From pramodrnjn at gmail.com Mon Sep 3 15:08:31 2007 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Mon, 3 Sep 2007 15:08:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpOClgeCksuCkuOClgOCkl+Ckow==?= Message-ID: <9c56c5340709030238r4159530ej7def10cc5f86ede@mail.gmail.com> यह लेख दीवान के पाठकों के लिए भी उपयोगी होगा , यही सोच कर भेज रहा हूं । वैसे यह जन विकल्‍प , http://janvikalp.blogspot.com/ , के अगस्‍त अंक में प्रकाशित हो चुका है और अब मेरे ब्‍लॉग संशयात्‍मा , http://sanshyatma.blogspot.com/ , पर भी उपलब्‍ध है । आज के तुलसीगण किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अंत:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? -मुक्तिबोध आलोचना की इस ठोस कसौटी को उपेक्षित किए जाने के निहित कारण रहे हैं। प्रखर आलोचक मुक्तिबोध ने आलोचना का प्रतिमान गढ़ते हुए 'राजनैतिक दृष्टिकोण ` की चर्चा नहीं की है! लेकिन क्या मुक्तिबाध के आलोचक रूप की उपेक्षा का यही कारण है? या इस उपेक्षा के पीछे वे शक्तियां हैं जो राजनैतिक रूप से परिवर्तनकामी दिखती हैं किन्तु 'सामजिक और सांस्कृतिक` रूप से प्रतिगामी हैं। मुक्तिबोध इन्हीं शक्तियों की पहचान का आह्वान करते हैं। वह प्रकट राजनीतिक दृष्टिकोण को गौण रखते हुए उन 'प्रेरणाओं और भावनाओं` पर बल देते हैं, जिससे साहित्य के आंतरिक तत्व रूपायित हुए हैं। उनकी यह कसौटी राजनीति से पलायन नहीं करती बल्कि बौद्धिक छद्मों को विखंडित करने का सूत़्र देती है। समकालीन हिन्दी साहित्य पर विचार करने के लिए मुक्तिबोध की इस कसौटी को निरंतर ध्यान में रखना चाहिए। बानगी के तौर पर इस कसौटी के आधार पर यहां हम समकालीन हिन्दी कविता पर विचार कर सकते हैं। बेहतर होगा कि आरंभिक तौर पर, सुविधा के लिए इसे एक क्षेत्र विशेष के संदर्भ में ही देखा जाए। मसलन, हम बिहार के समकालीन कवियों की राजनीतिक प्रवृतियों के उत्स की तलाश इस सूत्र के आधार पर करें। बिहार की समकालीन हिन्दी कविता की राजनीतिक प्रवृतियों की पहचान से पहले यह सहज प्रश्न आएगा कि क्या बिहार की अपनी कोई अलग 'हिंदी कविता` संभव है? क्या बिहार की हिन्दी कविता को भौगोलिक आधार पर अन्य प्रांतों की कविता से अलगाया जा सकता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर-'नहीं` होगा। जैसा कि मैंने ऊपर कहा यह सुविधा के लिए किया गया वर्गीकरण है। 'बिहार के कवि` अर्थात् वे, जिनकी काव्य संवेदना के निर्माण में बिहार की 'आंचलिकता` का योगदान है। वय और 'चर्चा` के अनुरूप इनमें से चार को प्रतिनिधि के तौर पर चुना जा सकता है-नागार्जुन, अरुण कमल, मदन कश्यप और संजय कुंदन। संभवत: इस बात को स्वीकार करने वाले अनेक होंगे कि इनमें सबसे गहरी और प्रगतिशील काव्य-संवेदना नागार्जुन की थी। उन्होंने ढेर सारी राजनीतिक कविताएं लिखीं। १९७४ में जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन ने लिखा 'इन्दु जी, इन्दु जी/क्या हुआ आपको/सत्ता के मद में/भूल गइंर् बाप को`। यह उस सत्ता को खुली चुनौती थी, जो जनता की स्वतंत्रता बाधित करने पर तुली थी। कवि जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इंदिरा को ललकार रहा था। आपातकाल के बाद बिहार में भी इंदिरा गांधी के वैचारिक विरोधियों की सरकार बनी। नई सरकार ने १९७८ में यहां उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। तब अरुण कमल ने लिखा 'फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते`। इस कविता में 'एक दूसरे की गर्दनों पर दांत पजाते` 'लाखों भुक्खड़` बहुसंख्यक जनता है। कवि यहां बाबा नागार्जुन की तरह सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा; वह जनता को गल़ीज़ बता रहा है। नागार्जुन जिसके पक्ष में सत्ता को चुनौती दे रहे थे अरुण यहां उसे ही गाली तक देने से नहीं चूकते। कविता की अंतिम पंक्तियों में वह रण दुदुंभी बजाते हैं 'मारे गए दस जन/मरेंगे और भी../बज रहा जोरों से ढोल/बज रहा जोरों से ढोल/ढोल`। कौन हैं ये 'दस जन`? 'मरेंगे और भी` पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह 'दस जन` नब्बे जनों के विरूद्ध एक रूपक है। कविता की पृष्ठभूमि में आरक्षण लागू होने के बाद बिहार में हुई हिंसा की एक घटना है, जिसमें उच्च सामाजिक समुदाय के लोग मारे गए थे। कवि अपने उच्च समाजिक समूह के ठंडेपन से व्यथित है 'खड़े रहो यूं ही कतारबद्ध/अपने घरों को ओटों पर/अभी और भी गुजरेंगी लाशें/इस रास्ते होकर..।`उन्हीं की युयुत्सा जगाने के लिए 'जोरों से ढोल` पीटा जा रहा है। बाद के संग्रहों में संकलित हिंसा के कथित विभिन्न रूपों को चित्रित करने वाली अरुण जी की कुछ अन्य कविताओं की ही तरह यहां भी सिर्फ उच्च सामाजिक समूहों के विरूद्ध 'बढ़ती हिंसा` कवि की चिंता और आक्रोश का विषय है। कवि का पूरा जोर 'भूखे कुत्तों` की फौज के विरूद्ध युद्ध की मुनादी (ढोल) करवाने पर है। यह अकारण नहीं है कि कविता का शीर्षक 'युद्ध क्षेत्र` रखा गया है और वह एक अतिरिक्त 'ढोल` शब्द के साथ खत्म होती है: 'बज रहा जोरों से ढोल /ढोल`। विडंबना ही है कि यह ढोल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ-साथ उच्च समाजिक समूहों से आने वाले अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी भी बजाते हैं। 'युद्ध क्षेत्र` १९८० में आए अरुण कमल के 'बहुचर्चित` प्रथम कविता संग्रह 'अपनी केवल धार` में संकलित है। उस संग्रह में कुछ और कविताएं इसी आशय और मिजाज की हैं। १९९० के बाद देश भर में वर्ण व्यवस्था में शोषित रही जनता की राजनैतिक ताकत बढ़ने लगी। नागार्जुन ने 'जय-जय हे दलितेंद्र/आपसे दहशत खाता केंद्र/मायावती आपकी शिष्‍या ...गुरु-गुन मायावती` लिखकर इस ऐतिहासिक घटना का प्रकारांतर से 'इतिहास के अचेतन उपकरण` (अनकंशेस टूल ऑफ हिस्ट्री) के रूप में स्वागत किया। तस्वीर उस समय भी इतनी साफ थी कि ऐसा नहीं माना जा सकता कि बाबा नागार्जुन कांशीराम की अवसरवादिता, सामाजिक न्याय की व्यक्ति केंद्रित राजनीति के विरोधाभासों को नहीं समझ रहे थे। लेकिन उन्होंने इन परिवर्तनों को बहुसंख्यक जनता की नजर से भी देखा। इसी समय अरुण कमल ने बिहार के संदर्भ में लिखा 'बिना मुंडेर वाली छत से वह दिन भर मूतता रहा/आते जाते किसी भी आदमी के सिर पर खल खल`। यह साफ तौर पर एक अभिजात भवि य-दृष्टि ही थी जिसके प्रभाव में उन्होंने इस कविता में घोषणा की कि'बीसवीं शताब्‍दी के एक और अजूबा` की मौत 'अपने ही खून और पेशाब` में डूब कर होगी। 'नए इलाके में` (१९९५) में संकलित 'असत्य के प्रयोग` शीर्षक इस कविता की ओर यात्री बाबा पर लिखते हुए (तुमि चिर सारथी, पहल द्वारा जारी पुस्तिका) मैथिली कथाकार तारानंद वियोगी का भी ध्यान गया था। 'साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत` इस संग्रह में अनेक कविताएं इसी भाव-भंगिमा की हैं! क्या कारण है कि वंचितों के प्रति पक्षधरता की हर संभव कोशिश करने वाला हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि इन ऐतिहासिक घटनाओं की प्रगतिशीलता को पकड़ने में चूका ही नहीं बल्कि अभद्रता की हदों तक प्रतिगामी हो चला? फिलहाल इसके कारणों को अनुत्तरित छोड उन लक्षणों पर गौर करें जो अरुण जी के साथ-साथ उनके अन्य परवर्ती कवियों में मौजूद हैं। अरुण कमल सामाजिक न्याय की परिघटना को बीसवीं शताब्‍दी का 'अजूबा` के रूप में देखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के मदन कश्यप को लगता है कि 'सिंहासन पर जा बैठा जोकर` (जोकर), 'सामाजिक न्याय की खिचड़ी पक रही` है और 'नए युग के कृष्‍णावतार /माखन की जगह चारा चुरा रहे` हैं (छवि की चिंता)। इसी तरह संजय कुंदन अचानक पाते हैं कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जहां 'गद्देदार कुर्सी पर बैठा एक विदूषक /अपने अज्ञान पर कतई शर्मिंदा नहीं है`। उन्हें हर तरफ मूर्खों की 'दीमकों की तरह बजबजाती हुई भीड़` नजर आती है। इन कविताओं में आने वाले अजूबा, जोकर, खिचड़ी, भीड़ आदि शब्द एक खास मन:स्थिति का पता देते हैं । इनमें बौखलाहट और हताशा है जिसका मूल स्वर दुर्वाशा के शाप की तरह का है। धमकी भरा और महानता की घृणा से बजबजाता। क्या यह अनायास है कि इन 'प्रतिनिधि` कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अरुण कमल में घृणा की यह बजबजहाट सबसे ज्यादा है? (प्रसंगवश, यह भी कि इस मामले में अन्य 'प्रतिनिधियों` से मदन कश्यप की कविता जरा पीछे है) इस घृणा का उत्स ढ़ूंढ़ने से पहले यह देख लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसी कविताओं को कौन सी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शक्तियां प्रतिष्‍ठा देती रही हैं। अरुण कमल की ज्यादातर कविताओं को 'निस्सार` बताने वाले तथा उन्हें 'नए इलाके में` पर मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९९८) को, खराब कृति पर 'अवांतर` कारणों से प्रदत्त, बताने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल का उसी लेख में 'असत्य के प्रयोग`पर आह्लादित मत दृष्‍टव्य है : "पाठकों से अपेक्षा है कि वे इस कविता को पूरा पढ़ें और बिहार के वर्तमान तानाशाह की भावी स्थिति का आनंद लें-अपने ही खून और पेशाब में डूबा /पड़ा है बीसवीं सदी का अजूबा। जैसी घृणा का पात्र वह तानाशाह है, उसके लिए वैसे ही घृणित शब्दों का अरुण कमल ने प्रयोग किया है। इस तरह यह कविता अर्थ और शब्द की एकता से होने वाले विस्फोट का एक सटीक उदाहरण है।" ('शताब्दी के अंत में कविता` शीर्षक लेख, कसौटी, अंक-१, अप्रैल-जून,१९९९) क्या यह बताने की आवश्यकता है कि 'खून और पेशाब` में लिथड़े किसी भी आदमजात को देखकर आनंद लेने की सलाह देना किस मानसिकता का परिचायक है। इस घृणित कविता पर आनंदित श्री नंदकिशोर नवल की कल्पना में भी शायद यह बात नहीं आती कि निकट भविष्‍य में ही वंचित सामाजिक समूहों से आने वाला विवेकवान पाठक उनका जिक्र आने पर चाह कर भी सभ्य भाषा का प्रयोग नहीं कर सकेगा। यहां एक रोचक बात यह भी जाननी चाहिए कि 'नए इलाके में` के बाद आए संग्रह 'पुतली में संसार` (२००६) को अरुण जी ने इन्हीं 'आदरणीय डॉ. नंदकिशोर नवल जी को कृतज्ञतापूर्वक` समर्पित किया है।(क्यों? सुधी पाठक स्वयं बूझें !) इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि नामवर सिंह जैसे प्रखर आलोचक, इन मुद्दों पर चिंतन करने बावजूद आजीवन समझौतापरस्त रूख अपनाए रहे हैं। सवर्णवादी साहित्य और आलोचना के सवाल पर उनकी दलील होती है कि 'हमारे समाज पर एक हजार वर्षों के जो बद्धमूल संस्कार हैं उसे खत्म करने के लिए एक हजार बरस का समय अगर न भी लगे तो कम से कम सौ-दो सौ साल का समय तो लगेगा ही।..उनसे कोई साहित्यकार अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद बचा नहीं रह सकता। ऐसे में आलोचक बचा रहेगा इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है?` (लीलाधर मंडलोई के सवाल पर नामवर सिंह, वर्तमान साहित्य का अलोचना अंक-३, जुलाई, २००२) इस यथास्थितवादी वक्तव्य को न तो व्याख्या की आवश्कता है, न ही यह सवाल खड़ा करने की कि १९३६ से चले जिस प्रगतिशील आंदोलन की प्रशंसा करते नामवर जी नहीं अघाते, उसका हासिल अखिर क्या है! इस 'सौ-दो सौ` साल का प्रस्थान बिंदु कब से माना जाए? और यह कि भारतीय समाज में वे 'अवांतर` कारक क्या हैं , जिनके आधार पर साहित्यिक समाज, संस्थाएं भी फैसले देती हैं? उपरोक्त 'प्रतिनिधि` कवियों के अलावा एकदम नए कवियों का जिक्र भी यहां प्रासंगिक होगा, जिनका काव्य व्यक्तित्व अभी निर्मित ही होने की प्रक्रिया में है। वर्ष २००० के बाद परिदृश्य में आए बिहार के इन नए कवियों का रूख थोड़ा अलग है। उनमें तुर्शी तो है लेकिन वैसी बौखलाहट नहीं है जैसी उनके पूर्ववर्तियों में रही है। वे इन राजनैतिक परिवर्तनों के प्रति उपहास का रूख नहीं रखते, उन्हें मूर्ख नहीं कहते-लेकिन उन्हें स्वीकार भी नहीं करते। वास्तव में इन नयों में पूर्ववर्तियों के ही दृष्टिकोण का एक किस्म का रूपांतरण है। मसलन, हरेप्रकाश उपाध्याय 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में कहते हैं : 'हम शिकायत नहीं करते/माथे के दर्द को दर्द नहीं कहते /हमें दो कौड़ी का बनिया गलिया देता है`(नया ज्ञानोदय, मई २००७ )। यहां सीधे तौर पर कोई राजनैतिक आग्रह नहीं है लेकिन मदन कश्यप के 'कृष्‍णावतार ` की तुलना में 'दो कौड़ी का बनिया` एकदम स्पष्‍ट शब्‍दावली है जो एक निश्चित सामाजिक समूह को अवहेलना की दृष्टि से देखती है। यह शब्दावली बताती है कि एक सामजिक समूह के रूप में बनिए की श्रेणीबद्धता निचली है-दो कौड़ी की है। कोई और सामाजिक समूह है, जिसे कौड़ियों में नहीं तौला जा सकता, वह अमूल्य है। नया कवि उसी के पक्ष में है, उसी के मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है। बहरहाल, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो यह कुछ आंतरिक तत्व हैं जो इन 'प्रतिनिधि` कवियों की कविताओं में रूपायित हुए हैं। अब उस प्रश्न की ओर लौटें कि अनेक अच्छी कविताएं देने वाले संवेदनशील कवियों की ऐसी प्रतिक्रियावादी, इतिहास-विमुख, एकांगी मनोदशा का उत्स कहां है? मुक्तिबोध साहित्य के आंतरिक तत्व की 'प्रेरणाओं और भावनाओं` की पहचान के साथ-साथ इस बात पर बल देते हैं कि उसके पीछे की 'सामाजिक और मनोवैज्ञानिक` शक्तियों की भी पहचान की जाए। नए कवि हरेप्रकाश उपाध्याय तो इन शक्तियों का पता उपरोक्त 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में ही दे देते हैं 'हम उन घरों से आए हैं/जहां भूखे रहकर मली जाती है मूंछ पर घी/जहां चार पैसे के लिए घर के भीतर टन्न-पुन्न हो जाती है/और दरवाजे पर बंधी रहती है हाथी की जंजीर`। 'दो कौड़ी का बनिया` जैसी हिंसक अभिव्यक्ति उसी सामंती परिवेश से आती है जहां भूखे रहकर मूंछों पर घी मलने का चलन रहा हो। सामाजिक न्याय का अचार बांधे कृष्‍णावतारों को देखने वाले मदन कश्यप जब अपने अतीत में झांकते हैं तो पाते हैं कि "मां के बक्से में 'कल्याण` की कुछ प्रतियां और नानी की चिट्ठयां थीं/पिता के संदूक में सन् ४८-४९ की कुछ फिल्मी पत्रिकाएं"। (शायद वे 'फिल्मी पत्रिकाएं` ही हैं, जो मदन जी को जरा कम प्रतिगामी बनाती हैं) वंचित तबकों के पक्ष में जाने वाले राजनैतिक माहौल के निकट से गुजरते हुए संजय कुंदन को लगता है कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जबकि उन्हें पिता को 'जनेऊ पर गंगाजल छिड़कते हुए (देखते)/लगता है/जैसे पूरी दुनिया को ही स्वच्छ बनाने में जुटे हों पिता` (पिता की बेचैनी)। बहुसंख्यक जनता को रोटी के एक टुकड़े के लिए कुत्ता का संबोधन देते हुए 'भुक्खड़` बताने वाले अरुण कमल के अब तक आए चारो कविता संग्रह उस विनयपत्रिका से शुरू होते हैं जहां तुलसीदास भीख मांगने की मुद्रा में हैं 'विनयपत्रिका दीन की, बापू! आपु ही बांचो..`। अरुण जी की अंतिम इच्छा भी उसी कर्मकांडी परिवेश का पता देती है 'ओ विराट गंगा पहला स्नान यहीं ,अंतिम स्नान भी यहीं`। (गंगा को प्यार) मुक्तिबोध की कसौटी यह भी चाहती है कि इस साहित्य के प्रभावों, सामाजिक शक्तियों द्वारा इसके उपयोग-दुरूपयोग तथा सामान्य जन पर इसके प्रभावों की भी गहनता से पहचान की जाए। किन्तु विस्तार संकोच के कारण यहां सिर्फ इतना कि यदि उच्च सामाजिक समूह से आए साहित्यिक की प्रतिबद्धता नागार्जुन की तरह 'बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त` जैसी भी न हो, मुक्तिबोध की भांति मस्तककुंड में जलती ज्वाला; सत्-चित-वेदना न हो तो स्वभावत: कच्चे माल के रूप में आंचलिकता के पुनसृजित रूप को किसी भौगोलिक भूखंड से अधिक रचनाकार का संस्कारगत परिवेश तय करने लगता है। जैसा कि हम बिहार के उन 'प्रतिनिधि` कवियों को पढ़ते हुए पाते हैं, जिनकी पृष्‍ठभूमि में सामंती-कर्मकांडी संस्कार रहे हैं। इसका प्रमाण कर्मकांडी पृष्‍ठभूमि के उच्च सामाजिक समूहों से आने वाले कवियों और वंचित समुदाय से आने वाले कवियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए भी पाया जा सकता है। कर्मकांडी-अभिजात पृष्‍ठभूमि वाले कवि जिसे मसखरा, जोकर और माथा पर मूतने वाला कहते हैं उसी राजनीतिक परिदृश्य के बारे में शोषित समुदाय से आने वाले कवि मुसाफिर बैठा की कविता देखें-लंगड़ा ही सही /अब लोकतंत्र आ गया है /जिसमें एकलव्यों के लिए भी पर्याप्त स्पेस होगा /चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण!! ( जन विकल्‍प के अगस्‍त अंक में लिखा ) इसे संशयात्‍मा पर भी देख सकते हैं -- जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी http://vikalpmonthly.googlepages.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070903/be552195/attachment.html From pramodrnjn at gmail.com Mon Sep 3 15:08:31 2007 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Mon, 3 Sep 2007 15:08:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KScIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkpOClgeCksuCkuOClgOCkl+Ckow==?= Message-ID: <9c56c5340709030238r4159530ej7def10cc5f86ede@mail.gmail.com> यह लेख दीवान के पाठकों के लिए भी उपयोगी होगा , यही सोच कर भेज रहा हूं । वैसे यह जन विकल्‍प , http://janvikalp.blogspot.com/ , के अगस्‍त अंक में प्रकाशित हो चुका है और अब मेरे ब्‍लॉग संशयात्‍मा , http://sanshyatma.blogspot.com/ , पर भी उपलब्‍ध है । आज के तुलसीगण किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अंत:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? -मुक्तिबोध आलोचना की इस ठोस कसौटी को उपेक्षित किए जाने के निहित कारण रहे हैं। प्रखर आलोचक मुक्तिबोध ने आलोचना का प्रतिमान गढ़ते हुए 'राजनैतिक दृष्टिकोण ` की चर्चा नहीं की है! लेकिन क्या मुक्तिबाध के आलोचक रूप की उपेक्षा का यही कारण है? या इस उपेक्षा के पीछे वे शक्तियां हैं जो राजनैतिक रूप से परिवर्तनकामी दिखती हैं किन्तु 'सामजिक और सांस्कृतिक` रूप से प्रतिगामी हैं। मुक्तिबोध इन्हीं शक्तियों की पहचान का आह्वान करते हैं। वह प्रकट राजनीतिक दृष्टिकोण को गौण रखते हुए उन 'प्रेरणाओं और भावनाओं` पर बल देते हैं, जिससे साहित्य के आंतरिक तत्व रूपायित हुए हैं। उनकी यह कसौटी राजनीति से पलायन नहीं करती बल्कि बौद्धिक छद्मों को विखंडित करने का सूत़्र देती है। समकालीन हिन्दी साहित्य पर विचार करने के लिए मुक्तिबोध की इस कसौटी को निरंतर ध्यान में रखना चाहिए। बानगी के तौर पर इस कसौटी के आधार पर यहां हम समकालीन हिन्दी कविता पर विचार कर सकते हैं। बेहतर होगा कि आरंभिक तौर पर, सुविधा के लिए इसे एक क्षेत्र विशेष के संदर्भ में ही देखा जाए। मसलन, हम बिहार के समकालीन कवियों की राजनीतिक प्रवृतियों के उत्स की तलाश इस सूत्र के आधार पर करें। बिहार की समकालीन हिन्दी कविता की राजनीतिक प्रवृतियों की पहचान से पहले यह सहज प्रश्न आएगा कि क्या बिहार की अपनी कोई अलग 'हिंदी कविता` संभव है? क्या बिहार की हिन्दी कविता को भौगोलिक आधार पर अन्य प्रांतों की कविता से अलगाया जा सकता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर-'नहीं` होगा। जैसा कि मैंने ऊपर कहा यह सुविधा के लिए किया गया वर्गीकरण है। 'बिहार के कवि` अर्थात् वे, जिनकी काव्य संवेदना के निर्माण में बिहार की 'आंचलिकता` का योगदान है। वय और 'चर्चा` के अनुरूप इनमें से चार को प्रतिनिधि के तौर पर चुना जा सकता है-नागार्जुन, अरुण कमल, मदन कश्यप और संजय कुंदन। संभवत: इस बात को स्वीकार करने वाले अनेक होंगे कि इनमें सबसे गहरी और प्रगतिशील काव्य-संवेदना नागार्जुन की थी। उन्होंने ढेर सारी राजनीतिक कविताएं लिखीं। १९७४ में जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन ने लिखा 'इन्दु जी, इन्दु जी/क्या हुआ आपको/सत्ता के मद में/भूल गइंर् बाप को`। यह उस सत्ता को खुली चुनौती थी, जो जनता की स्वतंत्रता बाधित करने पर तुली थी। कवि जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इंदिरा को ललकार रहा था। आपातकाल के बाद बिहार में भी इंदिरा गांधी के वैचारिक विरोधियों की सरकार बनी। नई सरकार ने १९७८ में यहां उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। तब अरुण कमल ने लिखा 'फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते`। इस कविता में 'एक दूसरे की गर्दनों पर दांत पजाते` 'लाखों भुक्खड़` बहुसंख्यक जनता है। कवि यहां बाबा नागार्जुन की तरह सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा; वह जनता को गल़ीज़ बता रहा है। नागार्जुन जिसके पक्ष में सत्ता को चुनौती दे रहे थे अरुण यहां उसे ही गाली तक देने से नहीं चूकते। कविता की अंतिम पंक्तियों में वह रण दुदुंभी बजाते हैं 'मारे गए दस जन/मरेंगे और भी../बज रहा जोरों से ढोल/बज रहा जोरों से ढोल/ढोल`। कौन हैं ये 'दस जन`? 'मरेंगे और भी` पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह 'दस जन` नब्बे जनों के विरूद्ध एक रूपक है। कविता की पृष्ठभूमि में आरक्षण लागू होने के बाद बिहार में हुई हिंसा की एक घटना है, जिसमें उच्च सामाजिक समुदाय के लोग मारे गए थे। कवि अपने उच्च समाजिक समूह के ठंडेपन से व्यथित है 'खड़े रहो यूं ही कतारबद्ध/अपने घरों को ओटों पर/अभी और भी गुजरेंगी लाशें/इस रास्ते होकर..।`उन्हीं की युयुत्सा जगाने के लिए 'जोरों से ढोल` पीटा जा रहा है। बाद के संग्रहों में संकलित हिंसा के कथित विभिन्न रूपों को चित्रित करने वाली अरुण जी की कुछ अन्य कविताओं की ही तरह यहां भी सिर्फ उच्च सामाजिक समूहों के विरूद्ध 'बढ़ती हिंसा` कवि की चिंता और आक्रोश का विषय है। कवि का पूरा जोर 'भूखे कुत्तों` की फौज के विरूद्ध युद्ध की मुनादी (ढोल) करवाने पर है। यह अकारण नहीं है कि कविता का शीर्षक 'युद्ध क्षेत्र` रखा गया है और वह एक अतिरिक्त 'ढोल` शब्द के साथ खत्म होती है: 'बज रहा जोरों से ढोल /ढोल`। विडंबना ही है कि यह ढोल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ-साथ उच्च समाजिक समूहों से आने वाले अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी भी बजाते हैं। 'युद्ध क्षेत्र` १९८० में आए अरुण कमल के 'बहुचर्चित` प्रथम कविता संग्रह 'अपनी केवल धार` में संकलित है। उस संग्रह में कुछ और कविताएं इसी आशय और मिजाज की हैं। १९९० के बाद देश भर में वर्ण व्यवस्था में शोषित रही जनता की राजनैतिक ताकत बढ़ने लगी। नागार्जुन ने 'जय-जय हे दलितेंद्र/आपसे दहशत खाता केंद्र/मायावती आपकी शिष्‍या ...गुरु-गुन मायावती` लिखकर इस ऐतिहासिक घटना का प्रकारांतर से 'इतिहास के अचेतन उपकरण` (अनकंशेस टूल ऑफ हिस्ट्री) के रूप में स्वागत किया। तस्वीर उस समय भी इतनी साफ थी कि ऐसा नहीं माना जा सकता कि बाबा नागार्जुन कांशीराम की अवसरवादिता, सामाजिक न्याय की व्यक्ति केंद्रित राजनीति के विरोधाभासों को नहीं समझ रहे थे। लेकिन उन्होंने इन परिवर्तनों को बहुसंख्यक जनता की नजर से भी देखा। इसी समय अरुण कमल ने बिहार के संदर्भ में लिखा 'बिना मुंडेर वाली छत से वह दिन भर मूतता रहा/आते जाते किसी भी आदमी के सिर पर खल खल`। यह साफ तौर पर एक अभिजात भवि य-दृष्टि ही थी जिसके प्रभाव में उन्होंने इस कविता में घोषणा की कि'बीसवीं शताब्‍दी के एक और अजूबा` की मौत 'अपने ही खून और पेशाब` में डूब कर होगी। 'नए इलाके में` (१९९५) में संकलित 'असत्य के प्रयोग` शीर्षक इस कविता की ओर यात्री बाबा पर लिखते हुए (तुमि चिर सारथी, पहल द्वारा जारी पुस्तिका) मैथिली कथाकार तारानंद वियोगी का भी ध्यान गया था। 'साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत` इस संग्रह में अनेक कविताएं इसी भाव-भंगिमा की हैं! क्या कारण है कि वंचितों के प्रति पक्षधरता की हर संभव कोशिश करने वाला हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि इन ऐतिहासिक घटनाओं की प्रगतिशीलता को पकड़ने में चूका ही नहीं बल्कि अभद्रता की हदों तक प्रतिगामी हो चला? फिलहाल इसके कारणों को अनुत्तरित छोड उन लक्षणों पर गौर करें जो अरुण जी के साथ-साथ उनके अन्य परवर्ती कवियों में मौजूद हैं। अरुण कमल सामाजिक न्याय की परिघटना को बीसवीं शताब्‍दी का 'अजूबा` के रूप में देखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के मदन कश्यप को लगता है कि 'सिंहासन पर जा बैठा जोकर` (जोकर), 'सामाजिक न्याय की खिचड़ी पक रही` है और 'नए युग के कृष्‍णावतार /माखन की जगह चारा चुरा रहे` हैं (छवि की चिंता)। इसी तरह संजय कुंदन अचानक पाते हैं कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जहां 'गद्देदार कुर्सी पर बैठा एक विदूषक /अपने अज्ञान पर कतई शर्मिंदा नहीं है`। उन्हें हर तरफ मूर्खों की 'दीमकों की तरह बजबजाती हुई भीड़` नजर आती है। इन कविताओं में आने वाले अजूबा, जोकर, खिचड़ी, भीड़ आदि शब्द एक खास मन:स्थिति का पता देते हैं । इनमें बौखलाहट और हताशा है जिसका मूल स्वर दुर्वाशा के शाप की तरह का है। धमकी भरा और महानता की घृणा से बजबजाता। क्या यह अनायास है कि इन 'प्रतिनिधि` कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अरुण कमल में घृणा की यह बजबजहाट सबसे ज्यादा है? (प्रसंगवश, यह भी कि इस मामले में अन्य 'प्रतिनिधियों` से मदन कश्यप की कविता जरा पीछे है) इस घृणा का उत्स ढ़ूंढ़ने से पहले यह देख लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसी कविताओं को कौन सी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शक्तियां प्रतिष्‍ठा देती रही हैं। अरुण कमल की ज्यादातर कविताओं को 'निस्सार` बताने वाले तथा उन्हें 'नए इलाके में` पर मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९९८) को, खराब कृति पर 'अवांतर` कारणों से प्रदत्त, बताने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल का उसी लेख में 'असत्य के प्रयोग`पर आह्लादित मत दृष्‍टव्य है : "पाठकों से अपेक्षा है कि वे इस कविता को पूरा पढ़ें और बिहार के वर्तमान तानाशाह की भावी स्थिति का आनंद लें-अपने ही खून और पेशाब में डूबा /पड़ा है बीसवीं सदी का अजूबा। जैसी घृणा का पात्र वह तानाशाह है, उसके लिए वैसे ही घृणित शब्दों का अरुण कमल ने प्रयोग किया है। इस तरह यह कविता अर्थ और शब्द की एकता से होने वाले विस्फोट का एक सटीक उदाहरण है।" ('शताब्दी के अंत में कविता` शीर्षक लेख, कसौटी, अंक-१, अप्रैल-जून,१९९९) क्या यह बताने की आवश्यकता है कि 'खून और पेशाब` में लिथड़े किसी भी आदमजात को देखकर आनंद लेने की सलाह देना किस मानसिकता का परिचायक है। इस घृणित कविता पर आनंदित श्री नंदकिशोर नवल की कल्पना में भी शायद यह बात नहीं आती कि निकट भविष्‍य में ही वंचित सामाजिक समूहों से आने वाला विवेकवान पाठक उनका जिक्र आने पर चाह कर भी सभ्य भाषा का प्रयोग नहीं कर सकेगा। यहां एक रोचक बात यह भी जाननी चाहिए कि 'नए इलाके में` के बाद आए संग्रह 'पुतली में संसार` (२००६) को अरुण जी ने इन्हीं 'आदरणीय डॉ. नंदकिशोर नवल जी को कृतज्ञतापूर्वक` समर्पित किया है।(क्यों? सुधी पाठक स्वयं बूझें !) इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि नामवर सिंह जैसे प्रखर आलोचक, इन मुद्दों पर चिंतन करने बावजूद आजीवन समझौतापरस्त रूख अपनाए रहे हैं। सवर्णवादी साहित्य और आलोचना के सवाल पर उनकी दलील होती है कि 'हमारे समाज पर एक हजार वर्षों के जो बद्धमूल संस्कार हैं उसे खत्म करने के लिए एक हजार बरस का समय अगर न भी लगे तो कम से कम सौ-दो सौ साल का समय तो लगेगा ही।..उनसे कोई साहित्यकार अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद बचा नहीं रह सकता। ऐसे में आलोचक बचा रहेगा इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है?` (लीलाधर मंडलोई के सवाल पर नामवर सिंह, वर्तमान साहित्य का अलोचना अंक-३, जुलाई, २००२) इस यथास्थितवादी वक्तव्य को न तो व्याख्या की आवश्कता है, न ही यह सवाल खड़ा करने की कि १९३६ से चले जिस प्रगतिशील आंदोलन की प्रशंसा करते नामवर जी नहीं अघाते, उसका हासिल अखिर क्या है! इस 'सौ-दो सौ` साल का प्रस्थान बिंदु कब से माना जाए? और यह कि भारतीय समाज में वे 'अवांतर` कारक क्या हैं , जिनके आधार पर साहित्यिक समाज, संस्थाएं भी फैसले देती हैं? उपरोक्त 'प्रतिनिधि` कवियों के अलावा एकदम नए कवियों का जिक्र भी यहां प्रासंगिक होगा, जिनका काव्य व्यक्तित्व अभी निर्मित ही होने की प्रक्रिया में है। वर्ष २००० के बाद परिदृश्य में आए बिहार के इन नए कवियों का रूख थोड़ा अलग है। उनमें तुर्शी तो है लेकिन वैसी बौखलाहट नहीं है जैसी उनके पूर्ववर्तियों में रही है। वे इन राजनैतिक परिवर्तनों के प्रति उपहास का रूख नहीं रखते, उन्हें मूर्ख नहीं कहते-लेकिन उन्हें स्वीकार भी नहीं करते। वास्तव में इन नयों में पूर्ववर्तियों के ही दृष्टिकोण का एक किस्म का रूपांतरण है। मसलन, हरेप्रकाश उपाध्याय 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में कहते हैं : 'हम शिकायत नहीं करते/माथे के दर्द को दर्द नहीं कहते /हमें दो कौड़ी का बनिया गलिया देता है`(नया ज्ञानोदय, मई २००७ )। यहां सीधे तौर पर कोई राजनैतिक आग्रह नहीं है लेकिन मदन कश्यप के 'कृष्‍णावतार ` की तुलना में 'दो कौड़ी का बनिया` एकदम स्पष्‍ट शब्‍दावली है जो एक निश्चित सामाजिक समूह को अवहेलना की दृष्टि से देखती है। यह शब्दावली बताती है कि एक सामजिक समूह के रूप में बनिए की श्रेणीबद्धता निचली है-दो कौड़ी की है। कोई और सामाजिक समूह है, जिसे कौड़ियों में नहीं तौला जा सकता, वह अमूल्य है। नया कवि उसी के पक्ष में है, उसी के मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है। बहरहाल, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो यह कुछ आंतरिक तत्व हैं जो इन 'प्रतिनिधि` कवियों की कविताओं में रूपायित हुए हैं। अब उस प्रश्न की ओर लौटें कि अनेक अच्छी कविताएं देने वाले संवेदनशील कवियों की ऐसी प्रतिक्रियावादी, इतिहास-विमुख, एकांगी मनोदशा का उत्स कहां है? मुक्तिबोध साहित्य के आंतरिक तत्व की 'प्रेरणाओं और भावनाओं` की पहचान के साथ-साथ इस बात पर बल देते हैं कि उसके पीछे की 'सामाजिक और मनोवैज्ञानिक` शक्तियों की भी पहचान की जाए। नए कवि हरेप्रकाश उपाध्याय तो इन शक्तियों का पता उपरोक्त 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में ही दे देते हैं 'हम उन घरों से आए हैं/जहां भूखे रहकर मली जाती है मूंछ पर घी/जहां चार पैसे के लिए घर के भीतर टन्न-पुन्न हो जाती है/और दरवाजे पर बंधी रहती है हाथी की जंजीर`। 'दो कौड़ी का बनिया` जैसी हिंसक अभिव्यक्ति उसी सामंती परिवेश से आती है जहां भूखे रहकर मूंछों पर घी मलने का चलन रहा हो। सामाजिक न्याय का अचार बांधे कृष्‍णावतारों को देखने वाले मदन कश्यप जब अपने अतीत में झांकते हैं तो पाते हैं कि "मां के बक्से में 'कल्याण` की कुछ प्रतियां और नानी की चिट्ठयां थीं/पिता के संदूक में सन् ४८-४९ की कुछ फिल्मी पत्रिकाएं"। (शायद वे 'फिल्मी पत्रिकाएं` ही हैं, जो मदन जी को जरा कम प्रतिगामी बनाती हैं) वंचित तबकों के पक्ष में जाने वाले राजनैतिक माहौल के निकट से गुजरते हुए संजय कुंदन को लगता है कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जबकि उन्हें पिता को 'जनेऊ पर गंगाजल छिड़कते हुए (देखते)/लगता है/जैसे पूरी दुनिया को ही स्वच्छ बनाने में जुटे हों पिता` (पिता की बेचैनी)। बहुसंख्यक जनता को रोटी के एक टुकड़े के लिए कुत्ता का संबोधन देते हुए 'भुक्खड़` बताने वाले अरुण कमल के अब तक आए चारो कविता संग्रह उस विनयपत्रिका से शुरू होते हैं जहां तुलसीदास भीख मांगने की मुद्रा में हैं 'विनयपत्रिका दीन की, बापू! आपु ही बांचो..`। अरुण जी की अंतिम इच्छा भी उसी कर्मकांडी परिवेश का पता देती है 'ओ विराट गंगा पहला स्नान यहीं ,अंतिम स्नान भी यहीं`। (गंगा को प्यार) मुक्तिबोध की कसौटी यह भी चाहती है कि इस साहित्य के प्रभावों, सामाजिक शक्तियों द्वारा इसके उपयोग-दुरूपयोग तथा सामान्य जन पर इसके प्रभावों की भी गहनता से पहचान की जाए। किन्तु विस्तार संकोच के कारण यहां सिर्फ इतना कि यदि उच्च सामाजिक समूह से आए साहित्यिक की प्रतिबद्धता नागार्जुन की तरह 'बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त` जैसी भी न हो, मुक्तिबोध की भांति मस्तककुंड में जलती ज्वाला; सत्-चित-वेदना न हो तो स्वभावत: कच्चे माल के रूप में आंचलिकता के पुनसृजित रूप को किसी भौगोलिक भूखंड से अधिक रचनाकार का संस्कारगत परिवेश तय करने लगता है। जैसा कि हम बिहार के उन 'प्रतिनिधि` कवियों को पढ़ते हुए पाते हैं, जिनकी पृष्‍ठभूमि में सामंती-कर्मकांडी संस्कार रहे हैं। इसका प्रमाण कर्मकांडी पृष्‍ठभूमि के उच्च सामाजिक समूहों से आने वाले कवियों और वंचित समुदाय से आने वाले कवियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए भी पाया जा सकता है। कर्मकांडी-अभिजात पृष्‍ठभूमि वाले कवि जिसे मसखरा, जोकर और माथा पर मूतने वाला कहते हैं उसी राजनीतिक परिदृश्य के बारे में शोषित समुदाय से आने वाले कवि मुसाफिर बैठा की कविता देखें-लंगड़ा ही सही /अब लोकतंत्र आ गया है /जिसमें एकलव्यों के लिए भी पर्याप्त स्पेस होगा /चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण!! ( जन विकल्‍प के अगस्‍त अंक में लिखा ) इसे संशयात्‍मा पर भी देख सकते हैं -- जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी http://vikalpmonthly.googlepages.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070903/be552195/attachment-0001.html From neelimasayshi at gmail.com Mon Sep 3 17:25:02 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Mon, 3 Sep 2007 17:25:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KS34KS+?= =?utf-8?b?IOCkruClh+CkgiDgpK3gpKbgpYfgpLgg4KSV4KS+IOCknOCkr+CkmA==?= =?utf-8?b?4KWL4KS3?= Message-ID: <749797f90709030455s4acdfc9fmcea7ec86ac7899ef@mail.gmail.com> कथादेश में इंटरनेट के मोहल्‍ले की अगली किस्‍त हाजिर है। इंटरनेट का मोहल्ला *भाषा में भदेस का जयघोष* अविनाश हिंदुस्तान या किसी भी मुल्क के समाज में अछूत कौन होते हैं? जिन्हें सलीके से उठने-बैठने की ट्रेनिंग नहीं होती और जिन्हें परंपरा से मिले हुए पिछड़ेपन की वजह से मुख्यधारा में कोई बैठने नहीं देना चाहता। जिनके बोलने से अभिजातों की तहज़ीब का रेशा नज़र नहीं आता। जिन्हें जैसे रहना होता है, वैसे रहते हैं और जिन्हें ज़मीन पर थोड़ी देर सो लेने के लिए साफ या एक पूरी चादर की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती। हिंदुस्तान की आज़ादी से पहले अछूतोद्धार की पहली घटना के बाद आज भी राजस्थान या उड़ीसा के किसी मंदिर में अछूत-प्रवेश जैसे आंदोलनों का समाचार कभी-कभी मिलता रहता है- लेकिन ऐसे समाचारों से अलग दूसरे मोर्चों पर भी अछूत अलग से नज़र आते हैं। अंग्रेज़ी बोलने वाला अंग्रेज़ी नहीं बोलने वालों को अछूत समझता है। दिल्ली की हिंदी बोलने वाला यूपी-बिहार की हिंदी बोलने वालों को अछूत समझता है। लोकबोलियों में ऊंची जाति की जो संवाद परंपरा है, उसमें नीची जाति के बोलने के तरीक़ों की हंसी उड़ायी जाती है। और ये सब सिर्फ लोकाचारों तक सीमित नहीं है- अभिव्यक्ति की दुनिया में भी ये छुआछूत साफ़ साफ़ नज़र आता है। किसी को धूमिल की भाषा पर एतराज़ रहा है, तो कहीं राही मासूम रज़ा की किताब को टेक्स्ट बुक में शामिल होने पर बवाल होता रहा है। कहीं विद्यापति को वयस्कों का कवि घोषित किया जाता रहा है, तो कोई जमात राजेंद्र यादव के हंस की होली जलाता रहा है। लेकिन तमाम एतराज़ और छूआछूत के बाद भी नागरिकता और अभिव्यक्ति की जंग जारी है। हिंदी ब्लॉगिंग में पिछले दिनों एक ऐसे ब्लॉग का आना हुआ, जिसकी भाषा कुछ कुछ बनारस में होली के मौक़ों पर निकलने वाली एडल्ट बुलेटिन का स्वाद देती है। अगर ये एक आदमी का ब्लॉग होता, तो फिर भी गऩीमत थी। लेकिन ये एक सामूहिक ब्लॉग के रूप में सामने आया। यानी इसके ऑथर पहले ही दिन से एक नहीं, एक दर्जन थे। अब इनकी तादाद पचास से ज्य़ादा है। ये सब के सब पत्रकार हैं। इनमें से ज्य़ादातर मेरठ, कानपुर और नोएडा के अखब़ारी पत्रकार हैं। एकाध टेलीविज़न के लोग भी शामिल हैं। ब्लॉग का नाम है, भड़ास (http://bhadas.blogspot.com)। और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता है, ये मन की भड़ास निकालने वालों का मंच है। अगर आपकी पृष्ठभूमि भदेस है, तो भड़ास गालियों के ज़रिये भी निकलेगी- सो यहां गालियां भी पूरे वर्णों और शब्दों में निकलती हैं। हिंदी कहानियों में प्रयोग होने वाले 'भैण डॉट डॉट डॉट` की तरह नहीं। और यही बात ब्लॉगिंग के दूसरे दिग्गजों के एतराज़ को मुखर करता रहा है। नारद एग्रीगेटर इसके अपडेट्स नहीं दिखाता। चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर इसके अपडेट्स आते हैं। लेकिन कुछ पवित्रतावादी ब्लॉगर्स ने, जहां तक मुझे सूचना है, ब्लॉगवाणी को यह खत़ लिख कर भेजा कि आपके एग्रीगेटर पर कुछ अश्लील और भद्दे अपडेट्स आते हैं, कृपा कर हमारे ब्लॉग की फीड अपने एग्रीगेटर से हटा दें। ब्लॉगवाणी वालों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। यानी यह क़दम हिंदी ब्लॉगिंग में भाषाई वैविध्य के स्वीकार का क़दम है- और जिन्हें यह स्वीकार नहीं, उनके लिए ब्लॉगिंग का कोई मतलब भी नहीं। वे ब्लॉगिंग के भीतर जातीय महासभाएं बना रहे हैं और छूआछूत के नये मानक गढ़ रहे हैं। हिंदी ब्लॉगिंग पर शोध करने वाली नीलिमा ने पिछले दिनों इन्हें अच्छी लताड़ लगायी। अपने ब्लॉग वाद संवाद (http://vadsamvad.blogspot.com) पर नीलिमा ने लिखा, आपकी गंधाती पुलक से कहीं बेहतर है, उनकी भड़ास।यह उन्वान था, जिसके मजमून की शुरुआत कुछ यूं थी, *भड़ास हिंदी ब्लॉग जगत के लिए चुनौती रहा है, जिसे नारद युग में तो केवल नज़रअंदाज़ कर ही काम चला लेने के प्रवृत्ति रही, पर जैसे ही नारद युग का अवसान हुआ, भड़ास की उपेक्षा करना असंभव हो गया। करने वाले अब भी अभिनय करते हैं, पर हिंदी ब्लॉगिंग पर नज़र रखने वाले जानते हैं कि भड़ास का उदय तो नारद के पतन से भी ज्य़ादा नाटकीय है। इतने कम समय में भड़ास के सदस्यों की ही संख्या ५३ है। भड़ास अपनी प्रकृति से ही आंतरिक का सामने आ जाना है- जो दबा है उसका बाहर आना। भड़ास हर किसी की होती है, पर बाहर हर कोई नहीं उगल पाता, इसके लिए साहस चाहिए होता है। भड़ास का बाहर आना केवल व्यक्ति के लिए ही साहस का काम नहीं है, वरन पब्लिक स्फेयर के लिए भी साहस की बात है कि वह लोगों की भड़ास का सामना कर सके, क्योंकि भड़ास साधुवाद का एंटीथीसिस है- हम भी वाह तुम भी वाह वाह नहीं है यह। हम भी कूड़ा तुम भी कूड़ा है यह। * यानी हिंदी ब्लॉगिंग पर अछूतोद्धार की इस पहली घटना का जितना स्वागत हुआ, उससे कहीं अधिक पुराने ब्लॉगियों ने इस घटना के रचाव के स्रोत पर ही संदेह कर डाला। ये जंग एक स्त्री के ज़रिये छेड़ा जाना उन्हें नागवार गुज़रा और उन्होंने आरोप लगाया कि यह किसी पुरुष भाषाशास्त्री की जंग है, जो शिखंडी की आड़ में वार करना चाहता है। नीलिमा ने इसका जवाब भी दिया, साफ है कि जिन संरचनाओं की हम देन हैं, उनका असर लाख प्रबुद्धता के बाद भी दिखाई दे जाता है! पहली बार भड़ास की भाषा पर हुआ ये विमर्श भड़ास के मेंबरानों के लिए उत्साह का सबब था। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सार्वजनिक रूप से ये बातचीत की कि नीलिमा को भड़ास का हेडमिस्ट्रेस बना दिया जाए। क्योंकि कभी कभी कोई पत्रकार भड़ास में अभिजातों की भाषा लेकर आ जाता है और गंभीर बातचीत छेड़ने की कोशिश करता है। ऐसे में भड़ास अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। नीलिमा इस पर नज़र रखें और टोक दिया करें कि भई ऐसा क्यों हो रहा है! भड़ास की भाषा बिगड़ती क्यों जा रही है! शायद ये प्रस्ताव 'हंसी-हंसी की भड़ास` था और हवा में उड़ गया। लेकिन, भड़ास की इस बानगी का संदेश सिर्फ इतना है कि ब्लॉगिंग के ज़रिये भाषा अब उन तमाम रूपों प्रकाशित हो रही है, जिनके दरवाज़े पर कभी दरबान बैठे होते थे। ब्लॉगिंग ने दरबानों की गर्दन पकड़ ली है, संपादकों को अंगूठा दिखा दिया है... और पवित्र मंत्र-ध्वनियों के बीच शोर मचाता हुआ आगे बढ़ रहा है। -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070903/94097031/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Sep 4 11:34:16 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Mon, 3 Sep 2007 23:04:16 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWC4KSX4KSy?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJPgpLAg4KS44KWH?= Message-ID: <724786.95821.qm@web52910.mail.re2.yahoo.com> http://www.google.com/transliterate/indic/ स्वाद लें गूगल के इस नए व्यंजन का... राजेश ____________________________________________________________________________________ Need a vacation? Get great deals to amazing places on Yahoo! Travel. http://travel.yahoo.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070903/a164f38a/attachment.html From bhagwati at sarai.net Tue Sep 4 12:03:39 2007 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Tue, 04 Sep 2007 12:03:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Etienne Balibar @ DU Message-ID: <46DCFC43.5000808@sarai.net> Scholars for Critical Practice, a small > interdisciplinary group of teachers from Delhi > University, invites you to a lecture by the > distinguished French philosopher, Etienne Balibar, > on Monday, September 17th 2007, at 11 am. > Venue: Auditorium of the Academic Research Centre, > Delhi University (opposite Khalsa College). > > Professor Balibar will speak on his current work in > progress: > "From Internationalism to Cosmopolitics?" > This work is a critical confrontation with the > Marxian legacy, but also involves considerations on > citizenship, universalism and difference. > > Please save the date. > > > > From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 4 13:37:49 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 4 Sep 2007 13:37:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSi4KS8?= Message-ID: <6a32f8f0709040107y42212880m70a7171af4d7282a@mail.gmail.com> *पनियां आ गैलो है--* पश्चिम चंपारण के सिकटा में रहने वाले लोग जमीन से ऊपर हैं। आखिर जमीन पर पांव रखें भी तो कैसे! वहां तो पानी फैला है। यही हाल उत्तरी बिहार के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों का है जो लोग जमीन से ऊपर सतह की तलाश कर सके वो बच गए, बाकी बह गए। जानवरों की स्थिति और भी बुरी रही। अब मृत्यु के तरल दूत से इन्हें कौन बचाए.....। सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। मुख्यमंत्री मारीशस से तफरीह करके आए हैं। हवा में हवाई सर्वेक्षण करते हुए मनभावन टिप्पणियां कर रहे हैं। कहते है-- आग लगने पर कुआं खोदा जा रहा है। अब इनसे कौन पूछे कि भई! कुआं पहले क्यों नहीं खोदवा लिया गया था। आखिर लोग तो आपके ही हैं। खैर! हमारी ट्रेन मोकामा से भागलपुर की ओर तेजी से बढ़ रही है। पानी पटरी के दोनों तरफ फैला है। दूर तक यही स्थिति है। कई गांव अधडूबे दिख रहे हैं। हम सहया त्री खजूर के पेड़ को देखकर पानी की गहराई का अंदाजा लगा रहे हैं। ट्रेन पूरा एक घंटा देरी के बावजूद अपनी रफ्तार पकड़े हुए है। कौन ससुरा कहेगा कि ट्रेन देरी से चल रही है, यहां घंटा भर लेट भी राइट-टाइम है। दरअसल, ऐसी ही सरकारी प्रवृत्तियां बाढ़ को अपने भयावह स्थिति तक पहुंचने में सहयोग देती है। उत्तर बिहार के ज्यादातर शहर टापू बन गए हैं। और देहाती इलाके डूबे हुए हैं। इन इलाकों में राज्य प्रशासन की गाड़ियां चक्कर लगा रही हैं। लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भाग रहे हैं। बेचारे कहां जाएं। क्या करें! बाढ़ का पानी घर में घुस आया है। कोई चाक-चौबंद व्यवस्था नहीं है। ऊपर से लगातार हो रही बारिश से निपटने का कोई बंदोबस्त भी नहीं है। ऐसी ही विनाशलीला का भयावह रूप खगड़िया, बेगूसराय के ग्रामीण इलाकों में है। ऐसा लगातार सुनने को मिल रहा है। सहयात्रियों के बीच गरमागरम बहस जारी है। स्थानीय लोग बतलाते हैं कि यदि प्रशासन भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर तैयार होता तो बाढ़ ग्रस्त इलाकों में मौत का ग्राफ इतना ऊपर नहीं जाता। संचार माध्यम से ऐसी जानकारी मिल रही है कि राज्य के 17 जिलों में एक करोड़ से अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है। साढ़े सात लाख हेक्टेयर खेत में लगी फसल बर्बाद हुई है। और 57 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। विक्रमशीला ट्रेन भागलपुर पहुंचने वाली है। बाढ़ का पानी अब भी दिखाई दे रहा है। घर पहुंचने की जल्दी है। देखूं! गांव की क्या स्थिति है? अपना देश आजादी के 60 वर्ष पूरा कर चुका है। स्थितियां पहले साल जैसी हैं। ताज्जुब की बात है बाढ़ से बचने के लिए जहां कहीं थोड़े बहुत उपाय किए गए हैं, वहां तो और भी भयानक बाढ़ आई है। इस वर्ष देश के 20 राज्यों में 1200 लोग बाढ़ की वजह से मर चुके हैं। तीन करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। सत्तार हजार के करीब पशु बह गए हैं। और करोड़ों की सम्पत्ति तबाह हो गई है। आए दिन आंकड़ों के साथ ऐसी खबरें अखबारों में पढ़ रहा हूं। माथा खरब हो गया है।गांव में रतजगा चल रहा है। घर की छप्पड़ पर दिन गुजर रहा है। हाय रे विकास...। दूर से आवाजें आ रहीं हैं—भा..ग-भा..ग। पनियां आ रहलो है. आ..गैलो है। भाग..भा..ग ...। * * *ब्रजेश झा* -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-42368 Size: 93591 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070904/437913e2/attachment.bin From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 4 14:23:14 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 4 Sep 2007 14:23:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSi4KS8?= Message-ID: <6a32f8f0709040153w420f4cc2r48190203c1607f2@mail.gmail.com> *पनियां आ रहलो है* * * पश्चिम चंपारण के सिकटा में रहने वाले लोग जमीन से ऊपर हैं। आखिर जमीन पर पांव रखें भी तो कैसे! वहां तो पानी फैला है। यही हाल उत्तरी बिहार के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों का है जो लोग जमीन से ऊपर सतह की तलाश कर सके वो बच गए, बाकी बह गए। जानवरों की स्थिति और भी बुरी रही। अब मृत्यु के तरल दूत से इन्हें कौन बचाए.....। सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। मुख्यमंत्री मारीशस से तफरीह करके आए हैं। हवा में हवाई सर्वेक्षण करते हुए मनभावन टिप्पणियां कर रहे हैं। कहते है-- आग लगने पर कुआं खोदा जा रहा है। अब इनसे कौन पूछे कि भई! कुआं पहले क्यों नहीं खोदवा लिया गया था। आखिर लोग तो आपके ही हैं। खैर! हमारी ट्रेन मोकामा से भागलपुर की ओर तेजी से बढ़ रही है। पानी पटरी के दोनों तरफ फैला है। दूर तक यही स्थिति है। कई गांव अधडूबे दिख रहे हैं। हम सहया त्री खजूर के पेड़ को देखकर पानी की गहराई का अंदाजा लगा रहे हैं। ट्रेन पूरा एक घंटा देरी के बावजूद अपनी रफ्तार पकड़े हुए है। कौन ससुरा कहेगा कि ट्रेन देरी से चल रही है, यहां घंटा भर लेट भी राइट-टाइम है। दरअसल, ऐसी ही सरकारी प्रवृत्तियां बाढ़ को अपने भयावह स्थिति तक पहुंचने में सहयोग देती है। उत्तर बिहार के ज्यादातर शहर टापू बन गए हैं। और देहाती इलाके डूबे हुए हैं। इन इलाकों में राज्य प्रशासन की गाड़ियां चक्कर लगा रही हैं। लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भाग रहे हैं। बेचारे कहां जाएं। क्या करें! बाढ़ का पानी घर में घुस आया है। कोई चाक-चौबंद व्यवस्था नहीं है। ऊपर से लगातार हो रही बारिश से निपटने का कोई बंदोबस्त भी नहीं है। ऐसी ही विनाशलीला का भयावह रूप खगड़िया, बेगूसराय के ग्रामीण इलाकों में है। ऐसा लगातार सुनने को मिल रहा है। सहयात्रियों के बीच गरमागरम बहस जारी है। स्थानीय लोग बतलाते हैं कि यदि प्रशासन भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर तैयार होता तो बाढ़ ग्रस्त इलाकों में मौत का ग्राफ इतना ऊपर नहीं जाता। संचार माध्यम से ऐसी जानकारी मिल रही है कि राज्य के 17 जिलों में एक करोड़ से अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है। साढ़े सात लाख हेक्टेयर खेत में लगी फसल बर्बाद हुई है। और 57 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। विक्रमशीला ट्रेन भागलपुर पहुंचने वाली है। बाढ़ का पानी अब भी दिखाई दे रहा है। घर पहुंचने की जल्दी है। देखूं! गांव की क्या स्थिति है? अपना देश आजादी के 60 वर्ष पूरा कर चुका है। स्थितियां पहले साल जैसी हैं। ताज्जुब की बात है बाढ़ से बचने के लिए जहां कहीं थोड़े बहुत उपाय किए गए हैं, वहां तो और भी भयानक बाढ़ आई है। इस वर्ष देश के 20 राज्यों में 1200 लोग बाढ़ की वजह से मर चुके हैं। तीन करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। सत्तार हजार के करीब पशु बह गए हैं। और करोड़ों की सम्पत्ति तबाह हो गई है। आए दिन आंकड़ों के साथ ऐसी खबरें खबारों में पढ़ रहा हूं। माथा खरब हो गया है।गांव में रतजगा चल रहा है। घर की छप्पड़ पर दिन गुजर रहा है। हाय रे विकास...। दूर से आवाजें आ रहीं हैं—भा..ग-भा..ग। पनियां आ रहलो है. आ..गैलो है। भाग..भा..ग ...। * * *ब्रजेश झा* -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1521 Size: 105677 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070904/e2797014/attachment.bin From vkt.vijay at gmail.com Wed Sep 5 12:53:22 2007 From: vkt.vijay at gmail.com (vijay thakur) Date: Wed, 5 Sep 2007 12:53:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSi4KS8?= In-Reply-To: <6a32f8f0709040107y42212880m70a7171af4d7282a@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0709040107y42212880m70a7171af4d7282a@mail.gmail.com> Message-ID: ब्रजेश जी, सही बयान किया है आपने....यदि आपकी ट्रेन दरभंगा, मधुबनी के कई क्षेत्रों से भी गुजरती तो कमोबेश यही देखने को मिलता। कई भीत के घर जल-समाधि ले चुका है, स्वभावतः उसका छप्पर बह चला है। गांवो में पड़ोसी के पक्के मकानों पर लोग शरण लिए हुए है, जहां पक्के मकान नहीं है, वहां अपने फूस, खपरैल घरों के छप्पर, पेड़ आदि पर लोग लटके पड़े हैं...पता नहीं कब बह जाए..। पशुओं की स्थिति तो और राम भरोसे....बकरी जैसे छोटे पशु तो लोगों के साथ छप्पर पर दिख जाते हैं मगर भैंस, बैल, गाय वगैरह का तो छप्पर पर रहना संभव नहीं इसलिए उसका तो उसे खुद पता नहीं कि कहां बह निकल जाए। लोग इन नजारों के बीच जिन्दा रहने के लिए संघर्ष करने को अभिशप्त हैं....आखिर जाएं तो जाएं कहां... विजय. On 9/4/07, brajesh kumar jha wrote: > > *पनियां आ गैलो है--* > पश्चिम चंपारण के सिकटा में रहने वाले लोग जमीन से ऊपर हैं। आखिर जमीन पर > पांव > रखें भी तो कैसे! वहां तो पानी फैला है। यही हाल उत्तरी बिहार के ज्यादातर > ग्रामीण इलाकों का है जो लोग जमीन से ऊपर सतह की तलाश कर सके वो बच गए, बाकी > बह गए। जानवरों की स्थिति और भी बुरी रही। अब मृत्यु के तरल दूत से इन्हें > कौन > बचाए.....। सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। मुख्यमंत्री मारीशस से तफरीह करके आए > हैं। हवा में हवाई सर्वेक्षण करते हुए मनभावन टिप्पणियां कर रहे हैं। कहते > है-- > आग लगने पर कुआं खोदा जा रहा है। अब इनसे कौन पूछे कि भई! कुआं पहले क्यों > नहीं > खोदवा लिया गया था। आखिर लोग तो आपके ही हैं। > > खैर! हमारी ट्रेन मोकामा से भागलपुर की ओर तेजी से बढ़ रही है। पानी पटरी के > दोनों तरफ फैला है। दूर तक यही स्थिति है। कई गांव अधडूबे दिख रहे हैं। हम > सहया > त्री खजूर के पेड़ को देखकर पानी की गहराई का अंदाजा लगा रहे हैं। ट्रेन पूरा > एक > घंटा देरी के बावजूद अपनी रफ्तार पकड़े हुए है। कौन ससुरा कहेगा कि ट्रेन देरी > से चल रही है, यहां घंटा भर लेट भी राइट-टाइम है। दरअसल, ऐसी ही सरकारी > प्रवृत्तियां बाढ़ को अपने भयावह स्थिति तक पहुंचने में सहयोग देती है। उत्तर > बिहार के ज्यादातर शहर टापू बन गए हैं। और देहाती इलाके डूबे हुए हैं। > > इन इलाकों में राज्य प्रशासन की गाड़ियां चक्कर लगा रही हैं। लोग सुरक्षित > स्थानों की ओर भाग रहे हैं। बेचारे कहां जाएं। क्या करें! बाढ़ का पानी घर में > घुस आया है। कोई चाक-चौबंद व्यवस्था नहीं है। ऊपर से लगातार हो रही बारिश से > निपटने का कोई बंदोबस्त भी नहीं है। > > ऐसी ही विनाशलीला का भयावह रूप खगड़िया, बेगूसराय के ग्रामीण इलाकों में है। > ऐसा > लगातार सुनने को मिल रहा है। सहयात्रियों के बीच गरमागरम बहस जारी है। > स्थानीय > लोग बतलाते हैं कि यदि प्रशासन भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर तैयार होता > तो > बाढ़ ग्रस्त इलाकों में मौत का ग्राफ इतना ऊपर नहीं जाता। संचार माध्यम से ऐसी > जानकारी मिल रही है कि राज्य के 17 जिलों में एक करोड़ से अधिक आबादी बाढ़ की > चपेट में है। साढ़े सात लाख हेक्टेयर खेत में लगी फसल बर्बाद हुई है। और 57 > लोगों की मृत्यु हो चुकी है। > > विक्रमशीला ट्रेन भागलपुर पहुंचने वाली है। बाढ़ का पानी अब भी दिखाई दे रहा > है। > घर पहुंचने की जल्दी है। देखूं! गांव की क्या स्थिति है? अपना देश आजादी के > 60 > वर्ष पूरा कर चुका है। स्थितियां पहले साल जैसी हैं। ताज्जुब की बात है बाढ़ > से > बचने के लिए जहां कहीं थोड़े बहुत उपाय किए गए हैं, वहां तो और भी भयानक बाढ़ > आई > है। इस वर्ष देश के 20 राज्यों में 1200 लोग बाढ़ की वजह से मर चुके हैं। तीन > करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। सत्तार हजार के करीब पशु बह गए हैं। और > करोड़ों की सम्पत्ति तबाह हो गई है। आए दिन आंकड़ों के साथ ऐसी खबरें अखबारों > में पढ़ रहा हूं। माथा खरब हो गया है।गांव में रतजगा चल रहा है। घर की छप्पड़ > पर > दिन गुजर रहा है। हाय रे विकास...। दूर से आवाजें आ रहीं हैं—भा..ग-भा..ग। > पनियां आ रहलो है. आ..गैलो है। भाग..भा..ग ...। > > * * > > *ब्रजेश झा* > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-119 Size: 10890 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070905/35bde5be/attachment.bin From ravikant at sarai.net Thu Sep 6 13:30:11 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 6 Sep 2007 13:30:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Sahitya Kunj Sept.. 1st Issue Message-ID: <200709061330.12098.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Sahitya Kunj Sept.. 1st Issue Date: गुरुवार 06 सितम्बर 2007 07:05 From: suman ghai To: Sahitya Kunj Aapke liye- Sahitya Kunj Sept. 1st issue is now available for you! www.sahityakunj.net Regards, Suman Kumar Ghai --------------------------------- For ideas on reducing your carbon footprint visit Yahoo! For Good this month. ------------------------------------------------------- From zaighamimam at gmail.com Mon Sep 17 22:58:47 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Mon, 17 Sep 2007 22:58:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KS54KWA4KSC?= =?utf-8?b?IOCkleClgeCkmyDgpKrgpJ/gpLDgpL/gpK/gpL7gpIIg4KSl4KWALi4u?= =?utf-8?b?Li4uLg==?= Message-ID: यहीं कुछ पटरियां थीं, रेल थी एक धीरे-धीरे दौड़ती थी......... ख्‍वाब मंजिल थे, अभी भी ख्‍वाब मंजिल हैं अगरचे याद हो............ तो साहेबान अगरचे याद हो........कि मेरा शोध विषय '''सपनों की रेल''..इलाहाबाद-फैजाबाद और इलाहाबाद-जौनपुर के बीच चलने वाली दो पैसेंजर रेलों की कहानी है। पिछली पोस्टिंगों में रेल के कुछ दिलचस्‍प पड़ावों का जिक्र था। मऊ आईमा की बात थी, जहां पटाखे़ बनते हैं। मगर अब ज़रा सी अलहदा बातें। रेल के ही बारे में। आपने पढ़ा होगा मैंने एक ''मुश्किल स्‍पेशल'' पोस्टिंग भी की थी। शोध की दिक्‍कतों का खुलासा किया था। इस बार भी बात ज़रा कुछ ऐसी ही है। आप को बताना चाहता हूं। -पटरी पर दौड़ने वाली रेल कागज पर कहीं नहीं हैं। -कब चली पता नहीं। -मेंटनेंस होता है या नहीं, किसी को ख़बर नहीं। -टिकट से आमदनी कितनी होती है कभी जानने की कोशिश नहीं की गई। -टूट फूट का सामान बदला जाता है या नहीं। शायद हां शायद नहीं। चलिए, अब आधिकारिक बातें की जाएं। रेलवे की नजर में इन दोंनों रेलों की क्‍या अहमियत है। हम चलेंगे इलाहाबाद मंडल के कार्यालय। मुलाकात करनी है रेलवे के पीआरओ (पब्लिक रिलेशन ऑफ‍िसर) वागीश पांडे से। इस कार्यालय में पहले ही रेल से जुड़ी कई आरटीआई दाखिल की जा चुकी है। लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। अब आईए रुबरु बात करते हैं। पहले कोशिश इस बात को जानने की कि रेलों के चलने की आधिकारिक तिथि आखिर है क्‍या। सरकारी जवाब ये है कि रेल आजादी के पहले से चल रही है। पापा और दादा भी इसमें सफर किया करते थे। ऐसे सबूत ढूंढना नामुमकिन हैं जिनमें रेलों के चलने की आधिकारिक तिथि मिले। पीआरओ साहब ज्‍यादा नहीं बता पाते। इन बातों के अलावा कि रेल में आठ डिब्‍बे हैं। इंजन पहले भाप का था। अब डीजल चलता है। कमोबेश वही पुरानी बातें जो मैं आपको बता चुका हूं। पीआरओ कार्यालय में ज्‍यादा पता नहीं चल पाता। अब हम चलेंगे ट्रेंस क्‍लर्क ऑफ‍िस में। इलाहाबाद जंक्‍शन। ट्रेंस क्‍लर्क ऑफ‍िस में पटरी पर दौड़ने वाली सभी रेलगाडि़यों के रिकार्ड होते हैं। हम मिले चीफ ट्रेंस क्‍लर्क से। हम उन्‍हें बताते हैं कि हमें क्‍या जानकारी चाहिए। वो सहयोग करने के लिए तैयार हैं। लेकिन मुश्किल है। एजे और एएफ के अलावा जानकारियां मांगी जाएं तो मिल जाएंगीं लेकिन इन रेलों के बारे में बताना टेढ़ा काम है। हम कहते हैं कि जनरल बातें बताईए। मेंटनेंस, चेकिंग और ऐसी ही दूसरी छोटी-छोटी बातें। रजिस्‍टर खुलता है। दर्ज है कि मेंटनेंस होता है। महीने में एक बार दो गैंगमैन चेक करते हैं कि डिब्‍बे और इंजन में ज्‍यादा गड़बड़ी तो नहीं। रही चेकिंग की बात तो चेकिंग भी होती है। हफ्ते में एक बार बैच चेकिंग और महीने में एक बार मजिस्‍ट्रेट चेकिंग। और हां..सबसे लेटेस्‍ट जानकारी। कई लड़कों ने हाल ही में ट्रेन में जेब कटने और बैग वगैरह गायब होने की शिकायत भी दर्ज कराई है। रनिंग स्‍टाफ की रिपोर्ट के बाद जीआरपी को सतर्क किया गया है वो ज़रा इन सब बातों का ख्‍याल करे। बस साहब...इससे ज्‍यादा और कुछ नहीं है। रेल आजादी के पहले की है न इसलिए ज्‍यादा जानकारी मुश्किल है। स्‍पीड ज़रा कम हो गई है इसके लिए बहुत सारी माफ़ी। लेकिन यकीन रखिए....हम लेट नहीं होंगे। बिल्‍कुल भी नहीं। ढेर सारा शुक्रिया जै़गम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070917/7ea0186f/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Sep 18 14:45:07 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 18 Sep 2007 14:45:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWI4KSX4KSu?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpKzgpL7gpKQg4KS44KWH?= Message-ID: <6a32f8f0709180215t147f25cbu6c1516ecb09161b4@mail.gmail.com> जैगम की हर अगली खेप से मझे इक पुराना सफर याद आ जाता है. गया जं.( बिहार) से क्यूल जं. तक के बीच चलने वाली एक लोकल ट्रेन की यात्रा. यहां आप किसी बेहतरी के वास्ते कोई दावा नहीं कर सकते,अरे भई सरकार भी नहीं करती है हम-आप क्या हैं, जो लोग इस इलाके को थोड़ भी पहचानते है वो इस निराले सफर का अंदाजा सहज ही लगा लते हैं। जैगम जी हर अंचल में ऐसे रूट होंगे. पर यहां का कोई मिले तो उनकी आप बीती सुनिएगा. ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-36 Size: 1228 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070918/b532d601/attachment.bin From beingred at gmail.com Wed Sep 19 02:24:38 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 19 Sep 2007 02:24:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KS44KWC?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <363092e30709181354l73b7df5bo9307f18b885af756@mail.gmail.com> जी कल्याण राव का नाम पहली बार तब सुना जब दो साल पहले उन्हें आंध्र प्रदेश सरकार ने गिरफ़्तार किया था. उनके साथ कवि वरवर राव भी गिरफ़्तार किये गये थे. पिछले साल किसी पत्रिका में यह कहानी पढी- उसी के आसपास प्रभात खबर में यह कहानी छपी भी. तेलुगू के प्रख्यात कथाकार-लेखक और विरसम के अध्यक्ष कल्याण रावकी एकमात्र रचना जो हमने पढी़ है. लीजिए, आप भी पढिए और याद कीजिए कि हिंदी में ऐसी कोई कहानी अंतिम बार कब पढी थी आपने. रीढ़विहीन लेखकों से भरी पडी़ हिंदी आखिर कब तक उन्हें ढोती रहेगी? कुसूरवार जी कल्याण राव जीना पाप नहीं है. जिंदगी जीने की चाह भी कोई कुसूर नहीं. जिंदगी के बारे में इस बात को किसी बड़े बुद्धिजीवी या विद्वान के मुंह से सुनने की जरूरत भी नहीं होती. यह कोई ऐसा बड़ा विषय भी नहीं कि कोई महात्मा आकर इसे हमें समझाये या किसी ऊंचे मंच से तालियों के बीच आकर कोई लोग इस पर भाषण झाड़े. आप जीने की चाह करते हैं. आपके चारों ओर जो लोग रहते हैं, वे भी जीने की चाह करते हैं. ऐसा करके आप या वे कोई पाप नहीं करते, कोई कुसूर नहीं करते. आप ही की तरह मैं भी जीना चाहती हूं. मेरा पति भी जीना चाहता है. लेकिन हम जिस तरीके से जीना चाहते हैं, वह सामान्य से थोड़ा अलग है. हो सकता कि वह तरीका इस या इस जैसी किसी सरकार को अच्छा न लगे. पर इन्हें अच्छा न लगने मात्र से न तो जीने का वह तरीका दूषित कहा जा सकता है और न ही हम कुसूरवार करार दिये जा सकते हैं. मुझे मालूम है, मेरे नाम को वे तीन बार पुकारेंगे. तीसरी बार जब पुकारा जायेगा, मैं अंदर जाऊंगी. तब तक कठघरे में जो एक चूहा रहता है, वह मुझे देख कर भाग गया होगा. मुझसे कुछ बुलवाने के लिए वे जोर आजमाइश जारी रखेंगे. लेकिन मैं कुछ नहीं बोलती. कोई बात नहीं करती. इसलिए नहीं कि मुझे बोलना नहीं आता. इसलिए कि अब तक मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब रिकार्ड किया गया है. इन चूहों के बीच, इनकी चिल्लपों के बीच भेड़िया न्याय के लिए मेरी बातों को रिकार्ड किया गया है. वही बातें मैं बार-बार दोहराना नहीं चाहती. बोलने से क्या फायदा? मैंने इन्हें कई बार बताया है कि मैं जीवन से प्यार करती हूं. साथ ही जीवन मूल्यों को. स्वयं जीवन के अस्तित्व को ही नष्ट करनेवाली इस व्यवस्था से नफरत करती हूं. प्यार की खातिर जीना चहती हूं. नफरत की खातिर जीना चाहती हूं. लोगों से प्यार करना दोष नहीं. शोषण से नफरत करना पाप नहीं. सारी धरती पर इससे बढ़ कर मूल्यवान बात और क्या हो सकती है? ये बातें काफी हैं, मुझे रिहा करने के लिए. मुझे अपने मुन्ने के पास जाने देने लिए, जिसे मैं बेहद प्यार करती हूं. अपने पति की कब्र पर एक छोटा-सा गुलाब का पौधा लगा देने के लिए. मुझे मेरे अपनों के साथ जीने देने के लिए. लेकिन मुझे मालूम है, वे ऐसा अवसर नहीं देंगे. मुझे वे फिर उसी अंधेरी कोठरी में ... कम से कम इतना भी कर देते तो अच्छा होता कि जिस कोठरी में मेरे पति को बंद रखा था, उसी में मुझे भी बंद कर देते. वह कोठरी भी तो अभी खाली पड़ी है. उसकी दीवारों पर उसके द्वारा अपने लहू से लिखे क्रांति के नारे अभी वैसे ही हैं. वह तो मुझे काल कोठरी ही लगती है क्योंकि वहां तो मेरे पति के अद्भुत सपने संजो कर रखे हुए हैं. वहां पर जिस स्वप्निल चांदनी की वर्षा होती रहती थी, उस चांदनी और उस प्रकाश को मैं अब भी महसूस कर सकती हूं. दूर-दूर तक फैले समुंदर के पानी के किनारे, बहुत बड़े और विस्तृत भूखंड में फैले लंबे-लंबे पड़ों के बीच रेतीले टीलों के किनारे एक छोटा-सा गांव था. इलाके के दूसरे गांवों की तरह वह गांव भी बहुत गरीब था. हमारी पहली मुलाकत उसी गांव में हुई थी. उस समय हमारे ऊपर आसमान और सामने जैसे रोता हुआ समुंदर. पीछे ताड़ के पत्तों के छोटे-छोटे घरों में टिमटिमाते दीये जल रहे थे. उस समय उसने जो कुछ कहा था वे बातें मेरे सीने पर लिखी हैं. `प्रकाश देनेवाला सूरज, चांदनी देनेवाला चंदा और सबको अन्न देनेवाली यह धरती-ये तीनों दोषी हैं. मनुष्य मात्र के लिए दोष मैं भी कर रहा हूं. अगर तुम भी इस दोष की भागीदार बनो तो हमारा स्नेह स्थायी बन सकता है.' ये थीं उसकी बातें. मैंने कहा-प्यारे दोस्त, तुम्हारे इस संघर्ष का आधा भाग मैं हूं. ऊंची लहरों की तरह प्रवाहित होनेवाले मानव जीवन प्रवाह में मैं भी जी रही हूं. कितना भी मजबूत बांध बना कर जिस तरह समुद्र का प्रवाह नहीं रोका जा सकता, उसी तरह प्रतिबंध और दमन के बल पर इस जीवन संघर्ष को भी नहीं रोका जा सकता. जब संघर्ष रोका नहीं जा सकता तो मेरा यह जीवन भी झुकनेवाला नहीं. यह जीवन अजेय है इसलिए कि यह जीवन है. जीवन होने के नाते यह अजेय है. और यह जीवन मृत्यु से बहुत बलवान है. अगर उसे किसी एक जगह दबा भी दिया जाता है तो दूसरी जगह यह जमीन फाड़ कर ऊपर आ जाता है.' जब मैंने यह सब कहा तो उसने मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखा. उसने मेरा हाथ थामा. समुंदर के पानी से भीगी रेतीली पगडंडियों पर हमारे कदमों ने जो निशानियां बनायीं, वे मेरे मन में अंकित हो गयीं. अगर आपका जीवन पर से भरोसा उठ गया है तो गांधी मार्ग के 16 नंबर का दरवाजा खटखटाइए. वहां के पुलिस अफसर से पूछिए कि पार्वती की चीजें कहां रखी हैं. पर पुलिस आपको उन चीजों को दिखायेगी नहीं. अगर भूल से दिखा भी दिया तो उनमें एक फोटो आपको दिखेगा. उस फोटो के पीछे लिखे अक्षरों को पढ़िए-`जीवन हमेशा सुंदर रहा है. संघर्षरत जीवन और भी सुंदर होता है. इसीलिए हमारी यह मुलाकात इतनी सुंदर है.' महीने का यह आखिरी दिन है. मैं अपने पति का इंतजार करती उसकी राह देख रही हूं. उसे 10 बजे तक आना था. पर देर से आना या ज्यादा काम पड़े तो एक -दो दिन घर न आना कोई नयी बात नहीं है. लेकिन उस दिन तो उसे जरूर आना था. मैं एक-एक पल गिन रही हूं. समय कटता नहीं है. एक-एक लम्हा भारी लग रहा है. क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने के बाद रात-रात भर अकेले रहना मामूली-सी बात हो गयी है. मुन्ने के पैदा होने के बाद कुछ दिन तक तो अकेले होने पर रात-रात भर उससे बातें करते ही गुजार देती. वह सोता तो उसकी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों को सहलाती रहती. जब मैं ऐसा करती तो वह सोते-सोते ही मुस्कुराता रहता. कुछ बड़ा होने पर मुझे मालूम हुआ कि पुलिस ने मेरी बड़ी बहन के घर पर हमला किया. बहन और बहनोई को भी छह-छह महीने जेल काटनी पड़ी. मालूम नहीं अब मेरा मुन्ना कहां है. शायद वह भी चांद और सूरज की तरह ही कुसूरवार है. मुरगे ने पहली बांग दी. कड़ाके की ठंड है. बाहर पत्तों पर टप -टप गिरनेवाली बूंदों के शब्द सुनाई पड़ रहे हैं. इतने में दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई. `पार्वती'- कोई पुकार है. मेरा पति मुझे कभी भी` पार्वती' नहीं पुकारता था. वहां मेरा नाम परमिला है. दरवाजा खटखटाने का तरीका भी एक दम अलग है. कौन हो सकता है? अभी सोच ही रही थी कि दरवाजा तोड़ कर 10 पुलिसकर्मी उस छोटे से कमरे में घुस आये. मेरे दोनों हाथ बांध दिये गये हैं. मैंने गुहार लगाने की कोशिश की तो एक पुलिसिये ने मेरे मुंह पर ऐसा घूंसा मारा कि लगा जैसे मैं मर जाऊंगी. पुलिसियों ने उस छोटे से कमरे की हर चीज को तहस-नहस कर दिया. कमरे में रखी सारी किताबों को सामने डाल कर वे बैठे हैं. यह संदर्भ मुझे नया नहीं लगा क्योंकि ऐसी बातें हमे हमेशा सुनाई पड़ती रहती हैं. सुबह एक साथी शहर से आनेवाला है. अगर वह यहां आता है तो पुलिस के हाथ पड़ जायेगा. इसके अलावा मेरे पति को देने के लिए एक पत्र आया है जिसे मैंने एक किताब में रखा है. अगर वह पुलिस के हाथ लग जाता है तो... होनेवाले अनर्थ की चिंता होती है. यह समय रोने-पीटने, हैरान होने या सोचने का नहीं है. झटपट कुछ करने का समय है. मेरे हाथ बंधे हैं. मैं हाथों का इस्तेमाल नहीं कर सकती हूं. मेरा मुंह तो खुला है. मैं जोर-जोर से बोलना शुरू क रती हूं. मैं कभी अश्लील बातें मुंह से नहीं निकालती. पर उस समय मैं भद्दी और गंदी गालियां देने लगती हूं. गालियां देने पर वे जानवर भी मुझ पर टूट पड़े और मुझसे अधिक जोर -शोर से गलियां देने लगे. साथ ही मुझे मारने लगे. वे जितना जोर-शोर से गालियां दें, उतना ही अच्छा है. मैं उन्हें जितना उकसा सकूं, उतना ही उच्छा है. क्योंकि मेरा पति आनेवाला है... और शहर से साथी भी आनेवाला है. वे दोनों घर में होनेवाले इस शोर-शराबे को अगर सुन लें तो भाग कर अपने को बचा सकते हैं. इसी मकसद से मैं पूरी ताकत लगा कर गालियां दे रही हूं. मुझसे बढ़ कर जोर-शोर से गालियां वे भी बक रहे हैं. एक बूढ़ा सियार मेरे पति के लिए मृत्यु के रूप में दीवार की आड़ में खड़ा इंतजार कर रहा है. मैंने उसे भी गालियां देनी शुरू की हैं. वह हांफता हुआ मुझ पर आ गिरा. इसके बाद क्या हुआ, मुझे मालूम नहीं लेकिन मैं जीवित हूं. समुद्र-तल से भींगी उन रेतीली पगडंडियों पर मैं और मेरा पति, दोनों चल रहे हैं. अभी-अभी निकाले गये हमारे फोटो के पीछे दोनों सही कर रहे हैं. मेरा नन्हा-मुन्ना नींद में हंस रहा है. कितनी अदभुत है वह हंसी. मेरे पांवों को कोई खींच रहा है, कमरे में इधर-उधर बिखरी चीजों से मेरे पैरों के लगने से अगर आवाजें निकलतीं तो कितना अच्छा होता. वे जानवर मुझे गालियां दे रहे हैं. मुझे कुछ भी मालूम नहीं पड़ रहा है. इसके सिवा और कुछ नहीं मालूम हो रहा है कि ... सारी दुनिया में मुझ जैसी बहनें पेट के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं... कीचड़ में उतर कर धान की पौध रोप रही हैं. खेत की मेंड़ों पर या पेड़ों की डालियों पर डाले झूलों में उनके बच्चे दूध के लिए रो रहे हैं. ओ मेरे नन्हे-मुन्ने बच्चों, मैं तुम्हारे लिए मौत को गले लगा रही हूं. मैं अपने आप से कह रही हूं कई बार.. वे मेरे नाम की पुकार लगा रहे हैं. अभी दो बार और पुकारेंगे. आपके और मेरे बीच की दूरी नहीं है. चट्टान जैसे कलेजे पर लोहे के बूटों की लातें फिर भी यह सब आपके और मेरे दरमियान बाधा नहीं बन सकता . मैं चुप हूं... फिर भी... मैंने और मेरे पति ने जिस गांव को बेहद प्यार किया है. उस गांव के लोगों. मैं तुम सबसे बातें कर सकती हूं. तुमलोगों की निगाहें मेरी निगाहों से मिल रही हैं. वे दूसरी बार मेरे नाम की पुकार लगा रहे हैं. शायद अब मेरे मुकद्दमे को खारिज भी कर सकते हैं. मुझे गोलियों से उड़ा भी सकते हैं.उनकी मरजी.ओ मेरे गांववासियों. हम दोनों तुम्हारे गांव में कहां से आये हैं, यह तुम्हें मालूम नहीं फिर भी तुम लोगों ने हमें भरपूर प्यार दिया है. हमारे लिए मुट्ठी भर चावल के दानों का इंतजाम किया है. थोड़ा-सा चावल-मांड हमारे लिए छुपा कर रखा है. अपने फटे -पुराने बिस्तरों पर हमें जगह दी है. गरीबी से मारे तुम लोगों ने अपने दिल में जगह दी है. हमारे लिए`सेंट्री' की ड्यूटी (पहरेदारी) की है. हमें गले लगाया है. रोया है. कितने अद्भुत इनसान हो तुम लोग. तुम लोगों से प्यार करना क्या कुसूर है? क्या इस कारण हम कुसूरवार होते हैं? तुम लोगों से कुछ दूरी पर, उस पेड़ के नीचे दो बूढ़े बैठे हैं. तुम लोग उनको नहीं जानते. वे मेरे मां -बाप हैं. पिता यीशू के भक्त हैं. उन्होंने मेरे लिए आंसू बहाते हुए यीशू से शायद दुआ भी मांगी होगी. मेरी मां ने भी दुआ मांगी होगी, लेकिन वे नहीं जानते कि हमारे ये शासक रोमन शासकों से भी ज्यादा दुष्ट, अत्याचारी और जुल्मी हैं. मेरे मां-बाप से कुछ दूरी पर जो दो बूढ़े बैठे हैं. वे मेरे माधव के माता-पिता हैं. माधव की मां, मेरी सास बड़ी निष्ठावान स्त्री हैं. बिना स्नान -पूजा के खाना पकाती तक नहीं. फिर भी, मेरी सास मेरे पास आयी. मेरे माधव ने जिन आंखों को बहुत प्यार किया था उन आंखों की तरफ अपलक देखती रहीं. फिर उसने मेरे गालों को चूम कर मुझे अपने प्यार से सराबोर कर दिया. तीसरी बार मेरे नाम की पुकार लगायी गयी है. लोहे के बूट मेरी बगल में ठक-ठक शब्द कर रहे हैं. कोर्ट हॉल में मान्यवर आंखें मेरे लिए इंतजार करती होंगीं. मैं अब जा रही हूं प्यारे, दोस्तों अब मैं रुख्सत होती हूं. ओ मेरी मां. मेरे गालों पर एरंड का तेल मलनेवाली मेरी मां, मेरे गालों को चूमनेवाली सासू मां, मेरे पिताजी, इस देश के करोडों-करोड़ लोगों में ही तुम्हारे बच्चे हैं. इस देश की जनता की आखों में ही हमारी आंखों को देख लीजिए. उनकी हंसी में हमारी हंसी छिपी मिलेगी... जीना कुसूर नहीं है. जीने की चाह करना दोष नहीं है. हमने जीवन से प्यार किया है, शोषण से नफरत की है. इसके लिए हम इस देश में कुसूरवार हुए हैं. इस तरह का मूल्यवान और महत्वपूर्ण कुसूर हम जिंदगी भर करते रहेंगे. अलविदा. कुसूरवार की कब्र पर गुलाब का पौधा लगाना भूलियेगा नहीं. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070919/4e74f9cc/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Sep 19 02:24:38 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 19 Sep 2007 02:24:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWB4KS44KWC?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KS+4KSw?= Message-ID: <363092e30709181354l73b7df5bo9307f18b885af756@mail.gmail.com> जी कल्याण राव का नाम पहली बार तब सुना जब दो साल पहले उन्हें आंध्र प्रदेश सरकार ने गिरफ़्तार किया था. उनके साथ कवि वरवर राव भी गिरफ़्तार किये गये थे. पिछले साल किसी पत्रिका में यह कहानी पढी- उसी के आसपास प्रभात खबर में यह कहानी छपी भी. तेलुगू के प्रख्यात कथाकार-लेखक और विरसम के अध्यक्ष कल्याण रावकी एकमात्र रचना जो हमने पढी़ है. लीजिए, आप भी पढिए और याद कीजिए कि हिंदी में ऐसी कोई कहानी अंतिम बार कब पढी थी आपने. रीढ़विहीन लेखकों से भरी पडी़ हिंदी आखिर कब तक उन्हें ढोती रहेगी? कुसूरवार जी कल्याण राव जीना पाप नहीं है. जिंदगी जीने की चाह भी कोई कुसूर नहीं. जिंदगी के बारे में इस बात को किसी बड़े बुद्धिजीवी या विद्वान के मुंह से सुनने की जरूरत भी नहीं होती. यह कोई ऐसा बड़ा विषय भी नहीं कि कोई महात्मा आकर इसे हमें समझाये या किसी ऊंचे मंच से तालियों के बीच आकर कोई लोग इस पर भाषण झाड़े. आप जीने की चाह करते हैं. आपके चारों ओर जो लोग रहते हैं, वे भी जीने की चाह करते हैं. ऐसा करके आप या वे कोई पाप नहीं करते, कोई कुसूर नहीं करते. आप ही की तरह मैं भी जीना चाहती हूं. मेरा पति भी जीना चाहता है. लेकिन हम जिस तरीके से जीना चाहते हैं, वह सामान्य से थोड़ा अलग है. हो सकता कि वह तरीका इस या इस जैसी किसी सरकार को अच्छा न लगे. पर इन्हें अच्छा न लगने मात्र से न तो जीने का वह तरीका दूषित कहा जा सकता है और न ही हम कुसूरवार करार दिये जा सकते हैं. मुझे मालूम है, मेरे नाम को वे तीन बार पुकारेंगे. तीसरी बार जब पुकारा जायेगा, मैं अंदर जाऊंगी. तब तक कठघरे में जो एक चूहा रहता है, वह मुझे देख कर भाग गया होगा. मुझसे कुछ बुलवाने के लिए वे जोर आजमाइश जारी रखेंगे. लेकिन मैं कुछ नहीं बोलती. कोई बात नहीं करती. इसलिए नहीं कि मुझे बोलना नहीं आता. इसलिए कि अब तक मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब रिकार्ड किया गया है. इन चूहों के बीच, इनकी चिल्लपों के बीच भेड़िया न्याय के लिए मेरी बातों को रिकार्ड किया गया है. वही बातें मैं बार-बार दोहराना नहीं चाहती. बोलने से क्या फायदा? मैंने इन्हें कई बार बताया है कि मैं जीवन से प्यार करती हूं. साथ ही जीवन मूल्यों को. स्वयं जीवन के अस्तित्व को ही नष्ट करनेवाली इस व्यवस्था से नफरत करती हूं. प्यार की खातिर जीना चहती हूं. नफरत की खातिर जीना चाहती हूं. लोगों से प्यार करना दोष नहीं. शोषण से नफरत करना पाप नहीं. सारी धरती पर इससे बढ़ कर मूल्यवान बात और क्या हो सकती है? ये बातें काफी हैं, मुझे रिहा करने के लिए. मुझे अपने मुन्ने के पास जाने देने लिए, जिसे मैं बेहद प्यार करती हूं. अपने पति की कब्र पर एक छोटा-सा गुलाब का पौधा लगा देने के लिए. मुझे मेरे अपनों के साथ जीने देने के लिए. लेकिन मुझे मालूम है, वे ऐसा अवसर नहीं देंगे. मुझे वे फिर उसी अंधेरी कोठरी में ... कम से कम इतना भी कर देते तो अच्छा होता कि जिस कोठरी में मेरे पति को बंद रखा था, उसी में मुझे भी बंद कर देते. वह कोठरी भी तो अभी खाली पड़ी है. उसकी दीवारों पर उसके द्वारा अपने लहू से लिखे क्रांति के नारे अभी वैसे ही हैं. वह तो मुझे काल कोठरी ही लगती है क्योंकि वहां तो मेरे पति के अद्भुत सपने संजो कर रखे हुए हैं. वहां पर जिस स्वप्निल चांदनी की वर्षा होती रहती थी, उस चांदनी और उस प्रकाश को मैं अब भी महसूस कर सकती हूं. दूर-दूर तक फैले समुंदर के पानी के किनारे, बहुत बड़े और विस्तृत भूखंड में फैले लंबे-लंबे पड़ों के बीच रेतीले टीलों के किनारे एक छोटा-सा गांव था. इलाके के दूसरे गांवों की तरह वह गांव भी बहुत गरीब था. हमारी पहली मुलाकत उसी गांव में हुई थी. उस समय हमारे ऊपर आसमान और सामने जैसे रोता हुआ समुंदर. पीछे ताड़ के पत्तों के छोटे-छोटे घरों में टिमटिमाते दीये जल रहे थे. उस समय उसने जो कुछ कहा था वे बातें मेरे सीने पर लिखी हैं. `प्रकाश देनेवाला सूरज, चांदनी देनेवाला चंदा और सबको अन्न देनेवाली यह धरती-ये तीनों दोषी हैं. मनुष्य मात्र के लिए दोष मैं भी कर रहा हूं. अगर तुम भी इस दोष की भागीदार बनो तो हमारा स्नेह स्थायी बन सकता है.' ये थीं उसकी बातें. मैंने कहा-प्यारे दोस्त, तुम्हारे इस संघर्ष का आधा भाग मैं हूं. ऊंची लहरों की तरह प्रवाहित होनेवाले मानव जीवन प्रवाह में मैं भी जी रही हूं. कितना भी मजबूत बांध बना कर जिस तरह समुद्र का प्रवाह नहीं रोका जा सकता, उसी तरह प्रतिबंध और दमन के बल पर इस जीवन संघर्ष को भी नहीं रोका जा सकता. जब संघर्ष रोका नहीं जा सकता तो मेरा यह जीवन भी झुकनेवाला नहीं. यह जीवन अजेय है इसलिए कि यह जीवन है. जीवन होने के नाते यह अजेय है. और यह जीवन मृत्यु से बहुत बलवान है. अगर उसे किसी एक जगह दबा भी दिया जाता है तो दूसरी जगह यह जमीन फाड़ कर ऊपर आ जाता है.' जब मैंने यह सब कहा तो उसने मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखा. उसने मेरा हाथ थामा. समुंदर के पानी से भीगी रेतीली पगडंडियों पर हमारे कदमों ने जो निशानियां बनायीं, वे मेरे मन में अंकित हो गयीं. अगर आपका जीवन पर से भरोसा उठ गया है तो गांधी मार्ग के 16 नंबर का दरवाजा खटखटाइए. वहां के पुलिस अफसर से पूछिए कि पार्वती की चीजें कहां रखी हैं. पर पुलिस आपको उन चीजों को दिखायेगी नहीं. अगर भूल से दिखा भी दिया तो उनमें एक फोटो आपको दिखेगा. उस फोटो के पीछे लिखे अक्षरों को पढ़िए-`जीवन हमेशा सुंदर रहा है. संघर्षरत जीवन और भी सुंदर होता है. इसीलिए हमारी यह मुलाकात इतनी सुंदर है.' महीने का यह आखिरी दिन है. मैं अपने पति का इंतजार करती उसकी राह देख रही हूं. उसे 10 बजे तक आना था. पर देर से आना या ज्यादा काम पड़े तो एक -दो दिन घर न आना कोई नयी बात नहीं है. लेकिन उस दिन तो उसे जरूर आना था. मैं एक-एक पल गिन रही हूं. समय कटता नहीं है. एक-एक लम्हा भारी लग रहा है. क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने के बाद रात-रात भर अकेले रहना मामूली-सी बात हो गयी है. मुन्ने के पैदा होने के बाद कुछ दिन तक तो अकेले होने पर रात-रात भर उससे बातें करते ही गुजार देती. वह सोता तो उसकी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों को सहलाती रहती. जब मैं ऐसा करती तो वह सोते-सोते ही मुस्कुराता रहता. कुछ बड़ा होने पर मुझे मालूम हुआ कि पुलिस ने मेरी बड़ी बहन के घर पर हमला किया. बहन और बहनोई को भी छह-छह महीने जेल काटनी पड़ी. मालूम नहीं अब मेरा मुन्ना कहां है. शायद वह भी चांद और सूरज की तरह ही कुसूरवार है. मुरगे ने पहली बांग दी. कड़ाके की ठंड है. बाहर पत्तों पर टप -टप गिरनेवाली बूंदों के शब्द सुनाई पड़ रहे हैं. इतने में दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई. `पार्वती'- कोई पुकार है. मेरा पति मुझे कभी भी` पार्वती' नहीं पुकारता था. वहां मेरा नाम परमिला है. दरवाजा खटखटाने का तरीका भी एक दम अलग है. कौन हो सकता है? अभी सोच ही रही थी कि दरवाजा तोड़ कर 10 पुलिसकर्मी उस छोटे से कमरे में घुस आये. मेरे दोनों हाथ बांध दिये गये हैं. मैंने गुहार लगाने की कोशिश की तो एक पुलिसिये ने मेरे मुंह पर ऐसा घूंसा मारा कि लगा जैसे मैं मर जाऊंगी. पुलिसियों ने उस छोटे से कमरे की हर चीज को तहस-नहस कर दिया. कमरे में रखी सारी किताबों को सामने डाल कर वे बैठे हैं. यह संदर्भ मुझे नया नहीं लगा क्योंकि ऐसी बातें हमे हमेशा सुनाई पड़ती रहती हैं. सुबह एक साथी शहर से आनेवाला है. अगर वह यहां आता है तो पुलिस के हाथ पड़ जायेगा. इसके अलावा मेरे पति को देने के लिए एक पत्र आया है जिसे मैंने एक किताब में रखा है. अगर वह पुलिस के हाथ लग जाता है तो... होनेवाले अनर्थ की चिंता होती है. यह समय रोने-पीटने, हैरान होने या सोचने का नहीं है. झटपट कुछ करने का समय है. मेरे हाथ बंधे हैं. मैं हाथों का इस्तेमाल नहीं कर सकती हूं. मेरा मुंह तो खुला है. मैं जोर-जोर से बोलना शुरू क रती हूं. मैं कभी अश्लील बातें मुंह से नहीं निकालती. पर उस समय मैं भद्दी और गंदी गालियां देने लगती हूं. गालियां देने पर वे जानवर भी मुझ पर टूट पड़े और मुझसे अधिक जोर -शोर से गलियां देने लगे. साथ ही मुझे मारने लगे. वे जितना जोर-शोर से गालियां दें, उतना ही अच्छा है. मैं उन्हें जितना उकसा सकूं, उतना ही उच्छा है. क्योंकि मेरा पति आनेवाला है... और शहर से साथी भी आनेवाला है. वे दोनों घर में होनेवाले इस शोर-शराबे को अगर सुन लें तो भाग कर अपने को बचा सकते हैं. इसी मकसद से मैं पूरी ताकत लगा कर गालियां दे रही हूं. मुझसे बढ़ कर जोर-शोर से गालियां वे भी बक रहे हैं. एक बूढ़ा सियार मेरे पति के लिए मृत्यु के रूप में दीवार की आड़ में खड़ा इंतजार कर रहा है. मैंने उसे भी गालियां देनी शुरू की हैं. वह हांफता हुआ मुझ पर आ गिरा. इसके बाद क्या हुआ, मुझे मालूम नहीं लेकिन मैं जीवित हूं. समुद्र-तल से भींगी उन रेतीली पगडंडियों पर मैं और मेरा पति, दोनों चल रहे हैं. अभी-अभी निकाले गये हमारे फोटो के पीछे दोनों सही कर रहे हैं. मेरा नन्हा-मुन्ना नींद में हंस रहा है. कितनी अदभुत है वह हंसी. मेरे पांवों को कोई खींच रहा है, कमरे में इधर-उधर बिखरी चीजों से मेरे पैरों के लगने से अगर आवाजें निकलतीं तो कितना अच्छा होता. वे जानवर मुझे गालियां दे रहे हैं. मुझे कुछ भी मालूम नहीं पड़ रहा है. इसके सिवा और कुछ नहीं मालूम हो रहा है कि ... सारी दुनिया में मुझ जैसी बहनें पेट के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं... कीचड़ में उतर कर धान की पौध रोप रही हैं. खेत की मेंड़ों पर या पेड़ों की डालियों पर डाले झूलों में उनके बच्चे दूध के लिए रो रहे हैं. ओ मेरे नन्हे-मुन्ने बच्चों, मैं तुम्हारे लिए मौत को गले लगा रही हूं. मैं अपने आप से कह रही हूं कई बार.. वे मेरे नाम की पुकार लगा रहे हैं. अभी दो बार और पुकारेंगे. आपके और मेरे बीच की दूरी नहीं है. चट्टान जैसे कलेजे पर लोहे के बूटों की लातें फिर भी यह सब आपके और मेरे दरमियान बाधा नहीं बन सकता . मैं चुप हूं... फिर भी... मैंने और मेरे पति ने जिस गांव को बेहद प्यार किया है. उस गांव के लोगों. मैं तुम सबसे बातें कर सकती हूं. तुमलोगों की निगाहें मेरी निगाहों से मिल रही हैं. वे दूसरी बार मेरे नाम की पुकार लगा रहे हैं. शायद अब मेरे मुकद्दमे को खारिज भी कर सकते हैं. मुझे गोलियों से उड़ा भी सकते हैं.उनकी मरजी.ओ मेरे गांववासियों. हम दोनों तुम्हारे गांव में कहां से आये हैं, यह तुम्हें मालूम नहीं फिर भी तुम लोगों ने हमें भरपूर प्यार दिया है. हमारे लिए मुट्ठी भर चावल के दानों का इंतजाम किया है. थोड़ा-सा चावल-मांड हमारे लिए छुपा कर रखा है. अपने फटे -पुराने बिस्तरों पर हमें जगह दी है. गरीबी से मारे तुम लोगों ने अपने दिल में जगह दी है. हमारे लिए`सेंट्री' की ड्यूटी (पहरेदारी) की है. हमें गले लगाया है. रोया है. कितने अद्भुत इनसान हो तुम लोग. तुम लोगों से प्यार करना क्या कुसूर है? क्या इस कारण हम कुसूरवार होते हैं? तुम लोगों से कुछ दूरी पर, उस पेड़ के नीचे दो बूढ़े बैठे हैं. तुम लोग उनको नहीं जानते. वे मेरे मां -बाप हैं. पिता यीशू के भक्त हैं. उन्होंने मेरे लिए आंसू बहाते हुए यीशू से शायद दुआ भी मांगी होगी. मेरी मां ने भी दुआ मांगी होगी, लेकिन वे नहीं जानते कि हमारे ये शासक रोमन शासकों से भी ज्यादा दुष्ट, अत्याचारी और जुल्मी हैं. मेरे मां-बाप से कुछ दूरी पर जो दो बूढ़े बैठे हैं. वे मेरे माधव के माता-पिता हैं. माधव की मां, मेरी सास बड़ी निष्ठावान स्त्री हैं. बिना स्नान -पूजा के खाना पकाती तक नहीं. फिर भी, मेरी सास मेरे पास आयी. मेरे माधव ने जिन आंखों को बहुत प्यार किया था उन आंखों की तरफ अपलक देखती रहीं. फिर उसने मेरे गालों को चूम कर मुझे अपने प्यार से सराबोर कर दिया. तीसरी बार मेरे नाम की पुकार लगायी गयी है. लोहे के बूट मेरी बगल में ठक-ठक शब्द कर रहे हैं. कोर्ट हॉल में मान्यवर आंखें मेरे लिए इंतजार करती होंगीं. मैं अब जा रही हूं प्यारे, दोस्तों अब मैं रुख्सत होती हूं. ओ मेरी मां. मेरे गालों पर एरंड का तेल मलनेवाली मेरी मां, मेरे गालों को चूमनेवाली सासू मां, मेरे पिताजी, इस देश के करोडों-करोड़ लोगों में ही तुम्हारे बच्चे हैं. इस देश की जनता की आखों में ही हमारी आंखों को देख लीजिए. उनकी हंसी में हमारी हंसी छिपी मिलेगी... जीना कुसूर नहीं है. जीने की चाह करना दोष नहीं है. हमने जीवन से प्यार किया है, शोषण से नफरत की है. इसके लिए हम इस देश में कुसूरवार हुए हैं. इस तरह का मूल्यवान और महत्वपूर्ण कुसूर हम जिंदगी भर करते रहेंगे. अलविदा. कुसूरवार की कब्र पर गुलाब का पौधा लगाना भूलियेगा नहीं. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070919/4e74f9cc/attachment-0001.html From zaighamimam at gmail.com Wed Sep 19 09:00:43 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Wed, 19 Sep 2007 09:00:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSv4KS+IOCkl+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: गया के करीब़ रहने के बावजूद मैं कभी गया नहीं गया। बस बचपन से सुनता आ रहा हूं। गया गया गया। अपने इस शोध की शुरुआत में भी सबसे पहले मुझे गया की ही बात बताई गई। गया में भी ऐसी रेल चलती है और उसके बारे में काफी कुछ लिखा भी गया है। पीजी भौजी और ऐसा ही कुछ दूसरा। मैंने अपने गया के दोस्‍तों से काफी कुछ सुना भी है। खै़र, बृजेश जी कहते हैं कि हर अंचल में ऐसे रुट होंगे या होते हैं। तो साहब ये तो मेरी नाकामयाबी है कि पढे़ लिखों के रुट को मैं अभी तक सही तरीके से दर्शा नहीं सका। मैंने देखे हैं, बनारस से मऊ, आजमगढ़, गोरखपुर और ऐसे तमाम रुट जहां ऐसी रेलें चल रही हैं। टूटी, फूटी, खस्‍ता हाल। लेकिन यकीन मानिए आज तक किसी रेल में मुझे 80 फीसदी ग्रेजुएट नहीं मिले। बाकी बचे 20 फीसदी में भी 10 प्रतिशत से ज्‍यादा अंडरग्रेजुएट। एक दो प्रतिशत सवारियां ही पूरी तरह अशिक्षित होती होगीं। मैंने कभी किसी रेल में नहीं सुना प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल, हिंदी और अंग्रेजी साहित्‍य की परतें दर परतें उखाड़े जाते हुए। संगम काल, मौर्य काल और न जाने क्‍या-क्‍या। ये समय बिताने के लिए करना है कुछ काम की तर्ज पर टुच्‍ची राजनीतिक बहसें नहीं होतीं। बात करनी है तो ये करिए कि सिविल के एग्‍जाम में किन प्रश्‍नों के आने की संभावना ज्‍यादा है। ट्रेंड बदल रहा है तो बदलाव क्‍या है। प्रीलिम्‍स परीक्षा के लिए फ‍िलॉसफी सही रहेगा या फ‍िर भी प्राचीन इतिहास। ये दूधवालों, सब्‍जीढोने वालों और रोजमर्रा के काम करके किसी तरह जिंदगी को आगे बढ़ाने वालों की गाड़ी नहीं है। ईमानदारी से कह रहा हूं...ये ख्‍वाब देखने वालों की गाड़ी है। जो अपनी हर सीटी के साथ एक संकल्‍प भी बोलती है। आईएएस बनो। न बन सको तो पीसीएस बनो बस...इससे नीचे मत सोचो। इस रेल की खासियत यही है। बैठने वाले का आईएएस बनना तय है। वो न बना तो उसका लड़का बनेगा। उसका लड़का न बना तो उसका लड़का बनेगा। कोई भी बने, बनेगा जरुर। मैंने अपनी इस रेल के अलहदा होने के कई सबूत दिए। मैंने कहा है कि यहां शौचालय के डब्‍बों के भीतर अश्‍लील आकृतियां नहीं होती हैं। प्रेम निवेदन से जुड़े खूबसूरत शेर होते हैं। दरअसल, ये पूरा जादू इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय का है। पूरी रेल उसी की भाषा बोलती है। बहरहाल, पढ़े लिखे लोगों को बुरा ज्‍यादा लगता है। इसलिए जब बृजेश जी ने कहा कि हर अंचल में ऐसे रुट होते होंगे तो मेरे ऊपर दबाव बनाया गया कि मैं अपनी नाकामयाबी का ठीकरा लाखों कलेक्‍टरों के सर न फोड़ू। बताऊं कि रेल कैसे अलग। बहुत सारी बातें हैं जो इस रेल को अलग बनाती हैं। मैंने उनमें से काफी कुछ लिख भी दिया है। आगे भी लिखता रहूंगा.... आखिर में बृजेश जी का ढेर सारा शुक्रिया.. जै़गम -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-18712 Size: 5845 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070919/2b4f4a02/attachment.bin From ravikant at sarai.net Wed Sep 19 12:36:56 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 19 Sep 2007 12:36:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSX4KSv4KS+IOCkl+Ckr+Ckvg==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200709191236.56530.ravikant@sarai.net> ज़ैग़म, ब्रजेश, पीजी लाइन की कहानी को तो गौतम सान्याल ने अपने लेखन से अमर बना ही दिया है. पीजी भौजी को प्रणाम नामक यह लेख हंस में छपा था, और फिर स्वतंत्र किताब बनकार भी आया, उनकी कुछ अन्य व्यंग्य रचनाओं के साथ. फिर भी ज़ैग़म की कहानी, उनका अंदाज़े-बयां तो अलग होगा ही. रविकान्त बुधवार 19 सितम्बर 2007 09:00 को, zaigham imam ने लिखा था: > गया के करीब़ रहने के बावजूद मैं कभी गया नहीं गया। बस बचपन से सुनता आ रहा > हूं। गया गया गया। अपने इस शोध की शुरुआत में भी सबसे पहले मुझे गया की ही बात > बताई गई। गया में भी ऐसी रेल चलती है और उसके बारे में काफी कुछ लिखा भी गया > है। पीजी भौजी और ऐसा ही कुछ दूसरा। मैंने अपने गया के दोस्‍तों से काफी कुछ > सुना भी है। खै़र, बृजेश जी कहते हैं कि हर अंचल में ऐसे रुट होंगे या होते > हैं। तो साहब ये तो मेरी नाकामयाबी है कि पढे़ लिखों के रुट को मैं अभी तक सही > तरीके से दर्शा नहीं सका। मैंने देखे हैं, बनारस से मऊ, आजमगढ़, गोरखपुर और > ऐसे तमाम रुट जहां ऐसी रेलें चल रही हैं। टूटी, फूटी, खस्‍ता हाल। लेकिन यकीन > मानिए आज तक किसी रेल में मुझे 80 फीसदी ग्रेजुएट नहीं मिले। बाकी बचे 20 > फीसदी में भी 10 प्रतिशत से ज्‍यादा अंडरग्रेजुएट। एक दो प्रतिशत सवारियां ही > पूरी तरह अशिक्षित होती होगीं। मैंने कभी किसी रेल में नहीं सुना प्राचीन > भारतीय इतिहास, भूगोल, हिंदी और अंग्रेजी साहित्‍य की परतें दर परतें उखाड़े > जाते हुए। संगम काल, मौर्य काल और न जाने क्‍या-क्‍या। ये समय बिताने के लिए > करना है कुछ काम की तर्ज पर टुच्‍ची राजनीतिक बहसें नहीं होतीं। बात करनी है > तो ये करिए कि सिविल के एग्‍जाम में किन प्रश्‍नों के आने की संभावना ज्‍यादा > है। ट्रेंड बदल रहा है तो बदलाव क्‍या है। प्रीलिम्‍स परीक्षा के लिए फ‍िलॉसफी > सही रहेगा या फ‍िर भी प्राचीन इतिहास। ये दूधवालों, सब्‍जीढोने वालों और > रोजमर्रा के काम करके किसी तरह जिंदगी को आगे बढ़ाने वालों की गाड़ी नहीं है। > ईमानदारी से कह रहा हूं...ये ख्‍वाब देखने वालों की गाड़ी है। जो अपनी हर सीटी > के साथ एक संकल्‍प भी बोलती है। आईएएस बनो। न बन सको तो पीसीएस बनो बस...इससे > नीचे मत सोचो। इस रेल की खासियत यही है। बैठने वाले का आईएएस बनना तय है। वो न > बना तो उसका लड़का बनेगा। उसका लड़का न बना तो उसका लड़का बनेगा। कोई भी बने, > बनेगा जरुर। मैंने अपनी इस रेल के अलहदा होने के कई सबूत दिए। मैंने कहा है कि > यहां शौचालय के डब्‍बों के भीतर अश्‍लील आकृतियां नहीं होती हैं। प्रेम निवेदन > से जुड़े खूबसूरत शेर होते हैं। दरअसल, ये पूरा जादू इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय > का है। पूरी रेल उसी की भाषा बोलती है। बहरहाल, पढ़े लिखे लोगों को बुरा > ज्‍यादा लगता है। इसलिए जब बृजेश जी ने कहा कि हर अंचल में ऐसे रुट होते होंगे > तो मेरे ऊपर दबाव बनाया गया कि मैं अपनी नाकामयाबी का ठीकरा लाखों कलेक्‍टरों > के सर न फोड़ू। बताऊं कि रेल कैसे अलग। बहुत सारी बातें हैं जो इस रेल को अलग > बनाती हैं। मैंने उनमें से काफी कुछ लिख भी दिया है। आगे भी लिखता रहूंगा.... > > आखिर में बृजेश जी का ढेर सारा शुक्रिया.. > > जै़गम From ravikant at sarai.net Wed Sep 19 14:22:15 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 19 Sep 2007 14:22:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruClh+CksOClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4=?= Message-ID: <200709191422.15273.ravikant@sarai.net> syber duniya mein vicharte hue: http://in.hindi.yahoo.com/Literature/Poems/0702/08/1070208045_1.htm se saabhaar ravikant हिंदी मेरी भाषा - अविनाश हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है सब्‍जी को शोरबा कहने पर समझते हैं ये मैं क्या कह रहा हूँ ऐसा तो मुसलमान कहते हैं यहाँ तक कि गोश्‍त कहने पर उन्हें आती है उबकाई जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को कटते हुए देखकर भी वे गश नहीं खाते शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता लखनऊ अभी दूर है शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर दोस्त कहते हैं तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं ये ठीक नहीं है पिता खाने की थाली फेंक देते हैं बहनें आना छोड़ देती हैं पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है ‘वैष्‍णव जन तो तेणे कहिए जे पीड़ परायी जाणी रे’ हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! From rakeshjee at gmail.com Wed Sep 19 16:20:08 2007 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Wed, 19 Sep 2007 16:20:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruClh+CksOClgCDgpK3gpL7gpLfgpL4=?= In-Reply-To: <200709191422.15273.ravikant@sarai.net> References: <200709191422.15273.ravikant@sarai.net> Message-ID: <292550dd0709190350n696e93fdve6adf3697164ed52@mail.gmail.com> जबरदस्त कविता. रविकान्तजी आपने इतनी दुर्लभ पंक्तियां मुहैया की. आपका शुक्रिया. राकेश On 9/19/07, Ravikant wrote: > > syber duniya mein vicharte hue: > > http://in.hindi.yahoo.com/Literature/Poems/0702/08/1070208045_1.htm > > se saabhaar > > ravikant > > हिंदी मेरी भाषा > - अविनाश > हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं > जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं > उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को > समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है > > सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं > ये मैं क्या कह रहा हूँ > ऐसा तो मुसलमान कहते हैं > > यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई > जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को > कटते हुए देखकर भी > वे गश नहीं खाते > शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता > > हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी > पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता > लखनऊ अभी दूर है > शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर > > दोस्त कहते हैं > तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं > ये ठीक नहीं है > > पिता खाने की थाली फेंक देते हैं > बहनें आना छोड़ देती हैं > पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं > > मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव > एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं > वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं > > दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है > मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें > > मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है > > 'वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे > पीड़ परायी जाणी रे' > > हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान > हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे > > कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070919/64a04258/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Sep 19 17:20:17 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 19 Sep 2007 17:20:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hindi wikipedia Message-ID: <200709191720.17459.ravikant@sarai.net> nirantar se saabhaar: http://www.nirantar.org/0806/nidhi/wikipedia From neelimasayshi at gmail.com Thu Sep 20 22:24:50 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Thu, 20 Sep 2007 22:24:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOCljeCksuClieCkl+Ckv+CkpCDgpJzgpL7gpKTgpL8g4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCksuCkv+CkguCkleCkv+CkpCDgpK7gpKg=?= Message-ID: <749797f90709200954i7fab3a90ybcab965f4c7ceb90@mail.gmail.com> ऎसा है हिंदी ब्लॉगित जाति का लिंकित मन हिंदी ब्लॉगिंग हिंदी में रचे जा रहे किसी भी प्रकाशित विमर्श से अलग पहचान बना रही है ! यह अब तक का सबसे जीवंत त्वरित और बहसशील (और बेबाक भी ) मंच है ! यहां कोई भी भी विमर्श का बिंदु अनअटेंडिड नहीं जाता ! बाहरी दुनिया के विमर्शों में बहुत कम हिस्सेदारी दिखाने वाले भी इस दुनिया में विमर्श के मुद्दों पर भिड जाते हैं ! भाषा ,साम्प्रदायिकता ,हाशिया ,राजनीति ,ब्लॉगिंग का तकनीकी और संरचनात्मक पहलू --ऎसे कई मुद्दे उठे और विमर्श के बिंदु बने !एग्रीगेटेरों के बन जाने से ब्लॉगित हिंदी जाति सचमुच के जातीय (जातिवादी नहीं वरन जाति ऐथेनेसिटी के मायने में) चेहरे को अख्तियार कर रही है ! यहां टाइम और स्पेस के बंधनों से आजाद हिंदी चिट्ठाकार एक जमावडे एक जाति के रूप में साफ दिखने लगे हैं ! बहस का कोई एक बिंदु सब चिट्ठाकारों में हलचल पैदा कर सकता है और अपनी समान जातीय भावना के कारण असहमति भी जाति को भीतर से एकीकृत करने का काम करती है ! यहं उठी कोई भी चर्चा या तो विवाद का रूप ले सकती है या फिर विमर्श का ! इसके माने यही निकलते हैं कि हिंदी ब्लॉगिंग लगातार जुडता और नजदीक आता हुआ जातीय-सांस्कृतिक समूह है ! इस पहचान के जातीय स्वरूपका अंदाज भले ही हर चिट्ठाकार न लगा पाए किंतु चिट्ठों के अवचेतन में यह भावना सहज ही देखी जा सकती है ! हर जाति में अंत:जातीय तनाव भी होते है ! यहां भी हैं ! कविता अकविता के बीच भाषिक शुचिता भाषिक सहजता के बीच ,ग़ीक अगीक के बीच वैयक्तिक और सामूहिक चिट्ठाकारिता के बीच ,स्थापित अस्थापित चिट्ठाकारों के बीच --ये तनावहर बार नकारात्मक ही नहीं होते ! बल्कि कई बार जातीय भावना को मजबूती और आकार दे रहे होते हैं ! ताजा टिप्पणी विमर्शमें हिंदी ब्लॉगिंग के चेहरे को आकार देने वाले गंभीर विमर्श पैदा हुए हैं ! इस विमर्श में हिंदी ब्लॉगिंग को ज्यादा से ज्यादा तार्किक पहचान देने की कामना झलकती है ! शास्त्री जीकी कामना साफ एवं स्पष्ट प्रकट होती है पर बाकी के चिट्ठाकारों की चिट्ठाकारी में यह बात अवचेतन में समायी दिखाई दे जाती है ! जो कामनाऎं इन चिट्ठाकारों की चिट्ठाकारी में साफ दिखाई देती हैं वे हैं -- हिंदी चिट्ठारों की संख्या तेजी से बढेएवं इसके स्वरूप में विविधता आए -इसकी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा की चिट्ठाकारी से अलग पहचानबने -हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया नजदीक आए (ऎग्रीगेटरों की अभिवृद्धि के रूप में) -हिंदी चिट्ठारिता की तकनीकी संरचना मजबूत हो -टिप्पणी की संरचना के माध्यम से चिट्ठाकारी का संवाद-समूह सक्रियस् हो -प्रिंट मीडिया से अपने मुकाबले में हिंदी ब्लॉगिंग एक सकारात्मक संघर्षकरे और स्थापित हो ! -व्यक्तिगत पहचान और चिट्ठाकारों के उपसमूह बनें ( अलग अलग विषयों में व्यक्तिगत रुचि के आधार पर ) भडासऔर मोहल्ला इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं! -हिंदी ब्‍लॉगिंग का अलग भाषिक मुहावरागढने का प्रयास -हिंदी चिट्ठाकारी के इतिहास को दर्ज करने की चाह -हिंदी चिट्ठाकारों के कृतित्व व योगदानको दर्ज करने की चाह - लेखकीय अस्तित्व स्थापित करने की अभिवृत्ति -चिट्ठाकारी के व्यावसायिक भविष्यको लेकर कामनाऎं हिंदी ब्लॉगित जाति के दिनोंदिन लिंकित होते स्वरूप के संबंध में आपके अमूल्य सुझाव आमंत्रित हैं ! -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070920/d8c2268d/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Sep 21 14:36:12 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 21 Sep 2007 14:36:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSg4KS54KSwIOCkleCksC4=?= Message-ID: <6a32f8f0709210206h37a62c6cpd6ffaefe581a31a8@mail.gmail.com> दोस्त जैगम, लोकल ट्रेन में ग्रेजुएट -अंडरग्रेजुएट यात्री को भी पहचानना चाहते है. और भी कहानी है साथ-साथ। पर यहां मैं भी इक कहानी सुनाए देता हूं- बात सन् 1993 की है- कई सहपठियों के साथ दिल्ली से भागलपुर जाना हो रहा था। हमलोग के पास उनमुक्त होकर लंबी यात्र करने का यह नवा अनुभव था। शायद, पहला ही। विक्रमशीला एक्सप्रेस मोकामा जं. पहुंचने वाली थी। कुछ सहयात्री खीरा खा रहे थे और कुछ खरीद रहे थे। पर, अपन लोग खीरा टपाने में लगे थे। सब कुछ ठीक चलता रहा। अब खीरावाला जाने की तैयारी में था। पर परिष्कृत हिन्दी में कहता गया - *बौवा लोग उतना ही गायब करो जिससे आपको भी मजा आ जाय और हमको भी घाटा न हो।* *ज्यादा ठीक नहीं है । इससे हमसब के स्वास्थ्य पर अच्छा असर नहीं होगा। *थोड़ी बतकही के बाद हमलोग अपनी गलती मान चुका थे। आगे मालूम पड़ा कि पटना ए.एन कालेज से उनका नाता रहा है.वहां पर खीरा बेचने का नहीं, बल्कि पढ़ाई करने का। जनाब पर धारा 302 का केस चल रहा है। पढ़ाई में लगे रहते तो खेत-पथार बिक जाता और उस पढ़ाई का क्या होता भगवान जाने। आज खेत भी है और केस भी जीत गए हैं. कुछ ऐसे भी अंडरग्रेजुएट सफर करते हैं। जैगम जी आपका लिखा कई मन में सफरनामे के बीज बोता होगा चलते रहिए- ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-386 Size: 3064 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070921/067430c3/attachment.bin From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Sep 21 14:36:19 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 21 Sep 2007 14:36:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSw4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSg4KS54KSwIOCkleCksC4=?= Message-ID: <6a32f8f0709210206v71ddd477y93acba87fe1c8a83@mail.gmail.com> दोस्त जैगम, लोकल ट्रेन में ग्रेजुएट -अंडरग्रेजुएट यात्री को भी पहचानना चाहते है. और भी कहानी है साथ-साथ। पर यहां मैं भी इक कहानी सुनाए देता हूं- बात सन् 1993 की है- कई सहपठियों के साथ दिल्ली से भागलपुर जाना हो रहा था। हमलोग के पास उनमुक्त होकर लंबी यात्र करने का यह नवा अनुभव था। शायद, पहला ही। विक्रमशीला एक्सप्रेस मोकामा जं. पहुंचने वाली थी। कुछ सहयात्री खीरा खा रहे थे और कुछ खरीद रहे थे। पर, अपन लोग खीरा टपाने में लगे थे। सब कुछ ठीक चलता रहा। अब खीरावाला जाने की तैयारी में था। पर परिष्कृत हिन्दी में कहता गया - *बौवा लोग उतना ही गायब करो जिससे आपको भी मजा आ जाय और हमको भी घाटा न हो।* *ज्यादा ठीक नहीं है । इससे हमसब के स्वास्थ्य पर अच्छा असर नहीं होगा। *थोड़ी बतकही के बाद हमलोग अपनी गलती मान चुका थे। आगे मालूम पड़ा कि पटना ए.एन कालेज से उनका नाता रहा है.वहां पर खीरा बेचने का नहीं, बल्कि पढ़ाई करने का। जनाब पर धारा 302 का केस चल रहा है। पढ़ाई में लगे रहते तो खेत-पथार बिक जाता और उस पढ़ाई का क्या होता भगवान जाने। आज खेत भी है और केस भी जीत गए हैं. कुछ ऐसे भी अंडरग्रेजुएट सफर करते हैं। जैगम जी आपका लिखा कई मन में सफरनामे के बीज बोता होगा चलते रहिए- ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-103 Size: 3064 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070921/fb5ca582/attachment.bin From beingred at gmail.com Sun Sep 23 01:55:07 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 23 Sep 2007 01:55:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSu4KSw4KWH4KShIOCkleCkteCkvyDgpJXgpYsg4KSy4KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCksuCkvuCkrg==?= Message-ID: <363092e30709221325k2a9dc1cfi8018e78752c1fcbc@mail.gmail.com> एक कामरेड कवि को लाल सलाम आज के दिन, 23 सितंबर, 1973 को नेरुदा ने दुनिया को खैरबाद कह दिया था. हालांकि उनकी मौत बीमारी से हुई, मगर यह भी उतना ही सही है कि अगर सीआइए के समर्थन से सत्ता में आये तानाशाह जनरलों ने नेरुदा के इलाज में अड़ंगा न लगाया होता तो शायद नेरुदा कुछ समय तक और जी जाते. मगर एलेंदे के बाद चिली में नेरुदा ही उन जनरलों के लिए और सीआइए के लिए सबसे खतरनाक आदमी थे, बल्कि शायद एलेंदे से भी ज्यादा. हम नेरुदा के लिए अगर सबसे सही संबोधन चुनें, तो शायद हम कार्ल मार्क्स का नाम लें. हमें नेरुदा में मार्क्स की ऊंचाई दिखती है-वे शायद कविता के मार्क्स थे. यों ही नहीं है कि जब विवान सुंदरम नेरुदा की कविता पर पेंटिंग बनाते हैं तो उसमें मार्क्स का चेहरा उभर आता है. नेरुदा निजी तौर पर मेरे लिए एक प्यार की तरह हैं. माना जाता है भारतीय उपमहाद्वीप में नेरुदा जैसी प्रतिबद्धता, पार्टी के लिए सक्रियता और आमजन से जुडा़व के स्तर पर कोई रचनाकार है तो वह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं. प्रस्तुत है नेरुदा की एक कविता और उनसे जुडे़ कुछ वीडियो. (वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें) अब हम बारह तक गिनेंगे और फिर बिना हिले-डुले खडे़ रहेंगे आइए इस सरज़मीं पर कम-से-कम एक बार हम किसी भाषा में न बोलें पल भर के लिए ठिठकें और अपनी बांहें न हिलायें वह कितना अलौकिक क्षण होगा बिना हड़बडी़, बिना इंजन के बूते हम सब एक साथ होंगे किसी आकस्मिक अजनबीपन के बीच ठंडे समंदर में मछुआरे व्हेल मछलियों को अभयदान देंगे और किनारे पर नमक बीनता आदमी अपने टीसते हाथों की ओर नहीं देखेगा वे जो नयी लडा़इयों के मंसूबे बना रहे हैं ज़हरीली गैस और ज्वालाओं से लैस लडा़इयां जिनमें विजय के बाद कोई बाकी नहीं बचेगा वे सब भी साफ़-सुथरे कपडे़ पहन अपने भाइयों के साथ छांह में टहलेंगे तफ़रीह के साथ मैं जो चाहता हूं उसे निष्क्रियता न समझा जाये बल्कि मैं ज़िंदगी की बात कह रहा हूं... इतने एकाग्र भाव से अपनी ज़िंदगी चलाने के बीच अगर कभी-कभार कुछ भी किये बगैर एक लंबी खामोशी में डूब सकते तो शायद अपने को समझ न पाने और रह-रह कर जान का जोखिम झेलने की यह उदासी टूटती शायद यह धरती हमें सिखा सकती है कि सर्दियों में सब कुछ मरा हुआ दिखने के बाद कैसे बाद में जीवित साबित होता है अब मैं बारह तक गिनता हूं और तुम सब यूं ही चुपचाप रहो जब तक मैं चला न जाऊं. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070923/f5d35485/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Sep 23 01:55:07 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 23 Sep 2007 01:55:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSu4KSw4KWH4KShIOCkleCkteCkvyDgpJXgpYsg4KSy4KS+4KSy?= =?utf-8?b?IOCkuOCksuCkvuCkrg==?= Message-ID: <363092e30709221325k2a9dc1cfi8018e78752c1fcbc@mail.gmail.com> एक कामरेड कवि को लाल सलाम आज के दिन, 23 सितंबर, 1973 को नेरुदा ने दुनिया को खैरबाद कह दिया था. हालांकि उनकी मौत बीमारी से हुई, मगर यह भी उतना ही सही है कि अगर सीआइए के समर्थन से सत्ता में आये तानाशाह जनरलों ने नेरुदा के इलाज में अड़ंगा न लगाया होता तो शायद नेरुदा कुछ समय तक और जी जाते. मगर एलेंदे के बाद चिली में नेरुदा ही उन जनरलों के लिए और सीआइए के लिए सबसे खतरनाक आदमी थे, बल्कि शायद एलेंदे से भी ज्यादा. हम नेरुदा के लिए अगर सबसे सही संबोधन चुनें, तो शायद हम कार्ल मार्क्स का नाम लें. हमें नेरुदा में मार्क्स की ऊंचाई दिखती है-वे शायद कविता के मार्क्स थे. यों ही नहीं है कि जब विवान सुंदरम नेरुदा की कविता पर पेंटिंग बनाते हैं तो उसमें मार्क्स का चेहरा उभर आता है. नेरुदा निजी तौर पर मेरे लिए एक प्यार की तरह हैं. माना जाता है भारतीय उपमहाद्वीप में नेरुदा जैसी प्रतिबद्धता, पार्टी के लिए सक्रियता और आमजन से जुडा़व के स्तर पर कोई रचनाकार है तो वह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं. प्रस्तुत है नेरुदा की एक कविता और उनसे जुडे़ कुछ वीडियो. (वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें) अब हम बारह तक गिनेंगे और फिर बिना हिले-डुले खडे़ रहेंगे आइए इस सरज़मीं पर कम-से-कम एक बार हम किसी भाषा में न बोलें पल भर के लिए ठिठकें और अपनी बांहें न हिलायें वह कितना अलौकिक क्षण होगा बिना हड़बडी़, बिना इंजन के बूते हम सब एक साथ होंगे किसी आकस्मिक अजनबीपन के बीच ठंडे समंदर में मछुआरे व्हेल मछलियों को अभयदान देंगे और किनारे पर नमक बीनता आदमी अपने टीसते हाथों की ओर नहीं देखेगा वे जो नयी लडा़इयों के मंसूबे बना रहे हैं ज़हरीली गैस और ज्वालाओं से लैस लडा़इयां जिनमें विजय के बाद कोई बाकी नहीं बचेगा वे सब भी साफ़-सुथरे कपडे़ पहन अपने भाइयों के साथ छांह में टहलेंगे तफ़रीह के साथ मैं जो चाहता हूं उसे निष्क्रियता न समझा जाये बल्कि मैं ज़िंदगी की बात कह रहा हूं... इतने एकाग्र भाव से अपनी ज़िंदगी चलाने के बीच अगर कभी-कभार कुछ भी किये बगैर एक लंबी खामोशी में डूब सकते तो शायद अपने को समझ न पाने और रह-रह कर जान का जोखिम झेलने की यह उदासी टूटती शायद यह धरती हमें सिखा सकती है कि सर्दियों में सब कुछ मरा हुआ दिखने के बाद कैसे बाद में जीवित साबित होता है अब मैं बारह तक गिनता हूं और तुम सब यूं ही चुपचाप रहो जब तक मैं चला न जाऊं. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070923/f5d35485/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Sun Sep 23 01:59:14 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 23 Sep 2007 01:59:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSo4KWHIOCkleClhyDgpKHgpLAg4KS44KWHIOCkmuClgQ==?= =?utf-8?b?4KSqIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLDgpLngpL4g4KSc4KS+IOCkuOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30709221329x45006127x69ddaa58b49a4b3b@mail.gmail.com> जेल जाने के डर से चुप नहीं रहा जा सकता इलीना सेन की पहचान डॉ विनायक सेन की पत्नी के बजाय एक सक्रिय मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अधिक है. चार माह पहले जब डॉ विनायक सेन को छत्तीसगढ़ सरकार ने गिरफ्तारकिया था तो आशंका जतायी जा रही थी कि इलीना सेन को भी गिरफ्तार किया जा सकता है. डॉ विनायक सेन के आरोपपत्र की जो भाषा थी, उससे साफ पता चलता है कि सरकार और प्रशासन बेहद विनम्र इस महिला के बारे में क्या धारणा रखती है. शनिवार को इलीना सेन पटना में थीं. उनसे प्रभात खबर के लिए की गयी बातचीत के कुछ हिस्से यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. अब पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनायक सेन कोई अनजाना नाम नहीं रह गया है. उन्हें गत मई में नक्सलियों का समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इलीना सेन बताती हैं कि असल में डॉ सेन छत्तीसगढ़ में मानवाधिकारों पर हमलों, कारपोरेट लूट, सरकारी दमन के खिलाफ लगातार बोलते रहे. सलवा जुडूम के बारे में सबसे पहले डॉ सेन की ही पहल पर जांच की गयी और लोगों को पता चला कि आदिवासियों पर किस तरह आतंक थोप दिया गया है. इन सब कारणों से डॉ सेन सरकार के निशाने पर थे. इलीना सेन ने डॉ सेन पर लगाये गये आरोपों को असंबद्ध और बकवास बताया. उन्होंने बताया कि पुलिस ने एक सबूत यह दिया कि राजनांदगांव में मुठभेड़ के बाद भागे नक्सलियों से छूटे दस्तावेजों में डॉ सेन का नाम था. मगर जो दस्तावेज प्रस्तुत किया गया, वह धुंधला (दिखने में अस्पष्ट) था. जब पुलिस से कहा गया कि वह मूल प्रति दिखाये तो उसने बताया कि मूल प्रति (जो मिली वह) तो है ही नहीं. इसी तरह एक और आरोप डॉ सेन के ऊपर लगाया गया कि वे माओवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में मिलते थे और उनकी चिटि्ठयां भाकपा (माओवादी) तक पहुंचाते थे, जिसके कारण माओवादी अपनी गतिविधियां जारी रखे हुए थे. इलीना सेन ने प्रतिप्रश्न किया कि जेल सुपरिटेंडेंट की अनुमति से जेलर के सामने वे मुलाकातें हुईं, ऐसे में क्या यह संभव था? इलीना सेन ने कहा कि जब माओवादियों की तरफ से आम नागरिकों के प्रति हिंसा होती है तो हम उसे भी कंडेम करते हैं. छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध चल रहा है और ऐसे में पुलिसिया कार्रवाई करके कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता. छत्तीसगढ़ की जनता भूखी है, उसे कोई बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं है, न स्वास्थ्य, न शिक्षा. ऐसे में वह क्या करे अगर वह दखल न दे? राज्य के अनेक इलाकों में लोग बहुत न्यूनतम स्तर का जीवन जीते हैं. यही वे इलाके हैं, जहां माओवादियों की पकड़ लगातार मजबूत हुई है. आज़ादी के बाद से 60 साल बीत गये. लोग कब तक धीरज धरे रहेंगे? वे कुछ न कुछ तो करेंगे ही. इलीना सेन ने महिलाओं के शोषण को उजागर करने में काफी काम किया है. उनका कहना है कि राज्य में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है. सलवा जुडूम और दूसरी कार्रवाइयों में उन पर अत्याचार और बढ़ा है. स्वास्थ्य की स्थिति तो बहुत खराब है. उनमें भारी कुपोषण है. जो आजीविका के साधन थे इलाके के लोगों के, वे चौपट हो गये हैं. सैन्य बल महिलाओं का काफी शोषण करते हैं. 100 से ज्यादा मामले सिर्फ हमने दर्ज किये हैं- और न दर्ज हो पानेवाले मामलों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी. सरकार महिलाओं के लिए कुछ नहीं करती. बस चटनी-आचार बनाने के प्रशिक्षण दिये जाते हैं, पर वह कोई समाधान नहीं है. इलीना सेन बताती हैं कि सलवा जुडूम के दौरान उजाड़े गये लोगों को जिन सरकारी राहंत कैंपों में रखा गया था, उन कैंपों को स्थायी राजस्व ग्राम में बदले जाने की बात आयी है. और इन राहत कैंपों में रहनेवाले जिन गांवों को छोड़ कर आये हैं वे उजाड़ दिये गये गांव एमएनसीज को दे दिये जायेंगे. असल में सलवा जुडूम अभियान ही इसीलिए चलाया गया था कि जमीनें खाली हों तो उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जाये. लोहंडीगुडा में आदिवासी ग्राम सभा ने जमीन बेचने की अनुमति नहीं दी तो फर्ज़ी ग्रामसभा बना कर उससे अनुमति दिला दी गयी. अब कहा जा रहा है कि एक बार ग्रामसभा ने अनुमति दे दी तो दोबारा उस पर विचार नहीं किया जा सकता. स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे हैं तो उन्हें माओवादी बताया जा रहा है, जबकि वे सीपीआइ से जुडे़ हुए हैं. इलीना सेन बताती हैं कि राज्य में बौद्धिक माहौल में गिरावट आयी है. कोई भी सरकार के और इन कार्रवाइयों के विरोध में बोलना नहीं चाहता. उनलोगों को लगता है कि ग्लोबलाइजेशन से उन्हें फायदा है. इलीना सेन के अनुसार डॉ सेन इतने सिंपल हैं कि उनके बारे में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वे हिंसक कार्रवाइयों को सपोर्ट कर सकते हैं. इलीना सेन थोड़ा हंसती हैं-डॉ सेन की चार्ज शीट की जो भाषा है उस पर. उसमें कहा गया है कि डॉ सेन का काम डॉक्टरी रूप से शून्य है. इलीना बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ बना था तो पहली सरकार ने राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए जो सलाहकार समिति बनायी थी, उसमें डॉ सेन एक प्रमुख सलाहकार थे (इलीना सेन भी उस समिति की सदस्य थीं). अब यह भाजपा सरकार आयी है तो इसे पता ही नहीं कि उनका डॉक्टरी योगदान क्या है. पूरे छत्तीसगढ़ की स्थिति पर इलीना सेन ने कहा कि सरकार सैन्यीकरण को बढ़ा रही है. युवाओं के लिए सारे अवसर बंद हैं. केवल सेना में नौजवानों की भरती हो रही है. बड़ा बजट है नक्सलियों को खत्म करने का. नक्सली समस्या है तो कइयों को फायदा है इससे. स्थास्थ्य बजट से अधिक का बजट है नक्सली उन्मूलन का. कहा जाता है कि वहां सीआरपीएफ लोगों की सुरक्षा के लिए हैं. जो उनकी चौकियां हैं उनमें बाहर एसपीओ रहते हैं और उनके सुरक्षा घेरे में सीआरपीएफ. एसपीओ तो स्थानीय लोग ही बनते हैं. आप देखिए कि कौन किसकी सुरक्षा कर रहा है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर बढ़ती दमनात्मक कार्रवाइयों से चिंतित इलीना सेन कहती हैं कि जेल जाने का शौक किसी को नहीं होता. अगर कोई गलत काम होता है तो उस पर जेल जाने के डर से चुप भी नहीं रहा जा सकता. पीयूसीएल के पास जो भी रास्ते हो सकते हैं, उन्हें वह अपना रहा है अपना विरोध दर्ज कराने के लिए. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070923/3f452957/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Sep 23 01:59:14 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 23 Sep 2007 01:59:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWH4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KS+4KSo4KWHIOCkleClhyDgpKHgpLAg4KS44KWHIOCkmuClgQ==?= =?utf-8?b?4KSqIOCkqOCkueClgOCkgiDgpLDgpLngpL4g4KSc4KS+IOCkuOCklQ==?= =?utf-8?b?4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30709221329x45006127x69ddaa58b49a4b3b@mail.gmail.com> जेल जाने के डर से चुप नहीं रहा जा सकता इलीना सेन की पहचान डॉ विनायक सेन की पत्नी के बजाय एक सक्रिय मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अधिक है. चार माह पहले जब डॉ विनायक सेन को छत्तीसगढ़ सरकार ने गिरफ्तारकिया था तो आशंका जतायी जा रही थी कि इलीना सेन को भी गिरफ्तार किया जा सकता है. डॉ विनायक सेन के आरोपपत्र की जो भाषा थी, उससे साफ पता चलता है कि सरकार और प्रशासन बेहद विनम्र इस महिला के बारे में क्या धारणा रखती है. शनिवार को इलीना सेन पटना में थीं. उनसे प्रभात खबर के लिए की गयी बातचीत के कुछ हिस्से यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. अब पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनायक सेन कोई अनजाना नाम नहीं रह गया है. उन्हें गत मई में नक्सलियों का समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इलीना सेन बताती हैं कि असल में डॉ सेन छत्तीसगढ़ में मानवाधिकारों पर हमलों, कारपोरेट लूट, सरकारी दमन के खिलाफ लगातार बोलते रहे. सलवा जुडूम के बारे में सबसे पहले डॉ सेन की ही पहल पर जांच की गयी और लोगों को पता चला कि आदिवासियों पर किस तरह आतंक थोप दिया गया है. इन सब कारणों से डॉ सेन सरकार के निशाने पर थे. इलीना सेन ने डॉ सेन पर लगाये गये आरोपों को असंबद्ध और बकवास बताया. उन्होंने बताया कि पुलिस ने एक सबूत यह दिया कि राजनांदगांव में मुठभेड़ के बाद भागे नक्सलियों से छूटे दस्तावेजों में डॉ सेन का नाम था. मगर जो दस्तावेज प्रस्तुत किया गया, वह धुंधला (दिखने में अस्पष्ट) था. जब पुलिस से कहा गया कि वह मूल प्रति दिखाये तो उसने बताया कि मूल प्रति (जो मिली वह) तो है ही नहीं. इसी तरह एक और आरोप डॉ सेन के ऊपर लगाया गया कि वे माओवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में मिलते थे और उनकी चिटि्ठयां भाकपा (माओवादी) तक पहुंचाते थे, जिसके कारण माओवादी अपनी गतिविधियां जारी रखे हुए थे. इलीना सेन ने प्रतिप्रश्न किया कि जेल सुपरिटेंडेंट की अनुमति से जेलर के सामने वे मुलाकातें हुईं, ऐसे में क्या यह संभव था? इलीना सेन ने कहा कि जब माओवादियों की तरफ से आम नागरिकों के प्रति हिंसा होती है तो हम उसे भी कंडेम करते हैं. छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध चल रहा है और ऐसे में पुलिसिया कार्रवाई करके कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता. छत्तीसगढ़ की जनता भूखी है, उसे कोई बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं है, न स्वास्थ्य, न शिक्षा. ऐसे में वह क्या करे अगर वह दखल न दे? राज्य के अनेक इलाकों में लोग बहुत न्यूनतम स्तर का जीवन जीते हैं. यही वे इलाके हैं, जहां माओवादियों की पकड़ लगातार मजबूत हुई है. आज़ादी के बाद से 60 साल बीत गये. लोग कब तक धीरज धरे रहेंगे? वे कुछ न कुछ तो करेंगे ही. इलीना सेन ने महिलाओं के शोषण को उजागर करने में काफी काम किया है. उनका कहना है कि राज्य में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है. सलवा जुडूम और दूसरी कार्रवाइयों में उन पर अत्याचार और बढ़ा है. स्वास्थ्य की स्थिति तो बहुत खराब है. उनमें भारी कुपोषण है. जो आजीविका के साधन थे इलाके के लोगों के, वे चौपट हो गये हैं. सैन्य बल महिलाओं का काफी शोषण करते हैं. 100 से ज्यादा मामले सिर्फ हमने दर्ज किये हैं- और न दर्ज हो पानेवाले मामलों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी. सरकार महिलाओं के लिए कुछ नहीं करती. बस चटनी-आचार बनाने के प्रशिक्षण दिये जाते हैं, पर वह कोई समाधान नहीं है. इलीना सेन बताती हैं कि सलवा जुडूम के दौरान उजाड़े गये लोगों को जिन सरकारी राहंत कैंपों में रखा गया था, उन कैंपों को स्थायी राजस्व ग्राम में बदले जाने की बात आयी है. और इन राहत कैंपों में रहनेवाले जिन गांवों को छोड़ कर आये हैं वे उजाड़ दिये गये गांव एमएनसीज को दे दिये जायेंगे. असल में सलवा जुडूम अभियान ही इसीलिए चलाया गया था कि जमीनें खाली हों तो उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जाये. लोहंडीगुडा में आदिवासी ग्राम सभा ने जमीन बेचने की अनुमति नहीं दी तो फर्ज़ी ग्रामसभा बना कर उससे अनुमति दिला दी गयी. अब कहा जा रहा है कि एक बार ग्रामसभा ने अनुमति दे दी तो दोबारा उस पर विचार नहीं किया जा सकता. स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे हैं तो उन्हें माओवादी बताया जा रहा है, जबकि वे सीपीआइ से जुडे़ हुए हैं. इलीना सेन बताती हैं कि राज्य में बौद्धिक माहौल में गिरावट आयी है. कोई भी सरकार के और इन कार्रवाइयों के विरोध में बोलना नहीं चाहता. उनलोगों को लगता है कि ग्लोबलाइजेशन से उन्हें फायदा है. इलीना सेन के अनुसार डॉ सेन इतने सिंपल हैं कि उनके बारे में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वे हिंसक कार्रवाइयों को सपोर्ट कर सकते हैं. इलीना सेन थोड़ा हंसती हैं-डॉ सेन की चार्ज शीट की जो भाषा है उस पर. उसमें कहा गया है कि डॉ सेन का काम डॉक्टरी रूप से शून्य है. इलीना बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ बना था तो पहली सरकार ने राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए जो सलाहकार समिति बनायी थी, उसमें डॉ सेन एक प्रमुख सलाहकार थे (इलीना सेन भी उस समिति की सदस्य थीं). अब यह भाजपा सरकार आयी है तो इसे पता ही नहीं कि उनका डॉक्टरी योगदान क्या है. पूरे छत्तीसगढ़ की स्थिति पर इलीना सेन ने कहा कि सरकार सैन्यीकरण को बढ़ा रही है. युवाओं के लिए सारे अवसर बंद हैं. केवल सेना में नौजवानों की भरती हो रही है. बड़ा बजट है नक्सलियों को खत्म करने का. नक्सली समस्या है तो कइयों को फायदा है इससे. स्थास्थ्य बजट से अधिक का बजट है नक्सली उन्मूलन का. कहा जाता है कि वहां सीआरपीएफ लोगों की सुरक्षा के लिए हैं. जो उनकी चौकियां हैं उनमें बाहर एसपीओ रहते हैं और उनके सुरक्षा घेरे में सीआरपीएफ. एसपीओ तो स्थानीय लोग ही बनते हैं. आप देखिए कि कौन किसकी सुरक्षा कर रहा है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर बढ़ती दमनात्मक कार्रवाइयों से चिंतित इलीना सेन कहती हैं कि जेल जाने का शौक किसी को नहीं होता. अगर कोई गलत काम होता है तो उस पर जेल जाने के डर से चुप भी नहीं रहा जा सकता. पीयूसीएल के पास जो भी रास्ते हो सकते हैं, उन्हें वह अपना रहा है अपना विरोध दर्ज कराने के लिए. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070923/3f452957/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Wed Sep 26 00:55:04 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 26 Sep 2007 00:55:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30709251225k175158abka02ba291de661c83@mail.gmail.com> सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता ज्यों-ज्यों और जब-जब सत्ता का संकट गहराता है, धर्म और सांप्रदायिक राजनीति की शरण में पूरी व्यवस्था चली जाती है. याद करिए 1991-1992 का दौर, जब देश पर आर्थिक उदारीकरण के रूप में नव उदारवाद थोपा जा रहा था, सांप्रदायिक राजनीति उफान पर थी. आम लोग लोग मंदिर-मसज़िद के चक्कर में पडे़ थे और देश में अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप मज़बूत हो रहा था. बाज़ार खोले जा रहे थे और लोगों की जेब तक बहुराष्ट्रीय पंजों की पहुंच संभव बना दी गयी थी. यह केवल एक उदाहरण है. उसके पहले और उसके बाद भी, जब-जब राजसत्ता संकट में फंसी है और उससे निकलना मुश्किल लगा है-धर्म ने उसकी मदद की है-यह एक ऐतिहासिक तथ्य है. अभी, जब सरकार को लगा कि वह परमाणु करार पर फंस रही है, रामसेतु सामने आया. यहां साफ़ होना चाहिए कि यह संकट तथाकथित वामदलों की तरफ़ से नहीं था, बल्कि वामदलों ने किसी भी तरह का संकट नहीं खडा़ किया, वे तो बस नूराकुश्ती करते रहे. उन्होंने वे असली सवाल खड़े ही नहीं किये जो इस करार के संदर्भ में किये जाने चाहिए थे. कुल मिला कर वाम दलों ने विरोध का दिखावा किया (उनसे हम इसके अलावा किसी और चीज़ की अपेक्षा भी नहीं करते). संकट यह था कि सरकार (मतलब यह पूरी व्यवस्था ही) लोगों के सामने इसके लिए बेपर्द हो रही थी कि उसने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिये थे और लोग देख रहे थे कि इस 'महाशक्ति' को एक अदना-सा अमेरिकी अधिकारी भी घुड़क सकता था. वाम दल अब नौटंकी करते-करते थक चुके थे और कोई दूसरी स्क्रिप्ट उन्हें नहीं मिल पा रही थी. रामसेतु इसी मौके पर त्राता के रूप में सामने आया. मगर रामसेतु ने कई और सवाल भी खडे़ किये. इस पूरे प्रसंग पर लोगों ने यह कहा कि किसी की आस्था से छेड़्छाड़ ठीक नहीं. बिलकुल. आस्थाओं से क्यों छेड़छाड़ हो? यह ज़रूरी भी नहीं. कोई कुछ भी आस्था रखे, इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मगर जब इसी आस्था के नाम पर हज़ारों-लाखों का कत्लेआम किया जाने लगे (किया जा चुका ही है) तो इस आस्था को माफ नहीं किया जाना चाहिए. यह किसी की भी आस्था हो सकती है कि राम हुए थे, मगर इसे लेकर जब वह हत्याकांड रचने लगे तो फिर उसे यह बताना ज़रूरी है कि वह गलती पर है. ऐतिहासिक तौर पर यह साबित नहीं होता कि राम और कृष्ण का अस्तित्व था. कोई कुछ भी कहता और मानता रहे, वह मानने को आज़ाद है. मगर इससे इतिहास लिखनेवाले और वैज्ञानिक नज़रिया रखनेवाले अपनी धारणा क्यों बदलें? क्या एएसआइ यह मान ले कि राम का अस्तित्व था? भगवा ब्रिगेड तो यही चाहता है. प्रोफेसर रामशरण शर्मा प्राचीन भारत के इतिहास के प्रख्यात विद्वान हैं. वे उन इतिहासकारों में से हैं, जिन्होंने प्राचीन भारत के बारे में पुरानी धारणाओं और नज़रिये को बिल्कुल बदल डाला. इसीलिए वे हमेशा से भगवा ब्रिगेड के निशाने पर रहे हैं. उनपर कई जानलेवा हमले तक किये गये हैं. इस व्योवृद्ध इतिहासकार का एक लंबा व्याख्यान हम किस्तों में यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति के विभिन्न आयामों और राम-कृष्ण की ऐतिहासिकता पर विस्तार से चर्चा की है. यह व्याख्यान उन्होंने 1990 में काकतिया विश्वविद्यालयमें हुए आंध्र प्रदेश इतिहास कांग्रेस के 14वें अधिवेशन में दिया था. इसका अनुवाद यश चौहान ने किया है. व्याख्यान का प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने किया है. साभार प्रस्तुति. सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या आरएस शर्मा जब राजनीतिक उद्देश्य से धर्म के नाम पर उसके अनुयायियों को उभारा जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है. अपने संप्रदाय की सुरक्षा के नाम पर दूसरे संप्रदाय के लोगों को सताना भी सांप्रदायिकता है. भारत में संप्रदायवाद को खास तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की प्रकृति की रोशनी में देखा जाता है, हालांकि हाल में सिख धर्म के आधार पर संगठित समुदाय को भी जोरों से उभारने की चेष्टा चल रही है. प्रकृति द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को हटाने के लिए मानव को अनवरत संघर्ष करना पड़ता है, जिससे धार्मिक विश्वास, कर्मकांड और रीति-रिवाजों का उदय और विकास होता है. उसी प्रकार सामाजिक मसलों पर मानव के विरुद्ध मानव के संघर्ष में भी धर्म और कर्मकांड उभरते व विकसित होते हैं. जब लोगों के लिए प्रकृति द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों की युक्तिपूर्वक विवेचना कर पाना कठिन हो जाता है, तो वे चमत्कारिक और अंधविश्वासपूर्ण स्पष्टीकरणों का सहारा लेने लगते हैं. इन्हीं से जन्म लेते हैं, अनेकानेक देवी-देवता. ऋग्वेद में वर्णित अधिकतर देव प्रकृति की या तो उपकारी या फिर अपकारी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. फिर जब किसानों, दस्तकारों और अन्य मेहतकशों की कमाई पर आधारित अपनी सत्ता और विशेषाधिकारों को बरकरार रखने में विशेषाधिकार-संपन्न लोग कठिनाई अनुभव करते हैं, तो वे कर तथा खिराज वसूल करने के लिए अंधविश्वास के इस्तेमाल के तरीके ढूंढ़ निकालते हैं. इसी तरह जब अभावों के बोझ से पिस रहे जनसमुदाय सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करते हैं, तो वे देवता को सहायता के लिए पुकारते हैं क्योंकि उन्हें विश्वास कराया जाता है कि देवता ने मुक्त और समान मानव प्राणियों का सृजन किया है. इस तरह, धर्म का प्रयोग समाज के विशेषाधिकार संपन्न और सुविधाहीन वर्ग, दोनों करते हैं. पर यह कार्य अधिकतर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग करते हैं, क्योंकि उनकी विचारधारा, जैसाकि भारतीय स्थिति में दरसाया जा सकता है, प्रभुत्वपूर्ण विचारधारा में तब्दील कर दी जाती है और जनता के दिलो-दिमाग में गहरे बिठा दी जाती है. प्राचीन और मध्यकाल के पूंजीवाद पूर्व के समाजों में धर्म ने वही भूमिका निभायी, जो भूमिका आधुनिक काल के पूंजीवादी और अन्य समाजों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं निभा रही हैं. इस कथन का आशय यह नहीं कि पूंजीवाद पूर्व के राज्य धर्म शासित राज्य थे. उनकी नीतियां अधिकतर शासक वर्ग के आर्थिक व राजनीतिक हितों से निर्देशित होती थीं और खुद धर्म का इस्तेमाल इसी प्रयोजन से किया जाता था. इस तरह बौद्ध, ईसाई और इसलाम जैसे धर्मों के उदय ने और भी स्वस्थ दिशाओं में समाज व अर्थतंत्र में सुधार लाने व उसे पुनर्गठित करने में सहायता पहुंचायी. धर्मों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक मानदंडों ने बेहतर सामाजिक प्रणालियां निर्मित करने के लिए जनता को प्रेरित किया. पर यह बात समझ लेनी चाहिए कि प्रत्येक धर्म खास किस्म के सामाजिक वातावरण की उपज होता है. इस तरह, बौद्ध धर्म द्वारा आम तौर पर समस्त प्राणियों और विशेष कर गायों की रक्षा पर जो जोर दिया गया, उससे ऐसे समय में सहायता मिली जब लगभग ईसा पूर्व 500 के बाद, गंगा के मध्य मैदानी भागों में बड़े पैमाने पर खेती में लौह उपकरणों का इस्तेमाल होने लगा था. लेकिन बौद्ध धर्म ने उन वर्ण आधारित भेदों को नहीं मिटाया, जो समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच अतिरिक्त उत्पाद (अधिशेष) के असमान वितरण के फलस्वरूप पैदा हो गये थे. ब्राह्मण धर्म ने गाय की रक्षा के विचार पर ध्यान केंद्रित करके बौद्ध धर्म के हाथ से पहल छीन ली. बड़ी ही चालाकी से उसने यह घोषणा भी कर डाली कि ब्राह्मणों का जीवन भी गाय की तरह अति पवित्र है और फिर इस विचार को पुर्नजन्म के विचार के साथ जनता के दिमाग में ठोंक-पीट कर बैठा दिया गया. स्पष्ट ही, गाय की रक्षा के सिद्धांत ने उन जनजातीय क्षेत्रों में हल आधारित कृषि और पशुपालन को काफी उन्नत किया, जो क्षेत्र विजित करके और भूमि अनुदानों के जरिये, ब्राह्मणों के प्रभाव के तहत आ गये थे. लेकिन अब कृषि तकनीक में उल्लेखनीय प्रगति के साथ सुरक्षा में प्राथमिकता की दृष्टि से स्वभावत: ही, मवेशी काफी पीछे रह गये हैं. आज पवित्र गाय का सिद्धांत हमारी आर्थिक प्रगति में अवरोध बन जाता है. हम या तो ऐसे पशुओं का ही पेट भरें जो आर्थिक रूप से अलाभकारी और अनुत्पादक हैं और या फिर उत्पादक कार्यों में संलग्न इनसानों का ही. इस बात पर अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने जोर दिया है. इस प्रकार हम भौतिक जीवन और विचारधारा की शक्ति के तकाजों के बीच परस्पर क्रिया को देख सकते हैं. पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आरंभिक इतिहास में बौद्ध धर्म ने सकारात्मक भूमिका निभायी और समाज को गति प्रदान की. इसी तरह ईसाई धर्म ने दास और स्वामी के बीच समानता के सिद्धांतों का प्रचार किया, दोनों को ईश्वर की दुनिया में एक ही कोटि का प्राणी घोषित किया, पर रोमन साम्राज्य ने इस दोनों के बीच मौजूद वास्तविक सामाजिक विभेद का उन्मूलन करने के लिए कुछ भी नहीं किया. इसलाम धर्म ने विभिन्न अरब कबीलों और जनजातियों को एक ही राज्य में जोड़ कर प्रगतिशील भूमिका अदा की और उनके बीच लगातार चलनेवाले कबीलाई झगड़े-फसादों को काफी हद तक कम कर दिया. उसने अमीर और गरीब के बीच समानता के सिद्धांतों का भी प्रचार किया और यह आग्रह किया कि जकात (दान) व करों के जरिये अमीरों को गरीबों की मदद करनी चाहिए. पर इसलाम भी अपनी जन्मभूमि में मौजूद सामाजिक वास्तविकता की उपेक्षा न कर सका और उसे अपने अनुयायियों को अधिकतम चार पत्नियां रखने की अनुमति देनी पड़ी. यह कबीलाई मुखियों द्वारा 20-30 या उससे भी अधिक पत्नियां रखने से निश्चय ही बेहतर था. हालांकि इसलाम मूर्ति पूजा के खिलाफ था, पर उसे भी इसलाम पूर्व के मक्का में स्थापित संगे असवद की पवित्रता को स्वीकार करना पड़ा. अत: धर्मों को उन सामाजिक परिस्थितियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता, जिनमें वे जन्म लेते हैं. क्रमश : पूरा पढने के लिए यहां आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070926/f8612811/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Sep 26 00:55:04 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 26 Sep 2007 00:55:04 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+?= Message-ID: <363092e30709251225k175158abka02ba291de661c83@mail.gmail.com> सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता ज्यों-ज्यों और जब-जब सत्ता का संकट गहराता है, धर्म और सांप्रदायिक राजनीति की शरण में पूरी व्यवस्था चली जाती है. याद करिए 1991-1992 का दौर, जब देश पर आर्थिक उदारीकरण के रूप में नव उदारवाद थोपा जा रहा था, सांप्रदायिक राजनीति उफान पर थी. आम लोग लोग मंदिर-मसज़िद के चक्कर में पडे़ थे और देश में अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप मज़बूत हो रहा था. बाज़ार खोले जा रहे थे और लोगों की जेब तक बहुराष्ट्रीय पंजों की पहुंच संभव बना दी गयी थी. यह केवल एक उदाहरण है. उसके पहले और उसके बाद भी, जब-जब राजसत्ता संकट में फंसी है और उससे निकलना मुश्किल लगा है-धर्म ने उसकी मदद की है-यह एक ऐतिहासिक तथ्य है. अभी, जब सरकार को लगा कि वह परमाणु करार पर फंस रही है, रामसेतु सामने आया. यहां साफ़ होना चाहिए कि यह संकट तथाकथित वामदलों की तरफ़ से नहीं था, बल्कि वामदलों ने किसी भी तरह का संकट नहीं खडा़ किया, वे तो बस नूराकुश्ती करते रहे. उन्होंने वे असली सवाल खड़े ही नहीं किये जो इस करार के संदर्भ में किये जाने चाहिए थे. कुल मिला कर वाम दलों ने विरोध का दिखावा किया (उनसे हम इसके अलावा किसी और चीज़ की अपेक्षा भी नहीं करते). संकट यह था कि सरकार (मतलब यह पूरी व्यवस्था ही) लोगों के सामने इसके लिए बेपर्द हो रही थी कि उसने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिये थे और लोग देख रहे थे कि इस 'महाशक्ति' को एक अदना-सा अमेरिकी अधिकारी भी घुड़क सकता था. वाम दल अब नौटंकी करते-करते थक चुके थे और कोई दूसरी स्क्रिप्ट उन्हें नहीं मिल पा रही थी. रामसेतु इसी मौके पर त्राता के रूप में सामने आया. मगर रामसेतु ने कई और सवाल भी खडे़ किये. इस पूरे प्रसंग पर लोगों ने यह कहा कि किसी की आस्था से छेड़्छाड़ ठीक नहीं. बिलकुल. आस्थाओं से क्यों छेड़छाड़ हो? यह ज़रूरी भी नहीं. कोई कुछ भी आस्था रखे, इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मगर जब इसी आस्था के नाम पर हज़ारों-लाखों का कत्लेआम किया जाने लगे (किया जा चुका ही है) तो इस आस्था को माफ नहीं किया जाना चाहिए. यह किसी की भी आस्था हो सकती है कि राम हुए थे, मगर इसे लेकर जब वह हत्याकांड रचने लगे तो फिर उसे यह बताना ज़रूरी है कि वह गलती पर है. ऐतिहासिक तौर पर यह साबित नहीं होता कि राम और कृष्ण का अस्तित्व था. कोई कुछ भी कहता और मानता रहे, वह मानने को आज़ाद है. मगर इससे इतिहास लिखनेवाले और वैज्ञानिक नज़रिया रखनेवाले अपनी धारणा क्यों बदलें? क्या एएसआइ यह मान ले कि राम का अस्तित्व था? भगवा ब्रिगेड तो यही चाहता है. प्रोफेसर रामशरण शर्मा प्राचीन भारत के इतिहास के प्रख्यात विद्वान हैं. वे उन इतिहासकारों में से हैं, जिन्होंने प्राचीन भारत के बारे में पुरानी धारणाओं और नज़रिये को बिल्कुल बदल डाला. इसीलिए वे हमेशा से भगवा ब्रिगेड के निशाने पर रहे हैं. उनपर कई जानलेवा हमले तक किये गये हैं. इस व्योवृद्ध इतिहासकार का एक लंबा व्याख्यान हम किस्तों में यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति के विभिन्न आयामों और राम-कृष्ण की ऐतिहासिकता पर विस्तार से चर्चा की है. यह व्याख्यान उन्होंने 1990 में काकतिया विश्वविद्यालयमें हुए आंध्र प्रदेश इतिहास कांग्रेस के 14वें अधिवेशन में दिया था. इसका अनुवाद यश चौहान ने किया है. व्याख्यान का प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने किया है. साभार प्रस्तुति. सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या आरएस शर्मा जब राजनीतिक उद्देश्य से धर्म के नाम पर उसके अनुयायियों को उभारा जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है. अपने संप्रदाय की सुरक्षा के नाम पर दूसरे संप्रदाय के लोगों को सताना भी सांप्रदायिकता है. भारत में संप्रदायवाद को खास तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की प्रकृति की रोशनी में देखा जाता है, हालांकि हाल में सिख धर्म के आधार पर संगठित समुदाय को भी जोरों से उभारने की चेष्टा चल रही है. प्रकृति द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को हटाने के लिए मानव को अनवरत संघर्ष करना पड़ता है, जिससे धार्मिक विश्वास, कर्मकांड और रीति-रिवाजों का उदय और विकास होता है. उसी प्रकार सामाजिक मसलों पर मानव के विरुद्ध मानव के संघर्ष में भी धर्म और कर्मकांड उभरते व विकसित होते हैं. जब लोगों के लिए प्रकृति द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों की युक्तिपूर्वक विवेचना कर पाना कठिन हो जाता है, तो वे चमत्कारिक और अंधविश्वासपूर्ण स्पष्टीकरणों का सहारा लेने लगते हैं. इन्हीं से जन्म लेते हैं, अनेकानेक देवी-देवता. ऋग्वेद में वर्णित अधिकतर देव प्रकृति की या तो उपकारी या फिर अपकारी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. फिर जब किसानों, दस्तकारों और अन्य मेहतकशों की कमाई पर आधारित अपनी सत्ता और विशेषाधिकारों को बरकरार रखने में विशेषाधिकार-संपन्न लोग कठिनाई अनुभव करते हैं, तो वे कर तथा खिराज वसूल करने के लिए अंधविश्वास के इस्तेमाल के तरीके ढूंढ़ निकालते हैं. इसी तरह जब अभावों के बोझ से पिस रहे जनसमुदाय सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करते हैं, तो वे देवता को सहायता के लिए पुकारते हैं क्योंकि उन्हें विश्वास कराया जाता है कि देवता ने मुक्त और समान मानव प्राणियों का सृजन किया है. इस तरह, धर्म का प्रयोग समाज के विशेषाधिकार संपन्न और सुविधाहीन वर्ग, दोनों करते हैं. पर यह कार्य अधिकतर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग करते हैं, क्योंकि उनकी विचारधारा, जैसाकि भारतीय स्थिति में दरसाया जा सकता है, प्रभुत्वपूर्ण विचारधारा में तब्दील कर दी जाती है और जनता के दिलो-दिमाग में गहरे बिठा दी जाती है. प्राचीन और मध्यकाल के पूंजीवाद पूर्व के समाजों में धर्म ने वही भूमिका निभायी, जो भूमिका आधुनिक काल के पूंजीवादी और अन्य समाजों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं निभा रही हैं. इस कथन का आशय यह नहीं कि पूंजीवाद पूर्व के राज्य धर्म शासित राज्य थे. उनकी नीतियां अधिकतर शासक वर्ग के आर्थिक व राजनीतिक हितों से निर्देशित होती थीं और खुद धर्म का इस्तेमाल इसी प्रयोजन से किया जाता था. इस तरह बौद्ध, ईसाई और इसलाम जैसे धर्मों के उदय ने और भी स्वस्थ दिशाओं में समाज व अर्थतंत्र में सुधार लाने व उसे पुनर्गठित करने में सहायता पहुंचायी. धर्मों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक मानदंडों ने बेहतर सामाजिक प्रणालियां निर्मित करने के लिए जनता को प्रेरित किया. पर यह बात समझ लेनी चाहिए कि प्रत्येक धर्म खास किस्म के सामाजिक वातावरण की उपज होता है. इस तरह, बौद्ध धर्म द्वारा आम तौर पर समस्त प्राणियों और विशेष कर गायों की रक्षा पर जो जोर दिया गया, उससे ऐसे समय में सहायता मिली जब लगभग ईसा पूर्व 500 के बाद, गंगा के मध्य मैदानी भागों में बड़े पैमाने पर खेती में लौह उपकरणों का इस्तेमाल होने लगा था. लेकिन बौद्ध धर्म ने उन वर्ण आधारित भेदों को नहीं मिटाया, जो समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच अतिरिक्त उत्पाद (अधिशेष) के असमान वितरण के फलस्वरूप पैदा हो गये थे. ब्राह्मण धर्म ने गाय की रक्षा के विचार पर ध्यान केंद्रित करके बौद्ध धर्म के हाथ से पहल छीन ली. बड़ी ही चालाकी से उसने यह घोषणा भी कर डाली कि ब्राह्मणों का जीवन भी गाय की तरह अति पवित्र है और फिर इस विचार को पुर्नजन्म के विचार के साथ जनता के दिमाग में ठोंक-पीट कर बैठा दिया गया. स्पष्ट ही, गाय की रक्षा के सिद्धांत ने उन जनजातीय क्षेत्रों में हल आधारित कृषि और पशुपालन को काफी उन्नत किया, जो क्षेत्र विजित करके और भूमि अनुदानों के जरिये, ब्राह्मणों के प्रभाव के तहत आ गये थे. लेकिन अब कृषि तकनीक में उल्लेखनीय प्रगति के साथ सुरक्षा में प्राथमिकता की दृष्टि से स्वभावत: ही, मवेशी काफी पीछे रह गये हैं. आज पवित्र गाय का सिद्धांत हमारी आर्थिक प्रगति में अवरोध बन जाता है. हम या तो ऐसे पशुओं का ही पेट भरें जो आर्थिक रूप से अलाभकारी और अनुत्पादक हैं और या फिर उत्पादक कार्यों में संलग्न इनसानों का ही. इस बात पर अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने जोर दिया है. इस प्रकार हम भौतिक जीवन और विचारधारा की शक्ति के तकाजों के बीच परस्पर क्रिया को देख सकते हैं. पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आरंभिक इतिहास में बौद्ध धर्म ने सकारात्मक भूमिका निभायी और समाज को गति प्रदान की. इसी तरह ईसाई धर्म ने दास और स्वामी के बीच समानता के सिद्धांतों का प्रचार किया, दोनों को ईश्वर की दुनिया में एक ही कोटि का प्राणी घोषित किया, पर रोमन साम्राज्य ने इस दोनों के बीच मौजूद वास्तविक सामाजिक विभेद का उन्मूलन करने के लिए कुछ भी नहीं किया. इसलाम धर्म ने विभिन्न अरब कबीलों और जनजातियों को एक ही राज्य में जोड़ कर प्रगतिशील भूमिका अदा की और उनके बीच लगातार चलनेवाले कबीलाई झगड़े-फसादों को काफी हद तक कम कर दिया. उसने अमीर और गरीब के बीच समानता के सिद्धांतों का भी प्रचार किया और यह आग्रह किया कि जकात (दान) व करों के जरिये अमीरों को गरीबों की मदद करनी चाहिए. पर इसलाम भी अपनी जन्मभूमि में मौजूद सामाजिक वास्तविकता की उपेक्षा न कर सका और उसे अपने अनुयायियों को अधिकतम चार पत्नियां रखने की अनुमति देनी पड़ी. यह कबीलाई मुखियों द्वारा 20-30 या उससे भी अधिक पत्नियां रखने से निश्चय ही बेहतर था. हालांकि इसलाम मूर्ति पूजा के खिलाफ था, पर उसे भी इसलाम पूर्व के मक्का में स्थापित संगे असवद की पवित्रता को स्वीकार करना पड़ा. अत: धर्मों को उन सामाजिक परिस्थितियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता, जिनमें वे जन्म लेते हैं. क्रमश : पूरा पढने के लिए यहां आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070926/f8612811/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Thu Sep 27 12:39:09 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 27 Sep 2007 12:39:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTI=?= Message-ID: <363092e30709270009n29df4860y75becdb56535a84b@mail.gmail.com> आज देखते हैं कि किस तरह देश के इतिहास को विकृत किया गया और उसमें आधारहीन बातों की मिलावट की गयी, जिनके आधार पर आज फ़ासिस्ट सांप्रदायिक गिरोह अपनी स्थापनाएं प्रस्तुत करते हैं. दूसरी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा समय-समय पर, जब धर्म के पुराने सिद्धांत बदलती हुई सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में संगत नहीं रह जाते, तो धर्मों में सुधार करने तथा उनके अनुयायियों से उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए आंदोलन चलाये जाते हैं. आधुनिक काल में आर्य समाज, प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज इसके महत्वपूर्ण उदाहरण है. इनमें से आर्यसमाज आंदोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण जान पड़ता है. आर्यसमाज आंदोलन ने महिलाओं और शूद्रों पर, जिन पर कि वेदों का पठन-पाठन करने की पाबंदी थी और खास करके महिलाओं पर, जिन्हें कि बालविवाह व आजीवन वैधव्य का शिकार बनाया जाता था, लगायी गयी पाबंदियों के विरुद्ध अभियान चलाया. उसने मूर्ति पूजा का विरोध किया और उससे जनित बुराइयों के खिलाफ संघर्ष चलाया. आर्यसमाजियों ने काफी शोघ और अनुसंधान किया तथा अन्य सुधारकों के साथ मिल कर प्राचीन ग्रंथों से, खास कर वेदों से, अनेक ऐसे उदाहरण एकत्र किये, जिनसे हिंदू समाज में महिलाओं और निचले तबकों की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए समर्थन प्राप्त हो. पर अब आर्यसमाज के प्रारंभिक संस्थापकों द्वारा हिंदू समाज के सुधार के लिए दरसाया गया, उत्साह नहीं रहा. उसकी जगह मुसलिम विरोधी अभियान ने ले ली है. इससे भी बुरी बात यह कि संसार के सारे बुद्धि-वैभव और उपलब्धियों को, आंख बंद कर, वेदों में ही स्वीकार करने की विचारग्रस्तता हावी है. इस तरह के प्रचार को कोई भी इतिहासकार, जिसे अपने को तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित करना होता है, गले के चे नहीं उतार सकता. जब तक इस तरह के घृणित प्रचार का तथ्यों और आंकड़ों द्वारा प्रतिकार नहीं किया जाता, जिनकी प्राचीन ग्रंथों में कोई कमी नहीं, तब तक शिक्षित समुदाय के लोगों दिमागों के संप्रदायीकरण को नहीं रोका जा सकता और शिक्षितों के प्रभाव में रहनेवाले साधारणजनों को भी भ्रमित होने से बचाया नहीं जा सकता. अन्य कारणों के साथ इस तरह के जहरीले धार्मिक प्रचार के चलते ही मध्यकाल में जेहाद हुए और कैथोलिकों व प्रोटेस्टेटों के बीच धर्मोन्मादपूर्ण युद्ध हुए. इस समय इस तरह का प्रचार भारत की राष्ट्रीय एकता के ध्येय के लिए खतरा खड़ा करता है. पहली किस्त यहां पढें औपनिवेशिक आधिपत्य के तहत एशियाई देशों के राष्ट्रवादियों ने, जो उस समय सभ्य देश बन चुके थे, जब औपनिवेशिक देश सांस्कृतिक रूप से बहुत पिछड़े हुए थे-स्वभावत: अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण की. भारत, अरब देशों, तुर्की और कई अन्य देशों में अभी यही हुआ. स्वतंत्रता सेनानी अपने देश के सामंती पिछड़ेपन तथा अपने शासकों की औद्योगिक -पूंजीवादी प्रगति से जरा भी विचलित नहीं हुए. उपनिवेदशवादियों की हुकूमत का प्रतिरोध करने के लिए उन्होंने अतीत की अपने देश की उपलब्धियों को याद किया. इनसे उन्होंने विश्वास और प्रेरणा हासिल की. भारत में और अन्यत्र यह कार्य कुछ खतरा मोल लेकर इतिहासकारों ने किया. अपने निरंकुश शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए ब्रिटिश इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि भारतीय स्वशासन चला सकने में असमर्थ हैं और यह कि वे अपने समूचे इतिहास के दौरान निरंकुश सत्ता के आदी रहे है. इसके जवाब में भारतीय इतिहासकारों ने यह दरसाने की कोशिश की कि भारत में स्थानीय स्तर पर और राज्य स्तर पर भी, अनेक स्वशासित संस्थाओं का अस्तित्व रहा है. ब्रिटिश इतिहासकारों ने खास तौर से और पश्चिमी इतिहासकारों ने आम तौर से यह दावा किया कि सभ्यता के अनेक तत्व भारत में बाहर से आये थे. इसके जवाब में भारतीय राष्ट्रीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनकी संस्थाएं और सांस्कृतिक तत्व विशुद्ध देशीय थे. निस्संदेह, भारत के अतीत को अंगरेज़ों द्वारा मलिन करने के प्रत्युत्तरस्वरूप अच्छा शोध कार्य किया गया. राष्ट्रवादियों द्वारा भारत के अतीत की जो खोज की गयी, उसने देश के इतिहास के अनेक पक्षों को उजागर किया, किंतु साथ ही पुनरुत्थानवाद के कतिपय प्रबल तत्वों को भी उछाला. प्राचीन भारत का अध्ययन करनेवाले कुछ प्रमुख इतिहासकारों में, जिन्होंने देशभक्तिपूर्ण स्थिति अपनाने का प्रयास किया, काशीप्रसाद जायसवाल, हेमचंद्र रायचौधरी और केए नीलकंठ शास्त्री आते हैं. जायसवाल पहले इतिहासकार थे, जिन्होंने प्राचीन भारत में गणतंत्रों के अस्तित्व के बारे में ठोस प्रमाण प्रस्तुत किये. इसी तरह नीलकंठ शास्त्री ने सबसे पहले चोलों और पल्लवों के तहत ग्राम और जिला स्तरों पर स्वशासन संस्थानाओं के महत्व को रेखांकित किया. ऐसे अनुसंधानों ने निश्चत ही उन लोगों की वाणी को मुखर किया, जो अंगरेजों की इस बात का खंडन करना चाहते थे कि भारत में निरंकुश शासन की ही परंपरा रही है. पर कभी-कभी ये लेखक विज्ञानसम्मत ऐतिहासिक पुनर्रचना की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते थे. जायसवाल ने हिंदू राज्यतंत्र नामक अपनी पुस्तक का समापन इस सूक्ति से किया: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, जिसका अर्थ है कि जननी तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है. उन्होंने प्राचीन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं का बड़ा ही प्रेरणाप्रद वर्णन प्रस्तुत किया. नीलकंठ शास्त्री ने तो ब्राह्मणों की सांस्कृतिक सर्वोच्चता तक पर जोर दिया है और कहीं-कहीं यह माना है कि हिंदू मुसलमानों से अधिक सहिष्णु थे, एक ऐसी उक्ति जो अब संप्रदायवादियों के बीच काफी चल पड़ी. जायसवाल, नीलकंठ शास्त्री और अन्य इतिहासकारों ने शकों और मौर्य युग के बाद भारत आनेवाले अन्य लोगों के विजातीय चरित्र पर भी जोर दिया. के गोपालाचारी ने सातवाहनों की इस बात के लिए सराहना की कि उन्होंने शकों को इस आधार पर भारत में अपना पैर नहीं जमाने दिया कि वे विदेशी थे. इस तरह उनलोगों तक को, जो स्थायी रूप से भारत में बस गये और उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गये, विदेशी कहने का यह रवैया अब कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है तथा हिंदू संप्रदायवादी बार-बार मुसलमानों को विदेशी कहते हैं. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-132610 Size: 14993 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070927/9c3dba1c/attachment.bin From beingred at gmail.com Thu Sep 27 12:39:09 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 27 Sep 2007 12:39:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTI=?= Message-ID: <363092e30709270009n29df4860y75becdb56535a84b@mail.gmail.com> आज देखते हैं कि किस तरह देश के इतिहास को विकृत किया गया और उसमें आधारहीन बातों की मिलावट की गयी, जिनके आधार पर आज फ़ासिस्ट सांप्रदायिक गिरोह अपनी स्थापनाएं प्रस्तुत करते हैं. दूसरी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा समय-समय पर, जब धर्म के पुराने सिद्धांत बदलती हुई सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में संगत नहीं रह जाते, तो धर्मों में सुधार करने तथा उनके अनुयायियों से उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए आंदोलन चलाये जाते हैं. आधुनिक काल में आर्य समाज, प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज इसके महत्वपूर्ण उदाहरण है. इनमें से आर्यसमाज आंदोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण जान पड़ता है. आर्यसमाज आंदोलन ने महिलाओं और शूद्रों पर, जिन पर कि वेदों का पठन-पाठन करने की पाबंदी थी और खास करके महिलाओं पर, जिन्हें कि बालविवाह व आजीवन वैधव्य का शिकार बनाया जाता था, लगायी गयी पाबंदियों के विरुद्ध अभियान चलाया. उसने मूर्ति पूजा का विरोध किया और उससे जनित बुराइयों के खिलाफ संघर्ष चलाया. आर्यसमाजियों ने काफी शोघ और अनुसंधान किया तथा अन्य सुधारकों के साथ मिल कर प्राचीन ग्रंथों से, खास कर वेदों से, अनेक ऐसे उदाहरण एकत्र किये, जिनसे हिंदू समाज में महिलाओं और निचले तबकों की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए समर्थन प्राप्त हो. पर अब आर्यसमाज के प्रारंभिक संस्थापकों द्वारा हिंदू समाज के सुधार के लिए दरसाया गया, उत्साह नहीं रहा. उसकी जगह मुसलिम विरोधी अभियान ने ले ली है. इससे भी बुरी बात यह कि संसार के सारे बुद्धि-वैभव और उपलब्धियों को, आंख बंद कर, वेदों में ही स्वीकार करने की विचारग्रस्तता हावी है. इस तरह के प्रचार को कोई भी इतिहासकार, जिसे अपने को तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित करना होता है, गले के चे नहीं उतार सकता. जब तक इस तरह के घृणित प्रचार का तथ्यों और आंकड़ों द्वारा प्रतिकार नहीं किया जाता, जिनकी प्राचीन ग्रंथों में कोई कमी नहीं, तब तक शिक्षित समुदाय के लोगों दिमागों के संप्रदायीकरण को नहीं रोका जा सकता और शिक्षितों के प्रभाव में रहनेवाले साधारणजनों को भी भ्रमित होने से बचाया नहीं जा सकता. अन्य कारणों के साथ इस तरह के जहरीले धार्मिक प्रचार के चलते ही मध्यकाल में जेहाद हुए और कैथोलिकों व प्रोटेस्टेटों के बीच धर्मोन्मादपूर्ण युद्ध हुए. इस समय इस तरह का प्रचार भारत की राष्ट्रीय एकता के ध्येय के लिए खतरा खड़ा करता है. पहली किस्त यहां पढें औपनिवेशिक आधिपत्य के तहत एशियाई देशों के राष्ट्रवादियों ने, जो उस समय सभ्य देश बन चुके थे, जब औपनिवेशिक देश सांस्कृतिक रूप से बहुत पिछड़े हुए थे-स्वभावत: अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण की. भारत, अरब देशों, तुर्की और कई अन्य देशों में अभी यही हुआ. स्वतंत्रता सेनानी अपने देश के सामंती पिछड़ेपन तथा अपने शासकों की औद्योगिक -पूंजीवादी प्रगति से जरा भी विचलित नहीं हुए. उपनिवेदशवादियों की हुकूमत का प्रतिरोध करने के लिए उन्होंने अतीत की अपने देश की उपलब्धियों को याद किया. इनसे उन्होंने विश्वास और प्रेरणा हासिल की. भारत में और अन्यत्र यह कार्य कुछ खतरा मोल लेकर इतिहासकारों ने किया. अपने निरंकुश शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए ब्रिटिश इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि भारतीय स्वशासन चला सकने में असमर्थ हैं और यह कि वे अपने समूचे इतिहास के दौरान निरंकुश सत्ता के आदी रहे है. इसके जवाब में भारतीय इतिहासकारों ने यह दरसाने की कोशिश की कि भारत में स्थानीय स्तर पर और राज्य स्तर पर भी, अनेक स्वशासित संस्थाओं का अस्तित्व रहा है. ब्रिटिश इतिहासकारों ने खास तौर से और पश्चिमी इतिहासकारों ने आम तौर से यह दावा किया कि सभ्यता के अनेक तत्व भारत में बाहर से आये थे. इसके जवाब में भारतीय राष्ट्रीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनकी संस्थाएं और सांस्कृतिक तत्व विशुद्ध देशीय थे. निस्संदेह, भारत के अतीत को अंगरेज़ों द्वारा मलिन करने के प्रत्युत्तरस्वरूप अच्छा शोध कार्य किया गया. राष्ट्रवादियों द्वारा भारत के अतीत की जो खोज की गयी, उसने देश के इतिहास के अनेक पक्षों को उजागर किया, किंतु साथ ही पुनरुत्थानवाद के कतिपय प्रबल तत्वों को भी उछाला. प्राचीन भारत का अध्ययन करनेवाले कुछ प्रमुख इतिहासकारों में, जिन्होंने देशभक्तिपूर्ण स्थिति अपनाने का प्रयास किया, काशीप्रसाद जायसवाल, हेमचंद्र रायचौधरी और केए नीलकंठ शास्त्री आते हैं. जायसवाल पहले इतिहासकार थे, जिन्होंने प्राचीन भारत में गणतंत्रों के अस्तित्व के बारे में ठोस प्रमाण प्रस्तुत किये. इसी तरह नीलकंठ शास्त्री ने सबसे पहले चोलों और पल्लवों के तहत ग्राम और जिला स्तरों पर स्वशासन संस्थानाओं के महत्व को रेखांकित किया. ऐसे अनुसंधानों ने निश्चत ही उन लोगों की वाणी को मुखर किया, जो अंगरेजों की इस बात का खंडन करना चाहते थे कि भारत में निरंकुश शासन की ही परंपरा रही है. पर कभी-कभी ये लेखक विज्ञानसम्मत ऐतिहासिक पुनर्रचना की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते थे. जायसवाल ने हिंदू राज्यतंत्र नामक अपनी पुस्तक का समापन इस सूक्ति से किया: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, जिसका अर्थ है कि जननी तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है. उन्होंने प्राचीन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं का बड़ा ही प्रेरणाप्रद वर्णन प्रस्तुत किया. नीलकंठ शास्त्री ने तो ब्राह्मणों की सांस्कृतिक सर्वोच्चता तक पर जोर दिया है और कहीं-कहीं यह माना है कि हिंदू मुसलमानों से अधिक सहिष्णु थे, एक ऐसी उक्ति जो अब संप्रदायवादियों के बीच काफी चल पड़ी. जायसवाल, नीलकंठ शास्त्री और अन्य इतिहासकारों ने शकों और मौर्य युग के बाद भारत आनेवाले अन्य लोगों के विजातीय चरित्र पर भी जोर दिया. के गोपालाचारी ने सातवाहनों की इस बात के लिए सराहना की कि उन्होंने शकों को इस आधार पर भारत में अपना पैर नहीं जमाने दिया कि वे विदेशी थे. इस तरह उनलोगों तक को, जो स्थायी रूप से भारत में बस गये और उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गये, विदेशी कहने का यह रवैया अब कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है तथा हिंदू संप्रदायवादी बार-बार मुसलमानों को विदेशी कहते हैं. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-27 Size: 14993 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070927/9c3dba1c/attachment-0001.bin From ravikant at sarai.net Thu Sep 27 17:29:29 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 27 Sep 2007 17:29:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWAIOCkluCkrOCksOCli+CkgiDgpJXgpYAg4KS24KS+4KSo4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkuOCkvuCkh+CknyBBIHNpdGUgaW4gSGluZGk=?= Message-ID: <200709271729.29769.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: हिंदी खबरों की शानदार साइट A site in Hindi Date: गुरुवार 27 सितम्बर 2007 15:00 From: "mrinal panjiyar" To: undisclosed-recipients:; Dear Friend, Plz go through this link and read an exclusive report www.raviwar.com regards Mrinal चावल का मसीहा रोटी को मोहताज www.raviwar.com एचएमटची चावल विकसित करने वाले के साथ धोखा दादाराव रामाजी खोब्रागढ़े को कोई नहीं जानता. मध्य भारत में मध्यम वर्ग के वे लाखों लोग भी नहीं, जिनके घरों से हर सुबह एचएमटी चावल की खुशबू उठती है. उन्हें तो शायद सरकारें भी भूला चुकी हैं. मुशर्रफ ठीक कर रहे हैं-बेनज़ीर पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर पूरी तरह मुशर्रफ के पक्ष में हैं 18 को उनके पाकिस्तान लौटने की घोषणा के बाद राजनीतिक गलियारे में कयासों का एक दौर जैसा चल पड़ा है. हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले वाले अंदाज में जिस तरह पाकिस्तान से बाहर का रास्ता दिखाया गया, वैसा कुछ बेनज़ीर के साथ नहीं होगा, यह तय है. ------------------------------------------------------- From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:02:29 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:02:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSk4KS/IOCkleCkviDgpK/gpYHgpJcg4KS24KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWBIOCkueCli+Ckl+CkviA6IOCkuOCksuCkvuCkriDgpK3gpJfgpKQg?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: <363092e30709271332y57973598n196faf303d9ecdd6@mail.gmail.com> जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा भगत सिंह मैं इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी. मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है. अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है. मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता. हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है. हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं. -अनिल चमड़िया (अनिल चमडिया से यह पूरी बातचीत पढिए जल्दी ही हाशिया पर.) भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह हुसैन कच्छी भगत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं. उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं. पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये. कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/1673761b/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:02:29 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:02:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSk4KS/IOCkleCkviDgpK/gpYHgpJcg4KS24KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWBIOCkueCli+Ckl+CkviA6IOCkuOCksuCkvuCkriDgpK3gpJfgpKQg?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: <363092e30709271332y57973598n196faf303d9ecdd6@mail.gmail.com> जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा भगत सिंह मैं इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी. मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है. अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है. मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता. हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है. हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं. -अनिल चमड़िया (अनिल चमडिया से यह पूरी बातचीत पढिए जल्दी ही हाशिया पर.) भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह हुसैन कच्छी भगत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं. उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं. पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये. कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/1673761b/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:05:33 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:05:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSk4KS/IOCkleCkviDgpK/gpYHgpJcg4KS24KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWBIOCkueCli+Ckl+CkviA6IOCkuOCksuCkvuCkriDgpK3gpJfgpKQg?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: <363092e30709271335q76d02cf0w5e29986b6e5a08a3@mail.gmail.com> [जरूरी : यह पहली मेल का थोडा़सुधरा हुआ रूप है.] जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. वह एक कामरेड था. अलग से उस पर कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. बस एक बात, वह क्या बात थी भगत सिंह में कि उससे आज की राजसत्ता भी डरती है? एक बार सोचें. उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा भगत सिंह मैं इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी. मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है. अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है. मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता. हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है. *** __________________________________________________________________________________ हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं. -अनिल चमड़िया (अनिल चमडिया से यह पूरी बातचीत पढिए जल्दी ही हाशिया पर.) _________________________________________________________________________________ भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह हुसैन कच्छी भगत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं. उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं. पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये. कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/cf4a7d40/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:05:33 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:05:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSsIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSV4KWN4KSk4KS/IOCkleCkviDgpK/gpYHgpJcg4KS24KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWBIOCkueCli+Ckl+CkviA6IOCkuOCksuCkvuCkriDgpK3gpJfgpKQg?= =?utf-8?b?4KS44KS/4KSC4KS5?= Message-ID: <363092e30709271335q76d02cf0w5e29986b6e5a08a3@mail.gmail.com> [जरूरी : यह पहली मेल का थोडा़सुधरा हुआ रूप है.] जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. वह एक कामरेड था. अलग से उस पर कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. बस एक बात, वह क्या बात थी भगत सिंह में कि उससे आज की राजसत्ता भी डरती है? एक बार सोचें. उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा भगत सिंह मैं इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी. मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है. अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है. मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता. हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है. *** __________________________________________________________________________________ हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं. -अनिल चमड़िया (अनिल चमडिया से यह पूरी बातचीत पढिए जल्दी ही हाशिया पर.) _________________________________________________________________________________ भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह हुसैन कच्छी भगत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं. उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं. पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये. कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/cf4a7d40/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:07:39 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:07:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KS+IOCkqOCkvuCkrg==?= Message-ID: <363092e30709271337y77b68ea4u6376b963e9e3c4aa@mail.gmail.com> हमने खून की नदी में डूबते देखे अपने गांव और नदियां और कबूतर और गाएं और पेड़ उनके होठों की मुस्कुराहटें जाने कब बदल गयीं कांटों में जिन पर हमारे चुंबनों का पाप था भगत सिंह तुम्हारा नाम अब भी कितना खतरनाक है मेरे गांव से पूछो और मेरे गांव के खेतों से और नदी से कबूतर गायों पेड़ और जवान होंठों से... -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/09089588/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Sep 28 02:07:39 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 28 Sep 2007 02:07:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KWB4KSu4KWN?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSw4KS+IOCkqOCkvuCkrg==?= Message-ID: <363092e30709271337y77b68ea4u6376b963e9e3c4aa@mail.gmail.com> हमने खून की नदी में डूबते देखे अपने गांव और नदियां और कबूतर और गाएं और पेड़ उनके होठों की मुस्कुराहटें जाने कब बदल गयीं कांटों में जिन पर हमारे चुंबनों का पाप था भगत सिंह तुम्हारा नाम अब भी कितना खतरनाक है मेरे गांव से पूछो और मेरे गांव के खेतों से और नदी से कबूतर गायों पेड़ और जवान होंठों से... -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/09089588/attachment-0001.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Sep 28 13:09:20 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 28 Sep 2007 13:09:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSl4KWA?= =?utf-8?b?IOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOCli+CkgiDgpKrgpLAg?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqOCknOCksCAtIOCkueCkvuCkuOCljeKAjeCkryDgpLU=?= =?utf-8?b?4KWN4oCN4KSv4KSC4KSX4KWN4oCN4KSvIOCkleClhyDgpJXgpL/gpII=?= =?utf-8?b?4KSXIOCkuOCkruClgOCksCDgpLLgpL7gpLI=?= Message-ID: <749797f90709280039l6cf3850ua9774cac2a55c8ee@mail.gmail.com> उड़नतश्‍तरी (http://udantashtari.blogspot.com/ )के लेखक समीर लाल की सक्रियता देखकर यह विश्वास करना मुश्किल लगता है कि उन्होंने गये साल ही लिखना शुरू किया। हलके-फुल्के अंदाज़ में गहरी बात कह जाने वाले समीरजी अपनी बात कहने के नये-नये दिलकश अंदाज़ खोजते रहते हैं। चाहे वह गीता का सार हो या कबीर के दोहे, आधुनिक परिस्थितियों से जोड़कर वे बेहतरीन लेख लिखते रहते हैं। कुंडलिया किंग समीर ने चिट्ठाजगत को कुंडलिया से परिचित कराया और फिर धीरे से उसका पेटेंट मुंडलिया के नाम से करा लिया। पंकज के लालाजी का ज्ञान का प्रकाश ही था जिससे चकाचौंध होकर गिरिराज जोशी उनका शिष्यत्व ग्रहण करने के लिये बेताब हुये। [image: Sameer Lal]मूलत: पूर्वी उत्तरप्रदेश (गोरखपुर) के वासी समीर की पैदाइश रतलाम की और ज्यादातर रिहाइश मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर की है। आज के लोकप्रिय चिट्ठाकार समीरलाल में लेखन के कीटाणु बचपन से ही थे। उन दिनों को याद करते हुये समीरजी बताते हैं, "एक बार बचपन में कहानी लिखना शुरु किया था जब क्लास पाँचवीं में था शायद। जबलपुर से प्रकाशित "ज्योतिर्मिलन" मासिक के बाल विषेशांक में कहानियां प्रकाशित हुई और बाल साहित्यकार का पुरस्कार मिला जिसे घोषणा के तीन वर्ष उपरान्त प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के हाथों प्राप्त किया।" स्कूल के दिनों में परसाई के हाथों पुरस्कार के रूप में प्राप्त पुस्तक आज भी उनके लिये बहुमूल्य धरोहर है। लेकिन स्कूल के दिनों के बाद शायद जीवन संघर्षों के कारण लिखना स्थगित रहा। इस बारे में समीरजी कहते हैं, "फिर कभी नहीं लिखा, बस आम युवकों की तरह कॉलेज की कापियों के आखिरी पन्नों पर कुछ शेरो शायरी और कवितायें लिखीं। पिछले एक वर्ष से नियमित लेख कवितायें, व्यंग्य की ओर पुनः रुझान हुआ जो चिट्ठों के माध्यम से गति प्राप्त करता गया और वही ऊड़न तश्तरी, ई-कविता और अनुभूति याहू ग्रुप के माध्यम से सबके सामने है।" आचार्य रजनीश को सुनने के शौकीन समीर को किताबें पढ़ने, पेंसिल-स्केचिंग करने और शास्त्रीय संगीत सुनने का भी शौक है। अंग्रेजी कवि राबर्ट फ्रॉस्ट इनके पसंदीदा कवि हैं जिनकी कई कविताऒं का आपने भावानुवाद भी किया है। लेखन के अलावा कालेज के दिनों में अपने तमाम इतर अनुभवों की दास्तान बताते हुये समीर कहते हैं, "सी.ए. करने के दौरान बम्बई की छात्र राजनिति में सक्रिय रहा, हॉस्टल एसोसियेशन और छात्र संघ के महामंत्री, फिर बाद में, काँग्रेस में सक्रिय भूमिका रही। मध्यप्रदेश युवक कांग्रेस के औद्योगिक प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष, कमलनाथ जी के संयोजन में म.प्र. जनजागरण मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री, जबलपुर चार्टड एकाउन्टेन्ट एसोसियेशन के उपाध्यक्ष, जबलपुर चेम्बर ऑफ कामर्स के ट्रेज़रार और उपाध्यक्ष भी रहा। इस दौरान कई अंतर्राष्ट्रीय स्तरीय रोजगार मेलों का जबलपुर में आयोजन किया। राजनेताओं से संपर्क रखने का तब बहुत शौक था और साथ ही आचार्य रजनीश, महेश योगी, शंकराचार्य स्वरुपानन्द जी और स्वामी प्रज्ञानन्द जी आदि से व्यक्तिगत परिचय और उनकी विभिन्न संस्थाओं का ऑडिटर और सलाहकारी भी रहा।" समीरलाल चिट्ठाचर्चा में नियमित लिखते हैं, और जिस दिन ये लिखें उस दिन इस चिट्ठे के हिट्स की संख्या हनुमान की पूँछ बन जाती है। टिप्पणी करने के मामले में समीर बेहद उदार हैं, लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अक्सर नोटिस बोर्ड के नीचे भी जगह खाली होने पर समीरजी लिख देते हैं, "अच्छा लिखा है। लिखते रहें।" आजकल कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करने वाले समीरलाल जी अपनी जमाऊ कविताऒं से अपना रंग जमाने लगे हैं और श्रोताऒं के बीच वे लोकप्रिय कवि हो गये हैं। पिछ्ले एक वर्ष में ही बफैलो, वाशिंगटन में कवि सम्मेलन और जबलपुर में कुछ काव्य गोष्ठियां और एकल काव्य पाठ का उन्हें मौका मिला। समीरलालजी बम्बई से सी.ए. कर वापस गृहनगर जबलपुर में प्रैक्टिस करने लगे। 1999 में वे कनाडा आ गये, दोनों बेटों को १२वीं तक भारत में ही पढ़ाया ताकि वो अपनी संस्कृति को समझ सकें और उससे जुड़ सकें, दोनों अब कम्प्यूटर इंजीनियर हैं। खुद कनाडा आकर शेयर बजार के कोर्स कर पहले स्टाक एक्सचेंज पर यहां की एक बड़ी बैंक के लिये ट्रेडर रहे। न जाने कब तकनीक की तरफ रुझान हो गया। सब कुछ इन्टरनेट से ही सीखा, फिर माईक्रोसॉफ्ट एक्सेल एक्सपर्ट, एक्सेस एक्सपर्ट आदि के रास्ते चलते हुये आऊटलुक प्रोग्रामिंग में महारत हासिल की। अब विज़ुअल बेसिक डॉटनेट में सिद्धता के दम पर उसी बैंक में बतौर तकनीकी सलाहकार कार्यरत हैं। इसी बीच अमेरिका से ही अकाउंटिंग से संबंधित सी.एम.ए और प्रोजेक्ट मेनेंजमेंट में पीएमपी पूरण किया। संप्रति बैंक की विभिन्न मेन्यूल कार्यप्रणाली को आटोमेट करने के कार्य में सलाहकार हैं। स्पष्टतः समीर में लगातर नया ज्ञान, नया विज्ञान सीखने की ललक हैं। [image: sy3] मार्च 2006 में समीरलाल ने ब्लॉग लेखन की शुरुआत की और देखते ही देखते लोकप्रिय हो गये हैं। कविता, कुंडलियाँ, त्रिवेणी और मुंडलिया, सबमें इनकी सहज गति है। सहज, मनलुभावन गद्य इनके लेखन का प्राणतत्व हैं। मजाक करो तो मजाक सहने का माद्दा भी रखो का सिद्धांत मानने वाले समीर हास्य व्यंग्य के महारथी हैं लेकिन किसी का भी दिल दुखाना इनकी फितरत में नहीं है। एकाध बार तो अपनी पोस्ट तक यह सोचकर हटा ली कि किसी का दिल न दुखे। लेखन से मजाकिया और बिंदास से लगने वाले समीर को "लेखन शैली के विपरीत और व्यवसायिक मजबूरियों के अलावा स्वाभाव से शांत और गंभीर रहना पसंद है।" अपने स्वभाव के एक और पहलू का खुलासा करते हुये कहते है: "गुस्सा बहुत मुश्किल से ही आता है।" हिंदी चिट्ठाकारी को संभावनाशील मानने वाले समीरजी का विचार आगे चलकर भारत में ही बसने का है। फिलहाल भारत में कुछ ट्रस्टों से जुडे़ हैं। ब्लॉग लेखन में पत्नी के सहयोग का जिक्र करते हुये समीरजी खुलासा करते हैं, "पत्नी का योगदान ही है कि पूर्ण खाली समय ब्लॉग और लेखन को देने का बिल्कुल बुरा नहीं मानना, तभी इतना समय देना संभव हो पाता है। बाज़ार से लेकर घर के सारे खुद ही कर लेती है। गायन में उनकी काफी रुचि है जो रियाज़ के अभाव में लगभग छूटा हुआ है। किताबें पढ़ने का शौक है मगर एम.ए. हिन्दी में होने के बावजूद भी लेखन में रुझान नहीं। उनका मानना है कि अगर दोनों ही यह करने लगे, तो घर चल चुका। बात तो पते की है, इसलिये हम इसे तुरंत मान लेते हैं।" चार पांच घंटे से ज्यादा सोने को समय की बरबादी मानने वाले समीर ब्लॉग लेखन के अलावा तरकश की कोर टीम के सदस्य भी हैं। इसके अलावा अनुभूति, अभिव्यक्ति, हिन्दी नेस्ट, साहित्यकुंज, मुक्तक सागर पर रचनायें प्रकाशित हुई हैं। एक्सेल पर अंग्रेजी में ब्लॉग टेक नोट एक्सचेन्ज और वीबी डॉट नेट पर कई ऑनलाईन पत्रिकाओं में अनेकों लेख भी प्रकाशित। समीर टाईम्स के नाम से सन 2000 में एक वेबसाईट शुरु की जो कि आज भी सुचारु रुप से चल रही है। बस मौज मजे के लिये मगर हिट्स ठीक ठाक मिल जाती हैं। [निरंतर में अनूप शुक्ला का लेख हास्य व्यंग्य के किंग: समीर लाल ] -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070928/5713b85f/attachment.html From girindranath at gmail.com Sat Sep 29 19:45:53 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sat, 29 Sep 2007 19:45:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSk4KS54KSy4KSV?= =?utf-8?b?4KS+IOCkheCkrCDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <63309c960709290715s5690b4daod559249e718a5afe@mail.gmail.com> अभी नजर आया कि तहलका अब आनलाईन हिन्दी में आ गया है.. नजर दौड़ाएं http://www.tehelkahindi.com/ शुक्रिया गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com From beingred at gmail.com Sun Sep 30 13:29:46 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 30 Sep 2007 13:29:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTM=?= Message-ID: <363092e30709300059s3b859a5r35388c47390ec796@mail.gmail.com> सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-3 राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की तीसरी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा रमेशचंद्र मजूमदार (1888-1980) की रचनाओं में तो हिंदू पुनरुत्थानवाद का तत्व प्रबलतर दिखायी देता है. वे भारतीय जनता के इतिहास और संस्कृति पर बहुत से खंडों में प्रकाशित उस पुस्तक के प्रमुख संपादक थे, जिसे पुनरुत्थानवादी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की देखरेख में बिड़लाओं की वित्तीय मदद से बंबई से भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित किया गया था. काल विभाजन की दृष्टि से हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल में उन कालों के बारे में अधिक खंड दिये गये, जिन्हें मजूमदार हिंदू गौरव और प्रभुत्व के काल समझते थे तथा उन कालों के बारे में कम खंड थे, जिन्हें वह मुसलिम प्रभुत्व के काल समझते थे. वह बृहत भारत के कट्टर पक्षपोषक थे. उन्होंने दक्षिणपूर्व एशिया की देशीय संस्कृतियों की उपेक्षा की और उसके हिंदूकरण पर जोर दिया. कहना न होगा कि मजूमदार इतिहास के प्रति सांप्रदायिक दृष्टि के मुखर प्रवर्तक थे. उनकी ऐतिहासिक दृष्टि तुर्क सल्तनत की स्थापना संबंधी उनकी टिप्पणियों से स्पष्ट होती है: पहली किस्तें : एक , दो _________________ अब तक के भारतीय इतिहास में पहली बार दो एकदम अलग-अलग, लेकिन प्रमुख समुदाय और संस्कृतियां एक -दूसरे के बिल्कुल रू-ब-रू खड़ी थीं और भारत दो शक्तिशाली इकाइयों में स्थायी रूप से विभाजित हो गया था, जिनमें से प्रत्येक इकाई की अपनी विशिष्ट पहचान थी, जो दोनों के किसी भी प्रकार के विलयन या दोनों के बीच किसी भी तरह की धनिष्ठ स्थायी समन्वय के लिए उपयुक्त नहीं थी. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल-5, पृष्ठ-xxviii) इस दृष्टि के आधार पर मजूमदार ने उन सभी लोगों को आड़े हाथों लिया है जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाईचारे और सद्भाव के उदाहरणों का उल्लेख करते थे. उन्होंने हिंदु और मुसलमान शासकों के सम्मिलित शासन के पूरे विचार को ही कठोरता से ठुकरा दिया. उनके अनुसार : प्रमुख हिंदू राजनीतिक नेता यह उद्घोषित करने की स्थिति तक बढ़ गये कि मुसलिम हुकूमत के दौरान हिंदू कतई शासित जाति नहीं थे. इस तरह के बेढंगे विचार, जिन पर 19वीं शताब्दी के प्रारंभ के भारतीय नेता हंस ही सकते थे, उस शताब्दी के अंत में राजनीतिक जटिलताओं के तकाजों के कारण इतिहास का अंग बन गये. (वही,पृष्ठ xxix) इतना ही नहीं मजूमदार के अनुसार, हिंदू शासक राजवंशों के पतन के बाद, मुसलिम हमलावरों और शासकों ने मंदिरों और मठों का लगभग पूरी तरह विनाश किया. इस तरह उन्होंने हिंदू संस्कृति को पोषित और पल्लवित करनेवाले स्रोतों को नष्ट करके उसका लगभग सफाया ही कर डाला. उसका आगे का विकास रुक गया तथा उसके ऊपर लगभग अभेद्य अंधकार छा गया. वह हिंदू संस्कृति के विकास के 'अचानक रुक जाने' की चर्चा इस प्रकार करते हैः 'अतीत के गौरव और संस्कृति की मशाल उत्तर में केवल मिथिला और दक्षिण में विजयनगर में ही जलाये रखी गयी. (वही पृष्ठ-xxxi). मजूमदार का यह विचार कि मध्य एशिया से आये हमलावरों को सल्तनत काल के हिंदू विशुद्ध धार्मिक अथवा इसलामिक रूप में ही देखते थे, आधारहीन है. भारतीय लोग मध्य एशियाइयों और उनके शासन को नृवंशीय, सामाजिक और सांस्कृतिक समुदाय की प्रभुता के रूप में देखते थे. यही वजह है कि गाहड़वाल के अभिलेखों में तुरुष्कदंड का उल्लेख मिलता है, यानी ऐसा कर जो तुर्कों से लड़ने के लिए जनता पर लगाया गया था. क्षेत्रीय भाषाओं में अक्सर ही हमें तुरूक शब्द मिल जाता है और इससे ऐसे लोगों का बोध नहीं होता, जिनकी धार्मिक भिन्नता पर बल दिया गया हो. 'मुसलिम' और 'इसलाम' शब्द कदाचित ही प्रयुक्त हुए हैं. ऐसा भारतीय आर्य भाषाओं और साथ ही द्रविड़ भाषाओं, दोनों में मिलता है. दक्षिणवासी भी अक्सर सुल्तानों द्वारा भेजी गयी सेनाओं को तुर्क ही समझते थे. मजूमदार मिथिला में हिंदु संस्कृति की उदीप्त चमक की बात करते हैं पर मैथिली के महान कवि विद्यापति तो मिथिला के मुसलमानों के लिए हर जगह तुरुक शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इस तरह मध्य एशियाई आक्रामकों के संबंध में मध्यकालीन हिंदू धारणा उनके धर्म पर जोर नहीं देती थी. वह आधुनिक काल के मजूमदार द्वारा प्रतिपादित पूर्णत: सांप्रदायिक धारणा से बिल्कुल भिन्न थी. यह कहना कि 'इसलाम' ने हिंदू संस्कृति को लगभग पूरी तरह से विनष्ट कर दिया था, इतिहास का एक और मिथ्याकरण है. अगर हम आंतरिक और बाहरी कारकों की अनुक्रिया में भारतीय संस्कृति के विकास और संश्लेषण की प्रक्रिया को देखें तो पता चलता है कि मध्यकाल में संस्कृति की निश्चित तौर पर प्रगति हुई. खुद मजूमदार ने सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों के महत्व पर जोर दिया है. यहां हम भारतीय इसलामी कला, वास्तु, साहित्य आदि के विकास की, जिससे इतिहास के विद्यार्थी भली-भांति परिचित हैं, अधिक चर्चा नहीं करेंगे. पर यदि हम केवल ब्राह्मण संस्कृति और संस्कृत साहित्य के अध्ययन की प्रगति तथा भारतीय आर्य और द्रविड़ भाषाओं के विकास की समीक्षा करें, तब भी मध्यकाल भारतीय इतिहास का निर्विवाद रूप से महान रचनात्मक काल सिद्ध होगा. सुलतानों और मुगल राजाओं के शासनकाल में ही बंगाल सहित भारत के प्रत्येक महत्वपूर्ण क्षेत्र ने अपनी सांस्कृतिक पहचान विकसित की और इस तरह भारतीय संस्कृति के बहुरंगी वितान में अपना योगदान किया. असल में क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य के विकास की दृष्टि से मध्यकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय था. मजूमदार सोचते हैं कि हिंदू संस्कृति केवल दो अलग-अलग द्वीपवत क्षेत्रों में, उत्तर में मिथिला में और दक्षिण में विजयनगर में पुष्पित-पल्लवित हुई. पर संस्कृत की सबसे अधिक पांडुलिपियां हमें 'मुसलिम' शासित राज्य कश्मीर से प्राप्त हुई हैं, जहां के पंडितों को फारसी और संस्कृत दोनों में समान रूप से प्रवीणता प्राप्त थी. अगर तर्क यह है कि नालंदा की समस्त बौद्ध पांडुलिपियां मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दी गयी थीं, तब गुजरात के सुलतानों के समय क्यों जैन पांडुलिपियों को भली-भांति संरक्षित रखा गया? ऐसी अधिकतर पांडुलिपियां, जिनके आधार पर प्राचीन भारतीय विरासत का उद्धार हुआ खास कर कश्मीर, पश्चिमी और दक्षिणी भारत तथा मिथिला और पूर्वी भारत में सुलतानों और मुगलों के शासन के दौरान, लिखी गयीं और संरिक्षत की गयीं. जिसे आधुनिक 'हिंदू नवजागरण' कहा जाता है, वह इन मध्यकालीन पांडुलिपियों के बिना संभव ही न हुआ होता. तुर्क सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासनकाल में, मूल रचनाओं के अलावा न केवल महाकाव्यों, काव्यों, धर्मसूत्रों और स्मृतियां पर बल्कि श्रोतसूत्रों और गुह्यसूत्रों, दर्शन, तर्क शास्त्र, व्याकरण, खगोल विज्ञान, गणित आदि सहित वैदिक ग्रंथों पर भी अनेकानेक विद्वत्तापूर्ण टीकाएं लिखी गयीं. प्राचीन पाठों पर टीकाएं लिखने की प्रक्रिया में टीकाकारों ने काफी कुछ मौलिक योगदान किया. यही नहीं, तर्क शास्त्र की नव्यन्याय प्रणाली, जिसके लिए भारत प्रसिद्ध है न केवल मिथिला में विकसित हुई, बल्कि सुलतानों के शासन के अंतर्गत बंगाल में भी उसका विकास हुआ. धर्मशास्त्र के टीकाकारों ने समाज में हो चुके परिवर्तनों को यथोचित लक्षित किया और धर्मशास्त्र के प्रावधानों की तदनुसार व्याख्या करने का प्रयास किया. निश्चय ही भारत में उत्तर मध्यकाल के दौरान ठीक उस तरह की सामाजिक और आर्थिक प्रगति नहीं हुई, जिस तरह की ग्रति पश्चिमी यूरोप के देशों में हुई थी. किंतु यह बात लगभग संपूर्ण एशिया के बारे में सच है, जिसका कि केवल एक हिस्सा इसलामी शासकों के शासन के अंतर्गत था. फिर भारत में ही मुसलिम शासन को क्यों भला-बुरा कहा जाये? यह तो केवल सांप्रदायिक आधार पर ही किया जा सकता है. क्रमशः नोट :शब्दों पर जोर खुद आर एस शर्मा का है. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070930/a2b65492/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Sep 30 13:29:46 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 30 Sep 2007 13:29:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTM=?= Message-ID: <363092e30709300059s3b859a5r35388c47390ec796@mail.gmail.com> सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-3 राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की तीसरी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा रमेशचंद्र मजूमदार (1888-1980) की रचनाओं में तो हिंदू पुनरुत्थानवाद का तत्व प्रबलतर दिखायी देता है. वे भारतीय जनता के इतिहास और संस्कृति पर बहुत से खंडों में प्रकाशित उस पुस्तक के प्रमुख संपादक थे, जिसे पुनरुत्थानवादी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की देखरेख में बिड़लाओं की वित्तीय मदद से बंबई से भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित किया गया था. काल विभाजन की दृष्टि से हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल में उन कालों के बारे में अधिक खंड दिये गये, जिन्हें मजूमदार हिंदू गौरव और प्रभुत्व के काल समझते थे तथा उन कालों के बारे में कम खंड थे, जिन्हें वह मुसलिम प्रभुत्व के काल समझते थे. वह बृहत भारत के कट्टर पक्षपोषक थे. उन्होंने दक्षिणपूर्व एशिया की देशीय संस्कृतियों की उपेक्षा की और उसके हिंदूकरण पर जोर दिया. कहना न होगा कि मजूमदार इतिहास के प्रति सांप्रदायिक दृष्टि के मुखर प्रवर्तक थे. उनकी ऐतिहासिक दृष्टि तुर्क सल्तनत की स्थापना संबंधी उनकी टिप्पणियों से स्पष्ट होती है: पहली किस्तें : एक , दो _________________ अब तक के भारतीय इतिहास में पहली बार दो एकदम अलग-अलग, लेकिन प्रमुख समुदाय और संस्कृतियां एक -दूसरे के बिल्कुल रू-ब-रू खड़ी थीं और भारत दो शक्तिशाली इकाइयों में स्थायी रूप से विभाजित हो गया था, जिनमें से प्रत्येक इकाई की अपनी विशिष्ट पहचान थी, जो दोनों के किसी भी प्रकार के विलयन या दोनों के बीच किसी भी तरह की धनिष्ठ स्थायी समन्वय के लिए उपयुक्त नहीं थी. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल-5, पृष्ठ-xxviii) इस दृष्टि के आधार पर मजूमदार ने उन सभी लोगों को आड़े हाथों लिया है जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाईचारे और सद्भाव के उदाहरणों का उल्लेख करते थे. उन्होंने हिंदु और मुसलमान शासकों के सम्मिलित शासन के पूरे विचार को ही कठोरता से ठुकरा दिया. उनके अनुसार : प्रमुख हिंदू राजनीतिक नेता यह उद्घोषित करने की स्थिति तक बढ़ गये कि मुसलिम हुकूमत के दौरान हिंदू कतई शासित जाति नहीं थे. इस तरह के बेढंगे विचार, जिन पर 19वीं शताब्दी के प्रारंभ के भारतीय नेता हंस ही सकते थे, उस शताब्दी के अंत में राजनीतिक जटिलताओं के तकाजों के कारण इतिहास का अंग बन गये. (वही,पृष्ठ xxix) इतना ही नहीं मजूमदार के अनुसार, हिंदू शासक राजवंशों के पतन के बाद, मुसलिम हमलावरों और शासकों ने मंदिरों और मठों का लगभग पूरी तरह विनाश किया. इस तरह उन्होंने हिंदू संस्कृति को पोषित और पल्लवित करनेवाले स्रोतों को नष्ट करके उसका लगभग सफाया ही कर डाला. उसका आगे का विकास रुक गया तथा उसके ऊपर लगभग अभेद्य अंधकार छा गया. वह हिंदू संस्कृति के विकास के 'अचानक रुक जाने' की चर्चा इस प्रकार करते हैः 'अतीत के गौरव और संस्कृति की मशाल उत्तर में केवल मिथिला और दक्षिण में विजयनगर में ही जलाये रखी गयी. (वही पृष्ठ-xxxi). मजूमदार का यह विचार कि मध्य एशिया से आये हमलावरों को सल्तनत काल के हिंदू विशुद्ध धार्मिक अथवा इसलामिक रूप में ही देखते थे, आधारहीन है. भारतीय लोग मध्य एशियाइयों और उनके शासन को नृवंशीय, सामाजिक और सांस्कृतिक समुदाय की प्रभुता के रूप में देखते थे. यही वजह है कि गाहड़वाल के अभिलेखों में तुरुष्कदंड का उल्लेख मिलता है, यानी ऐसा कर जो तुर्कों से लड़ने के लिए जनता पर लगाया गया था. क्षेत्रीय भाषाओं में अक्सर ही हमें तुरूक शब्द मिल जाता है और इससे ऐसे लोगों का बोध नहीं होता, जिनकी धार्मिक भिन्नता पर बल दिया गया हो. 'मुसलिम' और 'इसलाम' शब्द कदाचित ही प्रयुक्त हुए हैं. ऐसा भारतीय आर्य भाषाओं और साथ ही द्रविड़ भाषाओं, दोनों में मिलता है. दक्षिणवासी भी अक्सर सुल्तानों द्वारा भेजी गयी सेनाओं को तुर्क ही समझते थे. मजूमदार मिथिला में हिंदु संस्कृति की उदीप्त चमक की बात करते हैं पर मैथिली के महान कवि विद्यापति तो मिथिला के मुसलमानों के लिए हर जगह तुरुक शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इस तरह मध्य एशियाई आक्रामकों के संबंध में मध्यकालीन हिंदू धारणा उनके धर्म पर जोर नहीं देती थी. वह आधुनिक काल के मजूमदार द्वारा प्रतिपादित पूर्णत: सांप्रदायिक धारणा से बिल्कुल भिन्न थी. यह कहना कि 'इसलाम' ने हिंदू संस्कृति को लगभग पूरी तरह से विनष्ट कर दिया था, इतिहास का एक और मिथ्याकरण है. अगर हम आंतरिक और बाहरी कारकों की अनुक्रिया में भारतीय संस्कृति के विकास और संश्लेषण की प्रक्रिया को देखें तो पता चलता है कि मध्यकाल में संस्कृति की निश्चित तौर पर प्रगति हुई. खुद मजूमदार ने सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों के महत्व पर जोर दिया है. यहां हम भारतीय इसलामी कला, वास्तु, साहित्य आदि के विकास की, जिससे इतिहास के विद्यार्थी भली-भांति परिचित हैं, अधिक चर्चा नहीं करेंगे. पर यदि हम केवल ब्राह्मण संस्कृति और संस्कृत साहित्य के अध्ययन की प्रगति तथा भारतीय आर्य और द्रविड़ भाषाओं के विकास की समीक्षा करें, तब भी मध्यकाल भारतीय इतिहास का निर्विवाद रूप से महान रचनात्मक काल सिद्ध होगा. सुलतानों और मुगल राजाओं के शासनकाल में ही बंगाल सहित भारत के प्रत्येक महत्वपूर्ण क्षेत्र ने अपनी सांस्कृतिक पहचान विकसित की और इस तरह भारतीय संस्कृति के बहुरंगी वितान में अपना योगदान किया. असल में क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य के विकास की दृष्टि से मध्यकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय था. मजूमदार सोचते हैं कि हिंदू संस्कृति केवल दो अलग-अलग द्वीपवत क्षेत्रों में, उत्तर में मिथिला में और दक्षिण में विजयनगर में पुष्पित-पल्लवित हुई. पर संस्कृत की सबसे अधिक पांडुलिपियां हमें 'मुसलिम' शासित राज्य कश्मीर से प्राप्त हुई हैं, जहां के पंडितों को फारसी और संस्कृत दोनों में समान रूप से प्रवीणता प्राप्त थी. अगर तर्क यह है कि नालंदा की समस्त बौद्ध पांडुलिपियां मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दी गयी थीं, तब गुजरात के सुलतानों के समय क्यों जैन पांडुलिपियों को भली-भांति संरक्षित रखा गया? ऐसी अधिकतर पांडुलिपियां, जिनके आधार पर प्राचीन भारतीय विरासत का उद्धार हुआ खास कर कश्मीर, पश्चिमी और दक्षिणी भारत तथा मिथिला और पूर्वी भारत में सुलतानों और मुगलों के शासन के दौरान, लिखी गयीं और संरिक्षत की गयीं. जिसे आधुनिक 'हिंदू नवजागरण' कहा जाता है, वह इन मध्यकालीन पांडुलिपियों के बिना संभव ही न हुआ होता. तुर्क सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासनकाल में, मूल रचनाओं के अलावा न केवल महाकाव्यों, काव्यों, धर्मसूत्रों और स्मृतियां पर बल्कि श्रोतसूत्रों और गुह्यसूत्रों, दर्शन, तर्क शास्त्र, व्याकरण, खगोल विज्ञान, गणित आदि सहित वैदिक ग्रंथों पर भी अनेकानेक विद्वत्तापूर्ण टीकाएं लिखी गयीं. प्राचीन पाठों पर टीकाएं लिखने की प्रक्रिया में टीकाकारों ने काफी कुछ मौलिक योगदान किया. यही नहीं, तर्क शास्त्र की नव्यन्याय प्रणाली, जिसके लिए भारत प्रसिद्ध है न केवल मिथिला में विकसित हुई, बल्कि सुलतानों के शासन के अंतर्गत बंगाल में भी उसका विकास हुआ. धर्मशास्त्र के टीकाकारों ने समाज में हो चुके परिवर्तनों को यथोचित लक्षित किया और धर्मशास्त्र के प्रावधानों की तदनुसार व्याख्या करने का प्रयास किया. निश्चय ही भारत में उत्तर मध्यकाल के दौरान ठीक उस तरह की सामाजिक और आर्थिक प्रगति नहीं हुई, जिस तरह की ग्रति पश्चिमी यूरोप के देशों में हुई थी. किंतु यह बात लगभग संपूर्ण एशिया के बारे में सच है, जिसका कि केवल एक हिस्सा इसलामी शासकों के शासन के अंतर्गत था. फिर भारत में ही मुसलिम शासन को क्यों भला-बुरा कहा जाये? यह तो केवल सांप्रदायिक आधार पर ही किया जा सकता है. क्रमशः नोट :शब्दों पर जोर खुद आर एस शर्मा का है. -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070930/a2b65492/attachment-0001.html From rakesh at sarai.net Sun Sep 30 17:28:49 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Sun, 30 Sep 2007 17:28:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSw4KS5?= =?utf-8?b?4KWN4KSu4KS+LCDgpLXgpL/gpLfgpY3gpKPgpYEg4KSU4KSwIOCkruCkuQ==?= =?utf-8?b?4KWH4KS2IOCkleClhyDgpKjgpI8g4KSF4KS14KSk4KS+4KSw?= Message-ID: <46FF8F79.6020908@sarai.net> मित्रों बहुत दिनों बाद दीवान पर आया हूं. लीजिए, पढिए. जैसा लगेगा बताइएगा. मेरे अन्य लेखों के लिए http://haftawar.blogspot.com तथा शोध संबंधी चीज़ों के लिए http://blog.sarai.net/users/rakesh पर आएं. सलाम राकेश *ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नए अवतार * भारत के राजस्थान प्रांत के जोधपुर नगर में कुछ लोगों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की नयी तस्वीर जारी की है. ये तस्वीरें एक तरह से तीन महत्तवपूर्ण हिन्दू देवताओं के नए अवतार की घोषणा और नए युग के उद्घोष की कोशिश है. एक हिन्दी ख़बरिया चैनल पर भरोसा करें तो इन देवताओं की तस्वीरों से सुसज्जित कैलेंडर धड़ल्ले से बांटे जा रहे हैं. ख़बर और उसके साथ की झलकी देखकर बंदे को कुछ ठेस- सी लगी. होश संभालने के बाद अब तक ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जितनी भी तस्वीरें बंदे ने देखी है, ये वाली उन सबसे अलग थीं. पहले की तस्वीरों में ये त्रिदेव बड़े सौम्य और निरपेक्ष लग रहे थे. कल वाली तो बिल्कुल अलग थी. एक अज़ीब किस्म की पक्षधरता थी उसमें. चेहरा भी सामान्य नहीं लग रहा था. और तो और पहले की जो तस्वीरें बंदे को याद हैं उनमें वे इतने उम्रदराज़ भी नहीं लगते थे. कल वाले तो साठ पार के दिख रहे थे, बल्कि ब्रह्मा और महेश तो सत्तर से भी ज़्यादा के नज़र आ रहे थे. नए अवतरित इस त्रिदेव को बंदे ने पहले भी कई मौक़ों पर देखा है. या कहें कि सभा, संसद, सम्मेलन, यात्राओं, जलसों इत्यादि में ये अलग-अलग भूमिकाओं में दिखते रहे हैं. हो सकता है ये वे न हों, या फिर वे ही हों, या अपने पुण्य प्रताप और चमत्कारिक शक्ति के बल पर इन्होंने उनकी शक्ल धारण कर ली हो. पर बंदे ने जब ये शक्ल उस तस्वीर में देखी तो कई बातें, घटनाएं और दुर्घटनाएं उसके ज़हन को झकझोर गयीं. जैसे कि तस्वीर वाले ब्रह्माजी की शक्ल कुछ साल पहले भारत के उपप्रधानमंत्री सह गृहमंत्री और अब भारतीय संसद में विपक्ष के नेता से हू-ब-हू मिलती है. उसी तरह विष्णु वाली शक्ल आठ-दस बरस पहले तक हिन्दुस्तान के सबसे बड़े राज्य के एक पूर्व, पूर्व मुख्यमंत्री, जिनके बाद अब तक उनकी पार्टी को सत्ता में आने का मौक़ा नहीं मिल पाया है – से पूरी तरह मेल खाती थी. और महेश यानी बाबा भोले भंडारी की शक्ल देखकर तो बंदे को ‘/हार नहीं मानूंगा/रार नहीं ठानूंगा/काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं/गीत नया गाता हूं’/ याद आ गया. इन पंक्तियों के रच‍यिता तो कुछ साल पहले तक भारतीय गणतंत्र के प्रधानमंत्री थे. बंदे ने सुना है अपने प्रधानमंत्रित्व काल के अंतिम दिनों में इंडिया शाइनिंग अर्थात भारत उदय नामक प्रचार-अभियान पर इन्होंने कर-दाताओं के पैसों को जमकर बहाया था. तो महेशजी की शक्ल उसी इंडिया शाइनिंग के प्रणेता से मिलती-जुलती लगी. वैसे बंदे को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं है. बस ये लगता है कि अगर देवताओं को अवतरित होना ही था तो कम से कम इन शक्लों को न धारण करते. क्योंकि तस्वीर में जो ब्रह्मा है उससे मिलते-जुलते एक शख्सियत पर तो कई आरोप हैं. कुछ तो बेहद गंभीर हैं. अगर भारत के किसी आम नागरित पर ये आरोप लगे होते तो उस पर एक साथ दर्जन भर मुकदमे यहां की कच‍हरियों में चल रहे होते. अब देखिए न, नए ब्रह्मा वाली शक्ल के इस शख्स पर दिसंबर 1990 में उत्तर प्रदेश की एक प्राचीन नगरी में एक मस्जिद-ध्वंस के षड्यंत्र का आरोप है, जिसके चलते इन पर मुकमदा भी चल रहा है, और एक बहुत पुराने आयोग के सामने कभी-कभार सशरीर पेश होकर इन्हें सफ़ाई भी देनी पड़ती है. पर ये भी कम चालाक नहीं हैं, जैसा कि अदालतों में आम तौर पर देखा जाता है कि आरोपी और गवाह होस्टाइल हो जाते हैं – ये जनाब भी कुछ ऐसे ही हो जाते हैं. आरोप यह भी है एक बार 1989-90 में इस जनाब ने एक यात्रा निकाली थी और भड़काउु भाषण दिए थे जिसके चलते जगह-जगह दंगे भड़के और जान-माल की क्षति भी हुई. 2002 में गुजरात में इनकी पार्टी के शासन में एक ख़ास धर्म के लोगों का जमकर क़त्लेआम हुआ. कई स्वतंत्र जांच समितियों की रपट के मुताबिक़ चुन-चुन कर लोगों को जलाया गया था, गर्भवती महिलाओं के पेटों में तलवारें भोंक कर भ्रूण तक का ख़ून किया गया था. जान और अस्मत बचाकर भाग रही युवतियों को सिर पर केसरिया पट्टी बांधे ‘मर्दों’ ने खदेड़-खदेड़ कर पहले तो सामूहिक हवस का शिकार बनाया और फिर हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें सुला दिया था. इतिहास बताता है कि तब ये सख्श उपप्रधानमंत्री तो थे ही गृहमंत्री भी थे, पर इन्होंने इंसानियत के खिलाफ़ उस जघन्य अपराध की भर्त्सना भी नहीं की थी, कार्रवाई की बात तो दूर. और भी मौक़े आए जब इन्हें बोलना चाहिए था, न बोले. हालांकि मितव्ययी तो नहीं हैं. उडि़सा में कुष्ठरोगियों का इलाज करने वाले डॉ. ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जब जिन्दा जला दिया गया तब भी कैलेंडर वाले ब्रह्मा से मिलते-जुलते शक्ल वाले इस शख्स ने कुछ ख़ास प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी. विष्णु से मिलते-जुलते शक्ल वाले का कहना ही क्या. ऐसा शासन चलाया कि आज तक उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की वापसी नहीं हुई. अब तो सुना है कि बड़ा बवाल मचा है पार्टी में और उनके हेडक्वार्टर में भी. अकाल में अपनी पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए. जानकारों को मानना है कि इनकी चाल और इनका चरित्र तस्वीर वाले ब्रह्मा के शक्ल से मिलते-जुलते शख्स के चाल और चरित्र से अंतिम हद तक मेल खाता है. सिर्फ़ चेहरे में अंतर है. अध्यक्षासीन होते ही इन्होंने भी एक-आध यात्राएं निकालीं पर ज़्यादा माहौल न बिगाड़ पाए. कुछ अख़बारों ने तो टांय-टांय फिस्स ही कह दिया था. महेशजी, तस्वीर में छपे महेशजी से मिलते-जुलते शख्स के बारे में एक बड़े हिस्से में यह भ्रांति है कि वे आदमी -अच्छे हैं पर उनकी पार्टी ग़लत है. बंदे को नहीं मालूम वे कैसे हैं और उनकी पार्टी कैसी है, पर ये लगता है कि ग़लत पार्टी तो दूर की बाद ग़लत समूह में भी अच्छा आदमी दो पल से ज़्यादा नहीं टिक सकता है. कैलेंडर वाले महेशजी से मिलते-जुलते शक्ल वाले महानुभाव ने लगभग अपनी पूरी उम्र उस पार्टी में गुज़ार दी. यानी बंदे का कहने का मतलब ये कि ग़लत या सही पार्टी और व्यक्ति एक जैसे ही हैं. और ग़लत या सही क्यों, दोनों ही ग़लत क्यों नहीं? जोधपुर में बंट रहे कैलेंडर में छपे महेशजी से मिलते-जुलते चेहरे वाले व्यक्ति इस देश के प्रधानमंत्री थे तब मरे हुए गाय के नाम पर कुछ दलितों को खदेड़-खदेड़ कर पीटा गया था और मार दिया गया था. खुले आम कुछ खिचड़ी दाढ़ी वाले बाबाओं ने गाय को इंसान से ज़यादा क़ीमती बताया था, तब एक बार भी महेशजी से मिलते-जुलते मुंह-कान वाले व्यक्ति ने उसका प्रतिवाद नहीं किया था. असल में, उनके बारे में बंदे की यही राय है कि पार्टी-वार्टी जो है सो है ही, तस्वीर वाले महेशजी जैसे दिखने वाले इंसान का व्यक्तित्व काफ़ी उथला रहा है. अपने शासनकाल में इस इंसान ने इंसानविरोधी कामों के लिए ख़ास व्यवस्था की थी, ख़ास तरह के लोगों को ख़ास-ख़ास मंत्रालय का जिम्मा दिया था. शिक्षा के साथ जो हुआ वो तो जगजाहिर ही है. अंधविश्वास, पुरोहिती और कर्मकांड को ऑफि़सियल बना दिया गया, विज्ञान-प्रदर्शनियों के उदघाटन के मौक़े पर देवी वंदना और नारियल फोडू कार्यक्रम होने लगे (हालांकि बाद वाले कभी-कभार पहले भी होते थे). काफ़ी हद तक इस इंसान के बारे में यह भी सच है कि जनहित की बातों को मसखरी में उड़ा देना इसकी प्रवृत्ति रही है. अब भी इस सख्स का नाम कभी-कभार कुछ अनाड़ी उत्साहित पार्टी कार्यकर्ता अगले प्रधानमंत्री के रूप में उछाल देते हैं. बंदा तो तहे दिल से यही चाहता है कि ईश्वर की कृपा से उसने ग़लत तस्वीर देख ली हो या ख़बर ही प्लांटेड हो. बाई चांस ईश्वर की कृपा से दोनों में से कुछ नहीं हुआ तो बंदे की भावना को गहरी ठेस लगी है.