From rajeshkajha at yahoo.com Tue Apr 1 16:03:41 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 1 Apr 2008 03:33:41 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSw4KSu?= =?utf-8?b?4KS24KSD?= Message-ID: <404037.81789.qm@web52905.mail.re2.yahoo.com> तो दीवान के साथियों, मैंने भी ब्लॉग लिखने का मन बना लिया है और पता भी रजिस्टर करा लिया है... http://kramashah.blogspot.com/ 'क्रमशः' के शुरू करने के पीछे रविकांतजी के प्रोत्साहन का काफी बड़ा हाथ है... इस बार की सराय कार्यशाला में रतलाम वाले रविजी ने भी मुझे इसकी जरूरत के बारे में काफी विस्तार से समझाया था. हालांकि मैंने अपने लिखने से चंद्रबिंदु व नुक्ते को हटा ही लिया था, लेकिन इस बार की सराय कार्यशाला से मुझे इसकी जरूरत नए सिरे से समझ में आई. मैं इन सबका ध्यान रखने की जरूर कोशिश करूंगा... सादर, राजेश ____________________________________________________________________________________ OMG, Sweet deal for Yahoo! users/friends:Get A Month of Blockbuster Total Access, No Cost. W00t http://tc.deals.yahoo.com/tc/blockbuster/text2.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080401/2ee8ddcd/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Apr 1 19:30:33 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 1 Apr 2008 19:30:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpKXgpYvgpKHgpLw=?= =?utf-8?b?4KWAIOCktuCkleCljeKAjeCkleClgCAsIOCkpeCli+CkoeCkvOClgCDgpK4=?= =?utf-8?b?4KWH4KSC4KSf4KSy4KWAIOCkoeCkv+CkuOCljeCkn+CksOCljeCktQ==?= Message-ID: <200804011930.36432.ravikant@sarai.net> yeh pata nahin kaise mere spam folder mein chala gaya tha. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: ***SPAM*** [दीवान]हिन्दी मीडिया थोड़ी शक्‍की, थोड़ी मेंटली डिस्टर्व Date: शनिवार 29 मार्च 2008 11:33 From: "vineet kumar" To: deewan सच, सच, सच और खाटी सच जानने के लिए हिन्दी मीडिया क्या कुछ करने का दावा करती नजर नहीं आती। कोई रेलवे स्टेशन पर तीन-चार बार टॉयलेट चला जाए तो उसे लगने लगता है कि जरुर कोई कांड होने वाला है। बड़ी हुई दाढ़ी के बंदे में आतंकवादी होने के सबूत खोजने में लग जाती है,गर्मी में भी कोई लड़की सिर पर दुपट्टा रखकर गुजरती है तो लगता है इसका कनेक्शन बनारस की दालमंडी के दलालों से है और सड़कों पर परेशान हर तीसरा-चौथा आदमी उसे सरगना या गैंग का आदमी लगता है। सच को खोजने और हमारे सामने सबसे पहले लाने के चक्कर में शक्की होती जा रहा है हिन्दी मीडिया, थोड़ी मेंटली डिस्टर्व भी। लेकिन सच खोजती इस मीडिया के सामने अगर सच अपने आप आकर खड़ा हो जा तो फिर ये बौखलाने लगती है, चीखने लगती है, चिल्लाने लगती है, तिलमिलाने लगती है। लेकिन ये कैसे कह दे कि उसे सच नहीं चाहिए, उसे ऐसा सच नहीं चाहिए, कुछ अलग किस्म का सच चाहिए। उसे सच जैसा कुछ चाहिए लेकिन एकदम से सच नहीं चाहिए। उसे ऑडिएंस का सच चाहिए और ऑडिएंस का सच वो है जो मीडिया तय करेगी। मतलब आप बस ये समझिए कि मीडिया तय करेगी कि कौन सच है औऱ किस सच को ऑडिएंस के बीच ले जाना है। अगर ऐसा नहीं होता, हिन्दी मीडिया के सामने इस बात की झंझट नहीं होती कि कौन से सच को सामने रखना है और किसको दरकिनार करना है तो हमारे साथी जो मीडिया में सक्रिय ढंग से काम करने के बाद ब्लॉगिंग करते हैं उन पर पाबंदियां नहीं लगाई जाती, उनका ये कहकर उपहास नहीं उड़ाया जाता कि अजी आपकी तो बात ही कुछ और है आप तो ब्लॉगर हैं। दिक्कत कहां है। हिन्दी मीडिया को ये बार-बार लगता है कि बंदा जो ब्लॉगिंग कर रहा है हो न हो कभी कुछ सा लिख दे, कुछ वो सच लिख दे जिसे ऑडिएंस के पास ले जाना ही नहीं था। मीडिया जिसे न्यूज फिलटरेशन कहती है जिसके तहत न्यूज छन-छनकर आती है उस प्रक्रिया में ब्लॉगर कहीं मट्ठा न गोल दे। हम जो दिन रात दावे करते हैं किए एकदम सच दिखाते हैं, चाकू लगने की बात सच दिखाते हैं और अगर हमें चाकू लग जा तो भी सच दिखाते हैं। कहीं इस दावे में सेंध न लग जाए। मीडिया के उपर हमने जो सच का ताना-बाना बुना है। मीडिया अनिवार्यता सच होगी, आजादी के समय जो मूल्य हमें मिले हैं और हमने इसका लबादा बनाकर ओढा है, कहीं ये ब्लॉगिंग के चक्कर में मसक न जाए। चैनलों में इतनी फिलटरेशन के बावजूद कुछ खबरें आ जाती है, जो सच जो अपने काम के लिए होनी चाहिए थी, ऑडिएंस को नहीं जानना चाहिए था तो ब्लॉगिंग से तो और ज्यादा सच रिसता होगा। क्योंकि यहां तो फिलटरेशन का कोई चक्कर ही नहीं है। यहां तो जो मालिक है, वही एडीटर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर॥मतलब सबकुछ। ये तो बड़े छोटे-छोटे मसले को उठाता है, बड़े मसले हमारे लिए छोड़ जाता है। उन मसलों को उठाता है जिसे हम चाहकर भी नहीं उठा पाते।.. सो पता नहीं कल को ये सीख दे कि आठ घंटे की शिफ्ट के बजाय उनसे 11-12 घंटे काम लिए जाते हैं. उनके चैनल में महीनों इंटर्नशिप के नाम पर फ्री में बंदों को जोता जाता है, ठीक दिखनेवाली लड़की को बॉस बार-बार स्क्रिप्ट और स्टोरी समझाने के लिए अपने पास बुलाता है और उसी बीच सर्वर डॉन होने की खबर लेकर कोई बंदा चला जाए तो झिड़क दिया जाता है। रोज की शिफ्ट में आने के बाद भी कभी वीकएंड में शाम को आने के लिए किसी लड़की को कहा जाता है। 6000 रुपये में साल-सालभर से खट रहे साथियों को कुध दिन बाद प्रोजेक्ट करने के झांसे दिए जाते हैं। सेक्सुअल हेरास्मेंट के चक्कर में बॉस को रातोंरात कहीं और जाना पड़ जाए। दोयम दर्जे के काम को, क्लर्की को, दूसरे के लिए स्टोरी लिखवाले को, दिनरात खबर के नाम पर अनुवाद करवाने जैसे काम को मीडिया का एबीसी बताकर बंदे को घिसा जा। ये कुछ हिन्दी मीडिया के ऐसे सच हैं जिसे कि मीडिया नहीं चाहती कि इसे ऑडिएंस के सामने लाया जाए। अबतक तो ऐसा ही था कि जब तक वो नहीं चाहेगी तब तक चौक पर बरगद भी गिर जाए तो खबर नहीं होगी और अगर वो चाह ले तो सिलेब्रेटी की आँख पर नीम की पत्ती गिर जाने से एक्सीडेंट की बात लिख दे, दिखा दे, छाप दे। हिन्दी मीडिया इस तरह के सच से डरती है, घबराती है, बौखला जाती है जानकर सुनकर। वो नहीं चाहती कि प्रेस का कार्ड दिखाकर अकड़ दिखाने की प्रथा में कहीं कोई बट्टा लग जाए। लेकिन ये वैकल्पिक मीडिया खड़ी करने में लगे ब्लॉगर मानते नहीं और जब तब कुछ ऐसे सच बयां करने में लगे रहते हैं। इस लिए हिन्दी मीडिया ब्लॉग के इस रुप को बर्दास्त नहीं कर सकती। कुछ ऐसे सच हैं जिसे कि मीडिया शॉफ्ट तरीके से दिखाना पसंद करती है। मसलन किसी बंदे ने एक्जाम से परेशान होकर खुदखुशी कर ली। मीडिया इस एक घटना मानती है और कुछ फुटेज को दिनभर घिसती है। शाम में या फिर जब भी काबिल एक्सपर्ट मिल जाए, पैनल डिस्कशन कराती है और अंत में मामला निकलकर आता है कि पढ़ाई को हॉवी की तरह लेनी चाहिए, दैट्स इट। इस पर कोई बात नहीं होती कि मां-बाप का इस बच्चे को लेकर किस तरह का दबाब था, क्या ये लोग इस पर लगातार प्रेशर बना रहे थे कि अगर अच्छे नंबर नहीं लाते तो फिर....दिक्कत होगी। तो मीडिया का एक बना-बनाया फार्मूला है। मां को बिलखते हुए दिखाओ और बाप की ये कहते हुए बाइट दिखा कि अजी हमारे घर का तो चिराग ही बुझ गया। घटना मानकर स्टोरी कवर करने की अभ्यस्त मीडिया रिसर्च से बचना चाहती है, ऐसा नहीं है कि वो खबरों के पीछे मेहनत नहीं करती लेकिन ये भी मानना होगा कि जहां तक हो सके, रिस्क लेने से बचती है। इस बात को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि प्राइम टाइम की खबरों में रियलिटी शो के फुटेज कई-कई मिनट तक चलते हैं। प्राइम टाइम कि खबरें कभी पूरे शहर को हिलाकर रख देनेवाली हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि मैं ये मानकर चल रहा हूं कि पहले बहुत अच्छा था और अब दिनोंदिन कबाड़ा होता जा रहा है। पहले भी लोगों को मजा करने आता था, उन्हें भी गुदगुदाने वाली चीजें पसंद आया करती थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि समय निकालकर कोई बंदा प्राइम टाइम के नाम पर लाफ्टर चैलेंजर के हसगुल्ले सुने। ऐसा नहीं है कि हिन्दी मीडिया ने पत्रकारिता के विकास क्रम को देखा-समझा नहीं है। वो सब समझती है, वो सब जानती है. लेकिन ये सबकुछ जान-समझकर भी हंसोगे तो फंसोगे, देती है। हम ऑडिएंस तो सही में फंसते है जो कि खबरों के समय पाजी प्लीज करते नजर आते हैं। आप उठाकर देख लीजिए, खोजी खबरों की संख्या लगातार घट रही है, दूसरे चैनलों से फुटेज काटकर पैकेज चलाने की फ्रीक्वेंसी तेज होती जा रही है। मीडिया तो बाजार और हमारे इन्टरेस्ट का रोना रोएगी ही। क्योंकि उसे पाक साफ दिखना है। लेकिन यकीन मानिए हिन्दी मीडिया अपने से हारी हुई मीडिया है जो अपने चैनल के पंच लाइन तक को पूरा नहीं कर पाती, घबराई हुई मीडिया जिसे बार-बार लगता है कि इधर ऑडिएंस जागरुक हुई और इधर हम पिटे। वो सच का साहस नहीं बटोर पा रही है, सच को बर्दास्त करने की ताकत पैदा नहीं कर पा रही, करना नहीं चाह रही। ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Wed Apr 2 00:30:24 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 2 Apr 2008 00:30:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN?= =?utf-8?b?4KSm4KWAIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+Ckvjog4KSX4KS+4KSC4KS1LCA=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSkIOCkr+CkviDgpJXgpYngpLLgpYfgpJwsIOCkleClgQ==?= =?utf-8?b?4KSbIOCkpOCliyDgpK7gpL/gpLLgpYcg4KS54KSu4KS44KWH?= Message-ID: <829019b0804011200m2fcf892co49510a83c07a98dc@mail.gmail.com> हिन्दी मीडिया में एक और बीमारी है। आपको अगर बीमारी कहने से परहेज है, दिक्कत लगती है कहने में तो कहिए कि रिवाज है कि लोग मीडिया में अंदर लाने के पहले और अंदर आ जाने के बाद आप से जरुर पूछेंगे कि आप कहां से हो। अगर जानकारी के स्तर पर पूछ रहे हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन आगे पूछना तब तक जारी रहेगा जब तक कि उनकी जानकारी का फलक आपसे मेल नहीं खाता हो। कुछ न कुछ तो उनके हिसाब से मिलना ही चाहिए। मसलन आपने कहा कि मैं बिहार से हूं तो फिर आगे का सवाल होगा- बिहार में कहां से। आपने कहा रांची से तब वो सीधे अड़ जाएंगे। अजी रांची बिहार में कहां है उ तो झारखंड है। आप दलील दें कि मेरे मैट्रिक की सर्टिफिकेट में तो रांची बिहार ही लिखा है। आज अलग हुआ है न, मानता अपने को बिहारी ही हूं। आपके मानने से दुनिया मानने लग जाएगी क्या। हमलोग के मुंह का निवाला छीन लिए, बिहार का बंटवारा करके आपलोग महाराज और कह रहे हैं कि बिहारी है। खैर, आगे अपनी अकड़ बरकरार रखते हुए कहेंगे कि- हमरे छोटके चचा भी थे रांची में। अब तो अशोकनगर में कोठी भी बनवा लिए हैं। वो अपने चाचा की कोठी का हवाला रांची के ऐसे इलाके का देंगे जो कि सबसे मंहगे, पॉस इलाके में हो। आप जी जी करते रहेगें और वो आपको इस बात का एहसास कराते रहेंगे कि मीडिया में वो घसीट कर नहीं आए हैं। वाकायदा एक प्लॉनिंग के तहत आए हैं। मेरी तरह बिलटउआ नहीं है कि कहीं कुछ नहीं हुआ तो मुंह उठाकर चले आए मीडिया में। उनके मामू भी लम्बे समय तक प्रभात खबर में लिखते रहे हैं। पूरा पढ़ा-लिखा बैग्ग्राउंड रहा है। खैर, आगे आपसे कहेंगे कि पूरा नाम बताइए। आप या हम जो कि आमतौर पर बिहार-झारखंड के लोग करते हैं कि नाम के बाद सीधे कुमार लिखते हैं। आप भी अपने नाम के साथ कुमार जोड़कर बताएंगे। तब वो आपके बाबूजी का नाम पूछेंगे, इस उम्मीद से कि बाबूजी के नाम के बाद तो जरुर कुछ ऐसा पुच्छल्ला लगा होगा जिसके कि आगे का सूत्र समझा जा सके। आपने कह दिया सेठ, भदानी या फिर कुछ ऐसा पुच्छल्ला जिससे कि उनका कोई मैच नहीं खाता हो तो सीधे कहेंगे। त हियां क्या करने आ गए। बढिया था, बाबूजी के काम में हाथ बंटाते, गलत जगह फंस गए दोस्त। यहां तुमको कितना मिल जाएगा। बीस हजार, पच्चीस हजार, बहुत हुआ तो तीस हजार। एकदम से प्रणव राय या प्रभु चावला तो बन नहीं जाओगे। चौदह घंटे-पंद्रह घंटे रगडोगे, तब जाकर गिनकर रोटी मिलेगी महीने के अंत में।बाबूजी के बिजनेस में कोई गिनती है, बताऔ। थोड़ी देर के लिए मैं भी याद करता हूं कि कैसे पापा रोज अलमारी में उतने पैसे रखते हैं जितने एक मीडियावाले को महाने भर में देखने को मिलते होंगे। एक मन करता है ठीक ही तो कह रहे हैं कि कौन-सा तीर मार लूंगा मैं। फिर पापा का चेहरा और उनकी बातें याद आ जाती है कि गए हो मुंह में माइक घुसानेवाला पेशा अपनाने तो वहीं रहो, दिल्ली में । घर वापस आने की कोई जरुरत नहीं है। बाप रे...रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सो हिम्मत समेट कर कहता हूं, सर कुछ अलग करना चाहता हूं। मुझे बिजनेस मैन का छ-पांच करना अच्छा नहीं लगता। हमसे किसी को झूठ बोलकर माल बेचा नहीं जाता। वो हुं हुं करेंगे।...मूड में होगें तो कहेंगे॥ लीजिए, तिवारीजी आपका एक और भतीजा, बात विचार से ही राजा हरिशचन्द्र लग रहा है और फिर ठहाके। अच्छा इंटरव्यू लेनेवालों में सब एक तरह के नहीं होगें। कुछ नरम मिजाज के भी होंगे, थोड़ा अपनापा दिखाएंगे। बीच-बीच में कहेंगे॥बच्चा है जरा नरम होकर ही पूछिए सिंहजी। आप तो लहुलूहान करने पर लगे हैं। आपको अच्छा लगेगा। तब तक तीसरा सवाल-बायोडाटा में लिखे हो कि हिन्दू कॉलेज से एमए हो। हिन्दू कॉलेजवाला तो रामजस कॉलेज वाले को बहुत गरियाता है। एक बार की बात है, सिंहजी। हमरे साथ एगो लड़की थी...शोभा। पढने में तो ठीक थी ही लेकिन बाकी चीज में भी....हाहहाहाहाहा.....उसको एगो हिन्दू का लड़का ऐसा सिखा पढ़ा दिया कि अगले दिन से हमको देखे तो मुंह फेर ले। फिर हमसे ताजा जानकारी लेंगे। अभी कौन है प्रेसीडेंट वहां। हम बताते हैं कोई रावत या अहलावत। वो बिफर जाते हैं। तू तो नहीं ही दिया होगा बिहारी को वोट। तुम्ही जैसे लोगों के कारण दिल्ली में इ हाल हुआ है। अब हिन्दी से हूं तो थोड़ा मनोरंजन भी तो करनी हैं उनकी। पहले पूछते हैं कौन-सा कवि पसंद है। हमने सीधे कहा-जी मुक्तिबोध, नागार्जुन और रघुवीर सहाय। उन्होंने फिर सवाल किया- काहे। मैंने कहा- जी इसलिए कि उनको पढ़ते हुए लगता है कि वो सिर्फ कवि की हैसियत से नहीं लिख रहे हैं बल्कि समाज को बेहतर करने में खुद भी शामिल हो जाते हैं, जनविरोधी सत्ता से सीधे टकराते हैं और साफ कहते हैं- अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे तोड़ने ही होंगे मठ और गढ सब।..... उनकी रचनाओं में वो सारी बातें शामिल हैं जो एक पत्रकार के ज़ज्बे को बनाए रखता है। सिंहजी कहगें- बहुत खूब। लेकिन तिवारीजी का कहना होगा- वाजपेयीजी की कविताओं में कौन खराबी है। सर, खराबी तो नहीं लेकिन मुझे बस यही पसंद हैं। तिवारीजी का अगला सवाल होगा-लाल उल झंडे के टच में हो क्या।.... और अगले ही मिनट मुझे लगता है कि ये तो सिंहजी से भी ज्यादा.......... हैं। एक दो इसी तरह के कुंडली मिलान सवालों को पूछने के बाद छोड़ दिया जाता हूं।....एक स्वर में सारे लोग कहते हैं-जैसा होगा, बताएंगे, फोन ऑफ मत रखना। अगले दिन फोन आता है- एक भी चीज ऐसी तुम नहीं बोले जिससे कि तुमको रखने का ग्राउंड बने। न जात ही मिलता है, न फारवर्ड ही हो, न तो ठीक से बिहारी ही हो। डीयू में पढ़े भी हो तो ऐसे कॉलेज से जहां सब हमरा दुश्मन ही था, कोई पनपने नहीं दिया। शोभा से अलगाया सो तो अलगाया ही, ५५ प्रतिशत नं भी नहीं बनने दिया एमए में भी कि पीएचडी और लेक्चररशिप के लिए सोचते। सिंहजी तो बमक गए थे। हम सब संभाल लिए। बोले कि कंडीडेट ठीक-ठाक है। हम पर छोड़ दीजिए। तब जाकर बात बनी है। अब अंदर जाकर कुछ गड़बड़ मत करना, कोई परेशानी हो तो हमको बताना और हां सिहंजी से भी बहुत लुस-फुस करने की जरुरत नहीं है। ससुराल के आदमी मिल गए और घर जाकर मिसेज को बताए कि तुमरे नैहर का एक लड़का मिल गया इंटरव्यू में तो उसने कहा कि कर दीजिए। तब जाके हुआ है। लीजिए, अब हमको इतना भी अधिकार नहीं है कि मैं अपनी योग्यता पर ताल ठोककर कह सकूं कि-देखो दुनियावालों अपने दम-खम पर पत्रकार बनके दिखा दिया। बाबूजी आपका लड़का माइक और कलम घुसाकर इन दो कौड़ी के नेताओं और दलालों से सच उगलवा लेगा....समझे सरजी। कुछ ऐसे ही अनुभव रहे थे जब एमफिल् की डिग्री के लिए मैंने अपने रिसर्च पेपर जमा किए थे और सोच रहा था कि आगे कि नैय्या पार कैसे लगेगी।....और दो दिन बाद ही देश के सबसे ज्यादा बिकनेवाले( तब, अभी का पता नहीं) अखबार ने मुझे बतौर ग्यारह हजार की नौकरी पर रख लिया था। ये अलग बात है कि सबकुछ हो जाने के बाद कभी चंड़ीगढ़, कभी, दिल्ली, कभी राजस्थान और कभी भोपाल के नाम पर टरकाता रहा और अंत में कहा-जैसा होगा, फोन करेंगे।..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080402/4267a48a/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Thu Apr 3 01:37:04 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 3 Apr 2008 01:37:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KSsIOCkr+CkvuCkpiDgpIbgpKTgpL4g4KS54KWIIOCkruCli+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KSy4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <829019b0804021307t673472cah94bcb565b895bbc@mail.gmail.com> मोहल्ला से अविनाश भाई ने बिना बताए जबसे हमें निकाल-बाहर किया उसके बाद से मोहल्ला पर जाने का मेरा मन ही नहीं करता। शुरुआत में तो एक-दो दिन जाता रहा कि चलो यहां पढ़ने के लिए ठीक-ठाक मटेरियल मिल जाता है, निकाल दिया तो निकाल दिया। लेकिन सच कहूं उसके बाद बहुत ही परायापन-सा लगने लगा है। ऐसा लगता है कि मैं किसी दूसरे के घर में जाकर छूछूआ रहा हूं। जाना बंद कर दिया और मन को समझाया कि- रे मन तुझे नॉलेज चाहिए न, अखबार से ले, टीवी से ले, बेबसाइट घूम आ, लाइब्रेरी से किताबें लाकर पढ़, बाकी चीजों पर कम खर्च कर और कुछ जरुरी सीडी लाकर देख। बेकार में मोहल्ला पर जाने की क्या पड़ी है। ऐसा तो है नहीं कि तू बीए, एमए और मास कॉम सब मोहल्ला पर जाने से ही पास कर गया है।....लेकिन मन तो मन है, वो क्यों हमारी बात मानने लगे। अपने पुश्तैनी घर की याद किसे नहीं आती है। उस घर की जिसमें उसने चलना सीखा, लिखना सीखा, पहली बार झूठ बोलना सीखा, दुनियादारी सीखी। मैं भी तो जब चैनल की नौकरी छोड़कर घर बैठ गया, फेलोशिप के नाम पर सबकुछ छोड़कर फिर से स्टूडेंट लाइफ में आ गया। कहां घर में ये देखने की फुर्सत नहीं कि फ्रीज में क्या-क्या रखा है और कहां अचानक इतना समय मिल गया कि फ्रीज को रोज खाली करुं और रोज भरुं तो भी समय बच जाए। ऐसे समय में मुझे बोरिंग भी होने लगी थी। मैं ऐसी कोई जुगाड़ में था कि मेरा लिखना न छुटे, लोगों से सम्पर्क न छूटे और मैं लाइव बना रहूं। बहुत पहले कथादेश के एक प्रोग्राम में बताया था कि कभी मोहल्ला देखिए। मैंने उस समय इन्टर्नशिप कर रहा था। नहीं देखा लेकिन इस दिन मुझे मोहल्ला याद आ गया। मैने गूगल पर मोहल्ला टाइप किया और मोहल्ला खुल गया। सारे जाने-पहचाने और बड़े नाम। मन खुश हो गया। मैंने सीबॉक्स में मैसेज छोड़ा- अविनाश भाई मैं विनीत, याद है हमलोग कथादेश के प्रोग्राम में मिले थे। अब मैं डीयू से पीएच।डी कर रहा हूं। अविनाश भाई ने उस समय मुझे शुभकाननाएं दी। दो दिन बाद मैंने जोड़-तोड़कर अपना एक ब्लॉग बनाया। इस बीच उनसे कई बार पूछा, ये कैसे होता है, इसको क्या करना होता है। मुझे एक प्लेटफार्म मिल गया था जहां मैं अपनी बातें लिख सकता था, बिना बॉस की झिड़की के। बिना एडिटिंग के। मैंने अविनाश भाई को फिर मैसेज भेजा- मैंने अपना ब्लॉग बनाया है। उस समय उत्साहित तो था ही, जेआरएफ ने खूब बल दिया था और मीडिया की घिसायी ने एस्टेमना कि कितना भी कोई खटाए, उफ्फ नहीं करुंगा। मैंने लिखा, अविनाश भाई मैं हिन्दी की मठाधीशी को खत्म करना चाहता हूं। भाव कुछ ऐसे ही थे। शब्द कुछ इधर-उधर हो सकते हैं। उन्होंने नए ब्लॉगर के हिसाब से मुझे राय दी और जो कि सही थी कि- आप हिन्दी की कुछ क्षणिकाएं ही हमसे शेयर करें तो अच्छा होगा। मैंने भी समझा कि जोश में मैं कुछ ज्यादा लिख गया। सच्चाई तो ये है कि हिन्दी में जितने लोग मठाधीशी करते हैं उससे दस गुना ज्याद लोग भी तोड़ने के लिए आगे आ जाएं तो भी मठाधीशी खत्म नहीं होगी। क्योंकि मठाधीशी दोहरी प्रक्रिया है। एक तरफ से टूटती है तो दूसरी तरफ बनती चली जाती है। खैर, अविनाश भाई को मेरा ब्लॉग पसंद आया और उन्होंने मोहल्ला पर इसका लिंक दे दिया। मैं भी लोगों को बताता फिरता कि मेरा भी ब्लॉग है और जब लोग पता पूछते तो मैं बताता कि गूगल प जाओ और टाइप करो, मोहल्ला। कोने में जाओगे तो लिखा होगा-दोस्तों का मोहल्ला। उसी में मेरा भी लिंक है। ऐसा करके मैं अपने ब्लॉग को और कितना मोहल्ला को लोगों के बीच फैमिलियर बना रहा था, पता नहीं लेकिन लोग बड़ी आसानी से मेरे ब्लॉग पर आने लगे। इसी बीच अविनाश भाई ने मोहल्ला को कॉम्युनिटी ब्लॉग घोषित कर दिया। हालांकि मोहल्ला की संरचना पहले से भी इसी तरह से थी, पहले भी कई लोग इसमें लिखते आ रहे थे। लेकिन अबकि, उन्होंने कई नए लोगों के भी नाम जोड़ दिए और एक अलग लिंक बनाया-हम हमसफर। मुझे मेल किया- मैं आपका भी नाम जोड़ रहा हूं। मैंने देखा और यकीन मानिए उस दिन मुझे कुछ ऐसी ही खुशी हुई थी जब हम बेकार को चैनल ने कहा था-छ हजार रुपये मिलेंगे। मोहल्ला को मेरे विभाग के सभी प्रबुद्ध टीचर जब तब पढा करते हैं। मुझे खुशी इस बात कि थी कि इस पर जब वो मेरी पोस्ट देखेंगे तो उन्हें कितना अच्छा लगेगा कि चलो अपना स्टूडेंट भी अपडेट हैं। अविनाश भाई के प्रति मेरे मन में सम्मान का भाव जगने लगे। मैंने कुछ पोस्ट भी लिखे। मोहल्ला की जरुरत, शैली, पाठक और गरिमा के हिसाब से। लोगों ने पसंद भी किया। एक-दो ने फोन करके भी कहा-अरे तू तो मोहल्ला पर लिखने लगा है। धडल्ले से लिखता औऱ अविनाश भाई उस कच्ची-पक्की पोस्ट पर कोई अच्छी सी तस्वीर लगा देते, वाक्यों को दुरुस्त कर देते, कस देते। यूनिवर्सिटी में ये काम मेरे सरजी किया करते और इधर अविनाश भाई। मुझे भरोसा होने लगा कि मैं जल्द ही बेहतर हिन्दी लिखने लगूंगा। आप सोचिए न, उन दिनों मैं इतना उत्साहित रहता कि एक दिन में दो-दो और कभी तो तीन पोस्ट लिख जाता। अलग-अलग मिजाज के, अलग-अलग ब्लॉग के लिए। जब भी अविनाश के आगे जीमेल पर हरी बत्ती छेड़ देता, कैसे हैं क्या कर रहे हैं और फिर अपनी बातें बताता। दुनिया जहान की बातें, हिन्दी के लोगों को कोसता, साथ के कुछ घटिया लोगों को गरियाता।...... ( आगे पढिए, एक ब्लॉगर दो-दो ब्लॉग का निर्वाह नहीं कर सकता और रोचक बात कि भड़ासी बिना मोहल्ला भी सूना है। अविनाश भाई को भी याद आते हैं भड़ासी।) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080403/4e51ee2d/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Apr 4 02:36:13 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 4 Apr 2008 02:36:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkquCli+CkuOCljeCknyDgpK7gpLjgpJUg4KSc4KS+4KSk4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSU4KSwIOCkheCkteCkv+CkqOCkvuCktiDgpK3gpL7gpIgg4KSd4KS+?= =?utf-8?b?4KSC4KSV4KSo4KWHIOCksuCkl+CkpOClhw==?= Message-ID: <829019b0804031406p14495fd2l402e50330a0a2c5d@mail.gmail.com> अभी तक आपने पढ़ा कि एक अनुभवी और बुजुर्ग ब्लॉगर होने के नाते अविनाश भाई ने हम जैसे नौसिखुए ब्लॉगर को बराबर उत्साहित किया। यही वजह रही कि मोहल्ला से भावनात्मक स्तर पर जुड़ा रहा। (जब तब याद आता है मोहल्ला ) अब आगे पढ़िए। इधर मैं दनादन पोस्ट लिखता रहा और उधर अविनाश भाई का इसके उपर कुशल संपादन होता रहा। कई बार तो संपादन इतनी बखूबी से होता कि हमें यकीन ही नहीं होता कि इसे मैंने लिखा है। मेरी मोटी अभिव्यक्ति को वो इतना महीन बना देते कि मजा आ जाता। ऐसी गाइडेंस किसी ट्रेनी या इन्टर्न को मिल जाए तो कुछ ही दिनों में बहुत ही बेहतर स्क्रिप्ट लिख सकता है। लेकिन कई बार मेरी लेखनी बीच से मसक जाती और उसमें अविनाश भाई की छवि झांकने लग जाती। एक बार की बात है। नीलिमा ने अपने ब्लॉग लिंकित मनपर एक शोध लेख सीरीज में शामिल किया। ये लेख वाक् पत्रिका में भी प्रकाशित हो चुका है। बल्कि वाक् में प्रकाशित होने पर उसे हम पाठकों तक रखा। मुझे लगा कि नीलिमा ने जो ये शोध लेख लिखा है उसकी व्यापक पहुंच हिन्दी समाज तक होगी। हिन्दी पढ़ने-लिखनेवाले लोग भी जान सकेंगे कि आखिर ब्लॉग इतना महत्वपूर्ण कैसे है। मैं इस लेख को ब्लॉग का एक ऐतिहासिक संदर्भ मानता हूं। शायद इसलिए जब इसे पूरे लेख में नीलिमा ने मोहल्ला जैसे चर्चित ब्लॉग का एक बार भी नाम नहीं लिया तो मुझे अटपटा-सा लगा। अच्छा-बुरा जो भी है मोहल्ला का नाम इसमें आना चाहिए। इस बात को लेकर नीलिमा के लेख से मेरी असहमति हो गयी । लाख दलीलों के बावजूद असहमति ज्यों की त्यों बनी है। मैं अभी भी नहीं पचा पा रहा हूं कि बिना मोहल्ला का नाम लिए कोई कैसे ब्लॉग के बारे में बात कर सकता है। मैंने इस पर एक प्रति लेख लिखने का मन बनाया और सोचा कि इसे मोहल्ला पर ही डालना बेहतर होगा। लेख सॉरी पोस्ट मैंने अविनाश भाई को ड्राफ्ट की शक्ल में भेज दी और आवश्यक संशोधन करने की बात भी कही। अब देखिए बात कहां बिगड़ गयी। अविनाश भाई संपादन कला में दक्ष हैं। उनसे बेहतर भला कौन जान सकता है कि किस शब्द का, व्यक्ति के उपर क्या असर हो सकता है। पोस्ट लिखने के क्रम में जब मैंने मसिजीवीलिखा तो उन्होंने अपनी तरफ से ब्राइकेट में नीलिमा का पति जोड़ दिया। मुझे लगा ऐसा लिखना जरुरी नहीं था। दोनों को एक दूसरे से जोड़े बिना भी लोग समझते हैं। दोनों की स्वतंत्र पहचान है। साथ में पोस्ट की भूमिका के तौर पर लिखा भी कि विनीत ने ये पोस्ट मुझे कल ही भेजा था। मैंने इस पर विचार किया लेकिन बाद में उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हुए पोस्ट कर रहा हूं। मोहल्ला पर पोस्ट करते हुए भले-बुरे की पूरी जिम्मेवारी मेरे उपर आ गयी। कुछ हद तक कोहराम भी मची। मुझे इस बात का बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि अगर कोई बंदा या बंदी मेरी एक पोस्ट से नाराज हो जाते है, संबंध खराब कर लेते है तो उसे ब्लॉगिंग छोड़ देना चाहिए। ब्लॉग की दुनिया में इतनी स्पेस तो हमेशा बची रहनी चाहिए कि कोई भी किसी की बात को लेकर अपनी ओर से सहमति या असहमति दर्ज कर सके। बेहतर स्थिति तो यही है कि ब्लॉग के पचड़े और किचकिच को असल जिंदगी में घुसने न दें, पोस्ट से आपस के संबंध तय होने न दें। ये अलग बात है कि हिन्दी ब्लॉगिंग इस बात के लिए मानसिक रुप से अभी तैयार नहीं हुआ है या कह लें अभी उतना मैच्योर नहीं हुआ है। इसलिए आप देखेंग कि पोस्ट के आधार पर ही लोगों में बातचीत तक बंद हो जाती है और कभी-कभी गाली-गलौज भी।बहरहाल। अविनाश भाई के संपादन से एक ओर मेरी पोस्ट निखर जाती तो दूसरी ओर मैं जो कहना चाहता उसके अतिरिक्त कुछ और भी संदर्भ पैदा हो जाते। ऐसे समय में पता नहीं क्यों मुझे लगता कि मैं इस्तेमाल कर लिया गया हूं। ऐसा कहकर अपने को मैं मासूम घोषित नहीं कर रहा लेकिन कहीं न कहीं खटका बना रहता कि मैं तो बस इतना ही कहना चाहता था, इसे और आगे ले जाने की तो जरुरत थी नहीं। यहां अविनाश भाई पर कोई आरोप नहीं बल्कि मैंने देखा है कि कॉम्युनिटी ब्लॉग का हर मॉडरेटर दूसरों की पोस्ट को अपने को पॉलिटिकली करेक्ट घोषित करने के स्तर पर इस्तेमाल कर जाता है। कभी कुछ शब्द जोड़कर तो कभी कुछ इमेज डालकर या फिर अपने ढंग से पोस्ट को प्रकाशित करके। आमतौर पर हम ब्लॉगर इस बात को लेकर सावधान नहीं होते कि हमसे कॉम्युनिटी ब्लॉगर अपने यहां लिखने का, सदस्यता लेने का अनुरोध करते हैं बाद में हमारी इस संख्या को पावर प्रॉस्पेक्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी किसी पार्टी के कार्ड होल्डर की तरह डिसीप्लीन करने की कोशिश करते हैं। मॉडरेटर के इस चरित्र पर अलग से लिखने और शोध करने की जरुरत है। जो भी हो, मोहल्ला से मेरी पहचान बन रही थी। मैं नया-नया ब्लॉग की दुनिया में शामिल हुआ था। मेरे भीतर ये गलतफहमी कहिए या फिर कुछ हद तक सच्चाई कि बड़े ब्लॉग पर लिखने से लोग हमें जल्दी जानने लगेंगे। कई बार ऐसा हुआ भी कि लोग मेरे ब्लॉग पर की पोस्ट को याद न रखकर , जो पोस्ट मैंने मोहल्ला पर लिखे उसे याद रखा। ये तो बाद में जब लोगों ने मेरी पोस्ट को पढ़ना शुरु किया तो मैंने महसूस किया कि एक स्तर के बाद पाठक ब्लॉग का नाम देखकर नहीं आते और न ही ब्लॉगर का नाम देखकर आते हैं। पोस्ट के कंटेट पर ही लोग भरोसा करते हैं और उसी के आधार पर लोग पोस्ट भी पढ़ते हैं। नहीं तो ऐसा नहीं होता कि मेरी कई पोस्ट मोहल्ला से ज्यादा गाहे-बगाहे पर पढी जाती। मैं क्या लिखता हूं, कैसा लिखता हूं इस पर बात करने के लिए पाठक पूरी तरह आजाद हैं। जिसको मन होता है गरियाते हैं, जिनको मन होता है दाद भी देते हैं। जब मैं दूसरे ब्लॉगरों से मिलते-जुलते मसलों पर लिखता हूं तो वो लिखने के लिए आमंत्रित भी करते हैं और जिनकों लगता है कि मैं उनके मिजाज का ब्लॉगर हूं तो हवा भी देते हैं। अपने यहां लिखने के लिए आमंत्रित भी करते हैं। ऐसी ही बात होती रही। मुम्बई से आशीष ने बोल हल्लापर लिखने कहा, लिख दिया। दिल्ली से राकेश सर ने हफ्तावार में लिखने कहा लिख दिया। कईयों से वादा किया कि लिखूंगा आपके लिए भी। इसी बीच गुड़गांव के ब्लॉगर्स मीट में यशवंत दा से भेट हो गयी और भंड़ास पर लिखने कहा। उस समय मैंने साफ कहा कि अलग से लिखने का तो समय नहीं मिल पाएगा। यशवंत दा ने साफ कहा कि कोई बात नहीं, मीडिया से जुड़ी जो पोस्ट हो उसे भड़ास पर भी भेज दो। मैं वैसा ही करता लेकिन बाद में जनसत्ता विवाद को लेकर मैंने भड़ास पर भेजना बंद कर दिया। और अब सिर्फ अपने ब्लॉग के अतिरिक्त बोल हल्ला के लिए लिखता हूं।.....लेकिन अविनाश भाई के हिसाब से अब भी भड़ासी हूं और शायद ये भी एक वजह हो सकती है मोहल्ला से निकाल बाहर करने की। पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में....क्रमशः नोटः- असहमति का आलेख, *अच्छा होता कान पकने न देती नीलिमा **मोहल्ला* * *के स्टोर रुम में है। रात बहुत हो रही है। मैं खोज पाने में असमर्थ हूं कि आपको लिंक दे दूं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080404/82f4b6ec/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Fri Apr 4 11:18:17 2008 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 3 Apr 2008 22:48:17 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KSn4KS+?= =?utf-8?b?IOCkr+CkvuCkqOClgCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAsIOCkheCkleCkrA==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkr+CkvuCkqOClgCDgpIngpLDgpY3gpKbgpYI=?= Message-ID: <22674.62534.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> http://kramashah.blogspot.com/2008/04/blog-post_03.html ब्लॉग पढ़कर इस नए चिट्ठाकार को अपना समर्थन दें सादर, -------------- राजेश रंजन Kramashah ( ) ____________________________________________________________________________________ You rock. That's why Blockbuster's offering you one month of Blockbuster Total Access, No Cost. http://tc.deals.yahoo.com/tc/blockbuster/text5.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080403/a1e04648/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 5 00:58:50 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 5 Apr 2008 00:58:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KS2IOCkreCkvuCkiCDgpJXgpYsg4KSc4KWI4KSVIOCkkeCkqyA=?= =?utf-8?b?4KSR4KSyIOCkquCkuOCkguCkpiDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0804041228idc973bfu671895e461dad48f@mail.gmail.com> अब तक आपने पढ़ा कि और ब्लॉग की तरह यशवंत दा के कहने पर भड़ास पर भी लिखने लगा। और इस तरह से मैं मोहल्ला, हल्ला बोल और भड़ास पर पोस्ट भेजता रहा। कल मैंने राकेश सर के ब्लॉग हफ्तावार का जिक्र किया था, माफ करें उन्होंने मुझे हफ्तावार के लिए नहीं सफर के लिए लिखने कहा था और दो पोस्ट मैंने उस पर भी लिखी है। अब आगे..... भड़ास पर अमूमन मैं वो सारी पोस्ट्स भेजता जो कि मैं अपने ब्लॉग पर लिखता। भड़ास के लिए कोई अलग से पोस्ट नहीं लिखता। जबकि बोलहल्ला और मोहल्ला के लिए अलग से लिखता। वो सारी पोस्ट बोल हल्ला और मोहल्ला की जरुरत के मुताबिक होती। जनसत्ता के लोगों से मेरा कुछ झमेला हो गया और उनका व्यवहार मुझे कुछ अटपटा सा लगा सो मैंने उन सारी बातों को लेकर एक पोस्ट लिखी और उसी पोस्ट को ऊड़ास पर भी डाल दिया। बाद में इसे लेकर कुछ हंगामा भी हुआ। यशंवत दा ने मॉडरेटर की ओर से कसने के बजाय ब्लॉगर के लिए सेल्फ डिसीप्लीन में होने की बात कही। उसके बाद से मैंने भड़ास पर कोई पोस्ट नहीं डाली। क्योंकि भड़ास के ज्यादातर लोग मीडिया से जुड़े हैं और मैं अक्सर मीडिया के खिलाफ बोल जाता हूं। ये अलग बात है कि जो भी बोलता हूं वो अनर्गल नहीं होता। मीडिया से जुड़े लोग भी इस बात को शिद्दत से महसूस करते हैं। उनकी भी मजबूरी है कि वो खुलेआम इसकी आलोचना नहीं कर सकते। उस घटना के बाद मैंने मोहल्ला पर भी कुछ नहीं लिखा। हां आशीष की बात मैं टाल नहीं पाया और दो-तीन पोस्ट बोल हल्ला पर लिखे। अपने मन मुताबिक, अपनी मर्जी की पोस्ट। इसी बीच मैं लम्बे समय के लिए बीमार हो गया। बीमारी भी ऐसी कि ठीक होने के बाद भी सीधे बैठने में तकलीफ होती। करीब दस-बारह दिनों तक कोई पोस्ट नहीं लिख सका, पढ़ सका। तभी मेरे कुछ दोस्त जिन्हें कि मैंने ब्लॉग पढञने की लत लगा दी है, बताया कि ये तुम्हारे मोहल्ले पर क्या हो रहा है। पता चला, भड़ास ने मनीषा पांडेय के संबंध में अपशब्द का इस्तेमाल किया है। इधर इस मामले में अविनाश भाई भी कूद गए हैं और बात में मामला मोहल्ला वर्सेज भड़ास बन गया। मोहल्ला पर आया तो देखा, मार-काट मची है, किसी की सदस्टता को अविनाश भाई रद्द कर रहे हैं तो कोई खुद अपने को मोहल्ला से अलग होने की घोषणा कर रहा है। मैं हमेशा की तरह एक पोस्ट अविनाश भाई की ओर ठेलता, इसके पहले मैंने पूछ लिय कि एक पोस्ट भेज रहा हूं आप उसे दुरुस्त करके पोस्ट कर देंगे। अविनाश भाई ने कहा, अभी मत भेजिए हम अभी गाजा को सलाम कर रहें हैं। और वैसे भी हम मोहल्ला पर किसी दूसरे ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्ट नहीं पब्लिश करेंगे। ( मोहल्ला पर लिखे कई दिन हो गए थे सो मैंने सोचा कि जो पोस्ट मैं गाहे-बगाहे पर लिख रहा हूं उसी को मोहल्ला पर भी दे दूं।) इतना तो मैं पहले से जानता था कि मोहल्ला के लिए मुझे अलग से लिखना है और मोहल्ला जब किसी मुद्दे पर बात कर रहा होता है तो बात एक सीरीज में चलती है। मैंने भी अविनाश भाई की बात को उचित समझा। लेकिन दो दिन बाद जब मैंने अपना डैशबोर्ड देखा तो मोहल्ला गायब था। मुझे हैरानी हुई और मैंने तुरंत अविनाश भाई को मेल किया। मेल करने पर बताया कि -हां क्योंकि दोनों जगह नहीं रहा जा सकता। थोड़ी आपत्ति मुझे इस बात पर हुई कि दो जगह क्या अब तक तो चार-चार जगहों पर लिख रहा था और मेरी तरह कई लोग भी ऐसा ही कर रहे थे,तब तो कोई आपत्ति नहीं हुई। लेकिन इससे भी ज्यादा अफसोस मुझे इस बात को लेकर हुआ कि अविनाश भाई ने मुझे तय करने का मौका ही नहीं दिया कि मैं कहां रहना चाहता हूं। एक तो ब्लॉग की दुनिया में ऐसा होना ही नहीं चाहिए कि अगर आप एक जगह लिख रहे हैं तो दूसरी जगह न लिखें। हां ये हो सकता है कि कोई कितनी भी जगह लिखे लेकिन जहां वो लिख रहा है वहां की जरुरत और मिजाज के हिसाब से लिखे।...तो भी अविनाश भाई ने अपनी तरफ से बिना कोई सूचना के मोहल्ला से मुझे हटा दिया। जबकि भड़ास को लेकर स्थिति पहले जैसी है। इस बात के आधार पर अपने आप घोषित हो गया कि मैं भड़ासी हूं। मैं उसी मानसिकता का आदमी हूं जो एक स्त्री को बाजार में निशाना बनाता है, मैं वही हूं जो बेबाक लिखने के नाम पर लम्पटई करने लग जाता है। यानि आज अगर एक भड़ासी ने किसी स्त्री को लेकर अपशब्द कहें हैं तो कल को मुझमें भी इस बात की संभावना है कि मैं भी ऐसा ही करुंगा। ....और इस बात को अविनाश भाई ही क्यों कोई भी भला, इज्जतदार आदमी बर्दाश्त कैसे कर सकता है। कायदे से तो उसे ब्लॉग की दुनिया से निकाल फेंकना चाहिए, अविनाश भाई ने तो फिर भी मामला मोहल्ला तक ही रखा। यही मानसिकता दूसरे स्तरों पर जब लोग लागू करने लग जाते हैं तो हमें परेशानी हो जाती है। एक बिहारी के गड़बड़ करने पर पूरे बिहारियों के उपर शक की सुई घुमने लग जाती है। एक बढ़ी हुई दाढ़ी के आतंकवादी के पकड़े जाने पर दाढ़ी रखनेवाली पूरी कम्न्युटी को शक के घेर में ले लिया जाता है। आखिर हमारी मानसिकता का विकास इसी स्ट्रक्चर में तो होता है और जब हम ही इसके शिकार हो जाते हैं तो हाय-हाय मचाने लग जाते हैं। ....और इस पूरे प्रकरण में मेरी एक धारणा चरमरा कर रह गयी कि- ब्लॉगिंग में व्यक्तिगत स्तर पर पहचान बनाने की पूरी गुंजाइश है ।लेकिन नहीं जैसे ही आप किसी कम्युनिटी ब्लॉग में लिखने लग जाते हैं आपकी पहचान उसके मॉडरेटर के साथ जुड़ जाती है और फिर रस्साकशी मॉडरेटर के बीच शुरु हो जाती है जहां ब्लॉगर की हैसियत बहुत छोटी मान ली जाती है या फिर हो जाती है। ये पूरी कहानी रही कि कैसे अंतर्जाल की पहचान और आपसी संबंध धीरे-धीरे राग-विराग में फंसते चले जाते हैं जो कि हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए निश्चित तौर पर खतरनाक स्थिति है। हिन्दी ब्लॉगिंग करनेवाला कोई भी शख्स ऐसा होते नहीं देख सकता। अविनाश भाई भी नहीं। तभी तो महीने भर बाद भड़ास और मोहल्ला की गुत्था-गुत्थी औऱ अनिल रघुराज के नाराज होकर मोहल्ला से चले जाने के बाद उन्होंने उनके नाम पैगाम लिखा- *कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती* *हर रंजो-ग़म की दवा है दोस्ती* *इस ज़माने में कमी है * *पूजा करने वालों की* *वरना इस ज़माने में ख़ुदा है दोस्‍ती* अविनाश भाई ने इसके पीछे जरुर कोई गूढ़ अर्थ देखा होगा, हम इसे पैगाम मान रहे हैं। आगे पढ़िए *भड़ासी बिना सूना है मोहल्ला* *इसे भी पढ़े तो अच्छा होगा-* *जब तब याद आता है मोहल्ला * *मेरी पोस्ट मसक जाती और अविनाश भाई झांकने लगते * -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 13875 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080405/bb012738/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Sat Apr 5 00:58:50 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 5 Apr 2008 00:58:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KS2IOCkreCkvuCkiCDgpJXgpYsg4KSc4KWI4KSVIOCkkeCkqyA=?= =?utf-8?b?4KSR4KSyIOCkquCkuOCkguCkpiDgpKjgpLngpYDgpII=?= Message-ID: <829019b0804041228idc973bfu671895e461dad48f@mail.gmail.com> अब तक आपने पढ़ा कि और ब्लॉग की तरह यशवंत दा के कहने पर भड़ास पर भी लिखने लगा। और इस तरह से मैं मोहल्ला, हल्ला बोल और भड़ास पर पोस्ट भेजता रहा। कल मैंने राकेश सर के ब्लॉग हफ्तावार का जिक्र किया था, माफ करें उन्होंने मुझे हफ्तावार के लिए नहीं सफर के लिए लिखने कहा था और दो पोस्ट मैंने उस पर भी लिखी है। अब आगे..... भड़ास पर अमूमन मैं वो सारी पोस्ट्स भेजता जो कि मैं अपने ब्लॉग पर लिखता। भड़ास के लिए कोई अलग से पोस्ट नहीं लिखता। जबकि बोलहल्ला और मोहल्ला के लिए अलग से लिखता। वो सारी पोस्ट बोल हल्ला और मोहल्ला की जरुरत के मुताबिक होती। जनसत्ता के लोगों से मेरा कुछ झमेला हो गया और उनका व्यवहार मुझे कुछ अटपटा सा लगा सो मैंने उन सारी बातों को लेकर एक पोस्ट लिखी और उसी पोस्ट को ऊड़ास पर भी डाल दिया। बाद में इसे लेकर कुछ हंगामा भी हुआ। यशंवत दा ने मॉडरेटर की ओर से कसने के बजाय ब्लॉगर के लिए सेल्फ डिसीप्लीन में होने की बात कही। उसके बाद से मैंने भड़ास पर कोई पोस्ट नहीं डाली। क्योंकि भड़ास के ज्यादातर लोग मीडिया से जुड़े हैं और मैं अक्सर मीडिया के खिलाफ बोल जाता हूं। ये अलग बात है कि जो भी बोलता हूं वो अनर्गल नहीं होता। मीडिया से जुड़े लोग भी इस बात को शिद्दत से महसूस करते हैं। उनकी भी मजबूरी है कि वो खुलेआम इसकी आलोचना नहीं कर सकते। उस घटना के बाद मैंने मोहल्ला पर भी कुछ नहीं लिखा। हां आशीष की बात मैं टाल नहीं पाया और दो-तीन पोस्ट बोल हल्ला पर लिखे। अपने मन मुताबिक, अपनी मर्जी की पोस्ट। इसी बीच मैं लम्बे समय के लिए बीमार हो गया। बीमारी भी ऐसी कि ठीक होने के बाद भी सीधे बैठने में तकलीफ होती। करीब दस-बारह दिनों तक कोई पोस्ट नहीं लिख सका, पढ़ सका। तभी मेरे कुछ दोस्त जिन्हें कि मैंने ब्लॉग पढञने की लत लगा दी है, बताया कि ये तुम्हारे मोहल्ले पर क्या हो रहा है। पता चला, भड़ास ने मनीषा पांडेय के संबंध में अपशब्द का इस्तेमाल किया है। इधर इस मामले में अविनाश भाई भी कूद गए हैं और बात में मामला मोहल्ला वर्सेज भड़ास बन गया। मोहल्ला पर आया तो देखा, मार-काट मची है, किसी की सदस्टता को अविनाश भाई रद्द कर रहे हैं तो कोई खुद अपने को मोहल्ला से अलग होने की घोषणा कर रहा है। मैं हमेशा की तरह एक पोस्ट अविनाश भाई की ओर ठेलता, इसके पहले मैंने पूछ लिय कि एक पोस्ट भेज रहा हूं आप उसे दुरुस्त करके पोस्ट कर देंगे। अविनाश भाई ने कहा, अभी मत भेजिए हम अभी गाजा को सलाम कर रहें हैं। और वैसे भी हम मोहल्ला पर किसी दूसरे ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्ट नहीं पब्लिश करेंगे। ( मोहल्ला पर लिखे कई दिन हो गए थे सो मैंने सोचा कि जो पोस्ट मैं गाहे-बगाहे पर लिख रहा हूं उसी को मोहल्ला पर भी दे दूं।) इतना तो मैं पहले से जानता था कि मोहल्ला के लिए मुझे अलग से लिखना है और मोहल्ला जब किसी मुद्दे पर बात कर रहा होता है तो बात एक सीरीज में चलती है। मैंने भी अविनाश भाई की बात को उचित समझा। लेकिन दो दिन बाद जब मैंने अपना डैशबोर्ड देखा तो मोहल्ला गायब था। मुझे हैरानी हुई और मैंने तुरंत अविनाश भाई को मेल किया। मेल करने पर बताया कि -हां क्योंकि दोनों जगह नहीं रहा जा सकता। थोड़ी आपत्ति मुझे इस बात पर हुई कि दो जगह क्या अब तक तो चार-चार जगहों पर लिख रहा था और मेरी तरह कई लोग भी ऐसा ही कर रहे थे,तब तो कोई आपत्ति नहीं हुई। लेकिन इससे भी ज्यादा अफसोस मुझे इस बात को लेकर हुआ कि अविनाश भाई ने मुझे तय करने का मौका ही नहीं दिया कि मैं कहां रहना चाहता हूं। एक तो ब्लॉग की दुनिया में ऐसा होना ही नहीं चाहिए कि अगर आप एक जगह लिख रहे हैं तो दूसरी जगह न लिखें। हां ये हो सकता है कि कोई कितनी भी जगह लिखे लेकिन जहां वो लिख रहा है वहां की जरुरत और मिजाज के हिसाब से लिखे।...तो भी अविनाश भाई ने अपनी तरफ से बिना कोई सूचना के मोहल्ला से मुझे हटा दिया। जबकि भड़ास को लेकर स्थिति पहले जैसी है। इस बात के आधार पर अपने आप घोषित हो गया कि मैं भड़ासी हूं। मैं उसी मानसिकता का आदमी हूं जो एक स्त्री को बाजार में निशाना बनाता है, मैं वही हूं जो बेबाक लिखने के नाम पर लम्पटई करने लग जाता है। यानि आज अगर एक भड़ासी ने किसी स्त्री को लेकर अपशब्द कहें हैं तो कल को मुझमें भी इस बात की संभावना है कि मैं भी ऐसा ही करुंगा। ....और इस बात को अविनाश भाई ही क्यों कोई भी भला, इज्जतदार आदमी बर्दाश्त कैसे कर सकता है। कायदे से तो उसे ब्लॉग की दुनिया से निकाल फेंकना चाहिए, अविनाश भाई ने तो फिर भी मामला मोहल्ला तक ही रखा। यही मानसिकता दूसरे स्तरों पर जब लोग लागू करने लग जाते हैं तो हमें परेशानी हो जाती है। एक बिहारी के गड़बड़ करने पर पूरे बिहारियों के उपर शक की सुई घुमने लग जाती है। एक बढ़ी हुई दाढ़ी के आतंकवादी के पकड़े जाने पर दाढ़ी रखनेवाली पूरी कम्न्युटी को शक के घेर में ले लिया जाता है। आखिर हमारी मानसिकता का विकास इसी स्ट्रक्चर में तो होता है और जब हम ही इसके शिकार हो जाते हैं तो हाय-हाय मचाने लग जाते हैं। ....और इस पूरे प्रकरण में मेरी एक धारणा चरमरा कर रह गयी कि- ब्लॉगिंग में व्यक्तिगत स्तर पर पहचान बनाने की पूरी गुंजाइश है ।लेकिन नहीं जैसे ही आप किसी कम्युनिटी ब्लॉग में लिखने लग जाते हैं आपकी पहचान उसके मॉडरेटर के साथ जुड़ जाती है और फिर रस्साकशी मॉडरेटर के बीच शुरु हो जाती है जहां ब्लॉगर की हैसियत बहुत छोटी मान ली जाती है या फिर हो जाती है। ये पूरी कहानी रही कि कैसे अंतर्जाल की पहचान और आपसी संबंध धीरे-धीरे राग-विराग में फंसते चले जाते हैं जो कि हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए निश्चित तौर पर खतरनाक स्थिति है। हिन्दी ब्लॉगिंग करनेवाला कोई भी शख्स ऐसा होते नहीं देख सकता। अविनाश भाई भी नहीं। तभी तो महीने भर बाद भड़ास और मोहल्ला की गुत्था-गुत्थी औऱ अनिल रघुराज के नाराज होकर मोहल्ला से चले जाने के बाद उन्होंने उनके नाम पैगाम लिखा- *कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती* *हर रंजो-ग़म की दवा है दोस्ती* *इस ज़माने में कमी है * *पूजा करने वालों की* *वरना इस ज़माने में ख़ुदा है दोस्‍ती* अविनाश भाई ने इसके पीछे जरुर कोई गूढ़ अर्थ देखा होगा, हम इसे पैगाम मान रहे हैं। आगे पढ़िए *भड़ासी बिना सूना है मोहल्ला* *इसे भी पढ़े तो अच्छा होगा-* *जब तब याद आता है मोहल्ला * *मेरी पोस्ट मसक जाती और अविनाश भाई झांकने लगते * -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-126415 Size: 13875 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080405/bb012738/attachment-0003.bin From vineetdu at gmail.com Sun Apr 6 04:43:27 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 6 Apr 2008 04:43:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkreCkoeCkvOCkvuCkuOClgCwg4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?= =?utf-8?b?IOCkuOClguCkqOCkvg==?= Message-ID: <829019b0804051613n84f6162yfeb203dea3591efd@mail.gmail.com> कल तक आपने पढ़ा कि भड़ास और मोहल्ला के बीच हुए बतकुच्चन के करीब एक महीने बाद अविनाश भाई ने अनिल रघुराज और भड़ासियों को डेडीकेट करते हुए लिखा कि- *कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती* *हर रंजो-ग़म की दवा है द**स्ती *अब आगे पढ़िए- आप सोच रहे होगें कि इस पूरी घटना के हुए करीब महीना भर होने जा रहा है और उस पर लिख अब रहा हूं, कहीं कोई मुद्दा तो नहीं सुलगा रहा। तब तो अविनाश भाई के बारे में भी आप कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे क्योंकि उन्होंने भड़ासियों और अनिल रघुराज को शेर डेडीकेट करके फिर से मुद्दा जिलाने का काम कर रहे हैं। लेकिन नहीं यहां पर आप मेरे बारे में और अविनाश भाई दोनों के बारे में गलत सोच रहे हैं। हम जो लिख रहे हैं औऱ अविनाश भाई ने डेडीकेट किया उसे मेरी मां की भाषा में रह-रहकर जुंगार छूटना कहते हैं। जुंगार छूटने का मतलब है कि किसी चीज को लेकर बार-बार परेशान होना, याद करना, उसके लिए बेचैन होना, चाहकर भी भुला नहीं पाना। जैसे मैं चाहकर भी मोहल्ला के साथ अपनी यादें, अविनाश भाई की हौसला आफ़जाई भुला नहीं पा रहा हूं। बार-बार मन मथता है कि आखिर क्यों किया अविनाश भाई ने ऐसा मेरे साथ और अगर उनका भाई भी मोहल्ला छोड़कर भड़ास में ही बना है तो क्या उससे मुझे रिलीफ मिल जाती है और अविनाश भाई की ओर से तर्कपूर्ण जबाब...ब्ला ब्ला, ब्ला। उसी तरह अविनाश भाई को भी मन मथता है। अच्छा तो था कि इधर भड़ास घर-फूंक मस्ती में लिख रहा था और इधर मोहल्ला पर हम एक इलीट संतुलन बनाए हुए थे। कुछ इधर के लोग उधर लिख रहे थे और कुछ उधर के लोग इधर लिख रहे थे। बीच-बीच में आर्थिक नगरी से अनिल रघुराजजी के यहां से भी मटेरियल आ जाता। ये सारा झमेला उनलोगों का खड़ा किया हुआ है जो भड़ास और मोहल्ला की तुलना करने लग गए। सिर्फ तुलना ही नहीं करने लग गए बल्कि मोहल्ला को भड़ास जैसा ही कुछ बताने लगे। भड़ास बुरी चीज है, वो लोगों को पॉलिटिकली करेक्ट करने के चक्कर में माय-बहिन पर भी उतर आते हैं जबकि मोहल्ला तर्क से लोगों को दुरुस्त करने का पक्षधर रहा है। अगर लोग मोहल्ला को भड़ास जैसा समझने लगें तो इसमें न केवल बदनामी है बल्कि इससे भी बुरी बात है कि लोगों की नजर में मोहल्ला पर जो गंभीर मनन-चिंतन चलता है उसका भी प्रभाव खत्म हो जाता है। ये तो सीधे-सीधे ऑडियोलॉजी पर हमला है इसलिए इनसे दूर रहना ही बेहतर होगा। इतना दूर कि भड़ास की ओर से चलनेवाली हवा मोहल्ला तक पहुंच ही नहीं पाए। और इसके लिए जरुरी है कि मोहल्ला के चारो ओर बाड़ लगाए जाएं। मोहल्ला ने बाड़ लगाने शुरु कर दिए। एक-एक घर को ठोक-बजाकर देखा कि कहीं ये आनेवाले समय में भड़ासी तो नहीं हो जाएगा और जहां लगा कि हां ये हो सकता है, उसे निकाल बाहर किया। ये अलग बात है कि उसमें कुछ लोग अब भी रह गए जो भड़ास में रहते हुए भी मोहल्ला के मिजाज के हैं। यानि निकाल-बाहर करने में मिजाज को खास वरीयता दी गयी। लेकिन बाड़ लगाने के चक्कर में मोहल्ला ने अपनी चौखट इतनी छोटी कर ली कि लोगों को निहुरकर( झुककर) जाना पड़ता है और जो निहुर नहीं पाता है वो मोहल्ला के चारो ओर चक्कर लगाकर लौट आता है और इधर आप देख रहे होंगे कि मोहल्ला तो सेफ हो गया लेकिन मोहल्ला की चहल-पहल मोहल्ला की बांडरी वॉल के बाहर आ गयी। अविनाश भाई चहल-पहल के बीच रहने वाले इंसान हैं। उन्हें आदमी से बहुत प्यार है। प्यार करने के लिए भी और मन नहीं लगने पर, प्यार करते-करते उब जाने पर लड़ने के लिए भी। इसलिए वो सेफ मोहल्ला से बाहर आकर चहल-पहल के बीच अनिल रघुराज को याद करते हैं, भड़ासियों पर व्यंग्य करते हैं। ये भी अपने तरह का, अलग किस्म का प्यार है। अब आपको हमसे खुन्नस हो रही होगी। जो लोग इस पोस्ट को इस मिजाज से पढ़ना शुरु किया होगा कि आज भी अविनाश के खिलाफ पढ़ने को मिलेगा वो थोड़े मायूस भी हो रहे होंगे। लेकिन आप मायूस न हों, मैं कह रहा हूं न कि अविनाश भाई ये सारे काम भी अपने स्वार्थ के लिए ही कर रहे हैं। वो बिना लड़े रह नहीं सकते, बिना मुद्दा छेड़े रह नहीं सकते, बिना बतकुच्चन किए जी नहीं सकते। नहीं तो क्या जरुरत पड़ी थी भड़ासियों को शेर डेडीकेट करने की। एक तो भड़ासी अपने आप में ऐसा आइटम है जिसे भड़भड़ाने के लिए बस हवा की जरुरत होती है और अविनाश भाई की तरफ से हवा मुहैया हो जाए तो फिर सेफ मोहल्ला के बाहर के लोगों के दम पर गुलजार है। एक बात पर और गौर करिए। लोगों ने जब मोहल्ला को भड़ास जैसा ही कहना शुरु कर दिया तो अविनाश भाई को मोहल्ला का दामन मसकता नजर आने लगा। उन्हें लगने लगा कि अरे, इतने मजबूत फैब्रिक से बनी विचारधारा और उससे बना ब्लॉग कैसे मसक सकता है। इसलिए उन्होंने तुरंत उसका कलेवर बदला और गाजा को सलाम करने लगे, तिब्बत के मसले पर बात होने लगी, कुछ संगीत भी पेश किए गए जिसे पेश करना भड़ासियों के संस्कार में ही नहीं है। जिस दिन वो ऐसा करने लग गए उस दिन से वो अपनी पहचान खो देंगे, भड़ासी रह ही नहीं जाएंगे। इसलिए भड़ासी सबकुछ जानते हुए भी चाहकर भी मोहल्ला का मुकाबला नहीं कर सकते। इस स्तर पर मोहल्ला को अलग दिखाने में भड़ासियों का भी योगदान कबूला जाना चाहिए।... तो मामला साफ हो गया। भड़ासी रहेगा उसी टपोरी, अघोरी और भड़भडिया अंदाज में और मोहल्ला गंभीर, संतुलित अंदाज में। लेकिन जब मुझे जुंगार छूटा और निकाल दिए जाने पर भी मोहल्ला पर गया तो देखा कि अविनाश भाई को पहले से जुंगार छूटा हुआ है। और पोस्ट लिखी है- ऑटो के पीछे क्‍या है उर्फ बेनाम कवियों की लोकप्रिय शाइरी अनिल रघुराजऔर भड़ासियों के लिए यानि भड़ासियों को दुत्कार भी दिया तो भी उनकी बातें, उनकी याद आती रहती है और मन करता है कि कभी हम भी भड़ासी बन जाएं। तब मन की स्वाभाविक इच्छाएं प्रयासजन्य विचारों को बहुत पीछे धकेल देती है।... और वैसे भी हम लाख कोशिश कर लें, फर्श पर से जूतों के निशान मिटाए जा सकते हैं लेकिन जिंदगी से इतिहास के निशान नहीं। ये निशान बार-बार बयां करता है कि भड़ास और मोहल्ला दो जरुरी ब्लॉग हैं और ये दोनों इतिहास के निशान हैं। दोनों के लिए एक-दूसरे के मन में जुंगार छूटता रहता है तो बेहतर ही है, सुखद भी है और हिन्दी ब्लॉगिगं के लिए जरुरी भी। *दलील और अंत में एक अपील-* अविनाश भाई, मोहल्ला, भड़ास और अपनी भावनाओं को आपके सामने रखने के पीछे कोई खेमेबाजी करना मेरा मकसद नहीं रहा है। न ही अविनाश भाई को गलत साबित कर अपने हाथ में होलीस्टिक थामने का इरादा। कुछ साथियों की टिप्पणियों से लगा कि वो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं। उनके शब्दों को पढ़कर लगता है कि अगर मैं मिल जाउं तो मेरी पीठ सहलाकर कहेंगे कि जाने दो, हौसला रखो। ये कोई इस तरह का मसला नहीं था। मेरे प्रति प्लीज बेचारा नजरों से न देखें। मैंने अपने मन को बहुत कड़ा करके ऐसा लिखा है और वो भी अगर अविनाश भाई भड़ासियों के लिए ऑटो के पीछे क्या है, नहीं लिखते तो बात आयी गयी हो गयी थी। मैं इस पूरे मसले को राइटिंग प्रैक्टिस के तौर पर लिख रहा हूं और प्रयोग कर रहा हूं कि मैं घटनाओं को लेकर कितना तटस्थ रह पाता हूं। अविनाश भाई के प्रति मेरे मन में कोई कड़ुवाहट नहीं और स्वाभिमान के साथ सम्मान का भाव बना हुआ है। पीछे की पोस्ट के लिंक्स नहीं दे रहा क्योंकि इसके बाद लिंक आगे की होनी चाहिए, पीछे के नहीं, हमेशा पीछे लौटना फायदेमंद नहीं होता।..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080406/a43e1148/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Mon Apr 7 00:57:48 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 7 Apr 2008 00:57:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCkoeCkvOClh+Ckl+Ckvi0g4KSF4KSq4KSo4KS+IOCkuOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkheCkrCDgpLDgpL/gpLjgpLDgpY3gpJog4KSo4KS54KWA?= =?utf-8?b?4KSC?= Message-ID: <829019b0804061227t70cc99d3yc31d3eafc83798ca@mail.gmail.com> एमए या फिर एम फिल् करने के बाद जो लोग डीयू से एम फिल् या पीएचडी करने की बाट जोह रहे हैं उन्हें खून के आंसू रोने पड़ सकते हैं। उन्हें नए सत्र में रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कम से कम छ महीने तक का इन्तजार करना पड़ सकता है। कल की खबर दि टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक आनेवाले छ महीने में डीयू एम फिल् या पीएच डी के लिए कोई भी लिखित परीक्षा या इंटरव्यू नहीं कराने जा रही है। अखबार को मिली जानकारी के हिसाब से रजिस्ट्रेशन के पहले यूजीसी एम।फिल् और पीएचडी में रजिस्ट्रेशन की पूरी प्रक्रिया को रिवाइव करेगी, उस पर नए सिरे से विचार करेगी और जरुरी समझा गया तो उसमें कुछ जरुरी संशोधन भी करेगी। इस संबंध में यूजीसी विश्वविद्यालय को कुछ जरुरी निर्देश भी दे सकती है जिसमें इन्ट्रेंस की भी बात शामिल हो सकती है। डीयू में अभी तक इन दोनों कोर्सों में रजिस्ट्रेशन के लिए लिखित परीक्षा का प्रावधान नहीं रहा है। एम।फिल् में फिर भी पिछले तीन सालों से लिखित परीक्षा का आयोजन होता रहा है लेकिन पीएचडी के लिए सिर्फ इंटरव्यू का प्रावधान रहा है। खबर है कि यूजीसी ने ऐसा कदम इसलिए उठाया है कि रिसर्च के लिए जो वो स्कॉलरशिप दे रही है उसका बेहतर उपयोग किया जा सके और ये तभी संभव है जबकि रिसर्च के लिए काबिल लोग चुने जाएं। नहीं तो अभी तक कुछ हद तक लोग इसे वेतन वृद्धि और नौकरी पाने के जरिए के रुप में इस्तेमाल करते आ रहे हैं। चुनाव प्रक्रिया अगर दुरुस्त तरीके से होती है तभी ढंग के रिसर्च हमारे सामने आएंगे और रिसर्च के लिए दी जानेवाली राशि का बेहतर उपयोग हो सकेगा। हाईअर स्टडी और रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार के स्तर पर देखें तो यूजीसी का निर्णय वाकई स्वागत योग्य है। इससे न केवल रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार होगा बल्कि जो लोग गंभीरता से रिसर्च वर्क में लगे हैं उनके काम का भी महत्व बढेगा और उनकी स्थापनाओं को गंभीरता से लिया जाएगा। विश्वविद्यालय में रिसर्च के नाम पर जो चलताउ ढंग से थीसिस लिखी जा रहे है उस पर रोकथाम लगेंगे।....और जो लोग रिसर्च में आकर भी इसे सेकेण्डरी वर्क मानकर काम करते हैं उनकी नकेल भी कसी जा सकेगी औऱ ज्यादा से ज्यादा वो ही लोग इस फील्ड में होंगे जो वाकई रिसर्च करना चाहते हैं और आगे चलकर एकेडमिक्स में अपना करियर बनाना चाहते हैं। यूजीसी के इस कदम को अगर गंभीरता से समझा जाए तो रिसर्चर और यूनिवर्सिटी दोनों पक्षों को फायदा है। लेकिन तत्काल अगर पूरी स्थिति पर विचार किया जाए तो स्थिति बहुत ही संकटपूर्ण है। जो लोग आनेवाले महीने-दो महीने में पीएचडी की इंटरव्यू में शामिल होनेवाले थे और जून के बाद एम फिल् की प्रवेश परीक्षा में शामिल होनेवाले थे उनके साथ समस्या है कि अब वो क्या करें। छ महीने तक इंतजार करने का मतलब है कम से कम एक साल की बर्बादी। क्योंकि यूजीसी के कहे अनुसार अगर छ महीने में दुबारा प्रक्रिया शुरु हो भी जाती है तो भी लिखित परीक्षा और इंटरव्यू होने में कम से कम दो से तीन महीने लग जाएंगे और फाइनली डीयू की आइडी कार्ड हाथ में आते-आते सालभर का समय लग ही जाएगा। फिर इस बात की भी गारंटी नहीं है कि छ महीने बाद प्रक्रिया शुरु हो ही जाए। अच्छा, इच्छुक सारे लोगों का एडमीशन होना नहीं है इसलिए उन्हें किसी दूसरे फील्ड में जाने के लिए नए सिरे से विचार करना होगा। और इसमें भी समय लगेगा। फिर किसी एक विषय से एमए या एम फिल् करने के बाद अचानक से दूसरे फील्ड में जाना भी आसान बात नहीं है। यूजीसी की इस घोषणा के आने के पहले ही जेएनयू जैसे कुछ बेहतर विश्वविद्यालयों में अप्लाई करने की तारीख समाप्त हो चुकी है। सबसे बड़ी बात है कि स्टूडेंट को इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि डीयू या फिर यूजीसी अचानक से ऐसी कोई घोषणा कर देगी। अपने करियर और भविष्य को लेकर जब स्टूडेंट बात कर रहे हैं तो उनके बीच एक अजीब सी निराशा और असंतोष का भाव है। वो खुद भी चाहते हैं कि इतना समय और साधन लगाकर जब वो रिसर्च करते हैं तो उसकी मार्केट वैल्यू हो, यूजीसी पूरी प्रक्रिया को दुरुस्त करे लेकिन स्टूडेंट को इसकी खबर पहले मिलनी चाहिए थी। पर्याप्त समय ताकि वो इस दौरान बेहतर तरीके से करियर को लेकर प्लान कर सकें। सबसे बड़ी परेशानी तो डीयू के उन स्टूडेंट्स की है जो हॉस्टल में रह रहे हैं। अभी तक होता ये आया है कि मई-जून तक एम ए के इग्जाम्स या फिर एम फिल् का वायवा खत्म हो जाने के बाद महीने-दो महीने तक आगे की तैयारी करते। इस दौरान वो गेस्ट स्टेटस पर हॉस्टल में रहते। जिनका आगे की कोर्स में एडमीशन हो जाता उनका हॉस्टल भी कॉन्टीन्यू हो जाता। उन्हें रिसर्च के लिए रजिस्ट्रेशन कराने में और रहने में कोई खास परेशानी नहीं होती। लेकिन डीयू और यूजीसी इस नई रणनीति की वजह से हॉस्टलर्स बुरी तरह परेशानी में पड़ जाएंगे। इतने लमबे समय तक गेस्ट स्टेटस पर रहने नहीं दिया जाएगा, उन्हें हॉस्टल खाली करना पड़ेगा और दोबारा हॉस्टल में आने में कम से कम साल-डेढ़ साल लग जाएगें। उनका पूरी सेटअप तितर बितर हो जाएगा। फिर इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें दोबारा हॉस्टल मिल ही जाए। एक बार स्टूडेंट प्वाइंट ऑफ व्यू से देखें तो डीयू और यूजीसी की ये रणनीति भविष्य के लिए भले ही रिसर्चर और विश्वविद्यालय के पक्ष में हो लेकिन फिलहाल स्टूडेंट्स को अच्छी खासी परेशानी झेलनी पड़ सकती है। करियर के स्तर पर भी और रहने के स्तर पर भी। इसलिए जरुरी है कि यूजीसी इस मामले को देखते हुए कोई विकल्प या बीच का रास्ता निकाले जिससे की स्टूडेंट्स का साल-डेढ़ साल का कीमती समय बर्बाद होने से बच जाए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080407/cad52358/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Tue Apr 8 12:55:46 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 8 Apr 2008 12:55:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCkquCksCDgpJzgpYHgpLLgpY3gpK4g4KSu4KSkIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWA4KSc4KS/4KSP?= Message-ID: <829019b0804080025l6c754433q8c21d28986b82630@mail.gmail.com> हिन्दीवालों के बीच आजकल तेजी से फैशन चल निकला है-मीडिया और सिनेमा के उपर रिसर्च करने का। डीयू में ये फैशन तेजी से पॉपुलर हो रहा है इसकी वजह तो समझ में आती है लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में जहां का हिन्दी समाज मीडिया को जमकर गरियाता है वो भी इन दिनों मीडिया पर रिसर्च करने की कसरतें करने में जुटा है। डीयू की वजह मुझे तात्कालिक या अवसरवादी लगती है जबकि बाकी जगहों पर ये मुझे मानसिकता का सवाल लगता है। परसों की ही बात लीजिए न। देश के बाढ़ प्रभावित इलाके से एक भायजी आए। हिन्दी से पीएचडी कर रहे हैं और मीडिया पर अलग से कोर्स। कोर्स के मुताबिक उन्हें किसी एक विषय पर लघु शोध-प्रबंध लिखना है। उन्होंने विषय लिया है- टेलीविजन का टीनएजर्स पर प्रभाव।....और मदद के नाम पर उन्हें मुझसे कुछ किताबों की सूची,काम करने के तरीकों और ऐसे ही मिलते-जुलते विषय पर कुछ मेरा लिखा-पढ़ा है तो वो सबकुछ चाहिए थे। मैंने कहा- सेल्फ में देख लीजिए जो किताबें आपको काम की लगे उसकी आप फोटो कॉपी करा लें। पच्चीस मिनट तक जो मैं बता सकता था, बता दिया कि कैसे आपको काम करना है और जहां तक मेरे लिखे-पढ़े मटेरियल का सवाल है, ये लीजिए टेलीविजन के विज्ञापनों पर किया गया मेरा काम, जिसमें हमनें महिलाओं और बच्चों पर इसके प्रभाव को दिखाया है। इस बातचीत के क्रम में उनसे जो फीडबैक मिली वो मैं आपके सामने रख रहा हूं। अंग्रेजी किताबों के नाम पर उन्होंने कहा कि इसे आप छोड़ ही दीजिए, हिन्दी में हो तो कुछ बताइए। अंग्रेजी आती नहीं लेकिन इसे सीखने के लिए प्रतिबद्ध हूं। दूसरी बात, जब मैंने उनसे पूछा कि आप टेलीविजन के प्रोग्राम्स तो रिकार्ड कर रहे होंगे न, ताकि आप उसकी स्क्रिप्ट, प्रस्तुति, अंदाज, प्रोडक्शन, लेआउट आदि मसलों पर बात कर सकेंगे। उनका जबाब था कि इस हिसाब से तो अभी तक हमने सोचा ही नहीं है। मैंने कहा, ऐसा कीजिए आप दस दिन तक कम से कम प्राइम टाइम में रोज टीवी देखिए, प्रोग्रामों की स्क्रिप्ट नोट कीजिए, रोज फुटनोट बनाइए। उनका कहना था, टीवी कभी-कभार देखना होता है। तीसरी बात, जब मैंने कहा, सारी किताबें तो आपको मिलेगी भी नहीं। ऐसा कीजिएगा, आप इंटरनेट से कुछ मटेरियल डाउनलोड कर लीजिएगा या फिर आप अपना इमेल आइडी दे दें, मैं ही खोजकर कामलायक चीजें भेज दूंगा। उनका जबाब था, जी मैं नेट पर कभी बैठा ही नहीं। मैं नहीं कहता कि उनके जैसे देश भर में हिन्दी से एमए करनवालों को मीडिया पर रिसर्च करने का अधिकार नहीं है या फिर उन्हें इस पर रिसर्च करनी ही नहीं चाहिए। मेरा शुरु से जोर इस बात पर रहा है कि जब भी आप मीडिया पर रिसर्च कर रहे हों, आप उसकी प्रकृति और उसकी अनिवार्यताओं को ध्यान में ऱखकर रिसर्च करें, साहित्य के भोथरे औजार और साहित्य की दुनिया में हिट हो गए विद्वानों के विचारों को मीडिया में जबरदस्ती थोपने की कोशिश न करें। इसे जबरदस्ती साहित्य का ही अंग न मान लें। क्योंकि एक तो आपके मानने से ऐसा होगा नहीं, दूसरा साहित्य का रिसर्च मीडिया रिसर्च नहीं है, उल्टे आपकी थीसिस, रिसर्च पेपर ठीकठाक मीडियाकर्मी के हाथ लग गई तो जरुर कहेगा- मीडिया पर जुल्म मत कीजिए, रहने दीजिए उसे बिना रिसर्च के ही। आपके इस रिसर्च से हमें कोई दिशा नहीं मिलेगी, आपकी तरह दूसरे हिन्दीवालों पर भी गुस्सा आएगा और एक हद के बाद घृणा भी। तब तो और भी जब आप रिसर्च के पहले ही मान बैठे हैं-टीवी समाज को भ्रष्ट कर रहा है, बच्चे इससे बर्बाद हो रहे हैं,ऐसे में आप लेख लिखिए, मीडिया पर रिसर्च मत कीजिए। आगे पढ़िए- यही हाल है देश के बाकी हिन्दी वालों का और मीडिया रिसर्च कुंठा से बचने जैसा कुछ है -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080408/fb5a26a9/attachment.html From vineetdu at gmail.com Wed Apr 9 09:57:17 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 9 Apr 2008 09:57:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSf4KSw?= =?utf-8?b?4KWH4KSa4KSwIOCkleClhyDgpJTgpJzgpL7gpLAg4KSt4KWL4KSl4KSw?= =?utf-8?b?4KWHIOCkueCliOCkgiwg4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleCliyA=?= =?utf-8?b?4KS44KSu4KSd4KSo4KWHIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8=?= Message-ID: <829019b0804082127r44ce56b6g96846ea02042a210@mail.gmail.com> कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी के लोग साहित्य और मीडिया को एक मान लेते हैं और मीडिया के उपर साहित्य के प्रतिमान फिट करने लग जाते हैं। साहित्य के लोगों को बाजार और पूंजीवाद से शुरु से ही विरोध रहा है और आज मीडिया भी इसकी ही उपज है इसलिए वो मीडिया का भी सीधे-सीधे विरोध करने लग जाते हैं। अब आगे- हिन्दी के लोग जब भी मीडिया पर बात करते हैं तो उनके दिमाग में कुछ गिने-चुने शब्द, विचार या अवधारणा होते हैं। वो शब्द और विचार जो किसी भी कवि को जनपक्षधर बताने के काम आ सकते हैं और अवधारणा जिसके बूते ये सिद्ध किया जा सके कि मीडिया लेट कैपिटलिज्म की उपज है। ये हमें पैसिव ऑडिएंस बनाता है। इसमें प्रस्तुत विचार औऱ जीवन शैली दरअसल कुछ ही लोगों के विचार और जीवन शैली होते हैं और बाकी की जनता इसे फॉलो करती है। ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो ये कल्चरल हेजमनी यानि सांस्कृतिक वर्चस्व है। साहित्य को मार्क्सवादी नजरिए से पढ़नेवाले लोगों के लिए इस अवधारणा के तहत मीडिया का विश्लेषण करने के लिए खूब सामग्री मौजूद है। अब कुछ हद तक हिन्दी में भी और अंग्रेजी में तो है ही।... और आप मीडिया पर हुए तमाम रिसर्च को उठाकर देख लीजिए लोग इसकी बाकी चीजों पर बात न करके मीडिया को लेट कैपिटलिज्म या आवारा पूंजी का सुपुत्र मानकर इसकी निंदा करने लग जाते हैं। इनके हिसाब से मीडिया में कोई भी ऐसा एलीमेंट नहीं है जिससे की समाज को बेहतर किया जा सके। वो अब भी मीडिया में बिल्बर श्रैम के मॉडल की तलाश करते-फिरते हैं जिसे कि नेहरु युग में मीडिया और संचार मॉडल के तौर पर अपनाया गया था। जिसके अनुसार इस बात को बार-बार स्थापित करने की कोशिश की गई कि मीडिया को हर हाल में सामाजिक विकास के लिए कार्य करना चाहिए। लेकिन आज के हिन्दी रिसर्चर अब भी इस बात को ज्यों के त्यों पकड़कर बैठे हैं। वो इस बात को समझ ही नहीं पाते या समझना ही नहीं चाहते कि ये तब कि स्थितियां है जब मीडिया का संचालन पूरी तरह सरकार के हाथों में रही। उस सरकार को जिसके लिए मीडिया को बनाए रखने के लिए किसी तरह की कंपटीशन से नहीं गुजरना पड़ा। वो मीडिया का काम उसी तरह करती है जैसे एक वेलफेयर स्टेट में नाली, पानी सड़क और इसी तरह दूसरे जनहित के कार्य। जिसके लिए सरकारी खजाने से रुपये निकाले जाते हैं और टैक्स के जरिए जिसे उगाहाया जाता है। आज जो मीडिया हमारे सामने है उस पर न जाने कितने दबाव हैं। समय, बाजार, पूंजी, प्रतिस्पर्धा, दूसरे से बेहतर और जल्दी करने के दबाव तो हम जैसे लोगों को साफ दिखाई देता है इसके अलावे मैंनेजमेंट के स्तर पर सैंकड़ों दबाव होंगे जिसे कि नजदीकी से समझना हमारे लिए आमतौर पर आसान नहीं होगा। तो भी उपरी तौर पर भी हम जितना दबाव समझ पा रहे होते हैं, हिन्दी के लोग रिसर्च करते समय इन सारी बातों को पूरी तरह नजरअंदाज कर जाते हैं। एक आम आदमी या अनपढ़ आदमी बिना कुछ ज्यादा सोचे-समझे मीडिया को गरिआये तो बात समझ में आती है। हांलांकि उन्हें भी मीडिया लिटरेट करना हमारा ही काम है, उन्हें बताना हमारी जिम्मेवारी है कि ऑडिएंस के स्तर पर सक्रिय होकर हम मीडिया को कितना कुछ बदल सकते हैं। लेकिन अगर एमए करने के बाद कोई एमफल् और पीएचडी के स्तर पर इसी मानसिकता और मीडिया के प्रति इसी समझदारी को लेकर मैंदान में उतरता है तब उसके रिसर्च करने और न करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। ये अलग बात है कि उन्हें तो भी एमफिल् या पीएचडी की डिग्री अवार्ड कर दी जाएगी। क्योंकि देशभर में सैंकडों ऐसे विषयों पर पीएचडी अवार्ड की जाती है जिसके बारे में अगर रिसर्चर से पूछा जाए कि इसे करने के बाद आपने कौन सी नई स्थापनाएं दी या फिर आपकी पीएचडी का एप्लीकेशन क्या है तो कुछ भी नहीं बता पाएंगे। उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए। सच्चाई ये है कि मीडिया को प्रोडक्शन, कन्जम्पशन,रीप्रोडक्शन,पॉलिटिकल इकोनॉमी और कल्चरल डिस्कोर्स के तहत देखने और विश्लेषित करने की समझ पूरे हिन्दी समाज में विकसित नहीं हुई है। मीडिया पर रिसर्च करनेवाला हिन्दी समाज लेटस्ट या नया काम या नए तरीके से काम करने के नाम पर उनलोगों का विरोध करता दिखाई देता है जो आकाशवाणी की परिकल्पना महाभारत काल से मानते आ रहे हैं और नारद को भारत का पहला व्यवस्थित रिपोर्टर मानते हैं। बहुत हुआ तो जो लोग अखबार की पत्रकारिता और उनकी शर्तों को टेलीविजन और बाकी मीडिया के साथ घालमेल कर देते हैं उससे अलगाने का काम करते हैं लेकिन वो भी इस बात की चर्चा कभी नहीं करते कि जो मीडिया हमारे सामने पनप रहा है उसका स्पेस से और आए दिन बनते-घिरते सामाजिक अवधारणाओं से क्या संबंध है। सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो मीडिया जिस आर्टिकुलेशन या पैश्टिच कल्चर को तेजी से अपना रहा और आगे बढ़ रहा है, उसकी खोज-खबर हिन्दी समाज का रिसर्चर नहीं लेता। इसकी एक वजह तो ये भी है उसके उपर से हिन्दी साहित्य की मान्यताओं का दबाव हटता नहीं, उसके दिमाग से ये बात जाती ही नहीं कि साहित्य में जिन विद्वानों के विचार सबसे ज्यादा हिट रहे उन्हें मीडिया में काम करते हुए कैसे छोड़ दें या फिर उनको ओवरटेक करके कैसे आगे बढ़ जाएं। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी के, साहित्य के बड़े-बड़े बाबाओं के विचार के मुताबिक अगर रिसर्च किए जाते हैं तो मीडिया का नरक होते देर नहीं लगेगी और अगर किसी ने इन विचारों को ओवरटेक किया तो इन बाबाओं के विचार पिटते देर नहीं लगेंगे। तरीके से अगर इनका विश्लेषण किया जाए तो बात समझ में आ जाएगी कि विद्वानों ने विद्वता के नाम पर कितना कच्चा-कच्चा और अधकचरा हमारे सामने रख दिया है। इस संबंध में बात करते हुए मेरी पहली पोस्ट पर मिहिर ने टिप्पणी की है, उसे यहां रखना जरुरी है- miHir pandya ने कहा… असल में एक फांक है या बन गई है मीडिया और उसके ऊपर होने वाली रिसर्च में. जो मीडिया में कार्यरत हैं वे शायद उसपर आलोचनात्मक नज़रिये के साथ काम नहीं कर सकते और अध्यनरत विद्यार्थी अब भी मीडिया के 'फर्स्ट हैण्ड' अनुभव से बाहर हैं. और ऐसे में आपका दोहरा अनुभव काम आता है। मिहिर की बात में दम है लेकिन इसे पूरी तरह एज इट जी नहीं माना जा सकता . मिहिर के हिसाब से मीडिया में काम करनेवाले लोग उतने आलोचनात्मक तरीके से नहीं लिख सकते। ऐसा नहीं है। आप पुण्य प्रसून की राइटिंग को उठाकर देख लीजिए। मीडिया के भीतर की पॉलिटिक्स को छोड़ दे तो आपको पढ़कर लगेगा कि इस आदमी ने किताब ब्रेकिंग न्यूज में जो बात कही है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि मीडिया में काम करते हुए भी कितने बेबाकी तरीके से लिखा-कहा जा सकता है। रवीश कुमार के लेखों को देखिए कितना सधे हुए तरीके से लिखते है और जिस मानवीय संवेदना की बात हिन्दी समाज उठाता है वो सारे एलीमेंट वहां मौजूद है। हां, लेकिन ये हमारी-आपकी तरह रिसर्च नहीं कर सकते। क्योंकि देश की यूनिवर्सिटी ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है कि कोई पत्रकार साल-दो साल की छुट्टी लेकर कोई रिसर्च करे और यूनिवर्सिटी इस काम के लिए फेलोशिप दे। हिन्दी मीडिया का भी कलेजा इतना बड़ा नहीं है कि वो अपने चैनल के पत्रकारों को रिसर्च करने के लिए प्रोमोट करे। लेकिन मिहिर ने हिन्दी में मीडिया पर रिसर्च करनेवालों के संबंध में जिस 'फर्स्ट हैण्ड' की बात की है उसका तो प्रावधान है ही। थोड़ी सी कोशिश करके कोई भी रिसर्चर मीडिया के किसी भी चैनल में इन्टर्नशिप तो कर ही सकता है। महीने-दो महीने में इतना तो समझ ही जाएगा कि चैनलों में काम कैसे होते है, मीडिया कल्चर है क्या और स्पेस का क्या महत्व है। एमफिल् के दौरान इसके लिए पर्याप्त समय होता है लेकिन कोई पहल तो करे। तब यकीन मानिए, इन्टर्नशिप कर लेने के बाद कोई भी हिन्दी रिसर्चर इतने बचकाने ढंग से दुराग्रही होकर मीडिया पर रिसर्च नहीं करेगा और उसके काम की नोटिस मीडियाकर्मी भी लेंगे जो कि मीडिया रिसर्च का जरुरी उद्देश्य है। आगे पढ़िए- मानसिकता बदलने में ही रह जाते हैं हिन्दी के लोग -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2377 Size: 16893 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080409/88b4be11/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Apr 10 09:53:51 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 10 Apr 2008 09:53:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSX4KSc?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkpOCksOCkqCDgpJzgpK7gpL4g4KSV4KSw4KSk4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KWI4KSCIOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+CkviDgpLDgpL/gpLjgpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KSa4KSwID8=?= Message-ID: <829019b0804092123j203fbcdenf7114f0ef9d7fe8f@mail.gmail.com> कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी मीडिया का कलेजा इतना बड़ा नहीं है कि वो अपने मीडियाकर्मियों को रिसर्च के लिए प्रोत्साहित करे और न ही देश के विश्वविद्यालयों ने ऐसी कोई व्यवस्था की है कि अनुभवी पत्रकार चाहे तो साल-दो साल मीडिया प्रैक्टिस छोड़कर रिसर्च के काम में लगे। अब आगे- हिन्दी वाले जब साहित्य पढ़कर मीडिया में आते हैं और अब जब मीडिया पर रिसर्च करने का मन बना रहे होते हैं तो उनके सामने कुछ बुनियादी परेशानियां सामने आती है। जैसे- हिन्दी में तो ढ़ंग का मटेरियल है ही नहीं जिससे कि मीडिया के प्रति समझ बन सके। कुछ किताबें लिखीं भी गई हैं तो इस प्रयास से कि इसे पढ़कर बस डिप्लोमा की परीक्षा में पास हुआ जा सकता है। कुछ बड़े लोगों ने लिखा भी है तो उसमें कहीं कोई रेफरेंस नहीं है। किताब के अंत में किताबों की सूची तो है लेकिन चैप्टर के भीतर ये साफ ही नहीं हो पाता है कौन सी बात वो खुद कह रहे हैं और कौन सी बात को बतौर रेफरेंस इस्तेमाल कर रहे हैं। इतना उलझन और अस्पष्ट मामला होता है कि वाकई हिन्दी अंग्रेजी पर भारी पड़ने लग जाती है। इन किताबों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि जिस किसी ने भी इस किताब को लिखा है वो ये मानकर चल रहा है कि जिस भी पाठक को ये किताब हाथ लगेगी वो नौसिखुए किस्म का होगा और चाहे कुछ भी लिख दिया जाए,वो पचा जाएगा। मार उसमें भी साहित्य की अवधारणा ठूंसे जा रहे हैं। ऐसी ही किताबों को देखकर मैं अक्सर कहा करता हूं कि हिन्दी के बाबा हमारे नहीं पढ़ने की वजह से विद्वान हो गए हैं, अगर हम भी उनकी तरह कुछ पढ़ लें तो कई चीजें खुद-ब-खुद साफ हो जाएगी। वो उन लोगों का नाम लेने से बचते हैं जिनकी पंक्तियों को उठाकर उन्होंने अनुवाद किया है। शायद इसलिए कि ऐसा करने से उनकी आभा कम हो जाएगी। अपवाद में दो-तीन लेखक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा-समझा है, वो यहां शामिल नहीं हैं। दूसरी बड़ी परेशानी हिन्दीवालों के सामने है, जो कि उनकी खुद की बनायी हुई है वो ये कि मीडिया के जो बेसिक शब्द हैं,जिसे आप पारिभाषिक शब्दावली भी कह सकते हैं,उसकी बिल्कुल समझ नहीं है। उसे या तो वो अंग्रेजी का हिन्दी का मतलब निकालकर समझ लेते हैं,अपने मन से अर्थ लगा लेते हैं या फिर उसमें भी कोई भारी-भरकम कॉन्सेप्ट खोंस देते हैं जिसकी बिल्कुल भी जरुरत नहीं होती। जरुरत होती है तो बस इस बात की कि वो एक-दो बार किसी मीडिया प्रोफेशनल से इस मामले में बात कर लें या फिर सप्ताह भर जाकर चैनल के अंदर खुद ही जाकर समझ लें। तीसरी परेशानी है, अंग्रेजी में कमजोर होने की। अंग्रेजी में कमजोर होना कोई शर्म की बात नहीं, इसे प्रयास से दूर किया जा सकता है लेकिन दिक्कत इस बात की है कि जो संस्कार उन्होंने ग्रहण किए हैं उसके अनुसार अंग्रेजी हिन्दी की जूती है और इसे वो सम्मान नहीं दे सकते। अंग्रेजी में अपनी कमजोरी को दूर करने के बजाए अंग्रेजी को बार-बार गरियाकर जस्टिफाय कर लेते हैं। हिन्दी का स्वर इतना तेज कर लेते हैं कि अंग्रेजी न जानने की कुंठा उसके भीतर दब जाए औऱ तब वो घसीट-घसीटकर रिसर्च पूरी करते हैं। ये अलग बात है कि इतना सबकुछ कर लेने के बाद भी वो अंग्रेजी के आतंक से मुक्त नहीं हो पाते और कभी किसी जूनियर से या फिर कभी कम दाम पर अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कराते-फिरते हैं। आप लाख ड़ंका पीटते रह जाइए कि हमारी हिन्दी बहुत समृद्ध है और किसी दूसरी भाषा की ओर ताकने की जरुरत नहीं है लेकिन इतनी समझदारी तो लानी ही होगी कि भाषा के समृद्ध होने के बावजूद विद्वानों ने मीडिया और कल्चरल स्टडीज पर नहीं लिखा है तो आपको अंग्रेजी की तरफ तो जाना ही होगा। एक स्तर पर तो समझदारी आपको उसी भाषा में लिखी गई सामग्रियों से ही मिलेगी। हांलांकि हिन्दी समाज अब इस बात की चिंता किए वगैर कि अंग्रेजी पढ़ने से हमारी गरिमा कम होगी,हमारे विद्वानों के बजाए अंग्रेजी के विद्वानों के कोटेशन्स ज्यादा इस्तेमाल होने लगेंगे तो भी अंग्रेजी पढ़ने लगे हैं लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है औऱ कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों में ऐसा हो पाया है। वो अपने हिन्दी के बाबाओं की बाट जोहते रहते हैं कि कब ये इस मुद्दे पर कुछ लिखें और उनका नाम हम अपनी थीसिस में डालें। क्योंकि देश के हिन्दी विभाग में एक बड़ी सच्चाई है कि रिसर्चर अपनी रिसर्च कितने ऑथेंटिक ढ़ंग से करता है इस सवाल के साथ ज्यादा जरुरी हो जाता है कि अपने विद्वानों को खुश कर पाया है कि नहीं। इसलिए आप देखेंगे कि थीसिस में कई ऐसे नाम भी आ जाएंगे, कई ऐसे किताबों को शामिल कर लिया जाएगा जिसका कि विषय से कोई लेना-देना ही नहीं है। इसलिए हिन्दी समाज के लिए मीडिया में रिसर्च करते हुए जो परेशानियां सामने आती हैं, काफी हद तक वो वाकई में परेशानी है लेकिन परेशानी का बड़ा हिस्सा इस बात पर टिका होता है कि हिन्दी समाज अपनी मानसिकता से उपर उठ नहीं पाता। रिसर्च के टॉपिक को जितने साफ ढ़ंग से मीडिया को साहित्य से अलगा देता है, काम करते वक्त ऐसा नहीं कर पाता। इसलिए डिशक्शन के बिन्दु टेलीविजन के होते हुए भी रेफरेंस नवजागरण के एक्सपर्ट के याद आ जाते हैं। हिन्दी मीडिया रिसर्च की ये दुनिया जब तक रिसर्च के स्तर पर अपने को साहित्य से अलग नहीं कर लेती,तब तक न तो उसके द्वारा किए गए रिसर्च को मान्यता मिल पाएगी, न तो इससे मीडिया को कोई लाभ होगा और न ही एकेडमिक स्तर पर मीडिया रिसर्च एक मतलब के काम के तौर पर स्थापित हो पाएगा।...और आनेवाली मीडिया रिसर्च की पीढ़ी शायद हमसे ज्यादा उबकर-चिढ़कर लिखे, क्योंकि आप तो उसका विषय भी छिन ले रहे हैं. तब तो कहेंगे कि न कि- सीनियर ने सब नरक कर दिया, मीडिया रिसर्च के नाम पर कागजी कतरन जमा किए हैं बस।।।. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 12127 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080410/e8ffef62/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Thu Apr 10 12:41:11 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 10 Apr 2008 12:41:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSIIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWI4KSu4KS+4KS44KS/4KSV4KWAOiDgpKrgpY3gpLDgpKTgpL8=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSq4KS/?= Message-ID: <200804101241.11706.ravikant@sarai.net> ब्लॉग के कलेवर में द्विभाषी पत्रिका. मज़े लें. http://www.pratilipi.in/# रविकान्त मित्रों/ Hi, संभवतः, भारत की पहली द्विभाषी, ऑनलाइन , साहित्यिक पत्रिका – प्रतिलिपि – के लोकार्पण पर आपका स्वागत है/We welcome you to Pratilipi.in - quite possibly India's first bi-lingual, online literary magazine. प्रवेशांक आपके हाथों में है और हम ख़ुद नहीं बोलेंगे, प्रतिलिपि को ही बोलने देंगे /Our inaugural issue is out. And we shall let it speak for itself. हमें विश्वास है की प्रतिलिपि के पन्नों पर और भाषाओं व लिपियों में, और बहुत सारे लोग, और बहुत तरह के लेखन आयेंगे और बात करेंगे/ We are sure more people, more kinds of writings, more languages and scripts, will come together and converse at Pratilipi. हमारी वेबसाईट है / The website - http://www.pratilipi.in प्रवेशांक /The first issue -        प्रतिलिपि अप्रैल २००८ / PRATILIPI - April 2008  शीर्ष आलेख / LEAD ARTICLE                - प्रतिरोध और साहित्य: मदन सोनी /MADAN SONI ON RESISTANCE AND LITERATURE IN       HINDI फीचर्स / FEATURES  -    THREE NEW INDIAN ENGLISH POETS AND A FEMALE MAX BROD/ तीन नए भारतीय अंग्रेज़ी कवि और एक स्त्री-मैक्स ब्रॉड -          SUDHIR CHANDRA ON 1857 AND INDIAN INTELLIGENTSIA /१८५७ के बौद्धिक उत्तरजीवन पर सुधीर चंद्र -          RUSTAM (SINGH) ON SELF AND TIME / आत्म और काल पर रुस्तम (सिंह) कथा /FICTION                - गीतांजलि श्री और अनिरुद्ध उमट के उपन्यासों के अंश /EXCERPTS FROM NOVELS BY                  GEETANJALI SHREE AND ANIRUDDH UMATH कविता / POETRY              - LARS LUNDKVIST / लार्श लुन्डक्विस्ट                - MAMTA G SAGAR / ममता जी सागर                - MATSYA / मत्स्या                - MIRANHSHAH / मीरनशाह                - NILIM KUMAR /  नीलिम कुमार                - SUNITI BHATT /  सुनीति भट्ट                - UDAYAN VAJPEYI /  उदयन वाजपेयी कथेतर / NON-FICTION                - हिन्दी साहित्य के पर्यावरण और एक स्त्री-लेखक पर गिरिराज किराडू  /      GIRIRAJ KIRADOO ON WOMEN WRITERS IN HINDI LITERARY ENVIRONMENT प्रतीक्षा में / Regards, Giriraj Kiradoo & Rahul Soni                                     Shiv Kumar Gandhi (Editors) (Art Editor) गिरिराज किराडू एवं राहुल सोनी             शिव कुमार गाँधी संपादक                                   कला संपादक From vineetdu at gmail.com Fri Apr 11 14:00:53 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 11 Apr 2008 14:00:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSUIOCklw==?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWHIOCkieCkguCkl+CksuCkv+Ckr+Cli+CkgiDgpKrgpLAs?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCkvuCkgiDgpJXgpL/gpKTgpKjgpYcg4KST4KSs4KWA4KS4?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0804110130p62e45ba5mc19875bde50107bf@mail.gmail.com> ओबीसी आरक्षण लागू होने पर सरकार ने बताया कि इससे सामाजिक स्तर पर समानता आएगी और आपने मान भी लिया। देखिए सरकार के कानून को सीधे-सीधे मान भी लें तो जाति जैसा मामला हमारे मिजाज और मूड की चीज है, ये हमारे संस्कार में मिले हैं। इसे हम भला एक झटके में कैसे छोड़ दें। जाति कोई चीनी तो है नहीं कि आरक्षण में घुल जाए और पूरे समाज को समरस और मीठा कर जाए। टैम लगता है भाई और जाति जैसे मामले में जितना टैम लगे उतना ही मामला चोखा बनता है। आरक्षण को लेकर मैं कोई गंभीर बहस में पड़ना नहीं चाहता, जो काम पिछले चौबीस घंटे से अखबार और चैनल कर रहे हैं वो काम मैं भी क्यों करने लग जाउं। मैं तो बस रिजर्वेशन लागू होने की घोषणा के चौबीस घंटे के भीतर हुए तीन घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूं। तो लीजिए एक-एक करके- मेरे विभाग में लेक्चररशिप की लाइन में कितने ओबीसी हैं, उंगलियों पर इनकी गिनती शुरु हो गई है। अभी ये काम स्टूडेंट ही कर रहे हैं। जब सब तरफ से सही आंकड़ा निकल आएगा तो बात हाइकमान तक पहुंचा दी जाएगी। इस आपरेशन के तहत एक-दो लोगों को लेकर लोगों को झटका भी लगा। जिसे अभी तक फारवर्ड समझ कर खिलाया-पिलाया जाता रहा, ओबीसी को लेकर जिनके साथ गोलाबंदी करते रहे आज वो ओबीसी निकला। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसके चेहरे पर जो चमक आयी उसे वो रोक नहीं पाया, उसे वो नैचुरल ही रहने दिया और इस चक्कर में अच्छा-खासा फ्रैंड सर्किल गंवा बैठा। अब ये कहा जाने लगा है कि- अच्छा, ओबीसी है तभी तो सारी बातें चुपचाप सुनता रहा, कभी किसी बात पर चूं से चां तक नहीं किया। बीच-बीच में हमको शक होता रहा कि इसका कोई भी लक्षण फारवर्ड वाला नहीं है,कोई अकड़ नहीं है, गिरगिराता फिरता है। लेकिन हम देह की कमजोरी समझकर नजरअंदाज करते रहे। आज वही हुआ जिसको लेकर मन में खटका लगा रहा। तब वो सारी बातें इधर से उधर करता होगा जो कि हमलोग ओबीसी को लेकर बोलते रहे। शाम को एक भाई ने बड़ी ही बेचैनी से, बधाई देते हुए फोन किया, यार सुप्रीम कोर्ट भी न, अब रिजर्वेशन दिया ही है तो उसमें क्रीमीलेयर वाला लोचा क्यों लगा दिया। क्यों कह दिया कि ढ़ाई लाख से ज्यादा जिनकी आमदनी होगी, उनके बाल-बच्चों को रिजर्वेशन नहीं मिलेगी। अच्छा, ये बताओ तुम्हारे पापा की इन्कम कितनी होगी। देखने से तो नहीं लगता कि तुमलोग ढाई लाख में गुजारा कर लेते होगे। साले, सेठ जो ठहरे। मैंने हंसते हुए बताया-सवा दो लाख। उसने कहा-तू झूठ बोल रहा है, सच-सच बता न। मैंने कहा कि ढाई लाख से बहुत ज्यादा है लेकिन फिर भी मुझे इसका फायदा मिलेगा। क्योंकि बिजनेस में कुछ भी फिक्स तो है नहीं किसी-किसी साल बहुत घाटा भी लग जाता है, फैशन बदल जाते हैं और बहुत सारा माल पैंडिंग पड़ जाता है, तब तो हम सर्टिफिकेट बनवा सकते हैं न लो इन्कम की और वो भी पक्की। उसका मन बैठ गया और कहने लगा-तुम्ही लोग लो बेटे मजा, उधर पैसे का भी और इधर रिजर्वेशन का भी। लेकिन कहो कुछ, हो तुम बहुत ही कमीने, कोई भी बात साफ-साफ नहीं बताते, सबकुछ घुमा-फिराकर जैसे सबसे ज्यादा खतरा तुमको हम्हीं से है। ....और तीसरी घटना जब मैं पड़ोस के हॉस्टल में मेल चेक करने गया तो वहां हमारे एक परिचित मिल गए और देखते हुए हुलसते कहा- अरे भाई साहब, हम तो आप ही जैसे लोगों को खोज रहे थे, चलिए हमारे साथ कंप्यूटर रुम। वहां मैं गया तो देखा कि लोक सभा की साइट खुली हुई है और वो हमसे जानना चाह रहे थे कि लोकसभा औऱ राज्य सभा के कुल कितने एमपी ओबीसी से हैं। उनका कहना था कि एक बार पता तो चल जाए उसके बाद देखिए कैंपस में कैसे लोगों को फाड़ देगें। अभी इ लोग आदमी पहचाना ही नहीं है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080411/ad61acbf/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Apr 13 10:54:49 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 13 Apr 2008 10:54:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSk?= =?utf-8?b?IOCkueClgeCkhizgpIXgpKwg4KSc4KSw4KS+IOCkquClgeCksOClgQ==?= =?utf-8?b?4KS3IOCkteCkv+CkruCksOCljeCktiDgpLngpYsg4KSc4KS+4KSP?= Message-ID: <829019b0804122224s54972491ke20fd3bf750f65fb@mail.gmail.com> शायद स्त्री-विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव भी नहीं चाहेंगे कि जिन स्त्रियों को उन्होंने अपने विमर्श में जगह दी, आज वो ही स्त्रियां स्त्री-विमर्श के नाम पर उन्हें काट खाने के लिए दौड़े। उनकी भी इच्छा नहीं होगी कि स्त्री-विमर्श के नाम पर कोई पुरुषविहीन समाज बने। इसलिए अब जरुरी है कि स्त्री-पुरुषों के बीच कॉर्डिनेशन की बात की जाए। बहन, बेटी, पत्नी और मां बनकर जिन स्त्रियों ने पुरुषों के आदत बिगाड़ दिए हैं, उन्हें जरुरत से ज्यादा लाड़-प्यार दिया है अब वो उन्हें दुरुस्त करें। स्त्री-विमर्श तो हो ही रहा है, अब थोड़ा पुरुष विमर्श चलाया जाए। (*प्रतिष्ठित** कथाकार ममता कालिया का **वक्तव्य*) जिन लोगों को स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ हो रहा है उन्हें देखते हुए घुटन होती है, चिढ़ होती है उन्हें सबकुछ ढकोसला लगता है और उसकी आलोचना के लिए बड़ी शिद्दत से रेफरेंस ढूढते-फिरते हैं उनके हिसाब से ममता कालिया ने उनके पक्ष में ही बात कही है। उन्हें लग सकता है कि ममता कालिया उनके साथ हैं। क्योंकि वो इसका अर्थ कुछ अलग तरीके से निकालते हैं- एक तो ये कि स्त्रियां बहुत लम्बे समय से एक ही विमर्श को चलाते-चलाते बोर हो गईं हैं इसलिए जरुरी है कि टेस्ट बदलने के लिए अब पुरुष विमर्श चलाना चाहती है। दूसरा ये भी कि स्त्रियों को अपनी औकात का पता चल गया है। घिस-घासकर, घसीटकर अगर वो विमर्श चला भी ले तो बिना पुरुषों के बिना घर और जीवन चलाना मुश्किल है। स्त्रियों के लिए पुरुष के साथ होने का मसला उसके पसंद-नापसंद पर निर्भर नहीं है बल्कि उसकी नियति है, मजबूरी है कि वो पुरुषों के साथ एडजेस्ट होकर रहे। तीसरा मतलब ये भी हो सकता है कि स्त्रियां विमर्श करने के लिए पैदा नहीं हुईं हैं, घर-परिवार और अपना जीवन चलाने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए पैदा हुईं हैं और इन सब कामों के लिए पुरुषों का होना जरुरी है। विमर्श बिना पुरुष सहयोग के हो भी जाए तो भी बाकी के ये सारे काम बिना उसके सहयोग के संभव ही नहीं है। ....और ये भी कि विमर्श चलाते-चलाते अब स्त्रियां थक चुकी है, अब वो और पुरुषों के खिलाफ बयानबाजी नहीं कर सकती। वो विमर्श चला भी रही हैं और इधर थक भी रहीं हैं। विमर्श की प्रक्रिया फिर भी धीमी है जबकि थकने की प्रक्रिया फिर भी उससे बहुत तेज और इस थकी हुई अवस्था में पुरुष ही काम में आएंगे। इधर स्त्री-विमर्शकार ममता कालिया के इस वक्तव्य को स्त्री-विरोधी, आर्य समाजी सोच, नास्टॉलजिया की शिकार मानकर सिरे से खारिज कर सकती है। जिन स्त्रियों की मुठ्ठी अभी-अभी तनी है वो इस तरह के बुजुर्ग सलाह को मानना क्या, सीधे हम ऐसी बातों की परवाह नहीं करते बोलकर इसे नजरअंदाज कर सकती है। लेकिन तब वो ममता कालिया के इस वक्तव्य के बाद राजेन्द्र यादव ने जो कुछ भी कहा उसे पुरुष समाज और स्त्री-विमर्श से जुड़े लोग और भड़केंगे- राजेन्द्र यादव ने सीधे-सीधे बेबाक किन्तु ढलती उम्र की वजह से विनम्र होते हुए कहा- *अगर स्त्रियों के सुधार में पुरुषों की एक पीढ़ी को स्त्रियां काट भी लें तो क्या बुरा है। मैं तो ममताजी का शुक्रगुजार रहूंगा। ये काम भी पुरुषों का शहादत ही माना जाएगा।* राजेन्द्रजी की इस बात पर तो दोनों लोग बजर राउंड की तरह एक साथ गरम हो जाएंगे। पितृसत्तात्मक पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर आस्था और भरोसा रखनेवाले लोगों का कहना होगा कि- राजेन्द्रजी पर बुढापे का असर साफ दिख रहा है। उन्हें अपनी जिंदगी में जो कुछ भी लिखना-पढ़ना, बोलना और बटोरना था उसे तो उन्होंने कर लिया, अब हमलोगों की जिंदगी हलाल करने पर क्यों तुले हैं। अच्छा राजेन्द्रजी प्रगतिशील मानसिकता के होते हुए भी मोक्षकामी इंसान है इसलिए जीवन के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसा कर जाना चाहते हैं कि सीधे बैकुंठ। उन्हें इस तरह के शब्दों से परहेज भले ही है लेकिन फैसिलिटी के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहते हैं। राजेन्द्रजी के वक्तव्य को हिन्दी के इतर समाज ने अगर सुना होगा जो कि ऑडिएंस के हुलिए को देखकर संभव है, उनके दिमाग में ये बात जरुर आ रही होगी कि इस बंदे को किसने ये अधिकार दे दिया कि वो पुरुषों की एक पीढ़ी को महिलाओं से कटवाए। हिन्दी के हम युवा इस बात पर आस्था के वशीभूत होकर राजी हो भी जाएं तो भी हिन्दी के बाहर के लोगों को राजेन्द्रजी ने ऐसा क्या दे दिया है कि वो इस बात को मान लें।...हिन्दीवाले अगर बात मान भी ले तो इससे क्या फर्क पड़ जाता है। हिन्दी के बाहर तो राज इनका नहीं ही चलता है न। इधर, राजेन्द्रजी पर बरसने के लिए स्त्री-विमर्शकार के हाथ में एक असरदार शब्द तो हाथ में लग ही गया है। *शहादत* शब्द ही राजेन्द्रजी पर गरम होने के लिए पर्याप्त है। वो सीधे सोच सकते हैं कि इतने दिनों तक स्त्री के पक्ष में बात करने के बाद भी राजेन्द्रजी पुरुष वर्चस्वादी मानसकिता से उबर नहीं पाए हैं। अब उन्हें शहादत का शौक लगा है और अलौकिक मुक्ति की इच्छा रखने लगे हैं। हम खूब समझते हैं, अंत तक आते-आते वो पुरुष समाज को यही मैसेज देना चाहते हैं कि- हे पुरुषों, मैंने स्त्रियों के पक्ष में जो कुछ भी किया जिससे हम तुम्हारे विरोधी भी दिखने लगे, अब इस तरह के कामों की वैलिडिटी खत्म हो गई है, अब मैं तुम्हारे साथ हूं।॥और आज मैंने जो कुछ भी कहा उसे तुम कॉन्फेशन स्टेटमेंट के तौर पर समझो। यानि ममता कालिया और राजन्द्र यादव ने अपने-अपने तरीके से इस बुद्धिजीवी समाज को असहमत होने के लिए पर्याप्त सामग्री दे दी है। सच पूछिए तो उनके लिए भला ही किया है क्योंकि बिना असहमति के बुद्धिजीवी होना ऑलमोस्ट नामुनकिन है। आस्था और सहमति तो पुरानी पड़ गई और इसके बूते सिर्फ सभा, संगोष्ठी हो सकती है, विमर्श की ताकत इसमें कहां है जी। पोस्ट की कच्ची सामग्री- ११ अप्रैल २००८, हिन्दी भवन मौका- शीला सिद्धान्तकर स्मृति समारोह -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-10 Size: 12626 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080413/c6f50bb1/attachment-0001.bin From beingred at gmail.com Sun Apr 13 21:45:03 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 13 Apr 2008 21:45:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSk4KS/?= =?utf-8?b?IOCkquCljeCksOCktuCljeCkqCDgpJXgpYcg4KS44KSu4KS+4KSn4KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSu4KS+4KSw4KWN4KSV4KWN4KS4?= =?utf-8?b?IOCknOCksOClguCksOClgCDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <363092e30804130915l365091ccke72368c02e86de83@mail.gmail.com> जाति प्रश्न के समाधान के लिए मार्क्स जरूरी हैं कुछ दिनों पहले एक मित्र से जाति व्यवस्था और मार्क्सवाद पर बातें हो रही थीं. उनका मानना था कि मार्क्सवाद दुनिया में हर जगह के लिए प्रासंगिक हो सकता है, भारत के लिए नहीं क्योंकि वह जाति प्रश्न के बारे में कुछ नहीं कहता या कम से कम जाति प्रश्न मार्क्सवाद के दायरे से बाहर की बात है. इसके अलावा उन्होंने भाकपा -माकपा के ब्राह्मण व सवर्ण नेताओं द्वारा ब्राह्मणवादी एजेंडे के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन को हाइजैक कर लेने की बात भी कही. इसके अलावा अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों (माले व माओवादी) द्वारा इस प्रश्न पर पर्याप्त न ध्यान देने पर अपना असंतोष जताया. हम यहां उनके इस दावे पर विचार करेंगे कि जाति प्रश्न मार्क्सवाद के दायरे से बाहर की बात है, कि यह इस प्रश्न का समाधान नहीं कर सकता, कि मार्क्सवाद भारत में सफल नहीं हो सकता. जैसा कि रंगनायकम्मा के इस लेख में हम देखेंगे कि वे यह बात कहनेवाले पहले व्यक्ति नहीं हैं और न आखिरी. 1939 में जन्मीं रंगनायकम्मा तेलुगु की जानी-मानी लेखिका हैं. उन्होंने 15 उपन्यास और 70 कहानियां लिखी हैं. उनका अब तक का समग्र लेखन 60 खंडों में प्रकाशित हुआ है. उन्होंने मार्क्स की पूंजी का पांच खंडों में परिचय लिखा है. उनके द्वारा लिखा गया तीन खंडों में रामायण : विषवृक्ष काफी चर्चित रहा है. 2000 पन्नों की यह पुस्तक कुछ वर्षों पूर्व अंगरेजी में अनूदित हुई और जहां तक मुझे याद है, इस पर राजेंद्र यादव हंस में लिख चुके हैं. रंगनायकम्मा ने अपने उपन्यास बालिपीठम पर मिला आंध्रप्रदेश साहित्य अकादेमी सम्मान ठुकरा दिया था. उनकी एक और चर्चित किताब जाति प्रश्न के समाधान के लिए बुद्ध काफी नहीं, आंबेदकर भी काफी नहीं, मार्क्स जरूरी हैं, अभी एकदम हाल में हिंदी में (अनुवाद) प्रकाशित हुई है. प्रस्तुत लेख एक स्वतंत्र रचना है और इस पुस्तक का हिस्सा नहीं है. रंगनायकम्मा अनुवाद : रेयाज-उल-हक मार्क्स ने जाति पर अलग से कोई निबंध नहीं लिखा, जैसाकि उन्होंने पूंजी ( 1, 2 , 3) शीर्षक के अंतर्गत पूंजीवाद पर लिखा. फिर भी अपने लेखन में उन्होंने भारत में जाति व्यवस्था और दूसरे देशों में जाति संबंधी नियमों पर अध्ययन किया था. इन अध्ययनों के जरिये हमारे लिए जातियों की अवधारणा को समझना और इस सवाल से जुडा उनके द्वारा बताया गया समाधान संभव है. भारत में ऐसे लोग हैं, जो मार्क्स के सिद्धांत का विरोध करते हैं (चाहे जानबूझ कर या अनजाने में या अधकचरे ज्ञान के कारण), दुनिया के दूसरे लोगों की ही तरह. मार्क्स के ऐसे भारतीय विरोधी मार्क्स के सिद्धांत पर दो तरह के विचार प्रस्तुत करते हैं-एक यह कि मार्क्स का सिद्धांत 19वीं सदी के यूरोप के संबंध में था, लेकिन उन देशों तक में यह शुद्ध रूप में प्रासंगिक नहीं रहा. दूसरा यह कि मार्क्स का सिद्धांत दूसरे देशों के लिए प्रासंगिक हो सकता है, लेकिन भारत के लिए बिल्कुल नहीं, क्योंकि यहां जाति व्यवस्था अस्तित्व में है और यह मार्क्स के सिद्धांत के दायरे में नहीं आती. मार्क्स का विरोध करते ये दो नजरिये हैं. फिर भी, दोनों पूरी तरह गलत हैं. चूंकि मार्क्स का सिद्धांत श्रम संबंधों के बारे में बात करता है, यह मानव समाज के हरेक हिस्से पर लागू होता है. यह हरेक संबंध पर लागू होता है. कोई भी देश या इसका समाज किसी भी काल में सिर्फ श्रम संबंधों की शर्तों के तहत ही जीवित रहता है. किसी समाज की प्रकृति इसके श्रम संबंधों की प्रकृति के अनुरूप ही होती है. मार्क्स ने उन श्रम संबंधों के बारे में बात की है. उन्होंने श्रम के शोषण के बारे में बात की है, जो कि श्रम संबंधों की जमीन पर सैकडों और हजारों सालों से चल रहा है. उन्होंने विभिन्न तरह की समस्याओं पर विचार किया है, जो श्रम के शोषण के दौरान उत्पन्न होती हैं. उन्होंने उन समस्याओं के समाधान के संकेत दिये हैं. इसलिए यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम अपनी समस्याओं को समझें. पहला, हमें यह जानना है कि क्या भारत में श्रम का शोषण मौजूद है. हमें यह भी जानना है कि क्या जाति प्रश्न श्रम संबंधों के दायरे में आता है. यदि हम यह जान लेते हैं कि जातियों और श्रम के बीच संबंध है, तब हम निस्संदेह इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मार्क्स का सिद्धांत भारत पर भी लागू हो सकता है. मानव समाज से जुडी कोई भी समस्या श्रम संबंधों से गुंथी हुई होती है. चूंकि जाति प्रश्न मनुष्य से जुडा हुआ है, यह भी उस सिद्धांत की सीमा में आयेगा जो श्रम संबंधों की बात करता है. मार्क्स का सिद्धांत भारत सहित सभी देशों पर, जो श्रम के शोषण और वर्ग विभेदों पर आधारित हैं, लागू होता है, इसलिए कि यह अकेला और सही सिद्धांत है, जिसने श्रम के शोषण की खोज की और उसकी व्याख्या की. आगे, यह सिद्धांत इसकी व्याख्या करता है कि क्यों मानव संबंध उपयोग मूल्य परिप्रेक्ष्य (use value perspective) द्वारा स्थापित होने चाहिए और तब किस तरह की समस्याएं पैदा होंगी जब इस परिप्रेक्ष्य का अभाव होगा. अतः, यह सिद्धांत समाज के संगठन में एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में उपयोगी है, भविष्य के लिए भी, जब श्रम का शोषण नहीं रहेगा. हालांकि जाति व्यवस्था भारत की एक विशिष्ट समस्या है, हम समझ सकते हैं कि कैसे मार्क्स का सिद्धांत इसके लिए प्रासंगिक है, यदि हम श्रम के साथ इसके संबंध को समझ लें. यदि हम जातियों को देखें-अगर सरसरी तरीके से भी-हम उनमें कुछ निश्चित और स्पष्ट विभेद पाते हैं, कि कुछ जातियां ऊंची हैं और कुछ नीची. हम इस ऊंच-नीच के अंतर को किस संबंध में पाते हैं? आमतौर पर कहा जाता है कि सभी ऊंची जातियां वे हैं जो भूमि, पूंजी और धन रखती हैं, जो प्रभुत्वशाली हैं और समाज के संगठन और प्रशासन में शामिल हैं. एक बार फिर, आम तौर पर कहा जाता है, सभी नीची जातियां वे हैं जो संपत्ति नहीं रखतीं, जीवनयापन के साधन भी नहीं. वे मजदूरों और नौकरों के रूप में रहती हैं. वे ऊंची जातियों के प्रभुत्व और शासन में रहती हैं और भयानक गरीबी और सामाजिक हीनता में रहती हैं. ऊंची जातियों में हम बिना श्रम की जीवन पद्धति पाते हैं. या यदि वे श्रम करती भी हैं तो वे मानसिक श्रम और स्वच्छ श्रम में लगती हैं. दूसरी तरफ, नीची जातियों की स्थिति पूरी तरह उल्टी है. बिना श्रम किये जीना नीची जातियों के लिए अकल्पनीय है. वे जिस तरह का श्रम करती हैं, वह निकृष्टतम शारीरिक श्रम होता है. सभी प्रकार का अस्वच्छ श्रम, जो कि पूरे समाज की सफाई के लिए जरूरी होता है, इन जातियों की जिम्मेवारी होता है. अर्थशास्त्र के नियमों के मुताबिक, मानसिक श्रम का ऊंचा मूल्य होता है और शारीरिक श्रम का निम्न. यह मूल्यों के निर्धारण के प्राकृतिक नियम पर आधारित है. अलग-अलग तरह के श्रमों का मूल्य अलग-अलग निर्धारित होता है, जो किसी श्रम को सीखने के लिए जरूरी संसाधनों पर निर्भर करता है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. क्योंकि मानसिक श्रम अधिक मूल्य धारण करता है और शारीरिक श्रम कम मूल्य. एक आदमी जो हमेशा शारीरिक श्रम करता है, कम आमदनी पाता है. शोषण पर आधारित समाज श्रम के विभिन्न प्रकारों के मूल्यों के बीच मौजूद प्राकृतिक अंतर को और बढा देता है. अतः ऐसे समाज और उनकी प्रथाएं मानसिक श्रम को उसके वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य प्रदान करती हैं और शारीरिक श्रम को उसके वास्तविक मूल्य से कम. श्रम के शोषण पर आधारिक समाज शारीरिक श्रम का और अधिक शोषण करते हैं, खास कर निम्नस्तर के शारीरिक श्रम का. यदि हम शोषण पर आधारित एक समाज में एक डॉक्टर और एक खेतिहर मजदूर को लें तो हम उनकी आय और उनके जीने के तरीके में एक अकल्पनीय अंतर पायेंगे, हालांकि वे दोनों श्रम करते हैं. लंबे अरसे से जो व्यवस्था चली आ रही है, जिससे एक वर्ग, जिसने उत्पादन के सभी साधनों को अपनी संपत्ति के रूप में हथिया लिया है, कोई भी श्रम किये बगैर, संपत्ति के अधिकार के नाम पर जमीन का किराया, ब्याज और पूंजी का मुनाफा निचोडने के द्वारा श्रम के शोषण पर जिंदा है. श्रम का विभाजन, जो कि शोषण के इन संबंधों में से पैदा होता है, हमेशा श्रम करनेवाले लोगों को केवल एक तरह के श्रम से बांधता है. एक व्यक्ति, जो शारीरिक श्रम करता है, अपने जीवन भर एक ही तरह का श्रम करते हुए खत्म हो जाता है. उस व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह थोडे मानसिक श्रम, ऐसे श्रम से जुडी शिक्षा या इससे होनेवाली आय की अपेक्षा रखे. मानसिक श्रम करनेवाले, जैसे डॉक्टरों, इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को कभी शारीरिक श्रम करने की जरूरत नहीं पडती. उन्हें अपनी गंदगी साफ करने तक की जिम्मेवारी नहीं उठानी पडती. यह तथ्य कि किसी समाज की आबादी का कुछ हिस्सा बिना श्रम किये हुए जी रहा है, यह बताता है कि आबादी का बचा हुआ हिस्सा सारा श्रम ( अपने हिस्से के श्रम के अलावा उनके हिस्से का श्रम भी जो बिना श्रम कियेजी रहे हैं-अनुवादक) कर रहा है. यही वह चीज है जो चाहे भारत में हो या किसी भी दूसरे देश में, हो रही है. यह तथ्य कि भारत की ऊंची जातियां बिना शारीरिक श्रम और अस्वच्छ श्रम किये जी रही हैं, यह बताता है कि वे इसका बोझ नीची जातियों पर डाल रही हैं. ये सारी बातें श्रम के विभाजन से जुडी हुई हैं. यह श्रम के विभाजन का सवाल है, यदि एक वर्ग काम नहीं करता और दूसरों के श्रम पर जीता है. इसी के साथ, यह श्रम विभाजन का सवाल है यदि एक व्यक्ति हमेशा एक ही तरह के श्रम से बंधा रहता है. जातियों का संगठन ऐसी चीज नहीं है, जिसकी उत्पत्ति का श्रम और श्रम संबंधों से कोई जुडाव न हो. जाति प्रश्न उन अनेक समस्याओं में से एक है, जो दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों से पैदा हुईं. यह ऐसी समस्या है जो श्रम संबंधों की शोषणकारी प्रकृति से, मूल्य के इसके नियमों से, इसके श्रम विभाजन से और संपत्ति के इसके अधिकारों से गुंथी हुई है. इसलिए, सिर्फ ऐसी आर्थिक अवधारणात्मक श्रेणियों के जरिये, जिनका मार्क्सवाद उपयोग करता है-उपयोग मूल्य, विनिमय मूल्य, मानसिक श्रम, शारीरिक श्रम, श्रम का मूल्य, श्रमशक्ति का मूल्य, संपत्ति संबंध, स्वामित्व और गुलामी और अनेक ऐसी ही श्रेणियां-हम जाति प्रश्न को समझते हैं. मार्क्स ने (एंगेल्स के साथ) भारत में जातियों के बारे में पहली बार जर्मन दर्शन्(1845-46) में बात की. उन्होंने जातियों संबंधी विचार और टिप्पणियां पूंजी (1867) में छह या सात जगहों पर की हैं. इन टिप्पणियों और पूंजी के जरिये, जिसने मार्क्स के सिद्धांत की व्यापक रूप से व्याख्या की, हम जाति के सवाल को समझ सकते हैं और इसके समाधान तक पहुंच सकते हैं. जारी -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080413/d97ed470/attachment-0002.html From beingred at gmail.com Sun Apr 13 21:45:03 2008 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 13 Apr 2008 21:45:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSk4KS/?= =?utf-8?b?IOCkquCljeCksOCktuCljeCkqCDgpJXgpYcg4KS44KSu4KS+4KSn4KS+?= =?utf-8?b?4KSoIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSu4KS+4KSw4KWN4KSV4KWN4KS4?= =?utf-8?b?IOCknOCksOClguCksOClgCDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <363092e30804130915l365091ccke72368c02e86de83@mail.gmail.com> जाति प्रश्न के समाधान के लिए मार्क्स जरूरी हैं कुछ दिनों पहले एक मित्र से जाति व्यवस्था और मार्क्सवाद पर बातें हो रही थीं. उनका मानना था कि मार्क्सवाद दुनिया में हर जगह के लिए प्रासंगिक हो सकता है, भारत के लिए नहीं क्योंकि वह जाति प्रश्न के बारे में कुछ नहीं कहता या कम से कम जाति प्रश्न मार्क्सवाद के दायरे से बाहर की बात है. इसके अलावा उन्होंने भाकपा -माकपा के ब्राह्मण व सवर्ण नेताओं द्वारा ब्राह्मणवादी एजेंडे के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन को हाइजैक कर लेने की बात भी कही. इसके अलावा अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों (माले व माओवादी) द्वारा इस प्रश्न पर पर्याप्त न ध्यान देने पर अपना असंतोष जताया. हम यहां उनके इस दावे पर विचार करेंगे कि जाति प्रश्न मार्क्सवाद के दायरे से बाहर की बात है, कि यह इस प्रश्न का समाधान नहीं कर सकता, कि मार्क्सवाद भारत में सफल नहीं हो सकता. जैसा कि रंगनायकम्मा के इस लेख में हम देखेंगे कि वे यह बात कहनेवाले पहले व्यक्ति नहीं हैं और न आखिरी. 1939 में जन्मीं रंगनायकम्मा तेलुगु की जानी-मानी लेखिका हैं. उन्होंने 15 उपन्यास और 70 कहानियां लिखी हैं. उनका अब तक का समग्र लेखन 60 खंडों में प्रकाशित हुआ है. उन्होंने मार्क्स की पूंजी का पांच खंडों में परिचय लिखा है. उनके द्वारा लिखा गया तीन खंडों में रामायण : विषवृक्ष काफी चर्चित रहा है. 2000 पन्नों की यह पुस्तक कुछ वर्षों पूर्व अंगरेजी में अनूदित हुई और जहां तक मुझे याद है, इस पर राजेंद्र यादव हंस में लिख चुके हैं. रंगनायकम्मा ने अपने उपन्यास बालिपीठम पर मिला आंध्रप्रदेश साहित्य अकादेमी सम्मान ठुकरा दिया था. उनकी एक और चर्चित किताब जाति प्रश्न के समाधान के लिए बुद्ध काफी नहीं, आंबेदकर भी काफी नहीं, मार्क्स जरूरी हैं, अभी एकदम हाल में हिंदी में (अनुवाद) प्रकाशित हुई है. प्रस्तुत लेख एक स्वतंत्र रचना है और इस पुस्तक का हिस्सा नहीं है. रंगनायकम्मा अनुवाद : रेयाज-उल-हक मार्क्स ने जाति पर अलग से कोई निबंध नहीं लिखा, जैसाकि उन्होंने पूंजी ( 1, 2 , 3) शीर्षक के अंतर्गत पूंजीवाद पर लिखा. फिर भी अपने लेखन में उन्होंने भारत में जाति व्यवस्था और दूसरे देशों में जाति संबंधी नियमों पर अध्ययन किया था. इन अध्ययनों के जरिये हमारे लिए जातियों की अवधारणा को समझना और इस सवाल से जुडा उनके द्वारा बताया गया समाधान संभव है. भारत में ऐसे लोग हैं, जो मार्क्स के सिद्धांत का विरोध करते हैं (चाहे जानबूझ कर या अनजाने में या अधकचरे ज्ञान के कारण), दुनिया के दूसरे लोगों की ही तरह. मार्क्स के ऐसे भारतीय विरोधी मार्क्स के सिद्धांत पर दो तरह के विचार प्रस्तुत करते हैं-एक यह कि मार्क्स का सिद्धांत 19वीं सदी के यूरोप के संबंध में था, लेकिन उन देशों तक में यह शुद्ध रूप में प्रासंगिक नहीं रहा. दूसरा यह कि मार्क्स का सिद्धांत दूसरे देशों के लिए प्रासंगिक हो सकता है, लेकिन भारत के लिए बिल्कुल नहीं, क्योंकि यहां जाति व्यवस्था अस्तित्व में है और यह मार्क्स के सिद्धांत के दायरे में नहीं आती. मार्क्स का विरोध करते ये दो नजरिये हैं. फिर भी, दोनों पूरी तरह गलत हैं. चूंकि मार्क्स का सिद्धांत श्रम संबंधों के बारे में बात करता है, यह मानव समाज के हरेक हिस्से पर लागू होता है. यह हरेक संबंध पर लागू होता है. कोई भी देश या इसका समाज किसी भी काल में सिर्फ श्रम संबंधों की शर्तों के तहत ही जीवित रहता है. किसी समाज की प्रकृति इसके श्रम संबंधों की प्रकृति के अनुरूप ही होती है. मार्क्स ने उन श्रम संबंधों के बारे में बात की है. उन्होंने श्रम के शोषण के बारे में बात की है, जो कि श्रम संबंधों की जमीन पर सैकडों और हजारों सालों से चल रहा है. उन्होंने विभिन्न तरह की समस्याओं पर विचार किया है, जो श्रम के शोषण के दौरान उत्पन्न होती हैं. उन्होंने उन समस्याओं के समाधान के संकेत दिये हैं. इसलिए यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम अपनी समस्याओं को समझें. पहला, हमें यह जानना है कि क्या भारत में श्रम का शोषण मौजूद है. हमें यह भी जानना है कि क्या जाति प्रश्न श्रम संबंधों के दायरे में आता है. यदि हम यह जान लेते हैं कि जातियों और श्रम के बीच संबंध है, तब हम निस्संदेह इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मार्क्स का सिद्धांत भारत पर भी लागू हो सकता है. मानव समाज से जुडी कोई भी समस्या श्रम संबंधों से गुंथी हुई होती है. चूंकि जाति प्रश्न मनुष्य से जुडा हुआ है, यह भी उस सिद्धांत की सीमा में आयेगा जो श्रम संबंधों की बात करता है. मार्क्स का सिद्धांत भारत सहित सभी देशों पर, जो श्रम के शोषण और वर्ग विभेदों पर आधारित हैं, लागू होता है, इसलिए कि यह अकेला और सही सिद्धांत है, जिसने श्रम के शोषण की खोज की और उसकी व्याख्या की. आगे, यह सिद्धांत इसकी व्याख्या करता है कि क्यों मानव संबंध उपयोग मूल्य परिप्रेक्ष्य (use value perspective) द्वारा स्थापित होने चाहिए और तब किस तरह की समस्याएं पैदा होंगी जब इस परिप्रेक्ष्य का अभाव होगा. अतः, यह सिद्धांत समाज के संगठन में एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में उपयोगी है, भविष्य के लिए भी, जब श्रम का शोषण नहीं रहेगा. हालांकि जाति व्यवस्था भारत की एक विशिष्ट समस्या है, हम समझ सकते हैं कि कैसे मार्क्स का सिद्धांत इसके लिए प्रासंगिक है, यदि हम श्रम के साथ इसके संबंध को समझ लें. यदि हम जातियों को देखें-अगर सरसरी तरीके से भी-हम उनमें कुछ निश्चित और स्पष्ट विभेद पाते हैं, कि कुछ जातियां ऊंची हैं और कुछ नीची. हम इस ऊंच-नीच के अंतर को किस संबंध में पाते हैं? आमतौर पर कहा जाता है कि सभी ऊंची जातियां वे हैं जो भूमि, पूंजी और धन रखती हैं, जो प्रभुत्वशाली हैं और समाज के संगठन और प्रशासन में शामिल हैं. एक बार फिर, आम तौर पर कहा जाता है, सभी नीची जातियां वे हैं जो संपत्ति नहीं रखतीं, जीवनयापन के साधन भी नहीं. वे मजदूरों और नौकरों के रूप में रहती हैं. वे ऊंची जातियों के प्रभुत्व और शासन में रहती हैं और भयानक गरीबी और सामाजिक हीनता में रहती हैं. ऊंची जातियों में हम बिना श्रम की जीवन पद्धति पाते हैं. या यदि वे श्रम करती भी हैं तो वे मानसिक श्रम और स्वच्छ श्रम में लगती हैं. दूसरी तरफ, नीची जातियों की स्थिति पूरी तरह उल्टी है. बिना श्रम किये जीना नीची जातियों के लिए अकल्पनीय है. वे जिस तरह का श्रम करती हैं, वह निकृष्टतम शारीरिक श्रम होता है. सभी प्रकार का अस्वच्छ श्रम, जो कि पूरे समाज की सफाई के लिए जरूरी होता है, इन जातियों की जिम्मेवारी होता है. अर्थशास्त्र के नियमों के मुताबिक, मानसिक श्रम का ऊंचा मूल्य होता है और शारीरिक श्रम का निम्न. यह मूल्यों के निर्धारण के प्राकृतिक नियम पर आधारित है. अलग-अलग तरह के श्रमों का मूल्य अलग-अलग निर्धारित होता है, जो किसी श्रम को सीखने के लिए जरूरी संसाधनों पर निर्भर करता है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. क्योंकि मानसिक श्रम अधिक मूल्य धारण करता है और शारीरिक श्रम कम मूल्य. एक आदमी जो हमेशा शारीरिक श्रम करता है, कम आमदनी पाता है. शोषण पर आधारित समाज श्रम के विभिन्न प्रकारों के मूल्यों के बीच मौजूद प्राकृतिक अंतर को और बढा देता है. अतः ऐसे समाज और उनकी प्रथाएं मानसिक श्रम को उसके वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य प्रदान करती हैं और शारीरिक श्रम को उसके वास्तविक मूल्य से कम. श्रम के शोषण पर आधारिक समाज शारीरिक श्रम का और अधिक शोषण करते हैं, खास कर निम्नस्तर के शारीरिक श्रम का. यदि हम शोषण पर आधारित एक समाज में एक डॉक्टर और एक खेतिहर मजदूर को लें तो हम उनकी आय और उनके जीने के तरीके में एक अकल्पनीय अंतर पायेंगे, हालांकि वे दोनों श्रम करते हैं. लंबे अरसे से जो व्यवस्था चली आ रही है, जिससे एक वर्ग, जिसने उत्पादन के सभी साधनों को अपनी संपत्ति के रूप में हथिया लिया है, कोई भी श्रम किये बगैर, संपत्ति के अधिकार के नाम पर जमीन का किराया, ब्याज और पूंजी का मुनाफा निचोडने के द्वारा श्रम के शोषण पर जिंदा है. श्रम का विभाजन, जो कि शोषण के इन संबंधों में से पैदा होता है, हमेशा श्रम करनेवाले लोगों को केवल एक तरह के श्रम से बांधता है. एक व्यक्ति, जो शारीरिक श्रम करता है, अपने जीवन भर एक ही तरह का श्रम करते हुए खत्म हो जाता है. उस व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह थोडे मानसिक श्रम, ऐसे श्रम से जुडी शिक्षा या इससे होनेवाली आय की अपेक्षा रखे. मानसिक श्रम करनेवाले, जैसे डॉक्टरों, इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को कभी शारीरिक श्रम करने की जरूरत नहीं पडती. उन्हें अपनी गंदगी साफ करने तक की जिम्मेवारी नहीं उठानी पडती. यह तथ्य कि किसी समाज की आबादी का कुछ हिस्सा बिना श्रम किये हुए जी रहा है, यह बताता है कि आबादी का बचा हुआ हिस्सा सारा श्रम ( अपने हिस्से के श्रम के अलावा उनके हिस्से का श्रम भी जो बिना श्रम कियेजी रहे हैं-अनुवादक) कर रहा है. यही वह चीज है जो चाहे भारत में हो या किसी भी दूसरे देश में, हो रही है. यह तथ्य कि भारत की ऊंची जातियां बिना शारीरिक श्रम और अस्वच्छ श्रम किये जी रही हैं, यह बताता है कि वे इसका बोझ नीची जातियों पर डाल रही हैं. ये सारी बातें श्रम के विभाजन से जुडी हुई हैं. यह श्रम के विभाजन का सवाल है, यदि एक वर्ग काम नहीं करता और दूसरों के श्रम पर जीता है. इसी के साथ, यह श्रम विभाजन का सवाल है यदि एक व्यक्ति हमेशा एक ही तरह के श्रम से बंधा रहता है. जातियों का संगठन ऐसी चीज नहीं है, जिसकी उत्पत्ति का श्रम और श्रम संबंधों से कोई जुडाव न हो. जाति प्रश्न उन अनेक समस्याओं में से एक है, जो दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों से पैदा हुईं. यह ऐसी समस्या है जो श्रम संबंधों की शोषणकारी प्रकृति से, मूल्य के इसके नियमों से, इसके श्रम विभाजन से और संपत्ति के इसके अधिकारों से गुंथी हुई है. इसलिए, सिर्फ ऐसी आर्थिक अवधारणात्मक श्रेणियों के जरिये, जिनका मार्क्सवाद उपयोग करता है-उपयोग मूल्य, विनिमय मूल्य, मानसिक श्रम, शारीरिक श्रम, श्रम का मूल्य, श्रमशक्ति का मूल्य, संपत्ति संबंध, स्वामित्व और गुलामी और अनेक ऐसी ही श्रेणियां-हम जाति प्रश्न को समझते हैं. मार्क्स ने (एंगेल्स के साथ) भारत में जातियों के बारे में पहली बार जर्मन दर्शन्(1845-46) में बात की. उन्होंने जातियों संबंधी विचार और टिप्पणियां पूंजी (1867) में छह या सात जगहों पर की हैं. इन टिप्पणियों और पूंजी के जरिये, जिसने मार्क्स के सिद्धांत की व्यापक रूप से व्याख्या की, हम जाति के सवाल को समझ सकते हैं और इसके समाधान तक पहुंच सकते हैं. जारी -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080413/d97ed470/attachment-0003.html From vineetdu at gmail.com Tue Apr 15 18:37:53 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 15 Apr 2008 18:37:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KST4KSs4KWA4KS4?= =?utf-8?b?4KWAIOCkhuCksOCkleCljeCkt+CkoyDgpKzgpKjgpL7gpK4g4KSm4KWL?= =?utf-8?b?4KS44KWN4KSk4KWALeCkr+CkvuCksOClgCDgpJXgpYAg4KSV4KWJ4KSV?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy?= Message-ID: <829019b0804150607i26fabcc7u2753ddee207a4903@mail.gmail.com> जिस किसी ने भी डीयू से पढ़ाई की है उन्हें पता है कभी-कभी लोग डीयू के आसपास के उन इलाकों में जहां कि स्टूडेंट्स रहते हैं वहां बैठकी लगाते हैं। जो हॉस्टल में रहते हैं और आलू की सब्जी खाते-खाते मेरी तरह थक जाते हैं, पक जाते हैं पढ़ाई के नाम पर हॉस्टल की पॉलिटिक्स से बचने के लिए दिनभर कमरे में गुजार देते हैं। लेकिन रात में कफरी करने का मन करता है तो मुकर्जीनगर, नेहरु विहार या फिर इंदिरा विहार की शरण लेते हैं जहां धेशी खाने का मजा तो मिलता ही है, साथ में खूब गप्पें होती हैं जिसे कि *भसर, भसोड़ी या हवा कटाई* कहते हैं। इसका को सीधा फायदा तो नहीं होता लेकिन इसका भी अपना मजा है। मैं इस कल्चर को बचाने में जी-जान से जुटा रहता हूं और इसी स्कीम के तहत परसों रात के ग्यारह बजे से लेकर सुबह चार बजे तक हमने भसोड़ी की और जहां लोगों ने साबित किया कि हनुमानजी ओबीसी थे या आज भी हैं तो उसी रुप में, लोग दोस्ती के नाम पर नेतागिरी करने लग जाते हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता कि कब रिश्तों की और पॉलिटिक्स की कॉकटेल बन गई है। पढिए भसोडी का क नमूना- ओबीसी आरक्षण बनाम दोस्ती-यारी की कॉकटेल http://taanabaana.blogspot.com/ -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 2849 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080415/1e3b7335/attachment.bin From ravikant at sarai.net Tue Apr 15 18:58:10 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 15 Apr 2008 18:58:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAg4KSs4KS5?= =?utf-8?b?4KWB4KSkIOCkueClgeCkhiAsIOCkheCkrCDgpJzgpLDgpL4g4KSq4KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWB4KS3IOCkteCkv+CkruCksOCljeCktiDgpLngpYsg4KSc4KS+4KSP?= Message-ID: <200804151858.11126.ravikant@sarai.net> mujhe pata nahin Vineet ke yeh donon mail kaise mere spam folder mein chale gaye. aapke pas agar pahunche hain toh maafi chahungs, dohrane ke liye. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [दीवान]बहुत हुआ,अब जरा पुरुष विमर्श हो जाए Date: रविवार 13 अप्रैल 2008 10:54 From: "vineet kumar" To: deewan शायद स्त्री-विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव भी नहीं चाहेंगे कि जिन स्त्रियों को उन्होंने अपने विमर्श में जगह दी, आज वो ही स्त्रियां स्त्री-विमर्श के नाम पर उन्हें काट खाने के लिए दौड़े। उनकी भी इच्छा नहीं होगी कि स्त्री-विमर्श के नाम पर कोई पुरुषविहीन समाज बने। इसलिए अब जरुरी है कि स्त्री-पुरुषों के बीच कॉर्डिनेशन की बात की जाए। बहन, बेटी, पत्नी और मां बनकर जिन स्त्रियों ने पुरुषों के आदत बिगाड़ दिए हैं, उन्हें जरुरत से ज्यादा लाड़-प्यार दिया है अब वो उन्हें दुरुस्त करें। स्त्री-विमर्श तो हो ही रहा है, अब थोड़ा पुरुष विमर्श चलाया जाए। (*प्रतिष्ठित** कथाकार ममता कालिया का **वक्तव्य*) जिन लोगों को स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ हो रहा है उन्हें देखते हुए घुटन होती है, चिढ़ होती है उन्हें सबकुछ ढकोसला लगता है और उसकी आलोचना के लिए बड़ी शिद्दत से रेफरेंस ढूढते-फिरते हैं उनके हिसाब से ममता कालिया ने उनके पक्ष में ही बात कही है। उन्हें लग सकता है कि ममता कालिया उनके साथ हैं। क्योंकि वो इसका अर्थ कुछ अलग तरीके से निकालते हैं- एक तो ये कि स्त्रियां बहुत लम्बे समय से एक ही विमर्श को चलाते-चलाते बोर हो गईं हैं इसलिए जरुरी है कि टेस्ट बदलने के लिए अब पुरुष विमर्श चलाना चाहती है। दूसरा ये भी कि स्त्रियों को अपनी औकात का पता चल गया है। घिस-घासकर, घसीटकर अगर वो विमर्श चला भी ले तो बिना पुरुषों के बिना घर और जीवन चलाना मुश्किल है। स्त्रियों के लिए पुरुष के साथ होने का मसला उसके पसंद-नापसंद पर निर्भर नहीं है बल्कि उसकी नियति है, मजबूरी है कि वो पुरुषों के साथ एडजेस्ट होकर रहे। तीसरा मतलब ये भी हो सकता है कि स्त्रियां विमर्श करने के लिए पैदा नहीं हुईं हैं, घर-परिवार और अपना जीवन चलाने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए पैदा हुईं हैं और इन सब कामों के लिए पुरुषों का होना जरुरी है। विमर्श बिना पुरुष सहयोग के हो भी जाए तो भी बाकी के ये सारे काम बिना उसके सहयोग के संभव ही नहीं है। ....और ये भी कि विमर्श चलाते-चलाते अब स्त्रियां थक चुकी है, अब वो और पुरुषों के खिलाफ बयानबाजी नहीं कर सकती। वो विमर्श चला भी रही हैं और इधर थक भी रहीं हैं। विमर्श की प्रक्रिया फिर भी धीमी है जबकि थकने की प्रक्रिया फिर भी उससे बहुत तेज और इस थकी हुई अवस्था में पुरुष ही काम में आएंगे। इधर स्त्री-विमर्शकार ममता कालिया के इस वक्तव्य को स्त्री-विरोधी, आर्य समाजी सोच, नास्टॉलजिया की शिकार मानकर सिरे से खारिज कर सकती है। जिन स्त्रियों की मुठ्ठी अभी-अभी तनी है वो इस तरह के बुजुर्ग सलाह को मानना क्या, सीधे हम ऐसी बातों की परवाह नहीं करते बोलकर इसे नजरअंदाज कर सकती है। लेकिन तब वो ममता कालिया के इस वक्तव्य के बाद राजेन्द्र यादव ने जो कुछ भी कहा उसे पुरुष समाज और स्त्री-विमर्श से जुड़े लोग और भड़केंगे- राजेन्द्र यादव ने सीधे-सीधे बेबाक किन्तु ढलती उम्र की वजह से विनम्र होते हुए कहा- *अगर स्त्रियों के सुधार में पुरुषों की एक पीढ़ी को स्त्रियां काट भी लें तो क्या बुरा है। मैं तो ममताजी का शुक्रगुजार रहूंगा। ये काम भी पुरुषों का शहादत ही माना जाएगा।* राजेन्द्रजी की इस बात पर तो दोनों लोग बजर राउंड की तरह एक साथ गरम हो जाएंगे। पितृसत्तात्मक पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर आस्था और भरोसा रखनेवाले लोगों का कहना होगा कि- राजेन्द्रजी पर बुढापे का असर साफ दिख रहा है। उन्हें अपनी जिंदगी में जो कुछ भी लिखना-पढ़ना, बोलना और बटोरना था उसे तो उन्होंने कर लिया, अब हमलोगों की जिंदगी हलाल करने पर क्यों तुले हैं। अच्छा राजेन्द्रजी प्रगतिशील मानसिकता के होते हुए भी मोक्षकामी इंसान है इसलिए जीवन के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसा कर जाना चाहते हैं कि सीधे बैकुंठ। उन्हें इस तरह के शब्दों से परहेज भले ही है लेकिन फैसिलिटी के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहते हैं। राजेन्द्रजी के वक्तव्य को हिन्दी के इतर समाज ने अगर सुना होगा जो कि ऑडिएंस के हुलिए को देखकर संभव है, उनके दिमाग में ये बात जरुर आ रही होगी कि इस बंदे को किसने ये अधिकार दे दिया कि वो पुरुषों की एक पीढ़ी को महिलाओं से कटवाए। हिन्दी के हम युवा इस बात पर आस्था के वशीभूत होकर राजी हो भी जाएं तो भी हिन्दी के बाहर के लोगों को राजेन्द्रजी ने ऐसा क्या दे दिया है कि वो इस बात को मान लें।...हिन्दीवाले अगर बात मान भी ले तो इससे क्या फर्क पड़ जाता है। हिन्दी के बाहर तो राज इनका नहीं ही चलता है न। इधर, राजेन्द्रजी पर बरसने के लिए स्त्री-विमर्शकार के हाथ में एक असरदार शब्द तो हाथ में लग ही गया है। *शहादत* शब्द ही राजेन्द्रजी पर गरम होने के लिए पर्याप्त है। वो सीधे सोच सकते हैं कि इतने दिनों तक स्त्री के पक्ष में बात करने के बाद भी राजेन्द्रजी पुरुष वर्चस्वादी मानसकिता से उबर नहीं पाए हैं। अब उन्हें शहादत का शौक लगा है और अलौकिक मुक्ति की इच्छा रखने लगे हैं। हम खूब समझते हैं, अंत तक आते-आते वो पुरुष समाज को यही मैसेज देना चाहते हैं कि- हे पुरुषों, मैंने स्त्रियों के पक्ष में जो कुछ भी किया जिससे हम तुम्हारे विरोधी भी दिखने लगे, अब इस तरह के कामों की वैलिडिटी खत्म हो गई है, अब मैं तुम्हारे साथ हूं।॥और आज मैंने जो कुछ भी कहा उसे तुम कॉन्फेशन स्टेटमेंट के तौर पर समझो। यानि ममता कालिया और राजन्द्र यादव ने अपने-अपने तरीके से इस बुद्धिजीवी समाज को असहमत होने के लिए पर्याप्त सामग्री दे दी है। सच पूछिए तो उनके लिए भला ही किया है क्योंकि बिना असहमति के बुद्धिजीवी होना ऑलमोस्ट नामुनकिन है। आस्था और सहमति तो पुरानी पड़ गई और इसके बूते सिर्फ सभा, संगोष्ठी हो सकती है, विमर्श की ताकत इसमें कहां है जी। पोस्ट की कच्ची सामग्री- ११ अप्रैल २००८, हिन्दी भवन मौका- शीला सिद्धान्तकर स्मृति समारोह ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Apr 15 18:58:53 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 15 Apr 2008 18:58:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiAg4KST4KSs?= =?utf-8?b?4KWA4KS44KWAIOCkhuCksOCkleCljeCkt+CkoyDgpKzgpKjgpL7gpK4g4KSm?= =?utf-8?b?4KWL4KS44KWN4KSk4KWALeCkr+CkvuCksOClgCDgpJXgpYAg4KSV4KWJ4KSV?= =?utf-8?b?4KSf4KWH4KSy?= Message-ID: <200804151858.53428.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [दीवान]ओबीसी आरक्षण बनाम दोस्ती-यारी की कॉकटेल Date: मंगलवार 15 अप्रैल 2008 18:37 From: "vineet kumar" To: deewan जिस किसी ने भी डीयू से पढ़ाई की है उन्हें पता है कभी-कभी लोग डीयू के आसपास के उन इलाकों में जहां कि स्टूडेंट्स रहते हैं वहां बैठकी लगाते हैं। जो हॉस्टल में रहते हैं और आलू की सब्जी खाते-खाते मेरी तरह थक जाते हैं, पक जाते हैं पढ़ाई के नाम पर हॉस्टल की पॉलिटिक्स से बचने के लिए दिनभर कमरे में गुजार देते हैं। लेकिन रात में कफरी करने का मन करता है तो मुकर्जीनगर, नेहरु विहार या फिर इंदिरा विहार की शरण लेते हैं जहां धेशी खाने का मजा तो मिलता ही है, साथ में खूब गप्पें होती हैं जिसे कि *भसर, भसोड़ी या हवा कटाई* कहते हैं। इसका को सीधा फायदा तो नहीं होता लेकिन इसका भी अपना मजा है। मैं इस कल्चर को बचाने में जी-जान से जुटा रहता हूं और इसी स्कीम के तहत परसों रात के ग्यारह बजे से लेकर सुबह चार बजे तक हमने भसोड़ी की और जहां लोगों ने साबित किया कि हनुमानजी ओबीसी थे या आज भी हैं तो उसी रुप में, लोग दोस्ती के नाम पर नेतागिरी करने लग जाते हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता कि कब रिश्तों की और पॉलिटिक्स की कॉकटेल बन गई है। पढिए भसोडी का क नमूना- ओबीसी आरक्षण बनाम दोस्ती-यारी की कॉकटेल http://taanabaana.blogspot.com/ ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Apr 16 12:57:08 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Apr 2008 12:57:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4oCY4KSu4KSX4KS5?= =?utf-8?b?4KSw4oCZICAg4KSV4KS+IOCkuOCkguCkpA==?= Message-ID: <200804161257.08304.ravikant@sarai.net> साहित्य कुंज, ताज़ा अंक, से साभार: http://www.sahityakunj.net/ अर्थात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी/राजेन्द्र गौतम 20.5.1979... आज मेरे सामने यह तथ्य तलस्पर्शी झील-सा साफ़ झलक रहा है कि प्रकृति मानव से भी अधिक संवेदनशील है, या कहें ‘मानव जितना प्रकृतिमय है, उतना ही वह संवेदनशील भी है।’ मैं समझ पा रहा हूँ कि आज भीषण झंझावात और अंधड़ के माध्यम से प्रकृति अपने आँतरिक उद्वेलन को ही व्यक्त कर रही थी और उसके बाद अश्रुपात-सा नीर-वर्षण उसकी वेदना का ही विगलन था। संभवतः महान् विभूतियों का महाप्रयाण समस्त चेतनाग्राही सूत्रों को विकम्पित कर देता है। यही कारण है कि इतिहास-चेता, मूल्यस्रष्टा एवं युगद्रष्टा औघड़ पुरुष आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की श्वासगति का रुकना, सृष्टि-मात्र को सिहरा गया, उसको भीतर तक आँदोलित कर गया। कल जो घटित हुआ था, आज उसकी वेदना से नस-नस मानो ऐंठ रही थी। उन्मुक्त, निर्मल एवं ऊर्जस्वल अट्टहास से वह व्यक्ति अपरिचित नहीं हो सकता, जिसने थोड़े-से भी क्षण वर्चस्वमंडित व्यक्तित्व के धनी ‘आचार्य जी’ के साहचर्य में व्यतीत किए हैं लेकिन आज वह अट्टहास अन्तरिक्ष की तरंगों में विलीन हो गया हो गया। आसमान पर जैसे एक धूसर सन्नाटा कुंडली मारकर बैठ गया है। आज जब उनके पार्थिव शरीर को अग्नि की लपटों ने लील लिया तो आँखों में जल भर आने के साथ-साथ होंठों पर नवगीतकार श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ की यह पंक्ति अनायास ही चली आईः ‘अग्नि को समर्पित है एक और छन्द।‘ और यों कलियों का दोना लपटों में झुलसने के लिए अर्पित कर दिया गया। आह, अट्टहास सो गया, मेघ-मंद्र वाणी का घोष निःशेष हो गया! मानव-मात्र के कल्याण-यज्ञ के महाऋत्विक का मंत्रोच्चार अकस्मात रुक गया। समय के रथ के पहिए मानो खंडित एवं धुरीहीन होकर हठात ठहर गए हों। सब कुछ सहमा, सकुचाया, त्रस्त एवं हतप्रभ हो गया है। युगान्त! मई की धूल भरी धूप करुण विलाप-सा करती लग रही है। साहित्यकार मित्रों के साथ निगम बोध घाट की ओर बढ़ रहा हूँ। मेरे हाथों में अमलतास के पीत पुष्पों का एक गुच्छा है। यों ही रास्ते में एक झटके से तोड़ लिया था। अमलतास इन दिनों इधर बहुत फूलते हैं। जब तोड़ा था, तब तो बहुत खिला-खिला था यह गुच्छ! लेकिन अब कुम्हलाता जा रहा है। इन फूलों की फीकी पड़ती कांति को देखकर मेरा मन भर आया है। इनकी भाषा को समझने वाला -- प्रकृति के मन को पढ़ने वाला -- तो आज स्वयं मूक हो गया है। मुझे लगता है कि आज तो इन पियराये वृक्षों पर उल्लास की एक भी रेखा नहीं झलकेगी। इनकी पीतवर्णी देह में झंकृति तो है परन्तु उठने वाली अनुगूँजें वेदना की हैं, उल्लास की नहीं! मैंने अनेक बार स्वयं को उस सम्बन्ध रेखा पर टिका कर देखना चाहा, जो मेरी आचार्यश्री से बन सकती थी। मेरा उनसे कोई पारिवारिक सम्बन्ध नहीं, प्रत्यक्ष गुरु-शिष्य सम्बन्ध नहीं, उल्लेखनीय व्यक्तिगत परिचय नहीं। परन्तु लगता है, मुझे उनसे जोड़ने वाले सूत्र इन सबसे भी अधिक दृढ़ थे। जो व्यक्ति हमारे साथ इन आत्मकेन्द्रित सम्बन्धों से परे हमसे जुड़ा होता है, या जिसे हम सम्मान का, स्नेह का व अपनत्व का अधिकार सौंपते हैं, उसके पीछे कारण-स्वरूप उसका व्यक्तित्व होता है, जो ‘स्व’ की संकीर्ण परिधि का अतिक्रमण कर व्यापक मानवीय धरातल पर सबसे जुड़ने की क्षमता रखता है, जो संसारिक सम्बन्ध से परे रहकर भी उनसे अधिक जीवन्त सम्बन्धों की सृष्टि करता है। पूज्यपाद आचार्य जी से मैं स्वयं को इसी सामान्य (और अपनी साधारणता में ही विशिष्ट भी) सम्बन्ध-सूत्र में बंधा पाता हूँ। समस्त जीवन में दो बार ही उनका नैकट्य मिला। तीसरी बार तो निगमबोध घाट पर मुंदी हुई पलकों, स्पन्दनहीन होंठों, पीताभ चेहरे एवं पुष्पों से आच्छादित उनके पार्थिव शरीर को निष्प्राण ही देख पाया। महायोगी चिर निन्द्रा में इतनी ही शांत मुद्रा में सोता होगा, जैसी उनकी मैंने देखी थी। कितना विचित्र संयोग है। देह-विसर्जन के लिए अंततः वे आए भी तो इस माया-नगरी में। वाह रे फक्कड़ कबीर। काशी में करवट लेने की भी तुमने उपेक्षा कर दी और जीवन की अंतिम घड़ियों में इस ‘मगहर’ में चले आए। हाँ, ठीक ही तो है। तुम्हें भला मुक्ति की अपेक्षा भी क्या हो सकती है। जीवन-पर्यंत तो तुम उन्मुक्त रहे हो - सदैव निर्बंध, मनुष्य की मुक्ति के सबसे बड़े अधिवक्ता! ये शब्द और रेखाएँ ही कहाँ तुम्हारे ओढर व्यक्तित्व को बांध कर रूप देने में समर्थ हैं। कितना कुछ कहकर भी तो बहुत कुछ अनंकित ही रह जाएगा। राजधानी का साहित्य से जुड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति संभवतः यहाँ विद्यमान है। प्रत्येक के हृदय की वा ष्पीकृत वेदना उनके बदहवास चेहरों पर उड़ रही है। यद्यपि भावी ने अपना संकेत बहुत पहले ही दे दि या था, पर विश्वास को तो सबने कल तक नहीं टूटने दिया था, पर वज्र प्रहार-सी लगने वा ली ‘आकाशवाणी’ की घोषणा ने तो कल उसे भी खंड-खंड कर दिया था। वे उदास क्यों न हों? भारतीय साहित्य ने इतना बड़ा मानवता-प्रेमी जो खो दिया है। मन की आँखें जब इस महामना की आकृति को - उसके व्यक्तित्व की प्रतिमा को - देखने का प्रयास करती हैं तो वह आकृति धरा और अम्बर के समूचे अंतराल में जैसे अँट नहीं पा रही है और अपने वैराट्य में भी असीम हो जाती है। वर्तमान के संदर्भ में इतिहास और संस्कृति का संश्लिष्ट प्राण-तत्त्व उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों में समाहित रहा है और इन दोनों में बसी थी - शक्ति एवं गरिमामंडित सौन्दर्य की तरल आभा! मेधा और संवेदना का घनीभूत सम्बन्ध हिन्दी अब किसमें खो जेगी? गद्य में काव्य के दर्शन उसे कहाँ होंगे? इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्योतिष एवं साहित्य -- इन सभी संकायों से ऊपर ‘मानव’ की प्रतिष्ठा करने वाला अब कौन रह गया है। कहाँ गई है वह अदम्य ललकार? - ‘सत्य के लिए किसी से भी न डर, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं ।’ यहाँ तक कि गुरु से भी एवं मंत्र से भी न डरना सत्य की रक्षा के लिए आवश्यक है। आह, यह कैसा आघात है। काल के इस निष्ठुर प्रहार ने परम्परा और आधुनिकता के सेतु को ही हिलाकर रख दिया है। अणिमा और अतिमा का सम्बन्ध-सूत्र अब कौन जोड़ेगा! सर्जनात्मक समीक्षा और समीक्षात्मक सर्जन की झंकृति अब किसमें सुनें! लोकवेद का रचयिता ऋषि कहाँ अदृश्य हो गया? आह, मनीषी कितनी सार्थक थी तुम्हारी चिंता -- ‘अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।’ आचार्य आजीवन ‘जलौघमग्ना सचराचराधरा’ के समुद्धार के लिए ही चिंतित रहे। राष्ट्र एवं जाति की गरिमा को स्वार्थ, शोषण, अत्याचार एवं दुशील की बाढ़ में डूबते-उतराते देख ‘कवि’ जि स ‘वराह-रूपिणा’ ‘स्वयंभूर्भगवान्’ के प्रसन्न होने की प्रार्थना बार-बार करता है, उसका अवतरण लोक की शक्ति से ही होगा - इसका भी उसे पूरा-पूरा विश्वास है। लोक के प्रति अनन्त वि श्वास का ही तो संस्थापक है - ‘अनामदास का पोथा’! लेकिन आज ऐसे ‘रैक्व आख्यान’ की रचना कौन करेगा? संभवतः हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। दिशाओं का मौन कह रहा है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हो भी कहाँ से? क्या कोई वामन हाथ बढ़ कर नभ छू सकेगा? इस पराक्रम के लिए तो अक्षय-पुरुष को ही अवतरित होना पड़ेगा। बण्ड... सचमुच बण्ड था वह। उसके प्रत्येक उच्चरित शब्द में ऊर्जा का ऐसा संस्पर्श रहता था कि वह साहित्य ही बन जाता था। सर्जना का उद्वेलमय स्रोत था वह। कैसी ऊष्मा से संसिक्त था उसका कर्तृत्व! कैसी अद्भुत थी उसकी शब्द-संकल्पना! भला ‘बण्ड’ की तद्भवता के आगे किसी ‘बाणभट्ट’ की तत्समता कैसे ठहर सकती है? यदि कोई शास्त्रवेत्ता पंडित अपने गुरु-ज्ञान-गर्व में चूर हो विश्व को हिकारत की नजर से देखता हुआ उच्चता की गजदंती मीनार में अवस्थित हो प्रवचन करता हो तो उसके वाग्जाल में किसी का भी हृदय फँस सकेगा, इसमें संदेह है परन्तु यदि कोई जटिल मुनि बच्चों की दूधिया हँसी से ही विश्व को स्नात कराता हो और जिसका भोलापन सरलता की चरम सीमा हो और जो प्रातिभ विद्वान होकर भी अहंकार शून्य हो, उसकी निःसर्ग मुस्कान किसी को मुग्ध न करे, यह अविश्वसनीय होगा। आचार्यश्री ने क्या अपने भोलेपन की प्रतिमूर्त्ति के रूप में ही ‘रैक्व’ को नहीं गढ़ा है। यह रैक्व भोला तो है पर उसका भोला अनुराग भी मनुष्य-प्रेम में ढला है। कोई भी यदि आचार्य द्विवेदी के दर्शन करना चाहता है तो इन शब्दों में वह सरलता से उनका चेहरा देख सकता है – ’मेरे पास अगर वह बुद्धि की परीक्षा लेने आएगी तो उसे गाड़ी खींच कर दीन-दुखियों तक खाद्य पहुँचाने को कहूँगा। इसी में उसकी बुद्धि की परीक्षा हो जाएगी। माँ, जो दीन-दुखियों की सेवा नहीं कर सका, वह क्या बुद्धि की परीक्षा करेगा। मैं अब थोड़ा-थोड़ा रहस्य समझने लगा हूँ। कोरी वाग्-वितंडा ज्ञान नहीं है।’ ऐसा मनुष्य दरिद्र-नारायण का पक्षधर भला कैसे हो सकता है, जिसमें मात्र प्राप्ति की लिप्सा है, जो लुब्ध होना ही जानता है? यह विशेषता तो उसी में संभव है, जिसने देने को ही जीवन का आदर्श मान लिया है। आचार्यश्री के कथा-जगत् के मानक पात्र भी तो ऐसे ही हो सकते थे। किसी भी रचनाकार की प्रत्येक कृति में उसका जीवन-दर्शन आवर्ती अनुगूंज की भांति बसा रहता है। द्विवेदी जी का जीवन-दर्शन ‘देना’ ही है। इसीलिए यह स्रष्टा ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में ‘अपने को निःशेष भाव से दे देने’ की बात करता है तो ‘पुनर्नवा’ में वह लिखता है - ‘तुम पाना चाहते हो? कैसे पाआगे प्रभो! भगवान ने तुम्हें ग्रहीता भाव दिया ही नहीं। तुम्हारा स्वभाव देना है, लुटाना है, अपने आपको दलित द्राक्षा की भांति निचोड़ कर महाअज्ञात के चरणों में उड़ेल देना है।’ और सचमुच वह औघड़दानी स्वयं को दलित द्राक्षा-सा निचोड़कर -- सब कुछ देकर -- चला गया! ...लो, अब लौटना ही होगा। धुआँ उठने लगा है। लपटें ‘सीदीमौला’ को लीलने लगी हैं। चिता जहाँ बनी है, उसके पास ही खड़ा है एक तापस अश्वत्थ। लपटें उठीं। नयी फूटी लाल कोपलें झुलस गईं। पत्तियां दर्द से सिकुड़ने लगीं। मृत्यु का निरन्तर साक्षी बना रहने वाला अश्वत्थ अपनी दार्शनिकता एवं अलिप्तता को भूल विह्वल हो उठा। श्मशान से बढ़कर कोई शिक्षक (मूक शिक्षक!) मुझे नहीं मिला। उसी शिक्षक का उपदेश ग्रहण कर मैं भारी मन से लौट आया हूँ। मुझे निरन्तर यह लगता रहा कि इनकी चिता के आस-पास कितनी ही अमूर्त्त सृष्टियाँ खड़ी थीं। उनके उपन्यासों के पात्र जैसे उपन्यासों से बाहर निकल हमारे जीवन का हिस्सा ही बन गए हैं। कितनी आकृतियाँ साकार हो रही हैं और वे हमें अपने चारों ओर नजर आती हैं। यहीं कहीं निउनिया -- ‘निपुणिका’ खड़ी होगी। ‘मैना’ भी और बाणभट्ट अर्थात ‘बंड’ भी आसपास ही होंगे। यहीं खड़ी होगी ‘चन्द्रदीधिति भट्टिनी’! और यहीं कहीं निकट ही हो गी ‘मंजुला’। सीदीमौला भी तो यहीं होने चाहिएँ। यहीं होंगे ‘अनामदास’ व ‘देवरात’! यहीं कहीं होगी ‘चन्द्रलेखा’ और यहीं होगी ‘मृणाल मंजरी’! From ravikant at sarai.net Wed Apr 16 12:58:34 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Apr 2008 12:58:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSv4KS+LeCksOClgeCkluCkvCAg4KSV4KS+IOCkp+CkvuCksOCkvuCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSkIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktuCkqA==?= Message-ID: <200804161258.35021.ravikant@sarai.net> लेखक: बलबीर माधोपुरी हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव http://www.sahityakunj.net/Pustak/ChhangyaRukh/ChhangyaRukh_main.htm रविकान्त From ravikant at sarai.net Wed Apr 16 13:00:58 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Apr 2008 13:00:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWC4KSyLQ==?= =?utf-8?b?4KS44KWB4KSn4KS+4KSwOiDgpJvgpILgpJfgpY3gpK/gpL4g4KSw4KWB4KSV?= =?utf-8?b?4KWN4KSWIOCkp+CkvuCksOCkvuCkteCkvuCkueCkv+CkpCDgpKrgpY3gpLA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KS24KSo?= Message-ID: <200804161300.59690.ravikant@sarai.net> माफ़ कीजिएगा छंग्या रुक्ख है! रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: छंग्या-रुख़ का धारावाहित प्रकाशन Date: बुधवार 16 अप्रैल 2008 12:58 From: Ravikant To: deewan at sarai.net लेखक: बलबीर माधोपुरी हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव http://www.sahityakunj.net/Pustak/ChhangyaRukh/ChhangyaRukh_main.htm रविकान्त ------------------------------------------------------- From bhagwati at sarai.net Wed Apr 16 15:11:51 2008 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Wed, 16 Apr 2008 15:11:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWL4KSn4KS+?= =?utf-8?b?IOCkheCkleCkrOCksCDgpJTgpLAg4KSH4KSk4KS/4KS54KS+4KS4IOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCkteCkvuCksg==?= Message-ID: <4805C9DF.5030301@sarai.net> सामायिक वार्ता के अप्रेल २००८ अंक मैं प्रकाशित लेख जोधा अकबर और इतिहास का सवाल पहले एक गीत' आ जा नच ले' पर और इसके तुरन्त बाद एक फिल्म 'जोधा अकबर' पर विवाद। दोनों में सामान्य बात एक -'जातिगत मान-सम्मान'। गीत एक खास पंक्ति में आए जाति सूचक शब्द पर सवाल उठे तो फिल्म में दो किरदारों के आपसी सामाजिक रिश्ते पर। उस रिश्ते के मूल में था किसी जमाने का, मुगल राजपूत संबंध। सवाल यह बनता है कि खुद फिल्म में ऐसा कुछ था जो समाज को नागवार गुज़रा या उस बदले समाज में कुछ ऐसा है जो इतिहास को फिर से खंगाल रहा है - ऐसा क्यों हुआ कि 'मुगले अंजाम' को जिस समाज ने क्लासिकी का दर्ज़ा दिया उसी ने 'जोधा-अकबर' पर सवाल उठाया? _*प्रियदर्शन*_ *आ*शुतोष गोवारिकर की नई फिल्म 'जोधा' अकबर ने अनजाने में ही इतिहास और जनस्मृति के बीच बनने वाले फासले की तरफ फिस से ध्यान खींचा है। जनस्मृति बताती है कि जोधाबाई अकबर की राजपूज रानी है। के अफिस की मशहूर फिलम 'मुगले आजम' में भी जोघा बाई अकबर की बेगम का ही नाम है। कहना मुश्किल है, इस फिल्म ने पहले से चली आ रही जनस्मृति या जनश्रुति से कितने प्रेरणा ली और बाद में इस स्मृति को मजबूत करने में कितना योगदान किया, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि औसत भारतीय की स्मृति में जोधा अकबर का बेगम रही है इतिहास की कुछ किताबों में भी यह नाम भूल से चला आया है, लेकिन इतिहास का बयान यही है कि यह जनस्मृति भ्रामक है कि अकबर कि पत्नी का नाम जोधाबाई नहीं, हीराकुवर, हरका बाई या और कुछ था। सहज रूप से यह सवाल उठता है कि अपनी फिल्म के लिए काफी शोध करने का दावा कर रहे आशुतोष गोवारिकर को क्या इस सच्चाई का भान नहीं हो पाया? या उन्हें लगा कि इतिहास कुछ भी बोले, जनश्रुति उनकी फिल्म के कहीं ज्यादा सहायक और उपयोगी होगी? हो सकता है, तब तक उन्हें यह अंदाजा न रहा हो कि नाम के हेरफेर की मामूली सी दिखने वाली यह चूक देशव्यापी विवाद का आधार बन जाएगी और इससे कही-कहीं उनकी फिल्म के प्रदर्शन पर भी असर पड़ेगा। वैसे इस चूक के बावजूद कई बातें आशुतोष गोवारिकर के समर्थन में जाती है। अगर नाम की चूक को कुछ देर के लिए भूल जाएं तो गोवारिकर के बाकी तथ्य इतिहास के लिहाज से दुरुस्त हैं। मसलन अकबर ने राजा भारमल की बेटी और मानसिहं की बहन से शादी की थी और मुगल-राजपूत रिश्ते का एक नया अध्याय शुरू किया था। बहरहाल, 'जोधा अकबर' देखते हुए यह सवाल बार-बार सिर उठाता है कि क्या आशुतोष गोवारिकर की फिल्म इतिहास मे जाती है ओर कोई नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है? दुर्भागय से यह फिल्म उतनी ही सपाट और रंगीन है जितनी कारोबारी फिल्मे हुआ करती हैं और जिनमें यथार्थ से मतलब दृश्यो के अनुरूप सादे या भव्य सेट बना ड़ालना होता है। ऐसे भव्य सेट इस फिल्म में है। जहाँ सवाल है, आशुतोष गोवारिकर की दिलचस्पी इतिहास में कम, अपने लिए ऐसे किरदारों की तलाश में ज्यादा है, जिन्हें वे मोहब्बत के नए प्रतीक की तरह पेश कर सकें। जिसे जनस्मृति कहते हैं, उसमें सलीम और अनारकली के प्रेम की चर्चा होती है, उसमें शाहजहां और मुमताज का जिक्र आता है, लेकिन जोधा और अकबर पति-पत्नि की तरह ही याद किए जाते हैं,। इस लिहाज से देखें तो एक नव्यता फिर भी आशुतोष की फिल्म में है। यहाँ प्रेम पहली नजर का नहीँ है न वह नामुमकिन लगने वाली कसमों से उपजा है। उसमें अतिरेकि वादे या अतिवादी कल्पनाएं भी नहीं है। अगर वह प्रेम है तो ऐसा प्रेम है जिसमें एक-दूसरे से जुड़ने का जज्बा दिखता है। इतिहास दरअसल इसी मोड़ पर आशुतोष की सहायता करता है वह उन्हें दो ऐसे किरदार मुहैया करता है जिनके जीवन में ये पड़ाव आए, ऐसे किरदार जिन्होंने अपनी-अपनी आस्थाओं, अपने-अपने रिवाजों का अतिक्रमण कर एक-दूसरे को समझाने की कोशिश की। लेकिन आशुतोष गोवारिकर इतिहास का इससे ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते। वे इन दो चरित्रों को लेकर, उनके जीवन की मोटी घटनाओं के आधार पर अपनी फिल्म पूरी कर डालते हैं - इस बात से बेखबर या बेपरवाह कि एक कहीं ज्यादा बारिक और बड़ी हकीकत उनके हाथ से फिसल रही है। दरअसल इस हकीकत को समझना है तो हमें कुछ इतिहास में झाकना होगा, जनश्रुति में, जिसने अकबर और जोधाबाई का रिश्ता बनाया है। जहाँ तक इतिहास की बात है, अकबर के विवाह को लेकर वहाँ कई तथ्य दिखते हैं। जेसे अकबर की हिंदू बेगम के कई नाम हैं-हिराकुवंरी, मानकुंवरी और मरियमुज्जमानी। यही नहीं, अकबर की कई प्रमुख रानियां रहीं। उनकी सबसे बड़ी रानी का नाम रुकैया बेगम बताया जाता है। जो बेऔलाद रही। दूसरी रानी सलीमा सुल्ताना थी जो बैरम खां की बेवा थी। और तीसरी रानी भारमल की बेटी हीराकुंवारी थी जिसका दरबार और बादशाह पर दूसरी रानियों के मुकाबले कहीं ज्यादा असर रहा। सवाल उठता है कि इस अफसाने में जोधाबाई का नाम कहाँ से चला आता है? जानकार यह भी बताते हैं कि मुगलिया दौर की मूल किताबों में जोधाबाई नहीं दिखती। न अकबरनामा में उसका उल्लेख दिखता है, न तुजुके जहाँगीरी में। जोधाबाई पहली बार अठारहवीं- उन्नीसवीं सदी की किताबों में दिखाई पड़ती हैं। एक इतिहासकार इत्मियाज अहमद का कहना है कि अंग्रेज लेखक जेम्स टॉड की किताब में जोधा का जिक्र मिलता है। लेकिन सवाल यही है कि आखिर यह नाम आता कहाँ है। इस राज कुछ परदा उठाते हैं इरफान हबीब जो बताते हैं कि फतहपुर सिकरी में मरियमुज्जमानी के मकबरे में शुरू हुई है यह गलतफहमी। इनके मुताबिक वहाँ के गाइड़ों ने आने-जाने वाले सैलानियों को ये जानकारी दी कि यहाँ अकबर की बेगम जोधाबाई का कब्र है। जहाँ तक इतिहास का सवाल है, जोधाबाई जहांगीर की पत्नी का नाम था। दिलचस्प यह है कि जोधपुर की इस राजकुमारी से जहाँगीर के विवाह की सूत्रधार भी अकबर की हिन्दू पत्नी ही बनी। इस बात से बेखबर कि भविष्य में इतिहास और स्मृति का घालमेल उनकी पहचान को उनकी वधू के नाम से जोड़ देगा। बहरहाल, जोधा अकबर' सिर्फ निजी आख्यान भर नहीं है, उसका एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी है जो भारत की मिली-जुली संस्कृति के संदर्भ में काफी मुल्यवान हो उठता है। जनश्रुति बनती है और फिल्म भी कि अकबर ने जोधा से शादी कर एक नई शुरूआत की जो भारत में गंगा-जमनी तहजीब का आधार बनी। यहाँ इतिहास बताता है कि अकबर से पहले भी राजपूतों और मुगलों के बीच शादी की मिसालें मिलती हैं। यही नहीं, जोधा अकबर की इकलौती हिंदू रानी थी, यह भी सच नहीं है। अकबर की कई रानियाँ हिंदू थीं। इस लेख में कई सारे ब्यौरे देने का मकसद यह साबित करना नहीं है कि आशुतोष गोवारिकर की फिल्म आधी-अधूरी सच्चाईयों से बनी है। वह तो है ही, लेकिन दरअसल समझने की बात यह है कि इतिहास एक जटिल मामला होता है। उसमें आप जितने गहरे उतरते हैं, उसकी इतनी ही परतें मिलने लगती हैं। इस इतिहास में मेल-मिलाप के भी ढेर सारे उधाहरण होते हैं, आपसी तनावों और टकरावों के भी । इस इतिहास में उतरने पर हम पाते हैं कि मध्य काल का झगड़ा हिंदू-मुसलमान का नहीं, मुसलमान-मुसलमान का भी है, हिंदू-हिंदू का भी है, और इसके बीच आवाजाही करने वाले कई समूहों और हितों का भी है। इतिहास के विपरीत जनश्रुति में निस्संदेह एक तरह का सरलीकरण होता है, कही राणा प्रताप। जनस्मृति औरंगजेब को अगर खलनायक और शिवाजी को नायक की तरह देखती है तो इसके पीछे कुछ हाथ इतिहास का होता है, लेकिन कुछ उस लोकप्रिय प्रक्रिया का भी, जिससे वक्त की धूल-माटी इतिहास को अपनी तरह की रंगत और पहचान दे ढालती है। इसी जनस्मृति ने अकबर की पत्नी का नाम जोधाबाई मान लिया है। इसी जनस्मृति से कहीं यह भ्रम होता है कि हिंदी इस देश के हिंन्दुओं की भाषा थी और उर्दू मुसलमानों की। जोधा अकबर भी इस लोकप्रिय भ्रम की शिकार दिखती है जब हम फिल्म में मुगलों और राजपूतों की अलग-अलग बोली सुनते हैं। तर्क दिया जा सकता है कि इसके अलावा दोनों की भिन्नता बताने का कोई दूसरा चारा फिल्मकार के पास नहीं रहा होगा। लेकिन मूल बात असल में यही है-एक लोकप्रिय और कारोबारी फिल्म इतिहास में नहीं जाती, वह इतिहास से सिर्फ थोड़ा सा कच्चा माल लाती है और फिर उसे कुछ अपनी परिकल्पना और कुछ जनश्रुति के मसाले में मिलाकर एक नई कहानी बना डालती है। आशुतोष गोवारिकर भी इससे अलग कुछ करते नहीं दिखते-मायूसी की बात सिर्फ इतनी है कि यह काम भी वह बहुत सपाट ढंग से करते हैं। टाइपिंग के लिए भाई *सचिन* का शुक्रिया सलाम भगवती ------------------------------------------------------------------------ Bollywood, fun, friendship, sports and more. You name it, we have it. From ravikant at sarai.net Wed Apr 16 17:24:12 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 16 Apr 2008 17:24:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KS+4KSv?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpJfgpYvgpLfgpY3gpKDgpYA6IOCkleCksiDgpJrgpL4=?= =?utf-8?b?4KSwIOCkrOCknOClhw==?= Message-ID: <200804161724.12844.ravikant@sarai.net> मित्रो, आप सब लोग 17 अप्रैल, 4 बजे शाम सराय-सीएसडीएस में हो रही विचार गोष्ठी में पधारें: विषय का अनुवाद यूँ है: कोई अच्छी किताब: परा-राष्ट्रीय बाज़ार और भारतीय प्रकाशक वक्ता: डॉ. रश्मि सदाना वक्तव्य सार: यह पर्चा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय साहित्य की प्रस्तुति के तेवर से शुरू होकर रवि दयाल और अंसारी रोड के अन्य प्रकाशकों की बातें करेगा. मैंने प्रकाशकों से बातचीत करते हुए मौजूदा दौर के बौद्धिक इतिहास पर बहस छेड़ने की कोशिश की है. मूल सवाल ये हैं: आज़ादी के बाद के दशकों में भारतीय प्रकाशकों ने ख़ुद को इस धंधे में किस तरह पेश किया? क्या इस इतिहास से हमें अंग्रेज़ी और हिन्दी द्वारा राष्ट्रीय वैधता हासिल करने की कोशिशों की स्पर्धा बारे में कुछ पता चलता है? मेरा पर्चा अंतरराष्ट्रीय(लंदन, न्यू यॉर्क) व स्थानीय(देहलवी) कहानियों की तुलनात्मक पड़ताल करते हुए 'अच्छी किताब' के उत्पादन की कसौटियों को परखेगा. व्यापकतर धरातल पर इस बात पर भी ग़ौर किया जाएगा कि साहित्य का उत्पादन कैसे होता है, उन्हें पढ़ा कैसे जाता है, और पाठक समूह किस तरह से बनाए जाते हैं. रश्मि सदाना ने कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय से 2003 में पीएचडी करने के बाद कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टोरल शोध(2003-2007) किया है. आजकल वे दिल्ली में रहकर भाषा, राजनीति और भारतीय साहित्य के उत्पादन पर किताब लिख रही हैं, और साथ ही द केम्ब्रिज कंपेनियन टू मॉडर्न इंडियन लिटरेचर का सह-संपादन भी कर रही हैं. रश्मि अंग्रेज़ी में बोलेंगी, लेकिन हम हिन्दी में सवाल कर सकते हैं. रविकान्त From vineetdu at gmail.com Wed Apr 16 17:36:29 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 16 Apr 2008 17:36:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4oCN4KSy?= =?utf-8?b?4KWJ4KSX4KSy4KS/4KSW4KWAIOCkleClhyDgpKzgpLngpL7gpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSXIOCkteCkv+CkruCksOCljeCktg==?= Message-ID: <829019b0804160506p30c20327xbe09cbe1306d431@mail.gmail.com> *जनसत्ता ने तय किया है कि आगे से अविनाश भाई के कॉलम ब्लॉगलिखी को नहीं छापेगी। वजह है अविनाश भाई ने जनसत्ता के संपादकीय कारनामें को लेकर कड़ी आपत्ति और असहमति जतायी है। मैं इस पूरे प्रकरण को मेनस्ट्रीम की मीडिया और असहमति का धारदार माध्यम ब्लॉग के तौर पर देखता हूं। एक नजर आप भी मार लें-* ** ** शुरुआती दौर में जब हिन्दी दुनिया के लोग ब्लॉगिंग कर रहे थे तब मामला शेयरिंग का, मन की बात करने का भले ही रहा होगा लेकिन बाद में ब्लॉगों के कलेवर को देखते हुए साफ होने लगा कि नहीं, ये सिर्फ ब्लॉगिंग करने नहीं आए हैं। ब्लॉगिंग तो उनके लिए गेटपास भर है। ब्लॉग को लेकर वो बहुत सीरियस हैं वो इसे सिर्फ माध्यम के तौर पर नहीं ले रहे, उनके लिए ये एक औजार है। बहुत पैसा कमाना न भी रहा तो पॉपुलरिटी, ठसक और लोगों के बीच अपना प्रभाव बनाना तो जरुर रहा है। लेकिन, माफ कीजिएगा कि शुरुआती दौर में हिन्दी समाज जितना ही संतोषी रहा है, बाद में उसकी कामना और जल्दी-जल्दी पाने की इच्छा इतनी तेज होती गई, उसकी रफ्तार इतनी बढ़ गई कि आज वो हर पोस्ट के पीछे एक ठोस मतलब ढूंढ़ता, फिरता है। पहली कोशिश तो ये होती है कि पोस्ट का ढांचा कुछ ऐसा हो, भाषा कुछ ऐसी हो, लिखावट में कुछ ऐसी शिष्टता हो कि अखबार उसे ज्यों का त्यों उठाए और छाप दे। कुछ दिनों के बाद उसके नाम से चेक अपने-आप पहुंच जाए। दूसरी स्थिति कुछ ऐसी बने कि जब भी कोई अखबार ब्लॉग पर कोई स्टोरी करे तो उसके विचार को शामिल करे और ऐसा तभी संभव है जबकि ब्लॉगर खालिस ब्लॉगर न होकर सेलिब्रिटी ब्लॉगर बन जाए। इसके लिए लोग जो कुछ भी कर रहे हैं उसे आप सब जानते हैं। तीसरी और बाकी की स्थितियों पर बात करें इसके पहले दोनों स्थितियों पर विचार कर लें। जब भी कोई ब्लॉगर उपर की दोनों स्थितियों के हिसाब से पोस्टिंग करनी शुरु करता है वो ये भूल जाता है कि वो ब्लॉगिंग कर रहा है और उसके पाठक का मिजाज अखबार के मिजाज से अलग है और उसकी पोस्ट पिट जाती है।जबकि कभी-कभार वो अखबारों के लिए उम्दा कच्चे माल के तौर पर काम आती है। इन सब के बीच शायद ही कोई ब्लॉगर जो कि अखबारों में छपता है नहीं सोच पाता कि वो अखबार की शर्तों से किस तरह से बंधता चला जा रहा है। कोई अच्छा ब्लॉगर है इसका सीधा पैमाना मान लिया गया है कि अखबारों में उसकी तस्वीर छपती है कि नहीं, उसकी राय ली जाती है कि नहीं और कहीं किसी अखबार से लिखने की ऑफर मिली या नहीं। जिस ब्लॉग को असहमति का धारदार वैकल्पिक माध्यम होना चाहिए था, आज वो भी मुख्यधारा की मीडिया में शामिल हो गया औऱ इसे वो उपलब्धि मान रहा है। अविनाश भाई के साथ जो कुछ भी हुआ वो इसी मानसिकता का नतीजा है। हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए किसी ने इतनी ताकत पैदा की ही नहीं कि वो अखबार और मुख्यधारा की मीडिया की शर्तों पर लिखने के बजाए सारे ब्लॉगर खुद मिलकर ब्लॉग के उपर एक पत्रिका निकालें और उसे मुख्यधारा की मीडिया के सामने लाकर खड़ी कर दें। ब्लॉग को लोगों ने बहुत सतही तौर पर लिया और अगर नहीं भी लिया तो अपने कारनामों से सतही तौर पर कर दिया।ब्लॉगिंग करते हुए जिसे उसने उपलब्धि मान लिया दरअसल वो एक पराधीन मानसिकता का नूतन संस्करण है जहां आप ऑफिस के बॉस का उपहास करते हुए भी, सिस्टम को गरिआते हुए भी परोक्ष रुप से उसे स्वीकार कर लेते हैं। सही बात तो ये है कि आज हमारे बीच ऐसा कोई ऐसा स्पेस नहीं बचा है जहां अपने मन की बात लिख सकें। ब्लॉग की दुनिया में इसकी बड़ी गुंजाइश थी और एक स्तर पर अभी भी है लेकिन लोग इसे आगे बढ़ने के पहले ही इतने प्रोफेसनली लेने लग गए कि ब्लॉग ने अपनी चमक, प्रकृति और साहस ही खो दिया। लोग इसे बेबसाइट बनाने में लग गए। एक पोस्ट के पीछे दुनिया भर के लिक्स देने लग गए। आपको देखते ही समझ में आ जाएगा कि लगता है ये बहुत जल्द ही मेनस्ट्रीम की मीडिया में इमर्ज कर जाएंगे। इसलिए जब आपको मेनस्ट्रीम की मीडिया में इतनी इमर्ज हो जाने की छटपटाहट है तो फिर ब्लॉगिंग की शर्तें नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम की शर्तें लागू होंगी। कुछ ऐसे भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं जिनके लिए पोस्ट लिखने में और लेख लिखने में कोई खास फर्क नहीं है। माध्यम भर का फर्क है और कुछ भी नहीं। जो मटेरियल उनके पास है उसे देखते हुए साफ लगता है कि या तो इसकी खपत उनके ऑफिस में नहीं हुई या फिर पोर्टल बनाने की मानसिकता से हमारे सामने ठेल रहे हैं। जबकि एक बार गंभीरता से विचार करें तो ब्लॉग इससे कहीं आगे की चीज है। कोई भी बंदा जब कुछ भी लिख रहा होता है तो उसके पास उस विषय को लेकर किसी अखबार या चैनल से ज्यादा प्राइमरी सोर्सेज होते हैं। खबरें भी होती है तो उसमें मानवीय संवेदना के स्वर होते हैं। वो चैनलों से कहीं आगे की चीज है और ब्लॉग की दुनिया में इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन प्रोफेशनल होने की मार के कारण चीन, तिब्बत औऱ इराक पहले याद आ जाते हैं और गली में देर से हुए फैसले के काऱण पागल हुई औरत बाद में या फिर याद आती ही नहीं है। मुझे कोई अधिकार नहीं है किसी की पोस्ट पर कमेंट्स के अलावे कोई व्यक्तिगत राय मढ़ने की, पर, ब्‍लॉगलिखी अब जनसत्ता में नहीं आएगीजैसी पोस्ट पढ़ने को मिलती है तो बात समझ में आ जाती है मेनस्ट्रीम की मीडिया के साथ ब्लॉगर के गलबइंया करने से ब्लॉग झंझट, किचकिच और कलह का माध्यम बनकर रह जाता है। कितना कुछ किया जा सकता है ब्लॉग के जरिए लेकिन नहीं, आए दिन अदालती फैसले सुनाने, एक-दूसरे के खिलाफ फरमान जारी करने और विरोध में कारवाइयां करने के अलावे कुछ मतलब का नहीं हो पाता। मतलब का ये भी हो सकता है जब इससे बौद्धिक क्षमता का विकास हो। लेकिन यहां तो आलम ये है कि सामने वाले को पाखंडी, इगोइस्ट और मक्कार साबित करके ही दम लेना है। अविनाश भाई के मामले में जनसत्ता ने जो फैसला लिया है, उसके बारे में कुछ न ही कहना बेहतर होगा क्योंकि एक बार बोलकर देख चुका हूं। अब बार-बार यूनिवर्सिटी में जाकर अपने बारे में सफाई देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। थानवीजी ने अविनाश भाई के संदर्भ में जो कुछ भी तर्क दिया है वो उनकी जगह पर सौ फीसदी सही ही होगा कि- *रविवारी संस्‍करण के प्रभारी संपादक ने जो एक पैरा संपादन करते वक्‍त निकाल दिया, उसे आपने अपने ब्‍लॉग "मोहल्‍ला" में "मजाक" करार दिया है और "कड़ी आपत्ति" दर्ज की है **(स्त्रियां जो ब्‍लॉग लिख रही हैं)* । मैं तो इस बात पर खुश हो ले रहा हूं कि अविनाश भाई ने जो संपादकीय कारनामें को मजाक करार दिया इसके बहाने काफी हद तक मठाधीशी का भी मजाक उड़ाया जान पड़ता है, अविनाश भाई इसे कहें या न कहें और संभवत जनसत्ता के तिलमिलाने और फरमान जारी करने की बड़ी वजह यही हो। इस मामले में ब्लॉग ने अखबार की औकात बता दी है। जो मामला ब्लॉग के न रहने पर *दरद न जाने कोई* सा रहता उसे अविनाश भाई ने जनसत्ता के प्रति असहमति जाहिर करके ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक कर दिया। इस पूरे प्रकरण में ब्लॉग का सही अर्थ स्थापित हुआ है और एक ब्लॉगर की हैसियत से हमारे लिए गर्व की बात है। मेनस्ट्रीम की मीडिया से ब्लॉग को ज्यादा असरदार, धारदार, बेबाक और स्वाभिमान का माध्यम साबित करने के लिए अविनाश भाई को एक कॉलम गंवानी पड़ी तो भी कोई बात नहीं। ब्लॉग के इतिहास के लिए ये *स्वाधीनता दिवस* है। कॉलम तो फिर भी मिलते रहेंगे, यहां नहीं तो कहीं और सही। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1429 Size: 15984 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080416/5e10b758/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Thu Apr 17 13:59:49 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 17 Apr 2008 13:59:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KSh4KWJ?= =?utf-8?b?4KS44KSX4KS/4KSw4KWAIOCklOCksCDgpJrgpL/gpKHgpLzgpYAt4KSs4KS/?= =?utf-8?b?4KSg4KS+4KSI?= Message-ID: <200804171359.49176.ravikant@sarai.net> सुधा उपाध्याय(जानकी देवी कॉलेज) और धीरज(चैनल -7) वैसे तो पड़ोसी हैं पर उनके ब्लॉग के बारे में पता कल ही चला उनसे ही जब मिलना हुआ. ये भी पता चला कि इस सूची के कई लोग उनको ओर उनके चिट्ठे को पहले से ही जानते हैं. यह कड़ी मैं इसलिए भी भेज रहा हूँ क्योंकि मुख्यधारा टीवी मीडिया का जो गुप्त समाजशास्त्र जो विनीत आदि गढ़ रहे हैं, यह उसी सिलससिले में एक और कोशिश के रूप में देखी जा सकती है. मज़े लें: रविकान्त 'KUDOS' गीरी http://khulikitab.blogspot.com/2008/03/kudos.html सीन नंबर 1 वाह मजा आ गया! आज तो सर, हमने सबको पीछे छोड़ दिया। लगभग आधा घंटा पहले ख़बर एयर पर थी । सबसे तेज़ और सबसे आगे रखने वाले पानी मांग रहे थे। ऐसे ही करेंगे सर, आपका सिर नीचा नहीं होने देंगे सर। हूं...अच्छा रहा। वाकई मज़ा आ गया। तुमने कमाल कर दिया। देखो, मैं यही रफ्तार और ये जज़्बा चाहता हूं। बस कुछ ज़्यादा नहीं करना है। सबको रुलाकर मारना है। एक अपेक्षाकृत छोटे और दूसरे सबसे बड़े अधिकारी के बीच की बातचीत। बॉस की बातें सुनकर 'क' का मन गदगद हो गया। मन ही मन उसे न जाने क्यों ऐसा एहसास होने लगा कि अब तो बेड़ा पार है। इस बार कोई नहीं रोक सकता...। बुदबुदाया, सा.........देख लेंगे। बड़ा बनता है न! छोड़ेंगे नहीं। बॉस और 'क' के बीच की बातचीत आपस में हुई। वहां एकाध जूनियर ही मौजूद रहे होंगे। इसलिए शंका ये थी कि अगर बॉस ने इस बात का ज़िक्र किसी से नहीं किया तो फिर सारा किया धरा पर पानी फिर जाएगा। हालांकि मंजिल बॉस ही थे। पर इसके बारे में सबको जानना उतना ही जरुरी था जितना अपने हमसैलरी और हमओहदे वाले की बुराई करना। मन में छटपटाने लगा। कैसे इसको सार्वजनिक किया जाए। जब ज्यादा कुछ नहीं सूझा तो तय किया कि मीटिंग में किसी तरह से इसे उठाया जाएगा । सीन नंबर 2 सर, आपने देखा। क्या? वही ख़बर। मैंने तय किया कि चाहे जो हो जाए, किसी भी तरह से सबसे पहले मैं हूं उतारुंगा इस खबर। आपसे बिना पूछे आपका इंटरव्यू का शो गिरा दिया और चढ़ गए। लगभग पैंतालीस मिनट बाद दूसरे चैनल आए इस खबर पर। हां, अच्छा था। हमलोगों ने अच्छा किया। बल्कि मैं आपको एक बात बताऊं कि जब आपका फोन आया उससे पहले हमने बिलकुल वैसा ही ग्राफिक्स ऑन एयर कर दिया था। सर ने सिर हिलाते हुए कहा--हां, पर बिलकुल वैसा नहीं था। बाद में तुमने देखा कि दूसरों के पास कितना बढ़िया ग्राफिक्स था। नहीं, नहीं सर, वो तो शुरुआती ग्राफिक्स था। चूंकि उसे ऑन एयर करना था इसलिए उसे वैसे ही जाने दिया। अब वैसा ही बन रहा है जैसा कि आप कह रहे हैं। हां, ठीक है बनते ही इसे एयर पर डाल देना। जी, जी सर। एक अपेक्षाकृत बड़े और दूसरे सबसे बड़े अधिकारी के बीच की बातचीत। सीन नंबर 3 सर के जाते ही 'ख' महोदय ने तय किया कि अब थोड़ा औऱ नंबर बढ़ाया जाए। धड़ाधड़ मेल खोला और शुरु कर दी 'कुडोसगीरी'। कुडोस का शाब्दिक अर्थ जो भी होता हो पर उसका भाव ये है कि अच्छा काम करने वाले उस व्यक्ति विशेष को प्रोत्साहित करना और तारीफ करना। 'ख' सर ने कुडोसगीरी में इस बात का ख्याल रखा कि कहीं इससे सीधे-सीधे ये न झलक जाए कि उन्होंने सारा श्रेय ले लिया। पर इस बात का भी ख्याल रहे कि अपने बारे में, अपने नेतृत्व क्षमता का भी बखान न छूटे। जैसे ही मेल सेंड किया कि बस उस पर उनके चाहने वालों ने चिड़िया बिठाना शुरु कर दिया। एक ने किया, दूसरे ने किया, तीसरे ने किया। बारी-बारी से तमाम एकराही ने चिड़िया बिठाई। पर बॉस ने अबतक चिड़िया नहीं बिठाई। सीन नंबर 4व दोपहर की संपादकीय मीटिंग जारी है। खबरें बताने का सिलसिला शुरु हुआ। जैसे ही दिन वाली खबर का ज़िक्र हुआ कि 'क' तपाक से दूसरे के मुंह से बात छीन ले गए। हां, इसके बारे में मैं बताता हूं। इसमें अब फलां-फलां डेवलप्मेंट हो चुका है। स्टोरी लिखी जा चुकी है जल्दी ही एयर पर होगी। बात खत्म करते हुए 'क' को लगा कि जैसे मोटापे के बावजूद एक ही सांस में ग्राउंड का दस चक्कर लगा लि या हो और थकान का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं। तभी अपेक्षाकृत बड़े अधिकारी 'ख' सर ने 'क' से पूछा- लेकिन स्टोरी में जो सबसे जरूरी बात होनी चाहिए वो जानकारी तो है ही नहीं। उसको दोबारा बनवाना पड़ेगा। बहुत बकवास बन रही है स्टोरी। ये क्या एक झटके में 'ख' सर ने सारे किए धरे पर मिट्टी भरा ट्रक गिरा दिया। हालांकि 'ख' ने कुडोसगीरी का खेल खेलकर पहले ही बाजी मार ली थी। लेकिन अब और पुख्ता कर विजय मुस्कान पूरे कॉन्फ्रेंस रूम पर फेंकी। मीटिंग में मौजूद लोग भी इस खेल से वाक़िफ़ थे। लेकिन आज बारी उनकी नहीं थी इसलिए ज़्यादातर लोगों के ओठ खिले हुए थे। सर भी जानते थे असलियत। पर वो भी चुप थे। सीन नंबर 5 जूनियर्स फिर से बात करते पाए गए---हम लोग मजदूर हैं। सारा काम हमने किया पर श्रेय लेने के लिए होड़ा-होड़ी चल रही है। छोड़ों यार, अरे! यार, हमारी किस्मत गधे के .....और फुलस्टॉप हाथी के.....। एक साथ सब जोर से हंस पड़े। From ravikant at sarai.net Fri Apr 18 12:35:52 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 18 Apr 2008 12:35:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: zaroor parhein Message-ID: <200804181235.52956.ravikant@sarai.net> avinash ne bheja tha, mass mailer hone ke chalte atak gaya tha. cheers ravikant http://mohalla.blogspot.com/2008/04/blog-post_18.html नीलेश मिश्र अंग्रेज़ी के बड़े पत्रकार हैं। थोड़े दिनों पहले यूं ही कभी कभार हिंदी में कुछ साझा करने के लिए मैंने कह दिया होगा, जिसका जवाब मुझे तब उन्‍होंने नहीं दिया। आज सुबह उनका एसएमएस था, देवनागरी में कुछ लिखा है। जो लिखा है नीलेश ने, वो सचमुच बहुत ख़ास है, अलग है। थोड़ा बेचैन करने वाला भी। जादू है, नशा है जैसे महानगरीय बोध वाले गीत के रचनाकार नीलेश के भीतर कितनी शिद्दत से छोटा-सा शहर बसता है - आप खुद पढ़ें। बात-बेबात पे अपनी ही बात कहता है मेरे अन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है तस्‍वीर एजाज़ हुसैन की। एजाज़ कश्‍मीरी पत्रकार हैं। ये पंक्तियां मैंने कई साल पहले लिखी थीं। कभी पूरी नहीं की। गीत बस वहीं का वहीं रह गया, बड़े शहर में क़ैद। कई बार सोचा, क्या छोटा शहर मेरे अन्दर किसी गहरी, बरसों लम्बी नींद में सो गया? या फिर कोई खूबसूरत मौत मर गया? पिछले दिनों एक फ़िल्म के गीतों के लिए बम्बई में एक नि र्देशक के साथ बैठक चल रही थी, कि उनकी फ़िल्म की कहानी सुन कर अनायास मुंह से निकल गया, “मेरे अन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है...” उनको इतना पसंद आया कि अब आदेश हुआ है कि मैं ये गीत पूरा करूं। पर गीत तो ख़ामोश बैठा है, नाराज़ दादाजी की तरह। आगे कुछ कहता ही नहीं । हम सभी तो इसी छोटे शहर की यादों की खाते हैं। जब बड़े शहर ने परेशां किया, इस की बाहों में दुबक जाते हैं। बनारस का वो घाट याद है? पटना का रेलवे स्टेशन देखे हो? यार ये चांदनी चौक तो एकदम जैसे लखनऊ का अमीनाबाद है! अमां तरबूज़ खा कर तो लल्लन की दुकान की याद आ गयी! अपने ब्लॉग पर भी बड़ी शान से लिखा, “Hidden inside me, a small town guy” (छुपा है मेरे अन्दर, छोटे से शहर का एक आदमी)। लेकिन कभी कभी सोचता हूं, कहां रहता है ये कमबख्त छोटा सा शहर? क्या पहनता है ये? कौन से गाने पे नाच रहा है ये नचनिया? हट! ये तो बहाना है बस। कहीं ये खूबसूरत छोटा सा शहर हमारे शातिर, कल्पनाशील दिमागों की ईजाद भर तो नहीं? एक ऐसी मरी चिका जहां सभी अच्छा था, ज़िंदगी खूबसूरत थी, मधुबाला की तस्वीर की तरह। फिर दो पंक्तियां याद आयीं। कॉलेज में एक नाटक के लिए लिखीं थीं उस पानी से भरे शहर नैनीताल में... जीवन में प्रेम हो, सद्भाव हो, समरसता हो चावल सस्ता हो... यही तो है न हमारी ज़िंदगी में छोटे से शहर की ड्यूटी? एक ऐसी छतरी जिसके नीचे हम पट से भाग जाते हैं, जैसे ही वक्त की धूप थोड़ा सा तिरछी आंख दिखाती है। ये छोटा सा बेईमान शहर बस हमारे दिल में ही तो रहता है भाई, एक टाइम मशीन की तरह। मुश्किल वक्त, कमांडो सख्त - नाना पा टेकर ने बोला था न प्रहार में? - “बटन दबाया, अपने आप को दो मिनट के लिए छोटे से शहर में पा या।” मैं इस हफ्ते लखनऊ में था। बड़ा हुआ था यहीं। काफी वक्त सड़कों पे छोटे से शहर की राह देखता रहा। लेकिन वहां तो अब डोमिनोस पीत्ज़ा फ़ोन करने से मिलता है। वहां तो अब सिनेमा देखने के लिए गांव के मास्टर की दस दिन की तनख्वाह खर्च करनी पड़ती है। वहां तो अब बिना नम्बर की मर्सिडीज़ दौड़ती है! भाई यहां तो अभी अभी किसी नेता ने अपनी ही प्रतिमा का अनावरण किया है, चमकीली बत्ती लगवा कर, लाखों रुपैय्या खर्च कर के परदा उठवाया है। ये छोटा सा शहर कहां है, ये तो एक भूतपूर्व और एक भावी प्रधानमंत्री का शहर है! मेरे छोटे से शहर पर तो कब का परदा गिर गया यारो! अब तो बस एक किरदार है जो निभा रहा हूं मैं। और हां, आप भी। Posted by avinash तारीख़ Friday, April 18, 2008 गली का नाम: दोस्‍तों का लिखा, सारे सुखन हमारे 1 कमेंट्स: rakhshanda said... sahi kaha hai aapne..ab chhota shaher kahan rah gaya hai...vahi andhi doud har taraf dikhayi dene lagi hai jo kabhi bade cities ka hissa huaa karti thi.. April 18, 2008 12:11 PM From ravikant at sarai.net Fri Apr 18 16:19:06 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 18 Apr 2008 16:19:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_=5BDOCUWALL?= =?utf-8?b?QUhTMl0g4KSh4KWJ4KSV4KWN4KSv4KWB4KSu4KWH4KSC4KSf4KSw4KWAIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkluCkvOCknOCkvOCkvuCkqOCkvg==?= Message-ID: <200804181619.06581.ravikant@sarai.net> क्रॉस-पोस्टियाने के लिए माफ़ी चाहूँगा. डाउनलोड करें, देखें, और फैलाएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [DOCUWALLAHS2] watch doc's online Date: शुक्रवार 18 अप्रैल 2008 15:14 From: Benwen Lopez To: docuwallahs2 at yahoogroups.com Hey Guys, www.freedocumentaries.org is a an online platform where you can watch free documentaries online.... I also encourage you to look at www.current.com and www.d-word.com best ben ____________________________________________________________________________ ________ Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. 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2, दिसपुर, गुवाहाटी-781 005 (असम) प्रकाशक (प्रिंट मीडिया, उषा पब्लिकेशन) का वक्तव्य बचपन से ही मुझे साहित्य कला, सिनेमा आदि में व्यापक रूचि रही है शायद इसी के परिणाम स्वरूप दि नकर जी के सहयोग से कालेज में ‘‘अपवाद'' नामक एक पृष्ठीय पत्रिका का पदार्पण हुआ। भविष्य में इस आशा के साथ की अपवाद एक अपवाद नहीं रहेगा, हमने साहित्य के सफर में एक अंग्रेजी पत्रि का ‘‘क्रानिस इन्टरनेशनल'' को भी प्रकाशित किया। यद्यपि साहित्य की इस अनोखी और दिल लुभाने वाले अनुभव ने इस क्षेत्र में आगे बढने के लिए प्रेरित किया किंतु पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझकर इसमें एक विराम चिह्न लग गया। परंतु बचपन के सखा दिनकर जी ने फिर इस पुस्तक को प्रकाशित करने का अनुरोध किया तो अनायास ही सोया हुआ वह साहित्य प्रेम फिर उभर कर एक बार सतह पर आ गया। हालांकि यह अब मैं अच्छी तरह समझ चुका था कि इस तरह का प्रयास आर्थिक रूप से कोई लाभ नहीं लाएगा परंतु यह एक व्यवसाय ही तो नहीं है, वरना प्रेमचन्द जी, फणीश्वर नाथ रेणु आदि अनेक साहित्यकार अतिधनाढ्य होते। खैर भूपेन हजारिका जी किसी भी परिचय के मोहताज नहीं है। मां कामाख्या व ब्रह्मपुत्र के इस विलक्षण कलाप्रेमी को सारा देश जानता है। बचपन में एक बार इनसे मिलने का मौका मिला तो इन्हों ने गले लगाकर मानो मुझमें अपनी अमिट छाप का एक अंश छोड दिया। यह दृश्य व चित्र मैं अपनी आंखों में हमेशा छिपाए रखता हूं। संगीत, गायन व गीत रचना, वह भी इतनी स्मरणीय, संवेदनशील व कर्णप्रिय यह भूपेनदा का अपना अनोखा अंदाज हैं। लोगों के दिल में भूपेनदा का गीत ‘‘दिल हुम हुम करे'' बस गया। परंतु मैं तो उसी दिन उनका भक्त हो गया जब इनका संगीतबद्घ किया हुआ गीत आरोप फिल्म में ‘‘नयनों में दरपन है, दरपन में कोई'' सुना। सच में भूपेनदा असम के गौरव हैं, इनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में इस पुस्तक को प्रकाशित करते हुए मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। भगवान उन्हें स्वस्थ रखे और वे अपनी धुनों से हमें सदा रिझाए रखें, इसी आशा के साथ.....आशा है यह आपको पसंद आएगी, कृपया अपने सुझावों से हमें अवगत कराएं। अतः इस महान हस्ती भूपेनदा को मेरा एक बार फिर ‘‘सलाम''। उषा पब्लिकेशन की पहली प्रस्तुति हिंदी में प्रथम प्रकाशित भूपेनदा के व्यक्तित्व पर पुस्तक, आफ आशी र्वाद, प्रेरणा, सहभागिता की अपेक्षा करेगी ताकि भविष्य में भी अन्य साहित्य के नगीने आफ समक्ष प्रस्तुत कर सकें। अजय चोखानी प्रस्तावना गुवाहाटी के एक कार्यक्रम में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने कहा था - ‘हम असम को भूपेन हजारिका के नाम से जानते हैं।' भूपेन हजारिका के बहुआयामी व्यक्तित्व के कितने रूपख हैं - गी तकार, संगीतकार, गायक, साहित्यकार, पत्रकार, फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, चित्रकार - और हर रूप अद्वितीय है, अनूठा है। असम की माटी की सोंधी महक को सुरों में रुपान्तरित कर उन्होंने देश-विदेश में असम के संगीत को प्रचारित किया है। वे असम की जनता की चार पीढ़ियों के सबसे चहेते गायक हैं। बिहू समारोहों में वर्षा में भींगते हुए रात-रात भर लोग उनको गाते हुए देखते-सुनते हैं। असम की संस्कृति, ब्रह्मपुत्र नदी, लोक परम्परा, समसामयिक समस्या - जीवन के हरेक पहलू को उन्होंने गीतों में रूपान्तरित किया है। एक रंगाली बिहू। प्रथम वैशाख। असमिया नववर्ष का पहला दिन। गुवाहाटी के चांदमारी इलाके में रात के 1॰.3॰ बजे हजारों लोग बेसब्री के साथ अपने प्रिय गायक डॉ. भूपेन हजारिका की एक झलक पाने के लिए इंतजार कर रहे हैं। बिहू मण्डप में कहीं सूई रखने की भी जगह नहीं है। लोग सड़कों पर, फ्लाई ओवर पर खड़े हैं। दर्शकों में मुख्यमंत्री और अन्य कई मंत्री भी उपस्थित हैं। भूपेन हजारिका मंच पर आते हैं। जनता को प्रणाम करते हैं। सबको बिहू की शुभकामनाएं देते हैं। फिर मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि मैं अपने मोहल्ले के बिहू उत्सव में गाने के लिए आया हूं।' चूंकि चांदमारी इलाके में ही उन्होंने संघर्षपूर्ण जीवन के कई साल गुजारे हैं। वे गाना शुरू करते हैं - ‘बरदै शिला ने सरू दै शिला ...' बिहू की परम्परा पर आधारित गीत। आवाज में वही गम्भीरता, वही खनक, वही दिल को छू लेने वाली मिठास है, केवल उम्र का प्रभाव नजर आने लगा है। पहले वे बिहू उत्सवों में रात-रात भर गाते रह जाते थे, परन्तु अब स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता । वे गाना शुरू करते हैं - ‘मानुहे मानुहर बावे, यदिउ अकनो ने भावे ...' इसी गीत को वे बांग्ला में भी गाते हैं, असमिया में भी गाते हैं, हिन्दी में भी गाते हैं। फिर वे कहते हैं, ‘मैं एक प्रेमगीत सुनाना चाहता हूं।' वे गाने लगते हैं - ‘शैशवते धेमालिते ...' गीत का भाव है - ‘बचपन में हम सा थ-साथ खेलते थे। वैशाख में ब्रह्मपुत्र में तैरते थे। तुमने मुझसे वादा किया था कि साथ-साथ जिएंगे। तुमने कहा था कि तुम्हारे बिना जी नहीं सकूंगी, जान दे दूंगी। मगर मेरे पास धन नहीं था। तुम अपना वादा भूल गयी और एक धनवान के साथ ब्याह कर चली गयीं। एक दिन मैंने तुम्हें महंगी पोशाकों में देखा। क्या तुम सोच रही थी कि तुम्हारे बिना मैं अपनी जान दे दूंगा ? मैं जा न नहीं दूंगा, बल्कि जीता रहूंगा, ताकि एक नये समाज का निर्माण कर सकूं। युवावस्था में उन्होंने यह गीत लिखा था, जो आज भी सुनने वालों के हृदय को स्पर्श करता है। फिर वे गाने लगे ‘जीवन बूहलिषलै आह ...' इसी गीत को उन्होंने बांग्ला में भी गाया। वे थक गए थे। उन्होंने एक नवोदित गायिका की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘घर की लड़की है। दो गाने सुनाएगी। फिर मैं गाऊंगा। ‘दमन' फिल्म का एक गाना भी सुनाएगी।' ‘दमन' में भूपेन हजारिका ने अपने पुराने लोकप्रिय गीतों को नये अन्दाज में पेश किया है। गायिका ने गाना शुरी किया ‘बिजुलीर पोहर मोट नाई', फिर गाया - ‘ओ राम-राम आलता लगाऊंगी ...' भूपेन हजारिका ने ताली बजाकर गायिका की प्रशंसा की। अब उन्होंने फिर गाना शुरू किया - ‘सागर संग मत कतना सातूरिलो, तथापितो हुआ नाई क्लान्त ...' यह गीत उन्हें बहुत पसन्द है। इस गीत में उनका जीवन दर्शन छिपा हुआ है - सा गर संगम में कितना तैरा मैं, फिर भी मैं थका नहीं। निरन्तर जूझते रहने का जीवन दर्शन। अब वे गाने लगे - ‘बूकू हूम-हूम करे, घन घम-घम करे ओ आई ...' गुलजार ने फिल्म ‘रूदाली' के लिए इसका अनुवाद किया है। हिन्दी में भी उन्होंने गाया - ‘दिल हूम-हूम करे ...'। यह गीत जब खत्म हुआ तो उन्होंने कहा - ‘एब्सट्रेक्ट पेंटिंग्स हो सकती है, एब्सट्रेक्ट फिल्म हो सकती है तो एब्सट्रेक्ट गीत क्यों नहीं हो सकता ...'। इसके साथ ही अपना मशहूर गीत गाने लगे - ‘विमूर्त मोर निशाति जेन मौनतार सूतारे बोवपा एखनि नीला चादर ...' मेरी विमूर्त रात मानो मौन के धागे से बुनी हुई एक नीली चादर है ...। उन्होंने कहा - ‘मुझे पता चला है कि आज के इस कार्यक्रम को इण्टरनेट के जरिए दुनिया भर में प्रसारित किया जा रहा है। मैं बाहर बसे असम के लोगों के लिए, भारतवासियों के लिए, विश्ववासियों के लिए गाना चाहता हूं' - वे गाने लगे - ‘वी आर इन द सेम बोट ब्रदर, वी आर इन द सेम बोट ब्रदर ...' फिर इसी गीत को असमिया में और बांग्ला में भी गाकर सुनाया - ‘आमि एखनरे नावरे यात्री, आमि यात्री एखनरे नावरे ...'। उन्होंने विनीत होकर दर्शकों को प्रणाम किया। एक घण्टे तक मंत्रमुग्ध दर्शक उन्हें देख रहे थे - सुन रहे थे। इन दर्शकों में चार पीढ़ियां थीं - असम की चार पीढ़ियों के दिल में भूपेन हजारिका बसते हैं। प्रेम, विषाद, विरह, करुणा - हर रस के गीत को उन्होंने रचा है, जनमानस के मन में घुल-मिल गये हैं। यही कारण है कि केवल उन्हें एक बार देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। दो 8 सितम्बर, 1926 को भूपेन हजारिका का जन्म शदिया में हुआ। नाजिरा निवासी नीलकान्त हजारिका गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में पढ़ते थे और अपने सहपाठी अनाथबन्धु दास के घर में रहते थे। अनाथबन्धु अच्छे गायक और संगीतकार थे। सितार बजाते थे। टाइफाइड की वजह से केवल 23 वर्ष की उम्र में अना थबन्धु की मौत हो गयी। अनाथबन्धु की मां ने अपनी बेटी शान्तिप्रिया का विवाह नीलकान्त हजारिका से करवा दिया। बी. ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद नीलकान्त हजारिका को शदिया के एम. ई. स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। विवाह के दो वर्ष बाद ही भूपेन पैदा हुए। तब शदिया अंचल ब्रिटिश पोलटिकल एजेण्ट के अधीन था। भूपेन के पिता पोलटिकट एजेण्ट के घर में ट्यूशन पढ़ाते थे। प्रसव के समय शान्तिप्रिया को काफी तकलीफ हुई थी। वहां के एकमात्र मेडिकल ऑफिसर को बुलाया गया। उसने कहा कि ‘फोरसेप डिलीवरी' करनी होगी। इसका मतलब था कि शिशु के सिर का आकार बड़ा था और सिर को तोड़कर प्रसव किया जाना था। डॉक्टर ने नीलकान्त हजारि का से पूछा था, ‘आपको बच्चा चाहिए या पत्नी ?' ‘सम्भव हो तो दोनों को बचा लें, नहीं तो बच्चे की मां को बचा लें।' नीलकान्त हजारिका ने जवाब दिया था। परन्तु सिर तोड़ने की जरूरत नहीं हुई। भूपेन हजारिका इस तरह दुनिया में आये। असम के पूर्वी छोर में स्थित शदिया उस समय एक दुर्गम क्षेत्र था, जहां आदिवासी जनजाति के लोग रहते थे। भोले-भाले जनजातीय लोगों के साथ शिक्षक नीलकान्त हजारिका का आत्मीय सम्बन्ध था। सा मान्य उपहारों के बदले जनजातीय लड़कियां शान्तिप्रिया के साथ घरेलू कार्यों में हाथ बंटाया करती थीं। लड़कियां बालक भूपेन को बहुत प्यार करती थीं। पोलटिकल एजेंट को जब पता चला कि शिक्षक नीलकान्त हजारिका के घर पुत्र ने जन्म लिया है तो उसने लकड़ी की गाड़ी बच्चे को घुमाने के लिए उपहार के रूप में दिया। जनजातीय लड़कियां उस गाड़ी पर बालक भूपेन को घुमाती फिरतीं। एक दिन वे बालक को घुमाने ले गयीं तो शाम को लौटकर नहीं आयीं। रात हो गयी। नीलकान्त और शान्तिप्रिया चिन्तित और परेशान हो उठे। अगली सुबह लड़कियां बालक भूपेन को लेकर लौटीं। उन्होंने बताया कि बस्ती की औरतें उसे अपने पास रखना चाहती थीं। शा न्तिप्रिया ने पूछा - ‘वह तो मां का दूध पीता है। दूध के बिना वह रात भर कैसे रह पाया ?' लड़कियों ने खिलखिलाकर उत्तर दिया - ‘बस्ती की कई औरतों ने भूपेन को अपना दूध पिलाया।' भूपेन हजारिका की नानी ने एक दिन सपना देखा। नानी ने बताया - ‘मैंने एक सपना देखा है। मेरा पुत्र अनाथबन्धु दुबारा शान्ति के गर्भ में लौट आया है। सपने में उसने मुझसे कहा - मां, तू क्यों रो रही है, मैं फिर तुम्हारे परिवार में लौटकर आ रहा हूं। अपनी बहन के गर्भ में आ रहा हूं। नानी जब तक जीवित रहीं, वह भूपेन को अनाथबन्धु कहकर पुकारती रहीं। (क्रमशः अगले अंकों में जारी....) From ravikant at sarai.net Fri Apr 18 18:01:44 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 18 Apr 2008 18:01:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KS5IA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IQ==?= Message-ID: <200804181801.44478.ravikant@sarai.net> आपलोग शायद इस ब्लॉग से परिचित होंगे. हम इस तरह की चीज़ें मीडिया के भूमिगत और मौखिक इतिहास के अंतर्गत बतौर गॉसिप देखते-सुनते रहे हैं. पर अच्छा है कि बालेन्दु रघुवीर सहाय वाली मीडियावाच की परंपरा को क़ायम रखते हुए हमारे दौर के मीडिया की मासूम ग़लतियाँ दर्ज कर रहे हैं. http://wahmedia.blogspot.com/ मज़े लें, और इस्तेमाल करते रहें. रविकान्त From vineetdu at gmail.com Sat Apr 19 08:55:37 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 19 Apr 2008 08:55:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkhg==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KS24KS14KS+4KSj4KWAIOCktuClgOCktuCkquCkvuCksiA=?= =?utf-8?b?4KS54KWIIOCklOCksCDgpK/gpYcg4KSw4KS54KWAIOCkruCkueCkgg==?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSIIOCkn+ClgOCkteClgA==?= Message-ID: <829019b0804182025ga7f9fdfr29d2047046a766b0@mail.gmail.com> एक जमाना रहा है जब लोगों को धर्म की बात जल्दी समझ में आती थी और इसी के इर्द-गिर्द सारे काम होते रहे। शासन, संधर्ष, लड़ाई, कत्ल और बदलाव की बातें। आज लोगों को धर्म से ज्यादा मीडिया की बात समझ में आती है। और सारे काम इसी के इर्द-गिर्द हो रहे हैं- प्रवचन, योग, करप्शन और राजनीत। लोगों को ऐसे आप कुछ बताएं समझाएं तो भले ही समझ में न आए लेकिन वही बात जब मीडिया करती है तो तुरंत समझ में आ जाती है। इसे आप मीडिया की असर कहें या फिर एक दौर मान लें। जिन लोगों की मानसिकता का विकास इस तर्ज पर हुआ है कि सारी चीजें धर्म के अधीन है औऱ इसलिए मीडिया भी।सब कुछ का एक दौर होता है, एक समय के बाद वो चीजें अपने-आप खत्म हो जाती है उनके हिसाब से मीडिया लोगों के बीच प्रभावी है इस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मीडिया का एक दौर है बस। बाकी ऐसा कुछ भी नहीं है कि लोग मार प्रभावित हुए जा रहे हैं। असल चीज है धर्म। अगर ये बचा रह गया तो इसके आसपास चक्कर काटनेवाली चीजें भी लम्बें समय तक बची रहेगी। लेकिन इसका भी एक दौर है, एक समय के बाद धर्म के आगे ये खत्म हो जाएगी। ये सनातनी नजरिया मीडिया को बस कुछ समय का मेहमान मानकर चलता है, सबकुछ बदलने के बीच अगर कुछ शाश्वत है तो सिर्फ उनके ये विचार कि सबकुछ का एक दौर होता है। धर्म की पगडंडी पर चलकर कितना विकास हो पाएगा, आम आदमी की तकलीफें दूर हो सकेंगी इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है। क्योंकि न तो मैंने कभी धर्म को अपनाकर देखा है और न ही इसको लेकर कोई प्रयोग किए हैं। इसलिए मेरे लिए ये दावा करना असंभव होगा कि धर्म के रास्ते पर चलने से इंसान की सारी तकलीफें दूर हो जाएगी।( धर्म जिसके लिए मासूम जलाए जाते हैं, धर्म जिसे बचाए जाने के लिए बच्ची के साथ बाल्तकार जरुरी हो जाता है, धर्म जो एक दूसरे के जान लेने पर नफरत की फसलें तैयार करने में लग जाता है।) लेकिन मीडिया को लेकर ये दावा कर सकता हूं कि आप और हम जिसे बिकी हुई मीडिया कहते हैं, फ्रैक्चरड मीडिया कहते हैं, बदहवाश परेशान और बौखलाई हुई मीडिया कहते हैं जिसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। इन सब के बावजूद आज का समाज मीडियामय होना चाहता है। सनातनियों की तरह धर्म को शाश्वत औऱ मीडिया को कुछ समय का मेहमान भी मानें तो भी इतना तो सच है कि बदलाव की गुंजाइश मीडिया के प्रयोग से है। इतनी बात तो उन बीजेपी नेताओं को भी समझ में आने लगी है जो कि अब तक धर्म को मूल मानकर राजनीति करते रहे। धर्म को लेकर उनकी श्रद्धा इतनी अधिक रही है कि उसके बूते चलनेवाली राजनीति खत्म भी हो जाए तो भी धर्म तो बचा रहेगा औऱ कभी न कभी इसका फायदा मिलेगा, इस विश्वास के साथ सींचते रहे। आज वो भी मीडिया के दौर में या यों कहें कि दौड़ में शामिल हो गए हैं। मीडिया ने उन्हें भी अपनी तरफ खींच , उन्हें भी मीडिया लिटरेट कर दिया, तकनीकी स्तर पर दुरुस्त कर दिया जैसे बाबाओं को किया है और जो आज लेपल माइक लगाकर प्रवचन करते नजर आ रहे हैं। एक तरह से कहें तो आज मीडिया ने धर्म से लेकर राजनीति तक को अपनी शर्तों पर जीने के लिए विवश कर दिया है।....औऱ देखिए कि और फिलहाल वो भी रिलीजियस फैक्टर से दूर हो गए। राजनीति के खंभों पर धर्म का भोंपा लगाने के बजाए टीवी और माइक लगाने लग गए। इसे आप मीडिया के पॉपुलर होने और समाज की डिसाइडिंग फैक्टर के तौर पर समझ सकते हैं। एनडीटीवी की खबर के मुताबिक बीजेपी ने यूपीए सरकार के विरोध में *मंहगाई टीवी*लायी है जिसमें वाकायदा मनमोहन सिंह कोष से खाने के लिए लोन लेने की बात बता रहे हैं और रिकवरी के लिए लालू प्रसाद को लगाया है। इसी तरह से सोनिया गांधी और बाकी नेताओं को शामिल किया है। बीजेपी ने पूरी की पूरी मीडिया मेटाफर का इस्तेमाल किया है। नहीं तो लालू को रिकवरी के लिए क्यों लगाते। मीडिया की तरह मंहगाई टीवी को भी पता है जो आदमी मुर्गी के लिए भैंस इतना चारा रिकवर कर सकता है वो लोन की रकम क्यों नहीं। ये बात साफ है कि पिछले छ महीने में मंहगाई दर जितनी तेजी से बढ़ी है वो यूपीए की सरकार के लिए आनेवाले लोकसभा चुनावों में परेशानी का सबब बन सकती है और परेशानी का सबब बनाने के लिए उसकी विरोधी पार्टी जी-जान से जुटी है। मंहगाई टीवी जिसके तहत लोग अपनी बात आकर सीधे-सीधे कर सकते हैं, ये उसी एंजेंडे का एक्सटेंसन है। इस बात पर बहस करना और बात को खींचना जरुरी नहीं है क्योंकि इतना सब लोग जानते-समझते हैं। लेकिन समझने वाली बात ये हैं कि जिस पार्टी के कार्यकर्ताओं के हाथों में अब तक भगवा झंड़े रहे, जिसकी धाह ( गर्मी) की वजह से बीच-बीच में कमल भी कुम्हलाता रहा, जिसकी ललाट पर जय श्रीराम का पट्टा बंधा रहा, आज उनके हाथों में महंगाई टीवी की लेबल लगी माइक है। पार्टी कार्यकर्ता अपनी पुरानी आदत के हिसाब से उसे भी जब-तब लहराते नजर आ रहे हैं। जिस बात के लिए अबतक हमारे रिपोर्टर साथियों को लताड़ते रहे, दुत्कारते रहे आज उनकी ही नकल करते हुए बड़े ही फूहड़ तरीके से बाइट लेते फिर रहे हैं। मीडिया ने इन नेताओं का हुलिया बदल दी है। अब न तो वो नेता ही लग रहे हैं और न ही पत्रकार जो कि वो है ही नहीं। एक अविश्वसनीय कैरेकेटर, जिन्हे देखकर घृणा भी होती है, तरस भी आती है कि पॉलिटिक्स तुमसे क्या न करवाए और खुशी भी होती है कि जिस मीडिया को तुम गरिआते रहे, उस पर आए दिन नकेल कसने की कवायदें करते रहे, आज उन्हीं के वेश में आ गए। कबीर याद आते हैं मुझे- लाली मेरे लाल कि, जित देखूं तित लाल लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। अभी तुममें इतनी समझदारी नहीं आयी है कि तुम मीडिया को बदल सको। आज अगर वो थोड़ा भटक गयी है तो वो भी अपनी शर्तों और सहुलियतों के लिए, तुमसे डरकर तो बिल्कुल भी नहीं और अगर अपने मतलब के लिए मीडिया का बेजा इस्तेमाल करने की ये हरकत पॉलिटिकल ट्रेंड में बदल दिए, इसी तरह के भौंडे प्रदर्शन करते रहे तो दुत्कारने की प्रक्रिया उल्टी हो जाएगी और राह चलते मीडिया तुमसे कहती फिरेगी.... हंहंहंहं, ये चलाएंगे देश, पहले रिपोर्टर बनने की हसरत पूरी हो जाए तब न। अभी तो देखा ही मीडिया का असर, तब भी देखिएगा कि कैसे मजबूत होता है मीडिया का दौर। आगे पढ़िए, राजनीति और स्वार्थ से हटकर कैसे चल रहा है बीकानेर में शीशपाल का रेडियो और कैसे शीशपाल गढ रहे हैं, सूचना क्रांति का सही और नया अर्थ।।।। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080419/14c4aa59/attachment-0001.html From jhamanoj01 at yahoo.com Mon Apr 21 20:48:23 2008 From: jhamanoj01 at yahoo.com (manoj jha) Date: Mon, 21 Apr 2008 08:18:23 -0700 (PDT) Subject: [दीवान] Fw: zaroor parhein In-Reply-To: <200804181235.52956.ravikant@sarai.net> Message-ID: <584919.68047.qm@web37408.mail.mud.yahoo.com> padhkar mazaa aya. par shayad ...ham ek vaikalpik parivesh ka tasawoor liye nagari-nagari ghoomte rahte hain,khwabon me hi sahi,khayalon me hi sahi ,kabhi Zauk ke apnape ke sath ki ..'.kaun jaye... galiyan chhodkar'. to kabhi Galib ko naaseh banaakar ki 'rah to jayenge magar khayenge kya'. Chhote shahar ka raaglok bhi shayad bade shahar me jane ke baad hi apni tarf kheenchta hi kuchh is tarah ki door jaye na bane,paas aye na bane.bakaul Nirmal vama jahajse samandaron me safar karne ke dauran hi thos zameen par chalne ke sukh ka pata chalta hi.par apne haath me nahi shayad ki ham samandaron me hon ki zameenon pe ho. aur fir kashnkash,kuchh choot jane ka ahsas to saitan ke saye ki tarah peechhe laga hi rahta hi.kitna kuchh musalsal hamere hath se nikalta raha hi...Aadam ke bedakhili ke dinon se hi. mahanagaron me jee andhiyare ke liye tarsta hi ,taaron se bhara aakashdekhane ke liye tarasta hi,to chhoteshaharon aur gawon me ghar ko damakaane baale bijali ke lattuon ke liye. hamare dost Naraaz Darbhangwi ne haarkar(ya pata nahee shayd jeetka) yah maan lya hi ki---AB IS SHAHAR KE PATTH'AR HI MUHAFIZ HAIN MAERE,MILANE KO KAHAN ABKE KOI SHAHAR MADEENE KI TARAH. aur fir rahte rahte apne napasandeeda shahar ki bhi aadat see to lag jati hai bakaul Borges apne deh ki tarah.. Ravikant wrote: avinash ne bheja tha, mass mailer hone ke chalte atak gaya tha. cheers ravikant http://mohalla.blogspot.com/2008/04/blog-post_18.html नीलेश मिश्र ठंग्रेज़ी के बड़े पत्रकार हैं। थोड़े दिनों पहले यूं ही कभी कभार हिंदी में कुछ साझा करने के लिए मैंने कह दिया होगा, जिसका जवाब मुझे तब उन्‍होंने नहीं दिया। आज सुबह उनका एसएमएस था, देवनागरी में कुछ लिखा है। जो लिखा है नीलेश ने, वो सचमुच बहुत ख़ास है, ठलग है। थोड़ा बेचैन करने वाला भी। जादू है, नशा है जैसे महानगरीय बोध वाले गीत के रचनाकार नीलेश के भीतर कितनी शिद्दत से छोटा-सा शहर बसता है - आप खुद पढ़ें। बात-बेबात पे ठपनी ही बात कहता है मेरे ठन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है तस्‍वीर एजाज़ हुसैन की। एजाज़ कश्‍मीरी पत्रकार हैं। ये पंक्तियां मैंने कई साल पहले लिखी थीं। कभी पूरी नहीं की। गीत बस वहीं का वहीं रह गया, बड़े शहर में क़ैद। कई बार सोचा, क्या छोटा शहर मेरे ठन्दर किसी गहरी, बरसों लम्बी नींद में सो गया? या फिर कोई खूबसूरत मौत मर गया? पिछले दिनों एक फ़िल्म के गीतों के लिए बम्बई में एक नि र्देशक के साथ बैठक चल रही थी, कि उनकी फ़िल्म की कहानी सुन कर ठनायास मुंह से निकल गया, “मेरे ठन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है...” उनको इतना पसंद आया कि ठब आदेश हुआ है कि मैं ये गीत पूरा करूं। पर गीत तो ख़ामोश बैठा है, नाराज़ दादाजी की तरह। आगे कुछ कहता ही नहीं । हम सभी तो इसी छोटे शहर की यादों की खाते हैं। जब बड़े शहर ने परेशां किया, इस की बाहों में दुबक जाते हैं। बनारस का वो घाट याद है? पटना का रेलवे स्टेशन देखे हो? यार ये चांदनी चौक तो एकदम जैसे लखनऊ का ठमीनाबाद है! ठमां तरबूज़ खा कर तो लल्लन की दुकान की याद आ गयी! ठपने ब्लॉग पर भी बड़ी शान से लिखा, “Hidden inside me, a small town guy” (छुपा है मेरे ठन्दर, छोटे से शहर का एक आदमी)। लेकिन कभी कभी सोचता हूं, कहां रहता है ये कमबख्त छोटा सा शहर? क्या पहनता है ये? कौन से गाने पे नाच रहा है ये नचनिया? हट! ये तो बहाना है बस। कहीं ये खूबसूरत छोटा सा शहर हमारे शातिर, कल्पनाशील दिमागों की ईजाद भर तो नहीं? एक ऐसी मरी चिका जहां सभी ठच्छा था, ज़िंदगी खूबसूरत थी, मधुबाला की तस्वीर की तरह। फिर दो पंक्तियां याद आयीं। कॉलेज में एक नाटक के लिए लिखीं थीं उस पानी से भरे शहर नैनीताल में... जीवन में प्रेम हो, सद्भाव हो, समरसता हो चावल सस्ता हो... यही तो है न हमारी ज़िंदगी में छोटे से शहर की ड्यूटी? एक ऐसी छतरी जिसके नीचे हम पट से भाग जाते हैं, जैसे ही वक्त की धूप थोड़ा सा तिरछी आंख दिखाती है। ये छोटा सा बेईमान शहर बस हमारे दिल में ही तो रहता है भाई, एक टाइम मशीन की तरह। मुश्किल वक्त, कमांडो सख्त - नाना पा टेकर ने बोला था न प्रहार में? - “बटन दबाया, ठपने आप को दो मिनट के लिए छोटे से शहर में पा या।” मैं इस हफ्ते लखनऊ में था। बड़ा हुआ था यहीं। काफी वक्त सड़कों पे छोटे से शहर की राह देखता रहा। लेकिन वहां तो ठब डोमिनोस पीत्ज़ा फ़ोन करने से मिलता है। वहां तो ठब सिनेमा देखने के लिए गांव के मास्टर की दस दिन की तनख्वाह खर्च करनी पड़ती है। वहां तो ठब बिना नम्बर की मर्सिडीज़ दौड़ती है! भाई यहां तो ठभी ठभी किसी नेता ने ठपनी ही प्रतिमा का ठनावरण किया है, चमकीली बत्ती लगवा कर, लाखों रुपैय्या खर्च कर के परदा उठवाया है। ये छोटा सा शहर कहां है, ये तो एक भूतपूर्व और एक भावी प्रधानमंत्री का शहर है! मेरे छोटे से शहर पर तो कब का परदा गिर गया यारो! ठब तो बस एक किरदार है जो निभा रहा हूं मैं। और हां, आप भी। Posted by avinash तारीख़ Friday, April 18, 2008 गली का नाम: दोस्‍तों का लिखा, सारे सुखन हमारे 1 कमेंट्स: rakhshanda said... sahi kaha hai aapne..ab chhota shaher kahan rah gaya hai...vahi andhi doud har taraf dikhayi dene lagi hai jo kabhi bade cities ka hissa huaa karti thi.. April 18, 2008 12:11 PM _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. Try it now. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-6498 Size: 10341 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080421/f896b79f/attachment.bin From vineetdu at gmail.com Tue Apr 22 11:23:52 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 22 Apr 2008 11:23:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSo4KSV4KS+IOCkleClhyDgpJXgpYLgpLLgpYDgpJcg4KS24KS+?= =?utf-8?b?4KSqIOCkpuClh+CkpOClhyDgpLngpYjgpII=?= Message-ID: <829019b0804212253m52c277e4pd06f5b0d42029026@mail.gmail.com> इन दिनों हमारा हॉस्टल दो धड़ों में बंट चुका है- एक कुत्ता प्रेमी और दूसरा कुत्तों का दुश्मन। जो लोग कुत्ता प्रेमी हैं उन्हें माना जा रहा है कि वो मेनका के कूलीग हैं और कोई बड़ा प्रोजेक्ट मिल गया है नहीं तो जो देखने से ही जल्लाद लगता है, उसमें गांधी कहां से बस जाएंगे। मेस-टेबल पर चिकन की हड्डियां जैसे चूसता है, कोई भी देखकर बता देगा कि- बंदा किसी जमाने में जरुर राक्षस रहा होगा। इधर जिन्हें कुत्तों से नफरत है, उनके बारे में खुली टिप्पणी की जा रही है कि भाई साहब देह तो धारण कर लिए हैं मनुष्य का लेकिन बाकी हैं सचमुच के राक्षस। बताइए, इस निरीह जीव को मारने से उन्हें क्या मिल जाएगा।...हॉस्टल मिल गया नहीं तो ये भी कुत्ते की तरह, इससे भी बदतर इधर-उधर भटकते फिरते तब समझ में आता। कहानी यों है कि हमारे हॉस्टल में पता नहीं दो कुत्ते कहां से घुस आए। शुरु में किसी ने नोटिस नहीं ली। दोनों कुत्ते भी नई जगह के कारण सहमे-सहमे से रहते। लोकिन दो-चार दिन हो जाने पर उनमें भी कॉन्फीडेंस आ गया। वो भौंकने लगे, आपस में खेलने लगे और तो और इधर कोई बंदा कमरे पर आयी अपनी दोस्त के लिए खाना ले जाए तो भौंकने लगे. गर्माहट वहीं से शुरु हुई कि- स्साले, कमरे पर खाना ले जाने से वार्डन तो कुछ कहता ही नहीं है, ऑथिरिटी कुछ करती ही नहीं है और ये दो कौड़ी का कुत्ता हम पर भौंक रहा है।... और थाली रखकर वहीं पर दिया एक चप्पल। पहली बार हमने महसूस किया कि ये कुत्ता वाकई में लोगों के लिए परेशानी पैदा कर सकता है। दूसरे कुत्ते की हालत बहुत अच्छी नहीं है, बीमार-बीमार सा रहता है। आप उसे कितना भी भगाइए, नहीं भागेगा। अब लोगों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि- ये भगाने पर भी नहीं भागता। एक भाई साहब ने अपने कमरे की नयी मैट दे दी है, बैठने के लिए। उस पर वो आराम से पड़ा रहता है। हमारे-आपके भगाने और डांटने की चिंता नहीं करता। परसों मैंने देखा कि वो पेस्ट्री खा रहा है और पड़ोसी की आयी गर्लफ्रैंड उसे पुचकार रही है। अल्ले,ले, मेरा बेबी, मेरा डॉगी। अपने दोस्त को बता रही थी- हाउ स्वीट। तुम्हारे हॉस्टल के लोग इसे मारते क्यों हैं, कितना प्यारा है। एक भाई साहब जो कुत्ते को लेकर अभी तक तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें, ये सीन देखकर एकदम से बिफर गए- वाह रे पशु प्रेम। यहां लड़के दिन-दिनभर फांका में काट रहे हैं और मैडम को कुत्ते पर प्यार आ रहा है,पक फ्लावर का असर है भाई। खुन्नस खा गए और साइड में आकर गोला बनाना शुरु कर दिया- अरे सीवान भाई, इस कुत्ते का जल्द ही कुछ करना होगा, नहीं तो हमलोगों का.....। उधर से बिंदास मेरा जूनियर साथी निकला और तपाक से पड़ोसी को बोला- क्या सर भाभीजी मॉडल टाउन से लेकर आई है।..पड़ोसी आंखे तरेरते हुए कोई भद्दी-सी गाली निकालता, इसके पहले ही ध्यान आ गया कि गर्लफ्रैंड आयी हुई है,गलत इंप्रेशन जाएगा। कुछ बोला नहीं। सटाक से अपनी दोस्त को अंदर बुलकर दरवाजा बंद कर लिया। साथी का इतने से मन भरा नहीं था। उसने दरवाजा नॉक किया औऱ कहा- सॉरी सर, आप बुरा मान गए। मैं तो पूछ रहा था कि- कुत्ता जो पेस्ट्री खा रहा था, भाभीजी मॉडल टाउन से लायी थी, बहुत अच्छा होता है। मैंने तो सोचा कि बची होगी तो कुछ जूनियर पर रहम हो जाता, आप तो समझ गए कि मैं कह रहा हूं कि इस कुत्ते को मॉडल टाउन से लायी है। है सम्भव, आप ही बताइए। चप्पल से मार खाया कुत्ता वाटर कूलर के नीचे दुबककर बैठ गया था। मैंने जैसे ही टैप दबाया- भों-भों करने लगा और इस चक्कर में दो लीटर की भरी बोतल मेरे हाथ से रगड़ खाते हुए गिर गयी। देखा उंगली से तेज खून बह रहा है। संभलते हुए कमरे की तरफ बढ़ा तो गॉशिप शुरु हो गई है । लोग शुरु हो गए हैं कि-ये चुटकुनमा कौन सी शिक्षा दिया है अपनी गर्लफ्रैंड से कि उसको छोड़कर कुत्ते से....ससुरे में दम ही नहीं है। और फिर ठहाके। ऐसे मौके पर लोगों को मसखरई करने में देर नहीं लगती और देखते ही देखते हॉस्टल फ्लैंग भसोड़ी मंच में तब्दील हो जाता है। मेरी उंगली से अभी भी खून बह रहा था। एक की नजर पड़ गयी और ठहाके लगाते हुए कहा- क्या विनीतजी, आपको भी कुत्ते ने काट लिया क्या, आप तो लिटरेटर के आदमी है, पशु प्रिय व्यक्ति होगें। बताइए न, कैसे कटा. पूरी बात बताने के बाद कुत्ते के विरोध में प्वाइंट और मजबूत हो गया कि- यही हाल रहा तो कोई सीढ़ी से फिसल कर मर जाएगा। वो खुश भी हो रहे थे कि कुत्ता विरोधी दस्ते में एक और बंदा शामिल हो गया। मुझे गुस्सा तो कुत्ते पर आ ही रहा था, लेकिन जिस तरह बाकी लोग दौड़ा-दौड़ाकर मारते हैं, मेरे से नहीं हो पाता। सारा मामला रफा-दफा हो गया। लेकिन दो-तीन कहानियां बन गयी- रुम पर खाना ले जाने से कुत्ते भौंकते हैं। जरुर वार्डन ने छोड़ रखा है हमलोगों के लिए। उनको भी औकात में लाना पड़ेगा। चुटकुनमा अपनी गर्लफ्रैंड के साथ दिन काट रहा है, उससे कुछ होता हवाता नहीं है। कुत्ते को भगाओ ताकि भाभाजी का ध्यान हम सब पर जाए। विनीतजी कमजोर आदमी हैं ,उन पर मरियल कुत्ता भौंकता है। अच्छा हुआ पता चल गया। अब देखिए इलेकसन में क्या होता है इनका। होली में बहुत पैरॉडी बनाए थे हमलोगों पर। ..अभी एक घंटे भी नहीं हुए होगें. कमरे में पढ़ रहा था कि पता चला कि अमित सर के कमरे में कुत्ते ने सू सू कर दिया है। लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि अब तो कुत्ते की मौत आयी समझो। अमितजी से पंगा लिया है। अमित सर बहुत मजबूत आदमी हैं। खूब खाते हैं, खूब जिम करते हैं, खूब पढ़ते हैं औऱ मौका होने पर खूब मारते हैं. बीच-बीच में उनका मारने का बहुत मन होता है। नहीं कुछ इश्यू बना जिसमें कि मारा जाए तो किसी की सेल्फ तोड़ देगें, किसी का कूलर और फिर कितने का है, पूछकर पैसे दे देंगे। उन्हें जैसे ही पता चला कि कुत्ते ने उनके यहां सू सू कर दिया है, बहुत खुश हुए और निकाली रड और शुरु हो गए। कुत्ते के दुश्मन उनका हौसला आफजायी कर रहे थे और कुत्ता प्रेमी, शाप दे रहे थे-इस आदमी को नरक में भी जगह नहीं मिलेगी,बेजान को सता रहा है। तभी पीछे से किसी ने मुझे झकझोरते हुए कहा- महाराज, लगता नहीं कि आप लिटरेटर के स्टूडेंट हैं, कुत्ता मार खा रहा है और आप कुछ कर नहीं रहे। जेएनयू में तो इतने में जीबीएम बैठ जाती।.. मैं कुत्तों से जुड़ी पुरानी यादों में खो गया था। पढिए अगली किस्त में- मत भौंको मुझ पर अभी तो एम.फिल् भी नहीं हुई है।..... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-247 Size: 13407 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080422/0de196f9/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Tue Apr 22 11:48:04 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 22 Apr 2008 11:48:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOlJlOiAgRnc6?= =?utf-8?q?_zaroor_parhein?= Message-ID: <200804221148.04970.ravikant@sarai.net> मैंने इसे गूगल इंडिक ट्रांस http://www.google.com/transliterate/indic का इस्तेमाल करके नागरी में तब्दील कर दिया है, मेरी नज़रों को आसानी होती है. शुक्रिया मनोज और विभास - ये प्रमाण देने के लिए कि कभी-कभी लिखनेवाले भी दीवान की सामग्री को ग़ौर से पढ़ते हैं. ये सबूत ज़रा बेहतर आवृत्ति से मिले तो अच्छा हो! रविकान्त पढ़कर मज़ा आया. पर शायद ...हम एक वैकल्पिक परिवेश का तसव्वुर लिए नगरी-नगरी घूमते रहते हैं, ख़्वाबों में ही सही, ख़यालों में ही सही, कभी ज़ौक के अपनापे के साथ कि ..'.कौन जाए ... गलियाँ छोड़कर तो कभी ग़ालिब को नासेह बनाकर कि 'रह तो जायेंगे मगर खायेंगे क्या'. छोटे शहर का रागलोक भी शायद बड़े शहर में जाने के बाद ही अपनी तरफ़ खींचता है कुछ इस तरह कि दूर जाए न बने, पास आए न बने. बक़ौल निर्मल वर्मा जहाज से समंदरों में सफ़र करने के दौरान ही ठोस ज़मीन पर चलने के सुख का पता चलता है. पर अपने हाथ में नहीं शायद कि हम समंदरों में हों कि ज़मीनों पे हो. और फिर कशमकश, कुछ छूट जाने का अहसास तो शैतान के साये की तरह पीछे लगा ही रहता है. कितना कुछ मुसलसल हमरे हाथ से निकलता रहा है ... आदम के बेदख़ली के दिनों से ही. महानगरों में जी अंधियारे के लिए तरसता है, तारों से भरा आकाश देखने के लिए तरसता है, तो छोटे शहरों और गाँवों में घर को दमकाने वाले बिजली के लात्तुओं के लि ए. हमारे दोस्त नाराज़ दर्भंगवी ने हारकर (या पता नही शायद जीतकर) यह मान लिया है कि --- अब इस शहर के पत्थर ही मुहफिज़ हैं मेरे, मिलने को कहाँ अबके कोई शहर मदीने की तरह. और फिर रहते रहते अपने नापसंदीदा शहर की भी आदत सी तो लग जाती है बक़ौल बोर्हेस अपनी देह की तरह... मनोज झा दरभंगा ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [दीवान] Fw: zaroor parhein Date: सोमवार 21 अप्रैल 2008 20:48 From: manoj jha To: deewan at sarai.net padhkar mazaa aya. par shayad ...ham ek vaikalpik parivesh ka tasawoor liye nagari-nagari ghoomte rahte hain,khwabon me hi sahi,khayalon me hi sahi ,kabhi Zauk ke apnape ke sath ki ..'.kaun jaye... galiyan chhodkar'. to kabhi Galib ko naaseh banaakar ki 'rah to jayenge magar khayenge kya'. Chhote shahar ka raaglok bhi shayad bade shahar me jane ke baad hi apni tarf kheenchta hi kuchh is tarah ki door jaye na bane,paas aye na bane.bakaul Nirmal vama jahajse samandaron me safar karne ke dauran hi thos zameen par chalne ke sukh ka pata chalta hi.par apne haath me nahi shayad ki ham samandaron me hon ki zameenon pe ho. aur fir kashnkash,kuchh choot jane ka ahsas to saitan ke saye ki tarah peechhe laga hi rahta hi.kitna kuchh musalsal hamere hath se nikalta raha hi...Aadam ke bedakhili ke dinon se hi. mahanagaron me jee andhiyare ke liye tarsta hi ,taaron se bhara aakashdekhane ke liye tarasta hi,to chhoteshaharon aur gawon me ghar ko damakaane baale bijali ke lattuon ke liye. hamare dost Naraaz Darbhangwi ne haarkar(ya pata nahee shayd jeetka) yah maan lya hi ki---AB IS SHAHAR KE PATTH'AR HI MUHAFIZ HAIN MAERE,MILANE KO KAHAN ABKE KOI SHAHAR MADEENE KI TARAH. aur fir rahte rahte apne napasandeeda shahar ki bhi aadat see to lag jati hai bakaul Borges apne deh ki tarah.. Ravikant wrote: avinash ne bheja tha, mass mailer hone ke chalte atak gaya tha. cheers ravikant http://mohalla.blogspot.com/2008/04/blog-post_18.html नीलेश मिश्र अंग्रेज़ी के बड़े पत्रकार हैं। थोड़े दिनों पहले यूं ही कभी कभार हिंदी में कुछ साझा करने के लिए मैंने कह दिया होगा, जिसका जवाब मुझे तब उन्‍होंने नहीं दिया। आज सुबह उनका एसएमएस था, देवनागरी में कुछ लिखा है। जो लिखा है नीलेश ने, वो सचमुच बहुत ख़ास है, अलग है। थोड़ा बेचैन करने वाला भी। जादू है, नशा है जैसे महानगरीय बोध वाले गीत के रचनाकार नीलेश के भीतर कितनी शिद्दत से छोटा-सा शहर बसता है - आप खुद पढ़ें। बात-बेबात पे अपनी ही बात कहता है मेरे अन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है तस्‍वीर एजाज़ हुसैन की। एजाज़ कश्‍मीरी पत्रकार हैं। ये पंक्तियां मैंने कई साल पहले लिखी थीं। कभी पूरी नहीं की। गीत बस वहीं का वहीं रह गया, बड़े शहर में क़ैद। कई बार सोचा, क्या छोटा शहर मेरे अन्दर किसी गहरी, बरसों लम्बी नींद में सो गया? या फिर कोई खूबसूरत मौत मर गया? पिछले दिनों एक फ़िल्म के गीतों के लिए बम्बई में एक नि र्देशक के साथ बैठक चल रही थी, कि उनकी फ़िल्म की कहानी सुन कर अनायास मुंह से निकल गया, “मेरे अन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है...” उनको इतना पसंद आया कि अब आदेश हुआ है कि मैं ये गीत पूरा करूं। पर गीत तो ख़ामोश बैठा है, नाराज़ दादाजी की तरह। आगे कुछ कहता ही नहीं । हम सभी तो इसी छोटे शहर की यादों की खाते हैं। जब बड़े शहर ने परेशां किया, इस की बाहों में दुबक जाते हैं। बनारस का वो घाट याद है? पटना का रेलवे स्टेशन देखे हो? यार ये चांदनी चौक तो एकदम जैसे लखनऊ का अमीनाबाद है! अमां तरबूज़ खा कर तो लल्लन की दुकान की याद आ गयी! अपने ब्लॉग पर भी बड़ी शान से लिखा, “Hidden inside me, a small town guy” (छुपा है मेरे अन्दर, छोटे से शहर का एक आदमी)। लेकिन कभी कभी सोचता हूं, कहां रहता है ये कमबख्त छोटा सा शहर? क्या पहनता है ये? कौन से गाने पे नाच रहा है ये नचनिया? हट! ये तो बहाना है बस। कहीं ये खूबसूरत छोटा सा शहर हमारे शातिर, कल्पनाशील दिमागों की ईजाद भर तो नहीं? एक ऐसी मरी चिका जहां सभी अच्छा था, ज़िंदगी खूबसूरत थी, मधुबाला की तस्वीर की तरह। फिर दो पंक्तियां याद आयीं। कॉलेज में एक नाटक के लिए लिखीं थीं उस पानी से भरे शहर नैनीताल में... जीवन में प्रेम हो, सद्भाव हो, समरसता हो चावल सस्ता हो... यही तो है न हमारी ज़िंदगी में छोटे से शहर की ड्यूटी? एक ऐसी छतरी जिसके नीचे हम पट से भाग जाते हैं, जैसे ही वक्त की धूप थोड़ा सा तिरछी आंख दिखाती है। ये छोटा सा बेईमान शहर बस हमारे दिल में ही तो रहता है भाई, एक टाइम मशीन की तरह। मुश्किल वक्त, कमांडो सख्त - नाना पा टेकर ने बोला था न प्रहार में? - “बटन दबाया, अपने आप को दो मिनट के लिए छोटे से शहर में पा या।” मैं इस हफ्ते लखनऊ में था। बड़ा हुआ था यहीं। काफी वक्त सड़कों पे छोटे से शहर की राह देखता रहा। लेकिन वहां तो अब डोमिनोस पीत्ज़ा फ़ोन करने से मिलता है। वहां तो अब सिनेमा देखने के लिए गांव के मास्टर की दस दिन की तनख्वाह खर्च करनी पड़ती है। वहां तो अब बिना नम्बर की मर्सिडीज़ दौड़ती है! भाई यहां तो अभी अभी किसी नेता ने अपनी ही प्रतिमा का अनावरण किया है, चमकीली बत्ती लगवा कर, लाखों रुपैय्या खर्च कर के परदा उठवाया है। ये छोटा सा शहर कहां है, ये तो एक भूतपूर्व और एक भावी प्रधानमंत्री का शहर है! मेरे छोटे से शहर पर तो कब का परदा गिर गया यारो! अब तो बस एक किरदार है जो निभा रहा हूं मैं। और हां, आप भी। Posted by avinash तारीख़ Friday, April 18, 2008 गली का नाम: दोस्‍तों का लिखा, सारे सुखन हमारे 1 कमेंट्स: rakhshanda said... sahi kaha hai aapne..ab chhota shaher kahan rah gaya hai...vahi andhi doud har taraf dikhayi dene lagi hai jo kabhi bade cities ka hissa huaa karti thi.. April 18, 2008 12:11 PM _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better friend, newshound, and know-it-all with Yahoo! Mobile. Try it now. ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Wed Apr 23 14:41:29 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 23 Apr 2008 14:41:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KWM4KSV4KWL?= =?utf-8?b?IOCkruCkpCwg4KSP4KSu4KWNLuCkq+Ckv+CksiDgpLngpYsg4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkpuCliw==?= Message-ID: <829019b0804230211n614ec9ecu5cb4cbcc83155258@mail.gmail.com> रात मे जब माता जागरण के पोस्टर के ऊपर मै दुनिया को बदल देने वाली पोस्टर लगता तो मिरांडा हौस के आगे बहुत सारे काले कुत्ते भौकने लगते, बहुत दूर तक मुझे दौडाते । कभी छिल जाता, कभी गिर जाता और सारे पोस्टर बिखर जाते। मै रोते हुये कहता, क्यो भौकते हो, विचारधारा छुड़वा दोगे क्या, एम्.फिल मे हो जाने दो। एक बार तो हॉस्टल से आटे की लाई बनाकर ले गया था और कुत्ते के चक्कर मे सब गिर गयी। दुबारा बनाकर पोस्टर लगाने मे चार बज गये थे। दिन मे हमलोग कोई भी पोस्टर नही लगते। शर्म आती। एक- दो बार लगाया तो कुछ लोग मजे लेने लग गये। कहने लगे, भइया कहते हो पत्रकार बनोगे तो चिपकाकर बनते है पत्रकार क्या। आम तौर पर हमलोग हॉस्टल मे होनेवाले या कभी-कभी कॉलेज मे होने वाले सेमिनार या फ़िर कार्यक्रमों के पोस्टर लगते। दिन मे लगाने का मतलब था की लोगो को साफ पता चल जाता की ये बन्दा किस मास्टर या विचार का पक्ष लेता है। कुछ लोगो से हमेशा खुन्नस रहती, लगाते देख लेते तो जरुर फाड़ देते। वैसे भी डी यू मे पोस्टर लगाने का काम जितनी तेजी से होता है, उतनी ही तेजी से फाड़ने का भी होता है। कई कारण थे की हमलोग रात मे ही पोस्टर लगाते। और हमपर कुत्तों का भौकना जारी रहता। अपने दोस्तो को बताता तो कहते आप माता जागरण वाली पोस्टर के ऊपर लगाते है न, इसलिये भौकते है। मत लगाया कीजिये उनके उनपर और ठहाके लगते। कुछ कहते, कुत्तों को आपके विचार से परहेज है, रात क्या दिन मे भिलगाये तो कुछ कुत्ते भौकेंगे। फ़िर कुत्ता मेताफर मे बदल जाता। जब मै सेंट जेविअर्स मे था तो मेरे बहुत सारे दोस्त बच्चो को तुइशन देते, मै भी लेकिन जितने पैसे हमे मिलते उतने से अपना काम चलता नही, कोई भी टाइम से पैसे देते नही । कोई फैमिली रोने-गाने लग जाती की इस महीने ऐसा हो गया, ये हो गया, वो होगा, आप देख ले। हमलोग प्रोफेशनल थे नही, उनकी बातों पर विश्वास कर लेते। सो हमलोगों ने तै किया की कॉलेज फेस्ट के अलावे हमलोग बहुत सारे इवेंट कराते है, स्पोंसर खोजते है और बस जो पैसे बचेंगे, सब बराबर-बराबर बाँट लेंगे। अपनी सर्कल मे बहुत सारे बिजनेसमैन के लड़के थे और २-४ सुंदर दोस्त.बस क्या था अभिव्यक्ति नाम से हमलोगों ने प्रोग्राम कराया। फैशन शो, भाषण, कोरेओग्रफी और भी बहुत कुछ। कई ठरकी लाला ने मेरी दोस्तो के साथ जाने से मोटी रकम दे दी थी। बात करते हमसे और देखते उनकी तरफ़। बाहर आकर लड़किया कहती- कुत्ता साला, एक बार प्रोग्राम स्पोंसर कर दो, बाकी भाड़ मे जाओ। उसी समय हमलोगों ने नियम बनाया था की सारा काम हमलोग ख़ुद करेंगे और उसके पैसे रख लेंगे। पोस्टर लगाने का काम मैंने भी लिया था। .....यहाँ हमलोग शाम को लगते, जब दिन की क्लास्सेस खत्म हो जाती.दिन मे समय ही नही होता की पोस्टर लगते। लेकिन यह जो कुत्ते भौकते वो ग्वायर हॉल के कुत्तों की तरह नही थे। ये सारे फादर के कुत्ते होते, जिन्हें वो शाम को कैम्पस मे छोड़ देते। इन्हे आप मार भी नही सकते। कुछ किया नही की भौकने लगते और फ़िर फादर चिल्लाते- ये बॉय , मत मारो। । बड़ी परेशानी होती, साथ मे बिस्कुट रखता और देता तो नही खाते। मै कहता- क्यो पेट पर लात मारते हो भाई। बाद मे बहादुर को २५-५० देकर काम कराना पड़ता .वो भी फादर से ज्यादा कुत्ते की प्रशंसा करता। कुत्ते की बफदारी के हजारो किस्से। किसी तरह काम करके रात मे लौटता तो कालोनी के कुत्ते भौकते। समय और अनुभव के साथ-साथ कुत्तों से निबटने के तरीके जानता गया लेकिन अब कुत्तों मे सिर्फ़ भौकने और काटने बाले कुत्ते शामिल नही है, कई दुसरे किस्म के कुत्तें भी शामिल है। बचपन मे मेरी दीदी जब दर्जी के पास जाती और वापस आकर कहती- लाखानमा बहुत कुत्ता आदमी है , अब नही जायेंगे उसके पास नाप देने तो बात समझ मे नही आती की लाखानमा तो दरजी है, आदमी है वो कुत्ता कैसे हो सकता है..लेकीन आज जब कोई लड़की चैंबर से झल्लाते हुये निकलती है और कर कहती है- बॉस है, कुत्ता है साला, अब कुत्ता कहने से तो सब समझ जाता हू। इधर हॉस्टल मे अमित सिर से मार खाया कुत्ता बाहर घूम रहा है। दुसरे कमजोर कुत्ते को एक भाई पाइप से फ्रूटी पिलाता है और शाम से एक नया कुत्ता टहल रहा है, लोग बता रहे है , ये हॉस्टल अथॉरिटी के रिश्तेदार है...... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-6523 Size: 8971 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080423/aea949f1/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Thu Apr 24 15:14:42 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 24 Apr 2008 15:14:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWB4KSX4KWB?= =?utf-8?b?4KSo4KWHIOCkpuCkvuCkriwg4KSV4KS+4KSC4KSX4KWN4KSw4KWH4KS4?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpLjgpILgpKTgpL7gpKgg4KSU4KSwIOCkrOClgOCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS84KWAIOCknOCksuCkh+CksuClhw==?= Message-ID: <829019b0804240244y35de516dx61264b25b4642d5c@mail.gmail.com> हिन्दुस्तान में लोकतंत्र की बहाली हो जाने के बाद भी कांग्रेस मुनादी करवाने और नगाड़े बजवाने वाली राजतंत्र की परम्परा को छोड़ नहीं पायी है। कांग्रेस की संतान एनएसयूआई भी उसी के नक्शे कदम पर चल रही है। डीयू में एनएसयूआई की स्टूडेंट यूनियान है। एस यूनियन क्या कहिए, जिस तरह से चुनाव जीते जाते हैं इसे आप ऐसे कहिए कि एनएसयूआई की सत्ता है। एनएसयूआई ने पिछले एक साल में स्टूडेंट के फेवर में क्या किया है ये तो सर्वे और बैठकर विश्लेषण करने का मसला है लेकिन फिलहाल उसने जो किया है उसे आपके सामने पेश कर रहा हूं। करीब तीन-चार महीने पहले एनएसयूआई या डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने पूरे डीयू कैंपस को नो टोबैको जोन घोषित कर दिया, जिसके मुताबिक कैम्पस के भीतर कोई भी बंदा सिगरेट,बीड़ी, गुटखा, खैनी और ऐसी दूसरी चीजों का प्रयोग नहीं करेगा। जो बंदा ऐसा करते हुए पकड़ा गया उसे जुर्माने के तौर पर 200 रुपये देने होंगे। अगर आपका कभी डीयू कैंपस आना होता है तो आप देखेंगे कि जगह-जगह बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए हैं जिसमें 200 रुपये लिखकर हथकड़ी बनायी गयी है। ये होर्डिंग तो उनके लिए है जो अंग्रेजी समझ सकते हैं और सिगरेट पीते हैं। कैंपस में ऐसे भी लोग हैं जो अंग्रेजी नहीं समझते लेकिन बीड़ी या फिर सिगरेट पीते हैं, उनके लिए जरुरी है कि मुनादी करायी जाए। इसलिए बड़े ताम-झाम से इसकी घोषणा की गयी। मणिशंकर अय्यर को बुलाया गया. वो खुद मेट्रो से यूनियन ऑफिस तक पैदल चलकर आए जिसकी चर्चा मीडिया में की गयी. जि दिन वो आए थे मैं यूनियन ऑफिस के पास से गुजरा था। मैंने देखा कि खूब सारी कुर्सियां सफेद कवर के साथ लगी है और लगभग सारे चैनलों और अखबारों की गाडियां वहां लगी है। ओबी वैन से कैंपस पटी पड़ी है। क्या रिक्शावाले और क्या स्टूडेंट सब भीड़ लगाए थे। मैंने ये जानने के लिए कि इस मुनादी की बात आम आदमी को समझ में आयी है कि नहीं, एक रिक्शेवाले से पूछा-क्या भइया, काहे का इतनी भीड़ है। रिक्शेवाले का जबाब था कि- साहब एगो बड़का नेता आए हैं और बोल रहे हैं कि आगे से हिआं कोई सिकरेट, बीड़ी नहीं पीएगा, जो पीएगा उसको जुर्माना भरना पड़ेगा। यानि एनएसयूआई की मुनादी का असर आम आदमी तक फैल चुका था। नो टोबैको जोन अभियान के तहत ये भी बात की गयी कि कोई भी दुकानदार या कैंटीन ये सब कुछ नहीं बेचेगा और जो ऐसा करते पकड़े गए तो उन्हें भी जुर्माने के तौर पर भारी रकम चुकानी पडेगी। उसके बाद से लोगों का सिगरेट पीना कितना कम हुआ , पता नहीं लेकिन लोगों को गरिआते जरुर सुना- घंटा कर दिया है सालो ने, दो रुपये की सिगरेट के लिए खैबरपास जाना पड़ता है। इस मुनादी का वाकई में कितना असर हुआ है ये जानने के लिए मैं बीच-बीच में गुमटियों में जाकर सिगरेट मांगता रहा लेकिन लोगों ने साफ कहा-साहब बहुत रिस्की काम है यहां सिगरेट बेचना, कौन जोखिम मोल ले। सुनकर बहुत अच्छा लगता। लेकिन, परसों जब मैं सोशल वर्क डिपार्टमेंट के पासवाली गुमटी में कोक पीने गया तो देखा कि एक बंदा सिगरेट ले रहा है। सिगरेट कौन-सी थी देख नहीं पाया लेकिन बंदे ने कहा, एक सिगरेट में दो रुपये ज्यादा लोगे। दुकानदार ने बिल्कुल ही साफ शब्दों में कहा- देना भी तो पड़ता है साहब. मैं उस बंदे के पीछे गया और बोला- क्यों भाई, दुगुने दाम पर सिगरेट क्यों खरीदते हो। अचानक से पूछने पर वो घबरा गया और पूछा- आप रिपोर्टर हैं। मैंने कहा-नहीं पास के हॉस्टल में रहता हूं, बस ऐसे ही पूछ लिया। देखा दुकानदार भी थोड़ा सकपका गया था। कल रात के करीब डेढ़ बजे जोरों से भूख लगी और मैं कुछ खाने पासवाले हॉस्टल की कैंटीन में चला गया। वहां एक बंदा आया और कोल्ट ड्रिंक मंगवाने के बाद सर्विस ब्आय से बोला- तुमसे कुछ और भी मांगे थे न। थोड़ी देर बाद लड़का हाथ में सिगरेट दबाए हुए पहुंचा। लौटने पर अंकलजी यानि गार्ड साहब ने सामने बीड़ी का एक छल्ला छोड़ा। इधर पन्द्रह दिनों पहले कैंपस में होर्डिंग लगी है- थैंक्स फॉर कीपिंग कैंपस फ्री जोन। नीचे- दिल्ली यूनिवर्सिटी, दिल्ली पुलिस औऱ वर्ल्ड लंग फाउंडेशन के लोगो चमक रहे हैं। खूब झक-झक सफेद पर ब्लू रंग और लाल रंग से लिखे सारे शब्द पता नहीं क्यों मुझे बहुत भौंडे लग रहे हैं, एक-एक शब्द बेहया और बाहियात लग रहे हैं। मन बार-बार पूछ रहा है कि है कोई यहां जो गारंटी देगा कि- आगे से मुझे ये शब्द ऐसे नहीं लगेंगे। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-16342 Size: 9349 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080424/3a5a05ef/attachment.bin From ravikant at sarai.net Fri Apr 25 12:51:51 2008 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 25 Apr 2008 12:51:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KWHLeCkh+CktuCljeClmCDgpLjgpYcg4KSm4KSw4KWN4KSm4KWHLeCkoQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWN4KSV4KWLIOCkpOCklQ==?= Message-ID: <200804251251.51214.ravikant@sarai.net> मित्रो, आप में से कई लोग इसे किसी न किसी रूप में झेल चुके हैं. बहुत हद तक यह एक सामूहिक और लंबा उपक्रम है, शब्द मेरे हो सकते हैं, सारे विचार नहीं. विषय पर बात करते हुए प्रभात झा, भगवती प्रसाद, नरेश गोस्वामी, संजय शर्मा विभास चंद्र वर्मा, रवि वासुदेवन, प्रभात कुमार से बात करके बहुत मदद मिली. 'गिरावट और मिलावट' जीबेश बागची के शब्द हैं. इस लेख में लंबी-लंबी हनुमान कूद है - शब्द-सीमा की पाबंदी थी. लेकिन इस प्रॉजेक्ट को हम यहाँ या कहीं और आगे बढ़ा सकते हैं. और सुझाव व आलोचनाएँ आमंत्रित हैं. पर बुनियादी अपेक्षा है कि मज़ा आना चाहिए. 'बदले जीवन मूल्य' शीर्षक पर केन्द्रित विचार परिक्रमा के प्रवेशांक में बेदर्दी से काट-छाँट कर (अप्रैल २००८) में पूर्व-प्रकाशित] और रवि रतलामी के रचनाकार पर भी पुनर्प्रकाशित, पर अविकल, जैसा मैंने लिखा था: http://rachanakar.blogspot.com/2008/04/blog-post_24.html आप सबका एक बार फिर शुक्रिया रविकान्त दर्दे-इश्क़ से दर्दे-डिस्को तक भारतीय सिनेमा आम तौर पर और हिन्दी सिनेमा ख़ास तौर पर बाक़ी देशों की फ़िल्मों की अपेक्षा ज़्यादा शब्दमय है, वैसे ही जैसे कि इसका गीत-संगीतमय होना इसकी अनोखी ख़ुसूसियत के रूप में स्थापित हो चुका है। और इतनी सारी फ़िल्मों के इतने सारे गीतों के आधार पर एक सामाजिक सफ़र का ख़ाक़ा पेश करने की हिमाकत करना - इतने छोटे-से आलेख में - वैसा ही है जैसा संस्कृत की वह कहा वत कि आप दुस्तर समंदर में तैरने तो निकले हैं पर बतौर साज़ोसामान आपके पास बस एक अदद डोंगी है! लिहाज़ा मैं अपना काम थोड़ा आसान यह कहते हुए किए लेता हूँ कि मैं सिर्फ़ इश्क़िया गानों के कुछ पहलुओं पर कुछ स्थूल बातें ही कह पाऊँगा। अब प्रेम गीतों की तादाद भी कोई कम तो नहीं है - क्योंकि विधाएँ हमारे यहाँ अक्सर नत्थम-गुत्था पाई जाती हैं और हर क़िस्म की फ़िल्म में एक प्रेम-कहानी, चाहे उप-प्लॉट के रूप में ही सही, अमूमन होती ही है। नायक-नायिका प्रेम से पहले, प्रेम के दौरान, विरह की अवस्था में तथा शादी व सुहागरात आदि के मौक़े पर भी लाज़िमी तौर पर गाते-गुनगुनाते पाए जाते हैं। हालाँकि हमारे यहाँ संवाद या डायलॉग भी ख़ासे काव्यात्मक व नाटकीय होते रहे हैं, पर जैसा कि प्रसून जोशी ने हाल ही में फ़रमाया, कई स्थितियों को बयान करने के लिए गाने आम तौर पर ज़्यादा कारगर औज़ार होते हैं। तो गाने जो कि 70 के दशक में कलावादियों व यथार्थवादियों के हाथों लानत-मलामत झेलकर भी ज़िन्दा बच गए, आज भी बदस्तूर क़ायम है, और रहेंगे, भले ही दिल्ली के चंद सिने-दर्शक गानों के दौरा न ही उठकर फ़ारिग होना अपने वक़्त का बेहतर इस्तेमाल समझा करें। आम लोग यह भी कहते पाए जाते हैं कि सिने-संगीत में वह बात नहीं रह गई है जो पहले हुआ करती थी। आज रीमिक्स के चलन के स्थापि त हो चुकने के बाद शास्त्रीय मिज़ाज के रसिकों को एक और तैयारशुदा बहाना मिल गया है अधुनातन को कोसने का: कि हाय, देखिए कैसे ये नए ज़माने के नासमझ इतनी अच्छी-अच्छी धुनों को, इतने अच्छे-अच्छे गीतों को भ्रष्ट किए दे रहे हैं, जैसे नए गानों का नागानापन काफ़ी नहीं था कि पुरानों को भी बुरी तरह तोड़-मरोड़ रहे हैं। परंपरा की थाती बाज़ार के लुटेरों के हाथों सरेआम लुट रही है और हम मूकदर्शक बने है, अफ़सोस हमें ये दिन भी देखना था! लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस सियापा संस्कार से ऊपर उठकर, किंचित निरपेक्ष भाव से शायद सोच सकते हैं कि परंपरा को लेकर इस तरह की मत-भिन्नता उतनी ही शाश्वत है, जितने परंपरा को नए सिरे से सिरजकर समृद्ध करने में उससे हुए प्रस्थान। हम सब अपने ज़माने की चीज़ों से सहज मोह में जीते हैं, और नए को शक की निगाह से देखते हैं। यह सब वैसा ही है जैसा कि अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों या जवानी के दिनों को याद करते हुए यह कहना कि अब कॉलेज में वह बात नहीं रह गई है, हमारे ज़माने में यह होता था, वह होता था! अजीब बात नहीं है, पर परेशानी तब शुरू होती है जब यादों की रहगुज़र से चुनिंदा, बेहतरीन क़िस्से उठाते हुए वर्तमान तक आते-आते हम चाहे-अनचाहे पतन का एक अफ़साना, एक अच्छा-ख़ासा वृत्तांत गढ़ लेते हैं: कि हमारे दौर के बाद तो जो भी गुज़रा, गया-गुज़रा ही ठहरा! हम रचनात्मक धरातल पर मुसलसल छीजते ही गए हैं। यह परिप्रेक्ष्य फ़िल्मी इतिहास-लेखन पर, चाहे वह पत्रकारी हो या संजीदा, ख़ास तौर पर हाल तक हावी रहा है। मिसा ल के तौर पर मैं फ़िल्मी दुनिया के पत्रकार-संस्मरणकार रामकृष्ण की अति-पठनीय किताब से वह अंश उठाना चाहूँगा जब वे साहिर लुधियानवी से एक लंबी-सी बातचीत कर रहे होते हैं। ग़ौर से देखें तो यह मुठभेड़ फ़िल्म की रियाज़त करने वाले और फ़िल्म पर नुक़्ताचीनी करने, उसे पुरस्कृत या निंदित करनेवाले दो अलग दृष्टिकोणों के बीच की है। रामकृष्ण बार-बार स्टार सिस्टम, विज्ञापन, ब्लैक मनी, असाहित्यिक, अशास्त्रीय अंतर्वस्तु आदि की बात करते हुए घुमा-फिराकर पतनोन्मुख फ़िल्मी रचनात्मता की बात साहिर से मनवाना चाहते हैं, लेकिन साहिर हैं कि अड़े हुए हैं, और वे हिन्दी फ़ि ल्मों को न दुनिया की किसी और भाषा की फ़िल्मों से कमतर मानने को तैयार हैं, न ही वे इसे अश्ली ल या फूहड़ मानते हैं। वैसे हमारे मौजूदा मुक़ाम से पलटकर देखा जाए तो ये सवाल भी कितने सतत और शाश्वत रहे हैं सोचकर हैरत होती है। लगभग यही सवाल आज भी हिन्दी का कोई भी पत्रकार फ़िल्मकारों से करता नज़र आता है, गिरावट और मिलावट की यही भाषा कोई भी टिप्पणीकार चलते-फिरते सिनेमा पर जड़ देता है। दोहरे मज़े की बात यह है कि ये प्रश्न सिनेमा के स्वर्णकाल में, उसे स्वर्णकालिक बनाने वाले से ही किए जा रहे थे। चलो सुहाना भरम तो टूटा कि इतिहास के बाक़ी स्वर्णकालों की तरह यह सुवर्णमय दौर भी ठीक वैसा ही नहीं था जैसा कि मानने का आम तौर पर मिथकीय रिवाज रहा है! हालिया दिनों में सिनेशब्दों पर सोचते हुए मैं 50 और कुछ हद तक 60 के दशक के गानों की कलात्मकता पर एक बार फिर मुग्ध हुआ पर उस अवधि की स्वर्णकालिकता के प्रति थोड़ा सशंक भी हो उठा हूँ। हालाँकि सिनेगीतों को उनके दृश्यात्मक संदर्भों से, उनके संगीत से काटकर देखना अक्षम्य है, पर इस लेख में मैं एक ऐसे पाठ की जुर्रत करना चाहता हूँ, जहाँ शब्द ही अहम हैं, शेष चीज़े गौण। तो मेरी शंका का पहला कारण ये है कि मुझे उस दौर के गाने, ख़ास तौर पर प्रेम-गीत निहायत रोंदू जान पड़ते हैं। शरद दत्त ने सहगल की जीवनी लिखते हुए यह दलील दी है कि बेहतरीन गीत आम तौर पर करुण हुए है। वे 'वियोगी होगा पहला कवि' टाइप के श्लोक भी उद्धृत करते हैं इस सिद्धांत के समर्थन में। ख़ुद इस दौर का एक गाना तो इसका घोषणापत्र जैसा है: 'है सबसे हसीं वो गीत जिसे हम दर्द के सुर में गाते हैं'। वैसे तो हमारी मुख्यधारा का सिनेमा ही आम तौर पर मेलोड्रामाई रहा है जो स्थितियों और भावनाओं के अतिरेक के लिए जाना जाता है पर विशेष तौर पर प्रेम यहाँ लगभग आत्मपीड़क मजबूरी जैसा लगता है। बिल्कुल देवदासाना। ख़ामोश, तड़पती, विरहाकुल या विरहातुर कहना मुश्किल है पर इस लंबी व्यथा का टोन कुंदनलाल सहगल-श्मशाद बेगम-नूरजहाँ के युग में ही तय हो गया था: ग़म दिए मुस्तकिल कितना नाज़ुक है दिल, ये न जाना हाय हाए ये जालिम ज़माना फुँक रहा है जिगर पड़ रहा है मगर मुस्कुराना (शाहजहाँ) फिर तो हमने निहायत समारोहपूर्वक ट्रैजडी किंग और ट्रैजडी क्वीन पैदा किए। मुकेश को आज भी 'दर्द भरे गीतों' के गायक के रूप में ही ख़रीदा-पढ़ा-सुना और गाया जाता है, वैसे तलत महमूद और रफ़ी भी उस युग की दर्दीली धारा से अछूते नहीं रह सकते थे। आइए कुछ चुनिंदा हिट गानों की एक परेड देखें, उनका हिट होना इसलिए मानीख़ेज़ है कि न सिर्फ़ इन गीतों के रचयिता बल्कि उनके दर्शक-श्रोता भी इस सामूहिक मर्सियाख़्वानी में शामिल हैं: ऐ ग़मेदिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ दिल जलता है तो जलने दे आँसू न बहा फ़रियाद न कर तू परदानशीं का आशिक़ है, यूँ नामे-वफ़ा बर्बाद न कर (पहली नज़र) यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है…. मुहब्बत की बस्ती में अँधेरा ही अँधेरा है (जुगनू) ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़मे-ज़िन्दगी नहीं जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशनी नहीं (आग) मैं ज़िंदगी में हरदम रोता ही रहा हूँ रोता ही रहा हूँ, तड़पता ही रहा हूँ(बरसात) आवारा हूँ, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ घर-बार नहीं, संसार नहीं मुझसे किसी को प्यार नहीं दुनिया तेरे तीर का या तक़दीर का मारा हूँ… (आवारा) तुम न जाने किस जहाँ में खो गए हम भरी दुनिया में तनहा हो गए (सज़ा) दिल में छुपा के प्यार का तूफ़ान ले चले हम आज अपनी मौत का सामान ले चले (आन) तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं वापस बुलाले मैं सजदे में गिरा हूँ मुझको ओ मालिक उठाले बहार आई थी क़िस्मत ने मगर ये गुल खिलाया जलाया आशियाँ सय्याद ने पर नोच डाले रसिक बलमा, दिल क्यों लगाया, तोसे दिल क्यों लगया, जैसे रोग लगाया जब याद आए तिहारी, सूरत वो प्यारी-प्यारी नेहा लगाके हारी, तड़पूँ मैं ग़म की मारी, रसिक बलमा…. ढूँढे है पागल नैना, पाए ना एक पल चैना डसती है उजली रैना का से कहूँ मैं बैना चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना पर दर्द को न्यौतता हुआ और मेरे शीर्षक को सुशोभित करता यह गाना तो आत्मपीड़ा की पराकाष्ठा जैसा लगता है: जाग दर्दे-इश्क़ जाग दिल को बेक़रार कर छेड़ दे आँसुओं का राग, जाग दर्दे इश्क़ जाग दर्दे-इश्क़ को जहाँ आह्वानपूर्वक जगाया गया है। आपने देखा कि इन उद्धरणों में शोकाकुल मायूसियों के मजमे हैं, तन्हाइयों का अटूट सिलसिला है, आँसुओं का सैलाब है, दुनिया चूँकि ज़ालिम है: दर्द समझना तो दूर घायल मन का मख़ौल उड़ाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेती है, लिहाज़ा बार-बार मरने-मिटने, दुनिया छोड़ जाने की ख़्वाहिश दिखती है। एक अमर डेथ-विश! शायद बेमानी नहीं होगा यह कहना कि आज़ादी/विभाजन के बाद का एक-डेढ़ दशक अपने इश्क़िया लहज़े में साहित्य के महादेवी युग-जैसा था । ये भी स्पष्ट है कि रूमानियत का यह सूफ़ी-भक्ति तेवर ज़माने की ज़्यादतियों की आलोचना ग़म की सियाही में डूब कर करता है। सामाजिक विषमताओं के ख़िलाफ़ खुले विद्रोह के कई मिसालें हैं पर उसकी रूमानी तर्जुमानी में आत्मविश्वास का अभाव है। तदबीर से तक़दीर बदलने का, दाँव लगाने का ज़िक्र भी आता है, पर आवाहन के रूप में ही। कुछ अपवाद हैं, पर उन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए, जैसे कि शैलेन्द्र का लिखा आह का यह गीत जिसमें विरह-व्यथा आत्महंता दिशा में न जाकर बड़ी नाज़ुक का व्यात्मक स्थितियाँ और बिंब रचती है: ये शाम की तन्हाइयाँ ऐसे में तेरा ग़म पत्ते कहीं खड़के हवा आई तो चौंके हम इस राह से तू आने को थे, उसके निशाँ भी मिटने लगे आए न तुम सौ-2 दफ़ा आए-गए मौसम/ये शाम की सीने से लगाके तेरी याद को रोती रही मैं रात को हालत पे मेरे चाँद तारे रो गए शबनम/ ये शाम की (आह, 1953) अरसा हुआ, आयसीआयसीआय बैंक ने अपने कर्मचारियों को तोहफ़ा देने के लिए एक छ: सीडियों का पैक बनाया था, एचएमवी वालों के साथ। द गोल्डेन फ़िफ़्टीज़ नामक इस संग्रह के उप-शीर्षकों का अनुवाद कुछ यूँ होगा: खट्टी-मीठी यादें, बिंदास मस्तमौला अंदाज़, सदा-ए-तन्हा ई, शाश्वत हसरत, चाहत भरी निगहबानी, और हँसी-ठिठोली। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इनमें ती न-साढ़े तीन खंड तो बस इश्क़िया पीड़ा पर ही केन्द्रित है। आप यह भी समझ सकते हैं कि बिंदास गा नों में बड़ा हिस्सा गीता दत्त/आशा भोसले/किशोर कुमार का रहा होगा। इसे हम चाहें तो बदलती अभिरुचियों के लक्षण मान सकते हैं कि आउटलुक ने अपने टॉप टेन गानों की सूची जब बनाई तो उसमें स्वर्णिम दशक का एक भी गाना नहीं था! इस युग में दैहिकता से भी भरसक परहेज़ किया गया है, जहाँ ऐन्द्रिक संभावनाएँ थीं भी, जैसे कि प्यासा में - 'आज सजन मोहे अंग लगा लो, जन्म सफल हो जाए'- वहाँ भी मामला पारंपरिक समर्पण - 'मैं तुमरी दासी जनम-जनम की प्या सी -- यानी भजन के आवरण में ढाल दिया जाता है। पर बदलाव तो हर धरातल पर हो ही रहे थे, और साठ के दशक में काफ़ी कुछ होते है, भले ही अब तक़दीर को कम कोसा जा रहा है, चिल्मन को ज़्यादा। नायक-नायिका पहले के मुक़ाबले काफ़ी खुलकर इश्क़ का इज़हार कर रहे हैं, भले ही गाने के स्पेस के अंदर उपलब्ध साहित्यिक फ़ंतासी की आड़ में। शम्मी कपूर जैसे नायक ने देह को संगीत से जोड़कर आत्मविश्वास का एक नया अध्याय जोड़ा, जिससे ढलान से उतरने के कृत्य को नृत्य की संज्ञा देनेवाले नायकों को कठिन चुनौती अवश्य मिली होगी। बहरहाल, संस्कार की कई गाँठें खुलती दिखती हैं। नायक-नायिका एक निराकार मोहब्बत और उसके दर्द की परमानंदावस्था से उतरकर साहिर, मजरूह, शैलेन्द्र, शकील, राजेन्द्र कृष्ण आदि का सहारा लेकर महबूब की श्लाघा में पहले से ज़्यादा दैहिक होते हैं, अभी-भी चाँद-बादलों की बात होती ही है पर सिर्फ़ वही नहीं: ज़रा नज़रों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए। यह जुल्फ़ अगर खुलकर बिखर जाय तो अच्छा। इस रात की तक़दीर सँवर जाय तो अच्छा॥ दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या। यह बोझ अगर दिल से उतर जाय तो अच्छा॥ (काजल) या उसी फ़िल्म से एक और मिसाल लें: छू लेने दो नाज़ुक होठों को कुछ और नहीं है जाम है ये। क़ुदरत ने जो बख़्शा है हमको, वो सबसे हसीं इनाम है ये॥ इंतज़ार का प्राणांतक दंश आपने ऊपर देखा, पर अब देखिए कि इंतज़ार में मज़ा भी है: हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक। ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए॥ ये इंतज़ार भी एक इम्तहान होता है, इसी से इश्क़ का शोला जवान होता है। ये इंतज़ार सलामत हो और तू आए॥ ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है, आइए आपकी ज़रूरत है(बिन बादल बरसात, 1964) मुझको अपने गले लगा लो, ऐ मेरे हमराही (पारसमणि, 1964) ज़रूरत है ज़रूरत है ज़रूरत है एक सिरीमती की(मनमौजी1963) ऐ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली जाने जहाँ, ढूँढती हैं, क़ातिल आखें किसका निशाँ महफ़िल-2 ऐ शमाँ फिरती हो कहाँ/ वो अनजाना ढूँढती हूँ, वो दीवाना ढूँढती हूँ॥ आजकल तेरे-मेरे प्यार के चर्चे हर ज़ुबान पर सबको मालूम है और सबको ख़बर हो गई(ब्रह्मचारी) मेरे सामनेवाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है(पड़ोसन) अब नायक-नायिका साहस बटोर रहे हैं, दुस्साहस भी कर रहे हैं। पटाने के दो-चार फ़ॉर्मूले अस्तित्व में आ गए हैं, जिसमें सरताज फ़ॉर्मूला है महबूब के हुस्न की तारीफ़ में काव्यात्मक पुल बाँधने का, जिसकी बेहतरीन मिसाल 1942: अ लव स्टोरी है, जिसमें जावेद अख़्तर उपमानों की फुलझड़ी लगा देते हैं: 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा'। नायक शायर होते हैं, जो नहीं भी होते हैं, वे प्यार में शायराना तबीयत के हो ही जाते हैं। प्रेम-त्रिकोण बनते-टूटते हैं। ग़रीब नायकों में अमीरज़ादियों से ख़ास तौर पर शिकायत देखी जाती है, और आनेवाले समय में भी क़ायम रहती है: 'चाँदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया' मार्का। पर कोसने की इस रिवायत में शाहरुख़ ख़ान से बहुत पहले इश्क़िया सायको भी पैदा हो चुके हैं, बतौर सबूत पेश हैं दो-तीन गाने जो ख़ासे मशहूर हुए: तू अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं पर किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी। हमारे प्रिय गायक किशोर कुमार भी नारीमात्र से घृणा पर उतर आते हैं मेरी भीगी-भीगी सी पलकों पे रह गए जैसे कई सपने बिखरके जले मन मेरा भी किसी के मिलन को अनामिका तू भी तरसे आग से नाता नारी से रिश्ता काहे मन समझ न पाया लेकिन रफ़ी साहब के हिस्से तो इससे भी भारी-भरकम गीत आया: मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे। मुझे ग़म देनेवाले तू ख़ुशी को तरसे॥ इस गाने के अंतरों को याद करें तो आपका जी सिहर उठेगा: ठुकराया गया नायक जी-भरके शापता है नायिका को, अमूमन उसी अनुपात में जिसमें वह प्रशंसा की पुष्प-वृष्टि किया करता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि विरह और विफल प्यार के गीत अभी-भी हैं पर उनकी संख्या काफ़ी कम हो गई है। सत्तर के दशक में जहाँ मुमताज़ जैसी नायिकाएँ भी भाँग खाकर या बिना खाए बोल्ड हो रही हैं(जय-जय शिव शंकर, काँटा लगे न कंकर/रोटी/बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी/दो रास्ते) और खलनायिका हेलेन लोगों के मन में अपने मोहक के नृत्य के बल पर - आज जिसे आइटम नंबर कहते हैं - 'पिया तू अब तो आजा, शोला सा मन दहके आके बुझा जा' का मुक्त निमंत्रण देती हैं, तो मनोज कुमा र पूरब और पश्चिम के सभ्यता-विमर्श के युद्ध में शुद्ध-शाश्वत भारतीय आध्यात्मिक प्रेम के नए मानदंड रचते हैं: 'चल संन्यासी मंदिर में' का जवाब 'पाप है तेरे अंदर में' ही होना था। देव आनंद भी हिप्पी उच्छृंखलता को अपने नैतिक विमर्श से डपटते हैं। पर जूली, बॉबी नाम्नी आवारा इसाई लड़कियाँ हिन्दू नायकों का शीलभंग करती ही रहीं। बीच-बीच में हीर-राँझा, लैला-मजनूँ लोगों को पुरानी शैली के शहीदाना प्यार वाले नॉस्टैल्जिया का सुखद अहसास कराने के साथ-साथ डराते भी हैं। लब्बो लुवाब यह कि लोग लव-स्टोरियाँ बनाते रहे, सभ्यता से भागकर गृहस्थियाँ बसाते रहे: देखो मैंने देखा है ये इक सपना फूलों के शहर में है घर अपना क्या समा है तू कहाँ है, मैं आई-4, आ जा यहाँ तेरा मेरा नाम लिखा है रस्ता नहीं ये आम लिखा है अच्छा ये बताओ कहाँ पे है पानी बाहर बह रहा है झरना दीवानी बिजली नहीं है, यही इक ग़म है तेरी बिंदिया क्या बिजली से कम है छोड़ो मत छेड़ो बाज़ार जाओ जाता हूँ जाउँगा, पहले यहाँ आओ शाम जवाँ है तू कहाँ है कैसी प्यारी है ये छोटी-सी रसोई हम-दोनों हैं बस दूजा नहीं कोई इस कमरे में होंगी मीटी बातें उस कमरे में गुज़रेंगी रातें यह तो बोलो होगी कहाँ पे लड़ाई मैंने वो जगह ही नहीं बनाई कहानी के संदर्भ में कितना मासूम-सा सपना है ये। पर ग़ौर करनेवाले ताड़ गए होंगे कि नायक और नायिका के नज़रिए में भेद स्पष्ट है, और उनके बीच एक साफ़ श्रम-विभाजन भी है, बाज़ार कौन जा एगा, रसोई किसे दीखती है, और कौन शहराती है, जो उस बियाबान में पानी और बिजली खोज रही है, आप वाक्यों का लिंग-निर्णय करके समझ गए होंगे। राजश्री प्रोडक्शन और गुलज़ार भी 70 और 80 के दौरान इश्क़िया संबंधों और शायरी के नायाब और ना ज़ुक आयाम गढ़े जा रहे हैं: थोड़ी-सी ज़मीं थोड़ा आसमान, तिनकों का बस इक आशियाँ (सितारा, 1980) छोटी-छोटी मामूली चीज़ों के इर्द-गिर्द मसलन 'बाजरे के खेतों में कौए' उड़ाते हुए प्रेम किया जा रहा है। वैसे आम तौर पर गुलज़ार अपनी उलटबाँसी प्रतीकों के लिए भी विख्यात हैं पर अगर देखना ही है कि दर्द भरी विरासत को गुलज़ार किस तरह ज़िन्दा रखते हैं तो इजाज़त का वह अद्भुत गीत गुनगुना लीजिए, यह याद रखते हुए कि यहाँ भी एक त्रिकोण था, जिसमें किन्हीं दो को एक साथ ज़िन्दगी क़तरा-क़तरा ही मिल रही थी: मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है (इजाज़त, 1988). जब नहीं निभ सकती तो एक असंभव से बँटवारे की बात होती है: छतरी में जो आधे-आधे भीग रहे थे, उसका गीला हिस्सा भिजवा दो, ख़तों में लिपटी जो रात पड़ी है, उसको भी, गिले-शिकवे-वादे जो वैसे भी झूठ-मूठ के थे, उनको ख़तों के साथ वापस कर दो, पर साथ ही यह इजाज़त भी दे दो कि इनके साथ ख़ुद भी दफ़्न हो जाऊँ। यानी प्यार में मरकर अमर होने की हसरत चाहे जितनी पुरानी हो, अब भी काम करती है! हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहेने दो कोई नाम न दो प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है न ये बुझती है न रुकती है न ठहरी है कहीं नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है ये पंक्तियाँ गुलज़ार ने लिखी थी, ख़ामोशी(1969) के लिए। पर हाल के दिनों में अक्स के गीत भी उन्होंने ही लिखे, और बंटी और बबली तथा सत्या के भी - जिनमें किरदारों के मुताबिक़ सड़क-छाप कविता को बड़े सलीक़े से एक व्यंग्यात्मक दूरी बनाते हुए चिपकाया गया है। पर ओंकारा में तो ख़ास तौर वे ऐसे गीत सिरजते हैं जो बिपाशा बसु के किरदार के साथ न्याय करते, आयटम होते हुए भी, इश्क़ के अभिनव मिज़ाज की परिभाषाएँ गढ़ते हैं। 'नमक इश्क़ दा' और 'बीड़ी जलइले' दोनों ही एक साथ किंचित करुण और दैहिक हैं। एक मुजरा करनेवाली का बिंदास विवेक अभिव्यक्ति पाता है त्रा सद त्रिकोण के भ्रम को हवा देते पड़ोसियों के लिहाफ़, उनके चूल्हे से उधार ली गई आग के बिंब में। यह दौर कुछ और ही है न? बीच में दुनिया मीडियाकृत होकर एकमेक हो गई है। एमटीवी ने दैहिक मुक्ति की जो हवा बहाई थी, वह अब 17 और 21 चुंबनों की आँधी बन गई है। कभी किसी अच्छे से लेख में कृष्ण कुमार ने किसी फ़िल्मी गाने में नायिका दुपट्टे के उड़ने में स्त्री-मुक्ति का आग़ाज़ देखा था। कभी आराधना में भी किशोर कुमार ने राजेश खन्ना के लिए गाया था: रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना भूल कोई हमसे ना हो जाए रात नशीली मस्त समा है चूर नशे में सारा जहाँ है हाय शराबी मौसम बहकाए/रूप तेरा मस्ताना आँखों से आँखें मिलती हैं जैसे बेचैन होके तूफ़ाँ में जैसे मौज कोई साहिल से टकराए/रूप तेरा मस्ताना रोक रहा है हमको ज़माना दूर ही रहना पास न आना कैसे मगर कोई दिल को समझाए/रूप तेरा मस्ताना ज़ाहिर होगा कि ये गाना काफ़ी दमदार है, अपनी जिन्सी अभिव्यक्ति को लेकर बेबाक। पर एहतिया तन नशे की सांस्कृतिक ओट भी ले ली गई है, ज़माना तो जैसे मनाही के अंदाज़ में दस्तक देता ही खड़ा है, और जो हुआ चाहता है नायक-नायिका के बीच, वह तो भूल है ही! अब ज़रा यह ऐलान सुनिए: भीगे होठ तेरे, प्यासा दिल मेरा लगे अब्र सा-आ-आ मुझे तन तेरा जम के बरसा दे मुझ पर घटाएँ तू ही मेरी प्यास, तू ही मेरा जाम कभी मेरे साथ कोई रात गुज़ार तुझे सुबह तक मैं करूँ प्यार (मर्डर) कुछ और कहना बच जाता है? हमने एक लंबा सफ़र तय किया है, मैंने जिसकी एक झाँकी ही यहाँ पेश की है। अब शायद हमें यह भी समझ में आ रहा होगा कि क्यों सुनहरे युग के श्वेत-श्याम भजननुमा गानों को हिप-हॉप ताल पर ज़्यादा तेज़ धुनों पर, कम कपड़ों में पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है। ये ज़माना उस ज़माने से किसी और तरह से जुड़ सकता था क्या? जाग दर्दे-डिस्को जाग! ---- From vineetdu at gmail.com Fri Apr 25 13:42:37 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Fri, 25 Apr 2008 13:42:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSw4KSm?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KS24KSoIOCkleCliyDgpLLgpYfgpJXgpLAg4KSV4KSsIA==?= =?utf-8?b?4KSs4KWL4KSy4KWH4KSC4KSX4KWHIOCkruClgeCkguCktuClgOCknA==?= =?utf-8?b?4KWA?= Message-ID: <829019b0804250112i9ccbdf5r9e8204be4ade1abd@mail.gmail.com> टीआरपी को प्ले गेम और न्यूज चैनलों को सांप, सपेरे दिखाए जाने पर मुंशीजी भले ही उन पर अपनी भड़ास निकाल लें लेकिन दूरदर्शन में भी इतनी काबिलियत नहीं है कि वो न्यूज चैनलों के सामने खड़ी करके कहें- देखो इसे कहते हैं न्यूज चैनल। न्यूज चैनल खबर के नाम पर जो कुछ भी दिखा रहे हैं और उससे मुंशीजी की जो असहमति हैं, अगर हम भी उनके साथ हो लें तो भी इस बात पर तो हम कभी राजी नहीं होंगे कि प्राइवेट न्यूज चैनल जो कुछ कर रहे हैं, दूरदर्शन ने इससे हटकर बहुत बेहतर काम किया है। ये सही है कि दूरदर्शन ने ऑडिएंस को कभी सांप-सपेरे की खबरें नहीं दिखाया, स्वर्ग की सीढ़ी के दर्शन नहीं कराए, महादेव से नहीं मिलवाया, शराबी बकरे को नहीं दिखाया,नाश्ते में ढ़ाई किलो तम्बाकू खाती बकरी नहीं दिखाए तो भी ऐसा कुछ बेहतरीन काम नहीं कर दिया कि मुंशीजी उसे लेकर उदाहरण के तौर पर न्यूज चैनलों के सामने रख सकें और कहें कि- इसकी खबरों से सीखो और इसी की राह पर चलो। मुंशीजी मीडिया को दुरुस्त, पारदर्शी और सामाजिक विकास का माध्यम बनाने के नाम पर प्राइवेट न्यूज चैनलों को जब-तब लताड़ भी दें तो भी उनके पास कोई ऐसा विजन साफ नहीं है जिसे वो उनके सामने रख सकें। अगर ऐसा होता तो देश की ऑडिएंस इतनी भी नासमझ नहीं है कि फ्री टू एयर चैनल दूरदर्शन को छोड़कर प्राइवेट न्यूज चैनलों को देखे। मुंशीजी क्या किसी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास इस बात की विजन होती कि बदलते समाज में लोगों की अभिरुचि क्या है और उनके बीच सामाजिक मसलों, बदलते परिदृश्यों और खबरों की सच्चाई को कैसे दिखाना है तो आज खर- पतवार चैनलों के बीच दूरदर्शन गुम नहीं हो जाता। दरअसल मुंशीजी और इनके पहले के भी लोग खबरों की तटस्थता की बात कहते आ रहे हैं। ये सरकारी महकमें जिसे खबरों की तटस्थता बता रहें हैं,वो दरअसल काफी हद तक खबरों को लेकर निष्क्रियता, बेपरवाह और खबरों के नाम पर खानापूर्ति वाला रवैया रहा है। नहीं तो क्या कारण है कि प्राइवेट न्यूज चैनल महीने भर में ही एक स्टिंग ऑपरेशन कर देते हैं। (ये अलग बात क इसमें से कुछ स्टिंग ऑपरेशन फर्जी साबित हो जाते हैं। तो भी आप उनके एफर्ट को नकार नहीं सकते।)जबकि दूरदर्शन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता। दूरदर्शन के पास लम्बा अनुभव रहा है। चाहता तो वो इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकता था और मुंशीजी जिस सामाजिक विकास का पाठ न्यूज चैनलों को पढ़ा रहे हैं उसकी शुरुआत दूरदर्शन से ही शुरु हो तो ज्यादा बेहतर है। हालांकि दूरदर्शन का मैं कोई सीरियस ऑडिएंस नहीं हूं लेकिन बीच-बीच में देखकर इतना जरुर जानता हूं कि दूरदर्शन पर सामाजिक विकास के नाम पर सरकार की योजनाओं को विज्ञापन के अंदाज में पेश करने के अलावे कभी भी उसने आलोचनात्मक तरीके से पक्ष ऑडिएंस के सामने नहीं रखा. नहीं तो आप ही बताइए, देशभर में इतने क्राइम होते हैं, कानून की धज्जियां उड़ाई जाती है। आम आदमी की तो छोडिए अफसर और नेता तक इसमें शामिल होते हैं। इतना होने पर भी दूरदर्शन को कोई ऐसी खबर नहीं मिलती, कोई ऐसा आइडिया सामने नहीं आता कि वो इन सब चीजों का पर्दाफाश कर सके. ऐसी खबरों को खोजने लग जाएं तो आप हैरान रह जाएंगे कि फीता काटनेवाली खबरों और विमान से उतरती हुए मिनिस्टरों की फुटेज थोक भाव में दूरदर्शन की स्क्रीन पर बिखरे पड़े होते हैं। जिस मीडिया को मुंशीजी आम आदमी के लिए होने की बात कर रहे हैं, दरअसल हमारे सामने एक स्थापना दे रहे हैं कि प्राइवेट न्यूज चैनल आम आदमी के पक्ष में नहीं है जबकि दूरदर्शन और आकाशवाणी ऐसा कर रहे हैं। इससे बड़ी भारी गलतफहमी पैदा हो रही है और वो ये कि सरकार की मीडिया को आम आदमी की मीडिया मान लिया जा रहा है। सच्चाई तो यही है कि इस दूरदर्शन में भी आम आदमी वैसे ही गायब है जैसे अब बनने वाली सरकारी योजनाओं में और लागू होनेवाले तरीकों में....और अगर दूरदर्शन पर कभी-कभार आम आदमी की तकलीफें आ भी जाती है तो वहीं तक जहां तक के लिए सरकार जिम्मेवार न होकर अप्रत्यक्ष रुप से आम आदमी ही जिम्मेवार होते हैं और जो अज्ञानता, गरीबी, बेरोजगारी और अंधविश्वास जैसे आदिम समस्याओं के कारण होते हैं।..और ऐसा दिखाने में सरकार का ही पक्ष मजबूत होता है क्योंकि इसे फिर अगले पांच साल बाद दिखानी होती है कि देखो वोटरों, तुम्हारी आज से पांच साल पहले हालत ऐसी थी... और पांच साल बाद खाद के जोर से लहलहाते हुए पंजाब के खेतों को दिखाकर बताना कि अब ऐसी हो गयी है। देश के चोट खाए और घिसे-पिटे चेहरे दूरदर्शन पर आकर एनजीओ की तरह इस्तेमाल हो जाते हैं। ये खबरें सचमुच इनकी तस्वीर बदलते हैं ऐसा मानने के लिए थोड़ा वक्त दीजिए। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080425/55ca0d80/attachment.html From vineetdu at gmail.com Sat Apr 26 12:23:48 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 26 Apr 2008 12:23:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KSC4KS2?= =?utf-8?b?4KWA4KSc4KWALCDgpKbgpYfgpJbgpL/gpI8g4KSoLCDgpKbgpYLgpLA=?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KWN4KS24KSoIOCkueCkruCkuOClhyDgpKbgpYLgpLAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWLIOCkl+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: <829019b0804252353h453bb7c0w57ea94b036a539f7@mail.gmail.com> सरकार के बदलने के साथ ही दूरदर्शन की स्क्रीन के रंग भले ही कभी कुछ घट-बढ़ जाए, कुछ गाढ़ा या फीका हो जाए लेकिन एक बात कॉमन बनी रहती है और वो ये कि दूरदर्शन की आवाज और उसकी टोन सत्ता के पक्ष में ही होती है। इसलिए कई बार लगता है कि दूरदर्शन जनमाध्यम न होकर किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अजान देने का भोंपा है।...और जिसकी टेंडर बदलती रहती है। शुरुआती दौर से लेकर अब तक की सत्तारूढ़ पार्टियों ने दूरदर्शन का जितना बेजा इस्तेमाल किया है, जनता की आवाज को दबाने के चक्कर में अपनी आवाज इतनी तेज कर दी है कि कोई चाहे तो इस पर शोध कर सकता है। कई बार तो इन पार्टियों ने अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए दूरदर्शन का इस्तेमाल प्राथमिक स्तर पर किया है। जबकि व्यवहार के स्तर पर किसी भी जनमाध्यम को सत्ता के प्रतिरोध में ही अपनी बात करनी चाहिए। अगर सरकार वाकई जनता के पक्ष में काम कर रही है तो उसके पास दसियों और माध्यम हो सकते हैं औऱ हैं जिसे लेकर अपने नाम की डंका बजा सकती है लेकिन आम आदमी के लिए जंतर-मंतर के इलाके और दूरदर्शन जैसे माध्यमों पर पूरा-पूरा अधिकार होना जरुरी है। प्राइवेट चैनल्स जब अपने को जनसमाज का माध्यम बताते हैं तो सुनकर भौंडा-सा लगता है। हमारे सामने उसकी छवि कुछ ऐसे ही बनती है जैसे कि कोई भेडिया दिनभर शिकार कर लेने के बाद शाम को मुंह में तिनका खोंस लेता है। शुरुआती दौर से मीडिया की जो छवि आम लोगों के बीच बनी है कि ये हमेशा सच के साथ होगा, न्यूज चैनल उस मानसिकता को, उस मान्यता को चप्पल,चड्डी और शैम्पू के विज्ञापनों के साथ भुनाने लगी है। जनता ने इस रवैये को लेकर असहमति जतानी शुरु कर दी है। कभी तीन-चार दिन पहले ही अपने अनिल रघुराज ने वाकायदा आंकड़े सहित इस बात को सामने रखा कि हिन्दी चैनलों की व्यूअरशिप घट रही है। इसकी एक बड़ी वजह है कि लोगों की मानसिकता तेजी से बदल रही है और उन्होंने समझना शुरु कर दिया है कि विज्ञापन बटोरने के चक्कर में चैनल कुछ भी दिखा सकते हैं। मुंशीजी ने अपने हिसाब से बहुत सही समय पर चोट मारा है। ऐसा करके वो प्राइवेट चैनलों के विरोध में अच्छा-खासा जनादेश खड़ी कर लेंगे। न्यूज चैनलों से खार खायी ऑडिएंस जरुर कुछ कदम साथ चल लेगी। (लेकिन,यही बात जब दूरदर्शन करने लग जाता है तो प्राइवेट चैनलों से कुछ कम भौंड़ा नहीं लगता। क्योंकि दूरदर्शन को लेकर ऑडिएंस ने आम आदमी का माध्यम और सत्ता के माध्यम के बीच फर्क करना शुरु कर दिया है। इसे आप मीडिया लिटरेट होना भी कह सकते हैं।) ये बात भी तय है कि वो कुछ कदम चलने के बाद औऱ आगे नहीं बढ़ेगी, ऐसा नहीं होगा कि थोड़ा और बढ़कर दूरदर्शन पर पहुंच जाएगी क्योंकि जो ऑडिएंस आज प्राइवेट न्यूज चैनलों से खार खा चुकी है वो पांच-दस साल पहले ही दूरदर्शन से उचटकर यहां तक पहुंची थी और अगर एक सर्वे कराकर ये पूछा जाए कि- हम मानते हैं कि प्राइवेट चैनल खबर के नाम पर जो कुछ भी दिखा रहे हैं, वो बकवास है तो भी अगर आपको ये कहा जाए कि दूरदर्शन और किसी भी प्राइवेट न्यूज चैनले के बीच आपको चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे तो देखिएगा कि क्या नतीजे सामने आते हैं। मैं कोई घोषणा करने की स्थिति में नहीं हूं लेकिन ज्यादातर जनता कल्चर के नाम पर बिकनी, क्रिकेट,सिनेमा देख लेगी। जीएस के नाम पर घोटालों और स्टिंग को देख लेगी लेकिन खबरों के नाम पर दूरदर्शन का राजनीतिक आलाप, बयानबाजी और पीठसहलाउ पॉलिटिक्स की फुटेज उनसे नहीं देखी जाएगी। जिस बात को मैं लिख रहा हूं उसका अंदाजा सारे प्राइवेट न्यूज चैनल्स बहुत पहले से लगाकर अपनी दुकान लिए बैठे हैं। नहीं तो देखिए न, करीब तीन महीने में एक न्यूज चैनल कैसे हमारे सामने खड़े नजर आते हैं और देखते ही देखते उन पर दिखायी जानेवाली खबरों के रेफरेंस दिए जाने लगते हैं। मतलब साफ है कि प्राइवेट न्यूज चैनलों से उब चुकी जनता चेंज के लिए हर नए चैनलों को आजमाती है, उस पर कुछ दिन टाइम देती है लेकिन इस उम्मीद से लौटकर दूरदर्शन पर नहीं आती कि शायद यहां अब कुछ बेहतर हुआ होगा। अगर बेहतर हुआ भी है तो उसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि ऑडिएंस की उम्मीद के आगे पिद्दी साबित होती है। इसलिए असंतुष्ट ऑडिएंस को खुश करने की गुंजाइश से दूरदर्शन बहुत पीछे छूट चुका है जबकि प्राइवेट न्यूज चैनल आए दिन प्रयोग करते नजर आते हैं। कोई ऑडिएंस भोपाल में बैठकर बतोलेबाजी करता नजर आता है तो ये चैनल उन्हें भी प्रतिभा पुत्र मानकर दस-दस मिनट तक दिखाते हैं। ऑडिएंस को तरजीह दिए जाने की वजह से ही इन चैनलों के प्रति लोगों का मन उब जाने के बाद भी मोह बना रहता है कि पता नहीं कब उसकी तस्वीर दिखा दी जाए। जबकि दूरदर्शन के कैनन में इनका कोई सेंस ही नहीं है। नकार के बावजूद बार-बार पुचकार की शैली में सारे न्यूज चैनल हमारे सामने आते हैं और हम उन्हें माफ कर देते हैं कि- जाने दो अपना ही भाई है औऱ अगर दूरदर्शन को लेकर ऐसा नहीं करते तो इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि अफसरों, अधिकारियों और नेताओं की तरह ये भी हमसे बहुत दूर चला गया है, हमारी पहुंच, पकड़, जरुरत औऱ अभिरुचि से दूर, बहुत दूर। अब हममें वो भाव भी नहीं रह गया कि लोग इसे चाचा नेहरु का चैनल मानकर देखें और उनके सपनों से इसे जोड़कर देखें। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-5347 Size: 11122 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080426/b5077f48/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Sun Apr 27 13:59:05 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 27 Apr 2008 13:59:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWA4KSC4KS4?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpKbgpYfgpJYg4KSy4KWH4KSk4KWHIOCkpOCliy4u?= =?utf-8?b?LuCkpOCliyDgpJXgpY3gpK/gpL4g4KS54KSy4KS+4KSyIOCkleCksCA=?= =?utf-8?b?4KSm4KWH4KSk4KWH?= Message-ID: <829019b0804270129v2a2200d0rf4002e07f32e72bb@mail.gmail.com> उस लड़की पर से मेरी नजर हट ही नहीं रही थी। गुलाबबाई नाटक के लिए देर हो रही थी, फिर भी मन चाह रहा था कि उसका पीछा करुं, देखूं कहां तक जाती है। तेरह मिनट में जानने समझने की जो जी-तोड़ कोशिश मैंने की वो आपके सामने है - सिर से पैर तक काले बुर्के में ढंकी, सिर्फ दो आंखें दिखाई दे रही थी। मेट्रो की सीट पर मैं उससे थोड़ी दूर बैठा था। इतनी दूर कि पास बैठी अपनी दोस्त से क्या बात कर रही है, कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मुझे उसकी बात सुनने की इच्छा सिर्फ इसलिए होने लगी थी कि जब उसने अपने पैर दूसरे पैर के उपर रखे तो मेरी नजर बुर्के से हुए उघार एक पैर पर चली गई। वही जाना-पहचाना रंग, स्काई ब्लू। हां वो स्काई ब्लू रंग की जिंस पहने थी। मुस्लिम लड़कियां जिंस पहनती है, ये किसी के लिए भी आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। दिल्ली क्या छोटे शहरों में भी पहनने लगीं हैं। लेकिन उपर से बुर्का पहन लेने पर मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई। क्योंकि समाज के लाख खुलापन होने की दलीलों के सुनने के बाद भी मुझे लगता है कि सारी लड़कियां जिंस नहीं पहन सकती। जिसमें तो कई संकोच से पहनना ही नहीं चाहती और कईयों के घरवाले भी मना कर देते हैं। जिंस ये जानते हुए कि और कपड़ों से ज्यादा सुविधाजनक है, खासकर के भीड़-भाड़ वाले इलाकों में जाने के लिए, कहीं कुछ फंसने का डर नहीं बावजूद इसके कई लड़कियां पहनने में शर्माती है। हमारे साथ की कुछ लड़कियां तो जिंस को चरित्र से जोड़कर देखने लग जाती थी। एम के दौरान मैं और मेरे दोस्त प्रणव ने एक-दो को कहा भी था कि एक बार जिंस पहनकर देखो, बहुत अच्छी दिखोगी। लेकिन उसका सीधा जबाब होता- हम सलवार सूट में ही ठीक हैं। बहुत कहने पर एक ने खरीदी भी तो बताया कि कुछ दिन घर में ही पहन लूं, आदत नहीं है न। फिर बताया कि आस-पास बाजार जाती है पहनकर, लोग घूर-घूरकर देखते हैं। एक-दो मम्मी की सहेलियों ने कहा कि- ये तो जिंस में ज्यादा ठीक लगती है, बेकार में तम्बू की तरह सलवार-सूट तान लेती है। तब जाकर एमए फाइनल में जिंस स्वाभाविक तरीके से पहनने लगी। अब शादी के बाद एक कोचिंग इन्सटीच्यूट में पढ़ाती है। फोन करके बताती है कि अब वो फार्मल ट्राउजर पहनने लगी है। हमारे यहां, आज से पांच साल पहले की बात बताता हूं, जब कोई कह देती कि इस बार दशहरा में जिंस खरीदनी है तो घर के बाहर फुर्सत में बैठी औरतें कहतीं- फलां बाबू की लड़की को हवा लग गया है, जीन पैंट पहनेगी...। यानि जिंस के साथ लड़की की चाल-चलन को लम्बे समय तक जोड़कर देखा जाता रहा है। ये कहना बेमानी ही होगा कि कोई जिंस पहन ले तो वो केवल उससे प्रोग्रेसिव हो जाती है। कई लड़कियां आपको मिल जाएगी जो जिंस पहनकर मंगलवार का व्रत करती है, एमए के हर पेपर के पहले किरोड़ीमल कॉलेज के मंदिर के आगे हाजरी लगाती है। पेपर कैसा रहा, इसका जबाब देने के पहले कहती है- सब भगवान के हाथ में है और हमें हिदायत दिए फिरती है कि तुम इन सलवार-सूट पहनने वाली लड़कियों को नहीं जानते, बस उपर से मासूम बनी फिरती है। लड़कियों की ड्रेस को लेकर सबकुछ इतना गड्डमड्ड हो गया है कि सबसे सही लगता है कि कपड़े देखकर किसी के बारे में कोई राय पहले से मत बनाओ। क्योंकि विद्या भवन में रोज स्वीवलेस पहनकर आनेवाली एक दोस्त को एक दिन देर रात तक इंडिया गेट पर तफरी करवा दी तो अगले दिन से उसके बाबूजी लेने और छोड़ने आने लगे। ....तो भी कपड़ा पहनने के पहले उसे लेकर कॉन्फीडेंस का होना जरुरी है। कोई लड़की जिंस पहनकर पचास बार, राह चलते अपने को निहारे तो वो कितनी एवनार्मल लगने लगेगी, आप समझ सकते हैं। बुर्केवाली लड़की जो जिंस पहने थी, उसके बारे में क्या कहा जाए। जिंस पहनना उसकी इच्छा, उसकी अपनी मर्जी और चलती फैशन में शामिल होने की बात हो सकती है। जिंस वो अपने मन से पहन सकती है। लेकिन बुर्का भी अपने मन से पहनी होगी, इस बात पर मुझे भरोसा नहीं था और यही जानने के लिए मेरा मन उसका पीछा करने को कर रहा था... मैं थोड़ा ठीठ बनते हुए अच्छी-खासी सीट छोड़कर हैंडल पकड़कर उसके सामने खड़ा हो गया। कान उसके मुंह की तरफ और चेहरा दूसरी तरफ।....लड़की खिलखिलाकर बातें किए जा रही थी। लग ही नहीं रहा था कि किसी बंदिश की सतायी हुई हो और उसी क्रम में बोले जा रही थी। मामूजान अगर रिदिमा के घर जिंस में देख लेते तो....फिर ठहाके। साथ वाली लड़की ने जोड़ा, तो हलाल कर देते।...फिर दोनों के ठहाके।॥बातचीत से पता चला कि वो दोनों अपनी दोस्त रिदिमा की वर्थ डे पार्टी से लौट रही है। रिदिमा ने उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि...अगर मजारवाला चोला( सलवार सूट) पहनकर आयी तो पीछे कुत्ता छुड़वा दूंगी, तभी उसे जिंस पहनकर आना पड़ा था। दोनों लड़कियां जिंस पहनने की मजबूरी और उपर से बुर्का डालने की मजबूरी के साथ चांदनी चौक आते ही एक दूसरे को कोहिनी मारते हुए, कान में फुसफुसाते हुए स्टेशन की तरफ उतर गयी। जाते हुए एक बार मेरी तरफ पलटकर देखा, उसके देखने के अंदाज से मैंने समझा कि कह रही है- अजब फ्रस्टू लोग होते हैं, बुर्केवाली को भी नहीं छोड़ते।... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-127 Size: 10681 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080427/445a55de/attachment-0001.bin From vineetdu at gmail.com Wed Apr 30 10:50:02 2008 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 30 Apr 2008 10:50:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/?= =?utf-8?b?4KSv4KS+IOCksuCkv+CkluClh+Ckl+ClgCDgpKvgpY3gpLDgpYfgpLYg?= =?utf-8?b?4KSH4KSk4KS/4KS54KS+4KS4OiDgpLngpLDgpK4g4KSV4KSy4KWN4KSa?= =?utf-8?b?4KSwIOCkuOClhyDgpJXgpYvgpLngpLLgpYAg4KSV4KSy4KWN4KSa4KSw?= =?utf-8?b?IOCkpOCklQ==?= Message-ID: <829019b0804292220rdf63a5ahf3c7d19fd7f4331c@mail.gmail.com> अब तक के इतिहास में बहुत झोल है। जिसको जो मन में आया है लिख दिया। पुराने जमाने में पैसे लेकर और अब कोई पैसे देकर लिखवा लिया। किसी को कहा गया देश का इतिहास लिखने तो उसने राजा की जीवनी लिख दी और देश को उतना ही तक बताया जहां तक कि राजा के पैर पड़े। बाकियों के बारे में गोल है। किसी को मन में आया तो धर्म को ही इतिहास बता दिया और राजा को ईश्वर की संतान घोषित कर दिया। अब नतीजा ये हुआ कि राजा भ्रष्ट भी हो जाए तो भी उसके विरोध में कोई आवाज नहीं उठानी है....और इस बीच राजा को जो मन हुआ, अपने बारे में लिखा, लिखवाया। एक शैक्षणिक परिषद् से झोल रहित इतिहास लिखवाने की कोशिश भी की जाती है तो पुस्तक न होकर बमगोला हो जाती है और अचानक से पूरा देश सुलगने लग जाता है। मध्ययुग के बारे में लिखा तो इतने राजाओं के मरने और जीनें की तारीखें जड़ दी कि बंदा उसी को याद करते-करते पस्त हो जाए। इतने बेटे-पोतों के रिलेशन्स जोड़ दिए कि ध्यान रखते-रखते आदमी तबाह हो जाए। कुल मिलाकर अब तक का लिखा गया इतिहास इतना अटपटा, बेतरतीब, पक्षपाती और आंख फोड़ने पर समझ बनानेवाला है कि इसे निष्पक्ष, तटस्थ, विश्वसनीय और सेक्यूलर नहीं कहा जा सकता। उपर से इतना झेल है कि- दिन पढ़ो, रात सफा, रात पढ़ो दिन सफा। कोई इन्टरेस्ट ही पैदा नहीं होता। अब इतिहास में ये सारी बातें कहां से आए जिसमें तटस्थता भी हो, सच कहने का साहस भी हो, किसी के दबाब में आकर न लिखा गया हो और पढ़ने में मजा भी आए। आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ मीडिया में दम है कि वो इन सब गुणों से लैस इतिहास लिखे और जो इतिहास मीडिया लिखेगी वो सबसे फ्रेश इतिहास होगा। मीडिया द्वारा लिखे गए इतिहास में तटस्थता भी है, साहस भी है, मनोरंजन भी है, नयापन भी है और जानने-समझने के लिए आंख फोड़ने की जरुरत भी नहीं है। मीडिया ने इतिहास लिखने में ऐसा क्या कर दिया, आइए जानते हैं। सबसे पहले बात करते है विषय और घटनाओं की। मीडिया ने इतिहास लिखने के क्रम में विषय और घटनाओं के जिक्र में भारी उलटफेर की है। अब तक के इतिहास में जितने शासकों, देशों के बनने की लम्बी फेहरिस्त है उससे आज की ऑडिएंस को क्या लेना-देना है। जो शासक मर गए उनके बारे में जानकर अपना भेजा फ्राई क्यों करना है। न तो वो हमारे कोई रिश्तेदार थे और न ही उन्होंने हमारे नाम से कोई प्रोपर्टी छोड़ रखी है। इस मिजाज से सोचें तो इतिहास का बड़ा हिस्सा बेमतलब का है, कूड़ा है और जो अपने मतलब का है उसे फेंको। सो मीडिया इतिहास में फ्रेशनेस लाने के लिए इतिहास के एक बड़े हिस्से को फेंकना जरुरी समझती है। अच्छा, जब वो बड़े हिस्से को फेंकेगी तो उसके बदले में तो कुछ न कुछ डालना होगा न। मीडिया की प्रतिभा यहीं पर काम आती है। वो पकाउ विषयों की जगह मजेदार विषयों को शामिल करती है जिसमें मनोरंजन भी हो, आंखें भी न फोड़नी पड़े और तटस्थता का तो कोई सवाल ही पैदा हो। आइए एक बार इसके द्वारा बनाए गए चैप्टरों पर गौर कर लें- *अध्याय १* - *चुम्बन लेने और मना करने का इतिहास* ( वाल्यावस्था से शिल्पा रिचर्ड गैरी विवाद तक) - *चुम्बन शैली का तुलनात्मक अध्ययन* (प्लेजर की अधिकता और भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण) - *चांटा जड़ने और खाकर बिलखने का इतिहास* ( सिनेमा, फैशन शो और क्रिकेट के विशेष संदर्भ में) द्रौपदी युग से भज्जी-श्रीसंत युग तक *- गालियों का उद्भव, विकास, प्रयोग की अनिवार्यता और ऐतिहासिक महत्व* (दुर्जन शैली से मां-बहनवाद तक) *अध्याय २* - *इज्जत, बेइज्जत और बलात्कार का इतिहास* (कौरव-सभा से लेकर बिग बॉस प्लस अधेड़ी औरत से दुधमुंही बच्ची की चीख तक) - *सार्वजनिक वस्त्र मोह-मुक्त का इतिहास* ( चंदनवन से रैप शो तक) - *स्त्री-देह सौन्दर्य औऱ कम वस्त्रों का अन्तर्संबंध* ( कंचुकी काल से बिकनी काल तक) - *लिंग आकर्षण का सामाजिक इतिहास* ( शूर्पनखा काल से जिगिलो काल तक) *अध्याय ३* - *अपराध की दुनिया का आकर्षक इतिहास* ( करने से लेकर बताने तक) - *नाजायज संबंधों का संक्षिप्त इतिहास* ( हरम कल्चर से लेकर कोहली कल्चर तक) - *संभोग स्थलों का मार्मिक इतिहास* ( परकोटे से लेकर डांस बार और फ्लाइ ओवर तक) - *यौन दुर्बलता, सुस्ती और गैरमर्दांनगी से मुक्ति का इतिहास* ( शीलाजीत से लेकर वियग्रा तक का वैज्ञानिक विश्लेषण) अध्याय ४, ५, ६ उपसंहार और संदर्भ-सामग्री की चर्चा कल होगी। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-429 Size: 9500 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080430/1f9384b1/attachment.bin From avinashonly at gmail.com Fri Apr 18 11:36:08 2008 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Fri, 18 Apr 2008 06:06:08 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KSs4KSW4KS84KWN4KSkIOCkm+Cli+Ckn+ClhyDgpLbgpLngpLAg?= =?utf-8?b?4KS44KWHIOCkj+CklSDgpJbgpLzgpKQ=?= Message-ID: <85de31b90804172305t2cf015a9y68e69c3ffcdf5f6f@mail.gmail.com> ज़रूर ज़रूर ज़रूर पढ़ें http://mohalla.blogspot.com/2008/04/blog-post_18.html *अविनाश* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20080418/a207f167/attachment-0001.html