From ravikant at sarai.net Fri Feb 1 16:42:46 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 1 Feb 2008 16:42:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWI4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkleClhyDgpKzgpLDgpJXgpY3gpLg=?= Message-ID: <200802011642.46611.ravikant@sarai.net> वैलेंटाइन की अगुआई में एक चिंतनपरक लेख, जो शायद जनसत्ता में छपे. सिर्फ़ एक तथ्यात्मक विवाद है कि लैला मजनूँ भारत के माने जा सकते हैं कि नहीं. महमूद फ़ारूक़ी का कहना है कि हिन्दुस्तानियों, ख़ा स कर हिन्दी फ़िल्मवालों ने उसे इस क़दर अपना लिया है कि इसे अ-भारतीय सिद्ध करना जोखिम भरा काम है! महिन्दर पाल जी का शुक्रिया. ----- वैलेंटाइन के बरक्स ............ महिन्दर पाल हर साल की तरह एक बार फ़िर वैलेंटाइन डे के रूप में प्रेम की तमाम अभिव्यकियों को मूर्त्त करता फरवरी का महीना हमारे सामने है .नौजवान दिलों की तमाम धड़कनें कहीं मंहगे तो कहीं सस्ते उपहारों /फूलों को अपना संदेशवाहक चुनेंगी . बाज़ार की चकाचौंध  भरी दुनिया इस त्यौहार  को अपनी अंधी कमाई का औजार बनाएगी . तमाम तरह के ग्रीटिंग कार्डों और उपहारों से  दुकानें व शो रूम पट जाएँगे . जिनमे एक तरफ़ जहाँ वैलेंटाइन को प्रेम का प्रतीक मानते हुए याद किया जाएगा , वहीं इसे विदेशी संस्कृति का हमला माना जाएगा . शिवसेना जैसे तमाम हिंदुत्ववादी रणबांकुरे निकलेंगे और भारतीय संस्कृति के नाम पर कहीं फर्मानों के जरिये , कहीं धमकियों के जरिये , और कहीं-कहीं  तो सीधे अपने लठैतों के माध्यम से युवाओं को अपना निशाना बनायेंगे , उन्हें अपमानित करेंगे और इस महाभियान में प्रत्येक धर्म के ठेकेदार कहीं पूरी तो कहीं आधी गुंडई अपने-अपने सम्प्रदायों पर थोपने  में कत्तई  पीछे नहीं रहेंगे . प्रेम की अभिव्यक्ति हमेशा व्यक्ति की अस्मिता व सम्मान का प्रतीक बनती रही है और इंसानी इतिहास के विभिन्न पड़ावों पे इसने हमेशा समाज के सड़े -गले मूल्यों - मान्यताओं , रूढियों और कठ्मुल्लेपन को चुनौती दी है चाहे वो प्रेम सहज मानवीय इच्छाओं को अभिव्यक्ति देता रहा हो या बुल्लेशाह , वारिश शाह , मीरा  आदि  जैसे सूफी -संतों का प्रेम रहा हो . लेकिन यह सच है कि जिस धर्म का इतिहास जितना पुराना होता है वो उतनी ही कट्टरता के साथ इसके ख़िलाफ़ आ खड़ा होता है . अगर मीरा , शशि - पुन्नू  जैसों के खिलाफ हिंदू संस्कृति के पैरोकार पूरी निर्ममता के साथ खड़े थे तो वहीं बुल्लेशाह , वारिशशाह  , मिर्जा - साहिबा जैसों के विरुद्ध इस्लामी समाज की रुढियों  व कट्टरपन से लैस मौलवियों /हाकिमों की जमात कहीं पीछे नही थी . भारत जैसे देश में हीर - राँझा , शशि - पुन्नू ,लैला -मजनू , मिर्जा -साहिबा , सोहनी -महिवाल जैसे प्रेमियों के किस्से भरे पड़े हैं , जिनके पन्नों को पलटते हुए भारतीय  सामाजिक जीवन का अत्यन्त क्रूर व असहिष्णु चेहरा सामने आता है जिसने कभी भी सहज मानवीय इच्छाओं को समान नही दिया और इसमे भारतीय हिंदू संस्कृति व इस्लामी संस्कृति का प्रायः एक जैसा चेहरा दिखाई देता रहा है .लेकि न इसी भारतीय समाज में बहुत सी ऐसी संस्कृतियाँ रहीं हैं जिनमें व्यक्ति की गरिमा व उसकी सहज अभिव्यक्तियों  को सम्मान मिलता रहा है .ये वो आदिवासी संस्कृतियाँ हैं जिन्हें आज  का 'सभ्य' व ' प्रगतिशील ' समाज असभ्य व जंगली मानता आया है और अक्सर आज भी मानता है. छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र  के गोंड आदिवासियों में एक प्रथा चलती आ रही है जिसे 'घोटुल ' के नाम से जाना जता है जो किसी भी   वैलेंटाइन जैसे त्यौहार से कमतर नही है बल्कि किसी रूप में अधिक प्रगतिशील , अधिक बराबरी पर आधारित रही  है . इसमे सभी किशोर व कुंवारे युवक -युवति यों को एक साथ रहने की आजादी होती है ताकि इनके बीच आपस में सहज सम्बन्ध विकसित हों , साथ ही साथ इनके अन्दर सामाजिकता व नागरिकता का बोध भी पैदा हो .'घोटुल' के अंतर्गत समाज के विभिन्न पहलुओं अ मसलों पर सभी युवाओं को सचेत किया जाता है . इस दौरान वे एक दूसरे को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश करते हैं और यदि उनके बीच प्रेम सम्बन्ध विकसित होते हैं तो पूरे समाज द्वा रा पूरी मान्यता मिलती है . एक महीने के  घोटुल प्रवास के बाद जो युवा जोड़े शादी करने का फ़ैसला करते हैं तो पूरा समाज उन्हें सहर्ष इसकी इजाज़त देता है. एक अन्य आदिवासी समुदाय ' भतरा' में भी एक प्रथा है जिसे ' बालिफूल' कहा जाता है . इस समुदाय में मेले के दौरान  अलग - अलग गावों के युवा आपस में मिलते हैं और एक दूसरे को फूल या कोई अन्य सहज उपलब्ध उपहार देकर अपना बालिफूल चुनते हैं . गौरतलब बात है  कि इस प्रक्रिया में कोई तीसरा नही होता , यह सिर्फ़ दो व्यक्तियों की सहज इच्छाओं  व उनका ख़ुद का फ़ैसला होता है . लेकिन जब एक बार कोई लड़का या लड़की किसी को अपना बालिफूल चुन लेते हैं तो उसे  पूरा समाज मान्यता व सम्मान देता है . मुझे याद आता है ' औस्तु ' नामक चालीस वर्षीय आदिवासी , जो भतरा समुदाय का था . उसने बताया कि अपने युवा समय में उसने भी अपना बालिफूल चुना और जब वह अपने बालिफूल से मिलने उसके घर गया , वहाँ जाकर उसने लड़की के माँ - बाप को  बताया  कि उनकी लड़की उसकी बालिफूल है  और वह उससे मिलने आया है तो उन्होंने उसे ससम्मान घर में बिठाया , आदर - सत्कार किया और दोनों उस घर में एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में मिले . उनके बीच कोई माँ - बाप  या बहन- भा ई पहरेदार बन खड़ा नही हुआ . औस्तु यह भी बताता है कि बालिफूल चुनने के बाद भी यदि कुछ समय के बाद किसी एक को लगता है कि वह अपने बालिफूल से विवाह नही करना चाहता/चाहती है तो समाज उसकी इस इच्छा का सम्मान करते  हुए  उसे इसकी आज़ादी देता है . दोनों पक्षों में से कोई भी अपने संबंधों के टूटने या तोड़ने पर किसी भी कुंठा का शिकार नही होते और कई मामलों में स्त्री या पुरूष बिना किसी कुंठा या संकोच के अपने वर्तमान पति या पत्नी को बताते हैं कि उक्त स्त्री या पुरूष मेरा बालिफूल था . वह इस बात से जरा भी नही घबराते कि दूसरा पक्ष इस पर कैसी प्रतिक्रिया  करेगा .क्या इस ' आधुनि क 'व 'बिंदास' से लगने वाले समाज में कोई स्त्री या पुरूष इतने सहज ढंग से अपने अतीत के बारे अपने जीवन साथी को बता सकता है ?और बता भी तो क्या दूसरा पक्ष या यह समाज इसे सहजता से स्वीकार कर सकता है ? हो सकता है कुछ मामलों में पुरूष के लिए ऐसा करना सम्भव हो क्योकि स्त्री को हमारी संस्कृति या समाज का पूरा ताना -बाना इसे बर्दाश्त करने कि या निभाने की नसीहतें देता रहता है . लेकिन एक स्त्री के लिए क्या ऐसा सम्भव है ?क्या उसपे चरित्रहीनता का आरोप नही लगाया जाएगा ?  इन समुदायों  में स्त्री - शुचिता का प्रश्न किसी  रूप में नही माना जाता जिसका ढिंढोरा हमारा यह 'आधुनिक ' समाज या ख़ास तौर पर हिंदू- मुस्लिम समाज पीटता है . इन आदिवासी समुदायों में लड़की पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नही होता की वह कब और कहाँ जाए , कहाँ नहीं !  न ही समाज उसे  छेड़छाड़ या बलात्कार का कोई डर होता है . इनमे एक कुँवारी  कन्या का माँ बनना न लड़की के लिए शर्मिंदगी का प्रश्न है और न ही समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है . ऐसी लड़की को स्वीका रने के लिए कोई भी अविवाहित लड़का तैयार  हो जाता है , कई बार अविवाहित कन्या  को उसके बच्चे  के साथ स्वीकार किया जाता है . विधवा विवाह या परित्यक्ता विवाह जैसे विचार आदिवासी जीवन का हिस्सा नही हैं (हालाँकि पिछले  कुछ वर्षों में इसाईयत और हिंदुत्व से प्रभावित संस्थाओं द्वारा इन समाजों में 'पवित्रता 'व स्त्री नियम सम्बन्धी मूल्य-मान्यताओं को थोपने का बराबर प्रयास किया जा रहा है उन्हें कथित तौर पर 'सभ्य ' बनाने के लिए )  आज के आधुनिक समाज में तो क्या शायद जिस देश का नागरिक संत वैलेंटाइन रहा होगा क्या वहाँ भी स्त्री व प्रेम को वैसा सम्मान हासिल होता होगा ? यहाँ यह कहने की कत्तई कोई मंशा नही है कि वैलेंटाइन जैसे त्योहारों का कोई औचित्य नही है बल्कि मेरे ख्याल से ऐसे त्योहारों को और भी बड़े पैमाने पे मनाया जाना चाहिए .लेकिन क्या सिर्फ़ उसी रूप में जिस रूप में हमारा बाज़ार इसे चाहता है ?क्या यह त्यौहार बड़े पैमाने पर स्टेटस , ऊपरी ता मझाम या दिखावे का जरिया मात्र नही लगता ?क्या इसमें यह कोशिश नही रहती कि दूसरों से कुछ अलग , कुछ विशेष दिखा जाए ?ऐसे में दो व्यक्तियों की संवेदनात्मक गहराइयाँ कहाँ तक एक दूसरे  तक पहुँच पाती हैं ? वे एक दूसरे के सपनों ,पसंद -नापसंद को सिर्फ़ रूमानियत के चश्मे से नही देखते हों गे ?जो लाजिमी तौर पर यथार्थ की सख्त ज़मीन से टकराते ही चकनाचूर हो जाती है ! क्या इसके साथ सामाजिकता व नागरिक बोध को जोडा नही जाना चाहिए ?इसके लिए सामाजिक तौर पर व्यक्ति की गरिमा और सम्मान को स्थापित करने वाली मुहिमों कि शुरुआत नही की जानी चाहिए ? जो प्रेम की भावना को सच्चे तौर पर समाज में स्थापित कर सके !जिसमें व्यक्ति को , चाहे वो स्त्री हो या पुरूष ,यह अधिकार मिल सके कि वो अपनी जिंदगी का फ़ैसला ख़ुद कर सके ,यहाँ तक कि अपने जीवन साथी को  अपनी मरजी से चुन सके . उसपे कोई धर्म ,जाति, समुदाय या पंचायत अपने फासिस्ट अरमान न थोप सके . उन्हें किसी जाति ,समुदाय या धर्मं  की इज्ज़त या सम्मान  की  वेदी पे बलि  न चढाया जा सके !   व्यक्ति की गरिमा और सम्मान व्यक्ति की गरिमा और सम्मान को स्थापित करने  पर ही शायद वह समाज बन सकेगा जो किसी भी तरह की गैर बराबरी से मुक्त होगा . जिसमे किसी भी व्यक्ति की निष्ठा व ईमानदारी रिश्तों की शाश्वतता का लिहाफ भले न ओढे हो मगर एक ही समय में ऐसे दोहरे चरित्र को भी नही ढोएगी , जिसकी ज़मीन पर इतर संबंधों की फसल उगती रही है . वो उस कथित सोच से भी प्रायः मुक्त होगी कि 'जोडियाँ तो आसमान में बनती हैं '.और रिश्तों को उन उदासियों व असम्पृक्तताओं के साथ जीने के लिए अभिशप्त नही होगी जिसका अहसास भीतर ही भीतर इंसान को भावनात्मक तौर पर बंजर बना देता है  और बकौल 'निशब्द ' फ़िल्म  के बुजुर्ग नायक के 'साठ साल की उम्र तो हमें पता ही नही चलता की हम जी रहे हैं मगर उसके बाद अचानक मौत का भय सताने लगता है ' आखिर हम जिए कब ?         'बालिफूल ' और ' घोटुल' जैसी व्यक्ति की गरिमा व सम्मान जैसे मूल्यों को स्थापित करने वाली प्रथाओं का सार समझना आज के समय की ज़रूरत है, जिसके ज़रिये एक जिम्मेदार व सचेत नागरिक के निर्माण का रास्ता पुख्ता हो सके , जो व्यक्ति को उसके निजी दायरे  के साथ- साथ उसको  सामाजिक ज़िम्मेदारियों से भी जोड़ सके . जिसमें हर युवा अपने ख्वाब अपनी आँखों से देख सके, न कि दूसरों के चश्मे से .शायद इसी  से आज की युवा पीढ़ी  में बढ़ती निराशा  व कुंठाओं से उबर पाने का रास्ता निकल सके ऐसी कुंठाएं जो आएदिन कभी तेजाब की शीशी या खुले आम हत्या कराने जैसी  तमाम घटनाओं के रूप में सामने आती रही हैं . जो भीतर पलती निराशा का हल  आत्म-हत्या या पा गलपन में नही ढूंदेंगी बल्कि उसकी गंगोत्री को तलाशने का काम करेंगी. From miyaa_mihir at yahoo.com Sat Feb 2 03:23:13 2008 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Fri, 1 Feb 2008 13:53:13 -0800 (PST) Subject: बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी Message-ID: <280322.65672.qm@web53606.mail.re2.yahoo.com> मीडियानगर 03 पर बातचीत फ़रवरी की शाम छ: बजे, ऑक्सफ़र्ड बुक स्टोर, कनॉट प्लेस, दिल्ली. फिज़ाओं में क्या था:- वक्ताओं के पीछे एक नारंगी रंग की दीवार थी जिसपर बहुत सारे शब्द बिखरे हुए थे. ये मुझे 'तारे ज़मीन पर' के शुरूआती दृश्य की याद दिला रहा था जिसमें हमारा कुल-ज़मा लिखा पढ़ा सब कुछ एकसाथ बरसता सा लगता है. हाँ, बीच में बड़े-बड़े ठक्षरों में लिखा था vernacular. कई बार ये बेतरतीब चुनाव की प्रणाली भी कितने ठर्थ व्यंजित करने लगती है ना. वैसे मानने वाले ये भी मान सकते हैं कि वो 'vernacular' वहाँ यूं ही नहीं था. क्योंकि हर बेतरतीब नमूने के पीछे एक नजरिया होता है. पार्श्व में बार-बार NDTV के नये शाहकार 'रामायण' की ध्वनि "जय श्री राम" गूँज उठती थी और सामने बैठे NDTV के ठविनाश सिर्फ़ ठपनी मौजूदगी से ही एक कमाल का विरोधाभास पैदा कर रहे थे. ठब जब किसी संवाद का माहौल ही ऐसा कोलाजनुमा हो गया हो तो बातचीत को तो उस तरफ़ जाना ही हुआ! बात-चीत:- ठनुवाद पर हुई बातों को ज़रा देर के लिए छोड़ दें तो आनंद प्रधान की बातों से निकली बात ही आगे बढ़ती गई. बात ठीक थी और सवाल भी कि "आज का हमारा मीडिया आखिर जा कहाँ रहा है?" लेकिन मुझे बार बार लगता रहा कि जो छोटी पहलकदमियाँ इसके बरक्स खड़ी होंगी उनपर बात होती तो कैसा होता. लेकिन इस 'यूं होता तो क्या होता' का ठब क्या जवाब... जैसे ये भी एक सवाल है कि हमें वहाँ ये बात करने की बजाए कि mainstream media क्या और क्यों छाप रहा है ये बात करनी चाहिए थी कि medianagar में क्या छपा? सीधा कहूँ तो हमें ज़रूर पहले दोनों वक्ताओं राहुल और देबश्री के लिखे पर बात करनी चाहिए थी जो हमनें नहीं की. 'मल्लिका सेहरावत' और 'राखी सावंत' के कारनामों को सिनेमा की ख़बर कहकर दिखाते मीडिया को देबश्री का मुम्बई सिनेमा पर किया काम जवाब हो सकता है. या कम से कम एक विकल्प तो हो ही सकता है. तो उसपर बात करनी तो रह ही गयी. और मैं भी बात ना करने वालों में से एक था तो ये इल्जाम मुझपर भी है. उम्मीद है कि आगे होने वाली बातचीत इस मुद्दे को साध लेंगी. ठोस:- संजीव के तरकश में कई पैने तीर थे जो उन्होंने चलाये. मुझे जो बात सबसे ज्यादा सोचने वाली लगी उसका ज़िक्र कर रहा हूँ. इसलिए भी कि इसका ठीक जवाब मुझे भी नहीं मालूम. उन्होंने कहा कि पूरे ठंक की भाषा का स्वाद एक जैसा है. ये मानते हुए कि ये स्वाद बहुत स्वादिष्ट है ये भी मानना पड़ेगा कि एकरसता कभी ठच्छी नहीं लगती. उनका कहना था कि ऐसा लगता है जैसे सारा ठनुवाद एक ही व्यक्ति ने कर दिया हो. ठब मैं इस बहस में नहीं जा रहा कि उनका ये आकलन medianagar के बारे में कितना सही है. मेरा सवाल ज्यादा बड़ा है जो और दिमागों में भी आया होगा. हर पत्रिका समय के साथ ठपना एक ख़ास कलेवर/एक ख़ास आकार लेती है. यही उसकी पहचान बनाता है. ठब पहला सवाल तो ये है कि क्या भाषा भी इस पहचान का एक हिस्सा है? और दूसरा ये कि इसका एक ख़ास स्वरूप में ढलकर पत्रिका की पहचान बनना ज्यादा ठीक है या भाषागत वैविध्य ज्यादा ज़रूरी है? इस सवाल को यूं देखिये कि क्या 'पहल' 'तद्भव' 'हंस' में भी भाषागत एकरसता दिखती है? और ठगर हाँ तो वो क्यों और कितनी ठीक है? दिल की बात:- मेरे लिए तो वो एक निजी कोलाज था. मेरे दो भूतपूर्व गुरु मुझे मेरे 'रंग दे बसंती' ( ठर्थात 'क्या करें, क्या ना करें' वाले दिन) दिनों की याद दिला रहे थे. आनंद प्रधान IIMC में बीते एक महीने की और देवेन्द्र चौबे JNU की जागती रातों की याद ताज़ा कर गए. और इस तस्वीर को मुकम्मल करने ठचानक पीछे खड़ा आदित्य राज कौल दिखा (शायद किताब ख़रीदने आया था) और उसके तुरंत बाद राहुल ने बोलते हुए शिवम् विज का नाम लिया. medianagar में जो लेख आपने पढ़ा वो इस फ़िल्म से मुतभेड़ की शुरुआत थी. आगे की कहानी में ये सभी नाम पात्र के रूप में आते हैं. उम्मीद है 'एक साल रंग दे बसंती' शीर्षक वाला ये निबंध जल्दी ही आप और मैं पढ़ पाएंगे. आमीन! --------------------------------- Never miss a thing. Make Yahoo your homepage. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080201/e1e1b791/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Feb 2 13:02:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 2 Feb 2008 13:02:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sukhvinder interview Message-ID: <200802021302.10881.ravikant@sarai.net> multilingual portal one india ke hindi khand se. vahan kuchh munnabhai jokes bhi hain, ekadh achha bhi. ravikant http://thatshindi.oneindia.in/movies/bollywood/music/2007/12/08/sukhvinder-singh-interview.html जो फिल्म की भाषा है, वही भाषा संगीत बोलेगा शुक्रवार, दिसंबर 14, 2007 Sukhvinder Singh“दर्दे डिस्को" से एक बार फिर चर्चा में आए सुखविन्दर पहली बार राजकुमार संतोषी की फिल्म “हल्ला बोल" में न सिर्फ संगीत दे रहे हैं बल्कि बैकग्राउंड संगीत भी दे रहे हैं. इस सिलसिले में हमनें उनसे बात की और उनके विचार जानें. फिल्म “हल्ला बोल" के माध्यम से पहली बार आपने बैकग्राउंड म्यूज़िक दिया है। उसका अनुभव कैसा रहा ? बहुत ही अच्छा रहा. कई बार निर्देशक गीत के संगीत से बैकग्राउंड म्यूज़िक को भी पसंद कर लेते हैं. जब मैंने संतोषी जी की फिल्म “हल्ला बोल" के लिए संगीत तैयार किया तभी संतोषी जी ने गीत के संगीत के आधार पर मुझे बैकग्राउंड म्यूज़िक का काम भी सौप दिया. उन्हें लगा कि जिस दीवानगी से उन्होंने फिल्म निर्देशित की है, उसी दीवानगी से मै उनके फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक भी तैयार करूंग. मुझे खुशी है कि मैंने उन्हें निराश नहीं किया. बैकग्राउंड म्यूज़िक तथा म्यूज़िक, इन दोनों में कौन सी चीज़ आसान है ? देखिए कठिन तो दोनों ही है. हां बैकग्राउंड म्यूज़िक तैयार करने के लिए वक्त के साथ साथ काफी जा नकारियों की भी ज़रूरत होती है. इस बैकग्राउंड म्यूज़िक को तैयार करने में मुझे 90 दिन लगे. इसे मैंने काफी दिलों जान से बनाया है. 90 दिन काम करने के बावजूद इसमें मेरी दिलचस्पी बरकरार थी. यदि मुझे इसमें 150 दिन भी लगते तब भी मेरी दिलचस्पी इसमें कम नहीं होती बल्कि उतनी ही रहती जितनी पहले थी. कई बार चार मिनट का गाना तैयार करने में भी हम ऊब जाते हैं और कई बार दो ढाई घंटे की फिल्म भी बोझिल नहीं लगती. इस फिल्म में आपने गुरुबानी गाई है. यह आपका फैंसला था या राजकुमार संतोषी जी का फैंसला था ? इस फिल्म में गुरुबानी रखने का फैंसला हम दोनों का था. संतोषी जी ने इस फिल्म में एक ऐसा सिक्वेंस रखा था, जिसमें कोई पाकिज़ा गीत ही अच्छा लगता सो मैंने गुरुबानी रखने का सुझाव दिया. उसके बाद मैंने उसका प्रस्तुतीकरण किया तो वे न सिर्फ खुश हुए बल्कि उसे गाने की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर सौंपी. जब उन्होंने मुझे इसे गाने को कहा तो मेरे रोंगटे खडे हो गए. इस फिल्म में एक तरफ मैंने एक क्रांतिकारी गीत “अंग अंग ज़ख्मी है मेरा" गाया है तो दूसरी तरफ मैंने गुरुबानी भी गाई है. इस फिल्म में गुरुबानी गाना मेरे लिए सौगात है. यह गुरुबानी इस बात की तरफ इशारा करती है कि समाज से नकारात्मक पक्ष को हटाने के लिए हथियार की ज़रूरत नहीं है. हथियार आतंकवादी उठाते हैं, उग्रवादी नहीं. हम चाहें तो शांत रहकर भी अपनी बात कह सकते हैं. इस फिल्म से पहले भी आपने “द लिजेंड ऑफ भगत सिंह" में राजकुमार संतोषी के साथ काम किया है. उनकी तरफ से कितना योगदान रहा ? “द लिजेंड ऑफ भगत सिंह" के वक़्त हमारी इतनी जान पहचान नहीं थी. उन दिनों मैं अधिक ए आर रहमान के साथ रहता था। एक बार यूं ही किसी पार्टी में हमारी मुलाकात हुई. मुझे इस फिल्म के निर्माता सामी सिद्दीकी जी ने फिल्म “हल्ला बोल" के सिलसिले में संतोषी जी से मिलवाया. इस फिल्म के बारे में मैं पहले ही किसी से सुन चुका था. जहां तक संतोषी जी की बात थी, मैं जानता था कि ये एक्शन फिल्म ही बनांते हैं. सो हो न हो यह भी एक्शन फिल्म होगी. उसके बाद मैंने उस फिल्म का कुछ भाग देखा और उन्होंने मुझे फिल्म की पूरी कहानी सुनाई. उसके बाद मैंने उन्हें यूं ही कुछ सुनाया और यह चीज़ उन्हें पसंद आ गई. इसके बाद इस फिल्म के संगीत की ज़िम्मेदारी उन्होंने मुझ पर सौंप दी. इस फिल्म में संगीत के साथ बैकग्राउंड संगीत और गुरुबानी आपने गाई है. आपके अनुसार “हल्ला बोल" के संगीत की खासियत क्या है ? जो हर संगीतकार सोचता है – अच्छा. ये तो अपेक्षा हुई. मैंने खासियत पूछी है ? खासियत यह है कि इस फिल्म का संगीत बनाते वक़्त हमारे मन में कहीं भी ये बात नहीं थी कि हमें कुछ हटकर बनाना है. जैसा है ठीक है वाली सोच हमनें अपना रखी थी. जो फिल्म की भाषा है, वही भाषा संगीत बोल रहा है. यह अच्छे सिनेमा की पहचान है. मुझे लगता है यह इसकी खासियत है. “ओम शांती ओम" के “दर्दे डिस्को" के बाद कहा जा रहा है कि आप शाहरूख खान के लिए काफी लकि साबित रहे ? देखिए ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो यह कहना चाहूंगा कि इस गीत के लिए मेरे अलावा शाहरूख खान और फरहा खान ने भी दिलों जान से मेहनत की है. साथ ही इसमें विशाल शेखर के संगीत और जावेद सा हब के गीत का भी योगदान है. यह पहला गीत नहीं है इससे पहले भी मेरे कई गीत पॉप्यूलर हो चुके हैं जो शाहरूख पर फिल्माए जा चुके हैं. उन दिनों भी लोग मुझसे यही कहते थे. मगर पहले मैं लक को नहीं मानता था मगर अब वाकई मानने लगा हूं. यह मेरी किस्मत है जो शाहरूख के साथ चमक उठती है. लेकिन इसके अलावा भी मेरे दूसरे गीत हैं जो पॉप्यूलर हुए हैं, लोग उन्हें क्यों भूल जाते हैं. मगर यह तो आप भी मानेंगे कि इस गीत ने 42 साल में शाहरूख को और जवां कर दिया ? देखिए शाहरूख के बारे में मैं यही कहना चाहूंगा कि वो उन कलाकारों में से हैं जो अच्छे अदाकार होने के अलावा बहुत प्रोफेशनल है. उनमें कुछ बात है जो आज वह बुलंदी पर हैं. शाहरूख के साथ मेरे कॉम्बि नेशन का जो जादू चला है वह ठीक है मगर उसके पीछे व्यावहारिक मेहनत को भी हम भूल नहीं सकते. इस गीत को गाते वक़्त दर्द और डिस्को का कॉम्बिनेशन आपको कैसा लगा ? मुझे तो यह गीत सूफियाना लगता है. सूफी गीतों में ही दर्द के साथ घुंघरू का ज़िक्र होता है. यही गीत क्यों, “छैया छैया" गीत में भी वही बात है. ये और बात है कि लोगों को वह नज़र नहीं आता. उसी गीत के दूसरे भाग में पीर बाबा बुल्ले शाह का कलाम हमनें लिया था – “तेरे इश्क नचाया कर थैया थैया". दरअसल सूफी गीतों में यही बात होती है वहां सीने में दर्द और पांव में घुंघरू होते हैं. किसी के दिदार की तलाश होती है तो सीने में दर्द उठता है. निगाहें तरसती हैं कि कब वो हमें दि खाई दे और उसे पाने के लिए हमारा मन इस कदर नाचने लगता है कि पांव में घुंघरू आ जाते हैं. “दर्दे डिस्को" गाते वक़्त मैंने वही चीज़ महसूस की. आम तौर पर माइक के सामनें गाते वक़्त हमें हिदायत दी जाती है कि बिल्कुल नहीं हिलना है मगर मैंने इस गीत को पूरी तरह से इंजॉय करके नाच नाचकर गाया. हालांकि यह बात मैंने पहले ही साफ कर दी थी. इस गीत को सुनकर शाहरूख की क्या प्रतिक्रिया रही ? हमारी फिल्म इंडस्ट्री में एक बात है. जब हम खुश होते हैं तो दिल खोलकर तारीफ करते हैं और जब नाराज़ होते हैं तो, या तो सलाह देते हैं या फिर बात करना छोड देते हैं. इस गाने के बाद फरहा मुझसे मिली, उसने मुझे दूर से देखकर चिल्लाते हुए कहा “सुख्खी, (जब लोग मुझसे खुश होते हैं तो मुझे सुखविंदर की बजाय सुख्खी कहते हैं) तुमनें तो कमाल कर दिया. तुम्हारी तरह कोई इस गीत को नहीं गा सकता था.“ इसी तरह दुबई के एक कॉंसर्ट में मेरी मुलाकात शाहरूख से हुई. पहले तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया और फिर कहा “यार तू कुछ कर देता है. लोग कहते हैं तू बर्फ खा लेता है, मिर्ची खा लेता है. फिर ये कमाल कैसे करता है यार. मुझे लगता है तेरे हाथों में कुछ जादू है तू कुछ कर देता है.“ यह सुनकर मेरा मन गदगद हो गया. इसका सारा प्रभाव फिल्म “चक दे इंडिया" के शिर्षक गीत पर पडा. मैंने भी सोचा “अब कुछ करिए". अपनी आने वाली फिल्मों के बारे में बताइए ? मैं एक बार में एक ही फिल्म करना पसंद करता हूं. इस फिल्म के बाद मैं सुभाष घई की आने वाली फिल्म “ब्लैक एंड व्हाइट" का संगीत तैयार कर रहा हूं. मुझे लगता है इस फिल्म का संगीत वही ऊंचाई पाएगा जो बरसो पहले “हीरो" के संगीत ने पाया था. From ravikant at sarai.net Sat Feb 2 18:04:26 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 2 Feb 2008 18:04:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSwIC0g4KSu4KWI4KSCIOCkquCksiDgpKbgpYsg4KSq4KSyIOCkleCkviA=?= =?utf-8?b?4KS24KS+4KSv4KSwIOCkueClguCkgg==?= Message-ID: <200802021804.27251.ravikant@sarai.net> http://www.bhaskar.com/spotlight/sahir/200710240710242219_sahir_info.html मैं पल दो पल का शायर हूं नीरज कुमार Wednesday, October 24, 2007 22:14 [IST] मुंबई. दुनिया ने तजरुबात-ओ-हवादिस की श़क्ल में जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं। साहिर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। च्पल दो पलज् के इस शायर ने साहित्य और फ़िल्म की दुनिया के आक़ाश में एक ऐसी चमक क़ायम कर दी जो सदियों तक आबाद रहेगी। साहिर एक क्रांतिकारी शायर थे। इसकी पूरी झलक इनके ग़ीतों और शायरी में नजर आती है। जो ज़िंदग़ी पे गुज़री उसे शब्दों में ढालते गए। एक शेर में साहिर ने कहा भीच्दुनिया ने तजरुबात-ओ-हवादिस की श़क्ल में जो कुछ मुझे दिया लौटा रहा हूं मैं। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। इस महा न शायर और गीतकार को भास्कर डॉट कॉम की श्रद्धांजलि। प्रारंभिक जीवन साहिर का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना में एक ज़मींदार घराने में हुआ था। उनका नाम अब्दुलहई साहिर था। ज़मींदार घराने में जन्म लेने के बावजूद साहिर की शुरुआती जिंदगी अभावों के बी च गुजरी। कारण था उनके माता और पिता में अलगाव होना। साहिर के पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। लाहौर में अमृता से मुलाकात साहिर ने लुधियाना के ख़ालसा कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद 1939 में वे लाहौर चले आए। लाहौर के सरकारी कॉलेज़ में उन्होंने दाख़िला लिया। यहीं उनकी मुलाक़ात अमृता प्रीतम से हुई थी। अमृता प्रीतम से उनके प्यार के क़िस्से आम हो गए। बाद में साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया। पहली किताब कॉलेज से निकाले जाने के बाद साहिर ने अपनी पहली क़िताब पर काम शुरू कर दिया। 1943 में उन्होंने च्तल्ख़ियांज् नाम से अपनी पहली शायरी की किताब प्रकाशित करवाई। तल्ख़ियां से साहिर को एक नई पहचान मिली। इसके बाद साहिर अदब़-ए-लतीफ़, शाहकार और सवेरा के संपादक बने। साहिर प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन से भी जुड़े रहे थे। सवेरा में छपे कुछ लेख से पाकिस्तान सरकार नाराज़ हो गई और साहिर के ख़िलाफ वारंट जारी कर दिया दिया। 1949 में साहिर दिल्ली चले आए। कुछ दिन दिल्ली में बिताने के बाद साहिर मुंबई में आ बसे। साहिर ने च्परछाइयांच् नाम की एक क़िताब की भी रचना की थी। फ़िल्मों में साहिर साहिर लुधियानवी को फ़िल्म च्आज़ादी की राह परज् में पहली बार ग़ीत लिखने का मौका मिला था। 1949 में बनी इस फिल्म के चार गाने साहिर ने लिखे थे। इस फिल्म का पहला गाना था च्बदल रही है जिंदगीज्। साहिर को जिस फिल्म से इंडस्ट्री में पहचान मिली वो फिल्म थी च्नौजवानज्। 1951 में बनी इस फिल्म के संगीतकार थे एसडी बर्मन। च्नौजवानज् फिल्म का गीत च्ठंडी हवाएं लहरा के आएंज् काफी लोकप्रिय हुआ था। इसी साल गुरुदत्त की फिल्म च्बाज़ीज् भी रिलीज हुई। इसका गीत संगीत भी काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें भी साहिर को एसडी बर्मन के साथ काम करने का मौका मिला। इसके बाद साहिर और एसडी बर्मन की जोड़ी लोकप्रिय हो गई। इस जोड़ी ने कई हिट गाने दिए। जाल, टैक्सी ड्राइवर, हाउस नंबर-44, मुनीम जी जैसी फिल्मों एसडी बर्मन और साहिर की जोड़ी ने बेहतर गीतों के जरिए श्रोताओं का मन मोह लिया। हालांकि फिल्म च्प्यासाज् के बाद एसडी बर्मन और साहिर की जोड़ी अलग हो गई। इसके बाद साहिर ने रोशन और खय्याम के साथ मिलकर कई हिट गाने दिए। वर्ष 1963 में ताजमहल फिल्म के गीतों के लिए उन्हें फिल्म फेयर का अवार्ड मिला था। सत्तर के दशक में साहिर ने खासतौर पर यश चोपड़ा की फिल्मों पर ही काम किया। 1976 में फिल्म कभी कभी के गीत भी साहिर ने लिखे। फिल्म का टाइटल सांग उनकी नज़्मों के आधार पर तय किया गया। कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है गाना सुपर हिट हुआ। इस गाने के लिए भी साहिर को फिल्म फेयर अवार्ड मिला था। साहिर का व्यक्तित्व साहिर बेहद संवेदनशील होने साथ ही बेहद स्वाभिमानी भी थे। वे अक्सर इस बात पर अड़ जाते थे कि पहले मैं गाने लिखूंगा उसके बाद गाने के आधार पर धुन बनाई जाएगी। साहिर ने फिल्म इंडस्ट्री में गी तकारों को एक नई जगह दिलाई। साहिर की लोकप्रियता काफी थी और वे अपने गीत के लिए लता मंगेश्कर को मिलने वाले पारिश्रमिक से एक रुपया अधिक लेते थे। इसके साथ ही ऑल इंडिया रेडियो पर होने वाली घोषणाओं में गीतकारों का नाम भी दिए जाने की मांग साहिर ने की जिसे पूरा किया गया। इससे पहले किसी गाने की सफलता का पूरा श्रेय संगीतकार और गायक को ही मिलता था। अकेला बहुत देर चलता रहा साहिर ने शादी नहीं की और उनकी जिंदगी बेहद तन्हा रही। साहिर का साथ किसी ने नहीं दिया मगर वे नग़्मों से लोगों की वाहवाहियां लूटते रहे। तन्हाई और प्रेम के अभाव में साहिर का स्वभाव विद्रोही हो गया था। पहले अमृता प्रीतम के साथ प्यार की असफलता और इसके बाद गायिका और अभिनेत्री सुधा मल्होत्रा के साथ भी एक असफल प्रेम से जमीन पर सितारों को बिछाने की हसरत अधूरी रह गई। इसका जिक्र साहिर के इस गाने में पूरी तरह उभरता है च्तुम अगर साथ देने का वादा करो... च्मैं अकेला बहुत देर चलता रहा, अब सफर ज़िंदगानी का कटता नहींज्। साहिर अपने अकेलेपन और फिक्र को शराब और सिगरेट के धुंए में उड़ाते चले गए। अंतत: 25 अक्टूबर 1980 को हार्ट अटैक हो ने से साहिर लुधियानवी हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गए। साहिर के दस गाने 1 मैं पल दो पल का शायर हूं2 तुम अगर साथ देने का वादा करो3 ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है4 मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया5 जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला 6 नग़्मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूं7. तोरा मन दर्पण कहलाए8. अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम9. कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है10. छू लेने दो नाजुक होठों को कुछ और नहीं... From vineetdu at gmail.com Mon Feb 4 14:40:47 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 4 Feb 2008 01:10:47 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCknQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw4KSW4KSC4KShLeCkq+CkvuCksOCkluCkguCkoSDgpJXgpLk=?= =?utf-8?b?4KS+4KSCIOCkuOClhw==?= Message-ID: <829019b0802040110n21af1968k3794d2ff129ddd3d@mail.gmail.com> कल वाणी प्रकाशन से प्रकाशित रणेन्द्रजी द्वारा संपादित किताब इन्साइक्लोपीडिया ऑफ झारखंड का लोकार्पण होना था। रणेन्द्रजी के साथ-साथ आसपास के लोग भी उत्साह में थे और इंतजार कर रहे थे कि नामवर सिंह आएं और किताब का लोकार्पण हो। मैं और मेरे एक-दो दोस्त स्टॉल पर पोस्टर लगाने में मदद कर रहे थे कि तभी दो लोग उधर से गुजरे और पोस्टर की सिर्फ पहली लाइन पढ़कर बोले- ये झारखंड-फारखंड के लोग वर्ल्ड बुक फेयर में कहां से। मतलब कि ये क्या करने आ गए। रणेन्द्रजी ने सुना और लोगों को बताया कि देखिए ये लोग क्या बोल कर गए। हमलोग भी थोड़े असहज हो गए। उन्हें बात लग गई कि कोई ऐसे कैसे बोल सकता है, वो भी सड़क पर नहीं विश्व पुस्तक मेले में, प्रगति मैंदान में और अपने को रोक नहीं पाए। इसलिए प्रकाशक अरुण माहेश्वरी ने जब उन्हें किताब और रचना प्रक्रिया के बारे में बोलने के लिए कहा तो सारी बातें बोलते हुए कि झारखंड के बिहार से अलग होने के बाद उसकी अपनी अलग पहचान बनी लेकिन इस पहचान को सामने लाने के लिए कोई मुकम्मल काम नहीं हुए, चार खंडों में झारखंड का ये इन्साइक्लोपीडिया लोगों को झारखंड के बदले परिदृश्य को समझने में मददगार होगें, साथ ही ये भी कह दिया कि अभी कुछ लोगों ने पोस्टर देखकर कहा कि वर्ल्ड बुक फेयर में झारखंड-फारखंड के लोग कैसे चले आते हैं। हम अपने को पहले देश का नागरिक मानते हैं लेकिन जहां से हम आते हैं वहां के बारे में कोई इस तरह के विचार रखे और प्रतिक्रिया देते हों तो बात दिल में लगनेवाली तो है ही। दिल्ली में मैं देखता हूं कि एक बिहारी की पहचान कुली-कबाडी, रिक्शा चलानेवाले और मजदूरी करने वाले की और बिहार की इमेज एक भ्रष्ट राज्य के रुप है। इस पहचान के निशान लोगों के दिमाग में इतने गहरे हैं कि बाकी के पहचान पनप ही नहीं पाते, कई अच्छी चीजें सामने आ ही नहीं पाती, लोग उसकी नोटिस ही नहीं लेते। जहां भी गंदा या गंदगी है उसे बिहार और बिहारी का नाम दे देते हैं। ऐसा लिखकर बिहार की बाकी गंदगियों को, बुराइयों को नजरअंदाज नहीं कर रहा बल्कि मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि जब भी हम दिल्ली के बारे में बात करते हैं तो ग्रेटर कैलाश, संसद, मेट्रो और चौबीसों घंटे बिजली ही दिमाग में क्यों आते हैं, सीलमपुर की गंदगी और भजनपुरा का नरक ध्यान में क्यों नहीं आता। क्या ऐसा नहीं है कि हम दिल्ली के बाहर इन राज्यों को लेकर कुछ ज्यादा ही निगेटिव एप्रोच रखते हैं। ऐसी ही मानसिकता झारखंड को लेकर भी है। झारखंड माने दिल्ली के लोगों( सब नहीं लेकिन अधिकांश) में है कि ये जंगली इलाका है, यहां के लोग असभ्य होते हैं और इनकी लाइफ स्टाइल पाषाण युग की होती है। मुझे कॉलेज के दिनों की याद आ गयी। मैं नया-नया दिल्ली में आया था, हिन्दू कॉलेज में एम.ए करने। डर से क्लास शुरु होने के पांच दिनों तक गया ही नहीं। मामला थोड़ा ठंड़ा पड़ गया तो पहुंचा। लोगों ने मुझे घोर आश्चर्य से देखा और एक लड़की ने कहा- अरे ये तो जैसे टीवी में झारखंड के लोगों को दिखाते हैं वैसा नहीं है, इसका रंग तो साफ है, वहां के लोग तो काले होते हैं और देखो ये जींस पहनकर आया है। उनके लिए मैं अजूबा था। फिर बारी-बारी से लोग मेरी शर्ट का कॉलर उलटकर देखने लगे और कहा-झारखंड में एरो की शर्ट मिलती है। एक लड़के ने टोका- अरे तुम भी ली-कूपर के जूते पहनते हो। उन्हें इस बात पर बड़ी हैरानी हो रही थी कि ये वो सबकुछ वैसा ही पहना है जैसा कि हम दिल्ली में रहकर पहनते हैं। यहां जोड़ दूं कि मेरे साथ ऐसा करनेवाले सिर्फ दिल्ली के ही लोग नहीं थे, कई लोग नए-नए देहलाइट हुए थे। आज रणेन्द्रजी की किताब की पोस्टर देखकर लोगों ने जिस तरह से रिएक्ट किया, मेरे दिमाग में ठनका कि लोगों की ये सोच कहीं योजना, कुरुक्षेत्र या फिर दूसरी झारखंड विशेषांक पत्रिकाओं को देखकर तो नहीं बनी जिसमें ज्यादातर तस्वीरें लड़की के सिर पर बोझा ढ़ोते हुए या बहुत हुआ तो मांदल बजाते हुए छपते हैं। या फिर ऐसा वहां की गरीबी के कारण हुआ है, वहां की संस्कृति का देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने के कारण हुआ है, किसी भी फिल्म में वहां की सम्पन्नता को न दिखाए जाने के कारण हुआ है या फिर वाकई इसके लिए वहां के लोग ही जिम्मेवार हैं। फिलहाल तो दो ही बातें लगती हैं कि संभव है रणेन्द्रजी के इस प्रयास से लोगों का नजरिया कुछ बदले और दूसरा कि आनेवाले समय में इंडस्ट्री और रीयल स्टेट के टेंडर के पेपर भरने जब लोग झारखंड जाएं तो कुछ अलग तरीके से सोच पाएं। बाकी अपनी तरफ से कोशिशें तो जारी है ही।.... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-40923 Size: 9705 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080204/be4a08bd/attachment-0001.bin From kamal_bhu at rediffmail.com Wed Feb 6 14:46:08 2008 From: kamal_bhu at rediffmail.com (Kamal Kumar Mishra) Date: 6 Feb 2008 09:16:08 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= anuvadkarm Message-ID: <20080206091608.957.qmail@webmail72.rediffmail.com> "...अब हमें हिन्दी को विश्व भाषा और राजभाषा बनाने का सपना देखना छोड़ देना चाहिए . हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के लिए करोड़ों रूपए शुद्ध मूर्खतापूर्ण तरीके से खर्च करने के बजाये हमें वो पैसा हिन्दी साहित्य के विदेशी अनुवाद में खर्च करना चाहिए , इससे हिन्दी साहित्य का ज्यादा भला होगा . अगर अरबों रूपए लगा कर हिन्दी को विश्व भाषा का दरजा दिला भी दिया जाए तोक्या राजनय भी उसका इस्तेमाल करेंगे ?इससे महज एक छद्म पैदा होगा." कुछ ऐसे ही विचार थे हिन्दी के मशहूर कवि अशोक वाजपेयी के जब वोः पुस्तक मेले में अपने पाठकों से रूबरू थे. जिसे आज दैनिक भास्कर ने भी छापा है. दोस्तों अनुवाद के प्रति यह दृष्टि मुझे अच्छी लगी इस लिए सोचा की आप भी इस पर विचार करें. वैसे अनुवाद के प्रति मेरा मानना है कि यह दोतरफा रहगुजर है. मतलब आप अपना साहित्य अगर दूसरी जबानों मे देखना चाहते हैं तो साथ ही साथ दूसरी भाषाओं से साहित्य और साहित्येतर विषयों को अपने पाठकों तक पहुचाने में भी तंग दस्त होने कि जरुरत नहीं है. लेकिन अनुवाद को तथाकथित मौलिक लेखन से कमतर समझने वालों , पाखंडी भीड़ के शोर और अपना माल बेचने कि हडबडी के बीच क्या अनुवाद को हिन्दी जगत में कभी कोई प्रतिष्ठा हासिल होगी ये सवाल मुझे अक्सर मथा करता है ? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080206/a90a23d1/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Thu Feb 7 11:40:21 2008 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Thu, 7 Feb 2008 01:10:21 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?anuvadkarm?= In-Reply-To: <20080206091608.957.qmail@webmail72.rediffmail.com> References: <20080206091608.957.qmail@webmail72.rediffmail.com> Message-ID: 6 Feb 2008 09:16:08 -0000, Kamal Kumar Mishra : > > > > "...अब हमें हिन्दी को विश्व भाषा और राजभाषा बनाने का सपना देखना छोड़ देना > चाहिए . हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के लिए करोड़ों रूपए शुद्ध मूर्खतापूर्ण > तरीके से खर्च करने के बजाये हमें वो पैसा हिन्दी साहित्य के विदेशी अनुवाद में > खर्च करना चाहिए , इससे हिन्दी साहित्य का ज्यादा भला होगा . अगर अरबों रूपए > लगा कर हिन्दी को विश्व भाषा का दरजा दिला भी दिया जाए तोक्या राजनय भी उसका > इस्तेमाल करेंगे ?इससे महज एक छद्म पैदा होगा." > > कुछ ऐसे ही विचार थे हिन्दी के मशहूर कवि अशोक वाजपेयी के जब वोः पुस्तक मेले > में अपने पाठकों से रूबरू थे. जिसे आज दैनिक भास्कर ने भी छापा है. > > दोस्तों अनुवाद के प्रति यह दृष्टि मुझे अच्छी लगी इस लिए सोचा की आप भी इस > पर विचार करें. वैसे अनुवाद के प्रति मेरा मानना है कि यह दोतरफा रहगुजर है. > मतलब आप अपना साहित्य अगर दूसरी जबानों मे देखना चाहते हैं तो साथ ही साथ दूसरी > भाषाओं से साहित्य और साहित्येतर विषयों को अपने पाठकों तक पहुचाने में भी > तंग दस्त होने कि जरुरत नहीं है. लेकिन अनुवाद को तथाकथित मौलिक लेखन से कमतर > समझने वालों , पाखंडी भीड़ के शोर और अपना माल बेचने कि हडबडी के बीच क्या > अनुवाद को हिन्दी जगत में कभी कोई प्रतिष्ठा हासिल होगी ये सवाल मुझे अक्सर > मथा करता है ? > [image: Times Job Search] > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- cha.Sh -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080207/c2152773/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Feb 7 15:34:03 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 7 Feb 2008 02:04:03 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWLIOCkruCli+CkueCksuCljeCksuCkviDgpKrgpLAg4KSy4KS/4KSW?= =?utf-8?b?4KSk4KS+IOCkueCliCwg4KSy4KS/4KSC4KSVIOCkpuClhyDgpKbgpYs=?= Message-ID: <829019b0802070204q69769f49la2b9f6d9fab4fd26@mail.gmail.com> पिछले बुक फेयर के मुकाबले इस बुक फेयर में अपने को लेकर फर्क साफ देख रहा हूं और ऐसा हमारे दूसरे ब्लॉगर कम हिन्दी के साथी भी जरुर देख रहे होगें। लोगों के बीच ये मैसेज जा रहा है कि हिन्दी के रिसर्चर मास्टरों का झोला ढोने और पीछे-पीढे चलने का काम छोड़ रहे हैं।और बड़ी शिद्दत से अपनी पहचान बनाने में लगे हैं। कल ही की तो बात है। मिहिर, मेरे लिए दोस्त और मास्टरजी के लिए विनीत का जूनियर ( कई बार टोक चुका हूं, उसकी पहचान मेरा जूनियर होने से नहीं है मिहिर होने से है, खैर) ने फोन किया कि चार बजे एक पत्रिका का लोकार्पण है और आप आएं। और बताया कि वो इस पत्रिका का सह-संपादक है। पत्रिका के लोकार्पण हो जाने के बाद औपचारिक बातचीत के दौरान एक-दूसरे से परिचय का दौर शुरु हुआ। मेरे दो-तीन दोस्तों को साहित्यिक हलकों में लोग मेरे से ज्यादा जानते हैं सो मेरा परिचय कराने की जिम्मेवारी उन्होंने अपने उपर ले ली। ये है विनीत, डीयू से पीएचडी कर रहा है...मीडिया में विशेष रुचि है....और भी कुछ-कुछ ब्ला॥ब्ला॥। कुछ स्थापित साहित्यकारों को मेरी जाति की भनक लग गई थी मीडिया बोलते ही, मेरा नक्शा मेरे पूर्वजों से मिलाते इससे पहले ही मैं कट जाना उचित समझा। एक साथी ने कोहनी से मारते हुए कहा कि अरे बताओ न अपने बारे में ...ऐसे सोचोगे कि कोई तुमको बुलाकर छाप दे तो कैसे होगा। उधर अखबार में नहीं छपे तो हॉय-हॉ कर रहे थे और इधर बातचीत से मामला बनना है तो इन्टरेस्ट ही नहीं ले रहे हो। खैर, मेरे दोस्तों के पास बताने के लिए बहुत था कि सर आपने पिछला ज्ञानोदय का अंक देखा, पहल में भी ठीक मामला बन गया है सर। मेरी एक दोस्त को तो अशोक वाजपेयी ने वाकायदा कोट( अंग्रेजी के हिसाब से पढ़ें) किया है और हरिद्वार से अजीतजी का एसएमएस आया था। ये हैं .......एम।फिल् कर रहे हैं डीयू से। अरुण कमल ने इसकी कविता की नोटिस ली है और संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया है। इनसे मिलिए आधुनिकता पर अच्छा काम किया है, इंगलिशवालों से भी बढ़िया। मैं क्या बताता, जो बताता उन्हें चूतियापा लगता। जब मास्टरजी चालीस साल से लिख रहे हैं तो इन्हें लग रहा है तो हमारी लिखी बात की क्या बिसात। सच कहूं तो हिन्दी समाज में अपने लिए ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। अब तक आलम ये था कि बाबाओं के बीच अपना परिचय कराने का सीधा फंड़ा था कि ये फलां है डीयू से एम।फिल् कर रहे हैं ये फलां जेएनयू से पीएच।डी कर रहे हैं। बहुत हुआ तो टॉपिक पूछकर बाबा लोग बख्स देते। लेकिन इन दो सालों में कुच्छ दोस्तों ने लिखना शुरु कर दिया और छपने के लिए जी-जीन से लगे हुए तो मेरे प्रति भी बाबाओं की एक्सपेक्टेशन बढ़ गई है। सीधे पूछ बैठते हैं, इधर आपने क्या लिखा है। मेरा मन करता है कहूं कि- अजी उधर कब लिखा था कि इधर लिखने लगूं। ले देकर दो लेख छपी है जिसके बारे में लोगों की राय है कि एक तो एम।फिल् का ही काम है और दूसरा सेटिंग से छप गई है। एम।फिल का काम अगर छप जाए तो वो आर्टिकल नहीं होता और सेटिंग से छप जाने पर कुछ भी पढ़ने लायक नहीं रहता। सो अब मैंने उसकी चर्चा ही करनी छोड़ दी है। लेकिन एक बाबजी ने जब खोदकर पूछा कि पीएच।डी में आ गए हो और अभी तक कुछ लिखा ही नहीं तो बताना पड़ा कि लिखा है सरजी। उनका जबाब था कि लेकिन कहीं देखा नहीं। मैंने कहा-सरजी जिस मैगजीन में छपी है उसकी कीमत ४०० रुपये है और सब स्टॉल वाले रखते नहीं। संपादक सरजी जहां-तहां रिव्यू के नाम पर फ्री में नहीं भेजते। एक सेमिनार करायी थी इस पर औऱ अपील की थी कि सब लोग आएं। लोग आएं और वहीं पर इसका मूल्यांकन हो गया। इसलिए आपको दिखा नहीं, वैसे वाणी के स्टॉल पर है। एक दोस्त ने गरिआया कि स्साले लिखते भी वहां हो जिसे लोग आसानी से( आसानी माने फ्री या कम दाम में) लोग खरीद न सकें। भाई लोगों को गुरुर था कि उन्हें साहित्य के तोप लोग जानते हैं। पानी के प्राचीर वाले लेखक जानते हैं, मतवाले की चक्की वाले संपादक जानते हैं और महान घोषित करने वाले आलोचक जानते हैं। एक ने तो कहा कि चार साल से डीयू में रहकर क्या उखाड़ रहे हो जी। किसी से परिचय नहीं। पहले दिन भी वही हुआ था। सबको सबलोग जान रहे हैं। भाई लोग लेख का आर्डर ले रहे हैं, संपादक से समझ रहे हैं कि इसमें किसकी लेनी हैं, किस आलोचक का खंभा खिसकाना है और किससे सागर वाली दुश्मनी निकालनी है और किसे फिर से कासिम दवाखाना भेजना है। मैं बोतू बना अंगूर टूंग रहा था। उनके साथ चल रहा था। मेरी चुप्पी से संपादकों को लग रहा था कि लड़का सीरियस है, सब सुन-समझ रहा है, सो और जोश में समझा रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि यहां मसाले की स्टोरिंग चल रही है। बढ़ते-बढ़ते एक स्टॉल से आवाज आई कि मोहल्ले वाली बहस पर तुम क्या सोचते हो दिलीप। मैं रुक गया और बोला- रिजेक्ट माल और तब क्या था एक ही साथ- मसीजीवी, कस्बा, भड़ास,लिंकित मन कई नाम बुक फेयर के हॉल में गूंज गए। मनीषा थी, दिलीपजी से मिलवाया, दिलीपजी ने इरफान भाई से और फिर ब्लॉगर का पूरा कुनबा। सब गले मिले और कहने लगे बहुत सही लिखते हो गुरु, जमे रहो। अपनी-अपनी पोस्ट को लेकर बातें। दिलीप भाई ने कहा ऐसे कैसे जाने देंगे,चला फिर फोटो सेशन। लोग सहला रहे थे, प्यार कर रहे थे और शुभकामनाएं दे रहे थे। पीछे पलटकर देखा तो नवोदित आलोचक साथी खड़े थे। एक ने गरिआया- तुम सब स्साले भोसड़ी के चलते-फिरते प्रकाशक बनते हो। नो डाउट इसमें जेलसी का भी भाव था। आधे घंटे के भीतर कई लोग मिले जो मुझे अलग-अलग वजहों से नहीं अलग-अलग पोस्टों को लेकर जान रहे थे। मैं थोड़ा डरा भी कि ये पहचान एकेडमिक्स में काम तो नहीं आएगी। सिर्फ पोस्ट तो नहीं लिखता और भी तो पढ़ता-लिखता हूं। लेकिन फिर खुशी हुई कि जाने दो फलां का झोला ढोता है उससे तो लाख गुनी बढ़िया है ये पहचान। इधर कल कर्मेंन्दु शिशिरजी ने सब कुछ सुन लेने के बाद कहा कि ये तो मोहल्ला पर लिखता है। अपना भी कोई ब्लॉग है, लिंक दे दो।.....पिछले बुक फेयर के मुकाबले इस बुक फेयर में अपने को लेकर फर्क साफ देख रहा हूं और ऐसा हमारे दूसरे ब्लॉगर कम हिन्दी के साथी भी जरुर देख रहे होगें। लोगों के बीच ये मैसेज जा रहा है कि हिन्दी के रिसर्चर मास्टरों का झोला ढोने और पीछे-पीढे चलने का काम छोड़ रहे हैं।और बड़ी शिद्दत से अपनी पहचान बनाने में लगे हैं। कल ही की तो बात है। मिहिर, मेरे लिए दोस्त और मास्टरजी के लिए विनीत का जूनियर ( कई बार टोक चुका हूं, उसकी पहचान मेरा जूनियर होने से नहीं है मिहिर होने से है, खैर) ने फोन किया कि चार बजे एक पत्रिका का लोकार्पण है और आप आएं। और बताया कि वो इस पत्रिका का सह-संपादक है। पत्रिका के लोकार्पण हो जाने के बाद औपचारिक बातचीत के दौरान एक-दूसरे से परिचय का दौर शुरु हुआ। मेरे दो-तीन दोस्तों को साहित्यिक हलकों में लोग मेरे से ज्यादा जानते हैं सो मेरा परिचय कराने की जिम्मेवारी उन्होंने अपने उपर ले ली। ये है विनीत, डीयू से पीएचडी कर रहा है...मीडिया में विशेष रुचि है....और भी कुछ-कुछ ब्ला॥ब्ला॥। कुछ स्थापित साहित्यकारों को मेरी जाति की भनक लग गई थी मीडिया बोलते ही, मेरा नक्शा मेरे पूर्वजों से मिलाते इससे पहले ही मैं कट जाना उचित समझा। एक साथी ने कोहनी से मारते हुए कहा कि अरे बताओ न अपने बारे में ...ऐसे सोचोगे कि कोई तुमको बुलाकर छाप दे तो कैसे होगा। उधर अखबार में नहीं छपे तो हॉय-हॉ कर रहे थे और इधर बातचीत से मामला बनना है तो इन्टरेस्ट ही नहीं ले रहे हो। खैर, मेरे दोस्तों के पास बताने के लिए बहुत था कि सर आपने पिछला ज्ञानोदय का अंक देखा, पहल में भी ठीक मामला बन गया है सर। मेरी एक दोस्त को तो अशोक वाजपेयी ने वाकायदा कोट( अंग्रेजी के हिसाब से पढ़ें) किया है और हरिद्वार से अजीतजी का एसएमएस आया था। ये हैं .......एम।फिल् कर रहे हैं डीयू से। अरुण कमल ने इसकी कविता की नोटिस ली है और संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया है। इनसे मिलिए आधुनिकता पर अच्छा काम किया है, इंगलिशवालों से भी बढ़िया। मैं क्या बताता, जो बताता उन्हें चूतियापा लगता। जब मास्टरजी चालीस साल से लिख रहे हैं तो इन्हें लग रहा है तो हमारी लिखी बात की क्या बिसात। सच कहूं तो हिन्दी समाज में अपने लिए ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। अब तक आलम ये था कि बाबाओं के बीच अपना परिचय कराने का सीधा फंड़ा था कि ये फलां है डीयू से एम।फिल् कर रहे हैं ये फलां जेएनयू से पीएच।डी कर रहे हैं। बहुत हुआ तो टॉपिक पूछकर बाबा लोग बख्स देते। लेकिन इन दो सालों में कुच्छ दोस्तों ने लिखना शुरु कर दिया और छपने के लिए जी-जीन से लगे हुए तो मेरे प्रति भी बाबाओं की एक्सपेक्टेशन बढ़ गई है। सीधे पूछ बैठते हैं, इधर आपने क्या लिखा है। मेरा मन करता है कहूं कि- अजी उधर कब लिखा था कि इधर लिखने लगूं। ले देकर दो लेख छपी है जिसके बारे में लोगों की राय है कि एक तो एम।फिल् का ही काम है और दूसरा सेटिंग से छप गई है। एम।फिल का काम अगर छप जाए तो वो आर्टिकल नहीं होता और सेटिंग से छप जाने पर कुछ भी पढ़ने लायक नहीं रहता। सो अब मैंने उसकी चर्चा ही करनी छोड़ दी है। लेकिन एक बाबजी ने जब खोदकर पूछा कि पीएच।डी में आ गए हो और अभी तक कुछ लिखा ही नहीं तो बताना पड़ा कि लिखा है सरजी। उनका जबाब था कि लेकिन कहीं देखा नहीं। मैंने कहा-सरजी जिस मैगजीन में छपी है उसकी कीमत ४०० रुपये है और सब स्टॉल वाले रखते नहीं। संपादक सरजी जहां-तहां रिव्यू के नाम पर फ्री में नहीं भेजते। एक सेमिनार करायी थी इस पर औऱ अपील की थी कि सब लोग आएं। लोग आएं और वहीं पर इसका मूल्यांकन हो गया। इसलिए आपको दिखा नहीं, वैसे वाणी के स्टॉल पर है। एक दोस्त ने गरिआया कि स्साले लिखते भी वहां हो जिसे लोग आसानी से( आसानी माने फ्री या कम दाम में) लोग खरीद न सकें। भाई लोगों को गुरुर था कि उन्हें साहित्य के तोप लोग जानते हैं। पानी के प्राचीर वाले लेखक जानते हैं, मतवाले की चक्की वाले संपादक जानते हैं और महान घोषित करने वाले आलोचक जानते हैं। एक ने तो कहा कि चार साल से डीयू में रहकर क्या उखाड़ रहे हो जी। किसी से परिचय नहीं। पहले दिन भी वही हुआ था। सबको सबलोग जान रहे हैं। भाई लोग लेख का आर्डर ले रहे हैं, संपादक से समझ रहे हैं कि इसमें किसकी लेनी हैं, किस आलोचक का खंभा खिसकाना है और किससे सागर वाली दुश्मनी निकालनी है और किसे फिर से कासिम दवाखाना भेजना है। मैं बोतू बना अंगूर टूंग रहा था। उनके साथ चल रहा था। मेरी चुप्पी से संपादकों को लग रहा था कि लड़का सीरियस है, सब सुन-समझ रहा है, सो और जोश में समझा रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि यहां मसाले की स्टोरिंग चल रही है। बढ़ते-बढ़ते एक स्टॉल से आवाज आई कि मोहल्ले वाली बहस पर तुम क्या सोचते हो दिलीप। मैं रुक गया और बोला- रिजेक्ट माल और तब क्या था एक ही साथ- मसीजीवी, कस्बा, भड़ास,लिंकित मन कई नाम बुक फेयर के हॉल में गूंज गए। मनीषा थी, दिलीपजी से मिलवाया, दिलीपजी ने इरफान भाई से और फिर ब्लॉगर का पूरा कुनबा। सब गले मिले और कहने लगे बहुत सही लिखते हो गुरु, जमे रहो। अपनी-अपनी पोस्ट को लेकर बातें। दिलीप भाई ने कहा ऐसे कैसे जाने देंगे,चला फिर फोटो सेशन। लोग सहला रहे थे, प्यार कर रहे थे और शुभकामनाएं दे रहे थे। पीछे पलटकर देखा तो नवोदित आलोचक साथी खड़े थे। एक ने गरिआया- तुम सब स्साले भोसड़ी के चलते-फिरते प्रकाशक बनते हो। नो डाउट इसमें जेलसी का भी भाव था। आधे घंटे के भीतर कई लोग मिले जो मुझे अलग-अलग वजहों से नहीं अलग-अलग पोस्टों को लेकर जान रहे थे। मैं थोड़ा डरा भी कि ये पहचान एकेडमिक्स में काम तो नहीं आएगी। सिर्फ पोस्ट तो नहीं लिखता और भी तो पढ़ता-लिखता हूं। लेकिन फिर खुशी हुई कि जाने दो फलां का झोला ढोता है उससे तो लाख गुनी बढ़िया है ये पहचान। इधर कल कर्मेंन्दु शिशिरजी ने सब कुछ सुन लेने के बाद कहा कि ये तो मोहल्ला पर लिखता है। अपना भी कोई ब्लॉग है, लिंक दे दो।.....पिछले बुक फेयर के मुकाबले इस बुक फेयर में अपने को लेकर फर्क साफ देख रहा हूं और ऐसा हमारे दूसरे ब्लॉगर कम हिन्दी के साथी भी जरुर देख रहे होगें। लोगों के बीच ये मैसेज जा रहा है कि हिन्दी के रिसर्चर मास्टरों का झोला ढोने और पीछे-पीढे चलने का काम छोड़ रहे हैं।और बड़ी शिद्दत से अपनी पहचान बनाने में लगे हैं। कल ही की तो बात है। मिहिर, मेरे लिए दोस्त और मास्टरजी के लिए विनीत का जूनियर ( कई बार टोक चुका हूं, उसकी पहचान मेरा जूनियर होने से नहीं है मिहिर होने से है, खैर) ने फोन किया कि चार बजे एक पत्रिका का लोकार्पण है और आप आएं। और बताया कि वो इस पत्रिका का सह-संपादक है। पत्रिका के लोकार्पण हो जाने के बाद औपचारिक बातचीत के दौरान एक-दूसरे से परिचय का दौर शुरु हुआ। मेरे दो-तीन दोस्तों को साहित्यिक हलकों में लोग मेरे से ज्यादा जानते हैं सो मेरा परिचय कराने की जिम्मेवारी उन्होंने अपने उपर ले ली। ये है विनीत, डीयू से पीएचडी कर रहा है...मीडिया में विशेष रुचि है....और भी कुछ-कुछ ब्ला॥ब्ला॥। कुछ स्थापित साहित्यकारों को मेरी जाति की भनक लग गई थी मीडिया बोलते ही, मेरा नक्शा मेरे पूर्वजों से मिलाते इससे पहले ही मैं कट जाना उचित समझा। एक साथी ने कोहनी से मारते हुए कहा कि अरे बताओ न अपने बारे में ...ऐसे सोचोगे कि कोई तुमको बुलाकर छाप दे तो कैसे होगा। उधर अखबार में नहीं छपे तो हॉय-हॉ कर रहे थे और इधर बातचीत से मामला बनना है तो इन्टरेस्ट ही नहीं ले रहे हो। खैर, मेरे दोस्तों के पास बताने के लिए बहुत था कि सर आपने पिछला ज्ञानोदय का अंक देखा, पहल में भी ठीक मामला बन गया है सर। मेरी एक दोस्त को तो अशोक वाजपेयी ने वाकायदा कोट( अंग्रेजी के हिसाब से पढ़ें) किया है और हरिद्वार से अजीतजी का एसएमएस आया था। ये हैं .......एम।फिल् कर रहे हैं डीयू से। अरुण कमल ने इसकी कविता की नोटिस ली है और संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया है। इनसे मिलिए आधुनिकता पर अच्छा काम किया है, इंगलिशवालों से भी बढ़िया। मैं क्या बताता, जो बताता उन्हें चूतियापा लगता। जब मास्टरजी चालीस साल से लिख रहे हैं तो इन्हें लग रहा है तो हमारी लिखी बात की क्या बिसात। सच कहूं तो हिन्दी समाज में अपने लिए ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। अब तक आलम ये था कि बाबाओं के बीच अपना परिचय कराने का सीधा फंड़ा था कि ये फलां है डीयू से एम।फिल् कर रहे हैं ये फलां जेएनयू से पीएच।डी कर रहे हैं। बहुत हुआ तो टॉपिक पूछकर बाबा लोग बख्स देते। लेकिन इन दो सालों में कुच्छ दोस्तों ने लिखना शुरु कर दिया और छपने के लिए जी-जीन से लगे हुए तो मेरे प्रति भी बाबाओं की एक्सपेक्टेशन बढ़ गई है। सीधे पूछ बैठते हैं, इधर आपने क्या लिखा है। मेरा मन करता है कहूं कि- अजी उधर कब लिखा था कि इधर लिखने लगूं। ले देकर दो लेख छपी है जिसके बारे में लोगों की राय है कि एक तो एम।फिल् का ही काम है और दूसरा सेटिंग से छप गई है। एम।फिल का काम अगर छप जाए तो वो आर्टिकल नहीं होता और सेटिंग से छप जाने पर कुछ भी पढ़ने लायक नहीं रहता। सो अब मैंने उसकी चर्चा ही करनी छोड़ दी है। लेकिन एक बाबजी ने जब खोदकर पूछा कि पीएच।डी में आ गए हो और अभी तक कुछ लिखा ही नहीं तो बताना पड़ा कि लिखा है सरजी। उनका जबाब था कि लेकिन कहीं देखा नहीं। मैंने कहा-सरजी जिस मैगजीन में छपी है उसकी कीमत ४०० रुपये है और सब स्टॉल वाले रखते नहीं। संपादक सरजी जहां-तहां रिव्यू के नाम पर फ्री में नहीं भेजते। एक सेमिनार करायी थी इस पर औऱ अपील की थी कि सब लोग आएं। लोग आएं और वहीं पर इसका मूल्यांकन हो गया। इसलिए आपको दिखा नहीं, वैसे वाणी के स्टॉल पर है। एक दोस्त ने गरिआया कि स्साले लिखते भी वहां हो जिसे लोग आसानी से( आसानी माने फ्री या कम दाम में) लोग खरीद न सकें। भाई लोगों को गुरुर था कि उन्हें साहित्य के तोप लोग जानते हैं। पानी के प्राचीर वाले लेखक जानते हैं, मतवाले की चक्की वाले संपादक जानते हैं और महान घोषित करने वाले आलोचक जानते हैं। एक ने तो कहा कि चार साल से डीयू में रहकर क्या उखाड़ रहे हो जी। किसी से परिचय नहीं। पहले दिन भी वही हुआ था। सबको सबलोग जान रहे हैं। भाई लोग लेख का आर्डर ले रहे हैं, संपादक से समझ रहे हैं कि इसमें किसकी लेनी हैं, किस आलोचक का खंभा खिसकाना है और किससे सागर वाली दुश्मनी निकालनी है और किसे फिर से कासिम दवाखाना भेजना है। मैं बोतू बना अंगूर टूंग रहा था। उनके साथ चल रहा था। मेरी चुप्पी से संपादकों को लग रहा था कि लड़का सीरियस है, सब सुन-समझ रहा है, सो और जोश में समझा रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि यहां मसाले की स्टोरिंग चल रही है। बढ़ते-बढ़ते एक स्टॉल से आवाज आई कि मोहल्ले वाली बहस पर तुम क्या सोचते हो दिलीप। मैं रुक गया और बोला- रिजेक्ट माल और तब क्या था एक ही साथ- मसीजीवी, कस्बा, भड़ास,लिंकित मन कई नाम बुक फेयर के हॉल में गूंज गए। मनीषा थी, दिलीपजी से मिलवाया, दिलीपजी ने इरफान भाई से और फिर ब्लॉगर का पूरा कुनबा। सब गले मिले और कहने लगे बहुत सही लिखते हो गुरु, जमे रहो। अपनी-अपनी पोस्ट को लेकर बातें। दिलीप भाई ने कहा ऐसे कैसे जाने देंगे,चला फिर फोटो सेशन। लोग सहला रहे थे, प्यार कर रहे थे और शुभकामनाएं दे रहे थे। पीछे पलटकर देखा तो नवोदित आलोचक साथी खड़े थे। एक ने गरिआया- तुम सब स्साले भोसड़ी के चलते-फिरते प्रकाशक बनते हो। नो डाउट इसमें जेलसी का भी भाव था। आधे घंटे के भीतर कई लोग मिले जो मुझे अलग-अलग वजहों से नहीं अलग-अलग पोस्टों को लेकर जान रहे थे। मैं थोड़ा डरा भी कि ये पहचान एकेडमिक्स में काम तो नहीं आएगी। सिर्फ पोस्ट तो नहीं लिखता और भी तो पढ़ता-लिखता हूं। लेकिन फिर खुशी हुई कि जाने दो फलां का झोला ढोता है उससे तो लाख गुनी बढ़िया है ये पहचान। इधर कल कर्मेंन्दु शिशिरजी ने सब कुछ सुन लेने के बाद कहा कि ये तो मोहल्ला पर लिखता है। अपना भी कोई ब्लॉग है, लिंक दे दो।..... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 37693 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080207/7a7ec709/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Feb 7 15:37:51 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 7 Feb 2008 02:07:51 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOClhyDgpIXgpLjgpLngpK7gpKTgpL8g4KS54KWILCA=?= =?utf-8?b?4KSo4KSr4KSw4KSkIOCkqOCkueClgOCkgg==?= Message-ID: <829019b0802070207w50f9cffld228dfb168e0ae1a@mail.gmail.com> मीडिया को दोनों तरह के लोग गरियाते हैं। जो यहां बतौर पत्रकार, मीडियाकर्मी काम कर रहे हैं वो भी और जो मीडिया के बाहर ऑडिएंस की भूमिका हैं वो भी। लेकिन इस गरियाए जाने के कारण कुछ लोगों को लगता है कि मीडिया वाहियात है, बेकार की बात है। ऐसा कहने के पीछ उनका शायद ये भाव रहता हो कि मीडिया होनी ही नहीं चाहिए। जबकि आप और हम सब जानते हैं कि आज अगर मीडिया नहीं होगी तो क्या होगा। फिलहाल मीडिया की प्रासंगिकता पर बहस न करते हुए इसके गरियाए जाने के मसले पर ही बात करें तो बेहतर होगा और इस प्रक्रिया के बीच जो तीसरी बात उभरकर सामने आती है कि इसे होनी ही चाहिए जरा उस पर गौर कर लें। जो लोग मीडिया से सीधे-सीधे जुड़े हैं जो यहां काम करते हैं, खबरें बनाते बेचते हैं, मनोरंजन के प्रोग्राम बनाते हैं, कहें तो कल्चर इंडस्ट्री में शामिल हैं उनके गरियाए जाने की वजह ऑडिएंस के गरियाए जाने की वजह से बिल्कुल अलग है- मीडिया में काम कर रहे लोग ज्यादातर मीडिया को इसलिए गरियाते हैं क्योंकि इस लाइन में जो सोचकर आए थे वयहां है ही नहीं, जिस ढ़ंग से वो काम करना चाहते हैं उसका यहां स्कोप ही नहीं है। आए थे पत्रकार बनकर और हो गए न्यूज प्रोवाइडर या सप्लायर, आए थे एडीटर बनकर और हो गए मैनेजर। उनका काम था स्क्रीप्ट लिखना और बन गए अनुवादक और टाइपराइटर। कुछ का मन इसलिए उबा है कि उन्हें महींनों से फीड़ पर लगा दिया गया है, कुछ लोग साल-दो साल से पीसीआर में रहकर उब गए हैं। कुल मिलाकर सारे लोग मीडिया में आकर मीडियोकर बनकर रह गए। अपने मन का कुछ कर नहीं पाते। समाज को वो कुछ दे नहीं पाते जिसके लिए उन्होंने जिंदगी झोंक दी। जो लोग उंची सैलरी पर हैं उन्हें थोड़ी देर के लिए संतोष है कि चलो बीस-पचीस हजार में ही डिप्लोमा करके उतना कमा रहे हैं जितना कि लाखों की फीस और समय देकर एक एमबीए कर रहा है। लेकिन अधिकांश जिनकी सैलरी काम के हिसाब से नहीं हैं उनकी तकलीफें कुछ ज्यादा हैं। एक तो मन लायक काम नहीं कर पा रहे और उपर से कम वेतन। ऐसे लोगों को आप अक्सर कहते पाएंगे कि यार- एक घड़ी के लिए पैसे को भी गोली मारो, कम से काम भी तो ऐसा हो जो कि अपन को मजा आए, लगे कि मीडिया का काम कर रहे हैं, यहां तो स्साला रोज की वही टेप इन्जस्टिंग और पैकेजिंग। और प्रोफेशन के मुकाबले खास तौर से नए लोगों की बात करें तो पैसे से ज्यादा उन्हें वर्किंग नेचर को लेकर परेशानी है। जो लोग स्थपित हो चुके हैं और जिन्हें लगता है कि चैनल की टीआरपी उनके नाम से उठेगी, उनकी बात मैं नहीं कर रहा, उनके लिए मनी प्रायरिटी में है। लेकिन अपना अनुभव तो यही रहा है कि जो बंदा दस हजार कमा रहा है वो इसलिए मीडिया को गरियाता है क्योंकि वो जो करना चाहता है, उसे करने को नहीं मिल रहा और जो उंची सैलरी पर काम कर रहे हैं, कभी-कभी वो भी कहते मिल जाएंगे कि यार मीडिया में मीडिया के नाम पर चुतियापा है और कुछ नहीं। एक लाइन में कहूं तो मीडिमा के लोगों में अपने काम को लेकर जबरदस्त असंतोष है और अच्छी बात है कि सिर्फ सैलरी को लेकर लोग खुश नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वो जो कुछ ऑडिएंस को दे रहे हैं उन्हें पता नहीं है कि न्यूज के नाम पर क्या दे रहे हैं। नहीं तो मीडिया में काम करनेवाले लोग भी हमेशा ब्लॉग पर आज की मीडिया का पक्ष लेते नजर आते जबकि आप देखेंगे कि वे इससे लगातार असहमति बनाए हुए हैं और चाहते हैं कि इसमे बदलाव हो। दूसरी तरफ ऑडिएंस मीडिया को लगातार गरियाती है जिसकी वजह मीडियाकर्मियों से कई मायनों में अलग है। आज ऑडिएंस को लगता है कि वो न्यूज के नाम पर मसाला दिखाते हैं, मजाक करते हैं, सनसनी पैदा करते हैं।कई बार तो लोगों को गुमराह करते हैं। अपना नाम कमाने के लिए रिपोर्टर गलत खबरें दिखाते हैं,नाटक की शक्ल में दिखाते हैं। अभी-अभी एक जूनियर चाय पीते हुए सीधी बात वाले अंकलजी को खुल्ला गरिया रहा था। उसका कहना था कि जब वहीं सब मसाला पूछना है तो प्रोग्राम का नाम कॉफी विद....अप नाम जोड़ लें क्यों नहीं रख देते, हद कर दिया इन्होंने। आज आपको ये बताना नहीं पड़ेगा कि मीडिया को लोग क्या-क्या कहकर गरियाते हैं, जितने लोग हैं, मीडिया के लिए लोगों के पास उतनी ही गालियां हैं और बकने के अंदाज। ऑडिएंस जबरदस्त ढंग से मीडिया को लेकर रिएक्ट करते हैं. मेरी जो अपनी समझदारी बनी है कि मीडियाकर्मी और ऑडिएंस दोनों जब मीडिया को गरियाते हैं तो इसके पीछे उनके एक्सपेक्टेशन का टूटना होता है। जिस संस्थान से मीडिया की पढ़ाई करके लोग आते हैं अमूमन वहां मीडिया का मतलब या तो एंरिंग होती है या फिर रिपोर्टिंग। बाकी के काम को बहुत तरजीह नहीं दी जाती। चैनलों में भी इसे लेकर खूब राजनीति और जोड़-तोड़ चलती रहती है। इसलिए एक ही साथ पढ़े लोग जो रिपोर्टिंग में हैं और दूसरा जो डेस्क पर है उसके सटिस्फैक्शन में फर्क आ जाता है। संस्थान ने जो बड़े-बड़े सपने दिए उसे सिर्फ रिपोर्टर या एंकर बनके ही पूरा किया जा सकता है, इस मानसिकता का तेजी से विकास होता है और वीं से असंतोष पनपता है। दूसरी बात है कि आप और हम अपने ढंग की स्टोरी करना चाहते हैं जबकि इपी और मालिक को वो स्टोरी चाहिए जो चैनल की टीआरपी में उछाल ला सके। तब आपका काम खबर से ज्यादा खबर के बाजार को समझना होता है। समाज सेवा और जागरुकता की पोटली साइड में रखनी होती है। आपको शुरु के दिनों में उनके हिसाब से अनुकूलित होना पड़ता है और नहीं होने की स्थिति में बेचैन होते हैं, भटकते हैं, गरियाते हैं और फ्रस्टेट होते हैं। आपकी बौद्धिकता और सोशल कन्सर्न से चैनल के लिए ज्यादा जरुरी होता है कि ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन आए, टीआरपी बढ़े, व्यूअरशिप बढ़े। बने रहने के लिए शायद ये ज्यादा जरुरी हो सकते हैं। अलग बात है कि मीडिया सिर्फ बने रहने के लिए नहीं है। तो भी ले-देकर पूरी फाइट बाजार पर आ जाती है और धीरे-धीरे सारे मीडियाकर्मियों को लगने लगता है कि वो मीडिया में नहीं किसी प्राइवेट कंपनी में बॉस की मर्जी के मुताबिक काम कर रहे हैं, उनकी अपनी कुछ सोच का कोई मतलब नहीं है और अगर है भी तो इस अर्थ में कि वो रेवन्यू जेनरेट कर रहा है कि नहीं। मीडियाकर्मियों की ओर से गरियाने की ये बड़ी वजहें हो सकती है। इधर ऑडिएंस के पक्ष से सोचें तो उनके लिए मीडिया का मतलब है सामाजिक जागरुकता, खबरें और शिक्षा। वो एंजेंडे जिसे कि कभी यूनेस्को ने मेनी अपनी रिपोर्ट व्हाइसेज वन वर्ल्ड में रखा था जिस मॉडल पर दूरदर्शन अभ भी काम कर रहा है और कई बार पिट भी रहा है। लोगों के दिमाग में है कि मीडिया से आजादी की लड़ाई लड़ी गई, नेहरु के सपने पूरे किए गए, भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिली। उन्हें लगता है कि मीडिया से समाज को बदला जा सकता है। भ्रष्ट नेताओं को दुरुस्त किया जा सकता है, मनमानेपन को रोका जा सकता है। इसके लिए काम करने वाले लोग भ्रष्ट नहीं होते, सच के लिए जेल जाते हैं, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते हैं..वगैरह, वगैरह......। ऑडिएंस ने मीडिया के जरिए बड़े-बड़े सामाजिक बदलाव देखें हैं। औऱ आज जब वो टेलीविजन खोलते हैं तो उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखता जिससे लगे कि सचमुच मीडिया ऐसा करती है या फिर कर सकती है, न्यूज के नाम पर इंटरटेन्मेंट चैनलों के फुटेज, नेताओं की महिमा और पूंजीपतियों की चमचई देखकर ऑडिएंस अपना आपा खो देती है और मीडिया को गरियाना शुरु कर देती है। ये एक बड़ी सच्चाई है। और इससे भी बड़ी सच्चाई है कि इतना गरियाने के बाद भी मीडियाकर्मी दिन-रात उसी काम में लगे है। चाहें तो उन्हें दूसरा काम मिल सकता है। ऑडिएंस ने टीवी देखना बंद नहीं किया है बल्कि पहले से ज्यादा देखने लगे हैं। इन दोनों बातों का क्या मतलब है। मतलब ये है कि शायद दोनों को लगता है कि हमारी मीडिया में सुधार की गुजांइश है। इसलिए गरियाने के बावजूद भी लगाव बना है। मुझे नहीं लगता कि दोनों में से कोई भी चाहते हैं कि मीडियाविहीन समाज रहे। बल्कि चाहते हैं कि मीडिया और सूचना का समाज बने न कि मिडियोकर समाज। मीडिया को इसी स्तर से सोचकर काम करना होगा और बाजार की अनिवार्यता का पक्ष भी ऑडिएंस के सामने रखने होगें।......... अंतिम बात जो चाहते है कि मीडिया हो ही नहीं ये वो लोग हैं जिन्हें मीडिया के होने से असुविधा होती है। काम करने बाधा होता है और बहाना ढूंढ़ते फिरते हैं कि यहां कुछ गड़बड़ी हो और इसके खिलाफ मोर्चा खोल दे। लेकिन इस तलछटी मानसिकता से मीडिया का कुछ होना-जाना नहीं है। कुछ बेहतर और कुछ हादसों के साथ मीडिया अपना काम करता रहेगा, इस पर जबरदस्ती शिकजें कसे जाने की कोई जरुरत नहीं है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-950 Size: 18256 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080207/9a6395cd/attachment-0001.bin From sadanjha at gmail.com Thu Feb 7 11:07:07 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Thu, 7 Feb 2008 11:07:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= mail padhane main dikkat Message-ID: <1a9a8b710802062137t46535da5v55cbcc201308d05a@mail.gmail.com> main mihir aur Kamal ka mail nahi padh paa rahaa hun. I can read subject but cant read the content. I can read vineet and ravikant's mails. Is this specific to me or a common difficulty. I checked unicode setting too. its o.k. look forward to any response, warmly, sadan. On 6 Feb 2008 09:16:08 -0000, Kamal Kumar Mishra wrote: > > > "...अब हमें > हिन्दी को > विश्व भाषा > और राजभाषा > बनाने का > सपना देखना > छोड़ देना > चाहिए . > हिन्दी को > विश्व भाषा > बनाने के लिए > करोड़ों > रूपए शुद्ध > मूर्खतापूर्ण > तरीके से > खर्च करने के > बजाये हमें > वो पैसा > हिन्दी > साहित्य के > विदेशी > अनुवाद में > खर्च करना > चाहिए , इससे > हिन्दी > साहित्य का > ज्यादा भला > होगा . अगर > अरबों रूपए > लगा कर > हिन्दी को > विश्व भाषा > का दरजा दिला > भी दिया जाए > तोक्या > राजनय भी > उसका > इस्तेमाल > करेंगे ?इससे > महज एक छद्म > पैदा होगा." > > कुछ ऐसे ही > विचार थे > हिन्दी के > मशहूर कवि > अशोक > वाजपेयी के > जब वोः > पुस्तक मेले > में अपने > पाठकों से > रूबरू थे. > जिसे आज > दैनिक > भास्कर ने भी > छापा है. > > दोस्तों > अनुवाद के > प्रति यह > दृष्टि मुझे > अच्छी लगी इस > लिए सोचा की > आप भी इस पर > विचार करें. > वैसे अनुवाद > के प्रति > मेरा मानना > है कि यह > दोतरफा > रहगुजर है. > मतलब आप अपना > साहित्य अगर > दूसरी > जबानों मे > देखना चाहते > हैं तो साथ ही > साथ दूसरी > भाषाओं से > साहित्य और > साहित्येतर > विषयों को > अपने पाठकों > तक पहुचाने > में भी तंग > दस्त होने कि > जरुरत नहीं > है. लेकिन > अनुवाद को > तथाकथित > मौलिक लेखन > से कमतर > समझने वालों , > पाखंडी भीड़ > के शोर और > अपना माल > बेचने कि > हडबडी के बीच > क्या अनुवाद > को हिन्दी > जगत में कभी > कोई > प्रतिष्ठा > हासिल होगी > ये सवाल मुझे > अक्सर मथा > करता है ? > > > [image: Times Job Search] > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080207/0fd54435/attachment.html From mahinder31 at gmail.com Fri Feb 8 14:29:16 2008 From: mahinder31 at gmail.com (mahinder pal) Date: Fri, 8 Feb 2008 14:29:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: ek haakar ka jeevannaamcha In-Reply-To: <99045ac70802070323j28a4825dkb3e53ecfc23e2e00@mail.gmail.com> References: <99045ac70802070323j28a4825dkb3e53ecfc23e2e00@mail.gmail.com> Message-ID: <99045ac70802080059v6d441d52p629bd01920dcf9cc@mail.gmail.com> Dear Ravikant ek chhota sa lekh bhej rahaa hun.theek laage to istemal kar lenge. mahinder pal ---------- Forwarded message ---------- From: mahinder pal Date: Feb 7, 2008 4:53 PM Subject: ek haakar ka jeevannaamcha अख़बार की दुनीया हमेशा लोगों को दूर दराज होने वाली घटनाओं से परिचित कराती रही है और इस सेवा कार्य में संपादक से लेकर हाकर तक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं . लेकिन इस सेवा का सिला सिर्फ़ अख़बार के मालिक से लेकर विपणन कार्य तक से जुड़े लोगो तक सीमित रह जाता है और जो उपभोक्ता से सीधे सम्पर्क का माध्यम होता है यानि घर -घर जाकर अख़बार पहुँचने वाला हाकर वो वही का वही रह जाता है . संपादक को या उसकी मर्केत्तिंग के अधिकारी को तो अख़बार का मालिक इतनी सुविधाएं व सम्मान दे देता है की वे अच्छी सम्मानित ज़िंदगी जी लेते हैं वो बारिश हो तो अपने चौपहिया से आसानी से अख़बार के सेंटर पहुँच जाते हैं सर्देओं में हड्डियों को गला देने भयानक ठंड में वक़्त बे वक़्त छुट्टी भी ले सकते हैं लेकिन हाकर एक ऐसी जमात है जिसकी जिन्दगी किसी अख़बार का हीस्सा शायद ही बनती है प्रायः तो बनती ही नही है वैसे तो अख़बार के सभी सेंटर आम तौर पर एक जैसे ही होते हैं एक ही तरह की स्थितियां सब जगह होती हैं कम्लानगर का गोल चक्कर ,जो दिन में तो ज़बरदस्त गहमागहमी से भरा ही रहता है जहाँ तिल रखने तक की जगह नही रहती , मेहंदी लगाने वाले, खाने -पीने की रेडी लगाने वाले से लेकर बड़ी- बड़ी कम्पनियों के शो रूम तक से यह चौक और इसका आस पास का एरिया पटा पडा है एक - एक दूकान की कीमत लाखों में न होकर करोड़ों में होती है इस इलाके के आस पास की गलियों के साथ -साथ इन दुकानों के पीछे एक कमरा नुमा फ्लाटों में दिल्ली केे बाहर से पढने आए शरणार्थियों का आश्रय स्थल भी है रोज़ सुबह साढ़े चार - पाँच बजे यह चौक गुलज़ार होता है जिसे लगभग २०० या उससे भी अधिक हाकर और उनके साथ काम करने वाले लड़के अपनी तमाम मजबूरियों / जरूरतों के चलते रोशन करते है चाहे उनकी पिछली रात दो घंटों की रही हो या चार घंटों की रही हो मगर उनक सुबह टू चार बजे ही शुरू होती है कोई भी सर्दी उन्हें इसकी मोहलत नही देती की वे भी रजाई की मीठी आंच ले सकें . किसी भी तरह की बरसात की झमाझम को अपने घर की खिरकी या बिस्तर पे लेते-लेते सुन सकें बल्कि उन्हें तो उस सर्दी के थपेडे अपने सीने पर झेलने होते हैं और बरसात की बौछार को किसी बरसाती या फिर सीधे अपनी आंखो के वैपर से भेद कर आना पड़ता है सिर्फ़ अख़बार के भरोसे किसी भी हाकर या उससे जुड़े किसी व्यक्ति का जीवन निर्वाह नही हो सकता और दिल्ली जैसे शहर में तो यह और भी ज़्यादा मुश्किल है क्योकि यहाँ खाली पेट तो पाँच से दस रूपयों में तो भर सकता है मगर छत हासिल करने के लिए तो अगर एक कमरा भी लेना हो और उसे भी मिलजुल कर लेना हो तो ५०० से लेकर १००० रूपये तो चाहिए . और अगर परिवार साथ है तो यही खर्च तीन से चार गुना बढ़ जाता है यानि की दो हज़ार से चार हज़ार तक . जबकि नौकरियों का आलम यह की आज भी किसी फैक्ट्री में जाइए तो १५०० से लेकर २५०० तक से शुरुआत हो सकती है और वह भी टैब जब आपके पास किसी की सिफारिश या दिल्ली की भाषा में कहा जाए तो कोई जैक हो तो ऐसे आलम में हाशिये पे खड़ी आबादी के लिए एक संकट होता है कि जिस भी सहारे जीवन टिका हो उसे किसी भी तरह से बनाए रखा जाए और यही वी मजबूरी है जो उन्हें सर्दी गर्म जादा या बरसात पूरे साल दौडाती रहती है. न सिर्फ़ दौडाती है बल्कि एक निरीह और दोयम दर्जे कि जिंदगी जीने के लिए बाध्य करती है और जिसकी झलक इस रूप में मिलती है कि वो कभी भी अपने ग्राहक के सामने एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में खडा नही होता किसी न किसी रूप में एक याचक की मुद्रा में रहता है . और सामने वाला ग्राहक जो ख़ुद भी एक मध्यवर्गीय व्यक्ति होता है वह अख़बार का महीना भुगतान करते समय अपने आपको इस रूप में पेश करता है मानो वह पारिश्रमिक ने देकर कोई कल्याण कार्य कर रहा है . उसके संबोधन से ही हाकर कि सामाजिक हैसियत का अंदाजा लगता है 'अख़बार वाला आया है ....' मानो कोई ऐसा काम करने वाला आया है जिसके लिए आदरसूचक संबोधन शब्द होते ही नही ..! अख़बार देर से आए तो अपमान तो होता ही है पर अगर अपनी ही किसी गरज से उसे हाकर को बुलाना हो तो ' ऐ ....ऐ ... ...' का संबोधन जो गर्म सीसे कि तरह कान में ढलता है . ऐसे में दो चार रूपयों के सर्विस चार्ज की तो बात सोचना भी दूर की बात होती है . जबकि वही ग्राहक किसी होटल में जाता है तो शौक से सर्विस चार्ज तो देता ही है साथ में टिप भी . मगर एक अख़बार वाले के साथ ऐसा नही है उसे तो कभी अपनी पेमेंट लेने के लिए भी दो चार चक्कर लगाने पड़ते हैं कि 'आज घर में कोई नही है ' या ऐसे ही कि 'आज नही कल आना ..' एक बार का वाकया कि महीने कि एक तारीख को कलेक्शन करने के लिए एक हाकर एक कालोनी में गया तो वहाँ उसे कई जगह तो यह सुनना पड़ा कि एक तारीख को ही क्यों आ गए ? हालांकि कुछ ही लोगो ने ही यह कहा मगर अपने धन की वसूली करने पर भी अपमान सहना भीता ही भीतर बहुत ही कचोटता है . ऐसे ही तमाम अनुभवो से इस तबके की बड़ी आबादी गुज़रती है बड़ी आबादी इसलिए कि इसी व्यवसाय में चंद गिने चुने ऐसे भी हाकर भी हैं जो बतौर एक कार्पोरेट इस धंधे को चलाते हैं जो सेंटर पे सिर्फ़ एक मालिक की हैसियत से आते हैं . उन्होनें इस काम को पूरी तरह चलाने के लिए एक मैनेजर रखा है जो लड़कों से काम करवाता है अगर कभी लड़के नही आते हैं तो मेनेजर ख़ुद कुछ करता है पर मालिक को कुछ करने की आवश्यकता नही होती . वो आराम से सधे छः बजे - सात बजे आता है .हिसाब लेता है और चल देता है . लेकिन बड़ी आबादी लगभग एक जैसे ही हालात झेलती है एक ही तरह की मनः स्थिति से गुज़रती है . जब भी कोई इश्तहार देने वाला आता है तो लोग मक्खियों की तरह उसके आगे पीछे डोलने लगते हैं जबकि हासिल होने होते हैं मातृ आठ - दस रूपये पर सैकडा की राशि. लेकिन एकदम रिरियाते अंदाज़ में पीछे -पीछे डोलना यहाँ तक कि इश्तहार के लिए आपस में मार पीट कर लेना उनकी जिंदगी का त्रासद चित्र सामने लाता है . किसी भी तरह की कोई सुरक्षा नही चाहे जो किसी अन्य नौकरी में हैं तो कुछ इन्तेजाम कर भी लेते हैं पर अधिकांश की हालत तो 'आज कमाया आज खाया ' वाली होती है . दिलचस्प बात एक यह भी की अन्य कई निचले दर्जे तक के सेवा कार्यों की तरह इस काम में भी अधिकांश आबादी यूं पी , बिहार मध्य प्रदेश से आने वाली है जो आम आदमी की तरह किसी भी रूप में कोई दावा नही करती बल्कि अपनी ही जद्दो जहद में लगी पड़ी है . बावजूद उसे कई अपमान जनक व उपहासजनक संबोधनों से नवाजा जाता है लेकिन यह 'सभ्य' सा समाज उसे सहज सी जिन्दगी भी जीने नही देता . -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080208/fec1b296/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Feb 8 14:33:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 8 Feb 2008 14:33:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?mail_padhane_main_?= =?utf-8?q?dikkat?= In-Reply-To: <1a9a8b710802062137t46535da5v55cbcc201308d05a@mail.gmail.com> References: <1a9a8b710802062137t46535da5v55cbcc201308d05a@mail.gmail.com> Message-ID: <200802081433.16385.ravikant@sarai.net> Dear Sadan, Mihir aur kamal donon yahoo aur rediff se bhejte hain, jisase kai baar encoding bigaR jaati hai. maine tumhare gmail khate ko subscribe kar diya hai. deewan archive se unke mail check kar lo aur ab aage se gmail par diqqat nahin hogi. jo log ab bhi gmail nahin istemaal karne ki qasam khaye hue hain, unhein view>set encodinh>unicode ya utf8 chunana hoga, tab ve shayad usko parh payenge, lekin har unicode mail ke liye unhein ye kam karna hoga. ek aur tareeqa hai ki aap is tarah ke bigare hue txt ko yahan jaakar repair kar sakte hain: http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html baat ban jaati hai, aam taur par. cheers ravikant गुरुवार 07 फरवरी 2008 11:07 को, Sadan Jha ने लिखा था: > main mihir aur Kamal ka mail nahi padh paa rahaa hun. I can read subject > but cant read the content. I can read vineet and ravikant's mails. Is this > specific to me or a common difficulty. I checked unicode setting too. its > o.k. > look forward to any response, > warmly, > sadan. > > > On 6 Feb 2008 09:16:08 -0000, Kamal Kumar Mishra > > wrote: > > From neelimasayshi at gmail.com Fri Feb 8 15:31:05 2008 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 8 Feb 2008 15:31:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSmIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSw4KSk4KWL4KSCICjgpJzgpYsg4KS54KS44KWA4KSoIOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS54KWA4KSCIOCkpeClgOCkgiApIOCkleClhyDgpJbgpYHgpKTgpYI=?= =?utf-8?b?4KSk?= Message-ID: <749797f90802080201p5616e0b8uc521a4e0102e4380@mail.gmail.com> मोहल्ला और भडास सफल हुए ! इन सामुदायिक ब्लॉगों ने ब्लॉग जगत में जिस सामाहिक अवचेतन को लिंकित करने की परंपरा शुरू की थी शायद उसी का नतीजा है स्त्री विमर्शों पर स्त्रियों शुरू किया गया ब्लॉग " *चोखेर बाली * " !मैंने अपने शोध निष्कर्ष में अस्तित्व की छटपटाहट को हिंदी ब्लॉगित जाति का बेसिक फिनामिना घोषित किया था ! शायद इसी विचार को पुष्ट करता है यह नया ब्लॉग ! स्त्री का अपनी अस्मिता की प्राप्ति का संघर्ष और स्त्रीत्व के विचार को आंदोलनगामिता की शरण से लौटा लाने का प्रयास है यह ब्लॉग ! इस ब्लॉग की टैग लाइन कहती है -"इससे पहले कि वे आ के कहें हमसे हमारी ही बात हमारे ही शब्दों में और बन जाएँ मसीहा हमारे , हम आवाज़ अपनी बुलन्द कर लें ,खुद कह दें खुद की बात ये जुर्रत कर लें ...."! इस ब्लॉग में शामिल हैं हिंदी ब्लॉग जगत की स्त्री लेखिकाएं- - प्रत्यक्षा - घुघुती बासूती - बेजी का दृष्टिकोण - रचना की कविता और् भाव - आँख की किरकिरी 'चोखेर बाली' को बने सिर्फ कुछ ही घंटे हुए हैं पर हिंदी चिट्ठाजगत में इसकी चर्चा पर सुगबुगाहटें होने लगीं हैं ! इस ब्लॉग को लेकर आशा उम्मीदों कामनाओं का माहौल नहीं बना वरन खते हैं आप लोंगों में कितना दम है -सरीखी तमाशबीनी पिकनिकी दृष्टि से इसका स्वागत किया जा रहा है ! आज हमें बहुत दिन पहले उठाए गए सवाल -"ब्लॉग जगत में महिलाऎ इतनी कम क्यों हैं"-का जवाब मिलने लगा है ! दरअसल ब्लॉग जहत का ढांचा भी हमारी संरचना का एक हिस्सा भर ही है ! इसलिए यहां स्त्री विमर्श और संघर्ष के मुद्दों का उठना-गिरना -गिरा दिया जाना -हाइजैक कर दिया जाना -कुतर्की, वेल्‍ली और छुट्टी महिलाओं का जमावडा करार दे दिया जाना ---जैसी अनेक बातों का होना बहुत सहज सी प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए ! जब प्रत्यक्षा कहती हैं कि अब ब्लॉग लिख रही औरतों से यह सवाल मत पूछिएगाकि आप ब्लॉग लिखती हैं तो खाना कौन बनाता है ? -तो हमारे सामने ब्लॉग जगत का स्त्री के प्रति असंवेदनशील नजरिया डीकोड हुए बिना नहीं नहीं रहता ! जब नोटपैड " चोखेर बाली " का मायनाबताती हैं तो हमारे सामने अपनी जगह के लिए बराबरी से संघर्ष करती और मर्दवादी दृष्टिकोणों के सामने दो टूक जवाबतलब करती औरत का वजूद आ खडा होता है !नोटपैड लिखती हैं- " आज भी समाज जहाँ ,जिस रूप में उपस्थित है - स्त्री किसी न किसी रूप में उसकी आँखों को निरंतर खटकती है जब वह अपनी ख्वाहिशों को अभिव्यक्त करती है ; जब जब वह अपनी ज़िन्दगी अपने मुताबिक जीना चाह्ती है , जब जब वह लीक से हटती है । जब तक धूल पाँवों के नीचे है स्तुत्य है , जब उडने लगे , आँधी बन जाए ,आँख में गिर जाए तो बेचैन करती है । उसे आँख से निकाल बाहर् करना चाहता है आदमी । दूसरी बात शास्त्री जी के बहाने बाकि पुरुष ब्लॉगरों से । वे कल रचना की पोस्ट देखते हुए यहाँ आये । अच्छा लगा । आते रहें ।उनकी टिप्पणी है - *Shastri said... * यह चिट्ठा आज ही मेरी नजर में आया. यहां हमारे चिट्ठालोक के स्त्रीरत्न कई बातें कहने की कोशिश कर रही हैं. नियमित रूप से पढूंगा. देखते हैं कि कुल मिला कर *आप लोग *क्या कहना चाहते हैं." चोखेर बाली आंख की किरकिरी बन गई आफतों का ब्लॉग है ? या फिर यह हमारे समाज के सबसे अ संवेदनशील तबके की स्त्री के लिए असंवेदनशीलता को इंगित करने की मजाल रखने वाला जरिया है ! यह ब्लॉग औरत की बेमतलब की कुंठाओं और दर्द से फटी बेसुरी आवाज है ? या कि कुछ नादान ,सिरफिरी मर्दाना बेशर्म औरतों की फालतू टाइम को काटने की मंशा से आ जुटी हैं और फालतू का शोरशराबा करती फिर रही हैं ? ..........सवाल कई उठ रहे हैं , उठेंगें भी ! आप साफ साफ नहीं कह रहे होंगे सराहना भी कर रहे होंगें ,तब भी सदियों का सीखा हुआ मर्दवाद सिर उठाएगा ही ! आप कुछ ऎसा कह जाऎंगे कि उसकी सूक्ष्म अंडरटोन आपके मन को नग्न कर जाएगी ! आप बिफर उठेंगे ! आप कहेंगे आपका मन साफ था , वहां औरत के लिए इज्जत थी ! और फिर आप निष्कर्ष देंगे सूत्र वाक्य कहेंगे -औरतों के बारे में अंतिम फतवा आप ही देंगे ......! तो क्या चोखेर बाली का अंजाम यही होगा ! पागलपन और असंतोष की शिकार आधी आबादी, बेदखली की डायरी लिखने वाली, आंख की किरकिरी ,प्रत्यक्ष को प्रमाण न मानने की जिद ठाने , अंतहीन आकाश में अस्तित्वहीन चिडिया की चहचहाहट को दर्ज करती औरत --क्या चोखेर बाली की आजादी मुमकिन हो पाएगी ? Posted by Neelima at 12:14 PM 13 comments: Pramod Singhsaid... बिना किसी नाटकीयता के मेरी अंतरंग शुभकामनाएं.. आपका ब्‍लॉग विवेक और समझदारी की ऊंचाइयों का ब्‍लॉग बने.. February 7, 2008 12:34 PM Aflatoon said... 'चोखेर बाली' (गुरुदेव का उपन्यास) का सन्दर्भ भी बतायें हिन्दी भाषियों को।धड़ाधड़ पोस्ट से बहुत जल्दी पोस्ट नीचे चली जाती हैं,भड़ास जैसी भूल यहाँ न हो।एग्रीगेटर पोस्ट का पर्मालिंक देते हैं।खुद को जुड़ा पाता हूँ 'चोखेर बाली ' से। February 7, 2008 1:59 PM Aflatoon said... चौथी पंक्ति में 'चोखेर बाली ' की कड़ी दुरुस्त कर लें। February 7, 2008 2:02 PM Priyankar said... बहुत-बहुत शुभकामनाएं .... वही जो प्रमोद दे चुके हैं . 'स्त्री लेखिकाओं' के इस ब्लॉग को पुरुष लेखकों का भी ब्लॉग बनाइए . आखिर संवाद उनसे ही नहीं, तो उनसे भी करना है . सूत्रपात भले ही आप करें, बदलाव में उनकी भी भूमिका होगी . चोखेर बाली की सच्चाई और उसका विवेक अन्ततः समाज की किरकिराती आंखों को आईटोन और लोकूला और गुलाबजल सा महसूस हो यही कामना है . February 7, 2008 4:43 PM Parul said... humey bhi joden....sargam_gaa at yahoo.co.in February 7, 2008 5:08 PM note pad said... अफतालून जी ,हार्दिक धन्यवाद ! निश्चित रूप से सम्वाद होना चाहिये ।पर यह तो तभी सम्भव है जब पुरुष ब्लॉगर यहाँ देखेंगे । अभी तो लगता है तय नही कर पाए कि उनका स्टैंड क्या हो ? क्या चोखेर बाली से डर है कोई ? पारुल आपका ईमेल आई डी ले लिया है । जल्द जवाब देती हूँ । February 7, 2008 8:00 PM विनीत कुमार said... ab hui hai baat,sachmuch accha lag raha, betiyo ke blog me jab tak betiya badi hogi uskeliyae taiyaar manch milega,asahmati ko rakhne ke liyae. subhkaamnayae February 7, 2008 8:29 PM आनंद said... एक बहुत अच्‍छी शुरूआत है। चोखेर बाली का इंतज़ार रहेगा। Sand of eye जब आँखों में लगेगी तो पीड़ा ज़रूर होगी। लेकिन आपकी बात आपकी लेखनी से ही निकलेगी इसकी खुशी भी है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। February 7, 2008 9:13 PM Tarun said... चोखेर बाली चिट्ठाजगत की फूलन देवी है और हमने चोखेर बाली के आने से बहुत पहले ही कह दिया था कि आज माधुरी नही फूलनचाहिये। ये अलग बात है हमारी बात पर ध्यान नही दिया गया लेकिन देर से ही सही और चोखेर बाली के रूप में ही सही वो वापस आयी तो। चोखेर बाली को हमारी शुभकामनायें :) February 7, 2008 9:49 PM swapandarshi said... please check the links in your article, there is https/https in all and these blog do not open, apart from your own February 8, 2008 10:19 AM Neelima said... धन्यवाद स्वप्नदर्शी जी ! लिंक ठीक कर दिए हैं ! February 8, 2008 11:06 AM अरुण said... सुस्वागतम जी ,बधाईया ढेरॊ (डर के मारे दे रहे है ,यहा पंगे लेने लायक नही है हम)ब्लोगरो सावधान,हमे तो अभी से आख मे किरकिरी लगने लगी है..पहले पांच उंगलियो से क्या कम डर था,(जरा सा कोई लाईन से हिला,और आख मे उंगली होने का डर) अब तो मुक्का दिखाइ दे रहा है..:) February 8, 2008 11:13 AM अरुण said... हमे भी शामिल कर लीजीये जी.. February 8, 2008 11:14 AM -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080208/1cef32a9/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Fri Feb 8 22:47:07 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Fri, 8 Feb 2008 17:17:07 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MTMg4KSr4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkleCliyDgpLngpYgg4KSs4KWN4oCN4KSy4KWJ4KSXIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSC4KSX4KSkLCDgpIbgpKog4KSG4KSP4KSCIOCkpOCliyDgpJw=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH?= Message-ID: <85de31b90802080917m3a54c711u67ad3b6eba71cf4@mail.gmail.com> ये ख़बर पहली बार मोहल्‍ले में जारी हो रही है कि सन 2008 की 13 फरवरी को दीवान-ए-सराय में एक *ब्‍लॉग संगत* जम रही है। सराय ने पिछले दिनों हिंदी की नयी बनती बस्तियों का लगातार ख़ैर-मक़दम किया है। खासकर ब्‍लॉग को लेकर गंभीर चर्चा-चिंता की जितनी जगह सराय के कमरों में है, उतनी न तो हिंदो के आलोचकों की बगल वाली कुर्सी पर है, न ही हिंदी किताब छाप कर कार-मकान जुटाने वाले हिंदी के प्रकाशकों के छापेखाने में है। यह अच्‍छी बात है और सराय की इन अच्‍छाइयों से छलक कर कुछ अमृत और हमारे हिस्‍से में आ रहा है। ढाई बजे से ब्‍लॉग संगत जमेगी। आमंत्रण खुला है। हिंदी ब्‍लॉग के सफ़र और उसके आयामों पर बात करने वाले जो कुछ ब्‍लॉगर इस संगत को लीड करेंगे, उनमें *सुनील दीपक *, *मसिजीवी *, *दिलीप मंडल *, *नीलिमा *-*सुजाता *, *रवीश कुमार * और *मैथिली गुप्‍त * अहम नाम हैं। आधे घंटे का एक छोटा सत्र सुनील दीपक से बातचीत को होगा, जो इटली के Bologna शहर से छुट्टी बिताने हिंदुस्‍तान की सरज़मीं पर अभी-अभी पधारे हैं। इस वक्‍त भुवनेश्‍वर में हैं। सुनील दीपक हिंदी के शुरुआती ब्‍लॉगरों में से रहे हैं और मोहल्‍ले की पहली पोस् ‍ट उनकी ही मदद से देवनागरी में लिखी जा सकती थी। हम तमाम ब्‍लॉगर बंधुओं को सराय की तरफ से ब्‍लॉग संगत में आमंत्रित कर रहे हैं। व्‍यक्तिगत मेल लिखना संभव नहीं हो पाएगा। *ज़माने भर का ग़म और एक ब्‍लॉगिंग का ग़म* के बीच संतुलन *शाइरी* के अर्थों में संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए। उम्‍मीद है, आप ज़रूर आएंगे और हिंदी ब्‍लॉगिंग पर विमर्श की एक नयी आधा‍रशिला रखेंगे। ** *सराय* का पता है *29 राजपुर रोड, दिल्‍ली 110054*... ये कश्‍मीरी गेट के बाद सिविल लाइंस मेट्रो स्‍टेशन से एकदम नज़दीक का पता है। हालांकि एक बार मसिजीवी ने कहा था कि इस जगह से तीसहजारी मेट्रो स्‍टेशन भी ज़्यादा दूर नहीं। बहरहाल, पता तफ़सील से बताने से बेहतर है कि आपमें जुनून इतना हो कि आप खोज कर ब्‍लॉग संगत में आकर जम जाएं। *अविनाश * -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-88995 Size: 5230 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080208/051d1d5e/attachment.bin From ravikant at sarai.net Sat Feb 9 12:31:45 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 9 Feb 2008 12:31:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTog4KS4?= =?utf-8?b?4KWC4KSa4KSo4KS+OiDgpLLgpJjgpYHgpJXgpKXgpL4g4KSq4KSwIOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KS34KWN4KSf4KWN4KSw4KWA4KSvIOCkuOCkguCkl+Cli+Ckt+CljQ==?= =?utf-8?b?4KSg4KWA?= Message-ID: <200802091231.45691.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: सूचना: लघुकथा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी Date: शनिवार 09 फरवरी 2008 01:27 From: "सचिव सृजन-सम्मान" To: ravikant at sarai.net http://srijansamman.blogspot.com/2008/02/blog-post.html ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Sun Feb 10 14:11:04 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 10 Feb 2008 00:41:04 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSu4KWA4KSo?= =?utf-8?b?4KS+IOCkqOCkueClgOCkgiwg4KSV4KSu4KWA4KSo4KS+IOCkqOCkgi4g?= =?utf-8?b?4KS14KSoIOCkrOCkqOCkqOCkviDgpLngpYvgpJfgpL4=?= Message-ID: <829019b0802100041v7b2a8f46xe9fed3b8b0948ba2@mail.gmail.com> बिंदास चैनल पर एक टैलेंट हंट कमीना नं-१ जिसमें सबसे ज्यादा कौन कमीना है या हो सकता है उसकी खोज चल रही है। कई कंटेस्टेंट पार्टिसिपेट करने आए। सबके मन में आस थी कि चैनल और उसके जज मिलकर देश का कमीना नं वन घोषित कर दें। सब अपने को कमीनों का बादशाह कहलाने के लिए बेताब हुए जा रहे थे। ऐसी कमीनगी देखी नहीं के बाद बारी आयी कि जज उनके नंबर बताएं। जज के पैनल में शेखर सुमन भी हैं। एक बंदे को ६ नंबर देते हुए कहा कि तुममें और कमीना होने की गुंजाइश थी लेकिन कम्बख्त हो नहीं पाए औऱ इसलिए वो कमीना नं वन नहीं हो पाया। लेकिन जिस बंदे को उससे ज्यादा नं मिले वो हो गया कमीना नं-वन। जिन लोगों को नैतिकता की बीमारी लगी है और जो कहते-फिरते हैं कि ये गलत है ऐसा नहीं होना चाहिए, हो सकता है कि वो स्टूडियों में जाकर तोड़-फोड़ मचाएं,धरना प्रदर्शन करें, वो सब कुछ करें जो देश की गौरवशाली संस्कृति बचाने वाले लोग करते हैं, जिन मां-बाप को लगता है कि अगर मेरे बच्चे ने स्साला बोला है तो वो गाली है, वो तो इस टैलेंट हंट शो में पिछड़ जाएगा। बुद्धिजीवी समाज ये भी सोच सकता है कि जो सबसे ज्यादा कमीना होगा, चैनल उसे इनाम देगा। अब सब नं वन कमीने तो हो नहीं सकते लेकिन कोशिश तो लाखों में करेंगे और थोड़े-बहुत तो हो ही जाएंगे, ऐसे में समाज खड्डे में चला जाएगा। जिन्हें लगता है हमारी संस्कृति सबसे उम्दा संस्कृति रही है और हमारी भाषा तो देववाणी रही है, जहां हिन्दी बोल देने से भी छूत लग जाती है वे भड़क सकते हैं। लेकिन जो लोग प्रोडक्शन में लगे हैं, चाहे वो किसी कल्चरल प्रोडक्शन में लगे हों या फिर सड़को से बिनी हुई प्लास्टिक की थैलियों को गलाकर खिलौने बनाने की फैक्ट्री है, उनके लिए ये शो एक अच्छी सीख है। देश में जब औद्योगिक क्रांति आई तो साथ में इस तकनीक का भी विकास हुआ कि प्रोडक्शन के बाद जो कचरा पैदा होगा उसका क्या किया जाएगा और कमोवेश उसका हल निकाल लिया गया। मीडिया ने भी इस तकनीक को समझा और फाइनल प्रोडक्ट यानि लिटिल चैम्स, इंडियन ऑयडल, बाथरुम सिंगर वगैरह बना लेने और बाजार मे सप्लाय कर देने के बाद जो बच गए उसका क्या होगा उसके बारे में सोचने लगे। एक बात तो समझना होगा कि ग्लैमर की दुनिया में तकदीर जितनी तेजी से बदलती है, असफल होने पर फ्रशटेशन भी उतनी ही जल्दी आती है। ये कोई रेलवे, बैंकिग या सिविल की कंपटिशन तो है नहीं कि इस बार नहीं तो अगले साल। इसमें तो नहीं नं वन हुए कि आप कूडा मान लिए गए, आप खुद ही अपने को समझने लगे। ये और बात है कि आपका एलबम निकलता रहेगा और शादी-ब्याह में रौनक लगाने के लिए आपको बुलाया जाता रहेगा। फिर भी नं वन न होने की टीस तो बनी रहती है। उसका क्या करें। आप दारु पीते हैं, मां-बहन की गालियां देते हैं, कभी जजेज को गरियाते हैं, कभी चैनल को जिसने सपने दिखाए तो कभी हम जनता को जिसने आपको तंगी की हालत में जीतने लायक एसएमएस नहीं किए। यानि आप कल्चरल वेस्टेज या कचरा हो गए। इस कल्चरल कचरे को ठिकाने लगाने का काम चैनल को है क्योंकि पैदा भी उसने ही किया। चैनल भी अपनी इस जिम्मेवारी को बखूबी समझ रहा है इसलिए आपकी खपत कहां हो इसे लेकर सचेत हैं। बाथरुम सिंगर ने इसकी शुरुआत कर दी थी जहां कोई जरुरी नहीं कि आप मो।रफी बन जाएं, बस राग-झाग में वैलेंस बनाए रखना है। हो न हो आने वाले समय में कल्चरल वेस्टेज को ठिकाने लगाने के लिए ऐसे और प्रोग्राम आए। लेकिन इसमें चक्कर ये है कि सबसे ज्यादा फ्रस्टियाया और कमीना आदमी ही जीत सकेगा इसलिए रोज पीना, पीकर मां-बहन करना और कमीनेपन के नए नुस्खे आजमाते रहना जरुरी है। क्योंकि इसमें भी आपको नं-वन होने पर ही मामला बनेगा, अधूरा कमीना होने पर आप पिछड़ जाएंगे। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1514 Size: 7905 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080210/c0d8edb2/attachment-0001.bin From sadan at sarai.net Mon Feb 11 10:58:10 2008 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Mon, 11 Feb 2008 10:58:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?mail_padhane_main_?= =?utf-8?q?___dikkat?= In-Reply-To: <200802081433.16385.ravikant@sarai.net> References: <1a9a8b710802062137t46535da5v55cbcc201308d05a@mail.gmail.com> <200802081433.16385.ravikant@sarai.net> Message-ID: <90443f737c5fd8ef4ec28dd469bd03ec@sarai.net> Dear Ravikant, shukriya. main yah bhul gaya thaa ki mera pichhala mail gmail account se compose kiya gaya thaa. darasal maine apana sarai account bhi gmail par shift kar liya hai. yah subidhajanak hai, jo log do teen account rakhate hain unke liye. encoding bagairah to main check kar liya kartaa hun aamtaur par. ashesh abhiwaadan, sadan. On 2:33 pm 02/08/08 Ravikant wrote: > Dear Sadan, > > Mihir aur kamal donon yahoo aur rediff se bhejte hain, jisase kai > baar encoding bigaR jaati hai. maine tumhare gmail khate ko subscribe > kar diya hai. deewan archive se unke mail check kar lo aur ab aage se > gmail par diqqat nahin hogi. jo log ab bhi gmail nahin istemaal karne > ki qasam khaye hue hain, unhein view>set encodinh>unicode ya utf8 > chunana hoga, tab ve shayad usko parh payenge, lekin har unicode mail > ke liye unhein ye kam karna hoga. > > > ek aur tareeqa hai ki aap is tarah ke bigare hue txt ko yahan jaakar > repair kar sakte hain: > > http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html > > baat ban jaati hai, aam taur par. > > cheers > ravikant > > गुरुवार 07 फरवरी 2008 11:07 को, Sadan Jha > > ने लिखा था: main mihir aur Kamal ka mail nahi padh > > paa rahaa hun. I can read subject but cant read the content. I can > > read vineet and ravikant's mails. Is this specific to me or a > > common difficulty. I checked unicode setting too. its o.k. > > look forward to any response, > > warmly, > > sadan. > > > > > > On 6 Feb 2008 09:16:08 -0000, Kamal Kumar Mishra > > > > wrote: > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Mon Feb 11 12:15:56 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 11 Feb 2008 12:15:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) February 11th 2008 Message-ID: <200802111215.57073.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) February 11th 2008 Date: रविवार 10 फरवरी 2008 21:56 From: "AbhiAnu" To: "AbhiAnu" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). इस सप्ताह वसंत पंचमी के अवसर पर- * जीलानी बानो की उर्दू कहानी का शाहीना तबस्सुम द्वारा हिन्दी रूपांतर- बात फूलों की * विनोद शुक्ला का व्यंग्य शहर में वसंत की तलाश * डॉ मंजु बलोदी का आलेख पहाड़ों पर बुरांस * शास्त्री नित्यगोपाल कटारे द्वारा नर्मदा जयंती के अवसर पर विशेष प्रस्तुति- पुण्या सर्वत्र नर्मदा * उमाकांत मालवीय का ललित निबंध यह पगध्वनि इस सप्ताह वसंत के अवसर पर वसंती रचनाओं का एक मस्त संकलन वसंती हवा अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. Both Abhivyakti & Anubhuti revise on every Monday. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Mon Feb 11 12:25:35 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 11 Feb 2008 12:25:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KWLIOCkuOCksuCkvuCkri3gpKjgpK7gpLjgpY3gpKTgpYcgLSDgpJw=?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWHIOCkueCksCDgpK3gpL7gpLDgpKTgpYDgpK8g4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS+4KSV4KS/4KS44KWN4KSk4KS+4KSo4KWAIOCkheCkquCkqOCkviA=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSd4KSk4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: <200802111225.35873.ravikant@sarai.net> http://www.hindimedia.in/content/view/1189/141/ जिसे हर भारतीय और पाकिस्तानी अपना समझता है आदित्य प्रकाश Monday, 11 February 2008 हमारे देश में फिल्म और टीवी दुनिया के लोग हिन्दी के नाम पर करोड़ों अरबों रुपये की कमाई करते हैं, मगर किसी भी मौकै पर हमारे फिल्मी सितारों, निर्देशकों और इससे जुड़े हर शख्स को हिन्दी बो लने में मानो शर्म महसूस होती है। अब तो फिल्म समारोहों में जाकर दो दो कौड़ी के विदूषक, जिन्हें अभिनेता की बजाय जोकर कहना ज्यादा बेहतर होगा हिन्दी के शब्दों की खिल्ली उड़ाते हैं और उस समारोह में भाजपा के नेता और हिन्दी की कमाई खाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा तालियाँ बजाकर उन जो करों की बातों पर वाहवाही करते हैं। दूसरी ओर हमारे देश से हजारों मील दूर ऐसे लोग हैं जो जिन्होंने अपने वतन, मिट्टी और भाषा और साहित्य को जिंदा ही नहीं रखा है बल्कि निःस्वार्थ सेवा कर इसे और समृध्द बना रहे हैं। पेश है अमरीका के डैलास से श्री आदित्य प्रकाश की यह रपट कि किस तरह एक रेडिओ कार्यक्रम से पाकिस्तानी, बंगलादेशी और भारतीय का भेद मिट गया है और सभी लोग अपने आपको एक ही देश से जुड़ा महसूस करने लगे हैं। विदेश में भीड़ में अकेले खो ना जाएं, इसके लिये सामाजिक संस्थाएं, मंदिर, देशी पर्व त्यौहार पर उत्सव अकेलेपन को अवश्य दूर करता है और व्यक्ति अपने देश से जुडा़ महसूस करता है। सामुदायिक रेडियो जहाँ भारत पाकिस्तान और बांगलादेश के लोग एक मंच पर "देसी" बन कर अमेरिका में अपनी पहचान बना पाने में सक्षम हो पाते हैं। दो वर्ष पहले, अमेरिका के डैलस शहर में एक नया रेडियो स्टेशन स्थापित हुआ, "रेडियो सलाम-नमस्ते" जिसे हर भारतीय और पाकिस्तानी अपना रेडियो समझता है। आज इस रेडियो से हिन्दी, उर्दु, तेलुगु, तमिल, गुज्रराती, पंजाबी और नेपाली भाषा में एक एक घन्टे के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते है। यह अमेरिका का पहला एफ़-एम (104.9 fm) रेडियो स्टेशन है जो सातों दिन, चौबीसो घंटे अपना कार्यक्रम प्रसारित करने के लिये चर्चित है। वैसे तो इस रेडियो स्टेशन से कई कार्यक्रम प्रस्तुत किये जातें हैं, पर हिंदी कविता पर विशेष कार्यक्रम "कवितांजलि" अपने आप में विश्व में अनूठा बन गया है। हर रविवार रात्रि 9 बजे से यह कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है जिसके लिये अमेरिका के हिंदी प्रेमी आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं। "कवितांजलि" ने कविता के माध्यम से दुनिया भर के कविता प्रेमियों को एक साथ लाने का जो प्रयास किया है, उसे दुनिया भर के रसिक श्रोताओं ने सराहा है। इस मंच पर भारत के कई लोकप्रिय कवि पाठ कर चुके हैं जिनको सुन कर अमेरिका में बसे भारतीयों को हजारों मील दूर भी अपने वतन की मिट्टी की महक मिलती रहती है और वे अपने आपको इस माटी से जुड़ा महसूस करते हैं। इस कार्यक्रम से अमेरिका में हिंदी कि दशा और दिशा, दोनो का पता चलता है। इस रेडिओ के माध्यम से जय शंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की छंद बद्ध कविताओं को सस्वर को प्रस्तुत कर उन्हे पुनर्जीवित किया गया है। भारत में से जिन कवियों ने इस रेडियो कार्यक्रम से अपना काव्य पाठ किया, उनमे कुमार विश्वास, सुनील जोगी, राजेश चेतन, ओम व्यास, पवन दीक्षित, मनोज कुमार मनोज, दीपक गुप्ता, अर्जुन सिसोदिया, मनीषा कुलश्रेष्ठ, डाँ कविता वाचकनवी आदि प्रमुख हैं। जबकि प्रवासी कवियों में: अंजना संधीर, लावण्या शाह (लावण्याजी जाने माने गीतकार स्वर्गीय पं. नरेंद्र शर्मा की पुत्री है), इला प्रसाद, अभिनव शुक्ल, रेखा मैत्र, प्रियदर्शिनी, कुसुम सिन्हा, देवेन्द्र सिंह, अर्चना पां डा, रेणुका भटनागर, सुधा धिंगरा, हरिशंकर आदेश, डाँ ज्ञान प्रकाश, शशि पाधा, कल्पना सिंह चि टनिस आदि ने काव्य पाठ कर अमरीका में बसी भारत की नई पीढ़ी और भारतीयों की पुरानी पीढ़ी को अपनी भाषा और साहित्य के सौंदर्य से परिचित ही नहीं कराया है बल्कि हमारी साहित्य और संस्कृति को एक नया आयाम दिया है। साहित्यकारों में इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी के नवोदित रचना करों को मंच देने में सक्रिय भूमिका निभाने वाले रापयुर के श्री जयप्रकाश मानस (सॄजनगाथा) का भी इस आयोजन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि कविता के इस कार्यक्रम के लिए अमरीका में बसे भारतीय बेसब्री से इंतजार करते हैं। अभी हाल में कवि आदेश जी ने पहली बार इस कार्यक्रम को सुना तो अपना अनुभव काव्य में ही भेज दिया (कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं)- "गीत में नव प्राण भरता कार्यक्रम कवितांजलि, विश्व में हर ओर से, हर छोर से कवि जुड़े रहें। रच रहा इतिहास नूतन कार्यक्रम कवितांजलि॥ पुनर्जीवित हो उठे हैं "पंत", "जय शंकर प्रसाद", नव दिशा दिखला रहा है कार्यक्रम कवितांजलि॥ खुशी कि बात है कि इस रेडियो को ऑनलाइन विश्व भर में कहीं भी कभी भी सुना जा सकता है। आप चाहें तो अपने घर में बैठकर भी इस कार्यक्रम का मजा ले सकते हैं। www.radiosalaamnamaste.com और अगर कार्यक्रम सुनते-सुनते आपके अंदर किसी कविता का जन्म हो जाए तो तो फोन उठाएं और का ल करें: 972-401-1049. इसी माह "कवितांजलि" अमेरिका में अपना एक वर्ष पूरा कर रही है। (लेखक इस कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता हैं और वे अपने हिन्दी प्रेम के कारण इसके लिए निःशुल्क सेवाएं देते हैं) From bhagwati at sarai.net Tue Feb 12 15:09:25 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Tue, 12 Feb 2008 15:09:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkoeClhyAgIOCkuOClhyDgpKrgpLngpLLgpYcg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkuOClgeCkl+CkrOClgeCkl+CkvuCkueCknw==?= Message-ID: <47B1694D.3070103@sarai.net> वेलेंटाइन डे से पहले की सुगबुगाहट, लीजीये भारतीये संस्कृति को बचाने की , और पश्चिमी सभ्यता को गरयाने की नायाब पेशकश पदिये ............! जय हो आ...............शा. ............राम .................जी -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: valentain.pdf Type: application/pdf Size: 2580009 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080212/3395c5ac/attachment-0001.pdf From confirmations at emailenfuego.net Wed Feb 13 03:55:03 2008 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Tue, 12 Feb 2008 16:25:03 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkruCli+CkueCksuCljeCksuCkvg==?= Message-ID: <23047523.132111202855103852.JavaMail.rsspp@fb1.feedburner.com> Hello there, You recently requested an email subscription to मोहल्ला. We can't wait to send the updates you want via email, so please click the following link to activate your subscription immediately: http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?k=77lUXnT7v9&i=7056875 (If the link above does not appear clickable or does not open a browser window when you click it, copy it and paste it into your web browser's Location bar.) From ved1964 at gmail.com Wed Feb 13 09:35:19 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Wed, 13 Feb 2008 09:35:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KSy4KSY4KWBIOCkleCkpeCkviAn4KS14KS/4KSu4KWL4KSa4KSoJw==?= In-Reply-To: <3452482c0802122002s1f9d73ecoc0732e14cf561a9@mail.gmail.com> References: <3452482c0802122002s1f9d73ecoc0732e14cf561a9@mail.gmail.com> Message-ID: <3452482c0802122005o3668df4al4516c6c6192fd37d@mail.gmail.com> ---------- Forwarded message ---------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080213/d35ae298/attachment.html From ved1964 at gmail.com Wed Feb 13 09:36:17 2008 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Wed, 13 Feb 2008 09:36:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSY4KWBIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+ICfgpLXgpL/gpK7gpYvgpJrgpKgn?= Message-ID: <3452482c0802122006k56f6e5d9y948b9a934d62f7bb@mail.gmail.com> प्रिय मित्रो, एक लघु कथा पेश है-- विमोचन एक दलित लेखक की पुस्तक का विमोचन था. महान आलोचक विमोचन के लिए मौजूद थे. प्रकाशक महोदय ने उनका परिचय कराते हुए कहा-- 'आज हमारे बीच सदी के सबसे बड़े आलोचक विद्यमान हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी है. स्त्रियों और दलितों के योगदान का विशेष उल्लेख किया है. आज इनके बिना विश्वविद्यालयों में पत्ता तक नहीं हिलता.' गदगद हुए आलोचक प्रवर ने कहना शुरू किया--'इन प्रकाशक महोदय का हिंदी साहित्य में विशेष योगदान है. इन्हें उभरती हुई प्रतिभाओं की सटीक पहचान है. इन्होंने नए लेखकों को मंच प्रदान किया है. उनकी रचनाओं को प्रकाश में लाए हैं. हिंदी साहित्य में इनका योगदान अविस्मरणीय है. यदि ये प्रकाशक महोदय न होते तो न जाने कितने क्रांतिकारी लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो गए होते.' भाषण के बाद उन्होंने बड़े सलीके से रैपर को खोला और पुस्तक को मुस्कराते हुए बड़ी अदा से कैमरे की ओर किया. चारों तरफ फोटो खिंचने लगे. मिठाइयाँ और नमकीन वितरित होने लगे. पत्रकार उनसे आगामी योजनाओं के बारे में सवाल पूछने लगे. इसी बीच किसी ने कहा कि लेखक कहाँ है. कोने में सिमटा बैठा लेखक सकुचा गया कि आखिरकार किसी ने उसका ज़िक्र तो किया. अचानक जैसे प्रकाशक को सुध आई--'हाँ, हाँ, भई तुम भी आगे आओ. ऐ..., ज़रा इनकी भी फोटो खींचना' आपका, वेद प्रकाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080213/dacc0074/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Feb 13 12:46:13 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 12 Feb 2008 23:16:13 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkueCliCDgpK7gpYvgpLngpLLgpY3gpLLgpL4g4KSV4KWHIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSo4KS+4KS2IOCkleCliyDgpaog4KSh4KWJ4KSy4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSy4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiwg4KSw4KWL4KSc?= Message-ID: <829019b0802122316q4d289b63j1399dd1f7a29d12d@mail.gmail.com> कैम्पस में ये खबर आग की तरह फैल गई है कि ब्लॉगर लोगों को अब डॉलर में माल मिलने लगा है। गूगल वाले डेली के हिसाब से डॉलर में पेमेंट करने लगे हैं। मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी, मैं तो आप ही सरकारी पैसे के चक्कर में तीन दिनों से दौड़ रहा हूं, पहले रुपया में कुछ आ जाए तो फिर डॉलर-वॉलर के बारे में सोचेंगे। ये तो कल मास्टरजी से साइन कराने विभाग गया तो एक बंदे ने जो कि लगभग फ्रशटियाया हुआ है उसने बताया कि सुना है कि तुम्हारे मोहल्ला वाले अविनाश को रोज चार डॉलर मिलने लगे हैं, पेमेंट गूगल वाले कर रहे हैं। मैंने कहा कि मुझे तो कोई जानकारी नहीं । हां करीब तीन दिन पहले यशंवतदा की एक पोस्ट पढ़ी थी भड़ास कमाऊ बच्चा बन गया, बाप की आंखें भर आईं। यशवंतदा भड़ास के बाप हैं और हम उसके चाचू जो हमने उसी समय कमाई पर अपना हक जता दिया था लेकिन अविनाश भाई मनमारु किस्म के आदमी ठहरे, उत्साह होने पर भी भाव पचा जाते है। शेयर करने के मामले में आलसी आदमी हैं। अभी तक उन्होंने कोई औपचारिक घोषणा नहीं की है। खैर अगर ऐसा है तो आज न कल बता ही देंगे और कहीं ढंग की जगह पर हलाल कर ही देंगे अपन। उस बंदे का कहना था कि हो न हो कल तुम्हें भी गूगल वाले देने लग जाएं। मैंने मन ही मन सोचा कि आप फिर मेरी लेने लग जाएं। अच्छी खबर तो हैं ही कि ब्लॉग लिखने पर डॉलर मिल रहे हैं लेकिन अपने साथ तो फजीहत है। एक जगह से फेलोशिप मिल रहा है और इधर से मिलने भी लगा तो लोचा हो जाएगा। मैं तो अपने ब्लॉग के आगे लिखने वाला हूं गाहे-बगाहे, अवैतनिक। एक समय था जब मैं सिर्फ पढ़ता था और पढ़ने में मन भी बहुत लगता था और मैं अक्सर लोगों से कहता कि अगर कोई मुझे रहने-खाने लायक पैसे देता रहे तब मैं जिन्दगी भर पढ़ता रहूंगा, कोई दूसरा काम ही नहीं करुंगा। बार-बार जेआरएफ की परीक्षा देता रहा और आज सचमुच में पढ़ने-लिखने के पैसे मिलने लगे हैं तो मैं वही करता हूं, अपने मन की लिखना और अपने मन की पढ़ना। लेकिन इधर जब से ब्लॉग लिखने लगा हूं तो लगता है कि अब बस ब्लॉग लिखूं और कोई रोज इसके लिए जीने लायक पैसे दे। हो न हो रिसर्च पूरी हो जाने के बाद यही करूं, फुलटाइम ब्लॉगिंग। बातचीत के क्रम में मैंने कई दोस्तों के मन को टटोला है तो पाया है कि इन्हें अगर सैलरी से थोड़े कम भी पैसे मिल जाएं और अपने मनमुताबिक लिखने का मौका मिले तो ये मीडिया की नौकरी छोड़ देंगे, समाज को अपना आउटपुट ज्यादा देंगे। इनके लिए तो वाकई खुशखबरी है। प्रोड्यूसर की मांग से हटकर वो ज्यादा बेहतर लिख पाएंगे। इधर मीडिया पढ़कर निकले बच्चे जो कि इस लाइन में एकदम खिच्चे( नए-नए) हैं उनको भी एक बेहतर विकल्प मिलेगा। ऐसा होने से ब्लॉगिंग एक मजबूत, सार्थक और मेनस्ट्रीम की मीडिया से कहीं अच्छा माध्यम बन सकेगा। कर्मचारी बन चुका मीडियाकर्मी फिर से पत्रकार होने लगेगा।...... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080212/e11678cc/attachment-0001.html From avinashonly at gmail.com Wed Feb 13 23:22:01 2008 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 13 Feb 2008 11:52:01 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <25304738.1028751202925121848.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// वो सुबह तभी आएगी... Posted: 13 Feb 2008 09:49 AM CST http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/234252802/blog-post_3695.html हम जिस सामाजिक ढांचे में रहते हैं और जिस तरह की सामाजिकता का पाठ हमारे दिमागों में ठूंस-ठूंस कर भर दिया जाता है, उसमें गांठों को झाड़ कर फेंक देने की गुंजाइश शायद ही बच पाती है। होश में आने के बावजूद। दिलीप मंडल की ओर से शुरू की गई बहस का एक अफसोसनाक पहलू यही है कि एक ओर तथ्यों और तर्कों की मार्फत सिर्फ यह बताने की कोशिश हो रही है कि हम अपने समाज के जिस धवल चेहरे पर गुमान से फूले नहीं समाते हैं, वह दरअसल कितना शर्मनाक है। और दूसरी ओर, इस तरह के छिछले और कुंठित तर्क कि किस दलित को उसके दलित होने की वजह से या किस महिला को उसके महिला होने के चलते नौकरी से निकाला गया या नौकरी पर नहीं रखा गया। अजित वडनेरकर चुनौती के लहजे में जिस तरह के सवाल फेंक रहे हैं, वे शायद अब भी इस मुगालते में हैं कि हजार-हजार चेहरों के साथ चल रही ब्राह्मण साजिशों के पर्दों का फाश मुमकिन नहीं है। वह तो कब का हो चुका पंडित जी। (नीरज जी को पासवान से संबोधित करने की प्रतिक्रिया में खेद सहित)। चूंकि तंत्र या सिस्टम की लगाम अब भी करीब-करीब उतनी ही कसी हुई है, और उन्हीं हाथों में है, इसलिए अब भी सब कुछ आसान नहीं हुआ है। मेरी जानकारी में एक प्रतिष्ठित माने जाने वाले अखबार के संपादक ने मुंह खोल कर अपने अखबार में महिलाओं और दलित लेखकों को कम से कम छपने के स्तर पर ज्यादा से ज्यादा मौके देने की बात की। वरना पिछले साल के "जात न पूछो साधु की" प्रसंग से अजित जी खूब वाकिफ होंगे। सवाल है कि अजित वडनेरकर खुद को कहां खड़ा पाते हैं। जो आदमी इस तरह के सवाल उठाता है कि अगर आपका बॉस किसी को चमट्टे या भंगी कह कर पुकारे तो आप "निम्नलिखित" में कौन-सा अपनाएंगे, वही आदमी नीरज पासवान को जवाब देते हुए फ्रस्टेटिया कर "पासवान" की हांक लगा बैठता है। क्या यह महज संयोग है? (अव्वल तो ब्राह्मणवाद इतने बेवकूफ तरीके से काम नहीं करता है अजित जी, और कोई ठीक नहीं कि किसी को चमट्टे से संबोधित करने के बदले चप्पल मिल जाए) कभी बड़ी मासूमियत और दयनीयता प्रदर्शन करते हुए बहस से बाहर होने की मुनादी करता है तो अगले ही दिन अपने लेख पर आई प्रतिक्रियाओं की फेहरिस्त पेश करता है। पता नहीं इस पर हंसें कि रोएं। हालांकि अजित वरनेरकर बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं कि ब्राह्मणवाद किस बारीक और महीन तरीके से काम करता है, (हंसी-खेल में अजित वडनेरकर और आदि-आदि को सीनियर इंडिया के पिछले साल के किसी अंक में छपे विष्णु गुप्त का लेख पढ़ने की सलाह दी जा सकती है।) लेकिन दिलीप मंडल के द्वारा रखे गए तथ्य, आंकड़े या तर्क उनके लिए बेमानी होते हैं। यों भी अंधभक्ति के सामने तर्क की कोई गुंजाइश नहीं। और यहां तो अंधभक्ति नहीं, उससे भी ऊपर की चीज का गौरव है, जो अगर दिखे तो उस पर प्रगतिशील होने के मुलम्मे के साथ। सबसे विचित्र तो तब लगा जब दिलीप मंडल अखबारों के कुछ शीर्षकों से यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे खबरों के चयन में, उसे बनाते समय या पेश करते समय एक व्यक्ति के दिमाग पर पत्रकार नहीं, उसके भीतर ब्राह्मण का हावी हो जाता है। और जवाब में जो टिप्पणियां आईं, उसमें यह रुदाली हावी थी कि दिलीप जी की बात समझ में नहीं आई, और कि वे कहना क्या चाहते हैं। जातीय दुराग्रहों का क्या इससे बेहतर कोई उदाहरण हो सकता है? इस मसले पर मीडिया की असलियत जानने के लिए नब्बे के दशक के शुरू में जाने की जरूरत नहीं है। (सुविधा के लिए सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट या उस समय के नवभारत टाइम्स के रविवार के अंक देखे जा सकते हैं।) पिछले सितंबर में खैरलांजी हत्याकांड में दलितों के उग्र प्रदर्शन और आरक्षण के विरोध में अपने महान एम्स के अखाड़े में "दुखी" डॉक्टरों के प्रदर्शन की रिपोर्टिंग को देख सकते हैं। फिर देखते हैं कि कैसे आप यह कहने की हिम्मत कर पाते हैं कि मीडिया आग्रहों से मुक्त हो चला है। खैरलांजी कांड पर दलितों के प्रदर्शन को ऐसे पेश किया गया जैसे वह कोई लुटेरों और दंगाइयों का उत्पात हो, और एम्स के डॉक्टरों ने "योग्यता की प्रतिस्थापना" के लिए "आंदोलन" चलाया। वही योग्यता, जिसकी बदौलत वे कभी पेट में तौलिया या कैंची छोड़ देते हैं या गरीबों के गुर्दे चुरा कर अपने पेट में नोट ठूंसते हैं। हम भी उस सुबह का शिद्दत से इंतजार कर रहे हैं, जब यहां का सवर्ण तबका गर्व से सीना फुला कर कहेगा कि देखो हमारे बीच दलितों और महिलाओं की तादाद हमसे ज्यादा है, या पंचायत बिठा कर अपनी बेटी के दलित प्रेमी की आंख निकालने या हत्या करने के बजाय अपनी बेटी के चुनाव पर गर्व करेगा। त्रासदी यह है कि जब तक यह नहीं होगा, तब तक वह सुबह भी नहीं आएगी। लेकिन भरोसा रखिए, तब तक यह लड़ाई जारी रहेगी। चाहे कोई बहस से भागे या खुद से लड़े। /////////////////////////////////////////// शानदार फुटेज में क़ैद मासूम सद्दाम Posted: 12 Feb 2008 11:50 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/234189331/blog-post_3281.html नाम सद्दाम हुसैन। उम्र तेरह साल। रहने वाला मोतिहारी बिहार का। ये जानकारी है उस बच्चे के बारे में जो लगभग एक हफ़्ते पहले एक पुलिस रैड में पकड़ाया है। ये बच्चा एक ज़रदोज़ी का काम करने वाली फ़ैक्ट्री में बाल मज़दूरी कर रहा था। मेरे एक साथी रिपोर्टर ने मुझे कल ये फ़ुटेज दिखाया। कहने लगा शानदार फ़ुटेज मिला है दीप्ति एक स्क्रीप्ट लिखने मदद कर देना। फ़ुटेज देखते देखते अचानक आँखों से कुछ बहने लगा। सद्दाम तो सिर्फ़ एक था। कई बच्चे मौजूद थे वहाँ पर। कोई दस का तो कोई सात साल का तो किसी को ये ही नहीं पता था कि उम्र क्या होती है। मेरा साथी मुझे दिखाए जा रहा है ये देख पैरों का क्लोज़ अप कैसे फटे हुए हैं। हाथ देख काम कर करके कैसे हो गए है। उन्हें देखकर लगा कि ये क्या है। ये भी होता है। क्या गलती है इनकी जो उन्हें ये ज़िन्दगी मिली। पुलिस रिमांड में एक लाईन में बैठे हुए कैमरे की ओर देखते हुए कोई डर से तो कोई हंस रहा था। कोई खाने में व्यस्त था। तो कोई रोए जा रहा था। एक बच्चा सीतामढ़ी का एक हफ्ते पहले ही आया था। बोलने लगा कि बाप मर गया है। माँ ने यहाँ भेज दिया है जी दो छोटी बहनें हैं उनके लिए आया था। वो रोने लगा। मुझसे पूछा गया यहाँ से स्टोरी शुरू करें तो। मन में क्या स्टोरी कौन सी स्टोरी। बस इसकी ही चिंता है हमें। दो बच्चों के तो माँ बाप भी आए थे जो उनसे काम करवाते थे। मन में दुख चिढ़ खुद से नफ़रत सब एक साथ था। साथी ने कहा डोंट बी इमोशनल यार यही करने आए है हम यहाँ । क्या यही करने आए है हम। हो भी सकता है क्योंकि जिसे भी मन की बात बताई सबने यही कहा है मुझसे। हो सकता है मेरा पहला अनुभव था इसलिए मैं रो रही हूँ। लेकिन मैं नहीं चाहती कि ये आंसू सूखे। मन एकदम खाली है। /////////////////////////////////////////// मसिजीवी भाई, आज ही है ब्लॉग संगत, ढाई बजे से Posted: 12 Feb 2008 10:28 PM CST http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/234169747/blog-post_13.html अ‍भी अभी मसिजीवी के फोन से नींद खुल रही है। तीन दिनों से तबाह हूं। ज्‍यादातर फोन इसलिए आ रहे थे कि ब्‍लॉग संगत का टेम क्‍या है। मैं सबसे कह रहा हूं कि पोस्‍ट में टेम भी ठीक से लिखा था, आपने ठीक से पढ़ा नहीं। दीवान पर भी उसी वक्‍त उसे मेल किया था, उसमें भी टेम साफ़-साफ़ लिखा है। कोई ये नहीं कह सकता है कि बाद में एडिट करके टेम जोड़ दिया। ख़ैर कोई बात नहीं, लिखने में ही दोष रहा। ऐसा भी क्‍या लिखना, जो लोगों को पढ़ने में ही न आये। अब दोबारे उस पोस्‍ट को पब्लिश कर रहे हैं। रीड मोर पर क्लिक करके ग़ौर से पढिएगा और लाखों-करोड़ों की संख्‍या में आकर ब्‍लॉग संगत को सफल बनाइएगा।ये ख़बर पहली बार मोहल्‍ले में जारी हो रही है कि सन 2008 की 13 फरवरी को दीवान-ए-सराय में एक ब्‍लॉग संगत जम रही है। सराय ने पिछले दिनों हिंदी की नयी बनती बस्तियों का लगातार ख़ैर-मक़दम किया है। खासकर ब्‍लॉग को लेकर गंभीर चर्चा-चिंता की जितनी जगह सराय के कमरों में है, उतनी न तो हिंदो के आलोचकों की बगल वाली कुर्सी पर है, न ही हिंदी किताब छाप कर कार-मकान जुटाने वाले हिंदी के प्रकाशकों के छापेखाने में है। यह अच्‍छी बात है और सराय की इन अच्‍छाइयों से छलक कर कुछ अमृत और हमारे हिस्‍से में आ रहा है।ढाई बजे से ब्‍लॉग संगत जमेगी। आमंत्रण खुला है। हिंदी ब्‍लॉग के सफ़र और उसके आयामों पर बात होगी और जो कुछ ब्‍लॉगर इस संगत को लीड करेंगे, उनमें सुनील दीपक, मसिजीवी, दिलीप मंडल, नीलिमा-सुजाता, रवीश कुमार और मैथिली गुप्‍त अहम नाम हैं। आधे घंटे का एक छोटा सत्र सुनील दीपक से बातचीत को होगा, जो इटली के Bologna शहर से छुट्टी बिताने हिंदुस्‍तान की सरज़मीं पर अभी-अभी पधारे हैं। इस वक्‍त भुवनेश्‍वर में हैं। सुनील दीपक हिंदी के शुरुआती ब्‍लॉगरों में से रहे हैं और मोहल्‍ले की पहली पोस्‍ट उनकी ही मदद से देवनागरी में लिखी जा सकी थी। हम चाहेंगे कि जनसत्ता के संपादक ओम थानवी इस पूरी संगत में मौजूद रहें।हम तमाम ब्‍लॉगर बंधुओं को सराय की तरफ से ब्‍लॉग संगत में आमंत्रित कर रहे हैं। व्‍यक्तिगत मेल लिखना संभव नहीं हो पाएगा। ज़माने भर का ग़म और एक ब्‍लॉगिंग का ग़म के बीच संतुलन शाइरी के अर्थों में संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए। उम्‍मीद है, आप ज़रूर आएंगे और हिंदी ब्‍लॉगिंग पर विमर्श की एक नयी आधा‍रशिला रखेंगे। सराय का पता है 29 राजपुर रोड, दिल्‍ली 110054... ये कश्‍मीरी गेट के बाद सिविल लाइंस मेट्रो स्‍टेशन से एकदम नज़दीक का पता है। हालांकि एक बार मसिजीवी ने कहा था कि इस जगह से तीसहजारी मेट्रो स्‍टेशन भी ज़्यादा दूर नहीं। बहरहाल, पता तफ़सील से बताने से बेहतर है कि आपमें जुनून इतना हो कि आप खोज कर ब्‍लॉग संगत में आकर जम जाएं। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080213/12540e48/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Feb 14 12:53:34 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 13 Feb 2008 23:23:34 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSTIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSm4KWL4KSCIOCkpOCkryDgpJXgpLDgpYfgpIIsIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSCIOCknOCkvuCkjyDgpJrgpYvgpJbgpYfgpLDgpKzgpL4=?= =?utf-8?b?4KSy4KWALOCkleCkueCkvuCkgiDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0802132323i62cc9b55l4b34fccc9486a40b@mail.gmail.com> लकड़ी करने वाले लोगों की कमी नहीं है,हर बात में बस थोड़ा सा उपर उठा दो, अपने आप हो जाएगा। कल के ब्लॉग संगत से लौटकर जब अपनी पोस्ट का शेयर सूचकांक जानने के लिए डेस्कटॉप खोला तो देखा कि अफलातून सरजी ने टिप्पणी छोड़ी है कि 'चोखेर बाली'का 'सराय' जैसी दुकान से क्‍या सम्बन्ध हैऔर टिप्‍पणीकार साहब ने झट से लपक लिया। ४०-५० पुरुष ब्लॉगरों के बीच अकेले मोर्चा ताने हुए थी उसकी कोई बात नहीं कर रहा, किस जिंदादिली से पूरी परिचर्चा में शामिल रही उस पर कोई बात नहीं तो बात आ गयी सीधे चोखेरबाली के एजेंडे और सराय की आइडियोलॉजी पर। मतलब साफ है कि ब्लॉगर, ब्लॉग लेखन के जरिए अपनी बात कहने और मेनस्ट्रीम की मीडिया जहां असमर्थ हो जा रही है वहां अपनी मौजूदगी दर्ज करने के लिए नहीं लिख रहे बल्कि यहां भी वे अखबार या चैनल की तरह हर जगह पॉलिटिकली करेक्टनेस खोजने लग जाते हैं। इस प्रतिक्रया से हमने जो आशय लगाया है वो ये कि ब्लॉग के स्तर पर, उसके कार्यक्रम के जरिए नहीं जुड़ेंगे, जब तक कि वो पॉलिटकली करेक्ट न हो। तो भइया, ब्लॉग को फिर किस मुंह से सेक्यूलर और ज्यादा प्रोडेमोक्रेटिक माध्यम होने का दावा करने लग जाते हो। अब अगर सुजाताजी नहीं आती तो उस पर भी मसाला मारते कि-वो तो सिर्फ इंटरनेट पर ही क्रांति मचा सकती है। जैसे टीसर्ट क्रांति, झोला क्रांति, वैसे ही कीबोर्ड क्रांति। तब भी आप कहते कि अजी अविनाश का संयोजन था तो भला क्यों कर आने लगी। चोखेरबाली आएगी, इसकी सूचना तो अविनाश भाई ने बहुत पहले ही नेट पर डाल दिया था,तब किसी ने सुजाताजी के पक्ष में ही खड़े होकर राय नहीं दी कि भाई, अच्छा-खासा क्रांति कर रही है उसे क्यों विदेशी फंडेड संस्था में ला रहे हो। गोया आप ताक में थे कि आए तो सही और लपेट लेंगे। माफ करेंगे, आपकी इस टिप्पणी से ये भी लगता है कि आप अब भी उसी मानसिकता का समर्थन करते हैं कि स्त्रियां कहां जाएंगी, कहां नहीं, पुरुष तय करेगा।....और क्या चोखेरवाली को सराय अगर दूकान भी है तो उसकी जरुरत नहीं है,बाजार में सिर्फ पुरुष का ही कब्जा होगा। कबसे सरजी... टीवी चैनल वाली लत धीरे-धीरे यहां भी लगने लगी है कि जो कुछ भी हो बस मसाला मार के थाली आगे बढ़ा दो, जनता तो चटकारे मारने के लिए पहले से तो तैयार बैठी है ही। आप सारे ब्लॉगरों से अपील है कि प्लीज ब्लॉग को भी मेनस्ट्रीम की मीडिया की सड़ांध में मत धकेलिए जहां सच के पहले आइडियोलॉजी हावी हो जाती है। हिन्दी की दुनिया के लिए ब्लॉग नया माध्यम है, उसे अभी ही मत फंसाइए, इस तरह के पचड़ों में। आप देखेंगे कि कई सारी चीजें खुद ही रेगुलेट होती चली जाएंगी। आपको इस बात में कोई इंटरेस्ट नहीं है कि वहां जाकर चोखेरबाली ने क्या कहा। आप बैठे ही बैठे मान कर चल लेते हैं कि वहां इन्होंने सराय के पक्ष में खूब तेल मालिश की होगी। आप इस एंग्ल से सोच ही नहीं पा रहे होंगे कि कोई किसी के यहां जाकर उसके खिलाफ बोल भी सकता है। इसका क्या मतलब निकाला जाए कि ब्लॉगर की एक खेप ऐसी भी है जो कि ब्लॉग के मुद्दे पर तभी जाते हैं जब उनकी आइडियोलॉजी के मुताबिक स्पेस,लोग और कार्यक्रम तय किए जाते हैं।...तो फिर इंटरनेट के जरिए ग्लोबल होने का सपना भूल जाइए। सरजी, आपको क्या लगता है कि सराय अगर दूकान है (आपके मुताबिक, हमारे हिसाब से एक तो लगता ही नहीं और थोड़ी देर के लिए लग भी जाए तो खरीद-बिक्री और शोषण के स्तर पर नहीं, वार्टर सिस्टम के तहत कि तुम हमें टाइम दो, हम तुम्हें स्किल देंगे, खैर) और सुजाता वहां के ब्लॉग संगत में जाती है तो इसका मतलब है, साम्राज्यवाद का समर्थन करती है। तो बाकी के उन चालीस-पैंतालिस लोगों के बारे में आपकी क्या राय है। अविनाश भाई को आप जानते हैं इसलिए उनका भी नाम ले लिया कि भाई बाहर क्रांति रहे हैं तो ब्लॉग में आकर इसके समर्थक कैसे हो गए। आपको नहीं लगता कि आपने भी उसी तर्ज पर सोचना शुरु कर दिया है जिस तर्ज पर कम आंकडों या फिर जानकारी के अभाव में चैनल अपने पोल का रिजल्ट देती है। आप ब्लॉग की चिंता से ज्यादा पर्सनल आइडियोलॉजी को लेकर परेशान नजर आते हैं जो कि ब्लॉग के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। ये जानते हुए कि जो रवैया बन रहा है, आनेवाले समय में ब्लॉग के उपर पार्टी, आइडियोलॉजी,लिक्स,सेडिंग्स और वो सब कुछ हावी हो जाएंगे जो कि अखबारों और टीवी की दुनिया में हावी हैं। बावजूद इसके मैं फिर से अपील करना चाहता हूं कि ब्लॉग लेखन काफी हद तक हमारी वैयक्तिक इच्छा, अभिरुचि, संवेदना और समझ पर आधारित है। इस पर न तो बाजार का दबाब है और न ही यहां संपादक और सठिआए प्रोड्यूसर की कैंची चलती है। इसलिए हम चाहेंगे कि इसे तार्किक, प्रोडेमोक्रेटिक और स्पेसियस बनाए। ये अकेली दुनिया हो जहां किसी को लाल सलाम बोलने पर मांस के लोथड़े का ध्यान न आए और न ही किसी को श्रीराम बोल देने से गोधरा के पिशाच होने की आशंका पैदा हो जाए। ....और हां अबकि दिल्ली में ब्लॉग संगत हुआ तो अपनी और हम सब कि कोशिश रहे कि अकेले चोखेरबाली ही नहीं....इतनी चोखेरवाली आए कि पुरुषों को ऐसी अनर्गल बातें बोलने का मौका ही न मिले। ऐसा रहम खाकर नहीं बल्कि ये समझने के लिए कि जब सारी स्त्रियां कांव-कांव करेंगी ( पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियां कांव-कांव ही करती है) तो हम पुरुषों पर क्या गुजरती है, ये सबकुछ जानने के लिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080213/26ea4806/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Tue Feb 12 19:53:51 2008 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Tue, 12 Feb 2008 19:53:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KS54KS/?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4oCN4KSvIOCkteCkvuCksOCljeCkt+Ckv+CkleClgCAyMDA4?= Message-ID: <9c56c5340802120623y4754d07eib663c2aea9d805c6@mail.gmail.com> साहित्‍य वार्षिकी 2008 की विषय सूची जन विकल्प की साहित्य वार्षिकी 2008 अब उपलब्ध यह अंक कहानियां 1. संजीव- गली के मोड पर 2. संतोष दीक्षित - पास फेल 3. विमल कुमार -हंगर फ्री इंडिया 4. कविता - समांतर 5. अरविंद शेष-आबो हवा 6. रणेंद्र - हमन को होशियारी क्‍या कविताएं - 1 संजय कुंदन - 2 आर चेतन क्रांति - 3 सुंदरचंद ठाकुर - 4 पवन करण - 5कुमार अरूण - 6कुमार मुकुल - 7 मधु शर्मा - 8 प्रियदर्शन - 9 विनय कुमार - 10 मदन कश्‍यप - 11 शंकर प्रलामी - 12 बसंत त्रिपाठी - 13 अरूण आदित्‍य लेख - 1 सुधीश पचौरी - अत्‍तरआधुनिकता और हिंदी का द्वंद्व - 2 अरविंद कुमार- आधुनिक हिंदी की चुनौतियां धरोहर - 1 जवाहरलाल नेहरू - हिंदी में आत्‍मआलोचना का अभाव है कहानियां - 1 गुरदयाल सिंह - ज्ञान विकार है - 2 बाबुराव बागुल - विद्रोह - 3 प्‍यास - मोहनदास नैमिश्‍राय साक्षात्‍कार - 1 प्रतिभा आपको अकेला कर देती है राजेद्र यादव से स्‍वतंत्र मिश्र की बातचीत कविताएं - 1 बाबुराब बागुल - 2ज्ञानेद्रपति - 3 चंद्रकांत देवताले - 4 विष्‍णु नागर - 5 भगवत रावत - 6 विजेंद्र - 7 अनूप सेठी - 8 नीलाभ - 9 खगेंद्र ठाकुर उपन्‍यास अंश 1. श्यामबिहारी श्यामल - शब्द सत्ता कहानियां 1. राजकुमार राकेश- यह भी युद्ध है 2. अनंतकुमार सिंह - बसंती बुआ 3. शेखर मलिल्‍क- आखिरी औरत कविताएं ‍‍ 1. रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति 2. प्रमोद रंजन 3. मुसाफिर बैठा 4. पंकज पराशर 5. मृत्‍युंजय प्रभाकर 6. रोहित प्रकाश 7. रमेश ऋतंभर 8. शहंशाह आलम 9. आशीष कुमार 10. अजेय 11. प्रणय प्रियंवद 12. मोहन साहिल 13. कल्‍लोल चक्रवर्ती 14. विक्रम मुसाफिर 15. लनचेबा मीतै पृष्‍ठ -236, मूल्‍य - 50 रूपए. संपर्क : 2 सूर्य विहार कॉलोनी, आशियाना नगर, पटना-800025 email : pramodrnjn at gmail.com -- प्रमोद रंजन ................................................................... जन विकल्प सामाजिक चेतना की वैचारिकी http://janvikalp.blogspot.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234382621, Res : 0612-2360369 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080212/1ced9ea5/attachment-0001.html From pramodrnjn at gmail.com Tue Feb 12 19:56:35 2008 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Tue, 12 Feb 2008 19:56:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSm4KSvIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KS+4KS2LCDgpK7gpYvgpLngpLLgpY3igI3gpLI=?= =?utf-8?b?4KS+IOCklOCksCDgpK7gpILgpJfgpLLgpYfgpLbgpJzgpYAg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkn+Ckv+CkquCljeKAjeCkquCljeKAjeCko+ClgCAu?= Message-ID: <9c56c5340802120626x43227044p75edfd6a5cf60e8c@mail.gmail.com> उदय प्रकाश, मोहल्‍ला और मंगलेशजी की टिप्‍प्‍णी . ( इसे 'टूटी हुई बिखरी हुई' पर छपे ए‍क पोस्‍ट पर टिप्‍प्‍णी के रूप में लिखा गया है, यहां किंचित परिमार्जन के साथ) अपने प्रिय कवियों में से एक, मंगलेश‍जी की बातों से मेरी लगभग पूरी सहमति है लेकिन यह भी एक सच्‍चाई है कि वह ब्‍लॉग की मूल प्रकृति को समझ पाने में असफल रहे हैं. दूसरी बात जो मुझे उनकी नवभारत टाइम्‍स वाली टिप्‍पणी पढते हुई महसूस हुई कि उन्‍होंने अपनी राय मुख्‍यत: मोहल्‍ला तथा एक दो और ब्‍लॉगों को ही ध्‍यान में रखते हुए बनाई है. (..हालांकि कुछ अन्‍य अच्‍छे ब्‍लॉग भी हैं जिनपर कतिपय बेहतर सामग्री होती है. मसलन, कस्‍बा, हाशिया या आपका ब्लाग‍ ..हाशिया पर तो रेयाज ने शायद एमानुल ओर्तीज की कवितादी भी थी, जिसके न ब्‍लॉग पर न मिलने पर मंगलेशजी को खेद हुआ.) बहरहाल, मंगलेशजी की टिप्‍पणी एक बार फिर देखें - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2734203.cms इस टिप्‍पणी में वह कहते हैं ''उनमे (ब्‍लॉगों में)ज्‍यादातर गपशप का माहौल है या गंभीरता के नाम पर छोटी छोटी पॉलिमिक्‍स बहसें हैं, जिनमें भडास या कुंठाएं निकाली जाती हैं या कोई सनसनीदार साहित्यिक चीज पेश की जाती है ''. ( यद्यपि मोहल्ला ‍पर दो तीन अच्‍छी , गंभीर कही जाने लायक चीजें भी आईं हैं. और अब कम्‍युनिटी ब्‍लॉग बनने के बाद कुछ विवेकवान लोग उससे जुड रहे हैं . सो हिंदी के इस सर्वाधिक चर्चित ब्‍लॉग के सार्थक भी हो सकने की उम्‍मीद तो की ही जा सकती है. लेकिन अब तक कुल मिलाकर जो इस ब्लॉग की स्थिति ‍रही है, उसके आधार पर मंगलेश जी की बातों से सहमति बनती है. किंतु इसके अलावा मंगलेशजी कहते हैं कि '' कुछ लेखकों के ब्लॉग शायद अनजाने में ही आत्म विज्ञापन का साधन बने हुए दिखते हैं, जिनमें उनकी रचनाओं के साथ उनकी आगामी पुस्तकों के चित्र भी चिपके होते है '' . ऐसा लगता है उन्‍होंने शब्‍दों में यह बात हिंदी एक समर्थ कवि-(जो न सिर्फ अभिव्‍यक्ति के नए माध्‍यम के रूप में ब्‍लॅग का क्षमता पहचाने वाला पहला वरिष्‍ठ साहित्‍यक है बल्कि जिसकी उपस्थित ने ब्‍लॉग जगत को गरिमा प्रदान की है और कई पढने-लिखने वालों को इस ओर आने के लिए प्रेरित किया है)-के ब्‍लाग के संदर्भ में कही है . और यहीं मंगलेशजी चूक कर गए हैं ... और एक ऐसी चूक है जिस पर 'गंभीरता' से ध्‍यान दिया जाना चाहिए. चुंकि यह एक बडे कवि की चूक है इसलिए यह कुछ ' बडे दिग्‍भ्रम' भी पैदा कर सकती है. इसी चूक के कारण मंगलेश जी अपनी टिप्‍पणी में ब्‍लॉग की वास्‍तविक निजता , उसकी मूल प्रकृति के ही विरोध में जा खडे हुए हैं. वह मूल प्रकृति है उसका ' वयक्तिगत' होना. ब्‍लॉग का बेहद खूबसूरत हिंदी अनुवाद है 'चिट्ठा'----कच्‍चा पक्‍का जैसा भी ! जिस वैक‍ल्पिक कथ्‍य की अपेक्षा वह रख रहे हैं, उसे टलॉगों संदर्भ में 'कच्‍चा चिट्ठा' कहा जाना बहुत गलत न होगा . अमेरिका के ब्‍लॉगों 'सांस्‍कृतिक शक्ति' बन जाने के संदर्भ में मुझे तथ्‍यों का ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन एक बात याद दिला देना समीचीन होगा कि दुनिया के अनेक महत्‍वपूर्ण समकालीन लेखकों, कवियों, दार्शनिकों, फिल्‍मकारो, इतिहासकारों, समाजशास्‍त्रीयों की अपनी वेब्‍साइटें (व‍ह भी शायद पेड,सशुल्‍क) हैं , जिनपर उनकी प्रकाश्‍य पुस्‍तकों समेत अन्‍य संबंधित जानकारिकयां रहती हैं. इसे लिखते हुए यह भी ध्‍यान में आ रहा है कि कई लेखक अचानक इधर 2-3 सालों से खूब अमेरिका-अमेरिका करने लगे हैं, जैसे पहले रूस-रूस कहते थे. क्‍या साम्‍यवाद का स्‍वप्‍न भी मर गया? या वह सीधा-सीधा हित-लाभ का मामला था? जब रूस से पुरस्‍कार, विदेश यात्राओं का सुख और कुछ दूसरे लाभ मिलत थे वह; और अब विश्‍व बैंक द्वारा फंडेड एनजीओ से मिलने लगा है तो - अमेरिका! या सचमुच इन दिनों अमेरिका में महान साहित्‍य लिखा जाने लगा है? मैं इसकी संभावना को सिरे से नकार नहीं रहा हूं ; हालांकि स्‍वयं मंगलेशजीने 'एक बार अयोबा'(1996) में लिखा है - '' इतना बडा देश है यह (अमेरिका) . पाब्‍लो नेरूदा के शब्‍दों में 'भैंस के चमडे की तरह फैला हुआ'. पर यहां एक भी महान कवि, महान कलाकार, महान संगीतकार क्‍यों नहीं है? अमेरिका शायद बडी रचनात्‍मक प्रतिभा पैदा नहीं कर सकता. साहित्‍य में ज्‍यादतर लोग अपने से ही 'ऑब्‍सेस्‍ड' हैं या फिर सेक्‍स दूसरा 'ऑब्‍सेशन' है ''. खैर ... यह सदि्च्‍छा तो अच्‍छी है कि '' ब्लॉगों को मुख्य मीडिया से ज्यादा जिम्मेदार होना होगा ताकि वे 'ब्लॉग-ब्लॉग' खेलने तक सीमित न रह जाएं '' लेकिन क्‍या ऐसी ही अपेक्षा हमने लघु पत्रिकाओं से भी न की थी कि वे बडी पत्रिकाओं, बडे पूंजी वाले प्रिंट मीडिया के बरक्‍स वैकल्पिक विचार दें ? लेकिन क्‍या यह सच नहीं है कि हिंदी में जो सैकेडों लघुपत्रिकाएं छपतीं हैं, उनमें से 98/99 प्रतिशत 'पत्रिका- पत्रिका' ही खेलती रही हैं. हमने उनमें से सार्थक काम करने वाली पत्रिकाओं को चुना है. यही काम ब्‍लॉगों के संदर्भ में भी करना होगा. हिंदी चिट्ठों जो अगंभीरता अभी दिख रही है उसका एक कारण तो यह है ( जैसा कि मंगलेशजी ने भी उचित ही स्‍वीकार किया है ) कि अभी बहुत कम लोग इस दिशा में सक्रिय हैं. संख्‍या बढने पर स्‍वभावत: इनमें विविधता भी बढेगी . इसके अलावा क्‍या यह विचारणीय नही है कि स्‍वयं 'हिंदी' की वैचारिकता का ही क्‍या हाल रहा है? क्‍या यह सच नहीं है कि स्‍वयं हिंदी का लेखन अपनी तमाम '' नेकनीयती के बावजूद अभी तक अराजनैतिक, व्यक्तिगत, रूमानी, भावुक और अगंभीर है''. ( बल्कि मंगलेशजी के इस वाक्‍य में मैं 'वर्णवादी' और ' पुनरूत्‍थानवादी' भी जोडना चाहूंगा. ) जाहिर है चिंताएं और भी हैं तथा इन दिनों और गंभीर होती जा रही हैं. 'हंस' जैसी प्रखर पत्रिका में तेज गिरावट देखी जा रही है ; गंभीर कही जाने 'पहल' में 'हल्‍कापन' आया है. तो दूसरी ओर किंचित चटपटे 'नया ज्ञानोदय' को पसंद करने वालों की संख्‍या बढी है. ऐसे में ब्‍लॉगों से ही कुछ बहुत खास कर गुजरने की उम्‍मीद तो नहीं ही की जा सकती . हां, इतना जरूर है कहूंगा कि यह मूलत: अस्‍थापितों का अख्‍यान है. इसकी निजता इसका 'व्‍यक्तिगत' होना है. -- प्रमोद रंजन ................................................................... जन विकल्प सामाजिक चेतना की वैचारिकी http://sanshyatma.blogspot.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234382621, Res : 0612-2360369 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080212/e0b89ae7/attachment-0001.html From bhagwati at sarai.net Thu Feb 14 12:32:30 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Thu, 14 Feb 2008 12:32:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkoQ==?= Message-ID: <47B3E786.5020109@sarai.net> वेलेंतैन डे के दिन महिलाओं और भारतीये युवा पीडी को पथभर्ष्ट होने से बचाने के लिए महाराष्ट मैं बेठे मराठी जनता को महाराष्ट दिलाने वाली पार्टी की भारतीयों संस्कृति के प्रति चिंता भगवती उत्तर भारतीये -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: valantine day.jpeg Type: image/jpeg Size: 1365994 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080214/c4e1ac0d/attachment-0001.jpeg From chauhan.vijender at gmail.com Thu Feb 14 16:19:49 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 14 Feb 2008 16:19:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KS+4KSP?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLXgpJzgpYDgpKvgpL7gpJbgpY3gpLXgpL7gpLAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWLLOCkpuCliyDgpLbgpL7gpLkg4KSV4KWLIOCkpuClgeCkhiwg4KS1?= =?utf-8?b?4KS5IOCkpuCkv+CkqCDgpJfgpI8g4KSV4KS/IOCkleCkueCkpOClhyA=?= =?utf-8?b?4KSl4KWHLOCkqOCljOCkleCksCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS54KWC4KSC?= =?utf-8?b?IOCkruCliOCkguClpA==?= Message-ID: <8bdde4540802140249v5ffae2edv7829264f08a5ab8f@mail.gmail.com> कमलानगर की जलेबी में कड़वा फोर्डीय शीरा और रम भरी चाकलेट की मिठास... अविनाश ने दो बार मोहल्‍ले पर और एक बार भड़ास पर ब्‍लॉगसंगत की सूचना दी थी।हम पहुँचे। मुख्‍य आकर्षण सुनील दीपक का वहॉं होना था। सुनील दीपक हमारे पसंदीदा चिट्ठाकार हैं और आज से नहीं वर्षों से हैं। तो सराए से जब लौटे तो हमारे कंप्‍यूटर में राकेश से मांगी हुई कुछ तसवीरें थीं। सुनीलजी से मिली रम वाली कुछ इतालवी चाकलेट थीं और सुखद यादें भी थीं] अच्छी बैठक थी। हॉं सराए के पैसे की जलेबियॉं और समोसे तथा एक प्‍याला चाय भी भकोसीं थीं। घर पहुँचकर भड़ास की पोस्‍टदिखी- *विदेशी धन(फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं के पैसे से) पर चलने वाली दुकानों से अविनाश जैसों का लगाव देख कर दुख हो रहा है। सराय , csds जैसी दुकानों के द्वारा बौद्धिक साम्राज्यवाद कैसे फैलाया जाता है उससे हिन्दी चिट्ठेकारों को सावधान होना होगा। मसिजीवी - नीलिमा अब यह भी बतायें कि 'चोखेर बाली'का 'सराय' जैसी दुकान से कोई सम्बन्ध है या नहीं?मैथिलीजी या सुनील दीपक विदेशी फन्डिंग एजेन्सियों से धन ले कर चलने वाली दुकानों के बारे में क्या सोचते हैं-यह उन्हें बताना होगा। * चोखेर बाली किस पालिटिक्‍स से चलेगा ये आंख की किरकिरियॉं ही जानें, कम से कम अब तक हम उसके सदस्‍य नहीं हैं। इसलिए हम जो कुछ लिख रहे हैं अपने बारे में लिख रहे हैं। वैसे चोखेरबाली के ऐजेंडे से हमारी सहमति है पर वक्‍त आने पर उस मामले में अपना पक्ष रखेंगे यहॉं तो उस आपत्ति पर विचार किया जाए जो अफलातूनजी उठा रहे हैं। सबसे पहले तो समझें कि मूलत: आपत्ति क्‍या है- मूल विचार यह है कि सराए और इस जैसी संस्‍थाएं जो विदेशी वित्‍त से पोषित होती हैं वे एक व्‍यापक बौद्धिक साम्राज्‍यवाद का औजार होती हैं जो जाने अनजाने इन 'फोर्ड फाउंडेशनों' के कहे अनकहे एजेंडों को ही क्रियान्वित कर रही होती हैं। इसलिए इस तरह की संस्‍थाओं से जुड़ने, इनसे पैसे लेने में नैतिक दिक्‍कतें हैं। जिन लोगों को सराए के विषय में कम पता है वे इसकी साइट से जानकारी हासिल कर सकते हैं। जानकारी के लिए बताया जाए कि अपने चिट्ठाकारों में *रवि रतलामी * लगभग नियमित रूप से सराए की फैलोशिप का लाभ लेते हैं, मुझे गैर चिट्ठाकारी विषयक एक शोध परियोजना पर फैलोशिप मिल चुकी है, नीलिमा को भी *ब्‍लॉग संबंधी शोध * के लिए वित्‍त समर्थन सराए से मिला था। इरफान, आलोक पुराणिक , गौरी पालीवाल, नरेश , राकेश, विनीत , नीटू, शिवम , महमूद फारूकी आदि लोग (और भी हैं सभी अब याद नहीं आ रहे) जिन्‍हें कोई न कोई वित्‍तीय जुडा़व सराए से रहा है। कहने का आशय यह है कि वाकई यदि ये कोई बौद्धिक गुलामी का यंत्र चल रहा हे तो 'डेमेज इज आल्‍रेडी डन' (हमपर तो चलो मान लो सराए ने पैसा बरबाद ही किया पर बाकी तो खासे बौद्धिक हैं) इससे पहले कि हम इस मसले पर अपनी राय बताएं स्‍पष्‍ट कर दें कि खुद सराए के रविकांत जो सराए के हिंदी वाली गतिविधियों को निकटता से देखते हैं और दीवान नाम की मेलिंग लिस्‍ट चलाते हैं उनसे हमने अफलातूनजी के इन सवालों को सीधा पूछा था, इसलिए भी कि खुद हमें भी ये सवाल परेशान करते रहे हैं- रविकांत के वे जबाव जो हमें अब तक याद कुछ इस तरह थे- 1. पैसे की कोई राष्‍ट्रीयता नहीं होती, हॉं फंडिंग ऐजेंसियों की अपनी वरीयताएं होती हैं पर कम से कम हम अपने शोधकर्ताओं को पूरी आजादी देते हैं, हमारा ऐजेंडा हम खुद तय करते हैं और फिर उसके अनुकूल फंडर खोजते हैं। 2. लोकलाइजेशन व क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों में जो काम सराए ने किया है वह साम्राज्‍यवाद के प्रतिरोध में है 3. संवाद क प्रक्रियाओं से चीजें अपनी राह खुद बना लेती हैं 4. रजनी कोठारी, आशीष नंदी, योगेन्‍द्र यादव, शाहिद, अभय कुमार दुबे .... क्‍या इन नामों से ये उम्‍मीद की जा सकती हे कि ये बोद्धिक रूप से खरीदे बेचे जा सकते हैं या ये किसी अन्‍य से कम प्रतिबद्ध हैं, यदि ये आजादी से काम कर पाते हैं तो... ऐसे ही कुछ और तर्क भी रहे होंगे। तर्क विरोध में भी होंगे। हमारा कहना बस इतना है कि शायद नैतिक अपेक्षाओं का ही समय नहीं रहा है। मेरा मन अफलूजी से सहमत होने का करता है पर मेरे अनुभव में ऐसा कुछ नहीं है कि मेरे काम के दौरान मुझ पर कोई दबाब था। पर यह भी सही है कि इन *पुरानी शोधवृत्तियों के विषयों को * छान जाइए आपको शायद ही कोई विषय ऐसा दिखे जो सामूहिक प्रति‍रोधपरक चेतना का समर्थन करता दिखाई दे। आम तौर पर वैयक्तिता, उद्यमशीलता, निजी पाठों और निजी रचनाधर्मिता को ही बौद्धिक विमर्श के केंद्र में लाते विषय हैं। मतलब बहस अभी चालू आहे। ये भी सही है कि अब देशी-विदेशी धन की शब्दावली में बात ही कौन करता है। हॉं संगत के दौरान सुनीलजी ने हम सबको चाकलेट खिलाई- ये चाकलेट जाहिर है विदेशी थी और चूंकि उसमें रम भरी थी इसलिए कड़वी भी थी पर इन्‍हें भेंट करते शख्‍स का दिल बिल्‍कुल देसी है जनाब। दूसरी तरफ सराए के पैसों से आई जलेबी कमलानगर से आई थी, इसमें देसी चाशनी भरी थी और ये मीठी थी, कोई कड़वाहट नहीं लेकिन पैसा तो फोर्ड फाउंडेशन का ही था क्‍या मुझे कुछ कसैला लगना चाहिए ? बहुतई कन्‍फ्यूजन है सर।। इस पोस्‍ट पर अब तक आई प्रतिक्रियाएं इस प्रकार हैं, - Pramod Singh said... वैसे सर्वविदित सच्‍चाई जो है यहां अफलातून भाई कह रहे हैं, अन्‍य जगह और लोग कहते रहे हैं. सवाल यह नहीं है कि सराय के पीछे पैसा फोर्ड फाउंडेशन का है, सवाल यह है कि कुछ लोगों को जो अपने कांखने में भी वैचारिक आग्रहों का दावा करते हैं, ऐसी स्‍वछंदता से इन जगहों कूद-फांद करें तो उसमें सीधे दोहरे मानदंड देखे जाने चाहिएं. देखे क्‍या जाने चाहिए, मुझे दिखते हैं. 2:19 AM विनीत कुमार said... सरजी,विदेशी फंडिंग वाली बात तो समझ में आती है लेकिन वहां के फंड मिलने से आदमी मानसिक रुप से गुलाम हो जाएगा और साम्राज्यवाद को अनिवार्यता बढ़वा देगा,ये तो मगज वाली बात लगती है,कम से कम सराय के संबंध में। मिसनरी स्कूल में भेजते समय मेरी मां ऐसी ही सोचती थी कि जाकर क्रिस्तानी हो जाएगा, लेकिन जो हूं आपके सामने हूं। हमसे तो कोई एग्रीमेंट नहीं लिखवाया था सराय ने कि फंड मिलने के बाद आप हमेशा अमेरिका या फिर साम्राज्यवाद की नीतियों का समर्थन करेंगे। और जो भी लोग वहां से जुड़ते हैंस उन्हें रिसर्च के मामले में एक नई आजादी मिलती है जो कि मेरे जानते यूनिवर्सिटी में भी नहीं है। इसलिए जबरदस्ती का हॉय-हॉय करने का कोई मतलब नहीं है। और फिर स्वदेशी जागरण वालों की तरह पर्चा लेकर स्वदेशी,विदेशी का विभाजन इस ग्लोबल फेज में करना बड़ा ही इम्मैच्योर एप्रोच है। वो 10:51 AM विस्फोट said... मसिजीवी आपकी कई बातों से सहमत होना मुश्किल है. विनीत तो निपट अनाड़ी की तरह बात कर रहे हैं वे जो टिप्पणी कर रहे हैं उससे साफ होता है कि वे उस खेल के बारे में कुछ नहीं जानते जिसका शिकार लगभग हर बुद्धिजीवी है. सामाजिक कार्यों और लिखत-पढ़त में विदेशी पैसे का अर्थशास्त्र इतनी जल्दी समझ में नहीं आता. जब तक समझ में आता है तब तक वह पैसा आपकी कमजोरी बन चुका होता है और उसे सही ठहराने के लिए हम तर्क गढ़ने लगते हैं. और अगर कोई अपना ही सवाल खड़ा करे तो हम उसे गलत साबित करने में जुट जाते हैं. यह विदेशी पैसे का प्रभाव नहीं तो और क्या है? 11:06 AM सुजाता said... ब्लोग संगत कहीं और भी होती है तो हम कूद फान्द करते हैं वहँ भी अफलातून जी । वैसे , चोख्रेर बाली कहाँ क्यूँ जाए यह सार्वजनिक रूप से पूछा जाएगा ? अगर ऐसा है तो उत्तर देने की मुझे ज़रूरत नही । अपने मानदण्ड आप स्वयम दिखा रहे हैं । अगर नही तो अब पूछिये इरफान का क्या लेना देना भूपेन का क्या लेना देना सुनील जी का , अर्चना वर्मा का क्या लेना देना । हद है !! चोख्रेर बाली हडबडी में है । पोस्ट पे पोस्ट ठेल रहे हैं । कंफ्यूज़्ड हैं .....और अब क्या सम्बंध है सराय से ........... आखिर मर्दवादी साबित किया खुद को आप लोगो ने।यही तो करते हो घर पर बहन पत्नी के साथ किस्के साथ क्यू है बहन । वह तो गुंडा है , उसके साथ तू क्या कर रही थी ? बता तेरे मन मे क्या है ? 11:09 AM Raviratlami said... दरअसल लोगबाग हवा में मुंह उठाकर सीधे सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी की तरह बातें करते हैं खासकर बिना सोचे समझे, और विषय वस्तु का अध्ययन किए बगैर, तब इस तरह की बातें हो जाती हैं. हम आप अकसर ऐसी बातें कभी न कभी कह जाते हैं... जैसी कि सराय के विदेशी फन्ड के लिए कही गई है. लोग कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं. बात ये है कि उनका नोटिस लिया जाना चाहिए या नहीं? यूँ सराय में बहुत से काम हुए हैं , और सराय की साइट पर अब तक की स्वीकृत फेलोशिप की सूची भी है जिसे कोई भी देख पढ़ सकता है - मैं अपनी बात करूंगा - मुक्त स्रोत हिन्दी लिनक्स परियोजना हेतु सराय से नियमित, निरंतर फेलोशिप मिलती रही है, और जो आज रूप हिन्दी लिनक्स का है, यदि सराय नहीं होता तो उसका वो रूप कतई नहीं होता. मुक्त स्रोत की दुनिया में हिन्दी नजर आने को अभी भी संधर्षरत होती. वैसे, बहुत सी बातें आपने और विनीत जी ने कह ही दी हैं... 11:13 AM Raviratlami said... और, हाँ, ऊपर की टिप्पणी लिखते लिखते सुजाता जी ने भी बेहतर जवाब दे ही दिया है... 11:16 AM Neelima said... अफलातून जी , आपको अलग से पोस्ट लिख कर उत्तर देना ठीक रहेगा !पर यहां साफ दिख रहा है कि हमारे समाज में किसी भी स्त्री विमर्श को ऎसे की लांछ्नापूर्ण , लिजलिजे थोथे सवालों ,शकों से देखा और गिराया जाता है ! 11:18 AM Pramod Singh said... अरे, यहां तो बड़ा उखड़ा-उखड़ी का माहौल है, भाई.. फोर्ड फाउंडेशन के पैसों से अफलातून भाई को एतराज़ है, संजय को भी है वह दिख रहा है, बाकी किसको है? मुझे तो नहीं है. दिल्‍ली में था तो सराय मैं खुद गया था कि कहीं कुछ पैसा-वैसा निकलता हो तो रवि भैया, निकलवाओ. रवि भैया हंसते रहे, पैसा निकलवाया नहीं. मगर जहां तक फंडिंग की बात है दुनिया में ऐसी ढेरों एजेंसियां हैं जो बुद्धिजीवियों को विमर्श में लगाये रखने के पैसे देती हैं, बस एक महीन सी अंडरकोटिंग उसमें यह रहती है कि खूब सारा विमर्श चलता रहे, वह सोशल पॉलिटिकल एक्टिविज़्म के रास्‍ते अपनी बेचैनियों को ट्रांसलेट करने का जरिया न बने. बस इतनी सी बात है, इसको जो समझना इंटरप्रेट करना चाहता हो, करे. बा‍की फिर एक गरीब फटेहाल मुल्‍क में पैसों से किसे परेशानी है? मुझे तो नहीं है! हालांकि कोई दे नहीं रहा है.. 12:09 PM Neelima said... खूब सारा विमर्श चलता रहे, वह सोशल पॉलिटिकल एक्टिविज़्म के रास्‍ते अपनी बेचैनियों को ट्रांसलेट करने का जरिया न बने. ---- सही बात पकडी और कही प्रमोद जी !! 12:19 PM Priyankar said... आदर्श के क्लियरिंग एजेंट और होलसेल डीलर प्रमोद का 'समरशॉल्ट' रोचक लगा . अफ़लातून भाई का सवाल अब भी अपनी जगह खड़ा घूर रहा है . बाकी लोगों की नमकहलाली बोल रही है . सो कोई बुरा मानने की बात नहीं है . राजस्थानी में कहावत है : 'जीका खावै घूघरा,बीका गावै गीत' . अब जब बुलउआ लगेगा,ढोलक बजेगी तो गीत भी बतासा-खड़पुड़ी बांटने वाली गृहस्वामिनी की रुचि और उसके घर के अवसर के अनुकूल ही गाए जाएंगे . पैसे के रंग और राष्ट्रीयता के बारे में जानकारी से ज्ञानवर्धन हुआ . हां! उन्नीसवीं सदी के 'ओरिएंटलिस्टों' ने भी देश का कुछ तो भला किया ही . वैसा ही कुछ भला सराय से भी हो रहा होगा इससे इन्कार क्या करना . पूंजी के कॉस्मिक-नाच के सुंदर समय में पैसों के अफ़लातूनी-अपमान से पनपा क्रोध थूक देने और रंग में भंग डालने वाले अफ़लातून को माफ़ करने की अपील करता हूं चचा गालिब के शब्दों में : अगले वक्तों के हैं यह लोग,इन्हें कुछ न कहो, जो मै-ओ-नग्मः को अन्दोहरुबा कहते हैं । चलते-चलते गालिब का एक और शेर अर्ज़ है : गालिब वजीफाख्वार हो,दो शाह को दुआ, वह दिन गए कि कहते थे,नौकर नहीं हूं मैं। 12:54 PM masijeevi said... बात हो इसलिए ही तो लिखा था पर बबाल हो इसलिए नहीं। पहली बात कृपया ध्‍यान दें हमने अफलातूनजी को कोई जबाव नहीं दिया है..एक एक कर दिए गए उत्‍तर वे हैं जो हमें सराए की पेरवी में रविकांतजी ने दिए..हम उनसे सहमत हैं ऐसा हमने नहीं कहा।(हम तो कन्‍फ्यूज भर हैं) हम इसलिए भी कनफ्यूज कहे जा सकते हैं कि हम मनसा तो मानते हैं कि प्रियंकर, संजय ओर अफलातून की बातों में रविकांत की बातों से ज्‍यादा दम है। ये भी सही है कि विनीत व रवि बात का जबाव नहीं दे रहे हैं बस बचपने जैसे तर्क भर सरका रहे हैं जो उन महीन धागों की व्‍याख्‍या नहीं करते जिनका उल्‍लेख प्रमोद कर रहे हैं। चुहल भर के ही लिए याद दिला रहा हूँ कि दिल्‍ली में सराए को चुके हुए क्रांतिकारियों की पुनर्वास बस्ती कहा ही जाता है। हम तो खैर कभी क्रांति की मरीचिका में फंसे नहीं पर किसी निर्दोषता का दावा नहीं ठोक रहे। वैसे सरकार भी तो इसी तरह की पूंजी से चल ही रही है...सारी अर्थव्‍यवस्‍था भी...कौन है मानसिक साम्राज्‍यवाद से मुक्‍त। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080214/620050ef/attachment-0001.html From rakeshjee at gmail.com Thu Feb 14 16:40:11 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Thu, 14 Feb 2008 16:40:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkuOCkguCkl+CkpCDgpJXgpL4g4KSc4KS/4KSV4KWN4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSF4KSW4KS84KSs4KS+4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <292550dd0802140310q257ac24fx7338028b72ef2948@mail.gmail.com> मित्रों कल की संगत की चर्चा अख़बार में हुई बताया भाई शैलेश भारतवासी ने. विस्तृत जानकारी के लिए क्लिकियाएं http://merekavimitra.blogspot.com/2008/02/blog-post_4374.html सलाम राकेश -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080214/74ed5bba/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Feb 14 19:33:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 14 Feb 2008 19:33:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= madad hazir hai! Message-ID: <200802141933.10828.ravikant@sarai.net> दोस्तो, अब हममें से कई लोग चैन की साँस ले सकते हैँ, क्योंकि हिन्दी युग्म ने यह महती कार्यभार अपने कंधों पर ले लिया है. सराय नाम की यह दुकान हमेशा से यही चाहती थी कि लोग नेट की क्षमताओं का ऐसे ही इस्तेमाल करें. शैलेश भारतवासी को ढेर सारी शुभकामनाएँ. और हाँ, कल की ब्लॉग संगत के लिए एक बार फिर अविनाश सहित आप सबको बहुत-बहुत शुक्रिया. ये सब चीज़े मैं कहाँ जानता था. अपना ज्ञानवर्धन भी हुआ. दूसरी तरह की काफ़ी चर्चाएँ भी गर्म हो रही है, और देखिए कि सराय को आप लोग लोकप्रिय बनाने पर उतारू हैं. यानी मेरा आरोप यह है कि आप साम्राज्यवादी षडयंत्र के शिकार हो चुके हैं. हम तो भई ख़ुश हैं -- बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? बहरहाल काम की बात. कृपया यह कड़ी ख़ूब घुमाएँ और हिन्दी युग्म को ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाएँ. http://merekavimitra.blogspot.com/2007/07/blog-post_1474.html अपना फ़ोन नं॰ दीजिए, हिन्दी-टंकण और ब्लॉग बनाना सीखाएँगे हम क्या आप कम्प्यूटर पर हिन्दी में लिखना चाहते हैं? ऑरकुट पर किसी हिंदी प्रोफ़ाइल को देखकर अपनी प्रोफ़ाइल भी हिन्दी में बनाने की इच्छा होती है? किसी हिन्दी ईमेल को पढ़कर हिन्दी में उत्तर देने का मन हुआ है? क्या आप हिन्दी वेबसाइट ( या ब्लॉग) बनाना चाहते हैं? क्या आप अपने लेखन को रोमन (अंग्रेज़ी भाषा की लिपि) में करते-करते थक गये हैं? क्या आप कृतिदेव, शुषा आदि फ़ोंटों से छुटकारा पाकर नई टंकण विधा यूनिकोड की शरण में जाना चाहते हैं? क्या इंटरनेट पर उपलब्ध टंकण-ट्यूटोरियल्स की मदद से आप कुछ खास नहीं समझ पा रहे? क्या आप ऑनलान टाइपिंग टूल को पूर्णतया नहीं समझ पाते? क्या आपको हिन्दी में कमेंट (टिप्पणी) करने का मन होता है? इस तरह की सभी समस्याओं का टेलीफ़ोनिक हल लेकर आया है हिन्द-युग्म। From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 11:58:15 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 11:58:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: invitation 4 d talk!!! Message-ID: <200802161158.15539.ravikant@sarai.net> दोस्तो, शायद आपमें से कुछ को पहले से ही पता हो: जुबली हॉल, उत्तरी परिसर, दिल्ली विश्वविद्यालय में एक विचार गोष्ठी हो रही है, हिन्दी के भूत और भविष्य को लेकर - अभय दुबे, आलोक राय और हरीश त्रिवेदी बोलने वाले हैं. ज़रूर पधारें. सटीक तफ़सीलात नीचे पाएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: invitation 4 d talk!!! Date: शुक्रवार 15 फरवरी 2008 23:05 From: "sachida nand jha" To: *Hi,* * * * **We have planned to have a discussion on* *Revisiting the past of Hindi language and rethinking its present in a globalised world* * * *By Prof. Harish Trivedi, Prof. Abhay Kumar Dubey and Prof. Alok Rai.* * * *The venue is Jubilee Hall Hostel, Mall road. The date and time: February 19, 2008 at 6.30 pm. Plz do come for this.* * * *Sachida Nand* ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 13:11:22 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 13:11:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSy4KWH?= =?utf-8?b?4KSC4KSf4KS+4KSH4KSoIOCkpuCkv+CkteCkuCAsIOCkk+CkquClh+CkqCA=?= =?utf-8?b?4KS44KWL4KSw4KWN4KS4IOCkleClhyDgpLjgpL7gpKUg4KSu4KSo4KS+4KSv?= =?utf-8?b?4KWH4KSC?= Message-ID: <200802161311.22990.ravikant@sarai.net> दोस्तो, वैलेंटाइन डे गुज़र गया, और बहुत सारी सीख, भगवती के मार्फ़त, हमें दे गया, उसमें से एक तो गाँठ बाँधने लायक़ है ही कि वैलेंटाइन डे सिर्फ़ एक ही दिन क्यों मनाया जाए, क्यों न हर रोज़ मनाया जाए! पर एक सीख लीसा नोवा, और यूट्यूब की तरफ़ से भी, जिसे उन्मुक्त नामक एक निहायत दिलचस्प ब्लॉग/चिट्ठाकार ने पेश किया है. मैं उन्मुक्त पर कभी-कभार जाता रहा हूँ, और क्या करूँ 'साम्राज्यवादी' होते हुए भी मुक्त स्रोत से मोह नहीं टूटा है, तो उन्मुक्त की बातें मज़े लेकर पढ़ता ही हूँ. मुक्त स्रोत समुदाय की एक शाश्वत समस्या रही है, इसका पुरुष प्रधान होना - जेंडर और टेक्नॉलजी साथ नहीं जाते, (पुरुष)गीकों की महिलाओं से पटती नहीं, वे अनाड़ी क़िस्म के होते हैं, आदि बातें कही जाती रही हैँ और काफ़ी विवाद नेट पर हो चुका है, आप भी ढंग से गुगलियायेंगे तो बहुत-कुछ पाएँगे. मैं इस लिहाज़ से भी चोखेर बाली के आगमन पर ख़ुश हूँ कि चिट्ठों का विश्व कुछ ज़्या दा ही मर्दवादी बन चला था. हम चंद महिलाओं की मिसालें देकर ख़ुश हो लेते थे. पर शुक्र है कि अब ये एक मुहिम है, और ब्लॉग संगत में उस दिन सुजाता के तेवर से तो यही लगा कि थमनेवाला नहीं है. मैं आज उन्मुक्त तक जिमी वेल्स को हिन्दी में ढूँढते हुए पहुँचा. आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में एक बार फिर वे बनारस टहलते नज़र आ रहे हैं, नौकाविहार करते, पीछे हरितवर्णी गंगा है. वे विकिपीडिया के संस्थापकों में से हैं, और भारतीय भाषाओं में विकिपीडिया की प्रगति को लेकर उत्साहित हैं, और हो ये चाहते हैं. मुझे याद आया कि तायपेय, ताइवान के विकिमेनिया '07 में जब शाम को एक फ़िल्म दिखाई गई थी तो जिमी उसमें बनारस में नौकाविहार करते ही नज़र आते हैं, और मल्लाह उनसे अपनी अंग्रेज़ी में ही बात करता नज़र आता है. मैंने पूछा भी था कि बनारस ही क्यों, क्या असली भारत वहीं बसता है, क्या ये प्राच्यवादी विमर्श का प्रतीक नहीं रहा है? तो ख़ैर ये लंबा प्रसंग है फिर कभी. उन्मुक्त ने विकिपीडिया पर भी कई लेख लिखे हैं. ये क्लिप तो देखने ही लायक़ है, पर उसके लिए तो आपको वहीं जाना चाहिए. So, happy V-day! शुक्रिया रविकान्त http://unmukt-hindi.blogspot.com/2008/02/celebrate-valentine-day-with-open.html Wednesday, February 13, 2008 वेलेंटाइन दिवस, ओपेन सोर्स के साथ मनायें कल वेलेंटाइन दिवस है। इसके लिये आज से ही तैयारी करें और इसे ओपेन सोर्स सॉफ्टवेयर के साथ मनायें। 'लगता है कि बुढ़ापे के साथ उन्मुक्त जी भी सटिया गये हैं। वेलेंटाइन डे बुढ्ढे लोगों के लिये नहीं है। यह दिन जवान दिलों के लिये है। यह तो, महिला या पुरुष मित्र के साथ बिताया जाता है। ओपेन सोर्स के साथ बिताने क्या मतलब - हुंः!' अरे भाई मैं भी तो वही बात कर रहा हूं जो आप कह रहें हैं - दोनो में कोई अन्तर नहीं है। ' आप भी वही बात कर रहे हैं, अच्छा मज़ाक कर लेते हैं।' मैं तो केवल इतना कहना चाहता हूं कि आप क्यों न, अपने प्रिय जन के पास, एक प्यारी सी कविता या गाना ऑडेसिटी पर रिकॉर्ड कर के भेजें या पॉडकास्ट करें। अच्छा आप गा नहीं सकते हैं, कोई बात नहीं। क्यों नहीं ओपेन ऑफिस डाट ऑर्ग में उसके लिये प्यारी सी कविता लिखें। यह एम.एस. वर्ड के वर्ड प्रोसेसर से किसी तरह से कम नहीं है। यह doc फॉरमेट के कागज़ातों को न केवल खोल सकता है पर इसमें उन्हें सुरक्षित कर सकता है। क्या कहा उसने एम.एस. वर्ड खरीद लिया है (भगवान ही आपका मालिक है - इसे व्यक्तिगत रूप से को ई नहीं खरीदता, केवल ... ही खरीदते हैं, सब ... का प्रयोग करते हैं)। बहुत अच्छी बात है हमेशा कानूनी काम करना चाहिये। उसके एम.एस. वर्ड में सन माइक्रोसिस्टम के द्वारा निकाला प्लग-इन डाल दीजिये ताकि वह ओपेन फॉरमैट के कागज़ातों को पढ़ सके। क्योंकि आने वाले समय पर यह सबसे महत्वपूर्ण फॉरमैट होगा। आप कविता नहीं लिख सकते हैं तो उसके अगले प्रस्तुतिकरण को ओपेन ऑफिस डाट ऑर्ग के इम्प्रेस प्रोग्रा म पर बना कर दें या इसी पर पिछली पिकनिक पर खींचे गये चित्रों का प्रस्तुतिकरण बना कर उसे दिखायें। इम्प्रेस प्रोग्राम किसी भी तरह से पॉवर पॉंइट से कम नहीं है। इसकी खास बात यह है कि यह प्रस्तुतिकरण को ppt फॉरमैट में भी सुरक्षित कर सकता है और इस फॉरमैट की फाइलों को दिखा सकता है। क्या कहा प्रस्तुतिकरण बनाने में ज्यादा समय लगेगा और आप जल्दी में हैं। छोड़िये इसको - जिम्प पर उसके चित्र को संपादित करें। वह सबसे स्मार्ट और सुन्दर तो है ही (इस बात का खास ख्याल रखियेगा कि चित्र में उसका वजन दस किलो कम और कमर छः इंच पतली लगनी चाहिये)। यह चित्र बना कर उसे उपहार में दें। अच्छा आप उसी के साथ रहना चाहते हैं और अलग से कुछ नहीं करना चाहते हैं। कोई बात नहीं, क्यों नहीं उसके साथ एमप्लेयर या फिर वी.एल.सी. मीडिया प्लेयर पर कोई बढ़िया सा गाना सुने या इसी पर कोई फिल्म देखें। उसके कंप्यूटर पर कुछ करना चाहते हैं तो क्यों नहीं सनबर्ड ई-मैनेजर में उसके प्रिय जनों का जन्मदिन और शादी की सलागिरह डाल दें। ख्याल रहे उसमें आपका जन्मदिन अवश्य रहे ताकि वह उसे कभी न भूलने पाये। हां, आपके क्लास या ऑफिस में जो स्मार्टी है और देवानन्द लगता है उसका जन्मदिन तो आपको याद नहीं है। जाहिर है कि उसे आप कैसे डाल सकते हैं। क्या कहा वह आपके पास नहीं है, बहुत दूर है। क्यों नही उसे थंडरबर्ड में एक प्यारी सी ई-मेल लिख भेजें। ई-मेल तो हमेशा भेजते रहते हैं। इस दिन कुछ नया करना चाहते हैं। कोई मुश्किल नहीं - फायरफॉक्स पर अपना चिट्टा खोलिये और उसके लिये एक प्यारी सी चिट्ठी लिख डालिये। मेरे लिये तो वह सबसे सुन्दर, सबसे प्यारी है 'उन्मुक्त जी, क्या लिखें?' हूंहूंहूं ... यह तो मुश्किल सवाल है ... सोचता हूं। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या लिखना चाहिये। मेरे लिये तो वह सबसे सुन्दर, सबसे प्यारी है। हांलाकि कुछ नाटी है, कुछ मोटी है पर मैं कौन सा देवानन्द या फिर ग्रेगरी पेक हूं। मैं आपको यह क्यों बताऊं कि मैं मुकरी जैसा लगता हूं। वेलेंटाइन दिवस पर महत्वपूर्ण सूचनायें पहली सूचना: यह सारे प्रोग्राम विंडोज़ पर बहुत बढ़िया तरीके से चलते हैं और आपको इन्हें विंडोज़ में चलाने में कोई मुश्किल नहीं होगी। दूसरी सूचना: आपको तो मालुम ही है न कि, 'लिनेक्स (ओपेन सोर्स) प्रेमी पुरुष ज्यादा कामुक और भा वुक' होते हैं और महिलायें उन्हें पसन्द करती हैं। फिर भी, एहतियात बरतने में कोई हर्ज़ नहीं :-) तीसरी सूचना: पुरुष अक्सर वैसा बर्ताव करते हैं जैसा कि नीचे दिखाये विडियो में मना किया गया है पर महिलायें बिलकुल चिन्ता न करें - ओपेन सोर्स प्रेमी तो ऐसा कर ही नहीं सकते। यह लोग 'प्रकृति की गोद में तीन दिन' रहें या वहां 'उर्मिला की कहानी' पढ़ें पर बात 'ओपेन सोर्स सौफ्टवेर' या फिर 'लिनेक्स की कहानी' की ही करते हैं। ईसप की कहानियों में कुछ बदलाव कर उसे 'खरगोश, कछुवा और औपेन सोर्स' कर देते हैं। यह पागलपन तो यहां तक रहता है कि 'ओपेन सोर्स की पाती - बिटिया के नाम' लिख देते हैं। जब वह पूछती है कि 'पापा, क्या आप उलझन में हैं' तो यह बताने के बजाय उसे 'बिटिया रानी, जैसी दुनिया चाहो, वैसा स्वयं बनो' की सीख देने लग जाते हैं। यदि इससे छुट्ठी मिली तो 'पहेलियां और मार्टिन गार्डनर' की बात कर पहेलियों की बेहतरीन पुस्तकों की चर्चा करने लगते हैं। उसी के साथ '२ की पॉवर के अंक, पहेलियां, और कमप्यूटर विज्ञान' में कमप्यूटर विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतो को बताने लग जाते हैं। यह कहते तो हैं कि 'Oh Be A Fine Girl Kiss Me' पर इसका मतलब तो यह होता है कि 'ज्योतिष, अंक वि द्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके' में कोई अन्तर नहीं, इनमें कोई तर्क नहीं है और यह तीनो केवल आपको ...। इन लोगों को 'रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन' के अतिरिक्त कोई और वैज्ञानिक समझ में नहीं आता है। यदि आता है तो वे आपसे पूछते हैं कि, 'क्या आपके पास सोचने का समय नहीं है?' और उसी के साथ फाइनमेन के पत्रों की चर्चा करने बैठ जाते हैं। जब कुछ नहीं मिलता है तो 'पेटेंट', 'पेटेंट और कंप्यूटर प्रोग्राम', और 'पेटेंट और पौधों की किस्में एवं जैविक भिन्नता' जैसे नीरस विषयों की व्याख्या करने लगते हैं। इन लोगों में देश-प्रेम भी है पर सारे विचारों को समन्वय कर बताते हैं कि 'वन्दे मातरम्' गाने का इतिहास क्या है और इसका गाना क्यों, अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। यह इतना भी नहीं जानते कि सही क्या है -'वीस्टा या विस्टा'? हांलाकि यह 'सर कटा देंगे पर झुकायेंगे नहीं'। इनके लिये 'Impossible is Nothing'. यह लोग कभी कभी 'चार बराबर पांच, पांच बराबर चार, चार…' करने लग जाते हैं और इसका जवा ब 'आईने, आईने, यह तो बता - दुनिया मे सबसे सुन्दर कौन' में देने लग जाते हैं। यह ‘यहां सेक्स पर बात करना वर्जित है' बताते हुऐ ' यौन शिक्षा जरूरी है' का भी नारा देते हैं। इन्हें नहीं मालुम की 'मां को दिल की बात कैसे बतायें' लेकिन बाद में 'मां को दिल की बात कैसे बतायी' भी समझाते हैं। महिलाओं का वे आदर करते हैं उनके मुताबिक वे तो हैं 'आज की दुर्गा - महिला सशक्तिकरण' पर उनका खास जोर रहता है। मां की याद इन्हें रहती है चाहे वह बचपन की हों या फिर अन्तिम समय की। यह अपनी भावनाओं को उससे नहीं बताते जिसे इसका 'इन्तजार है'। इनके लिये तो 'प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो' ही यथार्थ है। इनके न केवल 'बैठने की प्रिय जगह' अजीब होती हैं पर हरकतें भी। यह हरकतें न केवल 'अपने टौमी, अरे वही हमारा प्यारा डौ गी' के लिये होती हैं पर सबके लिये। ऐसे लोग अपनी मातृ भाषा से प्रेम करते हैं। 'अंतरजाल पर हिन्दी कैसे बढ़े' के लिये अलग, अलग तरह तरीके अपनाते हैं। हांलाकि कभी, कभी 'डकैती, चोरी या जोश या केवल नादानी' की बात कर, अपने प्रिय-जनो को दुखी कर देते हैं। यह बात दीगर है कि यह एहसास होते ही, माफी मांग लेते हैं चाहे बात 'पत्रकार बनाम चिट्ठाकार' की ही क्यों न हो। यह लोग सबको अपने जैसा ही समझते हैं पर जल्द ही समझ जाते हैं कि 'हमें आसान लगने वाली बात, अक्सर किसी और को मुश्किल लगती है'। यह लोग फ्री या बीयर के बारे में कुछ इस तरह से बात करते हैं, 'Free as in free speech, not as in free beer.' इनकी सबसे बड़ी मुश्किल है कि जब कोई इनसे इनके बारे में बात करना चाहता है तो यह कन्नी काट जाते हैं चाहे दूसरे को इसके लिये आपको 'भारतीय भाषाओं के चिट्ठे जगत की सैर' ही क्यों न करनी पड़े। 'उन्मुक्त जी, बन्द करिये अपनी बकबक - विडियो कहां है।' लीजिये आप ही देख लीजिये कि वेलेंटाइन डे पर क्या नहीं करना चाहिये। From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 14:12:20 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 14:12:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSo4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSkIC0g4KS54KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkteClgOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KSq4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+LeClpw==?= Message-ID: <200802161412.20792.ravikant@sarai.net> मितुल के जिस लेख की चर्चा यहाँ उन्मुक्त ने की है, वह मैं पहले दीवान पर डाल चुका हूँ. पेश है उन्मुक्त की विकिपीडिया सबंदधी विचार शृंखला, एक बार इस सलाह के साथ कि वहीं जाकर पढ़ना ही हायपरलिंकित मज़ा देगा. रविकान्त http://unmukts.wordpress.com/2006/08/12/hindi-wikipedia-1/ हिन्दी वीकिपीडिया-१ Posted on August 12, 2006 by उन्मुक्त मैं हिन्दी मे तीन चिट्ठे उन्मुक्त, छुटपुट, और लेख लिखता हूं। उन्मुक्त, ब्लौगर डौट कौम पर है। छुटपुट और लेख वर्ड-प्रेस पर हैं। छुटपुट मे इस दुनिया मे और लोग क्या कह रहें हैं मेरी टिप्पणी के साथ रहता है। उन्मुक्त में मेरे विचार हैं पर यह अक्सर कड़ियों मे रहते हैं। किसी भी विचार पर लिखने के पहले मैं रूप रेखा तो बना लेता हूं पर लिखता कड़ियों में ही हूं। एक साथ लिखना मुशकिल रहता है; कड़ियों मे लि खने मे आसानी होती है पर पढ़ने मे यदि विचार एक साथ एक जगह हों तो अच्छे लगते हैं। यह काम मैं अपने तीसरे चिट्ठे लेख पर करता हूं। मैने ऐसा सोचा था कि यदि उस विषय पर कुछ नया आये तो उंमुक्त में कड़ियों पर जोड़ने की बजाय उसे लेख की चिट्ठी पर ही जोड़ा जाय ताकि उस विषय पर एक जगह पूरी जानकारी भी रहे। लेख चिट्ठे पर इनकी पी.डी.एफ. फाईल भी है, उसे आप चाहें तो डा उनलोड कर सकते हैं। मेरे लेख चिट्ठे पर एक दिन मितुल पटेल जी ने टिप्पणी करके पूछा, कि क्या वह मेरे लेखों को हिन्दी वीकिपीडिया में डाल सकते हैं। सच तो यह है कि उन्हे इस तरह की कोई अनुमति की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मेरे तीनो चिट्ठों की चिट्ठियां या बकबक पर पॉडकास्ट कॉपी-लेफ्टेड हैं। किसी को भी इनका किसी प्रकार से प्रयोग करना, या संशोधन करना, या संशोधन करके प्रयोग करने की स्वतंत्रता है। यदि आप ऐसा करते समय इसका श्रेय मुझे देते हैं या उस चिट्ठी से लिंक देते हैं तो मुझे प्रसन्नता होगी, यदि नहीं देते हैं तो भी कोई बात नहीं। मेरा मक्सद, अपनी बात सामने लाने का है, चाहे इसका माध्यम मैं बनू या कोई और; चाहे इसका श्रेय मुझे मिले या किसी और को। यह बात अलग है कि किसी ने मेरे लेख को अपना लेख नहीं कहा :-) मितुल जी ने यह सब होते हुए भी मुझसे पूछा तो अच्छा लगा। कम से कम किसी को तो मेरे विचार, मेरे लेख पसन्द आये वरना मेरी चिट्ठियों पर यह बात इनसे ज्यादा मुझ पर लागू होती है। मितुल जी ने मेरी लेख पर लिखी ‘लिनक्स की कहानी वाली चिट्ठी’ हिन्दी वीकिपीडिया पर डाली। इस बीच उनके और मेरे बीच ईमेल का आदान-प्रदान भी हुआ। वे हिन्दी वीकिपीडिया के प्रबन्ध से नहीं जुड़े हैं पर उसमें लेख लिखते हैं। उन्होने मुझे प्रेरित किया कि मैं हिन्दी वीकिपीडिया में लिखूं। मितुल जी ने एक लेख हिन्दी वीकिपीडिया के बारे में यहां लिखा है जिसमें उन्होने हम सबसे हिन्दी वीकिपीडिया पर लिखने के लिये प्रार्थना की है। मैने हिन्दी वीकिपीडिया पर अपने लेख डाले हैं और यह कर के मुझे अच्छा लगा। आप भी करें आपको भी अच्छा लगेगा। मैने लेख चिट्ठे की ‘ओपेन सोर्स सॉफ्टवेर ‘ वाली चिट्ठी हिन्दी वीकिपीडिया पर डाली। इसमें एक चित्र भी है। उसे भी अपलोड करके रखा पर वह बहुत बड़ा था, देखने में भद्दा लग रहा था। मैं चाह कर भी उसे छोटा नहीं कर पाया - वह शायद इसलिये कि मासाब की पाठशाला ठीक से नहीं जाता हूं पर अब जाऊंगा। कुछ दिनो बाद जब उस लेख पर पुनः गया तो देखा कि किसी ने उसे एकदम ठीक कर दिया है और वह बहुत सुन्दर लग रहा है। मेरे विद्यार्थी जीवन मैं ‘नया दौर’ पिक्चर आयी थी उसका यह गाना याद आया, साथी हांथ बढ़ाना, साथी रे, … एक अकेला थक जायेगा, मिल कर बोझ उठाना। … हम मेहनत वालों ने जब भी मिल कर हांथ बढ़ाया सागर ने रस्ता छोड़ा, पर्वत ने शीश झुकाया … एक से एक मिले तो राई बन सकती है पर्वत सच यदि हम सब चिट्ठेकार बन्धु, एक एक डाले लेख अपना तो बन सकती है हिन्दी वीकिपीडिया सुंदर। ‘नया दौर’ पिक्चर के गाने को यदि आप सुनना चाहें तो आप इसे यहां सुन सकते हैं। हिन्दी वीकिपीडिया पर - आप लेख लिखने के पहले क्या करें, उसमें किस तरह के लेख डालें, वहां पर मुझे किस तरह की मुश्कलें आयीं - इन सब के बारे में अगली बार चर्चा करेंगे। इस इन्तज़ार के बीच यदि आप यह जानना चाहें कि पेटेंट कब दिया जा सकता है; आविष्कार क्या होते हैं तो आप उसे उन्मुक्त चिट्ठे पर यहां पढ़ सकते हैं और यदि इसे सुनना चाहें तो इसे मेरे पॉडकास्ट, बकबक पर यहां सुन सकते हैं। मेरा प्रयत्न रहता है कि पेटेन्ट सिरीस की चिट्ठियां और ऑडियो क्लिपें, भारतीय समय के अनुसार हर बृहस्पतिवार की रात्रि को पोस्ट होंं। आप इन्हें वहां हमेशा देख सकते हैं या सुन सकते हैं अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं। From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 14:15:01 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 14:15:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= wikipedia-2 Message-ID: <200802161415.01240.ravikant@sarai.net> http://unmukts.wordpress.com/2006/08/18/wikipedia-2/ वीकिपीडिया पर कौन लेख लिख सकता है? वहां पर कोई भी लेख लिख सकता है और किसी भी लेख को सही कर सकता है। इसके लिये उसे केवल वहां सदस्य बनना चाहिये। आप सदस्य बनें और लेख लिखना शुरू करें। क्या इसके अलावा कुछ और करना चाहिये? हां - यह भी समझ लें कि वहां फॉरमैटिंग कैसे की जाती है। हिन्दी वीकिपीडिया में इसके बारे में अच्छी सूचना नहीं है पर अंग्रेजी वीकिपीडिया में है जो कि यहां है इसे भी देखें। यदि समझ में न आये तो कोई बात नहीं है। हिन्दी वीकिपीडिया के उस लेख को देखें जिसकी फॉरमैटिंग अच्छी हो उसके ‘बदलें’ वाला बटन दबायें और देखें कि क्या टाईप है उस तरह की फॉरमैटिंग करने के लिये वही टाईप कर दें। किस तरह के लेख डालें? ब्लौगिंग की शुरूवात इन्टरनेट पर व्यक्तिगत डायरी लिखने की तरह से शुरू हुआ। अंग्रेजी चिट्ठों में काफी विविधिता, विभिन्नता , और परिपक्वता आ गयी है पर हिन्दी चिट्ठों में अभी समय लगेगा। यहां पर अधिकतर चिट्ठे व्यक्तिगत हैं। वीकिपीडिया, ज्ञान कोश है, मेरे विचार से इसमें व्यक्तिगत लेख नहीं होने जाने चाहिये। लिखने का स्टाईल कैसा होना चाहिये? ज्ञान कोश के लिये लेख third person में होने चाहिये। First person के लेख उसे व्यक्तिगत बना देते हैं पर मैं हमेशा first person में ही लिखता हूं। उसका कारण यह है कि first person में लि खे लेख को समझना ज्यादा आसान होता है। पर यह ज्ञान कोश के लिये ठीक नहीं है शायद इसलिये मेरा योगदान जो यहां है वह ठीक नहीं हो। पर मेरे विचार से इसकी चिन्ता छोड़ देनी चाहिये। यह बात दूसरा व्यक्ति अच्छी तरह से पकड़ सकता है और वह ठीक कर देगा। लिखने में क्या मुश्किलें आती हैं? मैं हमेशा से हिन्दी में दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग करने का हिमायती हूं - खास करके अंग्रेजी के शब्दों का। यह विवाद अपनी जगह अलग है और इसके बारे में अलग से चर्चा ठीक रहेगी। मुश्किल यह है कि दूसरी भाषा के शब्दों को कैसे लिखें। उनका कोई मानक हिज्जे नहीं है। अब software को ही लें इसके लिये हिन्दी में नया शब्द निकालना बेकार है इस अंग्रेजी शब्द को ही हिन्दी में ले लिया जाना चाहिये पर इसे लिखा कैसे जाय। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप इसका उच्चारण कैसे करते हैं। मैने इसे हिन्दी (देवनागरी) में सॉफ्टवेर, सॉफटवेर, सॉफ़टवेर, सौफ्टवेर, सौफटवेर, सौफ़टवेर सा फ्टवेर, साफटवेर, साफ़टवेर की तरह लिखते देखा है और अलग अलग समय इसे स्वयं अलग अलग तरह से लि खा है। मैं नहीं जानता कि इसे हिन्दी में कैसे लिखा जाय। जब बहुत से लोग मिल कर किसी काम को करें तो इन शब्दों का कोई मानक हिज्जे हो तो अच्छा रहे। ऐसे इस बारे में यह शब्दकोश सहायक है। इन प्रश्नों के अलावा मुझे तो कोई मुश्किल नहीं पड़ी और पड़ेगी तो बताऊंगा। तो देर किस बात की है हिन्दी वीकिपीडिया के मुख्य पेज पर पहुंचे, सदस्य बने, और अपना सहयोग शुरू करें। कुछ समय पहले हिन्दी चिट्ठे जगत में इस बात की चर्चा रही कि किसी कि ईमेल बिना उसकी अनुमति के सार्वनिक रूप से प्रकाशित करना उचित है कि नहीं। इस तरह का विवाद हरिवंश राय बच्चन और एक अन्य हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार के बीच, उनके द्वारा लिखे पत्र को लेकर, चला था। यदि इसके बारे में पढ़ना चाहें तो इसे ‘हरिवंश राय बच्चन - विवाद’ नामक मेरे उन्मुक्त चिट्ठे की पोस्ट पर यहां पढ़ सकते हैं। मैने पेटेंट सिरीस भाग एक की आखरी पोस्ट ‘पेटेंटी के अधिकार एवं दायित्व’ उन्मुक्त चिट्ठे पर यहां पोस्ट कर दिया है। आप चाहें तो उसे यहां पढ़ सकते हैं और यदि इसे सुनना चाहें तो इसे मेरे पॉडकास्ट बकबक पर, यहां सुन सकते हैं। मैने कुछ समय पहले उन्मुक्त चिठ्ठे पर ‘नारद जी की छड़ी और शतरंज का जादू’ के नाम से कई कड़ियों प्रकाशित की थी। इन्ही चिठ्ठियों को संग्रहीत कर के मैने एक चिट्ठि ‘२ की पॉवर के अंक, पहेलियां, और कमप्यूटर विज्ञान’ बना कर, अपने चिट्ठे लेख पर यहां पोस्ट की है। वहां पर इसकी pdf फाईल भी है जिसे आप डाऊनलोड कर प्रयोग करसकते हैं। अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं। From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 14:16:14 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 14:16:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkteClgOCkleCkv+CkquClgOCkoeCkv+Ckr+Ckvi3gpak=?= Message-ID: <200802161416.14160.ravikant@sarai.net> http://unmukts.wordpress.com/2006/08/28/hindi-wikipedia-3/ हिन्दी वीकिपीडिया-३ Posted on August 28, 2006 by उन्मुक्त जिमी वेल्स वीकिपीडिया के संस्थापक हैं। अगस्त के आखरी सप्ताह भारत आये हुऐ थे। २७ अगस्त को उनका साक्षात्कार इकोनोमिक्स टाइम्स में यहां छपा है , जो कि पढ़ने योग्य है। अखबार में छपी खबर के मुताबिक बंगाली और तेलगु वीकिपीडिया में ४००० से ज्यादा लेख हैं जब कि हिन्दी में करीब १५०० लेख ही हैं। यह विचारिणीय प्रश्न है। भारतीय भाषा के बलॉग के पुरुस्कार तो हिन्दी के ब्लॉगों को मिला पर वीकिपीडिया पर लेख बंगला और तेलगू के ज्यादा हैं। हम सब हिन्दी के बलॉग लेखकों को इस दिशा में भी सोचना चाहिये। मैने, कुछ समय पहले, उन्मुक्त चिठ्ठे पर पेटेंट के कई पहुलुवों पर चिट्ठियां प्रकाशित की थीं। इन्ही चि ठ्ठियों को संग्रहीत कर के मैने एक पोस्ट ‘पेटेंट’ बना कर, अपने चिट्ठे लेख पर यहां पोस्ट की है। जिसे आप देख सकते हैं। अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं। From ravikant at sarai.net Sat Feb 16 14:18:38 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Feb 2008 14:18:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkteClgOCkleCkv+CkquClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpJTgpLAg?= =?utf-8?b?4KSV4KWJ4KSq4KWA4KSy4KWH4KSr4KWN4KSf4KS/4KSC4KSXIOKAkyDgpKs=?= =?utf-8?b?4KS+4KSv4KSm4KS+IOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOCliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCkvg==?= Message-ID: <200802161418.38710.ravikant@sarai.net> http://unmukts.wordpress.com/2007/06/19/wikipedia-4/ हिन्दी वीकिपीडिया और कॉपीलेफ्टिंग – फायदा चिट्ठाकारों का Posted on June 19, 2007 by उन्मुक्त क्या हिन्दी वीकिपीडिया पर लेख लिखने और चिट्ठियों को कॉपीलेफ्टिंग करने से कुछ फायदा होता है। जी हां, बहुत कुछ। ‘तो भाई, पहले क्यों नहीं बताया। लगता है कि अकेले ही फायदा लेते रहे।’ चलिये अब बता देता हूं। मेरे इस चिट्ठे पर, अन्तरजाल में क्या है, के बारे में मेरी टिप्पणियों के साथ चिट्ठियां रहती हैं। उन्मुक्त चिट्ठा, मेरा मुख्य चिट्ठा है। इस पर मेरे विचार रहते हैं पर यह अक्सर कड़ियों में रहते हैं। किसी भी विचार पर लिखने के पहले मे रूप रेखा तो बना लेता हूं पर लेख कड़ियों के साथ ही लिखता हूं - एक साथ बड़ा लेख लिखना मुश्किल रहता है। लेखों को कड़ियों मे लिखने मे आसानी होती है पर पढ़ने मे पूरे लेख ही अच्छे लगते हैं - कारण, * दो कड़ियों के बीच अक्सर कुछ और चिठ्ठियां भी आ जातीं है जिससे निरतरता भंग होती है; * कड़ियों मे लिखने से तारत्म्यता भी गड़बड़ होती है। इससे लगा कि बाद मे सारी कड़ियों को जोड़ कर पूरे विषय पर सामग्री एक जगह कर दिया जाय और यदि उस विषय पर कुछ नया आये तो कड़ियों पर जोड़ने की जगह वहीं पर पर जोड़ा जाय तो ठीक रहेगा तथा उस विषय पर एक जगह पूरी जानकारी भी रहेगी और एक साथ पढ़ने का आनंद ही अलग है। यह कार्य मैं अपने लेख चिट्ठे पर करता हूं। जब मैंने इसे शुरू किया, तब मुझे हिन्दी वीकिपीडिया के बारे में नहीं मालुम था। कुछ दिनो बाद मितुल जी ने मेरे लेख चिट्टे पर टिप्पणी कर मुझे हिन्दी वीकिपीडिया पर लिखने की सलाह दी और यह सफर भी मैंने ज्लद ही तय किया। मैंने दो और चिट्ठिया हिन्दी वीकिपीडिया के बारे में यहां और यहां लिखी हैं। मैं लेख पर चिट्ठियां प्रकाशित करने के बाद, यदि वे हिन्दी विकीपीडिया पर डालने लायक हैं तो, वह भी करता हूं। मेरे सारे चिट्ठों की चिट्ठयां और पॉडकास्ट (बकबक) कॉपीलेफ्टेड हैं। आपको भी उन्हे वीकिपीडिया पर डालने की तथा उसी तरह से प्रयोग करने की अनुमति है जैसा कि कैफे हिन्दी में किया गया है। मेरे लेख चिट्ठे की, की कुछ चिट्ठियां जो वीकिपीडिया में नहीं हैं वे कैफे हिन्दी में प्रकाशित हैं। मेरा उन्मुक्त और छुटपुट चिट्टा सारे हिन्दी फीड एग्रेगेटर पर आते हैं पर लेख चिट्टा नहीं आता। मैंने इसे स्वयं कहीं नहीं रजिस्टर करवाया। इसका कारण यह था कि इसमें कोई नयी बात नहीं रहती है पर वही रहती है जो उन्मुक्त चिट्ठे पर प्रकाशित हो चुकी होती है। मेरे उन्मुक्त चिट्टे पर १७१ चि ट्ठियां हैं। इनको १४,००६ बार देखा गया है, अथार्त प्रति चिट्ठी लगभग ८२ बार। मेरे छुटपुट चिट्टे पर (इस चिट्ठी को छोड़ कर) ६८ चिट्ठियां हैं। इनको ५५०६ बार देखा गया है, अथार्त प्रति चिट्ठी ८१ बार। मेरे लेख चिट्टे पर १२ चिट्ठियां हैं, अथार्त इनको १५१७ बार देखा गया है, अथा र्त प्रति चिट्ठी १२६ बार। इससे यह स्पष्ट होता है कि सबसे ज्यादा बार मेरे लेख चिट्टे की चिट्ठियों को देखा गया है। आप तो यही सोचते होंगे, ‘जब यह किसी फीड एग्रेगेटर में आता नहीं है तो लोग कैसे इस पर आते हैं।’ इस पर लोग हिन्दी वीकिपीडिया, कैफे हिन्दी और सर्च करके आते हैं। हुआ न फायदा हिन्दी वीकिपीडिया पर लेख लिखने का और कॉपीलेफ्टिंग करने का। लोग अपने आप आते हैं पढ़ने के लिये। ऐसे मैंने यह बात, जब कैफे हिन्दी की आलोचना हो रही थी तब, ‘डकैती, चोरी या जोश या केवल नादा नी‘ चिट्ठी पर भी लिखी थी। ‘अच्छा तो, आपको, क्या केवल यही फायदा हुआ?’ नहीं इसके अलावा एक और फायदा हुआ। ‘अरे, ज्लदी बताईये, रुक क्यों गये।’ मैंने लेख चिट्ठे पर एक चिट्ठी ओपेन सोर्स सॉफ्टवेर के नाम से प्रकाशित की है। इसके बाद इसे हिन्दी वीकिपीडिया पर भी डाला है। एक दिन इस पर एक टिप्पणी आयी, ‘We found this page very useful. Thanks to the Administrator!’ मैंने इस टिप्पणी को तो प्रकाशित कर दिया पर उन्हें इमेल कर के धन्यवाद देते हुऐ पूछा कि आप कौन हैं। चंदिता जी का जवाब आया कि वे मुम्बई में कॉमेट मीडिया फॉउन्डेशन से हैं। वे लोग ओपेन सोर्स के बारे में एक सम्मेलन कर रहे थे जिसमें उन्होने हिन्दी वीकिपीडिया के बारे में जानकारी दी। (मितुल जी नोट करेंगे)। इसके बाद वहां पर ओपेन सोर्स सॉफ्टवेर के बारे में सूचना को को सम्मेलन में भाग ले रहे लोगों को दिखा रहे थे। उन्होने जब मेरा यह लेख देखा। तो पसन्द आया। इसलिये धन्यवाद के रूप में वह टिप्पणी की। इसके बाद उन्होनें पूछा, ‘क्या आप मुम्बई में रहते हैं? यहां पर, हम आपका भाषण रखना चाहेंगे।’ मैंने जवाब दिया कि मैं मुम्बई में नहीं, पर वहां से बहुत दूर, एक छोटे से कस्बे में रहता हूं। यदि कभी मुम्बई आया, तो बताऊंगा। देखा न फायदा - मुंबई में भाषण देने का मुफ्त में न्योता मिला। जल्दी से आप भी अपने लेख वीकिपीडिया पर डालना शुरु कीजये और उन्हें कॉपीलेफ्ट कीजये। क्या मालुम दुनिया के किस कोने से बोलने का न्योता मिल जाय :-) मुझे, अक्सर मुंबई जाना पड़ता है। अब तो, बोलने का न्योता भी मिल गया पर जब से गोवा में भाषण देने का अनुभव हुआ है तबसे समुद्र के किनारे भाषण देने जाने में डर सा लगने लगा :-( From RAVISH at NDTV.COM Sun Feb 17 16:26:22 2008 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sun, 17 Feb 2008 16:26:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= pl see this picture References: Message-ID: ?????? ?????? ?? ???????, ?? ?????? ?????? ?? ??? ?? ????? ?????? ?? ??????????? ?? ?????? ??????? ?? ?? ?? ??? ?????? ??? ?? ??????? ??? ?? ?????? ?? ??? ?? ?????? ????? ?? ?? ??? ?? ?? ?? ????? ?????? ?? ?????? ??? ________________________________ From: Ravish Kumar Sent: Sun 2/17/2008 3:43 PM To: Ravish Kumar Subject: IMG00059.jpg -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080217/f5ee71b2/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: IMG00059.jpg Type: application/octet-stream Size: 720549 bytes Desc: IMG00059.jpg Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080217/f5ee71b2/attachment-0001.obj From RAVISH at NDTV.COM Sun Feb 17 16:29:00 2008 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sun, 17 Feb 2008 16:29:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= another interesting picture References: Message-ID: ?????? ??????? ????? ?? ?? ???? ??? ?? ?????? ????? ?? ????? ??? ??? ?? ?? ???? ???? ?? ????? ?????? ???? ?? ??? ??????? ??? ?? ?? ?????? ???? ?? ????? ?? ??? ??? ?? ?? ????? ??? ???? ???? ________________________________ From: Ravish Kumar Sent: Sun 2/17/2008 3:54 PM To: Ravish Kumar Subject: IMG00050.jpg -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080217/3a84dfc2/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: IMG00050.jpg Type: application/octet-stream Size: 578040 bytes Desc: IMG00050.jpg Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080217/3a84dfc2/attachment-0001.obj From ravikant at sarai.net Mon Feb 18 14:29:52 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 18 Feb 2008 14:29:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [PRC] Maithili Language on Fedora - pass the news around please Message-ID: <200802181429.52410.ravikant@sarai.net> दोस्तो, रेड हैट के राजेश रंजन ने लिनक्स को मैथिली में लाने की मुहिम शुरू कर दी है, आपमें से जो इस काम में उनका हाथ बटाना चाहते हैं, वे उनसे संपर्क कर सकते हैं, या नीचे के विकि पृष्ठ पर जाकर वक़्तन-फ़वक़्तन प्रगति देख सकते हैं. राजेश को ढेर-सारी शुभकामनाएँ. Hi All, I have started working for Maithili language since few months back and reached upto the stage where I can maintain the language and be the co-ordinator for it. Anyone interested in translating Fedora for Maithili please do get in touch with me directy or sending an e-mail to the list (fedora-trans-list). It would be of great help and contribution to the Maithili language. Thanks ! Regards, Rajesh Ranjan http://fedoraproject.org/wiki/RajeshRanjan ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [PRC] Maithili Language on Fedora - pass the news around please Date: सोमवार 18 फरवरी 2008 09:57 From: Sankarshan Mukhopadhyay To: Free/Libre and Open Source Software Project List -----BEGIN PGP SIGNED MESSAGE----- Hash: SHA1 https://www.redhat.com/archives/fedora-trans-list/2008-February/msg00031.html ~sankarshan - -- http://www.gutenberg.net - Fine literature digitally re-published http://www.plos.org - Public Library of Science http://www.creativecommons.org - Flexible copyright for creative work -----BEGIN PGP SIGNATURE----- Version: GnuPG v1.4.7 (GNU/Linux) Comment: Using GnuPG with Fedora - http://enigmail.mozdev.org iD8DBQFHuQiTXQZpNTcrCzMRAgsQAKCblADRqpJJ+E/0l4n4DiT2KTWu5QCgxwcE R8j4mllUAsJeMhDpD0l4XEE= =Famh -----END PGP SIGNATURE----- Knowlege is power... share it equitably! _______________________________________________ prc mailing list prc at sarai.net https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/prc ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Mon Feb 18 14:44:29 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 18 Feb 2008 01:14:29 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkleClhyDgpLDgpJrgpL7gpKjgpL7gpJXgpL7gpLAg4KSU?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCkvuCkriDgpLLgpL7gpK/gpJUg4KSy4KSh4KS84KSV4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSC?= Message-ID: <829019b0802180114y40cda5a4yc9ccaebcac9cd235@mail.gmail.com> एक लड़की का सवाल है कि रामायण या फिर महाभारत में राम को, कृष्ण को या फिर दूसरे पुरुषों के बचपन को खूब दिखाया-बताया गया है। वो कैसे चलते हैं, कैसे झूठ बोलते हैं, कैसे रुठते हैं आदि-आदि। लेकिन उसी समय सीता भी है, द्रौपदी भी है, राधा भी है लेकिन उसका कोई बचपन नहीं, उसे सीधे-सीधे युवती के रुप में दिखा दिया गया, ऐसा क्यों। बड़ी से बड़ी और महान से महान रचनाओं में लडकियों का बचपन गायब क्यों है। वो लड़की के तौर पर हमारे साहित्य से नदारद है और एकाएक युवती के रुप में शामिल है, ऐसा क्यों। जिस लड़की ने ये सवाल उठाया वो बार-बार विश्वविद्यालय में मध्यकाल यानि भक्तिकाल पर बोलने आए डॉ।रमेशचन्द्र मिश्र को इसे हिन्दी की खोट के रुप में बताना चाह रही थी। उसका साफ इशारा था कि आप जिस काल के साहित्य को महान रचना करार दे रहे हैं, दरअसल उसमें भारी गड़बड़ी है। मुझे भी लगा कि सारे रचनाकारों को लड़की की जरुरत युवती हो जाने पर ही होती है ताकि उसके नख-शिख वर्णन करने में काम आ सके। क्या जब तक लड़कियों की छातियों के उभार नहीं आते वो किसी कवि या रचनाकार के काम की नहीं होती। क्या लड़कियों को सिर्फ विरह रोग ही लगता है और वो भी जब वो बालिग हो जाती है। उसके पहले उसे कोई दूसरी बीमारी नहीं होती, उसे और कोई तकलीफ नहीं होती। जिस मसले को लड़की ने उठाया उससे जुड़े न जाने कितने सवाल उठते हैं और उठ सकते हैं लेकिन सवालों की गिनती के मुकाबले किसी के पास जबाब एकाध भी हो जाए तो बहुत है। मेरे एम।ए के समय में नित्यानंद तिवारी सर हुआ करते थे और वो हमलोगों को पद्मावत पढ़ाया करते थे। स्त्रियों की दशा पर बात करते हुए अक्सर कहते-मध्यकाल में स्त्रियां सम्पत्ति के रुप में समझी जाती थी। सम्पत्ति, जिस पर कि कब्जा किया जा सके और उस समय ऐसा ही होता था। मेरी समझ बनी कि सम्पत्ति को लेकर मालिक बहुत कॉन्शस रहा करता है। लड़कियां जो कि बालिग नहीं होती वो तो सम्पत्ति भी नहीं होती, वो किसी के क्या काम आ सकती है। तो क्या दशा रही होगी इनकी। इस पर हिन्दी में कहीं कुछ नहीं है। हिन्दी में कमोवेश वही लड़कियां मतलब की रही है जिसे प्रेमी ने छोड़ दिया और विरह में डूबी है या फिर वो स्त्रियां जो हम पुरुषों को रिझाने की कला में निष्णात है। बाकी का कोई भी मतलब नहीं है। पूछने को ये भी पूछा जा सकता है कि साहित्य अगर मानवीय संवेदनाओं की भाषिक प्रस्तुति है तो क्या इन लड़कियों के प्रति किसी को संवेदना पैदा ही नहीं हुई और उससे पहले भी एक सवाल कि क्या लड़कियां भी संवेदना पैदा करने की वस्तु हो सकती है, इस पर हिन्दी के किसी रचनाकारों ने सोचा होगा। लड़की का जोर रहा कि जब राम और कृष्ण को चलते हुए, माखन या मिट्टी मुंह में लगाए हुए दिखाया तो फिर सीता या फिर राधा को क्यों नहीं। लेकिन मेरा सवाल उससे थोड़ा आगे का है कि अगर राधा या सीता को भी ऐसा ही कुछ दिखा देते तो हिन्दी के रचनाकार कौन-सा एहसान कर देते। बल्कि अब तक( जितना मैंने हिन्दी साहित्य को पढ़ा है, वाकई बहुत कम पढ़ा है, उसी आधार पर) हिन्दी के रचनाकारों को एक भी बच्ची नहीं मिली जिसके बारे में लगे कि कुछ लिखा जाना चाहिए। इसे आप क्या मानते हैं। आप ये भी तर्क दे सकते हैं कि हिन्दी साहित्य में तो बहुत कुछ नहीं लिखा गया इसका मतलब क्या है कि जो कुछ भी लिखा गया है उसे इसके अभाव में साहित्य मानने से इन्कार कर दें। मत इन्कार करिए, सबको साहित्य मानिए लेकिन आगे से बिना लड़कियों की दशा और नायिका के अलावे भी स्त्री के रुप होते हैं, को दरकिनार करके लिखा और बार-बार कालजयी और महान बताने की कोशिश की तो ऐसे ही कोई लड़की सवाल कर देगी और आपको हकलाना पड़ जाएगा। सुजाता के शब्दों में कहें तो समाज की चोखेरबाली से टकराना होगा.... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080218/5e286045/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Feb 19 12:41:54 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 19 Feb 2008 12:41:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Re=3A__Fwd?= =?utf-8?q?=3A_=5BPRC=5D_Maithili_Language_on_Fedora_-_pass_the_news_aroun?= =?utf-8?q?d_please?= Message-ID: <200802191241.54973.ravikant@sarai.net> हाँ रवि, छत्तीसगढ़ी हमारी प्राथमिकता में भी ऊपर है, इसलिए, इंशाअल्लाह शायद इसी साल. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान] Fwd: [PRC] Maithili Language on Fedora - pass the news around please Date: मंगलवार 19 फरवरी 2008 11:30 From: Ravishankar Shrivastava To: ravikant at sarai.net राजेश को ढेरों शुभकामनाएँ. छत्तीसगढ़ी के लिए भी हमारा सपना है.... देखें वो कब पूरा होता है... रवि Ravikant wrote: > दोस्तो, > > रेड हैट के राजेश रंजन ने लिनक्स को मैथिली में लाने की मुहिम शुरू कर दी है, > आपमें से जो इस काम में उनका हाथ बटाना चाहते हैं, वे उनसे संपर्क कर सकते > हैं, या नीचे के विकि पृष्ठ पर जाकर वक़्तन-फ़वक़्तन प्रगति देख सकते हैं. > > राजेश को ढेर-सारी शुभकामनाएँ. > > Hi All, > > I have started working for Maithili language since few months back and > reached upto the stage where I can maintain the language and be the > co-ordinator for it. Anyone interested in translating Fedora for Maithili > please do get in touch with me directy or sending an e-mail to the list > (fedora-trans-list). It would be of great help and contribution to the > Maithili language. Thanks ! > > Regards, > Rajesh Ranjan > http://fedoraproject.org/wiki/RajeshRanjan ------------------------------------------------------- From rajeshkajha at yahoo.com Tue Feb 19 14:40:55 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 19 Feb 2008 01:10:55 -0800 (PST) Subject: [दीवान]Fwd: Re: Fwd: [PRC] Maithili Language on Fedora - pass the news around please In-Reply-To: <200802191241.54973.ravikant@sarai.net> Message-ID: <219131.32510.qm@web52903.mail.re2.yahoo.com> दोनों रविजी का शुक्रिया... रविशंकरजी, आप और रविकांतजी ठगर छत्तीसगढ़ी के लिए सोच रहे हैं तो फिर साल खत्म होते होते हम जरूर छत्तीसगढ़ी को भी लिनक्स भाषा सूची में पायेंगे. राजेश Ravikant wrote: हाँ रवि, छत्तीसगढ़ी हमारी प्राथमिकता में भी ऊपर है, इसलिए, इंशाठल्लाह शायद इसी साल. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान] Fwd: [PRC] Maithili Language on Fedora - pass the news around please Date: मंगलवार 19 फरवरी 2008 11:30 From: Ravishankar Shrivastava To: ravikant at sarai.net राजेश को ढेरों शुभकामनाएँ. छत्तीसगढ़ी के लिए भी हमारा सपना है.... देखें वो कब पूरा होता है... रवि Ravikant wrote: > दोस्तो, > > रेड हैट के राजेश रंजन ने लिनक्स को मैथिली में लाने की मुहिम शुरू कर दी है, > आपमें से जो इस काम में उनका हाथ बटाना चाहते हैं, वे उनसे संपर्क कर सकते > हैं, या नीचे के विकि पृष्ठ पर जाकर वक़्तन-फ़वक़्तन प्रगति देख सकते हैं. > > राजेश को ढेर-सारी शुभकामनाएँ. > > Hi All, > > I have started working for Maithili language since few months back and > reached upto the stage where I can maintain the language and be the > co-ordinator for it. Anyone interested in translating Fedora for Maithili > please do get in touch with me directy or sending an e-mail to the list > (fedora-trans-list). It would be of great help and contribution to the > Maithili language. Thanks ! > > Regards, > Rajesh Ranjan > http://fedoraproject.org/wiki/RajeshRanjan ------------------------------------------------------- _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. Try it now. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080219/9428b7c1/attachment.html From shahnawaz1980 at gmail.com Wed Feb 20 14:53:11 2008 From: shahnawaz1980 at gmail.com (Md Shahnawaz) Date: Wed, 20 Feb 2008 14:53:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= zara is janab ko dekhiye Message-ID: <282cc3f20802200123o62056faap308ddaf2193694ce@mail.gmail.com> mere gher me koi aiina nahi tha. but shave kerna zaruri tha Isliye computer ka ek aur upyog is bande ne is bahane ijaad ker dala -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-8675 Size: 270 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080220/fd7eca22/attachment.bin From bhagwati at sarai.net Wed Feb 20 18:35:44 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Wed, 20 Feb 2008 18:35:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?LCfgpLXgpKTgpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkoeCkvuCkleClgicg4KSV4KS+IOCkleCkv+CkuOCljeCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <47BC25A8.1040609@sarai.net> भाई आलोक पोराणिक द्वारा लिखित ,नवभारत टाइम्स मैं छापा यह व्यंग मज़ा आया भगवती आलोक पुराणिक नोट : - इस लेख का जोधा-अकबर फिल्म पर हुए विवाद से कोई कनेक्शन नहीं है। पिछले कुछ दिनों लिख नहीं पाया जी, बिजी था एक फिल्म लिखने में, फिल्म का नाम है -वतन के डाकू। फिल्म पूरी हो गई तो दिखाने ले गया सेंसर अफसरों के पास। उन्होंने कहा -अब पहले सेंसर करने का काम हमने छोड़ दिया है। हम सेंसर करके भेज देते हैं फिल्म, तो वह आगे कहीं ना कहीं रुक जाती है। इसलिए पहले औरों से सेंसर करा लाओ। उन्होंने एक सूची थमा दी, जिसमें तमाम जातियों, धर्मों की महासभाओं, पुलिस असोसिएशनों, अफसर असोसिएशनों, तमाम कारोबारों की असोसिएशनों के पते थे। बताया गया कि पहले ये सेंसर करेंगे। इनके बाद अगर फिल्म बच गई, तो सेंसर बोर्ड सेंसर करेगा। सबसे पहले मैं गया -राष्ट्रीय नेता असोसिएशन के पास। फिल्म का डिब्बा खुलने से पहले एक नेताजी बोल पडे़, हमें नाम पर ही आपत्ति है -वतन के डाकू। ये आप हमारी मानहानि कर रहे हैं। हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। मैंने कहा -महाराज, फिल्म तो डाकुओं पर हैं, आप तो नेता हैं। असोसिएशन चीफ बोले -ना पब्लिक सब समझती है। पब्लिक समझ जाएगी कि फिल्म किन पर बनी है। नाम चेंज करो। इसे करो- वतन के पुजारी। साहब जी! मैंने फिल्म का नाम चेंज कर दिया। अब दारू असोसिएशन को दिखाने की बारी आई। दारू चेयरमैन उखड़ गए और बोले -ये क्या फिलिम है। तुमको पता है कितने लोगों को इंप्लायमेंट मिलता दारू इंडस्ट्री से। फिलिम का नाम करो, वतन की दारू। अब फिलिम हो गई वतन की दारू। वतन की दारू अब पहुंची पुलिस असोसिएशन के पास। पुलिस चीफ बोले -क्यों सिर्फ दारू ही होती है देश में। हमारे बंदे कित्ती जोखिम से काम करके पकड़ते हैं चरस, हशीश, गांजा वगैरह। फिल्म का नाम करो वतन की चरस, नहीं तो हमारी भावनाएं आहत हो जाएंगी। मैंने कहा -महाराज, जानता हूं घणा जोखिम का काम करते हैं आप। दिल्ली में किडनीखोर डॉक्टर अमित को सिर्फ उन्नीस लाख में छोड़ दिया, कितना जोखिम का काम था। कोर्ट केस, सीबीआई इनक्वायरी सब कुछ का खतरा था, फिर भी आप जोखिम वाले काम करते हैं। कहें तो फिल्म का नाम रख दूं -देश के जोखिम। पुलिस चीफ हंसने लगे। फिल्म का नाम हो लिया -देश के जोखिम। अब अफसर असोसिएशन ने देखी फिल्म। कस्टम के एक अफसर ने फिल्म देखते हुए एक तस्कर से रिश्वत ली। एक्साइज वाले ने पान मसाले वाले से रिश्वत ली। फिर अफसर लोग बोले -ये फिल्म का नाम आपने हम पर क्यों रखा है जी। हमारी भावनाओं को इससे ठेस पहुंचती हैं। मैंने फिर कहा -सर जी! फिल्म तो है -देश के जोखिम, इसमें आप कहां से आ गए? अफसर लोग बोले -शटअप, पब्लिक सब समझती है कि देश का जोखिम कौन है। मैंने उखड़कर कहा -तो क्या फिल्म का नाम रख दूं देश की रिश्वत। कस्टम वाले बोले -बिल्कुल ठीक, यही रख दो, सब समझेंगे पुलिस पर बनी है। फिल्म का नाम हो गया -देश की रिश्वत। अब फिल्म गई राष्ट्रीय शुद्ध हिंदी बचाओ समिति के पास। शुद्ध हिंदी विद्वान उखड़ गए और बोले -रिश्वत भारतीय नहीं है। मैंने कहा -रिश्वत से ज्यादा अखिल भारतीय तो कुछ भी ना है जी। चेन्नई से चंडीगढ़ तक, मुंबई से लेकर मुरादाबाद तक भाषाएं भले ही अलग हों, पर रिश्वत तो एक जैसी है। शुद्ध हिंदी विद्वान उखड़ गए और बोले -नहीं रिश्वत फारसी अथवा उर्दू शब्द है। इसकी जगह हिंदी शब्द लेकर आओ। मैंने कहा -आप ही इसकी हिंदी बता दीजिये। वो बोले -मुझे पता नहीं है। अभी मैं उर्दू और फारसी का विरोध कर रहा हूं। हिंदी के शब्द बाद में तलाशूंगा। आप पता करके रख लें। खैर, शुद्ध हिंदी में अब फिल्म का नाम हुआ -राष्ट्र का उत्कोच। फिल्म फाइनल करके जब फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के पास पहुंचा, तो वह बोला -राष्ट्र का उत्कोच, अबे हम इंग्लिश फिल्म डिस्ट्रीब्यूट ना करते। हिंदी फिल्म लाओ। अब आप बताओ, मैं हिंदी फिल्म कहां से लाऊं। From ravikant at sarai.net Thu Feb 21 15:20:28 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 21 Feb 2008 15:20:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?LCAn4KS14KSk4KSo?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKHgpL7gpJXgpYInIOCkleCkviDgpJXgpL/gpLjgpY3gpLg=?= =?utf-8?b?4KS+?= In-Reply-To: <47BC25A8.1040609@sarai.net> References: <47BC25A8.1040609@sarai.net> Message-ID: <200802211520.29052.ravikant@sarai.net> शुक्रिया भगवती, आलोक पुराणिक साहब मुझे याद आया कि कोई आदमी जब हमारे गाँव में बाहर से पहुँचता था और हिन्दी बोलता पाया जाता था, तो लोग टोकते थे कि इंगलिस मत झाड़ो, जिसपर हम तमीज़दार लोगों को बहुत हँसी आती थी! वैसे चालू रचनात्मक चलन के मुताबिक़ इस फ़िल्म के दो नाम होने चाहिएँ - राष्ट्र द नेशन और उत्कोच द ब्राइब. मेरी सेंसरदृष्टि में पहला नाम फ़ालतू है, क्योंकि राष्ट्र तो वैसे भी हर जगह मौजूद है भगवान की तरह, हवा की तरह. ग़ौर कीजिए कि किसी ने उसके साथ छेड़खानी करने की कोशिश नहीं की. वही एकमात्र सेफ़ शब्द है - अप्रश्नांकित परम ब्रह्म! बहुत ख़ूब रविकान्त बुधवार 20 फरवरी 2008 18:35 को, bhagwati at sarai.net ने लिखा था: > भाई आलोक पोराणिक द्वारा लिखित ,नवभारत टाइम्स मैं छापा यह व्यंग > > मज़ा आया > > भगवती > > > > > आलोक पुराणिक > नोट : - इस लेख का जोधा-अकबर फिल्म पर हुए विवाद से कोई कनेक्शन नहीं है। > पिछले कुछ दिनों लिख नहीं पाया जी, बिजी था एक फिल्म लिखने में, फिल्म का नाम > है -वतन के डाकू। From baliwrites at gmail.com Tue Feb 26 18:33:04 2008 From: baliwrites at gmail.com (balvinder singh) Date: Tue, 26 Feb 2008 18:33:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?LCfgpLXgpKTgpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkoeCkvuCkleClgicg4KSV4KS+IOCkleCkv+CkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4KS44KS+?= In-Reply-To: <47BC25A8.1040609@sarai.net> References: <47BC25A8.1040609@sarai.net> Message-ID: dear yeh lekh navbharat times me hi pada tha .pahali line padte hi underwear me khada main poora ant tak padha. baad me pata chala ki thand lag rahi thi.sari baten thode me kah dali. mazaaa aaa gayaaa. ajkal m.a. ke exams ki taiyari kar raha hun isliye ek mahine ke liye net par batcheet band. love balvinder On Wed, Feb 20, 2008 at 6:35 PM, bhagwati at sarai.net wrote: > भाई आलोक पोराणिक द्वारा लिखित ,नवभारत टाइम्स मैं छापा यह व्यंग > > मज़ा आया > > भगवती > > > > > आलोक पुराणिक > नोट : - इस लेख का जोधा-अकबर फिल्म पर हुए विवाद से कोई कनेक्शन नहीं है। > पिछले कुछ > दिनों लिख नहीं पाया जी, बिजी था एक फिल्म लिखने में, फिल्म का नाम है -वतन > के डाकू। > फिल्म पूरी हो गई तो दिखाने ले गया सेंसर अफसरों के पास। उन्होंने कहा -अब > पहले सेंसर करने > का काम हमने छोड़ दिया है। हम सेंसर करके भेज देते हैं फिल्म, तो वह आगे कहीं > ना कहीं रुक > जाती है। इसलिए पहले औरों से सेंसर करा लाओ। उन्होंने एक सूची थमा दी, जिसमें > तमाम > जातियों, धर्मों की महासभाओं, पुलिस असोसिएशनों, अफसर असोसिएशनों, तमाम > कारोबारों > की असोसिएशनों के पते थे। बताया गया कि पहले ये सेंसर करेंगे। इनके बाद अगर > फिल्म बच गई, > तो सेंसर बोर्ड सेंसर करेगा। > > सबसे पहले मैं गया -राष्ट्रीय नेता असोसिएशन के पास। फिल्म का डिब्बा खुलने > से पहले एक > नेताजी बोल पडे़, हमें नाम पर ही आपत्ति है -वतन के डाकू। ये आप हमारी > मानहानि कर रहे > हैं। हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। मैंने कहा -महाराज, फिल्म तो > डाकुओं पर हैं, आप > तो नेता हैं। असोसिएशन चीफ बोले -ना पब्लिक सब समझती है। पब्लिक समझ जाएगी कि > फिल्म > किन पर बनी है। नाम चेंज करो। इसे करो- वतन के पुजारी। > > साहब जी! मैंने फिल्म का नाम चेंज कर दिया। अब दारू असोसिएशन को दिखाने की > बारी आई। > दारू चेयरमैन उखड़ गए और बोले -ये क्या फिलिम है। तुमको पता है कितने लोगों > को इंप्लायमेंट > मिलता दारू इंडस्ट्री से। फिलिम का नाम करो, वतन की दारू। अब फिलिम हो गई वतन > की > दारू। > > वतन की दारू अब पहुंची पुलिस असोसिएशन के पास। पुलिस चीफ बोले -क्यों सिर्फ > दारू ही > होती है देश में। हमारे बंदे कित्ती जोखिम से काम करके पकड़ते हैं चरस, हशीश, > गांजा वगैरह। > फिल्म का नाम करो वतन की चरस, नहीं तो हमारी भावनाएं आहत हो जाएंगी। मैंने > कहा > -महाराज, जानता हूं घणा जोखिम का काम करते हैं आप। दिल्ली में किडनीखोर > डॉक्टर अमित > को सिर्फ उन्नीस लाख में छोड़ दिया, कितना जोखिम का काम था। कोर्ट केस, > सीबीआई > इनक्वायरी सब कुछ का खतरा था, फिर भी आप जोखिम वाले काम करते हैं। कहें तो > फिल्म का > नाम रख दूं -देश के जोखिम। पुलिस चीफ हंसने लगे। > > फिल्म का नाम हो लिया -देश के जोखिम। अब अफसर असोसिएशन ने देखी फिल्म। कस्टम > के एक > अफसर ने फिल्म देखते हुए एक तस्कर से रिश्वत ली। एक्साइज वाले ने पान मसाले > वाले से रिश्वत > ली। फिर अफसर लोग बोले -ये फिल्म का नाम आपने हम पर क्यों रखा है जी। हमारी > भावनाओं > को इससे ठेस पहुंचती हैं। मैंने फिर कहा -सर जी! फिल्म तो है -देश के जोखिम, > इसमें आप कहां > से आ गए? अफसर लोग बोले -शटअप, पब्लिक सब समझती है कि देश का जोखिम कौन है। > मैंने > उखड़कर कहा -तो क्या फिल्म का नाम रख दूं देश की रिश्वत। कस्टम वाले बोले > -बिल्कुल ठीक, > यही रख दो, सब समझेंगे पुलिस पर बनी है। फिल्म का नाम हो गया -देश की रिश्वत। > > अब फिल्म गई राष्ट्रीय शुद्ध हिंदी बचाओ समिति के पास। शुद्ध हिंदी विद्वान > उखड़ गए और > बोले -रिश्वत भारतीय नहीं है। मैंने कहा -रिश्वत से ज्यादा अखिल भारतीय तो > कुछ भी ना है > जी। चेन्नई से चंडीगढ़ तक, मुंबई से लेकर मुरादाबाद तक भाषाएं भले ही अलग > हों, पर रिश्वत > तो एक जैसी है। शुद्ध हिंदी विद्वान उखड़ गए और बोले -नहीं रिश्वत फारसी अथवा > उर्दू शब्द > है। इसकी जगह हिंदी शब्द लेकर आओ। मैंने कहा -आप ही इसकी हिंदी बता दीजिये। > > वो बोले -मुझे पता नहीं है। अभी मैं उर्दू और फारसी का विरोध कर रहा हूं। > हिंदी के शब्द > बाद में तलाशूंगा। आप पता करके रख लें। खैर, शुद्ध हिंदी में अब फिल्म का नाम > हुआ -राष्ट्र > का उत्कोच। फिल्म फाइनल करके जब फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के पास पहुंचा, तो वह > बोला > -राष्ट्र का उत्कोच, अबे हम इंग्लिश फिल्म डिस्ट्रीब्यूट ना करते। हिंदी > फिल्म लाओ। अब आप > बताओ, मैं हिंदी फिल्म कहां से लाऊं। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080226/aa2ff527/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Feb 28 12:38:11 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 27 Feb 2008 23:08:11 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSu4KSw4KWN4KS2IOCkquCksCDgpIbgpKfgpL7gpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KSkIOCkueCliCDgpJzgpY3gpK/gpYvgpKTgpL/gpLcg4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSCIOCkleCkueClh+CkgiDgpLjgpY3gpKTgpY3gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSw4KWL4KSn4KWAIOCkueCliCDgpJzgpY3gpK/gpYvgpKQ=?= =?utf-8?b?4KS/4KS3?= Message-ID: <829019b0802272308x6c74c230gc6f78d3c7c01d6a9@mail.gmail.com> अगर कन्‍या चलते समय मिट्टी को ऊपर की ओर उडाती है तो पिता, पति अथवा माता के परिवार को कष्‍ट देने वाली होती है। लीजिए भाई साहब एक बात और साबित हो गई कि धूल उड़ाकर मस्ती में चलने का अधिकार सिर्फ हम पुरुषों को ही है। दिनभर तरोताजा और हेकड़ी भरने के लिए एक ठोस वजह। तब तो स्त्रियों के लिए, हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहां कल वहां चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहां चले का कोई मतलब ही नहीं है और न ही इसमें इसकी कोई हिस्सेदारी है। अभी देखते जाइए न जितने मानक इस समाज और उससे उपजे ज्ञान ने तैयार किए हैं उसमें कितना बड़ा हिस्सा हम पुरुषों का है। आज सुबह-सुबह सुजाता ने एक लिंक ठेला और कहा पढ़ो। आमतौर लोग अपनी लिंक ठेलते हैं लेकिन ज्ञान बढ़ाने या फिर जानकारी को आपस में शेयर करने के लिए कुछ और भी भेजते हैं जो कि ब्लॉग की दुनिया के लिए बेहतर चीज है। लिंक हैं- http://allastrology.blogspot.com/2008/02/blog-post_27.html जिसमें सिद्धार्थ जोशी ने बताया है कि ज्योतिष के हिसाब से कौन-सी लड़की सुंदर होती है। जाहिर है जो सिर्फ देखने में सुंदर है वो नहीं बल्कि जो ज्योतिष के पैमाने पर खरी उतरती है वो लड़की। जिन्हें शादी करनी हो और लड़की के साथ रहते हुए भी अमन-चैन की जिंदगी बितानी हो उनके लिए काम की चीज हो सकती है। क्योंकि मजाक में ही सही और वैसे तो निश्चित तौर पर लड़कियों के साथ जिंदगी बिताना परेशानी का सबब बताया जाता रहा है। खासतौर से ये उनके काम की है जो परिवार की मर्जी से शादी करना चाहते हैं जिन्हें परिवार संस्था पर भरोसा है और जिन्हें लगता है गांव का पंडित उससे और उसके मां-बाप से ज्यादा बेहतर लड़की खोज सकता है। आज न हो गया शादी डॉट कॉम और मेटरोमोनियल। नहीं तो ये काम पंडितों के जिम्मे था कि किस लड़के को किसके साथ फिट करना है। अभी भी किसी लड़के या लड़की की शादी होनी होती है तो वो पंडित से सम्पर्क करता है। इसकी एक वजह तो है कि वो जहां-तहां विजिट करते रहते हैं और उन्हें आइडिया होता है कि कौन कुंवारा या फिर कुंवारी है। लेकिन उससे भी बड़ी वजह जो मुझे समझ में आती है वो यह कि- लड़की पढ़ी-लिखी है कि नहीं, खाना बनाना जानती है कि नहीं दाल-भात से लेकर कॉन्टिनेंटल और चाइनिज तक, सिलाई-कढ़ाई आती है कि नहीं, पर पुरुषों से कहीं संबंध तो नहीं, कंगले घर की तो नहीं है, माल-पानी तो मिलेगा न...आदि-आदि बातें तो कोई भी पता कर लेगा कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन असल चीज तो सिर्फ पंडितजी ही बता सकते हैं वो यह कि- जब लड़की आएगी तो हमारे घर में बरकत तो होगी, पैसा और प्रोमोशन तो बढ़ेगा न। घर की दशा कैसी रहेगी, ये सारी बातें पंडितजी को छोड़कर भला और कौन बता सकता है। इन पंडितों और इनके ज्योतिष के हिसाब से लड़कियों का भले ही अपना कोई भाग्य नहीं होता, पति के चरणों में बैठकर जो कुछ मिल जाए वो सब प्रसाद है लेकिन इसी पंडित के हिसाब से पुरुषों का भाग्य वामा यानि पत्नी यानि लड़की यानि चरणों की दासी के आने पर तय होती है। कई बार तो मैंने खुद देखा है कि लड़का मारा-मारा फिर रहा है, पंडित से जब उसकी कुंडली दिखाई गई तो बताया कि इसका स्त्री योग के बाद भाग्य उदय है। और आनन-फानन में शादी तय कर दी जाती है। भइया एक बेरोजगार लड़के को भी अगर पांच लाख कैश मिल जाए तो भाग्य तो चमकेगा ही। लेकिन पंडित लड़की की सुंदरता और योग्य वधू की परिभाषा देता है उसमें ये सारी बातें शामिल नहीं है। उसमें तो शामिल है कि- मुस्‍कुराने पर मसूडे दिखाई दें तो स्‍त्री भाग्‍यहीन होती है। यानि जिस बंदे को अरेंज मैरज करनी हो जो कि दुर्भाग्य से अभी भी आदर्श स्थिति माना जाता है उसे झटके में शादी नहीं करनी चाहिए। पंडितजी की मदद से लड़की के एक-एक अंग की जानकारी लेनी चाहिए कि वो हर तरह से उसके मान-सम्मान को बढ़ाएगी कि नहीं। अच्छा, एरेंज मैरेज में जो दूसरी बात जरुरी है वो ये कि वो शादी के बाद कब जल्द-से-जल्द खुशखबरी सुनाएगी। अगर देर होती है तो वो बुजुर्गों के हिसाब से कुलनाशिनी है। जब बच्चा ही नहीं तो फिर शादी किस बात की। लड़की बच्चे को जन्म देगी या नहीं इसे कैसे पता करें। ज्योतिष के हिसाब से-किसी स्‍त्री की एडी गोल, गदराई हुई और सुंदर हो तो उसके गुप्‍तांग भी बिल्‍कुल सही काम करने वाले होते हैं। आप जब लड़की को देखने लड़केवाले के साथ पंडित आते हैं तो देखिए- आगे चलाएंगे,पीछे, हाथ दिखाओ, आखें बंद करो, खोलो, एडी उठाओ, पैर सटाकर दिखाओ, दोनों हाथें बंद करो...पता नहीं क्या-क्या। शरीर के एक-एक हिस्से की नुमाइश। मेरी चचेरी बहन तो फफक-फफककर रोने लगी थी और हमें पकड़कर कहती-सारा पढ़ा-लिखा बेकार चला गया विनीत।...और शादी के नाम से नफरत है उसे। लड़की को बुरा लगे तो बला से। पंडित को तो अपनी एजेंटी करनी है न और लड़केवाले किसी नसपीटी को कैसे ले आएं, ठोक-बजाकर ही तो लाएंगे। मतलब ये कि ज्योतिष जिस रुप में सुंदर लड़की की व्याख्या करता है वो किसी कवि चित्रकार और हमारी-आपकी स्केल से बिल्कुल जुदा है। क्योंकि यहां आकर उसे पुरुष का भी भाग्य संवारना है। सिद्धार्थजी ने तो पूरी बात बता दी कि कैसी होनी चाहिए कुंवारी लड़की(ज्योतिष के हिसाब से) लेकिन ये नहीं बताया कि अगर लड़की में कोई खोट है, शरीरी स्तर पर तो कैसे दूर करे या फिर उसका विकल्प क्या है। क्योंकि जब सारी बातें देह पर ही टिकी है तो समाधान भी देह के स्तर पर ही हो जाए।....लेकिन नहीं फिर पंडितों का चोर दरवाजा बंद हो जाएगा न- जब पुरुष अपने लंपटई के कारण कंगाल हो जाए तो बताने में कैसे बनेगा कि- इसकी पत्नी हंसती है तो मसूडे दिखते हैं, भाग्यहीन है, इसलिए लड़के की मति मारी जा रही है। ( इस पोस्ट को मैंने सिद्धार्थ जोशीजी की पोस्ट स्‍त्री की सुंदरता : ज्‍योतिषीय दृष्टिकोणको पढ़ने के बाद लिखा है। मेरी उनसे कोई व्यक्तिगत असहमति नहीं है क्योंकि उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लिखा ही नहीं है शायद ज्योतिष में इसकी गुंजाइश न हो। मैं तो बस इतना ही समझता हूं ये पोस्ट उनके काम की है जो अपने सारे परिणामों को स्त्री पर लादने में कुशल हैं और लड़की से शादी कर घर लाने और कार खरीदकर घर लाने में कोई अंतर नहीं समझते।....वैसे पढ़-लिखकर अपना भाग्य बनाने और धूल- धुआं उड़ाकर चलनेवाली लड़कियों के लिए कोरा गप्प, यू नो गॉशिप। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-3212 Size: 13496 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080227/66c1db03/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Thu Feb 28 20:57:38 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 28 Feb 2008 20:57:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSu4KSw4KWN4KS2IOCkquCksCDgpIbgpKfgpL7gpLDgpL/gpKQg?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCknOCljeCkr+Cli+CkpOCkv+CktyDgpK/gpL4g4KSv4KWL4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleCkueClh+CkgiDgpLjgpY3gpKTgpY3gpLDgpYAg4KS14KS/4KSw4KWL?= =?utf-8?b?4KSn4KWAIOCkueCliCDgpJzgpY3gpK/gpYvgpKTgpL/gpLc=?= In-Reply-To: <829019b0802272308x6c74c230gc6f78d3c7c01d6a9@mail.gmail.com> References: <829019b0802272308x6c74c230gc6f78d3c7c01d6a9@mail.gmail.com> Message-ID: <200802282057.38943.ravikant@sarai.net> अच्छा लिखा है विनीत. अगर किसी को याद हो तो मनोज तिवारी के आरंभिक ऐल्बम #भइया तोहार साली# का गाना असिए से कइके बीए, लइका हमार कंपटीशन देता, एमए में लेके ऐडमीशन कंपटीशन देता...मन ही मन गुन ले...या अपने ब्लॉग पर डाले, सुने, भाष्य लिखे तो मज़ा आए! रविकान्त गुरुवार 28 फरवरी 2008 12:38 को, vineet kumar ने लिखा था: > अगर कन्‍या चलते समय मिट्टी को ऊपर की ओर उडाती है तो पिता, पति अथवा माता के > परिवार को कष्‍ट देने वाली होती है। लीजिए भाई साहब एक बात और साबित हो गई कि > धूल उड़ाकर मस्ती में चलने का अधिकार सिर्फ हम पुरुषों को ही है। दिनभर > तरोताजा और हेकड़ी भरने के लिए एक ठोस वजह। तब तो स्त्रियों के लिए, हम > दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहां कल वहां चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम > धूल उड़ाते जहां चले का कोई मतलब ही नहीं है और न ही इसमें इसकी कोई > हिस्सेदारी है। अभी देखते जाइए न जितने मानक इस समाज और उससे उपजे ज्ञान ने > तैयार किए हैं उसमें कितना बड़ा हिस्सा हम पुरुषों का है। > आज सुबह-सुबह सुजाता ने एक लिंक ठेला और कहा पढ़ो। आमतौर लोग अपनी लिंक ठेलते > हैं लेकिन ज्ञान बढ़ाने या फिर जानकारी को आपस में शेयर करने के लिए कुछ और भी > भेजते हैं जो कि ब्लॉग की दुनिया के लिए बेहतर चीज है। लिंक हैं- > http://allastrology.blogspot.com/2008/02/blog-post_27.html जिसमें सिद्धार्थ > जोशी ने बताया है कि ज्योतिष के हिसाब से कौन-सी लड़की सुंदर होती है। जाहिर > है From ravikant at sarai.net Thu Feb 28 22:18:48 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 28 Feb 2008 22:18:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpL8=?= =?utf-8?b?4KSl4KWN4KSv4KS+OiDgpJbgpYvgpIgg4KS54KWB4KSIIOCkquCkueCkmg==?= =?utf-8?b?4KS+4KSoIOCkleClgCDgpKTgpLLgpL7gpLYg4KSu4KWH?= Message-ID: <200802282218.48558.ravikant@sarai.net> MIHIR pANDYA KI OAR SE, USI KE BLOG SE. LINK? CHEERS RAVIKANT ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश मे Date: गुरुवार 28 फरवरी 2008 21:28 From: "mihir pandya" *"मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता. माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता."* -उदय प्रकाश की कहानी *तिरिछ* का अंश. दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है? सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है. इस नज़रिये से देखने पर मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर शौरी) बार-बार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता है *"तुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा."* और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है. बहुत से दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी 'जागने' की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार ...सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक 'परफैक्ट मौत' मरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है. मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह *मिक्स डबल्स* जैसी नहीं है और *भेजा फ्राई* जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ *रघु रोमियो* के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू म्हात्रे की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (NSD ) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा. *सत्या*- फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज 'फैक्टरी' की बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के! *डिपार्टेड*- मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे. *दिल पे मत ले यार*- यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए. अंत में *रणवीर शौरी.* मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा 'कुछ' है. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी मर्मांतक पुकार "*भानू**, **मैं तेरा भाई हूँ.*" एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है. मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें. ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Fri Feb 29 12:44:14 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 29 Feb 2008 12:44:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?LCAn4KS14KSk4KSo?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKHgpL7gpJXgpYInIOCkleCkviDgpJXgpL/gpLjgpY3gpLg=?= =?utf-8?b?4KS+?= In-Reply-To: References: <47BC25A8.1040609@sarai.net> Message-ID: <200802291244.14648.ravikant@sarai.net> बलविंदर, आप चाहें तो नागरी में लिखने के लिए गूगल का इंडिक ट्रांसलिटरेशन टूल इस्तेमाल कर सकते हैं. आप जैसे लिख रहे हैं, वैसे ही लिखना है, जैसे ही शब्द लिखने के बाद आप स्पेस कुंजी दबाएँगे, वह शब्द नागरी में निकल आएगा. अगर ठीक नहीं आता तो आप उसका संपादन भी कर सकते हैं, ज़्यादा मौक़ों पर आपको दिए गए विकल्प से ही काम का एक मिल जाएगा. एक और जुगाड़ जिसे पाकर मैं बहुत ख़ुश हुआ. आप रो मन हिन्दी में लिखी किसी पुरानी इबारत को वहाँ पर जाकर नागरी में बदल सकते हैं, बस शब्द के बाद स्पेस बार दबाते जाना है. कड़ी ये रही: http://www.google.com/transliterate/indic/ इम्तेहान के लिए शुभकामनाएँ रविकान्त मंगलवार 26 फरवरी 2008 18:33 को, balvinder singh ने लिखा था: > dear > yeh lekh navbharat times me hi pada tha .pahali line padte hi underwear me > khada main poora ant tak padha. baad me pata chala ki thand lag rahi > thi.sari baten thode me kah dali. mazaaa aaa gayaaa. > ajkal m.a. ke exams ki taiyari kar raha hun isliye ek mahine ke liye net > par batcheet band. > love > balvinder > > > On Wed, Feb 20, 2008 at 6:35 PM, bhagwati at sarai.net > > wrote: > > भाई आलोक पोराणिक द्वारा लिखित ,नवभारत टाइम्स मैं छापा यह व्यंग > > > > मज़ा आया > > > > भगवती > > > > > > > > > > आलोक पुराणिक > > From ramrotiaaloo at gmail.com Fri Feb 29 08:23:44 2008 From: ramrotiaaloo at gmail.com (irfan) Date: Fri, 29 Feb 2008 08:23:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Please React Message-ID: http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2008/02/blog-post_29.html -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080229/9dc895e5/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Fri Feb 29 14:20:17 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Fri, 29 Feb 2008 14:20:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Please_React?= In-Reply-To: References: Message-ID: <8bdde4540802290050j66d8f19fr99e129925ba4a068@mail.gmail.com> दीवान के गैरब्‍लॉगर साथियों की सुविधा के लिए पोस्‍ट को नकलचेप किया जा रहा है- भड़ास को बंद करो जो लोग भी बोलने की आज़ादी की बात कहते हुए इस शीर्षक से बिदकना चाह रहे हैं उनसे निवेदन है कि वे पहले इसऔर इस पोस्ट को पढें और इनमें उल्लिखित नामों में पहले अपना, अपनी माँ या बहन का नाम शामिल कर लें. अगर इसके बाद भी आप बोलने की आज़ादी का समर्थन करते हुए इस सिलसिले के पक्ष में खडे हैं तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना है. अगर आप पूछ रहे हैं कि फिर क्या किया जाए? तो आइये कहें कि सभी हिंदी एग्रीगेटर इस ब्लॉग की प्रविष्टियाँ दिखाना आज और अभी से बंद करें. फिलहाल इतना ही. भाई अविनाश इस सिलसिले में एक लंबी पोस्ट की तैयारी कर रहे हैं और कारणों को स्पष्ट करेंगे. ------------------------ कृपया यहाँ टिप्पणी करके समय नष्ट न करें-और.... उदाहरण के लिये ब्लॉगवाणी से भडास का एफीलियेशन ख़त्म कराने के लिये निम्नलिखित संदेश को कॉपी करके blogvani at cafehindi.com पर अभी भेजें. चिट्ठाजगत को इस पते पर लिखें chitthajagat at chitthajagat.in "हम समझते हैं कि http://bhadas.blogspot.com नाम का हिंदी ब्लॉग चरित्रहनन और मुख्यतः गाली गलौच के कामों में लगा है इसलिये कृपया इसकी सदस्यता तुरंत खारिज की जाय." इस विषय पर मिलती जुलती प्रविष्टियाँ यहाँ देखें- मैथिली जी, क्‍या भड़ास को बैन किया जा सकता है? लें कि तजें.. जो उगला गया है?.. भडास भी अंततः मर्दवादी है इनकी नंगई प्रगतिशीलता है हमारी प्रतिबंध लायक़ भडास विरोधी मोर्चा... 2008/2/29 irfan : > http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2008/02/blog-post_29.html > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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