From vineetdu at gmail.com Wed Dec 3 11:45:37 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 3 Dec 2008 11:45:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSc4KSh4KS8?= =?utf-8?b?IOCkl+Ckr+ClgCDgpLbgpY3gpLDgpYDgpLDgpL7gpK4g4KS44KWH4KSC?= =?utf-8?b?4KSf4KSwIOCkleClgCDgpKzgpYHgpJXgpLbgpYngpKo=?= Message-ID: <829019b0812022215i370f7de6w858e74c69b3ab5f3@mail.gmail.com> उनके ये बताने पर कि ये भी लिखता रहता है औऱ तभी एक-दो पत्रिकाएं उन्हें दिखाने लगे जिसमें कि मेरे लेख प्रकाशित हुए थे। इस पर उनके साथी ने तुरंत ही सवाल किया- तो मैंने आपको कभी यहां यानि श्रीराम सेंटर के पास देखा ही नहीं। जब आप लिखते हैं तो यहां आया कीजिए, आपके मिजाज के लोगों को तो यहां बीच-बीच में आते रहना चाहिए। श्रीराम सेंटर के बुक सेंटर पर लेखन के स्तर पर किसी से ये मेरी पहली मुलाकात थी। एक बार फिर वहां जाना हुआ। मीडिया मंत्र पहली बार देखा था। रवीश सर का लेख देखकर खरीदने को मन हो आया। जो मैम कांउटर पर बैठती है उन्होंने साफ कहा कि मेरे पास तो चेंज है ही नहीं। मैंने कहा-कुछ कीजिए, वो लाचार-सा होकर कहने लगी, मैं क्या कर सकती हूं। मन मारकर मैंने कहा-तो रहने दीजिए। तभी पीछे से किसी ने कहा- अरे दे दीजिए, ये लीजिए दस रुपये। देखा, अविनाश भाई हैं। व्यक्तिगत स्तर पर उनसे ये मेरी पहली मुलाकात थी। उन्होंने कुछ लोगों से मिलवाया और उनके ये कहने पर कि- पढ़ने-लिखनेवाला लड़का है, सबों ने अपनी पत्रिका की एक-एक प्रति मुझे दी। पैसे देने पर साफ कहा-पढकर बताइएगा। वहीं पर मुंबई के प्रमोद सिंह से मेरी पहली मुलाकात हुई जो मेरे हंसते रहने पर ताजुब्ब खाकर रह जाते, उन्हें लगता कि कोई दिल्ली में रहते हुए भी ऐसे कैसे दिनभर हंसता रह सकता है। मैं बीच-बीच में कहता, मैं ऐसा ही हूं, सर औऱ फिर हंसने लग जाता। तीसरी बार जब मैं वहां गया तो चारों तरफ से ऐसे लोगों से घिर गया जो कि ये जानने पर कि मीडिया से जुड़ा आदमी है, भाला-गंडासा लेकर पिल पड़े। पहले मेरे चैनल का दमभर मजाक उड़ाया। वहां के कुछ लोगों को सिर्फ पाउडर पोतकर खड़े होनेवाला एंकर बताया। बचने के लिए जब मैंने कहा कि- अब वहां छोड़ रहा हूं, पीएचडी को ही कॉन्टीन्यू करुंगा तब जाकर थोड़ी देर के लिए थम गए। फिर टॉपिक पूछा और नए सिरे से पिल पड़े। आपलोग लिटरेचर के नाम पर चुटकुलेबाजी कर रहे हैं। बताइएं अंजनीजी, जिस टीवी को हमलोग बहुत पहले ही मूर्खपेटी कहकर धकिया चुके हैं, उस पर भाईजी पीएचडी कर रहे हैं। औऱ वो भी न्यूज चैनल पर नहीं, मनोरंजन चैनल पर। फिर पूछा- तब दिनरात सास-बहू में लगे-भिड़े रहते होंगे, कोई पसंद आयी कि नहीं-टीविए पर सही, काहे कि असली लेडिस लोग से तो आपको अब कुछ लेना-देना ही नहीं रहा। फिर ठहाके मारकर पछताने लगे- अब जब दिनभर टीविए देखकर पीएच।डी करना है तो शादी भी कर लीजिए। एमबीए की हुई भाभी लाइएगा, वो पर एनम के हिसाब से कमाएगी औऱ आप घर बैठकर पीएच।डी कीजिएगा। एकाध साल में पुत्र धन हो गया तो आपके पीएचडी होते-होते बढ़ा होकर गबरु हो जाएगा। रांची से रणेन्द्रजी का फोन आया और बताया कि एक उपन्यास लिखा है। अभी पांडुलिपि ही है, आपको देनी है वो,पढ़कर बताइएगा, कल पहुंच रहे हैं, मिलते हैं श्रीराम सेंटर के बुक शॉप पर फिर बात करते हैं। वहीं पहुंचने पर मेरे दोस्त राहुल ने उनसे पहले ही साफ कह दिया कि- देखिए, इसको कविता-कहानी में बहुत दुलचस्पी नहीं है। ये बीए से ही अपना पैसा आलोचना की किताबों में लगाता आया है। राहुल के ऐसा कहने का मतलब था कि वो पढञकर मुझसे कोई लिखित प्रतिक्रिया न मांगने लग जाएं। उसी दिन कैंपस के कुछ लोग मिल गए औऱ मजाक में ही कह डाला- क्या विनीतजी, श्रीराम सेंटर आने की लत अभी से ही आपको लग गई। आज लगाकर तीसरी बार देख रहे हैं औपको। ये तो तीन ही चीज के लिए फेमस है- या तो आप बेरोजगार हैं, घर में दिन काटना मुश्किल हो जाता है, बिना भसोड़ी किए मन नहीं लगता तो यहां आकर सेटिंग कीजिए, हिन्दी समाज में अपना कद बढ़ाना चाह रहे हों, इसकी-उसकी चाटकर शाल ओढ़ने के चक्कर में हैं तो उसके लिए आइए याफिर साहित्यिक किताबें औऱ पत्रिकाएं खरीदनी हो तो उसके लिए आइए। जहां तक हम आपको जानते हैं, इन दिनों में से आपको किसी चीज की तत्काल तलब नहीं होती, फिर यहां क्या करने आ गए। मैंने मुस्कराते हुए जबाब दिया- इधर, दो-चार महीनों से इन सबकी थोड़ी-थोड़ी तलब होने लगी है। वो मुझे देखते भर रह गए। हम यों कहें कि श्रीराम सेंटर के बुकशॉप पर जानेवाले लोग अपनी-अपनी जरुरतों के हिसाब से जाते रहे हों लेकिन इसे जरुरत से जाने की बजाय, जाने की तलब होना कहना ज्यादा सही होगा। जीभ और मुंह के लिए सुरती, गुटखा औऱ सुपारी की तलब जैसा कुछ। हिन्दी समाज के लिए लिए ये शॉप तलब सेंटर जैसा था जहां सिर्फ और सिर्फ किताबें खरीदने के लिए शायद ही कोई जाता हो। अब कहां से खरीदें हंस, पहल, ज्ञानोदय औऱ लेख छपने पर कहां दौड़ लगाएं, कहां बनाएं भसोड़ी का नया अड्डा, पढ़िए अगली पोस्ट में -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-111807 Size: 9929 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081203/3b634746/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Dec 4 13:19:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 4 Dec 2008 13:19:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWLIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+4KSw4KS4LCDgpKzgpLLgpL/gpK/gpL4g4KSV4KWHIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSC4KSs4KSC4KSnIOCkm+CkqOCkpOClhyDgpKXgpYcg4KSH4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWB4KSVIOCktuClieCkqiDgpKrgpLA=?= Message-ID: <829019b0812032349tf697b6fqcc516814e95a46e2@mail.gmail.com> वो देखिए रात के हारमोनियम वाले उदय प्रकाश, अरे विश्वनाथ त्रिपाठी अचानक से बूढ़ लगने लगे, देखो, कोई जरुरी नहीं कि मेरी कविता इश्तहारों की तरह छपे इन्होंने ही तो लिखा है अपने कुंवर नारायण सिलेबस में लगी है इनकी किताबें औऱ वो राजेन्द्रजी हमेशा की तरह अभी भी मस्त हैं। अरे साथ में इ लड़की कौन है। विनयजी चौंधिआइए नहीं, इ लड़की राजेन्द्रजी के साथ पिछले दो साल से घूम रही है। याद है न, हिन्दू कॉलेज में जब सारे लड़के इनसे ऑटोग्राफ ले रहे थे तो अंत में उ भी आकर बोली कि आप तो हमें कुध लिखकर दे ही नहीं रहे हैं। इसी पर राजेन्द्रजी ने कहा-तुम तो जब चाहो ले लेना, कभी मना किया है। इ वही लड़की है, इधर दो-तीन साल में शरीर भर गया है। पीछे से भाई ने कहा- हां कहानी से लघु उपन्यास की तरह। श्रीराम सेंटर के बुक शॉप पर हम एम ए के दौरान जाते और बड़े-बड़े साहित्कारों को पत्रिकाएं पलटते हुए, बहुत सधे ढंग से बात करते हुए हसरत भरी नजरों से देखते। इधर की किताबों में तो पीछे या फ्लैप पर लेखकों की तस्वीर भी धपी होती है, इसलिए पहचानने में सुविधा होने लगी है लेकिन पहले की किताबों में ऐसा नहीं होता था। मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि श्रीराम सेंटर आकर दर्जनों साहित्यकार औऱ नामचीन लोगों को पहली बार देखा। उन्हें जब भी देखता तो उनकी लिखी किताबों को भूलकर उनके गेटअप पर गौर करता। अशोक वाजपेयी के कुर्तो का रंग, पांडेजी की पाइप, उदय प्रकाश के चेहरे पर जमी हुई गंभीरता, प्रभाकर श्रोत्रिय मुझे सिल्क इम्पोरियम के ब्रांड एम्बेसडर लगते। मैं अक्सर मन बनाता कि एक बार कहीं कुछ हो-हवा जाए तो इन्हीं की तरह अपन भी झाड़कर चला करेंगे। छोटी-मोटी चीजें तो मैं तब से ही फॉलो करने लगा था जिसमें से एक था- बिना चीनीवाली ब्लैक कॉफी पीकर हाथ लहराते हुए अपनी बात कहना। हममें से कुछ लोग ऐसे भी होते जो इन नामचीन लोगों के पास चले जाते औऱ अपना परिचय कुछ इस तरह से देते- सर, मैं आशीष, आपको याद है पटनावाले कार्यक्रम में मैं आपसे मिला था, आपको स्टेशन तक छोड़ने भी गया था। नामचीन अचानक से बोल पड़ते- हां, फिर सहज होते हुए कहते- हां-हां याद आया औऱ तुम्हारे साथ थी वो आजकल क्या कर रही है। सर उसकी तो झारखंड में नौकरी लग गयी। नामचीन कहते- वाह, बहुत मेहनती थी वो। औऱ सब क्या चल रहा है। इस पर दोस्त पूरी रामकथा लेकर बैठ जाता। इसके पहले कि नामचीन पक जाएं पीछे से कोई आवाज देता- अरे भाई साब, इधर कैसे आना हुआ औऱ फिर उनके बीच दोस्त और उसकी बातें अधूरी रह जाती। नामचीन कहते, चलो आशीष, फिर कभी मिलते हैं, तुम्हारी दोस्त मिले तो बताना कि मैंने याद किया है, फोन कर ले। दोस्त हुलसते हुए आता और कहता- जो कहो, बड़े लोग ऐसे ही बड़े नहीं बन जाते, जैसे ही नाम लिए एकदम से चीन्ह (पहचान) गए। दूसरा दोस्त किसी दूसरे नामचीन से अपना परिचय रिन्यूअल कराने चला। सर, मिथिलेश, आपको याद होगा, बनारस में मिले थे हमलोग। नामचीन माथे पर बल देते हुए कहते-कौन मिथिलेश। दोस्त फिर कहता, सर वही जब आपकी लंका पर रिक्शेवाले से भाड़े को लेकर झंझट हो गयी थी तो मैंने मामला साफ किया था। आपने कभा भी था कि आजकल के बच्चे सिचुएशन को ज्यादा बेहतर तरीके से हैंडल करते हैं। अरे मिथिलेश माफ करना, मैं पहचान नहीं पाया। वो क्या है न कि जब से बूब्बू की मां गुजरी है, तब से कुछ भी ध्यान नहीं रहता। मिथिलेश ने अबकी बार कहा- ओह सर, लेकिन ये तो याद होगा कि आपने कहा था कि कोई बनारस आए औऱ भोलेबाबा का देसी माल न ले। तब मैंन गुदौलिया जाके लाया था औऱ अपने रुम पर चूड़ा भूंजे थे और सरसो तेल में बुट झंगड़ी फाई करके लाए थे। अबकी बार नामचीन को लगा- हां, हां याद आया, बहुत बढिया भूंजे थए तुम। तो कुछ-लिखा विखो। हम मन-मंथन नाम से एक पत्रिका निकाल रहे हैं, हम चाहते हैं कि इसमें ज्यादा से ज्यादा युवा लोग जुड़े। मिथिलेश ने कहा-जी सर। फिर वहां से विदा लेकर सीधे हमलोगों के पास आया- स्साला साहित्यकारों के साथ यही झंझट है, दिल्ली के बाहर निकलेगा तो एतना अपनापा और भद्र दिखाएगा कि पूछो मत। लेकर जैसे ही बलिया, बनारस, इलाहाबाद, पटना से लौंडों का माल खाकर आएगा तो दिल्ली आते ही बूब्बू की माय मर जाएगी और फिर कुछ भी याद नहीं रहेगा। कह रहा था कि नया-नया दिल्ली में शिफ्ट कर रहे हैं, जरा सामान जमाने आ जाना। अब करे फोन, मोबाइल का एक डिजिट नंबर ही कम दे दिए हैं औऱ गलती से श्रीराम सेंटर मिल गया तो कहेंगे, पच्छाघाट से नानी मर गयी सो गांव चले गए थे सर। श्रीराम सेंटर की बुक शॉप, दिल्ली की एक ऐसी जगह जहां हम जैसे नंबर बटोरु साहित्य के छात्र कई साहित्यकारों को फेस टू फेस देखा करते। हमें न पीआर बनाने से मतलब होता, न ही कविता-कहानी छपवाने में रुचि होती औऱ न ही गोष्ठियों में मिले थैले ढोने का शौक होता। तब मेरे लिए एक ही पैमाना होता, कौन कितने तरीके से पहन-ओढ़कर आया है, दिखने में इन्टल किस्म का लगता है कि नहीं. जब वो बातचीत करता है तो छपी किताबों से कुछ नया कह रहा है कि नहीं। ऐसा तो नहीं है कि जो किताब १९८५ में लिख दिया, उसी की टेप चलाए जा रहा है। हमारी नजर में वही महान होते जो अपनी किताबों में एमए के लिहाज से मसाला मार गए हों, नहीं तो सूखा-सूखी ज्ञान छांटनेवालों से हम हेमेशा ही दूर रहते. हमारा सीधा फंड़ा होता, ज्ञान बंटोरने और साहित्य की प्यास बुझाने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है, यहां डीयू में पचपन नहीं बना तो सब तेल हो जाएगा। इसलिए हम नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे स्टूडेंट की जरुरत को ध्यान में रखकर किताबें लिखनवाले आलोचकों को अपने ज्यादा करीब पाते। उन्हें देखकर दूर से ही श्रद्धा का ही भाव जागता, लेकिन बात करने की कोशिश कभी नहीं करते. कई बार ऐसा होता है कि लेखक को रचना के स्तर पर मिलना ज्यादा बेहतर होता है, मिले कि मोहभंग हो गया और इनलोगों से तब मोहभंग होने का मतलब था- एमए में फेल। इस शॉप से मैंने कभी भी कोई किताबें नहीं खरीदी। यहां से खरीदने पर लगता कि किताब नहीं जरुरी दवाई खरीदे रहे हैं। दाम एकदम से टाइट लेती मैडम। विद्यार्थी जीवन में किताबों पर जब ढंग से छूट न मिले तब तक लगता है कि किताब खरीदने के नाम पर अय्याशी कर रहे हैं। कुछ पत्रिकाएं खरीदता। लेकिन कोई यहां से कुछ भी न खरीदकर भी लिखने के लिए बस देख-सुनकर रचना की कच्ची सामग्री जुटा सकता था। अब कहां करें भसोड़ी और कहां भंजाएं सीवान का संबंध पढ़िए आगे। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-38369 Size: 13625 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081204/e94ae375/attachment-0001.bin From rajeshkajha at yahoo.com Thu Dec 4 15:37:32 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 4 Dec 2008 02:07:32 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= mumbai: the pain and the shame Message-ID: <707414.97539.qm@web52907.mail.re2.yahoo.com> इधर काफी हंगामा हो रहा है...मुंबई के लिए. दो आलेख पढ़िए... mumbai: the pain and the shame मुम्बई ब्लास्ट: लीक से हटकर regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081204/3ab9a80a/attachment.html From vineetdu at gmail.com Fri Dec 5 11:59:06 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 5 Dec 2008 11:59:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSy4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWAIOCkrOClgeCklSDgpLbgpYngpKog4KSV4KWHIOCksuCkvw==?= =?utf-8?b?4KSPIOCkrOCkv+CklyDgpLbgpYngpKog4KSW4KWB4KSyIOCknOCkvg==?= =?utf-8?b?4KSP?= Message-ID: <829019b0812042229m40de01f8kb7b4bb29fe9bd98f@mail.gmail.com> श्रीराम सेंटर की बुकशॉप की तरह हमारे डीयू कैंपस में भी कभी पुस्तक मंडप नाम से बुक शॉप हुआ करती थी। वो तो उजड़ गयी लेकिन उसकी जगह जो नयी बिल्डिंग बनी है वहां पर फिर से एक नयी दूकान खुली है। ये शॉप पहले के मुकाबले ज्यादा समृद्ध है क्योंकि यहां हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के अलावे राउट्लेज, ब्लैकबेल औऱ पेंगुइन इंडिया जैस बड़े पब्लिशरों की भी किताबें मौजूद होती हैं। अगर कुछ नहीं भी है तो कहने पर वो ला देते हैं। लेकिन इसे मैं पुस्तक मंडप की भरपाई नहीं मानता। इसे देखकर कुछ ऐसा ही लगता है जैसे कुल्लड़ में बेचनेवाली गंदले चाय की दूकान तोड़कर कॉफी डे की आउटलेट खोल दी गयी हो। ऐसा मैं किसी भी तरह की नास्टॉलजिया में आकर कि हर पुरानी चीजें अच्छी होती है, कह रहा हूं। बल्कि इसकी एक बड़ी ही मजबूत वजह है। इस पुस्तक मंडप पर आकर मुझे कभी नहीं लगा कि इसे मुनाफे के लिए खोली गयी है। सारी पत्रकाएं मौजूद होती, चर्चित और जरुरी किताबें लेकिन इसे बेचने की हड़बड़ी मैं यहां के लोगों में नहीं देखता। तब इस शॉप पर अपने क्रांतिकारी मनोज भाई हुआ करते। जिन किताबों की किताब बहुत अधिक होती, उसे वो दो-चार दिनों के लिए पढ़ने दे दिया करते। इस बीच हमलोग कभी-कभार फोटोकॉपी करा लेते। उनका सीधा जुमला होता- पढ़िए साथी, ललक है तो पढ़िए, पैसा कोई प्रॉब्लम नहीं है। बिजनेस के लिहाज से संभव हो इस दूकान से बहुत अधिक मुनाफा नहीं होता हो लेकिन इसकी जितनी लोकप्रियता हमारे बीच थी उतनी शायद इस नए बुकशॉप की नहीं है। तब कैंपस में एक खास तरह का कल्चर था जो कि अब धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। अच्छा है या फिर बुरा, कह नहीं सकता। जूनियर्स साथी बीए या फिर एमए में एडमीशन लेते ही बाकी कामों के साथ-साथ सबसे पहले अपने सब्जेक्ट के टॉपर सीनियर्स से मिलते। नोट्स तो एक मामला होता ही लेकिन वो उन किताबों के बारे में भी जानना चाहते जिससे समझ बन सके। ऐसे में कई बार सीनियर्स दुराग्रह की वजह से रामविलास शर्मा की किताबों को कूड़ा बताकर डॉ नगेन्द्र को साहित्य का एकमात्र विकल्प बताते। जूनियर उनकी बातों को बनाकर अपनी हैसियत से उन किताबों की सूची बनाता जिसे कि वो खरीद सकता है। वो लिस्ट लेकर सीनियर के पास लेकर आता और कहता- एकबार आप साथ चलिए न सर, ठीक रहेगा। कई सीनियरों को मैंने इस पुस्तक मंडप पर जूनियर्स को किताबें खरीदवाते हुए देखा है। हमलोग अलग पंथ के लोग रहे। सीनियर्स को शुरु से ही ज्यादा तब्बजो नहीं दिया, ऐसे में खुद ही पुस्तक मंडप पहुंचते। मनोज भाई और कभी-कभी मैडम जो कि दुकान की मालकिन थी- सीधे कहती- तुम जैसे लोगों को इसे तो हर हाल में पढ़नी ही चाहिए, इसे आप खरीद लें। शुरु-शुरु में तो ऐसा लगा कि ये बेचने के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन बाद में उनके कहने पर कुछ किताबें खरीदी औऱ वो भी अतिरिक्त छूट पर तो बात समझ में आने लगी कि ये सचमुच बेहतर पाठक गढ़ने की कोशिश में हैं। यही वजह रही कि डॉ.नगेन्द्र का गढ़ कहे जानेवाले दिल्ली विश्वविद्यालय में हमने रामविलास शर्मा को खरीदा, नामवर सिंह को खरीदा, भक्तिकाल पर शिवकुमार मिश्र को खरीदा औऱ बीच-बीच में हमजाद जैसे उपन्यास भी खरीदकर पढ़े। इस शॉप ने हमारे भीतर किताबों को खरीदकर पढ़ने का भाव पैदा किया। ये कहते हुए कि अगर आप इसे खरीदना नहीं चाहते तो ऐसे ही ले जाइए,पढ़कर लौटा दीजिएगा। बस इसके लिए समय निकाल लीजिए साथी। इस मंडप पर आकर मुझे पहली बार महसूस किया कि चीजों को बेचने के क्रम में भी विचारधारा के प्रति विश्वास, पढ़ने के प्रति ललक और शॉप पर आनेवाले लोगों को ग्राहक के तौर पर देखने के बजाय पाठक के रुप में देखा जाना संभव है। श्रीराम सेंटर में काफी हद तक इस बात की संभावना रही नहीं तो अब जो बुकशॉप खुल रहे हैं उसमें उलट-पलटकर और बिना खरीदे छोड़ देने की न तो गुंजाइश है और न ही कोई इतना समझदार औऱ सह्दय है कि कहे- कोई बात नहीं, दस रुपये चेंज नहीं है तो बाद में दे दीजिएगा. इसलिए संभव है कि कल श्रीराम सेंटर में पुरानेवाले बुक शॉप की जगह और चीजों की तरह बिग शॉप खुल जाए लेकिन बिना कुछ खरीदे टाइप पास करने के लिहाज से, बिना अंटी में पैसे डाले भीतर घुसने पर लल्लू ही करार दिए जाएंगे। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 8944 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081205/167bf334/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Sat Dec 6 15:00:19 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 6 Dec 2008 15:00:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkleCkueCkpOClgCDgpLngpYgg4KSs4KS/4KSo4KS+IOCksA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSq4KWL4KSw4KWN4KSf4KSw4KWN4KS4IOCkleClhyDgpJrgpYg=?= =?utf-8?b?4KSo4KSyIOCkmuCksuCkvuCkkw==?= Message-ID: <829019b0812060130h27cda93aj14f670fcba35109e@mail.gmail.com> मीडिया कोर्स कर रहे हमारे साथी इस खबर से हुलसते कि इसके पहले ही सरकार ने उस पर मठ्ठा घोलने का काम कर दिया। लम्बे समय के सरकारी झोल-धाल के बात इस बात पर विचार किया गया कि अब जल्द ही निजी एफएम चैनलों पर खबरें पर्शारित होंगी। लेकिन इसमें सरकार की तरफ से लोचा लगा दिया गया है कि चैनल जो भी खबरें प्रकाशित करेगें वो इसे या तो एजेंसियों से लेगें या फिर सरकारी संगठनों से। खबरों के लिए चैनल अपनी तरफ से रिपोर्टर्स नहीं रखेंगे। यानि निजी एफएम चैनलों पर खबरें तो होंगी लेकिन रिपोर्टर्स नहीं। सरकार रिपोर्टर्सविहीन चैनल की बात कर रही है। जाहिर है सरकार ने ये फैसला निजी समाचार चैनलों के रवैये को ध्यान में रखकर लिया है। निजी समाचार चैनल जिस तरह से खबर के नाम पर भूत-प्रेत, इश्क-मोहब्बत और पाखंड फैलाने का काम करते हैं, ये स्थिति किसी भी वेलफेयर स्टेट की सरकार के लिए परेशानी पैदा करनेवाली हो सकती है. ये अलग बात है कि सरकार को इससे ज्यादा परेशानी चैनलों की उन गतिविधियों से होती है जिसमें वो जनता यानि ऑडिएंस की तरफ से बोलते हुए उन्हें लगातार नाकाम और भ्रष्ट साबित करने की कोशिश में लगे होते हैं। इसलिे निजी एफएम चैनलों के मामले में सरकार पहले ही सावधान है। खबरों को जानने के लिए इन चैनलों के दांत और नाखून उगे इसके पहले जरुरी है कि उनकी उंगलियों और मसूडों को ही पहले से उखाड़ लिए जाएं। उसे पता है कि निजी टीवी समाचार चैनलों को रेगुलेट करने में कितनी परेशानी हो रही है। सरकार की इस नीति का हम दिल से स्वागत करें और हमारा भरोसा उसके इस फैसले पर जाए इस पहले हमें सोचना होगा कि- क्या सरकारी संगठन और न्यूज एजेंसियां एफएम चैनलों और इसकी ऑडिएंस की जरुरतों और उनके मुताबिक खबरें मुहैया कराने में पूरी तरह सक्षम है। क्या जो न्यूज एजेंसी जिन खबरों को चुनती है उसके बाद किसी भी तरह की खबर की गंजाइश नहीं रह जाती। क्या इसके बाद जो भी खबरें रह जाती है वो या तो गैरजरुरी होती है, खबर के नाम पर पाखंड होती है जिसे प्रसारित करने से समाज और अधिक भ्रष्ट होगा। एजेंसी की खबर के बाद खबर पर फुलस्टॉप लग जाता है या फिर सरकारी संगठनों द्वरा मुहैया करायी जानेवाली खबरों के बाद खबर का मामला खत्म हो जाता है। अगर ऐसा है तो फिर क्यों सारी ऑडिएंस सिर्फ दूरदर्शन देखने नहीं लग जाती या फिर एफएम गोल्ड और रेनवो से ही अपना काम नहीं चला लेती। जाहिर है ऑडिएंस निजी समाचार चैनलों को देखने के लिए महीने में तीन से चार सौ रुपये खर्च करती है। क्या ऐसा नहीं है कि ऐसा करके सरकार निजी एफएम चैनलों को सरकारी भोंपा बनाने की मूड में है। संभव है जो लोग निजी समाचार चैनलों से त्रस्त हैं उन्हें अब भी बाकी चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन ही सही लगता है लेकिन उनसे अगर ये पूछा जाए कि क्या दूरदर्श खबरों के लिए काफी है, इसके बाद किसी भी निजी चैनलों या माध्यमों की जरुरत नहीं रह जाती। मुझे नहीं लगता कि वो सीधे-सीधे हां में जबाब देंगे। सार्वजनिक माध्यमों को किस तरह से सरकारीकरण और उसे अपने हित में भोंपा बनाने का काम हुआ है, ये किसी से छुपा नहीं है। इसलिए शायद ही कोई करोडों रुपये लगाकर उसे रेडियो क्रांति करने के बजाय उसे सरकार का दुमछल्लो बनाना चाहेगा। एजेंसियों के भरोसे खबरें प्रसारित करने के फैसले में सरकार की समझदारी है कि इससे खबरों के प्रति विश्वसनीयता बनी रहेगी। लेकिन उसने एजेंसियों की खबरों को परफेक्ट मान लेने की भारी भूल की है। क्या मैनिपुलेशन का काम यहां बिल्कुल भी नहीं होता। खबर और बाजार के खेल में क्या ये एजेंसियां शामिल नहीं है। सरकार को इन सवालों पर तसल्ली से विचार करने चाहिए। किसी भी माध्यम से खबर प्रसारित होने से खबर का एक नया रुप और एक नयी परिभाषा सामने आती है। एजेंसी से इन चैनलों को जो भी खबरें मिलेगी उसे एक हद तक ये चैनल अपने स्तर पर प्रस्तुत कर सकेंगे लेकिन कंटेट के स्तर पर बहुत अधिक प्रयोग करने करने के स्तर पर इनकी बहुत अधिक ताकत नहीं होगी। चैनल अहर अपने रिपोटर्स बहाल करते हैं तो संभव है कि कई ऐसे विषय और मुद्दे सामने आएंगे जिसे कि एंजेंसियां नोटिस नहीं लेती।चाहे तो कोई कह सकता है कि एफएम चैनलों का जो मिजाज है उससे कहीं लगता कि वो खबर को लेकर कुछ बेहतर कर पाएगी। लेकिन इस तरह से सोचने में और सरकार की नीति में कोई बहुत अधिक फासला नहीं है। दरअसल सरकार एफएम की ताकत को समझते हुए इस पर शुरु से ही नकेल कसने में लगी है। जबकि होना ये चाहिए कि निजी एपएम चैनलों को भी अपने रिपोर्टर्स बहाल करने का प्रावधान हो ताकि वो खबर की एक नयी दुनिया रच सके। आगे भी जारी। ( ये खबर कल के अमर उजाला में प्रकाशित की गयी है जिसका विश्लेषण मैंने अपने स्तर से किया है।) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081206/0ef037c4/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Dec 6 15:18:22 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 6 Dec 2008 15:18:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sorry Message-ID: <829019b0812060148h4ec454eai87533ae5136f4a25@mail.gmail.com> deewan ke saathiyo aaj ki post me jaldi ke kaaran spelling mistakes bahut adhik hai, maaf karenge vineet -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081206/cd8d3811/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Dec 7 15:02:41 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 7 Dec 2008 15:02:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkmg==?= =?utf-8?b?4KWI4KSo4KSyIOCkqOClhyDgpKrgpYjgpKbgpL4g4KSV4KS/4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqCDgpKTgpYsg4KS44KSw4KSV4KS+4KSw?= =?utf-8?b?IOCkrOCljOCkluCksuCkviDgpJfgpK/gpYA=?= Message-ID: <829019b0812070132v54461a02k81b0a47d7194ccb3@mail.gmail.com> अभी जबकि देश के अधिकांश न्यूज चैनल भ्रष्ट नेताओं के बहाने संसद और सरकार की अनिवार्यता के मसले पर नए सिरे से विचार कर रहे हैं, उनके होने की ठोस वजह को रिवाइव करने में लगे हैं,ये सवाल उठाना कि हमें निजी न्यूज चैनलों की किस हद तक जरुरत है, अपपटा सवाल हो सकता है। मीडिया ने मुंबई आतंकवादी हमले के बाद इनफ इज इनफ के जरिए जिस तरह से सिटिजन कन्शसनेस बनाने में जुटे हैं,फिलहाल उन्ही के होने पर सवाल खड़े करना संभव है, बेहूदा हरकत हो। लेकिन जो मीडिया आतंकवाद के खिलाफ लोगों के एकजुट होने की बात को जेपी आंदोलन के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन करार दे रही है।ये अलग बात है कि चैनल इसे कुछ ज्यादा ही हाइपरबॉल की तरफ ले जा रही है। हो सकता है एसएमएस और टीआरपी बटोरने के बाद वो अपने को समेट ले। लेकिन फिलहाल के लिए जरुरी कदम है. एक तरह से कहें तो यही आंदोलन को लीड कर रही है। हर चैनलों पर अलग-अलग नाम से, अलग-अलग एंगिल से, अलग-अलग ढंग से पैकेज बनाकर। आप चाहें तो इसे चैनलों द्वारा पैदा की गयी पहली क्रांति या आंदोलन कह सकते हैं। चैनल भी चाहे तो इस बात की क्रेडिट ले सकते हैं कि उनमें इतनी ताकत है कि वो लोगों के बीच आंदोलन पैदा कर सकती है। इन सभी चैनलों में कॉमन बात है कि सबने नेताओं और सरकार की नाकामी को सामने रखने का काम किया। सबों ने सवाल खड़े किए कि हमें ऐसी सरकार औऱ नेताओं की कितनी जरुरत है जो सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम रही है। सभी चैनलों ने आतंकवाद के बहाने सरकार के लिजलिजेपन को सामने लाकर रख दिया, देश की सुरक्षा कितनी लचर है, इसे एकदम से साफ कर दिया, बूलेट प्रूफ जैकेट को महज शोभा और फैशन के लिए इस्तेमाल भर होने का बताया, अब उसी चैनल को लेकर ये सवाल खड़े किए जाएं कि इन निजी चैनलों की हमें कितनी अधिक जरुरत है, ऐसे में सवाल खड़े करने के बजाय मसखरी करने का मामला समझा जाएगा। कुछ महीनों पहले जब केन्द्र की सरकार संकट में थी और विश्वासमत हासिल करने के दौरान संसद के भीतर नोटों की गड्डियां दिखायी गयी और वो भी किसी निजी चैनल द्वारा नहीं, लोकसभा चैनल द्वारा तो एक घड़ी को भरोसा बन गया कि अगर देश में कोई निजी समाचार चैनल नहीं भी हों तो अपना काम चल जाएगा। तीन दिनों तक देश की ऑडिएंस नें सिर्फ और सिर्फ लोकसभा चैनल को देखा। औऱ किस दूसरे निजी चैनलों को देखा भी हो तो उस पर भी लोकसबा से फुटेज काटकर चलाए गए। लोगों की राय थी कि- देखिए, लोकसभा ने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया लेकिन लोग इससे चिपके हुए हैं। हम एकबार फिर से दूरदर्शन और लोकसभा चैनल की तरफ लौट गए और निजी चैनलों के प्रति हमारी दूरी बन गयी। हम इसे गैरजरुरी नहीं भी तो एकदम से अनिवार्य भी मानने की स्थिति में नहीं रह गए। लेकिन मुंबई आतंकवादी हमले के दौरान दूरदर्शन और लोकसभा चैनल का कोई नाम लेनेवाला मुझे नहीं मिला। स्क्रीन पर या फिर किसी भी प्रिंट मीडिया के जरिए लोगों ने नहीं कहा कि इसकी सबसे पहले जानकारी मुझे लोकसभा या फिर दूरदर्शन के जरिए मिली। इससे ये कहीं साबित नहीं होता कि इन दोनों चैनलों की कोई प्रासंगिकता नहीं है। संभव है कि इस हादसे से मोटे तौर पर जिन लोगों का सरोकार रहा है उसकी ऑडिएंस टाइम्स नाउ, सीएनएन, एनडीटीवी जैसे अंग्रेजी चैनलों की रही हो. ऑडिएंस ने देश के भीतर हुए हादसे में सबसे ज्यादा अंग्रेजी में बाइट इसी समय दिए। लेकिन ये जरुर साबित हो जाता है कि दूरदर्शन,लोकसभा या फिर सरकारी सहयोग से चलनेवालीम मीडिया को पर्याप्त नहीं माना जा सकता है. जो मीडिया बिल्बर श्रैम के विकासवादी ढ़ांचे पर काम करती रही है, वो यहां पर आकर शिथिल दिखायी देने लग जाती है. खबरों के प्रति तटस्थता या विश्वसनीयता का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है उसकी गति बिल्कुल मंद पड़ जाए. ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि अगर कोई चैनल पुखता खबर देने की बात करता है तो वो हर हाल में देर से ही खबर दे। निजी समाचार चैनलों ने जितनी तेजी से सरकार की नाकामी और शहीदों के प्रति सम्मान का महौल बना लिया, दूरदर्शन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया. न तो लोगों की भावनाओं को संतुलित करने में कुछ नया कर पाया और न ही विकासवादी ढ़ांचे के अनुरुप लोकहित में कोई पैकेज ही बना पाया। लेकिन इन सबके बीच लगातार सत्तर घंटे तक सत्तर से भी ज्यादा निजी चैनलों के दिन-रात लगकर खबर देने पर भी सरकार कभी देश की सुरक्षा के नाम पर, कभी लोगों की भावना के नाम पर, कभी विश्वसनीयता के नाम पर आडे़-तिरछे ढंग से नकेल कसने में लगी है। इसे सरकार का किसी भी स्तर से विवेकपूर्ण रवैया नहीं कहा जा सकता है। ये देश का दुर्भाग्य है कि हम सरकार के किसी भी फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं, चाहे वो फैसले गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद लिए गए हों या फिर फ्रशट्रेशन औऱ असुरक्षा में आकर। बार-बार निजी चैनलों को लताड़ने के बजाय अगर सरकार दूरदर्शन, लोकसभा और जितने भी सरकारी सहयोग से जनहित में काम करनेवाली मीडिया है, उसे दुरुस्त कर दे तो ज्यादा बेहतर होगा। कानून के डंडे दिखाने स बेहतर है कि वो निजी चैनलों को लोकप्रियता, और ऑडिएंस के बीच अपनी पकड़ के स्तर पर पटकनी देने का काम करे. चैनलों में इतनी समझदारी अभी भी है कि वो मौके के हिसाब से खबरों को प्रसारित करती है। दो-तीन चैनल इसके भले ही अपवाद हो सकते हैं, इसे भी सरकार के डंडे नहीं बल्कि देर-सबेर ऑडिएंस ही निकाल-बाहर कर देगी। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081207/a367bc66/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Dec 9 14:52:50 2008 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Tue, 9 Dec 2008 14:52:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLjgpL8=?= =?utf-8?b?4KSX4KSw4KWH4KSfIOCkm+Cli+CkoeCkvOCkqOClhyDgpJXgpYcgICAg?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KS+4KSo4KWHIDog4KSTICAg4KSw4KS54KSoIOCkquCkvg==?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSV?= Message-ID: sabad se sabhar. ravikant Subject: सिगरेट छोड़ने के बहाने : ओरहन पामुक To: From: "anurag vats" Date: Tue, 9 Dec 2008 12:26:09 +0530 *लिखना...अगर आपको इसमें सुख मिलता है तो...इससे सारे दुख मिट जाते हैं* *ओरहन पामुक * मुझे सिगरेट छोड़े हुए २७२ दिन हो गए। अब आदत हो गई है। मेरा तनाव कम होगया है और मुझे अब ऐसा नहीं लगता कि मेरे शरीर का कोई हिस्सा टूट रहा है। पर ऐसा असल में है नहीं । सचाई यह है कि एक अभाव की भावना से मैं अब तक नहीं छूटा हूँ। मैं इस सोच की ज़द में रहा कि मुझे मेरे स्व से अलग कर दिया गया है। और ज्यादा सही यह कहना होगा कि अब मुझे ऐसे जीने की आदत हो गई है।निष्ठुर सत्य को मैंने स्वीकार कर लिया है। अब मैं फिर कभी सिगरेट पीऊंगा। कभी नहीं। ऐसा कहते हुए भी मैं दिवास्वप्न देखता हूँ कि मैं सिगरेट पी रहा हूँ। अगर मैं कहूँ कि ये दिवास्वप्न इतने भयानक और गोपनीय हैं कि उन्हें हम अपने आपसे भी छिपाते हैं... समझते हैं ? वैसे भी, यह बात ऐसे ही एक दिवास्वप्न के दौरान होगी और उस क्षण जो भी खिचड़ी मैं पका रहा होऊँगा, जैसे-जैसे मैं इस फिल्म यानी कि अपने सपने को शिखर तक जाता देखता हूँ, मुझे उतनी ही खुशी मिलती है जितनी कि पीने के लिए एक सिगरेट जलाने से मिलती है। तो सुख-दुख, आकांक्षा और हार, उदासी और उल्लास, वर्त्तमान-भविष्य के अनुभव को धीमा कर देना और हर दो तस्वीरों के बीच नई राहें और नए शार्टकट ढूँढना; मेरे जीवन में सिगरेटों का यही मुख्य उद्देश्य था। जब ये संभावनाएँ नहीं रहतीं, आदमी खुद को नंगा जैसा महसूस करने लगता है। कमज़ोर और असहाय। एक बार मैं एक टैक्सी में बैठा, ड्राइवर एक के बाद एक सिगरेट पी रहा था। गाड़ी के अंदर गहरा धुआँ भरा हुआ था। मैं साँस के साथ धुआँ अंदर खींचने लगा। 'माफ कीजिएगा' उसने कहा। वह खिड़की खोलने लगा था। 'नहीं,नहीं, 'मैंने कहा, 'बंद रखो। मैंने सिगरेट छोड़ दिया है।' मैं देर तक बिना सिगरेट की चाहत के जी सकता हूँ, पर जब पीने को जी चाहता है तो यह चाहत अंदर गहरे कहीं से आती है। फिर मुझे अपना भूला हुआ आपा याद आता है, जो दवाओं, जोड़तोड़ और स्वास्थ्य की चेतावनियों से बँधा हुआ स्व है। मैं वह वापस बनना चाहता हूँ, वह ओरहान जो मैं कभी था, सिगरेट पीने वाला, जो शैतान का सामना करने में कहीं ज्यादा काबिल था। पुराने ओरहान के बारे में सोचते हुए सवाल यह नहीं उठता कि मैं तुरंत सिगरेट जलाऊँ। पुराने दिनों की वह रासायनिक जुगुप्सा अब नहीं होती, बस अपना पुराना आपा बहुत याद आता है, जैसे कि कोई खोया दोस्त या चेहरा याद आए। बस यही मन होता है कि मैं वापस वह बन सकूँ जो कि मैं कभी था। ऐसा महसूस होता है कि मुझे ऐसे कपड़े पहना दिए गए हैं, जिन्हें मैंने नहीं चुना। जैसे कि उन्हें पहनकर मैं ऐसा कुछ बन गया हूँ जो मैं कभी नहीं था। अगर मैं फिर सिगरेट पी सकूँ तो मुझे फिर पहले जैसे रातों के तीखे अहसास होंगे, उस व्यक्ति के आतंक वापस आ जाएँगे, जो कि मैं खुद को मानता था । जब मैं अपने पुराने आप तक लौटना चाहता हूँ, मुझे याद आता है कि उन दिनों मुझे शाश्वत जीवन की बेतरतीब सूचनाएँ आती थीं। उन पुराने दिनों में, जब मैं सिगरेट पीता था, वक्त रुक जाता था। मुझे कभी ऐसा चरम सुख मिलता या कभी इतनी तीव्र पीड़ा होती कि मुझे लगता कहीं कुछ बदलेगा नहीं। मैं मजे से सिगरेट के कश लेता और दुनिया अपनी जगह खड़ी होती। फिर मुझे मौत से डर होने लगा। कागज़ात में यह गहराई से समझाया हुआ था कि सिगरेट पीता वह आदमी कभी भी गिर कर मर सकता है। ज़िंदा रहने के लिए मुझे धुएँ के नशेड़ी को छोड़ना पड़ा और मैं कुछ और बन गया। ऐसा करने में मैं सफल हुआ। अब मेरा त्यागा हुआ स्व शैतान से जा मिला है और मुझे वापस उन दिनों में लौटने को कहता है जब वक्त हमेशा के लिए रुका हुआ था और कोई मरता नहीं था। उसकी पुकार से मैं डरता नहीं हूँ। क्योंकि जैसे कि आप देख सकते हैं, लिखना...अगर आपको इसमें सुख मिलता है तो...इससे सारे दुख मिट जाते हैं। ***** ( पामुक किसी परिचय के मुहताज नहीं। २००६ में नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए तुर्की के इस पहले साहित्यकार की कथाकृतियों से आप अच्छी तरह परिचित होंगे। ऊपर पामुक की कथेतर गद्य के चयन ''अदर कलर्स'' से एक अंश दिया गया है। इसका अनुवाद हमारे आग्रह पर कवि-लेखक लाल्टू ने किया है। हम इसके लिए उनके अत्यंत आभारी हैं। हिन्दी के वाक्य-विन्यास आदि को ध्यान में रख कर गद्य के इस टुकड़े में अनुवाद से पुनरीक्षण तक आंशिक बदलाव किए गए हैं। हम आगे भी इस तरह के अनुवाद प्रकाशित करेंगे। ) Posted by anurag vats at 11:37 vatsanurag.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081209/d8f00f02/attachment.html From pratilipi.in at gmail.com Thu Dec 11 11:16:55 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Thu, 11 Dec 2008 11:16:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Announcing Pratilipi, Issue 5 (December 2008) In-Reply-To: <5cc6bcd80812100212ub65279cqe9ac4aa110d67eb3@mail.gmail.com> References: <5cc6bcd80812100212ub65279cqe9ac4aa110d67eb3@mail.gmail.com> Message-ID: <435290ba0812102146h5b1c2660x280c9221fca856e1@mail.gmail.com> प्रतिलिपि का पाँचवा अंक अब ऑनलाइन है. The fifth issue of Pratilipi is now online. http://pratilipi.in *शीर्ष आलेख / LEAD ARTICLE * - Translating Bharat / India: Something Will Ring * फीचर्स / FEATURES * - Home From A Distance: 4 Hindi Poets in Translation - ६ कवि शहर की तलाश में - किताबत / Kitabat - Indian Documentary: Peripheral Visions *कथा / FICTION * - Grass, Here, Here, Here, Here And Here: Ramesh Chandra Dwivedi - Ice Wine: Priya Sarukkai Chabria - सोनाली और सुबिमल मास्टर की कहानी: प्रभात रंजन - सफेद रंग की स्कूटी: संजय सिंह * कथेत्तर / NON-FICTION * - If Only Ammu Had Been My Daughter: Krishna Sobti - Whoever Sees God…: Gagan Gill - पुस्तक में अनुष्ठान: गिरिराज किराड़ू - बुख़ार में लिखी गयी चिट्ठी: मृत्युंजय - Jashn-e-Azadi: Sanjay Kak - Tales From The Margins: Kavita Joshi - What Should Be The Task Of The Translator of Hindi Novelists: Annie Montaut - Translations And The Making Of Colonial Indian Consciousness: Sudhir Chandra - "Something will ring…": Purushottam Agrawal - Before The Translation: Madan Soni - Hello, How Are You, I Hope: Geetanjali Shree - Siting Translation, Displacing Original: Giriraj Kiradoo * कविता / POETRY * - शिकायतों का पुलिंदा और तितलीः प्रयाग शुक्ल - Shudda Breathon Him: Stig Larsson - To Know What Is Love/प्रेम क्या है जानने के लिए: Oscar Pujol/आस्कार पुजोल - At Eighteen Thousand Feet: Ashok Niyogi - जब बरसेगा शिलौंगः तरुण भारतीय - Loudest Before Dawn: Rohith Sundararaman - Faith In Me Stands Vindicated: Nagarjuna - Single Wicket Series: Vishnu Khare - It Flew Out of the Sky: Vinod Kumar Shukla - Into A New Locale: Arun Kamal - अपनों में नहीं रह पाने का गीतः प्रभात - कि तुम्हें ऐसा ही होना है: शिव कुमार गांधी - यहाँ मेरा आदमकद कोई नहीं: मनोज कुमार मीणा - धुले हुए कपड़ों की तह लगातेः देवयानी - मेरे दुश्मन भी आखिरशः बेरोजगार हुएः विशाल कपूर - उनके किस्सों में थी तुम गौरैया: प्रमोद * लोक-प्रिय / LOK-PRIYA * - Dastangoi: Mita Kapur - पद-दंगल, धवले और जगन मीणा: प्रभात * कला दीर्घा / ART GALLERY* - Moumita Shaw Editors: Giriraj Kiradoo & Rahul Soni Art Editor: Shiv Kumar Gandhi -- प्रतिलिपि: द्विमासिक द्विभाषी पत्रिका Pratilipi: A Bilingual Bimonthly Magazine http://pratilipi.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081211/dbd175db/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Dec 17 21:48:13 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Dec 2008 21:48:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSwIOCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgDog4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpK3gpLXgpL/gpLfgpY3gpK8=?= Message-ID: <200812172148.13768.ravikant@sarai.net> Date: बुधवार 17 दिसम्बर 2008 21:39 From: "sachida nand jha" To: ravikant at sarai.net विचार गोष्ठी इक्कीसवीँ सदी में हिन्दी का भविष्य वक्ता: रमाकांत अग्निहोत्री कृष्ण कुमार हरीश त्रिवेदी स्थान: जुबिली हॉल, मॉल रोड दिल्ली विश्वविद्यालय समय: छ: बजे शाम शुक्रवार ( उन्नीस दिसम्बर दो हज़ार आठ) From indigene2007 at gmail.com Thu Dec 18 08:16:12 2008 From: indigene2007 at gmail.com (indigene) Date: Thu, 18 Dec 2008 08:16:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSwIOCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgDog4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpK3gpLXgpL/gpLfgpY3gpK8=?= In-Reply-To: <200812172148.13768.ravikant@sarai.net> References: <200812172148.13768.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4949B974.5060802@gmail.com> Ravikant...I don't know which transcription tool you have been using but it doesn't look like doing a great job. Have you tried out Lipikaar ? Ravikant wrote: > Date: बुधवार 17 दिसम्बर 2008 21:39 > From: "sachida nand jha" > To: ravikant at sarai.net > > विचार गोष्ठी > > इक्कीसवीँ सदी में हिन्दी का भविष्य > > वक्ता: रमाकांत अग्निहोत्री > कृष्ण कुमार > हरीश त्रिवेदी > > स्थान: जुबिली हॉल, मॉल रोड > दिल्ली विश्वविद्यालय > > समय: छ: बजे > शाम शुक्रवार ( उन्नीस दिसम्बर दो हज़ार आठ) > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081218/f2ab51c1/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Dec 18 12:03:15 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 18 Dec 2008 12:03:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSwIOCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgDog4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpK3gpLXgpL/gpLfgpY3gpK8=?= In-Reply-To: <4949B974.5060802@gmail.com> References: <200812172148.13768.ravikant@sarai.net> <4949B974.5060802@gmail.com> Message-ID: <200812181203.15388.ravikant@sarai.net> Dear Indegene, I am using bolnagri to type, which runs fine on Linux machines, but do let me know the problem you faced reading this message. I did try lipikar following your suggestion, and I am sorry, it does not work for me. The cursor moves backwards - and the typing is not intuitive at all. So how about switching to something that I have used for years without fail. I also have something for windows if you want - I can forward the links, softwares, etc. Remember, it is a typing tool - works on editors, mail clients and browsers across board - and not a tranliterator - even though it works transliterationally - on an English keyboard. cheers ravikant गुरुवार 18 दिसम्बर 2008 08:16 को, indigene ने लिखा था: > Ravikant...I don't know which transcription tool you have been using but > it doesn't look like doing a great job. > > Have you tried out Lipikaar ? > > Ravikant wrote: > > Date: बुधवार 17 दिसम्बर 2008 21:39 > > From: "sachida nand jha" > > To: ravikant at sarai.net > > > > विचार गोष्ठी > > > > इक्कीसवीँ सदी में हिन्दी का भविष्य > > > > वक्ता: रमाकांत अग्निहोत्री > > कृष्ण कुमार > > हरीश त्रिवेदी > > > > स्थान: जुबिली हॉल, मॉल रोड > > दिल्ली विश्वविद्यालय > > > > समय: छ: बजे > > शाम शुक्रवार ( उन्नीस दिसम्बर दो हज़ार आठ) > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From rajeshkajha at yahoo.com Thu Dec 18 12:54:51 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 17 Dec 2008 23:24:51 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Firefox Hindi moved beta to official release Message-ID: <637135.87409.qm@web52906.mail.re2.yahoo.com> Hi, Now firefox Hindi has released as an fully 'official' firefox release for Hindi . With the release of Firefox 3.0.5, two Indian languages moved out of beta into official translations of Firefox. Bengali is also with Hindi. http://en-us.www.mozilla.com/en-US/firefox/all.html regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081217/034e3214/attachment.html From indigene2007 at gmail.com Thu Dec 18 12:56:35 2008 From: indigene2007 at gmail.com (indigene) Date: Thu, 18 Dec 2008 12:56:35 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLXgpL8=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSwIOCkl+Cli+Ckt+CljeCkoOClgDog4KS54KS/4KSo4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkviDgpK3gpLXgpL/gpLfgpY3gpK8=?= In-Reply-To: <200812181203.15388.ravikant@sarai.net> References: <200812172148.13768.ravikant@sarai.net> <4949B974.5060802@gmail.com> <200812181203.15388.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4949FB2B.3020305@gmail.com> Sure. Do forward me the links, software etc. I work on a WinXP m/c. regards Ravikant wrote: > Dear Indegene, > > I am using bolnagri to type, which runs fine on Linux machines, but do let me > know the problem you faced reading this message. I did try lipikar following > your suggestion, and I am sorry, it does not work for me. The cursor moves > backwards - and the typing is not intuitive at all. So how about switching to > something that I have used for years without fail. I also have something for > windows if you want - I can forward the links, softwares, etc. Remember, it > is a typing tool - works on editors, mail clients and browsers across board - > and not a tranliterator - even though it works transliterationally - on an > English keyboard. > > cheers > ravikant > > > > गुरुवार 18 दिसम्बर 2008 08:16 को, indigene ने लिखा था: > >> Ravikant...I don't know which transcription tool you have been using but >> it doesn't look like doing a great job. >> >> Have you tried out Lipikaar ? >> >> Ravikant wrote: >> >>> Date: बुधवार 17 दिसम्बर 2008 21:39 >>> From: "sachida nand jha" >>> To: ravikant at sarai.net >>> >>> विचार गोष्ठी >>> >>> इक्कीसवीँ सदी में हिन्दी का भविष्य >>> >>> वक्ता: रमाकांत अग्निहोत्री >>> कृष्ण कुमार >>> हरीश त्रिवेदी >>> >>> स्थान: जुबिली हॉल, मॉल रोड >>> दिल्ली विश्वविद्यालय >>> >>> समय: छ: बजे >>> शाम शुक्रवार ( उन्नीस दिसम्बर दो हज़ार आठ) >>> >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at mail.sarai.net >>> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >>> From rakesh at sarai.net Fri Dec 19 12:26:32 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Fri, 19 Dec 2008 12:26:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSh4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSj4KWA4KSc4KWAIOCklOCksCDgpIXgpKjgpLLgpYngpKvgpYHgpLIg4KSQ?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KS/4KS14KS/4KSf4KS/4KSc4KS8ICjgpKrgpY3gpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSC4KS24KSoKSDgpIXgpK7gpYfgpILgpKHgpK7gpYfgpILgpJ8g?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSyIDIwMDg=?= Message-ID: <494B45A0.90008@sarai.net> आडवाणीजी और अनलॉफुल ऐक्‍िविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 लोकसभा चैनल पर चर्चा देख रहा हूं. थोड़ी देर पहले गृह मंत्री पी चितंबरम महोदय ने 'नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी बिल 2008 ऐंड अनलॉफुल ऐक्टिविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 पेश किया था और दोनों ही प्रस्‍तावित कानूनों के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को सदन के सामने रेखांकित किया था. उसके बाद सदन के अध्‍यक्ष ने विपक्ष के नेता लालकृष्‍ण आडवाणी को इस प्रस्‍ताव पर चर्चा आगे बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया. आडवाणीजी 20 मिनट से ज्यादा बोल चुके हैं लेकिन अब तक गृह मंत्री द्वारा पेश किए गए बिल से अपनी 'सैद्धांतिक सहमति' जताने के अलावा कुछ नहीं बोला है उन्‍होंने. 20-25 मिनट से पकाए जा रहे हैं. कहे जा रहे हैं कि किस तरह दस साल पहले ही उन्‍होंने आतंकवाद से निपटने के रास्‍ते ढूंढ लिया था. उन्‍होंने मौजूदा सरकार को दृष्टिहीन बताया, ये भी बताया कि सरकार की निंद देर से खुली है. पता नहीं क्‍या-क्‍या बोला आडवाणीजी ने. सुनकर किसी भी क्षण ऐसा नहीं लगा कि उनकी किसी भी बात से कोई संदेश मिलेगा इस देश को. कितने स्‍वार्थी हैं आडवाणीजी. जो बोलते हैं वोट की दृष्टि से ही बोलते हैं. पता है कि देश के लोग देख रहे हैं, अच्‍छा मौक़ा है रिझाने का; सो रिझाने लगे. गृहमंत्री द्वारा पेश किए गए दोनों विधेयकों में क्या-क्‍या है या होगा: अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. इससे पहले भी आते रहे हैं ऐसे विधेयक, बनते रहे हैं क़ानून और इक्‍के-दुक्‍के मामलों को छोड़कर कमज़ोर लोगों पर इन क़ानूनों के तहत अत्‍याचार किया जाता रहा है. मतलब ये कि थोड़ा घटा-बढा कर फिर कोई टाडा या पोटा आ जाएगा जिसे अख़बार और टेलीविज़न वाले बता देंगे. अन्‍यथा कई अन्‍य स्रोतों से पता चल जाएगा. हम विश्‍लेषण कर लेंगे कि दोनों विधेयकों में आतंकवाद को रोकने की कूवत है या नहीं, कहीं ये विधेयक हमारे बुनियानी आजादी तो नहीं छीन लेंगे, या किसी धर्म, जाति, रंग या किसी अन्‍य मसलों से प्रेरित तो नहीं हैं ये विधेयक, आदि-आदि. पर आडवाणीजी ने जो कहा, उनमें इन विधेयकों पर उनकी राय के अलावा अपने आप को आतंकवाद का चैंपियन बताने के अलावा उन्‍होंने कुछ नहीं कहा्. आज आडवाणीजी को सुनकर लगा कि ये आदमी आठ दशक जी लेने के बाद भी बचकानी हरकते ख़ूब करता है. जैसे बच्‍चे झूठ बोलते हैं, गाल बजाते हैं, बात-बात पर अपनी राय और पोजिशन बदलते हैं, चीखने-चिल्‍लाने लगते है, छाव धरते हैं, इतराते हैं, अगराते हैं, डराते हैं, धमकाते हैं, पैर पटकते हैं, नाक-भौं चमकात हैं, आदि-आदि; लालकृष्‍ण आडवाणी को सुनकर लगा कि इनके स्‍वभाव में ये सारे लक्ष्‍ण प्रचूर मात्रा में मौजूद है. शाम तक शायद ये दोनों विधेयक पारित हो जाएं. मुझ जैसे एक टैक्‍सपेयर को उस वक्‍़त बड़ी खुशी होगी जब इन विधेयकों के क़ानून बन जाने के बाद इनके तहत सबसे पहले आडवाणीजी पर क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी. शायद इन क़ानूनों के तहत कार्रवाई के लिए इनके मुक़ाबले का योग्‍य पात्र कम ही मिल पाएगा. सन् 92 में इन्‍होंने देश भर से नौजवानों को बरगला कर उत्तरप्रदेश के फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्‍या नामक क़सबे में इकट्ठा किया. इस क्रम में जगह-जगह अयोध्‍या पहुंचने वालों की हुड़दंगी कार्रवाइयों से लाखों का नुकसान हुआ. इतना ही नहीं लालकृष्‍ण की अगुवाई में 6 दिसंबर को इन लोगों ने भारतीय पुरातत्त्व के नज़रिए से बेहद महत्त्वपूर्ण इमारत को ढाह दिया दिया. आडवाणीजी के नेतृत्‍व में देश भर में सिर पर केसरिया पट्टी बांधे लोग सरेआम अस्‍त्र-शस्‍त्र लेकर नाचते रहे. न जाने कितनी हत्‍याएं हुईं, कितने घर और अस्‍मत लुटे उस दौरान और उसके बाद; इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हैं. क्‍या इतना संगठित अपराध और उसका नेतृत्‍व करना आतंकवादी कार्रवाई नहीं है? अपने हिसाब से तो है. है तो आडवाणीजी फिट पात्र हैं इसके तहत बुक करने के लिए. ये आडवाणीजी न केवल आतंकवादी हैं, बल्कि शायद देशद्रोही भी हैं. संविधान के मुताबिक़ हमारे देश का नाम भारत और इंडिया है. वैसे तो यहां-वहां बोलते ही रहते हैं लेकिन आज लोक सभा में अपने भाषण के दौरान भी कम से कम एक दर्जन से ज्‍़यादा बार आडवाणीजी ने हिन्‍दुस्‍थान उच्‍चारित करके हमारे देश के संविधान का न केवल उल्‍लंघन किया बल्कि कलंकित भी किया. हमारी ये बदकिस्‍मती है कि जिस सख्‍़श को आतंकवादी और देशद्रोही कार्रवाइयों के लिए सलाखों के पीछे होना चाहिए था आज संसद में बैठकर हमारे लिए क़ानून बना रहा है और कल प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है. From vineetdu at gmail.com Fri Dec 19 12:28:07 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 19 Dec 2008 12:28:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS4IOCksg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSV4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLDgpKwg4KSm4KS/4KSWIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSP?= Message-ID: <829019b0812182258w18924fadj39499ee518fcb222@mail.gmail.com> अब कोई पूछे कि कब शादी कर रहे हो, तब देखिए कि कैसे एकदम से जबाब देते हैं। सीधे बोलेंगे- जिस दिन किसी लड़की में रब दिख जाएगा, उस दिन कर लेंगे। अब तो इ भी झंझट खत्म हो गया कि जब बाबूजी खिदरचक में कोई लड़की देखें और इधर दिल्ली में ही किसी लड़की से मामला चल रहा है तो क्या बोलकर मना करें। सीधा-सीधी जबाब होगा- बाबूजी, लड़की में कोई ऐब नहीं है। मेरा मन भी भर जाएगा और आपका पाकिट भी। बाकी हमको लड़की में एक बार भी रब नहीं दिखा। अब आप ही बताइए, जिस लड़की में एक भी बार रब दिखे ही नहीं, उससे शादी कैसे कर लें। सच पूछिए तो इ फिलिम रब ने बना दी जोड़ी ने हम जैसे लाखों लड़कों के झंझट को हर लिया। ऐसे ही चोपड़ा बैनर का नाम नहीं है। औऱ उसको देखिए, बिसेसरा को। एक दिन रोहिणी दवाई लेने जाता है तो दूसरे दिन मुनिरका में किताबों पर जिल्द चढ़वाने। दिन खेपने के लिए तो ठीक है कि आदमी दिल्ली के हर कोने में एक लेडिस को बझा के रखे, बाकी शादी के समय तो कन्फ्यूजन तो होगा ही न। इ सिनेमा से ट्रिक मिल गया कि, जिस दिन लगे कि फाइनली हमको शादी करना है, उस दिन हाथ-मुंह धोओ औऱ बस लगा लो ध्यान। एकदम से किलियर हो जाएगा कि किसमें तुमको रब दिख रहा है। रब ने बना दी जोड़ी का ये मुहावरा कि हमको उसमें रब दिखता है, पॉपुलर हो चला है। पोल्टू दा इसे प्रोपोज करने का तोड़ मानते हैं। उनका साफ कहना है कि-जाकर सीधा बोलेगें, हमको तुममे रब दिखने लगा है तो हम क्या करें। जब उपर वाले को तुम्हारे हां या न कि चिंता नहीं है तो फिर हम कौन होते हैं कि उसमें टांग फंसाएं। चदू जो अपने बारे में बताता है कि उसके गांव में लड़की-औरत सब लखैरा कहती है़। लखैरा माने लड़कियों को गलत नजर से देखनेवाला औऱ वो भी सिर्फ बाहर की लड़कियों को नहीं। घर ही में भाभी और हम उम्र की चाचियों को बोडिस का हुक फंसाते हुए देखनेवाला। सच मानिए तो इ सिनेमा फिर से उमरदराज लड़कियों, औरत के प्रति अट्रेक्शन पैदा करता है। एगो तानी पर चार गो प्रियंका चोपड़ा भारी पडेंगी। लेकिन इ बात से एकदम पसंद नहीं आया कि सबकुछ राज से हुआ औऱ अंत में आउटडेटड बुढउ पंजाब पावर हाउस का सुरेन्द्र साहनी ही पसंद आया। हीतेश बाबू एकदम से तड़क गए- फिल्म बना रहे हो, ठीक कर रहे हो लेकि ये क्या है कि तुम अपनी ऑडियोलॉजी झोंक दो। अब बताइए- अंधा भी रहेगा तो तानी का डॉयलॉग डिलवरी से समझ जाएगा कि वो लाइडिंग योर लाइफ करनेवाले सुरेन्द्र को न पसंद करके राज को पसंद करती है। लेकिन भाई पैसा लगाए हैं चोपड़ा साहब तो दिमागी तौर पर ऑडिएंस को गुलाम तो बनाना चाहेंगे। शाहरुख को पहले तो पढ़ाकू के नाम पर कार्टून बना दिया। आए कोई डीयू, जेएनयू या जादे नहीं तो मुजफ्फरपुर का लंगट कॉलेज, क्या टॉपर लोग ऐसा ही होता है। पढ़ने में तेज-तर्रार होनेवाले को चंपू जैसा दिखाना हीतेश बाबू को खल गया। बाकी एक काम समझदारी का शुरुए में कर दिया है कि तानी का मास्टर बाप पांचे मिनट के शॉट में अपनी बेटी का हाथ कॉलेज के टॉपर के हाथ में सौंपकर चला गया। सही कहते हैं शुक्लाजी कि तुम जैसे होनहार को लड़की पसंद करे चाहे नहीं करे लेकिन लड़की का बाप जरुर पसंद करेगा। इसलिए बस जमे रहो, अभी भी देश में लाखों लड़कियां है जो हैप होते हुए भी, अल्ट्रा मार्डन होते हुए भी शादी अपने मां-बाप की मर्जी से ही करती है। बचपन में उसके बाप के हाथ से कैडवरी और नूडल्स खाने का असर संस्कार के रुप में बचा रहता है। इसलिए लव मैरेज न सही, एरेंज में ही समाज में साथ ले जाकर जाने लायक पत्नी मिल जाएगी। तानी को हल्के में ले रहे हो। जब तक विपत्ति औऱ बाप के गम में रही तब रही लेकिन जैसे ही डांसवाला शौक शुरु हुआ तो देखो कैसे श्यामक डावर ने बेजोड़ कोरियोग्राफी करवा ली। और फिर हम तो साफ कहते हैं कि जो मजा अरेंज मैरेज में है, वो मजा टक्का-पचीसी करके करने में नहीं है। कुंदन बाबू दम ठोककर बोले। बैठके हिसाब लगाइए कि आपलोगों में से किसकी इमेज ऐसी है कि प्रोफेसर अपनी बेटी का हाथ आपको सौंप जाए। कोई जरुरी नहीं कि मर ही जाए, विदेश चला जाए विजिटिंग फैलो बनकर. इतना कामना तो कर ही सकते हैं। अच्छा इस बात पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि जोड़ी कितनी भी पुरानी क्यों न हो, अगर अहसास है तो लगेगा कि सीधे मंडप से उठकर आए हैं और एक बार भर जी पत्नी का मुंह देखने का मन कर रहा है। आप भूल जाएंगे कि आपकी पत्नी से हल्दी का बास, मसाले की गंध और तेजपत्ता का झरझरा सुगंध आता है। इस हिसाब से कहिए तो मिश्राजी जिसके भी वैवाहिक जीवन में फीरिक्शन पैदा हो गया हो, जिसको लगता है कि वो घर तब पहुचे जब पत्नी सो जाए तो उसको एक बार फिर से शादी में जिंदगी का मतलब समझ में आएगा। वो भूल जाएगा कि शादी में सिर्फ किच-किच ही नहीं शिरी-फरहाद के एहसास तक पहुंच जाने की ताकत भी है। *इसी भसोड़ी के बीच मेरे मोबाइल पर फ्लैश होता है- ब्रेकिंग न्यूज, पटेल हैज गॉट मैरेड एंड बी आर इन द पोजीशन, स्टिल शेकिंग स्टिल मूविंग।...आगे कल* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081219/6ff6901e/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Dec 19 12:31:27 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 19 Dec 2008 12:31:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS4IOCksg==?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KSV4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLDgpKwg4KSm4KS/4KSWIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSP?= Message-ID: <829019b0812182301g740eebfes9e68697a908c02a1@mail.gmail.com> अब कोई पूछे कि कब शादी कर रहे हो, तब देखिए कि कैसे एकदम से जबाब देते हैं। सीधे बोलेंगे- जिस दिन किसी लड़की में रब दिख जाएगा, उस दिन कर लेंगे। अब तो इ भी झंझट खत्म हो गया कि जब बाबूजी खिदरचक में कोई लड़की देखें और इधर दिल्ली में ही किसी लड़की से मामला चल रहा है तो क्या बोलकर मना करें। सीधा-सीधी जबाब होगा- बाबूजी, लड़की में कोई ऐब नहीं है। मेरा मन भी भर जाएगा और आपका पाकिट भी। बाकी हमको लड़की में एक बार भी रब नहीं दिखा। अब आप ही बताइए, जिस लड़की में एक भी बार रब दिखे ही नहीं, उससे शादी कैसे कर लें। सच पूछिए तो इ फिलिम रब ने बना दी जोड़ी ने हम जैसे लाखों लड़कों के झंझट को हर लिया। ऐसे ही चोपड़ा बैनर का नाम नहीं है। औऱ उसको देखिए, बिसेसरा को। एक दिन रोहिणी दवाई लेने जाता है तो दूसरे दिन मुनिरका में किताबों पर जिल्द चढ़वाने। दिन खेपने के लिए तो ठीक है कि आदमी दिल्ली के हर कोने में एक लेडिस को बझा के रखे, बाकी शादी के समय तो कन्फ्यूजन तो होगा ही न। इ सिनेमा से ट्रिक मिल गया कि, जिस दिन लगे कि फाइनली हमको शादी करना है, उस दिन हाथ-मुंह धोओ औऱ बस लगा लो ध्यान। एकदम से किलियर हो जाएगा कि किसमें तुमको रब दिख रहा है। रब ने बना दी जोड़ी का ये मुहावरा कि हमको उसमें रब दिखता है, पॉपुलर हो चला है। पोल्टू दा इसे प्रोपोज करने का तोड़ मानते हैं। उनका साफ कहना है कि-जाकर सीधा बोलेगें, हमको तुममे रब दिखने लगा है तो हम क्या करें। जब उपर वाले को तुम्हारे हां या न कि चिंता नहीं है तो फिर हम कौन होते हैं कि उसमें टांग फंसाएं। चदू जो अपने बारे में बताता है कि उसके गांव में लड़की-औरत सब लखैरा कहती है़। लखैरा माने लड़कियों को गलत नजर से देखनेवाला औऱ वो भी सिर्फ बाहर की लड़कियों को नहीं। घर ही में भाभी और हम उम्र की चाचियों को बोडिस का हुक फंसाते हुए देखनेवाला। सच मानिए तो इ सिनेमा फिर से उमरदराज लड़कियों, औरत के प्रति अट्रेक्शन पैदा करता है। एगो तानी पर चार गो प्रियंका चोपड़ा भारी पडेंगी। लेकिन इ बात से एकदम पसंद नहीं आया कि सबकुछ राज से हुआ औऱ अंत में आउटडेटड बुढउ पंजाब पावर हाउस का सुरेन्द्र साहनी ही पसंद आया। हीतेश बाबू एकदम से तड़क गए- फिल्म बना रहे हो, ठीक कर रहे हो लेकि ये क्या है कि तुम अपनी ऑडियोलॉजी झोंक दो। अब बताइए- अंधा भी रहेगा तो तानी का डॉयलॉग डिलवरी से समझ जाएगा कि वो लाइडिंग योर लाइफ करनेवाले सुरेन्द्र को न पसंद करके राज को पसंद करती है। लेकिन भाई पैसा लगाए हैं चोपड़ा साहब तो दिमागी तौर पर ऑडिएंस को गुलाम तो बनाना चाहेंगे। शाहरुख को पहले तो पढ़ाकू के नाम पर कार्टून बना दिया। आए कोई डीयू, जेएनयू या जादे नहीं तो मुजफ्फरपुर का लंगट कॉलेज, क्या टॉपर लोग ऐसा ही होता है। पढ़ने में तेज-तर्रार होनेवाले को चंपू जैसा दिखाना हीतेश बाबू को खल गया। बाकी एक काम समझदारी का शुरुए में कर दिया है कि तानी का मास्टर बाप पांचे मिनट के शॉट में अपनी बेटी का हाथ कॉलेज के टॉपर के हाथ में सौंपकर चला गया। सही कहते हैं शुक्लाजी कि तुम जैसे होनहार को लड़की पसंद करे चाहे नहीं करे लेकिन लड़की का बाप जरुर पसंद करेगा। इसलिए बस जमे रहो, अभी भी देश में लाखों लड़कियां है जो हैप होते हुए भी, अल्ट्रा मार्डन होते हुए भी शादी अपने मां-बाप की मर्जी से ही करती है। बचपन में उसके बाप के हाथ से कैडवरी और नूडल्स खाने का असर संस्कार के रुप में बचा रहता है। इसलिए लव मैरेज न सही, एरेंज में ही समाज में साथ ले जाकर जाने लायक पत्नी मिल जाएगी। तानी को हल्के में ले रहे हो। जब तक विपत्ति औऱ बाप के गम में रही तब रही लेकिन जैसे ही डांसवाला शौक शुरु हुआ तो देखो कैसे श्यामक डावर ने बेजोड़ कोरियोग्राफी करवा ली। और फिर हम तो साफ कहते हैं कि जो मजा अरेंज मैरेज में है, वो मजा टक्का-पचीसी करके करने में नहीं है। कुंदन बाबू दम ठोककर बोले। बैठके हिसाब लगाइए कि आपलोगों में से किसकी इमेज ऐसी है कि प्रोफेसर अपनी बेटी का हाथ आपको सौंप जाए। कोई जरुरी नहीं कि मर ही जाए, विदेश चला जाए विजिटिंग फैलो बनकर. इतना कामना तो कर ही सकते हैं। अच्छा इस बात पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि जोड़ी कितनी भी पुरानी क्यों न हो, अगर अहसास है तो लगेगा कि सीधे मंडप से उठकर आए हैं और एक बार भर जी पत्नी का मुंह देखने का मन कर रहा है। आप भूल जाएंगे कि आपकी पत्नी से हल्दी का बास, मसाले की गंध और तेजपत्ता का झरझरा सुगंध आता है। इस हिसाब से कहिए तो मिश्राजी जिसके भी वैवाहिक जीवन में फीरिक्शन पैदा हो गया हो, जिसको लगता है कि वो घर तब पहुचे जब पत्नी सो जाए तो उसको एक बार फिर से शादी में जिंदगी का मतलब समझ में आएगा। वो भूल जाएगा कि शादी में सिर्फ किच-किच ही नहीं शिरी-फरहाद के एहसास तक पहुंच जाने की ताकत भी है। *इसी भसोड़ी के बीच मेरे मोबाइल पर फ्लैश होता है- ब्रेकिंग न्यूज, पटेल हैज गॉट मैरेड एंड बी आर इन द पोजीशन, स्टिल शेकिंग स्टिल मूविंग।...आगे कल* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081219/b01a6258/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Dec 19 13:09:48 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 19 Dec 2008 13:09:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: game without theory Message-ID: <200812191309.48349.ravikant@sarai.net> शुक्रिया कविवर! पेश हैं पुराने जूतो के न‌ए कोरस, मज़े लें. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: game without theory Date: शुक्रवार 19 दिसम्बर 2008 01:33 From: Mohan Rana To: undisclosed-recipients:; http://blog.wired.com/underwire/2008/12/bush-shoe-toss.html http://play.sockandawe.com/ http://bushbash.flashgressive.de/ ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Fri Dec 19 14:23:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 19 Dec 2008 14:23:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKvgpLw=?= =?utf-8?b?4KS+4KSv4KSw4KSr4KS84KWJ4KSV4KWN4KS4IOCkueCkv+CkqOCljeCkpg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpJbgpKzgpLA=?= Message-ID: <200812191423.13035.ravikant@sarai.net> ख़बर विस्तार से देने के लिए शुक्रिया राजेश. और यह संभव करने के लिए बधाइयों के साथ. रविकान्त http://thatshindi.oneindia.in/news/2008/12/19/mozilla-firefoex-hindi.html फ़ायरफ़ॉक्स को आधिकारिक तौर पर हिन्दी में रिलीज कर दिया गया है। सारी दुनिया में तेजी से लो कप्रिय हो रहे इस वेब ब्राउजर के हिन्दी संस्करण पर बीते करीब तीन बरस से काम चल रहा था। सबसे अहम बात यह है कि हिन्दी फ़ायरफ़ॉक्स का रिलीज भारतीय भाषाओं में फ़ायरफ़ॉक्स का पहला रि लीज होगा। इस संस्करण के लिए व्यापक समीक्षा कार्यशाला का आयोजन दिल्ली स्थित संस्था सराय की ओर से इस साल मार्च में किया गया था। फायरफाक्स के हिन्दी को-आर्डीनेटर राजेश रंजन ने बताया कि पिछले तीन सालों के दौरान हम कई प्रक्रियागत समस्याओं के बीच जूझते रहे, मगर इधर पाँच-छह महीनों से मोज़िला अपस्ट्रीम डेवलेपरों की भारतीय भाषाओं में रूझान व प्रयास की बढ़ोतरी की वजह से इस काम में तेजी आ सकी और हिन्दी संस्करण औपचारिक तौर पर बाजार में आ गया। रंजन ने बताया हालाँकि रिलीज में कुछ देर हुई है, लेकिन यह काफी दुरूस्त होकर आई है। लोकलाइजेशन के लिए महत्वपूर्ण काम करने वाली इंडलिनक्स ने भी इसमें सहयोग किया था। फिर फ़्यूल मूल्यांकन सम्मेलन में भी इसके मेन्यू-उपमेन्यू पर भी विस्तार से चर्चा की गई और इसे तराशा गया। इसे बीटा स्थिति से पहली बार आधिकारिक अऩुवाद के तौर पर मोज़िला की ओर से जारी किया गया है। यह आधिकारिक रिलीज लिनक्स, विंडोज़, और मैक तीनों प्लेटफॉर्मों के लिए उपलब्ध है और डाउनलोड कर उसे हिन्दी के उपयोक्ता लाभ ले सकते हैं। यहां बता दें कि फ़ायरफ़ॉक्स मुक्त स्रोत का सबसे लोकप्रिय ब्राउज़र है लेकिन इसके उपयोक्ताओं के काफी बड़ी संख्या विंडोज़ व मैक के प्लेटफार्म से भी है। दिसंबर 19, 2008 की अन्यखबरें ------------------------------------------------------- From rajeshkajha at yahoo.com Fri Dec 19 14:55:39 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Fri, 19 Dec 2008 01:25:39 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKvgpLw=?= =?utf-8?b?4KS+4KSv4KSw4KSr4KS84KWJ4KSV4KWN4KS4IOCkueCkv+CkqOCljeCkpg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClgCDgpJbgpKzgpLA=?= In-Reply-To: <200812191423.13035.ravikant@sarai.net> Message-ID: <357702.19207.qm@web52906.mail.re2.yahoo.com> एओएल पर भी देखें, http://www.aol.in/hindi/news/2008/12/19/mozilla-firefoex-hindi.html और प्रभासाक्षी पर भी, http://www.prabhasakshi.com/ShowArticle.aspx?ArticleId=081219-131607-080000 regards, -------------- Rajesh Ranjan    Kramashah --- On Fri, 12/19/08, Ravikant wrote: From: Ravikant Subject: [दीवान]Fwd: फ़ायरफ़ॉक्स हिन्दी की खबर To: deewan at sarai.net Date: Friday, December 19, 2008, 2:23 PM ख़बर विस्तार से देने के लिए शुक्रिया राजेश. और यह संभव करने के लिए बधाइयों के साथ. रविकान्त http://thatshindi.oneindia.in/news/2008/12/19/mozilla-firefoex-hindi.html फ़ायरफ़ॉक्स को आधिकारिक तौर पर हिन्दी में रिलीज कर दिया गया है। सारी दुनिया में तेजी से लो कप्रिय हो रहे इस वेब ब्राउजर के हिन्दी संस्करण पर बीते करीब तीन बरस से काम चल रहा था। सबसे अहम बात यह है कि हिन्दी फ़ायरफ़ॉक्स का रिलीज भारतीय भाषाओं में फ़ायरफ़ॉक्स का पहला रि लीज होगा। इस संस्करण के लिए व्यापक समीक्षा कार्यशाला का आयोजन दिल्ली स्थित संस्था सराय की ओर से इस साल मार्च में किया गया था। फायरफाक्स के हिन्दी को-आर्डीनेटर राजेश रंजन ने बताया कि पिछले तीन सालों के दौरान हम कई प्रक्रियागत समस्याओं के बीच जूझते रहे, मगर इधर पाँच-छह महीनों से मोज़िला अपस्ट्रीम डेवलेपरों की भारतीय भाषाओं में रूझान व प्रयास की बढ़ोतरी की वजह से इस काम में तेजी आ सकी और हिन्दी संस्करण औपचारिक तौर पर बाजार में आ गया। रंजन ने बताया हालाँकि रिलीज में कुछ देर हुई है, लेकिन यह काफी दुरूस्त होकर आई है। लोकलाइजेशन के लिए महत्वपूर्ण काम करने वाली इंडलिनक्स ने भी इसमें सहयोग किया था। फिर फ़्यूल मूल्यांकन सम्मेलन में भी इसके मेन्यू-उपमेन्यू पर भी विस्तार से चर्चा की गई और इसे तराशा गया। इसे बीटा स्थिति से पहली बार आधिकारिक अऩुवाद के तौर पर मोज़िला की ओर से जारी किया गया है। यह आधिकारिक रिलीज लिनक्स, विंडोज़, और मैक तीनों प्लेटफॉर्मों के लिए उपलब्ध है और डाउनलोड कर उसे हिन्दी के उपयोक्ता लाभ ले सकते हैं। यहां बता दें कि फ़ायरफ़ॉक्स मुक्त स्रोत का सबसे लोकप्रिय ब्राउज़र है लेकिन इसके उपयोक्ताओं के काफी बड़ी संख्या विंडोज़ व मैक के प्लेटफार्म से भी है। दिसंबर 19, 2008 की अन्यखबरें ------------------------------------------------------- _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081219/23d59bf7/attachment-0001.html From v1clist at yahoo.co.uk Sun Dec 21 08:52:25 2008 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Sun, 21 Dec 2008 03:22:25 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSh4KS14KS+?= =?utf-8?b?4KSj4KWA4KSc4KWAIOCklOCksCDgpIXgpKjgpLLgpYngpKvgpYHgpLIg4KSQ?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KS/4KS14KS/4KSf4KS/4KSc4KS8ICjgpKrgpY3gpLDgpL8=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSC4KS24KSoKSDgpIXgpK7gpYfgpILgpKHgpK7gpYfgpILgpJ8g?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSyIDIwMDg=?= References: <494B45A0.90008@sarai.net> Message-ID: <897340.90165.qm@web26605.mail.ukl.yahoo.com> अनलॉफुल ऐक्‍िविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 कहा पडा जा सकता है? धनय़वाद Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ________________________________ From: Rakesh Kumar Singh To: deewan at sarai.net; rakeshjee at gmail.com Sent: Friday, 19 December, 2008 12:26:32 Subject: [दीवान]आडवाणीजी और अनलॉफुल ऐक्‍िविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 आडवाणीजी और अनलॉफुल ऐक्‍िविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 लोकसभा चैनल पर चर्चा देख रहा हूं. थोड़ी देर पहले गृह मंत्री पी चितंबरम महोदय ने 'नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी बिल 2008 ऐंड अनलॉफुल ऐक्टिविटिज़ (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल 2008 पेश किया था और दोनों ही प्रस्‍तावित कानूनों के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को सदन के सामने रेखांकित किया था. उसके बाद सदन के अध्‍यक्ष ने विपक्ष के नेता लालकृष्‍ण आडवाणी को इस प्रस्‍ताव पर चर्चा आगे बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया. आडवाणीजी 20 मिनट से ज्यादा बोल चुके हैं लेकिन अब तक गृह मंत्री द्वारा पेश किए गए बिल से अपनी 'सैद्धांतिक सहमति' जताने के अलावा कुछ नहीं बोला है उन्‍होंने. 20-25 मिनट से पकाए जा रहे हैं. कहे जा रहे हैं कि किस तरह दस साल पहले ही उन्‍होंने आतंकवाद से निपटने के रास्‍ते ढूंढ लिया था. उन्‍होंने मौजूदा सरकार को दृष्टिहीन बताया, ये भी बताया कि सरकार की निंद देर से खुली है. पता नहीं क्‍या-क्‍या बोला आडवाणीजी ने. सुनकर किसी भी क्षण ऐसा नहीं लगा कि उनकी किसी भी बात से कोई संदेश मिलेगा इस देश को. कितने स्‍वार्थी हैं आडवाणीजी. जो बोलते हैं वोट की दृष्टि से ही बोलते हैं. पता है कि देश के लोग देख रहे हैं, अच्‍छा मौक़ा है रिझाने का; सो रिझाने लगे. गृहमंत्री द्वारा पेश किए गए दोनों विधेयकों में क्या-क्‍या है या होगा: अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. इससे पहले भी आते रहे हैं ऐसे विधेयक, बनते रहे हैं क़ानून और इक्‍के-दुक्‍के मामलों को छोड़कर कमज़ोर लोगों पर इन क़ानूनों के तहत अत्‍याचार किया जाता रहा है. मतलब ये कि थोड़ा घटा-बढा कर फिर कोई टाडा या पोटा आ जाएगा जिसे अख़बार और टेलीविज़न वाले बता देंगे. अन्‍यथा कई अन्‍य स्रोतों से पता चल जाएगा. हम विश्‍लेषण कर लेंगे कि दोनों विधेयकों में आतंकवाद को रोकने की कूवत है या नहीं, कहीं ये विधेयक हमारे बुनियानी आजादी तो नहीं छीन लेंगे, या किसी धर्म, जाति, रंग या किसी अन्‍य मसलों से प्रेरित तो नहीं हैं ये विधेयक, आदि-आदि. पर आडवाणीजी ने जो कहा, उनमें इन विधेयकों पर उनकी राय के अलावा अपने आप को आतंकवाद का चैंपियन बताने के अलावा उन्‍होंने कुछ नहीं कहा्. आज आडवाणीजी को सुनकर लगा कि ये आदमी आठ दशक जी लेने के बाद भी बचकानी हरकते ख़ूब करता है. जैसे बच्‍चे झूठ बोलते हैं, गाल बजाते हैं, बात-बात पर अपनी राय और पोजिशन बदलते हैं, चीखने-चिल्‍लाने लगते है, छाव धरते हैं, इतराते हैं, अगराते हैं, डराते हैं, धमकाते हैं, पैर पटकते हैं, नाक-भौं चमकात हैं, आदि-आदि; लालकृष्‍ण आडवाणी को सुनकर लगा कि इनके स्‍वभाव में ये सारे लक्ष्‍ण प्रचूर मात्रा में मौजूद है. शाम तक शायद ये दोनों विधेयक पारित हो जाएं. मुझ जैसे एक टैक्‍सपेयर को उस वक्‍़त बड़ी खुशी होगी जब इन विधेयकों के क़ानून बन जाने के बाद इनके तहत सबसे पहले आडवाणीजी पर क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी. शायद इन क़ानूनों के तहत कार्रवाई के लिए इनके मुक़ाबले का योग्‍य पात्र कम ही मिल पाएगा. सन् 92 में इन्‍होंने देश भर से नौजवानों को बरगला कर उत्तरप्रदेश के फ़ैज़ाबाद जिले के अयोध्‍या नामक क़सबे में इकट्ठा किया. इस क्रम में जगह-जगह अयोध्‍या पहुंचने वालों की हुड़दंगी कार्रवाइयों से लाखों का नुकसान हुआ. इतना ही नहीं लालकृष्‍ण की अगुवाई में 6 दिसंबर को इन लोगों ने भारतीय पुरातत्त्व के नज़रिए से बेहद महत्त्वपूर्ण इमारत को ढाह दिया दिया. आडवाणीजी के नेतृत्‍व में देश भर में सिर पर केसरिया पट्टी बांधे लोग सरेआम अस्‍त्र-शस्‍त्र लेकर नाचते रहे. न जाने कितनी हत्‍याएं हुईं, कितने घर और अस्‍मत लुटे उस दौरान और उसके बाद; इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हैं. क्‍या इतना संगठित अपराध और उसका नेतृत्‍व करना आतंकवादी कार्रवाई नहीं है? अपने हिसाब से तो है. है तो आडवाणीजी फिट पात्र हैं इसके तहत बुक करने के लिए. ये आडवाणीजी न केवल आतंकवादी हैं, बल्कि शायद देशद्रोही भी हैं. संविधान के मुताबिक़ हमारे देश का नाम भारत और इंडिया है. वैसे तो यहां-वहां बोलते ही रहते हैं लेकिन आज लोक सभा में अपने भाषण के दौरान भी कम से कम एक दर्जन से ज्‍़यादा बार आडवाणीजी ने हिन्‍दुस्‍थान उच्‍चारित करके हमारे देश के संविधान का न केवल उल्‍लंघन किया बल्कि कलंकित भी किया. हमारी ये बदकिस्‍मती है कि जिस सख्‍़श को आतंकवादी और देशद्रोही कार्रवाइयों के लिए सलाखों के पीछे होना चाहिए था आज संसद में बैठकर हमारे लिए क़ानून बना रहा है और कल प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है. _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081221/9db3072d/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Wed Dec 24 17:23:57 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Dec 2008 17:23:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleClhyDgpJXgpIngpIYgKCDgpLLgpJjgpYHgpJXgpKU=?= =?utf-8?b?4KS+ICkgLSDgpLDgpL7gpJzgpKjgpKjgpY3gpKbgpKg=?= Message-ID: <200812241723.58170.ravikant@sarai.net> अभी विजेन्दर ने अपने जनसत्ता के स्तंभ में ब्लॉग-जगत की बढ़ती भाषायी समृद्धि का ज़िक्र किया था. उसी सिलसिले में घूमते-फिरते भोजपुरी वेबसाइट भोजपत्र से साभार ..गोकि यह ब्लॉग नहीं है. http://www.bhojpatra.net/pathakrss.asp?a_id=112 रविकान्त दिल्ली के कउआ (लघुकथा) - राजनन्दन साहित्य विधा-वर्ग:: भोजपुरी कहानी विषय-वस्तु :: दिल्ली के कउआ (लघुकथा) किसुना कबूतर अपना खोंता में दू गो बच्चा आ आपन मेहरारू का संगे चंपारण के चंपा वन में रहत रहे। खों ता के रखवारी आ बच्चा लोगिन के संगहिरा के भार कबुत्तरी गउरी पर रहे आ ओह सभ प्राणी खातिर दाना-पानी जुटावे के भार असगरे किसुना पर। जिनगी के गाड़ी आराम से चलत रहे,पहिया के धुरी में कवनो महत्वकांक्षा के तेल भा चिकनाई के जरुरत कबो महसूश ना होखे। मगर समय-परिस्थिति केहु खातिर कबो एक जइसन ना रहेला,राजा-रंक,साधु-फ़कीर हर केउ के समय अजमावेला। हिमालय के नदियन में जब पानी भरे लागल त बिहार में भारी तबाही लेके बाढ़ आ गईल। किसान लोगि न के तइयार फसल,खेत-खरिहान आ सगरी धरती पानी में डूब गईल। लोग के घर-दुआर तक में पानी घुसि गईल त किसुना के भी दाना चुगे खातिर कवनो खाली धरती मिलल मुशकिल हो गईल। अब चार-चार जिउ खातिर दाना जुटावल किसुना पर भारी पड़े लागल। सरकार के तरफ से पशु-पक्षी खातिर जे राहत आ सहायता राशन गिरावल जात रहे,ओह में से ज्यादा हि स्सा आदमीय लोग हड़प के खा जात रहे। बाँचल-खोंचल आकाश के शेर कहावेवाला चील,बाज़,गिद्ध,कउआ आदि लोग झपटि लेत रहे। कबूत्तर,पंड़ुगी जइसन चिरई लोगिन के त चील, बाज़ जइसन पक्षियन से जानो-माल के खतरा रहेला एह से सरकारी राशन का तरफ एह चिरई लोगिन के देखहु के हिम्मत ना होखे। बड़ी मुसीबत,उपास आ बईठारी के समय आ गइल रहे। किसुना के एगो उपाय सूझल। काहे ना अन्हरा वन के सेठ उल्लूक महाजन से कुछ दाना आ रुपिया-पइसा सूद पर कारजा लेके बाल-बच्चा खातिर रखि दिहल जाव आ तवले बिहार से बाहर जहवाँ बाढ़-पानी के समसिया नइखे उहवाँ से दाना चुग के ले आवल जाव। आखिर ई समूचा भारत देश त अपने बा। कहवों से कहवों आवे-जाए,दाना-पानी कमाए के अख्तियार त भारत के सरकार समान रुप से सभनी के देलहीं बिया। आबहीं जाए में न तनी मेहनत परेशानी बा दाना त मिलीये जाई। इहे सभ बात सोंच विचारि के किसुना अन्हरा वन के सेठ उल्लूक महाजन से दुगुना ब्याज पर कारजा लेके रखि देलस आ बाल-बच्चा के ध्यान राखे खातिर आपन मेहरारू के समुझा-बुझा के आपन कुछ साथी-संघाती का संगे दाना-पानी के जोगाड़ मे दिल्ली के तरफ उड़ गईल। उड़ते-उड़ते जब नखलऊ(लखनऊ)से कुछ आगा चहुँपल त पशु-पक्षी के बोली,बात-वेवहार आ हवा-पानी में कि सुना के अंतर बुझाए लागल। कुछ पशु-पक्षी लोग के एह बात पर एतराजो रहे कि किसुना बिहार के कबूत्तर होके दिल्ली का तरफ काहे उड़ रहल बा। एह बात पर सबसे ज्यादा परेशानी कउआ लोगिन के रहे। काँव-काँव!...काँव-काँव!... दिल्ली पहुँचत-पहुँचत केतना कउआ किसुना आ ओकरा संघतिया लोगिन पर आपन चोंच अजमा दिहले रहे। खैर केहु तरे बिहार के कबूत्तर लोग दिल्ली चहुँपल। दिल्ली पहुँचि के एह लोगिन के पता चलल कि अगर इंहवा रहे के बा त कउआ लोगिन से दबिये के रहे के पड़ी। खोंता किराया पर मिलि जाई, आगे दाना-पानी खातिर मेहनत-मजूरी आ अवसर के कवनो कमी नईखे। जेतना जादा मेहनत ओतना जादा दाना इंहवा जुटावल जा सकत बा। मगर कउआ लोगिन के काँ व-काँव... ... मजबुरी बा सहल जाई। दिल्ली से पहिले बिहार में किसुना एक से एक धूर्त,चल्हाँक आ करिया-भूरिया कउआ देखले रहे मगर दिल्ली के कउआ ओह सभ पर बीस पड़त रहे। दिल्ली में किसुना के एगो आउर नया बात मालुम भईल कि दुनिया के सभ कउआ के रंग करिये ना होखे बलुक कुछ कउअन के रंग पठानी गोर भी होखेला। समय के साथ किसुना जब दिल्ली में रम-गम गईल, कुछ रुपिया-पइसा हाथ में आ गईल त उल्लूक सेठ के का रजा सधाके आपन मेहरारू,बच्चा सभनी के उड़ाके दिल्ली ले आइल। बचवन के नाम अंगरेजी इसकुल में लिखवा दिहल गइल आ सभे जनीं आराम से दिल्ली में रहे लागल। किसुना परिवार के देखि के दिल्ली के ढेर कउआ लोग काँव-काँव करे मगर बचवन सभ के पढे-लिखे, किसुना के दाना चुगे आ दिल्ली में एगो आपन खोंता किने से रोकल कवनो कउआ के कूवत भा वश में ना रहे। पाँच बरिस बीत गइल मगर किसुना के समुझ में ई बात ना आइल कि बिहार के कउआ सभ त खाली गी दड़,बिलाड,बिलाइ भा सँपनेउरीये के देखि के काँव-काँव करेला मगर ई दिल्ली के कउआ सभ कबूत्तर देखि के काहे चेंचिआला आ दुनिया के सभनी कबूत्तर के बिहारीये काहे बूझेला? आजुओ देखनीं ह दूगो यू.पी.वाला कबूत्तर के बच्चा इसकुल से लवटत देखि के पारक(पार्क)के बेंच पर बइठल दिल्ली के तीन-चा र गो बूढ़ कउआ करत रहलें ह काँव-काँव!... काँव-काँव!...काँव..!! बीच-बीच में हुँक्का के गुड़-गुड़ आ फेरु, काँव-काँव!... काँव-काँव!..काँव.. From vikalpmonthly at gmail.com Wed Dec 24 23:10:09 2008 From: vikalpmonthly at gmail.com (vikalp monthly) Date: Wed, 24 Dec 2008 23:10:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KWC?= =?utf-8?b?IOCkquCljeCksOCkuOCkvuCkpiDgpJXgpL4g4KSH4KSC4KSf4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWCICfgpIXgpKwg4KS54KSu4KS54KWC4KSCIOCkuOClgA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSv4KS4IOCkrOCkvuCkqOClgCc=?= Message-ID: <848082d10812240940i4421385crf754287ff8ebd365@mail.gmail.com> *24 नवंबर* को बिहार की नीतीश सरकार ने तीन साल पूरे किये हैं। इस मौके पर राज्‍य सरकार ने खुद ही अपना रिपोर्ट कार्ड जारी कर अपनी पीठ थपथपायी। उनके द्वारा शुरू किये गये 'अहो रूपम, अहो ध्‍वनि' अभियान में बिहारी मीडिया ने जमकर हिस्‍सा लिया। लेकिन 23 नवंबर की शाम को ही राजधानी पटना के प्रमुख नौकरशाहों, राजनेताओं के हाथों में अचानक आ पहुंची एक महज 22 पन्‍नों की पुस्तिका 'तीन साल, तेरह सवाल - विफलता की कहानी' ने रंग में भंग डाल दिया। नीतीश जी इस पुस्तिका में उठाये गये सवालों से इतना बौखला गये कि अपनी पार्टी के विधायक दल की बैठक में इसे अपने ही विधायकों की करतूत बता डाला और गुस्‍से में भर कर लगभग 10 मिनट तक बोलते रहे। बौखलाए नीतीश ने अपने विधायकों के बीच यह भी स्‍वीकार किया वह कोई आदर्श बिहार नहीं बना रहे। उन्‍होंने कहा 'हमसे ग‍लतियां हुईं हैं, लेकिन आप पिछले शासन को याद रखें'। जाहिर है यही बिहार के मध्‍यवर्ग तथा बिहारी मीडिया 'लालू फोबिया' है, जिसके बल पर नीतीश सत्‍ताशीन हुए हैं। इसी फोबिया ने बिहार में सामाजिक प्रतिक्रांति के लिए इच्‍छुक सामंती ताकतों का मार्ग इतना सुगम कर दिया है। बहरहाल, हम इस ब्‍लॉगपर 'तीन साल, तेरह सवाल' नामक पूरी पुस्तिका क्रमश दे रहे हैं। शुरूआत पुस्तिका के सबसे अंतिम पन्‍नों में दर्ज *लालू प्रसाद के इंटरव्यू* 'अब हमहूं सीरियस बानी' से. इस पुस्तिका से संबंधित अन्‍य पोस्‍ट यहां देंखें - http://sanshyatma.blogspot.com/ -- ........................................ - Pramod Ranjan. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081224/5409b56b/attachment-0002.html From vikalpmonthly at gmail.com Wed Dec 24 23:10:09 2008 From: vikalpmonthly at gmail.com (vikalp monthly) Date: Wed, 24 Dec 2008 23:10:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS+4KSy4KWC?= =?utf-8?b?IOCkquCljeCksOCkuOCkvuCkpiDgpJXgpL4g4KSH4KSC4KSf4KSw4KS1?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KWCICfgpIXgpKwg4KS54KSu4KS54KWC4KSCIOCkuOClgA==?= =?utf-8?b?4KSw4KS/4KSv4KS4IOCkrOCkvuCkqOClgCc=?= Message-ID: <848082d10812240940i4421385crf754287ff8ebd365@mail.gmail.com> *24 नवंबर* को बिहार की नीतीश सरकार ने तीन साल पूरे किये हैं। इस मौके पर राज्‍य सरकार ने खुद ही अपना रिपोर्ट कार्ड जारी कर अपनी पीठ थपथपायी। उनके द्वारा शुरू किये गये 'अहो रूपम, अहो ध्‍वनि' अभियान में बिहारी मीडिया ने जमकर हिस्‍सा लिया। लेकिन 23 नवंबर की शाम को ही राजधानी पटना के प्रमुख नौकरशाहों, राजनेताओं के हाथों में अचानक आ पहुंची एक महज 22 पन्‍नों की पुस्तिका 'तीन साल, तेरह सवाल - विफलता की कहानी' ने रंग में भंग डाल दिया। नीतीश जी इस पुस्तिका में उठाये गये सवालों से इतना बौखला गये कि अपनी पार्टी के विधायक दल की बैठक में इसे अपने ही विधायकों की करतूत बता डाला और गुस्‍से में भर कर लगभग 10 मिनट तक बोलते रहे। बौखलाए नीतीश ने अपने विधायकों के बीच यह भी स्‍वीकार किया वह कोई आदर्श बिहार नहीं बना रहे। उन्‍होंने कहा 'हमसे ग‍लतियां हुईं हैं, लेकिन आप पिछले शासन को याद रखें'। जाहिर है यही बिहार के मध्‍यवर्ग तथा बिहारी मीडिया 'लालू फोबिया' है, जिसके बल पर नीतीश सत्‍ताशीन हुए हैं। इसी फोबिया ने बिहार में सामाजिक प्रतिक्रांति के लिए इच्‍छुक सामंती ताकतों का मार्ग इतना सुगम कर दिया है। बहरहाल, हम इस ब्‍लॉगपर 'तीन साल, तेरह सवाल' नामक पूरी पुस्तिका क्रमश दे रहे हैं। शुरूआत पुस्तिका के सबसे अंतिम पन्‍नों में दर्ज *लालू प्रसाद के इंटरव्यू* 'अब हमहूं सीरियस बानी' से. इस पुस्तिका से संबंधित अन्‍य पोस्‍ट यहां देंखें - http://sanshyatma.blogspot.com/ -- ........................................ - Pramod Ranjan. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081224/5409b56b/attachment-0003.html From ravikant at sarai.net Sat Dec 27 15:02:37 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 27 Dec 2008 15:02:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Nimantran/Hind-Yugm Varshikotsav 2008/28 Dec 2008/Hindi Bhavan, New Delhi Message-ID: <200812271502.37542.ravikant@sarai.net> शुक्रिया शैलेष जी, मैंने आपका निमंत्रण दीवान तक भी अग्रेषित कर दिया है - उम्मीद है कुछ लोग वक़्त निकाल पाएँगे. मैं बता नहीं सकता कि आपके हिन्द युग्म ने भाषायी कंप्यूटरी से जुड़े हम जैसे लोगों की चिन्ताएँ किस हद तक दूर कर दी हैं. आपका जलसा सफल हो! रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Nimantran/Hind-Yugm Varshikotsav 2008/28 Dec 2008/Hindi Bhavan, New Delhi Date: शनिवार 27 दिसम्बर 2008 14:33 From: "Shailesh Bharatwasi" To: ravikant at sarai.net *रविकांत जी,* हिन्द-युग्म हमेशा कुछ नया करने का पक्षधर रहा है। हिन्द-युग्म इंटरनेट पर पहला ऐसा प्रयास है जो यूनिकोड (हिन्दी) में लिखने-पढ़ने वालों को आर्थिक प्रोत्साहन देता है। पिछले २४ महीनों से हिन्द-युग्म मासिक यूनिकवि एवं यूनिपाठक प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है। आने वाले *२८ दिसम्बर २००८* को हिन्द-युग्म अपना वार्षिकोत्सव मना रहा है, जिसमें चार पाठकों को *हिन्द-युग्म पाठक सम्मान २००८* देकर सम्मानित कर रहा है। हिन्द-युग्म के इस प्रयास का प्रोत्साहन करने के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार और हंस पत्रिका के संपादक *राजेन्द्र यादव मुख्य-अतिथि के तौर पर* उपस्थित होयेंगे। *साथ में होंगे मशहूर युवा कथाकार अभिषेक कश्यप, स्त्रीवादी लेखिका अनामिका, विश्वविवेक पत्रिका के पूर्वसंपादक और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गणितज्ञ प्रो॰ भूदेव शर्मा, युवाकथाकार और ग़ज़ल प्रशिक्षक पंकज सुबीर तथा कपार्ट (ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार) के सदस्य डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह।* आपको इंटरनेट पर किसी भी तरह *'हिन्दी टाइपिंग या ब्लॉग-बनाना'* से संबंधित समस्या हो तो आपके शंका के समाधान के लिए हिन्द-युग्म के संपादक-नियंत्रक शैलेश भारतवासी उपस्थित होंयेगे, जो पॉवर पॅवाइंट प्रीजेंटेशन के माध्यम से अपने २ साल का पुराना यूनिप्रशिक्षण का अनुभव बाँटेंगे। सात युवा कवियों/कवयित्रियों का काव्य-पाठ भी होगा। यदि आपको ग़ज़ल विधा में रुचि है तो *दरवेश भारती की ओर से ग़ज़ल की पुस्तिका मुफ्त में भी दी जा रही है।* यदि आप इस कार्यक्रम में शरीक़ होते हैं तो इस पुस्तिका के सभी संस्करण जीवन-पर्यंत आपको मुफ्त में भेजे जायेंगे। कार्यक्रम का संचालन करेंगे हरियाणा के वरिष्ठ साहित्यकार तथा त्रैमासिक साहित्यिक हिन्दी पत्रिका 'मसि-कागद' के संपादक डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'। इन्हीं के ट्रस्ट 'प्रयास ट्रस्ट' की ओर से विजेता पाठकों को स्मृति चिह्न और पुस्तकों का बंडल भी दिया जायेगा। मतलब रविवार २८ दिसम्बर २००८ का दिन हर हिन्दी-प्रेमी के लिए महत्वपूर्ण होगा। नामी साहित्यकारों से मिलना हो या युवा रचनाकारों से। तकनीकी हिन्दी से रूबरू होना हो या कविता पाठ का आनंद लेना हो। सब कुछ एक साथ। हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव में। जो आयोजित हो रहा है *२८ दिसम्बर २००८ को हिन्दी भवन (आईटीओ के पास), नई दिल्ली में दोपहर २ बजे से शाम ६ बजे तक*। चिंता न करें ४ घंटे के कार्यक्रम के बाद आपकी थकान मिटाने के लिए जलपान (रिप्रेशमेंट) का प्रबंध भी हिन्द-युग्म ने किया है। तो देर किस बात की, समय और पता नोट कर लीजिए। भूलने का डर हो तो अपने मोबाइल में रिमाइंडर लगा लें। सभी हिन्दी-कर्मी आपकी राह देख रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए देखें- http://kavita.hindyugm.com/2008/12/be-part-of-hind-yugm-varshikotsav.html धन्यवाद। निवेदक- हिन्द-युग्म www.hindyugm.com ------------------------------------------------------- -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Nimantran_Hind-Yugm_Varshikotsav-2008.pdf Type: application/pdf Size: 240431 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081227/58f47880/attachment-0001.pdf From girindranath at gmail.com Mon Dec 29 13:44:22 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Mon, 29 Dec 2008 13:44:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ?= =?utf-8?b?4KSXIOCkleClhyDgpLjgpYjgpLAg4KS44KSq4KS+4KSf4KWHIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpuCljOCksOCkvuCkqCDgpK7gpL/gpLLgpYcg4KS44KSu4KSw?= =?utf-8?b?4KWH4KSo4KWN4KSm4KWN4KSwIOCklOCksCDgpIngpKjgpJXgpYAg4KSV?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KSk4KS+?= Message-ID: <63309c960812290014l6ed6f8ceid3c33b0caa277c44@mail.gmail.com> ब्लॉग के सैर सपाटे के दौरान मिले समरेन्द्र और उनकी कविता- मुझसे नई तकदीर ले जाइये ब्लॉग का नाम है- मेरे सपने, मेरी तमन्ना .. हाल ही में मोहल्ला पर उनके लिखे - गांव रहने लायक नहीं बचा... और मीडिया? पर लम्बी बहस चली थी . गिरीन्द्र मुझसे नई तकदीर ले जाइये हुजूर, मेहरबान, कदरदान! मैं शब्दों का कारोबारी हूं, मेरे पास हर तरह के शब्द हैं. पैसे दीजिये, जरूरत के शब्द ले जाइये. अगर आपने किसी का क़त्ल किया है, मगर क़ातिल कहलाने से बचना चाहते हैं, तो मेरे पास आइये, मैं क़त्ल को हादसा बता दूंगा. यकीन मानिये, शब्दों में बड़ी ताकत होती है, सारा खेल शब्दों का है, शब्दों से ही दुनिया चलती है. मेरी और आपकी बिसात क्या, शब्द बदलने पर देशों की तकदीर बदल जाती है. मैं उन्हीं शब्दों को कारोबार करता हूं, झूठ को सच बनाने के फन में माहिर हूं. बस आप पैसे फेंकिये, मुझसे अपनी जरूरत के शब्द, और अपनी नई तकदीर ले जाइये। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081229/e2ee3dc3/attachment.html From confirmations at emailenfuego.net Tue Dec 30 16:24:25 2008 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Tue, 30 Dec 2008 04:54:25 -0600 (CST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkueCkq+CkvOCljeCkpOCkvuCkteCkvg==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <3996628.285121230634465601.JavaMail.rsspp@app1> Hello there, You recently requested an email subscription to हफ़्तावार. We can't wait to send the updates you want via email, so please click the following link to activate your subscription immediately: http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?k=H3Jm7i1MOi&i=22243179 (If the link above does not appear clickable or does not open a browser window when you click it, copy it and paste it into your web browser's Location bar.) From chauhan.vijender at gmail.com Tue Dec 30 18:16:48 2008 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 30 Dec 2008 18:16:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkueCkq+CkvOCljeCkpOCkvuCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= In-Reply-To: <3996628.285121230634465601.JavaMail.rsspp@app1> References: <3996628.285121230634465601.JavaMail.rsspp@app1> Message-ID: <8bdde4540812300446g60f02d14w6f378e015b79dd1f@mail.gmail.com> राकेशजी, दीवान पर फीड एक्टिवेशन की पोस्‍ट ??? इरादे क्‍या हैं। मुझे पूरा विश्‍वास तो नहीं किंतु प्रथम दृष्‍टया ये एक प्रकार की सपैमिंग ही कही जाएगी, बाकी सुधिजन राय दें विजेंद्र On Tue, Dec 30, 2008 at 4:24 PM, wrote: > Hello there, > > You recently requested an email subscription to हफ़्तावार. We can't wait to > send the updates you want via email, so please click the following link to > activate your subscription immediately: > > http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?k=H3Jm7i1MOi&i=22243179 > > (If the link above does not appear clickable or does not open a browser > window when you click it, copy it and paste it into your web browser's > Location bar.) > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20081230/651a1a3d/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Dec 31 11:59:58 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 31 Dec 2008 11:59:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWH4KSC4KSl?= =?utf-8?b?4KWH4KSf4KS/4KSVIOCkj+CkuOCkj+CkruCkj+CkuCDgpJXgpYcg4KSw?= =?utf-8?b?4KSC4KSXIOCkqOCkueClgOCkgiDgpJrgpKLgpLzgpKTgpYc=?= Message-ID: <829019b0812302229o1079b0eer31bd7406328110fa@mail.gmail.com> *सेंथेटिक एसएमएस के रंग नहीं चढ़ते* लोग रुपया-दो रुपये बचाने के लिए आज के बजाय कल से ही एसएमएस भेजे जा रहे हैं। लिखकर बता रहे हैं कल एसएमएस करना मंहगा होगा। उनके एसएमएस भेजे जाने से हमें कोई तकलीफ नहीं है। वैसे भी रेडीमेड मैसेज को पढ़ने के पहले ही डिलिट कर दिया करता हूं। उसकी भाषा में कहीं कोई पर्सनल फीलिग्स नहीं होती। कई बार तो जिस एसएमएस को आपकी गर्लफ्रैंड ने भेजा है, थोड़ी देर बाद उसी को आपका दोस्त भेज देता है। एक-दो बार तो जीजू या मामू लोग भी वही मैसेज भेज देते हैं। वही बाजारु सेंटी सा मैसेज या फिर हिन्दी पढ़नेवालों की भाषा में कहूं तो छायावादी टाइप की उपमानों से लदी-फदी भाषा में एसएमएस। ऐसी हिन्दी पढ़ने की आदत छूट सी गई। चैनलमें गलती से भी कोई ऐसी हिन्दी लिख देता तो बॉस चिल्लाने लगते- कहां से ये खर-पतवार आ गए हैं, अरे भइया पढ़नेवाली हिन्दी लिखो। इसलिए नए साल के मौके पर जब ऐसे एसएमएसों की बाढ़ आती है तो कुछ-कुछ ऐसा लगता है जैसे सालभर से लाला की दुकान में धूल खा रहे रंग के डिब्बों या फिर बची-खुची राखियों की खपत होली और रक्षाबंन के दिन हो रही है। मजे की बात देखिए कि जो लोग भी इस तरह की गरिष्ठ हिन्दी में एसएमएस भेजा करते हैं उन्हें न तो हिन्दी से कोई विशेष लगाव है और न ही उन्हें इस तरह की हिन्दी की कोई समझ है। रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसी हिन्दी का प्रयोग भी नहीं करते। दो लाइन टाइप करने से बचने के लिए कहीं से भेजे गए एसएमएस को सेंड टू ऑल वाले ऑप्शन मे जाकर सबको ठेल देते हैं। पर्व-त्योहार के मौके पर या फिर नए साल पर एसएमएस भेजने के पीछे तर्क यही होता है कि हम आपको इस मौके पर याद कर रहे हैं, मिस कर रहे हैं, आपके साथ शुभ और भला हो इसकी कामना करते हैं। लेकिन सच पूछिए तो सेंड टू ऑल भेजते समय क्या भेजनेवाले को उन सारे लोगों की याद आती है जिन्हें वो एसएमएस भेज रहे हैं। मेरे सहित आप भी बहुत पहले समझ गए होंगे कि इसमें फीलिग्स-विल्गिंस वाला कोई चक्कर नहीं है, बस औपचारिकता है। एक साल पहले से लगने लगा कि ये मसखरई से ज्यादा कुछ भी नहीं है। फिर सोचा, इसे निक्कमापन ही समझना चाहिए कि दो लाइन नहीं लिख पा रहे हों और तब कॉमन मैसेज सबको भेजे जा रहे है। मुझे अभी किसी ने एसएमएस किया कि तुम मेरे लिए स्पेशल हो, सबसे अलग हो, तुम्हें ऐसे मौके पर याद करती हूं॥ब्ला,ब्ला। लेकिन उसमें कोई संबोधन नहीं, मेरा कहीं कोई नाम नहीं। उसका नाम भी ऐसा कि जैसे ऑफिस में औपचारिकता के साथ लिया जाता है। डेजिग्नेशन के साथ आर्गेनाइजेशन का नाम। आप सोचिए कि अगर उस एमएस के पहले मेरा नाम होता औऱ अंत में सिर्फ उसका नाम बाकी कोई परिचय नहीं तो ये एसएमएस कितना पर्सनल होता, कितने गहरे इसके अर्थ होते लेकिन ऐसा होने से साफ हो गया कि ये सिर्फ मुझे ही नहीं भेजा गया है। थोड़ी देर बाद तो ये और भी पक्का हो गया जब तीन लड़कियों सहित दो लड़को ने यही एसएमएस भेजे। मुझे याद है जब भी मैं घर जाता हूं और पापा या भैय्या के साथ दूकान पर बैठता हूं तो शहर के रईस समझे जानेवाले लोग कहते हैं, बीस साड़ी। भैय्या पूछते हैं क्या रेंज होगा। उनका सीधा-सा जबाब होता है, बस देने-लेने के काम के लिए चाहिए। उसके बाद स्टॉफ अंदर से गठ्ठर निकालता है, उन साडियों को सेल्फ में नहीं रखते। पापा का कहना है इसे डिस्प्ले क्या करना। इसमें पसंद-नापसंद की तो कोई बात होती नहीं, जिसे भी खरीदना होता है, वो साफ कहता है, देने-लेने के काम के लिए चाहिए औऱ फिर एक ही तरह की बीस-पच्चीस जितनी चाहिए ले जाता है। इन साडियों को खरीदते समय रईस दो ही बात बार-बार पूछते हैं, रंग तो नहीं जाएगा न और दूसरा कि पांच मीटर तो है न, बाकी कुछ भी नहीं। दाम तो पहले से ही उनके मुताबिक होता है। इन एसएमएस को पढ़ते हुए मुझे कुछ-कुछ वैसा ही लगता है। हिन्दी सहित दूसरी भाषाओं के भी कुछ शब्द महज शुभकामनाएं देने औऱ लेने के लए गढ़ लिए गए हैं या फिर पहले से मौजूद हैं तो उसे फिक्स कर लिया गया है। नहीं तो इसमें कुछ भी नहीं है, न तो भेजनेवालों की तरफ से ही कोई भाव है और न ही पढ़कर किसी भी तरह के भाव जगते हैं। लेकिन ऐसे ही एसएमएस जब करीबी लोग भेज देते हैं तो लगता है कि हमें लेने-देनेवाले शब्दों के बीच ठेल दिया,पराएपन का एहसास होने लगता है। लेने-देने के लिए खरीदी-बेची जानेवाली साडियों के रंग तो नहीं जाते क्योंकि आमतौर पर सेंथेटिक साडियों के रंग नहीं जाते जबकि इन सेंथेटिक एसएमएस के रंग ही नहीं चढ़ते। एक बार मेरी मां को बहुत ही नजदीक की रिश्तेदार ने ऐसी ही साड़ी दी। पापा देखकर झल्ला गए, उनकी बहन ऐसा भी कर सकती है। मां से कहा, रीता ने तुम्हें लेने-देनेवाली साड़ी दे दी है, इसे मत पहनो, उसकी बेटी की शादी होगी तो यही साड़ी दे देंगे। मां भावुक किस्म की इंसान है, तुरंत सेंटी हो जाती है। उसने साफ कहा-भौजी ऐसा नहीं कर सकती है, इतना शौख से मेरे लिए खरीदी होगी, नहीं पहनेंगे तो बुरा लगेगा। मां ने वो साड़ी पहनने के लिए निकाल ली। पहले दिन तो मीरी दीदी के यहां गयी। वहां लोगों ने टोका कि - चाची आप तो हमेशा सूती साड़ी पहनते थे, आज क्या हो गया। उसके बाद सबने कहा भी कि एकदम से रद्दी साड़ी है। धोने के बाद साड़ी घुटने तक आ गयी। मां अब उस बुआ से बहुत कम बातचीत करती है। साफ कहती है, इतना नजदीक होकर हमरे साथ लेने-देनेवालों जैसा बर्ताव किया। कल से अंधाधुन भेजे जानेवाले एसएमएस और उसके शब्दों पर गौर करुं तो कई लोगों पर लेने-देनवाला मुहावरा फिट बैठता है औऱ मैं भी मां की तरह सेंटी होकर उसे पढ़ता हूं लेकिन क्या मैं उसकी तरह इम्मैच्योर हूं कि ये जानते हुए भी कि इनलोगों ने मेरे लिए लेने-देनेवाले शब्दों का इस्तेमाल किया है औऱ वो भी इसतर्क के साथ कि कल नेटवर्क जैम होगा, एसएमएस के दाम अधिक होंगे, उनसे बात करना कम कर दूं। नहीं, मैं चाहकर भी मां जैसा कुछ नहीं कर सकता। होगा जिनका भी मोबाइल अजर-अमर, जितना चाहे एसएमएस भेजो, शुभकामनाएं के नाम पर दुनियाभर का कूडा-करकट ठेल दो लेकिन अपना तो बड़ा ही पिद्दी सा मोबाइल है, जहां ज्यादा खुपपेंच किया कि टें बोल जाएगा और जैसे ही चार-पांच एसएमएस आ गए, स्क्रीन पर एक बक्सा बन जाएगा। मुझे स्क्रीन पर ये बक्सा रत्तीभर भी पसंद नहीं है, इसलिए ऐसा होते ही हटाने लग जाता हूं। लेकिन कल से तो गजब की आफत आयी हुई है, एक हाथ में मोबाइल और दूसरे हाथ में झाडू लेकर स्क्रीन को मनट-मिनट में साफ करना पड़ रहा है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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