From ashishkumaranshu at gmail.com Sat Aug 2 20:19:33 2008 From: ashishkumaranshu at gmail.com (ashishkumar anshu) Date: Sat, 2 Aug 2008 20:19:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= PTRAKARITAA KATHAA Message-ID: <196167b80808020749g3016839bi29c08babcffbe252@mail.gmail.com> लगभग एक सप्ताह पहले कीर्ति नगर में एक दस वर्षीय बच्चे अफारान की मौत किसी चॅनल के लिए बड़ी ख़बर नहीं बनी. उस बच्चे के साथ दो लोगों ने अप्राकृतिक यौनाचार किया. पत्रकार योगेन्द्र ने यह जानकारी देते हुए बताया, जबरदस्ती किए जाने की वजह से बच्चे की नस भींच गई. जिससे घटनास्थल पर ही बच्चे की मौत हो गई. जिन दो लोगों ने बच्चे के साथ जबरदस्ती की, वे एक फक्ट्री में मजदूरी करते हैं. अफ़रान के अब्बू भी मजदूर हैं. योगेन्द्र के अनुसार- वह इस स्टोरी को अपने चैनल के लिए करके वापस लौटा. लेकिन स्टोरी नहीं चली. क्योंकि यह लो प्रोफाइल केस था. योगेन्द्र ने बताया, 'मेरे बॉस ने साफ़ शब्दों में कहा- 'इस ख़बर को किसके लिए चलावोगे. यह लो प्रोफाइल केस है. कौन देखेगा इसे. साथ में उन्होंने यह भी कहा, अगर बच्चे के साथ तुम्हारी बहूत सहानुभूति है तो टिकर चलवा दो. और इस संवाद के साथ उस ख़बर का भी अंत हुआ. अर्थात ख़बर रूक गई. मतलब खबरिया चॅनल भी इस बात को मानती है कि गरीब परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति गधे की तरह काम कराने के लिए और एक दिन कुत्ते की तरह मर जाने के लिए पैदा होता है. उसका कोई मानवाधिकार नहीं होता. मानवाधिकार भी अफजल जैसे हाई प्रोफाईल अपराधियों का ही होता है. अब अफरान की आरूषी से क्या तुलना? इसी तरह एक प्रशिक्षु पत्रकार है, जिसके लिए पत्रकारिता ना ठीक तरीके से मिशन बन पाई ना ही प्रोफेशन. पत्रकारिता में वह शौक से आई है. बात थोडी पुरानी है. वह एक इलेक्ट्रोनिक चैनल के प्रतिनिधि की हैसियत से पूर्व प्रधानमंत्री विश्व नाथ प्रताप सिंह का साक्षात्कार लेने गई. वैसे साक्षात्कार कहना ग़लत होगा, वह सिर्फ़ बाईट लेने गई थी. बाईट उसे आसानी से मिल गई. उनसे विदा लेते समय उस पत्रकार ने पूछा - 'सर आप करते क्या हैं?' इसका जवाब वे क्या देते इसलिए मुस्कुरा रह गए. और ट्रेनी रिपोर्टर को अहसास हो गया कि उसने कुछ ग़लत सवाल पूछ लिया है. आज जिस तेज रफ़्तार से टेलीविजन चैनलों का उदभव हो रहा है उससे कहीं तेज रफ़्तार से देश भर में पत्रकार बनाने के कारखाने खुल रहे हैं. क्या भोपाल और क्या पटना. सब एक सा ही हो गया है. यहाँ १० हजार से लेकर २ लाख रूपए तक लेकर बेरोजगार युवकों को पत्रकार बनाने की गारंटी दी जा रही है. वहाँ से निकल कर आ रहे प्रोडक्ट्स को ना मीडिया एथिक्स की परवाह है, ना वल्युज की. उन्हें तो संस्थान में पहला पाठ ही यही पढाया जाता है. यह सब बेकार की बातें हैं. वैसे चॅनल और अख़बार के मालिकान कौन से इन बातों को लेकर गंभीर हैं. भोपाल में रहकर पिछले तीन साल से पत्रकार की हैसियत से एक दैनिक में काम कराने वाले सज्जन ने बताया- 'आज भी घर वाले पैसा ना भेजे तो यहाँ गुजारा मुश्किल हो जाए. घर वाले पूछते हैं कि कौन सी नौकरी करते हो कि घर से पैसा मंगाना पङता है.' ऐसे समय में पत्रकार विनय चतुर्वेदी (इन शायद रांची के किसी अखबार में कार्यरत हैं) की बातों को याद करना लाजिमी है. "आशीष, समाज में शोषण के ख़िलाफ़ लिखने वाला यह तबका सबसे अधिक शोषित है. कौन लिखेगा इनका दर्द?" शोषण शायद इसलिए भी है कि लोग शोषित होने के लिए तैयार हैं. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में अखबार में बेगारी कराने वालों की भीड़ है. अच्छी ख़बर उत्तराँचल से. पत्रकार प्रदीप बहुगुणा कहते हैं, 'यहाँ पत्रकारों को उचित पारिश्रमिक मिल रहा है. चूंकि पहाड़ का आदमी बेगार करने को तैयार नहीं है. वह दिन इस देश में कब आएगा. जब किसी भी राज्य में पत्रकारिता करने के लिए बेगार करने वाले पत्रकार नहीं मिलेंगे. आज बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के छोटे कस्बों में हालात यह है कि लोग पैसा देकर भी पत्रकार का तमगा हासिल करने में गुरेज नहीं करते. इन कस्बाई पत्रकारों के पास कोई प्रमाण नहीं होता कि वे अमुक अखबार में काम करते हैं. झारखंड़ में पत्ररिता कर रहे ईश्वरनाथ ने बताया, 'झारखंड में अखबार के पत्रकारों में यह कहावत बेहद प्रसिद्ध है, ख़बर छोटा हो या बड़ा, दस रुपया खड़ा.' अर्थात आप छोटी ख़बर दें या बड़ी ख़बर. आपको मिलने दस रूपए ही हैं. बेतिया (बिहार) के एक सज्जन ने बताया - 'इस शहर के पत्रकारों की कीमत है दस रुपया. ३ की पकौडी २ की चाय मनचाही ख़बर छ्पवाएं.' ऐसा नहीं है कि हर तरफ़ यही आलम है. या फ़िर पत्रकार इन हालातों से खुश हैं. समझौता उनकी नियत नहीं है, नियति बन गई है. गोरखपुर के पत्रकार मनोज कुमार अपनी बात बताते हुए रो पड़ते हैं. 'अखबार हमें प्रेस विज्ञप्तियों से भरना पङता है. पत्रकार काम करना चाहते हैं, अच्छी खबर लाना चाहते हैं. लेकिन प्रबंधन के असहयोग की वजह से यह सम्भव नहीं हो पाता.' हरहाल आज बड़े ब्रांड के साथ काम करने की पहली शर्त यही है कि आपको उनके शर्तों पर काम करना होगा. [ ashishkumaranshu at gmail.com] -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080802/265ce127/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Tue Aug 5 14:24:21 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 5 Aug 2008 14:24:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSnIOCkreCkvuCksOCkpOClgCDgpJXgpL4g4KSH4KSk4KS/4KS54KS+4KS4?= Message-ID: <200808051424.21225.ravikant@sarai.net> विविध भारती के स्वर्ण जयंती वर्ष में विविध भारती का एक छोटा सा इतिहास रेडियोकर्मी और ब्लॉगबाज़ युनुस ख़ान की क़लम से. आपको शायद पता हो कि विविध(भारती) दरअसल अंग्रेज़ी के मिस्लेनियस शब्द का हिन्दी तर्जुमा है, पं. नरेन्द्र शर्मा ने यह नाम इस नई सेवा को दिया था, जब उन्हें 50 के दशक में फ़िल्मी लेखन से रेडियो में बतौर अधिकारी बुलाया गया. मज़े लें. रविकान्त http://vividhbharati.weebly.com/fpcand-a-few-facts-about-vividh-bharati.html भारत मेँ प्रसारण का इतिहास यूनुस ख़ान भारत में रेडियो प्रसारण का आगाज़ 23 जुलाई 1927 को हुआ था । आज़ादी के बाद भारत भर में कई रेडियो स्‍टेशनों का बड़ा नेटवर्क तैयार हुआ । पचास के दशक के उत्‍तरार्द्ध में आकाशवाणी के प्रा ईमरी-चैनल देश के सभी प्रमुख शहरों में सूचना और मनोरंजन की ज़रूरतें पूरी कर रहे थे । किन्‍हीं का रणों के रहते तब आकाशवाणी से फिल्‍मी–गीतों के प्रसारण पर रोक लगा दी गयी थी । ये फिल्‍ म-संगीत का सुनहरा दौर था । फिल्‍म जगत के तमाम कालजयी संगीतकार एक से बढ़कर एक गीत तैया र कर रहे थे । उन दिनों श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की विदेश सेवा, जिसे हम और आप रेडियो सीलोन के नाम से जानते हैं, हिंदी फिल्‍मों के गीत बजाती थी और अपने प्रायोजित कार्यक्रमों के ज़रिये तहलका मचा रही थी । ऐसे समय में आकाशवाणी के तत्‍कालीन महानिदेशक गिरिजाकुमार माथुर ने पंडित नरेंद्र शर्मा, गोपालदास, केशव पंडित और अन्‍य सहयोगियों के साथ एक अखिल भारतीय मनोरंजन सेवा की परिकल्‍पना की । इसे नाम दिया गया विविध भारती सेवा । आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम । यहां पंचरंगी का मतलब ये था कि इस सेवा में पांचों ललित कलाओं का समावेश होगा । तमाम तैयारियों के साथ तीन अक्‍तूबर 1957 को विविध भारती सेवा मुंबई में शुरू की गयी । विविध भारती पर बजा पहला गीत पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा था और संगीतकार अनिल विश्‍वास ने स्‍वरबद्ध किया था । इसे प्रसार गीत कहा गया और इसके बोल थे नाच मयूरा नाच । इसे मशहूर गायक मन्‍ना डे ने स्‍वर दिया था । आज भी ये गीत विविध भारती के संग्रहालय में मौजूद है । अखिल भारतीय मनोरंजन सेवा विविध भारती की पहली उदघोषणा शील कुमा र ने की थी । विविध भारती सेवा का स्‍टूडियो मुंबई में था । देश भर के बहुत काबिल प्रोड्यूसरों और उदघोषकों को विविध भारती के लिए बुलवाया गया था । ताकि आकाशवाणी की ये मनोरंजन सेवा शुरू होते ही बेहद लोकप्रिय हो जाये । शुरूआती कार्यक्रम जयमाला और हवामहल विविध भारती के शुरूआती कार्यक्रम रहे हैं । ये कार्यक्रम आज पचास सालों बाद भी उतनी ही लोकप्रियता के साथ चल रहे हैं । जयमाला सोमवार से शुक्रवार तक फौजी भाईयों की पसंद के फिल्‍मी गीतों का कार्यक्रम है । जबकि शनिवार को कोई मशहूर फिल्‍मी-हस्‍ती इसे पेश करती है और विगत कुछ वर्षों से रविवार को जयमाला का नाम जयमाला संदेश होता है । जिसमें फौजी भाई अपने आत्‍मीय जनों को और फौजियों के आत्‍मीय जन देश की सेवा कर रहे इन फौजि यों के नाम अपने संदेश विविध भारती के माध्‍यम से देते हैं । ये कार्यक्रम लगातार लोकप्रियता के शिखर पर है । यहां यह रेखांकित कर देना ज़रूरी है कि विविध भारती पहला ऐसा रेडियो चैनल या मीडिया चैनल था जिसने खासतौर पर फौजियों के लिए कोई कार्यक्रम आरंभ किया था । बाद में इस फॉरमेट की नकल कई चैनलों ने की । हवामहल नाटिकाओं और झलकियों का कार्यक्रम है । पहले ये रात सवा नौ बजे हुआ करता था । आज इसका समय है रात आठ बजे । हवामहल के लिए झलकियां और नाटक देश भर से तैयार करके भेजे जाते हैं । एक ज़माने में असरानी, ओम पुरी, ओम शिवपुरी, अमरीश पुरी, दीना पाठक, यूनुस परवेज़ जैसे कई नामचीन कलाकारों ने हवामहल के नाटकों में अभिनय किया है । हवामहल की कई झलकियां आज भी लोगों की स्‍मृतियों में हैं । इसकी खास तरह की संकेत-ध्‍वनि लोगों को अभी भी नॉस्‍टेलजिक बना देती है । जयमाला विविध भारती का गौरवशाली कार्यक्रम रहा है । इसमें देव आनंद, धर्मेंद्र, राजकुमार, शशि कपूर और अमिताभ बच्‍चन समेत कई नामचीन कलाकार फौजी भाईयों से अपने मन की बात कह चुके हैं । अभिनेत्री नरगिस ने विविध भारती पर पहला जयमाला कार्यक्रम पेश किया था । इसके बाद तो फौ जी भाईयों के इस कार्यक्रम में आशा पारेख, माला सिन्‍हा, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी से लेकर अमृता राव तक कई तारिकाएं शामिल हो चुकी हैं । जयमाला से फौजियों का प्‍यार जगज़ाहिर रहा है । जब कारगिल युद्ध हुआ तो विविध भारती फौजी भाईयों के लिए एक माध्‍यम बन गया, फौजियों ने अपनी सलामती के संदेश ‘हैलो जयमाला’ के माध्‍ यम से अपने परिवार वालों तक पहुंचाए थे । विविध भारती की सतत लोकप्रियता विविध भारती ने अपनी लोकप्रियता का ज़बर्दस्‍त दौर देखा है । सन 1967 से विविध भारती पर विज्ञापन प्रसारण सेवा का आरंभ हुआ । इसके बाद से विज्ञापनों के लिए हमारे दरवाज़े खोल दिये गये । विज्ञापनदाआतों को विविध भारती एकमात्र ऐसा चैनल लगता था जिसके ज़रिए वो देश के कोने-को ने तक पहुंच बना सकते थे । विज्ञापन प्रसारण सेवा के आने के बाद प्रायोजित कार्यक्रमों का इतिहा स शुरू हुआ । जिसमें बिनाका गीत माला, एस कुमार्स का फिल्‍मी मुक़दमा, मोदी के मतवाले राही, सेरिडॉन के साथी, इंस्‍पेक्‍टर ईगल जैसे अनेक रेडियो कार्यक्रम उतने ही लो‍कप्रिय थे जितने आज के टी वी धारावाहिक । विविध भारती के विज्ञापन प्रसारण केंद्र लगातार बढ़ते चले गये । ऐसे केंद्रों ने स्‍थानीय ज़रूरतों को भी पूरा किया और विविध भारती के मुंबई से‍ किये जाने वाले प्रसारणों को भी जनता तक पहुंचाया । आज भी विज्ञापनदाता अपनी वस्‍तुओं और सेवाओं के प्रचार के लिए विविध भारती का सहारा लेते हैं । फिल्‍मों के प्रचार के लिए भी विविध भारती एक बेहतरीन माध्‍यम सि द्ध हुआ है । बदलते वक्‍त के साथ चली है विविध भारती विविध भारती हमेशा बदलते हुए दौर के साथ चलती रही है । एक जमाने में विविध भारती के का र्यक्रमों के टेप विज्ञापन प्रसारण सेवा के केंद्रों पर भेजे जाते थे । और वहां से उनका प्रसारण होता था । फिर उपग्रह के जरिए फीड देने की परंपरा आ आग़ाज़ हुआ । आज किसी भी ताज़ा घटनाक्रम या सूचना को विविध भारती के कार्यक्रमों में तुरंत शामिल कर लिया जाता है । सन 1996 में विविध भारती से मनोरंजन के एक नये पैकेज का आरंभ हुआ । इसे ‘पिटारा’ का नाम दिया गया । ये कई मायनों में सूचना और मनोरंजन का एक संपूर्ण पिटारा था । पिटारा में रोज़ अलग अलग कार्यक्रम होते हैं । जैसे डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित कार्यक्रम सेहतनामा, फोन इन फरमाईशों पर आधारित कार्यक्रम हैलो फरमाईश, फिल्‍मी सितारों से मुलाक़ात का कार्यक्रम ’सेल्‍युलाइड के सितारे’, संगीत की दुनिया की हस्तियों से जुड़ा कार्यक्रम ‘सरगम के सितारे’ और युवाओं का कार्यक्रम ‘यूथ एक्‍सप्रेस’ । पिटारा में ही बरसों बरस तक किसी फिल्‍म और उसकी पृष्‍ठ भूमि पर आधारित रोचक और बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम बाईस्‍कोप की बातें प्रसारित होता रहा है । इसी तरह महिलाओं के लिये चूल्‍हा चौका और सोलह श्रृंगार जैसा कार्यक्रम विविध भारती का हिस्‍सा रहा है । सखी सहेली- महिलाओं के लिए धारावाहिकों का प्रसारण तो अनेक टी वी चैनल करते हैं । लेकिन कहीं भी ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं था जो महिलाओं के लिए हो और उसे महिलाएं ही प्रस्‍तुत करें । विविध भारती ने इस जरूरत को समझा और शुरू हुआ सखी सहेली कार्यक्रम । पिछले दो से ज्‍यादा वक्‍त से दिन में तीन बजे प्रसारित होने वाला विविध भारती का सखी सहेली कार्यक्रम महिलाओं द्वारा प्रस्‍तुत एक बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम बन गया है । श्रोताओं की मांग को देखते हुए इसमें एक दिन फोन इन का र्यक्रम हैलो सहेली भी प्रसारित किया जाता है । मंथन विविध भारती के मंथन कार्यक्रम ने भी अपनी लोकप्रियता का परचम लहराया है । इसमें किसी ज्‍ वलंत मुद्दे पर श्रोताओं से राय मांगी जाती है । इस फोन इन कार्यक्रम के ज़रिए बेहद सामयिक औरज् ज्‍वलंत मुद्दे पर जनता को जागृत करने का महती प्रयास किया जा रहा है । जन-जागरण करके विवि ध भारती स्‍वयं को सूचना और मनोरंजन के एक संपूर्ण चैनल के रूप में लोकप्रिय बना रहा है । यूथ एक्‍सप्रेस विविध भारती ने युवाओं के लिए एक मार्गदर्शक कार्यक्रम का आगाज पिछले ही वर्ष किया, जिसे नाम दिया गया यूथ एक्‍सप्रेस । इस कार्यक्रम में सामयिक जानकारियां, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी के निर्देश, कैरियर गाइडेन्‍स समेत युवाओं की दिलचस्‍पी के कई मुद्दे होते हैं । एक ही वर्ष में इस कार्यक्रम ने भी अपनी गहरी पैठ बनाई है । बदलते वक्‍त के साथ बदलाव की इस परंपरा में अब श्रोता ना सिर्फ टेलीफोन पर अपने इस प्रिय चैनल से जुड़ सकते हैं बल्कि ई मेल पर भी अपनी बात कह सकते हैं । विविध भारती को एस एम एस सेवा से भी जोड़ने तैयारियां चल रही हैं । उजाले उनकी यादों के विविध भारती ने हमेशा अपनी जिम्‍मेदारी को समझा है और तत्‍परता से इसे निभाया भी है । देश का ये एकमात्र रेडियो चैनल है जिसने संगीत को अपना धर्म माना है और हर तरह के संगीत को अपने कार्यक्रमों में जगह दी है । विविध भारती ने डॉक्‍यूमेन्‍टेशन का काम भी किया है । चूंकि वि विध भारती मूलत: फिल्‍मी मनोरंजन की सेवा है इसलिए यहां जानी मानी फिल्‍मी हस्तियों की रि कॉर्डिंग्‍स को सदैव प्राथमिकता दी जाती है । आज विविध भारती के पास फिल्‍मी हस्तियों और संगीत जगत की हस्तियों की जितनी रिकॉर्डिंग हैं उतनी शायद कहीं और नहीं होंगी । राज कूपर से लेकर शाहिद कपूर तक और नरगिस से लेकर प्रियंका चोपड़ा तक हर महत्‍त्‍वपूर्ण फिल्‍मी हस्‍ती की रिकॉर्डिंग विविध भारती के संग्रहालय में सुरक्षित है । लेकिन जब ये महसूस किया गया कि किसी फिल्‍मी हस्‍ती की छोटी सी रिकॉर्डिंग श्रोताओं की जरूरतों को पूरा नहीं करती तो एक नया कार्यक्रम शुरू हुआ जिसका नाम था उजाले उनकी यादों के । इस कार्यक्रम के ज़रिए कई फिल्‍मी हस्तियों की पूरी जीवन यात्रा पर चर्चा की गयी । इसमें संगीतकार नौशाद, ओ पी नैयर, खैयाम, रवि, लक्ष्‍मी प्‍यारे की जोड़ी के प्‍यारे लाल, कल्‍याण जी आनंद जी की जोड़ी के आनंद जी, अभि नेत्री माला सिन्‍हा, वहीदा रहमान, लीना चंदावरकर, गायक महेंद्र कपूर, निर्देशक प्रकाश मेहरा समेत कई बड़ी हस्तियों से लंबी लंबी बातचीत की गयी है । इन कलाकारों की छह से लेकर दस घंटे बल्कि इससे भी ज्‍यादा वक्‍फे की रिकॉडिंग्‍स करके विविध भारती ने इतिहास को समेटने का महती कार्य किया है । और आज भी कर रही है । संगीत-सरिता सुबह साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाले कार्यक्रम संगीत सरिता के ज़रिए विविध भारती ने अपने तमा म श्रोताओं के भीतर संगीत की समझ कायम करने का प्रयास किया है । संगीत सरिता में आमंत्रित वि शेषज्ञ संगीत की बारीकियों को बहुत सरल शब्‍दों में समझाते हैं । मिसालें देते हैं, गायन की बानगी पेश करते हैं और किसी राग पर आधारित फिल्‍मी गीत सुनवाकर श्रोताओं को उस राग से पूरी तरह परिचित करा देते हैं । बरसों बरस से ये विविध भारती के बेहद लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक है । संगीत और फिल्‍म जगत की अनगिनत बड़ी हस्तियां इसमें शामिल हो चुकी हैं । चौबीसों घंटे का हमसफर है विविध भारती चैनल आज विविध भारती डी टी एच यानी डायरेक्‍ट टू होम सेवा के ज़रिए चौबीसों घंटे उपलब्‍ध है । बेहतरीन स्‍टीरियो क्‍वालिटी में आप अपनी टीवी सेट पर विविध भारती का अबाध प्रसारण चौबी सों घंटे सुन सकते हैं । दिन भर विविध भारती शॉर्टवेव, मीडियम वेव और एफ एम पर भी उपलब्‍ध रहती है । विविध भारती सेवा के कार्यक्रम रात ग्‍यारह बजे के बाद राष्‍ट्रीय प्रसारण सेवा या नी नेशनल चैनल से भी प्रसारित किये जाते हैं । यानी अगर आपके पास डी टी एच सेवा नहीं है तो भी विविध भारती आपकी चौबीसों घंटे की हमसफर है । विविध भारती के प्रसारण पूरे भारत के अलावा, पाकिस्‍तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्‍लादेश सहित दक्षिण पूर्वी एशिया के कई देशों में सुने जा रहे हैं । इसका सुबूत हैं इसके फोन इन कार्यक्रमों में खाड़ी देशों से आने वाले फोन कॉल्‍स । खाड़ी देशों में रह रहे भारतवासी या एशियाई लोग बड़े चाव से विविध भारती का आनंद लेते हैं । चूंकि लगभग एक सौ दस स्‍थानीय एफ एम चैनल विविध भारती सेवा के कार्यक्रमों को अपनी दिन के प्रसा रणों का हिस्‍सा बनाते हैं इसलिए बहुत छोटे छोटे कस्‍बों और गांवों में भी विविध भारती ने अपनी गहरी पैठ बनाई है । विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती विविध भारती अपना स्‍वर्ण जयंती वर्ष मना रहा है । इस अवसर पर विविध भारती ने पिछले वर्ष से ही दो विशेष कार्यक्रम शुरू किये हैं । रोज़ दिन में बारह बजे प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘सुहाना सफ़र’ में हर दिन एक नये संगीतकार की स्‍वरयात्रा होती है । यानी सात दिन सात अलग अलग संगीतकार । उनकी शुरू से लेकर आखिर तक हर फिल्‍म के गीत इस स्‍वरयात्रा का हि स्‍सा होते हैं । एक संगीतकार की स्‍वरयात्रा खत्‍म हुई तो उसकी जगह पर दूसरे संगीतकार को स्‍ थान दिया जाता है । स्‍वर्ण जयंती पर आरंभ किया गया दूसरा कार्यक्रम है ‘स्‍वर्ण स्‍मृति’ । इस साप्‍ताहिक कार्यक्रम में पिछले पचास सालों में विविध भारती में की गयी महत्‍त्‍वपूर्ण रिकॉर्डिंग्‍स के अंश श्रोताओं को सुनवाये जाते हैं । पुरानी स्‍मृतियों से गुज़रना और बीते सालों के लोकप्रिय कार्यक्रमों को दोबारा सुनना श्रोताओं को काफी रोमांचित कर रहा है । From gora at srijan.in Wed Aug 6 11:21:58 2008 From: gora at srijan.in (Gora Mohanty) Date: Wed, 6 Aug 2008 11:21:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Summary workshop for 2007 RGF-Sarai FLOSS fellowships: 9/10 Aug., Sarai Message-ID: <20080806112158.79efaa3f@srijan.in> Hello everyone, Below is an announcement for a summary workshop for the 2007 RGF-Sarai FLOSS fellowship workshop to be held at Sarai over Sat., 9th Aug., and the first half of Sun., 10th Aug. A detailed agenda will follow once we confirm participation from our out-of-station fellows. The workshop will also be followed by an ILUG-D meeting at 3pm on Sun., at the same venue. Please see the other announcement. Regards, Gora -------------------------------------------------------------------- 9 and 10 August 2008 Seminar Room Sarai-CSDS The Sarai independent FLOSS Fellowships enable programmers to research and develop different kinds of open source software applications. Typically, these are projects of concrete and practical value, especially for social and educational ends. They are also the kinds of projects that would not usually find support in formal, institutional or market-driven settings, either because of the intent/nature of the goal or because of the 'open' nature of the knowledge thus produced/created. This year, we had partnered with the Rajiv Gandhi Foundation (RGF) who are providing support for work in the specific area of computing, and localisation in five Indian languages, namely, Assamese, Hindi, Kashmiri, Oriya, and Urdu. The summary workshop is a forum for fellows to present their work to the larger FLOSS community, and to seek further engagement with the projects. All are invited to take part in these enriching discussions. The Sarai- CSDS FLOSS Fellows 2007: Sawood Alam, et al: Urdu localisation of GNOME, a FOSS desktop for computers. Anand Kulkarni: Localisation of guides to OpenOffice, and other software in Marathi, and Urdu. Sachin Joshi, Venkatesh Keri: Speech-to-text in Hindi, with application to other languages. Rakesh Pandit, et al: Localisation of the GNOME desktop in Kashmiri. Dr. N. M. Pattnaik, et al: Two fellowships for technical glossary in Oriya. Ravishankar Shrivastava*: Hindi localisation of a FOSS computer desktop. C. S. Yogananda, and D. Shivashankar: Publishing in Indian languages using TeX, applicable to all major Indian languages. Amitakhaya Phukan: Assamese localisation of GNOME, a FOSS desktop for computers. --------------------------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Thu Aug 7 11:32:30 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 7 Aug 2008 11:32:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkhuCksuCli+CkmuCkqOCkviDgpK7gpKTgpLLgpKwg4KS4?= =?utf-8?b?4KS/4KSw4KWN4KSrIOCkh+CkuOCkleCkviDgpLXgpL/gpLDgpYvgpKcg?= =?utf-8?b?4KSo4KS54KWA4KSCIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0808062302if26ad12q92155f6f340b1221@mail.gmail.com> लेख छपने की बधाई मिलने के बाद अब उसके प्रति असहमति के भी संदेश आने शुरु हो गए हैं। कल ही यूनआई से फोन करके एक ने कहा कि सांप-संपेरे की कहानी से भरे और आम आदमी के मुद्दे से महरुम टीवी की आपने इतनी गंभीर आलोचना की है, आप बाजार के स्वर बोल रहे हैं, आपने टीवी का पक्ष लेने के लिए जो विचार की बत्ती जलाई है, माफ कीजिएगा पाठक हूं लेकिन आपसे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। लेख प्रोवोकिंग लगा इसलिए फोन किया। नया ज्ञानोदय पत्रिका ( अगस्त अंक) में मैंने टेलीविजन और मीडिया को लेकर हिन्दी मीडिया समीक्षा के इकहरेपन की चर्चा की है। लेख का शीर्षक है- टेलीविजन विरोधी समीक्षा और रियलिटी शो । लेख में मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि हिन्दी में जो भी लोग मीडिया समीक्षा कर रहे हैं उनमें से अधिकांश साहित्य के चश्मे से मीडिया को देखना चाहते हैं या फिर शुरुआती दौर से चली आ रही उस मानसिकता के हिसाब से कि टेलीविजन बच्चों को बर्बाद करता है, यह पूंजीवाद को बढ़ावा देता है। लेख में मैंने दो-तीन जगह स्पष्ट कर दिया है कि हालांकि टीवी और मीडिया उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवाद को बढावा दे रहे हैं लेकिन रियलिटी शो और इस तरह के अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी जो नयी छवि बनाने में जुटा है उससे हिन्दी मीडिया आलोचकों के औजार जरुर छिन लिए गए हैं, टीवी की जो शक्ल हमारे सामने हैं वहां इनके औजार भोथरे पड़ गए हैं। यही वजह है कि आज हिन्दी मीडिया के आलोचक जब इसकी समीक्षा करते हैं तो पाठकों के प्रति विश्वसनीयता जम नहीं पाती और इधर टीवी के लिए काम करनेवाले लोग भी इसे उल-जूलूल बताकर खारिज कर देते हैं।मैंने टीवी और मीडिया के बदलते स्वरुप के आधार पर समीक्षा करने की बात की है और पूंजीवादी माध्यम होने के बावजूद इसे संभाव्य माध्यम बताने की कोशिश की है.इन सबके बीच उनका कहना है कि आप मार्केट के आदमी हैं, आप समझ ही नहीं पा रहे हैं कि टीवी कुछ गिने-चुने लोगों के लिए फायदेमंद है, यह हमारी संस्कृति को किस रुप में भ्रष्ट कर रहा है, इसका आपको अंदाजा नहीं है।मीडिया की लगातार मैं भी आलोचना करता रहा हूं लेकिन सिरे से इसे खारिज करने के पक्ष में नहीं हूं, खासकर के तब जब देश की लगभग सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोग इससे प्रभावित होते हैं। औऱ न ही इस पक्ष में कि मीडिया आलोचना का मतलब सिर्फ इसका विरोध है। हां इतना जरुर जानता हूं कि हिन्दी में जिस तरीके से इसकी आलोचना की जा रही है वह न केवल अपर्याप्त है बल्कि कई स्तरों पर अप्रासंगिक भी। लेख का लिंक - http://jnanpith.net/ny.pdf लेख पढ़कर आप खुद भी राय दें, सहमति और असहमति व्यक्त करें। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-4145 Size: 5859 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080807/1ed90c3f/attachment.bin From gora at sarai.net Thu Aug 7 13:51:09 2008 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Thu, 7 Aug 2008 13:51:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Summary workshop for 2007 RGF-Sarai FLOSS fellowships: 9/10 Aug., Sarai Message-ID: <20080807135109.5e1d452f@mail.sarai.net> Hello everyone, Please note that this is cross-posted to various mailing lists, and trim follow-ups appropriately. Below is the final announcement for the summary workshop for the RGF-Sarai 2007 FLOSS fellowship programme, this time including an agenda. The workshop will be followed on Sun., by an ILUG-D meeting at the same venue, from 3-5pm, an agenda for which is being circulated separately. Directions to Sarai are available in the answer to the final FAQ entry on http://www.sarai.net/about-us/faqs/questions-28-31 Regards, Gora RGF-Sarai FLOSS fellow summary workshop 9-10 Aug., 2008 Seminar Room, Sarai, CSDS, 29 Rajpur Road, Delhi 110 054 The Sarai independent FLOSS Fellowships enable programmers to research and develop different kinds of open source software applications. Typically, these are projects of concrete and practical value, especially for social and educational ends. They are also the kinds of projects that would not usually find support in formal, institutional or market-driven settings, either because of the intent/nature of the goal or because of the 'open' nature of the knowledge thus produced/created. This year, we had partnered with the Rajiv Gandhi Foundation (RGF) who are providing support for work in the specific area of computing, and localisation in five Indian languages, namely, Assamese, Hindi, Kashmiri, Oriya, and Urdu. The summary workshop is a forum for fellows to present their work to the larger FLOSS community, and to seek further engagement with the projects. It is open to the public, and all are invited to take part in these enriching discussions. The RGF-Sarai, CSDS FLOSS Fellows for 2007 are: o Sawood Alam, et al: Urdu localisation of GNOME, a FOSS desktop for computers. o Sachin Joshi, Venkatesh Keri: Speech-to-text in Hindi, with application to other languages. o Anand Kulkarni, et al: Localisation of guides to OpenOffice, and other software in Marathi, and Urdu. o Rakesh Pandit, et al: Localisation of the GNOME desktop in Kashmiri. o Dr. N. M. Pattnaik, Pushpashree Pattnaik, et al: Two fellowships for technical glossary, and dictionary in Oriya. o Amitakhaya Phukan: Assamese localisation of GNOME, a FOSS desktop for computers. o Ravishankar Shrivastava: Hindi localisation of KDE4, a FOSS computer desktop. o Dr. C. S. Yogananda, and D. Shivashankar: Publishing in Indian languages using TeX, applicable to all major Indian languages. Day I: 9th Aug., 2008 _______________________________________________________________________ Start End Topic Speaker _______________________________________________________________________ 11:00 11:30 The RGF-Sarai fellowship programme G. Mohanty 11:30 12:00 Introduction of participants 12:00 12:15 TEA BREAK 12:15 13:15 Hindi localisation of KDE4 R. Shrivastava 13:15 14:00 LUNCH 14:00 15:00 Publishing in Indian languages using TeX Dr. C. S. Yogananda 15:00 16:00 Assamese localisation of GNOME G. Mohanty 16:00 16:15 TEA BREAK 16.15 17:00 Marathi,_and_Urdu_work G. Mohanty _______________________________________________________________________ Day II: 10th Aug., 2008 _______________________________________________________________________ Start End Topic Speaker _______________________________________________________________________ 11:00 12:00 Oriya technical glossary, and dictionary Dr. N. Pattnaik 12:00 13:00 Hindi speech recognition S. Joshi 13:00 14:00 LUNCH 14:00 14:30 Urdu localisation work S. Alam 14:30 15:00 Kashmiri localisation work R. Pandit _______________________________________________________________________ From rajeshkajha at yahoo.com Thu Aug 7 14:31:20 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 7 Aug 2008 02:01:20 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSr4KS84KS+4KSv?= =?utf-8?b?4KSw4KSr4KS84KWJ4KSV4KWN4KS4IDMuMC4yIOCkueCkv+CkqOCljeCkpg==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkn+Clh+CkuOCljeCknyDgpJXgpYcg4KSy4KS/4KSPIOCkpOCliA==?= =?utf-8?b?4KSv4KS+4KSw?= Message-ID: <10550.43298.qm@web52907.mail.re2.yahoo.com> फ़ायरफ़ॉक्स 3.0.2 हिन्दी टेस्ट के लिए तैयार है...इसलिए जल्दबाजी में फ़ायरफ़ॉक्स हिन्दी को जाँचें, परखें, और हमें बताएँ ताकि अगर कुछ अब संभव हो सकता है तो हम आपके लिए फेरबदल कर सकें. डाउनलोड यहाँ से कीजिए. http://hindi.sourceforge.net/download/firefox/ राजेश -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-31 Size: 720 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080807/5f3da9ef/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Fri Aug 8 14:32:15 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 8 Aug 2008 14:32:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?J+CknOCkqOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSk4KS+JyDgpKbgpYfgpJbgpJXgpLAg4KSc4KWL4KS24KWA?= =?utf-8?b?4KSc4KWAIOCkleCkviDgpK7gpKgg4KSw4KWL4KSk4KS+IOCkqOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSCID8=?= Message-ID: <829019b0808080202x312cf446oae5cd5da32ce8e28@mail.gmail.com> जनसत्ता को लेकर जोशीजी को भावुक हुए अभी १५ दिनों से ज्यादा नहीं हुए, त्रिवेणी सभागार में मीडिया जगत के नामचीन लोगों को इसे प्रेरणा बिन्दु स्वीकार करने का मामला अभी भर जी थमा भी नहीं है कि कल जनसत्ता ने फिर भारी गड़बड़ी कर दी। इस गड़बड़ी पर अगर आप गौर करेंगे तो आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि यहां किस तरह से खबरें तैयार की जाती है।दो-तीन बार जनसत्ता की कमजोरियों पर लिख देने के बाद कुछ लोगों को लगने लगा है कि मैं इस अखबार की गड़बडियों के बारे में लिखने का जिम्मा सिर्फ मेरा ही है। कल ही एक भाई साहब ने फोन पर भड़कते हुए बताया- लीजिए अब आपको एक और मसाला मिल गया, आज का अखबार पढ़िए और लिखिए कि क्या कर रहे हैं जनसत्ता के लोग. मैंने तय कर लिया था कि अब नहीं लिखना है, लिखने को तो लिख दे लेकिन बेवजह परेशानी झेलनी पड़ती है। दिनभर दूसरे कामों में व्यस्त रहा और इस बीच भाईजी कोचते रहे- लिख दिए, कब लिख रहे हैं, काहे चुप हैं अब, सेटिंग हो गयी है क्या। मैं समझ गया कि लिखे बिना भाईजी को चैन नहीं मिलेगा।मामला जनसत्ता ७ अगस्त २००८ के पेज नं- ७ पर छपी खबर को लेकर है। यह संपादकीय पेज का ठीक पड़ोसी पन्ना है। जो अखबार में संपादकीय पढ़ते हों, उनकी नजर अपने आप इस पन्ने पर भी चली जाएगी।दो तस्वीरें हैं- एक तस्वीर है जिसमें छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं औऱ दूसरी तस्वीर है विश्व शांति के लिए छात्र प्रार्थना कर रहे हैं। आप तस्वीर देखिए जिसमें छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके कैप्शन में लिखा है- विश्व शांति के लिए अमदाबाद में बुधवार को प्रार्थना करते छात्र । कोई भी आदमी तस्वीर देखकर पूछेगा कि- कहां प्रार्थना कर रहे हैं, ये तो नारे लगा रहे हैं। दूसरी तस्वीर में मोमबत्तियां जल रही है और वो इस रुप में रखीं हैं कि पीइएसीइ, पीस यानि शांति शब्द बन जा रहा है। चारो तरफ छात्र हाथ जोड़े हैं। इसका कैप्शन है- अखिल भारतीय छात्र संघ के कार्यकर्ता अपनी मांगों के समर्थन में बुधवार को पटना के हिमगिरी एक्सप्रेस के सामने प्रदर्शन करते हुए। इस तस्वीर को देखकर भी लोग यही कहेंगे कि कहां कोई प्रदर्शन कर रहा है।हुआ यह है कि दोनों तस्वीरों के नीचे जो कैप्शन लगा है, वह उल्टा है। वैसे उलट जाना कोई भारी बात नहीं है लेकिन पाठक के सामने जो संदेश जाता है वह यह कि क्या जनसत्ता में भी वही सब हो रहा है जो कि हिन्दी के बाकी अखबारों में हो रहा है। जो लोग उस दिन जोशीजी के पांच किताबों के लोकार्पण में गए और इस पेज को देखा होगा, वे दो ही बातें कहेंगे- एक तो यह कि जनसत्ता को अलग बने रहने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी, नहीं तो दावे बड़े पाखंड लगेंगे। अभी छपाई की गड़बड़ी पर नजर जा रही है, कल को खबरों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे। लापरवाही जब आती है तब छांट-छांटकर तो आती नहीं। दूसरा वे यह भी कहें कि क्या जोशीजी का मन आज की जनसत्ता को देखकर कभी रोता नहीं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1223 Size: 6254 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080808/e29a4512/attachment.bin From rakeshjee at gmail.com Sat Aug 9 19:31:42 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Sat, 9 Aug 2008 19:31:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KWC4KSf4KSw?= =?utf-8?b?IOCkq+ClgeCkuOCljeCkuCwg4KSF4KSsIOCkmuCkquCljeCkquClgiA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkreCksOCli+CkuOCkvg==?= Message-ID: <292550dd0808090701o39a1c9dbyfebb9c3b3811d175@mail.gmail.com> प्रिय दीवानों सुबह बाइक से एक्सीडेंट हो गयी. घायल पड़ा हूं बिस्तर पर पट्टी-सट्टी लपेट कर. रिमोट लिए चैनल छान रहा हूं. एक ख़बर आयी, उसके बाद जो मन में आया लिख दिया. राय दीजिएगा. सलाम और सुखद रविवार की शुभकामनाएं राकेश शूटर फुस्स, अब चप्पू का भरोसा बजरंगलाल ठाकुर एकल नौकायान के क्वार्टर फ़ाइनल में तुम पहुंचे. तुम्हें बधाई! हमारी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं ! हम चाहते हैं कि तुम सेमिफ़ाइनल और फ़ाइनल का सफ़र तय करो. उम्मीद भी है तुमसे. तुमने शूटिंग या टेनिस जैसा हाई प्रोफ़ाइल खेल के माध्यम से नहीं बल्कि नौकायान के ज़रिए ये उम्मीद जगायी है. साढे तीन बजे वाली बुलेटिन में ज़ी न्यूज़ पर समाचार वाच रही महिला ने 'ओलंपिक में भारत के लिए थोड़ी ख़ुशी थोड़ा ग़म' कहते हुए नामी-गिरामी खिलाडियों के ओलंपिक से बाहर होने की ख़बर के साथ जब कहा कि तुमने नौकायान में भारत की उम्मीद जगायी है तब पहली बार मैं तुम्हारा नाम सुना. इंतज़ार करता रहा कि तुम्हारी तस्वीर भी दिखायी जाएगी. पर तुम नहीं दिखे. बार-बार तुम्हारे प्रदर्शन का जिक्र किया समाचार वाचिका ने पर एक बार भी तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखी. बल्कि चर्चा तुम्हारे कारनामे की हो रही थी और दिखायी जा रही थी तस्वीर उनकी जो प्रतियोगिता से बाहर हो गए हैं. इससे तो मैं यही समझ पाया कि तुम्हारी कोई फ़ाइल तस्वीर भी नहीं है चैनल के पास. बड़ी हैरानी हुई. पर अगले ही पल ये सब सामान्य लगने लगा. बजरंग यही तो होता आ रह है हमारे देश में. सामान्य, पिछड़े ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वालों के साथ यही तो होता आया है. और फिर तुम्हारा खेल भी नौका की सवारी है. तुम घुड़सवारी तो कर नहीं रहे हो और न ही तुम टेनिस खेल रहे हो या शूटिंग कर रहे हो. मुमकिन है कि तुमने अपने गांव के पास वाली नदी या तालाब में नाव खेने से अपने खेल-जीवन की शुरुआत की हो. तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए स्पेशल नाव तो नहीं ही बनवायी होगी जैसे आजकल के शहरी पिताओं का एक बड़ा तबक़ा अपने बच्चे के लिए शूटिंग, टेनिस, बैडमिंटन या क्रिकेट का किट ख़रीदता हैं और कोचिंग का पता ढूंढता फिरता हैं. उल्टे मुझे तो ये लगता है कि शुरुआत में जब नौकायान में तुम्हारी दिलचस्पी बढ़ रही होगी तब शायद तुम्हें बड़े-बूढे झिड़क भी देते होंगे. तुम्हें शायद उतना उम्दा प्रशिक्षण नहीं मिला होगा जितना हमारे शूटरों या टेनिस प्लेयर्स ने लिया होगा. सुनता आ रहा हूं कि ओलंपिक खेलना भी बड़ी प्रतीष्ठा की बात होती है खिलाडियों के लिए. कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी तुम्हें इस 58 सदस्यीय भारतीय ओलंपिक दल में अपना जगह बनाने के लिए, मैं आसानी से अंदाज़ा लगा सकता हूं. दोस्त फिर से एक बार तुम्हें मुबारकबाद! अपने देश में ठेठ-देसी खेलों को उभरने ही कहां दिया जाता है. और तो और फिल्म और मीडिया भी बहुत सराकात्मक छवि नहीं बनाती दिखता है देसी खेल-खिलाडियों की. देसी तो छोड़ो, राष्ट्रीय खेल हॉकी की दुर्दशा नहीं देख रहे! हाल में बड़ी अच्छी फिल्म आयी थी. वही, जिसमें शाहरुख ख़ां कोच बने थे. देखा नहीं था टिर्की सरनेम वाली झारखंड की लड़की को कैसे दिखाया गया था, साथी खिलाडियों के बीच कैसे उसे मज़ाक का पात्र बनाया गया था. ऐसे में तुम्हारा आगे आना, ओलंपिक में मशक्कत करते देखना सचमुच बड़ा सुखद है. दोस्त तुम शायद फ़ाइनल तक पहुंच जाओ. संभव है पदक भी मिल जाए तुम्हें. कांसे का पदक भी लेकर अगर तुम आ गए तो एक-आध हफ़्ते तक यह देश एक अजीब किस्म की हिस्ट्रिया का रोगी दिखने लगेगा. नेताओं और मंत्रियों की ओर से तुम्हें बधाइयां मिलेंगी, इन सफ़ेदपोशों में तुम्हारे बग़ल में खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाने की होड़ भी लगेगी. संभव है प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तुम्हें दावत पर भी बुलाएंगे. खेल मंत्रालय में बैठा कोई ब्यूरॉक्रेट मंत्री महोदय को अगले अर्जुन पुरस्कार की सूचि के लिए तुम्हारा नाम सुझाकर उनके और क़रीब आने का एक और मौक़ा ढूंढ लेगा. पर जितनी तेज़ी से ये क्रियाएं होंगी उतनी ही तेज़ी से शायद तुम भुला भी दिए जाओगे. जो नहीं होगा और जिसका मुझे अंदेशा है वो ये कि न तो कोई उद्योगपति तुम्हारे नाम लाख-दो-पांच लाख की पुरस्कार/प्रोत्साहन राशि की घोषणा करेगा, न कोई रीबॉक, नाइकि, एडिडास, प्रोलाइन तुम्हें अपना ब्रैंड एम्बैसडर बनाएगा, न किसी कार-निर्माण कंपनी का निदेशक/प्रबंध निदेशक (या कोई अन्य प्रतिनिधि) तुम्हारे हाथ में कार की कुंजी थमाएगा, न तुम्हारे राज्य का मुख्यमंत्री तुम्हें राजधानी/जिला मुख्यालय में घर बनाने के लिए प्लॉट देने की अनुशंसा करेगा, न कोई बैंक या वैसा सरकारी उपक्रम तुम्हें अपने यहां नौकरी पर रखेगा जो अभिजात खेलों से जुड़े खिलाडियों को एक-आध अंतर्राष्ट्रीय ट्रीप के लिए चुन लिए जाने भर पर उनके पीछे-पीछे नौकरी लिए भागता फिरता है, किसी अभिनेत्री के साथ तुम्हारा चक्कर चलने की 'अफ़वाह' तो दूर तुम्हारे पास मॉडलिंग या कमर्सियल का ऑफ़र भी नहीं आएंगा. दोस्त ये अंदेशा आधारहीन नहीं है. गावस्कर, कपिलदेव, तेंदुलकर, विजय अमृतराज, प्रकाश पादुकोण, सानिया मिर्जा, राज्यवर्द्धन, धोनी से लेकर इशांत, पियुष, पेस, आरपी तक में बड़ी आसानी से तुम एक परंपरा देख लोगे. एक परंपरा और है जो ध्याचंद, मिल्खा, परग, पी टी उषा, कुंजरानी और पिल्लै जैसों को मिलाकर बनती है. दोस्त तुम और तुम जैसों सैकड़ों देसी खेलों से जुड़े इन दोनों परंपराओं से बाहर हैं. इतना कि स्मृति में भी नहीं आ रहे हैं. यानी ऐसा कुछ नहीं होगा जिससे तुम्हारी पारिवारिक, आर्थिक या सामाजिक हैसियत में सुधार हो. फिर तु्म्ही बताओ, जब ये सब नहीं होगा तो तुम्हारे या मेरे गांव का बच्चा कैसे भागेगा नौकायान के पीछे? या तीरंदाज़ी के पीछे? पर यक़ीन मानो दोस्त, बच्चे ज़रूर भागेंगे तु्म्हारे पीछे, करेंगे तुम्हारा अनुसरण. क्योंकि ओलंपिक जैसा विश्वमंच है. और कुछ हो न हो, आज भी हमारे-तुम्हारे जैसी पृष्ठभूमि वालों के लिए विश्व की मानचित्र में अपना अक्स देखना बड़ा प्यारा लगता है. आज तु्म्हारी जिस तस्वीर को देखने के लिए मैं तरस रहा हूं. कल से दुनिया देखेगी. कभी-कभी ये भी बड़ा सुखद अनुभव होता है दोस्त. बजरंग लाल ठाकुर तुम क्वार्टर फ़ाइनल से फ़ाइनल में पहुंचो, तुम पदक जीतो ये ही मेरी शुभकामना है. तु्म्हें पदक नहीं भी मिला तो निराश न होना. आज ख़बर सुनने तक तुमने जो कर दिया था, सच मानो, हम तो उस ख़ुशी में ही झूमते नहीं थक रहे हैं. -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From rakeshjee at gmail.com Sat Aug 9 19:42:04 2008 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Sat, 9 Aug 2008 19:42:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KS84KSy4KSk?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSV4KWN4KS34KSu4KS+?= Message-ID: <292550dd0808090712k1a38a357x44c6f492c95162e2@mail.gmail.com> मित्रों 'शूटर फुस्स, अब चप्पू का भरोसा ' में पहली पंक्ति में ही व्याकरण संबंधी भयंकर ग़लती है. और लेख में आगे भी एकाधिक बार दिख जाएगी. माफ़ कीजिएगा. राकेश -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश From girindranath at gmail.com Sun Aug 10 15:54:54 2008 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sun, 10 Aug 2008 15:54:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSl4KS/?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkleCliyDgpJHgpKjgpLLgpL7gpIfgpKgg4KSs4KSi4KS8?= =?utf-8?b?4KS+4KS14KS+IOCkpuClhyDgpLDgpLngpYAg4KS54KWI4KSCIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSy4KS+4KSP4KSC?= Message-ID: <63309c960808100324g5c42409j11f00bff4936f05f@mail.gmail.com> *आज ब्लॉग के शक्ल में समाचार पत्र का आनंद लें.* *गिरीन्द्र* www.anubhaw.blogspot.com *ब्लॉग *के जरिए जिस प्रकार हिंदी को ऑनलाइन बढ़ावा मिल रहा है, ठीक उसी तेजी से कई आंचलिक भाषाएं भी ब्लॉग जगत में कदम बढ़ा रही हैं। इसी प्रयास में बिहार की राजधानी पटना में कुछ महिलाएं मैथिलीको ऑनलाइन बढ़ावा देने में जुटी हुई हैं। यहां की कुछ महिलाएं मैथिली का पहला ई-समाचार पत्र ''समाद'' ऑनलाइन प्रकाशित कर रही हैं। वर्डप्रेस डॉट कॉम के सहयोग से *'समाद'* को निकाला जा रहा है। इस ऑनलाइन समाचार पत्र को ब्लॉग की शक्ल में निकालकर ये महिलाएं एक अलग प्रयोग कर रही हैं। खास बात यह है कि इस ऑनलाइन समाचार पत्र को निकालने वाली छह महिलाओं का पत्रकारिता जगत से कोई संबंध नहीं है। यहां पर पाठकों के लिए बिहार से जुड़ी तमाम खबरें मौजूद हैं। *'समाद' का मैथिली में अर्थ होता है संदेश।* इस खास तरह के समाचार पत्र रूपी ब्लॉग की संचालक महिलाओं का कहना है कि इसके जरिए वे बिहार की एक अलग छवि लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हैं। ऐसी कई खबरें, जिसे समाचार पत्र या चैनलों पर नहीं देखा जा सकता है, उसे आप 'समाद' में पढ़ सकते हैं। मसलन, बिहार के मधुबनी जिले के ककरौल गांव में पांच इंटरनेट कैफे किस प्रकार यहां के युवाओं में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति लाने का प्रयास कर रहे है, इस संबंध में यहां एक खास रिपोर्ट है। गौरतलब है कि विश्व में मैथिली भाषी लोगों की संख्या लगभग तीन करोड़ है। हालांकि, 'समाद' के अलावा भी मैथिली में कई ब्लॉग सक्रिय हैं, जहां साहित्य संबंधी ढेर सारी पोस्ट पढ़ने को मिल जाएगी, लेकिन समाद उन ब्लॉगों से भिन्न है। यहां ब्लॉग को समाचार पत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। 'बेटा' संस्करण में होने के कारण यहां सामग्रियों को खास तरीके से पेश करने में सुविधा होती है। 'समाद' को कुमुद सिंह, प्रीतिलता मलिक, ममता शंकर, सुषमा और छवि नाम की महिलाएं चला रही हैं। इस ऑनलाइन समाचार पत्र को प्रकाशित करने में इन्हें 1100 रुपये प्रति माह खर्च करने पड़ते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080810/a490b9c3/attachment.html From pratilipi.in at gmail.com Thu Aug 7 21:58:53 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Thu, 7 Aug 2008 21:58:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= The August 2008 issue of Pratilipi is now online. In-Reply-To: <5cc6bcd80808070851h403adba1t9011b81d5da9883@mail.gmail.com> References: <5cc6bcd80808070528o7732014h1bb63e7b6cd3373e@mail.gmail.com> <5cc6bcd80808070851h403adba1t9011b81d5da9883@mail.gmail.com> Message-ID: <435290ba0808070928t61c4799bqe0d30e94d74eb20b@mail.gmail.com> [image: Pratilipi, August 2008] प्रतिलिपि का तीसरा अंक अब ऑनलाइन है. The third issue of Pratilipi is now online. http://pratilipi.in शीर्ष आलेख / LEAD ARTICLE - History, Literature, Beliefs: Sudhir Chandra / इतिहास, साहित्य, आस्थाएं: सुधीर चंद्र [link ] फीचर्स / FEATURES - Reading Olav Hauge: Rustam (Singh) / हाउगे को पढ़ते हुए: रुस्तम (सिंह) [link ] - परिवार पुराण: मिथिलेश मुकर्जी / Parivaar Puraan: Mithilesh Mukerjee [ link ] - Gesture Projects: Michael Buckley / जेस्चर और सिनेमा पर माइकल बकले [ link ] - सोनमछरी मेँ सखामण्डल: वागीश शुक्ल / *Sonmachhari mein Sakhamandal*: Excerpts from Wagish Shukla's novel. [link ] - To be Regardful of the Earth: Rustam (Singh) / रूस्तम (सिंह) का दार्शनिक आलेख [link ] - Wall Paintings by Meena Women: Madan Meena / मीणा स्त्रियों की चित्रकला: मदन मीणा [link ] कथा / FICTION - सुमना रॉय / Sumana Roy [link ] - मालचन्द तिवाड़ी / Malchand Tiwari [link ] - मीना अरोड़ा नायक / Meena Arora Nayak [link ] - पीयूष दईया / Piyush Daiya [link ] - कुंवर नारायण / Kunwar Narain [link ] कथेत्तर / NON-FICTION - वार्ताकार की वाणीः हकु शाह और पीयूष दईया / Piyush Daiya in conversation with Haku Shah [link ] - A Necessary Poem: Teji Grover / अनिवार्य कविता: तेजी ग्रोवर [link ] - An Initiation to Sexuality in Almodovar's Films: Sameer Rawal / आल्मोदोवार के सिनेमा पर समीर रावल [link ] - '१८५७ - सामान की तलाश' की एक पढ़त: राजेश कुमार शर्मा / A Reading of "1857: Saamaan ki Talaash": Rajesh Kumar Sharma [link ] - A Preface to Mourning: Chandra Prakash Deval / किस्सा कोताह यह कि: चंद्रप्रकाश देवल [link ] कविता / *POETRY* - शुन्तारो तानीकावा / Shuntaro Tanikawa [link ] - नंदकिशोर आचार्य / Nandkishore Acharya [link ] - सुकृता पाल कुमार / Sukrita Paul Kumar [link ] - अंजुम हसन / Anjum Hasan [link ] - मीना कंदसामी / Meena Kandasamy [link ] - शैलेन्द्र दुबे / Shailendra Dubey [link ] - श्रीदला स्वामी / Sridala Swami [link ] - अदिति मचाडो / Aditi Machado [link ] - आरुणी कश्यप / Aruni Kashyap [link ] - ऊलाव हाउगे / Olav Hauge [link ] - असद ज़ैदी / Asad Zaidi [link ] - चंद्र प्रकाश देवल / Chandra Prakash Deval [link ] Regards, Giriraj Kiradoo and Rahul Soni (Editors) Shiv Kumar Gandhi (Art Editor) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080807/65cf87cb/attachment-0001.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: image/jpeg Size: 103602 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080807/65cf87cb/attachment-0001.jpe From vineetdu at gmail.com Mon Aug 11 21:37:30 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 11 Aug 2008 21:37:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkuOCkruClgOCkleCljeCkt+CkviDgpJTgpLAg4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KWN4KSaIOCkleClgCDgpKrgpKTgpY3gpLDgpL/gpJXgpL4t?= =?utf-8?b?IOCkuOCkguCkmuCkvuCksCDgpK7gpL7gpKfgpY3gpK/gpK4=?= Message-ID: <829019b0808110907p35380390nbaac3bec4d8a63da@mail.gmail.com> वैसे तो मीडिया और टेलीविजन को लेकर स्टीरियो टाइप की समीक्षा लम्बे समय से होती आ रही है. लगभग सारे अखबारों ने इसके लिए वाकायदा कॉलम बना रखे हैं। लेकिन मीडिया समीक्षा को एक विधा के तौर पर विकसित करने की कोशिश में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से निकलनेवाली पत्रिका संचार माध्यम का वाकई कोई जबाब नहीं. मीडिया को रिसर्च औऱ समीक्षा के जरिए देखने-समझने के लिए यह पत्रिका एक गंभीर मंच है. पिछले शुक्रवार को आइआइएमसी जाना हुआ। आनंद प्रधान सर से कुछ बातचीत करनी थी. जाने पर पता चला कि अभी वो हिन्दी पत्रकारिता की क्लास ले रहे हैं। अब चालीस-पचास मिनट कहां बिताए जाएं, यही मैं सोचने लगा. तभी ध्यान आया कि आज से दो साल पहले मैंने संचार माध्यम की सदस्यता ली थी। तब पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया था. फिर भी यह सोचकर कि कभी तो प्रकाशन शुरु होगा, मैंने सदस्यता ले ली थी। इस बीच इस पत्रिका के लिए मैंने भी एक लेख लिखे और डाक द्वारा वो अंक भी मिल गया. यह कोई सात-आठ महीने पहले की बात है. उसके बाद मेरा वहां जाना ही नहीं हुआ। सोचा, चलो पता करते हैं, अगर इस बीच नए अंक आए होंगे तो ले लूंगा और पुराने अंक भी होगें तो उसे भी खरीद लूंगा..ऑफिस में जाने पर पता चला कि कल ही संसदीय पत्रकारिता पर विशेषांक आया है जिसमें कुलदीप नैय्यर सहित कई महत्वपूर्ण लोगों के लेख हैं. ऑपरेशन दुर्योधन से लेकर बाकी स्टिंग ऑपरेशन की चर्चा है। संसदीय रिपोर्टिंग को लेकर विशेष सामग्री है। मीडिया से जुड़े लोगों के लिए अनिवार्य अंक है, मैंने उसे खरीदा और पता किया कि और पुराने अंक कौन-कौन से आए हैं. ऑफिस की मैम ने सारे अंको की एक-एक प्रति निकाल दिए. कुल चार अंक थे. एक प्रति की कीमत २५ रुपये। सारे अंक लेकर मैं आनंद प्रधान सर के चैम्बर में पहुंचा और बताया कि मैंने सारे अंक खरीद लिए हैं. मीडिया पर सामग्री के लिहाज से २५ रुपये कुछ भी नहीं है।संचार माध्यम में छपे लेखों की जो सबसे बड़ी विशेषता मुझे लगी वो यह कि एक भी लेख स्टिरियो टाइप से नहीं लिखे गए थे। सारे नामचीन लोगों के लेख तो थे ही लेकिन उसके साथ यह भी था कि लेख को पढ़ते हुए किसी को भी अंदाजा लग जाएगा कि लेखक ने खासतौर से समय देकर पत्रिका के लिए लेख लिखा है. नहीं तो कई बार मैं देखता हूं कि मीडिया लेखन के नाम पर बड़े से बड़े लोग अपना एकतरफा मत देकर निकल लेते हैं। वो न तो रिसर्च करते हैं और न ही समीक्षा के लिए विश्लेषण पद्धति अपनाते हैं. उनके भीतर एक तरह का आत्मविश्वास होता है कि वो मीडिया समीक्षा के नाम पर जो कुछ भी लिख देगें, पाठकों के लिए ब्रह्म वाक्य हो जाएगा। इसलिए हिन्दी मीडिया समीक्षा में बहुत कुछ लिखे जाने के बाद भी व्यवस्थित मीडिया पद्धति का विकास नहीं हो पाया है, कार्यक्रमों की विविधता और माध्यमों की अलग-अलग प्रकृति के हिसाब से आलोचना पद्धति का विकास नहीं हो पाया है.संचार माध्यम पत्रिका के अधिकांश लेख को पढते हुए हमें यह सहज लगा कि लिखनेवाले ने विषय पर ठीक-ठाक रिसर्च किया है और इस बात की चर्चा जब हमनें आनंद प्रधान सर जो कि पत्रिका के सहायक संपादक भी है से की तो उन्होंने भी यही कहा कि- हम चाहते हैं कि संचार माध्यम मीडिया की रिसर्च मैगजीन बने। इसलिए लेखकों से अनुरोध भी करते हैं कि वे संदर्भ सहित अपनी बात रखें तो ज्यादा बेहतर होगा। लेख के जितने भी विषय हैं, वे मीडिया के बदलते चरित्र पर विस्तार से बात करते हैं। चाहे वो बच्चों की पत्रकाओं में सामाजिक टकराव का मामला हो या फिर समाचार चैनलों पर खबरों के अन्डरवर्ल्ड का मामला या फिर पूंजीवाद के आगे संपादको के मैनेजर बन जाने की घटना. सबों पर लोगों ने व्यवस्थित ढ़ंग से लिखा है।. .. और मजे की बात है कि इन सारे लेखों में आज की मीडिया की आलोचना वेलोग कर रहे हैं जो कि सीधे-सीधे मीडिया से जुड़े हैं। ऐसा होने से लेखों में अनुभव की परिपक्वता के साथ-साथ भविष्य में मीडिया को लेकर जताए जानेवाली आशंका भी विश्वसनीय लगती है और इससे भी बेहतर स्थिति है कि इसे बदलने की छटपटाहट भी मौजूद है.इन सारे अंकों को पाकर मैं इतना खुश था कि चलते-चलते मैंने आनंद सर से कहा- सर, मैंने तो आकर सारे अंक ले लिए लेकिन जिस तरह की सामग्री इसमें प्रकाशित की गयी है, मुझे लगता है कि यह डीयू के लोगों के बीच जरुर जानी चाहिए. मैं तो देखता हूं कि लोग मीडिया के नाम पर कुछ भी पढ़ ले रहे हैं, इस बात की चिंता किए बगैर कि इसमें कहां, क्या कितना सही है. इस पत्रिका का ज्यादा से ज्यादा प्रसार होना चाहिए। मेरा तो मन कर रहा है कि सबों की दस-दस प्रति खरीदकर डीयू के बुक स्टॉल में रख दूं. आनंद सर ने कहा- नहीं- नहीं मैं ही देखता हूं कुछ, नहीं होगा तो तुमको याद करुंगा।हिन्दी मीडिया पर एक अच्छी पत्रिका छपे और वो ठीक ढंग से लोगों के बीच न पहुंचे तो मीडिया से जुड़े किसी भी व्यक्ति को अफसोस तो होगा ही न.... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-3293 Size: 10355 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080811/f8b6f5f0/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Tue Aug 12 10:54:28 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 12 Aug 2008 10:54:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS24KWN4KS14KS44KSo4KWA4KSvIOCkieCkquCkqOCljeCkrw==?= =?utf-8?b?4KS+4KS4LSDgpLLgpL7gpLLgpJrgpKgg4KSF4KS44KWB4KSwIOCklA==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkl+CljeCksuCli+CkrOCksiDgpJfgpL7gpILgpLUg4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCkpuClh+CkteCkpOCkvg==?= Message-ID: <829019b0808112224p110f3a11i10102f799e82975@mail.gmail.com> करीब चार साल बाद किसी को हाथ से चिट्ठी लिखी है और वो भी स्याही की कलम से। लिखते समय स्याही से गंदे हुए हाथ से लेकर सिस्टर लिंड़ा का चेहरा याद हो आया- ओ फूल व्ऑय, तुम इतना भी नहीं जानता कि किस हाथ से लिखना होता है। मैं दोनों हाथों से लिखता, अंत में सिस्टर ने हाथ पर निशान बना दिए थे जिससे कि मुझे लिखना था। यह चिट्ठी मैंने रणेन्द्र सर को लिखी. दो महीने पहले रणेन्द्र सर( चर्चित कहानीकार और इन्साइक्लोपीडिया ऑफं झारखंड के संपादक) ने मुझे अपने उपन्यास लालचन असुर औऱ ग्लोबल गांव का देवता की पांडुलिपि दी और कहा कि पढ़कर बताइएगा कि कैसा लगा आपको यह उपन्यास।आमतौर पर मैं साहित्य और खासकर उपन्यास नहीं के बराबर पढ़ता हूं। एमए के दौरान मैंने बहुत सारे उपन्यास पढ़े और वो भी व्याख्या में अच्छे नंबर आने के लोभ से। जिस उपन्यासकार की रचना कोर्स में लगे होते, उनके बाकी के भी उपन्यास पढ़ता या फिर जिस प्लॉट पर उपन्यास लिखा होता, उससे जुड़े बाकी के भी उपन्यास पढ़ता। सिलेबस के बाहर मैं बहुत कम ही पढ़ा करता। मुझे लगता कि विद्वान बनने के लिए जीवन पड़ा है जबकि नंबर लाने के लिए एक सीमित और खास समय होता है। इधर चार साल से लगातार मीडिया में काम करने से साहित्य लगभग छूटता चला जा रहा है। एक तो समय नहीं मिल पाता और दूसरा कि कई चीजें अव्यवहारिक और अविस्वसनीय लगने लगे हैं। रणेन्द्र सर ने इसी बीच अपनी पांडुलिपि दी।एक दिन सिर्फ इस उपन्यास के लिए तय कर लिया और एक ही सीटिंग में पूरा पढ़ गया। यह जानते हुए भी कि अगर आज खत्म पूरा नहीं किया तो फिर पता नहीं कब कर पाउंगा. लेकिन वजह सिर्फ इतनी नहीं थी. बिना इससे बंधे चाहकर भी खत्म कर पाना मुश्किल हो जाता। पढ़ने के क्रम में जब मैंने रणेन्द्र सर को बताया कि-बीच-बीच में भावुक हो रहा हूं सर, दो साल से रांची नहीं गया, याद आ रही है कई चीजें. उन्होंने फोन पर ही कहा- आप जो कुछ भी महसूस कर रहे हैं, आप हमें एक चिट्ठी लिख दें। मैंने कहा-कोशिश करुंगा और खत्म करने के बाद मैंने तय किया कि एक चिट्ठी लिख ही दूं।रणेन्द्र सर को मेरी ये चिट्ठी व्यक्तिगत तौर पर लिखी गयी चिट्ठी से कुछ आगे की चीज लगी. वो इसे समीक्षा के आस-पास की चीज बताने लगे और कई बार कहा कि आप इसे अपने ब्लॉग पर डाल दें, ताकि बाकी लोग भी शेयर कर सकें। मैं भावुक होकर लिखी गयी इस चिट्ठी को सार्वजनिक कर रहा हूं। उपन्यास में कई पेंच है और उनसे मेरी असहमति भी लेकिन नास्टॉल्जिक हो जाने की वजह से मैंने लिखा ही नहीं। आप उपन्यास पढ़ें और सहमति या असहमति में रणेन्द्र सर से बातचीत करें. नंबर है- फिलहाल मेरी चिट्ठी पढ़ें- रणेन्द्र सरकुछ कहूं, इसके पहले बधाई स्वीकार करें. मैं यहां बिल्कुल ठीक हूं. अपनी भाषा में कहूं तो मस्त और बिंदास। खूब टीवी देखता हूं और, उस पर विचार करता हूं और विमर्श के नए संदर्भों के हिसाब से विश्लेषित करने की कोशिश करता हूं. इन सबके बीच आपका उपन्यास लालचन असुर और ग्लबल गांव का देवता भी पढ़ा। हालांकि सिर्फ पढ़ा शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त नहीं होगा। खैरइस उपन्यास के लिए अगर पहली लाइन कहूं तो सर, यह एक विश्वसनीय उपन्यास है. विश्वसनीय सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि जिस प्लॉट को आपने उठाया है वह एक वास्तविक घटना है बल्कि उससे भी ज्यादा कि आपने उसका जो ट्रीटमेंट किया है वो विश्वसनीय है। यह प्रयोग भाषा-व्यवहार, रोजमर्रा की जिंदगी, परिवेशगत यथार्थ के साथ-सात रचनाकार के अपने अनुभव और विचार के स्तर पर भी है. कहीं भी नहीं लगता कि आपने ऐसे प्रसंगों को तूल देने की कोशिश की है जिसमें आपके स्वयं के विचार को ज्यादा स्पेस मिले. आपने पाठकों की समझदारी पर पूरा भरोसा किया है। नहीं तो बड़े से बड़े रचनाकारों के साथ देखता आया हूं कि वो पाठकों की बौद्धिक दक्षता और संवेदना को कमतर करके देखते हैं. ऐसा होने से एक तो रचना अनावश्यक तौर पर परिचयात्मक होने लग जाती है और एक स्तर पर उचाट भी । चाहते तो आप ग्लोबल होने के तीव्र प्रभाव को सतही या फिर कमतर करके दिखा सकते थे और लोगों का भरोसा भी जमता, बल्कि कईयों को बेहतर भी लगता लेकिन आपने ऐसा नहीं किया है। आप जिस मसले पर बात कर रहे हैं, विधा के स्तर पर उसे भले ही उपन्यास का नाम दिया जाए लेकिन इसमें सजग और संजीदा पत्रकार के स्वर ज्यादा मुखर हैं औ समस्याओं के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद भी घटना के प्रति तटस्थता इसकी खुबसूरती.हम जैसे लोग जो उस अंचल से रहे हं और महानगरों में आकर बस गए, उसके लिए यह उपन्यास चुनौती है. हमें उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार लगा कि हम जितने भी साल उस अंचल में रहे, महानगरों में आने की हड़बड़ी में आधा-अधूरा जीकर आ गए. इस बीच कई चीजों पर नजर नहीं गयी और कई चीजों को नजरअंदाज कर गए। इसलिए, उस अंचल के होने का दावा बहुत मजबूत नहीं रह जाता.जो उस अंचल के नहीं हैं, उनके लिए इस उपन्यास को पढ़ पाना, थोड़ी-बहुत भाषिक परेशानियों के बावजूद भी एक विस्मयकारी अनुभव होगा कि- अरे, ग्लोबल इफेक्ट के साथ-साथ असुर संस्कृति, यह सब झारखंड और उड़ीसा जैसी जगहों पर अब भी बरकरार है। जो जीडीपी के बढ़ने पर कुलांचे भर रहे हैं और ग्लोबल होकर ही सम्पन्न होने का दावा ठोंक रहे हैं, जिनके लिए डेवलप्ड इंडिया का एकमात्र विकल्प आर्थिक उदारीकरण है, उन्हें यह उपन्यास अपने मॉडल को फिर से विश्लेषित करने के लिए उद्वेलित करता है।........ चिट्ठी का बाकी हिस्सा कल नोट- रणेन्द्र का यह उपन्यास नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में सम्पूर्ण रुप में प्रकाशित हुआ है और इसे http://jnanpith.net/ny.pdf पर पढ़ा जा सकता है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-645 Size: 11949 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080812/b57db746/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Tue Aug 12 11:19:05 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 12 Aug 2008 11:19:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KSC?= =?utf-8?b?4KSlIOCkquCksCDgpLngpYPgpLfgpYDgpJXgpYfgpLYg4KS44KWB4KSy4KSt?= Message-ID: <200808121119.05373.ravikant@sarai.net> http://vatsanurag.blogspot.com/ Saturday, August 09, 2008 रंगायन : कारंथ पर हृषीकेश सुलभ ( कारंथ वट वृक्ष थे. उनका विरुद सैंकड़ों पन्नों में गाया जा सकता है. गाया गया भी है. सुलभजी ने उनके रंग-व्यक्तित्व के महत्व का बखान यहाँ थोड़े में करने की कोशिश की है. इस क्रम में उनके बारे में बहुत कुछ अनकहा-अलक्षित भी सामने आया है. बहरहाल, हमें खुशी है कि कुछ देर से ही सही उन्होंने सबद के लिए स्तंभ लिखना शुरू कर दिया. वे भारतीय रंगमंच के मूर्धन्यों पर हर बार अपना लेखन एका ग्र करेंगे. अगले रंग-व्यक्तित्व नेमिचंद्र जैन होंगे. ) बोयण्णा से बाबा तक का सफर हृषीकेश सुलभ भारतीय रंगमंच के दुर्लभ व्यक्तित्व ब. व. कारंथ का पूरा नाम बहुत कम लोगों को मालूम है। ब. व. या बी. वी. कारंथ को बाद के दिनों में लोग ‘बाबा’ कहकर बुलाने लगे थे। बाबूकोड़ी व्यंकटरामन कारंथ को बचपन में घर पर सब ‘बोयण्णा’ कहते थे। उन्हें अपनी सही जन्म तिथि नहीं मा लूम थी। 19-09-1929 के बारे में उनका कहना था कि अंक 9 की पुनरावृत्ति के कारण इसे याद रखने में सुविधा होती इसलिए इसे हाईस्कूल के फ़ार्म में भर दिया। बाद में उनकी माँ ने उन्हें बताया कि उनका जन्म सन् 1928 में हुआ था। कारंथ अपने रंगकर्म के लिए जितना जाने जाते हैं, उतना ही अपनी यायवरी और अपने व्यक्तित्व के विरोधाभासों के लिए भी। वह एक जगह टिक कर कभी नहीं रहे। वह निरंतर बेचैन रहते। हमेशा लगता, जैसे उनके भीतर कोई हाहाकार मचा हो। इसी आकुलता ने उन्हें स्थान, काल और अपनी ही रचनात्मकता का अतिक्रमण कर जीने और रचने का हुनर और साहस दिया। उनके रंगकर्म की तमाम विषिष्टताओं के सूत्र उनके विरोधाभासों में ही छिपे हैं। कारंथ का जन्म मंगलूर के तटीय क्षेत्र के एक छोटे-से गाँव मंची में हुआ। केरल की सीमा पर कर्नाटक का यह गाँव छोटी-छोटी पहाड़ियों और घने वृक्षों से घिरा है, जिनके शीर्ष से विशाल समुद्र के जादू को निहारा जा सकता है। गाँव से कुछ मील की दूरी पर बहती थी नेत्रवती नदी। उन्होंने तीसरी कक्षा में पढ़ते हुए ही अभिनय की शुरुआत ''भागवत और पंडित की मुठभेड़'' नामक नाटक में पुजारी की भूमिका से की थी। फिर पुटप्पा के लिखे बाल नाटक मेरा गोपाल में अभिनय किया। आठवीं तक पढ़ने के बाद पिता ने पढ़ाई बंद करा दी और एक ज़मींदार के घर पढ़ाने के काम पर लगा दिया। मंगलूर के इस इलाके़ में यक्षगान की समृद्ध परम्परा रही है। पर्व-त्योहार, उत्सव-अनुष्ठान और जीवन के हर व्यवहार में गीत-संगीत रचा-बसा था। इसी परिवेश से कारंथ ने लोक-संस्कार ग्रहण किया। इसी लो क-संस्कार से उन्होंने अपने रंग-संस्कार को विकसित किया। उनके इलाक़े में गुब्बी थिएटर कम्पनी नाटक करने आती थी। एक बार कम्पनी का नाटक देखने के लिए का रंथ घर से भागकर मीलों दूर पुत्तूर चले गए थे। उन्हें बचपन में चोरी की लत लग गई थी। वह अपने गाँ व में प्रतियोगिताएँ आयोजित करते और चोरी के पैसों से पुरस्कार बाँटते। यही कारण था कि पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी और गाँव से दूर ज़मींदार के घर पढ़ाने के काम पर लगवा दिया। कारंथ ने वहाँ भी चोरी की और उन पैसों से संगीत और संस्कृत सीखा और साहित्य की पुस्तकें ख़रीदकर पढ़ना शुरु किया। पर वह पकड़े गए और बहुत लज्जित हुए। फिर वह घर से भागकर मैसूर पहुँचे। उस समय मैसूर में गुब्बी कम्पनी का प्रदर्शन चल रहा था। कारंथ गुब्बी कम्पनी में भर्ती हो गए। यहाँ उनके रंग-संस्कार को संगीत की विविधताओं से तैयार नई ज़मीन मिली। रंगमंच के लिए किसी भी प्रकार का शुद्धतावाद घातक होता है। यही कारण है कि रंगसंगीत के क्षेत्र में अपनी प्रयोगधर्मिता से उन्होंने हर बार नया प्रतिमान स्थापित किया। उनका रंगसंगीत नाटक के गर्भ से उपजता था और संगीत की पारम्परिकता का अतिक्रमण कर रंगभाषा में तब्दील हो जाता था। कई बार उन्होंने पारम्परिक वाद्यों को छोड़कर मंच-सामग्री से संगीत घ्वनियों की रचना की। उन्हों ने थिएटर में संगीत के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारते हुए उसके रंग और नाटकापेक्षी होने पर बल दिया। उनके नाटकों में चरित्र के भावों की स्थिति को बनाए रखने के लिए संगीत का उपयोग हुआ है। उन्होंने चरित्र की एकान्विति के लिए संगीत रचा। कुछ सालों तक इधर-उधर भटकने, हिन्दी प्रचारक बनने और तरह-तरह के कामों में उलझे रहने के बाद कारंथ वाराणसी पहुँचे और विश्वविद्यालय में पंडित हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के छात्र हो गए। उन्होंने वाराणसी में ही पंडित ओंकारनाथ ठाकुर से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। एम. ए. करने के बाद शोधकार्य अधूरा छोड़कर उन्होंने राष्ट्रीय ना ट्य विद्यालय में दाख़िला लिया। इस बीच प्रेमा से उनका विवाह हो चुका था। राष्ट्रीय नाट्य वि द्यालय से प्रसिक्षण प्राप्त करने के बाद का उनका जीवन रंगमंच की दुनिया में एक खुली क़िताब की तरह है। एक बेचैन आत्मा की तरह भटकते हुए कारंथ का रिश्ता रचनात्मकता से हमेशा जुड़ा रहा। अपनी अस्थिर प्रकृति के कारण उन्हें निरंतर आलोचना का सामना करना पड़ा। पर एक सच यह भी है कि इसी अस्थि रता के बीच से वह अपने लिए हठ भी चुनते थे और कई बार उनके हठ ने उनसे महत्त्वपूर्ण काम करवाए। प्रसाद ने हिन्दी रंगमंच को जो चुनौती दी थी, हिन्दी रंगमंच लम्बे समय तक उससे भयभीत रहा। असफलता के भय से अधिकांश रंगकर्मियों ने प्रसाद के नाटकों को छूने का साहस नहीं किया। फलतः प्रसाद के नाटकों को अमंचीय और दुरूह मान लिया गया। कारंथ ने प्रसाद की इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी प्रयोगधर्मिता और रंगचेतना से उनके ना टकों को फिर से आविष्कृत करने का प्रयास किया। उन्होंने सबसे ज़्यादा प्रसाद के नाटकों को मंचित किया। स्कंदगुप्त का मंचन उनके जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी। दर्शकों और उनके आलोचकों ने इसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। कारंथ ने स्कंदगुप्त के अलावा चंद्रगुप्त, विशाख और कामना को मंचित किया। यक्षगान की रंगयुक्तियों के साथ रघुवीर सहाय द्वारा किए गए मैकबेथ के रूपांतर बरनम वन को मंचित किया। इस मंचन ने लोक रंगमंच की युक्तियों के साथ आधुनिक रंगकर्म के सम्बन्धों पर चल रहे विमर्श को नए आयाम दिए। भारतेन्दु के नाटक अन्धेर नगरी के मंचन से कारंथ ने हिन्दी रंगमंच को नई त्वरा दी और अपने आलोचकों को विस्मित किया। इस प्रस्तुति ने अपनी प्रतीकात्मकता और कल्पनाशीलता से नई अर्थछवियों को दर्शकों तक संप्रेषित किया। कालिदास के नाटकों मालविकाग्निमित्र, विक्रमोवर्शीयम और कन्नड़ में रघुवंशम को मंचित किया। कारंथ ने कन्नड़ और हिन्दी में लगभग सौ नाटकों के अलावा उर्दू, पंजाबी, संस्कृत, गुजराती, मलयालम, तेलगू आदि भाषाओं में भी नाटकों को मंचित किया। वह बच्चों के रंगमंच के प्रति भी बेहद संवेदनशील और उत्सुक थे। उन्होंने हिन्दी और कन्नड़ में तीस से ज़्यादा बाल नाटकों को निर्देशित किया। प्रतिभा के धनी कारंथ को भोपाल में विवादों का भी सामना करना पड़ा, पर वह इस आग में तपकर कुन्दन की तरह बाहर निकले और अपनी रचनात्मकता और गहरी संवेदनषीलता के बल पर दर्शकों की आशाओं का केन्द्र बने रहे। From ravikant at sarai.net Tue Aug 12 11:23:32 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 12 Aug 2008 11:23:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLjgpYs=?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KSc4KS84KWH4KSo4KS/4KSk4KWN4KS44KS/4KSoIOCkquCksCA=?= =?utf-8?b?4KS24KSC4KSV4KSwIOCktuCksOCkow==?= Message-ID: <200808121123.32438.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: सोल्झेनित्सिन पर शंकर शरण Date: मंगलवार 12 अगस्त 2008 04:30 From: "anurag vats" To: Monday, August 11, 2008 http://vatsanurag.blogspot.com/ सोल्झेनित्सिन पर शंकर शरण ( सोल्ज़ेनित्सिन सिर्फ नोबेल प्राप्त एक साहित्यकार भर नहीं थे। वे उसी रूस से थे जहाँ तोल्स्तोय और गोर्की हुए, क्रांति और कम्युनिज्म का नारा बुलंद हुआ और जिसकी अकल्पनीय परिणति यातना शि विरों के रूप में हुई। सोल्ज़ेनित्सिन उसी त्रासद दौर के लेखक थे। उन्होंने व्यवस्था विरोध की कीमत चुकाई। निर्वासित हुए। प्रतिबन्ध झेला। फिर भी लिखा। उनका लिखा दस्तावेजी महत्व रखता है। उनके लेखन को कम्युनिज्म विरोधी मानकर अलक्षित करना दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वे हमारे लिए एक ज़रूरी लेखक हैं। इन मायनों में भी कि उनके ज़रिए हम उस अंधी गली में दाखिल होने का जोखिम उठाते हैं जिससे बचने या जी चुराने से हमारे भीतर विचारधारा और उसकी व्यावहारिक परिणति के प्रति आलोचनात्मक रिश्ते के शिथिल पड़ने की गुंजाइश बढ़ जाती है। हम शंकर शरण के आभारी हैं जिन्होंने हमारा आग्रह मान सोल्ज़ेनित्सिन के अवदान पर यह लेख लिखा। उन्होंने सोल्ज़ेनित्सिन की कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। ) सोल्ज़ेनित्सिन की विरासत शंकर शरण सोल्ज़ेनित्सिन का लेखन अपने ढंग की विधा है। उस में कथा, संस्मरण, जीवनी, विवरण, विश्लेषण और इतिहास जीवंत रूप में गुँथे हैं। उस की कलात्मक शक्ति और सौंदर्य पढ़कर स्वयं अनुभव करने की चीज है। कैंसर वार्ड, पहला घेरा, गुलाग, लाल चक्र जैसे उपन्यास ग्रंथ हों अथवा “मैत्र्योना का घर”, “हम कभी गलती नहीं करते” जैसी लंबी कहानियाँ – सोल्झेनित्सिन के लेखन में प्रत्येक कहा-अनकहा शब्द, ध्वनि, रिक्त स्थान, विभिन्न विराम-चिन्ह तक अत्यंत गहरे अर्थों से संपृक्ति हैं। एक पाठ में कई उप-पाठ छिपे हैं, जिन पर संकेत भर कर के छोड़ दिया गया। यह उन के लेखन की विशेषता थी। प्रत्येक शब्द, प्रत्येक चिन्ह मस्तिष्क में या कागज पर स्थान और समय लेता है – इसलिए स्थान अनावश्यक न घेरना, उस का और समय का मूल्य पहचानना। अतः वही लिखो, जो नितांत आवश्यक, सार्थक और मूल्यवान हो। इस अर्थ में भी गुलाग आर्किपेलाग (1968) अपने तरह की अकेली रचना है। अपनी किशोरावस्था, युवावस्था, सैनिक सेवा, जेल और यातना शिविरों में – अर्थात कोई तीस-पैंतीस वर्षों तक – सोल्झेनित्सिन ने सोवियत संघ में जो देखा, महसूस किया था उसे, तथा असंख्य अन्य रूसियों की बातों को भी कहने के लिए उन्हें अपने तरह की विधा - ‘लिटररी इन्वेस्टीगेशन’ - बनानी पड़ी। इस में तथ्य-संग्रहण, जीवनी, संस्मरण, पत्र-लेखन, शोध, बयान, टिप्पणियाँ, समाचार-कतरन और विश्लेषण आदि अनेक तत्व हैं। बिना गुलाग पढ़े उस की विराट, लोमहर्षक सच्चाई, किसी तानाशाही द्वारा अपने ही लोगों पर पा गलपन भरा और अविश्वसनीय अत्याचार, दशकों तक करोड़ों रूसियों द्वारा झेली गई असह्य वेदना, आदि को समझा ही नहीं जा सकता। पढ़ कर लगता है कि सोल्झेनित्सिन ने सोच-समझ कर यह विधा नहीं बनाई। अपनी अनुभूत बातों को सर्वोत्कृष्ट ढंग से कहने की उत्कट इच्छा और अदम्य प्रयास से लेखन का वह अनोखा रूप आप ही आप रूपायित होता गया जिसकी बदौलत गुलाग आर्किपेलाग बीसवीं शती की संपूर्ण विश्व में सबसे महत्वपूर्ण कथा-इतर (नॉन फिक्शन) पुस्तक मानी गई। किंतु रोचक तथ्य यह है कि जिस लेखन ने उस समय सर्वशक्तिमान प्रतीत होने वाली सोवियत सत्ता की नींव हिला दी, उस में कम्युनिस्ट अत्याचारियों के लिए कोई कटुता, भड़काऊ शब्द नहीं था। चाहे ईवान डेनिसोविच के जीवन का एक दिन के सौ पृष्ठ हों, अथवा गुलाग आर्किपेलाग के तीन हजार पृष्ठ – सोल्झेनित्सिन का लेखन प्रतिशोध या आंदोलन के आवाहनों से नितांत मुक्त है। तब क्या था जि स ने सोवियत कम्युनिज्म की चूल हिला दी? यहाँ तक कि मिखाइल शोलोखोव जैसे लेखक-नेता ने सा र्वजनिक रूप से हाथ मले कि सोल्झेनित्सिन जैसा ‘जिद्दी कीड़ा’ यातना-शिविरों से जीवित क्यों बच कर आ गया! सोल्झेनित्सिन के लेखन की शक्ति इस बात में थी कि उस ने सोवियत व्यवस्था की अमानवीयता और पाखंड को मानो एक विराट् आईने में उतार दिया था। संयत, सधे पर अत्यंत कलात्मक रूप में। आइना इतना जीवंत था कि सोवियत प्रचारतंत्र सोल्झेनित्सिन को ‘विदेशी एजेंट’ जैसी घि सी-पिटी पुरानी कम्युनिस्ट गाली के सिवा कोई उत्तर न दे सका। क्योंकि सोल्झेनित्सिन ने एक शब्द भी अप्रमाणिक नहीं लिखा था, न उन का मूल्यांकन अतिरंजित था। वह कठोर, पर सजीव सत्य से भरा था जिसके समक्ष सर्वशक्तिमान कम्युनिस्ट तानाशाही थरथरा गई थी। यह सोल्झेनित्सिन की अनमोल विरासत है। उन्होंने एक बार लेखकों से कहा भी थाः कभी ऐसा एक शब्द भी न लिखो जिसे तुम स्वयं सत्य नहीं समझते हो। चाहे किसी उद्देश्य से, दूसरों के दिए विचारों या नारों को न दुहराओ यदि तुमने स्वयं उस की सच्चाई नहीं परख ली। किंतु उन की विरासत केवल इतने तक सीमित नहीं है। लेखन और चिंतन की विराटता, कलात्मक सौष्ठव, गहन दार्शनिक अवलोकन और आध्यात्मिक भाव के कारण ही रूस में लेव टॉल्सटॉय के बाद सोल्झेनित्सिन को ही उस स्तर का लेखक-चिंतक माना गया। यह अनुभव करने के लिए गुलाग आर्किपेलाग के तीन वृहत खंडों, तथा कई खंडों में इतिहासात्मक कृति लाल चक्र को पढ़ना चाहिए। ( सोल्झेनित्सिन का गए चार अगस्त को ८९ साल की उम्र में निधन हो गया। ) From rakesh at sarai.net Tue Aug 12 11:46:02 2008 From: rakesh at sarai.net (Rakesh Kumar Singh) Date: Tue, 12 Aug 2008 11:46:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSw4KSX?= =?utf-8?b?4KS/4KSyIOCkleCkv+Ckp+CksCDgpLngpYg=?= Message-ID: <48A12AA2.9080903@sarai.net> पिछली मर्तबा आपने पढ़ा था आदर्श और एहसान की मुलाक़ात के बारे में. अब अपनी कहानी में आगे पढिए गुज़रे शाम जवाहर के ठीहे से लौटते वक़्त जब आदर्श बाबू कारी से टकराए तो क्या हुआ ... 'कारगिल किधर है' कल शाम जवाहर के ठीहे से लौटते वक़्त जैन मंदिर के सामने सीढ़ियों पर आदर्श बाबु अचानक कारी से टकरा गए। ‘अरे कारीजी कहाँ थे इतने दिनों से। आपके बारे में पूछ-पूछ कर थक गया मैं।’ ‘गाँव चले गए थे सर।’ ‘ऐसे ही कि कोई काम-वाम था?’ ‘नहीं, काम क्या, झुग्गी टूट गयी। एकदम से सड़क पर आ गए थे हमलोग. रहने-सहने का कोई इंतज़ामे नहीं था. इसलिए सोचे घरे से घुर आते हैं। आ घर जाने पर त जानबे करते हैं कि बहत्तर गो काम निकल जाता है।’ ‘झुग्गी कब टूटी?’ पूछते हुए आदर्श बाबु की ललाट की रेखाएँ एक-दूसरे पर चढ़ने-उतरने लगी थी। ‘काहाँ हैं आप सर?’ आदर्श बाबु की ओर बड़ी हैरत भरी नज़रों से देखते हुए कारी ने कहा, ‘लगता है आप भी दिल्ली में नहीं हैं दु-तीन महीना से, यहाँ पूरा पुस्ता उजड़ गया और आपको पते नहीं है कि झुग्गी कब टूट गिया।’ पुस्ता सुनते ही लगा कि जैसे आदर्श बाबु की स्मृति पर किसी ने हथौड़े से वार कर दिया। ‘अच्छा, अच्छा अभी अप्रैल-मई में जो डेमोलिशन हुआ है उसी में आपकी भी झुग्गी टूटी है’ कहते हुए आदर्श बाबु के सामने आबाद यमुना पुस्ता की तस्वीरें घुमड़ने लगी। दिसंबर 2003 का दूसरा इतवार। शनिचर को कारी के साथ तय प्रोग्राम के मुताबिक़ आदर्श बाबु यमुना पुस्ता पहुँच गए थे। वहाँ तक जाने के लिए कारी के बताए मुताबिक़ उन्होंने लाजपतराय मार्केट के सामने से ही रिक्शा लिया था। पुस्ते पर पहुँच कर जब वहाँ का नक़्शा उनके समझ में नहीं आ रहा था तब दो-तीन दुकानदारों से पूछने के बाद एक स्टूडियोनुमा दुकान में पहुँचे थे और टेबल के उस पार कुर्सी पर बिछे एक सज्जन से उन्होंने पूछा था, ‘कारगिल किधर है? मुझे मुंशी राम की झुग्गी में जाना है?’ चेहरे पर थोड़ी-थोड़ी भयावहता और काया पर ख़ूब सारा मोटापा लादे उस सज्जन ने आदर्श बाबु के वहाँ जाने की वजह, और उस व्यक्ति के बारे में जिससे उन्हें मिलना था, से मुतमईन हो जाने के बाद उस टेढ़े-मेढ़े रास्ते को थोड़ा सीध करके कुछ इस तरह बताया था, ‘यहाँ से बाहर निकलकर उल्टे हाथ पर चले जाओ, आगे जाकर एक हलवाई की दुकान आएगी, उससे तीन दुकान छोड़कर दाएँ हाथ पर मुड़ जाना, वहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ बंगालियों का घर मिलेगा, मच्छी की बदबू आएगी तो ख़ुद ही समझ जाओगे। वहाँ से दो-चार क़दम आगे बढ़ोगे तो हनुमान मंदिर दिखायी देगा, हनुमान मंदिर के साथ वाले रस्ते के साथ-साथ सीधे चलते जाना। आगे जाकर एक मसजिद दिखायी देगा। उसके आगे चलते जाना, आख़िर में जो झुग्गी दिखेगी वही मुंशीराम की है।’ ‘शुक्रिया भाई साहब’ कहकर रोड मैप को याद रखने की कोशिश करते हुए आदर्श बाबु बढने लगे थे मुंशीराम की झुग्गी की तरफ़। इसी बीच उनके दिमाग़ में बीते शाम कारी ने जो कारगिल समझाया था, वह घुमड़ने लगा। यानी अब वो एक साथ दो चीज़ों पर मथगुज्जन करते चले जा रहे थे। हुआ यूँ था कि जिन दिनों सरहद पार के घुसपैठिए वर्फ से ढके कारगिल में घुस आए थे उन्हीं दिनों मौज़ूदा मुंशी राम की झुग्गी पर भी कुछ लोगों ने हमला बोल दिया था। इरादा यहाँ भी लगभग वही था। क़ब्ज़ाना। सरहद पार से आए घुसपैठिए तो ख़ैर नाकाम रहे अपने मक़सद में लेकिन झुग्गी मुंशीराम की हो गयी। हुई ही नहीं मुंशी राम ने उसे बेच भी दी। कारी ने भी क़रीब आठ-दस महीने पहले बारह हज़ार में झुग्गी ख़रीदी थी। साथ में लाजपतराय मार्केट में झल्लीगिरी करने वाले चार-पाँच ग्रामीण भी रहने लगे। मसजिद के सामने से गुज़रते हुए हैंड पंप के पास खड़े अधनंगों की टोली से आदर्श बाबु ने ‘कारगिल किधर है? मुंशीराम की झुग्गी में जाना है’ पूछा था। उनके इतना पूछने भर से हैंड पंप पर छा गए दो पल के सन्नाटे को तोड़ते हुए किसी मटमैले रंग की अमूल जाँघिए में जितना घुस सकता था उतना धर घुसाए उसी से मिलते-जुलते रंग वाले एक पिद्दी पहलवान ने कहा था, ‘यही है, क्या काम है?’ इस बीच बाएँ हाथ में सिर का ढक्कन थामे दायीं हाथ की दो उँगलियों से पसीना पोछ चुके आदर्श बाबु ने कहा था, ‘कारी जी, कारी यादव जी से मिलना है।’ इस पूछताछ के दौरान दो-चार क़दम दूरी पर इधर-उधर बिखरे लोग भी हैंडपंप को घेर चुके थे। शायद उन्हें यह लगा रहा था कि जवाब दे रहे बाँके जवान की हिम्मत बनाए रखने की ज़रूरत है, क्योंकि ऐसे हैट-पैट वाले से तो उनका सामना कम ही होता है या फिर बस्ती में तो ऐसे लोग नहीं ही दिखते हैं, या फिर क्या पता वह जवाब न दे पाए और ऐसे में उनमें से किसी की ज़रूरत आन पड़े। शायद इसीलिए तो दिल की भाषा को समझते हुए उसने अपने लोगों से पूछा था, ‘हये हो, कारी के छय? जानै छहौ?’ उधर से लुंगी में लिपटे किसी ने जवाबी सवाल दाग दिया था, ‘कहाँ क छय? पुछहि न रे।’ उस लड़के के पूछने से पहले ही आदर्श बाबु बोल पड़े थे, ‘सहरसा के हैं।’ ‘बरगाही भाई! पूछहि न गाम-थाना के नाम, सहरसा के त सभ्भे छय।’ सुनते ही आदर्श बाबु ने पीठ से बैग उताकर घुटने पर टिका लिया और ऊपर वाली जेब में कुछ टटोलने लगे। शायद कारी का पता। ‘अरे हाँ, कारी ने बताया तो था अपने गाँव का नाम। लेकिन वो तो फील्ड नोट वाली डायरी में है’ सोचकर उन्होंने बड़ी वाली जेब से स्पायरल बाइंडिंग वाली लाल कॉपी निकाल ली। इतने में उसी घेरे में से किसी ने पूछा, ‘कहाँ काम करता है कारी यादव’। आदर्श बाबु ने सिर उठाकर कहा था, ‘लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’। छुटते ही जवाब आया था, ‘आगे बढ़ जाओ, उ झुग्गी दिखायी दे रहा है न? उसमें खाली झल्लिएवाला रहता है। वहीं पूछ लेना।’ अपना बैग ठीक करते आदर्श अभी बतायी दिशा में दो क़दम भी नहीं बढ पाए थे कि पीछे से तरह-तरह की हँसी एक साथ फूट पड़ी थी। साथ में बहुत सारे बोल भी निकल रहे थे जिसमें सबसे साफ ढंग से वह इसी को सुन पाए थे, ‘बहिनचोद, गेलय करिया अब त। कहय रहिय साला के नेतागिरी में नय पड़। बहिनचोदा सुनबे नय करलय। मार्केट वाला सब भेजलकय हन एकरा! देखियही न गांयर फायर देतै सेठवा सब अब करिया क’! आदर्श बाबु अब उस झुग्गी में या कहें कि झुग्गियों से घिरे एक छोटे से मैदान में पहुँच चुके थे। उसके बाद जहाँ तक वह देख पा रहे थे वहाँ तक केवल रेतीली ज़मीन और कहीं-कहीं उन पर जैसे-तैसे खड़ी झुलसी, कटीली झाड़ियाँ ही उन्हें दिख रही थी। कौई सौ मीटर की दूरी पर दो गाएँ भी ज़मीन पर इधर-उधर बचे-खुचे घास पर अपनी थुथनें रगड़ रही थीं और पूँछ उठाए तीन कुत्तों का एक झूंड भौंकता हुआ उन गायों की तरफ भागा चला जा रहा था। लग रहा था जैसे उन कुत्तों को सीमा रक्षा का ठेका मिला हुआ था। झुग्गी-परिसर में दाख़िल होने पर आदर्श बाबु को सामने की तरफ कुछ नहीं दिखा था। मुआयने के अंदाज़ में जब उन्होंने अपनी गर्दन बायीं ओर मोड़ी थी तो एक बार फिर उन्हें ज़मीन में पाँव धंसाए हैंडपंप के दर्शन हुए थे, जो एक अजीब क़िस्म की आध्यामिक शांति से आच्छादित था। तीन तरफ से झुग्गियों से घिरे उस हैंड पंप पर पटरे पर बैठकर कपड़े पर साबून घिस रहे एक नौजवान के अलावा कोई नहीं था वहाँ। घुटने तक अंगोछा लपेटे उस गठीले नौजवान के गिले बालों को देखकर लग रहा था जैसे वह अभी-अभी नहाने के बाद अपने कच्छे की सफाई कर रहा था। हैंडपंप की दायीं ओर ईंट के छोटे-छोटे टुकड़ों से घेर कर बनायी गयी एक क्यारी में दो मिर्च के, दो टमाटर के, तीन बैंगन के पौधे थे और उनके बीच पसरे धनिए के छोटे-छोटे पौधों की हरियाली यह एहसास करा रही थी जैसे अभी-अभी उस नौजवान ने कोई चादर धेकर सुखने के लिए फैला दिया था। हैंडपंप और क्यारी के बीच एक टीन के बड़े से डिब्बे में जिसकी बाहरी दीवार पर आदर्श बाबु ‘विशुद्ध सरसों का तेल’ पढ़ पाए थे, तुलसीदासजी खड़े थे जिनके चरण के पास दो-चार सींकें थीं जो यह बता रही थी कि कभी ये पूरी अगरबत्तियाँ रही होंगी। एक मिट्टी का दीप भी रखा था वहाँ जिसे देखकर ऐसा लग रहा था शायद कल शाम ही इसमें बत्ती डाली गयी थी। मुआयना जारी था। आदर्श बाबु ने देखा था कि सामने वाली झुग्गी में दरवाज़े की जगह लटक रहे चट्टी का पर्दा रह-रह हवा के झोंके में हिल जाया करती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह कभी-कभी ख़ूब ज़ोर से उधिया जाना चाहती थी लेकिन उसका भारी वज़न उसे ऐसा करने से बार-बार रोक देती थी। इसी बीच झुग्गी के अन्दर से ही एक हाथ ने बढकर उसको एक ओर समेट दिया था और अंगड़ाई लेने के साथ दोनों हाथ सीधा करती एक महिला निकलकर बाहर आ चुकी थी। उसके चेहरे पर ख़ुशी, थकावट, संतुष्टि, नींद, तृप्ति और बेचैनी का एक अजीब-सा मिश्रित भाव था। उसके पाँव बाँयी दिशा में बढ चुके थे लेकिन शायद एक बार इधर-उधर देखकर निश्चिंत हो जाने के लिए उसने अपनी गर्दन दायीं ओर मोड़ दी थी। सामने खड़े एक अजनबी को देखकर पल भर के लिए वह ठिठकी थी और फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया था। उसका बायां हाथ पीठ की तरफ गया था और लगभग खो चुके आँचल को ढूंढकर दाएँ हाथ को सुपूर्द कर दिया था। दोनों हाथों से आँचल को सिर पर खींच लेने के बाद उसने अपनी बायीं हथेली को आँचल से ढके सिर पर लगभग चिपका-सा दिया था। शायद वह निश्चिंत हो जाना चाह रही थी कि फिर न कहीं खो जाए उसका आँचल। अब उसके क़दम आदर्श बाबु की ओर बढ़ने लगे थे और आदर्श बाबु की छोटी आँखों की जोड़ी उसके चेहरे को एक टक निहारे जा रही थी। बायीं हथेली और सिर के बीच आँचल दबाए उस महिला और आदर्श बाबु के बीच मात्र तीन-चार क़दम की दूरी रह गयी थी। इस बीच आदर्श बाबु की आँखें उसके चेहरे से उतर कर गर्दन पार करती हुई पेट के ऊपर के अवरोध्क जैसे उठान पर आकर रूक गयी थी। अभी आदर्श बाबु की आँखें वहाँ से हिली भी नहीं थीं कि महिला ने हैंडपंप के नीचे बैठे लड़के से कहा, ‘हे रे केकरा खोजय छय इ?’ लड़के ने कहा ‘के?’ ‘आन्हर छे?’ महिला के चेहरे पर झल्लाहट थी। उस लड़के ने एक बार फिर अपने अंगोछे की गाँठ ठीक की थी और आदर्श बाबु की आँखों में आँखें डालकर पूछा था, ‘किससे मिलना है आपको’? ‘कारीजी से, कारी यादव जी जो लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’ कहते हुए आदर्श बाबु जरा सहज दिखना चाह रहे थे। लड़के ने कहा था, ‘वो तो नहीं हैं, कहीं गए हुए हैं’। ‘लेकिन उन्होंने तो मुझे आज बुलाया था’ कहा था आदर्श बाबु ने। ‘काम क्या है बताइए न?’ पूछा था उस लड़के ने। ‘कुछ नहीं, उनसे कुछ बातचीत करनी थी’ कहकर आदर्श बाबु किसी उधेड़बून में पड़ गए थे। शायद उन्हें यह लगने लगा था कि कारी से एक्सक्लुसिव बातचीत का उनका यह वेलथॉट प्लान आज फेल होने वाला है। इसी बीच तीसरे कोण पड़ खड़ी महिला ने दूसरे कोण पर यानी आदर्श बाबु के सामने खड़े उस लड़के से पूछा था - ‘बुझैलौ रे, किय आयल छय इ?’ जब तक वह लड़का जवाब दे पाता तब तक महिला ने एक और शंका व्यक्त कर दी थी, ‘हे रे, कथि के लिखा पढ़ी करै छय?’ शायद आदर्श बाबु के हाथ में पड़ी नोटबुक को देखकर उसके मन में यह सवाल आया था। यह सोचकर कि शायद उनके वहाँ आने की वजह वह लड़का ठीक से नहीं समझा पाएगा, आदर्श बाबु ने एक बार फिर से अपने आने की वजह को साफ-साफ उनके सामने रख दिया था। इसके बावजूद न तो वह महिला और न ही अंगौछे में लिपटा वह लड़का आदर्श बाबु के वहाँ होने की वजह को समझ पाए थे। आदर्श बाबु ने सोचा था, चलो कोई बात नहीं, कारी न सही शिवन तो होगा, शिवन नहीं होगा तो वो क्या नाम है उसका 232 नंबर बिल्ला वाले का- रामखिलावन! वो तो होगा। हर किसी से तो अच्छी जान-पहचान है। इनमें से कोई भी मिल जाए तो बात बन जाएगी। मन ही मन इस पर विचार करते हुए आदर्श बाबु ने पूछ दिया था उस लड़के से इन सबके बारे में। आदर्श बाबु के मुँह से इन लोगों का नाम सुनकर जैसे उसे आदर्श बाबु पर एक क़िस्म का भरोसा होने लगा था। वह इस बात से निश्चिंत हो गया था कि सामने खड़े इंसान से बातचीत की जा सकती है। ‘इस समय खाली शिवने है इहाँ, बाकी सब कहीं गिया हुआ है’ कहकर उसने सामने वाली झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए बताया था, ‘इसके पीछे जो झुग्गी है न उसी में उ लोग रहता है। जाके देख लीजिए।’ आदर्श बाबु से निबटकर वह अपने सामने खड़ी महिला से मुख़ातिब हुआ था, ‘हे गे त्वें कि जानबहि इ जायन क, आयल त छय कारी दादा आर से भेंट करे। जो न अप्पन काम कइर ग न।’ झुग्गी के फाटक पर आदर्श बाबु की थपकी के जवाब में आवाज़ आयी थी- ‘के छय रे? आएब जो।’ ‘मैं हूँ’ कहकर आदर्श बाबु फाटक के ओट पर खड़े हो गए थे। अगले ही पल फाटक खुला और एक बच्चा बाँस की छोटी चैखट से अपने सिर को बचाते हुए बाहर निकला था। इससे पहले कि बच्चा कुछ पूछ पाता, आदर्श बाबु ने कहा था, ‘शिवनजी छथिन।’ आदर्श बाबु को जवाब देने बजाय उसने पीछे मुड़कर कहा था, ‘हय हो कक्का तोरा पुछै छौ हो।’ ज़मीन से उठकर ‘कक्का’ अपनी लुंगी सरियाते हुए फाटक खोल चुके थे। ‘आरे, आप हैं सर। आइए, आइए। भीतर आइए ...।’ From ravikant at sarai.net Wed Aug 13 15:56:50 2008 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Wed, 13 Aug 2008 15:56:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpYg=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpK3gpLAg4KSw4KS54KSu4KS+4KSoICAgIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkl+CkvuCkqOClhyDgpLjgpYHgpKjgpKTgpL4g4KSl4KS+?= =?utf-8?b?ICAgIOCklOCksCDgpLXgpYsg4KSw4KS+4KSkIOCkreCksC4=?= Message-ID: bahut achhe dada, seedha deewan par daal diijiye na. cheers ravikant ravikant ------ Original Message ------ Subject: मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. To: ravikant From: mihir pandya Date: Tue, 12 Aug 2008 23:54:03 -0700 (PDT) . www.mihirpandya.com यह कहानी उन लड़कों की है जो ‘शहर’ नामक किसी विचार से दूर बड़े हुए. इसमें संगीत है, घरों में आते नए टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का पानी है, डब्ड फिल्में हैं, नब्बे के दशक में बड़े होते बच्चों की टोली है. कुछ हमारे डर हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ है जो हम सबमें एकसा है. मुझमें और विशाल में एकसा है. आज जब मैं लौटकर अपने बचपन को देखता हूँ तो मुझे एक ‘रहस्यमयी-सा’ अहसास होता है. जैसे बाबू देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे बचपन और शहर के इस अलगाव का हमारे व्यक्तित्वों पर असर है. बाद में हर दोस्त इस विचार से अपनी तरह से जूझा है. बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब. सुशील ने मुझे ‘चकमक’ के लिए ए. आर. रहमान पर कुछ लिखने को कहा था. और मैं रहमान पर जो लिख पाया वो ये है. यह सुशील की तारीफ ही है कि चकमक में आकर अब मेरी यह अनसुलझी कहानी हजारों बच्चों के पास पहुँचेगी. शुक्रिया सुशील. ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया. मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल सांगा बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है. विशाल को भी गानों का बहुत शौक था. खासकर रहमान के गानों का. उसके पास एक वाकमैन था जिसे कान में लगाकर वो रात-रात भर गाने सुना करता था. मैं जब भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो वो रातभर के लिए उसे मुझसे माँगकर ले जाता था. और रहमान की कैसेट तो छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं रहमान के गाने सुनता और रात में विशाल. उसे हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. वो अटक अटक कर हिन्दी बोलता और बीच बीच में शब्द भूल जाता था. मेरे नए जूते देखकर कहता, “छुटकू तेरे ये तो दूसरों के ये से बहुत अच्छे हैं!” मुझे ‘ये’ सुनकर बहुत मज़ा आता था और मैं अपने घर आकर सबको ये बात बताता. लेकिन वो संगीत में जीनियस था. मेरी और उसकी पसंद कितनी मिलती थी. ‘दिल से’ के एक-एक गीत को वो हजारों बार सुनता था. मुझे कहता था, “पता है छुटकू, ये रहमान की आदत ही ख़राब है. जाने क्या-क्या करता है. अब बताओ, गाने की शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो पूरे गाने में ताल की जगह ट्रेन की आवाज़ को ही पिरो दिया. पूरे गाने में ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी ट्रेन किसी ऊंचे पुल पर से गुज़र रही हो! कमाल है इसका भी हाँ.” हम दोनों रहमान के दीवाने थे. याद है ना.. मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. मैं घर पर माँ से कहता. “पता है माँ, मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर बनेंगे. गौरव और रोहित तो सादा इंजिनियर बनेंगे और विशाल बनेगा म्युज़िक इंजिनियर!” अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए आ गया हूँ और विशाल ने कर्नाटक में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री शुरू कर दी है. लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता. रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-ऊΠŁस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटाऊРका. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया. चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़ नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा. पूरी दुनिया सामने पड़ी है. हर फूल-पत्ती में आवाज़ छुपी है. बस दिल से सुननेवाला चाहिए. एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080813/b044865e/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Wed Aug 13 17:22:38 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 13 Aug 2008 04:52:38 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpYg=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpK3gpLAg4KSw4KS54KSu4KS+4KSoICAgIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkl+CkvuCkqOClhyDgpLjgpYHgpKjgpKTgpL4g4KSl4KS+ICAgIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkteCliyDgpLDgpL7gpKQg4KSt4KSwLg==?= In-Reply-To: Message-ID: <813194.67407.qm@web52912.mail.re2.yahoo.com> सचमुच बहुत बढ़िया है मिहिर जी... सादर राजेश --- On Wed, 8/13/08, ravikant at sarai.net wrote: From: ravikant at sarai.net Subject: [दीवान]Fwd: मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. To: deewan at sarai.net Date: Wednesday, August 13, 2008, 3:56 PM bahut achhe dada, seedha deewan par daal diijiye na. cheers ravikant ravikant ------ Original Message ------ Subject: मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. To: ravikant From: mihir pandya Date: Tue, 12 Aug 2008 23:54:03 -0700 (PDT) . www.mihirpandya.com यह कहानी उन लड़कों की है जो ‘शहर’ नामक किसी विचार से दूर बड़े हुए. इसमें संगीत है, घरों में आते नए टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का पानी है, डब्ड फिल्में हैं, नब्बे के दशक में बड़े होते बच्चों की टोली है. कुछ हमारे डर हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ है जो हम सबमें एकसा है. मुझमें और विशाल में एकसा है. आज जब मैं लौटकर अपने बचपन को देखता हूँ तो मुझे एक ‘रहस्यमयी-सा’ अहसास होता है. जैसे बाबू देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे बचपन और शहर के इस अलगाव का हमारे व्यक्तित्वों पर असर है. बाद में हर दोस्त इस विचार से अपनी तरह से जूझा है. बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब. सुशील ने मुझे ‘चकमक’ के लिए ए. आर. रहमान पर कुछ लिखने को कहा था. और मैं रहमान पर जो लिख पाया वो ये है. यह सुशील की तारीफ ही है कि चकमक में आकर अब मेरी यह अनसुलझी कहानी हजारों बच्चों के पास पहुँचेगी. शुक्रिया सुशील. ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया. मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल सांगा बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है. विशाल को भी गानों का बहुत शौक था. खासकर रहमान के गानों का. उसके पास एक वाकमैन था जिसे कान में लगाकर वो रात-रात भर गाने सुना करता था. मैं जब भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो वो रातभर के लिए उसे मुझसे माँगकर ले जाता था. और रहमान की कैसेट तो छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं रहमान के गाने सुनता और रात में विशाल. उसे हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. वो अटक अटक कर हिन्दी बोलता और बीच बीच में शब्द भूल जाता था. मेरे नए जूते देखकर कहता, “छुटकू तेरे ये तो दूसरों के ये से बहुत अच्छे हैं!” मुझे ‘ये’ सुनकर बहुत मज़ा आता था और मैं अपने घर आकर सबको ये बात बताता. लेकिन वो संगीत में जीनियस था. मेरी और उसकी पसंद कितनी मिलती थी. ‘दिल से’ के एक-एक गीत को वो हजारों बार सुनता था. मुझे कहता था, “पता है छुटकू, ये रहमान की आदत ही ख़राब है. जाने क्या-क्या करता है. अब बताओ, गाने की शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो पूरे गाने में ताल की जगह ट्रेन की आवाज़ को ही पिरो दिया. पूरे गाने में ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी ट्रेन किसी ऊंचे पुल पर से गुज़र रही हो! कमाल है इसका भी हाँ.” हम दोनों रहमान के दीवाने थे. याद है ना.. मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. मैं घर पर माँ से कहता. “पता है माँ, मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर बनेंगे. गौरव और रोहित तो सादा इंजिनियर बनेंगे और विशाल बनेगा म्युज़िक इंजिनियर!” अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए आ गया हूँ और विशाल ने कर्नाटक में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री शुरू कर दी है. लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता. रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-ऊΠŁस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटाऊРका. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया. चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़ नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा. पूरी दुनिया सामने पड़ी है. हर फूल-पत्ती में आवाज़ छुपी है. बस दिल से सुननेवाला चाहिए. एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित. _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080813/ae1d7134/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Aug 14 11:40:24 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 14 Aug 2008 11:40:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4KSy4KWL?= =?utf-8?b?4KSs4KSyIOCkpOCkvuCkleCkpOCli+CkgiDgpJXgpYcg4KSs4KWA4KSa?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkruCljeCkruCkpCDgpJzgpYHgpJ/gpL7gpKTgpYcg4KSy?= =?utf-8?b?4KWL4KSX?= Message-ID: <829019b0808132310u7119f73em7256d9acf196cd34@mail.gmail.com> *रणेन्द्र सर को लिखी चिट्ठी का बाकी हिस्सा *यह उपन्यास इस अर्थ में भी बेजोड़ है कि इसने पूरी तरह सामाजिक विकास होने के पहले ही धर्म की सत्ता स्थापित होने और उसके सांस्थानिक प्रक्रिया में बदल जाने की पूरी घटना को स्वाभाविक तरीके से चित्रित करता है। धर्म का यह स्वरुप पहले के धर्म की सत्ता से भिन्न इस अर्थ में है कि इसके दरवाजे आगे जाकर पूंजीवाद और राजनीति में खुलते हैं. शोषण के स्तर को बनाए रखने के लिए जिन रुपों में गठजोड़ संभव है, धर्म उन सबके साथ है। इसलिए यह फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि कोशिशें धर्म के जरिए शोषण कायम करने की हो रही है या फिर शोषण के जरिए धर्म ( सत्ता) को बनाए रखने की कवायदें चल रही है। जिस धर्म को विकृत भौतिकतावाद और शोषण के विरोध में होना चाहिए था उस पर भी भौतिक साधनों के जरिए ग्लोबल होने का भूत सवार है। इसलिए अलग दिखने वाले( व्यवस्था से) इस धर्म में ग्लोबल तत्व, राजनीतिक चरित्र, मानसिक विकृति और शोषण के चिन्ह मिलते हैं तो उपन्यास में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. मानसिक विकृति, व्यावसायिक रुझान और सत्ता के वर्चस्व के रुप में जिस तरह से धर्म समाज में स्थापित हो रहा है और होता आया है उसकी सही अभिव्यक्ति यहां मौजूद है। मानव सभ्यता के विकासक्रम में सत्ता के प्रति असहमति के स्वर को जितनी चतुराई से दबाया जाता रहा, एक मानव समुदाय को संस्कृति और जीवनशैली के स्तर पर सम्पन्न होने के बावजूद मनुष्य के वर्चस्ववादी वर्ग ने असुर करार दिया, हेय बताया है, उपन्यास में ये सारा दुश्चक्र कम कुशलता से रेखांकित नहीं किया गया है। इसे मैं सिर्फ समाज के प्रति न्याय करने के प्रयास के तौर पर नहीं देखता बल्कि इसमें दुनिया के हर वर्चस्ववादी सत्ता के प्रतिरोध में उठनेवाले स्वर के समर्थन के रुप में देखता हूं। इसलिए अंत तक आते-आते यह रचना भाषा व्यवहार और परिवेशगत यथार्थ के स्तर पर आंचलिक होते हुए भी शोषितों के पक्ष और समर्थन के स्तर पर ग्लोबल हो जाती है। यानि आर्थिक रुप से ग्लोबल मॉडल को लेकर सिर्फ निर्दोष जंगल ही ग्लोबल नहीं हो रहे, संघर्ष के स्तर पर, इस ग्लोबल मॉडल से लड़ने के स्तर पर विचारधारा भी ग्लोबल हो रही है। यही समाज की ताकत भी है और आपकी व्यवहारिक समझ भी।और फिर जिस ज्ञान और वैश्विकता के दम पर आम आदमी के लिए शोषण के हथियार तेज किए जा रहे हों, आम आदमी के हाथ में वही ज्ञान और वैचारिकी आ जाएं तो इसमें बुरा क्या है। इसलिए आपके उपन्यास के पात्रों के मर-खप जाने के बाद भी संघर्ष की प्रक्रिया जारी रहती है तो उनका मरना भी निरर्थक नहीं लगता। उपन्यास का एक स्वर यह भी है। मैंने अपनी क्षमता से जो कुछ भी समझा, लिख दिया। कथानक पर कोई चर्चा नहीं की, पात्र और घटनाओं को लेते हुए कहीं आगे लिखूंगा। फिलहाल इतना ही। मेरे लिखने से यह सत्यापित हो जाए कि मैंने आपके इस उपन्यास को मन से पढ़ा है तो मेरी उपलब्धि हासिल समझिये । आपका विनीत -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080814/c20a565c/attachment.html From sadanjha at gmail.com Thu Aug 14 12:36:42 2008 From: sadanjha at gmail.com (Sadan Jha) Date: Thu, 14 Aug 2008 12:36:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpK7gpYg=?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuCkv+CkqCDgpK3gpLAg4KSw4KS54KSu4KS+4KSoIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkl+CkvuCkqOClhyDgpLjgpYHgpKjgpKTgpL4g4KSl4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkteCliyDgpLDgpL7gpKQg4KSt4KSwLg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <1a9a8b710808140006x66085145m99d507356aff8901@mail.gmail.com> bahut badhiya lagaa. khaskar mihir ke lekhan ki sangeetdharmita aur anutha bholapan. wishes, sadan. 2008/8/13 : > bahut achhe dada, seedha deewan par daal diijiye na. > > cheers > ravikant > > ravikant > ------ Original Message ------ > Subject: मैं दिन भर रहमान के गाने > सुनता था और वो रात भर. > To: ravikant > From: mihir pandya > Date: Tue, 12 Aug 2008 23:54:03 -0700 (PDT) > > > > > . > > www.mihirpandya.com > > > > यह > कहानी उन लड़कों की है जो > 'शहर' नामक किसी विचार से > दूर बड़े हुए. इसमें > संगीत है, घरों में आते नए > टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का > पानी है, डब्ड > फिल्में हैं, नब्बे के दशक > में बड़े होते बच्चों की > टोली है. कुछ हमारे डर > हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ > है जो हम सबमें एकसा है. > मुझमें और विशाल में > एकसा है. आज जब मैं लौटकर > अपने बचपन को देखता हूँ तो > मुझे एक > 'रहस्यमयी-सा' अहसास होता > है. जैसे बाबू देवकीनंदन > खत्री की 'चंद्रकांता' > पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे > बचपन और शहर के इस अलगाव का > हमारे > व्यक्तित्वों पर असर है. > बाद में हर दोस्त इस विचार > से अपनी तरह से जूझा > है. बचपन किसी 'राबिन्सन > क्रूसो' की तरह टापू पर > बिताया गया समय है. और अब > हम उस टापू को साथ लेकर > अपने-अपने 'शहरों' में > घूमते हैं. कुछ परिचित से, > कुछ बेमतलब. > सुशील ने मुझे 'चकमक' के > लिए ए. आर. रहमान पर > कुछ लिखने को कहा था. और मैं > रहमान पर जो लिख पाया वो ये > है. यह सुशील की > तारीफ ही है कि चकमक में आकर > अब मेरी यह अनसुलझी कहानी > हजारों बच्चों के > पास पहुँचेगी. शुक्रिया > सुशील. > ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. > डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी > सिनेमा ने पंचम को खोया तो > लगा था कि एक दौर ख़त्म हो > गया है. उनकी आखिरी > फ़िल्म का गीत 'एक लड़की को > देखा तो ऐसा लगा' अपने भीतर > उस दौर की तमाम > खूबसूरती समेटे था तो एक > दूसरे गीत 'रूठ न जाना' में > वही शरारत थी जो आर. > डी. के संगीत की ख़ास पहचान > थी. लगा पंचम के संगीत की > अठखेलियाँ और शरारत > अब लौटकर नहीं आयेंगे. > लेकिन तभी दक्षिण भारत से > आई एक डब्ड फ़िल्म 'रोज़ा' > के गीत 'छोटी सी आशा' ने > हमें चमत्कृत कर दिया. इस > गीत में वही बदमाशी और > भोलापन एकसाथ मौजूद था जो > हम अबतक पंचम के संगीत में > सुनते आए थे. ए. आर. > रहमान के साथ हमें हमारा > खोया हुआ पंचम वापिस मिल > गया. > मैं अपने बचपन के दिनों में > रहमान के संगीत वाली हर > फ़िल्म की ऑडियो > कैसेट ज़िद करके ख़रीदा > करता था. यह वो समय था जब > हमारे घर में नया-नया टेप > रिकॉर्डर आया था. हम उसमें > अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर > सुनते थे और वो हमें > किसी और की आवाज़ें लगती थीं. > हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं > पहचान पाते थे. और > हम उसमें रहमान के गाने > सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल > सांगा बहुत अच्छा डाँस > करता था और रहमान की धुनों > पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक > डाँस करता था जो > सिर्फ़ उसे ही आता था. हम > दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन > का बेसब्री से इंतज़ार > करते और हर जन्मदिन की > पार्टी का सबसे ख़ास आइटम > होता विशाल का ब्रेक > डाँस. हर बार हम विशाल से > कहते कि वो हमें अपना डाँस > दिखाए. पहले तो वो > आनाकानी करता लेकिन हमारे > मनाने पर मान जाता. हम कमरे > के सारे > खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. > हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं > था कि कोई और हमें > देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन > करता और कमरे में रहमान का > 'हम्मा-हम्मा' > गूंजने लगता. विशाल अपना > ब्रेक डाँस शुरू करता और हम > बैठकर उसे निहारते. > हमें लगता कि वो एकदम > 'प्रभुदेवा स्टाइल' में > डाँस करता है. हम भी उसके > जैसा डाँस करना चाहते थे. > कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक > डाँस का कोई ख़ास > स्टेप सिखा देता और हम उसे > सीखकर एकदम खुश हो जाते. > थोड़ी ही देर में हम > सारे दोस्त खड़े हो जाते और > सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल > भी कहता कि जब सब > एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे > सबसे ज़्यादा मज़ा आता है. > विशाल को भी गानों का बहुत > शौक था. खासकर रहमान के > गानों का. उसके पास > एक वाकमैन था जिसे कान में > लगाकर वो रात-रात भर गाने > सुना करता था. मैं जब > भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो > वो रातभर के लिए उसे मुझसे > माँगकर ले जाता > था. और रहमान की कैसेट तो > छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं > रहमान के गाने > सुनता और रात में विशाल. उसे > हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं > आती थी. वो अटक अटक > कर हिन्दी बोलता और बीच बीच > में शब्द भूल जाता था. मेरे > नए जूते देखकर > कहता, "छुटकू तेरे ये तो > दूसरों के ये से बहुत अच्छे > हैं!" मुझे 'ये' > सुनकर बहुत मज़ा आता था और > मैं अपने घर आकर सबको ये बात > बताता. लेकिन वो > संगीत में जीनियस था. मेरी > और उसकी पसंद कितनी मिलती > थी. 'दिल से' > के एक-एक गीत को वो हजारों > बार सुनता था. मुझे कहता था, > "पता है छुटकू, ये > रहमान की आदत ही ख़राब है. > जाने क्या-क्या करता है. अब > बताओ, गाने की > शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो > पूरे गाने में ताल की जगह > ट्रेन की आवाज़ को > ही पिरो दिया. पूरे गाने में > ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी > ट्रेन किसी ऊंचे पुल > पर से गुज़र रही हो! कमाल है > इसका भी हाँ." हम दोनों > रहमान के दीवाने थे. > याद है ना.. मैं दिन भर रहमान > के गाने सुनता था और वो रात > भर. मैं घर पर > माँ से कहता. "पता है माँ, > मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर > बनेंगे. गौरव और > रोहित तो सादा इंजिनियर > बनेंगे और विशाल बनेगा > म्युज़िक इंजिनियर!" > अब > तो कई साल हुए विशाल से > मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे > की पढ़ाई के लिए आ गया > हूँ और विशाल ने कर्नाटक > में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री > शुरू कर दी है. लेकिन > आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर > 'हम्मा-हम्मा' सुनता हूँ > तो मेरे पाँव में > थिरकन होने लगती है और उस > वक़्त मुझे विशाल की बहुत > याद आती है. और इसीलिए > रहमान हमारे दौर के आर. डी. > हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता. > रहमान को मालूम है कि हम आधे > से ज़्यादा पानी के बने हैं. > पानी की > आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ > होती है. इसीलिए वो बार-बार > अपने गीतों में इस > आवाज़ को पिरो देते हैं. > 'साथिया' में उछालते पानी > का अंदाज़ हो या 'लगान' में > गरजते बादलों की आवाज़. > 'ताल' में बूँद-बूँद टपकते > पानी की थिरकन हो या 'रोजा' > में बहते झरने की कलकल. > रहमान की सबसे पसंदीदा > धुनें सीधा प्रकृति से > निकलकर आती हैं. वो नए > वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल > में माहिर हैं और नए > गायकों को मौका देने में > सबसे आगे. 'दिल से' के लिए > उन्होंने Dobro गिटार > का उपयोग किया तो 'मुस्तफा-ऊΠŁस्तफा' गीत के लिए Blues गिटाऊРका. अपने गीत > 'टेलीफोन-टेलीफोन' के लिए > उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का > प्रयोग किया. > चित्रा, हेमा सरदेसाई, > मुर्तजा, मधुश्री से लेकर > नरेश aiyer और मोहित > चौहान तक रहमान ने हमेशा नए > और उभरते गायकों को मौका > दिया है. उनका संगीत > लातिन अमेरिका के संगीत को > हिन्दुस्तानी संगीत से और > पाश्चात्य संगीत को > दक्षिण भारतीय संगीत से > जोड़ता है. और उनके बहुत से > गीतों पर सूफि़याना > प्रभाव साफ़ नज़र आता है. > 'दिल से' > के गीतों में ये सूफि़याना > प्रभाव ही था जिसने उसे > रहमान का और हमारे दौर > का सबसे खूबसूरत अल्बम > बनाया है. ये प्रेम की तड़प > को उस हद तक ले जाना है > कि वो प्रार्थना में उठा > हाथ बन जाए. 'लगान' > में वे लोकसंगीत को अपनी > प्रेरणा बनाते हैं और 'घनन > घनन' तथा 'मितवा' में > ढोल का खूब उपयोग मिलता है. > 'राधा कैसे न जले' में > लोकजीवन से जुड़ी > मितकथाओं का और धुन में > बांसुरी का बहुत अच्छा > उपयोग है. 'स्वदेस' > की धुन में स्वागत में बजने > वाली धुनों का इस्तेमाल > एकदम मौके के माफ़िक > है. रहमान के लिए धुनों में > नयापन कभी समस्या नहीं रहा. > पूरी दुनिया सामने > पड़ी है. हर फूल-पत्ती में > आवाज़ छुपी है. बस दिल से > सुननेवाला चाहिए. > > एकलव्य की बाल-विज्ञान > पत्रिका 'चकमक' के अगस्त 2008 > अंक में प्रकाशित. > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Sadan Jha Assistant Professor, Centre for Social Studies. Vir Narmad South Gujarat University Campus. Udhna-Magdalla Road. Surat. Gujarat. India. blog: mamuliram.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Mon Aug 18 13:52:44 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 18 Aug 2008 13:52:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KSfIOCkruClh+CkgiDgpIbgpJXgpLAg4KSV4KWJ4KSo4KWN4KSr?= =?utf-8?b?4KWH4KS24KSoIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg4KSf4KWA4KS1?= =?utf-8?b?4KWAIOCkquCkpOCljeCksOCkleCkvuCksCA/?= Message-ID: <829019b0808180122w417be658k5378ddeb2fb61da6@mail.gmail.com> अधिकांश मीडियाकर्मियों को ऐसा लगता है कि आज भी टेलीविजन के मुकाबले प्रिंट मीडिया लाख गुना अच्छा है। आज भी उसमें बाजार के तमाम दबाबों के बावजूद जर्नलिज्म जिंदा है। शायद यही वजह है कि वो जब टेलीविजन की चिल्लम-पो से उकता जाते हैं, सो कॉल्ड पत्रकारिता के नाम पर बकबास करते-करते झल्ला जाते हैं तो अखबारों को पकड़ लेते हैं। आठ साल-दस साल के बाद उन्हें फिर से सत्य का ज्ञान होता है कि- नहीं अभी तक जो कर रहे थे, वो सब छल था, अब वाकई पत्रकारिता करनी चाहिए। इस बीच फ्लैट के लिए लोन की किस्त भी पूरी हो जाती है, इसलिए माल कम भी मिले तो भी काम करने में परेशानी नहीं होती। हालांकि माल कम मिलता नहीं है। यह रघुवीर सहाय की हिन्दी नहीं है जो सिर्फ मुटाती जाती है, ये हिन्दी मीडिया है जो बाजार के माल से न केवल थुल-थुल हुई है बल्कि पहले से कहीं ज्यादा दुधारु हुई है, पैसा इसमें भी है। प्रिंट के पत्रकारों ने भले ही जमीनी स्तर पर तेजी से अपना हुलिया नहीं बदला हो लेकिन माल उन्हें भी टेलीविजन के लोगों से कम नहीं मिलते। खैर, टीवी मीडिया में दूसरे तरह के वे मीडियाकर्मी हैं जो टीवी में ही बने रहना चाहते हैं। ये उनका समर्पण कहें, मोह कहें या फिर आदत। बोलने की भी आदत खराब होती है, ड्रग्स से भी खराब, इसका इलाज सिर्फ है, पहले से ज्यादा बोलना। ज्ञान देने के लोभ से वो टीवी छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन उनका मन करता है कि वे अपनी बातों को, अपने अनुभवों को, मीडिया के ज्ञान को अखबार के पाठकों तक पहुंचाएं। एक तो पहुंच पहले से ज्यादा बढ़ती है, अच्छा सोचने और लिखने का लेबल लगता है, लोगों के बीच ये मैसेज जाता है कि- देखो, बंदा टीवी में रहकर भी इसके भीतर के खोखलेपन को कितनी हिम्मत से लिख रहा है, सबमें ऐसा करने का करेजा नहीं होता। लोग ऐसे मीडियाकर्मियों की ईमानदारी पर रीझ मरते हैं। साथ ही ये जो आम धारणा बनती जा रही है कि टीवी में काम करनेवाले लोग बुद्धिजीवी हो ही नहीं सकते , वो इससे भी बरी हो जाते हैं और बुद्धिजीवी कहलाने का सुख भी मिल जाता है। ग्लैमर, स्टेटस का कॉम्बी पैक । आप टीवी पत्रकारिता कर रहे मीडियाकर्मियों की बातों पर गौर करें। आप एक बार में ही अंदाजा लगा लेंगे कि ये जो कुछ भी कह रहे हैं, वो तो हम सब भी कहते हैं, टेवीविजन की जिन बातों से हमें असहमति है, उससे वे भी असहमत होते हैं। मतलब आज टीवी चैनलों के विरोध में जितना हम बोलते-बतियाते हैं, उतना तो ये भी बोलते हैं। टीवी के अंदर का बंदा भी टीवी से उतना ही असहमत है जितना कि टीवी के बाहर का दर्शक या आम आदमी। इसे आप टीवी मीडियाकर्मियों की ईमानदारी कह सकते हैं, आप इसे उसकी छटपटाहट कह सकते हैं। और वो जो लगातार प्रिंट में लिख रहे हैं, उसे फर्स्ट हैंड एक्सपीरियेंस कह सकते हैं। लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी भर है। टीवी में काम करते हुए जो भी लोग प्रिंट में लिख रहे हैं, वे नौसिखुए लोग नहीं है, नए मीडियाकर्मी नहीं है कि फ्रस्ट्रशेन में जो मन में आया लिख दिया। ये वो लोग हैं जिन्हें मीडिया का अच्छा-खासा अनुभव है, जिनकी चैनलों के भीतर अच्छी-खासी पैठ है। वो डिसिजन मेकिंग बॉडी में हैं, उनके हिसाब से काफी कुछ चीजें तय होती हैं। हम जैसे लोगों के जाने पर बताते हैं कि खबर क्या है औऱ क्या नहीं। हम जिसे खबर मानकर शूट कर लाते हैं, वो उनके लिए खर-पतवार है, एक सिनिकल स्टेज है और उनके मुताबिक हमें जल्द से जल्द इससे उबरना चाहिए। लेकिन प्रिंट में आकर फिर यही लोग उन सब बातों पर लिख जाते हैं, लगातार लिख रहे हैं जिसे कि पाठ्यक्रम पढ़कर और संस्थानों से पत्रकारिता करके नए-नए मीडियाकर्मी चैनल में पत्रकारिता करने आते हैं। चैनल में जो चीजें नए मीडियाकर्मियों के लिए सिनिकल, नास्टॉल्जिक और कोरी भावुकता है, प्रिंट में आते ही इन अनुभवी टेलीविजन मीडियाकर्मियों के लिए सीरियस जर्नलिज्म, सच्ची पत्रकारिता। ....तो क्या हम ये मान लें कि प्रिंट माध्यमों में वो ताकत है जो कि अनुभवी से अनुभवी टीवी मीडियाकर्मियों को टीआरपी से हटकर घोर सामाजिक स्तर पर सोचने और लिखने को मजबूर कर देता है, उनकी कलम( अब कीबोर्ड) समाज से शुरु होती है और समाज पर जाकर खत्म होती है। उन्हें एहसास कराती है कि मीडियाकर्मी होने के पहले तुम एक संवेदनशील इंसान हो। या फिर इससे भी अलग कि इन टीवी मीडियाकर्मियों के लिए प्रिंट मीडिया एक कॉन्फेशन सेंटर है। जहां आकर वे थर्ड पर्सन में लिखकर सबकुछ बयान कर दें कि- मीडिया के नाम पर न्यूज रुम में क्या-क्या होता है। खबरों के नाम पर लोगों के सामने कूडे का अंबार लगाया जा रहा है। ये हमें जानकारी देने से ज्यादा अपना मन हल्का करने के लिए लिख रहे हैं। कॉलेज के दिनों में ये काम हमने चर्च के फादर के सामने खूब किया है। साहित्य में ये काम विद्यापति और घनानंद जैसे मूर्धन्य कवियों ने खूब किया है। जीवनभर नायिका-भेद और श्रृंगार परक रचनाओं के लिखने बाद अंत में उन्हें लगा कि- अब तक हमनें जो कुछ भी किया, वो ठीक नहीं था, हमें ये सब नहीं करना चाहिए था । अंतिम दौर में उन्होंने जो पद लिखे हैं, उसे पढ़कर आपको अंदाजा लग जाएगा कि वे अबतक के अपने किए गए कर्म को पाप समझ रहे हैं और ईश्वर पर लिखकर प्रायश्चित करना चाहते हैं।... तो टीवी के अनुभवी मीडियाकर्मी, प्रिंट में लिखकर कुछ ऐसा ही कर रहे हैं या फिर अपनी अनुभूति की प्रामाणिकता हमारे सामने पेश कर रहे हैं। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-82 Size: 11688 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080818/057f1f4f/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Tue Aug 19 18:03:27 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 19 Aug 2008 18:03:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: 21 August 'Partition: The Long Shadow' Closing Cultural Programme Message-ID: <200808191803.27450.ravikant@sarai.net> shaayad kuchh naya zaayka lekar aaye hain is baar apne Mahmood bhai. aap sab log aayein. ravikant *The Heinrich Boll Foundation, India Habitat Centre, Max Mueller Bhavan and Zubaan are pleased to invite you to an evening of song, poetry and performance--the closing event of the year-long series, Partition: The Long Shadow Thursday, 21 August 2008 7.00 pm Stein Auditorium India Habitat Centre Vardhaman Marg New Delhi 110003* (entry from gate no 3) The programme will feature: *Partition Dastans* by Anusha Rizvi, Danish Husain and Mahmood Farooqui Building upon previous Dastangoi presentations on Partition, the performers focus on the experiences of Indian Muslims to bring alive untold stories: of those who wished to return but could not, those who wanted to stay but were forced out, those who belong not to maps or boundaries but to South Asia as a whole. *Partition poetry* Brief readings by poets and writers. *Songs of Connectivity* Madan Gopal Singh and musicians. *All are welcome!* Please click hereto unsubscribe from the mailing list - --~--~---------~--~----~------------~-------~--~----~ To post to this group, send email to kafila at googlegroups.com For more options, visit this group at http://groups.google.com/group/kafila -~----------~----~----~----~------~----~------~--~--- ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Aug 20 15:03:02 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 20 Aug 2008 15:03:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Re=3A_Fwd?= =?utf-8?b?OiDgpLjgpYvgpLLgpY3gpJzgpLzgpYfgpKjgpL/gpKTgpY3gpLjgpL/gpKgg?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCktuCkguCkleCksCDgpLbgpLDgpKM=?= Message-ID: <200808201503.02109.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान]Fwd: सोल्ज़ेनित्सिन पर शंकर शरण Date: शनिवार 16 अगस्त 2008 16:26 From: "manoj kumar" To: ravikant at sarai.net Shankar Sharan saahab. salaam, Soljhenistin par aapki writing padhi.yeh lekh unki mrityu ke baad shrandhjali roop mein likha hai aur isi kaaran aapne kaphi sambhal kar likha hai. second world war ki soviet satta tanashahi purn thi... Sarvashaktimaan nahi. yadi aisa hota to uska patan hi kyon hota? aapne Mikhail Sholokhov ke havaale se ek comment kiya hai. Kripaya reference de ke baat karen to jyada aachaa ho.... Soljhenisin ki mahanata bataane ke liye aapne bagair koi vishwast sandarbh diye Tolstoy ke baad inkaa naam gina diya....Gorky,Dostoevyaski, Turgnyev.... Sabko ek line se najar andaaz kar diya.....Khair aapki ichha. Soljhenitsin par santulit hokar baaten hoina chahiye. manoj kumar On 8/12/08, Ravikant wrote: > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: सोल्झेनित्सिन पर शंकर शरण > Date: मंगलवार 12 अगस्त 2008 04:30 > From: "anurag vats" > To: > > Monday, August 11, 2008 > > http://vatsanurag.blogspot.com/ > > सोल्झेनित्सिन पर शंकर शरण > ( सोल्ज़ेनित्सिन सिर्फ नोबेल प्राप्त एक साहित्यकार भर नहीं थे। वे उसी रूस > से थे जहाँ तोल्स्तोय > और गोर्की हुए, क्रांति और कम्युनिज्म का नारा बुलंद हुआ और जिसकी अकल्पनीय > परिणति यातना शि > विरों के रूप में हुई। सोल्ज़ेनित्सिन उसी त्रासद दौर के लेखक थे। उन्होंने > व्यवस्था विरोध की कीमत > चुकाई। निर्वासित हुए। प्रतिबन्ध झेला। फिर भी लिखा। उनका लिखा दस्तावेजी > महत्व रखता है। > उनके लेखन को कम्युनिज्म विरोधी मानकर अलक्षित करना दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वे > हमारे लिए एक > ज़रूरी लेखक हैं। इन मायनों में भी कि उनके ज़रिए हम उस अंधी गली में दाखिल > होने का जोखिम उठाते > हैं जिससे बचने या जी चुराने से हमारे भीतर विचारधारा और उसकी व्यावहारिक > परिणति के प्रति > आलोचनात्मक रिश्ते के शिथिल पड़ने की गुंजाइश बढ़ जाती है। हम शंकर शरण के आभारी > हैं जिन्होंने हमारा आग्रह मान सोल्ज़ेनित्सिन के अवदान पर यह लेख लिखा। > उन्होंने > सोल्ज़ेनित्सिन की कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। ) > > > सोल्ज़ेनित्सिन की विरासत > > शंकर शरण > > सोल्ज़ेनित्सिन का लेखन अपने ढंग की विधा है। उस में कथा, संस्मरण, जीवनी, > विवरण, विश्लेषण और > इतिहास जीवंत रूप में गुँथे हैं। उस की कलात्मक शक्ति और सौंदर्य पढ़कर स्वयं > अनुभव करने की चीज है। > कैंसर वार्ड, पहला घेरा, गुलाग, लाल चक्र जैसे उपन्यास ग्रंथ हों अथवा > "मैत्र्योना का घर", "हम > कभी गलती नहीं करते" जैसी लंबी कहानियाँ – सोल्झेनित्सिन के लेखन में प्रत्येक > कहा-अनकहा शब्द, ध्वनि, रिक्त स्थान, विभिन्न विराम-चिन्ह तक अत्यंत गहरे > अर्थों से संपृक्ति हैं। > एक पाठ में कई उप-पाठ छिपे हैं, जिन पर संकेत भर कर के छोड़ दिया गया। > > यह उन के लेखन की विशेषता थी। प्रत्येक शब्द, प्रत्येक चिन्ह मस्तिष्क में या > कागज पर स्थान और > समय लेता है – इसलिए स्थान अनावश्यक न घेरना, उस का और समय का मूल्य पहचानना। > अतः वही लिखो, जो नितांत आवश्यक, सार्थक और मूल्यवान हो। इस अर्थ में भी गुलाग > आर्किपेलाग > (1968) अपने तरह की अकेली रचना है। अपनी किशोरावस्था, युवावस्था, सैनिक सेवा, > जेल और यातना शिविरों में – अर्थात कोई तीस-पैंतीस वर्षों तक – सोल्झेनित्सिन > ने सोवियत संघ में > जो देखा, महसूस किया था उसे, तथा असंख्य अन्य रूसियों की बातों को भी कहने के > लिए उन्हें अपने > तरह की विधा - 'लिटररी इन्वेस्टीगेशन' - बनानी पड़ी। इस में तथ्य-संग्रहण, > जीवनी, संस्मरण, > पत्र-लेखन, शोध, बयान, टिप्पणियाँ, समाचार-कतरन और विश्लेषण आदि अनेक तत्व > हैं। > > बिना गुलाग पढ़े उस की विराट, लोमहर्षक सच्चाई, किसी तानाशाही द्वारा अपने ही > लोगों पर पा > गलपन भरा और अविश्वसनीय अत्याचार, दशकों तक करोड़ों रूसियों द्वारा झेली गई > असह्य वेदना, > आदि को समझा ही नहीं जा सकता। पढ़ कर लगता है कि सोल्झेनित्सिन ने सोच-समझ कर > यह विधा > नहीं बनाई। अपनी अनुभूत बातों को सर्वोत्कृष्ट ढंग से कहने की उत्कट इच्छा और > अदम्य प्रयास से > लेखन का वह अनोखा रूप आप ही आप रूपायित होता गया जिसकी बदौलत गुलाग आर्किपेलाग > बीसवीं > शती की संपूर्ण विश्व में सबसे महत्वपूर्ण कथा-इतर (नॉन फिक्शन) पुस्तक मानी > गई। > > किंतु रोचक तथ्य यह है कि जिस लेखन ने उस समय सर्वशक्तिमान प्रतीत होने वाली > सोवियत सत्ता की > नींव हिला दी, उस में कम्युनिस्ट अत्याचारियों के लिए कोई कटुता, भड़काऊ शब्द > नहीं था। चाहे > ईवान डेनिसोविच के जीवन का एक दिन के सौ पृष्ठ हों, अथवा गुलाग आर्किपेलाग के > तीन हजार > पृष्ठ – सोल्झेनित्सिन का लेखन प्रतिशोध या आंदोलन के आवाहनों से नितांत मुक्त > है। तब क्या था जि > स ने सोवियत कम्युनिज्म की चूल हिला दी? यहाँ तक कि मिखाइल शोलोखोव जैसे > लेखक-नेता ने सा > र्वजनिक रूप से हाथ मले कि सोल्झेनित्सिन जैसा 'जिद्दी कीड़ा' यातना-शिविरों > से जीवित क्यों बच > कर आ गया! सोल्झेनित्सिन के लेखन की शक्ति इस बात में थी कि उस ने सोवियत > व्यवस्था की > अमानवीयता और पाखंड को मानो एक विराट् आईने में उतार दिया था। संयत, सधे पर > अत्यंत कलात्मक > रूप में। आइना इतना जीवंत था कि सोवियत प्रचारतंत्र सोल्झेनित्सिन को 'विदेशी > एजेंट' जैसी घि > सी-पिटी पुरानी कम्युनिस्ट गाली के सिवा कोई उत्तर न दे सका। क्योंकि > सोल्झेनित्सिन ने एक शब्द > भी अप्रमाणिक नहीं लिखा था, न उन का मूल्यांकन अतिरंजित था। वह कठोर, पर सजीव > सत्य > से भरा था जिसके समक्ष सर्वशक्तिमान कम्युनिस्ट तानाशाही थरथरा गई थी। > > यह सोल्झेनित्सिन की अनमोल विरासत है। उन्होंने एक बार लेखकों से कहा भी थाः > कभी ऐसा एक शब्द > भी न लिखो जिसे तुम स्वयं सत्य नहीं समझते हो। चाहे किसी उद्देश्य से, दूसरों > के दिए विचारों या > नारों को न दुहराओ यदि तुमने स्वयं उस की सच्चाई नहीं परख ली। किंतु उन की > विरासत केवल इतने > तक सीमित नहीं है। लेखन और चिंतन की विराटता, कलात्मक सौष्ठव, गहन दार्शनिक > अवलोकन और > आध्यात्मिक भाव के कारण ही रूस में लेव टॉल्सटॉय के बाद सोल्झेनित्सिन को ही > उस स्तर का > लेखक-चिंतक माना गया। यह अनुभव करने के लिए गुलाग आर्किपेलाग के तीन वृहत > खंडों, तथा कई खंडों > में इतिहासात्मक कृति लाल चक्र को पढ़ना चाहिए। > > ( सोल्झेनित्सिन का गए चार अगस्त को ८९ साल की उम्र में निधन हो गया। ) > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Thu Aug 21 15:08:01 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 21 Aug 2008 15:08:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkuOCkruCkvuCknCDgpJXgpL4g4KSV4KWL4KSfIOCklA==?= =?utf-8?b?4KSwIOCksuCkguCkl+Cli+CknyDgpJXgpLLgpY3gpJrgpLA=?= Message-ID: <829019b0808210238g9410caev7cce7fae6409a335@mail.gmail.com> परसों मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि साहित्यिक गोष्ठियों में जो विषय रखे जाते हैं, उसे कुछ लोग विषय के बजाय खूंटी समझ लेते हैं और उसमें कोट से लेकर लंगोट तक लटकाने लग जाते हैं। इस मजाकिया अंदाज में बोलकर पाण्डेयजी भले ही थोड़ी देर के लिए ऑडिएंस का ध्यान अपनी ओर खींचना चाह रहे हों लेकिन हिन्दी समाज की एक बड़ी सच्चाई तो जरुर सामने आ जाती है। हिन्दी समाज में साहित्यिक या फिर दूसरे विषयों पर बोलने वालों में एक बड़ी बीमारी है जिसे आप कभी न बदलनेवाली लत भी कह सकते हैं कि वो दुनियाभर की बात करेंगे। संभव है वो इतिहास, समाजशास्त्र और साइंस पर लम्बा बोल जाएं लेकिन उस विषय पर कुछ भी नहीं बोलेंगे जिस पर बोलने के लिए उन्हें बुलाया गया है, जनता जिन्हें सुनने के लिए गिरते-पड़ते १२- १४ किलोमीटर तक बस में धक्के खाकर आती है। आत्म-मुग्धता के शिकार ये वक्तागण बार-बार ये साबित करने की फिराक में होते हैं कि वो हिन्दी में भले ही हैं लेकिन उन्हें बाकी विषयों की भी उतनी ही गहरी समझ है जितनी कि और लोगों को होती है। एक ही साथ कई विषयों पर सरमान अधिकार साबित करने के चक्कर में ऑय-बॉय कुछ भी बोल जाते हैं। कहीं एक-दो अंग्रेजी अखबार से रेफरेंस दे दिया, कोई रशियन या फिर फ्रेंच लेखक की एक-दो पंक्ति झोंक दी।...और विद्वान कहलाने की दावेदारी ठोकने लग गए। दिन-रात हिन्दी में ही आंख गड़ाए रखनेवाले श्रोता आतंकित होते हैं, प्रभावित होते हैं और आंखे फाड लेते हैं। बीए और एमए के बच्चे तो एकदम से घबरा जाते हैं कि- यहां बारह-चौदह घंटे हिन्दी पढ़कर पचपन प्रतिशत नंबर बनाना मुश्किल होता है और येलोग हिन्दी में रहकर भी अंग्रेजी और फ्रैंच कैसे पढ़ लेते हैं। जो लोग लेखक और लेक्चरर बनने की प्रक्रिया में होते हैं औऱ संयोग से वक्ता उन्हीं की लॉबी का हो तो वे हो-हो करके एक स्वर में कहने लग जाते हैं- अरे यही तो इनकी खासियत है, अंग्रजी उतना जानते हैं जितना कि एडहॉक में अंगरेजी पढ़ानेवाले लोग भी नहीं जानते हैं। सभागार में भय और आतंक का महौल बनता है, वक्ता भीतर ही भीतर मुस्कराते हैं, चलो कुछ तैयारी नहीं भी करके आने पर जादू चल गया। अघोरी वाला काम किया है और अंदर ही अंदर मुदित हो रहा है कि तीर मार दिया है. कैसे इन लोगों को घिन नहीं आती है कि सालों से एक ही माल को फेंट-फाट कर चला रहा है, डिब्बा तक बदलने की जरुरत नहीं समझता। कुछ रेगुलर और कुछ समझदार लोगों को सारी बातें तो समझ में आ जाती है कि वक्ता वही सब बोलेंगे जो वो तय करके आए हैं, आयोजक चाहे जो भी विषय रख दे। हां ये बात समझने में थोड़ी परेशानी जरुर हो रही है कि पाण्डेयजी ने कोट किसे कहा और लंगोट किसे कहा। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-4915 Size: 5731 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080821/28d1e5f5/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Fri Aug 22 13:42:55 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 22 Aug 2008 13:42:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSC?= =?utf-8?b?IOCkueCliOCkgiDgpIbgpKosIOCkheCkrCDgpJXgpLngpL7gpIIg4KSs?= =?utf-8?b?4KS/4KSV4KSk4KWHIOCkueCliOCkgiDgpLDgpYfgpKHgpL/gpK/gpYs=?= Message-ID: <829019b0808220112j7d010c2cl5a2d629cdd6c2bfe@mail.gmail.com> आप किस दुनिया में जीते हैं साहब, अब भला कोई रेडियो खरीदता है। गया वो जमाना, हम अब अपनी दुकान में रेडियो रखते ही नहीं। दो दुकानों में रेडियो है पूछने और जबाब में नहीं होने पर मेरी चिंता बढ़ गयी कि क्या वाकई आनेवाले समय में रेडियो मिलना बंद हो जाएगा। कैम्प की यह इलेक्ट्रॉनिक की सबसे बड़ी दुकान है। कई एजेंसियां अपने विज्ञापनों में इस दुकान का नाम देती है. मैंने खुद यहां से बहुत सामान लिए हैं औऱ दोस्तों के लिए भी आया हूं। एफ.एम चैनल पर मुझे एक लेख लिखना था। मैंने सोचा क्यों न इस बार अपना एक रेडियो खरीद लूं। एम.फिल के दौरान पूरे सालभर तक रेडियो पर काम करता रहा और मांग-मांगकर काम चलाता रहा। अब पहले वाली बात नहीं रह गयी कि रेडियो, आयरन और हीटर जैसी छोटी-मोटी चीजें लोगों से मांगे और खासकर तब जबकि हॉस्टल में हर तीन लड़के पर एक लैपटॉप हो। मेरी इधर कई दिनों से इच्छा भी हो रही थी कि एक रेडियो लूं और लेख भी लिखना था सो रेडियो खरीदने यहां आ गया। रेडियो खरीदने की शर्त थी कि मुझे सिर्फ रेडियो खरीदनी है। आप इसे आज के समय में टिपिकल कह सकते हैं। लेकिन यकीन मानिए सिर्फ रेडियो हो तो उसके सुनने का अलग ही मजा है। दुकानदार मुझे दुनियाभर के टू इन वन दिखा रहा है। फिलिप्स, सोनी, पैनासॉनिक औऱ पता नहीं किस-किसके। मैं साफ ही कह रहा था कि नहीं भाई मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए। पहले तो उसे लगा कि ऐसा मैं पैसे के कारण कह रहा हूं। उसने हजार-बारह सौ रुपये के भीतर के म्यूजिक सिस्टम दिखाना शुरु किया। मैं बेमन से नहीं लेनेवाली नजरों से देखता रहा और अंत में कहा- नहीं, मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए, उसके साथ कुछ भी नहीं। तब उसने जबाब दिया- कहां है साहब, अब कोई सिर्फ रेडियो खरीदता है, ले जाइए इसे, दोनों मजा मिलेगा। मुझे सिर्फ एक मजा चाहिए था, मैंने मना कर दिया और पूछा कि- चलो इतना बता दो कि कहां मिलेगा। उसने कहा- इधर तो कहीं नहीं मिलेगा, चले जाइए चांदनी चौक। मोबाइल, आइपॉड, गाडियों और टू इन वन में रेडियो के होने से नो डाउट रेडियो सुनने का प्रचलन पहले से कई गुना बढ़ा है लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि रेडियो बिकने पहले से बहुत कम हो गए हैं। अब बहुत कम ही लोग सिर्फ रेडियो लेते हैं। लेकिन मेरा अपना मानना है कि जो चीजें जिस काम के लिए बनायी गयीं हैं, उसे उसी रुप में इस्तेमाल किए जाएं। इसलिए टीवी खरीदते समय मेरे एक सीनियर ने टीवी ट्यूनर लगे अपने कम्प्यूटर पकड़ाने की कोशिश की तो मैंने साफ कहा- नहीं सर, अगर कम्प्यूटर खराब हो गया तो फिर टीवी से भी गए, अलग-अलग लेना ही ठीक होता है। रेडियो को लेकर मैं शुरु से ही बहुत भावुक रहा हूं। इसलिए जब दुकानदार ने कहा कि अब कहां मिलते हैं रेडियो तो भावुकतावश पुराने दिनों में चला गया। मर्फी की रेडियो से सुनना शुरु किया था। पापा को दहेज में नाना ने दिए थे वो रेडियो। उस जमाने मे रेडियो की हैसियत टीवी से कम नहीं हुआ करती थी, साइज भी कमोवेश उतनी ही हुआ करती। मुझे याद है वो रेडियो अंतिम बार मैंने अपनी जेबखर्च से अस्सी रुपये लगाकर बनवाए थे। उसके बाद उसकी कुछ ऐसी चीज खराब हो गयी कि घर के कोने में- नाना की याद में- का कैप्शन लगाकर रखने की हो गयी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया और रांची आने पर मां से एक-दो बार उसके बारे में पूछता रहा। मां ने बताया कि- उसका सब हाड-गोड छितरा गया है। यानि उसके सारे पुर्जे इधर-उधर हो गए हैं। बाद में मेरे चचरे भाई ने रेडियो मरम्मत सीखने के क्रम में उसे पूरी तरह शहीद कर दिया। उसके बाद घर में संतोष का रेडियो आया। पापा उसे या तो बाजा कहते या फिर ट्रांजिस्टर, रेडियो कभी नहीं कहा। इसे तीन-चार महीनों तक हमें हाथ लगाने के लिए नहीं दिया गया। घर में अगर आपके साथ जरुरत से ज्यादा अनुशासन बरते जाते हों तो मामूली चीजें भी बहुत रहस्यमयी और कीमती हो जाती है। पापा और बड़े भाइयों ने शायद इसलिए ऐसा किया होगा कि हमें यह कीमती और रहस्यमयी लगे। दीदी से हाथ-पैर जोड़ता तो रेडियो बजाती, नहीं तो उस पर कॉपीराइट सिर्फ पापा का ही था। एकाध-साल बाद रेडियो में कुछ-कुछ खराबी आने लगी और पापा उसे आप ही ठीक कर लेते। कभी हैंडल टूटता, कभी स्विच टूटता औऱ बैटरी लगाने के बाद उपर का ढक्कन तो हमेशा ढीला हो जाता, सो उसे अलग ही रख देते। गांव और कस्बों में अधिकांश लोग जब रेडियो बजाते थे, खासकर संतोष तो बैटरी के उपर कवर नहीं होते और वो नंगी दिखायी देती। बीड़ी गोदाम और पेटीकोट जहां सिलते थे, वहां मैंने ऐसा खूब देखा है। जब रेडियो के पार्ट-पुर्जे ज्यादा टूट जाते और वो ऐसा लगने लग जाता कि दंगे से उठाकर लायी गयी हो, तब पापा उसे पिंकी मिस्त्रीवाले के यहां ले जाते। पापा तो सुबह दूकान चले जाते और एक ही बार रात को आते लेकिन घर में सबसे छोटा होने की वजह से हमें यह काम दे देते कि- जाकर पता करते रहना कि रेडियो मरम्मत का काम हो गया या नहीं। अब हम दिनभर में दो बार तो जरुर जाते और कभी अकड़ से कि- पापा ने कहा है कि जल्दी करे, काम हर्जा हो रहा है और कभी खुशामद से कि परसों तक दे दो, अबकि बार बिनाका गीतमाला छोड़ना नहीं चाहता। मिस्त्री अंत में उबकर बना देता। लेकिन इसमें भी मेरी फजीहत हो जाती। एक तो पापा की तरफ से ऑर्डर नहीं था कि मैं उसे घर लाउं, मेरा काम सिर्फ बनने की सूचना देनी थी। दूसरा कि पापा के जाते ही मिस्त्री शिकायत करता कि- आपका लड़का तो रेडियो के बारे में पूछ-पूछकर जीना हराम कर देता है। आपको इतनी ही जल्दी रहती है तो कहीं और बनवाया कीजिए। वो जानता था कि पापा ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि पापा को लगता था कि बाकी के मिस्त्री संतोष का ऑरिजिनल पार्ट निकालकर लोकल डाल देंगे। इसलिए पापा कहते- कोई नहीं, अभी जाकर पूछता हूं। पापा घर आते और एक ही बात कहते- तुम्हें पूछने कहता हूं कि मिस्त्री का खाना-पीना मुहाल करने। अच्छा, कई बार ऐसा होता कि हड़बड़ी में मिस्त्री कुछ काम छोड़ देता। तब भी पापा यही कहते, अकबकाकर मांगेगा तो इसमें मिस्त्री क्या करेगा। पापा समझने लग गए थे कि ये अपनी गरज से इतनी बार पूछता है। बोर्ड तक आते-आते मुझमें इतनी हिम्मत हो गयी थी कि एकबार दो सौ रुपये जमाकर मैंने खुद से एक रेडियो खरीद लिया। मेरे स्कूल का एक दोस्त मरम्मती का काम करता था और कम दाम में मिल जाने की बात से मैंने उसके कहने पर खरीद लिया था। घर में लोगों ने पूछा कि तुमने अलग से रेडियो क्यों खरीद लिया ? मैंने कहा-खरीदा कहा है, फंसा है। पापा ने रात में क्लास ली थी कि- फंसा है, माने। मैंने डरते-डरते जबाब दिया था कि- हां लॉटरी में फंसा है। इतना सुनना था कि पापा शुरु हो गए। पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस और रेडियो और जुआ। जो करम खानदान में कोई नहीं किया, वो काम ये करेगा। मैंने बाद में डरते-डरते बताया कि रोज स्कूल जाने पर जो पैसे मिलते हैं और नानी ने जो पैसे दिए थे उससे लिया हूं। मुझे लगा, तब कुछ राहत मिलेगी। लेकिन...मामला कुछ उल्टा ङी पड़ गया था। घर से पहली बार पढ़ाई के लिए बाहर निकलने पर पापा ने यही रेडियो मरम्मत कराकर और चमकाकर दिए थे। अवचेतन मन में यही सारी बातें मुझे अलग से रेडियो खरीदने के लिए उकसा रही थी। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 15546 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080822/3460efd2/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Fri Aug 22 17:14:16 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 22 Aug 2008 17:14:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSl4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KS54KWL4KSk4KWN4KS44KS1LTIwMDg=?= Message-ID: <200808221714.16260.ravikant@sarai.net> अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन द्वारा आयोजित • अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन की ओर से कथा महोत्सव २००८ के लिए हि न्दी कहानियाँ आमंत्रित की जाती हैं। • दस चुनी हुई कहानियों को एक संकलन के रूप में में वैभव प्रकाशन, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया जाएगा और भारतीय साहित्य संग्रह से www.pustak.org पर ख़रीदा जा सकेगा। • इन चुनी हुई कहानियों के लेखकों को ५ हज़ार रुपये नकद तथा प्रमाणपत्र सम्मान के रूप में प्रदान किए जाएँगे। प्रमाणपत्र विश्व में कहीं भी भेजे जा सकते हैं लेकिन नकद राशि केवल भारत में ही भेजी जा सकेगी। • महोत्सव में भाग लेने के लिए कहानी को ईमेल अथवा डाक से भेजा जा सकता है। ईमेल द्वारा कहानी भेजने का पता है- teamabhi at abhivyakti-hindi.org डाक द्वारा कहानियाँ भेजने का पता है- रश्मि आशीष, संयोजक- अभिव्यक्ति कथा महोत्सव-२००८, ए - ३६७ इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016, भारत • महोत्सव के लिए भेजी जाने वाली कहानियाँ स्वरचित व अप्रकाशित होनी चाहिए तथा इन्हें महोत्सव का निर्णय आने से पहले कहीं भी प्रकाशित नहीं होना चाहिए। • कहानी के साथ लेखक का प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि यह रचना स्वरचित व अप्रकाशित है। • प्रमाण पत्र में लेखक का नाम, डाक का पता, फ़ोन नम्बर ईमेल का पता व भेजने की तिथि होना चाहिए। • कहानी के साथ लेखक का रंगीन पासपोर्ट आकार का चित्र व संक्षिप्त परिचय होना चाहिए। • कहानियाँ लिखने के लिए A - ४ आकार के काग़ज़ का प्रयोग किया जाना चाहिए। • ई मेल से भेजी जाने वाली कहानियाँ एम एस वर्ड में भेजी जानी चाहिए। प्रमाण पत्र तथा परिचय इसी फ़ाइल के पहले दो पृष्ठों पर होना चाहिए। फ़ोटो जेपीजी फॉरमैट में अलग से भेजी जा सकती है। लेकिन इसी मेल में संलग्न होनी चाहिए। फोटो का आकार २०० x ३०० पिक्सेल से कम नहीं होना चा हिए। कहानी यूनिकोड में टाइप की गई हो तो अच्छा है लेकिन उसे कृति, चाणक्य या सुशा फॉन्ट में भी टाइप किया जा सकता है। • कहानी का आकार २५०० शब्दों से ३५०० शब्दों के बीच होना चाहिए। • कहानी का विषय लेखक की इच्छा के अनुसार कुछ भी हो सकता है लेकिन उसमें मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था होना ज़रूरी है। • इस महोत्सव में नए, पुराने, भारतीय, प्रवासी, सभी सभी देशों के निवासी तथा सभी आयु-वर्ग के लेखक भाग ले सकते हैं। • देश अथवा विदेश में हिन्दी की लोकप्रियता तथा प्रचार प्रसार के लिए चुनी गई कहानियों को आवश्यकतानुसार प्रकाशित प्रसारित करने का अधिकार अभिव्यक्ति के पास सुरक्षित रहेगा। लेकिन नि र्णय आने के बाद अपना कहानी संग्रह बनाने या अपने व्यक्तिगत ब्लॉग पर इन कहानियों को प्रकाशि त करने के लिए लेखक स्वतंत्र रहेंगे। • चुनी हुई कहानियों के विषय में अभिव्यक्ति के निर्णायक मंडल का निर्णय अंतिम व मान्य होगा। • कहानियाँ भेजने की अंतिम तिथि १५ नवंबर २००८ है। • यह विवरण http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/2008/kathamahotsav2008.htm पर वेब पर भी देखा जा सकता है। पूर्णिमा वर्मन टीम अभिव्यक्ति From ravikant at sarai.net Fri Aug 22 17:26:04 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 22 Aug 2008 17:26:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruCkqCDgpK7gpYfgpIIg4KS54KWAIOCkmuClgeCklSDgpLjgpJU=?= =?utf-8?b?4KSk4KWAIOCkueCliA==?= Message-ID: <200808221726.04128.ravikant@sarai.net> सबद से साभार http://vatsanurag.blogspot.com/2008/08/blog-post_20.html Wednesday, August 20, 2008 बही - खाता : संजय खाती ( सबद में कहानी को लेकर कोई बात नहीं हो रही थी। इस बाबत कुछ स्नेही बंधुओं ने उलाहना भी दि या। हमने आश्वस्त किया था कि जल्द ही कथा की बात होगी। कथाकारों से आग्रह किया कि वे अपनी रचना-प्रक्रिया पर एकाग्र गद्य हमारे पाठकों के लिए लिखें ताकि उनकी कथा-कहानी की कुछ और सिम्तें खुलें। 'बही-खाता' नामक यह स्तंभ हम हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार संजय खाती से शुरू कर रहे हैं। इनकी कहानियां बेसब्र प्रतीक्षा के बाद सामने आती हैं और चाव से पढ़ी जाती हैं। 'पिंटी का साबुन' और 'बहार कुछ नहीं था' दो संग्रह प्रकाशित हैं। ) कहानी मन में ही चुक सकती है संजय खाती रचना प्रक्रिया पर जितना मैं सोचता हूं, यह पहेली उलझती जाती है। जिस मन से हम रचते हैं, क्या हम उसके स्वामी हैं ? जो हम रचते हैं, क्या वह हमारी कृति है ? जैसा कि हम जानते हैं मानव मस्ति ष्क कुदरती विकास की देन है और अब इस बात के ज्यादा से ज्यादा सबूत साइंटिस्ट पेश कर रहे हैं कि दिमाग का जो कोर है, वह लगभग स्वायत्त तरीके से काम करता है। एक मन अपनी प्रतिभाओं के साथ हमें दे दिया गया है, जो माहौल से विकसित होता है और हम ज्यादा से ज्यादा जो कर सकते हैं, वह यही कि उसे पहचानें और उसके खिलने के लिए माहौल तैयार करते रहें। कला जब जन्म लेती है, तो क्या होता है ? आनंद ने जब कथा सुननी चाही, तो बुद्ध ने कहा था कि मानवों की कोई कथा नहीं हो सकती, क्योंकि वहां दुःख ही दुःख है। देवताओं की भी कोई कथा नहीं हो सकती, क्योंकि वहां सुख ही सुख हैं। यानी कहानी तभी हो सकती है जब सुख और दुःख के बीच की कोई स्थिति हो, यानी कलाकार एक ऐसी भावभूमि का जीव होता है, जो मर्त्यलोक और देवलोक के बीच कहीं अवस्थित है। हर कथा एक मानवीय दैवीय अनुभूति है, लेकिन वह धर्म नहीं है, क्योंकि वह निर्वान की कामना नहीं कर सकती, क्योंकि उसे बीच के उस झुटपुटे में टिके रहना है -- अपने आनंद और अभिशाप के साथ। मेरी कहानी स्मृतियों से शुरू होती है -- किसी बिन्दु या विचार की तरह, जो किसी छवि की तरह उभरता है। फिर उसे कथा में बदलना एक मानवीय श्रम है -- बहुत लंबा मानवीय श्रम। मैं कभी कोई कहानी एक सिटिंग में एक ड्राफ्ट में नहीं लिख सका। मेरे लिए यह श्रमबहुल कार्य है, जिसे मैं भरसक टालता हूँ, क्योंकि श्रम से दूर और आराम की तरफ भागना मन का सहज व्यवहार है। कहानी को मन में बुनना जितना आनंददायक है, उतना उसे शब्दों में उतारना नहीं -- और कई बार यह हो सकता है कि मन में ही उसका होना चुक जाए, आस्वाद पूरा हो जाए और कहानी कभी पैदा न हो सके। शा यद यह कविता के ज्यादा अनुकूल है, लेकिन मैंने कथा को चुना है और इसलिए मुझे बार-बार विचार की उस लौकिकता की ओर ख़ुद को धकेलना पड़ता है, जो श्रम शक्ति और समय की मांग करती है। अपनी प्रेरणाओं में मैं बहुत से लोगों को पाता हूँ। लगभग सभी को जिनका लिखा और कहा मुझे किसी नए विचार या अनुभव की रोशनी देता है। यहाँ तक कि जे के रोलिंग्स को भी, इसलिए कि बिना ओछे हुए रहस्य का वितान गढ़ लेना एक दुर्लभ गुण है। मैं लगभग हर चीज़ पढ़ता हूँ, बल्कि साहित्य से ज्यादा, क्योंकि विचार की दुनिया बहुत बड़ी है, उस पर साहित्यकारों की मनोपली नहीं है। असल खोज अंतर्दृष्टि की है -- उस चाबी की, जो यथार्थ में एक सुराख बनाती है और हमें मानवता के मर्म की झलक देती है। साहित्य ही नहीं, सारा ज्ञान-विज्ञान इसी खोज में लगा है। मेरा मानना है कि साहित्यकारों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे ही सारे सवालों का जवाब दे देंगे। उन्हें ज्ञान के तमाम अनुशासनों से रोशनी चुरानी चाहिए और तब उसे जीवन से जोड़ने का काम करना चाहि ए, जो सिर्फ़ वही कर सकते हैं। साहित्य मानवीय नियति का दस्तावेज़ है, लेकिन वह कोई टापू नहीं है। मैं उपन्यास नहीं लिख सका, जबकि कहा जाता है कि उपन्यास मानव नियति का आख्यान है। शायद यह ग़लत है। मानव नियति की सबसे अच्छी पहचान हमें छोटी-छोटी बोधकथाएं कराती हैं। महाकाव्यों से ज्यादा हमें दो लाइन की कविताएं और एक लाइन की सूक्तियां रास्ता सुझाती हैं। एक छोटा सा चुटकुला संसार पर सबसे अच्छा कमेंट हों सकता है और व्यास और वाल्मीकि तमाम दैवीय सहायता के बा वजूद एक लतीफा नहीं लिख सकते। मैं उसी सूक्ष्म और सरल की ओर लौटना चाहता हूँ -- कहानियों से भी लघु कथा की ओर। From ravikant at sarai.net Fri Aug 22 17:31:33 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 22 Aug 2008 17:31:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSu4KS/?= =?utf-8?b?4KSa4KSC4KSm4KWN4KSwIOCknOCliOCkqCDgpKzgpJXgpLzgpYzgpLIg4KS5?= =?utf-8?b?4KWD4KS34KS/4KSV4KWH4KS2IOCkuOClgeCksuCkrQ==?= Message-ID: <200808221731.33559.ravikant@sarai.net> सबद से ही साभार. रविकान्त ( लेखकों को याद करने का हमारा ढंग इस कदर रवायती या देखादेखीपन का शिकार है कि किसी सच्चे-खरे लेखक की उसके अवदान के बिना पर याद हमें अब शायद ही आती है। नेमिचंद्र जैन उन कम लेखकों में से थे जिन्होंने हिन्दी को अपनी बहुविधात्मक रचनाशीलता से न सिर्फ़ समृद्ध किया, उसे अनेक वर्षों तक पोसते भी रहे। उन जैसा जिम्मेदार जतन दुर्लभ है, इसलिए उन्हें याद किया जाना उस जिम्मेदारी को महसूसना भी है। इस बार रंगायन में सुलभजी के मार्फ़त नेमिजी। ) वे सिसृक्षा का बीज रोपते थे हृषीकेष सुलभ उनकी कई छवियाँ मेरे मन में अंकित हैं। उनसे हुई मुलाक़ातें स्मृति में जीवित हैं। मुझे यह स्वीकारते हुए रंचमात्र भी संकोच नहीं कि अगर मैं उनसे नहीं मिला होता, तो शायद आज नाटक नहीं लिख रहा हो ता। यह जानकर कि मैं कहानियाँ लिखता हूँ और रंगकर्म करता हूँ, उन्होंने नाटक लिखने और इसके लिए तैयारी करने की सलाह दी थी। मेरे जैसे न जाने कितने लोगों के भीतर उन्होंने सिसृक्षा के बीज रोपे होंगे! अपने जीवंत सम्पर्क से वह इसे अंकुरित होने के लिए पर्यावरण देते और अपनी अनुभवसिद्ध सजग आँखों से देखरेख भी करते। मेरे नाटकों (अमली और माटीगाड़ी) का प्रदर्शन देखने के बाद उन्होंने मुझे मैला आँचल को रूपांतरित करने की सलाह दी। मैं साहस नहीं कर पा रहा था, पर उन्होंने मेरे भीतर यह विश्वास पैदा किया कि मैं यह कर सकता हूँ और दबाव बनाए रखा। मैला आँचल का फैलाव मेरे विश्वास को डिगाता रहा और मेरे ऊपर उनका भरोसा प्रोत्साहन देता रहा। वे पहले प्रदर्शन के अवसर पर पटना में उपस्थित भी थे। नाट्यालेखों या नाट्य प्रस्तुतियों पर बातचीत करते या लिखते हुए प्रसिद्ध लोगों की कमज़ोरियों की ओर संकेत करने में वे कभी संकोच नहीं करते और नए लोगों के महत्त्वपूर्ण काम और उनकी प्रयोगधर्मिता को हमेशा उदारता के साथ रेखांकित करते। नेमिजी कवि थे। तारसप्तक के कवि। हिन्दी कविता के विकास में तारसप्तक का योगदान निर्विवाद है। वे आलोचक थे और उन्होंने हिन्दी उपन्यास की आलोचना का स्थापत्य गढ़ा। रंगमंच की दुनिया में अपनी सक्रियता के लिए वह परिस्थितियों को जिम्मेवार मानते थे। इप्टा आंदोलन से अपने गहरे संबंध के बावजूद उनका मानना था कि रंगमंच निजी तौर पर उनका विषय नहीं था। पहले संगीत नाटक अका दमी और फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़ने के बाद उन्होने रंगमंच के प्रति जो दयित्व अनुभव किया उसने उन्हें गहन अध्ययन के लिए प्रेरित किया। उनके अध्ययन और उनकी सक्रियता और कविता तथा आलोचना की दुनिया के अनुशासन ने उन्हें रंगसमीक्षा और रंगचिंतन के क्षेत्र में शिखर पर पहुँचाया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय रंगजगत को अपनी साधना और चिंतन से उन्होंने समृद्ध किया। नेमिजी का सांस्कृतिक जीवन कम्युनिस्ट आंदोलन के बीच उपजा और उन्होंने अपने लिए यहीं से दृढ़ता अर्जित की। इसी दृढ़ता ने उन्हें कम्युनिस्ट आंदोलन की रूढ़ियों से मुक्त रखा। वे उज्जवल भाव से समाज की समस्त सुगबुगाहटों और हलचलों के प्रति उत्सुक और जिज्ञासु बने रहे तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए अपरिहार्य बनते गए। नेमिचंद्र जैन हिन्दी में आधुनिक नाट्यालोचना के जनक माने जाते हैं। उन्होंने साहित्यिक मूल्यों के सा थ-साथ रंगमूल्यों के प्रश्न उठाए। नाट्यालेख को रंगमंच से काटकर परखने और विश्लेषित करने की परम्परा को अनुचित बताया। नाटक के पाठ के भीतर छिपे रंगतत्त्वों की खोज के लिए नाट्यालोचना के नए उपकरणों को आविष्कृत किया। हिन्दी के पास रंगप्रस्तुति की समीक्षा की कोई परम्परा नहीं थी। साहित्यिक धारणाओं के आधार पर ही प्रस्तुतियों का मूल्यांकन होता आया था। नेमिजी ने नाटक रचे जाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया के विविध आयामों को अपनी अलोचना-पद्धति में शामि ल करते हुए उसके लिखे जाने, मंचित होने और दर्शकों तक पहुँचने के क्रम को एक सूत्र में बाँधा। उन्होंने इसे समग्र प्रक्रिया के रूप में रेखांकित किया। दृश्यकाव्य कहे जाने वाले नाटक की काव्यात्मक संवेदना के साथ-साथ रंगकर्म के व्यवहार-पक्ष को भी हमेशा महत्त्व दिया। नेमिजी की इस दृष्टि ने भारतेन्दु और प्रसाद जैसे नाटककारों तक पहुँचने के लिए रास्तों की खोज की। नाटक की भाषा को लेकर उनकी समझ बिल्कुल साफ़ थी कि ‘‘ उसमें भाव, विचार और चित्र तीनों को वहन करने का सामर्थ्य तो हो, पर फिर भी वह बोलचाल की भाषा से बहुत दूर न हो। ’’ नेमिजी का जन्म 16 अगस्त सन् 1919 को और देहावसान 24 मार्च सन् 2005 को हुआ। अपने दीर्घ जी वनावधि में उन्होंने भरपूर लेखन किया। तारसप्तक की कविताओं के अलावा अचानक हम फिर और एकांत शीर्षक दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए। अधूरे साक्षात्कार को उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में वि शेष प्रतिष्ठा प्राप्त है। रंग आलोचना पर केंद्रित रंगदर्शन, रंग परम्परा, तीसरा पाठ, दृश्य-अदृश्य, भारतीय नाट्य परम्परा आदि कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं। नाटकों के अनुवाद और मुक्तिबोध रचनावली सहित अन्य कई ग्रंथों का उन्होंने संपादन किया। उनकी रचनाओं का विपुल भंडार हिन्दी की सृजनशील परम्परा की धरोहर हैं। सृजन की दुनिया में नवाचार के प्रति नेमिजी की उत्सुकता चकित करती थी। परम्परा के प्रति वे बेहद सजग थे। उन्होंने परम्परा को कभी पुनरुत्थानवादी दृष्टि से नहीं देखा और हमेशा परम्परा के प्रति संवेदनशीलता के साथ नवाचार की वकालत की। उनका मानना था कि भारतीय रंगमंच को रचनात्मक तरीके़ से समकालीन जीवन के अनुभवों से अपने को लैस करना चाहिए और यह तभी सम्भव है, जब हम अपने पारम्परिक और शास्त्रीय रंगमंच के प्रति गम्भीर हों और अपने लिए मौलिक मुहावरा विकसित करें। नेमिजी की आलोचना और आस्वाद की समझ में रूढ़िवादिता नहीं थी। नेमिजी से मिलना हमेशा सुखद होता था। मिलते ही एक आत्मीय मुस्कान तिरती। वे बेहद गम्भीर व्यक्ति थे, पर उनकी संयमित हँसी का कोई सानी नहीं था। जिज्ञासाओं और प्रश्नों का जवाब देते हुए वे कभी अधीर नहीं होते और न ही सामनेवाले को अपने ज्ञान से आतंकित करते। वे विनम्र थे और दृढ़ भी। From ravikant at sarai.net Fri Aug 22 17:40:13 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 22 Aug 2008 17:40:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSbIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KSX4KS54KWAIOCksuCli+CkleCkl+ClgOCkpA==?= Message-ID: <200808221740.13180.ravikant@sarai.net> रवि रतलामी के रचनाकार से साभार http://rachanakar.blogspot.com/2008/08/blog-post_8291.html (1) कहवाँ में रोपबई हरी केबड़ा अहो रामा कहवाँ में रोपबई बेइलिया अहो रामा। नइहरा में रोपबई हरी केबड़ा अहो रामा ससुरा में रोपबई बेइलिया अहो रामा। पनिए पटयबई हरी केबड़ा अहो रामा दूधवे पटयबई बेइलिया अहो रामा। काँचे सुते गुथबई हरी केबड़ा अहो रामा रेसम सुते गुथबई बेइलिया अहो रामा। के मोरा पेन्हतन हरी केबड़ा अहो रामा के मोरा पेन्हतन बेइलिया अहो रामा। भइया मोरा पेन्हतन हरी केबड़ा अहो रामा सइयाँ मोरा पेन्हतन बेइलिया अहो रामा। (2) हवा बहे रसे-रसे घुमड़इ कजरिया, जिया कहे चल-चल पिया के नगरिया। जहिया से सइँया मोरा गेलन विदेसवा, आवे न अपने न भेजे कोई सनेसवा। लिलचा के रह जाहे ललकल नजरिया. जिया कहे चल-चल पिया के नगरिया। जाड़ा जड़ाई गेलई सउँसे ई देहिया, गरमी में सब जरई सबरे सनेहिया। जियरा डेराय रामा छाय घटा करिया जिया कहे चल-चल पिया के नगरिया। (3) बेटा के बाप बुरकबवा गे माई। पढ़लो पंडित बेटा बेचलन गे माई। बेटी के बाबूजी मोसाफिर गे माई। कुर्सी बइठल जोग किनलन गे माई। अंगना बइठल दुलहा रोवथिन गे माई। बाबा समेते दादी बेचलन गे माई। चउका बइठल बेटी हँसगल गे माई। आज बाबा नोकर खरीदलन गे माई। (4) मचिया बइठल तू अम्मा तो सुनहूँ बचन मोरा हे। ललना हम लिपबई भाभी के सउरिया कंगनबाँ लेई लेबइन हे। सउरी पइसल तुहूँ बहुआ त सुनहूँ बचन मोरा हे। ललना दई देहूँ धिया के कंगनवा, धिया देस दूर बसे हे। कंगनवे कारन पिया देश गेलन अउरो विदेस गेलन हे। ललना न देबइन ननदी कंगनवाँ, ननदिय देस-दूर बसे हे। चुप रह चुप रह बहिनी, त सुनहूँ बचन मोरा हे। हम करबो दूसर बिआह कंगनवाँ हम दिलाई देबो हे। इतना बचनियाँ धनियाँ सुनलन, सुनहूँ न पौलन हे। ललना झटसिन फेंकले कंगनवाँ अंगनवाँ बीच हे। ललना ल न छिनरियो कंगनवाँ सवतिया बनके रहहूँ न हे। (5) मैं तो अकेली राजा घर न लुटाऊँगी, घर न लुटाऊँगी, नेग भी चलाऊँगी। मैं तो अकेली राजा घर न लुटाऊँगी, सासु अइहें किया मोरा होइहें। देवता मनाने अपनी मइया को बुराऊँगी, मैं तो अकेली राजा घर न लुटाउँगी। गोतनी नहीं अइहें किया मोरा होइहें, हलुआ घाटन अपनी भाभी को बुराऊँगी। मैं तो अकेली राजा घर न लुटाऊँगी, ननदी न अइहें किया मोरा होइहें। काजर पारन को बहिनी को न बुलाउँगी, मैं तो अकेली राजा घर न लुटाऊँगी। (6) सावन के सहनइया भदोइया के किचकिच हे, सुगा-सुगइया के पेट, वेदन कोई न जानये हे। सुगा-सुगइया के पेट, कोइली दुःख जानये हे, एतना वचन जब सुनलन, सुनहूँ न पयलन हे। पकी दिहले हथवा कुदारी बबूर तर हे, डाँड़ मोरा फाटहे करइलो जाके, ओटियो चिल्हकि मारे हे। राजा का कहूँ दिलवा के बात, धरती अन्हार लागे हे। ---- साभार – मगही लोकगीत के वृहद संग्रह – ले.-सं. डॉ. राम प्रसाद सिंह, सहायिका – लालमणि कुमा री. प्रकाशक – मगही अकादमी, बिहार, पटना 1999 From vineetdu at gmail.com Sat Aug 23 15:31:10 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 Aug 2008 15:31:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCksA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkruClh+CkgiDgpKrgpL/gpJjgpLIg4KSX?= =?utf-8?b?4KSPIOCkmyDgpLjgpL7gpLIg4KSV4KWHIOCkheCkpOClgOCkpA==?= Message-ID: <829019b0808230301y5093b1c5lafb0025b4c44ce1f@mail.gmail.com> कैम्पवाले भायजी के कहने पर मैं चांदनी चौक चला गया रेडियो खरीदने। पहले तो रेडियो की एक दूकीन के आगे पांच मिनट खड़ा हुआ और जीभरकर रेडियो देखे। दुकानदार ने पूछा भी कि आपको कौन-सी रेडियो और कितने दाम तक के चाहिए। मैंने कहा-अभी रुको भाई, पहले कुछ देर देख तो लेने दो तसल्ली से। एक साथ बहुत सारे रेडियो देखकर मन बहुत खुश हो रहा था। एक ख्याल भी आया कि दो-तीन एक ही साथ खरीद लेता हूं, पता नहीं कब लुप्त हो जाए। म्यूजियम में बाल-बच्चों को ले जाकर दिखाना पड़े, इससे बेहतर है कि घर में ही मिल जाए। दुकानदार एक-एक करके दीखाता जा रहा था और बार-बार उसके दाम भी बताता। मैं चुपचाप देख रहा था। मैंने दुकानदार का ज्यादा समय नहीं लिया और सीधे कहा- ये दे दो। उसने फिर कहा- पहले तो ये एक हजार पिचानवे में आते थे, अब दाम गिरा है, आठ सो पांच दे दीजिए। मैंने आगे कहा-देख लो भइया, कोई गुंजाइश हो तो। उसने कहा- वाकई आप रेडियो के कद्रदान लगते हैं, कहां कोई आठ सौ लगाकर सिर्फ रेडियो खरीदता है, सब तो हजार-बारह सौ में सीडी प्लेयर लेने के चक्कर में होते हैं। अब आपसे मोल-तोल करने में ठीक भी नहीं लग रहा, चलिए आप सात सौ पचास दे दीजिए, आपको इसे बिजली से चलाने के लिए एडॉप्टर तो नहीं चाहिए। मैं उसे बिना बिजली के बैटरी से ही चलाना चाहता था, सो उसने झट से बीपीएल की तीन बैटरी डाल दी. रेडियो में बड़ी लगनेवाली बैटरी मैं करीब सात-आठ साल के बाद देख रहा था। खरीदे हुए तो इससे भी ज्यादा समय हो गए होंगे। अपने पास जो भी चीजें है, उसमें डूरा सेल की पेंसिल बैटरी ही लगती है. मुझे याद है, तब एक बैटरी की कीमत पांच से छह रुपये रही होगी। लेकिन तीन बैटरी के दूकानदार ने ४५ रुपये लिए। अब बैटरी के उपर लोहे के पत्तर लगे होते हैं. छुटपन में जब था तो इसके उपर कागज लगे होते। जब बैटरी खत्म हो जाती तो कागज गल जाते। मां इस बैटरी को चूरकर सूप रंगा करती। एक तो इससे सूप की मजबूती बढ़ जाती और दूसरा कि बांस के रेशे जिसके चुभने का डर होता, वह भी खत्म हो जाता। कोयले के चूरे में डालती औऱ पानी के साथ मिलाकर गुल बनाती। मां का कहना था कि इससे चूल्हा ठीक से जलता है और ताव ज्यादा आते हैं। खैर,रेडियो लेकर सीधे राकेश सर के घर पहुंचा। चन्द्रा दीदी ने देखते ही कहा, मेरा भी बहुत दिन से मन हो रहा है कि एक रेडियो खरीदूं। मैंने उन्हें कई बार कहा-आप इसे रख लीजिए, मैं दूसरा खरीद लूंगा। मेरे बार-बार कहने पर भी राकेश सर ने ऐसा नहीं करने दिया। मैं चाहता था कि दीदी वो रेडियो रख ले, भले ही बदले में पैसे दे दे। इसलिए नहीं कि उनका मन हो रहा था, बल्कि भीतर कुछ ऐसा है कि लगता है, ज्यादा से ज्यादा लोग रेडियो खरीदें और सुनें।बार-बार लगता है कि रेडियो से देश का कुछ तो जरुर भला हो सकता है। यह एक संभाव्य माध्यम है। हॉस्टल पहुंचते ही स्टडी टेबल पर रेडियो को रखा और लोहे के एरियल को पूरा खींच दिया, बहुत लम्बा एरियल। गांव के लोग सिग्नल अच्छी आने के साथ-साथ जान-बूझकर अकड़ में एरियल खींचे होते हैं। लेकिन आज रेडियो कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई अकड़ दिखाए। आज अगर कोई रेडियो को लेकर अकड़ता है तो या तो वो चंपक है या फिर एब्नार्मल। मैंने तीन दिनों तक पूरा एरियल खींचकर रेडियो बजाया। इस बीच कमरे में कई लोग आए और रेडियो के बारे में इतना पूछा जितना कि किसी के लैपटॉप या फिर मेरे टीवी खरीदने पर भी नहीं पूछा था। लैपटॉप, टीवी और आइपॉड खरीदना आज के लिए कॉमन है लेकिन रेडियो खरीदना आज के लिए कॉमन नहीं है। सालों बाद आकाशवाणी सुन रहा था, मीडियम बेब सुन रहा था. करीब छ-साल का यह अंतराल ऐसा लग रहा था कि इस बीच बहुत कुछ बदला ही नहीं है। बीए पार्ट वन और उसके बाद सीधे पीएच।डी। इसके बीच का कुछ अता-पता ही नहीं। अतीत ऐसे भी पिघल जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चला। एफ.एम की क्लीयरिटी के बीच मीडियम बेब की घरघराहट और दो स्टेशनों के बीच की हीहहीहीही... की आवाज से अब खुन्नस नहीं देशीपन का एहसास हो रहा है, बचपन में लौट आने का एहसास हो रहा है, एफ.एम की लोकप्रियता की वजह से अब लोग रेडियो को एफ.एम कहने लगे है, अब सचमुच रेडियो का एहसास होने लगा है. मोबाइल के आने के बाद तो रेडियो शब्द भी गायब होने लग गए। लोग सीधे एफ.एम वाला मोबाइल कहने लगे हैं। एक ही साथ लग रहा था कि कई चीजें लौट आयीं है. अच्छा, मजे की बात देखिए कि मेरे रेडियो खरीदते ही हॉस्टल के कई लोगों मे रेडियो को लेकर एक बार फिर से जोश चढ़ा है। मुन्ना ने बूफर लगाकर रेडियो बजाना शुरु कर दिया है। दिवाकर जिस टू इन वन को कबाड़ा समझकर फेंक दिया था, अब हमसे पूछ रहा है कि इसका टेप काम कर रहा है, रेडियो नहीं, कहां बनेगा। मैंने तिमारपुर के उस मिस्त्री का पता बताया जो हीटर से लेकर मेरे सोनी और नोकिया का इयरफोन कई बार बना चुका है और वो भी बीस से तीस रुपये में। नीरजजी जल्द ही घर जानेवाले हैं और गोरखपुर में पड़े रेडियो को लेकर आएंगे। उनका रुमी भास्करजी ने सीडी के साथ-साथ आकाशवाणी का इन्द्रप्रस्थ चैनल भी सुनना शुरु कर दिया है। ये देखा-देखी करने का काम बचपन में खूब हुआ करता था। मां इसे देखाहिस्की में जुंगार छूटना कहती। अचानक कोई व्यापारी या लूडो या स्टोर में पड़ा कैरमबोर्ड उठा लाता और एक-दो दिन खेलने लग जाता तो फिर से मरा हुआ ट्रेंड जिंदा हो जाता। आनन-फानन में बिलटुआ के दूकान के सारे पेंडिंग माल निकल जाते। रेडियो को लेकर काश ऐसा हो तो मजा आ जाए। कोई बंदा दुनियाभर की चीजों से मजे करने के बजाय रेडियो सुनने लगता है तो मुझे लगता है उसकी जिंदगी में कुछ बेहतर होने वाला है और मुझे इसके लिए उकसाने में उतना सुख मिलता है जितना किसी को किसी का धर्मांतरण करने पर भी शायद ही मिलता हो। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-304 Size: 12462 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080823/b8226e72/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Sat Aug 23 16:46:57 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 23 Aug 2008 16:46:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCksA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkruClh+CkgiDgpKrgpL/gpJjgpLIg4KSX4KSP?= =?utf-8?b?IOCkmyDgpLjgpL7gpLIg4KSV4KWHIOCkheCkpOClgOCkpA==?= In-Reply-To: <829019b0808230301y5093b1c5lafb0025b4c44ce1f@mail.gmail.com> References: <829019b0808230301y5093b1c5lafb0025b4c44ce1f@mail.gmail.com> Message-ID: <200808231646.57980.ravikant@sarai.net> बहुत ख़ूब विनीत, आवाज़ की दुनिया की सैर कराते रहने का शुक्रिया. रेडियो तो रेडियो, इसमेँ तो बैटरी के पुनर्चक्रण की गाथा भी निराली है, लेकिन हम सब के लिए शायद भोगा हुआ यथार्थ. सिर्फ़ एक चीज़ को थोड़ा समझाना होगा. कोयले के चूरे से गुल बनाया जाता था, यानी कोयले के बुरादे आप शेष ज्वलनशील चीज़ोँ मेँ लपेट देते थे, उनको गीला कर देते थे, फिर लड्डू-जैसा बाँध देते थे ताकि वह सुखाकर चूल्हे मेँ डालने पर लोहे के जंगले में अटक जाए, जो बुरादे की शक्ल में मुमकिन नहीं था. देखाहिस्की बहुत अच्छा लफ़्ज़ है, बस जुंगार छूटना समझा दो. रविकान्त शनिवार 23 अगस्त 2008 15:31 को, vineet kumar ने लिखा था: > कैम्पवाले भायजी के कहने पर मैं चांदनी चौक चला गया रेडियो खरीदने। पहले तो > रेडियो की एक दूकीन के आगे पांच मिनट खड़ा हुआ और जीभरकर रेडियो देखे। > दुकानदार ने पूछा भी कि आपको कौन-सी रेडियो और कितने दाम तक के चाहिए। मैंने > कहा-अभी रुको भाई, पहले कुछ देर देख तो लेने दो तसल्ली से। एक साथ बहुत सारे > रेडियो देखकर मन बहुत खुश हो रहा था। एक ख्याल भी आया कि दो-तीन एक ही साथ > खरीद लेता हूं, पता नहीं कब लुप्त हो जाए। म्यूजियम में बाल-बच्चों को ले जाकर > दिखाना पड़े, इससे बेहतर है कि घर में ही मिल जाए। > > दुकानदार एक-एक करके दीखाता जा रहा था और बार-बार उसके दाम भी बताता। मैं > चुपचाप देख रहा था। मैंने दुकानदार का ज्यादा समय नहीं लिया और सीधे कहा- ये > दे दो। उसने फिर कहा- पहले तो ये एक हजार पिचानवे में आते थे, अब दाम गिरा है, > आठ सो पांच दे दीजिए। मैंने आगे कहा-देख लो भइया, कोई गुंजाइश हो तो। उसने > कहा- वाकई आप रेडियो के कद्रदान लगते हैं, कहां कोई आठ सौ लगाकर सिर्फ रेडियो > खरीदता है, सब तो हजार-बारह सौ में सीडी प्लेयर लेने के चक्कर में होते हैं। > अब आपसे मोल-तोल करने में ठीक भी नहीं लग रहा, चलिए आप सात सौ पचास दे दीजिए, > आपको इसे बिजली से चलाने के लिए एडॉप्टर तो नहीं चाहिए। मैं उसे बिना बिजली के > बैटरी से ही चलाना चाहता था, सो उसने झट से बीपीएल की तीन बैटरी डाल दी. > > रेडियो में बड़ी लगनेवाली बैटरी मैं करीब सात-आठ साल के बाद देख रहा था। खरीदे > हुए तो इससे भी ज्यादा समय हो गए होंगे। अपने पास जो भी चीजें है, उसमें डूरा > सेल की पेंसिल बैटरी ही लगती है. मुझे याद है, तब एक बैटरी की कीमत पांच से छह > रुपये रही होगी। लेकिन तीन बैटरी के दूकानदार ने ४५ रुपये लिए। अब बैटरी के > उपर लोहे के पत्तर लगे होते हैं. छुटपन में जब था तो इसके उपर कागज लगे होते। > जब बैटरी खत्म हो जाती तो कागज गल जाते। मां इस बैटरी को चूरकर सूप रंगा करती। > एक तो इससे सूप की मजबूती बढ़ जाती और दूसरा कि बांस के रेशे जिसके चुभने का > डर होता, वह भी खत्म हो जाता। कोयले के चूरे में डालती औऱ पानी के साथ मिलाकर > गुल बनाती। मां का कहना था कि इससे चूल्हा ठीक से जलता है और ताव ज्यादा आते > हैं। खैर,रेडियो लेकर सीधे राकेश सर के घर पहुंचा। चन्द्रा दीदी ने देखते ही > कहा, मेरा भी बहुत दिन से मन हो रहा है कि एक रेडियो खरीदूं। मैंने उन्हें कई > बार कहा-आप इसे रख लीजिए, मैं दूसरा खरीद लूंगा। मेरे बार-बार कहने पर भी > राकेश सर ने ऐसा नहीं करने दिया। मैं चाहता था कि दीदी वो रेडियो रख ले, भले > ही बदले में पैसे दे दे। इसलिए नहीं कि उनका मन हो रहा था, बल्कि भीतर कुछ ऐसा > है कि लगता है, ज्यादा से ज्यादा लोग रेडियो खरीदें और सुनें।बार-बार लगता है > कि रेडियो से देश का कुछ तो जरुर भला हो सकता है। यह एक संभाव्य माध्यम है। > हॉस्टल पहुंचते ही स्टडी टेबल पर रेडियो को रखा और लोहे के एरियल को पूरा खींच > दिया, बहुत लम्बा एरियल। गांव के लोग सिग्नल अच्छी आने के साथ-साथ जान-बूझकर > अकड़ में एरियल खींचे होते हैं। लेकिन आज रेडियो कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई > अकड़ दिखाए। आज अगर कोई रेडियो को लेकर अकड़ता है तो या तो वो चंपक है या फिर > एब्नार्मल। मैंने तीन दिनों तक पूरा एरियल खींचकर रेडियो बजाया। इस बीच कमरे > में कई लोग आए और रेडियो के बारे में इतना पूछा जितना कि किसी के लैपटॉप या > फिर मेरे टीवी खरीदने पर भी नहीं पूछा था। लैपटॉप, टीवी और आइपॉड खरीदना आज के > लिए कॉमन है लेकिन रेडियो खरीदना आज के लिए कॉमन नहीं है। सालों बाद आकाशवाणी > सुन रहा था, मीडियम बेब सुन रहा था. > करीब छ-साल का यह अंतराल ऐसा लग रहा था कि इस बीच बहुत कुछ बदला ही नहीं है। > बीए पार्ट वन और उसके बाद सीधे पीएच।डी। इसके बीच का कुछ अता-पता ही नहीं। > अतीत ऐसे भी पिघल जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चला। एफ.एम की क्लीयरिटी के बीच > मीडियम बेब की घरघराहट और दो स्टेशनों के बीच की हीहहीहीही... की आवाज से अब > खुन्नस नहीं देशीपन का एहसास हो रहा है, बचपन में लौट आने का एहसास हो रहा है, > एफ.एम की लोकप्रियता की वजह से अब लोग रेडियो को एफ.एम कहने लगे है, अब सचमुच > रेडियो का एहसास होने लगा है. मोबाइल के आने के बाद तो रेडियो शब्द भी गायब > होने लग गए। लोग सीधे एफ.एम वाला मोबाइल कहने लगे हैं। एक ही साथ लग रहा था कि > कई चीजें लौट आयीं है. > अच्छा, मजे की बात देखिए कि मेरे रेडियो खरीदते ही हॉस्टल के कई लोगों मे > रेडियो को लेकर एक बार फिर से जोश चढ़ा है। मुन्ना ने बूफर लगाकर रेडियो बजाना > शुरु कर दिया है। दिवाकर जिस टू इन वन को कबाड़ा समझकर फेंक दिया था, अब हमसे > पूछ रहा है कि इसका टेप काम कर रहा है, रेडियो नहीं, कहां बनेगा। मैंने > तिमारपुर के उस मिस्त्री का पता बताया जो हीटर से लेकर मेरे सोनी और नोकिया का > इयरफोन कई बार बना चुका है और वो भी बीस से तीस रुपये में। नीरजजी जल्द ही घर > जानेवाले हैं और गोरखपुर में पड़े रेडियो को लेकर आएंगे। उनका रुमी भास्करजी > ने सीडी के साथ-साथ आकाशवाणी का इन्द्रप्रस्थ चैनल भी सुनना शुरु कर दिया है। > ये देखा-देखी करने का काम बचपन में खूब हुआ करता था। मां इसे देखाहिस्की में > जुंगार छूटना कहती। अचानक कोई व्यापारी या लूडो या स्टोर में पड़ा कैरमबोर्ड > उठा लाता और एक-दो दिन खेलने लग जाता तो फिर से मरा हुआ ट्रेंड जिंदा हो जाता। > आनन-फानन में बिलटुआ के दूकान के सारे पेंडिंग माल निकल जाते। रेडियो को लेकर > काश ऐसा हो तो मजा आ जाए। > > कोई बंदा दुनियाभर की चीजों से मजे करने के बजाय रेडियो सुनने लगता है तो मुझे > लगता है उसकी जिंदगी में कुछ बेहतर होने वाला है और मुझे इसके लिए उकसाने में > उतना सुख मिलता है जितना किसी को किसी का धर्मांतरण करने पर भी शायद ही मिलता > हो। From vineetdu at gmail.com Sat Aug 23 16:55:49 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 23 Aug 2008 16:55:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCksA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkruClh+CkgiDgpKrgpL/gpJjgpLIg4KSX?= =?utf-8?b?4KSPIOCkmyDgpLjgpL7gpLIg4KSV4KWHIOCkheCkpOClgOCkpA==?= In-Reply-To: <200808231646.57980.ravikant@sarai.net> References: <829019b0808230301y5093b1c5lafb0025b4c44ce1f@mail.gmail.com> <200808231646.57980.ravikant@sarai.net> Message-ID: <829019b0808230425t41caf184p90adb2e802dcf852@mail.gmail.com> जुंगार छूटने का मतलब है किसी चीज को लेकर बेचैन हो जाना. वैसे सही मुहावरा है बुढापे में रह-रहकर जुंगार छूटना। और गुल का आपने बहुत सही मतलब समझा है. वैसे ही लड्डू बनाती थी मां और चूल्हे में डालती थी। On 8/23/08, Ravikant wrote: > > बहुत ख़ूब विनीत, > > आवाज़ की दुनिया की सैर कराते रहने का शुक्रिया. रेडियो तो रेडियो, इसमेँ तो > बैटरी के पुनर्चक्रण > की गाथा भी निराली है, लेकिन हम सब के लिए शायद भोगा हुआ यथार्थ. सिर्फ़ एक > चीज़ को थोड़ा > समझाना होगा. कोयले के चूरे से गुल बनाया जाता था, यानी कोयले के बुरादे आप > शेष ज्वलनशील > चीज़ोँ मेँ लपेट देते थे, उनको गीला कर देते थे, फिर लड्डू-जैसा बाँध देते थे > ताकि वह सुखाकर चूल्हे > मेँ डालने पर लोहे के जंगले में अटक जाए, जो बुरादे की शक्ल में मुमकिन नहीं > था. > देखाहिस्की बहुत अच्छा लफ़्ज़ है, बस जुंगार छूटना समझा दो. > > रविकान्त > > शनिवार 23 अगस्त 2008 15:31 को, vineet kumar ने लिखा था: > > कैम्पवाले भायजी के कहने पर मैं चांदनी चौक चला गया रेडियो खरीदने। पहले तो > > रेडियो की एक दूकीन के आगे पांच मिनट खड़ा हुआ और जीभरकर रेडियो देखे। > > दुकानदार ने पूछा भी कि आपको कौन-सी रेडियो और कितने दाम तक के चाहिए। मैंने > > कहा-अभी रुको भाई, पहले कुछ देर देख तो लेने दो तसल्ली से। एक साथ बहुत सारे > > रेडियो देखकर मन बहुत खुश हो रहा था। एक ख्याल भी आया कि दो-तीन एक ही साथ > > खरीद लेता हूं, पता नहीं कब लुप्त हो जाए। म्यूजियम में बाल-बच्चों को ले > जाकर > > दिखाना पड़े, इससे बेहतर है कि घर में ही मिल जाए। > > > > दुकानदार एक-एक करके दीखाता जा रहा था और बार-बार उसके दाम भी बताता। मैं > > चुपचाप देख रहा था। मैंने दुकानदार का ज्यादा समय नहीं लिया और सीधे कहा- ये > > दे दो। उसने फिर कहा- पहले तो ये एक हजार पिचानवे में आते थे, अब दाम गिरा > है, > > आठ सो पांच दे दीजिए। मैंने आगे कहा-देख लो भइया, कोई गुंजाइश हो तो। उसने > > कहा- वाकई आप रेडियो के कद्रदान लगते हैं, कहां कोई आठ सौ लगाकर सिर्फ > रेडियो > > खरीदता है, सब तो हजार-बारह सौ में सीडी प्लेयर लेने के चक्कर में होते हैं। > > अब आपसे मोल-तोल करने में ठीक भी नहीं लग रहा, चलिए आप सात सौ पचास दे > दीजिए, > > आपको इसे बिजली से चलाने के लिए एडॉप्टर तो नहीं चाहिए। मैं उसे बिना बिजली > के > > बैटरी से ही चलाना चाहता था, सो उसने झट से बीपीएल की तीन बैटरी डाल दी. > > > > रेडियो में बड़ी लगनेवाली बैटरी मैं करीब सात-आठ साल के बाद देख रहा था। > खरीदे > > हुए तो इससे भी ज्यादा समय हो गए होंगे। अपने पास जो भी चीजें है, उसमें > डूरा > > सेल की पेंसिल बैटरी ही लगती है. मुझे याद है, तब एक बैटरी की कीमत पांच से > छह > > रुपये रही होगी। लेकिन तीन बैटरी के दूकानदार ने ४५ रुपये लिए। अब बैटरी के > > उपर लोहे के पत्तर लगे होते हैं. छुटपन में जब था तो इसके उपर कागज लगे > होते। > > जब बैटरी खत्म हो जाती तो कागज गल जाते। मां इस बैटरी को चूरकर सूप रंगा > करती। > > एक तो इससे सूप की मजबूती बढ़ जाती और दूसरा कि बांस के रेशे जिसके चुभने का > > डर होता, वह भी खत्म हो जाता। कोयले के चूरे में डालती औऱ पानी के साथ > मिलाकर > > गुल बनाती। मां का कहना था कि इससे चूल्हा ठीक से जलता है और ताव ज्यादा आते > > हैं। खैर,रेडियो लेकर सीधे राकेश सर के घर पहुंचा। चन्द्रा दीदी ने देखते ही > > कहा, मेरा भी बहुत दिन से मन हो रहा है कि एक रेडियो खरीदूं। मैंने उन्हें > कई > > बार कहा-आप इसे रख लीजिए, मैं दूसरा खरीद लूंगा। मेरे बार-बार कहने पर भी > > राकेश सर ने ऐसा नहीं करने दिया। मैं चाहता था कि दीदी वो रेडियो रख ले, भले > > ही बदले में पैसे दे दे। इसलिए नहीं कि उनका मन हो रहा था, बल्कि भीतर कुछ > ऐसा > > है कि लगता है, ज्यादा से ज्यादा लोग रेडियो खरीदें और सुनें।बार-बार लगता > है > > कि रेडियो से देश का कुछ तो जरुर भला हो सकता है। यह एक संभाव्य माध्यम है। > > हॉस्टल पहुंचते ही स्टडी टेबल पर रेडियो को रखा और लोहे के एरियल को पूरा > खींच > > दिया, बहुत लम्बा एरियल। गांव के लोग सिग्नल अच्छी आने के साथ-साथ जान-बूझकर > > अकड़ में एरियल खींचे होते हैं। लेकिन आज रेडियो कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई > > अकड़ दिखाए। आज अगर कोई रेडियो को लेकर अकड़ता है तो या तो वो चंपक है या > फिर > > एब्नार्मल। मैंने तीन दिनों तक पूरा एरियल खींचकर रेडियो बजाया। इस बीच कमरे > > में कई लोग आए और रेडियो के बारे में इतना पूछा जितना कि किसी के लैपटॉप या > > फिर मेरे टीवी खरीदने पर भी नहीं पूछा था। लैपटॉप, टीवी और आइपॉड खरीदना आज > के > > लिए कॉमन है लेकिन रेडियो खरीदना आज के लिए कॉमन नहीं है। सालों बाद > आकाशवाणी > > सुन रहा था, मीडियम बेब सुन रहा था. > > करीब छ-साल का यह अंतराल ऐसा लग रहा था कि इस बीच बहुत कुछ बदला ही नहीं है। > > बीए पार्ट वन और उसके बाद सीधे पीएच।डी। इसके बीच का कुछ अता-पता ही नहीं। > > अतीत ऐसे भी पिघल जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चला। एफ.एम की क्लीयरिटी के > बीच > > मीडियम बेब की घरघराहट और दो स्टेशनों के बीच की हीहहीहीही... की आवाज से अब > > खुन्नस नहीं देशीपन का एहसास हो रहा है, बचपन में लौट आने का एहसास हो रहा > है, > > एफ.एम की लोकप्रियता की वजह से अब लोग रेडियो को एफ.एम कहने लगे है, अब > सचमुच > > रेडियो का एहसास होने लगा है. मोबाइल के आने के बाद तो रेडियो शब्द भी गायब > > होने लग गए। लोग सीधे एफ.एम वाला मोबाइल कहने लगे हैं। एक ही साथ लग रहा था > कि > > कई चीजें लौट आयीं है. > > अच्छा, मजे की बात देखिए कि मेरे रेडियो खरीदते ही हॉस्टल के कई लोगों मे > > रेडियो को लेकर एक बार फिर से जोश चढ़ा है। मुन्ना ने बूफर लगाकर रेडियो > बजाना > > शुरु कर दिया है। दिवाकर जिस टू इन वन को कबाड़ा समझकर फेंक दिया था, अब > हमसे > > पूछ रहा है कि इसका टेप काम कर रहा है, रेडियो नहीं, कहां बनेगा। मैंने > > तिमारपुर के उस मिस्त्री का पता बताया जो हीटर से लेकर मेरे सोनी और नोकिया > का > > इयरफोन कई बार बना चुका है और वो भी बीस से तीस रुपये में। नीरजजी जल्द ही > घर > > जानेवाले हैं और गोरखपुर में पड़े रेडियो को लेकर आएंगे। उनका रुमी भास्करजी > > ने सीडी के साथ-साथ आकाशवाणी का इन्द्रप्रस्थ चैनल भी सुनना शुरु कर दिया > है। > > ये देखा-देखी करने का काम बचपन में खूब हुआ करता था। मां इसे देखाहिस्की में > > जुंगार छूटना कहती। अचानक कोई व्यापारी या लूडो या स्टोर में पड़ा कैरमबोर्ड > > उठा लाता और एक-दो दिन खेलने लग जाता तो फिर से मरा हुआ ट्रेंड जिंदा हो > जाता। > > आनन-फानन में बिलटुआ के दूकान के सारे पेंडिंग माल निकल जाते। रेडियो को > लेकर > > काश ऐसा हो तो मजा आ जाए। > > > > कोई बंदा दुनियाभर की चीजों से मजे करने के बजाय रेडियो सुनने लगता है तो > मुझे > > लगता है उसकी जिंदगी में कुछ बेहतर होने वाला है और मुझे इसके लिए उकसाने > में > > उतना सुख मिलता है जितना किसी को किसी का धर्मांतरण करने पर भी शायद ही > मिलता > > हो। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080823/280df649/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Aug 24 17:02:14 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 24 Aug 2008 17:02:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS44KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkvuCknOClhyAoIOCksOClh+CkoeCkv+Ckr+Cliykg4KSq?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreClgCDgpLDgpL/gpLjgpLDgpY3gpJog4KS54KWL4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCksuCkl+CkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <829019b0808240432l7f667143k236b47fe1980e57b@mail.gmail.com> लाइफ में पहली बार मैंने डीयू के हिन्दी विभाग के सारे टीचरों को एक साथ मुस्कराते हुए देखा था। वो भी तब जब मैंने बोर्ड में बैठे सारे लोगों को सामने एम।फिल् का अपना विषय बताया था। उसके बाद से अब तक सारे लोगों को एक साथ मुस्कराते नहीं देखा। एक ने कहा-जरा जोर से बताओ भाई कि किस विषय पर काम करना चाहते हो। मैंने कहा कि- एफ.एम चैनलों में भाषा का बदलता स्वरुप। दूसरे ने कहा- इसमें हिन्दी कहां है. हिन्दी विभाग में हो तो विषय भी उसी के हिसाब से होनी चाहिए न. इसमें हिन्दी जोड़ना बहुत जरुरी है औऱ फिर मुस्कराने लगे. उनके साथ-साथ बाकी लोग भी मुस्कराने लगे और जो कुछ पहले से मुस्करा रहे थे वे उनके साथ कॉन्टीन्यू हो लिए। मैं सारे लोगों के मुस्कराने पर थोड़ा सकपका गया था लेकिन किसी से कुछ बोल तो सकता नहीं था। विभाग के मैडमों के बारे में मेरी राय रही है कि वो पुरुष शिक्षकों के मुकाबले थोड़ी कोमल हैं. सो साइड से बड़ी धीमी आवाज में पूछा- गंदा टॉपिक है क्या मैम. मैम ने अंगरेजी में कहा- नो इट्स ओके। गंदा नहीं है, हां थोड़ा नया जरुर है। तभी एक पुरुष टीचर ने कहा- बेटा लेकिन इसमें कौन-कौन से चैनल रखोगे। मैंने कहा- सर रेडियो सिटी और रेडियो मिर्ची। एक बार फिर सबको मुस्कराने का मौका मिला। भई यही दोनों क्यों, बाकी क्यों नहीं। मैं बहस में पड़ना नहीं चाहता था, सो एकदम से बोल गया. सर आप जो-जो चैनल कहेंगे उस पर कर लूंगा। उन्होंने कहा- नहीं बेटे, मैं तो बस ऐसे ही कह रहा था। एक और टीचर की उत्सुकता बढ़ी- लेकिन तुम्हें तो इसका टेक्टस तैयार करने होंगे. हां सर- मैं कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करुंगा और फिर इसकी स्क्रिप्टिंग करके विश्लेषण करुंगा। सबने हां में हां मिलाया और थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ तय हो गया कि मैं एफ. एम चैनलों की भाषा पर काम कर सकता हूं। हां, भाषा की जगह हिन्दी रखना होगा।चलते-चलते एक बुजुर्ग टीचर ने पूछ ही लिया- रेडियो और रिकार्डर तो है न बेटा। मैंने कहा- हां सर दोनों है। मेरे कहने का अंदाज कुछ इस तरह से था कि रिसर्च के नाम पर ही दोनों चीजें अभी खरीद कर आ रहा हूं और अगर विषय नहीं मिला तो जाकर लौटा दूंगा।.... मुझे अपने विषय के हिसाब से काम करने का मौका मिल गया था और मैं खुश था। काम के दौरान में मेरे अलग अनुभव रहे। इसी दौरान मैंने आकाशवाणी के खूब चक्कर लगाए। बाकी जगहों पर जाकर रेडियों से जुडे लोगों से बात करने की कोशिश की। धीरे-धीरे लोगों का पता चल गया था कि मैं एफ।एम चैनलों की हिन्दी पर रिसर्च कर रहा हूं. लोगों की मुझे लेकर अलग-अलग राय बनती. कुछ लोगों का कहना था कि- दिन काटने के लिए ले लिया है, दिनभर एफ.एम सुनो और रिसर्च के नाम पर चुतियापा करो, ये भी कोई रिसर्च है। साहित्य से बचना चाहता है। अपने को हिन्दी में रहकर भी डिफरेंट दिखाना चाहता है। कुछ लोग मुझे पोमो यानि पोस्टमॉर्डनिस्ट कहने लग गए थे। एम. ए. के दौरान जो लोग मुझे नजदीक से जानते थे और जिन्हें मालूम था कि मैंने लिटरेचर पढ़ने में भी अच्छा-खासा समय लगाया है, हरियाणा और दिल्ली के लोगों को मैला आंचल की भाषा समझने में मदद की है वे कहते- कितना जीनियस था विनीत, ये विषय लेकर अपना करियर डूबा लिया। कुछ रहम खाकर कहते-अरे दोस्त, बीच-बीच में लिटरेचर पढ़ लेना, यूजीसी में यही काम देगा, तुम्हारा एफ.एम काम नहीं देगा। जितने मुंह, उतनी बातें। शुक्र है, मैंने इस दौरान लेक्चरशिप के लिए कोई इंटरव्यू नहीं दिए- नहीं तो शायद लोग कहते- यहां बजाने की नहीं पढ़ाने की भर्ती होनी है। हिन्दी समाज के हिसाब से ये विषय नया था, उटपटांग था और इसमें बदचलन साबित करने की पूरी संभावना थी। जेएनयू में रिसर्च कर रहा मेरे बचपन का दोस्त बार-बार कहता- यार, तुमने विषय तो हल्का ले लिया है लेकिन काम हल्के ढंग से नहीं करना, नहीं तो मजाक बन जाओगे, लोगों को तो तुम जानते ही हो। एक बार वहां के एक टीचर से मिलवाया और कहा- ये मेरा दोस्त है विनीत, डीयू से एम.फिल कर रहा है। उन्होंने मेरा विषय पूछा और कहा- ससुरे बाजे पर भी रिसर्च होने लगा है। मैं मुसकराकर रह गया। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 8843 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080824/721a34c8/attachment.bin From ravikant at sarai.net Tue Aug 26 15:59:19 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 26 Aug 2008 15:59:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSW4KS84KS/?= =?utf-8?b?4KSw4KSV4KS+4KSwIOCkuOClgeCkquCksOCkueClgOCksOCliyDgpLngpL4=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkl+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: <200808261559.19626.ravikant@sarai.net> आज के नवभारत टाइम्स से साभार रविकान्त http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3404266.cms आख़िरकार सुपरहीरो हार गया अभय कुमार दुबे फैंटम, जादूगर मैंड्रेक और फ्लैश गॉर्डन के कारनामों की खुराक पर बचपन गुजारने वाले भारतवासियों की पीढ़ी को मालूम होना चाहिए कि कॉमिक्स के पन्नों से हमारी-आपकी जिंदगी में झांकने वाले सुपर हीरो किरदारों की दुनिया अचानक बदल गई है। अमानवीय ताकतों से लैस जो चरित्र दुनिया को भी षण किस्म के खलनायकों से बचाने का दम भरते थे, आज अपनी ही उपयोगिता के प्रति संदिग्ध हो गए हैं। जो लोग फैंटेसी की दुनिया से बाहर नहीं निकलना चाहते उन्हें यह देख कर अफसोस हो सकता है कि उनका 'फ्रेंडली नेबर' स्पाइडरमैन पिछले दिनों रिटायर होते-होते रह गया। अब गौथम सिटी का रक्षक बैटमैन भी बुराई से लड़ने का अपना फर्ज निभाने में खुद को नाकाफी महसूस करने लगा है। इस बा त का एहसास पिछले दिनों हमारे देश में सुपरहिट हुई हॉलिवुड की कुछ फिल्मों को देख कर हुआ है। सुपर हीरो किरदारों की कहानी में आया यह एक ऐसा ट्विस्ट है जिसकी कल्पना उन्हें रचने वाले कला कारों ने कभी नहीं की होगी। पहले स्पाइडरमैन उदास हुआ, और अब बैटमैन खिन्न हो गया है। हमें यकीन है कि यही हालत सुपरमैन, फेंटेस्टिक फोर, गार्थ, हैलबॉय, आइरन मैन और कैप्टन अमेरिका की होने वाली है। यह चक्कर क्या है? क्या दुनिया पहले से बेहतर हो गई है? या फिर दुनिया शेक्सपियर की भाषा में 'खतरे से भी ज्यादा खतरनाक' किस्म के किसी खतरे का सामना कर रही है जिससे ये पुरानी चाल के सुपर हीरो नहीं लड़ सकते? ऐसा लगता है कि सुपर हीरो चरित्रों की इस दुर्गति का जायजा असली दुनिया की कसौटियों के मुताबिक लेने का मौका अब आ गया है। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि इनमें से हर सुपर हीरो असली ज़िदगी की उन समस्याओं के काल्पनिक हल लेकर सामने आता रहा है, जिन्हें हमारी दुनिया राजनीति और समाज के दायरे में हल करने में नाकाम रही है। मसलन, रात के अंधेरों में होने वाले अपराधों का उन्मूलन चूंकि पुलिस प्रशासन के बस की बात नहीं होती, इसलिए समाज को बैटमैन जैसे चरित्र की जरूरत पड़ती है। इसी तरह जब हमारे जंगलों और आदिवासी समाज के सिर पर सभ्य समाज के जंगली मंडराने लगते हैं, तो वन्य संरक्षण की नीतियों की नाकामी के गर्भ से फैंटम नामक नकाबपोश की लोकप्रियता का जन्म हो ता है। इन रोजमर्रा की बचाव कार्रवाइयों के साथ-साथ ये तमाम सुपर हीरो कुछ अजीबो-गरीब लगने वाले खलनायकों से भी लड़ते हैं जो दरअसल इनका असली और ज्यादा जरूरी काम है। हकीकत तो यह है कि इन सभी का जन्म उस पॉप कल्पनाशीलता की उपज है जिसकी बुनियाद प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पड़ी और जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के शीतयुद्ध में परवान चढ़ी। इन तमाम चरित्रों का आदि पुरुष कैप्टन अमेरिका था, जो अपनी अभूतपूर्व शक्ति और एथलेटिक क्षमताओं के सा थ-साथ एक जबर्दस्त शील्ड (ढाल) लिए रहता था। तीसरे दशक में गढ़े गए इस सुपर हीरो का नाम यूं ही अमेरिका पर नहीं रखा गया था। यह सीधे-सीधे अमेरिका की विश्व-रक्षक होने की महत्त्वाकांक्षा का कॉमिक्स के संसार में प्रतिनिधित्व करने वाला चरित्र था। कैप्टन अमेरिका की लोकप्रियता का नतीजा यह निकला कि पचास के दशक में कई प्रतिभाशाली पॉप कलाकारों ने कल्पना के घोड़े दौड़ा कर नए-नए हीरो गढ़ने शुरू कर दिए। इस इतिहास के कारण ही अधिकतर सुपर हीरो अमेरिकी कल्पनाशक्ति की उपज हैं। उनके कभी भी हो सकने वाले पराभव को भी हमें इसी कल्पनाशक्ति में आए परिवर्तन की रोशनी में देखना होगा। अमेरिकी कल्पनाशीलता में एक बहुत बड़ा परिवर्तन अस्सी के दशक के दौरान आया। सो शलिस्ट ब्लॉक तेजी के साथ खात्मे की तरफ बढृ रहा था, और अगले कुछ सालों में शीतयुद्ध खत्म होते ही बाहरी खतरे के सारे स्त्रोत मिट जाने वाले थे। अमेरिका के सामने सवाल यह था कि अब वह सांस्कृतिक रूप से खुद को परिभाषित कैसे करेगा। उसे एक नया दुश्मन चाहिए था। चूंकि ये सारे चरित्र पत्रकारिता, साहित्य, फिल्मों और ललित कला ओं से अलग एक खास किस्म के पॉप कल्चर की उपज थे, इसलिए उनकी गढ़ंत में परिवर्तन की लहर का वाहक कोई पॉप कलाकार ही हो सकता था। यह जिम्मेदारी निभाई ग्रैफिक उपन्यास की विधा ने, जिसे फ्रेंक मिलर और उनके कई समकालीनों ने विकसित किया। इन लोगों ने सुपर हीरो का संघर्ष बाहर की बजाय भीतर की ओर मोड़ दिया। मिलर ने बैटमैन को 'डार्क नाइट' में बदल दिया। एक ऐसे योद्धा में जो न केवल अपराधियों से लड़ रहा है, बल्कि अपने मन के राक्षसों से भी संघर्ष कर रहा है। ग्रैफिक उपन्यास ने कॉमिक्स के खलनायकों को भी बदला और उन्हें सुपर हीरो के ही चरित्र का दूसरा पहलू बना कर पेश किया। इन नई विधा द्वारा की गई यह इंजीनियरिंग उस समय एक भया नक विस्फोट के साथ अमेरिका की धरती पर साक्षात प्रगट हुई जब न्यूयॉर्क में नाइन-इलेवन का हा हाकार मचा। तब बुराई, दुष्टता और इंसानियत के दुश्मनों का एक नया चेहरा सामने आया जो कॉमिक्स के पृष्ठों पर वर्णित किसी वैज्ञानिक प्रयोग की विफलता का नतीजा नहीं था। खलनायकी के इस रूप को पुराने संस्करण के बदमाशों और लुटेरों की तरह पैसे की चाह भी नहीं थी। वह तो दुनिया को धू-धू करके जलता हुआ देखना चाहता था। इसी आयाम को साकार करने के लिए नए बैटमैन का खलनायक बुराई को तो नए सिरे से संगठित करता ही है, वह अपने काले कारनामों को कुछ इस प्रकार नियोजित करता है कि अच्छाई के सभी प्रतीकों के भीतर छिपी बुराई निकल कर सामने आ जाती है। खलनायक जोकर द्वारा किए गए इस कमाल में आतंकवाद का विचारधारात्मक चेहरा देखा जा सकता है। उस पर सुपर हीरो की अतिमानवीय ताकत से भी काबू नहीं पाया जा सकता। जाहिर है कि अमेरिका को नई चाल के सुपर हीरो की जरूरत है। भले ही उसमें चमगादड़ या मकड़ी से लाई गई ताकत न हो, पर उसमें नए तरह के खलनायक और बुराई के नए संस्करण से लड़ने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। शीतयुद्ध बहुत पीछे छूट चुका है। यह अल कायदा का जमाना है। सुपरमैन की आंख लोहे की दीवार के पार तो देख लेती है, पर आत्मघाती बॉम्बर के मन में नहीं झांक सकती। इसीलिए पुरानी चाल के तमाम सुपर हीरो आज अपनी व्यर्थता का सामना कर रहे हैं। From ravikant at sarai.net Tue Aug 26 16:11:40 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 26 Aug 2008 16:11:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCklOCksCDgpLjgpL/gpKjgpYfgpK7gpL4g?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkruClg+CkpOCljeCkr+ClgQ==?= Message-ID: <200808261611.40456.ravikant@sarai.net> nabhata se hi, Paul Schrader baraste Vinod Bharadwaj: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3257082.cms नया मीडिया और सिनेमा की मृत्यु विनोद भारद्वाज सत्तर के दशक में मनोचिकित्सक डेविड कूपर ने 'परिवार की मृत्यु' की घोषणा कर दी थी। पर परिवार एक ऐसी संस्था है जो आसानी से मर नहीं सकती है। उसकी मृत्यु का भ्रम भले ही पैदा होता रहे। अब टैक्सी ड्राइवर फिल्म से चर्चित हुए हॉलिवुड के एक बहुत सफल स्क्रीन प्ले लेखक पॉल शरेडर ने घोषणा कर दी है कि सिनेमा की मृत्यु हो चुकी है। हाल में राजधानी में हुए दसवें ओशियान सिनेफैन में पॉल शरेडर ने अपने भाषण को टाइटिल दिया था- 'न्यू मीडिया एंड द डेथ ऑफ सिनेमा।' लेकिन सिनेमा प्रेमी भारत में सिनेफैन के आयोजक इस टा इटिल को पचा नहीं पाए। उन्होंने भाषण को नाम दे दिया- 'न्यू मीडिया'। शरेडर ने भाषण शुरू करने से पहले इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर की कि टाइटिल से 'डेथ ऑफ सिनेमा' को हटाना आयोजकों की ज्यादती है। भारत में आज भी दर्शकों के एक बड़े तबके के लिए सिनेमा एक तरह की अफीम है। दक्षिण भारत में एक बार एक रिसर्च में यह तथ्य सामने आया था कि वहां फिल्म रिलीज होने से पहले खून बेचने वालों की लिस्ट लंबी हो जाती थी। जाहिर है कि यह दहला देने वाली सचाई है। लेकिन दक्षिण भारत में अभि नेता-अभिनेत्रियों के नाम से मंदिर भी बनाए जाते हैं। पॉल शरेडर ने स्वीकार किया कि फिलहाल भा रत में स्थितियां अलग हैं। जयपुर में राजमंदिर देखकर वह स्तब्ध रह गए। ऐसा कोई सिनेमाघर अमेरिका में नहीं है। पर शरेडर ने यह भी कहा कि यंत्र विधि ने विकास के कई अनोखे रूप देखे हैं। कई जगहों पर लैंडलाइन फोन कनेक्शन आ ही नहीं पाया, पर सीधे वहां मोबाइल पहुंच गया। इसी तरह से कई जगहों पर डीवीडी पहुंच नहीं पाएगी और वहां हार्ड ड्राइव सीधे पहुंच जाएगी। अमेरिका में एक साल में जितनी फिल्में बनती हैं वे सारी की सारी एक छोटे से पेन में आज समा सकती हैं। शरेडर सिनेमा को बीसवीं शताब्दी की केंद्रीय विधा मानते हैं। तब स्टूडियो थे, स्टार सिस्टम का जादू था। लेकिन मनोरंजन के नाम पर इसे अश्लीलता ही कहा जाएगा कि 1970 में माइकल जैक्सन एक घंटे के कार्यक्रम के लिए दो करोड़ डॉलर की ऊंची फीस ले रहे थे। आज नए मीडिया की सबसे बड़ी दि क्कत यह है कि उसके लिए रेवेन्यू कलेक्ट करना आसान नहीं है। आज भारत में मल्टिप्लेक्स सिनेमाघरों को एक नई सिनेमा क्रांति के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन शरेडर के अनुसार वे अमेरिका में फ्यूनरल हाउस की तरह नजर आने लगे हैं। फिल्म समीक्षक बेरोजगार हो रहे हैं। 'न्यूजवीक' सरीखी बड़ी पत्रिका ने अपने फिल्म समीक्षक की छुट्टी कर दी है। 'वराइटी' का एक फिल्म समीक्षक अपने लिए नया काम खोज रहा है। नई पीढ़ी को सिनेमा का अनुभव पैसिव नजर आता है। वह इंटरएक्टिव मनोरंजन में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है। विडियो गेम्स, इंटरनेट की दुनिया ही ऐसी है। ब्लॉगर्स ने दर्शक को शक्तिशाली बना दिया है। कुछ दर्शक तो फिल्म देखते हुए साथ-साथ उसकी समीक्षा भी करने लगे हैं। एक ब्यूटीफुल इमेज का आकर्षण कम हो गया है क्योंकि डिजिटल तंत्र आपके जूते के भी रंग बदल सकता है। नए मीडिया की बुनियादी चिंता आज यह है कि कैसे पैसा इकट्ठा किया जाए? 'पर पूंजीवाद की यही खास बात है कि वह इन सब ट्रिकी प्रॉब्लम्स के भी हल खोज लेता है।' तो क्या तथाकथित हाई आर्ट खत्म हो जाएगी? नहीं, वह खत्म नहीं होगी पर उसे सपोर्ट मिलेगा चैरिटेबल सिस्टम से। आम जनता उसे सपोर्ट नहीं करेगी। यानी सिनेमा के गंभीर प्रेमियों के लिए कुछ उम्मीदें बची हुई हैं। From rakeshjee at gmail.com Thu Aug 28 02:29:24 2008 From: rakeshjee at gmail.com (=?UTF-8?B?4KS54KSr4KS84KWN4KSk4KS+d2Fy?=) Date: Wed, 27 Aug 2008 15:59:24 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSr4KS84KWN?= =?utf-8?b?4KSk4KS+4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <31848504.1752951219870764864.JavaMail.rsspp@deepstorage1> हफ़्ताwar /////////////////////////////////////////// उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव Posted: 26 Aug 2008 11:48 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/http/haftawarblogspotcom/~3/375959102/blog-post_26.html राजेन्द्र यादव पर अब चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं अभिषेक कश्यप. समकालीन कथाप्रेमियों के लिए अभिषेक कश्‍यप नए नहीं हैं. आम जीवन के बेहद आम कोनों में जाकर झांकना तथा महीन से महीन अनुभवों पर उतनी ही बारीक दृष्टि अभिषेक की कहानियों की ख़ासियतें हैं. अभिषेक को कुछ हद तक राजेन्द्र यादव के कहानी कारख़ाने का प्रॉडक्ट भी कह सकते हैं. ढाई साल तक भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में सहायक संपादक रहे अभिषेक ने हंस के खबरिया चैनलों पर केंद्रित बहुचर्चित अंक में अतिथि सहायक संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई. पिछले साल उनकी पहली किताब खेल (कहानी संग्रह) छप कर आयी. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित होती रही हैं. फिलहाल वे युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अनियतकालिक पत्रिका 'हमारा भारत' का संपादन कर रहे हैं. अभिषेक को और ज़्यादा जानने के लिए गल्पायन पहुंचें. तो पढिए उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव ... उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है. वे 28 अगस्त को 79 साल के हो जाएँगे मगर जब आप उन्हें बुढापे की याद दिलाएंगे तो वे ज़ोरदार ठहाका लगायंगे - "अपने बुढापे की बात कर रहे हो क्या? मै तो अभी शिशु हूँ." और वाकई सारा जीवन उन्होंने एक शिशु की तरह ही बिताया है. परिवार की जिम्मेदारियों और घर-गृहस्थी की चिंताओं से मुक्त. विवादों, बहसों और अलोचनाओं के बीच वे हमेशा ठहाके लगाते मिल जाएँगे. अंसारी रोड, दरियागंज स्थित उनकी मासिक पत्रिका 'हंस' का दफ़्तर दिल्ली में शायद बौद्धिक अड्डेबाजी की सबसे मुफ़ीद जगह है . वे हिन्दी के शायद सबसे चर्चित (और विवादित भी) लेखक-संपादक हैं, जिनके लिखे और कहे पर अकसर हंगामा मच जाता है और रामझरोखे बैठ कर वे इन हंगामों का ख़ूब मज़ा लेते हैं. अपने अद्भुत प्रबंध कौशल के बूते अत्यन्त सीमित संसाधनों के बावजूद वे पिछले 22 सालों से 'हंस' जैसे लोकतान्त्रिक मंच को बचाय हुए हैं. 'हंस' के ज़रिए एक तरफ़ आत्मप्रचार से बचकर उन्होंने उत्कृष्ट कथाकारों-गद्यकारों की कई पीढियाँ तैयार की तो दूसरी तरफ़ दलित और स्त्री के सवाल को हाशिए से उठा कर मुख्यधारा में ला दिया. वे अकसर बताते हैं - "मेरी साठ किताबें हैं और मुझे हर साल पौने दो, सवा दो लाख की रोयल्टी मिलती है." शक की गुंजाईश नहीं, क्योंकि उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है. रामविलास शर्मा पर 'हंस' में लिखे सम्पदाकीय में उन्होंने लिखा - 'रामविलास की जेब में हाथ डालने की आदत नहीं थी. बाद में नामवर सिंह ने इस कला का चरम विकास किया.' मज़े की बात है कि उन्हें भी जेब में हाथ डालने की आदत नहीं. एक-एक रुपया बहुत सोच-समझ कर ख़र्च करते हैं. उनके चाहने वालों की कोई कमी नहीं. हर साल उन्हें थोक में उपहार मिलते हैं - कुरते, घडियां, महँगी स्कॉच-वाइन की बोतलें, इम्पोर्टेड सिगरेट, किताबें, मोबाइल...मगर वे किसी को क्या उपहार देते हैं यह शोध का विषय है. अरसे पहले मन्नू जी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में नई कहानी आन्दोलन को याद करते हुए लिखा था - 'उन दिनों राजेंद्र बोलने में बहुत पिलपिले थे.' वे आज भी ऐसे ही हैं. 'हंस' के दफ़्तर की महफिलों में सबकी बोलती बंद करने वाले राजेंद्रजी मंच पर पिलपिले ही नज़र आते हैं. नामवर या कमलेश्वर की तरह मंच लूटने का कौशल उन्हें कभी नहीं आया. लालू यादव से लखटकिया पुरस्कार लेने के अपवाद को छोड़ दें तो पुरस्कारों के मामले में उनका दामन बेदाग़ ही रहा है. छोटे-बड़े दर्जनों पुरस्कार उन्होंने ठुकराएँ हैं और अपने मित्र स्वर्गीय कमलेश्वर की तरह राजनेताओं के साथ मंच पर बैठने से परहेज करते हैं. हाँ, नामवर सिंह के साथ वे मंच पर हों तो श्रोताओं को किसी दिलचस्प कॉमेडी फ़िल्म का मनोरंजन उपलब्ध हो जाता है. ये हैं राजेंद्र यादव. हिन्दी साहित्य के इस गॉदफ़ादर के लिए लम्बी उम्र की दुआ कौन नहीं मांगना चाहेगा? -- You are subscribed to email updates from "हफ़्ताwar." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080827/5d8b2f52/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Aug 28 12:03:47 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 28 Aug 2008 12:03:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSt4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSh4KS/4KSv4KWLIOCkleClhyDgpKjgpL7gpK4g4KSq4KSw?= =?utf-8?b?IOCknOCkvuCkl+CksOCkoyDgpJXgpLDgpJXgpYcg4KSm4KWH4KSW4KWL?= Message-ID: <829019b0808272333h1ecc07c3k775c1f9d6d3529fb@mail.gmail.com> रेडियो का जब भी पक्ष लिया जाता है तो एक बात बहुत ही मजबूती से की जाती है कि यह डिस्टर्विंग माध्यम नहीं है। यानि इसके साथ लोग रोटी बनाते हुए, आयरन करते हुए, खेतों में बीज बोते हुए, दर्जी कपडो़ की सिलाई करते हुए भी जुड़ सकते हैं। मीडिया की किताबों में वाकायदा इस तरह के उदाहरण दिए होते हैं। गूगल इमेज पर जाएंगें तो आपको कई ऐसी तस्वीरें मिलेंगी जिसमें लोग काम करते हुए रेडियो सुन रहे हैं। बाकी माध्यमों के साथ ऐसा नहीं है।एफ।एम। के प्रचलन से लोग ऑफिस जाते हुए बसों और अपनी निजी गाडियों में मजे से एफ.एम. सुनते हुए जाते हैं। अब तो लोग मोबाइल में भी रेडियो होने से देश-दुनिया से बेखबर एफ।एम. सुनते हुए निकल लेते हैं।स्टूडेंट हल्के से रेडियो बजाते हैं और रौ में काम करते चले जाते हैं। लेकिन रेडियो सुनने के मामले में मेरा अनुभव कुछ अलग किस्म का है। पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है। पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है।एम।फिल रिसर्च के लिए विषय तय हो जाने के बाद मेरे मेंटर प्रो.सुधीश पचौरी सर मुझसे बार-बार एक ही बात कहते, अरे भइया रेडियो सुनते हो कि नहीं, खूब सुना करो, उसी से बातें निकलकर आएगी. वो रेडियो को ऑडियो लिटरेचर और टीवी को विजुअल लिटरेचर कहा करते हैं जिससे कई साहित्यप्रेमियों को असहमति भी हो सकती है।रिसर्च के विषय में ये तय नहीं था कि मुझे किस वक्त के रेडियो कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करनी है और कब तक की करनी है. इसलिए अपनी सुविधा के अनुसार रिकार्डिंग करता। लेकिन एक बार मेंटर ने कहा कि- कभी तुमने २४ घंटे लगातार रेडियो सुना है, सुनकर देखो, अलग ढंग का अनुभव होगा। पहले तो मुझे लगा कि ये बहुत ही अटपटा किस्म का काम है लेकिन उत्साह भी बना कि देखें क्या होता है और कैसा लगता है। हॉस्टल में एक कमरे में दो लोग रहते थे और अगर मैं रातभर रेडियो सुनता तो मेरे पार्टनर को परेशानी हो सकती थी, सो प्रेसीडेंट से सेटिंग करके कुछ दिनों के लिए यूनियन रुम की चाबी ले ली।.....और पन्द्रह अगस्त की सुबह ९ बजे रेडियो, रिकार्डर, पानी, जूस, कुछ टेबलेट्स, ब्लैंक ऑडियो टेप लेकर कमरे में बैठ गया और चार बजे शाम तक बिना पेशाब-पानी के रेडियो सुनता रहा औऱ रिकार्डर का टेप बदलता रहा। चार बजे के बाद हल्का हुआ और जूस पिया। फिर चार बजे से रात के एक बजे तक लगातार रेडियो सुनता रहा। एक बजे के बाद से सिर्फ गाने आने लगते हैं और बीत-बीच में चैनल का नाम कि ये है रेडियो सिटी फ ९१ fm .. . सुबह के छ बजे से फिर नई सुबह के साथ कार्यक्रम शुरु होते। पहली बार मैं चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो सिटी सुनता रहा। उसके दस दिन बाद फिर वैसा ही किया और अबकि बार चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो मिर्ची सुनता रहा। इस बीच मैं खाने की कुछ भी चीजें नहीं लेता। एक तो नींद आने का खतरा और दूसरा कि बदहजमी होने का डर। लेकिन तीसरी बार जब मैं फिर चौबीस घंटे के लिए दोनों चैनलों के अलावे बाकी चैनलों को बदल-बदलकर सुनने का मन बनाया तो गड़बड़ी हो गयी। मैं एक बजे के बाद नींद बर्दाश्त नहीं कर पाया औऱ आंख लग गयी। कमरा खुला था औऱ किसी ने रिकार्डर मार लिया। नींद खुलते ही देखा-रिकार्डर गायब। थोड़ी देर के लिए हो-हल्ला हुआ लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। मैं रिकार्डर चोरी होने से ज्यादा रिदम के टूट जाने को लेकर परेशान था और इस बात की चिंता थी कि फिर से जुगाड़ करना होगा। खैर, चौबीस घंटे तक लगातार रेडियो सुनने का जो मेरा अनुभव रहा उसमें ध्यान और पूजा को लेकर जो पाखंड फैलाए जाते रहे हैं, उसकी बात में समझ में आ गयी और वो यह कि- आप एक मन से पूजा करें या फिर रेडियो सुने, आप संतुलित जरुर हो जाते हैं, आपको शांति का एहसास हो जाता है। रेडियो पर लगातार कुछ न कुछ बजते रहने के बाद भी अंदर से मैं बहुत शांत और भराभरा महसूस कर रहा था।...औऱ समझ गया था कि कोई पूजा न करके ध्यान से रेडियो सुने, कोई और काम करे, उसकी एकाग्रता बनेगी। इसलिए इसका कोई अर्थ नहीं होता कि आप किस मंत्र का जाप कर रहे और कौन से देवी-देवता का नाम ले रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि आप प्रोसेस में शामिल होते हैं। इसलिए चौबीस घंटे की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद कॉन्फीडेंस से कह पाता हूं कि- ये ध्यान, पूजा सब बकवास है, पाखंड है, कोई चाहे तो एक बार रेडियो के नाम पर जागरण करके देख ले। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2949 Size: 11585 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080828/c0e9d766/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Aug 28 12:04:33 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 28 Aug 2008 12:04:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkleCkviDgpIbgpJXgpL7gpLbgpLXgpL7gpKPgpYAg4KSt?= =?utf-8?b?4KS14KSoIOCkueCliA==?= Message-ID: <829019b0808272334r7eb94f9u6be908f0422f3dcd@mail.gmail.com> समय मिले तो कभी आकाशवाणी के चक्कर लगा लेना, शायद कुछ काम की चीजें निकल आए। मेरे मेंटर ने मुझे जब ऐसा कहा तो मुझे भी लगा कि रिसर्च के नाम पर आकाशवाणी तो जाना ही चाहिए। इसके पहले मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की लाइब्रेरी कई बार जा चुका था। मैं यह सोचकर वहां गया था कि रेडियो को लेकर जितने भी सरकारी फैसले लिए गए होगें और जो भी प्रसार हुए हैं, उन सबके संबंध में जानकारी मिल जाएगी। कुछ-बहुत तो सामग्री मिली लेकिन रिसर्च के लिहाज से कुछ खास नहीं। दिल्ली के आकाशवाणी भवन में मैं पहली बार गया था। रांची के आकाशवाणी केन्द्र की रजिस्टर में इतनी बार अपना नाम लिख आया था कि दिल्ली आकर इसे रिपीट नहीं करना चाहता था। युवावार्ता के लिए कई बार नाम दिए, वहां के लोगों से पूछता कि कब बुलाएंगे। बड़े प्यार से वहां के इन्चार्ज जबाब देते, अरे बुला लेंगे, आपके जैसे लोग बिना किसी के रेफरेंस के आते कहां हैं। यहां तो सब चाचा-ताउ का नाम लेकर आते हैं। हमें तो आप जैसे लोगों की ही जरुरत है।॥ लेकिन आकाशवाणी रांची ने कभी नहीं बुलाया। मेरे से लल्लू लोग अकड़ के वहां जाते और आंय-बांय बोलकर कुछ राशि की पर्ची लेकर कॉलेज में चौड़े होकर घूमते। उनमें से कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हें बुलाया जाता था, वे हमारी तरह अपनी मर्ज से नहीं चले जाते। मेरे मन में बार-बार बस एक ही सवाल उठता कि-क्या देखकर इन लोगों को बुलाया जाता है। बाद में व्यावहारिक वजह जान लेने पर मन उचट गया और फिर कभी भी रजिस्टर में नाम लिखवाने नहीं गया। दिल्ली आकर इसलिए मैंने कभी कोशिश नहीं की। लम्बे समय तक आकाशवाणी में साहित्यकारों, शास्त्रीय संगीतकारों और शहर के रंगमंच से जुड़े लोगों का वर्चस्व रहा है। कहने को लगभग हरेक केन्द्र में अलग-अलग कार्यक्रमों के लिए रजिस्टर रखे मिलेंगे, जिसमें आप अपनी रुचि और क्षमता को के हिसाब से कार्यक्रम के लिए नाम लिख आएं। आकाशवाणी जरुरत के हिसाब से आपको बुलाएगा लेकिन अंदर इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि ये चीजें व्यवहार में नहीं आने पाती। आकाशवाणी के भीतर नए लोगों को सामने लाने की स्पिरिट ही नहीं है। विश्वविद्यालय से कम मठाधीशी नहीं है। दिल्ली के बारे में बहुत दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन बिहार और झारखंड के केन्द्रों में ये सारी चीजें देखकर आया हूं। खैर, दिल्ली में आकाशवाणी भवन के भीतर मैं पहली बार गया था। गेट पर जब पास बनवा रहा था तो गार्ड ने पूछा-किससे मिलना है। मैंने कहा- मैं डीयू से आया हूं और रेडियो पर रिसर्च कर रहा हूं, मैं यहां के कुछ लोगों से मिलना चाहता हूं। गार्ड को मेरी बात समझ में आयी और उसने पास बनवाने में मेरी मदद की और इज्जत से अंदर जाने दिया। आकाशवाणी भवन की पास टिकट लेकर मैं इतना भावुक हो गया था कि मैंने सोचा- रिसर्च के लिए पहली बार मैं यहां आया हूं, मैं इसे फेंकूगा नहीं। जब कभी रेडियो के उपर किताब लिखूंगा तो इसे फ्लैप पर लगाउंगा और सचमुच वो मेरे पास मेरी फाइल में सुरक्षित है। सबसे पहले मैं एफएम गोल्ड और रेनवो की तरफ गया। वहां बैठे एक सज्जन से बात की औऱ बताया कि मैं ऐसे-ऐसे काम कर रहा हूं। उन्हें लगा कि कोई सोसियो या फिर दूसरे विषय से होगा। बड़ी रुचि के साथ सारी बातें बताने लगे लेकिन इसी बीच उन्होंने पूछा- आप डीयू में किस डिपार्टमेंट से हैं। मैंने कहा- हिन्दी। उन्होंने कहा- अच्छा, हिन्दी। तब आप इस पर क्या रिसर्च कीजिएगा, कुछ शब्द-बब्द पकड़कर लिख मारिएगा सौ पेज, रेडियो की बात तो आ ही नहीं पाएगी। मैंने फिर कहा-ऐसा नहीं है सर, काम तो तरीके से ही करना है। मैं तो यहां आया था कि बेसिक चीजों की जानकारी मिल जाएगी। उनका अंदाज अब हमसे कट लेने का था। अगर बेसिक चीजों के लिए आए हैं तो फिर यहां की लाइब्रेरी चले जाइए, वहां आपको कुछ न कुछ जरुर मिल जाएगा। मैं भारी मन से उठा और लाइब्रेरी की तरफ चल दिया। लाइब्रेरी पहुंचते ही मुझे धक्का लगा। तो ये है देश की राजधानी का आकाशवाणी भवन और ये है इसकी लाइब्रेरी। लाइब्रेरी बिल्कुल भी अपडेट नहीं। बेतरतीब ढंग से रखी किताबें। डेस्क पर एक मैडम पंजाब केसरी खोलकर बैठी थी। मैंने उन्हें सारी बातें बतायी। उन्होंने साफ कहा- जो है सो यही है, देख लो। मैं करीब घंटेभर तक में पूरी किताबों पर एक नजर मार लिया। रेडियो पर किताबें नहीं मिलेगी इसका अंदाजा तो मुझे शुरु के पांच मिनट में ही लग गया था लेकिन कुछ साहित्य की किताबें रखी देखकर उसमें उलझ गया। अंत में दिस इज ऑल इंडिया रेडियो, एच।सी। बरुआ की किताब को उलट-पलटकर बाहर आ गया। मैडम को मैंने बताया कि- मैम, कितने लोग रेडियो सुनते हैं, कहां-कहां ये काम करता है औऱ भाषा के स्तर पर क्या कुछ चल रहा है, इन सारी बातों की जानकारी मुझे कहां से मिलेगी। उन्होंने कहा- आप ऑडियो रिसर्च सेक्शन चले जाओ। उधर पल्ली साइड, शायद पांचवे तले पर है। मैं वहां की तरफ बढ़ गया। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1599 Size: 10677 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080828/fc1fcf4e/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Aug 28 12:05:38 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 28 Aug 2008 12:05:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSd4KS+4KSc4KWA?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpJXgpLngpL4tIOCksOClh+CkoeCkv+Ckr+CliyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWLIOCksuClh+CkleCksCDgpKrgpLDgpYfgpLbgpL7gpKjgpYAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWLLCDgpKzgpKTgpL7gpIfgpI/gpJfgpL4g4KSc4KSw4KWB4KSw?= Message-ID: <829019b0808272335w3943af2cpcdf8c40de04b5a1d@mail.gmail.com> आकाशवाणी का ऑडियो रिसर्च यूनिट में पहुंचा तो देखा कि अधिकांश लोग टीए डीए बिल बनाने में व्यस्त हैं। दो दिन पहले रांची से किसी कार्यक्रम में शामिल होकर आए थे और इस बीच जो भी खर्चा हुआ था, उसका सब अपना-अपना हिसाब दे रहे थे। सिंहजी ने कुछ रुपये अपनी जेब से खर्च किए थे लेकिन उसका बिल लेना भूल गए। अब उऌकी समस्या थी कि वो कहां से बिल लाएं. बाकी के लोगों से इस समस्या का सामाधान मांग रहे थे। इसी बीच मैंने उनसे पूछा- सर यहां एम एन झा कहां मिलेंगे। एम एन झा ऑडियो रिसर्च यूनिट के डायरेक्टर थे और संभवतः अभी भी हों। उन्होंने कहा- सामने उनका चैम्बर है, वो अभी आए नहीं होंगे, मैं भी उनका ही इंतजार रहा हूं। वैसे काम क्या है? मैंने उन्हें फिर से वो सारी बातें बतायी जो कि एफ।एम. गोल्ड और रैनबो, लाइब्रेरी की मैम और गार्ड को बताया था।सिंहजी को दो बातों को लेकर बड़ी दिलचस्पी बनी- एक तो ये कि मैंने एम.ए. हिन्दू कॉलेज से किया है और दूसरा कि मैं भी उनकी ही तरफ का हूं. आज झारखंड भले ही अलग हो गया है लेकिन हमें कोई बिहारी मान ले और कह दे कि मिट्टी-पानी से तो बिहारी ही हैं तो बमकते नहीं हैं. उनकी बिटिया भी हिन्दू कॉलेज में ही पढ़ रही थी। ये बात ढंग से पुख्ता औऱ तब हुई जबकि मैं चार-पांच दिनों बाद हिन्दू गया तो जूनियर्स ने कहा- क्या सर, कहां-कहां लग्गी मारते हैं आप, सुना है खूब आकाशवाणी जाकर मौज कर रहे हैं, सिंहजी से गपिया रहे हैं। एगो लड़की पूछ रही थी आपके बारे में। सिंहजी ने सम्मान से बिठाया। बाकी बातें पूछने के बाद गाइड जिन्हें कि मैं मेंटर कहता हूं , का नाम पूछा और नाम बताने पर औऱ ज्यादा इम्प्रैस हुए। एकदम जोर से बोले- तब फिर आपको क्या चिंता है, इधर एम।फिल जमा कीजिए, उधर नौकरी पक्की। मैं अपने काम पर आना चाह रहा था सो पूछा- सर होगा कुछ जो मेरे रिसर्च के काम आ सके। उन्होंने कहा- होगा क्यों नहीं, आपको वो चीज दे देते हैं जिसके बाद किसी भी चीज की जरुरत नहीं रहेगी। वो शायद नबम्बर का महीना था और कुछ ही दिनों पहले साल २००४ का आकाशवाणी वार्षिकांक आया था। उन्होंने उसकी एक प्रति हमें दी। वाकई ये बहुत ही मेहनत, स्पष्टता औऱ सुलझे तरीके से छापी गयी थी. जिस किसी को भी रेडियो के बारे में बेसिक जानकारी लेनी हो, उसके लिए ये अंक बेजोड़ है। सबकुछ अंग्रेजी में था। मैंने अपनी जरुरत के हिसाब से हिन्दी में अनुवाद करके इस्तेमाल कर लिया। इसी बीच सिंहजी ने बताया कि झाजी आ गए हैं। चलिए उनसे आपको मिलवा लाते हैं। मैं उनके कमरे में गया। मैं कुछ बोलूं, इसके पहले सिंहजी ने मेरे बारे में जो कुछ मुझसे सुना था, उसे और अलंकारिक बनाकर झाजी को बताया. झाजी ने कहा- हमको तो ताज्जुब होता है कि अभी भी लोग इस तरह से भटक-भटककर रिसर्च कर रहे हैं. उन्होंने पूछा- ये सब जो खर्चा होता है, वो कहां से मिलता है. मैंने कहा- सर, मेरा तो जेआरएफ नहीं है, इसलिए सारे पैसे घर से ही लगाने पड़ते हैं। मतलब रहने-खाने का खर्चा अलग और रिसर्च का अलग, आपको तो बहुत मंहगा पड़ जाता होगा। मैंने कहा- जी सर। उसके बाद वो रांची के अपने विद्यार्थी जीवन की बात विस्तार से बताने लगे जिसमें सिविल सर्विसेज में उनकी सफलता से लेकर संघर्ष तक की कहानी जुड़ी हुई थी। बातचीत के बीच में ही उन्होंने पूछा- सिंहजी, आपने इनको कुछ खिलाया-पिलाया कि नहीं औऱ थोड़ी देर बाद ही मैं बिस्कुट भकोस रहा था। झाजी ने बहुत ही मजबूती से कहा- आप एकदम परेशान मत होइए, मन लगाकर काम कीजिए, जहां परेशानी होगी, हमें बताइएगा। झाजी ने भी रांची से ही पढ़ाई की थी, रांची कॉलेज से और मैंने भी रांची से ही ग्रेजुएशन किया है, संत जेवियर्स कॉलेज से। इस लिहाज से भी वो हमें सम्मान दे रहे थे। झाजी ने कहा- आप मीडिया में रिसर्च कर रहे हैं तो प्रभाष जोशी और शिलर को पढ़ना मत भूलिएगा। शिलर की किताब तो मैंने खरीद भी ली लेकिन प्रभाष जोशी को पढ़ने का तुक यहां पर मैं समझ नहीं पाया। इतना सबकुछ होते- हवाते तीन बज गए। मैं जल्दी से अपने कमरे में पहुंचना चाह रहा था। सबको दुआ सलाम करके बाहर निकला। उनलोगों को शायद बहुत दिनों के बाद ऐसा लड़का मिला जो उन्हें बहुत गौर से सुन रहा था। रास्ते में बस में बैठते हुए मैं दो बातें एक साथ सोच रहा था- एक तो ये कि कितनी आत्मीयता से बात की इनलोगों ने, लगा ही नहीं कि किसी अंजान जगह में आया हूं. औऱ दूसरी ये कि मीडिया के लिए काम करते हुए भी इनलोगों के पास कितना समय होता है कि हम जैसे लोगों को पांच-छह घंटे यूं ही दे देते हैं। रेड एफ एम गया था तो ४५ मिनट में करीब पांच लोगों से बात कर ली थी। थोडी़ देर बात करने के बाद सबने यही कहा था- सॉरी अब ज्यादा टाइम नहीं दे सकते। इनलोगों के रिस्पांस से मैं जितना भावुक हो गया था, आकाशवाणी की वर्किंग कल्चर से उतना ही चिंतित। कुछ भी नया नहीं, कुछ भी क्रिएटिव नहीं. टशन देने की छटपटाहट नहीं। सबके सब पंजाब केसरी लिए बैठे हैं. दस मिनट के काम में तीन घंटे लगा रहे हैं। क्या आकाशवाणी एक निश्चिंत माध्यम है, बार-बार झाजी की बात याद आ रही थी- विनीतजी आकाशवाणी को आप ही जैसे लोगों की जरुरत है. प्राइवेट चैनलों पर बात करते हुए तो उन्होंने इसकी जमकर आलोचना की थी लेकिन जैसे मैंने वर्किंग कल्चर पर बात शुरु की थी तो वो भी प्राइवेट चैनलों पर सहमत नजर आए। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-34 Size: 11500 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080828/ec8cbcc1/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Thu Aug 28 12:07:13 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 28 Aug 2008 12:07:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSu4KWD?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IC0g4KS24KWH4KS3IDog4KSF4KS54KSu4KSmIOCkq+CkvOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSc4KS8?= Message-ID: <200808281207.13936.ravikant@sarai.net> ये तो अनुराग वत्स के चिट्ठे से है, पर अहमद फ़राज़ की और शायरी पढ़ने के लिए आप कविताकोश देख सकते हैँ: http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%A6 रविकान्त Wednesday, August 27, 2008 स्मृति - शेष : अहमद फ़राज़ ( उनकी ग़ज़लों-नज़्मों से उस कम उर्दू आदमी की भी पटती है जो पहलेपहल उन तक मुहावरों जैसा मजा पाने जाता है। उनका अंदाजे-बयां सादा पर असरदार है। उसमें ज़ज़्ब दुनिया और लोग पढ़ने वालों को बहुत पास अपने लगते हैं। इसकी शायद एक वजह यह भी रही कि फ़राज़ ने बहुत पहले यह तय कर लिया था : '' अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं / फ़राज़ अब ज़रा लहज़ा बदल के देखते हैं।'' कहना न होगा कि उन्होंने अपने दौर की ग़ज़ल का लहज़ा बारंबार बदला और हर बदलाव से उनकी मकबूलियत बढ़ती ही गई। वे थे पड़ौसी पाकिस्तान के, लेकिन उनकी शायरी का वास्ता उसकी चौहद्दी को पार कर गया था। दो दिन पहले जब उनके निधन की ख़बर आई तो सबकी जुबां पर उनका कहा यह शेर फिर याद हो आया : '' अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें / जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।'' उनकी एक किताब का नाम भी, ''ख़्वाबफ़रोश'' है जिसमें उन्होंने अपनी चुनी हुई कविताएं दी हैं। यहाँ उसी संग्रह से एक ग़ज़ल पेश है। ) इतने तो मरासिम थे कि आते जाते... सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते शिकवा-ए-जुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था अपने हिस्से की कोई शम्अ जलाते जाते कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते जश्न-ए-मक़तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी पा-ब-जोलाँ ही सही नाचते गाते जाते उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते From ravikant at sarai.net Thu Aug 28 13:19:19 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 28 Aug 2008 13:19:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJzgpLw=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSCIOCkieCksOCljeCkpuClgiA6IOClnuCkv+CksOCkvuClmCA=?= =?utf-8?b?4KSX4KWL4KSw4KSW4KSq4KWB4KSw4KWA?= Message-ID: <200808281319.19948.ravikant@sarai.net> sabad se phir. lekin Firaq par aur bhi bahut kuchh kavitakosh mein milega. shukriya ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: ज़बां उर्दू : फ़िराक़ गोरखपुरी Date: गुरुवार 28 अगस्त 2008 11:14 From: "anurag vats" To: यह पचासवीं पोस्ट है। मैंने सोचा न था कि इतनी गति और निरंतरता से *सबद* निकाल पाऊंगा। यह लेखकों के सहयोग और पाठकों के समर्थन से ही संभव हो सका। फ़िराक़ के बारे में क्या लिखूं, ग़ज़ल के बारे में यह है कि इसकी कहन पर बोलियों का प्रभाव आप साफ़ लक्षित करेंगे। खालिस हिन्दोस्तानी बोली-बानी जो फ़िराक़ियत की खास पहचान भी है। हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो to read more...click below.... vatsanurag.blogspot.com ------------------------------------------------------- From pratilipi.in at gmail.com Thu Aug 28 16:45:24 2008 From: pratilipi.in at gmail.com (Pratilipi) Date: Thu, 28 Aug 2008 16:45:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Danza Poesia - The first "Pratilipi Event". In-Reply-To: <435290ba0808280414p2b35dfd3n40e0eddebecd464@mail.gmail.com> References: <435290ba0808280414p2b35dfd3n40e0eddebecd464@mail.gmail.com> Message-ID: <435290ba0808280415u14249f6fg3c6321e9014a85c5@mail.gmail.com> Udaharan presents, in collaboration with Instituto Cervantes, New Delhi, the first Pratilipi Event. *Danza Poesia* A recital of poems by Oscar Pujol and Sameer Rawal, in translation and the original (Spanish, Catalan, English, Hindi) and a rendering of Sanskrit verses, in Catalan translation, along with Bharatnatyam mudras by Merce Escrich. *Oscar Pujol* is an Indologist from Catalunya, Spain. He has published a Sanskrit-Catalan Shabdkosh having around 60,000 entries, besides having published various academic books and articles. After working as Director, Education Programmes of Casa Asia (Asia House) in Barcelona since its inception he now is setting up the Instituto Cervantes in New Delhi, as its Director, to promote Spanish culture and languages in India. He has a doctorate from BHU, Varanasi in Sanskrit. *Merce Escrich* is the Director of Kalavana, Barcelona, dedicated to promote Indian art and Culture in Spain. She is a disciple of Jamuna Krishnan, and performs and teaches Bharatnatyam. She is involved in many projects concerning Indian classical dance and art, and has contributed many times in various forms to their study and promotion. *Sameer Rawal* lives in Barcelona, Spain, and teaches Hindi and translation strategies for intercultural communication. He writes and translates narratives and poetry between/in Hindi, English, Spanish and Catalan. He was the first to translate a Catalan novel (*La Plaça del diamant*) into Hindi and is now translating an anthology of stories by Merce Rodoreda. He has also published *Caialx de sandal*, a Hindi/Catalan book of poetry. *Venue:* Krishnayan, Jawahar Kala Kendra, Jaipur. *Date and Time:* September 4, 2008. 5:00 PM. *Contact:* +91-98281-12994 *Email:* pratilipi.in at gmail.com *Hospitality* Devi Niketan *Sponsors* Vagdevi Prakashan, Surya Prakashan Mandir, Jhamad Finance and Ashok Bajaj. -- प्रतिलिपि: द्विमासिक द्विभाषी पत्रिका Pratilipi: A Bilingual Bimonthly Magazine http://pratilipi.in -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080828/14e235a9/attachment.html From v1clist at yahoo.co.uk Fri Aug 29 10:41:38 2008 From: v1clist at yahoo.co.uk (Vickram Crishna) Date: Fri, 29 Aug 2008 05:11:38 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSu4KWD?= =?utf-8?b?4KSk4KS/IC0g4KS24KWH4KS3IDog4KSF4KS54KSu4KSmIOCkq+CkvOCksA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSc4KS8?= Message-ID: <811798.39449.qm@web26603.mail.ukl.yahoo.com> अहमग फ़राज़ ......यादेँ Vickram http://communicall.wordpress.com http://vvcrishna.wordpress.com ----- Original Message ---- From: Ravikant To: deewan at sarai.net Sent: Thursday, 28 August, 2008 12:07:13 PM Subject: [दीवान]स्मृति - शेष : अहमद फ़राज़ ये तो अनुराग वत्स के चिट्ठे से है, पर अहमद फ़राज़ की और शायरी पढ़ने के लिए आप कविताकोश देख सकते हैँ: http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%A6 रविकान्त Wednesday, August 27, 2008 स्मृति - शेष : अहमद फ़राज़ ( उनकी ग़ज़लों-नज़्मों से उस कम उर्दू आदमी की भी पटती है जो पहलेपहल उन तक मुहावरों जैसा मजा पाने जाता है। उनका अंदाजे-बयां सादा पर असरदार है। उसमें ज़ज़्ब दुनिया और लोग पढ़ने वालों को बहुत पास अपने लगते हैं। इसकी शायद एक वजह यह भी रही कि फ़राज़ ने बहुत पहले यह तय कर लिया था : '' अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं / फ़राज़ अब ज़रा लहज़ा बदल के देखते हैं।'' कहना न होगा कि उन्होंने अपने दौर की ग़ज़ल का लहज़ा बारंबार बदला और हर बदलाव से उनकी मकबूलियत बढ़ती ही गई। वे थे पड़ौसी पाकिस्तान के, लेकिन उनकी शायरी का वास्ता उसकी चौहद्दी को पार कर गया था। दो दिन पहले जब उनके निधन की ख़बर आई तो सबकी जुबां पर उनका कहा यह शेर फिर याद हो आया : '' अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें / जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।'' उनकी एक किताब का नाम भी, ''ख़्वाबफ़रोश'' है जिसमें उन्होंने अपनी चुनी हुई कविताएं दी हैं। यहाँ उसी संग्रह से एक ग़ज़ल पेश है। ) इतने तो मरासिम थे कि आते जाते... सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते शिकवा-ए-जुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था अपने हिस्से की कोई शम्अ जलाते जाते कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते जश्न-ए-मक़तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी पा-ब-जोलाँ ही सही नाचते गाते जाते उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan Send instant messages to your online friends http://uk.messenger.yahoo.com Send instant messages to your online friends http://uk.messenger.yahoo.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080829/6376aa60/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sat Aug 30 11:59:47 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 30 Aug 2008 11:59:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KSc4KS+4KSV?= =?utf-8?b?IOCkrOCkqOCkviDgpKbgpL/gpK/gpL4g4KS54KWIIOCknOCkqOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSk4KS+IOCkleCliw==?= Message-ID: <829019b0808292329s75d4619l21c90f965e6b5a23@mail.gmail.com> क्या जनसत्ता के भीतर कुछ ऐसे लोग हैं जो इसकी छवि को लगातार खराब करने में लगे हुए हैं या फिर यहां का वर्किंग कल्चर ही बहुत ढीला-ढाला है। कोई पाठक अगर ध्यान से इसे पढ़ने लग जाए तो संभव है कि रोज कुछ न कुछ गड़बडी़ उसे समझ में आ जाए। ऐसा होने से इस अखबार के प्रति लोगों की विश्वसनीयता कितनी घटती है इसका अंदाजा शायद काम करने वालों को नहीं है। यह वही अखबार है जिसे कभी हम जैसे पाठकों को हिन्दी विभाग के टीचरों ने नियमित पढ़ने की सलाह दी थी और बताया था कि इसे आप पढ़े, आपकी हिन्दी दुरुस्त हो जाएगी. लेकिन यही क्या यही बात आज हम बीए कर रहे लोगों को उसी विश्वास के साथ कह सकते हैं. शायद नहीं। ऐसा कहना मजाक भर से ज्यादा कुछ भी नहीं होगा। गड़बडि़यों की श्रृंखला में ही कल यानि २९ अगस्त की एक भारी गड़बड़ी पर गौर करें। मुख्य पृष्ठ पर गंगा प्रसाद की स्टोरी छपी है- कोशी की बाढ़ राष्ट्रीय आपदाः मनमोहन। इस स्टोरी के तीसरे पैरा पर आप गौर करें। नौंवे लाइन से फिर वही बात शुरु हो जाती है जो बात दूसरे पैरा के आठवें लाइन से शुरु होती है। पहली बार जब मैंने पढ़ा और दूसरे पैरा से तीसरे पैरा पर गया तो लगा कि इसी बात को दोबारा पढ़ रहा हूं। एक बार फिर से पढ़ना शुरु किया तो पाया कि स्टोरी में सात लाइन वही छापी गयी है जो कि दूसरे पैरा में भी है। यानि सात लाइन दो-दो बार छाप दी गयी है। दो बार छपे हुए अंश हैं- *... खुद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, जल संसाधन मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव और आपदा प्रबंधन मंत्री * *नीतिश मिश्र कई बार यह दोहरा चुके हैं कि चार-पांच दिन में स्थिति और बिगड़ सकती है। सात-आठ* *लाख क्यूसेक पानी जिला में जमा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में लोगों को बचाना दूभर हो जाएगा। * ** इस तरह की गड़बड़ियों को आप तकनीकी स्तर की गड़बड़ी मानकर नजरअंदाज कर सकते हैं औऱ कह सकते हैं कि पेज लगाने वाले की नजर नहीं गयी है। लेकिन इस तरह से किसी व्यक्ति या फिर विभाग को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराना संस्थान का काम है। पाठक इतनी बारीकी में नहीं जाता, उसे सीधे-सीधे इतना ही समझ में आता है कि ये अखबार की गड़बड़ी है। जनसत्ता के भीतर जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है इससे इसकी साख जरुर कमजोर होती है। साथ ही पाठकों के बीच एक असुरक्षा का भी भाव बढ़ता है कि अब किस अखबार की ओर जाएं। बचा-खुचा एक ही तो अखबार रहा जिस पर कि भरोसा किया जा सकता था, अब वो भी लापरवाह होता जा रहा है। मुख्य पृष्ठ पर १८५७ की बजाय १९५७ छाप रहा है, तस्वीर किसी और चीज की है और कैप्शन किसी और चीज की लगा रहा है. इन सारी बातों पर विचार किया जाना जरुरी है. और इन सबके बीच दुखद स्थिति ये है कि जनसत्ता कभी भी अपनी इन गड़बड़ियों को अगले दिन सुधार के साथ पाठकों से क्षमा मांगते हुए प्रकाशित नहीं करता। ये काम दि हिन्दू करता है और संपादकीय के ठीक बगल वाले पेज पर स्पेस ही तय कर रखा है. पाठक गलतियां खोजकर उसे पोस्ट या मेल कर सकते हैं. जनसत्ता में अगर सबकुछ सही-सही छापने की क्षमता नहीं है तो कम से कम ये काम तो कर ही सकता है। दुनियाभर के अखबारों के ऑफर को छोड़कर, बाकी के अखबारों से पच्चीस-पचास पैसे ज्यादा देकर महज १२ पेज के अखबार के लिए पाठक अगर ३ रुपये खर्च कर रहा है तो ऐसा नहीं है कि वो मूर्ख है। वो ये कीमत खबरों की प्रामाणिकता, भाषाई दक्षता और विश्लेषण की परिपक्वता के लिए दे रहा है और अगर अखबार से धीरे-धीरे यही सब गायब होने लग जाए, बेसिक चीजों को लेकर ही भारी गड़बड़ी हो तो फिर कोई आधार नहीं है कि पाठक इसे विशिष्ट मानकर खरीदे। पाठक जिस मूल्य के चलते सादे-सपट्टे इस जनसत्ता को खरीद रहे है, उसे इस मूल्य को बचाए रखना बहुत जरुरी है। नहीं तो बाजार की दौड़ में तो वो कब का पिट चुका है। *इसके पहले जनसत्ता की गड़बड़ियां-* गलत स्पैलिंग के आगे जनसत्ता फुस्स 'जनसत्ता' देखकर जोशीजी का मन रोता नहीं ? -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... 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