From kamal_bhu at rediffmail.com Sat Jan 5 12:34:32 2008 From: kamal_bhu at rediffmail.com (Kamal Kumar Mishra) Date: 5 Jan 2008 07:04:32 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?iso-8859-1?q?=5B=E0=A4=A6?= =?iso-8859-1?q?=E0=A5=80=E0=A4=B5=E0=A4=BE=E0=A4=A8=5D_Col=2E_R?= Message-ID: <20080105070432.4600.qmail@webmail17.rediffmail.com> Sanjay Bhai, Dina Nath Malhotra ji ne "Hind Pocket Books" series men sabse pahle col. Ranjeet ke jasoosi upanyason ko ,60 aur 70 ke dashkon men, Dilli se hi prakashit kiya tha.Baad ke daur men kai aur bhi prakashkon ne sambhavtah Meeruth se kuch upanyas prakashit kiye hain. yen upanyas ab asani se uplabdh nahin hain.Mumkin hai ke kisi premi-pathak ke paas aap ko inka zakhira mil zaye.Agar aap Dilli men rahte hain to ek baar Dariyaganj ja kar kuch purani pustakon ke vikretaon se bhi dariyaft kar sakte hain. kamal. On Thu, 03 Jan 2008 Sanjay wrote : >Kamal Kumar Ji ko Namaskar. > >Mein internet per Col. Ranjit ke upnyaas chaapne wale publishers dhoondh >raha thee ki aapki ye ( >http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/2006-May/000248.html ) post mere >haath lagi. Kya aap bata sakenge ki mein Col. Ranjit ke upanyaas kahan se >khareed sakta hoon. > >thanks/sanjay >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080105/264150b6/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Jan 5 14:18:01 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 5 Jan 2008 00:48:01 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSI4KSu4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KSm4KS+4KSwIOCkueCliOCkgiDgpIngpKbgpK8g4KSq4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KS2?= Message-ID: <829019b0801050048x5c376f1ds21a1910d545e806@mail.gmail.com> लेखक या साहित्यकार होने पर जिस किसी को भी सबसे अलग या फिर देवता किस्म के इंसान होने की खुशफहमी है, उन्हें लगता है कि वे औरों से हटकर हैं और उनकी धरती पर सप्लाय खास मकसद के लिए हुई उनको उदय प्रकाश की बात से परेशानी हो सकती है। उनकी बात उन्हें अनर्गल लग सकती है और ये भी हो सकता है कि उन्हें सेफ एक्टिविस्ट के रुप में समझा जाए जो क्रांति तो चाहता है लेकिन किसी भी तरह के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता। लेकिन जिस भी लेखक या रचनाकार को थोड़ा सा भी इस बात का एहसास है कि वो और लोगों की तरह ही पहले एक नागरिक है और उस पर भी कानून के डंडे और कानून की फटकार चल सकती है वो उदय प्रकाश को एक ईमानदार लेखक माने बिना नहीं रह सकता। वो रचनाकार होने के पहले एक जिम्मेदार और व्यवहारिक आदमी भी है। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि आमतौर रचना में लेखक जो कुछ भी लिखता है उससे लोगों के बीच उसकी छवि बनती है कि चाहे जो कुछ भी हो जाए, वो अपने मन की लिखेगा, कभी समझौते नहीं करेगा और न ही रचना प्रक्रिया के दौरान किसी की सुनेगा। लेकिन उदय प्रकाश ने कल सराय में हम पाठकों का जबाब देने के क्रम में साफ कर दिया कि वो भी हमारी तरह एक इंसान ही है और उस पर भी सत्ता की सारे नियम और शर्तें लागू होती है। ऐसे में जरुरी है कि वो बच-बचाकर चले। अब यह अलग बात है कि बचने-बचाने के चक्कर में लेखन एक इन्नोसेंट एक्टिविटी नहीं रह जाती लेकिन ये भी तो है कि रचनाकार अपने को देवता या उसका दूत होने का ढोल भी नहीं पीट रहा। ये पहले से कहीं ज्यादा ईमानदार स्थिति है। नहीं तो अभी तक मैंने यही देखा है कि बड़े से बड़ा आलोचक या साहित्यकार अपने को महान या समाज सुधारक बताने में जिंदगी झोंकने की बात करता आया है। जबकि सच्चाई ये नहीं रही। बच-बचाकर या फिर सत्ता के मिजाज के हिसाब से लिखने की परंपरा का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन उदय प्रकाश ने जब उदाहरणों के माध्यम से ये समझाना शुरु किया औऱ देश-विदेश के कई रचनाकारों की यातनाओं के संदर्भ बताए तो बात समझ में आ गयी कि वो वेवजह सत्ता या राजनीति का चारा नहीं बनना चाहते। और सही भी है कि हम पाठक तो चाहेंगे ही कि हमें अच्छी से अच्छी और कभी-कभी गुदगुदाने या रोमांचित कर देनेवाली रचना मिले लेकिन इसके एवज में लेखक को कितना कुछ झेलना पड़ सकता है इसकी चिंता हमें कहां है। अब लेखक शेखी न मारकर अपनी समझदारी के मुताबिक लिख रहा है तो इसमें गलत क्या है। उदयजी से जब मैंने ये सवाल किया कि अगर आपकी रचना को बतौर समाज विज्ञान के रेफरेंस के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो फिर आपको परेशानी क्यों है। उन्होंने इस बात का जबाब बिना कोई लाग-लपेट के दिया। उनका कहना है कि राजनीति या फिर दूसरे संदर्भों में रचना का इस्तेमाल इस तरीके से होता कि रचना का मतलब नहीं रह जाता। अगर हम यह समझें कि रचना को किसी वादों या सिद्धांतों के तहत फिट करने की कोशिश भर होती है और अक्सर इसके लिए रचनाकार को झेलना पड़ता है। बात-बात में पॉलिटिकली करेक्ट होने की बात ढूंधने से संवेदना के स्वर दब जाते हैं, जबकि रचना मानवीयता की तलाश और उसकी स्थापना है। तस्लीमा का उदाहरण देते हुए उदय प्रकाश रचना या फिर रचनाकार को तमाशा नहीं बनने देना चाहते। उनके हिसाब से इस व्यावहारिक समझ को सुविधावादी नजरिया या फिर सुरक्षित मानसिकता का लेखन कदापि नहीं माना जा सकता। ये उदय प्रकाश की स्थितियों के प्रति समझदारी हीं कहें कि वे हम पाठकों की वाहवही के चक्कर में अपने को हलाल नहीं होने देना चाहते। औऱ न ही उन मठों के सुर में सुर मिलाना चाहते हैं जो कि ये मानता आया है कि लेखन के नाम पर लेखक बड़ा ही महान काम कर रहा है और इस हिसाब से वो महान है। उदय प्रकाश की ये ईमानदारी साहित्य के बाबाओँ को चुनौती देने के लिए काफी है और उनकी ये अदा कि हम किसी के कहने से हलाल नहीं हो जाएंगे हमें दिवाना कर जाती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080105/dd2bcdc6/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Jan 6 23:31:08 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 6 Jan 2008 23:31:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSvIOCkleCkviDgpKbgpL/gpKgg4KSV4KS/4KSk4KSo4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KSwIOCkueCliCA6IOCkheCkqOClgeCkuOClguCkh+Ckr+CkviA=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KSo?= Message-ID: <363092e30801061001s7cb2a890s1d39b192e3da7ab1@mail.gmail.com> न्याय का दिन कितनी दूर है : अनुसूइया सेन *डॉ विनायक सेन की मां की अपील* 14 मई को रायपुर में पीयूसीएल के उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से उनकी जमानत की सारी कोशिशें विफल हुई हैं। हाल ही में उनकी माँ अनुसूइया सेन ने यह अपील जारी की है। देश में जिस तरह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं पर शासकीय प्रताड़ना बढ़ रही है, वह चिंताजनक है। यह अपील इस चिंता को भी सामने लाती है। मूल अंगरेजी में यह अपील कई (१ , 2) वेब साइटों पर मौजूद है और इसके कुछ हिस्से बिजनेस स्टैंडर्डमें छपे. प्रस्तुत है इसका हिन्दी अनुवाद। *अनुसूइया सेन * *मैं* एक ८० साल की औरत हूं. जब हम युवा थे, लोग कर्मयोगियों से प्रेरित रहते थे, जो देशभक्त थे, सेवा के आदर्शों से भरेपूरे, बुद्धिमान और गुणवान. हम अपने को गौरवान्वित महसूस करते अगर हम उनके पदचिह्नों पर चल सकते.मैं अब तक उस अन्याय और हिंसा की एक मूक दर्शक थी, जो आज के हमारे स्वतंत्र लोकतंत्र में व्याप्त है, लेकिन केवल इसलिए कि मैं निजी तौर पर इससे अछूती थी। लेकिन अब, एक उम्रदराज मां के बतौर, और घोर अन्याय के आघात से, मैं अपनी चुप्पी तोडना चाहती हूं. अपने दर्द में टूटी हुई ८१ साल की उम्र में, मैं आजाद, लोकतांत्रिक भारत के लोगों से एक विनम्र अपील करना चाहती हूं. आप में से अनेक संभवतः यह जानते होंगे कि मेरा बेटा डॉ विनायक सेन, घोर अन्याय का एक शिकार, आज जेल में है. चार साल की उम्र में वह अन्याय के सवालों के साथ दोचार था : क्यों वह लडका जो हमारे घर में हमारी मदद करता है, हमारे साथ खा नहीं ? क्यों वह किचेन के फर्श पर अकेले खाता ? क्यों वह हमारे साथ खाने पर नहीं बैठ ? वह २२ साल की उम्र में वेल्लोर के क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज से अपनी पहली मेडिकल डिग्री में डिस्टिंक्शन के साथ स्नातक बना, उसने इंग्लैंड जाकर एमआरसीपी का अध्ययन करने की अपने पिता की इच्छा को मानने से इनकार कर दिया। उसने जोर देकर कहा कि उसे अपने देश में लोगों का इलाज करने के लिए जितने ज्ञान की जरूरत है, उसे वह यहीं पा लेगा. उसने इसके बाद वेल्लोर से ही बाल रोग में एमडी किया और तब एक सहायक प्रोफेसर के बतौर जेएनयू गया, इस इच्छा के साथ कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य में पीएचडी करेगा. लेकिन उसने और देर बरदाश्त नहीं की. उसने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में फ्रेंड्स रूरल सेंटर द्वारा चलाये जा रहे टीबी शोध केंद्र और अस्पताल जाने के लिए जेएनयू का अपना एकेडमिक कार्य छोड दिया. यहाँ दो साल के बाद उसे छत्तीसगढ के किशोरों के बीच काम करने का अवसर मिला। वहाँ वह दिवंगत स्वतंत्र टेड यूनियनिस्ट शंकर गुहा नियोगी से जुडा और खुद को भिलाई कारखानों के दिहाडी मजदूरों और डल्ली राजहरा तथा नंदिनी के खदानों के खदान कर्मचारियों और उनके परिवारों की निस्स्वार्थ सेवा तथा गरीबों और उत्पीडित लोगों को उनकी सामाजिक बुराइयों से निजात पाने में उनके रोजमर्रा के संघर्षों में अनथक रूप से सहायता करने और उन्हें संगठित करने के काम में सौंप दिया. वहीं, शंकर गुहा नियोगी के छत्तीसगढ खदान श्रमिक संघ के साथ काम करते हुए, डॉ सेन ने इलाके के मजदूरों के लिए उन्हीं के द्वारा एक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की. कुछ ही सालों के भीतर यह २५ बिस्तरोंवाले एक हॉस्पिटल में विकसित हो गया. डॉ सेन ने तब यह हॉस्पिटल मजदूरों और कुछ डॉक्टरों-जो वहां उसके कामकाज से प्रेरित थे-की देखरेख में छोड दिया और वे रायपुर में अपनी पत्नी डॉ इलीना सेन के पास रूपांतर नाम का एक एनजीओ शुरू करने आ गये. यह संगठन सामुदायिक स्वास्थ्य, पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ खेती, महिलाओं की आत्मनिर्भरता में उनकी सहायता और बच्चों और वयस्कों की औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है. हर क्षेत्र में काम सफलतापूर्वक तेजी से चल रहा था. जब भाटागांव में चावल शोध केंद्र खुला, एक वैज्ञानिक ने अपने लेखन में डॉ सेन को एक किसान डॉ सेन्व के रूप में उद्धृत किया. डॉ सेन ने धमतरी और बस्तर के गांवों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भी खोले, खुद को मरीजों का इलाज करने और प्राथमिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए तथा उनके समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता फैलाने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों को प्रशिक्षित करने में लगा दिया. अनेक गांवों में प्राथमिक और वयस्क शिक्षा केंद्र खोले. डॉ सेन के उदाहरण से प्रेरित एम्स जैसे मशहूर मेडिकल संस्थानों के अनेक डॉक्टरों ने बिलासपुर में ऐसे ही स्वास्थ्य केंद्र खोलने के लिए अपना कमाऊ कैरियर और अपनी आरामदेह जीवनशैली छोड दी. ये केंद्र अब सफलतापूर्वक चल रहे हैं. रायपुर में रूपांतर के साथ काम करते हुए, डॉ सेन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) से इसके अखिल भारतीय उपाध्यक्ष तथा छत्तीसगढ के सचिव के बतौर जुडे. गरीबों और उत्पीडित लोगों के बीच अपना चिकित्सकीय कार्य करते हुए, जो कि पहले ही उनका सारा समय ले लेता था, वे अब बस्तर जिले के गरीब आदिवासियों के प्रति शासन के दुर्व्यवहारों से अवगत हुए, और उन्होंने सरकार प्रायोजित सलवा जुडूम आंदोलन का विरोध किया, जिसने कि आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ खङा कर दिया. शासन ने गरीबों की तरफ से किये जा रहे उनके विरोधों पर कोई दया नहीं दिखायी. जब रायपुर सेंटल जेल में बंद एक उम्रदराज और बीमार कैदी के भाई ने डॉ सेन से उसके भाई से मिलने और उनका इलाज करने को कहा, डॉ सेन ने जेल अधिकारियों की अनुमति से ऐसा किया. इस तथ्य ने कि कैदी नक्सली था, शासन को १४ मई, २००७ को राज्य लोक सुरक्षा अधिनियम के तहत डॉ सेन को गिरफ्तार करने और जेल में डालने का अवसर दे दिया. एक देशभक्त, जिसने कि अपना पूरा पेशेवर जीवन गरीब लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था-उसके खुद के कॉलेज द्वारा उन्हें दिये गये पॉल हैरिसन अवार्ड से साभार-वही आदमी आज जेल में था, एक आतंकवादी होने और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने के आरोपों के तहत. जब छत्तीसगढ उच्च न्यायालय ने डॉ सेन की जमानत याचिका को खारिज कर दिया, उनकी पत्नी डॉ इलीना सेन ने उच्चतम न्यायालय में अपील की. जमानत याचिका की सुनवाई की तारीख सोमवार, १० दिसंबर, २००७ तय हुई.एक सीनियर और एक जूनियर जज का एक खंडपीठ जमानत की अपील पर सुनवाई के लिए नियुक्त हुआ. बाद में एक दूसरे जूनियर जज ने पहले की जगह ले ली. आठ दिसंबर को, छत्तीसगढ सरकार ने एक खंडपीठ के एक सीनियर सदस्य को रायपुर में एक कानूनी सहायता केंद्र के उद्धाटन समारोह के लिए मुख्य अतिथि के बतौर आमंत्रित किया और उनकी खातिरदारी नौ दिसंबर तक जारी रखी, जब तक कि सीनियर जज नयी दिल्ली लौटे. उसके अगले ही दिन खंडपीठ ने डॉ विनायक सेन की जमानत याचिका को महज ३५ मिनटों में खारिज कर दिया. यहां, किसी की ईमानदारी पर बिना किसी संदेह या आक्षेप के, मैं विनम्रतापूर्वक आजाद और लोकतांत्रिक भारत की जनता और आदरणीय नेताओं के लिए अपने सवाल रखना चाहती हूं : क्या मुझे जमानत याचिका खारिज होने को न्याय मानना चाहिए, ऐसे आदमी की जमानत याचिका जो अन्याय के कारण बचपन में इस ओर मुडा, जिसने अपना पूरा कामकाजी जीवन निस्स्वार्थ भाव से गरीबों को भोजन और स्वास्थ्य मुहैया कराने के लिए सौंप दिया, जिसने दौलत की लालच के बगैर अपने दिन दाल, रोटी और हरी मिर्चों पर गुजारे, जो गरीबों की तरह जीवन जीने का आदी हो गया, जिसने अपना जीवन इस देश के लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया और जो अब सार्वजनिक सुरक्षा में सेंध लगाने और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने का अपराधी ? यह न्याय है, तो मुझे अन्याय से मुक्ति के लिए कहां जाना ? क्या मुझे इस उम्र में भी अन्याय का पीडित बने रहना ? निस्स्वार्थ, बुद्धिमान, गुणवान, विनम्र, शांतिप्रिय कर्मयोगी, सेवाभावना से पूरी तरह प्रेरित और गरीबों के बीच रहनेवाले मेरे इस बेटे को क्या अपने दिन जेल में गुजारने ? यह अपील पढनेवाले सभी हमदर्द लोगों से मेरा सवाल है : डॉ विनायक सेन के लिए वह दिन और कितनी दूर है, जब उसे न्याय हासिल ? सवाल सिर्फ मेरा और मेरे बेटे का नहीं, बल्कि उन सभी माओं की तरफ से भी है, जिनके बेटे अन्याय भुगत रहे हैं. क्या न्याय हमारे आजाद और लोकतांत्रिक देश में इतना दुर्लभ है ? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080106/3d400e81/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Sun Jan 6 23:31:08 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 6 Jan 2008 23:31:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KSvIOCkleCkviDgpKbgpL/gpKgg4KSV4KS/4KSk4KSo4KWAIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWC4KSwIOCkueCliCA6IOCkheCkqOClgeCkuOClguCkh+Ckr+CkviA=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KSo?= Message-ID: <363092e30801061001s7cb2a890s1d39b192e3da7ab1@mail.gmail.com> न्याय का दिन कितनी दूर है : अनुसूइया सेन *डॉ विनायक सेन की मां की अपील* 14 मई को रायपुर में पीयूसीएल के उपाध्यक्ष डॉ विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से उनकी जमानत की सारी कोशिशें विफल हुई हैं। हाल ही में उनकी माँ अनुसूइया सेन ने यह अपील जारी की है। देश में जिस तरह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं पर शासकीय प्रताड़ना बढ़ रही है, वह चिंताजनक है। यह अपील इस चिंता को भी सामने लाती है। मूल अंगरेजी में यह अपील कई (१ , 2) वेब साइटों पर मौजूद है और इसके कुछ हिस्से बिजनेस स्टैंडर्डमें छपे. प्रस्तुत है इसका हिन्दी अनुवाद। *अनुसूइया सेन * *मैं* एक ८० साल की औरत हूं. जब हम युवा थे, लोग कर्मयोगियों से प्रेरित रहते थे, जो देशभक्त थे, सेवा के आदर्शों से भरेपूरे, बुद्धिमान और गुणवान. हम अपने को गौरवान्वित महसूस करते अगर हम उनके पदचिह्नों पर चल सकते.मैं अब तक उस अन्याय और हिंसा की एक मूक दर्शक थी, जो आज के हमारे स्वतंत्र लोकतंत्र में व्याप्त है, लेकिन केवल इसलिए कि मैं निजी तौर पर इससे अछूती थी। लेकिन अब, एक उम्रदराज मां के बतौर, और घोर अन्याय के आघात से, मैं अपनी चुप्पी तोडना चाहती हूं. अपने दर्द में टूटी हुई ८१ साल की उम्र में, मैं आजाद, लोकतांत्रिक भारत के लोगों से एक विनम्र अपील करना चाहती हूं. आप में से अनेक संभवतः यह जानते होंगे कि मेरा बेटा डॉ विनायक सेन, घोर अन्याय का एक शिकार, आज जेल में है. चार साल की उम्र में वह अन्याय के सवालों के साथ दोचार था : क्यों वह लडका जो हमारे घर में हमारी मदद करता है, हमारे साथ खा नहीं ? क्यों वह किचेन के फर्श पर अकेले खाता ? क्यों वह हमारे साथ खाने पर नहीं बैठ ? वह २२ साल की उम्र में वेल्लोर के क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज से अपनी पहली मेडिकल डिग्री में डिस्टिंक्शन के साथ स्नातक बना, उसने इंग्लैंड जाकर एमआरसीपी का अध्ययन करने की अपने पिता की इच्छा को मानने से इनकार कर दिया। उसने जोर देकर कहा कि उसे अपने देश में लोगों का इलाज करने के लिए जितने ज्ञान की जरूरत है, उसे वह यहीं पा लेगा. उसने इसके बाद वेल्लोर से ही बाल रोग में एमडी किया और तब एक सहायक प्रोफेसर के बतौर जेएनयू गया, इस इच्छा के साथ कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य में पीएचडी करेगा. लेकिन उसने और देर बरदाश्त नहीं की. उसने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में फ्रेंड्स रूरल सेंटर द्वारा चलाये जा रहे टीबी शोध केंद्र और अस्पताल जाने के लिए जेएनयू का अपना एकेडमिक कार्य छोड दिया. यहाँ दो साल के बाद उसे छत्तीसगढ के किशोरों के बीच काम करने का अवसर मिला। वहाँ वह दिवंगत स्वतंत्र टेड यूनियनिस्ट शंकर गुहा नियोगी से जुडा और खुद को भिलाई कारखानों के दिहाडी मजदूरों और डल्ली राजहरा तथा नंदिनी के खदानों के खदान कर्मचारियों और उनके परिवारों की निस्स्वार्थ सेवा तथा गरीबों और उत्पीडित लोगों को उनकी सामाजिक बुराइयों से निजात पाने में उनके रोजमर्रा के संघर्षों में अनथक रूप से सहायता करने और उन्हें संगठित करने के काम में सौंप दिया. वहीं, शंकर गुहा नियोगी के छत्तीसगढ खदान श्रमिक संघ के साथ काम करते हुए, डॉ सेन ने इलाके के मजदूरों के लिए उन्हीं के द्वारा एक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की. कुछ ही सालों के भीतर यह २५ बिस्तरोंवाले एक हॉस्पिटल में विकसित हो गया. डॉ सेन ने तब यह हॉस्पिटल मजदूरों और कुछ डॉक्टरों-जो वहां उसके कामकाज से प्रेरित थे-की देखरेख में छोड दिया और वे रायपुर में अपनी पत्नी डॉ इलीना सेन के पास रूपांतर नाम का एक एनजीओ शुरू करने आ गये. यह संगठन सामुदायिक स्वास्थ्य, पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ खेती, महिलाओं की आत्मनिर्भरता में उनकी सहायता और बच्चों और वयस्कों की औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है. हर क्षेत्र में काम सफलतापूर्वक तेजी से चल रहा था. जब भाटागांव में चावल शोध केंद्र खुला, एक वैज्ञानिक ने अपने लेखन में डॉ सेन को एक किसान डॉ सेन्व के रूप में उद्धृत किया. डॉ सेन ने धमतरी और बस्तर के गांवों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भी खोले, खुद को मरीजों का इलाज करने और प्राथमिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए तथा उनके समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता फैलाने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों को प्रशिक्षित करने में लगा दिया. अनेक गांवों में प्राथमिक और वयस्क शिक्षा केंद्र खोले. डॉ सेन के उदाहरण से प्रेरित एम्स जैसे मशहूर मेडिकल संस्थानों के अनेक डॉक्टरों ने बिलासपुर में ऐसे ही स्वास्थ्य केंद्र खोलने के लिए अपना कमाऊ कैरियर और अपनी आरामदेह जीवनशैली छोड दी. ये केंद्र अब सफलतापूर्वक चल रहे हैं. रायपुर में रूपांतर के साथ काम करते हुए, डॉ सेन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) से इसके अखिल भारतीय उपाध्यक्ष तथा छत्तीसगढ के सचिव के बतौर जुडे. गरीबों और उत्पीडित लोगों के बीच अपना चिकित्सकीय कार्य करते हुए, जो कि पहले ही उनका सारा समय ले लेता था, वे अब बस्तर जिले के गरीब आदिवासियों के प्रति शासन के दुर्व्यवहारों से अवगत हुए, और उन्होंने सरकार प्रायोजित सलवा जुडूम आंदोलन का विरोध किया, जिसने कि आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ खङा कर दिया. शासन ने गरीबों की तरफ से किये जा रहे उनके विरोधों पर कोई दया नहीं दिखायी. जब रायपुर सेंटल जेल में बंद एक उम्रदराज और बीमार कैदी के भाई ने डॉ सेन से उसके भाई से मिलने और उनका इलाज करने को कहा, डॉ सेन ने जेल अधिकारियों की अनुमति से ऐसा किया. इस तथ्य ने कि कैदी नक्सली था, शासन को १४ मई, २००७ को राज्य लोक सुरक्षा अधिनियम के तहत डॉ सेन को गिरफ्तार करने और जेल में डालने का अवसर दे दिया. एक देशभक्त, जिसने कि अपना पूरा पेशेवर जीवन गरीब लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था-उसके खुद के कॉलेज द्वारा उन्हें दिये गये पॉल हैरिसन अवार्ड से साभार-वही आदमी आज जेल में था, एक आतंकवादी होने और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने के आरोपों के तहत. जब छत्तीसगढ उच्च न्यायालय ने डॉ सेन की जमानत याचिका को खारिज कर दिया, उनकी पत्नी डॉ इलीना सेन ने उच्चतम न्यायालय में अपील की. जमानत याचिका की सुनवाई की तारीख सोमवार, १० दिसंबर, २००७ तय हुई.एक सीनियर और एक जूनियर जज का एक खंडपीठ जमानत की अपील पर सुनवाई के लिए नियुक्त हुआ. बाद में एक दूसरे जूनियर जज ने पहले की जगह ले ली. आठ दिसंबर को, छत्तीसगढ सरकार ने एक खंडपीठ के एक सीनियर सदस्य को रायपुर में एक कानूनी सहायता केंद्र के उद्धाटन समारोह के लिए मुख्य अतिथि के बतौर आमंत्रित किया और उनकी खातिरदारी नौ दिसंबर तक जारी रखी, जब तक कि सीनियर जज नयी दिल्ली लौटे. उसके अगले ही दिन खंडपीठ ने डॉ विनायक सेन की जमानत याचिका को महज ३५ मिनटों में खारिज कर दिया. यहां, किसी की ईमानदारी पर बिना किसी संदेह या आक्षेप के, मैं विनम्रतापूर्वक आजाद और लोकतांत्रिक भारत की जनता और आदरणीय नेताओं के लिए अपने सवाल रखना चाहती हूं : क्या मुझे जमानत याचिका खारिज होने को न्याय मानना चाहिए, ऐसे आदमी की जमानत याचिका जो अन्याय के कारण बचपन में इस ओर मुडा, जिसने अपना पूरा कामकाजी जीवन निस्स्वार्थ भाव से गरीबों को भोजन और स्वास्थ्य मुहैया कराने के लिए सौंप दिया, जिसने दौलत की लालच के बगैर अपने दिन दाल, रोटी और हरी मिर्चों पर गुजारे, जो गरीबों की तरह जीवन जीने का आदी हो गया, जिसने अपना जीवन इस देश के लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया और जो अब सार्वजनिक सुरक्षा में सेंध लगाने और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने का अपराधी ? यह न्याय है, तो मुझे अन्याय से मुक्ति के लिए कहां जाना ? क्या मुझे इस उम्र में भी अन्याय का पीडित बने रहना ? निस्स्वार्थ, बुद्धिमान, गुणवान, विनम्र, शांतिप्रिय कर्मयोगी, सेवाभावना से पूरी तरह प्रेरित और गरीबों के बीच रहनेवाले मेरे इस बेटे को क्या अपने दिन जेल में गुजारने ? यह अपील पढनेवाले सभी हमदर्द लोगों से मेरा सवाल है : डॉ विनायक सेन के लिए वह दिन और कितनी दूर है, जब उसे न्याय हासिल ? सवाल सिर्फ मेरा और मेरे बेटे का नहीं, बल्कि उन सभी माओं की तरफ से भी है, जिनके बेटे अन्याय भुगत रहे हैं. क्या न्याय हमारे आजाद और लोकतांत्रिक देश में इतना दुर्लभ है ? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080106/3d400e81/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Mon Jan 7 10:37:21 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 6 Jan 2008 21:07:21 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSu4KS+4KSW?= =?utf-8?b?4KWL4KSw4KWAIOCkuOClgOCkluCkvuCkpOCkviDgpI/gpJUg4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSc4KWN4KSe4KS+4KSq4KSo?= Message-ID: <829019b0801062107j2a3141fbq237193172594732@mail.gmail.com> आजकल आपने देखा होगा टीवी पर कि एक बंदा एक या दो किलो प्याज खरीदने जाता है और अचानक उसे सत्य का ज्ञान हो जाने पर स्टोर की पूरी प्याज खरीदने लगता है। लोग उसे पहले तो थोड़ा अचरज से देखते हैं कि अच्छा भला आदमी कैरियर को ठेले के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है और एक भी प्याज नहीं रहने दे रहा। उस बंदे को भी पता है कि जितनी प्याज वो ले जा रहा है उसकी खपत बहुत जल्दी नहीं होने वाली और हम जैसे लोगों के लिए तो रखने की भी समस्या हो सकती है । लेकिन बंदे को जो सत्य का ज्ञान हो आया है उसका क्या करे। आप पूछेंगे नहीं कि इस बंदे को सत्य का ज्ञान किसने दिया। मैं बताता हूं- वोडाफोन ने, वोडाफोन ने, वोडाफोन ने। वोडाफोन का कोई 31 रुपये का कार्ड है, शायद, दाम में थोड़ी गड़बड़ी हो सकती है। लेकिन बात ये है कि आप उसके इस्तेमाल करने पर जान सकते हैं कि कौन-सी चीजें सस्ती होनेवाली है और कौन- सी मंहगी। यानि कि वोडाफोन आपको बताएगा बाजार की हलचलें। है न आपका जेब का दोस्त। लेकिन फोन करके मेरी मां बता रही थी कि- इ बढ़िया बात थोडे है कि सरकार लोग कहता है जमाखोरी मत करो, जितने से काम चलता है उतना ही अपने घर या दूकान में सामान रखो और इ वोडफोन हमको जमाखोरी सीखा रहा है। टीवी देखके बड़ी मुश्किल से तो इ आदत छूटा था और अब फिर से लगा रहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080106/65210573/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Jan 7 15:27:18 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 7 Jan 2008 15:27:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpKjgpY3gpKbgpYA=?= Message-ID: <200801071527.18376.ravikant@sarai.net> दीवानो, हिन्दी भाषा - इसके इतिहास, इसकी राजनीति, आदि पर बहस तो हमेशा से गरमागरम ही होती आई है, पर हाल के महीनों में, इसने बेहतर और वृहत्तर आयाम लिए हैं, जिसमें सुधीश पचौरी के संपादन में वाक नामक नए विमर्शों की पत्रिका का भी योगदान है. इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पेश है रविवार डॉट कॉम में छपा नीरज अग्रवाल का आलेख - जिसकी हृदयछू सरलता और सारगर्भिता आपको शायद भली लगे. बहस का निमंत्रण तो मूल पाठ में है ही. अस्तु. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: हिन्दी में बिन्दी Date: सोमवार 07 जनवरी 2008 12:43 From: neeraj agrawal To: ravikant at sarai.net, deewan at sarai.net हिन्दी में बिन्दी एक फुटबॉल बन गयी डॉ. परिवेश मिश्र मेरे 86 वर्षीय पिताजी की उम्र जैसे जैसे बढ़ी, आने वाले पत्रों और मुलाकातियों की संख्या कम होती चली गयी. परिचित और मित्र कम होने लगे. मैंने कुछ वर्ष पूर्व उन्हे इंटरनेट से परिचित करायातब से यह सुनिश्चित करना भी मेरी ज़िम्मेदारी हो गयी कि जब वे कम्प्यूटर पर जाएं तो हर बार मेल-बॉक्स खाली न पाएं. पिछले महिने मेरी मां का देहावसान हुआ. तब से उन्हे व्यस्त रखना और आवश्यक हो गया है. नेट से रोचक समाचार ढूंढ़ कर उन्हे फॉरवर्ड करता रहता हूं. नियमित पत्र लिखना दूसरी आदत बनी है. ऐसा ही एक पत्र बिना काट-छांट के यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. इससे चर्चा शुरू करने का शायद एक बहाना बने. पूज्य चच्चाजी 15.12.2007 सादर प्रणाम, यह पत्र कम्प्यूटर पर आप के लिए टाईप किया है. आप नही कर पाते हैं क्योंकि आपके कम्प्यूटर में हिन्दी के फॉन्ट लोड नहीं हैं. आज की तारीख़ तो लिख दी पर यह जाएगा उसी दिन, जब इन्टरनेट कनेक्ट होगा. अंग्रेजी को ध्यान में रखकर ईज़ाद की गई टाईपिंग मशीन पर हिन्दी के लिए देवनागरी लिपि का उपयोग काफी पहले प्रारम्भ हो गया था. हिन्दी में दस्तावेज़ों की टायपिंग आदि के अलावा हिन्दी समाचार पत्रों के लिए टेलेक्स से बड़ी मात्रा में टाईपिंग मशीन के इसी उपयोग के द्वारा समाचारों के प्रेषण का कार्य हुआ. बाद में, सन् 1967 में इन्दौर का ‘नई दुनिया’ भारत का, किसी भी भाषा में छपने वाला, पहला ऐसा समाचार पत्र बना जिसने अपनी छपाई के लिए ऑफसेट मशीन तथा साथ में फोटोकम्पोज़िंग तकनीक का उपयोग किया. फोटोकम्पोज़िंग तकनीक, जैसा कि आप जानते ही हैं, पारम्परिक कम्पोज़िंग से सिर्फ इतना ही अलग थी कि छपाई के लिए अक्षरों (पहले टाईप-फेस कहते थे, जब से कम्प्यूटर आया है, फॉन्ट शब्द चलता है) को जहां पहले एक-एक कर हाथ से उठाकर कम्पोज़िंग मशीन में नियत स्थान पर रखा जाता था, वहीं फोटोकम्पोज़िंग तकनीक में सारी कम्पोज़िंग कम्प्यूटर-स्क्रीन पर टायपिंग के द्वारा की जाती है. इससे सारा काम न केवल बहुत जल्दी होने लगा बल्कि और भी फायदे हुए. पारम्परिक टायपिंग मशीन में उतने ही अक्षर या शब्द-प्रकार डाले जा सकते थे, जितने की अनुमति मशीन के भीतर का सीमित स्थान देता था. किन्तु कम्प्यूटर में स्थान की समस्या नही रही. इसमें पारम्परिक की-बोर्ड के अतिरिक्त अंकों (नम्बर्स) का उपयोग कर असीमित कॉम्बिनेशन्स के द्वारा अक्षर और चिन्ह प्राप्त किए जा सकते हैं. कुछ उदाहरण के लिए- क्र कृ क्क ड्क क्त क्र रु रू हृ ह्न ह्म ह्व द्व ह्न ध् द्र द्ग द्द ध्द द्ध ञ् लृ ट्ट ट्ठ ढ न्न य ञ् झ् ढ्ढ ङ्ढ ड्ड ड्ण ङ ड्ण फ्र ॠ ऋ स्र स्त्र ॐ ऽ ऑं आदि आदि... हिन्दी टायपिंग दरअसल हिन्दी प्रेस से विकसित हो कर बाहर निकली थी. भारत में हिन्दी में छपाई का इतिहास कोई सन् 1800 के आसपास से ही मिलता है. यह एक विवाद का विषय हो सकता है पर मुझे लगता है यदि कम्प्यूटर पर हिन्दी टायपिंग का प्रवेश कुछ दशकों पहले हो जाता तो कम से कम दो महत्वपूर्ण बातें होतीं. एक तो हिन्दी के स्थान पर, जैसा कि महात्मा गांधी चाहते थे, हिन्दुस्तानी का प्रयोग और प्रचलन बढ़ा होता. हिन्दी और उर्दू के बीच दूरी कम होती. दूसरा, हिन्दी भाषियों को उर्दू के लफ्ज़ों के उच्चारण को ले कर परेशानियां कम हो पातीं. ताज़महल-ताजमहल, जज़्बात-जज्बात, ज़िन्दगी-जिन्दगी, इज्ज़त-इज्जत जैसे शब्द परेशानी का सबब नही बनते. विशेषकर रेडियो के उद्घोषकों को सहायता मिली होती. जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है उस रूप में हिन्दी का विकास उन्नीसवीं सदी के साथ-साथ प्रारम्भ हुआ. दरअसल भारत में हिन्दी एक भाषा न हो कर अनेक बोलियों का समूह थी. जनता के बीच अनेक स्वरूपों में खड़ी बोली प्रयुक्त होती थी तो कवियों की भाषा ब्रज थी. सन् 1830 के आस-पास भारत में पहले हिन्दी समाचार पत्र के छपने की जानकारी है. छपाई के साथ साथ टाईप फेस या फॉन्ट की, व्याकरण की, और कुल मिला कर, मानकीकरण (Standardisation) की ज़रूरत सामने आयी. स्वतंत्रता की लड़ाई के दिनों में हिन्दी देशवासियों को आपस में बांधे रखने वाला धागा थी. अनेक बोलियों के रूप में बिखरे अंगों को कहीं पास ला कर तो कहीं जोड़ कर हिन्दी को एक ऐसा स्वरूप जो कि एक-रूप शरीर जैसा हो; देने की कोशिश उस समय के राजनैतिक माहौल तथा उन दिनों के हिन्दी समाचार पत्रों ने की. पारम्परिक रूप से आज़ादी से पहले तक भारत में हिन्दी का स्वरूप धर्म से कभी जुड़ा नहीं रहा. पर बाद में यह भाषा देश के विभाजन की राजनीति का शिकार बन गयी. नेशनलिस्ट ताकतों ने इसका हिन्दुत्वीकरण कर दिया. हालांकि यह प्रक्रिया पहले प्रारम्भ हो चुकी थी. 1930 में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने काशी से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'अभ्युदय 'में एक चर्चित लेख लिखा था - हिन्दी में बिन्दी क्यों. ज को ज़ बना देने वाली एक छोटी-सी बिन्दी अचानक उर्दू और हिन्दी तथा परदे के पीछे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच चल रहे महायुद्ध में बीचों बीच पंहुच गयी. फुटबॉल वर्ल्ड कप की कल्पना कीजिए. हज़ारों-लाखों लोगों की उत्तेजक चीख पुकार के बीच टीमें अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की कोशिश में जो भी प्रयास करें, किक फुटबॉल ही पाती है. हिन्दी भाषा में उर्दू के स्वर पैदा करने की कोशिश करती बिन्दी ऐसी ही एक फुटबॉल बन गयी. 'हिन्दी में बिन्दी क्यों?' यह नारा हिन्दी छापेखानों के उन कम्पोज़ीटरोंके लिए अपनी कमी छिपाने के लिए रक्षाकवच बन गया, जो तकनीकी कारणों से अक्षरों के नीचे बिन्दी नही लगा पाते थे. प्रूफ-रीडिंग करने वाले उन सम्पादकों के लिए भी जो उतने अच्छे भाषाविद् नहीं थे, जितने अच्छे पत्रकार. कुछ पत्रकारों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएं भी कारण बनीं बिन्दी की उपेक्षा की. जहां एक ओर उर्दू में समझाया गया कि नुक्ते में जरा सी हेरा-फेरी हो जाए तो ख़ुदा ज़ुदा हो जाता है, वहीं दूसरी ओर हिन्दी वाले यह साबित करने में जुट गए कि बिन्दी के बिना भी भाषा का अस्तित्व है. और फिर एक के बाद एक पीढ़ियां निकलती चली गयीं, ऐसे अनेक शब्दों से परिचय पाए बिना जो रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा थे. विभाजन ने हिन्दी को हिन्दुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा का लेबल देने वालों के प्रयासों को बल दिया. हिन्दी का हिन्दुत्वीकरण होने लगा. उर्दू वाले उर्दू में फारसी के शब्द डालने लगे तो रघुवीर (कमेटी) जैसे लोग ढूंढ़ ढूंढ़ कर संस्कृत पर्यायवाची इज़ाद करने में जुट गए. रेल के लिए लौह-पथ-गामिनी, रेल सिग्नल के लिए गमनागमन सूचक ताम्र-लौह पट्टिका, सिग्नल के लिए श्वेत धम्रपान-दंडिका, लॉन टेनिस के लिए घासीय गेंद बल्ला मुठभेड़ तथा रूमाल के लिए मुख प्रच्छलन वस्त्र चीर जैसे शब्द सालों तक चुटकुलों के रूप में हमने आप से ही सुने हैं. जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है, उसमें आते तक समय-समय पर अनेक स्रोतों से योगदान मिला है. पंडितों की भाषा से उठाकर इसे एक ऐसी भाषा के रूप में स्थापित करने में, जिसे अभिजात्य और सामान्य दोनो वर्गों की समान स्वीकार्यता प्राप्त हो; हिन्दी पत्रकारिता ने बड़ा योगदान किया है. हिन्दी पत्रकारिता के पितृपुरूष माने जाने वाले बाबूराव विष्णु पराडकर से व्याकरण तथा शब्द एवं वाक्य संयोजन की व्यवस्था के अतिरिक्त मिस्टर के स्थान पर श्री तथा राष्ट्रपति (मैं ष का आधा रूप कम्प्यूटर की-बोर्ड में नहीं ढूढ़ पाया हूं.'राष्ट्रपति ' चलेगा?) जैसे शब्द मिले. 1980-81 के आस पास ‘जनसत्ता’ अखबार छपना प्रारम्भ हुआ तो भारतीय क्रिकेट में गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ जैसे शब्द आए. राजनैतिक दलों के विभाजन के लिए दो-फाड़ शब्द प्रयुक्त हुआ. 1995 के आसपास एक घंटे के 'आज-तक' के माध्यम से सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने दूरदर्शन पर सरकारी हिन्दी सुनने के आदी कानों को बोलचाल की हिन्दी भाषा सुनायी, जो बाद में आने वाले सभी निजी हिन्दी समाचार चैनलों की शैली बनी. हिन्दी का शब्द संग्रह बढ़ाने में सरकारी तंत्र ने भी खूब योगदान किया. गांवों का शहरीकरण, शहरों का सौंदर्यीकरण, सड़कों का चौड़ीकरण और फिर डामरीकरण, सब हिन्दी को सरकारी योजनाओं की देन हैं. हिन्दी के पण्डितों ने न जाने कैसे यह भुला दिया कि हिन्दी सदैव एक जीवन्त, कदम-कदम पर परिपक्व होते रहने वाली एवं समय के साथ अपने को ढालने वाली भाषा रही है. हिन्दी सतत बहने वाली और राह की तमाम बुराईयों को साथ ले कर भी अपनी शुद्धता बरकरार रखने वाली गंगा नदी की तरह रही है. इसे संस्कृत जैसी एक महान किन्तु मृत भाषा की सहायता से 'पुनर्जीवित ' करने का जब-जब भी प्रयास किया गया, हिन्दी पर गंगा की तरह आस्था रखने वाला आम जन उस प्रयास में शामिल नहीं हो पाया. हिन्दी भाषा के इतिहास पर कुछ और भी चर्चा हो सकती है, पर इसे अगले पत्र का विषय रखते हैं. आपका ही परिवेश साभार : www.raviwar.com Get the freedom to save as many mails as you wish. To know how, go to http://help.yahoo.com/l/in/yahoo/mail/yahoomail/tools/tools-08.html ------------------------------------------------------- From chandma1987 at gmail.com Tue Jan 8 13:05:37 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Tue, 8 Jan 2008 02:35:37 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSk4KS44KWN4KS14KWA4KSw4KWH4KSCIOCkuOCkvuCkpuCkvg==?= Message-ID: 2007/12/11, avinash das : > > दोस्तो, अगर आपकी दिलचस्पी *सराय* में आज हुए ब्लॉग वर्कशॉप की तस्वीरों में > हो, तो एक बार इस यूआरएल http://mohallaimages.blogspot.com/2007/12/blog-post.html > पर क्लिक करें। शुक्रिया। > > *अविनाश * > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- cha.Sh -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080108/757f8e29/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Jan 8 15:04:54 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 8 Jan 2008 15:04:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS44KWN4KSy?= =?utf-8?b?4KWA4KSu4KS+IOCkteCkv+CkteCkvuCkpjog4KSk4KS/4KSo4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSG4KS24KWN4KS14KS+4KS44KSo?= Message-ID: <200801081504.55402.ravikant@sarai.net> 'यह' सुचिंतित टिप्पणी पिछले दिनों जनसत्ता में छपी थी, पर संजीव का कहना है कि ‌उसमें काफ़ी कतर-ब्योंत है. लिहाज़ा इसे ज़रूर पढ़ें. दीवान डाक सूची के कई सदस्य उनसे किसी न किसी रूप में परिचित हैं, पर जो नहीं हैं, उन्हें बता दूँ कि वे देशबंधु कॉलेज में हिन्दी के रीडर हैं, पहले कहानियाँ भी लिखते थे, अब नहीं. अपेक्षा से बहुत कम लिखते हैं, पर जब लिखते हैं, तो पढ़नेवाले निहाल होते हैं. आप ख़ुद देखें. चंदन जी को धन्यवाद. रविकान्त तस्लीमा विवाद: तिनका आश्वाशन संजीव कुमार ‘डूबते को तिनके का सहारा’ - इस मुहावरे की ख़ासियत क्या है? यही कि पहली नज़र में यह सहारा मिलने की सूचना प्रतीत होता है, जबकि असल में यह सूचना है पूरी तरह बेसहारा होने की। चरम असमर्थ तिनके के ताल्लुक़ से हमें और किसी बात का नहीं, सहारा ढूँढ़ने की हताश-नाकाम कोशिश का ही पता चलता है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल माकपा से तस्लीमा के लिए जो हमदर्द आवाज़ आई, वह इसी अर्थ में डूबते को तिनके का सहारा थी। थोड़े किंतु-परंतु के साथ वयोवृद्ध कॉमरेड ज्योति बसु ने इतना तो कहा कि तस्लीमा अगर कोलकाता आना चाहती हैं, तो उनका स्वागत है। यह एक दुर्लभ-सा आश्वासन था, आभा र प्रकट करने वाली तस्लीमा के लिए ही नहीं, उन तमाम लोगों के लिए भी जिन्हें बुनियादपरस्ती से लड़ने के मामले में मार्क्सवादी हील-हवाला तोड़ डालने की हद तक आहत करता है। पिछले सवा महीने के घटनाक्रम ने ऐसे कई लोगों को आहत किया है और यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या सत्ता अपने-आप में एक ऐसी चीज़ है, जो फ़िरकापरस्ती और बुनियादपरस्ती के प्रति राजनैतिक दलों के रवैये का भी मानकीकरण कर देती है? क्या कांग्रेसी और भाजपाई – इन दो मानक रवैयों से सारतः भिन्न कोई तीसरा रवैया रख पाना संसदीय राजनीति में उतरी हुई किसी पार्टी के लिए नामुमकिन हो गया है? एक टीवी चैनल पर जब ज्योति बसु का उपर्युक्त बयान दिखलाया/सुनाया गया, तो साथ में केन्द्र के एक कबीना मंत्री कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद की प्रतिक्रिया भी आई। दो वाक्यों की यह प्रतिक्रिया जितनी शर्मनाक है, उतनी ही मानीख़ेज़ भी, इस लिहाज़ से कि वह रवैयों और रिस्पॉ न्सेज़ के उस दुर्भाग्यपूर्ण मानकीकरण को समझने में मदद करती है। ज्योति बसु के इस बयान पर, कि अगर तस्लीमा आना चाहती हैं, तो उनका स्वागत है, लेकिन उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार को लेनी होगी, हॉ. शकील अहमद ने बहुत बलपूर्वक और व्यंग्यपूर्वक दो बार यह बात दुहराई कि अगर कोई (राज्य सरकार) कहे कि तस्लीमा उसे बहुत प्रिय है और वह उसे अपने राज्य में ही रखना चाहती है, तो केन्द्र सरकार सुरक्षा के इंतज़ामात ज़रूर करेगी। (दो तीन दिन बाद उन्हों ने बदले हुए टोन के साथ भी राज्य सरकार वाली बात कही। मैं उसकी चर्चा नहीं कर रहा।) इस बा त में ख़ास क्या है? ख़ास है, ‘प्रिय’ होने पर बल और व्यंग्यपूर्वक इसे दो बार दुहराया जाना। इस व्यंग्यपूर्वक बलाघात के माध्यम से कांग्रेस का एक प्रतिनिधि दरअसल माकपा के सिद्धांतनिष्ठ होने के दावे की खिल्ली उड़ा रहा है और प्रतिबद्ध बरताव न कर पाने की उसकी मजबूरी पर उसे खिझा रहा है। वह कहना चाहता है, ‘अब तक कहाँ छुपे थे भाई, तुम भी हम जैसे ही निकले!’ तुम असल में वही हो, जो हम हैं। है तुम में यह कहने की ताक़त कि कट्टरपंथियों का निशाना बन कर घरबदर हो जाने वाली लेखिका का हम सम्मान करते हैं और उसे निर्भय आश्रय देना चाहते हैं? नहीं है। कौन कहेगा यह बात? वह पार्टी कहेगी, जो हिन्दुत्व की राजनीति करती है और जिस इस्लाम के साथ अपने सांप्रदायिक टकराव में तस्लीमा को हथियार बनाना है। मतलब यह कि विकल्प दो ही हैं और वह तुमने भी मान लिया है - या तो हमारी तरह मुस्लिम कट्टरपंथियों की पसंद-नापसंद को अपनी वाक्पटु सहमति दो, या फिर नरेंद्र मोदी की तरह छाती ठोंक कर कहो कि हम संरक्षण देंगे तस्लीमा को, इसलिए नहीं कि वह धर्म के सवाल पर रैडिकल ख़यालात रखती है, बल्कि इसलिए कि वह इस्लाम को भरपूर खरी-खोटी सुनाती है। राजनीति के भीतर वोट बैंक की जोड़-तोड़ के हिसाब से यही दो मानक रवैये हो सकते हैं और तुम भी इस मानकीकरण से बाहर नहीं हो, क्योंकि उससे बाहर रहने का साहस जुटाने की जो तैयारी पिछले तीस सालों में, मार्क्स की संतति होने के नाते, तुम्हें करनी चा हिए थी, वह तुम नहीं कर पाए। हमें तो बाबा मार्क्स से कुछ लेना-देना नहीं, इसलिए हमने वोट-बैंक को वोट-बैंक ही समझा, पर तुम ही कौन-से नया इंसान और नया भगवान बनाने वाले ठहरे! कांग्रेसी मंत्री की साधारण-सी व्यंग्योक्ति में अगर कोई इतनी सारी बातें सुन पाता है, तो उसकी वजह है, माकपा के साथ जुड़ी उम्मीदें। माकपा के राजनैतिक-विचारधारात्मक दस्तावेज़ हर तरह की सांप्रदायिकता की, साथ-ही-साथ बूर्ज़ुआ धर्मनिरपेक्षता के ढुलमुलपन और समझौतावाद की कड़ी निं दा करते हैं। वह भारत की संसदीय राजनीति में हिस्सा लेने वाली अकेली बड़ी पार्टी है जिसमें सां प्रदायिकता के सवाल पर अपना रुख़ तय करते हुए आज के राजनैतिक मानकीकरण से बाहर अड़े रहने का माद्दा है। पर तस्लीमा के मुद्दे पर यह माद्दा दुखद रूप से ध्वस्त होता नज़र आता है। पार्टी के आधिकारिक बयानों में संदर्भ से कटे तथ्यों और वैधानिक स्थितियों का ठंडा गणित हावी है। ‘‘तस्लीमा को कोलकाता से जयपुर भेजा नहीं गया, जाने का फ़ैसला उनका अपना था’’, ‘‘वीज़ा की अवधि बढ़ाने या न बढ़ाने का निर्णय केन्द्र सरकार के हाथ में है’’, ‘‘यह तय करना केन्द्र सरकार का काम है कि तस्लीमा को कहाँ रहना चाहिए’’ इत्यादि। भावनाओं को आहत करने वाले ग़ैर-ज़िम्मेदार लेखन की बात तो पिछले तीन सालों से दुहराई जाती रही है, बिना इसकी फ़िक्र किए कि यह मूलतः धार्मिक कट्टरपंथ और शासक वर्गों की मिली भगत का नारा है, कि इस नारे का उचा र करते ही आप हिन्दुत्ववादियों की असंख्य कार्रवाइयों के विरोध का तार्किक और नैतिक आधार खो देते हैं, कि इस नारे की रेंज को थोड़ा फैला दिया जाए, तो यह मूल मार्क्सवाद को ही गड़प कर जा ने की औक़ात रखता है। यह एक बड़ा सवाल है कि इस पृष्ठभूमि में ज्योति बाबू के बयान को किस तरह का आश्वासन माना जा ए? उसकी ओर लपका जाए या न लपका जाए? आपका उत्तर जो भी हो, डूबता तो लपकेगा ही! From chauhan.vijender at gmail.com Tue Jan 8 15:24:41 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 8 Jan 2008 15:24:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpKjgpY3gpKbgpYA=?= In-Reply-To: <200801071527.18376.ravikant@sarai.net> References: <200801071527.18376.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540801080154u5d986e72lf7511f0f6067811b@mail.gmail.com> रविकांतजी, लेख यहॉं देने के लिए आभार। ये भाषा पर इतना बोझा राजनीति का और पोलिटिकल करेक्‍टनेस का भी कुछ जयादा ही है तिसपर हिन्‍दी जैसी नई भाषा के लिए तो असह्य भी। चूंकि आप साप्रदायिकता के खिलाफ लड़ना चाहते हैं इसलिए आपको एक समूची भाषा के हर व्‍यंजन को दोगुना कर देना होगा ये अजीब तर्क है (ख और ख़ ये एक ही व्‍यंजन के दो रूप नहीं हैं वरन दो अलहदा व्‍यंजन है) । यकीन मानिए नुक्‍ते का बोझ इतना कम भी नहीं ये बाकायदा भाषा को डुबो सकता है। क्‍यों- इसलिए कि अगर भाषा के लिहाज से देखें तो आप बहुत सी नई ध्‍वनियों को हिन्‍दी में जोड़ने का मांग कर रहे हैं- बख्शिए हुजूर। हमारी राय रही- http://masijeevi.blogspot.com/2007/08/blog-post_02.html विजेंद्र On 1/7/08, Ravikant wrote: > > दीवानो, > हिन्दी भाषा - इसके इतिहास, इसकी राजनीति, आदि पर बहस तो हमेशा से गरमागरम ही > होती आई > है, पर हाल के महीनों में, इसने बेहतर और > वृहत्तर आयाम लिए हैं, जिसमें सुधीश पचौरी के संपादन में वाक नामक नए > विमर्शों की पत्रिका का > भी योगदान है. इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पेश है रविवार डॉट कॉम में छपा > नीरज अग्रवाल > का आलेख - जिसकी हृदयछू सरलता और सारगर्भिता आपको शायद भली लगे. बहस का > निमंत्रण तो > मूल पाठ में है ही. अस्तु. > > रविकान्त > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: हिन्दी में बिन्दी > Date: सोमवार 07 जनवरी 2008 12:43 > From: neeraj agrawal > To: ravikant at sarai.net, deewan at sarai.net > > हिन्दी में बिन्दी > एक फुटबॉल बन गयी > डॉ. परिवेश मिश्र > > मेरे 86 वर्षीय पिताजी की उम्र जैसे जैसे बढ़ी, आने वाले पत्रों और > मुलाकातियों > की संख्या कम होती चली गयी. परिचित और मित्र कम होने लगे. > > मैंने कुछ वर्ष पूर्व उन्हे इंटरनेट से परिचित करायातब से यह सुनिश्चित करना > भी > मेरी ज़िम्मेदारी हो गयी कि जब वे कम्प्यूटर पर जाएं तो हर बार मेल-बॉक्स खाली > न > पाएं. पिछले महिने मेरी मां का देहावसान हुआ. तब से उन्हे व्यस्त रखना और > आवश्यक हो गया है. नेट से रोचक समाचार ढूंढ़ कर उन्हे फॉरवर्ड करता रहता हूं. > नियमित पत्र लिखना दूसरी आदत बनी है. ऐसा ही एक पत्र बिना काट-छांट के यहां > प्रस्तुत कर रहा हूं. इससे चर्चा शुरू करने का शायद एक बहाना बने. > > पूज्य चच्चाजी 15.12.2007 > सादर प्रणाम, > > यह पत्र कम्प्यूटर पर आप के लिए टाईप किया है. आप नही कर पाते हैं क्योंकि > आपके > कम्प्यूटर में हिन्दी के फॉन्ट लोड नहीं हैं. आज की तारीख़ तो लिख दी पर यह > जाएगा उसी दिन, जब इन्टरनेट कनेक्ट होगा. अंग्रेजी को ध्यान में रखकर ईज़ाद की > गई टाईपिंग मशीन पर हिन्दी के लिए देवनागरी लिपि का उपयोग काफी पहले प्रारम्भ > हो गया था. हिन्दी में दस्तावेज़ों की टायपिंग आदि के अलावा हिन्दी समाचार > पत्रों के लिए टेलेक्स से बड़ी मात्रा में टाईपिंग मशीन के इसी उपयोग के > द्वारा > समाचारों के प्रेषण का कार्य हुआ. बाद में, सन् 1967 में इन्दौर का 'नई > दुनिया' > भारत का, किसी भी भाषा में छपने वाला, पहला ऐसा समाचार पत्र बना जिसने अपनी > छपाई के लिए ऑफसेट मशीन तथा साथ में फोटोकम्पोज़िंग तकनीक का उपयोग किया. > फोटोकम्पोज़िंग तकनीक, जैसा कि आप जानते ही हैं, पारम्परिक कम्पोज़िंग से सिर्फ > इतना ही अलग थी कि छपाई के लिए अक्षरों (पहले टाईप-फेस कहते थे, जब से > कम्प्यूटर आया है, फॉन्ट शब्द चलता है) को जहां पहले एक-एक कर हाथ से उठाकर > कम्पोज़िंग मशीन में नियत स्थान पर रखा जाता था, वहीं फोटोकम्पोज़िंग तकनीक में > सारी कम्पोज़िंग कम्प्यूटर-स्क्रीन पर टायपिंग के द्वारा की जाती है. इससे > सारा > काम न केवल बहुत जल्दी होने लगा बल्कि और भी फायदे हुए. > > पारम्परिक टायपिंग मशीन में उतने ही अक्षर या शब्द-प्रकार डाले जा सकते थे, > जितने की अनुमति मशीन के भीतर का सीमित स्थान देता था. किन्तु कम्प्यूटर में > स्थान की समस्या नही रही. इसमें पारम्परिक की-बोर्ड के अतिरिक्त अंकों > (नम्बर्स) का उपयोग कर असीमित कॉम्बिनेशन्स के द्वारा अक्षर और चिन्ह प्राप्त > किए जा सकते हैं. कुछ उदाहरण के लिए- क्र कृ क्क ड्क क्त क्र रु रू हृ ह्न > ह्म > ह्व द्व ह्न ध् द्र द्ग द्द ध्द द्ध ञ् लृ ट्ट ट्ठ ढ न्न य ञ् झ् ढ्ढ ङ्ढ ड्ड > ड्ण ङ ड्ण फ्र ॠ ऋ स्र स्त्र ॐ ऽ ऑं आदि आदि... > > हिन्दी टायपिंग दरअसल हिन्दी प्रेस से विकसित हो कर बाहर निकली थी. भारत में > हिन्दी में छपाई का इतिहास कोई सन् 1800 के आसपास से ही मिलता है. > > यह एक विवाद का विषय हो सकता है पर मुझे लगता है यदि कम्प्यूटर पर हिन्दी > टायपिंग का प्रवेश कुछ दशकों पहले हो जाता तो कम से कम दो महत्वपूर्ण बातें > होतीं. एक तो हिन्दी के स्थान पर, जैसा कि महात्मा गांधी चाहते थे, > हिन्दुस्तानी का प्रयोग और प्रचलन बढ़ा होता. हिन्दी और उर्दू के बीच दूरी कम > होती. दूसरा, हिन्दी भाषियों को उर्दू के लफ्ज़ों के उच्चारण को ले कर > परेशानियां कम हो पातीं. ताज़महल-ताजमहल, जज़्बात-जज्बात, ज़िन्दगी-जिन्दगी, > इज्ज़त-इज्जत जैसे शब्द परेशानी का सबब नही बनते. विशेषकर रेडियो के उद्घोषकों > को सहायता मिली होती. > > जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है उस रूप में हिन्दी का विकास > उन्नीसवीं > सदी के साथ-साथ प्रारम्भ हुआ. दरअसल भारत में हिन्दी एक भाषा न हो कर अनेक > बोलियों का समूह थी. जनता के बीच अनेक स्वरूपों में खड़ी बोली प्रयुक्त होती > थी > तो कवियों की भाषा ब्रज थी. सन् 1830 के आस-पास भारत में पहले हिन्दी समाचार > पत्र के छपने की जानकारी है. छपाई के साथ साथ टाईप फेस या फॉन्ट की, व्याकरण > की, और कुल मिला कर, मानकीकरण (Standardisation) की ज़रूरत सामने आयी. > स्वतंत्रता की लड़ाई के दिनों में हिन्दी देशवासियों को आपस में बांधे रखने > वाला > धागा थी. अनेक बोलियों के रूप में बिखरे अंगों को कहीं पास ला कर तो कहीं जोड़ > कर हिन्दी को एक ऐसा स्वरूप जो कि एक-रूप शरीर जैसा हो; देने की कोशिश उस समय > के राजनैतिक माहौल तथा उन दिनों के हिन्दी समाचार पत्रों ने की. > > पारम्परिक रूप से आज़ादी से पहले तक भारत में हिन्दी का स्वरूप धर्म से कभी > जुड़ा > नहीं रहा. पर बाद में यह भाषा देश के विभाजन की राजनीति का शिकार बन गयी. > नेशनलिस्ट ताकतों ने इसका हिन्दुत्वीकरण कर दिया. हालांकि यह प्रक्रिया पहले > प्रारम्भ हो चुकी थी. 1930 में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने काशी से प्रकाशित > अपनी पत्रिका 'अभ्युदय 'में एक चर्चित लेख लिखा था - हिन्दी में बिन्दी > क्यों. > ज को ज़ बना देने वाली एक छोटी-सी बिन्दी अचानक उर्दू और हिन्दी तथा परदे के > पीछे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच चल रहे महायुद्ध में बीचों बीच पंहुच गयी. > फुटबॉल वर्ल्ड कप की कल्पना कीजिए. हज़ारों-लाखों लोगों की उत्तेजक चीख पुकार > के > बीच टीमें अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की कोशिश में जो भी प्रयास करें, किक > फुटबॉल ही पाती है. हिन्दी भाषा में उर्दू के स्वर पैदा करने की कोशिश करती > बिन्दी ऐसी ही एक फुटबॉल बन गयी. > > 'हिन्दी में बिन्दी क्यों?' यह नारा हिन्दी छापेखानों के उन कम्पोज़ीटरोंके > लिए > अपनी कमी छिपाने के लिए रक्षाकवच बन गया, जो तकनीकी कारणों से अक्षरों के > नीचे > बिन्दी नही लगा पाते थे. प्रूफ-रीडिंग करने वाले उन सम्पादकों के लिए भी जो > उतने अच्छे भाषाविद् नहीं थे, जितने अच्छे पत्रकार. कुछ पत्रकारों की > राजनैतिक > प्रतिबद्धताएं भी कारण बनीं बिन्दी की उपेक्षा की. जहां एक ओर उर्दू में > समझाया > गया कि नुक्ते में जरा सी हेरा-फेरी हो जाए तो ख़ुदा ज़ुदा हो जाता है, वहीं > दूसरी ओर हिन्दी वाले यह साबित करने में जुट गए कि बिन्दी के बिना भी भाषा का > अस्तित्व है. और फिर एक के बाद एक पीढ़ियां निकलती चली गयीं, ऐसे अनेक शब्दों > से > परिचय पाए बिना जो रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा थे. > > विभाजन ने हिन्दी को हिन्दुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा का लेबल > देने > वालों के प्रयासों को बल दिया. हिन्दी का हिन्दुत्वीकरण होने लगा. उर्दू वाले > उर्दू में फारसी के शब्द डालने लगे तो रघुवीर (कमेटी) जैसे लोग ढूंढ़ ढूंढ़ कर > संस्कृत पर्यायवाची इज़ाद करने में जुट गए. रेल के लिए लौह-पथ-गामिनी, रेल > सिग्नल के लिए गमनागमन सूचक ताम्र-लौह पट्टिका, सिग्नल के लिए श्वेत > धम्रपान-दंडिका, लॉन टेनिस के लिए घासीय गेंद बल्ला मुठभेड़ तथा रूमाल के लिए > मुख प्रच्छलन वस्त्र चीर जैसे शब्द सालों तक चुटकुलों के रूप में हमने आप से > ही > सुने हैं. > > जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है, उसमें आते तक समय-समय पर अनेक > स्रोतों > से योगदान मिला है. पंडितों की भाषा से उठाकर इसे एक ऐसी भाषा के रूप में > स्थापित करने में, जिसे अभिजात्य और सामान्य दोनो वर्गों की समान स्वीकार्यता > प्राप्त हो; हिन्दी पत्रकारिता ने बड़ा योगदान किया है. हिन्दी पत्रकारिता के > पितृपुरूष माने जाने वाले बाबूराव विष्णु पराडकर से व्याकरण तथा शब्द एवं > वाक्य > संयोजन की व्यवस्था के अतिरिक्त मिस्टर के स्थान पर श्री तथा राष्ट्रपति (मैं > ष > का आधा रूप कम्प्यूटर की-बोर्ड में नहीं ढूढ़ पाया हूं.'राष्ट्रपति ' चलेगा?) > जैसे शब्द मिले. 1980-81 के आस पास 'जनसत्ता' अखबार छपना प्रारम्भ हुआ तो > भारतीय क्रिकेट में गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ जैसे शब्द आए. राजनैतिक दलों के > विभाजन > के लिए दो-फाड़ शब्द प्रयुक्त हुआ. 1995 के आसपास एक घंटे के 'आज-तक' के > माध्यम > से सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने दूरदर्शन पर सरकारी हिन्दी सुनने के आदी कानों > को > बोलचाल की हिन्दी भाषा सुनायी, जो बाद में आने वाले सभी निजी हिन्दी समाचार > चैनलों की शैली बनी. हिन्दी का शब्द संग्रह बढ़ाने में सरकारी तंत्र ने भी खूब > योगदान किया. गांवों का शहरीकरण, शहरों का सौंदर्यीकरण, सड़कों का चौड़ीकरण और > फिर डामरीकरण, सब हिन्दी को सरकारी योजनाओं की देन हैं. > > हिन्दी के पण्डितों ने न जाने कैसे यह भुला दिया कि हिन्दी सदैव एक जीवन्त, > कदम-कदम पर परिपक्व होते रहने वाली एवं समय के साथ अपने को ढालने वाली भाषा > रही > है. हिन्दी सतत बहने वाली और राह की तमाम बुराईयों को साथ ले कर भी अपनी > शुद्धता बरकरार रखने वाली गंगा नदी की तरह रही है. इसे संस्कृत जैसी एक महान > किन्तु मृत भाषा की सहायता से 'पुनर्जीवित ' करने का जब-जब भी प्रयास किया > गया, > हिन्दी पर गंगा की तरह आस्था रखने वाला आम जन उस प्रयास में शामिल नहीं हो > पाया. > > हिन्दी भाषा के इतिहास पर कुछ और भी चर्चा हो सकती है, पर इसे अगले पत्र का > विषय > रखते हैं. > > आपका ही > परिवेश > > साभार : www.raviwar.com > > > > Get the freedom to save as many mails as you wish. To know how, go to > http://help.yahoo.com/l/in/yahoo/mail/yahoomail/tools/tools-08.html > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-754 Size: 23438 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080108/de16723d/attachment-0001.bin From neelimasayshi at gmail.com Tue Jan 8 16:29:15 2008 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Tue, 8 Jan 2008 16:29:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KSVIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOClgCA=?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkhuCksuClh+Ckli0g4KSF4KSC4KSk4KSw4KWN4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSyIOCkquCksCDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSV4KWAIOCkqOCkiCA=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSyIDog4KSa4KSo4KWN4oCN4KSmIOCkuOCkv+CksOCkqw==?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KWL4KSCIOCkleClhyDgpJbgpKTgpYLgpKQ=?= Message-ID: <749797f90801080259v7c17ccfeg1817dc2c72631f30@mail.gmail.com> वाक् में चिट्ठाकारी पर आलेख- अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्‍द सिरफिरों के खतूत वाक अब स्‍टैंड्स पर है। पत्रिका में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग पर लिखा मेरा आलेख '*अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्‍द सिरफिरों के खतूत*' शीर्षक से प्रकाशित है। अगर मीडिया का रूख ब्‍लॉग मीडिया को लेकर उदासीनता का रहा था तो साहित्यिक पत्रकारिता का तो बाकायदा अवहेलना या अपमान का। इसलिए साहित्यिक पत्रिका द्वारा इसे स्‍थान देना अच्‍छा लगा। पूरा आलेख थोड़ा बड़ा है इसलिए एक पोस्‍ट में डालना ठीक नहीं किंतु पूरा आलेख पीडीएफ में पाने के लिए नीचे के लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं। **पूरे आलेख को डाउनलोड करें (पीडीएफ -207 केबी) आलेख में छ: खंड हैं अलग अलग इनके लिंक नीचे हैं, सुविधानुसार चटका लगाकर पढें व राय दें- 1. *चिट्ठाकारी है क्‍या * 2. *चिट्ठाकारी का हालिया इतिहास * 3. *चिट्ठाकारी छपास की नहीं पहचान की छटपटाहट है * 4. *ये अनाम बेनामों की दुनिया है....नामवरों की नहीं * 5. *चिट्ठाई हिन्‍दी- उच्‍छवास से मालमत्‍ता * 6. *चिट्ठाकारी का भविष्‍य * -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080108/51955c24/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Jan 9 10:10:28 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 8 Jan 2008 20:40:28 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSTIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSCIOCkquClgOCkj+CkriDgpLngpL7gpIngpLg=?= Message-ID: <829019b0801082040x4833d0bbrce871882eb014b8f@mail.gmail.com> मेरे सारे ब्लॉगर साथी क्या आप सब लोग मेरे साथ पीएम हाउस चलेंगे। जो साथी दिल्ली से बाहर के हैं उनके आने-जाने के लिए हमसब मिलकर चंदा करेंगे। ज्यादा लोग एक साथ चलेंगे तो थोड़ा प्रेशर बनेगा। सोच रहा हूं कि वहां चलकर उनसे अपील की जाए कि वे भी हमारी तरह ब्लॉगर बनें। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि इधर 10 दिनों के भीतर कई ब्लॉगर साथियों से मिलना हुआ। किसी को भी पहले से नहीं जानता था। कुछ तो बड़े लोग थे ( उम्र या फिर पैसा आप जिस किसी भी रुप में समझे) । सबको बस उनके ब्लॉग के जरिए ही जाना। और एक दूसरे का परिचय भी सबने ब्लॉगर के रुप में ही कराया। बाकी कौन क्या करता है इससे बहुत अधिक मतलब भी नहीं था। अच्छा, चाय-पानी का पैसा देने में भी वे अपने-आप आगे आ गए क्योंकि वे पुराने यानि सीनियर ब्लॉगर हैं और मैं जाकर-आर्डर देने या फिर हरी चटनी के लिए बोल रहा था, क्योंकि इस मैंदान में अभी मैं फूच्चू ही हूं। जो महसूस किया , वो ये कि एक ब्लॉगर-दूसरे ब्लॉगर को इस तरह से इंट्रोड्यूस नहीं कराता कि- इ भी झारखंड से ही हैं या ही इज फ्राम डीयू या फिर ही इज ऑल्सो इंट्रेस्टेड इन मीडिया चूतियाप्स...वगैरह, वगैरह। अब बताते हैं कि अरे ये वही है जिसने समय चैनल पर लिखा था, झारखंड में जो इंटरव्यू देने गए थे, उनकी ले ली थी। इससे जो संवाद का माहौल बनता है उसमें एक अलग तरह का फक्कडपन होता है, एकदम बिंदास मिजाज का गप्प-शप। अपने काशी का अस्सी वाले काशीनाथ सिंह की भाषा में कहें तो व्हाइट हाउस को निपटान घर समझने वाला कांन्फीडेंस। कम से कम मैंने तो ऐसा ही महसूस किया है कि कीपैड को एक-दूसरे के आगे ताना-तानी वाला अंदाज भले ही ब्लॉग पर चलता रहे लेकिन वो कभी कलम की जगह सुई न बनने पाती है। और कुछ हुआ हो चाहे नहीं लेकिन ऐसा होने से सोशल स्पेस तो जरुर बढ़ा है। अब कोई हमें ब्लॉगर होने के नाते अपने यहां डिनर पर बुला ले तो दोस्तों या फिर रिश्तेदारों के यहां जाने से पहले प्रायरिटी दूंगा। एक शब्द में कहूं तो ब्लॉगिंग करने से अपने मिजाज के लोग आसानी से मिल जाते हैं, बन जाते हैं और छनने भी लगती है। यही सब सोचकर मैंने ये प्रस्ताव रखा है कि अगर अपने मनमोहन सिंह भी ब्लॉगर बन गए तो वो हमसे, सॉरी हम उनसे खुल जाएंगे। उन्हें भी लगेगा कि हंसी ठिठोली के लिए सिर्फ 10 जनपथ ही नहीं है और भी लोग हैं जिनके साथ बोला-बतिया जा सकता है और वो भी घर बैठे। अपने तरफ से थोड़ा करना ये होगा कि इंग्लिश में थोड़ी हाथ मजबूत करनी होगी जिसकी है उसे प्रैक्टिस में लानी होगी। मेरा तो एक लोभ ये भी है कि अगर उन्होंने दिसम्बर और जनवरी जैसे महीने में ब्लागर्स मीट करा दिया तो डिनर में तरबूज भी खाने को मिलेंगे। मेरी उम्र की लड़कियां बिदांस मूड में जब उनके यहां जाती है तब तो पकड़वा देते हैं लेकिन हमलोग जाएं तो शायद बोले- छोड़ दो, नौजवान ब्लॉगर है और परेड में क्या पता ब्लॉगर के बैठने के लिए अलग से कोटा हो। अच्छा, ऐसा नहीं है कि फायदा सिर्फ हम ब्लॉगरों को ही है, उन्हें भी तो है। बिना कोई वेतन के, बिना कोई पॉलिटिक्स किए, फिर गलती हो गई, पॉलिटिक्स की बात माने हुए उन्हें देश का बेस्ट ब्रेनी मिल जाएगा और समय-समय पर अपने कीमती सुझाव भी देगा। यहां पर भाजपा या फिर उनके दूसरे विरोधियों के खिलाफ लिखने-बोलने वालों की कमी थोड़े ही है। अगर मनमोहनजी को मेरी बात का भरोसा नहीं है तो अबकी 26 जनवरी का भाषण हममें से किसी भी ब्लॉगर से लिखवाकर देख लें। ड्राई रन ही सही। ऐसा धांसू होगा भाई कि भाषण के नाम पर हिन्दी की डिक्शनरी ठोकने वाले को भी कुछ ज्ञान मिलेगा। यही सब बात सोचकर मैंने आपके सामने ये प्रस्ताव रखा है। कैसा लगा बताइगा और कब तक जबाब दे देंगे, काहे टिकट और रहने-खाने के इंतजाम में भी तो लगना होगा। आकांक्षी विनीत कुमार, ब्लॉगर राजधानी, भारत इंडिया -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080108/51a65ef7/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Jan 9 11:47:49 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 9 Jan 2008 11:47:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpKjgpY3gpKbgpYA=?= In-Reply-To: <8bdde4540801080154u5d986e72lf7511f0f6067811b@mail.gmail.com> References: <200801071527.18376.ravikant@sarai.net> <8bdde4540801080154u5d986e72lf7511f0f6067811b@mail.gmail.com> Message-ID: <200801091147.49199.ravikant@sarai.net> विजेन्द्र जी, शुक्रिया मज़ा आया. मैंने आपका लेख पढ़ा पर मैं चाहता हूँ, कि आपकी बात के समर्थन या विरोध में जो दिलचस्प टिप्पणियाँ आई हैं, उन्हें भी दीवान के अभिलेखागार में होना चाहिए. उससे कम-से-कम मुझे सहूलियत होती है. मैं यह भी चाहता हूँ कि पहली-पहल नीरज अग्रवाल करें, जिनके लेख से ये बहस फिर एक बार उठी है. मैं इस बहस में कूदूँगा, पर थोड़ी देर में. फ़िलहाल तो आपके ब्लॉग से चीज़े यहाँ नक़चेपी मार दूँ. रविकान्त नुक्‍ता चीन्‍हीं दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के बहुत कम कॉलेजों में उर्दू पढ़ाई जाती है, फारसी कुल जमा दो कॉलेजों में और अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ाने वाला कॉलेज सिर्फ हमारा है। इससे 'अलग' होने का जो आनंद आता है उसे जाने दें पर इसके कई गंभीर और बेतुके निहितार्थ हैं। पहला तो ये है कि आप लगातार पॉलीटिकल करेक्‍टनेस के पाखंड से दो-चार रहते हैं। हम ब्लॉगिंग में जो होते हैं उससे ठीक उलट स्थि ति इस पाखंड में होती है। समझिए कि हर कोई मैं ज्‍यादा बड़ा अविनाश हूँ का दावा ठोंक रहा हो ता है। अक्‍सर लोग भूल जाते हैं कि माना उर्दू का सवाल अल्‍पसंख्‍यक से जोड़ा जा सकता है इसलिए उर्दू को समर्थन देने से एकबारगी मान भी लिया जाएगा कि आप 'महान सेकुलर' हैं सिद्ध होता है पर जनाब फारसी और अरबी तो विदेशी भाषाएं हैं, चाहे विदेशी की जो परिभाषा आप तय करें। इन भाषाओं के अपने भाषाक्षेत्र आज भी दुनिया में हैं इसलिए इन्‍हें इसी आलोक में ही देखा जाना चाहि ए। और यह भी कि यदि कोई इन भाषाओं पर बिछ बिछ जाने को जरूरी नहीं मानता तो वह न तो संघी हो जाता है न ही सांप्रदायिक। थोड़ा सीधे बात करें- अपने दोनों तरह के मित्र हैं - खूब हैं। एक तो बिहार से दिल्‍ली आए पहली पी ढ़ी के लोग जो पत्रकारिता में, और हिंदी या अन्‍य विषयों के शिक्षण में पसरे हुए हैं। रवीश, अविनाश, नीलूरंजन किस्‍म के। इनमें से बहुत सों ने अपने को प्रशिक्षित कर लिया है, खूब जद्दोजहद के बाद पर अब भी वे गाहे बगाहे श को स बोल जाते हैं। दूसरे अन्‍य मित्र हैं जो या तो मूल दिल्‍ली- बोले तो दिल्‍ली-6, यानि पुरानी दिल्‍ली के बाशिंदे हैं या अन्‍य मुसलमान साथी हैं- ये अक्‍सर इन बिहारियों के उच्‍चारण पर ठठ्ठा मार कर हँसते हैं और साथ ही ताकीद करते हैं कि उनके नाम को **** खान नहीं ख़ान(ख़ान यानि नुक्‍ते के साथ) बोला जाएं क्‍योंकि सही उच्‍चारण ख़ान है। ऐसी की तैसी... हम बिहारी नहीं है भाषा दिल्‍ली की बस्तियों में ही सीखी है पर ये बिंदी वानी हिंदी हमें रास नहीं आती, इससे तो हिंदी का भोजपुरिया जाना हमें ज्‍यादा अच्‍छा लगता है। हमें जो समझ आता है कि मामले की जड़ हिंदी-उर्दू विवाद में है। पोलिटिकल करेक्‍टनेस के झंडाबरदारों ने ये गलतफहमी चारों ओर फैलाने की खूब चेष्‍टा की है कि हिंदी और उर्दू दो लिपियों में लिखी जा रही 'एक भाषा' हैं। ऐसा मनवा लेने से एक संप्रदाय को हिंदी का स्‍पेस मुहैया होता है (वैसे अपन को मुगालता नहीं है, हिंदी का बढ़ा हुआ स्‍पेस राजनैतिक भर है न कि साहित्यिक या भाषा वैज्ञा निक या ऐतिहासिक) मुस्लिम संप्रदाय को यह विश्‍वास दिलाना सरल हो जाता है कि आप एलिनिएट अनुभव न करें। हमें इस 'राष्‍ट्रीय एकता' के इन महान प्रयासों से कोई खास परेशानी न होती अगर इसकी कीमत चुकाने की जिम्‍मेदारी हिदी भाषा को न दी जा रही होती। अब वे ध्‍ वनियॉं जो हिदी में नहीं हैं (नहीं है का मतलब है कि ये हिदी में स्‍वनिम नहीं है- इनके इस्‍तेमाल से हिंदी में अर्थ का अनर्थ नहीं होता) तथा उनके लिए लिपि में खुद ब खुद इंतजाम नहीं है (नुक्‍ता तो जुगाड़ है) उसे थोपना, और जनाब थोपना ही नहीं ऐसा न करने वालों को अशुद्ध या गलत भी ठहराना- माफ करें हिंदी खुद ही अस्तित्व की लडाई लड़ रही है वह हर वर्ण के नीचे एक अलहदा नुक्‍ते का बोझ नहीं सह सकती। अगर जनाब ***खान रोमन में khan से किसी किस्‍म के अपमा न को महसूस नहीं करते, k के नीचे किसी नुक्‍ते का बोझ नहीं लादते, हमारे राम भी Rama होना सह लेते हैं तो फिर खानसाहब ही हिदी भाषा में नुक्‍ते की जंजीरे डालने पर क्‍यों तुले हैं। एक बात साफ है कि एक भाषा का शब्‍द जब दूसरी भाषा में जाता है तो वह भले ही संज्ञा ही क्‍यों न हो इस भाषा के अनुसार या इसकी लिपि के अनुसार थोड़ा बहुत बदलता है, उसे बदलना चाहिए न कि भा षा पर दबाब बनाना चाहिए कि वह बदले। जब हम उर्दू बोलते हैं या उसे लिखते हैं, मसलन शेरो शायरी में, तो हम उर्दू की प्रकृति के अनुसार ही व्‍यवहार करते हैं पर जब बात बाकायदा हिंदी की हो तो मानना होगा कि ये दो लिपियों में एक भाषा नहीं है - वरन जैसा नामवर सिंह स्‍थापित करते हैं तथा जिसका संकेत प्रेमचंद ने किया था- ये दो लिपियों में दो भाषाएं हैं। एक पर दूसरे को न लादें। और हॉं ये शुद्धतावादी आग्रह नहीं है हिं दी -उर्दू में आगत निर्गत होना चाहिए, हम समर्थक हैं पर ये दोनो भाषाए अपनी प्रकृति के अनुसार करें। हिंदी-उर्दू का मसला बर्र का छत्‍ता है, ब्‍लॉग की दुनिया है इसलिए लिख दिया तो लिख दिया देखा जाएगा। :) 6 comments: अनुनाद सिंह said... मेरा भी यही मानना है कि हिन्दी पर बिन्दी लादने के बजाय अन्य भाषा के शब्दों को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप ढ़ाल कर ही लिखा जाना चाहिये। अन्यथा दुनिया में और भी भाषायें हैं और और भी ध्वनियाँ हैं जिन्हें देवनागरी के मूल वर्णों के सहारे 'ठीक-ठीक' नहीं लिखा जा सकता। दूर मत जाइये; मराठी में, मलयालम में, तेलुगू में.. कुछ ध्वनियाँ हैं ! 5:05 PM अरुण said... अब साहब जब आपने पंगा लेने की ठान ली है तो डरिये मत..हम आपके साथ है..बस जैसे मामला बि गडा फोरन नो दौ ग्यारह होने की तैयारी के साथ.आप जमे रहे..:) 5:22 PM yunus said... मैं सहमत नहीं हूं । हम अगर दूसरी भाषा के शब्‍द ले रहे हैं तो सही उच्‍चारण के साथ बोलें । ये इतना मुश्किल भी नहीं जितना प्रदर्शित या प्रोजेक्‍ट किया जाता है । हिंदी में नुक्‍ते नहीं थे इसका तर्क देकर आखिर कब तक हम नुक्‍तों को रिजेक्‍ट करते रहेंगे । मेरी दृढ़ मान्‍यता है कि ये हिं दी उर्दू का विवाद नहीं है । ये शब्‍दों के सम्‍मान का‍ विवाद है । ग़ज़ल को अगर कोई बिना नुक्‍ते के गजल कहता है तो मुंह का स्‍वाद गड़बड़ हो जाता है । ग़रीब नवाज़ को कोई गरीब नवाज (बिना नुक्‍ते वाला) कहता है तो दिल को झटका लगता है । ख़बरों की ख़बर को खबरों की खबर (बिना नुक्‍ते वाला) कहने वाले को चाहिये कि वो या तो नुक्‍ते सुधारे या फिर कोई वैकल्‍पिक शब्‍द बोले । ख़ासकर ये बात इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया वालों पर ज्‍यादा लागू होती है । टी.वी. और रेडियो पर भ्रष्‍ट उच्‍चारण करना पाप है । अपराध है । चाहे कोई कुछ भी कहे मगर मैं दृढ़ता से मानता हूं कि अगर नुक्‍ते के उच्‍चारण नहीं आते तो दूसरा शब्‍द लीजिये । चाहे उर्दू के हों, अंग्रेज़ी के हों, जर्मन या रशियन शब्‍द हों, अगर नुक्‍ता है तो नुक्‍ते का सम्‍मान कीजिए, मिसाल के लिए अगर ख़ुदाई यानी ऊपर वाले की कृपा को खुदाई यानी गड्ढा खोदना बोलें तो अर्थ का अनर्थ है ना । आप कहेंगे कि पूरे वाक्‍य के आधार पर अर्थ का संप्रेषण हो जाता है । पर ज़रूरत क्‍या है ग़लत बोलने की । इसी तरह क़लम और कलम दो अलग अलग अर्थ वाले शब्‍द हैं । ऐसे सैकड़ों शब्‍द हैं । अंग्रेजी के ज़ू / zoo को joo/ जू कहने वालों पर कितना गुस्‍सा आता है । उच्‍चा रण के मामले में भारत में एक तरफ नितांत उदासीनता का चलन है तो दूसरी तरफ़ ऐसे हज़ारों लोग हैं जो बड़े सचेत रहते हैं , खुद नामवर जी से मैंने विविध भारती के लिए लंबी बातचीत की थी, नामवर सिंह ने एक भी उच्‍चारण ग़लत नहीं किया । चलिये नामवर जी आलोचक हैं, साहित्‍य के व्‍यक्ति हैं, यहां कितने ही ऐसे व्‍यक्ति हैं जो डॉक्‍टर, इंजीनियर, फिल्‍म निर्देशक, कंप्‍यूटर इंजीनियर वग़ैरह होते हुए भी शुद्ध उच्‍चारण करते हैं । नहीं बनता तो सीखते हैं । ये ऐसे लोग हैं जिन्‍हें पहले अशुद्ध उच्‍चारण और लिखने की आदत थी । पर इन्‍होंने कोशिश करके सुधार लिया । मैं हमेशा से कहता हूं कि हिंदी में उर्दू या यूरोपीया भाषाओं के शब्‍द उन्‍हीं के सही उच्‍चारण के साथ आने चाहिये और नुक्‍ता ही वो तरीक़ा है जो हमें इन शब्‍दों का सही उच्‍चारण सिखा सकता है । इसमें कोई बुराई नहीं है । 9:14 PM masijeevi said... युनुसजी, आप असहमत हैं, ठीक है...अब हमारी राय कोई संविधान की धारा या किसी एग्रीगेटर की पॉलिसी थोड़े ही है कि सहमत होना ही होगा, नही तो अवमानना मान ली जाएगी :) बाकी हमारी आपत्ति आपके इस 'सही' के इतने स्‍पष्‍ट आख्‍यान से है बंधु। 'सही उच्‍चारण' और कौन सा- वही जो मूल भाषा में था (अरबी में, फारसी में, संस्‍कृत में, लेटिन में और ग्रीक में, जी आप मुझसे बेहतर जानते हैं कि 'सही' की अवधारणा तो इन्‍हीं भाषाओं से आएगी, हिंदी-उर्दू तो तैया र ही होती हैं इनके अपभ्रष्‍ट रूप से) उर्दू का मुझे नहीं पता और इसका मुझे अफसोस है कम से कम उतना तो है ही जितना तेलुगु के न आने का है, पर हिंदी का हिंदीपन- शुद्धता के विरुद्ध अपभ्रष्‍ट के विद्रोह से ही तैयार होता है- संस्‍कृत -पालि-प्राकृत-अपभ्रंश। इसलिए बंधु जब आप कहते हैं कि हिंदी को दूसरी भाषाओं से शब्‍द बिना उनके साथ छेड़छाड़ किए लेने पडेंगे तो आप पुनरुत्‍थानवादियों के हाथ में खेल रहे होते हैं- उलटी गंगा बहा रहे होते हैं- हिंदी की प्रकृति के विरुद्ध बात कह रहे होते हैं- हिंदी से उसकी संजीवनी छीन रहे होते हैं, जो है शब्‍दों को हस्‍तगत कर उन्‍हें तोड़ मरोड़ सरल बनाकर इस्‍तेमाल करना। इसलिए आपको उर्दू (मूलत: इसका मतलब है अरबी/फारसी, वरना उर्दू के बाकी शब्‍द तो वैसे ही हिंदी के साझी हैं, वो तो पहले ही हिंदी के हैं) के शब्‍द उनके उच्‍चारण व लिखित रूप में लेने होंगे का शर्त/जिद हिंदी के अस्तित्‍व के लिए घातक है। नुक्‍ता न स्‍वर है न व्‍यंजन का बदला रूप- तकनीकी तौर पर यह अलग व्‍यंजन है, इसे स्‍वीकार करने का ही मतलब हिंदी के व्‍यंजनों की संख्‍या में खतरनाक इजाफा जो इस भाषा के भविष्‍य को नष्‍ट कर देगा। जरा देखें कि आपने जिस वर्ग के लोगों को नुक्‍ता हामी करार दिया है वे सब आभिजात्‍य का ही प्रतिनिधित्‍व ही करते हैं- जिन्‍हें पोलिटिकली करेक्‍ट दिखना जरूरी जान पड़ता है, और हमें भी साप्रदायिकता का विरोध जरूरी जान पड़ता है पर इसके लिए अपनी भाषा को कुरूक्षेत्र बनाने के लि ए या उसे विकृत करने के लिए राजी होना हमें मुफीद नहीं जान पड़ता। यूँ भी ये उत्‍तर तो मिला नहीं कि युनुस खान को yunus khan लिखते समय k के नीचे कोई नुक्‍ता क्‍यों जरूरी नहीं है- सिर्फ इसलिए कि इस ताकतवर अंग्रेजी भाषा की प्रक्रियाओं पर कोई नुक्‍तावादियों का राजनैतिक प्रभाव नहीं है- हिंदी बेचारी ऐसी गरीब बहू है जिसे चाहे जो भौजी मान उससे छेड़ छाड़ कर सकता है- कोई आलोचक, प्रोग्रामर, इंजीनियर या उद्घोषक इस गरीब भाषा की प्रकृति, उसके मूल तत्‍व, वर्तनी या शैली पर सहजता से खिलवाड़ कर लेता है- क्षमा करे हम आपकी राय से सहमत नहीं हैं 11:28 PM Isht Deo Sankrityaayan said... लिख दिया तो देखा नहीं जाएगा मसिजीवी भाई. आपने बिल्कुल ठीक लिखा. यह नुक्ताचीनी हिंदी का सिर्फ सत्यानाश करेगी. यह सोचने की जरूरत है कि हिंदी में पहले से ही अन्य भाषाओं की तुलना में ज्यादा वर्ण हैं. भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही देखें तो किसी भाषा में बहुत अधिक वर्णों का होना उसे कठिन बनाता है. खास तौर से वे लोग जो उस भाषा क्षेत्र से बाहर के हैं उनके लिए उसे सीखना मुश्किल हो जाता है. शायद आपको पता हो कि चित्रलिपि वाली भाषाओं यानी चीनी, जापानी, कोरियन आदि के प्रसार में यही सबसे बड़ी बाधा है. अन्ग्रेज़ी के तेज प्रसार का बहुत बड़ा कारण यही है कि उनके यहाँ मात्राओं, नुक्तों और कई अन्य फ़ालतू झमेलों के लिए कोई जगह नहीं है. मात्राएँ न होने के बावजूद वे स्वरों का भी काम आसानी से चला लेते और पूरे वैज्ञानिक ढंग से. जबकि उर्दू इसी मुद्दे पर अपनी नुक्ताचीनी के साथ गोते खाने लगती है और हिंदी नुक्ते लगाने के बाद ऐसी लगाने लगती है जैसे किसी आयोजन में शामिल होने के लिए पडोसन से माँग कर गहने पहनी हो. उन्हें संभालने और दिखाने-छिपाने के खेल में ही उसका अच्छा-खासा वक्त जाया हो जाता है. यह मैं तब कह रहा हूँ जबकि हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं का मुझे अच्छा ज्ञान है और दोनों से मुझे बेहिसाब प्यार है, जिसके लिए मुझे किसी से सनद की जरूरत भी नहीं है. इस मुद्दे पर आप गंभीरतापूर्वक लिखें. ख़ूब लिखें. स्वागत है. जहाँ तक यूनुस भाई का सही बोलने का आग्रह है तो कृपया वे बताएं कि क्या हिंदी का ष ज्ञ ण आदि वर्णों को बिल्कुल सही बोलने और लिखने का कोई उपाय उर्दू या फारसी के पास है? क्या अन्ग्रेज़ी में उर्दू-फारसी के शब्दों का बिल्कुल ठीक लेखन और उच्चारण होता है? और छोड़िये भी हिं दी-उर्दू-फारसी-अन्ग्रेज़ी की बात दुनिया की कोई एक भाषा बता दीजिए जिसमें किसी दूसरी भाषा के वर्णों-शब्दों का बिल्कुल मूल की तरह ठीक-ठीक उच्चारण होता हो! 12:29 AM notepad said... मसिजीवी व इष्टदेव से सहमत हूं ।उर्दू के कुछ शब्दों के बिना काम नही चलता ,उनसे नज़दीकी भी है ।इसलिए नुक्ते का उच्चार कर तो लेते हैं पर लेखन में नही आ पाता ।जिन्हे बोलने में भी नही आ पा ता वे अशुद्धतावादी हैं यह मानना बहुत अन्याय है ।भाषा को लेकर शुद्धता की अवधारणा को जडता से पकडेन्गे तो उसका निरन्तर विकासमान होने का गुण और विशेषता खत्म हो जाएगी ।इसलिए जब कि सी भाई को लगे कि ज़माना कि बजाए जमाना हो रहा है तो बुरा मानने की बजाए समझा सके तो समझाए पर बिना आहत हुए या ज़ोर डाले।आखिर हम भी तो ’जन गन मन ..सहते आ रहे हैं । 9:41 AM मंगलवार 08 जनवरी 2008 15:24 को, आपने लिखा था: > रविकांतजी, > > लेख यहॉं देने के लिए आभार। > ये भाषा पर इतना बोझा राजनीति का और पोलिटिकल करेक्‍टनेस का भी कुछ जयादा ही > है तिसपर हिन्‍दी जैसी नई भाषा के लिए तो असह्य भी। चूंकि आप साप्रदायिकता के > खिलाफ लड़ना चाहते हैं इसलिए आपको एक समूची भाषा के हर व्‍यंजन को दोगुना कर > देना होगा ये अजीब तर्क है (ख और ख़ ये एक ही व्‍यंजन के दो रूप नहीं हैं वरन > दो अलहदा व्‍यंजन है) । यकीन मानिए नुक्‍ते का बोझ इतना कम भी नहीं ये बाकायदा > भाषा को डुबो सकता है। क्‍यों- इसलिए कि अगर भाषा के लिहाज से देखें तो आप > बहुत सी नई ध्‍वनियों को हिन्‍दी में जोड़ने का मांग कर रहे हैं- बख्शिए > हुजूर। हमारी राय रही- > http://masijeevi.blogspot.com/2007/08/blog-post_02.html > > विजेंद्र > > On 1/7/08, Ravikant wrote: > > दीवानो, > > From ravikant at sarai.net Wed Jan 9 16:10:42 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 9 Jan 2008 16:10:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSs4KWN4KSy?= =?utf-8?b?4KWJ4KSX4KSw4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLjgpK7gpY3gpK7gpYfgpLLgpKg=?= Message-ID: <200801091610.42878.ravikant@sarai.net> ज़्यादा जानकारी के लिए पाठ के अंदर जो विकी पृष्ठ की कड़ी है, उस पर जाएँ. रविकान्त http://www.hindimedia.in/content/view/969/43/ दिल्ली में हिन्दी ब्लॉगरों का सम्मेलन Press Release Wednesday, 09 January 2008 देश भर के हिन्दी ब्लॉगरों का एक सम्मेलन शनिवार 12 जनवरी 2008 को दिल्ली में आयोजित किया जा रहा है। इसमें कम से कम 150-200 व्लॉगरों के आने की संभावना है। इसका आयोजन दोपहर बा रह बजे से शाम पाँच बजे तक होगा, दौरान ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी से संबन्धित कई दी जाएँगी। इस सेमिनार में प्रोफेशनल/व्यवसायिक ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी से लेकर कॉर्पोरेट ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी, ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी के भिन्न आयामों आदि जैसे कई विषयों पर चर्चा होगी। तकनीकी विषयों पर भी अलग से चर्चा होगी जिसमें नए लोगों को ब्लॉगिंग आरम्भ करने, पॉडकास्टिंग, वीडियो ब्लॉगिंग, फोटो ब्लॉगिंग आदि जैसे ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी के भिन्न आयामों के बारे में बताया जाएगा। इस सेमिनार में कई नामचीन/सेलेब्रिटी ब्लॉगर भी आएँगे और एकाध सेलेब्रिटी ब्लॉगर से बातचीत वेबका स्ट (webcast) द्वारा भी दिखाई जाएगी। शिरकत करने वालों में कई वेब २.० से संबन्धित मार्केटिं ग कंपनियों के प्रतिनिधि भी होंगे जो कि नए और उभरते ब्लॉगरों से चर्चा करेंगे। सेमिनार की समयावधि में इसलिए एक भाग खुली चर्चा के लिए रखा गया है जिसमें ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी के विभिन्न आयामों से जुड़े लोग आपस में चर्चा कर सकें, अन्य शब्दों में इसको ब्लॉ ग नेटवर्किंग भी कहा जा सकता है और ब्लॉगिंग/चिट्ठाकारी के भिन्न आयामों से जुड़े नामी और नए लोगों से मिलने का यह एक अच्छा अवसर होगा। इस सेमिनार में नेट पर हिन्दी मे लिखने के इच्छुक सबी साथी आमंत्रित हैं। इसमें भाग लेने के लिए कोई शुल्क नहीं है।खाना-पीना, स्टेशनरी आदि का खर्च प्रायोजको 20-20 मीडिया और माइक्रोसॉप्ट कॉर्पोरेशन द्वारा वहन किया जाएगा। स्थान, समय सारिणी आदि जैसी अधिक जानकारी के लिए कृपया इस लिंक को देखें: http://wiki.delhibloggers.in/delhi-bloggers-meets और आप यदि चाहें तो अपना नाम आने वाले लोगों की सूची में स्वयं जोड़ सकते हैं। यदि नाम नहीं भी जोड़ पाए तो बी आपका स्वागत है। यदि कोई आपके पास कोई प्रश्न है तो आप बेहिचक पूछ सकते हैं। From chauhan.vijender at gmail.com Wed Jan 9 16:37:14 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 9 Jan 2008 16:37:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4oCN4KSm4KWAIOCkleClgCDgpJXgpKjgpY3igI3gpK/gpL7gpI/gpIIg?= =?utf-8?b?4KSc4KWA4KSC4KS4IOCkquCkueCkqOCkleCksCDgpKTgpK7gpL/gpLIg?= =?utf-8?b?4KSr4KS/4KSy4KWN4oCN4KSu4KWL4KSCIOCkleClgCDgpI/gpJXgpY0=?= =?utf-8?b?4oCN4KS44KWN4oCN4KSf4KWN4KSw4KS+IOCkleCljeKAjeCkr+Cliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkqOCknOCksCDgpIbgpKTgpYAg4KS54KWI4KSC?= Message-ID: <8bdde4540801090307j268b5f1bx314244bdb12f25cd@mail.gmail.com> *हिन्‍दी की कन्‍याएं जींस पहनकर तमिल फिल्‍मों की एक्‍स्‍ट्रा क्‍यों नजर आती हैं * सही कहें तो हमें नहीं पता कि ऐसा क्‍यों होता है।। पर क्‍या ऐसा होता है यानि क्‍या जींस पहनकर यानि आधुनिक फैशन के लिहाज से हिदी वालियॉं और वाले एकदम भैणजी हैं- तो हम झट से चुप्‍पी मार जाएंगे वरना पोलिटिकली करेक्‍ट मित्रों का मोहल्‍ला हमें कहीं का न छोड़ेगा। पर साफ करें कि ये शब्‍दाभिव्‍यक्ति हमारी नहीं है वरन कहानीकार उदयप्रकाश ने अपनी एक कहानी में रखी है। *विधाता गहरे असमंजस ऊब और थकान के हाल मे रहा होगा जब उसने हिन्दी डिपार्टमेंट की इन कन्याओ की रचना की होगी ।वह इस सृष्टि के किसी अन्य प्राणी को बनाना चाह रहा होगा मसलन नीलगाय जिराफ हिप्पोपोटामस घडियाल हाथी मेढक......* *उन्हे देखकर लगता थाकि जैसे अभी उडनखटोला, अनमोल घडी, बावरे नैन, बरसात जैसी फिल्मों का ज़माना चल रहा है . जो इनमे सबसे आधुनिक ह्योती वे पटरी से खरीदी गयी सस्ती जींस की रेडीमेद पेंट के साथ कोई भी अनमैचिंग टॉप या शर्ट पहन लेती और तमिल फिल्मो की एक्स्ट्रा नज़र आती या फिर अधिक से अधिक मेरा साया फिल्म की हीरोईन साधना जिसके जूडे के भीतर स्टील का गिलास औन्धा छिपा होता.* *(पीली छतरी वाली लड़की, पृष्‍ठ 48)* तो जब एक जमावड़े मेंउदय मिले तो ये एक मजेदार चर्चा थी। बाद में बहुत देर तक मैं उनके संवाद को डिस्‍क्‍लेमर संवाद के रूप में ही याद करता रहा। उन्‍होंने अपने संवाद की शुरूआत ही एक डिस्‍क्लेमर से की- मैं समाजशास्‍त्री नहीं हूँ लेखक हूँ मुझसे विश्‍‍लेषण की, पोलिटिकल करेक्‍टनेस की उम्‍मीद न करें वगैरह वगैरह...बाद में यह भी कहा कि मैं तो अदना सा लेखक हूँ मेरे लिखें में दलित विमर्श न पढें कोई और विमर्श भी न पढें वगैरह वगैरह.. ये भी कि लेखक बहुत बेचारा होता है पिसता है, उसे तड़का लगाना पड़ता है, उसका सलमान रश्‍‍दी कर दिया जाता है तसलीमा कर दिया जाता है वगैरह वगैरह..। किसी दलित विमर्श के पैरोकार ने उनसे ऊपर की पंक्तियों की सफाई मांगी कि भई ये क्‍या सौंदर्यशास्‍त्र है *हिन्दी डिपार्टमेंट की इन कन्याऐं* और *तमिल फिल्‍मों का एक्‍स्‍ट्रा*- इन नस्‍लीय तथा 'आपत्तिजनक' अभिव्‍यक्तियों पर कहते क्‍यों नहीं कुछ - उदयप्रकाश फिर से अपने डिस्‍क्‍लेमर की आड़ में चले गए। ये डिस्‍क्‍लेमर कुछ को ईमानदारी व साहसलगा तो कुछ अन्‍य इससे क्षुब्‍ध नजर आए। व्‍यक्तिगतरूप से हमारी राय है कि विमर्शात्‍मक चीरफाड़ यानि लेखन दलित-विरोधी है कि स्त्री-विरोधी, मार्क्‍सवादी है कि संघी इसकी शिनाख्‍त करने के हक से पाठक को महरूम नहीं रखा जा सकता और न ही लेखक अपने लिखें की जबाबदेही से सिर्फ इसलिए मुक्‍त हो जाता है कि वह तो लेखक है समाजशास्‍त्री नहीं किंतु यह भी सही है कि पोलिटिकल करेक्‍टनेस अधिक से अधिक एक जेस्‍चर है इसे यथार्थ मांग की तरह नहीं रखा जाना चाहिए। यदि उदयप्रकाश (या उनके किसी पात्र को) हिन्‍दी डिपार्टमेंट की कन्‍याएं फू‍हड़ लगती हैं तो वे लिखेंगे ही पर जब वे लिखेंगे तो वह पढ़ा भी जाएगा और तब उसकी सफाई भी मांगी जाएगी और तब ये सफाई काफी नहीं रहेगी कि मैं तो केवल लेखक हूँ मुझे गलत मत समझो.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080109/831de0e1/attachment-0001.html From baliwrites at gmail.com Thu Jan 10 18:49:27 2008 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Thu, 10 Jan 2008 18:49:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkueCkruCkqA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkl+CkrOCljeCkrOCksCDgpLjgpL/gpILgpLkg4KSV4KWLIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSw4KS+IOCkpeCkvic=?= In-Reply-To: <200801011831.57385.ravikant@sarai.net> References: <200801011831.57385.ravikant@sarai.net> Message-ID: ham to abhi tak gabbar ko salim javed ke dimag ki upaj hi man rahe the.padkar pata chala ki asli asli hi hota he. balvinder On 1/1/08, Ravikant wrote: > > http://1.raviwar.com/news.asp?n2 > > हमने गब्बर सिंह को मारा था > > असली गब्बर का चंबल में था आतंक > > सुनील कुमार गुप्ता, भोपाल से > > "यहां से पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है, सो > जा. सो जा > नहीं तो गब्बर आ जाएगा." > रमेश सिप्पी की शोले के गब्बर सिंह के आने-जाने और उसका अंतिम हश्र भले सबको > पता हो लेकिन > असली जिंदगी के गब्बर के मारे जाने का किस्सा कम ही लोग जानते हैं. > शोले से पहले भारतीय फ़िल्म इतिहास में किसी ख़लनायक का किरदार लोकप्रियता की > इतनी ऊंचाई > तक नहीं पहुंच पाया था. गब्बर शोले फिल्म का एक ऐसा किरदार था, जिसके संवाद > आज तीसरी > पीढ़ी में भी लगभग उतने ही लोकप्रिय हैं. > यह अनायास नहीं है कि गब्बर की लोकप्रियता को भुनाने के लिए उससे मिलते-जुलते > किरदारों वाली > कई फ़िल्में बनी. रामगोपाल वर्मा ने भी इसी गब्बर के मोहपाश में बंध कर अपनी > 'आग' जलाने की > असफल कोशिश कर डाली. यह शोले के गब्बर की लोकप्रियता ही है, जिसके कारण > अमिताभ बच्चन भी > कहते हैं कि वे गब्बर बनना चाहते थे. > हाल ये है कि इन दिनों हिंदी के कई लोकप्रिय चैनल गब्बर के खौफ को बेचने के > लिए अपने स्टूडियो में > कथित गब्बर को पकड़ कर ला रहे हैं लेकिन क्या असली गब्बर भी इतना ही खौफनाक > था ? > इसका जवाब आप छत्तीसगढ़ में रह रहे भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी आर > पी मोदी से पूछ > सकते हैं. > पुराने दिनों को याद करते हुए मोदी कहते हैं- "शोले के गब्बर से कहीं अधिक > ख़ौफ था असली > गब्बर का. लोग थर्राते थे उसके नाम से. 13 नवंबर 1959 को जब गब्बर मारा गया > तो चंबल में > हजारों लोगों ने चैन की सांस ली." > > पुराने पुलिस रिकार्ड के अनुसार 1924 में भिंड के डांग जिले में रघुवर गूजर > के घर पैदा हुए गब्बर को > जब एक मामले में गांव के रसूखदारों ने फंसा दिया तो उसने चंबल की राह थाम ली > और कल्ला गिरोह > में शामिल हो गया. > कुछ ही दिनों में गब्बर ने तत्कालीन भिंड, शिवपुरी, मुरैना, दतिया, ग्वालियर > में अपना साम्राज्य > कायम कर लिया. गब्बर के बारे में मशहूर था कि वह अपने शिकार की नाक-कान काट > लेता है. इन > इलाकों से इस तरह की खबरें लगातार आती थीं. > गब्बर ने कसम खाई थी कि वह काली माता के सामने एक हजार एक नाक चढ़ाएगा. गब्बर > की इस > सनक के कारण गांव के गांव खाली होने लगे थे. > गब्बर के बढ़ते आतंक को रोकने के लिए आखिरकार पुलिस ने खास रणनीति बनाई. > तत्कालीन मेहगांव के सेक्टर कमांडर आर पी मोदी को पता चला कि गब्बर अपने > गिरोह के साथ डांक > गांव में रुका हुआ है. > फिर शुरु हुई गब्बर की घेराबंदी. ग्वालियर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एस पी > बनर्जी, भिंड के > एएसपी तिरखा, डी के राजे, माधवसिंह, श्री महाडिक, शिवधान सिंह जैसे > अधिकारियों ने इसकी > कमान संभाली. > अलग-अलग रास्तों पर इस तरह घेराबंदी की गई कि कहीं से भी गब्बर के भागने की > गुंजाइश नहीं रहे. > पूरा इलाका पुलिस छावनी में बदल गया था. सभी रास्तों पर पुलिस की गाड़ियों > में लाइट मशीनगन > लगाए हुए पुलिस के जवान मुकाबले के लिए तैयार थे. > भरी दोपहरी में पुलिस बल ने जब आर पी मोदी के नेतृत्व में धावा बोला तो गब्बर > और उसके साथियों > ने जवाब में गोलियां बरसानी शुरु कर दी. गब्बर चाहता था कि किसी भी तरह पुलिस > को अंधेरा हो > ने तक उलझा कर रखा जाए लेकिन पुलिस ने इसकी नौबत नहीं आने दी. > गब्बर की गोलियों का जवाब देते हुए आर पी मोदी ने डाकू दल को लक्ष्य कर के > कुछ हथगोले फेंके और > जब धूल और धुंआं छंटा तो वहां गब्बर और उसके साथियों की लाशें पड़ी हुई थीं. > मोदी बताते हैं- " इस गब्बर से जब जनता को मुक्ति मिली तो लोगों में खुशी का > ठिकाना नहीं था. > लोग उस गब्बर को देखने के लिए उमड़ पड़े, जिसकी क्रूरता से चंबल थर्राता था. > " > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080110/7505726c/attachment.html From baliwrites at gmail.com Thu Jan 10 19:11:07 2008 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Thu, 10 Jan 2008 19:11:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_rapat_poorv?= =?utf-8?q?i_uttar_pradesh_se?= In-Reply-To: <200801011503.14942.ravikant@sarai.net> References: <200801011503.14942.ravikant@sarai.net> Message-ID: mayawati sarkar aur daliton ke sambadh ko roshni me lane ke liye shukriya. apke shabd ek sachchee taveer ankhon ke samne kheench rahe hen. kamal kar diya. balvinder On 1/1/08, Ravikant wrote: > > dosto, > > naya saal mubarak ho, aisi kaamna ke sath yeh nav varsh ka tohfa bhi, > hamare > bhootpoorv fellow anil pandey ki ankhin dekhi rapat. parhein aur > tipiyaein, > chahe yahan ya unke blog par jiska pata neeche milega. > > ravikant > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: Story > Date: मंगलवार 01 जनवरी 2008 13:02 > From: "anil pandey" > To: ravikant at sarai.net > > सप्ताह भर के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर था. मैं मायावती सरकार के > छह > महीने बीतने के बाद लोकतंत्र के उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला > था > जिसे दलितों ने अपने वोट से साकार किया था. पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर > प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की सरकार... समाज के हाशिए पर खड़े > सबसे गरीब आदमी की सरकार... जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसकी > सरकार > बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो हैं > लेकिन > फिलहाल उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि > उनके जीवन में कोई बदलाव होगा. > इस यात्रा में मैने जो देखा, महसूस किया, वह आप को भेज रहा हूं. यह यात्रा > संस्मरण द संडे इंडियन में प्रकाशित भी हुआ है. कपया इस पर अपनी टिप्पणी जरूर > दें... इसे मैंने अपने ब्लाग पर भी डाला है. इसका लिंक भी आप को भेज रहा > हूं.. > *नव वर्ष की ढेर सारी शुभ कामनाओं के साथ.. > -- > * > > > > दलित...यह एक ऐसा शब्द है, जो सदियों से नफरत और हिकारत का पर्याय रहा है. > हजारों सालों से > वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से शोषित होता आ रहा है. वह अपने वोट की > ताकत से > लोगों को सत्ता में पहुंचाता रहा, लेकिन खुद सत्ता से बहुत दूर, सामाज के > अंतिम पायदान पर खड़ा > रहा. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार दलितों के राजनीतिक दल बहुजन > समाज पार्टी > (बसपा) को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है. यहां अब दलितों की > सरकार है. बसपा सरका > र के शासन में दलित खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं, क्या उनके जीवन > में कोई बदलाव आ रहा > है...इसी का जायजा लेने के लिए मैं एक सप्ताह तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे > पर था. जो देखा वह > आप के सामने हैं.... > > > मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी उस पच्चीस साल की दलित विधवा सुनीता की सूरत > बार-बार आखों के सामने > आ जाती..वह दो बच्चों की मां थी. ऐसे बच्चे, जिनके सिर से बाप का साया उठ > चुका है. दिसंबर > की गुलाबी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के वे बच्चे... "जब बाप ना बाय, तो गरम > कपड़ा के दिआई???" > एक मां की दुख भरी आवाज बार बार कानों में कचोट रही थी. वोट किसे देते हो? > "हाथी पे..." > क्यों देते हो? "इ हमार पार्टी है." मायावती को जानते हो...? "हां, स्कूल > में मास्टरनी हैं.. " > कांशीराम को जानते हो? "इ के है?... रहुला के चाचा हैं." सरकार से क्या > चाहते हो?.. "अंतोदय > कार्ड.." > > सुनीता दो बार से बसपा को वोट दे रही है, अब उसकी सरकार है. क्या उसकी एक > छोटी-सी ख्वाहि > श भी पूरी नहीं हो सकती? उसके सपने केवल अंत्योदय कार्ड तक सिमट के रह जाते > हैं. सुनीता कहती > हैं, "बीडीओ साहब से कह कर हमारा कार्ड बनवा दीजिए. कम से कम दो जून की रोटी > तो मिल जा > एगी. नहीं तो मर जाएंगे." पति के इलाज के लिए सुनीता ने खेत गिरवी रख दिया > था. फिलहाल, > वह दूसरे के खेतों से बथुआ लाकर बच्चों का पेट पाल रही है. मेरे जेहन में > बार-बार यह सवाल घूम रहा > था. सुनीता बथुआ का साग खिला कर कब तक अपने बच्चों को जिंदा रख पाएगी? क्या > बसपा सरकार > में उसके हालात बदलेंगे? यह सोच ही रहा था कि ड्राइवर की तेज आवाज से मेरा > ध्यान भंग होता > है. "साहब, अंबेडकर गांव का बोर्ड लगा है, गाड़ी मोड़ दूं?" मेरे सामने राज्य > की राजधानी लखनऊ > से महज 30 किलोमीटर दूर शिवपुरी गांव की सुनीता की बातें फ्लैशबैक की तरह घूम > रही थी. > > हम अंबेडकर बस्ती की तरफ मुड़ जाते हैं. मैं मायावती सरकार के छह महीने बीतने > के बाद लोकतंत्र के > उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला था जिसे दलितों ने अपने वोट से > साकार किया था. > पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की > सरकार... समाज के > हाशिए पर खड़े सबसे गरीब आदमी की सरकार... जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि > कभी उसकी > सरकार बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो > हैं लेकिन फिलहाल > उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि उनके > जीवन में कोई बदलाव हो > गा. सुनीता जैसे लाखों लोग एक अदद बीपीएल और अंत्योदय कार्ड के लिए संघर्ष कर > रहे हैं, जिस पर > उनका हक है. लेकिन गरीबों का हक मार कर गांव के दबंग लोगों ने बीपीएल और > अंतोदय कार्ड बनवा > लिया है. इस कार्ड के जरिए गरीब दलितों को हर महीने बहुत ही सस्ते में 35 > किलो राशन मिल जा > ता है. > > टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते हुए हम अंबेडकर नगर के सीमई कारीरात गांव की > अंबेडकर बस्ती में पहुंचते हैं. > बस्ती तक पक्की सड़क है. अंबेडकर नगर संसदीय क्षेत्र से मायावती चुनाव लड़ती > है. मायावती के > राज्यसभा में जाने बाद फिलहाल इस संसदीय सीट पर सपा का कब्जा है, लेकिन इलाके > के पांचों > विधायक बसपा के हैं. सीमई कारीरात की दलित बस्ती की सूरत बिलकुल अलग है. यहां > समृद्धि > दिखाई देती है. बस्ती के ज्यादातर मकान पक्के हैं. लड़के और लड़कियां कालेज > में पढ़ते हैं. > कई लोग सरकारी नौकरी में हैं. जब इस बस्ती की तरफ देखता हूं तो दूर क्षितिज > में फिर से > सुनीता का असहाय चेहरा दिखाई देने लगता है... > > सीमई कारीरात की दलित बस्ती में पहली बार पिछले साल मई में 'डीजे' आया था... > अंबेडकर की > आदमकद मूर्ति के सामने उस दिन रात भर नाच गाना हुआ... पूड़ी और खीर बांटी > गई... > युवाओं के साथ-साथ बुजर्गों ने भी ठुमके लगाए. यह कोई शादी का अवसर नहीं था. > यह सदियों से > सताए गए दलितों के सत्ता प्राप्ति का उत्सव था. प्रजा से राजा बनने की खुशी > का अवसर था. पूरी > बस्ती में वह खुशी आज भी दिखाई देती है. गांव के नौजवान अनिल गर्व से कहते > हैं, "गांव के सवर्णों > की अब पहले जैसी हिम्मत नहीं रही. कालेज में अभी हाल में झगड़ा हुआ तो हमने > सवर्ण लड़कों को खूब > पीटा और सीना चौड़ा करके घर आए. वे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं पाए." बगल में खड़े > रिटायर शिक्षक > और बस्ती के युवाओं को वैचारिक खुराक देने वाले बुधिराम कहते हैं, "बसपा की > सरकार नहीं होती तो > वे हमें दबा लेते. मायावती के मुख्यमंत्री बनने से अब हम सिर उंचा करके चल > सकते हैं." > सीमई कारीरात वही ऐतिहासिक गांव है जहां एक पल्ले वाले दरवाजे लगाए जाते हैं. > लेकिन दलितों ने > विद्रोह किया और यहां ब्राह्मणों के इस फऱमान की परवाह किए बिना कि "इससे शिव > भगवान > नाराज हो जाएंगे" अपने घरों में दो पल्ले वाले दरवाजे लगा रहे हैं. बसपा > सरकार बनने के बाद यह > सिलसिला और बढ़ गया है. सीमई कारीरात के लोग खुश हैं. उन्हें लगता है कि बसपा > शासन > में य़ुवाओं को रोजगार मिलेगा और उन्हें सम्मान. लेकिन मुझे पूर्वी उत्तर > प्रदेश की अपनी एक सप्ताह > की यात्रा के दौरान सीमई कारीरात जैसी दूसरी दलित बस्ती नहीं मिली. लेकिन > हां, हर दलित > बस्ती में सुनीता जैसी महिलाओं से जरूर रूबरू होना पड़ता था. > > पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिजली की जबरदस्त किल्लत है. अंधेरे को चीरते हुए हम > शशि के घर पहुंचते हैं. > घर के बाहर पुलिस का पहरा है. फैजाबाद के मिल्कीपुर में मोमबत्ती की रोशनी > में हमारी मुलाकात > शशि के पिता योगेंद्र कुमार से होती है. मोमबत्ती की लौ की तरह ही योगेंद्र > की आंखे भी हिलती > रहती हैं... कभी वे अंधेरे को देखते हैं तो कभी रोशनी को... लंबी चुप्पी के > बाद वह अपनी बेटी > शशि की हत्या का आरोप बसपा के पूर्व मंत्री आनन्द सेन यादव पर लगाते हैं. > योगेंद्र बामसेफ के पुरा > ने कार्यकर्ता हैं और कांशीराम के सपने को साकार करने और बसपा की सरकार > बनवाने के लिए उन्होंने > अपना बहुत कुछ स्वाहा किया है. वह कहते हैं, "बसपा के शासन में मेरी बेटी के > हत्यारे खूलेआम घूम रहे > हैं. जो मंत्री और विधायक मेरे घर पर आ कर कभी डेरा डाले रहते थे, वे अब > मुझसे मुंह चुराने लगे है. > जिस बसपा के लिए मैने कभी घर परिवार की चिंता नहीं, उसके शासन में मैं असहाय > और लाचार महसूस > कर रहा हूं. बात सुनने की बात तो दूर मायावती ने तो मुझसे मिलने से ही इनकार > कर दिया." यो > गेंद्र कोई अकेले दलित नहीं हैं, जिन्होंने बसपा के लिए दिन-रात एक कर दिया > और जब सरकार की > मदद की जरूरत पड़ी तो उन्हें उपेक्षा ही मिली. दलितों का उत्पीड़न जारी है. > तब भी पुलिस दबंगों > का साथ देती थी और आज भी... बसपा शासन में भी दलित अपनी सामाजिक सुरक्षा को > लेकर चिंतित > हैं. लखनऊ के महिपत मऊं गांव के दलितों के घर में स्थानीय दंबग मुसलमानों ने > घुस कर जम कर उत्पात > मचाया, महिलाओं और लड़िकयों से बलात्कार की कोशिश की. पीड़ित चंद्रिका प्रसाद > कहते > हैं, "अपराधियों पर पुलिस इसलिए कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, क्योंकि एक > बसपा विधायक का > उन्हें संरक्षण प्राप्त है." संकट की इस घड़ी में बसपा नेताओं ने भी इनसे > किनारा कर लिया है... > अपने भी पराए हो गए.. > > प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील के भदेवरा गांव के दलित युवक चक्रसेन की गांव > के दबंग ब्राह्मणों ने > इसलिए हत्या कर दी थी कि उसका बीटेक में दाखिला हो गया था. चक्रसेन के परिवार > के लोग स्था > नीय बसपा विधायक पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हैं. जब चुनाव > का बिगुल > बजा तो भदेवरा के दलितों ने हर बार की तरह इस बार भी खुल कर बसपा का साथ > दिया. जब माया > वती मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें लगा कि अब > पंडित जी और बाबू > साहब लोग उन्हें तंग नहीं करेगे. लेकिन कुछ दिन बाद ही उनका सपना काफूर हो > गया. चक्रसेन के दा > दा शिव मूरत सहित बस्ती के लोग एक स्वर में कहते हैं, "यह दिन देखने के लिए > थोड़ी हमने बसपा को > वोट दिया था. अब हम लोग बसपा को वोट नहीं देंगे." > > चक्रसेन का घर गांव के आखिरी छोर पर था. वैसे दलित बस्ती गांव के आखिरी छोर > पर ही होती है. > सवर्णों के घरों से काफी दूर... जब मैं चक्रसेन के घर पहुंचता हूं तो एक आदमी > हमसे पूछताछ करने > लगता है. पता चला वह हेड कांस्टेबल बुधराम सरोज हैं. चक्रसेन का परिवार पुलिस > के सुरक्षा घेरे में > है. मैं जब अपनी नोट बुक में पुलिसवालों का नाम नोट कर रहा था तो बुधराम धीरे > से कहते हैं, "मेरे > नाम के आगे एससी लिख लीजिए." पांच पुलिस वाले घर की रखवाली कर रहे हैं, एक > कमरे के > उस घर की, जिसमें कुछ है ही नहीं... बुधराम सरोज चक्रसेन के बूढ़े-लाचार दादा > शिवमूरत की तरफ > इशारा करते हुए कहते हैं, "इनकी बहुत ही बुरी स्थिति है. घर में खाने तक को > अनाज नहीं है." > चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में लगे पांच पुलिसवालों में से तीन सवर्ण हैं, > दो पंडित जी और एक ठा > कुर साहब. जिस मड़ई में भैंस बांधी जाती थी, उसी में पांचो पुलिसवाले रह रहे > हैं. खाना वे दलित > बस्ती में ही एक साथ बनाते और खाते हैं. सवर्ण पुलिसवालों को एक गरीब दलित की > सुरक्षा में लगना > अखर रहा है. उनके चेहरे से यह साफ झलक रहा था... बुधराम सरोज कहते हैं, "अपने > अब तक के कैरि > यर मैं मैने शिवमूरत जैसे गरीब आदमी को कभी पुलिस सुरक्षा मिलते नहीं देखा." > शिवमूरत खुद मानते > हैं, "अगर बसपा की सरकार न होती तो उन्हें पुलिस सुरक्षा नहीं मिलती." लेकिन > वे आगे कहते > हैं, "हमें पुलिस वालों की नहीं, न्याय की जरूरत है." बस्ती के लोग कभी जिन > पुलिसवालों को देख > कर छुप जाते थे, चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में उनकी तैनाती को वे एक > अजूबा ही मानते हैं. > आसपास के इलाके में इसकी चर्चा भी है. > > रायबरेली कभी इंदिरा गांधी और अब सोनिया गांधी की वजह से जाना जाता है. > घूमते-घूमते हम यहां > के छतईंयां गांव की दलित बस्ती में पहुंचते हैं. अस्सी साल की अनपढ़ बुजर्ग > महिला बिठाना इंदिरा > गांधी के मुकाबले किसी को नेता नहीं मानती. सोनिया गांधी को वोट देने वाली > बिटाना मायावती > को चिल्ला चिल्ला कर खरी-खोटी सुनाती हैं और हवा में यह सवाल उछाल देती हैं, > "मायावती अपना > पेट भरेंगी कि हमारा?" शिवकुमार कहते हैं, "मेरे घर में पांच वोट हैं. वैसे > तो हम सोनिया गांधी को > चाहते हैं, लेकिन हर बार कम से कम दो वोट बसपा को जरूर देते हैं." ऐसा ही कुछ > रवैया > लखनऊ के शिवपुर गांव के दलितों का है. वे मुलायम के प्रशंसक हैं, लेकिन वोट > बसपा > को देते हैं. बाबूलाल पासी कहते हैं, "मुलायम सिंह की सरकार अच्छा काम करती > है. > लेकिन वोट मैं बसपा को ही देता हूं." यहां आकर बसपा की सफलता का राज समझ > में आया. कांशीराम ने दलित और बसपा को एक दूसरे का पर्याय बना दिया है. यही > वजह है कि दलि > त अब अपने को बसपा से अलग नहीं कर पाता. राम नरायण कहते हैं, "वह अगर किसी > दूसरी पार्टी > को वोट दे भी दें, तो लोग यकीन नहीं करते. उन्हें बसपा का ही माना जाता है." > > यह लखनऊ जिले के निगोहा गांव की अंबेडकर बस्ती है. हाल ही में इसे अंबेडकर > बस्ती का दर्जा मिला है. मायावती सरकार का विकास कार्य यहां दिखाई देता है. > 132 दलितों को > घर बनाने के लिए पैसा मिल गया है. लेकिन भूमिहीन दलितों को पट्टा देने के लिए > जमीन ही नहीं > है. मायावती के सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी यहां दिखाई देती है. मैं दलित > पंच गंगा सहाय के > साथ गांव के प्रधान से मिलने जाता हूं. उनके घर के सोफे पर हम तीनों साथ बैठ > कर बाते करते हैं और > चाय पीते हैं. इस बारे में पूछने पर बसपा समर्थक गांव के प्रधान सुरेंद्र > कुमार दीक्षित कहते हैं, "अब > हम दलितों से बराबरी का व्यवहार करते हैं. मैं सर्दियों में अक्सर दलित बस्ती > में जाकर वहां लोगों > के साथ जमीन पर बैठ कर अलाव तापता हूं." उत्तर प्रदेश में कहीं-कहीं यह बदलाव > दिखता, लेकिन > बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर. अगर बसपा यह बदलाव लाने में कामयाब हो जाती है तो > दलितों को वह > सम्मान मिल जाएगा, जिसके लिए वे सदियों से संघर्ष करते आ रहे हैं. लेकिन > आम दलित के लिए तो अभी यह सपने जैसा ही है.. हकीकत से बहुत दूर.. प्रतापगढ़ > के गोपालपुर गांव > के शिवबरन सरोज कहते हैं, "सवर्ण कभी नहीं चाहेंगे की हम उनकी बराबरी करें." > > > > Regards:- > Anil Pandey > > Principal Correspondent > The Sunday Indian > Mb.:- 09968256956 > > Blog:- > www.roadshow.com.co.in > www.roadclub.blogspot.com > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080110/c67ed0bc/attachment-0001.html From sadan at sarai.net Fri Jan 11 14:57:56 2008 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Fri, 11 Jan 2008 14:57:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwLCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS14KS/4KSk4KS+IOCklOCksCDgpK/gpL7gpKbgpYfgpII=?= Message-ID: मित्‍रों, मैं सूरत शहर में रह रहा हूं। अभी सूरत के शहरी जीवन पर शोध शुरू किया है। मैं शहर, कविता और यादों के संवाद पर सोच रहा हूं। सुझाव आमँत्‌रित हैं। सदन। From vineetdu at gmail.com Sun Jan 13 22:38:53 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 13 Jan 2008 09:08:53 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSH4KSuIOCkn+CkvuCkh+CkriDgpK7gpYfgpIIg4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkmuCksOCljeCkmuCkvg==?= Message-ID: <829019b0801130908u71a76a08r37de72ad7c17712e@mail.gmail.com> मेनस्ट्रीम की मीडिया में भी ब्लॉग को लेकर चर्चा शुरु हो गई है। वैसे तो अखबारों या फिर पत्रिकाओं में समय-समय पर ब्लॉग से जुड़े मुद्दे छपते रहे हैं लेकिन आज एनडीटीवी 24*7 ने इस पर एक घंटे का बाकायदा शो किया। प्राइम टाइम में *वी द पीपुल* में बरखा दत्त ने ब्लॉग के अलग- अलग मसलों पर लोगों से सवाल किए, एक्सपर्ट कमेंट्स लिए और कुछ ब्लॉगरों से बातचीत भी की। इस बातचीत में अपने हिन्दी के ब्लॉगर रवीश कुमार भी शामिल थे। प्राइम टाइम में ब्लॉग पर चर्चा किया जाना ब्लॉग दुनिया के लिए वाकई एक बड़ी खबर है। आप समझते सकते हैं कि मेनस्ट्रीम की मीडिया भी हमारे इस काम को सीरियसली समझना चाहती है और उसे भी इस बात का एहसास होने लगा है कि आनेवाले समय में ब्लॉगर भी जर्नलिज्म के ट्रेंड को प्रभीवित कर सकता है। ब्लॉगिंग करनेवालों के लिए ये एक सुखद स्थिति है। पूरे एक घंटे को अलग- अलग सिग्मेंट में बांटा गया और हरेक सिंगमेंट ब्लॉग के अलग-अलग पहलुओं पर आधारित थे। इसके साथ ही लीगल एक्सपर्ट के साथ-साथ साइकियाट्रिस्ट और ब्लॉग वर्क्स के फाउँड़र को भी एक्सपर्ट कमेंट्स देने के लिए बुलाया गया। ये दोनों बाते इस बात की ओऱ इशारा करती है कि मेनस्ट्रीम की मीडिया जहां ब्लॉग के तमाम पहलुओं के साथ-साथ इसके सोशल और साइको इफेक्ट को भी समझना चाहती है। चैनल का इस बात पर भी जोर रहा कि ब्लॉग को लेकर क्रेडिविलिटी कितनी है और कितना भरोसा किया जा सकता है ब्लॉगरों की बातों का। इन सबके बीच कानूनी पेंच कहां-कहां फंस सकते हैं। हम जैसे दर्शकों के लिए ये पूरा शो इन्फार्मेटिव तो रहा ही इसके अलावे चैनल को भी इस बात का अंदाजा लगा कि किस तरह के दिल-दिमाग को लेकर लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं और क्या वाकई आनेवाले समय में ब्लॉग समाज के अलग-अलग स्तरों पर जमें हायरारकी को चैलेंज करेगा और मेनस्ट्रीम की मीडिया को प्रभावित कर सकेगा। बातचीत के क्रम में ये बात और साफ हो गया है कि ब्लॉग क्या कुछ कर पाएगा ये बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम ब्लॉगिंग को किस रुप में लेते हैं। अगर हमारा ईशारा इस बात की ओर है कि ब्लॉगिंग से सामाजिक हालातों को कुछ हद तक बदला जा सकता है या फिर उस स्तर पर समझा जा सकता है, जिस पर जाकर मेनस्ट्रीम की मीडिया नहीं सोच पाती।( ऐसा भले ही प्रोफेशन के दबाब या फिर अन्य कारणों से हुआ हो।) लेकिन अगर हम ब्लॉगिंग को जस्ट फॉर फन के तौर पर ले रहे हैं तब तो ये अपनी बातों को शेयर करने का माध्यम भर होगा, सही अर्थों में कोई सोशल टूल या फिर अल्टरनेटिव मास मीडिया नहीं। ब्लॉग को पर्सनल या फिर पब्लिक डोमेन के रुप में समझने वाली बात इसी से जुड़ी है। जो कि अंग्रेजी ब्लॉग और हिन्दी ब्लॉग को कटेंट पर बात करने के क्रम में और भी साफ हो गया। शो में चार अंग्रेजी के ब्लॉगर थे और हिन्दी के एक। जाहिर है ये अंग्रेजी चैनल और शो है इसलिए ऐसा हुआ और रवीश कुमार ने तो दिन की पोस्ट में कहा भी कि उन्होंने एनडीटीवी में होने का लाभ उठाया। लेकिन पोस्ट पढ़कर इतना भरोसा हो आया था कि ये हिंदी ब्लॉग के प्रतिनिधि के रुप में अपनी बात रखेंगे और ऐसा हुआ भी। अंग्रेजी के तीन ब्लॉगरों ने जिस कंटेंट पर बात की वो सेक्स और रिलेशनशिप से जुड़े थे जबकि एक दूसरी ब्लॉगर झूमर अपने ब्लॉग में फेमिनिज्म से जुड़े मुद्दों पर पोस्ट लिखने की बात कर रही थी। भाषाई बदलाव के साथ-साथ कंटेंट यानि बात करने के मसले बदल जाते हैं, ये तो मानी हुई बात है और अंग्रेजी ब्लॉगरों की बातचीत से ये साबित भी हो रहा था कि उनके मुद्दे और ट्रीटमेंट का तरीका हिन्दी ब्लॉगरों से अलग है. रवीथ कुमार ने कहा भी वो ब्लॉग पर घर में फ्रीज आने की बात पर लिख रहे हैं और पाठक उस पर अपनी यादों को जोड़ रहा है। यानि ब्लॉग पर्सनल रह ही नहीं जाता। लोग उन्हें कमेंट्स करते हैं और उनकी बातों का विरोध भी करते हैं। वे इससे सीखते हैं और पहले से ज्यादा समझदार हो रहे हैं। एक अर्थ में हम कहें तो रवीश का इशारा इस बात पर रहा कि ब्लॉग ने उन्हें सोशल बनाया, दुनिया के बीच रोज बोलते रहने पर भी जिस अकेलेपन का बोध होता है, उसे कम करता है, वगैरह-वगैरह। यानि साइको इफेक्ट की जो बात करने के लिए एक्सपर्ट आए थे औऱ ब्लॉग के जरिए पहले से ज्यादा सोशल कन्सर्न रखने की बात कर रहे हैं, रवीश ने अपनी बात करके उन सबके लिए केस स्टडी दे दिया। इन सब बातों के बीच एनोनिमस, ठेठ हिन्दी में कहे तो ब्लॉग के नाम पर टुच्चापन करने का मसला छाया रहा और इस बात का यही निकाला गया कि ब्लॉग को लेकर शेल्फ रेगुलेशन और इथिक्स को मानना ज्यादा जरुरी होगा, बजाय इसके कि सरकार या कोई दूसरी ऑथिरिटी इसमें कूद पड़े। पूरे शो में बरखा मजे लेती नजर आयी और वादा किया कि वो भी अपना ब्लॉग बनाएगी, जाहिर है अंग्रेजी में ही। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080113/63584a78/attachment-0001.html From sadan at sarai.net Tue Jan 15 11:48:40 2008 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Tue, 15 Jan 2008 11:48:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwLCAg?= =?utf-8?b?ICDgpJXgpLXgpL/gpKTgpL4g4KSU4KSwIOCkr+CkvuCkpuClh+Ckgg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: mitra, koshis to yahi hai, pata nahi aage kya ho.dhnayawaad aur aage bhi sujhaaw dete rahain. ek uljhan jo meri bahut dino se bani hui hai wah bhasha ko lekar hai. jab main sarai main kaam karta tha aur delhi main rah raha tha to is baat ko lekar, aur apane tewar ke chalte kai baar logon ko pareshan bhi kiya kartaa thaa. meri kaam kaaj ki bhasha english hai, jatan kar ke sikha isiliye english ka meri jindagi main kya maayna hai, is baat par main ekdam clear hun. hindi, main hamesha galat bolata raha aur galat likhata raha. maaster ji se lekar ravikant aur sarai waale Dipu ne bahut kosis ki ki nukta lagaanaa sikh jaaoon, ling ki sahi pahchaan ho jaaye aadi aadi. par maithili ka gawaanrpan nahi chhutaa. to kuchh gambhir lekhan se katraataa rahta hun. lekhan ke style ko lekar bhi dwividha rahti hai. kul milakar maamla thora khatai main par jaataa hai. hindi main jab likha to kuchh khaas logon ke aagrah aur uksaane par hi likha. Bahuvachan waale Prabhat Ranjan aur Rajesh Ranjan ka bahut bara haath raha. Sarai ke rakesh ji aur ravikant ji ne bhi gaahe bagahe musibat mol le hi li. dekhiye aage kya rukh akhtiyar karti hai, surat ka surate-haal. dhanyawaad aapke amil ka, sadan. On 11:03 am 01/12/08 "balvinder singh" wrote: > > sadan bhaikyon na tum surat shahar ki surat ko mazedar shabdon me > bandhte?balvinder > > On 1/11/08, sadan at sarai.net wrote:मित्‍रों, > मैं सूरत शहर में रह रहा > हूं। अभी सूरत के शहरी जीवन > पर शोध शुरू किया है। मैं > शहर, कविता और यादों के > संवाद पर सोच रहा हूं। > सुझाव आमँत्‌रित हैं। सदन। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From rajeshkajha at yahoo.com Tue Jan 15 12:55:26 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Mon, 14 Jan 2008 23:25:26 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwLCAg?= =?utf-8?b?ICDgpJXgpLXgpL/gpKTgpL4g4KSU4KSwIOCkr+CkvuCkpuClh+Ckgg==?= Message-ID: <262881.11084.qm@web52904.mail.re2.yahoo.com> main hamesha galat bolata raha aur galat likhata raha. maaster ji se lekar ravikant aur sarai waale Dipu ne bahut kosis ki ki nukta lagaanaa sikh jaaoon, ling ki sahi pahchaan ho jaaye aadi aadi. par maithili ka gawaanrpan nahi chhutaa. और न ही छूटा तो भी बहुत मुश्किल नहीं है :-) इसमें कोई शक नहीं कि सदन इतना बढ़िया लिखते हैं कि उन गलतियों की ऐसी-तैसी! वैसे सूरत शहर कुछ दूसरे चीजों के लिए फैमस रहा है...कविता के साथ इनके संबंध को जानना वाकई दिलचप्स होगा... हां, सदनजी, http://www.google.com/transliterate/indic/ http://www.bhomiyo.com/xliteratetext.aspx हिंदी में लिखने या लिप्यांतरण के लिए इसे आजमाइए... सादर, राजेश ____________________________________________________________________________________ Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. Try it now. http://mobile.yahoo.com/;_ylt=Ahu06i62sR8HDtDypao8Wcj9tAcJ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080114/f96a3f65/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Jan 15 16:25:36 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 15 Jan 2008 16:25:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWA4KSk4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkrOCkoeCkvOCkviDgpK/gpL4g4KS44KS+4KS54KS/4KSk4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KSV4KS+4KSw?= Message-ID: <200801151625.36712.ravikant@sarai.net> mohalla aur qasba se saabhar. parichay Avinash ka hai, aalekh Raveesh ka aur donon hi blogon par sushobhit hai. maze lein. isi vishay par ek aalekh Mihir Pandya ka likha aap medianagar 03 mein bhi parh sakte hain, jo ab bazar mein uplabdh hai. ravikant http://naisadak.blogspot.com/2008/01/blog-post_09.html नामवरों से आगे साहित्‍य की नयी ज़मीन पत्रकार रवीश कुमार की गिनती साहित्‍यकारों में नहीं होती। वरना उन्‍होंने कहानी भी लि खी है, कविताएं भी और सामाजिक मुद्दों पर कलम तो अक्‍सर चलाते ही रहते हैं। उनकी स्‍पेशल रिपोर्ट सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं होती, बल्कि एक ऐसी आज़ाद रचना होती है, जो कई दिनों तक हमारी नींद ख़राब करती है। इसलिए रवीश कुमार अगर साहित्‍य की गणित-गणनाओं से बाहर हैं, तो इससे उनकी अर्थवत्ता ग़ैरसाहित्यिक नहीं हो जाती। ठीक उसी तरह सिनेमा में गीत की जो परंपरा साहिर से चली आ रही है, वह प्रसून जोशी तक आकर भी अपना मानी नहीं खो रही। लेकिन इस बीच साहित्‍य के नामवरों ने कभी सिनेमा के गीतों को गंभीरता से नहीं लिया। हिंदी की साहित्यिक बि ल्डिंग की बालकनी से भी बाहर हवा में तैर रहे हिंदी गीतों को सलाम कर रहे हैं रवीश कुमार। उनकी अनुमति से उनके ब्‍लॉग कस्‍बा से साभार ये आर्टिकल आपकी ख़‍दमत में यहां पेश है। ---- पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक् में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फि र अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते, कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं, वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है, जो पहले कविता लिखती है, फिर उसे गीतों में ढाल देती है। ये लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे... अनुराग की लिखावट देखिए। ये लोग बाज़ार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं। ये वो पीढ़ी है, जिसे देख कर लगता है, बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गये हैं। जिनके पास समझ है। आबो हवा की खुशबू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है, इस पर शोध फि र कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबइया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है - मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए - तीजा तेरा रंग था मैं तो जीया तेरे ढंग से मैं तो तू ही था मौला तू ही आन मौला मेरे ले ले मेरी जान तारे ज़मीन पर के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए (1) तू धूप है झम से बिखर तू है नदी ओ बेख़बर बह चल कहीं उड़ चल कहीं दिल खुश जहां तेरी तो मंज़िल है वहीं (2) मां मैं कभी बतलाता नहीं पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां यू तो मैं,दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूं मैं मां तुझे सब है पता, है न मां तुझे सब है पता मेरी मां सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना - इन दिनों दिल मेरा मुझसे है कह रहा तू ख्वाब सजा तू जी ले ज़रा है तुझे भी इजाज़त कर ले तू भी मोहब्बत बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी कुछ रंग तो भरूं मैं अपनी तन्हाई के वास्ते अब कुछ तो करूं बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए - देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से देखना क्या हुआ है यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है कहीं से। ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं, तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह, अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बो ल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं, तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मि लता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता? यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नये गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए। From vineetdu at gmail.com Tue Jan 15 16:46:29 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 15 Jan 2008 16:46:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSC4KSV?= =?utf-8?b?4KS/4KSkIOCkruCkqOCkgyDgpIXgpKwg4KSs4KS/4KSV4KWN4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8=?= Message-ID: <829019b0801150316v39b291dft7e125c8b34271b3b@mail.gmail.com> वर्ल्ड बुक फेयर में हूं। दिल्ली, प्रगति मैंदान के हॉल न. 6 के ठीक सामने। एरो लगा है- हिन्दी के नए साहित्य के लिए यहां पधारे। मैं सीधे हॉल के अंदर पहुंचता हूं। देखता हूं कि कहीं कोई किताब की स्टॉल नहीं है, न वाणी, न राजकमल, न ज्ञानपीठ और न ही किताबघर। लेकिन मजे की बात कि लगभग सारे स्टॉल पर भीड़ खचाखच भरी है। खरीदारी के लिए मार हो रही है। मैं अकचका जाता हूं, भईया जब कहीं कोई किताब नहीं तो लोग खरीद क्या रहे हैं। सारे स्टॉल पर पांच-छः डेस्कटॉप या फिर किसी-किसी पर लैपटॉप लगे हैं और प्रिंटर से धड़ाधड़ कागज निकल रहे हैं। दुकानदार कागज गिनकर ग्राहक को दे रहा है और ग्राहक बिल पेमेंट कर रहे हैं। सारे स्टॉल पर एकदम नए लेकिन जाने-पहचाने लगभग दोस्तों के अपने नाम। एक स्टॉल के बोर्ड पर लिखा है- मसीजीवी का खुराफाती मन, यहां पढ़ें। मोहल्ला का चिकचिक औऱ आपका कोना, इन्ट्री लें। नोटपैड का लिखित वर्जन। फुरसतिया का सम्पूर्ण पाठ, यहां से लें। लिंकित मन हो गया है अब किताबी दुनिया में शामिल। रविरतलामी अब चार खंडों में। एक स्टॉल पर गाना बज रहा है, एक भड़ासी, दो भड़ासी, तीन भड़ासी, चार। और अलांउस हो रहा है कीमत सिरफ 60 रुपये, साठ रुपये, साठ रुपये। कस्बा- पढ़ने को मन करता है, यहां से लें। रेडियोनामा की सारी बातें, कीमत 1600 रुपये, डाकखर्च सहित। बिहार का मंजर, हफ्तावार में। अगड़म-बगड़म खरीदें आसान किस्तों पर। इस तरह से अलग-अलग स्टॉलों पर अलग- अलग आकर्षण और ग्राहकों के फायदे का वायदा। सबसे पहले मैं मसीजवी स्टॉल पर गया और प्रकाशक के मालिक ही मिल गए, अपने विजेन्द्र सर, ब्राउसर लिया और पूछा, सर ये स्टॉल वाले ने तो बहुत पैसे लिए होंगे। उनका जबाब था नहीं रे बचवा, सरकार ने सब्सिडी दी है। 230 रुपये नकद, पासपोर्ट साइज फोटो, आइडी की फोटो कॉपी और अंडरटेकिंग कि आप लिखिए कि आप जीते जी अपना प्रकाशन बंद नहीं करेंगे। तुम इतना तेज बनते हो, पता नहीं चला तुमको, नहीं लगाए अपना स्टॉल, रुको कहीं कुछ देखता हूं। उसके बाद पहुंचा मोहल्ला जहां से मेरी भी कुछ रचनाएं छपती है। देखा वहां सुंदर-सुंदर रिपोर्टर प्रकाशक की बाइट ले रहे हैं। मोहल्ला के स्टॉल पर धीरे-धीरे बज रहा है- *मोरे बलमा मोरी चोलिया मसक गयी* रेडियो में मेरी रुचि है सो यूनूस भाई और इरफान का स्टॉल एक ही साथ था, शायद मुरीदों को भटकना न पड़े, पहुंचा वहां भी। वहां से लोग सीडी खरीद रहे थे, पुराने रेडियो नाटकों और गानों के। पीछे से पुराने विज्ञापनों की आवाज आ रही थी- *मुन्ना जा जरा पान की दुकान से नमक तो ले आ।* यूनूस भाई ने मना करने पर भी एक सीडी पकड़ा दी। पैसे के लिए पूछा तो बोले, पराया समझते हैं आप हमें। हफ्तावार के स्टॉल पर एक नोटिस लगी थी कि आप यहां से जो कुछ भी ले जाएंगे, उसके पैसे बिहार की बदहाली को कम करने के लिए वहां भेज दिया जाएगा। लोग पूछ रहे थे अगर आगे भी डोनेट करना चाहे तो क्या करना होगा। नीलिमा के ब्लॉग पर साफ लिखा था, रचनाओं की असली कीमत है कि वो सही पाठकों तक पहुंचे, बाकी कोई दाम नहीं। एक स्टॉल पर कुछ ट्रेनिंग चल रही थी- कुछ बोलने की। कुछ क्या गाली देने की ट्रेनिंग जी, गाली देने की। किऑस्क पर साफ लिखा आ रहा था- *क्या आप दिल्ली में नए हैं* *आपको यहां झिझक होती है* *कंडक्टर आपकी बात नहीं सुनता* *लाइफ में कुछ करना चाहते हैं* तो यहां आइए आपको सिखाते हैं गाली। गाली से परहेज कैसा। कांनफिडेंस आएगा भाई। ये जितेन्द्र भाई का प्रकाशन है। नोटपैड पर टॉक शो चल रहा था। सवाल स्त्रियों के और जबाब मृणाल पांडे के। जानिए अपने अधिकारों को किरण बेदी से। आपके घर में बेसन, घी, चीनी, मैदा और गैस भी है तो फिर क्यों जाएं आफिस भूखे। दस मिनट में गरमागरम नाश्ता तैयार। लीजिए टिप्स निशामधुलिका के। बोल हल्ला वाले स्टॉल पर देश के चार बड़े मीडियाकर्मी बैठे थे और नए पत्रकारों को बता रहे थे कि कैसे मालिकों को खुश करके भी समाज सेवा करें। सब पर वैसी ही भीड़ और हर बंदे के हाथ में प्रकाशकों की थैली और माल भी। लेकिन हैरत हुई भड़ास के स्टॉल पर लिखा था- *सिरफ काम का माल ले जाएं।* देखा वहां कुछ ज्यादा ही भीड़ है। खासकर नए पत्रकारों की या फिर जो मीडिया कोर्स कर रहे हैं- उनकी। वे एक सीडी लेकर आ रहे हैं- जिसपर कंपनी की पंचलाइन लिखी है- सारा माल इसमें। स्टॉल पर जाकर पूछा कि इस सीड़ी में क्या है भईया. तो बताया कि सर इसमें मीडिया के सारे बाबाओं के पर्सनल मोबाइल नं है और उनके चूतियापे का काला चिठ्ठा, उनके सफल होने के राज और कैसे बने खालिस पत्रकार. बहुत काम का है ले लीजिए सर। मैंने कहा मैं लेकर क्या करुंगा, हां अगले मेले में एक सीडी मैं भी दूंगा तुम्हे. सेल्समैन मुस्कराया, समझ गए सर। अलग-अलग रंगों, कार्यक्रमों और हिन्दी की नयी रंगत को देखकर मन खुश हो गया। लगा अपनी हिन्दी भी कुछ काम की है भाई। लोटने लगा तो कई जगहों पर लिखा देखा- गाहे- बगाहे का भसर यहां उपलब्ध है।। शा न अजीब सपना लेकिन हकीकत के बहुत नजदीक -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080115/19f62e82/attachment-0001.html From mahinder31 at gmail.com Wed Jan 16 15:22:29 2008 From: mahinder31 at gmail.com (mahinder pal) Date: Wed, 16 Jan 2008 15:22:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dhanyavaad! Message-ID: <99045ac70801160152jdca4283n5b0567901135da56@mail.gmail.com> priy ravikant dhanyavaad mailinglist mein shaamil karne k liye . mahinder -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-22 Size: 221 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080116/dc83b2eb/attachment.bin From avinashonly at gmail.com Wed Jan 16 15:35:11 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 16 Jan 2008 10:05:11 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSmIOCkrOCkrOClgeCkhiDgpKfgpYDgpLDgpYct4KSn?= =?utf-8?b?4KWA4KSw4KWHIOCkhuCkr+ClgA==?= Message-ID: <85de31b90801160205y316151eej86588350a988da58@mail.gmail.com> *बिहारवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी* उर्फ दिल्‍ली में एक अकेली लड़की *अपराजिता की टिप्‍पणी** और उनका आशय जो भी रहा है, लेकिन सच यही है कि सभ्‍य शहरी मन के लिए बिहार जैसी जगहों को लेकर एक डर तो है ही। इस डर की कहानी के बहुत सारे पाठ होंगे, जिसकी जड़ें शायद बिहार से आये हुए कामगारों से जुड़ी होंगी। ब्‍लॉगिंग को निहायत व्‍यक्तिगत गतिविधि के रूप में पारिभाषित करते हुए इसकी सामूहिक चेतना पर व्‍यंग्‍य और शक करने वाले **मसिजीवी* * जैसे लोग भी इस डर से आक्रांत लगते हैं और अपनी उलझी हुई शैली में संत-आख्‍यान देने की कोशिश करते हैं। मैं न तो अपराजिता की टिप्‍पणी को बहुत गंभीरता से ले रहा हूं, न ही उस पर आयी प्रतिक्रियाओं को। लेकिन एक अनुभव को मैं दरकिनार नहीं कर पा रहा, जिसे दिल्‍ली में रहने वाली एक लड़की ने झेला। दिन पूरा चढ़ जाने के बाद आज जब सोकर उठा, तो दीप्ति दुबे का ये अनुभव चंद वाक्‍यों में तब्‍दील होकर हमारे मेलबॉक्‍स में पड़ा था। **दीप्ति दुबे* * सीएनईबी (कंप्‍लीट न्‍यूज़ एंड इंटरटेनमेंट ब्रॉडकास्‍ट) में काम करती हैं, जो अभी ऑनएयर नहीं हुआ है। भोपाल की रहने वाली हैं और वहीं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्‍थान से डिप्‍लोमा कर चुकी हैं।* ** *अविनाश * * **एक ऑटो।* नौ सवारी। एक अकेली मैं लड़की। बाकी सारे उत्तर भारतीय। शायद सभी बिहारी। मैं बीचों-बीच बैठी हुई थी। मेरे मन में कुछ अपना ही गुणा भाग चल रहा था। तब ही अचानक रेडियो पर आरजे ने कहां कितनी सेफ़ है दिल्ली। लड़कियां अपनी बातें फ़ोन कर कर के बता रही हैं। मेरा दिमाग अपने में ही है। तब ही अचानक एक सवाल - ऑटो में कितनी सेफ़ है दिल्ली की लड़कियां ऑटो में। मेरे कान खड़े हो गए। मैंने चारों ओर नज़र घूमाई और मैं डर गई। कपड़ों से सभी किसी फ़ैक्ट्री के मज़दूर लग रहे थे। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। तभी अचानक रेडियो पर पोल खत्म हुआ और लालू की आवाज़ में मिमिक्री हुई और बिल्लो रानी गाना शुरू हो गया। ऑटो में बैठे सभी लोग हस पड़े। मेरा डर और बढ़ गया। मैं कुछ हिली डुली। मेरे साथ वाले अंकल बोले - बेटाजी तकलीफ़ है। हम साइड हो जाएं। वहां बाल बराबर खिसकने की भी जगह नहीं थी। मैं कुछ नहीं बोली। गाना खत्म हुआ और फिर लालू की मिमिक्री शुरू हुई। सबसे डरावना था एफ़ एम की टेग लाईन - चिपक के बैठो। सब फिर हस पड़े। मैं एकदम चुप। तभी मेरे पास बैठे लड़के ने कहा - आप कही हमसे डर तो नहीं रही है। हम बिहारी है बुरे नहीं। और फिर सब हस पड़े। मुझे तब से खुद पर शर्म आ रही है। पता नहीं क्यो। आप बताएं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080116/9f5af0b6/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Jan 16 18:56:21 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Jan 2008 18:56:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KSX?= =?utf-8?b?4KWA4KSk4KSV4KS+4KSwIOCkrOCkoeCkvOCkviDgpK/gpL4g4KS44KS+4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSk4KWN4KSv4KSV4KS+4KSw?= Message-ID: <200801161856.22139.ravikant@sarai.net> क्या बात है नरेश जी. मैं तो घोषित तौर पर गुलज़ार-फ़ैन हूँ, और किसी हद तक आपका भी. बहुत अच्छा लिखते हैं, आप. इतना अच्छा इतना कम नहीं लिखा जाना चाहिए. गुलज़ार के दूसरे गीत से मुताल्लिक़ एक भोगा हुआ यथार्थ याद आया - मेरा एक मित्र है, कॉलेज के दिनों की बात है, वह हिन्दी सब्सी देकर आया था. हमने पूछा किस विषय पर लेख लिखा. उसने कहा बेरोज़गारी पर. क्या लिखा पूछने पर उसने कहा मुझे तो बस गुलज़ार का वह गीत याद था - मैंने उसकी गद्य में तर्जुमानी कर दी! - एक अकेला इस शहर में, रात में या दोपहर में, आबोदाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है... हिन्दी निबन्ध उर्दू शायर के फ़िल्मी गीत के माध्यम से लिखा गया, और वह लड़का पास भी हो गया! रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान]गीतकार बड़ा या साहित्यकार Date: बुधवार 16 जनवरी 2008 15:31 From: "naresh goswami" To: ravikant at sarai.net रवीश भाई बरास्ते रविकांत, अभी पिछले दिनों मंगलेश डबराल का लेख पढ़ रहा था. उस लेख में उन्होंने गुलज़ार को बस दोयम दर्जे का साहित्यकार ही माना था और वह भी काफी बे मन से. निसंदेह मंगलेश जी हमारे समय के श्रेष्ठ कवि हैं. मैं उनका इतना आदर करता हूँ कि एक बार उनकी कविता पुस्तक " आवाज़ भी एक जगह है" पर औटोग्राफ लेने जनसत्ता ही पहुँच गया था. पर जब गुलज़ार के बारे में उनकी टिपण्णी पढी तो लगा कि मंगलेश जी भी कविता के मुद्रित संसार से बाहर नही देख सकते. मुझे लगता है कि मुद्रित कविता काव्य विधा का एकायाम है. उसका दूसरा आयाम हिन्दी फिल्मों के गीत हैं. बेशक घटिया और मामूलीपन दोनों जगह है. पर हम तो बात श्रेष्ठ की कर रहे हैं. साहितियिक मित्रों को कितना भी बुरा लगे पर जरा बताये की गुलज़ार की तरल संवेदनशीलता हिन्दी की मुद्रित कविता के किन महारथियों से कमतर हैं. खोये हुए प्रेम की इससे बेहतर अभिव्यक्ति क्या हो सकती है - ' तुम आ गए हो नूर आ गया है, नही तो चिरागों से लौ जा रही थी' या फ़िर किसी अजनबी शहर में आदमी की बेचारगी और बिखरते आत्म की इससे नुकीली अभिव्यक्ति आस पास के किस हिन्दी कवि के यहाँ मिलती है- ' इन उम्र से लम्बी सड़कों को मंजिल पे पहुँचते देखा नही बस दौड़ती फिरती रहती है हमने तो ठहरते देखा नहीं'. असल में कुल किस्सा यह है कि मुद्रित कवि इतरा जल्दी जाते हैं. विश्वविद्यालय या अखबार में जगह मिल जाए और राजेंद्र भवन में सबको शीरनी बाटने में लगा कोई वृद्ध आलोचक कवि को शॉल औढा दे तो कवि के दैविक और भौतिक दोनों ताप मिट जाते हैं. किसी की कला या सुख कि उड़ान इतने पर थम जाए तो ज़ाहिर है कि एक हद के बाद कविता में शब्दों का अभ्यास भर रह जाएगा. एक बात और, मुद्रित कवि भोगे हुए यथार्थ की बात करते हुए यह भूल जाते है की गुलज़ार जैसे लोग जब स्कूल में फेल हो कर घर छोड़ कर भाग जाते हैं तो जिन्दगी उनके हाथ में फूलों का गुलदस्ता नहीं बल्कि मिस्त्री के 'पलक-पान्ने' थमा देती है. हिन्दी के अधिकांश कवि जीवन के दुखों को सलीब की तरह टांग कर चलते हैं और जिंदगी भर इसी के बोझ में दबे रहते हैं. ऐसे अहमन्य समाज से पुरूस्कार लेने भी नहीं चाहिए. दोस्तों, गनीमत है कि कला की जगह फिल्मों में भी है. -नरेश गोस्वामी On Jan 15, 2008 4:25 PM, Ravikant wrote: > mohalla aur qasba se saabhar. parichay Avinash ka hai, aalekh Raveesh ka > aur > donon hi blogon par sushobhit hai. maze lein. isi vishay par ek aalekh > Mihir > Pandya ka likha aap medianagar 03 mein bhi parh sakte hain, jo ab bazar > mein > uplabdh hai. > > ravikant > > http://naisadak.blogspot.com/2008/01/blog-post_09.html > नामवरों से आगे साहित्‍य की नयी ज़मीन > > पत्रकार रवीश कुमार की गिनती साहित्‍यकारों में नहीं होती। From chauhan.vijender at gmail.com Wed Jan 16 22:28:39 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 16 Jan 2008 22:28:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSmIOCkrOCkrOClgeCkhiDgpKfgpYDgpLDgpYct4KSn?= =?utf-8?b?4KWA4KSw4KWHIOCkhuCkr+ClgA==?= In-Reply-To: <85de31b90801160205y316151eej86588350a988da58@mail.gmail.com> References: <85de31b90801160205y316151eej86588350a988da58@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540801160858x5a8a26id28612005dc2d8cb@mail.gmail.com> अविनाशजी, भला किया जो पोस्‍ट लिस्‍ट पर भी डाल दी क्‍योंकि यह निश्चित ही बलॉग से बेहतर जगह है संवाद के लिए। नहीं बंधु हम आक्रांत नहीं पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं इस या उस वाद के लिए। ये ठीक हे कि महानगर ये अपना, अपनी तमाम बुराइयों के साथ, माशूक है अपनी। बाकायदा दर्ज कर चुके हैं सराए की अंग्रेजी लिस्‍ट और भौतिक आर्काइव में मिल जाएगा कि मेरा लगाव और तुम्‍हारा दुराव दोनों इस शहर की जरूरत हैं। जिस शहर की नींव में प्रवासियों की बेपनाह आहें दफन न हों वह बस ही नहीं सकता। मेरी पोस्‍ट में तकलीफ 'अपने शहर' (दिल्‍ली या बलॉगजगत जो चाहे समझ लें) के तंग होने को लेकर थी। जब शहर में घेटो बनते हैं तो ये घेटोवासियों की वजह से नहीं शहर के तंग(नजरिए) के कारण होता है जिसमें ये हाशिया सहम कर अपने जैसे खोजता है। जबकि अच्‍छा तो ये होता कि वह सारे शहर को ही 'अपना' पाता। बाकी 'बिहारवाद' अपराजिता की तकलीफ है...आपकी ही तरह हमें भी ये तकलीफ, तकलीफदेह लगती है। रही बात 'ब्‍लॉगिंग की सामूहिक चेतना पर शक और व्‍यंग्‍य' करने की। तो भई अगर किसी को ब्‍लॉगिंग के केंद्र में व्‍यक्ति लगता है और सामूहिक चेतना उसका बाई प्रोडकट भर तो ऐसा करने वाले के 'अपराध' की सजा के लिए कोई 'सामुदायिक' अबु गरैब का आयोजन होगा क्‍या। विजेंद्र On Jan 16, 2008 3:35 PM, avinash das wrote: > *बिहारवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी* > > > > उर्फ दिल्‍ली में एक अकेली लड़की > > > > * अपराजिता की टिप्‍पणी** और उनका आशय जो भी रहा है, लेकिन सच यही है कि > सभ्‍य शहरी मन के लिए बिहार जैसी जगहों को लेकर एक डर तो है ही। इस डर की कहानी > के बहुत सारे पाठ होंगे, जिसकी जड़ें शायद बिहार से आये हुए कामगारों से जुड़ी > होंगी। ब्‍लॉगिंग को निहायत व्‍यक्तिगत गतिविधि के रूप में पारिभाषित करते हुए > इसकी सामूहिक चेतना पर व्‍यंग्‍य और शक करने वाले **मसिजीवी* > * जैसे लोग भी इस डर से आक्रांत लगते हैं और अपनी उलझी हुई शैली में > संत-आख्‍यान देने की कोशिश करते हैं। मैं न तो अपराजिता की टिप्‍पणी को बहुत > गंभीरता से ले रहा हूं, न ही उस पर आयी प्रतिक्रियाओं को। लेकिन एक अनुभव को > मैं दरकिनार नहीं कर पा रहा, जिसे दिल्‍ली में रहने वाली एक लड़की ने झेला। दिन > पूरा चढ़ जाने के बाद आज जब सोकर उठा, तो दीप्ति दुबे का ये अनुभव चंद वाक्‍यों > में तब्‍दील होकर हमारे मेलबॉक्‍स में पड़ा था। **दीप्ति दुबे* > * सीएनईबी (कंप्‍लीट न्‍यूज़ एंड इंटरटेनमेंट ब्रॉडकास्‍ट) में काम करती हैं, > जो अभी ऑनएयर नहीं हुआ है। भोपाल की रहने वाली हैं और वहीं माखनलाल चतुर्वेदी > पत्रकारिता संस्‍थान से डिप्‍लोमा कर चुकी हैं। * > > ** > > *अविनाश * > > * > **एक ऑटो।* नौ सवारी। एक अकेली मैं लड़की। बाकी सारे उत्तर भारतीय। शायद सभी > बिहारी। मैं बीचों-बीच बैठी हुई थी। मेरे मन में कुछ अपना ही गुणा भाग चल रहा > था। तब ही अचानक रेडियो पर आरजे ने कहां कितनी सेफ़ है दिल्ली। लड़कियां अपनी > बातें फ़ोन कर कर के बता रही हैं। मेरा दिमाग अपने में ही है। तब ही अचानक एक > सवाल - ऑटो में कितनी सेफ़ है दिल्ली की लड़कियां ऑटो में। मेरे कान खड़े हो > गए। मैंने चारों ओर नज़र घूमाई और मैं डर गई। कपड़ों से सभी किसी फ़ैक्ट्री के > मज़दूर लग रहे थे। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। तभी अचानक रेडियो पर पोल खत्म हुआ > और लालू की आवाज़ में मिमिक्री हुई और बिल्लो रानी गाना शुरू हो गया। ऑटो में > बैठे सभी लोग हस पड़े। मेरा डर और बढ़ गया। मैं कुछ हिली डुली। मेरे साथ वाले > अंकल बोले - बेटाजी तकलीफ़ है। हम साइड हो जाएं। वहां बाल बराबर खिसकने की भी > जगह नहीं थी। मैं कुछ नहीं बोली। गाना खत्म हुआ और फिर लालू की मिमिक्री शुरू > हुई। सबसे डरावना था एफ़ एम की टेग लाईन - चिपक के बैठो। सब फिर हस पड़े। मैं > एकदम चुप। तभी मेरे पास बैठे लड़के ने कहा - आप कही हमसे डर तो नहीं रही है। हम > बिहारी है बुरे नहीं। और फिर सब हस पड़े। मुझे तब से खुद पर शर्म आ रही है। पता > नहीं क्यो। आप बताएं। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-13184 Size: 10136 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080116/8a4b3319/attachment.bin From chauhan.vijender at gmail.com Thu Jan 17 10:51:18 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 17 Jan 2008 10:51:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KS54KS+?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSmIOCkrOCkrOClgeCkhiDgpKfgpYDgpLDgpYct4KSn?= =?utf-8?b?4KWA4KSw4KWHIOCkhuCkr+ClgA==?= In-Reply-To: <8bdde4540801160858x5a8a26id28612005dc2d8cb@mail.gmail.com> References: <85de31b90801160205y316151eej86588350a988da58@mail.gmail.com> <8bdde4540801160858x5a8a26id28612005dc2d8cb@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540801162121l68930175n485189d7e2aa59f6@mail.gmail.com> दीवान पर बात को परिप्रेक्ष्‍य प्रदान करने के लिए पोस्‍ट पुन: पेश है- Tuesday, January 15, 2008 सामुदायिक ब्‍लॉग और घेटोआइजेशन के खतरे सामुदायिक ब्लॉगों का चलन हिन्‍दी चिट्ठासंसार के लिए नया नहीं है। चिट्ठाचर्चा, अक्षरग्राम एक अरसे से चालू हैं। यही नहीं नारदके रूप में एक एग्रीगेटर भी रहा है जो 'सामुदायिक' था (है तो अब भी किंतु उसकी भूमिका काफी सीमित हो गई है) अत: सामुदायिक होने की परिघटना नई नहीं है किंतु हाल फिलहाल में सामुदायिक ब्‍लॉगों का चलन कुछ बढ़ गया है। दरअसल एग्रीगेटरों की आपसी प्रतियोगिता की तार्किक परिणति चिट्ठों की आपसी प्रतियोगिता के रूप में हुई है तथा कई सामुदायिक ब्‍लॉग शुरू हुए हैं, भड़ासविशेष रूप से उल्‍लेख्‍य है। रिजेक्‍ट माल , इयत्‍ता , मोहल्‍ला , हिन्‍द युग्मआदि को भी जोड़ लें तो यह बाकायदा एक फिनामिना कहा जा सकता है। कई अन्‍य ब्‍लॉगरों ने अन्‍यों से आग्रह पर पोस्‍टें लिख्‍ावानी भी शुरू की हैं। सहज सा सवाल है कि इस फिनामिना के निहितार्थ क्‍या हैं। भड़ाससाफ तौर पर ऐसे पत्रकारों के लिए मंच बनकर उभरता है जो स्‍वयं में विशेष सक्रिय ब्‍लागर नहीं हैं पर यहॉं अपनी बात कह सकते हैं। मोहल्‍ला सदस्‍य ब्‍लॉगरों के लिए 'मुद्दे' के लिए और अपने ब्‍लॉग के साथ साथ अपनी पोस्‍ट को ठेलने के लिए अतिरिक्‍त ब्‍लॉग के रूप में जम गया है। एक मायने में मोहल्‍ला और भड़ास मानों एक दूसरे के पूरक ब्‍लॉग हैं। अंदर उमड़ते घुमड़ते की एकाकी अभिव्‍यक्ति के लिए भड़ास और अधिक औपचारिक व सरोकारी कहन के लिए मोहल्‍ला। [image: ghetto]इसीलिए जब सरोकारी लेखन के प्रयास भड़ास पर किए जाने के प्रयास हुए तो इसके प्रतिरोध भड़ास में ही लिखा गया। नीलिमा के लेख को यशवंत ने भडास पर दिया तब भी कहा गया कि भड़ास को भड़ास रहने दें- आशय यह कि भड़ास, भड़ास टाइप लेखन के लिए और मोहल्‍ला अविनाश टाईप लेखने के लिए तैयार सामुदायिक मंच रहे हैं। पर ये तो सामने दिखती सच्‍चाई भर है..इसके पीछे नए सामुदायिक लेखन के ट्रेंड के खतरे भी दिखाई देते हैं। पहला है घेटोआइजेशन का। 'घेटो' के घेटो होने में अपरिचित जगह में अपने जैसों को इकट्ठा कर अपनी असुरक्षाओं से कोप करने का भाव होता है। जो पूरे शहर में डरा डरा सा घूमता है क्‍योंकि वह वहॉं खुद को अजनबी सा पाता है, अल्‍पसंख्‍यक पाता है या शक की निगाह में पाता है वह जैसे ही अपनी बस्‍ती में आता है जो उसने बसाई ही है 'अपने जैसों' की वहॉं वह फैलता है कुछ ज्‍यादा ही फैलता है- गैर आनुपातिक होकर। पहली पीढ़ी के प्रवासी महानगर की सुखद एनानिमिटी के आदी नहीं होते और उससे बचकर भागते हैं और वह छोटी सी बस्ती ही उन्‍हें सुकून देती है जहॉं एनानिमिटी की जगह 'पहचान' की गुजाइश होती है इस तरह महानगर में घेटो बसते हैं- ओखला, तैयार होता है, जाफराबाद, बल्‍लीमारान और मुखर्जीनगर। सवाल ये है कि 'मोहल्‍ला' या 'भड़ास' के अंतर्जालीय घेटो बनने से किसी अपराजिता, किसी मसिजीवी को भला कया दिक्‍कत होनी चाहिए। शायद कुछ नहीं। इन सामुदायिक बलॉगों पर गैर बिहारी (पूर्वांचलियों) का प्रवेश वर्जित तो नहीं है (न ओखला या जाफराबाद में मुख्‍यधाराईयों का है, ये वर्जना उनके ढांचे से खुद व खुद उपजती है) पर हर वह शहर जिसमें घेटो बसते हैं, वह इन घेटों की वजह से सवालिया निशानों की जद में आता है क्योंकि ये उन सुरक्षाओं के अभाव से उपजते हैं जिनका वादा किसी शहर के शहर होने में ही निहित है। यही अंतर्जालीय शहर यानि हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत पर भी लागू होता है। हम शायद इतना लोकतांत्रिक स्‍पेस बनाने में अब तक असफल रहे हैं कि बिहारी मित्र आपस में ही लिंकन कर, कमेंटकर, और अब सामुदायिक ब्लॉगों में प्रतिभागिता कर शहर में शहर, घेटो बसाने के लिए विवश न हों जाएं। वैसे हो सकता है कि यह बस प्रक्रिया का आरंभिक चरण हो समय बीतते न बीतते सब इस शहर में खप जाएंगे और शहर की छांवदार एनानिमिटी उन्‍हें भी सहज लगने लगेगी और वे ये भी देख पाएंगे कि जाफराबाद की गलिया बाकी शहर की गलियों से कहीं अधिक तंग व सीलन भरी है। On Jan 16, 2008 10:28 PM, Vijender chauhan wrote: > अविनाशजी, > भला किया जो पोस्‍ट लिस्‍ट पर भी डाल दी क्‍योंकि यह निश्चित ही बलॉग से > बेहतर जगह है संवाद के लिए। > नहीं बंधु हम आक्रांत नहीं पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं इस या उस वाद के लिए। > ये ठीक हे कि महानगर ये अपना, अपनी तमाम बुराइयों के साथ, माशूक है अपनी। > बाकायदा दर्ज कर चुके हैं सराए की अंग्रेजी लिस्‍ट और भौतिक आर्काइव में मिल > जाएगा कि मेरा लगाव और तुम्‍हारा दुराव दोनों इस शहर की जरूरत हैं। जिस शहर की > नींव में प्रवासियों की बेपनाह आहें दफन न हों वह बस ही नहीं सकता। > मेरी पोस्‍ट में तकलीफ 'अपने शहर' (दिल्‍ली या बलॉगजगत जो चाहे समझ लें) के > तंग होने को लेकर थी। जब शहर में घेटो बनते हैं तो ये घेटोवासियों की वजह से > नहीं शहर के तंग(नजरिए) के कारण होता है जिसमें ये हाशिया सहम कर अपने जैसे > खोजता है। जबकि अच्‍छा तो ये होता कि वह सारे शहर को ही 'अपना' पाता। बाकी > 'बिहारवाद' अपराजिता की तकलीफ है...आपकी ही तरह हमें भी ये तकलीफ, तकलीफदेह > लगती है। > > रही बात 'ब्‍लॉगिंग की सामूहिक चेतना पर शक और व्‍यंग्‍य' करने की। तो भई > अगर किसी को ब्‍लॉगिंग के केंद्र में व्‍यक्ति लगता है और सामूहिक चेतना उसका > बाई प्रोडकट भर तो ऐसा करने वाले के 'अपराध' की सजा के लिए कोई 'सामुदायिक' अबु > गरैब का आयोजन होगा क्‍या। > विजेंद्र > > > > > > On Jan 16, 2008 3:35 PM, avinash das wrote: > > > *बिहारवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी* > > > > > > > > उर्फ दिल्‍ली में एक अकेली लड़की > > > > > > > > * अपराजिता की टिप्‍पणी** और उनका आशय जो भी रहा है, लेकिन सच यही है कि > > सभ्‍य शहरी मन के लिए बिहार जैसी जगहों को लेकर एक डर तो है ही। इस डर की कहानी > > के बहुत सारे पाठ होंगे, जिसकी जड़ें शायद बिहार से आये हुए कामगारों से जुड़ी > > होंगी। ब्‍लॉगिंग को निहायत व्‍यक्तिगत गतिविधि के रूप में पारिभाषित करते हुए > > इसकी सामूहिक चेतना पर व्‍यंग्‍य और शक करने वाले **मसिजीवी* > > * जैसे लोग भी इस डर से आक्रांत लगते हैं और अपनी उलझी हुई शैली में > > संत-आख्‍यान देने की कोशिश करते हैं। मैं न तो अपराजिता की टिप्‍पणी को बहुत > > गंभीरता से ले रहा हूं, न ही उस पर आयी प्रतिक्रियाओं को। लेकिन एक अनुभव को > > मैं दरकिनार नहीं कर पा रहा, जिसे दिल्‍ली में रहने वाली एक लड़की ने झेला। दिन > > पूरा चढ़ जाने के बाद आज जब सोकर उठा, तो दीप्ति दुबे का ये अनुभव चंद वाक्‍यों > > में तब्‍दील होकर हमारे मेलबॉक्‍स में पड़ा था। **दीप्ति दुबे* > > * सीएनईबी (कंप्‍लीट न्‍यूज़ एंड इंटरटेनमेंट ब्रॉडकास्‍ट) में काम करती > > हैं, जो अभी ऑनएयर नहीं हुआ है। भोपाल की रहने वाली हैं और वहीं माखनलाल > > चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्‍थान से डिप्‍लोमा कर चुकी हैं। * > > > > ** > > > > *अविनाश * > > > > * > > **एक ऑटो।* नौ सवारी। एक अकेली मैं लड़की। बाकी सारे उत्तर भारतीय। शायद > > सभी बिहारी। मैं बीचों-बीच बैठी हुई थी। मेरे मन में कुछ अपना ही गुणा भाग चल > > रहा था। तब ही अचानक रेडियो पर आरजे ने कहां कितनी सेफ़ है दिल्ली। लड़कियां > > अपनी बातें फ़ोन कर कर के बता रही हैं। मेरा दिमाग अपने में ही है। तब ही अचानक > > एक सवाल - ऑटो में कितनी सेफ़ है दिल्ली की लड़कियां ऑटो में। मेरे कान खड़े हो > > गए। मैंने चारों ओर नज़र घूमाई और मैं डर गई। कपड़ों से सभी किसी फ़ैक्ट्री के > > मज़दूर लग रहे थे। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। तभी अचानक रेडियो पर पोल खत्म हुआ > > और लालू की आवाज़ में मिमिक्री हुई और बिल्लो रानी गाना शुरू हो गया। ऑटो में > > बैठे सभी लोग हस पड़े। मेरा डर और बढ़ गया। मैं कुछ हिली डुली। मेरे साथ वाले > > अंकल बोले - बेटाजी तकलीफ़ है। हम साइड हो जाएं। वहां बाल बराबर खिसकने की भी > > जगह नहीं थी। मैं कुछ नहीं बोली। गाना खत्म हुआ और फिर लालू की मिमिक्री शुरू > > हुई। सबसे डरावना था एफ़ एम की टेग लाईन - चिपक के बैठो। सब फिर हस पड़े। मैं > > एकदम चुप। तभी मेरे पास बैठे लड़के ने कहा - आप कही हमसे डर तो नहीं रही है। हम > > बिहारी है बुरे नहीं। और फिर सब हस पड़े। मुझे तब से खुद पर शर्म आ रही है। पता > > नहीं क्यो। आप बताएं। > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080117/31518498/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Jan 17 14:38:51 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 17 Jan 2008 01:08:51 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSyIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWL4KSX4KS+IOCkhuCksuCli+CkmuCkleCli+CkgiDgpJXgpL4g4KSc?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KS14KSh4KS84KS+?= Message-ID: <829019b0801170108p311bb7fco186696d5aa4fefb@mail.gmail.com> हिन्दी की दुनिया में आलोचना के नाम पर अब चुटकुला होने लगे हैं या फिर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के शिखंड़ी प्रयास। लोग शुरु करते हैं कार्ल मार्क्स से और स्थापित करने लग जाते हैं अपने गाइड की मान्यताओं को। ये आलोचना नहीं झोल है और अपने- अपने ढंग से मठों को बनाने या बने मठ को बचाने की कोशिश। हिन्दी पढ़ने-लिखने वाले लोगों के बीच अगर आप आलोचना के मुद्दे को छेड़ें तो आपको उनके बीच स्थापित आलोचकों से गहरी असहमति और उसके पीछे के तर्क मिल जाएंगे। युवा आलोचकों और रिसर्च कर रहे लोगों को हिन्दी आलोचना के मंजर से अच्छी-खासी परेशानी है। वाक् ( नए विचारों की त्रैमासिक) ने आलोचना की स्थिति को ध्यान में रखकर आलोचना के उपर एक खुली बहस का आयोजन किया है। कल यानि 18 जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्टस फैकल्टी में 11 बजे से युवा आलोचकों और शोधार्थियों का जमावड़ा होगा। और वे समकालीन हिन्दी आलोचना पर अपनी बात रखेंगे। हरेक को दस मिनट का समय दिया जाएगा, इस बीच वे आलोचना, आलोचक या फिर आलोचना पद्धति में जो भी गड़बड़ियां है उसे लोगों के सामने रखेंगें। ऑडिएंस को उनके किसी भी बात पर असहमति होगी तो उनसे सीधे सवाल-जबाब करने की पूरी छूट होगी। ये खुला मंच होगा। किसी भी विषय या स्ट्रीम के व्यक्ति इसमें भाग ले सकते हैं। हां शर्त है कि वे अपने व्यक्तव्य के लिए लिखित प्रति तैयार कर लें ताकि उसे वाक् के अंक में ड़ाला जा सके। ये पहला मौका है जब रिसर्च कर रहे या फिर अभी पढ़ाई कर रहे लोगों को हिन्दी आलोचना पर दस मिनट तक अपनी बात रखने का मौका दिया जाएगा। जिसमें असहमति, सहमति, सुझाव, दिक्कतें, विरोध और भड़ास सब शामिल होगें। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-40041 Size: 3695 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080117/433c0949/attachment.bin From rakeshjee at gmail.com Thu Jan 17 15:00:51 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Thu, 17 Jan 2008 15:00:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSyIOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWL4KSX4KS+IOCkhuCksuCli+CkmuCkleCli+CkgiDgpJXgpL4g4KSc?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KS14KSh4KS84KS+?= In-Reply-To: <829019b0801170108p311bb7fco186696d5aa4fefb@mail.gmail.com> References: <829019b0801170108p311bb7fco186696d5aa4fefb@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0801170130s5cbd100ahc655a02d2c465bdd@mail.gmail.com> प्रिय बंधु सूचनार्थ शुक्रिया. श्रोता दीर्घा में जगह मिल जाएगी न? हिन्दी आलोचना संसार बूझने की कोशिश करूंगा. सलाम राकेश On Jan 17, 2008 2:38 PM, vineet kumar wrote: > हिन्दी की दुनिया में आलोचना के नाम पर अब चुटकुला होने लगे हैं या फिर एक > दूसरे पर कीचड़ उछालने के शिखंड़ी प्रयास। लोग शुरु करते हैं कार्ल मार्क्स > से > और स्थापित करने लग जाते हैं अपने गाइड की मान्यताओं को। ये आलोचना नहीं झोल > है > और अपने- अपने ढंग से मठों को बनाने या बने मठ को बचाने की कोशिश। > हिन्दी पढ़ने-लिखने वाले लोगों के बीच अगर आप आलोचना के मुद्दे को छेड़ें तो > आपको उनके बीच स्थापित आलोचकों से गहरी असहमति और उसके पीछे के तर्क मिल > जाएंगे। युवा आलोचकों और रिसर्च कर रहे लोगों को हिन्दी आलोचना के मंजर से > अच्छी-खासी परेशानी है। > वाक् ( नए विचारों की त्रैमासिक) ने आलोचना की स्थिति को ध्यान में रखकर > आलोचना > के उपर एक खुली बहस का आयोजन किया है। कल यानि 18 जनवरी को दिल्ली > विश्वविद्यालय के आर्टस फैकल्टी में 11 बजे से युवा आलोचकों और शोधार्थियों > का > जमावड़ा होगा। और वे समकालीन हिन्दी आलोचना पर अपनी बात रखेंगे। हरेक को दस > मिनट का समय दिया जाएगा, इस बीच वे आलोचना, आलोचक या फिर आलोचना पद्धति में > जो > भी गड़बड़ियां है उसे लोगों के सामने रखेंगें। ऑडिएंस को उनके किसी भी बात पर > असहमति होगी तो उनसे सीधे सवाल-जबाब करने की पूरी छूट होगी। ये खुला मंच > होगा। > किसी भी विषय या स्ट्रीम के व्यक्ति इसमें भाग ले सकते हैं। हां शर्त है कि > वे > अपने व्यक्तव्य के लिए लिखित प्रति तैयार कर लें ताकि उसे वाक् के अंक में > ड़ाला जा सके। ये पहला मौका है जब रिसर्च कर रहे या फिर अभी पढ़ाई कर रहे > लोगों > को हिन्दी आलोचना पर दस मिनट तक अपनी बात रखने का मौका दिया जाएगा। > जिसमें असहमति, सहमति, सुझाव, दिक्कतें, विरोध और भड़ास सब शामिल होगें। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080117/fe2ecb39/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Fri Jan 18 17:25:42 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Fri, 18 Jan 2008 06:55:42 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksA==?= Message-ID: 'बहुरूपिया शहर' के 20 लेखकों को पुरस्कार महोदय, आपको यह जानकर हर्ष होगा कि राजकमल प्रकाशन द्वारा (अंकुर ःसोसायटी फॉर आल्टर्नेटिव्ज़ इन एजुकेशन तथा सराय, सीएसडीएस की साझीदारी में) प्रकाशित पुस्तक 'बहुरूपिया शहर' के सभी 20 लेखक को कृष्णा सोबती ने अपनी पहलक़दमी पर पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। 'बहुरूपिया शहर' के लेखक वे 'युवा लेखक' नहीं हैं जिन्हें आप आम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं, ज़िन्दगी की पाठशाला में सीधे ज़िन्दगी से सीखने-पढ़ने वाले ये वे लोग हैं जिन्होंने क़लम को शौक़ नहीं, ज़रूरत के तौर पर पकड़ा है। इसलिए हमारी विशिष्टतम कलमकार कृष्णा सोबती ने इस पर एकदम नए ढंग से प्रतिक्रिया की और यह निर्णय लिया। कार्यक्रम 21 जनवरी, 2008 को शाम 4:30 बजे, सराय, सीएसडीएस 29 राजपुर रोड, दिल्ली-54 में आयोजित किया जाएगा। अध्यक्षता : डॉ. नामवर सिंह वक्ता : श्री अपूर्वानन्द (नोट : कार्यक्रम स्थान सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन के समीप हैं।) आप सादर आमन्त्रित हैं। भवदीय अशोक महेश्वरी (प्रबन्धक निदेशक) दिनांक : 16 जनवरी, 2008 -- Chandan. Sharma -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080118/85d24376/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Sun Jan 20 01:09:05 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 20 Jan 2008 01:09:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= from mohalla Message-ID: <85de31b90801191139u3da873c1o2aec0f292ce8451a@mail.gmail.com> मोहल्ला असली मराठी तो बिहार से ही गए... Posted: 19 Jan 2008 04:00 AM CST *अजित वडनेरकर* *अविनाश के मोहल्ले में बिहारवाद और बिहारियों पर चल रही बहस में कल मैने जबर्दस्ती शिरकत करते हुए दिल्ली किसकी, मुंबई किसकी, बिहार किसकापोस्ट में बताया था कि प्राचीनकाल से अब तक विभिन्न समाजों का विभिन्न स्थानों पर आप्रवासन बेहद सामान्य घटना रही है। मनुष्य ने सदैव ही रोज़गार की खातिर, आक्रमणों के कारण और अन्य सामाजिक धार्मिक कारणो से अपने सुखों का त्याग कर, नये सुखों की तलाश में आबाद स्थानों को छोड़कर नए ठिकाने तलाशे हैं। उनकी संतति बिना अतीत में गोता लगाए पुरखों की बसायी नयी दुनिया को बपौती मान स्थान विशेष के प्रति मोहाविष्ट रही। क्षेत्रवाद ऐसे ही पनपता है। आज जो बाल ठाकरे बिहारियों-पुरबियों को मुंबई से धकेल देना चाहते हैं वे नहीं जानते कि किसी ज़माने में बौद्धधर्म की आंधी में चातुर्वर्ण्य संस्कृति के हामी हिन्दुओं के जत्थे मगध से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए थे। ऐसा तब देश भर में हुआ था। मगध से जो जन सैलाब दक्षिणापथ (महाराष्ट्र जैसा तो कोई क्षेत्र था ही नहीं तब) की ओर गये और तब महाराष्ट्र या मराठी समाज सामने आया। इसे जानने के लिए यहां पढ़ें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़ेद्वारा एक सदी पहले किये गये महत्वपूर्ण शोध का एक अंश। उन्होंने तो महाराष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व करते हुए जो गंभीर शोध किये, वे एक तरह से अपनी जड़ों की खोज जैसा ही था। उन्हें क्या पता था कि दशकों बाद उसी मगधसे आनेवाले बंधुओं को शिवसेना के रणबांकुरे खदेड़ने के लिए कमर कस लेंगे।* *राजवाड़े जी के लेख का अंश* "...*पाणिनी* के युग में महाराज शब्द के दो अर्थ प्रचलित थे। एक, इन्द्र और दूसरा, सामान्य राजाओं से बड़ा राजा। पहले अर्थानुसार *महाराजिक* इन्द्र के भक्त हुए और दूसरे अर्थानुसार महाराज कहलाने वाले अथवा महाराज उपाधि धारण करने वाले भूपति के भक्त महाराजिक हुए । उक्त दोनों अर्थों को स्वीकार करने के बाद भी प्रश्न उठता है कि * महाराजिक* का *महाराष्ट्रिक* से क्या संबंध है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि राजा जिस भूमि पर राज्य करता है उसे राष्ट्र कहते हैं और जो राष्ट्र के प्रति भक्ति रकते हैं वे राष्ट्रिक कहलाते है। इस आधार पर महाराजा जिस भूमि पर महाराज्य करते थे वह महाराष्ट्र और जो महाराष्ट्र के भक्त थे वे महाराष्ट्रिक कहलाए। महाराजा जिनकी भक्ति का विषय थे उन्हें माहाराजिक तथा महाराजा का महाराष्ट्र जिनकी भक्ति का विषय था उन्हें महाराष्ट्रिक कहा जाता था। तात्पर्य यह कि महाराज व्यक्ति को लक्ष्य कर बना महाराजिक तथा महाराष्ट्र को लक्ष्य कर बना महाराष्ट्रिक। महाराष्ट्रिक शब्द वस्तुतः समानार्थी है। *उपनिवेशी महाराष्ट्रिक* यह निश्चय कर चुकने के बाद महाराजिक ही *महाराष्ट्रिक* थे, एक अन्य प्रशन उपस्थित होता है कि जस समय *दक्षिणारण्य* में उपनिवेशन के विचार से महाराष्ट्रिक चल दिए थे उस समय उत्तरी भारत में महाराज उपाधिधारी कौन भूपति थे और *महाराष्ट्र* नामक देश कहां था। कहना न होगा कि वह देश *मगध* था। प्रद्योत, शैशुनाग, नन्द तता मौर्य-वंशीयों ने क्रमानुसार माहाराज्य किया था मगध में। माहाराज्य का क्या अर्थ है? उस युग में सार्वभौम सत्ता को *माहाराज्य* कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अध्याय क्रमांक 38/39 में साम्राज्य, भोज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठ्य, राज्य माहाराज्य, आधिपत्य, स्वाश्य, आतिष्ठ्य तथा एकराज्य आदि ग्यारह प्रकार के नृपति बतलाये गये हैं। मगध के नृपति एकच्छत्रीय या एकराट् थे अर्थात् राज्य, साम्राज्य,महाराज्य आदि दस प्रकार के सत्ताधिकारियों से श्रेष्ठ थे, अतः है कि वे महाराज थे। अपने को मगध देशाधिपति महाराज के भक्त कहने वाले महाराष्ट्रिकों ने जब दक्षिणारण्य में बस्ती की तो वे *महाराष्ट्रिक*कहलाए।" *(कहना न होगा कि उनका निवास ही महाराष्ट्र कहलाया। लेख काफी लंबा है। मगर हमारा अभिप्राय इससे भी पूरा हो रहा है। महाराष्ट्रीय होने के नाते मागधों अर्थात बिहारियों से यूं अपना रिश्ता जुड़ता देख मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।) * बिहारी और पूरबिया होना न गर्व की बात है न शर्म की Posted: 18 Jan 2008 03:11 PM CST *दिलीप मंडल* *क्या* आपने सड़क पर भीख मांगते उन बच्चों को देखा है जिनके शरीर के कुछ अंग कम विकसित होते हैं? दरअसल भारत की असली तस्वीर कुछ ऐसी ही है। कुछ हिस्से मजबूत और कुछ हिस्से लकवाग्रस्त। लगवाग्रस्त हिस्से का इलाज होना चाहिए। लेकिन ये कैसा विद्रुप कि लकवे का शिकार अंग कह रहा है कि देखो मैं कैसा स्लिम-ट्रिम हूं। ज्ञान विज्ञान में लगभग एक हजार साल से तंद्रा में जी रहा अपना देश जब खुद को विश्वगुरू कहता है तो भी वैसा ही कारुणिक हास्य पैदा होता है। सही कह रहे हैं अजित वडनेरकर। बिहारी और पूरबिए होने के एहसास को दंभ में पतित होते देखना त्रासद है। ये मानने में शर्म क्यों भैया कि बिहार, पूर्वी और सेंट्रल यूपी, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश का एक हिस्सा देश के बाकी राज्यों की तुलना में पिछड़े हैं। दक्षिण भारत के चार बड़े राज्यों की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी है सालाना 25 हजार रुपए से ज्यादा। नेशनल एवरेज है 23 हजार रूपए। उत्तर प्रदेश की पर कैपिटा इनकम है 11 हजार रुपए और बिहार की है उत्तर प्रदेश का भी फिफ्टी परसेंट। इस बात पर तो अफसोस होना चाहिए, क्रोध आना चाहिए, इस असमानता को दूर करने के तरीकों पर बात होनी चाहिए लेकिन ऐसे बिहार और उत्तर प्रदेश पर अहंकार किस बात का। बिहार का टैलेंट है तो भी बिहार को कुछ भी नहीं दे रहा है। उत्तर प्रदेश का तथाकथित टेलेंट भी उत्तर प्रदेश के काम नहीं आ रहा है। और किस टेलेंट की बात कर रहे हैं आप। किताबें रटकर यूपीएससी पास होने की ओर तो इशारा नहीं है आपका! और यूपीएससी में फेल होने के बाद मीडिया में हाथ आजमाने वालों को महान टेलेंट वालों में तो नहीं गिन रहे हैं आप! ये सब मजबूरी है। रेड एफ एम का ऐड है न- करना पड़ता है। वैसी ही बात है। कृपया इस दंभ और अहंकार से छुटकारा पाने की कोशिश कीजिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़ा टैलेंट है और इन प्रदेशों से ढेर सारे अफसर और पत्रकार और साहित्यकार पैदा हो रहे हैं। इन प्रदेशों में अपना काम करने का अवसर और परंपरा नहीं हैं, भूमि सुधार न होने के कारण खेती का विकास अवरुद्ध है, इसलिए नौकरी के पीछे देश भर में भागते हैं यहां के लोग। इसमें कोई गर्व की बात नहीं है। शर्म की बात भी नहीं है। कोई विदेशी-देशी पूंजी निवेश नहीं, नया रोजगार नहीं, लोग नौकरी न ढूंढें तो क्या करें। नौकरी के पीछे लाखों बिहारी और पूरबिए भागेंगे तो नौकरियों में वही तो ज्यादा दिखेंगे। दरअसल देश के पिछड़े हुए प्रदेश विकसित इलाकों के लिए एक तरह के उपनिवेश बन गए हैं, आंतरिक उपनिवेश। जहां का सस्ता श्रम और कच्चा माल विकसित भारत की जरूरतें पूरी कर रहा है। इन प्रदेशों का पिछड़ापन कोई अपने आप पैदा हुई चीज नहीं है। न ही इसके लिए ये प्रदेश दोषी हैं। इन अन्याय की जड़े इतिहास में हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चार दक्षिण भारतीय राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक को मिलाकर कुल 22 करोड़ आबादी है और दसवीं योजना में इन राज्यों को मिलाकर 154 हजार करोड़ रुपए केंद्रीय सहायता के तौर पर मिले है। बिहार और उत्तर प्रदेश की सम्मिलित आबादी दक्षिण भारतीय राज्यों से ज्यादा यानी 25 करोड़ है और इन दो राज्यों को केंद्र से सिर्फ 80 हजार करोड़ रुपए की सहायता ही मिल रही है। ऐसा देश की राजनीति पर लंबे समय तक इन दो राज्यों के दबदबे के बावजूद हुआ है। बिहार को लेकर या पूर्वी उत्तर प्रदेश को लेकर मुंबई और दिल्ली में जो नफरत कभी कभी कुछ लोगों में दिखती है वो इसलिए है क्योंकि वो इन लोगों को लेकर एक स्टीरियोटाइप धारणा के शिकार हैं। ये प्लेटफॉर्म सिड्रॉम भी है क्योंकि दिल्ली और मुबई तो हर लिहाज से प्रवासियों का शहर हैं। जो प्रवासी पहले आ गए और वो बाद में आने वाले प्रवासियों को हिकारत से देखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि प्लेटफॉर्म का आदमी ट्रेन में घुसने के लिए - "भाई साहब जरा एडजस्ट कर लीजिए" की गुहार लगाता है, लेकिन जब वो खुद ट्रेन में सवार हो जाता है तो प्लेटफॉर्म वाले को कहता है - "अंदर जगह नहीं है।" मुंबई और दिल्ली को बिहार की जरूरत है। बिहार यानी पिछड़े हुए प्रदेश। पिछड़ें प्रदेश वालों के श्रम से चलते हैं ये शहर। लेकिन बिहारियों की संख्या इन शहरों को भयभीत करती है। बिहारियों को लेकर जिस घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है, वो इस शायद इस भय से ही उपजा है। साथ ही बिहारियों की नई पीढ़ी अब इन शहरों में रिक्शा चलाने और दूध बेचने के अलावा भी बहुत कुछ करती दिखने लगी है। उन्होंने शहर के बाहर जो जमीनें खरीदी थीं, वो हिस्से शहर के बीच में गिने जाने लगे हैं। इस पर फिर कभी। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-19390 Size: 23980 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/244f6afa/attachment-0002.bin From avinashonly at gmail.com Sun Jan 20 01:09:05 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 20 Jan 2008 01:09:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= from mohalla Message-ID: <85de31b90801191139u3da873c1o2aec0f292ce8451a@mail.gmail.com> मोहल्ला असली मराठी तो बिहार से ही गए... Posted: 19 Jan 2008 04:00 AM CST *अजित वडनेरकर* *अविनाश के मोहल्ले में बिहारवाद और बिहारियों पर चल रही बहस में कल मैने जबर्दस्ती शिरकत करते हुए दिल्ली किसकी, मुंबई किसकी, बिहार किसकापोस्ट में बताया था कि प्राचीनकाल से अब तक विभिन्न समाजों का विभिन्न स्थानों पर आप्रवासन बेहद सामान्य घटना रही है। मनुष्य ने सदैव ही रोज़गार की खातिर, आक्रमणों के कारण और अन्य सामाजिक धार्मिक कारणो से अपने सुखों का त्याग कर, नये सुखों की तलाश में आबाद स्थानों को छोड़कर नए ठिकाने तलाशे हैं। उनकी संतति बिना अतीत में गोता लगाए पुरखों की बसायी नयी दुनिया को बपौती मान स्थान विशेष के प्रति मोहाविष्ट रही। क्षेत्रवाद ऐसे ही पनपता है। आज जो बाल ठाकरे बिहारियों-पुरबियों को मुंबई से धकेल देना चाहते हैं वे नहीं जानते कि किसी ज़माने में बौद्धधर्म की आंधी में चातुर्वर्ण्य संस्कृति के हामी हिन्दुओं के जत्थे मगध से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए थे। ऐसा तब देश भर में हुआ था। मगध से जो जन सैलाब दक्षिणापथ (महाराष्ट्र जैसा तो कोई क्षेत्र था ही नहीं तब) की ओर गये और तब महाराष्ट्र या मराठी समाज सामने आया। इसे जानने के लिए यहां पढ़ें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़ेद्वारा एक सदी पहले किये गये महत्वपूर्ण शोध का एक अंश। उन्होंने तो महाराष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व करते हुए जो गंभीर शोध किये, वे एक तरह से अपनी जड़ों की खोज जैसा ही था। उन्हें क्या पता था कि दशकों बाद उसी मगधसे आनेवाले बंधुओं को शिवसेना के रणबांकुरे खदेड़ने के लिए कमर कस लेंगे।* *राजवाड़े जी के लेख का अंश* "...*पाणिनी* के युग में महाराज शब्द के दो अर्थ प्रचलित थे। एक, इन्द्र और दूसरा, सामान्य राजाओं से बड़ा राजा। पहले अर्थानुसार *महाराजिक* इन्द्र के भक्त हुए और दूसरे अर्थानुसार महाराज कहलाने वाले अथवा महाराज उपाधि धारण करने वाले भूपति के भक्त महाराजिक हुए । उक्त दोनों अर्थों को स्वीकार करने के बाद भी प्रश्न उठता है कि * महाराजिक* का *महाराष्ट्रिक* से क्या संबंध है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि राजा जिस भूमि पर राज्य करता है उसे राष्ट्र कहते हैं और जो राष्ट्र के प्रति भक्ति रकते हैं वे राष्ट्रिक कहलाते है। इस आधार पर महाराजा जिस भूमि पर महाराज्य करते थे वह महाराष्ट्र और जो महाराष्ट्र के भक्त थे वे महाराष्ट्रिक कहलाए। महाराजा जिनकी भक्ति का विषय थे उन्हें माहाराजिक तथा महाराजा का महाराष्ट्र जिनकी भक्ति का विषय था उन्हें महाराष्ट्रिक कहा जाता था। तात्पर्य यह कि महाराज व्यक्ति को लक्ष्य कर बना महाराजिक तथा महाराष्ट्र को लक्ष्य कर बना महाराष्ट्रिक। महाराष्ट्रिक शब्द वस्तुतः समानार्थी है। *उपनिवेशी महाराष्ट्रिक* यह निश्चय कर चुकने के बाद महाराजिक ही *महाराष्ट्रिक* थे, एक अन्य प्रशन उपस्थित होता है कि जस समय *दक्षिणारण्य* में उपनिवेशन के विचार से महाराष्ट्रिक चल दिए थे उस समय उत्तरी भारत में महाराज उपाधिधारी कौन भूपति थे और *महाराष्ट्र* नामक देश कहां था। कहना न होगा कि वह देश *मगध* था। प्रद्योत, शैशुनाग, नन्द तता मौर्य-वंशीयों ने क्रमानुसार माहाराज्य किया था मगध में। माहाराज्य का क्या अर्थ है? उस युग में सार्वभौम सत्ता को *माहाराज्य* कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अध्याय क्रमांक 38/39 में साम्राज्य, भोज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठ्य, राज्य माहाराज्य, आधिपत्य, स्वाश्य, आतिष्ठ्य तथा एकराज्य आदि ग्यारह प्रकार के नृपति बतलाये गये हैं। मगध के नृपति एकच्छत्रीय या एकराट् थे अर्थात् राज्य, साम्राज्य,महाराज्य आदि दस प्रकार के सत्ताधिकारियों से श्रेष्ठ थे, अतः है कि वे महाराज थे। अपने को मगध देशाधिपति महाराज के भक्त कहने वाले महाराष्ट्रिकों ने जब दक्षिणारण्य में बस्ती की तो वे *महाराष्ट्रिक*कहलाए।" *(कहना न होगा कि उनका निवास ही महाराष्ट्र कहलाया। लेख काफी लंबा है। मगर हमारा अभिप्राय इससे भी पूरा हो रहा है। महाराष्ट्रीय होने के नाते मागधों अर्थात बिहारियों से यूं अपना रिश्ता जुड़ता देख मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।) * बिहारी और पूरबिया होना न गर्व की बात है न शर्म की Posted: 18 Jan 2008 03:11 PM CST *दिलीप मंडल* *क्या* आपने सड़क पर भीख मांगते उन बच्चों को देखा है जिनके शरीर के कुछ अंग कम विकसित होते हैं? दरअसल भारत की असली तस्वीर कुछ ऐसी ही है। कुछ हिस्से मजबूत और कुछ हिस्से लकवाग्रस्त। लगवाग्रस्त हिस्से का इलाज होना चाहिए। लेकिन ये कैसा विद्रुप कि लकवे का शिकार अंग कह रहा है कि देखो मैं कैसा स्लिम-ट्रिम हूं। ज्ञान विज्ञान में लगभग एक हजार साल से तंद्रा में जी रहा अपना देश जब खुद को विश्वगुरू कहता है तो भी वैसा ही कारुणिक हास्य पैदा होता है। सही कह रहे हैं अजित वडनेरकर। बिहारी और पूरबिए होने के एहसास को दंभ में पतित होते देखना त्रासद है। ये मानने में शर्म क्यों भैया कि बिहार, पूर्वी और सेंट्रल यूपी, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश का एक हिस्सा देश के बाकी राज्यों की तुलना में पिछड़े हैं। दक्षिण भारत के चार बड़े राज्यों की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी है सालाना 25 हजार रुपए से ज्यादा। नेशनल एवरेज है 23 हजार रूपए। उत्तर प्रदेश की पर कैपिटा इनकम है 11 हजार रुपए और बिहार की है उत्तर प्रदेश का भी फिफ्टी परसेंट। इस बात पर तो अफसोस होना चाहिए, क्रोध आना चाहिए, इस असमानता को दूर करने के तरीकों पर बात होनी चाहिए लेकिन ऐसे बिहार और उत्तर प्रदेश पर अहंकार किस बात का। बिहार का टैलेंट है तो भी बिहार को कुछ भी नहीं दे रहा है। उत्तर प्रदेश का तथाकथित टेलेंट भी उत्तर प्रदेश के काम नहीं आ रहा है। और किस टेलेंट की बात कर रहे हैं आप। किताबें रटकर यूपीएससी पास होने की ओर तो इशारा नहीं है आपका! और यूपीएससी में फेल होने के बाद मीडिया में हाथ आजमाने वालों को महान टेलेंट वालों में तो नहीं गिन रहे हैं आप! ये सब मजबूरी है। रेड एफ एम का ऐड है न- करना पड़ता है। वैसी ही बात है। कृपया इस दंभ और अहंकार से छुटकारा पाने की कोशिश कीजिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़ा टैलेंट है और इन प्रदेशों से ढेर सारे अफसर और पत्रकार और साहित्यकार पैदा हो रहे हैं। इन प्रदेशों में अपना काम करने का अवसर और परंपरा नहीं हैं, भूमि सुधार न होने के कारण खेती का विकास अवरुद्ध है, इसलिए नौकरी के पीछे देश भर में भागते हैं यहां के लोग। इसमें कोई गर्व की बात नहीं है। शर्म की बात भी नहीं है। कोई विदेशी-देशी पूंजी निवेश नहीं, नया रोजगार नहीं, लोग नौकरी न ढूंढें तो क्या करें। नौकरी के पीछे लाखों बिहारी और पूरबिए भागेंगे तो नौकरियों में वही तो ज्यादा दिखेंगे। दरअसल देश के पिछड़े हुए प्रदेश विकसित इलाकों के लिए एक तरह के उपनिवेश बन गए हैं, आंतरिक उपनिवेश। जहां का सस्ता श्रम और कच्चा माल विकसित भारत की जरूरतें पूरी कर रहा है। इन प्रदेशों का पिछड़ापन कोई अपने आप पैदा हुई चीज नहीं है। न ही इसके लिए ये प्रदेश दोषी हैं। इन अन्याय की जड़े इतिहास में हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चार दक्षिण भारतीय राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक को मिलाकर कुल 22 करोड़ आबादी है और दसवीं योजना में इन राज्यों को मिलाकर 154 हजार करोड़ रुपए केंद्रीय सहायता के तौर पर मिले है। बिहार और उत्तर प्रदेश की सम्मिलित आबादी दक्षिण भारतीय राज्यों से ज्यादा यानी 25 करोड़ है और इन दो राज्यों को केंद्र से सिर्फ 80 हजार करोड़ रुपए की सहायता ही मिल रही है। ऐसा देश की राजनीति पर लंबे समय तक इन दो राज्यों के दबदबे के बावजूद हुआ है। बिहार को लेकर या पूर्वी उत्तर प्रदेश को लेकर मुंबई और दिल्ली में जो नफरत कभी कभी कुछ लोगों में दिखती है वो इसलिए है क्योंकि वो इन लोगों को लेकर एक स्टीरियोटाइप धारणा के शिकार हैं। ये प्लेटफॉर्म सिड्रॉम भी है क्योंकि दिल्ली और मुबई तो हर लिहाज से प्रवासियों का शहर हैं। जो प्रवासी पहले आ गए और वो बाद में आने वाले प्रवासियों को हिकारत से देखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि प्लेटफॉर्म का आदमी ट्रेन में घुसने के लिए - "भाई साहब जरा एडजस्ट कर लीजिए" की गुहार लगाता है, लेकिन जब वो खुद ट्रेन में सवार हो जाता है तो प्लेटफॉर्म वाले को कहता है - "अंदर जगह नहीं है।" मुंबई और दिल्ली को बिहार की जरूरत है। बिहार यानी पिछड़े हुए प्रदेश। पिछड़ें प्रदेश वालों के श्रम से चलते हैं ये शहर। लेकिन बिहारियों की संख्या इन शहरों को भयभीत करती है। बिहारियों को लेकर जिस घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है, वो इस शायद इस भय से ही उपजा है। साथ ही बिहारियों की नई पीढ़ी अब इन शहरों में रिक्शा चलाने और दूध बेचने के अलावा भी बहुत कुछ करती दिखने लगी है। उन्होंने शहर के बाहर जो जमीनें खरीदी थीं, वो हिस्से शहर के बीच में गिने जाने लगे हैं। इस पर फिर कभी। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-34 Size: 23980 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/244f6afa/attachment-0003.bin From avinashonly at gmail.com Sun Jan 20 01:10:29 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 20 Jan 2008 01:10:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bihar sindrom Message-ID: <85de31b90801191140h22d5bdcai5fa2d72a8e787289@mail.gmail.com> मोहल्ला दिल्ली किसकी? मुंबई किसकी? बिहार किसका? Posted: 18 Jan 2008 07:01 AM CST *अविनाश के इंट्रो के साथ दीप्ति के अनुभव बिहारवाद बबुआ धीरे-धीरे आयीपर दिलचस्प बहस चल रही है। ज्यादातर सही दिशा में जा रही है, मगर फिर भी लगता है कि लोग खुलकर बोलने में कतरा रहे हैं। क्यों नहीं खुलकर इस बात की पड़ताल हो रही है कि कैसे धीरे-धीरे बिहारी शब्द की अवनति हो गयी। क्यों दबे छुपे और अब खुलकर बिहारी से चिढ़ का इज़हार समाज में होने लगा है। हम हर हाल में ऐसी किसी भी प्रवृत्ति के प्रति चिंता जाहिर करते हैं मगर इस पर बात होनी चाहिए कि ये स्थिति बनी कैसे।* बिहार के प्रवासी मजदूर कभी बिहारवाद जैसे शब्द के मूल में नहीं रहे हैं। मेरे आसपास जो लोग हैं उन्हें कभी इन श्रमजीवियों से चिढ़ नहीं रही। बल्कि कभी चर्चा में ही नहीं है यह तबका। ठीक वैसे ही जैसे मप्र का मजदूर जो राजस्थान दिल्ली तक जाता है या महाराष्ट्र का मजदूर जो आंध्र,मप्र और कर्नाटक जाता है। राजस्थान का मजदूर जो दिल्ली, गुजरात जाता है। *(गौरतलब है कि मैं मौसमी मजदूरों की बात कर रहा हूं, न कि स्थायी रोजगार की तलाश वाले प्रवासियों की)* बिहारवाद जैसा शब्द, या वह भावना जिसका अहसास समाज को होता है, उसके मूल में मजदूर नहीं, नौकरीपेशा, मध्यमवर्गीय बिहारी है। लोगों के अपने जो भी अनुभव रहे हैं वह इसी वर्ग से हैं। इसी के आधार पर बनी है धारणाएं। यह विषय एक गंभीर पड़ताल और विश्लेषण की मांग करता है कि क्यों बनती चली गई ये धारणाएं । राजनीतिकों के स्वार्थों ने ऐसी बातों को समाज में और पनपने दिया। जाहिर है,ये तमाम बातें बेमानी हैं। अच्छे - बुरे का क्षेत्र से लेना देना नहीं होता। बुराई शब्द तो देखने का नज़रिया है। हाथों से खाना किसी के लिए भदेस है और चम्मच से खाना किसी के लिए बुरा। दिल्ली किसकी है ? क्या कोई ये दावा कर सकता है कि दिल्ली में कौन आप्रवासी है और कौन नहीं। क्या कोई पैमाना है कि इतनी अवधि के बाद व्यक्ति को वहां का मूल निवासी मान लिया जाएगा? (यहां कृपया सरकारी नियम याद न दिलाए जाएं) मुंबई किसकी है? क्या बाला साहब के कहने मात्र से मराठीभाषियों की हो जाएगी? बाला साहब खुद जानते हैं कि महाराष्ट्र के गौरवशाली मराठीजन मूलतः कहां के हैं? आज जो वे बिहारियों, पूरबियों को मुंबई से भगा रहे हैं मगर क्या उन्हें पता है कि बिहार से उनका भी कोई रिश्ता है? महाराष्ट्र के प्रसिद्ध विद्वान तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ने बहुत विद्वत्ता के साथ स्थापित किया था कि मराठीजन मूलतः इस क्षेत्र के नहीं है वरन् प्राचीन काल में बिहार से ही गए हैं। *(इस महत्वपूर्ण शोध के बारे में कल इसी स्थान पर देखें आलेख)* क्षेत्रवाद न फैलाया जाए बिल्कुल सही है। हर बात के मूल में कुछ वजह होती हैं मगर उसका साधारणीकरण नहीं होना चाहिए। मगर इस किस्म की बातों का क्या अर्थ है कि देश का सबसे उर्वर मस्तिष्क बिहार से आता है? क्यों? बाकी जगह बुद्धिहीन बसते हैं? क्या ये क्षेत्रवाद नहीं? देश के उर्वर मस्तिष्क वाले कितने बच्चों के मां बाप की हैसियत है जो अपनी संतानों को दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजें। आइएएस और आइपीएस ममें चयनित होने वाले ज्यादातर तथाकथित उर्वर मस्तिष्क ऐसे ही दिल्ली में पढ़े छात्र होते हैं। रांची निवासी एक मित्र ने मुझे उस मानसिकता से परिचित कराया था जिसके तहत आज उच्चपदों पर बिहारजन आसीन दिखते हैं। उन्होंने बताया कि सामान्य खाते पीते परिवारों के कर्ता धर्ता जिनकी कुछ ज़मीन भी है अब यही चाहते हैं कि उनके बच्चे बिहार में न रहें बल्कि रसूखदार नौकरी पा जाएं। इसके लिए बेहतर तैयारी करने के लिए वे दिल्ली जैसे शहरों में उन्हें पढने भेजना पसंद करते हैंसर्वे करा लें जितने उर्वर मस्तिष्क देश भर को धन्य कर रहे हैं उनकी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है। ज्यादातर की ठाक , खाते पीते परिवार ही निकलेंगे। ये उर्वर मस्तिष्क हर बार बिहार की बदहाली को क्रांति कह कर गौरवान्वित करते हैं मगर उसकी अनदेखी और उपेक्षा कर किस वजह से वे सुदूर अंचलों में संघर्ष (?) कर रहे हैं। यही संघर्ष बिहार के हित में भी हो सकता है। जबर्दस्ती का श्रेष्ठताबोध न पालें बंधुओं। अपने उर्वर मस्तिष्क का अपने प्रांत की बदहाली को दूर करने में इस्तेमाल नहीं होना चाहिए? ऐसी बातों से कुछ हासिल नहीं। तर्क कई गढ़े जा सकते हैं, थोपे जा सकते हैं। देश भर के लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते रहे हैं। जबर्दस्ती का श्रेष्ठताबोध भी देशभर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हर समाज में मिल जाएगा। यही श्रेष्ठताबोध अंततः उस समाज की मेधा, प्रतिभा को कुंद भी करता है और समाज को एंकांतिक बनाता है। अंग्रेजों से पूर्व का जो भारत था जिस मैकाले ने जाहिल बताया , ऐसे ही तथाकथित श्रेष्ठताबोध वाले समाज का विकृत रूप था जो लगातार आत्मुग्धता में लीन रहते रहते इतना एकांतिक हो गया कि फिर उसे हर बार रौंदे जाने का अहसास होना भी बंद हो गया। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-10501 Size: 12443 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/8b367723/attachment-0001.bin From avinashonly at gmail.com Sun Jan 20 01:10:29 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sun, 20 Jan 2008 01:10:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bihar sindrom Message-ID: <85de31b90801191140h22d5bdcai5fa2d72a8e787289@mail.gmail.com> मोहल्ला दिल्ली किसकी? मुंबई किसकी? बिहार किसका? Posted: 18 Jan 2008 07:01 AM CST *अविनाश के इंट्रो के साथ दीप्ति के अनुभव बिहारवाद बबुआ धीरे-धीरे आयीपर दिलचस्प बहस चल रही है। ज्यादातर सही दिशा में जा रही है, मगर फिर भी लगता है कि लोग खुलकर बोलने में कतरा रहे हैं। क्यों नहीं खुलकर इस बात की पड़ताल हो रही है कि कैसे धीरे-धीरे बिहारी शब्द की अवनति हो गयी। क्यों दबे छुपे और अब खुलकर बिहारी से चिढ़ का इज़हार समाज में होने लगा है। हम हर हाल में ऐसी किसी भी प्रवृत्ति के प्रति चिंता जाहिर करते हैं मगर इस पर बात होनी चाहिए कि ये स्थिति बनी कैसे।* बिहार के प्रवासी मजदूर कभी बिहारवाद जैसे शब्द के मूल में नहीं रहे हैं। मेरे आसपास जो लोग हैं उन्हें कभी इन श्रमजीवियों से चिढ़ नहीं रही। बल्कि कभी चर्चा में ही नहीं है यह तबका। ठीक वैसे ही जैसे मप्र का मजदूर जो राजस्थान दिल्ली तक जाता है या महाराष्ट्र का मजदूर जो आंध्र,मप्र और कर्नाटक जाता है। राजस्थान का मजदूर जो दिल्ली, गुजरात जाता है। *(गौरतलब है कि मैं मौसमी मजदूरों की बात कर रहा हूं, न कि स्थायी रोजगार की तलाश वाले प्रवासियों की)* बिहारवाद जैसा शब्द, या वह भावना जिसका अहसास समाज को होता है, उसके मूल में मजदूर नहीं, नौकरीपेशा, मध्यमवर्गीय बिहारी है। लोगों के अपने जो भी अनुभव रहे हैं वह इसी वर्ग से हैं। इसी के आधार पर बनी है धारणाएं। यह विषय एक गंभीर पड़ताल और विश्लेषण की मांग करता है कि क्यों बनती चली गई ये धारणाएं । राजनीतिकों के स्वार्थों ने ऐसी बातों को समाज में और पनपने दिया। जाहिर है,ये तमाम बातें बेमानी हैं। अच्छे - बुरे का क्षेत्र से लेना देना नहीं होता। बुराई शब्द तो देखने का नज़रिया है। हाथों से खाना किसी के लिए भदेस है और चम्मच से खाना किसी के लिए बुरा। दिल्ली किसकी है ? क्या कोई ये दावा कर सकता है कि दिल्ली में कौन आप्रवासी है और कौन नहीं। क्या कोई पैमाना है कि इतनी अवधि के बाद व्यक्ति को वहां का मूल निवासी मान लिया जाएगा? (यहां कृपया सरकारी नियम याद न दिलाए जाएं) मुंबई किसकी है? क्या बाला साहब के कहने मात्र से मराठीभाषियों की हो जाएगी? बाला साहब खुद जानते हैं कि महाराष्ट्र के गौरवशाली मराठीजन मूलतः कहां के हैं? आज जो वे बिहारियों, पूरबियों को मुंबई से भगा रहे हैं मगर क्या उन्हें पता है कि बिहार से उनका भी कोई रिश्ता है? महाराष्ट्र के प्रसिद्ध विद्वान तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ने बहुत विद्वत्ता के साथ स्थापित किया था कि मराठीजन मूलतः इस क्षेत्र के नहीं है वरन् प्राचीन काल में बिहार से ही गए हैं। *(इस महत्वपूर्ण शोध के बारे में कल इसी स्थान पर देखें आलेख)* क्षेत्रवाद न फैलाया जाए बिल्कुल सही है। हर बात के मूल में कुछ वजह होती हैं मगर उसका साधारणीकरण नहीं होना चाहिए। मगर इस किस्म की बातों का क्या अर्थ है कि देश का सबसे उर्वर मस्तिष्क बिहार से आता है? क्यों? बाकी जगह बुद्धिहीन बसते हैं? क्या ये क्षेत्रवाद नहीं? देश के उर्वर मस्तिष्क वाले कितने बच्चों के मां बाप की हैसियत है जो अपनी संतानों को दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजें। आइएएस और आइपीएस ममें चयनित होने वाले ज्यादातर तथाकथित उर्वर मस्तिष्क ऐसे ही दिल्ली में पढ़े छात्र होते हैं। रांची निवासी एक मित्र ने मुझे उस मानसिकता से परिचित कराया था जिसके तहत आज उच्चपदों पर बिहारजन आसीन दिखते हैं। उन्होंने बताया कि सामान्य खाते पीते परिवारों के कर्ता धर्ता जिनकी कुछ ज़मीन भी है अब यही चाहते हैं कि उनके बच्चे बिहार में न रहें बल्कि रसूखदार नौकरी पा जाएं। इसके लिए बेहतर तैयारी करने के लिए वे दिल्ली जैसे शहरों में उन्हें पढने भेजना पसंद करते हैंसर्वे करा लें जितने उर्वर मस्तिष्क देश भर को धन्य कर रहे हैं उनकी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है। ज्यादातर की ठाक , खाते पीते परिवार ही निकलेंगे। ये उर्वर मस्तिष्क हर बार बिहार की बदहाली को क्रांति कह कर गौरवान्वित करते हैं मगर उसकी अनदेखी और उपेक्षा कर किस वजह से वे सुदूर अंचलों में संघर्ष (?) कर रहे हैं। यही संघर्ष बिहार के हित में भी हो सकता है। जबर्दस्ती का श्रेष्ठताबोध न पालें बंधुओं। अपने उर्वर मस्तिष्क का अपने प्रांत की बदहाली को दूर करने में इस्तेमाल नहीं होना चाहिए? ऐसी बातों से कुछ हासिल नहीं। तर्क कई गढ़े जा सकते हैं, थोपे जा सकते हैं। देश भर के लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते रहे हैं। जबर्दस्ती का श्रेष्ठताबोध भी देशभर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हर समाज में मिल जाएगा। यही श्रेष्ठताबोध अंततः उस समाज की मेधा, प्रतिभा को कुंद भी करता है और समाज को एंकांतिक बनाता है। अंग्रेजों से पूर्व का जो भारत था जिस मैकाले ने जाहिल बताया , ऐसे ही तथाकथित श्रेष्ठताबोध वाले समाज का विकृत रूप था जो लगातार आत्मुग्धता में लीन रहते रहते इतना एकांतिक हो गया कि फिर उसे हर बार रौंदे जाने का अहसास होना भी बंद हो गया। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-41800 Size: 12443 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/8b367723/attachment-0003.bin From vineetdu at gmail.com Mon Jan 21 08:21:12 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 20 Jan 2008 18:51:12 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWN4KS1?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpJXgpLngpYssIOCkqOCkueClgOCkgiDgpJzgpL7gpKg=?= =?utf-8?b?4KSk4KWHIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgA==?= Message-ID: <829019b0801201851x5e777a3ev41a1082f9803b60a@mail.gmail.com> संघनक का मतलब है सनग्लास, व्ऑय फ्रैंड, कैलकुलेटर या फिर फैक्स मशीन और दूरभाष यंत्र का मतलब होता है स्पीड पोस्ट, लेटर य़ा फिर ट्रैफिक। हिन्दी का ज्ञान बढाने के लिए चैनल [ v] पर एक प्रोग्राम आता है- वीआईक्यू। वीजे लोगों से किसी हिन्दी शब्द का मतलब पूछता है जैसे लौहपथगामिनी और जिसमें ज्यादातर लोग सुनकर ठहाके लगाते हैं, लड़कियां व्हॉट बोलती है, मुंह बनाती है या फिर उपर जैसा लिखा है, उस तरह कुछ भी बोल जाती है। लड़के भी ऐसा ही करते हैं। इस तीन से चार मिनट के कार्यक्रम में आपको अंदाजा लग जाएगा कि चैनल किसी भी तरह से लोगों का हिन्दी के प्रति ज्ञान नहीं बढ़ा रहा या बढ़ाना चाह रहा है बल्कि हिन्दी के नाम पर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है जिसे कि हिन्दी बोलने वाले भी लोग इस्तेमाल नहीं करते। अब आप ही बताइए न, हममें से कितने लोग सिगरेट को धूम्रदंडिका बोलते हैं। किसी के नहीं बताने पर वीजे उसका अर्थ बताता है। अच्छा हिन्दी का मतलब नहीं जानने पर किसी को संकोच, शर्म या फिर उदासी नहीं आती कि वे भारत में रहकर हिन्दी नहीं जानते। इसे वे स्टेटस के तौर पर लेते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यू नो आई मीन बोलकर उनका काम चल जाएगा। तंगी के दिनों में मैंने कॉन्वेंट के कई स्टूडेंट को हिन्दी की ट्यूशन दी है। पहले ही दिन उसकी मां या फिर खुद वो बड़े ही गर्व से बताता कि हिन्दी में थोड़ वीक है लेकिन बाकी के पेपर में तो....जीनियस। मतलब ऐसे समझाए जाते कि बाकी पेपर में जीनियस होने या फिर कुछ कर गुजरने के लिए हिन्दी में वीक होना जरुरी है। मिडिल क्लास या फिर लोअर मिडिल क्लास में जाइए और आप पूछें कि आपका लड़का किस क्लास में है तो पहले बताएंगें, इंगलिस मीडियम में है और फिर क्लास। मैं कोई एमपी सरकार का आदमी नहीं हूं कि हिन्दी, संस्कृत और साथ में सरस्वती वंदना आप पर लाद दूं लेकिन इस मानसिकता को बढ़ावा देना कि अगर आप हिन्दी नहीं जानते तो आप हाई सोसाइटी से विलांग करते हैं और इससे आपके मिडिल क्लास में होने की सारी विडम्बनाएं खत्म हो जाएगी, सरासर गलत है। आप बोलिए न अंग्रेजी, कौन मना कर रहा है, मत बोलिए हिन्दी। लेकिन हिन्दी ज्ञान के नाम पर आप हिन्दी की ही लेने पर क्यों तुले हैं। आपकी औकात है तो फिर वीटीवी या फिर एमटीवी को अंग्रेजी में चला क्यों नहीं लेते। अपने को शहरी और इलिट बताने के लिए ये जरुरी है क्या कि आप हिन्दी के टिपिकल शब्द खोज कर लाएं जो कि प्रैक्टिस में भी नहीं है और इमेज बनाएं कि ऐसी होती है हिन्दी, हार्ड, कोई समझ ही नहीं पाएगा आपकी बात और फिर कोड़े बरसाने शुरु कर दें। ये तरीका ठीक नहीं है। आप हिन्दी भाषा के प्रसार के लिए कुछ कर नहीं कर सकते तो रहम करके उसकी गलत छवि बनाने का खेल न करें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/00c3729f/attachment.html From vineetdu at gmail.com Mon Jan 21 10:12:45 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 20 Jan 2008 20:42:45 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MjEg4KSc4KSo4KS1?= =?utf-8?b?4KSw4KWA4KSDIOCksOCkvuCkt+CljeCkn+CljeCksOClgOCkryDgpLA=?= =?utf-8?b?4KS+4KSu4KS+4KSv4KSjIOCkpuCkv+CkteCkuCwg4KS44KWN4KSl4KS+?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KS+IOCkteCksOCljeCktyAyMDA4?= Message-ID: <829019b0801202042g7d0043eew39b8e41f47f2068b@mail.gmail.com> रामायण की कथा टीवी पर शुरु होते ही हमारे घर में झाडू की खपत बहुत बढ़ गयी थी। मां खोजती रहती लेकिन कभी मिलती नहीं। हम सारे भाई-बहन तीर बनाते और स्कूल से आते ही अपना नाम भूलकर रामायण के पात्र बन जाते। एक दूसरे के मिजाज के हिसाब से पाट बंटता। तभी हमने जाना था कि आंख के इलाज के लिए अपने शहर में अलग से एक हॉस्पीटल है। मेरे एक पड़ोसी दोस्त नीरज की आंख में झाडू की सीक चुभ गयी थी और उसका वहां इलाज चल रहा था। मां का कहना एकदम साफ था कि उसने रावण बनकर भगवान राम पर तीर चलाया इसलिए ऐसा हुआ और हम बच्चों को हिदायत देती- रामायण खेलना लेकिन रावण फैमिली का पाट मत लेना भले ही बानर बनना पड़ जाए। हमारे घर में टीवी भी नहीं थी। दूसरे के घर देखने जाते। लेकिन जहां हम जाते वहां के लोग रामायण खत्म होते ही हमें बाजार से कुछ लाने भेज देते और दीदी को घर के छोटे-मोटे कामों में फंसा लेते। कुछ नहीं हुआ तो बच्चे के साथ खेलने का काम। बात पापा तक गयी और हमलोगों को खूब डांटा कि -कोई जरुरत नहीं है रामायण देखने की, मर नहीं जाओगे नहीं देखने से। मैं घर में छोटा था और कमजोर भी लेकिन थोड़ा विरोधी किस्म का। चट से स्कूल बैग लाया और एक किताब निकालकर दिखाया कि देखिए रामायण अपने कोर्स में है और टीवी से बात सही तरीके से समझ में आती है। फिर हडकाते हुए बोला- अगर आप टीवी नहीं खरीदते तो हममें से कोई भाई-बहन दूकान में आपका खाना पहुंचाने नहीं जाएंगे। घर में टीवी आ गयी। और मेरे जैसे कई लोग उस बड़े घर में टीवी देखकर त्रस्त हो चुके थे हमारे यहां आने लगे। पूरा कमरा भर जाता और खत्म होने पर ऑडिएंस को रामभक्त जानकर मां चाय पिलाती। रविवार नौ से दस तक सड़को पर कोई दिखाई नहीं देता. उस समय लोगों के रविवार की रुटिन रामायण से तय होती थी। ये जीवन-शैली और कल्चरल कॉन्टेस्ट का हिस्सा हुआ करता था। बीस साल बाद एनडीटीवी इमैजिन आज फिर रामायण लेकर आ रहा है। रात के साढ़े नौ बजे ऑन एयर होगा। सारे चैनलों का स्लग है-लौट आए राम। न्यूज चैनलों पर स्पेशल भी चल रहा है । एनडीवी का दावा है कि राम का नाम लेते ही अरुण गोविल का जो चेहरा याद आ जाता है उसे यह रामायण रिप्लेस करेगा. लेकिन हमलोग साहित्य लिखने-पढ़ने वाले जब भी किसी रचना पर बात करते हैं जैसा कि रामायण भी हमारे लिए एक टेक्स्ट ही है तो उसे समझने का एक तरीका ये भी अपनाते हैं कि रचना चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न हो समकालीनता के सवालों और चुनौतियों को वो किस रुप में देखता-समझता है. इस बीस साल में कितना कुछ बदला है- बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, हिन्दुओं का एक तपका जिसकी संख्या दुर्भाग्य से अधिक है ने जश्न मनाया। अक्षरधाम पर हमले हुए और फिर बनारस पर भी हमला। रामभक्तों ( देश में एक पार्टी हैं जिनके पास नापने की मशीन है कि कौन रामभक्त है) को बुरा लगा। जय श्री राम पर एक ग्रुप का पेटेंट हो गया। इधर रामसेतु परियोजना को लेकर हंगामा हुआ। चैनल की भाषा में कहें तो- दहक उठा देश। वीजेपी के राजनीति के कटोरे में फिर सरकार ने मुद्दा डाल दिया और अब इसी बूते सत्ता में आने की बात होने लगी है।इन सबके बीच श्रीलंका सरकार ने रिसर्च की सीडी जारी की है औऱ रावण के पांच हवाई अड्डों सहित पचास ऐसे ठिकानों को खोज निकाला है जिसके संदर्भ रामकथा से जुड़ते हैं और दर्शकों या फिर रामभक्तों के लिए मतलब के हो सकते हैं। अपने प्रसूनजी समय पर खोद-खोदकर जानकारों से पूछते रहे कि- आपको नहीं लगता कि ये सिर्फ टूरिस्ट को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है, आस्था को बाजार में कन्वर्ट किया जा रहा था। वीएचपी के बंदे का जबाब था ऐसा करके श्रीलंका सरकार ने हमारे दावे को मजबूत किया है कि राम का अस्तित्व था। बाकी बाजार के लिए तो राम से जुडी कोई भी चीज तर माल तो है ही, एकदम कमाउ आइटम। इधर गणेश- ओ माई फ्रैंड गणेशा हो गए और हनुमान सीबीएससीइ के कोर्स की पढ़ाई करने स्कूल जाने लगे हैं, हमारी तरह होमवर्क करने लगे हैं, पहले की तरह चमत्कारी न होकर मानवीय होते जा रहे हैं और सॉफ्ट भी, कोई कॉन्वेंट का अदना बच्चा उन्हें हड़का सकता है। सेज है, दो महीने में बजट आनेवाला है, लखटकिया आ गयी है, परमाणु करार का मसला है। रावण के हवाई अड्डे जब श्रीलंका में रावण के हवाई अड्डे हैं तो अपने यहां तो कम से कम राम के पोर्च या गैराज होंगे ही इस पर खोज होना है। एनडीटीवी को लेफ्ट का चैनल मानकर राइट विंग के लोग जब-तब हमले करते रहते हैं। मतलब काफी कुछ आज से बीस साल पहले से अलग है और इन सबके बीच एनडी के राम आ रहे हैं तो ये समझा जाए कि पहले की रामायण कि पहले रामायण देखो फिर काम पर जाओ और अब कि पहले काम कर लो तब रामायण देखो फिर से एक कल्चरल कॉन्टेक्स्ट पैदा करेगा। फिलहाल विज्ञापन को देखते हुए आज के दिन को राष्ट्रीय रामायण दिवस मानने में कोई फजीहत तो नहीं क्योंकि बाजार में तो सब कुछ पॉलिटकिली करेक्ट है जैसे एनडी का रामायण दिखाना। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080120/93aa7369/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Mon Jan 21 12:55:17 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Mon, 21 Jan 2008 12:55:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDAzIOCkquCksCDgpJrgpLDgpY3gpJrgpL4=?= Message-ID: <479448DD.1070608@sarai.net> प्रिय दीवानों मीडियानगर 03 छापाख़ाने से बाहर आ चुकी है. यार-दोस्तों की प्रतिक्रियाएं भी आने लगी हैं. तो लगे हाथ क्यों न एक चर्चा आयोजित कर ही ली जाए, और वो भी सराय के बाहर. नए-पुराने पाठकों और शुभचिंतकों के समेत हमें भी इस अंक के साथ-साथ पूरी मीडियानगर शृंखला की सेहत और अवधारणा पर बात करने का एक बढिया मौक़ा मिल जाएगा. तो आइए, पहली फ़रवरी को शाम छ: बजे ऑक्सफ़र्ड बुक स्टोर, कनॉट प्लेस में बतियाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक व लेखक संजीव कुमार एवं रामप्रकाश द्विवेदी; भारतीय जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, दिल्ली में प्राध्यापक एवं स्तंभकार आनंद प्रधान ; पत्रकार, लेखक व ग्राफिक नॉवलिस्ट राहुल पंडिता; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फिल्म रिसर्चर देबॉश्री मुखर्जी; तथा वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बातचीत की शुरुआत करेंगे. आप ज़रूर पधारें. शुक्रिया राकेश Rakesh Kumar Singh www.sarai.net http://blog.sarai.net/users/rakesh http://haftawar.blogspot.com +91 9811 972 872 From rakesh at sarai.net Mon Jan 21 13:52:07 2008 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Mon, 21 Jan 2008 13:52:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIDAzIOCkquCksCDgpJrgpLDgpY3gpJrgpL4=?= Message-ID: <4794562F.5080906@sarai.net> प्रिय दीवानों मीडियानगर 03 छापाख़ाने से बाहर आ चुकी है. यार-दोस्तों की प्रतिक्रियाएं भी आने लगी हैं. तो लगे हाथ क्यों न एक चर्चा आयोजित कर ही ली जाए, और वो भी सराय के बाहर. नए-पुराने पाठकों और शुभचिंतकों के समेत हमें भी इस अंक के साथ-साथ पूरी मीडियानगर शृंखला की सेहत और अवधारणा पर बात करने का एक बढिया मौक़ा मिल जाएगा. तो आइए, पहली फ़रवरी को शाम छ: बजे ऑक्सफ़र्ड बुक स्टोर, कनॉट प्लेस में बतियाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक व लेखक संजीव कुमार एवं रामप्रकाश द्विवेदी; भारतीय जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, दिल्ली में प्राध्यापक एवं स्तंभकार आनंद प्रधान ; पत्रकार, लेखक व ग्राफिक नॉवलिस्ट राहुल पंडिता; जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फिल्म रिसर्चर देबॉश्री मुखर्जी; तथा वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बातचीत की शुरुआत करेंगे. आप ज़रूर पधारें. शुक्रिया राकेश -- Rakesh Kumar Singh www.sarai.net http://blog.sarai.net/users/rakesh http://haftawar.blogspot.com +91 9811 972 872 From vineetdu at gmail.com Tue Jan 22 09:41:23 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 21 Jan 2008 20:11:23 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSu4KS1?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOCkv+CkguCkuSDgpLjgpYcg4KSY4KWL4KSwIOCkheCkuA==?= =?utf-8?b?4KS54KSu4KSk4KS/?= Message-ID: <829019b0801212011y609fd5bel5c582f50d1e9d56e@mail.gmail.com> मेरे लिए ये दूसरा मौका था जब नामवर सिंह ने कहा कि मैं रचना तो पढ़कर नहीं आया सो मैं इस पर बात नहीं कर सकूंगा। हो सकता है नामवरजी ने इधर नई विधा विकसित कर ली हो कि जिस रचना पर बोलने जाना है उसे पढ़कर ही मत जाओ और पहले ही ये बात श्रोताओं के सामने साफ कर दो। हिन्दी के कार्यक्रमों में कम ही जाना होता है इसलिए इस बारे में ज्यादा अनुभव नहीं है। रचना पढ़कर नहीं आते और ये मंच से कहते भी हैं तो एक घड़ी को लगता है कि आदमी में इतनी ईमानदारी तो है कि सीधे-सीधे एक्सेप्ट कर रहा है, मन में आदर का भाव पैदा होता है लेकिन आगे जो कुछ भी कहते हैं उससे लगता है कि ये आदमी साफ-साफ एक स्ट्रैटजी के तहत ऐसा करता या कहता है। क्योंकि हर बार आगे कह जाते हैं कि कुछ आलोचकों में ये प्रतिभा होती है कि वे बिना रचना पढ़े घंटे-आध घंटे तक बोल जाते हैं, मुझमें ये प्रतिभा नहीं है। माफ कीजिएगा नामवरजी मैंने अपने जानते डीयू के हिन्दी विभाग या फिर सराय में ऐसे लोगों को व्याख्यान देते हुए नहीं सुना है जो कि बिना पढ़े-लिखे चले आते हैं। ये अलग बात है कि वे आपके जैसे विद्वान नहीं होते। इसलिए बार-बार आप जो ये बात कह जाते हैं उसका कोई कॉन्टेक्सट ही नहीं बैठता। आप भी पढ़कर नहीं आते और बोलते तो हैं ही. लेकिन उन लोगों पर पहले ही कोड़े बरसाकर आप उनसे अपने को अलग कर लेते हैं। ये अपने ढ़ंग की हेजेमनी है, अपने को बेहतर समझने का बोध। आप हमेशा ये मान कर चलते हैं कि मैं रचना न पढ़कर भी जो कुछ बोलूंगा वो रचना पढ़कर बोलने वालों से भारी पड़ जाएगा। दूसरी बात जो मुझे लगती है कि आप इसलिए भी रचना पढ़कर नहीं आने की बात करते हैं क्योंकि आपकी ये स्ट्रैटजी होती है कि ऐसा करने से आपको जो मन आए बोलने की छूट मिल जाएगी और हिन्दी समाज तो मान ही रहा है आपको हिन्दी की दुनिया का अमिताभ बच्चन। लेकिन आप उसी गंदी हरकत के शिकार हैं जिसका कि अक्सर हिन्दी के स्टूडेंट होते हैं। पूछा कुछ भी जाए वो वही लिखेगा जो वो लिखना चाहता है। उसके दिमाग में होता है कि मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा। ये सही बात है कि आपका कद इतना तो है कि आप कुछ भी बोलेंगे सुर्खियों में आ जाएगा या कुछ नहीं भी बोलेंगे सिर्फ आ ही जाएंगे तो आपकी तस्वीर लगेगी और बाकी बातें रिपोर्टर्स अपने हिसाब से कर लेगा। चैनल वाले विजुअल्स आपके दिखाएंगे और वक्तव्य आपसे छोटे( मेरे हिसाब से कोई छोटा नहीं) लोगों के या फिर वीओ चला देगा। हिन्दी मीडिया तो आपके लिए इतना तो कर ही सकता है। नामवरजी आपको नहीं लगता कि अपने पहले ही लाइन में आप रचना पर बातचीत करने से निकल जाते हैं। कल ही आपने क्या किया- नाम पर अड़ गए कि बहरुपिया शहर नाम ही भ्रामक है, गुमराह करने वाला है। उसके बाद आप सराय और अंकुर के नाम की समीक्षा करने लग गए। पता नहीं आपको ये सब अटपटा क्यों नहीं लगा। आप जब बोल रहे थे तो कहीं से नहीं लग रहा था कि आप रचना पर बात करने आए हैं. ये मैं सिर्फ हिन्दी में ही देखता हूं कि यहां डिस्कशन या वक्तव्य के नाम पर भाषणबाजी होती है और बाहर लोग वाह नामवर वाह नामवर करके निकलते हैं गोया आपने अंदर आलोचना नहीं कविता पाठ किया हो। ये पहली दफा मेरे साथ हुआ कि मैं आपकी अधूरी बात के बीच ही निकल गया। क्योंकि मुझे लगने लगा कि आपने ये ट्रैंड बना लिया है कि पाठ पर बात करने के समय ऐसा ही करना है। अच्छा अगर आप विजी रहा करते हैं तो फिर इस बडप्पन से कैसे घोषणा कर दी कि अब तक तो इस किताब को देखा नहीं था लेकिन आज पूरी किताब पढ़कर ही सोउंगा। ताली पिटवाने की कला के तो हम पहले से ही कायल हैं। लेकिन जमाना बदला है गुरुदेव अब लोग कंटेंट भी खोजने लगे हैं और उसके नाम पर आपने सिर्फ इतना ही कहा लेखकों से कि राजभाषा या फिर शुद्ध हिन्दी में मत लिखने लग जाना। आज कौन नहीं जानता कि रॉ में लिखना ज्यादा सही होता है। अस्मिता विमर्श पूरी तरह इसी राइटिंग पर टिका है। आपने नया क्या कह दिया। हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि हिन्दी में सबसे श्रेष्ठ हैं और रहेंगे भी क्योंकि उमर भी कोई चीज होती है। लेकिन आप इस बात को मानिए कि अब बोलने की शैली पर मंत्रमुग्ध होनेवाली ऑडिएंस की संख्या घटी है वो कंटेंट भी चाहती है, जिसके लिए आप जब तब लोगों को निराश कर देते हैं। आपसे जो मेरी असहमति है वो आपके कंटेंट से नहीं आपके रवैये से है जो किसी स्कॉलर के लिए ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-170 Size: 9402 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080121/271ed9de/attachment-0001.bin From naresh.goswami at gmail.com Tue Jan 22 20:12:44 2008 From: naresh.goswami at gmail.com (naresh goswami) Date: Tue, 22 Jan 2008 20:12:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= TZP Message-ID: <420bea6f0801220642j38ba7598u8fcd99b7c474201d@mail.gmail.com> 'तारे ज़मीं पर' कई वजहों से देखी जानी चाहिए. एक, यह फ़िल्म बच्चे के बिखरते आत्म का बेहद संवेदनशील कोलाज है. पर इसे बाल-फ़िल्म नही कहा जा सकता. दो, फ़िल्म का सूत्रधार एक ऐसा पात्र है जो फ़िल्म के आख्यान की सरंचना और प्रवाह का हिस्सा बनकर नही बल्कि एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य से आता है. तीन, यह फ़िल्म बॉलीवुड में मजबूत हो रहे उस ट्रेंड की परिचायक है जिससे पता चलता है कि भारतीय समाज की सामूहिक चेतना अंततः किशोर यौनिकता के बाड़े से निकल कर सचमुच की ठोस और परिपक्व दुनिया की ओर बढ़ने लगी है- एक ऐसी खुली दुनिया की ओर जिसमें एक गाने में सत्तर बार कपड़े बदलने और हरी-भरी वादियों में सहवास के सांकेतिक खेल खेलने के अलावा और भी गम हैं. एक बच्चे को किताब में छपे अक्षर समझ नही आते. वह शिक्षक के निर्देश सुनने के बजाय सड़क पर भरे पानी से गुज़रते वाहनों को देखना चाहता है. वह पेड़ की फुनगी पर फुदकती चिडियों का कलरव सुनना चाहता है और तितलियों के साथ उड़ना चाहता है. उसकी कल्पना रंगों पर सवार हो कर किसी ऐसी दुनिया कि यात्रा पर जाना चाहती है जहाँ न बात-बेबात अध्यापक का डंडा चलता हो, न माता -पिता के क्षुब्ध चेहरे अपने प्यार का प्रतिदान मांगते हो. बुनियादी शिक्षा के पहले पायदान पर खड़े इस बच्चे को उसके माता-पिता ही सफल नही देखना चाहते, स्कूल की संस्था भी इसी भागीरथ प्रयत्न में लगी है. और कमाल यह है कि दोनों ही पक्षों को समझ नही आता कि बच्चे की दिक्कत क्या है. माता-पिता मानते हैं कि वह मेहनत से जी चुराता है और स्कूल वाले उसे प्रोब्लम चाइल्ड घोषित कर देते हैं. इसके बाद बच्चे के साथ एक त्रासद प्रयोग किया जाता है. उसे एक ऐसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है जिसमें बकौल एक अध्यापक "एक से एक बिगडैल घोड़े" को ठीक कर दिया जाता है. 'तारे ज़मीं पर' इस इकहरी और निर्मम रूप से सफलता-केंद्रित मानसिकता में बेआवाज़ कुम्हलाते बचपन की इबारत है. पर यह फ़िल्म बच्चों के लिए नही, बडों के लिए है. ईशान अवस्थी का दुःख एक प्रौढ़ और कथित तौर पर परिपक्व आदमी को , फ़िल्म के बाद घंटो भी अवसन्न किए रखता है. इस मायने में यह फ़िल्म वयस्कों को ही संबोधित है. यही शायद इसकी सीमा भी है. लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म सफलता और प्रतिभा से मुताल्लिक़ सामाजिक मान्यताओं को एक बड़े फलक पर विश्लेषित करने का जोखिम उठाती है. यहाँ मुख्य कथा के बाहर खड़ी एक और सरंचना का भी सुराग मिलता है. पता नहीं आमिर खान ने यह सोचा होगा कि नही पर उसने फालतू की बारीकी में पड़े बिना उपभोक्तावाद की कथित निर्विकल्पता पर बहुत कायदे से सवाल उठाया है. फ़िल्म का घटना का प्रवाह दर्शकों से लगातार जिरह करता है कि सफलता और प्रतिभा की सामाजिक सोच के पीछे वह कौन सी संरचना है जो व्यक्ति को अपने ही प्रियजनों के प्रति इतना निर्मम और क्रूर बना देती है. फ़िल्म का कथा कौशल शायद इस बात में निहित है कि वह दर्शक को इस संरचना के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देता है. इसके बाद दर्शक को ख़ुद होमवर्क करना पड़ता है. इस होमवर्क के बाद उसे पता चलता है कि दरअसल परिवार और स्कूल की संस्थाएं नव-उदारवाद व बाज़ार की उन वृहत्तर प्रक्रियाओं में फंसी हैं जिसके चलते मनुष्य की चरित्रगत विशिष्टता उपभोक्तावाद के तर्क से तय होने लगती है. पता नहीं यह बात बेधक ढंग से कही जाए या नहीं पर अंतत बाज़ार मनुष्य को एक विवेकहीन इच्चाधारी उपभोक्ता बनाकर ही छोड़ता है. ईशान अवस्थी का बचपन जिस अवसाद से गुज़रता है वह इस व्यवस्था की अनिवार्य परिणति है. दरअसल ईशान अवस्थी की कथा का सिरा उपभोक्ता सुविधाओं और सामाजिक दंद-फंद की उस संस्कृति से जुडा है जिसमे बच्चे अभिभावक की अपूर्ण और कुंठित लालसाओं के वेक्टर बनकर रह जाते हैं. बच्चों के लिए माँ घर में सबसे पहले उठ जाती है और सबसे बाद में बिस्तर का रूख करती है. पिता अगर मलाईदार नौकरी में हों तो दोनों हाथों से पैसा कूटने में लगे रहते हैं. इक बेहद आम कामकाजी आदमी भी अपने बूते से बाहर जाकर बच्चों के कथित बेहतर भविष्य के जुगाड़ में लगा रहता है. पर गौर करें कि माता-पिता जिसे बच्चों की 'बेहतरी' समझते हैं उसका चाप उन्हें रचनात्मक या आज़ाद ख़याल नागरिक बनाने पर नही बल्कि बेहतर उपभोक्ता बनाने पर टूटता है. इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या मैनेजमेंट जैसे व्यवसाय हमारे समाज में इसलिए श्रेयस्कर समझे जाते हैं क्योंकि इन्ही पेशों से जुड़े लोग सबसे ज्यादा मजे करते दिखते हैं. सुविधाओं की आकांक्षा न अनैतिक है न गैर जरूरी. मेहनत के बाद आदमी को सुख मिलना ही चाहिए. पर ऐसा क्यों है कि एक औसत आदमी उन्ही सुखों को सुख मानता है जिन्हें उपभोक्तावाद का प्रचार-तंत्र पैदा करता है? अब ज़रा फ़िल्म के दूसरे पहलू पर विचार किया जाए. पिटाई, अपमान और अवहेलना झेलते झेलते ईशान एक सहमी हुई चुप्पी में बदल जाता है. हिन्दी वाले सर को कविता की डिफाल्ट व्याख्या चाहिए. अंग्रेज़ी वाले सर बच्चों को समझाने के बजाय अपनी रफ्तार ज्यादा दिखाते हैं. और मैथ्स वाले सर तो बाकायदा उसकी हथेलियों पर डंडे बरसाते हैं. पीटी वाले टीचर भी इतने ही पत्थर हैं. गौर करिये ये लोग स्कूल में पहले से ही पढा रहे हैं. ये सब स्थायी अध्यापक हैं. पक्के और लगे-बंधे. यानी स्कूल के प्रबंध-तंत्र को उनकी काबिलियत पर पूरा भरोसा है. यह शायद संयोग नहीं है कि फ़िल्म में ड्राइंग के टीचर - रामशंकर निकुम्भ का परिचय एक टेम्परेरी यानी अस्थायी अध्यापक के रूप में दिया जाता है. यह परिचय भी हमें बच्चों से ही मिलता है. हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि स्कूल में ड्राइंग का टीचर खानापूर्ति के लिए ही होता है. न छात्र इस विषय में रुचि लेते हैं न सहकर्मी अध्यापकों की नज़रों में ड्राइंग के टीचर का कोई महत्व होता है. यह विषय और उसका अध्यापक स्कूल व पाठ्यक्रम के हाशिये पर होता है. कई बार तो जब गणित या विज्ञान जैसे 'महत्वपूर्ण' विषयों का अध्यापक स्कूल नही आ पाता तो बच्चों को सँभालने की जिम्मेदारी ड्राइंग के इस टीचर को ही दे दी जाती है. हम यह भी जानते हैं कि इस जिम्मेदारी का मतलब अक्सर बच्चों एक घंटा चुप रखना होता है. क्या फ़िल्म में रामशंकर निकुम्ब का अस्थायी होना खास मायने नही रखता? आख़िर ईशान की दिक्कतों और अवसाद को हिन्दी के अध्यापक श्री तिवारी जी क्यों नही समझ पाते ? कहीं ऐसा तो नही है कि सत्ता और महत्ता की इस व्यवस्था में वही लोग 'स्थायी' हो पाते हैं जिन्हें विविधता और बहुलता देखना नागवार गुज़रता है. कहना न होगा कि एक वंचित- यहाँ बच्चे की तकलीफ को अपनी जाती जिम्मेदारी मानने वाला नागरिक इस निर्णय-तंत्र की परिधि पर ही रह सकता है. तभी तो रामशंकर को स्कूल के प्रिंसिपल से विशेष अनुरोध करना पड़ता है कि ईशान को आगे पढने का एक और मौक़ा दिया जाए. स्कूल के स्थायी और ताक़तवर लोग ईशान की आंखों की उदासी क्यों नही पढ़ पाते? यह जिम्मेदारी 'अस्थायी' को ही क्यों उठानी पड़ती है? फ़िल्म में ड्राइंग का टीचर निकुम्ब ही बदलाव की एजेंसी है. यानी वह जो स्कूल के प्रबंध-तंत्र का बाज़ाप्ता अंग भी नही है. कोर्पोरेट भाषा में कहें तो इस समूचे मामले में वह स्टेक होल्डर भी नही है. इस सन्दर्भ में रिचर्ड ऐट्नबरो की फ़िल्म 'गाँधी' का वह दृश्य बरबस याद आ जाता है जिसमे हाल में अफ्रीका से लौटे और साबरमती में आश्रम स्थापित करने के बाद गांधीजी कांग्रेस के जलसे में भाग लेने आए हैं. उनके हाथ में चाय की ट्रे है. कांग्रेस का नेत्रत्व संवैधानिक बहसों में अटका है. माहौल पूरी तरह उत्सवमय है. जनता इतिहास के ठहराव और मानसिक जकडन की गिरफ्त में है. गाँधी जी भी कांग्रेस के इस जलसे में 'बाहर' के आदमी हैं. निकुम्ब की तरह वे भी इस प्रक्रिया के हाशिये पर ही हैं. लेकिन उनकी ठंडी शांत आँखे इस गतिरोध को पढने की कोशिश कर रही हैं. एक बच्चे की तकलीफ में रामशंकर निकुम्ब भी यही करता है. नरेश गोस्वामी -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-15 Size: 17216 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080122/b3dc7aee/attachment-0001.bin From neeraj_agrawal_07 at yahoo.co.in Mon Jan 7 12:43:32 2008 From: neeraj_agrawal_07 at yahoo.co.in (neeraj agrawal) Date: Mon, 07 Jan 2008 07:13:32 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClh+CkgiDgpKzgpL/gpKjgpY3gpKbgpYA=?= Message-ID: <328638.59736.qm@web8706.mail.in.yahoo.com> हिन्दी में बिन्दी एक फुटबॉल बन गयी डॉ. परिवेश मिश्र मेरे 86 वर्षीय पिताजी की उम्र जैसे जैसे बढ़ी, आने वाले पत्रों और मुलाकातियों की संख्या कम होती चली गयी. परिचित और मित्र कम होने लगे. मैंने कुछ वर्ष पूर्व उन्हे इंटरनेट से परिचित करायातब से यह सुनिश्चित करना भी मेरी ज़िम्मेदारी हो गयी कि जब वे कम्प्यूटर पर जाएं तो हर बार मेल-बॉक्स खाली न पाएं. पिछले महिने मेरी मां का देहावसान हुआ. तब से उन्हे व्यस्त रखना और आवश्यक हो गया है. नेट से रोचक समाचार ढूंढ़ कर उन्हे फॉरवर्ड करता रहता हूं. नियमित पत्र लिखना दूसरी आदत बनी है. ऐसा ही एक पत्र बिना काट-छांट के यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. इससे चर्चा शुरू करने का शायद एक बहाना बने. पूज्य चच्चाजी 15.12.2007 सादर प्रणाम, यह पत्र कम्प्यूटर पर आप के लिए टाईप किया है. आप नही कर पाते हैं क्योंकि आपके कम्प्यूटर में हिन्दी के फॉन्ट लोड नहीं हैं. आज की तारीख़ तो लिख दी पर यह जाएगा उसी दिन, जब इन्टरनेट कनेक्ट होगा. अंग्रेजी को ध्यान में रखकर ईज़ाद की गई टाईपिंग मशीन पर हिन्दी के लिए देवनागरी लिपि का उपयोग काफी पहले प्रारम्भ हो गया था. हिन्दी में दस्तावेज़ों की टायपिंग आदि के अलावा हिन्दी समाचार पत्रों के लिए टेलेक्स से बड़ी मात्रा में टाईपिंग मशीन के इसी उपयोग के द्वारा समाचारों के प्रेषण का कार्य हुआ. बाद में, सन् 1967 में इन्दौर का ‘नई दुनिया’ भारत का, किसी भी भाषा में छपने वाला, पहला ऐसा समाचार पत्र बना जिसने अपनी छपाई के लिए ऑफसेट मशीन तथा साथ में फोटोकम्पोज़िंग तकनीक का उपयोग किया. फोटोकम्पोज़िंग तकनीक, जैसा कि आप जानते ही हैं, पारम्परिक कम्पोज़िंग से सिर्फ इतना ही अलग थी कि छपाई के लिए अक्षरों (पहले टाईप-फेस कहते थे, जब से कम्प्यूटर आया है, फॉन्ट शब्द चलता है) को जहां पहले एक-एक कर हाथ से उठाकर कम्पोज़िंग मशीन में नियत स्थान पर रखा जाता था, वहीं फोटोकम्पोज़िंग तकनीक में सारी कम्पोज़िंग कम्प्यूटर-स्क्रीन पर टायपिंग के द्वारा की जाती है. इससे सारा काम न केवल बहुत जल्दी होने लगा बल्कि और भी फायदे हुए. पारम्परिक टायपिंग मशीन में उतने ही अक्षर या शब्द-प्रकार डाले जा सकते थे, जितने की अनुमति मशीन के भीतर का सीमित स्थान देता था. किन्तु कम्प्यूटर में स्थान की समस्या नही रही. इसमें पारम्परिक की-बोर्ड के अतिरिक्त अंकों (नम्बर्स) का उपयोग कर असीमित कॉम्बिनेशन्स के द्वारा अक्षर और चिन्ह प्राप्त किए जा सकते हैं. कुछ उदाहरण के लिए- क्र कृ क्क ड्क क्त क्र रु रू हृ ह्न ह्म ह्व द्व ह्न ध् द्र द्ग द्द ध्द द्ध ञ् लृ ट्ट ट्ठ ढ न्न य ञ् झ् ढ्ढ ङ्ढ ड्ड ड्ण ङ ड्ण फ्र ॠ ऋ स्र स्त्र ॐ ऽ ऑं आदि आदि... हिन्दी टायपिंग दरअसल हिन्दी प्रेस से विकसित हो कर बाहर निकली थी. भारत में हिन्दी में छपाई का इतिहास कोई सन् 1800 के आसपास से ही मिलता है. यह एक विवाद का विषय हो सकता है पर मुझे लगता है यदि कम्प्यूटर पर हिन्दी टायपिंग का प्रवेश कुछ दशकों पहले हो जाता तो कम से कम दो महत्वपूर्ण बातें होतीं. एक तो हिन्दी के स्थान पर, जैसा कि महात्मा गांधी चाहते थे, हिन्दुस्तानी का प्रयोग और प्रचलन बढ़ा होता. हिन्दी और उर्दू के बीच दूरी कम होती. दूसरा, हिन्दी भाषियों को उर्दू के लफ्ज़ों के उच्चारण को ले कर परेशानियां कम हो पातीं. ताज़महल-ताजमहल, जज़्बात-जज्बात, ज़िन्दगी-जिन्दगी, इज्ज़त-इज्जत जैसे शब्द परेशानी का सबब नही बनते. विशेषकर रेडियो के उद्घोषकों को सहायता मिली होती. जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है उस रूप में हिन्दी का विकास उन्नीसवीं सदी के साथ-साथ प्रारम्भ हुआ. दरअसल भारत में हिन्दी एक भाषा न हो कर अनेक बोलियों का समूह थी. जनता के बीच अनेक स्वरूपों में खड़ी बोली प्रयुक्त होती थी तो कवियों की भाषा ब्रज थी. सन् 1830 के आस-पास भारत में पहले हिन्दी समाचार पत्र के छपने की जानकारी है. छपाई के साथ साथ टाईप फेस या फॉन्ट की, व्याकरण की, और कुल मिला कर, मानकीकरण (Standardisation) की ज़रूरत सामने आयी. स्वतंत्रता की लड़ाई के दिनों में हिन्दी देशवासियों को आपस में बांधे रखने वाला धागा थी. अनेक बोलियों के रूप में बिखरे अंगों को कहीं पास ला कर तो कहीं जोड़ कर हिन्दी को एक ऐसा स्वरूप जो कि एक-रूप शरीर जैसा हो; देने की कोशिश उस समय के राजनैतिक माहौल तथा उन दिनों के हिन्दी समाचार पत्रों ने की. पारम्परिक रूप से आज़ादी से पहले तक भारत में हिन्दी का स्वरूप धर्म से कभी जुड़ा नहीं रहा. पर बाद में यह भाषा देश के विभाजन की राजनीति का शिकार बन गयी. नेशनलिस्ट ताकतों ने इसका हिन्दुत्वीकरण कर दिया. हालांकि यह प्रक्रिया पहले प्रारम्भ हो चुकी थी. 1930 में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने काशी से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'अभ्युदय 'में एक चर्चित लेख लिखा था - हिन्दी में बिन्दी क्यों. ज को ज़ बना देने वाली एक छोटी-सी बिन्दी अचानक उर्दू और हिन्दी तथा परदे के पीछे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच चल रहे महायुद्ध में बीचों बीच पंहुच गयी. फुटबॉल वर्ल्ड कप की कल्पना कीजिए. हज़ारों-लाखों लोगों की उत्तेजक चीख पुकार के बीच टीमें अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की कोशिश में जो भी प्रयास करें, किक फुटबॉल ही पाती है. हिन्दी भाषा में उर्दू के स्वर पैदा करने की कोशिश करती बिन्दी ऐसी ही एक फुटबॉल बन गयी. 'हिन्दी में बिन्दी क्यों?' यह नारा हिन्दी छापेखानों के उन कम्पोज़ीटरोंके लिए अपनी कमी छिपाने के लिए रक्षाकवच बन गया, जो तकनीकी कारणों से अक्षरों के नीचे बिन्दी नही लगा पाते थे. प्रूफ-रीडिंग करने वाले उन सम्पादकों के लिए भी जो उतने अच्छे भाषाविद् नहीं थे, जितने अच्छे पत्रकार. कुछ पत्रकारों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएं भी कारण बनीं बिन्दी की उपेक्षा की. जहां एक ओर उर्दू में समझाया गया कि नुक्ते में जरा सी हेरा-फेरी हो जाए तो ख़ुदा ज़ुदा हो जाता है, वहीं दूसरी ओर हिन्दी वाले यह साबित करने में जुट गए कि बिन्दी के बिना भी भाषा का अस्तित्व है. और फिर एक के बाद एक पीढ़ियां निकलती चली गयीं, ऐसे अनेक शब्दों से परिचय पाए बिना जो रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा थे. विभाजन ने हिन्दी को हिन्दुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा का लेबल देने वालों के प्रयासों को बल दिया. हिन्दी का हिन्दुत्वीकरण होने लगा. उर्दू वाले उर्दू में फारसी के शब्द डालने लगे तो रघुवीर (कमेटी) जैसे लोग ढूंढ़ ढूंढ़ कर संस्कृत पर्यायवाची इज़ाद करने में जुट गए. रेल के लिए लौह-पथ-गामिनी, रेल सिग्नल के लिए गमनागमन सूचक ताम्र-लौह पट्टिका, सिग्नल के लिए श्वेत धम्रपान-दंडिका, लॉन टेनिस के लिए घासीय गेंद बल्ला मुठभेड़ तथा रूमाल के लिए मुख प्रच्छलन वस्त्र चीर जैसे शब्द सालों तक चुटकुलों के रूप में हमने आप से ही सुने हैं. जिस रूप में हिन्दी को आज पहचाना जाता है, उसमें आते तक समय-समय पर अनेक स्रोतों से योगदान मिला है. पंडितों की भाषा से उठाकर इसे एक ऐसी भाषा के रूप में स्थापित करने में, जिसे अभिजात्य और सामान्य दोनो वर्गों की समान स्वीकार्यता प्राप्त हो; हिन्दी पत्रकारिता ने बड़ा योगदान किया है. हिन्दी पत्रकारिता के पितृपुरूष माने जाने वाले बाबूराव विष्णु पराडकर से व्याकरण तथा शब्द एवं वाक्य संयोजन की व्यवस्था के अतिरिक्त मिस्टर के स्थान पर श्री तथा राष्ट्रपति (मैं ष का आधा रूप कम्प्यूटर की-बोर्ड में नहीं ढूढ़ पाया हूं.'राष्ट्रपति ' चलेगा?) जैसे शब्द मिले. 1980-81 के आस पास ‘जनसत्ता’ अखबार छपना प्रारम्भ हुआ तो भारतीय क्रिकेट में गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ जैसे शब्द आए. राजनैतिक दलों के विभाजन के लिए दो-फाड़ शब्द प्रयुक्त हुआ. 1995 के आसपास एक घंटे के 'आज-तक' के माध्यम से सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने दूरदर्शन पर सरकारी हिन्दी सुनने के आदी कानों को बोलचाल की हिन्दी भाषा सुनायी, जो बाद में आने वाले सभी निजी हिन्दी समाचार चैनलों की शैली बनी. हिन्दी का शब्द संग्रह बढ़ाने में सरकारी तंत्र ने भी खूब योगदान किया. गांवों का शहरीकरण, शहरों का सौंदर्यीकरण, सड़कों का चौड़ीकरण और फिर डामरीकरण, सब हिन्दी को सरकारी योजनाओं की देन हैं. हिन्दी के पण्डितों ने न जाने कैसे यह भुला दिया कि हिन्दी सदैव एक जीवन्त, कदम-कदम पर परिपक्व होते रहने वाली एवं समय के साथ अपने को ढालने वाली भाषा रही है. हिन्दी सतत बहने वाली और राह की तमाम बुराईयों को साथ ले कर भी अपनी शुद्धता बरकरार रखने वाली गंगा नदी की तरह रही है. इसे संस्कृत जैसी एक महान किन्तु मृत भाषा की सहायता से 'पुनर्जीवित ' करने का जब-जब भी प्रयास किया गया, हिन्दी पर गंगा की तरह आस्था रखने वाला आम जन उस प्रयास में शामिल नहीं हो पाया. हिन्दी भाषा के इतिहास पर कुछ और भी चर्चा हो सकती है, पर इसे अगले पत्र का विषय रखते हैं. आपका ही परिवेश साभार : www.raviwar.com Get the freedom to save as many mails as you wish. To know how, go to http://help.yahoo.com/l/in/yahoo/mail/yahoomail/tools/tools-08.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080107/aa713777/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Jan 23 12:31:02 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 23 Jan 2008 12:31:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCksuCli+CkleCkpOCkguCkpOCljeCksCDgpJXgpYAg4KS24KWL?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSv4KS+4KSk4KWN4KSw4KS+IDog4KSX4KWB4KSc4KSw4KS+4KSk?= =?utf-8?b?IOCkuOClhyDgpLLgpYfgpJXgpLAg4KSo4KSC4KSm4KWA4KSX4KWN4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSu?= Message-ID: <200801231231.02945.ravikant@sarai.net> riyaz hul haq saheb ka post, jo baRa hone ki vajah se afka paRa tha. ravikant भारतीय लोकतंत्र की शोभायात्रा : गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक अब तक गुजरात की जीत के बारे में जिस तरह से लिखा-कहा गया, मुझे लगता है कि वह सब न सिर्फ ऊपरी ढाँचे के बारे में सतही तौर पर कही गयी बातें थीं बल्कि, उनसे हम वाकई इस बात को समझाने में नाकाम रहे हैं कि आख़िर कैसे एक राज्य में इस तरह के नरसंहार करवाकर एक मुख्यमंत्री इस तरह जीत जाता है-वह भी डंके की चोट पर। और कैसे लोग उसके विकास के नारों की चपेट में आ जाते हैं? आख़िर इस विकास और इस फासीवाद का कोइ अंतर्संबंध भी है? क्या इसका कोइ सूत्र तलाशा जा सकता है? और क्यों एक खास क्रम में भारत में ऐसी घटनाओं में लगातार बढोतरी हुई है? आख़िर क्यों गुजरात में नरेन्द्र मोदीऔर नंदीग्राम में सीपीएम एक ही रास्ता अपनाते हैं? सुष्मिता ने इन सूत्रों की तलाश की है और ऐतिहासिक तौर पर उन कारणों की पड़ताल की है, जिनके ज़रिये हम अपने वक्त के घटनाक्रमों को बेहतर तरीके से समझ पायेंगे। यह थोडा लंबा भले है, मगर इसे पढा ज़रूर जाना चाहिए. भारतीय लोकतंत्र की शोभायात्रा गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक सुष्मिता यदि आप सत्ता से असहमति रखते हैं तो मार दिये जायेंगे. यदि आप हिंदू नहीं हैं तो मार दिये जायेंगे. अव्वल तो यह कि आप जीना चाहते हैं तो भी मार दिये जायेंगे. आपके मार दिये जाने के लिए इतनी वजह काफी है कि आप एक आदमी की तरह सोचते हैं एवं जिंदा हैं. क्या आपने भारतीय लोकतंत्र की शोभायात्रा का उद्धोष नहीं सुनाङ्क्ष अब हम सब के जीने के अधिकारों का भी निर्धारण संसदीय राजनीति की थर्मामीटर से मापे जानेवाले 'बहुमत' से होगाङ्क्ष वित्तीय पूंजी की चाकरी में निकली यह शोभायात्रा करोडों उत्पीडित जनता को रौंदती हुई तेजी से आगे बढ रही है. मुख्यमंत्री अपने राज्य में नरसंहार करवाता है एवं तमाम विरोधों को यह कहते हुए चुनौती देता है कि वह बहुमत से चुना गया है. इतना ही नहीं, इसके सही या गलत होने के फैसले के लिए वह चुनाव में आने की चुनौती देता है. यदि नरेंद्र मोदी एवं भारतीय लोकतंत्र के अन्य पहरुओं की मानें तो गुजरात की जनता ने न केवल नरेंद्र मोदी द्वारा की गयी हत्याओं का अनुमोदन किया है बल्कि और ऐसे ही काम करने का लाइसेंस भी दिया है. भारतीय लोकतंत्र का संकट और फासीवाद नरेंद्र मोदी की सत्ता वापसी पर चर्चा का बाजार गर्म है. कई चर्चाओं में कांग्रेस व भाजपा के समीकरणों या फिर जातीय समीकरणों की बातें हो रही हैं. लेकिन इस सवाल के फलक तो कहीं ज्यादा व्यापक हैं. क्या नरेंद्र मोदी पहले शख्स हैं जो हत्याएं आयोजित करके फिर सत्ता में चुने गये हैंङ्क्ष इंदिरा गांधी ने भी देश में आपातकाल लागू किया. भयानक पैमाने पर पूरे देश में दमन हुआ, हत्याएं हुईं, लेकिन महज तीन सालों में फिर वे बहुमत से चुनी गयीं. ये तमाम तथ्य भारतीय लोकतंत्र पर उठाये जानेवाले सवालों को और मजबूत करते हैं. अर्धसामंतवाद एवं अर्धउपनिवेशवाद की बुनियाद पर खडा यह लोकतंत्र बढते आर्थिक संकट के साथ और ज्यादा प्रतिगामी होता गया है. यदि हम संसद के वर्तमान स्वरूप की भी चर्चा करें तो आज सत्ता का ज्यादा केंद्रीकरण कैबिनेट एवं उससे भी ज्यादा पूर्व निर्धारित स्टेंडिंग कमेटियों में हो गया है, जो कि आज मूल रूप से वित्तीय पूंजी की चाकरी करती हैं. अब तो मंत्रियों की भूमिका भी वित्तीय पूंजी ही निर्धारित कर रही है. भारतीय संसद की एक मुख्य विशेषता यह भी रही है कि यहां फासीवाद संसद से ही होकर निकला है. 1970 के दशक में आपातकाल लागू कर देश की जनता को र कर दिया गया. यह फैसला गैर लोकतांत्रिक हो सकता है, लेकिन संसदीय फ्रेमवर्क में यह गैर कानूनी नहीं है. इसको इतने अधिकार प्राप्त हैं कि एक कैबिनेट की बिना पर वह देश की अरबों जनता को र कर सकता है, यदि वह पूर्ण बहुमत में हो, क्योंकि कैबिनेट का ह्विप मानना सांसदों के लिए बाध्यता है. जाति, धर्म जैसे तमाम प्रतिगामी तरीकों का इस्तेमाल करने के बावजूद आज भारतीय संसद गहरे संकट से जूझ रही है. सामंती संस्थाएं एवं लोकतंत्र में अंतर्विरोध है. लोकतंत्र के बढने का मतलब है जाति, धर्म जैसी सामंती संस्थाओं की भूमिका का आम जीवन में क्रमशः कम होना, लेकिन हम देखते हैं कि जाति, धर्म जैसी संस्थाएं और ज्यादा मजबूत हुई हैं. बल्कि सच तो यह है कि भारतीय संसदीय राजनीति ने जाति एवं धर्म जैसी संस्थाओं को और मजबूत किया है. इसके अलावा इसके संकट का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि विभिन्न मतोंवाली कई पार्टियों के पक्ष एवं कई पार्टियों के विपक्ष में होने के बावजूद यह पांच साल तक सरकार नहीं चला पा रही है एवं अब भारतीय शासक वर्ग संविधान संशोधन की बात कर रहा है. वैसे भी आर्थिक एवं विदेशी मामलों में संसद बहस करने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकती है. संसद में आनेवाले बिलों की जगह अध्यादेशों ने ले ली है. आज सत्ता को प्राप्त तमाम आपातकालीन अधिकार ही शासन के सामान्य औजार बनते जा रहे हैं. इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र जनता के दमन के एक और औजार के बतौर इस्तेमाल किया जाता है. यह देश मे बढ रहे राजनीतिक संकट को स्पष्ट करता है. आज हम यदि देश के स्तर पर के संकेतों को पढें तो स्पष्ट है कि वित्तीय पूंजी की चाकरी में पूरी राजसत्ता मशगूल है. मेहनतकश जनता के तमाम संघर्षों एवं अधिकारों पर प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं. न्यायपालिका भी पूरी तरह वित्तीय पूंजी की चाकरी में लगी है. कई मेहनतकश विरोधी, हडताल विरोधी एवं अन्य जनसंघर्ष विरोधी फैसलों में हम इसकी झलक पा सकते हैं. अरुंधति राय को नर्मदा के विस्थापित लोगों के पक्ष में खडा होने के लिए सजा भुगतनी पडती है, वहीं खून से सने हाथ लिये मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खुलेआम इस एलान से भी कि मानवता के दुश्मनों को सजा-ए-मौत दी जायेगी, जैसा कि सोहराबुीन के साथ किया गया, न्यायपालिका गौरवान्वित होती है. इन संकेतों से हम स्थिति को समझ सकते हैं. आज यह पूरे देश में जन संघर्षों के खिलाफ प्रतिक्रांतिकारी गिरोहों एवं जनता के ही एक हिस्से का इस्तेमाल कर रही है. तमाम शासकवर्गीय पार्टियां इसी नीति का अनुसरण कर रही हैं. गुजरात में हमने देखा कि नरेंद्र मोदी ने तमाम वर्गों एवं यहां तक कि दलितों एवं आदिवासियों को भी मुसलिमों के जनसंहार में उतारा. गुजरात के चुनाव परिणाम के तुरंत बाद उडीसा में चर्चों पर हमले जारी हैं. नंदीग्राम में सेज व उडीसा में पोस्को के खिलाफ संघर्षरत जनता के खिलाफ में सत्ता द्वारा उतारी गयी जनता में हम इसकी झलक देख सकते हैं. इसके अलावा छत्तीसगढ एवं अन्य नक्सली संघर्ष के इलाकों समेत राष्ट्रीयताओं के संघर्षों के खिलाफ भी 1990 के बाद से खडे किये गये निजी गिरोहों में हम इसका स्वरूप देख सकते हैं. सत्ता अपनी दमनकारी हरकतों के लिए जनता से समर्थन पाने के लिए जान-बूझ कर जनता में भयानक असुरक्षा और आतंक का माहौल बनाती है. बार-बार जनता को समझाया जाता है कि वे बारूद की ढेर पर बैठे हैं, जिसका रिमोट कहीं बांग्लादेश या पाकिस्तान में है. इसके आतंक का फायदा उठाते हुए भारत की जासूसी एजेंसियों एवं भारी-भरकम सुरक्षा खर्चे को जनता में जायज ठहराया जाता है. राजसत्ता जनता की इस असुरक्षा के भाव के जरिये जनता के दमन के लिए बनाये गये विभिन्न सरकारी कानूनी और गैर कानूनी जैसे छत्तीसगढ में सलवा जुडूम, आंध्र में ग्रेहाउंड्स कोबरा, झारखंड में नासुस, असम में सुल्फा इत्यादि गिरोहों और दमनकारी कानूनों को सही साबित करने की कोशिश करती है और जनता में अंतर्विरोध पैदा करती है. इन तमाम संकेतों में यह सामान्य है कि शासक वर्ग (चाहे वह समाजवादी, वामपंथी या फिर दक्षिणपंथी हो) प्रतिक्रांतिकारी गिरोहों में आम जनता को संगठित कर देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन संघर्षों के खिलाफ इस्तेमाल करता है. ये तमाम संकेत हमें फासीवाद की तरफ इशारा करते हैं, जिसकी जडें सीधे तौर पर राजनीतिक- आर्थिक व्यवस्था से जुडी हैं. दूसरा मुख्य संकेत यह भी है कि दंगे मूलतः उन्हीं इलाकों में होते हैं, जहां हाथ की कारीगरी मौजूद है. मसलन भागलपुर, जहां सिल्क का उद्योग है. अलीगढ, जहां ताले के उद्योग हैं. गुजरात, जहां भारी पैमाने पर छोटे-छोटे उद्योग हैं. साम्राज्यवाद का घरेलू तकनीक के साथ अंतर्विरोध होता है. वह घरेलू तकनीक को नष्ट करने लिए भी यह रास्ता अपनाता है. गुजरात के नरसंहार में भारी पैमाने पर उद्योगों को नष्ट किया गया था और इस पर तमाम औद्योगिक संस्थाओं ने चूं तक न की थी. हालांकि देश में फासीवाद के लक्षण 1970 के दशक के दौरान से ही देखे जा सकते हैं. यह वही दौर है, जब दुनिया के स्तर पर फिर से मंदी के लक्षण स्पष्ट हो रहे थे. साम्राज्यवाद कीन्सीय औजारों के जरिये 1930 की जिस महामंदी से निकलने में सफल हुआ था, 1970 के दशक से वह फिर उसी दीर्घकालिक संकट में फंस गया. यही वह दौर है, जब भारत में आपातकाल लगाया गया. इंदिरा गांधी ने खुद ही अपने अंतिम दिनों में हिंदू अंधराष्ट्रवाद और गैर जनवादी औजारों को चरणबद्ध रूप से इस्तेमाल किया. इन तमाम तमाम फैसलों ने बढते राजनीतिक-आर्थिक संकट के दौर में एक प्रकार से फासीवाद के साथ भारतीय जनता का परिचय कराया. 1980 के दशक में ही आइएमएफ से पहली बार कर्ज लेकर ढांचागत समायोजन कार्यक्रम शुरू किया गया. राजीव गांधी के शासनकाल में गैर जनवादी नीतियां और हिंदू राष्ट्रवाद दोनों मजबूत हुए. हिंदुत्व की फासीवादी ताकतों का राजनीतिक ताकत के रूप में उदय यों तो भारत में हिंदुत्व की फासीवादी विचारधारा लगभग साढे सात दशकों से अस्तित्व में रही है, लेकिन सत्ता में इसकी वैसी कोई भूमिका नहीं रही. यह केवल पिछले ढाई दशकों में ही एक राजनीतिक ताकत के रूप में खडी हो सकी है. इसका सामाजिक आधार मूल रूप से ऊंची जातियों एवं हिंदू व्यापारी समुदायों के बीच था. 1980 के दशक में शासक वर्ग ने इसे फासीवादी विकल्प के रूप में विकसित करने का बीडा उठाया. आज इसने अपना आधार भी बढाया है एवं दलितों से लेकर पिछडी जातियों में अपनी पैठ बनायी है. इसने हिंदू राष्ट्रवाद का सवाल उठाया. तमाम शासकवर्गीय पार्टियों ने फासीवादी ताकतों के विकास में मजबूत भूमिका अदा की. संसदीय गठजोडों के लिए बनाये जानेवाले मोर्चों ने भी हिंदू फासीवाद को मजबूत किया है एवं उसे वैधता प्रदान की. कई क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मोर्चा बना कर इसने अपने नकाब को बरकरार रखा. भारतीय जनता पार्टी ने अपने शासनकाल में पहली बार बडे व्यावसायिक घरानों एवं उसके संगठनों-सीआइआइ, फिक्की, एसोचेम-को लेकर विभिन्न मंत्रालयों के साथ कई कमेटियों का निर्माण किया. यहां तक कि प्रधानमंत्री के कार्यालय के साथ भी संबंध स्थापित किये गये. लेकिन यह केवल ऐतिहासिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू है, जिसको हिंदुत्व की फासीवादी ताकतों ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया. हिंदू फासीवाद तो मूल रूप से एक राजनीतिक घटनाक्रम है, जो शासक वर्ग द्वारा लाया गया है, जिसके केंद्र में साम्राज्यवाद एवं देशी-विदेशी पूंजीपतियों एवं शासक वर्ग का बढता राजनीतिक-आर्थिक संकट है. क्या फासीवाद का कोई खास सूत्रीकरण है? कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की विस्तारित कार्यकारिणी की 13वीं बैठक के अनुसार फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे अधिकतर साम्राज्यवादी, अंधवादी और प्रतिक्रियावादी तत्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है. (1) दिमित्रोव हमें इस बात की भी चेतावनी देते हैं कि हमें हमेशा ही यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों संकट विद्यमान हों तो फासीवादी विचारधारा शासक वर्ग पैदा कर लेता है. अर्थात मूल सवाल राजनीतिक- आर्थिक संकट और वर्ग चरित्र का है. फासीवाद का विशेष चरित्र यह है कि फासीवाद प्रतिगामी शक्तियों द्वारा समर्थित होता है एवं इसका उपयोग वह अपनी कार्रवाइयों की वैधता के लिए करता है. इनके द्वारा खडे किये गये प्रतिगामी जनांदोलन सत्ता के साथ मिल कर खुली आतंकशाही और जनसंघर्षों पर दमन चलाते हैं. तोग्लियाती के अनुसार 'फासीवाद शब्द का इस्तेमाल तब किया जाना चाहिए, जब मजदूर वर्ग के खिलाफ संघर्ष शुरू हो और वह किसी जनाधार के सहारे चलाया जाये, जैसे निम्न पूंजीवाद पर आधारित होकर. यह विशेषता हमें जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड इत्यादि उन सभी जगहों पर दिखायी देती है, जहां वास्तविक फासीवाद पाया जाता है (2). यदि हम देश के विभिन्न हिस्सों से आनेवाले संकेतों को पढें तो साफ-साफ मालूम होता है कि पूरी राजसत्ता फासीवादी बनती जा रही है. जाहिर तौर पर इसकी जडें साम्राज्यवाद के गहरे आर्थिक संकट से जुडी हैं, जो भयानक राजनीतिक संकट को भी बढा रहा है. सांसें गिनता साम्राज्यवाद एवं बढता फासीवाद फासीवाद का वित्तीय पूंजी के साथ सीधा संबंध है. 1930 की महामंदी के बाद साम्राज्यवाद ने कीन्सीय औजारों के जरिये कुछ समय के लिए और मोहलत हासिल की. इसके अलावा इसे थोडी और मोहलत इसलिए भी मिली क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सीधे औपनिवेशिक बंधनों से मुक्त हुए उत्पीडित देशों में पूंजीवाद या फिर राजकीय एकाधिकार पूंजीवाद की स्थापना ने इसे थोडे समय के लिए और जीवनदान दिया. लेकिन साम्राज्यवाद वास्तव में और ज्यादा मरता और सडता जा रहा है. इसकी सडांध तो और कहीं ज्यादा व्यापक थी. साम्राज्यवाद पुनः 1970 के दशक से दीर्घकालिक संकट में फंसता गया. 1970 के दशक तक सट्टेबाज पूंजी अपने लिए रास्ते तलाशती रही. इसका हल भी आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक एवं भूमंडलीकरण के जरिये निकाल लिया गया. 1980 के दशक में तीसरी दुनिया के देशों को दिये जानेवाले कर्जे में इस बेकार पूंजी ने अपने लिए रास्ता ढूंढा. 1990 के बाद भूमंडलीकरण के जरिये इसने दुनिया के बाजारों को हासिल करके फिर थोडे समय के लिए संकट से बाहर आने की कोशिश की. लेकिन इसके बावजूद संकट का कोई अंत नहीं था. 2002 की शुरुआत में डॉट कॉम बुलबुला फूटने के बाद इसकी रही-सही कसर भी निकल गयी. इसके बाद से ही विश्व एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्था सिकुडती गयी. इंटरनेट बुलबुले के फूटने के बाद फेडरल रिजर्व (अमेरिकी केंद्रीय बैंक) ने हाउसिंग बुलबुले के जरिये इस संकट को पार करने की कोशिश की. कुछ समय तक तो वह सफल हुआ, लेकिन 15 अगस्त, 2007 को यह बुरी तरह धराशायी हो गया, जिसे सब प्राइम संकट कहा गया. इस संकट के प्रभाव काफी दूरगामी हैं. आइएमएफ के तात्कालिक प्रबंध निदेशक रोडिगो राटो के अनुसार ' अमेरिका इस संकट के प्रभाव का शिकार लंबे समय तक रहेगा. इस संकट के प्रभाव को कम करके नहीं देखा जाना चाहिए एवं इसके ठीक होने की प्रक्रिया दीर्घकालिक होगी. साख (क्रेडिट) की स्थिति जल्दी सामान्य नहीं होगी.' इसके आगे उनका कहना है कि इसका प्रभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था पर पडेगा एवं यह 2008 में सबसे ज्यादा महसूस किया जायेगा (3). हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था, जो अब भी दुनिया की सबसे बडी अर्थव्यवस्था है, के इस संकट को समझ सकते हैं. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यह उस बाजार में पहला संकट है, जहां कर्जों एवं परिसंपत्तियों की जमानत पर निर्मित नये 'उत्पादों' की विश्व स्तर पर खरीद-फरोख्त होती है. इस पूरे संकट का दुष्प्रभाव अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर व दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पडना लाजिमी है. फिर मंदी के आसार देखे जाने लगे हैं, जो भूमंडलीय आर्थिक संकट को और बढा देगी. अमेरिकी सब प्राइम बाजार के संकट से पूरी दुनिया के शेयर बाजार लडखडाने लगे. इस संकट के परिणाम इतने गहरे थे कि विश्व के कई नेतृत्वकारी बैंकों को गंभीर खतरा हो गया. इनको बचाने के लिए केंद्रीय बैंकों ने भारी पैमाने पर धन डाला. यूरोपीय केंद्रीय बैंक ने 130 बिलियन डॉलर, जापान के बैंक ने एक ट्रिलियन डॉलर एवं अमेरिकी फेडरल ने 43 बिलियन डॉलर इसमें लगाये. इस दौर के संकट के आयाम तो पिछले समयों के तमाम संकटों से काफी व्यापक हैं. इसका मूल कारण यह है कि साम्राज्यवाद ने उन तमाम कीन्सीय एवं अन्य औजारों का इस्तेमाल कर लिया, जिसके जरिये वह महामंदी से बाहर निकला था, लेकिन संकट में बदलाव के कहीं कोई खास संकेत नहीं हैं. इन संकटों के परिणामस्वरूप उत्पीडित देशों में और ज्यादा भयानक पैमाने पर लूट-खसोट मचायी जायेगी, जिसका माध्यम भूमंडलीकरण होगा. अमेरिका द्वारा अपने देश से बाहर किये गये, निवेश के जरिये कमाये गये मुनाफे पर नजर डालें तो 1970 के दशक के 11 प्रतिशत से बढ कर 1980 एवं 1990 के दशक में यह क्रमशः 15 एवं 16 प्रतिशत तथा 2000-04 के बीच यह औसतन 18 प्रतिशत था (4). इसके अलावा सट्टेबाजी में और वृद्धि होगी. हम यदि पिछले 30 सालों के रूझानों पर नजर डालें तो न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज में 1975 में लगभग 19 मिलियन शेयर की खरीद-फरोख्त होती थी. यह 1985 में 109 मिलियन से बढ कर 2006 में 1,600 मिलियन तक पहुंच गया. विश्व मुद्रा बाजार में खरीद-फरोख्त इससे कहीं ज्यादा है. यह 1977 के 18 मिलियन डॉलर प्रतिदिन से बढ कर 2006 में 1.8 ट्रिलियन डॉलर प्रतिदिन हो गया. इसका मतलब था कि प्रत्येक 24 घंटे में मुद्रा की खरीद-फरोख्त पूरी दुनिया के वार्षिक जीडीपी के बराबर थी(5). अर्थात मुनाफे की भूख में आवारा पूंजी और ज्यादा मुंह मारती फिरेगी. इससे हम विश्व की अर्थव्यवस्था की अस्थिरता का अंदाजा भर लगा सकते हैं. इसके अलावा केंद्रीकरण में भी भयानक स्तर तक इजाफा हुआ है. नवंबर/दिसंबर, 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन पर नजर डालें तो दुनिया की 10 बडी दवा कंपनियों का 98 नेतृत्वकारी घरानों के 59 प्रतिशत शेयर पर नियंत्रण था. दुनिया के 21,000 मिलियन डॉलर के व्यावसायिक बीज बाजार के लगभग 50 प्रतिशत पर 10 बडी कंपनियों का नियंत्रण था. 29,566 मिलियन डॉलर के विश्व कीटनाशक बाजार के लगभग 89 प्रतिशत का नियंत्रण 10 बडी कंपनियों के हाथ में था. विश्लेषकों के अनुसार 2015 तक केवल तीन कंपनियों का पूरे कीटनाशक बाजार पर कब्जा होगा. 2004 में फूड रिटेल बाजार के अनुमानित आकार 3.5 ट्रिलियन डॉलर के 24 प्रतिशत हिस्से (84,000 मिलियन डॉलर) पर 10 बडी कंपनियों का कब्जा था. इन इजारेदारियों से हम अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे आम सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन का निर्धारण किस तरह से पारदेशीय निगम कर रहे हैं. भूमंडलीकरण के शुरुआती दौर (1990) में कहा गया था कि निगमों के विलय का दौर समाप्त हो गया है, लेकिन 2004 की शुरुआत में विश्व स्तर पर विलयों एवं अधिग्रहणों का आंकडा 1.95 ट्रिलियन डॉलर का था. यह 2004 में 2003 के 1.38 ट्रिलियन डॉलर से 40 प्रतिशत बढ गया था. 2004 में 200 बडे पारदेशीय निगमों की संयुक्त बिक्री विश्व की संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों की 29 प्रतिशत थी. यह लगभग11,442,256 मिलियन डॉलर के बराबर थी. धन के संकेंद्रण का अंदाजा हम इस बात से भी लगा सकते हैं कि दुनिया के 946 अरबपतियों के धन में प्रतिवर्ष लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है. वहीं दुनिया की आबादी के नीचे के 55 प्रतिशत लोगों की आय में या तो गिरावट है या ठहराव है. जेम्स पेत्रास ने लिखा है कि रूस, लैटिन अमेरिका और चीन( जहां 10 से भी कम सालों में 20 अरबपतियों ने 29.4 प्रतिशत बिलियन डॉलर जमा किये हैं) में वर्गीय एवं आय असमानताओं को देखते हुए इन देशों को उभरती हुई अर्थव्यवस्था के बजाय उभरते हुए अरबपति कहना ज्यादा मुनासिब होगा. पिछडे देशों में भूमंडलीकरण को जनता के तमाम संकटों का समाधान बताया गया. सरकारी अर्थशास्त्रियों ने हमें पढाया कि अंततः पूंजी का प्रवाह अमीर से गरीब देशों की तरफ होता है. लेकिन 'द इकोनॉमिस्ट' पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2004 में उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने अमीर देशों को 350 बिलियन डॉलर भेजे(6). केंद्रीकरण के ये तमाम तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि साम्राज्यवाद और कितने गहरे संकट में फंसता जा रहा है. हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद के संकट का सबसे मूल कारण मालिकाने का निजी स्वरूप और उत्पादन के सामूहिक चरित्र के बीच अंतर्विरोध है. ये तमाम प्रक्रियाएं साम्राज्यवाद के तमाम अंतर्विरोधों को और भयानक पैमाने पर तीखा करती जायेंगी. हम कह सकते हैं कि लेनिन के समय का साम्राज्यवाद यदि परजीवी और मरणासन्न था तो आज वह उससे हजार गुना परजीवी और मरणासन्न है. साम्राज्यवाद इससे बचने के लिए और प्रतिगामी रुख अपनायेगा. परिणामस्वरूप गरीब देशों की लूट और भयानक स्तर पर बढ जायेगी. साम्राज्यवादी युद्ध के खर्चों में वृद्धि होगी. हथियारों के बाजार को और प्रोत्साहित किया जायेगा. तमाम देशों में नस्लीय एवं धार्मिक नफरतों को भडकाया जायेगा. और तो और मुनाफे के स्तर को बनाये रखने के लिए भयानक नरसंहार किये जायेंगे. चूंकि साम्राज्यवाद के पास अंततः यही औजार हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था के मुखिया भले ही भारतीय जनता को अर्थव्यवस्था के फूलप्रूफ होने के सब्जबाग दिखाते रहें, लेकिन उनको भी पता है कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है. अमेरिका के सब प्राइम संकट के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अगस्त में सबसे ज्यादा बिक्री की. यह 1990 में उनकी भागीदारी से अब तक एक महीने में सबसे अधिक थी. अर्थात अमेरिकी बाजार का एक संकट पूरे बाजार को हिला देने की क्षमता रखता है. भारत के दलाल पूंजीपति घराने आज ज्यादा से ज्यादा हद तक साम्राज्यवादियों के साथ जुडे हुए हैं. कई बडे बैंक भारतीय से अधिक विदेशी हो चुके हैं. भारत में स्टॉक बाजार में भारी पैमाने पर विदेशी संस्थागत निवेश की मूल वजह तो सब प्राइम बाजार का संकट, अमेरिकी ब्याज दरों का कम होना रहा है, न कि भारतीय अर्थव्यवस्था का काफी मजबूत होना. अर्थव्यवस्था में विदेशी नियंत्रण भयावह पैमाने पर बढ गये हैं. दूर संचार क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश लगभग 74 प्रतिशत है. भारत का रियल एस्टेट बूम भी अमेरिकी रास्ते पर ही बढ रहा है. कृषि संकट जग जाहिर है. देश में खाद्यान्न उत्पादन की दर में भारी गिरावट थी, जो पिछले 30 सालों में सबसे अधिक थी. बाजार में मुद्रास्फीति की मूल वजह खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट थी. विदेशी कर्ज 2006-07 के दौरान 23 प्रतिशत बढ कर 155 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. यह पूरी जीडीपी का लगभग 16.4 प्रतिशत है. मई, 2007 से ही अर्थव्यवस्था की विकास दर के धीमे होने के संकेत हैं. विदेशी पूंजी पर इस हद तक निर्भरता से स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का छोटा संकट भी भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोर देगा. इसके अलावा भूमंडलीकरण के दौर में भयानक पैमाने पर संकेंद्रण में भी वृद्धि हुई है. जेम्स पेत्रास के अनुसार ' भारत में जहां अरबपतियों की संख्या एशिया में सबसे अधिक, 36, है-की कुल संपत्ति लगभग 191 बिलियन डॉलर की है. ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह माओवादियों एवं देश देश के सबसे गरीब इलाकों के जन संघर्षों को सबसे बडा आंतरिक खतरा घोषित करते हैं. चीन 20 अरबपतियों की 29.4 बिलियन डॉलर की संपत्ति के साथ दूसरे नंबर पर है. इस दौर में भयानक पैमाने पर प्रतिरोधों का सामना कर रहे नये शासकों ने प्रदर्शन एवं दंगा विरोधी विशेष सशस्त्र बलों की संख्या में 100 गुना वृद्धि की है (7). अर्थात बढते जनसंघर्षों का सीधा संबंध इन आर्थिक संकटों एवं संकेंद्रणों से है. इससे निबटने के लिए शासक वर्ग के पास फासीवाद के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. सामाजिक जनवाद और फासीवाद भारत में सामाजिक जनवाद, जो कि मूलतः सामाजिक फासीवाद में बदल चुका है, ने भी फासीवाद के विकास में भूमिका निभायी. इसने जान-बूझ कर इसके वर्गीय चरित्र एवं वित्तीय पूंजी के साथ रिश्ते के पहलुओं को अनदेखा किया. इसका एक बडा कारण था कि जिन राज्यों में यह लंबे समय से सत्ता में है, वहां इसका भी वर्गीय आधार कमोबेश वही है एवं वित्तीय पूंजी की इसकी भूख तो जग जाहिर है. संसदवाद की दलदल में सिर से पैर तक धंसे इन तमाम झूठे मार्क्सवादियों ने फासीवाद के खिलाफ तमाम संघर्षों को संसदवाद के समीकरणों में जान-बूझ कर फंसाये रखा. वित्तीय पूंजी की तिजारती में तो इसने शासकवर्गीय पार्टियों को भी पीछे छोड दिया है. इसने जनता की गोलबंदी को न केवल वित्तीय पूंजी के हित के लिए इस्तेमाल किया, बल्कि उसने इन जन समूहों का इस्तेमाल वित्तीय पूंजी के खिलाफ संघर्षरत जनता के दमन के लिए किया. इसने भूमि सुधार की भयानक डींगें हांकीं, लेकिन सर्वविदित है कि अधिगृहीत जमीनों का बडा हिस्सा अब भी कानूनी पचडे में फंसा हुआ है. इसने किसानों को बांटने के लिए जमीनें जमींदारों से लेने में उतनी तत्परता नहीं दिखायी, जितनी साम्राज्यवादियों के लिए किसानों से छीनने में. फासिज्म के सत्तारूढ होने के बारे में सामाजिक जनवादियों की भूमिका पर दिमित्रोव ने लिखा : 'फासिज्म इसलिए भी सत्तारूढ हुआ, क्योंकि सर्वहारा ने खुद को स्वाभाविक मित्रों से अलग-थलग पाया. फासिज्म इसलिए भी सत्तारूढ हुआ क्योंकि किसानों के विशाल समुदाय को वह अपने पक्ष में लाने में सफल हुआ और इसका कारण यह था कि सामाजिक जनवादियों ने मजदूर वर्ग के नाम पर ऐसी नीति का अनुसरण किया, जो दरअसल किसानविरोधी थीं. किसानों की आंखों के सामने कई सामाजिक जनवादी सरकारें सत्ता में आयीं, जो उनकी दृष्टि में मजदूर वर्ग की सत्ता का मूर्तिमान रूप थीं, पर उनमें से एक ने भी किसानों की गरीबी का खात्मा नहीं किया, एक ने भी किसानों को जमीन नहीं दी. जर्मनी में, सामाजिक जनवादियों ने जमींदारों को छुआ तक नहीं, उन्होंने खेत मजदूरों की हडतालों को कुचला...'(8) क्या यह पूरी तरह भारत के भी सामाजिक जनवादियों के लिए सही नहीं है? भारत के भी सामाजिक जनवादियों ने मेहनतकशों को विकास के हित में हडताल न करने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि अभी वर्ग संघर्ष का नहीं बल्कि वर्ग सहयोग का वक्त है. अक्सर फासीवाद को रोकने के नाम पर यहां के सामाजिक जनवादियों ने दलाल बुर्जुआ एवं सामंती शासक वर्ग के दूसरे हिस्से के साथ गठजोड किया, जिनके फासीवाद के रूप में विकसित होने के पर्याप्त कारण मौजूद थे. इन्हीं सवालों पर दिमित्रोव ने लिखा :'क्या जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी सत्तारूढ नहीं थी? क्या स्पेनिश सोशलिस्ट उसी सरकार में नहीं थे, जिसमें पूंजीपति शामिल थे? क्या इन देशों में पूंजीवादी साझा सरकारों में सामाजिक जनवादी पार्टियों की शिरकत ने फासिज्म को सर्वहारा पर हमला करने से रोका? नहीं रोका. फलतः यह दिन की रोशनी की तरह साफ है कि पूंजीवादी सरकारों में सामाजिक जनवादी मंत्रियों की शिरकत फासिज्म के रास्ते में दीवार नहीं है' (9). दिमित्रोव के शब्दों से ही सामाजिक जनवादियों के ढोंग स्पष्ट हो जाते हैं. 2003 में पंचायत चुनाव के बाद वेंकैया नायडू ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के बारे में अपने एक साक्षात्कार में कहा : 'बुद्धदेव बाबू एक सुसंस्कृत आदमी हैं. लेकिन क्या उनके आदेश से पार्टी चलती है? पोटा पर उनकी राय को कौन नहीं जानता? लेकिन क्या इसे वे अपने राज्य में लागू कर सकते थे? वे इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि कई गैर कानूनी मदरसों से विध्वंसकारी गतिविधियां चलायी जा रही हैं एवं वे कडे कदम उठाना चाहते हैं.' (10) 2002 से ही बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मदरसों के खिलाफ बातें व पश्चिम बंगाल में पोटा जैसे कानून को लागू करने की बात शुरू कर दी थी. इसके अलावा 6 मई, 2003 को तपन सिकदर पर हुए हमले पर दुख जताने के लिए बुद्धदेव ने आडवाणी को फोन किया(11). इस पर तपन सिकदर ने बुद्धदेव एवं सीपीएम के राज्य नेतृत्व द्वारा हमले के बाद की प्रतिक्रिया पर आभार जताया. हम इन तमाम संकेतों से सामाजिक जनवादियों के वर्ग चरित्र को समझ सकते हैं. जो मुख्यमंत्री गरीब किसान जनता की विदेशी पूंजी के हित में हत्याएं करवाता हो और इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहता हो कि उन्हीं की भाषा में जवाब दे दिया गया है, वही मुख्यमंत्री फासीवादियों पर हमले के लिए माफी मांगता हो, यह हमें काफी कुछ कह जाता है. इन सामाजिक जनवादियों ने भारत के ग्रामीण इलाकों में संघर्षरत ताकतों को ही सबसे बडा खतरा बताया. नंदीग्राम की घटना में इसने शासक वर्ग को माओवादियों के खतरे को समझने की सलाह दी. ऐसे खतरों के बारे में बात करनेवालों के बारे में दिमित्रोव ने कहा : 'दूसरे इउंटरनेशनल के सठियाये सिद्धांतकार कार्ल काउत्स्की जैसे भारी नक्काल, पूंजीपति वर्ग के चाकर ही मजदूरों को इस तरह की झिडकियां दे सकते हैं कि उन्हें ऑस्ट्रिया और स्पेन में हथियार नहीं उठाने चाहिए थे. अगर ऑस्ट्रिया और स्पेन में मजदूर वर्ग काउत्स्की जैसों की गारी भरी सलाहों से निर्देशित होते, तो इन देशों में आज मजदूर वर्ग का आंदोलन कैसा दिखता?' (12). आज सामाजिक जनवाद हमें सलाह दे रहा है कि हमें अब समाजवाद के सपनों को भूल जाना चाहिए. हमें भूल जाना चाहिए कि मानव सभ्यता का इतिहास हमारे भाइयों-बहनों एवं मेहनतकशों के खून से रक्तरंजित है. हमें भूल जाना चाहिए कि इन बर्बर सत्ताओं ने मुनाफे की लूट के लिए पूरी दुनिया को खून के समुंदर में डुबो दिया. हमें भूल जाना चाहिए कि हमारे दोस्तों ने जार एवं च्यांग काई शेक का ध्वंस कर एक नयी व्यवस्था के लिए कुरबानी दी. हमें यह समझाया जा रहा है कि मजदूर वर्ग के करोडों बेटे-बेटियों की अब तक की शहादत बेमानी है एवं समाजवाद उनका दिमागी फितूर था. हमें भूल जाना चाहिए कि हिरोशिमा व नागासाकी में पूरी मानव सभ्यता को मुनाफे के लिए नष्ट कर दिया गया. हमें भूल जाना चाहिए कि इन मुनाफाखोर लुटेरों के हाथ वियतनाम, चिली एवं अन्य देशों में हमारे भाइयों-बहनों के खून से सने हैं. जनता समाजवाद के सपनों को भूल नहीं सकती. काउत्स्की की विरासत जनता की विरासत नहीं है. जनता की विरासत तो महान क्रिस्टोफर कॉडवेल, लोरका और केन सारो वीवा जैसे लेखकों और बुद्धिजीवियों की व उन महान सोवियत बेटे-बेटियों की विरासत है, जिन्होंने स्टालिन के नेतृत्व में दुनिया के नक्शे को बदल देने का सपना पालनेवाले हिटलर के खूनी पंजों को तोड दिया. तथ्य यह दिखाते हैं कि दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवाद के संकट के नये दौर की शुरुआत एवं भारत में विदेशी पूंजी का प्रवेश ही भारत में हिंदुत्व की फासीवादी ताकतों एवं कानूनों के उदय का दौर है. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी की भूमिका बढी है, वैसे-वैसे दंगों एवं नफरतों का दौर भी शुरू हुआ है तथा गैर जनवादी औजारों का इस्तेमाल बढता गया है. गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक की भारतीय लोकतंत्र की शोभायात्रा का संबंध भी इसी विदेशी पूंजी के साथ है. राजनीतिक संकट में लगातार वृद्धि ने भी तमाम शासकीय पार्टियों को तमाम प्रतिगामी तरीकों के इस्तेमाल की तरफ बढाया है. इन संकटों से जूझ रहे शासकवर्ग के पास फासीवाद के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. सामाजिक जनवादी और अन्य उदारवादी ताकतें फासीवाद की ताकत को बढा-चढा कर दिखा कर अंततः फासीवाद की चाल को ही पूरा करते हैं. इस तथ्य को वे अनदेखा करते हैं कि बढते जन संघर्षों एवं अपने गहराते संकट से ही निकलने के लिए वह फासीवाद का इस्तेमाल करता है. शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए धार्मिक एवं जातीय विभाजन एवं जनता के आपसी अंतर्विरोधों को लगातार तीखा कर रहा है. लेकिन इन्हीं भयानक संकटों के बीच जनता उठ खडी होती है व अपने संकटों को हल करने के लिए भारी जनसंघर्षों में गोलबंद होती है. इसमें जनसंघर्ष ही प्रधान पहलू हैं, जिसकी ताकत के बारे में लेनिन कहते हैं, 'गृहयुद्ध की पाठशाला जनता को प्रभावित किये बिना नहीं छोडेगी. यह एक कठोर पाठशाला है और इसके पूर्ण पाठ्यक्रम में अनिवार्यतः प्रतिक्रांति की जीतें, क्रुद्ध प्रतिक्रियावादियों की लंपटताएं, पुरानी सरकारों द्वारा विद्रोहियों को दी गयी बर्बरतापूर्ण सजाएं आदि शामिल होती हैं. किंतु इस तथ्य पर कि राष्ट्र इस कष्टकर पाठशाला में भरती हो रहे हैं, वे ही आंसू बहायेंगे जो सरासर दंभी और दिमागी तौर पर बेजुबान पुतले होंगे, यह पाठशाला उत्पीडित वर्गों को यह सिखाती है कि गृहयुद्ध कैसे चलाया जाये, यह सिखाती है कि किस तरह विजयी क्रांति संपन्न करनी चाहिए, यह आज के गुलामों के समुदाय में इस नफरत को घनीभूत कर देती है, जिसे पददलित, निश्चेष्ट, ज्ञानशून्य गुलाम अपने हृदय में हमेशा पाले रहते हैं और जो उन गुलामों से, जो अपनी गुलामी की लानत के बारे में जागरूक हो जाते हैं, महानतम ऐतिहासिक कारनामे कराती है'(13). आज फिर शासक वर्ग लगातार फासीवादी होता जा रहा है. फासीवाद अपराजेय नहीं है. यह शासक वर्ग को और पतन की ओर ले जायेगा. दूसरी तरफ जनता के महान संघर्षों की रफ्तार भी बढी है, जिसे कुचलने के लिए शासक वर्ग और फासीवादी हो रहा है. आज फिर साम्राज्यवाद महामंदी के बाद सबसे गंभीर संकट से जूझ रहा है. यह ज्यादा से ज्यादा प्रतिक्रियावादी हो रहा है. लेकिन दूसरी तरफ लैटिन अमेरिका सहित एशिया के बडे हिस्सों की जनता ज्यादा-से-ज्यादा संघर्ष में शामिल हो रही है. आज फिर फासीवाद को परास्त करने की महान जिम्मेदारियां फासीवाद के खिलाफ कुरबान हुए सोवियत बेटे-बेटियों एवं मुनाफाखोर सत्ता को ध्वंस करने के लिए कुरबान हुए महान योद्धाओं के उत्तराधिकारियों पर है. मेहनतकशों की जीत अवश्यंभावी है, क्योंकि जनता ही सृष्टि करती है. सत्ता तो केवल और केवल दमन करती है. ___________________ 1. फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा, ज्यार्जी दिमित्रोव 2. फासीवाद और उसकी कार्यपद्धति, पामीरो तोग्लियाती 3. द इंडिपेंडेंट, 25 सितंबर, 2007 4. मंथली रिव्यू, दिसंबर, 2006 5. -वही- 6. ग्लोबल रूलिंग क्लास, जेम्स पेत्रास 8. फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा, ज्यार्जी दिमित्रोव 9. आनंदबाजार पत्रिका, 24 अप्रैल, 2003 11. हिंदुस्तान टाइम्स, 7 मई, 2003 12. फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा, ज्यार्जी दिमित्रोव 13. -वही (उद्धृत)- -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com From ravikant at sarai.net Wed Jan 23 13:18:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 23 Jan 2008 13:18:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWB4KSV4KS8?= =?utf-8?b?4KWN4KSk4KS+IOCklOCksCDgpJfgpLzgpLLgpKTgpYHgpLLgpIbgpK4g4KSr?= =?utf-8?b?4KS84KS44KWA4KS5?= Message-ID: <200801231318.16690.ravikant@sarai.net> net par bhatakte hue, kisi aur sandarbh mein chala debate, vaise main swami wahid qazmi ko ghaur se parhta hun, kyonki yeh sirphira aksar dhang ki batein karta hai. aap bhi dekhein. ravikant http://koolestfiction.com/node/237 नुक्त:चीनी यारो क्या अऱ्ज करूं वागर्थ (अक्तूबर ०५) धन्यवाद भाई मूलचंद सोनकर कि आपने नाचीज़ के पत्र को भी इतने ध्यान से पढ़कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया दी। औपचारिक विनम्रता का लबादा ओढ़कर नहीं, दिल से कह रहा हूं कि विद्वान तो दूर विद्वान होने की खुशफ़हमी या भ्रम में भी नहीं हूं। हां, कांतिकुमार विद्वान हैं और सर से पैर तक उन पर हावी विद्वता का विश्लेषण भी त्रैमासिक `सम्बोधन' (अप्रैल-जून ०५) में पेश किया जा चुका है। अपनी तेहरीरों पर प्रतिक्रिया देनेवाले पाठकों के प्रति नाचीज़ के मन में इसलिए ख़ासतौर पर सम्मानभाव रहता है कि उन्होंने कोई चीज़ इतने ध्यान से पढ़ी, जैसी भी लगी उसे लिखने में अपने चंद मिनट, फिर डाक ख़र्च के रूप में थोड़ा-सा पैसा भी ख़र्च किया। अत: उन्होंने जो भी सवाल उठाए, शंका या संशय, तेहरीर में कोई नुक्स या दोष महसूसा, उसका उन्हें जवाब या स्पष्टीकरण मिलना ही चाहिए। यह उनका अधिकार है। ऐसा न करना नाचीज़ की दृष्टि में उसका निरादर है। अऱ्ज यही करना चाहता हूं कि कांतिकुमारजी ने नाचीज़ को लेकर जो अपने मन के फफोले फोड़े थे उसका जवाब मैंने `इहां कुम्हड़ बतियां कोऊ नांहीं' शीर्षक से उसी समय वागर्थ को प्रेषित कर दिया था। इसी प्रकार भाई मोहन गुप्त के पत्र (जुलाई ०५) के उत्तर में अपना स्पष्टीकरण और दस्तावेज़ी प्रमाणों की ज़ीराक्स प्रतियों सहित, तभी भेज दिया था। मैंने यह साबित करने के लिए कि मंटो के जो संस्मरण पहले उर्दू में `गंजे फ़रिश्ते' शीर्षक से छपे थे, वे ही राजकमल प्रकाशन से हिन्दी में `मीना बाज़ार' के नाम से छपे थे। `मीना बाज़ार' के टाइटल की ज़ीराक्स प्रति भी भेजी थी। वे दोनों तेहरीरें अब तक नहीं छपीं। ऐसी चीज़ें जब नहीं छपती हैं तो संपादक को टोकना (पढ़ें टोंचना) बार-बार याद दिलाने के बहाने आग्रह करना उचित नहीं समझता बल्कि उसके कार्य में बेजा हस्तक्षेप करना मानता हूं। वागर्थ जैसी स्तरीय पत्रिका का संपादन करना यों भी बड़े बल-बूते की बात है। तिस पर हर महीने प्राप्त होती सैकड़ों चिटि्ठयों में से छपनीय को चुनना, उन्हें संपादित करना, उन पर शीर्षक टांकना ये किस क़िस्म की सिरदर्दी है, समझता हूं। दिक्क़त यह भी है कि वागर्थ में पत्र-लेखकों के पते नहीं छपते। छपें तो सीधे पाठकों से ही बतियाना मुझे पसंद है बजाय इसके कि अपना स्पष्टीकरण बग़ल में दबाए, पांव पसार, जगह घेरकर बैठ जाओ और शुरू हो जाओज्ञ्तो वो क्या है जी...! यह रवैया कुछ मनभाता नहीं, सुहाता नहीं है। मगर क्या किया जाए! ये ज़रा दायें-बायें की कुछ ज़रूरी बातें हुइंर्। अब असल मुद्दा। भाई मूलचंद सोनकर ने नाचीज़ के द्वारा `ग़ालिब के अशआर को दुरुस्त करने में ग़लती' बताकर अली सरदार जाफ़री द्वारा सम्पादित ग़ालिब के दीवान से संदर्भित शेर इस प्रकार पेश किया हैज्ञ् ईमां मुझे रोके है, तो खेंचे है मुझे कुफ्र का'ब: मिरे पीछे हैं कलीसा मिरे आगे आशिक हूं प माशूक़ फ़रेबी है मिरा काम मजनूं को बुरा कहती है लैला मिरे आगे। अब सुनिये! अंकिचन की लायब्रेरी में उर्दू में छपे ग़ालिब के दो दीवान हैं। एक, शमा/ सुषमा प्रकाशन (नई दिल्ली) द्वारा प्रस्तुत, सचित्र शबिस्तां के मोटे विशेषांक रूप में है, जिसका सम्पादन करते समय उर्दू में छपे ग़ालिब के लगभग पन्द्रह प्रामाणिक दीवान सामने रखे गए थे। उसका सम्पादन किया था जनाब सलामत अली मेंहदी साहब ने। सलामत साहब कितने क़ाबिल और विद्वान इन्सान थे, इसका अंदाज़ा इतने से ही कर लें कि दिल्ली के उर्दू-जगत में वे नाम से नहीं उस्ताद पुकारे जाने और माने जाते थे। ग़ालिब का दूसरा उर्दू दीवान स्टार पब्लिकेशंज़ द्वारा प्रकाशित चौथा संस्करण (१९६१ ई.) है। इन दोनों प्रतियों में `ईमां मुझे रोके है जो खैंचे है मुझे कुफ़्र' ही है, `तो' नहीं है। मैं यह बात मान ही नहीं सकता कि सरदार जाफ़री जैसा बुलंद-और-बरता शाइर ग़ालिब के मिस्रे में `जो' को हटाकर `तो' रखेगा। शेर के वास्तविक अर्थ का अनर्थ करेगा। वस्तुत: यह प्रूफ़ की अशुद्धि, छापे की भूल है। `जो' और `तो' के अन्तर से शेर के अर्थ का किस प्रकार अनर्थ हो जाएगा, भाव ही बदल जाएगा। यह ग़ौर करने की बात है। ग़ालिब किसी प्रकार की कशमकश, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता, असमंजस अथवा उलझन और एक ही शब्द में कहना चाहूं तो किसी क़िस्म की रस्साकशी की बात नहीं कर रहे हैं। उनका कथन दुविधा से परे, स्पष्ट और निर्णयात्मक है। वे फ़रमा रहे हैं ईमान की दृढ़ता या कहें कुव्वत मुझे रोक लेती है जो कुफ़्र मुझे अपनी ओर खींचता अर्थात् आकर्षित करता है। `जो' शब्द यहां यदि अर्थात अगर के अर्थ में लाया गया है। आगे स्पष्ट किया है कि काबा मिरे पीछे है, कलीसा (चर्च या गिरजा) मेरे आगे है। ये दोनों प्रतीक हैं ईमान तथा कुफ़्र के। `काबा मिरे पीछे' का अर्थ पीठ के पीछे नहीं है। यह पुश्तपनाही यानी मददगार, रक्षक, मुहाफ़िज के अर्थ में लाया गया है। अब `खींचे' और `खेंचे' को लीजिए। आपने `खेंचे' लिखा है। यह भी दुरुस्त नहीं है। वास्तव में वह `खैंचे' है। जैसे क़ैंची या पर क़ैंच में दो मात्राएं लगती हैं। भाई जी, यह दो सौ वर्ष पूर्व की उर्दू भाषा है जिसे `क़िल-ए-मुअल़्ला की ज़बान' कहा जाता था। मीर मुहम्मद तक़ी `मीर' साहब ने तो कभी, सभी के स्थान पर कभू, सभू, सभों का और चलता है की जगह चले है रूप का प्रयोग किया है। इतना ही नहीं आजकल के अनेक पुल्लिंग शब्दों को स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों को पुल्लिंग रूप में प्रयोग किया है। उनके अनुकरण में अनेक तत्कालीन शाइरों ने इसे आदर्श मानकर ऐसा ही प्रयोग अपनी शाइरी में किया। कुछ बुरा या बेजा नहीं किया। मगर ग़ालिब ने ऐसा नहीं किया। अब दो सौ वर्ष पुरानी उर्दू शाइरी की भाषा कम से कम हिन्दी उच्चारण में नहीं चल सकती। हां, उस पुरानी काव्य भाषा का नमूना पेश करने के लिए उद्धृत करना अलग बात है। ग़ालिब की ही ग़ज़ल का एक शेर हैज्ञ् ख़ुदाया जज़्ब-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है कि जितना खैंचता हूं और खिंचता जाये है मुझसे। नाचीज़ ने जितने गायक-गायिकाआें से यह ग़ज़ल सुनी किसी ने `खैंचता' नहीं खींचता ही गाया। और चलिए, खींच-तानकर `खैंचता' गा भी लें तो `खिंचता' को कैसे गाइएगा? सोचिए? आगे चलें। नाचीज़ ने लिखा था `आशिक़ हूं पै माशूक़ फ़रेबी है मिरा काम'। सरदार जाफ़री के हवाले से आपत्ति जड़ दी गई कि उन्होंने `पै' नहीं `प' लिखा है। सवाल सरदार जाफ़री और वाहिद काज़मी नहीं, सही और ग़लत का है। `पै' के हिज्जे यानी वर्तनी उऱ्फ स्पैलिंग उर्दू में `पे' अक्षर के साथ `ये' और `हे' अक्षर की ध्वनि है। केवल `पे' अक्षर नहीं है। सिऱ्फ `पे' अक्षर होता तो हिन्दी में `प' कहना उचित होता किन्तु ऐसा नहीं है लिहाज़ा हिन्दी में उसे `पै' ही लिखा-बोला जाना सही है। यह `पै' यहां किंतु, लेकिन, मगर और पर के अर्थ में प्रयोग हुआ है, `प' का क्या मतलब? अब नुक़्तों को देखें। थोड़ी देर के लिए इसे दरगुज़र कीजिए कि काज़मी जी क्यों नुक़्ते लगाने में गच्चा खा गए। तो भाई सोनकरजी, आपके द्वारा उद्धृत अशआरों में कुफ़्र के नीचे `फ़' और आशिक़ की छापा में `क़' का नुक़्ता क्यों नदारद है और `पीछे है' के `ह' पर सवार होता `हैं' क्यों है? काबा तो क्या दुनिया और क्या समस्त युगों में एकमात्र ही रहा है, फिर यह बहुवचन `हैं' कैसे हो गया? दोस्तो! वाहिद काज़मी एक सिरफिरा आदमी है विद्वान या बुद्धिजीवी नहीं। ऐसे मामूली नुक़्स के लिए यह किसी भी तरह से फ़तवा नहीं जड़ देता है कि उस लेखक ने ग़लती की। यह सोच लेता है कि लिखनेवाले ने यक़ीनन नुक़्ते सही जगह लगाए होंगे मगर कम्प्यूटर जी की कृपा से ग़ायब हो गए। यानी यह त्रुटि लिखनेवाले की नहीं, प्रूफ़ तथा छापे की है। इसके लिए लिखने वालों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। एक बात। इसी संदर्भ में दूसरी बात यह कि सोनकरजी नुक़्ते यानी बिंदु (.) की बात कर रहे हैं और उसे नुक़्ता न लिखकर नुक्ता (सही नुक्ता है) लिख रहे हैं जबकि नुक़्ता और नुक्ता में ज़मीन-आसमान जितना अन्तर है। नुक़्ता तो बिंदु या कहें बिन्दी को कहते हैं जो फ़ारसी वर्णमाला के कुछ अक्षरों के नीचे लगता है। नुक्ता का अर्थ हैज्ञ् बारीकी, भेद, दोष, ऐब, नु़कस आदि। जब यह कहा जाए कि `इसमें नुक्ते की बात यह है' तो उसका अर्थ होगा इसमें यह बारीकी या भेद की बात यह है। इस अर्थ को लेकर शब्द बनेज्ञ् नुक्तापरवर (बुद्धिमान, होश्यार), नुक्तादां (अक़लमंद, विवेकवान), नुक्ताशनास (पारखी, मर्मज्ञ) आदि। दोष, ऐब, नुक़स के अर्थ से बनता हैज्ञ् नुक्ताचीनी अर्थात मीन-मेख निकालना, छिद्रान्वेषण आदि। दोस्तो! हम आप जिस ज़माने में जी रहे हैं। यह ऐसा ज़माना है जिसमें इन्सान का गला घोंटकर `इंसान' खड़ा कर दिया गया। सम्बन्धों को तलाक़ देकर `संबंध' बना लिए गए। सम्वेदना की छाती पर मूंग दलने को `संवेदना' बिठा दी गई। इन्तिज़ार की हत्या करके `इंतज़ार' ले आया गया और राम जाने कहीं से इसकी एक बीवी, बहन या बेटी भी गढ़ ली गई `इंतज़ारी'। और तो और सम्पादक का अपहरण करके `संपादक' की ताजपोशी कर दी गई। कोई एक मिसाल हो। सैकड़ों हैं। आज हम धड़ल्ले से सरदी, गरमी, नरम, गरम, शरम, आरज़ू, अरमान, फ़रमाना आदि लिखते चले जा रहे हैं जबकि सही तोज्ञ् सर्दी, गर्मी, नर्म, शर्म, आऱ्जू, अर्मान, और फ़र्माना ही है। तो हालत यह है और भाईजी ख़ुद पर ज़रा भी दृष्टिपात न कर, ख़ुर्दबीन से काज़मी के यहां नुक़्ते नदारद देखते चले जा रहे हैं। अब काबे को देखते चलें। यहां भी प्रश्न यह नहीं कि किसने कैसे लिखा। सवाल नियम का, क़ायदे का है। फ़ारसी लिपि में काफ़-अै़न-बे-और इसके साथ `हे' का अक्षर नहीं किंतु ध्वनि मौजूद है। `हे' की ध्वनि के लिए इस चिन्ह को (:) आप क्या कहेंगेज्ञ् अपूर्ण विराम कि कोलन? जो भी हो, इसे लगाना सही नहीं लगता क्योंकि तब इसका उच्चारण अत:, प्राय:, वस्तुत:, प्रात:, स्पष्टत:, प्रकटत: जैसा होगा। नाचीज़ तो काबा को `काबा' लिखना ही इसलिए सही मानता है कि यदि `हे' की ध्वनि के लिए (:) का प्रयोग किया गया तो जमीला, हमला, हमलावर, हामिला (गर्भवती), रज़िया, मुसाफ़ा (शेक हैंड), शफ़ीक़ा, रक़बा, रुक़्क़ा, जुमा, जुमला (वाक्य), हुलिया आदि पचासों शब्द कहीं के नहीं रहेंगे। जमील: हमल: हमल:वर, हामिल:, रज़िय:, मुसाफ़:, शफ़ीक़:, रकब:, रुक़:, जुम:, जुम्ल:, हुलिय: हो जाएंगे। फ़रमाइए, कैसा लगेगा? यहां एक नुक्ता और समझ लीजिए। जिन शब्दों के अंत में `ह' की ध्वनि देनेवाला अक्षर `हे' स्पष्ट रूप से आता है उन्हें हम आमतौर पर सही उच्चारण के साथ न लिखने के पुराने पापी हैं। यथाज्ञ् हम ज़्यादा, अलावा, वग़ैरा लिखते हैं। किंतु सही तो ज़्यादह, अलावह, वग़ैरह ही है। तो ऐसे बहुत से शब्द हैं, संज्ञाएं हैं, सर्वनाम हैं, क्रियाएं हैं, जो उसूलन सही तो नहीं हैं मगर प्रचलन में हैं। फ़ारसी व्याकरण में इस दोष के लिए एक पारिभाषिक शब्द हैज्ञ् ग़लतुलआम फ़सीह। तात्पर्य यह कि है तो ग़लत मगर चल निकला। क्या कीजिए। शुक्रिया भाई सोनकर! कि आपने `तेहरीर' लिखना तो शुद्ध व सही माना। बता दूं कि मैं तेहरीर ही नहीं मेहफ़िल, मेहमूद, तेहज़ीब, मेहबूब, मेहबूबा आदि ही लिखता हूं। किंतु बहुत लोग हैं जो इन्हें ग़लत और महफ़िल, तहजीब़, महमूद, महबूबा आदि लिखना सही ठहराते हैं। उनका तर्क यह है कि इन शब्दों के प्रथम अक्षर के नीचे `ज़ेर' नहीं जिससे `ए' की मात्रा ठोंकी जाए। `ज़बर' है जिससे `अ' ध्वनित होता है लिहाज़ा तहरीर आदि सही है। नाचीज़ का तर्क यह है कि सरकार! मेहनत के प्रथम अक्षर पर क्या है कि उसे महनत नहीं मेहनत लिखते-बोलते हैं? कल यदि किसी आलिम-फ़ाज़िल की हिन्दी किताब में महनत, महनताना आदि लिखा मिले तो नाचीज़ तो उसे सही नहीं मानने वाला और न उसका गरेबान पकड़नेवाला जो इन्हें सही मानते हों। ज़ौक़ साहब लिख गए हैंज्ञ् `तुझे परायी क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू'। १०, राज होटल, पुल चमेली, अम्बाला छावनी-१३३००१ (हरियाणा) From ravikant at sarai.net Wed Jan 23 20:18:11 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 23 Jan 2008 20:18:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: TZP/naresh goswami Message-ID: <200801232018.11971.ravikant@sarai.net> तारे ज़मीं पर के कई स्तरों को उद्घाटित करता नरेश गोस्वामी का आलेख. जो शायद योगेन्द्र यादव इत्यादि संपादित पत्रिका सामयिक वार्ता में जल्द ही छपे. मुझमें इंतज़ार का धीरज नहीं था लिहाज़ा इसे पहले ही 'पब्लिक' कर दिया. मज़े लें. आमिर ख़ान ने हमेशा अपने काम और काम करने के ढंग के ज़रि‌ए लोगों को अलग तरह से सोचने को बाध्य किया है. इस अबाल फ़िल्म का नायक दर्शनील एक बाल कलाकार ही है, सिर्फ़ इस हिसाब से नहीं कि उसे ज़्यादा फ़ुटेज मिला है, बल्कि क्रेडिट में भी इस बात की स्वीकृति है - उसका नाम आमिर के नाम के पहले आता है, जो ऐतिहासिक है. एक और चीज़ पढ़े - आमिर का साक्षात्कार जो मैंने अंग्रेज़ी के तहलका में पढ़ा था: http://www.tehelkahindi.com/Sakshaatkar/Shakhsiyat/290.html रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: TZP Date: बुधवार 23 जनवरी 2008 14:53 From: "naresh goswami" To: Ravikant 'तारे ज़मीं पर' कई वजहों से देखी जानी चाहिए. एक, यह फ़िल्म बच्चे के बिखरते आत्म का बेहद संवेदनशील कोलाज है. पर इसे बाल-फ़िल्म नही कहा जा सकता. दो, फ़िल्म का सूत्रधार एक ऐसा पात्र है जो फ़िल्म के आख्यान की सरंचना और प्रवाह का हिस्सा बनकर नही बल्कि एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य से आता है. तीन, यह फ़िल्म बॉलीवुड में मजबूत हो रहे उस ट्रेंड की परिचायक है जिससे पता चलता है कि भारतीय समाज की सामूहिक चेतना अंततः किशोर यौनिकता के बाड़े से निकल कर सचमुच की ठोस और परिपक्व दुनिया की ओर बढ़ने लगी है- एक ऐसी खुली दुनिया की ओर जिसमें एक गाने में सत्तर बार कपड़े बदलने और हरी-भरी वादियों में सहवास के सांकेतिक खेल खेलने के अलावा और भी गम हैं. एक बच्चे को किताब में छपे अक्षर समझ नही आते. वह शिक्षक के निर्देश सुनने के बजाय सड़क पर भरे पानी से गुज़रते वाहनों को देखना चाहता है. वह पेड़ की फुनगी पर फुदकती चिडियों का कलरव सुनना चाहता है और तितलियों के साथ उड़ना चाहता है. उसकी कल्पना रंगों पर सवार हो कर किसी ऐसी दुनिया कि यात्रा पर जाना चाहती है जहाँ न बात-बेबात अध्यापक का डंडा चलता हो, न माता -पिता के क्षुब्ध चेहरे अपने प्यार का प्रतिदान मांगते हो. बुनियादी शिक्षा के पहले पायदान पर खड़े इस बच्चे को उसके माता-पिता ही सफल नही देखना चाहते, स्कूल की संस्था भी इसी भागीरथ प्रयत्न में लगी है. और कमाल यह है कि दोनों ही पक्षों को समझ नही आता कि बच्चे की दिक्कत क्या है. माता-पिता मानते हैं कि वह मेहनत से जी चुराता है और स्कूल वाले उसे प्रोब्लम चाइल्ड घोषित कर देते हैं. इसके बाद बच्चे के साथ एक त्रासद प्रयोग किया जाता है. उसे एक ऐसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है जिसमें बकौल एक अध्यापक "एक से एक बिगडैल घोड़े" को ठीक कर दिया जाता है. 'तारे ज़मीं पर' इस इकहरी और निर्मम रूप से सफलता-केंद्रित मानसिकता में बेआवाज़ कुम्हलाते बचपन की इबारत है. पर यह फ़िल्म बच्चों के लिए नही, बडों के लिए है. ईशान अवस्थी का दुःख एक प्रौढ़ और कथित तौर पर परिपक्व आदमी को , फ़िल्म के बाद घंटो भी अवसन्न किए रखता है. इस मायने में यह फ़िल्म वयस्कों को ही संबोधित है. यही शायद इसकी सीमा भी है. लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म सफलता और प्रतिभा से मुताल्लिक़ सामाजिक मान्यताओं को एक बड़े फलक पर विश्लेषित करने का जोखिम उठाती है. यहाँ मुख्य कथा के बाहर खड़ी एक और सरंचना का भी सुराग मिलता है. पता नहीं आमिर खान ने यह सोचा होगा कि नही पर उसने फालतू की बारीकी में पड़े बिना उपभोक्तावाद की कथित निर्विकल्पता पर बहुत कायदे से सवाल उठाया है. फ़िल्म का घटना का प्रवाह दर्शकों से लगातार जिरह करता है कि सफलता और प्रतिभा की सामाजिक सोच के पीछे वह कौन सी संरचना है जो व्यक्ति को अपने ही प्रियजनों के प्रति इतना निर्मम और क्रूर बना देती है. फ़िल्म का कथा कौशल शायद इस बात में निहित है कि वह दर्शक को इस संरचना के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देता है. इसके बाद दर्शक को ख़ुद होमवर्क करना पड़ता है. इस होमवर्क के बाद उसे पता चलता है कि दरअसल परिवार और स्कूल की संस्थाएं नव-उदारवाद व बाज़ार की उन वृहत्तर प्रक्रियाओं में फंसी हैं जिसके चलते मनुष्य की चरित्रगत विशिष्टता उपभोक्तावाद के तर्क से तय होने लगती है. पता नहीं यह बात बेधक ढंग से कही जाए या नहीं पर अंतत बाज़ार मनुष्य को एक विवेकहीन इच्चाधारी उपभोक्ता बनाकर ही छोड़ता है. ईशान अवस्थी का बचपन जिस अवसाद से गुज़रता है वह इस व्यवस्था की अनिवार्य परिणति है. दरअसल ईशान अवस्थी की कथा का सिरा उपभोक्ता सुविधाओं और सामाजिक दंद-फंद की उस संस्कृति से जुडा है जिसमे बच्चे अभिभावक की अपूर्ण और कुंठित लालसाओं के वेक्टर बनकर रह जाते हैं. बच्चों के लिए माँ घर में सबसे पहले उठ जाती है और सबसे बाद में बिस्तर का रूख करती है. पिता अगर मलाईदार नौकरी में हों तो दोनों हाथों से पैसा कूटने में लगे रहते हैं. इक बेहद आम कामकाजी आदमी भी अपने बूते से बाहर जाकर बच्चों के कथित बेहतर भविष्य के जुगाड़ में लगा रहता है. पर गौर करें कि माता-पिता जिसे बच्चों की 'बेहतरी' समझते हैं उसका चाप उन्हें रचनात्मक या आज़ाद ख़याल नागरिक बनाने पर नही बल्कि बेहतर उपभोक्ता बनाने पर टूटता है. इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या मैनेजमेंट जैसे व्यवसाय हमारे समाज में इसलिए श्रेयस्कर समझे जाते हैं क्योंकि इन्ही पेशों से जुड़े लोग सबसे ज्यादा मजे करते दिखते हैं. सुविधाओं की आकांक्षा न अनैतिक है न गैर जरूरी. मेहनत के बाद आदमी को सुख मिलना ही चाहिए. पर ऐसा क्यों है कि एक औसत आदमी उन्ही सुखों को सुख मानता है जिन्हें उपभोक्तावाद का प्रचार-तंत्र पैदा करता है? अब ज़रा फ़िल्म के दूसरे पहलू पर विचार किया जाए. पिटाई, अपमान और अवहेलना झेलते झेलते ईशान एक सहमी हुई चुप्पी में बदल जाता है. हिन्दी वाले सर को कविता की डिफाल्ट व्याख्या चाहिए. अंग्रेज़ी वाले सर बच्चों को समझाने के बजाय अपनी रफ्तार ज्यादा दिखाते हैं. और मैथ्स वाले सर तो बाकायदा उसकी हथेलियों पर डंडे बरसाते हैं. पीटी वाले टीचर भी इतने ही पत्थर हैं. गौर करिये ये लोग स्कूल में पहले से ही पढा रहे हैं. ये सब स्थायी अध्यापक हैं. पक्के और लगे-बंधे. यानी स्कूल के प्रबंध-तंत्र को उनकी काबिलियत पर पूरा भरोसा है. यह शायद संयोग नहीं है कि फ़िल्म में ड्राइंग के टीचर - रामशंकर निकुम्भ का परिचय एक टेम्परेरी यानी अस्थायी अध्यापक के रूप में दिया जाता है. यह परिचय भी हमें बच्चों से ही मिलता है. हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि स्कूल में ड्राइंग का टीचर खानापूर्ति के लिए ही होता है. न छात्र इस विषय में रुचि लेते हैं न सहकर्मी अध्यापकों की नज़रों में ड्राइंग के टीचर का कोई महत्व होता है. यह विषय और उसका अध्यापक स्कूल व पाठ्यक्रम के हाशिये पर होता है. कई बार तो जब गणित या विज्ञान जैसे 'महत्वपूर्ण' विषयों का अध्यापक स्कूल नही आ पाता तो बच्चों को सँभालने की जिम्मेदारी ड्राइंग के इस टीचर को ही दे दी जाती है. हम यह भी जानते हैं कि इस जिम्मेदारी का मतलब अक्सर बच्चों एक घंटा चुप रखना होता है. क्या फ़िल्म में रामशंकर निकुम्ब का अस्थायी होना खास मायने नही रखता? आख़िर ईशान की दिक्कतों और अवसाद को हिन्दी के अध्यापक श्री तिवारी जी क्यों नही समझ पाते ? कहीं ऐसा तो नही है कि सत्ता और महत्ता की इस व्यवस्था में वही लोग 'स्थायी' हो पाते हैं जिन्हें विविधता और बहुलता देखना नागवार गुज़रता है. कहना न होगा कि एक वंचित- यहाँ बच्चे की तकलीफ को अपनी जाती जिम्मेदारी मानने वाला नागरिक इस निर्णय-तंत्र की परिधि पर ही रह सकता है. तभी तो रामशंकर को स्कूल के प्रिंसिपल से विशेष अनुरोध करना पड़ता है कि ईशान को आगे पढने का एक और मौक़ा दिया जाए. स्कूल के स्थायी और ताक़तवर लोग ईशान की आंखों की उदासी क्यों नही पढ़ पाते? यह जिम्मेदारी 'अस्थायी' को ही क्यों उठानी पड़ती है? फ़िल्म में ड्राइंग का टीचर निकुम्ब ही बदलाव की एजेंसी है. यानी वह जो स्कूल के प्रबंध-तंत्र का बाज़ाप्ता अंग भी नही है. कोर्पोरेट भाषा में कहें तो इस समूचे मामले में वह स्टेक होल्डर भी नही है. इस सन्दर्भ में रिचर्ड ऐट्नबरो की फ़िल्म 'गाँधी' का वह दृश्य बरबस याद आ जाता है जिसमे हाल में अफ्रीका से लौटे और साबरमती में आश्रम स्थापित करने के बाद गांधीजी कांग्रेस के जलसे में भाग लेने आए हैं. उनके हाथ में चाय की ट्रे है. कांग्रेस का नेत्रत्व संवैधानिक बहसों में अटका है. माहौल पूरी तरह उत्सवमय है. जनता इतिहास के ठहराव और मानसिक जकडन की गिरफ्त में है. गाँधी जी भी कांग्रेस के इस जलसे में 'बाहर' के आदमी हैं. निकुम्ब की तरह वे भी इस प्रक्रिया के हाशिये पर ही हैं. लेकिन उनकी ठंडी शांत आँखे इस गतिरोध को पढने की कोशिश कर रही हैं. एक बच्चे की तकलीफ में रामशंकर निकुम्ब भी यही करता है. नरेश गोस्वामी From arun.anand at ians.in Thu Jan 24 16:12:15 2008 From: arun.anand at ians.in (Arun Anand) Date: Thu, 24 Jan 2008 16:12:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Welcome to the "Deewan" mailing list In-Reply-To: Message-ID: tx.looking forward to it. arun -----Original Message----- From: deewan-bounces at mail.sarai.net [mailto:deewan-bounces at mail.sarai.net]On Behalf Of deewan-request at mail.sarai.net Sent: Thursday, January 24, 2008 1:17 PM To: arun.anand at ians.in Subject: Welcome to the "Deewan" mailing list प्रिय अरूण जी, आशुतोष, आप लोगोँ को दीवान डाक सूची पर डाल रहा हूँ. हमारे यहाँ चल रही गतिविधियों के बारे में जानकारी के लिए ये एक बेहतर ज़रिया है. हम अपने यहाँ के हिन्दी कार्यक्रमों की सूचना तो यहाँ रखाते ही हैं. इस पर अभी 130 सदस्य हैं, तक़रीबन दो मेल आपको रोज़ मिलेगी. उम्मीद है आप अपनी मौजूदगी से इसे गुलज़ार रखेंगे. रविकान्त सूची प्रबंधक Welcome to the Deewan at mail.sarai.net mailing list! ???? 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To post to this list, send your email to: deewan at mail.sarai.net General information about the mailing list is at: http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan If you ever want to unsubscribe or change your options (eg, switch to or from digest mode, change your password, etc.), visit your subscription page at: http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/options/deewan/arun.anand%40ians.in You can also make such adjustments via email by sending a message to: Deewan-request at mail.sarai.net with the word `help' in the subject or body (don't include the quotes), and you will get back a message with instructions. You must know your password to change your options (including changing the password, itself) or to unsubscribe. It is: gaukewmu Normally, Mailman will remind you of your mail.sarai.net mailing list passwords once every month, although you can disable this if you prefer. This reminder will also include instructions on how to unsubscribe or change your account options. 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From miyaa_mihir at yahoo.com Thu Jan 24 18:55:16 2008 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Thu, 24 Jan 2008 05:25:16 -0800 (PST) Subject: [दीवान] TZP In-Reply-To: <420bea6f0801220642j38ba7598u8fcd99b7c474201d@mail.gmail.com> Message-ID: <788094.9149.qm@web53604.mail.re2.yahoo.com> बेहतरीन आलेख! मैं नरेश के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूँ कि 'तारे ज़मी पर' बाल फिल्म नहीं है. यह फिल्म वयस्कों के लिये है, उन्हें ही सम्बोधित है. खासतौर पर एक बच्चे के 'आत्म' को जिस बारीकी से पकडा गया है वह काबिलेतारीफ है. जिस दृश्य में पिता घर छोडकर जाने का ड्रामा करते हैं और फिर माँ ईशान को कहती है कि पिता तो दफ्तर के काम से जा रहे हैं वहाँ पहले ईशान का रोना/ गिडगिडाना और फिर पिता को देख्कर उसका गुस्सा होना ठनायास ही उस 'आत्म' को पकड लेते हैं. यहाँ मुझे मोहनदास गाँधी की कही ये बात याद आ जाती है, "विश्वास कीजिये, मैं सैंकडों नहीं हज़ारों बच्चों के निजी ठनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि हमारी ठपेक्षा बच्चों में आत्मसम्मान की बडी सूक्ष्म ठनुभूति होती है. ठगर हममें विनम्रता हो तो हम जीवन के महानतम पाठ तथाकथित ठबोध बच्चों से सीख सकते हैं, उनके लिये बडी उम्र के विद्वानों के पास जाने की आवश्यकता नहीं है." पहले हाफ का चमत्कार दूसरे हाफ में नहीं रहता और मुझे आमिर खान के संवाद बहुत सपाट लगे. ऐसा लगता है कि आमिर सब बोलकर कह देना चाह्ते हैं. ऐसी फिल्म के लिये उपदेशात्मकता एक रोग है. और फिर वो रोते भी कुछ ज़्यादा ही हैं. फिर भी ईशान के साथ बिताए पल हमेशा याद रहेंगे. बस उसकी आखिरी जीत में आप उसकी शुरुआती ऊब ना भूल जायें. naresh goswami wrote: 'तारे ज़मीं पर' कई वजहों से देखी जानी चाहिए. एक, यह फ़िल्म बच्चे के बिखरते आत्म का बेहद संवेदनशील कोलाज है. पर इसे बाल-फ़िल्म नही कहा जा सकता. दो, फ़िल्म का सूत्रधार एक ऐसा पात्र है जो फ़िल्म के आख्यान की सरंचना और प्रवाह का हिस्सा बनकर नही बल्कि एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य से आता है. तीन, यह फ़िल्म बॉलीवुड में मजबूत हो रहे उस ट्रेंड की परिचायक है जिससे पता चलता है कि भारतीय समाज की सामूहिक चेतना ठंततः किशोर यौनिकता के बाड़े से निकल कर सचमुच की ठोस और परिपक्व दुनिया की ओर बढ़ने लगी है- एक ऐसी खुली दुनिया की ओर जिसमें एक गाने में सत्तर बार कपड़े बदलने और हरी-भरी वादियों में सहवास के सांकेतिक खेल खेलने के ठलावा और भी गम हैं. एक बच्चे को किताब में छपे ठक्षर समझ नही आते. वह शिक्षक के निर्देश सुनने के बजाय सड़क पर भरे पानी से गुज़रते वाहनों को देखना चाहता है. वह पेड़ की फुनगी पर फुदकती चिडियों का कलरव सुनना चाहता है और तितलियों के साथ उड़ना चाहता है. उसकी कल्पना रंगों पर सवार हो कर किसी ऐसी दुनिया कि यात्रा पर जाना चाहती है जहाँ न बात-बेबात ठध्यापक का डंडा चलता हो, न माता -पिता के क्षुब्ध चेहरे ठपने प्यार का प्रतिदान मांगते हो. बुनियादी शिक्षा के पहले पायदान पर खड़े इस बच्चे को उसके माता-पिता ही सफल नही देखना चाहते, स्कूल की संस्था भी इसी भागीरथ प्रयत्न में लगी है. और कमाल यह है कि दोनों ही पक्षों को समझ नही आता कि बच्चे की दिक्कत क्या है. माता-पिता मानते हैं कि वह मेहनत से जी चुराता है और स्कूल वाले उसे प्रोब्लम चाइल्ड घोषित कर देते हैं. इसके बाद बच्चे के साथ एक त्रासद प्रयोग किया जाता है. उसे एक ऐसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया जाता है जिसमें बकौल एक ठध्यापक "एक से एक बिगडैल घोड़े" को ठीक कर दिया जाता है. 'तारे ज़मीं पर' इस इकहरी और निर्मम रूप से सफलता-केंद्रित मानसिकता में बेआवाज़ कुम्हलाते बचपन की इबारत है. पर यह फ़िल्म बच्चों के लिए नही, बडों के लिए है. ईशान ठवस्थी का दुःख एक प्रौढ़ और कथित तौर पर परिपक्व आदमी को , फ़िल्म के बाद घंटो भी ठवसन्न किए रखता है. इस मायने में यह फ़िल्म वयस्कों को ही संबोधित है. यही शायद इसकी सीमा भी है. लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म सफलता और प्रतिभा से मुताल्लिक़ सामाजिक मान्यताओं को एक बड़े फलक पर विश्लेषित करने का जोखिम उठाती है. यहाँ मुख्य कथा के बाहर खड़ी एक और सरंचना का भी सुराग मिलता है. पता नहीं आमिर खान ने यह सोचा होगा कि नही पर उसने फालतू की बारीकी में पड़े बिना उपभोक्तावाद की कथित निर्विकल्पता पर बहुत कायदे से सवाल उठाया है. फ़िल्म का घटना का प्रवाह दर्शकों से लगातार जिरह करता है कि सफलता और प्रतिभा की सामाजिक सोच के पीछे वह कौन सी संरचना है जो व्यक्ति को ठपने ही प्रियजनों के प्रति इतना निर्मम और क्रूर बना देती है. फ़िल्म का कथा कौशल शायद इस बात में निहित है कि वह दर्शक को इस संरचना के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देता है. इसके बाद दर्शक को ख़ुद होमवर्क करना पड़ता है. इस होमवर्क के बाद उसे पता चलता है कि दरठसल परिवार और स्कूल की संस्थाएं नव-उदारवाद व बाज़ार की उन वृहत्तर प्रक्रियाओं में फंसी हैं जिसके चलते मनुष्य की चरित्रगत विशिष्टता उपभोक्तावाद के तर्क से तय होने लगती है. पता नहीं यह बात बेधक ढंग से कही जाए या नहीं पर ठंतत बाज़ार मनुष्य को एक विवेकहीन इच्चाधारी उपभोक्ता बनाकर ही छोड़ता है. ईशान ठवस्थी का बचपन जिस ठवसाद से गुज़रता है वह इस व्यवस्था की ठनिवार्य परिणति है. दरठसल ईशान ठवस्थी की कथा का सिरा उपभोक्ता सुविधाओं और सामाजिक दंद-फंद की उस संस्कृति से जुडा है जिसमे बच्चे ठभिभावक की ठपूर्ण और कुंठित लालसाओं के वेक्टर बनकर रह जाते हैं. बच्चों के लिए माँ घर में सबसे पहले उठ जाती है और सबसे बाद में बिस्तर का रूख करती है. पिता ठगर मलाईदार नौकरी में हों तो दोनों हाथों से पैसा कूटने में लगे रहते हैं. इक बेहद आम कामकाजी आदमी भी ठपने बूते से बाहर जाकर बच्चों के कथित बेहतर भविष्य के जुगाड़ में लगा रहता है. पर गौर करें कि माता-पिता जिसे बच्चों की 'बेहतरी' समझते हैं उसका चाप उन्हें रचनात्मक या आज़ाद ख़याल नागरिक बनाने पर नही बल्कि बेहतर उपभोक्ता बनाने पर टूटता है. इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या मैनेजमेंट जैसे व्यवसाय हमारे समाज में इसलिए श्रेयस्कर समझे जाते हैं क्योंकि इन्ही पेशों से जुड़े लोग सबसे ज्यादा मजे करते दिखते हैं. सुविधाओं की आकांक्षा न ठनैतिक है न गैर जरूरी. मेहनत के बाद आदमी को सुख मिलना ही चाहिए. पर ऐसा क्यों है कि एक औसत आदमी उन्ही सुखों को सुख मानता है जिन्हें उपभोक्तावाद का प्रचार-तंत्र पैदा करता है? ठब ज़रा फ़िल्म के दूसरे पहलू पर विचार किया जाए. पिटाई, ठपमान और ठवहेलना झेलते झेलते ईशान एक सहमी हुई चुप्पी में बदल जाता है. हिन्दी वाले सर को कविता की डिफाल्ट व्याख्या चाहिए. ठंग्रेज़ी वाले सर बच्चों को समझाने के बजाय ठपनी रफ्तार ज्यादा दिखाते हैं. और मैथ्स वाले सर तो बाकायदा उसकी हथेलियों पर डंडे बरसाते हैं. पीटी वाले टीचर भी इतने ही पत्थर हैं. गौर करिये ये लोग स्कूल में पहले से ही पढा रहे हैं. ये सब स्थायी ठध्यापक हैं. पक्के और लगे-बंधे. यानी स्कूल के प्रबंध-तंत्र को उनकी काबिलियत पर पूरा भरोसा है. यह शायद संयोग नहीं है कि फ़िल्म में ड्राइंग के टीचर - रामशंकर निकुम्भ का परिचय एक टेम्परेरी यानी ठस्थायी ठध्यापक के रूप में दिया जाता है. यह परिचय भी हमें बच्चों से ही मिलता है. हम सब ठपने ठनुभव से जानते हैं कि स्कूल में ड्राइंग का टीचर खानापूर्ति के लिए ही होता है. न छात्र इस विषय में रुचि लेते हैं न सहकर्मी ठध्यापकों की नज़रों में ड्राइंग के टीचर का कोई महत्व होता है. यह विषय और उसका ठध्यापक स्कूल व पाठ्यक्रम के हाशिये पर होता है. कई बार तो जब गणित या विज्ञान जैसे 'महत्वपूर्ण' विषयों का ठध्यापक स्कूल नही आ पाता तो बच्चों को सँभालने की जिम्मेदारी ड्राइंग के इस टीचर को ही दे दी जाती है. हम यह भी जानते हैं कि इस जिम्मेदारी का मतलब ठक्सर बच्चों एक घंटा चुप रखना होता है. क्या फ़िल्म में रामशंकर निकुम्ब का ठस्थायी होना खास मायने नही रखता? आख़िर ईशान की दिक्कतों और ठवसाद को हिन्दी के ठध्यापक श्री तिवारी जी क्यों नही समझ पाते ? कहीं ऐसा तो नही है कि सत्ता और महत्ता की इस व्यवस्था में वही लोग 'स्थायी' हो पाते हैं जिन्हें विविधता और बहुलता देखना नागवार गुज़रता है. कहना न होगा कि एक वंचित- यहाँ बच्चे की तकलीफ को ठपनी जाती जिम्मेदारी मानने वाला नागरिक इस निर्णय-तंत्र की परिधि पर ही रह सकता है. तभी तो रामशंकर को स्कूल के प्रिंसिपल से विशेष ठनुरोध करना पड़ता है कि ईशान को आगे पढने का एक और मौक़ा दिया जाए. स्कूल के स्थायी और ताक़तवर लोग ईशान की आंखों की उदासी क्यों नही पढ़ पाते? यह जिम्मेदारी 'ठस्थायी' को ही क्यों उठानी पड़ती है? फ़िल्म में ड्राइंग का टीचर निकुम्ब ही बदलाव की एजेंसी है. यानी वह जो स्कूल के प्रबंध-तंत्र का बाज़ाप्ता ठंग भी नही है. कोर्पोरेट भाषा में कहें तो इस समूचे मामले में वह स्टेक होल्डर भी नही है. इस सन्दर्भ में रिचर्ड ऐट्नबरो की फ़िल्म 'गाँधी' का वह दृश्य बरबस याद आ जाता है जिसमे हाल में ठफ्रीका से लौटे और साबरमती में आश्रम स्थापित करने के बाद गांधीजी कांग्रेस के जलसे में भाग लेने आए हैं. उनके हाथ में चाय की ट्रे है. कांग्रेस का नेत्रत्व संवैधानिक बहसों में ठटका है. माहौल पूरी तरह उत्सवमय है. जनता इतिहास के ठहराव और मानसिक जकडन की गिरफ्त में है. गाँधी जी भी कांग्रेस के इस जलसे में 'बाहर' के आदमी हैं. निकुम्ब की तरह वे भी इस प्रक्रिया के हाशिये पर ही हैं. लेकिन उनकी ठंडी शांत आँखे इस गतिरोध को पढने की कोशिश कर रही हैं. एक बच्चे की तकलीफ में रामशंकर निकुम्ब भी यही करता है. नरेश गोस्वामी _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! 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Name: not available Type: application/defanged-21238 Size: 20422 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080124/6cf29cfa/attachment-0001.bin From alok at aadyakshar.co.in Sun Jan 27 18:44:35 2008 From: alok at aadyakshar.co.in (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?= =?UTF-8?B?LCDgpIbgpKbgpY3gpK/gpJXgpY3gpLfgpLA=?=) Date: Sun, 27 Jan 2008 18:44:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCAtIOCkleCliOCkuOClhyA=?= =?utf-8?b?4KSc4KSu4KS+4KSP4KSB?= Message-ID: यदि आप सेब खाते हैं - खाने वाला नहीं - लुभाने वाला - http://apple.com - तो आपको http://devanaagarii.net/mac पर दी जानकारी लाभदायक लगेगी। अपनी राय दें, बताएँ कि और क्या जोड़ा जा सकता है - http://www.blogger.com/comment.g?blogID=6133551&postID=5867913027238939256 सराय के रविकांत जी के निरंतर आग्रह का ही यह फल है कि अंततः इस पन्ने में और जानकारी जुड़ पाई, उन्हें धन्यवाद। आलोक -- आद्यक्षर कंसल्टेंसीज़ प्राइव्हेट लिमिटेड http://aadyakshar.co.in From vineetdu at gmail.com Sun Jan 27 20:11:46 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 27 Jan 2008 06:41:46 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSa4KSq4KSo?= =?utf-8?b?IOCkm+ClgOCkqOCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KSf4KWA4KS14KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSP4KSC4KSV4KSw?= Message-ID: <829019b0801270641x370b74d7ob6f85f492b6f08cc@mail.gmail.com> टीवी एंकर को पत्रकार से जमूरे बनने में समय नहीं लगता और न ही देश के टैलेंट को बंदर-बंदरिया बनाकर नचाने में। लगभग सारे न्यूज चैनलों ने लत पाल लिया है कि मौका चाहे जो भी हो, रियलिटी शो में शामिल बच्चों को अपने स्टूडियो में ले आओ और फिर शुरु कर दो वही सब करना जो मीका और राखी को बुला कर करते हो। आप इन बच्चों की बातों को जरा गौर से सुनिए आपको कहीं से नहीं लगेगा कि अब ये बच्चे रह गए हैं, उम्र के पहले ही इतने मैच्योर हो गए हैं कि जब असल में मैच्योर होने की उम्र आएगी तो जानने-समझने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। सारेगम के हॉस्ट आदित्य ने आठ साल की लड़की के अच्छा गाने पर अपनी गर्लफ्रैंड मान लिया है और एंकर इसे मजे से पूछती है कि तुम्हें क्या लगता है। बच्ची का जबाब है, इस बारे में आप आदि से ही बात करें। इधर उसी उम्र के एक बच्चे को रिचा भा गई है जो कि उम्र में 15-16 साल बढ़ी होगी। संयोग से आइबीएन 7 की इस एंकर का भी नाम रिचा है तो वो अपने बारे में भी पूछ लेती है कि मेरे बारे में क्या ख्याल है, मैं ऋचा कि वो ऋचा। बच्चे का जबाब है दोनो। लीजिए अब समझिए और समझाइए परस्त्री और एक के रहते दूसरी नहीं वाला फंड़ा। मैं ये नहीं कह रहा कि इन चैनलों ने ही इन्हें इस तरह की बातें और जबाब देने को कहा होगा लेकिन इस ओर मानसिकता बनाने में चैनलों का कम हाथ नहीं है। अब बताइए आपको क्या जरुरत पड़ गयी है कि आप आठ साल के बच्चे से ये पूछें कि कौन गर्लफ्रैंड मैं या वो वाली ऋचा। कभी आपके दिमाग ये बात आती है कि इसका इस कोमल मन पर क्या असर होगा। आपको तो बस बकते रहना है और आधे घंटे के लिए बुलाए हो तो उसे दुह लेना है। कभी नहीं पूछते कि तुम इतना आगे आ गए अपने उम्र के लोगों के बारे में क्या सोचते हो और उनके लिए क्या कुछ करना चाहते हो। मैं जब भी स्कूल के बच्चों से खासकर दिल्ली के बच्चों से मिलता हूं तो आठ साल, दस साल के बच्चों की उलझनों को सुनकर परेशान हो जाता हूं। थोड़ी देर तो अपनी पढ़ाई-लिखाई की बात करता है लेकिन जब मैं उससे खुलने लगता हूं तो बताता है कि कैसे उसकी कोई गर्लफ्रैंड नहीं होने पर और बच्चे उसका मजाक उड़ाते हैं। मतलब बच्चे की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है तो उसकी कोई पर्सनालिटी ही नहीं है। दस साल का एक बच्चा, मेयो कॉलेज, अजमेर में पढ़ता है। रोते हुए बताने लगा कि सब खत्म हो गया भइया, मेरा तो ब्रेकअप हो गया। बताइए दस साल, बारह साल में बच्चे ब्रेकअप को झेल रहे हैं और उनमें जिंदगी के प्रति एक अजीब ढ़ंग का असंतोष है। एक ने कहा क्या होगा अब पढ़कर और नंबर लाकर, जिसके लिए पढ़ता रहा साली वो ही दगा दे गई।इसी उम्र में डिप्रेशन, जिंदगी के प्रति अरुचि। कितनी खतरनाक स्थिति है। सारे चैनल टैलेंट हंट के दौरान स्टेज पर अफेयर को खूब खाद-पानी देते हैं और अपने हीमेश जी एक बंदे को प्यार के लिए प्रमोट करते हैं, उसके प्यार की खातिर वोट मांगते हैं। क्यों भाई, क्या साबित करना चाहते हो आप। कभी ब्च्चों के उपर इसका सोशियोलॉजिकल स्टडी किया कि आपके इस छद्म कल्चर को बढ़ावा देने से बच्चों पर क्या असर पड़ता है। इसी बीच जब कोई बच्चा सुसाइड कर ले तो फिर न्यूज चैनलवाले विशेषज्ञों की पूरी पैनल बिठा देगें। कभी अपने उपर भी रिसर्च कर लो। अच्छी बात है कि आप देश भर में भटक-भटककर बच्चों को खोजते हो, उसे ट्रेंड करते हो लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि टीवी की दुनिया में घुसते ही वो बच्चा रह ही न जाए, उसका बचपन ही चला जाए। और इधर जो बच्चे टीवी से बाहर हैं वो अपने को किसी लायक समझे ही नहीं। उसके दिमाग में बस एक ही बात चलती रहे कि चुन लिए जाते तो खूब सारी गर्लफ्रैंड मिलती और फिर ऐश......। पढ़ने से क्या मिल जाएगा, इस कॉन्सेप्ट को इतनी बरहमी से मत बढ़ाओ, आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप देश के इन नौनिहालों का भविष्य इतना डार्क बना दें। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080127/383fee08/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Jan 28 12:30:52 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 28 Jan 2008 12:30:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) January 28th 2008 Message-ID: <200801281230.52323.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) January 28th 2008 Date: रविवार 27 जनवरी 2008 23:00 From: "AbhiAnu" To: "AbhiAnu" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). इस सप्ताह * यू.के. से तेजेंद्र शर्मा की कहानी देह की कीमत * गुरमीत बेदी का व्यंग्य देशी हाथ बनाम विदेशी हाथ * कमलेश्वर की बरसी पर वीरेंद्र जैन का आलेख मेरी स्मृति के कमलेश्वर * अश्विन गांधी के साथ दो पल बिदाई फिर एक बार * इस माह के साहित्य समाचारों में नॉर्वे में विश्व हिंदी दिवस भोपाल में वीणा विज पुरस्कृत जबलपुर में मधुकर गुप्त जयंती * गीतों में- रविशंकर * अंजुमन में- अरुण मित्तल अद्भुत * हास्य व्यंग्य में- आनंद क्रांतिवर्धन * हाइकु में- स्वाती भालोटिया * दिशांतर में- यू. एस. ए. से शशि पाधा अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. Both Abhivyakti & Anubhuti revise on every Monday. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Jan 29 12:47:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 29 Jan 2008 12:47:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS54KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KS+IOCkleCkviDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KS54KS44KWN4KSk4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KS34KWH4KSq?= Message-ID: <200801291247.16971.ravikant@sarai.net> aur cheezein aane wali hain. dhairya rakhiye, rashtriya sahara se saabhaar. ravikant सभी को चाहिए अंग्रेजी मंगलवार, जनवरी 29, 2008 एक समय था जब उत्तर भारत के तमाम शहर-कस्बों में ‘अंग्रेजी हटाआ॓’ का नारा गूंजता था। स्कूल-कॉ लेजों से निकलकर नौजवान अंग्रेजी में लिखे साइनबोडा पर काला पोचारा पोत देते थे और हिदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को शिक्षा का एकमात्र माध्यम बनाने की वकालत करते थे। आज का समय कुछ और ही है। महानगरों में ही नहीं, स्थानीय हाट-बाजारों में भी प्राइमरी पाठशालाओं की जगह ‘इंग्लिश मीडियम’ स्कूलों ने ले ली है, और ‘स्पोकन इंग्लिश’ सिखाने की दुकानें भी गली-गली खुलने लगी हैं। समान शिक्षा के नाम पर अपने साथ किए गए एक गहरे धोखे का एहसास समाज के गरीब और पिछड़े वगा में भरा हुआ है, क्योंकि अंग्रेजी पर टिके अच्छी नौकरियों के बाजार की मलाई चाभने में उन लोगों के बाल-बच्चे भी शामिल हैं, जो खुद कल तक अंग्रेजी हटाने के लिए अगियाबैताल बने फि रते थे। भारत को ज्ञान-अर्थव्यवस्था बनाने के नारे के साथ ही चली अंग्रेजी की चौतरफा लहर की थाह लेता इस बार का हस्तक्षेप- http://www.rashtriyasahara.com/NewsDetailFrame.aspx?newsid=47976&catid= दिलीप मंडल दुनिया का हर शिक्षाशास्त्री यही कहता है कि बच्चों की शुरूआती शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहि ए। इसके पक्ष में दिए जाने वाले तर्क सर्वविदित हैं और इसे लेकर कोई विवाद भी नहीं है। बच्चों के मानसिक विकास के लिए इसे आवश्यक माना गया है। खासकर प्री-प्राइमरी और प्राइमरी स्तर की शिक्षा के लिए मातृभाषा की अनिवार्यता की बात भारत सरकार की लगभग सभी समितियों ने की है और सरकार की तमाम रिपोटा में भी यह बात शामिल है। कोठारी कमीशन की रिपोर्ट और उसके आधार पर बनी 1968 की शिक्षा नीति में खास तौर पर कहा गया है कि भारतीय भाषाओं का विका स शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास की बुनियादी शर्त है और जबतक भारतीय भाषाओं का विकास नहीं होता तबतक शिक्षा का स्तर बेहतर नहीं होगा। तब से लेकर आज तक यह बात सैकड़ों बार दोहराई गई है। लेकिन खास भारतीय संदर्भ में इस वैश्विक सत्य की कोई सत्ता नहीं है कि कम से कम शुरूआती शिक्षा तो मातृभाषा में ही होनी चाहिए। दरअसल शिक्षा के माध्यम को लेकर भारत एक अजीब सी विडंबना का शिकार रहा है। यहां राजभाषा विभाग है, उर्दू प्रमोशन कौंसिल है, हर प्रदेश में अपनी भाषाओं की अकादमियां हैं, लेकिन तूती सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी की बोलती है। भारत में भाषा संवाद का माध्यम भर नहीं है। यहां भाषा सत्ता पर काबिज होने का जरिया है, इस बात को राम मनोहर लोहिया जैसे लोगों ने समझा था। लेकिन ‘अंग्रेजी हटाआ॓’ आंदोलन के जिस रास्ते पर लोहिया चले वह एक अंधी सुरंग में पहुंचकर खत्म हो चुका है। आज इस देश में अंग्रेजी की विजय पताका थामने में लोहिया की कसमें खाने वाले समाजवादी नेता भी किसी से पीछे नहीं हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर भारत में बहस पुरानी है। अंग्रेजी के आने के बाद का संदर्भ देखें तो इस बारे में काफी हद तक निर्णायक साबित हुई चर्चा ब्रिटिश संसद में हुई थी। 1835 में ब्रिटिश सरकार को यह फैसला करना था कि वह भारत में शिक्षा पर सालाना खर्च किए जाने वाले एक लाख रूपये कहां लगाए। उसके सामने दो विकल्प थे। दरअसल ये शिक्षा की दो अलग-अलग धाराएं भी थीं। पहला विकल्प था अरबी और संस्कृत माध्यम में चल रहे संस्थानों का और दूसरा, अंग्रेजी माध्यम से चलने वाले संस्थानों का। इस बहस में दोनों आ॓र औपनिवेशिक शासन के ही प्रतिनिधि थे। अरबी और संस्कृत के पक्ष मे प्रिसेप थे तो अंग्रेजी के पक्ष में तर्क मैकाने ने रखे। इस बहस में मैकाले का पलड़ा भारी रहा। उनके इस तर्क का किसी अंग्रेज प्राच्यविद के पास कोई जवा ब नहीं था कि अगले कुछ सालों में भारत का आपराधिक कानून भारतीय धर्मग्रंथों से मुक्त होने वाला है, ऐसे में अरबी और संस्कृत में धर्मग्रंथ पढ़ने वालों का क्या लाभ होगा। गौरतलब है कि मैकाने के नेतृत्व में बने लॉ कमीशन ने भारत में पहली बार यह प्रस्थापना दी थी कि हर व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान है। लॉ कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ही देश में आईपीसी और सीआरपीसी बनी। मैकाले का दूसरा तर्क यह था कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों को रोजगार नहीं मिलता। तीसरा तर्क यह था कि संस्कृत और अरबी की किताबें किसी काम की नहीं हैं और ये कौड़ियों के भाव बिकती हैं। इसके अलावा अंग्रेजी की श्रेष्ठता के कुछ नस्लवादी तर्क भी थे। कुल मिलाकर मैकाले की बातों को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सही माना और उसके बाद से आजादी तक भारत में उच्च शिक्षा का मा ध्यम अंग्रेजी ही रही। आजादी के ठीक बाद का समय वह अकेला मौका था जब शिक्षा के माध्यम में कोई निर्णायक बदलाव कि या जा सकता था। लेकिन उस समय के भारतीय शासकों ने अंग्रेजों के समय से चली आ रही परंपरा को निरंतरता में बनाए रखा और यह स्थिति आज भी कायम है। तब से लेकर अबतक देश और अलग-अलग राज्यों में कांग्रेसी, समाजवादी, संघी, वामपंथी हर रंग की सरकारें आ चुकी हैं लेकिन शइक्षा और खा सकर उच्च शिक्षा के माध्यम को लेकर किसी ने कोई बदलाव नहीं किया है, न ही इस संबंध में कोई नई बात सोची गई है। इस मामले में सभी दलों में आम सहमति है कि उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही होगी। मैकाले को लेकर तमाम गाली-गलौज के बीच मैकाले का फार्मूला देश के हर विाविघालय और उच्च शिक्षा संस्थान में चल रहा है। शिक्षा के माध्यम को लेकर अगर कोई बहस है तो वह स्कूली शिक्षा को लेकर ही है, और वह भी इस स्तर पर कि शिक्षाशास्त्र से ज्यादा यह र्आिथक और सामाजिक प्रश्न बन जाता है। इस पूरे विवाद का एक गंभीर सामाजिक पहलू भी है, जिसे खासकर कुछ दलित चितक उठा रहे हैं। उनका कहना है कि अंग्रेजी शिक्षा दलितों को जन्म और कर्म के बंधन से मुक्त करने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है। इसके पक्ष में एक तर्क उनकी आ॓र से बार-बार आता है और अब एक तरह का नारा ही बन गया है कि क्या आपने किसी अंग्रेजी बोलने वाले को दूसरों की गंदगी उठाते देखा है? इस तर्क से कुछ समाजवादियों को दिक्कत जरूर हो रही है लेकिन इसकी काट का कोई तर्क उनकी आ॓र से फिलहाल सा मने नहीं आया है। अंग्रेजी दरअसल इस समय देश में ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में भलीभांति स्थापित हो चुकी है। इस स्थिति में कोई बदलाव होगा, इसका भी कहीं सो कोई संकेत नहीं मिल रहा है। संभावना यही है कि भूमंडलीकरण की तेज रफ्तार की वजह से अंग्रेजी का महत्व और बढ़ेगा। भारत का मॉडल इस मामले में चीन और कोरिया से अलग है, जहां पिछले साठ साल में अपनी भाषा के दम पर ही तरक्की का रास्ता तय किया गया है। भारत के शासक चाहते तो चीन और कोरिया से सी खकर उस रास्ते पर चल सकते थे। चीन को तरक्की करने के लिए अंग्रेजी की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन भारत के शासकों ने शिक्षा का माध्यम बदलने की जगह अंग्रेजों के बनाए रास्ते पर चलना पसंद किया। ऐसे में भारतीय भाषाओं में शिक्षा का बोझ अगर सिर्फ गांव के लोगों, गरीबों और सामाजिक रूप से वंचित रह गए लोगों पर डाला जाएगा तो इससे विषमता बढ़ेगी और टकराव भी बढ़ेगा । आदर्श स्थिति यही हो सकती है कि अगर देश का प्रभु वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा दे रहा है तो वह दूसरे वगा पर भारतीय भाषा और संस्कृति की रक्षा का बोझ न डाले। एक समान शिक्षा की बात लगभग चालीस साल पहले कोठारी कमीशन ने कही थी और शिक्षा के अलग-अलग माध्यमों को इसके रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन बताया था। तब कोठारी कमीशन ने समस्या का समाधान यह सुझाया था कि शुरूआती शिक्षा के लिए सभी छात्र मातृभाषा में पढ़ें। 21वीं सदी में समान शिक्षा की जरूरत बनी हुई है, लेकिन अब इसका फार्मूला यही हो सकता है कि सभी बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ें, क्योंकि इस देश का एलीट तो अपने बच्चों की शिक्षा के लिए भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। सरकार का रवैया चाहे जो भी हो लेकिन लोग अपनी तरफ से इस दिशा में पहल कर चुके हैं। देश के सुदूर जिलों में भी अब आप अंग्रेजी शिक्षा के प्रति आम लोगों की ललक देखेंगे। देश के हर शहर में लगे इंग्लिश स्पीकिग स्कूलों के बोर्ड यह बता रहे हैं कि हवा किस तरफ बह रही है। जिस किसी के भी पास थोड़ा पैसा और सामर्थ्य है, वह अपने बच्चों को किसी न किसी अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में ही डालने के फिराक में है। खासकर नॉलेज इकोनॉमी की चर्चा के साथ यह चलन और मजबूत हुआ है। अंग्रेजी शिक्षा का रोजगार से सीधा नाता है। अगर कोई युवा कामचलाऊ अंग्रेजी बोल लेता है तो उसके भूखों मरने की आशंका कम है। ऐसे में ‘हिदी लाआ॓’ या ‘अंग्रेजी भगाआ॓’ जैसे नारे बेमानी हो चुके हैं। आज के समय में अगर किसी नारे का कोई अर्थ हो सकता है तो वह ‘समान शिक्षा’ का नारा ही है। From ravikant at sarai.net Tue Jan 29 12:48:25 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 29 Jan 2008 12:48:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSC4KSV4KWc?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClhyDgpIbgpIjgpKjgpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkreCkvg==?= =?utf-8?b?4KS34KS+IOCklOCksCDgpK3gpL7gpLDgpKQ=?= Message-ID: <200801291248.25181.ravikant@sarai.net> आंकड़ों के आईने में भाषा और भारत भाषाओं का उदयकाल- 1 लाख वर्ष ईसा पूर्व संसार में कुल जीवित भाषाओं की संख्या- 6912 लुप्तप्राय श्रेणी की भाषाएं- 516 (उत्तार-पूर्वी भारत की कुछ भाषाएं इस सूची में) सबसे पुरानी जीवित भाषा- चीनी या ग्रीक (लगभग 3500 साल पुरानी) सर्वाधिक शब्द संख्या वाली भाषा- अंग्रेजी (लगभग ढाई लाख शब्द) भारत में अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाली भाषाओं की संख्या- 87 ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन के अनुसार भारत में अंग्रेजीभाषियों की संख्या- 35 करोड़ भारत में अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोग- दो लाख, दो हजार 400 (1981 का आंकड़ा) भारत के दस सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अखबारों की सूची में अंग्रेजी अखबारों की संख्या- एक (एनआरएस- 2005) मात्र हिदी के अखबारों की प्रसारण संख्या अंग्रेजी अखबारों के कुल प्रसारण की चार गुनी भारत में अंग्रेजी सिखाने का बाजार फिलहाल 1500 करोड़ रूपये का भारत का हर तीन में से एक स्कूल अंग्रेजी भाषा प्रशिक्षण केंद्र की भूमिका में From ravikant at sarai.net Tue Jan 29 13:05:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 29 Jan 2008 13:05:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWI4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkrOCkqOClgCAsIOCkleCliOCkuOClhyDgpKzgpZ3gpYAg4KSV4KWI4KS4?= =?utf-8?b?4KWHIOCkmuClneClgCDgpIXgpILgpJfgpY3gpLDgpYfgpJzgpYA=?= Message-ID: <200801291305.16978.ravikant@sarai.net> कैसे बनी, कैसे बढ़ी कैसे चढ़ी अंग्रेजी 449 ई.- ब्रिटेन में एेंग्लो-सैक्सन बसावट की शुरूआत 450-480 ई.- प्राचीन अंग्रेजी के सबसे पुराने शिलालेखों का समय 597 ई.- सेंट आगस्टीन के ब्रिटेन में आगमन के साथ वहां ईसाई धर्मांतरण की शुरूआत 871 ई.- वेसेक्स के राजा अल्फ्रेड द्वारा लैटिन ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद का सूत्रपात 1066 ई.- फ्रांस की नर्ॉमंडी रियासत से आए नॉर्मनों का ब्रिटेन पर कब्जा। ब्रिटेन में सत्ताा की भाषा के रूप में फ्रांसीसी और लैटिन प्रतििष्ठत 1150 ई.- मध्यकालीन अंग्रेजी में लिखी गई सबसे पुरानी पांडुलिपियों का रचनाकाल 1204 ई.- किग जॉन ने फ्रांस के साथ हुए एक युद्ध में नर्ॉमंडी पर से कब्जा खोया। नॉर्मन आधिपत्य वाली सत्ताा के सारे हित ब्रिटेन में केंद्रित हुए 1348 ई.- ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को छोड़कर ब्रिटेन के शेष सभी विघालयों में लैटिन के बजाय अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम घोषित किया गया 1362 ई.- फ्रेंच की जगह अंग्रेजी अदालतों की भाषा घोषित। दस्तावेजों का लैटिन में ही रखा जाना जारी। इसी साल संसद में भी अंग्रेजी के प्रयोग को मान्यता मिली 1476 ई.- विलियम कैक्सटन द्वारा पहले अंग्रेजी प्रेस की स्थापना 1549 ई.- बुक ऑफ कॉमन प्रेयर का पहला अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित 1611 ई.- राजा जेम्स द्वारा अधिकृत बाइबल का पहला अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित 1702 ई.- अंग्रेजी का पहला दैनिक अखबार द कूरेंट लंदन से प्रकाशित 1755 ई.- सैमुअल जॉनसन द्वारा अंग्रेजी के पहले शब्दकोष का प्रकाशन 1835 ई.- थॉमस बैबिगटन मैकाले द्वारा ब्रिटिश संसद में अंग्रेजी को भारत में उच्च शिक्षा का मा ध्यम बनाने की पुरजोर वकालत। संसद द्वारा स्वीकृत इस नीति को मामूली हेरफेर के साथ पूरे ब्रिटि श साम्राज्य में लागू किया गया 1776 ई.- ब्रिटेन से आजाद होकर अमेरिकी ब्रिटिश रियासतों ने संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना की। इस देश की आधिकारिक भाषा की घोषणा कभी नहीं की गई, वक्त जरूरत इसकी राष्ट्रभा षा ‘अमेरिकन’ बताई गई। लेकिन द्वितीय विायुद्ध के बाद से अंग्रेजी के विाव्यापी प्रभुत्व के पीछे मूल चालक शक्ति ब्रिटेन के बजाय अमेरिका ही बना हुआ है From ravikant at sarai.net Tue Jan 29 13:07:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 29 Jan 2008 13:07:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkueCkn+CkvuCkj+Ckgg==?= Message-ID: <200801291307.12101.ravikant@sarai.net> हिंदी हटाएं चंद्रभान प्रसाद पड़ोसी देश चीन इन्फॉरमेशन टेक्नालॉजी के हार्डवेयर में मशहूर है, तो भारत सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में। यह भ्रम कि भारतीय ज्यादे दिमागदार हैं, कुछ ही वर्षों में टूट जाने वाला है। तीस करोड़ चीनी अंग्रेजी सीख रहे हैं। तब चीनी सॉफ्टवेयर में भी उस्ताद हो जाएंगे। विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र अमेरिका है, इसीलिए जो देश अमेरिकी अर्थव्यवस्था से जितनी मजबूती से जुड़ जाएगा, उसकी उतनी ही अधिक तरक्की होगी। पर, एक समस्या है। अमेरिका एक अंग्रेजी भाषी देश है इसलिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान होना जरूरी है। अपनी भाषा पर गर्व करने वाला देश फ्रांस भी अब अंग्रेजी का कायल हो गया है। यही स्थिति जर्मनी एवं इटली की भी है। जर्मनी, फ्रांस एवं इटली की बहुत सारी कंपनियां ब्रिटेन या अमेरिकी कंपनियों से मुकाबला नहीं कर पा रही हैं, क्योंकि अंग्रेजी आड़े आ जाती है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी बोलने वाले कुछ लोग मिल ही जाते हैं, क्योंकि ब्रिटेन का सामरज्य पूरी दुनिया में था। अंग्रेजी अब बड़ी तेजी से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उघम की भाषा बनती जा रही है। ज्ञान, संस्कृति एवं कला का प्रसार भी अंग्रेजी के माध्यम से तेजी से हो रहा है। जो देश अंग्रजी से जितना दूर होगा, वह देश तरक्की से भी उतना ही दूर रहेगा। जो बात देशों के लिए सच है, वही व्यक्ति या परिवारों के लिए भी सच है। भारत में ही देख लें। कुछ लड़कियां अच्छा डांस करती हैं, अच्छा गाती हैं, आकर्षक भी हैं पर अंग्रेजी नहीं जानती, अत: ‘बार बालाएं’ बन जाती हैं, पुलिस की दबिश होती है, जेल भी जाना पड़ता है, पर, उन्हीं गुणों के साथ कुछ लड़कियां आइटम गर्ल बन जाती हैं, पेशा, इज्जत तथा शोहरत भी कमाती हैं। अंग्रेजी के थोड़े ज्ञान के चलते कुछ युवक मॉल में सेल्स ब्वाइज बनते हैं, पर अंग्रेजी ज्ञान से वंचित कुछ युवक मॉल में सफाई करते हैं– जिनमें ब्राहण युवक भी हैं। अंग्रेजी ज्ञान के साथ बाल काटने वाले युवक होटलों में ‘हेयर ड्रेसर’ कहलाते हैं तथा इतना कमा लेते हैं कि स्वंय की कार खरीद लेते हैं। पर, अंग्रेजी ज्ञान से वंचित बाल काटने वाले ‘नाई’ या ‘हज्जाम’ कहलाते हैं तथा नई साइकिल खरीदने में भी उन्हें सोचना पड़ता है। इस तरह के हजार उदाहरण दिए जाते हैं जहां समान गुण व योग्यता के बावजूद भी अंग्रेजी ज्ञान से वंचित व्यक्ति पीछे रह जाते हैं। आज शहरों में होने वाले ‘डॉग शो’ को ही देख लें। डॉग शो में कुत्ते तरह–तरह के करतब दिखाते हैं, पर इंस्ट्रक्टर द्वारा सारे इंस्ट्रक्शन अंग्रेजी में ही दिए जाते हैं। अर्थ यह कि, यदि आपका डॉग अंग्रेजी इंस्ट्रक्शन नहीं समझता, तो डॉग शो में वह अलग–थलग पड़ जाएगा और आपके कुत्ते से कम हुनरमंद अंग्रेजी समझने वाला कुत्ता विक्ट्री स्टैंड पर खड़ा नजर आएगा। अंग्रेजीमय भारत में जातीय अहंकार भी टूटेंगे। मसलन, जब व्यक्ति ‘गुड मार्निंग’ कहता है तो, अभिवादन करने वाले का सिर थोडा़ ऊंचा उठ जाता है। अभिवादन प्राप्त करने वाला व्यक्ति ‘प्रणाम’ का उत्तर ‘प्रणाम’ कर नहीं देता है। वह कहेगा–‘खुश रहो’। प्रणाम ने इस तरह ऊंच-नीच का भेद खड़ा कर दिया। हिंदी या किसी भी अन्य भारतीय भाषा में जातीय भाव कूट–कूट कर भरे होते हैं। मसलन, कितने दलितों को गैर दलित ‘प्रणाम’ कर अभिवादन करते हैं? प्रणाम तो दलित ही करता हैं। चूंकि भाषा समाज के भीतर पैदा होती है, अत:भाषा अपने विकास के समय सामाजिक संस्थाओं के विचारों को भी आत्मसात कर लेती है। इसीलिए, हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषाओं में जाति आधारित गालियां भी होती हैं। चूंकि अंग्रेजी एक गैर जातीय सभ्य समाज में पैदा एवं विकसित हुई है, इसलिए अंग्रेजी में जातीय गालियां नहीं हो सकती। हिंदी या अन्य कोई भी भारतीय भाषा दलित विरोधी तो है ही, ये सारी भाषाएं स्त्री विरोधी भी हैं। क्या हिंदी में कोई पति अपनी पत्नी को प्रणाम कहता है? क्या अपनी संतान को पिता प्रणाम कहता है? क्या कोई ससुर अपनी बहू को प्रणाम कहता हे? जबकि अंग्रेजी भाषा के राज में कोई भी किसी को भी ‘गुड मार्निंग’ सहज ही कर लेता है। यह तो मात्र एक उदाहरण है। इस तरह के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां हिंदी या कोई भी भारतीय भाषा एक भाषाई बुराई है जिसे दूर करने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि हिंदी नामक भषाई बुराई को हटाएं तथा मुक्ति की औजार ‘अंग्रेजी देवी’ को लाएं। From ravikant at sarai.net Tue Jan 29 16:38:08 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 29 Jan 2008 16:38:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCklOCksCDgpIXgpILgpJfgpY3gpLDgpYfgpJzgpYAg4KSk4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkheCkrA==?= Message-ID: <200801291638.08670.ravikant@sarai.net> rashtriy sahara hastaksep se hi हिंदी और अंग्रेजी तब और अब अवधेश कुमार महात्मा गांधी ने अन्य समस्याआ॓ के समान भारत की भाषा समस्या के समाधान पर भी अपनी बात रखी थी। वे अंग्रेजी को गुलामी का कारण मानते हैं। हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा,‘ सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिये। हिन्दू मुसलमानों के संबंध ठीक रहे, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार से अंग्रेजी को निकाल सकेंगे।’ .. ‘ हर एक पढ़े–लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का, और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए। हिन्दुओं को अरबी एवं कुछ मुसलमानों एवं पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। ..अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है।.... यह क्या जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इन्साफ पाना हो तो मुझे अंगेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए।...इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं। ...हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बि ल्कुल लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है वह उसका अच्छा उपयोग करे। अंग्रेजों के साथ के व्यवहार में, ऐसे हिन्दुस्तानियों के साथ के व्यवहार में जिनकी भाषा हम समझ नहीं सकते हो और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से किस तरह परेशान हो गये हैं यह समझाने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये।’ आजादी के तुरंत बाद सरकार ने माध्यमिक शिक्षा को लेकर डॉ. ताराचंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसने अपनी अनुशंसा में कहा,- ‘माध्यमिक पूर्व एवं माध्यमिक उत्तर की कक्षाओं में अंग्रेजी तब तक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाए जब तक विश्वविघालयों में यह अध्ययन–अध्यापन का माध्यम बना रहे। जो छात्र सीनियर बेसिक स्तर पर विघालय छोड़ने का प्रस्ताव रखते हैं उनके लिए अंग्रेजी ऐच्छिक विषय होना चाहिए।..... जब विश्वविघालयों में अंग्रेजी का माध्यम बनना समाप्त हो जाए तो अंग्रेजी की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी जाए, माध्यमिक स्तर पर संघीय भा षा न कि अंग्रेजी अनिवार्य विषय होना चाहिए।’ इसके एक सदस्य ने अंग्रेजी को किसी कारण से अनिवार्य विषय बनाने के विरूद्ध मत प्रकट किया था। नेशनल एसोशिएशन ऑ"फ सॉफ्टवेयर कंपनीज यानी नास्कॉम एवं मैकिन्जी ने 2005 में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा है,- ‘ देश को 2010 तक निर्यात से प्राप्त 60 अरब डॉलर का लक्ष्य पाने के लिए कम से कम 23 लाख प्रोफेशनल की आवश्यकता होगी।....सूचना तकनीक एवं बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग के क्षेत्र में नौकरियां पांच वर्षों में दोगुनी होंगी। इसके लिए हमें दोगुने प्रोफेशनन चाहिए।...भारत को 10–12 समेकित ज्ञान नगरों की आवश्यकता है जो कि फोकस्ड ज्ञान दें। ... आरंभ से ही अंग्रेजी भाषा में निपुण बनाने का शिक्षण दिया जाए।’ ज्ञान आयोग ने प्रधानमंत्री को दिए अपनी रिपोर्ट में अंग्रेजी को पहली कक्षा से अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाए जाने की अनुशंसा की है। इसका शीर्षक ही है,’ खाई को पाटने के लिए कक्षा एक से अंग्रेजी पढा़एं: सरकार को ज्ञान पैनल की रिपोर्ट’। इसमें लिखा है,- अंग्रेजी भाषा पर पकड़ एवं उसकी समझ को उच्च शिक्षा तक पहुंचने, रोजगार संभावनाओं एवं सामाजिक अवसरों का मुख्य निर्धारक है। विघालयों से निकलने वाले वैसे छात्र जिनको भाषा के रूप में अंग्रेजी का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिला है, उच्च शिक्षा की दुनिया में स्वयं को अपाहिज की तरह पाते हैं। इसी तरह जो अच्छी अंग्रेजी नहीं जानते हैं उन्हें हमारे अपने प्रमुख शिक्षा संस्थानों में स्थान पाने की प्रतिस्पर्धा में भी कठिनाई होती है। यह अलाभकर स्थिति काम पाने की दुनिया में और बढ़ जाती है तथा ऐसा केवल प्रोफेशनल क्षेत्रों में ही नहीं सफेद कॉलर की नौकरियों में भी होता है। From ravikant at sarai.net Tue Jan 1 15:03:29 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 01 Jan 2008 09:33:29 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: rapat poorvi uttar pradesh se Message-ID: <200801011503.14942.ravikant@sarai.net> dosto, naya saal mubarak ho, aisi kaamna ke sath yeh nav varsh ka tohfa bhi, hamare bhootpoorv fellow anil pandey ki ankhin dekhi rapat. parhein aur tipiyaein, chahe yahan ya unke blog par jiska pata neeche milega. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Story Date: मंगलवार 01 जनवरी 2008 13:02 From: "anil pandey" To: ravikant at sarai.net सप्ताह भर के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर था. मैं मायावती सरकार के छह महीने बीतने के बाद लोकतंत्र के उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला था जिसे दलितों ने अपने वोट से साकार किया था. पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की सरकार... समाज के हाशिए पर खड़े सबसे गरीब आदमी की सरकार... जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसकी सरकार बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो हैं लेकिन फिलहाल उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि उनके जीवन में कोई बदलाव होगा. इस यात्रा में मैने जो देखा, महसूस किया, वह आप को भेज रहा हूं. यह यात्रा संस्मरण द संडे इंडियन में प्रकाशित भी हुआ है. कपया इस पर अपनी टिप्पणी जरूर दें... इसे मैंने अपने ब्लाग पर भी डाला है. इसका लिंक भी आप को भेज रहा हूं.. *नव वर्ष की ढेर सारी शुभ कामनाओं के साथ.. -- * दलित...यह एक ऐसा शब्द है, जो सदियों से नफरत और हिकारत का पर्याय रहा है. हजारों सालों से वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से शोषित होता आ रहा है. वह अपने वोट की ताकत से लोगों को सत्ता में पहुंचाता रहा, लेकिन खुद सत्ता से बहुत दूर, सामाज के अंतिम पायदान पर खड़ा रहा. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार दलितों के राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है. यहां अब दलितों की सरकार है. बसपा सरका र के शासन में दलित खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं, क्या उनके जीवन में कोई बदलाव आ रहा है...इसी का जायजा लेने के लिए मैं एक सप्ताह तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर था. जो देखा वह आप के सामने हैं.... मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी उस पच्चीस साल की दलित विधवा सुनीता की सूरत बार-बार आखों के सामने आ जाती..वह दो बच्चों की मां थी. ऐसे बच्चे, जिनके सिर से बाप का साया उठ चुका है. दिसंबर की गुलाबी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के वे बच्चे... "जब बाप ना बाय, तो गरम कपड़ा के दिआई???" एक मां की दुख भरी आवाज बार बार कानों में कचोट रही थी. वोट किसे देते हो? "हाथी पे..." क्यों देते हो? "इ हमार पार्टी है." मायावती को जानते हो...? "हां, स्कूल में मास्टरनी हैं.. " कांशीराम को जानते हो? "इ के है?... रहुला के चाचा हैं." सरकार से क्या चाहते हो?.. "अंतोदय कार्ड.." सुनीता दो बार से बसपा को वोट दे रही है, अब उसकी सरकार है. क्या उसकी एक छोटी-सी ख्वाहि श भी पूरी नहीं हो सकती? उसके सपने केवल अंत्योदय कार्ड तक सिमट के रह जाते हैं. सुनीता कहती हैं, "बीडीओ साहब से कह कर हमारा कार्ड बनवा दीजिए. कम से कम दो जून की रोटी तो मिल जा एगी. नहीं तो मर जाएंगे." पति के इलाज के लिए सुनीता ने खेत गिरवी रख दिया था. फिलहाल, वह दूसरे के खेतों से बथुआ लाकर बच्चों का पेट पाल रही है. मेरे जेहन में बार-बार यह सवाल घूम रहा था. सुनीता बथुआ का साग खिला कर कब तक अपने बच्चों को जिंदा रख पाएगी? क्या बसपा सरकार में उसके हालात बदलेंगे? यह सोच ही रहा था कि ड्राइवर की तेज आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है. "साहब, अंबेडकर गांव का बोर्ड लगा है, गाड़ी मोड़ दूं?" मेरे सामने राज्य की राजधानी लखनऊ से महज 30 किलोमीटर दूर शिवपुरी गांव की सुनीता की बातें फ्लैशबैक की तरह घूम रही थी. हम अंबेडकर बस्ती की तरफ मुड़ जाते हैं. मैं मायावती सरकार के छह महीने बीतने के बाद लोकतंत्र के उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला था जिसे दलितों ने अपने वोट से साकार किया था. पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की सरकार... समाज के हाशिए पर खड़े सबसे गरीब आदमी की सरकार... जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसकी सरकार बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो हैं लेकिन फिलहाल उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि उनके जीवन में कोई बदलाव हो गा. सुनीता जैसे लाखों लोग एक अदद बीपीएल और अंत्योदय कार्ड के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिस पर उनका हक है. लेकिन गरीबों का हक मार कर गांव के दबंग लोगों ने बीपीएल और अंतोदय कार्ड बनवा लिया है. इस कार्ड के जरिए गरीब दलितों को हर महीने बहुत ही सस्ते में 35 किलो राशन मिल जा ता है. टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते हुए हम अंबेडकर नगर के सीमई कारीरात गांव की अंबेडकर बस्ती में पहुंचते हैं. बस्ती तक पक्की सड़क है. अंबेडकर नगर संसदीय क्षेत्र से मायावती चुनाव लड़ती है. मायावती के राज्यसभा में जाने बाद फिलहाल इस संसदीय सीट पर सपा का कब्जा है, लेकिन इलाके के पांचों विधायक बसपा के हैं. सीमई कारीरात की दलित बस्ती की सूरत बिलकुल अलग है. यहां समृद्धि दिखाई देती है. बस्ती के ज्यादातर मकान पक्के हैं. लड़के और लड़कियां कालेज में पढ़ते हैं. कई लोग सरकारी नौकरी में हैं. जब इस बस्ती की तरफ देखता हूं तो दूर क्षितिज में फिर से सुनीता का असहाय चेहरा दिखाई देने लगता है... सीमई कारीरात की दलित बस्ती में पहली बार पिछले साल मई में ‘डीजे’ आया था... अंबेडकर की आदमकद मूर्ति के सामने उस दिन रात भर नाच गाना हुआ... पूड़ी और खीर बांटी गई... युवाओं के साथ-साथ बुजर्गों ने भी ठुमके लगाए. यह कोई शादी का अवसर नहीं था. यह सदियों से सताए गए दलितों के सत्ता प्राप्ति का उत्सव था. प्रजा से राजा बनने की खुशी का अवसर था. पूरी बस्ती में वह खुशी आज भी दिखाई देती है. गांव के नौजवान अनिल गर्व से कहते हैं, "गांव के सवर्णों की अब पहले जैसी हिम्मत नहीं रही. कालेज में अभी हाल में झगड़ा हुआ तो हमने सवर्ण लड़कों को खूब पीटा और सीना चौड़ा करके घर आए. वे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं पाए." बगल में खड़े रिटायर शिक्षक और बस्ती के युवाओं को वैचारिक खुराक देने वाले बुधिराम कहते हैं, "बसपा की सरकार नहीं होती तो वे हमें दबा लेते. मायावती के मुख्यमंत्री बनने से अब हम सिर उंचा करके चल सकते हैं." सीमई कारीरात वही ऐतिहासिक गांव है जहां एक पल्ले वाले दरवाजे लगाए जाते हैं. लेकिन दलितों ने विद्रोह किया और यहां ब्राह्मणों के इस फऱमान की परवाह किए बिना कि "इससे शिव भगवान नाराज हो जाएंगे" अपने घरों में दो पल्ले वाले दरवाजे लगा रहे हैं. बसपा सरकार बनने के बाद यह सिलसिला और बढ़ गया है. सीमई कारीरात के लोग खुश हैं. उन्हें लगता है कि बसपा शासन में य़ुवाओं को रोजगार मिलेगा और उन्हें सम्मान. लेकिन मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी एक सप्ताह की यात्रा के दौरान सीमई कारीरात जैसी दूसरी दलित बस्ती नहीं मिली. लेकिन हां, हर दलित बस्ती में सुनीता जैसी महिलाओं से जरूर रूबरू होना पड़ता था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिजली की जबरदस्त किल्लत है. अंधेरे को चीरते हुए हम शशि के घर पहुंचते हैं. घर के बाहर पुलिस का पहरा है. फैजाबाद के मिल्कीपुर में मोमबत्ती की रोशनी में हमारी मुलाकात शशि के पिता योगेंद्र कुमार से होती है. मोमबत्ती की लौ की तरह ही योगेंद्र की आंखे भी हिलती रहती हैं... कभी वे अंधेरे को देखते हैं तो कभी रोशनी को... लंबी चुप्पी के बाद वह अपनी बेटी शशि की हत्या का आरोप बसपा के पूर्व मंत्री आनन्द सेन यादव पर लगाते हैं. योगेंद्र बामसेफ के पुरा ने कार्यकर्ता हैं और कांशीराम के सपने को साकार करने और बसपा की सरकार बनवाने के लिए उन्होंने अपना बहुत कुछ स्वाहा किया है. वह कहते हैं, "बसपा के शासन में मेरी बेटी के हत्यारे खूलेआम घूम रहे हैं. जो मंत्री और विधायक मेरे घर पर आ कर कभी डेरा डाले रहते थे, वे अब मुझसे मुंह चुराने लगे है. जिस बसपा के लिए मैने कभी घर परिवार की चिंता नहीं, उसके शासन में मैं असहाय और लाचार महसूस कर रहा हूं. बात सुनने की बात तो दूर मायावती ने तो मुझसे मिलने से ही इनकार कर दिया." यो गेंद्र कोई अकेले दलित नहीं हैं, जिन्होंने बसपा के लिए दिन-रात एक कर दिया और जब सरकार की मदद की जरूरत पड़ी तो उन्हें उपेक्षा ही मिली. दलितों का उत्पीड़न जारी है. तब भी पुलिस दबंगों का साथ देती थी और आज भी... बसपा शासन में भी दलित अपनी सामाजिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. लखनऊ के महिपत मऊं गांव के दलितों के घर में स्थानीय दंबग मुसलमानों ने घुस कर जम कर उत्पात मचाया, महिलाओं और लड़िकयों से बलात्कार की कोशिश की. पीड़ित चंद्रिका प्रसाद कहते हैं, "अपराधियों पर पुलिस इसलिए कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, क्योंकि एक बसपा विधायक का उन्हें संरक्षण प्राप्त है." संकट की इस घड़ी में बसपा नेताओं ने भी इनसे किनारा कर लिया है... अपने भी पराए हो गए.. प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील के भदेवरा गांव के दलित युवक चक्रसेन की गांव के दबंग ब्राह्मणों ने इसलिए हत्या कर दी थी कि उसका बीटेक में दाखिला हो गया था. चक्रसेन के परिवार के लोग स्था नीय बसपा विधायक पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हैं. जब चुनाव का बिगुल बजा तो भदेवरा के दलितों ने हर बार की तरह इस बार भी खुल कर बसपा का साथ दिया. जब माया वती मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें लगा कि अब पंडित जी और बाबू साहब लोग उन्हें तंग नहीं करेगे. लेकिन कुछ दिन बाद ही उनका सपना काफूर हो गया. चक्रसेन के दा दा शिव मूरत सहित बस्ती के लोग एक स्वर में कहते हैं, "यह दिन देखने के लिए थोड़ी हमने बसपा को वोट दिया था. अब हम लोग बसपा को वोट नहीं देंगे." चक्रसेन का घर गांव के आखिरी छोर पर था. वैसे दलित बस्ती गांव के आखिरी छोर पर ही होती है. सवर्णों के घरों से काफी दूर... जब मैं चक्रसेन के घर पहुंचता हूं तो एक आदमी हमसे पूछताछ करने लगता है. पता चला वह हेड कांस्टेबल बुधराम सरोज हैं. चक्रसेन का परिवार पुलिस के सुरक्षा घेरे में है. मैं जब अपनी नोट बुक में पुलिसवालों का नाम नोट कर रहा था तो बुधराम धीरे से कहते हैं, "मेरे नाम के आगे एससी लिख लीजिए." पांच पुलिस वाले घर की रखवाली कर रहे हैं, एक कमरे के उस घर की, जिसमें कुछ है ही नहीं... बुधराम सरोज चक्रसेन के बूढ़े-लाचार दादा शिवमूरत की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, "इनकी बहुत ही बुरी स्थिति है. घर में खाने तक को अनाज नहीं है." चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में लगे पांच पुलिसवालों में से तीन सवर्ण हैं, दो पंडित जी और एक ठा कुर साहब. जिस मड़ई में भैंस बांधी जाती थी, उसी में पांचो पुलिसवाले रह रहे हैं. खाना वे दलित बस्ती में ही एक साथ बनाते और खाते हैं. सवर्ण पुलिसवालों को एक गरीब दलित की सुरक्षा में लगना अखर रहा है. उनके चेहरे से यह साफ झलक रहा था... बुधराम सरोज कहते हैं, "अपने अब तक के कैरि यर मैं मैने शिवमूरत जैसे गरीब आदमी को कभी पुलिस सुरक्षा मिलते नहीं देखा." शिवमूरत खुद मानते हैं, "अगर बसपा की सरकार न होती तो उन्हें पुलिस सुरक्षा नहीं मिलती." लेकिन वे आगे कहते हैं, "हमें पुलिस वालों की नहीं, न्याय की जरूरत है." बस्ती के लोग कभी जिन पुलिसवालों को देख कर छुप जाते थे, चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में उनकी तैनाती को वे एक अजूबा ही मानते हैं. आसपास के इलाके में इसकी चर्चा भी है. रायबरेली कभी इंदिरा गांधी और अब सोनिया गांधी की वजह से जाना जाता है. घूमते-घूमते हम यहां के छतईंयां गांव की दलित बस्ती में पहुंचते हैं. अस्सी साल की अनपढ़ बुजर्ग महिला बिठाना इंदिरा गांधी के मुकाबले किसी को नेता नहीं मानती. सोनिया गांधी को वोट देने वाली बिटाना मायावती को चिल्ला चिल्ला कर खरी-खोटी सुनाती हैं और हवा में यह सवाल उछाल देती हैं, "मायावती अपना पेट भरेंगी कि हमारा?" शिवकुमार कहते हैं, "मेरे घर में पांच वोट हैं. वैसे तो हम सोनिया गांधी को चाहते हैं, लेकिन हर बार कम से कम दो वोट बसपा को जरूर देते हैं." ऐसा ही कुछ रवैया लखनऊ के शिवपुर गांव के दलितों का है. वे मुलायम के प्रशंसक हैं, लेकिन वोट बसपा को देते हैं. बाबूलाल पासी कहते हैं, "मुलायम सिंह की सरकार अच्छा काम करती है. लेकिन वोट मैं बसपा को ही देता हूं." यहां आकर बसपा की सफलता का राज समझ में आया. कांशीराम ने दलित और बसपा को एक दूसरे का पर्याय बना दिया है. यही वजह है कि दलि त अब अपने को बसपा से अलग नहीं कर पाता. राम नरायण कहते हैं, “वह अगर किसी दूसरी पार्टी को वोट दे भी दें, तो लोग यकीन नहीं करते. उन्हें बसपा का ही माना जाता है.” यह लखनऊ जिले के निगोहा गांव की अंबेडकर बस्ती है. हाल ही में इसे अंबेडकर बस्ती का दर्जा मिला है. मायावती सरकार का विकास कार्य यहां दिखाई देता है. 132 दलितों को घर बनाने के लिए पैसा मिल गया है. लेकिन भूमिहीन दलितों को पट्टा देने के लिए जमीन ही नहीं है. मायावती के सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी यहां दिखाई देती है. मैं दलित पंच गंगा सहाय के साथ गांव के प्रधान से मिलने जाता हूं. उनके घर के सोफे पर हम तीनों साथ बैठ कर बाते करते हैं और चाय पीते हैं. इस बारे में पूछने पर बसपा समर्थक गांव के प्रधान सुरेंद्र कुमार दीक्षित कहते हैं, "अब हम दलितों से बराबरी का व्यवहार करते हैं. मैं सर्दियों में अक्सर दलित बस्ती में जाकर वहां लोगों के साथ जमीन पर बैठ कर अलाव तापता हूं." उत्तर प्रदेश में कहीं-कहीं यह बदलाव दिखता, लेकिन बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर. अगर बसपा यह बदलाव लाने में कामयाब हो जाती है तो दलितों को वह सम्मान मिल जाएगा, जिसके लिए वे सदियों से संघर्ष करते आ रहे हैं. लेकिन आम दलित के लिए तो अभी यह सपने जैसा ही है.. हकीकत से बहुत दूर.. प्रतापगढ़ के गोपालपुर गांव के शिवबरन सरोज कहते हैं, "सवर्ण कभी नहीं चाहेंगे की हम उनकी बराबरी करें." Regards:- Anil Pandey Principal Correspondent The Sunday Indian Mb.:- 09968256956 Blog:- www.roadshow.com.co.in www.roadclub.blogspot.com ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Jan 1 15:25:19 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 01 Jan 2008 09:55:19 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) January 1st 2008 Message-ID: <200801011524.58191.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) January 1st 2008 Date: सोमवार 31 दिसम्बर 2007 22:56 From: "AbhiAnu" To: "AbhiAnu" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). इस सप्ताह * समकालीन कहानियों में भारत से संतोष दीक्षित की कहानी माधुरी दीक्षित * हास्य-व्यंग्य में हरिशंकर परसाईं का नया साल * निबंध में गुणाकर मुले से जानकारी भारतीय कैलेंडर की विकास यात्रा * दृष्टिकोण में विशाखा शर्मा की लेखनी से सन 2008 की आहट * पर्व परिचय में सन 2008 के विशेष पर्वों की सूचना के लिए पर्व पंचांग इस अंक के साथ अनुभूति आठवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। पाठकों का अभिनंदन और नव वर्ष की मंगल कामनाएँ। नव वर्ष के अवसर पर 150 से अधिक नई पुरानी कविताओं का संकलन नव वर्ष अभिनंदन अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. Both Abhivyakti & Anubhuti revise on 1-9-16-24 of the month. This message is sent out on 1st and 16th of the month. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Jan 1 18:32:17 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 01 Jan 2008 13:02:17 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CkueCkruCkqA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkl+CkrOCljeCkrOCksCDgpLjgpL/gpILgpLkg4KSV4KWLIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KS+IOCkpeCkvic=?= Message-ID: <200801011831.57385.ravikant@sarai.net> http://1.raviwar.com/news.asp?n2 हमने गब्बर सिंह को मारा था असली गब्बर का चंबल में था आतंक सुनील कुमार गुप्ता, भोपाल से “यहां से पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है, सो जा. सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा.” रमेश सिप्पी की शोले के गब्बर सिंह के आने-जाने और उसका अंतिम हश्र भले सबको पता हो लेकिन असली जिंदगी के गब्बर के मारे जाने का किस्सा कम ही लोग जानते हैं. शोले से पहले भारतीय फ़िल्म इतिहास में किसी ख़लनायक का किरदार लोकप्रियता की इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया था. गब्बर शोले फिल्म का एक ऐसा किरदार था, जिसके संवाद आज तीसरी पीढ़ी में भी लगभग उतने ही लोकप्रिय हैं. यह अनायास नहीं है कि गब्बर की लोकप्रियता को भुनाने के लिए उससे मिलते-जुलते किरदारों वाली कई फ़िल्में बनी. रामगोपाल वर्मा ने भी इसी गब्बर के मोहपाश में बंध कर अपनी ‘आग’ जलाने की असफल कोशिश कर डाली. यह शोले के गब्बर की लोकप्रियता ही है, जिसके कारण अमिताभ बच्चन भी कहते हैं कि वे गब्बर बनना चाहते थे. हाल ये है कि इन दिनों हिंदी के कई लोकप्रिय चैनल गब्बर के खौफ को बेचने के लिए अपने स्टूडियो में कथित गब्बर को पकड़ कर ला रहे हैं लेकिन क्या असली गब्बर भी इतना ही खौफनाक था ? इसका जवाब आप छत्तीसगढ़ में रह रहे भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी आर पी मोदी से पूछ सकते हैं. पुराने दिनों को याद करते हुए मोदी कहते हैं- “शोले के गब्बर से कहीं अधिक ख़ौफ था असली गब्बर का. लोग थर्राते थे उसके नाम से. 13 नवंबर 1959 को जब गब्बर मारा गया तो चंबल में हजारों लोगों ने चैन की सांस ली.” पुराने पुलिस रिकार्ड के अनुसार 1924 में भिंड के डांग जिले में रघुवर गूजर के घर पैदा हुए गब्बर को जब एक मामले में गांव के रसूखदारों ने फंसा दिया तो उसने चंबल की राह थाम ली और कल्ला गिरोह में शामिल हो गया. कुछ ही दिनों में गब्बर ने तत्कालीन भिंड, शिवपुरी, मुरैना, दतिया, ग्वालियर में अपना साम्राज्य कायम कर लिया. गब्बर के बारे में मशहूर था कि वह अपने शिकार की नाक-कान काट लेता है. इन इलाकों से इस तरह की खबरें लगातार आती थीं. गब्बर ने कसम खाई थी कि वह काली माता के सामने एक हजार एक नाक चढ़ाएगा. गब्बर की इस सनक के कारण गांव के गांव खाली होने लगे थे. गब्बर के बढ़ते आतंक को रोकने के लिए आखिरकार पुलिस ने खास रणनीति बनाई. तत्कालीन मेहगांव के सेक्टर कमांडर आर पी मोदी को पता चला कि गब्बर अपने गिरोह के साथ डांक गांव में रुका हुआ है. फिर शुरु हुई गब्बर की घेराबंदी. ग्वालियर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एस पी बनर्जी, भिंड के एएसपी तिरखा, डी के राजे, माधवसिंह, श्री महाडिक, शिवधान सिंह जैसे अधिकारियों ने इसकी कमान संभाली. अलग-अलग रास्तों पर इस तरह घेराबंदी की गई कि कहीं से भी गब्बर के भागने की गुंजाइश नहीं रहे. पूरा इलाका पुलिस छावनी में बदल गया था. सभी रास्तों पर पुलिस की गाड़ियों में लाइट मशीनगन लगाए हुए पुलिस के जवान मुकाबले के लिए तैयार थे. भरी दोपहरी में पुलिस बल ने जब आर पी मोदी के नेतृत्व में धावा बोला तो गब्बर और उसके साथियों ने जवाब में गोलियां बरसानी शुरु कर दी. गब्बर चाहता था कि किसी भी तरह पुलिस को अंधेरा हो ने तक उलझा कर रखा जाए लेकिन पुलिस ने इसकी नौबत नहीं आने दी. गब्बर की गोलियों का जवाब देते हुए आर पी मोदी ने डाकू दल को लक्ष्य कर के कुछ हथगोले फेंके और जब धूल और धुंआं छंटा तो वहां गब्बर और उसके साथियों की लाशें पड़ी हुई थीं. मोदी बताते हैं- “ इस गब्बर से जब जनता को मुक्ति मिली तो लोगों में खुशी का ठिकाना नहीं था. लोग उस गब्बर को देखने के लिए उमड़ पड़े, जिसकी क्रूरता से चंबल थर्राता था. ” From ravikant at sarai.net Tue Jan 1 19:04:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 01 Jan 2008 13:34:10 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSc4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWA4KSq4KWN4KSw4KS44KS+4KSmIOCkpuCljeCkteCkv+CkteClh+Ckpg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClhyDgpIngpKrgpKjgpY3gpK/gpL7gpLjgpYvgpIIg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkh+CkpOCkv+CkueCkvuCkuC3gpKzgpYvgpKc=?= Message-ID: <200801011903.48256.ravikant@sarai.net> is list par kuchh logon ko shayad yeh dilchasp lage. thoRa lamba hai. cheers ravikant आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में इतिहास-बोध www.sahityakunj.net/LEKHAK/R/RajendraGautam/acharya_Hazari_upnayas_bodh.htm डॉ० राजेन्द्र गौतम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का सर्जन उनके व्यक्तित्व की भांति परंपरा का विकास होते हुए भी, सभी परम्पराओं को उत्तीर्ण करता हुआ निरन्तर आधुनिक के साथ जुड़ता रहा है। उन्हें आलोचक, निब्न्धकार अथवा उपन्यासकार के रूढ़ वृत्तों में नहीं बाँधा जा सकता, वरन् उनके लेखन का सहज स्वभाव लोक-संस्कृतिपरक है। इसीलिए उनका साहित्य सांस्कृतिक-सामाजिक से अतीत जुड़ा रह कर भी वर्तमान का मार्गदर्शन करता है। इसी के लिए उन्होंने निबन्धा लिखे ह। जो निबन्धों में नहीं अँट पाया, उसे हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन के क्रम में कहा और जब उन्हें लगा कि अब भी वे अपने मन्तव्यों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर पाये हैं तो उन्होंने उपन्यास लिखे। यों इस फक्कड़ बाबा ने कविताएँ भी लिखी हैं। उनके द्वारा व्यवहृत ये सभी विधाएँ एक दूसरी की पूरक हैं। इनकी केन्द्रीय प्रवृत्ति अतीत के माध्यम से प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना है पर अतीत से जुड़ कर भी वे पुनरुत्थानवादी मानसिकता से ग्रस्त नहीं रहे। उनकी पारम्परिकता जड़ता का प्रतिकार करती है, उनकी स्वच्छन्द वृत्ति सामाजिक इतिहास की गरिमा से भास्वर है, उनकी विराट् उन्मुक्तता मानवता की स्थापना का ध्येय लिए है। वे निरन्तर परिवर्तन का उद्घोष करने वाले ऊर्जा-पुंज थे। अतीत को वे मानवानुभव के रूप में देखते हैं। उनके उपन्यास उनके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं। डॉ. रघुवीर सिंह की विशिष्ट गद्य-कृति ’शेष स्मृतियाँ‘ की ’प्रवेशिका‘ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक मार्मिक सत्य का उद्‌घाटन करते हुए लिखा है – “हृदय के लिए अतीत मुक्तिलोक है, जहाँ वह अनेक बन्धानों से छूटा रहता है और अपने शुद्ध रूप में विचरता है। वर्तमान हमें अन्धा बनाये रहता है। मैं समझता हूँ कि जीवन का नित्य स्वरूप दिखाने वाला दर्पण मनुष्य के पीछे रहता है, आगे तो बराबर खिसकता हुआ परदा रहता है।” लगता है आचार्य द्विवेदी ने अपने इस ज्येष्ठ आचार्य के मन्तव्य को ही अपने सम्पूर्ण लेखन का आदर्श बना लिया है। इसलिए वे आगे खिसकते हुए परदे के भ्रमों से सचेत रहते हुए प्रतिबिम्बनधर्मी दर्पणी अतीत के अन्वेषण में निरंतर रचनारत रहे। इस दर्पणी अती त को वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाना आजीवन उनकी प्राथमिकता रही। आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रणीत चार उपन्यासों -- ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘, ’चा रुचन्द्रलेख‘, ’पुनर्नवा‘ एवं ’अनामदास का पोथा‘ में से प्रथम तीन का सम्बन्धा सीधे रूप में भा रत के मध्यकालीन इतिहास से जुड़ा है जबकि ’अनामदास का पोथा -- अथ रैकव आख्यान‘ का इतिहास शुद्ध इतिहास न होकर पौराणिक इतिहास है। यों उन्होंने १९-६-१९७६ के ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ में प्रकाशित मनोहरश्याम जोशी को दिए गए एक साक्षात्कार में अपने उपन्यासों को शुद्ध ’गल्प‘ ही माना है और गल्प को ’कल्प‘ कहा है। लेकिन उनका यह कथन उसी प्रकार का ’वंचक‘ कथन है, जिस प्रकार उनके उपन्यासों के आमुख पाठक को थोड़ा बहकाने की कोशिश करते हैं। वह बात दूसरी है कि उन की यह ’वंचना‘ सोद्देश्य है। इसके माध्यम से वे पाठक को तथ्यों के शुष्क रेगिस्तान से निकाल कर सर्जना की रम्य वीथियों में ले आते हैं। निरवधि प्रवहमान काल में मानव-मूल्यों के संस्थापक के रूप में वे अपने उपन्यासकार को सजग रखते हैं, जिसके परिणा मस्वरूप इनके उपन्यासों में कथानक ऐतिहासिकता के किनारे अवश्य प्रदान करता ह परन्तु उनके बीच प्रवाहमान सदानीरा में उनकी संवेदना के उद्द्रवित हिमालय का ही जल है। आचार्य द्विवेदी के पात्र एक इतिहास को अवश्य प्रस्तुत करते हैं लेकिन यह इतिहास उन तथ्यान्वेषी विद्वानों ने इतिहास से भिन्न है, जिन्होंने राज-प्रासाद से बाहर झाँकने का प्रयास नहीं किया है। यह इतिहास एक ओर सम्बद्ध कालखण्ड के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को सम्पूर्णता के साथ अभिव्यक्त करता है, दूसरी ओर उस युग की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को भी संस्थापित करता चलता है। यदि द्विवेदी जी ने अपने लोक-संस्कृति-उन्मुख उपन्यासों को ’गल्प‘ कहा है तो इसलिए कि वे इनकी प्रामाणिकता के लिए पुरातत्त्व के अवशेषों के संग्राहक के पास नहीं गए हैं। इसकी अपेक्षा वे मानव-वृत्तियों की प्रामाणिकता पर विश्वास करते हुए नित्य विकासमान सामाजिकता को प्रस्तुत करते हैं। इतिहास का उपयोग उनके उपन्यासों में एक ऐसे व्यापक फलक को पृष्ठभूमि के रूप में रखने के लिए हुआ है, जिसके द्वारा प्रगतिशील मानवता की स्थापना की जा सके। क्योंकि अपने महत्त्वपूर्ण उपन्यास ’पुनर्नवा‘ में समस्त ऐतिहासिक-सामाजिक संघर्ष के चित्रण के बा द वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, उसकी सामयिक एवं शाश्वत सार्थकता असंदिग्ध है। उनका निष्कर्ष हैः ’अगर निरंतर व्यवस्थाओं का संस्कार नहीं होता रहेगा, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेगी ही अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।’ मनुष्य सामाजिक विकास के क्रम में अनेक व्यवस्थाओं का निमार्ण करता है। किंतु यह भी एक कटु सत्य है कि ये व्यवस्थाएँ क्रमशः रूढ़ होकर मनुष्यता का ही दमन आरंभ कर देती हैं। आचार्य द्विवेदी इस दमन का प्रतिकार व्यवस्थाओं के निरंतर संस्कार के द्वारा ही संभव मानते हैं। उनकी इस मान्यता में इतिहास के प्रति जड़ताग्रस्त मानसिकता का भी स्पष्ट प्रतिकार है। प्रस्तुत संदर्भ में साहित्य एवं इतिहास के पारस्परिक सम्बन्ध पर कुछ विचार करना अप्रासंगिक न हो गा। ये दोनों संकाय स्वतंत्र होते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इतिहास साहित्य का उपजीव्य है और सा हित्य इतिहास की प्रामाणिकता का एक आधार। पहला मानव अनुभवों का आलेख है, दूसरा उन अनुभवों के आलोक में जीवन की भावमयी व्याख्या प्रस्तुत करता है लेकिन दोनों एक-दूसरे के निकट हो कर भी अपनी प्रक्रिया में भिन्न हैं। एक मूलतः तथ्यपरक है, दूसरा भावाश्रित, एक शास्त्र की ओर झुकता है, दूसरा शास्त्र के बाहर-भीतर, सब को घेरे रहता है। यों इतिहास भी मानव-मूल्यों की स्थापना का उद्देश्य लेकर चलता है लेकिन उसका मूल लक्ष्य प्रामाणिक सत्यों का अन्वेषण है। साहित्य में जिस युग का चित्रण होता है, उसमें केवल वही नहीं होता जो बाहर से दिखलाई देता है, बल्कि उसमें वह भी चित्रित होता है, जो कवि मन की आँखों से देखता है। इतिहासकार यदि समग्रता में से प्रासंगिक सामग्री चुन लेता है तो साहित्यकार इतिहास द्वारा उपलब्ध कराए गए आलेखों के आधार पर समग्रता को प्रासंगिक बनाता है। एक की प्रवृत्ति विश्लेषणात्मक है, दूसरे की संश्लेषणात्मक। मानव के क्रिया-व्यापार का अध्ययन दोनों का विषय है पर साहित्य भाव-प्रक्रिया को चित्रित करता है, इतिहास उसकी परिणति को। द्विवेदी जी इतिहास की असदिंग्ध महत्ता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थे। क्योंकि वे इतिहास-बोध को पीछे देख सकने वाला मनुष्य का तीसरा नेत्र मानते थे। उनका कहना है -- ’इतिहास-प्रेम की बात मैं नहीं जानता मगर इतिहास-बोध को पलायन समझना आधुनिकता नहीं, आधुनिकता का विरोध है। आधुनिकता की तीन शर्तें हैं -- एक इति हास-बोध, दूसरे इस लोक में ही कल्याण होने की आस्था, तीसरी व्यक्तिगत कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा। मैं आग्रहपूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि जो इतिहास को स्वीकार न करे वह आधुनिक नहीं और जो चैतन्य को न माने वह इतिहास नहीं। (१९ जून, १९७६ के ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ में प्रकाशित पूर्वोक्त साक्षात्कार)। द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत की गई आधुनिकता की यह व्याख्या लीकपीटू आधुनिक बुद्धजीवियों को अवश्य देख और सीख लेनी चाहिए। स्पष्टतः यहाँ वे इतिहास की अपेक्षा इतिहास-बोध के महत्व को रेखांकित करते हैं। वे उस शाश्वततावादी इतिहास-बो ध के पोषक नहीं हैं, जो पाखंड रचते हुए पारलौकिक जगत् का प्रलोभन देकर मनुष्य के कल्याण की बा त करता है। वे तो इसी लोक में मनुष्य के कल्याण का लक्ष्य रखते हैं। आधुनिकता की जिन तीन शर्तों का उल्लेख आचार्य जी ने किया है, उनमें तीसरी शर्त और भी रेखांकनीय है। व्यक्तिगत कल्याण द्वि वेदी जी के साहित्य का लक्ष्य कभी नहीं रहा है। वह उनकी इतिहास-दृष्टि का भी आधार नहीं बना है। उनका गंतव्य तो सामूहिक कल्याण ही रहा है। ’चारुचन्द्रलेख‘ में नाटी माता द्वारा चन्द्रलेखा को पिलाई गई यह डाँट द्विवेदी जी के इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती हैः “जहाँ तक तुमने अशेष मानव-जाति को रोग, जरा, मृत्यु से मुक्त करने का संकल्प किया था, वहाँ तक तो तुमने ठीक किया, परन्तु बाद में तुमने अपनी सिद्धि को व्यक्तिगत अहंकार का विषय बना लिया, वहीं तुम तपोभ्रष्ट हो गई।“ जिस उत्तर-आधुनिक युग में इतिहास की गठरी को अप्रासंगिक कह कर एक ओर पटक कर चल देने का परा मर्श दिया जा रहा हो, वहाँ द्विवेदी जी का यह मजबूत दावा कि इतिहास को अस्वीकार कर आधुनिक नहीं हुआ जा सकता, विशेष अर्थ रखता है। यह दावा इसलिए भी अर्थवान है क्योंकि वे चैतन्यहीन इतिहास को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने अपने इतर साहित्य की भांति उपन्यासों में भी इतिहास की ही साधना की है और उनमें उनकी उपर्युक्त इतिहास-दृष्टि का ही प्रतिपादन हुआ है। पूर्वोक्त साक्षात्कार में वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इतिहास की साधना को शव-साधना कहना चाहें तो कह लें लेकिन ’इतिहास कुलीन शव है। उसे ओंधे मुँह लिटा कर हम जैसे कई साधना करते हैं। कई मुँह उलटने पर घबरा जाते हैं.... विरले ही हैं जो प्रलोभनों से विमुख होकर उस शक्ति से साक्षात्कार कर पाते हैं, जो वर्तमान को अधिक सुघर बनाने में और भविष्य के लिए सही मार्ग सुझाने में सहायक होती है।‘ लोक से लिया गया यह अघोरी रूपक श्रमण संस्कृति की एक धरा की ओर तो ध्यान खींचता ही है, मध्यकालीन धर्म-साधना की पर्तें भी खोलता है। उपर्युक्त शव-साधना के संदर्भ में द्विवेदी जी ने यद्यपि विनम्रतावश स्वयं को अधूरा साधक कहा है लेकिन अपने उपन्यासों में उन्होंने इतिहास-सिंधु के मंथन से मानवता के कल्याण के लिए जो अमृत निकाला है, वह निस्संदेह उन्हें प्रलोभन-विमुख साधक ही प्रमाणित करता है। उनके सभी उपन्या स ’वर्तमान को अधिक सुघर बनाने में और भविष्य के लिए सही मार्ग सुझाने में सहायक‘ हैं, इसमे लेशमात्र भी संदेह नहीं है। ’बाणभट्ट‘ की ’चन्द्रदीधिति‘, ’चारुचन्द्रलेख‘ की ’मैना‘ और ’पुनर्नवा‘ की ’मृणाल‘ को केन्द्र में रखकर उन्होंने भारतीय मध्यकालीन इतिहास का अवगाहन कर, जिस उद्‌बोधनपरक साहित्य की रचना की, वह अपनी प्राणवत्ता में अजेय, प्रासंगिकता में सार्थक, सर्जनात्मकता में सौष्ठवमय एवं संवद्येता में सर्वग्राह्य है। पुरुष-वर्ग में भी उन्होंने बण्ड, चंद्रमौलि और रैक्व जैसे मस्तमौला दिखते पर भीतर गहरे अंतर्द्वंद्वों से गुजरते पात्रों की सृष्टि की है। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ के बाण, हर्ष और चन्द्रदीधिति जैसे ऐतिहासिक पात्र उस आधारभूमि का निर्माण करने में पूर्णतः समर्थ हैं, जिस पर रचनाकार ने अपना कला-सौध खड़ा किया है। इस उपन्यास की केन्द्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास को प्रस्तुत करने की नहीं है, वरन् मुख्य समस्या भट्टिनी की रक्षा की है। भट्टिनी नारी की गरिमा एवं उदात्तता का, समस्त भारतीयता का, अपने समाज की आस्था का, प्रतीक है और स्वयं भट्टिनी के लिए उस आस्था का प्रतीक-चिर् है, ’महावराह‘। ’महावराह‘ की रक्षा नहीं हो पाती। स्वतंत्रता का संघर्ष परोक्ष भयों से आक्रांत हो जाता है। अतीत के इस संघर्ष को आचार्य जी अपने युग की भूमि पर खड़े हुए देख रहे थे। स्पष्टतः उस अतीत में वर्तमान की ही समस्याएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। यह उपन्यास लगभग उसी दौर में रचा जा रहा था, जब हम राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर रहे थे पर इस युग-चिंतक की आशंकाएँ साधार थीं। उनके समक्ष यह बड़ा प्रश्न था कि क्या राजनैतिक स्वतंत्रता प्रा प्त कर लेने से व्यक्ति की अस्मिता की रक्षा सम्भव हो पाती है? क्या इस स्वतंत्रता से ही व्यक्ति का विवेक स्वयं उसका मार्ग-दर्शक बन सकता है? वे जानते थे कि ऐसा नहीं है। इसलिए उन्हें इतिहा स की शव-साधना के माध्यम से यह संदेश देना पड़ा, ’सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, वेद से भी नहीं।‘ शास्त्रों के भय से थर-थर कांपती जनता को दिया गया यह अभय-संदेश संजीवनी से कम नहीं। भय व्यक्ति की स्वतंत्रता का -- उसक विवेक का वि नाशक है। वर्षों से पराजय का बोध सहती आ रही जाति को अतीत के मन्थन से लेखक भयमुक्ति का जो मंत्र देता है, वही उसके लिए सर्वाध्कि प्रासंगिक है। ऊपर भट्टिनी की रक्षा को नारी-गरिमा की रक्षा मानने का जो संकेत दिया गया है, वह आज वि शेष रूप से प्रासंगिक है। आज के ’स्त्री विमर्श‘ के घटाटोपी मंथन में से जो सार-तत्त्व निकल कर आता है, साहित्य में उसका करणीय पक्ष (ऑपरेटिव क्लॅाज) नारी की गरिमा की रक्षा का प्रयास ही है। ’स्त्री विमर्श‘ का दूसरा प्रमुख पहलू स्त्री का दमन करने वाली पुरुष की वर्चस्ववादी मानसिकता का विरोध भी है। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में महामाया द्विवेदी जी की विशेष सष्टि है। महामाया इसी पुरुष-वर्चस्व के विरोध में खड़ी है। वही भट्टिनी की वेदना को सही ढंग से पहचा न पाती है। तभी वह कहती हैः “पुरुष का सत्य और है, नारी का सत्य और।” भट्टिनी वास्तव में सामंती समाज की मानसिकता की शिकार है। यह मानसिकता जिस प्रकार धरती को और राज्यों को हस्तगत कर लेना चाहती है, उसी तरह इसके मन में स्त्री के धर्षण की, हस्तगत कर लेने की, अधिकार जमाने की कामना भी रहती है। इस मानसिकता के अवशेष अभी मिटे नहीं हैं। यह सही है कि जिस समय ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ की रचना हुई थी, तब ’स्त्री वि मर्श‘ का वैसा आंदोलनकारी रूप नहीं था, जैसा आज है लेकिन एक प्रगतिशील रचनाकार फासीवादी मनोवृत्तियों पर चोट किए बिना नहीं रहता। द्विवेदी जी निस्संदेह ऐसे प्रगतिशील रचनाकार थे जि न्हों रोग की जड़ को पहचाना था। अपने उपन्यासों में ऐतिहासिक अनुभव के फलक पर घटनाक्रम को चित्रित कर वे इन रोगों का निदान खोजते ही नजर आते हैं। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के संदर्भ में आज विवाद का एक बड़ा मुद्दा यह भी रहा है कि क्या स्त्री और दलित से जुडी समस्याओं पर स्त्री और दलित को ही लिखने-कहने का अधिकार है? इस संदर्भ में भी द्विवेदी जी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और तर्कसंगत हैं। ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में आया यह कथन जरा ध्यान से देख लेना चाहिएः “स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते। सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्म-वेदना का किंचित आभास पाया जा सकता है।” समस्या के दोनों पक्ष यहाँ प्रस्तुत हैं। स्त्री के दुःखों की निजता का, उसका केवल अनुभूति-सापेक्ष होने का सच झुठलाया नहीं जा सकता पर सहानुभूति की अपनी एक भूमिका जरूर है। भले ही इस सहानुभूति से उस वेदना का किंचित आभास ही पाया जा सके, तथापि पुरुष-वर्चस्व वाले समाज की कुठित संवेदनाओं को यह सहानुभूति कचोटती जरूर है। लेखक यही कर सकता है। उसके पा स पर-काया-प्रवेश की क्षमता है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आज के स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के संदर्भ में द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तावित ’सहानुभूति‘ का साथ छोड़ना उचित न होगा। भारतीय समाज की समस्या जितनी वर्ग-भेद के कारण है, उतनी ही वर्ण-भेद के कारण भी है। बीसवीं शताब्दी मानवीय अस्मिता की पहचान की शताब्दी रही है। हिंदी साहित्य का वह दौर, जिसमें द्विवेदी जी रचनारत थे, इस अस्मिता को पहचानने और इसे गौरव दिलाने के लिए ही संघर्षरत दिखलाई देता है। स्तर-भेद की त्रासद विडंबनाओं को लक्षित कर द्विवेदी जी पात्र के माध्यम से एक कचोटने वाला सवाल उठाते हैं : “यहाँ इतना स्तर-भेद है कि मुझे आश्चर्य होता है कि यहाँ के लोग कैसे जीते हैं? तुम यदि किसी यवन कन्या से विवाह करो तो इस देश में एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। जहाँ भारतवर्ष में समाज में एक सहस्र स्तर हैं, वहाँ उनके समाज में कठिनाई से दो-तीन होंगे। भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं, वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे हैं, उनकी निचाई का कोई आर-पार नहीं।” नयी सदी में पहुँच कर हम भी हम इस स्तर-भेद मिटाने में सफल नहीं हुए हैं। कई बार तो अन्तरजातीय विवाह के संदर्भ में घोर प्रगतिशील बुद्धजीवियों की अति घोर दकियानूसी प्रवृत्ति सामने आती है। द्विवेदी जी ने भारतवर्ष के समाज में जातियों का जितना समग्रतापरक अध्ययन किया है, उतना कम ही समाजशास्त्रियों ने किया है। उनका यह अध्ययन दलित विमर्श के वर्त्तमान आंदोलन को भी दिशा दे सकता है। द्विवेदी जी के उपन्यासों में उनकी विशेष इतिहास-दृष्टि का प्रतिपादन है, तथापि उन्होंने इनमें ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा नहीं की है। अति विराट् स्तर पर ऐतिहासिक तथ्य को सर्जनात्मकता में ढालने की कला ’चारुचन्द्रलेख‘ में देखी जा सकती है। जन-शक्ति के संगठन की यह अद्भुत रचना हैं। इस उपन्यास का कथानक द्विवेदी जी के इतर अध्ययन का थी केन्द्र-बिंदु रहा है। ’मध्यकालीन धर्म-साधना‘ का अध्ययन ’चारुचन्द्रलेख‘ के समानान्तर ही संभव है। उनके इतिहास-दर्शन और सा हित्य-दर्शन का सार लोकसंग्रह है जबकि अनेक मध्यकालीन धर्म-साधनाएँ लोक-विमुख थीं। इस उपन्या स के कुछ कथन देखिए : १. “उन बकवादी निठल्लों के चक्र में न पड़ो। ये बिगाड़ना जानते हैं, संवारना नहीं। इन्होंने व्यक्तिगत साधनाओं के द्वारा सत्य को खंडित किया है।” २. “परित्यक्त शिशुओं और लांछित बंधुओं के क्रंदन और आह से वायुमंड़ल व्याप्त है, उस समय भी क्या सहज समाध संभव है?” ३. “माया को घनीभूत करने का ढोंग करने वाले लोग माया के सब से मजबूत वाहन सिद्ध हुए हैं।... सिद्धियाँ मानव को कुछ विशेष बल नहीं देतीं। एक साधारण किसान, जिसम दया-माया है, सच-झूठ का विवेक है, और और बाहर-भीतर एकाकार है, वह भी बड़े से बड़े सिद्ध से ऊँचा है।” ४. “सिद्धयाँ मानव को पशु, पक्षी, अजगर, प्रेत बना दें, किंतु मनुष्य को मनुष्य बनाने में तब तक सहायक न होंगी, जब तक सहज शरीरधर्मों को ही परम लक्ष्य समझा जाता रहेगा।” ५. “साधरण प्रजा हमें सिद्ध समझती है, वह श्रद्धा से नहीं भय से पूजा करती है। आज आततायी के खड्गाघात से सिद्धियों का सारा खिलवाड़ टूट कर गिर गया है।” ये कथन उस अंध-काल में उठने वाले प्रश्नों पर सार्थक टिप्पणियाँ तो हैं ही, उस समूचे विशृंखल परिवेश पर भी टिप्पणियाँ हैं, जिसका स्वरूप लगभग ऐसा थाः “चंद्रलेखा का सिंहवाहिनी, महिषमर्दिनी और जनपद पार्वती रूप दो नावों पर एक साथ सवारी करने से कीलित होकर मानवीय भूमि से स्खलित हो गया है। सातवाहन साक्षात शक्ति से विच्युत होकर निःशक्त हो गये हैं। रानी से प्रेरित होकर भी विद्याधर ग्रहकक्षाओं के असत्य व्यापार में भ्रमित है । सिद्धयोगी गोरख-प्रचारि त योगसाधना से अपसृत होकर मांसंपिंड नारी के विनोदन में षोडशी कुलकन्याओं की सिद्धि में, पंचमकार, पंच पवित्र ओर चतुश्चंद्र की निर्वीर्य साधनाओं में लीन होकर सामाजिक कल्याण से उपरत है। सारे जगत को भूल कर व्यष्टि-मुक्ति की चिंता के कारण कल्याणाभिनिवेश कुंचित हो गया है। संगठित होकर धर्म-संप्रदाय जनता को आतंकित कर रहे हैं, ...।” यदि कान लगा कर सुनें तो इन विडंबनाओं की प्रतिध्वनियाँ आज भी हमारे चारों ओर गूँज रही हैं। प्रश्न उठता है कि इस विशृंखलता से दो-चार होने का उपाय क्या है? द्विवेदी जी न वह उपाय इतिहास के अनुभव से ही प्रस्तुत किया है। वे जानते हैं कि जन-जागृति के बिना परिवर्तन संभव नहीं क्योंकि “राजाओं, राजपुत्रों और देवपुत्रों की आशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्चित परिणाम पराभव है।” स्वतंत्रता के पश्चात् भी हम कुछ पुराने राजाओं और कुछ नए सामंतों के हाथों में देश की बागडोर सौंप कर निश्चिंत हो गये हैं। बीच-बीच में ’देवपुत्रों‘ की कृपा का फल भी जनता चखती रही है। इसका परिणाम आज हम देख ही रहे हैं। प्रजाजन ;!द्ध की आज जो स्थिति है, वह इन नए राजाओं, राजपुत्रों और देवपुत्रों के भरोसे बदलने वाली नहीं है। यदि वह बदलेगी तो विराट् जन-जागृति से ही! भारत का पिछली अनेक शताब्दियों का इतिहास राजनैतिक पराजय का ही नहीं, जनता के पराभव का भी करुण आख्यान रहा है। इस पराजय की जड़ें बहुत गहरी हैं। राजनैतिक पराजय सामाजिक मनोबल के टूटने की अन्तिम परिणति होती है और सामाजिक मनोबल के टूटने का कारण है -- बिखराव, व्यक्तियों के स्वार्थ के कारण समूह के कल्याण की उपेक्षा। भारतीय जनमानस की नैतिकता के बल को मध्यकाल में प्रचलित सामाजिक विकृतियों ने भी तोड़ा है। नैतिक बल शौर्य का आधार होता है और नपुंसक कायरता लज्जाजनक हिंसा को जन्म देती है। ’चारुचन्द्रलेख‘ टूटते-बिखरते मध्यकालीन समाज की मानसिक टूटन का और शेष शक्तियों को संयमित कर सम्पूर्ण बल के साथ विरोधों के सामने डटने के संकल्प का महाकाव्यात्मक निरूपण है। सातवाहन के रूप में युद्धरत भारतीय शक्ति आगे चलकर अपनी अन्तःप्रेरणाओं को खोकर गरिमाच्युत होती है, लेकिन आचार्य जी ने इस अतीत -- इस इतिहास का निरपेक्ष चित्रण नहीं किया है बल्कि उसके माध्यम से वह उद्‌बोध्नात्मक ऊर्जा प्रवाहित की है, जो किसी जाति के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। ’चारुचन्द्रलेख‘ के एक-एक पृष्ठ से आह्वान का स्वर गुंजित होता है, जो पाठक में अदम्य उत्साह का संचार करता है। यह है इस आह्वान का स्वर : ’सूर्य-चन्द्र और अग्नि के पुत्रो, क्या बेखबर सो रहे हो? धरती कसमसा उठी है, नगा धिराज की पथरीली धरती में दरार पड़ती दिखाई दे रही है, गंगा-जमना की शीतल धारा सूखती नजर आ रही है। किस दिन तुम्हारा तेज काम आएगा? किस दिन के लिए इस पवित्र धरती ने अन्न उड़ेल-उड़ेल कर तुम्हारा पालन किया था? उठो, जागो, एक हो जाओ।’ एक हो जाना कब से भा रत की बहुत बडी समस्या रही है! गुप्तकालीन इतिहास से सम्बद्ध उपन्यास ’पुनर्नवा‘ में घटनात्मक एवं पात्रात्मक विस्तार अधिक है। देवरात एवं मृणालमंजरी के अभिजात एवं उदात्त परिणय से प्रारंभ होने वाली यह रचना लोक-आख्यान के नायक गोपाल को अपना केन्द्र-बिन्दु बना लेती है। आभीर संस्कृति का मूर्त्त चित्र उकेरती हुई यह कृति आततायी एवं दुर्दम शक्तियों से नैतिक शौर्य के संघर्ष की महा-गाथा को युग-संदर्भ के साथ उद्‌घाटित करती है। यह परम्परा का आख्यान ही नहीं है, इसमें परिवर्त्तमान सामाजिकता के प्रगतिशील मूल्यों की अभिव्यक्ति भी है। यह उपन्यास समाज के प्रत्येक वर्ग का विराट् फलक पर चित्रण करता है। ’अनामदास का पोथा‘ रूढ़ रूप में ऐतिहासिक नहीं है लेकिन भारतीय वैदिक एवं पौराणिक साहित्य का एक अपना इतिहास-बोध है जिसके अनुरूप ही सुदूर अतीत से छान्दोग्य-उपनिषद् की यह गा था एक राष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ी हुई है। प्रत्यक्ष रूप में यह रैक्व की वैयक्तिक गाथा प्रतीत होती हैं परन्तु गहन स्तर पर यह एक पूरी सामाजिक व्यवस्था को समेटे है। इस व्यवस्था का आदर्श है – ’प्रकृति को सुनियन्त्रित रूप में चलाने का नाम ही संस्कृति है। संतान-परंपरा को नष्ट न होने देना - प्रजातंत्र या व्यवच्छेसी।’ इसके अतिरिक्त इसमें गहरा यथार्थ-बोध भी है। रैक्व की साधना अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचती है – ’मेरे पास अगर वह बुद्धि की परीक्षा लेने आएगी तो उसे गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने को कहूँगा। इसी में उसकी बुद्धि की परीक्षा हो जाएगी। माँ, जो दीन-दुखियों की सेवा नहीं कर सका, वह क्या बुद्धि की परीक्षा करेगा। मैं अब थोड़ा-थोड़ा रहस्य समझने लगा हूँ। कोरी वाग्-वितंडा ज्ञान नहीं है।’ स्पष्टतः आचार्य जी ने वा ग्-वितंडा के लिए ये ऐतिहासिक पोथियाँ नहीं रचीं बल्कि वे ऐतिहासिक ज्ञान के सहारे जीवन-अम्बुध में बहुत गहरे उतरे हैं। १९४०-५० के आसपास शोषण के प्रतिकार का साहित्य रचने का दावा तो बहुतों ने किया, पर संवेदना की आँच ’निराला‘, केदारनाथ अग्रवाल अथवा नागार्जुन जैसे गिने-चुने रचनाकारों में ही थी। निस्संदेह वह आँच आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों और उपन्यासों में मौजूद है। गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने वाला रैक्व कामज्वर से पीड़त भी हुआ है पर जब वह संसार की सबसे बड़ी व्याधि से -- भूख से परिचत होता है तो वह ’उसकी बुद्धि की परी क्षक‘ और अनुराग की आधार शुभा को भी दीन-दुखियों की सेवा में प्रवृत्त करता हैं। बीसवीं शताब्दी में आधुनिकता-बोध की चर्चा विशेष-रूप से होती रही पर अधिकांश के लिए आधुनि कता-बोध संकीर्ण यथार्थ और परम्परा की अस्वीकृति से भिन्न नहीं रहा, जबकि द्विवेदी जी के लेखन में (उनके उपन्यासों में विशेषकर) आधुनिकता-बोध का स्वस्थ रूप उपलब्ध होता है। उन्होंने परम्परा से जुड़ कर इतिहास का विश्लेषण। लेकिन उनके द्वारा निरूपित परम्परा एवं विश्लेषित इतिहास आधुनिक संवेदना के साथ दृढ़ता के साथ अन्तर्ग्रन्थित है। उनका इतिहास-बोध मूल्य-निरपेक्ष तथ्यों के आकलन की अपेक्षा जिजीविषा की परम्परा में अभिव्यक्ति पाता है और जीवन के नैरन्तर्य की पुष्टि करता है। गत दो शताब्दियों में भारतीय मनीषा और जनसमुदाय को एक तीव्र बौद्धिक आलोड़न के बीच से गुजरना पड़ा है। ’स्व‘ को पहचान कर उसे वर्तमान में अस्तित्वमय रखना इसकी सबसे बड़ी समस्या रही है और इस समस्या का समाधान मिल पाया है, इतिहास-बोध से। द्विवेदी जी की व्युत्पन्न सिसृक्षा ने आधुनिक संवेदना को सही रूप में अभिव्यक्त करने के लिए अपने उपन्यासों क सांस्कृतिक-सामाजिक इतिहास के साथ से जोड़ा है। उन्होंने यदि ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में वैयक्तिक जागरूकता को अभय का मंत्र दिया है तो ’चारुचन्द्रलेख‘ में राष्ट्रीय एवं सामाजिक गरिमा को बनाए रखने का मार्ग दिखलाया है। ’पुनर्नवा‘ में जीवन के उदात्त आदर्शों की स्थापना और व्यवस्था-परिमार्जन पर बल दिया गया है। ’पोथा‘ में शास्त्र-ज्ञान की अपेक्षा लोकवेद की प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता के सही अर्थों का उद्‌घाटन किया गया है। इन उपन्यासों में मध्यकालीन धर्म-साधना की विकृतियों का खुलासा कर नारी की गरिमा तथा संघर्ष को मुखरित किया है। द्विवेदी जी के उपन्यासों में ऐतिहासिकता के तत्त्वतः दो रूप हैं। एक रूप सम्बद्ध युगों के आचार- विचार, सामाजिक रूढ़ियों-रीतियों, धर्म-साधना, उपासना-पद्धति, पारिवारिक परिवेश तथा सभ्यता आदि के सजीव चित्रण का है। दूसरा वह रूप है, जहाँ वे संस्कृति-प्रवाह तथा विचार-प्रवाह के माध्यम से अतीत से जुड़ते तो हैं पर अंततः उनका इतिहास-बोध अतीतातीत हो कर वर्तमान के भविष्य का निर्माण करने वाली शक्ति बन कर अवतरित होता है। यह रचनात्मक शक्ति ही द्विवेदी जी द्वारा की गई इतिहास की शव-साधना की उपलब्ध है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ऐतिहासिकता का कोई भी रूप उनके उपन्यासों की कला में व्याघातक बना है। औपन्यासिकता पर इतिहास कहीं हावी नहीं हुआ। कहीं भी साहित्य को इतिहास के सामने छोटा नहीं होना पड़ा। न ’शब्दार्थ का साहित्य‘ कहीं खंडित हुआ है, न ही ’लोकोत्तर आनन्द‘ कहीं बाधित हुआ है। ’निविड़-निज-मोह-संकट‘ का निवारण भी द्विवेदी जी के उपन्यासों में बखूबी हुआ है पर इनसे बढ़ कर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके उपन्यासों का शिल्प हर दृष्टि से आधुनिक भी है। इसका कारण द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में परम्परा और आधुनिकता का संतुलन है। भारतीय काव्यशा स्त्र की समृद्ध परम्परा से तो उन्होंने स्वयं को जोड़ा ही है। उसके अधुनातन विकास से भी वे परे नहीं है। आज के साहित्य के पूर्व पर्याय ’काव्य‘ को ग्रहण कर ही वे उपन्यास-रचना में संलग्न हो ते हैं, इसी से उनमें पाश्चात्य पद्धति के औपन्यासिक तत्त्वों के निर्वाह के साथ-साथ भारतीय ना ट्य-तत्त्वों का संश्लिष्ट संगुफन हैं। ’अनामदास का पोथा‘ इस दृष्टि से सर्वाधिक नाट्य-तत्त्वों से सम्पन्न है जबकि ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में महाकाव्यात्मक तत्त्व अधिक प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं। गत दिनों ’राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा कई अन्य संस्थाओं द्वारा ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ तथा ’अनामदास का पोथा‘ का सफल मंचन इन उपन्यासों में निहित नाट्य-तत्त्वों एवं महाकाव्यात्मक तत्त्वों के कारण भी संभव हुआ है। कथ्य की दृष्टि से इन उपन्यासों की सफलता के मूल में इनकी ऐतिहासिकता का वह चिर आस्थामय स्वरूप है, जिसने अपने आराध्य को, अपने पूज्य को इन्हों ने क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। वास्तव में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आराध्य देव साधरण मनुष्य है! उनके लिए भट्टिनी की गरिमा अतुलनीय है पर निपुणिका की करुणा भी साधरण नहीं। ’चन्द्रलेखा‘ महान् है पर मैना का औदार्य भी असीम है। ’पुनर्नवा‘ की मृणालमंजरी या मंजुला ने नारी के महत्त्व को दृष्टि-वृत्त से बाहर नहीं किया है और ’अनामदास का पोथा‘ का रैक्व तो भूखे, नंगे, ’दरिद्रों‘ के अस्तित्व के कारण समाधि तक नहीं लगा पाया । ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में आए कुमार कृष्णवर्धन का यह कथन द्विवेदी जी के उपन्यासों के इतिहा-बोध की सही पहचान कराता हैः ’इतिहास साक्षी है कि देखी-सुनी बात को ज्यों का त्यों कह देना या मान लेना सत्य नहीं है। सत्य वह है, जिससे लोक का आत्यंतिक कल्याण होता है, ऊपर से वह जैसा भी झूठ क्यों न दिखाई देता हो दिखाई देता हो, वही सत्य है। लोक अथवा जन-कल्याण प्रधन वस्तु है। वह जिससे सधता हो वही सत्य है।’ स्पष्टतः आचार्य द्विवेदी ने अपने इतर साहि त्य की तरह उपन्यासों में भी एक ही देवता की पूजा की है, वह देवता है, साधरण मानव! उनके उपन्यासों के इतिहास-बोध का भी यही सार है! उनका स्पष्ट कथन हैः “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ, जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, उसके हृदय को परदुःख कातर और संवेदनशील न बना सके उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच हो ता है।” From vineetdu at gmail.com Wed Jan 2 09:49:09 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 02 Jan 2008 04:19:09 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KS54KWH?= =?utf-8?b?IOCkrOCli+CksuCkviDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KS44KWN4KSf4KSw?= Message-ID: <829019b0801012019g78830878w958529df04ac4b48@mail.gmail.com> कुछ दिनों पहले मैंने एक लड़की की स्वेट शर्ट के उपर लिखा देखा था- रामजस कॉलेज, डिपार्टमेंट ऑफ हिन्दी। मुझे ये वाक्या वाकई बहुत अच्छा लगा और मैंने एक पोस्ट लिखी कि अब हिन्दी पढ़नेवालों को बताने में शर्म नहीं आती कि वे हिन्दी के स्टूडेंट हैं। और अब मैं ये मानकर चल रहा था कि हिन्दी में कुंठा या फिर हीनताबोध धीरे- धीरे खत्म होता जा रहा है। लेकिन इधर मास्टरों का नजारा देखकर कुछ अलग ही राय बन रही है। हिन्दी मास्टरों को अंग्रेजी के अखबारों या पत्रिकाओं में छपते कई बार देखा है। और अच्छा लगता है कि देखो हिन्दी का मास्टर या मास्टरनी इंग्लिश में लिख रहे है। मुझे याद है, एक बार मैंने तहलका की साइट देखी तो देखा हमारे मास्टर साहब लगातार अंग्रेजी में लिख रहे हैं। कईयों को फोन करके बताया। अपने पांडेजी अक्सर कहा करते कि कुछ लोग हिन्दी के नहीं देवनागरी के मास्टर हैं, बीच-बीच में अंग्रेजी डालते हैं( देखिए, कथादेश॥ भूमंडलीकरण और भाषा, विशेषांक )। लेकिन सारे लेख को देखकर लगा कि नहीं खालिस इँग्लिश में भी लोग लिख रहे हैं। इधर मैं लगातार देख रहा हूं कि अँग्रेजी में लिखने के बाद मास्टरजी लेखक परिचय के तौर पर अपने को सोशल एक्टिविस्ट, सोशल कमन्टेटर या फिर इसी तरह कुछ और बता रहे हैं। कभी उन्होंने नहीं लिखा कि वे हिन्दी विभाग में रीडर हैं। लिख दिया होता तो हम भी दूसरे स्ट्रीम के लोगों के सामने तानकर खड़े होते कि देखो हिन्दी के मास्टरों की क्वालिटी और फिर उस हिसाब से बंदा अंदाज लगा लेता कि कल को ये भी इंग्लिश में लिख सकेगा। एक मास्टरनीजी की एक किताब पर कल नजर पड़ गयी। परिचय में लिखा था- रीडर, मीडिया एवं ट्रांसलेशन। ये कोर्स एमफिल् के लोगों के लिए एक साथ तैयार किया गया है। जाहिर है जब वो आयीं थीं तो ऐसा कोई भी कोर्स नहीं था। तब वो हिन्दी की रीडर ही रही होगी। समझ नहीं आता कि हिन्दी के अलावे किसी दूसरे मसले पर लिखने के बाद ये हिन्दी से जुड़े होने का परिचय क्यों नहीं देना चाहते। सवाल सिरफ पहचान बदलने की नहीं है। सवाल ये भी है कि ऐसा करना उनके लिए जरुरी हो जाता है क्योंकि शायद वे हिन्दी से कुछ बड़ा काम कर रहे हैं जो कि हिन्दी के दूसरे मास्टर नहीं कर सकते। इसलिए वे अपने को हिन्दीवालों की पांत में अपने को खड़ा नहीं करना चाहते। वे देश के अलग-अलग मसलों पर लिख रहे हैं जो कि आमतौर पर हिन्दी के लोग नहीं करते। उतने एक्टिव नहीं है। ऐसा लिखने से ये फर्क साफ समझ में आ जाए, इसलिए भी ये जरुरी है। और अपने को अलग दिखाने की परम्परा कोई नई नहीं है। ये तो पहचान ही अलग बता रहे हैं। पहले के तो मास्टर जब लिखते या फिर कुछ बोलते तो मार संस्कृत के श्लोक पेलते जाते। बचपन यानि दसवीं-बारहवीं में तो मुझे लगता कि हिन्दी पढ़ने के लिए संस्कृत पर कमांड जरुरी है, जैसे आज लगता है कि एमबीए बिना इंग्लिश के हो ही नहीं सकती। लेकिन अलग घोषित करने का ये तरीका बिल्कुल नया है और कह लें कि उत्तर-आधुनिक पेंच। व्यकितगत रुप से मुझे ये बात बार-बार खटकती है कि जब आप ये कहते हो कि हिन्दी में भी अब सारे नए डिस्कोर्स शामिल हैं और काफी कुछ नया लिखा-पढ़ा जा रहा है तो फिर नया लिखने के बाद पहचान बदलने की अनिवार्यता क्यों महसूस करते हैं और फिर हम स्टूडेंट या फिर एकेडमिक्स के लिए पहले तो रीडर या लेक्चरर हो तब फिर और कुछ। मास्टरों में भी बच्चों वाली बीमारी है, पता नहीं ऐसा मानने को मेरा मन नहीं करता। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-982 Size: 7751 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080102/4bf8d399/attachment.bin From sadan at sarai.net Wed Jan 2 11:21:33 2008 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Wed, 02 Jan 2008 05:51:33 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSc4KS+4KSw?= =?utf-8?b?ICAg4KWA4KSq4KWN4KSw4KS44KS+4KSmIOCkpuCljeCkteCkv+CktQ==?= =?utf-8?b?4KWH4KSmICAg4KWAIOCkleClhyDgpIngpKrgpKjgpY3gpK/gpL7gpLg=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkruClhyAgIOCkgiDgpIfgpKTgpL/gpLngpL7gpLgt4KSs?= =?utf-8?b?4KWL4KSn?= In-Reply-To: <200801011903.48256.ravikant@sarai.net> References: <200801011903.48256.ravikant@sarai.net> Message-ID: abhi aacharya dwivedi ke upanyaason main itihaas bodh padhaa. socha apni kuch pratikriya doon. maine jab dashmi ke baad itihaas main jindagi banaane ka faisala liya to jin chand kitaabon ko padhane ki salah di gayi usame Charu chandra lekh, Baanbhatta ki aatma katha aur Punarnawa saamil the. salah dene waale mere apne kaka the jo itihaas ( ancient history) ke professor the. yun itihaas padhne ki asal dilchaspi kafi pahale hi quiz contests main bhaag lete lete, aur pitaaji ke kitaabon ki aalmariyon main khubsurat tasbiron ki talas main taka jhanki karte karte hi ho chuki thi. khair un quiz contests aur taswiron ki talas main bhatakte dopharon ki baat abhi rahane dain. mujhe baanbhatt ke aatm katha dwivedi ji ke sahitya main sabse sanslisht lagati hai. Gautamji ke nivandh main main us sanslishtataa ki talash kar raha tha. ek aur baat bhi hai. jab itihaas ka sodharthi sahitya ko dekhta hai aur jab ek sahityakar sahitya aur itihaas ke sambandh ko dekhtaa hai to jaahir hai farak to hota hi hai. kaun achha kaun bura yah taya karana bemaani hai, do bhinna drishti hai, lekin kyon hai yah bhinnataa. kya itihaskaar(Jaisa ki Gautam ji sujhate hain) waakai, raajprashadon main rahte hain? kya dwivediji ke kaal main naamchin itihaaskaar mahalon main rahkar mahalon ke baare main likh rahe the? khair, ye to ek baat hai. dusari yah ki dwivedi ke een grantho ko ham kis roop main dekhain. mahaj content ke level par yah phir form main bhi thora ghusa jaay. bhaasha kis tarah ki hai. jab lekhak baanbhatta ke samay ki baat likh raha hai to jis tarah ki bhasha hai, aur jab wah apane samay ki baat likh raha hai to kis tarah ki bhasha hai. Dwivediji ke samay main itihaas yadi hindi main likha jaay to wah kis tarah ki bhasha main ho? prachin ta ke kya maayne the us wakt? prachinta se kis tarah ka lagab thaa. prachin kaal ke jin samayon ki wah daastaan hai, unhi samayon ko kyun chuna gaya? Devahuti aur Thapar ne Harsh ke samay par bari jordaar aur provocative kaam kiya hai. Thapar ka yah lambaa lekh Bibilio ya phir Book Review main sabse pahale maine padha tha aur bahut damdaar tha. aur bhi bahutere sawaal hain jo ek itihaas ke chhatra ke jehan main uthate hain. saayad kabhi mauka mile bhattini se mulakat ka...bhairabi par abhi likha jaana shesh hai... sadan. On 7:03 pm 01/01/08 Ravikant wrote: > is list par kuchh logon ko shayad yeh dilchasp lage. thoRa lamba hai. > > cheers > ravikant > > आचार्य हजारीप्रसाद > द्विवेदी के उपन्यासों में > इतिहास-बोध www.sahityakunj.net/LEKHAK/R/RajendraGaut > am/acharya_Hazari_upnayas_bodh.htm > > डॉ० राजेन्द्र गौतम > > > आचार्य हजारीप्रसाद > द्विवेदी का सर्जन उनके > व्यक्तित्व की भांति > परंपरा का विकास होते हुए > भी, सभी परम्पराओं को > उत्तीर्ण करता हुआ निरन्तर > आधुनिक के साथ जुड़ता रहा है। > उन्हें आलोचक, निब्न्धकार > अथवा उपन्यासकार के रूढ़ > वृत्तों में नहीं बाँधा जा > सकता, वरन् उनके लेखन का सहज स्वभाव लोक-संस्कृतिपरक > है। इसीलिए उनका साहित्य साʦgt; > Ăस्कृतिक-सामाजिक से अतीत जु > ड़ा > रह कर भी वर्तमान का मार्गदऊ> > Рōशन करता है। इसी के लिए उन्ऊ> > ٠ŋंने निबन्धा लिखे ह। जो निब > न्धों में > नहीं अँट पाया, उसे हिंदी > साहित्य के इतिहास-लेखन के > क्रम में कहा और जब उन्हें > लगा कि अब भी वे अपने मन्तव्यों की पूर्ण अभिव्यक > ्ति नहीं कर पाये हैं तो उन्ह > ोंने उपन्यास लिखे। यों > इस फक्कड़ बाबा ने कविताएँ > भी लिखी हैं। उनके द्वारा > व्यवहृत ये सभी विधाएँ एक > दूसरी की पूरक हैं। इनकी > केन्द्रीय प्रवृत्ति अतीत > के माध्यम से प्रगतिशील > मूल्यों की स्थापना है पर > अतीत से जुड़ कर भी वे > पुनरुत्थानवादी मानसिकता > से ग्रस्त नहीं रहे। उनकी > पारम्परिकता जड़ता का > प्रतिकार करती है, उनकी > स्वच्छन्द वृत्ति सामाजिक > इतिहास की गरिमा से भास्वर > है, उनकी विराट् उन्मुक्तता > मानवता की स्थापना का ध्येय > लिए है। वे निरन्तर परिवर्तऊ> > Ƞका उद्घोष > करने वाले ऊर्जा-पुंज थे। > अतीत को वे मानवानुभव के रूप में देखते हैं। उनके उपन्याऊ> ؠउनके व्यक्तित्व की > सम्पूर्णता का प्रतिनिधितॊ> > ͠ĵ करते हैं। > > डॉ. रघुवीर सिंह की विशिष्ट > गद्य-कृति ’शेष स्मृतियाँ‘ > की ’प्रवेशिका‘ में आचार्य > रामचन्द्र शुक्ल ने एक > मार्मिक सत्य का उद्‌घाटन > करते हुए लिखा है – “हृदय के > लिए अतीत मुक्तिलोक है, > जहाँ वह अनेक बन्धानों से > छूटा रहता है और अपने शुद्ध > रूप में विचरता है। वर्तमान > हमें अन्धा बनाये रहता है। > मैं समझता हूँ कि जीवन का > नित्य स्वरूप दिखाने वाला > दर्पण मनुष्य के पीछे रहता > है, आगे तो बराबर खिसकता > हुआ परदा रहता है।” लगता है > आचार्य द्विवेदी ने अपने इस > ज्येष्ठ आचार्य के मन्तव्य > को ही अपने सम्पूर्ण लेखन का > आदर्श बना लिया है। इसलिए वे > आगे खिसकते हुए परदे के > भ्रमों से सचेत रहते हुए > प्रतिबिम्बनधर्मी दर्पणी > अतीत के अन्वेषण में निरंतर > रचनारत रहे। इस दर्पणी अती त को वर्तमान के लिए प्रासंगʦgt; Ŀक बनाना आजीवन उनकी प्राथमि > कता रही। > आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रणीत चार उपन्यासो > ं -- ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘, ’च > ा > रुचन्द्रलेख‘, ’पुनर्नवा‘ > एवं ’अनामदास का पोथा‘ में > से प्रथम तीन का सम्बन्धा > सीधे रूप में भा रत के > मध्यकालीन इतिहास से जुड़ा > है जबकि ’अनामदास का पोथा -- > अथ रैकव आख्यान‘ का इतिहास शुद्ध इतिहास न होकर पौराणिऊ> ՠइतिहास है। यों उन्होंने १९ > -६-१९७६ के ’साप्ताहिक > हिन्दुस्तान‘ में प्रकाशि > त मनोहरश्याम जोशी को दिए गए > एक साक्षात्कार में अपने उपऊ> > Ƞōयासों को > शुद्ध ’गल्प‘ ही माना है > और गल्प को ’कल्प‘ कहा है। > लेकिन उनका यह कथन उसी > प्रकार का ’वंचक‘ कथन है, > जिस प्रकार उनके उपन्यासों > के आमुख पाठक को थोड़ा बहकाने > की कोशिश करते हैं। वह बात दूसरी है कि उन की यह ’वंचना > ؠ सोद्देश्य है। इसके माध्यऊ> Πसे वे पाठक > को तथ्यों के शुष्क रेगिस्त > ान से निकाल कर सर्जना की रम् > य वीथियों में ले आते हैं। नि > रवधि प्रवहमान > काल में मानव-मूल्यों के > संस्थापक के रूप में वे अपने > उपन्यासकार को सजग रखते हैं, > जिसके परिणा मस्वरूप इनके > उपन्यासों में कथानक > ऐतिहासिकता के किनारे > अवश्य प्रदान करता ह > परन्तु उनके बीच प्रवाहमान > सदानीरा में उनकी संवेदना > के उद्द्रवित हिमालय का ही > जल है। > > आचार्य द्विवेदी के पात्र एक इतिहास को अवश्य प्रस्तुऊ> Ġकरते हैं लेकिन यह इतिहास उऊ> Ƞतथ्यान्वेषी > विद्वानों ने इतिहास से > भिन्न है, जिन्होंने > राज-प्रासाद से बाहर झाँकने > का प्रयास नहीं किया है। यह > इतिहास एक ओर सम्बद्ध कालखण्ड के सामाजिक सांस्कृ > तिक परिवेश को सम्पूर्णता > के साथ अभिव्यक्त करता है, > दूसरी ओर उस युग की सम्पूर्ण मूल्यवत्ता को भी संस्थापित > करता चलता > है। यदि द्विवेदी जी ने > अपने लोक-संस्कृति-उन्मुख > उपन्यासों को ’गल्प‘ कहा > है तो इसलिए कि वे इनकी प्रामाणिकता के लिए पुरातत् > त्व के अवशेषों के संग्राहक > ʦgt; ĕे पास नहीं गए हैं। इसकी > अपेʦgt; ĕ्षा > वे मानव-वृत्तियों की > प्रामाणिकता पर विश्वास > करते हुए नित्य विकासमान > सामाजिकता को प्रस्तुत > करते हैं। इतिहास का उपयोग > उनके उपन्यासों में एक ऐसे > व्यापक फलक को पृष्ठभूमि > के रूप में रखने के लिए हुआ > है, जिसके द्वारा प्रगतिशील > मानवता की स्थापना की जा > सके। क्योंकि अपने महत्त्वʦgt; > Īूर्ण उपन्यास ’पुनर्नवा‘ ऊ> > ΠŇं समस्त ऐतिहासिक-सामाजिक > ʦgt; ĸंघर्ष के चित्रण के बा > द वे जिस निष्कर्ष पर > पहुँचते हैं, उसकी सामयिक > एवं शाश्वत सार्थकता असंदिग्ध है। उनका निष्कर्ष > > हैः ’अगर निरंतर व्यवस्थाओ > ं का संस्कार नहीं होता > रहेगʦgt; ľ, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टॊ>  ğेगी ही > अपने साथ धर्म को भी तोड़ > देंगी।’ मनुष्य सामाजिक > विकास के क्रम में अनेक > व्यवस्थाओं का निमार्ण > करता है। किंतु यह भी एक कटु > सत्य है कि ये व्यवस्थाएँ > क्रमशः रूढ़ होकर मनुष्यता > का ही दमन आरंभ कर देती हैं। > आचार्य द्विवेदी इस दमन का > प्रतिकार व्यवस्थाओं के > निरंतर संस्कार के द्वारा > ही संभव मानते हैं। उनकी इस > मान्यता में इतिहास के > प्रति जड़ताग्रस्त मानसिकता > का भी स्पष्ट प्रतिकार है। > > प्रस्तुत संदर्भ में > साहित्य एवं इतिहास के > पारस्परिक सम्बन्ध पर कुछ > विचार करना अप्रासंगिक न > हो गा। ये दोनों संकाय > स्वतंत्र होते हुए भी > परस्पर संबद्ध हैं। इतिहास > साहित्य का उपजीव्य है और सा हित्य इतिहास की प्रामाणऊ> ߠĕता का एक आधार। पहला मानव अऊ> ȠŁभवों का आलेख है, दूसरा उन > अनुभवों के आलोक में जीवन की भावमयी व्याख्या प्रस्तु > त करता है लेकिन दोनों एक-दूस > रे के निकट हो > कर भी अपनी प्रक्रिया में भिन्न हैं। एक मूलतः तथ्यपरऊ> ՠहै, दूसरा भावाश्रित, एक शाऊ> ؠōत्र की > ओर झुकता है, दूसरा शास्त्र > के बाहर-भीतर, सब को घेरे > रहता है। यों इतिहास भी > मानव-मूल्यों की स्थापना > का उद्देश्य लेकर चलता है > लेकिन उसका मूल लक्ष्य > प्रामाणिक सत्यों का > अन्वेषण है। साहित्य में > जिस युग का चित्रण होता है, > उसमें केवल वही नहीं होता जो > बाहर से दिखलाई देता है, > बल्कि उसमें वह भी चित्रित > होता है, जो कवि मन की आँखों > से देखता है। इतिहासकार यदि समग्रता में से प्रासंगऊ> ߠĕ सामग्री चुन लेता है तो साऊ> ٠Ŀत्यकार इतिहास द्वारा उपलऊ> ̠ōध कराए गए > आलेखों के आधार पर समग्रता > को प्रासंगिक बनाता है। एक की प्रवृत्ति विश्लेषणात्मʦgt; ĕ है, दूसरे की > संश्लेषणात्मक। मानव के > क्रिया-व्यापार का अध्ययन > दोनों का विषय है पर साहित्य > भाव-प्रक्रिया को चित्रित > करता है, इतिहास उसकी > परिणति को। द्विवेदी जी > इतिहास की असदिंग्ध महत्ता > के प्रति पूर्णतः आश्वस्त > थे। क्योंकि वे इतिहास-बोध > को पीछे देख सकने वाला > मनुष्य का तीसरा नेत्र > मानते थे। उनका कहना है -- > ’इतिहास-प्रेम की बात मैं > नहीं जानता मगर इतिहास-बोध > को पलायन समझना आधुनिकता > नहीं, आधुनिकता का विरोध > है। आधुनिकता की तीन शर्तें > हैं -- एक इति हास-बोध, दूसरे > इस लोक में ही कल्याण होने > की आस्था, तीसरी व्यक्तिगत > कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा। मैं आग्रहपॊ>  İ्वक यह कहना चाहता हूँ कि जॊ> ˠइतिहास को स्वीकार न > करे वह आधुनिक नहीं और जो > चैतन्य को न माने वह इतिहास > नहीं। (१९ जून, १९७६ के > ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ > में प्रकाशित पूर्वोक्त > साक्षात्कार)। द्विवेदी जी > द्वारा प्रस्तुत की गई > आधुनिकता की यह व्याख्या लीकपीटू आधुनिक बुद्धजीवियʦgt; ŋं को अवश्य देख और सीख लेनी च > ाहिए। स्पष्टतः यहाँ वे > इतिहास की अपेक्षा इतिहास-ब > ोध के महत्व को रेखांकित > करतʦgt; Ň हैं। वे उस शाश्वततावादी इऊ> ĠĿहास-बो > ध के पोषक नहीं हैं, जो > पाखंड रचते हुए पारलौकिक > जगत् का प्रलोभन देकर > मनुष्य के कल्याण की बा त > करता है। वे तो इसी लोक में > मनुष्य के कल्याण का लक्ष्य > रखते हैं। आधुनिकता की जिन > तीन शर्तों का उल्लेख > आचार्य जी ने किया है, उनमें > तीसरी शर्त और भी रेखांकनीय > है। व्यक्तिगत कल्याण द्वि > वेदी जी के साहित्य का > लक्ष्य कभी नहीं रहा है। वह > उनकी इतिहास-दृष्टि का भी > आधार नहीं बना है। उनका > गंतव्य तो सामूहिक कल्याण ही रहा है। ’चारुचन्द्रलेख > ؠ में नाटी माता द्वारा > चन्द्रलेखा को पिलाई गई यह > डाँट द्विवेदी जी के इसी > दृष्टिकोण को प्रस्तुत > करती हैः “जहाँ तक तुमने > अशेष मानव-जाति को रोग, जरा, > मृत्यु से मुक्त करने का > संकल्प किया था, वहाँ तक तो > तुमने ठीक किया, परन्तु बाद > में तुमने अपनी सिद्धि को > व्यक्तिगत अहंकार का विषय > बना लिया, वहीं तुम तपोभ्रषॊ> > ͠ğ हो गई।“ > > जिस उत्तर-आधुनिक युग में इतिहास की गठरी को अप्रासंगऊ> ߠĕ कह कर एक ओर पटक कर चल देने ऊ> ՠľ परा > मर्श दिया जा रहा हो, वहाँ > द्विवेदी जी का यह मजबूत > दावा कि इतिहास को अस्वीकार > कर आधुनिक नहीं हुआ जा सकता, > विशेष अर्थ रखता है। यह > दावा इसलिए भी अर्थवान है > क्योंकि वे चैतन्यहीन > इतिहास को स्वीकार नहीं > करते। उन्होंने अपने इतर साहित्य की भांति उपन्यासों > में भी > इतिहास की ही साधना की है और > उनमें उनकी उपर्युक्त इतिहास-दृष्टि का ही प्रतिपऊ> ޠĦन हुआ है। > पूर्वोक्त साक्षात्कार > में वे यह भी स्वीकार करते > हैं कि इतिहास की साधना को > शव-साधना कहना चाहें तो कह > लें लेकिन ’इतिहास कुलीन शव > है। उसे ओंधे मुँह लिटा कर > हम जैसे कई साधना करते हैं। > कई मुँह उलटने पर घबरा जाते > हैं.... विरले ही हैं जो > प्रलोभनों से विमुख होकर उस > शक्ति से साक्षात्कार कर > पाते हैं, जो वर्तमान को > अधिक सुघर बनाने में और > भविष्य के लिए सही मार्ग > सुझाने में सहायक होती > है।‘ लोक से लिया गया यह > अघोरी रूपक श्रमण संस्कृति > की एक धरा की ओर तो ध्यान > खींचता ही है, मध्यकालीन > धर्म-साधना की पर्तें भी > खोलता है। > > उपर्युक्त शव-साधना के > संदर्भ में द्विवेदी जी ने > यद्यपि विनम्रतावश स्वयं > को अधूरा साधक कहा है लेकिन अपने उपन्यासों में उन्होंन > े इतिहास-सिंधु के मंथन से मा > नवता के कल्याण के लिए जो > अमृत निकाला है, वह निस्संदʦgt; > Ňह उन्हें प्रलोभन-विमुख साध > क ही प्रमाणित करता है। उनके > सभी उपन्या > स ’वर्तमान को अधिक सुघर > बनाने में और भविष्य के लिए > सही मार्ग सुझाने में > सहायक‘ हैं, इसमे लेशमात्र भी संदेह नहीं है। ’बाणभट्ट⊦gt;  की ’चन्द्रदीधिति‘, ’चारुʦgt; Ěन्द्रलेख‘ की ’मैना‘ > और ’पुनर्नवा‘ की ’मृणाल‘ > को केन्द्र में रखकर > उन्होंने भारतीय मध्यकालीन > इतिहास का अवगाहन कर, जिस > उद्‌बोधनपरक साहित्य की रचना की, वह अपनी प्राणवत्ता > > में अजेय, प्रासंगिकता में > सार्थक, सर्जनात्मकता में > सौष्ठवमय एवं संवद्येता > में सर्वग्राह्य है। > पुरुष-वर्ग में भी उन्होंने > बण्ड, चंद्रमौलि और रैक्व > जैसे मस्तमौला दिखते पर > भीतर गहरे अंतर्द्वंद्वों > से गुजरते पात्रों की > सृष्टि की है। > > ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ के > बाण, हर्ष और चन्द्रदीधिति > जैसे ऐतिहासिक पात्र उस > आधारभूमि का निर्माण करने > में पूर्णतः समर्थ हैं, जिस > पर रचनाकार ने अपना कला-सौध > खड़ा किया है। इस उपन्यास की > केन्द्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास को प्रस्तु > त करने की नहीं है, > वरन् मुख्य समस्या भट्टिनी > की रक्षा की है। भट्टिनी > नारी की गरिमा एवं उदात्तता > का, समस्त भारतीयता का, > अपने समाज की आस्था का, > प्रतीक है और स्वयं भट्टिनी > के लिए उस आस्था का प्रतीक-चʦgt; > Ŀर् है, ’महावराह‘। ’महावराऊ> > ٢ की रक्षा नहीं हो पाती। स्ʦgt; > ĵतंत्रता का संघर्ष > परोक्ष भयों से आक्रांत हो > जाता है। अतीत के इस संघर्ष > को आचार्य जी अपने युग की > भूमि पर खड़े हुए देख रहे थे। > स्पष्टतः उस अतीत में > वर्तमान की ही समस्याएँ > प्रतिबिम्बित होती हैं। यह > उपन्यास लगभग उसी दौर में रचा जा रहा था, जब हम राजनैतिʦgt; ĕ स्वतंत्रता प्राप्त कर रहे > थे पर इस > युग-चिंतक की आशंकाएँ > साधार थीं। उनके समक्ष यह > बड़ा प्रश्न था कि क्या > राजनैतिक स्वतंत्रता प्रा > प्त कर लेने से व्यक्ति की > अस्मिता की रक्षा सम्भव हो पाती है? क्या इस स्वतंत्रता > से ही व्यक्ति > का विवेक स्वयं उसका > मार्ग-दर्शक बन सकता है? वे > जानते थे कि ऐसा नहीं है। > इसलिए उन्हें इतिहा स की > शव-साधना के माध्यम से यह > संदेश देना पड़ा, ’सत्य के > लिए किसी से न डरना, गुरु से > भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, वेद से भी नहीं।‘ शास्त्रों > के भय से थर-थर कांपती जनता कʦgt; > ŋ > दिया गया यह अभय-संदेश > संजीवनी से कम नहीं। भय > व्यक्ति की स्वतंत्रता का -- > उसक विवेक का वि नाशक है। > वर्षों से पराजय का बोध सहती > आ रही जाति को अतीत के मन्थन > से लेखक भयमुक्ति का जो > मंत्र देता है, वही उसके लिए > सर्वाध्कि प्रासंगिक है। > > ऊपर भट्टिनी की रक्षा को > नारी-गरिमा की रक्षा मानने > का जो संकेत दिया गया है, वह > आज वि शेष रूप से प्रासंगिक > है। आज के ’स्त्री विमर्श‘ > के घटाटोपी मंथन में से जो > सार-तत्त्व निकल कर आता है, > साहित्य में उसका करणीय > पक्ष (ऑपरेटिव क्लॅाज) नारी > की गरिमा की रक्षा का > प्रयास ही है। ’स्त्री > विमर्श‘ का दूसरा प्रमुख > पहलू स्त्री का दमन करने > वाली पुरुष की वर्चस्ववादी > मानसिकता का विरोध भी है। > ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में > महामाया द्विवेदी जी की > विशेष सष्टि है। महामाया > इसी पुरुष-वर्चस्व के विरोध > में खड़ी है। वही भट्टिनी की > वेदना को सही ढंग से पहचा न > पाती है। तभी वह कहती हैः > “पुरुष का सत्य और है, नारी > का सत्य और।” भट्टिनी > वास्तव में सामंती समाज की > मानसिकता की शिकार है। यह > मानसिकता जिस प्रकार धरती > को और राज्यों को हस्तगत कर > लेना चाहती है, उसी तरह इसके > मन में स्त्री के धर्षण की, > हस्तगत कर लेने की, अधिकार > जमाने की कामना भी रहती है। > इस मानसिकता के अवशेष अभी > मिटे नहीं हैं। यह सही है कि > जिस समय ’बाणभट्ट की > आत्मकथा‘ की रचना हुई थी, तब > ’स्त्री वि मर्श‘ का वैसा > आंदोलनकारी रूप नहीं था, जैसा आज है लेकिन एक प्रगतिशʦgt; ŀल रचनाकार फासीवादी > मनोवृत्तियों पर चोट किए > बिना नहीं रहता। द्विवेदी जी निस्संदेह ऐसे प्रगतिशील > रचनाकार थे जि > न्हों रोग की जड़ को पहचाना > था। अपने उपन्यासों में > ऐतिहासिक अनुभव के फलक पर > घटनाक्रम को चित्रित कर वे > इन रोगों का निदान खोजते ही > नजर आते हैं। > > स्त्री विमर्श और दलित > विमर्श के संदर्भ में आज > विवाद का एक बड़ा मुद्दा यह > भी रहा है कि क्या स्त्री और > दलित से जुडी समस्याओं पर > स्त्री और दलित को ही > लिखने-कहने का अधिकार है? इस > संदर्भ में भी द्विवेदी जी > का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और > तर्कसंगत हैं। ’बाणभट्ट की > आत्मकथा‘ में आया यह कथन > जरा ध्यान से देख लेना > चाहिएः “स्त्री के दुःख > इतने गंभीर होते हैं कि उसके > शब्द उसका दशमांश भी नहीं > बता सकते। सहानुभूति के > द्वारा ही उस मर्म-वेदना का > किंचित आभास पाया जा सकता > है।” समस्या के दोनों पक्ष > यहाँ प्रस्तुत हैं। स्त्री > के दुःखों की निजता का, > उसका केवल अनुभूति-सापेक्ष > होने का सच झुठलाया नहीं जा > सकता पर सहानुभूति की अपनी > एक भूमिका जरूर है। भले ही > इस सहानुभूति से उस वेदना का > किंचित आभास ही पाया जा सके, > तथापि पुरुष-वर्चस्व वाले > समाज की कुठित संवेदनाओं को > यह सहानुभूति कचोटती जरूर > है। लेखक यही कर सकता है। > उसके पा स पर-काया-प्रवेश की > क्षमता है, इसे अस्वीकार > नहीं किया जा सकता। आज के > स्त्री विमर्श और दलित > विमर्श के संदर्भ में द्विवेदी जी द्वारा प्रस्ता > वित ’सहानुभूति‘ का साथ छोड़ > ना उचित न > होगा। > > भारतीय समाज की समस्या > जितनी वर्ग-भेद के कारण है, > उतनी ही वर्ण-भेद के कारण भी > है। बीसवीं शताब्दी मानवीय अस्मिता की पहचान की शताब्दॊ> रही है। हिंदी साहित्य का वऊ> ٠दौर, > जिसमें द्विवेदी जी रचनारत > थे, इस अस्मिता को पहचानने > और इसे गौरव दिलाने के लिए > ही संघर्षरत दिखलाई देता > है। स्तर-भेद की त्रासद > विडंबनाओं को लक्षित कर > द्विवेदी जी पात्र के > माध्यम से एक कचोटने वाला > सवाल उठाते हैं : “यहाँ इतना > स्तर-भेद है कि मुझे आश्चर्ऊ> > Ϡहोता है कि यहाँ के लोग कैसे > जीते हैं? तुम यदि किसी यवन > कʦgt; Ĩ्या से विवाह करो तो इस > देश म > ें एक > भयंकर सामाजिक विद्रोह > माना जाएगा। जहाँ भारतवर्ष > में समाज में एक सहस्र स्तर > हैं, वहाँ उनके समाज में > कठिनाई से दो-तीन होंगे। > भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं, > वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे > हैं, उनकी निचाई का कोई > आर-पार नहीं।” नयी सदी में पहुँच कर हम भी हम इस स्तर-भेऊ> Ơमिटाने में > सफल नहीं हुए हैं। कई बार तो > अन्तरजातीय विवाह के > संदर्भ में घोर प्रगतिशील > बुद्धजीवियों की अति घोर > दकियानूसी प्रवृत्ति सामने > आती है। द्विवेदी जी ने > भारतवर्ष के समाज में > जातियों का जितना समग्रतापʦgt; > İक अध्ययन किया है, उतना कम हॊ> > समाजशास्त्रियों ने किया हʦgt; > ň। उनका यह अध्ययन दलित > विमर्श के वर्त्तमान > आंदोलन को भी दिशा दे सकता > है। > > द्विवेदी जी के उपन्यासों में उनकी विशेष इतिहास-दृष्ऊ> ߠĿ का प्रतिपादन है, तथापि उनʦgt; ōहोंने इनमें > ऐतिहासिक तथ्यों की > उपेक्षा नहीं की है। अति > विराट् स्तर पर ऐतिहासिक > तथ्य को सर्जनात्मकता में ढालने की कला ’चारुचन्द्रलॊ> ǠĖ‘ में देखी जा सकती है। जन-श > क्ति के संगठन की यह अद्भुत र > चना > हैं। इस उपन्यास का कथानक > द्विवेदी जी के इतर अध्ययन > का थी केन्द्र-बिंदु रहा है। > ’मध्यकालीन धर्म-साधना‘ का अध्ययन ’चारुचन्द्रलेख‘ > के समानान्तर ही संभव है। उऊ> > Ƞĕे इतिहास-दर्शन और सा > हित्य-दर्शन का सार लोकसंग् > रह है जबकि अनेक मध्यकालीन > धʦgt; İ्म-साधनाएँ लोक-विमुख > थीं। ऊ> Ǡĸ उपन्या > स के कुछ कथन देखिए : १. “उन > बकवादी निठल्लों के चक्र > में न पड़ो। ये बिगाड़ना जानते > हैं, संवारना नहीं। इन्होंऊ> > ȠŇ व्यक्तिगत साधनाओं के > द्वʦgt; ľरा सत्य को खंडित किया > है।” > २. “परित्यक्त शिशुओं और > लांछित बंधुओं के क्रंदन और > आह से वायुमंड़ल व्याप्त है, > उस समय भी क्या सहज समाध > संभव है?” ३. “माया को > घनीभूत करने का ढोंग करने > वाले लोग माया के सब से > मजबूत वाहन सिद्ध हुए > हैं।... सिद्धियाँ मानव को > कुछ विशेष बल नहीं देतीं। एक > साधारण किसान, जिसम दया-मायʦgt; > ľ है, सच-झूठ का विवेक है, और औ > र बाहर-भीतर एकाकार है, वह भी > बड़े से बड़े सिद्ध > से ऊँचा है।” ४. “सिद्धयाँ > मानव को पशु, पक्षी, अजगर, > प्रेत बना दें, किंतु > मनुष्य को मनुष्य बनाने > में तब तक सहायक न होंगी, जब > तक सहज शरीरधर्मों को ही परम > लक्ष्य समझा जाता रहेगा।” > ५. “साधरण प्रजा हमें सिद्ध > समझती है, वह श्रद्धा से > नहीं भय से पूजा करती है। आज > आततायी के खड्गाघात से > सिद्धियों का सारा खिलवाड़ > टूट कर गिर गया है।” ये कथन > उस अंध-काल में उठने वाले प्रश्नों पर सार्थक टिप्पणि > याँ तो हैं ही, उस समूचे > विशृʦgt; Ăखल परिवेश > पर भी टिप्पणियाँ हैं, > जिसका स्वरूप लगभग ऐसा थाः > “चंद्रलेखा का सिंहवाहिनी, > महिषमर्दिनी और जनपद > पार्वती रूप दो नावों पर एक > साथ सवारी करने से कीलित > होकर मानवीय भूमि से > स्खलित हो गया है। सातवाहन > साक्षात शक्ति से विच्युत > होकर निःशक्त हो गये हैं। > रानी से प्रेरित होकर भी > विद्याधर ग्रहकक्षाओं के > असत्य व्यापार में भ्रमित है । सिद्धयोगी गोरख-प्रचारऊ> ߊ> त योगसाधना से अपसृत होकर > मांसंपिंड नारी के विनोदन > में षोडशी कुलकन्याओं की > सिद्धि में, पंचमकार, पंच > पवित्र ओर चतुश्चंद्र की > निर्वीर्य साधनाओं में लीन > होकर सामाजिक कल्याण से > उपरत है। सारे जगत को भूल कर > व्यष्टि-मुक्ति की चिंता के > कारण कल्याणाभिनिवेश > कुंचित हो गया है। संगठित > होकर धर्म-संप्रदाय जनता को > आतंकित कर रहे हैं, ...।” यदि > कान लगा कर सुनें तो इन विडंबनाओं की प्रतिध्वनियाʦgt; ā आज भी हमारे चारों ओर गूँज र > ही हैं। > > प्रश्न उठता है कि इस > विशृंखलता से दो-चार होने का > उपाय क्या है? द्विवेदी जी न > वह उपाय इतिहास के अनुभव से > ही प्रस्तुत किया है। वे > जानते हैं कि जन-जागृति के > बिना परिवर्तन संभव नहीं क्योंकि “राजाओं, राजपुत्र > ों और देवपुत्रों की आशा पर न > िश्चेष्ट बने रहने का निश्चऊ> > ߠĤ परिणाम > पराभव है।” स्वतंत्रता के > पश्चात् भी हम कुछ पुराने > राजाओं और कुछ नए सामंतों के > हाथों में देश की बागडोर > सौंप कर निश्चिंत हो गये हैं। बीच-बीच में ’देवपुत्रʦgt; ŋं‘ की कृपा का फल भी जनता चखऊ> Ġŀ > रही है। इसका परिणाम आज हम > देख ही रहे हैं। प्रजाजन > ;!द्ध की आज जो स्थिति है, वह > इन नए राजाओं, राजपुत्रों > और देवपुत्रों के भरोसे > बदलने वाली नहीं है। यदि वह > बदलेगी तो विराट् जन-जागृति > से ही! > भारत का पिछली अनेक शताब्दि > यों का इतिहास राजनैतिक पराऊ> > ܠį का ही नहीं, जनता के पराभव ऊ> > ՠľ > भी करुण आख्यान रहा है। इस > पराजय की जड़ें बहुत गहरी > हैं। राजनैतिक पराजय > सामाजिक मनोबल के टूटने की > अन्तिम परिणति होती है और > सामाजिक मनोबल के टूटने का > कारण है -- बिखराव, व्यक्तियॊ> > ˠĂ के स्वार्थ के कारण समूह कॊ> > Ǡकल्याण की उपेक्षा। भारतीय > जनमानस की नैतिकता के बल को > मध्यकाल में प्रचलित > सामाजिक विकृतियों ने भी > तोड़ा है। नैतिक बल शौर्य का > आधार होता है और नपुंसक > कायरता लज्जाजनक हिंसा को जन्म देती है। ’चारुचन्द्रऊ> ҠŇख‘ टूटते-बिखरते मध्यकाली > न समाज > की मानसिक टूटन का और शेष > शक्तियों को संयमित कर > सम्पूर्ण बल के साथ विरोधों > के सामने डटने के संकल्प का > महाकाव्यात्मक निरूपण है। > सातवाहन के रूप में युद्धरत > भारतीय शक्ति आगे चलकर > अपनी अन्तःप्रेरणाओं को > खोकर गरिमाच्युत होती है, > लेकिन आचार्य जी ने इस अतीत -- > इस इतिहास का निरपेक्ष > चित्रण नहीं किया है बल्कि उसके माध्यम से वह उद्‌बोध्ऊ> Ƞľत्मक ऊर्जा प्रवाहित की है, > > जो किसी जाति के अस्तित्व > के लिए अनिवार्य है। > ’चारुचन्द्रलेख‘ के एक-एक > पृष्ठ से आह्वान का स्वर > गुंजित होता है, जो पाठक में > अदम्य उत्साह का संचार करता > है। यह है इस आह्वान का स्वर > : ’सूर्य-चन्द्र और अग्नि के > पुत्रो, क्या बेखबर सो रहे > हो? धरती कसमसा उठी है, नगा > धिराज की पथरीली धरती में > दरार पड़ती दिखाई दे रही है, > गंगा-जमना की शीतल धारा > सूखती नजर आ रही है। किस दिन > तुम्हारा तेज काम आएगा? किस > दिन के लिए इस पवित्र धरती > ने अन्न उड़ेल-उड़ेल कर > तुम्हारा पालन किया था? उठो, > जागो, एक हो जाओ।’ एक हो > जाना कब से भा रत की बहुत > बडी समस्या रही है! गुप्तकाʦgt; > IJीन इतिहास से सम्बद्ध उपन्य > ास ’पुनर्नवा‘ में घटनात्मʦgt; ĕ एवं पात्रात्मक विस्तार अध > िक > है। देवरात एवं मृणालमंजरी > के अभिजात एवं उदात्त परिणय > से प्रारंभ होने वाली यह > रचना लोक-आख्यान के नायक गोपाल को अपना केन्द्र-बिन्ऊ> ƠŁ बना लेती है। आभीर संस्कृत > ि का मूर्त्त चित्र > उकेरती हुई यह कृति आततायी > एवं दुर्दम शक्तियों से > नैतिक शौर्य के संघर्ष की > महा-गाथा को युग-संदर्भ के > साथ उद्‌घाटित करती है। यह > परम्परा का आख्यान ही नहीं > है, इसमें परिवर्त्तमान > सामाजिकता के प्रगतिशील > मूल्यों की अभिव्यक्ति भी > है। यह उपन्यास समाज के > प्रत्येक वर्ग का विराट् > फलक पर चित्रण करता है। > > ’अनामदास का पोथा‘ रूढ़ रूप > में ऐतिहासिक नहीं है लेकिन > भारतीय वैदिक एवं पौराणिक साहित्य का एक अपना इतिहास-बʦgt; ŋध है जिसके अनुरूप ही सुदूर ʦgt; ąतीत से छान्दोग्य-उपनिषद् क > ी यह गा > था एक राष्ट्र के सांस्कृति > क इतिहास से जुड़ी हुई है। प्र > त्यक्ष रूप में यह रैक्व की व > ैयक्तिक गाथा > प्रतीत होती हैं परन्तु > गहन स्तर पर यह एक पूरी > सामाजिक व्यवस्था को समेटे > है। इस व्यवस्था का आदर्श है – ’प्रकृति को सुनियन्त्ʦgt; İित रूप में चलाने का नाम ही स > ंस्कृति है। संतान-परंपरा कॊ> > ˠनष्ट > न होने देना - प्रजातंत्र या व्यवच्छेसी।’ इसके अतिरिक् > त इसमें गहरा यथार्थ-बोध भी ह > ै। रैक्व की > साधना अंततः इस निष्कर्ष > पर पहुँचती है – ’मेरे पास > अगर वह बुद्धि की परीक्षा > लेने आएगी तो उसे गाड़ी खींच > कर दीन-दुखियों तक खाद्य > पहुँचाने को कहूँगा। इसी > में उसकी बुद्धि की परीक्षा > हो जाएगी। माँ, जो दीन-दुखिय > ों की सेवा नहीं कर सका, वह क् > या बुद्धि की परीक्षा करेगाॊ> > Ġमैं अब > थोड़ा-थोड़ा रहस्य समझने लगा > हूँ। कोरी वाग्-वितंडा > ज्ञान नहीं है।’ स्पष्टतः > आचार्य जी ने वा ग्-वितंडा > के लिए ये ऐतिहासिक पोथियाँ नहीं रचीं बल्कि वे ऐतिहासिऊ> ՠज्ञान के सहारे जीवन-अम्बुध > > में बहुत गहरे उतरे हैं। > १९४०-५० के आसपास शोषण के > प्रतिकार का साहित्य रचने > का दावा तो बहुतों ने किया, पर संवेदना की आँच ’निराला‘, > केदारनाथ अग्रवाल अथवा नाग > ार्जुन जैसे गिने-चुने > रचनाकारों में ही थी। > निस्संदेह वह आँच आचार्य > हजारीप्रसाद द्विवेदी के > निबंधों और उपन्यासों में > मौजूद है। गाड़ी खींच कर > दीन-दुखियों तक खाद्य > पहुँचाने वाला रैक्व > कामज्वर से पीड़त भी हुआ है > पर जब वह संसार की सबसे बड़ी > व्याधि से -- भूख से परिचत > होता है तो वह ’उसकी बुद्धि > की परी क्षक‘ और अनुराग की > आधार शुभा को भी दीन-दुखियों > की सेवा में प्रवृत्त करता > हैं। > > बीसवीं शताब्दी में > आधुनिकता-बोध की चर्चा > विशेष-रूप से होती रही पर > अधिकांश के लिए आधुनि > कता-बोध संकीर्ण यथार्थ और > परम्परा की अस्वीकृति से > भिन्न नहीं रहा, जबकि > द्विवेदी जी के लेखन में (उनके उपन्यासों में विशेषकऊ> Щ आधुनिकता-बोध का स्वस्थ रूऊ> ʠउपलब्ध होता है। > उन्होंने परम्परा से जुड़ > कर इतिहास का विश्लेषण। > लेकिन उनके द्वारा निरूपित > परम्परा एवं विश्लेषित > इतिहास आधुनिक संवेदना के साथ दृढ़ता के साथ अन्तर्ग्रऊ> Ƞōथित है। उनका इतिहास-बोध मू > ल्य-निरपेक्ष > तथ्यों के आकलन की अपेक्षा > जिजीविषा की परम्परा में > अभिव्यक्ति पाता है और जीवन > के नैरन्तर्य की पुष्टि > करता है। गत दो शताब्दियों में भारतीय मनीषा और जनसमुदऊ> ޠį को एक तीव्र बौद्धिक आलोड़न > > के बीच से गुजरना पड़ा है। > ’स्व‘ को पहचान कर उसे > वर्तमान में अस्तित्वमय > रखना इसकी सबसे बड़ी समस्या > रही है और इस समस्या का समाधान मिल पाया है, इतिहास-ʦgt; Ĭोध से। > द्विवेदी जी की व्युत्पन्न > सिसृक्षा ने आधुनिक संवेदनऊ> > ޠको सही रूप में अभिव्यक्त कऊ> > РĨे के लिए अपने > उपन्यासों क सांस्कृतिक-साʦgt; > Įाजिक इतिहास के साथ से जोड़ा > ʦgt; Ĺै। उन्होंने यदि ’बाणभट्ट > ऊ> ՠŀ > आत्मकथा‘ में वैयक्तिक > जागरूकता को अभय का मंत्र दिया है तो ’चारुचन्द्रलेख > ؠ में राष्ट्रीय एवं > सामाजिक गरिमा को बनाए > रखने का मार्ग दिखलाया है। > ’पुनर्नवा‘ में जीवन के > उदात्त आदर्शों की स्थापना > और व्यवस्था-परिमार्जन पर > बल दिया गया है। ’पोथा‘ में > शास्त्र-ज्ञान की अपेक्षा > लोकवेद की प्रतिष्ठा और > स्वतंत्रता के सही अर्थों > का उद्‌घाटन किया गया है। इन > उपन्यासों में मध्यकालीन > धर्म-साधना की विकृतियों का > खुलासा कर नारी की गरिमा तथा > संघर्ष को मुखरित किया है। > द्विवेदी जी के उपन्यासों में ऐतिहासिकता के तत्त्वतः > दो रूप हैं। एक रूप सम्बद्ध ऊ> > ϠŁगों के आचार- > विचार, सामाजिक रूढ़ियों-रीʦgt; > Ĥियों, धर्म-साधना, उपासना-प > द्धति, पारिवारिक परिवेश > तथा सभ्यता आदि के सजीव > चित्रण का है। दूसरा वह रूप है, जहाँ वे संस्कृति-प्रवाह > > तथा विचार-प्रवाह के > माध्यम से अतीत से जुड़ते तो हैं पर अंततः उनका इतिहास-बोʦgt; ħ अतीतातीत हो > कर वर्तमान के भविष्य का > निर्माण करने वाली शक्ति बन > कर अवतरित होता है। यह रचनात्मक शक्ति ही द्विवेदी > जी द्वारा की गई इतिहास की शऊ> > խसाधना की उपलब्ध है। एक अन्ऊ> > ϊ> महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है > कि ऐतिहासिकता का कोई भी रूप > उनके उपन्यासों की कला में > व्याघातक बना है। औपन्यासिʦgt; > ĕता पर इतिहास कहीं हावी नहीऊ> >  हुआ। कहीं भी साहित्य को इतऊ> > ߠĹास के सामने छोटा > नहीं होना पड़ा। न ’शब्दार्ऊ> > Šका साहित्य‘ कहीं खंडित हुऊ> > Ơहै, न ही ’लोकोत्तर आनन्द‘ > कहीं बाधित हुआ है। > ’निविड़-निज-मोह-संकट‘ का > निवारण भी द्विवेदी जी के > उपन्यासों में बखूबी हुआ > है पर इनसे बढ़ कर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके उपन्यासोʦgt; Ă का शिल्प हर दृष्टि से आधुनʦgt; Ŀक भी > है। इसका कारण द्विवेदी जी > के व्यक्तित्व में परम्परा > और आधुनिकता का संतुलन है। > भारतीय काव्यशा स्त्र की > समृद्ध परम्परा से तो > उन्होंने स्वयं को जोड़ा ही > है। उसके अधुनातन विकास से > भी वे परे नहीं है। आज के > साहित्य के पूर्व पर्याय > ’काव्य‘ को ग्रहण कर ही वे > उपन्यास-रचना में संलग्न > हो ते हैं, इसी से उनमें > पाश्चात्य पद्धति के > औपन्यासिक तत्त्वों के > निर्वाह के साथ-साथ भारतीय > ना ट्य-तत्त्वों का संश्लिष > ्ट संगुफन हैं। ’अनामदास का > पोथा‘ इस दृष्टि से सर्वाधिʦgt; ĕ नाट्य-तत्त्वों से > सम्पन्न है जबकि ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ में महाकाव्याऊ> Ġōमक तत्त्व अधिक प्रचुरता सʦgt; Ň उपलब्ध होते > हैं। गत दिनों ’राष्ट्रीय > नाट्य विद्यालय तथा कई अन्य > संस्थाओं द्वारा ’बाणभट्ट > की आत्मकथा‘ तथा ’अनामदास > का पोथा‘ का सफल मंचन इन > उपन्यासों में निहित > नाट्य-तत्त्वों एवं > महाकाव्यात्मक तत्त्वों के > कारण भी संभव हुआ है। कथ्य > की दृष्टि से इन उपन्यासों > की सफलता के मूल में इनकी > ऐतिहासिकता का वह चिर > आस्थामय स्वरूप है, जिसने > अपने आराध्य को, अपने पूज्य > को इन्हों ने क्षण भर के लिए > भी आँखों से ओझल नहीं होने > दिया। वास्तव में आचार्य > हजारीप्रसाद द्विवेदी का > आराध्य देव साधरण मनुष्य है! > उनके लिए भट्टिनी की गरिमा > अतुलनीय है पर निपुणिका की > करुणा भी साधरण नहीं। > ’चन्द्रलेखा‘ महान् है पर > मैना का औदार्य भी असीम है। > ’पुनर्नवा‘ की मृणालमंजरी > या मंजुला ने नारी के > महत्त्व को दृष्टि-वृत्त से > बाहर नहीं किया है और > ’अनामदास का पोथा‘ का रैक्व तो भूखे, नंगे, ’दरिद्ऊ> Рŋं‘ के अस्तित्व के कारण समऊ> ޠħि तक नहीं लगा पाया > । ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ > में आए कुमार कृष्णवर्धन का > यह कथन द्विवेदी जी के > उपन्यासों के इतिहा-बोध की > सही पहचान कराता हैः > ’इतिहास साक्षी है कि > देखी-सुनी बात को ज्यों का > त्यों कह देना या मान लेना > सत्य नहीं है। सत्य वह है, > जिससे लोक का आत्यंतिक > कल्याण होता है, ऊपर से वह > जैसा भी झूठ क्यों न दिखाई > देता हो दिखाई देता हो, वही > सत्य है। लोक अथवा जन-कल्याऊ> > àप्रधन वस्तु है। वह जिससे सऊ> > ǠĤा हो वही सत्य है।’ स्पष्ट > तः आचार्य द्विवेदी ने अपने > ʦgt; ćतर साहि > त्य की तरह उपन्यासों में > भी एक ही देवता की पूजा की है, > वह देवता है, साधरण मानव! > उनके उपन्यासों के इतिहास-ब > ोध का भी यही सार है! उनका > स्पʦgt; ķ्ट कथन हैः “मैं > साहित्य को > मनुष्य की > दृष्टि से देखने का पक्षपात > ी हूँ, जो वाग्जाल मनुष्य को > ʦgt; Ħुर्गति, हीनता और परमुखापेऊ> ՠōषिता से न > बचा सके, उसके हृदय को > परदुःख कातर और संवेदनशील न > बना सके उसे साहित्य कहने > में मुझे संकोच हो ता है।” > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Wed Jan 2 12:14:24 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 02 Jan 2008 06:44:24 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLLgpYs=?= =?utf-8?b?4KSV4KSq4KWN4KSw4KS/4KSvIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpLjgpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSu4KS+IDIwMDcuICIg4KSu4KS+4KSu4KWC4KSy4KWAIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSc4KWL4KSCIOCkleClhyDgpKbgpYfgpLXgpKTgpL4g4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSG4KSX4KSu4KSoICI=?= Message-ID: <200801021214.09432.ravikant@sarai.net> पैशन फ़ॉर सिनेमा नामक आभासी मंच से कुछ लोग परिचित होंगे. आजकल मिहिर को भी खींच रहा है. मिहिर ने वादा किया है कि उन बहसों को, उन बहसबाज़ों की फ़िल्मों पर अपनी राय दीवान पर डालते रहेंगे. ये शुरुआती कड़ी है, तआरुफ़-नुमा, और पिछले साल का लेखा-जोखा नुमा. मज़े लें. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा 2007. "मामूली चीजों के देवता का आगमन" Date: बुधवार 02 जनवरी 2008 02:45 From: mihir pandya To: ravikant एक समीक्षा लिखनी शुरू की थी आज. फिर लगा की इसे कई हिस्सों में बांटकर लिखना ठीक रहेगा. एक ही फ़िल्म पर बहुत-बहुत सारा हो रहा है. तो इसे कुछ दिन में एक किश्त की तरह से दीवान पर देते हैं. फ़िल्म समीक्षा के अलावा और भी बहुत मसाला है! पहली किश्त आपको भेज रहा हूँ. भूमिका टाइप. पढ़िये और देखिये कैसी है? फ़िर दीवान पर डालियेगा. मैं नहीं डाल पा रहा हूँ. ....... "मामूली चीजों के देवता का आगमन". लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा 2007. ....... यकीन मानिये 2007 शाहरुख खान का साल नहीं था. हाँ ये सच है कि साल की दो सबसे कमाऊ फ़िल्में उनके नाम हैं लेकिन यकीनन साल 2007 की पहचान king khan से नहीं, kabeer khan से होगी. और यही चक दे का कबीर खान हमें उस हौले से होती सुगबुगाहट की आवाज़ सुनाता है जो धीरे-धीरे तेज़ हो रही है. शोर बन रही है. केन्द्र टूट रहा है. परिधि के बाशिंदे केन्द्र में आ रहे हैं. शाहरुख ही हमें बताते हैं कि इस साल का मुम्बईया सिनेमा महानायक की स्तुति नहीं, आम आदमी का जयगान है. सबूत भी उन्हीं से लीजिये! मैं यहाँ कबीर खान के हवाले से दो बातें कहना चाहूँगा:- 1. चक दे इन्डिया जितनी ज़िद्दी कोच कबीर खान की फ़िल्म थी उतनी ही वो उन तेरह अनजान चेहरों की फ़िल्म भी थी जिनकी ताज़गी से सिनेमा जगत अभी तक चमत्कृत है. और कबीर खान भी तो उस मीर रंजन नेगी का आईना था जो जिन्दगी की लड़ाई हारने वालों का प्रतिनिधित्व करता है. उसका वो खटारा बजाज स्कूटर कौन भूल सकता है जिसे वो दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर बेधड़क चलाता रहा. 2. King khan के ही हवाले से ये भी बताता चलूं कि साल की सबसे बड़ी हिट OSO का नायक बिगडैल स्टार पुत्र ओम कपूर (OK) नहीं था, एक जूनियर आर्टिस्ट और जिन्दगी की लड़ाई हारने वाला अदना सा इंसान ओम प्रकाश मखीज़ा ही था. ओम प्रकाश मखीज़ा ही OSO का नायक था. आप ओम कपूर पर हँसेंगे, लेकिन ओम प्रकाश मखीज़ा के साथ रोयेंगे. और OK के किरदार की असल व्याख्या हम वक्त आने पर करेंगे ही! ब्लैक फ़्राईडे के बादशाह खान से मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर के सतवीर सिंह तक यह उसी अदना से इंसान की कथा है जिसे अब परिधि पर बैठना मंज़ूर नहीं. नये केन्द्रों की संरचनाओं के साथ ही बालीवुड अधिक से अधिक व्यक्तिगत पहचानों को टटोल रहा है, ’लोकेल’ की कहानियां कह रहा है, शहर की हर सिम्त को खोल रहा है. मैं 2007 में हिन्दी सिनेमा के साथ हुई कुछ अच्छी बातों को यहाँ लिख रहा हूँ. पैशन फॉर सिनेमा. सुधीर मिश्रा के साथ पूरी टोली है अनुराग कश्यप, ओनीर, नवदीप सिंह जैसों की जो www.passionforcinema.com पर जमकर खड़े हैं और यशराज कैम्प से लोहा ले रहे हैं. कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि साल की सबसे कमाल की फ़िल्में/खूबसूरत फ़िल्में/प्रयोगात्मक फ़िल्में यहीं से निकली हैं. पिछले एक साल में मैंनें यहां कई बेहतरीन लेख और cinema debates पढी़ हैं. आप नमूना देखना चाहें तो अभी PFC पर अनुराग का लिखा लेख देख सकते हैं. अनुराग कश्यप ने हमें तारे ज़मीन पर के असली हीरो से मिलवाया है! हिन्दी सिनेमा में आ रही एकध्रुव अवधारणा (यशराज के सौजन्य से!) को तोड़ने की कामयाब कोशिश. पिछले साल मैंनें रंग दे बसन्ती और मुन्नाभाई की धूम के सामने जिस फ़िल्म को MOVIE OF THE YEAR के तमगे से नवाज़ा था वो थी खोसला का घोसला. जयदीप की लिखी यह कहानी अपने अन्दाज़ में निराली ही थी. लेकिन जैसा मैंनें कहा, साल 2007 परिधि के मुख्यधारा की ओर आने का साल है. और ऐसे में किसी एक फ़िल्म को MOVIE OF THE YEAR कहना उस बहुलता का नकार होगा जिसे हम इस साल की खासियत कह रहे हैं. और यह तब और भी ज़रूरी हो जाता है जब आपको KKG की सुगंध अनेक फ़िल्मों में बिखरी मिले. तो आईये देखें 2007 हमें क्या देकर जा रहा है. मैं इसबार शुरुआत 7 ख़ास फिल्मों की बात से करूँगा. वो सात फिल्में जिन्होंने मेरी नज़र में इस साल को पहचान दी. जो मुझे अब भी मेरे दिल के करीब लगती हैं. इस चुनाव का एकमात्र आधार मेरे दिल की धड़कन है जो इस लिस्ट की हर फ़िल्म में कहीं ना कहीं तेज़ हुई है. और क्योंकि ये केवल एक व्याख्या भर है कोई जासूसी उपन्यास नहीं, इसलिए पहले नाम:- 1. Black Friday 2. Life in a.. Metro 3. The Namesake 4. Jonny Gaddar 5. Manorama Six Feet Under 6. Jab we Met 7. Khoya Khoya Chand आनेवाले दिनों में आप इनमें से हर फ़िल्म पर मेरी विशेष टिप्पणी के साथ और बहुत सी मजेदार बातें पढ़ेंगे. और क्योंकि मेरा नेट पर आना-जाना अभी तक अनियमित है इसलिए आपको इंतज़ार का मज़ा भी भरपूर मिलेगा! फ़िर भी मुझे उम्मीद है कि आप इंतज़ार करेंगे. -मिहिर :) --------------------------------- Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. Try it now. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Jan 2 16:04:04 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 02 Jan 2008 10:34:04 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2?= Message-ID: <200801021603.50911.ravikant@sarai.net> संवेद पत्रिका और सराय-सीएसडीएस की साझा पेशकश उदय प्रकाश से उनके कथा-साहित्य पर सार्वजनिक संवाद स्थान: सराय-सीएसडीएस, सेमिनार रूम वक़्त: 3.00 बजे अपराह्न तारीख़: 4 जनवरी 2008 आप भी पधारें. From zaighamimam at gmail.com Thu Jan 3 08:18:21 2008 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Thu, 03 Jan 2008 02:48:21 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Link to call me for free Message-ID: <957032445.4132031199328492918.JavaMail.tomcat@sv01e> I am using jaxtr, and if you also sign up, we can talk for free on the phone at any time. -zaigham P.S. Here is the link to sign up: http://www.jaxtr.com/user/ticket?n=T1hdj98mdes9zr&type=joininvite --- Delivered by jaxtr, Inc., 855 Oak Grove Avenue, Suite 100, Menlo Park, California 94025. To stop receiving messages from this sender go to http://www.jaxtr.com/user/reportabuse.jsp?it=T1hdj98mdes9zr -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/f86b424a/attachment-0001.html From zaighamimam at gmail.com Thu Jan 3 08:42:56 2008 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Thu, 03 Jan 2008 03:12:56 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWD4KSq4KSv?= =?utf-8?b?4KS+IOCkheCkqOCljeCkr+CkpeCkviDgpKgg4KSy4KWH4KSCLi4=?= Message-ID: दोस्तों, माफी...एक मित्र ने पीसी से फोन पर फ्री और सुगमता से बात करने से जुड़ा लिंक भेजा था जिसका प्रयोग करने की कोशिश करते हुए अचानक ये दीवान पर भी चला गया..कृपया अन्यथा न लें. एक बार फिर माफी के साथ जैगम -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-4 Size: 785 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/eaf3aafb/attachment-0001.bin From ved1964 at gmail.com Thu Jan 3 09:23:28 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Thu, 03 Jan 2008 03:53:28 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS+4KSv4KSw?= =?utf-8?b?4KSr4KS+4KSV4KWN4KS4IOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpILgpKbgpYA=?= Message-ID: <3452482c0801021953s3eea8280t6fba20ba03f5c3f7@mail.gmail.com> मित्रो, आप जानते ही हैं कि फायरफाक्स में हिंदी की साइटें देखते समय कुछ युनिकोड वाली साइटें ठीक से दिखलाई नहीं देतीं. क्या इसका कोई जुगाड़ है. दूसरे, क्या स्काइबस या किसी दूसरे डीटीपी सॉफ्टवेयर में युनिकोड हिंदी में छपाई करना संभव है. यदि हाँ बराय मेहरबानी बताएँ. आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/ad73e86f/attachment-0001.html From alok at aadyakshar.co.in Thu Jan 3 10:38:58 2008 From: alok at aadyakshar.co.in (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?= =?UTF-8?B?LCDgpIbgpKbgpY3gpK/gpJXgpY3gpLfgpLA=?=) Date: Thu, 03 Jan 2008 05:08:58 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS+4KSv4KSw?= =?utf-8?b?4KSr4KS+4KSV4KWN4KS4IOCkruClh+CkgiDgpLngpL/gpILgpKbgpYA=?= In-Reply-To: <3452482c0801021953s3eea8280t6fba20ba03f5c3f7@mail.gmail.com> References: <3452482c0801021953s3eea8280t6fba20ba03f5c3f7@mail.gmail.com> Message-ID: वेद प्रकाश जी, > आप जानते ही हैं कि फायरफाक्स में हिंदी की साइटें देखते समय कुछ युनिकोड वाली जुगाड़ है - View | Style | No Style या फिर http://userscripts.org/scripts/show/1480 - इसका इस्तेमाल करें, यदि दोनो में कोई समस्या आए तो लिखें। आप कौन से डीटीपी सॉफ़्ट्वेयर का इस्तेमाल करते हैं और वह कितना पुराना है? आलोक 2008/1/3, ved prakash : > मित्रो, > > आप जानते ही हैं कि फायरफाक्स में हिंदी की साइटें देखते समय कुछ युनिकोड वाली > साइटें ठीक से दिखलाई नहीं देतीं. क्या इसका कोई जुगाड़ है. > > दूसरे, क्या स्काइबस या किसी दूसरे डीटीपी सॉफ्टवेयर में युनिकोड हिंदी में > छपाई करना संभव है. यदि हाँ बराय मेहरबानी बताएँ. > > आपका, > > वेद प्रकाश > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- आद्यक्षर कंसल्टेंसीज़ प्राइव्हेट लिमिटेड http://aadyakshar.co.in From vineetdu at gmail.com Thu Jan 3 11:26:01 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 03 Jan 2008 05:56:01 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWLIOCkruClguCksuClgCwg4KSF4KSm4KSw4KSVIOCkrOClh+Ckmg==?= =?utf-8?b?4KWLIOCkr+CkviDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJw=?= Message-ID: <829019b0801022155t42c92794i40ddf098d24bea36@mail.gmail.com> न्यूज चैनलों में न्यूज के नाम पर आप औऱ हम जो कुछ भी देख रहे है, दरअसल वो न्यूज है ही नहीं। विश्वविद्यालय की भाषा में कहें तो कूड़ा है। एकाध चैनलों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के चैनल न्यूज के नाम पर फकैती करते हैं। औऱ फिर आम दर्शकों से भी बात करें तो वो भी उब चुकी है, स्टिंग के नाम पर खबरों को झालदार बनाने के तरीके से। दूरदर्शन का मारा दर्शक जाए भी तो कहां जाए। अब जरुरी तो नहीं कि सबको बाबा के नाक में वनस्पति उगनेवाली स्टोरी में मजा आए और रुचि बनी रहे। और कुल मिलाकर देखें तो चैनल भी इस बात को तरीके से समझने लगी है कि हम जो कुछ भी दिखा रहे हैं, उसके प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता कमती जा रही है। कम से कम थोड़े -पढ़े लिखे लोगों के बीच तो ये बात लागू होती ही है। इसलिए आप देखेंगे कि जब भी कोई नया चैनल लांच होता है तो उसमें दो बातें जरुर बताते हैं । पहला तो ये कि क्या-क्या न्यूज नहीं है और दूसरा कि क्या-क्या न्यूज है।अच्छा ये बतानेवाले कौन होते हैं। वही जो कल तक वो सब न्यूज के नाम पर दिखा रहे थे और असरदार, धारदार होने का ढोल भी पीट रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने चैनल बदला। बीबी- बच्चों की खातिर थोड़े और पैसे के लिए किसी और या नए चैनल में गए, सामाजिक जागरुकता या फिर न्यूज सेंस की बात अचानक याद हो आयी। वे रातोंरात खबरों की दुनिया के अवतारी पुरुष हो गए। ऐसे में आइएमएमसी या फिर जामिया मीलिया की पढाई कि मीडिया मिशन है, काम आ जाती है। और उन्हें ये सब बताने में अच्छा भी लगता है कि रोजी-रोजी के साथ हमारे सोशम कमिटमेंट भी है। भले ही कोर्स खत्म होने या फिर चैनलों काम करते समय अध्यापकों को गरियाते हों कि बेकार में खूसट मास्टर मीडिया के नाम पर नैतिकता की घुट्टी पिलाता रहा, स्क्रिप्ट लिखना बता देता तो फायदा भी होता। लेकिन चैनल बदलते समय मास्टर साहब के उस एप्रोच को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। आप खुद ही देखिए न, लाइव इंडिया में कई वही पुराने चेहरे। सांप-सपेरे, भूत-प्रेत की स्टोरी बनानेवाले अभ्यस्त लोग औऱ यहां आकर बार-बार विज्ञापन- अनजिप दि ट्रूथ की। और तो और ये भी बता रहे हैं कि १८५७ में देश का अंग्रेजों के प्रति पहला विद्रोह, १९४७ में देश आजाद और २००७ में लाइव इंडिया। यानि लाइव इंडिया का आना एक ऐतिहासिक घटना है। और देश की आजादी के वे सारे मूल्य इसमें भी शामिल हैं। इधर न्यूज २४ में देखिए। आधा से ज्यादा चेहरे आजतक के। ऐसे चैनल के जिसने अब तक दो ही दावे किए हैं- एक तो सबसे तेज होने की और दूसरा सर्वश्रेष्ठ होने की। अब जो भाई वहां से काम करके न्यूज २४ में आए, उनका कहना है कि नेताओं का हर बयान खबर नहीं होती जो कि कल तक हर नेता के बयान को खबर बनाते आए हैं। और भी अलग-अलग बीट के लिए अलग-अलग नारे। भाई साहब आपको पता है कि क्या खबर है और क्या खबर नहीं है तो फिर अब तक आप जनता को मामू बना रहे थे। अच्छा आजतक सबसे तेज होने के चक्कर में सबकुछ दिखाता है। आप जब ये कह रहे हैं कि सबकुछ खबर नहीं होती तो आप हमें ये बताना चाह रहे हैं कि आजतक में या फिर दूसरे चैनलों में फिलटरेशन का काम नहीं होता। यानि आप अपने को सबसे अलग बता रहे हैं औऱ दावा कर रहे हैं कि न्यूज इज बैक। ये हमारे साथ अक्सर हुआ करता है, जब भी बनियान खरीदने जाता हूं। दुकानदार का सवाल होता है कि आपको बनियान में सफेदी चाहिए या फिर आरामदायक। सफेदी के लिए रुपा और आराम के लिए कोठारी। देखिए बनियागिरी, दोनों का विज्ञापन और उसका काट एक साथ। आप हमें ये बता रहे हैं कि न्यूज चाहिए या फिर न्यूज के नाम पर कूड़ा। अच्छी बात है आप सरस्वती जैसी लुप्त हुए न्यूज को फिर से वापस ला रहे हैं और बता रहे हैं कि असली न्यूज तो आप देख ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन जनाब आप हमें ये बताएंगे कि आपका ये जो दावा है उसके पीछे कोई रिसर्च भी है या फिर पैकेज के चक्कर में संतवाणी दिए जा रहे हैं। साहब आप पढे-लिखे लोग हैं, अदरक, मूली की तरह चैनलों का विज्ञापन क्यों करते हैं। अगर आप ये मानकर चलें कि दर्शकों के पास भी थोड़ा दिमाग है तो इसमें आपको क्या भारी नुकसान हो जाएगा। अबतक के कुछ चैनल तो जनता की रही-सही मति-बुद्धि को हर ही ले रही है औऱ आप भी हमरे साथ वही कीजिएगा तो बढा हुआ पैकेज हक नहीं लगेगा। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-5651 Size: 9118 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/6c504d63/attachment.bin From avinashonly at gmail.com Thu Jan 3 11:33:09 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 03 Jan 2008 06:03:09 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkruClguCksuClgCwg4KSF4KSm4KSw4KSVIOCkrOClhw==?= =?utf-8?b?4KSa4KWLIOCkr+CkviDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJw=?= In-Reply-To: <85de31b90801022202i59fd5505s8166d2c77b75e49c@mail.gmail.com> References: <829019b0801022155t42c92794i40ddf098d24bea36@mail.gmail.com> <85de31b90801022202i59fd5505s8166d2c77b75e49c@mail.gmail.com> Message-ID: <85de31b90801022203k19611914i893a578fb7bf44ff@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/e46167f9/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Thu Jan 3 11:34:35 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Thu, 03 Jan 2008 06:04:35 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkruClguCksuClgCwg4KSF4KSm4KSw4KSVIOCkrOClhw==?= =?utf-8?b?4KSa4KWLIOCkr+CkviDgpKjgpY3gpK/gpYLgpJw=?= In-Reply-To: <85de31b90801022203k19611914i893a578fb7bf44ff@mail.gmail.com> References: <829019b0801022155t42c92794i40ddf098d24bea36@mail.gmail.com> <85de31b90801022202i59fd5505s8166d2c77b75e49c@mail.gmail.com> <85de31b90801022203k19611914i893a578fb7bf44ff@mail.gmail.com> Message-ID: <85de31b90801022204m3a6f171vf0d4e423da66d6d2@mail.gmail.com> बहुत बढिया विनीत भाई, मज़ा आ गया। आप ऐसे ही आईना दिखाते रहें। लेकिन यक़ीन मानिए, कोई आपकी सुनेगा नहीं। फिर भी इस भरोसे से लिखते रहिए कि कोई देखे या न देखे अल्‍ला देख रहा है। *अविनाश * On 1/3/08, vineet kumar < vineetdu at gmail.com> wrote: > न्यूज चैनलों में न्यूज के नाम पर आप औऱ हम जो कुछ भी देख रहे है, दरअसल वो > न्यूज है ही नहीं। विश्वविद्यालय की भाषा में कहें तो कूड़ा है। एकाध चैनलों > को > छोड़ दिया जाए तो बाकी के चैनल न्यूज के नाम पर फकैती करते हैं। औऱ फिर आम > दर्शकों से भी बात करें तो वो भी उब चुकी है, स्टिंग के नाम पर खबरों को > झालदार > बनाने के तरीके से। दूरदर्शन का मारा दर्शक जाए भी तो कहां जाए। अब जरुरी तो > नहीं कि सबको बाबा के नाक में वनस्पति उगनेवाली स्टोरी में मजा आए और रुचि > बनी > रहे। और कुल मिलाकर देखें तो चैनल भी इस बात को तरीके से समझने लगी है कि हम > जो > कुछ भी दिखा रहे हैं, उसके प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता कमती जा रही है। कम > से > कम थोड़े -पढ़े लिखे लोगों के बीच तो ये बात लागू होती ही है। इसलिए आप > देखेंगे > कि जब भी कोई नया चैनल लांच होता है तो उसमें दो बातें जरुर बताते हैं । > पहला तो ये कि क्या-क्या न्यूज नहीं है और दूसरा कि क्या-क्या न्यूज है।अच्छा > > ये बतानेवाले कौन होते हैं। वही जो कल तक वो सब न्यूज के नाम पर दिखा रहे थे > और > असरदार, धारदार होने का ढोल भी पीट रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने चैनल > बदला। > बीबी- बच्चों की खातिर थोड़े और पैसे के लिए किसी और या नए चैनल में गए, > सामाजिक जागरुकता या फिर न्यूज सेंस की बात अचानक याद हो आयी। वे रातोंरात > खबरों की दुनिया के अवतारी पुरुष हो गए। ऐसे में आइएमएमसी या फिर जामिया > मीलिया > की पढाई कि मीडिया मिशन है, काम आ जाती है। और उन्हें ये सब बताने में अच्छा > भी > लगता है कि रोजी-रोजी के साथ हमारे सोशम कमिटमेंट भी है। > भले ही कोर्स खत्म होने या फिर चैनलों काम करते समय अध्यापकों को गरियाते हों > कि बेकार में खूसट मास्टर मीडिया के नाम पर नैतिकता की घुट्टी पिलाता रहा, > स्क्रिप्ट लिखना बता देता तो फायदा भी होता। लेकिन चैनल बदलते समय मास्टर > साहब > के उस एप्रोच को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। > आप खुद ही देखिए न, लाइव इंडिया में कई वही पुराने चेहरे। सांप-सपेरे, > भूत-प्रेत की स्टोरी बनानेवाले अभ्यस्त लोग औऱ यहां आकर बार-बार विज्ञापन- > अनजिप दि ट्रूथ की। और तो और ये भी बता रहे हैं कि १८५७ में देश का अंग्रेजों > > के प्रति पहला विद्रोह, १९४७ में देश आजाद और २००७ में लाइव इंडिया। यानि > लाइव > इंडिया का आना एक ऐतिहासिक घटना है। और देश की आजादी के वे सारे मूल्य इसमें > भी > शामिल हैं। > इधर न्यूज २४ में देखिए। आधा से ज्यादा चेहरे आजतक के। ऐसे चैनल के जिसने अब > तक > दो ही दावे किए हैं- एक तो सबसे तेज होने की और दूसरा सर्वश्रेष्ठ होने की। > अब > जो भाई वहां से काम करके न्यूज २४ में आए, उनका कहना है कि नेताओं का हर बयान > खबर नहीं होती जो कि कल तक हर नेता के बयान को खबर बनाते आए हैं। और भी > अलग-अलग > बीट के लिए अलग-अलग नारे। भाई साहब आपको पता है कि क्या खबर है और क्या खबर > नहीं है तो फिर अब तक आप जनता को मामू बना रहे थे। अच्छा आजतक सबसे तेज होने > के > चक्कर में सबकुछ दिखाता है। आप जब ये कह रहे हैं कि सबकुछ खबर नहीं होती तो > आप > हमें ये बताना चाह रहे हैं कि आजतक में या फिर दूसरे चैनलों में फिलटरेशन का > काम नहीं होता। यानि आप अपने को सबसे अलग बता रहे हैं औऱ दावा कर रहे हैं कि > न्यूज इज बैक। ये हमारे साथ अक्सर हुआ करता है, जब भी बनियान खरीदने जाता > हूं। > दुकानदार का सवाल होता है कि आपको बनियान में सफेदी चाहिए या फिर आरामदायक। > सफेदी के लिए रुपा और आराम के लिए कोठारी। देखिए बनियागिरी, दोनों का > विज्ञापन > और उसका काट एक साथ। आप हमें ये बता रहे हैं कि न्यूज चाहिए या फिर न्यूज के > नाम पर कूड़ा। > अच्छी बात है आप सरस्वती जैसी लुप्त हुए न्यूज को फिर से वापस ला रहे हैं और > बता रहे हैं कि असली न्यूज तो आप देख ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन जनाब आप हमें > ये बताएंगे कि आपका ये जो दावा है उसके पीछे कोई रिसर्च भी है या फिर पैकेज > के > चक्कर में संतवाणी दिए जा रहे हैं। साहब आप पढे-लिखे लोग हैं, अदरक, मूली की > तरह चैनलों का विज्ञापन क्यों करते हैं। अगर आप ये मानकर चलें कि दर्शकों के > पास भी थोड़ा दिमाग है तो इसमें आपको क्या भारी नुकसान हो जाएगा। अबतक के कुछ > > चैनल तो जनता की रही-सही मति-बुद्धि को हर ही ले रही है औऱ आप भी हमरे साथ > वही > कीजिएगा तो बढा हुआ पैकेज हक नहीं लगेगा। > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-10 Size: 11018 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/e860de52/attachment-0001.bin From sanjay.baurai at gmail.com Thu Jan 3 14:30:19 2008 From: sanjay.baurai at gmail.com (Sanjay) Date: Thu, 03 Jan 2008 09:00:19 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Col. Ranjit Message-ID: <80bc83610801030100r60e11502obb4bd699cf52551d@mail.gmail.com> Kamal Kumar Ji ko Namaskar. Mein internet per Col. Ranjit ke upnyaas chaapne wale publishers dhoondh raha thee ki aapki ye ( http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/2006-May/000248.html ) post mere haath lagi. Kya aap bata sakenge ki mein Col. Ranjit ke upanyaas kahan se khareed sakta hoon. thanks/sanjay -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080103/dc27c640/attachment-0001.html