को रेडियो वाले के घूर को घेर कर लोग बैठ जाया करते थे. घूर पर डेग्ची में पानी, गुड़ और पत्ती रख दी जाती थी. लोग ठोर चिपका देने वाली चाह पीकर ही उठते थे वहां से. घूर के नजदीक बैठकर जवाहर चाह की हर चुस्की के साथ डिल्ली कमाने का सपना देखता और यह सोचने लगता कि उसके दुआर पर भी एक दिन वैसी ही चाह बनेगी लेकिन उसकी चाह में गुड़ की जगह चीनी होगी. उसके सपने में फ़ैक्ट्री का काम सबसे उपर था. उसे लगता था कि फ़ैक्ट्री में काम करने के बाद उसे जो पैसे मिलेंगे उससे बरकत होगी, और छोटे भाई-‍बहनों और इया-बाबुजी के लिए कुछ पैसे वो गांव भी भेज दिया करेगा. इन्हीं बातों को मन में मथते हुए जवाहर एक शाम बक्सर में उस रेल पर चढ़ गया जो उसके सपनों के बहुत क़रीब जा रही थी. तारीख़ अब ठीक से याद नहीं रही लेकिन अक्टूबर का महीना और सतहत्तर का साल उसे अच्छी तरह याद है. तब घड़ी भी नहीं थी कलाई पर, बस इतना याद है कि अचानक भोरे-भोरे डिब्बे के लोग झोरा-झंटी लेकर उतरने लगे थे. लगभग पूरा डिब्बा खाली हो गया था. मन में डर समाने लगा था : कहीं कोई दुर्घटना-उर्घटना तो नहीं हो गयी. तभी बोरा घसीटता हुआ एक आदमी सामने से गुज़रा. जवाहर से रूका नहीं गया, पूछ बैठा; ‘का हो गिया भाई साहेब, काहे धरफरा रहे हैं स?’ ’कइसन आदमी है, नींद में हो का? गाड़ी पहुंच गयी दिल्ली, उतरना है त उतरो न त गाड़ी चली जाएगी सेंटिंग में सफाई-उफाई के लिए.’ सचमूच नींद खुल गयी. बाबाधाम वाला झोरा कांख में दबा कर जवाहर उतर गए पिछले दरवाज़े से. ‘एके गो पता था – पंडित अदिकलाल मिसिर बक्सर वाले, भगीरथ पिलेस, चांदनी चउक, लाल किला के सामने.’ थ्री व्हीलर ले के चल दिए ठिकाना खोजने. चार क़दम की दूरी तक आने में थ्री व्हीलर वाले ने चार घंटे लगा दिए और चालीस रुपए भी ऐंठ लिए. पंडित अदिक लाल मिसिर इंदिरा गांधी तो थे नहीं कि सब जानते उनको. मिसिर बाबा की खोज में जवाहर की दोनों आंखे उनकी छोटी गर्दन को जबरन बार-बार लंबा कर देती थी. आंखों और गर्दन की उस जोड़ी ने मिसिर बाबा की ताक में सड़क पर ख़ूब कसरत की. लेकिन इस वक्त वहां सफ़ेद धोती-कुर्ता में लिपटे माड़वाडि़यों के झूंड के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था. हाथ में हंटर लिए तोंद के गोले को कुदाते वे ऐसे सड़क रौंद रहे थे मानो उनका ऐसा न करना सड़क में भी उन जैसी ही गोलाई उभार देगा. जवाहर को लगने लगा जैसे वह किसी ग़लत जगह पर आ गया है. ‘पिछली बार मिसिर बाबा जब गांवे आए थे त बोले थे कि बहुत लोग हैं अपने बिहार-यूपी के भगीरथ पिलेस में. मेहनत-मजूरी का सारा काम उहे लोग के जिम्मे है. बाकी इहवां त किरिन फुटे भी दु घंटा से जादा हो गिया, कोई नहीं दिखा अबले मजदूर बिरादरी का.’ पूछने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी किसे से मिसिरजी के बारे में. ‘का त मिसिरजी हांक रहे थे? बाबाजी लोग का आदते होता है ढेर बोलने का. आ गांवे आके त आदमी बोलवे करता है आपन भाव बढाने के लिए ...’ न जाने और क्या-क्या सोच लिया उसने सड़क पर इधर से उधर टहलते हुए. तीन-चार घंटे बाद जब लुंगी-कुर्ता में अपने जैसे कुछ लोग आते दिखे तो लगा कि जैसे जान में जान आ रही है. नजदीक आने पर जब पता चला कि बोली-वाणी में भोजपुरी भी हैं ये लोग, चित्त प्रसन्न हो गया. नहीं रोक पाए जवाहर ख़ुद को. थोड़ा हिचके लेकिन पूछ लिए, ‘बक्सर वाले अदिकलाल मिसिर केने बइठते हैं?’ अलग-अलग समूह के सामने तीन-चार बार यही क्रम दुहराने के बाद पता चल मिसिरजी का ठिकाना. क़रीब बारह बजने वाले थे. दूर से माथे पर लाल टीका लगाए गर्दन में अंगोछा लपेटे एक गोरी काया अपनी ओर ओ देख जवाहर दौड़ पड़े. ‘गोड़ लागSतानि ए बाबा! काहां रहनि ह अबे ले? भोरुके के आएल बानि. खोजत-खोजत तीन डिबिया तेल जरि गईल ए बाबा. हार-दार अब रउए सरन में आएल बानि. अब कुछ रउए करिं ये बाबा.’ ’चिंता जीन करS जवाहिर. अब आ गइलS नुं, कौनो न कौनो उपाय त जरूरे होखि. पहिले इ बतावS कि नस्ता-पानी भईल ह कि ना? कुल्ला-गराड़ी करS, चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं.’ जवाहर अब मिसिरजी के पीछे-पीछे चल रहा था. दोनों टाउन हॉल की ओर जा रहे थे. From vineetdu at gmail.com Mon Jul 21 11:55:46 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 21 Jul 2008 11:55:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkpQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkmuCliOCkqOCksiDgpJzgpKjgpK7gpKQg4KSJ4KSw4KWN4KSr?= =?utf-8?b?IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJXgpL4g4KSP4KSVIOCklOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSW4KWH4KSy4KS+?= Message-ID: <829019b0807202325o50c39354ja4ddf1a3d13ac68b@mail.gmail.com> उदय प्रकाश के उपन्यास मोहनदास पर बनी फिल्म मोहनदास का मीडिया पार्टरनर जनमत चैनल है। एक ऐसा चैनल जिसे फिल्म में देखकर कोई अपने टीवी स्क्रीन पर देखना चाहे तो उसे मायूस होना पड़ेगा। जनमत नाम से अब कोई चैनल है ही नहीं। लेकिन फिल्म में उसे इस तरह से दिखाया गया गया है कि आपको जनमत चैनल को छोड़कर और किसी दूसरे चैनल को देखने का मन ही नहीं करेगा।..आप हिन्दी आलोचकों की तरह बोल पड़ते हैं कि जनमत सिर्फ एक चैनल नहीं, विचार है और उसका हमारे बीच से चले जाना घटना नहीं बल्कि एक विचार का अंत है। अब लगभग जितनी फिल्में बनायी जाती है उसमें न्यूज चैनलों के लिए खासतौर से स्पेस क्रिएट किया जाता है। कहानी का ताना-बाना ही कुछ इस तरह से बुना जाता है कि फिल्म को बार-बार रिपोर्टरों की जरुरत पड़ती है। फिल्म का प्लॉट चाहे जो भी हो, सबमें मीडिया पार्टनर के रुप में टाइअप किए चैनलों की दरकरार पड़ जाती है।..और वैसे भी जिस तरह से न्यूज चैनलों का काम बढ़ा है उसमें समंदर किनारे प्रेम कर रहे हीरो-हीरोइनों को भी...तो आप देख रहे हैं कि किस तरह से दोनों ने अपने बीच किसी तरह का फासला नहीं रहने दिया है,,, बोलकर रिपोर्टिंग कर सकता है। एक लाइन में कहूं तो बिना चैनलों को घुसाए फिल्म बनाना अब हिम्मत का काम है और लीक से हटकर एक नया प्रयोग भी। खैर.... मोहनदास जो कि व्यवस्था का मारा हुआ मेधावी दलित युवक है उसके साथ अन्याय हुआ है। उसकी पहचान उससे छीन ली गयी है, उसकी जाति को किसी और ने रिप्लेस कर लिया है और अब उसे यह सिद्द करनें में मारामारी करनी पड़ रही है कि वो ही मोहनदास है। कोयलरी में जो मैनेजरी कर रहा है वो तो ब्राह्मण है, उपर से नीचे तक खिला-पिलाकर उसने सबको अपनी तरफ कर लिया है। इसलिए मोहनदास की बात को कोई नहीं सुनता है। लिहाजा बात जनमत चैनल तक चली जाती है। जनमत का sringer अनिल यादव इस पूरी स्टोरी को दिल्ली के ऑफिस में भेजता है और स्टोरी ऑन एयर होती है. बात आयी-गयी हो जाती है लेकिन तभी चैनल की तेजतर्रार रिपोर्टर मेघना सेन गुप्ता जिसका कि देशभर में साख है, इस स्टोरी को अपने तरीके से कवर करना चाहती है और खुद मध्यप्रदेश के उस इलाके में जाना चाहती है जहां कि मोहनदास रहता है और जहां फर्जी मोहनदास काम करता है। चैनल प्रमुख राहुल देव मेघना के इस विचार को साफ तौर से नकार देते हैं और सीधे शब्दों में कहते हैं, उस स्टोरी में क्या रखा है. यू नो स्टोरी मतलब किक्रेट, क्राइम और ऑफकोर्स पॉलिटिक्स। बार-बार मना करने के बाद भी मेघना अकेले ही मध्यप्रदेश के उस इलाके में जाती है और अनिल यादव की मदद से पूरी स्टोरी को दुबारा शूट करती है। लेकिन ऐसा करते वक्त वो तटस्थ नहीं रह पाती और मोहनदास की परेशानियों से जुड़ती चली जाती है. यही वजह है कि दिल्ली वापस लोटने पर भी वहां से लगातार उसके लिए फोन आते हैं और ऑफिस में उसे ताने सुनने पड़ते हैं कि -तुम अभी तक उस स्टोरी के पीछे पड़ हुई हो।.. मेघना दोबारा-तीबारा उस पिछड़े इलाके में जाती है लेकिन पहली बार की तरह कैमरा-यूनिट के साथ नहीं और न ही चैनल की रिपोर्टर की हैसियत से। एक पत्रकार की हैसियत से। चैनल की भाषा में कहें तो एक अनप्रोफेशनल की हैसियत से। इस बात का अंदाजा आपको मेघना के जबाब सके ही लग जाएगा जब वो वकील के सवाल का कि-इस बार कैमरे लेकर नहीं आयीं और मेघना बिल्कुल ही सपाट ढंग से जबाब देती है कि- कोई स्टिंग ऑपरेशन करना था क्या। मतलब साफ है कि मोहनदास की परेशानी में लम्बे समय तक जनमत साथ नहीं दे पाता। जनमत क्या, कोई भी नहीं दे पाएगा। वजह आप सब जानते हैं। पूरी फिल्म में मेघना अंत तक साथ बनी रहती है, चैनल एकदम से हाशिए पर चला जाता है। बीच-बीच में उस पर मोहनदास की खबरें आती है लेकिन बहुत प्रोजेक्शन के तौर पर नहीं, बहुत ही सामान्य ढंग से। बाद में तो खुद जनमत भी नहीं रह जाता, लाइव इंडिया हो जाता है। इससे अधिकारी ब्रदर्स ने शायद यह साबित करने की कोशिश की हो कि यह वही लाइव इंडिया है जो जनमत के मूल्यों को कैरी कर रहा है नाम बदल जाने से क्या होता है, जनपक्षधरता तो बनी ही है। यह अलग बात है कि ऑडिएंस को उमा खुराना प्रकरण अब भी याद है। पूरे मोहनदास में इस हिसाब से चैनल के नाम बदले से लेकर उसके नए चैनल में बदलने का प्रोसेस साफ तौर पर दिखायी देता है. आप फिल्म देखते हुए एंकर के अंदाज पर गौर कर सकते हैं, कहने के तरीके पर विचार कर सकते हैं।... ....तो क्या यह मेरी इससे ठीक पहले की पोस्ट का एक्सटेंशन है कि चैनल का यह दूसरा खेला है जहां किसी स्टोरी के पीछे हाथ-धोकर पड़ जाने का मतलब है- चैनल अलग, रिपोर्टर अलग। लेकिन इन सबके बीच अच्छी बात है कि चैनल के बाजारवादी रुझान के बीच भी एक संजीदा पत्रकार की मौजूदगी का एहसास हो जाता है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-149253 Size: 10127 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080721/f71a1609/attachment-0001.bin From rakesh at sarai.net Mon Jul 21 16:57:47 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Mon, 21 Jul 2008 16:57:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KSo4KS/IA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSo4KWAIOCksuClhyDgpIbgpLUgUyDgpIkg4KSs4KWL4KSk4KSy?= =?utf-8?b?4KS14KS+IOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <488472B3.90209@sarai.net> मित्रों चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं के आगे पढिए तनि पानी ले आवS बोतलवा में ... राकेश चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं के आगे पढिए तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में ... आज आदर्श और जवाहर के बीच ऐसे ही दुआ-सलाम हुआ. उनकी जान-पहचान ज़्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो-ढाई महीने से जानते हैं दोनों एक दुसरे को. शुरुआती दो-तीन मुलाक़ातों के बाद उनकी बातचीत का शुरुआत का अंदाज़ एक-आध अवसरों को छोड़कर ऐसा ही रहा है. आज जवाहर स्वभाव के विपरीत थोड़ा परेशान दिख रहे थे. यूं तो काम का बोझ हमेशा उनके सिर पर होता है लेकिन उनके चेहरे पर खोजने पर भी शायद ही कभी दिखती है. ‘ऐ के बाड़S, तनी उ स्टूलवा खींचS हेने ... तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में’ फरमाने के बाद अपनी पैंट की जेब में पड़ी प्रवीण की पुडिया में से दो चटकी बायीं हाथ की तर्जनी पर रखकर दायीं हाथ के अंगूठे से मसलने और चार-छह ताल पीटकर बचे-खुचे मटमैले पदार्थ को दायीं हाथ की तर्जनी के बीचोबीच समेटकर स्वागत वाले अंदाज़ में कहते हैं, ‘हई लीजिए आदर्श बाबू’. जवाहर को पता चल गया था कि आदर्श बाबू को इसमें जो आनंद मिलता है वो और किसी पदार्थ में नहीं. लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ. आदर्श के सामने जब कभी ऐसी नौबत आती, वह बगले झांकने लगता. उसका अंतर्मन उसकी संवेदना को ललकारता ... ’क्यों, क्या हक़ है तुम्हें ऐसे किसी के काम में दख़़ल देने का ? देख नहीं रहे हो जवाहर और उसके संगी-साथी कितने परेशान है अपने काम को लेकर ...’ स्थिति भापने के बाद आदर्श वहां से निकलने का बहाना टोहने लगता. जैसे कि आज उसने दबी जुबान में कहा, ‘होली के बाद काम में लगता है तेज़ी आयी है. खैर, चलिए जवाहरजी आप अपना काम कीजिए, मैं ज़रा मोहन से मिल आता हूं मार्केट में से.’ वैसे भी दिन के तीसरे पहर उनके ठीहे पर भीड़ बढ़ जाती है. ठीहा भी क्या है, बाज़ार और दीवान हॉल के पिछले हिस्से को जो भीड़ भरी संकरी गली अलग करती है उसी में फुटपाथ कहे जाने ज़मीन के थोड़े उठे हुए हिस्से पर दस-ग्यारह बजे ठोक-पीटकर बनाया गया लकड़ी का एक बक्सा रख दिया जाता है और पीछे वाली कन्या विद्यालय की उंची दीवार के सहारे सूरज की सफ़ेदी थामने के लिए पन्नी और गत्ता खोंस दिया जाता है. हो जाता है तैयार ठीहा. आदर्श के सिवा किसी को वहां फालतू बैठने की न ज़रूरत है और न आदत. नतीजा, जवाहर उठाने-बैठाने की चिंताओं से बिल्कुल मुक्त हैं. यूं तो जो भी वहां आते हैं, वे आदर्श से ज़्यादा नियमित हैं. दिन में दस बार आते हैं, बीस बार आते हैं. पर आदर्श जैसा ढीठ और गपोड़ी कोई नहीं आता वहां. वह तो ऐसा बतक्कड़ है कि अगर कोई एक बात पूछे तो उसके चार किस्म के ज़वाब देता है, वह भी कम से कम दो उदाहरणों के साथ. दुआ-सलाम होने भर की देरी है, उसके बाद तो ‘कब से आप इस बाज़ार में? से शुरू करके अच्छा शुरू से ही हैं आप इस काम में ? यहां काम करते हुए बहुत दिक़्क़त हुई होगी आपको!’ जैसे सवालों का लगा देता है. इतना ही नहीं, एन-केन-प्रकारेण सामने वाले के मुंह से उनके जवाब उगलवा लेने की को‍शिश भी करता है. वैसे है नहीं लेकिन उसकी बातचीत का अंदाज़ा किसी इंटेलेक्चुअल से कम नहीं लगता. पिछले दो-ढाई महीनों में ही जवाहर के ठीहे पर उसने से ‘इंटेलेक्चुअल बमबारी’ की है उसका असर ठीहे पर नियमित रूप से बैठने वाले जवाहर के संगी-साथियों पर भी पड़ा है. इतने ख़ौफ़जदा हो गए हैं कि आदर्श की गंजी टांट पर सवारी करते भगत सिंह के टोपे से मिलते-जुलते टोपे को दूर से देखते ही वे ठीहे से सरकना शुरू कर देते हैं. कभी-कभी जवाहर भी आदर्श को देखकर झल्ला जाते हैं. लेकिन आदर्श की भोजपुरी सनी बोली, अपनी बातों में हमेशा भरने का उसका अंदाज़, चाय नहीं पीने जैसी आदतों के कारण जवाहर को उससे इतना लगाव हो गया है कि न चाहते हुए भी उसको अपने ठीहे पर दीवार के सहारे कमर के निचले हिस्से का कोना टिकाने भर का न्यौता देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते हैं. जवाहर के साथ काम करने वाले लोग भी तो कम नहीं है. बाज़ार में रेपुटेशन भी है. ‘सबकी पसंद निरमा’ की तरह हर दुकानदार माल बुक करवाने के लिए सबसे पहले जवाहर को ही ढूंढता है. दुकान के कर्मचारी, मालिक, झल्लीवाले, ठेलावाले, व्यापारी सभी किसी न किसी वजह से उसके ठीहे को घेरे रहते हैं. ’प्रधानजी राम-राम!’ ’प्रधानजी कैसे हो ?’ ’प्रधानजी हमारा भी ख़याल रखा करो यार’ ‘ए परधानजी उ कुतुब रोड वाला नगवा भेजवा नुं दीजिए.’ From vineetdu at gmail.com Tue Jul 22 11:09:33 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 22 Jul 2008 11:09:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSy4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KS4IOCkmuCliOCkqOCksiDgpKrgpLAg4KSV4KS/4KS44KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KSC4KSXIOCkueCliOCkgiDgpJzgpLzgpJzgpY3gpKzgpL7gpKQ=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpK/gpL4g4KSq4KS+4KSW4KSC4KShIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWH?= Message-ID: <829019b0807212239j1d120ad1v7f295234db3cf1d8@mail.gmail.com> क्या पाखंड पैदा करना पूंजी का एक बड़ा काम है ? कल ही लांच हुए नया हिन्दी इंटरटेनमेंट चैनल कलर्स को लगातार पांच घंटे देखने के बाद मेरे मन में सबसे पहले और अंत तक भी यही सवाल बना रहा कि क्या टेलीविजन पाखंड को मजबूत करने का माध्यम है। अब तक ये आरोप न्यूज चैनलों में सांप-संपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी और जिंदा है रावण आदि की खबरों को दिखाए जाने के संदर्भ में कहा जाता रहा है। जो लोग मीडिया का विश्लेषण कर रहे हैं उन्होंने तो इसके लिए वाकायदा एक मुहावरा भी गढ़ लिया है कि अब न्यूज चैनलों में मनोहर कहानियां दिखाए जाने लगे हैं. लेकिन इंटरटेंनमेंट चैनलों की तरफ लोगों का ध्यान कम ही गया है. आलोचकों के बारे में ये बात ज्यादा सच है। अभी भी वो इंटरटेनमेंट चैनलों के बारे में सास-बहू सीरियलों को कोसकर ही रह जाते हैं. इधर एक बांग्ला चैनल में हादसा हुआ है जब से लोग रियलिटी शो के बारे में कुछ-कुछ लिखने लगे हैं, उसे भी आप विश्लेषण नहीं ही कह सकते। रियलिटी शो पर लिखा जाना उसी तरह का हो रहा है जैसे कहीं कुछ हादसा या हत्या हो जाने पर इसकी निंदा की जाती है। सारी बातें घटना के विरोध में कही जाती है। इसलिए रियलिटी शो को लेकर जो समीक्षा अभी बाजार में उपलब्ध है उसे आप टेलीविजन का विश्लेषण नहीं कह सकते। इंटरटेनमेंट चैनलों की तरफ बड़े-बड़े पूंजीपति घरानों का ध्यान तेजी से जा रहा है और संभव है कि आनेवाले समय में मीडिया आलोचक भी इसे देखने-समझने के टूल्स विकसित कर लें। टूल्स विकसित करने का मतलब ये कतई नहीं होगा कि लोग जो अब तक इसके विरोध में लिखते आ रहे हैं, बाद में समझदारी विकसित हो जाने के बाद इसके पक्ष में लिखने लग जाएंगे। बल्कि गुंजाइश इस बात की होगी कि आलोचना के और बारीक तर्क, कारण और इंटरटेनमेंट के बदलते एलिमेंट्स पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकेंगे और तब उनकी समीक्षा ज्यादा स्वाभाविक लगेगी। खैर, टेलीविजन को जो भी स्वरुप हमारे सामने उभर रहा है, चाहे वो न्यूज चैनलों के माध्यम से या फिर इंटरटेनमेंट चैनल के माध्यम से। आनेवाले समय में आप इससे कोई बड़ी क्रांति की उम्मीद नहीं कर सकते। टेलीविजन ऐसा कुछ भी नहीं कर देगा जिससे कि कोई बड़ा सामाजिक बदलाव आ जाएगा। मेरी इस बात को आप थोड़ी देर के लिए दुराग्रह या फिर हठधर्मिता कह सकते हैं लोकिन यह सच है कि मजबूत होती मीडिया की स्थिति के बावजूद भी टेलीविजन कोई क्रांति करने नहीं जा रहा। क्योंकि जिस बड़े स्तर पर क्रांति और बदलाव की गुंजाइश बनती है वहां आकर टेलीविजन का समझौता हो चुका है. यह समझौता पूंजीवाद से है, उपभोक्तावाद से, नेशन स्टेट से है और उस सामाजिक ढ़ांचों से है जहां कि बदलाव के बीज फूट सकते थे। इसलिए मन- मारकर आपको मीडिया और टेलीविजन की छोटी-मोटी उपलब्धि को ही क्रांति का नाम देना पड़ेगा। आपको क्रांति शब्द के अर्थ में कांट-छांट करनी होगी. इस संदर्भ में अगर टेलीविजन अपने को महान होने का, समाज का पहरुआ होने का और समाज हित में काम करने का डंका भी पीटे तो क्रांति और बदलाव शब्द के अर्थ को संकुचित करते हुए मान लेना होगा। क्योंकि ये आप भी जानते हैं कि क्रांति रोज-रोज नहीं होती जबकि टेलीविजन की घोषणा रोज जारी है। कोई क्रांति संभव नहीं होने का ये मतलब भी नहीं है कि तब टेलीविजन हमारे जीवन के बीच एक निरर्थक माध्यम है। बदलाव की दिशा में अगर टेवीविजन कुछ भी न करे तो भी इसके कई मतलब हैं. इसके असर से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. वो दिन-रात पूंजीवादी ताकतों को मजबूत करने में लगा रहे तो भी परेशान होने की जरुरत नहीं है। आज के परिवेश में वैसे भी ऐसी कौन सी चीजें और प्रयास बाकी रह गए हैं जिसका ध्येय प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रुप से पूंजी पैदा करना नहीं रह गया है. इसलिए टेलीविजन भी करे तो कोई बेजा बात नहीं है। हां बाकी चीजों में इसके जैसा असर नहीं होता. यहीं पर आकर टेलीविजन को सोचना पड़ेगा. लेकिन अगर दो बातें इस बीच हो जाए तो टेलीविजन को लेकर अपनी परेशानी काफी हद तक कम हो जाएगी. पहला तो यह कि टेलीविजन को लेकर आम जनता यह मानना छोड़ दे कि इससे ही हमारे जीवन का सुधार संभव है, हम बिना इसके भी अपनी दशा सुधार सकते हैं। हांलांकि ऐसा मानना आम आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल है. जिसका कोई नहीं है, आज उसका टेलीविजन है। हां इतना किया जा सकता है कि पूरी तरह से इस पर निर्भर होने के बजाय साथ में अपनी भी मजबूती बनाने का प्रयास जारी रखे। और दूसरा कि, चैनल को जो मर्जी आए करे लेकिन देशीय संस्कृति के नाम पर पाखंड फैलाना बंद कर दे। कल पांच घंटे तक लगातार नए चैनल कलर्स को देखने पर मन भारी हो गया। मैं किसी भी मीडिया को सिर्फ पूंजीवाद का हमशक्ल कहकर आलोचना करने के पक्ष में नहीं हूं। उसके भीतर कई ऐसी चीजें हैं जिस आधार पर उसका विश्लेषण किया जा सकता है. इससे पूंजी के बारीक प्रभाव के प्रति भी समझ बनती है। कलर्स के बारे में पता है कि इसमें बड़ी पूंजी का निवेश हुआ है। वायकॉम नेटवर्क १८ का मोटा पैसा इसमें लगा है। अकेले अक्षय को खतरों के खिलाड़ी के एक एपिसोड के लिए डेढ़ करोड़ दिया जा रहा है। खैर, इस पांच घंटे में भारतीय संस्कृति के नाम पर जो पाखंड मैंने देखा, उसे अगर विश्व हिन्दू परिषद् या फिर बजरंग दल का कोई अपना चैनल खुले तो उसकी भारतीयता इस नए चैनल से मेल खाएगी।....कैसे पढ़िए अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 11380 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080722/b7c06012/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Wed Jul 23 10:49:08 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 23 Jul 2008 10:49:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWI4KSo4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSt4KS+4KSw4KSk4KWA4KSv4KSk4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpIXgpLDgpY3gpKUg4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWB4KSk?= =?utf-8?b?4KWN4KS1IOCkueCliOCkgiwg4KSq4KS+4KSW4KSC4KShIOCkuOCkgi0=?= =?utf-8?b?4KWo?= Message-ID: <829019b0807222219u7562c492ub35a5f00126f45bd@mail.gmail.com> चैनल के लिए भारतीयता का अर्थ हिन्दुत्व हैं, पाखंड सं-२ मैं जब भी कोई स्टंट करता हूं, गायत्री मंत्र का उच्चारण करता हूं। मैं चाहता हूं कि स्टंट शुरु करने से पहले आपलोग भी ऐसा ही करें। खतरों के खिलाड़ी ( कलर्स) में अक्षय कुमार के ऐसा कहते ही १३ युवतियां जिसमें की कुछ मां भी बन चुकी है और जिसे देखकर हम अक्षय से जलने लगे हैं..सब के सब एक साथ ऊँ भूर्भवः का उच्चारण करने लग जाती हैं। इसके साथ ही उनके मेंटर जो कि कभी भारतीय सेना की सेवा में थे और सब के सब डिफेंस की पोशाक में हैं, वो भी इस मंत्र का उच्चारण करते हैं। इस तरह कलर्स के स्क्रीन पर एक साथ सत्ताइस भारतीय जोहान्सवर्ग, साउथ अफ्रीका की धरती पर गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं। ये सत्ताइस लोग जब मंत्र का उच्चारण कर रहे होते हैं तो कैमरा पैन होता है और सबके सब एक सुर में दिखते हैं, इससे साफ हो जाता है कि मंत्रोच्चारण की उन्हें बेहतर तरीके से प्रैक्टिस करायी गयी है। जो बंदा हिन्दू नहीं है या फिर हिन्दू होते हुए भी इस तरह के मंत्रोच्चारण से कोई मतलब नहीं है, एक समय के लिए बिदक भी सकता है कि शो तो है साहसिक बनने का, अपने को मजबूत करने का और ये बीच में हिन्दुइज्म कहां से आ गया। मजबूत बनना और उसके लिए प्रैक्टिस करना अपने आप में एक सेकुलर प्रक्रिया है लेकिन इसे इतना धार्मिक बना देने की क्या जरुरत थी। खतरों के खिला़डी का जो फॉरमेट हैं उसमें इस तरह के मंत्रोच्चारण में पाखंड के अलावा और कोई सेंस पैदा नहीं होता। कलर्स ने एक सीरियल शुरु किया है- बाल वधू। इसके प्रोमो में आप भी देख रहे होंगे कि करीब सात-आठ साल की बच्ची आप सबसे कह रही है कि- आप आएंगे न मेरी शादी में, बहुत खुश है आपको बताते हुए कि उसकी शादी हो रही है और वो खूब सजेगी-संवरेगी। लेकिन इसी के एक और दूसरे प्रोमो में वो कहती है कि- क्या तब ये घर, आंगन और बापू सब छूट जाएंगे। इधर लड़के के बाप ने घोषणा कर दी है कि हमें तो अपने राम के लिए सीता मिल गयी। कहानी ये है कि ये सीरियल बाल-विवाह पर आधारित है। उस बाल-विवाह पर जिसे रोकने के लिए, बंद करने के लिए सरकारी प्रयास जारी है। अगर अब से पच्चीस साल पहले के मुकाबले देखें तो इसके दर में काफी गिरावट आयी है और स्त्रियों की बेहतरगी के लिए इसे रोका जाना बहुत जरुरी है लेकिन चैनल पर इसी से सीरियल की शुरुआत होती है और वो भी कोई समस्यामूलक के रुप में नहीं बल्कि उत्सवधर्मी वातावरण में। शादी में पहनने के लिए दो दर्जन सिल्क की साडियां मंगायी जानी है और भी बहुत कुछ। पूरे सीरियल में बाल-बधू को इस तरह से पेरोजेक्ट किया गया कि देखते ही आपको लगेगा कि यह देश के लिए कोई कलंक न होकर संस्कृति का एक हिस्सा है और कोई चाहे तो गर्व भी कर सकता है। एक सीरियल है जीवनसाथी, हमसफर जिंदगी के। पहले ही एपिसोड में दो कैम्ब्रिज के स्टूडेंट राजस्थान के एक भारतीय परिवार के यहां भारतीय संस्कृति को समझने आते हैं। परिवार का मुखिया जो कि भारतीय कला में निष्णात है, संयोग से उसी दिन उसके यहां महादेव का अभिषेक हो रहा है। पूरी तैयारियां जोर-शोर से चल रही है और मुखिया खुद ही महादेव की एक विशालकाय मूर्ति बनाता है। दोनों को मिलते ही समझा देता है कि हैलो नहीं, नमस्कार बोलो और सर नहीं गुरुजी बोलो। चलो हमारे साथ भारतीय संस्कृति की समझ बनेगी और दोनों अभिषेक ेक उत्सव में जाते हैं। कलर्स पर अब तक जितने भी प्रोग्राम आए हैं उसमें खतरों के खिलाड़ी को छोड़कर सारे लोकेशन गांव के हैं। आप जैसे ही इस चैनल पर स्विच करेंगे आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये बाकी चैनलों से कुछ अलग है। लेकिन इस आंचलिकता में ग्लोबल पूंजी के चिन्ह जहां-तहां खोंस दिए गए हैं और तब सारा मामला स्वाभाविक नहीं रह जाता। बाकी और चैनलों की तरह जय श्री कृष्णा और रहे तेरा आशीर्वाद जैसे कार्यक्रमों को लाकर दर्शक बटोरने की पूरी तैयारी है। चैनल एक बार फिर साबित करता है जैसे कि एनडीटीवी इमैजिन ने साबित किया किया कि बिना पाखंड फैलाए टीआरपी का ग्राफ उपर जा ही नहीं सकता।....और पूंजी जितना अधिक होगा, पांखड फैलाने में उतनी ही सुविधा होगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080723/99fc5aa3/attachment.html From rakesh at sarai.net Wed Jul 23 12:04:58 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Wed, 23 Jul 2008 12:04:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5?= =?utf-8?b?IOCkrOCkqOCkleCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYcg4KSV4KS/4KSC4KSX?= Message-ID: <4886D112.5030908@sarai.net> मित्रों लोकसभा में विश्वास मत पर होने वाली लगभग पूरी कार्रवाई देखने के बाद मेरे मन में जो आया, आपसे शेयर कर रहा हूं. राकेश आखिरकार, युपीए की सरकार को लोक सभा में सम्मानजनक विश्वास मिल गया और सिंह किंग बन कर निकले. दो दिन से प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा लोकसभा में पेश किए विश्वास मत पर बहस की कोशिश हो रही थी. कोशिश इसलिए कि सदन में बातचीत का जितना सिकुड़ा माहौल दिखा उसमें किसी भी प्रकार का बहस संभव नहीं लगता. किलकारी के क्रेश और प्ले स्कूल में बच्चे भी ऐसी अनुशासनहीनता और उद्दंडता पर नहीं उतरते जैसी लोकसभा के सदस्यों ने दिखायी. किसी सदस्य ने एक शब्द बोला नहीं कि बगल से दर्जनों मुंह उसके खिलाफ़ थूक समेत न सुनाई देने वाली चीख उगलने लगते थे. मज़ेदार ये दिखा कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सदस्यों को बेमतलबी चीख में शेष दलों के सदस्यों के मुक़ाबले ज़्यादा महारत हासिल है. विश्वास मत के पक्ष में बोलने वालों का विरोध तो किया ही उन्होंने, जो इस मोशन के खिलाफ़ बोलते थे उसके पीछे से (समर्थन में ?) शोर मचाने का मौक़ा भी नहीं जाने दिया. और प्रधानमंत्री बनने की हड़बड़ाहट में बेचैन, जिनकी भारतीय लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है जो हमेशा हमारे देश को ग़ैरसंवैधानिक नाम ‘हिंदूस्थान’ से संबोधित करते हैं – से अपने सांसदों को अनुशासित रहने का निर्देश देने की उम्मीद आप कर सकते हैं, मुझे तो नहीं है. और तो और आज दोपहर बाद तक सदन से बाहर रहकर वे ‘संसद में नोट’ नाटक का निर्देशन करते रहे. दो दिनों में कम से कम चार बार सदन की कार्रवाई रोकनी पड़ी अध्यक्ष या पीठासीन उपाध्याक्ष को. और इसका सारा श्रेय भाजपा और उसके सहयोगियों को जाता है. हां, सरकार से हाल ही में नाता तोड़े वामपंथी भी इस हुले-हुले में पीछे नहीं रहे. और तो और कॉमरेड वासुदेव आचार्या तो अपने बाद वाले वक्ता को बोलने देने को तैयार ही नहीं दिखे. बार-बार अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अगले वक्ता को बोलने देने का अनुरोध करते रहे लेकिन कॉमरेड ने उनकी एक न सुनी. भाजपा के तीन सांसदों ने अपना नाटक शुरू न किया होता तो शायद कॉमरेड रूकते भी नहीं. इससे और नीचे क्या गिरेगी सदन की मर्यादा, नोटों की थैली आ गयी. जिसकी चर्चा पिछले एक हफ़्ते से हो रही थी आज सदन में साक्षात दिखा. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस विश्वास मत के पक्ष में सहयोग जुटाने के लिए कुछ-न-कुछ अतिरिक्त हुआ है जो आम तौर पर नहीं होता. यानी तरह-तरह के सुख-सत्ता, धन-पद और प्रतीष्ठा का प्रलोभन. पर इसका ये अर्थ नहीं कि इस तरह से किसी नाटक का मंचन किया जाए. भाजपा के तीन सांसदों ने जो रोल प्ले किया आज सदन में उससे भाजपा की खलनायकी खुलकर सामने आ गयी. उन्हीं सांसदों ने 4 बजे के क़रीब लोकसभा की कार्रवाई स्थगित हो जोने के बाद ख़ूब फुदक-फुदक कर ख़बरिया चैनलों को बताया कि कैसे-‍कैसे उन्होंने इस नाटक का मंचन किया. नाम लिया अमर सिंह, अहमद पटेल और किसी एक और नेता का. उन्होंने ये बताया कि कल से ही नेपथ्य में काम चल रहा था. आज सुबह लोकसभा का सत्र आरंभ होने से पहले नाटक की तैयारी कर ली गयी थी. मेरा प्रश्न ये है कि अगर रिश्वत लेने-देने की कार्रवाई दोपहर से पहले पूरी हो गयी थी तो चार बजे तक का इंतज़ार क्यों किया गया ? क्यों ये ड्रामा संसद में खेला गया? अरे भैया, पहली बात तो ये कि कोई आपकी जेब में जबरन पैसा ठूंस नहीं दिया और ठूंसा भी नहीं जा सकता, क्योंकि आपके मुताबिक रुपया एक करोड़ था (शुक्र है पूरा 9 करोड़ नहीं था वर्ना कम से कम ऑटो लेकर लोकसभा जाना होता). यानी आपकी मिलीभगत के बिना ये लेन-देन हो ही नहीं सकती थी. अगर मान लिया जाय कि आपको कोई स्टींग ही करना था आपको तो पुलिस हेडक्वार्टर चले जाते, लोकसभा अध्यक्ष के पास चले जाते और नहीं तो लोक सभा के बाहर मीडिया वालों और आम जनता के सामने एक-एक नोट गिनकर दिखा देते. आपने लोकसभा को कमानी और श्रीराम सेंटर बना दिया. आपको क्या लगता है कि भारत का आम जनमानस आपकी इस कार्रवाई से बड़ा खुश होगा! जिस संसद परिसर में और उसके बाहर चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा एजेंसी तैनात होती है, उस परिसर में लोकसभा में कोई नोटों से भरा बैग लेकर कैसे चला गया? क्या सांसदों को बिना जांच-पड़ताल संसद परिसर में कुछ भी ले जाने की इजाजत है. संभव है ऐसे में किसी दिन कोई बैग में आरडीएक्स भी ले जाता सकता है. हैं कोई स्वयं साहब. उड़ीसा से आते हैं. भाजपा से संबद्ध हैं. अपने आप को सदन का सबसे तेज़-तर्रार सदस्य समझते हैं. युवा हैं. हमेशा जोश-ओ-खरोश में रहते हैं. शायद ही कोई वक्ता रहा हो जिसके बोलते समय उन्होंने अपना मुंह न खोला हो. और तो और अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी तक को उन्होंने नहीं बख़्शा. आरोप लगाया अध्यक्ष पर कि वे सदन में स्तरीय बहस होने ही नहीं देना चाहते हैं. लगता है जैसे शेष सांसद अनर्गल बकवास करने वाले हैं या कर रहे हैं. हालांकि विश्वास मत के विरोध में बोलने वालों में ज़्यादातर ने मुख्य मुद्दे से इतर ही कहा. ज़्यादातर अनर्गल. कल कॉमरेड सलीम ने लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर बड़ा उग्र भाषण दिया, बड़ी भावुक बातें की. पर उनकी बात में एक बार भी सिंगूर या नंदीग्राम का जिक्र नहीं आया. इस साल की शुरुआत में जिस तरह का अत्याचार बंगाल सरकार और सीपीएम ने नंदीग्राम की ग़रीब और स्वाभिमानी जनता पर किया, मेरे ख़याल से आज़ाद भारत में वैसी मिसाल कम ही मिलेगी. ख़ैर, सीपीएम सदस्य क्यों बोलते सिंगूर पर. लेकिन जगते-सोते वामपंथ को कोसते वाली भाजपा भी सिंगूर और नंदीग्राम पर मौन रही. अंत में, लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की जितनी भी सराहना की जाए कम होगी. जिस सूझ-बूझ से उन्होंने कार्रवाई का संचालन किया वो उन जैसे व्यक्तित्व वाले लोगों से ही हो सकता है. ‘नोटों के नाटक’ वाले इस ज़माने में शायद अब ऐसे व्यक्तित्व दर्शक दीर्घा में भी नहीं मिलेंगे. From rakesh at sarai.net Wed Jul 23 12:17:42 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Wed, 23 Jul 2008 12:17:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWH4KSk4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkhuCkpuCkruClgCDgpJXgpL4g4KSc4KWA4KS14KSo4KWAIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSkIOCksuClh+CkqOCkviDgpLngpYgg4KSG4KSq4KSV4KWL?= Message-ID: <4886D40E.7010905@sarai.net> 'तनि पानी ले आवS बोतलवा में' के आगे पढिए ... हमारी प्रगति इतनी तेज़ रफ़्तार से हुई कि हमें पता ही नहीं चला कि कब हाने अपनी जिन्दगी के ढर्रे बदल लिए! अनजाने में लोगों से मिलने-मिलाने के ऐसे शॉर्ट-कट का आविष्कार हो गया कि नमस्कार, राम-राम, नमस्ते ... भी हमसे ज़्यादा गतिशील हो गए. मुंह से निकलने से पहले ही सामने वाले ने लपकना शुरू कर दिया अभिवादनों को. सम्यता ने ऐसी पलटी मारी कि दुआ-सलाम निबटारे के काबिल भी नहीं बचा. मुंह से अभिवादनों और सवालों का जवाब देने और सामने वाले के पंजे में चार उंगलियां सटाने का काम आम तौर पर जवाहर भी साथ-साथ ही कर लेते हैं. दिन भर चलते रहने वाली इन ‘ज़रूरी’ औपचारिकताओं के बीच में अन्य बातों के अलावा वे हमेशा की तरह इस बेहद ज़रूरी काम को बड़ी मुस्तैदी से निबटाते हैं, ‘बिनोदवा, कहां गया रे बिनोदवा ? हउ बहत्तर नंबर आला के पर्ची कहां रख दिया ? अरे शर्मा, पूछ न बिनोदवा से कि काहां रखा है पर्चीया? एंगई घि‍सीर-घिसीर के काम करवS शर्माजी त दिनवा कइसे कटी तोहार ?’ ‘अरे अबहीं ले खड़े हैं आदर्श बाबू आप! का कहते हैं सर, अहमदाबाद के चार गो पाटी का माल पिछले सुक्कर को गया था ट्रांसपोर्ट से, पाटी कहती है माले नहीं पहुंचा अभी ले. जानते हैं सर अगर मलवा डिलिवर नहीं होगा नुं त इ दोकनदार सब खून चूस लेगा हमरा. देख नहीं रहे थे बहत्तर नंबर आला का अदमिया कइसे बइठा हुआ था. दसे बजे से बैठा हुआ था. इ स्साला सS को बुझाइए नहीं रहा है. लगता है आपन बाप का जमीन बेच कर भरेगा हर्जाना. घर-दुआर, खेत-पथार सब बिका जाएगा तबो हर्जाना पूरा नहीं होगा.’ लगभग एक ही सांस में बोल गए जवाहर. जवाहर के इस क़दर सूखे होठ आदर्श ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ऐसी झुंझलाहट. अपने सहकर्मियों को पर्याप्त डांट-फटकार लेने के बाद जवाहर एक बार अपने चेहरे पर नॉर्मल्सी ओढते हुए आदर्श से मुखातिब हो रहे थे, ‘चलिए छोडिए, ए धंधा में त इ सब होते रहता है, आपना सुनाइए कइसन चल रहा है आपका कितबिया का काम ?’ उन्होंने फिर से अपने सवालों का पुराना गट्ठर खोलकर आदर्श के सामने बिखेर दिया था, ‘आच्छा सर, अभी ले हमरा समझ में नहीं आया कि आप लोगों का जीवनी चरित पूछते काहे घूम रहे हैं ? केतना आदमी का जीवनी चरित लेना है आपको ? आप मेरा जीवनी चरित पूछ रहे हैं, आ कह रहे हैं कि आउर आदमी से बतियाना है. मैं त सच बताउं आदर्श बाबू, दू महीन्ना हो गया लेकिन अभी ले आपको ठीक से नहीं बूझ पाया हूं कि आप करना का चाहते हैं.’ अनगिनत सवाल आदर्श के सामने बिखरे पड़े थे. तय नहीं कर पा रहा था कि इन सवालों के साथ वह क्या करे. इस बीच आम तौर पर कंधे पर लटकने वाले झोले को उतारकर उसने अपनी गोद में रख लिया था. उसकी उंगलियां उसके गंजे सिर में कुछ तलाश करने लगी थीं, शायद जवाहर के सवालों के जवाब ढूंढने या उनसे बचने का नुस्खा. तभी ‘हइयो नगवा राख ल हो रामकुमार’ सुनते ही उनकी उंगलियां फ़्रीज हो गयीं. सलाह मुन्नाजी ने दी थी. मुन्नाजी जवाहर की बाद वाली पीढ़ी के पहले नुमाइंदा हैं उस परिवार से. बक्सर से ही आई कॉमा करने के बाद पिछले तीन-चार सालों से वह अपने चाचा के काम में हाथ बंटा रहे हैं. बदले में चाचा अपनी कमाई में से कुछ उनके साथ बंटा रहे हैं. माने ले-देकर घर का माल घर में ही रहे, चाचा भतीजा ने इसका अच्छा प्रबंध कर लिया था. ऐसी मिसाल और इस प्रबंधकीय ज़माने में हज़ारों में एक भी मुश्किल से ही मिलती है. अरे ये क्या! रामकुमार ने खैनी थूका और पसीना पोछकर गमछा सरियाते हुए कहा, ‘हं, तुमको नहीं न खींचना है ठेला. तुम त इ सोचवे करोगो कि एक ठेला का माल और लदा जाए रमकुमरवा के गाड़ी पर. साले ख़ुद खींचना होता तब न गांड़ फटता. अभी तो इहे सोच रहा होगा तुम कि गदहा पर जेतना लादना है लाद दो ...’ रामकुमार के वक्तव्य, तेवर और उसकी गति से ऐसा लग रहा था कि वह एफ़एम नाइंटी एट प्वाइंट थ्री की तरह नॉन स्टॉप चलेगा. वो तो शुक्र मानिए मुन्नाजी का कि उन्होंने नॉन स्टॉप में से नॉन निकाल लिया. पर क़ायदे से सोचा जाए तो मुन्नाजी ने रामकुमार से उस बचे नग को लादने की बात कह कर कोई गुनाह नहीं किया था, क्योंकि अन्य मंडियों की तरह इस इलेक्ट्रॉनिक मार्केट में भी माल ढुलाई का यही तरीक़ा प्रचलित है, जो अत्यंत प्राचीन है. क्रमश: व ीर-घिसीर िनोदना िबटाते हैं. From confirmations at emailenfuego.net Wed Jul 23 14:14:05 2008 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Wed, 23 Jul 2008 03:44:05 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkueCkq+CkvOCljeCkpOCkvuCkteCkvg==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <8545143.72131216802645238.JavaMail.rsspp@fb1.feedburner.com> Hello there, You recently requested an email subscription to हफ़्तावार. We can't wait to send the updates you want via email, so please click the following link to activate your subscription immediately: http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?k=H3Jm7i1MOi&i=13779603 (If the link above does not appear clickable or does not open a browser window when you click it, copy it and paste it into your web browser's Location bar.) From rakeshjee at gmail.com Thu Jul 24 01:58:58 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Wed, 23 Jul 2008 15:28:58 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <28451107.2100021216844938905.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// केतना आदमी का जीवनी चरित लेना है आपको Posted: 23 Jul 2008 01:38 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/343310073/blog-post_9870.html तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में के आगे पढिए ... हमारी प्रगति इतनी तेज़ रफ़्तार से हुई कि हमें पता ही नहीं चला कि कब हाने अपनी जिन्दगी के ढर्रे बदल लिए! मुन्नाजी जवाहर की बाद वाली पीढ़ी के पहले नुमाइंदा हैं उस परिवार से. बक्सर से ही आई कॉम करने के बाद पिछले तीन-चार सालों से वह अपने चाचा के काम में हाथ बंटा रहे हैं. बदले में चाचा अपनी कमाई में से कुछ उनके साथ बंटा रहे हैं. माने ले-देकर घर का माल घर में ही रहे, चाचा भतीजा ने इसका अच्छा प्रबंध कर लिया था. अनजाने में लोगों से मिलने-मिलाने के ऐसे शॉर्ट-कट का आविष्कार हो गया कि नमस्कार, राम-राम, नमस्ते ... भी हमसे ज़्यादा गतिशील हो गए. मुंह से निकलने से पहले ही सामने वाले ने लपकना शुरू कर दिया अभिवादनों को. सम्यता ने ऐसी पलटी मारी कि दुआ-सलाम निबटारे के काबिल भी नहीं बचा. मुंह से अभिवादनों और सवालों का जवाब देने और सामने वाले के पंजे में चार उंगलियां सटाने का काम आम तौर पर जवाहर भी साथ-साथ ही कर लेते हैं. दिन भर चलते रहने वाली इन ‘ज़रूरी’ औपचारिकताओं के बीच में अन्य बातों के अलावा वे हमेशा की तरह इस बेहद ज़रूरी काम को बड़ी मुस्तैदी से निबटाते हैं, ‘बिनोदवा, कहां गया रे बिनोदवा ? हउ बहत्तर नंबर आला के पर्ची कहां रख दिया ? अरे शर्मा, पूछ न बिनोदवा से कि काहां रखा है पर्चीया? एंगई घि‍सीर-घिसीर के काम करवS शर्माजी त दिनवा कइसे कटी तोहार ?’ ‘अरे अबहीं ले खड़े हैं आदर्श बाबू आप! का कहते हैं सर, अहमदाबाद के चार गो पाटी का माल पिछले सुक्कर को गया था ट्रांसपोर्ट से, पाटी कहती है माले नहीं पहुंचा अभी ले. जानते हैं सर अगर मलवा डिलिवर नहीं होगा नुं त इ दोकनदार सब खून चूस लेगा हमरा. देख नहीं रहे थे बहत्तर नंबर आला का अदमिया कइसे बइठा हुआ था. दसे बजे से बैठा हुआ था. इ स्साला सS को बुझाइए नहीं रहा है. लगता है आपन बाप का जमीन बेच कर भरेगा हर्जाना. घर-दुआर, खेत-पथार सब बिका जाएगा तबो हर्जाना पूरा नहीं होगा.’ लगभग एक ही सांस में बोल गए जवाहर. जवाहर के इस क़दर सूखे होठ आदर्श ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ऐसी झुंझलाहट. अपने सहकर्मियों को पर्याप्त डांट-फटकार लेने के बाद जवाहर एक बार अपने चेहरे पर नॉर्मल्सी ओढते हुए आदर्श से मुखातिब हो रहे थे, का कहते हैं सर, अहमदाबाद के चार गो पाटी का माल पिछले सुक्कर को गया था ट्रांसपोर्ट से, पाटी कहती है माले नहीं पहुंचा अभी ले. जानते हैं सर अगर मलवा डिलिवर नहीं होगा नुं त इ दोकनदार सब खून चूस लेगा हमरा. देख नहीं रहे थे बहत्तर नंबर आला का अदमिया कइसे बइठा हुआ था. दसे बजे से बैठा हुआ था. इ स्साला सS को बुझाइए नहीं रहा है. लगता है आपन बाप का जमीन बेच कर भरेगा हर्जाना. ‘चलिए छोडिए, ए धंधा में त इ सब होते रहता है, आपना सुनाइए कइसन चल रहा है आपका कितबिया का काम ?’ उन्होंने फिर से अपने सवालों का पुराना गट्ठर खोलकर आदर्श के सामने बिखेर दिया था, ‘आच्छा सर, अभी ले हमरा समझ में नहीं आया कि आप लोगों का जीवनी चरित पूछते काहे घूम रहे हैं ? केतना आदमी का जीवनी चरित लेना है आपको ? आप मेरा जीवनी चरित पूछ रहे हैं, आ कह रहे हैं कि आउर आदमी से बतियाना है. मैं त सच बताउं आदर्श बाबू, दू महीन्ना हो गया लेकिन अभी ले आपको ठीक से नहीं बूझ पाया हूं कि आप करना का चाहते हैं.’ अनगिनत सवाल आदर्श के सामने बिखरे पड़े थे. तय नहीं कर पा रहा था कि इन सवालों के साथ वह क्या करे. इस बीच आम तौर पर कंधे पर लटकने वाले झोले को उतारकर उसने अपनी गोद में रख लिया था. उसकी उंगलियां उसके गंजे सिर में कुछ तलाश करने लगी थीं, शायद जवाहर के सवालों के जवाब ढूंढने या उनसे बचने का नुस्खा. तभी ‘हइयो नगवा राख ल हो रामकुमार’ सुनते ही उनकी उंगलियां फ़्रीज हो गयीं. सलाह मुन्नाजी ने दी थी. मुन्नाजी जवाहर की बाद वाली पीढ़ी के पहले नुमाइंदा हैं उस परिवार से. बक्सर से ही आई कॉम करने के बाद पिछले तीन-चार सालों से वह अपने चाचा के काम में हाथ बंटा रहे हैं. बदले में चाचा अपनी कमाई में से कुछ उनके साथ बंटा रहे हैं. माने ले-देकर घर का माल घर में ही रहे, चाचा भतीजा ने इसका अच्छा प्रबंध कर लिया था. ऐसी मिसाल और इस प्रबंधकीय ज़माने में हज़ारों में एक भी मुश्किल से ही मिलती है. अरे ये क्या! रामकुमार ने खैनी थूका और पसीना पोछकर गमछा सरियाते हुए कहा, ‘हं, तुमको नहीं न खींचना है ठेला. तुम त इ सोचवे करोगो कि एक ठेला का माल और लदा जाए रमकुमरवा के गाड़ी पर. साले ख़ुद खींचना होता तब न गांड़ फटता. अभी तो इहे सोच रहा होगा तुम कि गदहा पर जेतना लादना है लाद दो ...’ रामकुमार के वक्तव्य, तेवर और उसकी गति से ऐसा लग रहा था कि वह एफ़एम नाइंटी एट प्वाइंट थ्री की तरह नॉन स्टॉप चलेगा. वो तो शुक्र मानिए मुन्नाजी का कि उन्होंने नॉन स्टॉप में से नॉन निकाल लिया. पर क़ायदे से सोचा जाए तो मुन्नाजी ने रामकुमार से उस बचे नग को लादने की बात कह कर कोई गुनाह नहीं किया था, क्योंकि अन्य मंडियों की तरह इस इलेक्ट्रॉनिक मार्केट में भी माल ढुलाई का यही तरीक़ा प्रचलित है, जो अत्यंत प्राचीन है. -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080723/940199d4/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Jul 24 14:18:11 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Jul 2008 14:18:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkreCkoeCkvOCkvuCkuCDgpKHgpYngpJ8g4KSV4KWJ4KSuIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuCksuCkvuCksuClgCDgpK3gpYAg4KS54KWL4KSk4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIPw==?= Message-ID: <829019b0807240148m6f06b2cck89a9a6466fc881db@mail.gmail.com> तीन महीने से मीडिया में नौकरी पाने के लिए वो जगह-जगह धक्के खा रहा है। इसी बीच उसे पता चला कि भड़ास डॉट कॉम से कुछ मामला बन सकता है। उसने भड़ास के मॉडरेटर यशवंत सिंह को अपना रिज्यूमे भेजा और कुछ करने की बाद कही। वो मेरा ब्लॉग भी रेगुलर पढ़ता है औऱ व्यक्तिगत तौर पर मुझे जानता भी है। इसलिए कल जो कुछ भी उसकी बात यशवंत सिंह से हुई, उस संबंध में मुझसे राय लेने मेरे पास पहुंचा। सबसे पहले तो वो इस बात से परेशान था कि मीडिया में इस तरह के भी काम होते हैं। उसका कहना एकदम साफ था कि- सर हमें पता है मीडिया में अचानक से या फिर सिर्फ योग्यता से नौकरी नहीं लग जाती, किसी न किसी के बैकअप का होना जरुरी है। लेकिन कोई इस तरह से भी करता है, मुझे जानकर बहुत धक्का लगा। यशवंतजी को लोगों की मदद करने का नाम पर इस तरह पाखंड रचने की क्या जरुरत थी। आपलोग चाहते हैं कि ब्लॉग के जरिए रातोंरात करोड़पति बन जाएं, ये शोषण और धोखा नहीं तो और क्या है। बहुत झल्लाया था वो। उसके मुताबिक यशवंत सिंह ने कल उसे फोन करके बताया कि- तुम्हारी नौकरी यूपी के किसी अखबार में एक सप्ताह के भीतर लग जाएगी। इसके लिए तुम्हें तीन हजार रुपये देने होंगे। ये तीन हजार रुपये उन्होंने बतौर रजिस्ट्रेशन के लिए मांगा। मतलब कि अगर आप भड़ास.कॉम के जरिए नौकरी चाहते हैं तो आपको रजिस्ट्रेशन फीस देनी होगी। उसने तब यशवंत सिंह से पूछा कि, सर पता तो बताइए कि ये तीन हजार रुपये हमें कहां जमा करने हैं। यशवंत सिंह ने उसे एक अकांउट नंबर दिया और कहा कि इसमें तीन हजार रुपये जमा करा दो। मेरे इस ब्लॉगर दोस्त का कहना है कि सर क्या करें, ऐसे कैसे तीन हजार रुपये किसी को दे दें। दोस्त से जब मैंने पूछा कि जब तुम अपना रिज्यूमे भेज रहे थे, उस समय कहीं कुछ लिखा था कि तुम्हें तीन हजार रुपये जमा कराने होंगे। उसका सीधा जबाब था- बिल्कुल नहीं सर। ये तो कल जब बात हुई तो उन्होंने बताया कि हमारे यहां तो कईयों के रिज्यूमें आते रहते हैं, तीन हजार तो देने ही होंगे। इस दोस्त ने यहां तक कहा कि- सर, अभी तो स्ट्रगल ही कर रहा हूं, नौकरी मिल जाए उसके बाद उससे आपको दे दूंगा। यशवंत सिंह इस बात के लिए तैयार नहीं थे। इस पूरे मामले को अगर आप सतही तौर पर देखें तो आपको लगेगा कि कुछ भी गलत नहीं है। अगर कोई आपको नौकरी दिला दे रहा है तब अपनी मेहनत और उसके जो कॉन्टेक्टस हैं उसकी कीमत तो लेगा ही। ये काम तो दिल्ली में कोई आपको मकान दिलाए तो पहले १५ दिन का किराया कमीशन के तौर पर रख लेता है। या फिर जॉव दिलानेवाली एजेंसी भी इस तरह से कुछ करती है। लेकिन, गंभीरता से विचार करें तो कुछ सवाल जरुर खड़े होते हैं- पहला तो यह है कि क्या यशवंत सिह और और बाकी लोग जो भड़ास डॉट कॉम से जुड़े हैं उन्हें इसे बतौर व्यावसायिक साइट के तौर पर रजिस्ट्रेशन कराया है। इसके आमदनी की जानकारी वैधानिक रुप से संदर्भ विभाग को बताए जाने का प्रावधान है। क्या भड़ास डॉट कॉम कोई जॉव एजेंसी है और अगर हां तो फिर उसने अपनी बेबसाइट पर सारी चीजों की जानकारी स्पष्ट रुप से क्यों नहीं लिखी है. कोई भी परेशान बंदा जो कि मीडिया में नौकरी पाने के लिए छटपटा रहा है और उसे बाद में पता चलता है कि उसे तीन हजार रुपये देने होंगे, ये किसी भी स्तर से उचित नहीं है। अगर भड़ास डॉट कॉम वाकई में एक व्यावसायिक साइट है तो फिर जबरदस्ती इसे लोगों की मदद और मानवता जैसे भारी-भरकम शब्दों से लादने की जरुरत क्या है। यह सही है कि भड़ास और अब भड़ास डॉट कॉम मीडिया की खबरों को जिस तरह से पेश करता है इससे नए लोगों को कई जानकारियां मिलती है लेकिन इस जानकारी देने की एवज में जो राशि वो वसूलता है उसे भी अपनी साइट और ब्लॉग पर प्रकाशित करे। भड़ास या फिर किसी भी दूसरे साइट या ब्लॉग को अधिकार नहीं है कि मानवता के नाते मदद करने का डंका पीटने के नाम पर मीडिया में जाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को गुमराह करे। इससे लोगों की परेशानी तो बढ़ती ही है, साथ ही जो लोग ब्लॉग और बेबसाइट के जरिए लोगों को मदद करने की कोशिश में लगे हैं, उनकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। हम ब्लॉग के जरिए इस तरह के हरकतों का विरोध करते हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-3 Size: 8924 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080724/e9a1edbb/attachment.bin From rakeshjee at gmail.com Thu Jul 24 15:23:03 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Thu, 24 Jul 2008 15:23:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkreCkoeCkvOCkvuCkuCDgpKHgpYngpJ8g4KSV4KWJ4KSuIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkpuCksuCkvuCksuClgCDgpK3gpYAg4KS54KWL4KSk4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWIPw==?= In-Reply-To: <829019b0807240148m6f06b2cck89a9a6466fc881db@mail.gmail.com> References: <829019b0807240148m6f06b2cck89a9a6466fc881db@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0807240253n709bc09fh92425c27e0fd246c@mail.gmail.com> विनीत तुम्हारे लेखों का नियमित पाठक हूं. पर कभी-कभी लगता है कि तुम थोड़ा ज़्यादा भावुक हो जाते हो. मेरे कहने का मतलब कतई ये नहीं है कि इंसान को भावुक नहीं होना चाहिए. महज़ इतना कहना चाह रहा हूं कि भावुकता अतार्किक न लगने लगे. यशवंत सिंह और उनके मित्रों के नए उपक्रम के बारे में मुझे उनके नए साइट http://bhadas4media.com के ज़रिए ही जानकारी मिली. इस पर विचरते हुए कतई ये बोध नहीं होता कि भड़ासियों का यह नया प्रॉजेक्ट मानवता की सेवा को न्यौछावर है. आखिर दुनिया डॉटकॉम से कमा रही है तो यशवंत भड़ासी क्यों न कमाए. गलत क्या है. तुमने अपने मित्र का उल्लेख करते हुए कहा है कि यशवंत तीन हज़ार रुपए की दलाली मांग रहे हैं उत्तर प्रदेश के किसी अख़बार में नौकरी दिलाने के एवज में, जिसका जिक्र यशवंत ने कहीं नहीं किया है. भइया कहे पर भरोसा करने से पहले यदि स्रोत हो तो उससे सुनी हुई की तस्दीक तो कर ही लेना चाहिए. http://bhadas4media.com पर दायीं ओर उपर तारीख़ के ठीक नीचे एक बक्सा बना हुआ है, उसमें नीचे से सबसे बायीं ओर लिखा है 'जाब'. उस जाब को क्लिक करें, लिखा मिलेगा ''हिंदी पत्रकारों के लिए मौकाः आप hindi.media.job at gmail.com पर CV भेजें, आपको B4M की तरफ से काल किया जाएगा। रजिस्ट्रेशन व कंसल्टेंसी फीस जमा कराने के बाद आपको जाब दिलाने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी।'' तो बताओ भइया इसमें ग़लत क्या किया यशवंत ने कंसल्टेंसी फीस ( दलाली, कमीशन, कट ... ) मांग कर. और हां अंत में, कोई मानवता की सेवा का डंका पीटे अपने ब्लॉग या साइट पर तब तो अलग बात है लेकिन कोई अगर पैसा कमाने के लिए ही ब्लॉग या साइट चलाए तो इसमें मेरे ख़याल से दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए. हालांकि अपने ब्लॉग या साइट पर मानवता की सेवा करने का डंका पीटने वाला आदमी भी यदि इसे कमाई का ज़रिया बनाता है तो भी मुझे व्यक्तिगत तौर पर परेशानी नहीं लग रही है, या मैं ये कहूं कि इतने भर से उसके व्यक्तित्व का आंकलन नहीं हो जाता है. राकेश 2008/7/24 vineet kumar : > तीन महीने से मीडिया में नौकरी पाने के लिए वो जगह-जगह धक्के खा रहा है। इसी > बीच उसे पता चला कि भड़ास डॉट कॉम से कुछ मामला बन सकता है। उसने भड़ास के > मॉडरेटर यशवंत सिंह को अपना रिज्यूमे भेजा और कुछ करने की बाद कही। वो मेरा > ब्लॉग भी रेगुलर पढ़ता है औऱ व्यक्तिगत तौर पर मुझे जानता भी है। इसलिए कल जो > कुछ भी उसकी बात यशवंत सिंह से हुई, उस संबंध में मुझसे राय लेने मेरे पास > पहुंचा। > सबसे पहले तो वो इस बात से परेशान था कि मीडिया में इस तरह के भी काम होते हैं। > उसका कहना एकदम साफ था कि- सर हमें पता है मीडिया में अचानक से या फिर सिर्फ > योग्यता से नौकरी नहीं लग जाती, किसी न किसी के बैकअप का होना जरुरी है। लेकिन > कोई इस तरह से भी करता है, मुझे जानकर बहुत धक्का लगा। यशवंतजी को लोगों की मदद > करने का नाम पर इस तरह पाखंड रचने की क्या जरुरत थी। आपलोग चाहते हैं कि ब्लॉग > के जरिए रातोंरात करोड़पति बन जाएं, ये शोषण और धोखा नहीं तो और क्या है। बहुत > झल्लाया था वो। > उसके मुताबिक यशवंत सिंह ने कल उसे फोन करके बताया कि- तुम्हारी नौकरी यूपी के > किसी अखबार में एक सप्ताह के भीतर लग जाएगी। इसके लिए तुम्हें तीन हजार रुपये > देने होंगे। ये तीन हजार रुपये उन्होंने बतौर रजिस्ट्रेशन के लिए मांगा। मतलब > कि अगर आप भड़ास.कॉम के जरिए नौकरी चाहते हैं तो आपको रजिस्ट्रेशन फीस देनी > होगी। उसने तब यशवंत सिंह से पूछा कि, सर पता तो बताइए कि ये तीन हजार रुपये > हमें कहां जमा करने हैं। यशवंत सिंह ने उसे एक अकांउट नंबर दिया और कहा कि > इसमें तीन हजार रुपये जमा करा दो। मेरे इस ब्लॉगर दोस्त का कहना है कि सर क्या > करें, ऐसे कैसे तीन हजार रुपये किसी को दे दें। > दोस्त से जब मैंने पूछा कि जब तुम अपना रिज्यूमे भेज रहे थे, उस समय कहीं कुछ > लिखा था कि तुम्हें तीन हजार रुपये जमा कराने होंगे। उसका सीधा जबाब था- > बिल्कुल नहीं सर। ये तो कल जब बात हुई तो उन्होंने बताया कि हमारे यहां तो > कईयों के रिज्यूमें आते रहते हैं, तीन हजार तो देने ही होंगे। इस दोस्त ने यहां > तक कहा कि- सर, अभी तो स्ट्रगल ही कर रहा हूं, नौकरी मिल जाए उसके बाद उससे > आपको दे दूंगा। यशवंत सिंह इस बात के लिए तैयार नहीं थे। > इस पूरे मामले को अगर आप सतही तौर पर देखें तो आपको लगेगा कि कुछ भी गलत नहीं > है। अगर कोई आपको नौकरी दिला दे रहा है तब अपनी मेहनत और उसके जो कॉन्टेक्टस > हैं उसकी कीमत तो लेगा ही। ये काम तो दिल्ली में कोई आपको मकान दिलाए तो पहले > १५ दिन का किराया कमीशन के तौर पर रख लेता है। या फिर जॉव दिलानेवाली एजेंसी भी > इस तरह से कुछ करती है। लेकिन, गंभीरता से विचार करें तो कुछ सवाल जरुर खड़े > होते हैं- > पहला तो यह है कि क्या यशवंत सिह और और बाकी लोग जो भड़ास डॉट कॉम से जुड़े हैं > उन्हें इसे बतौर व्यावसायिक साइट के तौर पर रजिस्ट्रेशन कराया है। इसके आमदनी > की जानकारी वैधानिक रुप से संदर्भ विभाग को बताए जाने का प्रावधान है। > क्या भड़ास डॉट कॉम कोई जॉव एजेंसी है और अगर हां तो फिर उसने अपनी बेबसाइट पर > सारी चीजों की जानकारी स्पष्ट रुप से क्यों नहीं लिखी है. कोई भी परेशान बंदा > जो कि मीडिया में नौकरी पाने के लिए छटपटा रहा है और उसे बाद में पता चलता है > कि उसे तीन हजार रुपये देने होंगे, ये किसी भी स्तर से उचित नहीं है। > अगर भड़ास डॉट कॉम वाकई में एक व्यावसायिक साइट है तो फिर जबरदस्ती इसे लोगों > की मदद और मानवता जैसे भारी-भरकम शब्दों से लादने की जरुरत क्या है। > यह सही है कि भड़ास और अब भड़ास डॉट कॉम मीडिया की खबरों को जिस तरह से पेश > करता है इससे नए लोगों को कई जानकारियां मिलती है लेकिन इस जानकारी देने की एवज > में जो राशि वो वसूलता है उसे भी अपनी साइट और ब्लॉग पर प्रकाशित करे। भड़ास या > फिर किसी भी दूसरे साइट या ब्लॉग को अधिकार नहीं है कि मानवता के नाते मदद करने > का डंका पीटने के नाम पर मीडिया में जाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को गुमराह > करे। इससे लोगों की परेशानी तो बढ़ती ही है, साथ ही जो लोग ब्लॉग और बेबसाइट के > जरिए लोगों को मदद करने की कोशिश में लगे हैं, उनकी विश्वसनीयता पर भी > प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। हम ब्लॉग के जरिए इस तरह के हरकतों का विरोध करते > हैं। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From vineetdu at gmail.com Fri Jul 25 10:52:12 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 25 Jul 2008 10:52:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS54KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KWN4KSV4KWH4KSf4KS/4KSC4KSXIOCkleCksOCliywg?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSu4KS+4KSv4KSjIOCkleClgCDgpJbgpKrgpKQg4KS54KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KS24KS+IOCksOCkueClh+Ckl+ClgA==?= Message-ID: <829019b0807242222h7aed258n9509a653fd593991@mail.gmail.com> एकः तुमने ही तो पहले कुत्ता, कमीना कहा था। नहीं पहले तूने कहा था कि एक दूंगा कनपटी पर। एक बच्चे की मम्मी दूसरे की मम्मी से शिकायत करने उसके घर पहुंचती है कि आपके लड़के ने मेरे बच्चे को मारा। उपर के संवाद इस दौरान के हैं। दोनों की मांएं कुछ बोले इसके पहले ही दोनों बच्चे आपस में शुरु हो जाते हैं। मां को बोलने का मौका ही नहीं देते। अंत में पीछे से वीओ चलता है..क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे। दोः एक छह-सात साल की बच्ची टीवी देख रही है इसी बीच उसकी मम्मी उसकी दीदी के बारे में पूछती है कि कहां है वो। बच्ची का जबाब होता है- गई होगी कलमुंही अपने ब्ऑयफ्रेंड के साथ। उसी सुर में वो और भी लगातार बोलती चली जाती है। पीछे से फिर वीओ चलता है- क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे ? तीनः एक फैमिली के घर कुछ लोग खाने पर आए हैं। उस फैमिली में छह -सात साल का एक लड़का भी है। आमतौर पर जैसा की भारतीय परिवारों में होता है कि आपके जाते ही बच्चे के मां-बाप कहते हैं कि- अंकल या फिर दीदी को सुनाओ तो राइम्स। अगर बच्चा स्मार्ट है तब तो चालू हो जाता है...बा बा ब्लैक सिप या फिर और कुछ लेकिन अगर फूद्दू है तो फिर लेडिज होने पर आप अपना पर्स खोलती हैं और कैडवरी देते हुए कहती है..अच्छा चलो, अब सुनाओ। यहां बच्चा स्मार्ट है। सीधे कहता है- पापा एक गाना सुनाउं। फिर सुनाता है- ए गनपत, चल दारु ला ए गनपत, चल दारु ला आइस थोड़ा कम, सोड़ा ज्यादा मिला जरा टेबुल-बेबुल साफ कर दे न यार.. टेबुल साफ कर देने की बात पर वो गेस्ट की तरफ हाथ लहराता है। इस बीच उसके मम्मी-पापा तरह-तरह से मुंह बनाते हैं। उन्हें लगने लग जाता है कि उनकी इज्जत मिट्टी में मिल गयी। फिर वीओ चलता है- क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे ? इन तीनों दृश्यों में ये बताने की कोशिश है कि टीवी देखकर आपके बच्चे खराब हो रहे हैं। उनके संस्कार पर बुरा असर पड़ रहा है। टीवी के जिन कार्यक्रमों से बच्चों के संस्कार बिगड़ रहे हैं उसमें सास-बहू टाइप सीरियल, रियलिटी शो के नोक-झोंक और म्यूजिक चैनल के गाने हैं। इसलिए इन सबको छोड़कर जरुरी है कि बच्चे रामायण देखें। एनडीटीवी इमैजिन रामायण को किसी पौराणिक कथा के रुप में नहीं बल्कि एक अच्छी आदत के रुप में देखने-समझने की बात करता है। चैनल की समझदारी बढ़ी है. उसे इस बात का अंदाजा हो गया है कि अब रामायण के वो दर्शक नहीं रहे हैं जो कि रामायण शुरु होने पर टीवी के आगे अगरबत्ती जलाते थे और अरुण गोविल के आगे मथ्था टेकते थे। रामायण और दूसरी पौराणिक, धार्मिक कथाएं जिस पर कि अपनी-अपनी ऑयडियोलॉजी के आधार पर बहसें होतीं है और स्थापित मान्यताओं पर संदेह किया जाता है। इसलिए इसे लेकर अब एक सर्वमान्य धारणा नहीं रह गयी। अब यह विवाद और उन्माद का विषय हो गया है। इन सबके बावजूद इन सारी धार्मिक कथाओं को संस्कार और बच्चों के लिए आदर्श के रुप में स्थापित करने की एक बार फिर फिर से कोशिशें की जा रही है। अब तक ये कोशिशें परिवार के लोग किया करते रहे लेकिन अब इसमें टेलीविजन भी शामिल है, बाजार भी शामिल है, बड़ी पूंजी भी शामिल है। इसलिए बौद्धिक बहसों के बीच अगर ये कथाएं अपना व्यावसायिक रुप ले रही हैं तो ये मानकर चलिए कि चाहे कोई भी वाद आ जाए और बाजार का कोई भी स्वरुप हो ये कथाएं अपने समय अनुसार खपने लायक बन जाएंगे। इसे आप इन कथाओं की ताकत कहिए या फिर इंसान की उपयोगितावादी दृष्टि लेकिन रामायण, महाभारत और इस तरह के धार्मिक कथाओं की मार्केटिंग और खपत हमेशा रहेगी। अब तक का अनुभव तो यही रहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080725/93cba06a/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Fri Jul 25 03:40:20 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Thu, 24 Jul 2008 17:10:20 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <4560693.1847511216937420977.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// वैष्णव जन आखेट पर निकले हैं Posted: 24 Jul 2008 11:25 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/344726902/blog-post_8688.html इलाहाबाद निवासी अंशु मालवीय जाने-माने हमउम्र रचनाकार हैं. कविता, कहानी, संस्‍मरण, यात्रा वृत्तांत रिपोर्टाज ... : तमाम विधाओं में रचते-बसते रहते हैं. उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता हरदम उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता से दो-दो हाथ करती रहती है या फिर दोनों एक-दूसरे से जीने की ताक़त पाते हैं. किसानों की आत्महत्याओं पर उनकी कविताएं हों या फिर मोदी के गुजरात में हुए जनसंहार पर: एक-एक रचना उनके सामाजिक सरोकार की गवाही है. 2002-03 में 'गुजरात' के तुरन्‍त बाद छपी 'क़ौसरबानों की अजन्मी बिटिया की ओर से' और 'वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं'की दुनिया भर में चर्चा हुई और कई अन्य भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ. फिलहाल अंशु शहरी ग़रीबों के आवास के अधिकार के मसले पर उत्तर प्रदेश में सक्रिय हैं. साथ ही वे प्रो. लालबहादुर वर्मा के नेतृत्व में निकलने वाली पत्रिका 'इतिहासबोध' के संपादकीय टीम का हिस्‍सा भी हैं. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है अंशु के कविता संग्रह दक्खिन टोला से कुछ मेरी मनपसंद रचनाएं. अकेले ... और ... अछूत ... हम तुमस क्या उम्मीद करते बाम्हन देव! तुमने तो ख़ुद अपने शरीर के बायें हिस्से को अछूत बना डाला, बनाया पैरों को अछूत रंभाते रहे मां ... मां ... और मां और मातृत्व रस के रक्ताभ धब्बों को बना दिया अछूत हमारे चलने को कहा रेंगना भाषा को अछूत बना दिया छंद को, दिशा को वृक्षों को, पंछियों को समय को, नदियों को एक-एक कर सारी सदियों को बना दिया अछूत सब कुछ बांटा किया विघटन में विकास और अब देखो बाम्हन देव इतना सब कुछ करते हुए आज अकेले बचे तुम अकेले ... और ... अछूत. वास्‍तविक जीवन की भाषा हम गांव अव‍धी बोलते थे पढ़ते हिन्‍दी में थे, शहर आए तो हिन्‍दी बोलने लगे और पढ़ने लगे अंग्रेज़ी में. रिश्ते-नाते दरद-दोस्त हिन्‍दी में कागज-पत्तर बाबू-दफ़्तर सब अंग्रेज़ी में; बड़ा फ़र्क हो गया हमारे वास्‍तविक जीवन की भाषा और बौद्धिक जीवन की भाषा में. वे प्रचार करते थे हिन्दी में हम वोट देते थे रोज़मर्रा की जिन्दगी की चिन्‍हानी पर, वे करोड़ों के खर्च पर चलने वाली संसद में चंद लोगों की भाषा बोलते थे, बड़ा फ़र्क है गण और तंत्र की भाषा में. हम काम करते हैं, एक हाथ को पड़ती है दूसरे की ज़रूरत, हर हाथ बोलता है करोड़ों हाथों की भाषा में, जिस भाषा में बनती है उत्पादन की सामूहिक कविता जो कुछ लोगों के फ़्रेम में जड़ दी जाती है. स्वतंत्रता और विविधता के पक्षधर हज़ारों लाखों भाषा-बोलियों को मार कर रचते हैं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय भाषा. बड़ा फ़र्क है पैदा करने और खाने की भाषा में 'हैय्या हो' बाहर बैठा दिया जाता है दरवाज़े के और अघाई हुई डकारें हमारी वास्‍तविक राष्‍ट्रभाषा बन जाती हैं. वैष्‍णव जन वैष्णव जन आखेट पर निकले हैं! उनके एक हाथ में मोबाइल है दूसरे में देशी कट्टा तीसरे में बम और चौथे में है दुश्‍मनों की लिस्‍ट. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वे अरण्‍य में अनुशासन लाएंगे एक वर्दी में मार्च करते एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वैष्‍णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं लक्ष्‍मी पैर दबा रही हैं उनका मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा कमल पर जो बैठे हैं. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! जो वैष्‍णव नहीं होंगे शिकार हो जाएंगे ... देखो क्षीरसागर की तलहटी में नसरी की लाश सड़ रही है. /////////////////////////////////////////// ये वो मोहनदास तो नहीं.... Posted: 24 Jul 2008 02:02 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/344389127/blog-post_24.html फिल्म मोहनदास पर हो रही चर्चा को अब आगे बढ़ा रहे हैं रविन्द्र कुमार चौधरी. रविन्द्र एक ख़बरिया चैनल में काम करते हैं. अच्छी किताबों के अलावा नाटक, फिल्म और शे'र-ओ-शायरी में उनकी गहरी दिलचस्‍पी है. किसी भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना बड़े-बड़े फिल्मकारों के लिए एक चुनौती रहा है। ऐसे में मज़हर जैसे लगभगआजकल ये कुछ चलन सा बन गया है कि चूतिया, भो.... जैसी गालियों को डालने से ही इन फिल्मकारों को लगने लगा है कि तुमने कुछ कलात्मक सी फिल्म बना डाली है। मज़हर भाई केवल गालियां डालने भर से ही सीन में असर नहीं पैदा होता। उन गालियों को बोलने के लिए अच्छे अदाकारों की और अच्छी सिचुएशन की भी ज़रूरत होती है। अनसुने से नाम द्वारा मोहनदास जैसी कहानी पर फिल्म बनाना निश्चित ही दुस्साहस भरा काम है। लेकिन मज़हर केवल इसी बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि रेस, धूम और टशन जैसी वाहियात फिल्मों के दौर में उन्होंने मोहनदास बनाई। इसके अलावा उन्होंने बधाई लायक कोई काम नहीं किया। बल्कि उन्होंने आने वाले सार्थक फिल्मकारों की राह भी मुश्किल कर दी है। लगता है कि उन्होंने भावुकता में मोहनदास बनाने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन इस सारे उपक्रम में उन्होंने सबसे ज़्यादा अन्याय मोहनदास के साथ ही किया। मज़हर ने उस मोहनदास को ही मार दिया, जिसे उदय प्रकाश ने रचा था। मज़हर का मोहनदास कहीं से भी उदय प्रकाश का मोहनदास नहीं है। कस्तूरी के बारे में भी यही कहा जा सकता है। मुझे तो उदय की हालत एक ऐसी निरीह मां जैसी लग रही है, जिससे कोई उसका बच्चा मांग कर ले गया हो कि हम इसे अपना बच्चा समझकर पालेंगे। लेकिन जब वो मां अपने बच्चे की ख़ैर-खबर लेने जाती है, तो अपने कलेजे के टुकड़े के साथ जानवरों जैसा ज़ुल्म होते पाती है। दोनों लीड एक्टरों के सर पर मज़हर ने एक ऐसी मुसीबत डाल दी, जिसके बोझ तले वो दोनों बेचारे दबकर रह गए। ये भूमिकाएं निभा पाना उनके बूते की बात थी ही नहीं। अगर आप वकील सोनी और जज मुक्तिबोध की भूमिकाओं के लिए श्रीवास्तव और नामदेव जैसे काबिल कलाकारों को ले सकते हैं, तो मोहनदास और कस्तूरी की भी आपने थोड़ी लाज रखी होती। कुल मिलाकर फिल्म में झोल ही झोल हैं। पूरी फिल्म में मोहनदास का अभाव, उसकी व्यथा कहीं भी इस्टेबलिश नहीं हो पाती। चारों तरफ से लुटा-पिटा उदय का मोहनदास जब घर लौटता है, तो मज़हर के मोहनदास में बदलकर एक खाते-पीते मोहनदास की तरह साफ-सफ्फाक नाइट ड्रेस चेंज करता है। उस मोहना के घर में कहीं कोई खास कलेश नहीं दिखता। फिल्म तभी थोड़ी संभलती दिखती है, जब कोर्ट-कचहरी, जांच-पड़ताल के सीन आते हैं। और यह शायद श्रीवास्तव और नामदेव जैसे कलाकरों के स्क्रीन पर होने से संभव हो पाया। या शायद इस तरह के दृश्यों में हमारी सहज-स्वाभाविक दिलचस्पी के चलते ऐसा संभव हुआ। मोहनदास, की लाचारी को दिखाने का सबसे सही तरीका मज़हर को यही लगा कि वो बेचारा मकानों की एक जैसी बनावट होने की वजह से बिसनाथ का मकान नहीं ढूंढ पाता। आह! बेचारा! अभिनेताओं के चयन में मज़हर की ख़ामी उस सीन में और भी शिद्दत से महसूस होती है, जहां पत्रकार सोनाली द्वारा किये गए तंज से व्यथित होकर श्रीवास्तव एक ईमानदार वकील की व्यथा को केवल एक शॉट में बयां कर देते हैं। वहीं, दूसरी ओर नकुल मोहनदास जैसे अपार संभावनाओं वाले पात्र की व्यथा को पूरी फिल्म में एक जगह भी नहीं दिखा सके। उस समय यही खयाल आया कि काश श्रीवास्तव को मोहनदास बनाया होता। फिल्म देखने के बाद बाक़ी अभिनेताओं, दृश्यों और सिचुएशन से जुड़ी और जो बातें मेरे जेहन में आई, उन्हें मैं बेतरतीब ढंग से कहे देता हूं। किरदारों की बोली को लेकर मज़हर साहब कतई लापरवाह रहे। कहीं तो उनके किरदार ठेठ गंवई बोली बोल रहे होते हैं, अगली ही लाइन में वो नुक्तों के सही इस्तेमाल वाली ख़ालिस उर्दू बोलते दिखते हैं। दरोगाजी हमेशा बुलेट मोटरसाइकिल पर अकेले ही दिखते हैं और सड़कछाप गुंडे की तरह मोहनदास का पीछा करते रहते हैं। दरोगा को एकाध सिपाही के साथ खटारा सी जीप में(जो शायद ज़्यादा वास्तविक लगता) दिखाने में पता नहीं मज़हर को क्या परेशानी थी। दरोगा का किरदार भी सबसे ज़्यादा कमज़ोर किरदारों में से एक रहा। अभिनय या स्क्रिप्ट की कसावट के बजाय गालियों के इस्तेमाल पर ज़्यादा ध्यान दिया गया। आजकल ये कुछ चलन सा बन गया है कि चूतिया, भो.... जैसी गालियों को डालने से ही इन फिल्मकारों को लगने लगा है कि तुमने कुछ कलात्मक सी फिल्म बना डाली है। मज़हर भाई केवल गालियां डालने भर से ही सीन में असर नहीं पैदा होता। उन गालियों को बोलने के लिए अच्छे अदाकारों की और अच्छी सिचुएशन की भी ज़रूरत होती है। बिसनाथ के बाप के रूप में आपने अखिलेंद्र मिश्रा को हैरी बावेजा और लॉरेंस डिसूजा की फिल्म के गुलशन ग्रोवर के बाप जैसा बना दिया। इस बीच आपने मोहनदास से जासूसी भी करवा दी, वो छुप-छुपकर रात में कोयले के ट्रकों की चोरी भी देखता है और वहीं पर आम मुंबईया फिल्मों की तरह विलेन उसे पकड़कर पीटते हैं। वैसे तो मुझे कोई आसार नज़र नहीं आते कि आप इसे पढ़ेंगे, अगर पढ़ लें तो ज़्यादा बुरा ना मानियेगा, क्योंकि अपने पसंदीदा लेखक की रचना के साथ ऐसा सलूक देखकर मैं ऐसा ही लिख सकता था...और अंत में यही कहूंगा कि नकुल और शर्बनी मुखर्जी को मोहनदास और कस्तूरी बनाकर शायद आपने उनसे अपने रिश्ते निभाए हैं। और ऐसा करके आपने जौहरों, चोपड़ाओं और संजय गुप्ताओं की परंपरा को ही आगे बढ़ाया है, जो हर फिल्म में अपने कैंप के दोस्त अभिनेताओं? से रिश्ते निभाते हैं। किरदार चाहे जो हो, निभाएंगे अपने दोस्त ही। उदय प्रकाश के मोहनदास को पढ़कर इस निर्मम व्यवस्था और इसके उन रहनुमाओं पर ग़ुस्सा आया था, जो मोहनदास करमचंद के नाम पर देश को चट कर रहे हैं। लेकिन मज़हर के मोहनदास को देखकर मोहनदास पर ही ग़ुस्सा आता है। ...इस उम्मीद के साथ ...कि उदय की रचनाओं पर अभी अच्छी फिल्म बाक़ी है मेरे दोस्त! -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080724/cbfa6dd9/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Fri Jul 25 15:12:18 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Fri, 25 Jul 2008 15:12:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KWC4KSw4KWN4KS1IOCkqOCkleCljeCkuOCksuClgCDgpJXgpYcg4KSs?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo?= Message-ID: <196167b80807250242k2d99b0a7s5b101d7b992fc6bc@mail.gmail.com> समर दास पश्चीम बंगाल में नक्सल आन्दोलन के समर्थकों में गिने जाते रहे हैं। लेकिन अब उनका इस व्यवस्था से मोहभंग हो गया है। उनका मानना है, आन्दोलन अपने राह से भटक गया है. वे कहते हैं, अपनी जान बचाने के लिए आप किसी की जान लेते हैं तो इसे दुनिया का कोई न्याय शास्त्र ग़लत नहीं कहेगा. लेकिन आप सिर्फ़ अपना आतंक कायम करने के लिए इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं तो इसे किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता. सिर्फ़ हाथ में हथियार उठा लेने से कोई नक्सली नहीं हो जाता. हथियार तो दुनिया भर के आतंकी संगठनों ने भी उठा रखा है. फ़िर नक्सल आन्दोलन उनसे अलग कैसे है? आज इसी सवाल का जवाब देना इस आन्दोलन के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है. और चुनौती भी. वे आजकल विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर पश्चीम बंगाल में अलग-अलग मुद्दों पर जागरूकता अभियान चला रहे हैं. सिगूर का नैनों कार प्रोजेक्ट हो या नंदीग्राम का एस ई जेड या फ़िर आमार बंगाली और गोरखाओं के बीच चलने वाला शीत युद्ध. हर विषय पर उनका अपना पक्ष है. वे सेज क्षेत्र में जाने क्र लिए बनने वाले अनुमति पत्र को वीजा और पासपोर्ट की संज्ञा देते हैं. वे कहते हैं, जिन मजदूरों के हक की बात करके बंगाल की सरकार ने इतने दिनों तक शाशन किया, सरकार उन्हीं मजदूरों के हितों को भूल गई. एस ई जेड में किसी प्रकार का लेबर क़ानून नहीं होगा. उन्होंने कहा - 'आशीष, एक समय बंगाल में मजदूर हड़ताल पर जाते थे, अब परंपरा बदल गई है। अब यहाँ मालिक लोग लॉक आउट करने लगे हैं.' मैं समझ नहीं पाया यह कहते हुए वे रो रहे थे या हंस रहे थे. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2 Size: 3437 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080725/dc3e1d73/attachment.bin From rajeshkajha at yahoo.com Fri Jul 25 20:25:08 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Fri, 25 Jul 2008 07:55:08 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FUEL - PhotoVoice Message-ID: <916749.47760.qm@web52901.mail.re2.yahoo.com> hi, http://picasaweb.google.com/rajesh672/FUELPhotoVoice Enjoy! regards, Rajesh https://fedorahosted.org/fuel -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080725/e88a9d2b/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Sat Jul 26 01:03:44 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Fri, 25 Jul 2008 14:33:44 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <22259408.1970191217014424640.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// अट्ठाईस कि.मी. इंग्लिश चैनल Posted: 25 Jul 2008 05:41 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/345665320/blog-post_25.html व्‍याख्याता और अनुवादक गोपाल प्रधान ने 'छायावादयुगीन साहित्यिक वाद-विवाद 1910-40' पर जेएनयू से पीएचडी किया है. रबीन्द्रनाथ ठाकुर, फिलॉसफ़ी ऑफ़ एजुकेशन; आर्नल्ड हाउज़र, अ सोशल हिस्ट्री ऑफ़ आर्ट; टॉम बॉटमोर, सोश्‍यॉल्जी जैसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों का अनुवाद गोपालजी के खाते में दर्ज है. गोपालजी के आलेख और उनकी समीक्षाएं नियमित रूप से हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. फिलहाल गोपालजी सिलहट, असम में अध्यापन कर रहे हैं और साथ-साथ 'साहित्य में उत्तर-पूर्व' पर शोध भी. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है दीवान-ए-सराय02: शहरनामा से गोपाल जी का लेख अट्ठाईस कि.मी. इंग्लिश चैनल. इसके लिए दीवान टीम और अपने सहकर्मी चन्दन शर्मा का आभार. जिस कैम्पस से विदा लेकर मैं शाहजहाँपुर गया था, वहाँ अब भी कोई लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द गोल चक्कर में भटक कर घंटों एम. फिल., पीएच. डी. के नाम पर सात बरस के चूहे की तरह संवेदनशील ज़िंदगी बिताने के बाद तीन दिन बरेली के अमर उजाला में नौकरी करके वीरेन डंगवाल की डाँट खा कर अध्यापकी के लिए नियुक्ति पत्र लेकर इस ज़िले के ज़िला मुख्यालय पर पहुँचने के पहले ही इलाहाबाद में नक़्शे पर पैमाने के सहारे यह जान लिया था कि जहाँ नौकरी करनी है वह जगह ज़िला मुख्यालय से 28 किलो मीटर दूर है।घूम रहा होगा और बाहर निकालने का रास्ता पूछने पर बताने वाला कहता होगा कि आपको तो रास्ता ख़ोजते हुए बस घंटे ही बीते हैं, मैं तो बरसों से उसी रास्ते को ख़ोजने की कोशिश कर रहा हूँ। अब भी कोई सुलोचना का प्रेमी ‘सुदूर, दूर द्वीपे’ स्थित अपनी प्रेमिका को ख़ोजने के लिए लाइब्रेरी की आठवीं मंज़िल पर पहुँचता होगा, और उसके नज़र न आने पर वहीं जान दे जाता होगा। अब भी उसकी सड़ती हुई लाश को उठाने का पात्र समझे जाने पर कोई सफ़ाई कर्मचारी अंदर तक ग्लानि की सड़ांध से भर जाता होगा। अब भी कोई मेस में रोटी पर से अमेरिका द्वारा भेजे गए संक्रामक कीटाणुओं को हटाता हुआ पागल समझा जाता होगा और आधुनिकता की ग़ुलामी से बचने के लिए पहाड़ियों से सुराही में भर कर पानी लाता होगा। अब भी कोई वॉर्डन के आने और अतिथियों के बारे में पूछने पर कहता होगा कि हम सब अतिथि हैं, क्या आपको लगता है कि आप यहाँ स्थायी रूप से रहने आए हैं। अब भी मेसों में उलझी हुई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिघटनाओं को समझने के लिए दृष्टिकोण की स्पष्टता अर्जित करते विद्यार्थियों की टिमटिमाती हुई आँखें अतिथियों के प्रवाहपूर्ण भाषण सुनती होंगी। इस कैम्पस से निकल पाना तक़रीबन एक असंभव काम है, जहाँ बीसों बरस पहले पढ़ाई ख़त्म कर चुके प्राणी किन्ही लड़कों के कमरों में या बस स्टैंडों और ढाबों के इर्द-गिर्द भटकते हुए पाए जाते हैं। निकलने का कारण उतना सचेतन चुनाव नहीं था, जितना नौकरी करने की मज़बूरी थी। एम. फिल., पीएच. डी. के नाम पर सात बरस के चूहे की तरह संवेदनशील ज़िंदगी बिताने के बाद तीन दिन बरेली के अमर उजाला में नौकरी करके वीरेन डंगवाल की डाँट खा कर अध्यापकी के लिए नियुक्ति पत्र लेकर इस ज़िले के ज़िला मुख्यालय पर पहुँचने के पहले ही इलाहाबाद में नक़्शे पर पैमाने के सहारे यह जान लिया था कि जहाँ नौकरी करनी है वह जगह ज़िला मुख्यालय से 28 किलो मीटर दूर है। यही दूरी एक टापू तक पहुँचने की जद्दोज़हद से भरी हुई थी। पूरे चार बरस रोज़ यह दूरी मैंने जीप पर बैठकर पार की है। इसी क्रम में जीप पर बैठने की आरामदेह जगह तलाशने के तमाम गुण सीखे गए। बहरहाल, पहली बार उस द्वीप पर मैं जीप में नहीं गया। स्टेशन से बाहर निकलते ही शाहजहाँपुर से पुवायाँ की तरफ़ जाने वाली सड़क मिल जाती है। उसी पर खड़ा था कि एक मिनी ट्रक आया। सामान्यतः तो इसका इस्तेमाल सामान ढोने के लिए होता है, यह मानकर चुपचाप आबादी ज़िले की एक चौथाई होने के बावज़ूद उसे 40 प्रतिशत बताते हुए अक़सर लोग पाए जाते हैं। कुछ साल पहले पीलीभीत ज़िले के एक मंत्री विनोद तिवारी पुवायाँ आए थे। कोई माँग न होते हुए भी वे पुवायाँ को अलग ज़िला बनवाने के लिए संघर्ष करने का वादा कर गए। राजनीति के इस नए मुहावरे का इस ज़िले में बहुत प्रचलन है। मसलन, शाहजहाँपुर शहर के विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री सुरेश खन्ना एक ऐसी मीनार बनवाने पर तुले हैं जो कुतुब मीनार से भी ऊँची होगी। खड़ा था कि तमाम लोग उसकी ओर लपके। मैं आगे ड्राइवर की बग़ल में बैठने के लिए बढ़ा। कंधे पर एयर बैग और हाथ में ब्रीफ़केस देकर ख़लासी ने भी कोई आपत्ति नहीं की। किराया चार रुपये, बड़ा ही आनंद रहेगा। ... एक घंटे में पुवायाँ उतरा। तहसील और ज़िला शाहजहाँपुर ज़िले की चार तहसीलों में पुवायाँ एक तहसील है। पूरी तहसील में कुल एक इंटर कॉलेज़ सन् 1996 में था। उसी से लगे हुए भवन में पहला डिग्री कॉलेज खुला था। यह कॉलेज चीनी मिल की ओर से खुला था, इसलिए इसका नाम था - गन्ना किसान डिग्री कॉलेज। संतोष यह मानकर पाया कि ब्राह्मण कॉलेज, क्षत्रीय कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, सनातन धर्म कॉलेज के मुक़ाबले यह अच्छा ही नाम है। तहसील शाहजहाँपुर ज़िले में तो थी, लेकिन इसका लोकसभा क्षेत्र पीलीभीत था, जहाँ से सांसद मेनका गाँधी थीं। फिर भी यहाँ की राजनीति पर जितेन्द्र प्रसाद का ख़ासा दबदबा था जो तब राज्यसभा के सदस्य थे। शाहजहाँपुर ज़िले के मुक़ाबले यहाँ कुछ भिन्नताएँ थीं, मसलन पीलीभीत की तरह ही यहाँ सिक्ख समुदाय के लोग काफ़ी थे। इन्हीं विशेषताओं के कारण इस तहसील को यहाँ के लोग कुछ ज़्यादा ही विशेष मानते हैं। मसलन, आबादी ज़िले की एक चौथाई होने के बावज़ूद उसे 40 प्रतिशत बताते हुए अक़सर लोग पाए जाते हैं। कुछ साल पहले पीलीभीत ज़िले के एक मंत्री विनोद तिवारी पुवायाँ आए थे। कोई माँग न होते हुए भी वे पुवायाँ को अलग ज़िला बनवाने के लिए संघर्ष करने का वादा कर गए। राजनीति के इस नए मुहावरे का इस ज़िले में बहुत प्रचलन है। मसलन, शाहजहाँपुर शहर के विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री सुरेश खन्ना एक ऐसी मीनार बनवाने पर तुले हैं जो कुतुब मीनार से भी ऊँची होगी। उन्होंने ही इस शहर में शहीद पार्क बनवाया है जिसमें उत्तर प्रेदश का दूसरा डाँसिंग फ़ाउंटेन लगा है (कानपुर में पहला है)। इसे ही विकास कहा जाता है। पानी न हो, बिजली न हो, पानी निकासी की व्यवस्था न होने से बरसात में शहर बजबजाने लगे, गलियों में सूअर घूमते हों - कोई बात नहीं। भारत की सबसे ऊँची मीनार तो है, डाँसिंग फ़ाउंटेन तो है। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हों - कोई बात नहीं, हम आपकी तहसील को अलग ज़िला बनवाएँगे। राजनीति का यह नया मुहावरा राजनितिज्ञों के आपराधिक रिकॉर्ड और उसके घिनौने चेहरे को छुपाने का मज़बूत हथियार है। मसलन विकास के प्रतीक सुरेश खन्ना पर अयोध्या आन्दोलन के दौरान एक मुसलमान ट्रक ड्राइवर की हत्या का मुक़दमा ज़िला न्यायालय में चल रहा था। उसका एक चश्मदीद गवाह भी ज़िन्दा है। शहर में यह आम जानकारी है कि उन्होंने यह हत्या करवाई थी लेकिन ‘अच्छे आदमी हैं, शहर का विकास कर रहे हैं’ के नाम पर कोई इसकी चर्चा भी नहीं करता। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस मुक़दमे को वापस भी ले लिया था। राजनीति की एक दूसरी नेत्री मेनका गाँधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने पर्यावरण प्रेम के लिए विख्यात हैं और उनकी इस छवि का उन्हें यहाँ चुनाव में ‘प्रचुर लाभ राजनीति की एक दूसरी नेत्री मेनका गाँधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने पर्यावरण प्रेम के लिए विख्यात हैं और उनकी इस छवि का उन्हें यहाँ चुनाव में ‘प्रचुर लाभ मिलता है’। लेकिन सच्चाई यह है कि दलितों की हत्या कर देने वाले किसानों और भारी मात्रा में सरकारी ज़मीन फ़र्ज़ी नामों से दबाये बैठे भूमिचोरों की जमात ही उनका आधार है। पुवायाँ में उन्ही क्रशर मालिकों से चन्दा लेकर चुनाव लड़ते उनकी आत्मा नहीं काँपती जो रात-दिन क़स्बे पर सीज़न भर राख उड़ाते रहते हैं। मिथक यह कि काम कराती हैं। )मिलता है’। लेकिन सच्चाई यह है कि दलितों की हत्या कर देने वाले किसानों और भारी मात्रा में सरकारी ज़मीन फ़र्ज़ी नामों से दबाये बैठे भूमिचोरों की जमात ही उनका आधार है। पुवायाँ में उन्ही क्रशर मालिकों से चन्दा लेकर चुनाव लड़ते उनकी आत्मा नहीं काँपती जो रात-दिन क़स्बे पर सीज़न भर राख उड़ाते रहते हैं। मिथक यह कि काम कराती हैं। धनी किसान लॉबी के लिए राजनीतिज्ञ का यही मतलब है कि नेता अफ़सरों के यहाँ उनका काम करा दे। एक सामंती अंदाज़ है पुवायाँ में। वे आईं और को संबोधित करते हुए कहा कि दो दिन मैं यहाँ हूँ, जिन्हें कोई समस्या हो वे आकर मिल सकते हैं। मिलने जाइए तो दलालों की भारी फ़ौज सासंद महोदया को घेरे हुए है। ख़ासियत बस एक कि सरकारी अधिकारियों को पीट देती हैं। सभी राजनेताओं की कार्यशैली में एक प्रतीकवाद और आपराधिक वस्तुनिष्ठता का मिश्रण है। मसलन, पूर्व सांसद जितेन्द्र प्रसाद मूलतः ब्राह्मण अपराधियों को संरक्षण देने के लिए जाने जाते रहे हैं, तो राजनीति के नए उगते हुए सितारे सुरेश खन्ना अपराधियों की नई फ़सल पैदा कर रहे हैं। सपा नेता सत्यपाल सिंह यादव भी अपराधियों की एक जमात को संरक्षण देते रहे हैं। राजनीतिक नेता, अपराध, आर्थिक साम्राज्य, नौकरशाही पर पकड़ - ये सभी एक दूसरे के साथ घुले-मिले और एक-दूसरे को बल प्रदान करने वाले तत्व हैं। क्रमश: -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080725/4eb67e78/attachment-0001.html From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Jul 26 12:13:28 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Sat, 26 Jul 2008 12:13:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSy4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkruClh+CkgiDgpLLgpJfgpL7gpKjgpYcg4KSV4KWHIOCksg==?= =?utf-8?b?4KS/4KSPIOCkuOCksOCkuOCli+CkgiDgpKTgpYfgpLIg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkruClh+CksOClgCDgpJzgpL7gpKjgpJXgpL7gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkquCkueCksuCkviDgpLXgpL/gpJzgpY3gpJ7gpL4=?= =?utf-8?b?4KSq4KSoIOCkueCliA==?= Message-ID: <196167b80807252343k2104f6bfmb2f65fb21a20106d@mail.gmail.com> *बालों में लगाने के लिए सरसों तेल का यह मेरी जानकारी में पहला विज्ञापन* है - मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन से छाता चौक वाया नया टोला जाते हुए रास्ते में यह अद्भूत विज्ञापन देखने को मिला. अदभूत इस मायने में की *बालों में लगाने के लिए सरसों तेल का यह मेरी जानकारी में पहला विज्ञापन* है। और एक बात यह कि इसमें किसी सरसों तेल कंपनी का उल्लेख नहीं है. इसलिए भाव समाजसेवा के लगते हैं. लेकिन जिसने भी इस विज्ञापन की कॉपी लिखी है, उसने थोडी सी असावधानी की जिस वजह से उसका संदेश सही - सही संप्रेषित नहीं हो पा रहा। 'सरसों से लहराते बाल बिना चिप चिप' के कई अर्थ हो सकते हैं. वैसे मुजफ्फरपुर में इस संबंध में मैंने कई लोगों से बातचीत की। और उन्हें अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं आई, अच्छी बात है। जिनके लिए विज्ञापन तैयार किया गया है वे इसे समझ पा रहे हैं. ** *तस्वीर के लिए यहां आएं -* ** http://www.ashishanshu.blogspot.com/ -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-118328 Size: 2675 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080726/99cd0bc6/attachment.bin From rakeshjee at gmail.com Tue Jul 29 02:21:43 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Mon, 28 Jul 2008 15:51:43 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <846332.1694981217278303531.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// 'चंबल तक का सोना यहां गलाया जाता है' Posted: 28 Jul 2008 03:21 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/348232343/blog-post_28.html पेश है गोपाल प्रधान के लेख अट्ठाईस कि.मी. इंग्लिश चैनल की अगली किस्त. अब तक आपने पढ़ा कि लेखक किस हालत में शाहजहांपुर पहुंचे थे। उन्होंने शाहजहांपुर ज़िले और पुवायां तहसील का एक संक्षिप्त तार्रुफ़ भी दिया। आइए आगे पढ़ते हैं वहां जेवरात और बंदूक की क्या अहमियत है और कैसे इन्हें जुटाया जाता है तथा किस तरह यहां अधिकारी मौज़ करते हैं। ज़ेवरात और बंदूक़ यहाँ आते ही दो चीज़ें सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करती हैं। क़स्बे की छोटी-सी आबादी के बावज़ूद ज़ेवरात की आर्थिक लूट के तीन स्रोत परंपरागत रूप से रहे हैं: ग्रीन मनी - अर्थात खेती, मुख्यतः गन्ना मिलों के इर्द-गिर्द बना माफ़िया तंत्र, व्हाइट मनी अर्थात ब्राउनशुगर की तस्करी से मिला पैसा और यलो मनी अर्थात सोने के व्यापार से पैदा होने वाला पैसा। इसी के साथ दो नए स्रोतों को जोड़ लीजिए – सांसदों-विधायकों को विकास कार्यों के लिए मिले धन का कमीशन और अपरहण उद्योग।70 दुकानें और ज़िला मुख्यालय पर तक़रीबन 500 दुकानें। आख़िर ये सब दुकानें करती क्या हैं? ऊपर से पूछिएगा तो पता चलेगा गिरवी गाँठ का काम होता है। बताते हैं कि चंबल तक का सोना यहाँ गलाया जाता है। वैसे तो बंदूक़ भी एक ज़ेवर की तरह यहाँ के घरों में विराजती है। आमदनी का एक बड़ा हिस्सा असलाह ख़रीदने में ख़र्च होता है। शस्त्र लाइसेंस दिलाना भी नेताओं की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। अफ़सरों के मुँहलगे दलाल इसी के लए तमाम लोगों को आगे-पीछे दौड़ाते रहते हैं। एक लाइसेंसी असले के पीछे कम से कम पाँच ग़ैर-लाइसेंसी असले मिलेंगे। आर्थिक लूट के तीन स्रोत परंपरागत रूप से रहे हैं: ग्रीन मनी - अर्थात खेती, मुख्यतः गन्ना मिलों के इर्द-गिर्द बना माफ़िया तंत्र, व्हाइट मनी अर्थात ब्राउनशुगर की तस्करी से मिला पैसा और यलो मनी अर्थात सोने के व्यापार से पैदा होने वाला पैसा। इसी के साथ दो नए स्रोतों को जोड़ लीजिए – सांसदों-विधायकों को विकास कार्यों के लिए मिले धन का कमीशन और अपरहण उद्योग। सहकारिता आंदोलन पर पहले कॉन्ग्रेस की पकड़ थी। भाजपा के प्रभुत्व के बढ़ने के साथ नए समीकरण उभरते हैं। चीनी मिलों में पहले जब पर्चियों के ज़रिए भुगतान होता था तो गन्ना माफ़िया ज़रूरत के वक़्त गन्ना किसानों को गन्ने का औना-पौना दाम लगाकर पैसे दे देता था और बदले में पर्चियाँ रख लेता था जिनका पूरा भुगतान चीनी मिल से होता था। अब चीनी मिलों को अधिकांश समय बंद रखने के लिए क्रशर मालिक डायरेक्टर्स और मिल प्रबंधन को घूस देते हैं, क्योंकि मिल के बंद रहने पर क्रशर में मनमाना दाम लगाकर गन्ना ख़रीदने में आसानी होती है। को-ऑपरेटिव बैंकों में गन्ना किसानों के भुगतान और खेती के लिए ज़ारी क़र्ज़ पर बँधा-बँधाया कमीशन है, जिसका एक हिस्सा संचालकों, नेताओं और आधिकारियों को जाता है। अपहरण उद्योग के बारे में मुझे एक परिचित के अपहरण और उनकी रिहाई से पता चला। हमारे कॉलेज से बी.ए. करके वह विद्यार्थी एम.ए. में ज़िला मुख्यालय के एक कॉलेज में आया था। बीच में गाँव जाने पर पुवायाँ दशहरा के मेले में गया। वह और उसका एक दोस्त मोटरसाइकिल पर थे। अचानक उनके पीछे से एक सुमो जैसी जीप आई और उसकी मोटरसाइकिल के आगे इस तरह खड़ी हुई कि उन्हें मोटरसाइकिल रोक देनी पड़ी। छह-सात लोगों ने दोनों को उठाकर जीप में लाद लिया और उनके हाथ पीछे बाँध दिए। उन्होंने उनकी आँखों पर पट्टी चढ़ाकर सीट के ऊपर लिटा दिया तथा उनके ऊपर बैठ गए। फिर उन्हें काफ़ी देर चलने के बाद एक जगह उतारा गया। वहाँ से पैदल घंटों चलकर वे पास के एक जंगल में पहुँचे। यह जगह शाहजहाँपुर-बदायूँ की सीमा पर जलालाबाद तहसील में रामगंगा की कहदी कहलाती है। वहाँ उन्हें ज़मीन पर डाल दिया गया और एक-एक रोटी खाने को दे दी गई। भोजन की यह अल्पमात्रा इसलिए दी जाती थी ताकि वे इतने कमज़ोर हो जाएँ कि भाग न सकें। फिर उनकी रिश्तेदारियों में फ़िरौती की रक़म के लिए चिट्ठियाँ भेजी गई। अपहर्ताओं को इस बात का पता रहता था कि उनके ग़ायब होने की कोई रिपोर्ट लिखवाई गई है या नहीं। इस इलाक़े में दस-पंद्रह बरसयहाँ अगर किसी अधिकारी की नियुक्ति हो गई तो वह किसी भी स्थिति में तबादला नहीं चाहता। और तो और पुश चिकित्सा अधिकारी भी मालमाल है क्योंकि पशुओं को काटने के लिए उनके बीमार होने का प्रमाण पत्र ज़ारी करने के लिए उनकी फ़ीस नियत है। एक ज़िलाधिकारी महोदय बग़ल के ज़िले के रहने वाले थे। उन्होंने अपने गाँव में अपने माता और पिता के नाम से दो डिग्री कॉलेज खोले जिनके लिए ईंट, सरिया सीमेंट और पैसा शाहजहाँपुर से जाता था। तमाम अधिकारियों यहाँ तक कि यातायात अधिकारी ने भी दो ट्रक गिट्टी और कुछ पैसा उनको दिया था। से जो पुलिसवाले तैनात हैं, वे कहीं और तबादला हो जाने पर उसे रद्द कराने के लिए राजनीतिज्ञों के ज़रिए अधिकारियों पर दबाव डलवाते हैं। गिरोह के लोग रोज़ आते और अपने अपहरणों के क़िस्से सुनाते। उसी क्रम में उन्होंने यह भी बताया कि यदि अपेक्षित रक़म उन्हें नहीं मिली तो वह इस ‘पकड़’ को बड़े गिरोह के हाथों बेच देंगे जो या तो बड़ी रक़म वसूलेगा या उसके शरीर के विभिन्न अंगों को निकलवाकर बेच देगा। इस उद्योग से जुड़े हुए गिरोह मिथकीय माहिमा रखते हैं। और गिरोह के मुखियाओं का नाम बड़े अदब से लिया जाता है। यहाँ कुछ गाँव ऐसे हैं जहाँ के लोग दिन में खेतों में काम करते हैं और शाम को डकैती के लिए निकल पड़ते हैं। पुराने क़िस्म के गिरोह घोड़ियों पर चला करते हैं। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे शाम को एक गाँव के क़रीब पहुँचे तो वहाँ के एक बुजुर्ग ने सावधान करते हुए कहा कि ‘घोड़िन को सजन को टाइम हुई गयो है।’ ये गिरोह पुलिस थानों को नियमित हिस्सा देते हैं जो थाने से ‘ऊपर’ उसका बँटवारा राजनेताओं और अधिकारियों के बीच होता है। अधिकारी की मौज़ यहाँ अगर किसी अधिकारी की नियुक्ति हो गई तो वह किसी भी स्थिति में तबादला नहीं चाहता। और तो और पुश चिकित्सा अधिकारी भी मालमाल है क्योंकि पशुओं को काटने के लिए उनके बीमार होने का प्रमाण पत्र ज़ारी करने के लिए उनकी फ़ीस नियत है। एक ज़िलाधिकारी महोदय बग़ल के ज़िले के रहने वाले थे। उन्होंने अपने गाँव में अपने माता और पिता के नाम से दो डिग्री कॉलेज खोले जिनके लिए ईंट, सरिया सीमेंट और पैसा शाहजहाँपुर से जाता था। तमाम अधिकारियों यहाँ तक कि यातायात अधिकारी ने भी दो ट्रक गिट्टी और कुछ पैसा उनको दिया था। पुवायाँ तहसील में चार साल रुकने वाले एक उप-ज़िलाधिकारी ने तक़रीबन पाँच करोड़ रुपए बनाए। उसके यहाँ कोई अधिकारी आए एक अच्छीमंडी में जिन व्यापारियों की दुकानें हैं, उनमें से एक व्यापारी अपने तराज़ू के पल्ले के नीचे किलो का बटखरा चिपकाए हुए था। वह अधिकारियों का सबसे चहेता व्यापारी है। ये व्यापारी पूरे साल किसानों को खेती के लिए कर्ज़ देते हैं। बदले में किसान उन्हीं के यहाँ ग़ल्ला बेचता है। अनाज़ की क़ीमत में से क़र्ज़ और सूद काट लिए जाते हैं। उस व्यापारी ने अफ़सरों को मौज़ कराने के लिए क़स्बे में स्वीमिंग पूल बनवा रखा था। इसके अलावा पंजाब से आए लोगों में से भी बड़े किसान, पेट्रोल पम्प मालिक, ट्रैक्टर ट्रॉली के विक्रेता इत्यादि ऐसे लोग हैं जिनके घर अफ़सरों की आरामगाह हैं। अफ़सर को ये सब सुविधाएँ पासपोर्ट बनवाने, हथियारों के लाइसेंस दिलाने, किसी मामले में फँस जाने पर राहत दिलाने और मुख्यतः अवैध काग़जात को क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए मुहैया कराई जाती हैं। दुधारू गाय पहुँच जाएगी। उसका चारा भी कोई पहुँचा जाएगा और दूध भी दुहकर उसके घर पहुँच जाएगा। सिर्फ़ छह महीने के लिए उप-ज़िलाधिकारी रहे एक सज्जन ने मारूति ख़रीद ली। मंडी में जिन व्यापारियों की दुकानें हैं, उनमें से एक व्यापारी अपने तराज़ू के पल्ले के नीचे किलो का बटखरा चिपकाए हुए था। वह अधिकारियों का सबसे चहेता व्यापारी है। ये व्यापारी पूरे साल किसानों को खेती के लिए कर्ज़ देते हैं। बदले में किसान उन्हीं के यहाँ ग़ल्ला बेचता है। अनाज़ की क़ीमत में से क़र्ज़ और सूद काट लिए जाते हैं। उस व्यापारी ने अफ़सरों को मौज़ कराने के लिए क़स्बे में स्वीमिंग पूल बनवा रखा था। इसके अलावा पंजाब से आए लोगों में से भी बड़े किसान, पेट्रोल पम्प मालिक, ट्रैक्टर ट्रॉली के विक्रेता इत्यादि ऐसे लोग हैं जिनके घर अफ़सरों की आरामगाह हैं। अफ़सर को ये सब सुविधाएँ पासपोर्ट बनवाने, हथियारों के लाइसेंस दिलाने, किसी मामले में फँस जाने पर राहत दिलाने और मुख्यतः अवैध काग़जात को क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करने के लिए मुहैया कराई जाती हैं। जंगलात की ज़मीन के अलावा अन्य कई तरह की ज़मीनें हैं जिन पर अवैध क़ब्ज़ा बना हुआ है। मसलन, एक गौसदन है जिसके नाम चार सौ एकड़ ज़मीन है लेकिन इस पर अवैध कब्ज़ा है और इसके लिए अक़सर हत्याएँ भी होती रहती हैं। क्रमश: -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=13779603&key=H3Jm7i1MOi If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: हफ़्ताwar, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080728/639f955c/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Jul 29 13:08:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 29 Jul 2008 13:08:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KSu4KWI4KSo?= =?utf-8?b?LCDgpK7gpLngpL7gpK3gpL7gpLDgpKQg4KSF4KSV4KWH4KSy4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSW4KSo4KWHIOCkleClhyDgpJrgpYDgpJwg4KSl4KWL4KSh?= =?utf-8?b?4KS84KWHIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0807290038s5284164age74bee09f61fa100@mail.gmail.com> तो सास-बहू सीरियल को गरियाने के बाद मां एक बार फिर से टीवी देखने लग गयी है। रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा और जो भी धार्मिक सीरियल आने शुरु हुए हैं। मां ने अब से दस-बारह साल पहले जो कुछ देखा था, उसे याद करते हुए अब का अनुभव बताती है। उस समय मैं भी मां के साथ ही होता और साथ बैठकर देखता. मां बताती है कि जो मजा पहले रामायण देखने में आता था, अब वो बात नहीं है। भले टीवी सादा था उ भी कम भोलटेज से हनुमानजी तक हिलने लगते थे. एक ही घंटा में दू से तीन बार लैन चल जाता लेकिन एक अलग ढंग का मजा आता। मोहल्ले में कई लोगों ने सिर्फ रामायण देखने के लिए टीवी खरीदी थी। पापा के हिसाब से टीवी खरीदने का मतलब पैसा फंसाना था, सो लाख कहने पर टीवी नहीं खरीदी गयी. तभी रुपा ( बनियान बनानेवाली कंपनी ) ने कुछ ऑफर दिया कि इतने डिब्बे माल खरीदो तो ब्लैक एन व्हाइट टीवी मिल जाएगी और पापा ने ऐसा ही किया। हमारे घर टीवी आ गयी। मोहल्ले में कई रईस थे। उनके यहां भी लोग देखने जाते। एक तो उनके यहां टीवी रंगीन थी और दूसरा कि उनके यहां जेनरेटर की सुविधा थी। लेकिन वहां लोग हमारे घर में किसी तरह की मजबूरी हो जाने पर ही जाते। लोगों का कहना था कि वहां अपनापा जैसा नहीं लगता है. लगता है कि नौकर-चाकर हैं और आए हैं। घर का कोई भी आदमी जाने पर बात नहीं करता। शुरु-शुरु में एक-दो बार उस घर में लोगों को चाय मिली जिसे कि रागिनी दीदी की मां बकड़ी का मूत(बकरी का पेशाब) कहती। वहां लोगों को चिकने मोजाइक के फर्श पर बैठने को मिलता और हमारे घर में सीमेंट के पक्के पर। उपर से गर्मी इतनी लगती कि अब तो हमें चक्कर आने लगे लेकिन लोग मेरे यहां ही ज्यादा आते। कभी-कभी बैठने के लिए दरी कम पड़ जाती और मां धुले हुए बेडसीट निकालती तो मिथिलेश भैय्या की मां या फिर मीरा दीदी की मां हाथ पकड़ लेती। सीधा कहती- इ सब काहे करते हैं बहुरिया, हमलोग बाहर के थोड़े ही हैं औऱ जूट के बोरे पर बैठ जाती जो कभी-कभी गीला भी होता। मां उस दिन ग्वाले से खुशामद करके दो किलो दूध ज्यादा मंगाती जिसके लिए बाद में वो तैयार नहीं होता लेकिन एक दिन जब मैंने भी रविवार को सुबह नौ बजे रामायण देखने के लिए बिठा दिया तो अगली बार से लोगों को ज्यादा दूध मांगने पर साफ कह देता कि- नहीं है दूध, आज रमैण देखनेवालों के लिए जाएगा। तब रामायण देखना एक धार्मिक कार्य होता और देखनेवाले लोग समाज की नजर में ऑडिएंस होने के बजाय राम या हनुमान भक्त होते। इधर रामायण खत्म हुआ और उधर चाय छनने लग जाती. कोई स्टील के गिलास में, कोई टूटे कप में, कोई कटोरी में तो कोई मिट्टी के चुक्के में चाय का मजा लेने लग जाते। बाद मे मां ने जब एक ही साथ तीन दर्जन कप खरीदे तो कोई निकालने ही नहीं देता। सब कहते- इसको काहे निकाल रहे हैं, आनेजाने वालों के लिए रहने द, मत घोलटाओ. घोलटाने का मतलब झूठा करना। चाय-पीने के बाद सब बगीचे में लगे चापानल से अपना-अपना बर्तन धोकर मां को पकड़ा देते. बाद में तो महौल ऐसा जमा कि लोग अपने घर से कुछ-कुछ खाने का लाने लग गए। कोई मकुनी( सत्तू की पूडी) तो कोई चूडे की लिट्टी।. इस दौर में टीवी पर रामायण और महाभारत देखना एक बहाना भर होता। हमें इस पूरे प्रसंग में दो ही चीजें अच्छी लगती। एक तो विज्ञान को धत्ता बताकर आशीर्वाद में मिले एक तीर का राम के छोड़ते ही हजारों तीर में बदल जाना और दूसरा कि आनेवाले लोगों से घर में मजमे का लग जाना। कुछ लोग तो दोपहर तक रह जाते और एक-दो खाकर भी जाते। रविवार की यह सुबह पड़ोसियों से जुड़ने का एक बढ़िया बहाना होता। इसके बाद से लेकर अब तक टीवी से सामूहिक रुप से लोग कभी नहीं जुड़ पाए। तब टीवी बरामदे या फिर दालान में रखी जाती। अब तो बेडरुम में ऱखी जाने लगी है। कई घरों में तो एक कॉमन टीवी और बाकी अपने-अपने कमरों के लिए थोड़ी छोटी और अपनी-अपनी। तब टीवी पर्सनल एसेट नहीं हुआ करती। कुछ लोग बड़े साइज की इसलिए भी लेते कि पड़ोस के लोगों को देखने में परेशानी न हो. मां इन सब बातों को आज रामायण देखते हुए याद करती है और उसके साथ मैं भी। मैं मां को टीवी का एक बेहतर दर्शक मानता हूं इसलिए रिसर्च के साथ-साथ घर गृहस्थी के साथ-साथ कभी-कभी सिर्फ टीवी और रेडियो पर बात करने के लिए फोन करता हूं. आपको यकीन नहीं होगा, कल ही वोडाफोन का रिचार्ज कूपन १२० रुपये का भरवाया और अभ वैलेंस एक रुपये दस पैसे हैं। सारी बातें मां से टीवी पर होती रही। मां का कहना है कि- अब रमैन देखे में उ मजा थोड़े है। अकेले के चीज है ही नहीं। जब तक दस-बीस आदमी साथ नय देखे तब रामायण की। आज घर में रंगीन टीवी है, चौबीस घंटे बिजली भी। बेक्र में पीने के लिए फ्रीज में ऱखा जूस भी। लेकिन मां को रामायण देखने पर भी उससे पहले जैसा मजा नहीं आ रहा।... मां बताती है कि उसके कहने पर भाभी साथ में बैठ जाती है लेकिन थोड़ी देर चटने के बाद यह कहते हुए कि- मांजी खुशी के लिए दूध बनाना है, हल्के से कट लेती है। मां समझती है कि उन्हें धार्मिक सीरियल पसंद नहीं है और अफसोस जताती है- कहां से होगा अकिल-बुद्दि, बड़ा- छोटा के इज्जत करके लूर। जे बढ़िया चीज टीवी पर आता है उ नय देखके तलाक देखती है। इतना सब कहने के बाद मां करती है- आज के रामायण और महाभारत की समीक्षा। पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1670 Size: 11127 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080729/9fe7ef32/attachment-0001.bin From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jul 29 12:52:09 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Tue, 29 Jul 2008 12:52:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Nepal Vice President's Oath in Hindi whips up outcry Message-ID: <196167b80807290022g76ec2a59lb3b74dd34c3fab00@mail.gmail.com> Nepal Vice President's Oath in Hindi whips up outcry Nepal's new vice president Pramanand Jha took oath of office in Hindi on July 24. It is possible Jha was oblivious to the fact that his such move could unleash a tide of protests, condemnations and even slapping of a writ against him in the Nepalese Supreme Court to declare his election null and void on the ground that he had taken oath in Hindi, a foreign/Indian language. But we should not forget that Jha is not so naive that he would do something without weighing its pros and cons. Jha might be very much aware that his such move would offer an excuse to Maoists and their various subordinate organizations to raise a hue and cry against him dubbing him even a traitor. Actually, this is what is happening in Nepal. Yet wonderfully, the Nepalese vice president did so ruffling the hackles of the Maoists and their sympathizers. The question is why he should not have done so? Actually, his elevation to the august office despite his party Madhesi Janadhikar Manch being numerically peripheral in the current Constituent Assembly has given him a god send opportunity to assert his Madhesi identity. His taking oath in Hindi is indeed purported to vindicate his Madhesi identity which hardcore hegemonic minded Pahadi people can't swallow. This is why such turmoil is being witnessed in the country on such a tiny issue. The hegemonic minded Pahadi leaders/groups, not the entire Pahadi fraternity, is after the blood of Jha. Otherwise they could have easily ignored it. But such hegemonic penchant of some of the Pahadi groups is bound to hurt Madhesi sentiments. The turmoil lovers should not forget that Madhesi implicitly means part of the larger Indian cultural matrix which has nothing to do with Indian territorial/political identity. Same scenario prevails even in the context of the Hindi language which is not at all an Indian state language alone, but a language of the people belonging to the larger Indian cultural ethos or rather the Terai region which comprises southern Nepal and Gangetic India. Even in the Indian belt of West Bengal's northern region Nepali is the language of a million people. It does not mean that they are Nepalese citizens. Similarly, by taking oath in Hindi Jha does not become an Indian. So the ongoing uproar on the issue is totally frivolous. This actually tends to strengthen the notion that Maoists are resorting to such gimmicks only to conceal their defeat as a result of the genuine patriotic alliance among the NC, CPN (UML) and MJM. Their such protests and breasts beating only show their ethnic chauvinism which, if not bridled, would end up in retaliation from the Madhesi groups further deepening the crisis in the country. It is better that Maoists and other Pahadi leaders relinquish their old hegemonic hankerings and reconcile to the ground reality. The ground reality is that Hindi should not be treated as a pariah, but rather should be roped in to foster an authentic pluralistic linguistic culture in the country. Other regional and major ethnic languages must be also accorded dignified place in the country. PC Dubey Regards Ashish Kumar 'Anshu' www.ashishanshu.blogspot.com 09868419453 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080729/ae234b90/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Tue Jul 29 16:35:43 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 29 Jul 2008 16:35:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Nepal_Vice_Preside?= =?utf-8?q?nt=27s_Oath_in_Hindi_whips_up_outcry?= In-Reply-To: <8bdde4540807290403v2c2c0a28mffdc6ebded7bc0fa@mail.gmail.com> References: <196167b80807290022g76ec2a59lb3b74dd34c3fab00@mail.gmail.com> <8bdde4540807290403v2c2c0a28mffdc6ebded7bc0fa@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540807290405h1cc19f15y72ffbef93d1d8d8b@mail.gmail.com> On Tue, Jul 29, 2008 at 4:33 PM, Vijender chauhan < chauhan.vijender at gmail.com> wrote: > आशीषजी वो तो ठीक है पर नेपाली उपराष्‍ट्रपति तक हिन्‍दी में शपथ ले रहे हैं > जबकि आप हिन्‍दी लिस्‍ट तक पर अंग्रेजी में पोस्‍ट ठेल रहे हैं काहे ऐसा गजब कर > रहे हैं ? कहीं आपका इरादा रीडर लिस्‍ट पर पोस्‍िटंग का तो नहीं था ? > > विजेंद्र > > On Tue, Jul 29, 2008 at 12:52 PM, ashishkumar anshu < > ashishkumaranshu at gmail.com> wrote: > >> Nepal Vice President's Oath in Hindi whips up outcry >> >> >> >> Nepal's new vice president Pramanand Jha took oath of office in Hindi on >> July 24. It is possible Jha was oblivious to the fact that his such move >> could unleash a tide of protests, condemnations and even slapping of a writ >> against him in the Nepalese Supreme Court to declare his election null and >> void on the ground that he had taken oath in Hindi, a foreign/Indian >> language. >> >> But we should not forget that Jha is not so naive that he would do >> something without weighing its pros and cons. Jha might be very much aware >> that his such move would offer an excuse to Maoists and their various >> subordinate organizations to raise a hue and cry against him dubbing him >> even a traitor. Actually, this is what is happening in Nepal. >> >> Yet wonderfully, the Nepalese vice president did so ruffling the hackles >> of the Maoists and their sympathizers. The question is why he should not >> have done so? Actually, his elevation to the august office despite his party >> Madhesi Janadhikar Manch being numerically peripheral in the current >> Constituent Assembly has given him a god send opportunity to assert his >> Madhesi identity. His taking oath in Hindi is indeed purported to vindicate >> his Madhesi identity which hardcore hegemonic minded Pahadi people can't >> swallow. This is why such turmoil is being witnessed in the country on such >> a tiny issue. The hegemonic minded Pahadi leaders/groups, not the entire >> Pahadi fraternity, is after the blood of Jha. Otherwise they could have >> easily ignored it. >> >> But such hegemonic penchant of some of the Pahadi groups is bound to hurt >> Madhesi sentiments. The turmoil lovers should not forget that Madhesi >> implicitly means part of the larger Indian cultural matrix which has nothing >> to do with Indian territorial/political identity. Same scenario prevails >> even in the context of the Hindi language which is not at all an Indian >> state language alone, but a language of the people belonging to the larger >> Indian cultural ethos or rather the Terai region which comprises southern >> Nepal and Gangetic India. Even in the Indian belt of West Bengal's northern >> region Nepali is the language of a million people. It does not mean that >> they are Nepalese citizens. Similarly, by taking oath in Hindi Jha does not >> become an Indian. So the ongoing uproar on the issue is totally frivolous. >> This actually tends to strengthen the notion that Maoists are resorting to >> such gimmicks only to conceal their defeat as a result of the genuine >> patriotic alliance among the NC, CPN (UML) and MJM. >> >> Their such protests and breasts beating only show their ethnic chauvinism >> which, if not bridled, would end up in retaliation from the Madhesi groups >> further deepening the crisis in the country. It is better that Maoists and >> other Pahadi leaders relinquish their old hegemonic hankerings and reconcile >> to the ground reality. The ground reality is that Hindi should not be >> treated as a pariah, but rather should be roped in to foster an authentic >> pluralistic linguistic culture in the country. Other regional and major >> ethnic languages must be also accorded dignified place in the country. >> >> >> PC Dubey >> >> >> >> >> >> Regards >> >> >> >> Ashish Kumar 'Anshu' >> >> >> >> www.ashishanshu.blogspot.com >> >> 09868419453 >> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080729/faa5bcf6/attachment.html From ashishkumaranshu at gmail.com Tue Jul 29 17:57:00 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Tue, 29 Jul 2008 17:57:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?_Nepal_Vice_Presid?= =?utf-8?q?ent=27s_Oath_in_Hindi_whips_up_outcry?= In-Reply-To: <196167b80807290524k214e4f4fx16a30cd68b640994@mail.gmail.com> References: <196167b80807290022g76ec2a59lb3b74dd34c3fab00@mail.gmail.com> <8bdde4540807290403v2c2c0a28mffdc6ebded7bc0fa@mail.gmail.com> <196167b80807290524k214e4f4fx16a30cd68b640994@mail.gmail.com> Message-ID: <196167b80807290527u46c11168sedd850e45541ba8a@mail.gmail.com> विजेंद्र जी, मेरा मानना है, यदि कुछ जानकारी परक है तो उसे अधिक लोगों तक जाना चाहिए. यह लेख पत्रकार पी सी दुबे का लिखा हुआ है. अच्छा लगा इसलिए दीवान के पाठकों की सेवा मैंने हाजिर कर दिया. सोचा नहीं था, अपने अंगरेजी रूप के कारण यह किसी को आहत भी कर सकता है. वैसे आप चाहे तो इसका हिन्दी अनुवाद करके पुनः दीवान पर डाल सकते है. आशीष कुमार 'अंशु' 09868419453 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080729/592afe7c/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Wed Jul 30 02:06:20 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Tue, 29 Jul 2008 15:36:20 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <30870319.2223991217363780669.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// लोकतंत्र के चौथे खम्भे की क़ीमत दो बोरा चीनी है Posted: 29 Jul 2008 12:10 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/349174114/blog-post_3055.html अट्ठाइस कि.मी. इंग्लिश चैनल में कल आपने जेवरात और बंदुकों की अहमियत और उससे जुड़े कारनामों तथा पुवायां और शाहजहांपुर में अधिकारियों की मौज़ की कहानी़ पढ़ी. लीजिए इस आखिरी खेप में गोपाल प्रधान बता रहे हैं शाहजहांपुर और पुवायां में तीज-त्यौहारों का क्या महत्त्व है और शिक्षा का वहां के लिए क्या अर्थ है, शिक्षण संस्थान कौन-कौन से हैं और किस तरह वहां शैक्षणिक माहौल जिन्दा है. इस आखिरी हिस्से में गोपालजी पत्रकारिता और पत्रकारों और अधिकारियों के संबंधों समेत वहां की रोज़मर्रा से जुड़े कई अन्य तत्वों का भी खुलासा कर रहे हैं. तीज़-त्यौहार पूरे क़स्बे का माहौल उत्सवी है। हरेक दिन कोई न कोई धार्मिक विधि-विधान होता रहता है। रक्षाबन्धन के चार-पाँच दिनशाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप से ‘संवेदनशील’ जगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं। आगे-पीछे बसों में भयानक भीड़ होती है। तक़रीबन एक ज़िम्मेदारी की तरह बहनें अपने भाइयों को राखी बाँधने आती हैं। होली का तो हाल पूछिए मत। क़स्बे में पहली होली के चार दिन बाद पहुँचा तो सब कुछ सूना। सब्ज़ी भी नहीं मिलती। सभी होटल बंद। एक महीना पहले से ही सामने वाले दर्ज़ी महोदय की दुकान रात-रात भर खुली रहती थी। बताते हैं कुछ दुकानदारों की साल भर की आमदनी होली की कमाई ही होती है। ज़िला मुख्यालाय यानी शाहजहाँपुर आने पर एक अज़ीब रस्म का पता चला। शाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप से ‘संवेदनशील’ जगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं। एक साल बाद अभी गया तो मोबाइल फ़ोन जगह-जगह बज रहे थे। लेकिन बाक़ी सब जस का तस। गंगा स्नान एक स्थानीय पर्व है। ट्रैक्टरों में भर-भर कर लोग कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नहाने जाते हैं। पिछले साल रेलवे के ऊपर बने फ़्लाई ओवर से एक ट्रैक्टर ट्रॉली पलटकर सीधे नीचे सड़क पर आखर गिरी तो चार मौतें हो गईं। दर्ज़ियों की बात चली तो याद आया। पूरे शाहजहाँपुर में दर्ज़ी समुदाय की आबादी बहुत ज़्यादा है। प्रसिद्ध अभिनेता (रामगोपल वर्मा की फ़िल्मों वाले) राजपाल यादव इसी ज़िले के हैं। उन्होंने भी कभी दर्ज़ी बनने का प्रशिक्षण लिया था। दरअसल यहाँ एक प्रतिरक्षा वस्त्र कारख़ाना है। हरेक साल कुछेक युवक उसमें अप्रेन्टिसशिप करते हैं, जिन्हें बाद में जगह होने पर दर्ज़ी की नौकरी मिल जाती है। रियटायर होने के बाद या नौकरी न मिलने की सूरत में ये लोग दुकान खोल लेते हैं। अब्दुल हमीद रहने वाले गाज़ीपुर के थे। पाकिस्तान के साथ सन् 71 की जंग में वे मारे गए थे। दर्ज़ा 8 में शहीदों की जीवनियों के एक संग्रह में मैंने उनकी जीवनी पढ़ी थी। तब सैनिक बनने का सपना भी देखा था। उनके नाम पर शाहजहाँपुर में पुल देखा तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। पता चला कि वे भी दर्ज़ी समुदाय के थे इसलिए उनके नाम पर इक्कीसी समुदाय साला जलसा भी करता है। इस कारख़ाने में कभी समाजवादियों और वामपंथियों की यूनियन का दबदबा था। अब उसके नाम से राम लीला ही महत्त्वपूर्ण रह गयी है. लेकिन इसे भी कोई छोटी-मोटी चीज़ न समझें. ख़ुद राजपाल भी इसी की पैदाइश हैं. जगदीशचंद्र माथुर, भुवनेश्वर से अब तक यह परंपरा सुरक्षित है। शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है। ‘गाँधी भवन’ नामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं। नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है। ‘गाँधी भवन’ नामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं। इसके अतिरिक्त ‘स्पिक मैके’ की इकाई होने की वजह से शास्त्रीय संगीत भी लोगों को सुनने को मिल जाता है। ऑर्डिनेन्स क्लोनिंग फ़ैक्टरी के अलावा चीनी मिलें ही महत्त्वपूर्ण उद्योग हैं। हालाँकि ज़्यादातर चीनी मिलें सहकारिता क्षेत्र में हैं लेकिन सहकारिता के किसी भाव को जन्म देने के बजाए वे अधिकारियों की जेबें भरने का माध्यम हैं और घाटे में चल रही हैं। शिक्षा ज़िला मुख्यालय में एक पुराना अल्पसंख्यक महाविद्यालय गाँधी फ़ैजे आम कॉलेज है। इसके अलावा कुछ सनातनी धर्मगुरुओं द्वारा खोला गया स्वामी शुकदेवानंद कॉलेज भी है जिसके अध्यक्ष पूर्व गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद हैं। लड़कियों का एक डिग्री कॉलेज आर्यसमाजियों ने खओला है। तमाम कॉलेजों की प्रबंध समिति में झगड़ा-फ़साद चलता रहता है। अब से पहले किसी कॉलेज में छात्र संघ नहीं था और विद्यार्थियों के साथ प्राइमरी स्कूल जैसे अनुशासन के पक्षधर आम तौर पर अध्यापक हैं। ईसाई लोगों द्वारा स्थापित नेवटेक्निकल इंस्टीट्यूट है जिसके अध्यक्ष आशीष मैसी भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं। कॉलेजों के बाहर कुछ बेहतरीन पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं जिनमें एक हृदयेश हिन्दी कहानी में महत्त्वपूर्ण शख़्सियत हैं। 75 साल के ऊपर के होने के बावजूद सक्रिय हैं। सोने के पुराने व्यापारी श्याम किशोर सेठ हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका का संपादन किया करते थे। स्थानीय स्तर पर ज़िलाधिकारी के निज़ी सहायक चंद्रमोहन भी पढ़ते-लिखते रहते हैं। यही वह मंडली थी जिसके सहारे छह साल का जीवन चल सका। बाहर की आँख शायद ज़्यादा ही विशेषताओं पर ज़ोर देती है। मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरे मित्र पहले दोपहर में सोने की आदत पर मुझे गाली दिया करते थे। यहीं आकर मैंने देखा कि पुवायाँ या शाहजहाँपुर में मुझे दोपहर में सोता कोई नहीं दिखाई पड़ा। ‘दुकान मेरा मन्दिर’ का अर्थ भी यहीं समझा। हर कोई अपनी दुकान पर पूरी तरह फ़िट-फ़ाट होकर दिखाई पड़ता है। पूर्वी इलाक़ों में संयुक्त परिवार एक ऐसा आदर्श है जिसके न होने पर अफ़सोस आप हर किसी के मुँह से सुनिएगा। लेकिन इस इलाक़े में विवाह के बाद लड़के को पारिवारिक संपत्ति में उसका हिस्सा देकर अलग कर देना बुरा नहीं समझा जाता। एक हद तक व्यापारिक संस्कृति के हावी होने के कारण मेरे ट्यूशन न पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई मेरे ट्यूशन न पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम न करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा। शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम न करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा। इसे शाहजहाँपुर में जुगाड़ कहते है। इसे हँसी में लोग टेकनीक भी कहते हैं। तो जुगाड़/टेकनीक के काम करने का तरीक़ा कुछ इस तरह था। बैलगाड़ी में बैल की जगह डीज़ल इंजन लगाकर उसे चलाते हुए गाड़ी पर कुछ सामान लेकर लोग खेत तक जाते। फिर इंजन को कुएँ में लगाकर खेत में पानी पटाते और फिर उसी तरह वापस आ जाते। इसे वहाँ ‘मारूता’ कहते हैं। ‘मारूति’ का मर्दाना संस्करण। इसी से थोड़ी दूरी तक सवारियाँ भी किराए पर ढोई जातीं। कहते हैं देवेगौड़ा के ज़माने में इस टेकनीक के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सुना तो भारतीय प्रधानमंत्री से इसके निर्यात की गुज़ारिश की। देवेगौड़ा जी ने कहा कि उसी टेकनीक से तो मेरी सरकार चल रही है निर्यात कैसे करूँ। इस टेकनीक से सारे काम हो जाते हैं। ऐसा भरोसा यहाँ के लोगों को था। कॉलेज में ऐडमिशन हो चुके हैं। रास्ते में एक सज्जन नमस्कार कर ऐडमिशन के लिए पूछते हैं। बताता हूँ - ‘अब कोई संभावना नहीं है।’ ‘कोई जुगाड़ नहीं हो जाएगा?’ प्रश्न है। आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में आ गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं। फिर तो फ़ायरिंग का कम्पीटिशन होता है। कहते हैं कई लोग इसमें मारे भी जाते हैं। पुवायाँ और शाहजहाँपुर के व्यापारियों ने बताया कि शुरू-शुरू में कुछेक गाँवों के लोग दुकानों पर से ज़बर्दस्ती सामान उठा ले जाते थे। फिर व्यापिरयों ने दुकानों पर बतौर नौकर उन्ही गाँवों के दबंग लोगों के बच्चो को रखना शुरू किया। इसे ‘कुत्ता रखना’ भी कहा जाता है।आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में आ गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं। सूदखोरी यहाँ मुख्य धन्धा है। सूद पर रुपया चलाने वालों को पेशेवर लोग रुपया देते हैं 2.5 प्रतिशत छमाही के चक्रवृद्धि ब्याज पर। वे इसे बाक़ी क़र्ज़ माँगने वालों को 4 प्रतिशत छमाही चक्रवृद्धि ब्याज पर देते हैं बदले में गिरवी के बतौर कोई अभूषण रखा जाता है। इसे ही ‘गिरवी गाँठ’ कहते हैं। खेतों में फ़सलों के साथ उगने वाले खरपतवार को गुल्ली-डंडा कहा जाता है। ‘खरपतवार नाशक’ की बजाय ‘गुल्ली-डंडा से छुट्टी’। उलटने को ‘लौटना’ बोलते हैं। ‘दूध लौट दिया’। शाहजहाँपुर शहर के बीच एक सड़क खड़ी माँग की तरह आर-पार गुज़रती है। इसे नागार्जुन जी ‘सदा सुहागिन सड़क’ कहते थे। पत्रकारिता आम तौर पर क़स्बाई है। विज्ञापन लेने के लिए अफ़सरों के यहाँ पत्रकारों को घूमते-फिरते देखा जा सकता है। एक पत्रकार अपने पेशे के बल पर दो-दो अवैध जीपें चलवाते थे। एक पत्रकार के यहाँ क्रशर मालिक खांडसारी पहुँचाते थे। हमारे प्रिंसिपल कहते - लोकतंत्र के चौथे खम्भे की क़ीमत दो बोरा चीनी है। इसी में युवकों की भारी फ़ौज कॉलेजों से किसी तरह डिग्री हासिल करने के लिए कुंजियों और ट्यूशन के सहारे परीक्षा में उतरती है। असफल लोग नाटक में अपनी क़िस्मत आज़माते या फिर छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं। किसी दिन स्थिरता हासिल होगी इसी आशा से आपाधापी में लगे रहते और बूढ़े हो जाते हैं। शाहजहाँपुर के मेरे मित्र कुलदीप भागी के ज़िक्र के बगैर तो बात अधूरी रह जाएगी। शहर के आलीशान सिनेमा हॉल, निशात टॉकीज़ के मालिक श्री भागी फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पूना में पढ़े थे तथा शाहजहाँपुर में लगातार अपने स्तर के लोगों को बातचीत के लिए ढूँढ़ते रहते थे। बासु भट्टाचार्च की फ़िल्म तुम्हारा कल्लू में उन्होंने अभिनय भी किया था। इस वजह से उनका एक नाम कल्लू भी था। शाम को दारू पी लेते और चटनी से लेकर सिगार तक हर विषय पर बातचीत करने में सक्षम हो जाते। मेरे शुभाकांक्षी होने के नाते हमेशा मुझे शाहजहाँपुर छोड़ने की सलाह देते रहते। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय, वर्धा से अस्थायी नियुक्ति का पत्र मिलते ही मैंने उनकी इच्छा का समान किया और उत्तर आधुनिक समय में कूद पड़ा। वह कहानी फिर कभी। आभार: चन्दन शर्मा -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080729/fd458211/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Wed Jul 30 11:28:51 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 30 Jul 2008 11:28:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Nepal_Vice_Preside?= =?utf-8?q?nt=27s_Oath_in_Hindi_whips_up_outcry?= In-Reply-To: <196167b80807290527u46c11168sedd850e45541ba8a@mail.gmail.com> References: <196167b80807290022g76ec2a59lb3b74dd34c3fab00@mail.gmail.com> <8bdde4540807290403v2c2c0a28mffdc6ebded7bc0fa@mail.gmail.com> <196167b80807290524k214e4f4fx16a30cd68b640994@mail.gmail.com> <196167b80807290527u46c11168sedd850e45541ba8a@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0807292258s462df4f3je653d9ea5be51969@mail.gmail.com> मित्रों बस एक सफ़ाई-सी महसूस हुई देने की, लिहाज़ा ये हस्तक्षेप. दीवान सिर्फ और सिर्फ हिंदी में चर्चा करने का एक ऑनलाइन मंच है.ग़ैर हिन्दी भाषी सामग्री जब तक अत्यन्त दुर्लभ न हो तब तक दीवान पर न डालें तो ही अच्छा. शुक्रिया राकेश जब तक कोई दुर्लभ सामग्री न हो तब तक किसी और भाषा न 2008/7/29 ashishkumar anshu : > विजेंद्र जी, > मेरा मानना है, यदि कुछ जानकारी परक है तो उसे अधिक लोगों तक जाना चाहिए. यह > लेख पत्रकार पी सी दुबे का लिखा हुआ है. अच्छा लगा इसलिए दीवान के पाठकों की > सेवा मैंने हाजिर कर दिया. सोचा नहीं था, अपने अंगरेजी रूप के कारण यह किसी को > आहत भी कर सकता है. > वैसे आप चाहे तो इसका हिन्दी अनुवाद करके पुनः दीवान पर डाल सकते है. > > आशीष कुमार 'अंशु' > 09868419453 > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश